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भगवान् महावीर की २५ वीं निर्वाण-शताब्दी के उपलक्ष्य में प्रकाशित
आचार्य श्री हेमचन्द्र द्वारा प्रणीत
आच
प्राकृत-व्याकरण - संस्कृत-हिन्दी-टीका-द्वय से युक्त
(द्वितीय खण्ड)
टीकाकार-- जैनधर्म-दिवाकर, साहित्य-रत्न, जैनागम-रत्नाकर
आचार्य-सम्राट् परम्मश्रदय पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज
के सुशिष्य जैन-भूषण, पंजाब केसरी, व्याख्यान-दिवाकर पण्डित-रत्न श्री ज्ञानमुनि जी महाराज
प्रकाशक
आचार्य श्री आत्माराम जैन मॉडल स्कूल
२९-डी, कमला नगर,
देहली-७
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पूज्य मुनिराजों स्तथा विद्वानों की दृष्टि में :
प्राकृत-व्याकरण [प्रथम खण्ड] १. प्रस्तुत पुस्तक प्राकृतव्याकरण की एक महत्त्वपूर्ण टीका है, मुनि श्री ने व्याकरण जैसे शुष्क, गंभीर एवं दुरूह विषय को इतना सरल, सुबोध बनाया है, इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं।
माचार्य श्री हेमचन्द्र द्वारा विरचित "सिव-हैमशब्दानुशासनम्" का पाठयाँ अध्याय प्राकृतव्याकरण है। इस व्याकरण पर संस्कृत और हिन्दी भाषा में अनेक टीकाएं लिखी जा चुकी हैं। यह टीका उन सभी टीकाओं में अपना विशिष्ट स्थान रखती है, क्योंकि इस में शब्द-साधनिका सरल ढंग से विस्तार के साथ प्रस्तुत हुई है, जो कि प्राकृत भाषा के विद्याथियों के लिए सहायक एवं पथप्रदर्शक के रूप में सिद्ध होगी।
प्रसिद्धवक्ता पण्डितरत्न श्री ज्ञानमुनि जी महाराज ने परिश्रम करके प्राकृत भाषा के भण्डार को समृद्ध किया है, जिस से प्राकृत साहित्य-जगत की बहुत बड़ी कमी को पूर्ति हुई है। इसी तरह मुनि श्री जी साहित्य जगत में अपनी प्रतिभा एवं साधना को साकार करते रहेंगे। इसी सद्भावना एवं माशीर्वाद के साथ।
प्राचार्यसम्राट् परमश्रद्धेय, पूज्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज,
घोड़नकी (महाराष्ट्र) २. प्रस्तुत व्याकरण के प्रारम्भ में-'सागर है यह ज्ञान का' शीर्षक वाली कविता बहुत ही सुन्दर, उपयुक्त एवं प्राकृत भाषा के गौरव को प्रकट करने वाली है। प्रापने प्रकृतव्याकरण पर संस्कृत तथा हिन्दी में टीका रचकर जन-साधारण पर जो उपकार किया है, वह चिरस्मरणीय एवं स्थायी सिद्ध होगा, यह निविवाद है। इस महान परिश्रम के लिए प्रापको कोटिशः धन्यवाद ।
संस्कृत-प्राकृत-विशारद पण्डित,
श्री हेमचन्द्र जी महाराज, लुधियाना। ३. प्राकृत हो, संस्कृत हो, अपभ्रश हो, कोई भी भाषा हो जब तक वह जन बोली के रूप में रहती है, तब तक नदी की धारा की तरह बन्धन-मुक्त रहती है, जिधर धारा बह निकलती है व्याकरण के नियमों में ग्राबद्ध नहीं होती, इसी भाव को सन्त कबीर ने अपने शब्दों में अभिव्यक्ति दी थी कि......"संस्किरत है कूप जल, भाखा बहता नीर" परन्तु ज्योंही कोई बोली साहित्यिक भाषा का रूप लेती है तो वह धीरे-धीरे व्याकरण के नियमों में प्राबद्ध होती जाती है। फलतः उन्मुक्त गति से बहता नीर कूप-जल हो जाता है। प्राकृत भाषा मूलतः मानव की सहज प्राकृत बोली रही है। . *'व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो बचनध्यापारः प्रकृतिः । सनु भन मैत्र या प्राकृतम्'...-रुद्रटकत-काव्यालंकारटीकायो श्री नमिसाधुः ।
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प्रतः वह शतद्रु की तरह शत-शत धाराम्रों में प्रवहमान होती रही है। इसलिये उसमें शब्द रूपों की इतनी विश्व खलता है कि पाठक का कभी-कभी सिर चकरा जाता है। यह स्थिति उसकी साहित्यिक घरातल पर आने के पूर्व की स्थिति है । परन्तु ज्योंही उसने साहित्यिक रूप लेना शुरू किया, तो वह व्याकरण की सीमा में प्रतिबद्ध होने लगी। कोई भी साहित्यिक भाषा अपनी शुद्धता के लिये व्याकरण से अनपेक्षित नहीं रह सकती । यतः प्राकृत के व्याकरणों की भी अनेक रचनाएं यथासमय होने लगीं ।
प्राकृत भाषा के अनेक व्याकरण श्राज उपलब्ध हैं, जिनमें चण्ड, वररुचि, त्रिविक्रम देव, लक्ष्मीधर शुभचन्द्र, मार्कण्डेय एवं प्राचार्यहेमचन्द्र आदि के व्याकरण काफी ख्याति प्राप्त हैं । पक्षपात का प्रश्न नहीं है। यह एक यथार्थ सत्य है कि सभी प्राकृत व्याकरणों में हेमचन्द्राचार्य का प्राकृत व्याकरण गुणवत्ता की दृष्टि से ग्रपती एक विशिष्ट महता रखता है । तुलनात्मक समालोचना का यह प्रसंग नहीं है। फिर भी संक्षेप में इतना कथ्य अवश्य है कि प्रस्तुत व्याकरण में श्रार्ष प्राकृत से लेकर शौरसेनी, मागधी, पैशाची एवं प्रपभ्रंश तक की विभिन्न प्राकृत धारामों के लक्षणों का यथोचित सन्निवेश है। यह एक ही व्याकरण प्राकृत की अनेक शाखाओं के व्यापक अध्ययन के -लिये पर्याप्त है। यही कारण है कि प्रस्तुत व्याकरण प्राकृत के अनेक पाठ्यक्रमों में स्थान प्राप्त कर चुका है और भविष्य में प्राप्त करता जा रहा है।
प्राचार्य हेमचन्द्र विश्वतोमुखी पाण्डित्य की दृष्टि से वस्तुतः अपने “कलिकाल सर्वज्ञ" विरुद के अनुरूप हैं । काव्य, चरित्र, कोष, छन्द, अलंकार एवं व्याकरण यदि अनेक साहित्यिक विधाओं पत्य का दर्शन होता है। विशेषतः व्याकरण-शास्त्र के तो वे दूसरे पाणिनि हैं। 'सिंहासन' नामक व्याकरणग्रन्थ उनका सर्वागीण समर्थ व्याकरण है। पूर्व के सात श्रध्याय संस्कृत से सम्बन्धित हैं, और अंतिम आठवां अध्याय प्राकृत से यह प्राठवां अध्याय प्राकृतव्याकरण के नाम से विद्वज्जगत में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ का रूप ले चुका है।
प्रस्तुत प्राकृत व्याकरण के लिये त्रिकाल से एक विशद सुबोध एवं प्रामाणिक व्याख्या की अपेक्षा थी । इस दिशा में कुछ प्रयत्न हो भी चुके हैं। परन्तु महामहिम श्रद्धेय श्रुतदेवतावसार प्राचार्यदेव पूज्य श्री आत्मा राम जी महाराज के चित्र शिष्य पण्डित श्री ज्ञानमुनि जी ने जो प्रयत्न किया है, वह वस्तुतः एक विलक्षण प्रयत्न है। मुनि श्री ने संस्कृत में 'बालमनोरमा' टीका की रचना की है। जिसमें विस्तार के साथ मूल सूत्रों एवं उनकी स्वयं प्राचार्यकृत वृत्ति का मर्मोद्घाटन किया है। साथ ही उदाहरण स्वरूप दिये गये शब्द रूपों एवं धातु रूपों की rafter भी प्रस्तुत को गई है। जो व्याकरण के अध्येताओं के लिये प्रती उपयोगी प्रमाणित होगी। संस्कृत टीका की भाषा सरल है, स्पष्ट है, सुबोध है। साथ ही हिन्दी टीका लिखकर तो "हम सुगन्धः" की सद्बुक्ति को चरितार्थ कर दिखाया है । अन्त में परिशिष्ट के रूप में विस्तृत शब्दसूची है, संस्कृत पर्यायान्तर के साथ यह शब्दसूची विद्वान तथा छात्र दोनों के लिये प्रतीव लाभप्रद है । सब मिलाकर प्रस्तुत संस्करण अपना अलग ही एक आकर्षक रूप उपस्थित करना है।
श्री ज्ञानमुनि जी शतशः धन्यवादाहं हैं। कितना श्रम, समय, शक्ति एवं सरस्वती का उपयोग किया है उन्होंने प्रस्तुत सम्पादन में प्राकृत भाषा के अध्यापक और अध्येता एतदर्थं
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SARGESe
Sadivaladiemains
2005
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चिरऋणी रहेंगे मुनि श्री जी के । मैं हृदय से चाहंगा यह सट्टीका-संस्करण अधिकाधिक प्रसार एवं प्रचार पाये ताकि प्राकृत के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हो। श्रावणपूर्णिमा १९७५
राष्ट्रसन्त उपाध्याय, श्री अमरमुनि जी महाराज,
कोरायतन राजगृह (बिहार) ४. श्रुतज्ञान शब्द और अर्थ दोनों पर निर्भर है। लिखने पढ़ने और बोलने में शब्द को प्रधानता होती है, अर्थ को नहीं । वत्मिक शब्द को ही भाषा कहते हैं । शुद्ध भाषा से अर्थ का निर्णय होता है, अर्थ-निर्णय से सम्यग-ज्ञान, सम्यग-ज्ञान से दर्शन और चारित्र को शुद्धि होती है। तीनों की शुद्धि से परमपद्र की प्राप्ति निश्चित है । भाषाशुद्धि व्याकरण से होती है। व्याकरण का अर्थ है --जिन नियमों एवं उपनियमों के विधि-विधान से भाषा की शुद्धि हो, निर्दोषता हो । प्राचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धहैम व्याकरण की रचना की है। उमा पाकरण की पूर्ति पाठ अध्यायों में की है। प्रत्येक अध्याय में चार-पारमारे
र क पाकरण के सभी नियम बतलाए गए हैं। पाणिनि व्याकरको बातिका ष्टि प्रादि से पूर्ण किया गया, जब कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने व्याकरण के किसी भी नियम को प्रधूरा नहीं रहने दिया। प्रारवें अध्याय में प्राकृतभाषा के नियम बतलाए हैं । संस्कृत व्याकरण की जो नियः हैं, उनमें से वहत से नियम प्राकृत-भाषा में भी लागू होते हैं और कुछ एक नियम भिन्न भी हैं। लिङ्गानुशासन में जो शब्द पुल्लिग में हैं या स्त्रीलिङ्ग में हैं उन्हें प्राकृतभाषा में भी उसी प्रकार मामझ लेना होता है। किन्तु जो शब्द नपुसकलिङ्गी हैं उनमें कुछ ऐसे शब्द भी हैं जो पुल्लिग में भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं। प्राकृतभाषा
इस पार्यावर्त में जो भाषा प्रार्य लोगों को बोलचाल में आने वाली थी, जिस भाषा में भगवान महावीर ने अपने पवित्र सिद्धान्तों का उपदेश दिया था, जिस भाषा में श्रेष्ठकाव्य निर्माण द्वारा प्रब रसेन ग्रादि महाकवियों ने अपनी अनुपम एवं दिव्य प्रतिभा का परिचय दिया है, जिस भाषा से भारतवर्ष की विद्यमान समस्त प्रार्य भाषाओं की उत्पत्ति हुई उन सब भाषामों का साधारण नाम है-प्राकृत । सब भाषाओं का मूलस्रोत प्राकृतभाषा है। जो कि समय और स्थान की भिन्नता के कारण प्राकृत केही विभिन्न रूप हैं। जैसे कि अर्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची, महाराष्टीप्राकृत, अपभ्रंशप्राकृत, पाली, पार्षप्राकृत, प्राथमिकप्राकत, हिन्दीप्राकृत प्रादि । इन में जो प्राथमिकप्राकृत है वह येनकेन प्रकारेण सब भाषायों में व्यापक है । प्राकृतभाषा संस्कृत सापेक्ष तो है ही, देश्य भी है। प्राचार्य हेम चन्द्र ने प्राकृतभाषा को तीन भागों में विभक्त किया है। जैसे ---तत्सम, तद्भव और देश्य-देशी । जो शब्द संस्कृत और प्राकृत दोनों में बिल्कुल एक समान होते हैं वे तत्सम कहलाते हैं। जैसे कि खल, हल, बल, फल, धवल, प्रागम, अंजलि-गण प्रादि शब्द संस्कृत सम माने जाते हैं । जो भाब्द संस्कृत से वर्ण-परिवर्तन,वर्णागम, वर्णलोप आदि द्वारा उत्पन्न हुए हैं वे तद्भव कहलाते हैं । जैसे कि धर्म-धम्म, ध्यान झाणा, भार्या-भारिमा, नाथ-नाह, हृदय-हिमप्र, मेध-मेह. भवति-हवइ,भविष्यतिहोहि इत्यादि । जिन्द शब्दों की समानला संस्कृत के साथ बिल्कुल भी नहीं है, उन प्राकृत शब्दों को देश्य-वेभी कहते हैं। जैसे कि चुक्कइ (पश्यति), देवखाइ (पश्यति), डाल (शाखा), झडप्प (शीन),
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जद ( त्यक्त), बोंदों (शरीर), श्रमिश्र (विस्मृत) इत्यादि । श्राचार्य हेमचन्द्र ने स्वप्रणीत प्राकृत व्याकरण में तत्सम और तद्भव शब्दों का ही प्रयोग किया है। यद्यपि देश्य शब्दों के रूप भी दिए हैं। तथापि उनका विवरण एवं रूपसिद्धि का उल्लेख नहीं जैसा ही है। देशीनाम-माला कोष में बने बनाए शब्द मिलते हैं। यद्यपि प्राकृतव्याकरण श्रनेकों हो उपलब्ध हैं। जैसे कि वररुचि का प्राकृतप्रकाश, त्रिविक्रमदेव की ससूत्रा प्राकृतव्याकरणवृत्ति, मार्कण्डेय का प्राकृत सर्वस्य चण्डका प्राकृतलक्षण, क्रमदीश्वर का संक्षिप्नमार, सिद्धराज का प्राकृतरूपावतार, लक्ष्मीघर की षड्भाषा-चन्द्रिका, रामतवागीश का प्राकृत कल्पतरु है । तथापि आजतक के प्रकाशित सभी प्राकृत व्याकरणों से सर्वोतम श्रीर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हेमचन्द्र का प्राकृतव्याकरण है। सुबोध व्याकरण यदि कोई है तो वह सिद्ध हैमशब्दानुशासन ही है। इस पर स्वोपज्ञ लघुवृत्ति और वृहद वृत्ति भी उपलब्ध है।
आठवें अध्याय के पहले पाद में क्रमशः 'अ' से लेकर 'ह' तक संस्कृत से प्राकृत शब्द बनाने की सभी विधियां बतलाई गई हैं। संधि, लिङ्ग-परिवर्तन प्रादि का विवरण है। द्वितीय पाद में भ्रागम, आदेश एवं शेष विधि का ज्ञान कराया गया है। तृतीयपाद में प्राकृत भाषा के अन्तर्गत सुबन्तविभक्ति, तिङन्तविभक्ति और कारक आदि विषयों को स्पष्ट किया गया है। चतुर्थपाद में शौरसेनी,
- मागधी, पैशाची और अपभ्रंश इन चार भाषाओं के विशेष नियमों के संदर्भ में निर्देश किया गया है । प्राकृत भाषा में समराइच्चकहा, सुरसुंदरीचरियं आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। शौरसेनी भाषा में पट्खण्डागम, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार श्रादि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । दिगम्बर जैन साहित्य प्रायः शौरसेनी भाषा में प्राप्त होते हैं। महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में लीलावई पद्यात्मक ग्रन्थ भी उपलब्ध है । श्रर्धमागधी भाषा में पैंतालीस श्रागमशास्त्र निबद्ध हैं । गणधरों ने अर्धमागधी भाषा को ही सर्वोत्तम समझकर श्रागमशास्त्रों का प्रणयन किया है। शतावधानी श्री रत्नचन्द्र जी ने भी अर्धमाघी भाषा के सर्वापूर्ण व्याकरण की रचना की है। इस भाषा को ऋषिभाषिता भी कहते हैं और भाषें भी। ऋषियों के वचन प्रवचन जिस भाषा में संकलित किये गये हैं वह भार्ष मानी जाती है । श्राचार्य स्वयंभू ने राम चरित्र अपभ्रंश भाषा में लिखा है, उसका नाम "पउमचरिउ" है ।
पैशाची भाषा में व्यंजन अधिकांश वैसे ही बने रहते हैं। 'ण' बदलकर 'न' हो जाता है । प्रायः वर्ग के मध्यम वर्ण प्रथम वर के रूप बदल जाते हैं। जैसे- राजा का राचा, नगर का नकर प्रदेश का पतेश, देव का लेव । पिशाचों की भाषा को पैशाची भाषा बोलते हैं । अफगानिस्तान में यह भाषा बहुतायत से मिलती-जुलती है । किन्नौर प्रदेश में भी इस भाषा से मिलती-जुलती भाषा बोली जाती है ।
यह बड़े हर्ष की बात है कि प्राकृत भाषा के छात्र जिस सुबोध व्याकरण की चिरकाल से प्रतीक्षा में थे, माज वह उनके कर कमलों को प्रलंकृत कर रहा है। आचार्य हेमचन्द्रकृत प्राकृत व्याकरण पर संस्कृत भाषा में सरल एवं सुबोध बृहद् वृत्ति है और साथ ही जिस-जिस सूत्र से जो-जो कार्य होता है उस-उस सूत्र का संकेत करके रूपसिद्धि भी की हुई है। इतना ही नहीं, सूत्र और मूलवृत्ति का हिन्दी अनुवाद भी किया हुआ है, तथा साथ ही जिस रूप की सिद्धि की गई है उस का अर्थ भी हिन्दी भाषा में निर्दिष्ट है। इस के दो भाग हैं। पहला और दूसरा । पहले भाग में तीन पाद और दूसरे भाग में केवल चौथा पाद है। दोनों भागों में प्राकृत व्याकरण की इति श्री हो जाती है । यह व्याकरण
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REMEDIS
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विद्यार्थियों के लिए तथा भाषा-शास्त्रियों के लिए अत्युपयोगी है । इस के रचयिता जैन-भूषण साहित्यकार पण्डित-रत्न श्री ज्ञान मुनि जो हैं । पुस्तक का प्रकाशन, कागज, छपाई सब तरह सुन्दर है। युगानुकल मूल्य भी कोई अधिक नहीं है। पुस्तक पठनीय, रमणीय एवं संग्रहणीय है। इसमें एक उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि शब्द-शास्त्र में जिन शब्दों को रूप-सिद्धि की गई है, उन प्राकृतबाब्दों की प्रकार प्रादि अनुक्रमणिका भी अंत में पृष्ठाख सहित जोड़ दी है । इस प्रक्रिया ने विषय को और भी सुबोध बना दिया है।
पंजाब-प्रान्तीय उपाध्याय प्रवर्तक पण्डित-रस्न श्री कूलचन्द्र जी महाराज "श्रमण"
"प्राकृत-व्याकरणम्"
...: "प्राकृत-नयाकरणम्" यह अद्भुत, सभी सरह से पाई,
ध्याख्या है पांडित्य-पूर्ण तो, सुन्दर बड़ी छपाई।
अखिल विश्व में प्राकृत भी है, जानी-मानी भाषा, पढ़े इसे प्राकृत पढ़ने को, जिसको हो अभिलाषा ।
जिनको है पंजाब केसरी", कहता यह संसार, पण्डित जान मुनीश्वर इसके, सुलभं व्याख्याकार ।
[४] कर सकता है कोई ही श्रम, "चन्दन" इतना भारी । लेखक मुलि हैं सभी तरह से, साधुवाद अधिकारी।
____ कविरत्न, प्रख्यातसन्त, श्रद्धेय श्री पवनमुनि जी महाराज।
६. "प्राकृत-ध्याकरण" नामक पुस्तक देखने को मिली, यह ग्रंथ मौलिक ग्रंथ है । जैन-भूषण पंजाब केसरी श्री ज्ञान मुनि जी द्वारा सम्पादित एवं अनुवादित है। प्राकृतभाषा का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए यह एक बहुत उपयोगी ग्रंथ है । इस ग्रंथ को भाषा बड़ो सरल तथा साहित्यिक भी है। मान्य श्री ज्ञान मुनि जी का श्रम इसमें पूर्ण रूपेण निखरा हुमा है। मान्य श्री शाम मुनि जी सुलझे हुए विचारों के धनी एवं जैन-शास्त्रों के ज्ञाता भी हैं। वास्तव में जैसा नाम है-वैसा हो गुण है। इस ग्रन्थ में पापके ज्ञान की गंगा का प्रवाह पूर्ण-रूपेण प्रवाहित हुआ है। माप उदीयमान
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संत हैं। आपने जैन समाज को बहुत बड़ा साहित्य प्रदान किया है। आप अपने साहित्यिक क्षेत्र में । भिरंतर बढ़ते रहें, यही शुभ कामना है।
तरुणतपस्त्री प्रखरवक्ता, श्री स्वामी लाभ चन्द्र जी महाराज!
७. जैन-साहित्य का अधिकतर निर्माण प्राकृत भाषा में हुया है, परन्तु हिन्दी भाषा में प्याख्या-सहित अभी तक कोई अच्छा प्राकृत व्याकरण प्रकाशित नहीं हया था। प्राचार्य हेमचन्द्र की ने अपने सिद्ध है मशब्दानुशासन के पाठवें अध्याय के रूप में प्राकृत भाषा का व्याकरण प्रस्तुत किया था, वह भी सर्वसाधारण के लिये बोधगम्य न था, प्रतः प्राकृत व्याकरण का जैन साहित्य के क्षेत्र में नितान्त प्रभाव सा प्रतीत हो रहा था, इस प्रभाव को पूर्ण किया है.-प्रातः-स्मरणीय श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के शिष्य-रस्न पण्डित-प्रवर श्री ज्ञान मुनि जी महाराज ने संस्कृत एवं हिन्दी-टीका सहित इस प्रन्ध को प्रस्तुत करके । लगभग ४२० पृष्ठ के इस महान् ग्रन्थ के द्वारा सामान्य-बुद्धि व्यक्ति भी प्राकृत-भाषा का पूर्णज्ञान प्राप्त कर सकता है। अन्य के अन्त में दी गई। शब्दसूची द्रष्टव्य शब्द को देखने में अत्यन्त सुविधा प्रदान करती है । “प्राकृत-व्याकरणम्" पठनीय एवं संग्रहणीय महान ग्रन्थ है।
श्री तिलक वर जी शास्त्री,
सम्पादकआत्मरश्मि, जुलाई १९७५, लुधियाना
८. ग्रियर्सन जेकोबी श्रादि पाश्चात्य विद्वानों की तथा अनेक भारतीय विद्वानों की यह धारणा है कि संस्कृत भाषा से भी प्राकृत भाषा अधिक सरल, अधिक लचीली, श्रुति-मधुर और सीखने में सुविधाजनक है । संस्कल का विद्यार्थी तो बहुत हो ग्रासानी से सीख हो सकता है, किन्तु जो संस्कृत का अभ्यासी नहीं हैं, वह भी प्राकृत भाषा को संस्कल की अपेक्षा शीघ्र नहा कर सकता ... है। प्रश्न होता है कि फिर क्या कारण है कि संस्कन का जितना प्रचार-प्रसार है, उसे देखते हुए प्राकृत का प्रचार बहुत ही कम है। जबकि प्राकृत, अपभ्रंश और पालि भाषानों का साहित्य कम नहीं है। इसके अनेक कारणों में एक मुख्य कारण यह भी है कि प्राकल भाषा के व्याकरण बहुत कम सुलभ . हैं । चण्डकृत प्राकृत लक्षण, वररुचि कृत प्राकृत-प्रकाश को प्राचीन प्राकृत व्याकरण काफो महत्वपूर्ण हैं, किन्तु प्राचार्य हेमचन्द्र कृत सिद्ध हैम-शब्दानुशासन व्याकरण का माठवां अध्याय जो प्राकत व्याकरण के नाम से प्रसिद्ध है, वह सर्वाधिक समद्ध, सरल और बोधगम्य व्याकरण है। प्राकत के अधिकांश अभ्यासी इसी का अध्ययन करते हैं। यह व्याकरण संस्कृत माध्यम से प्राकत का ज्ञान कराता है । यद्यपि इसमें उदाहरण आदि बड़े ही बोधगम्य है, सूत्र भी छोटे और उच्चारण सुखद है।
प्राकत-व्याकरण का अध्ययन अब तक संस्कृत के माध्यम से ही किया जाता था। इसलिए बिना संस्कृत के प्राकृत का ज्ञान दुर्लभ था। इधर में कुछ प्राकृत-भाषा-विद्वानों ने ऐसा प्रयत्न किया है कि विद्यार्थी अपनी मातृ भाषा के माध्यम से था हिन्दी के माध्यम से सीधा प्राकृत का ज्ञान प्राप्त कर सकें-प्राकृत प्रचार के लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात भी है। इस दिशा में पं० रत्न बी ज्ञान
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मुनि जी का यह प्रयत्न अत्यन्त उपकारक सिद्ध होगा। मुनि श्री ने हेमचन्द्राचार्य के अष्टम अध्याय के सूत्र एवं वृत्ति पर प्रथम संस्कृत में बाल मनोरमा टीका लिखी है। इस संस्कृत टोका की भाषा
बड़ी सरल और व्याख्या-शैली बोधगम्य है । संस्कृत विद्यार्थी प्रध्यापक की सहायता के बिना भी काफी कुछ समझ सकता है। फिर आत्म-गुण- प्रकाशिका हिन्दी व्याख्या ने तो प्राकृत भाषा का ज्ञान द्वार ही उन्मुक्त कर दिया है। हिन्दी विवेचन पढ़ कर और मूल सूत्र कंठस्थ करके विद्यार्थी प्राकृत ज्ञान प्राप्त कर सकता है। एक प्रकार से प्राकृत की संस्कृत-बंधन से मुक्त कर स्वावलम्बी बना दिया है। प्राकृत भाषा के ग्रव्ययन एवं प्रचार को दृष्टि से यह एक ऐतिहासिक प्रयत्न हुग्रा है। निश्चित ही व्याख्याकार श्री ज्ञान मुनि जी ने अथक श्रम किया है। उनका दीर्घकालीन अध्यवसाय और श्रम प्राकृत प्रचार को प्रोत्साहित करेगा, ऐसा विश्वास किया जा सकता है ।
पुस्तक की छपाई, साफ शुद्ध है । जिल्द एवं प्लास्टिक कवरयुक्त पुस्तक का मूल्य भी उपयुक्त है। संस्कृत एवं प्राकृत विद्यार्थियों तथा पुस्तकालयों के लिए पुस्तक तुरन्त संग्रह करने योग्य है । भारत सरकार के शिक्षा विभाग को भी इस प्राकृत व्याकरण को राष्ट्र भाषा व्याख्या प्रस्तुत करने के कारण प्रोत्साहित और पुरस्कृत करना चाहिए ।
श्री चन्द्र जी सुराणा, 'अमर भारती' यागरा अगस्त १९७५
९. कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के 'सिद्ध हैमश्वानुशासन' नामक व्याकरण ग्रंथ का यह एक अध्याय है जिसमें प्राकृत भाषा के व्याकरण-सम्मत नियमोपनियमों का उल्लेख किया गया है । साहित्य-संसार में प्राज यही एक अध्याय प्राकृत व्याकरण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रस्तुत व्याकरण में कुल मिलाकर ६७१ सूत्र हैं, जिनकी संस्कृत तथा हिन्दो व्याख्या श्री ज्ञानमुनि जी ने लिखी है।
यारम्भ में डा० ऐल० एम० जोशी तथा प्रोफेसर ए० एन० सिन्हा की संयुक्त प्रस्तावना है, जिसमें उन्होंने विस्तारपूर्वक विभिन्न प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति, विकास, महत्ता एवं उत्तर कालीन देशी भाषाओं पर पारम्परिक प्रभाव का इतिहास दिया है।
प्राचार्य हेमचन्द्र ने तथा मार्कण्डेय, वनिक प्रादि ने भी “प्रकृतिः संस्कृतम्” के द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि संस्कृत ही प्राकृत भाषाओं को प्रकृति है। संस्कृत ही प्राकृत भाषाम का उद्गम स्रोत है। प्राकृत भाषाओं के विषय में इन दिनों जो वैज्ञानिक अनुसन्धान कार्य हुए हैं, उनको देखते हुए यह प्रस्थापना पुरानी पड़ गई है। संस्कृत के अनुसरण पर व्याकरण बन जाने से और व्याकरण के नियमों में कस जाने से प्राकृत को संस्कृत की प्रकृति मान लिया गया और उसे एक साहित्यिक रूप भी मिल गया। लेकिन वस्तुतः प्राकृत लोक व्याहार की प्रवाह-शील भाषा रही है और जनपद की बोलियों में तथा वर्तमान भाषाओं में इसके रूपों का दर्शन किया जा सकता है, इस दृष्टि से विद्वानद्वय की प्रस्तावना बड़ी उपयोगी है।
अन्त में पाया शीर्षक के अन्तर्गत सूची दी गई है, जिनके संस्कृत रूप भी htoos में सामने दे दिए गए हैं।
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इस प्राकृत-व्याकरण के आधार पर प्राकृत भाषा सीखने में विद्यार्थियों को पर्याप्त सुविधा प्राप्त होगी, इसमें सन्देह नहीं ।
सम्पादक :श्रमण, वाराणसी, अगस्त १९७५ ।
१०. श्री ज्ञान मुनि जी म० स्थानकवासी संतों में अग्रणी हैं । ज्ञान, तप, चारित्र और त्याग की साक्षात् प्रतिमा हैं । मुनि जीने लगभग २५ ग्रन्थों की रचना की है। इनकी सभी र बनायें इनके ज्ञान तथा पाण्डिल्य और सामग्री मनोभावनामों की प्रतीक हैं। हाल ही में आचार्य हेम चन्द्र की रचना "सिध हैमशब्दानुशासन के प्राठवें अध्याय के तीन पादों की संस्कल हिन्दी व्याख्या---'प्राकृत व्याकरणम्' भाग पहला प्रकाशित कर महाराज श्री ने हिन्दी जगत तथा प्राकृत भाषा-प्रेमियों पर महान् उपकार किया है। सरल, सुबोध तथा पठनीय यह टीका हिन्दी साहित्य को प्रमूल्य निधि है। प्राचार्य हेमचन्द्र जी की मूल रचना-हैमब्दानुशासन (जिसे मिद्ध-हैमशब्दानुशासन भी कहते हैं) माठ अध्यायों में विभक्त है । प्रारम्भ के सात अध्यायों में संस्कृत भाषा के व्याकरपा की विवेचना है और पाठवें में प्राक त व्याकरण की 'तद्भव शब्दों का अनुशासन तथा प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के विशेषतः अभिग्रामों सम्बन्धी परिवर्तनों का मुव्यवस्थित नियमांकम ही इस अध्याय का लक्ष्य जान पड़ता है।
प्राचार्य हेमादा के पूर्व तथा पश्चात प्राकत भाषा के व्याकरणचार्यों की लम्बी परम्परा मिलती है। वैसे तो प्रथम ज्याकरणों में चण्ण का नाम सबसे पहले लिया जाता है, फिर भी इनसे पहले भी प्राकल व्याकरण का उल्लेख मिलता है। अपने काटयशास्त्र में भरतमुनि ने- प्राकृत शब्द रचना के कुछ नियमों की चर्चा की है। चण्डकत पाकृत लक्षण' में करीब सौ सूत्र हैं, जिन्हें चार पादों में विभक्त किया गया है। पत्रात वररूचि ने 'प्राप्त प्रकाश' व्याकरण की रचना की है। बारह परिच्छेदों के इस ग्रन्थ में नौ अध्याय महाराष्ट, प्राकृत के शब्दों के रूप-विधानों में व्याख्या के लिए दिए गए हैं। शेष लीन में क्रमश: पैशाची (दसवें), मागधी ग्यारहवें) और शौरसेनी (बारहवें) प्राकृतों के शब्दों के लक्षणों को निरूपित किया गया है। 'प्राकत प्रकाश' पर भामह, कासायन,बसन्तराज तथा सदानन्द की उपलब्धटीक ग्रन्थ की लोकप्रियता प्रकट करती है।
वररूमि के बाद प्राचार्य ममन्द्र ने 'सिध-हैमानशासन' व्याकरण की रचना की। रचना के समकक्ष की कोई व्याकरण पुस्तक प्राकृत व्याकरण पर अब तक नहीं लिखी गई। इस से ही इस ग्रन्थ की उपयोगिता तथा महत्ता का प्रभाव मिलता है। जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है। मूल ग्रन्थ के पाठवें अध्याय में ही प्राकृमच्याकरण की विवेचना है। इस अध्याय के चार पाद हैं। प्राकृत व्याकरणम् (भाग पहला) में इस अध्याय के प्रथम तीन पादों की अविकल संस्कृत तथा । हिन्दी में टीका है, दूसरे भाग में चौथे पाद की टीका मुनि जी ने प्रस्तुत की है, जो मुद्रणाधीन है।
प्रथम भाग के प्रथम पाद में...-टीकाकार ने क्रमशः संधि, व्यजनान्त शमद, लिङ्ग, विसर्ग, अनुस्वार तथा स्वर श्रीन व्यंजन-व्यत्यय प्रादि की टीका संस्कृत--पश्चात हिन्दी में प्रस्तुत की है । दुसरे पाद में-वनि प्राम-सम्बन्धी परिवर्तनों की विवेचना-सहित, निपात तथा अव्ययों की विवेचनास्वरूप टीकायें प्रस्तुत हैं। यह पाद भाषा-विज्ञान के छात्रों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। तीसरे पाद में कारक, विभक्ति, किया प्रादि के नियमों-उपनियमों के निर्देशों को टीकाएं हैं। प्रतीत होता है
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कि प्राचार्य हेम चन्द्र ने इस अध्याय की रचना तीन उद्देश्यों--प्राकृत भाषा के स्वरूप, विकास और व्याकरण सम्बन्धी नियमों की व्याख्या के लिए की थी। प्रस्तुत टीका युगानुकूल होने के कारण मूलमन्थ से भी अधिक उपयोगी जान पड़ती है।
४६९ पृष्ठों को इस टीका में ... व्यवहृत शब्दों को तालिका अन्त में देकर इसे अधिक मूल्यवान बना दिया गया है। उत्तम कागज़, सुन्दर मुद्रण, आकर्षक मुख्य पृष्ठ आदि से इस ग्रन्य की महत्ता में चार चान्द लग गए हैं। आचार्य श्री वात्माराम जैन मॉडल स्कूल, २६-डी, कमला मगर, बिल्ली-७ ने इसे प्रकाशित किया है।
प्राकृत भाषा की उच्च कक्षा के छात्रों तथा शोधकर्तामों के लिए प्रस्तुत टीका अत्यन्त उपयोगी है। तुलनात्मक अध्ययनार्थी; भाषाविद्, इतिहासकार प्राधि भाभी इससे लाभ उठायेंगे । प्राकृत भाषा के छात्रों के लिए ग्रन्थ वरदान सिद्ध होगा। "२५ वी महावीर निर्याण शताब्दी" के उपलक्ष्य में ऐसी महान कृतियों का प्रकाशन हिन्दी साहित्य के इतिहास में सक्षिरों में अंकित होगा तथा सदा स्मरण किया जाएगा।
डा. वृजबिहारी तिवारी, जागति (लोक सम्पर्क विभाग, पंजाब सरकार द्वारा प्रकाशित)
चंडीगढ़, नवंबर १९७५ ।
Our country has the distinguished honour of producing men of great
intelligence whose valuable writings have il fumined the thousands of persons, In course of time. In academic circles the name of Acharya Shri Hem Chanderji Maharaj is remembered with great respect for his unique composition 'Prakrit Vyakarn' in Prakrit language some 800-years back.
It is a matter of great pride and satisfaction that Shri Shri 1008 Shri Gian Muniji Maharaj after arduous labour for over 20 years has translated this book in Sanskrit and Hindi for the benefit of a large number of students. I am glade to know that the work is being
given the shape of a book shortly. I hope, this book will gain popularlty in the academic field and more and more scholars will derive benefit of it.
Hans Raj Sharma, Ex-Minister for Finance, Planning, Local Govt. & Labour, Punjab,
Chandigarh.
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अपनी बात
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प्राकृत शब्द का अर्थ---
प्राकृत-व्याकरण इस शब्द में प्राकृत और व्याकरण ये दो पद हैं। प्राकृत शब्द का अर्थ हैएक प्राचीन स्वतंत्र भाषा,जिस का प्रयोग जैन साहित्य में तथा संस्कृत के नाटकों एवं मन्यान्य ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। व्याकरण उस शास्त्र का नाम है जिस के द्वारा भाषा के शब्दों, उनके रूपों
और प्रयोगों प्रादि का ज्ञान उपलब्ध किया जाता है। प्राकृत भाषा का व्याकरण प्राकृत व्याकरण कहलाता है।
प्राकृत शब्द को लेकर अनेकों अर्थ-विचारणाएं उपलब्ध होती हैं। उन में से कुछ एक निवेदन करता हूं :
१-प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् (हेमचन्द्र-कृत प्राकृत-ध्याकरण ८1१1१), २-~-प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवं प्राकृतमुच्यते (प्राकृतिसर्वस्व ११), ३. प्रकृतिः संस्कृतं तन्न भवत्वात प्राकृतं स्मृतम् (प्राकृत-चन्द्रिका), ४... प्राकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता (षड़ भाषा-चन्द्रिका पृष्ठ ४), ५--प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृत योनिः (वासुदेवकृत कर्पूरमंजरीसंजीवनी टोका ५।२) ।
प्राकृत शब्द की इन सब व्युत्पत्तियों का जब गंभीरता से परिशीलन करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृत शब्द प्रकृति शब्द से निष्पन्न हुपा है और प्रकृति का अर्थ है...संस्कृत भाषा । इस अर्थ-विचारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत भाषा प्राकृत भाषा की जननी है । अर्थात् संस्कृत भाषा से उत्पन्न होने वाली भाषा प्राकृत भाषा कहलाती है।
प्राकृत शब्द का जो अर्थ ऊपर की पंक्तियों में संसूचित किया गया है । यह अर्थ कोषकारों के मत में प्रामागिका नहीं माना जाता । क्योंकि प्राकृति शब्द का किसी भी कोषकार ने 'संस्कृत भाषा' यह अर्थ नहीं लिखा है। कोषकार तो प्रकृति शब्द को मुख्यतया स्वभाव अथवा जनसाधारण इस अर्थ का अभियाजक स्वीकार करते हैं। इसीलिए प्राकृत शब्द का उनके मन में अर्थ होता है -प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध प्राक्तम् । अथवा प्रकृतीनां साधारण-जनानामिदं प्राकृतम् । अर्थात्-.--जी भाषा प्रकृति (स्वभाव) से सिद्ध-निष्पन्न हो वह प्राकृत भाषा कहलाती है। प्राचीन युग में प्राकृत भाषा जनजीवन की मातृभाषा थी, अतः स्वाभाविक या अकृत्रिम मानो जाती थी। संस्कृतभाषा व्याकरण की संस्कार-रूप कृत्रिमता (बनावटीपन) से परिपूर्ण होने के कारण कृत्रिम या अस्वाभाविक स्वीकार की गई है, किन्तु प्राकृतभाषा की ऐसी स्थिति नहीं थी, जन-जीवन को यह स्वभाव से सम्प्राप्त होती है इसलिए इसे स्वाभाविक कहा गया है। अथवा प्रकृति-जनसाधारण (साधारण-अपठित जन-जीवन) की भाषा प्राकृत भाषा कहलाती है। क्या बालक क्या बालिका, क्या युबक क्या युवती, क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी प्राकृतभाषा का उपयोग करते हैं। किसी पाठशाला में शिक्षण प्राप्त किए बिना ही इसे बोलते हैं, अत: इसे जन-साधारण की भाषा कहा गया है। इस प्राकत भाषा से ही संस्कृत मादि भस्य भाषाओं की उत्पत्ति होती है, इस सत्य को भाषा-तत्व के सिद्धान्त भो सहर्ष स्वीकार
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करते हैं । कारण स्पष्ट है। अपठित वर्ग या जनसाधारण किसी साहित्यिक भाषा का न तो स्वयं प्रयोग करता है, और नाँहीं उसे समझ सकता है । श्रसः जनसाधारण के व्यवहार को सम्पन्न करने वाली जो कथ्य भाषा ( बोलचाल की भाषा) होती है, वह पाहित्य की परिमार्जित भाषा से सर्वथा स्वतंत्र पर अलग भाषा होती है। शिक्षित या पठित लोग भी व्यवहार जगत में जनसाधारण से वार्तालाप करते हैं तो वे उसी कथ्य भाषा का ही प्रयोग करते हैं। वेदों के समय में भी ऐसी कथ्य भाषा प्रबलित थी । जिस समय लौकिक संस्कृतभाषा चल रही थी, उस समय भी जनसाधारण में कथ्य भाषा पाई जाती थी | नाटक-जगत इस सत्य का पूर्णतया पोषण करता है । नाटक-शास्त्रों के परिज्ञाता विद्वान जानते ही हैं कि वहां पर संस्कृत भाषा के साथ-साथ कथ्य भाषा बोलने वाले पात्र भी दृष्टिगोचर होते हैं । यह कथ्य भाषा प्राकृत भाषा हो यो । श्रतः यही माना शास्त्रीय और तर्क-संगत है कि सर्व भाषाओं की जननी प्राकृतभाषा है। प्राकृत भाषा ने संस्कृत भाषा को जन्म दिया है। आज कल के भाषा-तस्वज्ञों ने इसी मान्यता का समर्थन किया है। भारत के प्राचीन भाषातत्वज्ञों में भी इसी सिद्धान्त काका जाता है अलंकार में एक श्लोक starrer में ख्रिस्त की ग्यारहवीं शताब्दी के एक जैन विद्वान मुनिवर श्री नमिलिखते हैं
" सकल जन घ्याकरणाविभिरना हितसंस्कारः सहज वचनव्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सेव वा प्राकृतम् । 'आरिस वय सिद्ध देवाखं अनुभागही वाणी' इत्यादिवचना वा प्राक् पूर्वं कुतं प्राक्कतं बाल महिलादि-सुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते, मेघनिर्मु - जलमिवैकस्वरूपं तदेव च. देशविशेषात् संस्कार करणापत्र समासाक्तिविशेषं सत् संस्कृतानु तर विभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता: प्राकृतमा निविष्टं तदतु संस्कृतादीनि । पाणिन्या दिव्याकरणोदितशब्वलक्षणेन संस्करणाद संस्कृतमुध्यते । अर्थात् प्रकृति शब्द का अर्थ है- लोगों का व्याकरण श्रादि के संस्कारों से रहित स्वाभाविक वचनव्यापार उससे उत्पन्न अथवा वही वचनव्यापार प्राकृत कहलाता है । अथवा 'प्राक्-कृत' पर से प्राकृत शब्द बना है । 'आक्कृत' का अर्थ है-पहले किया गया। बारह अङ्गग्रन्थों में प्यारह ग्रन्थ पहले कथन किए गए हैं और इन ग्रन्थों को भाषा आर्ष वचन में (सूत्र में) अर्धnist कही गई है* | यह अर्ध मागधी भाषा बालक तथा महिला आदि को सुबोध (सहजगभ्य) है और यह भाषा सकल भाषाओं का मूलस्रोत मानी जाती है। यही अर्धमागधी भाषा प्राकृत कहो जाती है। यही प्राकृत मेघ से विनिर्मुक्त जल की तरह पहले एक रूप में होने पर भी, देश-भेद से और संस्कार करने से भिन्नता को प्राप्त करता हुआ संस्कृत भादि भवान्तर विभेदों में परिणत हो गया है। अर्थात- अर्धमागधी प्राकृत भाषा से संस्कृत भाषा तथा अन्यान्य भाषाओं की उत्पत्ति हो पाई है। इसीलिए मूलग्रन्थकार (रुद्रट) ने प्राकृत भाषा का पहले और संस्कृत आदि भाषाओं का बाद में निर्देश किया है। पाणिनि आदि व्याकरणों में बताए हुए नियमों के अनुसार संस्कार पाने के कारण प्राकृतभाषा संस्कृत भाषा कही जाने लगी है।
एक प्रश्न का समाधान ---
ऊपर की पंक्तियों में जो बताया गया है, उसका सारांश यही है कि संस्कृतभाषा प्राकृत भाषा *बारहवाँ अङ्ग-ग्रन्थ दृष्टिवाद है, इस में चौदह पूर्व (प्रकरण ) थे। यह अङ्ग-ग्रन्थ संस्कृतभाषा में था। यह प्राकल उपलब्ध नहीं है।
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का मूल (प्रकृति नहीं है। संस्कृत भाषा को प्राकृत भाषा का उद्गम स्थान कहना व समझना सर्वथा भान्त है, असत्य है। ऐसी स्थिति में एक प्रश्न पैदा होना है कि यदि संस्कृतभाषा प्राकृतभाषा का मुलस्रोत नहीं है तो फिर प्राचार्य थी हेम बन्द्र आदि विद्वानों ने “प्रकृति संस्कृतम्" यह कह कर प्राकृतभाषा की उत्पत्ति संस्कृतभाषा से क्यों स्वीकार की है ? उत्तर में निवेदन है कि "प्रकृतिः संस्कृतम्" इन पदों द्वारा संस्कृतभाषा को प्राकृत भाषा की जो उत्पादिका कहा गया है, इस का कारण संस्कृतभाषा को आधार मान कर प्राकृत भाषा के शब्दों की रचना करना ही समझना चाहिये। वस्त-स्थिति यह है कि प्राकंत-व्याकरण के सभी निर्माताओं ने अपने व्याकरण ग्रन्थों का भाषा संस्कृत करती है. इसीलिए उन्होंने संस्कृत-शब्दों को प्राधार मानकर अथवा प्रकृति मानकर प्राकृतभाषा के विधिविधान का निरूपण किया है। ऐसा करने से संस्कृतभाषा की अपेक्षा प्राकृत भाषा में जो-जो विचित्रताएं उपलब्ध होती हैं वे सुविधापूर्वक समझी जा सकती है तथा प्राकृत भाषा का संस्कृत शब्दों के साथ जो-जो साम्य या वैषम्य सम्प्राप्त होता है, वह भी स्पष्टरूपेण अवगत किया जा सकता है। इसी प्राशय को लेकर प्राचार्य श्री हेमचन्द्र प्रादि विद्वानों ने "प्रकृतिः संस्कृतम्" इन शब्दों का प्रयोग किया है, न कि इस प्राशय को लेकर कि प्राकृतभाषा की उत्पत्ति संस्कृतभाषा से होती है।
हैमशब्दानुशासन व्याकरण पाठ अध्यायों में विभक्त है । आदि के सात अध्यायों में प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने संस्कभाषाकं विधि-विधान का निरूपण किया है तथा अन्तिम अष्टमाध्याय में प्राकृत भाषा की रूपरेखा उपन्यस्त की है। संस्कृत और प्राकृत इन दोनों भाषानों के विद्यार्थी यह भली भांति जानते हैं कि इन दोनों भाषामों के विधिविधानों में अनेकों समानताएं पाई जाती है। प्रतः प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने सर्वप्रथम सात अध्यायों में संस्कृत भाषा का वर्णन कर दिया है, तदनन्तर प्राकृत-भाषा-सम्बन्धी जो अन्तर था उसका अष्टमाध्याय में उल्लेख कर दिया है। यदि स्वतंत्र रूप से प्राकृत भाषा के समस्त विधि-विधान का निरूपण किया जाता तो उन को बहुत बड़ा विशाल-काय प्रन्थ तैयार करना पड़ता। अतः लाघव को ध्यान में रखकर प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने संस्कृत और प्राकृत इन दोनों भाषाओं में जो पार्थक्य है उस को अपने ढंग से संसूचित कर दिया है। क्योंकि सर्वप्रथम संस्कृत-भाषा का निरूपण किया गया था. तत्पश्चात प्राकृत भाषा का. of प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने संस्कृतभाषा को प्राकृतभाषा की प्रकृति {मूलस्रोत) स्वीकार कर लिया है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं लेना चाहिये कि संस्कृतभाषा प्राकृतभाषा की जननी है। संभव है, यदि याचार्य श्री हेमचन्द्र पहले सात अध्यायों में प्राकृत भाषा के विधि-विधान का निर्देश कर देते मोर तदनन्तर वे संस्कृतभाषा का निर्देश करते तो उस समय वे "प्रकृतिः संस्कृतम्" इन पदों का उल्लेख न करके "प्रकृतिः प्राकृतम्" ऐसा ही उल्लेख करते । साम्प्रदायिकता का विष
इस के अतिरिक्त, कुछ लोग साम्प्रदायिकता-जन्य द्वेष से इतने अधिक द्वेषी बने हुए दष्टिगोचर होते हैं कि कुछ कहते नहीं बनता । वे यह कहते भी सकुचाते नहीं है कि प्राकृतभाषा तो मूखों की भाषा है और संस्कृतभाषा विद्वानों की । वस्तुतः ऐसी ऊलजलूल बात करने वाले स्वयं मूह और गंभीरता से शून्य प्रतीत होते हैं । वस्तुतः भाषा कोई भी हो, जब तक वह जन-साधारण
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की भाषा रहती है, तब तक उसका व्याकरण के नियमों से प्राबद्ध या संस्कृत होना आवश्यक नहीं होता । उस समय तो वह कन्यभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा के रूप में हो प्रचलित रहती है। इसके विपरीत जब बही भाषा व्याकरण के नियमों से परिष्कृत कर दी जाती है ! तब उस का रूप कुछ मोर ही हो जाता है। यह नियम सभी भाषायों पर लागू होता है । संस्कृतभाषा जब जनसाधारण की कथ्य भाषा रही है तो उस समय उसका रूप भी व्याकरण के नियमों से परिमार्जित संस्कृतभाषा से सर्वथा पृथक था । संस्कृत भाषा का लौकिक और अलौकिक (वैदिक संस्कृत) यह द्वैविध्य रूप भी इसी तथ्य को परिपुष्ट कर रहा है। अतः किसी भाषा को मूखों की भाषा कहना और किसी भाषा को विद्वानों की भाषा बतलाना सर्वथा असंगत है, और अपनी बुद्धिहीनता को अभिव्यक्त करना है। सभी भाषाएं अपने-अपने युग में सम्मानित रही हैं, और सभी भाषाओं में जनजीवन के निर्माण, उत्थान एवं प्रभ्युत्थान के लिए कुछ-न-कुछ सामग्री मानद समाज को अवश्य प्रदान की है। अतः अपेक्षाकृत सभी भाषाएं प्राव रास्पद हैं। प्राकृतध्याकरण का द्वितीय खण्ड
प्राचार्य श्री हेमचन्द्र द्वारा विनिर्मित हैमशब्दानुशासन नामक व्याकरण पाठ अध्यायों में विभस है । पहले सात अध्यायों में संस्कृतभाषा के विधिविधान का निरूपण कर रखा है और प्राइवेअध्याय में प्राकृतभाषा का । हैमशब्दानुशासन के पाठवें अध्याय को ही प्राकृत-व्याकरण के नाम से पुकारा जाता है। प्राकृत-ध्याकरण में चार अध्याय हैं। इन चार अध्यायों को हमने दो खण्डों में विभक्त किया है। प्रथम स्खण्ड में प्रादि के तीन पादों का व्याख्यान किया गया है। द्वितीय खण्ड में केवल चतुर्थ पाद का विवेचन है। प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राकृत-व्याकरण का द्वितीय खण्ड ही उपन्यस्त किया गया है। इस स्खण्ड में दो टीकाएं प्रस्तुत की गई हैं। एक संस्कृतभाषा में है, दूसरी हिन्दीभाषा में । संस्कृत-टीका का नाम बाल मनोरमा रखा गया है जबकि हिन्दी-टीका नाम प्रात्मगुण-प्रकाशिका है। संस्कृत-टीका में प्राकृतभाषा के शब्दों को साधनिका प्रस्तुत की गई है। जैसे----- धर्मः यह शब्द संस्कत-भाषा का है. इस शब्द का प्राकत-भाषा में धम्मो यह रूप बनता है। प्राकृतव्याकरण के किस-किस सूत्र द्वारा धम्मो इस रूप की निस्पति होती है ? इसे किस तरह बनाया जाता है ? यह सब कुछ संस्कृत-टीका में प्रदर्शित किया गया है । मूलसूत्र तथा मुल सूत्र के कठिन स्थलों का एवं सूत्रोक्त शब्दों का भावार्थ हिन्दी-टोका में लिखा गया है।
प्राकृत-व्याकरण सटीक श्रमण भगवान महावीर की २५ वीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष्य में प्रकाशित किया गया है। इसका प्रथम खण्ड दो वर्ष हुए पाठकों की सेवा में समर्पित किया जा चुका है। प्राकृत भाषा के प्रचारक, प्रसारक एवं मनीषी विद्वानों ने इस प्रकाशन को कितना प्रादर एवं सम्मान प्रदान किया है, तथा मासिक पत्रिकाओं में समालोचक महानुभावों ने इस के सम्बन्ध में क्या-क्या अभिप्राय प्रदर्शित किया है ? उसका प्रस्तुत ग्रन्थ में ही अन्यत्र "पूज्य मुनिराजों तथा विद्वानों की वृष्टि में, प्राकृत व्याकरण (प्रथम खण्ड)" इस शीर्षक द्वारा उल्लेख किया जा रहा है।
- प्राकृत-ध्याकरण की टीका लिखने का क्या कारण रहा है ? इस सम्बन्ध में प्रथम खण्ड में निवेदन किया जा चुका है। प्राकृत-व्याकरण का द्वितीय खण्ड शीघ्राति-शीघ्र पाठकों के करकमलों में पहुंचा दिया जाए ? यह प्रबल भावना थी, किन्तु इस भावना को शीघ्र जो साकार रूप नहीं दिया जा सका, इसका सर्वाधिक कारण प्रेस वालों की व्यस्तता की अधिकता ही मानता हूं। जिस प्रेस में
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प्राकृत व्याकरण का मुद्रण हो रहा है, बहुत बड़ा प्रेस होने पर भी उस में इतनी अधिक व्यस्तता दृष्टिगोचर होती है कि इस समय भी द्वितीय खण्ड का प्रकाशित होना कठिन प्रतीत हो रहा था । तथापि यह सब कुछ जो हो गया है, यह भी प्रेस के मालिक श्री ऐस० एल० भाटिया जी का ही औदा समझता हूँ |
कृतज्ञता प्रदर्शन ......
प्राकृत व्याकरण की संस्कृत-टोका तथा हिन्दी टीका लिखने में मूलरूप में सर्वाधिक श्रेय तो मेरे जीवन के निर्माता, हृदय सम्राट्, जैनधर्मदिवाकर पूज्यपाद, वन्दनीय प्राचार्यसम्राट् गुरुदेव पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज को ही दिया जा सकता है। क्योंकि उन्हीं के प्रदेश तथा मङ्गलमय | मैं यह पूज्य गुरुदेव आशीर्वाद से ही प्राकृत व्याकरण का यह विशाल विवेचन लिखा जा सका काही पुण्य प्रताप मानता हूं कि “श्रेयांसि बहुविघ्नानि" के सिद्धान्त के प्रभाव से मैं सर्वथा प्रता रहा। अतः सर्वप्रथम मैं जैनागमों के अद्वितीय विद्वान, चारित्रचूडामणि पूज्य गुरुदेव का हृदय से आभारी हूं । तदनन्तर अपने बड़े गुरुभाई श्रद्धेय पण्डित श्री हेमचन्द्र जी महाराज का भी प्राभारी हूं, जिनके समय-समय पर दिए गए सहयोग के कारण मैं बालमनोरमा संस्कृत टीका को परिमार्जित एवं परिवर्धित करने में सफल हो पाया हूँ ।
प्राकृत व्याकरण के चारों पादों के आरम्भ में तथा अन्त में जितने भी लोक दिए गए हैं, उनमें से कुछ एक श्लोकों को छोड़कर शेष समस्त श्लोक मेरे स्नेही मुनि आदरणीय पण्डित श्री राम प्रसाद जी के लिखे हुए हैं। मुनि श्री व्याख्यानवाचस्पति श्रद्धये श्री स्वामी भवन लाल जी महाराज के शिष्य- रत्न हैं। में इनको अपने छोटे भाई की भाँति मानता हूं । संस्कृत भाषा तथा प्रागमग्रन्थों की इनको इतनी अधिक जानकारी है कि कुछ कहते नहीं बनता। ये एक सुलझे हुए विद्वान एवं विचारक सन्त हैं । अपने छोटे भाई के इस सहयोग का भी धन्यवादी हूँ ।
प्राकृत व्याकरण के प्रथम खण्ड पर प्राचार्य प्रवर पूज्य श्री प्रानन्द ऋषि जी महाराज पण्डितप्रवर श्री हेमचन्द्र जी महाराज, उपाध्याय कविरत्न श्री अमर मुनि जी महाराज, उपाध्याय पण्डिल श्री फूलचन्द्र जी महाराज भ्रमण प्रादि पूज्य मुनिराजों तथा ग्रन्य विद्वानों ने अपने श्रभिमत प्रेषित करके मुझे जो प्रोत्साहित किया है, उसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूं, श्राभारी हूं । प्राकृत व्याकरण के प्रकाशन की सब व्यवस्था हमारे प्रिय श्रावक श्री सुखदेवराज जी जैन मोहरों वाले, अम्बाला शहर वाले कर रहे हैं । इन्होंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में अपनी सभी शक्तियों का प्रयोग किया है, वह भी निष्काम भावना से । यदि संक्षेप में अपनी बात कह दूं तो -श्री सुखदेवराज जी का भक्तिपूर्ण मधुर सहयोग ही प्राकृत व्याकरण की रचना को साकार रूप प्रदान कर सका है। प्राकृत व्याकरण के प्रकाशन के निमित्त जिन दानी सज्जनों एवं उदार बहिनों ने सहयोग दिया है, उनका भी धन्यवादी हूं। मेरी लिखी पंक्तियों को प्रेस के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाने का मूल ग्राधार तो दानी सज्जनों का सहयोगही मानता हूं। मैं इन उदार महानुभावों का भी धन्यवादी हूं। प्रकाशक संस्था की ओर से भी इन दानी सज्जनों का नाम निर्देश-पूर्वक धन्यवाद इसी ग्रन्थ में अन्यत्र किया जा रहा है ।
प्राकृत व्याकरण के द्वितीय खण्ड के अन्त में परिशिष्ट के रूप में प्राकृत भाषा का जो धातुपाठ दिया गया है, यह भावनगर से प्रकाशित प्राकृत-व्याकरण (प्रष्टसाध्याय सूत्रपाठ ) से साभार
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उद्धृत किया गया है ! मैं इस ग्रन्थ को प्रकाशिका संस्था का भी धन्यवादी हूं! धातुपाठ के अनन्तर प्राकृत-व्याकरण की सूसूची भी दी गई हैं। इस सूसूची को तैयार करने में आचार्य श्री प्रात्माराम अन मिडिल स्कूल, अन्ना (लुधियाना) की मुख्य अध्यापिका बहिन रक्षादेयो शर्मा तथा अध्यापिका कुमारी शंना देवी का सर्वाधिक परिश्रम रहा है । कुमारी दर्शना ने तो इस सूत्रसूत्री के तैयार करने में अपने प्रन्य मावश्यक कार्यों की ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया। मेरी "प्राकृत-व्याकरण की अकारादिक्रम से सूत्रसूची अवश्य तैयार होनी चाहिए" इस कामना को मूर्त रूप देने में इस देवी-युगल ने सहयोग देकर जी स्नेहातिरेक दिखलाया है, उसके लिए हृदय से धन्यवादी हूँ। बितीत प्रार्थना--
इस सत्य से मुझे इनकार नहीं है कि मैं कोई विद्वान या लेखक नहीं हूं। तथापि जो कुछ लिखा गया है, यह प्राकृत-भाषा के विद्यार्थी का एक साधारण अभ्यास या प्रयास ही समझना चाहिए। प्रत: "गायत: स्खलनं क्वापि" के अनुसार स्खलना का हो जाना स्वाभाविक ही है । इसलिए पाठकों से सप्रेम एवं साग्रह प्रार्थना करूंगा कि जहां पर भी उन्हें कोई स्खलना दृष्टिगोचर हो, उसका सुधार करलें और उसकी सूचना इस सेवक को देने की उदारता अवश्य करें ताकि अग्रिम संस्करण में उस स्खलना का परिहार किया जा सके । धन्यवाद ।
जनस्थानक, पटियाला
19-2-1977
प्रार्थी-- जानमुनि
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अथ धात्वादेशविधि: ( क )
अथ धात्वादेश विधिः ( स्व )
अथ धात्वादेशविधिः ( ग )
अथ कर्मभाव ( भावकर्म) प्रकररणम्
अथ निपात-प्रकरणम्
अथ धातूनामनेकार्थता
अथ शौरसेनी भाषाप्रकर
कहां क्या है ?
श्रथ अपभ्रंशभाषा-प्रकरणम् ( श्रथ स्वरविधिः )
६८
अथ मागधी भाषाप्रकरणम्
१०५
श्रथ पैशाची भाषाप्रकरणम्
१५७
er लिका-पैशाची भाषाप्रकरणम् १४०
अथ पुल्लिङ्गीय-स्थादिविधि: ar स्त्रीलिङ्गीय- स्यादिविधि: अथ नपुंसकलिङ्गीय-स्यादिविधिः अथ सर्वादिशब्दानां विधिः
प्रथमादि-विधिः
er धात्वादेशविधिः
२४
५१
७४
८२
८४
-
१४७
१५५
१७६
अथ काfeosजनानां गायादेशविधिः २५८
areena-शब्द सम्बन्धी प्रदेशविषिः
or farmarsafaध:
अथ प्रत्ययविधिः
er sareशविधिः
ser frङ्गप्रकरणम्
प्रथ शौरसेनी - भाषा - समानविधिः यस्य विधिः
wr संस्कृत भाषा - समान विधिः
अथ ग्रन्थकृत् प्रशस्तिः
गुर्वावली विषये किचिदैतिह्यम्
प्राकृत धातूनामनुक्रमणिका अकारादिक्रमेण प्राकृत-व्याकरणस्य
१८६
सूत्रसूची
१९२ प्राकृतव्याकरणस्य चतुर्थपादस्य शब्दसूची
२३१
२४५
२६६
३३५
३३८
३६६
३७४
३७८
३८०
३८२
३८७
३६२
३६.४
४००
४११
शुद्धिपत्रम्
पृष्ठ ७४ पर प्रथ कर्मभावप्रकरणम्" के स्थान पर "प्रथ भावकर्मप्रकरणम्" ऐसा होना चाहिए पृष्ठ १८३ पर तुच्छकम् (दुच्छउ ) इस शब्द की प्रक्रिया में १०२५ सूत्र से अकार को ढं यह आदेश होता है, १०५२ सूत्र से उच्चारण लाघव करके १०१५ सूत्र से सिप्रत्यय का लोप होता है। ऐसा समझना चाहिए ।
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* चतुर्थः पादः *
* अहम्
__ *धास्वादेश-विधिः [क] * ६७२-इवितो या।।४।१। सूत्रे ये इदितो धातवो वक्ष्यन्ते तेषां ये प्रादेशास्ते विकल्पेन भवन्तोति वेदितव्यम् । तत्रैव चोदाहरिष्यते ।
६७३-कथेवज्जर-पज्जरोप्पाल-पिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः।८।४।२। कथेर्धातोर्वज्जरादयो दशादेशा बा भवन्ति । वज्जरइ, पज्जरइ, उप्पालइ, पिसुगइ, संघइ, to बोल्लइ, चवई, जम्बइ, सोसइ, साह। उब्बुक्कइ इति तूत्पूर्वस्य बुक्क भाषणे इत्यस्य । पक्षे । कहइ । एते चान्यदेशीषु पठिता अपि अस्माभिर्धात्वादेशीकृता विविधेषु प्रत्ययेषु प्रतिष्ठन्तामिति । तथा च बजरिमो, कथितः । वज्जरिऊण, कथयित्वा । वज्जरण, कथनम् । वज्जरन्तो, कथयन् । वरिपब्वं, कथयितव्यमिति रूपमइस्राणि सिध्यन्ति । संस्कृतधातुवच्च प्रत्यय-लोपागमादिविधिः ।
६७४---दुःखे णिश्वरः।।४।३। दुःख विषयस्य कथेरिणबर इत्यादेशो वा भवति । रिपब्बर । दुःखं कथयतीत्यर्थः ।
६७५-जुगुप्सेझुण-दुगुग्छ-दुगुञ्छाः । ८ । ४ । ४ । जुगुप्सेरेते त्रय प्रादेशा वा भवन्ति । झुगइ, दुगुच्छ, दुगुञ्छइ । पक्षे । जुगुच्छह । गलोपे । दुउच्छइ, दुउञ्छई, जुउच्छई।।
६७६--बुभुक्षि-वीज्योर्णीरव-बोज्जो । ८ । ४।५ । बुभुक्षेराचारविवबन्तस्य च बोजेयया संख्यमेतावादेशौ वा भवतः । गोरवइ, बुहुक्खाई। वोज्जइ, बीजइ ।
६७७--ध्या-गो-गौ। ८ । ४।६। अनयोर्यथासंख्यं झा, गा इत्यादेशी भवतः । झाइ, झापा । गिज्झाइ । निपूर्वो दर्शनार्थः । गाई, गायझारणं । मारणं ।
६७८-जो जाण-मुणौ । ८ । ४ । ७ । जानाते औरण, मुरण इत्यादेशौ भवतः । जागाइ, मुगइ । बहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः । जाणि, रणायं । जारिणऊरण, पाऊण । जारगणं, गाणं । मण इ इति तु मन्यतेः ।।
६७६-उदो ध्मो धुमा।८।४।८ । उदः परस्य ध्मो धातोधु मा इत्यादेशो भवति । उखुमाई।
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* प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपाद: ६८०-श्रयो धो देह ।।३।६। श्रदः परस्य वधासदह इत्यादेशो भवति । सहहइ । सद्दहमाणो जीवो।
६८१-पिवे. पिज्ज-इल्ल-पट्ट-घोट्टाः।। ४ । १० । पिबतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । पिज्जइ, डल्लइ, पट्टइ, घोट्टइ, पिग्रह।
६८२-उद्वातेरोरुम्मा वसुना।८।४।११। उत्पूर्वस्य वातेः प्रोरुम्मा, बसुना इत्येतायादेशो वा भवतः । भोरुम्माइ, वसुभाइ, उब्वाइ।
६८३-निद्रातेरोहोरोङ्घनै । ८।४।१२। निपूर्वस्य दातेः ओहीर, उस इत्यादेशो वा भवतः । प्रोहीरइ, उङ्घई, निदाइ ।
६८४-प्रा राइग्यः । ८ । ४ । १३। आजिघ्रतेराइन्ध इत्यादेशो वा भवति । प्राइग्धइ, प्रधाइ।
६८५-स्नातेरभुत्तः।८।४।१४ । स्नातेरब्भुत्त इत्यादेशो या भवति । प्रभुत्तइ,
६८६ समः स्त्यः खाः । । ४ । १५ । संपूर्वस्य स्त्यायतेः खा इत्यादेशो भवति । संखाइ, संखायं ।
६८७--स्थष्ठा-थक्क-चिट्ठ-निरप्पाः । ८। ४ । १६ । तिष्ठतेरेते चत्वार प्रादेशा भवन्ति । ठाइ, ठाअइ । ठाणं । पदियो। उदिनो । पट्टाविप्रो। उहाविनो। यत्रका । चिट्ठइ, चिट्ठिऊण । निरप्पा । बहुलाधिकारात् क्वचिन्न भवति । थिय। थारणं । पत्यिो । उत्थिो । थाऊरण ।
६८८-उदष्ठ-कुक्कुरौ।। ४ । १७। उदः परस्य तिष्ठते: ट, कुक्कुर इत्यादेशो भवतः । उदइ, उक्कुक्कुर । ... ६८६-म्लेर्वा पवायौ। ८ । ४ । १८ । म्लायतेर्वा, पब्वाय इत्यादेशौ वा भवतः । वाई, पब्वायइ, मिला।
६६०-निर्मो निम्माण-निम्मयौ ।। ४ । १६ । निपूर्वस्य मिमीतेरेतावादेशी भवतः । निम्माराइ, निम्मवई।
६९१-क्षेणिझरो वा ।। ४ । २० 1 क्षयतेरिणज्झर इत्यादेशो वा भवति । गिझरइ । पक्षे झिज्ज।
६६२-छवेणुम-नूम-सम्नुम-ढक्कोम्वाल-पल्यालाः । ८।४।२१ । छदेण्यन्तस्य एते षडादेशा वा भवन्ति । रामइ, नमइ, गत्वे रामइ, सन्नुम इ,ढवकइ,प्रोम्बालइ,पव्वालइ,छायइ ।
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चतुर्थ पादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * ६६३-निविपत्योणिहोडः। । ४ । २२। निवृगः पतेश्च ण्यन्तस्य सिहोड इत्यादेशो वा भवति । णिहोडइ । पक्षे। निवारेइ । पाडेइ।
६६४-दूको दूमः । ८।४।२३ । दूको ण्यन्तस्य दूम इत्यादेशो भवति । दुमेह मज्झ हिप्रयं ।
६६५-धवले?मः । ८ । ४ । २४ । धवलयतेय॑न्तस्य दुमादेशो वा भवति । दुमइ, धवलइ । स्वराणां स्वरा: (बहुलम)[४.२३८] इति दीर्घत्वमपि । दूमियं । धवलितमित्यर्थः ।
६६६-तुलेरोहामः । ८ । ४ । २५ । तुलेयन्सस्य मोहाम इत्यादेशो वा भवति । मोहामइ, तुलई।
६६७-विरिचेरोलुण्डोल्लुण्ड-पल्हत्थाः । ८।४।२६ । विरचयतेय॑न्तस्य प्रोलुण्डा. दयस्त्रय प्रादेशा वा भवन्ति । अोलुण्डइ, उल्लुण्डाइ, पल्हत्थइ, विरेअई।
६६८-तडेराहोड-विहोडौं। ८ । ४ । २७ । तडेय॑न्तस्य एतावादेशी वा भवतः । आहोडइ, विहोडइ । पक्षे । ताइ ।
६६६-मिश्रेर्वीसाल-मेलवो। ८ । ४ । २८ । मिश्रयतेय॑न्तस्य वीसाल,मेलव इत्यादेशी या भवतः । वीसालाइ, मेलवइ, दि ..... .: ::::::::::::::::::
७००-उद्ध लेणुण्ठः । ८ । ४ । २६ । उद्धलेय॑न्तस्य गुण्ठ इत्यादेशो वा भवति । गुण्ठइ । पक्षे । उद्धले।।
___७०१--भ्रमेस्तालिप्रण्ट-तमाडौ। ८।४। ३० । भ्रमयतेर्ण्यन्तस्य तालिमण्ट, तमाड इत्यादेशो वा भवतः । तालि प्रण्टइ, तमाङइ, भामेइ, भमाडेइ, भमावेइ ।
७०२-नशेविउड-नासव-हारक-विप्पगाल-पलावाः । ८।४ । ३१ । नशेयंन्तस्य एते पञ्चादेशा वा भवन्ति । विजय, नासवइ, हारवइ, विप्पगालइ, पलावइ । पक्षे, नासइ।
७०३---दृशेव-दस-दक्खयाः।। ४ । ३२ । दृशेष्यन्तस्य एते त्रय प्रादेशा वा भवन्ति । दावइ', दसइ, दक्खवइ, दरिसइ ।
७०४-उद्घटेरुग्गः । ८ । ४ । ३३ । उत्पूर्वस्य घटेय॑न्तस्य उग्ग इत्यादेशो वा भवति । उग्गइ, उग्घाट।
७०५-स्पृहः सिहः ।।४। ३४ । स्पृहो ण्यन्तस्य सिह इत्यादेशो भवति । सिहइ।
७०६-संभावेरासङ्घः ८ । ४ । ३५ । संभावयतेरासङ्घ इत्यादेशो वा भवति । प्रासइ, संभावइ ।
७०७-उन्नमेरुत्थंघोल्लाल-गुलुगुञ्छोप्पेलाः । ८ । ४ । ३६ । उत्पूर्वस्य नमेय॑न्तस्य
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः एते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । उत्थइ, उल्लाल इ, गुलुगुच्छइ, उप्पेल इ, उन्नामइ।
७०८-प्र स्थापेः पट्टव-पेण्डवौ।।४। ३७ । प्रपूर्वस्य तिष्ठलेर्यन्तस्य पट्टव पेण्डव इत्यादेशौ वा भवतः। पटुवइ, पेण्डवइ, पट्टावा।
७०६--विज्ञपेर्वोक्काबुक्की । ८ । ४।३८ । विपूर्वस्य जानालेय॑न्तस्य वोक्क,अबुक्क इत्यादेशौ वा भवतः । बोक्कइ, अधुक्काइ, विण्णवइ ।
७१०-अपरल्लिव-चच्चष्प-प्रणामाः । ८ । ४ । ३६ । अर्यन्तस्य एते श्रय प्रादेशा वा भवन्ति । अल्लित नसत पणाम ! परे अप्पेड़।
७११-यापेर्जवः । ८।४। ४०। यातेय॑न्तस्य जव इत्यादेशो वा भवति । जवइ, जावें।
७१२--प्लावेरोम्बाल-पव्वालौ। ८ । ४ । ४१ । प्लवतेय॑न्तस्य एतावादेशी वा भवतः । प्रोम्बालइ, पब्वालइ, पावेइ ।
७१३--विकोशेः पक्खोडः । ८।४ । ४२ । विकोशयते मधातोर्यन्तस्य पक्खोड इत्यादेशो वा भवति । पक्खोडइ, विकासाइ ।
७१४--रोमन्थेरोग्गाल-बगोलौ। ८।४।४३ । रोमन्थेनभिधातोर्यन्तस्य एताबादेशी वा भवतः । प्रोग्गालइ, वग्गोलइ, रोमन्थाइ ।
७१५-कमेणिहवः । ८।४।४४ । कमेः स्वार्थण्यन्तस्य रिणव इत्यादेशो वा भवति । रिणहुवइ, कामेष्ट्र ।
७१६-प्राकाशेर्णवः । ८ । ४ । ४५ । प्रकाशेर्ण्यन्तस्य गुन्द इत्यादेशो वा भवति । गुब्बाइ, पयासेइ।
७१७-कम्पेविच्छोलः । ८।४ । ४६ । कम्पेय॑न्तस्य विच्छोल इत्यादेशो वा भवति । विज्छोलाई, कम्पेछ ।
७१८-प्रारोपेवलः । ८।४।४७ । प्रारहेण्यन्तस्य वल इत्यादेशो वा भवति । बलइ, पारोवेइ ।
७१.... दोले रजोलः ।।४। ४८ । दुले: स्वार्थे ण्यन्तस्य रोल इत्यादेशो वा भवति । रलोलइ, दोलइ ।
७२० रजे रावः । ८ । ४ । ४६ । रजेय॑न्तस्य राव इत्यदेशो वा भवति । रावेह, रजेइ ।
७२१-घः परिवाडः । ८ । ४ । ५० । घटेपर्यन्तस्य परिवाड इत्यादेशो वा भवति ।
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तुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
.. ५ परिवाडे इ, घद्धेई।
७२२.---वेष्टः परिपालः । ८ । ४ । ५१ । वेष्टेयन्तस्य परिपाल इत्यादेशो वा भवति । परिपालेइ, वेढेई।
७२३-क्रियः किणो वेस्तु के च । ८ ! ४ । ५२ । रणेरिति निवृत्तम् । क्रोणाते: किरण इत्यादेशो भवति । वेः परस्य तु द्विरुक्तः केः, चकारात् किरणश्च भवति । किरणइ, दि. के इ, विकिकरण।
७२४-भियो भा-बीहौ । ८ । ४ । ५३ । बिभेतेरेताबादेशौ भवतः। भाइ । भाइय। बोहाइ । बी हिमं । बहुलाधिकारात्, भीग्रो।
७२५---प्रालीङोल्ली।८।४ । ५४ । पालोयतेः अल्ली इत्यादेशो भवति । अल्लीअइ, अल्लोपो।
७२६--निलीड णिली-णिलुक्क-णिरिग्घ-लुषक-लिवक-ल्हिक्काः । ८।४ । ५५ । निलीङः एते षडादेशा वा भवन्ति । णिलीप्राइ, णिलुक्कइ, गिरिग्ध, लुक्कइ, लिक्का, लिहक्कइ, निलिज्जई।
७२७-विली.विरा।८।४। ५६ । विलीविरा इत्यादेशो वा भवति । विराइ, विलिज्जई।
७२८-स्ते रुज-रुण्टो । ८ । ४ । ५७ । रौतेरेताबादेशो वा भवतः । रुजइ, हण्टइ, रवई।
७२६----श्रुटेहणः । ८ । ४ । ५८ । शृणोतेर्हण इत्यादेशो वा भवति । हाइ, सुरणइ । ७३०--धूगेर्बुधः । ८ । ४ । ५६ । धुनातेधुव इत्यादेशो वा भवति । धुव है, धुणइ ।
७३१-भुवे:-हुव-हवाः । ८।४ । ६० । भुवो धातो:, हुव, हव इत्येते प्रादेशा दा भवन्ति । होइ । होन्ति । हबइ। हुवन्ति ! पक्षे, भवह। परिहीण-बिहवो । भविजं । पभवम् । परिभवइ । संभवई । क्वचिदन्यदपि, उन्भुप्रइ । भत्तं ।
७३२-अविति हुः । ८ । ४ । ६१ । विद्वर्जे प्रत्यये भुवो हु इत्यादेशो वा भवति । हुन्ति । भवन । हुन्तो । अवितीति किम् ? होह।
७३३-पृथक्-पष्ट णिध्वः । ८ । ४॥ ६२ । पुथगभूते स्पष्टं च कर्तरि भुवो णिवड़ इत्यादेशो भवति । णिबडई । पृथक् स्पष्टो वा भवतीत्यर्थः ।
७३४-प्रभौ हुप्पो वा । ८१४ । ६३ । प्रभुक्तुं कस्य भुवो हुप्प इत्यादेशो वा भवति। प्रभुत्वं च प्रपूर्वस्पैवार्थः । प्रङ्ग चित्र न पहुप्पइ । पक्षे, पभवेइ।
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थ पादः ७३५--क्ते है।।४१६४ भुवः क्तप्रत्यये इरादेशो भवति । हुग्रं । अगुहूअं । परमं । ७३६--कृगे कुणः । ८।४ । ६५ । कृगः कुरण इत्यादेशो वा भवति । कुणाइ, करइ ।
७३७-काणेक्षिते णिप्रारः। ८।४। ६६ । कारणेक्षित-विषयस्य कृगो रिणवार इत्यादेशो वा भवति । गिमारइ, कारणेक्षितं करोति ।
७३८-निष्टम्भावष्टम्मे णिठह-संदाणं । ८।४।६७ । निष्टम्भविषयस्यावष्टम्भविषयस्य च कृगो यथासंख्य रिगट्ठह, सदाग इत्यादेशौ वा भवतः । गिठ्ठहई, निष्टम्भ करोति । संदाराइ, अबष्टम्भं करोति ।
७३६-श्रमे वावस्फः । ८ । ४ । ६८ । श्रमविषयस्य कृगो वायम्फ इत्यादेशो वा भवति । वावम्फइ, श्रमं करोति ।
__७४०-मन्युनौष्ठमालिन्ये णिवोलः। ८।४। ६६ । मन्युना कररणेन यदोष्ठमालिन्य तद्विषयस्य कृगो रिणवोल इत्यादेशो वा भवति । रिणवोलइ, मन्युना पोष्ठं मलिनं करोति ।
७४१-शैथिल्य-लम्बने पयल्लः। ८ । ४ । ७० । शैथिल्यविषयस्य लम्बनविषयस्य च कृगः पयल्ल इत्यादेशो वा भवति । पयल्लइ शिथिली भवति लम्बते था।
७४२-निष्पाताच्छोटे णीलुग्छः । । । ४ ! ७१। निष्पतनविषयस्य पाच्छोटनविषयस्य च कृगो णीलुञ्छ इत्यादेशो वा भवति।णीलुञ्छ, निष्पतति, आच्छोटयति वा ।
७४३--क्षुरे कम्मः ।।४।७२। क्षुरविषयस्य कृगः कम्म इत्यादेशो वा भवति । कम्मइ। क्षुरं करोतीत्यर्थः । __ ७४४-चाटौ गुललः । ८ । ४ । ७३ । चाटुविषयस्य कृगो गुलल इत्यादेशो वा भवति । गुललई, चाटु करोतीत्यर्थः ।
७४५---स्मरेझर-झर-मर-मल-लढ-विम्हर-सुमर-पयर-पम्हहाः । ८ । ४ । ७४ । स्मरेरेते नवादेशा वा भवन्ति । झरइ, झूरइ, भरइ, भलई, लढई, विम्हरइ, सुमरई, पपरई, पम्ह इ, सरई।
__ * अथ चतुर्थः पादः *
*अज्ञान-हन्ता भवतारकश्च, यः कृत्स्न-कर्म-क्षय-कारकश्च । *मनान-नाशकः, भवात-चतुर्गतिरूप-संसारात सर्कस्तारकः, तथा च यः कृत्स्नकर्मणामशेषकर्मणां क्षयर, निर्वाणप्राप्तोऽपि तमसः परस्तात् नतु दीपवत् निर्वाणं गतस्तमसा परिवारयितु शाः; स वर्षमानः, मम प्रापदामापनस्य विघ्नोपधाताय शरणमस्तु रक्षिता भवतु । अशेषान-निखिलान बारवादेशान संश्य कस्य धातोः प्राकृते क मादेशः? इति दर्शयित्वा पभाषाः प्राकृल-भेवाः प्रध्यस्मिन् पादे विवेचनप्राप्ताः सन्ति, तपस्य-पूर्वोक्त-प्रयोजनस्य चतुर्थचरणस्येयंबोलमनोरमाटीका सश्यते । प्रत्र उपजातिछन्।
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Pre-
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चतुर्थ पादः
* संस्कृत-हिन्दो-टोकाद्वयोपेतम् ★ निर्वाणमाप्तोऽपि तमः परस्तात्, स वर्धमानः शरणं ममास्तु ॥१॥ संवयं धात्वादेशानशेषान्, भाषाः षडयन्त्र विवेचनीयाः ।
चतुर्थपावस्य तदर्थकस्य, प्रारभ्यते बालमनोरमेयम् ॥२॥ __ अहमिति । निविधन-समास्तिकामो मङ्गलमाचरेत्" इति सिद्धान्तमाश्रित्य वृत्ति कारेण अहम इति पदेन मङ्गलमाचरितम् । अहमितिपदं परमेष्ठिनः (परमपदे स्थितस्य) परमेश्वरस्य वाचकम्, मङ्गलार्थ शास्त्रस्य, तदध्यायस्थ तत्पादस्य वादी प्रयुज्यते ।
* अथ धास्वादेशाविधिः [क]* कथ्यादिधातूनां स्थाने वज्जरादय ये मादेशा भवन्ति, तान्निरूपयत्याचार्य:---
६७२-इवितो वा । येषां धातनामिकार इत्संज्ञको भवति, तेषां धातुनो स्थाने ये धादेशा भवन्ति ते सर्वे नै कल्पिका एव बोध्याः। तेषामुदाहरणानि तव तत्तत्सूत्रेषु दास्यन्ते ।
६७३--कथयति । कथि(क)कथने । कथ् +तिच् । इत्यत्र ६७३ सू० कथिधातोः वज्जर,पज्जर इत्यादय प्रादेला विकल्पेन भवन्ति, ६२८ सू० तिवः इचादेशे बज्जरइ पाबरइ वप्पालइ पिसुण संघह बोल्लइ चवइ जम्पइ सोसइ साह इति भवति । उबुक्का इति । उब्बुक्कई इति तु उदुपसर्गपूर्वस्थ बुक्क भाषणे इतिधातोः रूपं विद्यते । यथा-उबुक्क+ति । इत्यत्र ३४८ सू० दकारलोफे,३६० सू०बकारद्वित्वे, ११० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, पूर्ववदेव उम्बाइ इति सिद्धम् । पर्छ। बज्जरादयादेशाभावपक्ष कथ+ तिव, इत्यत्र १८७ सू० थकारस्य हकारे, अकारस्य मागमे, पूर्ववदेव कहा इति भवति । एते धान्यदेशीषु । केचिदाचार्याः देशीषु-मागधीपैशाचीमहाराष्ट्रीप्रभूतिभाषासु बज्ज़राक्ष्य प्रादेशा देश्ययत्वेन पठन्ति । विभिन्न भाषासु बज्जरादीनां प्रयोगः सुतरा दृश्यते, अत्तस्तेषां मते वजराद्यादेशविधानं पर्थ भवति । उत्तरयति वृत्तिकारो यद् वज्जरादय प्रादेशास्तत्तदेयासु भाषास, तु पठिताः सन्ति परन्तु न तु केबलं कथिधातोः स्थाने विहिताः सन्ति, अस्माभिस्तु केवलं कपिथातोरेय स्थाने एते प्रादेशरूपेण भगिताः । इयमेव पूर्वाचार्याणां मतेस्माकं मते च भिन्नता शेया। अपि च, ते प्राचार्यास्तु तत्तदेशासु भाषास्वेद वज्जसदीनामादेशानां ग्रहणं कुर्वन्ति, तेन तत्तदेश्यासु भाषासु बज्जरादीनां प्रयोगसंकोचः, तेषामन्यापकता च भवति, परं वयं विविधेषु प्रत्ययेषु परेष्वपि कथिधातोः स्थाने बज्जराधादेशविधानमिच्छामः, सेनास्माकं मते वज्जराधादेशानां प्रयोगध्यापकता संजायते । यथाकथितः । कथ्+क्त- कथेः वज्जरादेशे,६४५ सू० अकारस्य स्थाने इकारे,१७७ सु० लकारलोपे, सिप्रत्यये, ४११ सू० से?:, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलेपि बजरिओ इति भवति । कयित्वा । कथ- मत्वा
बज्जर+क्त्वा । ६४६ सू० प्रकारस्य इकारे, ४१७ सू० क्त्व: तूण इत्यादेशे, तकारलोपे अरिअण इति भवति । कथनम् । कथ् + ल्युट-अन-बज्जर--अन । १० सू० स्वरस्य लोपे, अजीने परेण संयोज्ये, तिप्रत्यये, २२८ सु० नकारस्य कारे, ५१४ सू० सेमंकारे, २३ सु० मकारानुस्वारे वज्जरणं इति भवति । कथयन् । कथ + शतृ दज्जर-शत् । ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे, शिप्रत्यये, पूर्ववदेव बज्जरन्तो इति भवति । कवितव्यम् । कथ् +तव्यत् -- बजर+तव्य । ६४६ सू० कारस्य इकारे, १७७ सूतकारलोपे, ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० बकारद्वित्वे, सिप्रत्यये, पूर्ववदेव वज्जन रिवं इति भवति । अनया रोत्या सहस्राणि रूपाणि सिध्यन्ति । संस्कृतधातुबश्च । प्रत्ययागमलोपादेः विधिः-कार्य संस्कृतघासुतुल्यं बोध्यम् ।
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः ६७४ --कथयति । कथ्+तिव । ६७४ सू० कथेः स्थान विकल्पेन णिधर इत्यादेशे, ६२८ सू० स्थाने तिबः स्थाने इचादेशे णिव्यर इति भवति । दुःस्त्रं भणतीत्यर्थः ।
६७५-जुगुप्सति । गुपू रक्षरणे । गो-नुमिच्छतीति । सुन्नन्तत्याद् जुगुप्स् +लिव् इति जाते, ६७५ सू० जुगुप्तः स्थाने विकल्पेन भुग, दुगुच्छ दुगुञ्छ इत्यादेशाः, ६२८ सू० लिव: स्थाने इचादेशे---- भुगइ, दुगुसका युगुल १७७ सु० गकारलोपे-दुउच्छह बुउछइ प्रादेशाभावपक्षे-२९२ सू० सस्य छकारे, ३६० सू० छकारद्विस्त्रे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्थ चकारे जुगुभाइ इति भवति।।
६७६-बुभुक्षति । भोक्तुमिच्छतीति । भुज भोजे। सम्मन्नत्वात् संस्कृतवदेव बुभुक्ष तिव इति जाते, ६७६ सू० बुभुक्षेः स्थाने वैकल्पिके णीरव इत्यादेशे,६२८ सू० लिव: स्याने इचादेशे गोरबह आदेशाभावे बुभुक्ष् + इ इति स्थिते, १८७ सू० भकारस्य हकारे, २७४ सु० क्षस्य खकारे, ३६० सू० खकारहित्त्वे, ३६१ सू० पूर्व खकारस्य ककारे, ९१० सूः धातोरन्ले कारागमे बुखाइ इति भवति। वीजयति । वायु करोतीति वीजयति । अथवा वीजा पवनकारकः पदार्थः तदिवाचरतीति वीजयति । वीज+तिन् । इत्यत्र ६७६ सू० बोधातोः स्थाने वैकल्पिके वोज्ज इत्यादेशे, पूर्ववदेव तिवः इचादेशे
वोजाइ मादेशाभावे पूर्ववदेव बीजद इति भवति । .. ६७७-मामात । यो बिन्तमा यति । इत्यत्र ६७७ सू० ध्यैधातोः झा इत्यादेदो,६२८ सू०
तिवः इचादेशे, ९११ सू० विकल्पेन प्रकारागमे भाइ झाइ निपूर्वकस्म ध्य बातोः २२९ स० नकारस्य णकारे, ३६० सू० झकारद्वित्वे, ३६१ पूर्वकारस्प जकारे णिज्झापड गिझाइ इति भवति । निपूर्वकध्यधातुः दर्शनार्थको विद्यते । गायति । मै गाने । मै+तिन् । प्रस्तुतसूत्रेण गैधालोः स्थाने गा इत्यादेश, वैकल्पिके कारागमे, १५० सू० यकारश्रुती, पूर्ववेव गाया गाई इति भवति। ध्यानम् । ध्ये+अनन भा+मन, सन्धौ भान इति जाते, २२८ सू० नकारस्थ कारे, सिप्रत्यये, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मवारानुस्वारे झारणं इति भवति । गानम् । गै शब्दे । गै+अन! सिप्रत्यये गान +सि, इति जाते २२८ सु० नकारस्य प्रकारे, पूर्ववदेव गारणं इति भवति ।
६७. जानाति । शा अवबोधने। ज्ञा+ति । ६७८ सु० ज्ञाधातोः स्थाने जाण,मुण इत्यादेश, ६२८ सू० तिवः इचादेशे जाण मुणा इति भवति । बहुलाधिकारान् । बलस्थ अधिकारात क्वचित्कस्मिंश्चित्स्थले प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिः वैकल्पिका जायते। यथा... जालम् । शा+क्त-न । प्रस्तुलसूत्रेय विकरूऐन ज्ञाधातोः जाण इत्यादेशे, ६४५ सू प्रकारस्म इकारे, सिप्रत्यये, १७७ सू० तकारलोपे, ५१४ स. सेभकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे जाणिनं प्रादेशाभावे ज्ञा-अं इति स्थिते, ३१३ सू० शस्य
कारे, १५० सू० यकारभुतौ णायं इति भयति । ज्ञात्वा । ज्ञा+वा। पूर्वत्रदेव जाण+क्त्वा इति जाते, ६४६ स० अकारस्थ इकारे, ४१७ सू० क्त्व: स्थाने तूण इत्यादेशे, १७७ सू० त कारखोपे जाणिकए ग्रादेशाभावे ३१३ सू० ज्ञस्य णकारे जाऊण इति भवति । ज्ञानम् । ज्ञानयनटःजाण+अन । १० सू० स्वरस्य लोपे, सिप्रत्यये, सेर्मकारे, मकारानुस्वारे जाणणं आदेशाभावे ज्ञान अणं इत्यत्र ज्ञस्य पाकारे, दीर्घ-सन्धौ णाएवं इति भवति । मण इति तु । मणइ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण न किमपि कार्य जातम् । साधना स्वित्थम-ममुहे । मन् प्रवबोधने । मन्+तिन् । २२८ ० नकारस्थ कारे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, ६२८ सू० तिव इचादेशे मपाइ इति भवति ।
६७६-उक्षमति । उद्धमा उच्चैः शस्त्रादि-बादने । उद्ध्मा+तिम् । ३४८ सू दकारलोपे, ६७९ सू० मा इत्यस्य घुमा इत्यादेशे, ३६० सू० धकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वधकारस्य दकारे, ६२८
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अपनी मुरी+
★ संस्कृत-हिन्दी टीकाद्वयोपेतम् ★
૨.
चतुर्थपादः
सू० तिव इचादेशे उधुमाइ इति भवति ।
६८० श्रधति । श्रद्धा धातुः श्रद्धाने । श्रद्धा + तिव् । २६० सू० शकारस्य सकारे, ३५० सू० रेफ-लोपे ११ सू० दकारलोपप्राप्तिः किन्तु १२ सूत्रेण तन्निषेधे ६०० सू० वा धातोः दह इत्या देशे, ६२० सू० तिव इचादेशे सबह इति भवति । श्रद्दधानः । श्रद्धा + ग्राश्सद्दह + श्रतश् ६७० सू० यानश: माण इत्यादेशे, सिप्रत्यये सहभाग +सि इति जाते, ४९१ सू० सेड:, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे सब्दमाणी इति भवति । जीवः । जीव+सि, पूर्ववदेव जीवो इति भवति ।
1
६०१ - पिवति । पा धातुः पाने । पा + तिथ् । ६८१ सू० पाधातोः स्थाने पिज्ज, डल्ल, पट्ट, st star: वैकल्पिकाः ६२० सू० तिवः इचादेशे पिज्जह डल्लइ पट्टह घोट्ट आदेशाभावे संस्कृतनियमेन पि+ति इति जाते, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, १७७ सू० बकारस्य लोपे, पूर्ववदेव त्रि इवादेशे पिइ इति भवति ।
६८२ -- उद्बाति । उद्वाधातुः गतिगन्धनयोः । उद्या + तिव् । इत्यत्र ६८२ सू० उद्वा इत्यस्य freeपेग रुम्मा, वसुप्रा इत्यादेशी, ६२० सू० वित्र इव । देशे ओरुम्माइ बसुआ आदेशाभावे उद्या इ, इत्यत्र ३४८ सू० दकारस्य लोपे ३६० सू० वकारस्य द्वित्वे जब्वाइ इति भवति ।
६८३ - निभ्राति । निद्रा जागरणक्षये । निद्रा+तिव् । ६८३ सू० निपूर्वस्य द्वाधातोः विकल्पेन मोहोर, उष इत्यादेश, ६२० सू० तिवः इचादेशे भोहोरह उधर प्रदेशयोरभावे निद्रा + इ इति जाते, ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० दकारद्वित्त्वे निद्दाइ इति सिद्धम् ।
६८४ - आजिप्रति । प्रान्नाधातुः गन्धादाने । आघ्रा + तिबू ६८४ सू० प्राना इत्यस्य स्थाने विकल्पेन भाइ इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इवादेशे आइइ प्रदेशाभावे श्राम्रा + इ इत्यत्र ३५० स० रेफलोपे, ३६० सू० घकारस्य द्विस्वे ३६१ सू० पूर्वकारस्य गकारे ८४ सू० संयोगे परे हस्ये अग्बाइ इति भवति ।
६८५ - नासि | स्ने स्नाने । स्ना+तिव् । ६८५ सू० स्नावातो: वैकल्पिके प्रभुत इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः स्थानं इत्रादेशे असइ आदेशाभावे ना + इ इत्यत्र ३४६ ० स्नस्य स्थाने ह इत्यादेशे व्हाइ इति भवति ।
६६६ – संस्थायते । संस्त्यं धातुः संघाते । संस्कृतनियमेन संस्त्या + ति इति जाते, ६८६ सू० संस्त्यावातो: स्थाने खा इत्यादेशे, ६२० सू० ते इत्यस्य इत्रादेशे संखाइ इति भवति । संस्सोनम् । संस्त्या + क्त-तसंखा + त । १७७ सू० तकारस्य लोपे १८० सू० यकारश्रुती, सिप्रत्यये ५१४ सू० सेका, २३ सू० मकारानुस्वारे संस्थायं इति भवति ।
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६८७ - तिष्ठति । ष्ठा-स्था गतिनिवृत्तौ स्था+ति । इत्यत्र ६६७ सू० स्थाधातोः स्थाने ठा थक्क, चिट्ठ, निरप्प इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे ठाइ ९११ सू० विकल्पेन प्रकारागमे ठाम इति भवति : स्थानम् । स्था + अनट्धन प्रस्तुतेन सूत्रेण स्थाधातोः स्थाने या इत्यादेशे, सन्धौ २२० सू० कारस्य णका रे, सिप्रत्यये ५१४ सू० सेकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे हा इति भवति । प्रस्थितः । प्रस्था + क्त-त । ३५० सू० रेफलोपे, प्रस्तुतसूत्रेण स्थाधातोः स्थाने ठा इत्यादेशे, ३६० सू० ठकारस्य द्वित्वे ३६१ सू० पूर्वकारस्य टकारे, ९०९ सू० ग्राकारस्य प्रकारे, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, सिप्रत्यये, १७७ सू० तकारलोपे, ४९१ सू० सेड:, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंपे पट्टिश्रो इति भवति । उत्थितः । उत्स्था + क्त-त । इत्यत्र ३४८ सू०तकारस्य लोपे प्रस्तुतसूत्रेण स्थाधातोः का इत्यादेशे, पूर्व
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः वदेव उटिठओ इति भवति । प्रस्थापितः । प्रस्था-+-णिग+क्त । पूर्ववदेव पठा-णिग+त इति जाते, ६३९ सू० णिगः स्थान अनि इत्यादेने, सन्धी, १७५ सू० कारलोपे, सिप्रत्यये, पूर्ववदेव पहाविओ इति भवति । उत्थापितः । उत्स्था उत्थापने । उत्स्था +-णिग्+क्त-त । ३४८ सू० तकारलोपे, पूर्वत्रदेव उठ्ठाविओ इति भवति । तिष्ठति । स्था+तिन् । प्रस्तुतसूत्रेण स्थाधातोः स्थाने धक्क, चिट्ठ इत्यादेशो, पूर्ततो उनकद नित, इशिकिरिशमा रक्त्या । प्रस्तुतसूत्रेण स्थाधातोः चिट्ठ इत्यादेशे, ४१७ सू० क्त्वा तुण इत्यादेशे, १७७ स० नकारलोपे, ६४६ सू० अकारस्थ इकारे विकिरण इति भवति । तिष्ठति । स्था+तिन् । प्रस्तुतसूत्रे स्थाधातोः निरप्प इत्यादेशे, पूर्ववदेव मिरप्पड़ इति भवति । बहुलाधिकारात् । बहुलस्य अधिकारात् कस्मिवितस्थले प्रस्तुत-सूत्रस्य प्रवृत्तिनं भवति । यथा-स्थितम् । स्था+क्ततं । ३४६ सू० सकारस्य लोपे,९०९ सू० साकारस्य प्रकारे,६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, सिप्रत्यये, १७७ सू० तकारलोपे, समकारे, मकारानुस्वारे थिनं इति भवति । स्थामम् । स्था+धन-थान+सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, पूर्ववदेव थारणं इति भवति 1 प्रस्थितः । प्रस्था+1 इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे, सकारलोपे, ३६० स० थकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वथकारस्य तकारे, सिप्रत्यये, सेझैः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे पस्थिनो इति भवति । जस्थितः । उत्स्था+त। ३४८ सू० तकार-सकारयोर्लोपे, पूर्ववदेव जस्पिनों इति भवति । स्थित्वा । स्था+क्त्वा । सकारस्य लोपे, ४१७ सू० क्त्वः स्थाने तूण इत्यादेशे,१७७ सू० तकारलोपे थाऊरण इति भवति । एषु प्रयोगेषु बाहुल्येन प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्यभावः ।
६५८-उत्तिष्ठति । उत्स्था-धातुः उत्थाने । उत्स्था-+ तिव । इत्यत्र ३४८ सू० तकारलोपे, ६५८ सू० स्थाधातोः ठ, कुक्कुर इत्यादेशौ, ३६० सू० ठकारस्य ककारस्य च द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वउकारस्य टकारे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे उह, उपकुक्कुरइ इति भवति ।
E-लायति । म्लै म्लाने । संस्कृतनियमेन म्ला +सिव इति जाते, ६८९ सू० म्लाधातोः का, पन्याय इत्यादेशौ वैकल्पिकौ, ६२८ सू० तिबः इचादेशे बाई पवायद प्रादेशाभावे म्ला+इ इत्यत्र ३७७ सू० लकारात्पूर्वे इकारागमे मिलाई इति भवति ।
६६०-निर्मिमोते । निर्मा निर्माण । निर्मा+ते । ६१० सू० निर्मास्थाने निम्माण, निम्मव इत्यादेशी, ६२८ सु० सिकः स्थाने इचादेशे निम्माण मिम्मवह इति भवति । : ६९१---क्षीयते । क्षि क्षये। क्षि+ते। ६९१ बक्षिधातोः बैकल्पिके मिजार इत्यादेशे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे णिकर, प्रादेशाभावे २७४ सू० क्षस्थ स्थाने झकारे, ६६७ सू० प्रकृति प्रत्यययोर्मध्ये ज्ज इत्यस्य प्रयोगे झिज्जइ इति भवति । ..: . ६९२-छाश्यति । छदि-धातुः पाच्छादने। छद्+णिग्+लिन् । इत्यत्र ६९२ सू० ण्यन्तस्थ धदेः स्थाने विकल्पेन गुम, नम, सन्नुम, ढक्क, मोम्वाल, पवाल इत्यादेशाः, ६२८ स० तिवः स्थाने चादेशे गुमह, मा २२९ सू० वैकल्पिके णकारे एमा, सन्नुमह, दवाइ, ओम्बाला,पन्चालइ आदेशाभावपक्ष-छद्+णिग्-+इ, इत्यत्र ६३८ सू० णिगः स्थाने प्रकारादेशे, ६४२ सू० माद्यस्य प्रकारस्य प्राकारे, १७७ सू० दकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ छायद इति भवति ।
६९३-निवारयति, पातयति । निपूर्वको वृग्-धातुः निवारणार्थकः । पत् पत्तने । निवृ+fणम् + तिम्, पत्+-णिग्+तिब्। ६९३ सू० निपूर्वस्य वृगः, ण्यन्तस्य पतेश्च विकल्पेन मिहोड इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः इचादेशे रिगहोइह निवारयति पातयति वेत्यर्थः । आदेशाभावपक्षे तु-निवृ+णिग् + इ इत्यत्र
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चतुथंपादः
* संस्कृत-हिन्दी टोकाइयोपेतम् * ९०५ सु० कारस्य पर इत्यादेशे, ६३८ सु० णिगः स्थाने ए इत्यादेशे, ६४२ सू० पादस्य प्रकारस्य प्राकारे निवार+ए+इ इति जाते, १० सु० स्वरे परे स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये निवारण इति भवति । पातयति । पत्+-णिग् +६ इत्यत्र ६३८ सू० णिगः स्थाने ए इत्यादेशे,प्रादेरकारस्य प्राकारे, २०६. सू० तकारस्य डकारे पास इति भवति ।
६६४-वूयति । दूधातुः दुःखानुभवे । दू+णिग+तिन् । ६९४ सू० गन्तस्य धातोः दुम इत्यादेशे, ६४७ सू० प्रकारस्य एकारे,६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे झूमेइ इति भवति। मममम, इत्यस्य प्रक्रिया ६०२ सूत्रे ज्ञेया। हृदयम् ---हिअयं इत्यस्य प्रक्रिया २६९ सूत्रे शेया।
१९५-यालयसि । धवल धवलीकरणे । धवल -+-णिग्+तिन् । ६९५ सू० ज्यन्तस्य धवलधातोः विकल्पेन दुम इत्यादेशे, ६२८ सु० तिवः इचादेशे दुमाइ आदेशाभावे-धवल+णिग+इ, इत्यत्र ६३८ सू० णिगमद () इत्यादेशे षवलइ इति भवनि। स्वराणां स्वराः । १०९ सू० बाहुल्येन दुमगलस्य उकारस्य ऊकारोऽपि भवति । यथा--प्रवलितम् । धवल+क्त (त। 1 प्रस्तुलसूत्रेण घवल धातोः दुम इत्यादेशे, बाहुल्ये १०१ सु० उकास्य ऊकारे, ६४५ शुत प्रकारस्य इकारे, १७७. सू० तकारलोपे, सि-प्रत्यये, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे मिश्नं इति बति
६९६ --तोलयति । तुल तोलने । तुल +-णिग+तिन् । ६९६ सू० ण्यन्त-तुल धातोः विकल्पेन पोहाम इत्यादेशे, ६२८ सू० सिब इचादेशे ओहामइ आदेशा भावे तुल+णिन् +६, इत्यत्र ६३८ सू० णिगः स्थाने प्रकारे तुला इति भवति ।
--विरक्षिा विपूर्वक बधातुः पिरेमाका चिरिच+णिग्+तिम् । इत्यत्र ६९७ सू० भ्यन्तस्य विरिन्धातोः स्थाने विकल्पेन मोलुण्ड,उल्लुण्ड, पल्हत्य इत्यादेशः,६२८ सू तिवः इचादेशे मोलुड, वल्लुवास, पल्हस्था प्रादेशाभावे--विरिन्+णिम् + इ, इत्यत्र ९०१ सू० बलीयस्येकारस्य एकारे, ६३८ १० णिग अद् (अ) इल्यादेशे, १७७ सू० प्रकार लोपे विरेभाई इति भवति ।
६९ ताब्यति । तड़ ताड़ने । नड्+णिम+नि । ६१८ सू० प्यन्तस्य तधातोः विकल्पेन आहोड, बिहोड़ इत्यादेशो, ६३८ मूल तियः इनादेशे आहोज विहोगद प्रादेशाभावपक्षे ६३८ सू० णिग एकारादेशे, ६४२ सू० प्रादेर कारस्य प्रकारे ताडेइ इति भवति।।
६९९---मिश्रयति । मिश्रि मिधीकरणे 1 मिश्र+णिग+लिव । ६९९, सू० ण्यन्तस्य मिश्रधातोः विकल्पेन विसाल, मेलब इत्यादेशो, ६२८ सल निनः इन्चादेशे वौसाला गेलवर प्रादेशाभावपक्षे-३५० सू० रेफस्य लोपे, ४३ सू० कारस्य दी, २६० स० कारस्य सकारे, ३६० सू० सकारस्य द्विस्वे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ६३- स० गिगः स्थाने प्रकारे मिस्सइ इत्ति भगति ।
७००-उधलयति । उधुलि ऊध्र्व धूलिप्रक्षेपणे । उधूल+णिम् - लिव् । ७०० सू० यन्तस्य उधूलिधातोः स्थाने विकल्पेन गुण्ठ इत्यादेशे,६२८ सू० सिवः स्थाने इयादेशे गुष्ठ आदेशाभावे---- ३४८ सू० दकारलोपे, ३६० सू. धकार-द्वित्त्वे, ३६१ सु० पूर्वधकारस्य दकारे, ६३८ सू० णिगः स्थाने एकारे उघलेह इति भवति ।
७०१-भ्रमयति । भ्रमधातुः भ्रमणे । भ्रम् +णिग्+लिन् । ७०१ सू ० यन्तस्य भ्रमधातो: स्थाने विकल्पेन तालिममर, तमाख इत्यादेगौ, ६२८ सू० तिहइचादेशे तालिघण्टइ, तमाम प्रादेशाभावे-- ३५० सू० रेफलोपे, ६३८ सु० मिगकारे, ६४२ सु० पूर्वाकारस्थ दीर्घ भामे ६४० सू० विकल्पेन णि आड इत्यादेशे तु भमावेह तथा ६३८ सू०गि पावे इत्यादेशे तु समावेई इति भवति ।
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* प्राकृत-ध्याकरणम् *
चतुर्थपादा ७०२माशयति । लश् धातुः नाशने । नश् +णिग्+तिव । ७०२ सू० पद्यन्तस्य नश्धातोः विकल्पेन विउड, नासब, हारत्र, विष्पगाल, पलाव इत्यादेशाः, ६२८ सु. लिव इन्चादेशे विउडा, भासबह, हारबा, विष्पगालइ, पलावइ प्रादेशाभावपक्षे २६० सू० शकारस्य सकारे, ६३८ मु० णिग: स्थाने प्रकारे, ६४२ सु० प्रादेरकारस्य प्रकारे नासह इति भवति ।
७०३-दर्शयति । दर दर्शने । दृश् णिम् +ति । ७०३ सू० व्यस्तस्य वृश्चात विकल्पन दाव, दंस, दक्षय इत्यादेशाः, ६२८ सू तिवः इचादेशे दावइ, वंसद, दासबइ अादेशाभावपक्षे ९०६ सू० ऋकारस्य परि इत्यादेशे. २६० सू शकारस्य प्रकारे, ६३८ सू० रिणगः स्थाने प्रकारे, अन्झीने परेण संयोज्ये परिसह इति भवति।।
७०४- उद्घाटयति । उद्घद्धातुः उद्धाटने । उद्घट् +-णिग् +-तिन् । ७०४ सू० ण्यन्तस्य उद्घधातोः उम्ग इत्यादेशो विकल्पेन भवति, ६२८० तिवः स्थाने इचादेशे अगह प्रादेशाविपक्षे ३४८ सू० दकारलोपे, ३६० सू० प्रकारद्वित्त्वे, ३६१ मू० पूर्वधकारस्य मकारे,११५ मु० टकारस्य डकारे, ६३८ सू० णिगः प्रकारे, ६४२ सू० प्रादेरकास्य प्रकारे उग्धाइ इति भवति ।
७०५-स्पृहयति । स्पृह, स्पृहायाम् । मह +णिम् + तिव ! ७०५. सू० पम्तस्त्र स्पृहः स्थाने सिह इत्यादेशे, ६२८ सू० तिब इचादेशे सिंहाइ इति भवति ।
७०६ - संभावयति । सम्पूर्वकः भूधातुः संभाजनायाम् । संभू+जिग्+तिव । इत्यत्र ७०६ सू० ण्यन्तस्य संभूधातोः प्रासद्ध इत्यादेशे वैकल्पिके,६२८ सू० तिव इन्चादेशे प्रासद आदेशाभावे-९०४ सू० ऊकारस्य अव इत्यादेशे, ६३८ सू० णिग अकारे, ६४२ सू० प्रादेरकारस्थ दीर्थे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये संभावह इति भवति ।
७०७-उन्नामयति । उत्पूर्वको नम्-धातुः उन्नामने । उद्+नम्+णिम्+तिन् । ७०७ सू० ण्यन्तस्य उदनमधातोः विकल्पेन उत्थाच, उल्लाल, गुलुगुठछ,उप्पेल इत्यादेशाः,६२८ सू लिव इचादेशे, उत्पा , उल्लासइ, गुलुगुञ्छा, उप्पेला प्रादेशाभावे--३४८ सू० दकारलोपे, ३६० सू० नकारद्वित्त्वे, ६३० सू० णिग प्रकारे, ६४२ सू० श्रादेरकारस्य प्राकारे उन्नामाई इति भवति ।
___७०--प्रस्थापयति । प्रपूर्वकः ण्यन्तस्थाधातुः प्रस्थापने । प्रस्था+गि तिन् । इत्यत्र ७०८ सू० पपन्तस्य प्रस्थानातोः विकल्पेन पट्ठव, पेण्डव इत्यादेशो, ६२ सू० तिनः स्थाने इचादेशे पट्ठवइ, पेजवइ प्रादेशाभावपक्षे, ३५० सू० रेफलोपे, ६८७ सू० स्थाधातोः हा इत्यादेशे, ३६० सु० ठकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्व ठकारस्य टकारे, ६३८ सू० मिग प्राव इत्यादेशे, सन्धौ पट्टाबद इति भवति ।
७०६-विज्ञापयति । विपूर्वक: पयन्तज्ञानातुः विज्ञापने। विज्ञा+णिग । तिव । ७०९ सू० ण्यन्तरूप विशाधातोः विकल्पेन बोषक, अवृक्क इत्यादेशी, ६२८ सू० शिव इचादेशे वोमका अदुक्का प्रादेशाभावपक्षे संस्कृतनियमेन विज्ञपि+इ इति जाते, ३१३ सू० शस्य स्थाने णकारे, ३६० सू० णकारद्वित्त्वे, २३१ सू० पकारस्य वकारे, ९११ सू० अकारागमे,१० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीण परेरा संयोज्ये विण्णवइ इति भवति ।
७१०-अर्पयति । अपि-धातुः प्रपणे । अ +णिग् +तिन् । ७१० सू० गयन्त-अधातोः विकल्पेन अल्लिद,चच्चुप,पणाम इत्यादेशा:,६२८ सुलिव इचादेशे अल्लिबइ,चच्चुपइ, पणाम आवेशाभावे-३५० सू० रेफलोपे,३६० सू० पकारद्वित्वे,६३८ सू० णिगः एकार,६४२ सू० पूर्वाकारस्य दी, ८४ सू०:संयोगे परे ह्रस्वे अप्पेइ इति भवति ।
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चतुर्थवादः * संस्कृत-हिन्दी-टाकाधोपेतम् *
१३ ७११-यापयति । याधातुः गती प्रापणे च । या+णिगतिव । इत्यत्र ७११ सू० पयन्त-याधातोः विकल्पेन जव इत्यायो, ६.२८ स० लिव इचादेशे जबइ प्रादेशाभावे-२४५ सू० यकारस्य जकारे, ६३८ सु० गिग अावे इत्यादेशे, दीर्घ-सन्धी जावेद इति भवति ।
७१२--प्लावति । प्लानि हल प्लवने । नव +शिग लिन् । ४१२ सुरू ण्यन्त लक्-धातो: विकल्पेत प्रोम्बाल, पचाल इत्यादेशो,६२८ सूतिक इचादेशे ओम्बालाइ,परवालह प्रादेशाभावे ३५० सू० लकारलोपे, ६६८ सू० णिग: एकारे, ६४२ ९० पूर्वाकारदी पावेई इति भवति ।
१३....विकोशयति । निकोशि-धातुः प्रशारणे । त्रिकोश --णिग् + तिन् । ७१३ सू० ण्यन्तविकोश्धातोः बिकल्पेन पायोड इत्यादेशे, ६२८ सू० तिन इचादेशे पक्खोडा आदेशाभावे २६० सू० शकारस्य सकारे, ६३८ सू० णिग सकारे, अज्झोने परेण संयोज्ये बिकोसई इति भवति ।
७१४..रोमप्रयति । रोमन्थं करोतीति । रोमन्धि (रोमन) +णिग् + लिव । ७१४ सू० ण्यन्तरोमन्य-धातोः स्थाने प्रोग्गाल, बगोल इत्यादेशौ वैकल्पिको, ६२८ सू० तिवः इचादेशे ओग्गाला पगोला प्रादेशाभावे ६३८ सु० णिग अकारे रोमन्था इति भवति ।
७१५-कामयति । कमि (क) कामनायाम् । कम् --णिग+तिव । ५१५ सू० ण्यन्त कम्धातोः विकल्पेन णिहुव इत्यादेशे, ६२८ सू० नि इचादेशे णिहुबई प्रादेशाभावे ६३८ सू० णिग: स्थाने एकारे, ६४२ सू० प्रादे कारस्य दीर्धे कामेह इस भवति ।।
७१६-प्रकाशयति । प्रकाशि प्रकाशने। प्रका+णिग्+तिन् । ७१६ सू ण्यन्त-प्रकाशघालोः विकल्पेन शुटव इत्यादेशे,६२८ सू० तिब इचादेशे गुवाइ प्रादेशाभावे ३५० सु० रेफरलोपे, १७७ सू० ककारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ, २६० सू० कारस्थ सकारे, ६३८ सू० णिग एकारे पयासह इति भवति ।
७१७-काम्ययति । कम्पि-कम्प कम्पने । कम्प +-गि+तिव । इत्यत्र ७१७ मू० प्रयन्त कम्पधातोः विकल्पेन विच्छोल इत्यादेशे,६२८ सुनित्र इनादेशे विच्छोलह मादेशाभावे, ६३८ सू० णिम: स्थाने एकारे कम्पेई इति भवति ।
७१-मारोहयति । मारुहि ग्रारोहणे। पारुह+णिम् + तिव । ७१८ सू० ग्यन्त-प्रारुहधातोः विकल्पेन वल इत्यादेशे, ६२८ सूनिव इचादेशे बलइ आदेशाभावे संस्कृतनियमेन पारो + णिगन इ इति जाते, २३१ सूपकारस्य दकारे, ६३८ सू० मिग एकारे आरोवेव इति भवति ।
७१६-बोलयति । दुलधातुः उत्क्षेपे । दुल गिग+ तित्र । ७१५ सू० पयन्त-दुल-धातोः स्थाने बिकल्पेन रहोल इत्यादेशे,६२८ सू० लिव इचादेशे रङ्कोलइ मादेशामाये ९०९ सू० उकारस्य प्रकारे, ६३८ सू० णियः स्थाने प्रकारे बोलइ इति भवति ।
७२० - रमयति । रमिग-धातुः रामे । रज-णिम् । लिन् । इत्यत्र ७२० सू० मन्त-रम्धातोः विकल्पेन राव इत्यादेशे, ६२८ सु० तिवः स्थाने इनादेशे राइ आदेशाभाचे ६३८ सूत णियः स्थाने एकारे, ६४२ सू० पूर्वाकार दी, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे रम्जेइ इति भवति ।।
७२१. घट्यति । घटि निरिणे । घट्+णिम्+निन् । ७२१ सू० ण्यन्ल-घट-धातोः विकल्पेन परिवाड़ इत्यादेशे, ६२५ सु० तिव इलादेशे परिवाड आदेशा धावे, १९५ सू० टकारस्य डकारे, ६३८ सू० मिग एकारे घडे इति भवति । प्रयोगदर्शनादत्र ६४२ सू० पूर्वाकारस्य दीर्घा म जातः ।। *४ | २ १४॥ सूत्रेण हकारस्य पकारो पाता।
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MANORAMAns
......-For-in-munne.AA--
* प्राकृत-व्याकरण *
चतुर्थपादः ७२२ वेष्टयति । वेष्टिधातुः परिवेष्टने । वेष्ट +णिग-लिन् । ७२२ सू० मन्त-वेष्ट्-धातोः विकल्पेन परिपाल इत्यादेशे, ६२८ सू० लिव इचादेशे परिमालाई प्रादेशाभावे ३४८ भू० षकारलोपे, ८९२ सू० टकारस्य खकारे, ६३८ सु० णिगः एकारे वेढे इति भवति ।
७२३-रिति निवत्तम् । ६९२ सूत्रादारभ्य ७२२ सूत्रपर्यन्तं णिगरनुवृत्तिः गृह्यते, इतः परं तस्यानुवृत्तेरभावो बोभ्यः । कोणाति । कञ् द्रध्यविनिमये । क:-लिव । ४२३ सू० कधातोः स्थान किंग इत्यादेशे, ६२८ मू. तिव इनादेदो किणाई इति भवति । ये परस्य तु । वि इत्युपसर्गात् परस्य कधातोः स्थाने एकारयुक्ती द्विरुक्त: ककार: (के) भवतीत्यर्थः । सुत्र-पठित्ताच्चकारात् किणादेशोऽपि जायते । यथा-विक्रीयाति । विकसिव । ७२३ सुपि इत्युपसर्गात परस्य धातोः द्विरुक्त एका र युक्ते ककारे, किरणे च जाते, ६२८ सू० लिन इचादेशे विपकेइ, विकिरण ३६० सू० ककारस्य
७२४---विमेति । त्रिभी भये । भी+ति । ७२४ सु० भीधातोः भा, बीह इत्यादेशी, ६२८ सूतिय इचादेशे माह ५११ मा प्रकाराममे जाते भाजबीहाइ इति नजति। भीतम् । भी+त-त । प्रस्तुतसुत्रेण भीधातो: भा इत्यादेशे, अकारागमे, ६४५ सू० अकारस्य इकारे, सिंप्रत्यये, १७७ सू० . सकारलोये, ५१४ सू० सेमंकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे भाइ बीह इत्यादेशे तु बोहिनं इति भवति । बहुलाधिकारात् कस्मिंश्चितस्थले प्रस्तुतसुत्रस्य प्रवृत्तिनं भवति । यथा--भीतः । भीत+सि । तकारस्य लोषे, ४९१ सू० सेखों, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोप भोओ भवति । अत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्त्यभावः ।
७२५-मालीपते । चाडपर्वका लीड् धातुः सम्मिलने । पाली+तिव । ७२५ सू० पालीधातो। प्रल्सी इत्यादेशे, १११स प्रकारागमे, १२८स तिव इचादेशे अल्लीअई इति भवति । आलीनः । प्रालीन+सि, प्रस्तुत-सूत्रेचा ग्राली इत्यस्य अल्ली इत्यादेशे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, ४९१ सू० से , डिति परेला स्वरादेर्लोपे अल्लीणो इति भवति ।
.७२६-मिलीयते । निपूर्वक: लीधातूः प्रच्छन्ने । निली-ति । इत्यत्र ७२६ सू० निलीधातोः स्थाने विकल्पेन पिलीन, णि लुक्क, णिरिघ, लक्क, लिक्का, लिहक्क इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे रिगलीमह गिलुवकह रिपरिषद लुक्काइ लिगका हिवका प्रादेशाभावे निलो + इ इत्यत्र ६६७ सू. प्रकृतिप्रत्यययोमध्ये जज इत्यस्य प्रयोगे, ८४ सू० संयोगे परे हरवे मिलिज्ल इति भाति ।
७२७-बिलीयते । त्रिपूर्वक लीड-धातुः विनाशे विली-न-तिव । इत्यत्र १२७ सू० किलोधातोः विकल्पेन बिरा इत्यादेश,६२८ सुतिय इनादेशे विराइ अादेशाभावे ६६७ सू० प्रकृतिप्रत्यययोमध्ये जज इत्यस्य विकरणे, ८४ सू० संयोमे परे हस्बे बिलिज्ज इति भवति ।
७२८-रोति । हधातुः शब्दे । रु। तिम् । इत्यत्र ७२८ सु० रुधातोः स्थाने विकल्पेन रुज, रुष्ट इत्यादेगी, ६२८ सु० लिव इनादेशे रुज, हाइ आदेशाभावे, ९०४ सू० उकारस्य प्रव इत्यादेशे रवह इति भवति ।
७२६ .. शृणोति । श्रुष्टि-(श्र धातुः श्रवरणे । श्रु+तिन् । ७२९, सू श्रधानोः स्थाने विकल्पेन हणं इत्यादेशे, ६२८ सू० लिव इचादेशे हणइ प्रादेशाभावे ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू शकारस्य सकारे, ९१२ सू० णकारस्य प्रागमे सुरगाइ इति भवति ।
७३० - धुनोति । धूगि घूत्र) धातुः कम्पने । ति । १३० १० धूधातोः स्थाने विकल्पेन ध्रुव इत्यादेशे, ६२८ सू० तिय इनादेशे धुवई प्रादेशाभावे ९१२ सू० णकारमय श्रागमे, ऊकारस्य च उकारे पुणइ इति भवति ।
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चतुर्थपाद:
संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्वयोपेतम् ★
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७३१- भवति । भूधातुः सत्तायाम् भूतिव् । ७३१ सू० भूवात विकल्पेन हो, हु, ह इत्यादेशाः ६२० सू० तिव इचादेशे होइ, हुबइ, हवइयादेशाभावे ९०४ सू० उकारस्य प्रव इत्यादेशे भवइ इति भवति । भवन्ति । भू+अन्ति हो । न्ति, हुत्र +अन्ति, हव+अन्ति । ६३१ सू० अन्तेः न्ति इत्यादेशे होन्ति बस्ति, हवन्ति इति भवति । परिहार- विभवः । परिहीनः नष्टः विभवः ऐश्वर्यं यस्य सः। परिहीनविभव + सि । त्कारस्य सकारे २६७ सू० भकारस्य हकारे, ४९१ सू० सेडः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलपि परिहोण-बिहवो इति भवति । भक्तुिम् । भू सत्तायाम् । भू+तुम् । ९०४ सू० ऊकारस्य अव इत्यादेशे, ६४६ सू० प्रकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारस्य लोपे, २३ सू० म कारस्यानुस्वारे भवि इति भवति । प्रभवति । प्रभू + तिब् । ३५०सू० रेफस्य लोपे, ९०४० ऊकारस्य श्रव इत्यादेशे ६२८ सू० ति दयादेशे भव इति भवति । परिभवति । परिभू तिरस्कारे। परिभू + ति । पूर्ववदेव परिभवइ इति भवति । एवमेव संभवति । संभू संभावनायाम् । संभू+तिव् संभवह इति साध्यमविवपि । बहुलाधिकारात् क्वचिदन्यदपि कार्यं भवति । यथा उद्भवति । उदभू उत्पत्ती । उ + + तिव । ३४८ सू० दकारस्य लोपे, ३६० सू० भकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वभकारस्वकारे, बहुलाधिकारात् ककारस्य उकारे, ९११ सू० प्रकारागमे, पूर्ववदेव उग्र इति भवति । भूतम् । भू+क्त - 1+ सि । बाहुल्येन ऊकारस्य प्रकारे, ३७० सू० तकारस्य द्वित्वे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे भत्त' इति भवति ।
1
७३२ - भवन्ति । भू+ प्रति । इत्यत्र ७३२ सू० भूधातो: हु इत्यादेशे, ६३१ सू० अन्तेः न्ति, इत्यादेशे हुन्ति इति भवति । भवन् । भू +शतृ । वातो: स्थाने हु इत्यादेशे, ६७० सू० शतुः स्थाने त इत्यादेशे, सिप्रत्यये, ४९१ सू० सेड:, डिति परेत्यस्वरादेर्लोपे हन्तो इति भवति । अविलति किम् ? । विव प्रत्यये परे सत्येव प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तिर्भवति नान्यथा । यथा - भवति । भू+तिथ् । ७३१ सू० भूधातोः स्थाने हो इत्यादेशे ११ सू० तिप्रत्ययस्य वकारस्य लोपे ६२० सू० ति इत्यस्य स्थाने Search होइ इति भवति । अत्र विव-प्रत्ययस्य वकारस्य लोपेन चित्वात् प्रस्तुत - सूत्रस्य प्रवृत्यभावः । ७३३ - पृथग्भूते स्पष्टे च कर्तरि पृथग् भवति, स्पष्टो भवति इत्येतयोः प्रयोगयोः कर्ता पृथक्, स्पष्टश्च वर्तते धातोः णिव्यड इत्यादेशो जायते । "रामः भवति" वाक्येऽस्मिन् रामे कर्तरि सति ७३३ सूत्रेण भूधातोः विड इत्यादेशो न भवति । किन्तु भूघातोः कर्ता यदा पृथग्भूतः स्यात्, स्पष्टः इति वा भवेत्तदा प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिजयिते । यथा भवति । भू+तिव् । ७३३ सू० भूधातोः frers इत्यादेशे, ६२० सू० तिव इचादेशे विड, पृथक्, स्पष्टो वा भवतीत्यर्थः ।
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७३४ -- प्रभुत्वं च । प्रइत्युपसर्गे यदि भूषातुः पूर्ववर्ती भवेत्तदा तस्य प्रभुत्वम् इत्यर्थो भवति । अङ्ग । ग्रह्न+ङि । ५०० सू० ङे स्थान दिएकारे जाते, डिति परेऽन्त्यस्वरादेवपि अङ्ग इति भवति । एवं चित्र प्रक्रिया ३७० सूत्रे ज्ञेया । न । अव्ययपदमिदम्। संस्कृतवदेव प्राकृते प्रयुज्यते । प्रभवति । प्रभू + तिब् । ३५० सू० रेफलोपे, ७३४ सू० भूधातोः स्थाने विकल्पेन हुप्प इत्यादेशे, ६२५ सू० तव इचादेशे पर आदेशाभावे ९०४ सू० उकारस्य स्थाने भव इत्यादेशे, ६४७ सू० प्रकारस्थ एकारे प्रभवेइ इति भवति ।
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७३५-- मूतम् ! भू + क्तन्त । ७३५ सू० भूत्रातोः स्थाने हू इत्यादेशे १७७ सू० तकारलोपे, सिप्रत्यये, ५१४ सू० सेकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे हूयं इति भवति । अनुभूतम् । अनुभूत+सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, भूवातो: हू इत्यादेशे, पूर्ववदेव अणुहनं इति भवति । प्रभूतम् । प्रभूत+ सि। ३५० सू० रेफलोपे, भूधातो: हू इत्यादेशे, पूर्ववदेव पहूचं इति भवति ।
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★ प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः ७३६--करोति । कृगि-कृग् (डुकृञ् करणे) व तिन् । ७३६ ९० कृग्धातोः स्थाने विकल्पेन कुण इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः इचादेशे, कुणा आदेशाभावे .९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे करइ इति भवति ।
७३७- कारक्षित (काणस्य ईक्षितम् ) करोति । ७३७ सूत्रेण कारणेक्षितं करोतीत्यर्थे कृम्धातोः विकल्पेन जिप्रारइत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः इमादेशे णिआरद इति भवति ।
७३५-निष्टम्भ करोतीत्यर्थे ७३८ सू० कृग-धातोः विकल्पेन णिवह इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे रिपळुहाइ इति भवति । प्रस्तुतसूत्रेण प्रवष्टम्भं करोतोपर्थे कृग्-धातोः विकल्पेन संदाण इत्यादेशे संवारण इति भवति।।
७३९-'श्रमं करोति" इत्यर्थ ७३९ मू. कृग्-धातोः विकल्पेन वावम्फ इत्यादेशे वावम्फ+ तिव इति जाते, ६२८ सू० तिव: स्थाने इचादेशे वायम्फा इति भवति ।
___७४-"मायुना ओष्ठं मलिनं करोति" इत्यर्थे ७४० सू० कृग्-धातोः विकारपेन णिन्योल इत्यादेशे णिन्धोल+तिद् इति जाते, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे सिम्बोलइ इति भवति । - ७४१-शिथिलो भवति लम्बते वा इत्यर्थे ७४१ स० कृग-धातो: विकल्पेन प्रथल्ल इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे पयल्लइ' इति भवति ।
७४२---निःशेषेण निरन्तरं वा पततीति निष्पतति तथा आच्छोटयति इत्यर्थे ७४२ सू० कृग्धातोः विकल्पेन पीलु छ इत्यादेशे, ६२५ सू० तिवः इचादशे पोलुबह इति भवति ।
७४३---रं करोतीत्यर्ये ७४३ स० कृग-धातोः विकल्पेन कम्म इत्यादेशे, ६२७ सू० सिवः स्थाने इचादेशे कम्मा इति भवति । - ७४४.--वाटु करोतीत्यर्थे ७४४ सू० कृग्-धातोः स्थाने विकल्पेन गुलल इत्यादेशे, ६२८ सू० तिषः इचादेशे गुललइ इति भवति ।
७४५- स्मरति । स्मृधातुः स्मरणे। स्मृ+तिन् । ७४५ सू० स्मृधातोः स्थाने विकल्पेन झर भूर भर भल लढ विम्हर सुमर पयर पम्हुह इत्यादेशाः, ६२८ सल लिव स्थाने इचादेशे कण भूरत भरा मलाइ लढा बिम्हराइ सुमरइ पयरइ पाहहद प्रादेशाभावे ३४८ सू० मकारस्य लोपे, ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, पूर्ववदेव सरह इति भवति ।
* अथ चतुर्थपाद है ___ आत्म-गुण-प्रकाशिका हिन्दी-टीका * युक्त परम प्रानन्द से, निधिकार, प्रभु रूप। संगविवजित', निरामयर, निर्मल शुद्ध अनूप ॥
रमण करें निज भाव में, जगती के आधार ।
महावीर भगवान को, नमन करे संसार ।। मान-नेत्र जिस ने दिए, दिया धर्म सुखकार।
पढ़ना, लिखना, बोलना, किया बहुत उपकार ॥ १. मात्ति -रहित । २, रोग-रहित । ३. उपमा-रहित, बेजोड़।
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अतुषपाया
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
अमिषा प्रात्मा राम है, अनुपम प्रागम ज्ञान ।
मुनि-गण-नायक संयमी, गुरु मेरे भगवान ।। बन्धन कर गुरुदेव को, चरणों का घर ध्यान । टीका पाद चतुर्थ की, लिखता है मुनि मान ।
* अथ धातुओं को होने वाली आदेश-विधि (क)*
कथि (कथ्) प्रादि धातुओं के स्थान में बज्जर आदि जो आदेश होते हैं, अब सूत्रकार उन का निर्देश कर रहे हैं
७२...मगले सूत्रों में जो इंदित (जिन में इकार इत् हो) धातु बतलाए जाएंगे, उनके स्थान में जो प्रादेश होते हैं, वे वैकल्पिक समझने चाहिएं। उनके उदाहरण वहीं दिए जाएंगे।
६७३-थि धातु के स्थान में-१-बज्जर, २-पस्मार, ३-उपाल, ४.-पिसुरण, ५--- संघ, ६-बोल्ल, ७-चव, जम्प, ई-सीस और १०--साहये दस प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-१-कथयति-वजरइ, पज्जर इ, उप्पालइ, पिसुगई, संघइ, बोल्लइ, पद, जम्पइ, सीसइ, साहस (वह कहता है)। यहां पर कथि धातु के स्थान में वज्जर मादि दस मादेश किए गए हैं। जहां ये आदेश नहीं हुए वहां कहा यह रूप बनता है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि 'उबुक्का यह रूप तो उत् उपसर्गपूर्वक बुक्क (बोलने अर्थ में) धातु (उबुंस्कतिम्प बोलता है) से बनता है । इसके अतिरिक्त, वृत्तिकार फरमाते हैं कि अन्य मावायों ने सत्रोक्त वजरमादि मादेश देशी-भाषामों में पड़े हैं.तत्तद्देशों की भाषांत्रों के धातु माने हैं, किन्तु हमने इन्हें कथि-धात्वादेश स्वीकार किया है। कथि-धाएवादेश मानने का यह लाभ है कि अनेकविध प्रत्ययों के परे होने पर भी ये मादेश किए जा सकते हैं । जैसे ----कपितः= बजरित्रो (कहा हुआ),२-कापयित्वा बजरिऊण (कह कर), ३ -कथनम् बजरणं (कहना), ४-कथयन =वज्जरन्तो (कहता हुमा), ५-कवितव्यम-वजरियब्ध (कहना चाहिए.) यहां पर 'बज्जर' इस आदेश में क्त, कृत्वा आदि प्रत्यय किए गए हैं। वृत्ति कार फरमाते हैं कि जैसे बज्जर प्रादेश से क्त प्रादि प्रत्यय करके उक्त रूप बनाए गए हैं,इसी भांति सभी कथि-धात्वादेशों से क्त,कत्वा प्रादि प्रत्ययों को लाकर हजारों रूप बनाए जा सकते हैं। दूसरी बात, जैसे संस्कृतभाषा में धातुओं से प्रत्यय, लोप तथा प्रागम प्रादि विधियां कार्य किए जाते है,से हो प्रर्थात् संस्कृत भाषा के समान ही प्राकृत-भाषा में भी प्रत्यय, लोप तथा ग्रागम आदि कार्य कर लेने चाहिए ।
६७४ -दुःखविषयक कथिधातु के स्थान में णिवर यह आदेश विकल्प से होता है। जैसेदुःखं कथयति-णिधरइ (वह दुःख कहता है। यहां कथि-धातु को गिन्धर,यह वैकल्पिक प्रादेश किया गया है।
६७५-जुगुप्सि धातु के स्थान में १-झुण, २-दुगुच्छ और ३---गुच्छ ये तीन प्रदेश विकल्प से होते हैं । जैसे-जुगुप्सति भणइ, दुगुकछह, दुमु छर जहां पर प्रस्तुत सूत्र ने अपना कार्य नहीं किया, वहां पर जुगुटखा यह रूप होता है। पहले रूपों में १७७ सूत्र से गकार का लोप होने पर बुउच्छाद, बुजण्या , जुउछह (वह रक्षा करना चाहता है) ये रूप भी बनते हैं।
६७६--बुभुक्षि धातु और प्राचार-विषयक विचप-प्रत्ययान्त वीजि धातु के स्थान में यथासंख्य (संख्या के अनुसार) भौरव और बोज्न ये दो प्रादेश विकल्प से होते हैं । जैसे------बुभुक्षति - गीरवद,
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* प्राकृत-व्याकरणम् *::
चतुर्थपायः जहां यह प्रादेश नहीं हुया वहां बुहुनखड़ (खाना चाहता है), २-धीजयति बीजद, आदेश के प्रभाव में वीजा (वायु करता है) यह रूप बनता है।
६७७ ---ये और गै इन धातुओं के स्थान में यथासंख्य-क्रमशः झा और गा ये दो प्रादेश होते हैं। जैसे---- ....ध्यार्यालय झाप्राइ, भाइ, (वह चिन्तन करता है।, २-निध्यायति-निझामइ, निज्मा (वह ध्यानपूर्वक देखता है) निडपसर्गपुर्वक ध्यधातु दर्शना देखने अर्थ में प्रयुक्त होता है । ३--गायति गाह, गाइ (दह गाता है), ध्यानम् = झाणं (ध्यान, मन की एकाग्रता), ५गानम्-गाणं (गायन) यहां पर ध्ये घातु के स्थान में भा तथा मै धातु के स्थान में गा यह आदेश क्रमशः किया गया है।
६५८-साधासु के स्थान और मुख दो आदेश होते हैं। जैसे—मानाति - जाणइ, मुणई (वह ज
मिला वर आधात कोजाणा और मणये दो प्रादेशाकिर गए हैं।६७२ सूत्र के माधार पर तो इदित धातु को ही वैकल्पिक प्रादेश हो सकते हैं, अन्य किसी धातु को नहीं, इसी लिए प्रस्तुत सूत्र में बलाधिकार का प्रश्रियण किया गया है। इस कारण यहां पर ज्ञाधातु के स्थान में बहुलता से जारण यह आदेश होता हैं । जैसे-१-मानम् जाणिपादेश के प्रभाव में णायं (जाना हुआ), २. ज्ञात्वा जाणिऊण,णाऊण (जानकर), ३-शान-जाणणं, पाणं (ज्ञान, जानना), यहाँ पर ज्ञाधातु को बहुलता से 'जाग' यह प्रादेश किया गया है। पत्तिकार फरमाते हैं कि 'मग' यह रूप तो मन्यते (मानता है, समझता है) इस शब्द से बनता है । मन्यते यह रूप दिवादिगणीय मन धातु का है और तनादिगण के मनु (प्रवबोधने) धातु के प्रथमपुरुष के एक वचन का रूप मनुते
बनता है।
-वद् उपसर्ग से पूरे प्रमा-धातु के स्थान में 'धुमा' यह पादेश होता है। जैसे- उद्धमति-उधुमाइ (उच्च स्वर से शंख बजाता है)। यहां धमाधातु को धुमा यह प्रादेश किया गया है।
६०-अद् इस अव्ययपद से परे यदिया धातु हो तो उसके स्थान में 'वह' यह प्रादेश होता है। जैसे ---१-श्रदधाति सह ई (वह श्रद्धा करता है), २.अधधानो कोकासदहमाणो जीवो (श्रद्धा करता हुआ यह जीव) यहां पर 'पा' धातु को 'वह' यह प्रादेश किया गया है।
६९---पिबि (पा) धातु के स्थान में १-पिज्ज, २-इल्ल, ३-पट्ट और ४--घोट्ट ये चार प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-पिजाति-पिज़्जइ, डल्लइ,पट्टइ, घोट्टा प्रादेश के प्रभाव मे -पिअद (बह पान करता है, पीता है) यह रूप बनता है। यहां पिवि-धातु के स्थान में पिज्जादि प्रादेश किए गए है।
... ६८२-उद्. उपसर्गपूर्वक वाति (वा) पातु के स्थान में ओजम्मा और पसुप्रा ये दो मादेश विकल्प से होते हैं । जैसे-उवाति गोहम्माइ, वसुबाइ मादेश के अभाव में उच्बाइ (वह हवा करता है) यह रूप बनता है।
६८३-निपूर्वक द्रा धातु के स्थान में ओहोर और ये दो अादेश विकल्प से होते हैं। 'जैसे-निद्राति मोहोरइ, उस देश के प्रभाव में निहार (वह निद्रा लेता है) यह रूप बनता है।
६८४-प्रा उपसर्ग-पूर्वक ना धातु के स्थान में 'माइग्य' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-आमिन्नति माइग्ध मादेश के अभाव में अपार (वह सूचता है) ऐसा रूप बनता है।
६- स्ना धातु के स्थान में 'अग्भुत' यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-स्वाति--
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اما ميه ميه فيحانا وقيمه معتمر يهديهمینه
चतुर्थपादा
*संस्कृत-हिन्दी-टोकालयोपेतम् ★ प्रभुत्तइ अादेश के अभाव में हाइवह स्नान करता है। यह रूप बनता है।
६८६-सम् उपसर्ग पूर्वक स्त्य धातु के स्थान में 'ला' यह प्रादेश होता है । जैसे------ संत्यायते-- संखाइ (वह संघात करता है.वह फैलाता है),२-संस्तीनम् = सखायं (धान करना) यहाँ स्त्यै धातु को खा यह आदेश किया गया है।
६७-स्था-धातु के स्थान में १-ठा, २-धबक, ३. विट्ठ और ४-निरप्प ये चार आदेश होते हैं। और विजिटाइड ठहरता है), २-स्थानम् - ठाणं (स्थान-ठहरना, जगह), ३-प्रस्थितः = पट्ठियो (जाता हुप्रा), ४--वस्थितः उट्ठियो (उठा हुग्रा),५-- प्रस्थापितः पट्ठाविप्रो (रक्खा हुमा), ६-उस्थापित: उट्टावियो (उठाया हुप्रा), ७-तिष्ठति -थक्काइ, चिटुप, निरप्पइ,
-स्थित्वा-चिटिऊण (ठहर कर) यहां पर स्था धातु के स्थान में ठग प्रादि प्रादेश किए गर हैं। बहुलाधिकार के कारण कहीं-कहीं पर स्थाधातु को ये प्रादेश नहीं भी होते। जैसे-----स्थितम् - थिग्रं (ठहरा हुमा), २-स्थानम् -याणं, ३-प्रस्थित:-पत्यिो , ४--वस्थितः उत्यिधो, ५स्थिरता थाऊण, यहां पर स्थाधातु के स्थान में 'हा' मादि मादेश नहीं किये जा सके ।
६८४-उद् उपमर्ग से परे यदि स्था धातु हो तो उसके स्थान में ठ और कुक्कुर ये दो प्रादेश होते हैं। जैसे-१ . उत्तिष्ठति उद्द, उक्क्क रद्द (बह उठता है) यहां पर स्था धातु को '४' प्रादि दो प्रादेश किए गए हैं।
६४-ग्लै धातु के स्थान में वा और पन्चाय में दो प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे--म्लायति वाई, पब्वाय प्रदेश के प्रभाव-पक्ष में मिलाइ (वह मुरझाता है। ऐसा रूप बनता है।
__ -निर-पूर्वक मा धातु के स्थान में निम्माण और मिस ये दो मादेश होते हैं। जैसेनिर्मिमीले निम्माण इ, निम्मवइ (वह निर्माण करता है) यहाँ पर निर-पूर्वक मा धातु को निम्माण प्रादि दो प्रादेश किए गए हैं।
६९१---क्षिधातु के स्थान में विकल्प से णिज्झर' यह प्रादेश होता है। जैसे--क्षोपतेल णिजभरइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में-झिजजाई (यह नष्ट होता है) यह रूप बनता है।
६६२-यन्त (जिसके अन्त में णि हो) छदि धातु के स्थान में-१-गुम, २ भूम, ३सन्दुम, ४-हरुक, ५-ओम्बाल और पव्वाल ये छह मादेश विकल्प से होते हैं। जैसे - छादयतिगुमइ, नूमइ, सन्नुमइ, ढक्कइ, मोम्बालइ, पव्वालइ प्रादेश के प्रभाव पक्ष में-यामह (बह कांकता है) यह रूप बनता है। जहां पर २२९ सूत्र से मादिम नकार को विकल्प से गकार कर दिया गया वहां पर एमाई यह रूप भी हो जाता है।
६९३ - निपूर्वक वृग् धातु और पति(पत् धातु इन दोनों ण्यन्त धातुओं के स्थान में विकल्म से 'बिहोई' यह नादेश होता है। जैसे-१-निवारयति-णिहोडइ, प्रदेिश के प्रभाव पक्ष में-निवारे (वह रुकवाता है), २-पातयति-णिहोडइ मादेश के प्रभाव-पक्ष में-पाडे (बह गिरवाता है) यह रूप बनता है।
६६४-यन्त दूधातु के स्थान में 'म' यह आदेश होता है । जैसे-दूयति मम हृदयम्मा दुमेह मज्झ हिअयं (वह मेरे हृदय को दुःखी करता है) यहां ण्यन्त दूधातु को दूम यह प्रादेश किया
६९५-ज्यन्त प्रवल धातु के स्थान में 'दुम' यह मादेश विकल्प से होता है। जैसे-धवल
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*प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः पति दुमइ, अादेश के प्रभावपक्ष में-धवला (वह सफेद करवाता है) यह रूप बनता है। इस के अतिरिक्त, ९७९ सूत्र से दुम के ह्रस्व उकार को धीर्य लकार भी हो पाई : री-वधिसम् -- दूमिग्रं (सफेद कराया हुआ) यहाँ उकार को ऊकार किया गया है।
६९६-यन्त तुलि धातु के स्थान में विकल्प से 'मोहाम' यह आदेश होता है । जैसे---- सोलयति-प्रोहामइ प्रादेश के प्रभाव पक्ष में-सुलइ (वह तोल कराता है) यह रूप बनता है।
६७-श्यन्त विरिचि धातु के स्थान में-१-ओसुश, २-उल्लुण्ड और ३---परहस्थ तीन मादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-१-विरेचयति=ोलुपडइ, उल्लुण्डइ, पल्हस्थाइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में -विरे (वह वाहिर निकलता है) यह रूप बनता है ।
६९५-यन्त तडिधातु के स्थान में १-आहोर और २-बिहोड ये दो धादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-ताश्यति माहोड, बिहोडह प्रादेश के प्रभावver में ताडे (वह ताड़ना कराता है) यह रूप बनता है।
६९E ---ण्यन्त मिश्रि धातु के स्थान में १-बीसाल और २-मेलच ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे --मिषयतिवीसालइ, मेलवाइ आदेश के अभावपक्ष में-मिस्सा (वह मिलाता है) यह रूप बनता है।
७००-यन्त उद्धूलि धातु के स्थान में 'गुष्ठ' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-उधलपति गुण्ठा प्रादेश के प्रभाव-पक्ष में-उधूलेइ (वह ऊपर को धूलि फेंकता है) यह रूप बनता है।
७०१-यन्त भ्रमि धातु के स्थान में सालिमष्य और तमाड ये दो मादेश विकल्प से ही जाते हैं। जैसे-भ्रमयति-तालिमण्टइ, समाडइपादेश के प्रभावपक्ष में भामे, भमाडे, ममावेश (यह भ्रमण करता है) ये रूप हो जाते हैं।
७०२ --- च्यन्त नशि (नश्) धातु के स्थान में १-विवड,२--नासब,३-हारण,४-विप्पणाल पौर--पलाव ये पांत्र प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-नाति विउडइ, नासबइ, हारवा, विप्पगालाइ, पलावइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में नासा (बह नाश कराता है) यह रूप बन जाता है।
७०३---ण्यन्त दशि धातु के स्थान में-१-वाक, २--वंस और ३-दबाव ये तीन प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे --वर्शयति-दावइ, दसइ, दक्खवई प्रादेश के प्रभावपक्ष में-बरिसइ (वह दिखलाता है) यह रूप बन जाता है।
०४-उद्-उपसर्गपूर्वक प्रयन्त घटिधातु के स्थान में 'उमा' यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-उद्घाटयति उग्गइ आदेश के अभावपक्ष में-उधाडा (वह उद्घाटन करता है, प्रारंभ कराता है) यह रूप बन जाता है।
७०५---ण्यन्त स्पृह, धातु के स्थान में 'सिंह' यह मादेश होता है। जैसेस्पृहपति सिहइ (वह इच्छा कराता है) यहाँ स्पृह धातु के स्थान में 'सिंह' यह आदेश किया गया है।
७०६--संभावि धातु के स्थान में आसद्ध यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-संभावयति-प्रासाइमादेश के अभावपक्ष में-संभावा (वह संभावना कराता है) यह रूप बनता है।
___७०७-उद्-उपसर्ग-पूर्वक प्रयन्त नमि धातु के स्थान में-१-उत्थंध, २-उल्लाल, ३-गुरुपुछ और ४-चप्पेल ये चार प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे -जन्तामयति उत्थइ, उल्लाल इ, गुलुमुछइ, उप्पेलाइ मादेशों के प्रभाव-पक्ष में उन्लामा (वह ऊपर उठाता है) यह रूप होता है ।
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चतुथपाद:
* सस्कृत-हिन्दी-टोकादयोपेतम् * ७०८ --प्र-उपसर्ग-पूर्वक ण्यन्त स्था-धातु के स्थान में है. पटुव और २-पेण्डव ये दो प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे - प्रस्थापयति- पवइ, पेण्डवइ प्रादेशों के प्रभावपक्ष में--पटावा (वह स्थापित कराता है) यह रूप बन जाता है। . ७६-वि उपसर्मपूर्वक ग्यन्त जा धातु के स्थान में बतायो म यो दो मादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-विज्ञापयति वोक्का,अबुक्क आदेशों के प्रभाव-पक्ष में विष्णवई (वह विशेष ज्ञान कराता है) यह रूप बन जाता है।
७१०-यन्त अपिधातु के स्थान में-१-अलिसव, २-चुप्प और ३-धणाम ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे-असंयति-प्रल्लिवह, चकचुपइ, पणामइ आदेशों के अभाव-पक्ष में अपेइ (बह अर्पण कराता है। यह रूप बनता है।
७११- ण्यन्त या धातु के स्थान में अब यह आदेश विकल्प से होता है । जैसे-यापयति-- जबइ आदेश के अभाव-पक्ष में जायेह (वह गमन कराता है) यह रूप बन जाता है।
७१२- ण्यन्त प्लावि-षातु के स्थान में ----१-मोम्बाल और २- पचाल ये दो धादेश विकल्प से होते हैं | जैसे-लाययति-प्रोम्बालइ, पब्बालइ प्रादेशों के प्रभावपक्ष में-पावेह (वह तर-ब-तर कराता है) यह रूप बन जाता है।
७१३–ण्यन्त विकौशि नाम-धातु के स्थान में परसोज यह मादेश विकल्प से होता है। जैसेविकोशयति= पक्खोड मादेश के प्रभाव-पक्ष में बिकोसा (वह विकसित कराता है) यह रूप बन जाता है।
- ७१४---ण्यन्त रोमन्यि-धातु के स्थान में ओमाल और बग्गोल ये दो प्रादेश बिकल्प से होते हैं। जैसे-रोमत्ययति प्रोग्गालावरगोल इमादेशों के प्रभाव-पक्ष में रोमन्था (वह चबाई वस्तु को पुनः चाता है) यह रूप बनता है।
७१५-स्वार्थण्यन्त (स्वार्थ में विहित णि प्रत्यय जिसके अन्त में हो) कमि धातु के स्थान में 'बिहुव' यह मादेश विकल्प से होता है। जैसे-कामयति णिहुवइ, अादेश के अभाव-पक्ष में कामेह (वह इच्छा कराता है) यह रूप होता है।
७१६-ज्यन्त प्रकाशिधातु के स्थान में 'शुब्ब' यह मादेश विकल्प से होता है। जैसेप्रकाशयति गुन्वह, प्रादेश के प्रभाव-पक्ष में पयासे (बह प्रकाश कराता है) यह रूप होता है।
७१७-यन्त कम्पि धातु के स्थान में विस्मोस यह प्रादेश बिकल्प से होता है। जैसे-कम्पपति-विच्छोलइ पादेश के प्रभाव-पक्ष में कम्पेई (वह कम्पाता है) यह रूप बनता है।
७१५--प्रयन्त प्रारुहि-धातु के स्थान में 'बल' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-आरोहयति वल इ, आदेश के प्रभावपक्ष में आरोवेह (बह चढ़वाता है) यह रूप बन जाता है।
७१६--स्वार्थग्यन्त (जिस के अन्त में स्वार्थ में णि किया गया हो) दुलि धातु के स्थान में 'रसोल' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-बोलयात रहोलइ मादेश के प्रभावपक्ष में बोलाइ (वह झुलाता है) ऐसा रूप बनता है।
७२० -- प्रयन्त रजि धातु के स्थान में 'शव' यह पादेश विकल्प से होता । जैसे-रज्जयति-र.वेइ प्रादेश के अभावपक्ष में-रजेह (वह रंग लगाता है) यह रूप होता है।
७२१-- प्यन्त घटि' धातु के स्थान में परिवा' यह मावेश विकल्प से होता है। जैसे
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.. *प्राकृत-व्याकरणम् * .
चतुर्थ पादः घटयति-परिवाडे, मादेश के प्रभाव-पक्ष में घोह (वह निर्माण कराता है) यह कप बनता है।
२२- प्रयन्त वेष्टि धातु के स्थान में परिवाल' यह प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-वेष्टयति--परिधालेइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में बेठे (बह लपेटता या लघेदाता है) यह रूप बन जाता है।
७२३.----वृसिकार फरमाते हैं कि इस सूत्र से पहले के सूत्रों में रिंग की अनुवस्ति ग्रहण की जाती थो, किन्तु यहां से इस की निवृत्ति हो जाती है। कत्र धातु के स्थान में किण' यह आदेश होता है। यदि कन धातु के पूर्व विउपसर्ग हो तो इसके स्थान में 'बके' तथा सूत्रोक्त धकार के कारण कि यह प्रादेश भी हो जाता है। जैसे---१-क्रोणाति किण (वह खरीदता है), २-विक्रोणाति-विक्के इ, विविक्राइ (वह बेचता है। यहां कत्र को किण तथा वि उपसर्गपूर्वक कञ् धातु को के और किण ये दो प्रादेश किए गए हैं।
७२४--भी धातु के स्थान में भा और वोह ये दो प्रादेश होते हैं । जैसे-१-बिभेति भाइ, बीहर (वह डरता है),२-भोतम् भाइ, श्रीहि (डरा हुना) यहां पर भी धातु को भा प्रादि ये दो प्रादेश किए गए हैं। बहुलाधिकार के कारण कहीं पर ये प्रादेश नहीं भी होते । जैसे- भीतः- भीमो (डरा हुमा) यहां पर भी को 'भा' प्रादि प्रादेश नहीं हो सके।
७२५-~याङ् (आ) उपसर्ग-पूर्वक ली धातु के स्थान में अल्ली यह पादेश होला है । जैसे१- आलीयते प्रल्लीप्राइ (वह प्रालिशान करता है, अथवा वह आता है), २ . आलीनः अल्लीणो (आय या यही ती बालकह रोशन्या गया है।
७२६-नि' उपसर्ग-पूर्वक लील-धातु के स्थान में १-गिलीअ, २--रिगलुषक, ३-णिरिग्घ, ४-लुक, ५-लिक्क पोर --हिरक- ये प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-निलीयते-गिलीपाइ, जिलुक्कद, पिरियड, लुक्कइ,लिक्का लिहक्कई देशों के अभावपक्ष में निलिमई (वह छिपता है) यह रूप बनता है।
७२७-वि उपसर्गपूर्वक लीङ् धातु के स्थान में विरा यह आदेश विकल्प से हता है। जैसेविलोपते-विराइ आदेश के प्रभावपक्ष में बिलिज्म (यह विनष्ट होता है) यह रूप बन जाता है।
२८-रुघातु के स्थान में इज और रुट ये दो प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे -रोति-- रुजइ, हाई प्रादेशों के अभावपक्ष में वह यह प्रावाज करता है) ऐसा रूप बन जाता है।
७२६. श्रुटि (श्रु) धातु के स्थान में 'हणं यह मादेश विकल्प से होता है। जैसे-शृणोति= हाइ, आदेश के अभावपक्ष में सुणइ (वह सुनता है) ऐसा रूप होता है। पाणिनीय व्याकरण में श्रु श्रवणे धातु पढा गया है जबकि प्राचार्य हेमचन्द्र श्रुटि यह कहकर इसे टित् स्वीकार करते हैं।
७३०-- धूगि (धू) धातु के स्थान में 'धुद यह प्रादेश विकल्प से होता है । जैसे-धुनोतिघुवइ, प्रादेश के प्रभावपक्ष में धुणा (वह काम्पता है) ऐसा रूप बन जाता है।
७३१- भू धातु के स्थान में १-हो, २-हुब और ३-हब ये तीन पादेश विकल्प से होते हैं। जैसे ----१ - भवति होइ हुबइ,हवद (वह होता है),२-भवन्ति होन्ति,हुवन्ति हन्ति(वे होते हैं) यहां भूधातु को हो आदि आदेश विकल्प से किए गए हैं।मादेशों के प्रभावपक्ष में ३-भवति भवइ, यह रूप होता है। ४-परिहीनविभवः परिहीणविहवो जिसकी सम्पत्ति नष्ट हो गई),५.-भवितुम् कसा भविस (होने के लिए), ६-प्रभवति-पभवई (वह समर्थ होता है), ७-परिभवति -परिमन ई (वह पराजय करता है, तिरस्कार करता है)।-सम्भवति संभवइ (वह उत्पन्न होता है) यहां पर
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• पतुर्थपादः
* प्राकृत-ध्याकरणम् * प्रस्तुत सूत्र से कोई कार्य नहीं किया गया, किन्तु ९७४ सूत्र से ऊकार के स्थान में प्रव' यह आदेश किया गया है। बहलाधिकार के कारण कहीं पर प्रस्तुत सूत्रोक्त प्रदेशों के अतिरिक्त अन्य प्रादेश भी होते हैं। जैसे-१-उभयतिथ्य उसुमाइ (वह उत्पन्न होता है। २-भूतम्-भत्तं (हुमा) यहां पर भूधातु के ऊकार के स्थान में उकार तथा प्रकार ये प्रादेश क्रमशः किए गए हैं।
७३२---वित् (जिस में वकार इत् हो) प्रत्ययों को छोड़कर भूधातु के स्थान में है यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-~~-भवन्ति हुन्ति (वे होते हैं), २-भवन - हुन्तो (होता हुआ) यहां पर भूधातू को है यह प्रादेश किया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि सरकार ने प्रविति' इस पद का क्यों ग्रहण किया है ? उत्तर में निवेदन है कि भवति होइ, मादि स्थलों में वित् (तिव) प्रत्यय होने पर भू धातु को कहीं यह आदेश न हो जाए, इस दरिद से सत्रकार ने वित्' प्रत्यय परे रहने पर इस प्रादेव का निषेध कर दिया है। - ७३३--भूधातु का कर्ता यदि पथक् और स्पष्ट हो तो इस धातु के स्थान में रिणवाट' यह प्रादेश होता है। जैसे- भवतिम्-णिवई (वह अलग होता है, या स्पष्ट होता है) यहाँ पर जो पृथक पौर स्पष्ट कर्ता का उल्लेख किया है, इसका अभिप्राय इतना ही है कि भूधातु का जब यह मक होता है अथवा यह स्पष्ट होता है ऐसा अर्थ होता है तभी इसके स्थान में रिंगबर यह प्रादेश होता है, अन्यथा नहीं । जैसे-वासको भवतियालयो होइ (बालक होता है यहां भू धातु का उक्त अर्थ न होने से प्रस्तुत सूत्र का कार्य नहीं हो सका।
___ ७३४-प्रभुकाक (जिस में प्रभु कर्ता हो) भूधातु के स्थान में 'हप्प' यह मादेश विकल्प से होता है। शिकार फरमाते हैं कि यदि भूधातु प्र-उपसर्ग पूर्वक हो तो उसका 'प्रभुत्व' यह अर्थ होता है। जैसे- अङ्ग एक में प्रभवति प्रगच्चिन न पहुप्पड(मन में ही वह प्रभु नहीं है,शारीरिक दृष्टि से शक्तिशाली नहीं है), पादेश के प्रभावपक्ष में--पम यह रूप बनता है।
७३५-- यदि क्त प्रत्यय परे हो तो भूधातु के स्थान में 'हू' यह प्रादेश होता है। जैसे----- भूतम्-हूयं (हुमा), २-अनुभूतम् =मराहूअं (अनुभव किया हुआ),३ प्रभूतम् = पहूयं (वहुत) यहां पर क्त-प्रत्ययान्त भूधातु को 'ह' यह प्रादेश किया गया है।
७३६-कृमि-कृग (डुकृञ्) धातु के स्थान में 'पुरण' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसेकरोति कुणह, प्रादेश के प्रभावपक्ष में-करा यह रूप होता है।
७३७-काण (जिसकी एक प्रांख न हो) के ईक्षित (देखने) का विषय हो अर्थात् कानी दष्टि से देखना,यह अर्थ प्रभीष्ट हो तो कृग (डुकृञ्) धातु के स्थान में 'णिआर' यह प्रादेश विकल्प से किया जाता है। जैसे-कापेक्षितं करोति-णिग्रारइ (वह कानी. दृष्टि से देखता है) यहां पर कृग् धातु का णिधार यह वैकल्पिक प्रादेश किया गया है।
७३८ -निष्टम्भविषयक (जिसका अर्थ निष्टम्भ-निश्चेष्ट (चेष्टा रहित) करना हो) तथा अवष्टम्भविषयक (जिसका अर्थ-प्रवष्ट झुकने की क्रिया सहारा लेने को क्रिया या क्रोध प्रादि हो) कृग धातु हो तो उसके स्थान में यथासंख्य-संख्या के अनुसार जिद और संवाण ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। अर्थात् निष्टम्भविषयक कृगि धातु को रिगाह और अवष्टम्भविषयक कृगि धातु को संवारण यह आदेश होता है। जैसे----१-निष्टम्भं करोति -णिछुहाइ (वह चेष्टा-रहित करता है), २.--अवष्टम्भं करोति-संदाणइ (वह झुकने या सहारा लेने की क्रिया करता है, क्रोध करता है) यहाँ
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* प्राकृत व्याकरणम् ★
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चतुर्थपादः
पर कुगि धातु को मिट्ठूह आदि दो बादेश किए गए हैं।
७३६-श्रम-विषयक (जिस का श्रर्थं श्रम- मेहनत करना हो) कृगि धातु के स्थान में 'वावम्फ' यह श्रादेश विकल्प से होता है। जैसे—-धमं करोति-वावम्फइ ( वह श्रम करता है) यहां पर कृमि धातु को 'बाम्फ' यह प्रादेश किया गया है।
७४०"मन्यु (क्रोध) करने से जब होठों में मालिन्य ( कालापन, मैलापन) हो" इस अर्थ अपना विषय (अर्थ) बनाने वाले कृमि धातु के स्थान में 'विश्वास' यह प्रदेश विकल्प से होता है । जैसे—मन्युना ओष्ठं मलिगं करोति = मिथ्योल ( वह क्रोध से होठों को मलिन खराब कर रहा है) प्रदेशों के प्रभाव पक्ष में मनुरा ओट्ट मलिरगं करेड' यह रूप बन जाता है।
७४१ दशैथिल्य (शिथिलता- ढोलापन) विषयक (विषय-मर्थ हो जिस का) तथा लम्बन ( लटकना, भूलना) विषयक कृमि धातु के स्थान में 'पहल' यह प्रदेश विकल्प से होता है । जैसे-शिथिलो भवति, लम्बते या = पयल्लइ ( वह शिथिल होता है, अथवा लटकता है, भूलता है) यहां पर कृगि धातु को 'पहल' यह आदेश किया गया है।
७४२ - निष्पतन-विषयक (जिस का अर्थ झपट कर निकलना, शीघ्र बाहिर माना हो) अथवा छोटन विषयक (जिस का अर्थ माच्छोटन उँगलिया चटकाना हो। कृमि धातु के स्थान में 'नोयह प्रदेश विकल्प से होता है। जैसे- विपतति, आच्छोदयति वाणी लुक्छ (वह झपट कर निकलता है, अथवा उंगलियां चटकाता है) यहां पर कृमि धातु को गीलुञ्छ यह आदेश किया गया है ।
७४३-क्षुरविषयक (जिस का अर्थ क्षुर-उस्तुरे से सम्बन्धित हो) कृगि धातु के स्थान में 'कम्म' यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे क्षुरं करोति कम्मद (क्षुर-सम्बन्धी कार्य करता है, हजामत बनवाता है) यहां पर कृगि धातु को कम्म यह प्रादेश किया गया है ।
७४४- चाटुविषयक (जिसका अर्थ वाटु खुशामद करना हो) कृगि धातु के स्थान में 'गुलाल' यह श्रादेश विकल्प से किया जाता है। जैसे-बाद करोति गुललइ ( वह खुशामद करता है) यहां पर कृति धातु की 'गुलस' यह प्रादेश किया गया है ।
alhot
- बिम्हर, ७४५ -- स्मृ धातु के स्थान में १ र २ भूर, ३-भर, ४-भल, ५--लड, ६-७-सुमर, ८--पयर और E-पम्मूह ये ९ प्रदेश विकल्प से होते हैं। जैसे- स्मरति भरइ, क्रूरइ, भरइ, भलाइ, लढइ, विम्हरद, सुमरइ, पर, पम्हुहइ प्रदेशों के प्रभावपक्ष में सरह ( वह याद करता है) यह रूप बन जाता है ।
★ अथ घाटवादेश-विधिः (ब) ★
७४६ - विस्मुः परहस- विम्हर बीसराः । ८ । ४ । ७५ । विस्मरतेरेते आदेशा भवन्ति । पम्हुसद, विम्हरs, वीसरह ।
७४७ - व्याहृनेः कोक्क पोषकौ । ८ । ४ । ७६ । व्याहरतेरेतावादेशौ वा भवतः । start | ह्रस्वत्वे तु कुक्कई । पोक्कइ । पक्षे, बाहरं ।
७४८ - प्रसरेः पल्लोवेल्लौ । ६ । ४ । ७७ । प्रसरतेः पयल्ल, उवेल्ल इत्यावादेशौ वा भवतः । पयल्लइ, उवेल्लइ, पसरइ ।
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चतुर्थ पादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम. ७४६ --महमहो गन्धे । ८ । ४ । ७८ । प्रसरतर्गन्धविषये महमह इत्यादेशो वा भवति । महमह्इ मालई : मालइ-गन्धो पसरइ । गन्ध इति किम् ? पसरह ।
७५०-निस्सरेणीहर-नील-धाड-वरहाडाः ।।४।७९ । निस्सरतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । णीहर६, नीलई, धाड, वरहाडई, नीसरह ।
७५१-जाने जग्गः । ८ । ४१.८० जागर्तेर्जग्ग इत्यादेशो वा भवति । जग्गइ । पक्षे जागर ।
७५२-व्याप्रेराअड्डः।।४।८१ । व्याप्रियतेराअड्ड इत्यादेशो वा भवति । प्राअड्डेइ, वानरेइ ।
७५३-संगे. साहर-साहट्ठौ । ८ । ४। ८२ । संवृणोतेः साहर, साहट्ट इत्यादेशौ वा भवतः । साहर इ, साहट्टइ, संवरइ ।
७५४-प्रादृङ: सन्नामः । ८ । ४ । ८३। माद्रियतेः सन्नाम इत्यादेशो वा भवति । सन्नामइ, पादरइ।
७५५-प्रहगेः सारः।।४।८४ । प्रहरते: सार इत्यादेशो वा भवति । सारइ, पहर।
७५६-अवतरेरोह-ओरौ ।। ४ । ८५ । अवतरते: प्रोह, पोरस इत्यादेशी वा भवतः । पोहइ, प्रोरसाइ, प्रोपर।
७५७--शकेश्चय-तर-सीर-पारा.। ८ । ४। ८६ । शलोते रेते चत्वार प्रादेशा वा भवन्ति । चयइ, तरह, तारइ, पारई, सक्कइ । त्यजतेरपि चयही हानि करोति । तरतेरपि तरई। तीरयतेरपि तीरइ। पारयतेरपि पारे । कर्म समाप्नोति ।
७५८-फक्कस्थक्कः । ८।४।८७ । फक्कतेस्थक्क इत्यादेशो भवति । धक्का ! ७५६-श्लाघः सलह । ८।४।८८ । श्लाघतेः सतह इत्यादेशो भवति । सलहइ। ७६०-खचेर्वेअडः ।।४।८६ । खचतेर्वेनड इत्यादेशो वा भवति । वेप्रडई, खचद।
७६१-पचे सोल्ल-पउली । ८ । ४ । १० पचलेः सोल्ल, पउल इत्यादेशो वा भवतः । सोल्लइ, पउल इ, पयछ ।
७६२-मुचेश्छावहेड-मेल्लोस्सिकक-रेप्रव-णिल्लुछ-धंसाडाः । ८ । ४ । ६१ । मुञ्चतेरेते सप्तादेशा वा भवन्ति । छड्डई, अवहेड इ, मेल्लङ, उस्सिकाइ, रेपवई, गिल्लुञ्छई, धंसाडइ । पक्षे मुनाई।
७६३----दुःखे णिवलः १८१४६२॥ दुःख विषयस्य मुचेः रिणव्वल इत्यादेशो वा भवति । णिवलेइ दुःखं मुञ्चतीत्यर्थः।
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IngAPAARI
* प्राकृत-ध्याकरणम् *
चतुर्थवाद: ७६४-वञ्चेहब-वेलव-जूरबोमच्छाः । ।४।६३ । वंचतेरेते चत्वार प्रादेशा था भवन्ति । वेवा, वेलबइ, जूरवइ, उमच्छर, वञ्च ।
७६५--रचेरुगहावह-विडविड्डा । ८ । ४ । ६४ । रचेर्धातोरेते त्रय प्रादेशा वा भवन्ति । उगहई, अवहइ, विडविडुइ, रयइ । - ७६६-समारचेस्वहस्थ-तारव-समार-केलायाः।। ४ । ६५ । समारचेरेते चत्वार प्रादेशा वा भवन्ति । उनहत्य ६, सारवइ, समारइ, केलाय इ, समारयइ ।
७६७-सिधेः सिञ्च-सिम्पौ।। ४।६६ । सिवरेतावादेशौ वा भवतः । सिञ्चाइ सिम्पइ, से अई।
७६५-प्रच्छः पुच्छः। ८ । ४१६७। पृच्छेः पुच्छादेशो भवति । पुन्छ । ७६९-गजेबुक्कः । ८।४।६८ । गर्जतेबुक इत्यादेशो वा भवति । बुक्का,गज्जइ ।
७७०-वृषे ढिक्कः । ८।४।१६ । वर्षकत कस्य गर्नेटिक इत्यादेशो वा भवति । हिक्कई । वृषभो गजेति ।
७७१-राजेरग्ध-छज्ज-सह-रीर-रेहा: ।।४११००। राजेरेते पञ्चादेशा वा भवन्ति । प्रग्याइ, छज्जइ, सहइ, रोरद, रेहइ, रायइ ।
७७२---मस्जेराउड-णिउड्ड-बुड्ड-खुप्पाः । ८ । ४ । १०१। मजनतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । पाउड्ड, रिण उड्डइ, बुड्डा, खुप्पइ, मज्जइ । - ७७३-पुजेरारोल-बमालौ। ८।४ । १०२। पुञ्जरेताबादेशी वा भवतः । प्रारोलइ, वमालइ, पुञ्ज ।
७७४-लस्जेर्जीह ।।४।१०३। लज्जतेर्जीह इत्यादेशो वा भवति । जोहाइ, लज्जइ ।
७७५-तिजेरोसुक्कः । ८।४। १०४ । तिजे रोसुक्क इत्यादेशो वा भवति । प्रोसुक्का, अरणं । : ७७६-- मृजेहाधुस-लुञ्छ-पुञ्छ-युस-फुस-पुस-लुह-हुल-रोसाणाः । ८।४। १०५ । मृजेरेते नवादेशा वा भवन्ति । उग्घुसाइ, लुञ्छई, पुञ्छ, सइ, फुसद, पुसइ, लुहइ, हुलाइ, रोसारराइ । पक्षे मज्जई।
७७७-मञ्जर्वेमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूड-विर-पविरज-करञ्ज-नीरजाः । ८ । ४॥ १०६ । भञ्जरेते नवादेशा वा भवन्ति । वेमय इ, मुसुमूरइ, मुरइ, सूरइ, सूडाइ, चिरइ, पविरजह, कराइ, नीरज, मनइ ।
७७८-अनुवजे; पडिप्रग्गः । ८ । ४ । १०७ । अनुबजेः पडिगा इत्यादेशो वा भवति ।
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चतुर्थषादः
★ संस्कृत-हिन्दो-टीकाद्वयोपेतम् * पडिप्रग्गड, अणुवच्चाइ।
७७६-अर्जेविडवः ।।४.१०८॥ अर्जेविढव इत्यादेशो वा भवति । विदवइ, प्रज्जइ।
७८०-युजो जुञ्ज-जुज्ज-जुष्याः ! ८ । ४ । १०६ । युजो जुञ्ज, जुज्ज, जुप्प इत्यादेश! भवन्ति । जुन इ, जुज्जइ, जुप्पह ।
७५१--भुजो भुज-जिम-जेम-कम्माण्ह-चमढ-समाण चड्डा ।।४।११० । भुज एतेऽष्टादेशा भवन्ति । भनहजिप, जेमइ, कम्भेइ, अाह, चमढइ, समारग इ, चड्डद ।
७८२-वोपेन कम्मकः । ८।४।१११ । उपेन युक्तस्य भुजेः कम्मब इत्यादेशो वा . भवति । कम्मवइ, उपहनाई।
७६३-घटेंगढः । ८ । ४ । ११२। घटतेगढ इत्यादेशो वा भवति । गढइ, घडइ ।
७८४-समो गलः । ८।४ । ११३ । संपूर्वस्थ घटतेर्गल इत्यादेशो वा भवति । संगल इ, संघडइ ।
७६५-हासेन स्फुटमुरः । ८ । ४ । ११४ । हासेन करणेन यः स्फुटितस्तस्य मुरादेशो वा भवति । मुरइ । हासेन स्फुटति ।।
७६६--मण्डेश्चिञ्च-चिमचन-चिञ्चिल्ल-रोड-टिविडिक्काः ।।४।११५ । मण्डेरेते पञ्चादेशा वा भवन्ति । चिवई.चिञ्चप्रह,चिविल्लइरोडइ,टिविडिक्कइ, मण्डइ ।
७८७--तुडेस्तोड-तुट्ट-खुट्ट-खु डोक्खुडोल्लुक्क-णिलुषकन्तुक्कोल्लूराः।८।४ । ११६ । तुडेरेते नवादेशा वा भवन्ति । तोड, तृट्टइ, खट्टइ, खुडइ, उक्खुड्डइ, उल्लुक्कइ, रिगलुक्कड, लुक्कई, उल्लूरड, तुडइ।
७८८-धूर्णो घुल-घोल-धुम्म-पहल्लाः । ८ । ४ । ११७ । घुणे रेते चत्वार प्रादेशा भवन्ति । धुलइ, घोलइ, बुम्मई, पहल्लइ ।
७२६-विवृतेदसः ।।४।११८ । विवृतेढस इत्यादेशो वा भवति । ढंसद, विवइ । ७६०-क्वथेरट्टः। ८ । ४ । ११६ । क्थेरट्ट इत्यादेशो वा भवति । अट्टइ, कढई । ७६१---ग्रन्थो गण्ठः । ८ । ४ । १२० । ग्रन्थेगंग्ठ इत्यादेशो भवति । गण्ठइ, गण्ठो ।
७६२-मन्थेघुसल-विरोलौ । ८ । ४ । १२१ । मन्थेघुसल, बिरोल इत्यादेशौ वा भवतः। घुसलइ, विरोलइ, मन्थाइ ।
७६३--ह्लादेरवनच्छः । ८ । ४ । १२२। लादतेर्ण्यन्तस्याण्यन्तस्य च प्रवप्रच्छ इत्यादेशो भवति । अव प्रच्छा, लादते हादयति वा । इकारो ण्यन्तस्यापि परिग्रहार्थः।।
७९४ ---नेः सवो मज्जः। ८ । ४ । १२३ । निपूर्वस्य सदो मज्ज इत्यादेशो भवति । प्रत्ता एत्व गुमउगई।
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★ प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपाद:
७६५ - छिदेदु हाव-छिल्ल- णिज्कोड-निब्बर पिल्लूर-लूराः । ८ । ४ । १२४ ॥ छिदेरेते षडादेशा वा भवन्ति । दुहावइ, छिल्लड, गिज्झोडइ, रिगब्बरद्द, गिल्लूरइ, खुरई, पक्षे, छिन्द ।
७६६ - प्राडा प्रोग्रन्दोद्दालो । ८ ४१.१२५ | प्राह युक्तस्य विदेशेयन्द, उद्दाल इत्यादेशो वा भवतः । श्रोप्रन्दइ, उद्दालक, श्रच्छिन्द ।
२८
७६७-- मृदो मल-मढ परिहट्ट-खड-चड्ड-मड-पन्नाडा: । ६ । ४ । १२६ । मृद्नातेरेते सप्तादेशा भवन्ति । मलई, मटर, परिहट्टइ, खडुइ, चहुइ महुइ, पन्नाडइ ।
1
७६८ - स्पन्देहखुसुखुलः । ८ । ४ । १२७ । स्पन्देश्चुलुचुल इत्यादेशो वा भवति । चुलुचुल, फन्दद।
७६६- निरः पदेवल । ८ । ४ । १२८ । निपूर्वस्य पदेर्बल इत्यादेशो वा भवति । निव्वलs, निप्पज्जइ ।
८०० - विसंवदेविश्रट्ट विलोट्ट-फंसा । ८४ । १२६ । विसंपूर्वस्य वदेरेते त्रय प्रादेशा वा भवन्ति । विग्रदृइ बिलोट्टइ, फंसइ, दिसंबयई ।
८०१-शदो झुंड पक्खोडौ । ८ । ४ । १३० । श्रीयतेरेतावादेशौ भवतः । भडइ, reates |
८०२ -- श्राक्रन्देहः । ८ । ४ ११३१ । श्राक्रन्देशहर इत्यादेशो वा भवति । गीहरइ, मक्कन्द |
8
८०३ - खिदेर्जूर - विसूरौ । ८ । ४ । १३२ । खिदेरेतावादेशौ वा भवतः । जूरइ, बिसुरइ, खिज्जइ ।
८०४- - राधेरुत्थङ्घः । ६ । ४ । १३३ । रुरुत्य इत्यादेशो वा भवति । उत्थङ्घ,
रुन्धइ ।
८०५- निषेधेर्हक्कः । ८ । ४ । २३४ । निषेधते इत्यादेशो वा भवति । हक्क,
निसेहर ।
८०६ - क्रुधेर्जूरः । ८ । ४ । १३५ । क्रुधेर इत्यादेशो वा भवति । जुरइ, कुज्झइ । -जनो जा-जम्मौ । ८ । ४ । १३६ । जायतेर्जा, जम्म इत्यादेशौ भवतः । जाग्रइ,
603
जम्मइ ।
८०८
-तनेस्तड-तड-तड्डव-विरलाः । ८ । ४ । १३७ | तनेरेते चत्वार श्रादेशा वा भवन्ति । तडइ, तडुइ, तड्डबइ, विरल्लड, तराइ ।
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
२९
८०६ - नृपः स्थिष्पः । ८ । ४ । १३८ । तृप्यतेः स्थिम्प इत्यादेशो भवति । बिप्पइ | ८१० - उपसर्पेरलिनः । ८ । ४ । १३६ । उपपूर्वस्य सृपेः कृतगुरणस्य अल्लिम इत्यादेशो वा भवति । परिग्रह, उवसप्पइ ।
८११ - संतपेङ्खः । ८४ । १४० । संतपेङ्ख इत्यादेशो वा भवति । इ । पक्षे, संतप्पर ।
८१२- व्यापेरोअग्गः । ८ । ४ । १४१ | व्याप्नोतेरोग इत्यादेशो वा भवति । sters, aids |
८१३ - समापेः समाणः । ८ । ४ । १४२ । समाप्नोतेः समारग इत्यादेशो वा भवति । समाइ, समावेइ ।
८१४- क्षिपेलत्थाडुक्ख-सोल्ल- पेल्ल-गोल्ल-छह-हुल परी घत्ताः । ८ । ४ । १४३ । क्षिपेरेते नवादेशा वा भवन्ति । गलत्याइ श्रडुक्खड, सोल्लइ, पेल्लइ, गोल्लड, हस्वत्वे तु पुल्लइ, छुहइ, हुल, परोड, वत्तइ, खिवइ ।
८१५ – उत्क्षिपेलगुच्छोत्थंघाल्लस्योम्भु लोरिस हवा | ८ । ४ । १४४ । उपूर्वस्य क्षिपेरेते पड. देशा वा भवन्ति । गुलगुञ्छद, उत्थङ्घइ, मल्लरथई, उत्तर, उस्क्किर, हक्ges, उक्eिet |
८१६ - प्राक्षिपेर्णीरवः । ८ । ४ । १४५ | प्राङ्पूर्वस्य क्षिपेर्णीरव इत्यादेशो वा भवति । शीरवई, fores #
८१७ -- स्वपेः कमवस- लिस-लोट्टा: । ८ । ४ । १४६ | स्वपेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । कमaas, लिसइ, लोट्टई, सुझइ ।
८१८ - वेपेरायम्ब यौ । ८४ । १४७ । वेपे: आयम्ब, प्रायज्भ इत्यादेशो वा
भवतः । श्रयम्बद, आयज्झद, वेव
।
८१६- लिपेज-बडवडी
। ४ । १४८ । विलपे, वडवड इत्यादेशी वा भ
वतः । झङ्खङ, वडवडइ, विलवद ।
८२० - लिपो लिम्पः । ८ । ४ । १४६ । लिम्पतेः लिम्प इत्यादेशो भवति । लिम्पइ । ८२१ - गुप्येवर णडौ । ८ । ४ । १५० । गुप्यते रेतावादेशौ वा भवतः । विरइ, गुडइ । पक्षे गुप्पइ ।
८२२ - पोहो निः । ८ । ४ । १५१ । कपेः प्रवह इत्यादेशो व्यन्तो भवति । श्रवहावे, कृपां करोतीत्यर्थः ।
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प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
८२३- प्रदीपेस्तेव सन्दुम-सन्धुक्काम्भुत्ताः । ८ । ४ । १५२ । प्रदीप्यतेरेते चत्वार श्रादेशा वा भवन्ति । तेस्रवइ, सन्दुमइ, सन्धुक्कड़, प्रब्भुतइ, पलीवइ ।
८२४ - लुभः संभावः । ८ । ४ । १५३ । लुभ्यतेः संभाव इत्यादेशो वा भवति । संभा वड़, लुग्भद्द ।
८२५ - क्षुः खर पहा । ४ । १५४ धुः खजर, पड्डुह इत्यादेशो वा भवतः । खउरई, पड्डुहई, खुब्भइ ।
८२६- आडो रमे रम्भ-ढव । ८ । ४ । १५५ । श्राङ: परस्य रमे रम्भ, दव इत्यादेशौ वा भवतः । आरम्भव, आवड, प्रारभई ।
८२७ - उपालम्भेर्भड - पच्चार - वेलवाः । ८ । ४ । १५६ । उपालम्भेरेते श्रय प्रदेशा वा भवन्ति । भङ्खड़, पच्चारइ, बेलवइ, उवालम्भइ ।
८२८--प्रवेज् म्भो जम्मा ८४ । १५७ | जृम्भेजंम्भा इत्यादेशो भवति, वेस्तु न भवति । जम्भाइ, जम्भामह । श्रवेरिति किम् ? केलिपसरो विग्रम्भइ ।
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८२६-भाराकान्ते नमेणिढः । ८ । ४१५८ | भाराक्रान्ते कर्तरि नमेरिसुढ इत्यादेशो भवति । णिसुढइ, पक्षे रावइ । भाराक्रान्तो नमतीत्यर्थः ।
८३०- विश्रमेणिया । ८ । ४ । १५६ | विश्राम्यतेरिfart इत्यादेशो वा भवति । रिगव्वाइ, वीसमइ ।
८३१ - प्रा* मेरोहावोत्थारच्छुन्दा: । ६ । ४ । १६० । श्राक्रमतेरेते श्रय श्रादेशा वा भवन्ति । श्रोह्राव, उत्थारद्द, छुन्दर, अक्कम
८३२--भ्रमेष्टिरिटिल्ल-डुण्डुल्ल ढण्ढल्ल चक्कम्म-मम्मड-भमड-भमाड-तलभ्रष्ट भ टम्प - भुम-गुम-फुम - फुस दुम- दुस- परी- पराः । ८ । ४ । १६१ । भ्रमेरेतेऽष्टादशादेशा वा भवन्ति । टिरिटिल्लर, ढुण्डुल्लड, ढण्ढल्लई, चक्कमइ, सम्मडद, भमडइ, भमाद, तलअण्ट, झण्टइ, झम्पइ, भुमइ, गुमइ, फुमइ, फुसइ, बुमइ, दुसइ, परी, परइ, भमइ ।
८३३ – गमेरई इच्छा णुवज्जावज्ज सोक्कुसाक्कुस-पच्चड्ड- पच्छन्द- णिम्सह-पीणी- पीलुवक-पव-रम्म-परिश्रल्ल बोल-परिश्रल-गिरिणास णिवहाब सेहावहराः ||४११६२ | गमेरेते एकविंशतिरादेशा वा भवन्ति । श्रई, प्रइन्छ, भरयुवज्जइ, प्रवज्जसद्द, चक्कुसर, प्रक्कुस, पच्चड्डद्द, पच्छन्दई, रिणम्महद्द, शीड, रगीराइ, गोलुक्कर, पदग्रह, रम्भइ, परिअल्इ, बोलाइ, परिश्रलइ, गिरिरणासह, शिवहर, धवसेहरू, श्रवहर, पक्षे गच्छइ । हम्मद, हिम्मइ, सीहम्मद, माहम्मद, पहम्मद्द इत्येते तु हम्म गतावित्यस्यैव भविष्यन्ति ।
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चतुर्थपादः
mereummernamruaamanartmernamaanaynary
* प्राकृत-व्याकरणम् ★ ६३४-पाडा अहिपञ्चचुषः ।।४।१६३३ माङा सहितस्य गमेः अहिपच्चुन इत्यादेशो वा भवति । अहिपच्चुनइ । पक्षे प्रागच्छ।।
५३५-समा अभिडः । ८ । ४ । १६४ । समा युक्तस्य गमेः अभिड इत्यादेशो वा भवति। प्रतिय, संगम्य ..::: . . . . . ..
