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२. तिलोक मनुष्यलोक आदि विभाग
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ध. ४ / १, ३, १ / २ / ३ देस भेएण तिविहो, भंदर त्रिलियादो, उरिमुह लोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरि चिरणों मज्जलोगोति । देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है। मन्दराचल (सुमेरु पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है । मन्दराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है । मन्दराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्य लोक है । ३/५/१ पर्यन्तस्तिलोको व्यवस्थित लक्षितावधि मेोजनला ११ अनुयायलय के अन्तभाग तक तिर्यग्लोक अर्थात मध्य लोक स्थिर है । मेरु पर्वत एक लाख योजन विस्तार वाला है । उसो मेरु पर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोक को अवधि निश्चित है | १| इसमें असंख्यात द्वीप, समुद्र एक-दूसरे को वेष्टित करके स्थित हैं, यह सारा का सारा तिर्यग्लोक कहलाता है, क्योंकि तियेच जीव इस क्षेत्र में सर्वत्र पाये जाते हैं । २, उपरोक्त तिर्यग्लोक के मध्यवर्ती जम्बूद्वीप से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक बढाई द्वीप व दो सागर से रुद्ध ४५,००,००० योजन प्रमाण क्षेत्र मनुष्य लोक क्षेत्र मनुष्य लोक है। देवों आदि के द्वारा भी उनका मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग में जाना सम्भव नहीं है । ३. मनुष्य लोक के इन लड़ाई द्वोपों में से जम्बू द्वीप में ? और घातकों व पुष्करा में दो-दो मेरु हैं। प्रत्येक मेरु सम्बन्धी ६ कुलवर पर्वत होते हैं. जिनसे 'वह द्वीप ७ क्षेत्रों में विभक्त हो जाता है । मेरु के प्रणिधि भाग में दो कुरु तथा मध्यवर्ती विदेह क्षेत्र के पूर्व व पश्चिमवर्ती दो विभाग होते हैं । प्रत्येक में वक्षारं पर्वत, ६ विभंगा नदियाँ तथा १६ क्षेत्र हैं। उपरोक्त ७ब इन ३२ क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो प्रधान नदियां हैं ७ क्षेत्रों में से दक्षिणी व उत्तरीय दो क्षेत्र तथा ३२ विदेह इन सब के मध्य में एक एक विजयार्ध पर्वत है, जिन पर विद्याधरों की बस्तियाँ हैं । ४. इस अढ़ाई द्वीप तथा अन्तिम द्वीप सागर में ही कर्म भूमि है, अन्य सर्व द्वीप व सागर में सर्वदा भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। कृष्यादि षट्कर्म तथा धर्म कर्म सम्बन्धी अनुष्ठान जहां पाये जाते हैं वह कर्मभूमि है, और जहाँ जीव बिना कुछ किये प्राकृतिक पदार्थों के शाश्रय पर उत्तम भोग भोगते हुये सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें वह भोगभूमि है। पढ़ाई द्वीप के सर्व क्षेत्रों में भी सर्व विदेह क्षेत्रों में त्रिकाल उत्तम प्रकार की कर्मभूमि रहती है। दक्षिण व उत्तरी दो-दो क्षेत्रों में काल परिवर्तन होता है । तीन कालों में उत्तम, मध्यम, व जघन्य भोगभूमि और तोन कालों में उत्तम मध्यम व जघन्य कर्मभूमि रहती है। दोनों कुरूपों में सदा उत्तम भोगभूमि रहता है, इनके धागे दक्षिण व उत्तर क्षेत्रों में सदा मध्यम भोग भूमि और उनसे भी आगे के शेष दो क्षेत्रों में सदा जघन्य भोगभूमि रहती है। मोगभूमि में जीव की आय शरीरोत्सेध दल व सुख कम से वृद्धिगत होती है और कर्मभूमि में क्रमशः हानिगत होता है। ५. मनुष्य लोकव अन्तिम स्वयं दोष व सागर को छोड़कर शेष सभी द्वीप सागरों में विकलेन्द्रिय व जलचर नहीं होते हैं। इस प्रकार सर्व हो भोग भूमियों में भी वे नहीं होते हैं । वैर वश देवों के द्वारा ले जाये गये वे सर्वत्र सम्भव है ।
कहता हूँ।
३४३ :- १४- २४३ द्रूष्य क्षेत्र के य, क्षे, काघ, फ, ७३३१-४९ + २४ = २४७ सम्पूर्ण हाथ क्षेत्र का ध, फ,
एक गिरि कट का घनफल छप्पन से भाजित लोक प्रमाण हैं। इसको चौबीस से गुणा करने पर सात से भाजित और तीन से गुणित लोक प्रमाण सम्पूर्ण गिरिकट क्षेत्र का घनफल आता है ।
३४४ - ५६= ६६ एक भि. का घ. फ. ६३X२४ = १४७ रा. (३४३ ÷ ७४३) सम्पूर्ण गि क्षे. घ. फ.
सामान्य, अधः और ऊर्ध्व के भेद से जो तीन प्रकार का जग अर्थात लोक है, उसको आठ प्रकार से कह कर अब वातवलयों के पृथक्
पृथक आकार को कहता हूं ।
गोमूत्र के समान वर्ण वाला घनोदधि, मूंग के समान वर्णवाला घनवास तथा अनेक वर्णवाला तनुवात, इस प्रकार के ये तीनों वातवलय वृक्ष की त्वचा के समान (लोक को घेरे हुए) हैं
इनमें से प्रथम घनोदधिवातवलय लोक का आधार भूत है। इसके पश्चात् घनवातवलय, उसके पश्चात् तनुवात वलय और फिर अन्त में निजधार आकाश है ।
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