Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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पितरः
प्राचीन चरित्रकोश
पितर.
बर्हिषद, आज्यप, सोमप, रश्मिप, उपाहूत, अयंतु, श्राद्ध- | के द्वारा, पितर भक्षण करते हैं। इन्हें गंडक का मांस, भुज, नांदिमुख (स्कंद. ४.२१६.९-१०)। इनमें से | चावल, यव, मूंग, गन्ना, सफेद पुष्प, फल, दर्भ, उड़द, अमिष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप एवं सोमप, ये क्रमशः पूर्व, | गाय का दूध, घी, शहद आदि पदार्थ विशेष पसंद थे। दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर दिशाओं के रक्षक हैं।
इनके अप्रिय पदार्थों में, मसूरी, सन एवं सेमी के __मार्कंडेय पुराण में पितरों के कुल ३१ गणों का निर्देश | बीज, राजमाष, कुलीथ, कमल, वेल, रुई, धतूरा, कडवा, प्राप्त है, जिनके नाम इस प्रकार हैं :-- विश्व, विश्वभुज, | नीम, अडुलसा, भेड़ बकरियाँ एवं उनका दूध प्रमुख था। आराध्य, धर्म, धन्य, शुभानन, भूतिद, भूतिकृत, भूति, | इस कारण, ये सारे पदार्थ 'श्राद्धविधि' के समय निषिद्ध कल्याण, कल्पताकर्तृ, कल्प, कल्पतराश्रम, कल्पताहेतु, | माना गया है। अनघ, वर, वरेण्य, वरद, पुष्टिद, तुष्टिद, विश्वपातृ, धातृ, | मनोविकार-पितरों को लोभ, मोह तथा भय ये विकार महत् , महात्मन, महित, महिमावत् , महाबल, सुखद, | उत्पन्न होते हैं, किंतु शोक नहीं होता। ये जहाँ जी चाहे धनद, धर्मद, भतिद। इनमें से शुभ्र, आरक्त, सुवर्ण एवं | वहाँ 'मनोवेग 'से जा सकते हैं, किंतु अपनी इच्छायें व्यक्त कृष्णवर्णीय पितरों की उपासना क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, | करने में ये असमर्थ रहते हैं। वैश्य, एवं शूद्र करते हैं (माकै. ९२.९२)। | हर एक कल्प के अंत में, ये शाप के कारण नष्ट हो
पितगणों में से निम्नलिखित पितर, अंगिरस एवं जाते हैं, एवं कल्यारंभ में, उ:शाप के कारण, पुनः जीवित स्वधा के पुत्र माने जाते है:-अग्निप्वात्त, बर्हिषद, सौम्य, होते हैं (ब्रह्मांड. ३.९-१०, वायु. ७१.५९-६०; पृम. आज्यप, साग्नि, एवं अनग्नि । दक्षकन्या स्वधा इनकी | स. ९ ह. व. १.१६-१८; मत्स्य. १३-१५:१४१)। पत्नी थी, एवं उससे इन्हें वयुना एवं धारिणी नामक दो तैत्तिरीय संहिता के अनुसार, 'स्मशानचिति' करने कन्यायें उत्पन्न हुयी थीं (भा. ४.१.६४)।
से हरएक मनुष्य को 'पितृलोक' में प्रवेश प्राप्त हो सकता उत्पत्ति--वायुपुराण में पितरो की उत्पत्ति की कथा
है (तै. सं. ५.४.११)। धर्मशास्त्र के अनुसार, पितृकार्य इस प्रकार दी गयी है। कि, सबसे पहले ब्रह्माजी ने देवों से देवकार्य श्रेष्ठ माना गया है। की उत्पत्ति की । आगे चल कर, देवों ने यज्ञ करना बंद | पितृगण--पितरों के गणों के देवी एवं मानुष ऐसे दो किया । इस कारण ऋद्ध हो कर, ब्रह्माजी ने देवों को शाप | मुख्य प्रकार थे। इनमें से देवी पितृगण अमूर्त हो कर दिया, 'तुम मूढ़ बनोंगे' । देवों के मूढ़ता के कारण, पृथ्वी स्वर्ग में ब्रह्माजी के सभा में रहते थे (म. स. ११.४६.)। के तीनों लोकों का नाश होने लगा। फिर ब्राजी ने देवों | वे स्वयं श्रेष्ठ प्रकार के देव हो कर, समस्त देवगणों से को अपने पुत्रोंकी शरण में जाने के लिये कहा। पूजित थे । वे स्वर्ग में रहते थे, एवं अमर थे। __ ब्रह्माजी की इस आज्ञा के अनुसार, देवगण अपने मानुष पितृगण में मनुष्य प्राणियों के मृत पिता, पितापुत्रों के पास गये। फिर देवपुत्रों ने देवगणों को प्राय- मह, एवं प्रपितामह का अन्तार्भाव था। जिनका पुण्य अधिक श्चित्तादि विधि कथन किये। इस उपदेश से संतुष्ट हो | हो ऐसे ही 'मृत पितर' मानुष पितृगणों में शामिल हो कर, देवगणों ने अपने पुत्रों से कहा, 'यह उपदेश कथन सकते थे। इन पितृगणों के पितर प्रायः यमसभा में रहते करनेवाले तुम हमारे साक्षात् 'पितर' ही हो। उस दिन थे। सहस्र वर्षों के हर एक नये युग में, इस पितृगण के से समस्त देवपुत्र 'पितर' नाम से सुविख्यात हुये, एवं सदस्य नया जन्म लेते थे, एवं उनसे नयें मनु एवं नये स्वर्ग में देव भी उनकी उपासना करने लगे (वायु. २. मनुष्यजाति का निर्माण होता था। . १०; ब्रह्मांड. ३.९)। यहाँ पितरः-का प्रयोग 'पाताः' दैवी पितर-इन्हें 'अमूर्त' 'देवदेव''भावमूर्ति' (संरक्षण करनेवाला) ऐसे अर्थ से किया गया है। 'स्वर्गस्थ ' ऐसे आकार, उत्पत्ति, महत्ता एवं वसतिस्थान
बाकी सारे पुराणों में, पितरों को ब्रह्माजी का मानसपुत्र दर्शानेवाले अनेक नामांतर प्राप्त थे। ये आकाश से भी कहा गया है (विष्णु. १.५.३३)। पुराणों में निर्दिष्ट सूक्ष्मस्वरुप थे, एवं परमाणु के उदर में भी रह सकते थे। सात पितृगणों को सप्तर्षिको का पुत्र भी, कई जगह कहा। फिर भी ये अत्यधिक समर्थ थे। देवी पितृगण संख्या में गया है।
| कुल तीन थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं:प्रियखाद्यपदार्थ-श्राद्ध के समय 'प्राचीनावीति' कर, (१) वैराज-यह पितृगण विरजस् ( सत्य, सनातन ) एवं 'स्वाध' कह कर दिया गया अन्न एवं सोम, योगमार्ग | नामक स्थान में रहता था। इस पितृगण के लोग ब्रह्माजी
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