८३६---अभ्याडोम्मत्थः। ८ । ४ । १६५ । अभ्याङ्भ्यां युक्तस्य गमेः उम्मत्थ इत्यादेशो वा भवति । उम्मत्थइ, अब्भागच्छइ, अभिमुखमागच्छतीत्यर्थः ।
८३७-प्रत्याङा पलोट्टः।८।४। १६६ । प्रत्याझ्या युक्तस्य गमेः पलोट्ट इत्यादेशो वा भवति । पलोदृश, पच्चागच्छाइ ।
८३८ शमेः पडिसा-परिसामौ । ८।४ । १६७ । शमेरेतावादेशी वा भवतः। ए. डिसाइ, परिसामइ, समइ।
३६-रमेः संखुड्ड-खेड्डोमाब-किलिकिञ्च-कोटुम-मोट्टाय-णीसर-वेल्लाः । ८ । ४ । १६८ । रमते रेतेऽष्टादेशा वा भवन्ति। संखुड्डइ, खेड्डइ, उन्भाइ, किलिकिञ्चइ, कोट्टुमइ, मोट्टाय इ. पीसरह, वेल्लइ, रमह ।
४०--पूरेरग्घाडाग्यबोद्ध माङ्ग माहिरेमाः । ८ । ४ । १६६ । पूरेरेते पञ्चादेशा वा भवन्ति । अग्घाडइ, अग्घवइ, उद्धमाइ, अङगुमई, महिरेमइ, पूरह ।
८४१----स्वरस्तुवर-जाडौ।।४ । १७० । त्वरतेरेतादादेशी भवतः । तुवर इ, जनडई, तुवरन्तो, जमडन्तो।
८४२-त्यादिशत्रोस्तूरः । ८ । ४ । १७१ । त्वरतेस्त्यादौ शतरि च तूर इत्यादेशो भवति । तूरइ, तुरन्तो।
८४३-तुरोश्यादौ ।।४।१७२॥ त्वरोऽत्यादौ तुर आदेशो भवति । तुरिमो, तुरन्तो। ८४४-क्षर. खिर-झर-पझर-पच्चड-णिसचल-
णिमाः । ८।४।१७३ । क्षरेरेते षडादेशा भवन्ति । खिरइ, झरइ, पज्झरह, पच्चड, णिच्चलइ, पिटुअइ ।
८४५-उच्छल उत्थल्लः ।८४।१७४। उच्छलतेरुत्यल्ल इत्यादेशो भवति । उत्थल्लइ ।
८४६-विगलेस्थिप्प-मिट्टहा।८।४ । १७५ । विगलतेरेताबादेशी वा भवतः। थिप्पड, रिणवह इ, विगलाइ।
८४७-दलि-बल्योदिसट्ट-वम्फो। ८।४ । १७६ । दलेर्वलेश्च यथासंख्यं विसट्ट, वाफ इत्यादेशी वा भवतः । विसट्टइ, बम्फइ, पक्षे दलइ, बलइ। *ति प्राविर्यस्य स त्यादिः, तस्मिन् त्यादावित्यर्थः ।
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः ८४८ --- शे. फिर-फिट्ट-फुड-फुट्ट-चुक्क भुल्ला .। । ४ १७७ । भ्र शेरेते षडादेशा वा भवन्ति । फिडइ, फिट्टइ, फुडइ, फुट्टइ, चुक्कइ, भुल्लइ । पक्षे भसइ।
८४६-नशेणिरणास-णिवहावसेह-पडिसा-सेहावहराः।८।४।१७८ । नशेरेते घडादेशा वा भवन्ति । गिरणासइ, रिणवहइ, असेहइ, पडिसाइ. सेहइ, अवहरइ। पक्षे नस्सइ ।
१५०-अवारकाशो वासः । । ४ । १७६ । अवाल्परस्य काशो वास इत्यादेशो भवति । प्रोवासइ।
* अथ धात्वादेश-विधिः (ख) * अस्मिन् प्रकरणेऽपि पूर्वप्रकरणतुल्यमेव धात्वादेशविधिः निरूप्यते
७४६-विस्मरति । विपूर्वकः स्मृधातुः विस्मरणे । विस्मृ+ तिब् । ७४६ सू० विस्मृधातोः पम्हुस, बिम्हर, बीसर इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे पहुसइ, बिम्हर, बोसः इति भवति ।
७४७- व्याहरति । व्याहृ पाख्याने । व्याह + तिव् । ७४७ सू० व्याहृधातोः बिकल्पेन कोक्क, पोक इत्यादेशो, ६२८ सू० तिव इचांदेशे कोक्का, पोक्का इति भवति । कोक्का, पोक्कर इत्यत्र ८४ सु० संयोगे परे ह्रस्वे कृते कुक्कर पुक्का आदेशाभावे-व्याह+इ, इत्यत्र ३४९ सू० यकारलोपे, ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे बाहर इति भवति ।
७४८-प्रसरति। प्रपूर्वक: सूधातुः प्रसार गरे । प्रमृ + तिव । ७४८ सू० प्रसूधातो. विकलपेन एयल्ल, उवेल्ल इत्यादेशी, ६२८ सू० तिव इचादेशे पयल्ला, उल्लई प्रादेशाभावे ३५० सू० रेफलीपे, ९०५ सू० ऋकारस्य अर इत्यादेशे पसरह इति भवति ।
. .७४६-प्रसरति मालती । गन्धः प्रसरतीत्यर्थे ७४९ सू० प्रसृधाताः विकल्पेन महमह इत्यादेश, ६२८ सू० तिवं इचादेशे महमहा इति भवन्ति । मालता। मालती सि । १७७ सू० तकारलापे, १११ ३७ सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० मकारलोपे मालई इति भवति । मालतोयम्धः । भालत्या-पुष्पविशेषस्थ गन्धः । मालतीगन्ध+सि। १७७ सू० तुकारलोपे, ४९१ सू० सों:, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे मालई-गन्धो इति भवति । प्रसरति । प्रमृ प्रसरणे । प्रस लिन् । ३५० सू० रेफलोपे, ९०५ सू० ऋ. कारस्य पर इत्यादेशे, तिव चादेशे पसरप इति भवति। वंकल्पिकत्वादय प्रस्तुतसूकस्य प्रवृत्त्वभावः । गन्ध इति किम् ? प्रसृधासुः यदि गन्धविषयको भवेत्तदैव प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिभवति,नान्यथा । यथा-- प्रसरति पसरई। गन्धविषयकत्वाभावादत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृतिनं जाता।
-निस्सरति ! निसपूर्वक: सूधातः निर्गमने। निस्स+तिन् । ७५० सू निस्सघातलीः विकल्पेन एणीहर, नील, घाउ, वरहाड इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे गोहरा, नोला, घाइ, पर. हाउ आदेशाभावे ३४८ सू० सकारलोपे, ४३ सू० इकारस्य दीधे, दीघत्वात् ३६३ सू० सकारस्य द्विस्वाभावे, ९०५ सू० ऋकारस्य अर इत्यादेशे मोसरइ इति सिद्धम्।।
७५१- जागति । जागृ निद्राक्षये । जागृ+तिद्, ७५१ सू० जागृधातोः विकल्पेन जम्म इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे जमा प्रादेशाभावे ९०५ सू० ऋकारस्य भर इत्यादेशे जागरह इति भवति ।
७५२ - व्याप्रियते व्यापार करोतीत्यर्थः । व्याप-धातुः व्यापारे । वि-मा-पृ+तिन् । ७५२ सू० व्यापृधातोः विकल्पेन भानड्ड इत्यादेशे, ६४७ सू० अकारस्य एकारे, ६२८ सू० तिव इचादेशे आ
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * अड्डे पादेशाभावे, व्याप+इ, इत्यत्र ३४९ सू० यकारलोपे, २३१ सू० पकारस्य वकारे, ९०५ सू० - कारस्य पर इत्यादेशे, अकारस्य एकारे बावरेड [व्यापार करोतीत्यर्थः] इति भवति ।
७५३-संवृणोति । संवृ संवरणे । संवृ+तिन् । ७५३ सू० संवृधातोः विकल्पेन साहर, साहस इत्यादेशी, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे शाहरण साहट्टा मादेशाभावे ९०५ सु० ऋकारस्य पर इत्यादेशे संबइ इति सिद्धम् ।
७५४ ---माद्रियते । यादृइ प्रादरे । प्राद+तिन् । ७५४ सू० प्राधातोः विकल्पेन सम्माम इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे सन्नामाइ मादेशाभाचे १०५ सू० ऋकारस्य अर इत्यादेशे आदर इति भवति । .... .. ७५५-प्रहरति । प्रधातुः प्रहारे । प्रह-+ तिन् । ७५५ सू० प्रहृयातोः विकल्पेन सार इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे सार प्रादेशाभाचे ३५० सु० रेफलोपे, ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे पहरइ इति भवति ।
७५६-अवतरति । अवतृ अवतरणे। अबत+ तिब् । ७५६ सू० अवतृधातोः बिकल्पेन श्रोह, पोरस इत्यादेशौ,६२८ सु० तिब इचादो ओहा, ओरसइ प्रादेशाभावे, १७२ सू० अवोपसर्गस्य स्थाने प्रोकारे, ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेश, १७७ सु० तकारलोपे ओपरा इति भवति ।
७५७ . शक्नोति । शगल सामध्यें। शक + तिन् । ७५७ सू० शक्धातोः विकल्पेन च4, तर, तीर पार इत्यादेशाः, ६२८ सु० तिव इचादेशे बघा, तर, तीर, पारा आदेशाभावे २६० सू० शकारस्थ सकारे, ९०१ सू७ ककारस्य द्वित्त्वे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे सबका इति भवति । स्यजतेरपीति । खया इति रूप केवलश धातारेक माह भवति, प्रत्युत त्यजुधातोरपि भवति । यथा-त्यति । त्यज त्यागे । त्यज् + तिन् । २८४ सू० त्यस्य चकारे, ११० सू० धातोरन्तेऽकारागमें, १७७ सू० जकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ, तिब इबादेशे चयइ इति सिद्धम् । एवमेव तरह इति तरतेरपि भवति । यथा--- तरति । तु तरणे । त+लिन् । ९०५ सू० ऋवारस्य पर इत्यादेश, तिब इचादेश तरह इति भवति । तीर इति रूपं तीच्यतेरपि भवति । यथा-तीरयति । तीर कर्मसमाती । तीर+णि+तिन् । ६३८८ मू० लिग: अकारे तीरइ इति भक्षि। पारेइ इति पारयतेरपि-पारधातोरपि भवति । यथा-पारयति । पार पारणे, समातौ च । पार+जिग् + तिब् । ६३५ सूणिग: एकारे पारेइ इति भवति । इदमत्र हार्दम-सह, तरह, तोरइ, पारद इत्येतानि रूपाणि केवलं शधातोरेव न बोध्यानि, परमेतानि रूपाणि मशः त्यज-त-तीर-पार-धातूनामपि भवन्ति ।
____७५८-फरकति । फक्रधातुः नौचंगती-मन्दगमने, असव्यवहारे च । फरक+तिम् । ७५.८ सू० फवधातोः स्याने थक्क इत्यादेशे, ६२८ सू० तिब इचादेशे थक्कर इति भवति ।
___E-- श्लाघते । इलाए लायाम् । श्ला+तिव। ७५९ सू० श्लाघ्वाती: स्वाने सलह इत्यादेशे, ६२८ सू० लिव इचादेशे सलाह इति भवति ।
७६०-खचति । खच पावनकरणे, बन्धने, सन्मुखाभिगमने च । खच्+तिन् । ७६० सु० खचधातोः विकल्पेन वेड इत्यादेशे, ६२८ सू० लिव इचादेशे बेमा प्रादेशाभावे ११० सू० धातोरन्लेकारागमे खचद्द इति भवति ।
७६१ --- पचति । पच पाके । पन्+तिव । ७६१ सू० पधातोः विकल्पेन सोल्ल, पउल इत्यादेशी, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेको सोहल, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे सुस्लाइ, पक्षलइ प्रादेशाभावे
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*प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः ९१० सू० धातोरन्ते कारागमे, १७७ सु० चकारलोपे, १५० सू० यकार तो पयह इति भवति ।
___७६२-मुञ्चति । मुच्ल मोचने । मुच् +तिन् । ७६२ सू० मुचधातोः स्थाने विकल्पेन छड्डु, अबहेड, मेल्ल, उस्सिक्क, रेभव,णिल्लुल्छ, धंसाड इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे षड्डइ, अबहै, मे, मि, माया, गिरजुन्छाद, धंसा आदेशाभावे ९१० धातोरन्तेऽकारागमे, १७७ सु० चकारलोपे सुअइ इति भवति ।
७६३--"दुःखं मुञ्चति" इत्यर्थ ७६३ सू० मुच्धातोः स्थाने किम्वल इत्यादेशे, ६४७ सू० अकारस्य एकारे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशेणवलेइ इति भवति ।
७६४ - वञ्चति । वञ्चधातुः बचने। वञ्च् + तित् । ७६४ सू० वञ्च-धातोः विकल्पेन वेहव, वेलव, जूरव, उमच्छ इत्यादेशाः,६२८ सू० तिब इचादेशे बेहबद, बेलवइ, जूरया, उमच्छ आदेशाभावे वञ्च् + इ इत्यत्र ९१० सू० धातोरस्तेऽकारागमे वचः इति भवति।
७६५- रचयति । रचधातुः रचनायाम् । रच् + तिव । ७६५ सू० रच्धातोः विकल्पेन उग्गह, अवह, विडविड इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिब इचादेशे उगहा, मवहा, विविडामादेशाभावे ९१० सू० अकारागमे, १७७ सू० चकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुती रया इति भवति ।
७६६-समारचयति । समारच्-धातुः सम्यग्-मर्यादय। रचनायाम् । समारच+लिन् । ७६६ सुः समारथेः विकल्पेन उवहस्थ, सारव, समार,केलाय इत्यादेशाः,६२८ सू० तिव इचादेशे उबहत्यक, सारवड, समारह केलायइ, प्रादेशाभावे ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे,१७४७ सु० चकारलोपे,१८० स० यकारश्रुती समारया इति भवति ।
. ७६५-सिवति । सिच्ल सेचने । मिच् + तिन् । ०६७ सू० मिच्धातोः स्थाने विकलोन मिञ्च, सिम्प इत्यादेशी, ६.२० स० तिव इचादेशे सिञ्चद, सिम्पइ प्रादेशाभावे ५०९ सू० इकारस्य एकारे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, १७७ सू• चकारलोपे से इति भवति ।
७६८ · पृछति । प्रचातुः पच्छायाम् । प्रच्छ+लिव । ७६८ सू० प्रच्छ्-धातोः स्थाने पुच्छ इत्यादेशे, ६२८ सू तिव इचादेशे पुछा इति भवति ।
७६६-गर्जति । ग गर्जने। ग+तिम् । ७६९ सू० गधातोः विकल्पेन बुक्क इत्यादेशे, ६२८ सु० तिवः स्थाने इचादेशे बुक्का पादेशामावे ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सु० जकारस्य द्वित्वे, ९१० सू० धातोरन्तकारागमे ग ति भवति ।
७०-वृषभी गर्मति इत्यर्थे ७७० सू० ग-धातोः स्थाने विकल्पेन ढिक्क इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे ढिक्का इति भवति ।
७७१- राजते । राज़ दीप्तौ। राज्+तिव् । ७७१ सू० रज्धातोः स्थाने विकल्पेन अग्ध,छम्ज, सह, रीर, रेह इत्यादेशाः, ६२८ सू० सिब इचादेशे अग्धा, छज्जा, सहा. रोरइ, रेहाइ प्रादेशाभावे ९.१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, १७७ सू० जकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ रापद इति भवति । . . ७७२---मजति । टुमस्जो-मस्ज़ शुद्धौ । मस्ज् +तिन् । ७७२ सू० मधातोः विकल्पेन पाउड्डु, णिउड्डु, बुड्ड, खुप्प इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे प्राउडर, णिउड्डइ, बुइ, खुप्पा आदेशाभावे ३४८ सू० सकारलोपे, ३६० सू० जकार द्वित्वे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकाराममे मज्जा इति भवति । . ७७३ पुजाति । पुज् राशीकरणे। पु+तिन् । ७७३ सू० पुष धातोः विकल्पेन ओराल, धमाल इत्यादेशो, ६२८ सू० सित्रः स्थाने इचादेशे ओरालाइ, घमासा आदेशाभावे ९१० सू० घातो
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عععععع
चतुर्थवादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * रन्तेऽकारागमे पुजा इति भवति ।
७७४-लमते । लस्ज् लज्जायाम् । लस्+ते । ७७४ सू० लस्धातोः विकल्पेन जीह इत्यादेशे, ६२८ सू० लिय': स्थाने इचादेशे ओहह प्रादेशाभावे ३४८ सू० सकारलोपे, ३६० सू० जकारस्य द्वित्त्वे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकाराममे लम्जा इति भवति ।।
७७५-तेजति । तिज तेजने । ति +तिन् । ७७५ सू० तिज्धातोः विकल्पेन मोसुक्क इत्यादेशे, ६२८ स० तिव इचादेशे मोसुश्का इति भवति । तेजनम । तेजन+सि । वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती १७७ सू० जकारलापे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, ५१४ सू० सेम कारे, २३ सू० मकारानुस्वारे तेपरणं इति भवति ।
७७६-माष्टि । मजूधातुः शुचौ । मज +तिन् । ७७६ स० मधातोः विकल्पेन उग्घुस,लुन्छ, पुञ्छ, पुसफुस, पुस, लुह, हुल, रोसाण इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे उमघुसह, लुछा, पुश्चक, पुसा, फुसइ, पुसा, लुहह, हुला, रोसाणा प्रादेशाभावपक्ष- १२६ सू० भूकारस्य प्रकारे, ९०१ सू० जकार द्वित्त्वे, ९१० सू० प्रकारागमे मज्जा इति भवति ।
७७७-भक्ति । भञ्ज भंगे । भञ्ज् +तिन् । ७७७ सू० भधातोः स्थाने वेमय,मुसुमूर,मूर, सूर, सूड, विर, पविरञ्ज, करञ्ज, नीरजज इत्यादेशाः वैकल्पिकाः, १२८ सू० तिव इचादेशे बेमयाइ, मुसुमूरह, मूरइ, सूरह, सूडा, विरम, पविरा , करजह, नीरजा प्रादेशाभावे ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे भजइ ति भवति ।
७७८ -अनुबजति । अनुपूर्वकः वजधातुः पश्चाद्गमने । अनुव+ति । ७५० सू० अनुव्रजः विकल्पेन पडिमग इत्यादेशे, ६२० स० तिव इचादेशे परिग्या आदेशाभावे २२० स० नकारस्य णकारे, ३५० सू० रेफलोपे, ८९६ सू० जकारस्य च इत्यादेशे अणुवनइ इति भवति ।
७७६---अर्जस्ति । मज् धातुः अर्जने । ध+तिव । ७७९ स. मधातोः विकल्पेन बिदव इत्यादेदो, ६२८ सु० तिवः स्थाने इचादेशे विढया प्रादेशाभावे १५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० जकारद्वित्त्वे, ५१० सू० प्रकाराममे अज्जह इति भवति।
___७८०-युनक्ति । युजिर (युज्) योगे। युज+तिन् । ७८० सू० युज्धातोः जुञ्ज, जुज, जुप्प इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिब इचादेशे झुजा, जुज्जा, जुप्पइ इति भवति ।
७१-भुक्ते । भुजधातुः भोजने। भुज+तिन् । ७८१ सू० भुधातोः भुञ्ज, जिम, जेम, कम्म, अगह, चमढ़,समाण,चड्डु इत्या देशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे भुजद, जिमा, जेमह, कम्म, ६४७ स० अकारस्प एकारे कम्मेह, महद, चमढई, समाण, बाइ इति भवति ।।
७२-उपभुपते । उपभुज् उपभोगे। संस्कृतनियमेन उपभुज्+तिद् इति जाते, ७५२ सू० उपभुधातोः बिकल्पेन कम्मब इत्यादेदो, ६२८ सु० तिब इचादेशे कम्मवाद प्रादेशाभावे २३१ सू० प. कारस्य बकारे, १५७ सू० भकारस्य हकारे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे उबरकर इति भवति ।
___७८३-घटते । घट्यातुः चेष्टायाम् । घट+तिव् । ७५३ सू० घटधातोः स्थाने विकल्पेन मह इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे गढा प्रादेशाभावे १९५ सू० टकारस्य डकारे,९१० सू० धातोरम्तेकारागमे घडद इति भवति ।
७८४- संघटते । संघट सम्यक् चेष्टायाम् । संघट + तिन् । ७८४ सू० घद्धातोः स्थाने विकल्पेन गल इत्यादेशे, ६२८ मू० तिनः स्थाने इचादेशे संगला प्रादेशाभावे १९५ सू० टकारस्य 'डकारे,
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चतुर्थपादः
९१० सू० श्रकारागमे संघ इति भवति ।
७८५ - हासेन स्फुटति-विकसतीत्यर्थे ७८५ सू० स्फुद्धातोः स्थाने विकल्पेन सुर इत्यादेश, ६२० सू० तिव इवादेशे मुरइ इति भवति ।
★ प्राकृत व्याकरणम् ★
७८६मति । मडिधातुः भूषणे । मडि+तिव् । ७८६ सू० मडियातोः विकल्पेन चिञ्चादयः पञ्च श्रादेशाः भवन्ति, ६२८० तिव इवादेशे विचर, विजय, बिबिल्ल, शेडड, टिवि डिक्कड़, श्रादेशाभावे संस्कृतनियमन मण्ड+ ई इति जाते, ४१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे मण्ड इति भवति । 9- तुडति । तुडिधातुः त्रोटने । तुड्+ति । सू० तुङ्घातोः स्याने विकल्पेन तोड, तुट्ट, खुट्ट, खुड, उखु, उल्लुक्क, गिलुवक, लुक्क, उल्लूर इत्यादेशाः ६२८ सू० तिः स्थाने दचादेशे तो तुट्ट, खुट्टड, खुडइ, उडद, उल्लुक्कड़, रिलुक्कड, लुबक, उल्लूरद आदेशाभावे ९१० सू० धातोते का रागमे बध इति भवति ।
७८:- घूर्णते । धूणं भ्रमरणे । घूर्ण् + तिव् । ७८८ सू० घूर्ण बातोः घुल, घोल, धुम्म, पहल्ल इत्यादेशे ६२० सू० तिव इचादेशे घुल, घोलह, घुम्मड, पहलह इति भवति ।
७८६ - विवर्तते । चिवृत् विशेषवर्तने । विवृत्+तिव् । ७८९ सू० विवृत् वातो: विकल्पेन इंस इत्यादेशे ६२८ सू० ति इवादेशे सर प्रादेशाभावे संस्कृत-नियमेन विवत् + इ इति जाते, ३०१ सु० र्तस्य टकारे, ३६० सू० टकार द्वित्वे ९१० सू० कामे व इति भवति ।
७६० ववयति । क्वथधातुः क्वथने । क्वम + तिघ् । ७९० सू० धातोः विकल्पेन श्रट्ट इत्यादेशे, ६२८० तिव इनादेशे अट्ट प्रादेशाभावे ३५० सू० वकारलोपे, ८२१ सू० यकारस्य डकारे, ९१० सू० वातोरन्तेऽकारागमे क इति भवति ।
1-61367
७६१ - ग्रभ्यते । ग्रन्थ ग्रन्थः । ग्रन्थ + तिव् । ७९१ सू० ग्रन्धातोः गष्ट इत्यादेशे ६२८ सू० far दचादेशे गण्ड इति भवति । ग्रन्थिः । ग्रन्थिः+सि । प्रस्तुतसूत्रेण ग्रन्थ इत्यस्य मण्ठ इत्यादेखे, ५०० सू० इकार दीर्घ, १|१|३७| सू० सेरिकारस्य लोपे, ११ सू० सकारलोपे गण्ठ इति भवति । र--नाति । मथिभ्रातुः मन्थने । संस्कृतनियमेन मन्त्र + तिव् इति स्थिते, ७९२ सू० मन्धुधातो: विकल्पेन घुसल, विशेल इत्यादेशौ ६२८ सू० तिव इचा देशे घुसलइ बिशेल प्रादेशाभावे ९१० सु० सकारस्यागमे मन्यइ इति भवति ।
७१३ - ह्लावयति । ह्लाद लादने । ह्लाद + णिग् + ति । इत्यत्र ७९३ सू० ण्यन्तह्लाद्धातोः अत्र इत्यादेशे ६२० सू तित्र इवादेशे अव इति भवति । इकारो ष्यन्तस्य ।"ह्लादि" इत्यत्र इकारग्रहणं ण्यन्तस्य परिग्रहणार्थं बोध्यम् । व्यन्तस्य प्रण्यन्तस्य च ह्लाद्धातोः अवअच्छा इति रूप भवतीति भावः । ७६४-- आत्मा । श्रात्मन् + सिप्रत्ता, प्रक्रिया ३२२ सूत्रे ज्ञेया । भ्रत्र एल्थ, प्रक्रिया ५७२ सूत्रे ज्ञेया । निषवति । निपूर्वकः पद्ल (सद् ) धातुः निषीदने । निसद् + तिन् । ७९४ सू० सद्धातोः स्थाने मज्ज इत्यादेश, २२१ सू० नकारस्य णकारे, ९०९ सू० इकारस्य उकारे, ६२० सू० तिवः स्थाने चादेशे खुमज्जर इति भवति ।
७६५ - विनति । विदिधातु द्वैधीकरणे । संस्कृतनियमेन छिन्द + ति इति जाते. ७९५० दुधातो: विकल्पेन दुहाव, पिच्छल्ल, णिज्झोड, णिव्वर गिल्लूर, लूर इत्यादेशाः भवन्ति, ६२८ सू० तिव इचादेश हाइ, लि, लोड, बिरड, सिल्लूरह, लूर प्रादेशाभावे २१० सू० अ
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★ संस्कृत-हिन्दी टीकाद्वयोपेतम् ★
arras
कारस्यागमे हिन्द इति भवति ।
७६६-निशि। श्राधिद्धातुः आच्छादने । प्राछिद्+ तिय् । ७९६ सू० प्राधिातोः विकल्पेन मन्द, उद्दाल इत्यादेशी, ६२८ सू० तिव इचादेशे ओषावह, बद्दालह श्रादेशाभावे संस्कृतforमेr ग्रान् + इ इति ते ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे ११० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, पूर्ववदेव rferrer इति भवति ।
ग
३७
७६७- - मुनाति । मृदु मर्दने । मृद+तिव् । ७९७ सू० मृधातोः स्थाने मल, मढ, परिहट्ट, खड्डू, घड. मड्डु, पन्नाड इत्यादेशाः ६२० सू० त्रिः स्थाने इचादेशे मलई, मह, परिहइ, बड्डु, चड्डा, मह, पनाह इति भवति ।
७८
| पदि स्पन्दने । संस्कनियमेन स्पन्द+तिव् इति जाते, ७९८ सू० स्पन्दधातोः विकल्पेन चुत्रुबुल इत्यादेश ६२८ सू० तिव इचादशे बुलुबुलई, प्रादेशाभावे २२४ सू० स्पस्य स्थाने फकारे, ९१० सू० धातोरन्लेकारागमे फम्बद्द इति भवति ।
७९६ - निष्प पातो विकल्पेन व श्रादेशाभावे ३४८ सू० जह इति भवति ।
८००
निपूर्वकः पातु निष्पत्तौ क्रियासिद्धी । निष्पद् + तिव् । इत्यत्र ७९९ ० इत्यादेशे, ३६० सू० वकारस्य द्वित्रे, ६२० सू० तिवः स्थाने दचादेशे निश्वलड़ षकारलोपे, ३६० सू० पकारस्य द्विश्वे ८९५ सु० दकारस्य ज्ज इत्यादेशे निष्य
०--विसंचयति । विसम्पूर्वकः वद्धातुः प्रतिकले । विसंवद् + तिव । इत्यत्र ८०० सू० विसं दुधातोः स्पेन विट्ट, विलो फंस इत्यादेशाः ६२८ सू० सिवः स्थाने इवादेशे विअ, विलोड, फंस प्रादेशाभावे ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, १७७ सू० दकारस्य लोपे, १८० सू० यकारस्य श्रुती furus इति भवति ।
८०१- शीयते । षट् शातने विशीर्णतायाम् । द् + तिव् । इत्यत्र ८०१ सू० सद्भावोः झड पक्षोड इत्यादेशी, ६२० सू० तिवः स्थाने इचादेशे भइ, पक्वोड इति भवति ।
८०२ -- आक्रन्वते । प्राक्रन्द् ऋन्दने रोदने मान्द्+ति । ८०२ सू० श्राक्रन्द्धातोः विकल्पेन पीहर इत्यादेशे ६२० सू० तित्रः स्थाने इवादेशे णीहरण प्रादेशाभावे ३५० सू० रेकलोपे ३६० सू० ककारद्वित्वे, ६४ सू० सयोगे परे हरवे, ९१० सू० प्रकारागमे अवसम्बद्द इति भवति ।
८०३ - खिद्यते । खिद् दैन्ये । खिद्+तिव । ८०३ सू० विद्वातोः विकल्पेन जुर, त्रिसूर इत्यादेश ६२८ सू तिन इचादेश जुर, बिसूर प्रादेशाभावे ८९५ सू० दकारस्य द्विरुक्ते जकारे खिज् इति भवति ।
८०४ रुणद्धि । रुधूल रोधने । रुध् + तिथ् । ८०४ सू० रु धातोः विकल्पेन उत्थ इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे उघड प्रदेशाभावे ८८९ सू० धकारस्य न्ध इत्यादेशे इ इति भवति ।
८०५ - निषेति । निपूर्वकः धातुः निषेधे । निषेध्+तिव् । ८०५ सू० निषेधू धातो. बि कल्पेन हक्क इत्यादेश, ६२० सू० तिवः स्याने इवादेशे हक्कद आदेशाभावे २६० सू० पकारस्य सकारे, १८७ सू० ६कारस्य ह्कारे ११० सू० प्रकागमे मिले इति भवति ।
८०६ - क्रुध्यति । क्रुषु क्रोधे | क्रुष्+तिन् । ५०६ ० क्रुध्धातोः जुर इत्यादेशे वैकल्पिके, ६२० सू० तिवः स्थाने इवादेशे सूर प्रादेशाभावे ३५० सू० रेफस्य लोपे, इत्यादेशे कुज् इति भवति ।
सु० वकारस्य ज्झ
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★ प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः
८०७ - जायते । जन् उत्पतौ । जन्+ तिव् ८०७ सू० जन्बातोः स्थाने जा, जम्म इत्यादेशौ, ९११ सू० प्रकारागमे, ६२८ सु० तिवः स्थाने इवादेशे जाअह, जम्मा इति भवति ।
८०८-- तनोति । तनु विस्तारे । तत् + तिव् । ८०८ सू० तन्धातोः स्थाने विकल्पेन तड, तह, तडुव, विरल्ल इत्यादेशाः ६२० सू० तिव: स्थाने इवादेशे तब तक वह विरल्लइ श्रादेशाभावे २२० सू० नकारस्य णकारे ९१० सू० प्रकारागमे ताड़ इति भवति । ८०६ - तृप्यति । तृप् तृप्ती । तृप् + ति । ८०९ सू० तृधातोः स्थाने चिप्प इत्यादेशे ६२८ सू० तिव: स्थाने इचादेशे चिप इति भवति ।
३८
८१० - कुलगुलस्य । कृतः विहिता, गुणः ऋकारस्य अर् इत्यादेशो यस्य स कृतगुणस्तस्य । उपसर्पति । उपपूर्वकः सृपधातु मन्दगतौ । उपसृप् + तिव् । संस्कृतनियमेन उपसर्प + तिव् इति जाते, ८१० उपसन् धातोः विकल्पेन अल्लिम इत्यादेशे, ६२० सू० तिव इचादेशे अहिलमह प्रदेशाभावे ३५० सू० रेफलोपे ३६० सू० पकारस्य द्वित्वे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे जबसम्म इति भवति ।
८११ - संतपति । सम्पूर्वकः सप्धातुः सन्तापे । संतप् + तिब् । ८११ सू० संतधातोः स्थाने वि कल्पेन झङ्ख इत्यादेशे, ६२० सू० तिवः स्थाने इचादेशे झङ्क प्रादेशाभावे ९०१ सू० पकारस्य द्वित्वे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे संतपद इति भवति ।
१२- व्याप्नोति । विपूर्वकः आपलृ धातुः प्राप्ती प्राप्तौ । व्याप्+ ति । ८११ सू० व्याप्धातोः स्थाने विकल्पेन श्रोप्रा इत्यादेशे ६२० सू० तिव इचादेशे ओअमाइ, प्रादेशाभावे ३४९ सू० यकारलोपे, २३१ सू० पकारस्य वकारे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, ६४७ श्रकारस्य एकारे वावेड इति भवति ।
८१३ - समाप्नोति । सम्-पूर्वकः प्राप्त (श्राप्) धातुः समाप्तौ । समाप् + ति । ८१३ सू० समाजात विकल्पेन समाण इत्यादेशे ६२० सू० तिव इवादेशे समाणइ श्रादेशाभावे २३१ सू० पकारस्य वकारे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, ६४७ सू० मकारस्य एकारे समावेद इति भवति । ८१४- क्षिपति । क्षिप क्षेपे । क्षिप् + ति । ८१४ सू० क्षिधातो: विकल्पेन गलत्थ, अड्डक्ख, सोल्ल, पेल्ल, गोल्ल, छुह, हुल, परी, धत्त इत्यादेशा, ६२८ सू० तिव दचादेशे गलत्था, अडक्ला, सीसलग, पेल्लड, गोल्लक, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे सुल्लड़, पिल्लई, गुहलाइ, छहद, हुलइ, परीड, पत्तह आदेशाभावे २७४ सू० क्षस्य स्थाने खकारे, २३१ सू० पकारस्य वकारे, ११० सू० घातोरन्तेऽकाराग fees इति भवति ।
८१४- उक्षिपति । उत्पूर्वकः क्षिधातुः कक्षेपे । उत्क्षिप् + तिय् । ८१५ सू० उत्क्षिप्धातोः विकल्पेन गुलगुच्छ, उत्यच, अल्लत्थ, उब्भुत्त, उस्सिक, हृक्ष इत्यादेशाः ६२० सू० तिव इचादेशे गुलगुछह, उत्थर, ग्रहलाइ उन्मुक्त उस्तिक्कड, हवखुबड प्रदेशाभावे ११ सू० तकारस्य, लोपे, २७४ सू० क्षस्य खकारे, ३६० सू० खकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे, २३१ सू० पकारस्य कारे, ९१० सू० अकारागमे तखिव इति भवति ।
८१६ प्राक्षिपति । श्रापूर्वकः क्षिप्यातुः श्राक्षेपे । श्राक्षिप् + ति । १६० प्राक्षिपुत्रातो: विकल्पेन नीरव इत्यादेशे, ६२८ सु० तिव इचादेशे पीरव मादेशाभावे २७४ सू० क्षस्य खकारे, ३६० सु० वकारस्य द्विश्वे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य ककारे, ८४ सू० प्राकारस्य चकारे, २३१ सू० पकारस्य वकारे ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे अलिवद्द इति भवति ।
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीका-द्वयोपेतम् ★ १७-स्वापिति । स्वर स्वप्ने । स्वर ति । ५१७ सू० विकल्पेन स्वप्धातोः कमवस, लिस, लोट्ट इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे कमवसइ, लिसा, लोहइ प्रादेशाभावे ६४ सू० प्रादेरकारस्य उकारे,३५० सू० वकारलोपे,९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे १७७ सू० पकारस्य लोपे सुप्रइ इति भवति ।
८१८ वेपते । वेप-वेप् कम्पने। वेप्+ते ८१८ सू० वेपधातोः विकल्पेन प्रायम्ब, पायज्म इत्यादेशौ, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे आयम्बइमायउभा आदेशाभावे २३१ सू० पकारस्य यकारे, ९१० सू० प्रकारागमे वेव इति भवति।
१९- विलयति । विलप विलापे । विलप+ति । ८१९ सू० विकल्पेन विलप्-धातोः भव, वडवङ इत्यादेशी, ६२८ सू० तिव इचादेशे मझाइ, वडवर प्रादेशाभावे २३१ सू० पकारस्य वकारे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे विलवाइ इति भवति ।
१२०-~-लिम्पति । लिए उपदेहे । लिप । हिन्। ८२० सूर लिबासी पा लिम्प इत्याश, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे लिम्प इति भवति ।
८२१-गुप्यति । गुप् व्याकुलत्वे । गुप् + तिन् । ८२१ सू० गुप्धातोः विकल्पेन विर,गड इत्यादेशी, ६२८ सू० लिव इचादेशे विरह, पर आदेशाभावे संस्कृतव्याकरणेन गुप्य+तिव् इति जाते, ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० पकारद्वित्वे गुप्पा इति भवति ।
८२२-पते । कपू कृपापूर्वक्रगती। ऋप् +ते। ८२२ सू० क्रधातोः ग्यन्तः [णि अन्ते यस्य सः मवह इत्यादेशे, अवह+णि+ते इति जाते, ६३८ सू० रोः प्रावे इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ६२८ सू तिव इचादेशे अवहावे इति भवति । यत्र सूत्रे "कपोहोणि" इति पाठस्तव कृपयति कृपयते । कृप दौर्बल्ये । कृप+ति । प्रस्तुतसूत्रेण कृप्-धातोः ण्यन्त अवह इत्यादेशे, पूर्ववदेव अवहादेश इति बोध्यम् । इदमत्रान्तरम् --- कृपधातुः चुरादिगणीयः,कपूधातुस्तु भ्वादिगणीयः ।
६२३-प्रवीण्यते । प्रपूर्वक: दीपथातुः प्रदीप्तौ । प्रदीप् +ते । ८२३ प्रदीपधातोः तेग्रव, सन्दुम, सन्धुक्क, अभुत्त इत्यादेशाः वैकल्पिकाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे तेजबह, सन्यु, सन्षुक्कर, अग्भुता प्रादेशाभाये ३५० सू० रेफलोपे, २२१ सू० दकारस्य लकारे, २३१ सू० पकारस्य वकारे, ९१० सू० धातोरन्ले कारागमे पलीवह इति भवति ।
__५२४--सुम्यति । लुम् गाये । लुभ +ति । ८२४ सू० लुभूधातोः विकल्पेन संभाव इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे संभावा आदेशाभावे १०१ सू० भकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वभकारस्य बकारे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे तुम्भा इति भवति ।
२५-शुम्यति शुभ क्षोभे । क्षु+तिन् । ८२५ सू० शुभ्धातोः विकल्पेन खउर, पड्दुह इयादेशी, ६२८ सू० तिब इन्चादेशे खतरह, पडुइ प्रादेशाभावे २७४ सू० क्षस्य खकारे, पूर्वसूत्र [८२४] वणित-लुभइ-वदेव खुडभह इति भवति ।
५२६-प्रारभते । प्रारभूधातुः प्रारंभे । प्रारभ् +ते ! ८२६ सू० रभ्धातोः रम्भ, ढव इत्यादेशौ वैकल्पिको भवतः, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे आरम्भह, आदवा मादेशाभावे ९१० सू० घातो. रन्तेऽकारागमे आरभइ इति भवति ।
२७-उपालभते । उप-प्राङ्पूर्वकः लभधातुः उपालम्भे । उपालभ् +ते । ८२७ सू. उपालम्धातोः विकल्पेन मल्ल, पच्चार,वेलव इत्यादेशाः, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे भजन, पच्चारइ, बेलवा पादेशाभावे संस्कृतनियमेन उपालम्भ+इ, इति आते, ९१० सू० प्रकारागमे उबालम्भ इति भवति ।
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थ पादा ८२८-अम्भते । जम्म जम्भायाम् । जम्म+ते। ८२८ सु० जम्भधातोः स्थाने जम्भा इत्यादेशे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे जम्भाइ, ९११ सू० कारागमे जम्मानव इति भवति । अवेरिति किम् ? ध्युपसर्गरहितस्मः जम्भवासोरेव जम्मादेशो भवति, नान्यथा। यत्र वि-उपसर्गसहितो जृम्भधातुस्तक प्रस्तुतसूत्रस्थ प्रवृत्तिन भवति । यथा--लिसगिटारे नेले. ..सालीफलस्य प्रसर:-विस्तारः । केखिनसर+मि । ३५० सू० संयुक्तरेफस्य लोपे, ४११ सू० सेडोंः, डिति परेऽ-त्यस्वरादेलोपे केलिपससे इति भवति । विम्भते । विपूर्वकः जम्भ्धातुः वर्षने । विजृम्भ +ते । प्रस्तुतसुत्रस्याप्रावृत्ती १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, १७७ सू० जकारलोपे, ९१० सूअकारागमे, पूर्व प्रदेव विनम्भाइ इति भवति ।
२६-भाराकान्तो नमति इत्यर्थे ८२९ सू० नमधातोः णिसुद इत्यादेशे,नम् । तिद्-णिसुट+ तिब् इति जाते, ६२८ सू० तिव इचादेशे शिसुबइ भागक्रान्तो नमतीत्यर्थः । यत्र नायपर्थस त्र २२९ सू० नकारस्य णकारे, ८९७ सू० मकारस्य वकारे सबइ [नमस्कारं करोतीत्यर्थः] इति भवति
३०-विश्राम्यति । विपूर्वकः श्रमधातुः विश्रामे । विश्रम + तिन् । ८३० सू० विधमधातोः विकल्पेन णिव्या इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे णिवाइयादेशामधे ३५० सू० रेफलोपे, ४३ सू० इकारदीर्थे, २६० सू शकारस्य सकारे, ९१० सू० प्रकार गमे वीसमा इति भवति। -
३१ आक्रमते । प्राङ पूर्वकः क्रम्ध तुः प्राक्रमणे । प्राकम् +ते । ६३१ सू० प्राकम्घासोः विकल्पेन ग्रोहाव, उत्थार, छुन्द इत्यादेशाः, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे ओहावा, उत्पारह, छन्द प्रादेशाभावे ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० ककारस्य द्विस्वे,८४ सू० प्राकारस्य प्रकारे, ९१० सू० अ-. कारागमे अपकमा इति भवति ।
३२-भ्रमतिभ्रम्यति वा । भ्रम भ्रमरगे। भ्रम् + तिव। ८३२ सू० भ्रमधातोः स्थाने विकल्पेन टिरिटिल्ल, दुल्ल, पढल्ल, चक्कम्म, भम्मड, भमड, भमाइ, तल अण्ट, भण्ट, झम्प, भुम, गुम, 'फम, फुस, छम, कुस, परी, पर इत्यादेशाः, ६२८ सू• तिवः स्थाने इचादेशे तिरिरिलाइ, बुण्डस्लाइ, बहल, पकम, भम्माइ, भमडइ, अमाइ, तलमाटइ, मण्इ प , भुम,गुमइ, कुम, पुसा, छुमा, एसइ, परीइ, परइ, आदेशाभावे ३५० सू० रेफलोपे. ९१० सुन प्रकारागमे भमइ इति भवति ।
३३ -मच्छति । गम्लधातुः गती। गम + तिव् । १३३ सू० समधातोः स्थाने विकल्पेन घई, अइन्छ इत्यादय एकविशितिरादेशाः भवन्ति, ६२५ सू• तिव इचादेशे अईइ. अइच्छा, अणुवज्जइ, अबइ, उपकुसइ, अक्कुसद, पस्चाइ, पच्छन्दाइ, णिमहह, णीहणीराइ, गोलुक्कइ, पवसह, रम्भाइ, परिघल्लाइ, बोलइ, परिअलइ, पिरिणासाइ, णियहह, अवरोहह, अवहरव प्रादेशाभावे ८८६ सू० मकारस्य:छकारे,३६० सू० छकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्व छकारस्य चकारे गमछाइ इति भवति । हम्मति । हम्म् गती । हम्म + तिन् । ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, तिवः स्थाने इचादेशे हम्मद इति भवति । एवमेव-निहम्मति । निपूर्वकः हम्मधातु निर्गमते । निहम्म् + तिन् । २२९ सू० नकारस्य प्रकारे, पूर्वचदेव बिहम्मद, निहंम्मति । निरपूर्वक: हम्मधातुः बहिर्गमने । निम्म् + तिन् । नकारस्य णकारे, १३ सू० रेफलोपे, ९३ सू० इकारदीर्घ गीहम्म, आहम्मति । प्रापर्वक: हमधातु अागमने । श्राहम्म् + तिव । माहम्मइ । प्रहम्मति । प्रपूर्वक: हम्मधातुः प्रकर्षेण गतौ । प्रहम्म् + तिव् । ३५० सू० रेफलोपे.पहम्मद इसि भवति । इत्येते तु हम्म । हम्मइ इत्यादयः प्रयोगास्तु प्रस्तुतसूत्रेण विहितस्य हम्मादेशस्य न बोध्या:, किन्तु हम्मगती इत्यस्य धातोरेवैते प्रयोगाः सज्ञेयाः।
८३४ ---आगच्छति । प्रापर्वकः गम्लधातु: प्रागमने । पागम् +तिथ् । ५३४ सू० पागधातोः
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★ संस्कृत - हिन्दी- टीकाद्वयोपेतम् ★
૪,
चतुर्थपादा विकल्पेन हिप इत्यादेशे ६२० सू० तिव: स्थाने इत्रादेशे अहिपच्चुअइ प्रादेशाभावे ८८६ सू मकारस्य छ इत्यादेशे, ३६० सू० छकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्व छकारस्य चकारे आगच्छ इति भवति । ३५ - संगति । सम्पूर्वकः गम्लृ धातुः सभागमने । संगम् + ति । ८३५ सू० संगम्धातोः विकल्पेन भिड इत्यादेशे, ६२० सू० तिव इचादेशे अभिड प्रदेशाभावे पूर्वसूत्र [३४] वर्णितस्य श्रागच्छइपदस्येव संगच्छ इति साध्यम् ।
८५६ - अभ्यागच्छति । श्रभि अङ्-पूर्वकः गम्लृधातुः श्रभिमुखागमने अभ्यागम् + तिव् । ८३६ सू० श्रभ्यागम् - धातोः विकल्पेन उम्मत्थ इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इवादेशे उम्मत्थइ आदेशाभावे ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० भकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वभकारस्य स्थाने बकारे, ८८६ सू० मकारस्य स्यादेशे ३६० सू० का रद्वित्वे ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे प्रभाग इति भवति ।
८३७ - प्रत्यागच्छति । प्रतिमापूर्वकः गम्लधातुः प्रत्यागमने । प्रत्यागम् + तिव् । ८३७ सू० प्रत्यागमधातोः विकल्पेन पलोट्ट इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे पलोट्टई प्रादेशाभावे ३५० सू० रेफलोपे, २८४ ० स्यस्य चकारे, ३६० सू० चकारद्वित्वे पच्चागच्छद्द अन्ना गच्छइ समानमेव बोध्यम् । ८३८ - [साम्यति । समु शान्सी । सम् + तिथ् । ८३८ सू० शमुधातोः विकल्पेन पडिसा, पहिसाम इत्यादेशी, ६२८ सू० तिव इचादेशे पडिसाई, पडिसाम श्रादेशाभावे २६० सू० शकारस्य सकारे, ९१० सू० धातोरन्लेकारागमे समझ इति भवति ।
८३९ - रमते । रमु क्रीडायाम् । रम्+ते । ८३९ सू० रमुधातोः स्थाने विकल्पेन संखुड्ड - त्यावय मष्टादेशाः ६२० सू० ते इत्यस्य इचादेशे संखुड्ड, खेड, उम्भावइ, फिलिकिचड़, कोट्दुमइ, मोटाइ, जोसर, वेल्ल प्रादेशाभावे ९१० सू० धातोदन्तेऽकारागमे रमइ इति भवति । ८४० - पूरयति । पूरी (पू) पूरणे। पूर् + तिव्८४० सू० धातो: विकल्पेन प्रधाड इत्यादयः पञ्चादेशाः ६२८ सू० तिव इवादेशे अग्धाड, अग्घवइ, उदमाइ, अगुमइ, अहिरेइ, प्रा देशाभावे ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे पूरइ इति भवति । कुत्रचित् “जलूम" इत्यपि पाठः, तदा मह इत्यपि भवति ।
६४१ -- स्रते । त्वरा शीघ्रगती स्वर् + ते ८४१ सू० त्वत: स्थाने तुवर, जड इत्यादेश, ६२० सू० ते इत्यस्य चादेशे सुबइ, जड, इति भवति । त्वरमाण: । त्वर्+मानश् । प्रस्तुतसूत्रे स्वतः तुवर, जड इत्यादेशौ ६७० सू० प्रानशः स्थाने न्त इत्यादेशे, सिप्रत्यये, ४९१ सू० सेड, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे सुषरन्तो, जब्रडन्तो इति भवति ।
'
८४२ - शतरि च तूर । अत्र शतरि पदं शत्रर्थकप्रत्ययस्य मानश्-प्रत्ययस्यापि बोधकं ज्ञेयम् । स्वच्ते । त्वरा शीघ्रगती | स्वरा (त्वर्) + ते । ८४२ सू० र्धातोः तूर इत्यादेशे, ६२० सू० ते इत्यस्य इचादेशे तु इति भवति । त्वरमाणः । त्वर् + ग्रान । प्रस्तुतसूत्रेण शतरि (शत्रर्थक बोधके मानश् प्रत्यये परे स्वतः तूर इत्यादेशे, सिप्रत्यये ४९१ सू० सेड, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलपि तुरन्तो इति भवति ।
८४३ - स्वरोज्यो । ति आदिर्यस्य सत्यादिः, न त्यादिः प्रत्यादिः तस्मिन्, तिद्भिन्नप्रत्यये परे सतीत्यर्थः । स्वरितः । त्वरा शीघ्रगती । त्वर् + क्त- । ८४३ सु० वर्षातोः स्थाने तुर इत्यादेशे, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, सिप्रत्ययये, १७७ सू० तकारलोपे, ४९१ सू० सेडी, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलों तुरिओ इति भवति । स्वरमाणः । स्वर् + ग्रानश् । प्रस्तुतसूत्रेणैव स्वर: स्थाने तुर इत्यादेशे ६७० सू०
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४२
★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादा
मशः न्त इत्यादेशे, सिप्रत्यये पूर्ववदेव तुरन्त इति भवति ।
८४४-क्षरति । क्षर् क्षरणे । क्षर् + तिव् । ८४४ सू० क्षर्धातोः खिर इत्यादयः षडादेशः, ६२० सू० तिद इचादेशे खिरइ, भरइ, पञ्झरइ, पञ्चड, खिलइ रिटुइ इति भवति । ८४५ - उति । उत्पूर्वक: छत्धातुः उच्छलने । उच्छल्+तिन् । ८४५ सू० उच्छधातोः उत्थल इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे उत्थल्लइ इति भवति ।
८४६ - विगलति । विपूर्वकः गल्धातुः विशेषेण गलने । विगल + तिब् । ८४६ सू० विगल्धातोः स्थाने विकल्पेन थिष्प, गिट्ठह इत्यादेशी, ६२८ सू० तिव दचादेशे विष्प, गिद्दुह श्रादेश - भावे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे विगलइ इति भवति ।
८४७ - वलति । दन् विदारणे । दल् + तिव् । ८४७ सू० दल्धातोः विकल्पेन विसट्ट इत्यादेशे, श्रादेशाभावे ९१० सू० प्रकाशगमे, ६२८ सू० rिe इचादेशे विसट्टइ, बलइ इति भवति । बलते । वल् संवलने संचरणे च । वत् + ते । प्रस्तुतसूत्रेण धातोः विकल्पेन वम्फ इत्यादेशे, प्रादेशाभावे प्रकारापूर्ववदेव बम्पर, बलइ इति भवति ।
४- यति । भ्रंशु [ अंश ] धातुः नाशे । भ्रंश् + ति । इत्यत्र ४८० श्वातो: विकहपेन फिड, फिट्ट फुड, फुट्ट, चुक्क, भुल्ल इत्यादेशाः ६२० सू० तिव इचादेशे, फिडइ, फिट्टड, कुड इ, कुट्ट, पुक्कड़, भुल्ल ग्रादेशाभावे ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ११० सू० अकारागमे भंसद इति भवति ।
८४६- नश्यति । पशू (नश् ) नाशे । नश् + तिथ् । ८४९ सु० नश्वातोः स्थाने विकल्पेन मिर ute इत्यादयः षडादेशाः ६२० सू० तिब इनादेशे खिररणासह शिवहर, अबसेहइ, पडिलाइ, सेहइ, हर श्रादेशाभाव-पक्षे २६० सू० शकारस्य सकारे, ९०१ सू० सकारस्य द्वित्वे ९१० सू० धातोरन्तेारागमे नस्सइ इति भवति । वैकल्पिकस्वादत्र २२९ सू० नकारस्य णकारो न जातः ।
८५० अवकाशते । प्रवपूर्वकः: काय (दीप्तौ) धातुः अवकाशे । अवकाश् + ते १७२ सू० श्रव इत्युपसर्गस्य स्थाने श्रोकारे, ८५० सू० कायृ धातोः स्थाने वास इत्यादेशे, ६२० सू० ते इत्यस्य इचादेशे मोवास इति भवति ।
★ अथ धातुओं को होने वाली आदेशविधि (ख)★
वि उपसर्ग पूर्वक स्मृ यादि धातुम्रों के स्थान में पम्स प्रादि जो आदेश होते हैं प्रब सूत्रकार उन का निर्देश कर रहे हैं ---
७४६ --- विपूर्वक स्मृधातु के स्थान में -१ - पम्स, २ – विम्हर मौर ३- वीसर ये तीन यादेश होते हैं । जैसे--विस्मरति पन्हुसइ, विम्हर, दोसर ( वह विस्मरण करता है, भुलता है) यहां पर farara पूर्वक स्मृ धातु को पम्हुस आदि तीन आदेश किये गए हैं।
७४७ - वि उपसर्ग तथा प्राङ (घा) उपसर्ग पूर्वक हृ धातु के स्थान में कोक और पोक्क ये दो प्रदेश विकल्प से होते हैं। जैसे - व्याहरति कोक्कद, पोक्कइ ८४ सूत्र से संयोग परे होने के कारण ह्रस्व हो जाने से कुक, पुक्कड़ आदेशों के प्रभाव पक्ष में बाहर (वह बुलाता है) यह रूप बन जाता है। ७४८ - प्र-उपसर्ग पूर्वक सृ धातु के स्थान में पयल्ल और उवेल्ल में दो श्रावेश विकल्प से होते हैं। जैसे प्रसरति पयल्लद, अबेल्लई, प्रादेशों के प्रभाव पक्ष में पसरह ( वह पसरता है, वह फैलता है) यह रूप बनता है ।
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★ संस्कृत-हिन्दी टीकाद्वयोपेतम् ★
४३
७४९
(जिस का अर्थ गन्ध हो) प्रसृ धातु के स्थान में "महमह" यह आदेश freeप से होता है। जैसे- १ -प्रसरति मालती महमहइ मालई [ मालती (लताविशेष, जिसके फूल बड़े खुशबूदार होते हैं के फूलों के गन्ध का प्रसार होता है। प्रदेश के प्रभाव पक्ष में-२ - मालती - गन्धः प्रसरतिमालाई गन्ध पसरह (मालती लता की गन्ध फैल रही है) यह रूप बनता है। प्रश्न हो सकता है कि सूत्रकार ने गछे (गन्ध) इस अर्थ में ही महमह यह प्रदेश होता है, यह बात क्यों कही ? उत्तर में निवेदन है कि प्रसरति पसरद (प्रसार फैलाव होता है) यहां सामान्य प्रसार अर्थ में भी 'प्रसृ' धातु को 'महमह' यह प्रादेश न हो इस दृष्टि से "गन्धे" यह पद दिया गया है।
चतुर्थपादः
७५०-- निस् उपसर्ग पूर्वक सुधातु के स्थान में १--गोहर, २-नील, ३-धाड, ४ - वरहा, ये चार देश विकल्प से होते हैं। जैसे- निस्सरतिणीहरद, नीलह, घाडइ, वरहाडद आदेशों के प्रभाव पक्ष में नीसरह ( वह बाहर निकलता है। यह रूप बन जाता है।
७५१ - जागृ धातु के स्थान में 'जग्ग यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे—जगति जग्गइ, आदेश के प्रभाव पक्ष में जागरड ( वह जागता है) यह रूप होता है ।
७५२ - वि और आङ् (आ) उपसर्ग पूर्वक पृङ् (पृ) धातु के स्थान में “आज " यह प्रादेश विकल्प से होता है । जैसे-ष्याप्रियते प्राभड इ प्रदेश के प्रभाव पक्ष में-चावरे ( वह व्यापार करता है) यह रूप बन जाती है।
.:
७५३ - सम् उपसर्ग पूर्वक वृद्धि (वृ) धातु के स्थान में साहर श्रीर साहट में दो प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे - संशोति साहरह, साहदूद प्रदेशों के प्रभाव पक्ष में-संबर (वह संघरण करता है, वह समेटता है) यह रूप होता है।
७५४---आङ् (श्रा) उपसर्ग पूर्वक दृड् धातु के स्थान में 'सन्नाम' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे - आवियते सन्मामह आदेश के प्रभाव-पक्ष में- आवर (वह आदर करता है) यह रूप होता है । ७५५ -- उपसर्ग पूर्वक हृ धातु के स्थान में सार यह श्रादेश विकल्प से होता है । जैसेप्रहरति = सारइ श्रादेश के प्रभाव पक्ष में पहरइ ( वह प्रहार करता है। यह रूप बनता है । ७५६ - व उपसर्ग पूर्वक तृ धातु के स्थान में ओह ओर ओरस ये दो प्रादेश विकल्प से होते है । जैसे—अवतरति मोह श्रोरसइ आदेशों के प्रभाव पक्ष में ओअरड (वह नीचे उतरता है) ऐसा रूप बनता है।
==
७५७ - शक्लृधातु के स्थान में-१ - चय, २--तर, ३-तीर और ४ पार ये चार प्रदेश होते हैं । जैसे- शक्नोति चयइ, तरइ, तोरइ पारइ प्रदेशों के प्रभाव पक्ष में सक्कड़ ( वह [ कर ] सकता है) यह रूप होता है । त्यज् धातु का भी चयइ यह रूप बनता है । जैसे- त्यजति चयइ ( वह परित्याग करता है, वह छोड़ता है) इसके अलावा, तु धातु का तरह, तीर धातु का तीर तथा पार . धातु का भी पारंइ ऐसा रूप होता है । जैसे-- १ - तरति = तरह ( वह तैरता है), २-तोरयति - तीरक्ष ( वह समाप्त करता है), ३ - पारयति पारे ( वह कार्य समाप्त करता है) भाव यह है कि यह आदि रूप केवल शक्ल धातु के ही नहीं समझने चाहिए, किन्तु अन्य धातुओं से भी ये रूप निष्पन्न होते हैं।
:
७५८ - फक्क धातु के स्थान में थक्क यह आदेश होता है। जैसे- फक्कति = थक्कड (वह धीरे-धीरे चलता है। यहां पर फक्क धातु को थक्क यह आदेश किया गया है।
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★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
७५६ -- इलाम भ्रात् के स्थान में 'यह' यह प्रादेश होता है। जैसे -- श्लाघते सलहा (वह प्रशंसा करता है) यहां पर श्लाघ् धातु को सलह यह आदेश किया गया है।
200
७६०-- खच् चातु के स्थान में 'बेअड' यह आदेश त्रिकल्प से होता है। जैसे- स्वथति वेग्रडइ प्रदेश के प्रभाव पक्ष में- खचइ (वह जमाता है) यह रूप होता है ।
-L
७६१ - पच् धातु के स्थान में सोहल और पउल ये दो प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे---- पति - सोल्लड, पडलर आदेशों के प्रभाव पक्ष में पथ ( वह पकाता है) ऐसा रूप बनता है।
७६२ -- मुच् धातु के स्थान में १--धड, २ - प्रवहेड, ३ – मेहल, ४ उस्सिक, ५ – रेलव ६--- खिल्लु र ७ - साडये सात आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे - मुञ्चति छहुइ, प्रवहेडइ, मेल्लड, उfeners, रेrवड, गिल्लुच्छड, धंसाडइ आदेशों के प्रभाव पक्ष में- मुअइ ( वह छोड़ता है) ऐसा रूप बन जाता है।
७६३ -- दुःख-विषयक (जिस का विषय- अर्थ दुःख हो) मुच् धातु के स्थान में 'विस' यह श्रादेश विकल्प से होता है । जैसे- दुःखं मुञ्चति णिव्वलेइ ( वह दुःख को छोड़ता है) यहाँ पर दुःखविषयक मु वात के स्थान में 'निव्वल' यह आदेश किया गया है।
७६४ - च् धातु के स्थान में -१ - बेहव, २- वेलय, ३-जूरब और ४ -- उम्मच्छ ये चार प्रदेश विकल्प से किये जाते हैं । जैसे-दयति-बेवइ, वेलवइ, जुरवइ, उमच्छर, प्रादेशों के प्र भाव पक्ष में वञ्च (वह ठगता है ) यह रूप बन जाता है ।
-
७६५ -- रच् धातु के स्थान में-- १ - उगा, २ वह और ३-विवि ये तीन प्रादेश दिकल्प से होते हैं। जैसे- रचति उगह, अबइ, बिडविडइ प्रादेशों के प्रभाव पक्ष में श्यइ (वह रचना करता है) यह रूप बनता है।
७६६ -सम् और आङ् (आ) उपसर्ग पूर्वक र धातु के स्थान में - १---उवहत्य, २- सारथ ३ -- समार और ४ – केलाय ये चार प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे समारचयति उवहस्थ, सारas, समार, केलाय प्रादेशों के प्रभाव पक्ष में समारष्ट्र ( वह अच्छी तरह से तथा मर्यादा-पूर्वक रचना करता है। यह रूप होता है ।
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PAMI
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७६७ - सि धातु के स्थान में सिच और सिप ये दो प्रादेश विकल्प से होते हैं । जैसे--सिपति सिञ्चद, सिम्पड, आदेशों के प्रभाव पक्ष में- सेअइ (वह सिंचन करता है) यह रूप होता है। ७६८ धातु के स्थान में 'पुच्छ' यह श्रादेश होता है। जैसे- पृच्छति - पुच्छर ( वह पूछता है) यहां पर प्रन्छु' धातु को पुच्छ यह यादेश किया गया है।
७६६-- गज्' धातु के स्थान में बुक्क यह प्रादेश विकल्प से किया जाता है। जैसे—-गर्जति बुक्कद, प्रदेश के प्रभाव पक्ष में--- गजह ( वह गरजता है) यह रूप होता है।
गया है।
७७०- वृषकर्तृक [जिस का कर्ता वृष-बैल हो] गर्ज धातु के स्थान में 'दिषक' यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे - वृषभो गर्जति ढिक्कs (बेल गर्जना करता है) यहां पर वृषकर्तृक गज् धातु के स्थान में दिक्क यह आदेश किया ७७१ - राजि धातु के स्थान से १ अग्ध, २, ३ सह, ४--रीर, ५- - रेह ये पांच प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे - राजते श्रग्ड, छज्जइ, सहद्द, रोरइ, रेहइ प्रदेशों के अभावपक्ष में 'राय' ( वह शोभा दे रहा है। यह रूप बन जाता है ।
-
उ
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दो-टीकाद्वयोपेतम् ★ ७७२-मस्जि धातु के स्थान में-१-प्राउड्ड, २-पिजहर, ३-बुदा और -खुप ये चार आदेश विकल्प से किए जाते हैं। जैसे-मजति पाउहुई, शिउहुइ, बुड्डुइ, खुपद, प्रादेशों के प्रभाव-पक्ष में-मज्जा (वहां स्नान करता है) यह रूप बनता है।
७७३- पुजि धातु के स्थान में आरोल और धमाल ये दो प्रादेश विकल्प से किये जाते हैं। जैसे -
पुलियारोल इ, वमालइ आदेशों के प्रभाव-पक्ष में ---पुरुमा (वह इकट्ठा करता है) यह रूप बनता है।
७७४--लस्मि धातु के स्थान में 'जोह' यह अादेश विकल्प से होता है। जैसे----लज्जते जीहाइ मादेश के प्रभाव-पक्ष में-- लम्जइ (वह लज्जा करता है) यह रूप होता है।
७७५-तिजि धातु के स्थान में ओखुक्क यह आदेश विकल्प से होता है । जैसे-तेजति प्रोसुक्कइ (वह तेज करता है) आदेश के प्रभाव-पक्ष में तेजनम् = तेअणं (तेज करना) यह रूप बनता है। यहां पर वैकल्पिक होने से तिजि धातु को पोसुक्क यह प्रादेश नहीं हो सका।
७७६-मृजि धातु के स्थान में..-१----उघस, २-लुन्छ, ३पुण्य. ४-पुस, ५-फुस ६-पुप्त, ७-लुह, ८-हुल और रोसाण ये नव आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे-भाष्ट्रि- उपधुसइ, लुन्छइ, पुछइ, पुसद, कुसइ, पुस इ, लुहइ, हुलइ, रोसाण आदेशों के प्रभाव-पक्ष में--मज्जा (वह शुद्ध करता है) यह रूप होता है।
७७भजि धातु के स्थान में..... वेमय, २---मुसुमूर, ३-मूर, ४. सूर, ५०, ६विर,--पविरज, करम्म और हनीरज ये नव प्रादेश विकल्प से होते हैं । जैसे---भक्तिवमयइ, मुसुमूरइ, मूरइ, सूरइ, सूटइ, विरइ, पधिरजइ, करजइ, नीरजइ आदेशों के प्रभाव-पक्ष में-माइ, (वह तोडता है!, यह रूप बन जाता है ।
७७८-अनु उपसर्ग पूर्वक जि (अ) धातु के स्थान में पडिआग यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे - अनुवति-पडिअम्गइ.प्रादेश के अभावपक्ष में ----अणुवश्चइ (वह पीछे जाता है) यह रूप होता है।
७७६ --अजि धातु के स्थान में विद्यब यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे--प्रति-विढवइ, प्रादेश के प्रभाव-पक्ष में अज्ज (वह पैदा करता है, वह कमाता है) यह रूप होता है ।
..७८० ---युज् धातु के स्थान में--.--जुञ्ज, २-- जुम्न और ३-जुप्प ये तीन प्रादेश होते हैं। जैसे---चुमक्ति जुन्जइ, जुज्जइ, जुप्पइ, (वह जोड़ता है। यहां पर युज् धातु के स्थान में जुज प्रादि तीन आदेश किए गए हैं।
७८१ भुज् धातु के स्थान में.-१-भुञ्ज, २--जिम, ३--ओम, ४--कम्म, ५...अण्ह, ६ - चमड, ७--समारण और -ब ये साठ प्रादेश होते हैं। जैसे--- भुक्ते - भुजइ, जिमइ, जेमइ, [कम्म कम्मेइ, अण्हाइ, चमढाइ, समाण इ, चड, (बह भोजन करता है) यहाँ पर भुज् धातु को भुञ्ज पादि माठ प्रादेश किए गए हैं।
७२-उप उगसर्ग पूर्वक भुज् धातु के स्थान में 'कम्मय' यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-उपभुक्ते-कम्मत्रइ, आदेश के प्रभावपक्ष में-उपजह (वह उपभोग करता है) यह रूप बनता है।
७८३-घटि (घ) धातु के स्थान में..'गढ' यह आदेश बिकल्प से होता है । जैसे-घटते-
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४६
प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपाद:
गढ, प्रदेश के प्रभाव पक्ष में- घड ( वह बनाता है) यह रूप बनता है ।
७८४ - सम् उपसर्ग पूर्वक घटि धातु के स्थान में 'गल' यह प्रदेश विकल्प से होता है। जैसेसंघटते संगलद प्रादेश के प्रभाव में संघ (वह मिलाता है) यह रूप बनता है ।
७८५---हासकरणक (मुस्कराना, हंसना इस अर्थ के बोधक या हास्यहेतुक) स्फुटिधातु के स्थान में 'मर' यह मादेश विकल्प से होता है। जैसे--हासेन स्फुटति मुरड (वह हंसी के कारण प्रसन्न होता है) यहाँ हास्य-बोधक स्फुटिधातु के स्थान में पुर' यह आदेश किया गया है।
७८६ -- मडिधातु के स्थान में - १ - विञ्च, २ - विञ्च ३ - चिचिल, ४- रीड और ५- टिविडिवs ये पांच प्रदेश विकल्प से होते हैं। जैसे मण्डति चिञ्चद, विश्वमइ, चिचिल्लक, Rise, fafafears प्रदेशों के प्रभावपक्ष में मण्डड (वह मण्डित करता है), ऐसा रूप बनता है ।
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७८७- तुडिधातु के स्थान में - १- तोड, २ तुट्ट, ३ – खुट्ट, ४- खुड, ५ल्लुक्क, ७--- णिलुक्क, ८ - लुक्क और उल्लूर ये नव मादेश विकल्प से होते हैं । जैसे तुडति तो, इ, खुट्टइ, खुड, उखु, उल्लुक्कद, जिल्लुक्कड, लुक्कर, उल्लूरह प्रदेशों के प्रभावपक्ष मैं तुडइ ( वह तोड़ता है), ऐसा रूप बनता है ।
७८८-- घूर्ण धातु के स्थान में - १ - घुल, २ घोल, ३-धुम्म र ४ -पहल ये चार प्रदेश होते हैं । जैसे--- घूरते --- घुलद, घोलइ, घुम्मइ, पहल्लइ ( वह भ्रमण करता है) यहां पर घूर्ण धातु के स्थान में धुल आदि चार आदेश किए गए हैं।
७६६-त्रि उपसर्ग पूर्वक वृति धातु के स्थान में 'हंस' यह प्रदेश विकल्प से होता है। जैसे - विवर्तसे हंस श्रादेश के प्रभाव पक्ष में विवइ (वह घसता है, गिरता है। यह रूप होता है । ७६०क्वथि धातु के स्थान में 'अट्ट' यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे- स्वयति: इ प्रदेश के अभावपक्ष में कहर ( वह पकाता है) यह रूप बन जाता है।
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प्रथ्नाति == गण्ठइ ( वह श्रादेश किया गया है।
७९१-ग्रन्थि धातु के स्थान में 'गण्ड' यह श्रादेश होता है। जैसे- १ पुस्तक बनाता है), २- पन्थिः गण्ठी (माठ) यहां 'ग्रन्थि' धातु को 'गण्ट' यह ७९२ - मन्यधातु के स्थान में घुसल धौर विरोल ये दो श्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे - म नाति घुसलाइ, विरोद श्रादेश के प्रभावपक्ष में-मन्थह ( वह मयता है) यह रूप बनता है ।
७६३ - व्यन्त और प्रयन्त ( जिस वातु के अन्त में णि नहीं है) ह्लादि धातु के स्थान में 'प्रवच्छ' यह प्रदेश होता है। जैसे- ह्लाबसे, ह्लावयति ग्रवग्रच्छद वह मानन्दित होता है) यहाँ पर 'ह्लाद' धातु को अवच्छ' यह आदेश किया गया है। वृतिकार फरमाते हैं कि 'लावे:' इस पद में पति इकार के ग्रहण से व्यन्त ( णि है धन्त में जिसके ) धातु का ग्रहण भी किया जाता है। ७९४ ---नि उपसर्ग पूर्वक सद् धातु के स्थान में 'मज्ज' यह प्रदेश होता है । जैसे - आत्मात्र नीति प्रत्ता एत्थ मज्जद (आत्मा यहां पर बैठती है) यहां पर नि उपसर्ग पूर्वक सद् धातु स्थान में 'मज्ज' यह यादेश किया गया है।
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७६५ - छिदि धातु के स्थान में - १ - बुहाव, २- जिच्छल्ल, ३ रिगज्झोड, ४---विम्वर ५ गिल्लूर और ६-लूर ये ६ प्रदेश विकल्प से होते हैं। जैसे- छिनति - दुहावद्द, छिल्लर, णिज्भोss, froवरद, पिल्लूर, सूरइ, प्रदेशों के प्रभावपक्ष में छिन्द ( वह खण्डित करता है) यह रूप होता है ।
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्योपेतम् * ७६६ - प्राङ् (या) उपसर्ग पूर्वक छिदि धातु के स्थान में------ओअन्द और २-उहाल ये दो प्रादेश विकल्प से होते हैं । जैसे-१-पाधिनत्ति प्रोअदइ, उद्दालइ आदेशों के अभावपक्ष मेंपश्चिन्या (बह चारों ओर से खण्डित करता है) यह रूप होता है। .: ७६७-मृद्धातु के स्थान में -१-मल, २- मढ, ३-परिहट्ट, ४-- खड्ड, ५-बड, ६मर और पन्ना ये सात प्रादेश होते हैं । जैसे-मृत्नातिमलइ, मढइ, परिहट्टइ, खड्डइ,चड्ड६, मडइ, पन्नाड (वह मर्दन करता है। यहां पर मृद् धातु को मल आदि सात आदेश किए गए हैं।
७६५-स्पन्दि धातु के स्थान में चुलुचुल यह प्रादेश विकल्प से होता है । चन्दते-चुलुचुलइ. पादेश के प्रभा फाइव स्पन्दन करता है) यह रूप बनता है।
___७६६ . निर् उपसर्ग पूर्वक पदि धातु के स्थान में 'बल' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे- निष्पद्यते निवलइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में-निप्पज्जइ (वह निष्पन्न होता है) यह रूप बनता है।
____८००-वि और सम् उपसर्गपूर्वक वदि धातु के स्थान में-१-विमट्ट, २-विलोट्ट और ३- फंस ये तीन मादेश विकल्प से होते हैं । जैसे--विसम्वदति--विपट्टइ, बिलोट्टइ, फसइ प्रादेशों के अभावपक्ष में वितंबयइ (वह अप्रमाणित करता है) यह रूप बनता है।
५०१-शद् धातु के स्थान में झड और पक्खोड ये दो आदेश होते हैं। जैसे-शीयते--- दुइ, पक्खोडइ (बह झटता है) यहां पर शाद् धातु को झड आदि दो प्रादेश किए गए हैं।
८०२-प्राक्रन्दि धातु के स्थान में 'रगीहर' यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-आकरतेणीहरइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में अक्कलह (वह प्राक्रदन करता है) यह रूप होता है।
८०३---खिदि धातु के स्थान में जुर और विसर ये दो मादेश विकल्प से होते हैं। जैसेविधते-जुरइ, विसूर इ, प्रादेशों के प्रभावपक्ष में --खिज्जइ (वह खेद करता है) यह रूप बनता है।
५०४--रुधि धातु के स्थान में-'उत्थध' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-रुणद्धि उत्थन प्रादेश के प्रभावपक्ष मेंन्धा (व रोकता है) ऐसा रूप बनता है।
८०५–नि उपसर्ग पूर्वक धि (षे) धातु के स्थान में हक्क'यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे निषेधति हक्काइ आदेश के अभाव में-निसेहर (वह निषेध करता है) ऐसा रूप बनता है।
५०६--कुधि धातु के स्थान में 'जूर यह श्रादेश विकल्प से होता है । जैसे-कुध्यति-जूरइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में-भर (वह क्रोध करता है। यह रूप बनता है।
२०७-जन् धातु के स्थान में जा और अम्म ये दो आदेश होते हैं। जैसे-जायते-जाइ,जम्मद (वह उत्पन्न होता है) यहां जन् धातु को जा प्रादि दो भादेश किए गए हैं।
--तनि धातु के स्थान में--१-सह,२-तडु,३-- तव और ४-विरल ये चार आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे---तनोति तडइ, तड्डह, लड्डवइ, विरल्लइ प्रादेशों के प्रभावपक्ष में--- णा (वह विस्तार करता है) यह रूप बनता है।
८०९--तृप् धातु के स्थान में-'थिप्प' यह आदेश होता है। जैसे-तृप्यतिथिप्पड़ (बह तृप्त होता है। यहां पर तृप् धातु को 'थिप्प' यह आदेश किया गया है।
८१०-यदि सूप् धातु उप उपसर्ग पूर्वक हो तथा इसे गुण कर के रखा गया हो तो इसके स्थान में 'अलिलाम' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-उपसर्पतिअल्लिाह मावेश के प्रभाव
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...muthunhi.APP..
४५ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः पक्ष में-बसप्पह (वह धीरे-धीरे जाता है। यह रूप बनता है।
११ सम् उपसर्ग पूर्वक तपि धातु के स्थान में 'म यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे---संतपति महादेश के प्रभावपक्ष में-संतप्पड (बह सन्ताप करता है) ऐसा रूप बनता है।
८१२--वि और प्राङ् (प्रा) उपसर्ग पूर्वक प्रापल (पाप) धातु के स्थान में ओममा यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-च्याप्नोतिनोग्रामइ मादेश के प्रभावपक्ष में-वावेइ (वह व्याप्त करता है) ऐसा रूप होता है।
८१३-सम् और प्राइ (मा) उपसर्ग पूर्वक प्राप्ल (ग्राप) धातु को समाण'यह आदेश विकल्प से होता है । जैसे--समाप्नोति राम, मादेश के अनापत में -- अद समाप्त करता है। ऐसा रूप हो जाता है।
१४- क्षिपि धातु के स्थान में.-१-लत्य, २. प्रड्डयाख, ३-सोल्ल, ४-पेल्ल, ५---- गोल्ल, ६-छह, ७-हुल, ८-परी और घत्त ये ९ आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे -क्षिपतिगलत्वदा प्रडक्ख इ, सोल्लइ, पेललइ, पोल्लाह, छुहइ, हुलाइ, परीइ, पत्तइ अादेशों के प्रभावपक्ष मेंखिवा (वह फैकता है) ऐसा रूप बन जाता है। 'गोल्ला' यहां पर ५४ सूत्र से ह्रस्व हो जाने पर 'शुरुलाई' यह रूप भी होता है। .. १५-उत् उपसर्गपूर्वक क्षिपि धातु के स्थान में-१ गुलगुरुख, २ - उत्थड. ३--उल्लत्प*, ४-उन्मुत्त ५---उस्सिक और ६.-- हपखुव ये ६ ग्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे- उत्क्षिपति - गुलहुन्छइ, उत्याचइ, उल् लत्थइ, उन्भुत्तइ, उस्तिक्कइ, हक्खुवइ आदेशों के प्रभावपक्ष में-उरिलवाद (बह ऊंचा फेंकता है) यह रूप बनता है। ....... १६-आइ (मा) उपसर्ग पूर्वक क्षिपिघातु के स्थान में 'णीरव' यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे---आक्षिपतिवीरवइ अादेश के प्रभाव-पक्ष में----अक्खियाइ (वह प्राक्षेप करता है) यह रूप होता है। ...
१७-स्वपि धातु के स्थान में-१-कमबस, २-~लिस और ३-लोह ये तीन प्रदेश विकल्प से होते हैं। जैसे---स्वपिति-कमवसइ, लिसइ, लोट्टइ आदेशों के प्रभावपक्ष में--सुअइ (बह वह शयन करता है) यह रूप होता है।
: १८-वेपि धातु के स्थान में--प्रायम्ब और २--प्रायज्झ ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे-वेपतेमप्रायनाइ, आयमा प्रादेशों के प्रभावपक्ष में-बेवइ (वह कांपता है। यह रूप होता है।
१९-वि पूर्वक लपि धातु के स्थान में--१-झल और २-बडवड ये दो प्रादेश विकलप से होते हैं। जैसे---विलपति मखद, वडवडइ आदेशों के अभावपक्ष में -विलवह (वह विलाप करता है) यह रूप होता है।
१२०-लिप् धातु के स्थान में 'लिम्प' यह आदेश होता है । जैसे-लिम्पति -लिम्पद (बह लेप करता है) यहां पर लिप् धातु के स्थान में "लिम्प' यह आदेश किया गया है।
२१-गुप धातु के स्थान में विर और 'गड' ये दो धादेश विकल्प से होते हैं। जैसेगुप्यति-विरइ, पाइइ प्रादेशों के प्रभावपक्ष में-गुप्वाइ (वह व्याकुल होता है) ऐसा रूप बनता है। कहीं पर अल्लस्य ऐसा पाठ भी है।
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * १२२-ऋपि धातु के स्थान में 'अवह यह ण्यन्त (जिसके अन्त में णि-प्रत्यय किया गया हो) प्रादेश होता है। जैसे-क्रयते प्रवहावेइ (वह कृपा करता है। यहां पर ऋपि धातु को ज्यन्त 'प्रवह यह मादेश किया गया है।
६२३-प्रदीपि धातु के स्थान में---१-सेप्रक, २-सन्दुम, ३-~-पन्धुवक और ४-प्रभुत ये चार मादेश विकल्प से होते हैं। जैसे--प्रदीयते-तेप्रवइ, सन्दुमइ, सन्धुक्कइ, प्रभुत्तइ प्रादेशों के प्रभाव-पक्ष में-पलीवर (वह जलाता है, ऐसा रूप बनता है।
८२४ लुभि धातु के स्थान में संभाष यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे- लुम्यति संभावइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में सुस्मा (वह लोभ करता है) यह रूप होता है।
६२५. क्षुभि धातु के स्थान में खबर और पचह ये दो आदेश विकल्प से होते हैं । जैसे---- भुस्यति खउरइ, पड्डहाइ मादेशों के अभावपक्ष में-खुमा (वह क्षुब्ध होता है) यह रूप होता है ।
१२६प्राइप्रा) उपसर्ग पूर्वक रभि धातु के स्थान रम्भ और ढक ये दो मादेश विकल्प से होते हैं। जैसे ---आरभते प्रारम्भइ, प्राढवइ प्रादेशों के अभाव-पक्ष में प्रारभा (वह प्रारम्भ करता है) यह रूप बन जाता है।
१२७ --उप तथा प्राङ् (मा) उपसर्ग पूर्वक लभि धातु के स्थान में--१-मत, २-पचार और ३. वेलब ये तीन प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-उपालभते भइ, पम्नारइ, वेलवई ग्रादेशों के प्रभाव में-उवालम्भइ (वह उपालम्भ देता है। यह रूप हो जाता है।
२८-म्भि धातु के पूर्व में यदि 'वि' यह उपसर्ग न हो तो इस को 'जम्मा' यह आदेश होता है। जैसे- सम्भते जम्भाइ (वह जम्भाई लेता है) यहाँ भि धातु को जम्मा यह आदेश किया गया है। प्रश्न हो सकता है कि सूत्रकार के 'अवे' (वि उपसर्ग से रहित) ऐसा कहने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में निवेदन है कि केलि-प्रसरः विज़म्भते केलिपसरो विनम्भइ (केले का प्रसार सम्बधित होता है) आदि वाक्यों में विपूर्वक जम्भि धातु को नहीं 'जम्मा' यह पादेश न हो जाए, इसलिए सूत्रकार ने 'अवे' इस पद का उल्लेख किया है। भाव यह है कि सम्वर्धन अर्थ में विजम्भ धातु को जम्मा यह प्रादेश अनिष्ट माना गया है।
२६-यदि ममि धातु का कर्ता भाराकान्त हो तो (भार से दब कर झुकने अर्थ में) नमि धातु को 'मिस' यह आदेश होता है। जैसे---भाराकान्तो नमति-णिसुढइ (वह भाराक्रान्त हो कर भुकता है) जहां यह अर्थ न हो वहां पर नमति रणवह (बह नमस्कार करता है) यह रूप बनता है।
५३०-वि उपसर्ग पूर्वक श्रमि धातु के स्थान में 'णिव्या'यह आदेश बिकल्प से होता है । जैसे.-.. विधाम्यति-णिवाइ प्रादेश के प्रभाव-पक्ष में वीसमइ (बह विश्राम करता है) यह रूप होता है।
२३१-पाक (प्रा) उपसर्ग पूर्वक ऋमि धातु के स्थान में-१-ओहाय, २-उत्थार, ३छुभव ये तीन प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-आक्रमते पाहावइ,उत्थारइ,छुन्दई आदेशों के प्रभावपक्ष में-मक्कमह (वह प्राक्रमण करता है) ऐसा रूप बनता है।
८३२- भ्रमि धातु के स्थान में-१-दिरिटिहल, २-कुण्दुल्ल, ३-ढल्ल, ४---घरकम्म, ५ भन्मस, ...भमब, ७-भमाड, तलबण्ड, 8-मण्ट, १०-म्प, ११-भुम, १२-गुम, १३-कुम, १४-फुस, १५-दुम, १६-दुस, १७-परी और १८ --पर ये १५ प्रादेश विकल्प से होते हैं । जैसे-चमति अथवा भ्राम्यति-दिरिटिल्लइ, दुण्दुल्लइ, पहल्लइ, चक्कम्मइ, भम्मड इ, भमडइ,
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★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
भाइ, तलमण्टइ, भण्टइ, झम्पइ, भुमइ, गुमइ, कुमइ, फुसइ, तुमइ, दुसइ, परी, परइ प्रदेशों के प्रभाव पक्ष में भइ ( वह भ्रमण करता है) ऐसा रूप बनता है । ८३३ - गमि वातु के स्थान में १ - अई, २ श्रइच्छ, ३ प्रवज्ज, ४ अवज्जस, ५ उक्कुस ६- प्रक्कुस, ७ – पचचड्ड, पन्च, ६-मह, १० - जी, ११ - गीण, १२ - पीलुषक, १३पदअ १४- रम्भ, १५ - परिभ्रल्ल, १६-बोल, १७ परिअल, १८ णिरिणास १६-- निवह, २०अवसे और २१ अवहर ये २१ प्रदेश विकल्प से होते हैं। जैसे गछतिग्रई, प्रच्छद, प्र वजई, प्रज्जउक्कुस, अक्कुस, पचचहुइ चन्द, निम्मद, गीइ, गोणद्द, गोलुक्कड, पदमइ, रम्भ, परिल्ल, बोलाइ, परिचलइ, मिरिगासइ, णिवहर, ग्रवसेहद, अवहरद, प्रादेशों के प्रभावपक्ष में (वह जाता है) यह रूप होता है । वृत्तिकार फरमाते हैं कि- १- हम्मद, २-- मिहम्मद, ३ - जोहम्मद, ४ -- आहम्मद और ५ - पहम्मद ये रूप तो हम्म ( जाना) इस धातु से ही बन जाते हैं । जैसे - १ - हम्मति हम्मद ( वह जाता है), २- निहम्मति हिम्मइ (वह निकलता है), ३-निर्हम्मी (व्ह शहर जाता है, हरिग्रहम्मद (वह श्राता है), ५ - प्रहम्म सि पहम्मद (वह तेजी से जाता है। ये सब प्रयोग स्वतन्त्र तथा नि श्रादि उपसर्गों के साथ जुड़ने पर हम्म धातु के ही होते हैं । श्रतः प्रस्तुत सूत्र का यहां पर कोई कार्य नहीं समझना चाहिये ।
८३४- प्राङ (भा) उपसर्ग पूर्वक गमि धातु के स्थान में 'अहिपच्चुध' यह प्रदेश विकल्प से होता है। जैसे- आगच्छति महिपच्चुयइ प्रदेश के प्रभाव पक्ष में- आगच्छह ( वह आता है) यह रूप बनता है ।
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८३५--सम् उपसर्ग पूर्वक गमि धातु के स्थान में अभिड यह प्रदेश विकल्प से होता है । जैसे --- संगति - प्रव्भिड श्रादेश के प्रभाव पक्ष में संग (वह संगति करता है, वह सम्यक् प्रकार से जाता है) यह रूप होता है।
३६ - प्रभि तथा आङ (भा) उपसर्ग पूर्वक गमि धातु के स्थान में 'उम्मत्व' यह प्रादेश विकल्प से होता है । जैसे - अभ्यागच्छति उम्मत्थ, आदेश के अभाव में अम्भागन्छ ( वह अभिमुख- सामने बाता हूँ) यह रूप होता है ।
६३७ प्रति और भाङ, (श्रा) उपसर्ग पूर्वक गमि धातु के स्थान में पलोट्ट यह प्रादेश त्रिकल्प से होता है। जैसे- प्रत्यागच्छति पलाइ प्रदेश के प्रभाव पक्ष में पचागच्छइ (वह वापिस भ्राता है। ऐसा रूप होता है।
शमि धातु के स्थान में परिसा श्रीर पडिसाम ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे --- शाम्यति = पडसाद पडसाद प्रदेशों के प्रभाव में समइ ( वह शान्त होता है) यह रूप बनता है । ८३६-- रमि धातु स्थान में – १ –संखुड्डु, २--- -- खेडु, ३-उग्भाव, ४ -- किलिविश्व, ५कोट्टुम, ६- मोट्टाय, ७--गोसर और ८--- - वेल्ल ये बात यादेश विकल्प से होते हैं। जैसे रमते संखुइ, खेड्डुइ, उन्भावद, किलिकिञ्चइ, कोट्टुमइ, मोट्टायइ, णीसरइ, वेल्लइ प्रदेशों के प्रभाव-पक्ष में रम (वह खेलता है) यह रूप बन जाता है।
८४०- -पूरि (पूर्) धातु के स्थान में – १ प्रधाड, २ -- अग्घष, ३ - उडुमा (उद्धम ), ४ --अङ्गुम श्रीर५- प्रहिरेम ये पांच प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे— पूरयति ग्वाड, अबइ, उद्घुमाइ (उद्धूम), अनुमइ, पहिरेम आदेशों के प्रभाव-पक्ष में पूर (वह पूरा करता है) यह रूप बनता है।
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५१
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * ४१ स्वर् धातु के स्थान में तुबर और जब ये दो आदेश होते हैं। जैसे-१-त्वरते - तुवरह, जाड (वह शीघ्रता करता है), २.स्वरमारणः = तुचरन्तो, जसडन्तो (शीघ्रता करता हुमा}, यहां पर स्वर् धातु को तुवर नादि दो प्रादेश किये गए हैं।
५४२-त्वर धातु के स्थान में ति आदिलथा शत (शवथक) प्रत्यय परे रहने तर' यह प्रादेश होता है। जैसे-१-दरतेतूर इ (बह जल्दी करता है), २ स्वरमाणः तुरन्ती (शीघ्रता करता हुमा) यहां स्वर धातु को दूर यह मादेश किया गया है। "त्वरमारणः" यहाँ पानश-प्रत्यय है, यह शअर्थक माना जाता है। प्रत एवं यहां पर प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति की गई है।
४३--यदि तिन् ग्रादि से भिन्न प्रत्तस्य परे हों तो स्वर धातु के स्थान में सुर' यह आदेश होता है.। जैसे---स्वरितः तुरिओ, (जिसे जल्दी हो), २--स्वरमारपःतुरन्तो (जल्दी करता हुआ) यहां पर क्त प्रादि प्रत्ययों के परे रहने पर त्वर धातु को 'तुर' यह आदेश किया गया है।
८४४...र धातु के स्थान में---स्थिर, २-भर, ३-पाझर ४-पचड, ५-शिच्छल, और ६-णिटुप ये छह बादेश होते हैं। जैसे-क्षरति रिवर हमरइ, पज्झरइ, पच्चडइ, णिच्चल इ, णिटुप्रा (वह झरता है) यहां पर क्षर् धातु को खिर नादि छह प्रादेश किये गए हैं।
E४५-उल उपसर्ग पूर्वक छल घात के स्थान में उत्थल यह आदेश होता है। जैसे-उच्छललिउत्थल्ल इ (वह उछलता है) यहां उच्छल धातु को उत्थलल प्रादेश किया गया है ।
४६-वि उपसर्ग पूर्वक गलि (गल) धातु के स्थान में थिप्प और गिटुह ये दो आदेश वि. कल्प से होते हैं । जैसे-विगलति-थिष्पइ, गिदुहर आदेशों के अभाव-पक्ष में विलइ (यह जीर्णशीर्ण होता है। यह रूप बनता है।
E-दलि धातु और बलि धातु के स्थान में यथासंख्य (संख्या के अनुसार) विसद्द और बम्फ ये दो प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-१-इलतिविसदृह प्रादेश के प्रभाव-पक्ष में बलइ (वह फटता है, दुकड़े-टुकड़े होता है), २-वलत वम्फई आदेश के अभाव-पक्ष में... बलई (वह ढांकता है, चलता है) यह रूप बनता है । यहां पर दलि धातु को विसट्ट और बलि धातु को यम्फ यह प्रादेश किया गया है।
८४८ - भ्रंशु धातु के स्थान में-१---फिड, २---फिट्ट, ३-फुर, ४-फुट, ५-चुपक और ६-भुल्ल ये ६ लादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-भ्रष्यति-फिडइ, फिट्टइ, फुड इ, फुड इ, चुक्क इ, भुल्लाइ मादेशों के प्रभाव-पक्षर में भंसइ (वह भ्रष्ट होता है। यह रूप होता है।
४-- नशि धातु के स्थान में-2-णिरणास, २-णिवह, ३-अवरोह, ४...पडिसा, ५-- सेह.और अबहर ये छह आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे-नश्यति पिरणासह,णिवहइ, अवसेहइ पडिसाइ, सेहइ, अवहर इ आदेशों के प्रभाव-पक्ष में नस्सह (वह नष्ट होता है। यह रूप होता है।
५५०--अब उपसर्ग से परे काश (काश्) धातु के स्थान में 'वास' यह प्रादेश होता है । जैसेअवकाशात प्रोवासइ (बह चमकता है) यहां काश् धातु को 'बास' प्रादेश किया गया है।
* अथ ध्यान्वादेशविधिः (1) * ५५१-संविशेरप्पाहः । ८ । ४ । १८० । संदिशतेरप्पाह इत्यादेशो वा भवति । अप्पाहर, संदिसइ।
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प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
८५२ - दृशो निश्रच्छ पेच्छावयच्छा व यज्भवज्ज-सय्वव-देवखप्रक्या वक्खावअवस-पुलो पुल - निश्रावास - पासाः । ८ । ४ । १८१ । दृशेरेते पञ्चदशा देशा भवन्ति । निअच्छs, पेच्छ, भवच्छर, प्रवयज्झइ, वज्जइ, सव्ववई, देवखइ, श्रोमक्खड, प्रवक्खड, श्रवश्रक्खड, पुलोes, पुलes, fres, अवलास पासइ । निजाes इति तु निध्यायतेः स्वरादत्यन्ते भविष्यति ।
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८५३ -- स्पृशः फास- फंस-फरिस छिव- छिहालुङ्खालिहाः । ८ । ४ । १८२ । स्पृशतेरेते म आदेशा भवन्ति । फासइ, फंसइ, फरिसइ, छिवड, छिहइ, प्रालुखाइ, ग्रालिहर |
८५४ - प्रविशे रिश्रः । ८ । ४ ६ १८३ । प्रविशेः रिश्र इत्यादेशो वा भवति । रिमइ, पक्सि ।
८५५ -- प्रान्मृश-सुषोम्सः । ८ । ४ । १८४ । प्रात्परयोर्मृशति मुष्णात्योहुं स इत्यादेशो भवति । पम्हुस । प्रमृशति प्रमुष्णाति वा ।
८५६--पिणवह णिरिणास णिरिणज्ज- रोञ्च चड्डाः । ८ । ४ । १८५ । पिबेरेते पयादेशा वा भवन्ति । शिवहर, रिरिणासह, गिरिगज्जइ, रोञ्चइ, चड्डुइ । पक्षे पीसङ्घ । ८५७ - भषेर्भुक्कः । ८ । ४ । १८६ | भषेर्भुक्क इत्यादेशो वा भवति । भुक्कइ, भसइ । ८५६ - कृषः कडु -साअड्डाञ्चापच्छायञ्छा इच्छाः । ८ । ४ । १८७ । कृषेरेते पडादेशा वा भवन्ति । कड्ढद, साग्रड्ढाइ, भञ्चर, श्ररणच्छ, श्रयञ्बर, प्राइञ्छ । पक्षे करिसइ । ८५६ - प्रसाववखोडः । ८ । ४ । १८८ । असिविषयस्य कृषेरक्खोड इत्यादेशो भवति । traits, प्रसि कोषात्कर्षतीत्यर्थः ।
८६० - गवेषेण्डुल्ल-ढण्डोल-गमेस घत्ताः । ८ । ४ । १८६ | गवेषेरेते चत्वार प्रा. देशा वा भवन्ति । दुल्लड, ढण्ढोलह, गमेसइ, घत्तइ, गवेसइ ।
६६१-- दिलवे सामग्गावयास परिश्रन्ताः । ८ । ४ । १६० । श्लिष्यतेरेते त्रय प्रादेशा वा भवन्ति | सामग्गड, अवयासइ, परिग्रन्तइ, सिलेसह ।
८६२ - प्रक्षेश्चोपडः | ८ | ४ | १६१ | म्रक्षेश्चोप्पड इत्यादेशो वा भवति । चोप्पड़, मक्खर ।
८६३ - कांक्षे राहा हिलङ्घाहिल- बच्च वम्फ-मह-सिंह- विलुम्पाः । ८ । ४ । १६२ । कांक्षतेरेतेऽष्टादेशा वा भवन्ति । ग्राह, अहिलइ अहिल, बच्चइ, वम्फइ, महइ, सिइ, विलुम्प, कवइ ।
८६४ - प्रतीक्षः सामय-विहीर - विरमालाः । ८ । ४ । १६३ | प्रतीक्षेरेते श्रय प्रादेशा
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चतुर्थपादः
वा भवन्ति । सामयइ, विहोरइ, विरमालइ पडिखद ।
८६५-तक्षेस्तच्छ-चच्छ-रम्प- रम्फाः । ६ । ४ । १६४ । तक्षेरेते चत्वार प्रादेशा वा भवन्ति । तच्छ, इ, रम्पइ, रम्फई, तक्ख ।
८६६-विकसेः कोनास-बोसट्टा । ८ । ४ । १६५ । विकसेरेतावादेशौ वा भवतः । कोश्रास, वोसट्ट, विप्रसइ |
८६७ – हर्मुञ्जः । ८ । ४ । १६६ ।
इत्यादेशो वा भवति । गुबई हसइ । ८६८ - सेल्स - डिम्भौ । ८ । ४ । १६७ । स्रसेरेतावादेशौ वा भवतः । ल्हसई । परिसद सलिलव-सरणं । डिम्भ, संसद् ।
८६६-- सेर्डर-बोज्ज-वजाः । ८ । ४ । १६८ । सेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । डरइ, बोज्जइ, वज्जइ, तसइ ।
८७०- यसो निमन्णुमौ । ८ । ४ । १६६ । न्यस्यतेरेतावादेशौ भवतः । खिमइ,
मई |
८७१ - पर्यसः पलोट्ट - पल्लट्ट - पल्हत्थाः । ४ । ४ । २०० । पर्यस्यतेरेते त्रय श्रादेशा भवन्ति । पलोट्टर, पल्लव, पल्हत्थ ।
८७२- निःश्वसेङ्गः । ८ । ४ । २०१ । निःश्वसेङ्ख इत्यादेशो वा भवति । झखड, नीees |
+
★ संस्कृत-हिन्दी- टीका-द्वयोपेतम् ★
५३
८७३-उल्लसेरूसलोसम्म जिल्लस- पुलश्राश्र गुञ्जोल्लारीश्राः । ८ । ४ । २०२ । उल्लसेरेते षडादेशा वा भवन्ति । ऊसल, कसुम्भड, शिल्लसइ, पुलश्राश्रइ, गुन्जोल्लर, ह्रस्वत्वे तु गुजुल्लई, प्रारोध, उल्लसह ।
८७४ - भासेभिसः । ८ । ४ । २०३ । भासेभिस इत्यादेशो वा भवति । भिसइ, भासह | ८७५ प्रसेधिसः | ८ | ४ | २०४ | ग्रसेघिस इत्यादेशो वा भवति । घिसड, गसइ । ८७६ - प्रवाद् गाहेर्वाहः । ८ ३४ । २०५ । श्रवात्परस्य गार्वाहि इत्यादेशो वा भ वति । श्रीवाह, श्रोगाहङ ।
८७७ - श्रारुहेड वलग्गों । ८ । ४ । २०६ | भारहरेतावादेशो वा भवतः । चद्द, वलग्गड, आरुहई |
८७८ मुहेर्गुम्म गुम्मडौ । ८ । ४ । २०७ । मुहेरेतावादेशी वा भवतः । गुम्मइ, गुमढई, मुज्झइ ।
८७२- वहेरहिऊलालुङ्खौ । ८ । ४ । २०८ । दहेरेतावादेशी वा भवतः । श्रहिऊलइ,
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५४
MAHAL
* प्राकृत-ध्याकरणम् *
यत्तुर्यफादा प्रालुवइ, डहई।
4६०-ग्रहो बल-गेह-हर-पग-निरुवाराहिपच्चुत्राः । ८ । ४ । २०६ : अहेरेते षडादेशा भवन्ति । बलइ, गेहइ, हरइ, पङ्गइ, निस्वारइ, अहिपच्चुन ।
८८१-क्वा-तुम्-तव्येषु घेत् । ८ । ४ । २१० । ग्रहः क्त्वा तुम्-तथ्येषु घेत् इत्यादेशो भवति । क्त्वा । घेत्तूण, घेत्तुप्राण । कचिन्न भवति । गेहिन । तुम् । घेत्तुं । तव्य । धेत्तव्यं ।
८८२-वचो वोत् । ८ । ४ । २११ । वक्तेर्वोत् इत्यादेशो भवति क्त्वा-तुम-तव्येषु । वोत्तूण, वोत्तु, बोत्तब्वं ।
८८३-रुद-भुज-मुचा तोऽन्त्यस्य । ८ । ४ । २१२ । एषामन्त्यस्य क्त्वातुमतव्येषु तो भवति । रोत्ता, रोत्तु, रोत्तव्यं । भोत्तण, भोत्त, भोत्तव्यं । मोत्तण, मोतु मोत्तब्वं ।। .. .-हास्द मा । ४.: २१३ । दृशोऽन्त्यस्य तकारेण सह द्विरुक्तष्ठकारो भवति । दठूरण, दर्छ, दट्ठवं ।
८८५--श्रा कृगो भूत-भविष्यतोश्च । ८।४। २१४ । कृगोऽन्त्यस्य प्रा इत्यादेशो भवति, भूत-भविष्य-कालयोश्चकारात् क्त्वा-तुम्-तव्येषु च । काहीन । प्रकात्,ि अकरोत् चकार वा । काहिइ । करिष्यति, कर्ता वा। क्त्वा, काऊरण । तुम, काउं। तव्य, कायव्वं ।
८८६-गमिध्यमासा छः । ८ । ४ । २१५ । एषामन्त्यस्य छो भवति । गमछा । इच्छई। जन्छ । अच्छद ।
.८८७-छिदि-मिवो न्वः । ८ । ४ । २१६ । अनयोरन्त्यस्य नकाराक्रान्तो दकारो भवति । छिन्दई. भिन्दइ।
८५८-युध-बुध-नाध-ध-सिष-मुहां भभः । ८ । ४ । २१७ । एषामन्त्यस्य द्विरुक्तो झो भवति । जुझइ । बुज्झइ । गिज्झइ । कुरुभइ । सिज्झइ । मुज्झइ ।
८८६-रुधो न्ध-म्भौ च । ८ । ४ । २१८ । श्योऽन्त्यस्य ध, म्भ इत्येतौ चकारात् झझश्च भवति । रुन्धइ, रुम्भाइ, रुज्झा ।
८६०-सद-पतोर्डः । ८ । ४ । २१६ । अनयोरन्त्यस्य डो भवति । सडइ पडइ ।
८६१-क्वथ-वर्धा दः । ८१४॥ २२० । प्रनयोरन्त्यस्य ढो भवति । कढइ, बड्डइ पवयकलयलो। परि ड्ढइ लायपणं । बहुवचनाद् वृधेः कृतगुरणस्य वधश्चाविशेषेण पहरणम् ।
८६२----वेष्टः । ८॥ ४॥ २२१ । वेष्ट वेष्टने इत्यस्य धातोः क-गट-ड [८।२।७७] इत्यादिना षलोपेऽन्त्यस्य ढो भवति । वेढइ, वेढिज्जई।
८३-समो ल्लः । ८ । ४ । २२२ । संपूर्वस्य वेष्टले रन्स्यस्य द्विरुक्तो लो भवति ।
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★ संवेल्लइ।
८९४-बोदः । ८ । ४ । २२३ । उदः परस्य वेष्टतेरन्त्यस्य ल्लो वा भवति । उब्वेल्लइ, उव्वेदइ।
८६५---स्विदां ज्जः । । ४ । २२४ । स्विदि-प्रकाराणामन्त्यस्य द्विरुक्तो जो भवति। सबङ्ग-सिज्जिरीए । संपज्जई। खिज्जइ । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ।
E९६-प्रज-नृत-मदां चः । ८ । ४ । २२५ । एषामन्त्यस्य द्विरुक्तश्चो भवति । वच्चइ । मच्चाइ। मच्चाइ। .. ८६७-रुद-नमोर्वः ।। ४ । २२६ । अनयोरन्त्यस्य वो भवति । रुवइ,रोवइ । नवइ ।
८६८-उद्वजिः । ८।४ । २२७ । उद्विजतेरन्त्यस्य यो भवति । विवइ । उज्वेवो।
८६९---खाद-धावोलक । ८।४। २२८ । प्रनयोरन्त्यस्य लुम् भवति । खाइ, खाइ, खाहिई । खाउ । धाइ, धाहिइ, धाउ । बहुलाधिकाराद्वर्तमाना-भविष्यद्विध्यायेकवचन एव भवति । तेनेह न भवति । खादन्ति । धावन्ति । कचिन्न भवति, धावइ पुरो।
६००-सृजो रः । ८।४ । २२६ । सुजो धातोरन्त्यस्य रो भवति । निसिरइ। वो. सिरइ । बोसिरामि।
६०१-शाकादीनां द्वित्वम् । ८ । ४ । २३० । शकादोनामन्त्यस्य द्वित्वं भवति । शक सक्कई । जिम, जिम्मइ । लग्, लगइ। मम्, मम्मइ । कुप, कुप्पइ । नश, नस्सइ । भट्, परिप्रट्टइ । लुट्, पलोट्टइ । तुट, तुट्टइ । नट, नट्टइ। सिव, सिब्बइ इत्यादि ।
९०२-स्फटि-चलेः। ८ । ४ । २३१ । अनयोरन्स्यस्य द्वित्वं वा भवति । फुट्टइ, फुडइ । चल्लइ, चलइ।
६०३-प्रादेर्मोलेः । ८ । ४ । २३२॥ प्रादेः परस्य मोलेरन्त्यस्य द्वित्वं पा भवति । ५. मिल्लइ, पमोलइ । निमिल्लइ, निमीलइ । संमिल्लइ, संमीलइ । उम्मिल्लइ, उम्मीलइ। प्रादेरिति किम् ? मीलइ।
६०४-उवर्णस्यावः । ८।४।२३३ । धातोरन्त्यस्योवर्णस्य अवादेशो भवति।हनु । निण्हवइ । हु। निबइ । च्युङ् । चवइ । रु । रवइ । कु । कवइ । पू। सवइ, पसवइ ।
९०५-ऋवर्णस्यारः । ८ । ४ । २३४ । घातोरन्त्यस्य ऋवर्णस्य अरादेशो भवति । करइ ! घरइ । मरह । वरइ । सरइ । हरइ । तरइ ! जरइ ।
६०६-वृषादीनामरिः । ८ । ४ । २३५ । वृष इत्येवंप्रकाराणां धातूनाम ऋवर्णस्य अरिः इत्यादेशो भवति । वृष, वरिसइ । कृष्, करिसइ । मष, मरिसइ । हु, हरिसइ । येषा
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५६
चतुर्थपाद:
मरिरादेशो दृश्यते से वृषादयः ।
९०७- रुषादीनां दीर्घः । ८ । ४ । २३६ । रुष इत्येवंप्रकाराणां धातूनां स्वरस्य दीर्घो भवति । रूस | तूसइ । सूसइ । दूसइ । पूसइ । सीसइ इत्यादि ।
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६०८ - वर्णस्य गुणः । ८ । ४ । २३७ । धातोरिवस्यवर्णस्य च क्ङित्यपि गुणो भवति । जेऊरण । नेऊण । नेइ । नेन्ति । उड्डेइ | उड्डेन्ति । मोत्तूरण । सोऊ । कचिन्न भवति । नो। उड्डीणो ।
1
★ प्राकृत व्याकरणम् ★
६०६--स्वराणां स्वशः । ८ । ४ । २३८ । धातृषु स्वराणां स्थाने स्वरा बहुलं भवन्ति । हवड, हिवइ । चिरणइ चुराई। सद्दणं, सहाणं । धावद, घुवइ । रुवइ, रोवइ । कचिन्नित्यम् । देइ । लेइ । विहेइ । नासः । श्रार्षे बेमि ।
६१०यञ्जनावदन्ते । ८४ । २३६ । व्यञ्जनान्ताद्वातीरस्ते प्रकारों भवति । भ्रमइ । सइ | कुरंगइ । चुम्बई | भरणइ । उबसमइ । पावइ । सिञ्चइ । रुन्धइ । मुसइ । हरह | करइ | शबादीनां व प्रायः प्रयोगो नास्ति ।
६११ - स्वरादनतो वा । ८ । ४ । २४० । अकारान्तवर्जितात् स्वरान्ताद्धातोरन्ते प्रकारागमो वा भवति । पाइ, पाइ । वाइ, घाग्रइ । जाइ, जाग्रइ । भाइ, भाइ । जम्माई, जभाइ । उव्वाइ, उव्वाग्रइ मिलाइ मिलाइ । विक्केइ, विक्केश्रइ । होऊरण, होश्रऊण ।
इति किम् ? चिच्छ । दुगुच्छइ ।
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९१२-चि-जि-धु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो ह्रस्वश्च । ८ । ४ । २४१ । च्यादीनां धातूनामन्ते एकारागमो भवति एषां स्वरस्य च ह्रस्वो भवति । चि चिगइ। जि, जिइ । श्रृ, सुइहु हुई | स्तु, थुराइ । लू. लुगाई | पु. पुणइ । छग्, घुगाइ । बहुलाधिकारात् कचिद् विकल्पः । उच्चिइ, उच्चेद्द । जेऊरण, जिऊिस । जयइ, जिइ । सोऊण, सुणिऊरण । * अथ घास्वादेशविधिः (ग)★
1
पूर्व-प्रकरण तुल्यमेवात्रापि धातूनामादेशविधिः निरूप्यते -
८५१ -- संदिशति । सम्पूर्वकः दिशधातुः सन्दे । सन्दिश् + लिव् । ८५१ सू० सन्दिश्धातोः विकल्पेन अप्पा इत्यादेशे, ६२० सू० तिव इचादेशे बप्पा आदेशाभावे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ९१० सू० धातोरन्लेकारागमे संदिस इति भवति ।
८५२ - पश्यति । दृश्रि दृश् दर्शने । दृश् + ति । ८५२ सू० दृश्वातो: स्थाने निश्रच्छ हत्या - दयः पञ्चदशादेशाः ६२० सू० तिव इचादेशे निष्य, पेचद्र, अवयव, अवयव, वज्ज, सaaat, deus, ओअक्खड, अवक्खड, अव अक्खड़, पुलोबइ, पुलअइ, निजद्द, अबआस पासइ इति भवति । पुलो, पुलअ इत्यत्र ६४७ सू० प्रकारस्य स्थाने एकारे पुलोएड, पुलएइ एते निकाह इति । निझाइ प्रयोगोऽय नि-उपसर्गपूर्वकस्य ध्ये धातोः ९११ सूत्रेण
रूपे भवतः । कारागमे कृते
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५७
चतुर्थ पादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीका-द्वयोपेतम् * सति सम्पद्यते, प्रस्तुतसूत्रेणात्र न किमपि कार्य कृतम् । सानिका स्विस्थम्-निध्यायति । निपूर्वकः ध्य-धातुः विशिष्टचिन्तने । निध्य +तिव । संस्कृतनियमेन निध्या + तिब् इति जाते, ६७७ सू० ध्याधातो: स्थाने झा इत्यादेशे, ३६० सू० झकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्व झकारस्य जकारे, ९११ सू० प्रकारागमे, तिव इचादेशे निम्झाइ इति भवति ।
_____E५३-स्पृशति । स्पृश्यातुः स्परों । स्पृश् +लिन् । ८५३ सू० स्पृशेः स्थाने फास, फंस, फरिस, छिव, छिह, पालुङख, प्रालिह इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे, फासइ, फंसह, फरिसइ, छियाछिहा, आलुखद, प्रालिहाइ इति सिद्धम् ।
८५४-प्रविशति । प्रपूर्वकः विश्-धातुः प्रवेशे । प्रविश्+तिन् । ८५४ सू० प्रविश्थातोः वि. कल्पेन रिम इत्यादेशे, ६२८ सू० तित्र इचादेशे रिअइ प्रादेशाभावे ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ९१० सू० प्रकारागमे पविसा इति भवति ।
५५५-प्रमशति । प्रपूर्वकः मधातुः स्पर्शने । प्रमृश् + तिन् । ८५५ सू० मृश्धातो: स्थाने म्हस इत्यादेशे, ६२८ सू० तिब इचादेशे पास इति भवति । प्रमुष्णाति । प्रपूर्वक: मुषधातुः चौटये । प्रमुष् + तिव् । प्रस्तुतसूत्रेण मुष्धातोः म्हुस इत्यादेशे, पूर्ववदेव पम्हुसइ इति भवति ।
८५६-पिनष्टि । पिष पेषणे । पिष-+-तिव । ८५६ स० पिषधातोः विकल्पेन णिवह इत्यादयः पञ्चादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे रिणवहइ, णिरिणासइ, णिरिणमा रोअबाह, बहुइ मादेशाभावे ९०९ सू० इकारस्य ईकारे, २६० सू० षकारस्य सकारे, ९१० सू० अकारागमे पीसद इति भवति।
८५७-भयते । भए भत्सने । भष् +ते । ८५७ सू० भषधालोः विकल्पेन भुक्क इत्यादेशे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे भुक्का आदेशाभावे २६० सू० षकारस्य सकारे,९१० सू० घातोरन्तेऽकारागमे भसइ इति भवति ।
. .. .५५८-कर्षति । कृष् कर्षणे। कृष् +तिव । ८५८ सू० कृषधातोः विकल्पेन कट इत्यादयः षडादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे कडाइ, कट्ठ इति पाठे तु कटुइ, साअड्डइ, नाअट्ठ इति पाठे तु साअढाइ अचाइ, अणच्छा, अपनाइ, आइअब आदेशाभाबे ९७६ स० ऋकारस्थ अरि इत्यादेशे, २६० सू० पकारस्य सकारे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे करिसइ इति भवति ।
८५६ ---असि कोशात कर्षति इत्यर्थे ८५९ सू० कृष्धातो: स्थाने अक्खोड इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे अवखोडइ ६४७ सू० अकारस्य एकारे अक्खोडेइ इति सिद्धम्।
९६० - गवेषयति । गवेष गवेषणायाम् । गवेष् +-तिन् । ५६० सू. गवेषधातोः विकल्पेन ?पडल्ल इत्यादयः चत्वार मादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे ढुण्डल्लइ, खण्डोलाइ, गमेसह, पतइ प्रादेशाभावे २६० सू० षकारस्य सकारे, ९१० सू० प्रकारागमे गवेसइ इति भवति ।
८६१---क्लिष्यति । रिलष श्लेषे । श्लिष् । तिव। ८६१ सू० रिलषधातोः विकल्पेन सामग इत्यादयस्त्रय प्रादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे सामग्यह, अवयासह, परिप्रस्तइ, परिप्रत्त इति पाठे तु परिअत्तह, प्रादेशाभावे ३७७ सू० लकारात् पूर्व इकारस्य विकरणे, २६० सू० शकारस्य षकारस्य च सकारे, ९०५ सू० द्वितीयस्य इकारस्य एकारे, ९१० स० प्रकारागमे सिलेस इति भवति ।।
८६२-नक्षते । क्ष् भ्रक्षणे । म्र+ते। ८६२ सू० म्रधातोः विकल्पेन चोप्पड इत्यादेशे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे चोप्पा मादेशाभावे ३५० सू० रेफस्य लोपे, २७४ सू० क्षस्य खकारे, ३६० सू० खकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे मक्खाइ इति भवति ।
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Aanemamimarawinnrmmar
*प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः ६३.--काक्षते । कां कांक्षायाम् । काश् +ते। ८६३ सू० कांक्षधातोः विकल्पेन माह इत्यादय अष्टादेशाः, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे आहइ, अहिलखाइ, अहिलसाड, बसचाइ, बम्फर, महंड, सिहा, वितुम्पइ प्रादेशाभावे, २७४ सू० शस्य खकारे, ३६३ सू० खकारस्य द्विरवनिषेधे, ३० सू० अनुस्वारस्य वर्गान्त्ये, ८४ सू० प्राकारस्य प्रकारे कलाई इति भवति ।
१६४-प्रतीक्षते । प्रति-पूर्वकः ईअधातुः प्रतीक्षायाम् । प्रतीक्ष+ते। ५६४ सू० प्रतीक्षधातोः विकल्पेन सामय इत्याद्यादेशस्त्रियः, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे सामयड, विहीर, विरमालइ मा. देशाभावे ३५० सू० रेफलोपे, ८४ सू० ईकारस्थ इकारे, २०६ सू० तकारस्य डकारे, २७४ सूक्षस्थ खकारे पडिया उपर्युक्तक व इ यत् साध्यं रूपमिदम ।
९६५-ससते । तत् तक्षणे । तक्ष् +ते । ८६५ सू० लक्षधातोः स्थाने तच्छ, बछ, रम्प, रम्फ इत्यादेशाः, ६२८ सू० ते इत्यस्य स्थाने इचादेशे तच्छद, चचचद, रम्पह, रम्फई प्रादेशाभावे तक्या - पर्युक्तपडिक्ख इ-वत्साध्यम् ।
५६६-विकसति । विपूर्वक: कस्धातुः विकासे विकस्+तिथ् । ८६६ सू० विकसे विकल्पेन कोमास, बोसट्ट इत्यादेशो,६२८ सू० तिवइचादेशे कोमासर,बोसह प्रादेशाभावे १७७ सू० ककारस्थ लोपे, ९१० सू० प्रकारागमे विअसद इति भवति ।
८६७-हसति । हस हाँसे । हस्+तिन् । ८६७ सू० हसधातोः विकल्पेन गुरुज इत्यादेशे, ६२८ सू तिवं इचादेशे गुरुज आदेशाभावे ९१० सू० अकारागमे हल प्रति भवति ।
५६८-ससे । सस् अवस्त्र से । सस् +ते।८६८ सू० स्रस्धातोः विकल्पेन ल्हस, डिम्भ इस्थादेशी,६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे लहसजिम्भइ आदेशाभावे ३५० सू० रेफस्य लोपे,९१० सू० प्रकारागमे संसद इति भवति । परि सते । परिपूर्वकः संसधातुः परिसने । परिस्र स् +ते । पूर्वधदेव परिम्हसाई इति साध्यम् । सलिलवसनम् । सलिल युक्तं बसन-वस्त्रम् । सलिलवसन+सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, ५१४ सू० समकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे सलिल-बसरणं इति भवति ।
१६६---स्पति । अस् त्रासे । अस्+तिन् । ८६९ सू० अस्धातोः विकल्पेन डर इत्यादयस्त्रय आदेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे परइ, बोजा, बज्जा आदेशाभावे ३५० सू० रेफस्य लोपे, ९१० सू० नकारागमें सह इति भवति ।
६७०--स्यस्पति । निपूर्वक: अस्धातुः भ्यासे। न्यस् + तिन् । ८५० सू० न्यस्धातोः स्थाने णिम, णुम इत्यादेशौ, ६२८ सू. तिब इचादेशे णिमा, गुमइ इति भवति ।
७१-पर्यस्यति | परिपूर्वकः अस्वातुः परितः क्षेपे । पर्यस्+तिन् । ८७१ सू० पर्यस्धातोः पलोट्ट, पल्लट्ट, पल्हस्थ इत्यादेशाः, ६२८ सू० तिव इचादेशे पलोट्टइ, पल्लहइ, पल्हस्थइ इति भवति । पालोट्टा इत्यत्र प्रयोगार्शनात् ८४ सू० ह्रस्वो न जातः ।
___८७२-नि:श्वसिति । निरपूर्वक : श्वसधातुः निःश्यासे-श्वासमोचने । निर्-वस्+तिन् । ०७२ सू० निवसधातोः विकल्पेन माह इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे मजद प्रादेशाभावे ११ सू रेफलोपे, ९३ सू० इकारस्य ईकारे, ३५० सू० वकारलीपे, २६० सू शकारस्य सकार, ९१० सू० घातोरन्तेऽकारागमे नीससइ इति भवति ।
२७३-उल्लसति । उत्पूर्वकः लस्धातुः उल्लासे-हर्षे । उल्लस् -+-तिन् । ८७३ सू० उल्लसधातोः स्थाने विकल्पेन ऊसल इत्यादयः षडादेशाः, ६२८ सूत तिव इचादेशे, उसलाइ, असुम्मा, रिंग
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prapaleyanshumanA
पसुपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * ल्लसा, पुलमामइ, गुजोल्लइ, ८४ सू० प्रोकारस्य उकारे गुजुल्ला, आरोअइ प्रादेशाभावे ९१० सू० अकारागमे उल्लसइ इति भवति ।
___८७४-भासते । भास्थातुः दीली । भास्+ते । ५७४ सू० भास्थातोः विकल्पेन मिस इत्यादेशे, ६२८ सू० से इत्यस्य इचादेशे भिसइ प्रादेशाभावे ९१० सू० अकारागमे भासह इति भवति ।
८७५ - प्रसति । अस् ग्रासे । अस्+सिन् । ८७५ सू० ग्रसधातोः विकल्पेन विस इत्यादेशे, ६२८ सू० तिच इचादेशे घिसाई प्रादेशाभावे ३५० स० रेफलोपे, ११० सू० अकाराममे गसह इति भवति ।
७६-प्रवगाहते । प्रवपूर्वक: गाह धातुः अवगाहे, अधिकाभ्यासे, जलप्रवेशे वा । अवगाहन ते। १७२ सू० प्रब इत्युपसर्गस्य प्रोकारे, २७६ सू० गाह धातोः विकल्पेन वाह इत्यादेशे, ६२८ सू० ले इत्यस्य इचादेशे ओवाहा मादेशाभावे ११० सू० प्रकारागमे ओगाहइ इति पूर्ववदेव साध्यम् ।
___७७-प्रारोहयति । प्राङ-पूर्वकः रह धातुः आरोहरणे । प्रारुह +तिन् । ८७७ सू० प्रारूहधातोः विकल्पेन चड, बलग्ग इत्यादेशी, ६२८ सू० लिव इचादेशे खडा, बलग्गइ आदेशाभावे ९१० सू० अकारागमे आरहा इति भवति ।
___E७८--मुह्यति । मुह बातुः मूछायाम् । मुह + तिवृ । ८७६ सू० मुह धातोः स्थाने विकल्पेन गुम्म, गुम्मड इत्यादेशी, ६२८ सू० तिव इचादेशे गुम्मइ, गुम्मडइ प्रादेशाभावे ८८८ सू० हकारस्थ झक इत्यादेशे, ३६१ सू० पूर्वझकारस्य जकारे मुझा इति भवति ।
७९-बहति । वह, वाहे । दह+तिन् । ८७२ सू० दह.धातोः विकल्पेन महिऊल, पालुङ्ग इत्यादेशो,६२८ सू० तिव इचादेशे अहिलइ, आलुलाई प्रादेशाभावे २१८ सू० दकारस्य इकारे, ९१० सू० प्रकारागमे बहा इति भवति ।
-हमालि । ग्रह, उपादाने। ग्रहतिय । ८८० सू० ग्रह -धातोः वल इत्यादयः षडादेशाः, १२८ सू० तिव इचादेशे वलइ, गेहद हरइ, पङ्गाइ, निरुवार, अहिपसभइ इति भवति ।
८५१-गृहीत्वा । ग्रह धातुः उपादाने-ग्रहणे । ग्रह +क्त्वा । ५८१ सू० ग्रह धातोः घेत इत्यादेशे, ४१७ सू० क्त्वः स्थाने तूण इत्यादेशे घेतण तुपाश इत्यादेशे तु घेसुआण इति भवति । वविन्न भवति । बाहुल्येन कस्मिंश्चित् स्थले प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्ति भवति । यथा-महील्या । ग्रह+क्त्वा । बहुलाधिकारादत्र प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्तौ ८८० सू० अह धातोः गेण्ह इत्यादेशे, ४१७ सू० वरवः स्थाने प्रकारे, ६४६ सू० प्रकारस्य इकारे गेनिस इति भवति । ग्रहीतुम् । ग्रह, +तुम् । प्रस्तुतसूत्रेण ग्रह - धातोः घेल इत्यादेशे, २३ सू० मकारानुस्वारे घेतु इति भवति । ग्रहीतव्यम् । ग्रह+तव्य । प्रस्तुतसूत्रेएए मह धातोः घेत इत्यादेशे, सिप्रत्यये, ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० वकारद्वित्त्वे, ५१४ सु सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे घेत इति भवति।
८८२-उक्त्वा । बच् व्यक्तायां वापि । वच् + क्त्वा । ८८२ सू० बच्धातोः स्थाने बोत् इत्यादेशे, ४१७ सू० कल्वः तूण इत्यादेशे धोत्त रग इति भवति । वक्तुम् । वच्+तुम्वोत्+तुम्जोत्तम्, इत्यत्र २३ सू० मकारानुस्वारे बोसू इति भवति । वस्तव्यम् । वच्+तव्य । प्रस्तुतसूत्रेण वधातोः वोत् इत्यादेशे, सिप्रत्यये, ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० बकारद्विस्वे, ५१४ सु० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे बोत्सव इति भवति ।
८८३-हदित्वा । रुद् रोदने । रुद् + क्त्वा । ९०८ सू० उकारस्य मोकारे,८८३ सू० दकारस्य तकारे,४१७ सू० मत्वः स्थाने तुण इत्यादेशे रोसूण इति भवति । प्रयोगदर्शनादत्र ८४० ह्रस्वो न जातः ।
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प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः रोम् । रुद् + तुम् । उकारस्य ओकारे, दकारस्य तकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे शेत इति भवति । रोबियम् । रुद्राव्य । सिप्रत्ययं २४९ सू० कारलोपे ३६० सू० वकारद्वित्त्वे, ५१४ सू सेर्मकारे, मकारानुस्वारे रोसव्वं इति भवति । भुक्त्वा भुज् भोजने । भुज् + क्त्वा । उकारस्य बोकारे, प्रस्तुतसूत्रेण जकारस्य तकारे, ४१७ सू० क्ात्रः तुण इत्यादेशे भोलूरा इति भवति । भोक्तुम् । भुज् + तुम्= भोक्तुम्, मकारानुस्वारे भोतु, भोक्तव्यम् । भुज् + तव्य भीतम्वं रोसव्वं वत् साध्यम् । एवमेव मुक्त्वा मुच् + क्त्वा । ९०८ सू० उकारस्य श्रकारे, प्रस्तुतसूत्रेण चकारस्य तकारे, क्त्वः सूण इत्यादेशे मोसूण, मोक्तुम् । मुच् + तुम्मोप्त, मोक्तव्यम् । मुच् + तब्य मोतव्यं इति साध्यम् ।
८४--दृष्टादृश दर्शने । दृश् + क्त्वा । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, ४१७ सू० क्त्वः श इत्यादेशे, ८८४ सू० तकारेण सह शकारस्य इत्यादेशे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे, भीने परेण संयोज्ये इति भवति । द्रष्टुम् । दृश् + तुम् । पूर्ववदेवम् इति जाते, २३ सू० मकारानुस्वारे व इति भवति । द्रष्टव्यम् । दृष्+ तथ्य = दद्वव्य। सिप्रत्यये ३४९ सु० यकारलोपे, ३६० सू० त्रकारद्वित्वे ५१४ सू० सेर्मकारे, मकारानुस्वारे व् इति भवति ।
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८८५- अकार्षीत् अकरोत् चकार कुञ् (कृ) करणे कृ + दि, कृ + दिव्, कृ + व् । ८८५ सू० ऋकारस्य आकारे, ६५१ सू० भूतार्थक प्रत्ययानां हीम इत्यादेशे काहीच इति भवति । रूपमिदम् --- अकार्षीत्, अकरोत् चकार इत्येतेषां त्रयाणां रूपाणामेव बोधकं शेयम् । करिष्यति कर्ता कृ + स्यति, कृ+ ताकाहि प्रक्रिया ६५५ सूत्रे ज्ञेया । कृत्वा काऊण प्रक्रिया ६४६ सूत्रे ज्ञेया कर्तुं म् । कृ+तुम् । प्रस्तुतसूत्रेण ऋकारस्य ग्राकारे १७७ सु० तकारलोपे, २३ सु० मकारानुस्वारे काउं इति भवति । कर्तव्यम् । कृ + तव्य का + तब्य+सि । १७७ सू० तकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ ३४९ सू० य कारलोपे, ३६० सू० त्रकारद्वित्वे ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे कायव्वं इति सिद्धम् ।
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८६६ - गच्छति । गम्लृ गतौ । गम् + तिव् । ८८६ सू० मकारस्य च इत्यादेणे, ३६० सू० छकार ३६१ पूर्वकारस्य चकारे, ६२८ सू० तिव इवादेशे गच्छ इति भवति । इच्छति । इषु इछायाम् । इषति । प्रस्तुतसूत्रेण षकारस्य छकारे पूर्ववदेव इच्छइ इति सिद्धम् । यच्छति । यम् उपरमे । २४५ सू० यकारस्य जकारे, मकारस्य छकारे, पूर्ववदेव अच्छइ इति सिद्धम् । आस्ते । श्रास् उपवेशने । सकारस्य छ इत्यादेशे, छका रद्वित्वे, पूर्वकारस्य चकारे, ८४ सू० संयोगे परे हस्बे, पूर्ववदेव अच्छर इति भवति ।
८७- छिनति । विदु छेदने । छि+ति । ८७ सू० दकारस्य न्द इत्यादेशे ६२८ स ति इचादेशे छिन्द इति भवति । भिनशि । भिद भेदने । भिद् + तिव् । पूर्ववदेव भिम्बद्द इति भवति । - युध्यते । युधातुः योधने । शु+तै २४५ सू० यकारस्य जका सू० धकारस्यः भू इत्यादेगे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य जकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे जुम्भ इति भवति । ated or ar | बुध बोधे बुध् + ते पूर्ववदेव बुझइ इति भवति । गृध्यति । गृघ् गायें । गृघ् + ति । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे पूर्ववदेव हि इति साध्यम् । क्रुध्यति । क्रुष्धातुः कोषे । क्रुष् + तिय् । ३५० सू० रेफलोपे, पूर्ववदेव कुम्भ । सेधति । स गती । सिध् + ति सिझ मुह्यति । सुह मूर्च्छायाम् । मुह + तिव् इति पूर्ववदेव साध्यम् । अत्र हकारस्य इत्यादेश जा तोsन्यत्र तु धकारस्य ।
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--- रुणद्धि | रुधिर (रु) निवारणे । रुध् + तिव् । ८८९ सु० वकारस्य न्, म्भ, झ इ
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * त्यादेशाः,३६१ स० प्रथमभकारस्य जकारे, ६२८ सू० लिव इचादेशे सन्धइ, हम्भइ, उमद इति भवति ।
८६०. सोवति । षद्ल (सदीधातुः विशरण-गत्यवसादनेषु । सद्+तिन् ! ८९० सू० दकारस्य डकारे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे सह इति भवति । पतति । पत् पतने । पत्+तिछ । प्रस्तुतसुत्रेण तकारस्य डकारे, पूर्ववदेव पडइ इति साध्यम् ।
यति । कथ कथने । कथ्+ति । ३५० सू० यकारलोपे, ८९१ सू० थकारस्य ढकारे, ६२८ सू० तिव इचादेशे कढाइ इति भवति । वर्धते । वृधु वर्धने । वृध्+ते । १२६ सू० ऋकारस्य प्र. कारे, प्रस्तुतसूत्रेण धकारस्य ढकारे, ३६० सू० ढकार द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य डकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे बड़ा इति स्वति । प्लवग-कलकलः । प्लवगा:-वानराः, तेषां कलकल:- कोलाहलः । प्लवम कलकल+सि । ३५० सू० लकारलोपे, १७७ सू० गकारस्थ द्वितीय-कारस्य च लोपे,१८० सू० यकारश्रुती, ४९१ सू० सेझैः, विति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे पवय-कलयलो इति भवति । परिवर्धते - परिवडाइ, इति वाइ-वत् साध्यम् । लावण्यम् --- लायगणं, प्रक्रिया १७७ सूत्रे ज्ञेया। बहुवचनाद्र ८९१ सूत्रे "कथवर्धाम्" इति बहुवचन ग्रहणं बध् छेदन-परणयोः इति कृतगुणस्य चुरादि-गणीयस्थ, वृधु वर्धने इति भ्वादिगणीयस्य च धातोः अविशेषेण - सामान्यरूपेण ग्रहण सूचयतीति भावः ।
____८९२- वेष्कृते । वेष्ट्र वेष्टने । वेष्ट् + से । ३४८ सू० षकारस्य लोपे,८९२ सू० टकारस्य दकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे वेढह इति भवति । वेष्यते । वेष्ट +4+ते= बेढ+क्य + ते । ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अजझीने परेण संयोज्ये, पूर्ववदेव वेविस्जद इति भवति ।
८९३--संवेष्टते। सम्पूर्वकः वेष्ट्-धातुः सम्यग्वेष्टने । संवेष्ट्+ते। ३४८ सू० षकारलोपे, ९९३ सू० टकारस्य रूल इत्यादेशे, ६२७ सू० ते इत्यस्य इचादेशे संवेस्सइ इति भवति ।
___८९४---उवेष्टते । उत्पूर्वकः वेष्टधातुः उद्वेष्टने । उद्वेष्ट्+ते । ३४८ सू० दकारलोपे, ३६० सू० यकारद्वित्वे, ३४८ सू० षकारलोपे, ८९४ सू० टकारस्थ विकल्पेन ल्ल इत्यादेशे, ६२८ सू० ते इ. त्यस्य इचादेशे उब्वेस्लाइ आदेशाभावे ५९२ सू० टकारस्य ढकारे उन्देठाइ इति भवति ।।
८९५--सर्वाङ्गस्वेवित्र्याः । सर्वाणि अङ्गानि सर्वाङ्गानि, तेषु स्वेदित्री-स्वेदनशीला, तस्याः। सर्वाङ्ग स्वेदित्री+ हुस् । ३५० सू० रेफलोपे,३६० स० वकारद्विस्वे,८४ सू० साकारस्य प्रकारे,(त्रिविदा (विद्) स्नेहमोचने, स्वेदनशीला इत्यर्थ तन्प्रत्यये, विद्+तु इति जाते, २६० सू० शकारस्य सकारे, ३५० सू० वकारलोपे) ८१५ सू० दकारस्य ज्ज इत्यादेशे,४१६ सू० तन्प्रत्ययस्य इर इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, ५२१ सू० डी (ई) प्रत्यये [सध्वङ्गसिज्जिर-+-ई], स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, इस्प्रत्यये, ५१८ सू. उसः एकारे सम्वङ्गसिज्जिरीए इति भवति । सम्पयते । सम्पूर्वक: पद्धातुः सम्पादने । संपद् + ते । प्रस्तुतसूत्रेण कारस्य ज्जादेशे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे सम्पअइ इति भवति । एवमेव खिधते । खिद्-धातुः खेदे । खिद् +ते-खिस्जद, इति साध्यम् । बहुवचनम् । प्रस्तुतसूत्रे "स्विदाम्" इति बहुवचनस्य ग्रहणं प्रयोगानुसारार्थम्, यत्र प्रयोगे 'ज्ज' इत्यादेशस्य अावश्यकता भवेत्तवैव प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिविधेयेति भावः ।
८९६-जति । व्रज् गतौ । बज्'---तिम् । ३५० सू० रेफलोपे, ८९६ सू० जकारस्य मच इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे बच्चइ इति भवति । नृत्यति । नृत् नर्तने । नृत्+तिन् । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे,८९६ सू० तकारस्य च्च इत्यादेशे पूर्ववदेव नम्बई इति भवति । मन्दते । मदि(मद्ध तुः 'प्रयोगदर्शनावत्र ३६० सूत्रेण ढकारस्य द्विस्वं नाऽभूद् ।
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६२
NAMAARAAMAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAARAARWARAN
* प्राकृत-व्याकरणम् *
अतुर्षपादः स्तुसि-मोद-मद-स्वप्न-गलिषु । मद्+ते। पूर्वबदेव मच्चाई इत्यत्र ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशो जातः।
E -रोधिति । रुद् रोदने । रुद+तिन् । ८९७ सू० दकारस्य वकारे, ६२८ सू० लिव इचादेशे रुबद्द ९०९ सू. उकारस्थ मोकारे रोवह इति भवति । नमलि । नम् नमने । नम्+लिन् । प्रस्तुतसूत्रेण मकारस्थ वकारे नवाइ २२९ सू० नकारस्य कारे णवह इति साध्यम् ।।
-उचिजति । उत्पूर्वक: विधातः उद्वेगे । उदिज्+सिव । ३४८ दकारलोपे, ३६० सू० बकारद्वित्त्वे, प्रस्तुतसूत्रेण जकारस्य व इत्यादेशे, ६२८ सू० लिव इचादेशे उब्विवह इति सिद्धम् । सहगः । उद्विज्+धन (अ) उम्वित् +अ । ९०९ सू० इकारस्य एकारे, सिप्रत्यये, ४९१ सू० सेझै:, डिति परेऽन्यस्वरादेलोपे उधेवो इति भवति ।
९--खादति । खाद् खादने । वाद्+तिन् । ८९९ सू० दकारलोपे, ६२८ सू० तिव इचादेशे खाइ ९११ सु० अकारागमे लामा इति भवति । खाविष्यति । खाद्+स्यति खा+स्थति 1 ६५५ सू०प्रत्ययस्यादौ हि-प्रयोग,६२८ सू० स्यतेः स्थाने इचादेश खाहि इलि भवति । खावतु । खाद्+तुम्स्वा+तु । ६६२ सू० तुवः दु इत्यादेशे, १७७ सू० दकारलोपे खाउ इति भवति । धावति । धाव+धावने। धा+तिक प्रस्तुतसूत्रेण वकारस्य लोपे घाइ इति पूर्ववदेव साध्यम् । धाविष्यति । धाव+स्थति। पूर्ववंदेव-धाहिइ इति भवति धावतु । धान्+तुन् । पूर्व वदेव बाउ इति भवति । बहुलाधिकारात् । ९९९ सूत्रे बहुलम् ।।१२। इत्यस्य सूत्रस्थानुवृत्तिरायाति तेन वर्तमाना (लट्), भविष्यद् (लट्, लुद्) विधिः (लोद, विधिलिङ्) एतेषामेकवचने एक प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जायते न तु बहु बचनेऽपि । यथाखावन्ति । खाद्+अन्ति । ९१० सू० प्रकारागमे, ६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे लापम्ति इति भवति । एवमेव धावन्ति । धाब्+अन्तिधाधन्ति इति साध्यम् । अत्र बाहुल्यात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्न जाता । अवधिन भवति । बहुलाधिकारात् कस्मिंश्चित स्थले एकवचनेऽपि प्रस्तुतसूरस्थ प्रत्तिन भबति। यथा-बावति । धाव+ति । बाहुल्येल प्रस्तुलसूत्रस्याप्रवृत्ती ११० सू० प्रकारागमे, पूर्व वदेव धाबइ इति भवति । पुरतः । अव्ययपदमिदम् । १७७ ९० तकारलोपे, ३७ सू० विसर्गस्थ डो (श्री) इस्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे पुरओ इति भवति ।
९००--निसृजति । निपूर्वकः मृजधातुः निसर्गे। निसृज--- तिन् । १२८ ऋकारस्य इकारे, ९०० सू० जकारस्य रेफादेश, ६२८ सू० सिव इचादेशे निसिरई इति भवति । पुत्सृजप्ति । वि-उत्-पूर्वक: सृधातुः त्युत्सर्गे । व्युत्सृज् +तिम् । ३४६ सू० यकारलोपे, १०९ सू० उकारस्य अोकारे, ११ सू० तकारलोपे, कारस्य इकारे, जवारस्य रेफादेशे, पूर्व वदेव चोसिरह इति भवति । व्युत्सृजामि । व्युत्सृज् +मिव दोसिर+मिव । ६४३ साकारस्थ ग्राकारे.६३० स०मिनः स्थाने मि इत्यादेशे वोसिरामि धति भवति ।
१०१- शक्नोति । शधातुः सामध्यें । श+तिन् । २६० सू० शकारक्ष्य सकारे, ९०१ सू० ककाराद्विस्वे, ९१० सू० मकारागमे, ६२८ मूल तिव इचादेशे सबक इति सिद्धम् । जेमति । जिम् भोजने । जिम् - तिव । प्रस्तुतसूत्रेणा कारस्य द्विस्वे, जिम्मई । लगति । लग लगने । लग+तिवसभाइ । मगति । मग गतौ । मग+ति - मगइ । कुप्यति । कुप् कोपे । कुप् - तिव-कुप्पड़ । नश्यति । मश नाशे। न+तिन् । २६० सू० शकारस्य सकारे नस्सइ इति भवति । पर्यटति । परिपूर्वक प्रदधातुः पर्यटने । परिघट्+लिव् । ६ सू० यण-सन्धिनिषेधे, प्रस्तुतसूत्रेण टकारस्य द्वित्त्वे, पूर्ववदेव परिपट्टा इति भवति । प्रलुटति । प्रपूर्वकः लुट्-धातुः संश्लेषणे । प्रतुद+तिन् । ३५० सू० रेफलोपे, ९०९
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चतुर्थयादः
★ संस्कृत-हिन्दो-टीकाद्वयोपेतम् ★ सू० उकारस्य प्रकारे, पूर्व वदेव टकारद्वित्वे पलोट्टई प्रयोगदर्शनात् ८४ सूत्रस्य प्रवृत्तिनं जाता, तुदपति । तुद् त्रोटने । तुद्+तिव् - सुट्टा । नाति । नट् + नतंने । नट् +ति भट्टई । सीव्यति । सिव तन्तुसन्ताने । सिन्+तिव-सिव इति भवति । अत्र प्रस्तुतसूत्रेण टकारस्य वकारस्य च द्वित्त्वं जातम् ।
९०२-स्फुटति । स्फुट विकासे । स्फूट+तिव। ३४म स० सकारलोपे, ९०२ सू० टकारस्य विकल्पेन द्वित्त्वे, ९१० सु० सकारागमे, ६२८ स० तिव इचादेशे फुइ द्वित्त्वाभावे-१९५ सू० टकारस्य डकारे, प्रकारागमे, पूर्ववदेव फुडइ इति भवति । चलति । चल चलने। चल+लिन् । प्रस्तुतसूत्रेण लकारस्य वैकल्पिके द्विरवे सल्लइ द्वित्त्वाभाये चलइ इति भवति ।
९०३- प्रावेरिति । प्र, परा, अप, सम् इत्यादयः उपसर्गाः। प्रादिर्यस्य सः प्रादिः, तस्येति भायः । प्रमीलति । प्रपूर्वक: मीलधातुः प्रकृष्टनिमेष अतिसंकोचे । प्रमोल +तिन् । ३५० सू० रेफलो, ९०३ सू० लकारस्य वैकल्पिके द्वित्वे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमें, ६२६ सू० तिव इचादेशे पमिल्लइ विस्थाभावे पमीलइ इति भवति मिमीलति । निपूर्वक; मील्धातुः निमेषणेनेत्रसंकोचे । निमीत् +तिन् । पूर्ववदेव लकारस्य द्वित्वे-निमिस्लाइ द्वित्वाभावे लिमीलइ इति भवति । समीलति । सम्पूर्वकः मीलधातुः सम्मेलने-संयोगे। संघोल +लिन् । पूर्व वदेव संमिल्लइ, संमोलाइ इति भवति । उम्मीलति । उत्पूर्वकः मीलधातु: उन्मीलने । उद्मोल+तिन् । ३४८ सू० दकारलोपे, ३६० सू० मकारस्य द्वित्त्वे, प्रस्तुतसूत्रेण लकारस्थ वैकल्पिके द्विस्वे, पूर्ववदेव चम्मिल्लइ, उम्मीलाइ इति भवति । प्रावेरिति किम् ? प्रस्तुतसूत्रेण प्रादेः परस्यैव मील्धातोः लकारस्य द्वित्त्वं जायते, नान्यथा। यथा--मालति । मील निमेष । मील् + तिन् । प्रादीनामुपसर्गाणामभावादत्र प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती, ९१० सूः धातोरन्तेऽकारागमे, पूर्ववदेव मीलाइ इति भवति ।
९०४-ह.नुछ। हनुङ्-धातोरदाहरणे प्रदीयते । यथा-निहनुस । निपूर्वक हनुधातुः उक्तास्वीकारे। निह नु+ते। ३४६ सू० ह.नस्य ह इत्यादेशे, ९०४ सू० उकारस्य स्थाने अव इत्यादेको, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे नियहवह इति भवति । निजुहोति । निपूर्वक हुधातुः नितरां दानादा. नयोः । निहु+तिव =निहवाइ इनि निण्हवा-वत्-साव्यम् । स्थबसे । च्युङ (च्यु) गतौ । न्यु+ते । ३४९ सू० यकार-लोपे, पूर्ववदेव अवह इति भवति । एवमेव रोति । रु शब्दे । रु+तिव-रवइ । कौति । कुधातुः शब्दे । कु + तिब् = कवइ । सुवति । ष प्रेरणे । पू+तिन् । २६० सू० षकारस्य सकारे सब प्रसुति । प्रपूर्वकः धातुः प्रसबने । प्रतिव् । इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे, षकारस्य सकारे पूर्ववदेव रसुवाइ इति भवति।
९०५--करोति । डुकृञ् (कृ) करणे। कृ+तिन् । ९०५ सू० ऋकारस्थ पर इत्यादेशे, ६२८ सू. तिव इचादेशे करइ इति भवति । घरति । धू-धृ धारणे! धृ+ तिन् । पूर्ववदेव घरइ इति साध्यम् । एवमेव घ्रियत। मुह-मप्राणत्यागे। म+ते मरइयत्र ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशो जातः । वृणोति । वृञ् वरणे। व+तिव-वरइसरति । स सरणे।स+तिवसरह। हरति । हुत्र हरणे । ह+तिव हरा । तरति । तु तरणे। त+
तितरम । जीर्यत । ज+तिम् - अरह इति पूर्ववदेव साध्यम् । १०६-वर्षति । वृष वर्षणे । वृष्+तिम् । इत्यत्र ९०६ सू० ऋकारस्य अरि इत्यादेशे, २६० सू० षकारस्य सकारे, ९१० सू० प्रकारांगमे, ६२८ सू० तिब इचादेशे परिसह इति भवति । कर्षति । कृष् कृर्षणे । कृष्-+-तिन् । पूर्ववदेव करिस इति भवति । एवमेव मृगति । पृष् मर्षणे । मृष् +लिस मरिसइ । हृष्यति । हृष हर्षणे । हृष+तिव्ह रिसइ इति पूर्ववदेव माध्यम् । पेषामरिरादेशो दृश्यते ।
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* प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः येषां धातूनामृकारस्य अरि इत्यादेशो दृश्यते ते सर्वे धातवः वृषादयोऽवगन्तव्याः ।
९०७ - रुष्यति । रुप रोषे । रुष् + तिव । ९०७ सू० स्वरस्य (उकारस्य) दीर्थे, २६० सू०५कारस्य सकारे,९१० स० धातोरस्तेऽकारागमे,६२८ स० तिथ इचादेशे रूसइ इति भवति । तुष्यति । तुष् तोषे । तुष+तिव् । पूर्ववदेव तुसाद इति साध्यम् । एवमेव---शुष्यति । शुष शोषणे। शुष्+ति - ससह । वुष्यति । दुष् दोषे । दुष्+तिव्-दूसइ । पुष्यति । पुष् पोष। पुष् +तिव्=पूसह । शेषति । शिष् अवशेष, हिंसायां बा । शिष् +तिवयसीसइ इति साध्यम् ।
जित्वा । जिधातुः जये। जि+स्वा । ९९८ सू० इकारस्य एकारे, ४१७ सू० क्त्वः स्थाने तूण इत्यादेशे, १७७ सू० तकारलोपे जेऊरण इति भवति । नीत्वा । मीत्र प्रापणे । नी+क्त्वा । प्रस्तुतसूत्रेण ईकारस्य एकारे, पूर्ववदेव नेकग इति साध्यम् । एवमेव नयति । नी+
सिने+तिव । ६२६सू. तिव इचादेशे नेइ, एवमेव मयन्ति । नी+अनि-ने- प्रन्ति । ६३१ सू० अन्तेः ति इत्या. देशे नेन्ति इति भवति । उड्डीयते । उत्पूर्वकः डीधातुः बिहायसा गतौ । उतडी+ ते । ३४८ सू० तकारलोपे, ३६० सू० डकारद्विस्वे, ईकारस्य एकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे उदुइ एवमेव उहीयन्ते । उड्डी+अन्ते,ईकारस्य एकारे,६३१ सू० अन्ते इत्यस्य न्ति इत्यादेशे उहन्ति इति भवति । मुक्त्वा । मुच् मोचने । मुच्+क्त्वा । प्रस्तुतसूत्रेण उकारस्य प्रोकारे,८८३ सू० चकारस्य तकारे, ४१७ सू० क्त्वः तुण इत्यादेशे मोसम इति भवति । श्रुत्वा । श्रुधातुः धवणे । श्रुत्वा । ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, उकारस्य प्रोकारे, रवः स्थाने तूण इत्यादेशे, तुकारलोपे सोऊण इति भवति । स्वचिन्न भवति । बहुलाधिकारात् कस्मिश्चित् स्थले प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिनं जायते । यथा-नीतः। नी+त-त । बाहुल्येन प्रस्तुतसूत्रस्थाप्रवृती सिप्रत्यये, १७७ सू० तकारलोपे, ४९१ सू० सेडोंः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोप नीओ इति भवति । उट्टीनः । उड्डीन+सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, पूर्ववदेव बडीयो इति भवति । अत्रापि बाहुल्येन प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिनं जाता।
E -भवति । भू सत्तायाम् । भू+तिव् । ७३१ सू० भूधातो. हब इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे हवा ९०९ स० बाहुल्येन भकारस्य इकारे हिवाइ इति भवति । चिनोति । चित्र चयणे। चि+ तिव । ९०९ सू० इकारस्य वैकल्पिके उकारे, ९१२ सू० णकारस्थागमें, पूर्ववदेव अण, विणा इति भवति । बाहषानम् । यत्पूर्वकः डुधाञ् (घा) धातुः श्रद्धाने । श्रधा + प्रानश् । संस्कृतनियमेन श्रद धान+सि इति जाते, ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू शकारस्य सकारे, १८७ सू० धकारस्थ हकारे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, ५१४ सू० सेमकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे सद्दहारणं ९०९ सू० बाहुल्येन माकारस्य प्रकारे सद्दहरणं इति भवति । पावति । धाव् शीघ्रगती। पा+तिन् । ९१० सू० प्रकारागमे धाव प्रस्तुतसूत्रेण आकारस्थ उकारे धुबा इति भवति । रोविति। हद अश्रुविमोचने। रुद+ति । ८९७ सू० दकारस्य वकारे, ९१० सू० प्रकारागमे पूर्व वदेव सवइ प्रस्तुतसूत्रेण उकारस्य प्रकारे रोगह इति भवति । चिम्निस्यम् । बहुलाधिकारात् क्वचित् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिभित्या जायते । यथा-- पाति । डुदा-दा दाने । दा+तिन् । प्रस्तुतसूत्रेण प्राकारस्य नित्ये एकारे, पूर्ववदेव तिब इचादेशे देह इति भवति । लाति । ला प्रादाने । ला+तिव् । प्रस्तुतसूत्रण आकारस्य नित्य एकारे, पूर्ववदेव लेख इति भवति । एवमेव विजहाति । विपूर्वकः हाधातुः विशिष्टत्यागे। विहा+तिन् । प्राकारस्य निरये एकारे बिहे इति भवति । नवयति । नश्+ति ! २६० सू० शकारस्य सकारे, ९१० सू० प्रकारागमे, प्रादिमस्य प्रकारस्य नित्ये प्राकारे नासा इति भवति । आर्षे अमि । पार्षप्राकृते ब्रवीमि इत्यस्य क्रिया
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * पदस्य बेमि इति रूपं भवति । साधनिका त्वित्थम्-जून् ब्यक्तायां वाचि । ब्रू+भिव् । ३५० सू० रेफलोपे, भाषत्वा ऊकारस्थ एकारे, ६३० सू० मियः स्थाने मि इत्यादेशे बेमि इति सिद्धम् ।
१०-भ्रमति । भ्रम भ्रमणे । भ्रम् +तिव् । ३५० सू० रेफलोपे, ९१० स० प्रकाराममे.६२८ सू० तिब इचादेशे भमा इति भवति । हसति । हस् हासे । हस् + तिव । प्रस्तुतसूत्रण अकारागमे, पूर्ववदेव हसइ । करोति । डुकृञ् (क) करणे । कृ+तिन् । ७३६ सू० कृधातोः वैकल्पिके कुण इत्यादेशे, प्रकारागमे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये कुणइ इति भवति । एवमेव दृम्बति । चुम्ब चुम्बने । चुम्ब+तिक चुम्बइ, भणति । भण् भणने । भण्+ति भणइ, उपशाम्यति । उपपूर्वक कामधातुः उपशान्ती । उपशम + तिव् । २३१ सू० पकारस्थ वकारे, २६० सू० शकारस्य सकारे उवसमा इति भवति । प्राप्नोति । प्रपूर्वकः प्राप्ल (प्राप्) धातुः प्राप्तौ । प्राप् +तिछ । ३५० सू० रेफलोपे, २३१ सू० द्वितीय-पकारस्य वकारे पावद । सिञ्चति । सिन् सिञ्चने । सिच+तिव-सिञ्चाकति रुषि-रुप प्रावरणे । रुध् +तिव् ! ८८९ सू० धकारस्य न्ध इत्यादेशे, ९१० सू० अकारागमे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयाज्ये रन्धर, मुष्णाति । मुष् मोषणे-अपहरणे : मुष्-तिन् । २६० सू० पकारस्य सकारे मुसइ, हरति । हृञ् हरणे । ह+ति । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, अकारागमे, स्वरस्य लोपे, हर करोति । कतिन् । ऋकारस्य पर इत्यादेशे, अकारागमे, स्वरस्य लोपे कर इति भवति । शबाबीनां च प्रायः। संस्कृतव्याकरणे यथा भ्वादिगणे शप्प्रत्ययः, अदादिमणे सुप्रत्ययः, एवमेवान्यगणेषु अन्ये प्रत्ययाः क्रियन्ते तथा प्राकृतभाषायां तत्तद्-गरणेषु तेषां शबादीनां प्रयोगः प्रायोन भवतीति भावः।
१५-पाति । पा रक्षणे । पा+तिन् । ९११ सू० वैकल्पिकेऽकारागमे, ६२६ सू० तिच इचादो पाबा वा इति भवति । वषाति । हुधा (धा) धातुः धारणेचा+तिन् । पूर्ववदेव-बाबा पाह इति साध्यम् । एवमेव माति । या प्रापणे । या तिन् । २४५ सू० यकारस्य जकारे,जा, जाइ, ध्या यति । ये चिन्तायाम् । ध्य+तिन् । ६७७ सू० ध्यधातोः झा इत्यादेश झापा, झाब, जम्भते । जम्भ
भायाम् । जुम्भ +ते । ५२८ सू० जृम्भधातोः जम्मा इत्यादेशे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे जम्भाअब, सम्भाइ, उच्वाति । उत्पूर्वक: वा-धातुः ऊध्र्वगतौ । उद्वा+तिन् । ३४८ सू० दकारलोपे, ३६० सू० बकारद्वित्वे उज्याआइ, जल्याइ इति भवति । ग्लायति । म्ल म्लाने। संस्कृतनियमेन म्ला+तिद इति जाते ३७७ सू० लकारात पूर्वे इकारागमे मिलाइ, मिला इति भवति । विक्रोणाति । विपूर्वक
धातुः द्रव्यविनिमये । विक+ति । ७२३ सू० विधातोः क्के इत्यादेशे, प्रस्तुससूत्रेण वैकल्पिके - कारागमे विक्कअप, षिकेह इति भवति । भूस्वा । भू+क्त्वा । ७३१ सू० भूधातोः हो इत्यादेश ४१७ सू० क्त्वः तूण इत्यादेशे, १७७ सू० लकारलाप, पूर्ववदेव अकारागमे होऊरण, होऊण इति भवति ।मत इति किम् ? प्रकारान्त-वजित-स्वरान्तादेव धातोरकारागमो जायते, नान्यत्र । यथा चिमिसति । चिकिल्स् व्याधिप्रतिकारे। चिकित्स्+तिम् । १७७ सू० ककारलोपे, २९२ सू० त्सस्य प्रकारे, २६ मू छकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे, ९१० सू० प्रकारागमे, १० सू० स्वरलोपे; अज्झीने परेण संयोज्ये, प्रकारान्तत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती, पूर्ववदेव घिच्छा इति भवति । जुगुप्सति । जुनप्स् मिस्वायाम् । जुगुप्स्+तिन् । ६७५ सू० जुगुप्स्धातोः दुगुच्छ इत्यादेशे, पूर्ववदेव बुगुच्छन इति भवति । प्रमापि प्रकारान्तस्वात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्त्यभावः ।
१२-जिनोति । चिञ् चयने । चि+ति । ११२ सू० णकारागमे, ६२८ सू० लिव इचादेशे
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चतुर्यपादः
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* प्राकृत-व्याकरणम् * चिणइ इति भवति । अयति । जि जये। जि+तिन् । पूर्वबदेव जिणइ इति साध्यम् । एवमेव श्रुणोति । श्रु श्रवने । श्रु+तिन् । ३५.० रेफलोपे, २६० सू शकारस्य सकारे सुरणइ इति भवति । जुहोति । हु दानाऽदनयोः । हु+ति हुणइ, स्तौति । स्तु स्तवने | स्तु+तिब् । ३१६ सू० स्तस्य थकारे थुणा, लुनाति । लून् छेदने । लू+तिम् । प्रस्तुतसूत्रेण णकारागमे, ऊकारस्य च उकारे लुणइ इति भवति । एवमेव पुमाति । पू पबने । पू+तिव्=पुरणा, धुनोति । धूम् कम्पने । धू+तिव्= धुणह इति भवति । बहुलाधिकारात् । बहुलस्याधिकारात् कस्मिश्चित् स्थले सकारागमो विकल्पेन भवति । यथा -- उच्चिनोति । उनका निन्-धातु: उन्मयते दिलिन् । ३४८ सू० लकारलोपे, ३६० सू० चकारद्वित्त्वे, बाहुल्येन वैकल्पिके णकारागमे उचिणा प्रागमाभाचे ९०८ सू० इमारस्य एकारे उच्चेह इति भवति । जित्वा । जि अये । जि+परवा । ४१७ सू० क्त्वः तुण इत्यादेशे, बकल्पिके णकारागमे, ६४६ सू० अकारस्य इकारे, १७७ सू० कारलोपे निरिणकण प्रागमाभावे ९०८ सू० इकारस्य एकारे जेमण इति भवति । जयति । जि+तिन् । वैकल्पिके णकारागमे विणइ भागमाभाये २,०८ सू० इकारस्य एकारे, ९१० सू० प्रकारागमे, संस्कृतव्याकररोन प्रयु-सम्धी अग्रह इति भवति । भूत्वा । शुश्रवणे। श्रु+ क्वा । ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, वैकल्पिके णकाराममे, ६४६ सू० अकारस्य इकारे, बत्दा स्थाने तुणादेशे; पूर्ववदेव' तकारलोपे सुणिकच मागमाभावे ९०८ सू० उकारस्य ओकारे सोऊण इति भवति।
★ अथ धातुओं को होने वाली आदेशविधि (ग) *
सम् उपसर्ग पूर्वक दिशि आदि धातुओं के स्थान में अप्पाह आदि जो प्रादेश होते हैं, प्रब सूत्रकार उनका निर्देश करने लगे हैं
...५१----सम् उपसर्ग पूर्वक दिशि धातु के स्थान में 'अप्पाह' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे---संविशति-प्रपाहइ प्रादेश के प्रभाव में संदिसइ (वह संदेश देता है) ऐसा रूप बनता है।
८५२-दृशि (दस) धातु के स्थान में-१-नि , २-पेच्छ,३---अवयच्छ, ४-अवयज्झ, ५-वन, ६-सव्यव, क्ल -ओअक्स,-अवल, १०--अधक्षख, ११-पुलोअ, १२-पुला, १३-निम, १४---अबआस और १५-~-पास ये १५ प्रादेश होते हैं। जैसे--पश्यति-निच्छाइ पेन्छ, अवयचछाई, अवयज्झइ, बज्जइ, सव्ववइ, देवखइ, प्रोअक्ख इ, अवकासय, अय-प्रकल इं, पुलोएइ, पुलएइ, निभाई,अवधासइ,पासइ (वह देखता है) यहां दृशि धातु के स्थान में निमच्छ आदि १५ प्रादेश किये गए हैं। वृत्तिकार फरमाते हैं कि निज्झाइ (बह देखता है या निरीक्षण करता है) वह रूप तो निउपसर्ग पूर्वक ध्यं पातु [निध्यायति] से ९११ सूत्र से प्रकारान्त-अनिल स्वरान्त धातु से प्रकार का पागम होने पर बन जाता है। प्रस्तुत सूत्र ने यहां पर कोई कार्य नहीं किया।
८५३-स्पृश धातु के स्थान में-१-फास,२-फस, ३--फरिस, ४ - छिव, ५--- छिह, --- आनुश और आलिह ये सात मादेश होते हैं। जैसे--स्पृशति- फासइ, फंस इ, फरिसइ, छिन, छिहइ, पालुङ्ख, प्रालिहइ (यह स्पर्श करता है) यहाँ पर स्पृश् धातु के स्थान में फास आदि सात मादेश किए गए हैं। ..... १५४.प्र.उपसर्गपूर्वक विशि धातु के स्थान में 'रिस' यह प्रादेश विकल्प से होता है । जैसे---- प्रविशति रिपाइ पादेश के प्रभावपक्ष में पविसइ (वह प्रवेश करता है) यह रूप बनता है । ...५५- उपसर्ग से भागे यदि मृश अथवा मुष् धातु हो तो उसके स्थान में 'म्हुस' यह प्रा
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चतुर्षपादः
*संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम* देश होता है। जैसे---प्रमृशति अथवा प्रमुष्णाति-पम्हुसइ (बह स्पर्श करता है अथवा वह चोरी करता है) यहां मश अथवा मुष धातु को म्हुस यह मादेश किया गया है।
.ru-पिषि धातु के स्थान में-१-रिणबह. २-णिरिणास, ३-णिरिणम्म, ४--रोज्न पौर ५- मडु ये पांच प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे--पिमष्टि णिवह, णिरिणासइ,णिरिणजइ, रोवइ, चड्डुइ प्रादेशों के प्रभावपक्ष में--पीसह (वह पीसता है) ऐसा रूप होता है।
८५७-भषि धातु के स्थान में भुक्क यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-भवते-भुक्कइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में--भसइ (वह भौंकता है) ऐसा रूप बनता है। ..., कृषि धातु के स्थान में-१-कट, २-सामरह, ३-अच, ४-प्रपन्छ, ५----- यज्छ और ६--आइञ्छ ये ६ भादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-कर्षति कड्ढा, साअड्ढद, अचह, प्रणा , अयन्छ , पाइन्छइ आदेशों के अभावपक्ष में--करिस (वह कर्षण करता है, खींचता है) यह रूप बनता है।
८५-असि-विषयक (तलवार को म्यान से खींचना, इस प्रर्थ के बोधक) कृषि धातु के स्थान में अक्खोड यह आदेश होता है। जैसे-असि कोशात् कर्षति प्रक्खोडे (वह तलवार को म्यान से बाहिर खींचता है) यहां पर कृषि धातु को प्रक्खोड यह प्रादेश किया गया है।
': ८६o-गवेषि धातु के स्थान में-१-हल्ल, २-शुण्डोल, ३-गमेस और ४-पत्त ये चार प्रादेश विकल्प से होते हैं । जैसे-गवेषयतिम्-तुण्डुलाइ, ढण्ढोलाइ, गमेसइ, उत्तइ आदेशों के प्रभावपक्ष में गधेसइ (यह गवेषणा करता है) यह रूप बन जाता है। ......८६१- रिलषि धातु के स्थान में-१-सामग,२-प्रवयास और ३-परिअन्त.ये तीन मादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-शिलष्यति सामग्गइ, प्रवयासइ, परिमन्तइ प्रादेशों के अभाव मेंमिखेसह (बह आलिङ्गन करता है) यह रूप बनता है। .., ८६२ ममि धातु के स्थान में चोप्पड यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे--म्रक्षते-चोपडइ अादेश के अभाव में-- मक्य (बह चोपड़ता है। ऐसा रूप होता है।
५६३--काक्षि धातु के स्थान में-१ आह, २-अहिलङ्क ३-अहिलसा, ४ वटवा, ५----- धम्क, ६ मह,७-सिह और विलुम्प ये पाठ प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-काङ्क्षले प्राहइ, अहिलङ्घइ, अहिलखाइ, बच्चाइ, वम्फइ, महइ, सिहइ, विलुम्पइ, आदेशों के प्रभावपक्ष में कई (वह काङ्क्षा-इच्छा करता है ऐसा रूप होता है।
९६४.--प्रति उपसर्ग पूर्वक ईक्ष धातु के स्थान में-१-सामय, २-विहीर और ३...-विरमाल ये तीन प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-प्रतीकले - सामयाइ, बिहीरइ, विरमालइ प्रादेशों के प्रभावपक्ष में पडिक्सह (बह प्रतीक्षा करता है) ऐसा रूप होता है।
५६५----तक्षि धातु के स्थान में १-सच्छ, २-वच्छ, ३---रम्प और ४-रफ ये चार प्रादेश विकल्प से होते हैं । जैसे-तक्षते- तन्द्रा, चच्छह, रम्पइ, 'रस्काइ, प्रादेशों के मभावपक्ष में--- सक्खइ (वह छीलता है) ऐसा रूप होता है। - ८६६ -वि उपसर्ग पूर्वक कसि धातु के स्थान में कोस और बोसट्ट ये दो आदेश विकल्प से होते हैं । जैसे--विकसति-कोप्रासइ,वोसट्टइ,प्रादेशों के प्रभावपक्ष में-विअसइ (वह विकसित होता है। ऐसा रूप बनता है।
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Awarendrandiwana
* प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुवैपादः ८६७-हसि धातु के स्थान में गुज यह आदेश विकल्प से होता है । जैसे हसति -गुई प्रादेश के प्रभावपक्ष में हसइ (वह हंसता है) ऐसा रूप होता है।
--ससि बातु के स्थान में लहस तथा डिम्भ ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे१-वंसते ल्हसाह, डिम्भाइ (वह गिर पड़ता है),२-परिसते सलिल-वसनम् परिल्हसइ सलिलवसणं (सलिल-जल से युक्त (आद्र) यस्त्र सरकता है। प्रादेशों के अभावपक्ष में संसद (वह खिसकता है) शाप हो जाता ___ ६९-सि धातु के स्थान में --१-~र, २-खोज और ३-बज ये तीन मादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-अस्यति डरइ, बोज्जइ, बज्जाइ आदेशों के प्रभावपक्ष में- तसा (वह करता है) यह रूप बनता है।
so---नि उपसर्ग पूर्वक अस् धातु के स्थान में शिम और गुम ये दो मादेश होते हैं । जैसेन्यस्मति-णिमा,णुमइ, (वह रखता है) यहां पर न्यस् के स्थान में रिणम मादि प्रादेश किए गए हैं।
___.७१--परि उपसर्ग पूर्वक प्रस् धातु के स्थान में -१-पलोट्ट, २-पालट्ट और ३-पल्हत्य ये तीन मादेश होते हैं। जैसे-पर्यस्यति-पलोट्टह, पल्लट्टइ, पल्हत्थई (वह विपरीत होता है। यहां पयस् के स्थान में फ्लोट्ट नादि प्रादेश किए गए हैं ।
७२-नि उपसर्ग श्वास धातु के स्थान में '' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे---- निश्वसिति झलइ,प्रादेश के प्रभावपक्ष में नीससइ [वह निःश्वास (सांस का छोडना) लेता है यह रूप बनता है।
७३उत् उपसर्गपूर्वक लसि धातु के स्थान में-१-कसल, २सुम्म, ३-मिल्लस, ४-पुलाख, ५- गुळमोहल और ६-आरोष ये छह प्रादेश विकल्प से होते हैं । जैसे-उस्मसति ऊसलाइ, ऊसुम्भह, जिल्लसइ, पुलमाबाद, गुब्जोल्लइ ५४ सूत्र से ह्रस्व (प्रोकार को उकार) हो जाये पर गुम्छुल्लाह, मारोगाइ आदेशों के अभावपक्ष में उल्लसा (वह उल्लास, मानन्द को प्राप्त करता है) ऐसा.रूप बनता है।
८७४-भासिधातु के स्थान में 'भिस' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-भारते भिसई प्रादेश के प्रभावपक्ष में भास(वह चमकता है। ऐसा रूप बनता है।
८७५-असि धातु के स्थान में घिस यह नादेश विकल्प से होता है। जैसे--प्रसाति-घिसद मादेश के विपक्ष में गसह यह भक्षण करता है) यह रूप होता है।
७६ प्रव उपसर्ग से परे प्रहि धातु को 'वाह' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-अबपाहते-पोवाहद आदेश के प्रभाव में मोगाहा [वह अच्छी तरह पहण (हृदयङ्गम) करता है] ऐसा रूप होता है।
२७७ --प्राङ् (आ) उपसर्ग पूर्वक रुहि धातु के स्थान में था और वसा ये दो आदेश विकरूप से होते हैं। जैसे-आरोहति चडइ, बलग्गई प्रादेशों के प्रभावपक्ष में-पाहा (वह पढता है) ऐसा रूप बनता है।
-मुहि धातु के स्थान में गुम्म और गुम्मड ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे - हाति गुम्मइ, गुम्पङ प्रादेशों के अभावपक्ष में ... सुज्झइ (बह मोहित होता है) ऐसा रूप बनता है।
५७६-दहि धातु के स्थान में-अहिजल और आलुङ्ग ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे
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चतुर्थपावः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * बहति-अहिऊलइ, पालुङ्खइ प्रादेशों के प्रभावपक्ष में-जहइ (वह जलाता है) यह रूप होता है।
८८०-ग्रहि धात के स्थान में ----वल. २---ोड 3-हर, ४-पड, ५-निरुवार और ६-अहिपाचुअ ये छह आदेश होते हैं। जैसे- गलाति -- बलइ, गेहदहर, पङ्गइ,निस्वारइ, पहि- . पच्चुन्नई (वह ग्रहण करता है) यहां पर हि धातु को बल प्रादि प्रादेश किए गए हैं ।
___१८१-प्रहि धातु से प्रागे यदि क्त्वा, तुम और तव्या ये प्रत्यय पड़े हों तो उसे घेत्त यह प्रादेश हो जाता है । जैसे-पस्या का उदाहरण-गहोवा घेत्तुण, घेत्तयाण (ग्रहण करके) बहुलाधिकार के कारण कहीं पर क्त्वा प्रत्यय के परे होने पर भी प्रहि धातु को चेत् यह आदेश नहीं होता। जैसेनहीवा-गेण्हिन, यहां पर घेत् प्रादेश नहीं हुमा किन्तु ८८० सू० से अहि धातु को 'गेह प्रादेश किया गया है। तुम्-प्रत्यय का उदाहरण-ग्रहीतुम्-घेत्तु (ग्रहण करने को), तव्य का उदाहरण-ग्रहीतकाम घेत्तध्वं (ग्रहण करना चाहिए) यहां पर क्त्वा प्रादि प्रत्ययों के परे रहने से ग्रहि धातु के स्थान में घेत् प्रादेश किया गया है।
८८२-यदि क्त्वा, तुम् और लव्य ये प्रत्यय परे हों तो बच् धातु के स्थान में 'बोत्' यह प्रादेश होता है। जैसे-१- उक्त्वा वोलण (कह कर), २-वक्तुम् = वोक्तुं (कहने के लिए),३--वक्तव्यम्-वोत्तब्वं (कहना चाहिए) यहां पर वच् धातु को 'वोत्' यह आदेश किया गया है।
३-वा, तुभ् और तव्य इन प्रत्ययों के परे रहने पर रुद, भुज् और मुच् इन धातुओं के मन्तिम वर्ण को तकार हो जाता है। जैसे-१-हदिस्वारोत्तूण (रो करके), २-रोदितुम् = रोत्तुं (रोने को), ३-रोषितव्यम् - रोत्तब्वं (रोना चाहिए), ४ .... भुक्त्वा भोत्तूण (खा कर), ५---भो. बहम भोतं खाने के लिए),६-भोक्तव्यमा भोत्तब्वं (खाना चाहिए),७-मुक्या मोसूण (छोड़करके),-मोक्तम-मोतं (छोड़ने के लिए) E-मौतव्यम-मोत्तब्वं छोड़ना चाहिए। यहां पर क्त्वा मादि प्रत्ययों के परे रहने पर रुद् प्रादि धातुयों के अन्त्य वर्ण को तकारादेश किया गया है।
८८४-दृश् धातु के अन्तिम वर्ण को आगे पढे प्रत्यय के तकार के साथ द्विरुक्त (जिसे दो बार कहा गया हो, द्वित्त्व) ठकारादेश होता है। जैसे-१-दृष्टा या दळूण (देखकर), २.प्रष्टुम्द छु विखने को), ३-व्रष्टव्यम-दव्य (देखना चाहिए) यहाँ पर प्रस्थय-स्थ तकार के साथ दृश् धातु के श् को ठ यह प्रादेश किया गया है।
५-यदि भूतकालीन (भूतकाल का बोधक), भविष्यत्कालीन (भविष्यत् काल का संसूचक), प्रत्यय तथा सूत्रोक्त चकार के कारण क्त्वा, तुम् तथा तव्य ये प्रत्यय आगे पडे हों तो कृम् (कृ) धातु के अन्तिम वर्ण ऋकार को प्राकारादेश होता है । जैसे-१--अकार्षीत् (लुङ्), अकरोत् (लङ्) अथवा बकार (लि) काहीम (उसने किया था), २-करिष्यति (लट् ) अथवा कर्ता (लुद्) काहिद (वह करेगा), स्वा प्रत्यय का उवाहररण- कृत्वा - क ऊण (करके), तुम् का उदाहरणकर्तुम् - कार्ड (करने के लिए), तव्य का उदाहरण- कर्तध्यम् - कायव्वं (करना चाहिए) यहाँ पर कृ धातु के ऋकार को प्राकारादेश किया गया है।
__ ८८६-गम्, इष्, यम् और प्रास् इन धातुओं के अन्त्य वर्ण के स्थान में 'छ' यह अ देश होता है । जैसे-१-गच्छति - गच्छइ (वह जाता है),२-इच्छति । इच्छइ (वह चाहता है), ३-यमति =अच्छा (वह उप राम होता है), ४. प्रास्ते अच्छद (वह बैठता है। यहां पर गम् मादि धातुओं के अन्तिम वर्ण को छ यह प्रादेश किया गया है।
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः ८८७-छिदि और भिदि धातुओं अन्त्य के वर्ण को नकाराकान्त (नकार से युक्त) दकार होता है। जैसे-१-छिनत्तिछिन्द (बह छेदन करता है), २ --भिनत्ति =भिन्दइ (वह भेदन करता है) यहां पर छिदि आदि धातुओं के अन्तिम वर्ण को 'न्द' यह आदेश किया गया है।
___ -युध, बुध्, गृथ्, क्रुध, सिध् और मुह, इन धातुओं के अन्तिम वर्ण को द्विरुक्त (जिसे दो बार कहा गया हो) झकार होता है। जैसे----युध्यते = जुभाइ (बह युद्ध करता है), २-बोपते-बुझा (वह बोध प्राप्त करता है), ३--गृध्यति-निजाइ वह प्रासक्त होता है), ४--कुष्यति -कुज्झइ (वह कोध करता है), ५-- सेवति-सिज्झइ (बह गति करता है), ६-मुह्यति मुझ (वह मोहित होता है) यहां पर युध् प्रादि धातुओं के अन्तिम वर्ग के स्थान में 'झम' यह प्रादेश किया गया है।
--रुध् धातु के अन्त्य वर्ण के स्थान में न्ध, म्भ सूत्रोक्त चकार के कारण भूक ये तीन मादेश होते हैं। जैसे- रणद्धि रुन्धइ, सम्भइ, उझद, (वह रोकता है) यहां रुध् धातु के धकार को न्य प्रादि तीन प्रादेश किए गए हैं।
८९-सद् और पत् धातु के अन्त्यव्यञ्जन को डकारादेश होता है । जैसे--सीवतिसडइ (वह शक्तिहीन होता है), २-पति-पडइ (वह गिरता है) यहां पर सद और पत् इन धातुओं के अन्त्य व्यजन को डकारादेश किया गया है।
८६१-क्वथ् और वर्ध धातु के अन्त्य वर्ण को ढकारादेश होता है । जैसे-१-पसथतिमा कडाइ (वह कहता है), २-वर्धते प्लवक-कल-कल:-वड्ढाइ पवय-कलयलो (प्लवकों-बन्दरों का कलन कल-कोलाहल बढ़ता है), ३-परिवर्धते लावण्यम् - परिअड्ढाइ लायणं (लावण्य-सौन्दर्य बढ़ता है) यहाँ पर क्वय् मौर वर्ष धातु के अन्तिम वर्ण को ढकारादेश किया गया है। यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि सूत्र में क्वथ् और वर्ष इन.दो घासुमों का ग्रहण किया गया है, अतः यहां द्विवचनान्त पद होना चाहिए था, किन्तु सूत्रकार ने इस पद को बहुवचनान्त क्यों बना दिया है ? इस का क्या कारण है ? उत्तर मेंनिवेदन है कि दो धातु होने से द्विवचनान्त ही पद होना चाहिए था, किन्तु सूत्रकार ने यहां बहुवचनान्तपद देकर वृध धातु तथा गुण हो जाने पर वर्ष, इस तरह वृध और वधु इन दोनों धातुओं का ग्रहण करना संसूचित किया है। इसीलिए वृत्तिकार लिखते हैं कि बहुवचन के ग्रहण से वृष धातु तथा कृतगुण (जिसको गुण कर दिया गया हो) वधु धातु का अविशेष (सामान्य) रूप से ग्रहण होता है।
६६२-वेष्ट धातु यदि वेष्टन (लपेटने) अर्थ में हो तो ३४८ सूत्र से पकार का लोप होने पर उसके टकार को कारादेश होता है। जैसे .....१ ---वेष्टते- वेढइ (वह लपेटता है),२---वेष्टयतेन वेदिज्जइ (उस से लपेटा जाता है) यहां पर वेष्ट धातु के टकार को हकार किया गया है। ..
८६३----सम् उपसर्ग पूर्वक वेष्ट धातु के अन्त्य वर्ण को द्विरुक्त (जिसे दो बार कहा गया हो) सकार होता है। जैसे-संबेष्टते-संवेल्लइ (बह अच्छी तरह लपेटता है) यहां वेष्ट धातु के टकार को ल्ल यह प्रादेश किया गया है।
४-उद् उपसर्ग से परे वेष्ट धातु के अन्त्यवर्ण को विकल्प से 'ल' यह आदेश होता है। जैसे वेष्टते- उच्वेल्लइ जहां प्रस्तुत सूत्र ने कार्य नहीं किया, वहां पर----उवेढा (बह बन्धन मुक्त करता है) यह रूप बनता है।
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चतुर्थपादः
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* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * ८९५--स्त्रिदि-प्रकार स्विदि आदि धातुओं के अन्त्य वर्ण को द्विरुक्त (द्वित्व) जकार होता है। जैसे-१-सडिस्वेदित्र्या-सम्बतसिजिजरीए (सभी प्रक्षों से पसीना बहाने वाली का), २सम्पद्यते-संपज्जइ (वह सम्पादन करता है), ३-खिखते-खिज्जह (वन दिन्न होता है। यहां पर स्विदि प्रादि घालमों के अन्तिम वर्ण को 'जज' यह आदेश होता है। सिकार फरमाते हैं कि प्रस्तुत सूत्र में "स्थिवाम्" यह जो बहुवचनान्त पद दिया है, यह प्रयोगानुसरण के लिए है। भाव यह है कि जहां पर 'जज' यह आदेश दिखाई देता हो उसकी सिद्धि इस सूत्र के द्वारा कर लेनी चाहिए।
८९६-व्रज्, नृत् और मद् इन धातुओं के अन्तिमवर्ण को द्विरुक्त (वित्त्व) चकार होता है। जैसे-----व्रजति वच्चाई (वह जाता है), २--नृत्यति नच्च (वह नृत्य करता है), ३-मनमच्छह (यह स्तुति करता है) यहां पर व्रज आदि धातुओं के अन्त्य वर्ण के स्थान में 'च' यह प्रादेश किया गया है।
६७-रुद् और नम धातु के अन्त्य वर्ण के स्थान में चकारादेश होता है। जैसे ...-१-रोविति स्वइ, रोबइ (वह रोता है), २...नमति-नवइ (वह नमस्कार करता है) यहां पर रुद् के दकार को और नम के मकार को बकार किया गया है।
१९५-उत् उपसर्ग पूर्वक विज् धातु के अन्त्य वर्ण के स्थान में वकार होता है। वैसे---- उद्विजाति-उविवाद (वह उद्विग्न होता है), २--उगः उठवेबो (क्लेष) यहां पर जकार के स्थान में वकारादेश किया गया है।
.. - खाद और धाव धातु के अन्त्य व्यञ्जन का लोप होता है। जैसे-१-बारति= खाइ, खाभाइ (वह खाता है),२०खाविष्यति- खाहिइ {वह खाएगा),३-खावखाउ (वह खाए), ४-चावतिधाइ (वह दौड़ता है), ५-धाविष्यति-धाहिह (वह दौड़ेगा), ६-यावत धाड (वह दौडे) यहां पर दकार और वकार का लोन किया गया है। यहां पर बहुलाधिकार के कारण पर्तमाना (लद), भविष्यत् (लद) और विधि (लोट, विधिलिङ्) आदि के एकवचन में ही खाद और धाव धातु के अन्त्य व्यञ्जन का लोप होता है, अन्यत्र नहीं। इस लिए.---१-बादन्तिम खादन्ति (के खाते हैं), २- बावन्ति : धावन्ति (वे दौडते हैं) यहां पर दकार और बकार का लोप नहीं हो सका। वृत्तिकार फ़रमाते हैं कि बहुलाधिकार के कारण कहीं पर एकवचन में भी वकार का लोप नहीं होने पाता ! जैसे-धावति पुरतः पावइ पुरग्रो (वह प्रागे दौड़ता है) यहां पर एकवचन था तथापि बहुलता के कारण वकार का लोप नहीं हो सका।
२००-सृज्धातु के अन्तिम वर्ण को रेफादेश होता है। जैसे------निसृजति निसिरह (वह बाहर निकलता है), २-धुत्सृषति - बोसिरह (वह परित्याग करता है),३-व्युत्समामि- वोसिरामि (मैं परित्याग करता हूं) यहां पर जकार को रेफादेश किया गया है।
९०१-शक आदि धातुओं के अन्तिम वर्ण को द्वित्व वर्ण होता है। जैसे--१-दाक्का उबाहरम-शाक्नोति सक्कई (बह समर्थ होता है), २-जिम् का उदाहरण --जेमति-जिम्मई (वह भोजन करता है), ३-लग् का उदाहरण-लगतिलग्ग (वह लगता है, मिलाप होता है), ४.-मम्का उदाहरण- मगति-मम्गाइ (वह गति करता है),५---कुप का उदाहरण-कुप्यति-कुप्पई (वह कोप करता है), ६. नर का उदाहरण-नश्यति नस्सइ (वह नष्ट होता है), ७- अद् का उदाहरण पर्मचालि-परिप्रट्टा (वह पर्यटन करता है), -सुट का उवाहरण--प्रलुटति पलोट्टा (वह लोटता है),
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादा -सुद का जवाहरग-तुस्थति-तुट्टइ (वह तोड़ता है, वह दुःख देता है), १०.मट का उदाहरणमदति नमुद (वह नाचता है), ११-सिवका अवाहरण सीव्यतिसिब्बई (वह सीता है। यहां पर शक आदि धातुओं के अन्त्य वणं को द्वित्त्व किया गया है।
१०२-स्फुटि और चलि धातुओं के अन्त्यवर्ण को द्वित्व विकल्प से होता है। जैसे---- स्पति-फुट्टइ, फुडइ (वह विकसित होता है), २-चलति- चल्लई,चलइ वह चलता है) यहां पर टकार और लकार को विकल्प से द्वित्त्व किया गया है।
१०३-आदि उपसर्गों से परे यदि मोलि धातु हो तो उसके अन्तिम वर्ण को विकल्प से द्विस्व होता है। जैसे-१-प्रमोलतिय पमिल्लइ, पमोल इ (वह संकोच करता है), २-निमीलति निमिल्लाइ, निमीलइ (वह प्रांख मून्दता है), ३.संमोलतिः सम्मिल्लइ, सम्मोलइ (वह पछी तरह से मिलता है), ४-उन्मोलति उम्मिल्लइ, उम्मीलई (वह विकसित होता है) यहां पर लकार को द्विस्त किया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि सूत्रकार के "प्रादेः (प्रादि उपसगों से परे)" ऐसा कहने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में निवेदन है कि--भीलतिमीलाइ (वह मून्दता है) प्रादि शब्दों में प्रमादि उपसर्गों के अभाव में भी कहीं अन्तिम वर्ण द्वित्व न हो जाए, इस दृष्टि से सूत्रकार ने "प्रायः" इस पद का उल्लेख किया है । प्रादि उपसर्गों का यहां पर प्रभाव होने से प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति नहीं हो सकी।
९०४-धातु के अन्तिम उवर्ण को 'अब' यह आदेश होता है। जैसे-टुङ् पातु का उवाहरख-१-निल ते निण्हवइ (वह अपलाप करता है), हु का उदाहरण-२-निजुहोति-निवड (वह हमेशा हवन करता है), पुङका उपाहरण--३---च्यचले-चवइ (वह मरता है), ह का उबा हरणा-४---रोति रवाइ {वह रोता है), कु का उदाहरण----५--कौति -कवाड (वह शब्द करता है)।
माह का उदाहरण-६-सुवतिय सवाद (बह प्रेरणा करता है), ७ - प्रसुवति-पसवइ (वह ज्यादा प्रेरणा करता है) यहां पर हुछ प्रादि धातुओं के उकार को अव आदेश किया गया है।
९०५-छातु के अन्तिम ऋषण को 'अर' यह मावेश होता है। जैसे-१करोति करइ (वह करता है), २-धरति धरई (वह धारण करता है), ३-नियते-मर (वह प्राण त्यागता है। ४-पुणोति बारह (वह पसंद करता है, वह सगाई करता है), ५-सरति सरह (वह सरकता हैं),
हरति हरई (वह हरण करता है), ७-तरति=तरइ (बह तरता है। -मीर्यते जरइ (बह बूढा होता है) यहां पर ऋकार तथा ऋफार को 'पर' यह मादेश किया गया है। .. .०६-वृष् जैसी धातुओं के ऋवर्ण को 'अरि' यह प्रादेश होता है। जैसे-१-वर्षति-वरिस (वह बरसता है),२-कर्षति-करिसइ (खींचता है),३---मुषति-मरिसइ (बह सहन करता है), ४-हष्पति हरिसइ (वह प्रसन्न होता है) यहाँ पर ऋकार को 'अरि' यह आदेश किया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि "यह पास वष सी है" इस बात का बोध कैसे हो सकेगा ? उत्तर में निवेदन है कि जिन धातुओं की ऋ के स्थान में परि' यह आदेश किया गया दिखाई देता हो उनको वृषादिधातु समझ लेना चाहिए।
. रूष जैसी धातों के स्वर को दीर्घ हो जाता है। जैसे---१.... कृष्यसिया रूस (घम्हें रुष्ट होता है), २-तुष्यति-तुसइ (वह प्रसन्न होता है), ३-शुष्यति-सूसइ (वह सूखता है), ४.. दुख्यतिम्-दूसइ (वह दूषित होता है), ५-पुष्यति: पूसइ (वह पुष्ट होता है), ६--शेषतिम्सीस (वह
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोका-द्वयोपेसम् * शेष रहता है, वह हिंसा करता है। इत्यादि धातुओं के स्वरों को दीर्घ किया गया है।
tor-यदि कित (जिस में ककार इतु हो) और हित (जिस में डकार इत् हो) प्रत्यय परे हो तो धातु के इवर्ण और उवर्ण को गुण (इकार को एकार और उकार को रोकार) हो जाता है। जैसे---- १-जित्वा जेऊण (जीत करके), २-नीत्यानेऊण (ले जा करके), ३-नयति-नेइ (वह ले जाता है}, ४ --नयन्ति र नेन्ति (वेले जाते हैं), ५...मजोर माद (महाकाल में गमन करता है, वह उडसा है), ६-उड्डीयन्ते उड्डन्ति (वे उडते हैं), ७--मुक्त्वा = मोतूण (छूट कर), भुस्था --सोकण (सुभ कर के) यही पर इवर्ण और उवर्ण को गुण किया गया है। बहुलाधिकार के कारणं कहीं पर इवर्ण को गुण नहीं भी होता, जैसे-१-नीतः नीयो (ले जाया गया), २-उड्डोम उड्डीणो (उडा हुप्रा) यहाँ पर बहुलता के कारण इवर्ण को गुण नहीं हो सका। १२ १३ ०६-धातुमों के स्वरों के स्थान में अन्य (दुसरे) स्वर बहुलता से हो जाते हैं । जैसे-१भवतिः-हवाइ, हिंवई (वह होता है), २-बिनोति-चिणइ.चुणई (वह इकट्ठा करता है), ३--श्रद्धानम् =सद्दहणं, सदहाण (श्रद्धा), ४-घावति धावइ, धुवइ (वह दौड़ता है), ५= रोविति स्वदरोवइ (वह रोता है) यहाँ पर स्वरों के स्थान में अन्य (दूसरे) स्वर बहुलता से किए गए हैं । बहुलाधिकार के कारण कहीं पर स्वरों के स्थान में अन्य स्वर नित्य होते हैं। जैसे-१-ववाति देव (वह देता है।, २-लातिलेइ (वह ग्रहण करता है), ३-विजहाति विहेइ (वह विशिष्ट त्याम करता है), ४...नत्यतिनासह (वह नष्ट होता है) यहां पर स्वरों के स्थान में दूसरे स्थर निस्यरूप से किए गए हैं। आवं प्राकृत में प्रवीमि इस क्रियापद का बेमि (मैं कहता हूं) ऐसा रूप बनता है। यहां पर ३ सूत्र से धातु के ऊकार के स्थान में एकार किया गया है।
१०- व्यजनान्त धातु के अन्त में प्रकार का मागम होता है। जैसे-१-धमतिभमा . (वह भ्रमण करता है),२ हसति - हसइ (वह हंसला है), ३-करोति कुणइ (वह करता है), ४-धु
म्बति चुम्बइ (वह चुम्बन लेता है), ५–भणति भणई (वह कहता है), ६----उपशाम्यति - उवसमाइ (वह शान्ति करता है), ७ -- प्राप्नोति - पाबइ (वह प्राप्त करता है), 4-सिञ्चतिम् सिञ्चाइ (वह सिञ्चन करता है), है-रुणद्धि म रुन्धा (बह रोकता है), १०-मुष्णाति-मुसइ (वह चोरी करता हैं), ११-हरति ह रह (वह हरण करता है), १२-करोति - करइ (वह करता है) यहां पर भ्रम् आदि धातुप्रों के अन्त में प्रकार का प्रागभ किया गया है । वृत्तिकार फरमाते हैं कि जैसे संस्कृतभाषा में धातुओं से शप् प्रादि प्रत्ययों का विधान देखने में आता है, वैसे प्राकृत भाषा में प्रायः शप मादि प्रत्ययों का प्रयोग न । होता है।
११.....प्रकारान्त धात को छोड़कर अवशिष्ट-स्वरान्त (जिसके अन्त में शेष स्वरह) थातत्रों के अन्त में विकल्प से प्रकार का प्रागम होता है। जैसे-१-पाति-पाई पाई (वह रक्षा करता है), २ - बधाति-धाश्रइ, धाइ (वह धारण करता है), ३-पाति आइ, जाई (वह जाता है), ४-ध्यायति झाइ, झाइ (वह चिन्तन करता है), ५ जुम्भते अम्भाइ, जम्भाइ (यह जंभाई लेता है), ६-उवाति-अव्याग्रह, उवाई (वह ऊपर जाता है), ७-लायतिमिलाइ, मिलाइ (वह उदास होता है), E-बिक्रोरणाति-विक्के मइ, विक्केइ (बह बेचता है), ६-भूत्वा होगऊण्य, होऊण (हो करके), यहां पर प्रकारान्त से भिन्न स्वरान्त धातुओं के अन्त में विकल्प से प्रकार का मागम किया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि सरकार ने “अनत: (अकारान्त को छोड़कर)" यह
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः क्यों कहा? उत्तर में निवेदन है कि-१-चिकित्सति चिइच्छइ (वह चिकित्सा करता है),२-शुगुप्सति दुगुच्छइ (वह निन्दा करता है), यहां दिइनछ तथा बुगुच्छ इन अकारान्त धातुओं से प्रकारागमन हो जाए, इस विचार से सूत्रकार ने "अनतः" इस पद का उल्लेख किया है।
१२-चि, जि, थ, हु, स्तु, ल, पू और धूग इन धातुओं के अन्त में णकार का आगम होता है और इन धातुओं का स्वर ह्रस्व हो जाता है। नि धातु का उदाहरण-चिनोति-चिणइ (वह इकट्ठा करता है),जि धातु का उवाहरण - अयति-जिणाइ (बह जय प्राप्त करता है), धातु का उदाहरण--- भूणोति-सुणइ (बह सुनता है), ह धातु का उदाहरण---जुहोति - हुणइ (वह हवन करता है), स्तु का उदाहरण--स्तौतिथूणइ (बह तारीफ करता है), लू का उदाहरण--सुनाति-लुणइ (वह छेदन करता है), पू का उदाहरण-पुनाति -पुणइ (वह पवित्र करता है), धूप का उवाहरण-धुनोति-धुणइ (वह धुनता है, कांपता है), यहां पर चि आदि धातुओं के अन्त में णकार का प्रागम किया गया है और स्वर को ह्रस्व बनाया गया है। बहुलाधिकार के कारण कहीं पर णकार का प्रागम विकल्प से भी होता है। जैसे-१-उरिचनोति =उच्चिणाइ, उच्चे इ [वह (फूलों का) बोटन-तोड़ना करता है], २-जित्वा जेऊण, जिणिऊण (जीत कर), ३-जयति जयइ, जिगइ (बह जीतता है),४---श्रत्वासोऊण, सुणिऊण (सुन करके) यहां पर णकार का प्रागम विकल्प से किया गया है।
★ अथ कर्मभाव-प्रकरणम् * ६१३-न वा कर्म-भावे व्यः क्यस्य च लुक । ८ । ४ । २४२ । च्यादीनां कर्मणि भावे च वर्तमानानामन्ते द्विरुक्तो वकारागमो वा भवति, तत्संनियोगे च क्यस्य लुक् । चिन्वइ, चिरिणज्जह । जिव्वइ, जिणिज्जइ । सुब्वइ,सुरिणज्जइ । हुव्वइ, हुगिज्जइ । थुन्वइ,थुरिंगज्जइ। लुवा, लुणिज्जइ। पुव्वइ, पुणिज्जइ। धुन्वइ, धुरिणज्जइ। एवं भविष्यति। चिविहिइ इत्यादि।
९१४---म्माचेः । ८ । ४ । २४३ । चिगः कर्मणि भावे च अन्ते संयुक्तो मो वा भवति, सत्सं नियोगे क्यस्य च लुक। चिम्मइ, चिब्बइ, चिरिणज्जइ । भविष्यति । चिम्मिहिइ, चिविहिइ, चिरिण हिइ।
६१५-हन्खनोऽन्त्यस्य । ८ । ४ । २४४ । प्रनयोः कर्मभावेऽन्त्यस्य द्विरुक्तो मो या भवति, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । हम्मइ, हरिणज्जइ । खम्मइ, खणिज्जइ । भविष्यति । हम्मिहिइ, हणिहिई । खम्मिहिइ, खरिणहिइ। बहुलाधिकाराद्धन्तेः कर्तर्यपि। हम्मइ, हन्ती. त्यर्थः । क्वचिन्न भवति । हन्तव्वं । हन्तूरण । हो। :: .. ९१६-भभो दुह-लिह-वह-रुधामुच्चातः। ॥ ४॥ २४५ । दुहादोनामन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो भो वा भवति,तत्संनियोगे क्यस्य च लुक वहेरकारस्य च उकारः । दुब्भइ,दुहिज्जइ। लिभइ, लिहिज्जइ । बुब्भइ,वहिज्जइ । रुब्भइ, रुन्धिज्जइ । भविष्यति । दुभिहिद, दुहिहिइ इत्यादि ।
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चतुर्थपाद:
★ संस्कृत-हिन्दी- टीका-द्रयोपेतम् ★
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६१७ –दहो झः । ८ । ४ । २४६ । वहोऽन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो भो वा भवति, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । डम्झइ डहिज्जइ । भविष्यति । उज्झिहिर, डहिहिए ।
१८- बन्धो न्धः । ८ । ४ । २४७ । अन्धेर्धातोरन्त्यस्य न्ध इत्यवयवस्य कर्मभावे को वा भवति, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । बज्झइ बन्धिज्जइ । भविष्यति । बज्झिहिइ, afafer ।
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१६- समनूपाद्रुधः । ८४ । २४ । समनूपेभ्यः परस्य रुन्धेरन्त्यस्य कर्मभावे झो वा भवति, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । संरुझर, प्रगुरुज्झइ, उवरुज्भ । पक्षे । संरुन्धिज्जर, श्ररपुरुन्धिज्जर, उवरुन्धिज्जइ । भविष्यति । संरुज्झिद्रि, सरुन्विदि इत्यादि ।
-६२०- गमावीनां द्वित्वम् । ८ । ४ । २४६ । गमादीनामन्त्यस्य कर्मभावे द्वित्वं वा भ वति, तस्संनियोगे क्यस्य च लुक् । गम् । गम्मइ, गमिज्जइ । हस । हस्सइ, हसिज्जइ । भम् । भoors, भरिगज्जइ । छुप् । छुप्पड़, छुविज्जइ । रुद - नमोः [ ४.२२६] इति कृतवकारादेशो रुदिरत्र पठ्यते । रुव् । रुव्वइ, रुविज्जइ । लभ् । लब्भइ, लहिज्जइ । कथ् । कत्थ, कहिज्जइ । भुज् । भुजइ, भुजिज्जइ । भविष्यति । गम्मिहिर, मिहिर, इत्यादि ।
ε२१ - हृ-कृ-तु-ज्रामीरः । ८ । ४ । २५० । एषामन्त्यस्य ईर इत्यादेशो वा भवति, तत्संनियोगे च क्यस्य लुक् । हीरह, हरिज्जद्द । कोरड, करिज्जइ । तीरइ, तरिज्जइ । जीरs, जरिज्जइ ।
२२- अर्जेविदः । ८ । ४ । २५१ | अन्त्यस्येति निवृत्तम् । अर्जेढिप्प इत्यादेशो वा भवति, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । विप्पe । पक्षे । विढविण्जड, प्रज्जिज्जइ ।
२३- ज्ञो - णज्जौ । ८ । ४ । २५२ । जानातेः कर्मभावे गव्व, राज्ज इत्यादेशौ वा भवतः, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । गव्वद्द, शाज्जइ । पक्षे । जारिगज्जह मुणिज्जइ । म्नज्ञोर्स: [२.४२ ] इति खादेशे तु गाइज्जइ । नव्पूर्वकस्य - श्ररणा इज्जइ ।
६२४ --- व्याहृगेर्वाहिप्प: । ८ । ४ । २५३ । व्याहरतेः कर्मभावे वाहिप्प इत्यादेशो वा भवति, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । वाहिष्पद, वाहरिज्जइ ।
६२५- आरभेराढप्पः । ८४ । २५४ । श्राङ्पूर्वस्य रमेः कर्मभावे आढव्य इत्यादेशो वा भवति, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । आढप्पइ | पक्षे । श्राढवीष ।
६२६ - स्निह-सची: सिप्पः । । ४ । २५५ । अनयोः कर्मभावे सिप्प इत्यादेशो भ afi, क्यस्य च लुक् । सिप्पक्ष । स्निह्यते, सिच्यते वा ।
२७ - ग्रप्पः । ८ । ४ । २५६ । ग्रहे: कर्मभावे घेप्प इत्यादेशो वा भवति, क्यस्य च लुक् । षेप, गिव्हिज्जइ ।
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सकारात्मकता
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* त-व्याकरण
चतुर्थपावा ६२८-स्पृशेरिछप्पः । ८१४ । २५७ । स्पृशलेः कर्मभावे छिप्पादेशो वा भवति, क्यस्य च लुक् । छिप्पइ, छिबिज्जा।
* अथ भाबकर्म-प्रकरणम् * संस्कृत भाषायां त्रयो बाच्या भवन्ति-कर्तृवाच्यः, कर्मवाच्यः, भाववाच्यश्च । सकर्मक-धातूनां रूपाणि कर्मवाच्ये, कर्तृवाच्ये च भवन्ति, अकर्मकधातवस्तु कर्तृवाच्ये भाववाच्ये चैव प्रयुज्यन्ते । कर्तृवाच्ये का मुख्यो भवति, क्रिया कर्तानुसारिणी ज्ञेया, कर्तरि प्र. थमा, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिर्बोध्या । यथा---रामः शास्त्रं पठति । कर्मवाच्ये कर्मणो मुख्यताऽवगन्तव्या। कर्तरि तृतीया, कर्मणि च प्रथमाविभक्तिर्जायते। तथा क्रिया कर्मानसारिणी भवति । यथा-रामेण पुस्तकं पठ्यते । भाववाच्ये तु कर्तरि तृतीया-विभक्तिः प्रयोज्या, कर्मणस्तत्राभाव एव भवति । क्रियायाञ्च प्रथमपुरुषस्यकवचनमेव समुपलभ्यते । यथा-मनुष्यः म्रियते । ६४१ सूत्रे भावकर्मणोविधिः निरूपितः । प्रस्तुत-प्रकरणेऽपि भावकर्मणोः विधिविधामं निरूपयत्याचार्य:
११३-चीयते । चिधातुः चयने । त्रि+क्य+ते । ९१३ मू० वैकल्पिके व्व इत्यागमे, क्यस्य च खुकि,६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे चिवड व इत्यागमाभावे,९१२ सणकारागमे,६४९ स० क्यस्य . इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अजमीने परेण संयोज्ये विरिणज्जा इति भवति । जोयते । जि जये । जि-+-क्य+ते । पूर्ववदेव जिवइ व्य इत्यागमाभावे जिणिज्जइ इति साध्यम् । श्रूयते । श्रु श्रवणे। शु+पय+ते । ३५० सू० रेफलोपे,२६० सू० शकारस्य सकारे सुबह ३ इत्यागमाभावे सुरिणम इति भवति । एवमेव हयते । धातुः दानाऽदनयोः। हु+क्य+से हुब्बाइ,हुणिज्जास्तुपते । स्तु स्तवने । स्तु+क्य+ते । ३१६ सू० स्तस्य थकारे थुम्वइथुगिज्जह, लूयते । लू छेदने । लूक्य+ले । प्रस्तुतसत्रेण विकल्पेन व इत्यागमे, क्यस्य च लुकि, ८४ सू० संयोगे परे हस्ते लुब्वाइ व्यागमाभावे ९१२ सू० कारागमे, ऊकारस्य च उकारे, ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने पैरेण संयोज्ये लुणिज्जइ इति भवति । एवमेव-पूयते । पूत् पबने । पू+क्य+ते। पूर्ववदेव पुवा बवामाभावे युरिंगज्जबयूयते । धूग् कम्पने । धू+क्य+ते । पूर्ववदेव धुत्रह, धुणिम इति भवति । एवं भविष्यति । प्रस्तुतसूत्रेण यथा वर्तमानकाले वागमः, क्यस्य च लुग विहितः, एवमेव भविष्यत्कालेऽपि बोधव्यमिति भावः । यथा-वेध्यते । चिअधातुः चयने । चि-+क्य+स्यते । प्रस्तुतसूत्रेण व्वागमे, क्यस्य च लुकि,६५५ सू० प्रत्ययस्यादौ हिप्रयोगे, ६४६ सू० प्रकारस्थ इकारे, ६२८ सू० स्थते इत्यस्य स्थाने इचादेशे चिबिहिइ इति भवति । . . ११४--बीयते । चिधातुः चयने । चि+क्य+ते । ९१४ सू० वैकल्पिके म इत्यागमे, क्यस्य च
लुकि ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे चिम्म व्यागमाभावे ९१३ सूत्रतुल्यमेव चिम्या, स्वागभाभावे चि. मिजा इति भवति । प्रक्रिया ११३ सूत्रे ज्ञेया । चेष्यले । चि+क्य+स्यते चिम्म+स्यते। ६४६ सू० सकारस्य इकारे,६५५ सू० प्रत्यस्यादौ हिप्रयोगे, ६२८ सू० स्यते इत्यस्य इचादेशे चिम्मिहि म्माममाभावे-९१३ सूत्रतुल्यमेव चिबिहिइ वागमाभावे ९१३ सू० कारागमे चिणिहिइ इति भवति । ६४९
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
सूत्रे बहुलाधिकाराविभि:
क्यस्याभावज्ञेयः ।
-६१५- हन्यते । हन हिंसागत्योः हन + क्य+ ते । ९१५ सू० नकारस्य वैकल्पिके म्म इत्यादेशे क्यस्य च लुकि, ६२८ सू० ले इत्यस्य इनादेशे हम्म स्मादेशाभावे हन् + क् + ते इति स्थिते २२० सू० नकारस्य णकारे, ६४९ सू वयस्य इज्ज इत्यादेशे हरिणजह इति भवति । सम्यते । खन् खनने। खन्+ क्य+से प्रस्तुतसूत्रेण नकारस्य वैकल्पिके म्मादेशे, क्यस्य च लुकि खम्मइ ममादेशाभावे पूर्ववदेत्र - frees इति भवति । हनिष्यते । हुन्+कर+स्थते हम्म+वथ + स्यते हम्मिहि हणिहिद प्रक्रिया ९१४ सूत्रोक्तस्य विहित, चिणिहिद इत्यस्य प्रयोगव्यस्य तुल्यैव ज्ञेया । एवमेव निष्यते । खन् + क् + स्थते मिहि, खशिहिद एते रूपेऽपि साध्ये | बलाधिकारात् । प्रस्तुतसूत्रेण हनुवातोः कर्मresert वर्णस्य मादेशो विहितः, परन्तु बहुलाधिकारात् हन्यातोः कर्तर्यपि म्मादेशो भवतीति भावः । यथा- हन्ति । हन्+लिव् | बाहुल्येन नकारत्य म्म दत्यादेशे ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे हम्मद इति भवति । चिन्न भवति । बहुलाधिकारात् कर्मभावेऽपि प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिनं भवति । यथा-हम्तष्यम् । हन्तव्य +सि | बाहुल्येन प्रस्तुत सूत्रस्याप्रवृत्ती ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० वकारविल्वे ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे हन्तम्वं इति भवति । हत्वा । न् + वा । बाहुल्येन प्रस्तुत सूत्रस्थाप्रवृत्ती ४१७ सू० क्त्वः स्थाने तुण इत्यादेशे हन्तूण २७ सू० विकल्पेन अनुस्वा रागन्तु इत्यपि भवति । हतः । हन् + क्तन्त । बहुलेन प्रस्तुतसूत्राप्रवृत्ती संस्कृतनियमेन हृत+सि इति जाते, १७७ सू० लकारलोपे, ४९१ सू० सेड:, डिति परेत्यस्वरादेलपि हों इति भवति ।
७७
१६- कुते । दुह धातुः दोहते । दुह् +क्यते । ९१६ सू० विकल्पेन हकारस्य भूभ इत्थादेश, क्यस्य च लुकि, ३६१ सू० पूर्वभकारस्य बकारे, ६२० सू० ते इत्यस्य इयादेशे तुग्भइ सु-भ इत्यादेशाभावे -- ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये हिज्जइ इति भवति । सिंह्यते । लिह, स्वाद | लिह +क्यते । पूर्ववदेव लिम्भ, लिहिज्ज इति साध्यम् । एवमेव उद्यते। वह प्रापणे । वह् + क् + ते । प्रस्तुतसूत्रेण हकारस्य भूभ इत्यादेशे, क्यस्त्र लुकि, वह धातोरकारस्य च उकारे म्भर भू-भ इत्यादेशाभावे पुर्ववदेव वहिज्जइ इति भवति । रुध्यते । रुत्रिर् (रु) यावर रुध् + क्य + ते पूर्वदेव रुभ म्भ इत्यादेशाभावे ८८९ सू० प्रकारस्य न्ध इत्यादेशे, क्यस्य इज्जादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अभीने परेण संयोज्ये रुन्थिनर इति भवति । भविष्यति । भविष्यत् कालेऽपि भूभ इत्यादेशो भवतीति भावः । यथा चोक्ष्यते । दुहु + क्य+स्यते दुब्भ + स्यते । ६५५ सू० प्रत्ययस्यादी fortress, ६४६ सू० प्रकारस्य इकारे ६२८ सू० स्यते इत्यस्य इचादेशे दुम्भिहिह भूभ इत्यादेशाभावे ६४९ सूत्रयस्य वैकल्पिकत्वात् ह + हि +इ इति स्थिते ९१० सू० प्रकारस्यागमे, ६४६ सू० अकारस्य स्थाने इकारे इति दुहिहि भवति ।
६१७ - बह्यते । दह धातुः दाहे । दह् + क्यनं ते । २१८ सू० दकारस्य डकारे, ९१७ सू० हैकारस्य वैकल्पिके शुभ इत्यादेशे, वास्य च लुकि, ३६१ सू० प्रथम ककारस्य जकारे, ६२० पू० ते इ स्व. चादेशे इत्यादेशाभावे ६४१ सू० क्यस्य स्थाने इज्ज इत्यादेशे हिज्जइ इति भवति । दह + क् + स्यतेइज्भ + स्यते । ६४६ सू० प्रकारस्य इकारे, ६५५ सू० प्रत्ययस्थादी हिप्रयोगे, ६२ सू०] स्यते इत्यस्य स्थाने इचादेशे हि इत्यादेशाभावे डह + हि इति स्थिते, ९१० सू० प्रकारागमे, ६४६ सू० अकारस्य इकारे हि इति भवति । ६४९ सूत्रविहितक्यस्य वै कल्पित्वादवाभावो बोध्यः ।
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपाः ६१८-बध्यते । बन्ध् बन्धने । बन्ध+क्य+ते । ९१८ सू० विकल्पेन न्यस्य झूझ इत्यादेशे, क्यस्य च लुकि, ३६१ सू० प्रथमझकारस्य जकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इवादेशे बभाइ मादेशाभावे ६४९ स० क्यस्य इज इत्यादेशे वन्धिजइ इति भवति । अधिष्यते । बन्ध+स्यते-बज्भ+स्यते, ६५५ सू० हिप्रयोगे, ६४६ सू० प्रकारस्थ इकारे,६२८ सू० स्थते इत्यस्य इचादेशे भिहि झझादेशाभावे ९१० सू० अकारस्यागमे, अकारस्य इकारे अधिहि इति भवति । ६४९ सूत्रविहितस्य क्यस्य वैकल्पिकत्वादश्र क्यप्रत्ययस्या मावो बोध्यः ।
१६..-संरुध्यते, अनुरुध्यते, उपाध्यते । सम्पुर्वकः रुधिर (रु) सम्यग् प्रावरणे. अनुपूर्वक रुधिर्धातुः अनुरोधे, प्रार्थनायां वा, उपपूर्वका रुधिर्धातुः उपरोधे-विरोधे । संरुध् + क्य+ते,अनुरुव+ क्य+ते, उपरुध् +क्य+ते । २२८ सू७ नकारस्य षकारे,२३१ २ ० पकारस्य वकारे, ९१९ सू०धकारस्य वैकल्पिके झूझ इत्यादेशे क्यस्य च लुकि, ३६१ सू० प्रथमभकारस्य जकारे, ६२८ सूत ते इत्यस्य इचादेशे संझह, अणुरुज्झद, अवर भइ इति भवति । पक्षे। झझादेशाभावे ५८९ सू० धकारस्य न्ध इत्यादेशे, ६४९ स० क्यस्य स्थाने इज्ज इत्यादेशे, १० सू. स्वरस्य लोपे संहन्धिज्जद, अशुम्धिज्माइ, उपाधिज्जइ इति भवति । भविष्यति । भविष्यत्कालिक-प्रत्ययस्योदाहरणं प्रदीयते । यथा---संरोरस्पते । संरुध् + स्थले सं +स्वते । ६५५ सू. प्रत्ययस्थादी हिप्रयोगे, ६४६ स प्रकारस्य इकारे, ६२८ सू स्यते इत्यस्य इचादेशे संरुझिहिद झझादेशाभावे ८८९ सू० धकारस्पन्ध इत्यादेशे, अकारस्य इकारे संवन्धिहिइ इति भवति । अत्रापि वैकल्पिकत्वात् ६४९ सूत्रेण क्य-प्रत्ययो माभू । ..... २० गम्यते । सम्ल (गम्) गतौ । गम् + क्य+ते । ९२० सू० मकारस्य द्वित्त्वे,क्यस्य च लोपे, ९१०.सू० अकारागमे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे गम्मा द्विस्वाभावे ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे गमिजाइ इति भवति । हस्यते । हस् हासे । हस्+क्य+ते । प्रस्तुतसूत्रेण सकारस्य विश्व क्यस्य च लोपे हस्सइ, द्वित्वाभावे पूर्ववदेव हसिज इति भवति । भण्यते । भण् भणने । भण्+क्य+ते । पूर्वयदेव भक्साइ, भणिज्नई इति साध्यम् । छुप्यते । छुप स्पर्श । छुप+ क्य+ते । पूर्ववदेव छुप्पइ द्वित्त्वाभावे २३.१ सू० पकारस्य प्रकारे छुविज इति भवति । वनमोर्वः। ८९७ सूत्रेण रुद्धातोः दकारस्य वकारो भवति, ततः सव् इति भवति, गमादिषु धातुरपि पक्ष्यते, अतोऽत्रापि प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृसिर्जायते । यथा-सयतेवरोधने । रुद+क्य+ते, ८९७ स० दकारस्य वकारे, पूर्ववदेव रुष द्विस्वाभावे विज्जही । इति भवति । लभ्यते । लभ लाभे। लभ-क्य+ते। प्रस्ततसत्रेण भकारस्य वैकल्पिके द्वित्त्वे, क्यस्य च लुकि, ३६१ सू० पूर्वभकारस्य बकारे सभइ द्वित्त्वाभाचे १५७ सू० भकारस्थ हकारे लहिज्जइ । कथ्यते । कथ् कथने । कथ् + क्य+ते । प्रस्तुलसूण थकारस्य द्वित्त्वे, क्यस्य च लुकि, ३६१ सू० पूर्वथका रस्य सकारे कस्था द्वित्त्वाभावे १५७ सु० थकारस्य हकारे कहिज्जइ इति भवति । भुज्यते । भुज भोजने । भुज+क्य+ले= भुम्जा द्विस्वाभाचे ७५१ सू० भुज-धातोः स्थाने भुज इत्यादेशे, क्यस्य इज्जादेशे, १० सूत स्वरस्य लोपे, पूर्ववदेव भुजिज्ज इति भवति । गरस्यते । गम् + क्य+स्यते
गम्म+स्यले, ६५५ सू० हिप्रयोगे, ६४६ प्रकारस्य इकारे, ६२८ सू० स्यते इत्यस्य इचादेशे गम्मिहिंद द्वित्वाभावे गम् + हि + इ इत्यत्र ९१० सू० प्रकारस्य आगमे, ६४६ सू० प्रकारस्य इकारे गमिहिह इति भवति । वैकल्पिकत्वादत्र ६४९ सूत्रेण क्यप्रत्ययाभावो बोध्यः।
२१-- हीयते । हृत् हरणे । ह+क्य+ते । ९२१ सू० ऋवर्णस्य विकल्पेन ईर इत्यादेशे,क्यस्य च लुकि, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे हीरइ प्रादेशाभावे ९०५ सू० ऋवर्णस्य पर इत्यादेशे, ६४९
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5:
चतुर्थपादः
संस्कृत-हिन्दी टीकाद्रयोपेतम् ★
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सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रभोने परेण संयोज्ये हरिज्जद इति भवति । एवमेव - क्रियते । डुकृञ् (कृ) करणे । कृ + क्य+ ते फोरइ, करिज्जर, तीर्यते । तु तरी । तु+क्य+ते तीर, तरिजड़, जीर्यते । जुष (ज) वयोहानी । जु+क्य + ते = जोर, जरिज्जइ इति साध्यम् ।
२२- यस्येति निवृत्तम् । ८८३ सूत्रतः 'अन्त्यस्य' इत्यस्य पदस्यानुवृत्तिरायाति परन्तु ९२२ सूत्रे तस्य निवृत्तिजतिति भावः । भ्रते । श्रज् उपार्जने । श्रज् + क् + ते । ९२२ सू० अज्ं - धातो: स्थाने विकल्पेन विढप्प इत्यादेशे, क्यस्थ च लुकि, ६२० सू० ते इत्यस्य इवादेशे विates श्रादेशाभावपक्षे ७७९ सू० श्रज् धातोः वैकल्पिके विश्व इत्यादेशे, ६४९ सू० क्यस्थ इज्जादेशे, १० सू० earer लोपे विशद विवादेशाभावे ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० जकारद्वित्वे, क्यस्य इज्जादेश अज्जि इति भवति ।
९२३ - जायते । ज्ञा श्रवबोधने ज्ञा+क्या+ते । ९२३ सू० ज्ञाधातोः स्थाने विकल्पेन गव्य, णज्ज इत्यादेशौ जातौ क्यस्य च लुगभवद्, ६२० सू० ते इत्यस्य इचादेशे सम्ब, राज्जइ प्रदेशाभावे ६७८ सू० ज्ञाधातो: जाण, मुण इत्यादेशी, ६४९ सू० क्यस्य स्थाने इज्जादेशे १० सू० स्वरस्य लोपे आणिजइ, मुणिज्जइ बहुलाधिकारात् ६७८ सूत्रस्याप्रवृत्ती ३१३ सू० ज्ञस्य स्थाने णकारादेशे नाह, न ज्ञायते इति नपूर्वकस्य तु अणाइज्जइ इति भवति । अत्र ५ सू० सन्धेरभावो बोध्यः ।
२४ -- व्याह्रियते । विप्राङ्पूर्वकः हृधातुः व्याहरणे कथने । व्याह्न+क्य + ते । ९२४ सू० धातोः वैकल्पिके वाहित्य इत्यादेशे, क्यस्य च लुकि, ६२८ सू० ते इत्यस्य इत्रादेशे वाहिष्प श्रादेशाभावे ३४९ सू० यकारलोपे, ९०५ सू० ऋकारस्य मर इत्यादेशे, ६४९ सु० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे वारिज्म इति भवति ।
६२५--प्रारम्यते । श्राङ्पूर्वकः रम्-धातुः प्रारम्भे मारंभ +क्यते । इत्यत्र ९२५ सू० श्राभू-धातोः स्थाने विकल्पेन प्राप्य इत्यादेशे ६२८ सू० ते इत्यस्य स्थाने इचादेशे आप श्रादेशा'भावे ८२६ सू० रातोः स्थाने ढव इत्यादेशे, ६४९ सू० कपस्थ ईंध इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, पूर्ववदेव आदीअ इति भवति ।
२६ - स्निह्यते, सिच्यते । स्निह स्नेहे, सिच् सिचने । स्निह + क् + ते, सिच् +क्यते । ९२६ सू० स्नेह - सियोः स्थाने क्रमशः सिप्प इत्यादेशे, वयस्य च लुकि, ६२८ सू० ते इत्यस्य स्थाने इधादेशे ferus इति भवति ।
६२७ - गृह्यते । ग्रह, उपादाने । ग्रह + क् + ते । ९२७ सू० ग्रह धातोः विकल्पेन घेप्प इत्यादेशे, क्यस्य च लुकि, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे घेप्पइ श्रादेशाभावे ८८० सू० ग्रह वातो: स्थाने गेह इत्यादेशे ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, १० सु० स्वरस्य लोपे, अभीने परेण संयोज्ये गिव्हिज् इति भवति ।
२८--स्पृश्यते । स्पृश् स्पर्शे । स्पृश् + य + ते । ९२८ सु० स्पृधातोः विकल्पेन छिप्प इत्यादेशे, वयस्य च लुक, ६२० सू० ते इत्यस्य इवादेशे हि प्रादेशाभावे ८५३ सू० स्पृश्वातोः स्थाने छिव इत्वादेशे, ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे थिविज्जइ इति भवति ।
★ अथ कर्मवाच्य और भाववाच्य से सम्बन्धित प्रकरण ★
संस्कृतभाषा के समान प्राकृतभाषा में भी कर्तृ, कर्म और भाव ये तीन वाच्य उपवन्ध होते हैं, इनकी व्याख्या पीछे ६४१ वे सूत्र में की जा चुकी है । प्रस्तुत प्रकरण में भो
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* प्राकृति-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः सूत्रकार कर्मवाच्य और भाववाच्य के विधिविधान का प्रसंगोपात्त कुछ निर्देश कर रहे हैं---
१३. यदि ६१२ सूत्र में पठित चि आदि धातु कर्मवाच्य तथा भाववाच्य में विद्यमान हो तो उनके अन्त में द्विरुक्त (द्वित्त्व) धकार का प्रागम विकल्प से होता है और उस (ब) का संनियोग (सामीप्य) होने पर क्य-प्रत्यय का लोप हो जाता है। जैसे--- --धीयते-चिव्वइ, चिणिज्जइ (उस से इकट्ठा किया जाता है), २-जीयते - जिधइ, जिणिज्जद (उस से जीता जाता है), ३-भूयते - सुब्बइ, सुणिज्जइ (उस से सुना जाता है), ४-हूयते-हुब्बाइ, कृणिज्जइ (उस से हवन किया जाता है), ५-स्तूमते-थुम्बद, थुणिज्जइ (उस से स्तुति की जाती है), ६-लूयते लुबइ, लुणिज्जइ (उस से काटा जाता है), ७-पूयसे-पुव्वइ, पुणिज्जइ (उम से पवित्र किया जाता है), 5-धूयते -धुव्वइ, धूणिज्जा (उस से धुना जाता है)। यहां पर चि आदि धातुयों के अन्त में 'ध' का वैकल्पिक मागम किया गया है । वृत्तिकार फरमाते हैं कि इसी प्रकार भविष्यकाल-बोधक प्रत्यय परे होने पर भी '' का मागम किया जाता है। भाव यह है कि प्रस्तुत सूत्र द्वारा-विध आदि प्रयोगों में जैसे वर्तमानकाल-बोधक प्रेत्यय परे होने पर 'ध्व' का पागम किया गया है, वैसे भविष्यत् कालिक प्रत्यय के प्रांगे होने पर भी य का प्रागर्म किया जा सकता है। जैसे-चेष्यते -चिबिहिब (उस से इकट्ठा किया जायगड) यहां पर भविष्यत् कालिक प्रत्यय के परे होने पर भी व्ध का प्रागम किया गया है।
१४-भावकर्म (भाववाच्य तथा कर्मवाच्य) के चिम् (चि) छातु के अन्त में संयुक्त म (म्म) का प्रागम विकल्प से होता है, और उसम का सानयोग होने पर कम-प्रत्यय का लोप हो जाता है। जैसे-चीयते-चिम्मइ, चिक्ष्व इ, चिणिज्जइ (उससे इकट्ठा किया जाता है), भविष्यत् काल-बोधक प्रस्मय परे होने पर-वेष्यते -चिम्मिहिइ, चिधिहिइ, चिणिहिइ (उस से इकट्ठा किया जायगा) ऐसे .रूप बनते हैं।
५-भाषकर्म में विद्यमान हन् और खन् इन धातुओं के अन्त्य वर्ण को द्विरुक्त (द्वित्व) मारादेश विकल्प से होता है, और इसका संनियोग होने पर क्य-प्रत्यय का लोप हो जाता है। जैसे.१-हत्यते-हम्मद, हणिजद (वह मारा जाता है), २ -- खन्यते - खम्मइ, खणिज्जा (यह खाँदा जाता है), भविष्यत्कालीन प्रस्थय प्रागे होने पर-----निष्यते -हम्मिहिई, हणिहिद (वह मारा आयमा), २- खनिष्यतेम्प सम्मिहिइ, खणिहिइ (वह खोदा जावेगा), ऐसे रूप बनते हैं। यहां पर भावकर्म में हनु और खन् धातु के अन्तिम वर्ण को '' का विकल्प से प्रादेश किया गया हैं। वृत्तिकार फरमाते हैं कि बहुलाधिकार के कारण कार्ता में भी इन धातुओं के अन्तिम वर्ण को 'म्म' का प्रादेश हो जाता है। जैसे-हन्ति - हम्मइ (वह मारता है), यहां पर कर्ता में भी 'म' का आदेश कर दिया गया है। बहुलाधिकार के कारण कहीं पर भावकर्म में भी 'मम' का आदेश नहीं होता है। जैसे-१-हन्तव्यम् हन्तव्वं (मारना चाहिए), २-हत्वा- हन्तुण (मार करके), ३-हतः- हो (मारा हुमा), यहां पर भावकर्म में भी अन्त्यवर्ण को 'म्म' का मादेश नहीं हो सका।
१६-कर्मभाव (कर्मवाच्य तथा भाववाच्य) में दुह, लिह, यह, और रुप इन धातुओं के प्रत्य वर्ण को विकल्प से द्विरुक्त (द्वित्व) भकारादेश होता है और उसका संनियोग (सोमोच्य) होने पर क्यप्रत्यये का लोप तथा वह धातु के प्रकार को उकारादेश हो जाता है। जैसे------बुझते - दुभाइ, दुहिज्जइ (वह दूहा जाता है), २-लिह्यतेलिबभइ, लिहिज्जह (वह चाटा जाता है),३-उह्यतेमा बुन्भइ,बहिज्ज (वह उठाया जाता है),४- रुथ्यते - रुकभइ, रुन्धिाजइवह रोका जाता है), भविष्यत्
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मृत्यूपाट
★ संस्कृत-हिन्दी टीकाद्वयोपेतम् ★
८ १
उद
कालिक प्रत्यय परे होने पर घोषयते दुनिभहिद्द, दुहिहिइ (वह दूहा जायगा ) इत्यादि प्रयोगों में वर्त Shreefos और भविष्यत्कालीन प्रत्ययं परे रहने पर 'भूभ' यह आदेश त्रिकल्प से किया गया है ।
९१७ - क्रमभाव से दह धातु के अन्तिम वर्ण को द्विरुक्त (द्वित्व) कारादेश विकल्प से होता है सौर उसके संनियोग में क्स का लोप होता है । जैसे बाते बज्छ, डहिज्जद (वह जलाया जाता है), भविष्यकालीन प्रत्यय परे होने पर पक्ष्यते इज्भिहि, उहिहिद (वह जलाया जायगा ) ऐसा रूप बढ़ता है। यहां पर मातु के हकार को '' यह आदेश करके क्य का लोप किया गया है । ६१८ - कर्मभाव (कर्मवाच्य तथा भाववाच्य ) में बन्धू धातु के '' इस श्रवयव के स्थान में विकल्प से 'शुभ' यह भादेश होता है और उसका संनियोग होने पर वय-प्रत्यय का लोप किया जाता है। जैसे बध्यते बरु, बज्जिद्द (वह बांधा जाता है), भविष्यकालीन प्रत्यय के परे होने पर - मिस्ते= बज्भिहिर बविहिद (वह बांधा जायगा ऐसा रूप बनता है। यहां पर वर्तमानकालिक तथा अविस्वकालिक प्रत्यय परे होने बन्धुधातु के 'न्ध' को 'झूम' यह आदेश किया गया है।
९१६ -- कर्मभाव में सम्, अनु और उप इन उपसर्गों से मागे यदि रुधिर्घातु हो तो इसके अ लिग वर्ण को 'हा' यह प्रादेश विकल्प से होता है, और इस आदेश की अवस्थिति में क्य-प्रत्यय का खोप हो जाता है। जैसे - १ - संयते संरुभङ्ग (वह रोका जाता है), २-- अनुरुध्यते - अणुरुज्झद (अनुरोध किया जाता है), ३-उपरुध्यते उबरुज्झर (वह रोका जाता है), जहां पर प्रस्तुत सूत्र का कार्य नहीं हुआ, वहां पर क्रमशः संन्धिज, मरुन्जिनिये रूप बनते हैं। भविष्यकालीन प्रत्यय परे रहने पर- १ - संशेत्स्यते संरुज्झिहिइ आदेश के प्रभावपक्ष में संन्निहि ( रोका जायगा ) इत्यादि रूप बन जाते हैं। यहां पर वर्तमान तथा भविष्यत् काल बोधक प्रत्यय के पर होने पर रुके प्रन्त्य वर्ण को 'भूत' यह प्रवेश करके कय का लोप किया गया है।
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२०- कर्मभाव में गम् आदि धातुओं के अन्तिम वर्ण को विकल्प से द्वित्त्व होता है और उस का संवियोचे होने पर कय का लोप होता है। जैसे-म् धातु का उदाहरण- १ गम्यते गम्मद, ग मिज्ज (उससे जाया जाता है), इस का उदाहरण - २ - हस्यते हस्सद हसिज्जइ ( उस से हंसा जाता है), भर बातु का उदाहरण ३ - भष्यते भाइ, भणिज्जइ (उससे कहा जाता है), छुप धातु का याहरण - ४ - छुपाते छुप्पइ, विजद ( उससे स्पर्श किया जाता है), वृत्तिकार फरमाते हैं कि गमा दिगण में रुद् धातु का भी पाठ है, परन्तु ८९७ सूत्र से दकार के स्थान में वकारादेश कर लेने के अन तर जब उसका यह रूप बत्तता है तब उस का यहां पर ग्रहण किया जाता है। जैसे - ५ - रुथते
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विज (उस से रोया जाता है, लम् का उदाहरण -६-- लभ्यते लग्भइ, लहिज्ज (उससे प्राप्त किया जाता है) कथ् का उदाहरण- ७ कम्यते कत्थद, कहिज्जद ( उससे कहा जाता है), भुन का जवाहरण - ६ - भुपते- भुज्जर, जिज्जद ( उस से खाया जाता है), भविष्यत्कालीन प्रत्यय के परे रहने पर गम्मिहि गमिहिद ( उस से जाया जायगा ) इत्यादि रूप बन जाते हैं। यहां पर गम मादि धातुओं के मन्तिम वर्ण को विकल्प से द्विव करके क्य का लोप किया गया है। तु और इन धातुओं के अन्त्य वर्ण को विकल्प से 'ईर' यह श्रादेश होता है,. और इस का संनियोग होने पर कप प्रत्यय का लोप हो जाता है। जैसे -१ ह्रीयते ही रद्द, हरि(उस से जाता है), २--कियते कीरड़, करिज (उससे किया जाता है), ३ तीर्थ
२१
है-जीर
(उस से जीर्ण हुमा जाता है),
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-Luilyhummarrrrrrravel
muraamanar
* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुपपादा यहाँ पर भाव-कर्म में हु प्रादि धातुओं के अन्तिम वर्ण को 'ईर यह प्रादेश करके क्या प्रत्यय का लोप किया गया है।
१२२-वृतिकार फरमाते हैं कि यहां "अन्त्यवर्ण के स्थान में" इस अनुवृत्ति की निवृत्ति हो जाती है । १८३ सूत्र से अन्त्यस्य इस पद की अनुवृत्ति ग्रहण की जा रही थी, किन्तु अब प्रागे उसकी निवृत्ति समझनी चाहिए । अजि धातु के स्थान मैं '
विप यह मादेश विकल्प से होता है, और उसकी प्रयस्थिति में क्य प्रत्यय का लोप हो जाता है। जैसे ----अज्यतेविडप्पड़, आदेश के अभावपक्ष मेंविविज्जइ, अज्जिज्जइ (उससे पैदा किया जाता है) ऐसे रूप बनते हैं।
२३-कर्मभाव में ज्ञा धातु के स्थान में णव और णज्ज ये दो मादेश विकल्प से होते हैं, इन के संनियोग में क्य-प्रत्यय का लोप हो जाता है। जैसे --शायते-णध्वइ, पज्जइ धादेश के प्रभावपक्ष में-जाणिजह, मुगिजर, ३१३ सूत्र द्वारा के स्थान में 'ए' यह प्रादेश हो जाने पर-नाबाद (उस से जाना जाता है) यह रूप बनता है। यदि ज्ञा धातु से पूर्व नत्र का प्रयोग हो तो न शायतेमा भगाइजइ (उस से जाना नहीं जाता है। यह रूप हो जाता है।
२४-- फर्मभाव में वि और प्राङ् (प्रा) उपसर्ग पूर्वक हु धातु के स्थान में पाहिप यह मादेश विकल्प से होता है और इसका संनियोग होने पर क्य-प्रत्यय का लोप हो जाता है। जैसे-व्याहिमते वाहिप्पइ, मादेश के अभाव में बाहर से कहा जाता है) यह रूप बनता है। .. २५-कर्मभाव में प्राव (मा) उपसर्ग पूर्वक रभि धातु के स्थान में 'आप' यह प्रादेश विकल्प से होता है और उसका सामीप्य होने पर क्य-प्रत्यय का लोप होता है। जैसे-भारम्यते माडप्पा, मादेश के प्रभावपक्ष में--प्रादवीमद (उस से प्रारम्भ किया जाता है। ऐसा रूप रूप बनता है।
१२६-कर्मभाव में स्निह, और सिच् इन धातुधों के स्थान में सिप्प'यह मादेश होता है और इसका संनियोग होने पर क्यप्रत्यय का लोप हो जाता है । जैसे - १ स्निह्यते-सिप्पा(उस से स्नेह किया जाता है), २-सिध्यते-सिप्पा (उस से सींचा जाता है), यहां पर कर्म भाव में स्तिह, पौर सिन् धन धातुओं को सिप्प यह आदेश किया गया है ।..
