Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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भृगु वारुणि
प्राचीन चरित्रकोश
भृगु वारुण
व्यक्ति दिये गये है। किन्तु पौराणिक वाङ्मय में उन्हे बहुत भृगुकुल के निम्नलिखित गोत्रकार भी पंचप्रवरात्मक बूरी तरह संमिश्रित किया गया है। अंगिरसों के संबंध | ही है। किंतु उनके आप्नवान् , आर्टिषेण, च्यवन, भगु में भी यही स्थिति प्रतीत होती है (अंगिरस् देखिये)। एवं रूपि ये पाँच प्रवर होते हैं :-आपस्तंबि, आर्टिषेण,
ग्रंथ-भगुस्मृति; २. भगुगीता, जिसमें वेदान्त विषयक | अश्वायनि, कटायनि, कपि, कार्दमायनि, गार्दभि, ग्राम्यायणि, प्रश्नों की चर्चा की गयी है; ३. भगुसंहिता, जिसमें ज्योतिष
नैकशि, बिल्वि (भल्ली), भगुदास, मार्गपथ एवं रूपि । शास्त्रविषयक प्रश्नों की चर्चा की गयी है; ४. भगुसिद्धान्त; (२) चतुःप्रवरात्मक गोत्रकार-भगुकुल के निम्नलिखित ५. भृगुसूत्र (C.C.)।
गोत्रकार चतुःप्रवरात्मक है, जिनके भगु, रैवस, वीतिहव्य मत्स्य के अनुसार, इसने वास्तुशास्त्र विषयक एक ग्रंथ
एवं वैवस ये चार प्रवर होते हैं:-काश्यपि, कौशापि की रचना भी की थी।
| गार्गीय, चलि, जाबालि, जैवन्त्यायनि, तिथि, दम (मोदम,
सदमोदम), पिलि, पौष्णायन, बालपि, भागवित्ति, भागिल, मनुस्मृति से प्रतीत होता है, कि धर्मशास्त्र से संबंधित
मथित (माधव), मौज, यस्क, रामोद, वीतिहव्य, श्रमदाविषयों पर भी इसके द्वारा कई ग्रंथों की रचना हुयी थी
| गेपि और सौर। (मनु देखिये)।
(३) त्रिप्रवरात्मक गोत्रकार-भृगुकुल के निम्नलिखित भृगुकुल के गोत्रकार--भगकुलोत्पन्न गोत्रकारों में पंच- |
| गोत्रकार त्रिप्रवरात्मक हैं, जिनके आमवान् , च्यवन, एवं प्रवरात्मक (पाँच प्रवरोंवाले), चतुःप्रवरात्मक (चार |
| भृगु ये तीन प्रवर होते हैं:-उभयजात, और्वेय (ग), प्रवरोंवाले), त्रिप्रवरात्मक (तीन प्रवरोंवाले ), एवं
कायनि, जमदग्नि, पौलस्त्य, बिद, बैजभृत, मारुत (ग), द्विप्रवरात्मक (दो प्रवरोंवाले) ऐसे चार प्रमुख प्रकार है।
और शाकटायन । (१) पंचप्रवरात्मक गोत्रकार--भगुकुल के निम्नलिखित भृगुकुल के निम्नलिखित गोत्रकार भी त्रिप्रवरात्मक गोत्रकार पंचप्रवरात्मक है, जिनके आप्नवान् , औवे, च्यवन, | है, किन्तु उनके दिवोदास, भगु एवं वध्यश्व ये तीन प्रवर जमदग्नि, एवं भृगु, ये पाँच प्रवर होते है:-अनंतभागिन् , होते हैं :--अपिकायनि, अपिशि (अपिशली), खांडव, अनुमति, आप्नवान, आलुकि (जलाभित), आवेद | द्रौणायन, मैत्रेय, रौक्मायणि (रौक्मायण), शाकटाक्ष, (आबाज), उपारमडल, पालक, आव, काषाण (पावाण), | शालायनि, और हंसजिह्व। कत्स. कौचहास्तिक, कोटिल, कौत्स, कौसि, क्षुभ्य, गायन, (४) द्विप्रवरात्मक गोत्रकार--भगुकल के निम्नलिखित गाायण, गार्हायण, गोष्ठायन, चलकुंडल, चातकि,
गोत्रकार द्विप्रवरात्मक हैं, जिनके गृत्समद एवं भगु ये दो चांद्रमसि, च्यवन, जमदग्नि, जविन् (ग), जालधि,
प्रवर होते हैं:--एकायन, कार्दमायनि, गृत्समद, चौक्षि, जिह्वक ( जिह्मक, नदाकि), दंडिन् (दर्भि), देवपति, नडायन
प्रत्यह (प्रत्यूह), मत्स्यगंध, यज्ञपति, शाकायन, सनक (नवप्रभ), नाकुलि, नीतिन् (ग), नील, नेतिष्य, नैकजिह्व
और सौरि (मत्स्य. १९५)। पांडुरोचि, पूर्णिमागतिक (पौर्णिमागतिक), पैंगलायनि,
___ भृगुकुल के मंत्रकारः--भगुकुल के मंत्रकारों की पैल, पौर, फेनप, बालाकि, भृगु, भ्राष्टकायणि, मंड (मुंड),
नामावलि मत्स्य, वायु, एवं ब्रह्मांड में प्राप्त है (मत्स्य. मांकायन (कार्मायन), मार्कड, मार्गेय (भागेय), मांडव्य, ।
१४५.९८-१००, वायु. ५९.९५-९७; ब्रह्मांड. २.३२. मांडूक, मालयनि मृग (भृत), मौद्गलायन, यज्ञपिंडायन,
१०४-१०६)। उनमें से ब्रह्मांड में प्राप्त नामावलि निम्न( यद्रामिलायन एवं याज्ञ), योशेयि, रौहित्यायनि, लालाटि
लिखित है, जिसमें वायु एवं ब्रह्मांड में उपलब्ध पाठ कोष्ठक (ललाटि), लिंबुकि, लुब्ध, लोलाक्षि, लौक्षिण्य, लौहवैरिण, |
में क्रमशः दिये गये है:-आत्मवत् , आर्टिषेण (अद्विषेण ), वांगायनि, वात्स्य (वत्स्य), वाह्ययन (महाभाग), विरूपाक्ष
ऊर्व (और्व), गृत्स (गृत्समत्), च्यवन, जमदग्नि, विष्णु, वीतिहव्य वैकणिनि (वैकर्णेय), वैगायन, वैशंपायन,
दधीच (ऋचीक), दिवोदास, प्रचेतस् , ब्रह्मवत् (वाध्यश्व) वैश्वानरि, वैहीनरि, व्याधाज्य, शारद्वतिक, शार्कराक्षि, |
भृगु, युधाजित् , वीतहव्य, वेद (विद), वैन्य (पृथु ) शाङ्गरव, शिखावर्ण, शौनक, शौनकायन-जीवन्ति (शौन
शौनक, सारस्वत, सुवेधस् (सुवर्चस् , सुमेधस् )। कायन जीवंतिक), सकौवाक्षि (सकौगाक्षि), सगालव, सांकृत्य, सात्यायनि, सार्पि, सावर्णिक, सोक्रि, सौचाक, इनके अतिरिक्त, अपर, नम, प्रश्वार नामक मंत्रकारों सौधिक, सौह, स्तनित एवं स्थलपिंड ।
का निर्देश केवल वायु में कवि नामक मंत्रकार का निर्देश