Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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जनमेजय पारीक्षित
प्राचीन चरित्रकोश
जनमेजय पारीक्षित
जनमेजय पारीक्षित-सो. (पूरु.) कुरुपुत्र परीक्षित् था। फिर भी हस्तिनापुर के सिंहासन पर इसे ही अभिषेक का पुत्र । इसको जनमेजय पारीक्षित-प्रथम कहते है। हुआ। इसने प्रजा का पुत्रवत् पालन किया । इसका पुत्र
वेदों में इसे पारीक्षित जनमेजय कहा है (श.बा.१३. | प्राचीन्वत् (म. आ. ४०)। ५.४.१, ऐ. ब्रा. ७.३४,८. ११, २१; सां. श्री. १६.८. | इसकी पत्नी, काशी के सुवर्णराजा की कन्या वपुष्टमा २७.)। इसकी राजधानी का नाम आसन्दीवत् (ऐ. वा. ( काश्या) थी। ८.२१, श.बा. १३.५.४.२)। इसके बंधुओं के नाम एक बार यह कुरुक्षेत्र में दीर्घसत्र कर रहा था । सारउग्रसेन, भीमसेन तथा श्रुतसेन थे। इसने ब्रह्महत्या की | मेय नामक श्वान वहाँ आया। इसने श्वान को मार भगाया। थी। पापक्षालनार्थ अश्वमेधयज्ञ भी किया था। उसमें उसकी माँ देवशुनी सरमा पुत्र को ले कर वहाँ आयी। पुरोहित इन्द्रोत दैवाप शौनक था (श. बा. १३.५.३.५ ) | उसने अपने निरपराध पुत्रों की ताड़ना का कारण पूछा। तुरकावषेय का भी नाम प्राप्य है (ऐ. बा. ८.२१)। इसे उसने पश्चात् शाप दिया, 'तुम्हें दैवी विघ्न
इसका अमियों के साथ, तत्त्वज्ञान विषय में संवाद हुआ | आवेगा। था (गो. ब्रा. १.२.५)। ..
तक्षक से प्रतिशोध लेने के लिये, इसने तक्षशिला पर ... मणिमती से इसे सुरथ तथा मतिमन् ये दो और पुत्र थे
आक्रमण किया। उसे जीत कर ही यह हस्तिनापुर लौटा । (ह. वं. १.३२.१०२)। इसके भाइयों का नाम भी
उस समय उत्तक ने इसे सर्पसत्र की मंत्रणा दी । सब सो कई जगह आया है (श. ब्रा. १३.५.४.२; अग्नि.
का नाश करने का निश्चित हुआ। यज्ञमंडा सजा कर २७८. ३२, गरुड. १. १४०)।
सर्पसत्र प्रारंभ हुआ। इतने में स्थाति (शिल्पी) नामक कठोर वचन से संबोधन करने के कारण, गार्ग्यपुत्र का,
व्यक्ति वहाँ आया। उसने कहा, 'एक ब्राह्मण तुम्हारे इसने वध किया । ब्रह्महत्या के कारण, इसे राज्य
यज्ञ में विघ्न उपस्थित करेगा। अगणित सर्प वेग के साथ त्याग करना पडा । शरीर में दुर्गधि भी उत्पन्न हुई । इसी
उस कुंड में गिरने लगे। तक्षक भयभीत हो कर इंद्र की कारण लोहगंध जनमेजय तथा दुर्बुद्धि नाम से यह
शरण में गया। इंद्र ने उसकी रक्षा का आश्वासन ख्यात हुआ। इन्द्रोत दैवाप शौनक ने अश्वमेध करा के
दिया। पश्चात् वासुकि की बारी आयी । वह जरत्कारु इसे ब्रह्महत्यापातक से मुक्त किया। फिर यह राज्य नहीं
नामक अपने बहन के पास गया। जरत्कारु का पा सका।
पुत्र आस्तीक था। आस्तीक ने वासुकि को अभय दिया। . सुरथ को वह राज्यपद मिला। ययाति को रुद्र से
बाद में राजा ने अपने प्रमुख शत्रु तक्षक को आवाहन दिव्य रथ प्राप्त हुआ था। इस ब्रह्महत्या के कारण, करने की ऋत्विजों से विनंति की। तक्षक इंद्र के यहाँ . 'पूरुकुल मे वंशपरंपरा से आया हुआ, वह रथ | आश्रयार्थ गया था। 'इंद्राय तक्षकाय स्वाहा', कह कर , वेसुचैद्य को दिया गया। वहाँसे बृहद्रथ, जरासंध, भीम | ऋत्विजों ने आवाहन किया । इंद्रसहित तक्षक वहाँ उपतथा अंत में कृष्ण के पास आया । कृष्ण निर्माण के बाद स्थित हुआ। अग्नि को देखते ही इंद्र ने तक्षक का त्याग वह रथ अदृश्य हुआ (वायु. ९३.२१-२७; ब्रह्मांड. ३. किया। इतने में आस्तीक वहाँ पहुँचा। उसने राजा की ६८.१७-२८; ह. वं. १.३०.७-१६; ब्रह्म. १२.७-१७)। | स्तुति की। वर माँगने के लिये राजा से आदेश मिलते
'अबुद्धिपूर्वक किया गया पाप प्रायश्चित्त से नष्ट हो ही, आस्तीक ने सर्पसत्र रोकने को कहा । विवश हो कर जाता है, इस संदर्भ में भीष्म ने युधिष्ठिर को जनमेजय की | राजा को सर्पसत्र रोकना पडा । इस तरह स्थाति तथा यह पुरानी कथा बतायी है (म. शां. १४६-१४८)। सरमा की शापवाणी सच्ची साबित हुई।
२. (सो. कुरु.) यह द्वितीय जनमेजय पारीक्षित है। श्रुतश्रवस् को सर्पजाति के स्त्री से उत्पन्न हुआ पुत्र 'जनमेजय' का अर्थ है, 'लोगों पर धाक जमानेवाला। सोमश्रवस् इस यज्ञ में, था। श्रुतश्रवस् को राजा ने अर्जुन-अभिमन्यु-परीक्षित्-जनमेजय इस क्रम से यह | आश्वासन दिया था, 'तुम्हें जो चाहिये सो माँग लो. मैं वंश है । परीक्षित ने मातुलकन्या ( उत्तर की कन्या) से उसकी पूर्ति करूँगा' (म. आ. ३.१३-१४)। विवाह किया था। उससे, जनमेजय, भीमसेन, श्रुतसेन | सर्पस्त्र के ऋत्विज--१. चंडभार्गव च्यावन (होतृ), तथा उग्रसेन नामक चार पुत्र हुएँ। तक्षक ने परीक्षित की। २. कौत्स जैमिनि (उद्गातृ), ३. शार्झरव (ब्रह्मन् ), हत्या की । उस समय उम्र में जनमेजय अत्यंत छोटा | ४. पिंगल (अध्वर्यु), ५. व्यास (सदस्य), ६. उद्दालक,