९२७-कर्मभाव में ग्रह, धातु के स्थान में 'प' यह मादेशः विकल्प से होता है और स्फ प्रत्यय का लोप हो जाता है । जैसे-गाते-घेप्पइ मादेश के प्रभावपक्ष में-गिरि (उस से पहण किया जाता है) यह रूप बनता है। . . ९२५-कर्मभाव में स्पृशिधातु के स्थान में शिष्य यह प्रादेश विकल्प से किया जाता है, और क्य-प्रत्यय का लोप होता है। जैसे---स्पृश्यते-छिप्पद प्रादेश के प्रभावपक्ष में-छिविमा (उससे स्पर्श किया जाता है। ऐसा रूप होता है।
* अथ निपाल-प्रकरणम् + ... ...... १२६-तेनाफुण्णादयः ।।४।२५८ । अप्फुण्णादयः शब्दा प्राक्रमि-प्रभृतीना पातूचां स्थाने क्तेन सह वा निपात्यन्ते । अप्फुण्णो,आक्रान्तः । उक्कोसं, उत्कृष्टम् । फुड,स्पष्टम् । बोलीणो, प्रतिक्रान्तः । योसट्टो, विकसितः । निमुद्रो, निपातितः। लुग्गो, रुग्णः । हिक्को, मष्टः । पम्हुढो,प्रमृष्टः प्रमुषितो वा । विढतं, अजितम् । छित्त,स्पृष्टम् । निमि, स्थापितम् । परिस, भास्वाचितम् । लुमं, लूनम् । अवं, स्पक्तम् । झोसिभ, शिसम् । निक, उत्तम् ।
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...चतुपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् ★ पल्हत्य पलोट्ट च पर्यस्तम् । होसमणं, हेषितम् । इत्यादि।
* अथ निपातानां प्रकरणम् ★ प्रकृति-प्रत्यय-विभागमन्तरं विनैव सिद्धरूपस्य कथनं निपातः । निपाते प्रकृति-प्रत्यययोविभागो न' प्रदर्श्यते, इति भावः । अथवा निपतति उच्चावचेष्वर्थेविति निपातः । ४४५ सूत्रे निपाताः निरूपिताः । प्रस्तुत-सूत्रेऽपि सूत्रकारेण निपाता: निरूप्यन्ते
२१-१-आक्रान्तः । पाइपूर्वकः क्रमुधातुः कान्तौ । माक्रम् +(त) । संस्कृतनियमेन प्रा'क्रान्त+सि इति जाते । ९२९ सू० पाकारतस्य प्रप्फुपण इति निपात्यते, सि-प्रत्यये, ४९१ २० सेः द्विति परेपन्ध्यस्वरादेलोपे अप्फुण्णो इनि भवति । २-उत्कृष्टम् । उत्पूर्वकः कृष्धातुः कर्षणे । उत्कृष्+ क्त, संस्कृतभाषा-नियमेन-उत्कृष्ट मि इति जाते। प्रस्तुतमुत्रेण उत्कृष्टस्य उक्कोस इति निपातिते, सि. प्रत्यये, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३. सू० मकारानुस्वारे उपकोसं इति भवति । एवमेव.....३ --स्पदम् । स्पर्श बाधन-स्पर्शयोः । स्पर्श +क्त । संस्कृतनियमेन स्पष्ट+सि, इति जाते, प्रस्तुतसूत्रेण स्पष्ट-शब्दस्य फुड इति निपात्यते, पूर्ववदेव कुछ इति भवति। ४-अतिक्रान्तः। प्रतिक्रमु कान्तो। अतिक्रम्+क्त । संस्कृतभाषा-नियमेन प्रतिक्रान्त + सि इति जाते । प्रतिक्रान्तस्य वोलीण इति निपातिते, पूर्ववदेव कोलोगो।५-विकसितः। विपूर्वक धातुः विकासे । दिकस्+क्त । संस्कृतभाषा-नियमेन विकसित सिं इति जाते । विकसितस्य बोसुद्ध इति निपातिते. पूर्वदेव वोसट्रो।६-निपातितः। निपूर्वक पतधातुः निपतने : निपत्+क्त । संस्कृत-नियमेन निपातित+सि इति जाते । निपातितस्य निसुद्ध इति निपातिते, पूर्ववदेव निसुहो। ७.हरण रुज् रोगे। ज्+क्त। संस्कृत-नियमेन रुग्ण+सि इति जाते । रुग्णस्य लुम्म प्रति निपातिते, पूर्ववदेव सुग्गो, ४-महानश नाशे । नश+क्त । संस्कृत-नियमेन नष्ट-सि इति जाते। नष्टस्य लिहक्क इति निपातिते. पूर्वदेव हिक्को इति भवति । ६ -प्रमथः । प्रपूर्वकः मृजू शुद्धौ। प्रमृज+क्त । संस्कृत-नियमेन प्रभृष्ट+मि इति जाते, प्रमृष्टस्य पम्हु इति निपातिते, पूर्ववदेव पम्हुठ्ठो, १०-प्रमुषितः । प्रपूर्वको भुषधातुः चौर्ये । प्रमुष् + क्त । संस्कृत-नियमेन प्रमुषित+मि इति जाते, प्रमुषितस्य पम्हट्ठ इति निपात्यते, पूर्व प्रदेव पम्हटो, ११-अजितम् । अर्ज उपार्जने । अर्ज +क्त । संस्कृतनियमेन अजित+सि इति जाते, जितस्य विद्वत्त इति निपातिते, पूर्ववदेव सेर्मकारे, मकारस्यानुस्वारे विवतं, १२-स्पृष्टम् । स्पृश् स्पर्श । स्पृश् + क्त । संस्कृत-नियमेन स्पृष्ट+सि इति जाते, स्पृष्टस्य छित इति निपातिते, पूर्ववदेव छित, १३ स्थापितम् । ठा-स्था गतिनिवृत्तो। स्था+णिग् +6 । संस्कृतनियमेत स्थापित+सि इति जाते, स्थापितस्य निमिश्र इति निपातिते, पूर्ववदेव निमिश्र, १४-प्रास्वावितम् । प्राङ्पूर्वकः स्वद् प्रास्वादने । प्रास्त्रद्+क्त । संस्कृत-नियमेन प्रास्वादित+सि इति जाते, मास्वादितस्य चक्खि इति निपातिते, पूर्व प्रदेव चविखनं इति भवति । १५--सूनम् । लून, छेदने । लू+ क्त, संस्कृत-नियमेन लून+सि इति जाते, लूनस्थ लुम इति निपातिते, पूर्ववदेव सुग्रं, १६-त्यस्तम् । त्या त्यागे । स्य+क्त । संस्कृत-नियमेन त्यक्त+सि इति जाते, त्यत्तस्य जड़ इति निपातिते, पूर्ववदेव बई, १७-क्षिप्तम् । क्षिप् क्षेपे । क्षिप्+क्त । संस्कृत-नियमेन क्षिप्त+सि इति जाते, क्षिप्तस्य झोसिंघ इति निपातिते, पूर्ववदेव शोसिन, १८ --उद्धृतम् । उत्पूर्वक: वृतुधातुः उद्यर्तने । उद्बत् + क्त । संस्कृत-नियमेन उद्वृत्त+सि इति जाते। उद्वत्तस्य निच्छूट इति निपालिते, पूर्ववदेव निष्टूढं, १६ - प्राकसम्माकरणे निपाता मध्यमेषु न संगृह्यतऽत्र एवाऽत्र सिप्रत्ययस्य लोपामायो लोभ्यः । एवमेवाग्रेऽप्यूह्यम् ।
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्यपादा पर्यस्तम् । परिपूर्वकः असुधातुः क्षेपे । पर्यस-+ क्त। संस्कृत-नियमेन पर्यस्त+सि इति जाते. पयस्तस्य पल्हत्य, पलोट्ट इति निपात द्वये जाते, पूर्वथदेव पन्हत्य, पलोट्ट इति भवात । २०-हषितम् । हेष्-धातुः अश्वरवे । हेष्+क्त । संस्कृत-नियमेन हेषित+सि इति जाते, हेषितस्य होसमण इति निपातिते, पूर्ववदेव हीसमरणं इति भवति ।
* अथ निपाल-प्रकरण * निपात शब्द से उन शब्दों का परिग्रहण किया जाता है जिन की उत्पत्ति के किसी नियम का पता न हो तथा जो व्याकरण शास्त्र के नियमोपनियमों से सिद्ध नहीं होते। ऐसे शब्दों का निर्देश पहले ४४५ ३ सूत्र में किया जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में भी कुछ एक निपातों का निर्देश किया जा रहा है.---
६२६-पाङ् (मा) उपसर्ग पूर्वक कमि भादि धातुभों को क प्रत्यय के साथ ही अप्पुन मादि प्रादेश निपात से ही हो जाते हैं। भाव यह है कि 'अप्फुण्ण प्रादि शब्दों की रचना में व्याकरण के किसी सूत्र को लगाने की आवश्यकता नहीं है अर्थात् ये स्वतः सिद्ध होते हैं। जैसे---१-आहात:-- प्फुण्णो (दबाया हुआ), २-उस्कृष्टम् = सक्कोस (अधिक से अधिक,महान,३-स्पस्टम् - फुडे (व्यक्त, साफ), ४-अतिकान्तः- वोलीणो (व्यतीत हुग्रा), ५-विकसितः दोसट्टो (खिला हुमा), ६---निपातितः-निसुट्टो (गिराया हमा), ७-हाणः-लुग्गो (रोगी), मष्टः-ल्हिक्को (नाश को प्राप्त हुमा), -प्रमन्दः अथवा प्रमुषितः पम्हट्टो (मौजा हा अथवा चोरी किया हुग्रा), पम्हटी शब्द प्रमुबट और प्रभुषित दोनों शब्दों से निष्पन्न हो जाता है। १०-अजितम् विद्वत्त (कमाया हुश्रा), ११-स्पृष्टम्-छित्तं (छुपा हुप्रा), १२-स्थापितम् निमिश्र (रखा हुआ),१३-आस्वावितम् चविखनं (चखा हुआ), १४-सूनम् - लुअं (काटा हुमा), १५ स्थक्तम् अढं (छोडा हुपा), १६-लि. प्तम्-झोसिगं (फेंका हुआ), १७-उत्तम् =निच्छई (निकला हुमा), १५-पस्तम्- पल्हत्य और पलोट्ट (दूर रखा हुआ), फैका हुभा), पर्यस्त शब्द के पक्षहस्थ और पलोट्ट ये दो रूप बनते हैं। १९हेषितम् हीसमण (खंखारा हुआ, घोड़े के शब्द जैसा किया हुआ), यहाँ पर 'अप्फुण्ण मादि निपातों का वर्णन किया गया है। संस्कृत व्याकरण में निपातों को अध्यय मान कर जैसे उनसे सि मादि वि. भक्तियों का लोप किया जाता है, वैसी स्थिति प्राकृत-व्याकरण की नहीं है। क्योंकि प्राकृत व्याकरण ४४६ वें सत्र से लेकर ४५१ वें सत्र तक ही अध्ययों का विधान करता है। ४४६ चे सूत्र में स्पष्ट लिखा है कि "इतः परं ये वक्ष्यन्तै आ पावसमाप्तेस्तेऽव्ययसंज्ञा ज्ञातयाः" इस से स्पष्ट है कि उक्त ४४ सूत्रों में वर्णित शब्द ही अव्ययसंज्ञक होते हैं, अन्य नहीं। इन शब्दों में ४४५ में सत्र में तथा
२९वें सत्र में पटित किसी भीट का उल्लेख नहीं है। अतः प्राकृत व्याकरण निपातों को भव्यय स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि निपातों से सि मादि विभक्तियों का लोप नहीं होता। वैसे भव्ययपदों से लो स्यादि विभक्तियों का लोप प्राकृत-व्याकरण को भी इष्ट है। इसीलिए ४४६ वे सत्र से लेकर ४८९ वें सूत्र तक जितने भी मव्ययपद पढ़े गए हैं, उन सब से स्यादि प्रत्ययों का लोप किया गया है।
अथ धातूनाननेकार्थकता ६३०-धातयोऽन्तिरेऽपि।।४।२५६ । उक्तावदिन्तिरेऽपि धातवी वर्तन्त ।
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चातुर्यपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपैतम * बनिः प्राणने पठितः, खादनेऽपि वर्तते । बलइ,खादति,प्राणनं करोति वा । एवं कलिः संख्याने, संज्ञानेऽपि, कलह । जानाति, संख्यानं करोति वा। रिगिर्गती, प्रवेशेऽपि । रिगद, प्रविशति, गस्वति वा । काया माशः मासे । गल्फ छ । स्या:... इच्छति, खादति वा । फकतेस्पक्क पादेशः । पक्कइ, नीचां गति करोति, विलम्बयति वा । विलप्युपालम्म्योहादेशः । झलइ । विलपति, उपालभते, भाषते वा । एवं पडिवालेइ, प्रतीक्षते, रक्षति वा । के. चित् कैश्चिदुपसर्गेनित्यम् । पहरइ, युध्यते । संहरइ, संवृणोति । मणुहरइ, सदृशी भवति । नीहरइ, पुरीषोत्सर्ग करोति । विहर, क्रीडति । माहरइ, खादति । पडिहरइ, पुनः पूरपति। परिहरइ, त्यजति । उवहरइ, पूजयति । वाहरइ,आह्वयति । एवसइ, देशान्तरं गच्छति । उन्नुपइ, चटति । उल्लुहइ, निःसरति ।
* इति प्राकृतमाषा-विवेचनम् *
* अथ धादूनामवेटकार्थकला* संस्कृत-भाषायां यथा "धातयोऽनेकार्थकाः भवन्ति" एवमेव प्राकृत-भाषायामपि धातूमामनेकार्थकता समुपलभ्यते । सैवाऽत्र सूत्रकारेण निर्दिश्यते
३०-कावन्तरेऽपि । धातुपाठे ये धातवः येष्वर्येषु पठिताः,तेष्वर्थेषु तु तेषां प्रयोगो भवस्येव, परन्तु ९३० सूत्रेण तेषां धातुना प्रयोगोऽन्येष्वपि अर्थेषु क्रियते इति भावः । यथा-बलि-धातुः प्राणने-प्राणधारणेऽर्थे धातुपाठे पठितः,परन्तु प्रस्तुतसूत्रेण खादनार्थेऽप्यस्य प्रयोगो आयते, अत एवोच्यते भनेकार्था हि धातवः । मलति । बल प्राणने-प्राण-धारणे । बल+तिन् । ९१० सू० प्रकारागमे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे बलइ खादति, प्राणधारणं करोति, जीवति वेत्यर्थः । एवमेव-~-२---- लति । कलिधातुः संख्याने । कल्+तिन् । पूर्ववदेव कला इति भवति । कल्पातुः संख्यानार्थकः, परन्तु संज्ञानेपि अस्य प्रयोगो भवति । अतः सलाइ जानाति, संख्यानं करोति वेत्यर्थः । ३---रिङ्गाति । रिगिघातुः गत्यर्थकः, परन्तु प्रवेशार्थेऽप्यस्य प्रयोगो भवति । यथा- रिजति रिगि गतौ । रिग+तिव, पूर्ववंदेव रिगइ प्रविशति, गच्छति वेत्यर्थः । ४ - कामते । कोश्-धातुः इच्छार्थकः परन्तु खादनेऽप्यस्य प्रयोगो जायते । यथा--कांक्ष इच्छायाम् । कां+ते १८६३ सू० कक्षधातोः स्थाने बम्फ इत्यादेशे,६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे धम्फह इच्छति खादति बेत्यर्थः । ५-फरकति । फक्क-धातु प्रयोगत्यर्थकः, परन्तु विलम्बेऽपि प्रयुज्यते । फक्क+तिन् । ७५८ सू० फक्धातोः थक्क इत्यादेशे, पूर्ववदेव थपका नीचेगच्छति, विलम्बयति वेत्यर्थः । ६-विलपति । ७-उपालम्भते। विलपधातुः रोदने, उप-माह-पूर्वकः लम्भ-धानुः उपालंभे । विल+तिव, उपलम्भ+ते । ५१९ सू० विलपधातोः स्थाने भइख इत्यादेशे, ८२७ सू० उपालम्भूधातोरपि झख इत्यादेशे, पूर्ववदेव झंखा इति भवति । झंखस्य प्रयोगः विलापे, उपालंभे वा भवति, परन्तु प्रस्तुत-सूत्रबलेन एतस्य भाषणेऽपि प्रयोगो जायते । झंखा विलपति, उपालभते, भाषते वेत्यर्थः । -प्रतिपालयति । प्रतिपूर्वकः पाल्पातुः प्रतीक्षायां वर्तते किन्तु प्रस्तुतसूत्रबलेनैतस्य प्रयोगः रक्षणेऽपि जायते । प्रतिपाल+तिव् । ३५० सू० रेफलोपे,२०६ सूतकारस्य डकारे,२३१ सू० पकारस्य वकारे,९१० सू० प्रकारागमे, ६४७ सू० प्रकारस्य एकारे, ६२६ सू. तिव इचादेशे परि
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प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
वाले प्रतीक्षते, रक्षति वेत्यर्थः केचित्केचिनित्यम् । केचिद् धातवः कैश्चिदुपसर्गेः सह सम्मील्यान्तरे नित्यं प्रयुज्यन्ते । यथा- हृञ्धातुः हरणार्थकः, परन्तु प्र-उपसर्गपूर्वकस्तु नित्यरूपेण युद्धार्थे प्रयुज्यते । एवमपि प्रयोगेषु बोध्यम् । १ प्रहरति । प्रहृ हर प्रहृ+ति । ३५०० रेफलोपे, १०५ सु० ऋकारस्य श्रर इत्यादेशे, पूर्ववदेव तिव इचादेशे पहरङ्ग इति भवति, युध्यत इत्यर्थः । २संहरति । सम्पूर्वकः हृ-धातुः सम्बरणे । संहृ + तिब् संहर सम्बरणं करोति, संहर इत्यस्य संहार करोत्यर्थोऽपि भवति । ३- अनुहरति । श्रनुपूर्वकः हृधातुः अनुहरो अनुकरणे । प्रमुहु + ति । २२८ ० नकारस्य णकारे-- अणुहरइ सदृशी भवति, अथवा अनुकरणं करोतीत्यर्थः । ४- निर्हरति । निर् पूर्वक: हृषातुः पुरीषोत्सर्गकरणे | निरहु + तिव् । ११ सू० रेफलोपे ९३ सू० इकारदीयें- नीरव पु erica - मलोत्सर्ग करोतीत्यर्थः । ५ विहरति । विपूर्वकः हृधातुः क्रीडायाम् । विह्न+ति । पूर्ववदेव विहरह क्रीडति विहरणं करोति वेत्यर्थः । ६- आहरति । श्राङ्पूर्वकः हृधातुः श्राहारे । आह्न+तिव बाहर प्राहारं करोतीत्यर्थः । ७--प्रतिहरति । प्रतिपूर्वकः हृबातु पुनः पूरणे, प्रतिहारे-निवारणे वा । प्रति+ति । रेफलोपे, तकारस्य डकारे, पूर्ववदेव पडिहरइ इति भवति । पुनः पूरयति, प्रतिहार क रोति वेत्यर्थः । परिहरति । परिपूर्वकः हृधातुः परिहारे त्यागे परिह्न+तिवु =परिहरइ त्यजतीत्यर्थः । - उपहरति । उपपूर्वकः हृधातुः उपहारे, पूजायाम् । उपहृ+तिव् । २३१ सू० पकारस्य वकारे बहर (पूजयति इति भवति । १० व्याहरते । विभा-पूर्वकः हृधातुः प्राह वादे । व्याहृ + तिर । ३४९ सू० यकारलोपे, ७४७ सूत्र-वदेव बाहर इति भवति प्राह वयतीत्यर्थः । ११-- प्रवसति । प्रपूर्वकः वस्धातु प्रवासे देशान्तरगमने । प्रवस् + तिथ् । ३५० सू० रेफलोपे, पूर्ववदेव पक्सद देशान्तरं गच्छतीस्वर्थः । १२ – पति । उत्पूर्वकः चुपधातुः पारोहणे बटने । उच्चुप् + तिथ् । पूर्ववदेव उप चट. तीत्यर्थः १३ उल्लूहति उत्पूर्वः लुह धातुः निःसरणे । उल्लूह +तिव । पूर्ववदेव उल्लाह निःसरतीत्यर्थः । इति प्राकृत भाषा विवेचनम् । आचार्यश्रीहेमचन्द्रेण ९३० सूत्र: प्राकृत भाषा विधिविधानस्य निरूपणं कृतमस्ति ९३० सूत्रस्य समाप्ती प्राकृत भाषा विवेचनमपि समाप्तिमेतीति भावः ।
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* प्राकृत भाषायाः विवरणं समाप्तम् *
★ धातुओं का अर्थान्तर प्रकरण ★
संस्कृत भाषा में प्रायः कहा जाता है-"अनेकार्थका हि धातवः " अर्थात् धातु - कार्थक (अनेक अर्थ वाले ) होते हैं । किन्तु संस्कृत भाषा के समान प्राकृत भाषा में भी धातु कार्यक पाए जाते हैं । घातु अपने अर्थ का बोधक होता हुआ भी अर्थान्तर में कैसे परि afan हो जाता है ? इसी तथ्य को प्रस्तुत प्रकरण में निर्दिष्ट किया जा रहा है
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३० -- धातुपाठ में धातुत्रों के जो अर्थ दिए गए हैं, उनके उनसे भिन्न अर्थ भी होते हैं। जैसे१- बलि धातु धातुपाठ में प्राणन (प्राण धारण करना) इस अर्थ में पढा गया है किन्तु इससे भिन्न इसका खान (खाना), यह अर्थ भी होता है । जैसे - वलति चलइ खादति, प्राणनं करोति वा वह खाता है अथवा वह प्राण धारण करता है। इसी प्रकार २ - कलि धातु का अर्थ धातुपाठ में सेया (श्रावाज़ करना, गणना करना) है, किन्तु इससे भिन्न इस का संज्ञान (जानना) अर्थ भी होता है। | जैसे-फलति कलइ जानाति,संख्यानं करोति वा वह जानता है अथवा संख्यान (गणना) करता करता है । ३- रिगि धातु का धातुपाठ में गति ( जाना) मर्थ है, किन्तु इस से भिन्न प्रवेश (दाखिल
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REATMERO
:: असुथपादः .
* संस्कृत-हिन्दी-टीका द्वयोपेतम् * होना) अर्थ भी होता है। जैसे-रिगति-रिगइ-प्रविशति, गच्छति वा वह प्रवेश करता है,अथवा वह गमन करता है।४-कांक्षि धातु का मर्थ धातुपाठ में सक्षा करना होता है, किन्तु इसके अलावा इसका खाना यह अर्थ भी होता है। जैसे-कांक्षते-वम्फइम इच्छति, खादति वा वह चाहता है, इच्छा करता है अथवा वह खाता है। यहां काक्षि धातु को ८६३ सूत्र से 'धम्फ' यह मादेश किया गया है। ५-फरक पातु का धातुपाठ में नीचे पाना' यह अर्थ होता है, किन्तु इससे भिन्न इसका--वि. लम्ब देरी करना) यह अर्थ भी होता है। जैसे-फक्कतिथक्कइनीचां गति करोति, विलम्बयति वा-वह नीचे जाता है, अथवा वह विलम्ब करता है। यहां फरक धातु के स्थान में ७५८ सूत्र से पक्क प्रादेश किया गया है । ६-~-धि-उपसर्ग-पूर्वक सम् धातु रोने पर्थ में तथा विप्राङ् (आ) उपसर्ग पूर्वक लभ् धातु पालभ इस अर्थ में प्रयुक्त होता है किन्तु इन दोता धातुमों का प्रयोग 'भाषण करना इस.पर्थ में भी हो जाता है। जैसे-विसपति, उपालम्भते मज विलपति, उपालम्भते भाषते वा वह रोता है, वह उपालंभ देता है, वह भाषण करता है। इस तरह झंखए इस पद के तीन अर्थ हो जाते हैं। ८१९ सत्र से विलप के स्थान में तथा १२७ सूत्र से उपालम्भ के स्थान में भडः यह प्रादेश किया गया है। इसी प्रकार७-प्रतिपालयति-पडिवालेइ-प्रतीक्षते, रक्षति वावह प्रतीक्षा करता है अथवा वह रक्षा करता है। प्रति उपसर्ग पूर्वक पाल् धातु प्रतीक्षा अर्थ में ध्यबहुत होता है, किन्तु प्रस्तुतसूत्र के निर्देश से इसका "रक्षा करना" यह अर्थ भी होता है। इस तरह यह सूत्र प्राकृत-भाषा में धातुमों को द्वयर्थक बना डालता है।
कई एक आचार्यों का मत है कि यदि धातुओं के साथ कई एक उपसों का संयोजन हो तो जनका अर्थ वैकल्पिक (अनेक अर्थों का बोधक) नहीं रहता है, किन्तु उन का नित्य ही अर्थान्तर (दूसरा 'मर्थ) हो जाता है। जैसे--प्रहरतिपहर (वह युद्ध करता है),ह धातु का अर्थ हरण (चोरी)
रना होता है, किन्तु प्रउपसर्ग का योग होने से इस प्रर्थान्तर हो गया और यह प्रान्तर वैकल्पिक नहीं रहता है किन्त नित्य ही माना जाता है। इसी प्रकार भागे भी समझ लेना चाहिए। २..संहरति संहरह (वह संवरण-चुनाव करता है), संहरति का वह सहार करता है, ऐसा अर्थ भी होता हैं। 8-अनारति अणहर (वह समान होता है), ४---मिहरतिनीहरइ (वह मल-त्याग करता है),.-विहरति विहरइ (वह क्रीडा करता है), ६-आहरतिमाहरई (वह पाहार करता है, बह खाता है), ७-प्रतिहरति-पडिहइ (फिर से परिपूर्ण करता है),५--परिहरति परिहरइ (बह परिहार करता है,वह छोड़ता है),ह-उपहरति उवहरई (वह पूजा करता है, वह उपहार देता है, १०-याहरते-वाहरइ (वह बुलाता है), ११-प्रवसति-पवसइ (वह प्रवास करता है, वह देशा'तर (दूर मन्य देश को) जाता है), १२---उसषुपति-उच्चुपइ (वह चढता है), १३-उल्लुहति=3ल्लुहद (वह निकलता है) इस तरह उपसर्गों के संनियोग (सामीप्य) से धातुओं के अर्थ परिवर्तित हो परते है।
पहले सूत्र से लेकर ९३० सूत्र तक ऊपर जो कुछ लिखा गया है, यह सब प्राकृत भाषा का विधि-विधान.पा। ९३० सूत्रों द्वारा आचार्य श्री हेमचन्द्र जी ने प्राकृत-भाषा-सम्बन्धी नियमों तथा उपनियमों का निर्देश कर दिया है। इस सूत्र की समाप्ति के साथ ही प्राकृत-भाषा-सम्बन्धी विवेचन समाप्त होता है।
प्राकृत-माया कामा, परिपूरण पाल्यान,
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८८
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.चतुर्थपादः
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*प्राकत-व्याकरणम् * पढो पढामो ध्यान से, विश बनो मुनि ज्ञान ।
* प्राकृतभाषा-विवेचन समाप्त *
* अथ शौरसेनी-भाषा-प्रकरण * ६३१-तो दोनादी शेरसेन्यामयुक्तस्य ।। ४ । २६० । शौरसेन्या भाषायामनादावपदादौ वर्तमानस्य तकारस्य दकारों भवति, न चेदसौ वन्तिरेण संयुक्तो भवति । तदो पूरिद-पदिनेश मारुदिरणा मन्तिदो। एतस्मात् । एदाहि, एदायो। अनादाविति किम् ? तथा करेध जघा तस्स राइणो मणुकम्पणीमा भोमि । प्रयुक्तस्येति किम्? मत्तो। मय्यउत्तो। भसंभाविद-सक्कार । हला सउन्तले !।
३२प्रधः क्वचित् । ८ । ४ । २६१ । वर्णान्तरस्याधोवर्तमानस्य तस्य शौरसेन्या दो भवति । क्वचिल्लक्ष्यानुसारेण । महन्दो । निच्चिन्दो । अन्देउरं ।
९३३ धास्तावति । ८ । ४ । २६२ । शौरसेन्यो तावच्छब्दे आदेस्तकारस्य कोमा भवति । दाव, ताय।
९३४-श्रा प्रामन्ये सौ वेनो नः। ८।४ । २६३ । शीरसेन्यामिनो नकारस्य प्रामन्त्र्ये सौ परे आकारो वा भवति । भो कञ्चुइमा ! । सुहिमा ! । पक्षे भो तवस्सि! । भो मगस्सि!।
१५-मोका।।४।२६४ । शौरसेन्यामामन्त्र्ये सौ परे नकारस्य मो वा भवति । भो राम! । भो विप्रयवम्म ! । सुकम्म ! । भय ! कुसुमाउह ! । भयवं !तित्थं पवत्तेह । पक्षे । सयल-लोभ-मन्तेप्रारि ! भयव ! हुदवह ! ।
९३६-मवद्भगवतोः ।।४।२६५ 1 मामन्त्र्य इति निवृत्तम् । शौरसेन्यामनयोः सो परे नस्य मो भवति । किं एत्यभवं हिदएण चिन्तेदि । एदु भवं । समरणे भगवं महावीहे। पज्जलिदो भयवं सुदासणो। क्वचिदन्यत्रापि । मघवं पागसासणे। संपाइयवं सीसो । कया। करेमि, काहं च ।
१३७-न वा यो व्यः। ८ । ४ । २६६ । शौरसेन्यां यस्य स्थाने यो वा भवति । भय्यउत ! पस्याकुलोकदम्हि । सुम्यो । पक्षे । प्रज्जो । पज्जाउलो । कज्ज-परवसो।
९३८-यो षः । । ४ । २६७ 1 शौरसेन्यो यस्य घो वा भवति । कधेदि, कहेदि । माधो, गाहो । कषं, कहं । राज-पधो, राज-पहो । अपवादावित्येव । थाम । थेयो।
३९-इह-हचोहस्य । ८ । ४ । २६८ । इहशब्दसम्बन्धिनो मध्यमस्येत्थाहची [३. १४३] इति विहितस्य हचश्च हकारस्य शौरसेन्यां धो वा भवति । इध । होध । परित्तायष । पक्षे । इह। होह । परितामह ।
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चतुर्पकारः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * .६४०-भवो मः। ८ । ४ । २६६ । भवतेहंकारस्य शौरसेन्यां भो वा भवति । भोदि, होदि, भुवदि, हुवदि, भवदि, हबदि ।
१४१-पूर्वस्य पुरवः । ८।४।२७० । शौरसेन्या पूर्वशब्दस्य पुरव इत्यादेशो वा भवति । अपुरवं नाडयं । अपुरवागदं । पक्षे । अपुब्बं पदं । मपुयागदं ।
९४२-वत्व इय-दूणौ । ।४।२७१ । शौरसेन्यां क्त्वा-यप्रत्ययस्य इय, दूरण इत्यादेशी का भवतः । भविय, भोदूण, हविय, होगुण । पढिय, पढिदूण । रमिय, रन्दूण । पक्षे । भोत्ता, होता। पढित्ता तार
६४३--कृ-गमो उडुनः। ८ । ४ । २७२ । प्राभ्यां परस्य क्त्वा-प्रत्ययस्य डित् प्राम इत्यादेशो वा भवति । कडुन । गडुन । पक्षे । करिय, करिदूण । गछिय, मच्छिद्दूण।
९४४-विरिचेचोः 1 । ४ । २७३ । त्यादीनामाद्य त्रयस्थावस्येवो [३.१३६] इति विहितयोरिचेचो; स्थाने दिर्भवति । वेति निवृत्तम् । नेदि । देदि । भोदि, होदि ।
६४५-प्रतो देश्च । ८ । ४ । २७४ । प्रकारात्परयोरिचेवोः स्थाने देश्चकारात् दिश्च भवति । अच्छदे, अच्छदि । गच्छदे, गच्छदि । रमदे, रमदि । किस्जदे, किदि । मत इति किम् ? बसुप्रादि । नेदि । भोदि ।
९४६-भविष्यति रिसः। ८।४ । २७५ । शीरसेन्या भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये परे सिर्भवति । हि-स्था हामपवादः । भविस्सिदि । करिस्सिदि । गमिछस्सिदि ।
.९४७-अतो उसे दो-डाद । । । ४।२७६ । प्रतः परस्य सः शौरसेन्या पादो,प्रादु इत्यादेशी डितौ भवलः । दूरादो य्येव दुरादु ।
४८.इदानीमो दाणि । ८ । ४ । २७७ । शौरसेन्यामिदानोमः स्थाने दाणि इत्यादेशो भवति । अनन्तर-करणीयं दारिंग प्राररावेदु अय्यो ! । व्यत्ययत्वात् प्राकृतेऽपि । भन्न दारिंग बोहि ।
६४६-तस्मात्ताः। ८ । ४।२७८ । शौरसेन्यां तस्माच्छब्दस्य ता इत्यादेशो भवति । ता जाव पविसामि । ता अल एदिरणा मारणेण ।
९५७-मोन्स्याण्णो वेवेतोः । ८ । ४ । २७६ । शौरसेन्यामन्त्यान्मकारात् पर इदेतोः परयोगकारागमो वा भवति । इकारे । जुत्तं रिंगमं जुत्तमिण । सरिसं रिगम, सरिसमिखें । एकारे। कि रणेदं, किमेदं । एवं गदं, एवमेदं ।
९५१-एवार्थे व्येव । ८ । ४ । २८० । एकार्थे येव इति निपातः शौरसेन्या प्रयोक्तपः । मम य्येव बम्भरणस्स। सो य्येव एसो।
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★ प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
६५२-हजे चेट्याह्वाने । ८ । ४ । २८१ । शौरसेन्यां चेट्याह् वाने हजे इति निपातः प्रयोक्तव्यः । हज्जे चदुरिके ! |
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६५३ - हीमाणहे विस्मय-निर्वेदे । ८ । ४ । २८२ । शौरसेन्यां हीमारणहे इत्ययं रिपातो विस्मये निर्वेदे च प्रयोक्तव्यः । विस्मये । हीमाण हे जीवन्तबच्छा मे जाणी । निर्वेदे । हमार पलिस्सन्ता हमे एदेा निय विधिरगो दुव्ववसिदे ।
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ε५४-णं नन्वर्थे । ८ । ४१२८३ । शौरसेन्याँ नम्वर्थे समिति निपात: प्रयोक्तव्यः । णं प्रफलोदया । णं श्रय्य मिस्सेहि पुढमं य्येव प्राणत्तं । रणं भवं मे प्रग्गदो चलदि । श्रार्षे sase हृयते । नमोऽत्यु णं । जया रणं । तथा गं ।
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E५५ - अम्महे हर्षे । ८ । ४ । २८४ । शौरसेन्यां श्रम्महे इति निपातो हर्षे प्रयोक्तव्यः । अम्महे एमए सुम्मिलाए सुपलिगढिदो भयं
६५६ - होही विदूषकस्य । ८ । ४ । २८५ । शौरसेन्यां हीही इति निपातो विदूषकारण हर्षे द्योते प्रयोक्तव्यः । होही भो ! संपन्ना मरणोरधा पिय- वयस्सस्स
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६५७ - शेषं प्राकृत यत् । ८ । ४ । २८६ । शौरसेन्यामिह प्रकरणे यत्कार्यमुक्तं ततोऽन्यच्छरसेन्यां प्राकृतवदेव भवति । दीर्घ ह्रस्वो मिथो वृत्तौ [१४] इत्यारभ्य 'तो दोऽनादी शौरसेन्यामयुक्तस्य [ ४ २६० ], एतस्मात्सूत्रात्प्राग् यानि सूत्राणि एषु यान्युदाहरणानि तेषु मध्ये प्रसूति तदवस्थान्येव शौरसेन्यां भवन्ति, अमूनि पुनरेवंविधानि भवन्तीति विभागः प्रति सूत्रं स्वयमम्यूह्य दर्शनीयः । यथा - प्रन्दावेदी । जुवदि-जणी । मणसिला । इत्यादि ।
* समाप्तं शौरसेनी-भाषा-प्रकरणम् * ★ अथ शौरसेनी भाषा प्रकरणाम् ★ जगद्गुरु महावीरमभिवन्द्य जिनेश्वरम् । प्राकृतानन्तरं भाषा, शौरसेनी विविच्यते ॥
सिद्धहेमशब्दानुशासनस्याष्टमाध्याये प्राकृत-शौरसेनी-मागधी- पैशाची - चूलिकापन - शानां षड्विधानां भाषाणां विवरणं समुपलभ्यते, तत्र प्रथमपादादारभ्य इतः पर्यन्तं प्राकृतभाषायाः विवेचनं कृतम्, साम्प्रतं शौरसेनीभाषाविषये यद्विवेचनीयं तद्विवृणोति सूत्रकारः । araft बालमनोरमाख्यायां टोकायां शौरसेनी भाषाशब्दानां प्रक्रियानुवादमुपक्रमामहे ।
६३१ -- ततः । श्रव्ययपदमिदम् । ९३१ सू० द्वितीयतकारस्य दकारे, ३७ सू० विसर्गस्य स्थाने डो (श्री) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्त्ररादेर्लोपे तो इति भवति । पूनितप्रतिशेन । पूरिता प्रतिज्ञा येन सः, सेन । पूरितप्रतिज्ञ+टा प्रस्तुतसूत्रेण उभयत्र तकारस्य दकारे. ३५० सू० रेफलोपे, १११८. सु० भाषाव्यये कृते ९६४ सू० शस्य त्र इत्यादेशे, ४९५ लू० टास्थाने न इत्यादेशे, ५०३ सू० प्रकारस्य एकारे
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टकाद्वयोपेतम् * पूरिबपविण ९७७ सू० कारस्य नकारे पूरिबपविभन्नेम इत्यपि भवति । मारुतिना। मरुतोऽपत्यं मारुतिः-हनुमान् । मारुति+टा । तकारस्य दकारे, ५१३ सू० टास्थाने णा इत्यादेशे मागविणा णकारस्य नकारे मारुविना इत्यपि भवति । मन्त्रितः । मन्त्रित+सि 1 रेफलोपे, तकारस्य दकारे, ४९१ सू० से?:, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे मन्तिको इति भति । एतस्मात् । एतद् + इसि । तकारस्य दकारे, ११ सू० दकारलोपे,४९७ सू० कसेःस्थाने हिदी इत्यादेशो,५०१ सू० अकारस्य प्रकारे एवाहि एदादो १७७ सू. दकारलोपे एवाओ इति भवति । अमावाविति किम् ? । न पादौ,अनादौ । अनादौ वर्तमानस्यैव तकारस्य दकारो भवति नत्वादिभूतस्य तकारस्यापि । यथा-शथा । अव्ययपदमिदम् । प्रादि-भूतत्वात्तकार. स्य दकारो न जातः । ९३८ सू० पकारस्य धकारे तथा इति भवति । कुरुत। डुकृञ् (कृ)करणे । कृ+त। इत्यत्र ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, ६४७ सू० अकारस्य एकारे, ६३२ सू० त इत्यस्य हच (ह) इत्यादेशे,१३९ सू० हकारस्य धकारे करेष इति भवति । यथा । प्रन्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, थकारस्य धकारे जया इति भवति । तस्य --तस्स, प्रक्रिया ५५२ सूत्रे ज्ञेया। राशः । राजन्+ ङस् । ५३९ सू० इसः स्थाने णो इत्यादेशे,५४१ सू० जकारस्य इकारे,११ सू० नकारलोपे राइको इति भवति । अनकम्पनीया अनकम्पनीया+सि। २२८ स. उभयत्र नकारस्य णकारे,१७७ सयकार: स्य लोपे, ११११३७। सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे अगुकम्पणीमा इति भवति । भवामि । भू सत्तायाम् । भू+तिछ । ७३१ सू० भूधातोः हो इत्यादेशे, ९४० सू० हकारस्य भकारे, ६३० सू० मिकः स्थाने मि इत्यादेशे भोमि इति भवति । अयुक्तस्येति किम् ? प्रस्तुतसूत्रेण प्रयुक्तस्य-असंयुक्तस्यैव तकारस्य दकारो भवति नान्यथा । यथा-मतः । तकारस्य संयुक्तत्वात प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती,से?ः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे मत्तो इति भवति । आर्यपुत्रः । भार्यपुत्र+सि । ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ९३७ सू. यस्य म्य इत्यादेशे, १७७ सू० पकारस्थ लोपे, ३५० सू० रेफलोपे ३६० सू० तकारद्वित्त्वे, पूर्ववदेव अमउसो इति भवति । असंभावितमत्कारम् । प्रसंभावितः संभावनाशून्यः सत्कारो यस्य, तद् । प्रसंभावितसत्कार+सि ! तकारस्य दकारे, ३४८ सू० तकारलोपे,३६० सू० ककारहित्त्वे,५१४ सू० सेमंकारे, २३ सू० म कारानुस्वारे असंभाविकसकारं इति भवति । हे शकुन्तले ! 1 ४६६ सू० सम्बोधने हल्ला इत्यस्य प्रयोगो भवति । शकुन्तला+सि । २६० सू० शकारस्य सकारे, १७७ सू० ककारलोपे, ५३० सू० आकारस्य एकारे, १।१।३७ । सू० सेरिकार-लोपे, १० सू० सकारलोपे सउन्तले! इति भवति । - प्रापितकारस्य संयुक्तत्वात् प्रस्ततस त्रस्य प्रवत्यभावः।
१३२-वर्णान्तरस्याऽधोवर्तमानस्य । प्रन्यो वर्षः वर्णान्तरं तस्य,प्रधोवर्तमानस्थ, संयुक्तवर्णयोमध्ये अधःस्थितस्थ-पश्चाद्वतिनः, न तु पूर्ववर्तिनः तकारस्येति भावः । चिल्लष्यानुसारेण । प्रस्तुतसुत्रस्य प्रवृत्तिः क्वचित्-कस्मिश्चित् स्थले एव लक्ष्यानुसारेण-प्रयोगानुसारेण भवति, नतु सर्वश्रेतिभावः । यथा--महान् । मह +शत । ९१० सू० अकारस्य पागमे, ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे, सि-प्रत्यये, ९३२ सू० अधोवर्तमानस्य-पश्चाद्वर्तिनः तकारस्य दकारे, ४९१ सू० से :, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे महन्दी इति भवति । निश्चिन्तः । निश्चिन्त+सि । ३४९ सू० शकारलोपे, ३६० सू० चकारद्वित्त्वे, प्रस्तुतसूत्रेण तकारस्य दकारे, पूर्ववदेव निश्चिन्दो इति भवति । अन्तःपुरम् - अन्तेउर, प्रक्रिया ६० सुत्रे ज्ञेया। प्रस्तुतसूत्रेण तकारस्य दकारे अन्वेडरं इति भवति ।
६३३-सावत् । अव्ययपदमिदम् । ९३३ सू० तकारस्य स्थाने वैकल्पिके दकारे, ११ सू० तकारस्म लोपे राव,ताव इति भवति ।
९३४---भो । अव्ययपदमिदं संस्कृततुल्यमेव शौरसेन्या प्रयुज्यते। कञ्चुकिन् । कञ्चुकिन् +सि।
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*प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुथपादः १७७ सू० द्वितीय-ककारस्य लोपे, ९३४ सू० नकारस्य वैकल्पिक प्राकारे, १५११३७। सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे कहा ! इति भवति । सुखिन् । सुखिन्+सि। १८७ सू० खकारस्य हकार, नकारस्य वैकल्पिके प्राकारे, सेलोपे-महिमा ! इति भवति । पक्षे । प्रस्तुन-सुत्रस्य प्रवत्त्यभावपक्षे । भो तपस्विन् ! । तपस्विन+सि । २३१ सूपकारस्य वकारे, ३५० सू० वकारलोपे, ३६० सू० सकारस्थ द्विस्के, ११ सूनकारलोपे, सेलोपे, सवस्सि! इति भवति । भोमनस्थिन् । मनस्त्रिन्मि । २२८ सू० नकारस्य णकारे मस्सि ! इति तवस्सिवत्-साध्वम् । वैकल्पिकत्वादत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रदृत्यभावः ।
६.३५-भो! अव्ययपदमिदं संस्कृत-तुल्यमेव शौरसेन्या प्रयुज्यते । राजन् ! । राजन् +सि । १७७ सू० जकारलोपे, १८० सू० यकारविशिष्टंकारे, ९३५ सूत नकारस्य वैकल्पिके मकारे; २३ सू० मकारस्य अनुस्वारे,१११।३७ । सू० सेरिकारस्य लोपे, ११ मु० सकारलोपे रायं ! इति भवति । भो विजयवर्मन् ! विजयवर्मन+सि । १७७ सू० जकारस्य लोपे,३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० मकारस्य द्विस्वे,नकारस्थ वैकल्पिके मकारे,२३ सू० मकारानुस्वारे,सेर्लोपे विअयचम्म ! इति भवति । सुकर्मन् । शोभनं कर्म यस्य सः, तत्सम्बोधनम् । सुकर्मन+सि । विधय-चम्म-वदेव सुकम्म ! इति साध्यम् । एवमेव भगवन् ! भगवद्+सि । संस्कृतनियमेन भगवन् +सि इति जाते, १७७ सू० गकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुत्तो-भय ! इति भवति । कुसुमायुध । कुसुमान्येव प्रायुधानि यस्य सः, तत्सम्बोधनम् । कुसुमायुध+सि । इत्यत्र १७७ सू० यकारलोपे,१८७ सूधकारस्य हकारे, सेलोपे कुसुमाउह! इति भवति । भगवन्! भगवद्+सि भयवं! इति पूर्ववदेव साध्यम् । तीर्थम् । तीर्थ+मम् । ३५० सू० रेफलोपे,३६० सू थकारस्थ विस्वे, ३६१सू० पूर्वधकारस्य तकारे, ८४ स० संयोगे परे ह्रस्वे, ४९४ सू० अमोऽकारस्थ लोपे, २३ सू० मकारानुस्वारे तित्य इति सिद्धम् । प्रयतंय । प्रपूर्वकः वृत्धातुः प्रवर्तने । संस्कृतनियमेन प्रवत् +णिग्+त इति जाते, ३५० सू० उभयत्रापि रेफलोपे, ३६० सू० तकारद्विस्वे, ६३८ सू० णिग: एकारे, ६६५ सू० 'त' इत्यस्य हकारे पचतेह इति भवति । पक्षे । प्रस्तुतसूत्रस्य प्रबृत्यभावप । सकललोक-मन्तश्चारिन् ! | सकलश्चासौ लोकः, सकल नोकः, अन्तश्चरितुशीलमस्प सोऽन्तश्चारी, सकललोकस्य अन्तश्चारी सकल-लोकान्तश्चारी,तत्सम्बोधनम् । सकललोक-अन्तर चारिन्+सि। १७७ सू० ककार-भूयस्थ चकारस्य च लोपे, १८० स० प्रथमाकारस्य यकारस्थ श्रुतौ, ६० स० तकारस्थाकारस्य एकारे, ११ सू० रेफस्य नकारस्य च लोपे, सेलोपे सयल-लोन-अन्तेयार ! इति भवति । भगवन् ! । भगवद्+सि- भगवन +सि। १७७ सू० गकारलोपे, १५० सू० यकारश्रुतो, विकरूपत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती ११ सू० मकारलोपे, सेलोपे भपय ! इति भवति । हुतवह ! । हृतबह+सि । ९३१ सू० तकारस्य दकारे, सेर्लोपे हुवबह ! इति भवति ।
६३६-आमन्त्र्य इति निक्सम् । ८३४ सूत्रतः 'मामधे इत्यस्य पदस्यानुवृत्ति रायाति स्म, परं साम्प्रतं तस्य निवृत्तिजतिति भावः । किम । किम् +प्रम-कप्रक्रिया ५६९ सूत्रे ज्ञेया । अत्र । प्रध्ययपदमिदम् । ५७ सू० प्रथमाकारस्य एकारे,४३२ स० अस्य स्थ' इत्यादेशे एस्थ इति भवति ! भवान् । भन् वद्+सि । संस्कृतनियमेन भवान् इति जाते, ६७ सू० प्राकारस्य प्रकारे, ९३६ सू० नकारस्य मकार, २३ सू० मकारानुस्वारे भवं इति भवति । हत्येन । हृदय+टा । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, २६९ सू० वैकल्पिकत्वात् सस्वर-यकार-लोपाभावे, १७७ मू० यकारलोपे, ४९५ सू० टास्थाने णकारे, ५०३ मू० प्रकारस्य एकारे हिवएण इति भवति । चिन्तयति । चिन्त चिन्तने । चिन्त+णिग्-+तिन् । ६३५ सू० णिगः स्थाने एकारे, ६२८ सू० तिव इचादेशे, ९४४ सू० इचः दि इत्यादेशे चिन्तेदि इति भवति । एतु ।
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीका द्वयोपेलम् * इरण गतौ । इ+तु । इत्यत्र ९०८ स० इकारस्य एकारे, ६६२ सू० तुवः दु इत्यादेशे एतु इति भवति । भगवन् ! -भवं! इति पूर्ववदेव साध्यम् । पमणः । श्रमण+सि । ३५० सू० रेफलोपे,२६० सू० सकारस्य सकारे, १११८ सूत्रेण भाषाव्यत्यये कृते,९५८ सू० प्रकारस्य स्थाने एकारे, १११।३७ । सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे समरणे इति भवति । भगवान् ! भगवद् +सि भगवं, प्रक्रिया १३५ सुत्रे
या। केवलमन्तरमिदं यत्त १७७ गकारस्थलोपोमाऽभवत्तथा १८० स० यकारश्रतिर पन जाता। महावीरः । महावीर+मि-महावोगे, इति समवत् साध्यम् । प्रज्वलितः । प्रज्वलित+सि। ३५० सू० रेफस्य वकारस्य च लोपे,३६० सू० जकारद्वित्त्वे,९३१ सू० तकारस्य दकारे,४९१ सू० सेोः, डिति परेप्रत्यस्वरादेलोपे पसलियो इति भवति । भगवान्! भयवं! इति ९३५ सूब-वदेव साध्यम्। हुताशनः । हुताशन+सि तकारस्य दकारे, २६० सू० शकारस्थ सकारे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, पूर्ववदेव हुदासणी इति भवति । क्वचिदन्यत्रापि । प्रस्तुतसूत्रेण भवद्-भगवत्-पद-यस्यैव नकारस्य मकारो विधीयते, नान्यत्र । यथा--मघवाम् । मघवत् +सि । संस्कृतनियमेन मघवान् +सि इति जाते, ६७ सू० अकारस्य प्रकारे, बाहुल्येन नकारस्य मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे मघवं इति भवति । पाकशासनः। पाकशासन+सि । इत्यत्र १११८ सू० भाषाव्यत्यये कृते, १०६७ सू० ककारस्य गकारे, २६० सू० शकारस्य सकारे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, पूर्ववदेव ९५८ सू० अकारस्य एकारे, सेलोपे पागसासरणे इति भवति । संपादितवान् । संपादिवत्+सि । संस्कृतनियमेन संपादितवान+सि इति जाते, १७७ सू० दकारस्य तकारस्य च लोपे, ६७ सू० द्वितीयाकारस्य स्थाने प्रकारे, बाहल्येन नकारस्य मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे, सेर्लोपे संपाइअवं इति भवति । शिष्यः । शिष्य + सि । २६० सू० शकारस्य षकारस्य च सकारे, ३४९ सू० यकारलोपे, ४३ सू० इकारस्य दीर्थे पूर्ववदेव सीसो इति भवति । कृतवान् । कृतवत्+सि । संस्कृतनियमेन कृतवान् +सि इति जाते,१२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १८० सू० यकारस्य श्रुती,६७ सू० प्राकारस्य प्रकारे, बाहुल्येन नकारस्य मकारे, २३ सू० मकारानुस्यारे, सेलोपे कयवं इलि भवति । करोमि करेमि, प्रक्रिया ४६१ सूत्रे ज्ञेया । करिष्यामिकाहं, प्रक्रिया ६५९ सूत्रे ज्ञेया।
९३७ - आर्यपुत्रः !| प्रार्यपुत्र+सि । ९३१ सूत्रसमानमेव प्रय्य उत्स+सि इति जाते, १३१३७ सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे प्रयवत्त ! इति भवति । पर्याकुली-कृता । पर्याकुली कृता+सि । ९३७ सू० यस्य य्य इत्यादेशे, १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, ९३१ सू० तकारस्य दकारे, सेलोषि पय्याकुली-कवा इति भवति । अस्मि-म्हि, प्रक्रिया ६३६ सूरे शेया। पय्याकुलीकदा+मिह, इत्यत्र ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे पय्याकुलीकब म्हि इति भवति । सूर्यः । पूर्य+सिसूय्य+सि ! ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ४९१ सू० से?:,डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे सुथ्यो इति भवति । पो । यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्न जाता तलि भावः । यथा--प्राय:- प्रज्जो,प्रक्रिया ५२७ सूत्रे ज्ञेया। पर्याकुलः । पर्याकुल+सि । २९५ सू० यस्य जकारे, ३६० सू० जकारद्वित्त्वे,१७७ सू० ककारलोथे,पूर्व वदेव पाउलो इति भवति । कार्यपरवशः 1 कार्येण परवशः । कार्यपरवश+सि। यस्य जकारे, जकारद्विस्वे, ८४ सु० संयोगे परे हस्वे, २६० सू० शकारस्य सकारे, पूर्ववदेव कापरवसो इति भवति । एषु प्रयोगेषु प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिन जाता।
३कथयति । कथ कथने । कथ्+णिग+ति । इत्यत्र ९३० स० विकल्पेन थकारस्य घकारे, ६३८ सू० रिणगः एकारे, ६२८ सू० तिव इचादेशे, ९४४ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे कवेदि
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुथंपादः घकाराभावे १८७ सू० थकारस्य हकारे कहेदि इति भवति । नाथः । नाथ-+सिनाध+सि, नाह। सि, २२६. स० नकारस्य णकारे,४९१ स० सेोः, डिति परेऽन्त्यस्बरादेलपि णायो,शाहो इति भवति । कथम् । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण वैकल्पिके धकारे, पूर्ववदेव कवम्, कहम् इति जाते, २३ सू. मकारानुस्वारे कध, कहं इति भवति । राजपपः । राज्ञां पन्या । राजपथ-+सि । पूर्ववदेव राजपषो, राजपहो इति भवति । अपवावावित्येव । यत्र यकारः पदस्यादिभुतो न भवेत्तत्रैव तस्य धकारो भवति, एदादि-भूतस्य थकारस्य न भवतीति भावः । यथा-स्थाम । स्थामन् +सि । ३४८ सू० सकारलोपे, ११ स नकारलोगे,५१४ सू. १३. महारानुस्वारे थाम इति भवति । स्तोकः । स्तोक+ सि । ३९६ सू० स्तोकस्य थेव इत्यादेशे, १७७ सू० वकारलोपे,पूर्ववदेव थेओ इति भवति । अत्र थकारस्य पदादित्वात् धकारो न जातः।
९३६---इह । अव्ययपदमिदम् । १३९ सू० विकल्पेन हकारस्य धकारे इध, इह इति भवति । भवथ ।भू सत्तायाम् । भू+थ । ७३१ स० भूधातोः हो इत्यादेशे, ६३२ सू० थकारस्य हच् (ह) इत्यादेशे, प्रस्तुतसूत्रेण विकल्पेन हकारस्य धकारे होष, होह इति भवति । परित्रायध्वे । परिपूर्वकः वङ्धातुः परिपालने। परित्र+ध्वे । संस्कृतनियमेन परित्राय+बे, इति जाते, ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० तकारद्वित्वे, ६३२ सू० ध्वे इत्यस्य इच् (ह) इत्यादेशे, प्रस्तुतसूत्रेण हकारस्य वैकल्पिके धकारे परिसायष, परिसायह इति भवति ।
९४०-भवति । भूधातुः सत्तायाम् । भू+तिन् । ७३१ सू० भूधातोः स्थाने हो, हुव, हव, इत्यादेशाः, ९४० सू० हकारस्य वैकल्पिके भकारे,६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे, ९४४ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे भोदि, होबि, भुवति, यि, भवावि, हववि इति भवति ।।
६४१-अपूर्वम् । न पूर्वमपूर्वम् । अपूर्व+सि ॥ ९४१ सू० पूर्वस्य स्थाने वैकल्पिके पुरव इस्थादेशे, ५१४ सू० समकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे अपुरवं इति भवति । नाटकम् । नाटक+सि । १९५ सू० टकारस्य डकारे, १७७ सू० ककारलोपे, १८० सू० यकारस्य श्रुती, पूर्ववदेव नाडयं इति भवति । अपूर्वागबम् । प्रपूर्वमगदम् । अपूर्वागद+सि अपुरवागद+सि । पूर्ववदेव अपुरवागदं इति भवति । पक्षे । आदेशाभावपक्षे । अपूर्व+सि इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० वकारद्वित्त्वे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,पूर्ववदेव प्रपुत्वं इति भवति । पदम् । पद+सि-पर्व इति पूर्ववदेव साव्यम् । एवमेव अपूर्वागद+सि-प्रपुरब्याग इति साध्यम् ।
१४२- भूत्वा । भू सत्तायाम् । भू+क्त्वा । ७३१ सू० भूधातोः हव, हो इत्यादेशौ, १४० सूर हकारस्य बैकल्पिके भकारे,९४२ सू० क्त्वा प्रत्ययस्य विकल्पेन इय,दूण इत्यादेशी, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये भविय भोण हविय होवूण इति भवति । पठित्वा । पठ् पठने । पठ्+क्त्वा । १९९ सू० ठकारस्य ढकारे, ९१० सू० प्रकारागमे, प्रस्तुतुसत्रेण क्त्वः बिकल्पेन इय दूप इत्यादेशी, १० स० स्वरस्य लोपे पतिय पढ+ दूण,इत्यत्र ६४६ सू० अकारस्य इकारे पहिण इति भवति । रमवा । रमु क्रीडायाम् । रम्+क्त्वा । क्त्यः इय दूण इत्यादेशी,रमिय रम्+ण इत्यत्र २३ सू० मकारानुस्वारे,३० सू० अनुस्वारस्य वर्गान्त्ये रदूरा इति भवति । पर्छ । प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्यभाव-पक्षे । भू+हत्या हो । क्रवा, ९४० सू० हकारस्य विकल्पेन भकारे, ३४८ सू० ककारलोपे, ३६० सू सकारद्विस्वे भोत्ता, होता इति भवति । पठ्+क्त्वा पढ+ता । ६४६ सू० अकारस्य इकारे पहिता इति भवति । रम्+क्त्वारम्+ता, मकारानुस्वारे, ३६३ स० तकारस्य द्वित्त्वाभावे, अनुस्वारस्य वर्गान्त्ये रन्ता इति भवात ।
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५
चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दो-टोकाइयोपेतम् ★ ४३-कृत्वा । डुकृञ् (कृ)करणे । कृ+कत्वा । ९४३ सू० क्त्वः विकल्पेन डित् प्रद्युम इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे काम प्रादेशाभावे...९०५ सू० ऋकारस्य प्रर इत्मादेशे,९४२ सू० क्त्यः स्थाने इय दूण इत्यादेशौ, १० सू० स्वरस्य लोपे करिय ६४६ सू० प्रकारस्य इकारे करिखूण इति भवति । गश्वा । गाल-गम् गत । गम् + क्त्वा । प्रस्तुतसूत्रेण क्त्वः विकल्पेन डित् अडुन इत्यादेशे, पूर्ववदेव गदुख पादेशाभावे १८६ सू० मकारस्य छकारे,३६० सू छकारद्विस्वे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे, ९१० मू० प्रकारागमे, १० सू० स्वरस्य लोपे,क्त्व: स्थाने य दूण इत्यादेशो.पूर्ववदेव गछिय गभित्रण इति भवति।
Ex-वेति निवृतम् । ९३५ सूत्रतः वा इति पदस्यानुवृत्तिरायाति स्म, परमस्मिन् सूत्रे तस्य निवृत्तितिति भावः । मयति । णीत्र (नौ) प्रापणे । नी+तिय । ९०९ सू० ईकारस्य एकारे, ६२८ सू० तिवः सयाने इशादेहो,९४१ मा स्माद दि इत्यादेशे नेवि इति भवति । चा इति पदस्यानुवृतेः नियती नात्र वैकल्पिका प्रवृत्तिर्जाता।वाति । दाम् (दा) दाने । दा+तिन् । ९०९ सू० प्राकारस्य एकारे, पूर्वधदेव वेवि इति भवति । भवति । भू ससायाम् । भू+सिन् । ७३१ सू० भूधातोः स्थाने हो इत्यादेशे, ९४० सू० तकारस्य वैकल्पिके भकारे, पूर्ववदेव भोवि, होदि इति भवति ।
९४५--आस्ते । पास उपवेशे । प्रास+ते । ८८६ स० सकारस्थ छकारे, ३६० स० छकारस्य द्विश्वे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ९१० सू० प्रकारागमे,१० स० स्वरस्थ लोपे ६२८ सू० से इत्यस्य इचादेशे, ९४५ सू० इचः स्थाने दे, दे इत्यादेशी,ततः अच्छदे,मावि इति भवति । गच्छति । गम्ल-गम् गती, गम्+तिव् । ९४३ सूत्रतुल्यमेव गच्छति इति जाते, ६२८ सू० तिव इचादेशे, प्रस्तुतसूत्रेण इचः स्थाने दे दि इत्यादेशो, ततः पश्ये मच्छवि इति भवति । रमते । रमु कोडायाम् । रम+ते । ११० स० प्रकारागमे, ६२८ स० ते इत्यस्य इचादेश, पूर्ववदेव रमदे, रमदि इति भवति । क्रियते । डुकृञ् (कृ) करणे। कृ+क्य+ते। १४९ स० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे,१० सू० इ. कारस्य लोपे,अज्झीने परेण संयोज्ये,पूर्ववदेव किस्मते, किरादि इति भवति । अत इति किम् ? प्रस्तुतसूत्रेण प्रकारान्तादेव दे दि इत्यादेशौ भवतः, नान्यत्र । यथा उहाति । उतपूर्वक: वाधातुः ऊवंगतो। उवा+तिन् । ६८२ सू० उद्राधातोः बसुप्रा इत्यादेशे,तिव इचादेशे,प्राकारान्तत्वात प्रस्तुतसुत्रस्याप्रवृत्ती ९४४ सु० इचः स्थाने दि इत्यादेशे वसुआवि इति भवति । नयति । जीन (नी) प्रापरणे। नी+तिन् । ९०८ सू० ईकारस्य एकारे,तिव इचादेशे,एकारान्तत्वात् प्रस्तुतसूत्राप्रवृत्ती पर्ववदेव मेदि इति भवति । भवति-भोदि, प्रक्रिया ९४४ सूत्रे शेया । प्रत्रापि मोकारान्तत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिन जाता।
९४६-हि-ता-हामपवावः । ६५५ सूत्रेण विहितस्य हि इत्यायमस्य तथा ६५६ सूत्रविहितयोः स्सा हा इत्यागमयोश्च ९४६ सूत्रमपवादसूत्रं बोध्यम् । भविष्यति ! भूधातुः सत्तायाम् । भू+स्यति । ७३१ सू० भूधातोः हव इत्यादेशे, १४० सू० हकारस्य भकारे, ९४६ सू० प्रत्ययस्यादौ स्सि इत्यस्य प्रयोगे, ६४६ सू० भकारस्य इकारे,६२८ सू० स्थति इत्यस्य इचादेशे,९४४ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे भविस्तवि इति भवति । करिष्यति । हक (क) करणे । कस्यति । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, पूर्वदेव फरिस्सिवि इति भवति । गमिष्यति गम्ल(गम्)गतौ । गम्+स्यति । ८८६ सू० भकारस्य छकारे, ३६० सू० छकारविस्वे, ३६१ पूर्वछकारस्य चकारे, ९१० सू० मकारागमे, १० सू० प्रकारस्य लोपे पूर्ववदेव प्रकारस्य इकारे गधिस्सिदि इति भवति ।
१७-पूरा । दूर+सि । ९४७ सू० हसिप्रत्ययस्य पादो, पादु इत्यादेशो हितो भवतः,
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*प्राकृतनव्याकरणम् *
चतुर्थपादः डिति परेऽन्त्यस्वारादेर्लोपे दुराहो, पूरा इति भवति । एव । अध्ययपदमिदम् । ९५१ सू० एवार्य म्येव इत्यध्ययपदं प्रयुज्यते ।
१४८-अनन्तरकरस्सीयम् । अनन्तरकरणीय+सि । ५१४ सू० सेमकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे अनन्तरकरणीय इति भवति । इरानीम् । अव्ययपदमिदम् । ९४८ सू० इदानीमः स्थाने दाणि इ. स्यादेशे वाणि इति भवति । मनापयतु । पाइपूर्वक जप-धातुःभाशापने । प्राज्ञप् +णिम् +तुम् । ३१३ सू० ज्ञस्य पकारे,.२३१ सू० पकारस्य वकारे, ६३८ सू० णिमः स्थाने एकारे, ६६२ सू० तुवः स्थाने दु इत्यादेशे आणदु इति भवति । आय: । पार्य+सि । ९३७ सू० यस्य य्य इत्यादेशे, ८४ सू० संयोगे परे लस्वे, ४९१ सू० सेडोंः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे सम्यो ! इति भवति । व्यत्ययात्रालेऽपि । प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिः शौरसेनीभाषायामेव जायते,परन्तु १११८ सूत्रेण भाषाव्यत्यये कृते प्राकृतभाषायामपि इदानीम् इत्यव्ययस्य वाणि इत्यादेशो भवति । यथा-अन्याम् । अन्या+प्रम् । ३४९ स० यकारलोपे, ३६० सू० नकारविश्वे, ५२५ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १० सू ० स्वरस्य खोपे, अझीने परेण संयोज्ये, २३ सू० मकारानुस्वारे मास्नं इति भवति । इदानीम् । प्रस्तुतसूत्रेण इदानीमः स्थाने दाणि इत्यादेशे वाणि इति भवति । दोषिम् । बोधि+प्रम् । १७ सू० धकारस्य हकारे, ६१३ सूत्रेण प्रदन्तवत्वात् ४९४ सू० प्रमोऽकारस्य लोपे, २३ सू० मकारानुस्वारे कोहि इति भवति । अत्र प्राकृत-भाषायामपि प्र. स्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तितिा।
Exe-मा। तदसि : ९४९ स० सित्ययेन सह तदः स्थाने ता इत्यादेशे ता इति भवति । यावद । अव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्म जकारे, ११ सू० दकारलोपे जाव इति भवति । प्रविशामि। प्रपूर्वक: विश्वातुः प्रवेशे । प्रविश्+मिव् । ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, २१० सू० अकारागमे,६३० सूमिवः स्थाने मि इत्यादेशे, ६४३ सू० अकारस्य प्राकारे पविसामि इति भवति । तस्माता इति पूर्ववदेव माध्यम् । अलम् । अव्ययपदमिदम् । २३ सू० मकारानुस्वारे प्रलं इति भवति । एतेन एदिणा, प्रक्रिया ५५८ सूत्रे शेया। मानेन । मान-+टा । २२८ सू० नकारस्य भकारे, ४९५ सू० टाप्रत्ययस्य प्रकारे, ५०३ सू० मकारस्य एकारे मारणेण इति भवति ।
-इकारे । इकारे परे सति यत्र णकारागमो भवति तदुदाहरणानि प्रदर्शयति वृत्तिकारः । पुक्तम् । युक्त+सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे,३४८ सू ककारसोपे,३६० स० तकार-द्विस्वे, ५१४ सू० सेंमकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे सुतं इति भवति । इयम् । इदम् + सि । ५६१ सू० इक्ष्मः इम इत्यादेशे, जुत्तम् + इम+सि, इति स्थिती, ९५० सू० इकारे परे सति, मकारात्पर वैकल्पिको गकारागमः, सतः खुसम्म इम+सि इत्यत्र २३ सू० हलन्त-मकारस्यानुस्वारे, १० स० पकारस्थस्य प्रकारस्य लों, अज्झीने परेण संयोज्ये, सेर्मकारे, मकारानुस्वारे झुणिम इति सिद्धा, कारागमाभावे ५६७ सू० सिना सह इदमः स्थाने इणं इत्यादेशे इसं इति भवति । जुत्तम् + इणं इत्यत्र अझीने परेण सयोज्ये • शुत्तमिर इति भवति । साम् । सदृश+सि। १४२ सू० ऋकारस्य रि इत्यादेशे,३४८ सू० दफार सोपे, • ३६४ सू० रेफद्विश्वनिषेधे, २६० सू० शकारस्य सकारे, पूर्ववदेव सरिसं इति भवति । इदम् इम+सि म इमं इति पूर्ववदेव जाते, सारसम् + इमं इत्यत्रापि पूर्वदेव प्रस्तुतसूत्रेण वैकल्पिके पकारागमे गिमं णकारागमाभावे पूर्वयदेव सरिसम् + इ =सरिसमिर इति भवति । एकारे । एकारे परे सति अन्त्यमकारात्परो यत्र कारागमो भवति तदुदाहरणं प्रदोयते वृत्तिकारेण । किम् ? किम् +सि। ५६१ सू० सिमा सह किमशब्दस्य किं इत्यादेशे किइति भवति । एसए। एस+सि । ९३१ सू० तकारस्य दकारे
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चतुर्थपादः
संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्वयोपेतम् ★
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११ सू० हलन्त दकारो वेददेव एवं इसि भरतिक एवं इति स्थित प्रस्तुतसूत्रेण वैकल्पिके marian fक रोवं णकारागमाभावे किम् + एवं इत्यत्र श्रभीने परेण संयोज्ये किमेवं इति भवति । एम् । श्रव्ययपदमिदम् । २३ सू० मकारानुस्वारे एवं इति भवति । एतद् एतद् +सि । पूर्ववदेव एवं ततः एवंम् + एवं इत्यस्य पूर्ववदेव एवं शेवं णकारागमाभावे एवमेवं इति रूपं भवति ।
I
६५१ - मम । श्रस्मद् + इस मम, प्रक्रिया ६०० सूत्रे ज्ञेया । एव । श्रव्यय-पदमिदम् । ९५१ सू० एवार्थे य्येव इत्यव्ययपदं प्रयुज्यते । ब्राह्मणस्य ब्राह्मण + इस् । ३५० सू० रेफलोपे, ३४५ सू० ह्यस्य मह इत्यादेशे ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १११८ सू० भाषा- व्यत्यये कृते १००३ सू० म्हस्य म्भ इत्यादेशे, ४९९ सू० सः स्स इत्यादेशे श्रम्भणस्स इति भवति । सः तद्+सि प्रक्रिया १७७ सूत्रे ज्ञेया । एव-य्येव इति पूर्ववदेव साध्यम् । एषः । एतद् + सि= एसी, प्रक्रिया ३८७ सूत्रे ज्ञेया ।
•९५२ - है । श्रव्यय-पदमिदम् । ९५२ सू० चेट्याः प्राह वाने (हे इत्यर्थे) हम्मे इति निपात: प्रयुज्यते । शौरसेनी भाषायां निपाता अध्यया एव मन्यन्तेऽतएवात्र श्रव्ययत्वात् [ संस्कृत भाषा सममेव ] पजायते । एवमेवाग्रेऽपि बोध्यम् । चतुरिके । चतुरिका+सि । ९३१ सू० तकारस्य दकारे ५३० सू० धाकारस्य एकारे. १०११३७ सु० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे धरिके । इति भवति । C५३ -- विस्मयः । विस्मयार्थे ९५३ सू० हीमान हे इति निपातः प्रयुज्यते । जीवत्सा | जीवद् वत्स यस्याः सा । जीवत् वत्मा + सि । जीवद् इति शब्दः शतृ प्रत्ययान्तः यतः जीव + शतृ इत्यत्र ९१० सू० अकारागमे, ६७० सू० शत्रुः स्थाने न्त इत्यादेशे, जीवन्तवत्सा+सि, इति जाते, २९२ सू० त्सस्य छकारे, ३६० सू० छकारद्विस्वे ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे, १ १ ३७१ सू० सेरिकारस्य लोपे, ११ सू० सकारस्य लोपे जीवन्त इति भवति । मे । श्रस्मद् + इस्मे, प्रक्रिया ६०२ सूत्रे ज्ञेया । जनमी । जननी+सि । २२८ सू० उभयत्र नकारस्य णकारे, सैर्लोपे जणणी इति भवति । निवेदः । प्र स्तुतसूत्रेण निषेदार्थ-दुःखार्थ होमाणहे इत्यव्ययपदं प्रयुज्यते । परिष्वजन्तः परिपूर्वकः वज्रधातुः प रिष्वङ्गे । परिष्वज् + शतृ । १११८ सू० भाषा- व्यत्यये कृते ९५९ सू० रेफस्य लकारे, ३५० सू० व कारलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ३६० सू० सकारद्वित्वे, ११ सू० जकारलोपे, ६७० सू० दातुः त इत्यादेशे, जस्-प्रत्यये, ४९३ सू० जसो लुकि, ५०१ सू० पूर्वाकारस्य दीर्घे पलिसन्ता इति भवति । यम् । १११८ सू० भाषा व्यत्यये कृते, ९७२ सु० वयम् इत्यस्य हगे इत्यादेशे हगे इति भवति । एतेन । एतद् + टा । ९३१ सू० तकारस्य दकारे, ११ सू० दकारलोपे, ४९५ सू० दाप्रत्ययस्य णकारे ५०३ सू० कारस्य एकारे एवेश इति भवति । निजविषेः । निजस्य विधिः तस्य । निजविधि + स् । १७७ सू० ज कारलोपे, बहुलेन १८० सू० यकारश्रुती, ५१२ सू० इस गो इत्यादेशे नियविषिणो इति भवति । १८७ सूत्रे प्रायोग्रहणादधकारस्य ह्कारो न जातः । कुर्व्यवसितेन दुर्व्यवसित+टा । ३५० सू० रेफलोपे, ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० वकारद्वित्वे, ९३१ सू० तकारस्य दकारे, पूर्ववदेव पुष्धयसिदेण इति भवति । ५४ - ननु । प्रव्ययवदमिदम् । ९५४ ० नन्वर्थे णं इति निपातः प्रयुज्यते । प्रफलोदया । न फलम फलम् --- निष्फल उदयो यस्याः सा । फलोदया + सि । १ । १ । ३७ । सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे सोया इति भवति । आर्यमिश्रः । थायंमिश्र + भिस् । ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्ने, ९३७ सू० र्यस्य य्य इत्यादेशे, ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ३६० सू० सकारद्वित्त्वे, ४९६ सू० भिसः हि इत्यादेशे, ५०४ सू० प्रकारस्य एकारे अम्यमित्सेहि इति भवति । प्रथमम् । प्रथम + सि । रेफस्य लोपे, ५५ सू० पकारस्थाकारस्य उकारे, २१५ सू० प्रकारस्य उकारे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३
।
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः . स० मकारानुस्वारे पुढम इति भवति । एव==य्येव, प्रक्रिया ९५१ सूत्रे ज्ञेया । आसप्तम् । प्राज्ञप्त+ : सि । ३१३ सू० शस्य प्रकारे,३४८ सपकारलोपे, ३६० सू० तकारद्वित्त्वे पूर्ववदेव आरणसं इति भवति । ननुणं, पूर्ववदेव साध्यम् । भवान-भवं, प्रक्रिया ९३६.सूत्रे ज्ञेया । मे। अस्मद् + ङस मे, प्रक्रिया ६०२ सत्र शेया। अग्रतः। अध्ययपदमिदम् । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० गकारतिरके, ९३१ सू० सकारस्य दकारे, ३७ सू० विसर्गस्य डो (भो) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे प्रग्गडो इति भवति । पतति । चल चलने । चल् +तिन् । ९१० सू० प्रकारागमे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे, ९४५ सू. इच: दि. इत्यादेशे चलदि इति भवति । पार्षे वाक्यालङ्कारेऽपि । पार्षशौरसेन्यो रणं इत्यध्ययपदं वाक्यालंकारे वाक्यसौन्दर्येऽपि प्रयुज्यते । यथा-नमः-नमो, प्रक्रिया ५३५ सूत्रे ज्ञेया । अस्तु । क्रियापदमिदम् । ३१६ सू० स्तस्य धकारे, ३६० सू० थकार-द्विश्वे, ३६१ सू० पूर्वथकारस्थ सकारे प्रत्यु इति भवति । नमो प्रत्थु इत्यत्र प्रोकारात् परो योऽकारस्तस्य संस्कृतनियमेन पूर्वरूपे जाते नमोऽयु इति भवति । नमोऽयु , इत्यत्र णं इत्यव्ययपदं वाक्यसौन्दर्यार्थ बोध्यम् । एवमेव जया रणं, तथा रणं इत्यत्रापि सं इत्यत्ययपदं वाक्यालंकारार्थकं ज्ञेयम् । यदा इत्यत्र २४५ सू. यकारस्य जकारे, १७७ सू० दकारलोपे, १५० सू० यकारश्रुतो जया एवं तबा-तमा इति भवति !
९५५-अम्महे इति निपातः ९५५ सू० हथिं प्रयुज्यते । एतया एपाए, प्रक्रिया ५२१ सूत्रे जेया। सर्मिलया। सूमिला+टा । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० मकारस्प द्वित्वे, ५४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ५१८ सू० टाप्रत्ययस्य स्थाने एकारे सुम्मिलाए इति भवति । सुपरिघटितः । सुष्ठुरूपेण परिधटितः परिगृहीतः । सुपरिघट् + क्त (त)+सि । १११८ सू० भाषाव्यत्यये कृते,९५९ सू० रेफस्य सकारे, ७८३ स० घट्धातोः गढ़ इत्यादेशे, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, ९३१ सू० तकारस्य दकारे, ४९१ स० सेडोंः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे सुपलिगडिवो इति भवति । भवान्-भवं, प्रक्रिया ९३६ सूत्रे ज्ञेया। ..: ५६ होही इत्ति निपात-पदं ९५६ सू० विदूषकस्य-राजप्रमोदकस्य हर्षे द्योत्ये प्रयुज्यते । भो । प्रन्ययपदमिदम् । संस्कृततुल्यमेव शौरसेन्य प्रयुज्यते । संपाः । सम्पन्न+जस्। ४९३ १० जसो लूकि, ५०१. सू०. पूर्वस्वरस्थ को सम्पन्ना इति भवति । सनोरथाः । मनोरथ+जसः । २२५ स नकारस्य कारे, ९३८ सू० थकारस्य धकारे, पूर्ववदेव मणोरक्षा इंति साध्यम्। त्रिपक्यस्यस्य । प्रियन चासो वयस्यः, सस्य । प्रियवयस्य+इस् । ३५० सू० रेफलोपे, ३४९ सू० संयुक्त यकारलोपे. ३६० स० सकारद्वित्वे, ४९९ सू० इसः स्थाने स्स इत्यादेशे पिय-वसस्सस्स इति भवति ।
१५७-शौरसेन्यामिह । शौरसेनी-भाषाप्रकरणे यानि कार्याप्युक्तानि तदतिरिक्तानि कार्याणि प्राकृत-भाषातुल्यानि बोज्यानीति भावः। प्रस्तुताष्टमाध्याये चतुर्थ-सूत्रादारभ्य ९३० सूत्रपर्यन्त यानि सूत्राणि पठित्तानि, तेषु सुत्रेषु यानि चोदाहरणानि प्रदत्तानि,तेषूबाहरणेषु मध्ये यान्युदाहरणानि शौरसेनीप्रकरणे महीलानि सन्ति तानि तदवस्थानीत्युच्यन्ते,यथा ९४९ सुत्रे पठितानि जान पविसामि, ९५१ सूत्रोक्तानि मम, सो, एसो इत्यादीनि रूपाणि किश्चिदपि परिवर्तनरहितानि प्राकृतभाषा-नियम-सिद्धानि शौरसेनीभाषायां गृहीतानि सन्त्यतएवैतानि पदानि तववस्थानोति ज्ञेयानि। यानि च रूपाणि प्राधान्येन शौरसेनीभाषानियमः निष्पादितानि सन्ति,तानि एवंविधानि बोध्यानि । तथा-९३१ सूत्रे एवाहि, ९५१ सूत्रे प्येष, ९५२सूत्रे हजे, इत्यादयः प्रयोगाः प्राधान्येन शौरसेनी-भाषानियमः साधिताः सन्ति, अतएवैत एवंविधा अवगन्तच्याः। कानि रूपाणि तबस्थानि कानि च एवंविधानि ? इति विभागः पाठकः स्वयमेव प्रतिसूत्रमभ्यूप-विचार्य दर्शनीय व्याख्यातथ्यः । यथा---अन्सर्वे विः अन्तर्-वेदि+सि । ११
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चतुपादा
★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * सू० रेफलोपे, ४ सू० तकारस्थाकारस्य नाकारे, १७७ सू० दकारलोपे, ५७८ सू० इकारदीधे, १३१५३७१. सू० सेरिकारस्य लोपे,११ सू० सकारस्य लोपे असावेई इति रूप प्लाकृतभाषायां निष्पद्यते,परन्तु शौरसेन्यान्तु ९३१ सू. तकारस्य दकारे अन्दावेशी इति भवति । एवमेव युवतिजनः । युवतिश्चासी जनः । युति-जन+सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे,९३१ सू० तकारस्य दकारे,२२८ सू० नकारस्थ णकारे, ४९१ सू० सेडों:, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे जुवाविजएगो इति भवति । मनःशिला 1 मनस्-शिला+सि। २२८ सू० नकारस्य णकारे, ११ सू० सकारलोपे, २६० सू०:शकारस्य सकारे, सेर्लोप मणसिला इति भवति । एषु प्रयोगेषु शौरसेनीभाषानियामकः सूत्रैरपि कार्य विहित परस्तु लदतिरिक्त कार्य प्राकृतभाषानियाभः सूत्रः सम्पादितमतएव वृत्तिकारणोक्तम्---शौरसेन्यामिह प्रकरणे यत्कार्यमुक्तं सतोमर पधारलेमा प्राकृत-भाषा-बोव भवति । इति शौरसेनीभाषाविवेचनम् । प्राचार्य श्री हेमचन्द्रेण ९३१. सू. बादारभ्य ९५५ सूत्र-पर्यन्तं शौरसेनी-भाषा-विधिविधानं निरूपितम्, ९५७ सूत्रतः तस्य समाप्तिर्जायतेस्तएवोच्यते यच्छौरसेनी-भाषा-विवेचनं समाप्तम् । यदा मूलग्नन्थे शौरसेनी-भाषा-प्रकरणं समाप्तिमगमतदा बालमनोरमाख्यायां टीकायामपि शौरसेनीभाषा-प्रकरणं समाप्तिमेति ।
शोगानेती-गिरा बीका, नुर्ण बालमनोरमा ! प्रात्माराम गुरुं ध्याल्वा, मुनिज्ञानेन निमिता ॥१॥ * समाप्तं शौरसेनी-भाषाया विवेचनम् *
* अथ शौरसेनी भाषा विधि* . महावीर भगवान जिन, जगतारक अखिलेश, .. . .
मङ्गलकारी नाम है, सुखदायक परमेश । बन्दन कर श्री वीर को, मन में रख कर ध्यान, गुरुवर प्रात्मा राम का, करता है गुणगान ।
गुरुचरणों की शरण ले, नतमस्तक "मुनि ज्ञान",
भाषा शौरसेनी का, लिखता है व्याख्यान । हैमशब्दानुशासन के पाठ अध्याय हैं, पहले सात-मध्याथों में संस्कृत-भाषा के विधिविधानों का उल्लेख किया गया है। शेष पाठवें अध्याय में, १-प्राकृत, २- शौरसेनी, ३--- मागधी, ४-पैशाची, ५-चलिका-पैशाचिक और ६-अपभ्रंश इन छ: भाषाओं का निरूपण कर रखा है। प्रारम्भ के तीन पादों में तथा चतुर्थपाद के २५६ सूत्रों में प्राकृत-भाषा के स्वरूप का परिचय कराया गया है। इसके अनन्तर प्राचार्य श्री हेमचन्द्र शौरसेनी भाषा के सम्बन्ध में जानकारी देने लगे हैं। प्राचीनकाल में शौरसेन (*महाराज शूरसेन का राज्य, प्राधुनिक प्रजमण्डल, जिसकी राजधानी शूरसेन-मथुरा थो) प्रदेश में (मथुरा के पास-पास) यह भाषा बोली जाती थी। कोषकारों के कथनानुसार खड़ी बोली हिन्दी के निर्माण में शोरसेनी *देखो बृहत्-हिन्दी-कोष ।
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१००
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः तथा अपभ्रंश का बहुत बड़ा हाथ है, क्योंकि इन तीनों (शौरसेनी, अपभ्रंश तथा खड़ी बोबी हिन्दी) का क्षेत्र (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश) समान है । शौरसेनी भाषा का क्या विधिविधान है ? प्राकृतभाषा से इसका क्या मौलिक भेद है ? आदि बातों के सम्बन्ध में प्रस्तुत प्रकरण में प्रकाश डाला जा रहा है।
११-शौरसेनी भाषा में पनादि (जो प्रादि में विद्यमान न हो) तकार के स्थान में दकारादेश होता है। यदि वह तकार वर्णान्सर (अन्य वर्ण) से संयुक्त न हो। जैसे-१-ततः पूरित-प्रतिम मातिना मंत्रितःतदो पूरिद-पदिश्प्रेण मन्तिदो (इस के अनन्तर पूर्ण को हुई प्रतिज्ञा वाले हनुमान ने उसे सलाह दी), २-एतस्मात् = एवाहि, एदायो (इस से), यहां पर प्रसंयुक्त तथा अनादि तकार को दकार किया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र में "अनावो" यह पद देने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में निवेदन है कि सपा कुरत, यथा तस्य राशः अनुकम्पनीया भवामि-तधा करेष जधा तस्स राइणो प्रणुकम्पणीमा भौमि (तुम वैसा काम करो, जैसे मैं उस राजा को धनुकम्पनीया (मनुकम्पा का पात्र) हो जाऊँ प्रादि स्थलों में पद के प्रादि में विद्यमान तकार के स्थान में दकारा
न हो, इस विचार से सूत्रकार ने "अना (ग्रादि में प्र-विद्यमान)" यह पद पढा है। पुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि सूत्रकार के अयुक्तस्य (संयोग से रहित हो)"यह पद ग्रहण करने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में निवेदन है कि-१-मत्तः-मत्तो (मद बाला, अभिमानी), २-आर्यपुत्रः-प्रव्य उत्तो (पति, स्वामी का पुत्र), ३-असंभावित-सत्कारम्-असंभाविद-सक्कारं (जिस के सत्कार की कोई संभावना नहीं, उसको), ४-हे शकुन्तले !हला सउन्तले ! (हे शकुन्तले !, शकुन्तला कुमारी को सम्बोधित किया जा रहा है),इन उदाहरणों में तकार संयुक्त है,दूसरे व्यजन से सम्बन्धित है अतः यहाँ संयुक्त तकार को दकार न हो जाये, इस दुष्टि से सुत्रकार ने 'अयुस्तस्य' इस पद का उल्लेख किया है। भाव यह है कि शौरसेनी भाषा में तकार को दकार हो जाता है,परन्तु वह अनादि और असंयुक्त होना चाहिए।
३२-वर्णान्तर (मन्य वर्ण से) से संयुक्त तकार यदि प्रधःवर्तमान (संयुक्त वर्ण में दूसरा) हो तो उसे कहीं-कहीं पर लक्ष्य (प्रयोग) के अनुसार कार का आदेश हो जाता है। जैसे-१---- हान महन्दो (सब से बड़ा), २-निश्चिन्तः निच्चिन्दो (चिन्ता से रहित), ३-अन्तःपुरम् - अन्देउर (रानियों का निवास स्थान), यहां पर तकार संयुक्त होने पर प्रधः-वर्तमान था, संयुक्त वर्ण में दूसरा था, अतः उसे प्रस्तुतसूत्र से दकारादेश कर दिया गया है।
९३३- शौरसेनी भाषा में तावत् इस अध्ययपद के धादिम तकार को विकल्प से दकार होता है। जैसे-सावत्--दाव, प्रादेश के प्रभाव-पक्ष में साव (तब तक) यह रूप बनता है।
३४-शौरसेनी भाषा में इन के नकार को प्रामन्त्रण सम्बन्धी सिप्रत्यय परे रहने पर (भति सम्बोधन के एकवचन में) विकल्प से प्राकारादेश होता है। जैसे-१--भो कञ्चुकिन् ! या भो कानुश्मा ! हे कन्चुकिन् !, अन्तःपुर के सेवक!),२-सुजिन !-सुहिया ! (हे सुखमय जीवन व्यसीत करने वाले !), प्रादेश के प्रभावपक्ष में-१-भो सपस्थिन् ! भो तवस्सि ! (हे तपस्या करने वाले !), २-भो मरास्थिन् != भो मणस्सि ! (हे विचारक !) ऐसे रूप बनते हैं। यहां पर वैकल्पिक होने से इन के नकार को प्राकार नहीं हो सका।
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चतुर्षपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाइयोपेतम् * ६३५-शौरसेनी भाषा में प्रामन्त्रण सम्बन्धी सिप्रत्यय परे रहने पर नकार को विकल्प से मकारादेश होता है। जैसे-१-भो राजन् ! - भो रायं ! (हे राजन् !), २--भो विजयवर्मन ! भो विप्रयवम्म ! (हे विजयवर्मन् !, विजय-वर्मा किसी व्यक्ति का नाम है, यह उस का सम्बोधन है), ३-- सुकर्मन् ! =सुकम्म ! (हे अच्छे कर्म करने वाले !), ४- भगवन् ! भयवं ! (हे भगवन् !), ५-कुसुमाधुष!-कुसुमाउह ! (हे कुसुमायुधा, अर्थात् जिस के कुसुम-पुष्प ही प्रायुध-शस्त्र हैं, कामदेव !), ६भगवन् ! तीर्थ प्रसंप- भयवं ! तित्थ पवतेह (हे भगवन् ! श्राप तीर्थ की प्रवृत्ति करो, लोकान्तिक देव तीर्थकर भगवान से निवेदन करते हैं कि प्राप तीर्थ (धर्म) की स्थापना करने की कृपा करें), प्रादेश के प्रभावपक्ष में-सकललोक-अन्तश्चारिन् ! भगवन हसवह!-सयल-लोन-अन्तेयारि भयवं! हुदवह ! (सकललोक में विचरण करने वाले !, हे भगवन् ।, हे अग्निदेव !) ऐसा रूप होता है । यहाँ पर नकार को मकारादेश नहीं किया गया।
६३६ -- प्रस्तुत सूत्र में "आमन्ये" (आमंत्रण सम्बन्धी) इस पद की निवृत्ति हो जाती है । अथति-यही 'आमन्त्रणसम्बन्धी' यह पद जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। शौरसेनी भाषा में भवद् पौर भगवद् इन शब्दों के नकार को सिप्रत्यय परे होने पर मकारादेश होता है। जैसे-१-किमत्र मवान् हरयेम चिन्तयति-कि एत्थ भवं हिदएण चिन्तेदि ? (क्या आप इस सम्बन्ध में हृदय से विचार कर रहे हैं ?), २-एतु भवान् =एदु भवं (ग्राप जाएं), ३...श्रमणः भगवान महावीरः-समणे भगवं महावीरे (श्रममा तपस्वी. भगवान महावीर); ४-प्रज्वलितो भगवान हुताशनः=पज्जलिदो भसव हुदासणो (जाज्वल्य मान भगवान् अग्नि-देव अथवा भगवान् श्रग्निदेव प्रज्वलित हो रहे हैं), यहाँ पर भवद् और भगवद् शब्दों के नकार को मकारावेश किया गया है। बलाधिकार के कारण २ सूत्र से उक्त दोनों शब्दों से भिन्न पदों के नकार को भी मकारादेश हो जाता है। जैसे ----मधमान पाकशासन:-मघवं पागसासरणे (मधवान् और पाकशासन ये दोनों इन्द्र के नाम हैं), २-सम्पादितवान् शिष्यः संपाइयवं सीसो (काम को पूर्ण करने वाला शिष्य), ३-- कृतवान्क यवं (वह करने वाला है), ४ --करोमि-करेमि (मैं करता है), च और ५--करिष्यामि-काहं (मैं करूंगा) यहां मघवाद आदि पदों के नकार को प्रस्तुत सत्र से मकारादेश नहीं हो सकता था किन्तु बहलाधिकार से नकार को मकार बना दिया गया है। करेमि और करिष्यामि का सम्बन्ध कृतवान पद से समझना चाहिए । जैसे कृतवान करेमि (मैं कृतवान् (जिसने काम कर रखा है) करता हूँ। और कृतवान् करिष्यामि (मैं कृतवान् करूंगा)। यहां पर बहुलता से प्रस्तुत सूत्र को प्रवृत्ति की गई है।
९३७--शौरसेनी भाषा में के स्थान में 'स्य' यह मादेश विकल्प से होता है। जैसे----- मार्यपुत्र ! पर्याकुलीकृताऽस्मि अय्यउत! परयाकुलीकम्हि (हे *मार्यपुत्र ! मैं बुरी तरह से दुःखी कर दी गई है), २...अर्यः सस्यो (दिवाकर प्रादेशक प्रभाव-पक्ष में-१-आर्यःप्रज्जो (श्रेष्ठ), २फ्याकुलः-पूजाउला (दु:खो), ३.-कार्य-परश: कज्जपरयसो (कार्य के कारण पर-वश (पराधीन) बना हुमा), ये रूप बनते हैं । यहाँ पर प्रस्तुतसूत्र से 'मैं' को '' यह पादेश नहीं किया गया ।
३८-शौरसेनो भाषा में थकार के स्थान में विकल्प से धकार का प्रादेश होता है । जैसे--- *संतशम्दार्थ-कौस्तुभ नामक कोष में प्रार्यपुत्र के अनेकों मर्थ लिसे है...-१-प्रतिष्ठित जन का पुत्र, ३-दीक्षापुर का पुष, ३-सम्मानित, ४-सम्मानसनक संज्ञा, अपने पति के लिए पत्नी की प्रबवा अपने राबा के लिए उसके हेमाविकी सम्मानजनक संज्ञा
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प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादा १- कथयति कषेदि, प्रादेश के प्रभावपक्ष में- कबि (वह कहता है, २ - नायः णाधो, गाहो ( स्वामी, प्रीतम ), ३- कथम् कथं, कहं ( कैसे), ४- राजपच: राजपधो, राजयहो ( मुख्य सड़क), यहां परवार के स्थान में वैकल्पिक घकार किया गया है। वृर्तिकार फरमाते हैं कि अपवादिभूत (जो पद के आदि में विद्यमान न हो) थकार को ही घकारादेश हो सकता है, अन्य को नहीं। जैसे-१स्थामधामं (ताक्त, शक्ति प्रचलता, स्तम्भन शक्ति), २हतो: पेयो (स्वल्प) यहां पर यकार प्रदि में विद्यमान था, मतः प्रस्तुत सूत्र से इसे घकारादेश नहीं हो सका ।
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९३६- 'वह' इस अव्ययपद से सम्बन्धित हकार को तथा ६३२ सूत्र से मध्यमपुरुष के बहुवचन के स्थान में विहित 'ह' इस प्रदेश के हकार को शौरसेनी भाषा में विकल्प से धकारादेश होता है । जैसे - १ -- इह ६ध ( यहां पर ) २ - भवथ हो (तुम सब होते हो), ३ - परित्रायष्ये परितायच (तुम संरक्षण करते हो), प्रदेश के प्रभावपक्ष में वह दह, भवब होह तथा ... परित्रामध्ये = परिसाह, ये रूप बनते हैं । यहाँ हकार को धकारादेश नहीं किया गया |
९४० - शौरसेनी भाषा में भूधातु के हकार को विकल्प से भकारादेश होता है। जैसे-१-भवति भोदि, भुवदि, मवदि मादेश के प्रभावपक्ष में होरि, हवदि, हववि ( यह होता है) ऐसे रूप बन जाते हैं।
Ex१--- शौरसेनी भाषा में पूर्व इस शब्द के स्थान में विकल्प से 'पुरव' यह प्रादेश होता है । जैसे - १ - अपूर्व नाटकम् - अपुरवं नायं (नाटक-तमाशा भपूर्व-मनोखा है), २- - अपुर्वागयम् श्र पुरवाद (गद=ौषधि पूर्व प्रदभुत है), प्रादेश के अभाव में १---अपूर्व पवम् प्रपुवं पर्द (पद-शब्द अपूर्व अनोखा है), २- अपूर्वा गहन प्रपुण्वागदं ऐसे रूप बनते हैं ।
=
६४२-शौरसेनी भाषा में क्वाप्रत्यय के स्थान में 'हब' मोर 'पूरा' ये प्रदेश विकल्प से होते हैं । जैसे-- १ - सुरक्षा भविय, भोवरा, हविय, होहूण (हो करके), २--पपढिय पणि (पट करके), ३-रन्स्वा = रमिय, रन्द्रण (खेल करके) प्रादेश के प्रभावपक्ष में- १ - स्वाभोत्ता, होता, २ -- पहिल्या = पढित्ता, ३ – रखारता ये रूप बनते हैं ।
६४३ --- और गम् इन धातुओंों से क्त्वाप्रत्यय के स्थान में डि हो) प्र यह प्रदेश विकल्प से हो जाता है। जैसे- १ - कृत्वा कडु अ (जा करके), प्रदेश के प्रभावपक्ष में क्रमशः -- करिय, करिवृत और बन जाते हैं ।
(जिस का डकार इत्-संज्ञक (कर के), २
गं गच्छ ये रूप
६४४ प्रथमपुरुष के एकवचन के स्थान में ६२८ में गतसूत्र से विहित इच् और एच् इन दोनों श्रादेशों के स्थान में 'वि' यह आदेश होता है । वृतिकार फरमाते हैं कि यहां पर 'वा' इस पक्ष को भ* नुवृत्ति की निवृत्ति समझनी चाहिए। सूत्र के प्रयोग इस प्रकार हैं । १-नमति नदि ( वह ले जाता है), २-मवातिदेदि (वह देता है), ३- भवति = मोदि होदि (वह होता है), यहां पर प्रथम पुरुषीय एकवचन के स्थान में होने वाले इच् आवेश को 'दि' यह आदेश किया गया है।
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E४५-- यदि इच् और एच् ये दोनों प्रवेश प्रकार से परे हों तो इनके स्थान में 'दे'तथा सूत्रोक्त चकार के कारण 'दि' यह भावेश होता है। जैसे - १ -प्रास्ते मच्छदे, प्रच्छुदि (वह बैठता है), २गतिगच्छ गच्छदि (वह जाता है), ३ - रमते रमदे, रसदि (वह क्रीडा करता है), ४--क्रियते किज्ज, जिद ( उस से किया जाता है) यहां पर इचादि प्रदेशों को दे और ये दो आदेश किए
कट
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चतुर्थपाद:
★ संस्कृत-हिन्दी टीका-द्वयोपेतम् ★
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गए हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि सूत्र में तो यह पद किस लिए ग्रहण किया गया है ? उत्तर में निवेदन है कि- १ - उद्वाति वसुमादि (वह ऊर्ध्वं गति करता है), २- नयति नेदि ( वह ले जाता है), ३-- भवति = भोदि ( वह होता है ) प्रादि प्रयोगों में वे और दि ये प्रदेश न हो जाएं, इस उद्देश्य से सूत्रकार ने "तो" इस पद का ग्रहण किया है। इन प्रयोगों में इच् प्रदेश प्रकार से आगे नहीं है। अतः यहां प्रस्तुत सूत्र का कोई कार्य नहीं हो सका ।
९४६ - शौरसेनी भाषा में भविष्यदर्थ में किए गए प्रत्यय के परे होने पर 'सि' इसका विकरण होता है। प्रर्थात् धातु और प्रत्यय के मध्य में 'स्थि' यह प्रागम होता है । ६५५ सूत्र से भ विष्यदर्थं प्रत्ययों के प्रादि में हि तथा ६५६ सूत्र से उत्तम पुरुष में भविष्यदर्थंक प्रत्ययों के आरंभ में स्सा और हा इन दोनों का प्रयोग होता है। प्रस्तुत सूत्र से होने वाला सि का प्रयोग इन सब का अपवाद माना गया है। उदाहरण इस प्रकार हैं- १ - भविष्यति भविस्सिदि (वह होगा ), २-करि व्यति रिस्सिदि ( वह करेगा), ३- पतिष्यति गच्छस्तिथि ( वह जायगा), यहाँ पर भविष्यदर्थक प्रत्यय के सादि में रिस का मागम किया गया हैं।
६४७- शौरसेनी भाषा में अकारान्त शब्द से परे ङसि प्रत्यय के स्थान में प्रादो पर प्रादु ये दो डि (जिस में डकार इत् हो) श्रादेश होते हैं। जैसे- १- दूराद् एव दूरादो व्येव (दूर से ही), २- दूराद् = दूरादु (दूर से ) यहां पर ङसि प्रत्यय को आदो मौर मादु ये डित् आदेश किए गए हैं। ६४८ - शौरसेनी भाषा में 'इदानीम्' इस अव्ययपद के स्थान में दाणि यह आदेश होता है । जैसे- अनन्तरकरणीयम् इदानीमाज्ञापयतु आयें ! - मनन्तरकरणीयं दाणि प्राणवेदु प्रय्यो ! (हे मा यें ! इस के अनन्तर क्या करना चाहिए ? अयं माप प्राज्ञा फरमाएं) यहां पर 'इदानीम्' के स्थान में '' यह मादेश किया गया है। १११८ सूत्र द्वारा प्राकृत सादि भाषा-लक्षणों (भाषा सम्बन्धी नियमों) का व्यय होने से प्राकृतभाषा में भी इदानीम् के स्थान में 'दाणि' यह आदेश हो जाता है । जैसे--अन्यामिनीषिम् अन्नं दाणि बोहि (अब दूसरे बोधिज्ञान को यहां प्राकृतभाषा में भी इदानीम् को 'दाणि' प्रादेश कर दिया गया है।
६४६ - शौरसेनी भाषा में 'तस्मात्' इस शब्द को 'ला' यह प्रादेश होता है । जैसे-१-सस्माद् यावत् प्रविशामि - सता जाव पविसामि (इस लिए जब तक में प्रवेश करता हूँ), २- तस्माद अ लमेतेन मानेन वा प्रलं एदिणा मागेण (इसलिए इस मभिमान से बस करो ) यहां पर 'तस्मात्' इस शब्द के स्थान में 'ता' यह प्रादेश किया गया है ।
Exo- - शौरसेनी भाषा में इकार और एकार के परे होने पर श्रन्त्यमकार से आगे विकल्प से कार का श्रागम होता है। जैसे-इकार के उदाहरण- १ - युक्तम् इवम् जुत्तं निर्म, जुत्तमिणं (यह युक्त अर्थात् ठीक है), २ सहशम् इवम् सरिसं निमं, सरिसमिणं ( यह समान है), एकार के उदाहरण--- १- किम् एतद् कि सरोद, किमेवं (यह क्या है ? ), २ - एवम् एतद् एवं दं, एवमेदं ( यह ऐसे है), यहां पर इकार और एकार के परे रहने पर अन्य मकार को कार का श्रागम विकल्प से किया गया है।
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६५१ - शौरसेनी भाषा में 'एव' (निश्चय, ही) इस अर्थ में 'श्येष' इस निपात का प्रयोग होता है । जैसे- १ - मम एव ब्राह्मणस्य मम य्यैव बम्भणस्स (मुक्त ब्राह्मण का ही ), २- स एव एषः सो व एसो (वह यही है) यहाँ एवार्थ में 'श्येव' इस निपात का प्रयोग किया गया है। शौरसेनी भाषा में निपात को माना जाता है, मतएव प्रस्तुत में य्येव से सिप्रत्यय का लोप हो गया है। ऐसे
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चतुर्थपादः
ही स्थिति श्रागे भी समझनी चाहिए।
६५२ -- शौरसेनी भाषा में बेटि दासी के सम्बोधन में 'हजे' इस निपात को प्रयुक्त किया जाता है। जैसे—हे चतुरिके !हजे ! चदुरिके । (अयि चतुर दासी !), यहां पर वासी के सम्बोधन में इस निपात का प्रयोग किया गया है।
प्राकृत-व्याकरणम्
९५३ -- शौरसेनी भाषा में विस्मय और निवेद ( ग्लानि) इन अर्थों में हीमाणहे इस निपात का प्रयोग किया जाता है। विस्मय का उदाहरण हो जो वत्सा मे जननी होमाण हे जीवन्तव मे जणणी (भाइचर्य है कि मेरी माता जीवद्वत्सा (जिस का वत्स (बछडा, बेटा) जीवित हो ) है ) निर्वेद का उदाहरण हा ! परिजन्तो वयमेतेन निजविधैः बुर्व्यवसितेनहीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एण नियविधि दु-वसिदेण [ खेद है कि हम परिष्वङ्ग (मेल, स्पर्श अथवा मालिङ्गन) करते हुए अपने भाग्य की प्रतिकूलता से ( फंस गए ) ] यहाँ पर विस्मय और निर्वेद अर्थ में 'होमानहे' इस निपात का प्रयोग किया गया है ।
९५४ - शौरसेनी भाषा में "तु इस अव्ययपद के अर्थ में एवं इस निपात का प्रयोग किया जाता है। जैसे - १ - ननु प्रफलोदया !-णं श्रफलोदया ! ( मैं पूछता हूं कि क्या यह नारी अफलोदया (जिस का उदय-जन्म फलयुक्त न हो) है ? ), २ नतु आर्य- मिथेः प्रथममेव प्राज्ञतम् ? अय्यमिसेहि पुढमं य्येव श्राणसं ? ( क्या श्रार्य मिश्र भद्र पुरुषों ने पहले ही यह श्राज्ञा प्रदान कर दी थी, ३- ननु भवान् मे अग्रतः चलतिणं भवं मे ममादो चलदि (मुझे सन्देह है कि भाप मेरे आगे चल रहे हैं यहां 'मनु' इस अर्थ में '' इस निपात का प्रयोग किया गया है। -शौरसेनी में पं यह निपात वाक्य के अलंकार (सौन्दर्य) में भी देखा जाता है। जैसे - १ - नमोऽस्तु नमोऽत्यु णं (नमस्कार हो), २--यदा जया णं (जब), ३-तदातया णं (सब) यहां पर गं का प्रयोग वाक्य की सुन्दरता के लिए किया गया है।
९५५ - शौरसेनी भाषा में 'हाँ (प्रसन्नता ) ' इस अर्थ में 'अम्महे' इस निपात को प्रयुक्त किया जाता है। जैसे- हर्षः, एतया मिलया सुपरिघटितो भवान् अम्महे एमए सुम्मिलाए सुलिगढिदो भवं (यह प्रसन्नता की बात है कि सुमिला (कोई नारी) द्वारा माप खुब परिघटित (परिगृहीत) हैं) यहां पर हर्षार्थ में 'अम्महे' इस निपात का प्रयोग किया गया है।
६५६ - शौरसेनी भाषा में विदूषकों (मसखरों, भांडों, हाजिर-जवाबों) के हर्ष को प्रकट करने के लिए 'होही' इस निपात का प्रयोग किया जाता है। जैसे—हीही भो सम्पन्नाः मनोरथाः प्रियवयस्यनहीही भी संपन्ना मणोरधा वियवयस्सस्स (ग्राहा श्राहा, प्रिय मित्र के मनोरथ (इच्छाएं पूर्ण हो ne यहां पर विदूषकों के हर्ष का द्योतक होही निपात प्रयुक्त किया गया है।
६५७-शौरसेनी भाषा में जो-जो कार्य कहे जा चुके हैं, इनसे अन्य समस्त कार्य शौरसेनी भाषा में प्राकृत भाषा के समान ही होते हैं । भाव यह है कि शौरसेनी भाषा में जिन विधिविधानों का उल्लेख किया गया है, उन से प्रतिरिक्त शौरसेनी भाषा के जो विधिविधान हैं वे समस्त विधिविधान प्राकृत भाषा के विधिविधान के समान ही समझने चाहिएं। प्रश्न हो सकता है कि प्राकृतभाषा के कौन-कौन से विधिविधान हैं जो शौरसेनी भाषा के अन्तर्गत जानने चाहिए ? उत्तर में निवेer है कि प्राकृत भाषा के चतुर्थ सूत्र से लेकर ९३१ वें सू. से पहले-पहले जितने भी सूत्र हैं, और " सम्यग्र जिसका व्यवहार कोई बात पूछने, सम्देह प्रकट करने या वाक्य के प्रारंभ में किया जाता है।
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीका-द्वयोपेतम् ★ इन सूत्रों में जितने भी उदाहरण हैं,इनके मध्य में इतने विधिविधान तो तदवस्थ (प्राकृत-भाषा के समान) ही शौरसेनी भाषा में प्रयुक्त होते हैं । इसके अतिरिक्त, ये उदाहरण शौरसेनी भाषा में इस तरह के होते हैं, अर्थात् शौरसेनी-भाषा-सम्बन्धी विधिविधान द्वारा अमुक उदाहरण शौरसेनी के बन जाते हैं ? इस प्रकार का विभाग प्रत्येक सूत्र की अपेक्षा स्वयं विचार करके समझ लेना चाहिए। जैसे..... 'अन्तर्वेषिःयह शब्द है, प्राकृतभाषा में इसका अन्तावेई, यह रूप बनता है, किन्तु शौरसेनी भाषा के नियमानुसार ९३१ सूत्र से तकार को देकार हो जाता है, अतः वहां अन्दावेधी (मध्य की वेदिका) यह रूप होता है। इसी भांति-----युवहि-मनः= जुवदि-अणो (जवान स्त्रियाँ), २---मनःशिला-मणसिला (लाल वर्ण की एक उपधातु) ये उदाहरण समझने चाहिएं । युवति-जन का प्राकृत भाषा में 'जुबह-अगो' किन्तु शौरसेनी भाषा के नियमानुसार तकार को दकार होने से तथा जकार का लोप न होने से युपषि-जगी ऐसा रूप बनता है, तथा 'मरासिला यह शब्दः प्राकृत भाषा के समान ही शौरसेनी भाषा में प्रयुक्त होता है। इस शब्द पर शौरसेनी भाषा का कोई नियम लागू नहीं होता, अतः यह प्राकृत भाषा की भांति शौरसेनीभाषा में प्रयवहृत होता है। इसी भांति प्राकृतभाषा-प्रकरण में वणित अन्य शब्दों में कहां-कहां शौरसेनी भाषा का विधिविधान चरितार्थ होता है, और उनमें कहां-कहां परिवर्तन प्राता है ? यह सब पाठकों को स्वयं समझने का प्रयास करना चाहिए।
९५४ ३ सत्र का ऊहापोह करने के अनन्तर बिना किसी संकोच के यह कहा जा सकता है कि शौरसेनी भाषा का मूल प्राधार प्राकृत भाषा ही है। प्राकृत भाषा को यदि शौरसेनी भाषा की जननी कहें तो यह उपयुक्त ही प्रतीत होता है। यही कारण है कि ये दोनों भाषाएं एक दूसरे के बहुत अधिक निकट है, इन में बहुत स्वल्प अन्तर है। पाठक जानते ही हैं कि प्राकृतभाषा के विधिविधान का वर्णन करने वाले ९३० सूत्र हैं, जबकि शौरसेनी भाषा के विधिविधान का वर्णन केवल २७ सूत्रों द्वारा किया गया है। इस से स्पष्ट है कि प्राकृत-भाषा और शौरसेनी भाषा में केवल २७ कार्यो की भिन्नता है,
शैषः सब कार्य एक जैसे हैं, इन में कोई अन्तर नहीं है। .... शौरसेनी भाषा का प्रारंभ ९३१ वे सूत्र से होता है, और इसकी समाप्ति ९५७ वें सत्र में हो जाती है। प्रस्तुत सूत्र शौरसेनी भाषा के विधिविधान का अन्तिम विधायक सूत्र है। इसकी धास्या के साथ शौरसेनी भाषा सम्बंधी विवेचन भी समाप्त होता है।
शूरसेन के वेश की, भाषा का व्याख्यान । पूर्ण हुआ, गुरुदेव को, किरपा से मुनि ज्ञान ||
* शौरसेनी-भाषा-विवेचन समाप्त *
* अथ मागधी-भाषा-प्रयकरण * १५८-प्रत एत्सौ पुंसि मागध्याम् । ८ । ४ । २८७ । मागध्या भाषायां सौ परे प्रकारस्य एकारो भवति, पुंसि-पुल्लिगे। एषः मेषः । एशे मेशे। एशे पुलिशे । करोमि भदन्त !, करेमि भन्ते ! । अत इति किम् ? बिही । कली । गिली । (सीति किम् ? जलं । यदपि "पोराणमत-मागह-भासा-निययं हवइ सुत्तं" इत्यादिनार्षस्य अर्धमागध-भाषा-नियतत्वमाम्नायि वृद्धस्तदपि प्रायोऽस्यैव विधानान्न वक्ष्यमारण-लक्षणस्य । कयरे पागच्छइ । से
१...झौरसेनौ भाषा। २. कृपा ।
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२०६
चतुर्थपादः
तारिसे दुक्खस हे जिइन्दिए । इत्यादि ।
१५६ - र सोल- शौ । ८ । ४ । २८८ । मागध्यां रेफस्य दन्त्यसकारस्य च स्थाने यथासंख्यं लकारस्तालव्य-शकारश्च भवति । र । नले । कले। स । हंगे । शुदं । शोभणं । उभयोः । शालशे । पुलिशे ।
प्राकृत-व्याकरणम् ★
लह-श- नमिल शुल-शिल- विश्रलिय- मन्दाल - लायिहि-युगे । वील- यिणे पखाल सम शयल मवय्य-यम्बालं ॥ १ ॥
६६०--स-षोः संयोगे सोऽग्रीष्मे । ८ । ४ । २८६ । मागध्यां सकार-षकारयोः संयोगे वर्तमानयोः सो भवति, प्रीष्मशब्दे तू न भवति । ऊर्ध्वलोपाद्यपवादः । स । पस्खलदि हस्ती । बुहपदी । मस्कली | विस्मये । ष शुल्क दालु । कस्टं । विस्तु । शस्प-कवले । उस्मा । निस्फलं । धनुखण्डं | अग्रीष्म इति किम् ? गिम्हवाशले ।
६६१---ष्ठयोः स्टः । ८ । ४ । २६० । द्विरुक्तस्य टकारस्य, षकाराकान्तस्य च ठकारस्य मागध्यां सकाराक्रान्तः टकारो भवति । ट्ट | पस् । भस्टालिका । भस्टिली । ष्ठ । शुस्टु कदः । कोस्टामालं ।
६६२ -- स्थ-र्थयोः स्तः । ८ । ४ । २६१ । स्थ, थं इत्येतयोः स्थाने मागच्यां सकाराक्रान्तः तो भवति । स्य । उवस्तिदे | शुस्तिदे । थे | ग्रस्त वदी । शस्त वाहे ।
६६३ - जान्यां यः । ६ । ४ । २६२ । मागध्यां ज-य-यां स्थाने यो भवति । ज | यादि । यरवदे । प्रयु । दुय्यणे । गय्यदि । गुणवय्यिदे । च । मय्यं । श्रय्य किल वि स्याहले भागदे । य । यादि । यघा - शलुवं । यारण-वत्तं । यदि । यस्य यत्त्वविधानम् "प्रादेर्यो जः [ १.२४५]" इति बाधनार्थम् ।
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६६४---भ्यण्य ज्ञर्जा ञः । ८ । ४ । २६३ । मागध्यां न्य, ण्य, श ज इत्येतेषां द्विरुक्ती जो भवति । न्य । ग्रहिमञ्जु कुमाले । न दिशं । शामञ्व गुणे | कका वलरणं । ण्य | पुञ्ञवन्ते । श्रहञ्च । पुत्राह । पुञ्ञ । ज्ञ । पञ्चा - विशाले । शब्व । प्रववा । ञ्ज । अञ्चली | धरणञ्चए । पञ्ञले ।
९६५ - जो जः । ८ । ४ । २६४ | मागध्यां व्रजेर्जकारस्य ञ्ञो भवति । यापवादः । बदि ।
९६६-स्य रचनादौ । ८४ । २६५ । मागध्यामनादौ वर्तमानस्य छस्य ताखव्यकाराकान्तश्वो भवति । गश्च गश्च । उश्चलदि । पिश्चिले । पुश्चदि । लाक्षणिकस्याऽपि । आपन्न-वत्सलः । प्रावन्नन्वश्चले । तिर्यक् प्रेक्षते । तिरिद्धि पेच्छ । तिरिश्चि पेस्कदि । अनादाविति किम् ? छाले ।
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चतुर्थपादः
१०७
* संस्कृत-हिन्दी-टोकादयोपेतम् * ९६७-क्षस्य कः । ८ । ४ । २६६ । मागध्यामनादौ वर्तमानस्य क्षस्य को जिह्वा. मूलीयो भवति । य के । लकशे । अनादावित्येव । खय-यल-हला । क्षयजलधरा इत्यर्थः।
९६८-एक प्रेक्षाचक्षोः । ८।४ । २६७ । मागध्या प्रेक्षेराचक्षेश्च क्षस्य सकाराकान्तः को भवति । जिह्वामूलीयापवादः । पेस्कदि । पाचस्कदि ।
-तिष्ठस्य विष्ठः । ८ । ४ । २६८ । मागध्यां स्थाधातोर्यस्तिष्ठ इत्यादेशस्तस्य चिष्ठ इत्यादेशों भवति । विष्ठदि ।
९७०-प्रवर्णाद्वा इसी डाहः ।। ४ । २९ । मागध्यमवर्णात्परस्य इसो डित प्राह इत्यादेशो वा भवति । हगे न एलिशाह कम्माह काली। भगदत्त-शोणिदाह कुम्भे। पक्षे । भीमशेणस्स पश्चादो हिण्डीअदि । हिडिम्बाए घडुक्कय-शोके रण उवशमदि ।
९७१-प्रामो डाह वा।८। ४ । ३०० । मागच्यामवर्णात्परस्य प्रामोऽनुनासिकान्तो डित् पाहादेशो वा भवति । शयणाह सुहं । पक्षे । नलिन्दारणं । व्यत्ययात्प्राकृतेऽपि । ताहें । तुम्हाहै। अम्हाहँ । सरिाहे । कम्हाहूँ।
६७२-अह-अयमोहंगे। ८ । ४ । ३०१। मागध्यामह-वयमो: स्थाने हगे इत्यादेशो भवति । हगे शक्कावदाल-तिस्त-णियाशी धोवले । हो शंपत्ता ।।
९७३-शेवं शौरसेनी-वत् । ८ । ४ ! ३०२। मामध्यां यदुक्तं ततोऽन्यछौरसेनी-वद् द्रष्टव्यम् । तत्र "तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य[४.२६०]" पविशदु प्रावुत्ते शामि-पशादाय । अधः क्वचित् [४.२६१] । अले ! कि एशे महन्दे कलयले ? । यादेस्तावति [४.२६२] । मालेघ वा घलेध वा । अयं दाव शे पागमे । आ मामन्ये सौ बेनो नः [४.२६३] । भो कञ्चुइा ! । मो वा [४.२६४] । भो रायं ! । भवद्भगवतोः [४.२६५] । एदु भवं । शमणे भयवं महावीले। भय कदन्ते ये अप्पणो पकं उज्मिय पलस्स परकं पमाणी-कलेशि । न वा यो य्यः [४.२६६] । अय्य ! एशे तु कुमाले मलयकेदु । थो धः [४.२६७ पले कुम्भिला ! कधेहि । इह-हचोर्हस्य [४.२६८] । पोशलय प्रथ्या पोशलध । भुवो भः [४.२६६] भोदि । पूर्वस्य पुरवः [४.२७०] अपुरवे । क्त्व इय-दूणो [४.२७१] किं खु शोभरणे बम्हणे शित्ति कलिय ला पलिग्गहे दिपणे । कृ-गमो उडुनः [४,२७२] । कडुन । गङ्गम । दिरिचेवीः । [४.२७३] । अमचच-ल: कशं पिक्खिदुइदो य्येव प्रागश्चदि । अतो देश्च[४.२७४] प्रले! कि एशे महन्दे कलयले शुणीमदे ?। भविष्यति स्सिः [४.२७५] । ता कहिं नु गदे लुहिल प्पिए भविस्सिदि । अतो इसे दो-डादू । [४.२७६] । अहं पि भागुलायणादो मुद्दपावेमि ! इदानोमो दाणि । [४.२७७] । शुणध दारिण हमे शक्कावयाल-तिस्त-णिवाशो धोवले । तस्माता:
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१०८
★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
[ ४.२७८ ] ता याव पविशामि । मोऽन्त्यापो वेदेतो: [ ४.२७६ ] । युतं पिमं । शलिश रिशमं । एवार्थे य्येव । [४.२८०]। मम य्येव । हज्जे चेट्याह्वाने [४.२८१] । जे चदुलिके ! । होमाहे विस्मय-निवें । [ ४.२८२ ] विस्मये । यथा उदात्तराघवे । राक्षसः । होमाराहे जीवन्तater मे जाणी । निर्वेदे । यथा-विक्रान्तभीमे । राक्षसः । होमारगृहे पयलिस्सन्ता हगे एदेशा निग विधिज्ञो दुकशिदेश से कम्पयें। [३] । गं अवशलोपशमणीया लायागो । म्हे हर्षे [४.२८४ ] | अम्महे एमए शुम्मिलाए शुपलिगढिदे भवं । होही विदूषकस्य [४. २८५] । हीही सम्पन्ना मे मोलवा पिय वयस्सस्स । शेषं प्राकृतवत् [ ४.२८६ ] | मागध्यामपि दीर्घ ह्रस्वो मिथो वृत्तौ [ १.४]" इत्यारभ्य तो दोज्नादी शौरसेन्यामयुक्तस्य [ ४. २६०]" इत्यस्मात्मा यानि सुत्राणि तेषु यात्युदाहरणानि सन्ति तेषु मध्ये असून तदवस्थान्येव मागध्याममूनि पुनरेवंविधानि भवन्तीति विभागः स्वयमभ्यूह्य दर्शनीयः ।
* समाप्तं मागधी भाषा-प्रकरणम् * ★ अथ मागधी-भाषा-विवेचन★ विश्ववन्द्यं महावीर, विश्व कल्याण-कारकम् । गुरु च ज्ञानदं नत्वा, मागधीगीः प्रतन्यते ॥
शौरसेनी भाषा व्याख्यानानन्तरं मागधी भाषाया: विधिविधानं प्रदर्शयत्याचार्यः ।
६५६ - एषः । एतद् + सि । इत्यत्र ५७५ सु० तकारस्य सकारे, ९५२ सू० मागध्यां सकारस्य शकारे, ११ सू० दकारलोपे, ९५८ सु० प्रकारस्थ एकारे, १|१|३७| सू० सेरिकारस्य लोपे ११ सू० स कारलोपेझे इति भवति । मेषः । मेष+सि । २६० सू० षकारस्य सकारे, मागच्या सकारस्य शकारे, अकारस्य एका रे, पूर्ववदेत्र मेशे इति साध्यम् । एषः एशे, इति पूर्ववदेव साध्यम् । पुरुषः । पुरुष + सि । १११ सू० रेफ्स्योकारस्य इकारे, ९५९ सू० रेफस्य सकारे, २६० सू० षकारस्य सकारे, पूर्ववदेव पुलिशे इति भवति । करोमि । डुकु करणे । कृ + मिन् । २०५ ० ऋकारस्य श्रर इत्यादेशे, ६४७ सू० द्विaterer एकारे, ६३० सू० मित्र: मि इत्यादेशे करेमि इति भवति । भवन्त ! | भदन्त + सि । १७७ सू० कारलोपे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्य प्रस्तुतसूत्रेण मकारस्य एकारे, सेर्लोपे भन्से ! इति भवति । अत इति किम् ? प्रस्तुत सूत्रेण प्रकारस्यैव एकारों भवति नान्यत्र । यथा-निधिः । निधि - सिः । २२९.० नकारस्य प्रकारे, १८७ सू० धकारस्य हकारे, ५०८ सू० इकारस्य दीर्घे, सेलॉपे मिही इति भवति । करिः । करि + ९५१ सू० रेफस्य तकारे, पूर्ववदेव सेलोंपे कली इति सिद्धम् । गिरिः । गिरि + सि । पूर्ववदेव गिल इति भवति । कुसीति किम् ? | पुल्लिङ्गे एक प्रकारस्य एकारी भवति नान्यत्र । यथा जलम् । जल+सि । ५१४ सू० सेर्मारे २३ सू० मकारानुस्वारे जलं इति Hafa | क्लीवाद प्रस्तुतसूत्रस्थ प्रवृत्त्यभावः । रामद्धमागह-मासेति । पुराणानां तीर्थंकरगण* वारजुवेकर, संततमविरुद्धं । पोरामागढ़ भासा निवयं
वह गुरु २४|११
- वृहत्कल्पे लघुभाष्यकार:
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चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् ★
१०९ धराणामिदं पौराणं सूत्रमित्यस्य विशेषणमिदम् । अर्धमागधानामित्यर्धमागधाः, तेषामियम् अर्धमागधी, अर्द्धमागधी चासौ भाषा अर्द्धमागधी-भाषा, तस्यां नियतम्-निबद्धम् अर्धमागधीभाषानियतं भवति, सूअम्-जैनशास्त्रम् । “पौराणमर्धमागध-भाषामियतं भवति सूत्रम्" इत्यार्षवाक्यमाश्रित्यैव वृद्धाचार्वैः जेनागमानामधमागधीभाषानियतत्वमाम्नायि-स्वीकृतम्, तदपि प्रायोऽस्यैव ९५८ सूत्रस्यैव विधानमपेक्ष्य न तु वक्ष्यमाणलक्षणस्य-वक्ष्यमाणसूत्रसमुदायस्य विधानमाधित्येति भावः । मागधीभाषायां ९५८ सूश्रादारभ्य १७३ सूत्रपर्यन्त सर्वाणि षोडशसूत्राणि सन्ति, एषु मध्ये जनागमेषु ९५८ सूत्रस्यैव प्रायः उपयोगो दृश्यते, न तु सर्वेषां सूत्राणाम् । प्रतएव जैनागमभाषा अर्धमागधीभाषा भण्यते । यदि जैनागमेषु सर्वेषां मागधीसूत्राणामुपयोगोऽभविष्यत्तदैव जैनाममानां भाषा मागधीभाषा इति वक्तुमुचितमभविष्यद् । पौराणम् । पौराण +सि । १५९ सू० श्रीकारस्य प्रोकारे, पूर्ववदेवं पोरासं इति भवति । wध-मागध-भाषानियतम् 1 अर्ध-मागध-भाषा-नियत+सि । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० धकार-द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वधकारस्य दकारे, १८७ सू० धकारस्य हकारे, २६० सू० षकारस्य सकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १८० सूर यकारश्रुती, पूर्व प्रदेश अवमागहमानियन मिति । भवति --हवइ, प्रक्रिया ७३१ सूत्र ज्ञेया। सूत्रम् । सूत्र+सि । इत्यत्र ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ३५० सू० रेफलोघे, ३६० सू० तकारद्वित्वे, पूर्ववदेव सुत्त इति भवति । कतरः। कतर+सि । १७७ सू० तकारलोपे, १५० सू० यकारश्रुती,९५८ सू० प्रकारस्य एकारे,सेलोपे कयरे इति भवति । आगच्छति । प्राइपूर्वक गम्ल (गम्)धातुः प्रागतौ । पागम् + तिव-आगच्छइ । प्रक्रिया ८३४ सूने शेया। कमरे इत्यत्र प्रागमीय-प्रयोगस्वाद १५९ सूत्रेण रेफस्य लकारो नाभूद् । सः । तद्+सि । ५७५ तकारस्य एकारे, ११ सू० दकारलोप,प्रस्लतसमकारस्य एकार, पूर्ववदेवसात भवातासावशातावश+सि। १४२ स. ऋकारस्थ रि इत्यादेशे, ३४८ सू० दकारलोपे; २६० स० कारस्य सकारे, पूर्ववदेव तारिसे इति भवति ।
खसहः । दुःखं महते इति । दुःखसह+सि । ३४८ सू० जिह्वामूलीयस्य लोपे, ३६० सू० खकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्ववकारस्य प्रकारे पूर्ववदेव दुक्खसहे इति भवति । जिलेखियः । जितानि इन्द्रियाणि येन, सः । जितेन्द्रिय+सि । १७७ सू० तकारस्य यकारस्य च लोपे, ८४ सू० एकारस्य इकारे, ३५० स.रेफलो. पूर्ववदेन जिल्लिए इति भवति । नागमोयप्रयोगत्वात से. तारिसे बालसह एतेष प्रयोगे ९५९ सूत्रेण सकारस्य शकारो न जातः । केवलमत्र ९५८ सूत्रस्थव प्रवृत्ति श्यते । अर्धमागधी-भाषाया एक-सविधानाथयरगेनैव जैनागमानां भाषा प्रर्द्धमागधीभाषा भग्यत इति भावः ।
५६.नरः । नर+सि । ९५९ सू० रेफस्य लकारे, ९५८ सू० प्रकारस्य एकारे, १।११३७। सू० सेरिकारस्य लोपे, ११ सू० सकारस्य लोपे नले इति भवति । कर कर+सि 1 पूर्ववदेव-कले इति भवति । हंसः । हंस+सि । प्रस्तुतसूत्रेण सकारस्य शकार, पूर्ववदेव हने इति भवति । श्रुतम् । धुत+सि । ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू शकारस्य सकारे, प्रस्तुतसूत्रेण सकारस्य शकारे, १३१ सूश्रेण तकारस्य दकारे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे शुदं इति भवति । शोभनम् । शोभन+सि । शकारस्य सकारे, सकारस्य शकारे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, पूर्ववदेव शोभरसं इति भवति । सारसः । सारस+शि । प्रस्तुतसूत्रेण उभयत्रापि सकारस्य शकारे, रेफस्य लकारे, ९५८ सू० अकारस्य एकारे, सेर्लोपे शालशे इति भवति । पुरुषः । पुरुष+सि-पुलिशे प्रक्रिया ९५८ सूत्रेलया ।
रभस-वश-नम्र-सुरशिरो-विगलित-मन्बार-राजिताघ्रियुगः।। वीर-जिनः प्रक्षालयतु मम सकलमद्य-अम्बालम् ॥ १॥
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्यपादः भावार्थ:--पापविमुक्त्यर्थ कश्चित्साधकः भगवन्तं महावीरं प्रार्थयते । रभसस्य-श्रद्धा वेगस्य; वशेन मम्रा:-विनताः, सुरा:- देवा:, रभसवश-नम्रसुराः, तेषां शिरोभ्यः विगलितानि-पतितानि मन्दासणि-मन्दारपुष्पाणि रभसन्नश-नम्र-सूर-विगलित-मन्दाराणि,तैः राजित-शोभितम्, अंत्रियुगम-चरणयुगल यस्य सः, वीरजिनः, वीरश्नासौ जिनः वीरजिना, महामोर-स्वामी,मम-मदीयं सकलम्-समस्तमवचजम्बाल-पापरूप-कर्दमं प्रक्षालयतु-शोधयतु, दूरीकरोत्वित्यर्थः ।
: रभस...मन्दार-राजिताघ्रियुगः। रभस-वश-नम्र-सुर-शिरोविगलित-मन्दार-राजितांघ्रियुग+ सिगरमस वश इत्यत्र ९५९ सू० रेफस्थ लकारे, सकारस्य च शकारे, १८७ भकारस्य हकारे [लहशar, मम्र नमनशीलः नमः, प्रश्न शीला विहितस्य र-प्रत्ययस्य ४१६ सू० इर इत्यादेशे, प्रस्तुतसूत्रेण रेफस्य लकारे मिमिल),सुर इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण सकारस्थ शकारे, रेफस्य च लकारे (शुल), शिरस् इत्यत्र २६० सू शकारस्य सकारे, प्रस्तुतसूत्रेण सकारस्य शहारे, रेफस्य च नकारे, ११ सू० सकारलोपे (शिल), विलित इत्यत्र १७७ सू० गकारलोपे,९३१ सू० तकारस्य दकारे (विलिय), मन्दार इत्य प्रस्तुतसूत्रेयह रेफस्य लकारे (मन्वाल),राजिताप्रियुग इत्यत्र रेफस्य लकारे,९६३ २० जकारस्य यकारे, ९३१ सूतकारस्य दकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,३५० स० रेफस्य लोपे, १६७ सू० धकारस्या हकारे, (सायिदहि), थुम-+-सि इत्यत्र ९५८ सू अकारस्थ एकारे,११११३७ सु० सेरिकारलोपे,११ सू० सकारलोपे युगे इति भवतिः। बोधिनः । वीरजिन+सि । प्रस्तुतसूत्रेण रेफस्य लकारे, ९६३ सू० जकारस्य यकारे,२२५ सू नका रस्म णकारे, वैयदेव वीरपिणे इति भवति। प्रक्षालयतु । प्रपूर्वकः क्षाघातुः प्रक्षालने-शौचकर्मणि । प्रक्षल+णिग+तिम् । ६५० सू० रेफलोपे, २७४ सू० क्षस्य खकारे, ३६० सूखका रद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्व खकारस्य ककारे,६३८ सू० णिगः स्थाने अकारे, ६४२ सू० धातोरादेरकारस्थ ग्राकारे, ६६२ सू० तिवः दु इत्यादेशे पक्खालदु इति भवति । मम । अस्मद इस्मम प्रक्रिया ६०२ सत्र शेय! | सकलम् । सकल+प्रम् । प्रस्तुतसूत्रेण सकारस्य शकारे, १७७ सू० ककारलोपे,१५७ सू० यकारधुसी, ४९४ स० अमोऽकारलोपे शयलम् इति भवति । अवधजम्बालम् । प्रवाजम्बाल श्रम । ९६३ स० स्यायकारे, ३६० कारद्वित्त्वे, १६३ स० जकारस्य यकारे, ४९४ सप्रमोडकारस्य लोपे:२३ स. मकारानस्वारे प्रत्यय-यम्बालं इति सिद्धम। शयलम-अवय्ययम्बाल, इत्यत्र अज्झीने परेण संयोज्ये शयलमवय्ययम्बाल इति भवति ।
९६०-ऊर्ध्व-लोपादीति । ३४८ सूत्रेण ऊर्ध्वस्थितयोः सकार-पकारयोः लोपो जायते, ४३ सूवेण च लुप्त-सकारादीनां शब्दानामावेः स्वरस्य दीपों भवति किन्तु प्रस्तुतसूत्रेण एतत्सर्व बाधितमत एक अपवादसूत्रमिदापति वोध्यम् । प्रस्खलति । प्रपुर्वक: स्खल्-धातुः प्रस्खलने । प्रस्खल+तिव् । ३५० सुरु रेफस्य लोपे, ३४८ सू सकारस्य लोपप्राप्तिरासीत् किन्तु ९६० सू० संयुक्तमकारस्य सकारे, ९१० सूअकारागी, ६२८ सू तिवः इचादेशे, ९४५ स० इचः स्थाने दि इत्यादेशे पस्वलदि इति भवनि । हस्ती । हस्तिन्+सि । ३१६ ० स्तस्य वकारप्राप्तिरासीत् किन्तु प्रस्तुतसूत्रेण संयुक्तमकारस्य सकारे, ११ सूनकालोपे, ५.०८ सु० इकारदीधे, ११११३७ सू० सेरिकारस्य लोपे, ११ सू० सकारलोपे हस्ती इति भवति । बृहस्पतिः । बृहस्पति-+सि । १३८ सू० कारस्य उकारे, ३२४ सु० स्पस्य फकारप्राप्तिरासीरिकन्तु प्रस्तुतसूत्रेण संयुक्तसकारस्म गकारे, ९३१ सू० तकारस्य दकारे, ५०८ . इकारदीर्षे, पूर्ववदेव बुहस्थवी इति भवति । मस्करी। मस्करिन+सि । ३४८ सू० सकारलोयप्राप्तिरासीकिन्तु प्रस्तुतसूत्रेण संयुक्तसकारस्य सकारे, ९५९ सू० रेफस्य सकारे, ११ सू० नकारलोपे, पूर्ववदेव मस्कली
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चतुथपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * इति भवति । विस्मये । विस्मय --छि । ३४९ सू० मकार-लोप-प्राप्तौ प्रथवा ३४८ सू० सकारलोपप्राप्तो प्रस्ततसत्रेण संयक्तसकारस्य सकारे. ५०० स० : स्थाने हित-एकारे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे विस्मये इति भवति । शुष्कबार । शुष्क च तदारु । शुषकदार+सि । २६० सू० शकारस्य सकारे, ९५९ स० सकारस्य शकारे, ३४८ सू० षकारस्य ककारस्थ चलोपप्राप्ती, प्रस्तुतसूत्रेण संयुक्तषकारस्य सकारे, ९५९ सू० रेफस्य लकारे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे सुस्कदालु इति भवति । कस्टम कष्ट+सि । ३०५ स०ष्टस्य ठकार-प्राप्तो प्रस्तूतसरेण संयुक्तषकारस्य सकारे. पूर्ववदेवकस् इति भवति । विष्णुम् । विष्णु+प्रम् । ३४० सू० षकारलोपप्राप्तो प्रस्तुतसूत्रेण संयुक्त-पकारस्य
सकारे, १११८ सू० भाषाव्यत्यये, ९७७ सू० णकारस्य नकारे, ६१३ सू० प्रदन्तवदंतिदेशात, ४९४ .सू असोऽकारस्य लोपे, पूर्ववदेव विस्नु इति भवति । शपकवलः । शष्पस्य कवलः । शष्पकवल+सि । . .. २६० सू० शकारस्य सकारे, ९५९ सू० सकारस्य शंकारे, ३२४ सू० पस्य फकारप्राप्ती प्रस्तुतस्त्रेण
संयुक्तषकारस्य सकारे, ९५८ सू० प्रकारस्य एकारे, सेलोपे शस्पकवले इति भवति । आमा । ऊष्मन् सि । ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ३४६ सू० षकारलोपप्राप्तो प्रस्तुतसूत्रेण संयुक्तपकारस्य सकारे, ५४५ सू० राजवत्त्वात्, ११ स. नकारलोपे, ५३८ सू० प्रकारस्य प्राकारे, सेपि उस्मा इति भवति । निइफलम् । निर्गतं फलं यस्मात्, तत् । निष्फल+मि । ३४८ सू० षकारलोषप्राप्तो प्रस्तुतसूत्रेण संयुक्तपकारस्य सकारे, पूर्ववदेव निएफलं इति भवति । धनुष्-खण्डम् । धनुषः खण्डम् । धनुष्खण्ड+सि । ३४८ स० षकार-लोप-प्राप्तो प्रस्तुतसूत्रेण संयुक्तषकारस्य सकारे, पूर्ववदेव पनुस्वार्ड इति भवति । मग्रीष्म इति किम् ? ग्रीष्म-शब्दे प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिन भवति । यथा--प्रीष्म-वासरः । ग्रीष्मस्य वासर: ग्रीष्मवासर-+सि । ३५० सू० रेफलोपे, प्रस्तुतसूत्रे "अप्रीष्मे" इति पाउन प्रस्तुतसूत्राप्रवृत्ती ३४५ सू.. हमस्य म्ह इत्यादेश, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,९५९ सू० सकारस्य शकारे, रेफस्य च लकारे, पूर्ववदेव-निम्ह-वाशले इति भवति ।
६५-पट्टः । पट्ट+सि । ९६१ सू० दृस्य स्ट इत्यादेशे, ९५८ सू० अकारस्य एकारे, १११५३:७१ सू० सेरिकारस्य लोपे, ११ स० सकारलोपे पस्टे इति भवति । भट्टारिका। भट्टारिका सि । दृस्य स्ट इत्यादेशे,९५९ स ० रेफस्य लकारे,सेलोपे भस्टालिका इति भवति । भट्टिनो । भट्टिनी सि-भस्टिनी+ सि । २२५ सू० नकारस्य णकारे, सेलोपे भस्टिगी इति भवति : सुष्ठु । अध्ययपदमिदम् । ९.५९ स० सकारस्य शकारे, प्रस्तुतसूत्रेण ष्ठस्य स्ट इत्यादेशे शुस्टु इति भवति । कृतम् । कृत+सि । १२६ १० ऋकारस्य प्रकारे, ९३१ स० तकारस्य दकारे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे कवं इति भवति । कोष्ठागारम् । कोष्ठागार-+सि । प्रस्तुतसूत्रेण ष्ठस्य स्थाने स्ट इत्यादेशे, ९५९ सू० रेफस्य लकारे, पूर्व वदेव कोस्टागालं इति भवति ।
९६२-उपस्थितः । उपस्थित+सि । २३१ सू० पकारस्य वकारे, ५६२ सू० स्थस्थ स्थाने स्त इत्यादेशे, ९३१ सू० तकारस्य दकारे, ९५८ सू० प्रकारस्य एकारे, १५११३७। सू० सेरिकारलोपे ११ सू० सकारलोपे उपस्तिवे इति भवति । सुस्थितः । सुस्थित+सि । ९५९ सू० सकारस्य शकारे, पूर्ववदेव शुस्तिके इति भवति । अर्थपतिः । अर्थपति+सि । प्रस्तुतसूत्रेण यस्य स्त इत्यादेश, २३१ सू० प्रकारस्य वकारे, ९३१ सू० तकारस्य दकारे, ५०८ सू० इकारदी, सेलोपे अस्सबदी इति भवति । सार्थवाहः । सार्थवाह+सि । ५५९ सू० सकारस्थ शकारे,९६२ सू० यस्य स्थाने स्त इत्यादेशे, ८४ सू० माकारस्य प्रकारे, ९५८ सू० अकारस्य एकारे, सेर्लोपे शस्तवाहे इति भवति ।
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* प्राकृत व्याकरण *
चतुर्थपादः ९६३-आमाति । शा अवबोधने । ज्ञा+तिन् । ६७८. स. ज्ञाधातो: जाण इत्यादेशे, ९६३ सू० जकारस्थ यकारे, ६२८ सू० तिव इचादेशे, ९४५ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे पाणवि इति भवति । सानपवः । जनपद-+-सि । प्रस्तुत-सूत्रेण जकारस्य यकारे.२२८ सू० नकारस्य णकारे,२३१ सू० पकारस्य वकारे, ९५८ सू० अकारस्य एकारे, १।११३७। सू० सेरिकारलाप, ११ सू० सकारलोपे यणयदे इति भवति । अर्जुनः । अर्जुन+सि । ३५० सू० रेफलोपे, जकारस्य यकारे, ३६० सू० यकारद्वित्वे, नकारस्थ णकारे,पूर्ववदेव मयुरणे इति भवति । दुर्जनः । दुर्जनः+सि । पूर्वत्रदेव दुय्यरणे इति भवति । गर्जति । गज् गर्जने । गज्+ति= गय्य तिन् । ९१० सू० प्रकारागमे, ६२८ सू० शिवः स्थाने इचादेश,९४५ सू० श्चः दि इत्यादेशे गम्यवि इति भवति । गुणजितः । गुण: यजितः । गुणवजित ---सि । पूर्व प्रदेव गुणर्वाश्यत+सि इति जाते, ९३१ सू० तकारस्थ दकारे, ५५८ सू० प्रकारस्य एकारे, सेलोपे गुणव्यि इति भवति । मह्यम् । मद्य+सि । प्रस्तुतसूत्रेण द्यस्व यकारे, यकार द्वित्त्वे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सूः मकारानुस्वारे मयं इति भगति । अध । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण यस्य स्थाने यकारे, यकारविरत्वे अय्य इति भवति । किल । अव्ययपदमिदम् । संस्कृततुल्यमेव मागध्यां प्रयुज्यते । विद्यापर विद्यां धरतीति । विद्याधर+सि । धस्य यकारे, यकारद्वित्त्वे, १८७ सू० धकारस्य हकारे, ९५९ सु० रेफस्य सकारे, ९५८ सू० अकारस्य एकारे, सेलोपे बिरयाहले इति भवति । आगतः । प्रागत+ सि । ९३१ सू० तकारस्य दकारे,पूर्ववदेव आगवे इति भवति । याति। या गति-प्रापण योः । या+तिव । २४५ सू० यकारस्य जकारप्राप्ती, प्रस्तुतसूत्रेण अकारस्य यकारे, तिच इचादेशे, ९४४ सू० इनः दि इस्यादेशे यादि इति भवति । यथास्वरूपम् । स्वरूपमनतिक्रम्येति । यथास्वरूप +सि । यकारस्य अकारप्राप्तो प्रस्तूतसत्रेण यकारस्य यकारे, १११८ सल भाषा-व्यत्यये,९३८ साथकारस्य धकारे, ३५० स० वकारलोपे,९५९ सू० सकारस्य शकारे, रेफस्य त्र लकारे, २३५ सू० पकारस्य वकारे, पूर्वदेव यधाशसूर्य इति भवति । यानपात्रम् । यानस्य पात्रमिति । यानपात्र+सि । यकारस्य जकार-प्राप्तो प्रस्तुतसूत्रेणा यकारस्य यकारे,२२८ सू० नकारस्थ णकारे,२३१ सू० पकारस्य वकारे, ३५० सू० रेफलोपे,३६० सतकारहित्त्वे,६४ ससंयोगे परे ह्रस्वे, पूर्ववदेव याणवतं इति भवति । यदि अव्ययपदमिदम् ।
मेव मागध्या प्रयूज्यते। यतिः, इतिच्छायायान्त २४५ सयकारस्य जकार-प्राप्नो प्रस्तुतसूत्रेण यंकारस्य स्थाने यकारे एव जाते, ९३१ सू० तकारस्य दकारे, सेलोपे यदि इति भवति । यस्य पस्वविधानम् ! २४५ सूत्रेण यकारस्य जकारो भवति परन्तु तस्य बाश्रनार्थ प्रस्तुतसूत्रेण यकारस्य स्थाने यकारादेश एव निदिष्टः।
९६४-पभिमन्युकुमारः । अभिमन्युकुमार+मि | १२० स० भका रस्य हकारे, ९६४ सू० न्यस्व त्र इत्यादेश, ९५९ सू० रेफस्य लकारे, ९५८ सू० प्रकारस्य एकारे, १।११६७। सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे अहिमकुमाले इति भवति । अन्यदिशाम् । अन्यदिशा+प्रम् । प्रस्तुतसूत्रेण न्यस्य न इत्यादेशे, २६० सू० सकारस्य सकारे, ९५९ सू० सकारस्य शकारे, ५२५ सू० आकारस्य अकारे, ४९४ सू० प्रमोऽकारस्य लोपे, २३ सू० मकारानुस्वारे प्रमविशं इति भवति । सामान्यगुणः । सामान्यगुण+सिं । सकारस्य शकारे, न्यस्य न इत्यादेश, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, अकारस्य एकारे, सेलोपे शामञ्चगुरणे इति भवति । कन्यकावरणम् । कन्यकावरण-सि । न्यस्य न्त्र इत्यादेशे, रेफस्य लकारे, ११४ सू० सेभकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे कञकामलणं इति भवति । पुण्यवान् । पुण्यमत् + सिा प्रस्तुतसूत्रेण ण्यस्य न इत्यादेशे, ४३० स० मतुपः स्थाने वन्नु इत्यादेशे, अकारस्थ एकारे,सेलोपे युअवन्ते इति भवति । ब्रह्मण्यम् । अब्रह्मण्य+सि । ३५० सू० रेफलोपे,३४५ सू' ह्मस्य म्ह इत्यादेशे,
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NIN-AAP-.
अतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकादयोपेतम् * पूर्वधदेव पवम्हजं इति भवति । पुण्याहम् । पुण्यं च तदहः-शुभदिवसमित्यर्थः । पुण्याह+सि-पु.
आह+सि । पूर्ववदेव पुशाहं इति भवति । पुण्यम् । पुण्य + सि = पुजं इति पूर्ववदेव साध्यम् । प्रमाविशालः । प्रज्ञया विशालः, प्रज्ञा विशाला यस्य वा,सः । प्रज्ञाविशाल+सि । ३५० सू० रेफस्य लोपे, शस्य च इत्यादेशे,२६. सू० शकारस्य सकारे,९५९ सू० सकारस्य शकारे, पूर्ववदेव पाविशाले इति भवति । सर्वशः । सर्वज्ञ+सि । सकारस्य शकारे, ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० बकारद्विश्वे, शस्थ त्र इत्यादेशे दुईवदेर नाम इति भवति शा। अत्रज्ञा+सिप्रवा+सि । सेलोपे अवसा इति भवति । अञ्जलिः । अजलि+शि । प्रस्तुतसोग जस्य न इत्यादेशे,५०८ सू० इकारस्य दो सेलोपे अअसी इति भवति । धनञ्जयः । धनजय-+-सि । २२८ स नकारस्य णकारे. अजस्य बज इत्यादेशे. १७७ सू० कारलोपे, ९५८ स०अकारस्य एकारे, सेलोपे घाए इति भवतिः। पजारः । पञ्जर+ सिंजस्य व्ध इत्यादेशे, ९५९ सू० रेफस्य लकारे, पूर्ववदेव पञ्चले इति भवति ।
६५-पापकारः। ९६३ सश्रेण जकारस्य यकारी भवति, परन्तु प्रस्तुतसूत्र तस्यापवादसूत्रं ज्ञेयम् । मति । 'बज् गतौ । प्रज+तिन् । ३५० सू० रेफलोपे, ९६३ सू० जकारस्थ यकार प्राप्ती २६५ सू. जकारस्य न इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे,९४५ सू० इचः दि इत्यादेशे वयदि इति भवति ।
९६६-गसछ । गम्ल (गम्) गौ । गम् +सिव् । ८८६ सू० मकारस्य छकारे, ९६६ सू० छकारस्य श्च इत्यादेशे,६६२ सू० सिवः सु इत्यादेशे, ६६४ स ० सोलुं कि गश्च इति भवति । उच्छलति । उत्पूर्वकः छल्धातुः उच्छलने । उत्छल्+ति । ११ सू० तकारलोपे, छकारस्य श्च इत्यादेशे, ९१० सू० प्रकाराममे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे, ९४५ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे उश्चलवि इति भवति । पिश्चिलः । पिच्छिल+सि । प्रस्तुतसूत्रेण छकारस्य श्च इत्यादेशे, निमित्तापाये नैमिसकस्या
पाय:. इति न्यायेन वकारस्य प्रभावे. ९५८ सा प्रकारस्य एकारे, ११३७ ससेरिकार-लोपे, ११ सू, सकारलोपे पिश्चिले इति भवति । पुश्चति । प्रच्छ पृच्छायाम् । प्रच्छ+तिन् । ७६८ सू०प्र. मधातोः पुच्छ इत्यादेशे, प्रस्तुतसूत्रेण छकारस्य श्च इत्यादेशे, छकार-निमित्तापाये नैमित्तकस्य चकारस्याप्यभावे, तिच इचादेशे, पूर्ववदेव पुश्खदि इति भवति । लाक्षरिएकस्यापि । लक्षणेन-व्याकरणसूत्रेण मागत: लाक्षणिक । यदि लाक्षणिकः छकारो भवेत्तदापि तस्य श्च इत्यादेशो भवति । यथा-- पापम्नवत्सलः । बापन्नवत्सल+सि । २३१ सू० पकारस्य वकारे, २९२ सू सस्य छकारे, छकारस्य श्च इत्यादेशे,पूर्ववदेव आवन्नवश्चले इति भवति । अत्र छकारो लाक्षणिको बोध्य । तिर्यक तिर्यच सि । ४१४ स० तिर्यशब्दस्य तिरिभिछ इत्यादेशे,सेलोपे तिरिसिख इति भवति । प्रेक्षते । प्रपूर्वक ईक्षधातुःप्रेक्षरो । प्रेक्ष+ते। ३५० स० रेफलोपे, २७४ सू० क्षस्य छकारे, ३६० सू० छकारद्वित्त्वे, ३६१ सु० पूर्वकारस्य चकारे, ६२० स० ते इत्यस्य इचादेशे पेच्छा इति भवति । प्रयोगदर्शनात् ८४ सूत्रस्य प्रवृत्तिन जाता । अत्रापि लाक्षणिकः छकारः, फलतः प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तौ तिरिश्चि पेश्ववि इति भवति । अत्र छकारापाये चकारस्थायभावो जातः । प्रेक्षते । प्रेक्ष+ते । इत्यत्र २७४ सूत्रस्याप्रवृत्ती ९६८ सू० क्षस्य स्क इत्यादेशे,६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे,९४५ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे पेस्कवि इति भवति । प्रनावाविति किम् ? न प्रादिः, अनादिः, प्रस्तुतसूत्रेण अनादौ वर्तमानस्यैव छकारस्थ श्चादेशो भवति नान्यथा । यथा-छागः । छाग+सि । १९१ सू० गकारस्य लकारे, पूर्ववदेव छाले इति भवति । छकारस्थादिभूतत्वादत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्यभावः । अब बार बार मतकोऽस्ति, प्रतः मिभित्ताभावेन मैमिस्मायभायी जायते ।
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SoSMAPTOP
:११४
* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः ६६७ ---यक्षः । यक्ष+सि । ९६३ सू० यकारस्य यकारे, ९६७ सू० क्षस्यक इत्यादेशे, ९५.८ स. कारस्य एकारे, १११३७। स० सेरिकारस्य लोपे, ११ सू० सकारलोपेय के इति भवति । राक्षसः । राक्षससि ९५९ सू० फस्य सकार, सकारस्य च शकारे, प्रस्तुतसूत्रेण क्षस्पक इत्यादेशे, ५४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, पूर्ववदेव लम्को इति भवति । अनाबावित्येव । अनादिभूतस्यैव क्षस्यक इत्यादेशो भवति,नान्यत्र । यथा-क्षयजलधराः। क्षयस्य-प्रलयकालस्य जलधारा:-मेघाः । क्षयजलघर+ अस् । क्षस्य मादिभूतत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्थाप्रवृत्ती, २७४ सु० क्षस्य खकारे, ९६३ सू० जकारस्य यकारे, १८७ सू० धकारस्य हकारे, ९५९ सू० रेफस्य लकारे, ५०१ सू० अकारदीर्वे, ४९३ सू० जसो लोपे खयपलहला इति भवति ।
___९६८-जिह्वामूलीयापवादः । ९६७ सूत्रेण क्षस्य स्थाने जिह्वामूलीया को भवति, प्रस्तुतसूत्र सस्थापवादसूत्र ज्ञेयम् । प्रेक्षते । प्रपूर्वकः ईक्षधातुः प्रेक्षणे । प्रे+ते = पेस्कदि, प्रक्रिया ९६६ सूत्रे ज्ञेया। पाचक्षते । आइपूर्वक चक्षिधातुः व्यक्तायां वाचि । प्राचक्ष +ते । ९६८ सू० क्षस्थ स्थाने स्क इत्यादेशे, ६२८ सू० 'ते' इत्यस्य इचादेशे,९४५ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे प्राचस्कदि इति भवति । पत्र ९६७ सूत्रेण क्षस्य स्थाने जिह्वामूलीयः क इत्यादेशो न जातः ।
६६९-शिष्ठति । ठा-स्था गतिनिवृत्ती । स्थाधातु + तिव । संस्कृतनियमेन तिष्ठ+तिब इति जाते, ९६९ सू० तिष्ठस्य स्थाने चिट्ठ इत्यादेशे, ६२५ सू० तिवः स्थाने इचादेशे,९४५ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे विष्ठति इति भवति ।
९७०--महम् । ९७२ सू० अहम् इत्यस्य हगे इत्यादेशे हगे इति भवति 1 न । इत्यव्ययपदं सं
मेव मागच्या प्रयज्यते । हास्य। ईदश-हुस। १०५ स० कारस्य एकारे. १४२ स० कारस्य रि इत्यादेशे, ३४८ सू० दकारलोपे, ३६४ सू० रेफस्य द्वित्त्वाभावे, ५५९ सू० रेफस्य लकारे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ९५९ सू० सकारस्य शकारे, ९७० सू० सः स्थाने विकल्पेन डाह (प्राह) इत्यादेशे,डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे एलिशाह इति भवति । कर्मणः । कर्मन+स् । ३५० सू० रेफलो, ३६० सू० मकारद्वित्वे, ११ सू० नकारलोपे,प्रस्तुतसूत्रेण विकल्पेन इसः डाह (पाह) इत्यादेशे, पूर्ववदेव कामाह इति भवति । कारी। कारिन्+सि । ९५९ स० रेफस्थ लकारे, ११ सु० नकारलोपे, १०८ सू० इकारदीर्घ १।११३७। सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे काली इति भवति । भगवत्तशोरिणतस्य । भगदत्त-शोणित+ ङस् । २६० सू० कारस्य सकारे, ९५९ सू० सकारस्य शकारे,९३१ सू० तकारस्य दकारे,डसः विकल्पेन डाह इत्यादेशे,पूर्ववदेव भगवत्तशोरिणदाह इति भवति । कुम्भः । कुम्भ । सि । ९५८ स० अकारस्य एकारे, सेलोप कुम्मे इति भवति । पक्षे । वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्यभावपक्षे। भीमसेनस्य । भीमसेन - इस ! सकारस्य शकारे, २२८ सू० भकारस्य प्रकारे, ४९९ सू० डसः स इत्यावशे भीमशेणस्स इति भवति । पश्चात् । अव्ययपदमिदम् । ४४५ सू० पश्चात् इत्यस्य पश्चायो इति निपात्यते । हिण्ड्यते । हिण्ड् भ्रमणे । हिण्ड्+क्य+ते । ६४९ सू० क्यस्य ईश्र इत्यादेशे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे, ९४५ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे हिण्डोअवि इति भवति । हिडिम्बायाः । हिडिम्बा +छस् । ५१८ सू० उसः स्थाने एकारे हिडिम्शए इति भवति । घटोत्कच-शोकः । घटोत्कच-शोक+ सि । १९५ सू० टकारस्य' डकारे, ३४८ सू० तकारस्य लोपे, ३६० सू० प्रथम-ककारस्य द्वित्त्वे, ८४ -सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १७७ सू० चकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ,२६० स० झकारस्य सकारे, ९५९ सू० सकारस्य शकारे, ९५८ सू० प्रकारस्य एकारे, सेर्लोपे घायशोके इति भवति । प्रयोगदर्शनात् १७७ सू० द्वितीय-ककारस्य लोपो न जासः । न । अव्ययपदमिदम् । २२९ सू० नकारस्य स्थाने णकारे
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in
चतुर्थ पादा
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★ ण इति भवति । उपशाम्यति । उपपूर्वक: शमुधातुः उपशमे । उपशम् + तिव् । २३१ सू० पकारस्य स्थाने वकारे, २६० स० शकारस्य सकारे, ९५९ स० सकारस्य स्थाने शकारे,९१० सू० प्रकारस्यागमे,६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे, ९४५ स० इचः स्थाने दि इत्यादेशे वशमादि इति भवति ।
९७१- स्वजनानाम् । स्वजन+पाम् । ३५० स० वकारस्य लोपे, ९५९ सू० सका रस्य शकारे, ९६३ स० जकारस्य स्थाने यकारे, २२८ स० नकारस्थ कारे, ९७१ सू० ग्रामः स्थाने विकस्पेन डाह (भा) इत्यादेशे,डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे शयणाह इति भवति । सुखम् । सुख+सि । १५७ सू० खकारस्य हकारे, ५१४ सू० सेमंकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे सुह इति भवति । मुखम् इत्यपि पाठो दृश्यते, तब मुख+सिमुहं इति भवति । पक्षे । प्रादेशाभावपक्षे । मरेन्द्राणाम् । नरेन्द्र-+पाम् । ९५९ सू० रेफस्य लकारे, ३५० सू० रेफलोपे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ४९५ सू० प्रामः स्थाने
कारे, ५०१ मूक पूर्वाकारस्य दी, २७ सू० णकारस्यान्ते अनुस्वारागमे मलिन्दासं इति भवति । पत्र प्रस्तुनसुत्रस्य प्रवृत्त्यभायः । पत्ययाप्राकृतेऽपि । १११८ सूत्रेण भाषाव्यत्यये कृते प्राकृतभाषायामपि प्राम-प्रत्ययस्य डाह इत्यादेशो भवति । यथा---सेषाम् । तद्नाम् । प्रस्तुतसूत्रेण वैकल्पिक प्राम: डाह (प्रा) इत्यादेशे, डिति परेऽत्यस्वरादेलोपे ताह इति भवति । युष्माकम् । युष्मद् +पाम् । २४६ सू० यकारस्य सकारे, ३४५. सू० मस्य म्ह इत्यादेश, नवदेव तुम्हा इति सान् । अस्माकम् , . स्मद्+पाम् । ३४५ सू० स्मस्य म्ह इत्यादेशे, पूर्ववदेव अम्हाहें इति भवति । सरिताम् । सरित+पाम् । ११ सू० तकारलोपे, पूर्वत्रदेव सरिमाह इति भवति । इत्यत्र बाहुल्येन डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपाभावो बोध्यः । कर्मणाम् । कर्मन+प्राम् । ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० प्रकारस्य द्वित्त्वे, पूर्ववदेव की म्माहें इति साध्यम् ।
६७२-अहम् । अस्मद् +सि । ९७२ सू० अहम् इत्यस्य हमे इत्यादेशे हमे इति भवति । काक्राबतार-तीर्थ निवासी । शावतार-तीर्थनिवासिन्+सि । २६० सू० शकारस्य सकारे, ९५९ सू० सकारस्थ शकारे, ३५० सू. रेफलोपे, ३६० सू० ककारद्वित्त्वे, ९३१ सू० तकारस्य दकारे, ९५९ सू० रेफस्य लकारे, ९६२ सू० र्थस्य स्त इत्यादेशे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, ९५९ सू० सकारस्य शकारे, ११ सू० नकारलोपे, ५०८ सू० इकारदीर्घ, १११।३७१ सू० सेरिकारलोपे, ११ स सकारलोपे शक्कावदाल-तिस्त-णिवाशी इति भवति । षीवरः। धीवर+सि। ९५९ स० रेफस्य लकारे,९५८ सू० अकारस्य एकारे,सेर्लोपे घोचले इति भवति । वयम् । ९७२ सू० वयम् इत्यर्थ हगे इति प्रयुज्यते । सम्प्राप्ताः। सम्-प्राप्त+जस् । सकारस्य शकारे, २३ स० सम्-उपसर्गस्य भकारस्थ अनुस्वारे, ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३४८ सू० पकारलोपे, ३६० सू० तकारस्य द्वित्वे, ८४ सू० संयोगे परे म्हस्वे, ४९३ सू० जसो लुकि, ५.०१ सू० पुकारस्य दीर्धे शंपता इति भवति ।
६७३---मागध्यामिति 1 मागधी-भाषा-प्रकरणे यदुक्त तत्सर्व ज्ञातमेवास्ति किन्तु मागधीभाषा-प्रकरणे यन्नोक्त तत्सर्व शौरसेनीभाषातल्यमेव ज्ञातव्यम् । अयं भाव:-- शौरसेनीभाषानियमा मागधीभाषायामप्युपादेयाः । १३१ सूत्रस्योदाहरणम् । यथा-प्रविशतु । प्रपूर्वकः विश्धातुः प्रवेशे । प्रविश्-+-तुव् (तु) 1 ३५० रेफलोपे,२६० सू शकारस्य सकारे, ९५९ सू० सकारस्य शकारे, ९१० सूत' अकारस्यागमे, ९३१ स० तकारस्य 'द' इत्यादेशे पविशद इति भवति । *आधुस्सः। मावुत+सि । ९५८ सू० प्रकारस्य एकारे, १।१।३७। सू० सेरिकारस्य लोपे, ११ सू० सकारलोपे आवृत्ते इति भवति । "मायत्तो:-गिनीपतिः, पल्या ज्येष्ठो भ्राता कनिष्ठी था। ।
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NAM
* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः स्वामिप्रसादाय ! ३५० सू० वकारस्य रेफस्य च लोपे, सकारस्य शकारे शामिपशावाय इति भवति । पविशदु इत्यन शौरसेनीप्रकरणस्य ९३१ सूत्रस्य प्रवत्तिर्जाता। इत्यत्र ६६२ सुत्रेणापि कार्यसिद्धि भवितुं शक्नोति स्म, परन्तु सुत्राणां पर्यन्यवत्प्रवृतिर्जायतेऽतएवाऽत्र ९३१ सुत्रस्यैव प्रवृत्तिः करणीया । ६३२ सूत्रस्योदाहरणं, यथा-परे ।। भव्यय पदमिदम् । ९५९ स० रेफस्य लकारे अले! इति भवति । किम् । किम +सि } ५६९ सू० सिना मद किमः स्थाने कि नत्यादेशे इति भवति य एतद्+सि । ५७५ सू० तकारस्य सकारे, ९५९ स. सकारस्य शकारे, ११ सू० दकारलो, ९५८ सू० प्रकारस्प एकारे, सेलोपे एशे इति भवति । महान । महशत । ९१० स० अकारागमे, ६७० सू० शत: न्त इत्यादेशे ९३२ सू० तकारस्य
रस्य दकारे.पर्ववदेव मान्छे इति भवति । कलकलः । कलकल+सि । १७७ स० द्वितीयककारलोपे, १५० सु० यकारश्रतो, पूर्व वदेव कलयले इति भवति । ९३३ सुत्रस्योदाहरणं, यथा--मारयथ । मृ-प्राणत्यागे । म+णिग+थ 1 ९०५० ऋकारस्य पर इत्यादेशे ६३८ स०णिग: एकारे,६४२ सू० आदेरकारस्य दीर्थे,९५९ सू० रेफस्य लकारे,१० सू० स्वरस्य लोपे, अमोने परेण संयोज्ये, ९३८ सू० थकारस्य प्रकारे मालेष इति भवति । या । अध्ययपदमिदम् । संस्कृत-तुल्यमेव मागण्यां प्रयुज्यते । घरथ । धूत्र धारणे । धू+थ। ऋकारस्य नर इत्यादेशे, रेफस्य लकारे, ६४७ सू० अकारस्य एकारे, पूर्ववदेव धलेष इति भवति ! अयम् । संस्कृततुल्य मेव प्रयम् [अयं इति पदं मागध्यां प्रयुज्यते । तावत् - बाव इत्यस्य प्रक्रिया ९३३ सूत्रे ज्ञेया । सः । तद्+सि । ५७५ सूत तकारस्य सकारे, ९५१ सू० सकारस्य शकार, ११ सू० दकारलोपे, ९५८ सू० अकारस्थ एकारे, सेलोपे शे इति भवति । आगमः । प्रागम+ सि । पूर्ववदेव प्रागमे इति भवति । ६३४ सूत्रस्योदाहरणं, यथा - भो कञ्चुकिन् ! भो कइया!, प्रक्रिया ९३४ सूत्रे ज्ञेया। ६३५ सूत्रस्योदाहरणं, यथा-मो राजन् ! = भो राय !, प्रक्रिया ९३५ सूत्रे
या। १३६ सूत्रस्योदाहरणं, यथा--एतु भवान् एन्दु भवं, तथा श्रमणः भगवान महावीरः शमए भगवं महावीले,प्रक्रिया ९३६ सूत्रे ज्ञेया । अत्र मागध्यां विशेषोऽयम्-शमरणे इत्यत्र ९५९ सू० सकारस्य शकारो जातः, भय इत्यत्र १७७ स० गकारलोपः,१५० सू० यकारधुतिर्जाता,महावीले इत्यत्र ९५९ सू० रेफस्य लकारोऽभवद् । भगवान भयवं, प्रक्रिया १३६ सूज्ञे ज्ञेया । कृतान्तः । कृतान्त+सि । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, ९३१ सू० प्रथम-तकारस्य दकारे, ४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ९५८ सू० प्रकारस्य एकारे,सेर्लोपे कवन्से इति भवति । यः । यत+सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे,९६३ सू० जकारस्य यकारे,११ सू० तकारलोपे, पूर्वयदेव ये इति भवति । आत्मनः। पात्मन् +जस्य अप्परगो, प्रक्रिया ४६८ सुज्ञया पक्षम।पक्ष+प्रम । ९६७सस्प क इत्पादेशे,४९४ सप्रमोकारस्य लोपे,२३ स. मकारानुस्वारे पक इति भवति । उभित्या । उस त्यागे । उज्झ+पवा। ९४२ सू० करवः स्थाने इय इत्यादेशे उजिमय इति भवति । परस्य । पर+कुस् । ९५९ सू० रेफस्य लकारे,४९९ सू० स: स इत्यादेशे पलस्स इति भवति । प्रमाणीकरोषि । प्रमाणीक+सिन् । ३५० सू० रेफलोपे, ९०५ सू० ऋकारस्य पर इस्यादेशे, रेफस्य लकारे, ६४७ स प्रकारस्य एकारे, ६२९:स सिवः सि इत्यादेश,९५९ स० सकारस्य शकारे पमारखोकलेशि इति भवति । ६३७ सूत्रस्योदाहरणं, यथा-आर्य । पाये सि।.९३७ सू० यस्य य्य इत्यादेशे,५४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, सलोपे,प्रस्य ! इति भवति । यत्र आइये । इति पाठस्तत्र ९५५ सू० प्रकारस्थ एकारो जातः । एषः। एतसिएशे उपरि साधिसमे वेद रूपम् । खलुखु, प्रकिया ४६९ सूत्रे ज्ञेया । कुमारः । कुमार+सि कुमाले, प्रक्रिया ९६४ सूत्र या । मलयकेतुः । मलधकेतु+सि । ९३१ सू० तकारस्य दकारे, ५०६ ० कारस्य ककारे, सेलोपे मलयका इति भवति ।
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
११७
1 कु
३८ सूत्रस्योदाहरणं यथा--- प्ररे । श्रव्ययपदमिदम् । ९५९ सू० रेफस्य लकारे असे इति भवति । हिमला ! | कुम्भिला+सि । सेना ! इति भवति + सव्। ९३८ सू०] कास्य धकारे. ११० सू० अकारागमे, ६४७ स्० प्रकारस्य एकारे, ६६२ सू० सिव: स्थाने सु इत्यादेशे, ६६३ सू० सुइत्यस्य हि इत्यादेशे कहि इति भवति । ६३६ सूत्रस्पोदाहरणं यथा - अक्सरथ । ग्र पपूर्वकः सुधातुः मती । अपसू+थ । १७२ सू० अप-उपसर्गस्य श्रकारे, ९०५ सू० ऋकारस्य घर इत्यादेशे ९५९ सू० सकारस्य शकारे, रेफस्य च लकारे, ६३२ सू० थस्य इच् (ह) इत्यादेशे, १३९ सू० हकारस्य का ओवालय इति भवति । आः । श्रार्य + जस् । ८४ ० संयोगे परे हस्बे, ९३० सू० यंस्य य इत्यादेशे, ४९३ सू० जसो लुकि, ५०१ सू० पूर्वकारस्य दीर्घे श्रय्या इति भवति । ६४० सूत्रस्योदाहरण, यथा-- भवति भोदि प्रक्रिया १४० सूत्रे ज्ञेया । ६४१ सूत्रस्योदाहरणं यथा - अपूर्वम् पूर्व + सि। ९४१ सू० पूर्वस्य पुरव इत्यादेशे, ९५० सू० प्रकार स्य एकारे, सेलोपे अपुरते इति भवति । प्रक्रिया ४२ सूत्रस्पीदाहरणं यथा-किम् । किम + सिकि, प्रक्रिया ५६९ सूत्रे ज्ञेपा । खलुखु ४६९ सू० ज्ञेया | शोभनः शोभन+सि । २६० सू० शकारस्य सकारे, ९५१ सू० सकारस्य शकारे, २२० सू० नकारस्य णकारे, पूर्व रदेव शोभणे इति भवति । ब्राह्मणः । ब्राह्मण+सि। ३५० सू० रेफलोपे, ३४५ सू० हास्य ह इत्यादेशे ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, पूर्ववदेव बम्हसे इति भवति । असि |
-
भुत्रि । प्रस्+ सिव् । ६३५ सू० मिना सह श्रसुधातोः सि इत्यादेशे, १५९ सू० सकारस्य शकारे द इति भवति । इति त्तिप्रक्रिया ४२ सूत्रे ज्ञेया कलिस्था (कलयित्वा ) 1 कल-कल सं । कलू + जिग् + वा । ९१० सू० अकारागमे, ९४२ सू० क्त्वः इय इत्यादेशे, १० सू० अकारलोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये कलिय इति भवति । राहा। राजन्+टा संस्कृतनियमेन राज्ञा इति जाते, १५९ सू० रेफस्य लकारे, ८४ सू० संयोगे परे हस्बे, ९६४ सू० ज्ञस्य त्र इत्यादेशे ला इति भवति । परिग्रहः । परिग्रहः । परिग्रह+सि । ९५९ सू० रेफस्य लकारे ३५० सु० रेफलोपे, ३६० सू० गकारद्वित्वे, ९५८ सु० - कारस्य एकारे, सेल पलिग्गहे इति भवति । वत्तः । दत्त+सि । ४६ सू० श्रकारस्य इकारे, ३१४ सू० त इत्यस्य कारे, ३६० सू० णकारस्य द्वित्वे, पूर्ववदेव विष्णे इति भवति । ६४३ सूत्रस्पोदाहरणं, यथा - कृत्वाकडून, गत्वा गदुश्र, प्रक्रिया ९४३ सूत्रे ज्ञेया । ९४४ सूत्रस्योदाहरणं, यथा-समास्मराक्षसम् । अमात्यराक्षस + ग्रम् । ८४ सु० संयोगे परे ह्रस्वे, २८४ सू० त्यस्य चकारे, ३६० सू० चकारदिवे, ९५१ सू० रेफसर लकारे, संयोगे परे ह्रस्बे, ९६७ सू० क्षस्य क इत्यादेशे, ९५१ सू० स कारस्य शका, ४९४ सू० भ्रमोऽकारस्य लोपे २३ सू० मकारानुस्वारे अमस्थल इति भवति । प्रेम् ि। प्रपूर्वक ईक्षुत्राः प्रेक्षणे प्रेक्ष+ तुम्। संस्कृतनियमे प्रेक्षितुम् इति जाते, ३५० सू० रेफलोपे, ८४ सु० संयोगे परे ह्रस्वे, २७४ सू० क्षम्य खकारे, ३६० सू० खकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे, ९३१ सू० तकारस्त्र दकारे २३ सु० मकारानुस्वारे विभिख इति भवति । इतः । त कारस्य दकारे, ३७ सू० विसर्गस्य डो (प्रो) इत्यादेशे ङिति परेऽन्त्यस्वरादेन इव इति भवति । एकस्यैव प्रक्रिया ९५१ सूत्रे ज्ञेथा । शागच्छति । ग्राहपूर्वकः गम्लू (गम्) धातुः श्रागमने । आमम्+ ति । ८६ सू० मकारस्य छकारे, ९६६ सू० छकारस्य श्च इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इवादेशे, ९४४ सू० इच: दि इत्यादेशे प्रागइवदि इति भवति । ६४५ सूत्रस्योदाहरणं यथा - अरे ! किमेषः महान कलकलः ? = प्रले! कि एशे महन्ते कलयले ? प्रक्रियाऽस्मिन्नेव सूत्रे पूर्व द्रष्टव्या । भूपते । श्रश्रु वर । श्रु+क्यते । ३५० सू० रेफ्लोपे, २६० स० शकारस्य सकारे ९५९ सू० सकारस्य शकारे,
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११८
प्राकृतव्याकरणम्
चतुर्थपादा
९१२ सू० कारागमे, ६४९ सू० क्यस्य ईय इत्यादेशे १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये,' ६२० सू० ते इत्यस्य इवादेशे १४५ सू० इचः स्वाने दे इत्यादेशे गुणोमदे इति भवति । ९४६ सूत्रस्योदाहरणं यथा तस्मात् ता, प्रक्रिया ९४९ सूत्रे या कस्मिन् कहि, प्रक्रिया ५४९ सूत्रे शेषा ।" तु । ग्रव्ययपदमिदम्। संस्कृतवदेव मागध्यां प्रयुज्यते । गथः । गद+सि । ९५८ सू० अकारस्य एकारे, सेल गइति । १५९ उभयत्रापि रेफस्य लकारे, १८७ सु० धकारस्य हकारे ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० पकारद्वित्त्वे, १७७ सू० यकारलोपे, पूर्ववदेव लिपि इति भवति । भविष्यति भविस्थिदि प्रक्रिया ९४६ सूत्रे ज्ञेया । ६४७ सूत्रस्योदाहरणं, यथा - महम् । अस्मद् + सिहं, प्रक्रिया ५९४ सूत्रे ज्ञेया । अपिपि, प्रक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया । भागुरायणा | भारायण ङसि । १५९ ० रेफस्य लकारे, १४० सू० ङसे डादो (प्रादो ) इत्यादेशे दिति पत्यस्वरा भागुलाया इति भवति मुद्राम् । मुद्रा + श्रम् । ३५० सू० रेफलोपे ३६० सू० दकारद्विये, ५२५ सू० श्राकारस्य प्रकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्भीने परेण संयोज्यै, २३ सू० मकारानुस्वारे मुद्द इति भवति । प्राप्नोमि । प्रपूर्वक प्राप्लु (धाप्) धातुः प्राप्ती प्राप् + मिव् । ३५० सू० रेफलोये, २३१ सू० द्वितीय- पकारस्य स्थाने वकारे, ९१० सू० प्रकाशममे, ६४७ सू० प्रकारस्य एकारे, ६३० सू० मित्र: मि इत्यादेशे पावेमि इति भवति । ६४८ सूत्रस्योदाहरणं, यथा-1 धातुः श्रव । श्रु+थ । ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ९५१ सू० स कारस्य शकारे, ९१२ सू० णकारागमे, ६३२ सू० थस्य ह्च् (ह) इत्यादेशे, ९३९ सू० हकारस्य घकारे शुष इति भवति । इदानीम् दाणि प्रक्रिया ९४८ सूत्रे जेया । अहम् हमें, अक्रावतार-तीर्थ निवासी श्रीवर:: :शकावयाल विस्त- णित्राशी धीत्रले प्रक्रिया ९७२ सूत्रे ज्ञेया । शक्कावयाल इत्यत्र १७७ सू० दकारलोपे जाते सति १८० सू० यकारश्रुतिरभूद् । ६४६ सूत्रस्योदाहरणं यथा— तस्मात् यावत् प्रषिशामिकता याव पविशामि प्रक्रिया ९४९ सूत्रे ज्ञेया । श्रयं विशेष:, मागध्यां याव इत्यत्र ९६३ सूत्रेण कारस्य यकारो जातः पविशामि इत्यन ९५९ सू० सकारस्य शकारोऽभूद् । ६५० सूत्रस्योदाहरणं, पंथा-- युक्तमिदम् = युक्त गिमं सट्टशभियम् शालिशं निर्म, प्रक्रिया ९५० सूत्रे शेया । प्रयं विशेषः,
1
I
इत्यत्र माग ९६३ सूत्रेण कारस्य वकारः, शशि इत्यत्र १५९ सूत्रेण उभयत्रापि सकारस्य शकार: रेफस्य व लकारो जातः । ६५१ सूत्रस्योदाहरणं यथा मम एवममय्येव प्रक्रिया ९५१ सूत्रे ज्ञेया । ६५२ सूत्रस्योदाहरणं यथा हे तुरिके ! =हज्जे चदुलिके !, प्रक्रिया ९५२ सूत्रे ज्ञेया । मागsarg ages ! त्यत्र ९५९ सू० रेफस्य लकारो जातः । ६५३ - सूत्रस्योदाहरणं, यथा-यथा उदासेति । उवासराधय इति नामधेयो हि काव्यविशेषः, तत्र राक्षसाभिधानः कश्चिद् व्यक्तिरेवमवादीत् - हम जला में जननी - हीमाणहे जीवन्तच्छा मे जणणी प्रक्रिया ९५३ सूत्रे ज्ञेया । मागधीभाषायान्तु ९६६ सू० छकारस्य श्च इत्यादेशे जीवन्त वा इति भवति । छकारापायैव चकारोऽपि गतः । होमाणहे परिश्यअन्तः वयमेतेन निविधिना दुर्व्यवसितेनहीमाणहे पलिस्सन्ता हमे एवेण निafgar, प्रक्रिया ९४३ सूत्रे ज्ञेया । मागध्यान्तु ९५९ सूत्रेण सकारस्य शंकारे कृते - afar इति भवति । विक्रान्तभीम- नामधेये काव्ये कस्यचिद् राक्षसस्योक्तरियम् । ६५४ सूत्रस्योदा हरणं यथा-नणं, प्रक्रिया ९५४ सूत्रे ज्ञेया । श्रवसरोपसर्पणीयाः । प्रवसरेण श्रवसरे वा उपसपैंणीयाः । श्रवसोपसर्पणीय + जस् । १५९ सू० उभयत्रापि सकारस्य शकारे १५९ सू० रेफस्य लकारे, ३५० सू० फलोपे, ३६० सू० पकारद्वित्वे ५०१ सू० पूर्वाकार दीर्घे ४९३ सू० जसो लुकि अवशंलोपश
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११९
human-namann
चतुर्थंपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * प्पणीया इति भवति । १राजानः । राजन् +जस् । रेफस्य लकारे, ६६३ सू० जकारस्य यकारे, ११ सू० नकारलोपे, ५३९ मु० जसः णो इत्यादेशे, ५०१ सू० पूर्वाकारदीर्घ लायाणो इति भवति । ६५५ सूत्रस्त्रोदाहरणं, यथा-अम्महे एतथा सुमिलया सुपरिघटितो भवान् मम्महे एमाए सुम्मिलाए सुपलिग"हिंदी भवं, प्रक्रिया ९५५ सूत्रे ज्ञेया 1 मागध्यान्तु ९५९ सू० सकारस्य शकारे शुम्मिलाए, शुपलिगदिने इति भवति । शुपलिगहिदे इत्यत्र ९५८ सू० प्रकारस्य एकार:, सेलोपश्च जातः । ६५६ सूत्रस्योदाहरणं, यथा-होही सम्पन्नाः मे मनोरथाः प्रियवयस्थास्य-हीही संपन्ना मे भगोरा पियवयस्सस्स, प्रक्रिया ९५६ सत्र शेया । मागध्यान्तु ९५१ सूत्रेण रेफस्य लकारे जाते मणोलवा इति भवति । शेर्ष प्राकृतपरिति । मागधीभाषाप्रयोगेषु मागधी-भाषानियमास्तु धवलियन्ते एव किन्तु शौरसेनीभाषामियमा
अपि पहियन्ते, यत्र शौरसेनीभाषानियमा अपि प्रवृत्ति न भजन्ते तत्र प्राकृतभाषा-नियमामामपि :: व्यवहारो जायते । एनमेवाभिप्राय संसूचयितु शेषं शौरसेनीष, शेषं प्राकृतवर, इत्येतेषां पदाना
मुल्लेखो विहितः। विभायः स्वयमन्यूह्म दर्शनीयः । प्रस्तुताष्टमाध्याये ४ सूत्रादारभ्य ९३० सुत्रपर्यन्तं . :मात्युदाहरणानि प्रदत्तानि, तन्मध्येऽभूमि उदाहरणानि तस्वस्थानि-प्राकृतभाषानियमः शौरसेनीभाषा-नियमैश्च सिद्धानि, मागध्यां गृह्यन्ते तथा प्रमून्युदाहरणामि एवंविधानिमागधीभाषानिय मैः साषितानि, इति विभाग:-विभेदः स्वयमेव अभ्यूह्य-सम्यविचार्य पाठकः दर्शनीय:, ज्ञानविषयीकरमीयः। समाप्सं मागधीभाषा-प्रकरणम् | मागधीभाषायाः प्रकरणम्-अध्यायः समासम्-सम्पूर्णतां गतम् । मूल ग्रन्थे मागधीभाषा-प्रकरणस्य समाप्ती बालमनोरमा-टीकायामपि मागधी-भाषा-व्याख्यान समाप्तिमेति ।
सम्पूर्णा मागधोटोका, रम्या बालमनोरमा । आत्म-गुरोः प्रसादेन, मुनिझानेन्दु-निर्मिता ।। * समाप्तं मागधीभाषा-विवेचनम् *
* अथ मागधी-भाषा-विधि * महावीर भगवान का, पावन सुखमय नाम, शुद्ध हृदय से जो जपे, जीवन हो सुखधाम ।
गुरुवर प्रात्माराम जी, श्रमण-संघ शृङ्गार,
भरण-शरण जगतारिका, महिमा का ना पार । गुरुचरणों की शरण ले, हर्ष-चित्त मुनि ज्ञान,
*गिरा मागधी का करे, हिन्दी में व्याख्यान । हैमशब्दानुशासन के इस अष्टम अध्याय में प्राकृत प्रादि ६ भाषाओं का वर्णन किया गया है। इन में तीसरी मागधी भाषा है। मगधदेश की प्राचीन भाषा का नाम मागधी है। बिहार के दक्षिणी प्रान्त को पहले मगध के नाम से पुकारते थे। इस प्रान्त के निवासी प्रा.
