Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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प्राचीन चरित्रकोश
को ही घर से
भी इक्ष्वाकु राजा ने पक्षपात कर वृश जान दोषी ठहराया, इसलिये इक्ष्वाकु राजा के अनि गुप्त हो गया। यज्ञयाग बंद हो गये पूछताछ करने पर राजा को पता चला कि, वृश जान को मैं ने दोषी कहा, , इसलिये अभि मेरे घर से चला गया है। बाद में राजा वृश जान के पास गया। तब उसने वार्श सामसूक्त कह कर अग्नि को वापस लाया। इससे इक्ष्वाकु राजा के घर के यज्ञयाग पूर्ववत प्रारंभ हो गये ( ऋ ५.२१; सायण भाष्य में से ' शाट्यायन ब्राह्मण,' तथा तांड़क. ५. २.१ ) । इस कथा का श्वेद से (५.२) संबंध दर्शाया गया है । यहाँ व्यरुण, वृष्ण तथा त्रसदस्यु को एक ही माना गया है, एवं उसे ऐश्वाक कहा है। परंतु यह बात सायणाचार्य मान्य नहीं करते (ऋ. ५.२७.३; बृहद्दे. ५९ १३-२२ ) ।
इसका पुत्र कुरुश्रवण (ऋ. १०.३३.४ ) । इसे हिरणिन् नामक और भी एक पुत्र होगा । परंतु सायण के मतानुसार ‘हिरणिन् ' धनवान् के अर्थ का विशेषण है (ऋ. ५.५३.८३ ६.६३.९) । यह अंगिरस गोत्रीय मंत्रकार
त्रित
जमीन में हल चला कर यह अपना उदरनिर्वाह करता
था ।
त्रासदस्यच वृद्धि तथा कुरुश्रवण का पैतृक नाम । त्रिंशदश्व-- (स. इ.) भविष्य के मतानुसार पुरुकुत्स का पुत्र । इसका रथ तीस घोड़ों का था । इसका राज्य सत्ययुग के दूसरे चरण में था । त्रिककुद्~~(सो. आयु. ) भागवत मतानुसार शुचि
राजा का पुत्र । त्रिगर्त - - एक क्षत्रिय ( म. स. ८.१९ ) । त्रिचक्षु (सो. पूरु. भविष्य.) रुच का पुत्र चक्षु कहा गया है।
वनवास गमन के पहले राम ने लक्ष्मण से कुछ दानधर्म करने के लिये कहा । उस समय, अपनी तरुण पत्नी के कथनानुसार, धनप्राप्ति की आशा से यह भी आया । इसे वृद्ध देख कर, राम को इसपर दया आयी । हाथ में एक लकडी ले कर, उसने इससे कहा, 'यह लकडी इन गायों के बीच में फेंको। जहाँ तक यह लकडी जावेगी, वहाँ तक की गौएँ तुम्हें दी जायेंगी ।" यह गायों को पार कर, सरयू के भी तब राम ने उस क्षेत्र की सब गौएँ इसे दीं, तथा साथ में कुछ धन भी दिया ( वा. रा. अयो. ३२.२९ - ४३ ) ।
ने लकड़ी फेंकी। उपपार चली गई
।
था।
२. (सू. इ. ) पुरुकुत्स एवं नर्मदा का पुत्र ( वायु. त्रित - एक ऋषि तथा देवता । परंतु निरुक्त में इसे ८८.७४) । मत्स्य में इसे वसुद कहा है। भविष्य में इसके लिये त्रिंशदश्व पाठभेद है । मत्स्य में नर्मदा को त्रसदस्यु अर्जुन का वध किया (ऋ. २.११.२०)। त्रित ने एक. द्रष्टा कहा है (नि. ४.६ ) । इन्द्र ने त्रित के लिये की पत्नी बताया है (मत्स्य. १२.२६ ब्रह्म. ७.९५ ) । त्रिशीर्ष का ( १०.८.८) एवं विश्वरूप का यह सूर्यवंश का था । त्वष्टुपुत्र किया (ऋ. १०.८०९) । मरुतों ने युद्ध में का त्रसद्दस्यु--मांधातृ का नामांतर ( भा. ९.६.३३ ) । सामर्थ्य नष्ट नहीं होने दिया (ऋ ८.७.२४) । त्रित ने प्राक्षायाणि - विश्वामित्र कुछ का गोत्रकार । त्रात ऐषुमत - निगड पाणैवरिक का शिष्य (के. बा. १.३)।
इन्द्र के लिये सोम पीसा (ऋ. ८.३२.२ ३४.४१ २८. २) | त्रित ने सोम दे कर सूर्य को तेजस्वी बनाया (ऋ. ९.२७.४) । ति तथा मित आल्य, एक ही होने का संभव है । त्रितको आपत्य विशेषण लगाया गया है । इसका अर्थ सायण ने उदकपुत्र किया है (ऋ ८.४७. १५ ) | यह अनेक सूक्तों का द्रष्टा है । (ऋ. १.१०५;
त्रिजट्--गार्ग्य-कुल का एक वृद्ध ब्राह्मण । हल, कुदलि, तथा बेंत ले कर यह हमेशा वन में घूमता
था
के
त्रिजटा -- लंका की एक राक्षसी । रावण ने सीता संरक्षण के लिये जो राक्षसियों रखीं थीं, उनमें यह एक थी (म. व. २६४.५३ ) | स्वप्न में इसने देखा कि, रावण का नाश तथा राम का उत्कर्ष होनेवाला है। तब से सीता को कुछ तकलीफ न हो, यह व्यवस्था इसने जारी की (बा. रा. सुं. २७) ।
८.४७; ६.२२ ३४; १०२ १०. १-० ) । एक स्थान
पर इसने अग्नि की प्रार्थना की है कि, मरुदेश के प्या के समान पूरुओं को धन से तुष्ट करते हो (ऋ. १०.४ ) । इंद्र के लिये उपयोग में लाया गया है (ऋ. १.१८७.२ ) । उसी प्रकार इंद्र के भक्त के रूप में इसे भी इसका उल्लेख है ( . ९.३२.२ १०.८.७-८ ) । त्रित तथा गृत्समद कुछ का कुछ संबंध था, ऐसा प्रतीत होता है (ऋ. २.११.१९ ) । त्रितको विभूवस का पुत्र | कहा गया है (ऋ. १०.४६.२ ) । ति अभि का नाम है २५१
।
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