Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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बृहस्पति
प्राचीन चरित्रकोश
बृहस्पति
का निर्माण दुग्ध रूप में हुआ ( अ. वे. ८. २८; पृथु वैन्य राजा का पुरोहित अंगिरा नामक महर्षि का पुत्र था । यह देखिये) । स्वायंभुव मन्वंतर में पैदा हुआ था। इसकी माता का नाम स्वरूपा था ( मा. ४. १ म. आ. ६०.५, आ. ५०४९
२.२.१)। कई ग्रंथों में इसकी माता का नाम श्रद्धा दिया गया है। यह निर्देश सही हों, तो यह स्वायंभुव मन्वंतर का न हो कर, वैवस्वत मन्वंतर में उत्पन्न हुआ होगा। महाभारत में अन्यत्र इसकी उत्पत्ति अनि से बताई गई है ( म. व. २०७.१८ ) ।
प्रभासक्षेत्र में स्थित सोमेश्वर के शिवमंदिर में बृहस्पति ने एक हजार वर्षों तक शिव की आराधना कर उसे प्रसन्न किया। शिव ने इसे आशीर्वाद दिया 'आकाश में स्थित सौरमण्डल में तुम बृहस्पति नामक ग्रह रूप में प्रतिष्ठित होगे (स्कंद २.४.१ - १७) । शिवकृपा से इसने प्रभासक्षेत्र में बृहस्पतीश्वर नामक शिवलिंग की स्थापना की ( स्कन्द ७.१.४८ ) ।
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संवाद- देवों के गुरु बृहस्पति का तत्वज्ञानी के नाते कई विद्वानों से शास्त्रार्थं हुआ, जो इसके ज्ञान, तर्क एवं त्वरितबुद्धि को प्रत्यक्ष प्रमाणित करते है ।
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युधिरि तथा इसके बीच कममरण के संबंध में संवाद हुआ था, जिस में इसने उनके प्रकारों का वर्णन था । इसने युधिष्ठिर को बताया था कि, किस प्रकार प्राणी विभिन्न प्रकार के पाप कर के उसके अनुसार ही भिन्न भिन्न योनियों में जन्म से कर जन्ममरण के बन्धनों के बीच विचरण किया करता है ( म. अनु. १११) । इसने उसे दान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए, अन्नदान की महिमा का गान किया था (म. अनु. ११२) । युधिष्ठिर को जीवन में धर्मकर्म की आवश्यकता पर बल देते हुए, इसने उसे धर्म एवं अहिंसा का उपदेश .. दिया था (म. अनु. ११३ ) ।
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"देवराज इंद्र को भी इसने अपनी ज्ञानगरिमा से कई उपदेश दिये। उसको वाणी की महत्ता बनाते हुए इसने उसे • मधुर वचन बोलने का उपदेश दिया ( म. शां. ८५.३ - १० ) । . उसे धर्मोपदेश दिया, तथा धर्माचरण की आज्ञा दी ( म. - अनु. १२५ ) । भूमि का मूल्य तथा भूमिदान की महत्ता का ज्ञान भी इसने इंद्र को कराया था ( म. अनु. ६२.५५(९२) । इसके समय में मनुष्यों का पशु की तरह यज्ञ में हवन किया जाता था । अतएव इंद्र ने प्रार्थना की कि, यह मनुष्यों को बलि के रूप में समर्पित करना बंद करे ( म. आश्व. ५.२५ - २७ ) ।
इसे संवर्त, तथा उतथ्य नामक दो भाई थे, जिनके से, उतथ्य इसका ज्येष्ठ भाई था, जिसके नाम के लिये, साथ आजीवन इसका संघर्ष चलता रहा। इन भाइयों में वेदार्थदीपिका में, 'उचथ्य, ' ब्रह्मांड एवं मत्स्य में 'उशिज,' एवं वायु में' अशिज' पाठभेद प्राप्त हैं। इन पाठभेदों में से, 'उचच्य' पाठभेद ही सही प्रतीत होता है।
कोसलाधिपति वसुमनस् से इसने राजसंस्था की आवश्यकता एवं राजा के कर्तव्य के चारे में उपदेश दिया था (म. शां. ६८ ) । इक्ष्वाकुवंशीय मांधाता राजा के पूँछने पर इसने उसे गोदान के संबंध में अपने विचार प्रकट किये थे (म. अनु. ७६.५-२३ ) ।
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३. आंगिरस कुलोत्पन्न एक ऋषि जो वैशाली के मरुत्त आविक्षित राजा का पुरोहित था। यह वैशाली के करंचम | प्रा. च. ६६ ]
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एक बार इसने उतथ्य की गर्भवती पत्नी ममता के साथ संभोग किया। संभोग करते समय ममता के उदर में स्थित बालक ने बृहस्पति से बार बार उक्त क्रिया करने पर प्रतिबन्ध लगाया। इस पर क्रोधित हो कर इसने उस चालक को शाप दिया कि, वह जन्मांध पैदा हो। यही बालक बाद को अन्धे दीर्घतमस् के रूप में पैदा हुआ । इसके तथा ममता के संभोग द्वारा भरद्वाज नामक पुत्र हुआ, जो बाद को इक्ष्वाकुवंशीय नरेश दुष्यन्तपुत्र भरत द्वारा गोद लिया गया (म. आ. ९८ मत्स्य ४९ वेदार्थदीपिका ६.५२ ) ।
संवर्त से इसका झगड़ा ईर्ष्या के कारण हुआ । यह आरम्भ से ही देवों का एवं पृथ्वी के पाँच सम्राटों में से मदत्त नामक सम्राट का भी पुरोहित था। एक बार अपना यज्ञ कराने के लिए इन्द्र ने इसे आमंत्रित किया। यह वहाँ गया, तथा वहाँ की सुखसामग्री एवं विलास देख कर वहीं रहा गया। इधर पृथ्वी पर मरुत्त को भी यश करना था। अतएव उसने इसे उपस्थित न जानकर, इसके भाई संवर्त द्वारा यज्ञ कार्य कराना आरम्भ किया । जैसे ही इसे यह ज्ञात हुआ, इसने इसमें अपना अपमान समझा, तथा इंद्र को आदेश दिया कि, वह संवर्त द्वारा किया गया मरुत्त का यश विध्वंस कर दे। इन्द्र अपनी समस्त सेना को ले कर यज्ञ विध्वंस हेतु गया, किंतु संवर्त के ब्रह्मतेजोबल के सम्मुख उसे परास्त होना पड़ा । पश्चात् मरुत्त का यश निर्विघ्न समाप्त हुआ (म. आश्व ५६९ ) ।