--भवनरोपसर्पणीपा:-मवसरण गन्तम्या: रामानो भवन्स्यतोऽवस समीक्षा तेषां समीपे गन्तव्यमिति प्रायः । २भावा।
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपायः चीनयुग में जिस भाषा द्वारा अपना व्यवहार सम्पन्न किया करते थे, वहीं भाषा मागधी कहलाती है। मागधी भाषा का प्राकृत और शौरसेनो भाषा के साथ कितना सम्बन्ध है ? ये भाषाएं आपस में एक दूसरे के कितनी तिमा है ? आदि माहातों को लेकर इस प्रकरण में चिन्तन प्रस्तुत किया जा रहा है।
९५८-यदि अकारान्त शब्द पुल्लिङ्ग हो तो मागधी भाषा में अकार को एकारादेश हो जाता है । जैसे-१-एषः मेष: एशे मेशे (यह भेड़ है), २ एषः पुरुषः एशे पुलियो (यह पुरुष है),३-कसेमि भवन्त ! करेमि भन्ते ! (हे भगवन् ! मैं करता हूं), यहाँ पर प्रकार को एकार किया गया है। प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने "अतः" (अकार को) इस पद का ग्रहण क्यों किया है ? उत्तर में निवेदन है कि -१-निषिः-णिही (खजाना), २-करिः कली (हाथी), ३.गिरि-गिली (पहाड़) इन अकारान्त-भिन्न शब्दों के इकार को एकारादेश न हो जाए इस उद्देश्य से सूत्रकार ने "अतः" इस पद का उल्लेख किया है। घुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि सूधपठित सि (पुल्लिग में) इस पद के ग्रहण करने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में निवेदन है कि जलम् - जलं (पानी) प्रादि पुल्लिङ्ग-भिन्न (स्त्रीलिङ्ग तथा नपुंसकलिइम) शब्दों के प्रकार के एकारादेश का निषेध करने के लिए सूत्रकार ने 'सि' इस पद का प्राश्रयण किया है। जल माकलिङ्ग का शब्द है, अत: प्रस्तुत सूत्र से यहां पर प्रकार को एकारादेश नहीं हो सका। बृहत्कल्पसूत्र के लघुभाष्यकार एक स्थान पर लिखते हैं
पुख्याधर-संजुतं घेरगकर सतंतमविरुवं ।
पोराणमतमागह-भासा-निययं हवइ सुतं ।। अर्थात्---सूत्र पाच प्रकार का माना गया है । जैसे---१-पूर्वापरसंयुक्त जिस में पहले और पीछे का विरोध हो, जिसके पहले और पिछले कथन में कोई विरोध न माता हो, २-वैराग्यकरवैराग्य (विषय-सुख के प्रति उदासीन भाय) को पैदा करने वाला हो, ३-बसंत्राविबद्ध अपने सिद्वान्त से विरोध न खाता हो,४-पौराण-तीर्थकर तथा गणधर प्रादि पूर्व पुरुषों से प्रणीत (निर्मित) हो, ५-अर्द्धसगाव-भाषा-नियत अर्द्धमागधी भाषा (प्राकृत का वह रूप जो पटना और मथुरा के बीच बोला जाता था अथवा प्राधे मगध देश की भाषा) से नियत (नियम द्वारा स्थिर, बन्धा हुमा) हो, अर्थात् अर्द्धमागधी भाषा में लिखा हुआ हो।
बृहत्कल्पसूत्र के भाष्य की उक्त गाथा के अन्तिम पौराणम भाग-भाषा-मियतं भवति सूत्रम्" इन दो चरणों का प्रस्तुत सूत्र में वृत्तिकार ने उल्लेख किया है । वृत्तिकार फरमाते हैं कि जो "सूत्र पौराण और प्रर्द्धमाघ-भाषा-नियत होता है"यह कहकर बुद्ध (पूर्व) पुरुषों ने प्रार्षप्राकृत को अर्द्ध-मागध की भाषा के नियमों से बंधा हुमा स्वीकार किया है,वह प्रायः प्रस्तुत सूत्र(९५८) के विधान की अपेक्षा से ही स्वीकार किया गया है। आगे कहे जाने वाले (९५९ आदि) सूत्रों के विधिविधान को यागे रख कर उन्होंने उक्त मान्यता का निर्देश नहीं किया ! भाव यह है कि पार्ष-प्राकृत (जनागमों) में प्रायः इसी सूत्र का कार्य दिखाई देता है, मागधी-भाषा में वणित अभ्य सूत्रों द्वारा विहित नियमों का पार्षप्राकृतं में उपयोग नहीं किया गया । पार्षप्राकृत के उदाहरण इस प्रकार हैं-१-कतर मागच्छति= कयरे मागस्छ ? (दो में से कौन पाता है ?); २-सतादृशः खसहः जितेन्द्रियः= से तारिसे दुक्ख
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चतुर्थपाद:
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((इन्द्रियों काम करने वाला) है, वैसा दुःखों को भी सहन करने वाला है) इत्यादि उदाहरणों में प्रकार को एकार किया गया है। और ये सब प्राकृत के उदाहरण हैं । अतएव वृत्तिकार फरमाते हैं कि श्राप्राकृत में प्रस्तुत सूत्र का ही विशेष रूप से उपयोग होने से जैनागमों की भाषा अर्धमागधी कही जाती है ।
EZE---भागधीभाषा में रेफ तथा दन्त्य ( जिस का दन्त स्थान हो) सकार के स्थान में यथासंख्य (संख्या के अनुसार ) लकार तथा तालव्य (जिस का तालु स्थान हो । शकार होता है । अर्थात् रेक को लकार और सकार को शकार हो जाता है। जैसे रेफ के उदाहरण - १ - नरःनले (मनुष्य), २- करः-कले (हाथ), सकार के उदाहरण- १ - हंस हंशे (मानसरोवर में मोती चुगने वाला पक्षी), २- श्रुतम् - शुदं (शास्त्र, सुना हुआ), ३- शोभनम् शोभणं (सुन्दर) दोनों (रेफ श्रीर लकार) के उदाहरण - १ - सारसः = शालशे (सारस नामक पक्षी), २-पुरुषः पुलिशे (मनुष्य) इन प्रयोगों में प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति की गई है।
=
रभस दश- सुर-शिरो- विगलित-मन्दार- राजितांत्रियुगः ।
धीरजिनः प्रक्षालयतु मम सकल मव- अम्बालम् ॥ १ ॥
अर्थात् पापों से मुक्ति प्रधिगत करने की लालसा रखने वाला कोई साधक भगवान महावीर की स्तुति करता हुआ कहता है कि श्रद्धातिरेक के वेग कारण नम्र ( झुके) हुए देवों के सिरों से गिरे मन्दार नामक पुष्पों से जिनका चरण-युगल (दोनों चरण) सुशोभित हो रहा है, वे जिनेन्द्र भगवान महावीर मेरे सकल अवद्य (पाप) रूप जम्बाल (काई) को प्रक्षालित करें, उसे दूर कर दें ।
इस श्लोक में पठित- १ - रमस लहरा, २ नमिल, ३- सुरशुल, ४-शिरस्= शिल, ५ मन्वार = मन्दाल, ६ – राजिस क्लायिद, ७-६ - वीरवील, म-सकल-शयल इन शब्दों में प्रस्तुत सूत्र से रेफ को लकार और सकार को शकार किया गया है।
६६० - मागधी भाषा में संयोग में वर्तमान (विद्यमान ) सकार और षकार को सकारादेश होता है, किन्तु ग्रीष्म शब्द के षकार को स का आदेश नहीं होता । ३४८ वें सूत्र से ऊर्ध्वस्थित (संयुक्त वर्ण मैं पहले रहे हुए) षकार और सकार का लोप हो जाता है और जिन शकार, षकार और सकार के आदि में स्थित यकार प्रादि वर्णों का लोप होता है, उनके प्रादिम स्वर को ४३ वे सूत्र से दीर्घ होता है, किन्तु प्रस्तुत सूत्र ने इन सब कार्यों को बाघ कर संयुक्त सकार और षकार को सकारादेश का विधान कर दिया है। इसी लिए इस को अलोप आदि विधियों का अपवादसूत्र माना जाता है। सकार के उदाहरण इस प्रकार हैं - १ -प्रत्खलति हस्ती पस्खलदि हस्ती (हाथी गिरता है), २- बृहस्पतिः arrat (बृहस्पति देवों का गुरु ), ३ – मस्करी मस्कली (साधु, चन्द्रमा), ४---1 - विस्मये विस्मये ( माश्वर्य में ), षकार के उदाहरण- १ - शुष्कवाद शुरूक-दालु (सूखा लक्कड़), २--कटम् फस्ट ( दुःख ), ३ - विष्णुम् विस्तु (विष्णु को), ४- शष्पकवलः शस्प कवले ( घास का ग्रास ), ५ - उष्मा उस्मा (गरमी ), ६--- निष्फलम् = निस्फलं (फन से रहित), ७-- धनुष्-खण्डम् धनुखण्ड (घनुष् का टुकड़ा), यहां पर संयुक्त सकार और षकार को सकारादेश किया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र में- अग्रीष्मे (ग्रीष्म शब्द को छोड़कर), यह पद किस लिए पढ़ा गया है ? उत्तर में निवेदन है कि ग्रीष्माषसरः गिम्हवाशले (ग्रीष्म ऋतु का दिन) आदि पदों में संयुक्त षकार को सकारादेश का निषेध करने के लिए 'ग्रीष्मे' इस पद का ग्रहण किया गया है।
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* प्राकृत-ध्याकरणम् *
चतुर्थपादः ६६१-मागधीभाषा में द्विरुक्त (जिसे दो बार कहा गया हो) टकार को तथा षकाराकान्त (षकार से युक्त) ठकार को सकाराकान्त (सकार से युक्त) टकार होता है। अर्थात और 8 को 'स्ट' यह प्रादेश हो जाता है। ''के जवाहरण-१-पट्टा-पस्टे (तस्ती, लिखने की पटिया, तांबे आदि । धातुओं की चिपटी पट्टी,जिस के ऊपर राजाज्ञा या दान प्रादि देने की सनद (प्रमाणपत्र) खोदी जाती थी, आदि), २-भट्टारिका-भस्टालिका (पूज्य नारी), ३-भट्टिनी- भस्टिणी (महारानी, ब्राह्मण की स्त्री), ठ के उदाहरण-१-सुष्टु कृतम् मा शुस्टु कई (अच्छा किया), २-कोष्ठागार-कोस्टागालं (चान्य प्रापि खसे मार, यहां पर ट्ट और ष्ठ के स्थान में क्रमश: "स्ट' यह आदेश किया
९६२-मामधीभाषा में स्थ और पं इन संयुक्त वर्गों के स्थान में सकारान्त (सकार से युक्त) सकार होता है । सेक्स के बाहरण-१-उपस्थितः उवस्तिदे (हाजिर),२--सुस्थितः- शुस्तिदे (अच्छी तरह से रहा हुमा), र्थ के उदाहरण-१-अर्षपलि:=प्रस्त-वदी (धन का स्वामी), २-सार्थ - बाहाम शस्तवाहे (सार्य व्यापारिसों) का समूह) का मुखिया, संधनायक) यहां पर स्थ और र्थ इन के स्थान में 'स्स' यह प्रादेश किया गया है।
___ ३-मागधी भाषा में ज़, ध और य इन के स्थान में पका रादेश होता है । अकार के उवाहरण-१-जानातियाणवि (वह जानता है), २-बानपा-यणवदे (देश), ३-अर्जुन:-अय्युणे (पापा-पुत्र अर्जुन), ४--सुजतः दुय्यरणे (दुष्ट प्रादमी), ५-पति-गयदि (वह मरजता है), ६-- गुण-पजित: गुण-वय्यिदे (गुणों से रहित), बके उदाहरण-१-मखमयमय्यं (मदिरा), २-अथ सि विद्याधरः आगत:- अयय किल विय्याहले मागदे (निश्चय ही प्राज विद्याधर पा गया है), पकार
बाहरण---यातिम यादि (वह जाता है), २-पपास्वरूपम् - यधाशस्लूवं (स्वरूप के अनुसार), ३-यानपात्रम्याण-बत्त (नाव, जहाज), ४-यहि (मलिः)- यदि (अगर अथवा साधु), यहां पर बकारमादि के स्थान में सकारादेश किया गया है। पुतिकार फरमाते हैं कि यकार का यह विधान २४५ सत्र से यकार के स्थान में होने वाले जकारादेश को बाधित करने के लिए किया गया है।
९६४-मागधीभाषा में ज्य, पश और मज इन संयुक्त वर्णों के स्थान में द्विरुक्त (जिसे दो बार कहा गया हो) प्रकार होता है। जैसे-ज्य के उदाहरण-१-अभिमन्युकुमारः प्रहिमत्रु-कुमाले (अर्जुन का योद्धा पुत्र),२-अन्य-विशाम्प्र अदिशं (दूसरी दिशा को), ३. सामान्यगुणः-शामन्त्रगुणे (साधारण गुण), ४ - कन्यकावरणम् - कम्ञका-बलणं (कन्या का वरण-चुनाव याचना, या पर्दा), ज्य के उदाहरण-१-पुण्यवान-पुत्रवन्ते (पुण्य वाला), २-अब्रह्मण्यम् अवम्हनं (ब्राह्मण के अयोग्य), ३-पुण्याहः-पुत्राहं (पुण्य रूप दिन),४-पुष्यम्-पुत्रं (पवित्र कार्य), शके उदाहरण१-प्रनाविशाल: पनाविशाले [जिसकी प्रज्ञा-बुद्धि विशाल (बड़ी) हो], २...-सर्वशः शत्रने (सब कुछ जानने वाला),३-- अशा अवता(अनादर), अज के उदाहरण-१-अञ्जलिः अननी (कर-सम्पुट, अभिवादन का संकेत), २-बनायः धणजए (अर्जुन), ३- पञ्जर:- पञले (पसलो, शरीर, गौ का एक संस्कार-विशेष), यहां पर न्य आदि संयुक्त वणों के स्थान में ' ' यह श्रादेश किया गया है।
६५-मागधीभाषा में धातु के जकार को 'ञ' यह आदेश होता है । ९६३ ३ सूत्र से जकार को यकारादेश होता है, किन्तु यह उसका अपवादसूत्र है । जैसे-वजति वञ्चदि (बह जाता है) यहां पर जकार को 'ज' यह मादेश किया गया है।
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चतुथंपाद:
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * ९६६-मागधी भाषा में अनादि (जो प्रादि में विद्यमान न हो) छकार के स्थान में तालव्य (जिस का तालु स्थान हो) शकार से प्राक्रान्त (युक्त) चकार होता है। जैसे-१-छ,गच्छ गश्च, गेश्च (तू जा, तू जा), २-उसछालति उचलदि (वह उछलता है), ३- पिशिल:- पिश्चिले (चिकना, रपटन वाला, पूछ वाला), ४-धतिः-पुश्चदि (वह पूछता है) यहां पर 'ई' के स्थान में श्च यह आदेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि लाक्षणिक (लक्षण-व्याकरण सूत्र से निष्पन्ल) छ के स्थान में भी 'इच' यह आदेश हो जाता है। जैसे-१-प्रायम्नवत्सलः-प्रावन्न-वश्चले (जिसे बत्सल पापन्न-प्राप्त है),२-सिकप्रेक्षनेसमिरिच्छि पेचा मागधी भाषा में-तिरिश्चि पे. स्कदि (वह टेढा देखता है), ये रूप बनते हैं। यहां पर स को छ, तिथंक को तिरिस्छि तथा क्ष को छ किया गया है । यह छ लाक्षणिक है,प्रतः इसे 'श्च' यह प्रादेश कर दिया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सत्र में "अनावों (आदि में विद्यमान)' इस पद का ग्रहण क्यों किया गया है। उत्तर में निवेदन है कि छाग:-छाले (बकरा) इस पद में आदिभूत छकार को 'इंच' यह प्रादेश न हो जाए, इस विचार से 'अनावो' इस पद का ग्रहण किया गया है।
९६७-मागधीभाषा में प्रनादि में वर्तमान (विचमान) क्ष के स्थान में जिह्वामूलीय xक यह प्रादेश होता है । जिह्वा के मूल (जड) से उपचारित वर्ण जिह्वामूलीय कहलाता है। जैसे-१-यक्षयके (यक्ष जाति का देवविशेष), २. रामसल कशे (राक्षस, वान-व्यन्तर जाति का देवविशेष), यहां पर के स्थान में जिह्वामूलीय क येह मादेश किया गया है । ध्यान रहे कि यह आदेश पनादिभूत क्ष के स्थान में ही होता है, मादिभूत क्ष को यह आदेश नहीं हो पाताई। जैसे-भय-अलपरा: खय-यलहला (क्षय-प्रलयकाल के जलघर मेध) यहाँ पर'क्ष प्रादिभूत वर्ण है,फलतः इस को जिह्वामूलीय क यह प्रादेश नहीं हो सका।
E-मागधीभाषा में प्रेस और भाचा इन धातुओं के 'क' को सकार से प्राकान्त (युक्त) कंकारादेश होता है । यह ९६७ वें सूत्र से क्ष के स्थान में होने वाले 'जिह्वामूलीयक' का अपवाद सूत्र है। जैसे-१-प्रेक्षते-पेस्कदि (बह देखता है), २-आचकते पाचस्कंदि (वह कहता है), यही पर ९६७ वें सूत्र से क्ष के स्थान में जिह्वामूलीय कम हो कर प्रस्तुत सूत्र में 'स्क' यह प्रादेश किया गया है।
६६.-संस्कृत-ध्याकरण के अनुसार स्थाधातु का जो 'तिष्ठ' यह रूप होता है, मागधीभाषा में इसे 'विष्ठ' वह प्रादेश हो जाता है। जैसे-तिष्ठति विष्ठदि (वह ठहरता है। यहां पर तिष्ठ को 'विष्ठ' यह प्रादेश किया गया है।
९७०-मागधीभाषा में प्रवर्ण से परे इस्-प्रत्यय के स्थान में डित (जिसमें उकार इत् हो) प्राह यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-१-अहम ईदशस्य कर्मणःकारी-हगे न एलिशाह कमाह काली (ऐसे कर्म का करने वाला मैं नहीं हूँ),२-भगवत-शोषितस्य कुम्भः भगदत्त-शोणिदाह कुम्भे (भगदत्त नामक मनुष्य के शोणित-रक्त का घड़ा), यहाँ पर उस-प्रत्यय के स्थान में डाह (आह) यह प्रादेश विकल्प से किया गया है। प्रदेश के प्रभावपक्ष में --भीमसेनस्य पश्चात हिण्यते भीमशेणस्स पश्चायो हिंण्डिीअदि (वह भीमसेन के पीछे घूमता है), २-हिबिम्बाया घटोत्कच-शोकन उपशाम्यति-हिडिम्बाए बडुक्कय-शोके ग उपशमदि (हिडिम्बा (एक राक्षसी, जो पाण्डुपुत्र अर्जुन की पत्नी थी) का घंटोत्कच (हिडिम्बा का पुत्र)-अभ्य शोक उपशान्त नहीं हो रहा है), यहां पर डस् प्रत्यय के स्थान में प्रस्तुत सूत्र से डाह (माह) यह प्रादेश नहीं हो सका। वैसे एक ही प्रयोग में सूत्र की वैक.
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★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
fore प्रवृत्ति का निर्देर्शन होना चाहिए था, किन्तु वृत्तिकार ने भिन्न-भिन्न प्रयोगों में जो उस का निर्देश किया है, इसका कारण वृत्तिकार की अपनी स्वतंत्रता ही कहा जा सकता है ।
६७१- भागधीभाषा में प्रवर्ण से परे यदि आम् प्रत्यय हो तो उसके स्थान में अनुनासिकान्त ( जिसके अन्त में अनुनासिक हो) और डित (जिसमें डकार इत् हो ) आह यह घादेश विकल्प से होता है । जैसे- स्वजनानां सुखम् यणा सुहं (पने मनुष्यों का सुख ) यहां पर श्राम्-प्रत्यय के स्थान में डा (आ) यह वैकल्पिक आदेश किया गया है। प्रदेश के अभावपक्ष में- नरेन्द्राणाम् नलिन्दाणं (राजानों का यह रूप बनता है। यहां पर शाम को '' यह प्रादेश नहीं हो सका । वृत्तिकार फरमाते हैं कि १११८ वें सूत्र से प्रस्तुत में मागधीभाषा सम्बन्धी नियमों का व्यत्यय (परिवर्तन) हो जाने पर प्राकृतभाषा में भी आम्-प्रत्यय के स्थान में 'वाह' यह श्रादेश हो जाता है। जैसे- १ - तेषाम् ताहं (उनका ), २- युष्माकम् तुम्हाहं (तुम्हारा ), ३ अस्माकम् अम्हाई (हमारा ), ४-- सरिताम् = सरिया ( नदियों का ), ५ - कर्मणाम् कम्माह (कर्मों का) व्यत्यय के कारण यहां पर प्राकृत भाषा के उक्त शब्दों के प्रम्-प्रत्यय को भी डा (मा) यह आदेश कर दिया गया है।
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९७२ - मागधीभाषा में अहम् तथा वयम् इन सर्वनाम शब्दों के स्थान में 'हगे' यह आदेश होता हैं। जैसे - १ – अहं शक्रावतार-तीर्थ निवासी श्रीवरहगे शकावदाल-ति-मित्राशी घीवले .(मैं शकावतार नामक तीर्थ स्थान का निवासी बीयर मच्छीमार या मल्लाह हूं), २- वयं सम्प्राप्ताः हमे संपता (हम सम्प्राप्त हैं, प्राप्त कर चुके हैं), यहां पर अहम और वयम् इन दोनों पदों के स्थान में क्रमशः 'हये' यह प्रादेश किया गया है ।
::..: ९७३ - मागधी भाषा में जो कुछ कहा गया है यर्थात् मागधी भाषा सम्बन्धी जितने नियम बताए जा चुके हैं, उन से भिन्न मागधीभाषा के जो नियम हैं, वे सब नियम शौरसेनी भाषा के समान ही समझने चाहिए। मात्र यह है कि मागधी भाषा के विधिविधान का ९५८ वें सूत्र से लेकर ९७२ में सूत्र तक बन कर दिया गया है। इसके अलावा शेष सब नियम शौरसेनो के तुल्य ही जानने चाहिए । शौरसेनी भाषा के जिन-जिन विधानों का मागधीभाषा में श्राश्रयण किया जाता है, उन्हें वृत्तिकार उदाहरणों द्वारा स्वयं संसूचित करते हैं। जैसे -- १ -- प्रविशतु प्रातः स्वामि- प्रसादाय पविशदु आवृते शामि पशादाय (स्वामी के प्रसाद (अनुग्रह, या हर्ष) के लिए आयु-भगिनीपति (बहनोई) प्रवेश करें), वि यहां पर शौरसेनी भाषा के ९३१ वे सूत्र से सकार को बकार किया गया है । २ - अरे ! किमेषः "महान् कलकलः ? प्रले कि एशे महन्दे कलवले ? (बरे यह महान कलकल (शोर) क्या है ?, क्यों हो रहा है ?) यहां पर शौरसेनी भाषा के ९३२ में सूत्र से 'महन्दे' इस शब्द के अधोवर्तमान (संयुक्त वर्ण में 1 दूसरे) तकार को दकारादेश किया गया है। ३ - मारवथ वा चरथ वा । घयं तावत् स आगमः
- मालैव
- वाचलेध वा । श्रयं दावं शे श्रागमे (वह यह भागम (धन आदि का प्रागमन) इतना है, मारो अथवा धारण : करो- रक्खो), यहां पर शौरसेनीभाषा के ९३३ वे सूत्र से 'तावत्' इस अव्ययपद के श्रादिम तकार को कार किया गया है। ४-भी कचुकित ! भो कञ्चु ! (हे रनिवास के रखवाले !, अथवा हे लम्पदा), यहां पर शौरसेनी भाषा के ९३४ : सूत्र से इन् के नकार को आकार किया गया है । ५ भो - राजन् ! =भी रायं ! ( हे नृप I), यहां पर शौरसेनी भाषा के ९३५ में सूत्र से नकार को मकार किया गया है । ६-- एतु भवान् श्रमणो भगवान् महावीरः एदु भवं । शमसे भयवं महाबीले ( आप जाएं। • श्रमण भगवान महावीर), भगवन् ! कृतान्तः, यः आत्मनः पक्षमुज्झित्वा परस्य पक्षं प्रमाणी-करोषि ? . भयवं ! कदन्ते ये अप्पणी पत्रके उज्झिय पलस्स पञ्चकं पमाणी कलेशि ? (हे भगवन् ! ग्राप यमराज
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चतुर्षपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
१२५ हैं, जो अपने पक्ष को छोड़कर दूसरे के पक्ष को प्रमाणित कर रहे हैं ?),यहां पर शौरसेनीभाषा के ९३६ वे सूत्र से भवद और भगबब इन दोनों शब्दों के नकार को मकार देश किया गया है। ७-आर्य ! एष खलु कुमार: मलयकेतुः-अप ! एशेखु कुमाले मलयकेदूं (हे प्रार्य ! निश्चय ही यह कुसार मलयकेतु है). यहां पर शौरसेनी पाणा के ९३.७ वें सूत्र से य' के स्थान में 'ब' यह प्रादेश किया गया है। - अरे कुम्मिले ! कथय - प्रले कम्भिला! धेहि (परे कॉम्भला, कहो) यहां पर शौरसेनीभाषा के ९३८ वें सूत्र से थकार को धकार किया गया है। -अपसरथ आः ! अपसरप-मोशलध अय्या ! प्रोशल हे पार्यो ! हटो, हटो), यहाँ पर शौरसेनीभाषा के ९३९३ सूत्र सेहव'के हकार को धकार किया गया है । १०-भवति = भोदि (वह होता है), यहां पर शौरसेनी भाषा के ९४० - सूत्र से भूधातु के हकार को भकार किया गया है। ११-अपूर्व अपुरवे (अदभुत), यहां पर शौरसेनीभाषा के ९४१ व सूत्र से पूर्व शब्द के स्थान में 'परव' यह प्रादेश किया गया है । १२-किलु शोभनो ब्राह्मणोऽसि इति कलिया राशा परिग्रहः सः ?==कि रख शोभणे बम्हणे शित्ति कलिय लन्ना पलिगहे दियो ? (क्या"निश्चय ही तुम अच्छे ब्राह्मण हो"यह जानकर राजा ने तुम्हें परिग्रह (सम्पत्ति) दिया है 1), यहां पर शौरसेनीभाषा के ९४२ वें सूत्र से पत्या प्रत्यय के स्थान में 'इय' यह आदेश करके कलिय'यह शब्द बनाया गया है। १३ . कृत्वाकडून (कर के), गत्या गडम (जा करके), यहां पर शौरसेनी-भाषा के ९४३ ३ सूत्र से कु और गम् धातु से परे पाए कस्वा प्रत्यय के स्थान में डित अडअ यह आदेश करके काम और गडुझ ये रूप बनाए गए हैं। १४-अमात्यराक्षसं प्रेक्षित इत एवं आगच्छति प्रम
-लरकशं पिक्खिदु इदो य्येव प्रगश्चदि [वह अमात्य (मंत्री) रूप राक्षस को प्रर्थात् वह राक्षस नामक मंत्री को देखने के लिए इधर ही पा रहा है ]; यहां पर शौरसेनी भाषा के ९४४ ३ सूत्र द्वारा इच्' इस तिवादेश को 'वि' यह आदेश किया गया है। १५-परे । किमेवः महान कलकलः भूयते अले ! कि एशें महन्दे कलयले शुणी प्रदे ? (अरे ! यह क्या महान कोलाहल सुना जा रहा है ?), यहां पर शौरसेनी-भाषा के ९४५ सुन द्वारा एच के स्थान में दे यह आदेश किया गया है । १६ तस्मात कस्मिन् गदः रुधिर-प्रियो भविष्यति? =ता कहि न गदे लुहिलप्पिए भवविस्सदि ? (उस से किस में - धिर-प्रिय (रक्त को समाप्त करने वाला) रोग होगा?, यह अनिश्चत है), यहां पर पढ़ा नु यह अव्यय‘पद है । इसके अर्थ हैं-सन्देह, अनिश्चय । यह संभावमा और अवश्य इस अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। यहां पर शौरसेनी भाषा के ९४६ वें सूत्र से भविष्यदर्थक प्रत्यय से पूर्व स्सिका प्रयोग किया गया है। १७अहमपि भागुरायणात मनां प्राप्नोमि-ग्रहं पिभागलायणादो मुह पावेमि (मैं भी भागुरायण से मुद्रा (अंगूठी, तगमा, गुप्त भेद, रुपया प्राप्त करता है),यहाँ पर शौरसेनी भाषा के ९४७ वे सूत्र से अमि-प्रत्यय के स्थान में डादो (पादो) यह प्रादेश किया गया है। १८-शृणुथ इदानीम् अहं शकावतार-तीर्थ-निवासी धोवरः शुणध दाणि हगे शक्कावयाल-तिस्त-णिवाशी घीवले (अब सुनो, मैं शकायतार नामक तीर्थ का रहने वाला धीवर हूँ), यहां पर शौरसेनी भाषा के ९४८ वें सत्र से इवानीम् इस अध्यय के स्थान में 'वाणियह आदेश किया गया है। १९-तस्मात पायद प्रविशामिता याव पविशामि (इसलिए जब तक मैं प्रवेश करता हूँ), यहाँ पर शौरसेनीभाषा के ९४९ ३ सूत्र से तस्मात्' इस शब्द के स्थान में 'ता' यह प्रादेश किया गया है। २०-युक्तम् इदम् - युक्तं णिमं (यह युक्त-ठीक है), सदृशम् । इवम् - शालिशं णिमं यह समान है। यहां पर शौरसेनीभाषा के ९५० वें सूत्र से मकार से प्रागे, इकार . के पूर्व, णकार का पागम किया है । २१-सम एबमम व्येव (मेरा ही), यहां पर शौरसेनीभाषा के ९५१ वे सूत्र से एवं' इस अर्थ में प्येब'इस निपास का प्रयोग किया गया है। २२ हे चरिके ! हजे.
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به به همه مه يه يه سهمیه یه یه امیدی به وی می باید به له م
* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः चक्षुलिके! (हे चतुर दासी!),यहां पर शौरसेनी के ९५२वें सत्र से चेटि के ग्रामन्त्रण में 'हजे इस निपात को प्रयुक्त किया गया है। २३---विस्मयः,जीववरसा में जननी हीमाणहे, जीवन्तवश्चा मे जणणी [पाश्चर्य है कि मेरी माता जीवद्वत्सा (जिस का बछडा जोबित है) है, उवात्तराधव नामक काव्य में एक राक्षस का यह कथन है, उसी का उद्धरण यहां दिया गया है। यहां विस्मय मर्थ मैं शौरसेनीभाषा के ९५३ वें सूत्र से 'होमागहें इस निपात का प्रयोग किया गया है। तथा-खेका, परिश्वजस्तो परमेतेन निमविधेः खुर्व्यवसितेन-हीमाणहे, पलिस्सन्ता हंगे एदेश नियविधिणो दुश्ववशिदेण खेद है कि हम परिवङ्ग (मालिङ्गन) करते हुए अपने भाग्य की प्रतिकूलता से फंस गए], यहां पर निर्वेदग्लानि प्रर्थ में शौरसेनीभाषा के ९५३ वे सूत्र ने 'हीमारणहे इस निपात का विधान कर रखा है। यह वाक्य 'विक्रान्त भीम' नामक काव्य में एक राक्षस की ओर से कहा गया है, उसी का उल्लेख यहां किया गया है। २४-नन अवसरोपसर्पणीयाः राजानः ?=णं अवशलोपशप्णीया लायाणो ? [क्या राजालोग अवसर (मौके) के अनुसार चलने वाले होते हैं ?], यहां पर शौरसेनीभाषा के ९५४ - सूत्र से 'मनु' इस अर्थ में 'रग इस नपास का प्रयोग किया गया है। २५-हर्षः, एतया सुमिलया सुपरिघटितो भवान् == अम्महे एमाए शुम्मिलाए शुपलिगदिदे भवं [यह हर्ष की बात है कि प्राप मिला (नारी) से सुपरिघटित है,उस ने पाप को खूब ग्रहण कर रखा है]यहां पर शौरसेनीभाषा के ९५५ वें सूत्र से हर्थि में 'अम्महे इस निपात का प्रयोग किया गया है। २६-होही, सम्पन्नाः मे मनोरथाः प्रियवयस्यस्यही-ही संपन्ना में मगोलधा पियवयस्सस्स (प्राहा, श्राहा !, मेरे प्रिय मित्र के मनोरथ पूर्ण हो गए), यहां पर शौरसेनी भाषा के ९५६ वें सूत्र विदूषकों के हर्ष को अभिव्यक्ति में 'होही' इस निपात का प्रयोग किया गया है।
९५७ वे सूत्र के अनुसार मागधीभाषा में भी प्राकृतभाषा के विधिविधान का पाश्रयण किया जाता है । वृत्तिकार फरमाते हैं कि प्राकृतभाषा के प्रकरण में पठित चतुर्य सूत्र से लेकर ९३१ वें सूत्र तक जिसने भी सूत्र हैं और उन में जो-जो उदाहरण हैं, इन के मध्य में अमुक उदाहरण (जो मागधीभाषा के साथ मिलते जुलते हैं) तदवस्य (प्राकृत के समान) ही मागधी में संग्रहीत होते हैं, और प्रमुक उदाहरण उन से (प्राकृत-भाषा-प्रकरण में पठित उदाहरणों से) भिन्म अमुकं प्रकार के (मागधीभाषा-सम्मत नियमों से नियमत) होते हैं,यह विभाग-पर्यालोचन (सम्यक विवेचन)करके स्वयं ही जान लेना चाहिए। भाव यह है मागधी भाषा के विधिविधान में प्राकृत-भाषा तथा शौरसेनी भाषा के विधि-विधान का भी प्राश्रयण होता है। लोप, मागम, प्रादेश मादि जिन कार्यों का निर्देश प्राकृत तथा शौरसेनी भाषा में कर रखा है, उनका मागधी भाषा में भी संग्रहण कर लेना चाहिए किन्तु ध्यान रहे कि जिनका मागधीभाषा के नियमों के साथ विरोध नहीं है, उन्हीं नियमों का इस भाषा में संग्रहण होता है,अन्यों का नहीं । जैसे---प्राकृत भाषा में संयुक्त पकार का ३४८ वें सत्र से लोप होता है, किन्तु मागधी-भाषा ९६० वें सत्र से संयुक्त पकार को सकारादेश का विधान करती है। ऐसी दशा में षकारलोप प्रसंग में) मागधीभाषा में प्राकृत भाषा का नियम लागू नहीं होगा। इसी भान्ति अन्यत्र भी समझ लेना चाहिए।
गिरा मागधों का हुआ, परिपुरण व्याख्यान । पतो छात्रगण ! च्याम से, विच बनो "मुनि शाम" ॥
* मागधी-भाषा-विवेचन समाप्त *
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चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीका-अयोपेनम *
१२७ * अथ पैशाचीभाषा-प्रकरणम् * ९७४-शो ज्ञः पैशाच्याम् । ८ । ४ । ३०३ । पंधाच्यो भाषायां सस्य स्थाने नो भवति । पञा । सजा । सव्वञ्चो । ज्ञानं । विज्ञानं ।
९७५--राज्ञो वा चिम् ।।४।३०४। पंचाच्यां राश इति शब्दे यो ज्ञकारः तस्य चिञ् मादेशो वा भवति । राचित्रा लपित, रा लपितं । राचिनो धनं, रसओ धनं । ज्ञ इत्येव । राजा।
९७६-य-योजः । ८ । ४ । ३०५ । पैशाच्यां न्य-प्योः स्थाने नो भवति । क. सका। अभिमञ्चू । पुञ्ज-कम्मो। पुजाई।
१७७---णो नः ।।४।३०६। पेशाच्या एकारस्य नो भवति । गुन-गन-युत्तो । गुनेन । .-तदोस्तः । । । ४ । ३०७ 1 पैशाच्या तकार-दकारयोस्तो भवति । तस्य। भगवती। पच्चती । सतं । दस्य। मतन-परवसो। सतनं । तामोलरो। पतेसो। वतनी होतु । रमतु। तकारस्याऽपि तकारविधानमादेशान्तर-बाधनार्थम् । तेन पताका, वेविसो इत्याद्यपि सिद्धं भवति ।
७९-लोलः । ८।४। ३०८ । पेशाच्या कारस्य लकारो भवति । सील । कुलं । जलं । सखिलं । कमलं।
९८०-दा-षोः सः ।।४।३०६। पैशाच्या श-षोः सो भवति । श । सोभति । सोभनं । ससी । सक्को । सङ्खो। ष। विसमी। किसानो !। न क-ग-च-जादि-षट-शम्यन्त-सूत्रोक्तम् [४.३२४] इत्यस्य बाधकस्य बाधनार्थोऽयं योगः। ___५१---हृदये यस्य पः । ८।४१३१०१ पैशाच्या हृदयशब्दे यस्य पो भवति । हिलपर्क । कि पि, कि पि हितपके प्रत्यं चिन्तयमानी।
९८२-टोस्तु ।।४।३१११ पैशाच्या टोः स्थाने तुर्वा भवति। कुतुम्बकं,कुटुम्बकं ।
९८३--यत्वस्तूनः । ८ । ४ । ३१२ । पैशाच्यां क्त्वा-प्रत्ययस्य स्थाने तुन इत्यादेशो भवति । गन्तून । रन्तून । हसितून । पठितून । कधितून ।
६५४-ध्वन-स्थूनौष्ट्वः । ८ । ४ । ३१३ । पैशाच्या ष्ट्वा इत्यस्य स्थाने दून, स्थून इत्पादेशी भवतः। पूर्वस्यापवादः । नदून, नत्थून ! तादून, तत्यून ।
___९८५--स्व-ष्टां रिय-सिन-सटाः क्वचित् । ८ । ४ । ३१४ । पैशाच्या वे-स्न-ष्टां स्थाने यथासंख्यं रिय-सिन-सट इत्यादेशाः क्वचिद् भवन्ति । भार्या,भारिया। स्नातं,सिनातं । कष्ट, कसट । मवचिदिति किम् ? सुज्जो । सुनुसा। सिट्टी।
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१२८ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपाद: । ६---क्यस्येय्यः ।। ४ । ३१५ । पैशाच्यां क्य-प्रत्ययस्य इय्य इत्यादेशो भवति । गिय्यते । दिय्यते । रमिय्यते । पठिय्यते।
१८७-कृगो डीरः। ८ । ४ । ३१६ । पैशाच्यां कृगः परस्य क्यस्य स्थाने डीर इत्यादेशो भवति । पुधुम-तंसने सब्बस्स य्येव संमानं करते।
१८८-यावृशादेवुस्तिः । ८ । ४ । ३१७ । पैशाच्या यादृश इत्येवमादीनां । इत्यस्य स्थाने ति इत्यादेशो भवति । यातिसो। तातिसो । केतिसो। एतिसो । भवातिसो। अजातिसो । युम्हातिसो । अम्हातिसो।
-इन्चेचः । ८ । ४ । २१८ । पैशाच्यामिचेचोः स्थाने तिरादेशो भवनि । बसुपाति । भोति । नेति । तेति ।।
RED-प्रात्तश्च । । ४ । ३१६ पैशाच्यामकारात्परयो इचेचोः स्थाने तेः, चकारात तिश्चादेशो भवति । लपते, लपति । अच्छते, अच्छति । गच्छते, गच्छति । रमते, र. पति । प्रादिति किम् ? होति । नेति । ___९९१-भविष्यत्येय्य एव । ८ । ४ । ३२० । पैशाच्यामिचेचोः स्थाने भविष्यति ए. छ एवं भवति, न तु लिगः तदून चिन्तितं का एसा हवेय्य ।
९९२-प्रतो उसेडर्डातोडातू। ८ । ४।३२१ । पैशाच्यामकारात्परस्य सेडितो पातो प्रांत इत्यादेशौ भवतः। ताव च तीए तूरातो प्येव तिट्ठो। तुरातु । तुमातो, तुमातु । ममातो, ममातु।
६९३--तदिदमोण्टा नेन स्त्रियां तु नाए।८४।३२२। पैशाच्या तदिदमोः स्थाने टाप्रत्ययेन सह लेन इत्यादेशो भवति, स्त्रीलिङ्गे तु नाए इत्यादेशो भवति । तत्थ च नेन कतसिनानेन । स्त्रियाम् । पूजितो च नाए पातग्ग-कुसुम-प्पतातेन । इति किम् ? एवं चिन्तयन्तो पतो सो ताए समीपं ।
९४-शेषं शौरसेनी-वत् । । ४ । ३२३ । पैशाच्या यदुक्तं ततोऽन्यच्छेष पैशाच्या शौरसेनीवद् भवति । अध ससरीरो भगवं मकर-धजो। एत्थ परिभमन्तो हुवेय्य । एवंविधाए भगवतीए कथं तापस-वेस-गहनं कतं । एतिसं प्रतिद्व-पुरवं महाधनं तदून । भगवं ! यति में वरं पयच्छसि । राज! च दाव लोक । ताव च तीए तूरातो य्येव तिहो सो प्रागन्छमानो राजा। - ६५-नः क-ग-च-जावि-षट्-शम्यन्त-सूत्रोक्तम् । ८ । ४ । ३२४ । पेशाच्या क-ग-चज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक् [१.१७७] इत्यारम्य षट्-शमी-शाव-सुधा-सप्तपणेष्वादेश्छः [१. २६५] इति यावद्यानि सूत्राणि तैर्यदुक्तं कार्य तन्न भवति । मकरकेतू । सगर-पुत्त वचनं । वि.
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् * __जयसेनेन लपितं । मतनं । पापं । प्रायुधं । तेवरो। एवमन्यसूत्राणामप्युदाहरणानि द्रष्टव्यानि ।
* समाप्तं पैशाची-भाषा-प्रकरणम् * * अथ पैशाची-भाषा-बिबेत्रनम् * बोरं तीर्थपति नत्वा, ज्ञानालोक-प्रसारकम् ।
वन्धवन्धं गुरुं नत्वा, पैशाची अमिषीयते ॥ मागधी-भाषा-विवेचनानन्तरं पैशाची-भाषाया विधिविधानं प्रतिपादयत्याचार्यः।
९७४-UAEE प्रज्ञा+सि । ३५० सू० रेफलोपे, ९७४ सू शस्म का इत्यादेशे, १५१४३७। सू० सेरिकारलोपे, ११:सूक सकारस्य लोपे पाना इति भवति । संशा । संशा+सि । २८ सू० अनुस्वारस्य लोपे, पूर्वबदेव सना इति भवति । सर्वजः । सर्वज्ञ+सि । ३५० सू० रेफस्य लोपे,३६० सू० वकारद्वित्त्वे, जस्य ञ इत्यादेशे,४९१ सू० सेझैः,डिति परेऽन्त्यस्वरादेलपि सम्बाओ इलि भवति । मानम् । ज्ञान+ सि-ज्ञान+सि । ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे अमानं इति भवति । विज्ञानम् । वि. ज्ञान+सि । पूर्वबदेव विज्ञानं इति साध्यम् ।
६७५-राज्ञा । ९७५ सू० शस्य विकल्पेन चिञ् इत्यादेशे सचित्रा आदेशाभावे ९७४ सू० शस्य न इत्यादेशे राना, गोगे पो सो सामजि सथिहा । २३ सू० मकारानुस्वारे लपितं इति भवति । राजो धनम्-राचित्रो (२३ सू० मकारानुस्वारे) अ प्रादेशाभावे पूर्ववदेव रओ धनं इति भवति । श इत्येव । यज्ञो भवति तत्रैव ९७५. सूत्रस्यः प्रवृत्तियिते, नात्यत्र ! अतएव राजा इत्यत्र जस्याभावात् चित्रादेशो नः जातः । संस्कृततुल्यमेव पैशाच्या प्रयुज्यते।
९७६-कम्यका कन्यका+सि । ९७६ सूत्रेण न्यस्य न इत्याशे, ११११३७। सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे कत्रका इति भवति । अभिमन्युः। अभिमन्यु+सि-अभिमनु+सि । ५०८ सू० उकारदीर्धे, सेर्लोप अभिम इति भवति । पुण्यकर्मा । पुण्यकर्मन् +सि। व्यस्य अत्र इत्यादेशे, ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० भकारद्वित्त्वे, ११ सू० नकारस्य लोपे, ४९१ सू० सेडोः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोप पुअकम्मो इति भवति । पुण्याहम् । व्यस्य न इत्यादेशे, २३ सू० मकारानुस्वारे पुआहं इति भवति ।
९७७--गुण-गरण-युक्तः । गुण-गणेन युक्तः । गुण-गणयुक्त+सि। ९७७ सू० उभयत्रापि णकारस्थ नकारे, ३४८ स० ककारलोपे, ३६० स० तकारद्वित्त्वे, ४९१ स० सेोः डिति परेऽन्त्यस्वरादीप गुनगन-युत्तो इति भवति । अत्र २४५ सू० यकारस्य जकारप्राप्तिरासीत् किन्तु ९९५ सूत्रेण सा निषिद्धा । गुणेन । ९७७ सू० णकारस्य नकारे गुमेन इति भवति ।
-भगवती । १७७ सू० तकारलोपप्राप्ती ९७८ सू० सकारस्य तकारे एवं विहिते भगवती इति भवति । पार्वती । ३५० सू० रेफलोपे,३६० सू० वकारस्य द्वित्त्वे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १७७ सू० तकार-लोप-प्राप्तो प्रस्तुतसूत्रेण तकारस्य तकार एव स्थिते पव्यती इति भवति । शतम् । ९८० सू० शकारस्य सकारे, पूर्ववदेव तकारस्य तकारे एव स्थिते, २३ सू० प्रकारानुस्वारे सतं इति भवति । मवन-परमशः। मदनेन-कामदेबेन परवश:-पराधीनः । मदन-परवश+सि । १७७ स. दकारलोप-प्राप्तो प्रस्तुलसत्रेण दकारस्य सकारे, ९८० सू० शकारस्य सकारे, ४९१२० सेडों:, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे मतनपरवसो इति भवति । सबमम् । सदन+पम् । १७७ सू० दकारलोप-प्राप्तो प्रस्तुतसूत्रेण दकारस्य तकारे, ४१४ सू० अमोऽकारस्य लोपे, २३ स० मकारानुस्वारे सतनं इति भवति ।
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मलाम
* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपाद! बामोदरः । दामोदर+सि । दकारलोप-प्राप्तो, उभयत्रापि दकारस्थ सकारे, पूर्ववदेव सामोतरों इति भवति । प्रदेशः । प्रदेश+सि । ३५० स० रेफलोपे, दकारलोपप्राप्तौ दकारस्य तकारे,९८० सू शकारस्य सकारे, पूर्वधदेव पतेसो इति भवति । वनकम् । दकारलोपप्राप्ती दकारस्थ सकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे पतमकं इति भवति । भवतु । भूधातुः सत्तायाम् । भू+तुम् । ७३१ सू० भूधातोः हो इत्यादेशे, ६६२ सातवः द इत्यादेशेदकारलोपप्राप्ती प्र वेण टकारस्यमबारेमोन इति भवति । रम कोडायाम। रमताम.९१०स०प्रकाराममे. ६२ स० ताम इत्यस्य द इत्यादेशे, दकारलोप. प्राप्तो प्रस्ततसत्रेण दकारस्य तकारे रमत इति भवति। तकारस्थापीति । प्रस्तुतसत्रेण तकारदकारयों स्थाने तकारादेशो विहितः, किन्तु तकारस्य स्थाने पुनः तकारविवानं किमर्थ मिति प्रश्नः । उत्तरयति 'वृत्तिकारो यत्तकारस्यापि तका रविधान तत्तकार-स्थाने प्रादेशान्तरसाधनार्थम् । अन्यः प्रादेशः, प्रादेशान्तरम्, तस्य बाघनार्थमिति भावः । तेन पताका, बेतिसो इत्यादयः प्रयोगा: सिध्यन्ति । यथा - पताका इत्यत्र २०६ सू० तकारस्य कारप्राप्तिरासीस्किन्तु प्रस्तुतसूत्रेण तस्य परिहागे विहितः । वेतसः । वेतस+सि। ४६ सू० प्रादेरफारस्य इकारे, २०७ स० तकारस्य उकार-प्राप्तिरासीत् परन्तु प्र. स्तुतसत्रण सा निषिद्धा, ४९१ सू० सेडोंः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे वेतिसो इति भवति ।
१७९-शोलम् । शील+सि ।९८० सू शकारस्य सकारे, ९७९ सू० लकारस्य लकारे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे सोलं इति भवति । एवमेव ----कुलम् । कुल+सि= कुलं, जलम् । जल+सिजलं, सलिलम् । सलिल+सि सलिलं, कमलम् | कमल+सि - कमलं इति साध्यम् । लकारस्य स्थाने लकार-विधानम् । २५५, २५६ तथा २५७ सूत्रेण लकारस्य रेफा, णकारश्च जायते, पैशाची-भाषायां तन्निवृत्त्यर्थकं सूत्रमिदं बोध्यम् । अत्र तु सुत्राणां पर्यन्यवृत्तित्वात् प्रवृत्तिर्जाता।
-शोभते । ९५० सू शकारस्य सकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे, ९८९ सू० इच! 'स्थाने ति इत्यादेशे सोभति इति भवति । योभनम् । प्रस्तुतसूत्रेण शकारस्य सकारे, २२८ सू० नकारस्य 'कार, ९७७ सू० कारस्य नकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे सोमम इति भवति । शशी। प्रस्तुतसूत्रेण
उभयत्रापि शकारस्य सकारे ससी इति भवति । शकः । श+सि । प्रस्तुतसत्रेण शकारस्य संकारे, - ३५० सू० रेफलोपे,३६० स० ककारद्वित्वे,४९१ सू० से?:,डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे सक्को इति भवति । ' शाइख+सि पूर्वत्रदेव सने इति भवति । विषमः । विषम+सि। प्रस्तुतसूत्रेण षकारस्य सकारे,
पूर्ववदेव विसमो इति भवति । *कृशानो !,१२८ सू कारस्य इकारे, प्रस्तुतसूत्रेण शकारस्य सकारे किसानो! इति भवति । वृषाणः इति पाठे तु ऋकारस्य इकारे, प्रस्तुतसूत्रेण षकारस्य सकारे, ९७७ सू णकारस्य नकारे,४९१ सू० सेडोंः, पूर्ववदेव विसाणी इति भवति । न कमा-च-जादि । २६० सूत्रेण
शकारस्य षकारस्य च सकारो भवत्येव तहि प्रस्तुतसूत्रस्य काऽसीदावश्यकता? इति प्रश्नः । प्रश्नस्यै- तस्य समाधानं कुर्वन् वृत्तिकारोऽभणद् यद् १७७ सूत्रादारभ्य २६५ सूत्र-पर्यन्तं यानि सूत्राणि सन्ति,
तः सूत्रः यद्यत् कार्यमुक्तं तत्सर्व पैशाच्या ९९५ सूत्रेणं निषिद्धमतएव प्रस्तुतसूत्रस्यासीदावश्यकता । अयं 'भावः-९९५ सूत्रस्य बाधनार्थमेव प्रस्तुतसूत्रस्य योगः-रचना विहितोऽस्ति। . . ९८१-हण्यकम् । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे,९७८ सू० दकारस्य तकारे, ९८१ सू० यकार
स्य पकारे,२३:१० मकारानुस्वार हितपक इति भवति । किम् -किप्रक्रिया ५६९ सूत्रे ज्ञेया । अपि पि, प्रक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया । हृदयके । हृदयक+डि । पूर्ववदेव हितपक+डि इति जाते,५०० सू० कि*अभ्यर्थकस्थ कनानुमन्दस्य सम्बोधनभिवम् ।
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चतुर्थपाद:
★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् में
१.३१
प्रत्यवस्य स्थाने डि- एकारे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे हिलपके इति भवति । अर्थम् | अर्थ+अम् । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० थकार द्वित्वे, ३६१ सु० पूर्वथकारस्य तकारे, ४९४ सू० प्रमोऽकारलोपे, २३ सू० मकारानुस्वारे अस्थं इति भवति । चिन्तयन्ती । चिती चिन्तायाम्। संस्कृत-नियमेन णिजन्तत्वेन चितय् + शतृ + सि इति जाते. ११० सू० प्रकारागमे, ६७० सू० शतुः स्थाने माण इत्यादेशे, ५२१ सू० डी (ई) प्रत्यये, १० सू० स्वरस्य लोपे, सभीने परेण संयोज्ये, ११३७ सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे विन्तयमाणी इति भवति ।
१८२ -- कुटुम्बकम् । कुटुम्बक +सि । ९८२ सू० टु इत्यस्य स्थाने वैकल्पिके तु इत्यादेशे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे कुतुम्बक, कुटुम्बकं इति भवति ।
६८३ - गवा | गम्लू ( गम् ) गती । गम् + क्त्वा । २३ सू० यकारानुस्वारे, १८३ सू० क्त्वः स्थाने तून इत्यादेशे ३० सू० अनुस्वारस्य वर्णान्त्ये मन्तून इति भवति । रहवा । रमु-रम् क्रीडायाम् । रम् + क्त्वा पूर्ववदेव रत्तून इति भवति । एवमेव हसिया । हस् हांसे । हस् + क्त्वा । ९१० सू० अकारागमे, ६४६ सू० प्रकारस्य इकारे, पूर्ववदेव हसितून इति भवति । पठित्वा । पठ् पठने । पट् + । पूर्ववदेव पठितून इति भवति । इत्यत्र १९९ सू० ठकारस्य ढकारप्राप्तिरासीत्किन्तु ९९५ ० सानिषिद्धा | कथा | कथ् कथने कथ् + क्त्वा । ९३० सू० थकारस्य धकारे, हसितून-वदेव कषिखून इति भवति ।
६८४ --- पूर्वस्यापवावः । पूर्व गतस्य ९८३ सूत्रस्य अपवादसूत्रमिदं बोध्यम् । नष्टा । ९६४ सु० ट्वा इत्यस्य स्थाने जून, थून इत्यादेश ततः मयून, नत्थून इति भवति । दृष्ट्रा १२६ ० ऋकारस्य प्रकारे, ९७८ सू० दकारस्य सकारे, नद्भून-वदेव ससून, सत्थून इति भवतिः ।
८५ - भार्या । ९८५. सू० र्यस्य रिय इत्यादेशे भारिया इतिः भवति । स्नातम् । प्रस्तुतसूत्रेण स्नस्य सिन इत्यादेशे, २३ सू० मकारानुस्वारे सिनातं इति भवति । कष्टम् । कष्ट+सि । प्रस्तुतसूत्रेण टः स इत्यादेशे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे कसढं इति भवति । कुक्षचिदिति । ब - सूर्यः । सूर्य +सि । ६४ सू० लाधिकारात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिः कुत्रचिदेव भवति नतु सर्वत्र । यथा-संयोगे परे ह्रस्वे, २९५ सू० यस्य कारें, ३६० सू० जकारद्वित्त्वे, ४९१ सू० सेड:, डिति परेऽन्त्यस्वरादेइति भवति । स्नुषा | बाहुल्येन ३८४ सूत्रेण उकारस्य विकरणे जाते, ९८० सू० षकारस्य सकारे सुनुमा इति भवति । दृष्टः । दृष्ट+सि । ९७८ सू० दकारस्य तकारे, १२० सू० ऋकारस्य इकारे, ३०५ सू० ष्टस्य ठकारे, ३६० सू० ठकारद्विस्वे ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे, ४९१ सू० सेड, डिलि परेऽन्त्यस्वरा तो इति भवति । उक्तेषु प्रयोगेषु बाहुल्येन प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्त्यभावः ।
६८६ - गीयते । शब्दे । गे+क्यते । इत्यत्र ९८६ सु० वयस्य इय्य इत्यादेशे १० सू० स्वरस्य लोपे, ग्रीने परेण संयोज्ये, ६२० सू० ते इत्यस्य इवादेशे, ९९० सू० इच: स्थाने ते इत्यादे गिय्यते इति भवति । दीयते । डुदाञ् (दा) दाने । दा+क्+ते । पूर्ववदेव दिव्यते इति भवति । रम्यते । रमु-रम् क्रीडायाम् । रम् +क्य + ते । पूर्ववदेव रमिय्यते एववमेव पठ्यते । पठ् पठने । पठ् + क् + ते पठिय्यते इति भवति ।
६८७ - प्रथमत्रयं । ३५० स० उभयत्रापि रेफलोपे, ५५ सु० पकारस्य थकारस्य चाकारस्य उकारे, ९३८ सू० थकारस्य घकारे, ३४९ सू० यकारस्य लोपे घुमतंसने इति भवति । सर्वस्य सर्व + ङस् । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० वकारद्विस्वे ४९९ सू० इस: स्थाने स्स इत्यादेशे सब्बस्स
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपाद: इति भवति । एवरपब, इत्यस्य प्रक्रिया ९५१ सूत्रे ज्ञेया । सन्मानम् । सम्मान+सि। २५ सू० नकारस्यानुस्वारे,५१४ सू० सेर्सकारे,२३ सू० मकारानुस्वारे समान इति भवति । क्रियते । सुकृञ् (कृ) करणे । क+क्य+ते। ९८७ स. क्यस्य स्थाने डीर (ईर) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे, ९९० सू० इचः स्थाने ते इत्यादेशे कोरते इति भवति ।
-याहवाः । यादृश+सि । इत्यत्र ९५८ सू० द इत्यस्य ति इत्यादेशे, ९८० सू शकारस्थ सकारे, ४९१ सू० सेडोंः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे यातिखो इति भवति । अत्र ९९९ सूत्रेण पैशाचीवरवात ९९५ सूत्रबलेन २४५ सत्रेण प्राप्तः यकारस्य जकारोन जातः । एवमेवाऽग्रेऽपि बोध्यम । तादृशः तादृश+सि ! पूर्ववदेव सातिको इति भवति । कीदृशः । कीदृश+सि । १०५ सू० ईकारस्य एकारे, पूर्ववदेव केतितो. इति भवति । ईशः । ईदृश+सि । ईकारस्य एकारे, पूर्व वदेव एलिसो इति भवति । भवादशः । भवादृशः+सि । पूर्ववदेव भवासिलो इति भवति । मन्यादृशः । अन्यावृश+सि । ९७६ सू० घस्य स्थाने त्र इत्यादेशे पूर्वदेव ममातिको इति भवति । युष्मादृशः । युष्मादृश+सि । ३४५ सू० मस्य स्थाने म्ह इत्यादेशे, पूर्ववदेव मुम्हालिसी २४६ ४० पकारपद सकारे तुम्हाला इति भवति । अस्माइशः । अस्मादृश+सि 1 ३४५ सू० स्मस्य म्ह इत्यादेशे, पूर्ववदेव अम्हातिसो इति भवति ।
-वाति । उत्पूर्वकः वा-धातुः ऊर्ध्वगतौ । उद्धा+-तिन् । इत्यत्र ६८२ सू० उद्वाधातोः स्थाने वसुधा इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे, ९८९ सू० इचः स्थाने ति इत्यादेशे वसुआति इति भवति । भवति । भू सत्तायाम् । भू+तिन् । ७३१ सू० भूधातोः हो इत्यादेशे, १११८ सू० भाषाध्यत्यये, ९४० सू० हकारस्य भकारे, पूर्ववदेव भोति इति भवति । नयति । गीत्र-नी)-धातु: नयने । नी+ तिय । ९० स० ईकारस्थ एकारे, पूर्ववदेव नेति इति भवति । बबालि । इदाज (दा) दाने । दा+ति । ९७८ सू० दकार-तकारे, ९०९ सू० माकारस्य एकारे, पूर्ववदेव सेति इति भवति ।
Eeo-लपति लपू श्यक्तायां वापि । सप्+तिन् । ९१० सू० धासोरन्तेऽकारागमे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इत्यादेशे, १९० स० इचः स्थाने से, ति इत्यादेशो, सतः लपते, लपति इति भवति । आस्ते। प्रास उपवेशने भास्+ते।८८६ स० सकारस्य छकारे,३६० स० छकारद्वित्त्वे,३६१ स०पूर्व-कारस्य त्रकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, पूर्ववदेव अच्छते, अच्छति इति भवति । गवति । गम्ल (गम्) धातुः गती। गम्+तिन् । ८८६ सू० मकारस्थ छकारे, पूर्ववदेव गछते, गच्छति इति भवति । रमते । रम कोडायाम् । रम् +ते । पूर्ववदेव-रमते,रमप्ति इति भवति । प्राविति किम् । प्रकारान्त-धातुष्वेव प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृसिर्जायते,नान्यत्र । यथा-भवति । भू सत्तायाम् । भू+तिन् । ७३१ सू० भूधातोः हो इत्यादेशे, ६२८ सू०. तिकः स्थाने इचादेशे, ९८९ सू० इचः स्थाने ति इत्यादेशे भोति इति भवति । नयति । णी-(नी)-नयने । नी+ति नेति,प्रक्रिया ९८१ सूत्रे शेया। प्रत्र प्रकारान्तत्त्वाभावात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रत्यभाको बोध्यः । . ९८१-ताम् । तद+अम् । ११ सू० दकारलोपे, स्त्रीत्वादाप-(आ)-प्रत्यये, ५ स० दीर्घ-सन्धी, ५२५ सू० प्रमि परे ह्रस्वे, ४९४ सू० प्रमोडकारस्य लोपे, २३ सू० मकारानुस्वारे तं इति भवति । दृष्टाम्पतलून, प्रक्रिया ९८४ सूत्रे ज्ञेया । चिन्तितम् । चिती-धातुः चिन्तायाम् । संस्कृतनियमेन चिन्त+ तत इति जाले, ९१० सू० प्रकारागमे, ६४५ सू० भकारस्य इकारे, सिप्रत्यये, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे, पिस्तितं इति भवति । राक्षा । रञा, प्रक्रिया ९७५ सूत्रे शेया । का। किम् + सि। ५६० सू० किमः स्थाने क इत्यादेशे, स्त्रीत्वादाप्-(पा)-श्यये, ५ सू० दीर्घ-सन्धौ, १११३७। सू०
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-नीत
१३३
सेfरकारस्य लोपे, ११ सू० सकारलोपे का इति भवति । एषा एतद् + सि एसा प्रक्रिया ५७४ सूत्रे
या । भविष्यति । भू सत्तायाम् । भू+स्यति। ७३१ सू० भू-धातोः स्थाने हुव इत्यादेशे, ६२० सू० स्वतः स्थाने चादेशे, ९९१ सू० इच: स्थाने एय्य इत्यादेशे, १११० सू० भाषाव्यत्यये, ९४६ सूत्रेण प्राप्तस्य 'fta' seats front व निषेधे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रजीने परेण संयोज्ये हृवेध्य इति भवति । ६६२ -- तावत् । श्रव्ययपदमिदम् । ११ सू० तकारलोपे लाव इति भवति । च । श्रव्ययपद मिदम् । संस्कृततुल्यमेव पैशाची भाषायां प्रयुज्यते । तथा तद्+टातीए, प्रक्रिया ४६४ सूत्रे ज्ञेया । अत्र १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवं न जातम् । दूरात् । दूर + ङसि । ९७८ सू० दकारस्य तकारे, ९९२ सू० उसे: स्थाने डातो (प्रातो) तथा दातु (प्रातु) इत्यादेशी, दिति परेऽन्त्यस्वरादेपेितुरातो, रातु इति भवति । एवय्येव प्रक्रिया ९५१ सूत्रे ज्ञेया । दृष्टतिट्ठो प्रक्रिया ९८५ सूत्रे ज्ञेया । श्वत् । युष्मद् + इसि । ५८५ सू० युष्मदः स्थाने तुम इत्यादेो, प्रस्तुतसूत्रेण इसे: स्थाने बातो,डातु इत्यादेशौ पूर्ववदेव तुमातो, मातु इति भवति । मत् । श्रस्मद् + इसि । ६०० सू० उस: स्थाने मम इत्यादेशे, तुमातो-तुमातु वदेव ममातो ममातु इति भवति ।
I
EE३ -- तत्र । अव्ययपदमिदम् ४३२ सूत्रेण त्र इत्यस्य स्थाने त्थ इत्यादेशे तस्य इति भवति । च ॥ अव्ययपदमिदम्। संस्कृत- समानमेव पैशाच्यां प्रयुज्यते । तेन तद्+टा । ९९३ सू० टाप्रत्ययेन सह तदः स्थाने नेन इत्यादेशे नेन इति भवति । कृत-स्नानेन । कुतः स्नानो येन तेन कृतस्नानेन । इत्यत्र १२६ सू० इकारस्य प्रकारे, ९८५ सू० स्नस्य स्थाने सिन इत्यादेशे कृतसिनानेन इति भवति । स्त्रियाम् । स्त्रीलिङ्ग तु दाप्रत्ययेन सह तद्-शब्दस्य स्थाने नाए इत्यादेशो भवतीति भावः । यथा- पूजितः । पूजिल+सि । ४९१ सू० सेड, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंपे पूजितो इति भवति । च । प्रव्ययपदमिदम् । संस्कृतसममेव पैशाच्यां प्रयुज्यते । तथा तद्+टा । प्रस्तुतसूत्रेण स्त्रीलिङ्गे तद् + वा इत्यस्य नाए इत्यादेशे नए इति भवति । पादाकुसुमप्रदानेन । ९७० सू० उभयत्रापि दकारस्य तकारे ३५० सू० उभयत्रापि रेफलोपे, ३६० सू० गकारस्य पकारस्य च द्वित्वे ६४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे पाता-कुसुमतान इति भवति । टेति किम् ? | दाप्रत्यययेन सहैव प्रस्तुतस्य सूत्रस्य प्रवृत्तिर्भवति नान्यथा । यथाएवम् । व्ययपदमिदम् । २३ सू० मकारानुस्वारे एवं इति भवति । चिन्तयन् । चितीधातुः चिन्ताथाम् । गिजन्तत्वेन संस्कृतसममेव चिन्तय् + शतृ इति जाते. ९१० सू० मकारामने, ६७० सू० शत्रुः स्याने न्त इत्यादेशे, सिप्रत्यये, सेडः पूर्ववदेव चिन्तयन्तो इति भवति । गतः । गत+सि । पूर्ववदेव गत इति भवति । सः । तद् + सिसो, प्रक्रिया ५७५ सूत्रे ज्ञेया । तस्याः । तद् + इ । ११ सू० दकारलोपे, स्त्रीस्वादाप्-(ग्रा)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घसन्धी, ५१८ सू० स: स्थाने एकारे ताए इति भवति । श्रत्र इस्-प्रत्य स्वेन प्रस्तुतस्य प्रवृत्यभावः । समोषम् । २३ सू० मकारानुस्वारे समीप इति भवति ।
I
EE४ -- पैशाच्याम् । पैशाची भाषायां यदुक्त ततोऽन्यत्सर्वं शौरसेनी भाषा- तुल्यमेव बोध्यम् । यथा --- अथ । ग्रव्ययपदमिदम् । ९३० सू० यकारस्य धकारे अब इति भवति । सशरीरः । सशरीर+ सि। ९८० सू० शकारस्य सकारे, ४९१ सू० सेड:, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे ससरीरो इति भवति । भगवान् = भगवं, प्रक्रिया ९३६ सूत्रे ज्ञेया । मकरध्वजः । मकरध्वज +सि । ३५० सू० वकारलोपे के पिकत्वात् ३६८ सू० धकारस्य द्वित्वाभावे, पूर्ववदेव मकरजो इति भवति । अत्र एत्थ, प्रक्रिया ५७ सूत्रे ज्ञेया | परिभ्रमन् । परिपूर्वकः भ्रमुधातुः परिभ्रमणे । परिभ्रम्+श ३५० सू० रेफलोपे ३६० सू० भकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वभकारस्य वकारे, ९१० सू० प्रकारागमे, ६७० सू० शतुः भ्त इत्यादेशे, सिप्रत्यये पूर्वदेव परिभ्रमन्त इति भवति । भविष्यति हुवेथ्य, प्रक्रिया ९९१ सूत्रे ज्ञेया
T
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः एवंविधया । एवंविधा+टा । ५१८स टास्थाने एकारे एवंविधाए इति भवति । भगवत्या । भगवती। ट।। ५१५ सू० टास्थाने एकारे भगवतीए इति भवति । कथम् धं,प्रक्रिया ९३८ सूत्रे शेया । तापसबेष-प्रणाम । तापस-वेष-प्रन्हाण-सि । ९८० स.० पकारस्प सकारे, ३५० स० रेफलोपे, वैकल्पिकत्वात् ३६८ सू० गकारस्य द्वित्त्वाभावे, ९७७ सू० कारस्य नकारे, ५१४ स० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे, तापसवेसंगहन इति भवति । कृतम् । १२६ स. ऋकारस्य प्रकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे कतं इति भवति । ईदृशम् । १०५ सू० ईकारस्य एकारे, ९८८ सू० दृ इत्यस्य ति इत्यादेशे, १८० सू० शकारस्य सकारे, २३ सू० मकारानुस्दारे एतिसं इति भवति । अष्टपूर्वन् । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, ९७८ सू० दकारस्थ तकारे, ३०५ सू० ष्टस्य ठकारे, ३६० स० ठकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्थ टकारे, ९४१ सू० पूर्वशब्दस्य पुरव इत्यादेशे, २३ सू० मकारानुस्वारे अतिदुपुरवं इति भवति । महाधनम् । २३ सू० मकारानुस्वारे महायनं इति भवति । दृष्टया -तद्धन, प्रक्रिया ९८४ सूत्रे ज्ञेया । भगपन् । भगवद्+ति । संस्कृतनियमेन भगवन् + सि इति जाते, ९३५ सू० नकारस्य मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे, ११।३७ सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे भगवं । इति भवति । यदि । अध्ययपदमिदम् । ९७८ सू० कारस्य तकारे यति इति भवति। माम् । अस्मद् +अम्म ,प्रक्रिया ५९६ सूत्रे ज्ञेया । वरम् । २३ सू० मकारानुस्वारे वर इति भवति । प्रयच्छसि । ३५० स० रेफलोपे पयच्छसि इति भवति । राजन् ! । राजन+सि । ९३५ सू० नकारस्थ मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे राजं ! इति भवति च। अव्ययपदमिदम्। संस्कृतसममेव पैशाच्या प्रयुज्यते । तावत्-दाव, प्रक्रिया ९३३ सूत्र ज्ञेया। लोकस्व । लोकदर्शने । लोक+सिन् । ९१० स० प्रकारागमे, ६६२ स० सिवः स्थाने सु इत्यादेशे.६६४ स. सोल कि लोक इति भवति ।तायच तया दराव खतावच तोए रातो पेव तिटो, प्रक्रिया ९९२ सूत्र ज्ञेया। सः। तद्+सि । ५७५ सू० तकारस्य सकारे, ११ सू० दकार-लोपे, सेडोः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे सो इति भवति । आगच्छन् । प्रापर्वक्र: गम्ल-गम्)-धातुः प्रागमने । प्रागम्+शत । ८८६ सू० मकारस्य इकारे,३६० सू० कारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे, ६७० सू० शतुः स्थाने माण इत्यादेशे,९७७ सू० णकारस्य नकारे, ४९१ सू० सेझैः, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोप मागमछमानो इति भवति । राजा । संस्कृतसममेव पैशाच्या प्रयुज्यते । उपर्युक्तेषु प्रयोगेषु प्रस्तुतसूत्रबलेन शौरसेनीभाषा-विधानस्य प्रवृत्तितिति भावः ।
५.पैशाच्यामिति । प्राकृतभाषागतानि १७७ मूत्रादारभ्य २६५ सूत्रपर्यन्तं यानि सूत्राणि भणितानि, तदुक्तानि निखिलानि कार्याणि पैशाचीभाषायां न भवन्तीति भावः । यथा-मकर-केतुः। प्रत्र १७७ सूत्रण ककारयोः, नकारस्य च लोपप्राप्तिः,किन्तु ९९५ सूत्रेण सा निषिद्धा । ततः ५०८ सू० उकारस्य ऊकारे, १।१।३७। सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे मकरकेतू इति भवति । सगरपुत्रवचनम् । अत्रापि १७७ सू० गकारस्य चकारस्य च लोपप्राप्ती,प्रस्तुतसूत्रेण तन्निषेधे ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० तकारद्वित्त्वे,२३ सू० मकारानुस्वारे सगर-पुस-वन इति भवति । विजयसेनेन लपितम् । अत्र १७७ सू० ज, य, प, त इत्येतेषां वर्णानां लोपप्राप्तिरासीत्, प्रस्तुतसूत्रेण तन्निषेधे,२२८ सूत्रेण नकारस्य
कार-प्राप्तौ तम्निषेधे च, २३ सू० मकारानुस्वारे विजयसेनेन लपितं इति भवति । भवनम् इत्यत्र १७७ सूत्रेण दकारस्य लोपप्राप्तिः, प्रस्तुतसूत्रेण तन्निषेधे, ९७८ सू० दकारस्य तकारे, पूर्ववदेव मतनं इति भवति । पापम् । अत्र १७७ सूत्रेण पकार-लोप-प्राप्ती, प्रस्तुतसूत्रेण तन्निषेधे, पूर्ववदेव पापं इति भवति । पायुषम् । इत्यत्र १७७ सूत्रेण यकारलोप-प्राप्तिः,तथा १८७ सू० धकारस्य हकारप्राप्तिरासीत
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MA.*
चतुर्थयादा
*संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * परन्तु प्रस्तुतसूत्रे तनिषेधे, पूर्व बदेव मायुधं इति भवति । बेयरः । अत्र १७७ सूत्रेण दकार-धकारलोप प्राप्ती प्रस्तुतसूत्रेण तन्निषेधे,पूर्ववदेव ९७८ सू० दकारस्थ सकारे,४९१ सू० सेॐः, डिति परेऽन्त्यस्वरावेोपे सेक्रो इति भवति । एवमन्त्राणामपि । यथा --- १७७ सूत्रादीनामुदाहरणानि प्रदतानि, एवमेव अन्यसूत्राणामप्युदाहरणानि स्त्रबुद्या समवगन्तव्यानीसि भावः। समाप्त पैशाचोभाषेति ! पैशाचीभाषायाः प्रकरणम्-अध्यायः समाप्तम्-सम्पूर्णतां गतम् । मूलग्रन्थे यथा पैशाचीभाषा-प्रकार ससाप्तिमगमत्तथैव बालमनोरमाटीकायामपि तद्विवेचनं समाप्तिमेति ।।
पैशाच्याः ललिता पाल्या, मुनिज्ञानेन निमिता, आत्मगुरोः प्रसान, गता मरणता खलु । * समाप्त पेशाचीभाषा-विवेचनम् *
* अथ पैशाची-भाषा-विधि * त्रिशलानन्दन वीरवर, महावीर भगवान, मनसा वाचा, कर्मणा, पलपल करूं प्रणाम ।
अपी, तपी विद्वान थे, गुरुवर भात्माराम,
धर्मदिवाकर योगि-वर, मङ्गलमय शुभ नाम । गुरुचरणों का ध्यान कर,लिखता है"मुनि शान";
अब पेशाची गिरा का, हिन्दी में ध्याख्यान । ... . हैमशब्दानुशासन के आठवें अध्याय में प्राकृत और शौरसेनी आदि छ: भाषामों का विवेचन किया गया है। पैशाची भाषा का जन में चतुर्थ स्थान है । क्रमानुसार अब इस का विवेचन करने लगे हैं। पैशाची शब्द के कोषकारों ने अनेकों अर्थ लिखे हैं। जैसे-------धार्मिक कृत्य के अवसर पर दी जाने वाली भेंट,२-रात्रि,३-किसी धार्मिक विधान के समय बनाया हुमा नैवेद्य-भोज्य पदार्थ जो किसो देवता को अर्पण किया जाता है, ४- प्राकृतिक (प्रकृति से उत्पन्न) भाषा का एक भेद । प्रस्तुत में पैशाची शब्द एक प्राचीन भाषा का बोधक है। यह भाषा कभी प्राचीन युग में बोली जाती रही है। इस के क्या विधिविधान हैं ? प्राकृत, शौरसेनी तथा मागधी भाषा से इसका कितना अन्तर है ? प्रस्तुत प्रकरण में इन सब बातों पर प्रकाश डाला जा रहा है।
९७४-पैशाचीभाषा में '' के स्थान में यह प्रादेश होता है। जैसे-१-प्रज्ञा पन्ना (बुद्धि), २-संजा-सा (चेतना, होश, ज्ञान, व्याकरण में बह विकारी शब्द जिससे किसी यथार्थ या कल्पित पदार्थ का बोध हो), ३-सर्वज्ञः सध्वस्त्रो (सब कुछ जानने वाला), ४-ज्ञानम् स्त्रानं (बोध), ५. विज्ञानम् विमानं (विशिष्ट ज्ञान), यहाँ पर शके स्थान में 'ज' यह प्रादेश किया गया है।
९७५-पैशाची भाषा में 'राज' इस शब्द में जो 'श' है, इसके स्थान में चिज' यह प्रादेश
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अ
* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादा विकल्प से होता है। जैसे--१-रामा लपितम्-राचित्रा लपितं प्रादेश के प्रभावपक्ष में रऊआ लपितं (राजा ने कहा), २-राज्ञो बनम राचिनो,धन,रयो धन (राजा का धन), यह रूप होता है । वृतिकार फरमाते हैं कि पेशाधीभाषा में 'ज्ञ' को ही 'ज' यह पादेश होता है, किसी अन्य वर्ण को नहीं। जैसे-राजा-राजा (नृप) यहां पर श का प्रभाव था, अतः यहां 'S' यह आदेश नहीं हो सका।
९७६-पैशाचीभाषा में न्य और प्य इन संयुक्त वर्णों के स्थान में 'उत्र' यह प्रादेश होता है। जैसे-१-कन्यका कत्रका (लड़की), २-अभिमन्यु:-अभिमन्यु (अर्जुन का पुत्र), ३~-पुण्यकर्मापुनकम्मो (पुण्य कर्म-पवित्र काम करने वाला), ४-पुण्याहम्-पुत्राहं (पुण्य रूप दिन) यहां पर न्य और भय को 'ब' यह प्रादेश किया गया है।
९७७-पैशाची भाषा में कार को नकारादेश होता है। जैसे-१-गुण-गण-युक्तः = गुन-गनयुत्तो (गुणों के समुदाय से युक्त),र-गुणेन=सुनेन (शुष्प से),यहां पर णकार को नकार किया गया है।
७-पैशाची भाषा में तकार.और दकार के स्थान में सकार होता है। जैसे-तकार के - दाहरण-१-भगवती भगवती (ऐश्वयेशालिनी, भगवत्स्वरूपा), २-पार्वती पन्नती (गणेश जी की जननी,शिव-पत्नी),३-शतम् सतं (१०० की संख्या), दकार के उदाहरण-१-मदन-परवशःमतन-परवसो (कामदेव के अधीन), २-सदनम् - सतनं (घर),३-दामोदरःतामोतरो (श्रीकृष्ण), ४–प्रदेशः= पतेसो (देश का एक भाग), ५-ववनकम् -वतन (मुख), ६-भवतु-होतु (वह हो), ७-रमताम-रमत (वह क्रीडा करे), यहां पर तकार तथा दकार कोतकारादेश किया गया है यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि तकार के स्थान में तकार का विधान करने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में निवेदन है कि तकार के स्थान में भी जो तकार का विधान किया गया है, इससे तकार के स्थान में
समादेशों का निवारण किया गया है। जैसे-...साका यहां पर २०६ सत्र से तकार को डकार होना था, इसी प्रकार-वेतसः. यहां पर वैतस के प्रकारको ४६ वें सत्र से इकार होने पर २०७२ सूत्र से तकार को उकारादेश की प्राप्ति थी किन्तु प्रस्तुत सष ने तकार के स्थान में तकारादेशका विधान करके डकारादेश नहीं होने दिया पैशाचीभाषा में पताका का पताका (झण्डी) तथा वेतसः का तिसो (बैत) यही रूप रहता है।
___९७६-पंशाचीभाषा में लकार को लकारादेश होता है । जैसे-१-शोलम्सील (स्वभाव), .२...--कुलम् मा कूल (कूल, खानदान), ३---सलिलम--सलिलं (पानी), ४---कमलमकमल (कमल), यहां पर लकार के स्थान में लकारादेश किया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि लकार के स्थान में लकारादेश करने की क्या नावश्यकता थी ? उत्तर में निवेदन है कि प्राकृतभाषा में २५५ ३ सूत्र से लकार को रेफ और २५६ वें एवं २५७ वें सूत्र से लकार कोणकारादेश होता है, परन्तु पैशाची भाषा में ऐसा नहीं होता,मतः यहाँ लकार के स्थान में लकारादेश का विधान किया गया है। प्रस्तुत में शीलम् आदि जो उदाहरण दिए गए हैं, इन के लकार को प्राकृतभाषा के किसी सूत्र से कोई आदेश नहीं होता, तथापि इन का जो उल्लेख किया गया है, इस का कारण- "सूत्र को पर्यन्यवत् प्रवृत्ति होती है" यह सूचित करना ही समझना चाहिए।
-पैशाचीभाषा में शकार और कार को सकारादेश होता है। शकार के उदाहरण, जैसे-१-शोभते सोभति (बह शोभा पाता है), २-शोभनम् = सोभनं (सुन्दर), ३-शशी-ससी (चन्द्र), ४--शकःसक्को (केन्द्र महाराज, पहले देवलोक के स्वामो), ५---शङ्ख-सजो (शंख) -
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * कार के उदाहरण, जैसे----*-विषमः-विसमा (जो सम न ही,असमान,प्रव्यस्थित भीषण, कष्ट जनक), २.-कृशानो ! किसानो ! (हे अग्नि देव !), यहां पर शकार और षकार को सकार किया गया है। कहीं पर वृषाणः-विसानों (सींग) ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। यहां पर प्रश्न उपस्थित होता है कि शकार और षकार के स्थान में सकारादेश तो २६० व सत्र से ही हो सकता था फिर यहां पर यह विधान करने की क्या आवश्यकता थी? उत्तर में निवेदन है कि ९१५ वें सूत्र ने १७७ वे मूत्र से लेकर २६५ वें सूत्र तक सभी सूत्रों द्वारा होने वाले, सभी कार्यों का पैशाचीभाषा में निषेध कर दिया था, अतः इस बाधक सूत्र को बाधित करने के लिए इस योग (सूत्र) की रचना की गई है।
९५१-पैशाचीभाषा में हृदय शब्द के यकार को पकार होता है। जैसे-१-हत्यकम् = हितपक (हृदय, दिल), २-किमपि, किमपि हदये अयं चिन्तयन्ती-कि पि, कि पिहितपके अत्थं चितयमानी (बह हृदय में कुछ भी, कुछ भी अर्थ सोचती हुई), यहां पर यकार को पकार किया गया है ।
६८२-पंशाचीभाषा में ' के स्थान में तु' यह मादेश होता है। जैसे-१-कुटुम्बकम् ॥ कुतुम्बकं, आदेश के प्रभावपक्ष में-फुटुम्बकं (परिवार) यह रूप बनता है।
९८३-पैशाचीभाषा में अश्वा प्रत्यय के स्थान में तन यह आदेश होता है। जैसे--- गत्वा-- गन्तून (जा करके), २--रन्त्यामरतून (क्रीडा करके), ३-हसित्वा हसितून (हंस करके), ४.-पकिस्वाम् पठितून (पढ़ करके), ५--कयित्वा कधितुन (कह करके), यहां क्त्या प्रत्यय के स्थान में 'तून' यह प्रादेश किया गया है।
६४--पैशाचीभाषा में 'ष्ट्रा' के स्थान में खून और त्थून ये दो. प्रादेश किए जाते हैं । यह सूत्र ९५३ ३ सूत्र का अपवादभूत सूत्र है । जैसे-नया नद्धन, नत्यून, यहाँ पिछले सूत्र से पस्या के स्थान में "तून प्रादेश होना था, किन्तु उसे बाधकर प्रस्तुत सूत्र ने ष्टा के स्थान में दून और स्थून ये दो मादेश कर दिये हैं। फलतः नसून, नत्थून (नष्ट करके) ये रूप बनते हैं। इसी प्रकार---दृष्टान्तद्धन, तत्थून (देखकर) ये रूप बन जाते हैं।
५-पैशाची भाषा में ये, स्न और इन संयुक्त वण के स्थान में कहीं पर यथासंख्य (संख्या के अनुसार) रिस, सिन और सट ये प्रादेश होते हैं। जैसे-१-भार्या भारिया (पत्नी),२-- स्नातम् - सिनातं (स्नान किया हया), ३-कष्टम्=कसटं (दुःख) यहां पर यं को रिय, स्न को सिन
और ष्ट को सट यह प्रादेश किया गया है। सूत्र में पठित कचित् (कहीं-कहीं पर) इस पद को ग्रहण करने का क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए वृत्तिकार फरमाते हैं कि 'शचित्' इस पदग्रहण के कारण-१--सूर्यः-सुज्जो (सूर्य), २-स्नुषासुनुसा (पुत्रवधू), ३-ष्ट:-तिको (देखा हुआ), इन स्थलों में प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति नहीं हो सकी।
९८६---पैशाची भाषा में क्य-प्रत्यय को इय्य यह आदेश होता है। जैसे---पीयते-गिय्यते (उस से गाया जाता है), २- दीयते-दिस्यते (उस से दिया जाता है), ३-रम्यते - रमिय्यते (उससे खेला आता है), ४.--पठ्यते- पठिय्यते (उस से पढ़ा जाता है) यहां पर क्य-प्रत्यय के स्थान में इव्य यह प्रादेश किया गया है।
___९७-पैशांचीभाषा में कुम् (डुकृञ्-कृ) धातु से परे यदि क्य-प्रत्यय हो तो उसके स्थान में और (ईर) यह पादेश होता है। जैसे-प्रथम-ज्यसने सर्वस्य एवं सम्मानं क्रियतेम्म पुधुमतसने सव्वस्स ध्येव संमान की रते (पहले ध्यसन में सबका ही सम्मान किया जाता है), यहाँ पर क्य-प्रत्यय को डोर
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प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
(ईर ) यह श्रादेश किया गया है। संसने का दर्शने यह रूप भी होता है, २६ वें सूत्र से प्राथ स्वर को अनुस्वारागम, ९७८ वे सूत्र से दकार को तकार, ३५० वें सूत्र से रेफलोप और ९८० वे सूत्र से शकार को सकार हो जाता है ।
- पैशाची भाषा में यादृश इस जैसे शब्दों के 'ह' इस अवयव की ति यह प्रदेश होता है। जैसे - १ - यादृशः यातियो (जैसा), २- ताहश: तातिसो (सा), ३ - फोहराः के तिसो ( कैसा ), प्रजातिसो ४- ईदृश: ऐतिसो ( ऐसा ), ५ - भवादृशः सवातियो ( प्राप जैसा), ६--अन्यादृश: श्रम्हातिसो (हमारे [ श्रन्य ( दूसरे ) जैसा ]. ७ - पुष्मादृशः युद्धातियो (तुम्हारे जैसा), ८ - अस्मादृशः श्रु जैसा), यहां पर है के स्थान में ति यह मादेश किया गया है ।
EGE - पंशाची भाषा में इच् और एच् इन दोनों प्रदेशों के स्थान में ति यह आदेश होता है । जैसे - १ - उद्द्वाति वसुधाति ( वह ऊर्ध्व गमन करता है।, २ भवति भोति (वह होता है), ३-नप्रतिमेति ( वह ले जाता है), ४ – बाति तेति (वह देता है), यहां इच की ति आदेश किया गया है। ६० पैशाची भाषा में प्रकार से परे जो इ और एच हैं, इनके स्थान में ते तथा सूत्रोक्त चकार से ति यह आदेश होता है । जैसे- १ - सपतिलपते लपति ( वह स्पष्ट बोलता है), २-वास्ते - अच्छते, प्रच्छति ( वह बैठता है), ३-पद्धति गच्छते गच्छति ( बह जाता है), ४- रमते रमते, रमति (वह कीड़ा करता है), यहां पर अकार से परवर्ती इ और ए को से और तिथे द्रो प्रदेश किए गए हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र में छात् (प्रकार से यह पद क्यों पढ़ा गया? इसको - नयति ग्रहण करने का क्या उद्देश्य है ? उत्तर में निवेदन है कि-- १ भवति होति (वह होता है), २नेति ( वह से जाता है) आदि अकारान्त-भिन्न धातुओं से परे आए इच् और एच को ते तथा ति ये प्रदेश न हो जाएं, इस दृष्टि से सूत्रकार ने आत् इस पद का उल्लेख किया है।
TER-पैशाची भाषा में भविष्यत् कालीन इस् मौर एक के स्थान पर एथ्य का ही आदेश होता है, स्सि का आगम नहीं हो पाता। जैसे - तां दृष्टा चिन्तितं राज्ञा का एषा भविष्यति ?==तं तद्भून चिन्तितं रम्ना का ऐसा हुवेय्य ? ( उसको देख कर राजा ने सोचा, यह कौन होगी ?) यहां पर एच् के स्थान में यह आदेश किया गया है। यहां पर ९४६ वें सूत्र से भविष्यदर्थक प्रत्यय के आदि में स्लि 'का श्रागम होना था किन्तु प्रस्तुत सूत्र ने उसका निषेध कर दिया ।
६६२ -- पैशाची भाषा में प्रकार से परे उस प्रत्यय के स्थान में डित् ( जिस में डकार इत् हो ) आतो और आसु ये दो यादेश होते हैं। जैसे १- तावत् च तथा दूरादेव दृष्टः तावच तीए तूरातो, तूरातु य्यैव तिट्ठो (और तब तक उस ने दूर से हो देखा), २-त्वत्-तुमातो, तुमातु (तुझसे), ३मंद ममातो, समातु (मुक्त से) यहां पर इसि प्रत्यय को डालो और तु ये दो आदेश किए गए हैं। ९६३ - पैशाची भाषा में टा-प्रत्यय के साथ तद् और इदम् इन शब्दों के स्थान में नेन और स्त्रीलिङ्ग में नए यह आदेश होता है । जैसे- तत्र च तेन कृतस्नानेन तत्थ समेत कत-सिनानेन (और स्नान किए हुए उस पुरुष ने वहाँ पर ) स्त्रीलिङ्ग का जवाहर पूजितश्च तथा पाप-कुसुम-प्रवानेन पूजितो व नाए पातमा कुसुम-प्पानेन (और उस देवी के द्वारा पांवों के आगे कुसुमों के समर्पण से पूजिस सम्मानित ) यहां पर पुल्लिङ्ग भीर स्त्रीलिङ्ग में टा प्रत्यय के साथ इदम् शब्द के स्थान में मेन और नाए ये आदेश किये गये हैं । प्रस्तुत सूत्र में "टा (टा प्रत्यय के साथ ) " यह पद पढ़ने का क्या उद्देश्य हैं ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए वृत्तिकार फरमाते हैं कि-- एवं चिन्तयन् गतः स तस्याः समीपस् एवं चिन्तयन्तो गतो सो ताए समीपं (इस तरह सोचता हुआ वह उस देवी के निकट गया) बादि उदा
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चतुर्थ पादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * हरणों में टा-प्रत्यय के अभाव में इस् आदि प्रत्ययों के साथ भी तद् शब्द को नेन या नाए ये आदेश न हों इस दृष्टि से सूत्रकार ने टा इस पद का उल्लेख किया है।
६९४-पैशाची भाषा में जो कुछ कहा गया है अर्थात पैशाची-भाषा-प्रकरण में जो नियम बताए गए हैं, इन नियमों से अन्य जो नियम हैं, वे सब शौरसेनी-भाषा के ही पैशाची भाषा में लागूहोते हैं । दूसरे शब्दों में पैशाची-भाषा के शेष सभी नियम शौरसेनी-भाषा की भांति ही समझने चाहिए। जैसे-१-अथ सशरीरः भगवान मार-ध्वनो मन्त्र परिधमन भविष्यति अध सररीरो भगवं मकरबजो, एत्य परिभमन्तो हुवेय्य [इस के पश्चात् भगवान कामदेव शरीर-सहित (साकार) यहां पर परिभ्रमण करते हुए होंगे], २-एवंविषया भगवत्या कथं तापस-वेषयहरणं?=एवंविधाए भगवतीए कधतापस-वेस-गहन कतं ? (इस प्रकार की भगवती ने तपस्वियों का वेष कैसे ग्रहण कर लिया ?), ३... ईडशम् अष्ट-पूर्व महाधनं इष्टा- एतिसं अतिट्टपुरवं महाधनं तददून [ऐसा अदृष्ट-पूर्व (जो पहले कभी न देखा हो) महान धन देख कर], ४-भगवन् ! यदि माम् परं प्रयच्छसि भगवं! यति मं वरं पय
छसि (हे भगवन! यदि आप मुझे बर देते हैं), ५-राजन ! च तावत लोकस्व राज!च दाव लोक (हे राजन् ! तब तक उस को देखो) और ६-तावच्य तया दूरादेव राष्टः, स आगछन् राजा-ताव च तीए तुरातो स्येव तिछो सो प्रागच्छमानो राजा (और तब तक उस देवी ने वह प्राता हुमा राजा दूर से ही देखा), इन उदाहरणों से वृत्तिकार ने यह संसुक्ति किया है कि पैशाची भाषा में शौरसेनीभाषा की भांति भी कार्य हो जाता है । भाव यह है कि पंशाची भाषा में प्राकृत भाषा और शौरसेनी भाषा के कार्य भी हो सकते हैं। जिन-जिन नियमों का विशेष रूप से पैशाची भाषा में विधान किया गया है, उन के अतिरिक्त प्राकृत तथा शौरसेनी के नियमों का भी इस भाषा में प्राधयण कर लिया जाता है। पैशाची भाषा के किसी शब्द को सिद्ध करने के लिए शौरसेनी या प्राकृत भाषा के सूत्र का उपयोग करते समयः यह माशंका उत्पन्न होती है कि पैशाचीभाषा में प्राकृत आदि भाषाओं के नियमों का उपयोग क्यों किया गया? इसी आशंका का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि पैशाची-भाषा में जो कुछ नहीं कहा गया वह सब विधिविधान शौरसेनी भाषा के समान ही समझना चाहिए। प्रस्तुत में पुनः प्रश्न हो सकता है कि सूत्रकार न तो 'शौरसेनी-चत्' (शौरसेनी के समान) यह कहा है, इसमें प्राकृत-भाषा के नाम का तो ग्रहण नहीं किया गया फिर प्राकृत भाषा का कोई नियम पैशाचीभाषा में नहीं लगना चाहिए ? उत्तर में निवेदन है कि १५७ वें सत्र से शौरसेनीभाषा को प्राकृत भाषा के तुल्य मान लेने के कारण शौरसेनी भाषा में प्राकत-भाषा मन्ताहित हो ही जाती है। प्रतः शौरसेनी के समान कहने से ही 'प्राकृत भाषा के समान' यह भाव स्वतः प्राप्त हो जाता है।
९५–प्राकृत-भाषा के १७७ वें सूत्र से लेकर २६५ वे सूत्र तक जितने भी सूत्र हैं और इन के द्वारा जिन कार्यों का विधान किया गया है, वे सब कार्य पैशाची-भाषा में नहीं किए जाते। जैसे१-मारफेतुः- मकर-केतू (कामदेव की एक उपाधि) यहां पर १७७ वे सूत्र से मकर और केतु इन दोनों शब्दों के ककारों तथा तकार का लोप होना था,परन्तु इस सूत्र ने इस लोप का निषेध कर दिया। २-- सगरपुर-वचनम् - सगर-पुत्तवचनं (सगर राजा के पुत्र का वचन) यहाँ पर १७७ वें सूत्र से गकार और चकार के लोप की प्राप्ति थी तथा २२८ वें सूत्र से नकार को णकार होना था, किन्तु प्रस्तुत सूत्र ने इन सब कार्यों का निषेध कर दिया। इसी प्रकार---विजयसेनेन लपितम् = विजयसेनेन लपित (विजयसेन नामक पुरुष ने स्पष्ट कहा), २.-मवनम्म तनं (कामदेव), ३-पापम् = पार्य (अनिष्ट आचार), ५–प्रायुधम् आयुधं (शस्त्र), ६-देवरः- तेवरो (पति का छोटा भाई) इन उदाहरणों
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः में जकार प्रादि वर्गों का लोप होना था,नकार को कार के आदेश की प्राप्ति हो रही थी, ग्रादि सभी कार्यों का प्रस्तुत सूत्र ने निषेध कर दिया। वृत्तिकार फरमाते हैं कि इसी प्रकार अन्य सूत्रों के उदाहरण भी देख लेने चाहिएं। भाव यह है कि १७७ वें सत्र से लेकर २६५ वें सत्र तक जितने भी विधिविधान कहे गए हैं, वे पैशाचीभाषा के जिन उदाहरणों में चरितार्थ नहीं होते, उनकी कल्पना या वि. चारणा स्वयं करने का प्रयास कर लेना चाहिए।
पैशाचीभाषा का विधिविधान ९७४ वें सत्र से प्रारम्भ होकर ९९५ वे सूत्र में समाप्त होता है। इस तरह इस भाषा के व्यवस्थापक २२ सत्र हैं। इन सत्रों में ही इस भाषा के विधि-विधान का वर्णन किया गया है। इन सत्रों में जो वर्णन कर रखा है, उस से अन्य पैशात्रीभाषा का जो विधिविधान है वह सब शौरसेनी भाषा के समान होता है, यह निर्देश करके सत्रकार ने शौरसेनीभाषा को पशाचीभाषाका मुलाघार स्वीकार किया है। पैशाचीभाषा के प्रकरण का यह अन्तिम सत्र है। इस प्रकरण की समाप्ति के साथ हो हमारी प्रात्म-गण-प्रकाशिका हिन्दी टीका में भी पंशाचीभाषा का विवेचन समाप्त होता है।
यह पैशाची का हुआ, परिपूरक व्याख्यान, ध्यान सहित इसको पढ़ो, विज्ञ बनो 'मुनि ज्ञान । ___ * पैशाची-भाषा-विवेचन समाप्त *
* अथ चूलिका-पैशाची-भाषा-प्रकरणन् * ९९६-चूलिका-पैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य-द्वितीयौ ।।४।३२५। चूलिकापैशाचिके वर्गाणां तृतीय-तुर्ययोः स्थाने यथासंख्यमाद्य-द्वितीयौ भवतः । नगरम,नकरं । मार्गणः,मक्कनो। गिरितटम किरितट । मेधः,मेखो । व्याघ्रः,वक्खो । धर्मः,खम्मो। राजा, राचा । जर्जरम, च.
चरं । जीमूतः, चीमूतो। निर्भरः, निच्छरो । झझरः, छच्छरो। तडागम, तटाकं । मण्डलम्, मण्टलं । डमरुकः, दमरुको । बाढम्, काठं । षण्ठः, सयठो । ढक्का, ठक्का । मदनः, मतनो । कन्दर्पः, कन्तप्पो। दामोदरः, तामोतरो। मधुरम्, मथुरं । बान्धवः, पन्थयो । धूलो,थूली। बा. लकः, पालको । रभसः, रफसो। रम्भा,रम्फा । भगवती,फकवती । नियोजितम, नियोचितं । कचिल्लाक्षणिकस्याऽपि । पडिमा इत्यस्य स्थाने पटिमा । बाढा इत्यस्य स्थाने ताठा। ९९७-रस्य लो या ८४।३२६। चूलिकापशाचिके रस्य स्थाने लो वा भवति ।
पनमथ पनय-पकुप्पित-गोलो-चलनग्ग-लग्ग-पति-बिम्बं । तससु नख-तप्पनेसु एकातस-तनु-थलं सुद्द ॥१॥ नच्चन्तस्स य लीला-पातुक्खेवेन कम्पिता वसुथा।
उच्छल्लन्ति समुद्दा सइला निपतन्ति तं हलं नमथ ॥२॥ ९८५नादि-युज्योरन्येषाम् । ८।४।३२७॥ चूलिकापैशाचिकेऽपि अन्येषामाचार्याणां मतेन तृतीय-तुर्ययोरादौ वर्तमानयोयुजिधातौ च पाद्यद्वितीयौ न भवतः । गतिः, गती। धर्म:
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोका-द्वयोपेतम् * धम्मो । जीमूतः, जीभूतो 1 अझरः, मच्छरो । डमरुकः, डमरुको । ढक्का, ढक्का ! दामोदर:दामोतरो। बालकः, बालको । भगवती, भकवती। नियोजितम, नियोजितं ।
RECशेष प्राग्वत् । । । ४ । ३२८ । चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोरित्यादि यदुक्त ततोऽन्यच्छेषं प्राक्तन-पशाचिक्रवद् भवति । नकर। मक्कनो। अनयो! खत्वं न भवति । रणस्य च नत्वं स्यात् । एवमन्यदपि ।
* समाप्त चलिका-पैशाचीभाषा-प्रकरणम * * अथ चूलिका-वैशाची-भाषा-विवेचनम् *
महावीरं गुरुं नत्वा, योगिनायं दिवाकरम् ।
पैशाची चूलिका भाषा, ज्ञानेन्दुना विविच्यते ।। पैशाचा भाषा-व्याख्यानानन्तरं. चूलिकापशाचीभाषाया विवेचनं क्रियते---
९९६-चूलिका-शास्त्रि के वारणामिति । चूलिकापैशाची-भाषायां वर्गाणई तृतीयस्य तुर्यस्य-चतुर्थस्य च वर्णस्य स्थाने क्रमश: प्रथम द्वितीय-वणी भवतः। प्रथा-गरम् । ९९६ सू० गकारस्य ककारे, २३ सू० मकारानुस्वारे मकरं इति भवति । बाहुल्येन ३६० सूत्रेण ककारस्थ विस्वाभावः। मार्गणः । मार्मण+सि । ३५० स० रेफलोपे,प्रस्तुतस्त्रेण गकारस्य स्थाने ककारे,३६० सू० ककारद्वित्त्वे, ८४ सू० सयोगे परे ह्रस्वे, ९७७ स० कारस्य नकारे, ४९१ सू० सेडों, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे मक्कमो इति भवति । गिरिताम् । प्रस्तुनसूश्रेणा गकारस्थ ककारे, १९५ सूत्रेण टकारस्य इकार-प्राप्ती, ९९९ सूत्रेण पंशाचीवत्वात् ९९५ तस्तिषेधे,२३ सू० मकारानुस्वारे किरितदं इति भवति । मेघः । मेध+सि । प्रस्तुत सूत्रेण धकारस्य खकारे, पूर्वत्रदेव मेखो इति भवति । व्याघ्रः । ध्यान-सि । ३४९ सू० यकारलोपे, ८४ सु० संयोगे परे हस्वे, ३५० सु० रेफलोपे. प्रस्तुतसूत्रेण धकारस्य खकारे, ३६० सू० खकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्थ ककारे,पूर्ववदेव बक्खो इति भवति । धर्मः। धर्म +सि । प्रस्तुतसूत्रेण धकारस्य खकारे, रेफस्य लोये,३६० स० मकार-द्रित्वे,पूर्वत्रदेव सम्मो इति भवति । राजा । प्रस्तुतसूत्रेण जकारस्य चकारे राचा इति भवति । अर्जरम् । प्रस्तुतसूत्रेण जकारस्य उभयत्रापि चकारे,३५० स० रेफस्य लोपे,३६० सू० द्वितीय-चकार द्वित्वे, २३ सू० मकारानुस्वारे चन्चर इति भवति । जीमूतः । जीमूत +सि । प्रस्तुतसूत्रेण जकारस्य चकारे,पूर्ववदेव चीमूतो इति भवति । निझरः । निर्भर+सि । ३५० सू० रेफस्य लोपे,प्रस्तुतसूत्रेण झकारस्य छकारे, ३६० सू० छकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे, पूर्ववदेव निम्छरो इति भवति । भारः । झझर+सि । प्रस्तुतसूत्रेण उभयत्रापि झकारस्य छकारे, पूर्ववदेव छम्छरो इति भ• वति । तद्धागम् । प्रस्तुतसूत्रेण डकारस्य टकारे, गकारस्थ च ककारे, २३ सू० मकारस्थानुस्वारे तथा इति भवति । मण्डलम् । प्रस्तुतसूत्रेण डकारस्य टकारे, पूर्ववदेव मधलं इति साध्यम् । अमरकः । इमरुक+सि । प्रस्तुतसूत्रेण डकारस्य टकारे, पूर्ववदेव टमको इति भवति । गाहम् । प्रस्तुतसूत्रेण गकाररस्य ककारे, ढकारस्य च ठारे, पूर्व प्रदेव काठं इति भवति । षण्डः ! षण्व-+-सि । ९८० सू० पकारस्य सकारे, प्रस्तुतसूत्रेण हकारस्य उकारे, ५१४ सू 0 सेम कारे, २३ सू० मक्कारानुस्वारे सण्ठं इति भवति । एवमेव ढक्का । प्रस्तुत सूत्रेण हकारस्य ठकारे ठवका इति भवति । मनः । मदन+सि । प्रस्तुतसूत्रेण दकारस्य सकारे, पूर्ववदेव मतनो इति भवति । कन्दर्पः । कन्दर्प-+-सि । प्रस्तुतसूत्रेण दकारस्य तकारे,
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प्रस्त
१४२ * प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थ पादः ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० पकार-द्वित्त्वे, पूर्ववदेव कन्तप्पो इति भवति । बामोवरः । दामोदर +सि । प्रस्तुतसूत्रेण उभयत्रापि दकारस्य सकारे, पूर्ववदेव लामोसरो इति भवति । मधुरम् । मधुर+ सि । प्रस्तुतसूत्रेण धकारस्य थकारे, ५१४ सु० सेमकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे मथुर इति भवति । बान्धवः । बाधव+सि । प्रस्तुतसूत्रेण बकारस्य प्रकारे, धकारस्य च थकारे, ८४ सूक संयोगे परे हस्वे, पूर्ववदेव पन्थवो इति भवति । धूली । धुली+सि । प्रस्तुतसूत्रण धकारस्थ थकारे, १।१।३७। सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारलोपे धूली इति भवति । धूलिः इतिच्छायायान्तु धूलि+शि, इत्यत्र धकारस्य थकारे, ५०० स० इकारदीधे, सेलोपे धूलो इति भवति । बालकः । बालक+सि । इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण बकारस्थ पकारे, पूर्ववदेव पालको इति साध्यम् । रभसः 1 रसभ-+सि । प्रस्तुतसूत्रेण भकारस्य फकारे पूर्ववदेव रफसो इति भवति । रम्भा । रम्भा+सि । प्रस्तुतसूत्रेण भकारस्य फकारे, सेर्लोपे रम्फा इति भवति । भगवती। प्रस्तुतसूत्रेण भकारस्य फकारे, गकारस्य च ककारे, सेलोपे फकवतो इति भवति । नियोजितम् । इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण जकारस्य पारे, २३ सू० मकारानुस्वार नियोचित इति भवति । कचिल्लाक्षणिकस्याऽपि । बाहुल्येन कस्मिश्चित स्थले लाक्षणिकस्य-सूत्रनिष्पन्नस्यापि डकारस्य टकारः, ढकारस्य च ठकारो भवति । यथा-प्रतिमा। इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे, २०६ सू० तकारस्य डकारे,
'णकस्य डकारस्य टकारे पटिमा इति भवति । एवमेव दंछा। ४१० स० दंष्टाशब्दस्य दाढा इत्यादेशे, प्रस्तुतसूत्रेण लाक्षणिकस्य दकारस्य तकारे, लकारस्य च ठकारे साठा इति भवति । ९६७--- प्रणमत प्रणयप्रकुपित-गौरी-चरणान-लग्नप्रतिबिम्बम् ।
यशसु नखवरणेषु एकावश-सनुपरं हनम् ॥१॥ भावार्थ:-महादेवप्रणामव्याजेन कश्चित्कवि: गौरीचरणयोः नखानां समुज्ज्वलता प्रतिपादयति । चन्द्रम्-महादेवं यूयं प्रणमत-नमस्कारं कुरुत । किविशिष्टं सनम् ? प्रणयेन-प्रेम्णा प्रकुपिता-प्रकर्षण क्रुद्धा प्रणयप्रकुपिता, प्रणयप्रकुपिता चासौ गौरी-पार्वती तस्याः चरणयोरग्ने लग्नम्-सम्बद्धम, चरणलग्नं प्रतिबिम्ब-प्रत्याकृतिर्यस्य तथाभूतम् । पुनः फिविशिष्ट रुखम् ? नखान्येव दर्पणानि नखदर्पणानि, तेषु दंशसुदेशसंख्यकेषु, एकादश च इमाः तनवः शरीराणीति एकादशतनयः, ताः धरतीति एकादश-तनुधरः तथाभूतम् । गौर्याः चरणानयोः ये दशनखाः सन्ति, तेषामत्युज्ज्वललया महादेवस्य प्रतिबिम्ब तेषु प्रतिभाति । अनेन गौराः चरणनखाः दर्पणतुल्यकान्तिमन्तः सन्ति, इति संसुच्यते ।
प्रणमत । प्रपूर्वकः णम-(नम्)-धातुःप्रणामे । अत्र लोट-लकारः, किन्तु १११८ सूत्रेण लकारव्यत्यये जाते सति लोट् लकारस्थाने लट्लकारो जातः,तत:प्र+नम्+थ इति जाते ३५० सू० रेफलोपे, २२८ सू० कारस्य कारप्राप्ती, ९९९ सूत्रेण पैशाची-बत्त्वात् १९५ स० तनिषेधे,९१० सू० प्रकारस्यागमे, ६३२ सू० थस्य हच्-ह इत्यादेशे, ९३९ २० हकारस्य धकारे,९९६ स० धकारस्य षकारे पनमय इति भवति । प्रणयप्रकुपित-गौरी-चरणान-लग्न-प्रतिबिम्बम् । प्रणय इत्यत्र ३५० सू० रेफस्य लोपे,९७७ साणकारस्य नकारे पिनय,प्रकृपित इत्यत्र ३५० स० रेफस्य लोपे,९०१ सपकारद्वित्त्वे पपित), गौरी इत्यत्र १५९ सू० औकारस्य लोकारे,९९७ सू० रेफस्य स्थाने लकारे (गोली),चरणान इत्यत्र १९७ सू० रेफस्य लकारे, ९७७ सू० णकारस्य नकारे,८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० गकारस्य द्वित्त्वे (चलमग्ग) लग्न इत्यत्र ३४९ सू० नकारलोपे,गकारस्य द्वित्त्वे (लग्ग) प्रतिबिम्बम इत्यत्र ३५० सू० रेफस्य लोपे, २३ सू० मकारानुस्वारे पतिबिम् इति भवति । दशसु इत्यत्र ९७८ सू० इकारस्य तकारे, ९८० सू० शकारस्य सकारे तहसु इति भवति । नखदर्पणेषु । इत्यत्र २२९ सू० नकारस्य ..
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी टीकाद्वयोपेतम् ★
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कारप्राप्त ९९९ सूत्रस्य बलेन ९९५ सु० नकारनिषेधे, १८७ सू० खकारस्य ह्कारप्राप्तौ ९९१ सू० निषेधे, ९९९ * सूत्रस्य बलेन ९७८ सू० दकारस्य तकारे ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० पकारस्य द्विवे, ९७७ सू० एकारस्य नकारे, ९८० सू० षकारस्य सकारे २० सू० प्रन्तेऽनुस्वारागमे नखतप्यtr इति भवति । एकादश-तनुधरम् । इत्यत्र १७८ सू० दकारस्य तकारे, ९८० सू० शकारस्य सकारे, २२८ सूत्रेण णकारप्राप्ती, पूर्ववदेत्र ९९५ सु० तनिषेधे, ९९६ सू० वकारस्य स्थाने वकारे, प्रस्तुतसूत्रेण रेफस्य लकारे, २३ सू० प्रकारानुस्वारे एकासस- सनुथलं इति भवति । रुद्रम् प्रस्तुतसूत्रेण रेफस्य लकारे, ३५० रेफस्य लोपे, ३६० सू० दकारस्य द्वित्वे २३ सू० मकारानुस्वारे सुखं इति भवति । लोकेऽस्मिन् गोली चलनग्ग, तनुयलं, लुवं इत्येतेषु शब्देषु प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्वोध्या ।
नृत्यता लीलावावीत्क्षेपेण कम्पिता वसुधा ।
छलत समुद्राः शैला निपतन्ति तं हरं समत ||२||
भावार्थ:--नृत्यतः इत्यत्र सप्तम्यर्थे षष्ठी विभक्तिर्व सं । ६२३ सूत्रेण सप्तम्यर्थे षष्ठीविभक्तिजीता । ततोऽस्य श्लोकस्यायमन्वय: - लीलावादोत्कमेपेण, लीलया विनोदेन पादस्य चरणस्य उत्क्षेपेण-उ स्थापनेन उन्नयनेन वा यस्मिन् महादेवे नृत्यति ताण्डवनृत्यं कुर्वति सति, वसुधा पृथ्वी कम्पिता चलिता, समुद्राः उच्छन्ति मर्यादामतिक्रामयन्ति, शैलाः पर्वताः नितान्त निश्शेषण पतन्ति एतादृशं हरम्-शिव नमत- नमस्कारं कुरुतेति भावः ।
सूपतः । नृती- धातुः मात्रविक्षेपे । संस्कृतनियमेन नृत्य + शत्रु इति जाते, २२९ सू० नकारस्य णकार प्राप्ती ९९९ सूत्रत्रलेन ९९५ सू० णकारनिषेधे, १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, २८४ सू० व्यस्य वकारे, ३६० सू० चकारस्य द्वित्वे, ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे, स्प्रत्यये जाने, ४९९ सू० स: स्थाने इत्यादेशे स इति भवति । च । ग्रव्ययपदमिदम् । १७७ सू० चकारलोपे, बाहुल्येन १८० सू० terrat इति भवति । लीलापायोत्क्षेपेण । इत्यत्र ९७० सू० वकारस्य तकारे ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्व, ३४८ सू० तकारलोपे, २७४ सू० क्षस्य खकारे, ३६० सू० खकारद्वित्वे ३६१ सू० पूर्वकारस्य ककारे, २३१ सू० पकारस्य वकारे, ९७० सू० णकारस्य नकारे लीलापातुश्लेवेन इति भवति । कम्पिता । संस्कृततुल्यमेव चूलिकापैशाच्यां प्रयुज्यते । वसुधा । ९९६ सू० धकारस्य थकारे वसुधा इति भवति । उच्छल । उत्पूर्वः छलधातुः उच्छलने । उत्छल्+कि । ३४८ ० तकारलोपे, ३६० सू० छकारस्य द्विवे, ३६१ सू० पूर्व - छकारस्य चकारे, ९१० सू० प्रकारस्थानमे ६३१ सू० भित्रत्ययस्य स्थाने न्ति हत्यादेशे उच्छन्ति इति भवति । समुद्राः । समुद्र + जस्। ३५१ सू० वैकल्पिके रेफलोपे, ३६० सू० दकारस्थ द्वित्वे, ४९३ सू० जसो लुकि, ५०१ सू० पूर्वाकारवोर्थे समुद्दा इति भवति । शेषाः । शैल+जस् । ९८० सु० शकारस्य सकारे, १५२ सू० ऐकारस्य श्रइ इत्यादेशे, जसो लुकि, पूर्ववदेव सहला इति भवति । निपतन्ति । निपूर्वक: पल्लू (वत्) - श्रातुः निपलने । निवत् + ९१० सू० धातोरन्तेऽकाराममे, उच्छलन्तियदेव निपतन्ति इति भवति । तम् । तद् + भ्रम् । इत्यत्र ११ सू० वकारलोपे, ४९४ सू० अमोऽकारलोपे, २३ सू० मकारानुस्वारे तं इति भवति । हरम् । प्रस्तुतसूत्रेण रेफस्य लकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे इति भवति । नमत | १११८ सूत्रेण लकारव्यत्यये लोट्-लकारस्य लट्-लकारे जाते नम प्रथमश्लोक-पठित-पनमथ-वदेव साध्यम् । श्लोकेऽस्मिन् हतं इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तिता ।
६६८- चुलिका - पंशाचिकेऽपि । ९९६ सूत्रेण वर्गाणां तृतीयवर्णस्य स्थाने प्रथमो वर्णः, चतुर्थaritra द्वितीयवर्णो जायते, किन्तु केषाञ्चिदाचार्याणां मते श्रादिवर्तमानयोः तृतीय- चतुर्थवर्णयोः क्रमशः *९९६ : पूर्वाषाणां यद्यत्र प्रकरणे प्रवृतिर्भवदि तथा १९९ सूत्र बलेनैव भवतीति सर्वत्र बोध्यम् ।
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१४४ ★ प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः प्रथमद्वितीय-वर्णो न भवतः । तथा युधातोरपि जकारस्य चकारो न भवति । ९९८ सूत्रे मूत्रकारण ९९६ सूत्र-सम्बन्धिमतान्तरं प्रदशितमिति भावः। यथा---गतिः । गति+सि। इत्यत्र ९९६ सूबेण गकारस्थ ककारप्राप्सिरासीत्परन्तु प्रस्तुल-सूत्रेण तन्निषेधे ५०८ सू० इकारदीर्घ ११३७। सू० सेरिकारलोपे,११ सू० सकारलोपे गती इति भवति । एवमेवाग्रिमा अपि शब्दाः योध्याः । यथा-धर्मः। धर्म+ सि । ३५० स० रेफलोपे, ३६० सू० मकारद्वित्त्वे, ४९१ सू० सेडोंः, डिति परेऽन्त्य-स्वरादोंपे धम्मो इति भवति । अत्र ९९६ सू० धकारस्य स्थाने खकार प्राप्तः,किन्तु प्रस्तुत-सूत्रेण तम्निषेधो विहितः । ओमृतः । जीमूत-+सि ! पूर्ववदेव जीमूतो इति साध्यम् । अत्र प्रस्तुतसूत्रेण जकारस्य चकारो नाऽभूद् । झर्भरः । झझर+सि । ३५० सू० रेफलोपे,९९६ सू० द्वितीय-भकारस्य छकारे,३६० सू० छकारहित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे,पूर्ववदेव मच्छरो इति भवति । अत्र प्रस्तुतसूत्रबलेन प्रथमझकारस्य छकारो न जातः । समस्कः । डमरुक+सि । पूर्ववदेव उमरको इति भवति । अत्र डकारस्य टकारो न जातः । ढक्का । का+सि । सेलोपे का इति भवति । अत्र ढकारस्य ठकारो न जातः । वामोदरः । दामोदर+सि । इत्यत्र ९९६ सू० द्वितीयदकारस्य तकारे, पूर्ववदेव वामोतरी इति भवति । अत्र प्रथमदकारस्य तकारो न जात बालकः । बालक+सि । पूर्ववदेव बालको इति साध्यम् । अत्र प्रस्तुत-सूत्रेण बकारस्य पकारो न जातः । भगवती। भगवती+सि । ९९६ स० गकारस्य ककारे, सेलोपे भकश्ती इति भवति । मत्र भकारस्य फकारो न जातः । नियोजितम् । नियोजित-+सि । २२९ सत्रेण नकारस्थ जकारप्राप्ती ९९९ सूत्रबलेन ९१५ सूत्रेण कार-निषेध, ९९६ सू० युधातोः जकारस्य चकारप्राप्ती, परन्तु प्रस्तुतसूत्रवलेन तस्य जकारस्य चकाराभावे, ५१४ सू० सेम कारे, २१ सू० मकारानुस्वारे नियोजितं इति भवति।
___ERE--प्राक्तन-पैशाचिकवद् । धूलिकापैशाचीभाषायां खलु ९२६ सत्रादारभ्य १५८ सूत्रपर्यन्त यानि कार्याण्युक्तानि तदतिरिक्तानि कार्याणि प्राक्तन-(पूर्वभणित)-पैशाची-भातुल्यानि ज्ञेयानि । ९७४ सूत्रादारभ्य ९९५ सूत्रपर्यन्तं पंशाचीभाषा-प्रकरण विद्यते तत्प्रकरणे यानि कार्याणि भणितानि, तेषां कार्याणां चूलिकापेशाची-भाषाप्रकरणेऽपि ग्रहण बोध्यमिति भावः । यथा--नगरम् । नगर+सिनकर, प्रक्रिया ९९६ सूत्रे द्रष्टव्या । अत्र पैशाची भाषाप्रकरणस्य ९९५ सूत्रेण २२८ सत्रविहिता नकारस्य णकारप्रालिनिषिद्धा। पैशाची-भाषा-विहित-कार्य ९९९ सूत्र-बलेन चूलिका पैशाचीभाषायामग्नि संजातमिति भावः । एवमेवानेऽपि बोध्यम् । यथा--मार्गणः। मार्गण+सिमबानो प्रक्रिया ९९६ सो ज्ञेया । अनयोनों एवं न भवति । नकर इत्यत्र नकारस्य २२८ सूत्रेण प्राप्तः णकारः,९९५ सूत्रेण निषिद्धः । मकनो इत्यत्रापि पूर्वचदेव २२८ सू० नकारस्य स्थाने णकारो न जातः । रणस्य च नत्वं स्यात् । मागण:मक्कनो,इत्यत्र ९७७ सू० पाकारस्य नकाशे जातः,णकारस्य नकारविधायक किमपि सत्र चूलिकापशाची. भाषायां नास्ति, किन्तु पैशाच्यां तद्वर्तते । ९९९ सूत्रबलेन तस्थ पैशाचीभाषा-नियमस्य बलिकाशाच्यामपि प्रवृतितिा एकमन्यपि । एवमेवाऽन्ये प्रयोगा अपि समन्वगन्तव्याः। समाप्तं चूलिकापंशामीप्रकरणम् । चूलिकापैशाचीभाषायाः प्रकरणम्-अध्यायः समाप्तम् । मूल ग्रन्थे चूलिकापशाचीभाषा.प्र. करणस्य समाप्तो बालमनोरमा-टीकायापि तद्विवेचनं समाप्तिमेति ।
पंशाची चूलिका टीका, पूर्गा बालमनोरमा ।
आत्मगुरोः प्रसादेन, ज्ञानेन्दु-मुनि-निमिता ॥ * समाप्तं धूलिकापैशाची माषा-विवेचन *
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१४५
चतुर्थपादः ★ संस्कृत-हिन्दी-टीका-द्वयोपेतम् ★
१४५ * अथ चूलिका-पैशाची-भाषा-विधि * विश्यवन्ध प्रभु वीर हैं, जगती के प्राधार, स्वयं तर जग तारते, महिमा अपरम्पार ।
यन्वन कर प्रभु वीर को, प्रातमगुरु का ध्यान,
चूलिका पैशाची का, करता हूं व्याख्यान ।। हैमशब्दानुशासन के अष्टमाध्याय में वर्णित प्राकृत प्रादि षविध भाषाओं में पांचवीं भाषा चूलिकापशाची है। इसे चूलिका-पैशाचिक भी कहते हैं। इस प्रकरण में इसी भाषा के विधि-विधान का वर्णन किया जा रहा है।
९९६--चुलिकापैशाचिक भाषा में वर्गों के तीसरे और चौथे वर्ण के स्थान में यथासंख्य (संख्या के अनुसार,कमशः) पहला और दुसरा वर्ण होता है। अर्थात् तीसरे वर्ण के स्थान में पहला और चौथे के स्थान में दूसरा वर्णन हो जाता है। जैसे-१-नगरम् नकर (शहर), २-मागरणः-- मक्कनो (याचक), ३-गिरिसटम-किरितट (पर्वत का किनारा), ४... मेघः-- मेखो (बादल), ५-व्याघ्रःबक्लो (वाचा, ६-धर्मः खम्मो (धूप),७---राजाराचा नरेश), 4-जर्जरम्-चच्चरं (कमजोर) 8-जीमूत, चीभूतो (बादल),१०-निर्भरः मिच्छरो (स्रोत,झरना),११-झझर छच्छरो (डोल, देत-बेत की छडो,कलियुग), १२-तडागम तटाक (तालाब), १३ मण्डलम् मण्टल (समूह, गोल, जिला), १४ असाफटमरुको (उमरू, वाद्यविशेष), १५-पाम् सम्म काठ (कठिन, मजबूत), १६षष्ठःAण्ठो (नपुंसक), १७-ढक्का ठक्का (वाचविशेष, बडा होल), १८-भवन: मतनो (कामदेव), १९ कन्दर्पः कन्लप्पो (कामदेव),२०-चामोदरः तामोतरो (श्रीकृष्ण),२१-मधुरम्-मधुरं {मीठा), २२-बान्धवः पन्थयो (भाई, बन्धु), २३–ठूली 4 थूली (रअ), २४...-बालक, पालको (बच्चा), २५-रभसः= रेफसो (सहसा, एकदम, क्रोध, हर्ष, खेद), २६--रम्भारम्फा (अप्सराविशेष), २७. भगवती=फावती (भगवत्स्त्रापा नारी),२८-- नियोजितम् -- नियोचित (कार्य में लगाया हुआ), यहां पर वर्ग के तीसरे वर्ण को पहला और चौथे वर्ण को दूसरा वर्ण किया गया है । सिकार फरमाते हैं कि कहीं पर वर्ग के लाक्षणिक (लक्षण-व्याकरण के नियम से प्राप्त) तीसरे वर्ण को पहला मोर चौथे को दुसरा वर्ण भी हो जाता है, जैसे ---१-प्रतिमा के रेफ का ३५० वें सूत्र से लोप, तथा २०६ वे ससे उसके तकार को डकार होकर परिमापौर-ग्रा का ४१०वें सत्र से दाढा यह रूप बनता है। यहां पर डकार और ढकार लाक्षणिक है.-.-व्याकरण के लक्षणों-सूत्रों से सम्प्राप्त है, अतः प्रस्तुत सूत्र से वर्ग के तृतीय वर्ण को पहला वर्ण होने पर पडिमा - पटिमा (फोटो) और वर्ग के चतुर्थ वर्ण को दूसरा वर्ण होने पर दादा-ताठा (दाढ, बड़ा दान्त) यह रूप हो जाता है। ९६७-चूलिका-पैशाचिक भाषा में रेफ के स्थान में विकल्प से लकार होता है। जैसे
प्रशमत प्रणयप्रकुपित-गौरी-धरणान-लग्न-प्रतिबिम्बम् ।
सशसु मखदपरणेषु एकादश-तनु-वरं रुद्रम् ।। १ ।। *जैन-धर्म-दिवाकर, पाचार्यसम्राट् गुरुदेव पूज्य श्री मात्माराम जी महाराज। .
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૪૬
★ प्राकृत-व्याकरणम् ★
नृत्यse लीला- पायोक्षेपेण कम्पिता वसुधा । शैला निपतन्ति तं हरं नमत ॥ २ ॥
अर्थात प्रणय (प्रेम) के कारण प्रकुपित (रुष्ट) हुई पार्वती के चरणाओं (चरणों के अग्रभागों) के नखरूपी दश दर्पणों में जिस का प्रतिबिम्ब (परछाई) पड़ रहा है, एकादश- शरीर-धारी ऐसे रुद्रशंकर को तुम नमस्कार करो। भाव यह है कि पार्वती के पात्रों के दश नाखुन दर्पण (शीशे के समान इतने चमकीले हैं कि उन में शिवशंकर को प्रतिमूर्ति स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है । नखों के दश प्रतिबिम्ब तथा एक महादेव स्वयं इस तरह शंकर के ग्यारह रूप बन जाते हैं। इसीलिए कवि कहता है कि ११ शरीरधारी शंकर को नमस्कार करो ॥ १ ॥
चतुर्थपादा
fter (faria) के कारण जिस के पादोत्क्षेप (पांव को ऊपर उठाने) से नृत्य करने पर वसुधा (जगतीतल) कम्पित हो गई है, समुद्र उछल पडे हैं, श्रौर पर्वत गिरने की स्थिति में आ गए हैं, उस हर (महादेव) को नमस्कार करो ।
यहां पर ---१--- गौरी - गोली, २ चरण चलन, ३- तनुषरं तनुधलं, ४ – रुद्र - हरहलं, इन शब्दों के रेफ को लकारादेश किया गया है ।
ees - चूलिका-पैशाचिक भाषा में भी दूसरे प्राचार्यों के मत से आदि में वर्तमान (शब्द के प्रारम्भ में विद्यमान वर्ग के तीसरे और चौथे वर्ण को तथा युज् धातु के तीसरे वर्ण को पहला और दूसरा वर्णन नहीं होता । भाव यह है कि चूलिका-पैशाचिक भाषा के विद्वान कई एक प्राचार्यो की ऐसी मान्यता है कि यदि वर्ग का तीसरा वर्ण शब्द के आदि में हो तो उसे पहला वर्ण नहीं होता, इसी तरह यदि वर्ग का चौथा वर्ण शब्द के आदि में हो तो उसे भी वर्ग का दूसरा वर्ण नहीं हो पाता । इस के अतिरिक्त, धातु के जकार को वर्ग का प्रथम वर्ण अर्थात् चकार नहीं हो सकता । जैसे-१पतिःगती (गमन, जाना), २ -- धर्मः - यम्मी (प), ३ जीमूतः जीमूतो (बादल), ४--: झच्छरो (ढोल), ५ – अमरुकः डमरुको (डमरु), ६ ढक्का ढक्का (बडा ढोल), ७ -- दामोदरः = दामोतरी (श्रीकृष्ण), ८ - बालकः - बालको (बच्चा), ६ - भगवती भकबती (भगवत्स्वरूपा नारी), १०नियोजितम् = नियोजित ( काम में लगाया हुआ ) इन उदाहरणों में वर्ग के यादिभूत तीसरे वर्ण को पहला वर्ण तथा चौथे वर्ण को दूसरा वर्ण नहीं हो सका । नियोजितम्, यह युज् धातु का उदाहरण है। यहां कार श्रादिभूत नहीं था, किन्तु विशेषरूप से युज् धातु का निर्देश होने से इस के अकार को चकार नहीं हो सका। इस सूत्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि आदिभूत (शादि में विद्यमान) वर्ग के तीसरे वर्ण को पहला तथा चौथे वर्ण को दूसरा वर्ण बनाने का जो विधान है, यह वैकल्पिक है, किसी श्राचार्य के मत में यह कार्य हो जाता है और किसी को यह कार्य इष्ट नहीं है ।
EEE - चूलिकाशाची भाषा में "वर्ग के तृतीय वर्ण को पहला तथा चतुर्थ वर्ण को दूसरा वर्ण होता है" आदि जो विधिविधान कहा गया है, इस से ग्रन्थ जी शेष कार्य हैं, वे सब पहले कही पैशाचिक (पैशाची भाषा के तुल्य होते हैं । भाव यह है कि चूलिका पैशाची के जो नियम बताए जा चुके हैं इन के अतिरिक्त, इसकी सब नियमावलि पेशाची भाषा के समान ही जाननी चाहिए। जैसे – १ – नगरम् करं (शहर), २- मार्गण :- भक्कनी (याचक), इन शब्दों में नकार को णकार नहीं होता और णकार को नकार हो जाता है। इसी प्रकार शेष नियमों के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए। इन प्र योगों को दिखलाने का उद्देश्य यह है, कि नकर के नकार को २२९ वे सूत्र से गकारादेश की प्राप्ति थी
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चतुर्थपादा
★ संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्रयोपेतम् ★
१४७
किन्तु पैशाची भाषा के ९९५ में सूत्र से उस का निषेध हो गया, तथा मार्गणः- मक्कन, यहां पर पैशाचीभाषा के ९७७ में सूत्र से कार को नकार किया गया है। ये दोनों कार्य पैशाची भाषा के हैं, तथापि धूलिका-पैशाची में इन का श्राश्रयण किया गया है । इसीलिए प्रस्तुत ९९९ वा सूत्र कहता है कि चू featureभाषा में ९९६ वे सूत्र से लेकर ९९८ वें सूत्र तक जो कार्य बतला दिए गए हैं, वे तो इस भाषा में होते ही हैं, किन्तु इनके अतिरिक्त ९९५ वें सूत्र से नकार को पकार का निषेध तथा ९७७ वें सूत्र से शकार को नकारादेश प्रादि पूर्व वर्णित पैशाची भाषा के सत्र कार्य भी धूलिकापैशाचिक भाषा में हो जाते हैं। वृत्तिकार ने " एवमन्यदपि ( इस प्रकार अन्य नियम भी जानने चाहिएं ) " यह कह कर पाठकों को सूचना दी है कि पैशाची भाषा के अन्य नियम चूलिका-पैशाची भाषा के किन-किन उदाहरणों में लागू होते हैं, इस की कल्पना स्वयं कर लेनी चाहिए। इस सूचना के साथ ही वृत्तिकार ने चूलिकापैशाची भाषा का प्रकरण समाप्त कर दिया है। बुलिका-पैशाची भाषा के प्रकरण की समाप्ति के साथ ही हमारी प्रात्मगुण- प्रकाशिका हिन्दी टीका में भी इस भाषा का विवेचन समाप्त होता है।
अथ अपन शनाकाम्
[अथ स्वरविधिः ]
१००० स्वराणां स्वराः प्रायोऽपाशै १८१४१३२६| अपभ्रंशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वरा भवन्ति । क, काच्च । वेरा, वीरण । बाह, बाहा, बाहु । पट्टि, पिट्टि, पुट्टि । तर, तिलु, तृषु । सुकिदु, सुकिप्रो, सुकुदु । किन्न, किलिन्नयो । लिह, लोह, लेह । गउरि, गौरि । प्रायो प्रहरणाद्यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते, तस्याऽपि क्वचित् प्राकृतवत् शौरसेनीवच्च कार्यं भवति ।
१००१ - स्यादौ दीर्घ ह्रस्वौ । ८ १ ४ ३३० | अपभ्रंशे नाम्नोऽन्त्यस्वरस्य दीर्घ ह्रस्वो स्यादी प्रायो भवतः । सौ |
ढोल्ला
आमन्त्रये
afeteriशाची का हुआ पूर्ण व्याख्यान | ध्यान सहित जो भी पढ़े, प्राज्ञ बने सुनिज्ञान
* चूलिका-पैशाचिक - भाषा - विवेचन समाप्त*
स्त्रियाम
जसि -
सामला धण aur aurt | सुवण्ण-रेह कस-बट्ट दिण्णी ॥१॥
गा
ढोला ! माँ तु बारिया, मा कुरु दीहा माणु । निए गमिही रतडी दडवड होइ विहाणु ॥ २ ॥ बिट्टीए ! मह भणिय तुहुँ मा करु बहु की दिट्टि । पुति ! सकण्णी भल्लि जिवें मारइ हिश्र पट्ठि ॥३॥ एइ ति घोडा एह थलि एइ ति निसिश्रा खमा । एत्थ मुणीसिस जाणीइ जो न वि वालइ वग्ग ॥४॥
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AAAAAAAAAAAAAAMA
*.प्राकृत-व्याकरणम ..
चतुर्थपादः एवं विभक्त्यन्तरेष्वप्युदाहार्यम् । ... .१००२-स्यमोरस्योत् । ८।४ । ३३१ । अपभ्रशे अझारस्य स्यभोः परयोः उकारो भवति ।
बहमुह भुवण-भयंकर तोसिम-संकरु णिग्गउ रह-वरि चडिप्राउ । चउमुह छमुह माइवि एक्काहि लाइवि णावह दइवें घडिअउ ॥१॥ * अथ अपनश-भाषा-विवेचनम् *
[अथ स्वरविधिः] सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं, सर्वकल्याणकारकम् ।
महावीरं, गुरुं नत्वा, अपन शो निगद्यते॥ प्रस्तुताष्टमाथ्याये प्राकृत-शौरसेनी-मागधी-पैशाची-चूलिकापैशाची अपभ्रंश-नामधे. याः षड्भाषा: विद्यन्ते,तासां मध्ये पंचभाषाः प्राग वरिणता एव सन्ति,साम्प्रतं षष्ठ्या अपभ्रंशभाषायाः वर्णनं क्रियते। अपभ्रश-भाषायां स्वराणां स्थाने प्रायः ये विभिन्नाः स्वरा भवन्ति, तान प्रदर्शयत्याचार्यः। यथा
१००० काश्मिात् । इष्टप्रश्नार्थकमिदमव्ययपदम् । १००० सू० इकारस्य स्थाने उकारे,१११७ सूत्रबलेन शौरसेनी-वत्त्वात् ११ सू० सकारलोपे कच्चु प्रस्तुमसूत्रेण प्रथमस्य प्रकारस्य आकारे, उकारस्य च प्रकारे कारख इति भवति । बेरिणः । वेणि-शि । इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण इकारस्य प्रकारे, १०१५ सू. सेलोप देरंग एकारस्य ईकार, इकारस्य च प्रकारे जाते क्षीण इति भवति । बाहुः । बाहु+सि । प्रस्तुत सूत्रेग उकारस्य प्रकारे, सेर्लोप बाह उकारस्य प्राकारे जाते बाहा यत्र किमपि न जातं तब बाहु इति भवति । पम् । पृष्ठ+सि । प्रस्तुतसूत्रेण ऋकारस्य प्रकारे, इकारे, उकारे च, ३४८ सू० षकारस्थ लोपे, ३६०.सू. ठकारद्विस्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे, प्रस्तुतसूत्रेण द्वितीयाकारस्य इकारे, बाहुल्येन ५०८ सू० इकारदीर्घाभाने,१०१५ स० सेलोंपे–पट्टि,पिटिह,पुदि इति भवति । शुणम् । तृण+ सि । प्रस्तुतसूत्रेण ऋकारस्य प्रकारे,इकारे च तथा अकारस्थ नकारे,पूर्वदेव तणु,तिणु यत्र ऋकारस्य ऋकार एव स्थितस्तत्रता इति भवति । सुक्तम् । सुकत+सिं। इत्यत्र स्तुत सूत्रेण कारस्य इकारे, ९३१ स० सकारस्य दकारे, प्रस्तुतसूत्रेण अकारस्य उकारे,सेलोपे सुशिन वाढल्येन यत्र लकारस्य दकारो न जातस्तत्र १७७ सू० तकारलोपे,प्रस्तुतसवेग अकारस्य प्रोकारे सुकिलो यत्र ऋकार एवं अवस्थितस्तत्र पूर्ववदेव सुकदु इति भवसि । लिमकः । क्लिनक+सि । इत्यत्र ३५० स० लकारलोपे, १७७ स ० द्वितीयककारस्य लोपे, प्रस्तुतस्त्रेण बारस्थ स्थाने प्रोकारे, १०१५ सेर्लोपे किन्नओ ३७७ सू० लकारात् पूर्व इकारागमे किलिनमो इति भवति । लेखा। लेखासि । इत्यत्र प्रस्तुतसत्रेण एकारस्य इकारे,ईकारे च जाते, १७ सू० खकारस्य हकारे, १००१ स० आकारस्त्र स्थाने प्रकारे,सेर्लोपे-लिहलोह यत्र एकार एवं अवस्थितस्तत्र लेह इति भवति । गौरी । गौरी-+-सि । इत्यत्र १६२ सू० नौकारस्य अउ इत्यादेशे, १०१ सू० ईकारस्य इकारे, १०१५ सू० सेबोंपे गरि प्रस्तुतसूत्रेण औकारस्य प्रोकारे गोरि इति - वति । प्रायोग्रहणाद् । १००० सने प्रायोग्रहणाद् यस्य प्रयोगस्थ, अपभ्रशे-अपशभाषायां विशेषो
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * बक्ष्यते-विशिष्टनियमः प्रतिपादयिष्यते, तस्यापि प्रयोगस्य क्वचित ऋस्मिरिचरस्थले प्राकृतवत प्राकृतभाषा-तुल्यं शौरसेनी-बच्च-शौरसेनीभाषा-सुल्यच्च कार्य भवति । अयमत्र भावः-अपभ्रंशभाषा-नियमेष्वपि कुत्रचित्त प्राकृत-शौरसेनीभाषा-नियमाः प्रवर्तन्ते ।
१००१-नाम्नोस्येति । नाम्नः पानि दिकरा पाने मनोगताः प्रवासी स्वरोऽन्त्यस्वरस्तस्येति भावः । दोश्व-हस्वपन दीर्घ-हस्वौ इति द्वन्द्वसमासः । सो : सिप्रत्यये परे सति प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्ति प्रदर्शयति वृत्तिकारः । यथा---
नायकः श्यामलः नायिका चम्पकवर्ण ।
इव सुवर्णरेखा कषपट्टके बसा ।।१|| भावार्थ:-कश्चिात् कविः नायकस्य नायिकायाश्च वर्णसौन्दर्यमुपमयन्नाह नायक-काव्यविशेषस्य चरित-नायकस्तु, श्यामल... श्याम एवं श्यामल: कृष्णवर्ण इत्यर्थः । किन्तु नाधिका=नायकभार्या,काव्ये यस्माः प्राधान्यं भवति सा नारीवा। चम्पकवर्गा-चम्पकं पापविशेष तस्य वर्ग: चम्पकवर्ण:, चम्पकवर्ण इव वर्षों यस्याः सा चम्पकपुष्पसमाना इत्यर्थः । यथा कृष्णवणे कषपट्टके-निकषे[कसोटी इति भाषायाम् ] सुवर्णरेखा सुवर्णस्य रेखा-चिन्हे दत्ता - लिखिता शोभते,तदिय चम्पकवर्ण समानवर्णवती माथिका श्याम-नायकेन संयुक्ता शोभा भजते ।
नायकः । नायक+सि । अपभ्रंशे १०९३ सू० नायक-स्थाने दोल्ल इति शब्दः प्रयुज्यते, १००१ सू० अकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० सेलोपे ढोल्ला इति भवति 1 श्यामलः । श्यामल+सि । इत्यत्र २६० सू शकारस्य सकारे,३४९ सू० यकारलोपे,प्रस्तुतसूत्रेण अन्त्याकारस्य प्रकारे,सेलीपे सामसा इति भवति । नायिका । नायिका+सि । अपभ्रंशे नायिकास्थाने धण" इति शब्दः प्रयुज्यते,स्त्रीत्वादा-(प्रा)प्रत्यये,दीर्घ-सन्धौ,प्रस्तुतसूत्रेण प्राकारस्य प्रकारे,सेर्लोपे धरण इति भवति । सम्यकथा ! चम्पकवर्णासि । १७७ सू० कारलोपे ५ सू० दीर्घसन्धौ,३५० सू० रेफस्य लोपे,३६० म० णकारद्वित्त्वे,प्रस्तुतसूत्रेग प्राकारस्य स्थाने प्रकारे, स्त्रीत्त्वविवक्षायां ५२१ सू० ली-(ई)-प्रत्यये, १० सू० स्त्ररे परे स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये,१०१५ सू० सेर्लोपे-चम्पावणी इति भवति । प्रस्तुत-सूत्रे प्रायो-ग्रहणादत्र ईकारस्य इकारो न जातः । इव । अन्ययपदमिदम् । इत्यत्र १११५ सू० इबार्थे नाइ इति प्रयुज्यते, २२८ सू० नकारस्य णकारे गाइ इति भवति । सुवर्सरेखा । सुवर्णरेखा-+सि । इत्यत्र ३५० रेफलोपे, ३६० । सू० कारहित्त्वे, १८७ सू० खकारस्य हकारे, प्रस्तुतसूत्रेण प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सेलोपे सुखज्यरेह इति भवति । कषपट्टके । कषपट्टक+ङि । २६० सू० पकारस्य सकारे, २३१ सू० पकारस्य स्थाने बकारे, १७७ सू० ककारलोपे, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे कसबट्टइ इति भवति । वत्ता दत्ता--सि । ४६ सुरू आकारस्य इकारे, ३१४ सू० तस्य प्रकारे, ३६० सु० कारद्वित्त्वे, चम्पावणीसममेव दिणी इति भवति । होल्ला, सामला, धण, चम्पापण्णी, सुवण्णरेह. दिण्णी इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्दश्यते । आमन्ये । प्रामन्यरो----सम्बोधने प्रस्तुतसूधमा प्रवृत्ति प्रदर्शयति वृत्तिकारः । यथा
नायक ! मया स्वं वारितः,मा कुरु दीर्घ मानम् ।।
नित्या गमिष्यति रात्रिः,शीघ्र भवति विभातम् ।।२।। भावार्थ:-नायक ! प्रिय ! मया स्वं वारितः-निवारितः, सत्यमिदम् तथापि त्वं बीम-अधिक मान-गर्व मा कुरु, यतः रात्रिस्तु निद्रया गमिष्यति, विभात-प्रभातं च शीध्र-सत्वरमेव भवति-भविष्यतीति क्रोधावेशेन मौनावलम्बिन निजनायकं प्रति कस्याश्चिन्नायिकाया उक्तिरियम् ।
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१५० * प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपाया मायक!। नायक+सि होल्ला इत्यस्थ पदस्य प्रक्रिया उपयुक्तश्लोके ज्ञेया। पत्र सम्बोधतापक पदमिदम् । अत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। मया ! अस्मद् +टा। १०४८ सू० टाप्रत्ययेन सह अस्मदः स्थाने मई इत्यादेशे मह इति भवति । स्वम् । युष्मद्+सि । १०३९ सू० युष्मदः स्थाने तुहुं इत्यादेशे, १०५२ सू० अनुस्वारस्य अनुनासिके, १०१५ सू० सेर्लोरे तुह इति भवति । वारितः । वारित+सि । इत्यत्र १७७ सूतकारलोपे,१८० सू० यकारश्रुती, प्रस्तुतसूत्रेण अन्याकारस्य प्राकार, सेलोपे बारिया इति भवति । मा अव्ययपदमिदं संस्कृतसममेव अपभ्रशे प्रयुज्यते । कुरु । डुकृञ्-करमे । कृ+हि । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, ९०९ सु० प्राधाकारस्य उकारे, ६६२ मू० हि इत्यस्य सु इत्यादेशे, १०५८ सू० सो स्थाने उकारे,१० सू० स्वरस्य लोपे,अज्झीने परेण संयोज्ये कुरु इति भवति । बीर्घम् । दीर्घ+ अम् । ३५० सू० रेफलोपे,१५७ सू० धकारस्य हकारे,प्रस्तुलसूत्रेण अकारस्थ प्राकारे,१०१५ सू० भमो लोपे बीहा इति भवति । मानम् । मान + अम् । २२८ सू० नकारस्य णकारे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे, प्रमो लोपे माय इति भवति । निद्रया। निद्रा टा। इत्यत्र ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० दकारद्वित्त्वे, प्रस्तुतसूत्रेण प्राकारस्य प्रकारे,१०२० सु० टास्थाने एकारे निदए इति भवति । गमिष्यति। गम्ल-(गम् +णी: पारस्यागो, ६५५ सू० प्रत्ययस्यादौ हि इत्यस्य प्रयोगे, ६४६ सू० प्रकारस्य इकारे,६२८ सू० स्प: स्थाने इच (इ) इत्यादेशे,गमि+हि+ इ इत्यत्र ५ मू० दीर्घसन्धी गमिही इति भवति । रात्रिः। रात्रि---सि! ८४ सू० संयोगे परे हस्थे,३५० सू० रेफलोपे ३६० सू० सकारस्य द्विस्वे, ११०० सू० स्वार्थे डड-(अड)-प्रत्यये डिति परेऽन्त्यस्वरादेलपि,प्रज्मीने परेण संयोज्ये, स्त्रीत्वविवक्षायां ११०२ सू. डी.(ई)-प्रत्यये, द्विति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेर्लोपे रसड़ी इति भवति । शीघ्रम् । शीघ्रार्थ दडवड इतिशब्दोऽपभ्रशे प्रयुज्यते । भवति होइ, प्रक्रिया ७३१ सूत्रे शेया। विभासम् । विभात+सि । अपनशे विभातार्थे विहाण इति-शब्दः प्रयुज्यते, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे विहाणु इति भवति । दोल्ला, वारिया, बोहा, निहए इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । स्त्रियाम् । स्त्रीलिङ्गे प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिः प्रदर्श्यते । यथा ---
पुनि ! भया भणिता त्वं, मा कुरु वका दृष्टिम् ।
पुत्रि! सकरण भल्लीर्यथा मारयति हक्ये प्रविष्टा ।।३।। भावार्थ:-है पुत्रि ! वस्से !,मया स्वं पूर्व भरिणता-कथिता यद् दृष्टि वक्रा-विकारयुक्त मा कुरुविधेहि, हे पुनि ! यथा हृदये-वक्षःस्थले प्रविधा सकर्णा-कर्णेन सह वर्तमाना, तीक्ष्याग्रभागा भल्ली:तीरं मारयति-प्रारिणनं हन्ति,तथैव बक्रा दृष्टिरपि जीवानां प्राणनाशं करोति । मातुः,पितुः गुरोर्वा पुत्री प्रतीयमुक्तिः ।
पुत्रि!। अपभ्रशे पुत्री इत्यर्थे बिट्टी इति-शब्दः प्रयुज्यते । ततः बिट्टी+सि इति जाते,११०० सू० स्वार्थ अप्रत्यये, स्त्रीत्वविवक्षायाम् माप-(ग्रा)-प्रत्यये,५ सू० दीर्घसन्धौ बिट्टीमा+सि इति स्थिते, ५३० सू० प्राकारस्य एकारे,१०१५ सू० सेलोपे बिट्टीए! इति भवति । मया-मइ, प्रक्रिया ५९८ सूत्रे शेया। भरिंगता । भणिता+सि । इत्यत्र १७७ सू० तकारलोपे, बाहुल्येन १८० सू० यकारश्रुती, प्रस्तुतसूत्रेण प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सूत सेलपि भणिय इति भवति । त्वम् = तहुँ, इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया प्रस्तुतसूत्रस्य वितीय-श्लोके ज्ञेया । मा। अव्ययपदमिदं संस्कृतसममेव अपभ्रशे प्रयुज्यते । कुरु । डुकृञ्-कू करणे । कृ+हि । ९०५ सु० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, १०५८ सू० हे: स्थाने उकारे, १० सू० स्वरस्य *सारणस्य लापवरवमनुनासिकस्वमित्यर्थः ।
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অসুখ ।
* संस्कृत-हिन्दी-टोकायोपेतम् * लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये कर इति भवति । बकाम् । बक्र+अम् । २६ सू० प्रादिस्वरस्य अनुस्वारागमे,३० सू० अमुस्वारस्य वर्गान्त्ये,३५० सू० रेफलोपे, स्त्रीत्वाधा-प्रसंगे ५२१ सू० ही-(६)-प्रत्यये, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये वट्टी+अम् इति जाते, १०१५ सू० प्रमो लोपे बहो इति भवति । दृष्टिम् । दृष्टि + अम् । १२८ सू० कारस्य इकारे, ३०५ सू० टस्य प्रकारे, ३६० सू० ठकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्थ टकारे १०१५ सू० अमो लोपे विद्धि इति भवति । पुत्रि ! । पुत्री+ दि ; ६० स लो , ३६, कारस्य जिमगो, प्रस्तुलसूत्रेण ईकारस्य इकारे, १०१५ सू० सेलों पुति ! इति भवति । स । सकf+सि । इत्यत्र ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० णकारविश्वे, स्त्रीत्वादाप्रसंगे ५२१ स. डी-(E)-प्रत्यये, १० स० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५. सेलोपे सफरणी इति भवति । भल्लीः । भल्ली+सि । प्रस्तुतसूत्रेण ईकारस्य इकारे, सेलोपे भल्लि इति भवति । यथा । अव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे,१०७२ सू० था इत्यस्य डिमाइम) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलपि,१०६८ सू० मकारस्य सानुनासिके वकारे जिर्व इति भवति । मारयति । मृङ(मृ) प्राणत्यागे । सृ+णिग्+तिम् । ९०५ ऋकारस्य अर इत्यादेशे,६३८ सू० मिग मकारे,१० स० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ६४२ सू० प्रादेरकारस्य प्राकारे, ६२८ सू० तिब इचादेशे माण्ड इति भवति । हृदये । हृदय+लि १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, १७७ सू० दकारस्थ यकारस्य च लोपे, १००५ सू० ङिना सह सकारस्थ इकारे हिआई इति भवति । प्रविष्टा । प्रविष्टा+सि । ३५० स० रेफस्य लोपे, १७७ सु० बकारलोपे, दिदि-बदेव पट्ठा इति जाते, प्रस्तुतसूत्रेण आकारस्य प्रकारे, १००० सू० अकारस्य इकारे पट्टि इति भवति । भणिय, पुत्ति !, भल्लि, पट्टि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तितिा । अलि । जस्-प्रत्यये परे सति प्रस्तुत-सूत्रस्य प्रवृत्ति प्रदर्शयति वृत्तिकारः । यथा...
एते तेऽश्वाः, एषा, स्थली एते ते निशिताः समाः ।
अब मनुष्यत्वं मापते, यो मामि वालपति यलगाम् ॥४॥ भावार्थ :-एसे ते-तब, अथवा तद्-शब्दस्यैव बहुवचनम् ते, पश्वा:-धोटकाः, एषा स्थलीरणाङ्गणम्, एते से निशिताः तीक्ष्णाः; खगाः-प्रसयः सन्ति, अव एतादृशे अनुकुल-युद्ध-सामग्री-संग्रहे युद्धकाले इत्यर्थः । मनुष्यत्वम्-मनुष्यस्य भावः मनुष्यत्वं-पौरुष-पुरुषबलमित्यर्थः, शायते ज्ञातुं शक्यते, मः वल्गाम्---प्रश्व-बन्धन-रज्जु-विशेष नापि-न कदाचिदपि, वालयति पश्चादायलयति ।
एते । एतद्++जस् । १०३४ सू० एतदः स्थाने एइ इतादेशे, १०१५ सू० जसो लुकि इति भवति । ते । तद् + जस् । इत्यत्र १००० सू० अकारस्य इकारे, ११ सू० दकारलोपे, जसो लुकिति इति भवति । श्याः | अश्त्र + जस् । अपभ्रंशे अश्वार्ये घोड-शब्दः प्रयुञ्जयते, ५०१ सू० प्रकारस्य प्राकारे, जसो लुकि घोडा इति भवति । एषा । एतद् +सि । इत्यत्र १०३३ सू० एतदः स्थाने एह इत्यादेशे, १०१५ सू० सेलोपे एह इति भवति । स्थलो । स्थलो+सि । ३४८ सू० सकारलोपे, प्रस्तुत-सूत्रेण ईकारस्य इकारे, सोपे थलि इति भवति । निशिताः । निशित जस् । इत्यत्र २६० सू. शकारस्य सकारे, १७७ सू० तकारस्य लोपे, प्रस्तुतसूत्रेण प्रकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० जसो लुकि निसिमा इति भवति । समाः। खड्ग+जस् । ३४८ सू० डकारलोपे,३६० सू० गका रवित्वे, ५०१ सू० प्रकारस्थ प्राकारे, प्रस्तुतसूत्रेण अकारस्थ प्राकारे, १०१५ सू० जसो लुकि खाग इति भवति । अत्र । अव्ययपदमिदम् । १०७६ सू० ३. स्थ स्थाने आत्थु (एत्यु) इत्यादेशे, दित्ति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे एश्यु इति भवति । मनुष्यत्वम् । मनुष्यस्य भावः । मनुष्यत्व+सि । १००० सू० प्राधाकारस्य उकारे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००० सू०
..
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१५२
★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादा
उकारस्य ईकारे, २६० सू० पकारस्य सकारे, ३४९ सू० यकारलोपे, ४२५ सू० त्वप्रत्ययस्य स्थाने डिमा (इ) इत्यादे, ङिति परेऽन्यस्वरादेलोंपे, प्रस्तुतसूत्रेण श्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सु० सेर्लोपे मुणीसिम इति भवति । ज्ञायते । शा-धातुः प्रवबोधने ज्ञाने । ज्ञा+क्य ते। ६७८ सू० ज्ञाधातोः स्थाने जाण इत्यादेशे, ६४९ सू० वयस्य स्त्राने ईत्र इत्यादेये, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये ६२८० सू० ते इत्यस्य इच् (इ) इत्यादेशे जाणीग्रह इति भवति । यः । यद् + सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ ० कारलो, १००३ सू० श्रकारस्य योकारे, सेलोपे जो इति भवति । न । ग्रव्ययपदमिदं संस्कृतसमप्रयुज्यते । अपि । श्रव्ययपदमिदम् । इत्यत्र ४८१ सू० धप्पर्थे वि इत्यस्य प्रयोगे वि इति भूयति । वालयति । वल व चलने-पश्चादावर्तने । बल्+भग्+ तिब् । ६३० सू० मिग: स्थाने अकारें, ६४२ सू० आदेरकारस्य श्राकारे, ६२८ सू० तिव इचादेशे वालइ इति भवति । वल्गाम् । वल्गा + अम् । ३५० सू० लकारलोपे, ३६० सू० गकारदिवे, प्रस्तुतसूत्रेण श्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० श्रमो लो द इति भवति । थलि, निसिया, खग्म, मुणीसिम, वग्ग इत्येषु प्रयोगेषु प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । एवं विभक्त्यन्तरेषु । एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण विभक्त्यन्तरेषु श्रन्यासु विक्तिष्वपि उदाहार्यम् अन्यानि ज दाहरणानि बोधव्यानीति भावः ।
१००२ - दशमुखः सुवनभयंकरस्तोषितशंकरो निर्गतः रथवरे श्रारूढः । प्रमुख उपान्त्र इव देवेन घटितः || १॥
चटु
भावार्थ:- दशमुखानि यस्य स दशमुखः रावणः कोदृशोऽसौ रावणः भुवनभयंकरः, भुवने भुव नस्य कृते वा भयंकरः- भीषणः पुनः कीदृशो रावणः ?, तोषितशंकरः, तोषितः प्रसन्नतां नीतः शंकर:महादेवो येन सः पुनः कीदृशो रावणः ? रथबरे - रथश्चासौ वरः तस्मिन् विशिष्ट-रथे, प्रारूढः स्थितः, पुनः कीदृशो रावणः ? निर्गतः युद्धार्थं निष्क्रान्तः । एतादृशो रावणः एवं प्रतिभाति इव यथा चतुर्मुखम् चत्वारि मुखानि यस्य सः तं ब्रह्माणम्, षण्मुखं षड्मुखानि यस्य सःतं कार्तिकेयं महादेवपुत्रं ध्यात्वाfficer तयोः दशमुखानि एकस्मिन् एकस्मिन् मनुष्ये लात्वा मादाय, वैवेन विधिना रावणो घ दितः निर्मितः ।
दशसुखः। दशमुख +सि । इत्यत्र २६२ सू० शकारस्य स्थाने वैकल्पिके ह्कारे, १८७ सू० खकारस्य स्थाने हकारे, १००२ सु० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि दहमुहु इति भवति । भुवनभयंकरः । भुवनभयंकर +सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, प्रस्तुतसूत्रे फस्याकारस्य उकारे, २०१५ सु० सेर्लोपे geetrine इति भवति । तोषितशंकर: । तोषिशंकर + २६० प्रकारस्य शकारस्य व सकारे, -१७७ सू० तकारस्य लोपे, पूर्ववदेव तोसि संकर इति भवति । निर्गतः । निर्गत+सि । २२९ सू० नकारस् कारे, ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० गकारस्य द्वित्वे, १७७ सू० तकारस्य लोपे, पूर्ववदेव निम्गत इति भवति । रथवरे । रथवर+ङि । १८७ सू० थकारस्य स्थाने हकारे, १००५ सू० ङिना सह प्रका रस्य इकारे रहवरि इति भवति । आरूढः । म्राङ्पूर्वक: रुह धातुः प्रारोहये । श्रारुह् + क्ततः । इत्यत्र ८७७ सू बारह धातोः स्थाने चड इत्यादेशे, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, सि प्रत्ये, ४३५ सू० स्वार्थे क-प्रत्यये ११०० सू० स्वार्थे प्रत्यये स्वार्थिक-कप्रत्ययस्य च लोपे चडिमश्र + सि इति जाते, प्रस्तुतसूत्रेण श्रन्तिमस्याकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोंपे डिअर इति भवति । चतुचतुर्मुख+श्रम् । १७७ सू० तकारलोपे, ३५० सू० रेफस्य लोपे, वैकल्पिकत्वात् ३६८ सू० म कारस्य द्वित्वाभावे, १८७ सू० खकारस्य कारे, प्रस्तुतसूत्रेण मन्ध्याकारस्य उकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे
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अतुर्मपादः
*संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * बजह इति भवति । षण्मुखम् । षण्मुख+पम् । इत्यत्र २६५ सू० षकारस्य छकारे, २५ सू० णकारस्यानुस्वारे,१५७ सू० खकारस्य हकारे,पूर्ववदेव छंमुह इति भवति । ध्यात्वा । ध्यधातुः चिन्तायाम् । ध्ये+परवा । इत्यत्र ६७७ सू० ध्यधातो स्थाने भा इत्यादेदेशे, १११० सू० क्त्वः स्थान इवि इत्यादेशे भाइति इति भवति । एकस्मिन् । एक+डि । ३७० सू० ककारद्वित्वे,बाहुल्येन ४ सूत्रस्थाप्रवृत्तौ,१०२८ सू० : स्थाने हि इत्यादेशे पति इति भवनि ! लाक्षान्दा सादाने ! ला+क्त्वा । उपयुक्त-भाइवि-मदेव लाइव इति साध्यम् । इव । यध्ययपदमिदम् । १११५ सू० इवार्थे नावई इत्यस्य प्रयोगे, २२९ सू० नका रस्य णकारे जावद इति भवति । देवेन देव+या।१५१ सू० ऐकारस्य मह इत्यादेशे, १००४ सू० अन्त्याकारस्थ एकारे,१०१३ सू० टाप्रत्ययस्य अनुस्वारे वा इति भवति । अदितः । घटित+सि । इत्यत्र १९५ सू० टकारस्य उकारे,१७७ सू० तकारलोपे,४३५ सू० स्वार्थ क-प्रत्यये, ११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये कप्रत्ययस्य लोपे च, प्रस्तुतसूत्रेण प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलीपे घहित इति भवति । बहमुह, भुवन-भयंकर,तेसिम-संकर,णिगड,बडिउमुह छ मुहपनिषत इत्यत्र प्रस्तुतस्य [१००२] सूत्रस्थ प्रवृत्तिर्जाता।
*अथ अपभ्रश-भाषा-विधि* महावीर परमेश हैं, करुणा के अवतार, धोतराग अखिलेश हैं, जाएं सब बलिहार।
शान्सिसुषा के पुञ्ज हैं, क्षमा क्या साकार,
करता हूं प्रभु वीर को, ववत बारम्बार । दयाशील गुरुदेव हैं, मुनिवर आत्माराम, धर्म-दिवाकर जिलमवन,जप तप सब अभिराम ।
गुरुवर की शुम शरण ले, हिन्दी में व्याख्यान,
अपभ्रंश का ध्यान से, करता है "मुनि ज्ञान"। हैमशब्दानुशासन में प्राकृत और शौरसेनी आदि जिन ६ भाषानों का विवेचन किया गया है, उन में अपभ्रंश भाषा का अन्तिम स्थान है। कोषकारों के मत में अपभ्रंश भाषा प्राकृत भाषामों का वह परवर्ती रूप है, जिन से उत्तर भारत को आधुनिक प्रार्य भाषाओं की उत्पत्ति मानी जाती है। प्रस्तुत प्रकरण में अपभ्रंश भाषा के व्याकरण सम्बन्धी विधिविधान का निरूपण किया जा रहा है । प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पंशाची तथा चुलिका-पैशाची इन भाषाओं से अपनश भाषा क्या भिन्नता लिए हुए है ? इस प्रश्न का प्रस्तुत प्रकरण में समाधान किया जायगा।
१०००-अपभ्रंश-भाषा में स्वरों के स्थान में प्रायः अन्य स्वरों का आदेश हो जाता है। अर्थात् किसी भी स्वर के स्थान में कोई भी स्वर किया जा सकता है। जैसे ----कश्चित् कन्तु,काच्च (यह मम्पयपद-प्रश्न, हर्ष और मङ्गल का बोधक है),२रिणः- वेण, वीण (केशों की चोटी, गुस)।
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुथपाद: माहुः= बाह, बाहा, बाहु (भुजा), ४--पृष्ठम् = पट्टि, पिडि, पुद्धि (पीट), ५---तृणम् --तणु, तिणु, तृणु (तिनका), ६-सुकृतम् = सुकिदु, सुकिलो, सुकदु (अच्छा काम), ७-क्लिनक: किन्न प्रो, किलिन्नी (घाई), लेखा लिह,ली,लेह (रेखा, लकीर,बाह), गौरीगरि, गोरि (पार्वती, सुन्दसङ्गी), यहां पर स्वरों के स्थान में अन्य स्वरों का आदेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने "प्रायः (आम तौर पर)" इस पद का जो ग्रहण किया है, इस के बल से "अपभ्रंश भाषा में जो विशेष नियम बताए जा रहे हैं"वहां पर भी कहीं प्राकत और कहीं पर शौरसेनी-भाषा के समान कार्य किया जा सकता है। भाव यह है कि प्रस्तुत सूत्रोक्त प्रायः यह पद अपभ्रंश भाषा में भी प्राकृत पौर शौरसेनी भाषा के नियमों को लागू कर देता है।
१००१-अपभ्रंश भाषा में सि आदि प्रत्ययों के परे रहने पर नाम-प्रातिपदिक के अन्तिम स्वर को प्रायः दीर्घ और लस्व स्वर हो जाता है। अर्थात् हस्त्र स्वर, दीर्घ और दीर्घस्वर, ह्रस्व स्वर बन जाता है। सि-प्रत्यय का उदाहरण
मायकः श्यामलः, नायिका बम्पक-वर्णा ।
इस सुवर्णरेखा कष-पट्टके बसा || अर्थात कवि नायक और नायिका के वर्ण-गत सौन्दर्य का वर्णन करता हुमा कहता है कि नायक (किसी काव्य का चरितनायक, मुख्यपुरुष) श्याम (कृष्ण) रंग का है और नायिका (काश्य की प्रधान पाश्री स्वामी, भावी, सम्मान : सर्गरंग) वाली है। इन दोनों का सम्बन्ध ऐसा है,जैसे कषपट्टक (सोना परखने के लिए घिसाने के काम में आने वाला काला-पत्थर कसौटी) पर सुवर्ण की रेखा (लकीर) दे रखी हो।
यहां पर मायक: बोला तथा प्रयामतःसामला के प्रकार को प्राकार, नायिकावण तथा सुवर्णरेखा-सुवण्णरेह के प्राकार को प्रकार किया गया है । प्रस्तुत सूत्र में प्रायः इस पद का ग्रहण होने से चम्पा-वशी तथा विषयी यहां पर ईकार को इकार नहीं हो सका । आमन्त्रण सम्बन्धी सि-प्रत्यय का उदाहरण
नायक! मया स्वं वारितः, मा कुछ वीर्घ मानम् ।
निद्रया गमिष्यति रात्रिः, शोघ्र भवति विभातम् ॥२॥ . प्रति-नायिका कुपित नायक से कह रही है कि हे नायक ! मैंने तुझे रोका था, यह सत्य है किन्तु लम्बे समय तक अभिमान मत कर,क्योंकि रात्रि तो निद्रा से ही अतीत हो जाएगी, और फिर शीघ्र प्रभात हो जाने वाला है।
यहां पर १-पायक ! होल्ल को होल्ला ! (प्रकार को प्राकार), २-वारितः वारिय को पारिया (प्रकार को प्राकार), ३. वीर्घम्वीह को बोहा (अकार को प्राकार), ४-निनया को निहए (माकार को प्रकार) बनाया गया है। स्त्रीलिङ्ग का उदाहरण ---
त्रि! मया भरिणता त्वं, माकुर वक्रो दृष्टिम् ! ...:
पुत्रि! सकाँ भल्लीर्यमा मारपति हृदये प्रविष्टा ॥३॥ अर्थात--माता अपनी पुत्री को समझाती हुई कहती है कि हे पुत्रि ! मैंने तुझे कहा था कि दष्टि को वक्र-कुटिल (विकारमय) मत कर,क्योंकि पुत्रि! वक्र दृष्टि हृदय में प्रविष्ट होकर सकर्ण (तीक्ष्ण भोक वाले भाले की भांति मनुष्य को मार देती है।
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीका-द्वयोपेतम् ★ जैसे पुल्लिङ्ग में सि आदि प्रत्ययों के आगे रहने पर शब्दों के दीर्घ स्वर को ह्रस्व तथा हस्थ स्वर को दीर्घ स्वर हो जाता है, वैसे स्त्रीलिङ्ग में भी दीर्घ स्वर को ह्रस्व मौर हस्व स्वर को दीर्घ स्वर हो जाता है। जैसे यहां पर तीसरे श्लोक में),१-भरिणता-भणिया को भरिणय (माकार को प्रकार), २-पुत्रि! = पुत्ती को पुसि! (ईकार को इकार), ३-भल्लीः भल्ली को भल्लि (ईकार को इकार), तथा ४-प्रविष्टा पट्ठा को पइट्टि (प्राकार को इकार) बनाया गया है । जस्-प्रत्यय का उदाहरण
एते सेऽश्वाः, एषा स्थली एते ते निशिताः खगाः ।।
अत्र मनुष्यत्वं जायते यो नापि बालयति वल्माम् ॥४॥ " अर्थात्-युद्धकाल में सेनापति अपने सैनिकों से कह रहा है कि ये वे थोड़े हैं, यह युद्ध-भूमि है
और वे ये तीक्ष्ण खड्म हैं, युद्ध-सामग्री से परिपूर्ण ऐसे युद्धकाल में जो योद्धा अपने घोड़े की लगाम पोछे नहीं खींचता, अर्थात् मागे बढ़ता है, उसी योद्धा का बीरत्व जाना जाता है ।
यहां पर १-स्थली बली को यलि (ईकार को इकार), २-निशिताः=निसिन को निसिआ (प्रकार को थाकार), ३-वल्गाम् = बगाको वग्ग (आकार को प्रकार),४-खड्गाः खग्गा का खग्ग (प्राकार को प्रकार), बनाया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि इसी प्रकार अन्य विभक्तियों में भी ऐसे उदाहरणों की कल्पना कर लेनी चाहिए, जिनमें दीर्ध को ह्रस्व और ह्रस्व को दीर्घ स्वर बनाया
१००२-अपनश मावास धार मम, इ, मोदी पयों को रहने पर प्रकार के स्थान Vi में उकारादेश से
- .
. . . . . बशमुखः भुवनभयंकरस्तोषित-शंकरी मिर्गतः रणवरे आरत।।
चतुर्मुखं. षण्मुखं ध्यावा एकस्मिन् लात्वा देबेन धदिलःशा अर्थात्-भुवन (संसार) के लिए भयंकर और तोषित-शंकर (जिसने तपस्या द्वारा शंकर को प्रसन्न कर रखा हो) देशमुख (दशमुख वाला) रावण श्रेष्ठ रथ पर पारूढ (सवार) हो कर निकला। ऐसा प्रतीत होता है कि मानों चतुर्मुख (चार मुख वाले) ब्रह्मा तथा ६ मुख वाले कार्तिकेय का चिन्तन करके दशमुखों को एक ही शरीर में लाकर देव (भाग्य) ने उसे बनाया है ।
सिंप्रत्यय परे रहने पर १--वशमुखः (दहमुह),२--भुवन-भयंकरः (भुवण-भयंकरु),३--तोषितशंकरः (तोसिन-संकर),४-मिर्गतः इणिग्माउ),५-आरतुः (चडिमाउ),६-घटितः धष्ठिप्रउ) इन शब्दों के प्रकार को उकार हुआ तथा अम्-प्रत्यय परे रहने पर-१-चतुर्मुखम् (चउमुहु) और२-षषमुलम् (छंमुह) इन शब्दों के प्रकार को उकार किया गया है। जैसे इन शब्दों में सि तथा अम् प्रत्यय परे होने पर प्रकार को उकार किया गया है, वैसे प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के एक वचन के परे होने पर अन्य उदाहरणों में भी प्रकार को उकारादेश कर लेना चाहिए।
• * अथ जुल्लिङ्गीय-स्याक्षि-विनिः * १००३-सौ पुस्योद्वा । ८ । ४ । ३३२ । अपभ्रशे पुल्लिों वर्तमानस्य नाम्नोऽकारस्य सौ परे प्रोकारो वा भवति ।
अगलिप-नेह-निबट्टाहं जोमण-लक्खु वि जाउ । , बरिस-सएण वि जो मिलइ सहि ! सोक्खहं सो ठाउ ॥॥
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१५६
★ प्राकृत-व्याकरणम् ★
पुंसीति किम ? प्रङ्गहिँ श्रङ्गु न मिलिड हलि ! प्रहरें ग्रहरु न पत्तु ।
कोहि गए बुद्ध राम ॥२॥
१००४ - एट्टि । ५ १४ । ३३३ | अपभ्रं शे प्रकारस्य टायामेकारो भवति । जे महु दिण्णा विग्रहडा वहएं पवसन्तेण ।
ताण गणन्तिए अंगुलिड अज्जरिभ्राउ नहेण ॥ १ ॥
१००५ - डिनेच्च । ८ । ४ । ३३४ | अपभ्रंशे प्रकारस्य ङिना सह इकारः, एकारश्च
भवति ।
सायद उपरि तणु घरइ तलि धल्लइ रयणाई । सामि सुमिच्छु वि परिहरइ समारोह खलाई ॥१॥
चतुर्थपाद:
तले घल्लइ ।
१००६-- भिस्येद्वा । ५१४॥ ३३५॥ श्रपत्र में अकारस्य भिसि परै एकारी वा भवति । गुणहि न संपs, कित्ति पर फल लिहिथ्रा भुञ्जन्ति ।
केसरि न लहइ बोडि वि गय लक्खेहि घेप्यन्ति ॥ १ ॥
१००७- इसे है । ८।४१३३६ ॥ श्रस्येति पञ्चम्यन्तं विपरिणम्यते । अपन से प्रकाशस्परस्य से, हु इत्यादेशौ भवतः ।
वच्छ गृह फलई जणु कडु-पल्लव बज्जेइ | तो वि महद्दुमु सुश्रण जिथे ते उच्छङ्गि परेइ ॥१
गृह
१००८ - यसो हुं १८६४१३३७ | अपभ्रंशे प्रकारात्परस्य भ्यसः पञ्चमी-बहुवचनस्य हुं इत्यादेशो भवति ।
दूरुड्डाणें पडिउ खलु प्रप्पणु जणु मारेइ ।
जिह गिरि-सिङ्ग पनि सिल अन्नु वि चूरुकरेइ ॥१॥
१००६ - उसः सु-होस्सवः | ८ | ४ | ३३८ | अपभ्रंशे प्रकारात्परस्य सः स्थाने सु, हो, स्सु इति श्रय प्रादेशा भवन्ति ।
जो गुण गोवइ प्रपणा पयडा कर परस्सु ।
तसु हजें कलि-जुगि दुल्लहही बलि-किज्जउँ सुश्रणस्तु ॥१॥
१०१० - श्रमो हं । ८ । ४ । ३३६ | अपभ्रंशे नकारात्परस्यामो हमित्यादेशो भवति । तहँ तज्जी भfङ्ग न वि तें अवड-डि वसन्ति ।
अह जणु लग्गिवि उत्तर ग्रह सह सई मज्जन्ति ॥१॥
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चतुर्थपाद:
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
१५७
१०११ - हुं चेदुद्भ्याम् ८ ४३४० शस्त्र से काकाच्या मोहं हं चादेशौ भवतः ।
are astas aft तरहुँ सउहिँ पक्क-फलाई । सो वरि सुक्खु पटु ण वि कण्णहिं खल-वयणाई ॥३१॥ प्रायोऽधिकारात् क्वचित्सुपोऽपि हूं ।
धवलु विसूरs सामिश्रहो गरुना मरु पिक्लेवि । ह किन जुस दुहुँ दिसिहि खण्ड दोणि करेवि ॥ १ ॥
१०१२ - ङसि भ्यस् ङीनां है-हुं-हयः । ८ । ४ । ३४१ । प्रपभ्रंशे इदुद्भ्यां परेषां ङसि म्यस्. ङि इत्येतेषां यथासंख्यं हे, हुं, हि इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति । ङसेहें ।
गिरि सिलायलु तरहे फलु घेप्पर नीसान्नु ।
यसो हुं
धरु मेल्लेविण माणुसहं तो वि न रुच्च रन्तु ॥१॥ तरु वि वक्कलु फलु मुणि वि परिहणु असणु लहन्ति । सामिहुँ एति श्रन्गलउं प्रायरु भिच्चु गृहन्ति ॥२॥ ङेहि । मह विरल महाउ जि कलिहि घम्भु ।
१०१३ - प्राट्टो णानुस्वारो ८४१३४२ | प्रपत्र से प्रकारात्परस्य टावचनस्य पाइनुस्वारावादेशौ भवतः । बहुएं पवसन्तेण । [ ३३३.४] ।
१०१४ --एं चेदुतः । ८ । ४ । ३४३ | अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्य टावचनस्य पं चकारात् साऽनुस्वारौ च भवन्ति । एं
रणाऽनुस्वारौ।
श्रग्गिएँ उण्हर होइ जमु वाएं सोलु ते । जो पुण अग्गिं सीला तसु उण्हत्तण फे 11211 विपिन श्रारउ जइ वि पिउ तो थि तं श्राणहि अज्जु । प्रग्मिण दड्डा जइ वि घर तो लें अग्गिं कज्जु ॥१२॥
एवमुकारादप्युदाहार्याः ।
१०१५-स्यम् - जस्-शसां लुक् । ८ । ४ । ३४४ । प्रपत्र शेसि ग्रम, जस्, शस् इत्येतेषां लोपो भवति । एइ ति घोडा एह थलि । [३३०.४] इत्यादि । अत्र स्यम्-जसा लोपः । जिव जिवं वकिम लोनणहं णिरु सामलि सिक्खेइ ।
तिति वम्म नियन्सर खर-पत्थर तिक्खेइ ॥ १ ॥
इत्यपि पाठान्तर विद्यते ।
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memade
१५८
अतुषादः पत्र स्यम्-शसा लोपः। १०१६-षष्ठ्याः । 5 । ४ । ३४५। अपभ्र से षष्ठमा विभक्त्याः प्रायो लुग् भवति ।
संगर-सएहि जु वण्णिा देवस्खु अम्हारा कन्तु ।
.. अइमत्तहं चत्त कुसहं गय कुम्भई दारन्तु ॥१॥ पृथग्योगो लक्ष्यानुसारार्थः ।
१०१७-ग्रामन्त्र्ये जसो होः।। ४ । ३४६ । अपभ्रशे अामन्त्र्येऽर्थे वर्तमानान्नाम्नः परस्य जसो हो इत्यादेशो भवति । लोपाऽपवादः । तरुणहो!,तरुरिगहो! मुणिउ मई करहु म अप्पही घाउ।
१०१८-भिस्सुपोहि ।८।४१३४७। अपभ्रंशे भिस्सुपोः स्थाने हिं इत्यादेशो भवति । गुणहिँ न संपइ कित्ति पर [३३५.४] । सुप् । भाईरहि जिवें भारइ मग्गे हि तिहिं वि पयट्टइ।
* अथ पुखिलणीय-स्यादिविधिः * भपभ्रंश-भाषायां पुल्लिङ्ग-प्रकरणे स्यादि-प्रत्ययः सम्बन्धितं यद्विधिविधान समीहितं भवति, तत्प्रदर्शयत्याचार्यः । यथा. .. १००३-- . . अगलित-स्नेह-
निसानां योजन-लक्षमपि यातु ।।
वर्षशतेनाऽपि यः मिलति सखि! सौख्यान स स्थानम् ॥१॥ भावार्थ:-हे सखि ! सः मे प्रिय इति यायत, सौख्यानां सुखमेव सौख्यं तेषाम् स्थान-कारणं विद्यते । कोशाना सौख्यानाम् ? अगलित-स्नेह-निवतानाम, अगलितो अविनष्टः स्नेहः तेन निवृत्तम्निष्पन्नम्, तेषाम् । यः प्रियः योजनलक्षमापि, चस्वारः क्रोशाः गोजनं तेषां लक्षमपि यातु-गच्छतु, किच, यः वर्षशतेनाऽपि, वर्षाणां शतं, तेन, वर्षशतव्यतिक्रान्तेऽपि मिलति--सन्मुखमायाति तथापि सः सौख्यानां जन जायते । अयं भावः-यत्र पारस्परिकः स्नेहस्तत्र वर्षशतेनापि यदि सम्मिलनं भवेत्तदापि तत् सुखोत्पादकं भवति । प्रतएवोच्यते-.
दूरस्थोऽपिन दूरस्थः, यो यस्य हवये स्थितः ।
यो यस्य हवये नाऽस्ति, समीपस्मोपि पुरतः ।।१।। प्रगलित-स्नेह-
निसानाम् । प्रगलित-स्नेह-निवंत+पाम् । १७७ सू० तकारलोपे, ३४८ सू० सकारलोपे, ३५० सू० रेफलोपे, १२६ स० ऋकारस्य प्रकारे,३००. सू. त्तस्य टकारे, ३६० सू० टकारहिरवे, १०१० सू० प्रामः स्थाने ह इत्यादेशे, १००१ सू० अन्त्याकारस्य प्राकारे अगलिअ-नेह-निवट्टाहं इति भवति । योजन-लक्षम् । योजनलक्ष+सि । इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य जकारे,१७७ सू० जकारलोपे,२२८ सू० नकारस्य कारे,२७४ सू० क्षस्य खकारे,३६० स० खकारद्वित्त्वे,३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे,१००२ सूत् अन्त्या कारण उकारे,१०१५ स. सेलोपे जोअरण-लक्य इति भवति । अपि । अध्ययपदमिदम् । ४८९ स० अध्यर्थे वि इत्यव्ययपदं प्रयुज्यते । यातु । या-धातुःप्रापणे। या+तुव । इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य जकारे, ६६२ सूत्रेण तुवा स्थाने दु इत्यादेशे, १७७ सू० दकारलोपे जाउ इति भवति ।
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चतुर्भपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * पर्वशतेन । वर्षशत+टा 1 ३७६ सू० रेफात् पूर्वे इकारागमे, २६० सू० षकारस्य शकारस्य च सकारे, १७७ सू० तकारस्य लोपे,१०१३ सन् टा-प्रत्ययस्य णकारे, १००४ सू० अकारस्य स्थाने एकारे वरिससएण इति भवति । यः । यद्+सि । इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ सू० दकारलोपे, प्रस्तुतसूत्रेण अकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे जो इति भवति । मिलति । मिल संगमे-मिलने । मिल+ लिखु । ९१० सू० प्रकारागमे,६२८ स० तिवः स्थाने इचादेशे मिला इति भवति । सखि !! सखी+सि । इत्यत्र १८७ सू० स्त्रकारस्य हकारे,१००१ सू० ईकारस्य इकारे,१०१५ सू० सेलोपे सहि! इति भवति । सौख्यामाम् । सौख्य+माम् । १५९ स० प्रौकारस्य ओकारे,३४९ सू यकारलोपे, ३६० सू० खकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्ववकारस्य ककारे, बाहुल्येन ८४ सूत्रस्याप्रवृत्ती, १०१० सू० मामः स्थाने है इत्यादेशे,१०८२ सू० अनुस्वारस्य अनुनासिके जाते सोक्सह इति भवति । १००१ सूत्रे प्रायो-ग्रहणादत्र अकारस्य प्राकारो न जातः । तत् । तद+सि। ५७५ सू० तकारस्य सकारे, ११ स० दकारलोपे, १००३ सू० प्रकारस्य ओकारे, १०१५ सू० सेलोपे सो इति भवति । स्थानम् । ष्ठा (स्था) धातुः गतिनिवृत्तौ । स्था+ल्युट अन । ६८७ सू० स्थाधातोः स्थाने ठा इत्यादेशे,बाहुल्येन न इत्यस्य लोपे, सिप्रत्यये, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे ठाउ इति भवति । गो, सो इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्थ प्रवृत्तिर्जाता । पुसौति किम् ? पुल्लिगे एव प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्भवति, नान्यत्र । यथा
____ अङ्गैः पङ्ग न मिलित, सखि ! अपरेणाघरमप्राप्तः ।
प्रियस्य पश्यन्त्याः मुखकमलमेष सुरतं समाप्तम् ।।२।। भावार्थ:-काचित् सखी निजसखी प्रति निजदूनं कथयति । यथा- हे सखि ! अङ्गः शरीरावयवैः सह अङ्ग म मिलितम, अषरेण अधस्तनौष्ठेन सह प्रबर:-अधस्तनौष्ठान प्राप्तः, किन्तु प्रियस्म 'मुक्षकमलं कमलतुल्यं प्रियस्थाननमेव पश्यन्त्याः-प्रवलोकयन्त्याः मम सुरतं समाप्तम्, कामकोडा समाप्ता। संभोगेहा न पूर्णतां गतेति भावः ।।
मनः। अङ्गमाभिस् । इत्यत्र १०१८ स० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० अनुस्वारस्थ अनुनासिके अड्महि इति भवति । अङ्गमम् । अङ्ग+सि । क्लीबत्वादत्र प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्तो १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे अङ्गु इति भवति । न । अव्ययपदमिद संस्कृतसममेव अपमें प्रयुज्यते । मिलिलम । मिलित+सि । इत्यत्र १७७ सू० तकारलोगे, क्लीबत्वावत्र प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती, पूर्ववदेव मिलिज इति भवति । सखि ! सखी+सि। इत्यत्र ४६६ सूत्रेण सख्या ग्रामंत्रणार्थ हले इति प्रयुज्यते, १००० सू० एकारस्य इकारे, अव्ययत्वात् सेलोये हलि! इति भवति । प्रघरेण । अधर + टा। १८७ सू० धकारस्य हकारे,१००४ सू० प्रकारस्य एकारे,१०१३ सू० टाप्रत्ययस्व अनुस्वारे प्रहरे इति भवति । अधरः । अधर-+-सि-अहर+सि । वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुत-सूत्रस्याप्रवृत्ती, १००२ सू० अकारस्थ स्थाने उकारे १०१५ सू० सेलोपे अहरु इति भवति । प्राप्तः। प्राप्त+सि । ३५० स० रेफस्य लोपे, ८४ स० संयोगे परे ह्रस्वे, ३४८ सू० पकारलोपे, ३६० सू० तकारद्वित्त्वे, वैकल्पिकत्वात्र प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृसौ, पूर्ववदेव पत्त इति भवति । प्रियस्य । प्रिय + उस् । इत्यत्र ३५० सू० रेफस्य लोपे,१७७ सू० यकारस्य लोपे, १०१६ सू ० इसो लोपे पिम इति भवति । पश्यन्त्याः । शिर (दृश) दर्शने । अपभ्रंशे शार्थे १०६६ सु० जोय इति देश्य-धातुःप्रयुज्यते ततः जोम+तु इति जाते,६७१ स० शतुःस्थाने न्त इत्यादेशे, स्त्रीत्वविवक्षायां ५२१ स० डी-ई)-प्रत्यये,१० सू० स्वरस्य लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये, अस्-प्रत्यये, जोमन्ती+इस इति स्थिते. १००१ सू० ईकारस्य इकारे,१०२१ सू० इ-सेः स्थाने हे इत्यादेशे,
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3.
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..
* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुपाय: १०५१ सू० उच्चारणलाघवे अम्ति अति भवति । मुखकमलम् । मुखकमल+मम् । १८७ सू० खकारस्य हकारे, क्लीबत्वादत्र प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती,१००२ सू० अन्त्याकारस्य उकारे,१०१५ सू० प्रमा लोपे मुहकमलु इति भवति । एवमेव । अध्यय-पद-द्वयम् । १०११ सू० एवमेव इत्यस्य स्थाने एम्बइ इत्यादेशे एम्बन इति भवति । सुरतम् । सुरत-+-सि । १७७ सू० तकारलोपे, क्लीबत्वादत्र प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती, १००२ सू० मन्त्याकारस्य स्थाने उकारे, १.१५ सू० सेलोपे सुरज इति भवति । समाप्तम् । समाप्त+सि । ६४ ससंयोगे परे ह्रस्वे, ३४८ स० पकारलोपे, ३६० स० तकारद्विस्वे,क्लीबत्वायत्र प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती १००२ सू० प्रकारस्य उकार, १०१५ सेलोपे समतु इति भवति । असु, मिलिड, मुह कमलु, सुरत, समत इत्यत्र क्लीबत्वात् प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तिनं जाता। १००४
ये मम वसा विमा:, यितेन प्रवसता।।
तान् गणयन्त्याः अङ्गुल्य जर्जरिता नखेन ॥१॥ भावार्थ:--प्रवसता-देशान्तरं गच्छता सता पितेन-प्रियेण मम-मदर्थ ये दिवसा:-दिनानि बसा:नियतीकृताः, इयतो दिवसान याबदहं पुनरागमिष्यामि एवंविधन वचसा ये दिवसाः संकेतिताः मासन, तान दिवसान् मखेन-कराग्रेण पणमस्याः मम अमुल्यः सर्जरिताः-जीर्णतां गताः ।
ये। यद्+जस् । इत्यत्र २४५ सयकारस्य स्थाने जकारे, ५४७ सू० जसःस्थाले डे(ए)इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे जे इति भवति । मम् । अस्मद् + ङस् । इत्यत्र १०५० सूइसा सह अस्मदः स्थाने मह इत्यादेश् मह इति भवति । ता: । दत्त+जस् । ६० प्राधाकारस्य इकारे, ३१४ सूत्त इत्यस्य स्थाने णकारे,३६० सू०णकारद्वित्त्वे,१००१ सु० अकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० जसो लोपे विष्णा इति भवति । विवसाः । दिवस+ जस् । इत्यत्र १७७ सू० वकारलो,२६३ सू० सकारस्य हकारे,४३५सू. स्वार्थे का प्रत्यये,११०० सू० डड-(अड)-प्रत्ययस्य,कप्रत्ययस्य लो च,दिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे,१००१० अकारस्य प्रकारे, जसो लोये विडा प्रति भवति । बपितेन । दयित--टा। इत्यत्र १७७ सू० यकारस्य तकारस्य च लोप, १००४ सू० मकारस्य एकारे, १०१३ सू० दास्थानेऽनुस्वारेवाएं इति भवति । प्रवसता। प्रपूर्वक:-वस् धातुः प्रवासे । प्रवस्+शतृ। इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे, ९१० सू० अकारागमे, ६७० सू० शतु। स्थाने न्त इत्यादेशे,१००४ सू० अकारस्य एकारे,१०१३ सू० दास्थाने प्रकारे पबसन्तेरा इति भवति । तान् । तद्+शस् । इत्यत्र ११ सू० दकारलोपे, १००१ सू० प्रकारस्थ प्राकारे, ४१५ सू. शसः स्थाने णकारे ताण इति भवति । गणयन्याः । गण गणनायाम् । ग+शत । ९१० सू० प्रकारागमे, ६७१ सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेयो,स्त्रीत्वविवक्षायां ५२१ स. डी-(ई)-प्रत्यये,१० स० स्वरे परे स्वरस्य लोणे, ५१८ सू० हुसः स्थाने एकारे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे गणन्तिए इति भवति । अमुल्यः ।। अगुलि+जस् । १०१९ सू० जसा स्थाने उकारे अलिउ इति भवति । अर्षरिताः । जर्जरिता+जस। ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० जकार-द्वित्वे. १७७ सू० तकार लोपे, पूर्ववदेव अमरिमाज इति साऽयम् । नखेन । नख+टा । १८७ सू० खकारस्य हकारे, १००४ सू० प्रकारस्य एकारे, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य णकारे नहेण इति भवति । वाइएं, पालम्तेण, नहेण इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिांता। . १००५-- सागर उपरि तुणं परति, तले क्षिपति रत्नानि ।
स्वामी सुभत्यमपि परिहरति सम्मानयति खलान् ॥३॥ भावार्थ:-स्थामी-नायकः, सुभत्यमपि शोभनो मृत्यः-सेवका,तमपि परिहरति-तिरस्करोति,अथच सलाम-दुष्टान सम्मानयति। कः इव यथा सागर:-समुद्रः रत्नानि सारोपेत वस्तूनि तने अधोमागे हिल
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१६१
Hanuman
Smelar
चतुर्थपादः
*संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * पति-पातयति तेषां क्षेप करोति किन्तु तग-धासमुपरि-जाखस्योलभागे धरति-धार यति । यथा सागर. स्था प्राकृतिकः स्वभावः, एवमेव स्वामिनोऽपि स्वगायोऽस्तीति भावः।
सागरः । सागर+ सि । १७७ सू० गकारलो, १८० सू० यकारश्रुतौ, १००२ सू० अन्त्याकारस्य. उकारे,१०१५सल सेलोपेसायह इति भवति । उपरि। अध्ययपदमिदम् । ३७० स०पकारस्य द्वित्त्वे उपरि इति भवति । तमम् । तृण-पम् । १२६ सू० ऋकास्य प्रकारे, १००२ सू० अकारस्थ उकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे ता इति भवति । धरति। धड़ (ध) धारणे। ५+ति । इत्यत्र ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे. १२० स० तिवः स्थाने इचादेशे व दति भवति । तले। तल+डि? सू० मिना सह प्रकारस्थ इकारे तलि इति भवति । क्षिपति । क्षि-धातु: प्रक्षेपे । क्षिप् +लिव । अपअशे शिपार्थे धल्ल इति देश्यधातुः प्रयुज्यते, ६२८ स० तिब इचादेशे धल्ला इति भवति । रत्नानि । रस्त जिस् । ३७२ सू० नकारात् पूर्वे अकारागमे, १७७ सू० तकारलोपे, १८० सू० यकारभुतो, २२८ सू०. नकारस्य णकारे, १००१ सूक प्रकारस्थ प्राकारे, १०२४ सू० जसः स्थाने ई इत्यादेशे रयगाई इति भवति । समाय: स्यामिदा-हि। ३५०० अकारल, ११ १० नकारलोपे, १०१५ सू० सेोप सामि इति भवति । सुभृत्यम् । सुभृत्य-अम् । इत्यत्र १२% सू० ऋकारस्थ इकारे, २८४ सू० त्यस्य स्थाने चकारे, ३६० सू० चकारद्वित्त्वे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० समो लोपे सुभिन्चु इति भवति । अपि । अध्ययपदमिदम् । ४८९ सू० अप्यर्थे वि इति प्रयुज्यते। परिहरति । परिपूर्वकः हृधातुः परिहरणे । ९०५ सू० ऋकारस्य अर इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इलादेशे परिहरा इति भवति । समानपति । सम्पूर्वक मान्-धातुः समानने । सम्-मान् +णिग्-+तिन् । २३ सू० मकारानुस्वारे, ६३८ सू० रिणगः स्थाने एकारे, पूर्ववदेव संमानेर इति भवति । बाहुल्येनात्र २२८ सू० नकारस्य णकारो न जातः । खलान् । खल+शस् । १००१ सू० पका रस्त्र प्राकारे, ३४ सु० क्लीबरवे, १०२४ सू० शस: स्थाने इं इत्यादेश खलाई इति भवति । तलि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण खिमा सह प्रकारस्य इकारो जातः । यत्र डिना सह अकारस्य एकारों भवति, तदुदाहरणं प्रदर्यते । यथा--तले । तल + डि। १००५ सू. डिना सह अकारस्य एकारे तले इति भवति । क्षिपति =चल्लइ, पूर्ववदेव साध्यम् । १००६- गुगः न संपत् कोसिः पर, फलानि लिखितानि भुअन्ति ।
केसरी कपविकामपि न लभते गजा: लक्षः गृह्यन्ते ॥१॥ भावार्थ:-गुगः शौर्यादिगुणैः कीतिर्भवति,यशस्-सम्पदः प्राप्तिर्जायते, परं-किन्तु तैगुणैः सम्पत न प्राप्यते । फलानि-कर्म-फलानि लिखितानि, ललाटपट्टके-मस्तके यथाऽङ्कितानि सन्ति तथैव भुजन्तिप्राप्तुं शक्यानि भवन्ति । भाग्यादेव लाभो जायते । एनमेवाभिप्राय दृष्टान्तेन स्पष्टयति इलाककारः | यथा--केसरी सिंहः शौर्यादिगुणसम्पन्नोऽपि पदकामात्रमपि मूल्यं न लभते किन्तु गजाः सिंहमपेक्ष्य वीरवादिगुण होना अपि लौः गान्ते-प्राप्यन्ते । गुणेभ्यो भाग्य बलवत्तरमिति भावः।
गुरगः । गुण+भिस् । १००६ सू. अकारस्य वैकल्पिके एकारे, १०१८ सू० भिसः स्थाने हिं इत्यादेशे, १०८२ सू० अनुस्वारस्य अनुनासिके गुरणेहि गुणहि इति भवति । न । अव्ययपदमिदं संस्कृतसममेवापभ्र शे प्रयुज्यते । संपत् । संपद् सि । १०७१ सू० दकारस्थ इकारे, १०१५ सू• सेलोपे संपह इति भवति । कीर्तिः । कोति+सि । ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,३५० सू० रेफस्य लोपे,३६० सू लकारद्वित्थे, सेसोंपे किसि इति भवति । परम् । अव्ययपदमिदम् । १०८९ सू० 'परम्' इत्यस्य पर इत्यादेशे पर इति भवति । फलानि । फल + शस्। १०१५ स.० शसो लोपे फल इति' भवति । लिक्षितानि । लि. जित+शस् । १८७ सूत्रेण खकारस्य हकारे, १७७ सू० तकारलोपे,१००१ सू० प्रकारस्य प्राकारे, सो
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* प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थ पादा लोपे लिहिआ इलि भवति । भुमन्ति । भुजधातुः पालनाऽभ्यवहारयोः । संस्कृतनिग्रमेन भुञ्ज+अन्ति इति जाते,९१० स० प्रकारागमे, ६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे भजन्ति इति सिद्धम् । केसरी। केसरिन्+सि । इत्यत्र ११ स नकार लोपे,१०१५ सू० सेलोपे केसरि इति भवति । न 1 अव्ययपदमिदम् ।। संस्कृतसममेवापभ्रशे प्रयुज्यते । लभते । लभष-(लभ)-धातुः लाभे । लभ् +ते । ९१० सू० प्रकारागमे, १८७ सू० भकारस्य हकारे. ६२८ सू० ते इत्यस्य स्थाने इचादेशे सहइ इति भवति । परिकाम् । कपदिका+प्रम् । अपभ्रशे कपदिकार्थे १०९३ सू० बोडिया इतिः शब्दः प्रयुज्यते,१००१२० आकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० अमो लोपे बोडिस इति इति भवति । अधि-वि,प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । गजाः । गज+जस् । इत्यत्र १७७ सू० जकारलोपे, १५० स० यकारश्रतौ, १०१५ सू० जसो लोपे गय इति भवति । लोः । लक्ष+भिस् । इत्यत्र २७४ स० क्षस्य खकारे,३६० स० खकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्व'खकारस्य ककारे,१००६ स० अकारस्य वैकल्पिके एकारे,१०१८ स० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे लक्खेहि इति भवति । गहन्ते । ग्रह -धातुः उपादाने । ग्रह+क्य+अन्ते । ९२७ सू० ग्रह-धातोः स्थाने घेप्प इत्यादेशे, क्यस्य च लोपे,६३१ अन्ते इत्यस्य न्ति इत्यादेशे घेप्पन्ति इति भवति । गुरणेहि, गुरपहि, लखेहि .इत्यत्र प्रस्तुतसूवस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१००७-अस्पैति पञ्चम्यन्तम् ! ५००२मस्य सिदं षष्ठ्यन्तं वर्तते,किन्तु प्रस्तुते (१००७) सत्रे तत्पदं पञ्चम्यन्तेन विपरिणम्यते-परिवर्त्यते । व्याकरण-शास्त्रे-'अर्थवशाद विभरित परिणामः' इति न्यायः माद्रियते । अतएवाऽत्र षष्ठ्या। स्थाने पञ्चम्या: विपरिणामो जातः । फलतः इत प्रारभ्य,अकारात्' इत्यस्य पदस्यानुवृत्तिर्बोध्या।
... वृक्षाद गृह णाति फलानि, जनः कटुपल्लवान् वर्जयति ।
ततोऽपि महानुमः सुजनो यथा सानुस्सङगे परति ॥१॥ भावार्थ:-जन:-मनुष्यः वृक्षाद पास्वादयोग्यानि फलानि गह्णाति, परन्तु कटुपल्लमान-कटवचाभी पल्लवाः, तान्, मधुरस्वाद रहितानि पत्राणि वर्जयति-परित्यजति । ततोऽपि-तथापि महाद्रुमःमहाश्चासी द्रुमः-वृक्षः सुजन इवन्यथा श्रेष्ठजन: दुर्जनमपि माश्रये धरति तथैवेत्यर्थः । साम् कटु-पल्लबानु उत्सङ्गे कोडे परति. तेभ्यः प्राश्रयं ददातीति भावः। ... : वृक्षा । वृक्ष+ इसि । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, २८८ स ० क्षस्य स्थाने छकारे, ३६० स०
छकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे, १००७ सू० उसः स्थाने हे इत्यादेशे, १०८१ सू० एकारस्य उच्चारणे लाघवे अनुनासिके जाते बच्चाहे इति भवति । गल्लाति । ग्रह, उपादाने । ग्रह, +ति । इत्यत्र ८८० सू० ग्रह-धातोः स्थाने गेण्ह इत्यादेशे,१००० सू० एकारस्य ऋकारे, ६२८ सू० तित्रा स्थाने इचादेशे गण्हत इति भवति 1 फलानि । फल+जस्। १०२४ स० जस: स्थाने ई इत्यादेशे फल इति भवति । जनः । जन+सि । २२८ सू० नकारस्य राकारे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलो जगु इति भवति । कटुपल्लवान् । कटुपल्लव+ शस् । १९५ सू० टकारस्य डकारे,क्लीबवामावात १०२४. सू० शसः स्थाने ई इत्यादेशाभावे, १०१५ स० शसो लोपे कपल्लव इति भवति। वर्जयति । वृजी-(कर्ज)-धातुः वर्जने । संस्कृतनियमेन वर्ज+णिग्+तिव् इति जाते, ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सूजकारस्य द्वित्वे, ६३८ सू० णिमः स्थाने एकारे, ६२८ सू० तित्रः स्थाने इचादेशे वजेइ इति भयति । ततः । अव्ययपदमिदम् । १०८८ सू० ततः इत्यस्य स्थाने तो इत्यादेशे तो इति भवति । अपि कि, प्रक्रिया ४५१ सूत्रे शेया । महाव मः । महाद्रुम+सि । ८४ सूत्रेण प्राकारस्य प्रकारे, ३५० सू० रेफस्य
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चतुर्थपादः
१६३
संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्वयोपेतम् ★
लोपे, ३६० सू० दकारस्य द्विश्वे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सिन्प्रत्ययस्य लोपे महकुम इति भवति सुजनः । सुजन+सि । १७७ सू० जकारलोपे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००२ सू० प्र कारस्य उकारे, सेलो सुअ इति भवति । यथा जियें, इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य तृतीय-इसीके ज्ञेया । तान् । तद् + शस् । इत्यत्र ११ सू० दकारलोपे, ५०३ सू० प्रकारस्य स्थाने एकारे, १०१५ सू० शसो लुकि ते इति भवति । उत्सङ्गे । उत्सङ्ग+ङि । २९२ ० त्सस्य स्थाने छकारे ३६० सू० कारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य स्थाने चकारे, १००५ ० डिना सह प्रकारस्य इकारे उच्छ ङ्गि इति भवति । धरति घृङ् (धू) धारणे । धू+ति । इत्यत्र ९०५ सू० ऋकारस्य भर इत्यादेशे, ६४७ सून प्रकारस्य एकारे, ६२० सू० तिवः स्थाने इचादेशे बरेद्र इति भवति । वच्छ इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रेण उति प्रत्ययस्य हे इत्यादेशो जातः । यत्र ङसि प्रत्ययस्य स्थाने हु इत्यादेशो भवति, तदुदाहरणं प्रदश्यते, यथा-वृक्षात् । वृक्ष + इति वच्छ+ इसि । १००७ सू० इसे: स्थाने हु इत्यादेशे व इति भवति । गृह्णाति = गण्हइ, इति पूर्ववदेव साध्यम् ।
२००८
resent पतितः खलः, आत्मानं जनं मारयति । यथा गिरिः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णीकरोति ॥ १ ॥
.. भावार्थ:- रोहयनम् - दूरच तद् उड्डयनम् ऊर्ध्वगमनम् तेन पतितः खलः- दुर्जनः श्रात्मानम्स्वं, जनम् अन्यज्जनं च मारयति । ऊर्ध्वगतोऽपि दुर्जनः श्रवः श्रागतः श्रात्मानं स्वनिकटवर्तिनं च जन विज-स्नेहभाजनमपि पुरुषं परिपीडयति, किमित्र, यथा येन प्रकारेण गिरिशृङ्गेभ्यः, गिरेः श्रगाणि, तेभ्यः 'पतिता स्खलिता शिला प्रखण्ड स्वयमपि चूर्णी भवति, स्वसमीपस्थितमन्यदपि च वस्तु चूर्णीकरोति । दुर्जन: न केवल स्वयं नश्यति, किन्तु स्वसम्बद्धानपि जनान् नाशयतीति भावः ।
T
रोमेन दूरोडयन +टा 1 ६४ सू० संयोगे परे ह्रस्ये, १७७ सु० यकारलोपे, ५. सू० दीर्घसन्धी, २२८ सु० नकारस्य कारे, १००४ सू० अकारस्य एकारे, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य स्थाने अनु स्वारे हा इति भवति । पतितः । पतित+सि । =९० सू० तकारस्य डकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोंपे पडिउ इति भवति । खलः । खल+सि । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे सेलों खलु इति भवति । आत्मानम् । आत्मन् + श्रम् । इत्यत्र ३२२ सू० त्मस्व स्थाने प्रकारे, ३६० सू० पकारद्वित्ये ८४ सू० संयोगे परे हस्बे, ५४५ सू० अन् इत्यस्य ग्राण इत्यादेशे, प्रज्भीने परेण संयोज्ये, १००० सू० आकारस्य अकारे, १००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० श्रमो . लोपे अध्यणु इति भवति । जनम् । जन+ग्रम् । २२८ सू० नकारस्य स्थाने णकारे, पूर्ववदेव जणु इति भवति । मारयति । मृङ (मृ) प्राणत्यागे म्+ णिग्+ तिन् । ९०५ ० ऋकारस्य सर इत्यादेशे, ६३८ सू० जिंग: स्थाने एकारे, ६४२ सू० श्राद्याकारस्य आकारे, १० सू० स्वरस्य लोपेझीने परेण संयोज्ये, ६२० सू०] तित्र: स्थाने इचादेशे मारे इति भवति । यथा । श्रव्ययपदमिदम्। २४५ सू० प्रकारस्य ज कारे, १०७२ सू० था इत्यस्य डिह (दह) इत्यादेशे ङिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे जिह इति भवति । गिरिशृङ्गेभ्यः । गिरिशृङ्ग+भ्यस् । इत्यत्र २६० सू० शकारस्य सकारे, १३० सू० ऋकारस्य इकारे, प्रस्तुतसूत्रेण भ्यसः स्थाने हूं इत्यादेशे गिरि-सिङ्गहुं इति भवति । पतिता । पतिता+सि । ८१० सू० तकारस्य • डकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १००१ सू० श्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सु० सेलोंपे पडिल इति भवति । शिला । शिला+सि । २६० सू० शकारस्य सकारे, १००१ सूत्रेण माकारस्य प्रकारे, सेलॉपे सिल इति भवति | अन्य | श्रन्यद् + सि । इत्यत्र ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० नकारस्य द्वित्वे ११ सू० द०
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ILURIAL
* प्राकृत-व्याकरणम् *
चातुर्षयाय! कारस्य लोपे, १००२ सू० अकारस्य अकारे.१०१५ सू० सेपि अन्न, इति भवति । अपिवि, प्रक्रिया .४८९ सूत्रे ज्ञेया। चूर्णीकरोति । अचूर्ण चूर्ण करोतीति । चूर्णीक ---ति । अपभ्रंशभाषायां १०९३ सू० चूर्णी इत्यस्य चूरु इति शब्दः प्रयुज्यते, ९०५ मू० ऋकास्य पर इत्यादेशे, ६४७ सू० प्रत्याकारस्य एकारे,६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे चूहकरेइ इति भवति । गिरि-सिङ्गाई इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्ति
ता। ... .- सो गुण मोच आत्मीयान्, प्रकट करोति परस्थ ।
तस्याऽहं कलियुगे वुर्लभस्य बलोक्रिये सुजनस्य ॥११॥ भावार्थ:--य:-मज्जनः, आत्मीयान-स्त्र कीयान गुणान् गोपति-पाच्छादयति, परन्तु परस्य गुमान् प्रकटं करोति तस्य दुर्लभस्य-दुष्प्राप्यस्य सुजनस्य,लोभनश्वासी जनः, सुजनस्तस्य कृते प्रहं कलियुगे बलीकिये नजं बलिदानं करोमि, प्रात्मानं तस्मै समर्पयामीति भावः ।
__ यः । यद् +सि जो, प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य चतुर्थश्लोके ज्ञेया 1 गुणान् । गुण+शस् । १०१५ सू० शसो लोपे गुण इति भवति । गोपयति । गुपू गुप) रक्षसे । गुप् +णिग् + तिन् । १००० सू० उकारस्य भोकारे,२३१ सू०पकारस्य वकारे,६३८ सु०णिग: स्थाने प्रकारे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेश, गावा इति भवति । आत्मीयान् । प्रारमीय+शस । इत्यत्र १०५३ सू० प्रात्मीयस्य स्थाने अप्पण इत्यादेशे १००० सू० अन्त्याकारस्य प्रकारे,१०१५ सू० शमो लोपे अप्परता इति भवति । प्रकटम् । प्रकट -प्रम् । १.०६९ सू० रेफालोपे, १७७ सू० ककारलीपे, १८० सू० यकार श्रुती, १९५ सू० टकारस्य डकारे, १००१ सू०अन्ल्याकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० प्रमो लोपे पयडा इति भवति। करोति । डुकृत्-(क)-धातुः करो।
+ति । ९०५ सू० ऋकारस्य अर इत्यादेशे,६२८ स० तिव: स्थाने इचादेशे करइ इति भवति । परस्य । पर+ ङस् । इत्यत्र १००९ स० इम: स्थाने स्म इत्यादेशे परस्स इति भवति । तस्य । त+उस् । ११ सू० दकारलोपे,प्रस्तुतसूत्रेण ऊसः स्थाने सु इत्यादेशे तसु इति भवनि । अहम् । प्रस्मद+सि। १०४६ सू० अस्मदः स्थाने हउँ इत्यादेशे, १०८२ स० अनुस्वारस्य अनुनासिके, १०१५ सू० सेलोप हवे इति भवति । कलि-युगे । कलियुग+लि । २४५ सू० यकारस्य जकारे,१००५ सू० ङिना सह प्रकारस्य स्थाने इकारे कलि-जुमि इति भवति । लभस्थ । दुर्लभ+इस् । इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० लकारद्विस्वे, १८७ स० भकारस्य हकारे, प्रस्तुतस्त्रेण असः स्थाने हो इत्यादेशे दुल्लहहो इति भवति । बलीकिये। बलिपूर्वकः डुका (क) धातुः बलिहारे। संस्कृत-नियमेन बलीक+क्य इति जाते, १००० सू० ईकारस्य इकारे, ६४९ स० क्यस्य स्थाने इउज इत्यादेशे,१० स० स्वरस्य लोपे,ए-प्रत्यये, १०५६ सू० एप्रत्ययस्य स्थाने उ इत्यादेशे, १०५२ स० अनुस्वारस्य अनुनासिके बलिकिज्ज इति भवति । सुजनस्य । सुजन+इस् । इत्यत्र १७७ स० जकारलोपे, २९८ सु. नकारस्य णकारे, प्रस्तुतसूत्रेण इसः स्थाने स्सु इत्यादेशे सुअणस्सु इति भवति । परस्सु, ससु, दुल्लहो, सुअणस्सु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिजीता। १०१० -- तृणानां तृतीया भङ्गी,नाऽपि तेन अवस्तटे तिष्ठन्ति ।
अय जनः लगिरवा उत्तरति अथ सह स्वयं मज्जन्ति ||१॥ भावार्थ:-तृणानां तृतीया भडो-प्रकार: नाऽपि-नेत्र वर्तते, इति सुनिश्चितम् तेन-प्रतएव तानि तृणानि प्रवदतटे कूपस्य तटे उपरिभागे तिष्ठन्ति । अथ जन:-प्राणिवर्ग: जलस्य पारगन्तुमधिकामो मनुष्यः तानि तृणानि लगित्वा-प्राधित्य अवलम्ब्य वा उत्तरति-पारमधिगच्छति । अथ-अथवा तानि तृणानि तेन मज्जता जनेन सह स्वयमपि-स्वस्थानादत्माक्ष्यमानान्यपि मज्जन्ति-जलमग्नानि भवन्ति । तृणानि परोपकार-कारकाणि भवन्ति,प्रतएव तानि जलवटे स्थिति कुर्वन्ति । तानि तृणानि निमज्जतो जनस्य साहाय्य
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चतुर्थ पादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् * कर्वन्ति,यदि मज्जन्तं जनं पारमित माल भवन्ति,तदा तानि"उपकार-शून्यस्प जीवन घिर"इति हेतोः निमज्जता जनेन सार्द्धमेव निमज्जन्ति । तण जीवनस्य "असहायस्य साहाय्यकरणम्" अथवा "जीवनोस्सर्ग:" एतद लक्ष्यद्वयमेव वर्तते, एतेषां तृतीया गतिनास्तीति भावः ।
तृणानाम् । तृण- पाम् । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, १०१० सू० प्रामः स्थाने ह इत्यादेशे। १०८२ सू० अनुस्वारस्य अनुनासिके तगह इति भवति । तृतीया । तृतीया+सि । ऋकारस्य प्रकारे, १७७ सु. द्वितीय-तकारलोपे,२४८ सू० यकारस्य स्थाने जज दत्यादेशे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे. स्त्रीस्वविवक्षायामाप्रसंगे,५२१ मू० को-(ई)-प्रत्यये, १० सूक स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ स० सेलोपि ताजजी इति भवति। पायोग्रहणादन १००सगाईकारस्य डकाराभादोबोध्यः। भङ्गी+सि । १००१ सू० ईकारस्य इकारे, सेलोपे भनि इति भवति । न । अव्ययपदमिदं संस्कृत सममेवापभ्रंशे प्रयुज्यते । अपि =धि,प्रक्रिया ४८९ सुत्रे ज्ञेया । तेन । तद+टा। ११२० दकारलोपे, १००४ सू० सकारस्य स्थाने एकारे,१०१३ सु० टास्थाने अनस्वारेत इति । प्रवटतटे। अवट-तट+डि । १९५ समयमापिटक कारे, गुसकरलाप,१८०स० यकारस्य श्रतो,१००५ सू० डिना सह अकारस्य इकार अवस्यति इति भरति! वसन्ति । वस (वस निवासे । वस- अन्ति । इत्यत्र ९१०० अकारागमे, ६३१ मू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे वसन्ति इति भवति । अथ । अध्ययपदमिदम् । १८७ सू शकारस्य हकारे अह इति भवति ! जनः -- जणु प्रक्रिया १००७ सुत्र जया । लगिस्वा । लग-धातुः लगने । लग्+क्त्वा । ९०१ सू० गकार-द्वित्वे,१११० सू० क्त्वः स्थाने इदि इत्यादेशे लगिवि इति भवति । उत्तरलि । उत्-पूर्व कः तृधातुः उत्तर । उत्तृ+तिन् । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेबो, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे उत्तर इति भवति । सह । अध्ययपदमिदम् । संस्कृतसममेवापनशे प्रयुज्यते । स्वयम् । अव्ययपदमिदम् । ३५० सू० कारलोपै, १७७ सू० यकारलोपे, १००० सू० अकारस्य इकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे सई इति भवति । मजन्ति । टुमस्जो (मस्ज) शुद्धौ । मस्+प्रन्ति । ३४८ सू० सकारलोपे, ३६० सू० जकारद्वित्वे,९१० सू० प्रकारागमे,वसन्सिवत् मज्जन्ति इति भवति । तसहं इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। १०११- देवं घटयति वने तरुणी शकमीना पक्वफलानि ।
तद वरं सौख्यं प्रविष्टानि नापि करर्णयोः स्खलवचनानि ॥॥ भावार्थ:-वैव-प्रकृतिः बने शकुनीनां पक्षिणां कृतेतहणा-वृक्षाणां समवफलानि-पक्वानि च तानि फलानि, पदयति-निर्मापयति, तत्तषां भक्षपांघर-श्रेष्ठम्, सौख्य-सुखोत्पादक किन्तु बहुजन-समाकीर्णेऽपिनगरे कर्णयोः-श्रोत्रयोः प्रविष्टानि खलवचनानि खलाना-दुर्जनानां वचनानि-बचासि नाऽपि नैव न कदाचिदपि सुनकरानि भवन्तीत्यर्थः । बने भिवसन धेष्ठतम न तु दुष्टजनाकीर्णे नगर इति भावः।
देवम् । देव - सि । १५३ सू० ऐकारस्य प्राइ इत्यादेशे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेर्लोपे वावु इति भवति । घटयति । घट्-धातुः चेष्टायाम्। घट्+णिग्+तिव् । इत्यत्र १९५ सू० टकारस्थ वकारे,६३८ सू० णिग: स्थाने आब इत्यादेशे,१० सू० स्वरलोपे,प्रज्झोने परेण संघोज्ये, ६२० सू० तिवःस्थाने इचादेशे धाव इति भवति । बने । वन+डि । इत्यत्र २२८ सू० नकारस्य कारे,१००५ सू० डिना सह प्रकारस्य स्थाने इकारे वरिष इति भवति । तरूणाम् । तरु+माम् । इत्यत्र १०११ सू० आमः सथाने हुं इत्यादेशे, १०८२ सू० अनुस्वारस्य अनुनासिके समहुँ पति भवति । शकुनीनाम् । शकुनि+श्राम् । २६० सू० शकारस्थ सकारे, १७७ सू० ककारलोपे, २२८ सू० नकारस्य प्रकारे, १०११
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१६६
AmAAML-MARA--.
