Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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प्राचीन चरित्रकोश
पूषन
प्राप्त है, वहाँ इसका स्वरूपवर्णन स्पष्ट नहीं हो पाया है।
रुद्र की भाँति यह जटा एवं दाढ़ी रखता है (ऋ. ६.५५. २; १०. २६. ७ ) । इसके पास सोने का एक भाला है ( ऋ१.४३. ६ ) । इसके पास एक अंकुश भी है (ऋ. ६.५३.९ ) । यह दंतहीन है। यह पेज या आटे को तरल पदार्थ के रूप में ही खा सकता है (ऋ. ६.५६ १; श ब्रा. १. ७. ४. ७) । अग्नि की तरह, यह भी समस्त प्राणियों को एक साथ देख सकता है ।
यह सम्पूर्ण चराचर का स्वामी है (ऋ. १. ११५. १ ) इसे उत्तम सारथि भी कहा गया है (ऋ. ६.५६. २ ) । बकरे इसके रथ के वाहन हैं (ऋ. १.३८.४ ) ।
सूर्य एवं अग्नि की भाँति, यह अपनी माता (रात्रि ) एवं बहन (उषा) से प्रेमयाचना करनेवाला है ( ऋ. ६ ५५. ५) । इसकी पत्नी का नाम सूर्या था (ऋ. ६.५८. ४.) । इसकी कामतप्त विह्वलता देखकर देवताओं ने इसका विवाह सूर्या से संपन्न कराया । सूर्या के पति के नाते, विवाह के अवसर पर इसका स्मरण किया जाता एवं इससे प्रार्थना की जाती है, 'नववधू का हाथ पकड़ कर उसे आर्शीवाद दो । '
सूर्य के दूत के नाते, यह अन्तरिक्षसमुद्र में अपने स्वर्णनौका में बैठकर विहार करता है (ऋ. ६.५८.३ ) | यह द्युलोक में रहता है, एवं सारे विश्व का निरीक्षण करता हुआ भ्रमण करता है। सूर्य की प्रेरणा से, यह सारे प्राणियों का रक्षण करता है। यह ' आणि ' अर्थात अत्यंत तेजस्वी माना जाता है।
पृथ्वी एवं द्युलोक के बीच यह सदैव घूमता रहता है । इस कारण, यह मृत व्यक्तियों को अपने पितरो तक पहुँचा देता है ।
यह मार्गों में व्यक्तियों का संरक्षण करनेवाला देवता माना जाता है, जो उन्हे लूटपाट, चोरी तथा अन्य आपत्तिविपत्तियों से बचाता है (ऋ. १.४२.१ - ३ ) । इसी कारण यह 'विमुचो नपात्' अर्थात् मुक्तता का पुत्र कहा जाता है । कई जगह इसे ' विमोचन' कह कर, पापों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए इसकी प्रार्थना की गयी है (अ. वे. ६.११२. (३) । शत्रु दूर होकर मार्ग संकटरहित होने के लिये, इसकी प्रार्थना की जाती है (ऋ. १.४२.७) । इसी कारण, प्रवास के प्रारंभ में ऋग्वेद के ६.५३ सूक्त का पठन कर, पूषन् को बलि देने के लिये सूत्रग्रंथों में कहा गया है (सां. गृ. २. १४.१९)।
पूषन्
यह पथदर्शक देवता माना जाता है ( वा. सं. २२. २० ) | यह मार्गज्ञ होने के कारण, खोया हुआ माल पुनः प्राप्त करवा देता है (ऋ. ६. ४८. १५; आव. गृ. ३. ७.९ ) । यह पशुओं की रक्षा करता है, एवं उन्हें रोगों तथा संकटों से बचाता है (ऋ. ६.५४. ५-७ ) ।
इसे प्राणिमात्र अत्यंत प्रिय हैं । यह भूलेभटके प्राणियों को सुरक्षित वापस लाता है (ऋ. ६. ५४. ७) । यह अश्वों का भी रक्षण करता है । इसीकारण गायों के चराने के लिये लेते समय, पूषन् की प्रार्थना की जाती है (सां. गृ. ३. ९ ) ।
ऋग्वेद में इसके लिये निम्नलिखित विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं :अजाश्व, विमुखोनपात्, पुष्टिंभर, अनष्टपशु, अनष्टवेदस्, करंभाद, विश्ववेदस्, पुरूवस्, तथा पशुप । इनमें से विश्ववेदस्, अनष्टवेदस्, पुरुवस्, पुष्टिंभर इन सारी उपाधियों का अर्थ 'वैभव देनेवाला ' होता है । 'पूषन् ' का शब्दार्थ ही यही है ।
निरुक्त के अनुसार, पूषन् को आदित्य एवं सूर्यदेवता का एक रूप माना गया है। वेदोत्तर वाङ्मय में भी ' सूर्य का नामांतर ' अर्थ से 'पूषन् ' का निर्देश अनेक बार किया गया है। इसे मार्गरक्षक, एवं प्राणिरक्षक देवता मानने का कारण भी संभवतः यही होगा ।
'पूषन् ' की दन्तविहीन होने की अनेक कथाएँ ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त हैं। अपनी कन्या के साथ विवाहसंबंध रखनेवाले प्रजापति को रुद्र ने वध किया । प्रजापति के यज्ञ में से अवशिष्ट भाग पूषन् ने भक्षण किया । इस कारण 'पूषन् ' दन्तविहीन बना (श. बा. १. ७. ४. ७ ) । प्रजापति द्वारा किये हुए यज्ञ में रूद्र को आमंत्रित न करने के कारण, उसने उस यज्ञ को रोक दिया । पश्चात् यज्ञसिद्धि के लिये देवों ने रुद्र को प्रसन्न किया, एवं हविर्भाग का कुछ भाग पूषन् को दिया । देवों ने प्रदान किये उस हविर्भाग के कारण, पूषन् के दाँत टूट गये ( तै. सं. २. ६.८.२ - ७) ।
पौराणिक ग्रंथोंमें भी, पूषन् का निर्देश प्राप्त है । भागवत के अनुसार, यह स्वायंभुव मन्वन्तर के दक्षयज्ञ में ऋत्विज था । उस यज्ञ में इसनें शंकर की हँसी उड़ायी। इसकारण शिवगणों में से चंडीश नामक गण ने इसे बाँध कर इसके दाँत तोड़ डाले ( भा. ४. ५. २१-२२ ) पश्चात्, शंकर ने इसे वर दिया, " तुम यजमानों के दाँतो से हविर्भाग भक्षण करोगे एवं लोग तुम्हे ' पिष्टभुज' कहेंगे " । उसी दिन से यह 'पिष्टभुज' बना, एवं
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