Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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प्राचीन चरित्रकोश
दधिवाहन
सहायतार्थ प्रपन्न हुआ था । इसे कुल चार पुत्र थे । उनके नाम: - कपिल, आसुरि, पंचशिख, तथा शाल्वल । ये सारे पुत्र योगी थे (शिव शत ४१ मोगेश्वर देखिये )
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२. (सो. अनु. ) मत्स्य तथा वायु के मत में अंगपुत्र ( खनपान देखिये) । यह दिविरथ का पिता था। अंगपुत्र इसीका ही नामांतर था ( म. शां. ४९.७२ ) । दय आथर्वण एक महान ऋषि एवं तत्ववेता इसे दधीचि एवं दधीच ये नामांतर थे देवअसुर युद्ध में इसने अपनी हड्डियाँ, बज्र नामक अस्त्र बनाने के लिये, देवों को प्रदान की थीं। इस अपूर्व त्याग के कारण इनका नाम त्यागमूर्ति के नाते प्राचीन भारतीय इतिहास में अमर हुआ । यह अथर्वकुलोत्पन्न था। कई जगह, इसे अथर्वन् का पुत्र भी कहा गया है।' इस कारण इसे आवर्षण ' पैतृक नाम प्राप्त हुआ । इसे ' आंगिरस' भी कहा गया है (ता. १२.८.६३ गो. बा. १.५.२१) । अथर्वन् एवं अंगिरस् लोग पहले अलग थे, किंतु बाद में वे एक हो गये । इस कारण इसे 'आंगिरस' नाम मिला होगा।
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ब्रह्माण्ड के मत में, यह वैवस्वत मन्वंतर में पैदा हुआ था। च्यवन एवं सुकन्या का यह पुत्र था (ब्रह्माण्ड २.१. ७४)। किंतु भागवतमत में, यह स्वायंभुव मन्वंतर में पैदा हो कर इसकी माता का नाम चिति वा शांति था ( ४.१.४२ ) ।
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इसके पत्नी का नाम सुवर्चा था ( शिव शत. २४१
१. १. १८) । कई जगह इसके पत्नी का नाम "गर्भस्थनी वड़वा दिया गया है। वह लोपामुद्रा की बहन थी कुलनाम के जरिये उसे 'प्रतिषेध' भी कहते थे ( ब्रह्म. ११० ) ।
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इसे सारस्वत एवं पिप्पलाद नामक दो पुत्र थे । उसमें से सारस्वत की जन्मकथा महाभारत में दी गयी है ( म. श, ५० ) । एक बार अबुपा नामक अप्सरा को इंद्र ने दधीचि ऋषि के पास भेज दिया। उसे देखने से दधीचि का रेत सरस्वती नदी में पतित हुआ । उस रेत को सरस्वती नदी ने धारण किया। उसके द्वारा सरस्वती को हुए पुत्र का नाम 'सारस्वत रखा दिया गया। इसने प्रसन्न हो कर सरस्वती नदी को वर दिया, 'तुम्हारे उदक का तर्पण करने से देव, गंधर्व, पितर आदि संतुष्ट होंगे ' ।
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दध्यच
धोती, इसकी दासी सुभद्रा ने परिधान की । स्नान के समय वस्त्र से चिपके हुए इसके शुक्रबिंदुओं से, सुभद्रा गर्भवती हुई। इसकी मृत्यु के पश्चात् उस गर्म को सुभद्रा ने अपने उदर फाड कर बाहर निकाला, एवं उसे पीपल वृक्ष के नीचे रख दिया। इस कारण, उस गर्भ से उत्पन्न पुत्र का नाम 'पिप्पलाद' रख दिया गया। उसे वैसे ही छोड़ कर, सुभद्रा दधीचि ऋषि के साथ स्वर्गी गयी (ब्रहा. ११० स्कन्द, १.१.१७) ।
दधीचि ऋषि का मुख अश्व के समान था। इसे अधमुख कैसा प्राप्त हुआ, वह कथा इस प्रकार है। इंद्र ने इसको 'प्रवयविया' एवं 'मधुविया' नामक दो विद्याएँ सिखाई थीं। ये विद्याएँ प्रदान करते वक्त इंद्र ने इसे यों कहा था, 'ये विद्याएँ, तुम किसी और को ' सिखाओंगे, तो तुम्हारा मस्तक काट दिया जायेगा । पश्चात् अश्वियों को ये विद्याएँ सीखने की इच्छा हुई । विद्याएँ प्राप्त करने के लिये, उन्होंने दधीचि का मस्तक काट कर वहाँ अश्वमुख लगाया । इसी अश्वमुख से उन्होंने दोनों विद्याएँ प्राप्त की । इंद्र ने अपने प्रतिज्ञा के अनुसार इसका मस्तक तोड़ दिया। अश्वियों ने इसका असली मस्तक उस पक्ष पर जोड़ दिया (ऋ. १. ११६. १३ ) । इन्द्र उस अश्व का सिर ढूँढता रहा। उसे वह शर्यणावत ' सरोवर में प्राप्त हुआ (ऋ. १. ८४. १२ ) ।
ये
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सायणाचार्य ने शाट्यायन ब्राह्मण के अनुसार दधीचि की ब्रह्मविद्या की कथा दी है । यह जीवित था तब इसकी ब्रहाथिया के कारण इसे देखते ही असुरों का पराभव होता था । मृत्यु के बाद असुरों की संख्या क्रमशः बढ़ने लगी। इंद्र ने इसे ढूँढा । उसे पता चला कि, यह मृत हुआ । इसके अवशिष्ट अंगों को ढूँढने पर, अश्वियों कों मधुविद्या बतानेवाला अश्वमुख, शर्यणावत् सरोवर पर प्राप्त हुआ । इसकी सहायता से इंद्र ने असुरों का पराभव किया (ऋ. १.११६.१२३ सायणभाष्य देखिये) । ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद ग्रंथ, पुराण आदि में ब्रह्मविद्या के महत्त्व की यह कथा दी गयी है (श. बा. ४.१.५.१८१ ६.४.२.१३ १४.१.१.१८६ २०.२५ बृ. उ. २.५.१६.१७ ६२ मा ६.९.५१-५५ दे. भा. ७.३६ ) ।
इसका दूसरा पुत्र पिप्पलाद यह मुभद्रा नामक दासी से उत्पन्न हुआ। एक बार इसने पहन कर छोड़ी हुई
मधुविद्या - इसका तत्त्वज्ञान 'मधुविद्या' नाम से प्रसिद्ध है। इस विद्या का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:- मधु का अर्थ मूलतत्त्व | संसार का मूलतत्त्व पृथ्वी, पृथ्वी का अभि
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