*प्राकृतन्ध्याकरणम् *
चतुर्थपाय: सू० प्राम: स्थाने हे इत्यादेशे, पूर्ववदेव अनुस्वारस्य अनुनासिके सउणि इति भवति । पश्य-कलानि । पवफल+जस् । ३५० सूत वकारलोपे,३६० सू० ककार-द्विस्वे, १०७१ सू० अकारस्य प्रकारे, १०२४ सू० जसः स्थाने ई इत्यादेशे पकफलाई इति भवति । त। तद् +सि । ३३ सू० तद्बाब्दस्य लिङ्ग
त्य. ५७५ मतकारस्य सकारे. ११ स० दकारला. २००३ स० अकारस्य प्रकारे, २०१५ सू०. सेलोपे सो इति भवति । परम् । वर+सि । इत्यत्र १००० सू० अन्त्याकारस्य इकारे, सेर्लोपे वरि इति भवति । सोल्यम् । सौख्य+सि। १६० म० श्रीकारस्म उकारे, ३४९ सू० कारलोपे, ३६० सू० खकार-द्वित्त्वे, ३.६१ सू० पूर्व खकारस्य ककारे, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे १०१५ सू० सोपे सुक्ख इति भवति । प्रविष्टानि । प्रविष्ट + जस् । ३५० सू० रेफस्य लोपो, १७७ सू० बकारलोपे, ३०५ सू० ष्टस्य ठकारे, ३६० सू० ठकारद्वित्त्वे,३६१ सूत पूर्व ठकारस्पटकारे, १०१५ सू० जसो लोपे पड्छ इति भवति । न । अव्ययपदमिदम् । २२८ सू० नकारस्य स्थाने णकारेण इति सिद्धम् । अपि=वि,प्रक्रिया ४८९ सूत्रे शेया । करर्णयोः । कर्ण+प्रोस् । ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू» कारद्वित्त्वे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने,१०१८ सल सुप्-प्रत्ययस्य स्थाने हिं इत्यादेशे, १०८२ सू० अनुस्वारस्य अनुनासिके करणहि इति सिद्धम् । खलबचनानि | खलवचन + जस् । १७७ सू० चकारलोपे, १८० सू० यकारस्य श्रुती, २२८ स० नकारस्य णकारे. १०१ स: अकारस्टा प्राकारे, १०२४ सू० जसः स्थाने ई इत्यादेशे खलवयाई इति भवति । सरह, सउणिह, करणहि इत्यत्र प्रस्तु नसूत्रस्य प्रतिर्जाता । प्रायोऽधिकारात् । .१००० सूत्रे पठितस्य प्रायः इति पदस्यात्र सूत्रेऽनुवृत्तिरायाति, तेन सुप्-प्रत्ययस्यापि हु इत्यादेशो भवति । यथा
धवलः विधति स्वामिनः गुरुभरं प्रेक्ष्य ।
अहं किन युक्तः योविंशोः खण्डे के कृत्वा ॥१॥ भावार्थ:-- चित् स्वामिभक्तः पवल:-श्वेतो वृषभः स्वामिमः गुरु-महन्तं भर-भारं प्रेक्ष्य, म. , हद्भार वहमान स्वामिन समीक्ष्येत्थः । यदा खिति-दुःखी भवति तदा विचारयति यदहं यो:विशो:
उभयोः पार्वयोः खण्ड-भागद्यं कृत्वा-विधाय कि-कथं न यक्तायोजितः? कस्यचित् सार्थस्य एको बु. पभः पञ्चत्वमुपगतः,तदाऽसौ शकटं वापभय कस्यचिद् व्यक्त: पावें त्यक्त्वा स्वयमेव चावश्यक भारं मस्तकोपरि निधाय चलितः । तदा द्वितीयो वषभः एतादशी दहा प्रेक्ष्य चिन्तयतीति भावः।
पथलः । घंवल+सि । इत्यत्र १००२ सू० अन्त्याकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे धवलु इति भवति । खिति । खिद-धातः परितापे । खिद+तिव । हत्यत्र : सू० खिद-धातोः स्थाने विसूर इत्यादेश,६२८ सू० तिनः स्थाने इचादेश विसराइ इति भवति । स्वामिनः । स्वामिन-स् । इत्यत्र ३५० स० वकारलोपे, ११२० नकारस्य लोपे, ४३५ स० स्वार्थ का प्रत्यये, ११०० स० स्वार्थे अप्रत्यये क-प्रत्ययस्य च लोपे,१००९ सः सः स्थाने हो इत्यादेशे सामिमहों इलि भवति । गुरुम् । गुरु + अम् । इत्यत्र १०९ सू० श्रादेरुकारस्म स्थाने प्रकारे, ४३५ सू० स्वार्थ कप्रत्यये, ११०० सू० स्वार्थ अप्रत्यये प्रत्ययस्य च लोपे, १००१ स० प्रकारस्य प्रकारे,१०१५ सू०प्रमो लोपे गा इति भवति । भरम् । भर : +अम् । १००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे, अमो सोपे भरु इति भवति । प्रेक्ष्य । प्रपूर्वकः ईक्ष-धातुः :प्रेक्षसे । प्रे+वा । इत्यत्र ३५० स० रेफलोपे, ८४ सू० संयोगे परे हस्वे, २७४ सू० क्षस्य खकारे, : ३६० सू० खकारस्य द्वित्वे,३६१ सू० पूर्वखकारस्य स्थाने ककारे. ११११ सू० क्त: स्थाने एवि इत्या. . देशे; १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये पिववि इति भवति । अहम् । अस्मद् ।सि । इ. त्यत्र १६४६ सू० अस्मदः स्थाने हर इत्यादेशे, १०८२ सू० अनुस्वारस्य स्थाने अनुनासिके, १०१५ सू०
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★ सेलोपे हउँ इति भवति । किम् । किम् +सि । इत्यत्र २३ सू० मकारानुस्वारे,२९ सू० अनुस्वारस्य लोपे, १०१५ सू० सेलोपे कि इति भवति । , 1 अध्ययपदमिदं संस्कृतसममेवापनशे प्रयुज्यते । युक्तः । युक्त+ सि । २४५ स० यकारस्य जकारे, ३४८ स० ककार-लोपे, ३६० स० तकारद्वित्वे, ४३५ सू० स्वार्थ कप्रत्यये,११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये कप्रत्ययस्य च लोपे, १०७२ स० प्रकारस्य स्थाने उकारे,१०१५ सू० सेलोपे जुस र इति भवति । द्रयोः । द्वि+ प्रोस् । ९४ सू० इकारस्थ उकारे,३५० सूक वकारलोपे, ६१९ सू० द्विवचनस्थ स्थाने बहुधरने,स्तुते[१०११] सूत्रे प्रायोऽधिकारात् सुपः स्थापि हुँ इत्यादेशे,१०५२ सूत अनुस्वारस्य स्थाने अनुनासिके बुहें इति भवति । विशोः दिश्+योस् । १९ सू० शकारस्य सकारे, दिस+ोस् इति जाते, १००० सू० प्रकारस्य इकारे,६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१८ सू० सुपः
माने हिं इरादे, २. अनुवारस्य अनुनासिके विसिहि इति भवति । खण्डे । खण्ड +ौ । द्विवचनस्य बहुवचने, १०२४ सू० बस: स्थाने इँ इत्यादेशे खण्डई इति भवति । । द्वि+प्रो-दोष्णि, प्रक्रिया ६०१ सूत्रे शेया । कृस्वा । डुकृञ्-क करणे । कनक्त्वा । ९०५ सू० ऋकारस्य परादेशे, ११११ सूक्त्यः स्थाने एवि इत्यादेशे, १० सू. स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण सयोज्ये करवि इति भवति । प्रायोग्रहणाद बुह इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१०१२---कुसे हैं । १०१२ सूत्रेण यत्र इसेः स्थाने हे इत्यादेशो भवति, तदुदाहरणं प्रदीयते वृक्तिकारेण । यथा---
गिरेः शिलातलं तरो: फलं गृहाते निःसामान्यम् ।
गह मुक्या मानुषाणां ततोऽपि न रोखतेऽरण्यम् ॥१॥ . भावार्थ:-नि:सामान्य नि:-निश्शेष, सर्वच तत् सामान्य साधारणमिति, सवैरपि जनैरिति या..वत् । अथवा निः-निर्गतं सामान्यम्-साधारण यत्र तन्निसामान्य विशेषरूपेणेत्यर्थः सकलंःप्राणिभिरित्यध्या हार्यम् । शयनाद्यर्थ “गिरे:-पर्वतात शिलातलं,शिलायाः तलमुपरिभागं गृह्यते-प्राप्यते, किंच,तरो:वृक्षाद् फल-फलानि जनः गृह्यते,तथापि गृहं त्यक्त्वा मानवेभ्यः वन न रोचते । मानवः वमेऽपि स्वजीवननिर्वाह निविघ्नतया कर्तुं शक्नोति, तथाप्यसो धन-धान्य-परिवारादीनां मोहाद गृहं त्यक्तुन समर्थ इति भावः।
गिरेः । गिरि-+ ङस् । इश्यत्र १०१२ सू० उसः स्थाने हे इत्यादेशे,१०५१ सू० उच्चारणस्य लाघने अनुनासिके गिरिहे इति भवति । शिलातलम् । शिलातल+मम् । २६० सू० शकारस्य सकारे,१७७ सू० तकारलोपे,१८० सू० यकारश्रुती,१००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० अमो लोपे सिलायत इति भवति । सरो: तिरु+डस् । १०१२ सू० इस: स्याने हे इत्यादेशे, १०५१ सू० उच्चारणस्य लाघवे सरहे . इति भवति । फलम् । फल+अम् । १००२ सू० प्रकारस्थ उकारे,अमो लोपे फलु इति भवति । गृह्यते । ग्रह उपादाने । ग्रह+व+ते। ६२७ स० ग्रह-धातो: स्थाने घेप्प इत्यादेश,क्यस्य च लुकि,६२८.स.ते इत्यस्य स्थाने इचादेशे पाच इति भवति । निस्सामान्यम् । क्रियाविशेषणमिदम् । निस्सामान्य-+श्रम । ३४८ सू० संयुक्त-सकारलोपे,४३ सू० प्रादिस्वरस्य दीर्घ,१०६८ सू० मकारस्य स्थाने सानुनासिके वकारे, ५४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ३४९ सू० यकारलोपे,३६० सू० नकारद्वित्त्वे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, ..१०१५ सू० अमो लोप मीसावन्तु इति भवति । गृहम् । गृह + प्रम् । ४१५. सू० गृहस्य स्थाने.धर इस्यादेशे,१००२ सूअकारस्थ उकारे,प्रमो लोपे घर इति भवति । मुक्त्वा । मुचल (मुच्)सोचने । मुच्+क्त्वा ७६२ सू० मुन्धातोः स्थाने मेल्ल इत्यादेशे, ११११ सू • स्वः स्थाने एप्पिणु इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य *गिरेः शिलातलम्, तरोः फलम्, एतेषु पदेषु णातावकवचनं बोध्यम् । . . . . :
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१६८
चतुर्थपाद:
सोपे, अभीने परेण संयोज्ये मेलेष्पिणु इति भवति ।
०
कार
स्य णकारे, २६० सू० षकारस्य सकारे, १०१० सू० श्रामः स्थाने हूं इत्यादेशे माणुसहं इति भवति । ततः सो, इत्यस्य प्रक्रिया १००७ सूत्रे ज्ञेया । अपिवि, प्रक्रिया ४८१ सूत्र ज्ञेया । न । अव्ययपदमिदं संस्कृतसममेवापाशे प्रयुज्यते । शेषते । रुच रुच् दीप्ती श्रभिप्रीती च । रुच् + ते । ९०१ सू० चकारदिवे, ९१० सू० अकारागमे, ६२८ सू० ते इत्यस्य स्थाने इचादेशे रुव इति भवति । घरण्यम् । अरण्य + सि । ६६ सू० प्रादेरकारस्य लोपे, ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० णकाद्विस्वे १००२ सू० श्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे रन्तु इति भवति । निरिहे", तरुहे" इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिता । म्यसो १०१२ सूत्रेण यत्र यतः स्थाने हुं इत्यादेशो भवति, तदुदाहरणं प्रदश्यते वृत्तिकारेण । यथातदभ्योऽपि वल्कलं फलं मुनयोऽपि परिश्रानमशनं लभन्ते ।
स्वामिभ्यः ६यवप्रक. म् शावर मृत्या: गृह्णन्ति ॥२॥
★ प्राकृत व्याकरण में ★
भावार्थ:- मुनयोऽपि सन्तजना अपि परिधानं परिधानार्थं, वस्त्रार्थं, तरुम्यः तरुणां सकाशात् वल्कलं तरुत्वचं, भोजनार्थम् - अशनं-फलादिकं लभन्ते, परन्तु भृत्याः यत् स्वामिम्य आवरं सम्मान गृह्णन्ति इक्-एतावदेव प्रकम् अधिकम् विशिष्टत्वं प्राप्नुवन्ति । भृत्याः सम्मानार्थमेव भृत्यत्वमङ्गीकुर्वन्ति न तु भोजनाद्यार्थम् । भोजनादिकं तु अकिंचना मुनयोऽपि लभन्त एवेति भाव: :
तदभ्यः । तरु + भ्यस् । १०१२ सू० भ्यसः स्थाने हुं इत्यादेश, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे तरुहूँ इति भवति । अपि । प्रव्ययपदमिदम् । ४८१ सू० श्रप्यर्थे विइत्यस्य प्रयोगे वि इति भवति । वल्कलम् । वल्कल + अम् । इत्यत्र ३५० सू० सयुक्त-लकारलोपे, ३६० सू० ककारद्वित्वे, १००२ सू० प्रकारस्य उ-कारे, १०.१५ सू० शमो लोपे वक्फलु इति भवति । फलम् फलु इति प्रथमवलोकयत् साध्यम् । मुनयः । मुनि + जस् । इत्यत्र २२८ सू० नकारस्य णकारे, १०१५ सू० जसो लोपे मुखि इति भवति । परिधानम् । परिधान + १८७ सू० धकारस्य हकारे १००० सू० ग्राकारस्य प्रकारे २२० सू० नकारस्य - कारे, १००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे परिह इति भवति । अशनम् - शन+धम् । २६० सू० शकारस्य सकारे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, परिणु-वदेव अस इति भवति । लभ । डुलभष् (लभ्) नाभे । लभ् + अन्ते । १८७ सू० भकारस्य हकारे, ९१० सू० वातोरन्तेऽकारागमे, ६३१ सू० अन्ते इत्यस्य स्थाने न्ति इत्यादेशे लहन्ति इति भवति । स्वामिभ्यः । स्वामिन् + भ्यस् । इत्यत्र ३.५० सू० वकार-लोपे, ११ सू० नकारलोपे प्रस्तुतसूत्रेण यः स्थाने हुं त्यादेशे १०८२ सू० sarve earth सामि इति भवति । इय । इय शब्दस्य प्रकृतिः इदम् वर्तते । संस्कृतव्याकरणेन इदमः स्थाने इस (इ) इत्यादेशे, घतु (अतु) प्रत्यये इ + ऋतु इति जाते, ४२८ सू० प्रतुप्रत्ययस्य स्थाने तिथ (एत्ति) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे श्रम्-प्रत्यये एति श्रम् इति जाते. १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे एत्तित इति भवति । यत्रकम् । अग्र + श्रम् । इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे ३६० सू० गकारद्वित्वे, ४४५ सू० प्रणशब्दस्य निपातेन लकारा ४३५ सू० क प्रस्थये, ११०० सू० स्वार्थी - प्रत्यये कप्रत्ययस्य च लोपे अग्गल + श्रम् इति जाते. १०२५ सू० प्रकारस्य स्थाने सानुस्वारे उकारे १०१५ सू० ग्रमो लोपे अग्गल इति भवति । आदरम् । आदर+मम् । १७७ सू० दकारजोत्रे, १५० सू० यकारश्रुती १००२ सू० अकारस्य उकारे, अमो लोपे आयह इति भवति । - स्याः । भृत्य+जस्ः । १२० सू० ऋकारस्य इकारे, २८४ सू० त्यस्य चकारे, ३६० सू० चकारद्विवे १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० जसो लोपे भिच्चु इति भवति । गृह्णन्ति ग्रह धातुः उपा
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Parivre:
संस्कृत-हिन्दी- टीका-द्वयोपेतम् ★
१६९
दाने । ग्रह + श्रन्ति । ३५० सू० शेफस्य लोपे, १००० सू० प्रकारस्य ऋकारे, ९१० सू० प्रकारागमे, ६३१ सू० प्रन्ते: स्थाने न्ति इत्यादेशे गृहस्ति इति भवति । तरुहुँ, सामि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिता । उन्होंति । यत्र : स्थाने हि इत्यादेशो भवति, तस्योदाहरणं प्रदर्शयति वृत्तिकारी यथा-अथ विरलप्रभावः एवं कलौ धर्मः । प्रयं भावः मथ अव्ययपदमिदं निश्चयार्थे वर्तते । कलौ कलियुगे धर्म: अहिंसा-संयमाअनुष्ठानं, विरल प्रभावः, विरल-स्वल्पः प्रभावो महत्वम्, महिमा यस्य सः तुच्छप्रभाव एवं जातः इत्यर्थः । अथ । १८७ सू० थकारस्य हकारे ग्रह इति भवति । बिरल- प्रभावः । विरलप्रभाव +सि । इत्यत्र ३५० सू० रेफस्य लोपे, १८७ सू० भकारस्य ह्कारे. १७७ सू० वकारलोपे १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलॉपे विरल- पहा व इति भवति । एव । श्रव्ययपदमिदम् । इत्यत्र १०९१ सू० एवार्थे जि इत्यस्य प्रयोगे जि इति भवति । कलौ कलि+दि । इत्यत्र १०१२ सू० : स्थाने हि इत्यादेशे कलिहि इति भवति । धर्मः । धर्म + ति । ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० मकारद्विस्खे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सेलोपे घम्मु इति भवति । कलौ कलिहि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता ।
I
१०१५ - दयितेन प्रवसता = दद्दएं पवसन्तेण एतेषां पदानां प्रक्रिया १००४ सूत्रे ज्ञेया । मत्र प्रस्तुतसूत्रेण टा-प्रत्ययस्य स्थाने अनुस्वारो णकारश्च विहितः ।
१०१४ -एं। एं (ऍ इत्यपि पाठान्तरमुपलभ्यते इत्यादेशस्योदाहरणं प्रदर्शयत्याचार्थः । यथाअग्निना उष्णकं भवति जगद्, वातेन शीतलं तथा 1 यः पुनरग्निना शीतलः, तस्योष्णत्वं कथम् ? ॥१॥
भावार्थ:-- अग्निमा जगत् संसारः, जीवसमुदायः, उष्णकं भवति तापमुपयाति । तथा वालेन-शीतानिलेन शीतलं शीतलतामुपगच्छति । यः पुनः अग्निनाऽपि शीतलम् - शैत्यमनुभवति, तस्योष्णत्वं कथम् ?
नाव:- अनुकूल समये सर्वे जनाः शान्ति विन्दन्ते, किन्तु प्रतिकुलेऽपि काले यो धैर्यधुरीणः सुखमुपैति, स एव उत्तमः । यः सम्पदि न हृष्यति, विपदि न विषीदति स महापुरुष इति भण्यते ।
t
अग्निना । प्रति +टा | ३४९ सू० नकारलोपे, ३६० सू० गकारदिवे, १०१४ सू० टास्थाने ऍ इत्यादेशे अग्गिएँ इति भवति । ब्रणकम् । उष्णक+सि । ३४६ सू० ष्णस्य स्थाने यह इत्यादेशे, ११०० सु० स्वार्थे श्रप्रत्यये, क-प्रत्ययस्य च लोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोंपे उण्ड इति भवति । भवति होइ, इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया ७३१ सूत्रे ज्ञेया । जगत् । जगत् +सि । ११ सू० तकारस्य लोपे, १००२० श्रकारस्य उकारे, सेलपि जगु इति भवति । वातेन । वात +टा । १७७ सू०तकारस्य लोपे, १००४ सू० प्रकारस्य एकारे, १०१३ सू० टास्थाने मनुस्वारे वाएं इति भवति । शीतलम् । शीतल + सि २६० सू० शकारस्य सकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे सीअ इति भवति । तथा । श्रव्ययपदमिदम् । इत्यत्र १०७२ सु० वा इत्यस्य स्थाने डेम (एम) इत्यादेशे, fafe पत्रालपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १०६८ सू० मकारस्य स्थाने सानुनासिक वकारे सेवे इति भवति । यः । यद् + सिजो प्रक्रिया १००१ सुत्रस्य चतुर्थश्लोके शेया पुनर् । अव्ययपदमिदम् । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १०९७ सू० स्वार्थे डु ( उ ) प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलपि, अभीने परेण संयोज्ये पुणु इति भवति । अग्निना । श्रग्नि+टा । इत्यत्र ३४९ सु० नकारस्य लोपे, ३६० सू० गंकारद्वित्वे १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे अग्गिं इति भवति । शीतलः । शीतल +सि । २६०सू० शकारस्य सकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १००१ सू० ग्रन्याकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोपे सोमला इति भति । तस्य । तद् + इस् । ११ सू० दकारलोपे, १००९ सू० इस: स्थाने सु इत्यादेशे स इति भवति ।
=
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थ पादा उष्णत्वम् । उष्णत्व+सि । इत्यत्र ३४६ सू० रुणस्य स्थाने ह इत्यादेशे, ४२५ सू० स्वस्य स्थाने सण इत्यादेशे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे उपहत्तणु इति भवति । कथम् । अव्ययपदमिदम् । १०७२ सू० थकारस्य स्थाने डेम (एम) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोप, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०६८ सू० मकारस्य स्थाने सानुनासिके वकारे केवं इति भवति । अग्गिएँ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । णानुस्वारौ। णकारस्य अनुस्वारस्य घोदाहरणं प्रदीयते, वृत्तिकारेण । यथा--
विप्रिय-कारको यधपि प्रियस्ततोऽपि तमानय प्रध।
अग्निमा क्षधं यधपि गह, ततस्तेनाग्निना कार्यम् ।।२।। भावार्थ:-हे सखि ! मम प्रियो यद्यपि विप्रियकारकः अप्रियका विद्यते ततोऽपि तथापि मम कृते स्वमय तमानय | पाप-यतोहि कदाचन अग्निना-बन्हिमा गहं पटादिकं वा बन्धं भवति,तथापि तेनाग्निना कालान्तरे कार्य भवत्येव तेनैवाग्मिनापोटादीनि नियमित जादानन विप्रियकारकोऽपि मम भर्ता न सर्वदाकृते बहिष्करणीयः ।
विप्रिय-कारकः । विप्रिय-कारक+सि । इत्यत्र ३५० स० रेफलोपे,३६० सू० पकारद्वित्त्वे, १७७ सू० यकारस्य ककारद्वयस्य च लोपे,१००२ सू० प्रकारस्प उकार,१०१५ सू० सेलोपे विपिन-पारस इति भवति । यदि । अध्ययपदमिदम् । २४५ सू० सकारस्य स्थाने जकारे,१७७ सू० दकारलोपे जा इति सिदम् । अपि । अव्ययपदमिदम् । ४६२ सू० प्रप्यर्थे वि इत्यस्य प्रयोगे वि !त भवति । प्रियः । प्रिय-+ सि । इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे,१७७ सू० यकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि पिउ इति भवति । ततः । अव्ययपदमिदम् । १०४४ सू० ततः इत्यस्य तो इत्यादेशे तो इति भवति । सम् । तद्+मम् । इत्यत्र ११ सू० दकारलोपे, ४९४ सू० अमोऽकारस्लोपे, २३ स० मकारानुस्वारे सं इति भवति । मानय । प्रापूर्वकः णी-(नी)-धातुः पानयने । पानी+हि । इत्यत्र १००० सू० ईकारस्य प्रकारे, २२८ सू० नकारस्य स्थाने णकारे, १०५८ स० हि इत्यस्य स्थाने वैकल्पिका: इ, उ, ए इत्यादेशाः प्राप्ता:, किन्तु वैकल्पिकत्वादेव तेषामभावे आणहि इति भवति । अथ । अव्ययपदमिदम् । २९५ सू० यस्य जकारे, ३६० सू० अकारद्वित्त्वे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे अन्तु इति भवति ।ग्निमा । अग्नि+रा । ३४९ सू० नकारस्य लोपे, ३६० सू० गकारद्विस्वे, १०१४ सू० टाप्रत्ययस्य शकारे अग्गिए इति भवति । बग्यम् । दाध+सि । इत्यत्र ३११ सू० ग्धस्य हकारे, ३६० सू० ढकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वढकारस्य डकारे, १००१ सू० प्रकारस्य याकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे वड्ढा इति . भवति । गृहम् । गृह+सि । ४१५ सू० गृस्य घर इत्यादेशे, १००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे, सेर्लोपे
यह इति भवति । तेन । त+टा । ११ स० दकारलोपे,१००४ सू० प्रकारस्य एकारे, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य अनुस्वारे ते इति भवति । परिमना । अग्नि+टाअग्गि+टाप्रस्तुतसूत्रेण टाप्रत्ययस्य - नुस्वारे अरिग इति भवति । कार्यम् । कार्य+सि । १४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, २९५ सू० यस्य जकारे, ३६० स० जकारद्वित्त्वे, १००२ स० प्रकारस्थ उकारे, १०१५ स० सेलोपे कन्जु इति भवति । प्राणि, अग्नि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण टास्थाने गकारः, अनुस्वारश्च विहितः । एवमुकारावपि । एवम्-अनेनैव :कारेण उकारान्तादपि शब्दात् टास्थाने ए, णकारानुस्वारी च इत्यादेशा भवन्ति । उकारान्तानांश. दानामुदाहरणानि स्वयमेव कल्पनीयानीति भावः ।
.१०१५-एते ते अश्वाः, एषा स्थली-एइ ति घोडा, एह थलि, एतेषां पदानां प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य चतुर्यश्लोके ज्ञेया । अत्र प्रस्तुतेन[१०१५] सूत्रेण सि,अम्,जस् इत्येतेषां प्रत्ययानां लोपो जाता।
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चतुथंपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * स्था यथा वक्रिमारणं लोचनयोः नितरां श्यामला शिक्षते।
तथा तथा मम्मयः निजकशरान् वरप्रस्तरे तीक्ष्णयति ॥१॥ भावार्थ:-यपा, यथा श्यामला-एतन्नामधेया काचिद् वनिता, अथवा श्यामवर्णा काचिन्नायिका लोचनयोः परिमाण-वक्रत्वं नितरा-पर्याप्त क्रियाविशेषणमिदं शिक्षते-कटाक्षकरणे कौशल्यमापद्यते, सथा तथा मन्मथ:कामदेवः, खरप्रस्तरे-खरश्चासौ प्रस्तरः, तस्मिन्, तीक्ष्णपाषाण इत्यर्थः, निजकारान्-निज एव निजकः, तस्य बाणा:, स्वकीयशरान इति यावत्, तोरणयति-तीक्षणान् करोति । यथान्यथा कुर ग-लोचनानां नायिकानां कटाक्षद्धिर्जायते तथा तथा कामुकानां मनांसि प्रखर-वासना. तरडिगलानि भवन्तीति भावः।
यया। मव्ययपदमिदम् । जिर्षे,इत्यस्य प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य तृतीयश्लोके शेया। वक्रिमारणम् । दकिमन्+सम । २६ स. प्रादेरकारस्य अनुस्वारागमे, ३५० स० रेफलोपे,११ स. नकारलोपे, १०१५ स.प्रमो लोपे किम इति भवति ।लोचनयोः। लोचन-1ोस । १७७ स० चकारलोपे, २२८ स.न. कारस्य णकारे. ११९ स० द्विवचनस्य स्थाने ववचने लोअण+माम इति जाते. १०१० स० माम-प्रत्ययस्य है इत्यादेशे लोअति भवति । नितरामा अव्ययपदमिदमा अपभ्रंश-भाषायां १०९३ सू० नितराम मि इति शब्दः प्रयुज्यते । श्यामला। श्यामला+सि ! २६० सू० शकारस्य सकारे,३४९ सू० यकारलोपे, १००० सू० प्राकारस्य इकारे, १०१५ सू० सेलोपे सामलि इति भवति । शिक्षते । शिक्षधातुः विद्योपादाने । शिक्षा त्या मानसशारे, ४ सूक्षस्य खकारे, ३६० सू० खकारद्वित्त्वे.३.६.१ सपर्वखकारस्य ककारे१० स धातोरस्कारागमे६४७:स०प्रकार २८ म० ते इत्यस्य इचादेशे सिक्ता इति सिक्षम । तथा अध्ययपमिदम् । १७२ सूपा इत्यस्य स्थाने डिम (इस) इत्यादेशे डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे,१०६८ सू० मकारस्य सानुनासिके वकारे शिवं इति भवति । मन्मयः । मन्मथ-+सि १२४२ सू० मकारस्य धकारे,३३२ सन्मस्य मकारे,३६० सू० मकारस्य द्वित्वे, १५७ स०. थकारस्य हकारे,१००२ सल अकारस्य उकारे,१०१५ स. सेर्लोपे बम्मह इति भवति । मिजकशरान । निजक-शर+स् । १७७ स० जकारस्य ककारस्य च लोपे,१८० स० द्वितीयाकारस्य सकारभुती,२६० स० शकारस्य सकारे,१०१५ स० शसो लोपे मिअय-सर इति भवति । सरप्रस्तरे । खरप्रस्तर+डि। ३५० सू० रेफलोपे,३१६ स. स्तस्य थकारे,३६० सुथकारद्विस्वे, ३६१ सू० पूर्वथकारस्य तकारे, १००५ स० डिमा सह प्रकारस्य इकारे वरपरथरि इति भवति । लोवणयति । तीक्ष्ण-तीक्ष तीक्षण करणे। तीक्ष+णिग्+तिन् । २७४ स० क्षस्य खकारे, ३६० स० खकारविस्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे,८४ स० संयोगे परे हस्वे,६३८ स० विगः स्थाने एकारे, १० सू० स्वरलोपे, ६२८ सू० लिव इचादेशे तिक्खेइ इति भवति । बंक्रिम,सामलि,वम्मह, मिअयसर इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृतिजतिा। प्रत्र स्यमशसाम् । अस्मिन् श्लोके सि यम्-शसा प्रत्ययाना लोप उदाहतोऽस्ति । १०१६--- संगरशतेषु यो वय॑ते पश्य भस्मदीयं कान्तम् ।
प्रतिमसानो स्यक्ताइकुशानो गजानां कुम्मान वारयन्तम् ॥१॥ भावार्थ:-काचिन्नारी निजपतेः बीरत्वप्रदर्शनाय निजसखी प्रत्याह हे सखि ! इत्यध्याहा. यम् । यः पुरुषः संगरशतेष-संगराणां-युद्धानां शतानि तेषु संगरशतेषु वर्ण्यते-प्रशस्थते, यत्तदोनित्यसम्बन्धः, इति न्यायेन तम्, अस्मदीयं कान्तम्, अस्माकमयमस्मदीयः, तं प्राणनाथं पश्य-अबलोकय । पुनः कीदृशं कान्तम् ? अतिमत्तानाम्-अतितरां मत्ताः, अत्यधिकम दयुक्ताः, तेषा, त्यस्ताङकुशानाम्-त्यतातिरस्कृताः
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१७२
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः अंकुशा:-हस्ति वश-कारकाः अस्त्र-विशेषाः यैः तेजकुशपटारानप्युगेश्य स्वैरिणः, तेषां गजानां कुम्भान्मस्तकानि धारयन्तम्-भेदयन्तम् । एवंविधस्य प्राणवल्लभस्य जीवनसहचरीत्वमासादयन्त्या मयापि भा. ग्यशालिन्या भूयते, इति व्यज्यते ।
संगरशतेषु । संगरशत+सुप् । २६० सू० शकारस्य सकारे, १५ मुलकारलोपे, ५०४ सू० अकारस्य एकारे, १०१८ सू० सुपः स्थाने हिंइत्यादेशे, १०८२ सु० उच्चारण-लापवे संगरसएहि इति भ. वति । यः। यद् + सि । इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य जकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोप जु इति भवति । वध्यते । वर्णधातः श्लाघायाम् । बर्ण - कम+ते। ३५० सू.. रेफस्य लोपे, ३६० सू० णकारद्वित्त्वे, ६४९ सू० क्यस्य स्थाने ईग्र इत्यादेशे, प्रज्झीने परेगा संयोज्ये, १००१ सू० ईकारस्य इकारे,६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे वलिअइ इति भवति । पश्य । शिर (दश) धातुः दर्शने । दश्+हिं । ८५२ सू० दृशः स्थाने देवख इत्यादेशे,१०५८ सू० हि-स्थाने उ इत्यादेशे,१० सू० स्वरस्य लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये वेक्तु इति भवति । अस्मदीयम् । अस्मदीय+अम् । ३४५ सू० स्मस्य स्थाने म्ह इत्यादेशे, १९०५ सू० ईयस्य डार (भार) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेपि,अज्झीने परेण संयोज्ये, १००१ सू० अन्त्याकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० अमो लोपे अम्हारा इति भवति । कारतम् । कान्त- अम् । १४ सू० संयोगे परे हस्के, १००२ सू० प्रकारस्थ उकारे, प्रमो लोपे कन्तु इति भवति । प्रतिमत्तानाम् । अतिमत्त+मार । १७७ सू० प्रसंयुक्त-तकारस्य लोपे,१०१० सूत ग्रामः स्थाने ह इत्यादेशे अइमत्तहं इति में वति । १०१६ सूत्रे प्रायोग्रहणादव षष्ठी-विभक्तः लोपोन जातः । त्यक्तांकुशानाम् । त्यक्तांकुश+माम् । २८४ सू० त्यस्य चकारे,३४८ सू० ककारलोपे,३६० सू० तकारद्वित्वे,३० मू० अनुस्वारस्य वगन्त्यि,८४ सूपरे संयोगे हस्वे,२६० सू० शकारस्य सकारे, पूर्वयदेव चत्तइकुसहं इति भवति । पत्रापि प्रस्तुतसुत्रे प्रायोमहणात् षष्ठीविभक्तेः लोपो नाऽभवद् । गजानाम् । गज+पाम् । १७७ सू० जकारलोपे,१६० सू० यकारयुती, १०१६ सू० पाम्प्रत्ययस्य लोपे गय इति भवति । अत्र प्रस्तुतसुत्रस्य पृवृत्तिर्जाता । कुम्भान् । कुम्भ+श पत्र कुम्भशब्द: पुलिङ्गस्तस्य १११६ सु० मापुसकत्वे विहिते, १०२४ सू० शसः स्थाने ई इत्यादेशे कुम्भई इति भवति । वारयन्तम् । द-धातुः विचारणे । दृ-+णिग्+शतृ । १०५ सू० ऋकारस्य भर इत्यादेशे, ६३८ सू० णिगः स्थाने प्रकारे, ६४२ सु० आदेरकारस्य दीर्षे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे, प्रम्-प्रत्यये, १००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे,१०१५ सू० प्रमों लोपे वारन्तु इति भवति । गय इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्यप्र वृत्तिर्जाता । पृथग्योगेति । १०१५ तथा १०१६ इत्येतत् सूत्रद्वयं वर्तते,प्रथमसूत्रेण स्यम्-जस्-शा प्रत्ययानो लोपो भवति, द्वितीय सूत्रेण इस्-प्रोसाम-प्रत्ययानां लोपो जायते । अाशंका जायते यत् १०१५ सूत्र एव षष्ठीविभक्तेरपि ग्रहणं करणीयमासीत्, १०१६ सूत्रस्य नासीदावश्यकता, तहि किमर्थं पृथक्सूत्रस्य रचना विहिता? वैयाकरणास्तु 'एकमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते,' तहि कथमत्र गुरुताश्रिता? प्रश्नस्यतस्य समाधान कुर्वन् वृत्तिकारो भगति यत् पृथक्-योगः-पृथक्सूत्रकरणं लक्ष्यानुसारार्थः-लक्ष्यस्य-प्रयोगस्य अनुसार:अनुसरणम् तदर्थ वर्तते । अयं भावः-पृथगयोगेन प्रयोगमनुसत्येव षष्ठ्याः लोपः करणीयः, यत्र लोपो दृश्यते तत्रैव लोपो विधेयः, यत्र षष्ठ्या लोपो न दृश्यते, तत्र लोपो न कार्यः ।
१०१७-लोपाऽपवादः । १०१५ सूत्रेण जसो लोपो जायते,किन्तु १०१७ सूत्रेण तस्य निषेधो निहितः । अतः प्रस्तुतसूत्रमिदं १०१५ सूत्रस्यापवादसूत्रं ज्ञातव्यम् । यथा-तरुणाः ! तरुण्यः!, शास्वा मा, कुरुत मा आत्मनो घातम् । अयं भावः-उपपतिना सह रन्तु काचिद् युवतिः संकेतितस्थलेगच्छत्, तत्र
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IAMNHA-.
चतुर्थ पादः * संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् *
१७३ केनचित् पुरुषेण तो रममाणी अवलोकिती, तवा संजातत्रपौ शरीर-पाताय उद्यतौ,तदा तौ प्रति स पुरुषः शंसति-हे तक्षणाः !, हे तरुण्यः ! मां ज्ञात्वा आत्मनः-निजस्य धात-हननं मा कुरुत ।
तरुणाः । तरुण + जस्। इत्यत्र १०१७ सू० जसः स्थाने हो इत्यादेशे तकराहो इति भवति । प्तकयः । तरुणी+जस् । १००१ सू० ईकारस्य इकारे, प्रस्तुतसूत्रेण जसः स्थाने हो इत्यादेशे तरुणिहो इति भवति । ज्ञात्वा । ज्ञाधातु: अवबोधने । ज्ञा- क्त्वा । ६७८ सू० जाधातोः स्थाने मुण इत्यादेशे, १११० सू० क्त्वः स्थाने इउ इत्यादेदो,१० सू० स्वरस्य लोपे,प्रज्झीने परेष संयोज्ये मुणित इति भवति । माम् । अस्मद्+मम् । १०४८ सू० प्रम्-प्रत्ययेन सह अस्मदः स्थाने मइँ इत्यादेशे मई इति भवति । फुक्त । दुकृञ् (कृ) करणे । कृ+त । ९०५ सू० ऋकारस्य स्थाने पर इत्यादेशे,१०५५ सू० त इत्यस्य हु इस्यादेशे करह इति भवति ।मा। अव्ययपदमिदम् । १०००स० प्राकारस्य प्रकारे म इति भवति । प्रात्मनः । भारमन्+इस् । इत्यत्र ३२२ सू० स्मस्य स्थाने पकारे, ३६० सू० पकारस्य द्वित्त्वे, ८४ सू० संयोग पर ह्रस्वे, ११ सू० नकारस्य लोपे, १००९ सू० ङमः स्थाने हो इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाधवे मप्पहों इति भवति । घातम् । घात+सि । इत्यत्र १७७ सू० तकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्थ उकारे, १०१५ सू० सेलोपे घाउ इति भवति। . १०१८---भिस्-प्रत्ययस्थोदाहरणं प्रदर्यते। यथा-गुणैः न सम्पत्, कीतिः परम् =गुणहि न संपइ कित्ति पर, एतेषां पदानां प्रक्रिया १००६ सूत्रे ज्ञेया। पत्र प्रस्तुत-सूत्रण भिसः स्थाने हि इत्यादेशों विहितः । सुप । साम्प्रतं सुप्-प्रत्ययस्य उदाहरण प्रदीयते वृत्तिकारेण । यथा----
भागीरथी यथा भारते मार्गेषु त्रिषु अपि प्रवर्तते । भावार्थ:-भागीरथी-गङ्गा भारते भरतस्यायं भारतः तस्मिन, भारते देशे इत्यर्थः । विष्वपि मार्गषु-ऊर्ध्वलोक-मध्यलोक-पाताल-लोकेष प्रवर्तते-प्रबहतीत्यर्थः । अतएव कथ्यते-भागीरथी त्रिपथगा" इत्यमरः। भागीरथी-प्रभृतीनां शब्दानां साधना स्वित्यम्-भागीरथी । भागीरथी+सि । १७७ सू० गकारस्य लोपे, १८७ सु० थकारस्थ हकारे, १००१ सु० अन्त्यस्य ईकारस्थ इकारे, १०१५ सू० सेलपि भाईरहि इति भवति । यथा-जिवं, प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य तृतीयश्लोके ज्ञेया। भारते । भारत+ङि । १७७ सूतकारलोपे,१००५ सु० ङिना सह प्रकारस्य इकारे भारइ इति भवति । मार्गेषु । माग+सुप् । इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० गकारस्य द्वित्त्वे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ५०४ सू० प्रकारस्थ एकारे, १०८१ सू० एकारस्य उच्चारणलाघवे,१०१८ सू० सुपः स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ २० उच्चारणस्य लाघवे मग हि इति भवति । त्रिषु । त्रि+सुप् । ३.५० सूत रेफस्य लोपे,मम्गे हि-वदेव तिहि इति भवति । पपि-वि, प्रक्रिया ४५५ सूत्रे ज्ञेया। प्रवर्तते । प्रपूर्वकः वतावत)धातुः प्रवर्तने, कार्यसंलग्ने। प्रयत+ते । संस्कृत-नियमेन प्रवत् + ते इति जाते 1 ३५० सू० प्रथम-रेफस्य लोपे,१७७ सूचकारलोपे, १८० सू० यकार-श्रुतौ,९१० सू० धातोरन्तेऽकाराममे, ३०१ सू० तस्य स्थाने टकारे,३६० सू० टकारद्वित्त्वे, ६९८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे पयट्टः इति भवति ।
* अथ पुल्लिङ्गीय स्यादिविधि * अपभ्रंश-भाषा के पुल्लिङ्ग-प्रकरण में सि मादि प्रत्ययों को लेकर जो विधिविधान पाया जाता है, अब सूत्रकार उस का निर्देश कर रहे हैं--
१००३---अपभ्रश-भाषा में सि-प्रत्यय के परे रहने पर पुल्लिङ्ग में वर्तमान (विद्यमान) नाम
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१७४
प्रांत
* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुवपादाः प्रातिपदिक के प्रकार को विकल्प से प्रोकार होता है। जैसे
प्रगलित-स्नेहमि सानां योजन-सक्षमपि यातु । वर्ष-शतेनाऽपि यः मिलति सखि ! सौख्याना स स्थानम् ॥१२॥
का स्नेह अगलित-अविनष्ट (स्थायी) होता है, ये लाख योजन को दूरी पर भी चले जाएं. और सौ वर्षों की अवधि के बाद भी उनका मिलन हो तो भी वे सौख्य-सुख के स्थान होते हैं । अर्थात् जिन हृदयों में पारस्परिक अनुराग होता है, वे भले ही लाख योजन दूर बैठे हा. तथा. सौ वर्षों के अनन्तर भी उनका समागम होता हो तथापि उनका सम्मिलन बड़ा सुखप्रद लगता है। इसके विपरीत स्नेह-हीन व्यक्ति प्रशिक्षण भी मिलते रहें तब भी वहां सुखानुभूति नहीं हो पाती।
यहां पर प्रस्तुतसूत्र से सि-प्रत्यय परे होने पर यःको बो तथा सः को सो बना कर प्रकार को मोकार किया गया है। यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने पुसि (पुल्लिङ्ग में)" इस पद का ग्रहण क्यों दिया है ? वृत्तिकार इस प्रश्न का उत्तर प्रदान करते हुए फरमाते हैं
अङ्गैः अगं न मिलितं सखि ! अधरेण प्रबरः न प्राप्तः।
बिका पालाः [नाम सुगर जम्मानेल सुचनामाप्तम् || अर्थात हे सखि ! अपने प्रीतम के अङ्गों के साथ मेरा अङ्ग भी नहीं मिल सका, तथा मैंने अधर से अधर भी प्राप्त नहीं किया । अर्थात् अधर-पान (चुम्बन) भी नहीं हो सका, किन्तु प्रिय के मुखकमल को निहारती हुई मुझ प्रभागिनी का व्यर्थ ही सुरत (काम-क्रीडा) समाप्त हो गया।
इस श्लोक में पठित---'अक्षर' शब्द अकारान्त है, तथा इस के प्रागे सिप्रत्यय भी अवस्थित है, किन्तु यह नपुंसकलिङ्गी है, पुल्लिगी नहीं है, ऐसे पुल्लिङ्ग-भिन्न प्रकारान्त शब्दों के प्रकार को सिप्रत्यय परे होने पर प्रोकार न हो जाए. इस दृष्टि से सूत्रकार ने प्रस्तुत में पुसि इस पद का उल्लेख किया है। - १००४....अपभ्रंश भाषा में टा-प्रत्यय के परे होने पर प्रकार के स्थान में एकार का प्रादेश होता है। जैसे-.
ये मम बता दिवसाः, दयितेन प्रससा।
ताम् गणयन्स्पाः अगुल्यः परिता मखेन ॥१॥ अर्थात-प्रवास करते (विदेश जाते हुए मेरे प्रिय (प्रोतम) ने जो दिन दिए थे, अर्थात "अमुक दिन तक मैं वापिस लौट आऊँगा" ऐसा कहा था, उन दिनों को नाखून से मिलती हुई मुझ भाग्याहोना की अगुलियो जरित हो गई हैं, धिस गई हैं।
यहां पर दयित तथा नख शब्द से टाप्रत्याय के परे रहने पर इन के प्रकार के स्थान में प्रस्तुत सूत्र से एकारादेश होने पर दइएं तथा महेरा ग्रह रूप बनता है।
१००५-अपभ्रश भाषा में हि-प्रत्यय के साथ प्रकार के स्थान में क्रमशः इकार और एकार ये दो प्रादेश होते हैं। जैसे ---
सागरः परि तणानि परति, तसे क्षिपति रत्नामि |
__स्वामी सुमृत्यमपि परिहरति सम्मामयति सलान् ॥१॥ अर्थात-सागर-समुद्र जिस प्रकार तिनकों को तो ऊपर रखता है, किन्तु रत्नों (बहुमूल्य पदाों) को नीचे फेंक देता है, इसी प्रकार स्वामी भी अच्छे नौकर को छोड़ देता है और खलो दुष्टों का सम्मान करता है।
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी टीका-द्वयीपेतम् ★
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यहां पर तले इस शब्द के ङि-प्रत्यय को प्रकार के साथ इकार और एकार बना करके - तलि तथा तले ये दो शब्द बनाए गए हैं। श्लोक में पठित तले शिपति का सलि घल्लड तथा तले चल्लइ यह रूप होता है । ९००६ देश होता है । जैसे ---
भरुभाषा में
गुणे : न सम्पत, कीतिः परं फलानि लिखितानि भुञ्जन्ति । केसरी naamraft न लभसे, गजाः लक्षः गृह्यन्ते ||१||
आये होने पर अकार के स्थान में विकल्प से एकारा
अर्थात्- गुणों से सम्पत्ति नहीं, किन्तु कीर्ति मिलती है, और सुख, दु:ख आदि फल तो अपने भाग्य के अनुसार ही लिखे हुए मिलते हैं। क्योंकि शौर्य आदि गुणों से सम्पन्न होने पर भी केसरी- सिंह का मूल्य एक कौडी भी नहीं होता, किन्तु हाथियों का मूल्य लाखों रुपये पड़ता है।
यहां पर गुणैः गुणहिँ, तथा लक्ष लक्खेहि, इन दो उदाहरणों में भिस् प्रत्यय के परे होने पर प्रकार को एकारादेश विकल्प से किया गया है।
१००७ - व्याकरण-जगत में एक नियम प्रसिद्ध है- अर्थात् विभक्ति-परिणामः । मर्थात् प्र .योजन व विभक्ति का परिणाम परिवर्तन कर लिया जाता है, इस नियम के आधार पर प्रस्तुत सूत्र : में वृत्तिकार ने षष्ठ्यन्त पद का पञ्चम्यन्त पद के रूप में परिवर्तन किया है । १००२ में सूत्र से अस्य (प्रकार को इस पद की अनुवृत्ति चली श्रा रही है। यह षष्यन्त पद है। प्रस्तुत में वृत्तिकार को यह पद पञ्चम्यन्त अपेक्षित है। प्रतः वृत्तिकार फरमाते हैं कि “अस्य" यह षष्ठ्यन्त पद पञ्चम्यन्त पद के रूप में परिवर्तित किया जाता है। विभक्ति का परिवर्तन कर लेने के अनन्तर सूत्र का अर्थ होता हैअपभ्रंश भाषा में प्रकार से परे आए इसि प्रत्यय के स्थान में हे धौर हु ये दो प्रदेश होते हैं । जैसेवृक्षात् गृह्णाति फलानि जनः कटु-पहलवान वर्जयति ।
ततोऽपि महाद्रुमः सुजनो यथा तान् उत्सङ्गे घरति ||१||
अर्थात् - मनुष्य वृक्ष के (मधुर) फलों को तो ग्रहण कर लेता है, किन्तु उस के कटुक (कदुवे) पल्लवों (पत्तों) को त्याग देता है, तथापि सुजन ( श्रेष्ठ मनुष्य) के समान महावृक्ष ( महान वृक्ष ) उन कडुवे पत्तों को भी अपने उत्संग (गोद) में धारण किए रहता है, उनका परिस्थाम नहीं करता । गृह, बह गृह ( वह वृक्ष से ग्रहण करता है) ये दो रूप बनते हैं। यहां प्रस्तुत सूत्र से इसि प्रत्यय के स्थान में है और हु ये दो आदेश किए गए हैं । १००८- अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्द से परे यदि पञ्चमी विभक्ति का बहुवचन भ्यस्: verr पढ़ा हो तो उसके स्थान में 'हूँ' यह प्रादेश होता है। जैसे
वृक्षात् गृह्णाति इस वाक्य के
रोडूयनेन पतितः खलः श्रात्मानं जनं मारयति ।
यथा गिरिशृङ्गेभ्यः पतिता शिला मन्यदपि चूर्णीकरोति ॥ २॥
- जैसे पर्वत की चोटियों से गिरी हुई शिला अपना तथा अन्य वस्तुनों का भी विनाश
कर डालती है, वैसे ही दूर की उड़ान से अर्थात् बहुत ऊंचे चढ कर यदि खल-दुष्ट व्यक्ति का पतन होता है तो वह भी अपने माप को तथा अन्य लोगों को भी मार डालता है ।
यहां गिरिभ्यः गिरिसिङ्ग (पर्वत की चोटियों से), इस प्रयोग में प्रस्तुत सूत्र से भ्यस् के स्थान में '' यह आदेश किया गया है ।
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* प्राकृत-व्याकरणम *
चतुर्वपादा १०० -- अपभ्रंश भाषा में प्रकारान्त शब्द से परे पाए उस-प्रत्यय के स्थान में सु, हो और स्सु.ये तीन प्रादेश होते हैं । जैसे
यो गुणान् गोपयति मात्मीयान प्रकट करोति परस्य ।
तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य बलोकिये सुजनस्य ॥१॥ अर्थात्-जो मनुष्य अपने गुणों को छिपाता है, और दूसरे के गुणों को प्रकट करता है, कलियुग में ऐसे दुर्लभ (जिस का प्राप्त करना मुश्किल हो) सुजन श्रेष्ठ मनुष्य) के मैं बलिहारी जाता हूं।
यहां पर----परस्प रस्तु (दूसरे को -REE - (उस के), ३-दुर्लभस्य- दुल्लहहो (लंभ के),४-सुजणस्य सुअणस्सु (सुजन पुरुष के) इन शब्दों में यथास्थान प्रस्तुत सूत्र से इस्-प्रत्यय के स्थान में 'सु, हो और स्सु ये तीन प्रादेश किए गए हैं।
१०१०-अपभ्रंश भाषा में प्रकारान्त शब्द से परे प्राए ग्राम्-प्रत्यय के स्थान में 'ह' यह आदेश किया जाता है । जैसे
तृणाना तृतीया भङ्गी नापि तेन प्रवट-तटे वसन्ति ।
अथ जनः लगित्वा उत्तरति अथ सह स्वयं भज्जन्ति ||१|| '. अर्थात-जो पास कूप प्रादि के किनारे पर पैदा होते हैं, उन की दो ही अवस्थाएं होती हैं, तोसरी अवस्था नहीं होती। वे घास प्रवट-तट (कूप,जलाशय के तट) पर रहते हैं, उन के साथ लगा मनुष्य (उनको पकड़ कर) पार उत्तर जाता है, अन्यथा वे घास डूबने वाले मनुष्य के साथ ही डूब जाते हैं। भाव यह है कि यातो घास मनुष्य को बचा लेता है या फिर उसके साथ ही समाप्त हो जाता है।
. : यहां-तरणानाम्-तणह (तिनकों की) इस शब्द में प्रस्तुत सूत्र से पाम् प्रत्यय के स्थान में है यह आदेश किया गया है।
१०११- अपभ्रंश-भाषा में इकार और उकार से प्रागे पाए प्राम्-प्रत्यय के स्थान में हूं और है ये दो मादेश होते हैं। जैसे
देवं घटयति बने तरूणां शकुनीमा पक्वफलानि ।
सन्वर सौख्यं प्रविष्टानि माय करयोः खलवचनामि ||१॥ अर्थात-बन में पक्षियों के लिए देव-प्रकृति (भाग्य) ने वृक्षों के फल पैदा कर दिए हैं, उनको खाकर वन में रहना सुखदायक है, परन्तु नगरों में रह कर दुष्टों के दुर्वचनों का कानों में प्रविष्ट होना श्रेष्ठ नहीं है। . . . यहां-१-सहरणाम् -- तस्हुँ, (वृक्षों के), २--शकुनीनाम्==स उणिहूँ (पक्षियों के) इन शब्दों में प्राम-प्रत्यय के स्थान में क्रमशः हुं और हं ये दो प्रादेश किए गए हैं। वृत्तिकार फरमाते हैं कि यहां पर १००० वें सत्र से 'प्रायः' इस पद का अधिकार चला आ रहा है। यहां पर 'प्रायः' शब्द बहुलता' इस प्रर्य का बोधक समझना चाहिए। अतः बहुलाधिकार से कहीं पर सुप-प्रत्यय के स्थान में भी यह मादेश हो जाता है । जैसे
घवतः खिचते स्वामिनः रु भरं प्रेक्ष्य ।
अहं किन युक्तः, योविंशोः खंडे कृत्वा ॥१॥ मर्यात-स्वामिभक्त श्वेत वृषभ अपने स्वामी के महान भार को देख कर विषादयुक्त हो रहा है और मन में विचार करता है कि मेरे दो टुकड़े करके दोनों दिशाओं में (गाडे के दोनों भोर) मुझ
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी टीकाद्वयोपेतम् ★
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hataria at faा गया। यहां पर-द्वयो: दुहुँ (दोनों) इस शब्द में सुप्-प्रत्यय के स्थान में अतसूत्र में प्रायः का अधिकार होने से 'हूं' यह आदेश किया गया है ।
१०१२ - अपभ्रंश भाषा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों से परे थाए ङसि भ्यस् और कि इन प्रत्ययों के स्थान में यथासंख्य (संख्या के अनुसार, क्रमशः ) हे, हूं और हि ये तीन प्रदेश होते हैं । इस प्रत्यय के स्थान में होने वाले है इस प्रदेश का उदाहरण इस प्रकार है
गिरेः शिलातलं तशेः फलं गृहाते निःसामाभ्यम् ।
गृहं सुक्या मानुषाणां ततोऽपि न रोचतेऽरण्यम् ॥ १ ॥
प्रर्थात् बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक मनुष्य विश्रामार्थं पर्वतों से शिलातल (शिला का ऊपरी भाग वाणपुर) तथा भार्य वृक्षों से फल प्राप्त कर सकता है, तथापि दुःखरूप घर को छोड़कर मनुष्यों को वन में रहना पसन्द नहीं है ।
यहां पर -- १ - गिरेः गिरि ( पहाड़ से ), २ -- तरी:- तरुहे" (वृक्ष से ) इन शब्दों के असि-प्रtar को प्रस्तुत सूत्र से है यह प्रवेश किया गया है। भ्यस् के स्थान में हुए हूं इस आदेश का उदाहरणतपोऽपि वल्कलं फलं मुनयोऽपि परिधानमशनं लभन्ते । स्वामिन्यः suruकमावरं भृत्याः
ति ॥२॥
'जनार्थ फल प्रा
अर्थात् मुनिजन वृक्षों से परिधानार्थ (पहनने के लिए) वल्कल- छाल और
प्त कर लेते हैं, इतनी ही अधिकता है कि स्वामिजनों से नौकर लोग आदर प्राप्त कर लेते हैं । भाव यह है कि मनुष्य नौकरी केवल सम्मान की दृष्टि से ही करता है न कि भोजनादि के लिए, क्योंकि भोजन और वस्त्र की समस्या तो किचन मुनि भी बनों से समाहित कर लेते हैं । अथवा- भोजन की समस्या तो वन में भी समाहित हो सकती है, मनुष्य व्यर्थ हो जरा से श्रादर की भूख से विवश होकर अपने श्राप को परतन्त्र बना लेता है।
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यहां पर - १ - तकस्यः तरुहुँ (वृक्षों से ) २ - स्वामिस्यः सामिहुँ (मालिकों से ) इन शब्दों में यस के स्थान में हूं यह आदेश किया गया है। डिप्रत्यय के स्थान में हुए हि इस आदेश का उदाहरण" अथ विरल प्रभावः एव फलो धर्मः"
अर्थात् निश्चय ही कलियुग में धर्म विरल प्रभाव (जिस का प्रभाव बहुत कम हो ) हो गया है । भाव यह है कि कलियुग में धर्म का प्रभाव (शक्ति) बहुत कम देखने में श्राता है। यहां पर कलौं = कलिहि (कलियुग में) इस शब्द में डिप्रत्यय के स्थान में हि यह आदेश किया गया है।
१०१३ - अपभ्रंशभाषा में प्रकारान्त शब्द से परे भाए टान्प्रत्यय के स्थान में ख और अनुस्वार (०) ये दो प्रदेश होते हैं। जैसे—दयितेन प्रवसता दइएं पवसन्तेण (प्रदेश को गए प्रीतम ने) यहां पर टान्प्रत्यय को क्रमशः अनुस्वार तथा रंग ये दो आदेश किए गए हैं। दयितेन प्रवसता यह इलोक का एक हिस्सा है । सम्पूर्ण श्लोक १००४ वें सूत्र में दिया गया है।
१०१४- अपभ्रंश भाषा में इकार और उकार से परे आए टा-प्रत्यय के स्थान में एं तथा सूत्रोक्त चकार के कारण ण और अनुस्वार इस तरह तीन प्रादेश होते हैं। एं इस पद का ऍ यह पाठातर भी अन्य प्रतियों में उपलब्ध होता है । श्रतः प्रदेश के ये दोनों प्रकार यथास्थान ग्रहण किए जा सकते हैं । 'ऐं' इस आदेश का उदाहरण
affer उष्णकं भवति जगद् वातेन शीतलं तथा । भः पुन अग्निना शीतलः, तस्य उष्णत्वं कथम् ? ॥१॥
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प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादा
मर्थाद-संसार अग्नि से उष्णता (गरमी) और (शीत) वायु से शीतलता प्राप्त करता है, परन्तु जो पुरुष प्रग्नि से भी शीतलता का अनुभव करता है, उस के लिए उष्णता कहां ? भाव यह है कि शा न्ति से परिपूर्ण वातावरण में सब शान्त रहते हैं, किन्तु प्रशान्त वातावरण में भी शान्त रहना, यह बहुत बड़ी बात है । दुःख में भी समता को संभालने वाला व्यक्ति महापुरुष होता है ।
यहां पर - अग्निना गएँ (अग्नि से ) इस शब्द में या प्रत्यय के स्थान में ऍ यह आदेश किया गया है । ण और अनुस्वार के उदाहरण --
विप्रियकारकः यद्यपि प्रियस्ततोऽपि तमानय मद्य । affect of गृहं ततस्तेन अग्निना कार्यम् ||२||
अर्थात- हे सखि ! यद्यपि प्रिय ( प्रीतम ) प्रतिकूलता करने वाले हैं, तथापि आज तुम उन को (wafa उनके बिना मेरा निर्वाह नहीं हो सकता), यद्यपि अग्नि से घर जल जाता है तो भी उस से ही काम चलता है ।
यहां पर- १ - प्रतिमा श्रमिण (अणि से), २-मग्निमा-अग्गिं ( अग्नि से ) इस इकारान्त शब्द में प्रत्यय के स्थान में क्रमश: 'ण' तथा अनुस्वार [0] ये दो प्रादेश किए गए हैं। वृत्तिकार फरमाते हैं कि इकारान्त शब्द की भाँति उकारान्त शब्द से थाए टा-प्रत्यय के स्थान में किए एज तथा अनुस्वारः इन आदेशों के उदाहरण भी समझ लेने चाहिएं, अर्थात् इन के उदाहरणों की कल्पना भी स्वयं कर लेनी चाहिए ।
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१०१५ -- अपभ्रंश भाषा में सि, अम्, अस् और शस् इन चार प्रत्ययों का लोप होता है । जैसे- एते तेऽश्वाः, एषा स्थली ए ति घोडा, एह बलि (ये वे घोड़े हैं, यह रणस्थल है) । इत्यादि पदों मैं सिं, धम्मौर जस् इन प्रत्ययों का लोप किया गया है । यह पूर्ण श्लोक है, पूर्ण श्लोक १००१ सूत्र में दिया गया है। वह इस प्रकार है
एक ति घोडा एह पनि एइ ति निसिधा खग्य । एत्युमुखीसिम जाणीवह जो न वि वालइ वा ॥१॥
यहां पर- १ - एते एड (ये), २ सेति (वे), ३ घोटका घोडा (घोड़े ), ४ – निशिताः = निसिया ( तीक्ष्ण), ४ खड्गाः खग्ग (तलवारें ) इन शब्दों में प्रस्तुत सूत्र से जस्-प्रत्यय का, १ - एषा एह (एह), २-स्थली थलि (युद्धस्थल), ३--मनुष्यत्यम् = मुनीसिम (पुरुषत्व), ४- यः जो (जो) यहाँ पर सिप्रस्थय का तथा वल्गाम् बम (लगाम को ) यहां पर अम् प्रत्यन का लोप किया गया है। यथा यथा वरिमाणं लोचनयोः नितरां श्यामला शिक्षते ।
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तथा तथा मन्मथः निजकशरान् वर प्रस्तरे तीक्ष्णयति ॥ १॥
मर्याद-- जैसे-जैस] श्यामला (श्याम वर्ण की कन्या) नेत्रों की वक्रता (कटाक्षपूर्वक व देखना) सोखती चली जा रही है, अर्थात् इस के नयनों में वक्रता याती जाती है, वैसे-वैसे मन्मथ (कामदेव ) अपने बाणों को कठोर पत्थर पर तीक्ष्ण करता जा रहा है ।
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यहाँ पर १-बक्रिमाणम् - किम ( वक्रता को ) इस शब्द में श्रमप्रत्यय का, २- श्यामला सामल (कृष्ण वर्ण की लड़की), ३- मन्मय: == बम्म (कामदेव ) इन शब्दों में सिप्रत्यय का, तथा४- निजकशरान् निश्रय-सर (अपने वाणों को यहां पर प्रस्तुत सूत्र से शस्-प्रत्यय का लोप किया गया है।
१०१६ - अपभ्रंशभाषा में षष्ठी विभक्ति का प्राय: (मामतौर पर) लोप हो जाता है । जैसे---
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A.
MAHAL
चतुर्षपावः
*संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् ★ संगर-भतेषु यो अयेते पश्य अस्मीयं कान्तम् ।
अतिमत्तानां त्यक्ताकुशानां गजानां कुम्भान् वारयन्तम् ॥२॥ अर्थात-अत्यधिक मदसे उन्मस तथा निरङ्कुश हाथियों के मस्तकों का भेदन करते हुए, तथा सैकडों युद्धों में जिस के यश का वर्णन किया जाता है, ऐसे मेरे कान्त (धीलम) को तु देख !
यहाँ-जानाम् गाय (हाथियों के) इस शब्द में प्रस्तुत सूत्र से षष्ठी विभक्ति के प्राम्-प्रत्यय का लोप किया गया है । यहाँ पर एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र से जिस कार्य का विधान किया गया है, यह विधान तो गत १०१५ वें सूत्र से ही हो जाना चाहिए था, वह सूत्र अहो पर सि. जस्, प्रम् और शस् हुन प्रत्ययों का लोप करता है,वहां इस मौर श्राम का भी लोप कर सकता था। फिर इस सत्र की स्वतन्त्र रूप से रचना क्यों की गई?,उत्तर में निवेदन है कि प्रस्तुत सूत्र की जो पृथक् रचना की गई है, उस का प्रयोजन लक्ष्य-प्रयोग का अनुसरण करना है,भाव यह है कि जिस प्रयोग में षष्ठी के लोप की प्रावश्यकता प्रतीत हो, वहां इस सत्र से लोप कर देना चाहिए, अन्यथा नहीं । इसी बात को वृत्तिकार ने-'पृथक् योग (सूत्र की रचना) लक्ष्य (प्रयोग) के अनुसरण के लिए है इन शब्दों से संसचित किया है। इसी कारण प्रस्तुत गाथा में..--प्रतिमसानाम-प्राइमत्तह, २-त्यक्ताशानाम् चत्तइकुसहं तथा ३-गजानाम-गय इन तीन षष्ठ्यन्त पदों में से केवल 'गज' शब्द के प्राम्प्रत्यय का ही लोप किया गया है, शेष का नहीं। .
१०१७---अपभ्रंश भाषा में आमन्त्रण (आमन्त्रण-सम्बन्धी) अर्थ में वर्तमान (विद्यमान) नामप्रातिपदिक से परे प्राए जस्-प्रत्यय के स्थान में 'हो' यह आदेश होता है। यह सूत्र १०१५ ३ सूत्र से होने वाले अस् के लोप का बाधक होने से लोपाऽपवाब-सूत्र कहलाता है। जैसे-
सातयः । माया मां, हस्त मामात्मनों घातम्-तरुणहो !, सरुणिहो ! मुणि मई करहु म अप्यहो घाउ [हे तरुणा-पुरुषो!, हे तरुण नारियों ! मुझे जान कर, अपनी घात (आत्महत्या) मत करो] यहां पर मामन्त्रणसम्बन्धी जस् प्रत्यय के स्थान में 'हो' यह प्रादेश किया गया है।
१०१८ - अपभ्रंशभाषा में भिस् और सुप् इन प्रत्ययों के स्थान में 'हि' यह आदेश होता है। भिस् प्रत्यय का उदाहरण, जैसे-गुणः न सम्पत्, कौतिः परम् - गुणहिँ न संपद, कित्ति पर [गुणों से सम्पत्ति नहीं,किन्तु कीति प्राप्त होती है] यहां भिस् प्रत्यय के स्थान में हि' यह प्रादेश किया गया है। यहां श्लोक का एक भाग दिया गया है। सम्पूर्ण श्लोक १००६ वें सूत्र में दिया जा चुका है। सुप् का सबाहरण-भागीरथी यथा भारते मार्गेषु विपि प्रवर्तते भाईरहि जि● भारइ मग्गे हि तिहि वि पयट्ट [जैसे गंगा नदी भारत में तीन मार्गों में बहती है] यहां मार्गेषु तथा त्रियु इन शब्दों में सुप्-प्रत्यय के स्थान में हि' यह श्रादेशश करके मम्मे हि, तिहि ये रूप बनाए गए हैं।
★ अथ स्त्रीलिङ्गीय स्मादिविधिः १०१६-स्त्रियां जस्-शसोरुदोत् ।।४।३४ अपभ्रशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्य जसः शसश्च प्रत्येकमुदोतावादेशो भवतः । लोपाऽपवादौ । जसः । अंगुलिउ जज्जरियाउ महण [३३३,४] शसः । सुन्दर-सव्वङ्गाउ विलासिणोश्रो पेच्छन्ताण । वचनभेदान्न यथासंख्यम् ।
१०२०-ट ए।८।४।३४६ । अपभ्रशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्याष्टायाः स्थाने ए इत्यादेशो भवति ।
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★ प्राकृत व्याकरणम् ★
for-- करहिं विमुद्ध कर अन्धार पडिपेक्लs | afe-मण्डल चन्मिए पुणु काई न दूरे देवख ॥ १॥ जहि मरगय-कन्तिए संवलिश्रं ।
चतुर्थपादः
१०२१ -- इस्-इस्यो । ८ । ४ । ३५० । अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परयोस्, ङसि इत्येतयोः हे इत्यादेशो भवति । इसः --
तुच्छ मम्हे तुच्छ जपिरहे ।
तुच्छच्छ-रोमावलिहे तुच्छ- राय ! तुच्छयर -हासहे । पिय-वयणु हतिग्रहे तुच्छकाय वम्मह निवासहे । अन् तुच्छउँ तहें धणहे तं श्रक्खणहं न जाइ । करि थiतर मुड में मणु विच्चि ण माइ ॥ १ ॥ फोडेम्ति जे हिउँ श्रप्पणउँ ताहं पराई कवण घृण
रक्खेज्हु लोहो प्रवणा बालहे जाया विसम यण ॥२॥ १०२२ - भ्यसामोहुः । ४३५ पसे स्वियों वर्तमानानाम्नः परस्य भ्यस
पामश्च ह इत्यादेशो भवति ।
मल्ला हुआ जु मारिया बहिणि ! महारा कन्तु । लज्जेज्जन्तु वयंसिद्ध जइ भग्गा घर एन्तु ॥१॥
arrrrrt attनां वेत्यर्थः ।
१०२३-४ हि । ८ । ४ । ३५२ । अपन से स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्य : सप्तम्येकवचनस्य *हि [हि ] इत्यादेशो भवति ।
वायसु उडावन्तिए पिउ दिट्ठ सहस सि । श्रद्धा वलया महिहि गय श्रद्धा फुट्ट तड त्ति ॥ १ ॥ ★ अथ स्त्रीलिङ्गीय-स्यादि-विधिः ★
पत्र - भाषायाः स्त्रीलिङ्ग - प्रकरणे स्थादि-प्रत्ययानां स्थाने यह विधिविधानं वि धीयते तत्प्रदर्शयत्याचार्थः ।
१०१९ - लोपाऽपदादेति । १०१५ सूत्रेण जस्-शसोः लोपो जायते, किन्तु तस्यापवाद्भूतो उकार. ओका १०१९ सूत्रेण विधीयेते । श्रतः प्रस्तुतसूत्रं तस्यापवादसूत्रं ज्ञेयम् । जसः । जस्-प्रत्ययस्योदाहरणं. : प्रदीयते, यथा-अतुल्यः जर्जरिता: नखेन प्रङ्गुलिङ जज्जरिभाउ नहेण, प्रक्रिया १००४ सूत्रे ज्ञेया । अंगुलिज इत्यत्र २५ सु० उकारस्यानुस्वारो जातः । जज्जरिया इत्यन बाहुल्येन १८० सूत्रेण यकारस्य श्रुतिः संजाता। अंगुलित, जज्ञ्जरियाज इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण जस: स्थाने उकारों जातः । शतः । शस्-प्र* हि इति पाठान्तरमुपलभ्यते ।
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. चतुर्पपाद: * संस्कृत-हिन्दो-टोकाद्वयोपेतम् *
१८१ त्ययस्योदाहरणं प्रदर्शयत्याचार्यः, यथा-सुन्दरसा विलासिनीः प्रेक्षमाणानाम् । अयं भावः-सुन्द. राणि सर्वाण्यङ्गानि यासां ताः सुन्दर-सर्वाङ्गाः विलासिनी:-विलासवती: नारी: प्रेक्षमाणानां पश्यतां पुरुषाणामित्यध्याहायंम । सन्दरसर्वागाः । सन्दर-साडा+शुस । ३५० स० रेफलोपे, ३६० स०व.
वे, ८४० संयोगे परे हस्वे,१०१९ स० शसः स्थाने उकारे सन्दरसम्बडगाज इति भवति । विलासिनीः । विलासिनी+शस् । २२८ सू० नकारस्य कारे,१०१९ सू० शसस्थाने प्रोकारे विलासिपीओ इति भवति । अस्मिन् प्रयोगद्वये प्रस्तुतसूत्रेण शसः स्थाने क्रमशः उकारः, प्रोकारश्च विहितः । प्रक्षमाणानाम् । प्रपूर्वक ईक्षधातुः प्रेक्षणे । प्रेक्ष+प्रान+पाम् । इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे,२८८ सूक्षस्य छकारे, ३६० स० छकारस्य द्विरवे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे, ६७० सू० पानशः स्थाने न्त इत्यादेशे, ४९५ सू० प्रामः स्थाने णकारे, ५०१ सू० पूर्वाकारस्य दीर्षे में
भवति। मनमेवान्न यथासंख्यम। वचनयोःभेदः, वचन-भेदः, तस्मादन यथासंख्यमसंख्यामनतिक्रम्येति यथासंख्यम् । अयं भावः-१०१९ सूत्रे जस्-शसोः [जस् च शस् चेति जस्-शसो, तयोः] इति द्विवचनान्तं पदम । उदो उच्च प्रोच तयोः समाहार:.उदोस] इत्येकवचना स्थानिनोः द्विवचनान्तनत्वं भवति तत्रादेशयोरपि द्विवचनान्तत्वं भवितुमर्हति,किमर्थमन्नाऽत्र वचन-भेद उपन्यस्तः ? इत्याशंकाया उत्तर प्रदीयते वृत्तिकारण, यत् स्थान्यादेशयोः वचन-भेदकरणेनेदं ज्ञाप्यते यद् "यथासंख्यमनुवेशः समानाम" इति न्यायो नात्र प्रवर्तते । अतएव जस्-प्रत्ययस्य यथा उकारोकारो भवतः, तथैव शस्-प्रत्ययस्याऽपि उकारोकारौ जायते । १०२०-- निजमुखकरैः अपि सुग्धा करमप्रकारे प्रतिप्रेक्षते ।
शशिमण्डल-चन्द्रिकया पुन: कि म दूरे पश्यति ॥१॥ भावार्थ:-काचिद् पुग्घा सुन्दरी नारी यदा निजमुखकरैः-निजस्य मुखं तस्य करेः किरणः,अन्धकारे-बान्तेऽपि निजं करं-हस्तं प्रतिप्रेक्षते-पश्यति,शशिमण्डलचन्तिकया-शशिनः चन्द्रस्थ मण्डल-गोलक, तस्य चन्द्रिकया-कान्त्या, सा मुग्धा पुनः दूर कि-कथं न पश्यति ? अपितु पश्यत्येवेति भावः । यथा चन्द्रप्रभया जनाः दुरस्थितानपि पदार्थान् पश्यन्ति तथैव चंद्रकान्तिवद-मुखी इयं सुन्दरी निबिडेन्धकारे समीपस्थी कराववलोकयेत्, को नाम विस्मयोऽत्र ? न कोऽपीति ।
निज-मुख-कारः । निज-मुख-कर+भिस् । १७७ सू० जकारलोपे, १८७ सू० खकारस्य हकारे, १.०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे मिअ-मुह करहि इति भवति । अपिम्म वि,इत्यस्य प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । मुग्धा । मुग्धा+सि । ३४८ सू० गकारस्य लोपे,३६० मू० धकारस्य द्वित्त्वे,३६१ सू० पूर्वधकारस्य दकारे,१००१ सू० भाकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोंपे मुख इति भवति । करम् । कर+अम् । इत्यत्र १०१५ सू० प्रमो लोपे कर इति भवति । अन्धकार। अन्धकार+डि । १७७ सु० ककार-लोपे,५ सू० दीर्घसन्धौ, ४३५ सू० स्वार्थे क-प्रत्यये, १७७ सू० ककारस्य लोपे,१००५ सू० डिना सह अकारस्प इकारे अन्बारद इति भवति । प्रतिप्रेक्षते । प्रतिपूर्वक: ईक्षधातुः प्रतिप्रेशगे। प्रतिप्रेक्ष+ते । ३५० सू० उभयत्रापि रेफलोपे, २०६ सू० तकारस्य डकारे,९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, २७४ सू० क्षस्य स्थाने खकारे,३६० सू० खकारस्य द्विस्वे, ३६१. सू० पूर्व-खकारस्य स्थाने ककारे, ६२८.सू० ते इत्यस्य इचादेशे परिपेश्खइ इति भवति । शशि-मण्डल-बन्द्रिकया। शशिमण्डल चन्द्रिका+टा.! इत्यत्र २६० स० उभयत्रापि शकारस्य सकारे, ३५० सू० रेफलोपे, १८५ सू० ककारस्य मकारे, १००२ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०२० स० टास्थाने ए इत्यादेशे ससिमास-वधि
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१८२ *प्राकृत-व्याकरणम् *
वतुपाचा मए इति भवति । पुनर - पुरण प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। किम् । किम् +सि । इत्पत्र
T RAN. . . १०३८ सू० किमः स्थाने का इत्यादेशे, १०१५ सू० सेर्लोपे काई इति भवति । न । अव्ययपदमिदं सस्कृतवदेवापभ्र शे प्रयुज्यते । दूरे । दूर+डि । ५०० स : स्थाने डे (ए) इत्यादेशे, डिति परेजयस्व. रादेलोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये दूरे इति भवति । पश्यति । दृशिर-(दृश्-धातुः दर्शने । दृश् +लिव । ५५२ सू० दृशः स्थाने देवख इत्यादेशे,६२८ स तिवः स्थाने इन्चादेशे देख इति भवति । शशि-मण्डल अन्त्रिकयाससि-मण्डल चन्दिमए इत्यत्र प्यूनस्य प्रशनि । मन पटकला-कापल्या वलि सम् । अयं भाव:- यस्मिन् मरकतकान्त्या, मरकत-मणिविशेषः, तस्य कान्तिः, तया संवलितं-मिश्रितमित्यर्थः । यस्मिन् । यद्न-डि । २४५ सु० यकारस्य जकारे, ११ सू० दकारलोपे, १०२८ स० छि इत्यस्य स्थाने हि इत्यादेयो जहि इति भवति । मरकत-काया। मरकत-कान्ति+er। १०६७ सू० ककारस्य गकारे, १७७ सू० तकारलोपे १८० सू० यकारश्रुती, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०२० सू० हाप्रत्ययस्य स्थाने ए इत्यादेशे, मरगय कन्तिए इति भवति। संबलितम् । संवलित+सि। १७७ स० तकारलोपे, ५१४ सू० सेमकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे संवलियं इति भवति। मरकत-कान्स्या-मरगयकन्तिए इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। १०२१-इसः । उस्-प्रत्ययस्योदाहरण प्रदर्श पति वृत्तिकारः । यथा--
सुभछमध्यावा. तुमछजस्पिश्याः [तुच्छ जल्पनशीलाया:], तुच्छाच्छरोमावस्याः तुच्छराग ! तुच्छतर-हासायाः । प्रियवचनमलभमानायाः पुच्छकाय-मन्मथ-निवासायाः, अन्यद् यच्छक तस्याः घन्यायाः तदात्यातुं न याति ।
प्राश्चयं स्तनान्तरं मरवायाःयेस मनोवत्ममिनमाति ॥२॥ भावार्थ:--प्रन्यासक्तं प्रियं प्रति नायिकया प्रेषिता दूती शंसति--हे तुम्छराग!-तुच्छः-स्वल्पो रागोऽनुरागो यस्य सः, तत्सम्बोधनम् । तस्याः घन्याया:---पुण्ययतीनायिकायाः अन्यत्र प्रस्तुतवर्णनातिरिक्तं यस पटक जातं सवाख्यातं न यातिन कश्चित् पारयति। किंभूतायाः तस्याः? तुच्छमध्याया:--- तुच्छो मध्य:--मध्यभागों यस्याः सा, तस्याः । पुनः किंभूतायाः तस्था? सुन्छजल्पिश्याः, तुच्छजल्पनशीलायाः, पुनः कि भूतायास्तस्याः ? तुच्छामछरोमावल्यः-रोम्णामावली पंक्तिः, रोमावली, मच्छाः (निर्मलाः) च सा: रोमावल्यः, तुच्छाः अच्छरोमावस्यः यस्याः सा, तस्याः । पुनः किंभूतायास्तस्याः? तुछ-तर-हासायर:-अतिशयेन तुच्छ: तुच्छतरः, तुच्छतरो हासो यस्याः सा तस्याः। पुनः किसूतायातस्पाः? प्रियवचनम्-प्रिप्रस्य कान्तस्य वचनं संभाषणमलभमानायाः । पुनः किंभूतायास्तस्पाः। शुन्य काय-मन्मथ-निवासाया:--तुच्छश्चासी कामः- शरीर, तस्मिन् मन्मथस्य कामदेवस्य निवासः-निबसनं यस्याः सा तस्याः । एतादृश्या: मुग्धाया:-- सुन्दर्याः स्तनान्तरं-स्तनयोः अन्तर-मध्यभागः आश्चर्यम् -प्राश्चर्यजनकं जातमिति । येन अतएव मनोऽपि तत्र वर्मनिन माति । अयं भावः-स्तनी इयन्ती पीनतमी मिथःसम्पृक्तौ च वर्तते अत्तयोः मध्येऽल्पमपि स्थान नास्ति । अतएव तत्र प्रतिसूक्ष्ममनसाऽपि प्रवेष्टुं न शक्यते । स्तमयोरतिपीनश्वमभिव्यजितं कविनेति ।
तुम्छमध्यायाः । तुच्छमध्या+इस् । २९७ सू० व्ययस्य झकारे,३६० सू० झकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वझकारस्य जकारे, १००१ सू० श्राकारस्य स्थाने प्रकारे, १०२१ सू० इसः स्थाने 'हे' इत्यादेशे तुमय-मझिाहे इति भवति । तुछ- जस्पिश्याः । तुच्छ जल्पित्री+ङस् । जल्प-धातुः जल्पने । जल्प् +तुन्
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१५३
يه = درجه دوله سمعه
معیوب
هدیه میه سی دی د یه ئه مه يه سه
ميدهمین
चतुर्थपादः
संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * +इस् । इत्यत्र ३५० सू० लकारलोपे, २६ सू० प्रादेरकारस्य अनुस्वारागमे, ३० सू० अनुस्वारस्य वमन्त्येि मकारे जाते जम्प्+त+इस् [अथवा जम्पिरहे इत्यस्य पदस्य कविण्याः इति संस्कृत-रूपे कम्+णिम् + तृ+इस् इति जाते, ६७३ सू० कथ्-धातोः स्थाने जम्प इत्यादेशे, ६३८ सू० किंग: स्थाने प्रकारे, ६४२ सू०पावरकारस्य प्रकारे,८४ सूत्रेण प्राधाकारस्य प्रकारे.१० सू० अन्त्याकारस्य लोपे, प्राझीने परेण संयोज्ये जम्प+तृ+इस्] इतिस्थिते, अत्र शीलार्यक; तृन्प्रत्ययोऽस्त्यतएव ४१६ सू० तनः स्याने इर इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये तुच्छजम्पिर-इस् इति जाति, स्त्रीवाद माप-(मा)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घसन्धी, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, प्रस्तुतसूत्रेण इसे स्थाने हे इत्यादेशे सशसम्मिरहे इति भवति । तुच्छामधरोमावल्यः । तुम्छाच्छरोमावली+इस् । ५४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे. १०७१ सू० ईकारस्थ इकारे, प्रस्तुतसूत्रेण इन्सः स्थाने हे इत्यादेशे तुमच्छरोमावलिह इति भवति । हुन्धराग.! | तुच्छराग+सि। १७७ सू० गकार-लोपे,१८० सू० यकारश्रुतौ, १०१५ सू० सेलपि तुच्छराम ! इति भवति । सुन्दसरहासायाः। तुच्छतरहासा + ङस् । १७७ सू० तकारस्य लोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ,१००१ सू० भाकारस्य प्रकारे,प्रस्तुतसूत्रेण उसः स्थाने हे इत्यादेशे तुमचयरहासह इति भवति । प्रिय प्रिय +अन् । ३५० सू ली , १७७ सू० चकारलोपे १८० सुरू यकारश्रुतौ, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमोलोपे पिपवपा इति भवति । अलभमानायाः । नापूर्वकालम् धातुः अप्राप्तौ । अ-लम् + प्रान+इस् । १८७ स० भकारस्य हकारे, ९१० सूत्रेण धालोरन्तोऽ कारागमे, ६७१ सू० पानशः स्थाने न्त इत्यादेशे, स्त्रीत्वादाप-प्रत्यय-प्रसंगे ५२१ स० कोप-(ई)-प्रत्यये, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, प्रस्तुतसूत्रेण इसः स्थाने हे इत्यादेशे असहन्ति इति भवति । सुन्धकाय-ममयनिवासायाः । तुन्छकाय-मन्मथ-निवासा+ ङस् । २४२ सू० प्रादिम-मकारस्य वकारे, ३३२ सू० मस्य मकारे, ३६० सू० मकारस्य द्वित्त्वे,१८७ सू० थकारस्य हकारे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, प्रस्तुतसूण सः स्थाने हे इत्यादेशे शुभकाय-बम्माह-नियासहे इति भवति । अन्यत् । अन्यद्+सि, ३४९ स० यकारलोपे, ३६० सू० नकारस्य द्वित्वे, ११ सू० दकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य प्रकारे, १०१५ सू. सेलपि मन्नु इति भवति । यस् । यद्+हि । २४५ सू० यकारस्य जकारे,११ सू० दकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे छु इति भवति । सुन्धकम् । तुम्छक+सि । १७७ सू० ककारलोपे, १०२५ सू० सिना सह सकारस्य उं इत्यादेशे,१०६२ सू० उच्चारणस्य लाधवे तुम्छः इति भवति । सस्माः । तद्+स । ११ सू० दकारलोपे, प्रस्तुतसूत्रेण उसः स्थाने हे इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे तहें इति भवति । अन्याया । धन्या+हुस् । ३४९ सयकारलोपे, ३६० सुत्रे पश्चिम भवति" इति बचनात् द्विस्वाभावे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००१ सू० प्राकारस्य अकारे, प्रस्तुत-सूत्रेण हुसः स्थाने हे इत्यादेशे परगहे इति भवति । तम् । तद्+प्रम् । इत्यत्र ११ सू. वकारस्य लोपे, ४९४ सू. प्रमोऽकारसोपे, २३ सू० मकारानुस्वारे तं इति भवति । आख्यातुम् ! आपूर्वकः ल्याधातुः कयने । माख्या+तुम। ४ ससंयोगे परे हस्व.३४९ सयकारलोपे, ३६० स० खकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ स. पूर्व-खकारस्य ककारे, १९१२ सू० तुमः स्थाने प्रणहं इत्यादेशे, ५ सू० दीर्घ-सन्धौ, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे भक्षणहं इति भवति । न । अध्ययपदमिदं संस्कृतवदेवापभ्रंशे प्रयुज्यते । याति । या गतिप्रापणयोः । या+तिम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ६२८ सू० तिव इचादेश जाह इति भवति । आबान-शोलामा, जयनगीलावा इत्यर्थः ।
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नाममा
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*प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः पर्यम् । अव्ययपदमिदम् । अपभ्रंशे पाश्चर्यम् इत्यर्थे १०९३ सू० कटरिशब्दः प्रयुज्यते । स्तनान्तरम् । स्तनान्तर+सि । ३१६ सू० स्तस्य स्थाने थकारे,,२२८ सू० नकारस्य णकारे,५४ सूसंयोगे परे हस्वे, २५ सू० नकारानुस्वारे, १७०२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेपि थरांतक इति भवति । मु. ग्षायाः । मुग्धा+इस् । ३४८ सू० गकारस्य लोपे, ३६० सू० धकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू. पूर्व-धकारस्थ दकारे, ४३५ सू० स्वार्थे कप्रत्यये, ११०. . स्वार्थे : (ड)-प्रा, नामपद चमोले, डिति परेंऽन्त्यस्वरादेलोपे, प्रस्तुतसूत्रेण उस: स्थाने हे इत्यादेशे मुडहे इति भवति । येन । यद्+टा । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ सू० कारलोपे, १००४ सू० अकारस्य एकारे, १०१३ सू० प्रत्ययस्य स्थाने अनुस्वारे में इति भवति । मनः । मनस् +सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे,११ सू० सकारलोपे, १००२ सू०प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे मणु इति भवति । वम नि । वर्मन् + डि । इत्यत्र १०९२ सू० वर्मनः स्थाने विच्च इस्यादेशे,१००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे विच्चि इति भवति । न । प्रत्ययपदमियम् । इत्यत्र २२९ सू० नकारस्य वैकल्पिके णकारेण इति भवति । माति 1 मा(मा)धातुः माने । मा+तिव । ६२८ सू० तिवः स्थाने इत्यादेशे माइ इति भवति । तुच्छमझहे, तुच्छजम्पिरहे इत्यादिषु नवसु प्रयोगेषु प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिांता । पत्र प्रस्तुतसूत्रेण डस्-प्रत्ययस्य स्थाने हे इत्यादेशो जातः । सेः । सम्प्रति इसि-प्रत्ययस्योदाहरणं प्रदर्शयत्याचार्यः । यथा--
स्फोटयतः यो हवयमात्मीयं तयोः परकीया का धुणा ।
रक्षत लोकाः ! पारमा बालायाः जातो विषमौ स्तनौ ।।२।। भावार्थ :-- बालायाः स्तनयोः अतिशयेन विकारजनकत्व-प्रदर्शनाय कश्चिन्नायको भणति। यो स्तनो मारमीयम्-निज, हवयम्-वक्षः-स्थल,स्फोटयतः-भिन्तः,तमो.-कुचयोः परकीया-परविषये का घणा? नकापि अनुकम्पा भवितुं शक्नोति । प्रतो हे लोकाः! यो बालाया विषमौ-भयंकरोविकारजनको वा स्तनौ स्तः, ताभ्याम् मात्मानं रक्षत-स्वस्य रक्षां कुरुत । एतयोरपरि न दृष्टिः प्रक्षेपणीयेति भावः ।
स्फोटयतः । स्फुट् स्फोटने-विदारणे । स्फुद+णिग्+तस्। ३४८ सू० सकारलोपे, १००० सू० उकारस्य प्रकारे, १९५ सू० टकारस्य डकारे, ६३८ सू० णिगः स्थाने एकारे, ६१९ सू० द्विवचनस्थ बहुवचने, ६३१ सु० प्रन्ति इत्यस्य न्ति इत्यादेशे फोडेन्ति इति भवति । यो । यद+ो। इत्यत्र २४५. सू. यकारस्थ जकारे, ११ सू० कारस्य लोपे,६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने,५४७ सू० जसः स्थाने डे (ए) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, १०८१ स. उच्चारणस्य लाघवे में इति भवति । हृदयम् । हृदय कम । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, १७७ सू० दकारलोपे, बाहुल्येन १८० सू० यकारश्रुतौ, २६९ स० द्वितीय-सस्बर-यकारलोपे,४३५ सू० स्वार्थे क-प्रत्यये जाते,११०१ सू० स्त्रार्थे डडअ- अडस)-प्रत्यये क-प्रत्ययस्य च लोपे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, १०२५ सू० प्रकारस्थ उ इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे, १०१५ सू० प्रमो लोपे हिय इति भवति । आत्मीयम् । प्रात्मीय-अम् । १०९३ सू० प्रात्मीयस्य शब्दस्य धप्पण इत्यादेशे,४३५ सू० स्वार्थे क-प्रत्यये,१७७ सू० ककारस्य लोये, १०२५ स० प्रकारस्य उ इत्यादेशे,१०१५ सू० अमो लोपे,१०८२ सू० अनुस्वारस्य उन्चारणस्य लाघवे मारण इति भवति । तयोः । तद्+प्रोस् । ११ सू० दकारलोपे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने,१००१ सू० प्रकान 'रस्य प्राकारे,१०१० सू० प्रामः स्थाने हं इत्यादेशे,१०५२ सू० उच्चारणस्य लाघवेताह इति भवति । "परकीया । परकीया+सि । प्रपत्रंशे परकीयार्थ १७९३ सू० पराई शब्दः प्रयुज्यते, १०१५ सू० सेलोपे पराई इति भवति । का। किम् +सि । इत्यत्र १०३८ सू० किम: स्याने कवण इत्यादेशे, स्त्रीवादापू
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चतुर्थशादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * (आ) प्रत्यये,१००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे,१०१५ सू० सेर्लोपे करण इति भवति । घणा । धुणा::सि। १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे,१००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे,सेलपि पण या बाहुल्येन अकारस्य प्रकासे न विहितस्तत्र तु घृण इति भवति । रक्षत। रक्षवातुः रक्षणे । रक्ष+स। ९१० सू० धातोरन्तकाराम, २४. म श्वस्य लकाले ३६० मतकारस्य द्वित्वे,३११ सू० पूर्वखकारस्य ककारे,६४७ सू० भकारस्थ एकारे, 'बहुलाधिकाराद् ६६७ स० प्रकृति-प्रत्ययामध्ये 'जज' इत्यस्य प्रयोगे,१०५५ सू० 'त' इत्यस्य ह इत्यादेशे रबखेज इति भवति । अथवा-रक्षत खलु, इतिच्छायायां तु । रक्षत । रक्षतम् रक्खेत
इत्यत्र ६६६ स०'त' इत्यस्य स्थाने ज्ज'इस्यादेशे खेजन इति भवति । खलु । अध्ययपदमिदम् । ४६ सू० खल्वर्थ हु' इत्यस्य प्रयोगे 'हे' इति भवति । लोका: !! लोक जस् । १७७ सूजकारलोपे, १७१७ सू० जसः स्थाने हो इत्यादेशे लोअहो! इति भवति । प्रात्मानम् । प्रात्मन् + अम् । ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ३२२ सू० स्मस्य स्थाने पकारे, ३६० सू० पकारद्वित्वे, ५४५ सू० अन् इत्यस्य प्राण इत्यादेश, मज्झीने परेण संयोज्ये,१००१ सू आकारस्य प्रकारे, अन्त्याकारस्य च प्राकारे, १०१५ सू. प्रमो लोपे अप्परगा इति भवति । बालायाः । वाला+डसि। १००१ स. द्वितीयस्य प्राकारस्य प्रकारे, १०२१ सू० इ-सेः स्याने हे इत्यादेशे बालहे इति मर्याल । जातौ । जात-प्रो। १७७ सू० तकारस्य लोपे, १८० सू० यकारश्रुती, ६१९ सू० द्विवच नस्य बहुवचने, १००१ सू० अकारस्य प्राकारे, १०१५.सू.० जसो स्लोपे जाया इति भवति । विषमौ । विषम+ौ । २६० स०पकारस्य सकारे,६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१५ सू० जसो लोपे विसम इति भवति । सनौ । स्तन + प्रौ। ३१६ सू० स्तस्य थकारे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने,२२८ सू नकारस्य णकारे,१०१५ सू० जसो लोपे थरण इति भवति । बाला बालहे इत्यत्र प्रस्तुत-सूत्रेण वसि-प्रत्ययस्य स्थाने है इत्यावेशो जातः । ..... १०२२-- भव्यं भूतं यस्मारितः, भगिनि ! अस्मदीयः कान्तः।. .: :
अलखिये वयस्याभ्यः यदि भग्नः गृहमेष्यत ।।२। ... : भावार्थ:-हे भगिनि ! इदं भव्य-साधु भूतम् जातम्,यद् युद्धे अस्मदीयः कान्त:-प्रियः मारिताशत्रुणा हतः । मद्यसो भग्लः-शत्रुणा पराजितः, गृहमेष्यत गृहभागमिष्यत् तदाऽहं क्यस्याम्प:-सखीभ्यः, वयस्याना वा, सखीनां मध्ये इत्यर्थः। अलजिमण्ये-लज्जामप्राप्स्यम् । युद्धे भरणं श्रष्ठं न तु पश्चादावर्तमिति भावः।
___ भव्यम् । भब्ध+सि । अपभ्रंशे १०९३ स० भव्यार्थकः मल्ल शब्दः प्रयुज्यते, १००१ सू० प्रयाकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० सेोये भल्ला इति भवति । भूतम् । भू सत्तायाम् । भू+क्त-त । ७३२ सू० भू-धातोः स्थाने हु इत्यादेशे, १७७ सू० सकारस्य लोपे, १००१ सू०पकारस्य प्रकारे, सिप्रत्यये, सेलोपे हुआ इति भवति । यः । यद्+सिजु, प्रक्रिया १०१६ सूत्रे ज्ञेया । मारितः। मारित+सि । १७७ सूक तकारलोपे,१००१ सू० प्रकारस्य प्रकारे,सेलोपे मारिआ इलि भवति। भगिनि ! भगिनी+सि । ३९७ सू० भगिनी-शब्दस्य बहिणी इत्यादेशे,१००१ सू० ईकारस्य इकारे,सेलोपे बाहिणि ! इति भवति । अस्मबीयः अस्माकमयमिति अस्मदीयः। प्रस्मद+ ईथ-+ इस्। बाहुल्येन ६०२ सू० अस्मदः स्थाने मह इत्यावेसे, ११०५ सू० ईयप्रत्ययस्य डार(पार)इत्यादेयो,डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे,प्रज्मीने परेण संयोज्ये महार+सि इति जाते,१००१ सू० अकारस्य श्राकार,१०१५ सू० सेलोपे महारा इति भवति । कान्तः । कान्त+सि । ८४ स० सयोगे परे हस्ये, १००२ स० भकारस्य उकारे, सेलोप कम्त इति भवति। अलग्मिध्ये। लज्ज मनोग्लानौ । लज्ज्+स्ये। ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, ६४६ सू० प्रकारस्य एकारे, ६६८ सू० स्ये इत्पबहलाधिकाराद हलन्त-धातोरपि स्परासघातोरिव अ इत्यस्य बिकरण जायते।
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SEASESSISASEA
SESH
१८६ * प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः स्य ज्ज इत्यादेशे, २६ स "ववचिद् छन्दःपूरणेऽपि" इति वचनात् अनुस्वारागमे लज्म इति भवति । तु। अव्ययपदमिदं पाद-पूरणे प्रयुज्यते। लज्जेज+तु प्रत्यत्र ३० सू० अनुस्वारस्य वर्गान्त्ये लम्जेजन्तु इति भवति । वपस्याभ्यः । वयस्या+भ्यस् । इत्यत्र २६ सू० द्वितीयस्वरस्यान्तेऽनुस्वाराममे, ३४१ सू० यकारलोपे, १०७० सू० प्राकारस्य इकारे, ४३५ सू० स्वार्थ कप्रत्यये, ११०० स० स्वार्थे अप्रत्यये कप्र. त्ययस्य च लोपे,स्त्रीस्वाद प्राप्-(प्रा)-प्रत्यये,५ सू० दीधसन्धी वयंसिग्रा+भ्यस इति जाते,१००१ सूत्रेण प्राकारस्य प्रकारे,१०२२ सू० भ्यसः स्थाने हु इत्यादेशे वयंसिपल यत्र क्यस्यानाम इतिच्छाया तत्र वयस्पा+आम्व यंसिध+प्राम् इति स्थिते,१०२२ सू० प्रामः स्थाने हु इत्यादेशे क्यं सिाहु इति भवति । यदि । अथ्यय-पदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १७७ सू० दकारलोपे जा इति भवति । भन्मः । भान+सि । ३४९ सू० नवारलोपे, ३६० सू० गकारस्य द्विश्वे. १००१ सू० प्रकारस्य प्रकारे, १०१५ सु० सेलोपे भग्गा इति भवति । गृहम् । गृह +अम् = घरु प्रक्रिया १०१२ सूत्रस्थ प्रथमे श्लोके ज्ञेया । ए. व्यत् । इणधातु: गतौ ।+स्यत् । १००० सू० इकारस्य एकारे,६६९ सू० स्यत् इत्यस्य न्त इत्यादेशे, सिंप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्थ उकारे, १०१५ सू० सेलोप एम्तु इति भवति । एन्तु इत्यस्मिन् प्रयोगे स्थल क्रियातिपत्तेः-लङ्गः प्रथमपुरुषस्य एकवचनम् ] इत्यस्य स्थाने ६६९ सत्रण 'क्त' इत्यादेशो भवति, अनया रीत्येव एन्तु इति प्रयोगः सिध्यति । ६७० सूत्रेण शत, पानम् इत्येतयोः प्रत्यययोः स्थाने प्रत्येक मत. माण, इत्यादेशौ भवतः । शत, पानश् इत्येतो कृत्-प्रत्ययी स्तः । एतयोः स्थाने भवन्तो न्त, माम इत्येतो आदेशावपि स्थानिदत्त्वात् कृत्प्रत्ययौ एव भवतः । ६६९ सूत्र पथा 'न्त' इत्यस्य विधानं विद्यतेतथैव ६७० सत्रेऽपि स्त' इत्यस्य विधान विद्यते । इत्थं [न्त इत्यत्र] वर्णसाभ्यात,शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् कृदन्ताधिकारविहितवाद्वा ६६२ सूत्रेण विधीयमानस्य 'न्त' इत्येतस्य पादेशस्यापि कृत्त्वं. कुत-प्रत्यय त्वं भवति । एतत्कृतप्रत्ययान्तस्य कृदन्तत्वात् नामत्व-प्रातिपदिकत्वमस्ति । प्रातिपदिकल्बाच्च एन्त, इत्यस्मात् प्रातिपदिकात् सिप्रत्ययो जातः। नैतत्सन्देग्धव्यं यत्तिड्-मादेशान्तस्य | तिङः स्थाने य मादेन, तदन्तस्य] प्रातिपदिकत्वं न भवति । यतोहि व्याकरणे तिङ्-प्रादेशान्तस्यापि प्रातिपदिकत्वसाधक प्रमाणमुपलभ्यते । तथाहि ५-२-२ हैमशब्दानुशासनस्य २सूत्रेण परोक्षा-[लिट्-लकार -विषये धातोः परी बसुकानौ विधीयेते,एतत्-प्रत्ययान्ताः शुश्रुवान्,ऐदिवान् पेचिवान् इत्यादयः शब्दा: शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् कृदन्ताधिकार-विहितत्त्वाच्च प्रातिपदिकसंज्ञा लभन्ते । एवमेव एन्त इत्ययं तिह-प्रादेशान्त-शब्दोऽपि प्रातिपदिकसंज्ञाभाग भवतीति बोध्यम्। . . १०२३-- हिः । हि इति पाठान्तरपि समुपलभ्यते । प्रयोगानुसारं प्रतिबिधेया ।
बायसमुड्डापयन्त्या [नायिकया] प्रियो दृष्टः सहसेति ।
अर्षानि वलयानि महां गतानि, अर्षानि स्फुटितानि तजिदिति ॥१॥ ... भावार्थ:--वायसं-काफम उहापयन्त्याः प्रियविरह-जनित काश्यमनुभवन्त्याः नायिकाया दौर्बल्याधिक्येन अनि वलयानि ककणानि मह्या-प्रथिव्यां गतानि-पतितानि । तस्मिन्नेव प्रसंगे सहसा-प्रकस्मासयैव वायसमुडापयत्या नायिकया बहिरागतः लिजः प्रियः-पतिः, दृष्टः अवलोकितः, तदा तस्याः ... पाणिनीयमतानुसारेण कृतद्धित-समासाच ॥२४६ [कृतद्धितातो समासाश्व तथा (प्रातिपदिकानि) स्युः] इ.
स्पनेन सुषेण रुघन्ताः शम्दाः प्रातिपदिक-संजायताः भवति । २. न स्वसुक्कामो सवत् ।।२सरा परोक्षामात्रविषये पातो: परी वसुफानो स्पासाम्, तो न परोक्षेव । शुश्रवान् ।
लेविवान । अषिकान् । पेशिवान् । पेचानः । - हेमन्दानुशासने ।
Rane
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * प्रियदर्शन-जनित-हर्षातिरेका/नि-प्रवशिष्टानि बलयानि तडिट इति ध्वनि विधाय स्फुटितानि-त्रुटितानि । प्रियदर्शन-जनितहर्षबाहुल्येन बाह्वोः स्थौल्यं संजातमित्यभिव्यक्तं कविनेति ।
वायसम् । वायस-+अम् । इत्यत्र १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे पायसु इति भवति । उड्डापयत्या । उत्पूर्वक: डीइ(डी)धातुः विहायसा गती। इत्यत्र संस्कृतनियमेन उतडी-णिग+शत+टा इति जाते । ३४५ सूतकारस्य लोपे, ३६० सू० डकारस्य द्वित्त्वे, ६३८ सू० णिगः स्थाने प्राव इत्यादेशे, १० सु० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ६७० सूत्रेण शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे,स्त्रीत्वादा-प्रसङ्गे,५२१ सू० डी-(ई)-प्रत्यये कृते,१० सू० स्वरस्य लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये उचाबन्ती+टा इति जाते,१००० सू० ईकारस्य एकारे, ४३५ सू० स्वार्थ क-प्रत्यये, ११०० सू० स्वार्थ अप्रत्यये कप्रत्ययस्य च लोपे,२।४।१८। स ० *प्राप-(मा)-प्रत्यये कृते,५ सू. दीर्घ-सन्धौ, १००१ सू० मा कारस्य प्रकारे, १०२० सू दास्थाने एकारे उडायन्तिअए इति भवति । प्रियः । प्रिय+सि 1 ३५० सु० रेफस्य लोपे, १७७ सू० यकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे पिउ इति भवति । दृष्टः । दृष्ट+सि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, ३०५ सू० ष्टस्त्र ठकारे, ३६० सू० ठकार-द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे,११०० स० स्वार्थे अप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्थ उकारे, सेलोपे विठ्ठल इति भवति । सहसा । अव्ययपदमिदम् । १००० सू० प्राकारस्य प्रकारे सहस इति भवति । इति । अ. व्ययपदमिदम् । ४२ सूत्रेण प्रथमस्य इकारस्य लोपे,तकारस्य च द्वित्त्वे ति इति भवति । अर्थानि । अर्ध +जस्।
रेफलोपे, ३६. सधकारस्थ द्वित्त्वे, ३६१ सः पूर्वधकारस्य कारे, १००१ सू० सकारस्य प्रकारे,१०१५ सू० अस्-प्रत्ययस्य लोपे प्रया इति भवति । वलयानि । बलय+जस् । प्रद्धावदेव वलया इति भवति । मह्याम् । मही+डिः । इत्यत्र १००१ स० ईकारस्य इकारे,१०२३ सू० . स्थाने हि इत्यादेशे माहिहि इति भवति । गतानि । गत+जस् । १७७ सू० सकारलोपे, १५० सू० यकारश्रुती, १००१ सू० अकारस्य प्राकारे, १०१५ स० जसो लोपे गया इति भवति । स्फुटितानि । स्फुटित+जस् । अपभ्रंशे १०९३ सू० स्फुटितार्थकः पुट्ट-शब्द: प्रयुज्यते, १०१५ सू० जसो लोपे फट्ट इति भवति । तस्ति । ध्वन्यनुकरणकार्थकमव्यय-पदमिदम् । १००० स० इकारस्य प्रकारे, ११ सू० तकारस्य लोपे तक इति भवति । इति-त्ति इति पदं पूर्ववदेव साध्यम् । महिहि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता ।
* अथ स्त्री-लिङ्गीय म्यादि विधि * अपश-भाषा में स्त्रीलिङ्ग-सम्बन्धी सि आदि प्रत्ययों के स्थान में जो विधि-विधान पाया जाता है, अब सूत्रकार उसका निर्देश कर रहे हैं
१०१६----अपभ्रश भाषा में, स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान नाम (प्रातिपदिक) से परे जस् और शस् इन प्रत्ययों के स्थान में प्रत्येक को ज और ओ ये दो प्रादेश होते हैं । १०१५ वे सूत्र से जम और शस् का लोप होता है, किन्तु इस सूत्र ने इस लोप का निषेध कर दिया,प्रतः यह दोनों कार्य लोप के अपवादस्वरूप कार्य समझने चाहिए । अस् का उदाहरण-प्रहगुल्यः अर्जरिता नखेन- अंगुलिउ जरियाउ न. हेण (नाखून से अंगुलियां जर्जरित हो गई हैं, घिस गई हैं) यह श्लोक का एक अवयव है, सम्पूर्ण श्लोक १००४ वे सूत्र में दिया जा चुका है। यहां पर प्रगुल्या अंगुलिउ.तथा मर्जरिता-जमरियाउ, इन शब्दों में अस्-प्रत्यय के स्थान में उ'यह आदेश किया गया है। शस्-प्रत्यय का बवाहर-सुन्दर सर्वाङ्गाः विलासिनीः प्रेक्षमाणानाम् सुन्दर-सवङ्गाजविलासिणीयो पेच्छन्ताण [सभी अङ्गों से सुन्दर स्त्रियों *बात् ।२६४०१८कारातात स्त्रियाम् माप् स्यात् । खट्वा । या । सा। --हैमशम्दानुसासने ।
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रासाय
ANMAMAVPNP.INNINN....PRAM.dhn.sal.mne..
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१८६ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः को देखते हुओं का] यहां पर सुन्दर-सर्वाङ्गाः=सुन्दर-सुबङ्गाउ,तथा बिलासिनी-बिलासिणीग्रो के शस् प्रत्यय के स्थान पर क्रमशः ३ और ओ ये मादेन किए गएँ हैं । यहाँ पर एक पाशंका उत्पन्न होती है कि 'जस्-शसोः यह स्यानिरूप पद द्वि-वचनान्स है और उदोत्' यह पादेश रूप पद एक-वचनान्त है,यह बंचन-भेध क्यों है ? उत्तर में निवेदन है कि यह वचन-भेद यहां व्यर्थ नहीं है, क्योंकि इस वचनभेद के कारण यहां पर 'यथासंख्यमनुदेशः समानाम',यह परिभाषा प्रवृत्त नहीं होती। इस परिभाषा का अर्थ है-समसम्बन्धी विधि यथासंख्य होती है, जहां पर स्थानी और प्रादेश की संख्या समान हो
को प्रथम मौर द्वितीय को बिलीय. इस तरह यथासंख्य होते हैं। इस परिभाषा के प्रवत्त न होने से यहां परमादेश यथासंख्य नहीं हो पाते। ....१०२०-सपभ्रंश-भाषा में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान नाम-प्रातिपदिक से परे पाए टा-प्रत्यय के स्थान में यह प्रादेश होता है। जैसे
निज-मख-करः अपि मुग्धा करमन्धकारे प्रतिप्रेक्षते ।
शशिमाल-चीन्द्रकया पुनः किन दूरे पश्यति ।।१।। अर्थातअपने मुख की किरणों से जब कि वह मुग्धा-सुन्दरी अन्धकार में भी अपने हाथ को बेख सकती है तो फिर चन्द्र-मण्डल की चन्द्रिका (रोशनी) के द्वारा दूर-स्थ वस्तु को क्यों नहीं देख सकती। उत्तर स्पष्ट है कि अवश्य देख सकती है।
यहाँ पर--शशिमण्डलचन्द्रिकयास सिमण्डल-चन्दिमए इस शब्द में टा-प्रत्यय के स्थान में 'ए' यह मादेश किया गया है । दूसरा उदाहरण.. यस्मिन मरकत-कान्त्या संवलितम् = अहि मरगय-कन्तिए सलिों जिस में मरकत-मणि की कान्ति (प्राभा) से मिला हुा] यहां पर कान्ल्या कन्तिए, इस शब्द में टा-प्रत्यय के स्थान में 'ए' यह प्रादेश किया गया है।
१०२१-अपन'श-भाषा में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान माम-प्रातिपदिक से परे माए ङस् और ङसि इन प्रत्ययों के स्थान है। यह प्रादेश होता है । उस-प्रत्यय का उदाहरण
तुच्छमध्यायाः तुच्छ-अल्पित्र्याः (तुच्छजल्पन-शीलायाः), तुच्छाच्छरीमावल्याः तुच्छराग ! : तृच्छसर-हासायाः। प्रिय-वचनमलभमानायाः तुमछकाय-मन्मथ-निवासायाः, अन्य पत्तच्छक तस्याः धन्यायाः तदात्यात न याति ।
आश्चर्य स्तनान्तरं मुग्धाया येन मनो बम॑नि म माति || अर्थात-हे तुच्छराग [अन्यासक्त होने से जिस में अनुराग की स्वल्पता हो] नायक ! नायिका का मध्यभाग तुच्छ सूक्ष्म] है. यह बहुत कम बोलने के स्वभाव वाली है, उसके शरीर की रोमावली [रोम-पक्ति स्वल्प है, उसका हास्य-विनोद-प्रत्यन्त कम हो चुका है, उसको अपने प्रीतम का वाणीविलास भी अप्राप्त है, तथापि उस के दुबले पतले शरीर में मन्मथ [कामदेव ] का निवास है,उस नापिका के जीवन में जो कुछ और तुच्छता स्वल्पता] है,उस का वर्णन नहीं किया जा सकता! यह सब कुल होने पर भी एक बात का महान प्राश्चर्य है कि उस मुन्दरी के स्तनान्तर [स्तनों का मध्यभाग] की तुच्छता इतनी अधिक है कि उस के मध्य में मन जैसा अति सूक्ष्म पदार्थ भी नहीं समा सकता।
यहाँ पर-१-तुम्छमध्यायाः, २ -- तुन्छजस्पिध्या, ३-तुमछाछरोमावस्याः, ४ - तुमचतरहाताया-अलभमानायाः, ६ . तुच्छकाय-मन्मथ-निवासायाः, ७- अम्यायाः,-तस्या,E- मुग्धायाः ये ९ पद षष्ठ्यन्त हैं । प्रस्तुत सूत्र से इन के डस्-प्रत्यय के स्थान में है यह प्रादेश करके १-तुम्छ-म
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चतुर्थपाद:
संस्कृत-हिन्दी- टीका-इयोपेतम★
१८९
२-अम्बिर ३ तुच्छच्छ्र- रोमावलिहे, ४ सुच्छर हासहे. ५ अलहल्लि अहे, ६- तुच्छकायमहनिवास, ७ तहे, पण हे मुहे ये ९ रूप बनाए गए हैं । ङसि प्रत्यय का उदाहरणEnter at garerत्नीयं तयोः परकीया का घृणा ।
5
रक्षत लोकाः । श्रात्मानं बालायाः, जाती विषम स्तनौ ॥२॥
-
पर्यात - जो स्तन अपने हृदय को फोड़ डालते हैं, वे दूसरों पर कैसे अनुकम्पा कर सकते हैं ? अतः हे लोगो ! अपनी रक्षा करो, क्योंकि इस बाला के स्तन विषम [ भीषण ] हो चुके हैं।
यहां पर बालाया:बालहे (लड़की से), इस पद में इस प्रत्यय के स्थान में प्रस्तुत [ २०२१] सूत्र से 'हे' यह प्रादेश किया गया है।
१०२२ - अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान विद्यमान नाम प्रातिपदिक से परे थाए यस् और माम् इन प्रत्ययों के स्थान में 'हु' यह प्रादेश होता है । जैसे—
rai मृतं यन्मारितः, भगिनि ! अस्मदीयः कान्तः । असज्जिन्ये वयस्याम्यः यदि भग्नः गृहमेष्यत् ॥ १ ॥
अर्थात्-हे बहिन ! अच्छा हुआ, जो मेरा कान्त ( प्रीतम ) युद्ध मारा गया, श्रन्यथा यदि हो [riter aन] कर घर में आता तो मुझे सखियों के मध्य में लज्जित होना पड़ता ।
:
वृत्तिकार फरमाते हैं कि 'वयंसि' इस पद के वयस्याभ्यः [ सहेलियों से ] अथवा वयस्यानाम् [ सहेलियों के मध्य में ] ये दो संस्कृत रूप होते हैं। यहां पर एक स्थान पर स्वस् के स्थान में तथा एक स्थान पर आम के स्थान में 'ह' यह प्रादेश किया गया है ।
१०२३- अपभ्रंशभाषा में स्त्रीलिङ्ग में [वर्तमान ] नाम प्रातिपदिक से परे आए सप्तमी के एक वचन sea के स्थान में 'हि' [हि] यह आदेश होता है । हि के स्थान पर हि ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है | अतः श्रादेश के दोनों प्रकार यथास्थान ग्रहण किए जा सकते हैं जैसेarrerrarrar [[नायिकया ] प्रियो दृष्टः सहसेति ।
aft वलय
ह्यां गतानि, अर्थानि स्फुटितानि तदिति ॥१॥
अर्थात् काग उड़ाती हुई नायिका के पतिविरहजन्य दुर्बलता के कारण आधे वलय-कंगन पृथ्वी पर गिर पडे और जब उसने अकस्मात् अपने प्रीतम को देखा तो हर्षातिरेक के कारण भुजान के स्थूल होने से उस के आधे कंगन तड़ाक से टूट गए।
यहां पर मह्याममहिहि (भूमि पर ) इस शब्द में सप्तमी विभक्ति के एक वचन हि-प्रत्यय के स्थान में 'ह' यह आदेश किया गया है।
★ अथ मनु सक-1 -लिङ्गीय स्यादिविधिः ★ १०२४- क्लीने जस्-शोरि ।
रयोस् शसो: * ई [३] इत्यादेशो भवति ।
४ । ३५३ | अपभ्रंशे क्लोवे वर्तमानान्नाम्नः प
see Heefe afल उलई करि गण्डाई महन्ति । प्रसुलहमेच्छण जाहँ भलि ते ण वि दूर गणन्ति ॥१॥
१०२५ - कान्तस्यात उं यमः ४३५४८ अपभ्रंशे बलीबे वर्तमानस्य ककारान्तस्य
" इत्यपि पाठान्तरमुपलभ्यते ।
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* शकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः नाम्नो योऽकारस्तस्य स्थमोः परयोः उ इत्यादेशो भवति । अन्नु जु तुच्छउँ तहे धरणहे [३५०.४]
मग्गउँ देक्खिधि निप्रय-बलु बलु पसरिअउँ परस्सु । उम्मिल्लइ ससिरेह जियें करि फरवालु पियस्सु ॥१॥
* अथ नसक्र-लिङ्गीय-स्यादिविधिः * अपभ्रंश-भाषायां नपुसक-लिङ्ग-प्रकरणे गरादि-प्रमाला दान गम् विनिविजान समीहितं वर्तते, तत्प्रतिपादयत्याचार्यः । यथा
१०२४----इं इत्यादेशः । प्रस्तुतसूत्रेण जस्-शमोः स्थाने इं इत्यादेशो भवति । ई इत्यस्य स्थाने ई इति पाठान्तरमपि दृश्यते । अतः प्रस्तुतसूत्रेण जस-शसोः स्थाने कुचिद् ई इत्यादेशः, कुनिचिद् ई इत्यादेशश्चाऽपि भवतीति ज्ञातव्यम् ।।
कमलानि मुक्त्वाऽलिकुलानि करिगण्डान कशिन्ति ।
असुलभमेष्टु' येषां निर्जन्यः तेनापि घरं गणयन्ति ॥१॥ भावार्थ:-अलिकुलानि-प्रलीना भ्रमराणां कुलानि-समूहाः, कमलानि-पभानि मुक्त्या-त्यक्त्वा करिगवान-करिणी हस्तिनां गण्डा-कपोलाः तान् कांक्षन्ति-प्रभिलषन्ति, यतोहि येषामसुलभ-दुष्प्रापं पवार्थमेष्टु-प्राप्त निबन्ध-उत्साहः समस्ति, ते भ्रमराः नाऽपि-नेव, दूर-विप्रकृष्टं गणयन्ति। दृढनिश्चयाना व्यक्तीनां कृते न किमपि दूरम-न किमपि अलभ्यं भवतीति भावः।
कमलामि । कमल+शस् । १०२४ सू० शसः स्थाने हैं इत्यादेशे कमलाई इति भवति । मुक्त्वा । मुला-मुच मोचने। मुच्+क्त्वा । ७६२ सू० मुचः स्थाने मेल्ल इत्यादेशे, १११० सू० क्वः स्थाने प्रवि इत्यादेशे,१० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये मेल्लषि इति भवति । अलि-कुलानि । अलिकुल +जस् । १७७ सू० ककारलोपे,प्रस्तुतसूत्रेण जसः स्थाने ई इत्यादेशे अलि-उलाई इति भवति । करिगहाम् । करिगण्ड+वास् । १००१ सू० अन्त्याकारस्य प्राकारे,३४ सूत्रेण गण्डशब्दस्य क्लीवत्वे,प्रस्तुत. सूत्रेण शसस्थाने इत्यादेशे करिमण्डाई इति भवति । कामन्ति । काक्षि आकांक्षायाम्। संस्कृतनियमेन कांक्ष+प्रन्ति इति जाते,८६३ सू० कांक्षधातोः स्थाने मह इत्यादेशे,६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे महन्ति इति भवति । प्रसुलभम् । असुलभ-अम् । इत्यत्र १०७ सू० भकारस्य हकारे, ४९४ सू० अमोऽकारस्य लोपे, २३ सू० मकारस्यानुस्वारे असुलह इति भवति । एष्टुम् । इष् इच्छायाम् । इ + तुम् । १००० सू० इकारस्य एकारे, ८८६ सू० षकारस्य छकारे, ३६० सू० छकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्व-छकारस्य चकारे, १११२ सू० तुम: स्थाने प्रण इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये एकूण इति भवति । असुलहम् + एच्छण इत्यत्र अज्झीने परेण संयोज्ये असुलहमेच्छण इति भवति । येषाम् । यद्याम् । इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य स्थाने जकारे, ११ सू० दकारलो, १००१ सू० प्रकारस्य प्राकारे, १०१० सू० प्राम: स्थाने हैं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे आहे इति भवति । निर्बन्धः । निबन्ध+सि । अपभ्रंशे १०९३ सू० निबंन्धार्थे भलि-शब्दः प्रयुज्यते, १०१५ सू० सेलोपे भलि इति भवति । ते ! तद्+जस् । इत्यत्र ११ सू० दकारलोपे, ५४७ सू० जसः स्थाने हे (ए) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे,प्रज्मीने परेण संयोज्ये क्षे इति भवति । न । अव्ययपदमिदम् । २२९ सू० नकारस्य वैकल्पिके णकारेण इति भवति । अपि । अध्ययपदमिदम् । ४१ सू० प्रकारस्य लोपे,२३१ सू० पकारस्य वकारे वि इति भवति । चूरम् । दूर+प्रम् । १०१५ सू० प्रमो लोपे तूर इति
. .
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चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
१९१ भवति । गरगयन्ति । गण-(गण)-धातु: संख्याने गणनायाम् । गण+णिग+ अन्ति। ६३५ सू० गिः स्थाने प्रकारे, बाहुल्यन ६४२ सू० प्रादेरकारस्य दीर्घाभावे, ६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे गणमित इति भवति । कमलई, अलिउलाई, करिगडाई इत्येषु शब्देषु प्रस्तुत-सूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१०२५---अन्य यव सुन्छक तस्याः धन्यायाः अन्नु जु तुच्छउँ तहे धणहे, प्रक्रिया १०२१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। सुपछउँ इत्यत्र प्रस्तुतेन [१०२५] सूत्रेण सि-प्रत्यये परे सति अकारस्य स्थाने देखो ना . पियस्योदाहरण प्रदर्यते । यथा......
भग्नक इश निजक-बलं बलं प्रसृतकं परस्य ।
उन्मीसति शशि-रेखा गया करे करबालः प्रियस्थ ॥१॥ भावार्थ:-काविनायिका निज सहचरी प्रति निजपलेः वीरत्वमुपदर्शयति । हे सखि ! निजकअल-निजमेन निजकम, तस्य बलं-सभ्यम्, स्वकीयसन्यमित्यर्थः । भग्नक-नष्ट पृष्टा-समीक्ष्य तथा परस्यरिपोः, शत्रोः बलं प्रसृतकम्-प्रत्युदितं दृष्ट्वा स्वापकर्ष शत्रोरुत्कर्षमवलोक्येयः,प्रियस्य-मम पत्युः करे-हस्ते करवाल: कपाण: एवमुन्नीलति-शोभते यथा शशिरेखा चन्द्र रेखा दीप्यते । पराहतः कन्दुकः यथा पूर्वस्माद् द्विगुणमुत्प्लवते तथैव युद्धे शत्रुभिराहतोऽपि मे पतिः पूर्वापेक्षया द्विगुणोत्साहन युध्यते इति भावः ।
भग्नकम् । भग्नक+अम् । ३४९ सू० नकारस्थ लोपे, ३६० सू० गकारद्वित्त्वे,१७७ सू० ककारलोपे,१०२५ सू० अकारस्य सानुस्वारे उकारे, १०८२ सु० उच्चारणस्य लाधव,१०१५ सू० अमो लोपे, भग्ग" इति भवति । दृष्टा । दृशिर (दृश्) दर्शने । दृश् + क्त्वा । ८५२ सू० दृशः स्थाने देवख इत्यादेशे, १११० सू० क्त्वाप्रत्ययस्य स्थाने इवि इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये वेषिक्षति
। निजक-बलम् । निजक-बल+पम् । १७७ सु० जकारस्य ककारस्य च लोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ,१००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे निमय-बलु इति भवति । बलम् । बल +अम् । पूर्व वदेव बलु इति साध्यम् । प्रसृतकम् । प्रपूर्वकः सृधातुः प्रसारे-विस्तारे । प्रस+क्त-त । इत्यत्र ३५० सू० रेफस्य लोपे, ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, अम्-प्रत्यये कृते, ४३५ सू० स्वार्थे क-प्रत्यये, १७७ सू० ककारलोपे, प्रस्तुतसूत्रेण अकारस्य उं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाधये जाते, १०१५ सू० अमो लोपे पसरिप इति भवति । परस्य । पर+इस् । १००९ सू० इसः स्थाने स्सु इत्यादेशे परस्सु इति भवति । जन्मोलति । उत्पूर्वक: मीलधातुः उन्मीलने शोभायाम् । उन्मील् + तिव् । ३३२ सू० मस्य मकारे, ३६० सू० मकारस्य द्वित्त्वे, ९०३ सू० लकारद्वित्त्वे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ९१० सू० प्रकारस्थागमे, ६२८ सू० तिव-प्रत्ययस्थ स्थाने इच्- इत्यादेशे उम्मिल्लइ इति भवति । शशिरेखा । शशिरेखा+सि 1 २६० सू० उभयत्रापि शकारस्य सकारे, १८७ सु० खकारस्य हकारे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोपे ससिरह इति भवति । यथा--जिवं,प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य ततीयश्लोके शेया। करे। कर+ङि । १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे करि इति भवति । करवालः। करवाल+सि। १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे करवालु इति भवति । प्रियस्य । प्रिय +डस् । ३५० सू० रेफलोपे, १००९ स० डसः स्थाने स्सु इत्यादेशे पियस्सु इति भवति । भग्ग, पसरिअ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिांता ।
★ अथ ननु सक्कलिनीय स्थाविविधि * अपभ्रंश-भाषा में नपुंसक-लिङ्ग-सम्बन्धी सि प्रादि प्रत्ययों के स्थान में जो मादेशादि कार्य होते हैं, अब सूत्रकार उनका निर्देश कर रहे हैं
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ESIRLS
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గా తనను తాను ముం
१९२ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थंपादः १०२४-अपभ्रंशभाषा में, नपुंसकलिङ्ग में विद्यमान नाम-प्रातिपदिक से परे पाए जस और शाम इन प्रत्ययों के स्थान में हाई] यह आदेश होता है । ई के स्थान पर ऐसा पाठान्तर भी मिलता है । अतः आदेश के दोनों प्रकार यथास्थान ग्रहण किये जा सकते हैं। जैसे
..: ... : कमलानि मुक्त्वा अलिकुलानि करिगण्डान कक्षन्ते ।। ... सुलभमेष्टु येषां निबंध से नाऽपि दूरं गायन्ति ।।१।।
अर्थात--अलिकुल (भ्रमर-समूह) कमलों को छोड़कर सुगन्धि के लिए हाथियों के गण्डस्थलों को चाहते हैं । वास्तव में जिनका प्राग्रह असुलभ-दुर्लभ पदार्थों को प्राप्त करने का होता है, वे दूरी की परवाह नहीं किया करते, किसी पदार्थ को अलभ्य नहीं मानते । ..::: यहां पर १-कमलामि कमलइ (कमलों को),२-अलिकुलाहि अलि-उलई (भ्रमर-समूह), ३-करिगपडान करिमण्डाई (हाथियों के गण्डस्थलों को इन शब्दों में शस् और अस के स्थान में लथा। यह प्रादेश किया गया है। .......१०२५-- अपनंशभाषा में नपुसकलिङ्ग में विश्वमान ककारान्त (जिस के अन्त में ककार हो) नाम-प्रसिपमा कारगार है वो सिौरान इस प्रत्ययों के परे रहते 'उ' यह आदेश होता है। सि-प्रत्यय का उदाहरण, जैसे-प्रन्यद् यद् तुच्छकं तत्त्याः धन्यस्याः =अन्नु जु तुच्छउँ तहे धणहे (उस नायिका का जो और तुच्छ है) यहां पर ...तुच्छत', इस पद में सिप्रत्यय परे होने पर प्रस्तुत सूत्र से प्रकार को यह आदेश किया गया है । अम्-प्रत्यय का बाहरण---
भग्नकं दृष्टा निजक-बलं बलं प्रसृतकं परस्य ।
उन्मीलति शशि-रेखा यया करे करालः प्रियस्थ ।।१।। ... अर्थात- अपनी सेना को भान हतोत्साह) हुई देखकर तथा शत्रु की सेना को बढ़ी हुई निहार कर मेरे प्रीतम के हाथ में सलवार शशि-रेखा (चन्द्र की किरण) के समान चमक रही है। .: यहां पर भग्नकम भगउँ (नष्ट हुई को), २-प्रसतकमा पसरिनउँ (बढी हुई को इन शब्दों में अम्-प्रत्यय परे रहने पर प्रकार को 'ई' यह आदेश किया गया है। .: : . . . * अथ सर्वादिशब्दाना विधिः *
१०२६-सर्वावेसेहाँ । ८ । ४ । ३५५ । अपभ्रशे सर्वादेरकारान्तात् परस्य असेहीं इत्यादेशों भवति । जहां होन्तउ पागदो। तहाँ होन्तउ प्रागदो। कहां होन्त उ प्रागदो। .......१०२७-किमो डिहे या ।। ४ । ३५६ । अपम्रशे किमोऽकारान्तात्परस्य डसेडिहे इत्यादेशो वा भवति। ....... :: .. जा तहे तुट्टउ नेहडा मइँ सहुँ न वि तिल-तार!।
तं कि बके हि लोनणेंहिँ जोइज्जउँ सय-बार ॥१॥ ...१०२८-देहि ।।४१३५७१. अपभ्रशे सर्वादरकारान्तात्परस्य : सप्तम्येकवचनस्य हिं इत्यादेशो भवति । .. . जहि कपिज्जइ सरिण सरु छिज्जा खम्गिण खग्गु ।
तर्हि तेहइ मह-घड-निवहि कन्तु पयासइ मग्गु ।।१।।
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★ संस्कृत-हिन्दी- टीका-र्योपेतम् ★
सरख ।
एक्aहि प्रक्खिहि सावण सन्नहि भद्दवड, माह महिश्रल-सत्थरि गण्डस्यले अङ्गिहि गिम्ह सुहच्छी-तिल-वणि भग्गसिरु, तहे मुहे मुह-पss श्रावासिउ सिसर ||२|| हिडा ! फुट्टि तड त्ति कर काल-यवेदें काई ? |
देraj हम विहिं कहिँ ठबs पहुँ विणु दुक्ख-सयाई ॥ ३॥ १०२६ - यत्तत्कभ्यो ङसो डासुन वा । ८ । ४ । ३५८ | अपभ्रंशे यत्तत्किम् इत्येतेम्योऽकारान्तेभ्यः परस्य ङसो डासु इत्यादेशो वा भवति ।
aurat
कन्तु महारउ हलि सहिए ! निच्छई रूस जासु । थिहि सथिह हरिथहिँ वि ठाउ वि फेडइ सासु ॥ १॥ जीवज कासु न वल्लहउँ धणु पुणु कासु न इछु । दोfor a अवसर - निवडचई तिणसम गण विसि ॥२॥
१०३० – स्त्रियां उहे १८१४ । ३५६| अपन में स्त्रीलिङ्गे वर्तमानेभ्यो यत्तत्किम्य परयसो उहें इत्यादेशो वा भवति । जहें केरउ । तहें केरउ | कहें केरउ ।
१९३
१०३१ - यत्तवः स्यमो नं ८४३६०/ प्रपत्र शे यत्तदो: स्थाने स्यमोः परयोर्यथासंख्यं भ्रू, श्रं इत्यादेशो वा भवतः । प्राण चिह्नदि नाहु धरणि करदि न भ्रन्ति । पक्षे । तं बोल्लिइ जु निव्वह ।
१०३२ - इवम इमुः क्लीबे १८ । ४ । ३६१ | अपभ्रं से नपुंसकलिङ्गे वर्तमानस्येदमः स्यमोः परयोः इमु इत्यादेशो भवति । इमु कुलु तुह तरहउं । इमु कुलु देक्छु ।
१०३३ - एषः स्त्री-पुनीने एह एहो एह । ४४३६२॥ श्रपभ्रंशे स्त्रियां, पुंसि, नपुंसके वर्तमानस्यैतद: स्थाने स्यमोः परयोर्यथासंख्यम् एह, एहो, एहू इत्यादेशा भवन्ति । एह कुमारी, एहो नये एह मणोरह-ठाण
एहजे व चिन्तन्ताहं पच्छ हो विहाणु ॥१॥
१०३४ - एइर्जस् - शसोः । ८१४१ ३६३ । प्रपभ्रंशे एतदो जस्-शसोः परयोः एव इत्यादेशो भवति । एइ ति घोडा एह पति [ ३३०.४] एइ
छ
३६४ प्रपत्र में मंदसः स्वाने जस्-शसोः परयोः भो इ
१०३५ – प्रवसो त्यादेशो भवति |
जह पुछह घर बड्डाई तो बड़ा घर मोड । विलिय-जण- प्रभुद्धरण कन्तु कुंडीर
जोह ॥ शा
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*.प्राइंस याकरणम् ..
चतुर्थपादा प्रमूनि वर्तन्ते पृच्छ वा ।
१०३६-इदम प्रायः । ८.१४ । ३६५ । अपभ्रंशे. इदम्शब्दस्य स्यादौ प्राय इत्यादेशो भवति ।
प्रायई लोग्रहों लोअणई जाई सरई न मन्ति । अप्पिए विट्ठा मालिअहि. पिए दिइ विहसन्ति ॥१॥ सोसउ म सोसल मित्र उनही बडवानलस्स कि तेण?। जं जलइ जले जलणो आएण वि किन पज्जत्तं ॥२॥ प्रायहाँ बट्ट-कलेवरहो जं वाहिउ तं सारु ।
जइ उभइ तो कुहाइ मह. डभइ तो छार ॥३॥ १०३७---सर्वस्य साहो वा । ८।४।३६६। अपभ्रशे सर्वशब्दस्य साह इत्यादेशो वा भवति ।
...... ..... :
साह वि लोउ तडफड बड्डत्तणहों तणेण ।
• बड्डप्पणु परिपावित्रइ हस्थि मोक्कलडेण ॥१॥ पक्षे । सव्वु वि। १०३८ किमः काई-कवणौ वा ।८।४।३६७। अपभ्रशे किम: स्थाने *काई [काई], कवरण इत्यादेशो वा भवतः।
जइन सुभावह दूई! घर काई अहो-मुह तुज्झु ।
बयणु जु खण्डइ त सहिए !, सो पिउ होइ न मझु ॥१॥ काईन दूरे देवखा [३४६,४] ।.... .. . .. . .. ...
. फोडेन्ति जे हिमडउँ अप्पणउँ ताहें पराई कयण धृण। .......
रक्खेज्जह लोमहो! अप्पणाबालहें जायाविसमायण ॥ . सुपुरिस कङगुहे. अणुहरहिं मण कमें कवणेण।
जिव जिवें वडसणु लहहि लिव तिव नवहिँ सिरेण ॥३॥ पक्षे- जइससोही तो मुइन अह जीवइ निन्नेह । ..:.:. विहि वि. पयारेहि गइन धण कि गाजहि खल-मेह !॥४॥
१०३६-युष्मदः सौ तुहुं ।८।४१३६८। अपभ्रशे युष्मदः सौ परे तुई इत्यादेशो भवति।। .
भमर ! म रुणझुणि रण्ड इ सा विसि जोइ म रोइ। .....
सा मालइ देसन्तरिम जसु तुहुँ मरहि विश्नोई ॥१॥ १०४०-जस्-शसोस्तुम्हें तुम्हई। ८ । ४ । ३६६ । अपभ्रशे युष्मदो जसि शसि च । काई इत्यपि पाठान्तरमुपलभ्यते।
.:. :.....
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SASTEmainingitivulaniyamire
aprimarigomer
अतुपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * प्रत्येकं तुम्हे, तुम्हई. इत्यादेशौ भवतः। तुम्हे, तुम्हई जाणह । तुम्हे तुम्हई पेच्छद । वचन भेदो यथासंख्य-निवृत्यर्थः ।
१०४१--टा-ज्यमा पई तई । ८ । ४ । ३७० । अपभ्रंशे युष्मदः टा, डि, अम इत्येतैः सह पई [पई], तई [तई] इत्यादेशौ भवतः । टा-- :, ... :
पइँ मुक्का, वि वर सरु फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं । तुह पुणु छाया जद्द होज्ज कह वि.ता तेहिं पत्तेहि ॥१॥
महु हिउँ तई, ताए तुह, स वि अन्ने विनडिज्जइ। । : . . . पिन काई कर हउँ,काई तुह,मच्छे मच्छु गिलिज्ज ॥२॥ हिना- पई मई बेहि वि रण-गहि को जय-सिरि तबकेछ । .
: केसहि लेप्पिण जम-घरिणि मण सुहं को थक्के ॥३॥ एवं ताई। प्रमा- पई मेल्लन्तिहे महु मरण मा मेल्लन्तहो तुम। : :::: सारस ! असु जो वेग्गला सो वि कृदन्तहों सम्झु ॥४॥ एवं तई। + १०४२-मिसा तुम्हेहिं । । ४ । ३७१। अपभ्रशे युष्मदो भिसा सह तुम्हेहिं इत्यादेशो भवति ।
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... १०४३-इसि इस भयो तर तुम्झ तुध ।।४।३७२। अपभ्रशे युष्मदो सि-स्-भ्या सह तड,तुझ,तुध्र इत्येते त्रय प्रादेशा भवन्ति । तत्र होतउ पागदो। तुम होन्तउ पागदो। तुध्र होन्तज मागदो ! इसा
... तउ गुण-संपङ्ग तुझ मदि तुध्र अणुत्तर खन्ति । ... ... ... .. जइ उम्पति अन्न जण महि-मंडलि सिक्खन्ति ॥१॥... : :१०४४--भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं । ८।४ । ३.७३ । अपभ्रशे युष्मदो भ्यस्, पाम् इत्येताभ्याम् सह तुम्हहं इत्यादेशो भवति । तुम्हहं होन्त उ प्रागदो। तुम्हहं केरलं घणु ।
१०४५----तुम्हासु सुपा।८।४। ३७४ । अपभ्रशे युष्मदः सुपा सह तुम्हासु इत्यादेशो भवति । तुम्हासु ठियं । ।
११०४६–साबस्मदो हउं । ८ । ४ । ३७५ । अपभ्रशे अस्मदः सौ परे हउँ इत्यादेशो : भवति । तसुहाउँ कलि-जुगि दुल्लहहो [३३८.४] ।
१. पई इत्यपि पाठान्तरं समुपलभ्यते । २. उई इत्यपि पाठान्तरमुपलभ्यते । अतः यथास्थानं प्रयोगानुसारिणी प्रवृत्तिः विषया । . . . . .
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सामाकिर मार है
चतुर्वपाश १०४७–जस्-शसोरम्हे अम्हई।८।४।३७६ । अपभ्र' प्रस्मदो जसि, शसि च परे। प्रत्येकम् अम्हे, प्रम्ह इत्यादेशौ भवतः ।
अम्हे थोवा रिउ बहन कायर एम्ब मणन्ति । मुद्धि ! निहालहि गयण-पतु कइ जण जोह करन्ति ॥१॥ अम्बणु लाइवि जे गया पहिन पराया के वि।
प्रवसन सुमाहि सुहमिछयहि जियें अम्हई तिवं ते वि ॥२॥ अम्हे देक्खाइ, अम्हई देखाइ । ववनभेदी यथासंख्य-निवृत्यर्थः।
१०४-टा-यमा मई। ८ ॥ ४ ॥ ३७७1 प्रपन्न शे अस्मदः टा, डि, प्रम् इत्येतैः सह *मई [म.] इत्यादेशो भवति । टा।
माई जाणि पिन ! विरहिमहं कवि पर होइ विमालि ।
णवर मिश्रा वि तिह तवा मिह विणयह खय-गालि १ डिना । प भई बेहि वि रणगयहिं [३७०,४] प्रमा। मई मेल्लन्तहों तुझ [३७०,४] ।
१०४६-अम्हेहि भिसा।८।४। ३७८ अपभ्रशे अस्मदो भिसा सह अम्हेहि इत्यादेशो भवति । तुम्हें हि, मम्हे हि अंकिपउँ [३७१, ४] ।
१०५०-महु-मझ सिस् स्याम् १८४१३७६। अपभ्रशे प्रस्मदो सिना, जसा च सह प्रत्येक महु, मज् इत्यादेशी भवतः । मह होन्तउ गदी। मझु होन्तउ गदो । कसा ।
महु कन्तहों वे दोसडा हेल्लि ! म भारवाहि पालु। बेन्तहो हउँ पर उव्यरिश जुम्मन्तहों करवालु ॥१॥ जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि ! मज्झ पिएण।
मह भग्गा अम्हहं तणा तो से मारिप्रजेण ॥२॥ १०५१-प्रम्हहं म्यसाम्म्याम् ।।४।३८०॥ अपनशे अस्मदो भ्यसा, प्रामा च सह अम्हह इत्यादेशो भवति । प्रम्हहं होन्त पागदोपामा। अह भग्मा अम्हहं तरणा [३७६,४] ।
१०५२-सुपा अम्हासु।८।४ । ३८१ । अपभ्रशे अस्मदः सुपा सह भम्हासु इत्या. देशो भवति । प्रम्हासु ठि।
* अथ सर्वाविद्यब्दानां विधिः * सर्व, विश्व, उभ, उभय, तर, डतम, अन्य, अन्यतर, इयत्, त्वत्, त्व, नेम, सम, त्यद, तद्, यद्, एतद्, इदम,पदस्,एक, डि, युष्मद, अस्मद्, किम् इत्यादयः शब्दाः सदियो भवन्ति । अपभ्रश-भाषायां सर्वादिशब्दैः सम्बन्धितं यद्विधिविधानं भवति, तत्प्रदर्श्यते । यथा *मई इत्यपि पाठान्तरमस्ति, प्रमोमानुसारिणी प्रवृत्तिः विधया ।
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१९७
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चतुर्वपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★ १०२६-यस्माद् भवन पागतः। यस्माद् । यद्+सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ सू० दकारलोपे, १०२६ सू० डसेः स्थाने हां इत्यादेशे जहां इति भवति 1 भवन् । भू सत्तायाम् । भू+शत् । ७३१ सू० भूधातोः स्थाने हो इत्यादेशे,६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे,११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये, सिप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे होतउ इति भवति । पागतः । मागत+ सि । १०६७ सु० तकारस्य दकारे,३७ सू० विसर्गस्य डो (प्रो) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे आगयो इति भवति । तस्माद् भवन् आगतः । तस्माद । तद्+सि । ११ सू० दकारस्य लोपे,जहां-वदेव तहां इति साध्यम् । भवन् होन्तज, आगतः प्रागदो, इति पूर्ववदेव साध्यम् । कस्माद् भवन् आगतः । कस्माद् । किम् + डिसि । ५६० सू० किमः स्थाने क इत्यादेशे, वहाँलत कहाँ इति साम्यम् । भवन् प्रागत:होन्तउ प्रागदो, इत्यपि पूर्ववदेव साध्यम् । जहाँ, तहां, कहाँ इत्येषु पदेषु प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। १०२७- यदि तस्याः श्रुटितः स्नेहः मया सह नाऽपि लिलतार !।
तत् कस्मार बकाम्या लोणमाम्या दृश्ये शतवारम् ॥३॥ भावार्थ:-हे तिलतार !-तिलवत् स्निग्धा तारा-कनीनिका यस्य सः, तत्सम्बोधनम् । यदि तस्था:-कस्याचिन्नायिकायाः स्नेहः मया सह नापि-नैव श्रुटितः छिन्नः, तत्कस्मारहं तया पत्राम्यां रोषपूर्णाभ्यां, लोचमाभ्यां शतधारं शतानां वाराणा समाहारः शतवारम्, कथं दृश्य ? स्नेहाऽस्तित्वे दृष्टिः वका-रोषपूर्णा न भवितव्येति भावः।।
__ यदि जइ, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य द्वितीय-लोके शेया। तस्याः । तद्+ङस् । ११ सू० दकारसोपे, स्त्रीस्वादाप-(प्रा)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घसन्धी, १००१ सू० श्राकारस्य प्रकारे, १०२१ सः स्थाने हे इत्यादेशे, १०५१ सू० उच्चारणस्य लायचे सह इति भवति । अदितः । श्रुट टु बिच्छेदे-बिनाशे। अद्+क्त-त । ३५० सू० रेफस्य लोपे,९०१ सू० टकारद्वित्त्वे, ९१० सू० प्रकारागमे, १७७ सू० तकारलोपे, सिप्रत्यये, बाहुल्येन ६४५ सूत्रस्थाप्रवृत्ती, १००२ स० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे सट्टा इति भवति । स्नेहः । स्नेह+सि । इत्यत्र ३४८ सू० सकारलोपे, ११७० सू० स्वार्थे डर-(प्रड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, १००१ स० प्रकारस्य प्रकारे, सेलोपे नेहा इति भवति । मया । अस्मद्+ टा । १०४८ सु० टाप्रत्ययेन सह अस्मदः स्थाने मह इत्यादेशे मई इति भवति । सह । अव्ययपदमिदम् । १०९० सू० सह इत्यस्य स्थाने सहं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाधवे साई इति भवति ।न। अव्ययपदमिदं संस्कृतवदेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । अपि । अध्ययपदमिदम् । ४१ सू० प्रकारस्य लोपे, २३१ ।। सू० पकारस्य वकारे वि इति भवति । सिमसार ! 1 तिलतार+सि । २०१५ स० सेलोपे तिलतार ! इति भवति । सत् । तद् +-सि । ११ सू० कारलोपे, ५१४ सू० सेभकारे, २३ सू. भकारस्यानुस्वारे तं इति भवति । कस्मात् । किम् +सि । ५६० सू० किमः क इत्यादेशे,१०२७ सू० इसेः स्थाने डिहे [इहे] इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोष, १०५१ स. उच्चारणस्य लाधरे कि ति भवति ! बकाम्याम् । वक+भ्याम् । २६ सू० आदिस्वरस्य अनुस्वारागमे,३५० सू० रेफलोये, ३० सू० अनुस्वारस्य वर्गान्त्ये, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने,१०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, १००६ सू अकारस्य स्थाने एकारे, १०८१ सू० एकारस्य उच्चारणस्य लाघबे, १०८२ स० अनुस्वारस्य उच्चारणलाघवे बडके हि इति भवति । लोधनाभ्याम् । लोचन+भ्याम् । १७७ सू० चकारलोपे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, द्विवचनस्य बहुवचने, बकेहि-बदेव लोअखे हि इति भवति । हो । दृशिर-दृश् दर्शने । दृश्+वय+ए। अपभ्रंशे १०९३ सू० दशर्थे जो इति देश्यधातुः प्रयुज्यते, ६४९ सू० क्यस्य स्थाने इज्ज इत्यादेशे,बाहुल्येन
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. * प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादा १० सूत्रस्थाप्रवृत्ती, १०५६ सू० ए इत्यस्य स्थाने उं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे जोइज्ज इति भवति । शत्तयारम् । शत-वार+अम् । २६० स० शकारस्य सकारे,१७७ सू० तकारलोपे,१८० सू० यकारश्रुतो, १०१५ सू०प्रमो-लोपे सयवार १००२ सूत्रस्य प्रवृत्ती तु सयवार इति भवति । तहे, कि इत्य प्रस्तुतसुत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। १०.२८- यस्मिन् कल्प्यते शरेण शरः दिखते खड्गेन खगः ।
तस्मिन् तादृशे भट-घटा-निवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम् ॥१॥ . भावार्थ:-यस्मिन्-युद्धे, शरे बाणेन, शर: बाणः, कल्प्यते-कृत्यते, तथा खगेन-असिना, सअग: प्रसिः, छिचते-भिद्यते, तादृशे-सीषण-संग्नामे, भट-घटा-निवहे-भटाना-सुभटाना घटा-दलानि तास निवह: समुदायः यत्र तस्मिन् भट-घटा-निवहे भयंकरतमे युद्धे, कान्तः-प्राणेश्वरः, मार्ग प्रकाशयति-मेंतुत्वं करोति, कर्तव्यं बोधयतीत्यर्थः । मंत्र काचिनायिका निजकान्तस्य वीरत्वमुखेन श्लाघां करोति ।
यस्मिन् । यद+डि । इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ सू० दकारलोपे, १०२८ सू० के. स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ स उच्चारणस्य लादे निति भवति । कल्प्यते । कल्प-धातुः छेदने । कल्प+क्य+1 ३५० सू० लकारलोपे,३६० सूपकार द्वत्त्वे, ६४९ सू० क्यस्य स्थान इज इत्यादेशे,
जीने परेण संयोज्ये, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे कपि इंलि भवति । शरेण । शर+टा। २६० से शकारस्य सकार,१००० स० अस्यांकारस्य इकारे, १०९३ सु० टास्याने णकारे सरिश इति भवति । शरः । शर+सि । २६० सू० शकारस्य सकारे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि सह इति भवति। विद्यते । छिदिर-खिद वैधीकर। छिदक्य +ते। ११ सू० दकारलोपे, ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, १० स० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, कपिज्जइ-वदेव विमा इति संध्यम् । खड्गेन । खड्ग+टा ३४८ सू डकारलीपे, ३६. सू० गकारद्वित्त्वे, १००० सू० प्रकारस्य इकारे, १०१४ सू० टास्थाने णकारे समिम इति भवति । खमः । खड़ग सिखग्ग+सि । इत्यत्र १००२ सूत्रेण अन्त्याकारस्य स्थाने उकारे,१०१५ सू० सेलोप खग्गु इति भवति । तस्मिन् । तद् +छि। ११ सू० दकारलोपे, १०८ सुर में स्थाने हि इत्यादेश,१०८२ सूउच्चारणस्य लाघवे हि इति भवति । तादृशे । तादेश+हिं । १७७३ सू दश इस्थस्य स्थाने लेह (एह) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये,११४० सू० स्वार्थे प्र-प्रत्यये, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे सहा इति भवति । भट-घटा-निवहे । भट-घटा-निवह+डि । १९५ सू० उभयत्रापि टकारस्य डकारे,४ सू० प्राकारस्य प्रकारे,१००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे भर-घर-नियहि इति भवति । कासः । . कान्त सिकन्तु, इत्यस्य प्रक्रिया १०१६ सूत्रे ज्ञेया। प्रकाशयति । प्रपूर्वकः काश-काश्)-धातुः दोप्तिकरणे । प्रकाश+णि+लिः। ३५० सू० रेफस्य लोपे, १७७ सू० ककारलोपे, १८० सू० यकार. श्रुती,२६० सू शकारस्य सकारे, ६.३८ सू गिरा प्रकारे,बाहुल्येन ६४२ सूत्रस्याप्रवृत्तौ, ६२८ सू० तिवः : स्थाने इचादेशे पास इति भवति मार्गम् मार्ग+अम्। ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,३५० सू० रेफस्य
लोपे,३६० सू० गकारस्थ विश्वे,१७२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सुप्रमो लोपे मगु इति भवति । • जाहि सहि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाताहिं इत्यादेशस्यान्यान्युदाहरणान्यपि प्रदर्शयति वृत्तिकारः। ...यथा-
एकस्मिन् पविण पावणः, अभ्यस्मिन् भाद्रपदः । माधवः [वसन्तः] महीतल-सस्सरे गण्डस्थले शरत् ।। मङ्गेषु सीमः सुखासिका-तिसबने मार्गशिराः। तस्याः मुग्धाया मुखपजे आवासितः शिशिरा ॥२॥
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
१९९
भावार्थ:- प्रियविरह खिन्नायाः कस्याश्चिन्नायिकायाः ऋतूनां तुलनया तदङ्गानि वर्ण्यन्ते विगुणा कविना । श्याः सुग्याया मुदी, कोइलालाः मुम्बायाः? प्रोषितभर्तृकायाः विरहवेदनयानवरत रुद Por: एकस्मिन् अक्षि-नेत्रे भावरण, अन्यस्मिन्नेत्रे भाद्रपदः प्रतीयते । यथा श्रावण भाद्रपदमासी वर्षामासी · जलस्राविणी भवतस्तत्र तस्याः नैत्रेऽपि श्रश्रु- साविणी संजाते । जलस्रावित्वेन नेत्रयुगलं व नोमि तम् । विरहजन्य शोकातु महीतल खस्तरे मह्यास्तलं तत्र स्रस्तरः- संस्तारकः शय्येति यावत् तस्य नवीनपल्लवमयत्वाद् माघवः वसन्तः उपकल्पितः । गण्डस्थले कपोल प्रान्ते शरदतु नोपमिते शरवतु: काशकुसुमादिबाहुल्याद्यथा पाण्डुरूपा जायते तथैव प्रिय-वियोगाद् विरहात्याः कपोले कान्ति ही उत्वात् पाuged संजाते, प्रयमेव हेतुः यत्कपोली शरवृना उपमीयेते । अङ्गेषु शरीरावयवेषु कामजन्यताप Page वर्तते, अतएवाङ्गानि प्रीष्म ना तुल्यतामा बहन्ति, सुखा सिका- सिलवने, सुखस्य श्रासिका प्रवस्थान, 'तिerat at featम्, सुखासिका एवं तिलवनं सुखासिका- तिलवनम्, तस्मिन्, मार्गशिराः यथा मार्गशीर्ष तिलवानामुच्छेदो जायते तथैवास्याः अपि पति वियोगात् सुखावस्थानस्योच्छेदः संजातः इति हेतो: द्वयोः सुखावस्थान -- ग्रीष्मयोः सादृश्यमुक्तम् । मुखपङ्कजे मुखमेव पङ्कजं - कमल, तस्मिन शिशिरः श्रावासितः स्थितो वर्तते, माघफाल्गुणी किल शिशिरसंज्ञको, तस्मिन् शिशिरे यथा कमलानां शातनंलानत्वं भवति तथैवास्या अपि मुग्धासः मुखं म्लानं जातम् । म्लानत्वसाम्येन मुखं शिशिरतु नोपमितम् । कृत्स्नस्यापि श्लोकस्याज्यं भावो यन्नायिकायाः कृते प्रियवियोगोऽतो जायते !
1.
एक एक+ङि ॥ ३७० सू० ककारस्य द्विश्वे १०२८ सू० : स्थाने हि इत्यादेशे एक्काह इति भवति । अक्षिण । मक्षिन् + ङि । २७४ सु० क्षस्य खकारे, ३६० सु० खकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे, ११ सू० तकारलोपे, ,जल्यादि-गण-वतिस्त्रात् ३५ ० स्त्रीलिङ्गत्वे जाते. १०२३ ० को स्थाने हि इत्यादेशे अविवाह इति भवति । श्रावणः । श्रावण+सि। ३५० सू० रेफस्य लोपे, २६० सू०] [शकारस्य सकारे १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि सावसु इति भवति । अन्यपिन् । मन्यद+दि । ३४९ सू० यकारलोपे ३६० सू० नकार द्विवे, ११ सू० दकारलोपे प्रस्तुतसूत्रेण . स्थाने हि इत्यादेशे अन्तहि इति भवति । भानपदः । भाद्रपद + सि । ६४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० दकारद्विस्त्रे, २३१ सू० पकारस्य वकारे, १७७ सू० दकारलोपे, १००२ सू अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि भव इति भवति । माधवः । माघव+सि १८० सू० धकारस्य हकारे, १७७ सू० वकारलोपै १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि माह इति भवति । म होत तरे । महीतल- स्रस्तर+ङि । ४ सू० ईकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, ३५० सू० रेफ(लोपे, ३१६ सू० स्तस्य श्रकारे, ३६० सू० थका र द्विवे. ३६१ सू० पूर्वकारस्य तकारे, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे महिअल-सत्यरि इति भवति । गण्डस्थले । गण्डस्थल + हि । ३४० सू० सकारलोपे, ३६० सू० थकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वयकारस्य तकारे, १००५ सू० ङिमा सह प्रकारस्य एकारे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे गण्डस्थले इति भवति । शरत् । शरत्+सि । २६० सू० शकारस्य सकारे, १८ सू० तकारस्य प्रकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५. सू० सिप्रत्ययस्य लोपे सरज इति सिद्धम् । अङ्गेषु । अङ्ग + सुप् । १००० सू० अन्त्याकारस्य इकारे, १०१८ सु० सुपः स्थाने हि इत्यादेशे अहि इति भवति । ग्रीष्मः | ग्रीष्म +सि । ६४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ३५० सू० रेफलोपे, ३४५ सू० ष्मस्य स्थाने म्ह हत्यादेशे १०१५ सू० सेलोंपे गिम् इति भवति । सुखा शिका-तिल बने । सुखासिका -तिलवन + डि प्रपत्र . १०९३ स सुखासिकाऽर्थे सुहृदी इति-शब्दः प्रयुज्यते, २२८ ० नकारस्य नकारे, १००५ सू०
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२००
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Mamme
* प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्षपाया डिना सह अकारस्य इकारे सुहन्छी सिलवरिण इति भवति । मार्गशिराः । मार्गशिरस्+सि। ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,३५०० रेफलोपे,३६० स० गकारद्विस्वे,२६०सू शकारस्य सकारे.११ समकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे मग्ग-सिम इति भवति । लस्याः तद उस् । ११ सू०६कारलोपे,स्त्रोत्वाद् पाप-(मा)-प्रत्यये,१००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे,१०२१ सू० उसः स्थाने हे इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे तहे इति भवति । मुषायाः । मुग्धा+इस् । ३४८ सू० गकारलोपे, ३६० सू० धकारद्विस्वे,३६१ सू० पूर्वधकारस्य दकारे,१००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०२१ सू० इसेः स्थाने हे इत्यादेशे,१०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे मुबह इति भवति । मुखपडूछे । मुखपङ्कज+कि। १५७ सू० खकारस्य हकारे,१७७ सू० जकारलोपे,१००५ सू० डिना सह अकारस्थ इकारे मुहपद इति भवति । आवासितः । पावासित+सि । १७७ सू० तकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे प्रावासिद्ध इति भवति । शिशिरः। शिशिर+सि । २६० सू० उभयत्राऽपि शकारस्य सकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे सिसिरु इति भवति । एक्काह, अन्नहिं इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
हस्य ! स्फुट तडिविसि शब्दम] कृत्वा कालक्षेपेण किम् ? ।
पश्यामि हतविधिः कस्मिन् स्थापयति स्वया विना बुरखातानि ॥३॥ भावार्थ:-कल्यानिचट दाखाकलाया नायिकायाः सक्तिरियम् । हे हक्य! सहिद इति शब्द कृस्वा कोन स्फुट-भिद्यताम्, कालक्षेपेण-कालस्य क्षेपः-विलम्बः,तेन किम । त्वया किमर्थ विलम्बो विधीयते? पश्यामि हतविधिः-हतश्चासो विधिः-भाग्यम् दीर्भाग्यमित्यर्थः । स्वया हृदयेन विना-दुःखशक्षानि-दुःखानां शतानि,कस्मिन् प्रदेशे स्थापयति । "वर्तमानसामीप्ये समाना" ति सिद्धान्तेन स्थापयिष्यतीति भावः । प्रयमभिप्राय:-दुःखाना स्थान हृदयम् । हृदयनाशे तदाश्रितानां दुःखानामपि नाशोऽवश्यंभावी ।
हवय ! । हृदय+सि। १२८ सू० कारस्य इकारे, १७७ सू० दकारलोपे, २६९ सू० सस्वरयकारलोपे, ११०० सु० स्वार्थे डड-(प्रड)-प्रत्यये,डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, १००१ स० अकारस्प प्राकारे, १०१५ सू० सेलोपे हिमडा! इति भवति । स्फुट । स्फुट-स्फुद भेदने । स्फुद+हि । ३४८ सू० सकारलोपे, ९०१ सू० टकारद्विस्वे,१०५८ सू० हि इत्यस्य इकारे फुट्टि इति भवति । तति । अव्ययपदमिदम् । १००० सू० इकारस्य प्रकारे, ११ सु० तकारलो तर इति भवति । इति-त्ति, प्रक्रिया ४२ सूत्रे ज्ञेया । कृत्वा । बुज-क करणे। कृ+वत्वा १९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, १११० सू० करवः स्थाने इकारे,१०० स्वरस्य लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये करि इति भवति।काल-क्षेपेण । कालक्षेप टा । २७४ सू० क्षस्य खकारे,३६० सू० खकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे, २३१ सू० पकारस्य वकारे, १००४ सू० अकारस्य एकारे, १०१३ सू० टास्थाने अनुस्वारे कासक्खे इति भवति । किम् । किम् +सि । १०३८ सू० किमः स्थाने काइं इत्यादेशे,१०१५ सू० लेोके काई इति भवति । 4 श्यामि । दृशिर-दृश् दर्शने । दृश् +मित् । ८५२ सू० दृशः स्थाने देवख इत्यायो, १०५६ सू० मिकः स्थाने उं इत्यादेशे, १०५२ सू० उच्चारणस्य लाघवे अक्खडे इति भवति । हतविधिः । हतविधि+सि । १७७ सू० लकारस्य लोपे,१८० सू० यकारश्रुती,१८७ सूधकारस्य हकारे,१०१५ सू० सेलोपेहयविहि इति भवति । कस्मिन् । किम्+डि । ५६० सू० किमा स्थान क इत्यादेशे, प्रस्तुतसूत्रेण हे स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे काहि इति भवति । स्थापयति । ष्ठा-स्था गतिनिवृत्तौ । स्थाणिग+ सिन् । ६८७ सू० स्था-बातोः स्थाने ठा इत्यादेशे, ६३८ सू० जिंगः स्थाने भाव इत्यादेशे, ५ सू० दीर्थसन्धी, ९०९ सू० माकारस्य प्रकारे,६२८ सूतिका स्थाने इचादेशे या इति भवसि त्वयाः। युष्मद्
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अतुपादा
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * +टा। १०४१ सू० टाप्रत्ययेन सह युष्मदः स्थाने पई इत्यादेशे पर इति भवति । विना । अव्ययपदमिदम् । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १०९७ सू० स्वार्थे डु-(३)-प्रत्यये, द्धिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, प्र
झोने परेण संयोज्ये विणु इति भवति । दुख-शतानि । दुख-शत+अस् । ३४८ सू० जिह्वामूलीयस्थ लोपे, ३६० सू० स्वकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे, २६० सू० शकारस्य सकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १५० सू० यकार श्रुती, १००१ सू० प्रकारस्य प्राकारे, १०२४ सू० जसः स्थाने इं इत्यादेशे घुरक्षसपाई इति भवति । कहि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। १०२६- कान्तोऽस्मदीयः हला सखिके ! निश्चयेन ष्यसि यस्य ।
अस्त्रः, शस्त्रः, हरपि स्थानमपि भ्रशयति तस्य ॥१॥ भावार्थ:-हला-नारोणां कृते सम्बोधनार्थकमव्ययपदमिदम्, सखिके !, हे सखि ! इत्यर्थः, अस्मदीयः कान्तः-नायकः,निश्चयेन यस्योपरि ष्यति-मन्टो भवति तदाऽसौ,तस्य-शोः अस्त्र:-क्षेप्त योग्यैः बाणादिभिः, अत्यिहि इत्यस्य अर्यः इत्यपि छाया भवति, अतः अर्थः-द्रव्यदानः, शस्त्र:-क्षेप्तुमयोग्यः करवालादिभिः, हस्तश्चापि स्थानमपि भ्रशयति, शत्रोः मूलोच्छेदं करोतीति भावः।
कान्त. । कान्त+सि। ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोप कन्तु इति भवति । अस्मवीयः । मदाय+
सिर पर नदी वावर्ग:०१३, गहारम-शब्द! प्रयुज्यते,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे महारउ इति भवति । हला अध्ययपदमिदम् । १०७० सू० प्राकारस्य इकारे हलि इति भवति । सखिके !। सखिका+सि । इत्यत्र १५७ स० स्वकारस्य हकारे,१७७ स० ककारलोपे,५३० सू० माकारस्य एकारे,सेलोंपे सहिए ! इति भवति । निश्चयेन । निस्म+टा । २९२ सू० श्चस्य स्थाने छकारे,३६० सू० छकारस्य द्विस्वे,३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे,
७ सू० यकारलोपे, १००० सू० प्रकारस्य इकारे, १०१४ सू० टास्थाने अनुस्वारे निभाई इति भन पतिः । रुष्यति । रुघ-रुष रोपे । रुष+तिव् । ९०७ सू० उकारस्य ऊकारे, २६० सू० षकारस्य सकारे, ९१० सू० प्रकाराममे, ३२८ सू० तिव इचादेशे इसई इलि भवति । यस्य । यद्+स् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १०२९ सू० स: स्थाने डासु [मासु] इत्यादेशे, डित्ति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे जासु इति भवति । अस्त्रैः । अस्त्र+भिस् । ३५० सू० रेफलोपे, ३१६ सू० स्तस्य थकारे, ३६० सू० थकाराद्वत्वे, ३६१ सू० पूर्वथकारस्य तकारे, १००० सू० अन्न्पाकारस्य इकारे,१०१८ सू० भिस: स्थाने हि इत्यादेशे पस्थिहि अर्थः इतिच्छायायान्तु श्रर्थ+भिस् इत्यत्र रेफलोपे,थकारद्वित्त्वे, पूर्वथकारस्य तकारे, अत्यिहिवदेव अरियहि इति साध्यम् । शस्:1 शस्त्र+भिस् । २६० स० शकारस्य सकारे,रेफस्य लोपे, स्तस्य धकारे, मयिहि-वदेव सस्यहि इति साध्यम् । हस्तः। हस्त--भिस् । ३१६ सू० स्तस्य थकारे, पूर्व'बदेव हरियहि इति साध्यम् । १०८२ सू. उच्चारणस्य लाघवे हरियहि इति भवति । प्रपि-वि,प्रक्रिया ४१ सूत्र ज्ञेया । स्थानम् । ष्ठा-स्था गतिनिवृत्तौ । स्था+ ल्युट-अन+सि । ६८७ सू० स्थाधातोः स्थाने ठा इत्यादेशो,५ सू. दीर्घ-सन्धी ठान+सि इति जाते, बाहुल्येन नकारस्य लोपे ठामसि इति स्थिते, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपिठाउ इति भवति । भ्रशयति । भ्रशु-श् बिनाशे। भ्रंश+णिग+तिन् । ८४८ म० भ्रंश्धातोः स्थाने फिड इत्यादेशे, १००० सू० इकारस्य एकारे, ६३८ सूणिग: स्थाने प्रकारे, १० स० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये, ६२८ सू० तिव इचादेशे फेब इति भवति । तस्य । तद+स् । १०२९ सू. उसः स्थाने डासु (प्रासु) इत्यादेशे,हिति परेऽन्त्यस्वरादेलॉप सासु इति भवति । बास तास इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृसिर्जाता।
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ज्ञया।
* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः जीवितं कस्य न वल्लभक, धनं पुनः कस्य नेष्टम् ? ।
वेऽपि अवसर-निपतिते तृणसमे गणयति विशिष्टः ॥२॥ भावार्थ :-जीवित-जीवनं कस्य न बल्लभक-प्रियं भवति ? अपितु सर्वेषां भवति । धनम्-प्रथः कस्य ननम् ? अभिलषितम् ? प्रत्युत धनं सकलानामेव पुरुषाणां प्रियं भवति । किन्तु विशिष्टःगुणज्ञः पुरुषः पि-जीवितधनेऽपि, कीदृशे द्वे अवसरनियतिते-अवसरस्य निपातः, अवसरनिपातः, तेन युक्त अवसरनिपतिते-सम्प्राप्तावसरे ते धनजीवने तसासमे-तृरणेन समे-तुल्ये गणपति--मन्यते । उत्तमप्रकृतिको जनः अवमरे सम्प्रोप्रितिशमनीगने वार्थ त्यजतीति भावः ।
बीवितम् । जीवित+सि । १७७ सू० तकारस्य लोपे,१००२ सू० अकारस्य उकारें,१०१५ सू० सेलोपे जीषिउ इति भवति । कस्य । किम् +इस् । ५६० स० किमः क इत्यादेशे, प्रस्तुतसूत्रेण डसः स्थाने डासु (मासु) इत्यादेशे, डिति परेऽन्स्यस्वरादेलोपे कासु इति भवति ।। अव्ययपदमिदं संस्कृतसम्मेव अपभ्रंशे प्रयुज्यते । बल्लभकम् । वल्लभक+धम् । १८७ सू० भकारस्य हकारे, १७७ सू० ककारस्थ लोपे, १०२५ सू० अकारस्य उ इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे, १०१५ सू० सेलोपे बल्लहउँ इति सिद्धम् । पनम् । धन+सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे,१००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोप पाणु इति भवति । पुनर---पुणु, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । इष्टम् । इष्ट+ सि । ३०५ सू० ष्टस्य ठकारे,३६० सू० ठकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे,१००२ सू० मकारस्य उकारे, १०१५.सू. सेलोपे इछु इति भवति । छै । द्वि+प्रौ। ६१९ २० द्विवचनस्य बहुवचने, ६०९.सू.द्वःस्थाने जसा सह दोणि इत्यादेशे दोणि इति भवति । अपि-वि, प्रक्रिया अवसरनिपतिते । अवसरनिपतित+ो । २३१ सू० पकारस्थ वकारे,८९० सू० तकारस्य डकारे, १७७ सूतकारस्य लोपे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०२४ सू० जसः स्थाने इं इत्यादेवो अबसर-निषहिबाई इति भवति । तृणसमे । तणसम+ो । १२८ सू० ऋकारस्थ इकारे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवयने, १०१५ सू० जसो लोपे लिखतम इति भवति । गणयति । गण-गण गणनायाम् । भण+णिग्+ शिव । ६३८ सू० मिग प्रकारे, प्रयोगदर्शनात ६४२ सू० अकारस्य दीर्धाभावे, ६२५ सू० तिव इचादेशे गमा इति भवति । विशिष्टः । विशिष्ट सि. २६० सू० शकारस्य सकारे,३०५ सू० स्य ठकारे,३६० सू. ठकारद्विस्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्थ टकारे,१००२ स० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि विसिठ्ठ इति भवति । कासु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१०३०-यस्याः । यद्+छस् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ सू० दकारलोपे, स्त्रोत्वाद् माप्-(मा)-प्रत्यये,१०३० स० सास्थाने डहे [अहे] इत्यादेशे,डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अझीने परे संयोज्ये हे इति भवति । सम्बन्धी सम्बन्धिन्-न-सि। १०९३ सू० सम्बन्धिन् इत्यस्य केर इत्यादेशे, ११०० स० स्वार्थ प्रप्रत्यये, १००२ स. अकारस्य उकारे. १०१५ स० सेलोपे कर ति भवति । स्थाः । तद् + ङस् । ११ स० वकारलोपे, जहे-बत् सहे इति सध्यम् । कस्याः । किम् +इस् । प्रस्तुतसूत्रेण इस्प्रत्ययस्य डहे [अहे] इत्यादेशे, तहे-बदेव कहे इति भवति । अहे. तहे, कहे इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१०३१-- "प्राङ्गणे तिष्ठति मायो यः स रणे करोति न भ्रान्तिम्"
भावार्थ:-काचिन्नारी स्वप्राणनाथ श्लाघते यत्प्राङ्गणे गृहाङ्गणे यो नाथः तिष्ठति-मदीयः यो नाथः, यदि स प्राङ्गणे तिष्ठति-अवस्थितो वर्तते तदाऽसौ रणे-युद्धविषये भ्रान्तिं न करोति, भ्रान्तिमान्नास्ति, अपितु निश्चयवानस्ति । युद्धार्थ सदाऽसौ सन्नद्धोऽवतिष्ठत इति भावः।
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चतुर्थपादः ★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् *
२०३ प्राङ्गणे । प्राङ्गण+छि। ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १००५ स० छिना सह अकारस्य इकारे प्रगरिंग इति भवति । अत्र ३५० सूत्रेण रेफलोपप्राप्तिरासीत् किन्तु १०६९ सूत्रेण सा वैकल्पिका किहितातएवाऽत्र तस्य प्रवृत्तिर्न जाता । तिष्ठति । ष्ठा-स्था गतिनिवृत्तौ । स्था+तिन् । ६८७ सू० स्थाधातो: स्थाने चिट्ठ इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इच् इत्यादेशे, ९४५ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे चिढदि इति भवति । नायः । नाथ-+सि । १८७ सू० थकारस्य हकारे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे नाह इति भवति । यः । यद्+सि । १०३१ सू० यद् इत्यस्य ध्रु इत्यादेशे, सेलोपे घं इति भवति । सः । तद्+सि । १०३१ सू० तद् इत्यस्य इत्यादेशे, सेर्लोपे अं इति भवति । रणे। रण+दि । १००५ सू० हिना सह भकारस्य इकारे रणि इति भवति । करोति । डुक-कृ करणे । कृ +निन् । ६०५ सू० ऋकारस्य अर इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इच् इत्यादेशे, ९४५ सू० इन्त्रः स्थाने दि इत्यादेशे करवि इति भवति । न । अध्ययपदमिदं संस्कृत-सममेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । भ्रान्तिम् । भ्रान्ति+ अम् । ३५० सू० रेफस्य लोपप्राप्ती, १०६९ सूत्रस्य वैकल्पिकत्वात्तस्थाऽभावे,५४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०१५ सू. अमो लोपे भ्रन्ति इति भवति । ध्रु, इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । पक्षे । प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्यभावपक्ष इत्यर्थः । मासे यह निर्वदति। म भाव:--अनेन पुरुषेण तदेव कध्यते-प्रति-झायते, यदयं निहति-प्रतिपालयति । तया तदसि। २४ सत्रे "बहलाधिकाराब प्रन्यस्याऽपि व्यञ्जनस्य मकारः" इति पाठाद् दकारस्य मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे, १०१५ सू० सेर्लोपे तं इति भवति । कथ्यते । कथ-कथ कथने ! कथ+क्य+ते। ६७३ सू० कथ्धातोः स्थान बी
० क्यस्य ईभ इत्यादेशे, १०स० स्वरस्य लोपे.प्रज्झीने परेण संयोज्ये. १000 स. ईकारस्य इकारे ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे मोल्लिा इति भवति । यद । यद्+सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे,११ सू० दकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि जु इति भवति । निर्वहति । निर-पूर्वक: वह-(वह )-घातुः निर्वाह ! निर्वह +तिव् । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० वकार-द्वित्त्वे, ९१० सू० अकारागमे,६२८ सू० तिव इचादेशे निव्वहद इति भवति । प्रस्तुतसूत्रस्य वैकल्पिकत्वाद् सत्-तं, यत्-जु इत्यत्र प्रवृत्तिनं जाता।
१०३२-इमम् । इदम्+सि । १०३२ सू० इदमः स्थाने इमु इत्यादेशे, १०१५ सू० सेलोपे इमु इति भवति । कुलम् । कुल+सि । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, सेर्लोपे कुलु इति भवति । तव । युहम + ङस्तु ह, प्रक्रिया ५८८ सूत्रे ज्ञेया। सम्बन्धी सम्बन्धिन+सि।१०९३ सू० सम्बन्धिन् इत्यस्य तण इत्यादेशे, ४३५ सू० स्वार्थ क-प्रत्यये, १७७ स० ककारलोपे, १०२५ स० प्रकारस्य उं इत्यादेशे, १०१५ सू० सेलेपि तण इति भवति । एवं कुल इमु कुलु इति पूर्ववदेव सायम् । पश्य देव,प्रक्रिया १०१६ सूत्रे ज्ञेया । इदम्-इमु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तितिा । १०३३- एषा कुमारी, एष नरः, एतम् मनोरष-स्थानम् ।
एतद् मूढानां चिन्तयता पश्चाद भवति विभातम् ॥१॥ भावार्थ:-एषा-समीपस्था शय्यासीनेति यावत् । कुमारी कन्या विद्यते, एषो हि, नरो वर्तते, एसब मनोरयस्थानम्-मनोरथानामभिलाषाणां स्थानम् केन्द्रम् । एतव चिन्तयता-विचारयतामेव मूकानाम्-मूर्खपुरुषाणां विभातम्-प्रभातं भवतीति भावः। . एषा । एतद्+सि । १०३३ सू० एतदः स्थाने एह इत्यादेशे, १०१५ सू० सेर्लोपे एह इति भअति । कुमारी । कुमारी+सि । १०१५ सू० सेलोपे कुमारी इति भवति । एषः । एतद+सि ! १०३३
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुथपादः सू० एतदः स्थाने एहो इत्यादेशे, सेर्लोपे एहो इति अति 1 रनर+सि।१००२ सुअकारस्य उकारे, सेलेपि नरु इति भवति । एतद् । एसद+सि । १०३३ स० एतदः स्थाने एह इत्यादेशे,सेलोप एह इति भवति । मनोरण-स्थानम् । मनोरथस्थान+सि । २२८ स० प्रथम-नकारस्य णकारे, १८७ सू० थकारस्य हकारे, ठा-स्था गतिमिवृतौ । ष्ठा+त्युद-अन] ६९७ स० ष्ठा-धातो: स्थाने ठा इत्यादेशे, ५ स० दीर्घ सन्धी,२२८ सू० नकारस्य णकारे,१००२ स० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सेलोपे मनोरह-ठाणु इति भवति । एतद् । एतद् +अम् । १०३३ सू० एतदः स्थाने एह इत्यादेशे, १००० सू० उकारस्य - कारे, ११०० स० स्वायें अप्रत्यये, १०२५ स० प्रकारस्य उं इत्यादेशे, १०८२ स० उच्चारणस्य लाघवे, १०१५ सू० प्रमो लोपे एह इति भवति । मुहानाम् । मूड+पाम् । १०९३ स० मुदस्य वढ इत्यादेशे, १०१६ सू० पामो लोपे वह इति भवति । चिन्तयताम् । चिती चिन्तायाम्। संस्कृतनियमेन चिन्त् + शतृ इति आते, ९१० सू० प्रकारागमे, ६७० सः शतुः स्थाने त इत्यादेश, पाम्-प्रत्यये,१००१ सू० प्रकारस्य प्राकारे, १०१० सू० धामः स्थाने हे इत्यादेशे चिन्सन्ताहं इति भवति । पश्चात् । अध्ययपदमिदम् । १०९१ सू० पश्चाद इत्यस्य पच्छद इत्यादेशे पच्छह इति भवति । भवति । भू सत्तायाम् । भूतिकहोई,प्रक्रिया ७३१ सूत्रे ज्ञेया। विभातम् । विभात+सि । अपभ्रशे १०९३ सू० विभातार्थे विहाण-शम्दः प्रयुज्यते; १००२ सू० प्राकारस्य उनारे, १०१५ सेर्लोपे विहाणु इति भवति । एह, एहो, ए इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१०३४---एसे तेऽस्थाः, एषा स्थली-एइ ति घोडा, एह थलि, एतेषां पदान प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य चतुर्थश्लोके ज्ञेया। एड इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। साधना स्विस्थम् । एते । एतद् + जस् । प्रस्तुतसूत्रेण एतदः स्थाने एइ इत्यादेशे, १०१५ सू० जसो लोपे एइ इति भवति । एतान् । एतद् +शस् । प्रस्तुतसूत्रेण एतदः स्थाले एइ इत्यादेशे, १०१५ सू० शसो लोपे एक इति भवति । पश्य 1 दृशिर-दृश् दर्शने । दृश+हि । ८५२ १० दृशुधातोः स्थाने पेच्छ इत्यादेशे, ६६२ स. हि इत्यस्य सु इत्यादेशे, ६६४ सू० सोलुं कि पेच्छ इति भवति । एड इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । १०३५- यदि पृच्छय गृहाणि वृहन्ति ततो बृहन्ति गृहाण्यमूनि ।
विह्वलित-अनामयुद्धरणं कान्तं कुटीरके पश्य ।।१।। भावार्थ:काचिन्नायिका कश्चित पथिक प्रत्याह-यदि यूयं बहन्ति-महान्ति गृहाणि पच्छाय, ततो-तदा तानि गृहाणि अमूनि प्रत्यक्षोपलभ्यमानानि वर्तन्ते । यदि त्वं दानादीनामभिलाषी तदा तु कु"टोरके सम्मुखस्थितायां कुट्यां विह्वलित-जनाम्पुद्धरणम्-विह्वलिताश्च ते जनाः तेषां,व्याकुल-जनानाम्, अभ्युदरणम्-समुद्वारकं मदीयं कान्त-प्राणनाथं पश्येति भावः ।
यदि । अव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १७७ सू० दकारलोपे जइ इति भवति। पृच्छय । प्रच्छ्-धातुःजीप्सायाम-प्रश्ने । अछ+थ। ७६८ सू० प्रच्छधातोः स्थाने पुच्छ इत्यादेशे, ६३२ सू० थकारस्य हच (ह) इत्यादेशे पुचवह इति भवति । गृहारिण। गृह+शस् । ४१५ सू० गृहस्थ धर इत्यादेशे,१९१५ सू० शसो लोपे घर इति भवति । हन्ति । बृहत् + जस् । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, बाहुल्येन २३७ सू० बकारस्य वकारे,४४५ सू० हकारस्य ड इत्यादेशे ११ सू० तकारलोपे.१००१ सू० प्रस्याकारस्य प्रकारे,१०२४ २० जसः स्थाने इं इत्यादेशे बडाई इति भवति । ततः। अव्ययपदमिदम्। १०८८ सू० ततः इत्स्य तो इत्यादेशे तो इति भवति । बृहम्ति । बहत्+जस् । पूर्ववदेव बड्डा+जस्। इति जाते, १०१५ सू० जसो लोपे वा इति भवति । महाणि । गृह+जस् । गृहस्थ घर इत्यादेशे, १०१५ सू० जसो लोपे घर इति भवति । ममूनि । पदस्+जस् । १०३५ सू० पदसः स्थाने मोइ इत्यादेशे,
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चतुर्थपाद:
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * १०१५ स० जसो लोपे ओह इति भवति । विह्वलित-अनाभ्युद्धरणम् । विह्वलित-जनाम्मुद्धरण+अम्। ३५० सू० कारलोपे, १७७ सू० तकारलोपे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० भकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्व भकारस्य वकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १००२ सः धकारस्य उदा, २०१५ सू० अमः लोप बिहान-मसाखर इति भवति । कान्तम् । कान्त-अम् । ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे, अमो लोपे कन्तु इति भवति । कुटीरके । कुटीरक+डि । १९५ सू० टकारस्य डकारे, १७७ सू० ककारलोपे,१००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे कुडोरइ इति अति । पश्य । दृशिर-दृश् दर्शने । दृश्+हि । अपभ्रंशे १०६६ सू० दशर्थे जो इति प्रयुज्यते, १०५६ सू० हे स्थाने इकारे जोइ इति भवति । प्रमूनिमोह इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। १०३६- इमानि लोकस्य लोचनानि जाति स्मरन्ति न भ्रान्तिः।
अप्रिये दृष्टे मुकुलितानि प्रिये इष्टे विहसन्ति ।।१।। भावार्थ: - लोकस्य इमानि लोचनानि-नेत्रारिण, आतिम्-स्वसमानजातीयं कमल-पुष्पं स्मरन्तिस्मृतिपथमानयन्ति, नयनयोः कमलतुल्यस्वभावत्वात्, इति न भ्रान्ति:-में संशयः । यतः अप्रिये, न प्रियः, अप्रियः-अनिष्टः तस्मिन् अप्रिय दृष्टे नेत्राणि मुकुलितन्ति-संकोचमापद्यन्ते, प्रिये च दृष्टे विहन्तिविकसन्ति । अयं भावः-लोचनानि कमलनिभाति भवन्ति । यथा सूर्य-विक्रासि-क्रमलानि निजं प्रियं भास्कर विलोक्य त्रिकसन्ति, अप्रियं शशधर निरीक्ष्य संकोचतामुपयान्ति, तथैव लोचनान्यपि स्नेहिनं दृष्ट्वा विकासतां यान्ति, अप्रियमुवीक्ष्य मुकुलितानि जायन्ते।
अमूनि । इदम् + जस् । १०३६ सू० इदमः स्थाने प्राय इत्यादेशे,१०२४ सू० जसः स्थाने इ इत्यावशे याई इति भवति । लोकस्पा लोक +डस । इत्यत्र १७७ सू० ककारस्य लोपे,१००९ सू. उसः स्थाने हो इत्यादेशे. १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे लोगहों इति भवति । लोचनानि लोचन+जस् । १७७ सू० चकारलोपे, २२८ सू० नकारस्य प्रकारे, १०२४ सू० जसः स्थाने इँ इत्यादेशे लोअगई इति भवति । जातिम् । जाति + अम् । १७७ सू० तकार लोपे,१००१ सू० इकारस्य ईकारे,१०१५ सू० अमो लोपे जाई इति भवति । स्मरन्ति । स्म स्मरणे । स्म+अन्ति। ३४९ सू० मकारस्य लोपे,९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे,१०५३ सू० प्रन्ति इत्यस्य हि इत्यादेशे, बाहुल्येन हकारस्य लोपे जाते सरई इति भवति । म । अव्ययपदमिदमपभ्रशे संस्कृतवदेव प्रयुज्यते । श्रान्तिः । भ्रान्ति-+सि । ३५० सू० रेफस्य लोपे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०१५ सू० सेलोपे भन्ति इति भवति । अप्रिये । अप्रिय डि। ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० पकारस्य द्विस्वे, १७७ सू० यकारलोपे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य एकारे अप्पिए इति भवति । दृष्टे । दृष्ट+डि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, ३०५ सू० ष्टस्य ठकारे, ३६० सू० ठकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य स्थाने टकारे, ११०० सू. स्वार्थे अप्रत्यये, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे विठ्ठह इति भवति । मुकुलिलानि । मुकुलितपदस्य प्राचाराधक-किबन्तात् पातुसंशाय अस्ति-प्रत्यये मुकुलित+प्रन्ति इति स्थिते, १५७ सू० ककारस्थ तकारस्थ 'ध लोपे, १०५३ सू० मन्ते: स्थाने हि इत्यादेशे मलिहइति भवति । प्रिये । प्रिय+कि! ३५० सू० रेफस्य लोपे,१७७ सूर यकारलोपे, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य एकारे पिए इति भवति । विहसन्ति । विपूर्वकः हस्धातुः बिहासे-विकासे । विहस् + अन्ति। ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, ६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे विहसन्ति इति भवति । यायः इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
शुष्यतु मा शुष्यतु बोषिः, वडवानलस्य किम्तेन ? । यज्वलति ले ज्वलनः ममेनाऽपि किस्त पर्याप्तम् ॥
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२०६ * प्राकृत-व्याकरणम★
चतुर्थपादः भावार्थ:-कविः वडवानलस्य-समूद्र वन्हे सामर्थ्य स्तौति । उवधिः-समुद्रः वन्हिमा शुष्यल-जलशून्यो भवतु,अथवा मा शुष्पस,तेन वचनानस्य किम् ? समजन्हः का नाम हानिः? म कापीति भावः । वा इति निश्चिन्तम,परन्तु अलि सनो नियत सम्लेका तरीकापि किन पर्याप्तम् । जले वन्हेरभावो जायते, इति सर्वेऽवगच्छन्ति, तथापि तस्य जलराशौ प्रज्वलनं महि किमपि साधारण कार्य वर्तते, 'बन्हेरियमसाधारणताऽवसे येति भावः।
शुध्यतु । शुष-शुष शोषणे । शुष्+तुम् । इत्यत्र २६० सू० शकारस्य षकारस्य च सकारे, १०० सू० उकारस्य प्रकारे, ९१० सू० अकारागमे, ६६२ सू० तुवः स्थाने दु इत्यादेशे, १७७ सू० दकारस्य लोपे सोसज इति भवति । मा। अध्ययपदमिदम् । १००० सूपाकारस्य प्रकारे म इति भवति । वा। अव्ययपदमिदम् । अव्ययशब्दाः निपाताः भवन्ति, तथा "निपाता: पातश्च अनेकार्थकाः भवन्ति" इति न्यायेन वा-पदमप्यत्रावधारणार्थक बोध्यम् । ततः ४५५ सू० अवधारणाथै चिन इत्यस्य प्रयोग, ३७० सू० पकारद्वित्वे मिस इति भयति । अवधिः । उदधि+सि । १७७ सू० 'दकारलोपे,१६७ सू० धकारस्य हकारे, १००१ सू० इकारस्य ईकारे,१०१५ सू० सेलोपे अमही इति भवति । वडवानलस्य । वडवानल+ ङस् । ४९९ सु० इन्सः स्थाने स्स इत्यादेशे बडवानलस इति भवति । किम् । किम् +सि । ५६९ सु० सिना सह किम: स्थाने कि इत्यादेशे कि इति भवति । तेन । तद+टा । इत्यत्र ११ मू० दकारसोप: १००४ सू० प्रकारस्य एकारे,१०१३ सु० टा-प्रत्ययस्य णकारे तेरा इति भवति । यत् । यद+सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे, २४ सूत्र "बहलाषिकारावन्यस्यापि व्यजनस्य मकारः" इति पाठा दकारस्य मकारे,२३ सू० मकारानुस्वारे १०१५ सू० सेपि इति सिद्धम् । ज्वलति । ज्वल-[ज्वल्]-धातुः ज्वलने । ज्वल+तिन् । ३५० सू० कारलोपे,९१० सू० पातोरन्तेऽकारागमे,६२८ सू० तित्र इचादेशे अला इति भवति । अले । जल+हि १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य एकारे अले इति भवति । ज्वलनः । ज्वलन+सि। ३५० सू० वकारलोपे, २२८स नकारस्थ कारे,१००३ सु०प्रकारस्य मोकार, सेलाप अलणो इति भवति । बनेन । इदम् +टा । १०३६ स० इदम: स्थाने प्राय इत्यादेशे, १७७ सू० यकारलोपे, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य णकारे, १००४ सू० प्रकारस्थ एकारे आएण इति भवति । अपि-वि, प्रक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया। म। प्रध्ययपदमिदमपभ्रंशे संस्कृतवदेव प्रयुज्यते । पर्याप्तम् । पर्याप्त+सि २१५ सू० र्यस्य जकारे,३६० सू० जकारद्वित्त्वे, ३४८ सु० एकारलोपे, ३६० सूतकारद्वित्त्वे, ८४ सू० प्रकारस्य प्रकारे, ५१४ सु० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे पास इति भवति । आएण इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृतिर्जाता।
अस्य ग्यालेषरस्य या वाहितं सत्सारम् ।
यदि मामछायसे सवा कुष्पति अथ बहाते सया क्षारः ।।३।। भावार्थ:-अस्य वायकलवरस्य, दग्ध-निकृष्टं च तत् कलेवरम्-शरीर, निकृष्टदेहमित्यर्थः,तस्यतस्मादिति यावत या वाहित-निष्कासित, सदमुष्ठानाविक कृतमिति भावः ? तवेव सारम्-तत्वम्। मरणान्तरं तु यवीवमाते-पटादिना प्रावियते तवा कुण्यति-विकृतिमापद्यते, दोर्गन्ध्यं भजते । अथ यद्येतस्य बाते-अग्निसंस्कारः क्रियते सवा तच्छरोरं क्षार:-भस्मसाद् भवति । अतोऽमुना नश्वरेण कायेन यचर्मादिकमाचरितन्तदेव साफल्यं शरीस्येति भावः ।
अस्य । इदम् + ङस् । इत्यत्र १०३६ सू० इदमः स्थाने प्राय इत्यादेशे, १००१ सू० डसः स्थाने हो इस्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे आयहाँ इति सिद्धम् । बरब-कलेवरस्य । दग्धकलेवर+ इस्। ३११ सू० भिस्य हकारे, ३६० सू कारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य डकारे, १००९ सू० सः
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीका-इयोपेतम् ★ स्थाने हो इत्यादेशे बड्ड-कलेवरहो इति भवति । यद् । यद्+सिज प्रकियाऽस्यैव मूत्रस्य द्वितीय-श्लोके उपभ्यस्ता । वाहितम् । बाहित+सि । १७७ सू० तकारलोपे.१००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोप वाहिउ इति भवति । तदू । सद्+सि । २४ सूत्रेण (बहुलाधिकाराद) दकारस्य मकारे, २३ स० मकारानस्वारे. २०१५ स सेलोपेतंति भवति।सारम। सार+सि। १००२० अकारस्य उकारे १०१५ सू० सेलोपे मार दवि भवति जद, जिला १४ मत द्वितीय-श्लोके ज्ञेया । प्राच्छाधते । पाइपूर्वका अदि-(छद)-धातुःप्रावरणेमा -छद्+क्य+ते। अपभ्रंशे १०६६ स. 'मा-छद+क्य' इत्यस्य उलुब्भ इतिदेश्यधातुः प्रयुज्यते,ततः ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे उभइ इति भवति । तदा। अव्ययपदमिदम् । १०८८ सू० तदा इत्यस्य तो इत्यादेशे तो इति भवति । कुष्यति । कुथ-कुथ दुर्गन्धे । कुथ्+तिन् । १८७ मू० थकारस्य हकारे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, ६२८ सू० तिब इचादेशे कुहाइ इति भवति । अथ । अव्ययपदमिदम् । १५७ सू० थकारस्य हकारे मह इति भयक्ति । बह्यते । दह-दह, दाहे । दह+क्य+ते । २१८ सू० दकारस्य इकारे, ९१७ सू० हकारस्य ज्झ इत्यादेशे क्यस्य च लोपे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे उज्झा इति भवति । क्षारः । क्षार+सि । २८५ सू०क्षस्य छकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० से.पे चार इति भवति । प्रायहों इत्यत्र प्रस्तुत-सूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । १०३७- सर्वोऽपि लोकः प्रस्पद बहस्वस्य कृते ।।
बृहस्वं परिप्राप्यते, हस्तेन मुक्तेन ॥१॥ भावार्थ:-सर्वोऽपि लोकः प्रस्पन्दते-चेष्टते, उद्योग करोंतीति भावः । किमर्थम् ? बृहस्वस्यमहत्त्वस्य कृते परं वृहस्थ मुक्तेन हस्सेन-दानादिकर्मणा परिप्राप्यते-लभ्यते। महत्त्वं काममाननिवरुपरिधिया दानादिकमाचरणीयमिति भावः।
सः। सर्व+सिं। १०३७ सू० सर्वस्य विकल्पेन साह इत्यादेशे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५.सू० सेलोपे साहु इति भवति । अपि=वि, प्रक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया । लोकः । लोक+सि । १७७ सु० कारलोपे,१००२ स० अकारस्य उकार,सेर्लोपे लोउ इति भवति । प्रस्पन्दते 1 प्रपूर्वक: स्पन्द-धातुः प्रस्पन्दने चेष्टायाम् । प्रस्पन्द् +ते । अपभ्रंशे प्रस्पन्दार्थे १०६६ सू० तद्धप्फड इति देश्यधातुः प्रयुज्यते, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे तफाइ इति भवति । बृहत्वस्य । बृहत्-त्व- उस् । बाहुल्येन २३७ सू० बकारस्य वकारे, १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे,४४५ सू० हकारस्य हु इति निपातिते, ११ सू० तकारलोपे, ११०८ सुत्रे प्रायोऽधिकाराद् त्वस्य पण इत्यादेशाभावे, ४२५ सू० त्वस्य तण इत्यादेशे, १००९ सू० स: स्थाने हो इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणस्थ लाघवे बहुतणही इति भवति । कते । अव्ययपदमिदम् । इत्यत्र १०९६ सू० कृते इत्यस्य स्थाने तादर्थे [तस्मै इदं तदर्थम्, तस्य भावः तादर्थ्यम्, तस्मिन् ] श्रोत्ये तणेण इत्यस्य प्रयोगों भवति । वृहस्थम् । बृहत्-त्व-+सि । पूर्वरदेव बकारस्य वकारे, ऋकारस्य प्रकारे हकारस्य ड इत्यादेशे,तकारस्य लोपे, ११०८ सू० स्वस्य पण इत्यादेशे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे पप्पा इति भवति । परिप्राप्यते । परि-माझ्-(प्रा)-पूर्वकः प्राप्लु-धातुः परिप्राप्ती-लाभे । परिप्राप् + क्य+ते । ३५० सू० संयुक्त-रेफलोपे,२३१ सू० तृतीय-पकारस्य वकारे,६४९ सू० क्यस्य स्थाने ईअ इत्यादेशे,अझोने परेस संयोज्येपरिपाबी+ते इति स्थिते,१००० सू० ईकारस्य इकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे परिपाविअइ इति भवति । हस्तेन । हस्त+टा। ३१६ सू० स्तस्य यकारे, ३६० सू० अकारद्वित्त्वे,३६१ सू० पूर्वथकारस्य तकारे, १००० सू० प्रकारस्य इकारे,१०१४ सू० टास्थाने अनुस्वारे हरियं इति भवति । मुक्तेन । मुक्त+टा अपभ्रंशे मुक्तार्थे १०१३
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२०६
प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
क
सू० मोक्कल-शब्दः प्रयुज्यते, १०१३ सू० टास्थाने णकारे, १००४ सू० प्रकारस्य एकारे मोक्कल इति भवति । सर्वः साहु इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रस्थ प्रवृत्तिता । पक्षे वैकल्पिकत्वात् वस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्त्यभावपक्ष इत्यर्थः । यथा - सर्वः । सर्व+सि । ३५० सू० रेफस्य लोपे ३६० सू० वकारद्वित्वे १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे स इति भवति । अत्र वैकल्पिकत्वात्प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिनं जाता। अवि, प्रक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया ।
१०३६ - काई । मूलसूत्र काई इत्यादेशस्योल्लेखो दृश्यते, परं प्रत्यन्तरे काहँ इत्यपि पाठान्तरं समुपलभ्यते । प्रयोगानुसारिणीः प्रवासः विधेया ।
aft न से आयाति वृति ! गृहं feesigखं तव ? 1 वचनं यः खण्डयति तय सखिके ! सप्रियो भवति न मम ॥ १॥
भावार्थ :-- कस्यचन परपुरुषस्थ सांकेतित-समय- स्खलनमवलोक्य खियमानां दूत नायिका प्रीवाच- हे इति ! यदि सः मम प्रियः गृहं न आयाति प्रागच्छति, तहि तब अधोमुखं किम ? का लज्जा, ? त्वया न लज्जितव्यमिति भावः । हे सक्षिके ! यः प्रियः कान्तः तव वचनं कथन खण्डयति-उल्लङ्घयति सः समाऽपि प्रियो नास्ति ।
।
भवि [जइ, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । न । अव्ययपदमिदम संस्कृतसममेत्र प्रयुज्यते सः । तद् + सि । ५७५ सू० तकारस्य सकारे, ११ सू० दकारस्य लोपे १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे सु इति भवति । प्रायाति । प्राङ्पूर्वकः याधातुः आगती । श्राया+ति अपभ्रंशे प्राया इत्यर्थे १०६६ सू० याव इतिदेश्यधातुः प्रयुज्यते, ६२० सू० तिव: स्थाने इचादेशे आवद इति भवति । दूति । दूत +सि । १७७ सू० तकारलोपे १००१ सू० ईकारस्य इकारे, सेर्लोपे बुझ इति भवति । गृहम् गृह + प्रम् । ४१५ सू० गृहस्थ स्थाने घर इत्यादेशे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे घर इति भवति । किम् । किम्+ सि । इत्यत्र १०३० सू० क्रिम: स्थाने काई इत्यादेशे, सेलपि काई इति भवति । अधोमुखम् । अधोमुख+सि । १५७ सू० धकारस्य खकारस्य च हकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे अहोमुह इति भवति । तव । युष्मद् + ङस् । १०४३ सूइसा सह दुस्मदः स्थाने तुज्झ इत्यादेशे, १००० सू० प्रकारस्य उकारे तुज्भु इति भवति । वचनम् । वचन + सि । १७७ सू० चकारस्य लोपे, १८० सू० यकारस्य श्रुतौ २२८ सु० नकारस्य णकारे, १००२ सु० प्रकारस्य उकारे सेलोंपे वयतु इति भवति । यः प्रक्रिया १०१६ सूत्रे ज्ञेया । खण्डयति । खडि धातुः खण्डने । संस्कृतनियमेन खण्ड + णिग् + तिव् इति जाते, ६३८ सू० गिः स्थाने अकारे, ६४२ सू० प्रदिरकारस्य याकारें, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ६२८ सू० तिव: स्थाने इवादेशे खण्ड इति भवति । तव । युष्मद् + ङस् । १०४३ सू० ङसा सह युष्मद: स्थाने तउ इत्यादेशे त इति भवति । [[खा + स । १८० सू० खकारस्य हकारे १७७ सू० ककारलोपे, ५३० सू० प्रकारस्य एकारे १०१५ सू० सेर्लोपे सहिए । इति भवति । सः सो प्रक्रिया १००३ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । प्रियःपिउ, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य द्वितीय - श्लोके शेया । भवति होइ, इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया ७३१ सूत्रे ज्ञेया । न । अव्ययपदमिदम्। संस्कृतवदेव अपभ्रंशे प्रयुज्यते । मम । श्रस्मद् + ङस् । १०५० सू० इसों सह श्रस्मदः स्थाने मज्भु इत्यादेशे मम् इति भवति । किम्का इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिजता । किन पूरे पश्यति काई न दूरे देवख प्रक्रिया १०२० सूत्रे शेया । किम्-काई इत्यत्रापि प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तिर्दृश्यते ।
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Ahmukh-Ahmah
चतुथपादः ★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
२०९ स्कोरयत: यो हृदयमात्माय सयो: परकीया का वृक्षा ।।
रक्षत लोकाः! प्रात्मानं बालायाः जासी विषमो स्तनों॥२॥ श्लोकास्थाऽस्य व्याख्या १०२१ सूत्रे विहिता । शब्दसाधनाऽपि तत्रैवावलोकनीया । यो जे इ. त्यत्र १०८१ सूत्रेण उच्चारणस्य लाधवं न जातम् ! लोका: लोअहो !, बालाघा:-बाल इत्यत्र १०८१ सूत्रेण उच्चारणस्य लाघवं जातम् । कवरण इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
सुपुरुषाः कलोः अनुहरन्ति भण कार्येण फेन ।
यथा यथा बृहस्वं लभन्ते, तथा तथा नमन्लि शिरसा || भावार्थ:-विनम्रपुरुष धान्यविशेष दृष्टान्तेनोत्प्रेक्षते कविः । सुपुरुषा:-शोभनाः पुरुषाः,कहगो:धान्यविशेषस्य अनुहारम्ति-अनुकुर्वन्ति, सहशा भवन्तीत्यर्थः । भण-कथय, केन कार्येण कथा रीत्या ? उच्यते, यथा यथा ते कङ्गवः बृहस्व-महत्त्वं लभन्ते तथा तथा ते शिरसा नमन्ति,विनम्रा भवन्ति । यथा कडगुनामधेयो धान्यविशेषः सम्वृद्धि प्राप्त: नम्रो भवति,एवमेव सज्जनोऽपि महत्त्वमधिगम्य नमः-मानरहितो भवति । इदमेव तेषां सादृश्य बोध्यमिति ।
सुपुरुषाः । सुपुरुष जस् । १११ सू० रोरुकारस्य इकारे, २६० सू शकारस्य सकारे, १०१५ स० जसो लोपे सपरिस इति भवति । कडगी। कम्+दुस् । ३५ स० स्त्रीलिङ्गत्वे,१०२१ स. इस! स्थाने हे इत्यादेशे.१०५१ स० उन्सचारणस्य लाघवे कहे इति
, सउच्चारणस्थ लाघवे का इति भवति । अनुहरन्ति । अनुपूर्वक हत्र(ह-धातुःअनुकरणे । अनुहु+प्रन्ति । २२८ सू० नकारस्य णकारे,९०५ सू० ऋकारस्य अर इत्यादेशे, १०५३ सून अन्तेः स्थाने हि इत्यादेशे प्रहरहि इति भवति । भण। भण् कथने । भण् +हि । ९१० सू० धातोरसकारागमे,६६२ सू० हि इत्यस्य सु इत्यादेशे,६६४ सू० सोलोपे भरप इति भवति । कायेगा । कार्य+टा । २९५ सू० यस्य जकारे, ३६० स० जकार-द्वित्वे,५४ सा संयोगे परे ह्रस्वे, २०१३ स.टा-स्थाने अनुस्वारे, स्थानिवस्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे काले इति भवति । केन । किम् + टा। १०३८ सू० किमः स्थाने कवण इत्यादेशे,१०१३ सू० टा-स्थाने षकारे, स्थानियत्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे कवरण इति भवति । यथा-जिव,प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य तृतीयश्लोके ज्ञेया । बहत्त्वम् । बहतत्व+मम् । १०३७ सूत्रतुल्यमेव बड्डत्तण+अम् इति जाते, १००२ स० अकारस्य उकारे, १०१५ सूअमो लोपे बहुतणु इति भवति । लभन्ते । दुलभ लभ प्राप्ती । लम् + अन्ते । १८७ सू० भकारस्य स्थाने हकारे,९१० स० धातोरन्तेऽकारागमे,१०५३ सू० अन्ते' इत्यस्य हि इत्यादेशे लहाँह इति भवति । तथा । अव्ययपदमिदम् । १०७२ सू० था इत्यस्य डिम (इम) इत्यादेशे,डिति परेअन्त्यस्वरादे पे, १०६८ स० मकारस्य सानुनासिके वकारे तिवं इति भवति । समम्ति । णम (नम्) नमने । नम्+यन्ति । ८९७ स० भकारस्य वकारे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, १०५३ सू० अन्तेः स्थाने हि इत्यादेशे नहि इति भवति । शिरसा। शिरस्+टा । २६० सू० शकारस्य सकारे, ११ सू० सकारलोपे, १०१३ सू० टास्थाने कारे, स्थानिवश्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे सिरेण इति भवति । केन-कवणे इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । पर्छ । प्रस्तुतसूत्रस्थ प्रवृत्यभावपक्ष इत्यर्थः । यथा
यदि सस्नेहा तवा मृतिका अथ जीवति नि:स्नेहा ।
द्वाम्यामपि प्रकारान्यां गतिका षम्या कि गजेलि खलमेघ ४॥ भावार्थ:-कस्याश्चिद् नायिकायाः प्रियतमः देशान्तरं गतः, तत्र तद्-विरह-व्यथितोऽसौ कामातिरेकमभिव्य जयन्त मेधं प्रत्याह- हे मखमेध !,दुष्टभेघ ! त्वं किं वृथा गति? कोलाहलं करोति?
