Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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भरत 'दाशरथि
प्राचीन चरित्रकोश
भरत 'दाशरथि
पर माँमे कि, दशरथ ने अपनी प्रतिज्ञा तो पूरी की; किन्तु उनका राज्याभिषेक करें। भरत के इस आवेशपूर्ण राम के वनगमनोपरांत पुत्रशोक में प्राण त्याग दिया। उत्तर को सुनकर वसिष्ठ आदि लोगों ने बहुविध भावों से राम वन चले गये थे, दशरथ भी इस संसार में न रहे, भरत को समझाया, किन्तु यह अपनी वाणी पर अटल अतएव राज्य की व्यवस्था संभालने के लिए सिद्धार्थ रहा । यहीं नहीं, भरत ने यहाँ तक कह डाला, 'अगर राम नामक मंत्री से भरत को बुला लाने के लिए भेजा गया। वापस नहीं आयेंगे, तो मैने भी निश्चय कर रखा है ___ इधर भरत अपने ननिहाल में नित्यप्रति अनिष्टकारी कि, मै राज्य को स्वीकार न करके लक्ष्मण के समान स्वप्नों को देखने के कारण, अत्यंत दुःखी व चिंतित था। स्वयं वनवासी हो कर, राम की सेवा करते हुए अपने सिद्धार्थ इसे लेने के लिए आया, और बिना कुछ बताये | धर्म का निर्वाह करूँगा'। यह कह कर भरत ने राज्याअयोध्या वापस बुला लाया। अयोध्या आकर इसे अपनी धिकारियों को आज्ञा दी कि, राजपथों को ठीक किया जाये. माँ के द्वारा सभी समाचार ज्ञात हुए।
तथा शीघ्रातिशीघ्र जाने की सभी तैयारियां शुरू की जाये। कैकयी का षड्यंत्र--राज्यप्राप्ति के लिए, माँ केकैयी
| राम की खोज-राम से मिलने के लिए भरत अपने द्वारा रचे गये इस षड्यंत्र को देख कर भरत क्रोधाग्नि में
परिवार, प्रजा, गुरुजनों के साथ अयोध्या से यात्रा के पागल हो उठा, और अपनी माँ की कटु आलोचना करते
लिए निकल पड़ा । सब से पहला विश्राम, भरत ने गंगा के हुए उसकी घोर निर्भर्त्सना की । भरत को अपनी माँ की
किनारे शृंगवेरपुर के पास किया। वहाँ इसने गुह से भेंट इस राज्यलिप्सा तथा अधिकार प्राप्ति की भावना से इतना
की, तथा राम के संबंध में अनेकानेक सूचनाओं को प्राप्त अधिक दुःख हुआ कि, यह वहाँ ठहर न सका, और सीधे कर, उसकी ही सहायता से अपने परिवार सहित गंगा कौसल्या से मिलने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा।
को पार कर 'भरद्वाज आश्रम' की ओर चल पड़ा। मार्ग में कौसल्या भी इससे मिलने के लिए विह्वल थी, क्योंकि
संपूर्ण परिवार के साथ चैत्रमुहूर्त में यह प्रयाग वन पहुँचा। उसकी धारणा थी कि. शायद यह समस्त जाल भरत की | वहाँ कुछ देर विश्राम करने के उपरांत, कुछ चुने हुए - सम्मति से ही बिछाया गया है। भरत के आते ही कौसल्या
व्यक्तियों को लेकर यह भरद्वाज आश्रम की ओर चल पड़ा,
तथा शेष व्यक्तियों से वहीं ठहरने की आज्ञा दी। को विदीर्ण कर दिया। अन्त में शोक विह्वल भरत को | · भरत जब गुह से मिला था, तो उसे भी इसे देख कर हाथ जोड़ कर शपथ खाकर कहना पड़ा कि, इस जाल फरेब | पहले शंका हुयी थी। यही हाल भरद्वाज का भी हुआ। से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, उसका नाम व्यर्थ में जोड़ भरत को देखते ही उसके हृदय में यह बात दौड़ गयी कर उसे पापी ठहराया गया है।
कि, कहीं राम का कंटक हमेशा के लिए मार्ग से दूर इसके आने के दूसरे दिन गुरु वसिष्ठ ने राजा दशरथ | करने के लिए भरत तो नहीं आया! भरत के मिलते ही को क्रियाकर्म करने के लिए कहा। तब भरत ने भी गुरु की भरद्वाज ने स्पष्ट शब्दों में अपनी धारणा प्रकट की। किन्तु आज्ञा मान कर, तेल की कढ़ाई में रक्खे गये दशरथ के भरत के बार बार कहने तथा वसिष्ठ द्वारा विश्वास दिलाये सुरक्षित शव को निकाल कर, विधिपूर्वक अग्निहोत्राग्नि | जाने पर, भरद्वाज मुनि को इस पर विश्वास हुआ। उन्होंने देकर, पिता की अन्तिम क्रिया पूरी की (वा. रा. अयो. | इसका तथा इसकी सेना का उत्कृष्ट भोजनादि दे कर आदर ७०-७७)।
सत्कार करते हुए बताया, 'राम इस समय चित्रकूट में चौदह दिनोपरांत, जब यह अपने मृत पिता के निवास कर रहे हैं, और तुम उनसे भेंट कर सकते हो। अंतिम संस्कारों से निवृत्त हुआ, तब राज्याधिकारियों एवं भरत ने भरद्वाज मुनि से कौसल्या तथा के कैकयी का जो मंत्रियों ने इसे सिंहासन स्वीकार कर के राज्य संचालन की | परिचय दिया है, वह एक ओर करुणा से ओतप्रोत है तथा प्रार्थना की। इसने सब को समझाते हुए कहा, 'राज्य का | दूसरी ओर घृणा, क्रोध एवं आत्मग्लानि से परिपूर्ण है। अधिकारी मृत पिता का ज्येष्ठ पुत्र ही हो सकता है, मैं | कौसल्या का परिचय देते हुए भरत ने कहा, 'शोक तथा उपनहीं । राजा होने का अधिकार केवल राम को ही है, वास से कृश तथा दीनहीन बनी हुयी, मेरे पिता की पटकारण वह हमारे सभी भाइयों में ज्येष्ठ एवं योग्य हैं। रानी कौसल्या को आप देख रहे हैं । इसीने सिंह के समान हमें चाहिये कि, राम जहाँ कहीं हो हम अपने सम्पूर्ण पराक्रमी राम को जन्म दिया है' । अपनी माँ को घृणापूर्ण माज-बाज के साथ वहाँ जाकर राज्यभार उन्हें सौंप कर | दृष्टि से देखते हुए भरत ने कहा, 'यह क्रोधी, अविचारिणी,
प्रा. च. ६९]