Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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कार्तवीर्य
प्राचीन चरित्रकोश
कालकंज
२१.५-४७.६१) उल्लेख है कि, परशुराम ने कान्य- कार्शकेयीपुत्र-प्राचीनयोगीपुत्र का शिष्य । इसका कुब्ज तथा अयोध्या के सब राजाओं की सहायता से | शिष्य वैदृभतीपुत्र था (बृ. उ. ६. ५. २ काण्व)। अर्जुन को मारा तथा भार्गवों का पराभव किया। माध्यदिन में गुरु प्राश्नीपुत्र आसुरवासिन् है (बृ. उ.
चक्रवर्तिपद-इसका शासन ८५ हजार वर्षों तक रहा। | ६. ४. ३३)। इस प्रदीर्घ शासनकाल में इसने हैहयसत्ता तथा वैभव | कार्षणि-भृगुकुल का गोत्रकार । पार्वणि पाठको अत्यंत वृद्धिंगत किया । प्रतीत होता है कि, इसने | भेद है। नर्मदा के मुख से हिमालय तक का प्रदेश जीत लिया। कार्णाजिनि--एक प्राचीन आचार्य (जै. सू. ४. था । इसकी सत्ता चारों ओर सुदूर तक फैली थी, इसका | ३. १७; ६. ७. ३५, ब्रह्मसूत्र. ३. १. ९; का. श्री. १. प्रमाण यह है कि, इसे कई स्थानों पर सम्राट तथा चक्रवर्ति ६. २३)। इसने कार्णा जिनिस्मृति नामक ग्रंथ रचा । कहा गया है (ह. वं. १.३३; पद्म. सृ. १२; ब्रह्म. १३; | पैठीनसि, हेमाद्रि, माधवाचार्य आदि ग्रंथकार इस विष्णुधर्म १.२३; नारद. १.७६ )।
स्मृति का उल्लेख करते हैं (C.C.)। मिताक्षरा (याज्ञ. नर्मदा तथा समुद्र का अपने हाथों से यह इस प्रकार | ३. २६५), अपरार्क, स्मृतिचंद्रिका तशा श्राद्धविषयक मंथन करता था कि, सब जलचर इसके शरण आ जाते | अन्य ग्रंथों में इसका उल्लेख है। अपरार्क में (प्र. थे । यमसभा में यह यम के पास अधिष्ठित रहता है। १३८) इसका एक श्लोक दिया है । उसमें ब्रह्मदेव के (म. स. ८.८)। इसका ब्राह्मणों के श्रेष्ठत्व के संबंध में | सनक, सनंदन, सनातन, कपिल, आसुरि, ओढ तथा पवन से संवाद हुआ था (म. अनु. १५२-१५७)। उसी पंचशिख इन सात पुत्रों का उल्लेख है । राशियों के चिह्नों प्रकार, मुझसे लड़ने लायक शक्तिशाली कौन है, इस | के संबंध मे इसका एक श्लोक अपरार्क में दिया है विषय पर समुद्र से भी इसका संवाद हुआ है (म. आश्व. | (४२०)। २९)। इसने प्रवालक्षेत्र में प्रवालगणर का बड़ा मंदिर कार्णायन--कृष्णपराशरकुल का गोत्रकार । बनाया (गणेश. १.७३.) । माघस्नानमाहात्म्य के संबंध | कार्णि-कृष्ण के पुत्रों का, विशेषतः प्रद्युम्न का में इसका दत्त से संवाद हुआ था (पद्म.उ. २४२-२४७)। नाम (भा. १०.५५)। 'नारदपुराण में इसकी पूजाविधि बतायी है। इसके २. अभिमन्यु (म. भी. ४५.२०)।
शरीरवर्णन में दिया है कि यह काना था (नारद. १.७६)।। ३. विश्वक देखिये। - संतति-इसे सौ पुत्र थे । उनके नाम शूर, शूरसेन, | काल--ध्रुव वसु का पुत्र । वृष्ट्याद्य, वृष, ज्यध्वज (वायु. ९४ ४९-५०) धृष्ट, कोष्ट | २. जालंदर की सेना का एक असुर (पद्म. उ. (मस्त्य. ४३), कृष्ण (ह. वं.१.३३; पद्म. स. १२), सूर, | १२)। सूरसेन (अग्नि. २७५), वृषण, मधुपध्वज (ब्रह्म. १३), ३. परशुराम का बंधु (कालकाम देखिये)। धृष्ट, कृष्ण (लिंग. १.६८), वृषभ, मधु, ऊर्जित (भा.
४. ग्यारह रूद्रों में से एक (भा. ३. १२)। ९.२३)। भागवत में कहा है कि, इसे दस हजार पुत्र
कालक--विजर का पुत्र ।
कालकंज-ये असुर थे। ये आकाश में रहते २. (सो. सह.) मत्स्य तथा वायु के मत में कनक
थे (अ. वे. ६. ८०.२)। इनका पराभव इंद्र ने किया। के चार पुत्रों में से एक।
ये इंद्र के पराक्रम का एक स्थान हैं (क. सं. ८.१, कार्ति-(सो. द्विमीढ.) उग्रायुध का पैतृक नाम । मै. सं. १.६.९; तै. ब्रा. १. १. २. ४-६; कौ. उ. कार्तिकस्वामिन-स्कंद तथा गजानन देखिये। ३.१)। इन्होंने स्वर्गप्राप्ति के लिये अग्निचयन कार्तिमती-शुककन्या तथा अणुह की पत्नी। अनुष्ठान आरंभ किया । तब इसका पराभव करने के कार्तिवय-कश्यपगोत्र का एक ब्रह्मर्षि । लिये, इंद्र वेषांतर कर इनके पास आया तथा इससे कार्दमायनि-भृगुगोत्र का एक ब्रह्मर्षि ।
उसने कहा, 'हे असुरों ! मैं ब्राह्मण हूँ। तुम्हारे अनुष्ठान काईपिंगाक्षि-काद्रुपिंगाक्षी का पाठभेद । में मुझे लेलो। मुझे भी स्वर्ग जाना-है' । असुर मान गये । कार्पणि-भृगुकुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि ।
चयन के लिये असुर इष्टक (इंटें) जमा रहे थे । उनके कार्मायन---मांकायन का पाठभेद ।
| साथ साथ इंद्र ने अपनी एक ईट जमायी तथा अपनी प्रा. च. १८]
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थे।