BPO
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vsPANAANA.
...AAAAAAAAAnumornemorrhand
-~~urun----------wran.amarrrrrrrrrrrrren
२१० *प्रकृित-व्याकरणम् ★
चतुर्थ पादः यतोहि सा मम नायिका यदि सस्नेहा-स्नेहेन सह वतमाना स्पासवा तु साऽवश्यमेव मृतिका-मृता स्यात्, मम विरहाद्धेतोरिति शेषः । अथ-अथवा यदि सा जीवति प्राणान् धारयति तदा नि:स्नेहा-स्नेह शुन्या एवं वर्तते इति में दृढो निश्चयः । प्राभ्यां द्वाभ्यामेव सस्नेह-निःस्नेह-लक्षण-प्रकाराभ्यां मम धन्या प्रिया गतिका गता, मृता भविष्यतीति यावत् ।
यदि । अव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे,१७७ स० दकारस्य लोपे जाई इति भवति । सस्नेहा । सस्नेहा+सि । ३४३ सू० नकारात् पूर्वेऽकारागमे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, स्त्रीत्वादापप्रसंगे ५२१ सू० डी-(ई)-प्रत्यये, १० स० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेलोपे ससरोही इति भवति । तवा-तो, प्रक्रिया १००७ सूत्रे ज्ञेया । धृतिका । मृतिका+सि । इत्यत्र १३१ सू० इति ऋकारस्य उकारे,१७७ सू० तकारस्य ककारस्य च लोपे,१००१ स० आकारस्य प्रकारे,सेलोपे मइम इति भवति । अथ । अव्ययपदमिदम् । १८७ सू० थकारस्य हकारे अह इति भवति । जीवसि । जीवधातुःप्रापधारणे । जो+तिम् । ९१० सू० धासोरन्तकारागमे, ६२८२० तिव इचादेशे जीवई इति भवति । निःहनेहा । निस्नेहा+सि । १३ सू० रेफलोपे, ४३ सू० इकारस्य दीर्धे, ३४८ सू० सकारलोपे। ३६० स० नकारद्वित्त्वे,८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,१००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोपे निभ्नेह इति भवति । द्वाभ्याम् । द्वि+भ्याम् । ६०८ सू द्विशब्दस्य वे इत्यादेशे,१००० सूत एकारस्य इ. कारे, बाहुल्येन २३७ सू० वकारस्य बकारे,६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने,१०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे बिहिं इति भवति । अपि वि,प्रक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया । प्रकाराभ्याम् । प्रकार+भ्याम् । ३५० सू० रेफलोपे, १७७ सू० ककारलोपे, १८० सू० यात्रुती, ६२५ ए द्विारा अलवर, ५८. सू. अकारस्य एकारे. १०५१ सू० उच्चारणस्य लाघवे, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे पयारे हिं इति भवति । गतिका। गतिका+सि । १७७ स०सकारस्य कारस्य च लोपे,१००१० साकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेपि गइम इति भवति । पन्या । धन्या+सि । ३४९ सू० यकारलोपे; २२८ सू० नकारस्य णकारे,१००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे,सेर्लोपे पण इति भवति । किम् । किम् +सि=कि प्रक्रिया ५६९ सूत्रे शेया । गर्जसि । गर्ज-(ग)-धातुः गर्जने । गर्ज +सिन् । ३५० सू० रेफस्य लोपे,३६० सूजकारद्वित्वे, ९१० सू० प्रकारागमे, १०५४ सू० सिधः स्थाने हि इत्यादेशे गाजहि इति भवति । खलमेघ । खलमेघ-सि १८७ सू० धकारस्य हकारे, १०१५ सू० सेलोपे खलमेह ! इति भवति । किम् - कि इत्यत्र वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिनं जाता।
१०३६-तुहुं । युष्मदः स्थाने सौ परे तुहु इत्यादेशो भवति । तुई इत्यपि पाठान्तरं समुपलभ्यते । यथास्थानं प्रयोगानुसारिणी प्रवृत्तिः विधया ।
भ्रमर ! मा करणझुणि [इति] शाय, सां विशं दृष्टा मा हदिहि ।
सा मालली देशान्तरिता यस्याः [कृत] स्वं पिसे वियोगे। भावार्थ :-- कस्मिंश्चिदुद्याने मालतीलताऽसीत्, तस्यां कश्चिद् भ्रमर प्रासक्तोऽभूत्, किन्तु सा मालती केनचिदुत्पाट्य देशान्तरं नीता, सदाऽसो भ्रमरः मालतीशुन्य स्थानमवलोक्य तद्वियोगेनातुरः सन् दुःखपूर्ण रुणझुपित' इति शब्दं करोति स्म । तं शिक्षमाणः कश्चिदाह-हे भ्रमर !-द्विरेफ !, द्वौ रेफौ यत्र सद्विरेफः,तत्सम्बोधनम् । स्वमरण्ये मा झणि शम्पम रुणझुरिण इति शब्द मा कुरु, यस्यां दिशाया मालतीलताऽऽसीत, तरपुष्पाणि वाऽऽसन, सां विशं ष्टामा दिहि, रोदनं मा कुरा, यतः सा मालती वेशाम्हरिता, मन्यो देशः देशान्तरं, देशान्तरं गता देशान्तरिता । यस्या:-मालत्याः पियोगे-विर हे त्वं प्रियसे.
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपैतम् * मरणाय प्रयतसे । प्रिय-जन-वियोगे धैर्यमवलम्य स्थातव्यमिति भावः।
भ्रमर !! भ्रमर+सि । इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे,१०१५ सु० सेलोपे भमर इति भवति । मा। अध्ययपदमिदम् । १००० सू० माकारस्य प्रकारे म इति भवति । रुणझणि इति भ्रमरस्य ध्वनिः, एबमेवापशे प्रयुज्यते । शय्यय । शब्द-धातुः ध्वनि-करणे शब्द+हि। अपनशे शब्द इत्यर्थे १०६६ सू० रण्णड इति देश्यधातुः प्रयुज्यते, १०५५ सु. हि इत्यस्य स्थाने इ इत्यादेशे रगडद इति भवति । ताम् । तद्+अम् । बाहुल्येनाऽत्र द्वितीयाऽर्थे प्रथमा विभक्तिः प्रयुज्यते,तेन तद्+सि इति जाते,५७५ सू० तकारस्य सकारे, ११ सू० दकारलोपे, स्त्रीत्वादाप्-(भा)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घ-सन्धी, १०१५ सू० सेलोपे सा इति भवति । विशम् । दिश+अम् । १९ सू० शकारस्य सकारे,बाहुल्येनाऽत्र द्वितीयाऽर्थे प्रथमा-विभक्तो दिस+सि इति जाते,स्त्रीत्वाद प्राप्-(प्रा)-प्रत्यये,५ सू० दीर्घसन्धौ,१००० सु० माकारस्य इकारे, सेलोप विसि इलि भवति । दृष्टा । दृश्-धातुः दर्शने । दृश्+क्त्वा । १०९३ सू० दृशर्थे जो इति देश्यधातुः प्रयुज्यते,ततः जो+क्त्वा इति जाते,१११० सू० क्त्वः स्थाने इ इत्यादेशे जोइ इति भवति । कहि । ह-धातुः शब्द।+हिं। ९०० स० उकारस्य स्थाने धोकारे, १०५८ सु० हि इत्यस्य स्थाने इकार रोइ त भवति । सा । तद्+सि । ५७५ सू० तकारस्य स्थाने सकारे,११ सू० दकारलोपे,स्त्रीत्वादाप-(या)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घ-सन्धौ,१०१५ सू० सेलोपे सा इति भवति । मालती। मालती+सि 1 १७७ सू० तकारलोपे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे,सेर्लोपे मालाइ इति भवात 1 शान्तरितो।पशासनि-शि । '
इत्र १ सू० शकारस्य सकारे,८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १७७ सू० असंयुक्त-तकारलोपे, १००१ सू० प्राकारस्य स्थाने प्रकारे,सेर्लोपे असन्तरिम इति भवति । यस्याः । यद् +डस् । २४५ सू० यकारस्य जकारे,११ सू० दकारलोपे,स्त्रीत्वाद प्राप्-(मा)-प्रत्यये,५ सू० दोघं-सन्धौ,१००१ सू० भाकारस्य प्रकारे,१००९ सू० इसः स्थाने सु इत्यादेशे असु इति भवति । स्वम् । युष्मद्+सि । १०३९ सू० युष्मदः स्थाने तुहुं इत्यादेशे,१०६२ सू० उच्चारणस्य लायवे, १०१५ सू० सेलोपे तुई इति भवति । घ्रियसे । मृङ्-मृ प्राणत्यागे । म+सिन् । ९०५ सू० कारस्य पर इत्यादेशे, १०५४ सू० सिवः स्थाने हि इत्यादेशे मरहि इति भवति । वियोगे । वियोग+किं । १७७ सू० यकारस्य गकारस्य च लोपे, १००५ सू० बिना सह पकारस्य इकारे विभोइ इति भवति । त्वम्-तुई इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१०४०-यूयम् । युष्मद् + जस् । इत्यत्र १०४० सू० युष्मदः स्थाने तुम्हे,तुम्हई इत्यादेशी,१०१५ सू० जसो लोपे तुम्हे,तुम्हई इति भवति । जानीय । ज्ञा-धातुः अवबोधने । ज्ञा+थ ! इत्यत्र ६७८ सू० ज्ञाधातोः स्थाने जाण इत्यादेशे,६३२ स०थ इत्यस्य स्थाने हच (ह) इत्यादेशे आरगह इति भवति । युष्मान् । युष्मद+शस 1 प्रस्ततसत्रेण युष्मद: स्थाने तम्हे.तम्हई इत्यादेशौ.१०१५ स० असोलोपे तम्हे,तम्हाइं इति भवति । प्रेक्षते । प्रपूर्वक: ईक्षधातुःप्रेक्षणे प्रेक्ष+ते । ३५० सू० रेफलोपे, २८८ सू० क्षस्थ स्थान छकारे, ३६० सू० छकारद्वित्वे,३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे,६२० स० ते इत्यस्य इचादेशे देसचा इति भवति । धननदो पथासंख्यनिवृत्यर्थः । प्रस्तुतसूत्रे जास-शसोः इति स्थानिपद द्विवचनान्तं वर्तते, परन्तु तुम्हे, खु. म्हइं इत्यादेशपदे च एकवचनान्ते वर्तते । प्रतोत्र "यथासंख्यमनुदेशः समानाम्" इति न्यायो न प्रयतते । वचनभेद एवाऽत्र कारणं बोध्यम् ।
१०४१--पई तई इति । पई तई इत्यपि पाठान्तरं दृश्यते । प्रयोगानुसारिणी प्रवृत्तिः विधेया। टा। टाप्रत्ययस्थोदाहरणं प्रदर्शयति वृत्तिकारः । यथा--
स्वया मुक्तानामपि वरतरो!, भ्रश्यति पत्रत्वं न पत्राणाम् । सब पुनः छापा यदि भवेत्, कपमपि तावत् सेः पत्रंः॥१॥
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः भावार्थ:-हे वरतरो ! बयासी तरुः तरसम्बोधनम् हे उत्तमवृक्ष ! इत्यर्थः । स्वया मुक्ता नामपि-परित्यक्तानामपि पारणाम किसलयानां पत्रत्वं म भ्रश्यति-नाऽपगच्छति । पुन:-किन्तु कथमपिकेनापि प्रकारेण, तायत निश्चितमिदं यद् यदि तव स्वदीया छाया भवेत, छाया भवित शक्नोति, तदा तैः परेष भवति, नान्यथा। पत्रैः सहैव वृक्षाणां शोभा संभवितु शक्नोतीति भावः।
स्वया । युष्मद् + टा। १०४१ सू० टाप्रत्ययेन सह युष्मदः स्थाने पइँ इत्यादेशे पई इति भवति । मुक्तानाम् । मुक्त+प्राम् । २७३ सूत क्तस्य ककारे,३६० सू० ककारद्वित्त्वे, १००१ सू० अकारस्थ ग्राकारे,१०१० सू० प्रामः स्थाने हैं इत्यादेशे,१०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे जाते मुक्काहं इति भवति । अपि-वि,प्रक्रिया ४१ सूत्र ज्ञेया। वरतरो!। वरतह+सि । १०१५ सु० सेर्लोपे वरतर ! इति भवति । प्रश्यति । अंशु-भ्रंश भ्रशने । भ्रंश्+तिन् । ८४८ सू० भ्रंशधातोः स्थाने फिट्ट इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे फिट्टई इति भवति । पत्रत्वम् । पत्रत्व+सि । ३५० स० रेफलोपे,३६० मू० तकारद्वित्वे, ४२५ सू० स्वस्य स्थाने तण इत्यादेशे,५१४ सू० सेर्मकारे,२३ सू० मकारानुस्वारे पत्तसरणं इति भवति । न । अव्ययपदमिदमपभ्रंशे संस्कृतसममेव प्रयुज्यते । पत्राणाम् । पत्र+याम्प त्त+प्राम् । ४२५ सुपामः स्थाने मारे, १००१ सू० अकारस्य प्रकारे, २७ सू० णकारस्यान्तेऽनुस्वाराममे पसारणं इति भवति । तव । युष्मद +डस् । ५८५ सू० युष्मदः स्थान तुह इत्यादेशे, ४२७ सू० इसो लुकि तह इति भवति । पुमः । अव्ययपदमिदम् । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १०९७ सू० स्वार्थे हु-(उ)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेोपे पुष इति भवति । छाया। छाया+सि। इत्यत्र १०१५ सू० सेर्लोप छाया इति भवति । यविजह,प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया। भवेत् । भू सत्तायाम् । भू+यात् । ७३ १ सू० भूधातोः स्थाने हो इत्यादेशे, ६६६ सू० यात् इत्यस्य जज इत्यादेशे होज्ज इति भवति । कथम् । अव्ययपदमिदम् । १८७ सू० थकारस्य हकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे, २९ सू० अनुस्वारलोपे काह इति भवति । तावत् । अव्ययपदमिदम् । २७१ सू० सस्वर-वकारलोपे, ११ सू० तकारलोपे ता इति भवति । तेः। तद्+भिस् । ११ सू० दकारलोपे,१००६ सू० अकारस्य एकारे,१०१८ सू० भिस: स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे तेहि इति भवति । पत्रपत्र+भिस् । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० तकारद्वित्वे,१००६ सू० प्रकारस्थ एकारे,१०१८ स० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे पत्तेहि इति भवति । त्वया पई इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
मम हवयं स्वया, तया त्वं, साऽपि अन्येन विनाट्यते ।
प्रिय ! कि करोम्यह, किरवं ?,मत्स्येन मत्स्यः गिश्यते ॥२।। भावार्थ:-काचिन्नायिका अन्यनाधिकासक्तं स्वपति प्रतिवक्ति-..हे प्रिय ! मम हृदयं स्वया गृहीतम्, स्वञ्च तया वनितया गृहीतोऽसि, साऽपि अन्येन पुरुषेण विनाट्यते-विडम्यते । प्रिय ! कथय अहं कि करोमि त्वच कि कुर्याः ? जगतीतले मत्स्येन मत्स्यः निस्यले-मक्ष्यते। लधीयान् मत्स्यः गरीयसा मत्स्येन भक्ष्यते इति भावः ।
मम । अस्मद् +इस् । १०५० सू० इस्-प्रत्ययेन सह अस्मदः स्थाने महु इत्यादेशे मह इति भवति । हृदयम् । हृदय+सि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, १७७ सू० दकारलोपे, २६९ सू० सस्वर-यकारस्य लोपे,४३५ सू० स्वार्थ क-प्रत्यये,१७७ सू० ककारलोपे,१०२५ सू० अकारस्य उ इत्यादेशे,१०८२ सू० उच्चारणस्य लाधवे, १०१५ सू० सेर्लोप हिउँ इति भवति । त्वया । युष्मद्+टा। १०४१ सू० टा. प्रत्ययेन सह युष्मदः स्थाने तई इत्यादेशे सई इति भवति । तया । तद्+टा । इत्यत्र ११ सू० दकारलोपे,
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चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टोकावयोपेतम् *
२१३ स्त्रीत्वाद् प्राप-(प्रा)-प्रत्यये,५ सु० दीर्घ-सन्धौ,५१८ सू० टाप्रत्ययस्य एकारे ताए इति भवति । त्वम् । युधमसि । १०३९ सू० युष्मदः स्थाने तुहं इत्यावेत.०८२७.अनूरकार
ले
१५ सु सेर्लोपे तुहूं इति भवति । सा । तद्+सि । ५७५ सू० तकारस्य सकारे,११ सू० दकारलोपे,स्त्रीत्वाद प्राप्-(प्रा)-प्रत्यये.५ स० दीर्घ-सन्धौ,१००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, सेर्लोपे स इति भवति । अपि-वि, प्रक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया। अन्येन । अन्य+टा । ३४९ सू० य कारलोपे,३६० सू० नकारस्य द्वित्वे, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य अनुस्वारे, स्थानिवत्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे अन्ने इति भवति । विनादयते । विपूर्वक: नद्धातुः विनर्तने । बिनद+क्य+ते । इत्यत्र १९५ सू० टकारस्य डकारे,६४९ सू० क्यस्य स्थाने इज्ज इत्यादेशे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ६२८ सु० ते इत्यस्य इचादेशे विनडिज्जा इति भवति । प्रिय!। प्रिय+सि | ३५० सू० रेफलोपे, १७७ सू० यकारलोपे, १०१५ सू० सेलपि पि! इति भवति । किम् । किम् +सि । १०३८ स० किमः स्थाने काई इत्यादेशे. १०१५ सेलोपे काई इति भवति । करोमि । डुकृञ्कृ करणे । कृ+मिन् । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, १०५६ सू० मिवः स्थाने उं इत्यादेशे, १०५२ सू० उच्चारणस्य लाघवे करउँ इति भवति । अहम् । अस्मद् +सि । १०४६ स० अस्मदः स्थाने हज इत्यादेशे, १०५२ स० उच्चारणस्य लाधने हमें इति भवति । मत्स्येन । मत्स्य+टा। ३४९ सू० यकारलोपे,२९२ सू त्सस्य छकारे,३६० सू० छकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वछ कारस्य,चकारे, १०१३ सू० टास्थाने अनुस्वारे, स्थानियत्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे मच्छे इति भवति । मत्स्यः । मत्स्य+ सि = मच्छ+ सि । १००२ स० कारस्थ उकारे,१०१५ सू० से ये मछु इति भवति । गिल्यते । गृवातुः निगरने । संस्कृतनियमेन गिल्+क्य+ते इति जाते, ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, अनझोने-परेण संयोज्ये,६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे गिलियम इति भवति । स्वयात इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिजर्जाता । हिना । पूर्वोक्तमुदाहरण-द्वयं अप्रत्ययस्य बोधव्यम्, परन्स्वग्रिमे उदाहरणे डि-प्रत्ययेन सह युमदः स्थाने मई इत्यादेशो भवति । यथा
स्वयि मयि द्वयोरपि रणगतयोः को अयश्रियं तर्कपति ।
केशः लात्वा यमपुहिणी भए सुर्ख कस्तिष्ठति ? ॥३॥ भावार्थ:-रणशूरो द्वौ पुरुषो निजवीरत्वं प्रशंसयन्तो शहतुः अस्वयि मयि चावयोः योरपि रगलयोः रणे-युद्धे गतयो:-गतवतोः को नाम अभियं-विजयलक्ष्मी तयति-शंकसे ? प्रावयोः सम्मुखे । को नाम योद्धा विजय प्राप्तुशक्नोति ? न कोऽपीति भावः । यतः समगृहिणीम् यमस्य कालस्य गहिणीप्रमदा केशः सात्या-गृहीत्वा कः सुखं सुखपूर्वकः तिष्ठलि-स्थातु शक्नोति ? एतत्त्वमेव भए । यथा यम'सजस्थापराधं कुर्वतो जनस्य प्राणान्तत्व सुनिश्चितं भवति तथैवाऽक्योरपि द्वयोः संग्रामाय प्रस्थितवतोः यः कोऽपि योद्धा युद्धार्थ समापमिध्यति, तस्य सर्वस्वं विनाशमुपयास्यतीति नात्र संशयः करणीयः ।
स्वयि । युष्मद्+ङि । इत्यत्र १०४१ स० डिना सह युष्मदः स्थाने पइँ इत्यादेशे पई इति भवति । मपि । अस्मद्+कि। १०४८ सू० हिना सह अस्मदः स्थाने मई इत्यादेशे मई इति भवति । द्वयोः । द्वि+प्रोस् । ६०८ सू० द्विशब्दस्य स्थाने वे इत्यादेशे, बाहुल्येन २३७ सू. वकारस्य बकारे, ६११ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१८ सू० सुपः स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणास्य लाघवे देहि इति भवति । अपि-वि, पक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया । रणमतयोः । रणगत+प्रोस् । १७७ सू० तकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुती, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१८ सू० सुपः स्थाने हि इत्यादेशे, रगगर्याह इति भवति । कः । किम् +सि। ५६० सू० किमः स्थाने क इत्यादेशे, १००३ सू० प्रकारस्य
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PassmirmHAJIUALIL
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-ammar
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२१४ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपाद: प्रोकार, १०१५ मू० सेर्लोपे को इति भवति । अयश्रियम् । जयश्री+यम् । इत्यत्र ३७५ सू० रेफात पूर्वे इकारागमे, २६० सू० शकारस्य सकारे,१०० १ १० ईकारस्य इकारे,१०१५ २० प्रमो लोपे जयसिरि इति भवति । सर्कयति । तर्क-तर्क वितर्कने । त+गिग्+तिन् । इत्यत्र ३५० सू० रेफस्य लोपे,३६० सू० ककाराद्विस्ये, ६३८ स० पिगः स्थाने एकारे, ६४२ सू० प्रादेरकारस्थ आकारे, ८४ सू० सयोगे परे ह्रस्वे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे सक्केइ इति भवति । केशः । केश+भिस् । २६० सू० शकारस्य, सकारे, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेश, १०८२ स० उच्चारणस्थ लाघवे सहि इति भवति । लास्था । ला मादाने । ला+क्त्वा । ११११ सू० क्त्वः स्थाने एप्पिणु इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेश संयोज्ये लेपिण इति भवति । यमगृहिणोम् । यमगृहिणी+अम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ४१५ सू० गृहस्थ स्थाने धर इत्यादेशे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे,१०१५ सू० प्रमो लोपेज. मधरिणि इति भवति । भण । भण-मण भणने । भण्+हि ! ९१० सू० प्रकारागमे,६६२ सू० हि इत्यस्य स्थाले म हातादेशे, १४ : सोहि भण इति भवति । सुखम् । क्रियाविशेषणमिदम् । सुख+प्रम् । १८७ सू० खकारस्य हकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० ममो स्रोपे सुह इति भवति । का किम+सि । ५६० स० किमः स्थाने क इत्यादेश,१००३ स०प्रकारस्य प्रोकारे,१०१५ सू० सेलोप को इति भवति । तिष्ठति । ठा-(स्था) धातुः गतिनिवृत्ती । स्था+तिन् । ६८७ सू० स्थाधातोः स्थाने थकम इत्यादेशे,६४७ अकारस्य एकारे, ६२८ सू० तिव इचादेशे पक्के इति भवति । स्वपिपई इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तितिा । एवं तई। एबमेत्र त इत्यादेशस्थापि प्रयोगः कल्पनीय: । प्रमा। अम्प्रत्ययेन सहाऽपि युष्मदः स्थाने पई इत्यादेशो भवति । यथा
स्वा मधल्या मम मरणं. मा मन्नतः तव।
सारस ! यस्य यो दूर-वर्ती सोऽपि सान्तस्य साध्यः ॥४॥ भावार्थ :... काचिद् वनिता स्वस्यामनुरक्तं कान्तं प्रति सारसान्धोक्त्या कथयति-हे सारस ! स्वा मुभचन्त्याः मम मरणमेव भविष्यति, तथ विरहाउसहनादिति भावः । मां मुञ्चतस्तव त्वदीयमपि भरणं भविष्यति, मम बियोगाऽसहनादिति यावत् । यो यस्य रक्तों-परोक्षो भविष्यति सोऽपि-स एवं कृतान्तस्य यमराजस्य साध्य:-भोजनमस्ति, तस्य मरणं धवमिति ।
स्याम् । युष्मद् +अम् । १०४१ सू० अमा सह युष्मदः स्थाने पइँ इत्यादेशे पई इति भवति । मुञ्चन्त्याः । मुच्लु-मुच् मोचने । मुच् + शतृ । ७६२ सू० मुचः स्थाने मेल्ल इत्यादेशे, ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे, स्त्रीत्वाद् आप-(प्रा)-प्रत्ययस्य प्राप्ती, ५२१ सू० डी-(ई) प्रत्यये, १० सू० स्वरस्थ लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये,इस्प्रत्यये,१००१ सू० ईकारस्य इकारे, १०२१ सू इसः स्थाने हे इत्यादेशे, १०५१ सू० उच्चारणस्य लाघवे मेस्लम्तिहें इति भवति । मम । अस्मद् + ङस् । १०५० सू० सा सह अस्मवः स्थाने महु इत्यादेशे मह इति भवति । मरणम् । मरण+सि । १००१ स० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० से पे मरणु इति सिद्धम् । माम् । अस्मद्+अम् । १०४८ सू० प्रमा सह अस्मदः स्थाने मई इत्यादेशे मई इति भवति । मुञ्चतः । मुन्त (मुच्} मोचने । मुच् + शतृ + ङस् । पूर्ववदेव मेल्लन्त--- इस् इति जाते, २००९ सू० इसः स्थाने हो इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणस्य सायवे मेल्लम्तहों इति भवति । तव । युष्मद् + डस् । १०४३ सूडसा सह अस्मदः स्थाने तुज्झ इत्यादेशे,१००० सू० प्रकारस्य उकारे तुझ इति भवति । सारस !। सारस+सि । १०१५ सू० सेलोपे सारस ! इति भवति । यस्य । यद+इस् । २४५ सू० यकारस्य जकारे,११ सू० दकारलोपे,१००९ सू० इसः स्थाने सु इत्यादेशे
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
२१५
जलु इति भवति । यः । यद्+सि पूर्ववदेव ज+सि । इति जाते, १००३ सू० प्रकारस्य प्रकारे, सेलपि जो इति भवति । ब्रूरवर्ती । दूरवर्तिन् + सि । १०९३ सू० दूरवर्तिन् इत्यर्थ वेग्गल शब्दः प्रयुज्यते, १००० सू० प्रकारस्थ ग्राकारे, सेलपि वेगला इति भवति । सः तद्+सि । ५७५ सू० तकारस्य सकारे, ११ सूरी, १००३ धोकारे, १०१५ सू० सेलोंपे सो इति भवति । अविवि प्रक्रिया ४८९ सूत्रे शेया । कृतान्तस्य । कृतान्त + ङस् । बाहुल्येन १२६ सू० ऋकारस्य प्रकाराभावे, १०६७ सू० कारस्य दकारे ८४ सू० संयोगे परे हस्ते, १००१ सू० ङसः स्थाने हो इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चाture लाघवे कुन्तों इति भवति । साध्यः । साध्य+सि । ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, २९७ सू० व्यस्य झका रे, ३६० सू० झकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्व ककारस्य जकारे, १००२ सू० श्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेल स इति भवति । स्वाम् प इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिता । एवं तई । एवमेव त इत्यादेशस्याऽपि उदाहणं कल्पनीयम् ।
१०४२
युष्माभिरस्माभिः यत् कुतं दृष्टं बहुकजनेन । तावत् समरभर, निशितः एकशरणेन ॥१॥
भावार्थ:- वीराः परस्परं स्ववीरत्वं दलाधन्ते । तथाहि युष्माभिरस्माभिः यत्कृतम् - युद्धे विजयः सम्पादित इति भावः । तद् बहुकजनेन, बहुरेव बहुकः, बहुकदचासी जनः बहुकजनः तेन दृष्टम् श्रवलोकितम्, तत्कृतं किस्वरूपमित्याह-सत्तावत् क्रियाविशेषणमिदम् समर-भर:, समरस्य युद्धस्य भर:भारः महान् युद्धः इति भावः । एकक्षणेन् एकं च तत् क्षणं तेन निर्जितः विजितः ।
माभिः । युष्मद् + भिस् । १०४२ सू० भिसा सह युष्मदः स्थाने तुम्हेहि इत्यादेशे, १०८१ सू० . एकारस्य उच्चारणलाघवे, १०८२ सू० अनुस्वारस्य उच्चारणलाघवे तुम्हें हिँ इति भवति । अस्माभिः । श्रस्मद् + भिस् । १०४९ सू० भिसा सह मस्मदः स्थाने म्हेहिं इत्यादेशे, १०८१ सू० एका रोच्चारणस्य लाघवे, १०८२ सू० अनुस्वारस्य उच्चारणलाघवे ब्रम्हे हिं इति भवति । यव् । यद् + सि । २४५ सू० य कारस्य जकारे, ११ सू० दकारलोपे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे इति भवति । कृतम् । कृत + सि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, ४३५ सू० स्वार्थी कप्रत्यये १७७ सू० के कारस्य लोपे, १०२५ सू० प्रकारस्य उ इत्यादेशे, १०१५ सू० सेलप किअजं इति भवति । दृष्टम् । दृष्ट +सि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, ३०५ सू० ष्ट्रस्य स्थाने ठकारे, ३६० सू० ठकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य टकारे, ४३५ सू० स्वार्थे कप्रत्यये, १७७ सू० ककारस्य लोपे, १०२५ सू० प्रकारस्य उ इस्वादेशे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे बिउ" इति भवति । बहुजनेन । बहुकजन + टा। १७७ सू० • ककारलोपे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १०१३ सू० टास्थाने णकारे, स्थानिवस्यात् १००४ सू० अकारस्य एकारे बहुअवरण इति भवति । तत् । तत्+सि । २४ सूत्रे "बहुलाविकाराद् अन्यस्थाऽपि व्यञ्जनस्य : मकारः" इति पाठेन तकारस्य मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे तं इति भवति । तावत् । तावत् + सि । १०७८ सू० वत् इत्यस्य डेवड [ एवड ] इत्यादेशे ङिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, ४३५ सू० स्वार्थिक- कप्रत्यये, १७७ सू० ककारस्य लोपे, १०२५ सू० प्रकारस्य उं इत्यादेशे, सेलवे सेवकजं इति भवति । समरभरः । समरभर + सि । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि समरभद इति भवति । निशितः । निजित +सि । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० जकारद्वित् १७७ सू० तकारद्वित्वे, १००२ सू० अकारस्य
कारे, १०१५ सू० सेलोपे निजि इति भवति । एकक्षणेन । एकक्षण+टा। ३७० सू० ककारस्य द्वित्वे, : बाहुल्येन ४० ह्रस्वाभावे, २७४ सू० क्षस्य खकारे प्रयोगदर्शनात् ३६० खकारस्य द्वित्वाभावे
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः १.१३ सू० टास्थाने णकारे, स्थानिवस्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे एकारण इति भवति । युष्माभिः- तुम्हें हि इत्पत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता ।।
१०४३- स्वत् । युष्मद्+इसि । १०४३ सू० असिना सह युष्मदः स्थाने तउ, तुज्म, तुध्र इत्यादेशाः भवन्ति । ततः-- तत, तु, तुध्र इति रूपाणि भवन्ति । भवन् । भू सत्तायाम् । भू+शत। ७३१ सू० भूधातोः स्थाने हो इत्यादेशे, ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे, ११०० सू० स्वार्थे प्र. प्रत्यये, सिप्रत्यये, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे होन्त इति भवति । आगतः । भागत+सि । १०६७ सू० लकारस्य दकारे, १००३ सू० प्रकारस्य मोकारे,१०१५ सू० सेलपि आगदो इति भवति । सा। इस्-प्रत्ययेन सह युष्मदः स्थाने ये प्रादेशा भवन्ति, तान् प्रदर्शयति वृत्तिकारः। यथा
तव गुणसम्पवंसय मतिं तब अनुत्तरी क्षान्तिम् ।
यदि सत्पस्था अग्यजनाः, महामण्डले शिक्षन्ते ॥१॥ भावार्थ:---तब गुरणसम्पवम् गुणसम्पत्तिम्, तब मतिम् सम्यग्-ज्ञानम् , तव अनुतराम,नास्ति उत्तरा उत्कृष्टा यस्याःसाती शान्ति-शामित.महोमण्डले-जगतीतले,प्रन्यजनाः-अन्ये च ते जनाः प्रत्यजनाः यदि अस्पस्या,उत्पत्तिः निष्पत्तिः-जन्म, तयंव,जन्म लब्ध्ववेत्यर्थः । शिक्ष-शिक्षा प्राप्नुयुरित्यर्थः, तदा तेषां जीवन सफल भविष्यति । कश्चिद भक्तजनः कश्चित् जगतारक महापुरुषमुद्दिश्य भणति-हे प्रभो! यदि मनुजाः तव गुणसम्पदं शिक्षेरन्, गृल्लीयुः, तद मति-ज्ञानं, तब प्रशस्तां क्षमा च गृल्लीयुस्तदा ते सुखिनो भवेयुरिति भावः ।
- लव । युष्मद्+ उस् । १०४३ सू० इसा सह युष्मदः स्थाने तउ इत्यादेशे लउ इति भवति । पुरमसंवरम् । गुणसंपद्+यम् । १०७१ सू० दकारस्य इकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे गुणसंपद इति भ. वति । तव । युष्मद् + ङस् । प्रस्तुतसूत्रेण इसा सह युष्मदः स्थाने तुझ इत्यादेशे सुज्झ इति भवति । मंतिम् । मति+अम्। १०६७ सू० सकारस्य वकारे,१०१५ सू० प्रमो लोपे मवि इति भवति । तक। युमद्-उस् । प्रस्तुतसूत्रेण इसा सह युष्मदः स्थाने सुध्र इत्यादेशे शुभ्र इति भवति । अनुत्तराम् । अनुत्तरा +अम् । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, अमो लोपे अगत्तर इति भवति । क्षान्तिम् । शान्ति प्रम् । २७४ सू० क्षस्य खकारे, ८४ स. संयोगे परे ह्रस्वे, अमो लोपे खन्ति इति भवति । यदि। अव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १७७ सू० दकारलोपे जा इति भवति । सत्पस्या । उत्पत्ति+टा ! ३४८ सू० तकारला,३६० सू० एकारद्वित्वे,१०१४ सू० टास्थाने अनुस्वारे सम्पत्ति इति भवति । अन्य जनाः । प्रन्यजन+जस् । ३४९ सू० यकारलोपे,३६० सू० नकारांद्रत्त्वे,२२८ स० तकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० जसो लोपे अन्नजण इति भवति ।महीमगरले। महीमण्डल+डि ४ स. ईकारस्य इकारे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे महिमण्डलि इति भवति । शिक्षन्ते । शिक्ष (शिक्ष) शिक्षायाम् । शिक्ष् +मन्ते । २६० सू० कारस्य सकारे, ९१० सू० घातोरन्तेऽकाराममे, २७४ सक्षस्य खकारे,३६० सू० खकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे, ६३१ सू० अन्ते इत्यस्थ न्ति इत्यादेशे सिक्यन्ति इति भवति । तब व 3, तुम, तुध्र इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१०४४-युष्मभ्यम् । युष्मद् +भ्यस् । १०४४ सू० भ्यसा सह युष्मदः स्थाने तुम्हह इत्यादेशे सम्हहं इति भवति । भवन् । भू+शत होतात, पायतः प्रागदो, इत्यस्य प्रक्रिया १०४३ सुत्र ज्ञया । युष्माकम् । युष्मद्+प्राम् । १०४४ सू० मामा सह युष्मदः स्थाने तुम्हहं इत्यादेशे तुम्हहं इति भवति ।
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Anity
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Palom
चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीका-योपेतम् *
२१७ सम्बन्धी । सम्बन्धिन+सि । १०९३ सू० सम्बन्धिन् इत्यस्य केर इत्यादेशे,३४ स० क्लीवत्वे, ४३५ सू० स्वार्थे क-प्रत्यये, १७७ सू० ककारलोपे,१०२५ स० प्रकारस्य उं इत्यादेशे,१०१५ स० सेलोपे केर इति गायक : मम् । बर:-
सि कारमा पदकारे,१००२ स० प्रकारस्य जकारे,१०१५ सू० सेलोपे घणु इति भवति । युष्मम्यम् - तुम्हह, पुष्माकम्-तुम्हह इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिांता ।
१०४५-पुष्मासु । युष्मद् +सुप् । १०४५ सू० सुपा सह युष्मदः स्थाने तुम्हासु इत्यादेशे तुम्हासु इंति भवति । स्थितम् । ष्ठा-(स्था) धातुः गतिनिवृत्तौ । स्था+-त । ६५७ सू० स्थाधातोः स्याने ठा इत्यादेशे, १००० सू० पाकारस्य इकारे, १७७ स० तकारस्य लोपे,५१४ स० सेर्मकारे, २३ सू० मकारस्य अनुस्वारे ठि इति भवति । पुष्मासु-तुम्हासु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृतितिा ।
१०४६-तस्य अहं कलियुगे दुखभस्वतसु हाँ कलिजुगि दुल्लहहो, प्रक्रिया १००९ सूत्रे ज्ञेया। अहम् =हउँ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण सौ परे अस्मदः स्थाने ह इत्यादेशो जातः। १०४५-- बर्व स्तोका, रिपवो बहवः, कातरा एवं भवन्ति ।
मुग्मे ! निभालय गगनसलं कति जना: ज्योत्स्ना कुर्वसि ॥१॥ भावार्थ:-अयं स्तोका:-अल्पसंख्यकाः स्म, रिपवः शत्रवः, यहवा-अत्यधिकाः सन्ति, एवं कातरा:-भीरवः निर्बला वा भणन्ति-निगदन्ति, यतोहि हे मुम्ने!-सुन्दरि !, गगनतलम् गगनस्य तलं, नभोमण्डलं तं निभालय--अवलोकस्व, कति-कियन्तो जनाः ज्योत्स्ना प्रकाशं कुर्वन्ति ? “एकश्चन्द्रः तमो हन्तिनच तारागणोऽपि" इति विचार्य अस्मदीया या संख्या-स्वल्पता वर्तते,तया न भीतिः करणीया। एकाकिनोऽपि वयं कार्य विधास्याम इति भावः ।
क्यम् । अस्मद् +जस् । इत्यत्र १०४७ सू० भस्मदः स्थाने अम्हे इत्यादेशे,१०१५ सू० जसो लोपे अम्हे इति भवति । स्तोकाः । स्तोक+अस्। ३९६ सू० स्तोकस्य थोव इत्यादेशे, १००१ सू० प्रकारस्य प्राकारे, जसो लोपें योगा इति भवति । रिपवः । रिपु+जस् । १७७ सू० पकारलोपे, जसो लोपे रिस इति भवति । बहवः । बहु+जस् । ११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये, जसो लोपे बहुम इति भवति । कासरा कातर-+जस् । १७७ सू० तकारस्य लोपे, १८० सू० यकार-श्रुतौ, १०१५ सू० जसो लोपे कायर इति भवति । एवम अव्ययपदमिदम । १०८९सा एवम इत्यस्व एम्व इत्यादेशे एम्ब इति भवति । भणन्तिा भण-भण् भणने । भण्+अन्ति । ९१० सू० प्रकारस्थागमे,६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे भरगन्सि इति भवति । मुम्छ ! । मुग्धा+सि । ३४८ सू० गकारलोपे,३६० सू० धकार द्विश्वे,३६१ सू० पूर्वधकारस्य दकारे, १००० सू० प्राकारस्थ इकारे, १०१५ सू० सेलोपे मुद्धि ! इति भवति । निभालय । निपूर्वकः भाल-धातुः निभालने-दर्शने । निभाल्+हि । १८७ सू० भकारस्य हकारे,९१० सू० प्रकारागमे, ६६२ सू० हि इत्यस्य सु इत्यादेशे.६६३ सू० सु इत्यस्य हि इत्यादेशे निहालहि इति भवति । गगनतलम् । गगनतल+सि । १७७ स० द्वितीय-गकारस्य तकारस्य च लोपे,१८० सू० उभयत्रापि यकारथुतो,२२८ सू० नकारस्य णकारे, १००२ स० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे गयरपयलु इति भवति । फति । कति+जस् । १७७ सू० तकारलोपे,१०१५ सू० जसो लोपे का इति भवति । जमाः । जन+जस् । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १०१५ सू० जसो लोपे जय इति भवति । योस्स्माम् । ज्योत्स्ना+पम् । ३४९ सू० यकारलोपे,३४८ सू सकारलोपे,३४६ सू० स्नस्य स्थाने पह इत्यादेशे, बाहुल्येन ८४ सूत्रस्याप्रवृत्ती १००१ सूपाकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० धमो लोपे जोह इति भवति । कुर्वस्ति । डुकृत्-कृ करणे । क+प्रन्ति । ९०५ सू० अकारस्य भर इत्यादेवो, ६३१ सूअन्ते: स्थाने न्ति इत्यादेशे करन्ति इति
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चतथपादा
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*प्राकृत-व्याकरणम् * भवति । वयम् आम्हे इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
अम्लस्वं लारवा ये गताः पषिकाः परकीयाः केऽपि ।
अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायो, या वयं तथा तेऽपि ॥२॥ भावार्थ:-ये केऽपि केचन परकीया:- स्नेहपरवशाः पपिका.....पान्थाः, अम्लस्व स्नेह लावा प्रादाय गताः, तेषां वियोगेन यया वयं सुखासिकायो-सुखशय्यायां न स्वपामः, तथा-एवमेव तेऽपि पथिका अवश्यं निश्चितरूपेणाऽस्मक वियोगेन म स्वयन्ति शयिष्यन्ते इति भावः । एतेन पथिकानां पारस्परिक स्नेहातिरेकोऽभिव्यजितः।
अम्लस्वम् । अम्लत्व+सि! १०९३ सू० अम्लत्वाऽर्थे प्रम्बण शब्दः प्रयुज्यते,१००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ स० सेलोपे अ ति भवति । लात्वा । ला मादाने । ला+वत्वा । १११० सू० त्व: स्थाने इवि इत्यादेशे,बाहल्येन १० सूत्रस्याप्रवृत्तौ लाावि इति भवति । ये । यद्+जस्। २४५ सू० यकारस्य जकारे,११ सू० कारलोपे,५४७ सू० जसः स्थाने डे (ए) इत्यादेशे,डिति परेऽन्त्य-स्वरादेलोपे ने इति भवति । गताः । गत जस् । १७७ सूतकारलोपे,१८० सू० यकार-श्रुतौ,१००१ सू० अकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० जसो लोपे गया इति भवति । पयिकाः। पथिक जस् । १५७ सू० थकारस्य हकारे, १७७ सू० ककारलोपे, जसो लोपे पहिला इति भवति । परकीयाः। परकीय+जस् । १७७ सू० ककारलोपे,१०००. सू० ईकारस्य प्राकार,१० सू० स्व रस्य लोपे,अझीने परेण संयोज्ये,१००१ सू० कारस्य प्राकारे, बाहुल्येन १७७ सू० यकारस्य लोपाऽभावे, १०१५ सू० जसो लोपे पराया इति सिद्धम् । के। किम+जस्के , प्रक्रिया ५६० सूत्रे ज्ञेया । अपि-वि, प्रक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया । अवश्यम् । अव्ययपदमिदम् । २६० सू० शकारस्य सकारे, ३४९ सू० यकारलोपे, १०९८ सू० स्वार्थे इ-(अ)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे अवस इति भवति । न । अव्ययपदमिदं संस्कृत सममेवाऽपभ्र शे प्रयुज्यते । स्वपन्ति विष्वप्-व्या स्वापे। स्व+मन्ति । २६० सू० एकारस्य सकारे,६४ सू० प्रादेरकारस्य उकारे, बाहुस्येन ३५० सू० वकारलोपे,९१० सु० प्रकारागमे, १७७ सू० पकारलोपे, १०५३ सू० अन्तेः स्थाने हिं इत्यादेशे, १०८२ स० उच्चारणस्य लाघवे सुबह इति भवति । सुनासिकायाम् । सुखासिका+डि । १०१३ सू० सुखासिकाऽर्थे सुहच्छिमा-शब्दः प्रयुज्यते, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०२३ सू० के . स्थाने हि इत्यादेशे सुहसिलहि इति भवति । यथा । अध्ययपदमिदम् । २४५ स० यकारस्य जकारे, १०७२ सू०.था इत्यस्थ डिम-(इम)-इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १०६८ स० भकारस्य सानुनासिके वकारे जिवें इति भवति । वयम् । प्रस्मद्+जस् । १०४७ सू० अस्मदः स्थाने प्रम्हई इत्यादेशे,१०१५ सु० जसो लोपे अम्हाई इति भवति । तथा । अव्ययपदमिदम् । जिव-देव ति इति साध्यम् । ते । तद + जस्ते , प्रक्रिया ५.४७ सूत्रे ज्ञेया । वयम् सम्हाइं इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवत्तिर्जाता । अस्मान् । अस्मद् + शस्। १०४५ सू० अस्मदः स्थाने अम्हे, अम्हई इत्यादेशी, १०१५ सू० शसो लोपे अम्हे अम्हई इति भवति । पश्यति । शिर-दृश दर्शने । दृश+ति देक्खइ, प्रक्रिया ८५२ सूत्रे ज्ञेया । मम्हे अम्हे इत्यादेशद्वयं प्रस्तुतसूत्रेणेव निष्पन्नं भवति । अचल-मेयो यथासंख्यामिवस्यर्थः। प्रस्तुतसूत्रे अस्-शसोः इत्यनयोः लिमित्तभूतपदयोः द्विवचनं दृश्यते, परन्तु "अम्हे अम्हई" इत्यत्र मादेशभूतपययोः द्विवचनाभावो वर्तते, वचनःभेवादेवा "यथासंख्यमनुदेशः समानाम्" इति न्यायो न प्र. वर्तते । १०४० सूपि प्रकारान्तरेण बचनभेदस्य हादं समुल्लिखितं विद्यते, तत्तथ समवलोकनीयम् ।
- १०४ मा भई इत्यपि पाठान्तरं समुपलभ्यते । प्रयोगानुसारिणी प्रवृत्तिविधेया । दा।
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★ टा-प्रत्ययस्योदाहरणं प्रदर्शयति वृत्तिकारः । यथा
मय विहिद भरा भवति विकाले ।
केवलं मृगाहोऽपि तथा तपति, यथा दिनकरः क्षयकाले ॥१॥ भावार्थ:-प्रिये ! विरहिताना प्रियाविधक्तानां पुरुषाणां कृते विकाले सन्याकाले काऽपि धराअवलम्बनं भवति ? न भवतीति अध्याहार्यम् । एतत्सर्वं मया शातम्-अवगतम् । किमधिकम्, यतः मृगाथा-मृग एव अङ्गुः-चिन्हं यस्य सः, चन्द्र इत्यर्थः । सोऽपि तथा तपति-अनया रीत्या तापं करोति यथा क्षयकाले-प्रलयकाले दिनकर:-सूर्यः तपति । चन्द्रो हि शीतलो भवति, किन्तु तस्य शीतलतापि बिरहितानां कृते महन्तं तापं जनयति, यथा कल्पान्तकाले सूर्यस्ता प्रसारयति, तथैव चन्द्रोऽपीति भावः।
मया ! अस्मद् +टा । इत्यत्र १०४८ सू०टा-प्रत्ययेन सह अस्मदा स्थाने मइँ इत्यादेशे मई ईलि भवति । शालम् । ज्ञा-धातुः अवबोधने । शा+क्त (त) । ६७८ सू०. ज्ञाधातोः स्थाने जाण इत्यादेो,६४५ सू० अकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, सि-प्रत्यये, १००२ सु० अकारस्य उकारे, ५१४ सू० सेमकारे,२३ स० मकारस्यानुस्वारे, १०८२ स. उच्चारणस्य लाघवे जाणि इति भवति । प्रिये ! प्रिया .+सि । ३५० सू०. रेफलोपे, १७७. सू० यकारलोपे, १००१ सू० याकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेपि पिम! इति भवति । विरहितानाम् । विरहित+प्राम् । १७७ स० तकारस्थ लोपे, १०१० सू० प्रामः स्थाने हं इत्यादेशे विरहिलाहं इति भवति । का । किम्+सि । ५६० स० किमः स्थाने क इत्यादेशे,स्त्रीत्वाद् प्राप्-(प्रा)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घसन्धी, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे क इति भवति । अपि-वि, प्रक्रिया ४१ सूत्रे शेया । पचा। धरा+सि। १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे,१०१५ सेलोपे पर इति भवति । भवति-होइ,इत्यस्य प्रक्रिया ७३१ सूत्रे ज्ञेया। विकाले । विकाल+ङि । १७७ स० ककारलोपे,१००५ सू० लिना सह अकारस्य इकारे विआलि इति भवति । केवलम् । केवल+सि । ४५८ सू० केवलार्थे णवर इत्यव्ययपदं प्रयुज्यते, अव्ययत्वात् संस्कृतवदेव सेलोपे गयर इति भवति । मृगाडूः । मृगाङ्क+सि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, १७७ सू० गकारलोपे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १००२ स ० अकारस्य उकारे १०१५ सू० सेलोपे मिया इति भवति । तथा| अध्ययपदमिदम् । १०७२ सू० था इत्यस्य डिह (इह) इत्यादेशे,डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे तिह इति भवति । तपति । तप-तप तापे । तप+तिन् । २३१ सू० पकारस्य बकारे, ९१० सू० प्रकारागमे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे सवइ इति भवति । यथा । अव्यय-पदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे,१७७२ सू० था इत्यस्य डिह (इह) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे जिह इति भवति । दिनकरः। दिनकर-+-सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १७७ सू० ककारलोपे, १६० सू० यकारवती, १००२ स० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलपि विणयह इति भवति । भयकाले । क्षयकाल+डि। २७४ सू० क्षस्य खकारे, १०६७ सू० ककारस्थ ग
स. रिना सहकारस्य डकारे खयगालि इति भवति । मया-मई इत्यत्र प्रस्तुतसस्य
डिना । डि-प्रत्ययस्योदाहरणं प्रदश्यते । यथा-वयि मयियोरवि रणगतयोः-पई मई बेहि वि रण-गहि, प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया। त्वमि इत्यत्र १०४१ सू० डिप्रत्ययेन सह युष्मदः स्थाने पई इति. सनस्वार प्रांदेशो जातः। बेहि इत्यथ १०८२ स० उच्चारणस्य लाघवाभादो
: 1 प्रस्ततसत्रेण मयि इत्यत्र डिना सहप्रस्मदः स्थानेम इत्यादेशोभद। अमा। यत्र प्रमा सहमस्मदः स्थाने मह. इत्यादेशो जायते, तदुदाहरणं प्रदीयते । यथा-मो मुश्वतस्तव मई मेल्लन्तहों तुः प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य चतुर्थ-श्लोके ज्ञेया । तुम्भु इत्यस्य प्रक्रिया १०३८ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया .
बोध्यः
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--mornhd
*प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपायः १०४६-पुष्माभिः अस्माभियंत कृतम् = तुम्हें हिं अम्हे हि जं किपडे, प्रक्रिया १०४२ सूत्रे शेया। कृतम् - किम इत्यत्र १०८२ सच्चारणस्य लाधलं जातम् । अस्मद - भिस इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण भिसा सह अस्मदः स्थाने अम्हें हि" इत्यादेशो जातः ।
१०५०-- म । अस्मद् + इसि । १०५० सू० सिना सह अस्मदः स्थाने महु, म इत्यादेशो, ततः मह मामु इति भवति । भवन = होन्त,प्रक्रिया १०४३ सूत्रे ज्ञेया । गतः । गत+सि । १०६७ सू० तकारस्य दकारे, १००३ सू० अकारस्य प्रकारे, १०१५ स सेर्लोपे गमो इति भवति । अस्मद् + असि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण इसिप्रत्ययेन सह प्रस्मदास्थाने महम इत्यादेशी जाती।इसा । छस्-प्रत्ययेन सह यत्र अस्मदः स्थाने माह इत्यादेशो भवति, सदुदाहरणं प्रदर्शयति वृत्तिकारः। यथा--
मम कासस्य छौ दोषों सखि !, उपासम्भस्व अलीकम् ।
बवतोऽहं परमदषता, पुज्यमानस्य करवालः ॥१॥ भावार्थ:-- काचिन्नायिका निजपतेः गुण-यमुखेन स्तुतिमाह हे सखि ! मम कारतस्य-प्रियस्य को बोषो दुगुणी स्तः, एतत्त्वम् अलीक-व्यर्थमेव मा उपालम्भस्व-न उपालम्भ देहि वद्-दृष्टो यो दोषी वर्तते तो तु गुणावेव विद्यते । यथा-एकस्ताव दानं धक्ता सता परमुत्कृष्टं यथा स्यात्तथा हमश्धता. ममोदारोविहितःप्रपरस्ताव युद्धधमानस्य-युद्धं कुर्वतः मम पत्युः युद्धन करवात-कृपाण उद्धृतः सफलीकृतः। यदा मम पतिः दानं ददाति तदा कस्याः पतिः दानं ददातोति पिपृच्छया मम नाम सर्वत्र प्रसिद्धम् । तथा यदा मम पतिः युद्धे करवाल श्रामति, तदा सैनिकाः झटिति वदन्ति-वर्शनीयः खस्वयं खड्गचमत्कारः, इति कथनेन करवालस्य सर्वत्र ख्यातिर्जायते इति भावः ।।
मम । अस्मद+इस् । १०५० स० सा सह.अस्मदः स्थाने मह इत्यादेशे महु इति भवति । कातस्य ! कान्त+इस् । ८४ सू० संयोगे परे हस्वे, १००१ सू० हुसः स्थाने हो इत्यादेशे,१०८१ सू० उ. ज्चारणस्य लाघवे कन्ताहों इति भवति । शौ। द्वि+यो। ६१९ सु० द्विवचनस्य बहुवचने,६०९सू. जसा सह दिशब्दस्य दे इत्यादेश, बाहुल्येन २३७ स. वकारस्य बकारे बे इति भवति । दोषौ । दोष+प्रौ। २६० सू० षकारस्य सकारे, ६११ सू० द्विवचनस्य बहुवचने,११०० सू० स्वार्थ डड-(प्रड)-प्रत्यये, डिति परन्त्यस्वरादेलोप, अमोने परेण संयोज्ये, १००१ सू० प्रकारस्थ प्राकारे,१०१५ सू० जसो लोपे दोससा इति भवति । स!ि सस्त्री+सि । १०९३ सूत्रेण हे सखि !' इत्यर्थे हेल्लि इत्यस्य प्रयोगे,१०१५ सू० सिप्रत्ययस्य लोपे हेल्लि! इति भवति । प्रयोगदर्शनादत्र ४ सू० एकारस्य स्थाने इकारो न जातः। मा । निषेधार्थकमव्ययपदमिदम् । १००० सू० प्राकारस्य स्थाने प्रकारे जाते म इति भवति । उपासम्भस्व । उप-माङ्-पूर्वक; लम्भु-धातुः उपालम्भे । उपालम्भव । ८२७ सू० उपालम्भ-धातो: स्थाने झख इत्यादेशे, ३० सू० अनुस्वारस्य वन्त्येि, ६६२ सू० स्वप्रत्ययस्थ स्थाने सु इत्यादेशे, ६६३ सू० सु इत्यस्य हि इत्यादेशे भाहि इति भवति । मलीकम् । अलीक+अम् । १०९३ सूत्रेण अलीकार्थे पालु इति देश्य शब्दः प्रयुज्यते, १०१५ सु० अमो लोपे आलु इति भवति । सः । हुदा-(दा)-धातुः दाने । दा+शत । १०००० प्राकारस्य एकारे,६७० सू० शतु: स्थाने न्त इत्यादेशे, उस्-प्रत्यये,१००९ सू० हस्-प्रत्ययस्य हो इत्यादशे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे पेन्तहों इति भवति । अहम् । अस्मद +-सि । १०४६ सू० अस्मदः स्थान हउँ इत्यादेशे,१०१५ सू० सेर्लोपे हर इति भवति । परम् । अव्ययपदमिदम् । २३ सू० मकारानुस्वारे, १०८९९० पर इत्यस्य पर इत्यादेशे पर इति भवति । उद्धता। उद्धृता+सि । १०९३ सू० उद्धृतार्थे उवरिप्राशब्दः प्रयुज्यते. १००१ ५० प्राकारस्य प्रकारे,सेर्लोपे उवारिध इति भवति । युध्यमानस्य । युध-युध संप्रहारे । युष्+पानश् । २४५ सू० यकारस्य जकारे,
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Homen
वसुधपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीका-योपेतम् * ८८८ सू० धकारस्य झ्भ इत्यादेशे,३६१ सू० पूर्वकारस्य जकारे, ६७० सू० प्रानशः स्थाने न्त इत्यादेशे, उस्-प्रत्यये, १००९ सू० इस स्थाने हो इत्यादेशे, १०८१ सू० उपचारणस्य लाघवे जुज्झतहों इति भवति । करवालः । करवाल+सि । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे करवालु इति भवति । मम मनु इत्यत्र प्रस्तुतस तस्य सिता !
यदि भानाः परकीयास्ततः सखि मम प्रियेण ।
प्रथ भग्ना प्रस्माकं सम्बन्धिनस्तदा तेन मारितेन ॥२॥ भावार्थ:-हे सखि ! यदि परकीयाः-शत्रुसैनिकाः, भग्ना:-मारिताः,लत:--तदा मम प्रियेन-कान्तेन,नाऽन्येनेति भावः। प्रथ-यदि चास्माकं सम्बन्धिनः-सैनिकाः भग्ना:-हताःतमातेन मारितेन-तस्मिन् प्राणनाथे मृत्युमुपगते सति, न तस्य जीवनावधिकाले इत्यर्थः ।
यविजइ, प्रक्रिया १०४३ सूत्रे ज्ञेया । भानाः । भग्न + जस् । ३४९ सू० नकारलो, ३६० सू० गकारद्वित्वे, १००१ सू० अकारस्य प्राकारे, १०१५ मु० जसो लोपे भग्गा इति भवति । परकीयाः । परकीय+जस । ४४ सू० प्रादेरकारस्य प्राकारे, ४१९ सू० कीयप्रत्ययस्य क्क इत्यादेशे, ११०० सू० स्वार्थे डड-(अड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अझोने परेण संयोज्ये, १००१ सू० अकारस्य प्रकारे, जसो लोपे पारवाडा इति भवति । ततः । अव्ययपदमिदम् । १०८८ सू० तत्तः इत्यस्य तो इत्यादेशे तो इति भवति । सखि ! सखी+सिसहि !, प्रक्रिया, १००३ सूत्रस्य प्रथम-श्लोके ज्ञेया । मम । अस्मद् +इस मज्म,प्रक्रिया १०३८ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया। प्रियेन । प्रिय+सा। १०६९ सूश्रेण रेफस्य वैकल्पिके लोपे, १७७ सू० यकारलोपे, १०१३ सू० टास्थाने णकारे, स्थानिवत्वात् १००४ सू०पकारस्य एकारे पिएण इति भवति । अथ प्रह,प्रक्रिया १०३८ सूत्रस्य चतुर्थ श्लोके या । अस्माकम् । अस्मद्+प्राम् । १०५१ सू० धामा सह प्रस्मदः स्थाने अम्हह इत्यादेशे पम्हह इति भवति । सम्बन्धिनः । सम्बन्धिन् + जस् । १०९३ सू० सम्बन्धित् इत्यस्य तण इत्यादेशे,१००१ सू० प्रकारस्य प्राकारे १०१५ सू० जसो लोपे तणा इति भवति । तदा । अव्ययपदमिदम् । १०८५ सू० तदा इत्यस्य तो इत्यादेशे तो इति भवति । तेन । तद्+टातें.प्रक्रिया १०१० सूत्रे जेया । मारितेच । मारित+टा। १७७ सूतकारलोपे, ११०० सू० स्वार्थ डड-(अड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, १०१३ सू० दास्थाने पाकारे स्थानिवत्वेन १००४ सू० अकारस्य एकारे मारिओन इति भवति । ममम इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तितिा।
१०५१-- अस्मद् भवन् मागतः सम्हह होन्त उ मागदो,प्रक्रिया १०४४ सूत्रे जेथा । अम्हहं इत्यस्य शब्दस्य साधना त्वित्थम्-अस्मद+भ्यम् । १०५१ सू० भ्यसा सह अस्मदः स्थाने प्रम्हहं इत्यादेशे पम्हहं इति भवति । भामा। ग्राम-प्रत्ययेन सह अस्मद्रः स्थाने अम्हह इत्यादेशो भवति । यथा-अथ भग्नाः अस्माकं सम्बम्धिनःसह भग्मा प्रम्हहं तणा, प्रक्रिया १०५० सूत्रे ज्ञेया। अस्मद+ग्राम् इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण माम्प्रत्ययेन सह अस्मदः स्थाने अम्हहं इत्यादेशो जातः ।
१०५२----अस्मासु। अस्मद्+सुप् । १०५२ सू० सुपा सह अस्मदः स्थाने अम्हासु इत्यादेशे मन्हासु इति भवति । स्थितम् ठिमं, इत्यस्य प्रक्रिया १०४५ सूत्र या । भस्मासु-सम्हासु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिमाला
* अथ सर्वादिलों की विधि* अपभ्रंश भाषा में सर्व प्रादि शब्दों से सम्बन्धित जो कार्य होते हैं। अब सूत्रकार
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*प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्षपादः उन कार्यों का निर्देश कर रहे हैं
१०२६-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त सर्व प्रादि शब्दों से परे प्राए सि प्रत्यय के स्थान में 'हाँ यह अादेश होता है। जैसे-१-यस्मा भवन भागता नहीं होन्त उ प्रागदो जहां से होता हुआ प्राया है], २- तस्माद् भवन मागतः तहां दोमट मागतो हो से होता हुमा प्राता है], :--- स्माद् भवन् आगतः- कहां होन्तउ पागदो [कहां से होता हुआ पाया है] यहां पर प्रकारान्त सर्वनाम यद्, तद् और किम शब्द से परे.माए इसि-प्रत्यय के स्थान में 'हाँ यह मादेश किया गया है।
१०२७-अपभ्रंश भाषा में किम् शब्द के प्रकारान्त स्वरूप से परे प्राए असि-प्रत्यय के स्थान में शिहे [इहे] यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-~
यपि तस्याः श्रुटितः स्नेहः मया सह नाऽपि सिसतार !।
तत् कस्माद वकाम्या लोबनान्यां दृश्ये (मह) शसवारम् ॥१॥ अर्थात्-हे तिलतार ! [लिल के समान जिस की मांख की तारा-कनीनिका स्निग्ध हो] यदि उस नायिका का स्नेह मेरे से समाप्त नहीं हो पाया है तो फिर वह मुझे वक्र रोषपूर्ण लोचनोंनयनों से क्यों निहारती है ? भाव यह है कि जहां हृदयों में स्नेह-सम्बन्ध होता है, वहां पर नयनों में वक्रता-कटुता नहीं हुआ करती।
___ यहां पर करमा=कि [किस कारण से] इस शब्द में प्रस्तुत सूत्र से इसि-प्रत्यय के स्थान में बिहे [इहे] यह प्रादेश किया गया है।
१०२८-अपभ्रंश भाषा में प्रकारान्त सर्व आदि शब्दों से परे पाए सप्तमी के एकवचन द्विप्रत्यय के स्थान में यह आदेश होता है । जैसे----
यस्मिन् कल्प्यते बरेण शर, विद्यते सगेन खड्गः।
सस्मिम् सादृशे भट-घटा-निवहे काम्सः प्रकाशयति मार्गम् ॥१॥ ___ अर्थात-जिस युद्ध में बाण से बाण काटा जाता है, तलवार से तलवार काटी जा रही है, योद्धा-सप घटानों के समूह वाले ऐसे युद्ध में मेरा कान्त [प्रीतम] मार्ग प्रकाशित करता है, योद्धाओं को युद्ध-कला की शिक्षा दे रहा है।
यहाँ पर१-यस्मिन् जहि [जिस में ],२-तस्मिम् तहिं [उस में ] इन शब्दों के हि-प्रत्यय के स्थान में 'हि' यह आदेश किया गया है।
एकस्मिन् अक्षिण श्रावणः, अन्यस्मिन् भाइपला, माधवः महीतल-लस्सरे, गणस्थले शरद । प्रगषु ग्रीष्म; सुखातिका-तिलवने मार्गशिराः,
तस्याः मुग्धाया मुखपङ्कजे मावासितः शिशिरः ॥२॥ . अर्थात्-पति-वियोग-जन्य दुःख से व्याकुल किसी नायिका का वर्णन करता हुमा कवि कहता है कि उस की एक आंख में श्रावण और दूसरी में भाद्रपद मास निवास कर रहा है अर्थात धावण-भाद्रपद की भांति उस के दोनों नेत्रों में अश्रुबह रहे हैं । पृथ्वी-तल के स्तर [विछौने] पर माघ मास विद्यमान है, पृथ्वी पर पत्तों का बिछौना किए हुए है। गण्डस्थल [कपोलों पर शरद् ऋतु है-लालिमा के स्थान पर श्वेतिमा आई हुई है। वियोग-जनित उष्णता के कारण अंगों में ग्रीष्मतु-ग्रीष्मता है। सुखासिका [सुख को अवस्थिति] रूप तिलवन [तिलों का बन] में मार्गशीर्ष है। अर्थात् मार्गशीर्ष
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चतुर्थंपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * मास में जैसे तिलों का अन्त हो जाता है, उसी प्रकार उस बियोगिनी के सुख रूपी तिलों का मन्त हो धुका है, और उस मुस्था-सुन्दरी के मुखपङ्कज [मुखरूपी कमल] पर शिशिर का प्रावास है, वियोग के कारण मुख की कान्ति म्लान हो चुकी है।
१-एकस्मिन एक्कहिं (एक में),२---अन्यस्मिन्म न्नहिं (दूसरे में इन दोनों पदों में किप्रत्यय के स्थान में 'हि' यह प्रवेश किया गया है।
हषय ! स्कुट सजिव इति कृत्वा कालक्षेपेण किम् ?।
पश्यामि हतविधिः कस्मिन् स्थापयति त्वया विना दु:खशतानि ||३|| अर्थात-हे हृदय ! 'तलाक' ऐसा शब्द करके विदीर्ण हो जा, फट जा, तू कालक्षेप[विलम्ब] क्यों कर रहा है ? तेरे विदीर्ण हो जाने पर मैं देखती हूं कि हतविधि-दुर्भाग्य तेरे बिना सैकड़ों दुःखों को कहां स्थापित करता है ?
यहां पर कस्मिन् कम् ि। किस में। इस शब्द के लि-गाय के स्थान में प्रस्तुत सूत्र के द्वारा हि' यह आदेश किया गया है।
१०२६-अपभ्रंशभाषा में यत, सत् और किम् (जब ये प्रकारान्त बन जाते हैं तब) इन अकारान्त शब्दों से प्रागे पाए इस् प्रत्यय के स्थान में मासु (प्रासु) यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे
कान्तः आत्मदीयः हसा सखिके ! निश्चयेन इष्यति यस्य ।
अस्त्र शस्त्रैः हस्तैरपि स्थानमपि भ्रशयति तस्य ॥१॥ अति-हे *हला सखि ! मेरा कान्त [प्रीतम] जब जिस पर रुष्ट हो जाता है, तब वह उस के निवास स्थान को प्रस्त्रों [फेक के मारे जाने वाले हथियारों] शस्त्रों [बिना फैके मारे जाने वाले हथियारों] और अधिक क्या] हाथों से भी नष्ट कर डालता है।
यहां पर... यस्य मासु (जिसके), २-तस्य तासु (उस के) इन दो शब्दों में प्रस्तुतसूत्र से उस्-प्रत्यय के स्थान में 'सु' यह प्रादेश किया गया है।
जीवितं कस्य म बल्लभक, बन पुनः कस्य मेहम् ? ।
वे अपि अवसर-निपतिसे तृणसमे गणयति विशिष्टः ॥२ अर्थात्-जीवन किसे प्रिय नहीं है ? मौर धन किसे इष्ट नहीं है? अर्थात् ये दोनों वस्तुएं सब को प्रिय हैं, इष्ट हैं, परन्तु अवसर प्राने पर विशिष्ट व्यक्ति (महापुरुष) जीवन और धन इन दोनों को तृण के समान ही समझता है, दोनों का परित्याग कर देता है।
यहां पर कस्यकासु (किस को) इस शब्द में इस्-प्रत्यय को 'डासु' यह प्रादेश किया गया है।
१०३०-अपभ्रंशभाषा में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान-विद्यमान यत्, तत् और किम इन शब्दों से मागे पाए मस्-प्रत्यय के स्थान में मह(महे)यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-१-पस्याः सम्बन्धी mजहे केरउ [जिस नारी का रिश्तेदार],२-तस्याः सम्बन्धी तहे केरउ [उस नारी का सम्बन्धी], ३-कस्याः सम्बन्धी-कहे केरउकिस नारी का सम्बन्धी] यहाँ पर यव आदि शब्दों के उस-प्रत्यय के स्थान में 'हे' यह आदेश किया गया है।
१०३१-अपभ्रंश भाषा में यदू और तद इन दोनों शब्दों के स्थान में सि और अम् इन प्रत्ययों के प्रागे रहने पर यथासंख्य-क्रमशः और ये दो मादेश विकल्प से होते हैं । जैसे-प्राङ्गाणे स्त्रियों को सम्बोधित करने का प्रयय । जैसे-भुला शकुम्तले ।।
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२२४ *प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादा तिष्ठति नाथः, यः सः रणे करोति मधान्तिम् प्रणि चिदि नाहु ध्रु रणि करदिन अम्ति (मेरे पतिदेव प्राङ्गण में विराजमान हैं, वो जो युद्ध में भ्रान्ति नहीं करता है, भाव यह है कि उस व्यक्ति को युद्ध में जो सन्देह नहीं है, इसका कारण है कि मेरे पति-देव उसके सामने प्रापन में खड़े हैं। यहां पर यः को ध्रु पोरसको ये दो प्रादेश कमशः विकल्प से किए गए हैं। प्रादेशों के अभावपक्ष में-त कम्यते पद निवहति -तं बोल्लिाइ जु निव्वहइ (उस से वह कहा जाता है, जो बह निभाता है) यहाँ पर यद् और तब इन शब्दों को क्रमशःqऔर त्रं ये दो आदेश नहीं हो सके।
१०३२-अपनंशभाषा में, नपुसकलिङ्ग में वर्तमान-विद्यमान इवम् शब्द को सि और अम इन प्रत्ययों के प्रागे रहने पर मु'यह प्रादेश होता है। जैसे--इदं कुलं तब सम्बन्धी । इदं कुलं पश्य इमु कुलु तुह तणउं । इमु कुलु देक्यु [यह कुल-खानदान तेरा सम्बन्धी है,इस कुल को देखो] यहां पर इदम् शब्द को 'इमु यह आदेश किया गया है।
१०३३ - अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिङ्ग,पुल्लिङ्ग और नपुसकलिङ्ग में वर्तमान-विद्यमान एतद् शब्द के स्थान में सि और अम् इन प्रत्ययों के परे होने पर यथासंख्य-क्रमशः एह, एहो और एह ये तीन आदेश होते हैं । अर्थात्--एतद् शब्द को स्त्रीलिङ्ग में एह पुस्लिम में एहो और नपुंसक-लिङ्ग में एतद् शब्द को एह यह प्रादेश हो जाता है । जैसे
एषा कुमारी, एष नरः, एतद् मनोरम-स्थानम् ।
एतद् मुढामा चिन्तयतो पश्चात् भवति विभातम् ॥शा अति--यह कुमारी है-कन्या है, यह पुरुष है, यह मनोरथों का स्थान है, मुखों के इस प्रकार चिन्तन करते-करते ही पीछे प्रभात हो जाता है।
यहां पर-एषा को एह । (यह कन्या) एक: को एहो (यह पुरुष) और एतद् को ए (यह स्थान) ये पादेश किए गए हैं।
१०३४-अपभ्रंश भाषा में अस् प्रौर शस् इन प्रत्ययों के परे रहने पर एतद् शब्द के स्थान में 'ए' यह प्रादेश होता है । जैसे-१-एते तेवाएषा स्थली एइ ते घोड़ा,एह थलि [ये वे घोडे हैं, यह युद्धभूमि है], २-एतान् पश्प-एइ पेच्छ [इन को देखो] यहां पर--१-एते - ए इ (ये), २. एतानुभएछ (इन को) इन पदों में क्रमशः अस् और स् प्रत्यय के परे रहते एस शब्द के स्थान में 'ए' यह प्रादेश किया गया है।
१०३५-अपभ्रंश-भाषा में अस् और शस् इन प्रत्ययों के परे रहते अवस् शब्द के स्थान में 'भोई यह आदेश होता है। जैसे
यदि पृच्छय गृहाणि वृहन्ति, ततो वृहन्ति गृहाणि अमूनि ।
विह्वलित-अनाम्युशरणं कान्तं कुटीरके पश्य ॥१॥ ..अर्थात् यदि तुम बहे घरों को पूछते हो,तो देखो,बड़े घर के सामने हैं । यदि पीडित जनों का उद्धार करने वाले महापुरुष को देखना हो तो कुटीर[छोटी कुटिया में बैठे मेरे कान्त को देखो । भाव यह है कि वह कुटीर भी बड़ा घर होता है, जहां जन-कल्याण करने वाले लोगों का निबाम रहता है। . .यहां पर १-अभूमि-मोइ [वे हैं] इस पद में अस. प्रत्यय के परे रहते अदस् शब्द को ओर यह मावेश किया गया है। अथवा-२-अभूमि पृष्य [उन को पूछो] ऐसी व्याख्या होने पर अमूनि
को 1.सूत्र का चतुर्थ श्लोक ।
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AnamaAAAAnnnnnn
चतुर्थपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★ यहां पर अवस् शब्द का शस् प्रत्यय के परे रहते 'ओई' यह रूप बन जाता है।
१०३६-अपभ्रश भाषा में सि आदि प्रश्पयों के परे होने पर इदम् शब्द के स्थान में 'आय' यह आदेश होता है । जैसे--
इमानि लोकस्य सोचमानि जातिम स्मरन्ति न भ्रान्तिः ।
प्रिय दृटे बुकुलितानि प्रिये हण्टे विहसन्ति ॥१॥ अर्थात लोगों के ये लोचन-नयन अपनी जाति का अपनी जाति वाले कमलों का] स्मरण करते हैं, इस में कोई भ्रान्ति सन्देह नहीं है, अप्रिय के देखने पर ये मुकुलित [बन्द] हो जाते हैं और प्रिय के देखने पर विकसित । भाव यह है कि जैसे सूर्यविकासी या चन्द्रविकासी कमल सूर्य या चन्द्र को देख कर विकसित तथा इन के अस्त हो जाने पर मुलित हो जाते हैं, वैसे ही प्राणिजगत के नयन भी प्रिय को देखकर विकसित-प्रसन्न और अप्रिय जन को निहार कर मुकुलित-उदासीन हो जाते हैं।
यहां पर इमानि प्रायई [2] इस पद में प्रस्तुत सूत्र से अस् प्रत्यय परे होने पर इदम् शब्द के स्थान में 'आय' यह आदेश किया गया है। पाय-यादेश का दूसरा उदाहरण
शुष्यतु मा शुष्य का सवधिः, परवानलस्य किन ?।।
यद् विलास जले ज्वलना, अनेनापि किन पर्याप्तम् ॥२॥ अर्थात-उदधि-समुद्र' सूखे अथवा न सूखे, वडवानल समुद्र की अग्नि] को इस से क्या प्रयोजन है ? जल के मध्य में वह अग्नि जलती रहती है, क्या इतना ही पर्याप्त नहीं ? अर्थात् जल में - ग्नि का सदा जाज्वल्यमान रहना, यह भी बहुत बड़ी बात है। शक्तिशाली शत्रु का भले ही बीजनाश न हो तथापि अशक्त व्यक्ति का सशक्त व्यक्ति के विरोध में खड़ा होना ही बडे साहस का कार्य है।।
___ यहां पर अनेन एण (इस से) इस पद में टा-प्रत्यय परे होने पर इवम् शब्द के स्थान में प्राय यह पादेश किया गया है। प्राय-यादेश का तीसरा उदाहरण
अस्य वध-कलेवरस्य यद वाहित तस्सारम् ।
यदि आपछाधते तवा कुष्यति, अथ वह्यते तदा भारः ॥३॥ प्रर्यात-इस दग्ध-कलेवर [निकृष्ट शरीर] में से संयम प्रादि अध्यात्म अनुष्ठानों के द्वारा जो प्राप्त कर लिया जाए, वही सार है, उत्तम है क्योंकि यदि इसे दबाया (दफनाया) जाए तो यह सड़ जाता है, और यदि इसे जलाया जाए तो इस की राख बन जाती है।
यहां पर पठित --अस्य प्रायहो" (इस का) इस पद में उस-प्रत्यय परे होने पर प्रस्तुत सूत्र से इदम् शब्द के स्थान में 'आप' यह मादेश किया गया है। १०३७. अप, शभाषा में सर्व शब्द के स्थान में साह'यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे----
सर्वोऽपि लोकः प्रस्पन्वते बृहस्वस्य कृते ।
ब्रहरवं परिप्राप्यते हस्तेन मुक्तेन ॥१॥ अर्थात---सब लोग बड़प्पन के लिए बेचैन हो रहे हैं,परन्तु यह बडप्पन तो मुक्त हस्त से अर्थात् दान करने से ही प्राप्त होता है।
यहां पर सर्वसाहु (सब) इस पद में सर्व शब्द को 'साह' यह आदेश विकल्प से किया गया है। जहां पर यह आदेश नहीं हो सका, वहां पर "सर्वः अपि" का 'सन्धु वि (सब ही) यह रूप बन जाता है।
१०३६-अपभ्र या भाषा में किम् शब्द के स्थान में काई(काई)ौर मवरण ये दो मादेश विकल्प
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AURA
२२६ * प्रकृत-क्ष्याकरणम् *
चतुपादः से होते हैं । काई के स्थान पर काई ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। अतः प्रादेश के दोनों प्रकार यथास्थान प्रयुक्त किए जा सकते हैं । जैसे
यदि म स आयाति इति ! गृहं शिमधोमुखं तब? ।
वचनं यः खण्यति सबसखिकेस प्रियो भवति न मम ॥१॥ पतहे दूति यदि वे घर नहीं पाते तो तेरा मुख प्रघः (अवनत) क्यों हो गया है ?, तू उदासीन क्यों हो गई है ?, हे सखि ! जो तेरा वचन खपिडत करता है, तेरा कहना नहीं मानता है, वह मेरा भी प्रिय नहीं हो सकता । अर्थात् मेरा भी उस से कोई सम्बन्ध नहीं है।
यहां पर-किम के स्थान में 'काई" यह आदेश किया गया है। दूसरा उदाहरण-किन दुरे पानि ?-काई नदरे हेदखद? [ वह हर नहीं देखता है] यहां पर भी किम शब्द के स्थान में 'काई यह आदेश कर रखा है। यह श्लोक का चतुर्थ चरण है, सम्पूर्ण श्लोक १०२० वें सूत्र में दिया जा चुका है। तीसरा उवाहरण
स्फोटयतः यो हुक्ममारमीय समोः परकीया का घुमा ? |
रक्षत लोकाः ! बात्मानं बालायाः माती विषमा स्तमौ ।।। इस लोक का अर्थ १०२१ वे सूत्र में लिखा जा चुका है। यहां पर कार के स्थान में कवण यह प्रादेश किया गया है । चतुर्थ उबाहरण---
सुपुरषाः कलोः अनुहरम्ति भरण कार्येण फेन ? |
यथा यथा बृहस्वं लभन्ते लपा सपा नमस्ति शिरसा ॥३॥ अति---सज्जन पुरुष कगु नामक मौधे का अनुसरण-अनुकरण करते हैं ? यह अनुकरण कैसे किया जाता है? इस बात को स्पष्ट करते हुए इलोककार कहते हैं कि जैसे कागु के पौधे को ज्यों-ज्यों फल आते हैं त्यों-त्यों बह नीचे की ओर झुकता चला जाता है, वैसे ही सज्जन पुरुष ज्यों-ज्यों बड़प्पन प्राप्त करते हैं, त्यों-त्यों शिर के द्वारा विनत-विनम्र होते चले जाते हैं। भाव यह है कि सज्जन व्यक्तियों की महानता नम्रता में है, अभिमान में नहीं।
यहां पर के कवरण [किस से] इस पद में हम-प्रत्यय के परे रहने पर किम शब्द के स्थान में 'करण' यह प्रादेश किया गया है। जहां पर प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती है वहां पर किम् शब्द को काई और कवा ये प्रादेश नहीं होते । जैसे
यथा सस्नेहा सबा मृतिका, अप जीवति नि:स्नहा।
द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां गतिका पन्या, किमर्जसि खलमेध ! ॥४॥ अर्थात-यदि वह स्नेह से युक्त है, तो वह मर चुकी है, यदि जीवित है तो स्नेह से रहित है। मेरे लिए वह दोनों अवस्थाओं में ही मृतक के समान है। इसलिए हे दुष्ट मेध! तू क्यों गरज रहा है ?
यहां पर वैकल्पिक होने के कारण प्रस्तुत सूत्र से किम् शन्द के स्थान में काई या कवण यह मादेश नहीं हो सका। प्रतः किम् शब्द का कि यह रूप बनाया गया है।
१०३६----अपभ्रंश-भाषा में सि-प्रत्यय के परे होने पर युष्म शब्द के स्थान में 'तुहं यह मादेश होता है। जैसे ---
भ्रमर ! मा परिण [इति] शम्बय, तो विश दृष्टा मा विहि । सा मालती देशान्तरिता पस्पा: [] नियसे वियोणे ।।१।।
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चतुषंपाद:
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* संस्कृत-हिन्दो-टीकाद्वयोपेतम् ★ अर्थात-हे भ्रमर! तु रुणझुणि इस प्रकार के शब्द मत कर और उस दिशा को देख कर रुदन भी न कर क्योंकि जिस के वियोग में तू मर रहा है. वह मालती [एक लताविशेष, इस के फुल बडे खुशबूदार होते है] देशान्तर [अन्य देश] चली गई है ! ।
यहां पर स्वम्-तुहं (तू) इस शाद में सि-प्रत्यय परे होने पर युष्मद् शब्द के स्थान में 'तुहूं' यह प्रादेश किया गया है।
१०४०-अपभ्रंश भाषा में सुसम्पद मान्य के स्थान में कार मोर मार बलाय गो गाने पर प्रत्येक को तुम्हे और तुम्हां ये दो आदेश होते हैं । अर्थात्-जस् प्रत्यय परे होने पर भी युष्मद् शब्द के स्थान में तुम्हे और तुम्हई ये दो प्रादेश होते हैं, भौर शस् प्रत्यय के परे होने पर भी युष्मद् शब्द के स्थान में सुम्हे और तुम्हां ये दो प्रादेश किए जाते हैं। जैसे १-यूयम् जानीय-तुम्हे, तुम्हई जाणह (तुम सब जानते हो), २-युष्मान प्रेक्षते-तुम्हे तुम्हई पेच्छइ (वह तुम को देखता है) यहाँ पर अस् पौर शास् प्रत्यय के परे होने पर युष्मद के स्थान में तुम्हे और तुम्हई ये दो प्रादेश किए गए हैं। यहां पर एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र में 'अस्-शतोः' यह द्विवचनान्त पद है, और 'तुम्हे तुम्हेई' ये पादेश पद एकवचनान्त है । स्थानी और प्रादेश में यह बचन-भेद क्यों रखा गया है ? उत्तर में निवेदन है कि इस वचनभेद का कारण ययासंख्यमनुदेशः समानाम् [स्थानी और प्रादेश की संख्या समान हो तो वहां पर आदेश क्रम से प्रथम को प्रथम और दूसरे को दूसरा इस प्रकार यथासंख्या होते हैं] इस. परिभाषा को निवृत्ति करना है । अर्थात्-वचन-भेद के कारण यहां पर इस परिभाषा की प्रवृत्ति नहीं होती है। . . . . .१०४१-अपभ्रंश भाषा में टा, कि तथा पम् इन प्रत्ययों के साथ युष्मद् शब्द के स्थान में पई [प] और तई [त]ि ये दो प्रादेश होते हैं। पर और तई ऐसा पाठातर भी उपलब्ध होता है । प्रतः प्रादेशों के दोनों प्रकार मावश्यकतानुसार यथास्थान प्रयोग में लाए जा सकते हैं । टाप्रत्यय का बाहरण इस प्रकार है--
त्वया मुक्तानामपि बरतरो! अध्याति पत्रत्वं न पत्राणाम् ।
तब पुनः छाया यदि भवेत्, कथमपि तावत् तेः पत्रः || अर्थात-हे श्रेष्ठ वृक्ष! तुझ से छोड़ देने पर भी पत्रों (पत्तों) का पत्र-त्व समाप्त नहीं होता, परन्तु तेरी छाया तो उन पत्रों के अस्तित्व पर ही निर्भर है । भाव यह है कि हे वृक्षराज ! तुम्हारे से वियुक्त हो जाने पर भी पत्रों का पत्रत्व [उन का अपना स्वाभाविक गुण] कहीं नहीं जाता, किन्तु पत्रों के अभाव में तुम्हारा तो स्वरूपही लडखडा जाता है, क्योंकि पत्रों के बिना छाया प्रदान करने की तुम्हारी क्षमता ही समाप्त हो जाती है। अतः तुम्हारी शोभा तो पत्रों के साथ ही है।
. यहां पर स्वमापई (तुझ से) इस पद में टा-प्रत्यय के साथ युष्मद शाब्द के स्थान में 'पई यह प्रादेश किया गया है। टा-प्रत्यय का दूसरा उदाहरण
मम एवम ! स्वया, तया स्वं, सापि अन्येन विनाट्यते ।
प्रिय !क करोम्पह कि त्वं मत्स्येन मत्स्प: गिल्यते ॥२॥ अर्थात्-तुझ से मेरा हृदय तथा उस से तू विडम्बित हो रहा है और वह किसी प्रत्य पुरुष से विम्बित की जा रही हैं [खिन्नता अनुभव कर रही है ] प्रिय ! मैं क्या करूं और तू भी क्या करे ? ... सच तो यह है कि बड़े मत्स्य के द्वारा छोटे मत्स्य को निगला जा रहा है।...
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राणWARLD.
२२८ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादा यहां पर-स्वया तई (तुझ से) इस पद में हा-प्रत्यय के साथ युष्मद शब्द के स्थान में 'सई' यह प्रादेश किया गया है। डि-प्रत्यय का सा
स्वयि मयि द्वयोरपि रगतयोः को जयधिध तर्कयति?।
केशः लास्था यमपुहिणी भण सुखं स्तिष्ठति ॥३॥ अर्थात-तेरे और मेरे इस तरह दोनों के रण-युद्ध में जाने पर विजयलक्ष्मी में कौन सन्देह कर सकता है ? भाव यह है कि विजय-लक्ष्मी को हम अवश्य प्राप्त करेंगे, क्योंकि यमराज की गृहिणी को केशों से पकड़ने वाला कौन सुख से रह सकता है ? प्रति कोई नहीं ।
__ यहाँ पर- स्वयि पई (तेरे) इस पद में डि-प्रत्यय के साथ युष्मद शब्द के स्थान में 'प" यह मादेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि जैसे डि-प्रत्यय के साथ युष्मद् शब्द के स्थान में 'पई यह मादेश किया गया है, वैसे प्रस्तुस सत्र से होने वाले 'सह" इस दूसरे प्रदेश का उदाहरण भी समझ लेना चाहिए । अम्-प्रत्यय का उदाहरण
स्वां मुन्धस्याः मम मरणं, मा मुख्यतः तय ।
सारस ! यस्य यः पूरवर्ती, सोऽपि कृतान्तस्य सरथ्यः ।।४।। अर्थात--तुझ को छोडती हुई का मेरा मरण है, और मुझ को छोड़ते हुए का तेरा मरण है। हे सारस ! जो जिस के दूर है, वही मृत्यु के मुख में है।
यहां पर स्वाम् = पई (तुझ) को) इस पद में अम्-प्रत्यय के साथ युष्मद को पई यह मादेश किया गया है। पाई इस प्रादेश के समान ही सई" इस पादेश का उदाहरण भी समझ लेना चाहिए।
१०४२-अपन'श-भाषा में भिस्-प्रत्यय के साथ युष्मद शब्द के स्थान में तुम्हेहि यह प्रादेश होता है। जैसे
युष्माभिः अस्माभिः यत् कृतं दृष्टं बहक-आमेन ।
तत् तावत् समरभरः निजितः एक-सरणेन ||१|| अर्थात्-तुमने और हम में जो कुछ किया है, उसे बहुत से लोगों ने देखा है। वह इतना महान युद्ध एक क्षण में ही जीत लिया गया था।
यहाँ पर-युष्माभिः-तुम्हेkि (तुम में) इस पद में प्रस्तुत सूत्र से मिस्-प्रत्यय के साथ युष्मद 'शब्द के स्थान में 'तुम्हहि' यह आदेश किया गया है।
१०४३- अपभ्रंश भाषा में असि और छस् प्रत्यय के साथ युष्मद शब्द के स्थान में १-, २-तुझ और ३--तुभ्र ये तीन प्रादेश होते हैं । जैसे-१-वंद भवन आगतः-तउ होन्तउ प्रागदो, तुज्झ होन्तउ पागदो अथवा तुध होन्तत बागदो [तुझ से होता हुमा आ गया] यहां पर इसि-प्रस्थय के साथ युष्मद शब्द के स्थान में तादि तीन प्रदेश किए गए हैं । अस्-प्रत्यय का उदाहरण
तब गुणसम्पवं, तब मति, अनुसरा शान्तिम् ।
यदि उत्पत्या अम्पजनाः महीमण्डले शिक्षन्ते ॥१॥ ... .. .. . अर्थात्-हे प्रभो ! मही-मण्डल (जगत) में तेरी गुणसम्पत्ति, तेरी मति (बुद्धि) और तेरी .. अनुत्तरप्रधान शान्ति-क्षमा से यदि अन्य लोग जन्म से ही शिक्षा प्राप्त कर लेवें तो उनका अवश्य ही कल्याण हो जाए।
यहाँ पर १.तब-तउ, २-तप-तुझऔर ३-तब-तुन, इन पदों में उस-प्रत्यय के साथ
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२२९
चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् ★
युष्मद् शब्द के स्थान में क्रमशः तत्र श्रादि तीनों आदेश किए गए हैं ।
१०४४- अपभ्रंश भाषा में भ्यस् और माम् इन प्रत्ययों के साथ युष्मद् शब्द के स्थान में 'तुम्ह' यह आदेश होता है। जैसे - युष्मभ्यं भवम् आगतः तुम्हह होन्त श्रामदो [ तुम्हारे से होता हुआ या गया ], २ --- युष्माकं सम्बन्धी धनम् तुम्हह केरडं धणु [धन तुम्हारा सम्बन्धी है] यहां पर भ्यस् और आम् प्रत्यय के साथ हम शब्द के स्थान में 'तुम्हहं' यह आदेश किया गया है।
१०४५ - अपभ्रंश भाषा में सुष-प्रत्यय के साथ युष्मद् शब्द के स्थान में 'तुम्हासु' यह आदेश होता है। जैसे - युष्मासु स्थितम् = तुम्हासु ठियं [तुम लोगों में ठहरा हुआ ] यहां पर सुप् प्रत्यय के साथ युष्म शब्द के स्थान में 'तुम्हासु' यह आदेश किया गया है।
१०४६- प्रपनश भाषा में सि-प्रत्यय परे होने पर अस्मद् शब्द के स्थान होता है। जैसे-तस्य अहं कलियुगे बुर्लभस्य तसु हउँ, कलिजुग दुल्लहहो । अहम् ह यहां पर सिप्रत्यय परे रहते अस्मद् शब्द के स्थान में प्रस्तुत सूत्र से 'ह" यह आदेश किया गया है।
में
"ह"
यह प्रादेश
२०४७ प श भाषा में जस् और शस् प्रत्यय परे होने पर अस्मद् शब्द को अहे मौर res ये दो प्रदेश होते हैं । जैसे-
वयं स्तोकाः, रिपवः बहवः कातरा एवं भणन्ति ।
1
मुग्धे ! निभालय- गगनतलं कति जमा: ज्योत्स्नां कुर्वन्ति ॥ १ ॥
अर्थात्-- हम थोडे हैं और शत्रु बाधक है, इस प्रकार की भाषा कायर लोग बोला करते हैं। मुग्धे ! [हे] सुन्दरि !] देख, गगन तल को कितने लोग प्रकाशित करते हैं? अर्थात् अकेला सूर्य ही गगनमण्डल को प्रकाश प्रदान करता है । अतः अकेलेपन से डरना नहीं चाहिए ।
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यहां पर - १ वयं ब्रम्हे हम इस पद में जस्-प्रत्यय के आगे होने पर अस्मद् शब्द को अहे यह आदेश किया गया है। दूसरा उदाहरण
अम्लत्वं (स्नेह) लावा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि । अथrयं न स्वपरित सुवासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि ||२|| अर्थात् जो परकीय-दूसरे पथिक लोग स्नेह लगाकर चले गए हैं, अवश्य ही वे सुख की शय्या
पर नहीं सो सकते। जैसे हम दुःखी हैं, वैसे ही वे भी दुःखी होंगे। यहां पर बयम् ==म्हई [ हम ] इस शब्द में अस्-प्रत्यय परे रहते अस्मद् शब्द के स्थान में अयह आदेश किया गया है। शस का उदाहरण प्रस्मान् पश्यति भ्रम्हे देवखाइ, म्हई देवख विह हम को देखता है ] यहां पर शस प्रत्यय के परे रहते अस्मद् शब्द के स्थान में 'अम्हे' और 'अम्हई' ये दो आदेश किए गए हैं। यहां एक ग्राशंका उत्पन्न होती है कि प्रस्तुत सूत्र में पठित "जस्सी" यह द्वि.. वचनान्त पद है, और "ब्रम्हे अम्हां" ये दोनों पद एकवचनान्त है। ऐसा क्यों ? उत्तर में निवेदन है कि वचनभेद से यहां " यथासंख्यमनुवेशः समानाय् [ सम-सम्बन्धी विधि यथासंख्य होती है। अर्थात् यदि स्थानी और प्रदेश की संख्या समान हो तो वहां पर आदेश क्रम से प्रथम को प्रथम और द्वितीय को द्वितीय, इस प्रकार से यथासंख्य होते हैं।" इस परिभाषा की प्रवृत्ति नहीं हो पाती ।
१०४८ - प्रपत्र श भाषा में टॉ, हि और अम् इन प्रत्ययों के साथ अस्मद् शब्द के स्थान में मह [म] यह प्रदेश होता है । मह ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है । अतः श्रादेश के ये दोनों * के लिए १००९ व सूत्र
देखो |
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* प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थवादः प्रकार यथास्थान गृहीत किए जा सकते हैं। जहां पर जैसा प्रयोग मिले वैसा ही आदेश कर लेना चाहिए । टा-प्रत्यय का उवाहरण
मया शातं प्रिये ! विरहिसानां काऽपि धरा भवति विकाले ?।
केवल मृगासोऽपि तथा तपति यया दिनकरः क्षयकाले ॥१॥ भाद... प्रिये । मैं यह जानना है कि विहित-वियोगी व्यक्तियों को विकाल [सन्ध्याकाल में बहुत बुरी दशा होती है, उन्हें कहीं पर भी शान्ति नहीं प्राप्त होतो । अधिक क्या, उस समय चन्द्रमा भी ऐसे तपता है, जैसे प्रलयकाल में सूर्य ।।
यहां पर--मया मई (मैंने) इस पद में प्रस्तुत सूत्र से टा-प्रत्यय के साथ प्रस्मद शब्द के स्थान मैं 'म' यह प्रादेश किया गया है। डि-प्रत्यय का जवाहरण-स्वयि मयि द्वयोरपि रण-पातयो:-पई मई बेहि वि रणगयहि [तेरे मेरे दोनों के ही रण में जाने परे] यहां-मयि मई इस पद में हि-प्रत्यय के साप अस्मद शब्द के स्थान में 'मई" यह आदेश किया गया है । यह श्लोक का एक अवयव है । सम्पूर्ण श्लोक १०४१ ३ सूत्र में दिया गया है। प्रम-प्रस्थय का उदाहरण-माम मुञ्चतः तव मई मेल्लन्तही तुज्मु [मुझ को छोडते हुए तेरा] यहां पर अम प्रत्ययान्त माम् इस शब्द के स्थान में 'मई" यह प्रादेश किया गया है। यह भी श्लोक का एक अवयन है । सम्पूर्ण श्लोक १०४१. सूत्र में देखो। .... १०४६-अपभ्रश भाषा में भिस्-प्रत्यय के साथ प्रस्मन शब्द के स्थान में "अम्हेहि" यह आदेश होता है। जैसे --युष्माभिः अस्माभिः यत् कृतम् = तुम्हे हि किमाउँ [तुमने और हमने जो किया यहां पर अस्माभिः इस भिस्-प्रत्ययान्त अस्मद् शब्द के स्थान में प्रम्हहि यह प्रादेश किया गया है। यह श्लोक का एक चरण है, सम्पूर्ण श्लोक १०४२ वे सूत्र में दिया जा चुका है ।
१०५० अपभ्रंश भाषा में सति और इस इन प्रत्ययों के साथ अहमद शब्द के स्थान में 'महु' और 'माझ' ये दो प्रादेश होते हैं। जैसे--मय भवन गसः मह होन्तउ गदो, मझ होन्तउ गदो [मेरे से होता हुमा गया यहां सि-प्रत्ययान्त प्रस्मन् शब्द के स्थान में मह और मझु ये दो प्रादेश किए गए हैं। इस प्रत्यय का उदाहरण
मम कान्तस्य तो वौषी, सखि ! मा उपालम्भस्व अलीकम् ।
बवतोऽहं परमवता यध्यमानस्य फरवालः ॥१॥ ___ अर्थात्-हे सखि ! मेरे कान्त (प्रीतम) में दो दोष-अवगुण हैं, यह तु व्यर्थ उपालम्भ दे रही है, क्योंकि वे तो गुण ही हैं। देख,दान करते हुए उसने मेरा उद्धार कर दिया है, मेरा नाम अमर बना दिया है। दूसरे युद्ध करते हुए उसने तलवार का उद्धार कर दिया है,प्रर्थात् -- युद्ध में तलवार के कमकार देखकर लोग तलवार के गीत गाते नहीं बकते हैं।
यहां पर स्-प्रत्ययान्त स्मद्-शब्द (मम) के स्थान में 'मह' यह प्रादेश किया गया है। इस प्ररथम का दूसरा उदाहरण इस प्रकार है
पदि भग्नाः परकीयाः ततः सखि मम प्रियेरण।
अप भग्ना अस्माकं सम्बषिना, तवा तेन मारितेन ॥२॥ ......अर्थात-यदि शत्रुपक्ष के सैनिक मारे गए हैं तो हे सखि ! वे मेरे प्रिय के द्वारा ही मारे गए है, और यदि हमारे सैनिक मारे गए हैं तो उस के मारे जाने के बाद ही । भाव यह है कि मेरे प्रीतम . की अवस्थिति में हमारा कोई नुकसान नहीं कर सकता था।
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चतुर्थपाद:
★ संस्कृत-हिन्दी टीकाद्वयोपेतम् ★
२३९
यहां पर इस प्रत्ययान्तस्मद् शब्द (मम) के स्थान में प्रस्तुतसूत्र के द्वारा मज यह प्रादेश किया गया है।
१०५६-श भाषा में और माम् इन प्रत्ययों के साथ अस्मद् शब्द के स्थान में अहं यह आदेश होता है । जैसे- १ - प्रस्मद् भवन् आगतः = श्रम्हहं होम्सउ प्रागदो [हमारे से होता हुआ भा गया है ] यहां पर स्-प्रत्ययान्त अस्मद् शब्द (मस्मद्) के स्थान में 'अम्हहं' यह प्रादेश किया गया है। आम्-प्रत्यय का उदाहरण भग्नाः अस्माकं सम्बन्धिनः अह भग्गा अम्हहं तथा [ यदि हमारे सम्बन्धी पक्ष वाले मारे गए हैं] यहां पर आम्-प्रत्ययान्त भस्म शब्द (अस्माकम् ) के स्थान में 'अहं' यह प्रादेश किया गया है।
१०५२ - प्रपत्र 'शभाषा में सुष-प्रत्यय के साथ अस्मद् शब्द के स्थान में 'बम्हासु' यह आदेश होता है। जैसे - अस्मासु स्थितम् म्हासु ठिप्रं (हमारे में रहा हुआ है। यहां पर सुप्-प्रत्ययान्त अस्मद् शब्द (अस्मासु ) के स्थान में 'अम्हासु' यह आदेश किया गया है।
★ अथ स्यादि विधिः *
· १०५३ - स्यादेराव - श्रथस्य संबन्धिनो हि न वा । ८ । ४ । ३८२ । त्यादीनामाद्य त्रयस्य संबन्धित बहुष्वर्थेषु वर्तमानस्य वचनस्याऽपभ्रंशे हि इत्यादेशो वा भवति । सहे सोह धरहि, न मल्ल-जुज्भु ससि राह कहि । तहें सहहिं कुल भमर-उल-तुलिश, न तिमिर डिम्भ खेल्लन्ति मिलि ॥ १॥ १०५४ - मध्य त्रयस्याश्र्वस्य हिः । १४१३८३ त्यादीनां मध्य त्रयस्य यदाद्यं वचनं तस्यापभ्रंशे हि इत्यादेशो वा भवति ।
मुह-करिब
श्रात्मनेपदे ।
सप्तम्याम् ।
audieा ! पिउ पिउ भणवि कित्तिउ रुनहि हमास ! | तुह जलि मह पुणु वल्लहइ बिहुँ वि न पूरिय प्रास ॥१॥ auपोहा ! कई बोल्लिएण, निग्विण ! वार इ वार । सायरि भरि विमल-जलि लहहि न एक्कइ धार ॥२॥ श्रहिं जन्महिं अनहिं वि गोरि ! सु दिज्जहि कन्तु । गय मत्तहँ चसकुसहं जो प्रभिss हसन्तु ॥३॥
पक्षे । रुमसि । इत्यादि ।
१०५५ बहुत्वे हुः । १४१३८४| त्यादीनां मध्यम त्रयस्य सम्बन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमानं यद्वचनं तस्यापा से ह इत्यादेशो वा भवति ।
बलि प्रमणि मह-महणु लहुईहूना सो इ । जर इच्छहु, वड्डसण, देहु म मगह को इ ॥ १ ॥
पक्षे । इच्छत् । इत्यादि ।
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प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः
१०५६ -- श्रन्त्य त्रयस्याऽऽद्यस्य उ । ८ । ४ । ३८५। त्यादीनामन्त्य त्रयस्य यदाद्यं वचनं तस्यापत्र शे से इत्यादेशो वा भवति ।
२३२
बलि जिउँ सुस्सु । ( ३३८, ४) पक्षे । कङ्क्षामि इत्यादि ।
fate विडउ पीडन्तु यह मं धणि ! करहि विसाउ ।
संपs कडुडें वेस जियें छुडु अग्es बबसाउ ॥ १ ॥
१०५७ - बहुत्वे हुं । ८ । ४ । ३८६१ स्यादीनामन्त्य त्रयस्थ सम्बन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमानं यद्वचनं तस्य ह इत्यादेशो वा भवति ।
पक्षे । लहिमु । इत्यादि ।
१०५८ - हि स्वयोरिवदेत् । ८ १४ । ३८७ पाहिलयोरप ए य आदेशा वा भवन्ति । इत् ।
उत्
खग्ग-बिसाहिउ जहिँ लहहुं पिय ! तर्हि देसहिँ जाहुँ । रण-दुभिक्यें मग्गाई विणु जुज्झें न बलाहुं ॥१॥
कुंजर ! सुमरि म सल्लइउ सरला सास में मेल्लि । कवल जि पाविय विहि-वसिण ते चरि माणु म मेल्लि ॥१॥ भमरा ! एत्थु वि लिम्बड के वि वियहडा विलम्बु । घण-पत्तलु छाया - बहुलु फुल्लइ जाम कयम्बु ॥२॥ प्रिय ! एम्aहिँ करें" सेल्लु करि छडुहि तुहुँ करवालु । जं कrafra बपुडा लेहिं प्रभग्गु कालु ॥३॥ पक्षे । सुमरहि । इत्यादि ।
एतु
१०५६-- वत्स्यति स्यस्य सः । ८ । ४ । ३८८ | अपभ्रंशे भविष्यदर्थ विषयस्य त्यादेः स्वस्य सो वा भवति ।
fever जन्ति झडपह पड़हिं मनोरह पछि ।
जं श्रच्छ तं मणिश्रइ होसइ करतु म अच्छि ॥१॥ पक्षे | होहि । ★ अथ ल्यादि-विधिः ★
अपभ्रंश भाषायां तिव्, तस्, अन्ति इत्यादि प्रत्ययानां स्थाने यद्विधि-विधानं वर्तते, तत्प्रदर्शयति वृत्तिकारः । यथा
१०५३ - मुख-करी-बन्धी तस्यां शोभां परत:, इस महल युद्धं शाशि- राहू कुरुतः । तस्याः राजन्ते कुरलाः भ्रमर-कुल- तुलिताः इव तिमिर डिम्भाः तेलन्ति मिलिताः॥ | १ || भावार्थ:- कस्याश्चन नायिकायाः शोभातिशयं वण्यते । यथा शशिरा श्रशी व राहुश्च
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् * शशिराहू, मल्लयुद्धम्-मल्लयोः युद्धं कुरुतः, एव एवमेव सस्था:-प्रत्योपलभ्यमानायाः कस्यादिचरमाथिकाया: मुख-कवरी-बन्धी, मुखं च कबरीबन्धश्च, मुखकबरोबन्धी, कबर्याः वेश्याः बन्धः-रचनाविशेषः, तो शोभा धरतः । अंक मुखं शशितुल्य गौरवर्णत्वाल, कब बन्धः राहुसमः कृष्णवर्णसाम्यात् । तस्याः ललनायाः मुख-कबीरबन्धावन्योऽयं शशि-राहू इव युद्धं कुर्वन्तौ प्रतीयेते । पुनरुत्प्रेक्ष्यते, तस्याः करला:केशाः, राजन्ते, किम्भूता: केशाः, भ्रमर-कुख-तुलिताः, भ्रमराणां कुल-समूहं तस्येव तुलिता-समानाः, अथवा चपलाः। पुनः किंभूतास्ते कुरलाः? तिमिर-डिम्भा इथ, यथा तिमिरस्य अन्धकारस्य डिम्भाःबालाः, ते मिलिताः सम्मिल्य खेलन्ति-क्रीडां कुर्वन्ति, एवमेव शशिराहु-भूतास्ते कुरलाः अपि क्रीडा कुर्वतीति भावः ।' :::
मुख-कबरी-बन्धौ । मुख-कबरी-बन्ध+प्रौ। १८७ सू० खकारस्य हकारे,४ सू० ईकारस्य इकारे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवन्दने, १०१५ मा जन्मोत्ये सह-कवरिबन्ध इलि भवति । तस्याः । तद्+इस् । ११ सू० दकारलोपे, स्त्रीत्वाद प्राप्-(प्रा)-प्रत्यये, ५ सू दीर्घ-सन्धी, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०३० सू० डस स्थाने डेहे (अहे) इत्यादेशे,डिति परेऽन्यस्वरादेलोपे,१०८१ सूत उच्चारणस्य लाघवे तहे इति भवति । शोभाम् । शोभा-+ अम् । २६० सू० शकारस्य सकारे, १८७ सू० भकारस्य हकारे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० अमों लोपे सोह इति भवति । धरतः। धू-धृ धारहों। + तस् । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०५३ सू० प्रन्ति इत्यस्य स्थाने हि इत्यादेशे धरहि इति भवति । इव । अव्ययपदमिदम् । १९१५ सू० इवार्थे नं इत्यस्य प्रयोगे में इति भवति । मल्ल-युद्धम् । मल्लयुद्ध+अम् [युध्-धातुः संप्रहारे। युधू । त-त । २४५ सू० यकारस्थ जकारे, ८८८ सू० धकारस्य झझ इत्यादेशे, ३६१ सू० पूर्वझकारस्थ जकारे, बाहुल्येन ६४५ सूत्रस्याऽप्रवृत्ती, १७७ सू० तकारलोपे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये मल्लजुज्झ+अम्, इति जाते] १००२ सूअकारस्य उकारे, १०१५ सू अमो लोपें मल्लजुम् इति भवति शशि-राहू। शशिराहु+औ । इत्यत्र २६० सू० उभयत्रापि शकारस्य सकारे,६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१५ सू. जसो लोपे ससिराहु इति भवति । कुरुतः । डुकृञ्- करणे । कृ+तस् । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०५३ सू० अन्ति इत्यस्य हि इत्यादेशे करहि इति भवति । राजन्ते । राज-राज दीप्तौ । राज+अन्ते । ७७१ सू० राज्धातोः स्थाने सह इत्यादेशे, १०५३ सू० अन्ते इत्यस्य स्थाने हिं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे सहहिं इति भवति । कुरलाः । - रल+जस् । १०१५ सू० जसो लोपे कुरल इति भवति । भ्रमर-कुल-तुलिताः । भ्रमरकुलतुलित+जस् । ३५० सू० रेफलोमे, १७७ सु० ककारस्य अन्तिम-तकारस्य च लोपे, जसो लोपे भमर-उल-तुलि इति भवति । बाहुल्येनाऽत्र १७७ सू० तकारस्य लोपो न जातः । तिमिर-डिम्भाः। तिमिर-डिम्भ+स् । १०१५ स० जसो लोपे लिमिरडिम्भ इति भवति । खेलन्ति । खेल-खेल कोडायाम । खेल् +अन्ति । ९०१ सू० लकार-द्विस्बे, ९१० सू०.धातोरन्तेऽकारागमे, ६३१ सू० अंन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे खेल्लन्ति इति भवति । मिलिताः। मिलित + जस् । १७७ सू० तकरलोपे, १०१५ सू० जसो लोपे मिलिग इति भवति। घरतः धरहि, कुचल करहिं, राजन्ते-सहहिं इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। १०५४--- चातक ! पिड पिउ [इति] भामित्वा कियद रोविषि हताश!)
सद अले, मम पुनवल्लो द्वयोरपि न पूरिताशा ॥१॥ . भावार्थ:---- काचिद् वियोगिनी नायिका चातकान्योत्स्था मनः समाधातु वेष्टते । हे चातक !
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aanwarmyanmamtara
* प्राकृत-व्याकरणम् -
चतुथपाः किंभूतोऽसौ चातकः, हताश, हता-भग्ना पाशा यस्य, सः, तत्सम्बोधनम् निराश-चातक ! पिउ पिउ इति भणित्वा कियत् रोविषि ? कियरकाल-पर्यन्त रोदनं करिष्यसि ? रोदनं न विधेयमिति यावत् । हेतुराह-सव प्रीतिः असे वर्तते, मम पुनः वस्लमे-प्रियतमे विद्यते, परं दुदैर्वाद द्वयोरपि आशा न पूरिता भविष्यति, मतः चिन्ता न विधेहीति भावः।
पातक ! । चातक+सि । १०९३ सू० चातकाऽर्थ प्रप्पीह-शब्दः प्रयुज्यते,१००१ सू० अकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० सेर्लोपेवप्पीहा! इति भवति । पिपित इति ध्वनेरनुकरणमपभ्रशे एवमेव प्रयुज्यते। नायिकापक्षे तु प्रियः प्रियः एवं भवति । तदा-प्रिय+सि,प्रिय+सि इति स्थिते, ३५० सूत्रेण रेफलोपे, १७५ स० कारलोपे. ११०२ सरकारस्य प्रकारे.१०१५ सू० सेलोपे पिज पिउ इति भवति । भरिणस्वा । भण-भण् भणने । भण्+क्त्वा । १११० सु० स्वः स्थाले अवि इत्यादेशे, अम्झीने परेण संयोज्ये भरगति इति भवति । कियद । कि मानं यस्य तद् । हैमशब्दानुशासनस्य संस्कृतव्याकरणस्य *७११११४८। सू० अतुप्रत्यये किमः स्थाने किय इत्यादेशे च किम्+प्रत इतिजाते, ४२८ सू० प्रतोः स्थाने डित् एत्तिम इत्यादेशे डिसि परेऽन्त्यस्वरादेलोप, अझीने परेण मंयोज्ये,मम्-प्रत्यये, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५९० अमो लोपे किलिउ इति भवति । रोविधि । रुदिर-रुद अर्थत्यागे । रु+सिन् । ९१० सू० अकारस्यागमे,१७७ सू० दकारलोपे, १०५४ सू० सिवः स्थाने हि इत्यादेशे इअहि इति भवति । हता। हताश+सि। १७७ सू० तकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ, २६० सू० शकारस्थ सकारे, १०१५ सू० सेलोपे हयास ! इति भवति । तव । युष्मद् +इस्-तुह, प्रक्रिया ५८८ सूत्रे ज्ञेया । जले । जल+डिः । इत्यत्र १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे अलि इति भवति । मम महु, प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। पुनर्पु णु, इत्यस्य प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। बल्लमे। वल्लभ+डि। १५७ सू० भकारस्य हकारे, ११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे बल्लहा इति भवति । द्वयोः। द्वि+प्रोस् । ६०८ सू० द्विशब्दस्य वे इत्यादेशे,बाहुल्येन २३७ स० बकारस्य बकारे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १००० सू० एकारस्य इकारे, १०११ सू० प्रामः स्थाने हुं इत्यादेशे, १०८२ सू० उपचारणस्य लाघवे बिई इति भवति । अपिज्य वि, प्रक्रिया ४१ झेया ।न। अध्ययपदमिदं संस्कृतसममेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । पूरिता । पूरिता+सि । इत्यत्र १७७ सू० तकारलोपे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोपे पूरिम इति भवति । आशा । प्राशा+ सि। २६० स०शकारस्थ सकारे,१००१२० प्राकारस्य प्रकारे,१०१५ स० सेलोपे आस इति भवति । रोविषिम्य हमाहि इत्यत्र प्रस्तुतमस्य प्रवृत्तिर्जाता । प्रात्मनेपदे । रोविषि इति परस्मैपदस्य प्रयोगः, पत्र प्रस्तुतसूत्रेण सिवप्रत्ययस्य स्थाने हि इत्यादेशो विहितः । सम्प्रति आत्मनेपदीय-क्रियापदस्योदाहरण प्रदर्शयति वृत्तिकारः । यथा
घातक ! कि कथितेन, निर्षण ! बारम्बारम् ।
सागरे मृते विमलजले लमसे न एकामपि धाराम् ।।२।। भावार्थ:--हे निण!, निर्गता घृणा-लज्जा यस्मात् सः,सरसम्बोधनम्, हे चातक ! बार बारम् पौनः पुण्येन कथितेन-कथनेन किम् ? न किमपीत्यर्थः । यतः विमलजले, विमल-निर्मल जल यस्मिन्,
तस्मिन् मृत परिपूर्णे सागरे-पयोधौ एकामपि चारा न लभसे । अयं भावः-रे निर्लज्ज चातक ! सम्मुखे . किमोऽसुरिकिय चास्य ७१।१४८ प्राभ्या मानाभ्यो षष्ठ्यर्थ मयेऽतु: स्माद, सत्योगे चाऽनयोः पयासल्यमियकियो स्पाताम् । इमान किमान पटः ।सिडहेमलम्बामुशासने ।
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S
C
चतुर्थपाद:
★ संस्कृत-हिन्दी टीका-द्वयोपेतम् ★
수원보
fareedaतो यः सागरो विद्यते तत्र त्वमेकामपि बिन्दु पातु न शक्नोषि तहि व्यर्थमेव पि पिउ इतिकथनेन को नाम लाभो भविष्यति ? न किमपीति यावत् ।
'घातक' ! | चातक+सि बप्पीहा प्रक्रियाऽस्मिन्नेत्र सूत्रे पूर्वश्लोके ज्ञेया । किम् काइँ, प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । इत्यत्र १००१ सू० प्राकारस्य स्याने प्रकारे कृते इत्यपि भवति । fada | कथ (क) धातुः कथने प्रतिपादने । कय् + क्त-त । इत्यत्र ६७३ सूत्रेण कथ्धातोः स्थाने बोल्ल इत्यादेशे, ६४५ सू० प्रकारस्य स्थाने इकारे, टा प्रत्यये, १७७ सू० तकारलोपे, १०१३ सू० टास्थाने णकारे, स्थानिवत्वात् १००४ सू० प्रकारस्य स्थाने एकारे बोल्लिएण इति भवति । निर्घुण ! | निर्घुण + सि ३५० सू० रेफलोपे, १२० सू० ऋकारस्य इकारे, ३६० सू० चकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वधकारस्य गकारे, १०१५ सु० सेर्लोपे निधन ! इति भवति । बारम् बारम्। वार+श्रम् बार + श्रम् । बाहुल्येन २३७ सू० बकारस्य वकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे वार, वार ४८८ सूत्रेण पादपूरणार्थाय इकारस्य प्रयोगे बार ६ वार इति भवति । सागरे । सागर + ङि । १७७ सू० गकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ १००५. सू० दिना सह प्रकारस्य इकारे सायरि इति भवति । श्रुते । डुभृञ्- [भृ] चारण-पोषणयोः । भू+क्त त । ९०५ सू० ऋकारस्य और इत्यादेिशे, ६४५ सु० प्रकारस्य इकारे, डिप्रत्यये, १७७ सू० तकारलोपे, ११०० सू० श्रप्रत्यये १००५ सू० डिना सह कार इकारे रातभरि विमलजल + ङि । १००५ ० हिना सह अकारस्य इकारे विमलअलि इति भवति । सभसे । डुलभष् - लभ् प्राप्तौ । लभ् + से । ९१० सू० अकारागमे, १८७ सू० भकारस्य हकारे १०५४ सू० से इत्यस्य हि इत्यादेशे लहहिं इति भवति । न । अव्ययपदमिदमपत्र दो संस्कृतसममेव प्रयुज्यते । एकाम् । एका + अम् । ३७० सू० ककाराद्वित्त्वे, बाहुल्येन ८४ सू० ह्रस्वस्याभावे, १००१ सू० श्राकारस्य प्रकारे, ११०० सू० अप्रत्यये, १००० सू० अकारस्य इकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे एक्कइ इति भवति । धाराम् । धारा + अम् । १००१ सू० आकारस्य प्रकारे, अमो लोपे चार इति भवति । लभते -लहहि इत्ययमात्मनेपदस्य प्रयोगः अत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिता । सप्तम्याम् । सप्तम्याम् [ विधिलिङ्-लकारे] प्रस्तुतसूत्रेण यत्र मध्य-त्रयाद्य-नचनस्य स्थाने हि इत्यादेशो भवति, तदुदाहरणेन प्रदर्शयति वृत्तिकाः । यथा
SA
ग्रस्मिन् जन्मनि सम्यस्मिन्नपि गौरि ! सं बचाः कान्तम् ।
गजानी मानी त्यक्ताङ्कुशानां यः [सम्मुखे] संगच्छते हसन् || ३॥
भावार्थ:-- श्रद्धाभरयुक्ता काचिन्नायिका निजपतये पार्वतीं प्रार्थयते । यथा- हे गौरि !, पावेति!, तं तादृशं कान्तं प्राणनाथं हि अस्मिन् जन्मनि तथाऽन्यस्मिन्नपि जन्मनि दद्याः देहि यः कान्तः त्यक्ताङ्कुशानाम् त्यक्ताः प्रङ्कुशाः यै:, तेषामङ्कुश - नियन्त्रण हि तानां, मसानाम्-मदयुक्तानां गजानाम- हस्तिनामध्य हसन सहर्ष संग-सम्मुखमभ्येति ।
अस्मिन् । इदम् + ङि । १०३६ सू० इदम: स्थाने पाय इत्यादेशे, १०२० सू० डे: स्थाने हि ६त्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे आवहिं इति भवति । जन्मनि । जन्मन् + ङि । ३३२ सू० नमस्य मकारे, ३६० सू० मकारस्य द्विस्, ११ सुं० नकारलोपे ३५ सू० स्त्रीत्वे, १०२३ सू० है: स्थाने हि इत्थादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य साघवें जन्महिं इति भवति । अम्यस्मिन् । अन्यद + ङि । ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० नकार विस्वे ११ सू० दकारलोपे, १०२८ सू० है: स्थाने हि इत्यादेशे अम्नाहिं इति भवति । प्रपत्र इत्यस्य प्रक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया गौरि ।। गौरी+सि । १५९० श्रीकारस्य श्रोकारे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, १०१५ सू०-सेलॉपे गोरि ! इति भवति । सम् । तंदु + अम् । बाहुल्येन ५७५ सू
ww
+
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मोहरोपक
* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः सकारस्य सकारे,११ सू० दकारलोपे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० अमो लोपे सु इति भवति । वद्याः । इदा-दादाने । दा+यास् । ६६७ सू.० प्रकृति-प्रत्यययोर्मध्ये जज इत्यस्य विकरणे, १००० सू० प्राकारस्य इकारे, १०५.४सू० यास् इत्यस्य हि इत्यादेशें बिजहि इति भवति । अयं सरम्या:-विधिलिङ्गस्य प्रयोगों ज्ञातव्यः। कान्तम् । कान्त-+पम् । ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १००२ सू० प्रकारस्य उ
। कन्तु इति भवति ।जानाम् । गज+प्राम् । इत्यत्र १७७ सू० जकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ,१०१६ सू० पामो लोपे गय इति भवति । मसानाम् । मत्त+पाम् । १०१० सू० प्रामः स्थाने ह इत्यादेशे.१०५२ स० उच्चारणस्य लाघवे मत्त] इति भवति । त्यक्ता-कुशानाम् । त्यक्ताङ्कुश+माम् । २८४ सू० त्यस्य चकार,३४: सु०संयुक्तककारस्य लोपे, ३६० सुतकारद्वित्त्वे,२५ सू० डकारस्यानुस्वारे, ३० सू० अनुस्वारस्य वरिये, ८४ सू० सयोंगे परे ह्रस्वे, २६० सू शकारस्य "सकारे, १०१० सू० प्राम: स्थाने ह इत्यादेश वत्सहकुसह इति भवति । यः । यद्+सि । २४५ सू० य
कारस्य जकारे,११ सू० कारलोपे,१००३ सू० प्रकारस्य प्रोकारे,१०१५ सू० सेलोपे जो इति भवति । 'संगम्यते । सम्पूर्वकः गम्ल (गम् धातुः संगमने । सम्-गम+ते 1 ८३.५ सू० सम्गमः स्थाने अभिड इत्यादेशे, ६२४ सू० ते इत्यस्य इचादेशे अमिर इति भवति । हसन् । हस् हासे । हस्+शतृ । ९१० सू० प्रकारागमे ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे,सिप्रत्यये,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलपि हसम्त इति भवति । बधा:- विज्अहि. इत्पत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्ति जीता । पक्षे । प्रस्तुतसूत्रप्रवृत्यभावपक्ष इत्यर्थः । यथा-रोविषि । रुदिर्-रुद् रोदने । रुद्+सिव । ११० म० अकारागमे, १७७ सूद. कारलोपे, १०५४ स० सिचु-प्रत्ययस्य वैकल्पिके हि इत्यादेशे असि, हि इत्यादेशेभावपक्षे तु ६२९ सू० सिवः स्थाने सि इत्यादेश असि इति भवति । वैकल्पिकत्वादत्र प्रस्तुतसूत्रेण सिव: स्थाने हि इत्यादेशो न विहितः । इत्यादि । एवमेवान्येऽपि प्रयोगाः स्वयमेव कल्पनीयाः ।
१०५५-.. ..बलेरस्यने मधुमयनोलघुकी भूतः सोऽपि । . . . . . . . . .सवि इच्छथ बहरत्र वत्स, मा मार्गयत कमपि ॥१॥
भावार्थ:-- कविः दासस्य महरवं दृष्ट्रासद्वारेण वर्णयति । यदि यूयं बृहस्-महत्त्वमिच्छाय-अभिलषय तदा उत्त-दानं कुरुत, किन्तु कमपि मान्न मार्गयत-कस्यापि दातृ सज्जनस्यान्वेषणं न करणीयम्, याचना मा: कुरुतेति भावः । यतोहि स जगत्प्रसिद्धः मधुमथनः, मधुम-मधुनामकराक्षसं मटनाति-हिन...स्तीति मधुमथनः विष्णुः सोऽपि बले:-पाताल-राजाद अभ्यर्थ मे-याचने लघुकीभूतः, वामनावतार-धार. ऐन लघुतमो भूतः। अतः कदाचिदपि याचना न करणीयेति भावः । .. . .बलेः । बलि इस 1 इत्यत्र १०१६ सू० ङसो लोपे बलि इति भवति । अभ्यर्थ ने. अभ्यर्थन+
'बि । ३४९ सू० कारलोपे, ३६० सू० भकारद्वित्वे,३६१ सू० पूर्वभकारस्य बकारे,३५० सू० रेफलोपे, --.". ३.६० सू० थकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वथकारस्य तकारे, २२६.सू० नकारस्य कारे, १००५ सू०
...बिना सह प्रकारस्य इकारे अम्भरपरिण इति भवति । मधुमअनः । मधुमथल-+- सि । १८७ सू० धकार....स्य थकारस्य च हकारे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे .. महमाहा इति भवति । लघुकीभूतः । लघुकीभूत+सि । इत्यत्र १८.७ सू कारस्य भकारस्य च हकारे, :. १७७.सू. कारस्थ तकारस्य च लोपे, १००१ सू० प्रकारस्य पाकारे, १०१५ सू० सेलोपे लहुई हा
इति भवति । सः । तद् +सि । ५७५ स० तकारस्यः सकारे, .११ सू दकारलोपे, १००३ सू० प्रकार.: स्प्रोकारे, १०१५ सु० सेलोपे तो इति भवति । अपि अव्ययपदमिदम् । ४१ सू० अपेरादेरकारस्य
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चतुथपादः
संस्कृत-हिन्दी - टीकाद्वयोपेतम् ★
२३७
लोपे, १७७ सू० पकारलोपे इ इति भवति । यदि । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १७७ सू० दकारलोपे जइ इति भवति । इच्छ्थ। इषु- इष इच्छायाम् । इष् +थ । ८८६ सू० पकारस्य उकारे ३६० सू० छकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वं छकारस्य चकारे, १०५५ सू० य इत्यस्य स्थाने हु इत्यादेशे इच्छाह इति भवति । बृहस्वम् । बृहत्त्व +सि । १२६. सू० ऋकारस्य प्रकारे, बाहुल्येन २३७ सू० बकारस्य वकारे, ४४५ सू० हकारस्य ड्ड इत्यादेशे, ११ सू० तकारलोपे, ४२५ सू० त्वस्य सण इत्यादेशे, ४३५ सू० क-प्रत्यये, १७७ सू० ककारलोपे, १०२५ सू० अकारस्य स्थाने उं दत्यादेशे, १०१५ सू० श्रमो लोपे बहुतण' इति भवति । वस । डुदाञ - (दा) -वाने दात १००० सू० ग्राकारस्य एकारे, १०५५ सू० त इत्यस्य हु इत्यादेशे वे इति भवति । मा । श्रव्ययपदमिदम् । १००० सू० श्राकारस्य प्रकारे म इति भवति । मार्गमत मार्ग (मार्ग) अन्वेषणे याचने वा मार्ग + जिग्+त ३५० रेफलोपे, ३६० सू० गकारद्वित्वे, ६३८ सू० गिग: स्थाने प्रकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०५५ सू० त इत्यस्य हु इत्यादेशे महु इति भवति । कम् । किम्+श्रम् । ५६० सू० किमः स्थाने क इत्यादेशे १००० सू० अकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे को इति भवति । अपि इ इति पूर्वत्र देव साध्यम् । इष इव दस बेहु मायत मग्गहु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिता । प । प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्त्यभावपक्ष इत्यर्थः । यथाइन्छ । इष्+थ इच्छ+थ । ६३२ सू० थ इत्यस्य हुन् (ह) इत्यादेशे इच्छ इति भवति । वैकल्पिकस्वाद प्रस्तुत सूत्रेण हतः स्थाने हु इत्यादेशो न जातः ।
→
=
१०५६ - विधिः विनाटयतु, पीडयन्तु ग्रहाः, सा बन्ये! कुरु विघावम् । संपद कर्षामि वेश्यां यथा यदि राजते व्यवसायः ||१||
भावार्थ:-सम्पविहीनस्य कस्यचिद् व्यापारिणः प्रियां प्रत्युक्तिरियम् । हे बन्ये ? हे प्रिये 1 विधिः- भाग्यं विनाटयत् - तिकूलो भवतु ग्रहाः- पापग्रहाः, पीडयन्तु पीडाकारकाः भवन्तु । तथाऽपि विबा चिन्तां मा कुरु कार्षीः । यदि व्यवसाय:- व्यापारः, राजते वृद्धिमाप्नुयाः सदा, यथा द्रव्येन गणिका प्राकृष्यते, तत्र वेश्यां वेश्यारूपां सम्पदं लक्ष्मी कर्षामि श्राकर्षयिष्यामि, ग्रहीष्यामीति भावः
विधि: । विधि + 1 इत्यत्र १८७ सू० धकारस्य हकारे, १०१५ सू० सेलोपे विहि इति भवति । fernica | विपूर्वक धातुः विनर्तने । विनट् + णिग् + तु । इत्यत्र २२८ सू० नकारस्य णकारे ६३८ सू० गि: स्थाने अकारे, १९५ सू० टकारस्य डकारे, बाहुल्येत ६४२ स० पूर्वकारस्य दीर्घाभावे, ६६२ सू० तुवः स्थाने दुइत्यादेशे, १७७ सू० दकारलोपे विष्ड इति भवति । पीडयन्तु । पीडाः उपतापे । पीड़ + णिग्+ प्रन्तु । ६३८ सू० जिंग: स्थाने प्रकारे, ६६५ सू० चन्तु इत्यस्य न्तु इत्यादेशे पीडन्तु इति भवति । प्रहाः । ग्रह + जस् । ३५० सू० रेफलोपे, १०१५ सू० जसो लोपे गृह इति भवति । मा । श्रव्ययपदमिदम् । १०८१ सू० मा इत्यस्य में इत्यादेशे में इति भवति । धन् ! धन्या+सि । ३४९ सू० यकारलोपे, बाहुल्येन ३६० सूत्रेण नकारस्य द्वित्वाभावे. २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००० सू० ग्राकारस्य इकारे, १०१५ सृ० सेलोंपे धणि ! इति भवति । कुरु । डुकृञ् कृ करणे । कृ + हि । इत्यत्र ९०५ सू० ऋकार अर इत्यादेश, २०५४ सू० हि इत्यस्य हि इत्यादेशे करहि इति भवति । विवादम् । विषाद् + अम् । २६० सू० षकारस्य सकारे, १७७ सू० दकारलोपे १००२. सू० श्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे 'बिसाउ इति भवति । संपदम् । संपद् + ग्रम् | १०७१ सू० दकारस्य इकारे, १०१५ सू० भ्रमो लोपे संपद इति भवति । कर्षामि । कृ कृष् कर्षणे । कृष् + मिश्र ८५८ सू० कृष् धातोः स्थाने कड्ड इत्यादेशे, १०५६ सू० मित्र: स्थाने उं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे कडुड" इति भवति । वेदयाम् । वेश्या +
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* प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपाः अम् । ३.४९ सू० यकारलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ प्रमा लोपे वेस इति भवति । यथा । अव्ययमदमिदम् । २४५ स० यकारस्य जकारे, १०७२ सू० था इत्यस्य डिम-इम इत्यादेशे,डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे,१०६५ समकारस्य सानुनासिके प्रकारे जिवं इति भवति । यदि । अव्ययपदमिदम् । १०९३ सू० यदि इत्यस्य छुडु इत्यादेशे छु इति भवति । राजते । राज-राज् दीप्तौ । राज्+ते। ७७१ स ० राज्धातोः स्थाने अग्ध इत्याशे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे अग्घन इति भवति । व्यवसाय: । व्यवसाय+सि । ३४९ सू० संयुक्तयकारस्य लोपे, १७७ स० यकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे वनसाउ इति भवति । कमि कट्ठा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । बलि करोमि सुबनस्य - बलि किज्ज सुमणस्सू,प्रक्रिया १००९ सूत्रे जया।करोमिशिजजा इत्यत्रापि प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । पक्षे । प्रवृत्त्यभावपक्ष इत्यर्थः । यथा--कर्षामि । कृष-कृष् कर्षरणे । कृष+मि कडमिव । ६३० सू० मिदः स्थाने मि इत्यादेशे, ६४३ सू० प्रकारस्य प्राकारे कहामि इलि समति । वैकवार सरस्व प्रशीत जाता। इत्यादि। एवमेवान्ये प्रयोगा मरि स्वयमेव कल्पनीयाः । १०५७- खड्ग-विसाषितं यस्मिन् लभामहे प्रिये ! तस्मिन् देशे पामः ।
रणभिक्षेण भग्नाः विना पुढेन न बलामहे ॥१॥ भावार्थ:-हे प्रिये ! यस्मिन देश खड्ग-विसाषितम्-खड्गेन विसाधितम्-निष्पादितं द्रष्यमित्यध्याहार्यम,लभामहे-प्राप्नुमः,तस्मिन्नेव वेशे यामः-यास्याम इति भावः । वयं रणदुभिक्षण-रणस्य-दुभिक्षः, रणाभावस्तेन भग्ना नष्टा: दुःखिताः संजाताः । अतः युग विना न वलामहे-प्रत्यावर्तामहे । योद्धान कृते युद्धमेव जीवनस्य निर्वाहक भूषणञ्च भवतीति भावः ।
खड्ग-बिसावितम् । खड्ग-विसाधित+मम् । ३४८ सू० डकारलोपे,३६० सू० गकारद्वित्त्वे,१८७ सू० धकारस्य हकारे, १७७ सू० तकारलोपे,१००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० प्रमो लोपे खायविसाहिउ इति भवति । यस्मिन् । यद्+डि । २४५ सू० यकारस्थ जकारे, ११ सू• दकारलोपे, १०२८ सू० डिप्रत्ययस्य हिं इत्यादेशे, १०८२ सूत्रेण उच्चारणस्य लाघवे जाते माहि इति भवति । सभामहे । हुलभष-लम् लाभे । लम्+महे । ९१० स० प्रकारागमे, १८७ स० भकारस्य हकारे, १०५७ सू० महे इत्यस्य हुँ इत्यादेशे लहाई इति भवति । प्रिये ! । प्रिया+सि । ३५० सूल रेफस्य लोपे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ स० सेर्लोपे पिय ! इति भवति । तस्मिन् । त+डि । ११ स० दकारलोपे, जहि वदेव प्तहि इति साध्यम् । वेशे । देश+किं । २६० सू०.शकारस्थ सकारे,बाहुल्येन १०२८ सू० डिप्रत्ययस्य हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाधवे सहि इति भवति । यामः । याधातुःप्राप्णे । या+मस् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, प्रस्तुतसूत्रेण मस: स्थाने हूँ इत्यादेशे जाहुं इति भवति । रणसुभिक्षेण । रण-दुभिक्ष+टा । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० भकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्व-भकारस्य यकारे,२७४ सू० क्षस्य खकारे, ३६० सू० खकारस्य द्वित्त्वे,३६१ सू० पूर्वस्वकारस्य ककारे, १०१३ सू० सू० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवत्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे रणवुग्भिक्खें इति भवति । भग्नाः । भग्न-+जस् । ३४९ सू० नकारलोपे, ३६० सू० गकारद्वित्वे, ३४ सू० क्लीबत्त्वे, १००१२० प्रकारस्य आकारे, १०२४ सू० जसः स्थाने इं इत्यादेशे भग्गाई इति भवति । विना । अध्यपपदमिदम् । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १०९७ सू० स्वार्थे डु-(उ)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्कोने परेण संयोज्ये विषु इति भवति । युद्धन । युध---युध संप्रहारे । युध् + क्त-त । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ८८८ सू०
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aatangewonel
चतुर्थवादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोका-योपेतम् * धकारस्य झम इत्यादेशे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य जकारे, बाहुल्येन ६४५ सूत्रस्थाऽप्रवृत्ती, १७७ सूक तकारलोपे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोध्ये, टा-प्रत्यये, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे, अनुस्वारस्य स्थानिवत्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे सुरमें इति भवति । न । अव्ययपदमिदमपभ्रंश संस्कृतसममेव प्रयुज्यते । पलामहे । वल-वल प्रत्यावृत्तो । बल+महे । ९१० स० धातारन्ते कारागमे १००० सू० प्रकारस्थ प्राकारे, प्रस्तुतसूत्रेण महे इत्यस्य हु इत्यादेशे बला' इति भवति । सभामहे सन्न लहाहूं.याम: मावलमहबला इत्य प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तांता । पक्षे । प्रवृत्त्यभावपक्ष इत्यर्थः । यथा-लभामहे । इलभष-लभ-लाभेलम-महे-लह-महे। ६३३ स. महे इत्यस्य म इत्यादेशे.१४४ सू० प्रकारस्य इकारेलहिम इति भवति । वैकल्पिकत्वादत्र प्रस्तुतस त्रस्य प्रवृत्तिने जाता। इत्याधि। एतादृशा अन्येऽपि प्रयोगाः स्वयमेव कल्पनीयाः।
१०५ -पकसम्माः । लोट् लकारस्य हि-स्वयोः प्रत्यययोः स्थाने इ उ ए इत्यादेशाः वैकल्पिका भवन्तीति भावः । इत् । इकारस्योदाहरण प्रदर्शयति वृत्तिकारः । यथा--
कुमार ! स्मर मा सल्लकोः, सरला श्वासान् मा मुख्य।
कवलाः ये प्राप्ताः विधिवशेन तांबर माम मा मुख्य ॥१॥ भावार्थ:--कुम्जर !-हे हस्तिन् ! सल्लको करिप्रियवृक्षविशेषान्, मा स्मर, तासां स्मरणं मा कार्षीः, तथा सरसान् दीर्घानित्यर्थः, श्वासान मा मुख्य विधिवशेन, विधेः घशेन-भाग्यवशेन ये प्राप्ताः कवला:-ग्रासाः, तान पर-भक्षय, मान-स्वामिभान मा मुख्य-त्याक्षीः । दीनो मा भवेरिति भावः ।
कुअर!। कुश्मर+सि । १०१५ सू० सेलपि कुमार! इति भवति । स्मर । स्म चिन्तायाम् । स्मृ+हि । ७४५ स ० स्मृधातो: स्थाने सुमर इत्यादेशे, १०५८ सू० हि इत्यस्य इकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये सुमरि इति भवति । माम, प्रक्रिया १०५५ सू० सूत्रे शेया । सल्लकोः । सल्लको+शस् । १७७ सू० ककारस्य लोपे,१००१ सू० ईकारस्य इकारे,१०११ सू० जस: स्थाने उकारे सल्ला इति भवति । सरलान् । सरल+शस् । १००१ सू० प्रकारस्य प्रकारे,१०१५ सू० शसो लोपेसरला इति भवति । श्वासान । श्वास+शस् । ३५० सू० वकारलोपे,२६० सू० शकारस्य सकारे,शसो लोपे सास इति भवति । मुम्च। मुचल-मुन् मोचने । मुन्नहि । ७६२ सू० मुच्-धातोः स्थाने मेल्ल इत्यादेशे, प्रस्तुतसुत्रेण हि इत्यस्य इकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे,प्रज्झोने परेण संयोज्ये मेल्लि इति भवति । कवला:कवल+जस । १०१५ स० जसो लोपे कवल इति भवति । थे। यद्+जस् । २४५ सयकारस्थ जकारे, ५४७ सू. जसः स्थाने डे (ए) इत्यादेशे, द्विति परेऽन्त्यस्यरादेलोपे, १००० स० एकारस्य इकारे जि इति भवति । प्राप्ताः । प्रपूर्वकः प्राप्लु [प्राप्] धातुः प्राप्तौ। प्राप्+क्त-त । ३५० स० रेफलोपे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, २३१ सू० द्वितीय-पकारस्य वकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतो,६४५ सू० अकारस्य इकारे, अस्-प्रत्यये, १०१५ सू० जसो लोपे पाविय इति भवति । विधिवशेन । विधिवश+21। १८७ सू० धकारस्य हकारे, २६० सू शकारस्य सकारे, १००० स.प्रकारस्थ इकारे, १०१४ सू० टास्थाने णकारे विहि-बसिण इति भवति तान् । तद्+शस् । ५४७ सू० शसः स्थाने डित् ए इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरार्लोपे ते इति भवति । घर । चर्-धातुः गतौ। चर्+हि । ९१० सू० प्रकारागमे, प्रस्तुतसूत्रेण हि इत्यस्य इकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने प. रेण संघोज्ये बरि इति भवति । मानम् । मान+मम् । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १५०२ सू० प्रकार स्थ जकारे,१०१५ सू० प्रमो लोपे मासु इति भवति । स्मरसमरि, मुश्चमेल्लि,पर परि इत्यत्र
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*प्राकृत-व्याकरणम्.*
चतुर्थपादः प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । उत् । उकारदेशस्योदाहरण प्रदर्शयत्ति वृत्तिकारो यथा
भ्रमर ! अत्राऽपि निम्बके; कानपि विषसान् विलम्बस्व ।
घनपत्रषान् छायाबहुलः फुल्लति यावत् कदम्बः ॥२॥ भावार्थ:-... कमपि विपद्मस्तं पुरुषं कश्चन घट्यधारणाय प्राश्वसनाय च भ्रमरोक्त्या कविः शिक्षयति । भ्रमर ! प्रशऽपि अस्मिन्लेव निम्बके-क्षविशेषे कानपि विवसान- कानिचिद् दिनानि याबद, विलम्बस्व-प्रतीक्षस्व, तिष्ठेत्यर्थः। यदा कदम्ब वक्षविशेष: धनयवान-धनानि निबिडानि पत्राणि, तानि सन्ति यस्य स धनपत्रवान् छायामहलश्च छाया बहुला--प्रधिका यस्य सः,फुल्लति-पुष्यितो भवति, तदातावरकालपर्यन्वव निवासं कुरु, तदनन्तरं स्वाभीष्टस्थाने गन्तव्यमिति भावः ।
भ्रमर !। भ्रभर+सि । ३५० स० रेफलोपे,१००१ सप्रकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० सेलोप भमरा इति भवति । अत्र । प्रायपदमिदम् । १०७६ सू० प्रत्र इत्यस्य एत्थ इत्यादेशे एस्थु इति भवति । अपि-वि, प्रक्रिया ४१ सूत्रे या! निम्बके । निम्बर-डि । २३० स० नकारस्य लकारे, ११०१ सू० डड-(पडय)-प्रत्यये, स्वार्थिक-प्रत्ययस्य: च..लोपे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे,१००५ सू० डिना सह अकारस्थ इकारे लिम्बन इति भवति । कान् । किम् -शस् । ५.६० सू० किमः स्थाने के इत्यादेशे,५०३ सू० अकारस्य एकारे, १०८१ सू० एकारस्य उच्चारणलाघवे, १०१५ सू० शसो लोपे के इति भवति । विषसान् । दिवस+शस् । १७७ सू० वकारलीपे, बाहुल्येन १८० यकारश्रुती, २६३ सू० सकारस्य हकारे, ११०० सू० इड-(अड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, प्रजझीने परेण संयोज्ये, १००१ सू० प्रकारस्थ प्राकारे, १०१५ सू० शसो लोपे वियहळा इति भवति । विलम्बस्थ । विपूर्वक: लबिधातुः विलम्थे । संस्कृतनियमेन विलम्ब्+हि इति जाते, ९१० सू० प्रकारागमे, प्रस्तुतसूत्रेण हि इत्यस्य उकारे, १० सू० स्वारस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये विलम्बु इति भवति । धनपत्रवान् । धनपत्रमन्+सि । २२८ सू० नकारस्य प्रकारे, ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० तकारद्वित्त्वे, ४३०. सू० मतोः स्थाने पालु इत्यादेशे, ५ सू० दीध- सन्धी, १००० सू० माकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोप घणपततु इति भवति । धायाबहलः । छायाबहुल+सि । १००२ सू० अकारस्य उकारे, सेर्लोपे छायावहलु इति भवति । फुल्लति । फुल्ला (फुल्ल} विकासे । फुल्ल + तिव् । ११० सूअकारममे २८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे फुल्ला इति भवति । यावत् । अव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १०७७ सू. बत् इत्यस्य मकारे जाम इति भवति । कयम्बः । कदम्ब+सि। १७७ सू० दकारलोपे, १५० सू० यकारश्रुती, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे कयछ इति भवति । बिलम्बस्व-बिलम्बु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिअर्जाला । एत् । ए इत्यादेशस्योदाहरणं प्रदर्शर्यात वृत्तिकारः । यथा---
प्रिय ! इवानों कुछ भाल करे, मुञ्च स्वं करवालम् ।
येम कापालिकाः वराकाः लान्त्यमग्नं कपालम् ॥३॥ भावार्थ:-प्रिय! स्वं करवालम्-असि मुन्ना-त्यज किन्तु इवानों भल्ल-कुन्तं करे-हस्ते कुरु-गृहाण । भल्लग्रहण कारणमाह वेन वराकाः दयनीयाः कापालिका:-कपाला:-नरमुण्डाः, तेषां धारकाः, भिक्षुबिशेषाः,मभग्नम-अखण्डित कपातं सान्ति-ग्रहणं कुयु: । लान्ति इत्यत्र १११८ सत्रेण लकारख्यत्ययस्वात् . सप्तम्या:-विधिलिङ्गस्य स्थाने वर्तमाना[लट् लकारः] जाताऽस्ति । करवालेन तु शिरोभेदाऽशंका भवति, अतः करवाल बिहाय भल्लग्रहणायाऽसो भणितः।।
प्रियः । प्रिय-+सि । ३५० सू० रेफलोप-प्राप्ती, १०६९ सू० वैकल्पिकत्वाद् रेफलोपाभावे
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3
चतुर्थपाद:
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
२४१
१०१५ सू० सेलपि प्रिय ! इति भवति । इदानीम् । ग्रव्ययपदमिदम् । १०९१ सू० इदानीमः स्थाने एम्बहि इत्यादेश, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे एम्बहिं इति भवति । कुरु । डुकृञ् [क] करणे | कु+हि । ९०५ सू० ऋकारस्य श्रर इत्यादेशे प्रस्तुतसूत्रेण हि इत्यस्य स्वाने एकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रभोने परेण सयोज्ये, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे करे इति भवति । भहलम् । भल्ल + श्रम् । १०९३ सू० भरलार्थे सेल्लशब्दः प्रयुज्यते, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे सेल्लु इति भवति । करे । कर+ङि । १००५ सू० ङिना सह प्रकारस्य इकारे करि इति भवति । मुक्ख मुफलृ [ मुत्र ] मोने | मुच्+ हि । ७६२ सू मुचः स्थाने छड्ड इत्यादेशे १०५४ सू० हि इत्यस्य हि इत्यादेशे घड्डहि इति भवति । स्वम् । युष्मद् + सि । १०३९ स० युष्मदः स्थाने हुं हत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे, १०१५ सू० सेलपि तु इति भवति । करबालम् । करवाल +यम् । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे करवालु इति भवति । येन यद्+दा २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ सू० दकारलोपे, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे जं इति भवति । कापालिकाः । कापालिक + जस् । २३१ सू० पकारस्य चकारे, १७७ सू० अन्त्य - ककार लोपे, बाहुल्येन १५० सू० यकारश्रुती १०१५ सू० जसो लोपे कावालिय इति भवति । यशकाः । वराक + जस् । १०९३ सू० बराकायें चप्पुड-शब्दः प्रयुज्यते, १००१ सु० श्रकारस्य प्रकारे १०१५ सू० जसो लोपे बप्पुडा इति भवति । लान्ति । ला भादाने । ला+अन्ति । १००० सू० श्राकारस्य एकारे, १०५३ सु० अन्तेः स्थाने हि इत्यादेशे १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे हि इति भवति । अभन्नम् । श्रभग्न+ अम् । इत्यत्र ३४९ सू० नकारलोपे, ३६० सू० गकारद्विवे १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे प्रभा इति भवति । कपालम् । कपाल + अम् २३१ सू० पकारस्य वकारे, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे कवालु इति भवति । कुरु == करें" इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता | पक्षे प्रस्तुतसूत्रस्वभावपक्ष इत्यर्थः । यथास्मर स्मृचिन्तायाम् । स्मृ + हि । ७४५ सू० स्मृधातोः स्थाने सुमर इत्यादेशे १०५४ सू० हि इत्यस्य स्थाने हि इत्यादेशे सुमरहि इति भवति । वैकल्पिकस्वादत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्यभावः । इत्यादि । एवमेवान्ये प्रयोग श्रपि स्वयमेव कल्पनीयाः ।
१०५६-
farar: यान्ति वेर्गः पतन्ति मनोरथाः पश्चात् ।
वास्ते सम्मन्यते भविष्यति कुर्वन् मा आस्थ ||१||
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भावार्थ:- कश्चित् सम्यक् शेमुषीको जनः सामान्यजनानुपदिशति । दिवसाः- दिनानि, वेर्ग:-सस्वरं यान्ति मच्छन्ति मनोरथाः पश्चात् पतन्ति पश्चादवतिष्ठन्ते, पूर्णाः न भवन्तीत्यर्थः । यवास्ते यद्विद्यते मान्यते प्राद्रियते यः कालो गतः स तु गत एवास्ति किन्तु योऽवशिष्टोऽस्ति स एव विचारणीयः, अafat काले किमपि समादरणीयम्, यदा वृद्धावस्था भविष्यति, तदा दानाऽऽदिकं दास्यामीति कुर्वन्चिन्तयन् मान्न आस्य तिष्ठेति भावः ।
साः । दिवस + जस् । इत्यत्र १७७ सू० वकारलोपे, २६३ सू० सकारस्य हकारे, १००१ सू० अकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० जसो लोपे विग्रहा इति भवति । यान्ति । या प्रापणे या + श्रन्ति । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ६३१ सू० श्रन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे जन्ति इति भवति । वेगः । वेग+भिस् । १०९३ सू० वेगार्थ झडप-शब्दः प्रयुज्यते, १०१० सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे प्प इति भवति । पतन्ति । पत्लु [ पत्] पतने । पत्+अन्ति । ९१० सू० अकारागमे ८९० सू० सकारस्य डकारे, १०५३ सू० अन्तेः स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे पडहि देति भवति ।
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२४२ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपाद: मनोरथाः। मनोरथ+जस् । १६७ सू० थकारस्य हकारे, १०१५ स० जसो लोपे ममोरह इति भवति । पश्चात् । अव्ययपदमिदम् । १०११ सू० पश्चात् इत्यस्य पच्छइ इत्यादेशे, १० स० स्थरस्य लोपे, अध्झीने परेण संयोज्ये पच्छि इति भवति । यद । यद+सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे, बाहुल्येन २४ सू० दकारस्य मकारे,२३ सू० मकारस्यानुस्वारे.१०१५ सू० सेलोपे व इति भवति । प्रास्ते । प्रास-मास उपधेशने । मास्+ते मच्छप,प्रक्रिया ८५६ सूत्रे ज्ञेया । तत् । तद्+सि । २४ सू० बाहुल्येन दकारस्य मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे, १०१५ सू० सेलोपे तं इति भवति । मान्यते । मान [मान्] पूजायाम् । मान्+क्य+ते ! २२८ सू० नकारस्प णकारे, ६४९ सू० क्यस्य स्थाने ईन इत्यादेशो, अझोने परेण संयोज्ये, १००० सू० ईकारस्य इकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे माणिअब इति भवति । भविष्यति। भू-धातुः सत्तायाम् । भू+स्यति । ७३१ सू० भूधातोः स्थाने हो इत्यादेशे,प्रस्तुतसूत्रेण स्य इत्यंशस्य स्थाने विकल्पेन सकारे,६२८ मू० ति इत्यस्य इच् (इ) इत्यादेशे होसइ इति भवति । कुर्वन् । डुकृञ् [क] धातुः करणे । कृ+शतृ । ९०५ सू० ऋकारस्य भर इत्यादेशे, ६७० सू० शतुः स्थाने ल इत्यादेशे, २५ सू० नकारस्याऽनुस्वारे, २९ सू० अनुस्वार-लोपे, सिप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे करतु इति भवति । मास में, प्रक्रिया १०५५ सूत्रे ज्ञेया । आस् । पास उपवेशने । आस्+हि। ८८६ सू सकारस्थ छकारे, ३६० सू० छकारद्वित्त्वे, ३६१ मू० पूर्वछ कारस्य चकारे,८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०५८ सू० हि इत्यस्य इकारे,१० सू० स्वरस्य लोपे, अझोने परेण संयोज्ये अच्छि इति भवति । भविष्यति होसह इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। पक्षे । प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृस्यभावपक्ष इत्यर्थः । यथाभविष्यति । भू सत्तायाम् । भू+स्थति हो+स्यति । ६५५ सू० हि इत्यस्य विकरणे, ६२८ सू० स्यतेः स्थाने इचादेशे होहि इति भवति । वैकल्पिकत्वादत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्त्यभावो बोध्यः ।
* अथ च्यावि प्रस्थयों को होने वाली विधि * अपभ्रशभाषा में ति, तस् और अन्ति प्रादि प्रत्ययों के स्थान में जो जो कार्य होते हैं, पब सूत्रकार द्वारा उन का निर्देश किया जा रहा है---
१०५३-त्यादि (वर्तमानादि काल) के माद्य त्रय (प्रथमपुरुष के तीनों वचनों) से सम्बन्धित पनेक अर्थों में वर्तमान (विद्यमान) वचन मर्थात् वर्तमानादि काल के प्रथमपुरुषीय बहुवचन के स्थान में हि' यह प्रादेश विकल्प से होगा है। जैसे---
मुख-कबरी-बन्धौ तस्क: शोभा धरतः, इच मल्लयुद्धं शशिराहू कुरुतः । तस्याः राजन्ते कुरला अमर-कुल-सुलिताः, इव तिमिर-डिम्भाः खेलन्ति मिलिताः । १॥
अर्थात-उस स्त्री का मुख और उसका कबरी-मन्ध (केश-रचना) इस प्रकार शोभा को धारण कर रहे हैं, जैसे चन्द्रमा और राहु दोनों मिल कर युद्ध कर रहे हों। तथा उसके भ्रमरकुल (भ्रमरसमूह) के समान, कुरल-धु घराले बाल इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, मानों तिमिर-शिशु (अन्धकार के बालक) मिल कर खेल रहे हैं।
यहां पर परत:परहिं (धारण कर रहे हैं),२ - कुस्त: करहिं (कर रहे हैं) और ३राजन्ते-सहहिं (शोभा पा रहे हैं) इन तीन पदों में प्रथमपुरुष के बहुवचन (अन्ति तथा अन्ते) के स्थान में हिं' यह आदेश विकल्प से किया गया है।
१०५४-~-अपभ्रश में त्यादि (वर्तमानादि काल) के मध्यत्रय (मध्यम पुरुष के तीनों वचनों) में जो माद्य वचन (सिद्) है, उस के स्थान में प्रति वर्तमानादि कालिक मध्यमपुरुषीय एक वचन
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * को 'हि' यह आदेश विकल्प से होता है । जैसे
चालक : Na (तिमशिला कीयद् रोदिधि हताश !
तब अले, मम पुनसलमे, मोरपि न पूरिता आशा ॥२॥ अर्थात हे हताश (जिस की प्राशाएं नष्ट हो रही हों) चातक ! पिउ, पिउ इस प्रकार कह कर कहां तक रुदन करेगा? तेरी जल-प्राप्त करने की प्राशा तथा मेरो प्रीतम को पाने की प्राशा इस तरह दोनों को प्राशाएं कभी पूर्ण नहीं हो सकती।
यहां पर--रोविषि रूहि (तू रोता है। इस शब्द में मध्यम पुरुष के एकवचन सिद के स्थान में 'हि' यह प्रादेश किया गया है । रोविधि यह प्रयोग परस्पद का है। अब वृत्तिकार पात्मनेपर का उदाहरण दे रहे हैं
चातक! किं कपितेन निर्घष ! बारम्बारम् ।
सागरे भूते विमल-जले लभसे न एकामपि धाराम् ।।२।। अर्थात हे निर्षण निर्लज्ज) चातक ! बार-बार बोलने से क्या लाभ प्राप्त कर सकेगा? विमल जल से भरे सागर में से भी जब तू एक बून्द प्राप्त नहीं कर रहा, तब व्यर्थ बोलने की क्या पावश्यकता है?
यहां पर लभसे-लहहि (तू प्राप्त करता है। इस पद में प्रात्मनेपदीय मध्यमपुरुष के एक वचन से के स्थान में हि यह श्रादेश किया गया है। अब वृत्तिकार सप्तमी (विधिलिङ्ग) के मध्यमपुरुषीय एकवचन का उदाहरण देने लगे हैं
अस्मिन् जन्मनि अन्यस्मिन्नपि गौरि संवद्याः कान्तम् ।
गजान मसाना त्यक्ताह कुशानां य: संगमछते हसन् ॥३॥ अर्थात हे गौरि ! (हे पार्वति !) इस जन्म में तथा अन्य जन्म में भी उस कान्त (प्रीतम) को देना जो निरङ्कुश और मदोन्मस हाथियों के सन्मुख हंसता हुमा गमन करे । भाव यह है कि इस जन्म में तथा दूसरे जन्म में ऐसा पति देने की कृपा करना जो निर्भयता की साकार प्रतिमा हो तथा जो वीरशिरोमणि हो।
___ यहां पर बधा:-दिज्जाह (तु दे) इस सप्तमी के मध्यम-पुरुषीय एकवचन-सम्बन्धी यास् प्रत्यय के स्थान में हि यह मादेश विकल्प से किया गया है।
. जहां पर प्रस्तुत सत्र द्वारा मध्यम पुरुष के एकवचन-सम्बन्धी सिन् प्रत्यय के स्थान में हि यह प्रादेश हो जाता है, वहां पर सो सहि यह रूप बनता है। जहाँ पर हि का आदेश नहीं होता, वहाँ पर....शेदिषि असि (तु रोता है) यह रूप निष्पन्न होता है। इसी प्रकार प्रादेशाभाव में प्रात्मनेपदीय तथा सप्तमी के मध्यमपुरुषीय एकवचन के अन्य उदाहरण भी समझ लेने चाहिए।
१०५५-अपभ्रश भाषा में त्यादि सम्बन्धी (वर्तमानादि कालिक) मध्यमवय (मध्यमपुरुष) के वहुबचन को ह यह प्रादेश विकल्प से होता है । जैसे
बलेः अभ्यर्थ ने मधुमयनो लघुकी-भूतः सोऽपि ।
यदि इच्छय बहरवं बस मा मार्गयत कमपि ॥१॥ अर्थात्-बलि राजा से याचना करने पर मधुमथन (विष्णु) को भी लघु (वाभन) होना पड़ा था, यदि महत्व चाहते हो तो किसी से कुछ भी याचना मत करो किन्तु अपने हाथों से कुछ दान दो।
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपावा ___यहां पर-१-इन्छय- इच्छहु (तुम चाहते हो),२-वस-देहु (तुम दान दो) और ३-मार्गयत-मग्गहु (तुम याचना करों), इन तीनों पदों में मध्यमपुरुष के बहुवचन को ह यह प्रादेश विकल्प से किया गया है। प्रादेश के भावपक्ष में साथ का इसछह (तुम चाहते हो) यह रूप बनता है। इसी तरह प्रादेशाभावपक्ष में अन्य रूपों की भी कल्पना कर लेनी चाहिए।
१०५६-अपभ्रंश भाषा में त्यादिसम्बन्धी (वसमानादि कालिक) अन्त्यत्रय (उत्तमपुरुष) का जो माध (पहला) वचन है, उसके स्थान में यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे
विधिः सिनाटयतु, पोषयन्तु ग्रहाः, मा धन्ये ! कुरु विषादम् ।
संपवं कर्षानि वेश्यां यथा यदि राजले व्यवसायः ॥१॥ अर्थात हे धन्ये! हे प्रिये !] चाहे विधि-भाग्य विडम्बित (सन्तप्त.) करे. और ग्रह भी पीडित करें सो भी विषाद करने (दुःखी होने) की आवश्यकता नहीं,क्योंकि यदि मेरा व्यवसाय व्यापार) चल पड़ा तो सम्पत्ति को वेश्या के समान प्राकर्षित कर के छोडें गा।
... यहां पर-----कामिकड्डउँ (मैं खींचता है) इस पद में उत्तमपुरुष के एकवचन को 'ई' यह आदेश किया गया है। २-बलि करोमि सुजनस्व-बलि किज्जउँ सुअणस्सु [धेष्ठ पुरुष के मैं बलिहार जाता है] यहां-करोमि-किज उँ, इस पद में उत्तम-पुरुष के एकवचन को 'उ' यह प्रादेश विकल्प से किया गया है। आवेश के प्रभावपक्ष में कर्षामि-कढामि [मैं सोचता हूं] यह रूप बनता है । इसी प्रकार प्रादेशाभावपक्ष में अन्य रूपों की भी कल्पना कर लेनी चाहिए।
१०५७-अपभ्रंश-भाषा में त्यादि सम्बन्धी अन्त्यत्रय (उत्तमपुरुष)का जो बहुवचन है, उसके स्थान में है यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे....
खड्ग-विसाधितं यस्मिन् सभामहे प्रिये ! तस्मिन् देशे यामः ।
रण-भिक्षेण भग्नाः बिना युद्धन न वलामहे ।।१।। अर्थात-हे प्रिये ! जिस देश में तलवार से अजित (कमाया हुआ धन प्राप्त होगा, वहीं पर जाएंगे। रण के दुर्भिक्ष (प्रभाव) से विनष्ट हुए हम युद्ध के बिना वापिस नहीं लौटेंगे।
यहाँ पर-१-लभामहे-लहह (हम प्राप्त करते हैं), २-यामः-- जाहुं (हम जाते हैं, और ३-वलामहे-बलाई (हम लौटते हैं इन पदों में उत्तमपुरुष के बहुवचन को 'उ' यह आदेश विकल्प से किया गया है। आदेश के अभावपक्ष में लभामहे - लहिमु (हम प्राप्त करते हैं। यह रूप बनता है : इत्यादि शब्द के उल्लेख से वत्तिकार फरमाते है कि इसी प्रकार अन्य उदाहरण ?
१०५८ अपभ्रंश-भाषा में पञ्चमी (लोद) केहि और सु इन प्रत्ययों के स्थान में इ, उ और ए ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। इकार का उदाहरण, जैसे
फुल्जार ! स्मर मा सल्लकी, सरलान् श्वासान मा मुश्च ।।
कवला: ये प्राप्ताः विधिवशेन सश्चिर मानं मा मुञ्च ॥१॥ प्रति--हे कुम्जर ! (हे गजराज !) सल्लको नामक वृक्षों को याद मत कर, और सरल श्वासों को मत छोड़ । अर्थात हाँके मत भर । विधिवश (भाग्यवश) जो कत्रल-ग्रास प्राप्त हुए हैं, उन्हीं का भक्षण कर, तथा स्वाभिमान का परित्याग मत कर ।
यहाँ-पर१-हमर--सुमार,(स्मरण कर),२---मुञ्च- मेलिल (छोड़), और ३-घर-चरि (भक्षण कर) इन पदों में पंचमी (लोट्) के 'हि' इस प्रत्यय के स्थान में 'ई' यह मादेश विकल्प से किया
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Mondament
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चतुथंपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्धयोपेतम् * गया है। उकार का उदाहरण
भ्रमर ! प्रश्राविनिम्बके कानपि विवसान बिलम्बस्व ।
घन-पत्रवान छायाबहुलः फुल्लति यावत् कदम्बः ।।२।। अर्थात्-हे भ्रमर । जब तक धने पत्तों वाला तथा विस्तृत छाया बाला कदम्ब नामक वृक्ष विकसित नहीं हो पाता तब तक यहीं नीम के वृक्ष के ऊपर कुछ दिन व्यतीत कर ।
यहां पर-विलम्बस्व विलम्बु (तू व्यतीत कर), इस पद में पंचमी के हि इस प्रत्यय के स्थान में उकारादेश किया गया है। एकार का उदाहरण
प्रिय । इवानों पर भस्ल करें, मुश्च त्वं करवालम् ।
येन कापालिकाः पराकाः लान्ति अभग्नं कपालम् ।।३।। अर्थात-हे प्रीतम ! तु तलबार को छोड़ दे और अब भाले को हाथ में ग्रहण कर,ताकि बेचारे कापालिक [शैवसम्प्रदाय के अन्तर्गत एक उपसम्प्रदाय, इस सम्प्रदाय के लोग अपने पास खोपड़ी रखते हैं,और उसी में भोजन बना कर या रख कर खाते हैं, वामाचारी] अखण्डित कपाल (खोपड़ी) को प्राप्त कर सके।
यहां पर १-कुरु-करें (तु कर) इस पद में पंचमी हि प्रत्यय के स्थान में एकार का आदेश विकल्प से किया गया है । २-स्मर- सुमरि यहां पर प्रस्तुत सत्र से हि प्रत्यय के स्थान में वैकल्पिक इ यह प्रादेश किया गया है किन्तु आदेश के अभाव-पक्ष में स्मर-सुम रहि [तू याद कर ऐसा रूप बनता है, वैकल्पिक होने से यहां पर प्रस्तुत सूत्र से पंचमी के हि प्रत्यय को यह आदेश नहीं हो सका। इत्यादि का उल्लेख करके वृत्तिकार फरमाते हैं कि इसी प्रकार अन्य उदाहरण भी समझ लेने चाहिएं।
१०५६-अपभ्रंशभाषा में भविष्यदर्थ-विषयक [भविष्यत्काल के अर्थ को अपना विषय बनाने वाले] ति मादि प्रत्ययों के स्य के स्थान में विकल्प सेस का प्रादेश होता है। जैसे
दिवसा यान्ति बेगः पतन्ति मनोरयाः पश्चात् ।
यबास्ते सन्माभ्यते भविष्यति (इति) कर्वन् मा आस्स्य ||| अर्थात्-दिन शोधता से व्यतीत हो जाते हैं, और मनुष्य के मनोरथ पूर्ण नहीं हो पाते, वर्तमान में जो कुछ है, उसी का प्रादर करो और भविष्य की प्राशाएं मत बांधो।
यहां पर-भविष्यतिम् होसइ होगा), इस पद में भविष्यदर्थक त्यादि प्रत्ययों के स्य को 'स' यह आदेश विकल्प से किया गया है, आदेश के प्रभावपक्ष में-भविस्यति होहिइ (होगा) यह रूप बनता है।
* अथं धारयादेश-विधिः* १०६०-क्रियेः कोसु । । ४ । ३८६ । क्रिये इत्येतस्य क्रियापदस्याऽपभ्रशे कोसु इ. त्यादेशो वा भवति ।
- सन्ता भोग जु परिहरइ, तसु कम्तहों बलि कोसु ।
तसु दइवेण वि मुण्डियउँ जसु खल्लिहडउँ सीसु ॥१॥ पक्षे। साध्य मानाऽवस्थात् क्रिये इति संस्कृत-शब्दादेष प्रयोगः । बलि किज्जा सुनएस्सु [३३८,४]1
१०६१...-भुवः पर्याप्तो हुसवः । ८ । ४ । ३६० 1 अपभ्रशे भुवो धातोः पर्याप्तावर्थे
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपावा वर्तमानस्य हुच्च इत्यादेशो भवति ।
प्रइतुंगत्तणु जं थणहं सो छेयउ न हु लाहु ।
सहि ! जइ के इ तुडिवसेंण अहरि पहुचाइ नाहु ॥१॥ १०६२--ब्र गो अ वो वा ।। ४ । ३६१ । अपभ्रशे ब्र गो धातोव इत्यादेशो वा भवति । अवह सुहासिउ कि पि । पक्षे ।
इत्तउँ ब्रोप्पिणु सउणि ठिउ पुणु दूसासणु ब्रोप्पि।
तो हउँ जाणउँ एहो हरि जाइ महु अग्गा ब्रोप्पि ॥१॥ १०६३- जेर्वजः । ८ । ४३६२ । अपभ्रशे व्रजतेर्धातोर्वज इत्यादेशो भवति । वुअह । बुने प्पि । वुप्पिण ।
१०६४-दृशेः प्रस्सः। ८ । ४ । ३६३ । अपभ्रशे दृशेर्धातोः प्रस्स इत्यादेशो भवति । प्रस्सदि।
१०६५---ग्रहे हः । ८ । ४ । ३६४ । अपभ्रशे हेर्धातोह इत्यादेशो भवति । पढ गृण्हेप्पिणु व्रतु।
१०६६-तक्ष्यादीनां छोल्लादयः । ८ । ४ । ३६५ । अपभ्रशे तक्षि-प्रभृतीनां घातून छोल्ल इत्यादय प्रादेशा भवन्ति ।
जिवे ति तिक्खा लेवि कर जइ ससि छोल्लिज्जन्तु ।
तो जइ गोरिहे मुह-कमलि सरिसिम का वि लहन्तु ?॥१॥ आदि-ग्रहणाद् देशीषु ये क्रियावचना उपलभ्यन्ते ते उदाहार्याः।
चूडुल्लउ चुणीहोइ सइ मुद्धि ! कवोलि निहित्तउ । सासानल-जाल-झलक्किमउ वाह-सलिल-संसितउ ॥२॥ अब्भडवंचिउ बे पपई पेम्मु निप्रत्तइ जावें। सब्यासण-रिउ-संमवही कर परिप्रत्ता तावें ॥३॥ हिपइ खुडुक्कइ गोरडी गणि घुडुक्कइ मेहु । वासा-रसि-पवासुग्रहं विसमा संकडु एहु ॥४॥ अम्भि ! पोहर वज्जमा निच्चु में संमुह थंति । महु कन्तहों समरङ्गणद गय-घड मजिउ जन्ति ॥५॥ पुत्तें जाएं कवणु गुणु ?, अवगुणु कवणु मुएण? । जा बप्पीको मुंहडी चम्पिज्जाइ प्रवरेण ॥६॥
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...चतुर्थपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
२४७ तं तेत्तिउ जलु सायरहों सो तेवडु वित्थारु । तिसहे निवारणु पलु विन वि पर धुमइ असार ॥७॥
1 গল্প নাইহাল্লিখি: ১ अपभ्रंशभाषायां अकृत [कृ] इत्यादिभिः धातुभिः सम्बन्धितं यद्विधिविधानं भवति. तत्प्रदर्शयति वृत्तिकारः। यथा--- १०६०- सतो भोगान् यः परिहरति, तस्य करस्य बलिकिये।
सस्प इंधेनापि मुण्डितं यस्य खल्वाट शीर्षम् ॥१॥ भावार्थ:-भोग्यपदार्थाभावे त्यागं कुर्वतः पुरुषस्यापेक्षया,सति भोग्यपदार्थे तेषां भोग्यपदार्थानां त्यागं कुर्वतः पुरुषस्याऽधिक्य नायिका वर्णयति । य: कान्तः सतो-विद्यमानान् भोगान्-भोग्यपदार्थान् परिहरति-परित्यजति, तस्य काम्सस्योपरि बलि क्रिये,मात्मसर्वस्वेन तस्य पूजां करोमोति भावः । यस्य शीर्षम्-शिरः खल्वाटंकेशशून्यं भवति, तस्य तु वैदेनाऽपि-देवेनैव मुखितं शिरः । अतः त्यागस्तु तेषा. मेव सफलो भवति, ये खलु विद्यमानान् भोग्यपदार्थान् परित्यजन्ति ।।
सतः। अस् मुवि । अस्+शत । संस्कृतनियमेन प्रकारस्य लोपे, ९१० सू० प्रकारागमे, ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे,शस्-प्रत्यये, १००१ सू० अन्त्याकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० शसो लोपे सन्ता इति भवति । भोगान् । भोग+शस् । १०१५ सू० शसो लोपे भोग इति भवति । यः । यद्+सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ सू० दकारलोपे, १००२ स० भकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे बु इति भवति। परिहरति । परिपूर्वक: हृञ् (ह) धातुः परिहरणे। परिह-+तिन् । ९०५ सू० कारस्य पर इत्यादेशे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे परिहर इति भवति । तस्य । तद् +ङस् । ११ सू० दकारलोपे
९ सू० डसः स्थाने सु इत्यादेशे तमु इति भवति । कान्तस्य-कन्तहो,प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । बलि । बलि+सि। १०१५ सु० सेर्लोरे बलि इति भवति । क्रिये। क्रियापदमिदम् । १०६० सू० क्रिये इत्यस्य क्रियापदस्य स्थाने कोसु इत्यादेशे कोसु इति भवति । देवेन । देव+टा १५१ सू० ऐकारस्य अ६ इत्यादेशे, १०१३ सू० टास्थाने णकारे, स्थानिवत्त्वात् १००४ सू० प्रकारस्थ एकारे बइवेण इति भवति । अपि - वि, प्रक्रिया ४१ सूत्रे ज्ञेया। मुण्डितम् । मुण्डित+सि । १७७ सू. तकारलोपे, बाहुल्येन १८० सू० यकारश्रुतौ, ४३५ सू० क-प्रत्यये, १७७ सू० ककार-लोपे, १०२५ सू० अकारस्य उं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे, १०१५ सू० सेलोपे मुण्डियः इति भवति । यस्य-जसु, प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य चतुर्थश्लोके ज्ञेया । खल्वाटम् । खल्वाट+सि । १०१३ सू० खल्वाटार्थे खल्लिहड-शब्दः प्रयुज्यते,४३५ सू० क-प्रत्यये,१७७ सू० ककारस्य लोपे,१०२५ सू० प्रकारस्य 3 इत्यादेश,१०५२ सू० उच्चारणस्य लाघवे खलिहाउँ इति भवति । शोषम् । शोष+सि । २६० स० शकारस्थ षकारस्य च क्रमशः सकारे, ३५.० सू० रेफलापे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ स० सैलौंपे सीसु इति भवति। कीसु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । पक्षे। प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृस्यभावपक्ष इत्यर्थः । साध्यमानाऽवस्थात साध्य माना अवस्था यस्य स साध्यमा क्रिय इति संस्कृतशब्दात् कीसु इति प्रयोगो निष्पन्नो भवति । किये इति पदं साव्यमानावस्थापन्नमिति कथने रहस्यमिदं वर्तते, यद् धात्वर्थों *द्विविधो भवति । यथा-सिद्धावस्थापन्न:, साब्यावस्थापनाच । "तिह-वाच्य लिङ्गसंख्यावयायोग्यं साम्यावस्थापन, वाच्यं तु लिङ्गसंष्यान्वययोग्य विस्थापन्नम् । इति सिखा. स्तकीमुद्याः भाये ३।३।१८। इस्वल्य सूत्रस्य बालमनोरमाटीकात उधृतोऽयं ग्रंशः।
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२४८
★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
कृद्-वाच्यो लिङ्ग-संख्याऽन्वय-योग्यः [कृतो वाच्यः कृद्वाच्यः, लिङ्गञ्च संख्या च लिङ्गसंख्ये, तयोरत्रयः, लिङ्गसंस्थान्वयः । तस्त्र योग्यः लिङ्ग संख्यान्ययोग्यः । धात्वर्थः सिद्धावस्थायन्त उच्यते । यथारात्र स्वागः पनं गन्धप्रस्थयो विद्यते श्रत्र लिङ्गं (पुस्त्वादिकं ), संख्या (एकवचनादिक) प्रति वर्तते । भ्रतः एते प्रयोगाः सिद्धावस्थापन्नाः समवगन्तव्याः । यत्र कृद्वाच्यो न भवेत्, लिङ्गसंरूपान्वयश्च न भवेत्तत्र साध्यावस्था भवति । यथा-पवति, गच्छति इत्यादिषु तिङन्तप्रयोगेषु यो धात्वर्थः सः स्त्वादिवमंयुक्तो न विद्यते । प्रतएव पचति, किये इत्यादयः शब्दाः साध्यास्थापना भवन्ति । साम्यावस्थापन्नाः शब्दाः साध्यमाना स्थापन्ना अपि उच्यन्ते । श्रतएवोक्त साध्यमानश्वस्यात् क्रिये इति संस्कृत शब्दश्वेषः प्रयोगः । अयं भावः क्रिये इति धात्वर्थः साध्यावस्थापन्नो वर्तते नतु सिद्धावस्थापन्नः इति द्योतनायैत्र वृत्तिकारण साध्यमानावस्यात् क्रिये इति संस्कृतस्यादेष प्रयोगः इति समुल्लिखितम् । बलिक्रिये सुजनस्य वलि किज्जउँ सुग्रणस्सु, एतेषां पदानां प्रक्रिया १००९ सूत्रे ज्ञेया । वैकल्पिकत्वात् क्रियेजिडें इत्यत्र प्रस्तुत - सूत्रस्थ प्रवृतिनं जाता ।
१०६१- अतितुङ्गत्वं यत्स्तनयो:, तच्छेदकं न खलु लाभः । सfa ! यदि कथमपि त्रुटिवशेन प्रपरे प्रभवति नाथः || १||
भावार्थ:- यत् स्तनयो:- कुखयोर लिङ्गत्वम्-- प्रयुन्नतत्वम्, प्रतिस्थूलत्वं वा वर्तते तत् खलु छेदकं हानिकारक, बाधकमित्यर्थः । स्तनथोर तितुङ्गत्वेन न कोऽपि लाभो दृश्यते । का नाम बाधा ? तदाह-हे सखि ! मम नाथः कान्तः यदि कथमपि प्रत्यायासेन त्रुटिवशेन कालविलम्ब रूपया अबरेनिम्नष्ठे प्रभवति र चुम्बनं करोति । स्तनयोः स्थूलतमत्वात् दीर्घ कालान्तरमधर चुम्बने समर्थो भवति इयमेव अतितुङ्ग-स्तनयोः हानिकारकता बोध्या ।
त्वम् । प्रतितुङ्गत्व+सि । १७७ सू० प्रथम तकारलोपे, ४२५ सू० त्वस्य स्थाने तण इत्यादेशे १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे अइतुङ्गतणु इति भवति । यत् । यद् + सि । २४५ सू० यकारस्य अकारे, बाहुल्येत २४ सू० दकारस्य मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे जं इति भवति । तयोः । स्तन +ओस् । ३१६ सू० स्वस्थ स्थाने थकारे, २२० सू० नकारस्य णकार, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१० सू० भाम्-प्रत्ययस्थ स्थाने हं इत्यादेशे च इति भवति । ततु । तद् + सि । बाहुल्येन ५७५ सू० तकारस्य सकारे, ११ सू० दकारलोपे १००३ सू० प्रकारस्य प्रकारे १०१५ सू० सेर्लोपे सो इति भवति । देवकम् । छेदक +मि । १७७ सू० दकारस्य ककारस्य च लोपे १८० सूत्रे " कवि भवति" इति पाठात् यकारश्रुती, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोंपेय इति भवति । न व्यपदमिदं संस्कृतसममेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । खलु व्यपदमिदम् । ४६९ ० खcar हु इति प्रयुज्यते । लाभः । लाभ + सि । १८७ सू० भकारस्य हकारे, १००२० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेपे लाहू इति भवति । सखि ! । मखो+सि । १८७ तू खकारस्य हकारे १००१ सू० ईकारस्य इकारे, १०१५ सू० सेलॉपे सहि ! इति भवति । यविजइ, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । कथम् । अव्ययपदमिदम् । इत्यत्र १०७२ सू० वम् इत्यंशस्य डेम-एम इत्यादेशे, डिति परेअन्त्यस्वरादेर्लोपे अभीने परेण संयोजये, १०६८ सू० मकारस्य सानुनासिके वकारे के इति भवति । अपि पदमिदम् । ४८९ सू० श्रध्यर्थे वि इति प्रयुज्यते, बाहुल्येन १७७ सू० वकारलोपे इ इति भवति । त्रुटिवशेन | त्रुटिवश + दा । ३५० सू० रेफलोपे, १९५ सू० टकारस्य डकारे, २६० सू० शकारस्य सकारे, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य णकारे स्थानिवत्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे, १०८१ सू०
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agenre:
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
२४९.
एकारस्य उच्चारण लाघवे तुविग इति भवति । अघरे अर+ङि । १८७ सू० धकारस्य हैकारे,१००५ सू० ङिवा सह प्रकारस्य इकारे अहरि इति भवति । प्रभवति । प्रपूर्वकः भूधातुः सामये । प्रभू + तिव् । ३५० सू० रेफलोपे, १०६१ सू० भूवातो: स्थाने हुच्च इत्यादेशे, ६२० सू० तिव: स्थाने. इवादेशे पहुच इति फति । नाथः-नाहु इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया १०३१ सूत्रे ज्ञेया । प्रभवति पहु es इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता ।
१०६२ - ब्रूत । ब्रूक (ञ) - व्यक्तायां वाचि । ब्रूत । १०६२ सू० ब्रूघातोः स्थाने विकल्पेन बुब इत्यादेशे, प्रदेशसामर्थ्यात् ३५० सू० रेफस्य लोपाभावे, ६६५ सू० त इत्यस्य हकारे सुबह इति भवति । सुभाषितम् । सुभाषित: । १०७ २६० एकाररूप सकारे, १७७ [० तकारस्य लोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे सुहासिज इति भवति । किम् । किम्+अम् । ५६२ सूत्रेण प्रम्-प्रत्ययेन सह किम: स्थाने किं इत्यादेशे कि इति भवति । कपि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । ब्रूत बुव इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तिता । पक्षे वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्त्यभावपक्ष इत्यर्थः । यथा
सू o
tra उपस्वा शत्रुतिः स्थितः पुनर्बु इशासन उत्था
तवाऽहं जानाति एष हरिः यदि ममायतः उक्त्वा ||१||
भावार्थ:- दुर्योचनस्य गर्योक्तिरियम् । शकुनिः दुर्योधनस्य मातुलः इय उक्त्वा ममाये स्थितः, पुनः तथा बुवशासनः दुर्योधनस्य कनीयान् सहोदरः, इयदुक्त्वा ममाज्ये स्थितः । श्रहन्तु तदा जानाभि यदि मातः एव हरिः श्रीकृष्णः उक्त्वा तिष्ठेत् । प्रयं भावः- श्रीकृष्णस्येयन्नाऽस्ति सामर्थ्यं यदसौ ममाये fear तिष्ठेत् ।
इदंपरिमाणमस्येति । इदं परिमाणमस्त्र इत्यर्थे ७१ १४८ सू० अतुप्रत्यये इदमश्च स्थाने इयू इत्यादेशे इयू + प्रतु इति जाते, ४२८ सू० ग्रतोः स्थाने डेतिन ( एत्ति) इत्यादेशे ङिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंपे, ८४ सू० संयोगे परे हस्ते, सम्-अध्यये, १००० सू० द्वितीयस्य इकारस्य प्रकारे, १००२ सू० द्वितीयस्य अकारस्य का ६१३ सूत्रेण तवदतिदेशात् ४९४ सू० अमोडकारलोपे, २३ सू० म कारस्यानुस्वारे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे इस इति भवति । उक्त्वा । ब्रूञ्- ब्रू व्यक्तायां वाचि । ब्रू + क्त्वा । वैकल्पिकत्वात् १०६१ सू० रेफलोपाभावे, ११११ सू० बत्दास्थाने एपि इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे प्रभोने परेण सोध्ये १००० सू० एकारस्य श्रोकारे बोविणु इति भवति । शकुनिः । शकुनि + २६० सू० शकारस्य सकारे, १७७ सू० ककारलोपे, २२० सू० नकारस्य णकारे, १०१५ सू० सेपि स इति भवति । स्थितः । ष्ठान्स्था गतिनिवृत्तौ । स्था + क्तन्त । इत्यत्र ६८७ सू० स्थाधातोः स्थाने या इत्यादेशे १००० सू० ग्राकारस्य प्रकारे, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपिठिउ इति भवति । पुनः पुखु प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य प्रथमे लोके ज्ञेया । बुशासन: दुश्वासन + सि । ३४० सू० संयुक्त शकारस्य लोपे ४३ सू० उकारस्य बी, २६० सू० शकारस्य स्थाने सकारे, २२० सू० नकारस्य णकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, सेलपे सास इति भवति । उक्त्वा । ब्रूकू ब्रू व्यक्तायां वाचि । ब्रू+क्त्वा पूर्ववदेव वैकल्पिकत्वात् १०६९ सू० रेफस्य लोपाभावे, ११११ सू० : स्थाने एप्पि इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेश संयोज्ये, १००० सू० एकारस्य श्रकारे बोधि इति भवति । तदा । अव्ययपदमिदम् । १०८८ सू० सदा इत्यस्य ती इत्यादेशे तो इति भवति । अहम् । श्रस्मद+सि । ९०४६ सू० अस्मदः स्थाने ह इत्यादेशे
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२५० * प्राकृत-व्याकरणम् * .
