Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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गांधारी
अपने पुत्रों के लिये शोक कर रहीं थीं। इसने उनकी सांत्वना की (म. स्त्री. १५-१७ ) ।
इसके बाद, गांधारी धृतराष्ट्र के साथ पांडवों के पास ही रहने लगी | युधिष्ठिर अत्यंत सुस्वभावी था । इन्हें किसी भी चीज की कमी नहीं होने देता था । किंतु भीम हमेशा कठोर भाषण करता था। इससे वैराग्य उत्पन हो कर, गांधारी धृतराष्ट्र, कुन्ती तथा विदुर के साथ वन में गई । वहाँ इसने पति के साथ देहत्याग किया ( भा. १.१३.२७ ९.२२ - २६; म. आश्र. ४५ ) ।
प्राचीन चरित्रकोश
२. क्रोष्टु की पत्नी । इसे सुमित्र अथवा अनमित्र नामक एक पुत्र था (ब्रह्म. १४.२; ३४; ह. वं. २.३४.१ ) । ३. अजमीढ़ की तीसरी पत्नी ।
गार्गी वाचक्नवी-वचक्नु ऋषि की कन्या होने के कारण, इसे गार्गी वाचक्री कहते है। यह अत्यंत ब्रह्म निष्ठ थी तथा परमहंस की तरह रहती थी । दैवराति जनक की सभा में याशवल्क्य से इसका बाद हुआ (बृ. उ. ३.६.१; ८.१; आव. गृ. ३.४.४; सां. गृ. ४.१०१ ५. कृष्णपत्नी । इसने अंत में अभिप्रवेश किया (म. अथर्वपरि. ४३.४.२२) ऋग्वेदियों के ब्रह्मवशगतर्पण मो. ७) । में इसका नामोल्लेख आता है ।
४. कश्यप तथा सुरभि की कन्या ।
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गार्गीय - भृगुकूल का गोत्रकार ।
गायत्री - एक देवपत्नी पुराने काल में चाक्षुष मन्वन्तर में ब्रह्मदेव ने यज्ञ प्रारंभ किया। शंकर, विष्णु आदि देव तथा भृगु आदि ऋषि आये थे । यज्ञदीक्षा के लिये, ब्रह्माजी ने अपने स्वरा नामक पत्नी को पुकारा । वह किसी कार्य में मन थी । इधर मुहूर्त टल रहा था। इसलिये इन्हों ने गायत्री को पुकारा। तब यह आई तथा स्वरा के स्थान पर बैठी।
गार्ग्य
गायत्री को वेदमाता कहा है ( म. आश्र. ९९.२४ ) । गायत्री को सूर्यमंत्र मान कर उसे सावित्री कहते हैं। (बृ. उ. ५.१४.५) उ. बा. को गायत्रोपनिषद कहते हैं (जै. उ. बा. ४.१७ ) । इस ग्रंथ में गायत्र साम की अत्यंत प्रशंसा की है।
बाद में स्वरा मंडप में आई । अपने स्थान पर गायत्री को बैठी देख कर, क्रोध से उसने सब को जद हो जाने का शाप दिया। तब गायत्री ने भी उसे वही शाप दिया। बाद में, देव जड़ अर्थात् जलरूप रहें, तथा प्रत्येक नदी देवता हो, ऐसा तब हुआ सावित्री तथा गायत्री पश्चिमवाहिनी नदीयाँ बनीं। विष्णु कृष्णा का तथा शंभर वेण्या का स्वामी बना (पद्म उ. ११२ ) । सावित्री ने देवों को शाप दिया। तब गायत्री ने यह बताया कि, शाप का उपयोग कैसे किया जावे (पद्म. सृ. १७ ) ।
पश्चात् ब्रह्मदेव ने एक स्त्री, यशकार्य के लिये खाने की आज्ञा, इन्द्र को दी । इन्द्र ने,एक अधिराज की (ग्वाले की ) कन्या उठा लाई । उसकी स्थापना ब्रह्मदेव के पास की ब्रह्मदेव ने इसका गांधर्वविधि से स्वीकार किया (पद्म. स. १६ - १७; सावित्री, बुड़िल तथा अश्वपति २ देखिये ) ।
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गायन-भृगुकुलोपन एक गोत्रकार गार्ग-- विश्वामित्र का पुत्र । गार्गिहर- गार्ग्यहरि का पाठभेद ।
गार्ग्य-- एक ऋषिपरंपरा । गर्ग परंपरा के लोग गार्ग्य नाम से प्रथित हुवे । वेद, प्रतिशाख्य, यज्ञ, व्याकरण, ज्योतिष, धर्मशास्त्र आदि विषय में उनके ग्रंथ तथा विचार उपलब्ध है। यह कार्य एक का नहीं। परंपरा में आये अनेक शिष्यप्रशिष्य द्वारा यह संपन्न हुआ, इस में संदेह नही यहाँ केवल निर्देश किये हैं। फाल तथा भिन्नता प्रकट करना अशक्य है ।
एक व्याकरणकार पाणिनि ने तीन बार इसका उल्लेख किया है (पा. सु. ७. २. ९९ ८ २. २०१ ४. ६७ ) ।
ऋक्प्रातिशाख्य तथां वाजसनेय प्रातिशाख्य में भी गार्ग्यमत उद्धृत किया है (ऋ. प्रा. १३.३० ) ।
निरुक्त में भी गार्ग्यमत है ( नि. १.३.१२; ३.१३ ) । यास्क तथा रथीतर के साथ इसका निर्देश- है ( बृहद्देवता १. २६ ) । सामवेद का पदपाठ गार्ग्यविरचित है। सामवेद परंपरा में शर्वदत्त का गार्ग्य पैतृक नाम है । सामवेदियों के उपाकर्माग तर्पण में इसका नाम है (जैमिनि देखिये) ।
एक गृह्यकर्मविशारद । शांत्युदक तथा मधुपर्क विषयक इसके मत उपलब्ध है ( कौ. सू. ९. १०; १३. ७; १७. २७ )।
गायत्री मंत्र तथा गायत्री छंद की प्रशंसा ब्राह्मण, उपनिषद तथा महाभारतादि पुराणों में प्राप्त है ( छां.उ. ३. १२.१ म. व. ९९.२२ - २७ ११५.२७.२९ ) ।
एक तत्त्वज्ञ | यह गौतम का शिष्य था । इसका शिष्य अग्निवेश्य (बृ. उ. ४. ६. २)।
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