Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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मनु स्वायंभुव
प्राचीन चरित्रकोश
मनु स्वायंभुव
में प्राप्त ब्राह्मण पर देश से नि
___ अ. ७.-राजधर्म का पालन-राजा के लिए आवश्यक | धर्म को आगे बढ़ने में योगदान देना प्रारम्भ किया हो। चार विद्याएँ-राजा में उत्पन्न होनेवाले कामजनित दस, 'मनुस्मृति' के भाष्य--मनुस्मृति के भाष्यों में से एवं क्रोधजनित आठ दोषों का विवरण ।
सब से प्राचीन भाष्य मेधातिथी का माना जाता है, जिसकी अ. 4.-न्यायपालन से संबंधित राजा के कर्तव्य-मनु- | रचना ९०० ई० में हुयी थी। विश्वरूप ने अपने यजुर्वेद प्रणीत अठराह विधियों का विवरण ।
के भाष्य में मनुस्मृति के दो सौ श्लोकों का उद्धरण किया अ. ९.-पतिपत्नी के वैधानिक कर्तव्य-नारियों के है। इन दोनों ग्रन्थकारों के सामने जो मनुस्मृति प्राप्त दोषों का वर्णन ।
थी, वह आज की मनुस्मृति से पूर्ण साम्य रखती है। अ. १०.-चारों वर्गों के कर्तव्य ।
शंकराचार्य के वेदान्त सूत्रभाष्य में भी मनुस्मृति के अ. ११.---दानों के विविध प्रकार एवं उनका महत्त्व
काफी उद्धरण प्राप्त है (वे. सू. १.३.२८,२.१.११; पाँच महापातक एवं उनके लिए प्रायश्चित ।।
४.२.६, ३.१.१४; ३.४.३८)। शंकराचार्य के द्वारा __ अ. १२.--कर्मों के विविध प्रकार एवं ब्रह्म की प्राप्ति
निर्देशित इन उद्धरणों से पता चलता है कि, वे इन मानवशास्त्र के अध्यापन से होनेवाले लाभ।
सूत्रों को गौतम धर्मसूत्रों से अधिक प्रमाणित मानते थे। 'मनुस्मृति में निर्दिष्ट ग्रंथ-मनस्मति में प्राप्त 'मनुस्मृति' का रचनाकाल--मनु का मत था कि. विभिन्न ग्रन्थों के निर्देश से पता चलता है कि, इस ग्रन्थ के
ब्राह्मण यदि अपराधी है, तो उसे फाँसी न देनी चाहिए, मन को कितने लिखित पयों की सनना | बल्कि उसे देश से निकाल देना चाहिए (मनु.८. प्राप्त थी। मनुस्मृति में ऋक, यजु एवं सामवेदों का निर्देश ३८०)। इसके इस मत का निर्देश 'मृच्छकटिक' में मिलता प्राप्त हैं, एवं अथर्ववेद का निर्देश 'अथर्वागिरस्' श्रुति नाम | है । वलभी के राजा धरसेन के ५७१ ई. के शिलालेख से किया गया है (मन. ११.३३ )। उसके ग्रन्थ में | में उस राजा को मनु के धर्म नियमों का पालनकर्ता कहा
आरण्यकों का भी निर्देश प्राप्त है (मनु. ४.१२३)। इसे | गया है । जैमिनि सूत्रों के सुविख्यात भाष्यकार शबर• छ: वेदांग ज्ञात थे (मनु. २.१४१, ३.१८५, ४.९८)।
स्वमिन् द्वारा ५०० ई० में रचित भाष्य में मनु के मतों .. इसे अनेक धर्मशास्त्र के ग्रन्थ ज्ञात थे, एवं इसने धर्मशास्त्र
के विद्वानों को 'धर्मपाठक' कहा है (मनु. ३.२३२:१२. | इन सारे निर्देशों से प्रतीत होता है कि, दूसरी शताब्दी ...१११)। इसके ग्रन्थ में निम्नलिखित धर्मशास्त्रकारों के उपरांत मनुस्मृति को प्रमाणित धार्मिक ग्रन्थ माना जाने
का निर्देश प्राप्त है :-अत्रि, गौतम, भगु, शौनक, वसिष्ठ लगा था। किन्तु कालान्तर में इसकी लोकप्रियता को एवं वैखानस (मनु. ३.१६, ६.२१, ८.१४०)।
देखकर लोगों ने अपनी विचारधारा को भी इस ग्रन्थ . प्राचीन साहित्य में से आख्यान, इतिहास, पुराण
में संनिविष्ट कर दिया, जिससे इसमें प्रक्षिप्त अंश एवं खिल आदि का निर्देश मनुस्मृति में प्राप्त है (मनु. जुड़ गये। उन तमाम विचार एक दूसरे से मेल न खाकर ३.२३२) । वेदान्त में निर्दिष्ट ब्रह्म के स्वरूप का विवेचन कहीं कहीं एक दूसरे से विरोधी जान पड़ते है (मनु. ३. मनु द्वारा किया गया है, जिससे प्रतीत होता है कि, मनु | १२-१३, २३-२६; ९. ५९-६३, ६४-६९)। को उपनिषदों का भी काफी ज्ञान था (मन.६.८३:९४)। बृहस्पति के निर्देशों से पता चलता है कि, मनुस्मृति में इसके ग्रन्थ में कई 'वेदबाह्य स्मृतियों' का भी निर्देश | ये प्रक्षिप्त अंश तीसरी शताब्दी में जोड़े गये । प्राप्त है। इसे बौद्ध जैन आदि इतर धर्मों का भी ज्ञान था मनुस्मृति याज्ञवल्क्यस्मृति से पूर्वकालीन मानी जाती (मनु. १२.९५)। इसने अपने ग्रन्थ में वेदनिन्दक तथा | है। उपलब्ध मनुस्मृति में यवन, कांबोज, शक, पलव, चीन, पाखण्डियों का भी वर्णन किया है (मनु. ४.३०, ६१, ओड़, द्रविड़, मेद, आंध्र आदि देशों का उल्लेख प्राप्त है। १६३)।
इन सभी प्राप्त सूचनाओं के आधार पर कहा जा सकता इसने अस्पृश्य एवं शूद्र लोगों की कटु आलोचना की है कि, उपलब्ध मनुस्मृति की रचना तीसरी शताब्दी के पूर्व है, एवं उन्हें कड़े नियमों में बाँधने का प्रयत्न किया है हुयी थी। सभवतः इसकी रचना २०० ई० पूर्व से लेकर (मनु. १०.५०-५६; १२९)। इसका कारण यह हो | २०० ई० के बीच में किसी समय हुयी थी। सकता है कि, इन दलित जातियों ने वैदिक धर्म से | अन्य ग्रन्थ-मनु के नाम से 'मनुसंहिता' नामक एक इतर धर्मों की स्थापना करने के प्रयत्नों में, जैन तथा बौद्ध | तन्त्रविषयक ग्रन्थ भी प्राप्त है (C.C.)।