चतुर्थपादः १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे, १०१५ स० सेलपिहउँ इति भवति | जानामि । शा अवबोधने । ज्ञा +मिव् । ६७८ सू० ज्ञा-धातोः स्थाने जाण इत्यादेशे,१०५६ स० भिवः स्थाने उं इत्यादेशे,बाहुल्येन १० सूत्रसया प्रवृत्ती, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे जाम इति भवति । एष:- एहो, प्रक्रिया १०३३ सूत्रे ज्ञेया। हरिः । हरिनस । १०१५ सू तलपिहार तिमसि । यदि जह, प्रक्रिया १०५५ सूत्र शेया । मम-मह,प्रक्रिया १०५० सूत्रे ज्ञेया। अग्रतः । अव्ययपदमिदम् । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० गकारद्वित्त्वे,१७७ २० तकारलोपे,३७ स० विसर्गस्थ स्थाने 'डो (प्रो)इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, १००० सू० प्रकिारस्य इकार अगह इति भवति । उक्रवा-ब्रोप्पिणु,उयत्वा ब्रोपि इत्यत्र वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिनं जाता।
१०६३-वजलि । बज-धातुः गमने । ब+ति । १०६३ स० व्रज-धातोः स्थाने बुन इत्यादेशे, ६२८ स० तिवः स्थाने इचादेशे बबइ इति भवति । वजियाब्रज+क्त्वा । प्रस्तुतसूत्रेण अज्धातोः स्थाने वुभ इस्थादेशे, ११११ सू० क्त्वः स्थाने एपि,एप्पिणु इत्यादेशो, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये पयि बुजेपितु इति भवति ।
१०६४-पश्यति । दृशिर्-दृश् दर्शने। दश+ति । १०६४ सू० दृश्थातो स्थाने प्रस्स इल्यादेश, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे, ९४५ सू० इचः स्थाने दि इत्यादेशे प्रस्सदि इति भवति ।
१०६५-पठ । पठ्-धातुः पठने । पठ-+हि । ९१० स० प्रकारागमे, १९१ सू० ठकारस्य ढकारे, ६६२ सू० हि इत्यस्य सु इत्यादेशे,६६४ सू० सु इत्यस्य लोपे पढ इति भवति । गृहीत्वा । ग्रह -धातुः उपादाने । ग्रह+क्त्वा । १०६५ सू० ग्रह -धातोः स्थाने गण्ह इत्यादेशे,११११ सू० क्त्वः स्थाने एप्पिणु इ. स्वादेशे,१० सू० स्वरस्य लोपे, अम्झीने परेण संयोज्ये गहेपिणु इति भवति । क्तम् । प्रत+अम् । वैकल्पिकत्वात् १०६९० रैफ-लोपाऽमावे,बाहुल्येन १७७ स ० तकारलोपाऽभावे,१००२ सू० अकारस्य चकारे,१०१५ सू० अमो लोपेवतु इति भवति । गहीस्वागण्हेपिणु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिदृश्यते । १०६६-या यथा तीक्ष्णान् सात्वा करान यदि शशी अतक्षिष्यत ।
तवा जगति गोपाः मुखकमलस्य सवृक्षवं किमपि अलप्स्यस ॥१|| भावार्थ:-कश्चिदुमाभक्तस्तस्याः शोभातिरेक स्तौति । यथा यथा-येन केनापि प्रकारेण शशीचन्द्रः, यदि तीक्षणान् भयंकरान् आयुधान लारवा-मादाय करान-स्वरश्मीन् पतक्षिष्यत-तेषां तक्षणमकरिष्यत्,तदा जगति-संसारे गौरया:-पार्वत्याः,मुखकमलस्य-मुखं कमलमिव मुखकमलं तस्य सशत्व-समानत्वं किमपि-किञ्चिदपि,स्वरूपमेव अलप्स्यत-प्राप्तमकरिष्यत् ? तथापि गौराः मुखमण्डलस्य सौन्दय॑स्य सादृश्यं प्राप्तुं न शक्नोतीति भावः। यतोहि शशी प्रायुधः स्वकरान तक्षयितुनाऽलमस्ति,अतएव स शशी गोयाः सादृश्यमपि प्राप्तुन समर्थोऽस्ति । अनेन गौरीमुखस्य रूपलावण्यं शोभातिथि उपमारहितं च वर्तते इति बन्यते कविना ।
यथा--जिवें, प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य तृतीयश्लोके शेया । तथाति, प्रक्रिया १०४७ सूत्रस्य द्वितीय-इलोके ज्ञेया। तीक्ष्णान् । तीक्षण+शस् । इत्यत्र ५४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,३५३ सू० णकारस्य लोपे,२७४ सू० क्षस्य स्थाने खकारे,३६० सू० खकारद्वित्त्वे,३६१ सू० पूर्व स्वकारस्य ककारे,१००१ सू० भकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० शसी लोपे तिक्ता इति भवति । लात्वा । ला प्रादाने। ला+क्त्वा । ११११ सू० वस्वः स्थाने एवि इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये लेवि इति भवति । करान् । कर+शस् । १०१५ सू० शसो लोपे कर इति भवति । यदि जाइ,प्रक्रिया १०५५ सूत्रे
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीका-द्वयोपेतम् * ज्ञेया । शशी । शशिन +सि । २६० सू० उभयत्रापि शकारस्य सकारे,११ सू० नकारलोपे,१०१५ सू० सेलोप ससि इति भवति । अतक्षिष्यत । तक्षतिक्षधातुः तक्षणे । तक्ष+स्यत । १०६६ सू० लक्ष्-धातोः स्थाने छोल्ल इत्यादेशे,६६७ सू० प्रकृति-प्रत्यययोर्मध्ये ज्ज इत्यस्य विकरणे,६४६ सू० अकारस्य इकारे छोल्लिज्ज+स्यत इति जाते, ६६९ सू० स्यत इत्यस्य न्त इत्यादेशे, सिप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे छोहिलज्जन्तु इति भवति । तदा । मव्ययपदमिदम् । १०८८ सू० तदा इत्यस्य तो इत्यादेशे तो इति भवति । जगलि । जगत् +कि । १७७ सू० गकारलोपे, ११ सू. तकारलोपे १००५ सू० दिना सह अकारस्य इकारे जइ इति भवति । गौया । मौरी+इस 1 १५९ सू० पोकारस्य स्थाने ओकारे, १००१ सू० ईका रस्य स्थाने इकारे, १०२१ सू० इन्सः स्थाने हे इत्यादेशे, १००१ सू० उच्चारणस्य लाघवेगोरिहे इति भवति । मुखकमलस्प । मुखकमल+इस् । १८७ सू० खकारस्य हकारे, १०१६ सू० इन्सो लोपे, १००० सू० प्रकारस्य इकारे मुहकमलि इति भवति । सशस्वम् । सदशत्व+अम् । १४२ स० ऋकारस्य रि इत्यादेशे, ३४८ सु० दकारलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ४२५ सूत्व प्रत्ययस्य डिमा (इमा) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये सरिसिमा+अम् इति दाते, १००१ सू० प्राकारा २०६५ प्रमो को शानिलिम इति भवति । किम् । किम् +अम् । ५६० सू० किम: स्थाने क इत्यादेशे, १००१ सु० प्रकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० अमो लोपे का इति भवति । प्रविधि, प्रक्रिया ४८१ सूत्रे ज्ञेया। अलक्यत । डुलभ लभ लाभे। लभ+स्थत । ९१० सू० अकारागमे, १८७ सू० भकारस्य हकारे, ६६९ सू० स्यत इत्यस्य न्त इत्यादेशे, सिप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे सहन्तु इति भवति । प्रतशिष्यत खोलिनन्तु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तितिा । प्राविग्रहणान् । १०६६ सूत्रेमादि-पद-ग्रहणाद् देशीषु-- तसद्देश्य-भाषासु ये क्रियावचनाः, तिङन्त-कृदन्तादयः क्रियावाचकाः शब्दा उपलभ्यन्ते,ते उदाहार्याः, तेषामुदाहरणानि बोधव्यानि । यथा
चूटक: सूर्णीभवति स्वयं, मुग्धे! कपोले निहितः ।
श्वासामल-ज्याला-सन्तप्तः, वाष्प-सलिल-संसिक्तः ॥२।। भावार्थ:-विरहवत्याः नायिकायाः दुःखपूर्णी दशां वीक्ष्य धैर्य-धारणाय कश्चित्ता प्रत्याह-- मुग्धे !...हे सुन्दरि !, कपोले-गण्डस्थले निहितः-स्थापितः चूटक:---विवाहकाले परिधापितो मङ्गलभूतो हस्तिदन्त निमितो नववधू-भुजाया प्राभूषणविशेष: पीभवति मचूर्ण: चूर्णो भवतीति । किम्भूतः चूटकः ? श्वासानल-ज्वाला-संतप्तः, श्वासानामनल:-वन्हिः, तस्य ज्वाला, ताभिः सन्तप्तः-दग्धप्रायः । पुन: किम्भूतः चूटकः? वाष्प-सलिल संसिक्तः,वाष्पस्य सलिलम् अश्रुजलमित्यर्थः तेन संसिक्त सिचितः ।
चूटकः । चूटक+सि । १०९३ सू० चूटकार्थे चूडुल्लम-शब्दः प्रयुज्यते,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे चूडुल्लउ इति भवति । चूों भवति । चूर्णीभू- तिन् । इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० णकारद्वित्वे,८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,७३१ सू० भूधातोः स्थाने हो इत्यादेशे,६२८ सू० तिव इचादेशे चुण्णीहोइ इति भवति । अथवा --चूर्णीभवति इत्यस्य क्रियावचनस्य स्थाने प्रस्तुतसूत्रेण चुपणीहोइ इत्यादेशे गुण्णीहोइ इति भवति । स्वयम् । अव्ययपदमिदम् । ३५० सू० दकारलोपे, १७७ सू० य. कारस्य लोपे,२३ सू० मकाराऽनुस्वारे,२९ सू० अनुस्वारलोपे,१००० सू० प्रकारस्य इकारे सइ इति भवति । मुग्धे ! - मुद्धि !,प्रक्रिया १०४७ सुत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। कपोले । कपोल+डि।२३१ सुरू "अमुक-देशे भव: देशपः, देशविशेष-प्रसिद्ध इत्यर्थः ।
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marwana
२५२ * प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः पकारस्य वकारे,१००५ सू० हिना सह प्रकारस्य इकारे कयोलि इति भवति । निहितः । निहित +सि । ३७० सू० तकारद्वित्त्वे, ४३५ सू० कप्रत्यये, ११०० सू० स्वार्थ अप्रत्यये काप्रत्ययस्य च लोपे, १००२ सू० प्रकारस्थ उकारे,१०१५ सू० सेलोपे निहिसउ इति भवति । श्वासानल-ज्याला-संतप्तः । श्वासानलज्वाला-संतप्त+सि । २६० सू शकारस्य सकारे, ३५० सू० उभयत्रापि वकारलोपे, ४ सू० द्वितीय-लकारस्थस्याकारस्य प्रकारे का प्रय शब्द: सम-पूर्व के उप-धातुन निष्पन्नः, अतःप्रस्तुतसूत्रेण सम्पूर्वकतफ्धातोः स्थाने झलक्क इत्यादेशे झलक्क न त इति जाते, ६४५ सू० अकारस्य इकारे,१७७ सू० तकारलो,सिप्रत्यये,४३५ सू० क-प्रत्यये, १७७ सू० ककारस्य लोपे, १००३ सू० अकारस्थ उकारे,१०१५ सू० सेलोपे सासानल-जाल-भालविकाउ इति भवति । पाप-सलिल-संसिक्तः । वाष्पसलिल-संसिक्त+ सि । ३४१ सू० पस्य हकारे,३४८ सू० ककारलोफे,३६० सू० त कारतित्त्वे,४३५ मू० क-प्रत्यये, ११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये, प्रत्ययस्य च लोपे, पूर्दवदेव बाह-सलिल-संसित्तउ इति भवति । संतप्त झलविकत इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।।
मनगम्य पये प्रम निवर्तते यावत ।
सोशल-रिपु-संभवस्म कराः परिवसाः तावत् ।।३।। भावार्थ:-प्रेमेति । लक्षणया प्रेमपदात् प्रेमवती-नायिका गृह्यते। काचित् धेमवती नायिका प्रदेश गन्तु-कामस्य स्वकीय-पत्युः उपदेऽनुगम्य-प्रास्थानिक द्विपदानुगमनं विधाय यावत्-यस्मिन् काले निवर्ततेप्रत्यावर्तते तायत्-तस्मिन् काले सा एवं प्रतीयते यथा सर्वाशन-रिपुसंभवस्य-सर्वगरमातीति सर्वाशन:धन्हिः तस्य रिपुः शत्रुः सागर इत्यर्थः । तस्मात् संभवः-उत्पत्तिर्यस्य स सर्वाशन रिपु-संभव:-चन्द्रः, तस्य करा:-किरणाः परिवृत्ता:-प्रत्यावर्तिताः । नायिकायाः सौन्दयोतिशयं ध्यज्यते ।
...अनुगम्य । क्रियापदमिदम् । १०६६ सू० अनुगम्याऽर्थे अभडवंचिउ-शब्दः प्रयुज्यते ।। द्वि+ औ। ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, ६०९ २० शंसा सह द्विशब्दस्य वे इत्यादेशे, बाहुल्येन २३७ सू० वकारस्य बकारे बे इति भवति । परे । पद+औ। इत्यत्र ६१९ सू० द्विवचनस्थ बहुवचने. १७७ सू० दकारलोपे,१८० सू० यकारश्रुतौ,१०२४ सू० शसः स्थाने इं इत्यादेशे ग्बई इति भवति । प्रेम । प्रेमन् न-सि । इत्यत्र १०६९ सू० रेफलोपे,३७० सू० मकारस्य द्वित्त्वे,११ सू० नकारलोपे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे पेम्म इति भवति । निवर्तते । निपूर्वक: वृतु-वृत निवर्तने । निवृत्+ते । संस्कृतनियमेन नियत् +तेति जाते,१७७ सू० यकार लोपे,९१० सू० प्रकारागमे,३५० स० रेफस्य लोपे,३६० स० तकारस्न द्वित्त्वे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इबादेश नितइ इनि भवति । यावत् । अयादमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे,१०७७ सू० वत् इत्यस्य मका रे,१०६८ सू० मकारस्थ स्थाने सानुनासिके बकारे जा३ इति भवति । सशिम-रिपु-संभवस्य । सर्वाशन-रिपु-संभव'+'इस् । ३५० सू० रेफलोपे,३६० स० वकारद्वित्त्वे,२६० सू०शकारस्य सकारे,२२८ सू. नकारस्य कार.१७७ सू० पकारलोपे,१००९ सूइस: स्थाने ही इत्यादेशे सण्यास-रिउ-संभवही इति भवति । कराः । कर+जस । इत्यत्र १०१५ सू० जसो लोपे कर इति भवति । परिवृत्ताः । परिवृत्त । जस् । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे,१७७ ८० वकारलोपे, १००१ सू० अकारस्य प्रकारे,१०१५ सू० जसो लोपे परिअसा इति भवति । तावत् । अध्ययपदमिदम् । १०७७ सप्रेण वत् इत्यस्य मकारे, १०६८ स० मकारस्य सानुनासिके वकारेताय इति भवति । अनुगम्य = अभडसिख इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्थ प्रवृत्तिजीता।
हबमे ल्यायते गौरी, गगने पर्जति मेघः । वर्षारात्रि-प्रवासिनां विषम संकटमेतद् ||४||
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चतुर्थ पादः
* संस्कृत-हिन्दो टीकाद्वयोपेसम् * __ भावार्थ:- कविचकामुक बर्षती नायिका-विरहाद दुःखी भवन्नाह । यद् यदा गगने-नभसि मेरो गर्जति सदा हृदये गौरी-प्रिया शल्यायते शल्यमिवाचरति, शल्यमिव पौडयनीति यावत् । हेतुमाह-वर्षारात्रि-प्रवासिना-वर्षाणां रात्रिः तस्यां ये प्रवासिनः-प्रदेशयात्रिका:, तेषां कापुकानां कृते एतद मेघगर्जन विषम-भीषणं संकट-दुःखोत्पादक भवतीति भावः।
। हदय+डि । इत्यत्र १२८ स. ऋकारस्य इकारे,१७७स दशारस्य यकारस्य च लोपे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे हिमाद इति भवति । शल्यायते । शल्याय+ते । इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण शल्याय+ते इत्यर्थे खुश्कइ इति शब्दः प्रयुज्यते । गौरी ! गोरी+सि । इत्यत्र १५९ सा औकारस्य प्रो. कारे, ४३५ सू० कप्रत्यये,११०० स्वार्थे इड-(ग्रड)-प्रत्यये कप्रत्ययस्य च लोपे,डिति परेऽत्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ११७२ स० वी-(ई)-प्रत्यये, डिति परेऽन्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेोषे गोरडी इति भवति । गगने । मगन+डि । इत्यत्र १७७ स० द्वितीयाकारलोपे,१८० स० यकारभुती,२२६ सु० नकारस्य णकारे,१००५ स० डिना सह अकारस्थ इकारे गयणि इति भवति । गर्जति । गजे घातुः गर्जने । गर्ज +तिन् । प्रस्तुतसूत्रेण गर्ज+लिव इत्यर्थे घटुक्का-शब्दः प्रयुज्यते । मेघः । मेध+सि । १८७ सू० प्रकारस्य हकारे,१००२ सु० प्रकारस्थ उकारे,१०१५ सू० सेलोपे मेह इति भवति । वर्षा-रात्रि प्रवासिनाम् । वर्षा-रात्रि-प्रबासिन् । प्राम् । १०६९ स० रेफलोपे, ४३ सू० प्रादेरकारस्त्र प्राकारे, २६० सू० षकारस्य सकारे,१०६९ सूत्रेण पुनः उभयत्राऽपि रेफलोये,३६० सू० तकारद्वित्त्वे, ८४ स० संयोगे परे ह्रस्वे,११ सूत्रमनुसृत्य समासे वाक्य-विभक्त्यपेक्षायामन्त्यत्वमनन्त्यत्वच भवति । तेन पकारस्य प्रादिभूतत्वात् ३६० स० द्वित्त्वाऽभावे,९५ स० सकारस्थस्य इकारस्य उकारे,११ To नकारलोपे, ११०० स० स्वार्थ प्रप्रत्यये, १०१० सू० ग्रामः स्थाने हैं इत्यादेशे वासा-रत्ति-पवासुग्रह इति भवति । विषमम् । विषम+सि । २६० सू० षकारस्थ सकारे, १००१ स० अकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोपे विसमा इति भवति । संकटम् । संकट+सि । १९५ सू० टकारस्य डकारे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे संकडु इति भवति । एतद् - एह प्रक्रिया १०३३ सूत्रे ज्ञेया। शल्यायते --खुडुक्कर, गर्जलि धुडका इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
अम्ब ! पयोधरी वनमयो नित्यं मौ संमुख तिष्ठतः।
मम कान्तस्य समराङ्गणके गजघटा भवस्था पान्ति ॥५॥ भावार्य :-काचिन्नायिका निज-कच-दाव्याधिक्यं वीक्ष्य प्राश्चर्यचकिता जातातएव सानिजमातरमेवमुवाच हे अम्ब!-मातः मम पयोधरौ-स्लनी,वनमयो-वनसदृशौ दृश्येते,यतः एती नियं-सर्वदा मम कान्तस्य सम्भुखं यथा स्यात्तथा तिष्ठतः, प्रतिदिनं मर्दनेऽप्येतयोः किनिदपि शैथिल्यं न जायते । किम्भूनस्य कान्तस्य ? सामराङ्गणक-युद्धभूमौ तिष्ठतः, युद्धं कुर्वत इत्यर्थः, यस्य मम कान्तस्य सम्मुख गजघटा:-जाना-हस्तिना घटा:-समूहा प्रपि भवरवा यान्ति-भग्नीभूय पलायन्ते । परन्तु स्वभयोरुपरि तस्य प्रभावः न किञ्चिदपि उपलक्षितो भवति। अतः मदोय-स्तनाभ्यां सिंहपुरुषोऽपि मे कान्तः पराजित इति भावः।
प्रम्ब!। अम्बा+सि । इत्यत्र ३५० स० बकारलोपे,३६० सू० मकारद्वित्त्वे,१००० स० साकार. स्य इकारे,१०१५ सू० सेलोपे अम्मि! इति भवति । पयोषरो। पयः-दुग्धं घरतीति पयोधरस्तौ । पयोधर +ौ । १७७ सू० यकारलोपे, बाहुल्येन १५० सू० यकार-श्रुतिर्न जाला, १८७ सू० धकारस्य स्थाने हकारे, ६१९ सू० द्विवचनस्य स्थाने बहुवचने, १०१५ सू० जसो लोपे पओहर इति भवति । वनमयो ।
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२५४
★ प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपाद
वज्जमय + श्रौ । १०६१ सू० फ्लोपे ३५० सू० जका रद्वित्वे, १७७० सू० यकारलोपे श्राप बाहुल् १८० सू० यकारभूति जाता, ततः वज्जमय + औ इति जाते, ५ सू० दीर्घ सम्भो, ६११ सू० द्विवचनस्थ बहुवचने, जसो लोपे व जमा इति भवति । नित्यम् । नित्य +सि । २८४ सू० त्यस्य चकारे, ३६० सू० चकारद्विश्वे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ ० सेलॉये निश् इति भवति । यौ । यद् +यो । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, : १,५४० सू० जय: स्थाने डित् ए इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, अभीने परेण संयोज्ये, १०८१ सू० उच्चारण- लाघवे जे इति भवति । सम्मुखम् । क्रियाविशेषणमिदम् । सम्मुख + अम् । २३ सू० मकारस्यानुस्वारे, १८७ सू० खकारस्य हकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे संमुह इति भवति । तिष्ठतः । ष्ठास्था गतिनिवृत्तौ । स्था+ तस् । ३४८ सू० सकारलोपे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, ६३१ सू० श्रन्ति इत्यस्य न्ति इत्यादेशे ८४ सूल संयोगे परे ह्रस्वे यन्ति इति भवति । मम महु, प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य प्रथमदलो ज्ञेया । कान्तस्य कन्त हो", इत्यस्य प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । समराङ्गणके । समराङ्गणक + ङि । ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे १७७ सू० ककारलोपे, १००५ सू० ङिना सह प्रकारस्य इकारे समरङ्गगइ इति भवति । गजघटाः । गजघटा+जस् । १७७ सू० जकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ १९५ सू० टकारस्य डकारे, १००१ सू० श्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० जसो लोपे गयघड इति भवति । भक्त्वा । भन्जो (भज्) विनाशे भज् + क्त्वा । प्रस्तुतसूत्रेण भब्ज इत्यस्य भज इत्यादेशे, १११० सू० क्त्व: स्थाने इज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, ज्झीने परेण संयोज्ये भज्जित इति भवति । अथवा भज् + क्त्वा इत्यत्र २५ सू०
ड
कारस्यानुस्वारे, २८ सू० मनुस्वारलोपे, ३७० सू० जकारद्वित्वे १११० सू० क्त्वः स्थाने इस इत्या देशे, अभीने परेण संयोज्ये भज्जिड इति भवति । मनया रोत्याऽपि पदमिदं निष्पन्नं भवति । यान्ति । orang: गमने | या + श्रन्ति । २४५ सू० प्रकारस्य जकारे, ६३१ सू० भन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे जन्ति इति भवति । भवा भज्जड इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिता । पुत्रेण जातेन को गुणः ? अवगुणः को मृतेन ? |
या [ यस्मिन् जीवति ] पैतृकी भूमिः, आक्रम्यतोऽयरे ||६||
भावार्थ:- पुत्रेण जातेन को गुणः ? श्रथवा जातस्य पुत्रस्य मृतेन कोऽवगुणः, अपकृष्टो गुणः:-हानि, नकोsपीति भावः यतः यस्मिन् पुत्रे जीवति सति या पैतृकी-पितृसम्बन्धिनी भूमिः स्थानं भवति सा अपरेण शत्रुजनेन प्राक्रम्यते श्रात्रम्याच्छिद्यते । या पुरुषः पैतृकी भूम्यादिसम्पत्तिमपि रक्षितु नालमस्ति तस्य जीवितमरणे तुल्ये स्तः स हि कापुरुषो भूमौ भारायते, प्रतएव ईदृशः कुल घातकः पुरुषः निन्दनीयो चिक्करणीयश्चाऽस्ति ।
पुत्रेण । पुत्र+टा । इत्यत्र १०६९ सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० सकारस्य द्वित्वे, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानियस्वात् १००४ सु० प्रकारस्य एकारे पुरों इति भवति । जातेन । जात+टा । १७७ सू० तकारलोपे, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवत्त्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे जाएं इति भवति । कः । क्रिम+सि । १०३८० सू० किमः स्थाने कवण इत्यादेशे, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलने कवशु इति भवति । गुणः । गुण +सि । १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोंपे गुण इति भवति । अपगुणः । श्रपगुण +सि । इत्यत्र २३१ सू० पकारस्य चकारे, पूर्ववदेव अवगुण इति भवति । मृतेन । मृत+टा १३१ सू० ऋकारस्य उकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १०१३ सूटस्थाने कारे, स्थानिवस्त्रात् १००४ सू० प्रकारस्य स्थाने एकारे मुए इति भवति । या यदु
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीका-द्वयोपेतम् * +सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ सू० दकारलोपे, स्त्रीत्वाद् प्राप्-(आ)-प्रत्यये, ५ स० दीर्घसन्धौ, १०१५ सू० सेलोपे जा इति भवति । पैतृको । पैतृकी+सि । १०९३ सू० पैतृकी इत्यर्थे बप्पोकोशब्दा प्रयुज्यते, १०१५ स० सेर्लोपे चप्पीको इति भवति । भूमिः । भूमि-+सि । १०९३ सू० भूम्यर्थे भु. हडी-शब्दः प्रयुज्यते, पूर्ववदेव सेोये मुंही इति भवति । प्राक्रम्यते । मापूर्वकः क्रमु क्रम् ] धातुः अाक्रमणे । प्राक्रम् + क्य+ते । प्रस्तुतसूत्रेण प्राकम्यते इत्यर्थे चाम्पिाई इति प्रयुज्यते । अपरेण । अपर +21 1 २३१ सू० पकारस्य वकारे, १०१३ सू० टास्याने कारे,स्थानिवत्त्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे अवरेण इति भवति । आकम्यते-धम्पिबई इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
हसावज्जलं सागरस्य, सतावान विस्तारः |
तृषायाः निवारणं पलमपि नापि पर शब्वायतेऽसारः ॥७॥ भावार्थ:-सागरोन्योक्त्या कञ्चिद् कृपणं धनिनं प्रति कश्चिदाह-तत् तावजलम्-स महान् जलराशिरित्यर्थः, तथा स तावान विस्तार:-महान् विस्तारः सागरस्य-समुद्रस्य विद्यते तथाऽप्यसो तृषायाः-तृषितस्य पिपासायाः पलमपि-किश्चिन्मावपि निषाएक-निवृत्ति माऽपि-नैव करोति, परकिन्तु सागरोऽयमसार-न विद्यते सारो यस्मिन् सः प्रसार:-सारशून्यः,व्यर्थमिति यावत् वाम्बायते-शब्द करोति । अयं भावः सेन धनेन कि यो न ददाति न भुक्ते।
तत्त प्रक्रिया १०५९ सूत्रे शेया। तावत् । तावत् + सि । ४२८ सू० वत् इत्यस्य डित् एत्तिम इत्यादेशे, डिति परेऽत्यस्वरादेलोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १००२ सू० भकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे तिः इति भवति । बाल्येनाऽत्र ८४ सहस्बोन जातः । जालम् ! जल+सि । १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपिजतु इति भवति । सागरस्य । सागर+डस् । इत्यत्र १७७ सू० गकारलोपे,१५० सू० यकारश्रुतौ,१००९ सू० असः स्थाने हो इत्यादेश,१०५१ सू० उच्चारणस्य लाघवे सायरहों इति भवति । सः-सो, प्रक्रिया १०५५ सूत्रे ज्ञेया। तावान् । तावत्+सि । १०७८ स० वत् इत्यस्य डित् एवड इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १००२ स० प्रकारस्य उकारे, १०१५ स० सेलोपे तेवड इति भवति । बिस्तारः। विस्तार--सि । इत्यत्र ३१६ स. स्तस्य थकारे, ३६० सू० थकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वथकारस्य तकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलेपि वित्थार इति भवति । तुषायाः । तृषा + हुस् । इत्यत्र १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, २६० सू० षकारस्य सकारे,१००१ स. प्राकारस्य प्रकारे,१०२१ सू० उसः स्थाने हे इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लायवे तिसहे इति भवति । निवारणम् । निवारण-+सि । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे निवारण इति भवति । पलम् । पल+सि । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, पूर्ववदेव फ्लु इति भवति । अपिवि, प्रक्रिया ४८९ सत्रे ज्ञेया ।म । मध्ययपदमिदं संस्कृतसममेवाऽपभ्रशे प्रयुज्यते । परम् । अव्ययपदमिदम् । १०८१ सू० परम् इत्यस्य पर इत्यादेशे पर इति भवति । शब्दायते । शब्दं करोतीति । शब्दाय ध्वनिकरणे । शब्दाय +ते। प्रस्तुतसूत्रेण शब्दायते इत्यस्य स्थाने घुटअइ इति-शब्दः प्रयुज्यते । असारः । प्रसार+सि। १००२ स० प्रकारस्य उकारे, १०१५ स० सेलोपि प्रसार इति भवति । शदायते-- घुटठुअइ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता ।।
* अथ कृ आधि धातुओं को खोने वाली आदेश-विधि *
अपभ्रंश-भाषा में डुकृञ् (क) आदि धातुओं के स्थान में जो प्रादेशादि कार्य होते हैं, अब सूत्रकार द्वारा उनका निर्देश किया जा रहा है।
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★ प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपाद:
१०६० अपभ्रंश भाषा में 'क्रिये' इस क्रियापद के स्थान में की यह प्रदेश विकल्प से किया जाता है । जैसे—
२५६
सतो भोगान् यः परिहरति तस्य कान्तस्य बलिजिये । तस्य वंबेनाsवि मुण्डितं यस्य स्वत्वाटं शीर्षम् ||१||
अर्थात --- जिस ने विद्यमान (सम्प्राप्त) भोगों (भोग्य पदार्थों) का परित्याग कर दिया है, उस कान्त (श्रीतम) के मैं बलिहारी जाती है। जिस का सिर खल्लाट (गंजा) है, उसे तो दैव (भाग्य) ने ही fuse fकया हुआ है ।
यहां पर किये इस क्रियापद के स्थान में की ( करती हूँ) यह ग्रादेश विकल्प से किया गया है। आदेश के प्रभावपक्ष में साध्यमान अवस्था वाले क्रिये इस संस्कृत शब्द का बलि क्रिये सुजनस्य बलि किज सुण ( मैं सुजन श्रेष्ठ मनुष्य के बलिहार जाता हूं) यह रूप बनता है। यहां पर एक प्रश्न उपस्थित होता है कि वृत्तिकार ने सायमान अवस्था का जो उल्लेख किया है, इसका क्या अभिप्राय है ? उत्तर में निवेदन है कि धात्वर्थं दो प्रकार का होता है। एक सिद्धावस्थापन्न दूसरा साध्यावस्थापन्न | साध्यावस्थापन को साध्यमानावस्थापन भी कहा जाता है। लिङ्ग और संख्या के प्रन्वय ( सम्बन्ध ) से युक्त कृदन्त प्रयोग सिद्धावस्थापन्न घात्वर्थ कहलाता है। जैसे -- पाक ( पकाना ), पटन ( पड़ना) आदि कृदन्त शब्द लिङ्ग और संख्या के अन्वय से युक्त होते हैं । इनमें पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग या नपुंसक कोई न कोई लिङ्ग अवश्य रहता है तथा एक वचन, द्विवचन आदि संख्या भी पाई जाती है । अतः ये शब्द सिद्धावस्थापन्न कहे जाते हैं। इसके विपरीत, जो धात्वर्थ कृदन्त न हो, लिङ्ग श्रीर संख्या के प्रत्यय से भी युक्त न हो वह साध्यावस्थापन्न माना गया है । जैसे-पचति (वह पकाता है)। यह तिङन्त शब्द कृदन्त नहीं है । तथा पुल्लिङ्ग श्रादि धर्मों से भी रहित है। इसलिए इसे साब्यमानावस्थापन्न कहा जाता है। इसी प्रकार "क्रिये" यह क्रियापद भी तिङन्त होने से पुस्त्व भादि धर्मों से रहित है। अतः यह साध्यमानावस्थापन्न शब्द स्वीकार किया गया है। इस दृष्टि को प्रागे रखकर वृतिकार ने - साध्यमान अवस्था वाले क्रिये इस संस्कृत शब्द का उल्लेख किया है।
१०६१ - अपभ्रंश भाषा में पर्याप्त ( पर्याप्त होने का भाव, समर्थ, तृप्ति) अर्थ में भू धातु स्थान में यह प्रदेश होता है। जैसे
प्रतिगत्वं यत्स्तनयो: Hee न खलु लाभः । afa ! यदि कथमपि त्रुटिवेशन प्रघरे प्रभवति नाथः ॥ १ ॥
अर्थात् है सखि ! स्तनों का प्रतितुङ्गत्व (अधिक ऊंचाई) लाभदायक नहीं है, किन्तु हानिकारक है, क्योंकि मेरे प्रीतम कठिनाई के साथ तथा देरी के साथ ही घर (नीचे का होंठ ) तक पहुंचने में समर्थ हो पाते हैं। भाव यह है कि स्तनों की अधिक ऊंचाई के कारण ही प्रीतम के लिए ग्रधर चुम्बन करना भी कठिन हो गया है ।
यहां पर पर्याव्यर्थक सू धातु के स्थान में हुव यह आदेश करके प्रभवति का पहुच्च (वह समर्थ होता है, वह तृप्त होता है) यह रूप बनाया गया है।
२०१२ - अपभ्रंश भाषा में ब्रूग् (यू) धातु के स्थान में बुब यह आदेश त्रिकल्प से होता है । जैसे-- मूल सुभाषितं किमपि हासि कि पि (कुछ भी सुभाषितसुन्दर उक्ति कहीं यहां पर गूगु धातु को ब्रुव यह प्रदेश विकल्प से किया गया है। आदेश के अभाव पक्ष में
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
२५७ यद समस्या शकुतिः स्थितः पुन शासन उक्त्वा ।
तदाऽहं जानामि एष हरिः यदि समाप्रतः उक्त्वा ॥१॥ अर्थात-दुर्योधन अभिमानपूर्ण भाषा में बोलता हुमा कहता है कि मेरे सामने इतना कह कर शनि बैठ गया,फिर दुश्शासन भी इतना बोल कर बैठ गया,किन्तु तब जान यदि मेरे प्रागे यह कृष्ण भी पूछ कह कर दिखाए ? अथीत श्री कृष्ण का मेरे सामने बोलने का साहस नहीं है।
यहां पर-उवालोप्पिणु तथा बोधि (कहकर) इन पदों में ग् धातु का प्रयोग किया गया है, किन्तु वैकल्पिक होने के कारण प्रस्तुत सूत्र से इसे दूध यह प्रादेश नहीं हो सका।
१०६३ अपश-भाषा में व धातु के स्थान में 'युज' यह प्रादेश होता है । जैसे---- मजलि ==बुबइ (वह जाता है), २-अजिस्वा=प्पि, वुजेपिणु (जाकर) यहाँ पर अज् धातु को बुन यह प्रादेश किया गया है।
१०६४-~-अपभ्रंश भाषा में हम-धातु के स्थान में 'प्रस्स'यह प्रादेश होता है। जैसे-पश्यति प्रस्सदि (वह देखता है। यहां पर दृश् धातु को प्रस्स यह मादेश किया गया है।
१०६५-अपभ्रशं भाषा में ग्रह, धातु के स्थान में 'गृण्ह' यह प्रादेश होता है। जैसे--पगहोत्या व्रतम् = पढ गुण्हेप्पिणु तु (वत को ग्रहण करके पढो) यहां पर ग्रह, धातु के स्थान में गृह यह मादेश किया गया है।
१०६६-अपभ्रंश भाषा में तक्षि आदि धातुओं के स्थान में 'शोल्ल' आदि प्रादेश होते हैं । जैसे
যা যথা রাগ লাং এ যধি সাধন।
तथा जगति गौः मखमलस्य संशव किमपि अलप्स्पत ॥शा प्रयत-यदि तीक्ष्ण शस्त्रों को लेकर चन्द्रमा प्रपनी किरणों को तक्षण करें चन्द्रमा पनी
शेले तो ही वहा चन्द्रमा ] गौरी[गौरवणं वाली नायिका या शिव-पत्नी पार्वती] के मुख-कमल की कुछ [थोड़ी सी समानता को प्राप्त कर सकता है । अर्थात---गौरी की सुन्दरता के सामने चन्द्रमा का सौन्दर्य नगण्य है।
यहां पर प्रतिक्षिष्यत- छोरिलज्जन्तु (तक्षण किया जाए) इस पद में प्रस्तुत सुत्र से तक्षिधातु के स्थान से छोल्ल यह आदेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि सूत्रोक्त तस्यादीनाम्' इस पद में पठित धादि-पद से बेशीय प्राकृत-भाषामों में जो-जो भी क्रिया-बचन उपलब्ध होते हैं, उन सब के उदाहरण भी ग्रहण कर लेने चाहिएं। जैसे
घटकः पूर्णीभवति स्वयं मूग्धे ! कपोले मिहितः ।
वासानल-चाला-संतप्तः बाप-सलिल-संसिक्तः ॥२॥ अर्थात हे मुग्धे ! (हे सुन्दरि ! ) कपोल पर रखा हुधा कंकण श्वासरूपी अग्नि-ज्वालामों से संतप्त तथा अश्रु-जल से संसिक्त (सींचा हुआ) हो जाने के कारण अपने आप ही चूरा-चूरा हो रहा है।
यहां पर श्वासानल-वासा-संतप्तः इस समस्त पद में पठित संतप्त इस क्रियापद के स्थान में झलक्क यह प्रादेश किया गया है । दूसरा उदाहरण
अनुगम्य है पदे प्रेम निवर्तते यावत् ।
सशिम-रिपु-संभवस्य करा: परिबलाः तावत् ।।३।। अर्थात यो कदम पीछे चल कर प्रेम [प्रेमवती नायिका] जिस समय वापिस लौट रही थी
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादा तो उस समय ऐसे प्रतीत हो रही थी,जैसे सर्वाशन रिपु-संभय चन्द्रमा) की किरणें वापिस लौट गई हैं। मर्थात् नायिका का रंगरूप चन्द्रकिरणों जैसा तेजस्वी था।
यहां पर 'अनुगम्य' इस क्रियापद के स्थान में प्रस्तुतसूत्र से-'भवंचित' यह प्रादेश किया गया है। तीसरा रखाहरण
हवये शल्यायसे गौरी, गगने गर्जति मेघः ।
वर्षा-रात्रि-प्रवासिनां विषम संकटमेत ॥४॥ अर्थात-पाकाश में मेध गरज रहा है, हृदय में गौरी सन्दरी का शल्य-कांटा वेदना कर रहा है। सचमुच प्रवासियों [प्रदेश में यात्रा करने वालों के लिए वर्षा की रात्रि बडी संकट मय होती है !
यहां पर माल्यायतें इस क्रियापद के स्थान पर 'खुटुक्कई' यह मादेश किया गया है। तथा 'गर्जति' इस क्रियापद के स्थान पर 'घुडकई यह आदेश कर रखा है। चौथा उधाहरण
____ अम्ब ! पयोषरो धनममौ मिस्र्य यो सम्मुखं तिष्ठतः।।
मम कान्तस्य समराहगराके गजघटाः भस्वा यान्ति ॥५॥ अर्थात-जिस मेरे कान्त-प्रीतम के सामने रणभूमि में हाथियों के झुण्ड भी हार कर भाग जाते हैं,उस के सामने भी ये स्तन वैसे ही खडे रहते है। अतः हे मालमिरे ये स्तम वजमय प्रतीत हो रहे हैं.
यहां पर प्रस्तुतसूत्र के द्वारा 'भजो (भज) इस धातु के स्थान पर 'भाज' यह प्रादेश किया गया है । पांचवों उदाहरण--
पुत्रेण जासेन को गुणः अपगुणः को मृतेन ?।
या पैतकी समिः आक्रम्यतेऽपरेण ॥ अर्थात-उस पुत्र के पैदा होने से क्या लाभ है ? तथा उसके मर जाने पर भी.क्या हानि हो सकती है ? जिस के होते हुए पैतृको भूमि दूसरे से आक्रान्त हो जाती हो। - यहाँ आफम्पते इस नर्थ में चम्पिज्जई इस क्रियापद का आदेश किया गया है । छछा उदाहरण
तत्तावत् जलं सागरस्य, स तावान् विस्तारः।
सषायाः निवारणं पलमपि, नापि पर शब्दायतेऽसारः ।।७।। प्रर्थात- सागर में इतना महान जल है और इसका इतना विशाल विस्तार है, तथापि यह प्यासे की थोड़ी सी तृषा का भी निवारण नहीं कर सकता और व्यर्थ ही शब्द कर रहा है । यहां पर 'शम्बायते' इस क्रियापद के स्थान में धुदाइ यह प्रादेश किया गया है।
* अथ काऽऽवियजनानां गाऽऽादेशविनिः* १०६७ अनादौ स्वरावसंयुक्तानां क-ख-त-थ-प-फां ग-ध-व-ध-ब-माः।८।४ । ३६६ । अपभ्रशेऽपदादौ वर्तमानानां स्वरात्परेषामसंयुक्तानां क-ख-त-थ-प-फा स्थाने यथासंख्यं ग-घद-ध-ब-भाः प्रायो भवन्ति । कस्य गः।।
जं विट्ठउँ सोम-गहणु प्रसइहि हसिउँ निसङकु । पिन-माणुस-विच्छोह-गरु गिलि गिलि राह! मयकु ॥१॥ अम्मीए ! सत्थावत्थेहि सुधि चिन्तिज्जइ माणु । पिए बिठे हल्लोहलेण को खेमइ अप्पाणु ? ॥२॥
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ऋतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * त-थ-प-फाना द-ध-ब-भाः । सवधु केरपिणु कषिदु मई तसु पर समलउँ जम्मु ।
जासु न चाउ, न चारहडि, न य पम्हट्टउ धम्मु ॥३॥ अनादाविति किम् ? सबधु करेप्पिण । अत्र कस्य गत्वं न भवति । स्वरादिति किम् ? गिलि गिलि राहु ! मयड कु । प्रसंयुक्तानामिति किम् ? एक्कहि प्रक्खिहि सावणु [३५७,४] प्रायोऽधिकारात् कवचिन्न भवति ।
__जइ के इ पावीसु पिउ अकिमा कुड करीसु । पाणित... नवह सरावि जिन सव्वङ्ग पइसीसु ॥४॥ उन कणिमारु पफुल्लिनाउ कञ्चण-कन्ति-पयासु।
गोरी-वयण-विणिज्जिनउ नं सेवई वण-वासु ॥५॥ १०६८-मोऽनुनासिको यो वा । ८ । ४ । ३६७। अपभ्र शेऽनादी वर्तमानस्याऽसंयुक्तस्य मकारस्य अनुनासिको वकारो वा भवति । कलु, कमलु । भव॑रु, भमरु । लाक्षणिकस्याऽपि । जिवें । तिवं 1 जेवें । तेवँ । अनादावित्येव । मयण । असंयुक्तस्येत्येव । तसु पर सभलउ ज. म्मु [३६६,४] ।
१०६६-वाऽधो रो लुक् । ८ । ४ । ३९८ । अपभ्रशे संयोगादधो वर्तमानो रेफो लुग् वा भवति । जइ के इ पावीसु पिउ [३९६,४] 1 पक्षे ।
जइ भग्गा पारक्कड़ा तो सहि ! मझु प्रियेण [३७६,४] । १०७०-अभूतोऽपि क्यचित् ।।४।३६हा अपभ्रशे क्वचिदविद्यमानोऽपि रेफो भवति ।
वासु महारिसि एउ भणइ जइ सुइ-सत्यु पमाणु।
__ मायहें चलण नवन्ताहं विवि दिवि गङ्गा-हाणु ॥१॥ क्वचिदिति किम् ? वासेण वि भारह-खम्भि बद्ध ।
१०७१-आपद्विपत्संपदा दः।८।४।४०० । अपभ्रशे पापद्, विपद् ,संपद् इत्येतेषा दकारस्य इकारो भवति । "अरणउ करन्तहो पुरिसहो प्रावह श्रावइ"1 विवइ । संपन ! प्रायोऽधिकारात् । गुणहिँ न संपय कित्ति पर [३३५,४] ।
* अथ काब्दि-व्यञ्जनानां गादिश्यजनादेशनिधिः *
अपभ्रंशभाषायां क, ख, त, थ,प,फ इत्यादि-व्यञ्जनानां स्थाने गकारादयः ये प्रादेशा संजायन्ते, तान् प्रदर्शयति वृत्तिकारः । यथा--- १०६७-कस्य गः । अपक्षभाषायां ककारस्य स्थाने गकारी भवति । यथा---
यद् दृष्टं सोम-ग्रहणमसतीभिः तिवा] हसितं निशंकम् । प्रिय-मानुष-विक्षोभ-करं गिल गिल राहो ! मृगाथाम् ॥१॥
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★ प्राकृत व्याकरण ★
चतुर्थपादा
भावार्थ:- असोभिः कुलटाभिः नारीभिः यत् सोमपाम्- सोमस्य चन्द्रस्य ग्रहणं प्रसनं, रहुचन्द्र-सम्मिलनं वाष्यं तदा ताभिः निश्शंक- शंकायाः निर्गतः तदिव निशंक यथेच्छं यथा स्यात्तथा हसितम् चन्द्रस्य उपहासो विहितः । किमुत्रस्ताः हे राहो ! मृगाम्-मृगोऽङ्क -कोडे यस्य सः प्रथवा मृगः कः चिन्हं यस्य सः तं चन्द्रं गिल मिल-यस ग्रस, चन्द्रसनं कुरु इति यावत् । यतोह्ययं चन्द्रः अस्मादशानां कृते दुःखयः ग्रतः एतस्य ग्रसनमेव वरम् । किम्भूतं चन्द्रम् ? प्रिय-मानुष- विक्षोभ करम्, प्रियाश्च ते मानुषाः जनाः ते प्रथमानुषाः तेषां वियोगे यः विक्षोभः-- व्याकुलत्वं सं करोतीति प्रियमानुषविक्षोभकरः तम् । लोकदर्शन भया उपपतिः प्रकाशे रन्तुम्नोट्सहते, अपितु भीतिमाप्नोति अन्त निहिते च निशाकरे जातान्धकारतया सः निश्शंकरस्यतीति भावः ।
२६०
मद्, प्रक्रिया १०६१ सूत्रे ज्ञेया दृष्टम् । दृष्ट+सि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, ३०५ सू० टस्थ स्थाने ठकारे, ३६० सू० ठकारद्विवे ३६१ सू० पूर्व ठकारस्य टकारे, ४३५ सू० स्वार्थे क-प्रत्यये, १७७ सू० ककारलोपे, १०२५ सू० प्रकारस्य स्थाने इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे, १०१५ सू० सेलोंपे बिटु इति भवति । सोम-ग्रहणम् । सोमग्रहण +सि । इत्यत्र १०६९ सू० रेफलोपे, ३६० सू० कारद्वित्वे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, सेलोंपे सोमाह इति भवति । असतीभिः । प्रसती + भिक्षु । १७७ सू० तकारस्य लोपे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, १०१० सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे श्रसहि इति भवति । हसितम् । हसित+सि । इत्यत्र १७७ सू० तकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, ५१४ सू० सेर्भकारे, २३ सू० मकारस्याऽनुस्वारे, १०८२ सु० उच्चारणस्थ - वाघ हसित इति भवति । निःशंकम् । निश्शंक+अस् । ३४० सू० सकारलोपे, बाहुल्येन ४३० इकारस्य दीर्घाभावे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ३० सू० प्रनुस्वारस्य वर्णान्त्ये, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे मिस इति भवति । प्रिय-मानुषविक्षोभ करम् । प्रिय-मानुष - विक्षोभकर + अम् । १०६९ सू० रेफस्य लोपे १७७ सू० यकारस्य लोपे, २२८ सृ० नकारस्य णकारे, २६० सू० ष कारस्य स्थाने सकारे २० सू० क्षस्य छकारे, ३६० सू० छकारद्विस्खे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य चकारे, १८७ सू० भकारस्य हकारे, १०६७ सू० ककारस्य भकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० मास इति भवति । fre | गिल धातुः विगलने । गिल + हि । इत्यत्र १०५८ ० हि इत्यस्य इकारे, प्रभीने परेण संयोज्ये गिलि इति भवति । राहो || राहु+सि । १०१५ सू० सेल राहु ! इति भवति । मृगाङ्कम् । मृगाङ्क + श्रम् । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, १७७ सू० ग कारलोपे, १८० सू० यकारक सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०० सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे मइकु इति भवति । प्रिय-मानुय विक्षोभ करम् - पित्र- माणूस विच्छोहार इत्यत्र प्र स्तुतसूत्रेण ककारस्य स्थाने गकारो जातः । खस्य घः । साम्प्रतं प्रस्तुतेन (१०६७) सूत्रेण खकारस्य स्थाने घकारो विधीयते । यथा----
लोपे
efore ! exterere: सुखेन चिन्त्यते मानः ।
प्रिये दृष्टे व्याकुलत्वेन कश्वेतते श्रात्मानम् ? ||२||
भावार्थ :- हे अम्बिके !-मातः ! सुखने-सुखपूर्वकं स्वस्थावस्थेः, स्वस्मिन् तिष्ठतीति स्वस्था अवस्था येषां ते स्वस्थावस्थाः तः, स्वस्थपितरित्यर्थः, मानोऽहङ्कारः चित्ते, परंतु प्रिये दे सति तदागमन जनित प्रसन्नताइतिरेकेन व्याकुलत्वेन आत्मानं कः तते जानाति ? न कोीत्यर्थः । अम्बिके ।। अम्बिका+सि । इत्यत्र ३५० सू० बकारस्य लोपे, ३६० सू० मकारस्य द्वित्वे १७७ सू०
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चतुर्थपादा ★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
२६१ ककारलोपे, ५३० स० प्राकारस्य एकारे, १०१५ सू० सेलोपे मम्मिए ! इति भवति । स्वस्थावस्यैः। स्वस्थावस्थ+भिस् । ३५० स० संयुक्त-वकारलोपे, ३४८ सू० उभयत्रापि अनादि-संयुक्त-सकार-लोपे, ३६० सू० उभयत्रापि थकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० उभयत्रापि पूर्वकारस्य तकारे, ५०४ स० अकारस्थ एकारे, १०१८ स० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे सत्यावह इति भवति । सुखेन । सुख-+टा । प्रस्तुतसूत्रेण खकारस्य धकारे, प्रयोगदर्शनात् ३६० सू० घकारस्थ द्वित्त्वाभावे,१००० सू० प्रकारस्य इकारे, १०१४ सू० टाप्रत्ययस्य सानुनासिके एकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १००० सू० एकारस्य इकारे सुधि इति भवति । विन्स्यते । चितीचिन्तायाम् । संस्कृतनियमेन चिन्त्+क्य+से इति जाते, ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, अझोने परेण संयोज्ये, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे चिन्तिमा इति भवति । मामः । मान+सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे माशु इति भवति । प्रिये । प्रिय +डि । इत्यत्र १०६९ सू० रेफलोपे, १७७ सू० यकारलोपे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य एकारे पिए इति भवति । दृष्टे । दृष्ट+कि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे,३०५ सू० ष्टस्य स्थाने ठकारे,३६० सू० ठकारद्वित्वे,३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे,१००५ सू० डिना सह अकारस्य एकारे दि? इति भवति । व्याकुलत्वेन । व्याकुलत्व+टा। १०९३ सू० व्याकुलत्वाऽर्थे हल्लोहल-शब्दः प्रयुज्यते, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य णकारे, स्थानिवस्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे हल्लोहलेरण इति' भवति । कः । किम् + सि । ५६० सू० किम: स्थाने के इत्यादेशे, १००३ सू० प्रकारस्य प्रोकारे,१०१५ स० सेलपि को इति भवति । तते। चितापितासावधानतायाम। चित+ते। १००० सू० इकारस्य एकारे, ९१० सू० प्रकारस्यागमे, १७७ सू. तकारस्य लोपे,६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे नेपाइ इति भवति । आत्मानम् । पात्मन् +अम् । ३२२ सू० रमस्य स्थाने पकारे, ३६० सू० पकारस्य द्वित्त्वे, ८४ सू० संयोमे परे हस्वे,५४५ सू० मन् इत्यस्य प्राण इत्यादेशे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १००२ स्० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे अप्पारण इति भवति । सुलेन-सुधि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण खकारस्य घकारो जातः । स-थ-प-फ-नाव-ध-ब-भाः। प्रस्तुतसूत्रेण यथा तकारस्य स्थाने दकारो भवति, तथा थकारस्य स्थाने धकारों भवति । एवमेव पकारस्य बकारः, फका रस्य च स्थाने भकारो भवति । एतदेव प्रदर्शयति वृतिकारः । यथा---
शपथं कृत्वा कपित मया सस्म पर सफल जन्म ।
यस्य न त्यागः, न चारभटी, न च प्रभुषितो धर्मः ॥३॥ भावार्थ:-शपथ-प्रणं कृत्वा मथा कथितं भणितम्, यत पर-केवलं तस्य एव जन्म सफलम्-फलेन सह वर्तमान सफल विद्यते, यस्य त्यागः न प्रमुषित:-न नष्टः, यस्य च आरभटी--साहसः, पुरता, न नष्टा, तथा यस्य व धर्मः कर्तव्यपरायणता न नष्टो भवति । यावज्जीवन त्याम-शौयं-युतैः, कर्तव्यपरायणेश्च' मा यमिति यावत् । शपथं विधाय बच्मि यत् तेषामेव नराणां जन्म सफलं जगति भवति, यैः पुरुषः दान दत्त, येषां साहसः धर्म-संरक्षकः जनगण-कल्याणकारकश्च विद्यते, यैश्च धर्मो न परित्यक्तः, ते एव प्राणि: जीविताः सन्तीति भावः।।
___ आपणम् । शपथ पम् । इत्यत्र २६० सू० शकारस्य स्थाने सकारे,प्रस्तुतसूत्रेण पकारस्य बकारे, थकारस्य च धकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे सबधु इति भवति । कृत्वा । डुका [क] करणे + कमा । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे,११११ सू० करवः स्थाने एपिणु इत्यादेशे,१० सू० स्वारस्य लोपे,प्राझीने परेण संयोज्ये करेपितु इति भवति । कथितम् । कथित+सि ।
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Pop
u
TIARLonym
-~
y
av-.An/heatrakar....
viya.Vvvvr
. * प्राकृत-व्याकरणम*
चतुर्थपादः प्रस्तुतसूत्रेण थकारस्य धकारे,तकारस्य च दकारे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे कपितु इति भवति । मया । अस्मद् +टा। इत्यत्र १०४८ स० टाप्रत्ययेन सह अस्मदः स्थाने मई इत्यादेशे मई इति भवति । तस्य । तद् + इस । ११ सू दकारस्य लोपे, १००९ सू० स: स्थाने सु इत्यादेशे ससु इलि भवति । परम् । अव्ययपदमिदम् । १०८९ सू० परम इत्यस्य स्थाने पर इत्यादेशे पर इति भवति । सफलम् । सफल+सि । प्रस्तुतसूत्रेण फकारस्य भकारे,४३५ सू० स्वार्थ प्रत्यये,१७७ सू० कका रलोपे, १०२५ सू० प्रकारस्य उं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्थ लाघवे, १०१५ सू० सेलो पे सभल इति भवति । जन्म । जन्मन+सि । ३३२ सू० मस्य स्थाने मकारे, ३६० सु० मकारद्वित्वे, ११ सू० नकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ २० सेर्लोपे जम्भु इति भवति । यस्य जासु,प्रक्रिया १०२१ सूत्रस्म प्रथमश्लोके ज्ञेया। न । अव्ययपदमिदम् । संस्कृतसममेवाउपभ्रशे प्रयुज्यते । त्यागः । त्याग+सि । २८४ सू० त्यस्य चकारे,१७३ सू० गकारलोपे,१००२ सू० प्रकारस्थ उकारे, सेलपि पाउ इति भवति । छ । अव्ययपदमिदं संस्कृत-तुल्यमेवाऽपभ्रशे प्रयुज्यते । *आरभटी। प्रारभटी+सि । १८७ सूक भकारस्य हकारे, १९५ सू० टकारस्य डकारे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, १०१५ सू० सेलोपे आरडि इति सिद्धम् । च आरहदि इत्यत्र ५ सूत्रेपण दीर्घसन्धौ चारहरि इति भवति ।। अव्ययपदमिदम् । १७७ सू० चकारस्य लोपे,१५० सू० यकारस्य श्रुतीय इति भवति । प्रमुषितः । प्रमुषित+सि । १०२६ स० [अथवा ९०२१ सूत्रेण] प्रमुषितस्य स्थाने पहुट इत्यादेशे, १००० सू० उकारस्य प्रकारे ११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे पम्हट उ इति भवति । धर्मः। धर्म+सि । ३५० सू० रेफलोपे. ३६० स०. मकारद्वित्वे, १००२ सल अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे धम्मु इति भवति । शपथम् सबधु, कथितम् कधि, सफलम् लभल इस्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्थ प्रवृत्तिांता प्रनामावति किम् ? अनादि-भूतानामेव ककारादिष्यजनानां स्थाने गकारादिव्यजनानि भवन्ति, नान्यथा । यथा--आपथं कृस्वा-सबधु करेषिणु, प्रक्रिया प्रस्तुतसूत्रस्य तृतीयश्लोके समवलोकनीया । अत्र कका रस्यादिभूतत्त्वात् मकारो न जातः । स्वराविति किम् ? स्वरात्पर-बतिनामेव ककारादिव्यजनानां गकारादिव्यम्सनानि भवन्ति, नान्यथा । यथा--गिल गिल राहो! मगाउकम्-गिलि गिलि राहु ! मयडकु, प्रक्रियाऽस्यैव सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । मया इत्यत्र ककारस्य स्वरात्परत्वाभावात् गकारो न जातः । असंयुक्तानामिलि किम् ? संयोग-शून्यानामेव ककारादिव्यजनानां गकारादिव्यजनानि भवन्ति, नान्यथा । यथा-एकस्मिन् अक्षिण भाकरण: एक्कहिं अखिहिं सावणु, प्रक्रिया १०२८ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया । एहि,प्रविहि इत्यत्र ककारस्य संयुक्तत्वाद् गकारो न जातः । तथा स्वकारस्थाऽपि च संयुक्तत्वात् प्रकारो न जातः । प्रायोऽधिकारत वविन्न भवति । प्रस्तुत सूत्रे १०० सूत्रतः प्रायः इत्यस्य पदस्थाऽनुवृत्तिरायाति, अतः कचित् कस्मिरिचत् स्थले प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिन जायते । यथा----
यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियमकतं कौतुकं करिष्यामि ।
पानीयं नवके शारावे, या सर्वाइण प्रवेश्यामि ।।४।। भावार्थ:-काचिन्नायिका निजनायक प्रति स्नेहाऽऽधिक्यं संसूचयति । यथा-यदि कपंचितकेनापि प्रकारेण प्रियं निजकान्तं प्राप्स्यामि निजपावतिनं कुर्वानि तदाऽहं अकृतं न कृतम्, प्रकृतम्.. अपूर्व कौतुक कुतूहलोत्पादक किमपि कृत्य करिष्यामि । पथा--नवक-नूतने शरावे मृण्मयभाजनविशेष .. कोषेषु पारभटी-शुदा मृत्यविशेष, साहसे, रोग-भयानक-धीर-रस-विवेचा वृत्तौ च प्रयुज्यसे ।
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चतुर्थपाद:
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * पानीयं जलं सर्वाङ्गण सर्वेषामङ्गानां समाहारः इति सर्वाङ्गम् , तेन सर्वाङ्गेन प्रवेशं करोति, एवमेव अहमपि निजकान्ते सर्वाङ्गिण प्रवक्ष्यामि, कान्ताय सर्वस्वमपि समर्पयिष्यामीति भावः ।
यदि जाइ,प्रक्रिया १०५५ सूत्रे जेया। कथम् केवे,इत्यस्य प्रकिया १०१४ सूत्रस्य प्रथम-श्लोके ज्ञेया। चित् । अव्ययपदमिदम् । इत्यत्र १७७ सू० चकारलोपे,११ सू० तकारलोपे । इति भवति । प्राप्स्यामि । प्रपूर्वक प्राप्-ल-(मा)-धातुःप्राप्तौ । प्राप+स्य+मिव । १०६९ सू० रेफस्य लोपे,९१० स०अ. कारागमे,२३१सू ० पकारस्य स्थाने वकारे,१०२० सू० अकारस्य ईकारे,१०५६ सू० स्थस्य सकारे, १०५६ सू० मिव: स्थाने उं इत्यादेशे,१० स० स्वरस्य लोपे,प्रज्मीने फ्रेण संयोज्ये पावोसु' इति जाते, बाहुल्येन अनुस्वारस्य लोपे पावीस इति भवति । प्रियम् । प्रिय+अम्। इत्यत्र १०६९ सू० रेफलोपे, १७७ सू० अकारलोपे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ स० प्रमो लोपे पिउ इति भवति । अकृतम् । प्रकृत+अम् । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, १७७ सू. तकारलो, १००१ स० प्रकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे अफिमा इति भवति । प्रस्तुतसूत्रे प्रायोऽधिकारादत्र ककारस्य मकारो न जातः । कौतुकम् । कौतुक-अम् । इत्यत्र १०९३ सू० कौतुकार्थे कोड-शब्दः प्रयुज्यते,८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,१०१५ सू० प्रमो लोपे कुडु इति भवति । करिष्यामि । डुकृञ् (कृ) क रणे । कृ+स्य+मिन् । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इ. त्यादेशे, १००० सू० द्वितीयस्य प्रकारस्य ईकारे, १०५९ स० स्यस्य सकारे,१०५६ सू० मिवः स्थाने उं इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, बाहुल्येन अनुस्वारस्य लोपे करीस इति भवति । पानीयम् । पानीय+सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १०१ सू० ईकारस्य इकारे, १७७ सू० यकारस्य लोपे,१००२ स० अकारस्य उकारे,१०१५ सू सेलोप पासिज इति भवति । नवके । नवक+ छि। १७७ सू० ककारलोप, १००५ स० हिना सह प्रकारस्य स्थाने इकारे, बाहुल्येन १० स० स्वरस्य लोपाभावे नबइ इति भवति । शरावे । शराव+डि २६० सू० शकारस्थ सकारे, पूर्ववदेव सराव इति भवति । यथा-जिवं,इत्यस्य प्रक्रिया १०५६ सूत्रे ज्ञेया । सर्वाङ्गण । सर्वाङ्ग+टा । इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे,३६० स० वकारद्वित्त्वे,८४ स० संयोगे परे ह्रस्वे,१०१३ सदास्थानेऽनुस्वारे,अनुस्वारस्य स्थानिवत्त्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे सम्वन' इति भवति । प्रवक्ष्यामि । प्रपूर्वक: विश्-धातुःप्रवेशे । प्रविश् + स्य+मिन् । इत्यत्र १०६९ सू० रेफलोपे,१७७ सू० यकारलोपे,२६० सू शकारस्य सकारे, ९१० स० धातोरन्तेऽकारागमे,१००० सू० द्वितीयस्य प्रकारस्य ईकारे, १०५१ सू० स्यस्य स्थाने सकारे, १०५६ सू० मिवः स्थाने उ इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे,अज्झीने परेण संयोज्ये, बाहल्येन अनुस्वारस्य लोपे पइसीसु इति भवति । अकृतम् अकिआ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्राप्तिरासीत् किन्तु प्रायोधिकारात् ककारस्थ गकारो न जातः।
पश्य कणिकार: प्रफुल्लितकः, कामचन-कान्ति-प्रकाशः।
गौरी-वचन-विनिजितक:, इव सेवते वनवासम् ॥शा भावार्थ:---गौर्याः सौन्दयोऽधिक्यं कणिकार-पुष्पेणोत्प्रेक्ष्यते। हे सखि स्थमेतत्पश्य यस्कणिकार:पुष्पविशेषः (कनेर इति नागाम) गौरीमुखसौन्दर्येण पराजितो भूत्वा खिन्नमनाः इव बनवासम्बनस्य वासः, ते सेवते । किम्भूतः कणिकारः? प्रफुल्लितकः, प्रकर्षेण विकसितः, पुनः किम्भूतः ? काममकान्ति-प्रकाशः, काञ्चनस्य-सुवर्णस्य कान्ति:-दीप्तिः, तदिव प्रकाशो यस्य सः। पुनः किम्भूता ? गौरीबवन-बिनिजितकः, गौर्या:-सुन्दाः बदन मुखं तेन विनिजितका-पराजितः । परमसौन्दर्यसम्पन्नोऽपि कणिकारः गौरीमुखसौन्दर्याऽतियायेन पराजितः सम् सलज्जः वनमाश्रित इति भावः ।
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थ पादा पश्य । दृशिर(दृश)दर्शने । दृश+हि । संस्कृतनियमेन पश्य इति जाते । ४८२ सू० पश्यार्थ उस READयपदं पगृलगते । कणिकार: । कणिकार+सि । ३५० सू० रेफलोपे, बाहुल्येन ३६० सू० णकारद्विस्वाभावे,१७७ स० अन्तिम-ककार-लोपे, १००२ स० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोप कणिमा इति भवति । प्रफुल्लितकः । प्रफुल्लितक+सि । इत्यत्र १०६९ स ० रेफलोधे, १०६७ सूत्रे प्रायोऽधिकाराक्षत्र फकारस्य स्थाने भकारोन जातः, १७७ स० तकारस्य कारस्य च लोपे. १००२ स०अकारस्थ उकारे,१०१५ स० सेलीपे पहिलाज इति भवति । काम-कान्ति-प्रकाशः । काञ्चन-कान्ति-प्रकाशन सि। २४ . उभयत्रापि संयोगे परे ह्रस्वे,२२८ स० नकारस्य कारे,३५० स० रेलोप, १७७ सू०
कारलोपे, १५० स० कारस्य श्री.२६० स०शकारस्य स्थाने सकारे.१००२ स० प्रकारस्य उकारे सेलोपे कण-करित-पयासु इति भवति । प्रस्तुतसत्रे प्रायोऽधिकारादत्राऽपदादो वर्तमानस्य ककारस्य मकारो नाभूद् । पौरी-वन-विनिजितकः । गौरी-बदन-विनिजितक+सि । इत्यत्र १५९ २० औकारस्थ प्रोकारे, १७७ सू० दकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ, २२८ सू० उभयत्राऽपि नकारस्य णकारे, ३५० स० रेफलोपे, ३६० सू० जकारद्वित्त्वे, १७७ सू० तकारस्य ककारस्य च लोपे, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलोपे गोरी-क्यल-विरिणम इति भवति । अत्रापि प्रस्तुतसूत्रे प्रायोअधिकारात् कंकारस्थ गकारो न जातः । इव । अव्ययपदमिदम् । १११५ स ० इवाथै नं इति प्रयुज्यते । खेवते । घेव (सेव) सेवायाम् । से+ते । ९१० सू० प्रकार स्यागमे, ६२८ सू० ते इत्यस्य स्थाने इच् (इ) इत्यादेशे सेवा इति भवति । बनवासम् । बनवास+अम् । २२८ सू० नकारस्थ कारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे वरखवासु इति भवति । प्रस्तुतसूत्र प्रायोऽधिकारात् प्रफुल्लितक:
पल्लिमड, काचम-कान्ति-प्रकाशकवण-कस्ति-पयास. गौरी-बवन-विनिजितक: गोरी-बयणविणिज्जिमउ इत्यत्र प्रस्तुससूत्रस्य प्रवृत्तिनं जाता।
१०६४----कमलम् । कमल+सि । १०६८ सू० मकारस्य वैकल्पिके सानुनासिके वकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे कर्बलु कमलु इति भवति । भ्रमरः । भ्रमर+सि । इत्यत्र १०६९ सू० रेफलोपे, १०६८ सू० मकारस्य वैकल्पिके सानुनासिके वकारे, पूर्ववदेव भयह भमर इति भवति । लाक्षणिकस्यापि । लक्षणेन-सूत्रेण जातम्-निष्पन्नं लाक्षणिकं तस्य लाक्षणिकस्यापि मकारस्थ स्थाने सानुनासिको वकारो भवति । यथा---तथा इत्यस्मिन्नव्ययपदे १०७२ स० था इत्यस्य स्थाने डेम (एम) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे तेम इति भवति । इत्यत्र मकारः लाक्षणिकः, नतु प्रतिपदोक्ता-स्वाभाविकः । अतोऽत्रापि प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जायते । कमलम् इत्यत्र मकारो न केनापि सूत्रेण जातोऽतोऽयं मकारः प्रतिपदोक्तः । व्याकरणशास्त्रे लक्षण-प्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव प्रहरणं भवतीति न्यायेन १०६८ सूत्रेण मकारस्य स्थाने यः सानुनासिको वकारो भवति स प्रतिपदोक्तस्यैव मकारस्थासेयं न तु लाक्षणिकस्यापि । परन्तु बाहुल्येन प्रस्तुतसूत्रेण लाक्षणिकस्य मकारस्य स्थानेऽपि सानुनासिको वकारो भवति । अत्र अपिशब्दः समुच्चयार्थकः । तेन प्रतिपदोक्तस्य मकारस्य, लाक्षणिकस्य च मकारस्य स्थानेऽपि सानुनासिको वकार: करणीयः । साहि-यथा । अव्ययपदमिदम् । २४५ स० यकारस्य जकारे, १०७२ स० था इत्यस्य स्थाने डिम(इम),डेम (एम) इत्यादेशी, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अझोने परेण संयोज्ये, १०६८ स० लाक्षणिकस्य मकारस्य स्थाने सानुनासिके वकारे जिवे जेवं इति भवति । तया । अव्ययपदमिदम् 1 १०७२ स० था इत्यस्य डिम(इम),डेम (एम) इत्यादेशी, जिवं-जेवेंवदेव तिव ते इति साध्यम् । एषु प्रयोगेषु. लाक्षणिकर य मकारस्य स्थाने सानुनासिको धकारो जातः ।
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ده ی بی مرام او عيالي -
चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
२६५ पनामावित्येव । अनादौ वर्तमानस्यैव मकारस्य स्थाने सानुनासिको बकारो भवति,नान्यथा । यथा-मधनः । मदन+सि । मकारस्याऽऽदिभूतत्वादत्र प्रस्तुतसूत्रस्याऽप्रवृत्ती १७७ सू० ६ कारलोपे,१८०सू० यथारश्रुतो,२२८ सू० नकारस्य णकारे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेर्लोपे मयणु इति भवति । असेयुक्लस्पेध । प्रसंयुक्तस्य[संयोग रहितस्य मकारस्यैव साऽनुनासिको बकारो भवति नान्यथा। यथा---- तस्य परं सफलं अन्म: तसुपर सभल उ जम्मु,प्रक्रिया १०६७ सूत्रस्य तृतीयश्लोके झेया । सफलम् । सफल +सि । इत्यत्र तु १०६७ सू० फकारस्य स्थाने भकारे,४३५ सू० कप्रत्यये,१७७ सू० ककारस्य लोपे,१००२ सू० कारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० से.पि सभल इति भवति । जन्म-अम्मु इत्यत्र मकारस्य संयुक्तत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्यभावः ।
१०६६--संयोपादषो वर्तमानस्य । यस्य वर्णस्योचारणं संयुक्तवति पूर्व जायते तद ऊध्र्ववर्णमुच्यते, यस्योच्चारणं संयुक्तव्यम्जनयोः पश्चाद भवति तद्-वर्णमधः उच्यते । पत्राद्वर्ती वर्णः अधोवर्णः, पूर्ववर्ती च वर्णः प्रवर्ण : सभव सेयः। यदि कथंचित् प्रापस्यामि प्रियम्- जइ के इ पाथीमु पिउ, प्रक्रिया १०६७ सूत्रस्य चतुर्थ-श्लोके ज्ञेया । प्राप्स्यामिपावीसु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण रेफस्य लोपोऽभवद् । पक्षे । प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्त्यभावपक्ष इत्यर्थः । यथा-यदि भग्नाः परकीया सप्तः सखि! मम प्रियेण जय भगा पारक्कडा तो सहि ! मज्झ प्रियेण, प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया। प्रियेण प्रियेग इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण वैकल्पिकत्वाद सपोधाभापा, १७॥ सूम लोन पोराभावश्च समवसेधः ।
१०७० ...अभूतोऽपीति । अभूतः-प्रविद्यमानः, अस्य पूर्वमभाव इत्यर्थः । अापन शभाषायो यस्मिन् शब्दे रेफस्य सर्वथाभावो दृश्यते,तस्मिन विद्यमानरेफेऽपि शब्दे रेफस्य योजना विधेया। यथा
___व्यासो महर्षिः एतब भगति, यदि एतिशास्त्रं प्रमाणम् ।
मातणां चरणौ ममता, दिवा दिया गङ्गास्नानम् ॥१॥ भावार्थ:-मातृचरण-नमस्कार-महिमानं व्यासपिः भणति । व्यासः-व्यासनामधेयः प्रसिद्धस्तपस्वी महषिः-महाश्चासो ऋषिः, महधिः, एतद भणति-प्रतिपादयति । यदि श्रुतिशास्त्रम्-श्रुतयःवेदाः, शास्त्राणि-वेदातिरिक्ताः धर्मग्रन्थाः, तेषां समाहारः अतिशास्त्रम्,प्रमाणम् -शिष्टजनसम्मत तदा मातणां-- जननीनां चरणौ नमतां सतां पुरुषाणां विवा-विवा---प्रतिदिनं गङ्गास्नानं भवति । वैदिकसंसारे गङ्गानानो पवित्रा नदी, तत्र स्नान यथा कल्याणकर, मङ्गलकरं, दुःखहरञ्च मन्यते तथैव मातृचरणनमस्कारोऽपि तत्तुल्यमेवाऽवगन्तव्यः ।
व्यासः । व्यास+सि । इत्यत्र ३४९ सू० यकारलोपे,१०७० सू० रेफस्याऽगमे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे वासु इति भवति । महविः। महद्-ऋषि+सि । इत्यत्र वाक्यापेक्षया अन्त्यस्वे, ११ सू० दकारलोपे,४ सू० हकारस्थाकारस्य प्राकारे,१४१ सु० ऋकारस्य रि इत्यादेशे, २६० सू० षकारस्य सकारे,१०१५ सू० सेर्लोपे महारिसि इति भवति । एतत् । एतद्+यम् । इत्यत्र १७७ सू० तकारस्य लोपे, ११ सू० दकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेोप एज इति भवति। भणति । भण [भण्] भणने । भण+ति । ९१० सू० प्रकारागमे,६२८ सू० तिब इचादेशे भरणइ इति भवति । यदि जाइ, प्रक्रिया १०५५ सूत्रे ज्ञेया। श्रुतिशास्त्रम् । श्रुतिशास्त्र+सि । इत्यत्र १०६९ सू० उभयत्रापि रेफलोपे, २६० सू० उभयत्रापि शकारस्य सकारे,१७७ सू० तकारलोपे,८४ सू० संयोगे परे लस्वे,३१६ सू० स्तस्य स्थाने थकारे,३६० सू० थकारद्वित्त्वे,३६१ सू० पूर्वथकारस्थ तकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेर्लोपे सुइ-सत्य इति भवति । प्रमाणम् । प्रमाण+सि । १०६९ सू० रेफ
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थवादा लोपे, अकारस्य उकारे,सेर्लोपे पमारए इति भवति । मातशाम् । मातृ+आम् । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, ११७ सू० तकारस्य लोपे,१८० सू० यकारस्य श्रुती,१०१० सू० प्रामः स्थाने हं इत्यादेशे, २०१२ सू० उच्चारणस्थ लाधये मायह इति भवति । परसौ। चरण+ो । २५४ सू० रेफस्य लकारे,६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने,१०१५ सू० जसो लोपे चलण इति भवति । नमताम् । णम [नम्] नमने । नम्। शतृ । ९१० सू० प्रकारस्याऽऽगमे,८९७ सु० मकारस्य प्रकारे,६७० शतुः स्याने त इत्यादेशे,१००१ सू० अकारस्य प्रकारे, प्राम्-प्रत्यये,१०१० सू० प्रामः स्थाने हे इत्यादेशे नवन्ताहं इति भवति । विधा । प्रव्ययपदमिदम् । १०९० सू० दिवास्थाने दिवे इत्यादेशे,१००० सू० एकारस्य इकारे विधि इति भवति । गमा-स्मानम् । गङ्गास्नान+सि । ३४६ सु० स्नस्य स्थाने एह इत्यादेशे,वाहुल्येन ८४ सूत्रस्याऽप्रवृत्ती, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे गङ्गाहारण इति भवति । व्यास:वासु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तितिा । कधिदिति किम् ? प्रस्तुतसूत्रेण कचित् --- कस्मिंश्चित स्थले एक रेफाऽऽगमो विधीयतेन तु सर्वत्र । यथा-व्यासेन । व्यास+टा। ३४९ सूकसकारलोपे,१०१३ सु० टास्थाने णकारे, स्थानिवत्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे वासेण इति भवति । अपि-वि, इत्यस्य प्रक्रिया ४८९ सूत्र शेया।भारतस्तम्भे । भारतस्तम्भ+डि|२१४ सु. तकारस्य हकारे,२७९ सू० स्तस्य खकारे,११ सूत्रमनुसृत्य समासे तु वाक्यविभक्त्यपेक्षायाम् अन्त्यत्वम् अनन्त्यत्वं च" स्वीकृतम् तेन खकारस्थाऽऽदिभूतत्वात् ३६० सूत्रेण द्विस्वाभावे,१००५ सू० हिना सह अकारस्य स्थाने इकारे भारहखम्ति इति भवति । बद्धम् । बद्ध+सि । १०१५ सू० सेलोपे बद्ध इति भवति । प्रस्तुतसूत्रे क्वचित् इति पाठबलाद ध्यासेम-वासेण इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्त्यभावः ।।
१०७१-- अनयम् । न नया-नीतिः, अनयः-प्रनीतिस्तम् । अनय+अम् । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १७७ सू० यकारलो, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे अण उ इति भवति । दुर्वतः । डुकृञ् [व]करो । कृ+शत् । इत्यत्र ९०५ सु० ऋकारस्स्य पर इत्यादेशे, ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे,इस्प्रत्यये,१००९ सू० उसः स्थाने हो इत्यादेशे करन्तहो इति भवति । पुरुषस्य ! पुरुष+ इस् । १११ सू० रोरुकारस्य इकारे,२६० सू० षकारस्य सकारे,पूर्ववदेव पुरिसहो इति साध्यम् । मापद । प्राप+सि । २३१ सू० पकारस्य वकारे; १०७१ सू० देकारस्य इकारे, १०१५ मू० सेलोपे आया इति भवति । आयाति । प्राङपूर्वकः याधातुः भागमने । प्राया+तिय । अपभ्रशे १०६६ सू० माया इत्यर्थ आव इश्यस्य प्रयोगे,६२८ सू० तिव इचादेशे आवड़ इति भवति । विपद् । विपद्+सि । इत्यत्र २३१ सू० पकारस्य वकारे,प्रस्तुतसूत्रेण दकारस्य इकारे,सेलोपे विवइ इति भवति । संपद । सपद्+सि । बाहुल्येन २३१ सू० पकारस्य वकाराभावे,पूर्ववदेव संपइ इति साध्यम् । प्राप-प्राबइ, विपद् --विवइ, संपद् = संपइ इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । प्रायोऽधिकारात् । प्रस्तुतसूत्रे प्रायः इति पदस्य अधिकारात् कचित् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्न भवति । यथा-गुणैः म संवत् कीतिः परं गुणहिँ न संपय कित्ति पर, प्रक्रिया १००६ सूत्रे ज्ञेया। प्रायोऽधिकारात् संपत्-- संपय इस्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्न जाता। संक्य इ. त्यस्य पदस्य साधना स्वित्वम्-संपन् । संपद्+सि । बाहुल्येन २३१ सू० पकारस्य स्थाने बकाराऽभावे, १५ सू० दका रस्य स्थाने माकारे,१८० सू० यकारस्य श्रुती,१००१ सू० प्राकारस्य स्थाने प्रकारे,१०१५ सू. सिप्रत्ययस्य लोपे संपय इति भवति । * अथ कादि व्यङजनों को होने वाली कारादि आदेशविधि *
अपम शभाषा में क, ख, त मौर थ आदि व्यञ्जनों के स्थान में जो ग और घ मादि
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * प्रादेशकार्य होते हैं। अब सूत्रकार द्वारा उनका निर्देश किया जा रहा है.--
१०६७.--अपभ्र भाषा में, पर के नादि में वर्तमान (विद्यमान स्वर से परे, असंयुक्त क, स्व, त, थ, प और फ इन व्यजनों के स्थान में प्रायः यथासंख्य (क्रमशः) ग, घ, द, प, छ और भये आदेश होते हैं। कार के स्थान में किए गए गकार का उदाहरण ---
या दृष्टं सोम-ग्रहणमसतीमिः हसितं निश्शंकम् ।
प्रिय-मानुष-विक्षोभ-करं गिल, गिल राहो ! मृगाङ्कम् ॥१॥ अर्थात्-असती[कुलटा] स्त्रियों ने जब चन्द्र-ग्रहण को देखा, तो वे खिलखिलाकर हंसी और कहने लगी कि हे राहो!प्रिय मनुष्यों के विरह के कारण अशान्ति पैदा करने वाले चन्द्रमा को तु बिना किसी शंका के निगल जा, निगल जा।
यहां पर----प्रिय-मानुष-विक्षोभकरम् = पिन-माणुस-विच्छोह-गरु [प्रिय मनुष्यों के वियोग के कारण विक्षुब्ध करने वाले को इस पद में कार के स्थान में गकार का आदेश किया गया है । खकार के स्थान में किए जाने वाले धकार का उदाहरण
___अम्बिके ! स्वस्थावस्थः, सुखेन चिन्त्यते मानः ।।
प्रिये दृष्टे व्याकुलस्वेन कश्चेतते आस्मानम् ? ॥२१॥ अर्थात्-हे जननि ! स्वस्थ अवस्था में स्वाभिमान का चिन्तन करना सुगम है, परन्तु प्रियजन के दिखाई देने पर व्याकुलता के कारण अपने-माप का किस को भान रहता है ?
यहां पर सुखेन- सुधि (सुख के साथ) इस पद में खकार के स्थान' में धकार का प्रादेश किया गया है । सकार, थकार, पकार तथा फकार के स्थान में क्रमशः किए जाने वाले वकार, धकार, बकार तथा भकार रूप आदेश के उदाहरण
शपथं कृत्वा कथितं मया, तस्य परं सफलं जन्म ।
यस्य न त्यागः, न चारभटी, न च प्रमुषितो धर्मः ॥३॥ अर्थात- मैं शपथ [सौगन्ध] खाकर कहता है कि उसी व्यक्ति का जन्म सफल होता है कि जिस का त्याग [दानधर्म], भारभटी [शूरवीरता] तथा धर्म नष्ट नहीं हुआ है।
यहां पर--१-कथितम् कधिदु [कहा है। इस पद में यकार को धकार और सकार को बकार का आदेश किया गया है। २-शपषम् - सबधु [सौगन्ध] इस पद में पकार को धकार तथा थकार को षकार कर रखा है। ३- सफलम् सभलउँ [फल वाला], इस पद में फकार को भकार बनाया गया है । प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सत्र में "अनावो[प्रादि में अविद्यमान] इस पद का ग्रहण क्यों किया गया है। उत्तर में निवेदन है कि-शपथं कृत्वा =सबधु करेप्पिणु[शपथ करके]प्रादि प्रयोगों में आवित ककार को गकारावेश न हो जाए.इसलिए सत्रकार ने अनादी इस पद का उल्लेख किया है । पुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र में "स्वराद[स्वर से परे हो]"यह पद क्यों पढा है ? उत्तर में निवेदन है कि-गिल पिल राहो ! मगाकम् - गिलि गिलि राहु ! मयङ्कु [हे राहो ! चन्द्र को निगल जा,निगल जा] इस प्रयोग में इकार व्यञ्जन] से परे ककार को सकारावेश न हो, इस दृष्टि से सूत्रकार ने स्वरात् इस पद का प्राश्रयण किया है। पुन: पाशंका उत्पन्न होती है कि सूत्रकार ने "असंयुक्तानाम् संयोग-रहितों को इस पद का उल्लेख किस उद्देश्य से किया है ? उत्तर में निवेदन है कि-एकस्मिन् अक्षिण धावणः- एक्कहि प्रक्खिहिं सावणु[एक मांख में श्रावण मास है ] यहां पर
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२६८ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादा एक्कहिं, अश्विहिं इन पदों में संयुक्त ककार को गकार तथा संयुक्त रखकार को धकार न हो, इसलिए सूत्रकार ने 'असंयुक्तानाम् यह पद पढ़ा है । इस के प्रतिरिक्त-प्रस्तुत सूत्र में प्रायः [आमतौर पर इस पद का १००० वें सूत्र से अधिकार पा रहा है। "प्रायः" यह शब्द प्रस्तुत में बहुलाक का बोधक है। प्रतः कहीं-कहीं पर प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति नहीं भी होती । जैसे
यदि कथित् प्राप्स्यामि प्रियमकृतं कौतुकं करिष्यामि।
पानीयं नवके शरावे यथा सर्वाङ्गेण प्रवक्ष्यामि 11४1! अर्थात--दि किसी तरह अपने प्रिय को प्राप्त कर तो अकृत[जो किया न हो] कौतुक [तमाशा] करू गी । नवीन प्याले में पानी की भांति सर्व प्रक्षों से प्रवेश करू गो। भाव यह है कि नूतन प्याले के कण-कण में जैसे जल समा जाता है, वैसे मैं भी अपना सर्वस्व प्रीतम के चरणों में निछावर कर दूंगी।
" यहां पर प्रकृतम् प्रकिया [जो किया न हो] इस पद में कार को गकारादेश होना था, परन्तु बहुलाधिकार के कारण नहीं हो पाया।
पश्य कणिकार: प्रफुल्लितकः काञ्चन-कान्ति-प्रकाशः।
गौरी-यवन-विनिजितक: इव सेवते बनवासम् ।।५।। अर्थात-स्वर्ण की कान्ति के समान प्रकाश वाले और फले हुए कनेर के फूल को देख. मानों गौरी [सुन्दरी] के सुन्दर मुख से पराजित हो कर यह वनवास का सेवन कर रहा है।
यहां पर---प्रफुल्लितकः- पफुल्लिम विकसित Jइस पद में प्रस्तुत सूत्र से फकार के स्थान में भकार,तकार के स्थान में बकार और कार के स्थान में गकार का प्रादेश होना था,परन्तु बहुलाधिकार के कारण वह नहीं हो सका ।
१०६.-अपभ्रंश-भाषा में अनादि में वर्तमान तथा प्रसंयुक्त मकार के स्थान में विकल्प से सानुनासिक (अनुनासिक वाले) कार का प्रादेश होता है। जैसे-----कमलम् = कवलु, कमलु (कमल), २-प्रमरः भवंरु, भमरु (भंवरा) यहां मकार के स्थान में सानुनासिक वकार का विकल्प से आदेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि लाक्षणिक अर्थात् लक्षण- सूत्र से निष्पन्न मकार को भी सानुनासिक वकार का प्रादेश हो जाता है। जैसे-१-यथा-जिम-जिव (जैसे), २-तथातिम तिव (वैसे),३---मथा- जेम-जेवं (जैसे),४-तथा-तेम-तेवे (वैसे) यहां पर लाक्षणिक मकार को सानुनासिक दकारादेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि अनादिभूत मकार को ही सानुनासिक बकारादेश होता है, आदिभूत को नहीं । जैसे -- भवन:- मयणु (कामदेव)यहां मकार नादिभूत था, अतः इसे सानुनासिक वकारादेश नहीं हो सका। इसके अलावा-~मकार यदि असंयुक्त हो तो ही इसे उक्त आदेश होता है, अन्यथा नहीं । जैसे- तस्य पर सफल जन्मतसुपर सभलउ जम्मु (उस का जन्म बड़ा सफल है) यहां पर संयुक्त होने से मकार के स्थान में सानुनासिक बकारादेश नहीं हो सका।
१०६६. अपभ्रश-भाषा में संयोग से अधो-वर्तमान (संयुक्त वर्ण में दूसरा वर्ण) रेफ का विकल्प से लोप होता है। जैसे-यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियम् - जइ के इ पाबीसु पिउ (यदि किसी तरह प्रिय को प्राप्त करलू) यहां पर-प्रियम्-पिउ (प्रीतम को) इस पद में अघोवर्तमान रेफ का विकल्प से लोप किया गया है। लोप के प्रभावपक्ष में-यवि भन्मा परकीयाः, ततः सखि मम प्रिये
जइ भग्गा पारक्कडा, तो सहि ! मझु प्रियेण (हे सखि ! यदि शत्रुषों को भगाया है, तो मेरे प्रीतम
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चतुर्थपाद:
'यह रूप बनता है। यहां पर से रेफ का लोप नहीं हो सका ।
२६९
★ संस्कृत-हिन्दी- टीका-प्रयोपेतम् ★ प्रियंण = प्रियेण (प्रीतम ने इस पद में सूत्र का विधान वैकल्पिक होने
१०७०- प्रपत्र श भाषा में कहीं कहीं पर प्रविद्यमान (जो विद्यमान न हो), रेफ भी प्रयुक्त हो जाता है । जैसे—
उपासो महर्षिः एतद् भरगति यदि भूतिशास्त्रं प्रमाणम् । मातृnt चरणी नमता दिवा दिवा गङ्गा-स्नानम् ||१||
अर्थात् महर्षि व्यास ऐसा कहते हैं कि यदि श्रुति शास्त्र प्रमाण है, प्रमाणस्वरूप हैं, सच्चे हैं तो माता के चरणों में किया गया दैनिक प्रणाम गंगा स्नान के समान है।
यहां पर व्यासः वासो (व्यास ऋषि) इस पद में रेफ का सर्वथा प्रभाव था, किन्तु प्रस्तुतसूत्र ने उसका प्रयोग करके वासो यह रूप बना दिया। प्रश्न हो सकता है कि सूत्रकार ने 'क्वचित् (कहीं पर), इस पद का श्राश्रयण क्यों किया है ? उत्तर में निवेदन है कि सर्वत्र अविद्यमान रेफ का प्रयोग न हो जाए इसलिए सूत्रकार ने क्वचित् इस पद का उल्लेख किया है। जैसे व्यासेनापि भारतस्तम्मे बद्धम्वासेण वि भारहखम्भि बद्ध (व्यास ऋषि के द्वारा भी भारत-रूपी स्तम्भ में बांधा गया है) यहां से इस पद में रेफ का प्रयोग नहीं किया गया है । भाव यह है कि रेफका प्रयोग सार्वत्रिक नहीं समझना चाहिए।
१०७१ - अपभ्रंश भाषा में आपद, विपद् और संप इन शब्दों के वकार को इकारादेश होता है। जैसे - १ - अभ्यं कुर्वतः पुरुषस्य प्रापद् आयाति प्रण करतहो पुरिसहो भावइ श्रावइ [श्रन्याय करने वाले मनुष्य पर मुसीबत बाती है] २ - विपद् [विपत्ति ], ३-संपद संपद [ सम्पत्ति ] यहां बाप आदि शब्दों के दकार को इकार किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में प्राय: [ बहुल ] nir fere होने पर कहीं पर प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे - गुणैः न सम्पद्, कीर्तिः प रम् = गुणहिँ न संपय कित्ति पर [गुणों से सम्पत्ति नहीं, परन्तु कीति मिलती है। यहां सम्पत् शब्द था, प्रस्तुत सूत्र से इसके वकार को इकार होना चाहिए था, परन्तु बहुलाधिकार के कारण नहीं हो सका । ★ अथ कथनादिशब्द सम्बन्धी आदेशविधिः ★
१०७२ - कथं यथा तथां थादेरेमेमेहेधा डितः । ८ । ४ । ४०१ । अपभ्रंशे कथं, यथा, तथा इत्येतेषां यादेरवयवस्य प्रत्येकम् एम, इम, इह, इत्र इत्येते डितश्चत्वार श्रादेशा भवन्ति । केम समप्यज बुट्ठ विणु किध रयणी छुड होइ ।
मनोरह सोइ ||१||
बद्दल
नव-बहू - दंसण- लालसर वहs श्री गोरी-मुह-निज्जि अन्तु वि जो परिहविय तणु सो कि बिम्बारि त रयणन्वणु किह ठिउ सिरिश्रानन्द ! | froen रसु पिएं frafव जणु सेसहों दिष्णी मुद्द | ३||
लुक्कु मियकु । भइ निसकु ॥ २ ॥
भण सहि! निम्र तेवं महं जड़ पिउ विठ्ठ सदोषु । जेव न जाणइ मज्भु मणु पक्खावडियं तासु ||४||
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२७०
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपाक्षा जि जिवं वङ्किम लोपरगह । ति तिवं वम्म निमय-सर (३४४,४) ।
मजाणिउ प्रिय ! विरहिमहं कवि धर होइ विश्रालि।
नवर मिग्र कु वि तिह तबइ जिह दिणयर खय-गालि ॥५॥ (३७७,४) एवं तिध-जिधावुदाहायौं ।
१०७३-यादृक्तादृक्कीदृगीदृशा दावेहः ।।४।४०२। अपभ्रशे याहगादीनां दादेरवयवस्य डित् एह इत्यादेशो भवति। .
मई मणिग्राउ बलिराय ! तुहं केहज मग्गण एहू ।
जेहु तेहु न वि होइ, वढ ! सई नारायणु एह ॥१॥ १०७४-प्रतां उइसः।८।४ । ४०३ । अपभ्रशे याहगादीनामदन्तानां यादृश-तादृशकोहहशानां दादेरवयवस्य डित् अइस इत्यादेशो भवति । जइसो। तइसी । कइसो । अइसो।
१०७५-यत्र-सत्रयोस्त्रस्य डिदेशवत्त ।८।४।४०४। अपभ्रशे यत्र-तत्र-शब्दयोस्त्रस्य एत्थु, अतू इत्येतौ डितो भवतः ।
जइ सो घडदि प्रयावदो केस्थ वि लेप्पिणु सिक्खु ।
जेत्यु वि तेत्थ वि एत्थु जगि भण तो तहि सारिक्खु ॥१॥ जत्तु ठिदो । तत्तु डिदो।
१०७६-एत्यु कुत्राऽ। १४ । ४०५ ॥ अपभ्रशे कुत्र, अत्र इत्येतयोस्त्र-शब्दस्य डित् एत्थु इत्यादेशो भवति । केत्थु विलेपिरण् सिक्खु । जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि । (४०४,४)।
१०७७-यावसावतोदिम उमहि ।।४।४०६। अपभ्रशे यावत्तावदित्यव्यययोर्वकारादेरवयवस्य म, उं, महिं इत्येते त्रय प्रादेशा भवन्ति ।
जाम न निवडइ कुम्म-पडि सीह-चवेड चडक्क । ताम समत्तहँ मयगलह पइ पइ बज्जइ दक्क ॥१॥ तिलहें तिलसणु साउँ पर जाउँ म नेह गलन्ति । नेहि पणट्रइते जि तिल तिल फिट्टवि खल होन्ति ॥२॥ जामहि विसमी कज्जगइ जीवह मज्झे एइ।
तामहि अच्छउ इयर जणु सुप्रणु धि अन्तरु देइ ॥३॥ १०७९-वा यत्तदोतो.वडः। ८।४ । ४०७ । अपभ्र शे यद् तद् इत्येतयोरत्वन्तयोर्यावत्तायतोर्वकारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशो वा भवति ।
जेबडु अन्तर रावण-रामह, तेबडु अन्तर पट्टण-गामहें।
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★ संस्कृत-हिन्दी- टीका-योपेतम् ★
चतुर्थपादः पक्षे । जेतुलो तेतुलो ।
१०७६ - वेद- किमोर्यादेः । ८ । ४ । ४०८ | अपभ्रंशे इदम् किम् इत्येतयोरत्वन्तयोरिकियतोर्य का रादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशो वा भवति । एवठु अन्तरु । केवडु अन्तर | पक्षे तुलो | केतुलो ।
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१००० - परस्परस्याऽविरः । ८४ । ४००३ अपक्ष से परस्परस्यादिरकारो भवति । से मुग्गा हराविना जे परिथिट्टा ताहं । वरोरु जोताई सामि गज्जिड जाई ॥१॥
१०८१ -- कादि स्थैोतोच्चार- लाघवम् ८ । ४ । ४१० | अपभ्रंशे कादिषु व्यञ्जनेषु स्थितयो: ए ओ इत्येतयोरुच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति ।
सुधे" चिन्तिज्जइ माणु । ( ३६६, ४) । तसु हउँ कलिजुग दुल्लहहो ( ३३८, ४) । १०८२ --- पदान्ते उ-हुं-हि-हंकाराणाम् । ८ । ४ । ४११ । अपनशे पदान्ते वर्तमानाना उं, हुं, हिं, हं इत्येतेषां उच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति ।
अन्तु जु तुच्छउँ तहे धणहे । ( ३५०, ४) । बलि किज्जउँ सुप्रणस्तु । ( ३३८, ४) । दद्द घडावर वणि तरुहुँ । ( ३४०, ४) । तरुहुँ वि वक्कलु । ( ३४१, ४) । खग्ग-विसा हिउ जहिं लहहुं । ( ३८६,४) । तनहँ तइज्जो भङ्गि न वि । ( ३३६, ४) ।
१०६३ म्हो भो वा । ८|४|४१२ । प्रपत्र शे म्ह इत्यस्य स्थाने म्भ इति मकाराकातो भकारो वा भवति । म्ह् इति पक्ष्म-म-म-म-ह्म म्हः (५१२०७४) इति प्राकृत- लक्षण - विहितोऽत्र गृह्यते, संस्कृते तदसंभवात् । गिम्भी । सिम्भो ।
वम्भ से विरला के वि नर जे सबङ गन्छइल्ल ।
जे वङ्का ते वञ्चयर जे उज्जुन ते बद्दल्ल ॥१॥
१०८४ - धन्यादृशोऽन्नाहसाऽवराइसौ । ८/४/४१३। प्रपत्र शे धन्यादृश-शब्दस्य अन्नाइस, प्रवराइस इत्यादेशौ भवतः । श्रन्नाइसो, भवराइसो ।
१०८५ - प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्य परिगम्वाः । ८ । ४ । ४१४ | अपभ्रंशे प्रायस् इत्येतस्य प्राउ, प्राइथ, प्राइम्व, परिगम्व इत्येते चत्वार प्रादेशा भवन्ति ।
अन्ने ते दोहर लोण, अन्तु तं भुन- जुलु । अन्तु सुध ण-वण-हार, तं प्रन्तु जि मुह कमलु । प्रन्तु जि केस कलावु सु प्रन्तु जि प्राउ विहि । जेण निमम्बिणि घडिच स गुण-लायण्ण-निहि ॥ १॥
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sadio
* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादा प्राइव मुणिहूँ थि भन्तडी ते मणिपाडा गणन्ति । अखइ निरामह परम-पइ प्रज्ज वि लज न लहन्ति ॥२॥ अंसु-जलें प्राइम्व गोरिग्रहे सहि! उव्यत्ता नयण-सर । तें संमुह संपेसिश्रा देन्ति सिरिन्छी छत्त पर ॥३॥ एसी पिउ रूसेसु हउँ हट्ठी मई अणुणेह ।
पग्गिम्ब एइ. मणोरहई दुक्करु वउ करेइ ॥४॥ १०८६-वाऽन्यथोऽनु।८।४१४१५। अपभ्रशे अन्यथा शब्दस्य अनु इत्यादेशो वा भवति ।
विरहाणल-जाल-करालिबउ पहिउ को वि बुझिवि अउ ।
प्रनु सिसिर-कालि सोमल-जलहु धूमु कहन्तिहु उदिप्रउ । १॥ पक्षे । अन्नह ।
१०८७-कुतसः कउ कहन्तिहु ।।४।४१६ । अपभ्रशे कुतस्-शब्दस्य कउ, कहन्तिहु इत्यादेशौ भवतः ।
महु कन्तहाँ गुट्ठ-द्विग्रहो कउ सुम्पडा वलन्ति ।
अह रिउ-रुहिरें उल्हवइ अह अप्पणे न भन्ति ॥१॥ घूमु कहन्तिहु उठ्ठिप्रउ [४१५,४] ।
१०८५-ततस्तदोस्तोः । ८ । ४१ ४१७ । अपभ्रशे सतस तदा इत्येतयोस्तो इत्यादेशो भवति ।
जइ भग्गा पारवकडा तो सहि ! मज्भु पिएण।
अह भग्गा अम्हहं तणा तो तें मारिनडेण ॥१॥ [३७६,४] १०८६-एवं-पर-सम-ध्रुबं-मा-मनाक एम्व-पर-समाणु-ध्रुवु-म-मणा । ८।४।४१८॥ अपभ्रशे एवमादीनां एम्बादय आदेशा भवन्ति । एवम एम्ब ।
पिय-संगमि कर निद्दडी पिनहों परोक्खहो केम्व ।
मई बिणि वि विन्नासिमा निद्द न एम्ब न तेम्व ॥१॥ परमः परः । गुणहि न संप६ कित्ति पर [३३५,४] । सममः समाणुः ।
कन्तु जु सीहहों उवमिश्रइ तं महु खण्डिउ माणु ।
सीह निरक्खय गय हणइ पिउ पय-रक्ख-समाणु ॥२॥ ध्रुवमो ध्र वुः पञ्चलु जीवित, ध्रुव मरण, पिन! रूसिज्जह काई ।
होसहि विग्रहा रूसणा दिव्धई परिस-सयाई ॥३॥ मो में । म परिण करहि विसाउ [३८५.४] प्रायोग्रहणात्
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चतुर्थपादः
* संस्कृत्त-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * माणि पणदुइ जइ न तणु तो देसडा चइज्ज । मा दुज्जण-कर-पल्लवे हि दसिज्जन्तु भमिज्ज ॥४॥ लोणु विलिज्जइ पाणिएण अरि खल-मेह ! म गज्जु ।
वालिज गला सु झुम्पड़ा गोरी तिम्मद अज्जु ।।५।। मनाको मगाउं । विहथि पणदुइ बाकुडउ रिद्धिहि जण-सामन्नु ।
___किं पि मणाउ मह पिग्रहो ससि अणुहरइ न अन्नु ॥६॥ १०९०-किलाऽथवा-दिवा-सहन्नहः किराहवइ दिवे सहुं नाहि ।।४।४१६। अपनशे किलाऽऽदीनां किराऽऽदय आदेशा भवन्ति । किलस्य किरः।
किर खाइन पिप्राइन विवइ धम्मिन बेच्वइ रूघडउ।
इह किवणु न जाणइ जह जमहो खणे ण पहुचाई अडउ ॥१॥ प्रथवो हवाइ । अहवइ न सुवंसह एह खोडि । प्रायोऽधिकारात्-- जाइज्ज तहि वेड लभ पियहीं पमाणु।
अमावद तो पाणिग्रह हवा तं जि निवाणु ॥२॥ दिवो दिवे । दिवि दिवि गङ्गा-हाणु । [३६६,४] । सहस्य सह। जउ पवसन्तै सहुँ न गय न मुअ विश्नोएं तस्सु ।
___ लज्जिज्जइ संदेसडा दिन्ते हि सुहय-जणस्सु ॥३॥ नहे हिं। एतहे मेह पिप्रन्ति जलु एतहे वडवानल पावट्टइ ।
पेक्खु गहोरिम सायरहो एक्क वि कणि नाहि प्रोहट्ट ॥४॥ १०६१-पश्चादेवमेवैवेदानी-प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्वइ जि एम्वहि पच्चलिड एतहे । ८ । ४ । ४२० । अपभ्रशे पश्चादादीनौ पच्छ इत्यादय आदेशा भवन्ति । पश्चात: पच्छ । पञ्छई होइ विहाणु [३६२,४] । एवमेवस्य एम्बइ । एम्वइ सुरउ समत्तु [३३२,४] । एवस्य जिः। जाउ म जन्तउ पल्लवह देखाउँ कइ पय देइ ।
हिनाइ तिरिच्छी हउँ जि पर पिउ डम्बरई करेइ ॥१॥ इदानीमः एम्वहिं । हरि नच्चाविउ पङ्गणइ विम्हाद पाडिउ लोउ ।।
एम्वहि राह-पोहरहं जं भावइ त होउ ।।२।। प्रत्युत्तस्य पच्चलिउ । साब-सलोणी गोरडी नबखी क वि विस-गण्ठि ।
मा पच्चलिमो सो मरइ जासु न लग्गइ कण्ठि ॥३॥ इसस इसहे । एत्तहे मेह पियन्ति जलु। [४१६,४] ।
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प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपाद:
१०६२ - विषण्णोक्त-वत्र्त्मनो बुन्न बुत्त-विच्चं । ८ । ४ । ४२१ | अपभ्रंशे विषण्णादीनां बुन्दादय श्रादेशा भवन्ति । विषण्णस्य वुन्नः ।
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मई बुसउं तुहुँ घुरु घरहि कसरेहिं विगुत्ताई । पई विणु धवल न चडइ मरु एम्बइ बुन्नउ काई ? ॥ १ ॥
उक्तस्य बुत्तः । मई बुक्त्त [ ४२१४] । वर्त्मनो विच्चः । जे मगु विच्चि न माइ [ ३५०, ४] १०१३ - शीघ्रादीनां वहिल्लादयः । ८ । ४ । ४२२ । अपभ्रंशे शीघ्राऽऽदीनां वहिल्लाssदय: प्रदेशा भवन्ति ।
I
एक्कु करग्रह वि न श्रावही अन्तु वहिल्लउ जाहि । म मित्तडा प्रमाणिश्रउ पई जेह खलु नाहि ॥१॥ कलहस्य घञ्चलः । जिर्व सुपुरिस तिवँ धचलई जिबँ नइ तियें बलणाई । जिवँ डोङ्गर ति कोट्टरदं हित्रा ! विसूरहि काई ॥२॥ प्रस्पृश्य-संसर्गस्य विट्टालः । जे छड्डविषु रयणनिहि अप्प तडि घल्लन्सि । तह सहं बिट्टालु पर फुक्किज्जन्त भमन्ति ॥३॥ भयस्य द्रवक्क:- दिवहिं वित्तउँ खाहि यढ ! संधि म एक्कु वि द्रम्सु । को वि area सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु ||४|| मात्मीयस्य प्रणः | फोडेन्ति जे हिडवं श्रप्पण [ ३६७,४ ] । दृष्टेः । rastana as fa जोएदि हरि खुट्टु सम्वायरेण, तो वि हि जहि कहि वि राही ।
को सक्कs संवरे व बडू नयणा नहि पल्लुट्टा ॥५॥
गाढस्य निच्चट्टः । विहवे कस्सु थिरतणउं जोव्वणि कस्सु मरट्टु | सो लेखss torfars जो लग्गइ निच्चट्टु ॥६॥
कौतुकस्य कोड:
साधारणस्य सड्डलः– कहिँ ससहरु कहिँ मयरहरु कहिँ बरिहिणु कहिँ मेहु । दूर-ठिप्राह थि सज्जणहं होइ श्रसङ्कलु नेहु ॥७॥ कुञ्जर अन्न तरुप्ररहं कुड्डेण घल्लइ हत्थु । मणु पुणु एक्कहिँ सल्लइहि जब पुच्छह परमत्थु ||८|| खेडयं कयमहि निच्छ्यं किं पयस्पह | चय सामि ! ne
क्रीडायाः खेहु:
अणुरता भत्ताउ भ्रम्हे मा
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चतुपाद:
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * रम्यस्य रववरण:--- सरिहि न सरेहि न सरवरे हि न वि उज्जाण-वहिं ।
देस रवण्णा होन्ति बह !, निवसन्तेहि सुनहि ॥१०॥ अद्भुतस्य ढक्करि:-हिडा ! पई एह बोल्लिो मह अगइ सय-बार ।
फुट्टिसु पिए पवसन्ति हउँ भण्डय ! ढक्करि-सार ! ॥११॥ हे सखीत्यस्य हेल्लिः । हेल्लि ! म झसहि पाल [३७६,४] पृथक्पृथगित्यस्य जुअंजुमः
एक्क कुडल्ली पञ्चहि रुद्धी तह पञ्चहें वि जुजुभ बुद्धी।
बहिणुए ! तं घर कहि कि नन्द जेत्यु कुडम्बउँ अध्यण-छन्दउँ ॥१२॥ मूढस्य नालिम-वढी-जो पूर्ण मणि जि खसफसिहप्रउ चिन्तइ देइ न दम्मु न स्प्राउ ।
रह-वस-मिरगुल्लासिड'घरहि फोटु जुणको लालिउ ॥१३॥ दिवे हि विदत्तउँ खाहि बढ़ ! [४२२,४] नवस्य नवखः । नवखी क वि विसगण्ठि [४२०, ४], अवस्कन्दस्य दडवड:--
चले हि चलन्ते हि लोधणे हिँ जे तई दिट्ठा बालि !।
तहि मयरद्धय-दडवाउ पडइ अपूरइ कालि ॥१४॥ यदेश्छुड:-छुडु अग्घा यक्साउ [३८५,४] संबन्धिनः केर-तणी--
गयउ सु केसरि पिनहु जलु निश्चिन्त हरिणाई !।
जसु केरए हुंकारडएं मुहहुँ पडन्ति तृणाई ॥१५॥ मह भग्गा अम्हहं तणा [३७६,४] मा भषोरित्यस्य मब्भीसेति स्त्रीलिङ्गम्----
सत्थावस्थह पालवण साह वि लोड करेइ ।
प्रावन्नहँ मम्मीसडी जो सज्जणु सो देइ ॥१६॥ यद्यदृष्टं तत्तदित्यस्य जाइट्ठिा--
जइ रच्चसि जाइटिपए हिनडा! ,मुद्ध-सहाव!।
लोहें फुट्टणएण जिवं घणा सहेसइ ताव ॥१७॥ १०६४-हुहुरु-घुग्घादयः शब्द-चेष्टानुकरणयोः ।।४।४२३३ अपभ्रशे हुहर्वादयः शब्दाऽनुकरणे, घुग्घादयश्चेष्टाऽनुकरणे यथासंख्यं प्रयोक्तव्याः ।।
मई जाणिजे बुड्डीसु हउँ पेम्म-द्रहि हुहरु ति ।
नवरि प्रचिन्तिय संपडिय विप्पिय नाव झड त्ति ॥१॥ आदिग्रहणात्- खण्जइन उ कसरक्केहि पिज्जइ न उ घुण्टेहि ।।
एम्बइ होइ सुहच्छडी पिएं दिढ़े नयणेहिं ॥२॥
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२७६ * प्राकृत व्याकरणम्
चतुर्थपावा अज्ज वि नाहु मह सिज धरि सिद्धत्था बन्देइ । ताउँ जि विरह गवक हि मक्कड-धुग्घिउ बेइ ॥३॥ सिरि जर-खण्डी लोपडी गलि मणियडा न वीस । तो वि गोदडा कराविमा मुद्धए उबईस ॥४॥ इत्यादि ।
* अथ कथम्नादि-शब्दसम्वन्धी विधिः * मपन्नश-भाषायां कथम, यथा इत्यादि-शब्दैः सम्बन्धितं यविधिविधानं समुपलभ्यते, तत्प्रदर्शयति धृत्तिकारः । यथा१०७२-थावेरिति । थ प्रादिर्यस्थ अवयवस्य स थादिस्तस्य थादेरवयवस्येत्यर्थः ।
पं समायला दुष्टं विभ, कथं रजनी शीघ्र भवति ।
मय-वधू-वर्शन-लालसः [कामुक, वहति मनोरयान सोऽपि ॥१॥ भावार्थ:---काम-वासनाकुलः कश्चिद् नवविवाहितो खुधा अद्विचारयति तदाह-दुष्टं दिनं कथं समाप्यताम् केन प्रकारेण समाप्तिं गच्छेद ? तथा रजनी-निशा कथं शीघ्र भवति, सस्वरमेव भवेदिति यावद् । सोऽपि-नवविवाहितयुवक्रः एव एतादृशान् मनोरयान् प्रायः बहति-धारयति । किभूतः युवकः ? मव बन्धु-दर्शन-लालसः, नवा चासो वधु:-पत्नी, तस्याः दर्शन, तस्थ लालसा-अभिलाषाऽस्ति यस्य सः।
कथम् । अव्ययपदमिदम् । १०७२ सू० थम् इत्यंशस्य डेम (एम) स्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे,मज्झीने परेण संयोज्ये केम इति भवति । समाप्यताम् । सम्पूर्वकः प्राप्ल (ग्राप) धातुः समाप्ता। समाप्+कम+साम् । संस्कृतनियमेन समाप्य+ताम् इति जाले,३४९ सु० यकारलोपे, ३६० सू० पकारद्वित्त्वे,८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,६६२ सू० साम् इत्यस्य दु इत्यादेशे,१७७ सू० दकारस्य लोपे समापउ इति भवति । दुष्टम् । दुष्ट+सि । ३०५ सू०प्रस्य टकारे,३६० सू० ठकारद्विश्वे,३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे, १००२ सू० अकारस्थ उकारे,१०१५ सू० सेर्लोप छु इति भवति । दिनम् । दिन+सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, अकारस्य उकारे, सेलोपे विशु इति भवति । कथम् । प्रस्तुतसूत्रेण थम् इत्यंशस्य द्विध (इध) इत्यादेशे, दिति परेअन्त्यस्वरादेर्लोफे, अज्झीने परेगा संयोज्ये किंवा इति भवति । रजनी। रजनो+सि । १७७ सू० जकारलोपे, १५० सू० यकारस्य श्रुतौ,२२८ सू० नकारस्य णकारे,१०१५ सू० सेलोपे रमणी इति भवति । शोघ्रम् । शीघ्रं यथा स्यात्तथा भवतीति क्रियाविशेषणमिदम् । शीन+सम्अपभ्रंशे १०९३ सू० शीघ्रार्थे झुडु-शब्दः प्रयुज्यते,१०१५ स० अमो लोपे झुडु इति भवति । भवति होइ, प्रकिया ७३१ सूत्रे ज्ञेया । मव-वधू-वर्शन-लालसः । नव-वधू-दर्शन-लालस+सि । १५७ सू० धकारस्य हकारे, ४ सू० - कारस्थ उकारे,२६ सू० कारस्थस्याकारस्य अनुस्वारागमे,३५० स० रेफलोपे,३६३ सू० शफारस्य द्विस्वनिषथे,२६० सू० शकारस्य सकारे,२२८ सू० नकारस्य प्रकारे, ११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे नब-ब-बतरण लालसाउ इति भवति । वहति । वह बातुः प्रापणे । वह +तिन् । ९१० स० प्रकारागमे, ६२८ सू० सिवः स्थाने इचादेशे बहइ इति भवति । मनोरथान् । मनोरथ+शस् ॥ २२८ सू० नकारस्य णकारे,१५७ सूचकारस्य स्थाने हकारे, १०१५ सू० शसो लोपे मनोरह इति भवति । सः । तद+सि । ५७५ सूतकारस्य सकारे, ११ सू० दकारलोपे,१००३ सू० प्रकारस्य भोकारे,१०१५ सू० सेलोपे सो इति भवति । अपि । अव्ययपदमिदम् । ४८९ सू० अप्यर्थे वि इत्यस्य प्रयोगे,१७७सू० वकारलीपेइ इति भवति । कथम्म कथम् - किध इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता ।
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चतुर्वपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
२७७ ओ! गौरीमुख-निजितकः, वाईले निलीनः भगाङ्कः ।
अन्योऽपि यः परिभूत-सनुः, स कथं भ्रमति निश्शकम् ॥२॥ भावार्थ:-- यदा निशाकर: कृष्णतमेषु मेधेषु प्रविशति तदा गौरी-मुख-सौन्दर्य-प्रभावितन केनचित पुरुषेण यद् भणितं तदाह-ओ इत्यव्ययपदमभिमुखीकरणे। अथवा पदमिदं सूचनायां प्रयुज्यते । भो लोकाः! इत्यर्थः। यदा गौरीमुख-निजितकः,गौर्याः मुखं तेन निजित कः विजितः पराजितो यः सामगारचन्द्रः, वादले-मेघसमूहे निलोनः निरोहितो जातः, गौरी-मुख-सौन्दर्यातिरेक वीक्ष्य सलज्जः चन्द्रः मेधेषु प्रच्छन्न इति भावः । यदा चन्द्रस्यैतादशी दशा विद्यते तदा यः अन्योऽपि-अन्यः-सामान्यो जनः कीदृशोऽन्यो जनः ? परिमूततनुः परिभूतं तिरस्कृतं तनु-शरीरं यस्य सः,साधारण-जन इति यावत् । कथं निश्शक-यथेच्छ भ्रमति-भ्रमितु शक्नोति ? न कोऽपीति यावत् ।
यो । अध्ययपदमिदम् । इत्यत्र ४७४ सू० सूचनार्थे ओ इत्यव्ययपदं प्रयुज्यते । गौरी-मुख-निजितकः । गौरी-मुख-निजितक+सि । १५९ सू० औकारस्य श्रीकारे,१८७ सू० खकारस्य हकारे,३५० सू० रेफस्य लोपे,३६०पू० जकारद्वित्वे,१७७सतकारस्थ ककारस्य च लोपे,१००२ सु० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे गोरी-माह-निजिअउ इति भवति । वाईले। वार्दल+डि६४ सु० संयोगे परे हस्वे, ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० दकारद्वित्त्वे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे वलि इति भवति । निलीनः । निलीन+सि । इत्यत्र ९२९ सू० निलीनस्य लुक्क इत्यादेशे,१००२ सू०मकारस्य उकारे, १०१५ सेलोपे लुक्कु इति भवति । मगाखुः । मृगाक+सि । इत्यत्र १३० सू० ऋकारस्य इकारे,१७७ सू० गय रलोपे,बाहल्येन १५० सयकारश्रतो.४ ससंयोग परेहस्व.अकारस्थ उकारे,सेलौंप मियडक इति भवति । अन्यः । अन्य+सि । इत्यत्र ३४९ सू० सकारलोपे,३६० सू० नकारस्य द्विस्ये,१००२ सू०प्रकारस्य उकारे.१०१५ सू० सेलोपे प्रग्नु इति भवति । अपि-वि,इत्यस्य प्रक्रिया४८९ सूत्रे ज्ञेया । यः । यद् +सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे,११ सू० दकारलोपे,१००३ सू० अकारस्थ प्रोकारे,१०१५ सू. सेलोपे जो इति भवति । परिभूत-तनुः । परिपूर्वक: भूधातुः परिभावे-तिरस्कार । परिभू+त+त+सि । ७३१ सू० भूधातोः स्थाने हव इत्यादेशे, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे,१७७ स० तकारस्य लोपे,बाहुल्येन १८० सू० यकारश्रतो, परिहवियतनु+सि इति जाते, २२८ स० नकारस्य कारे, १०१५ स० सेलोपे परिहाविय-ससु इति भवति । सः 1 त+सि । ५७५ सू० तकारस्य सकारे, ११ सू० दकारलोपे,१०७३ सू० अकारस्य प्रोकारे, सेलोपे सो इति भवति । कथम् । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण थम् इत्यंशस्य डिम (इम) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अध्झीने परेण संयोज्ये, १०६८ सू० मकारस्य सानुनासिके
कारे कि इति भवति । भ्रमति । भ्रम(भ्रमभ्रमरो । भ्रम्+ति । १०६९ सू० रेफसोपे, ९१० सू० प्रकारागमे, १०६८ सू० मकारस्य सानुनासिके वकारे, ६२८ स० तिवः स्थाने इचादेशे भवेइ इति भवति । निवर्शकम् । क्रियाविशेषणमिदम् । निश्शंक+अम् । ३४८ स. कारलोपे, बाहुल्येन ४३ सूत्रेण इकारस्य दीर्घा भावे, २६० म० शकारस्य सकारे, बाहुल्येन ३६० सकारस्थ द्वित्त्वाभावे,३० सू० अनुस्वारस्य वर्गान्त्ये, १००२ सू० अकारस्थ स्थाने उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे निसकु इति भवति । कपम् = कि इस प्रस्तुतसुत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
बिम्बाधरे तन्ध्या: रखन-प्रणः, कथं स्थितः श्री-आनन्द !
निरूपमरसं प्रियेण, पोरवेव शेषस्य दसा मुद्रा ॥३॥ भावार्थ:--शृङ्गार-रस-रसिकः कश्चित्पुरुषः पृच्छति --हे श्रीमानन्द !। एषा कस्यचित् कामुक
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२७F *प्राकृत-व्याकरणम् ★
अतुर्थपादा व्यक्तेः संज्ञा, तत्सम्बोधनम् । थदा श्रीमानन्दशब्दः रदननणस्य विशेषणीभूतः, तदा नाऽयं सम्बोधनः । श्रियः मानन्दः, श्रीमानन्दः-शोभाकारक इत्यर्थः । तन्ख्या:-- कुशाग्या: नायिकाय: बिम्बाधरे --निम्वं रक्ततमपुष्पविशेषस्तदिव अधर:-निनोष्ठः इति बिम्बाधरः, तस्मिन रदनवारण:---रदनः-दन्तैः कृतो दणः दन्तक्षतम् [कीदृशः रदनण: ? श्रीमानन्दः-नायिकायाः कृते शोभावर्धकः] कथं स्थितः जातः? इति प्रश्नः लदा धी-पानन्द उत्तरयति-यत् प्रियेण अधरस्य नियमरसम्,निरुपमः, निर्गतः उपमायाः, उपमाहीनः इति यावत् । निरुपमश्च सः रसः,निरुपम-रसः,तमद्भुतरसं पोत्या इव तेन प्रियेण शेषस्यअवशिष्टस्य रसस्योपरि पुनः पानार्थ सुवा दसा । निम्माधर- मुद्राङ्कित इय कृत इति भावः ।
बिम्बाधरे। बिम्बाधर+ङि। इत्यत्र १५७ सू० धकारस्प हकारे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे बिम्बाहरि इति भवति । तस्वयाः। तन्वी+ ङस् । ३५० सू० वकारलोपे, २२८ सू० नकारस्य शुकार
स०ईकारस्य उकार,२०१६स० सोलोपेत इति भवति । रहन-यणः । दनवण+ सि। १७७ सू० दकारलोपे,१८० सू० यकारश्रुती,२२८ सू० नकारस्त्र णकारे,१०६९ सू० रेफलोपे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे रयए-बहु इति भवति । कथम् । अव्ययपदमिदम् । इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण थम् इत्यंशस्य स्थाने डिह[इहइत्यादेशे,डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये किह इति भवति । स्वितः। ठा[स्था] गतिनिवृत्तौ । स्था+क्त-त । इत्यत्र ६८७ सू० स्थाधातोः स्थाने
देशे.१०४० साकारस्य प्रकारे.६४५ स० अकारस्थ इकारे,१७७० तकारलोपे,१००२ सूक प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे ठिउ इति भवति । श्रीमानन्ध ! । श्रीमानन्द+सि । ३७५ सू० रेफात पर्ने दकानागमे, २६ सू शकाला सफारे, ४ . ईकारस्य इकारे, २२८ सू० असंयुक्त-नकारस्य णकारे १०१५ सू० सेलोपे सिरिआणन्व! इति भवति । निरुपम-रसम् । निरुपम-रस+मम् । २३१ सू० पकारस्य वकारे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० प्रमो लोपे नियम-रसु इति भवति । प्रियेण । प्रिय+टा । १.०६९ सू० रेफलोपे, १७७२० यकारलोपे, १०१३ सू० टा-स्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवत्वात १००४ सू० प्रकारस्य स्थाने एकारे पिएं इति भवति । पीत्वा । पाधातुः पाने । पा+क्त्वा । इत्यत्र१००० सूः प्राकारस्य स्थाने इकारे, १११० सू० क्त्वः स्थाने अदि इत्यादेशे, बाहुल्येन १० सूत्रस्याऽप्रवृत्ती पिमावि इति भवति । एक। अव्ययपदमिवम् । १११५ सू० एवार्थे जणु इत्यस्य प्रयोगे जण इलि भवति । शेषस्य । शेष+ ङस् । २६० सूत्रेण शकारस्य षकारस्य च सकारे,१००९ सू० उस स्थाने हो इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाधवे सेसहों इति भवति । वत्ता । दत्ता+सि । इत्यत्र ४६ सू० प्रादेरकारस्य इकारे, ३१४ सू० तस्य प्रकारे, ३६० सू० कारद्वित्त्वे, स्त्रीविवक्षायामाप्रसंगे ५२१ सू० डी-(ई)प्रत्यये, १० सू० स्वरस्य लोपे, अझोने परेण संयोज्ये, १०१५ सू. सेलोपे दिग्पो इति भवति । मुद्रा । सुहा+सि।.१०६९ सू० रेफलोपे, ३६० सू० दकारद्वित्त्वे, १००१ सू० साकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोमे मुह इति भवति । कथम् किह इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता है
भण सखि! निभूतकं तथा मयि पवि प्रियो दृष्टः सदोषः।
यथा - जामाति मम ममः पनापतितं लस्थ ।।४।। भावार्थ: - काचिन्मायिका निज-नायक-विषये सन्दिहाना काश्चित निजसखों पृच्छन्त्याह-हे सखि ! यदि मम प्रियः---कान्तः मयि-मद्विषये सबोषः-दोषोपेतोऽस्ति, मदुपरि सरोषो वर्ततेऽथवा मत्कातेन मदीयः कश्चिदपराधः कृतो भवेदिति यावत्, हि तथा भरण-तत्सर्व मा प्रति कथय । यतो मम मनः तस्य कान्तस्य पक्षाऽऽपतितं पक्षे आपतितं, पक्षपातयुक्तं वर्तते, प्रतस्तद् में मनः, यथा-सम्यक
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nokarnitiewincipanipataniwo
२७९
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चतुर्थपाद:
★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * .......... - प्रकारेण दोषान्न जानाति । पक्षपातपूर्ण मनः प्रम तस्य दोषात तुनामोडिजिटलाम्-प्रच्छन्नं. गुप्तरूपेणेति यावत्, त्वं तदीयान-मम कान्तस्य दोषान् अहि, यतोऽहं वास्तविकी स्थितिमवगच्छेयम् ।
भण! भण[भण्] भणने। भण्+हिं । ९१० सू० प्रकारांगमे, ६६२ सूत्रेण हि इत्यस्य सु इत्यादेशे,६६४ सु० सोर्लो भण इति भवति । सखि! सखी+सि । १७ सू० खकारस्य स्थाने हकारे,१००१ सू० ईकारस्य स्थाने इकारे,१०१५ सू० सेलोपे सहि ! इति भवति । निमृतकम् । क्रियाविशेषणमिदम् । निभृतक+मम् । १८७ सू० भकारस्य स्थाने हकारे,१३१ सूत्रेण ऋकारस्य उकारे, १७७ सू० तकारस्य ककारस्य च लोपे, १०२५ सू० अन्स्याकारस्य उं इत्यादेशे, १०८२ सत्रेण उन्धारणस्य लाघवे, १०१५ सू० प्रमो लोपे,
निमः इति भवति । तथा प्रध्ययपदमिदम् । १०७२ सू० था इत्यंशस्य डेम(एम)इत्यादेशे डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये,१०६८ सु०मकारस्य स्थाने सानुनासिके वकारे ते इति भवति । मयि ! अस्मद+छि। १०४८ साइप्रत्ययेन सह प्रस्मदःस्थाने मई इत्यादेशे मई इति भवति । यदि-जइ,प्रक्रिया १०५५ सूत्रे ज्ञेया । प्रियः । प्रियसि । इत्यत्र १०६९ सू० रेफस्य लोपे,१७७ सू० यकारलोपे,१००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे, १०१५सू०सेर्लोपे पिउ इति भवति । दृष्टः । दृष्ट-+ सि । इत्यत्र १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, ३०५ सू० ष्टस्य ठकारे,३६० सू० ठकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वउकारस्य टकारे,१००२ स०अकारस्य उकार,१०१५ सू० सेलॉप विठ्ठात भव
भवति। सबोषः। सिं। २६० सू० षकारस्य सकारे,पूर्ववदेव सदोसु इति भवति । यथा । मव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे,१०७२ सू० था इत्यस्य डेम(एम)इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे,मज्झीने परेण संयोज्ये, १०६८ सू० मकारस्य सानुनासिके वकार जव इति भवति ।। मध्ययपदमिदं संस्कृततुल्यमेवाउपभ्रशे प्रयुज्यते । मानाति । ज्ञा-धातुःअवबोधने । ज्ञा+ति-जाणइ, इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया ६७८ सुज्ञया। मम ==मझ,प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य द्वितीय-श्लोके ज्ञेया । मनः 1 मनस्+सि । २२८ सू० नकारस्य प्रकारे, ११ सू० सकारलोपे,१००३ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेर्लोपि मरण इति भवति । पक्षापतितम् । पक्षापतित+सि । २७४ सू० क्षस्य स्वकारे,३६० स० खकारस्थ द्विस्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे, २३१ सू० पकारस्य वकारे,८९० सू० प्रथम-तकारस्य डकार,१७७ सू० तकारलोपे, ५१४ स० सेर्मकारे, २३१० मकारानुस्वारे पक्कखाडिइति भवति । तस्य । तद्+इस्-तासु प्रक्रिया १०२९ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । लथा- तेय,यवा-जेवे इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृित्तांता । यथा यथा बक्रिमारणं लोचनयोः । तथा तथा मन्मथ: निजकशरान-जिव जिवं बडिम लोप्रणहं । ति तिव चम्महु निश्रय-सर, प्रक्रिया १०१५ सून्ने ज्ञेया। जिवं,तिवं इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता साधना स्वित्यम्-यथा। अव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्थ जकारे, १०७२ स० था इत्यंशस्य डिम (इम) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलो, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०६८ स० मकारस्य सानुनासिके वकारे जिवं इति भवति । तथा । अव्ययपदमिदम् । १०७२ स० था इत्यस्य डिम (इम) इत्यादेशे, जिवें-बदेव ति इति साध्यम् ।
मया शातं प्रिये ! विरहिताना, कापि धरा भवति विकाले ।
केवल मृगाकोऽपि तथा तपति यथा बिनकरः क्षयकाले ॥५॥ एतेषां पदानां शब्दसाधना १०४८ सूत्रे समवलोकनीया । भावाऽर्थश्चाऽपि तत्रैवाऽवलोकनीयः। जाणिज्ञातम्) इत्यत्र ५१४ सू० सेमकारोन जातः किन्तु १०१५ सूत्रेण तस्य लोपोऽभवत् । प्रिय इत्यत्र
वैकल्पिकत्वाद् १०६९ सूत्रेण रेफस्य लोपो नाऽभवत, बाहुल्येन १७७ सू० यकारस्य लोपोऽपि न जातः । ( मवर इत्यत्र केवलशब्दाऽर्थे ४५८ सू० वर इत्यादेशे,बाहुल्येन कारस्य नकारे नबर इति भवति । एवं
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★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
विजावाहाय । एवमेव तिव[तथा ], जिध [ यथा ] इत्यनयोरप्युदाहरणानि कल्पनीयानि । साधना स्वित्थम्-तथा अव्ययपदापदम्। २०७२ रा या इत्यंशस्य स्थाने डिव(इ) इत्यादेशे ङिति परेऽन्स्थस्वरादेर्लोपे अभीने पण संयोज्ये तिथ इति भवति । यथा । अव्ययपदमिदम्। २४५ सू० यकारस्य स्थाने जकारे, १०७२ सू० या इत्यंशस्य स्थाने विध-हत्यादेशे, पूर्ववदेव जिन इति भवति । मया भणितः बलिराज !, त्वं की मार्ग एषः । यावृक् ता नापि भवति, मूठ !स्वयं नारायणः ईदृक् ॥ १ ॥
१०७३
२६०
भावार्थ:- हे बलिराज ! - पातालाधिप । मया त्वं भरिगतः पृष्टः, यदेषः वामनो मार्गणः- याचकः. को ? को नाम महात्मा विद्यते ? इति पृच्छायामुत्तरयति बलिराजः हे मूढ ! एषः याचकः, याक् ताग माऽपि नैव भवति वर्तते, किन्तु वृग्यन्तु मार्गणः स्वयं भगवान् नारायणः - विष्णुर्वर्तते ।
मया । श्रस्मद्+टा । इत्यत्र १०४० सू० टाप्रत्ययेन सह ग्रस्मदः स्थाने मई इत्यादेशे मई इति भवति । भणितः । भणित+सि । १७७ सू० तकारस्य लोपे, ४३५ सू० स्वार्थे कप्रत्यये १७७ सू० ककारस्य लोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे भणिअ इति भवति । बलिराज || बलिराज + सि । १७७ सू० जकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ सेन बलिराय ! इति भवति । त्वम् । युष्मद् + सि १०३९० सू० युष्मदः स्वाने तुहुं इत्यादेशे, १०१५ सू० सेलने तुहुं १०८२ सू० उच्चारणलाई इति भवति । कीदृग् । कीदृक् +सि । १०७३ सू० दृक् इत्यंशस्य स्थाने डेह (एह ) इत्यादेशे, दिति परेऽन्त्यFarari कोने वरेण संयोज्ये ११०० सू० स्वार्थे प्रप्रत्यये १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलों के इति भवति । मार्गणः । मार्गण +सि । १०६९ सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० गकारस्थ द्वि, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०१५ सू० सेलोवे मग्गण इति भवति । एषः एहु प्रक्रिया १०३३ सूत्रे ज्ञेया । याद्गु । यादृक् + सि । २४५ सू० यकारस्य स्थाने जकारे, १०७३ सू० दृक् इत्यंशस्य डेह (e) इत्यादेशे ङिति परेऽस्यस्वरादेर्लोपे अभीने परेण संयोज्ये, १००२ सू० अकारस्य उकारे, सेर्लोपे नेहु इति भवति । सा । तादृक् + सि । प्रस्तुतसूत्रेण दृक् इत्यंशस्य डेह ( एह) इत्यादेशे ङिति परेऽन्यस्वरादेलों, अभीने परेण संयोज्ये, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे तेहू इति भवति । न । प्रव्ययपदमिदं संस्कृततुल्यमेव अपभ्रंशे प्रयुज्यते । अपि =वि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । भवति = हो, प्रक्रिया ७३१ सूत्रे ज्ञेया । मूढ ! मुड +सि । १०९३ ० मूढशब्दस्य स्थाने वढ इत्यादेशे, १०१५ सू० सेल वढ इति भवति । स्वयम् । श्रव्ययपदमिदम् । ३५० सू० वकारलोपे, १७७ सू० यकारलोपे, बाहुन १० सूत्रस्थाप्रवृत्तौ १००० सू० प्रकारस्य इकारे २३ सू० मकारानुस्वारे सई इति भवति । मादरायणः । नारायण +सि । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे नारायणु इति भवति । ईवृग् । ईवक्+सि । प्रस्तुतसूत्रेण दृक् इत्यंशस्य स्थाने डित् एह इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलों, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे एहु इति भवति । कोहरा केह, यादृक् जे. तारक तेह, ईहरू एहु इत्येतेषु पदेषु प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिता ।
१०७४ - यावृगावीनाम् । यादृक्-शब्दस्त्रिविधो भवति । यथा - १ - किप् प्रत्ययान्तः- यादृक् २—टक्-प्रत्ययान्तः याशः ३ - सक्-प्रत्ययान्तदच यादृक्षः । प्रस्तुतसूत्रे सूत्रकारस्य टक्-प्रत्ययान्त स्य यादृश-शब्दस्य ग्रहणमभीष्टमस्ति । यथा - यादृशः । यादृश+सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १०७४ सूत्रेण दृश इत्यंशस्य स्थाने डित् इस इत्यादेशे ङिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंपे, अभीने परेण संयोज्ये, १००३ सू० प्रकारस्य धोकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे असो इति भवति । तादृशः । तादृश+सि /
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पतुपंपाद:
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम * पूर्ववदेव तइसो इति भवति । कोशः । कीदृश+सि । पूर्वत्रदेव कइसो इति भवलि । ईदृशः ! ईदृश + सि । प्रस्तुतसूत्रेण दृशस्य स्थाने डित् अइस इत्यातो. हिलि परेडमारजनदेन क र, रामारस्य स्थाने मोकारे, १०१५ सू० सेलोपे आइसो इति भवति । १०७५.-... परि स घटपति प्रजापतिः कुत्रापि लावा शिक्षाम् ।
यत्रापि तत्रापि अत्र जगति भण सवा लस्याः सादृश्यम् ॥१॥ भावार्थ:-अदिस प्रजापतिः, प्रजानां पतिः-स्वामी ब्रह्मा इत्यर्थः । कुत्रापि शिक्षा लात्वा-प्राप्य पटयति-अगस्मिारसं करोति तदा-तदैव अत्र-प्रस्मिन् जगति तस्याः नायिकायाः निर्माण जातम् । ब्रह्मणा परिपूरण-सतर्कतया एतस्याः नार्यः रचना कृतास्ति, अतएय यत्राऽपि तत्राऽपि-कुचिदपीति तस्याः ना. विकायाः सादृश्यम्-सादृश्य, समानरूपता नहि प्राप्नोतीति भण-कथय,मया एतत् सत्यमुक्तमिति त्वमपि स्वीकुरु । ब्रह्मा यदि कुत्रचित् शिक्षा लकवा जमतः निर्माणं कुर्यात् तदैव एतादृशीं काञ्चिन्नायिका निर्मात्प्रभवेन्नान्यथा । अतएव साम्तं जगति तत्सप्रदशी काऽपि सुन्दरी नास्तीति परमार्थः ।
यदि-जइ, प्रक्रिया १०५५ सूत्रे ज्ञेया । सः-सो, प्रक्रिया १०७२ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। घटयति । घट [घट्] चेष्टायाम् । घट्+णिम् + सिन् । इत्यत्र १९५ सू० टकारस्य डकारे, ६३८ सू० णिगः स्थाने प्रकारे, बाहुल्येन ६४२ सूत्रेण पादेरकारस्य प्राकाराभावे, ९४५ स० तिषः स्थाने दि इत्यादेशे पनि इति भवति । प्रजापतिः । प्रजापति+सि । वैकल्पिकरवाद् १०६९ सूत्रेण रेफस्याऽलोपे, १७७ सू० अकारस्य लोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ, २३१ सू० पकारस्थ वकारे, १११८ सूत्रेण भाषाव्यत्यये, ९३१ सू. तकारस्य दकारे, १००१ सू० इकारदीर्घे, १०१५ सू० सेलोपे प्रयावदी इति भवति । कुत्र । अव्ययपदमिदम् । १०७६ सू. अस्य स्थाने डित् एत्थु इत्यादेशे,डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे,प्रज्झोने परेण संयोज्ये स्थु इति भवति । अपि-वि, इत्यस्य प्रक्रिया ४८९ सूत्रे शेया । लात्वा । लाधातुः पादाने। ला+वा । ११११ सू० क्स्व: स्थाने एप्पिरा इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अजीने परेण संयोज्ये लेप्पिन इति भवति । शिक्षाम् । शिक्षा+पम् । इत्यत्र २६० सू शकारस्य सकारे, २७४ सू० क्षस्थ खकारे, ३६० सू० खकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्थ ककारे, १००१ सू० श्राकारस्य प्रकारे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे सिक्ख इति भवति । यत्र । अव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १०७५ सू० वस्य डिद् एत्यु इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, अज्झीने परेण सयोध्ये अत्यु इति भवति । तत्र अव्ययपदमिदम् । १७७५ सू० अस्य डिद् एत्यु इत्यादेशे, जेत्थुवदेव सेस्यु इति भवति । अत्र । अव्ययपदमिदम् । १०७६ सूत्रस्य स्थाने डिद् एत्थु इत्यादेशे, तेत्थुवदेव एत्यु इति भवति । जगति । जगत्+डि । ११ सू० तकारलोपे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे जगि इति भवति । बाहुल्येनाऽत्र १७७ सू० गकारस्य लोपो न जातः । भण । भण [भण्] धातुः भणने । भण् +हि । ९१० सू० प्रकाराममे,६६२ सू हि इत्यस्य सु इत्यादेशे, ६६४ सू० सोलुंकि भण इति भवति । तदा । मध्ययपदमिदम् १०८ सु० तदा इत्यस्य तो इत्यादेशे तो इति भवति । तस्याः । तद्+इस् । ११ सू० दकारलोपे,स्त्रीवाद प्राप-(प्रा)-प्रत्यये,५ सू० दीर्घ-सन्धौ,१००१ स० आकारस्य प्रकारे,१०३० सू० इस स्थाने डहे (महे) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेोपे, पीने परेण संयोज्य तहे १००१ सू० एकारस्य इकारे जाते तहि इति भवति । साहक्ष्यम् । सादृश्य । १४२ सू० ऋकारस्य स्थाने रि इत्यादेश,३४८ सू० दकारस्थ लोपे,३४९ सू० यकारस्य लोपे,२७४ सू० क्षस्य खकारे, ३६० सू० सकारविस्त, ११ सू. पूर्वक्षकारस्य ककारे, १००२ सू०प्रकारस्म उकारे, १०१५ सू० सेलोपे सारिवधु इति
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२८२ भवति । यत्रजेत्यु, तत्र तेत्यु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्थ प्रवृत्तिर्जाता। सम्प्रति अत्तु इत्यादेशस्थोदाहरणवयं प्रदर्शयति वृत्तिकारो यथा-पत्र । अव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, प्रस्तुतसूत्रेण त्रस्थ स्थाने डिद् अत्तु इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये असु इति भवति । स्थितः . ष्ठा-[स्था]-धातुः गतिनिवृतौ । स्था+क्त-त। ६५७ सू० स्थाधातोः स्थाने ठा इत्यादेशे, १००० सू० प्राकारस्य प्रकारे, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, सिप्रत्यये, १११८ सू० भाषाव्यत्यये,९३१ सू० सकारस्य दकारे, १००३ सू० अकारस्य प्रोकारे, १०१५ सू० सेलोपे ठिको इति भवति । तत्र । अव्ययपदमिदम् । १०७५ सू० अस्य स्थाने डिद् अत्तु इत्यादेशे, अतु-वदेव सत्तु इति भवति । स्थितः । पूर्ववदेन विवो इति. साध्यम्।
*१०७६--कुत्राऽपि लात्वा शिक्षा, यत्रापि तत्राऽपि प्रत्र जगति केत्थु थि लेप्पिणु सिक्यु, जेत्यु वि तेत्यु वि एत्यु जगि, एतेषां पदानां प्रक्रिया १०७५ सूत्रे ज्ञेया । अत्र एत्थु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण त्रप्रत्ययस्य स्थाने डिद् एरथु इत्यादेशो विहितः । सापना स्वित्थम् अत्र । सम्पयपदमिदम् । १०७६ सू० त्रस्य स्थाने हिद् एत्थु इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे एत्यु इति भवति । 2003--- चाय नपसम्मित सिह-सपेटा-बढात्कारः।
ताबस्समस्तानां मदकलाना पने पदे बाधते ढक्का ॥१॥ भावार्थ:--पावत् कुम्भनदे-कुम्भस्य हस्तिमस्तकस्य Ar:-शरीरस्य अवयवानां संज्ञा, यथा-जघनतट कयतट: प्रस्ततप्रकरणे मस्तक-तटोग्राह्यः, तस्मिन सिंहचपेटा-चटारकार: सिंहस्य चपेटा, तज्जनितः चटाकार:-बनेरनकरण सिंहस्य भीषणः प्रहार इत्यर्थः । मनिपतति. तावत्समस्ताना मलानां. मदमत्तानां मजानाम-हस्तिनाम पदेपो प्रतिपदं वफा-महान पटहः वायते । अयं भाव:-अभिमानी तदेव वाचालो भवति यदा विद्वान मौनावलम्बी प्रवतिष्ठते ।
यापत । प्रध्ययपदमिदम। २४५ स०यकारस्य जकारे, १०७७ सू० वत् इत्यस्य मकारे जाम इति भवति ।। अव्ययपदमिदं संस्कृतसममेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । निपतति । मिपूर्वकः पल्लू [पत्]. घातुः निपतने । निपत्+तिव् । २३१ सू०पकारस्य वकारे, ९१० सू० प्रकारागमे, ८९० सू० तकारस्य डकारे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे निवा इति भवति । कम्मतटे ! कुम्भतट + डि.1 १७७ ६० तकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतो, १९५ सू० टकारस्य स्थाने डकारे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे कुम्भयति इति भवति । सिंह-चपेटा-चटारकारः । सिंह-चपेटा-घटात्कार+सि । २९ सू० अनुस्वारलोपे, ९२ सू० इकारस्य ईकारे, २३१ मू० पकारस्य वकारे, १९५. सूटकारस्य स्थाने डकार, ४ स. प्रथमाऽऽकारस्य प्रकारे, १०९३ सू० चटात्काराऽर्थ चडक्क-शब्दः प्रयुज्यते, १०१५ सू० सेर्लोपे सोह-मवेड-उपक इति भवति । तावत् । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेग वत् इत्यस्य स्थाने मकारे ताम इति भवति । समस्तानाम् । समस्त+माम् । ३४८ सू० संयुक्त सकारस्य लोपे, ३६० सू० तकारस्य द्वित्त्वे, १०१० सू० ग्रामः स्थाने है इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लापदे समत्त इति भवति । मरकलानाम् । मदकल+माम् । १७७ सू० कारलोपे, १८० सू० यकारश्रुती, १०६७ सू० ककारस्य गकारे, १०१० सू० प्रामः स्थाने ह इत्यादेशे मयगलाह इति भवति । पदे । पद+डि । १७७ सू० दकारलोपे, १००५ सू० जिना सह प्रकारस्य इकारे पह इति भवति । वायते । वद (बद्) सन्देशकथने। पद्+क्य+ते। संस्कृतनियमेन बाध+ते इति जाते,२९५ सू० अस्य जकारे,३६० सू० जकारस्थ द्वित्त्वे, ६४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ६२८ सू० से इत्यस्य स्थाने इचादेशे बज्जइ इति भवति । ढपका । लकाका सि। १००१ सू मांकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोपे उरक-इति भवति । तावत् = ताम, यावत्
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वतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * जाम इत्यत्र प्रस्तुत-सूत्रस्थ प्रवृत्तिर्जाता।
सिलामा सिलवं तावत्परं यावन्न स्नेहा: गलन्ति ।
स्मे हे प्रणष्टे से एक सिला:, तिला भ्रष्ट्वा खला भवन्ति ।।२।। भावार्थ:-स्वत्वसम्पन्नतव स्थितेः सम्मानकारण भवति, नि:स्वत्स्वानां बादशी दशा भवति तांतिलाऽन्योक्त्याह--तिलानां तिलस्वं तावद् भवति यावतं स्नेहा:-तेलानि न गलन्ति-न नश्यन्ति, परं-किन्तु स्नेहे-तंले प्रणटे सति ते एव तिला:-तिलवृक्षस्य बीजानि, तिला अशा-तिलत्वेन नष्वा खला: निस्साराः भवन्ति । सस्नेहः एव तिलः, तिल उच्यते, अन्यथा स एक तिलः खलत्वमुपयातीति भावः ।
तिलानाम् । तिल+माम् । इत्यत्र १०१० स० ग्रामः स्थाने हैं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे तिलह इति भवति । तिलस्वम् । तिलत्व+सि । ४२५ सू० त्वप्रत्ययस्य तण इत्यादेशे, १००२ सू० सकारस्थ उकारे, १०१५ सू० सेलोपे तिलसा इति भवति । सावत् । अव्ययपदमिदम् । १०७७ सु० वत् इत्यस्य स्थाने उं इत्यादेशे, १०८२ स० उच्चारणस्य लाये ता इति भवति । परम् । अव्ययपदमिदम् । १०८९ सू० परम् इत्यस्य स्थाने पर इत्यादेशे पर इति भवति । यावत् । मव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य जमा, हा- शह इति सब } पदमिदं संस्कृत-सममेवाऽनशे प्रयुज्यते । स्नेहाः । स्नेह+जस् । इत्यत्र ३४८ सू० सकारलोपे,१०१५ सू० जसो लोपे नेह इति भवति । गलन्ति । गल्-धातुः गलने । गल + प्रन्ति । ९१० सू० प्रकारस्यागमे, ६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे गलन्ति इति भवति । स्नेहे । स्नेह+द्धि । ३४८ सू० सकारलोपे, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य झारे मेहि इति भवति । प्रणष्टे । प्रणष्ट-+-डि । १०६९ सू० रेफलोये,३०५ सू० ष्टस्य स्थाने
कारे,३६० सू०. ठकारस्य द्विवे,३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे,११०० स० स्वार्थे अप्रत्यये,१००५ सू० डिना सह. प्रकारस्य इकारे पण इति भवति । ते ! तद्+जस्ते , इत्यस्य प्रक्रिया ५४७ सूत्रे शेया । एव । अव्ययपदमिदम् । १०९१ सू एवार्थे जि इत्यस्य प्रयोगे, ३६० स० जकारद्विरदेखि इति भवति । तिलाः । तिल+जस् । १०१५ जसो लोपे तिल इति भवति । भ्रष्टा । भ्रंशु-[भ्रंश्]-धातुः नाशे । भ्रंश् + क्स्वा । इत्यत्र ८४० स० भ्रश्धातो: स्थाने फिट इत्यादेश,१११० स० क्वः स्थाने अदि इत्यादेशे, १० सू०.स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये फिदृषि इति भवति । खलाः । खल+जस् । १०१५ सू० जसो लोपे सवाल इति भवति । भवन्ति होन्ति, प्रक्रिया ७३१ सूत्रे ज्ञेया । तावत्-ता, यावत् जाउँ इत्यत्र प्रस्तुत नस्य प्रवृत्तिर्जाता। पावः विषमा कार्यगतिः, जीवानां मध्ये एति।
तावद् प्रास्तामितरो जनः सुजनोऽप्यन्तरं ददाति ॥३॥ ::::. भावार्थ:--यावद-यदा जोवामा-प्राणिनां मध्ये-जीवनमध्ये कार्यगति:-कार्यसंचालनं,जीवनस्य निर्वाहः कर्मगतिर्वा विषमा एति-भवति, वैषम्यं भजते, तावन् तदा इतरो जन मास्ताम् तिष्ठतु, तस्य का चर्चा ?, किन्तु सुजनोऽपि-शिष्टजनोऽपि, अन्तरं ददाति-पृष्ठं ददाति । कर्मप्रतिकूलतायां दुःखवेलायां बान कोऽपि सहायको भवतीति भावः ।।
पावत् । अव्ययपदमिदम् । इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य जकारे, प्रस्तुतसूत्रेण वत्प्रत्ययस्य महिं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे जामहि इति भवति । विषमा विषमा+सि । २६० सू० पकारस्य सकारे, १००० सू० माकारस्य ईकारे, १०१५ सू० सेलोपे विसमी इति भवति । कार्यगतिः । कार्यगति+सिं१८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,२९५ सू० र्यस्य जकारे,३६० सू० जकारस्य द्वित्त्वे,१७७ सू० तकारस्य लोपे,सेलोपे कामगा इति भवति । जीवानाम् । जीवनमाम् । इत्यत्र १०१० सू० पामः स्थाने
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२८४ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुपादः हं इत्यादेशे, १०५२ स० उच्चारणस्य लाघवे जीवह इति भवति । मध्ये । मन डि । २९७ सू० ध्यस्य झकारे,३६० सू० झकारस्य द्विस्वे,३६१ स. पूर्वभकारस्म स्थाने महारे.१०० स० डिना सह अकारस्य एकारे माझे इति भवति । एति । इण-(इ)-धातुः गती-गमने । संस्कृतनियमेन एति इति जाते, १७७ सू० सकारस्थ लोपे ए इति भवति । तावत् । अध्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण वत्प्रत्ययस्य स्थाने महिं इत्यादेशे जामहि-वदेव सामहि इति भवति । आस्ताम् । पास (पास) उपवेशने । ८८६ स० सकारस्य स्थाने छकारे, ३६० सू० छका रहित्त्वे, ३६१ स. पूर्वकारस्य चकारे, ६६२ सू० हाम् इत्यस्य दु इत्यादेशे, १७७ सू० दकारलोपे अच्छउ इति भवति । इतरः। इतर+सि । १७७ सू० सकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुती १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे इयर इति भवति । जनः । जन+सि । २२८ सू० नकारस्य कारे, पूर्ववदेव जशु इति भवति । सुजनः । सुजन+सि । १७७ सू० जकारलोपे, पूर्ववदेव सुपशु इति भवति । प्रयि - वि, इत्यस्य प्रक्रिया ४५९ सूत्रे ज्ञेया । अन्तरम् । अन्तर+सि । १००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ स० सेलोपे प्रत इति भवति । बवाति । डुदा (दा) दाने। दा+तिन् । १००० सू० प्राकारस्य एकारे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इच् (इ) इत्यादेशे वे इति भवति । यावत् जामहि, सावत्-तामाह इत्या प्रस्तुतस्य सूत्रस्म प्रवृत्तिर्जाला
१०७८ "यावद् अन्तरं राम-राबरणओः, तावन्तरं पट्टानग्रामयोः"-अयं भावः-रामरावण यो:, रामश्च रावणश्च रामरावणौ,तयोः यावदन्तरं --पार्थक्यं विद्यते तावदेवाऽन्तर पट्टन-प्रामयोः-पट्टनच ग्रामश्च पट्टन-ग्रामी,तयोरन्तर नगर-ग्रामयोर्भवति । एतेषां पदानां साधना स्वित्थम्-यावद । यावद सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १०७७ स० वत्प्रत्ययस्य विकल्पेन डिद एवड इत्यादेशे, दिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपें, अमीने परेण संयोज्ये, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलोपे जेवर इति भवति । अन्तरम् अन्तरु, प्रक्रिया १०७७ सत्रस्य तृतीयश्लोके ज्ञेया। राम-रावणयोः । रामरावण+ प्रोस् । ६१९ सू० विववचनस्य बहुवचने, १०१० सू० प्राम: स्थाने हं इत्यादेशे, १०८२ तू० उच्चारणस्य लायवे राम-रावगहें इति भवति । सायद । तावद+सि । प्रस्तुतसूत्रेण वस्प्रत्यस्य स्थाने डेवड (एबई) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये. १००२ स० अकारस्थ उकारे, १०१५ सू० सोपे तेवडु इति माध्यम् । पट्टन-प्रामयोः । पट्टन-ग्राम+प्रोस् । २२८ सू० नकारस्य कारे, १०६१ सू० रेफस्य लोपे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, पूर्ववदेव पट्टणगामह इति भवति । पो । प्रस्तुतस्त्रस्य प्रवृत्यभावपक्ष इत्यर्थः । याषद् । यावद् +सि । २४५ स य कारस्य जकारे, वैकल्पिकरवात् प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृश्यभावः। प्रत्यय-ग्रहणे तदन्तस्थापि प्रहममिति परिभाषया डावतोरपि ग्रहणम्, ततः ११०६ सू० अतु-प्रत्ययस्य स्थाने डिद् एत्तल इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, मज्झीने परेण संयोज्ये, १००३ स. अकारस्य स्थाने प्रोकारे, १०१५ स० सेलोपे अससो इति भवति । तावद् । तावत् +सि । वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती, ११०६ १० प्रतु इत्यस्य प्रत्ययस्थ स्थाने हेतुल (एस्तुखी इत्यादेशे, डिति परेऽत्यस्वरादेलोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १००३ स० अकारस्य स्थाने प्रोकारे, १०१५ स० सिप्रत्ययस्थ लोपे तेसुलो इति भवति ।
१०७९-इयत् । यत् परिमाणमस्येति । इयद+सि । १०७९ स० यद् इत्यस्य स्थाने विकल्पेन जिद एवंड इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सिप्रत्ययस्य लोपे एबटु इति भवति । अन्तरम् । अन्तर+सि । १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलोप अन्तत इति भवति । किय । कि परिमाणमस्येति । कियत्+सि । प्रस्तुतसूत्रेण यत् इत्यस्य
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declalsaum
هاهاهاها وبعدها
قام عميح
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* संस्कृत-हिन्दी टोका-ट्टयोपेतम् * amacmanirna स्थाने विकल्पेन रिद एवड इत्यादेश, डिलि परेऽन्त्यस्बरादेलोप, अभीने परेग संयोज्ये, एवडु-बदेव के का इति भवति । पक्षे । प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्त्यभावपक्ष इत्यर्थः । इयत् । इदम् +तु इय् +अतु इति सस्कमियमेन जाते, ११०६ सू० असो स्थाने हेतुल (एतुल) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, सिप्रत्यये, १००३ सू० प्रकारस्य मोकारे, १०१५ सू० सेलोप एसुलो इति भवति । किमत् । किम् +अतु
किय + अतु इति सस्कृत-नियमेन जाते, ११०६ सू० सद् इत्यस्य स्थाने हेतुल [एत्तुल) इत्यादेयो, एसुनो-यदेव कर लो इति साध्यम् । मत्र वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुतस्य [१०७९] सूत्रस्य प्रवृत्त्यभावः । १०८०- मुदमाः हारिताः ये परिविष्टास्तेषाम् ।
परस्परं युध्यमानानां स्वामी पीडितो येषाम् ॥१॥ भावार्थ:-परस्परम-मिथो युध्यमानानां येषा-कलहकारिणां मनुजानां स्वामी पीडित:-दुखितो भवति, सेषां पुरुषाणां कृते ये मुगा:-धान्यविशेषा: परिविष्टा:-प्रदत्ताः सन्ति से हारिता:-व्यर्थीभूला एवं भवन्तीति शेयम् । कलहप्रियाणां नगणां भोजनादिना पोषणं भव्यर्थमेव भवतीति भावः ।।
है। तद् + जमते,प्रक्रिया ५१७ सूत्रे ज्ञेया। पृगाः । मुद्ग+जस् । ३४८ सू० दकारस्य लोपे, ३६० स० गकारद्विस्वे, ११०० स. स्वाथें डड-ग्रिडा-प्रत्यये. डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोप, अम्झीने परेण संयोज्ये, १००१ सु० अकारस्य स्थाने प्राकारे, १०१५ स० जसो लोपे मुगडा इति भवति । हारिताः । हा (ह) हरणे । हु+णिम् + क्त-त । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, ६३८ सू० णिग स्थाने प्राव इत्यादेशे, १० स० स्वरस्य लोपे, अजझीने परेण संयोज्ये, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, अस्-प्रत्यये,१००१ स० प्रकारस्य प्राकारे, जसो लोपेहराविमा इति भवत्ति । ये-जे,प्रक्रिया ५४७ सूत्रे शेया । परिविष्टा 1 परिवष्ट । जस । ३०५ स० टिस्य स्थाने ठकारे, ३६० सू० टकारस्य द्वित्त्वे, ३६१स.पूचटकास्य स्थाने कारे, १००१स प्रकारस्य स्थाने प्राकार,१०१५ स० जसो लोपे परिविट्ठा इति भवति । तेषाम् । तद+पाम् । ११ सू० दक रस्य लोपे, १००१ सू० प्रकारस्य स्थाने भाकारे, १०१० स० प्रामः स्थाने हे प्रत्यादेशे ताह इति भवति । परस्परम् । परस्पर+अम् । १०८० सू० परस्परसदस्य प्रादो प्रकारस्य प्रयोगे, २३१ स० प्रथम-कारस्य वकारे, ६२ सू० प्रथमरेफस्याकारस्थ प्रोकारे, ३४८ स. का लोऐ.३६३ सू० पकारद्विस्वे, बाहुल्येन ४ सूत्रस्याऽप्रवृत्ती. १००२ सू० अकारस्थ उकारे,१०१५ सप्रम.प्रत्ययस्य लोपं अधरोप्पर इति भवति। युध्यमानामाम् । युधधातुः संप्रहार। युथ्न प्रानश् । अपभ्रंशे १०६६ स० युध-धातोः स्थाने जोन इत्यस्य प्रयोगे,६७० स० पानशा स्थान न्त इत्यादेशे, प्राम्-प्रत्यये, १००१ स० अकारस्य प्राकारे, १०१० सू० प्राम: स्थाने हं इत्यादेशे जोयन्ताहं इति भवलि । स्वामी । स्वामिन सि । ३५० स० सकारस्य लोपे, ११२० नकारस्य लोपे, ४३५ स० स्वा प्रत्यये, १७७ सू० ककारलोपे, १००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलोपे सामिउ इति भवति । पोजिसः । पोडित+सि । १०९३ स. पीडितार्थे गज्जिनशब्दः प्रयुज्यते,१००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे, सेलोंपे गजित इति भवति । येषाम् । यद् प्राम् । २४५ स० यकारस्थ जकारे, ११ सू. दकारस्य लोपे, १००१ सू० प्रकारस्थ प्राकारे, १०१० स० ग्रामः स्थान हूँ इत्यादेशे जाहं. इति भवति । परस्परम् अवरोप्पर इत्यत्र प्रस्तुलसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१०८१-उच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति । एकारस्य, प्रोकारस्य च दीर्घत्व सर्वे याकरणा मवगच्छन्त्येव, परन्तु अपभ्रंशभाषायां कादि-व्यजनेषु ये एकारा:, प्रोकारा स्थिताः भवन्ति, तेषामुच्चारणं लघु हिस्वः] जायते । यथा--सुखेन चिम्स्यते मानः-सुघे चिन्सिज्जा मारण, प्रक्रिया १०६७
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فيه مية مية مية مية مية و ميوه به
من به شی یه وه وه يه ميه ميه ميه ميه هو
..* प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्षपादा सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । सुघे" इत्यत्र सुख+साइत स्थिते, १०६७ सू० कार कारे, '१०३३ सु० दास्थानेऽमुस्वारे, स्थानियत्त्वात् १००४ सू० प्रकारस्प एकारे, १०८१ सू० एकारस्थोच्चारणस्य लाधवे सुधे इति भवति । तस्याहं कलियुगे बुर्लभस्य- तसु हाउँ कलिजुगि दुल्लहहों. प्रक्रिया १००१ सूत्रे ज्ञेया । दुल्लहहो" इत्यत्र १०५१ सूत्रेग मोकारस्योच्चारणस्य लाधवं जातम् ।
१०५२-उरुवारणस्य लाधवं प्रायो भवति । यस्योच्चारणे जिह्वानोपाय+-मध्य-मूलानां शैथिल्यं जायते,तल्लधूच्चारणम् । अनुस्वारस्योच्चारण गुरु भवति, परन्तु प्रस्तुतसूत्रेणाऽनुस्वारस्याऽनुनासिकरव विधीयते । अनुनासिकोच्चारणस्य लाघवं सर्वप्रसिद्धमेव । यथा--अन्यद् यसुधकं तस्याः धन्यायान्नु जु तुच्छउँ तहे धणहे, प्रक्रिया १०२१ सूत्रे शेया.! तुच्छकम् = तुभ्यः इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। मलिकिये सुजनस्य बलि किज्जउ सुअणस्सु, ऐषां पदानां प्रक्रिया १००१ सूत्रे ज्ञेया । बलि क्रिये-बलि किज्जा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता दबं घटयति घने लकाम् = दइउ घडावइ वणि तरुहुँ, प्रक्रिया १०११ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। देवम् । देव+सि । इत्यत्र १५३ सू० ऐकारस्य अइ इत्यादेशे, १७७ सू. बकारलोपे.१००२ सू प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे बाज इति भवति । तरूणाम् तर इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्थ प्रवृत्तिर्जाता । सरुभ्योऽपि वल्कलम् - तरु? वि वकालु, प्रक्रिया १०१२ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । तसम्यः या तरुहुँ इत्यत्र प्रस्तुतुसूत्रस्य प्रवृत्तांता । वदविसाधितं यस्मिन् लभामहे खरगविसाहिउ जहिं लहहुं,प्रक्रिया १०५७ सूत्र ज्ञेया । यस्मिन् = अहिं इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेणोच्चारणस्य लाघवं जातं, किन्तु प्रस्तुतसूत्रे प्रायोऽधिकारात् लहह इत्यत्र उच्चारणस्य लाघवं न जातम् । तृणानां तृतीया भगी मावि तणहं तइज्जी भङ्गिन वि, प्रक्रिया १०१० सूत्रे ज्ञेया। तृणानाम् तणहें इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । उक्तेषु प्रयोगेषु यथास्थानं प्रस्तुतसूत्रेण विहितमुच्चारणस्य लाधवं दृश्यते । : :
१००३-संस्कृले तबसंभवात् । म्ह इत्यस्य संस्कृतभाषायामुपयोगो न भवत्यतः ३४५ सूत्रेण पमशब्द-सबन्धिन: संयुक्तस्य, इम-म-स्म-मां स्थाने विहितो यो म्ह इत्यादेशस्तस्यैवात्र ग्रहणं भवति, तेन म्ह इत्यस्य स्थाने म्भ इत्यादेशो जायते इत्युक्तम् । यथा-प्रीष्मः । ग्रीष्म+सि । १०६९ सू० रेफस्य लोपे, ८४ सूत्रेण संयोगे परे हस्वे, ३४५ सु० उमस्य स्थाने म्ह इत्यादेशे, १०८३ सू० म्हस्य स्थाने म्भ इत्यादेशे, १००३ स० अकारस्य मोकारे, १०१५ सू० सेलोपे गिम्भो इति भवति । श्लेष्मा । श्लेष्मन् +सि । ३५० स० लकारलोपे, २६० सू० सकारस्य स्थाने सकारे, ५४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ३४५ स. इमस्य म्हादेशे, पूर्ववदेव सिम्भो इति भवति । निम्रोक्तश्लोकेऽन्यदुदाहरणं प्रदीयते । यथा---
ब्रह्मन् ! ते विरलाः केऽपि नराः ये सर्वाङ्गछेकाः ।
ये वकाः ते वचकतराः, ये ऋजवस्ते बलीवाः ॥१॥ भावार्थ:-हे ब्राह्मन् !, हे विधातः !, ते केऽपि नराः बिरला:-स्वल्पाः वर्तन्ते थे सर्वागछेकाः, सर्वाणि च तान्यङ्गानि सर्वाङ्गाणि-सर्वकार्याणि तेषु, छेकाः-दक्षाः, हेयोपादेयविवेककुशलाः नरा: अल्पीयांस एवं सन्ति, यतोहि ये वक्राः-सरलेतराः, ते वचकतरा:-प्रतिशयेन धूर्ताः भवन्ति । ये च पुनः ऋज-सरलाः सन्ति ते खलु बलीयः- वृषभतुल्याः, मूर्खाः भवन्तीति भावः ।
ब्रह्मन् ! । ब्रह्मन् + मि । अत्र बाहुल्येन २३७ सू० बकारस्य वकारे, १०६९ सू० रेफलोपे, ३४५ सू० ह्मस्य स्थाने म्ह इत्यानेशे. १०५३ सू० म्हस्थ स्थाने म्भ इत्यादेशे, ११ सू० नकारलोपे, १०१५ सू० सेर्लोपे धम्भ ! इति भवति । ते । तद+जस्ते , प्रक्रिया ५४७ सूत्रे ज्ञेया। विरलाः । विरल+जस् । *उपानम-मसभागस्य समीपवर्ती भागः ।
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चतुर्थपादः
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* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * १००१ सू० प्रकारस्य स्थाने प्राकारे,१०१५ सूत जसो लोपे विरला इति भवति । के-के, प्रक्रिया ५४७ सूत्रे ज्ञेया। अपि-वि, प्रक्रिया ४५९ सूत्रे ज्ञेया। नरा: 1 मर+जस् । इत्यत्र १०१५ सू० जसो लोपे नर इति भवति । ये-जे, प्रक्रिया ५४७ सूत्रे ज्ञेया । सर्वाङ्गछेकाः । सर्वाङ्गछेक+जस् । १०६९ सू० रेफलोपे,३६० सू० वकारस्य द्विस्वे, ८४ सूत्रेण संयोगे परे ह्रस्वे, १०९३ सू० छेकाऽर्थे छल्लशब्दः प्रयुज्यते, १०१५ सू० जसो सो सम्बन-छाल इति भवति । बकाः । वक्र+जस्। २६ सू० प्रथमस्त्र रस्याग्नुस्वारागमे,३० सू० अनुस्वारस्य वर्गाऽन्त्ये वर्णे,१०६९ सू० रेफस्य लोफे.१००१ सू० प्रकारस्य प्रकारे,१०१५ सू० जसो लोपे वङ्का इति भवति । पाकतराः । वञ्चकतर+जस् । १७७ सू० ककारस्य लोपे,बाहुल्थेन १८० सू० यकारस्य श्रुत्यभावे [वाच ---+तर+लस्, १० सू० स्वरस्य लोपे,अज्झीने परेण संयोज्ये, १७७ सू० तकारस्य लोपे,१८० सू० यकारस्य श्रुती,जसो लोपे वञ्चयर इति भवति । ऋजयः । ऋजु+ अस् । १३१ सू० कारस्थ उकारे, ३७० सू. जकारस्य द्वित्थे, ११०० सू० स्वार्थे अ-प्रत्यये, जसो लोपे उज्नुअ इति भवति । ते । तद् + जस्=ते, प्रक्रिया ५४७ सूत्रे शेया । १०५१ सूत्रेण उच्चारणस्य लाघवे से इति भवति । बलीवः । बलीवर्द। जस् । ४४५ सू० बलीबर्दस्य बल्ल इति निपातिते, १०१५ सू० जसो लोपे बल्ल इति भवति । ब्रह्मान ! - घम्भ | इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१०४-अन्यादृशः । अन्यादृश+सि । १०८४ सू० मन्यादृशस्य शब्दस्य अन्नाइस, अब इस इत्यादेशी, १००३ सू० प्रकारस्य मोकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे अन्नाइसो, भवराइसो इति भवति । १०८५--- अश्ये ते वीर्धे सोचने, पम्य तद् भुमयुगलम् ।
अन्यः स धन-स्तन-भारः, तवायवेव मुखकमलम् ।। अन्यः स केशाकलापः, सोज्य एवं प्रायो विषिः ।
येन नितम्बिनी घटिता सा गुण-लावण्य-निधिः ।।१।। भावार्थ:-कस्याश्चन नायिकायाः लावण्यं सौन्दर्यातिशयश्च निरूप्यते---ते शीर्ष-लम्बायमाने सोचने-नेत्रे, अन्ये -विलक्षणे, अनुपमे एव ज्ञेये । तद् भुजपुगलम्-भुजयोः युगलमन्यदेव-अपूर्वमेव, स धमस्तनभारः, घनौ-अशिथिली च तो स्तनो-कुनी, तयोः भारः, अन्य:-अद्भुत इति यावत् । तमुखकमलं, मुर्ख कमलमिव मुखकमलम्, तबन्यदेव, स केशकलापा, केशानां-कचानां कलापः अन्य एव, एतसर्व विलक्षमेतस्याः इति यावत् । प्रायः स विधि-विधाता अन्यः विलक्षण एवं प्रतिभाति, येन सा मितम्बिनी-प्रशस्तनितम्बवती [नितम्बप्रशस्त्ये इनिः] काचित् परमसुन्दरो-परमलावण्यमयी नायिका घटिता-निर्मिता । किम्भूता सामायिका ? गुणलावयनिधिः, गुणाश्च लावण्य च तेषां समाहारः, गुणलावण्यम्, तस्य निधि -भण्डारः गुण-लावण्य-निधिः । सहिष्णुता, कार्यकुशलता इत्यादयो गुणाः ज्ञेया ! लावण्यश्च मङ्गोपाङ्गानां सौन्दर्य बोध्यम् ।।
अन्ये । अन्यद्+श्री । ३४९ सू० यकारस्य लोपे, ३६० सू० नकारद्वित्त्वे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, ५४७ सू० जसः स्थाने डित् एत् (ए) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये अन्ने इति भवति । ते । तद्-+ो । ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, अन्न-वदेव ते इति साध्यम् । सी । दीर्थ+ो । इत्यत्र ३५० सू० रेफलोपे,३६३ सू० धकारस्य द्वित्त्वनिषेधे, १८७ सू० कारस्थ स्थाने हकारे,४४२ सू० स्वार्थे रेफस्याऽगमे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१५ सू० जसो लोपे दोहर इति भवति । सोचने । लोचन+यो । इत्यत्र १५७ सू० चकारलोपे, २२८ सू० नकारस्य एकार, द्विवचनस्य बहुवचने, जसो लोपे लोअण इति भवति । अन्यत् । अन्यद्+सि । ३४९ सू० यकारस्य लोपे, ३६० सू०
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२८०
★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुथपादा नकारद्वित्वे, ११ सू० दकारस्य लोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे १०१५ सू० सेल धन्तु इति भ वति । एवमेव अन्यः । अन्यद् + सिन्तु इति साध्यम् । तद् । तद् + इ बाहुल्येन २४ सू... करारस्य स्थाने मकारे, २३ सू० मकारानुस्वारे, १०१५ सू० सेलोंपेल इति भवति । भुजयुगलम् । भुजयुगल + सि । १७७ सू० जकारलोपे, ११ सूत्रमनुसृत्य वाक्यापेक्षया पदस्याविभूतवात् २४५ सूत्रेण यकारस्य स्थाने जकारे, १७७ सू० गकारलोपे १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, सेर्लोपे शुभजुअल इति भवति । सः । तद्+सि । ५७५ सू० तकारस्य सकारे, ११ सू० दकारलोपे १००२ सू० अकारस्य उ कारे, सेर्लोपे सु इति भवति । घन स्तन भारः । घन स्तन भार+मि । २२८ सू० उभयत्रापि नकारस्य कारे, ३१६ सू० स्तस्य थकारे, ११ सूत्रमनुसृत्य र वाक्यावेक्षया यकाराऽऽदेशस्य पदाऽऽदिभूतत्वात् ३६० सू० थकार द्विस्वाऽभावे, १८७ सू० भकारस्य हकारे, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलोपे घर-थ-हार इति भवति । एव । श्रव्ययपदमिदम् । १०९१ सू० एवार्थे जि इत्यय प्रयोगे जि इति भवति । मुखकमलम् । मुखकमल +सि । १८७ सू० खकारस्य हकार, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे मुहकमलु इति भवति । केशकलापः । केशकलाप +सि । २६० सू० शकारस्य सकारे, २३१ सू० पकारस्य वकारे, पूर्ववदेव सकला इति भवति । प्रायः । श्रव्ययपदमिदम् । १०८५ सू० प्रायः इत्यस्य प्राउ इत्यादेिशे प्राउ इति भवति । विधिः । विधि+सि । १८७ सू० धकारस्य स्थाने हैकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे ब्रिहि इति भवति । येन यद्+टा । इत्यत्र २४५ सू० वकारस्य स्थाने ज कारे, ११ सू० दकारलोपे, १०१३ सू० टास्थाने नकारे स्थानिवत्त्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे जेr इति भवति । नितम्बिनी । नितम्बिनी + सि । २२९ सू० नकारस्य स्थाने नकारे १७७ सू० त कारलोपे, २२० सू० नकारस्य सकारे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, सेलोपे निम्बिणि इति भवति । घडिता । १९५ सू० टकारस्य स्थाने डकारे १७७ सू० तकारस्य लोपे १००१ सू० ग्राकारस्य स्थाने re, off इति भवति । सा । तद्+सि । ५७५ सू० तकारस्य सकारे, ११ सू० दकारलोपे, स्त्रीवाद प्राप- (प्रा)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घ सन्धी, १००१ सू० ग्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे स इति भवति । गुण-लावण्य-निधिः । गुण-लावण्य-निधि+सि । १७७ सू० वकारस्य लोपे, ३४९ सू० थकारस्य लोपे ३६० सू० णकारस्य द्वित्त्वे, २२० सू० नकारस्य स्थाने नकारे १८५७ सू० धकारस्य स्थाने हुकारे १०१५ सू० सेलो गुण लावण्ण- णिहि इति भवति । प्रायः प्राउ इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता | प्रायः मुनीनामपि भ्रान्तिः तेन मणिकान् गणयन्ति ।
अक्षये निरामये परमपये अद्यापि लयं न लभन्ते || २ ||
भावार्थ:- प्रायो मुनीनामपि तपश्चरण-परायणानामपि भ्रान्तिर्वर्तते, तेन -- प्रतएव ते मुनयः मणिका - भाला संलग्नान् मणीन् गणयन्ति - जपन्ति । यद् अद्यापि ते अक्षये, न क्षयो यस्य सः, तस्मिन् मिरामये, श्रामयाद् — उत्पादविनाशाभ्यां निर्गतः सः तस्मिन् परमपदे, परमं च तत्पदं - मोक्षः तस्मिन्, लयं - तल्लीनतां न लभते । केवलं बाह्याडम्बरेण न किमपि हस्तगतं भवति, परन्तु शुद्धमनसा सहैव विहितं जापादिकं सफलं जायत इति भावः ।
१.
११ सूत्रे मासे सुवाक्यविश्रयपेक्षायाम् अन्त्यत्वम् धनस्यत्वं व" इत्युक्तम्। तेन वाक्यापेक्षया पदसमूहो तदपेक्षया पदस्य प्राविभूतत्वात् यकारस्य कारो जातः ।
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११ सूत्रे "समासावस्थायां वाक्यापेक्षया विभक्त्यपेक्षया च अन्त्यश्वम्, अनरस्यत्यच भवति" इत्युक्तम् पानवापेक्षया प्रकारादेवस्य प्रादिवाद ३६० सूत्र प्रकारस्य द्विश्वं न बाधम् ।
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चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीका-इयोपेतम् *
२८९ प्रायः । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण प्रायः इत्यस्य प्राइव इत्यादेशे प्राइव इति भवति । मुनीमाम् । मुनि+भाम् । २२८ स. नकारस्य णकारे, १०१० स० प्राम: स्थाने है इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे मणिह इति भवति । अधि-विप्रकिया ४८५ सूत्रे ज्ञेया । भ्रान्ति' । भ्रान्तिन-सि । १०६९ सू० रेफस्य लोपे, ५४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,११०० सू० स्थार्थे डड-(गड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, स्त्रीत्वविवक्षायां ११०२ सू० डी-(ई)-प्रत्यये, द्धिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेलोपे भन्तली इति भवति । लेन ! तद+टा। ११ सू० दकारस्य लोपे, १०१३ साटास्थानेऽनस्वारे, अनुस्वारस्थ स्थानिवस्वात् १००४ स० प्रकारस्थ एकार से इति भवति । मणिकान् । मणिक+शस् । ११०० सू० स्वार्थे डड-(प्रड)-प्रत्यये, क-प्रत्ययस्य च लोपे, बाहल्येन डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपाभावे, १००१ स० प्रकारस्य आकारे, १०१५ सू० शसो लोपेमरिणका इति भवति । गायन्ति । गण [मण] गणनाथाम । गण+णिग+ अन्ति । ६३८ सू० णिय प्रकारे, बाहल्येन ६४२ सः प्रादेरकारस्य दीघाभावे, ६३१स० अन्ते: स्थाने न्ति इत्यादेश गणन्ति इति सिद्धम् । प्रक्षये । अक्षय+छि। २७४ सू० क्षस्य स्थाने खकारे, ११ सूत्रमनुसृत्य *बाक्य स्पेक्षया खकारादेशस्य पदादिभूतत्वात् ३६० स० खकारस्य द्वित्त्वाऽभावे, १७७ स० यकारलोपे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे अखः इति भवति । निरामये । निरामय+जि । १७७ सू० यकारलोपे, पूर्ववदेव निरामइ इति भवति । परमपदै । परमपद+ङि । १७७ स० दकारलो, पूर्ववदेव परम-पई इति भवति । अब । अव्यय-पदमिदम् । २१५ स० अस्य जकारे, ३६० स० अकारस्य द्वित्वे अज्ज इति भवति । लयम् । लय+मम् । १७७ स० यकारलोपे, १००२ सू. अकारस्य उकारे, १०१५. सू० अमा लोपे ल ! इति भवति । न । अध्ययपदमिदं संस्कृतसममेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । लभन्ले । मुलभष [ल] लाभ । लभ् +अन्ते । ९१० सू० प्रकारागमे, १८७ सूक भकारस्य हकारे, ६३१ सू० अन्ते इत्यस्य न्ति इत्यादेशे लहन्ति इति भवति । प्रायः-प्राइव इत्यत्र प्रस्तुत-सूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
अनुजलेन प्रायः गोव्याः सखि ! उसे नयनसरसो।
ते संमखे सम्प्रेषिले दत्तः तिथंग घात परम् ॥३॥ भावार्थ:-हे सखि ! पतिषियोगात् समुद्भूतेन गौग्या:-सुन्दरीनायिकाया: अनुजलेन, प्रभुरूपं जलं, तेन मममसरसी नयने एवं सरसी-तडागी, चवसे-उच्छलिते, ते नयन सरसी कस्वचित पुरुषस्य सम्मुखं सम्प्रेषिते तिर्यक् यथा स्यात्तथा व्यापारिते पर विलक्षणं घात हननस्वरूपं दुःखं वत्तः । पति-विरह-जन्यदुःखेन व्याता काचिन्नायिका अश्रुपूर्ण-नयनाम्यामपि यदि कश्चित् पुरुषं तियंग-दृष्ट्या, कामपूर्णदृष्ट्या समवलोकते सदाऽसौ दृष्टः पुरुषः कामवासनाजन्यां मह्ती वेदनामनुभवति । कामकाया अश्रुपूर्णनयनयोरपि वका दृष्टि: भयंकरा भवतीति भावः ।
अबुजलेन । मजल-+दा ! २६ स. प्रश्रमस्वराऽन्तेऽनुस्वारागमे, २६० स० शकारस्य सकारे, १०६९ सू० रेफलोपे, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवत्त्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे अंसुजाले इति भवति । प्रायः। अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतस्त्रेण प्रायः इत्यव्ययस्थ स्थाने प्राइम्ब इति प्रयुज्यते। पौर्याः । गौरी+छस् । १५९ सू० श्रीकारस्य प्रोकारे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, ११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये, १०२१ सू. हुसः स्थाने हे इत्यादेशे गोरिअहे इति भवति । सखि!- सहि !, प्रक्रिया १००३ सूत्रस्य प्रथ श्लोक ज्ञया । उडुस । उबृत्त+ो। ३४६ सू० दकारस्य लोपे, ३६० सू. वकारस्य १०६५ सूत्रमा प्रथमालोकस्य माध्यायाः टिप्पणी समवलोकमाया।
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२९० * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः द्विस्वे, १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, ६१९ स० द्विवचनस्य बहुवचने, १००१ सू० अकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० जसरे लोपे उधता इति भवति । नयनसरसी। नयनसरस+श्री। वैकल्पिकल्बाद २२९ सूत्रेण प्रादिमस्य नकारस्य णकाराभावे, २२८ सू० द्वितीय-कारस्य णकारे, ११ सू० सकारलोपे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१५ सू० असो लोपे मयणसर इति भवति । ते । सद्+ो । ६११ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, ११ सू० दकारलोपे, १०२४ सू. जसः स्थाने इं इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण सयोज्ये, १००० सू० इकारस्य एकारे ते इति भवति । संमुखे। सेमुख+ौ। १८७ सू० खकारस्य हकारे, द्विवचनस्य बहुबचने, जसो लोये संमुह इति भवति । संप्रेषिते । संप्रेषित+ो । २०६९ सू० रेफलोपे, २६० सू०पकारस्य स्थाने सकारे, १७७ सू० तकारलोपे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १००१ सू० प्रकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० जसो लोपे संपेसिया इति भवति । वप्तः । अदाञ् [दादाने । दा+तस् । १००० सू० नाकारस्य एकारे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, ६३१ सू० प्रातः स्थाने ति इत्यादेशे बेन्ति इति भवति। तिर्थक । क्रियाविशेषणमिदम लियका प्रम् । ४१४ सतिर्यच-शब्दस्य तिरिच्छि इत्यादेशे, १००१ स० अन्त्यस्य इकारस्य ईकारे, १०१५ सू० प्रमो लाप सिरिन्छी इति भवति। धातम् । धातमम् । ३७० स० तकारद्विस्वे, ८४स. संयोगे परे ह्रस्वे, ममा लोपे घर इति भवति । परम् । अध्ययपदमिदम् । १०८९ सू० परम् इत्यस्य पर इत्यादेशे पर इति भवति । प्रायः प्राइम्स इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाला ।
एज्यति प्रियः रोषिष्याम्यहं कष्टी मामनुनयति ।
प्रायः एतान मनोरयान बुकरान वयिता करोति ।।४।। भावार्थ:-काचन सगर्वा नायिका प्राह---यदा मम प्रियः कान्तः, एज्यति गमिष्यति, तबाह रोषिष्यामि हष्टा भविष्यामि । यतोऽसी मम प्रियः कान्तः इष्टा सरोषां मामनुभमति-अनुकूला कर्तु प्रार्थयिष्यति । प्रायः वमिता-नायिका एतान् बुष्करान कठिनान् पूर्वोक्तमनोरथान् करोति । प्रियवल्लभा नार्यः प्रायः प्रणय-प्रकोपविषयकं चिन्तनं कुर्वन्तीति भावः।।
एष्यति । इण-(ह)-धातुः गती। संस्कृतनियमेन ए-+स्य-तिब् इति जाते, १०५९ सू० स्पस्य स्थाने सकारे,६२८ सूतियः स्थाने इचादेशे एस+६ इति जाते,१० स० स्वरस्य लोपे, सम्झीने परेण संयोज्ये, १००० सू० इकारस्य ईकारे एसो इति भवति । प्रियः । प्रिय+सि । १०६५ सु० रेफस्य लोपे, १७७ सयकारलोपे,१००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे,१०१५ स० सेर्लोपे पित इति भवति । रोषिध्यामि । रु रोपे । रुप + स्य+स्यामि । इत्यत्र ९०७ सू० उकारस्य स्थाने ऊकारे, २६० स० षकारस्य सकारे,९१० सूअकारागमे,६४६ सू० अकारस्थ एकारे,१०५६ स० स्यामि इत्यस्य स्थाने सं इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे,मज्झीने परेण संयोज्ये,बाहुल्येन अनुस्वारस्य लोपेसेसु इति भवति । अहम् - हप्रक्रिया १०११ सूत्रस्य द्वितीय-इलोके ज्ञेया । रुष्टाम् । रुष्टा-नसम् । ३०५ सू०ष्टस्य स्थाने ठकारे, ३६० सू० ठकारद्विवे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे,१००० सू० प्राकारस्य ईकारे, १०१५ सू० अमो लोपे सही इति भवति । माम् । अस्मद्+प्रम् । १०४८ सू० मा सह अस्मदः स्थाने मइँ इत्यादेशे मई इति भवति । अनुनयति । अनुपूर्वक: जीन्-(नी)-धातुः अनुनयने । अनुनी+तिन् । २२८ सू० उभयत्राऽपि नकारस्य णकारे, ९०८ सू० ईकारस्य एकारे, ६२८ सू० तित्र इचादेशे अपुरणेइ इति सिद्धम् । प्रामः। पव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण प्रायस् इत्यस्य पग्यिम्य इत्यादेशे परिगम्य इति भवति । एताम् । एतद्+शसएइ, प्रक्रिया १०३४ सूत्रे शेया | मनोरथान् । मनोरथ+शस् । २२८ सू० नकारस्य - कारे, १८७ सू० पकारस्य हकारे, ३४ सू० क्लोबत्वे, १०२४ सू० शसः स्थाने इं इत्यादेशे मणोरहाई इति
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चतुर्यपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टीकास्योपेतम् ★ भवति । बुष्करान् । दुष्कर+शस् । ३४८ सू० षकारलोपे, ३६० सू० ककारद्वित्त्वे, १००२ सू० प्रका'रस्य उकारे,१०१५ सू० शसो लोपे दुक्का इति भवति । यमिता। पिता+सि । १७७ सू० यकारस्य सकारस्य च लोपे, १००० सू० प्राकारस्य प्रकारे, १००२ स० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि बइउ इति भवति । करोति । कुकृञ् कृ] करणे । कति । ९०५ स० ऋकारस्य पर इत्यादेशे. ६४७ सू० द्वितीयाकारस्य एकारे,६२८ स० तिव इचादेशे करे इति भवति । प्रायः पम्पिम्य इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तितिा।
१०९६-विरहानल-ज्याला-मरालितः, पथिकः कोऽपि मरवा स्थितः ।
____ अन्यया शिशिरकाले शीतल अलाद धूमः कुतः उत्थितः ॥१॥
भावार्थ:--जले धूम प्रेक्ष्य कश्चित् पुरुषः प्राह-विरहानल-ज्वाला-करालितः, कान्तायाः विरहा-वियोगः, तजनितोऽनलः बन्दिः तस्य नाला, तया करालितः-पीडितः दग्ध इव इति यावत् । एतादृशः कोऽपि कश्चित् पथिकः जले मइक्रवा-निमध्य स्थितोऽस्ति, अन्यथा शिशिरकाले, शिशिरस्य शीतोंः कालः तस्मिन्, शीतल जलात्, शीतलं च तज्जलं तस्मात् कुतः कथं धूमः उस्थितः ।
विरहानल-ज्वाला-करालितः । विरहानल-ज्वाला-करालित+सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, ३५० सू० संयुक्त-वकारलोपे, ४.स. लकारस्थाsकारस्य प्रकारे, १७७ १० तकारलोपे, ११०० सू. स्वार्थ अप्रत्यये,१००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे,१०१५ सू० सेलोये विरहारपल-जाल-बरालिअउ इति भवति । पथिकः । पथिक+सि 1१७ स० यकारस्य हकारे,१७७ सू० ककारलोपे,१००२ सू० अकारस्य उकारे,सेलोपे पहिड इति भवति । कः 1 किम्+सि। इत्यत्र ५६० सू० किमः स्थाने क इत्यादेश,१००३ सूअकारस्य मोकारे, सेर्लोपे को इति भवति । अपि-वि, प्रकिया ४८१ सूत्रे शेया । मकवा । टुमस्जू [मस्] विशुद्धौ । मस्ज्+क्त्वा । ७७२ सू० मस्धातोः स्थाने बुड्ड इत्यादेशे, १११० सू० क्त्वः स्याने इदि इत्यादेशे,१० स० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये बुडिधि इति भवति । स्थितः । ष्ठा[स्था] गतिलिवृत्ती । स्था+क्त--स । ६८७ सू० स्थाधातोःस्थाने ठा इत्यादेशे,१००० सू० आकारस्य प्रकारे, ६४५ सूत्रेण प्रकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, ११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, सिप्रत्यये, १७१५ सू० सेलोपे ठिाउ इति भवति । अन्यथा । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण पन्यथाशब्दस्य विकल्पेन अनु इत्यादेशे अनु इलि भवति । शिविरकाले । शिशिरकाल+लि १२६० सू० उभयत्रापि कारस्य सकारे, १००५ स० छिना सह अकारस्य इकारे सिसिरकालि इति भवति । शीसलमसात् । शीतलाल+सि । २६० स० शकारस्य सकारे, १५७ सू० तकारलोपे, १००१७ सू० उसेः स्थाने ड इत्यादेशे सोअलमलाहु इति भवति । धूमः । धूम+सि । १००२ सू अकारस्य उकारे, सेलोपे धूमु इति भवति । कुतः । अध्ययपमिदम् । १७८७ सू० कुतः इत्यस्य स्थाने कहन्तिहु इत्यादेशे कहान्ति इति भवति । उस्थितः । उत्पूर्वक: स्थाधातुः उत्थाने । उद्स्था+क्त-त । ३४८ सू० दकारलोपे ६८७ सू० स्थाधातोः स्थाने ठा इत्यादेशे,३६० सू० ठकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे, १००० सू० प्राकारस्य प्रकारे,६४५ सू० अकारस्य इकारे, १७७ स० तकारलो, ११०० स० स्वार्थ प्र. प्रत्यये, सि-प्रत्यये,१००२ स० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे उद्विअउ इति भवति । अन्यथा-- अनु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य वैकल्पिका प्रवृत्तिर्जाता। पक्षे। प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्यभावपक्ष इत्यर्थः । अ. भ्यथा । इत्यत्र ३४८ सू० यकारलोपे,३६० सू० नकार द्विवे,१५७ सू० धकारस्य हकारे, १००० सूत्रेण माकारस्य प्रकारे मन्नह इति भवति । अथ वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिनं जाता।
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुषंपादा १०८७- मम कान्तस्य गोष्ठस्थितस्य कुतः कुटीरकारिग बलन्ति ।
अथ रिपुरुधिरेण विध्यापयलि, अथाऽऽत्मना न प्रान्तिः ॥१३॥ भावार्थ:-गोष्ठस्थितस्य-गोशालायां स्थितस्य-विराजितस्य मम कान्तस्य कुटीरकारिण-गृहाणि कथं वलम्ति ?-उबलन्ति? मम कान्तस्याऽवस्थितावपि गृहाणि ज्वलन्तीति महदाश्चर्यम् । अथ अथवा यदीमानि कुटीरकाणि केनित् माग्दुमा ज्वालिनानि तदा रगतम तिपुचिरेण रिपोः-शत्रोः रुधिरेण तानि कुटीरकारिण विध्यापयति-विध्यापयिष्पति-शयिष्यतीति यावत् । प्रथ-अथवा यदीमानि कारगान्तरेण स्वयमेव ज्वलन्ति तदात्मना-स्वयमेव कस्याऽपि साहाय्य विनय मम कान्तः तानि कुटीरकाणि विध्यापयिष्यति, ना भ्रान्ति:-सन्देहः कर्तव्येति भावार्थः । एतावता कथनेन काऽपि नारी स्वपत्युः शोग्यं श्लाघते।
ममध्य महु, प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। कान्तस्य कन्तहो. इत्यस्य प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया। गोष्ठ-स्थितस्य ! गोष्ठ-स्थित+स् । इत्यत्र ८४ स० संयोगे परे ह्रस्वे, ३४८ सू० षकारस्य लोपे, ३६० सूटकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सु. पूर्वकारस्य टकारे, (स्था+क्त =त इत्यत्र ६८७ सू० स्थाधातोः स्थाने ठा इत्यादेशे,३६० सू० टकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, ६४५ स० प्रकारस्य इकारे) १७७ सू० तकपरलोपे, १००९ सू० इस स्थाने हो इत्यादेशे मुह-
दिअहो इति भवति । कुतः । अव्ययपदमिदम् । १०८७ मू० कुस् इत्यस्य स्थाने कड इत्यादेशे कउ इति भवति । कटोरकारिण। कुटीरक + जस् । अपशे १०९३ सू० कुटीरकार्थे झुम्पड-शब्दः प्रयुज्यते, १००१ सू० प्रकारस्थ प्राकारे, १०१५ सु० जसो लोपे झुम्पमा इति भवति । बलन्ति वल-धातुःप्रीणने। "अनेकार्था: हि बातयः" इति न्यायेनाऽत्र वलधातुः ज्वलनेऽपि प्रयुज्यते । ततः वल् +श्रन्ति इति स्थिते,९१० स० अकारस्याऽऽगमे,६३१ सू० अन्तेः स्थाने ति इत्यादेशे बलन्ति इति भवति । अथ ग्रह, इत्यस्य प्रक्रिया १०१० सूत्र ज्ञेया। रिपु-बधिरेण । रिपु-रुधिर+टा। १७७ सू० पकारलोपे, १८७ सू० धकारस्य हकारे, १०१३ स० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवत्वात १००४ सू०प्रकारस्य एकारे रिउहाहिर इति भवति । विध्यापयति । विपूर्वक: ध्ये-(ध्या)-धात: विध्यापने वि. ध्या+णिग+ति । अपभ्रशे विध्या+णिग इत्यर्थ १०६६ स. उल्हव इत्यस्य प्रयोगे, ६२८ सू० लिवः स्थाने इचादेशे अहवाइ इति भवति । प्रात्मना । प्रात्मन् +टा । ३२२ सू० स्मस्य स्थाने पकार, ३६० सू० पकारस्य द्वित्वे, ८४ सू० संयोगे परे हस्वे. ५४५ सू० अन् इत्यस्य प्राण इत्यादेशे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १००० सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१३ सू० सास्थानेऽनुस्वारे, स्थानियस्वात् १७०४ १० अकारस्य एकारे अपपणे इति भवति । न । अध्ययपदमिदं संस्कृततुल्यमेवाऽपध्र प्रयुज्यते । भ्रान्तिा । १०६९ सू० रेफस्य लोपे, ५४ सू० संयोगे परे हस्वे, १०१५ सू सेलोपे भन्ति इति भवति । कुतः - कर इत्यत्र प्रस्तुतसुत्रस्य प्रवृत्तितिा। धूमः कुतः उत्थितः-धूम कहन्तिहु उद्विग्रड, प्रक्रिया १०५६ सूत्रे ज्ञेया । अत्र कुतः इत्यव्ययस्य स्थाने प्रस्तुतसूत्रेण कहन्तिह इत्यादेशो जातः । १०- यदि भानाः परकीयाः ततः सखि ! मम प्रियेण ।
मथ भग्ना: अस्माकं सम्बन्धिनस्तवा तेन मारितेन ।।१।। एतेषां पदानामर्थः, शब्दसाधना र १०५० सत्रे समवलोकनीया । अथ ततः इत्यव्ययस्य तथा तवा इत्यव्ययस्य च स्थाने प्रस्तुतेन [१०५८] सूत्रेण तो इत्यादेशे तो इति भवति ।
१००६-एवम एम्ब । एवम् इत्यस्य शब्दस्य स्थाने एम्व इत्यादेशो भवति । यथा--
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Awaranananarane
चतुर्यपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपैतम् * प्रियसंगमे कप्तः निद्रा, प्रियस्य परोक्षस्य कथम् ? ।
मया द्वेऽपि विनाशिते, निद्रा नवंम तथा ॥१॥ भावार्थ:-काचिन्नायिका नायक प्रति प्रेमाऽतिरेक प्रकट यति । प्रियसंगमे, प्रियस्य-कान्तस्य संगमः-समागमः, तस्मिन् संजाते तो निदा ? संयोगजन्यहर्ष हेतोः निद्रामाऽऽयातीत्यर्थः । प्रियस्य परो. अस्थप्रिये परोक्षेसलिक निदा? अत्र सप्तम्यर्थ पष्ठी.अक्षणोः परंपरोक्षमतस्मिन परोक्ष जयनामोचरे सति प्रिये कथं निद्रा समायाति? नायातीति यावत् । मया द्वेऽपि विनाशित संयोगवियोग-कालयो: निआध्यमपि सपूर्णता नासम् । संयोगरियोगाचादयेऽपि मम निद्रा विनष्टा । अयं भावः--एवं-पतिस. मागमे सति म-निद्रा न प्राप्यते,तथा-पतिवियोगेऽपिन-निद्रा नैव लभ्यते इति भावः ।
प्रियसंगमे । भियसंगम+डि । इत्यत्र १०६९ सू० रेफस्य लोपे, बाहुल्येन १७७ सू० यकारस्य मोपाभावे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे पियसंगम इति भवति । कृतः । अव्ययपदमिदम । १०५७ सू० कुनः इत्यस्य कउ इत्यादेशे कउ इति भवति । निद्रा । निद्रा+सि। इत्यत्र १०६९ सू० रेफलोपे, ३६० सू० दका द्वित्त्वे, ११५० सू० स्वार्थे डड-(अड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्चरादेलोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये,११०२ सत्रेण डी-ई-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्परादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेलोपे निदवडी इति भवति । प्रियस्स । प्रिय+ इस 1 इत्यत्र १०६९ मू० रेफलोपे, १७७ सू० यकारस्य लोपे,१००९ सू० इस स्थाने हो इत्यादेशे,१०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे पिम्हों इति भवति । परोक्षस्य । परोक्ष+ ङस् । इत्यत्र २७४ सू० सस्य स्थाने खकारे, ३६० स. खकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे, बाहुल्येन ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वाऽभावे पिअहो -वदेव परोपवहाँ इति भवति । कथम् । अव्ययपदामदम् । अपभ्रशे १०९३ सू० कथम् इत्यस्य शब्दस्य स्थाने केम्च इत्यादेशे केम्ब इति भवति । मया मइँ,प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया। बिग्णि, इत्यस्य प्रक्रिया ६०९ सूत्रे शेया । प्रब बाहुल्येन २३७ सु० एकारस्य बकारो जातः । अपि-धि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे शेया। विनाशिते । विनाशिता+प्रो। ३७० सू० नकारस्य द्वित्वे, २६० सु० शकारस्य सकारे, १७७ सू० तकारस्य लोपे, ६१९ सू० द्विवचनस्य स्याने बहुवचने, १००१ सू० अकारस्य स्थाने प्राकारे, १०१५ सू० जसो लोपे विम्नासिमा इति भवति । विना । निद्रा+सि। १०६९ सू० रेफलोपे, ३६० स० दूकारद्वित्वे, १००१ सू० शाकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोप निद्द इति भवति । न । अव्ययपदमिदं संस्कृतसममेवा उपभ्रशे प्रयुज्यते । एवम् । अध्ययपदमिदम् । १०८९ स० एवम् इत्यस्य स्थाने एम्ब इत्यादेशे एग्ध इति भवति । तया । अव्ययपदमिदम् । अपभ्रंशे तथाऽर्थे १०९३ सूत्रेण तेभ्य इति शब्दः प्रयुज्यते । एवम् = एम्व इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । परमः परः । परम् इत्यस्य शब्दस्य स्थाने पर इत्यादेशो भवति । यथा... गुरगः न संपत् कीतिः परम् = गुणहि न संपह कित्ति पर, एतेषां पदानां प्रक्रिया १००६ सूत्रे शेया। अन्तरं स्वित्थम् -गुरणेः । गुण+भिस् । १११८ सू० भाषाव्यत्यये जाते सति, ४९६ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे गुरणहि इति भवति । परम्प र, इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्र. दृसिर्जाता । सममः समाणुः । समम् इत्यस्य शब्दस्य स्थाने समाशु इत्यादेशो भवति । यथा--
कान्तो यत् तिहस्पोपमीयते तन्मम खण्डितो मानः।।
सिंहः नीरक्षकान् गजान हम्ति प्रिय: पबरक्षेः समम् ।।२।। भावार्थ:--यन्मे कातः सिंहस्य उश्मीयते . सिंहेनोपमीयते, तत्-सदा, मम-मदीयः, मानः अभिमानः, अजित:-विनाशितः, यत: सिंह नीरक्षकान, निर्गताः रक्षकेभ्यः पुरुषभ्यः,नीरक्षकाः, तान्---रक्ष
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★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपाद
करहितान् गजान् हन्ति- मारयति, किन्तु मम कामतः । पदरक्षैः -- पदाति-रक्षकः समम् सह पदातिरक्षकेषु विद्यमानेष्वपि गजान् र हन्ति, अतः मम कान्तः सिंहादधिकः पराक्रमी, इति व्यवचार्थः । कामतः । कान्त+सि । इत्यत्र ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे कन्तु इति भवति । यत् । यत् + सि । इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ सू० दकारस्य लोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे जु इति भवति । सिंहस्य | सिंह + ङस् । इत्यत्र २९ सू० चनुस्वारस्य लोपे, ९२ सू० इकारस्य ईकारे, १००९ सू० स: स्थाने हो इत्यादेशे १०८१ सू० उच्चारणस्य वाचवे सीहहो' इति भवति। उपमीयते । उपपूर्वकः साधातुः उपमाने । उपमा - स्य + ते । २३१ सू० पकारस्य वकारे, ६४९ सू० वयस्य स्थाने ई इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १००० सू० ईकारस्य इकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इवादेशे उवनिअ इति भवति । शद् तं इत्यस्य प्रक्रिया १०८५ सूत्रस्य प्रथम- श्लोके ज्ञेया । मम । श्रस्मद् + स्म इत्यस्य प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य प्रथमलोके ज्ञेया । खण्डितः । खण्डित+सि । १७७ सू० तकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे स इति भवति । मान: माणु, प्रक्रिया १०६७ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया । सिंहः । सिंह+सि । पूर्ववदेत्र सोह+ सि इति जाते, १००.२० प्रकार ह. इति भवति । नीरक्षकान् । नीरक्षक + शस् । १००० सू० ईकारस्य इकार, २७४ सू० क्षस्य स्थाने वकारे, ३६० सू० खकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्व खकारस्य स्थाने कमरे, १०७ सू० ककारलोपे, १८० सू० यकारश्रुती, १०१५ सू० दासो लोपे निरक्खय इति भवति । गजान् । गज + शस् । १७७ सू० जकारस्य लोपे १८० सू० यकारश्रुती, ससो लोपे गय इति भवति । हन्ति । हन [हन् ] हिंसायाम् । हन्+तिव् । ९१० सू० प्रकारागमे, २२८ सू० नकारस्य णकारे ६२८ सू० तिव: स्थाने इचादेशे हह इति भवति । यिपि, प्रक्रिया १०८५ सूत्रस्य चतुर्धश्लोके ज्ञेया । पवरक्षेः । पदरक्ष + भिस् । इत्यत्र १७७ सू० दकारलोपे १८० सू० यकारश्रुतौ २७४ सू० क्षस्य खकारे, ३६० सू० खकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्व
कारस्य ककारे, बाहुल्येन १०१६ सू० भिसो लोपे परवल इति भवति । समम् । श्रव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण समम् इत्यस्य समाणु इत्यादेशे समाणु इति भवति । समम् समाणु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिजता । ध्रुवमी श्रुवुः । ध्रुवम् इत्यस्य शब्दस्य स्थाने ध्रुव इत्यादेशो भवति । यथा----
चवलं जीवितं भुवं मरणं, प्रिय ! राष्यसे किम् ? ।
भविष्यन्ति दिवसाः रोषणस्य दिव्यानि वर्षशतानि ||३||
भावार्थ:- प्रिय !-स्वामिन् !, जीवितम् जीवनं चञ्चलम् क्षणभङ्गुरम् विनाशशीलमिति या वत् । मरणम् - मृत्युश्च ध्रुवम् निश्चितम् ग्रतो भवता किम् कथं रुष्यते ?-रोषः क्रियते । यतः रोष
- रोषयुक्तस्य नरस्य दिवसाः -- दिनानि दिव्याति — देवस्य इमानि दिव्यानि वर्षशतानि वर्षाण शतानि भविष्यन्ति । दुःखावस्थायाः कानिचिद् दिनान्यपि शतवर्षतुल्यानि प्रतीयत इति भावः । चलम् । चञ्चल+सि । इत्यत्र १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सेलोपे च इति भवति । जीवितम् । जीवित +सि । १७७ सू० तकारलोपे प्रकारस्य उकारे, सेर्लोपे जीवित इति भवति । ध्रुवम् । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण ध्रुवम् इत्यस्य ध्रुव इत्यादेशे ध्रुव इति भवति । मरणम् । मरण + सि । इत्यत्र १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलॉप मर इति भवति । प्रिय है। प्रिय + सि । १०६९ सू० रेफलोपे, १९७७ सू० यकारलोपे, सेर्लोपे पिन ! इति भवति । रुष्यते । रुष [रुष्] रोषे । ३षय+ते । इत्र ९०७ सू० उकारस्य उकारे, २६० सू० षकारस्य सकारे, ६४९ सू० क्यस्य स्थाने
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * इज्ज इत्यादेशे, अज्मीने परेण संयोज्ये, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे रूसिज्जइ इति भवति । किम् । अव्ययपदमिदम् । १०३८ सू० किमः स्थाने काई इत्यादेशे काई इति भवति । भविष्यन्ति । भूधातुः सतायाम् । भू+स्य+अन्ति । ७३१ सू० भूधातोः स्थाने हो इत्यादेशे, १०५९ सू० स्पस्य सकारे,१०५३ सू० अन्तेः स्थाने हि इत्यादेशे,१०५२स० उच्चारणस्य लाघवे होसहि इसि भवति । विवसाः। दिवस+जस्। इत्यत्र १७७ सू० वकारस्य लोपे,२६३ स० सकारस्य स्थाने हकारे,१००१ सू० अकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० जसो लोपे विहा इति भवति । रोषणस्य । रुष्यतीति रोषणस्तस्य । रुष्-धातुः रोषे । र ल्युट (मन)।२ . उकार का,९५० ९७ प्रकाराम,२६० स० षकारस्थ सकारे रूस+अन इति जाते, १० सू० स्वरस्य लोपे, अजमोने परेण संयोज्ये, २२८ सू० नकारस्य कारे प्रत्यये, १००१ सू० अकारस्य प्राकारे,१०१६ स. इसो लोपे सरसरता इति भवति । विन्यानि । दिक्ष्य+जस् । इत्यत्र ३४९ सू० यकारलोपे,३६० सूत्रेण वकारस्य द्वित्वे, १०२४ सू० जसः स्थाने ई इत्यादेशे दिग्ध इति भवति । वर्षप्रतानि । वर्षशत+जस् । इत्यत्र ३७६ सू० रेफात्पूर्व इकारागमे,२६० सू० षकारस्य शकारस्य च सकारे १७७ सू० सकारलोपे,१५० स० यकार-श्रुतौ,१००१ सू० अकारस्य प्राकारे,१०२४ सू० जस: स्याने ई इत्यादेशे परिस-सयाई इति भवति । प्रवम् = प्रव इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। मोम मा इत्यस्थ शब्दस्य स्थाने में इत्यादेशो भवति । यथामा पम्ये! कुद विवादम-मं धणि ! करहि विसाउ,प्रक्रिया १०५६ सूज्ञेया । अत्रमा इत्यव्ययस्य स्थाने प्रस्तुतसूत्रेण में इत्यादेशो जातः । प्रायोग्रहणात् । प्रस्तुतसूत्र प्रायः इत्यस्य पदस्य ग्रहणात् कुत्रचित् मा इत्यस्य में इत्यादेशो न भवति । यथा
माने प्रणाटे याविन तनु तवा पेशं त्यज!
मा दुर्जन-कर-पल्लवैः वश्यमानः भ्राम्य ॥४॥ भावार्षः-माने स्वाभिमाने प्रणष्टे सति यदि तनु-शरीरं न त्यक्तुं शक्यं तदा देशं ववश्यमेव स्यब-परिहार,त्यक्तव्यो देश इति यावत् । यतः दुर्जनकर-पल्लव,करारच ते पल्लवा, करपल्लवाः दुर्जनानां करपल्लवाः, तैः दुर्जनकरपल्लवैः पश्य॑मानः भो लोका: प्रसौ स एव याति, इति प्रकारेश करैः दर्यमानःमा भ्राम्य --भ्रमणं मा कुरु । संभावितस्य चाकत्तिः, मरणादतिरिच्यते, इति हार्दम् ।
___ माने । मान+डि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे मारिए इति भवति । परराष्टे । प्रणाष्ट+ङि । १०६९ सू रेफस्य लोपे,३०५ सू० ष्टस्य स्थाने ठकारे,३६० सू० टकारद्वित्वे,३६१ सू० पूर्वकारस्य टकारे,११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये,१००५ सू० डिना सहकारस्य इकारे,बाहुल्येन १० सूत्रस्थाऽप्रवृत्ती परगडई इति भवति । यदि जइ,प्रक्रिया १०५५ सूत्रे ज्ञेयान मध्ययपदमिदं संस्कृत-सममेवाष प्रयुज्यते । तनु । तनु+सि । इत्यत्र २२८ सू० नकारस्य स्थाने - कारे,१०१५ सू० सेलोपे तणु इति भवति । तदा । प्रनयपदमिदम् । १०८८ सू० तदा इत्यस्य तो इत्यादेशे तो इति भवति । देशम् । देश+धम् । २६० सू शकारस्य स्थाने सकारे, ११०० स० डड-(मड)प्रत्यये डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये,१००१ सू० अकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० अमो लोपे सहा इति भवति । त्यज । त्यज [त्य] त्यागे । त्य हि । ७५७ सूत्रे स्वजतेरवि नया" इति पाठात् त्यज्धातोः स्थाने वय इत्यादेशे, १७७ सू० यकारलोपे, १००० सू० प्रकारस्य इकारे, बाहुल्येन १० सूत्रस्याप्रवृत्ती, ६६६ स० हि इत्यस्य जज इत्यादेशे घाइज इति भवति ।मा । अव्ययपदमिदम् ! प्रस्तुतसूत्रे प्रायोग्रहणात् मा-शब्दस्य स्थाने में इत्यादेशाऽभावे, संस्कृतवदेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । दुर्जन. कर-पल्लयः । दुर्जनकरपल्लव+भिस् । ३५० सू० रेफलोपे,३६० सू० जकारस्य द्विस्वे,२२८ सू० नका.
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादा रस्य स्थाने णकारे, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, ५०४ सू० प्रकारस्य स्थाने र कारे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे दुज्जरण-कर-पल्लवे हि इति भवति 1 दश्यमानः । दक्षिर [दश्] दर्शने । दृश् + णिग+क्य+पानश । ७०३ सू० प्रयन्तस्य दृशः स्थाने दंस इत्यादेशे,६४९ सू० क्यस्य स्थाने इभ इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ६७० सू० पानशः स्थाने स्त इत्यादेशे, सिप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलोपे वसिम्यन्तु इति भवति । भ्राभ्य । भ्रमु (भ्रम्) धातुः भ्रमणे । भ्रम् +हि । १०६९ सू० रेफस्य लोपे, ९१० सू० प्रकारस्यागमे, ६६६ सू० हि इत्यस्य स्थाने इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये मिज्ज इति भवति । प्रायोग्रहणाद् मा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिन जाता
सवणं विलीयते पानीयेन अरे खलमेट ! मा गई।
चालितं गलति सत्कुटीरकं गौरी तिम्यति अद्य ।।५।। भावार्थ:-गर्जन्तं मे अनि करिव एकाति--अनि सामेष !-दुष्टमेध ! मा गर्ज गजनई मा कुरु । यतः वालिलं-बहि बाधं कुटीरकम्-सदनं पानीयेन-जलेन गलति-विनष्टो भवति, तथा गौरी-नायिका अन्य तिम्यति विषीदति, गर्जनेन वा नातिरेको जायते, अतएव नायिका खेदखिन्ना भवति, तथा तस्याः लवर-लावण्यं सौन्दर्यमपि बिलीयते...क्षयते ।
लवमम् । लवण+सि । १७१ सू० परेण सस्वराजनेन सह प्रादिस्वरस्य स्थाने प्रोकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सु० सेलोपे लोणु इति भवति । विलीयते । विपूर्वक: लीङ्ली )घातु: विलये-क्षरणे । विली+क्य+ते । इत्यत्र ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे,१० सू० स्वरस्थ लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये १२५ स०ते इत्यस्य इचादेशे विलिज्जड इति भवति । पामीन । पानीय+टा। १०१ सू० ईकारस्य इकारे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १७७ सू० यकारलोपे, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य जकारे १००४ सू० प्रकारस्य एकार पाणिएणइति भवति। प्ररे। अव्ययपदमिदम् । १०००स० एकारस्य इकारे अरिति भवति। खलमेघ! खलमेघ सि । १५७ स. थकारस्य हकारे, १०१५ स० सेलोपे सलमेह! इति भवति । मा । अव्ययपदमिदम् । १००० सू० माकारस्य प्रकारे म इति भवति । प्रस्तुतसूत्रे प्रायोऽधिकारात मा इत्यस्य स्थाने में इत्यादेशो न जातः । गर्म । गर्ज, बातुः गर्जने । गर्ज + हि। ३५० सू० रेफस्य लोपे,३६० जकारस्य द्वित्वे, ९१० सू० अकारागमे,१०५८ सू० हि इत्यस्य स्थाने उ इत्यादेशे,१० सू० स्वरस्य लोपे,बझीने परेण संयोज्ये गज्जु इति भवति । वालितम् । वालित+सि । १७७ सू० तकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे बालिउ इति भवति । गलति । गल् मलने । गल् + तिन् । ९१० सू० प्रकारागमे,६२८ सू० तिव इचादेशे गलइ इति भवति । सत् । तद् सि । बाहुल्येन ५७५ सू० तकारस्थ स्थाने सकारे,११ सू० दकारस्य लोपे,१००२ सू० अकारस्थ उकारे, १०१५ सू० सेलोपे सु इति भवति । कुटीरकम् । कुटीरक+सि सम्पडा, प्रक्रिया १०६७ सूत्रे शेया। तत्र कुटीर-कारिण वर्तते प्रत्र कुटीरकम्,मसः तत्र जसो लोपो जातः,अत्र तु सिप्रत्ययस्य लोपो ज्ञातव्यः । गौरी । गौरी+सि । १५९ सू० प्रौकारस्य प्रकारे,१०१५ सू० सेलोप गोरी इति भवति । तिम्यति तिम् प्राभावे । तिम्+लिन् । ९१० सू० प्रकारागमे, ९० १ २ ० मकारस्य द्वित्त्वे, ६२८ सू० तिब इचादेशे तिम्मा इति भवति । अद्य । अव्ययपदमिदम् । २९५ सू० यस्य प्रकारे,३६० सू० जकारद्वित्त्वे, १००० सू. प्रकारस्य स्थाने उकारे अन्जु इति भवति । प्रयोग्रहणात् माळम इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिनं जाता । समाको ममा प्रस्तुतसूत्रेण मनाक् इत्यस्य शब्दस्य मनाई इत्यादेशो भवति । यथा
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चतुर्थपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * विभवे प्रणष्टे वक्र, ऋद्धिभिः जनसामान्यः ।
किमपि मनाक मम प्रियस्य वाशी अनुहरति नान्यः॥६।। भावार्थ:-काचित्लाधिका विगतविभवस्य निज-प्रिय-नायकस्य चन्द्रमसा सह सादृश्य प्रतिपादयति । विभवे-- सम्पत्ती प्रणष्टे---विगते मम प्रिय-कान्तो वो भवति-वक्रिमो जायते । यदा मानवः समृद्धो भवति, तदाऽसौ वक्षःस्थल मुत्तम्य प्रचलति, परसदाऽसौ समृद्धिहीनो जायते तदा स नैव तथा गच्छति, नतकण्ठो यातीति । एवमेव मरकान्तः धनहीनतया वक्र:-नतकण्ठः प्रचलति । विभवे प्रणष्टे सत्येवाऽसौ नतकण्ठो न गच्छति, किन्तु काद्धि पम्पन्नोऽयसी जनसामान्यो भवति,सम्पन्नदशायामपि सामान्यजन इव मानं परित्यक्त्वा नतकण्ठः प्रचलति,वैभवशालि-दशायामपि असावभिमानं न करोति। विनश्रीभूय जीवन-यापन करोति । एवम्भूतस्य मम बल्लभस्य यदि किमपि मनाक-स्वल्पमपि अनुहरतिअनुकरणं करोति तदा स शशी-चन्द्र एवं वर्तते नाऽन्यः । अयं भायः--यथा चन्द्रः विभवे-किरणसमूहे प्रणष्टे मति नापार गुनो तुमगले,सालानां सम्पूर्णतायान्तु सरलो जायते । एवमेव मम पत्युर्दशा विद्यते ।
विभवे । विभव डि । इत्यत्र १८७ सू० भकारस्प हकारे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे विहवि इति भवति । प्रगष्टे । प्रणष्ट+ङि- पणदुइ, इत्यस्य पदस्य प्रक्रियाऽस्यैव सूत्रस्य चतुर्थश्लोके जेया । वः। वक्र+सि । इत्यत्र २६८० प्रादिस्वरस्याऽनुस्वाराऽऽगमे,३० सू० अनुस्वारस्य वर्गान्त्ये, १०६९ सू० रेफस्य लोपे, ११०१ सू० स्वार्थ उडम-(अड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेोये, अज्झीने परेण संयोज्ये, १००० सू० द्वितीयस्य अन्त्यस्य च प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे बजकुराउ इति भवति । अदिभिः । ऋद्धि+भिस् । १४० सू० ऋकारस्य रि इत्यादेशे, १०१८ सू० भिसः स्थाने हिं इत्यादेशे, १०५२ सू० उच्चारणस्य लाधवे रिखिहि इति भवति । जन-सामान्यः । जन-सामान्य+सि । २२० सू० नकारस्य स्थाने णकारे, ३४९ सू० यकारस्य लोपे, ३६० सू० नकार-द्वित्वे, ८४ सू० संयोगे परे स्वे, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ स० सेलोपे जरासामन्तु इति भवति । किम् । किम+सि-कि, प्रक्रिया ५६९ सूत्रे ज्ञेया । अपि-पि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । ममाक् । प्रत्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण मनाक् इत्यस्य शब्दस्य मणा इत्यादेशे मणा इति भवति । मम - मह, प्रक्रिया
प्रथम-खोके ज्ञेया । प्रियश्य। प्रिय+डस । १०६९ स रेफस्य लोपे, १७७ सयकारस्य लोपे, १००९ सू० इस: स्थाने हो इत्यादेशे पिअहो इति भवति । शशी । शशिन् +सि । २६० सू० उभयत्राऽपि शकारस्य सकारे, ११ सू० नकारलोपे, १०१५ सू० सेर्लोपे सति इति भवति । अनुहरति । अनुपूर्वकः हङ्क-(ह -चातु: अनुहरणे--अनुकरणे । मनुह+तिन् । २२८ नकारस्य प्रकारे, ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे अणुहरहा इति भवति । न | अव्ययपदमिदम् । संस्कृततुल्यमेवाउपभ्रशे प्रयुज्यते । अन्यः अन्नु,प्रक्रिया १०७२ सूत्रस्म द्वितीयश्लोके शेया । मनाक्ममाय इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृसिर्जाता । :: - १६.:--फिलस्य किरः 1 किल इत्यत्ययस्य स्थाने किर इत्यादेशो भवति । यथा--
किला सावति, न पिबति, न बिद्रवति, धर्मेन व्ययति प्यम् ।।
इह कृपणीम आमाति पथा यमस्य क्षरणेन प्रभवति पुतः ॥॥ ... .. भावायः-ह जगति कृपणः प्रायः न किमपि खावति,शिल-निश्चयः,नाऽष सन्देह इति यावत् । में किश्चित् दुग्धादिक पौष्टिक पेय पदार्थ पिबति, न किञ्चिद् धर्म-परमार्थ रुप्यम-रूप्यकं व्ययति व्ययं करोति, एवं न किमपि विनयति कुत्राऽपि दानादिकं दवाति, तथाऽसौ कृपण एतदपि न जानाति,
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* प्राकृत-व्याकरणम्
चतुपादा यद् यथा यमस्य दूतः क्षरणेन प्रभवति-यमराजस्य सन्देशवाहकः क्षणमात्रेणैव जीवनलीलायाः समाप्ति करोति । कृपणस्थतादृशी शोचनीया दशा भवतीति भावः ।
फिल । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण किल इत्यव्ययस्य किर इत्यादेशे किर इति भवति । खापति । ला(खादाभोजने । खाद्+लिन् । ८९९ सू. दकारस्य लोप,६२८ २० तिवः स्थान इबाद साह इति भवति । न अव्ययपदमिदम् । संस्कृतवदेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । पिबति । पाधातुः पाने । संस्कृतनियमेन पिब+लिव् इति जाते। १७७ सूत्रेण बकारस्य लोपे,६२८ सू० तिवः स्थाने इन्वादेशे पिया इति भवति । विवति । विपूर्वकः द्रवधातुः दाने । विद्व+ति । १०६९ स. रेफस्य लोपे, ३६० सू०कारद्विस्वे, ९१० सू० अकारागमे, पूर्ववदेव विदवा इति भवति । धर्म । धर्म+दि । १०६९ सू० रेफस्य लोपे,३६० स० मकारस्य द्वित्वे, १००५ स० डि-प्रत्ययेन सह प्रकारस्य इकारे धम्मि इति भवति । व्ययति। विपूर्वक प्रयधातुः व्ययकरगे। व्यय + तिव । अपभ्रशे व्यय इत्यर्थे १०६६ सूत्रेण बेच्च इतिपदं प्रयुज्यते, ६२८ स० तिव इसादेशे वेस्चर इति भवति । रूप्यम् । रूप्य+सि । इत्यत्र ३४८ सू० यकारसोपे, १७७ सू० पकारलोपे,११०१स० स्वार्थे डडम-प्रडा)-प्रत्यये,डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, बाहल्येन १०. सूत्रस्याप्रवृत्ती, १००२ स० अस्याकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलोपे समय इति भवति । वह भव्ययपदमिदम् । संस्कृत-तुल्यमेवाऽपभ्रशे प्रयुज्यते । कृपणः । कृपण+सि । १२८ सू० काकारस्य इकारे,२३१ सू० पकारस्य वकारे, १००२ स० कारस्थ उकारे, १०१५ सू० सेलोप किवा इंति भवति । जानाति । ज्ञा प्रवबोधने । ज्ञा+तिन् । ६७८ स० ज्ञाधातोः स्थाने जाण इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे जारप इति भवति । यथा। मव्ययपदमिदम् । २४५ सू० यकारस्य स्थाने जकारे, १६७ सू० थकारस्य हकारे,१००० स० आकारस्य स्थाने प्रकारे जह इति भवति । यमस्य । यम+इस् । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १००९ सू० हुसः स्थाने हो इत्यादेशे अमही इति भवति । क्षरणेन । क्षण +टा। २७४ सू० क्षस्य स्थाने खकारे, १०१३ स० दाप्रत्ययस्य णकारे, स्थानिवत्वात् १००४ सू० भकारस्य स्थाने एकारे, १०८१ सू० एकारस्य उच्चारणलाधवे खणे रण इति भवति । प्रभवलि । प्र
का भूधातुः प्रभुत्वे । प्रभू+सिन् । १०६९ सू० रेफलोपे, १०६१ सू० भूधातोः स्थाने हुन्ध इत्यादेशे, ६२८ सू० तिव इचादेशे पहराया इति भवति । इतः । दूत+सि । १७७ सू० तकारलोपे, ११०१ सू० स्वार्थ डडम-(प्रड)-प्रत्यये जाते, डिति परेऽन्त्यस्वरादेोप, बाहुल्येन १० सूत्रस्याप्रवृत्ती, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे. १०१५ सू० सेलोपे घाउ इति भवति । किल-किर इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिजाता । अथबोहवा अथवा इत्यस्य पदस्य स्थाने अहवाइ इत्यादेशो भवति । यथा---पयवान सुवंशा मामेषः बोषः । अयं भावः-सुवंशानो शोभना। वंशाः येषां, तेषां पुरुषाणामेषो दोषो नास्ति । अथवा । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसत्रण पथवा इत्यस्य स्थाने अहवाइ इति प्रयुज्यते । म ! अध्ययपदमिदं संस्कवदेवापशे प्रयुज्यसे । सुवंशानाम् । सुवंश + प्राम् । २६० सू० शकारस्य सकारे, १०१० सू० पाम: स्थाने इं इत्यादेशे नुवंसह इति भवति । एषः। पुल्लिङ्गोऽयं शब्द:, किन्तु दोष-शब्दस्य स्थाने या खोडिशब्दः प्रयुज्यतेसास्त्रीलिङ्गकोऽस्ति, अतोऽयमपि स्त्रीलिगको जातः । अत्र-विमोषण-विशेष्ययोः समानलिङ्गकत्य, समानविभक्तिकत्वं समानवाचनस्वं च भवति" इति न्याय: प्रवर्तते । तेन-एतद+सि । इत्यत्र २०३३ सू० स्त्रीलिएतका स्थाने एह इत्यादेशे, १०१५ सू० सेसोपे एह इति भवति ।पोषः । दोष+ सि.। अपनशे शेषाऽर्थे १०९३ स० खोहि-शब्दः प्रयुज्यते,१०१५ स० से.पे खोदि इति भवति । - अवाम महुवाइ इत्यत्र प्रस्तुत-सूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । प्रायोऽधिकारात । प्रस्तुतसूत्रे प्रायः इत्यस्य पदस्या
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चतुर्वपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * अंधकारात कदाचिद् अथवा-पदस्य स्थाने प्रहबई इत्यादेशोऽपि न भवति । यथा
यायते तस्मिन् देशे सभ्यते प्रियस्य प्रमाणम्।।
वि आयाति सबानीयते अथवा तोब निर्वाणम् ॥२॥ भावार्थ:-प्रोषितभर्तृका काचिन् नायिका दुःखभरेण विहला सती इदं विचिन्तयति-यत् त विवाद मेशे मारले गरी पनि यो नियस्य प्रमाणम्-शुभाशुभाऽदिसूचकं किश्चिद् वृत्तान्तं चिह्न वा लम्यते । यसो प्रार्थनया आयाति-गहमागच्छति, तथाऽमीयते-मानेतन्यः, अपवा-यघसी नाsपाछेत्तवा तु तदेव-तत्रैव निवारणम्-मृत्युरालिङ्गनीयो भयेति भावः।
यायते।या-घातुःगतौ । या+क्य+ते । २४५ सू० यकारस्थ जकारे, ६४९ सू० क्यस्य इज इत्वादेको,बाहुल्येन १० सू० स्वरलोपाभावे,६२८ सू ते इत्यस्य इचादेशे जाइज्जइ इति भवति । तस्मिन् । त+छि । १९९० दकारस्य लोपे,१०२८ सू० डिप्रत्ययस्य हि इत्यादेशे हि इति भवति । । देश+ मिस इत्यत्र २६० सू० शकारस्थ सकारे,११०१ सू० स्वार्थे अड-(प्रडम)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोप,मरमीने परेण संयोज्ये,१००५ सू० हिना सह अकारस्य स्थाने इकारे,बाहुल्येन १०..सूत्रस्याप्रवृत्तो देसबइ इति भवति । लभ्यते। हुलभ-(लो-धातुः लाभे । लभ+क्य+से । संस्कृत-नियमेन लभ्यते इति पाते, ३४९ सूत्रेण यकारस्य लोपे, ३६० सू०भकारद्विस्वे, ३६१ सू० पूर्व-भकारस्य बकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इयादेशे लास इति भवति ! प्रियस्य पिग्रहो, इत्यस्य शब्दस्य प्रक्रिया १०८९ सूत्रस्य षष्ठे श्लोके था। १०५१ सूत्रेण उच्चारणस्य लाघवे पहों इति जायते। प्रमाणम् । प्रमाण+सि ! इत्यत्र २०६९ सू० रेफस्य लोपे, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे; १०१५ स० सेतोप पनाह: इति भवतिः । पविजई,प्रक्रिया १०५५ सूत्रे शेया। आयाति प्राङ्-(मा)-पूर्वक या-धातुः प्रागमने । प्राया+तिम् । अपभ्रंशे पाया इत्यर्थे १०६६ सू० माव इत्यस्य प्रयोगे,६२८ सू० तिव इचादेशे मावइ इति भवति । तथा
तो, इत्यस्य प्रक्रिया १०८८ सूत्रे ज्ञेया । आमीयते । पाङ्-(मा)-पूर्वकः णी-(नी)-धातुः प्रानयने । पानी+क्य+ते । २२८ सू० नकारस्य स्थाने णकारे, ६४९ सू० क्यस्य ई इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये,१००० म० ईकारस्य इकारे,६२८ सु० ते इत्यस्य स्थाने इचादेशे आणिअब शति भवति । अथवा । अव्ययपदमिदम् । प्रायोग्रहणात् प्रस्तुतसूत्रस्याप्रवृत्ती, १८७ सू० थकारस्थ स्थाने हकारे महबा इति भवति । त-तं, इत्यस्य प्रक्रिया १०८५ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। एक । अध्ययपदमिदम् । १०९१ सू० एवार्थ जि इत्यस्य प्रयोगे जि इति भवति । निर्धारणम् । निर्वाण+सि । ३५० सू० रेफस्य लोपे,बाहुल्येन ३६० स० णकारस्य द्वित्वाऽभावे, १००२ सत्रेण अकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे निवारा इति भवति । प्रायोग्रहणाद अग्रवाल प्रहवा, इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्न जाता । विवो विवे। दिवा इत्यस्य पदस्य स्थाने दिवे इत्यादेशो भवति । यथा-दिवा दिया पमा स्नानम् -दिवि दिवि गङ्गाहाणु, प्रक्रिया १०७० सूत्रे शेया । नत्र प्रस्तुतसूत्रेण दिवा इत्यस्य पदस्या स्थाने दिवे इत्यादेशो जातः । सहस्य सह । सह इत्यस्य पदस्य स्थाने सह इत्यादेशो भवति । यथा--.
यतः प्रवसता सहन गता. मृता वियोगेन तस्य ।।
सज्ज्यते सन्देशान् भवतीभिः सुभगमनस्य ॥३॥ भावार्थ:-कस्याश्चित प्रोषितमत कायाः (प्रोषित:-प्रवासं गतो भर्ता यस्यास्तस्याः) नायिकायाः स्वसखी प्रत्युक्तिः । हे सखि सुभगजनस्य,सुभगश्वासौ जना सुभगजन, तस्य सुभगजनस्य सौभाग्यवतः मम काम्वस्थ सन्देशान-वृतान वसीभिः-प्रेषयन्तीभिरस्माभिः सम्यते लप्यते, मतः प्रवसता-प्रबासं-दे
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*प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थ पादा शान्तरं गच्छता कान्तेन सह नाहं गता-गतवती,तस्य कान्तस्य वियोगेन च नाऽहं मृता-पञ्चस्त्रमुपगता । अतः कथनाम सन्देशरस्माभिः दातुमुचिन: ? मोचित इति भावः।
पतः। अव्ययपदमिदम। इत्यत्र २४५सयकारस्य जकारे,१७७ सतकारलाप.३७सविसस्य डो(प्रो) इत्यादेशे,डितिपरेऽन्त्यस्वरादेलोपे,बाहुल्येन १० सूत्रस्थाअवृत्ती,१००० सू० प्रोकारस्य उकारे जाउ इति भवति । प्रवासमा । प्रपूर्वकः वस-धातुः प्रवासे । प्रवस् + शत् । १०६९ सू० रेफलोपे. ९१० सू० प्रकारस्याऽऽगमे,६७० स० शत: स्थाने त इत्यादेशे, टाप्रत्यये,१०१३ सुदास्थानेऽनुस्वारे,स्थानिवस्वात् १००४ सू० अकारस्य स्थाने एकारे पवसन्त इति भवति । सह । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण सह इत्यस्य सहुँ इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे सई इति भवति । न ! अध्ययपदमिदम् । संस्कृतबदेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । यता मतासि । १७७ सतकारस्य लोपे,१८० सयकारस्य श्रतो, १००१ सू० प्राकारस्य स्थाने प्रकारे, १०१५ सु० सेलोपे गय इति भवति । मृता। मुना +सि ! १३१ सू० ऋकारस्य स्थाने उकारे,१७७ सु० तकारस्य लोपे,१००१ सू० आकारस्य प्रकारे, सेलोप पुष इति भवति । वियोगेन । वियोग+टा । १७७ सू० यकारस्य गकारस्य च लोपे,१०१३ सू० सास्थानेऽनुम्बारे, स्थानियत्वात् १००४ सू० प्रकारस्य स्थाने एकारे विनोएं इति भवति । तस्थ । तद्+इस् । ११ सू० ६कारलोपे, १००९ सू० उसः स्थाने स्सु इत्यादेशे तस्सु इति भवति । लम्ज्यते । श्रोलस्ज् (लस् । लअजाकररणे। लरज+का+ते । इत्यत्र ३४९ सू० सकारलोपे, ३६० सू० जकारद्वित्त्वे, ६४९ सू० क्यस्थ इज्ज इत्यादेशे, प्रज्झीने परेण संयोज्थे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इमादेशे लजिम इति भवति । - म्वेशान् । सन्देश+शस् । २६० सू० शकारस्य सकारे, ११०० सू० स्वार्थे डड-(अण्ड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्यरादेर्लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये,१००१ सू० प्रकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० शसो लोपे सवेषाम इति भवति । ददतीभिः । हुदाञ्-(दा)-धातुः दाने। दा+शत् । १००० सू० प्राकारस्य एकारे, ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे, स्त्रीत्वविवक्षायां ५२१ सू० डी-(ई)-प्रत्यये, १० सू० स्वरस्य लोपे, पभोने परेण संयोज्ये, १००० सू० ईकारस्य एकारे, १०८१ स. उच्चारणस्थ लाघवे, भिस्-प्रत्यये, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, १०५२ सू० उच्चारणस्य लाधये देन्ते हि ६४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे विन्तेहि इत्यपि भवति । सुभगजनस्य । सुभग जन+डस् । १५७ सू० भकारस्य हकारे,१७७ सू० गकारलोपे, १८० सूज यकारश्रुतौ,११ सूत्रवृत्तिमनुसृत्य जकारस्यादिभूतत्वात् १७७ सूत्रस्याऽप्रबृती, २२८ सू. नकारस्य णकारे, १००१ स० उत्सः स्सु इत्यादेशे सुहय-अणस्सु इति भवति । सह सहूँ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। नहेनाहि । नहि इत्यस्य पदस्य स्थाने नाहि इत्यादेशो भवति । यथा ---
इतः मेघाः पिबन्ति असमितः वयानल: प्रावर्तते ।
प्रेक्षस्व भीरिमारणं सागरस्काऽपि कणिका नापनश्यते ।।४।। भावार्थ:-सागरस्थ गाम्भीर्य प्रतिपाद्यते । इत:-अस्मात् पाश्चात् मेघाः जलदाः जलं पिबम्ति, इत:-अस्मात् पाश्चात यावाल: सामुद्रो बन्हि आवतंतते-प्रावर्तनं करोति,सागरस्य जलं शोषयतीति यावत् । तथापि हे मित्र! सागरस्य गभीरिमाणम्-गाम्भीर्य प्रेक्षस्व-पश्य यद् एकाऽपि कणिका-बिन्दुमात्रमपि नाहि अपभ्रश्यते हीनता, न्यूनतां न यातीति भावः ।
इतः । अव्ययपदमिदम् । १०९१ सू० इलस् इत्यस्य स्थाने एत्तहे इत्यादेशे,१०८१ सू० हकारगतस्य एकारस्य उच्चारणस्थ लाघवे एस इति भवति । मेघाः । मेध+जस 1 इत्यत्र १५७ सू० पकारस्य हकारे, १०१५ सू० जसो लोपे मेह इति भवति । पिबन्ति । पा पाने । संस्कृतनियमेन पिव+प्रन्ति इति
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चातुर्वपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * जाते, १७७ सू० बकारलोपे,६३१ स ० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे पिप्रन्ति इति भवति । मालम् । जल+ सिं। १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे,१०१५ सू० सेल्प बबलु इति भवति । वामलः । वडवानल +सि । १०१५ सू० सेलोपे वयानल इति भवति । मावर्तते । प्राामा)-उपसर्ग-युर्वकः वृतु-वित) धातुः पावर्सने । संस्कृत-नियमेन मारत+ते इति जाते,३०१ सूतस्प टकारे,३६० स० टकारस्य द्विश्वे,६२८ सू० ते इत्यस्य स्थाने इचादेशे आवाइ इति भवति । प्रेक्षस्व । प्र-पूर्वक: ईक्षधातुः प्रेक्षणे-दर्शने । प्रेक्ष+ हिं । १०६९ सू० रेफलोफे,२७४ सूक्षस्थ स्थाले खकारे,३६० सू० खकारस्य द्वित्वे,३६१ सू० पूर्व खकारस्य ककारे,१०५८ स० हि इत्यस्य स्थाने उकारे,१० सू० स्वरस्थ लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये पेपतु इति भवति । पौरिमाणम् । गभीरिमन् + अम । १५७ सू० भकारस्य स्थाने हकारे,११ सु० नकारस्य लोपे १०१५ सू० अमो लोपे गहोरिम इति भवति । सागरस्य । सागर-+स् । १७७ सू० गकारस्य लोपे, १८० स० यकारस्य श्रुनो, १००९ सू० सः स्थाने हो इत्यादेशे लायरहो इति भवति । एका । एक+ सि । ३७० सू० ककारद्वित्त्वे,१००१ सू० प्राकारस्य स्थान प्रकारे,१०१५ सू० सेलोप एक्क इति भवति । अपि-वि, इत्यस्य प्रक्रिया ४८९ सत्रे या । कणिका । कणिका+सि । १७७ सू० ककारलोपे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे,१०१५ सू० सेलोपे कणि इति भवति । महि । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण नहि इत्यस्य नाहिं इत्यादेशे नाहि इति भवति । अपभ्रश्यते । अपपूर्वकः भ्र धातुः अपभ्रंशे । अपभ्रश् +ते। १०९३ सू० अपभ्रश्धातोः स्थाने पोहट्ट इति प्रयुज्यते, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे ओहट्टा इति भवति । नहि नाहि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
१०६१-पश्चात: पाया। पश्चात् इत्यव्ययस्य स्थाने पच्छ६ इत्यादेशो भवति । यथा-4बाद भवति विभातम् पछा होइ विहाणु,एतेषां पदामा प्रक्रिया १०३३ सूत्रे या । पश्चात-पच्छा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य निर्जाना । एवमेवस्य एम्बा । एवमेव इत्यस्य पदस्य स्थाने एम्बा इत्यादेशो भबति । यथा---एवमेव सुरतं समाप्तम् एम्बइ सुरउ समत्तु, एतेषां पदाला प्रक्रिया १००३ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके श्रेया । एवमेव -एम्वा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । एक्स्य मिः। एव इत्यस्य पदस्थ स्थाने प्रस्तुतसूत्रेण जि इत्यादेशो भवति । यथा---
यातुमा यान्तं पल्लवत द्रक्ष्यामि कति पदामि ववाति ।
हरये तिर्यगहमेव परं प्रियः बराणि करोति !! भावार्थ: काचिनायिका कथयति-हे सखि ! यातु मसो मम प्रियः गच्छतु, यान्तं गच्छन्सं मा पल्ववत-तस्याऽवरोधाय वस्त्राचलं न गृहीत,अश्यामि---प्रवलोकयिष्ये कति पानि ददाति कति पदानि गल्छतीति भावः यतस्तस्य हवये हृदयस्य तिर्यग---मध्ये तु अहमेव स्थिताऽस्मि, अतः द्रढीयान् मे विश्वासः न यास्यति मे भर्ता, परं-- केवलं प्रियः डम्बराणिमाडम्बराणि करोति । मम धयं परीक्षते ।
पातु । या प्रापरणे । या+तु । २४५ सू० यकारस्य जकारे,६६२ सू० तुवः स्थाने दु इत्यादेशे, १७७ सू० दकारलोपे बाज इति भवति । मा। मव्ययपदमिदम् । १००० सू० प्राकारस्य प्रकारे म इति भवति । यासम् । या-धातुः गती । या +शतृ । २४५ सू० यकारस्य जकारे, ६७० सू० शतुः स्थाने मत इत्यादेशे,८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,प्रम्-प्रत्यये,११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे जन्त इति भवति । पल्लवत । पल्लवम्-प्रचलं गृहीतेति पल्लवत । पल्लव+ त। ६३२ सू० त इत्यस्य हच् (ह) इत्यादेशे पल्लवह इति भवति । क्यामि । सिदृिश्] दर्शने । दृश् +मिव । ८५२ सू० दशः स्थाने देवख इत्यादेशे,१०५६ सू० मिवः स्थाने उ इत्यादेशे,बाहुल्येन १० सू०
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३०२
* कृत-व्याकरणम् * स्वरस्य लोपाऽभाव,१०६२ सू० उच्चारणस्य लाघवे देख इति भवति । कति । कति+शस् । १७७ सू० तकारलोपे, १०१५ सू० शसो लोपे कह इति भवति । पदानि । पद+जस् । १७७ सू० दकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ,१०१५ सू० जसो लोपे पय इति भवति । बवाति-देइ,प्रक्रिया १०७७ सूत्रस्य ततीय-श्लोके ज्ञेया । हरये । हृदय+जि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे,१७७ सू० दकारस्य यकारस्य च लोपे, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे हिअइ इति भवति । तिर्यग् 1 तिर्यच् +सि । ४१४. सू० तिर्यचः स्थाने तिरिच्छि इत्यादेशे,१००१ सू० अन्त्यस्य इकारस्य स्थाने ईकारे, १०१५ सू० सेलोपे तिन रिच्छो इति भवति । अहम् -हो, इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया १००९ सूत्रे शेया। एव । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण एव इत्यस्य पदस्य जि इत्यादेशे जि इति भवति । परम् । अव्ययपदमिदम् । १०८९ सू० परम् इत्यस्य पर इत्यादेशे पर इति भवति । प्रियः । प्रिय-+सि । १०६६ सू० रेफलोपे, १७७ सू० यकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे पिड इति भवति । डम्बराणि । डम्बर-+जस् । १०२४ सू० जसःस्थाने ई इत्यादेशे डम्बरई इति भवति । करोति करेइ, इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया १०८५ सूत्रस्थ चतुर्थश्लोके शेया। एजि इल्या परतुरासूमय प्रमिला । इालीमः एमाह। प्रस्तुतसूत्रेण इया. नीमः स्थाने एम्बहि इत्यादेशो.भवति । यथा---
हरिः नतितः प्रागणे, विस्मये पातितो लोकः ।
इवानी राधा-पयोधरयोः, यत् भाति त भवतु ॥२।। भावार्थ:..पातालराजेन बलिदैत्येन हशि-विष्णुः, प्राङ्गणे-त्रिभुवनाङ्गणे मतिता-ताण्डवं कारितः । वामनावतार-ग्रहणात्तस्य नत्यत्वे समवसेयम्,तर शारीरिक-विलक्षण-व्यापार-सत्त्वादित्यर्थः। तेन लोकः विस्मये पाश्चर्ये पातितः । वामनः सन्नपि त्रिलोकमेकपदे कृतवानिति विस्मयकारकम् । इशानी कामातुराऽवस्थायां राधा-पयोपरयोः राधा-कुचयोः माति-शोभते तद् भवतु । निजस्वामिनो वामनावतार-रूपं वीक्ष्य राधामनसि कामातिरेको जात इति भावः ।
हरिः हरि+सि। १०१५ सू० सेलोपे हरि इति भवति । नतितः । नृती[नृत्] गात्रविक्षेप नर्सने । नृत्+णिग्+क्तत+सि। १२६ स० ऋकारस्य प्रकारे,८९६ सू० तकारस्य च इत्यादेश ६३. सूक णिगः स्थाने प्रावि इत्यादेशे,५ सू० दीर्घसन्धौ,१७७ सू० तकारस्य लोपे, १०.१२ सू० प्रकारस्य उकारे। सेलोपे नचाविउ इति भवति । प्राङगणे । प्राङ्गण+हि। १०६९ सू० रेफलोपे, ८४ सू० संयोगे परे लस्वे,११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये,१००५ सू० हिना सह अकारस्य इकारे पक्षणइ इति भवति । बिस्मये । विस्मय+कि । ३४५ सू० स्मस्य म्ह इत्यादेशे,१७७ सू० यकारलोपे,पङ्गगइ-वदेव विम्हइ इति भवति । पातितः । पातित+सि । ९स प्रथमतकारस्य डकारे,२७७ सतकारलोपे, १००२ स० मकारस्य उकारे, १०१५ सू०पादिड इति भवति । लोकः । लोक+सि । १७७ सू० ककारलोपे, अकारस्य उफारे, सेलो लोड इति भवति । इधानीम् । प्रत्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण इदानीमः स्थाने एम्वहि इत्यादेश एम्वहि इति भवति । राधा-पयोधरयोः । राधा-पयोधर+प्रोस् । १८७ सू० उभयत्रापि धकारस्य हकारे, ४ सू० हकारस्थाऽऽकारस्य प्रकारे,१७७ सू० यकारलोपे, बाहुल्येन १८० सू० यकार श्रुत्यभावे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१० सू० भामः स्थाने हं इत्यादेशे राह-पओहरहं इति भवति । यत् । यद् +सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे,बाहुल्यन २४ सू० दकारस्य मकारे,२३ सू० मकारानुस्वार,१०१५ सू० सेोपे इति भवति । भाति । भाधातुः दीप्तौ । भा+-णिग्+सिन् । ६३८ सू० णिगःस्थाने भाव इत्यादेशे ५ स० दीर्घसन्धी, ६२८ सू० तिव इचादेशे भाषद इति भवति । तत-तं, प्रक्रिया १३८५
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोका-द्रयोपेतम् * सूत्रस्य प्रथम-श्लोके से यम् । भवतु । भूधातुः सत्तायाम् । भू+तु । ७३१ सू० भूधातोः स्थाने हो इत्यादेशे, ६६२ सू० तुवः दु इत्यादेशे, १७७ सू० दकारलोपे होड इति भवति । इवानीम्-एम्बहि, इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । प्रत्युतस्य पसलिङ । प्रस्तुतसूत्रेण प्रत्युत इत्यस्य पदस्य पच्चलित इत्यादेशो भधति । यथा---
सबलावण्या गोरी नवा कापि विषपन्थिः ।
भटः प्रत्युत सम्रियते यत्य न लगति कण्ठे ।।३।। भावार्थ:--इयं गौरी-गौर-वर्ण-वती नायिका काऽपि काचित् मवा-नवीनाअद्भुतेत्यर्थः,विषग्रन्थि: विषस्य हलाहलस्य ग्रन्धिर्वर्तते, प्रत्युस-यतो यस्य भटस्येयं कण्ठे न लगति-स्पृशति, तयाऽस्पष्टोऽपिस भट:-योद्धा म्रियते। या लोक-प्रसिद्धा विषन्धिविद्यते, सातु कण्ठे विलग्ना सति प्राणिनं मारयति, क्रिन्त्वियं गौरीरूपा विषअस्थिरतादशी भीमा वर्तते यत् कण्ठेऽलग्नेच प्राणिनं मारयतीति भावः।
सर्वसावण्या। सर्वलावण्या+सि । १०६९सू० रेफलोपे,१००० सू० माघाउकारस्य प्राकारे,दीर्घस्वात् ३६३ सू० वकारस्य द्विश्वाऽभावे,अत्र लवणार्थको लावण्यशब्दोऽस्त्यतः १७१ सू० परेण सस्वरव्य
जनेन सह प्राधाकारस्य स्थाने प्रोकारे,३४९ स० यकारस्य लोपे, ३६३ सू० णकारस्य द्विस्वाभावे स्त्रीत्वविवक्षायां ५२१ स० डी-(ई)-प्रत्यये,१० सू० स्वरस्य लोपे अज्झीने परेण संयोज्ये,१०१५ स० सेोपे साबलोणी इति भवति । गौरी । गीरी+सि । १५९ सू० प्रौकारस्य स्थाने प्रोकारे, ११०० सू० स्वार्थ ४-(मह)प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये,११०२ सू. डी.(ई)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, पज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेलोपे गोरी इति भवति । नया। मथा+सि । १०२३ सू० नव इत्यस्य स्थाने नवख इत्यादेशे,स्त्रीस्वविवक्षायामाप-प्रसंगे ५२१ सू० सी-(ई)-प्रत्यये,१० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, सेलोपे नवखी इति भवति । का। किम् +सि । ५६० स० किमः स्थाने क इत्यादेशे,स्त्रीत्वविवक्षायामाप-(प्रा)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घ-सन्धी, १००१ सूज आकारस्य स्थाने प्रकारे, सेलोपे क इति भवति । अपि-वि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया। विषग्रन्थिः । विषग्रन्थि+सि । २६० सू० षकारस्य सकारे, ७९१ सू० ग्रन्थ्-धातोः गण्ठ स्थाने इत्यादेशे विसगण्ठ++सि इति जाते, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सिप्रत्ययस्य लोपे विसण्ठि इति भवति । भसः । भट+सि । इत्यत्र १९५ सू० टकारस्य स्थाने डकारे,१००२ स० अकारस्य उकार,सेलोप भर इति भवात। प्रत्यता अध्ययपदमिदम प्रस्ततसत्रेण प्रत्यत इत्यस्य पच्चलिउहत्यादेश.१००० स०उकारस्य प्रोकारे पञ्चलिओ इति भवति । सः। तद+सि-सो,प्रक्रिया १००३ सूत्रस्य प्रथम-श्लोके ज्ञेया। प्रियते । मूडप्राणत्यागे । मृ+ते । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे,६२० सू० तिवः स्थाने इचादेशे मरा इति भवति । यस्य जासु,प्रक्रिया १०२९ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया । न । मध्ययपमिदं संस्कृतवदेवाऽपभ्रशे प्रयुज्यते । लगति । लंग-पातालगने । लग+तिवलगह, इत्यस्य प्रक्रिया ९०१ सत्रे ज्ञया। कण्ठे। कण्ठ+डि। १००५ सू० विमा सह अकारस्य इकारे फण्ठि इति भवति । प्रत्युत-पच्चलिप्रो इत्यत्र प्र. स्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। इतस एकहे । इतः इत्यस्य पदस्थ स्थाने एत्तहे इत्यादेशो भवति । यथा--इतः मेघा-पिबन्ति जसम् एत्तहें मेह पिअस्ति जल,एतेषां पदानां प्रक्रिया १०९० सूत्रस्य चतुर्थश्लोके शेया। बताएत्तहे इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिदंश्यते । १०९२-~-विषण्णस्य कुन्नः । प्रस्तुतसूत्रेण विषण्णशब्दस्य बुन्न इत्यादेशो भवति । यथा----
भयोक्तं रवं धुरी पर गलिवृषभः विगुप्तानि । स्वमा विना षवल ! मारोहति भरः एवमेव विषण्णा किला ||
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प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपाद
भावार्थ:- युग काष्ठविक्षेपकं वृषभं प्रति कस्यचन शाकटिकस्य उतिरियम् - गतिषुषर्भः, गलयश्च ते वृषभाः गतिवृषभाः तैः शक्तिचौरवृषभैः विगुप्तानि प्ररक्षितानि मीचैः पातितानि शकटादीनीत्यर्थः हे धवल ! श्वेतवृषभ ! स्वया विना केनचिदप्यन्येन वृषभेत एष भरः- भारः नारोहति नाऽवरोद्धुं orts:, इति for freeयोऽस्ति । श्रतः प्रयोक्तं यस्वं घुरा घर-भारं वाहय एवमेव श्रन्यर्थवं विषण्णःदुःखितः सन् किं करिष्यसि ? न किमपीति भावः ।
३०४
मयाम, प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य तृतीय- श्लोके शेया । उक्तम् । उक्त +सि । प्रस्तुतसूत्रेण उइत्यस्य वृत्त इत्यादेशे, ४३५ सू० स्वायें कप्रत्यये, १७७ सू० ककारस्य लोपे १०२५ सू० प्रकारस्य उं इत्यादेशे, १०१५ सू० सेल िवुत्तउं इति भवति । एवम् तुहुँ, प्रक्रिया १०३९ सूत्रे ज्ञेया । घुराम् । घुरा+ श्रम् । १००१ सू० आकारस्य स्थाने अकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे घुर १००० सू० प्रकारस्य उकारे द इति भवति । पर । घृत्र (धृ ) धरणे । धृ+ हि । ९०५ ० ऋकारस्य चर इत्यादेशे, १०५४ सू० हि इत्यस्य हि इत्यादेशे परहिं इति भवति । गलिबुषर्भः । गलिवृषभ+भिस् । अपभ्रंशे गलिवृषभायें १०९३ सू० कसर-शब्दः प्रयुज्यते, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, ५०४ सू० प्रकारस्य एकारे कसरेहिं इति भवति । विगुप्तानि । विगुप्त + जस् । ३४९ सू० पकारलोपे, ३६० सू० तकारद्विश्वे, १००१ सू० प्रकारस्य आकारे, १०२४ सु० जसः स्थाने ई इत्यादेशे विगुसाई इति भवति । त्वयाप प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । बिना । श्रव्ययपदमिदम् । २२० सू० नकारस्य णकारे, १०९७ सू० स्वार्थे - ( उ ) - प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे प्रज्झीने परेण संयोज्ये विणु इति भवति । घबलः । धवल +सि । १०१५ सू० सेलोंपे धवल इति भवति । न । प्रव्ययपदमिदं संस्कृतवदेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । आरोहति धापूर्वक : रुह धातुः प्रारोहणे । प्रारुह + तिव् । ८७७ सू० श्रारुह् इत्यस्य स्थाने चड इत्यादेशे, ६२८ सू० लिव इचादेशे च इति भवति । भरः । भर+सि । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, सेलोंपे भर इति भ वति । एवमेव = एम्बइ, प्रक्रिया १०९१ सूत्रे ज्ञेया । विषण्णः । विषण्ण +सि । प्रस्तुतसूत्रेण विषण्णशब्दस्य वुन त्या देणे, ११०० सू० श्रप्रत्यये, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे बुन्न इति भवति । किम् काई प्रक्रिया २०३८ सूत्रे ज्ञेया । विष्णन इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। उक्तस्य कुतः । उक्त इत्यस्य पदस्य वृत्त इत्यादेशो भवति । यथा मया उसम्मई दुत्तरं, प्रक्रियाऽस्मिन्नेव सूत्रे समु ल्लिखिताऽस्ति । मया । श्रस्मद् + दा । इत्यत्र १०४८ सू० टाप्रत्ययेन सह अस्मदः स्थाने मह इत्यादेरो म इति भवति । तो विच । वत्र्त्मन् इत्यस्य पदस्य स्थाने विश्वच इत्यादेशो भवति । यथा येन मनो वर्त्मनि न माति म विश्चि न माइ, प्रक्रिया १०२१ सूत्रे ज्ञेया । न इत्यत्र वैकल्पिकत्वात् २२९ सू० नकारस्य णकारो न जातः । वर्त्मनि विश्चि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । एकं कस्मिन है ! अपि नाऽयासि अन्यत् शोध याति ।
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१०६३
aur fमत्र ! प्रमाणितः त्वया
यादृशः खलः नहि ॥ १ ॥
भावार्थ:- मित्रं प्रति रोषपूर्णमुपालम्भवाक्यं कश्विदाह ह इति सम्बोधने, हे इत्यर्थः । एकप्रथमं तु स्वमस्माकं गृहे कस्मिन् कदाचिवपि नाऽयासि यदि कदाचिदायासि तदा शीघ्रमेव पासि-प्रस्थितो भवसि । त्वया श्राचरितमिदं व्यवहारं समीक्ष्य हे मित्र मयाऽयं प्रमाणितः निश्चितः पद्यादृशस्त्वं खलः- कठोरः तादृशः खलु न कोऽपि खलो वर्तते । त्वं बहुनिष्ठुरोऽसीति भावः ।
एकम् 1 एक+सि । ३७० सू० ककारस्य द्वित्वे १००२ सू० प्रकारस्य उकारे १०१५ सू० haft एक्कु इति भवति । कस्मिन् । किस्+ङि । इत्यत्र ५६० सू० किम: स्थाने क इत्यादेशे ५५४ सू०
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܀
चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
३०५
fsster स्थाने
इत्यादेशे, बाहुल्येन १० सूत्रस्याप्रवृत्तौ, १००१ सू० श्राकारस्य प्रकारे कद्द इति भवति । । प्रव्ययपदमिदम्। संस्कृत तुल्यमेवाऽपत्र थे प्रयुज्यते । अपि विप्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । म अभ्ययपदमिदं संस्कृतसममेवाज्पभ्रशे प्रयुज्यते
पूर्व
सि । प्रपत्र माया इत्यर्थे १०६६ सू० भाव इति प्रयुज्यते, १०५४ सू० सिप्रत्ययस्य स्थाने हि इत्यादेशे, १००० सू० इकारस्य ईकारे आवही इति भवति । अन्यत् । ग्रन्यद्+सि । इत्यत्र ३४९ सू० यकारस्य लोपे, ३६० सू० नकारस्य द्विश्वे ११ सू० दकारलोपे, १००२ सू० श्रन्याकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि अन् इति भवति । शीघ्रम् । शीघ्र + मम् प्रस्तुतसूत्रेण शीघ्र पदस्य वल्लि इत्यादेशे, ११०० सू० स्वार्थी - प्रत्यये १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे बहिल्लउ इति भ
। यासि । या धातुः गतौ या + सिन्। २४५ सू० यकारस्य जकारे, १०५४ सू० मित्र: स्थाने हि इत्यादेशे जाहि इति भवति । मया मइँ, प्रक्रिया १०४८ सूत्रे ज्ञेया । मित्र । मित्र+सि । १०६९ सू० रेफलोपे, ३६० सू० तकारद्वित्वे ११०० सू० स्वार्थे उड- (श्रड) - प्रत्यये, डिति परेऽन्यस्वरादेलपि, अभी परेण संयोज्ये, १००१ सू० प्रकारस्य श्राकारे, १०१५ सू० सेलपि मित्तका ! इति भवति । प्रमाणितः । प्रमाणित + सि । वैकल्पिकत्वात् १०६१ सू० रेफस्याऽलोपे, १७७ सू० तकारलोपे ११०० सू० स्वार्थे श्रप्रत्यये १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे प्रमाणित इति भवति । स्वया पइँ, इत्यस्य प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । यादृशः । यादृश / सि । २४५ सू० यकारस्य जकारे, १०७३ सू० वृश इत्यस्य देह ( एह ) इत्यादेशे ङिति परेऽन्त्यस्वरादेलपि, ज्भीने परेण संयोज्ये ११०० सू० स्वायें अप्रत्यये १००२ सू० मकारस्य उकारों, सेर्लोपे मेहर इति भवति । शः । खल+सि । १००१ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे खलु इति भवति । नहि । अव्ययपदमिदम् । १०९० सू० नहि इत्यस्य नाहि इत्यादेशे नाहि इति भवति । शीघ्रम् वहिल इत्यव प्रस्तुत - सूत्रस्य प्रवृत्तिता । कलहस्य बलः । कलह शब्दस्य स्थाने घङ्खल इत्यादेशो भवति । यथा -- सुपुरुषाः तथा कलहाः, यथा मद्यस्तथा घलमानि ।
यथा पर्वताः तथा कोटराणि, हृदय ! खिद्यसे किम् ? ||२||
भावार्थ:- दुःख भार विकलं पुरुषं प्रति कस्यचन पुरुषस्य श्राश्वासनोक्तिरियम् - यथान्यादृशाः, सुपुषा:-- शोभनाः पुरुषाः भवन्ति तथा तादृक्षा एव कलहा श्रपि भवन्ति । यथा नद्यः सबलाः परोपका रिण्यश्च भवन्ति । तथा तासु वलमानि वकत्वान्यपि भवन्ति । यथा विशालाः पर्वताः तथैव तेषु कोटरामि - गह्वराण्यपि भवन्ति । श्रतः हे हृदय ! दुःखेन किम् कथम् खिसे - किमर्थं दुःखी भवसि ? यावन्तो महापुरुषाः सम्भूताः ते सर्वे दुःखान्यनुभूयैव महस्वमुपगताः । श्रतः स्वल्पेन दुःखेन निराशी मा भव ।
rat = जिव इत्यस्य प्रक्रिया १०६८ सूत्रे ज्ञेया । पुरुषाः । सुपुरुष + जस्। १११ सू० रोरुकारस्य इकारे, २६० सू० षकारस्य सकारे, १०१५ सू० जसो लोपे सुपुरिस इति भवति । तथातिवं प्रक्रिया १०६८ सूत्रे ज्ञेया कलहाः । कलह + जस् । प्रस्तुतसूत्रेण कलहस्य घञ्चल इस्थादेशे, बाहुल्येन १०२४ सू० जसः स्थाने षं इत्यादेशे घन इति भवति । नद्यः । नदी + जस् । १७७ सू० दकारस्य लोपे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, १०१५ सु० जसो लोपे न इति भवति । वसनामि । वलन + जस् । २२० सू० नकारस्य णकारे, १००१ सू० अकारस्य प्रकारे, १०२४ सू० जसः स्थाने हूं इत्यादेशे बलखा इति भवति । पर्वताः । पर्वत + जस् । अपन्न पर्वताऽर्थे प्रस्तुतसूत्रेण डोङ्गर-शब्दः प्रयुज्यते, जसी लोपे डोर इति *स्य मम इति पाठान्तरमपि समुपलभ्यते ।
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादो भवति । कोटराणि । कोटर+जस । ३७० सू० टकारस्य द्वित्त्वे,८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,११६ सू० उकारस्य भोकारे, १०२४ सू० जसः स्थाने इं इत्यादेशे कोट्टरई इति भवति । हुवय !! हृदय ---सि । १२८ सू० कारस्य इकारे, १७ : स्कार' लोग, २६... सरकार होणे, १००१ सू० प्रकारस्थ प्राकारे, १०१५ सू० सेलोपे हिमा! इति भवति । सिंधसे । खिद् खेदे 1 खि+से । ८०३ सू० खिदधातोः स्थाने विसूर इत्यादेशे, १०५४ सू० से इत्यस्य हि इत्यादेशे विसुरहि इति भवति । किम् काई, प्रक्रिया १०३८ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । कलहा घधलई, पर्वता: डोगर, इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । अस्पृश्यसंसर्गस्थ विद्यालः । मस्पृश्यसंसर्ग-शब्दस्य स्थाने बिट्टाल इत्यादेशो भवति । यथा
थे मुक्का रस्मनिधिमात्मानं सटे क्षिपन्ति ।
तेषां शरनामस्पृश्यसंसर्गाः परं फूरकुर्वासा भ्रमन्ति ॥३॥ भावार्थ:-- योग्यस्थानं परित्यज्य गच्छन्त कञ्चिन्नरंप्रति शङ्खान्योक्त्या कश्चिदाह-ये शङ्खाः, मनिधिम, रतनानां निधिः,रस्ननिधिःत रत्ननिधिम-रत्नाकर समुद्र मुक्त्या-वक्त्वा आत्मानं तटे---- समुद्रतटे क्षिपन्ति स्थापयन्ति,तेषां शलानां संग्रहणं कृत्वा,अस्पृश्यसंसर्गाः,अस्पृश्यः संसर्गो येषां तेऽधमजनाः गोपालका वा कुरकुर्वाणा-वादनपरा इतस्ततः भ्रमन्ति पर्यटन्तीति भावः ।
ये-जे, प्रक्रिया ५४७ सूत्रे शेया । मुक्त्वा । मुच्लु(मुच)मोचने । मुन्नत्वा । ७६२ सू० मुच्धातोः स्थाने छडे इत्यादेशे, ११११ सू० क्त्वः स्थाने एथिणु इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे,अज्झीने परेण संयोज्ये छम्डेविशु इति भवति । रत्ननिधिम् । रत्ननिधि+अम् । ३७२ सू० नकारात्पूर्वेऽकाराऽगमे, १७७ सू० तकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ, २२८ सू० प्रथमनकारस्य णकारे, १८७ सू० धकारस्य हकार, १०१५ सू० सेलपि रयणनिहि इति भवति । ११ सूत्रस्य वृत्तिमनुसृत्य नकारस्यादिभूतत्वादत्र २२८ सू० णकारो न जातः । आत्मामम् । प्रात्मन+अम् । ३२२ सू० स्मस्य पकारे, ३६० सू० पकारविर, ४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ११ सू० नकारलोपे, ४३५ सू. स्वार्थे कप्रत्यये, १७७ सू० ककारस्य लोपे,१०२५ सू० प्रकारस्य उ इत्यादेशे,१०६२ सू० उच्चारणस्य लाघवे, १०१५ सू० अमो लोपे अप्प इति भवति । तटे । व+डि। १९५ सू० टकारस्य अकारे, १००५ सू० हिना सह प्रकारस्य इकारे तर इति भवति । क्षिपन्ति । क्षिप् क्षेपे । क्षिप् + अन्ति । अपभ्रंशे क्षिपर्षे १०६६ सू० घल्ल' इति देश्यधातुःप्रयुज्यते,६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे घल्लन्ति इति भवति । सेषाम् । तद् प्राम् ।। सू० दकारलोपे, १०१० सू० भामः स्थाने हं इत्यादेशे तहं इति भवति । शङ्खानाम् । शङ्खधाम् । २६. सू० शकारस्य सकारे, पूर्ववदेन सह इति भवति । अस्पृश्यसंसर्गाः। अस्पश्य-संसर्ग+जेस् । प्रस्ततसूत्रेण अस्पृश्यसंसस्य स्थान विट्टाल-शब्दः प्रयुज्यते, १००२ सू० मकारस्थ उकार, १०१५ सू० जसो लोपे विट्ठालु इति भवति । परम्-पर,प्रक्रिया १०८१ सूत्रे ज्ञेया,१००० सू० अकारस्य उकारे पर इस्यपि भवति । फूत्कुरिणाः । फूतपूर्वकः डुकृञ् (क) धातुः फूत-करणे । फूक+पानश्+जस् । इत्यत्र प्रपभ्रशे १०६६ सू० फूल्क इत्यस्य स्थाने फुक्किज्ज इति देश्यधातुः प्रयुज्यते,६७० सू० पानश: स्थाने स्त इत्यादेशे,१०१५ सू० जसा लोपे फुक्किज्जन्त इति भवति । भ्रमन्ति । भ्रम(भ्रम्)भ्रमणे । भ्रम्+प्रन्ति । १०६९ सू० रेफ-लोपे, ९१० सू० प्रकाराममे. ६३१ सू० अन्ते। स्थाने न्ति इत्यादेशे भमन्ति इति भवति । असंस्नुषा-संसः-विट्टालु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । भयस्य प्रवकः । प्रस्तुतसूत्रेण मधशब्दस्य स्थाने बाक इत्यादेशो भवति । यथा---
विधः अजितं खाक मुख । संचिनु मा एकमपि ब्रम्मम् । किमपि भयं तस्पति येन समाप्यते अम्म ॥४॥
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चतुर्मपादः
★ संस्कृत हिम्बी-टीकाद्रयोपेतस★
३०७
भावार्थ:-कृपणं नरं प्रति कस्यचित् पुरुषस्योक्तिरियम् । हे मूढ ! हे विवेकविकल !, विवे:-दिव सरैजितम् - उपार्जितं द्रव्यं-वनादिक खाव-भक्षय, सेव । एकमपि गणितशास्त्रप्रसिद्धं मानम्, तं मात्यव्ययपदं निषेधे संचिन-संग्रहं कुरु यतः अदिति षद पति-पाति टिति जन्म-जीवनं समाप्य समाप्तिमेति । कर्मणो गतिः विचित्रा वर्तते, अतः न जाने कदा कर्मणः प्रकोपो भवेदिति भावः ।
free । दिव+भि । १००६ सू० श्रकारस्य स्थाने एकारे, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे, १०१८ सू० भिसा स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे विवे हिं इति भवति । तम् । अजित+सि । ९२९ सू० भर्जितस्य स्थाने वितत्त इत्यादेशे, ४३५ सू० स्वार्थे कप्रत्यये, १७० सू० ककारलोपे, १०२५ सू० प्रकारस्य उं इत्यादेशे, २००२ सु० उच्चारणस्य लाघवे, १०१५ सू० सेल विस इति भवति । खाद | खाद् भक्षये । बाद+हि । ८९९ सू० दकारलोये १०५४ सू० हि इत्यस्य हि इत्यादेशे खाहि इति भवति । मूढ ! । मूढ+सि । प्रस्तुतसूत्रेण मूढस्य स्थाने वढ इत्यादेश, सेर्लोपे वड ! इति भवति । चिनु । सम्पूर्वः चित्र (चि) धातुः स्वय-संचये । संचि + हि १०५८ सू० हि इत्यस्य इकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे, ग्रीने परेण संयोज्ये संचि इति भवति । मा । श्रव्ययपदमिदम् | १००० सू० प्रकारस्य प्रकारे म इति भवति । एकम् । एक + श्रम् । इत्यत्र ३७० सू० ककारद्वित्वे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे एक् इति भवति । अपि विप्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । द्रम्मम् ।
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+ वैकल्पिकवाद १०६१ सू० रेफलोपस्याडमाके, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० भ्रमो लोपे तु इति भवति । किम् । किम्+ सि । श्रत्र किम्-शब्दः नपुंafast a feतु भयस्य स्थाने यः द्रवक्क-शब्दादेशो भवति स पुल्लिङ्गः तद्विशेषणत्वात् मयं far-cast for एवं संगृहीतः । ततः ५६० सू० किम: स्थाने क इत्यादेशे, १००३ सू० प्रकारस्य थाने प्रकारे १०१५ सू० सेलों को इति भवति । भयम् । भय+सि । प्रस्तुतसूत्रेण भयस्य स्थाने इति पुल्लिङ्गाऽदेशे जाते, ११०० सू० श्रप्रत्यये, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलफे ' इति भवति । तद्सो, इत्यस्य प्रक्रिया १०११ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया । पतति - पहइ, प्रक्रिया ८९० सूत्रे ज्ञेया । येन =जेण प्रक्रिया १०८५ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेत्रा । समाप्यते । सम्पूर्वकः प्राप्लु( श्राप ) - धातुः समा । समाप् +क्य + ते। संस्कृतनियमेन समाप्य + ते इति जाते, ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० प्रकारदिवे, ८४ सू० संयोगे परे हस्बे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इनादेशे समय इति भवति । खम्म जन्मन् + सिजम्मू, प्रक्रिया १०६७ सूत्रस्य तृतीयश्लोके ज्ञेया । भयम् = द्रवक्कर इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिता । आत्मीयस्व अध्वणः । प्रस्तुत सूत्रेण श्रात्मीय शब्दस्थ स्थाने प्रथम-शब्दः प्रयुज्यते । यथा-स्फोटयतः यो हृदयमात्मीयम् - फोडेन्ति जे हिउं पग प्रक्रिया १०३८ सूत्रस्य द्वितीयaath aara, अप्पणसं इत्यत्र बाहुल्येन १०८२ सूत्रेण उच्चारणस्य लाघवं न जातम् । श्रारभीयम् इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । हृष्टेर्ते हिः । दृष्टिशब्दस्य स्थाने हि इत्यादेशो भ वति । यथा एकमेकं यद्यपि पश्यति हरिः सुष्ठु सर्वावरेण, ततोऽपि हृष्टि: यस्मिन् कस्मिन्नपि राधा ।
कः शक्नोति संवt हवनयने स्नेहेन पर्यस्ते ॥ ५६
भावार्थ: सर्वप्रियस्यापि कृष्णस्य राधाया उपरि स्नेहाऽतिरेकं वीक्ष्य कस्यचनोक्तिरियम् । हरिः कृष्णः यद्यपि, एकमेकं प्रत्येक प्रियजन सुशोभनेन प्रकारेण सर्वादरेण सर्वश्वासो आदरस्तेन व
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par
कृत-का★
चतुर्वपादः
यतीति सत्यं ततोऽपि तथापि यस्मिन् कस्मिन्नपि यत्र कुत्राऽपि राघा भवति तत्रैव तस्य कृष्णस्य दृष्टि:पतति । यतः मेहेन पर्यस्ते परिपूर्ण वृढनयने, दृढे सबले नयने, संदशेतु निरोद्धुं कः शक्नोति ? को नाम समर्था भवति ? न कोऽपीति । यत्र स्नेहाऽऽधिषयं भवति, तत्रैव दृष्टितीति भावः ।
एकमेकम् । एक+श्रम्, एक + अम् । इत्यत्र ३७० सूत्रेण प्रथमस्य ककारस्य द्वित्त्वे, ४९० सू०
पदे परे म्-प्रत्ययस्य मकारे, अज्झीने परेण संयोज्ये एक्कमेक + प्रम् इति जाते, ३७० सू० ककारस्य हिरवे, ४३५ सु० कप्रत्यये १७७ सु० ककारलोपे, १०२५ सु० प्रकारस्य उ इत्यादेशे, १०१५ सू० श्रमो लोपे एक्कमेवक इति भवति । बाहुल्येनात्र ८४ सू० ह्रस्वो न जातः । यदि जड़, प्रक्रिया १०५५ सूत्रे ज्ञेया । अविवि प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । पश्यति । दृशिर् (दृश्)-मातुः दर्शने । दृश् + तिच् । अपभ्रंशे दृश् इत्यर्थे १०६६ सू० जोग्र इति देश्यधातुः प्रयुज्यते ६२० सू० तिव: स्थाने दचादेशे, ९४४ ० इच: स्थाने दि इत्यादेशे, ६४७ सू० प्रकारस्य एकारे ओएवि इति भवति । हरि हरि + सि । १०१५ सू० सेर्लोपे हरि इति भवति । सुष्ठु । श्रव्ययपदमिदम् । ३४८ सू० एकारलोपे, ३६० सू० ठकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य टकारे सुट्टु इति भवति । सर्वादरेण । सर्वादर +टा । ३५० सू० रेफस्य लोपे, ३६० सू० वकारस्य द्वित्वे १७७ सूत्रेण दकारलोपे, १८० सू० यकारतो. १०९३ सू० टास्थाने नकारे स्थानिवस्त्रात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे सभ्वायरेण इति भवति । ततः तो, इत्यस्य प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । दृष्टिः । दृष्टिमि । प्रस्तुतसूत्रेण दृष्टि शब्दस्य देहि इत्यादेशे, १०१५ सु० सेर्लोपे द्रोहि इति भवति । यस्मिन् जहि प्रक्रिया ५४९ सूत्रे ज्ञेया । कस्मिन् - afg, प्रक्रिया ५४९ सूत्रे ज्ञेया । राधा राधा+सि । इत्यत्र १८७ सू० षकारस्य हकारे, १००० सू० याकारस्य ईकारे, १०१५ सू० सेलोपे राही इति भवति । कःको प्रक्रिया १०६७ सुत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया । शक्नोति । शक्लृ [ शक् ] शक्तौ । शक्+ सिव्सकइ प्रक्रिया ९०१ सूत्रे ज्ञेया । संवत्म् । सम्पूर्वक: वृ धातुः संवरणे । संवृ + तुम् । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, प्रज्भाने परेण संयोज्ये, १११२ ० तुम्-प्रत्ययस्य स्थाने एवि इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, ग्रज्झीने परेण सं ज्ये, १०८१ सू० उच्चारणस्य लाघवे संवरे वि इति भवति । डढनवने दृढनग्रन + श्रौ । १२६ सू० ऋकारस्य श्र कारे, ३७० सू० ढकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वढकारस्य डकारे ११ सूत्रमनुसृत्य "समासे तु वास्यविभक्त्यपेक्षायामस्त्यत्वमनन्त्यमवञ्च भवति, प्रतोऽत्र नयनस्य श्रादिमनकारस्य आदि स्त्रात् २२९ सूत्रेण प्राप्तः णकारः वैकल्पिको भवति, वैकल्पिकत्वादेवास्त्र नकारस्य णकाराऽभावे २२० सू० अस्यनकारस्य णकारे, ६११ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १००१ सू० प्रकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० जसो लोपे वयणा इति भवति । स्नेहेन । स्नेह+दा । ३४८ सू० सकारलोपे, १००० सू० प्रकारस्य इकारे, १०१४ सू० टास्थानेऽनुस्वारे नहि इति भवति । पर्यस्ते । पर्यस्त + प्रौ । ३३९ सू० र्यस्य ल्ल इत्यादेशे, ३१० सू० स्तस्य टकारे, ३६० सू० टकारस्य द्वित्वे १००० सू० रुल-स्थस्य प्रकारस्य उकारे, ६११ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १००१ सू० प्रकारस्य स्थाने प्राकारे, १०१५ सू० जस्-प्रत्ययस्य लोपे पल्बुट्टा इति भवति । वृष्टि: देहि, इत्यत्र प्रस्तुतस्य [ १०९३] सूत्रस्य प्रवृत्तिता । गाढस्य निवट्टः । माढशब्दस्य स्थाने निच्च इत्यादेशो भवति । यथा
1
I
fara eta fereeवं योधने कस्य गर्वः ?
229
सः लेखः प्रस्वाप्यते यः लगति गाढम् ||६ ॥
भावार्थ:---यौवन-वैभव मान द्योतक पत्रके वीक्ष्य कस्यचन ज्ञानिन उक्तिरियम् — विभवे-सtreat her feereeम् ? को नाम सर्वदा धनी भवति ? न कोऽपीति भावः । यौवने कस्य गर्वः ?,
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जात.
चतुर्थपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टीका-मोपेतम् * अभिमान: स्थिरी भवेत् ? न कस्यापि । इयं वस्तुस्थितिः परन्तु तेन पुरुषेण स एव लेख:-यौवन-वैभवमान-परिपूर्णः लेखः प्रस्याप्यते-प्रेष्यते, यः गावं लगति मतिशयता-पूर्णम्, अतिशयोक्ति-युक्तं प्रतीयते ।
विभवे । विभव-+द्विः । १८७ सू० भकारस्य हकारे,१००५ सू० डिना सह अकारस्थ एकारे विह इति भवति । कत्या किम् + इस । इत्यत्र ५६० स० किमः स्थाने क इत्यादेशे,१००९स० स: स्थाने स्सू इत्यादेशे कस्सु इति भवति । स्थिरत्वम् । स्थिरत्व+सि 1 ३४८ सू० सकारस्य लोपे,४२५ स त्वस्य तण इत्यादेशे, ४३५ स० स्वार्थ कप्रत्यये, १७७ स० ककारलोपे, १०२५ समकारस्य इत्यादेशे,१०१५ सू० सेर्लोपे विरतण इति भवति । योवने । यौवन+डि । इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य जकारे,१५९ सू० मौकारस्य प्रकारे,३७० सुवकारद्वित्त्वे,बाहुल्येनाऽत्र ४ सू० ह्रस्वाभावे,२२८ सू० नकारस्य णकारे, १००५ डिना सह अकारस्य इकारे जोणि इति भवति । गर्दः । गवं+सि । अपभ्रंशे गर्वाऽर्थे १०९३ सू० मरट्ट-शब्दः प्रयुज्यते, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि मरटु इति भवति । सः म सो, प्रक्रिया १०७२ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । लेखः । लेख+सि । प्रायोग्रहणादत्र १५७ सू० खकारस्य हकाराभावे, ११०१ स० स्वार्थे उद्धन-(मडप्र)-प्रत्यये,डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०७२ सू० अकारस्य उकारे, सेलोपे लेख इति भवति । प्रस्थाप्यते । प्रपूर्वका ष्ठा-[स्था]-धातुःप्र. स्थापने प्रस्था+णिग+ते । इत्यत्र १०६९ स० रेफलोपे,६५७० स्थाधातोः स्थाने ठा इत्यादेशे,बाहुस्येन ३६० स० ठकारस्थ द्वित्वाऽभावे, ६३९ सू० णिगः स्थाने अवि इत्यादेशे, ५ सू० दीर्घसन्धी,श्यप्रत्यय, ६४९ स० क्यस्थ प्र इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये पठावी+ते इति
२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे पठाविना इति भवति । यः-जो, प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य चतुर्थश्लोके ज्ञेया । सगति लग्गइ, प्रक्रिया ९०१ सूत्रे शेया । गाउम् । क्रियाविशेषणमिदम् । गाढ+अम् । प्रस्तुततसूत्रेण माह-शब्दस्य स्थाने निच्चद्र इत्यादेशे, १००२ स० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे मिश्च टटु इति भवति । गाढम् = निच्चटु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिजतिा । साधारणस्य सडला । साधारणशब्दस्य सड़ल इत्यादेशो भवति । यथा
कुत्र शशंषरः, कुत्र मकरधरः, कुत्र बहिणः, कुत्र मेधः ?
दूरस्थितानामपि सज्जनानां भवत्यसाधारण स्नेहः ।।७।। भावार्थ:-कत्र-कशशधरः शशम-शश धरतीति शशधरः चन्द्रः, कत्र मकरबर:-समुद्रः, तथा कुत्र बहिण:- मयूर,कुत्र मेधः-धनः,समस्ति,तथापि एषां मिपो-परस्परं महान् स्नेहो विद्यते, चन्द्रं समीक्ष्य समुद्रः उच्छलति, तथा बहिणा:-मयूरा: मेध-गर्जनं निशम्य केकारवं कुर्वन्ति, प्रत्राऽसाधारणः स्नेहः एवं कारण प्रतीयते । सत्यमेतत् यद् पूरस्थितानामपि दूरवर्तिनामपि सज्जनानां सतां, सहृदयानां, पुरुषाणाम् असाधारण:-प्रतिशयितः स्नेहो भवति ।
कुत्र । अत्र कस्मिन् इत्यर्थ कः कुत्र-शब्दो बोध्या । प्रतोऽत्र किम् -+-डि इति जाते, ५६० सू० किमः स्थाने क इत्यादेशे, ५४९ सू० डे: स्थाने हिं इत्यादेशे १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे कहि इति भवति । शशधरः । शशधर+शि । २६० सू० उभयत्रापि शकारस्य सकारे,१८७ सू० धकारस्य हकारे, १००२ सृ० प्रकारस्थ उकारे,१०१५ सू० सेलोपे ससहरु इति भवति । मकर-बरः । मकरधर+सि । १७७ सू० ककारस्य लोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ, १५७ सू० धकारस्य स्थाने हकारे,पूर्ववदेव मवर-हरू इलि भवति । बहिणः । बहिण + सि । ३७५ स० रेफाद पूर्वे इकारागमे,पूर्वववदेव परिहिशु इति भवति । मेषः । मेष+सि । १८७ सू० घकारस्य हकारे,पूर्ववदेव मेह इति भवति । दूरस्थितानाम् । दूर-ठा (स्था)
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-----APawwamnnapshunpuhan
* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादा +क्तन्त । ६८७ सू० स्थाधातोः स्थाने ठा इत्यादेशे,११ सूत्रमनुसृत्य ठकारस्थ प्रादिभूतत्वात् ३६० सू० ठकारस्य द्वित्त्वाऽभावे,१००० सू० प्राकारस्य प्रकारे,६४५ सू० प्रकारस्य इकारे,१७७ सू० तकारलोपे, १००१ सू० अकारस्य प्राकारे, नाम्-प्रत्यये, १०१० सू० प्रामः स्थाने हं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्थ लाघवे रठिमाह इति भवति । अपि =वि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । सज्जनामाम् । सज्जन+ पाम् । २२८ सू० नकारस्य कारे, १०१० सू० प्रामः स्थाने हैं इत्यादेशे सजणहं इति भवति । भ. पति होइ, प्रक्रिया ७३१ मुझे ज्ञेया। मामयः । समाचारममि ! प्रस्तुतसूत्रेण साधारणशब्दस्य सङ्घल इत्यादेशे, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे,१०१५ स० सिप्रत्ययस्य लोपे प्रसङ्घलु इति भवति । स्नेहः । स्नेह+सि । ३४८ सू० सकारस्य लोपे, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ सू० सेलोपे मेष्ट्र इति भवति । असाधारणः यस प्रसङ्घलु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिांता । कौतुकस्य कोडः । कौतुकब्दस्य स्थाने कोड इत्यादेशो भवति । यथा
कुमरोऽन्येषां तश्वराणां कौतुकेन क्षिपत्ति हस्तम् ।
भमः पुनरेकल्या सहलक्यां यदि पश्चथ परमार्थम् ॥ भावार्थ:-कविः गजामा सल्लयां स्नेहाधिक्यं वर्णयति-कुछारो-हस्ती, प्रत्येषां तस्वराणाम्, तरुषु वराः, तरुवराः, तेषाम् । अत्र सप्तम्यर्थ षष्ठी । अन्येषु तरुम्वित्यर्थः, कौत केन-कुतूहलेन हस्त कर क्षिपति,किन्तु यवि यूयं परमार्य परमचारसौ अर्थः, परमार्थस्तं वस्तुतत्त्वमिति यावत् पृच्छय, तदाऽहं कपयामि यत्तस्य मनस्त्वेकस्या सल्लल्या,सल्लकिरिति हस्तिप्रियः कश्चिद् बृक्षविशेषः, तस्यां वर्तते । हस्ती खलु सल्लकिप्रियो भवतीति भावः।
कुमार । कुजर+सि । इत्यत्र १००२ स० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे कुजर इति भवति । अन्येषाम् । अन्यत्+माम् । ३४९ सू० यकारलोपे,३६० तू० नकार द्वित्वे,११ सू० दकारलोपे, १०१० सू० मामः स्थाने हैं इत्यादेशे, १०५२ सू० उच्चारणस्य लाघवे अन्नह इति भवति । तरुवरारणाम् । तस्वर+माम् । इत्यत्र १७७ सु० बकारलोपे, १०१० सू० प्रामः स्थाने हं इत्यादेशे तह-अरहं इति भवति । कौतुफेन । कौतुक+टा । प्रस्तुतसूत्रेण कौतुकल्य स्थाने कोड इत्यादेशे,८४ स० संयोगे परे हस्वे, १०१३ सू० टास्थाने णकारे,स्थानियस्चात् १००४ स०अकारस्य एकारे,१०८२ सू० उच्चारणलाघवे कुडोण इति भवति। क्षिपति । क्षिप्-धातुः क्षेपे । क्षिप्+ति । अपभ्रंशे क्षिप इत्यस्य धातोः स्थाने १०६६ सू० घल्ल इत्यस्य प्रयोगे, ६२८ सू० सिव इचादेशे घल्लइ इति भवति । हस्तम् । हस्त+धम् । ३१६ सू० स्तस्य स्थाने थकारे, ३६० सू० थ कारद्विस्वे,३६१ सू० पूर्वयकारस्य तकारे, १००२ सू० अन कारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे हत्यु इति भवति । मनः=मशु, प्रक्रिया १०२१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । पुनः-- पुणु, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । एकस्याम् । एका+डि 1 इत्यत्र ३७० सू० ककारद्वित्वे, १००१ सू० श्राकारस्य स्थाने प्रकारे, १०२८ सू० डिप्रत्ययस्य हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे एपकहि इति' भवति । सहलक्याम् । सल्लकि+डि । १७७ सू० ककारलोपे,पूर्ववदेव सल्लइहि इति भवति । अत्र १०२३ सु० : स्थाने हि इत्यादेशो जातः ! यविजय, प्रक्रिया १०५५ सूत्रे ज्ञेया । पृच्छप ! प्रच्छ-धातुः पच्छायाम् । प्रच्छु+थ । ७६८ सू० प्रच्छवातोः पुच्छ इत्यादेशे, ६३२ सू० थ इत्यस्य हव (ह) इत्यादेशे पुच्छह इति भवति । परमार्थम् । परमार्थ + अम्। ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० थकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वधकारस्य लकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रभो लोपे परमल्धु इति भवति । कौतुकेन-कुड्डेण इत्यत्र
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चतुर्थपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । कीडायाः खेड्डः । क्रीडाशब्दस्य स्थाने खेड्ड इत्यादेशो भवति । यथा..
क्रीडा कृता अस्माभिः, निश्चय कि प्रकथयथ ।
अनुरक्ताः भक्ताः अस्मान मा त्यज स्वामिन् ! ॥६॥ भावार्थ:-काश्चन नायिकाः उपहासजन्य-निजाऽपराधेन सरोष नायकं प्रत्याऽऽहु:-हे स्वामिन् ! अस्माभिस्तु क्रीडा कृता, उपहासो विहितः, किन्तु यूयं कि निश्चयं-सत्यमेव प्रथयथ-मन्यध्वे ? वयन्तु भवदीयाः भक्ताः, अनुरक्ताः-अनुरागिण्यः स्मः, अतः हे स्वामिन् ! रोष मा कार्षीः, तथा भक्ताः, अनुरक्ताश्च अस्मान् मा स्यज ।
कोसा। कोडा-+सि । इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण क्रीडाशब्दस्य खेड्ड इत्यादेशे, ४३५ सू० स्वार्थ कप्रत्यये, १७७ सू० ककारलोपे, १८० सयकारश्रुती, ५१४ सू० सेमकारे,२३ सू० मकाराऽनुस्वारे खेड्य इति भवति । कृता । कला+सि । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे,१७५ सू० तकारलोपे,१८० सू० यकारश्रुती, खेड्डशब्दः पुल्लिङ्गः, तस्य क्रियापदमपि पुलिङ्गमेव भविष्यति, प्रतोऽत्र प्राप्प्रत्ययो न जातः, ततः ५१४ सू० सेमंकारे, २३ सू० मकाराअनुस्वारे कयं इति भवति । अस्माभिः प्रम्हेहि प्रक्रिया १०४९ सूत्रे ज्ञेया । अथ बाहल्येन १०८२ स० उच्चारणस्थ लाघवं न जातम् । कथम् +अम्हेहिं । इत्यत्र अज्झीने परेण संयोज्ये कयमम्हेहि इति भवति । निश्चयम् । निश्चय + अम् । २९२ सू श्वस्य स्थाने छकारे, ३६० सू० छकारद्विस्वे, ३६१ स० पूर्वछकारस्य चकारे, ४९४ सू० अमोऽकारलोपे, २३ सू० मकाराऽनुस्वारे निसचय इति भवति । किम् । किम् +अ किं, प्रक्रिया ५६९ सूत्रे ज्ञेया । प्रकमयथ । प्रपूर्वकः कधातुः प्रकथने । प्रकट+थ । १०६९ सू० रेफलोपे,६७३ स० कधातोः स्थाने जम्प इत्यादेशे,१७७ सू० जकारलोपे, १८० सू. यकारभुतो,६३२ सू०प इत्यस्य हकारे पथम्पह इति भवति । अनुरस्काः । अनुरक्ता+शस् । २२० स० नकारस्य प्रकारे,३४८ स० ककारलोपे, ३६० सू० तकारद्वित्त्वे, ५१६ सू०
धाले उकारे तरसालति भवति भकभक्तास ३४-स०ककारस्य लोपे.तकारस्य द्वित्त्वे,शसः स्थाने उकारे भत्ताउ इति भवति । अस्मान् । अस्मद्+शस् । १०४७ सू० अस्मदः स्थाने प्रम्हे इत्यादेशे, १०१५ सू० शसो लोपे अम्हे इति भवति । मा। अध्ययपदमिदम् । संस्कृतवदेवापभ्रंशे प्रयुज्यते । त्यज । त्यज [त्यज] त्यागे । त्यज्+हि । बाहुल्येन ७५७ सू० त्यज्-धातोः स्थाने चय इत्यादेशे, ६६२ सू० हि इत्यस्य सु इत्यादेशे, ६६४ सू० सोलु कि श्चय इति भवति । स्वामिन् ! । स्वामिन+सि। ३५० सू० वकारलोपे,११ सू० नकारस्य लोपे, ११०० सू० स्वा अप्रत्यये,१०१५ सू सेोप सामित्र ! इति भवति । कोडा खेड्डयं, इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । रम्यस्य रवमः । रम्य-शब्दस्य स्थान रवण इत्यादेशो भवति । यथा---
सरिभिः न सरोभिःन सरोवरः नापि प्रधानमः।
वेशाः रम्याः भवन्ति मूड ! निवसद्धि सुजनैः ।।१018 भावार्य:--सता पुरुषाणो महिमानं वर्णयन् कविराह-हे मूढ ! सरिभिः नदीभिः, विशाम्याम भवन्ति,सरोभिः-तडागः देशाः रम्याः न भवन्ति,सरोवर,सरस्सु वराः सरोवरः, तैः उत्तमसरोवरैः,तथा उद्यानवन:,पुष्पवाटिका-काननदिभिरपि देशाः रस्याः न भवन्ति,देशास्तु देशनिवसभिः सुमन:-सज्जनः सत्पुरुषश्च रम्याः भवन्तीत्यर्थः।।
सरिभिः । सरिद्-+-भिस् । ११ सू० दकारलोपे, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे,१०८२ सू० उच्चारणस्य चायवे सरिहि इति भवति । न | अव्ययपदमिदं संस्कृतसममेवाउपभ्रंशे प्रयुज्यते ।
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★ाहतात.कारण
चतुर्षपादा सरोभिः । सरस+भिस् । ११ सू० सकारलोपे,१००६ सू० प्रकारस्य एकारे,१०१८ सू० भिसः स्थाने हिं इत्यादेशे,१०५२ सू० उच्चारणस्य लाघवे सरेहि इति भवति । सरोवरैः । सरस्-वर +भिस् । वाक्यापेक्षया सकारस्याऽन्त्यत्वेन ११ सू० सकारलोपे,१००६ सू० प्रकारस्य स्थाने एकारे,१०५१ सू० एकारस्य उच्चारणलाघवे, १
२०१५ स० भिसः स्थाने हि इत्यादेश.१०८२ स. उच्चारणलाघदे सर-बरे इति भवति । अपि-वि,प्रक्रिया ४८९ सूत्रे जेया । उद्यानवनः । उद्यानवन+भिस् । २९५ सू० अस्य जकारे, ३६० सू० अकारद्वित्त्वे, २२८ सू० उभयत्रापि नकारस्य णकारे, १००६ सू० प्रकारस्य एकारे, १०१८ भिसः स्थाने हि इत्यादेशे,प्रयोगदर्शनात १०१२ सत्रस्याप्रवृत्तौ उजाण-वरोहि इति भवति । देशाः । देश-+ जस् । २६० सू० शकारस्य सकारे, १०१५ सू० जसो लोपे वेस इति भवति । रम्याः । रम्य+ अस। प्रस्तुतसूत्रेण रम्यस्य स्थाने रवण इत्यादेशे,१००१ स० प्रकारस्य प्राकारे,जसो लोपे रवण्णा इति भवति । भवन्ति होन्ति प्रक्रिया ७३१ सूत्रे ज्ञेया । मू। मूढ+सि । प्रस्तुतसूत्रेण मूढस्य वढ इत्यादेशे, १०१५ सू० सेलोपे बढ! इति भवति । निवसद्भिः । निपूर्वक वस्-धातु निवासे । निवस् + शतृ । ९१० सू० प्रकारागमे,६७० स० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे,भिस्-प्रत्यये,१०१८ सू० भिस स्थाने हिं इत्यादेशे, १००६ सू० अकारस्य. एकारे,१०८१ सू० एकारस्य उच्चारणलाघवे, १०५२ सू० अनुस्वारस्य उच्चारणलाधवे निवसन्ते हि इति भवति । सुमनः । सुजन+भिस् । १७७ सू० जकारलोपे,२२८ सू० नकारस्य स्थाने णकारे,१००६ सू० अकारस्य स्थाने एकारे, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे सुअणेहि इति भवति । रम्याः-रवण्णा, मू! वह != इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । अव्भुतस्य करि।। अद्भुत-शब्दस्य स्थाने उपकरिः इत्यादेशो भवति । यथा---
हरय! स्वया एतत्कषितं ममाऽप्रतः शतवारम् ।
स्फुटिष्यामि प्रिये प्रवसति महं भण्ड ! अभुतसार । ॥११॥ . भावार्थ:-काचित् भोषितभर्तु का निवपत्पुः वियोगोऽसहमयो भवति, इति व्यक्ति-हे अद्भुतसार, अद्भुतः सारो यस्य सः विलक्षणसस्वादिलक्षणपरिणामो वा,तत्सम्बोधनम् 1 भण्ड !-भाजनविशेषः, तत्सम्बोधनम्, 'कुत्सितपात्रविशेषरूप इत्यर्थः, हस्य ! हे हृदय-भण्ड ! स्वया मम अप्रतः-सम्मुखे एतत् शतवारम् शतघा करितम्, यत् प्रिये-कान्ते प्रवसति, प्रवास-प्रवेशं गते सति स्फुटिष्यामि-नाशमुपयास्यामि । हे हृदय ! त्वं कठोरतमोऽसि, यत्प्रिये प्रवासमुपगतेऽपि न स्फुटितोऽसीति भावः ।
हवय । । हृदय+सि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, १७७ स० दकारलोपे, २६९ सू० सस्वरयकारलोपे, ११०० सू० स्वार्थ डड-(भड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्स्यस्यरादेलोपे, १००१ सू० अन्त्याकारस्य माकारे, १०१५ स. सेर्लोप हिपा! इति भवति । त्वया। युष्मद्+टा । १०४१ सू० टाप्रत्ययेन सह युष्मदः स्थाने पई इत्यादेशे पाई इति भवति । एतत् । एतद्+सि-एछ, प्रक्रिया १०३३ सूत्रे ज्ञेया। कभितम् । कथाकथ्)कयने । कथ्+क्तन्त । ६७३ सू० कथ्बातो स्थाने बोल्ल इत्यादेशे, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, ११०० सू० अप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे बोस्लिम इति भवति । अग्रतः मव्ययपदमिदम् । १०६९ सू० रेफलोपे, ३६० सू० गकारस्य द्विस्वे, १७७ सूतकारलोपे, ३७ सू० विसर्गस्य डो. (ओ) इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरावेलोपे, १००० सू० मोकारस्य इकारे अपह इति भवति । शतबारम् । शतबार+अम् । २६० सू शकारस्य सकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतो, १०१५ अमो लोपे सयवार इति भवति । स्फुटिप्यामि । स्फुट्-धातुः अशे । स्फुद+स्य+मिन् । ३४८ सू० सकारलोपे,९०२ सू० टकारद्विस्वे,९१०
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत - हिन्दी - टीकाइयोपेतम् ★
३१३
सू० अकारागमे १०५९ सू० स्यस्य सकारे, ६४६ सू० प्रकारस्य इकारे, १०५६ सू० मिय: स्थाने उं इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अकोने परेण संयोज्ये, बाहुल्येन अनुस्वारलोपे फुट्टिसु इति भवति । प्रिये । प्रिय+ङि । १०६९ सू० रेफस्य लोपे १७७ सूत्रेण यकारलोपे, १००५ सू० ङिना सह प्रकारस्य एकारे पिए इति भवति । प्रवसति । प्रपूर्वकः वस्-धातुः प्रवासे । प्रवस् + शतृ । १०६९ सू० रेफलोपे ९१० सू० प्रकाराऽगमे, ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे, डिप्रत्यये, १००५ सू० ङिना सह प्रकारस्य इकारे पवसन्ति इति भवति । अहम् प्रक्रिया १००९ सूत्रे ज्ञेया । भण्ड || भण्ड + सि । ४३५ सू० स्वार्थी क-प्रत्यये १७७ सू० ककारस्य लोपे १५० सू० यकारस्य श्रुतौ, १०१५ सू० सेर्लोपे भण्डय ! इति भवति । अद्भुतसार ।। अद्भुतसार+सि । प्रस्तुतसूत्रेण अद्भुतस्य शब्दस्य स्थाने डक्करि इत्यादेशे, १०१५ सू० सेलपे ढक्करिसार ! इति भवति । अद्भुतसार ! ढक्करिसार ! इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिता । हे सखीत्यस्य हेहिलः । हे सखि ! इत्यस्य पदद्वयस्य स्थाने हेल्लि ! इत्यादेशो भवति । यथा-हेसखि ! मा उपालम्भस्व अलीकम् - हेल्लि ! म हि श्रालु एषां पदानां प्रक्रिया १०५० सूत्रप्रथम ज्ञेया । हे सखि ! हेल्लि ! इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। पृथक् पृथगित्यस्य सुजुनः । पृथकप्रय इत्यस्य पदद्वयस्य स्थाने अंजुअ इत्यादेशो भवति । यथा--- एका कुटो पञ्चभिः दद्धा तेषां पञ्चानामपि पृथक-पृथक बुद्धिः ।
I
भfife! तब गृहं कथय कथं नन्दतु यत्र कुटुम्बमात्मन् कम् ॥ १२ ॥
भावार्थ:- कयाचिद् वनितया निज-परिवारस्य स्वच्छन्दाचारित्वं परस्पर-विचार पार्थक्यञ्च शरीरस्य उदाहरणेन निवेदयन्त्या स्वसखी भगिनीपदेन सम्बोध्य उच्यते एका कूटी- शरीरं पञ्चभिः श्रोत्रप्रभृति ज्ञानेन्द्रियैः पद्या वशीकृता, तेषां ज्ञानेन्द्रियाणां पश्वानामपि पृथक् पृथक् सुद्धिः, स्वच्छायारिस्वं fe से प्राणिनो विकलाः खेदखिन्नाश्च दृश्यन्ते इन्द्रियाणां स्वतन्त्रत्वे कुतः सुखप्राप्तिर्भवेद् ? न भविष्यतीति भावः । एवमेव हे भगिनि ! कथय-प्रतिपादय तद् गृहं-सदनं कथं नन्वतु है सुखी भवेत् ? पत्र कुटुम्बम् परिवार:, आत्मछन्दकम् उच्छृङ्खलो, उद्दण्डो वा भवेत् । श्रतः पारिवारिकी व्यवस्था सfer सम्मानीया स्नेहपूर्णा च भाव्येति भावः ।
एका एका+सि । ३७० सू० ककारद्वित्वे १००१ सू० आकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलॉपे एक इति भवति । बाहुल्येनात्र ८४ सूत्रस्य प्रवृत्तिमं जाता कुटी कुटी + सि । १९५० सू० टकारस्य डकारे, ११०० सू० स्वाऽयं डुल्ल -( उल्ल) - प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे मज्झीने परेण संयोज्ये, ११०२ स० डी- (ई)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे अभीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेलपि कुहलो इति भवति । पचभिः । पवन् + भिस् । ११ सू० नकारलोपे, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणस्य लाघवे पञ्चहिँ इति भवति । रहा। रुद्धा+सि । इत्यत्र १००० सू० श्राकारस्य ईकारे, सेलरुद्ध इति भवति । तेषाम् । तद् + अम् । ११ सू० दकारलोपे, १०१० सू० प्रा म स्थाने इत्यादेशे १०८२ सू० उच्चारणलाघवे सह इति भवति । पञ्चानाम् । पञ्चन्+ नाम् । ११ सू० नकारलोपे, लहँ वदेव पञ्च इति भवति । प्रपिवि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । पृथकपृयक्। More frम् । प्रस्तुतसूत्रेण पृथक्पृथक् इत्यस्य पदद्वयस्य जुजुभ इति प्रयुज्यते । बुद्धिः । बुद्धि + सि । १००१ सू० इकारस्य ईकारे, १०१५ सू० सेलवे बुद्धी इति भवति । भगिनि । भगिनी + सि । ३९७ सू० भगिनीशब्दस्य बहिणी इत्यादेशे, १००० सू० ईकारस्य स्थाने उकारे, ११०० सू० स्वार्थे श्रप्रत्यये, स्त्रीत्वविवक्षायामाप - (श्रI ) - प्रत्यये, ५ सू० दीर्घ सन्धी, ५३० सू० श्राकारस्य एकारे, १०१५ सू० सेलपि बहिए ! इति भवति । स तं प्रक्रिया १०६५ सूत्रस्य प्रथमवलोके ज्ञेया । गृहम् घरु
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३१४
★ प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपादा प्रक्रिया १०२२ सूत्रे ज्ञेया । कथय । कथ ( कय् ) कथने । कथ्+हि । १८७ सू० थकारस्य हकारे, १०५८ सू०. हि इत्यस्य इकारे, अभीने परेण संयोज्ये कहि इति भवति । कयम् - किवं प्रक्रिया १०७२ सूत्रस्य द्वितीयलोके या | तु । नदि (नद्) समृद्धी | संस्कृतनियमेन नन्द् + तुव् इति जाते, ९१० सू० प्रका राजा, ६६२ सू० तुव: स्थाने दु इत्यादेशे १७७ सू० दकारलोपे नन्द इति भवति । यत्र । श्रव्यय
मिदम्। २४५ सू० यकारस्य जकारे १०७५ सू० अप्-प्रत्ययस्य डि एत्थु इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंपे, की परेण संयोज्ये जेत् इति भवति । कुटुम्बम् । कुटुम्ब सि । १९५ सू० टकारस्य डकारे, ४३५ सु० स्वार्थे कप्रत्यये १७७ सू० ककारलोपे, १०२५ सू० अकारस्य उ इत्यादेशे १०८२ सू० उचारणलाघवे, १०१५ सू० सेलोपे कुम् इति भवति । आत्यछत्वकम् । श्रात्मन्यन्दक+सि । ३.२२ सू० समस्य पकारे, ३६० सू० पकारद्वित्वे, ४ सू० संयोगे परे हस्ते, ५४५ सू० अन् इत्यस्य श्राणादेशे श्रभीने परेण संयोज्ये, १००० सू० शाकारस्य प्रकारे १७७ सू० ककारलोपे, १०२५ सू० कारस्य इत्यादेश, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे, १००५ सु० सेलपि श्रप्पण- छन्द इति भवति । उं पुचकुपजुजुष इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । मूढस्य नालिअ बढो । मुदशब्दस्य नालिय कद इत्यादेशौ भवतः । यथा
यः पुनो मनस्यैव व्याकुलीभूतः विश्ववति श्वाति न द्रम्मं न रूपकम् ।
रतिक्षशभ्रमणशीलः कराप्रोल्लालितं गृहे एव कुन्तं गुरणयति स मूढः || १३||
भावार्थ:- मूर्खस्य लक्षणं प्रतिपादयत्याचार्यः । यथा -- यः पुनः मनस्यैव-हृदये एव व्याकु लीभूतः वलीभूतः सन् चिन्तयति- विचारयति, किन्तु ब्रम्मम्-- श्रल्पपरिमाण विशेषम्यकं मुद्रां बात न वितरति । नोजकुमुद गृहवामिने नायति, तथा रतिभ्रमणशीलः रत्याः - कामवासनायाः वशः - श्रधीनः तेन भ्रमणशीलः, काम-वासनाऽधीतः, पर्यटनस्वभावः सन् गृहे निज- सदने एव कराग्रोल्लालितम्, हस्ताग्रभागेनोच्चालित कुन्तं - भल्ल गुणपतिचालयति, स मूत्र:- मूर्खः लीकैरुच्यते इति शेषः ।
यः == जो, प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य चतुर्थश्लोके ज्ञेया । पुनः पुगु, प्रक्रिया १०९४ सूत्रस्थ प्रथमलोके ज्ञेया । मनसि । मनसू+डि २२६ ० नकारस्य स्थाने नकारे ११ सू० सकारलोपे, १००५ सु० ङिना संह अकारस्य इकारे मरिल इति भवति । एवं जि, प्रक्रिया १०९१ सूत्रे प्रथमश्लोके शेया । धाकुलीभूतः । व्याकुलीभूत+सि । अपभ्रंशे १०९३ सु० व्याकुलीभूतार्थे खसफस दूग्र इति शब्दः प्रयुज्यते, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, २०१४ सू० सेल यसकसि हुअ इति भवति । चिन्तयति । चिति संज्ञा| संस्कृतनियमेन चिन्त् + णिग् + तिव् इति जाते, ६३८ सू० गिग: स्थाने प्रकारे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ६२८ सू० तिवः स्थाने प्रचादेशे विन्त इति भवति । ददाति । दाञ् (वा) दाने । दा+तिव्देइ, प्रक्रिया १०७७ सूत्रस्य तृतीयश्लोके शेया । न । अव्ययपदमिदं संस्कृतवदेवाय भ्रंशे प्रयुज्यते । ब्रम्मम् द मु, प्रक्रियास्यैव सूत्रस्य चतुर्थश्लोके ज्ञेया । रूपकम् । रूपक + अम् । १७७ सू० पकारस्य ककारस्य च लोपे, १००२ सू० द्वितीयस्य प्रकारस्य उकारे, १०१५ सु० श्रमो लोपे रूम इति भवति । रतिभ्रमणशीलः । रतिभ्रमणशील+सि । १७७ सू० तकारलोपे, भ्रमणशीलः इत्यर्थे तुन्-प्रत्ययो भवति, तेन भ्रम् + तन इति ते १०६९ सू० रेफलोपे, ४१६ सु० तनः स्थाने इर इत्यादेशे, अभीने परेण संयोज्ये रद्दभमिर+सि इति स्थिते १००२ सू० प्रकारस्य उकारे १०१५ सू० सेर्लोपे रद्द-भमि इति भवति । क राम्रोलालितम् । कराग्रोल्लालित+श्रम् । ८४ ० संयोगे परे ह्रस्वे, १०६९ सू० रेफलोपे, ३६० सू०
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चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् *
३१५ गकारद्वित्त्वे, ८४ सू० पोकारस्य उकारे, १७७ सु० तकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे करन्गुल्लालिज इति भवति । गृहे । गृह+डिः । ४१५ सू० गृह-शब्दस्य घर इत्यादेशे, १०२५ सूत्रे बहुलाधिकारात् : स्थाने हिं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे घरहि इति भवति । कुन्तम् । कुन्त+अम् । ११६ सू० उकारस्य प्रकारे,१००२ सू० अकारस्थ उकारे, १०१५ सू० प्रभो लोपे कोन्तु इति भवति । गुणयति । गुण-धातुः चालने । गुण-+णिग्+तिन् । ६३८ सूणिगः स्थाने प्रकारे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये, ६२८ सू तिवः स्थाने इचादेशे गुणाई इति भवति । सः सो, प्रक्रिया १०३० सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञया । मूरः । मूढ+सि । प्रस्तुतसूत्रेण मूढस्य शब्दस्य स्थाने नालिम इत्यादेशे,१००२ मू: अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलो पालित इति पदाधि : महापालिट इत्यत्र पस्नुलसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । सम्प्रति बढाऽऽदेशस्योबाहरणं प्रदीयते । यथा--विवसरजित खादमूह !-दिवे हि विढस्तई खाहि वद , प्रक्रियाऽस्य सूत्रस्यैव चतुर्थ श्लोके ज्ञेया 1 मूड ! वढ' ! इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिजाता । नवस्य नवखः । नवशब्दस्य स्थाने नवख इस्यादेशो भवति । यथा-नया काऽपि विवामिनवखी कवि विसण्ठि, एतेषां पदानां प्रक्रिया १०९१ सूत्रस्य तृतीयश्लोके शेया। अवस्कम्बस्व बडवा। अवस्कन्दशब्दस्य स्थाने बजवर इत्यादेशो भवति । यथा---
चलाभ्यां बलदम्या लोधमाभ्यां ये स्वया दृष्टा बाले !।
. तेषु मकरध्वनावस्कन्दः पसत्यपूरे काले ॥१४|| भावार्थ:---कस्याश्चन नायिकायाः सौन्दर्यातिरेक थ्यजयति-हे बाले! लोचनाम्या-नयनाभ्यां कथम्भूताभ्यां लोचनाभ्यां ? चलाभ्या-चपलाभ्यां, पुनः किम्भूतान्यास लोचनाभ्याम् ? चसम्या-परिस्पन्दमानाभ्यां त्वया ये पुरुषाः दृष्टाः दृष्टिपर्य नीताः,लेषु अपूरे-मपूर्ण काले-समयात्पूर्वमेव, मकरध्यानाबस्कन्दः, मकरध्वजा-कागदेवः, तस्त्र अवस्कन्दः-अाक्रमणम्, पति-जायते । अतः हे बाले ! एतादृशं कामवासनोत्तेजक दृष्टिक्षेप मा कार्षीरिति भावः ।
चलाभ्याम् । चल+भ्याम् । इत्यत्र६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने,१००६ सू० प्रकारस्य एकारे, १०८१ सू० उच्चारणलाघवे, १०१८ सूत भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे चलें हि इति भवति । पलभ्याम् । चल-धातुः चलने। चल+शत+भ्याम् । ९१० सू० प्रकारागमे,६७० सू० शतुः न्त इत्यादेश, ६१९ स० द्विवचनस्य बहुवचने, पूर्ववदेव अकारस्य एकारे, एकारस्य उच्चारणलाघवे, भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, अनुस्वारस्य उच्चारणलाये अलग हि इति भवति । लोधनाभ्याम् । लोचन+भ्याम् । १७७ सू० चकारलोपे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, पूर्ववदेव लोपणे हि इति भवति । ये-जे, प्रक्रिया ५४७ सूत्रे सेया । त्यया- युष्मद+टा। १०४१ स० सांप्रत्ययेन सह युष्मदः स्थाने ताई इत्यादेशे तई इति भवति । दृष्टाः । दृष्ट+जस् । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे,३०५ सू० ष्टस्य स्थाने छकारे,३६० सू० टकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे,१००१ सू० अकारस्य प्राकारे, १०१५ सूः जसो लोपे विट्ठा इति भवति । बाले !। बाला+सि । १००० सू० अन्त्यस्य आकारस्य इकारे,१०१५ सू० सेलोपे बालि ! इति भवति । सेषु । तद् + सुव । इत्यत्र ११ सू० दकारलोपे, १०१८ सू० सुवः स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे तहि इति भवति । मकरध्वज-अवस्कम्बः। मकरध्वज-अवस्कन्द +सि । १७७ सू० ककारलोपे, १८० सू० धकारश्रुती, ३५० सू० वकारलोपे, ३६० सू० धकारद्विस्वे, ३६१ सू० पूर्वधकारस्य दकारे, १७:५ सू० जकारलोपे, १८० सू. यकारश्रुतौ, प्रस्तुतसूत्रेसा अवस्कन्दस्य स्थाने दडवड इत्यादेशे,११०० स० अप्रत्यये,१००२ स० अकारस्य उकारे, १०१५ सर सेलोपे मयरलय
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*प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपाद! . बाउ इति भवति । पसति-पडइ, प्रक्रिया ५९० सूत्र ज्ञेया। अपूरे । अपूर+सि । ११०० सू० अप्रत्यये, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्थ स्थाने इकारे अपुरा इति भवति । काले । काल+डि । १००५ सू० डिन्ना सह अकारस्य इकारे कालि इति भवति । मकर-ध्वज-अवस्कन्दमयर-य-दडबडउ, इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृतिर्जाता। वेश्चः । यदि इत्यस्य पदस्य बुद्ध इत्यादेशो भवति । यथा--यदि राजते ध्यवसायः= छुडु अग्ध ववसाउ, प्रक्रिया १०५६ सूत्रे ज्ञेया। यदि :- छुड इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिजीता। संबन्धिन: केर-तयो । सम्बन्धिन् इत्यस्य पदस्य स्थाने' केर, लण इत्यादेशौ भवतः । यथा--
गतः स केसरी पिवत जलं निश्चिन्तं हरिणा: ।।
यस्य सम्बन्धिमा हुंकारेण भुखेभ्यः पतन्ति तरणानि |॥१५॥ भावार्थ:-हे हरिणा! हे मृमाः !, यस्य सिंहस्य सम्बन्धिमा हंकारेण-गर्जनशब्देन युष्माकं मुखेभ्यः तुणानि-घासकवलानि पतन्ति-अधस्तात् स्खलन्ति, स केसरीसिंहो गतः, अतो यूयं मिश्चिन्तम्, निर्गता चिन्ता यस्मात्तत् निश्चिन्त चिन्तारहितं यथा स्यात्तथा, क्रियाविशेषणमिदम्, जलं पिवत, जलपानं करणीयम्, भयकारणाऽपगमे सति भयं न कामिति भावा ।
गतः । गत+सि । १७७ सू० तकारस्य लोपे,१४० सू० यकारश्रुतो, ११०० सू० अप्रत्यये, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ स० सेलोपे गयउ इति भवति । सः । तद+सि । इत्यत्र ५७५ सू० तकारस्य सकारे, ११ सू० दकारलोपे, १००२ स० अकारस्थ उकारे, १०१५ स० सेलोगे सु इति भवति । फेसरी। केसरिन्+सि । ११ सू० नकारलोपे, १०१५ सू० सेर्लोपे केसरि इति भवति । पिवत । पाधातुः पाने ! पाते । संस्कृतनियमेन पिब+त इति जाते,१७७ सू० बकारस्य लोपे,१०५५ सू० त इत्यस्य स्थाने हु इत्यादेशे पिग्रह इति भवति । जलम् । जल+अम् । १००२ सू० अकारस्य, स्थाने उकारे, १०१५ सू० मंसो लोपे जलु इति भवति । निश्चिन्तम् । निश्चिन्त+म् । ३४८ स० कारलोपे, ३६० सू० चकारद्वित्त्वे, ११०० सू० स्वाऽर्थे अप्रत्यये, १००० सू० अकारस्य स्थाने इकारे, ६१३ सू० प्रदन्तवदलिदेशात ४९४ सू० अमोऽकारस्य लोपे,२३ सू० मकाराऽनुस्वारे निश्चिन्त इति भवति । हरिणाः हरिण+जस् । ३४ सूत्रेण क्रीयत्वे, १००१ सू० अकारस्य प्राकारे, १०२४ स० जसः स्थाने ई इत्यादेशे हरिणाई इति भवति । यस्य । यद् + ङस् । इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य स्थाने जकारे,१० सू० देकारलोपे, १००९ सू० इस स्थाने सु इत्यादेशे जसु इति भवति । सम्बन्धिना । सम्बन्धिन् +टा । प्रस्तुतसूत्रेण सम्बन्धिन इत्यस्य स्थाने केर इत्यादेशे, ११०० सू० स्वार्थ प्रप्रत्यये, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिबत्त्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे केराति भवतिरकारे कारटा इत्या १००० सा स्वार्थ हडन-(प्रमप्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवस्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे हुकारखएं इति भवति । मुखेभ्यः । मुख+भ्यस्। इत्यत्र १८७ सू० भकारस्य हकारे, १००८ सू० भ्यसः स्थाने हुं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे मुहहुँ इति भवति । पतन्ति । पल्लू (पत्) पतने । पत्+अन्ति । ८९० सू० तकारस्थ डकारे, ११० सू० प्रकारागमे, ६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे पडन्ति इति भवति । तृणानि । तृण+जस् । १००० सू० ऋकारस्य ऋकारे एव स्थिते, १००० सू० प्रकारस्य प्राकारे, १०२४ सू० जसः स्थाने ई इत्यादेशे तृणाई इति भवति । स
वधिमाकेरएं इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिांता । सम्प्रति वृत्तिकारः तणादेशस्थोदाहरणं प्रदर्शयति । यया-अथ भग्मा अस्माकं सम्बन्धिनः-मह भग्गा अम्हं तणा, एतेषां पदानां प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया सम्बन्धिनः तणा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता। मा भैषीरिस्पस्य । मा भैषी,इ
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३१७
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोका-द्वयोपेतम् * त्यस्य पद-द्वयस्य स्थाने मम्मीसा इत्यादेशो भवति । शब्दोऽयं स्त्रीलिङ्गको बोध्यः । यथा---
स्वस्थावस्थामामालपनं सर्वोऽपि लोकः करोति ।
मालानां मा औली..... यः . सज्जनः सदाति ११३. . . . . भावार्थ:-सज्जनानां लक्षणं निरूप्यते-स्वस्थावस्थानाम,स्वस्था-शोभना अवस्था येषां ते, स्वस्थावस्था:, सेषामालपन संलापं सस्नेह वाला सर्वोऽपि लोक-जनसमुदायः करोति, किन्तु आानापीधिताना नराणां मा भेषी:-भयं मा कार्षीः, इति प्राश्वासनं यः बाति, स एव समन:, शोभनो जनः सज्जनो, महाजनो भवति । पनामथानां तु सर्वेः जनाः सहायकाः भवन्ति, किन्तु निधनानां, निराश्रितानां परिव्यथितानाच पुरुषाणां यः सहायको भवति स एव सत्पुरुषो ज्ञेयः ।
___ स्वस्थाऽवस्थामाम् । स्वस्थावस्थ+पाम् । ३५० सू० संयुक्त-वकारलोपे,३४८ स० उभयत्रापि संयुक्त-सकारलोये,३६० सू० उभयत्रापि थका रद्वित्त्वे,३६१ सू० उभयत्रापि पूर्वथकारस्य तकारे.१०१० सू० प्रामः स्थाने हं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे सस्थावत्यह इति भवति । मालपमम् । प्रा. अपन+अम् । २३१ सू० पकारस्य बकार, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००२ सू० अकारस्थ उकारे, १०१५ सू० अम्-प्रत्ययस्य लोपे आलवणु इति भवति । सर्वोऽपि लोक: साहु दि लोउ, प्रक्रिया १०३७ सूत्रे ज्ञेया करोतिम करेइ,प्रक्रिया १००८ सूत्रे शेया । वार्तामाम् । पार्ल-+-प्राम् । अपभ्रंशे मातं इत्यस्य १०९३ सू० मादन इत्यस्य पदस्य प्रयोगे,१०१० सू० मामः स्थाने हं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाधवे आवन्नह इति भवति । मा भैषीः । मा इत्यव्ययपदम्भैषीः इति त्रिभोधातोः लुइ-लकारे मध्यमपुरुषस्यैकवचनम् । मा भैषीः इत्यनयोः पदयोः स्थाने प्रस्तुतसूत्रेण मब्भीसा इत्यादेशे सिप्रत्यये,११७० सू० स्वार्थ डड-(अड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, स्त्रीत्वविवक्षयां ११०२ सू० डी-(ई) प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरापि , प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेलोपे मम्भीसदी इति भवति । यः जो प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य चतुर्थश्लोके ज्ञेया । सम्मानः । सज्जन सि { २२८ सू० नकारस्थ णकारे,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेर्लोपे सज्मणु इति भवति । सः सो, प्रक्रिया १०७२ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । ववाति 1 हुदा (दादाने । दा+तिन् । १००० सू०प्राकारस्थ एकारे; ६२८ स० तिवः स्थाने इचादेशे वेइ इति भवति । मा भैषीः--मभोसडी इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रस्य प्रवृत्तितिा । पद्यदृष्टं शतदित्यस्य । यद्यद्दष्टं तत्तद् इत्यस्य स्थाने जाइटिमा इत्यादेशो जातः । यथा--
यदि रज्यले अन्यत् वृष्टं तसद हुक्म ! मुषस्वभाव ! ।
लोहेन स्फुटिया यया घनः सहिष्यते तापम् ॥१७॥ भावार्थ:-कश्चित् महामनाः पुरुषः यत्र तत्र वस्तुभ्यासक्तं हृदयमुपदिशति-पुरवस्वभाव ! मुग्धःमोहं प्राप्तः स्वभाव:-प्रकृतिर्यस्य सः, तत्सम्बोधनम् । है हदय ! यदि भ्रमणशीलेन त्वया या यष्टं तसत्-तस्मिन्-तस्मिन् तत्र तत्रेति यावत् अनुरज्यसे-पदार्थेष्वासक्तो भवसि तवं ताप-दुःखं सहिष्यसे। स्फुटित्रा-स्फोटमुपगम्यता लोहेन यया धनः-लोहकुट्टनाधार: तापं सहिष्यते-सहते इत्यर्थः । एवमेव त्वमपि परिपीडितो भविष्यति। अयं भाव:-सप्तो लोहः यदा कुट्टितो भवति, ततः उत्पासितैः स्फुलिङ्गकै धनो नितान्त ताप यया सहते तथैव विषयेषु व्यासक्तस्त्वमपि तापं वासनाजनितं दुःखं सहेथाः।
यदि जइ,इत्यस्य पदस्थ प्रक्रिया १०१४ सत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया। रज्यसे । कज-[र]धातुः रागे। रज्+से । अपनशे १०६६ सूत्रेण रछज् इत्यस्य धातोः स्थाने रच इत्यस्य प्रयोगे, ६२५ स से इत्यस्य स्थाने सि इत्यादेशे रचसि इति भवति । यद-यद दृष्टं तत्तद् । अपभ्रंशे यद् यद् दृष्टं तत्तद्'
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३१८
★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपाद
एतेषां पदानां स्थानेजादट्टिया इत्यादेशे, तलद् इति पदद्वयं तस्मिन् तस्मिन् इति सप्तम्यर्थबोधकं वर्तते, श्रतएवात्र डिप्रत्ययो भवति । ततः जाइडिया + ङि इति जाते, १००१ सू० श्राकारस्य स्थाने अकारे, ११०० सू० स्वार्थे श्रप्रत्यये, १००५ सू० ङिना सह प्रकारस्य एकारे जाइए इति भवति । हृदय ! हिडा, प्रक्रियाऽस्यैव सूत्रस्य एकादशे लोक ज्ञेया । मुग्धस्वभाव ! | मुग्वस्वभाव +सि । २४८ सू० गकारलोपे, ३६० सू० धारद्वित्वे, ३६१ स० पूर्वधकारस्य दकारे ३५० सू० संयुक्तकारलोपे, १८७ सू० भकारस्थ हकारे, १०१५ सू० सेलपि मुख- सहाष ! इति भवति । लोहेन । लोह +टा | १०१३ सू० दास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवस्त्रात १००४ सू० अकारस्य एकारे लोहें इति भवति । स्कुटिया । स्फुट्-धातुः भ्रंशे । स्फुट् + तुन् । ३४८ सू० सकारलोपै, ९०२ सू० टकारद्वित्वे, १११४ सू० तृन: स्थाने प्रण इत्यादेशेोने परेण संयोज्ये १०१३ १००४ सू० अकारस्य एकारे पण इति भवति । यथाजिव प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य तृतीयश्लोके शेया धनः । धन+ सि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००१ सू० प्रकारस्य आकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे धणा इति भवति । सहिष्यते। यह [सह ] धातुः सहने । सह +स्य+क्यते । इत्यत्र ६४९ सूत्रे 'चित् क्योऽपि विकल्पेन भवतीति' पाठात् क्याभावे, सह +स्य + ते इति स्थिते ९१० सू० धातोरन्ते प्रकारागमे, ६४६ सू० प्रकारस्य स्थाने एकारे, १०५९ सू० स्यस्य स्थाने सकारे, ६२० सू० ते इत्यस्य स्थाने दचादेशे सहेल
भवति । साप ताप + मम् । इत्यत्र २३१ सू० पकारस्य स्थाने वकारे, १०१५ सू० श्रम्-प्रत्ययस्य लोपेता इति भवति । यद् यद् दृष्टं तत्तद्जाइट्टिए, इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । मया ज्ञातं मक्ष्यामि अहं प्रेम हवे हरु इति । केवलमचिमितता संपतिता विप्रियनः झटिति ||१||
१०६४
भावार्थ:- काका स्व-प्रिय-वियोगेन दुःखाऽऽधिक्यं व्यनक्ति-मवेदं ज्ञातम् अवगतं यवहं हहरु इति शब्द कृत्वा मलवे, प्रेम एक हृदस्तस्मिन् स्नेहसरोवरे निमश्यानि - निमज्जनं करिष्यामि, एतत्सर्वं मया केवल निश्चितरूपेण यथा स्यात्तथा चिन्तितमासीत् किन्तु दुर्दैवात् मम सम्मुखेऽचिन्तिताurafrat विप्रयो: वियागरूपा नौका टिति संपतिता समागता ।
माम इत्यस्य प्रक्रिया १०४८ सूत्रे ज्ञेया । ज्ञातम् । ज्ञाधातुः अवबोधने । ज्ञा+क्त-त । ६७८ सू० ज्ञाधातोः स्थाने जाण इत्यादेशे, ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, सिप्रत्यये १००२ सू० अकारस्य उकारे, ५१४ सू० सेर्मकार, २३ सू० मकारानुस्वारे १०८२ सू० उच्चारणलाघवे जाणि इति भवति । मध्यामि । मस्जू - [ मस्ज ] शुद्धौ । मस्ज् + स्य+मिव् । ७७२ सू० मस्वातो: स्थाने बुड्ड इत्यादेशे, १००० सू० अकारस्य ईकारे, १०५९ सू० स्यस्य सकारे, १०५६ सू० मित्र: स्थाने उं इत्यादेशे १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, बाहुल्येन अनुस्वारलोपे खुड्डीसु इति भवति । अहम् =हउँ प्रक्रिया १००९ सूत्रे ज्ञेया । महये । प्रेम ह्रद + कि । १०६९ सू० रेफलोपे, ३६९ सू० मकारद्वित्वे, ३९१ सू० हकारयकारयोः व्यत्यये परिवर्तने वैकल्पिकत्वात् १०६९ सू० रॅफाइलोपे. १००५ डिना सह प्रकारस्य इकारे पेम्मद्रहि इति भवति । हुहुद इति शब्दानुकरणं विद्यते प्रस्तुतसूत्रेण श erse इति शब्दः प्रयुज्यते । इसित्ति प्रक्रिया ४२ सूत्रे ज्ञेया । केवलम् । क्रियाविशेषणंमिदम् | केवल + अम् । इत्यत्र ४५८ ० केवलार्थे नवर इत्यस्य प्रयोगे, १००० सू० श्रकारस्य इकारे, rore पदस्वात अमो लोपे नवरि इति भवति । अचिन्तिता । श्रचिन्तिता+सि । १७७ सू० प्रसंयुक्त-लकारलोपे, बाहुल्येन १८० सू० यकारश्रुतौ, १००१ सू० माकारस्य प्रकारे १०१५ सू० सेलोपे अबिलिय
सू
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* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * इति भवति । संपतिता । संपतिता+सि । ८९० स० तकारस्य डकारे, १७७ सू० अन्त्य-तकारलोपे, बाहुल्येन १८० सू० यकारश्रुती,स्त्रीत्वविवक्षायामाप-(प्रा)-प्रत्यये,५ सू० दीर्घ-सन्धौ, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोपे संपड़िय इति भवति । बिनियमोः । विप्रिय नी+सि। १०६९ सू० रेफलोपे, ३६० सू० पकारस्य द्वित्वे,१६४ सू० प्रौकारस्य भाव इत्यादेशे, अज्झोने परेण संयोज्ये,प्राप्त (मा)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घ-सन्धौ, १००१ स० आकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोपे विपिय-नाव इलि भवति । झटिति । अव्ययपदमिदम् । १९५ सू० टकारस्य डकारे, १००० सू० प्रथमस्येकारस्य प्रकारे, ३७० सू० लकारद्विस्व झति इति भवति। हहरुमा हाहरु । इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । आदिग्रहणात् । प्राविपदस्य ग्रहणात् निनोक्तस्थलेष्वपि प्रस्तुत--सूत्रस्य प्रवृत्तिर्भवति । यथा
साधतेनस कसरपक शब्दं कृत्वा, पोपतेमत छुण्ट शब्दं कृत्वा ।
एवमेव भवति सुखाशा प्रियेण दृष्टेन नवनाम्पाम् ॥२॥ भावार्थ:-कस्यापिचन्नायिकायाः प्रिय-दर्शनजनितं प्रेमातिरेक वर्ण्यते । यथा--नयनाम्यां-प्रियेण सष्टम इत्यत्र हेतो तृतीया सप्तम्यर्थे वा सूतीया, प्रतएव प्रिये दृष्टे सतीत्यर्थः कदाचित् नायिकाहृदये सुखाशा--सुखस्य प्राशा-बाछा एवमेव-एतादशी व्यधिका समुत्पन्नां भवति, यत्सा अन्म-पानग्रहणस्य स्वाभाविक प्रक्रियामपि कतुं न शक्नोति । यथा-तया कसरक्क-शदेन चर्वणध्वनिनापि न खाधते, भोजनसमये थे कसरक-शब्दाः जायन्ते, हर्षाऽसिरेकेण सा नायिका तान् शब्दानपि न करोति, चर्वणमकृत्वंद भोजनमत्ति । तथा तया धुण्टशवेन म पीयते, जलपान करण-समये धुण्ट इति शब्द: प्रायो भवति,परन्तु प्रियदर्शन-जनित-हर्षाऽधिक्येन सा नायिका इयती विह्वला संजाता,यद् धुण्टशब्दानपि न करोति, धुण्ट-शब्दमकृत्य व जलं पिवतीति भावः ।।
खाद्यते । खावातुः भोजने । खाद्+क्य+ते । संस्कृतनियमेन खाद्यते इति जाते, २९५ स० द्यस्य जकारे, ३६० सू० जकारद्विस्वे, ८४ स० संयोगे परे ह्रस्वे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे खम्जा इति भवति । म । अव्ययपदमिदं संस्कृतवदेवापभ्रशे प्रयुज्यते । तु । अव्ययपदमिदम् । इत्यत्र १७७ सू० तकारलोपे उ इति भवति । कसरक्क-शब्दं कृत्वा इत्यर्थ प्रस्तुतसूत्रेण कसरक्क इति शब्दः प्रयुज्यते, भिस-प्रत्यये, कसरक्क+भिस् इति जाते, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, स्थानिवत्वात १००६ स. अकारस्य एकारे कसरबकेहि इति भवति । पीयते । पाधातुः पाने । पा+क्य ते । ६४९ स. क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संज्योये, ६२८ सू० इचादेशे पिज्जइ इति भवति । घुण्ट शम्दं कृत्वा इत्यर्थे प्रस्तुतसूत्रेण घुण्ट इत्यस्य पदस्थ प्रयोगे, भिस्प्रत्यये घुण्ट+भिस् इति जाते, कसरबकेहिवदेव धुण्टेहि इति भवति । एवमेष एम्बइ,प्रक्रिया १०११ सूत्रे ज्ञेया । भवति होइ,प्रक्रिया ७३.१ सूत्रे ज्ञेया । सुखाशा । सुखाशा+सि । अपभ्रशे सुखाशा-स्थाने १०९३ सू० सुहच्छडी-सब्दः प्रयुज्यते, १०१५ स० सेलोपे सुहमी इति भवति । प्रियेण । प्रिय+टा । १०६९ सू० रेफलोपे, १७७ सू० यकारलोपे, १०१३९० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवत्त्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे पिएं इति भवति । दृष्टेन । दृष्ट-+टा । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, ३०५ सू० ष्टस्य ठकारे, ३६० सू० ठकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवस्त्रात् १००४ सू० भकारस्य एकारे विदो इति भवति । ममनाम्याम् । नयन-भ्याम् । २२८ सू० द्वितीय नकारस्य णकारे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, स्थानिवस्वात् १००६ सू० - कारस्य एकारे नयहि इति भवति । कसरक्क-शब्द त्यासरक्केहि, धुष्ट शम्वं कृत्वा धुण्टेहि
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.३२० ........* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
अद्यापि नायः ममैव गृहे सिद्धार्यान् बन्यते ।
सावदेव विरह: गवाक्षेषु मर्फटचेष्टा बवाति ।।३।। भावार्थ:-अद्यापि-मधुना सुनाथः मम गृहे सिद्धार्थान-सर्षपान् धन्दते-नमस्करोति, पुरातनसमये गन्तुकामो नरः सान् बन्दते स्मः । अतएव नायकस्य सर्षपवन्दनाद् प्रियो गन्तुमिच्छत्तीति नायिका प्रत्येति, सम्प्रति तु मम कान्तः गृहे एवाऽवस्थितोऽस्ति, नाऽथ तस्याऽभाव इत्यर्थः । तथापि ताददेव-पत्युः गमनात्पूर्वमेव विरहः-वियोगः गवाक्षेषु-वातायनेषु मकर-चेष्टा, मर्कटस्य-वानरस्य चेष्टां, व्यापार वाति-नर्तनं करोति । इष्टजनस्थ गमनात्पूर्वमेव वियोगः परिवीडयतीति भावः ।
अधळ प्रज्ज, इत्यस्य प्रक्रिया १०८५ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया। अपि-वि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे शेया । नाय नाहु, प्रक्रिया १०३१ सूत्रे शंया । मम-महु, प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया। एव । अव्ययपदमिदम् । १०९१ सू० एवपदस्य जि' इत्यादेशे, ३७० सू० जकारद्वित्त्वे मि इति भवति । गृहे । गृह+कि । ४१५ सू० गृहस्य घर इत्यादेशे,१००५ डिला सह प्रकारस्य इकारे घरि इति भवति । सिद्धान् । सिद्धार्थ+शस् । ३५० झू, कालोपे,३६० ० भकामा दिने सूत्र पूर्वथकारस्य तकारे,८४ सू०.संयोगे परे ह्रस्वे,१००१ सू० अकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० शसो लोपे सिद्धस्था इति भवति । बन्यते । वदि अभिवादनस्तुत्योः । संस्कृतनियमेन वन्द +ते इति जाते,९१० सू० प्रकारागमे,६४७ सू० प्रकारस्य स्थाने एकारे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे बन्देइ इति भवति । तावद्=ताऊँ, प्रक्रिया १०७७ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया । एव-जि,प्रक्रिया १०९१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया 1 विरहः । विरह+ सि। १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० से.पे विरह इति भवति । गवाक्षेषु । गवाक्ष-सुन् । इत्यत्र २७४ सू०.क्षस्थः खकारे,३६० सू० खकारद्विश्वे,३६१ सू० पूर्वखकारस्थ ककारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०१८ सू० सुवः स्थाने हिं इत्यादेशे, स्थानिवत्वात् १००६ सू० अकारस्य एकारे, १०५१ स० उच्चारणलाधवे गमक्खे हि इति भवति । मकंटचेष्टाम् । मर्कट-चेष्टा+पम् । १०६९ सू० रेफलोपे, ३६० सू० ककारद्वित्त्वे, १९५ स० टकारस्य डकारे, प्रस्तुतसूत्रेण चेष्टानुकरण-चोतकस्य चेष्टाशब्दस्य धुग्ध इत्यादेशे, १००० सू० अकारस्य इकारे, ११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये, १००२ सू० प्रकार 'रस्य उकारे, १०१५ स० अमो लोपे मक्का-घुम्धिः इति भवति । वाति दे६, इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया १०९३ सूत्रस्य षोडशे श्लोके ज्ञेया । मकटचेष्टाम् = मक्कडधुग्धिउ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता।
शिरसि जराखण्डा लोमपटो गले मरिणका न विशतिः ।
सतोऽपि गोष्ठा कारिता: मुग्भया वस्थानोपवेशनम् ॥४॥ भावार्थ:-कस्याश्चिद नायिकाया: सौन्दर्यातिरेक ध्यजयति कविः-मुम्बाया-सुन्दयोः शिरसिशीर्षे लोमपटी-ऊणीप्रावरणे वर्तते,कोदशी लोमपटी? जराखण्डा जरया-वृद्धत्वेन खण्डा-खण्डशो जाता, अतिपुरातनेत्यर्थः तस्याः गले-कण्ठे विशतिः-विशतिसंख्यकाः मणिका अपि न वर्तन्ते,शोभावर्धक-बहमूल्यहारादिकमपि तस्याः पार्वेमाऽस्तीति । सतोऽपि तथापि तया मुग्षया गोष्ठा-गोकुले तिष्ठन्तीति गोष्ठाः, अत्र "तात्स्स्यात सध्यपवेशः" इति न्यायात् गोष्ठस्थाः पुरुषाः, गोपालाः उत्थानोवेशनम्, उत्थानं च उपबेशन चेत्युस्थापनोपवेशनं कारिताः। दीनहीनदशाया अपि तस्याः सुन्दयाः सम्मुले गोपालाः वद्धाजलयः, प्राज्ञाकारिणश्च तिष्ठन्तीति भावः ।
शिरसि । शिरस्+ङि । २६० सू० शकारस्य सकारे, ११ सू० सकारलोपे, १००५ सू० डिना
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३२१
Moranmnmanara
चतुर्भपादा
★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * सह अकारस्य इकारे सिरि इति भवति । जरा-खण्ड जराखण्ड+सि । ४ सू० प्राकारस्य प्रकारे, स्त्रीत्वविवक्षायां ५२१ सू की-(ई)-प्रत्यये, १० स० स्वरस्थ लोपे, अझोने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेलोपे जरखण्डी इति भवति । लोमपटो । लोमपटी+सि । अपभ्रंशे, १०९३ सू० लोमपदी इत्यर्थ लोमडी-शब्दः प्रयुज्यते, सेलोपे लोअडी इति भवति । गले । गल+छि । १००५ सू० दिना सह कारस्य इकारे गलि इति भवति । मणिकाः । मणिक+अस् । इत्यत्र १५७ ० ककारस्य लोपे, बाहुल्येन १८० सू० यकारस्य श्रुतौ, ११०० सू० बड-(अड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, प्रज्मीने परेण संयोज्ये, १००१ सू० अकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० जसो लोपे मणियडा इति भवति। न । अव्ययपदमिदं संस्कृतवदेवाऽपभ्रशे प्रयुज्यते । विशतिः । विशति+सि । २८ सू० अनुस्वारस्य लोपे,९२ सू० तिशब्देन सह इकारस्थ कार, २६० कार सकारात्यक्षिक्षाचामाप-(मा)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घसन्धो.१००१ ९० प्राकारस्य प्रकारे, १७१५ सू० सेलोपे वोस इति भवति । सतः तो, इत्यस्य प्रक्रिया १००८ सूत्रे ज्ञेया । प्रपि-वि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञया । गोष्ठाः । गोष्ट+जस् । ३४० सू० षकारलोपे, ३६० सू० उकारद्वित्त्वे,३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे,बाहुल्येन ८४ सूत्रस्याप्रवृत्ती,११०० सू० डड-(प्रड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे,अज्झीने परेण संयोज्ये,१७०१ सू० प्रकारस्य माकारे, १०१५ सू० जसो लोपे गोला इति भवति । कारिताः । डुकृञ् (कृ)-धातुः करणे । कृ.+णिग्+क्त । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, ६३८ सू० णिग प्राव इत्यादेशे, ५ सू० दीर्घ-सन्धौ, ६४५ सू० अकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, जस्-प्रत्यये, १००१ सू० अकारस्थ प्राकारे, १०१५ सू० जसरे लोपे कराविया इति भवति । मुग्धया। मुग्धा+टा। ३४८ सू० गकारलोपे ३६० सू० धकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वधकारस्य दकारे, १००१ सू० आकारस्य प्रकारे,५१८ सू० टा-स्थाने एकारे मुखए इति भवति । उत्थानोपवेशनम् । उस्थानोपवेशन+अम् । अपभ्रशे १०९४ सू० उत्थानोपवेशनस्य उटुबईस इति प्रयुक्ते. १०१५ सू० प्रमो लोपे चढ़नईस इति भवति । उत्थानोपवेशनम् = उट्ठ-बईस इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । इत्यादि। एवमेवाऽन्यान्यपि उदाहरणानि बोध्यामि।
* अथ कथम आदि पदों को होने वाली आदेशविधि *
अपभ्रशभाषा में कथम् आदि शब्दों से सम्बन्धित जो-जो प्रादेशादि कार्य होते हैं, अब सूत्रकार द्वारा उन का निर्देश किया जा रहा है.----
१०७२--अपभ्रशभाषा में कथम् यया और तथा इन शब्दों के बाद जिस के ग्रादि में पकार हो] अवयव के स्थान में डेम एम, हिम-इम, डिह म् इह और शिष-इष ये चार डित् [जिस में - कार इस्-लुप्त किया गया हो] मादेश होते है । जैसे----
कथं समाप्यता दुष्टं दिन, कर्य रजनी शोध भवति ।
अष-यधू-वर्शन-लालसः वहति मनोरपान सोऽपि ॥१॥ अर्थात यह दुष्ट दिन कैसे समाप्त हो, और शीघ्र ही रात हो जाए, नव-वधु के दर्शन की लालसा रखने वाला मनुष्य इस प्रकार के मनोरथों को धारण कर रहा है।
यहां पर १-कथम् --केम [किस तरह],२ थम्म किध [कैसे] इन पदो में थादि अवयव __ को शेम-एम और विष:-इप ये दो डित् पादेश किए गए हैं । हिम-इम आदेश का जबाहरण
भो! गौरी-मख-निजितकः, चाईले निलीनः मगाट अन्योऽपि यः परिभूत-तनुः स कथं भ्रमति निश्वांकम् ॥२॥
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३२२ ★प्राकृत-व्याकरणम्"*
चतुर्थपादा अर्थात्-अरे ! गौरी [सुन्दरी] के सुन्दर मुख से पराजित यह मृगाङ्क [चन्द्र] बादलों में छिप गया है,जब चन्द्रमा की यह दशा है,तो दूसरा व्यक्ति जिस का कि पराभव | तिरस्कार हो गया है, वह निश्शंक हो कर कैसे भ्रमण कर सकता है?
यहां पर कपम्-किव (फैसे), इस पद में पावि प्रवयव को टिम [धित् इम] यह प्रादेश किया गया है । बिह-हमादेश का उदाहरण
बिम्बाधरे सन्ख्याः रखन-वणः कथं स्थितः श्री-आनन्द ।।
निरुपमस्थ प्रियण पीत्वा शेषस्य ता मुद्रा ॥३॥ अर्थात हे श्री मानन्द [किसी व्यक्ति का नाम है] तनु-पतले शरीर वाली स्त्री के बिम्ब फल के समान लाल पर निचले होंठ ग [ प्रतीत होता है कि मानों निरुपम [अनुपम] रस पीकर प्रिय के द्वारा शेष रस पर मुद्रा [मोहर] अंकित कर दी गई हो।
- यहां पर कथम् - किह [कैसे] इस अव्ययपद के थावि अवयव को डिह अर्थात् चित् इह यह मादेश किया गया है। देम-एम प्रादेश के अन्य जवाहरण--
भरण सखि ! निभूतकं तपा मयि यदि प्रिमो दृष्टः सदोषः ।
यथा न जानाति मम मनः पक्षाऽपतितं तस्य । अर्थात हे सखि ! यदि तू ने प्रिय को मुझ में सदोष [दोष वाला,नाराज] देखा है,तो गुप्तरूप से कह दे क्योंकि उस के पक्ष में पड़ा हमा मेरा मन उस के दोष को नहीं जान सकता।
- यहां पर -तथा-तेव (वसे), २-यथावं (जैसे) इन दोनों पदों में यादि अवयव के स्थान में रेम [डित् एम] यह प्रादेश किया गया है। खिम्-इम के अन्य उदाहरण--यथा यथा - हिमालोचनयोः । तपा तथा मन्मयः निजकारान-जिव जि वखिम लोमणहं ! ति ति वम्मह निमय-सर[जैसे-जैसे नेत्रों की वकता होती है। वैसे-वैसे मन्मथ कामदेव अपने बाणों को यहां पर१-यपा-जिवें (जैसे), २-तवाति (से) इन पदों में पाक्षि अवयव के स्थान में दिम [जित इम] यह प्रादेश किया गया है।
मपासातं प्रिये! विरहिताना, कापि धरा भवति विकाले ? 1
केवल मगारोऽपि तथा सपति, यथा बिनकरः क्षयकाले ॥५॥ इस श्लोक की व्याख्या १०४८ वें सूत्र में की जा चुकी है। पाठक वहां देखें। यहां पर-तथातिहाविसे] २-या जिह से इन पदों में पाधि अवयव के स्थान में बिह [डित् इह] यह प्रादेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि इसी प्रकार तपा-तिन(वैसे )मोर यथा जिध(जैसे)इन पदों के उदाहरण भी समझ लेने चाहिएं। इन पदों में पाविमवयव को हित इष यह मादेश किया गया है।
१०७३-अपभ्रंश भाषा में पाक मादिशब्दों के शावि [जिस के मादि में दकार हो] अवयव के स्थान में डिट (जिस में डकार इत् हो) एह यह मादेश होता है । जैसे
मया भणितं बलिराज ! स्वं फोहर मार्गण एषः।।
पाहक ताहा नाऽपि भवति, भूख ! स्वयं नारायणः ईहक ॥१॥ अर्थात-हे बलिराज ! (बलियों के स्वामिन् !) मैंने तुझ कहा है कि यह मांगने वाला कैसा है? कौन है ? । इस प्रश्न का समाधान करते हुए बलिराज' फरमाते हैं कि हे मुर्ख ! यह जैसा तैसा मर्थात् साधारण याचक नहीं है, किन्तु यह तो स्वयं नारायण [विष्णु] ही हो सकता है।
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चतुर्थ पादः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
३२३ __ यहां --१-फोदा केहउ (कंसा), २--याग जेहु (जसा), ३---साहातेहु (पैसा), ४ईडगाह (ऐसा) इन पदों में शावि अवयब के स्थान में ह [हित् एह] यह प्रादेश किया गया है।
१०७४.....अपभ्रश भाषा में अवन्त [जिस के अन्त में प्रकार हो] याहा आदि अर्थात् याइश सावश, कोहश तथा ईट्टया इन शब्दों के दादि [जिस में दकार प्रादि में हो] अवयव के स्थान दिद [जिसमें तार इत् ] आस पहं ना होता है। जैसे ----यावृशः जसो [जैसा], २ताधा:-तइसो [वैसा], ३---कोशः कइसो [कैसा], ४.-ईशा-अइसो [ऐसा] यहां पर यादृश आदि शब्दों के दादि अवयव को डित् अहस यह ग्रादेस किया गया है।
१०७५-- अपभ्रश-भाषा में यत्र और तत्र इन शब्दों के 'ब' प्रत्यय के स्थान में एत्य और प्रत्त ये दो डित् प्रादेश होते हैं। जैसे---
यदि स घटयति प्रजापतिः, कुत्रापि सात्वा शिक्षाम् ।
यत्रापि तत्रापि अत्र जगति भण तबालस्याः सादृश्यम् ||१|| अर्थात-यदि वह प्रजापति-प्रझा यहां पर, वहां पर प्रथवा कहीं पर भी शिक्षा प्राप्त करके रचना करे तो क्या इस संसार में उस स्त्री के समान [किसी पुरुष की रचना कर सकता है ? कभी नहीं । भाव यह है कि इस नारी का सौन्दर्य प्रद्वितीय है।
यहां पर ---यत्र-जेत्थु (जहाँ पर), २-तन्त्रतेत्यु (वहां पर) इन दोनों पदों में ', के स्थान में रितु एत्यु यह प्रादेश किया गया है। इस के अतिरिक्त-१-पत्र स्थितः अस्तु ठिदो (जहां पर ठहरा हुमा है), २-सत्र स्थितः तत्तु ठिदो (वहाँ पर ठहरा हुमा है) यहां पर प्रत्यय के स्थान में डित् अत्त यह आदेश किया गया है।
१०७६-अपभ्रशभाषा में कुत्र और अत्र इन शब्दों के '' के स्थान में हित एस्प यह प्रादेश होता है। जैसे-कुत्राऽपि लावा शिक्षा, पत्रापि तत्रापि अत्र अगतिः केत्यु कि लेप्पिा सिक्खु, बेत्यु वि, तेत्यु वि, एत्थु जगि [यहाँ पर, वहां पर प्रथवा कहीं पर भी शिक्षा प्राप्त करके इस जगत में] यहाँ पर-१-कुन- केत्थ कहां पर], २-प्रत्र एत्यु [यहाँ पर] इन पदों में '' प्रत्यय के स्थान में बित् 'एस्थु' यह मादेश किया गया है।
१०७७-अपभ्रंश भाषा में यावत और सावत् इन दोनों अव्ययपदों के वावि [जिस के आदि में वकार हो] अवयव को म, और महि ये तीन प्रादेश होते हैं। जैसे
यावत् न निपतति कभ-सटे सिह-चपेटा-पटात्कारः ।
सावत् समस्ताना मवकलानां पदे पदे बाधते दरका ॥१॥ अर्थात्---जब तक समस्त मदोन्मत्त हाथियों के कुम्भ-तट पर चटात्कार शब्द करता पर सिंह को चपेटा नहीं पड़ता तभी तक उन पर पग-पग पर ढक्का (बड़ा ढोल) सुनाई देती है।
यहां पर-१-- यावत् जाम (जबतक}, २--तावत्-ताम (तब तक) इन पदों में बावि अवयव को 'म' का प्रादेश किया गया है। 'उ' आदेश का उदाहरण
तिलाना तिलवं तावत, परं यावत् म स्नेहाः गलन्ति ।
स्नेह प्रणष्टे ते एव तिलाः, तिलाः भ्रष्टा खताः भवन्ति ॥२॥ ___ अर्थात् ---तिलों का तिलत्व [तिलपना] तभी तक है, जब तक उन में से स्नेह [चिकनाहट, मापी के माथे के दो मांसपिष्ट | तट शरीर के कतिपय अवयवों की संका है। जैसे-कटितट, कुश्चतट पादि।
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३२४ * प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थ पादः तेल]नहीं निकलता । स्नेह के निकल जाने पर वेतिल भी तिल रूप से भ्रष्ट हो कर खल रूप हो जाते हैं।
यहाँ पर-१-तावत-ताउँ (तब तक), २-धावत जाउँ [जब तक] इन पदों में वादि प्रत्यय को '' यह मादेश किया गया है। 'महि' आदेश का उदाहरण
यावद विषमा कार्य-सिः, जीनामां मध्ये एति ।
तास प्रास्तामितरो जमः, सूजनोऽप्यन्तरं वदाति ॥३।। अर्थात--जब जीवों पर विषम कार्य गति [कर्मगति ] ग्राती है,अर्थात् जीवों का अशुभ फर्मोदय होता है, तब पौरों [साधारण मनुष्यों का क्या कहना, वे तो बदल ही जाते हैं किन्तु सुजन [श्रेष्ठ व्यक्ति में भी अन्तर पा जाता है।
यहां पर-----याव-जामहि [जब त], २. सावतामहि [तब तक] इन पदों में वावि अवयव को 'मोह यह प्रादेश किया गया है।
१०७५-अपभ्रंश भाषा में प्रस्थम्स [जिस के अन्त में अतु प्रत्यय हो] यद् और लव इन शब्दों के अर्थात् यावल और सावत् इन शब्दों के वादि जिस के आदि में वकार हो] अवयव को जित् [जिस मे उकार इत हो] एका यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-याव अन्तर रामरावणयोः, तावद्धम्तरं पट्टन-प्रामयोग्यमय जेवड अन्तर रावण रामह, तेवडु अन्तर पट्टणगामह [जिल ना अन्तर राम और रावण में डकार है, उतना ही अन्तर पट्टन-नगर और ग्राम में होता] यहां पर १-यायव जेवा (जितना), २-ताबद्--तेबड़ (उतना) इन पदों में यादि अवयव को हिद् एवई' यह प्रादेश विकल्प से किया गया है। प्रदेश के प्रभाव पक्ष में--पावद का जेत्तुलो [जितना] और सावन का सेस लो [उतना] यह रूप बनता है।
१०७६-अपभ्रंश भाषा में प्रवन्त इदम् और किम् अर्थात् इयत् और कियत् इन शब्दों के घकारावि [जिसके प्रादि में यकार हो] अवयव को चित एवई' यह आदेश विकल्प से होता है । जैसे१-सप अन्तरम् - एकडु अन्तरु [इतना अन्तर है],२-किय अन्तरम् केवड अन्तर? [कितना अन्तर है?] यहा तर यकारादि अवयव के स्थान में जित् 'एचड' यह मादेश विकल्प से किया गया है। पादेश के प्रभावपक्ष में- इयम् का एसुलो और रिया का केसुलो यह रूप बन जाता है। १००-अपभ्रश भाषा में परस्पर' शब्द के प्रादि में अकार जोड दिया जाता है। जैसे--
ते मुदमाः हरिताः ये परिविष्टाः सेषाम् ।
परस्परं युध्यमानानां स्वामी पीडितः येषाम् ||१|| अर्थात--परस्पर लड़ने वाले जिन लोगों के स्वामी पीडित दुःखी हो, उनको परोसे गए मूग व्यर्थ ही जाते हैं। भाव यह है कि जो सेवक परस्पर लड़ते रहते हैं, और स्वाभी को खेद खिन्न बनाते रहते हैं, उनको दिया गया बेतन या पारितोषिक निष्फल ही समझना चाहिए। यहां पर..परस्परम् अवरोप्पर प्रापस में] इस पद में आदि में प्रकार का संयोजन किया गया है।
१०९१-अपभ्रंश-भाषा में कार प्रादि ग्यजनों में यदि एकार और ओकार स्थित हो तो प्रायः इन के उच्चारण में लाघव किया जाता है। अर्थात् इनके उच्चारण में लघुता मा जाती है, एकार और ओकार को हस्थ मान लिया जाता है। जैसे---सुखेन चिन्यले मानः-सुधे चिन्तिज्जइ माणु [सुख की दशा में स्वाभिमान का चिन्लन किया जाता है], २ ...लस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य तसु हः कलियुगि दुल्लहहो [कलियुग में उस दुर्लभ को] यहां पर-सुखेन---सुघे इस पद में ए
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
३२५
कार के तथा दुर्लभस्य दुल्लहहो, इस पद ओकार के उच्चारण में लाघव लाया गया है। अर्थात्उच्चारण करते समय इनको हलकी श्रावाज से [ह्रस्व की भाँति ] बोला जाता है।
१०८२- अपभ्रंश भाषा में पद के अन्त में विद्यमान जं, है, हि और हूं इन शब्दों के उच्चारण में प्रायः लाघव होता है । श्रर्थात् अपभ्रंश भाषा में उं हूं, हि और हं इनका अनुस्वार अनुनासिक हो जाता है। ध्यान रहे कि अनुस्वार को गुरु माना जाता है और अनुनासिक को लघु । श्रतः उचारण के लाघव का अर्थ है --- उस का ह्रस्व बन जाना । जैसे १ – अन्यद् यत् लुछकं तस्याः धन्यायाः प्रन्तु जुतुच्छउँ त घण [उन नायिका का अस्य जो तुच्छ है ], २-बलि क्रिये सुजनस्य बलि किज्जउँ सुण [ सज्जन पुरुष के मैं बलिहारी जाती हूं], ३ -- देवं घटयति बने तरूणाम् = दइउ घडावद्द [नों के लिए यों के फल दिदा कर देता है], ४--हम्पोऽपि वल्कतरु विक्कलु [ वृक्षों से छाल भी ], ५-- खड्ग विसादितं यस्मिन् सभामहे लग्ग-विसाहि जहिं हं [जिस देश में तलवार से विसाधित-कमाया हुआ प्राप्त करते हैं], ६– तृणानां तृतीया भङ्गी नापितहुँ त इज्जी भनि त्रि [तिनकों की तीसरी अवस्था नहीं है] यहां पर -१छम् तुच्छउँ तथा क्रिये== क्रिज्जउं, इन पदों में 'उ' के २ तहरणाम् तरुहुँ, इस पद में हूं के तथा ३- तृणानाम् तनहुँ, इन पदों में हं के उच्चारण में लाघव लाया गया है। प्रायः [ बहुल ] का अधिकार होने से लहहुं वहां पर प्रस्तुतसूत्र की प्रवृत्ति नहीं हो सकी।
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१०८३- अपभ्रंश भाषा में 'व्ह' इस के स्थान में मकाराकान्त [ मकार से युक्त ] भकार प्रर्थात् 'म्भ' यह प्रदेश विकल्प से होता है । वृत्तिकार फरमाते हैं कि ३४५ सूत्र से क्षम, इम, हम और स्म आदि संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान में होने वाले 'म्ह' इस प्रदेश का यहां पर ग्रहण किया जाता है, क्योंकि संस्कृतभाषा में 'म्ह' यह संयुक्तवर्ण सम्भव हो नहीं है। जैसे - १ - प्रोसः गिम्हो गिम्भो (गरमी की ऋतु), और २ - इलमा सिम्हो = सिम्भो (बलगम) इन पदों में 'म्ह' के स्थान में 'म्भ' यह आदेश किया गया है। ब्रह्मन् 1 ते विरलाः केऽपि नराः सर्वाङ्ग छेकाः । ये वनाः ते थकतराः ये श्रमय से यतोवर्दाः ||१||
अर्थात् हे ब्राह्मण ! ऐसे मनुष्य संसार में बहुत कम हैं, जो सर्वप्रकार से दक्ष [र] हों, क्योंfe जो हैं, तो वचक [ धोखा देने वाले ] हैं, और जो ऋजु-सरल है, वे बलीवर्द-बैल के समान हैं, मूर्ख हैं। यहां परब्रह्मन् !!म्भ ! [हे ब्राह्मन् ] इस पद के 'ह' को 'भ' यह श्रादेश किया गया है ।
१०८४ - अपभ्रंश भाषा में प्रत्याह इस शब्द के स्थान में अन्नाइस और अवराइम ये दो आदेश होते हैं । जैसे- अन्यादृशः अन्नाइसो, श्रवराइसो [ मौरों जैसा ] यहां पर धन्यादृश शब्द के स्थान में अन्नाइस और अवराइस ये दो श्रादेश किए गए हैं। १०८५ - यपभ्रंश भाषा में "प्रायः " इस अव्ययपद के स्थान में प्राउ, प्रादव, प्राहम्ब प्रौद प ये चार श्रादेश होते हैं । जैसे
अम्ये ते दोघे लोचने, अभ्यव तव भुज-युगलम् 1 ग्रन्यः स धन-स्तन- भारः, तदन्यदेव मुख-कमलम् ॥ अन्यः स केशकलापः सोऽन्य एक प्रायो विधिः । येन नितम्बिनो घटिता, सा गुण-लावण्य-निषिः ॥ १॥
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः अर्थात् - वे विशाल नेत्र, वह भुज-युगल [भुजामों का जोड़ा], वह धन-स्तन-भार [धन-कसे हुए, स्तनों का भार-बोझ], वह मुख-कमल और वह केश कलाप [बालों का ढेर] अन्ध है, अर्थात् असाधारण [विलक्षण] ही है। यहां तक कि वह विधि [भाग्य] भी अन्य [पोर] ही है जिस ने कि गुणों और लादण्य की निषिस्वरूप उस नितम्बिनी [बड़े और सुन्दर नितम्बों वाली स्त्री] की रचना की है। यहां पर 'प्रायः' इस अश्ययपद के स्थान में 'प्राउ' यह आदेश किया गया है । 'प्राइव' प्रादेश का उदाहरण--
प्रायो मुनीनामपि भ्रान्तिः, तेन मणिकान् गणयन्ति ।
अक्षये, निरामये परमपदे, अधाऽपि लयं न लभन्ते ||२|| अर्थात्-मुनिजनों को भी प्रायः भ्रान्ति बनी हुई है, इसी लिए वे माला के मणिकों [मनकों] को गिनते हैं, अर्थात् मालाएं फेरते हैं। इन मुनियों ने अभी तक अक्षय और निरामय [रोग-रहित] परमपद में लीनता को प्राप्त नहीं किया। यहां पर 'प्रायः' इस पद के स्थान में 'प्राइव' यह प्रादेश किया गया है । 'प्रारम्ब' का उदाहरण---
अनुजलेन प्रायः गोयाः सखि! पत्त मयनसरसी।
से सम्मुखे सम्प्रेषिते दत्तः तिर्यग् घातं परम् ॥३॥ ___ अर्यात्-हे सखि ! गौरी के नयन-रूप सरोवर यद्यपि अश्रुजल से उद्वत्त हैं, अर्थात् उछल रहे हैं, फिर भी वे किसी कामुक व्यक्ति के सन्मुख प्रेषित किए गए तिर्यक [टेढा] एवं दिलक्षण धात कर डालते हैं। अकथनीय दुःख पहुंचाते हैं । भाव यह है कि पति-विरह-जन्य दुःख से व्याकुल सुन्दरी अश्रु पूर्ण नयनों से भी यदि किसी कामी व्यक्ति को निहारती है तब भी उसके विकार-पूर्ण नयन उस कामुक व्यक्ति को परिव्यथित कर देते हैं । इसके विपरीत, यदि वह सुन्दरी प्रसन्न नयनों द्वारा किसी कामुक व्यक्ति को देख ले तब तो उस व्यक्ति को दुर्दशा का कहना ही क्या है ? यहां पर प्रायः इस अव्ययपद के स्थान में प्रस्तुतसूत्र से प्राइम यह प्रादेश किया गया है। परिगद का उदाहरण
एण्यति प्रियः रोषिष्यामि, अहं कष्टा मामनुनयति ।
प्रायः एतान् मनोरथान दुष्करान् पयिता करोति ॥४॥ प्रर्थात---प्रीतम जायगा, मैं रुष्ट हो जाऊंगी, रुष्ट हुई मुझ को वह मनायगा, इस प्रकार के दुष्कर [जिन का पूर्ण होना कठिन हो] मनोरथों को प्राय: दयिता [नायक की प्रिय नायिका ही किया करती है। यहाँ पर 'प्रायः' इस अव्ययपद के स्थान में परिगम्ब' यह प्रादेश किया गया है।
१०८६--अपभ्रंश भाषा में 'अन्यथा' इस अश्ययपद के स्थान में अनु' यह आदेश विकल्प से किया जाता है। जैसे ---
विरहाऊनल-ज्वाला-कालितः पयिकः कोऽपि माक्वा स्थितः।
अन्यया शिशिरकाले शीतलजलाए घूमः कृतः उत्थितः ॥१॥ अर्थात्-प्रतीत होता है कि विरहाऽग्नि की ज्वालाओं से दग्ध कोई पथिक डुबकी लगाए हुए जल में स्थित है, यदि ऐसा न होता तो शिशिर काल [माध और फाल्गुण मास] में शीतल जल से धूप्रो कैसे निकलता ? यहां पर अन्यथा इस अव्ययपद के स्थान में अनु' यह प्रादेश विकल्प से किया गया है। आदेश के अभावपक्ष में अन्यथा अन्नह [नहीं तो] यह रूप बनता है।
१०५७--अपनश-भाषा में "फतः" इस अव्ययपद के स्थान में कर और कहन्तिह ये दो
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चतुर्थपादः श्रादेश होते हैं। जैसे
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकालम् ★
मम कान्तस्य गोष्ठस्थितस्य कुतः कुटीरकाणि बलन्ति । अथ रिपुरुधिरेण विध्यापयति अथ भ्रात्मना, न चान्तिः ॥१॥
वर्षा-गोष्ट [ गोशाला, महीरों का मड्डा, जमाव ] में स्थित होने पर भी मेरे प्रिय के कुटीरक [ छोटी कुटियाएं ] क्यों जल रहे हैं? यदि ये किसी शत्रु ने जलाए हैं तो वह स्वयं रिपु के रुधिर से उन्हें बुझाएगा। प्रथवा श्रपने आप ही ये जल रहे हैं तो भी यह बिना किसी से सहायता लिए पाप ही इन को बुझा डालेगा, इस में कोई भ्रान्ति [ सन्देह ] नहीं करनी चाहिए ।
यहां पर 'कुत:' इस अव्ययपद के स्थान में 'क' यह आदेश किया गया है। कहन्ति का उदाहरण - धूमः कुतः उत्थितः धूमु कहन्तिहु उट्टि [धू कहां से उठा हुआ है ] यहां पर 'कुतः' इस अव्ययपद के स्थान में 'कहन्तिह' यह प्रादेश किया गया है।
१०८८-- अपभ्रंश भाषा में ततः और सवा इन शब्दों के स्थान में 'तो' यह आदेश किया जाता है। जैसे
यदि भग्नाः परकीयाः ततः सखि ! मम प्रियेश ।
अथ भग्ना अस्माकं सम्बन्धिनः तदा तेन मारितेन ॥ १ ॥
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इस श्लोक का अर्थ १०५० में सूत्र के दूसरे लोक में दिया जा चुका है। यहां पर 'तत' इस earera के स्थान में 'तो' यह प्रादेश किया गया है।
१०८९ प
५ - मं
भाषा में सूत्रोक्त १---एवम्, २ परम् ३ - समम्, ४- ध्रुवम्, १ - मा, और ६-मनाक् इन पदों के स्थान में क्रमशः १ - एम्व, २– पर, ३ – समाणु, ४ - और ६ - मजा ये श्रादेश होते हैं । एवम् के स्थान में होने वाले एम्य का उदाहरण---- प्रियसंगमे कुतः निद्रा, प्रियस्य परोक्षस्य कथम् ।
भया द्वे अपि विनाशिते नैवं न तथा ॥ १॥
अर्थात् प्रीतम का संगम होने पर निद्रा कहां ? और उस के परोक्ष [ वियोग ] में भी निद्रा कहो ? दोनों प्रकार से मेरी निद्रा का नाश हो चुका है। भाव यह है कि न निद्रा इस तरह [ पति की उपस्थिति में] प्राती है, और नाही उस तरह [पति के विरह-काल में] निद्रा की स्थिति बनती है। यहां पर एवम्' [ इस प्रकार ] इस मव्ययपद के स्थान पर एम्ब यह मादेश किया गया है। परम् के स्थान में किए पर प्रादेश का जवाहरण- गुरोः न सम्पत् कीर्तिः परम् गुणहि न संपइ कित्ति पर [गुणों से सम्पत्ति नहीं, किन्तु कीर्ति मिलती है ] यहां पर 'परम' के स्थान में 'पर'' यह आदेश किया गया है। समम् के स्थान में किए गए सभा का उदाहरण
कान्तो यत् सिंहस्य उपमीयते तन्मम खण्डितः मानः । सिंहा मोरक्षकान् गजान् हन्ति प्रियः एव-रः समम् ||२||
धर्षात् — मेरे शीतम को जो सिंह से उपमा दी गई है, इस से मेरा मान खण्डित हुआ है क्योंकि सिंह तो नीरक्षक [ जिस का कोई रक्षक न हो ] हाथियों को ही मारता है, किन्तु मेरा प्रीतम पदासियों [ पैदल सेना ] से रक्षित हाथियों को मारता है। यहां पर - समम् [ साथ ] इस पद को समा यह प्रादेश किया गया है। भुवम् के स्थान में किये गए अबु धादेश का उदाहरण
चलं जीवितं प्रवं मरणं, प्रिय ! वध्यसे किम् । भविष्यन्ति दिवसाः रोषरणस्य दिव्यानि वर्षशतानि ||३||
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चतुर्थपादः
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* प्राकृत व्याकरणम् * अर्थात् -हे प्रिय ! जीवन चञ्चल है, अस्थिर है, और मृत्यु ध्रुव-निश्चित है. अतः तू क्यों रुष्ट हो रहा है । रोषयुक्त व्यक्ति के थोडे दिन भी सैकडों दिध्य [स्वर्गीय ] वर्षों के समान हो जाएंगे। भाव यह है कि दुःखी जन को कुछ दिन भी सैकड़ों वर्षों तुल्य प्रतीत होते हैं। यहां पर 'ध्रुवम्' इस पद के स्थान पर 'ध्र' यह आदेश किया गया है। 'मा' के स्थान में किए गए 'म' इस आदेश का उदाहरण .. मा धन्धे ! कुछ विधानम्मं धणि ! करहि विसाउ [हे सुन्दरि! विषाद मत कर] यहां पर 'सा' को 'म" यह आदेश किया गया है। प्रस्तुत भूत्र में १००० वें सूत्र से प्रायः [बहुल] इस पद की अनुवृत्ति पाने से कहीं पर 'मा' के स्थान में 'म' यह आदेश नहीं भी होता । जैसे
माने प्रसष्टे यति न तनु, सदा देशं श्यज ।
___मा दुर्जन-कर-पल्लवेः वयं मानः भ्राम्य ||४|| अर्थात-स्वाभिमान के नष्ट हो जाने पर यदि शरीर नहीं तो देश को अवश्य छोड देना चा. हिए, क्योंकि दुर्जनों से कर-पल्लवों [कर रूपी पल्लव-कोंपल] द्वारा दिखाए जाते हुए व्यक्ति का भ्रम करना सर्वथा अनुचित है। यहां पर 'मा' इस पद के स्थान में मं यह आदेश नहीं हो सका।
लबणं बिलीयते पानोयन धरे ! खलमेघ मा गर्म!।
बालितं गलति सरकटोरकं गौरी तिम्यति ॥५॥ अर्थात--अरे दुष्ट मेघ ! तू आज गरजना मत कर, क्योंकि पानी से लवण-लावण्य [सौन्दर्य] विलीन (नष्ट) हो रहा है और जलाया हुमा कुटीर गल रहा है तथा गौरी [सुन्दरी] वासना अन्य अन्तवेंदना से पीडित हो रही है। यहां पर भी 'मा' इस अव्ययपद के स्थान में 'म' यह आदेश नहीं हो सका । मनाक के स्थान में किए गए 'ममा' इस आवेश का जवाहपण
विनवे प्रष्टे बकः द्विभिः जन-सामान्यः ।
किमपि मनाक् मम प्रियस्य शशी अनुहरति नान्यः ॥६॥ ___अर्थात-वैभव के नष्ट हो जाने पर मेरा प्रीतम वक्र और ऋद्धि के होने पर जनसामान्य की भाँति चलता है। अर्थात् वक्रता से रहित हो जाता है। मेरे प्रिय की इस स्थिति का चन्द्रमा ही कुछकुछ अनुकरण करता है, अन्य कोई नहीं । यहां पर 'मनाक' इस अव्ययपद के स्थान में 'मरणायह मादेश किया गया है।
१०९. भापभ्रशभाषा में ----किल, २----अथवा, ३ - विधा, ४-~सह और ५--नहि इन शब्दों के स्थान में क्रमशः १-किर, २-महदइ, ३-हिये, ४-सहूं और ५-माहिं ये मादेश होते हैं। किल के स्थान में किए गए 'किर' का उदाहरण----
किल खादति, म पिवति, न विनवति, धर्म म पयति रूप्यम् ।
इह कृपणो न जानाति यथा यमस्य धारणेन प्रभवति दूतः ॥१॥ अर्थात-निश्चय ही कृपण व्यक्ति न तो कुछ खाता है, न पीता है, न धर्म में ही रुपया दान करता है, और नाही [अन्य किसी कार्य में] व्यय करता है, क्योंकि वह नहीं जानता कि यम का दूत क्षणभर में अपना प्रभुत्व जमा लेगा। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति किसी भी क्षण मृत्यु के मुंह में आ सकता है, तथापि वह अपना हानिलाभ सोचने का यत्म नहीं करता। यहां पर 'किस' के स्थान में "किर' यह प्रादेश किया गया है। अथा के स्थान में किए गए 'महबई' इस आदेश का उदाहरणअथवा म सुशानामेष बोध-प्रवदन सुवंसह एह खोडि [अथवा अच्छे वंश वालों का यह दोष नहीं
ATARISM
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकादयोपेतम् * है] यहां पर 'अथवा' इस अव्ययपद को 'अहवई' यह आदेश किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में "१००० में सूत्र में पठित 'प्रायः [बहुल ]' इस पद का अधिकार [अनुवृत्ति होने से" कहीं पर अथवा के स्थान में 'महबई' यह आदेश नहीं भी होता । जैसे
यायते (गम्यते) तस्मिन् देशे, लम्यते प्रियस्य प्रमाणम् ।
यवि लायाति आमीपते. अशवा सवेव (तत्रय) निर्माणम् ॥२॥ अर्याल - जिस देश में प्रीतम का प्रमाण [चिन्ह ] मिलेगा उस देश में जाऊंगी, यदि वह प्राएगा तो ले ग्राऊंगी, यदि वह नहीं पायगा तो वहीं पर निर्माण [मृत्यु] को प्राप्त हो जाऊंगी। यहां पर 'अथवा' के स्थान में 'अहवाई' यह आदेश नहीं हो सका । बिया के स्थान में किए गए विवे इस प्रादेश का उदाहरण-दिया दिवा गङ्गा-स्नानम्-दिवि-दिवि गङ्गा-हाणु [प्रतिदिन गङ्गास्नान है। यहां पर विवा' के स्थान में 'दिवे यह आदेश किया गया है । 'सह' के स्थान किए 'सह' का उदाहरख
पतः प्रवसता सहन गता, म मृता वियोगेन सस्य ।
लज्ज्यते सन्वेशान् वचतीभिः सुभग-जनस्य ||३|| अर्थात् न तो मैं प्रवास [विदेश मना करते हुए के साथ गई और माँहो मैं उस के वियोग में मरी, अतः अब सौभाग्यशाली प्रिय को सन्देश देती हुई मुझ को लज्जा पा रही है। यहां पर 'सह' के स्थान में 'सहं यह प्रादेश किया गया है। नहि के स्थान में कत नाहि' इस आदेश का उबाहरण--
इतः मेघाः पिबन्ति जलम, इतः वचवानल: आवर्तते ।।
प्रेमस्व गमीरिमारणं सागरस्य, एकापि करिएका नहि अपभ्रश्यते ॥४॥ पर्थात् इधर तो बादल पानी पी रहे हैं और उधर बड़वानल (समुद्र की प्राग) पानी को शोषित कर रहा है, फिर भी पानी की एक बुन्द भी उसमें से कम नहीं होती। समुद्र की इस गम्भीरता को देखो। यहां पर बह इस भव्ययपद के स्थान में 'नाहि यह प्रादेश किया गया है। ... १०६१ -अपभ्रंश-भाषा में-१-पश्चान्, २-- एवमेव, ३--एक, ४---इवानीम्, ५-प्रत्युत
और ६ इसस, इन शन्दों के स्थान में क्रमशः--.-पमछा, २-एम्वइ, ३-जि, ४---एम्बहि, ५पञ्चलिउ पोर६-एत्तहे ये प्रादेश होते हैं। पश्चात् के स्थान में किए गए पन्छाइ इस प्रादेश का उदाहरण -पश्चाद भवति विभातम् -पच्छा होइ विहाणु, इन पदों का अर्थ १०३३ ३ सूत्र में लिखा जा चुका है। यहां पश्चाद के स्थान में 'पेसा' यह प्रादेश किया गया है। एवमेव के स्थान में किए एम्बद का उदाहरण-एवमेव सुरतं समाप्तम् -- एम्बई सुरज समतु [इसी तरह सम्भोग समाप्त हो गया] यहां पर एवमेव इस पद के स्थान में एम्बा यह प्रादेश किया गया है। एक शब्द के स्थान में किए गए जि इस भादेश का उदाहरण इस प्रकार है-....
यातु मा यान्तं पहलवत द्रक्ष्यामि पदानि बदाति ।
हरये तिर्यग् अहमेव परं प्रियः सम्बराणि करोति ॥५॥ प्रति-हे सखि ! मेरे प्रीतम को जाने दो, जाते हुए का पल्ला मत पकड़ो, मैं देखूगी कि वह कितने पग जाता है ? उस के हृदय में तो मैं ही छिपी हुई है, ऐसी स्थिति में वह जा ही नहीं सकता, वह मेरा प्रिय केवल जाने का प्राडम्बर करता है। यहां पर एव' इस पद को 'जि' यह मादेश किया गया है। दानीम् के स्थान में किए गए 'एम्बाह' प्रादेश का उदाहरण----
हरि नतितः प्राङ्गणे, विस्मये पातितः लोकः । जवानी राषा-पयोधरयो, मद् भाति तब भवतु ॥२॥
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*प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादा अर्थात्-प्राङ्गण [मांगन] में हरि को नचाया गया है, और सब लोगों को विस्मय में डाल दिया गया है,अब राधा के पयोधरों को जो अच्छा लगता है,वह हो । भाव यह है कि पाताल के राजा बलि के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए विष्णु भगवान को बामन अवतार धारण करना पड़ा। एक पाँव से तीन लोक को प्रावृत कर लेने के कारण समस्त संसार प्राश्चर्यचकित रह गया । भगवान को वामन रूप में देखकर राधा के मन में कामवासना अंगडाइए लेने लगीं। यहीं पर इशानीम्' इस अव्यय पद के स्थान में 'एम्बहि' यह मादेश किया गया है। प्रत्युत इस अध्ययपद के स्थान में किए गए 'बलि' इस पादेश का उदाहरण--
सर्पलावण्या गौरी नवा कापि विषयन्थिः।
भटः प्रत्युत सम्रियते यस्य न लगति कण्ठे ।।३।। .... अर्थात--सर्व प्रकार के लावण्य से युक्त गौरी [गौर वर्ण वाली नायिका कोई नवीन ही विषप्रन्थि विष की गोल] है, क्योंकि जिस योद्धा के कण्ठ में यह नहीं लगी, वह योद्धा भी मारा जा रहा है। तब जिस के कण्ठ का यह स्पर्श करती है, उसकी मरणदशा का तो कहना ही क्या है ? यहां पर--'प्रत्युत' के स्थान पस्चलिज यह आदेश किया गया है। इतः के स्थान में किए एसहे का उवाहरण-इतः मेघाः पिबन्ति जलम् - एत्तहे मेह पिशस्ति जलु [इधर मेध पानी पो रहे हैं] यहां पर इतः इस अव्ययपद के स्थान में 'एसहे' यह प्रादेश किया गया है।
१०६२-अपभ्रंश भाषा में १-विषरण, २-उक्त और ३-वर्ल्स इन तीन शब्दों के स्थान में क्रमश:१-धुन, २-युत्स और ३----विसच ये तीन आदेश होते हैं । विषण के स्थान में किए गए तुल इस प्रादेश का उदाहरण इस प्रकार है। जैसे
मया शक्तं श्वं धुरा पर, गलिषभः विगुप्तानि ।
स्वया विना पवल ! नारोहति भरः एवमेव विषण्णः किम् ?॥शा अर्थात्-मैंने तुझे कहा है कि तु धुरा को धारण कर, गलिवृषभों [शक्ति के चोर बैलों] के द्वारा हम विडम्बित हो चुके है । हे धवल [श्वेत] वृषभ! तेरे बिना यह भार नहीं उठाया जा सकेगा, प्रतः अब तू व्यर्थ ही विषण्ण [विषादयुक्त] क्यों हो रहा है ? यहां पर "विषपण' शब्द के स्थान में 'चुल्ल' यह मादेश किया गया है। 'उक्त के स्थान में किए गए 'धुत्त' प्रादेश का उदाहरण-मया :सम्माई चुत [मैंने कहा है यहां 'उक्त' के स्थान में "धुस' यह आदेश किया गया है। 'वर्म' के स्थान में किये गए विच्छ' इस मादेश का उवाहरण ---येन मनो वर्मति न भाति में मणु विच्चि न माइ [क्योंकि मन मार्ग में समाता नहीं है। यहां पर 'घम' के स्थान में विच्च यह आदेश किया गया है।
१०९३-अपभ्रंश-भाषा में शीध्र प्रादि शब्दों के स्थान में वहिल्स प्रादेश आदि होते हैं। १-शीघ्र के स्थान में किए गए 'वहिल्ल' आदेश का उदाहरण- .
एक कदा ह! प्रपि मायासि, अन्यत शीघ्र यासि।
मया मित्र ! प्रमारिणतः, स्वया पाहाः खलः नहि ॥१॥ अर्थात हे मित्र ! पहिले तो तू कभी पाला ही नहीं है, यदि प्राता भी है तो शीघ्र ही चला जाता है, मुझे यह प्रमाणित हो गया है कि तेरे जंसा दुष्ट कोई नहीं है। यहां पर 'शीन' के स्थान में बहिरूल' यह आदेश किया गया है। २-कलह के स्थान में किए गए 'घङ्घल' आदेश का उदाहरण
यथा सुपुरुषाः लया कलहाः, यथा नद्यः तथा बलनानि ।। पथा पर्वता तथा कोटराणि, हुण्य । शिबसे किम् ॥२॥
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चतुर्थपादः
संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्वयोपेतम् ★
३३१
अर्थात्- जैसे सत्पुरुष वैसे कलह । श्रर्थात् सत्पुरुषों के साथ क्लेश लगे हुए हैं। जैसे- नदियां, वैसे वलन मोड़ तोड़ | अर्थात् नदियों में बहुत मोड़-तोड़ होते हैं। जैसे पर्वत बसे कोटर । अर्थात् पर्वतों में कोटर हे बहुत होते हैं। अतः हे हृदय ! तु खिन्न क्यों हो रहा है ? यहां पर "कलह" के स्थान '' यह आदेश किया गया है। ३-अस्पृश्य-संसर्ग इस शब्द के स्थान में किए गए 'विहान' इस प्रादेश का उदाहरण इस प्रकार है
ये मुक्त्या रत्ननिधि आत्मानं तदे क्षिपन्ति ।
deferrinर्गाः परं कुरकुर्वाणाः भ्रमति || ३ ||
अर्थात् जो शङ्खलाकर समुद्र को छोड़कर अपने आप को तट पर फेंक देते हैं, उन शङ्खों को अस्पृश्य-संसर्ग [ जिन का संसर्ग सहबास अस्पृश्य है, करने योग्य नहीं है, ऐसे प्रथमजन ] बजाते हुए भ्रमण करते रहते हैं । अर्थात् समुद्र को छोड़कर शङ्ख नीचजनों के संसर्ग से नीच हो जाते हैं। यहां पर-- 'अस्पृश्य-संसर्ग' इस शब्द के स्थान में 'विद्याल' यह आदेश किया गया है । ४--भय इस शब्द स्थान में किए गए क इस आदेश का उदाहरण
वि: (fert: ) अजितं खाद मूढ !, संचिनु मा एकमपि म्मम् । किमपि भयं तत् पतति येन समाप्यते जन्म ॥४॥
अर्थाद- हे मूढ ! बहुत दिनों से जो घन उपार्जित किया गया है, उसका उपभोग कर, उसमें से एक भी द्रम्म [ प्राचीन सिक्का या नाप तौलविशेष ] का संग्रह मत कर, क्योंकि कोई उस तरह का भय (बीमारी, रोग या डर ) ग्रा जायेगा कि जिस से यह जीवन ही समाप्त हो जायेगा | यहां पर भय के स्थान में प्रक्क यह प्रादेश किया गया है। ५-मात्मीय शब्द के स्थान में विहित अप्पन इस प्रदेश का उदाहरण-स्फोटयतः यो हृदयमात्मीयम् फोडेन्सि जे हिथडजं श्रप्पणडं (जो दोनों अपने हृदय को फोड़ डालते हैं) यहां पर आत्मीय इस शब्द के स्थान में अप्पण यह आदेश किया गया है । ६दृष्टि इस शब्द के स्थान में किए गए में हि इस आदेश का उदाहरण
एकमेकं reaf sea हथि सुष्ठु सर्वावरेण । ततोऽपि दृष्टि: यस्मिन् कस्मिन् अपि राधा ॥
कः शक्नोति संवारीषु दृढनयने मेहेन पर्यस्ते ||५||
अर्थात- हरि [कृष्ण ] यद्यपि प्रत्येक को बड़े आदर के साथ देखते हैं, तथापि जन की दृष्टि वहीं पर पड़ती है, जहां कि राधा होती है। स्नेह से परिपूर्ण नेत्रों को भला कौन नियंत्रित कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं। यहां पर 'दृष्टि' इस शब्द के स्थान में 'वेहि' यह श्रादेश किया गया है । ७गढ [अतिशय, वृद्ध] के स्थान में त्रिति 'निच्चट्ट' इस प्रादेश का उदाहरण
fara कस्य स्थिरत्वम् ?, यौवने कस्य गर्थः ?
सः लेखः प्रस्थाप्यते यः लगति गाढम् ||६||
अर्थात् विभव धन किस का स्थिर है ? अर्थात् किसी का नहीं, और यौवन पर कौन गर्व [मान] कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं । यह वस्तुस्थिति है, तथापि उस व्यक्ति ने योवन और वैभव का अभिमान सूचक जो लेख भेजा है वह गाढ [ श्रतिशयोक्ति पूर्ण ] प्रतीत होता है। यहां पर - 'गाव' इस शब्द के स्थान में 'निच्चट्ट' यह प्रादेश किया गया है। 'साधारण' इस शब्द के स्थान में किए गए 'सल' इस प्रदेश का उदाहरण-
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★ प्राकृत-व्याकरणम्
I
कुत्र शशधरः कुत्र मकरवरः कुत्र बहिणः ? कुत्र मेघः ? दूरस्थितानामपि सज्जनानां भवति बसाधारणः स्नेहः ||७||
अर्थात्---कहां तो शराब चन्द्रमा और कहां मकरधर समुद्र ? कहाँ बहिण- मोर और कहां मेघ - बादल ? तथापि इन में अद्भुत प्यार पाया जाता है। वस्तुतः दूर स्थित होने पर भी सज्जनों का स्नेह साधारण [ जो साधारण न हो ] हो होता है। यहां पर साधारण शब्द के स्थान में 'सङ्कल' यह आदेश किया गया है। &-कौतुक [कुतूहल, उत्सव, हर्ष, आमोद-प्रमोद, हंसी मजाक ] इस शब्द के स्थान में किए गए 'कोड' इस आदेश का उदाहरण---
restart तरुबराणां कौतुकेन क्षिपति हस्तम् । मनः पुनः एकस्यां सहलश्यां, यदि पृच्छय परमार्थम् ||८||
चतुर्थपादा
अर्थात् कुञ्जर] [ हाथी ] अन्य वृक्षों पर भी बड़े कौतुक - हर्ष के साथ सूण्ड को फेंकता है, बिसाता है, परन्तु यदि सच पूछो तो उसका मन तो केवल सल्लकि [वृक्ष-विशेष, जो हाथी को अत्य षिक प्रिय होता है ] में ही रहता । यहां पर 'कोक' इस शब्द के स्थान में 'कोड' यह श्रादेश किया गया है । १० -- क्रीडा [ खेल ] के स्थान में विहित 'बेड' इस आदेश का उदाहरणक्रीडा कृता अस्माभिः, निश्चयं कि प्रकययत ?
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अनुरक्ताः भवतः अस्मान् मा त्यज स्वामिन् ॥ ॥
मर्याद्र(- हम ने तो केवल क्रीडा [ उपहास ] की थी, आप इसे निश्चय क्यों मान रहे हैं ? हम तो प्रप के [स्नेहो ] एवं भक्त [भक्ति रखने वाले ] व्यक्ति हैं । इसलिए हे स्वामिन् ! हम स्नेही मोर भक्त जनों को मन छोड़ो। यहां पर 'कोडा' शब्द के स्थान में 'खेड' यह प्रादेश किया गया है । ११ रम्य (सुन्दर) के स्थान में किए गए 'रब' इस आदेश का उदाहरण-सरिभिः न सरोभिः न, सरोवरेः नाऽपि उद्यान धर्मः ।
P
देशr: रम्या: भवन्ति मूढ, निवसद्भिः सुजनः ||१०||
अर्थात हे मूर्ख ! नदियों से, सरों [जलप्रपातों-जल के भरणों से, सरोवरों [झीलों] से, उद्यानों से तथा वनों से देश रमणीक नहीं होते किन्तु वहां रहने वाले सुजनों [श्रेष्ठ पुरुषों] से ही वे रमणीक बन सकते हैं। यहां पर 'रम्य' शब्द के स्थान में 'रण' यह आदेश किया गया है । १२अत [ पूर्व ] इस शब्द के स्थान में विहित 'टक्कर' इस ग्रादेश का जवाहररण---
झूठा उपालंभ मत दे] । १४ - " पृथक पृथक
*
'हृवय ! त्वया एतत् कथितं मम अपतः शतवारम् ।
स्फुटिष्यामि प्रिये प्रवसति अहं भण्ड! अद्भुतसार ! ||११||
अर्थात् हे हृदय रूप भण्ड ! तू मेरे आगे सौ बार कह चुका है कि प्रिय के प्रवास करते ही मैं फूट जाऊंगा, अन: हे अद्भुतसार [अद्भुक्त-विलक्षण सार [शक्ति या परिणाम ] वाला ] भण्ड ! अक्ष तू फूट जा भाव यह है कि हे हृदयभण्ड ! तू महान कठोर है, जो प्रियतम के प्रदेश चले जाने पर भी फूट नहीं पाया। यहां पर 'अद्भुत' इस शब्द के स्थान में 'टक्कर' यह श्रादेश किया गया है। १३ -- "हे सखि !" इन पदों के स्थान में किए गए 'हेल्लि !' इस प्रदेश का उदाहरण- सखि ] मा उपालम्भस्य अलोकम् हेल्लि ! म ह बालु [हे सखि इन पदों के स्थान में 'हेल्लि !' यह प्रादेश किया गया में किए जाने वाले 'जुजुअ' इस आदेश का उदाहरण
!
यहां पर 'हे सखि !' इन पदों के स्थान
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चतुर्थपादः * मंस्कृत-हिन्दो-टीकाद्वयोपेतम् ★
३३३ एका कुटो पञ्चभिः द्धा, तेषां पचानामपि पृथक-पृथक बुद्धिः।
भगिनि ! तद् गृहं कथय, कथं नन्दतु पत्र कुटुम्बमात्मानन्धकम् ॥१२॥ अर्यात-कुटिया एक है, किन्तु पांचों ने उसे रोक रखा है, फिर इन पांचों की बुद्धि भी पृथक्पृथक् (अलग-अलग) है। हे बहिन ! तू ही बतला, उस घर की वृद्धि कैसे हो सकती है, जिस में रहने वाला कुटुम्ब स्वच्छन्द हो, स्वेच्छाचारी हो ? भाव यह है कि एकता को ही ऋद्धि, वृद्धि और सम्वृद्धि का मूल स्रोत समझना चाहिए। यहां पर 'पृथक-पृथक् इन पदों के स्थान में 'जुनं जुझ' यह प्रादेश किया गया है । संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ नामक कोष में अद्भुतसार शब्द के अद्भुत राल, सर्जरस यक्षधूप ये अर्थ लिखे हैं । प्रस्तुत में इस शब्द का "जिस का सार [शक्ति या परिणाम] पद्भुत हो, प्राश्चर्य जनक हो" यही अर्थ प्रतीत होता है। १५-मूह (मूर्ख) शब्द के स्थान में किए गए 'नालिज और बढ इन दो आदेशों के बाहरण इस प्रकार हैं
यः पुमः मनस्येव व्याकूलीमूता चिन्तयति ववाति न अम्म म रूपकम् ।
रति-वश-भ्रमण-शीला कराग्रोल्लालितं गृहे एव कुन्त गुणयति स महः ।।१३॥ अर्थात-जो रुपया मोर द्रम्म [पैसा] दान तो नहीं करता है, किन्तु व्याकुल हो कर मन में ही चिन्तन करता रहता है, तथा जो रति [काम-क्रीडा, हर्ष, अनुराग] वश भ्रमणशील है, अर्थात् अमोद-प्रमोद के लिए सदा भ्रमण करता रहता है और घर में ही कुन्त [भाले] को हाथ में उछालता रहता है,वह पुरुष मूर्ख होता है । अथवा मूर्ख के चार लक्षण होते हैं। जैसे-१-जो हृदय में व्याकुलता रखकर सोचता रहता है । २-जो धन कमा कर मालिक को नहीं सौंपता है, स्वयं ही रख लेता है। ३-धनार्जन [धन करने में अशक्त होने पर भी काम-वासना के अधीन हो इधर-उधर भ्रमण करता है। और ४-घर में ही भाले को उछाल-उछाल कर अपने को वीर समझता है। यहां पर 'मत' शब्द के स्थान में नालिब' यह आदेश किया गया है। 'म' के स्थान में विहित 'बढ' इस मादेश का उदाहरणविवसः अजितम् खाद मत ! दिवे हि विढत्तउँ खाहि वढ ! [हे मूह ! दिनों से कमाए को खा, सेवन कर] यहां पर मुढ को 'वढ' यह प्रादेश किया गया है। १६-मव के स्थान में कृत 'नवख' इस प्रादेश का उदाहरण-नवा कापि विषधिः -नवखी क वि विस-गण्ठि [यह कोई नई विष की गाँठ है] यहां पर 'म' को 'नवख' यह पादेश किया गया है। १७-प्रवस्कन्द [प्राक्रमण, ऊपर से नीचे उतरने की क्रिया, छावनी] इस शब्द के स्थान में किए गए 'बजयः' इस प्रादेश का उदाहरण
पलाया खलमा लोचनाम्या थे श्वया दृष्टा बाले ।।
तेषु मकरध्वजावस्कन्दः पतति अपूरे काले ॥१४!! अर्थात्-हे बाले ! चञ्चल और वक्र नयनों द्वारा तू ने जिन्हें देख लिया है उन पर अपूर्णकाल में [समय से पहले ही] मकरध्वज [कामदेव का अवस्कन्द [आक्रमण] हो जाता है । यहाँ पर 'अबस्कन्द' के स्थान में 'बडबड' यह आदेश किया गया है । १५-यदि [अगर] के स्थान में किए गए छुड इस मादेश का उदाहरण-यदि राजते व्यवसाया- छुड़ अग्ध ववसाउ [अगर व्यवसाय-व्यापार सुन्दर चल रहा है] यहां पर 'यवि' के स्थान में 'छुड' यह प्रादेश किया गया है। १९-सम्बन्धी शब्द स्थान में किए गए केर और तण इन दो प्रादेशों के उदाहरण--
गतः स केसरी, पिबत जलं, निश्चिन्त हरिणा!। पस्य सम्बन्धिनाकारण, मुखेम्पः पतम्ति तृणानि ॥१५॥
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प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
अर्थात - जिस की हुङ्कार [गरजना ] के कारण मुख से तिनके गिर जाते हैं, वह केसरी सिंह चला गया है। अत: है हिरणो ! अब तुम सब निश्चिन्त हो कर पानी पीम्रो। यहां पर सम्बन्धी के स्थान में 'र' यह आदेश किया गया है । सम्बन्धी के स्थान में किए गए 'तण' प्रदेश का उदाहरण - अय भग्ना अस्माकं सम्बस्थितः ग्रह भग्गा ब्रम्हहं तणा [ श्रथवा हमारे सम्बन्धी जो मारे गए हैं] यहां पर 'सम्बन्धी' के स्थान में 'त' यह प्रादेश किया गया है। २० - " मा भयोः (तू मत डर ) " इन पदों के स्थान में किए गए मन्भीसा इस स्त्रीलिङ्गीय प्रदेश का उदाहरण
स्वस्थाऽवस्थानामालय सर्वोऽपि लोकः करोति ।
प्रातनां मा भैषीः यः सज्जनः स ददाति ||१६||
३३४
अर्थात- स्वस्थ [ रोग रहित] अवस्था वालों के साथ सभी लोग वार्तालाप करते हैं, परन्तु दुःखियों को "भय मत कर" ऐसा वही कहता है, जो सज्जन होता है । भाव यह है दुःखी और निर्धन व्यक्तियों को विशेषरूप से सम्मान देना चाहिए। यहां पर 'मा भैषी' इन पदों के स्थान में 'मम्भीसा' इस शब्द का प्रदेश किया गया है । २१- "यद् य दृष्टं तद् तद्" इन पदों के स्थान में किए गए 'आइडिया' इस आदेश का उदाहरण इस प्रकार है
यदि राज्यसे यक्ष यद् दृष्टं तस्मिन् तस्मिन् हृदय ! मुग्धस्वभाव ! | हेग धनः सहिष्यते
टिच
तापः ॥ १७३
[जिस का भोला स्वभाव हो ] हृदय ! यदि तू प्रत्येक दृष्ट पदार्थ में अनुराग करेगा तो धन [ हथोडे ] द्वारा तोड़े जाने वाले लोहे के समान तुझे ताप [ सन्ताप ] कष्ट सहन करना पडेगा | यहाँ पर "यद् यद् दृष्टं तद् तद्" इन पदों के स्थान में "जाइटि" इस शब्द का wide for गया है। लोक में पठित " यह दृष्टं तस्मिन् तस्मिन् " इन पदों में 'तस्मिन् तस्मिन् ' ये तद् शब्द के ही सप्तम्यन्त रूप दे रखे हैं ।
१०६४ - अपभ्रंश भाषा में हहरु आदि पद शब्द के अनुकरण' इस अर्थ में तथा 'छुग्ध' प्रादि शब्द बेष्टा के अनुकरण में यथासंख्य [क्रमश: ] प्रयुक्त करने चाहिएं। जैसे—
मया ज्ञातं मक्ष्यामि अहं प्रेम हवे हरु इति ( शम्बं कृत्वा) 1 केवलमचिन्तिता संपति विप्रय-नौ: भविति ॥ १॥
अर्थात्-- मैंने समझा था कि प्रेमहृद [ प्रेम के तालाब ] में गृह यह शब्द करके निमज्जित [जलमग्न ] हो जाऊंगा, किन्तु अकस्मात् और शीघ्र ही विप्रियन्नावा [वियोग की नौका ] सम्प्राप्त हो गई। प्रर्थात् शीघ्र ही परस्पर वियोग हो गया। यहां पर शब्द के अनुकरण में 'हुहरु' यह प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में पठित मादि शब्द के ग्रहण से शब्दानुकरण में प्रयुक्त किए जाने वाले कसरक्क आदि अन्य शब्दों का भी आश्रयण किया जा सकता है। जैसे
खाते न तु 'कसरक्क' (इति शब्द कृत्वा), पोक्ते न तु घुण्ट (इति शब्वं कृत्वा) 1 एवमेवं wafa सुखाशा प्रियेण दुष्टेन
नयनाम्याम् ||२||
अर्थात् प्रपने प्रिय नायक को निहारने से विह्वल हुई किसी नायिका के भावावेश का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि नयनों से प्रिय को देख लेने पर नायिका के हृदय में सुख की प्राशा इतनी अधिक अॅडाइयाँ लेने लगी कि वह अन्य सब कुछ भूल बैठी। अधिक क्या, भोजन को चबाते समय कर यह जो स्वाभाविक ध्वनि होती है, वह ध्वनि भी निकलनी बन्द हो गई, तथा जलपान
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२
चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् ★
करते समय घूँट भरने की जो घुष्ट यह आवाज भाया करता है, वह भी समाप्त हो गई । aarsfप नाथ: ममेव गृहे सिद्धार्थान बम्बते ।
arata fure: गवाक्षेषु मर्कटचेष्टां ददाति ॥३३॥
अर्थात् - अभी तो मेरा नाथ घर में ही सिद्धार्थ ( देवविशेष) को वन्दन कर रहा है, तथापि face-fant गवाक्ष ( झरोखे) में मर्कट वेष्टा ( वानर का हावभाव ) कर रहा है । अर्थात् पतिदेव के विदेश जाने से पूर्व ही उनका विरह मुझे परिपीडित बना रहा है। यहां पर चेष्टा के अनुकरण में शब्द का प्रयोग किया गया है। सूत्र में पठित यादि शब्द से चेष्टा के अनुकरण में अन्य शब्दों का भी ग्रहण किया जाता है । जैसे
शिरसि जरा-खण्ड लोमपुटी गले मणिका न विशतिः ।
ततोऽपि पोष्ठाः कारिताः, मुग्धया उत्थानोपवेशनम् ||४||
अर्थात् -- उस मुग्धा सुन्दरी के सिर पर जरा खडित ( बहुत पुरानी, फटी हुई), लोमपुटी (लोई) है भीर गले में बीस मनके भी नहीं है । श्रर्थात् उस ने कोई हार भी नहीं पहन रखा है, सथाप अपने स्वाभाविक सौन्दर्य के कारण वह गोष्ठ (गोशाला ) में स्थित व्यक्तियों को उत्यानोपवेशन (उठना, बैठना ) करवा रही है, उन्हें सचवा रही हैं। यहां पर उठने बैठने की चेष्टा के अनुकरण में 'उट्टबईस' इस शब्द का प्रयोग किया गया है।
★ अथ लिप्नात - शब्द-विधिः ★
१०६५ - घइमादयोऽनर्थकाः । ८ । ४ । ४२४ । प्रपत्र से घइमित्यादयो निपाताः म प्रयुज्यन्ते ।
अम्मfड ! पच्छायावडा पिउ कलहिउ विवालि । at farit बुद्धst होइ विणासहों कालि ॥१॥ आदिग्रहणात् खाई इत्याचयः ।
३३५
१०६६ - तादों केहि तेहि-रेसि-रेसि-तणेणाः । ८ । ४ । ४२५ | अपभ्रंशे तादय द्योत्ये केहि, तेहि, रेसि, रेसि, ता इत्येते पंच निपाताः प्रयोक्तव्याः ।
ढोल्ला ! एह परिहासडी अs ! सण कवणहिँ देसि ? | हउ भिज्ज त केहिं पिश्र ! तु पुणु अन्नहि रेसि ॥ १ ॥
एवं तेहि रेसिमादाहार्यो । वडत्तणहों ता (३६६, ४) १
★ अथ मिानशब्द विधिः ★
निपात-शब्दस्य यदर्थसम्बन्धि-चिन्तनमपेक्षितं वर्तते तत् ६२६ सूत्रे विहितमस्ति । पत्र -भाषायां निपात-शब्दानां यत्स्वरूपं स्वीक्रियते तन्निरूप्यते ।
१०१५ - घद्दमित्यादयः । घई, खाई इत्यादयोऽनर्थकाः, न विद्यतेऽर्थो यस्थ, सोऽनर्थकः, तदेवाकः ते निपात-शब्दाः प्रपभ्रंशभाषायां प्रयुज्यन्ते । यथा ४८८ सूत्रेण पादपूतों ने स इत्यादयः प्रयन्ते एवमेवापभ्रंश भाषायामपि प्रस्तुतेन [ १०९५] सूत्रेण
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इत्यादयोऽन्यः
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*प्राकृत-ध्याकरणम् *
चतुर्थपाद: विविधाः शब्दाः प्रयुज्यन्ते। यथा
अम्ब ! पश्चासापः प्रियः कलहापितः विकाले।
[पई) विपरीता बुद्धिः भवति विनाशस्य काले ॥१॥ भावार्थ:-विवादाऽनन्तरं काचिद् मुग्धा दुःखानुभूति व्यस्जयति । है अम्ब ! अद्य विकाले, विगतः कालः, तस्मिन्-असमये प्रियः कान्तः कसहायित:-क्लेशं प्रारितः, तेन सह कलहो जातः । इति महान् मे पश्चाताप:-दुःखं वर्तते । सत्युमुक्तम्-विनाशस्य काले धुद्धिः विपरीता-प्रतिक्तला, लाभालाभज्ञान-विकला भवतीति भावः। घई अयं शब्दोऽत्र निरर्थको बोध्यः ।
अम्ब !! अम्बा+सि । ३५० सू० बकारस्य लोपे, ३६० सू० मकारस्य द्विस्वे, ११०० सू० डड(प्रड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादीपे,अभीने परेण संयोज्ये,११०२ सू० डी-(ई)-प्रत्यये,दिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, १०१५ सू० सेलपि अम्महि ! इति भवति । पश्चातापः । पश्चात्ताप+सि । इत्यत्र २९२ सू० श्चस्य छकारे, ३६० सू० छकारद्वित्वे, ३६१ स० पूर्वछकारस्य चकारे,३४८ सू० संयुक्त-तकारलोपे,१७७ सू० तकारलोये,१८० स० यकारश्रुती,२३१ सू० पकारस्थ वकारे, ११०० सू० डड-काट प्रत्यये, दिलि परस्परमादेजोंगे, गजमोले परेण संयोज्ये, २००१ सू० अकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे पच्छायावा इति भवति । प्रिया-पिउ, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया। कलहायितः । कलहायित+सि। १००० स० प्राकारस्य इकारे, इकारस्य च प्रकारे,१७७ स० यकारस्य तकारस्य च लोपे,१००२ स० अन्त्यस्य प्रकार स. सेलोपे कहि इति भवति । विकाले । विकाल+हि । १७७ सू० ककारलोये, १००५ सू० डिना प्रकारस्थ इकारे विआलि इति भवति । धिमासि इत्यस्यानन्तरं पादपूर्त्यर्थकः घई इत्यनयंकः शब्दः प्रयुज्यते । विपरीता । विपरीता+सि । अपभ्रंशे विपरीतार्थे १०९३ सू० विवरीरी-शब्दः प्रयुज्यते,१०१५ स० सोपे विपरीरी इति भवति । बुद्धिः। बुद्धि+सि । ११०० सू० डड-(अड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोप, अझीने परेण संयोज्ये,११०२ स० डी-(ई)-प्रत्यये,डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेलोपे बुद्धगे इति भवति । भवति होइ, प्रक्रिया ७३१ सूत्रे शेया। विनाशस्य । विनाश+इस् । २२८ सू० नकारस्य णकारे, २६० सूत्रेण शकारस्य सकारे, १००९ सू० सः स्थाने हो इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणलाघवे विरणासही इति भवति । काले । काल+डि । १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे कालि इति भवति । घई इत्यत्र प्रस्तुतुसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । प्रादिग्रहणात् । १०१५ सूत्रादिपदस्य ग्रहणात् मा इत्यादीनामप्यनर्थ कपदानां ग्रहण करणीयमति भावः। १०९६-ताव खोत्ये। तस्मै इदं तदर्थम् तस्य भावः,तादथ्यम्,तस्मिन् द्योत्ये-प्रकटिते इत्यर्थः ।
मायक ! एषः परिहासा, यि ! भण कस्मिन् देशे।
अहंक्षीये तब कृते, प्रिय ! त्वं पुनरन्यस्याः कृते ॥शा भावार्थ:-अन्यासक्तं नायकं प्रति नायिकोपालम्भमुखेन प्रतिक्ति-प्रधि नायक ! एषः परिहास:-उपहासः, कस्मिन् देशे वर्तते ? अथवा प्रयि नायक ! एषा परिभाषा-रीतिः कस्मिन् देशे वर्तते ? इति भण-कथय । हे प्रिय ! तव कृलेहं क्षीये--क्षीणा भवामि । त्वं पुनः प्रन्यस्याः कस्याश्चिदन्याया: प्रेमिकायाः कृते क्षीणो भवसि । नोचितमिदमिति भावः।
नायक! । नायक+सि । अपभ्रंशे नायकार्थे ढोल्ल-शब्दा प्रयुज्यते, १००१ सू० अकारस्य माकारे, १०१५सू० सेलोपे डोल्ला! इति भवति । एषः। एतद्+सि । विशेषणविष्ययोः समानलिङ्ग
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चतुर्थपाद:
★ संस्कृत-हिन्दी-टोका-योपेतम् ★
३३७
nearer परिहासशब्दस्य विशेषणत्वात् शब्दः एव वारले. १०३३ सू० एतदः स्थाने एह इत्यादेशे १०१५ सू० सेलोपे एह इति भवति । परिहासः । परिहास+सि । इत्यत्र ११०० सू० ड - (श्रड) - प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्त्रग्गदेलोंपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १११६ सू० स्त्रीके, ११०२० डी- (t)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंपे, मज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेल परिहासही इति भवति । परिभाषा इतिच्छायायान्तु १८७ सू० भकारस्य हकारे, २६० सू० षकारस्य सकारे, ११०० सू० as-(श्रड) - प्रत्यये, पूर्ववदेव परिहासही इति भवति अयि श्रव्ययपदमिदम् १७७ सू० सकारलोपे अ इति भवति । भण- [ अण् ] - श्रातुः भगने । भण् + हि । ९१० सू० पकारामे, ६६२ सू० हि इत्यस्य सु इत्यादेशे, ६६४ सू० सोलु कि भण इति भवति । कस्मिन् । किम् + ङि । इत्यत्र १०३८ सू० किम: स्थाने कवण इत्यादेशे, १०२८ सू० ङि इत्यस्य हि इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारण-नाघवे कवहिं इति भ वति । देशे । देश + ङि । २६० सू० शकारस्य सकारे १००५ सू० ङिना सह अकारस्य इकारे बेसि इति भवति । अहम् इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया १००९ सूत्रे ज्ञेया । क्षीये । क्षिघातुः क्षये। क्षि+मिव् 1 २७४ सू० क्षस्य स्थाने झकारे, ६६७ सू० प्रकृति-प्रत्यययोर्मध्ये ज्ज इत्यस्य प्रयोगे, १०५६ सू० मित्र: स्थाने जं इत्यादेशे १०८२ सू० उच्चारणलाघवे नि इति भवति । बाहुल्येनाऽत्र ११ सू० स्वरस्य लोपाभावः । तब तउ, प्रक्रिया १०४३ सूत्रे ज्ञेया । कृते । श्रव्ययपदमिदमस्ति तादय्यद्योतकञ्च । इत्य १०९६ सू० तादर्थ्ये द्योत्ये कृते इत्यस्य पदस्य स्थाने केहि इत्यस्य प्रयोगे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे केहि इति भवति । प्रियः । प्रिय+सि । १०६९ सू० रेफस्य लापे, १७७ सू० यकारस्य लोपे, १०१५ सुसेलों / इति रूपं भवति । श्वम् तु इत्यस्य प्रक्रिया २०३९ सूत्र शा । पुनः पुणु इत्य स्प प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य प्रथमश्लोके हेया । अन्यस्याः । मन्यद्+ङस् । ३४९ सू० कारला ३६० सु० नकारद्वित्वे ११ सू० दकारलापे, स्त्रीवादान्- ग्रा)-प्रत्यय, ५ सु० दोष-सन्धी, १०२१ सू० सः स्थाने हे इत्यादेशे, १००० सू० आकारस्य प्रकारे, एकारस्य च इकारे अन्नहि इति भवति । कृत व्ययपदमिदं तदभ्यद्योतकम्, प्रतएव प्रस्तुतसूत्रेण इत्यस्थ पदस्य स्थान रसि इत्यस्य निपातस्य प्रयोगे रेसि इति भवति । कृते केहिं कृते रेसि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृतिर्जाता । एवं हि रेमिति । एवमेव हि रेस इत्यनयो: निपातयोरपि उदाहरणानि कल्पनोयानाति भावः । तखेण इत्यस्य निपातस्त्रीदाहरणं प्रदीयते--गृहस्वस्य कृते वडसणहों तोण, एषां पदानां प्रक्रिया १०३७ सूत्र ज्ञया । कृ तरण इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिता ।
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★ अथ निपातसम्बन्धी विधि ★
marw
निपातशब्द की प्रर्थ- विचारणा ९२६ वे सूत्र में की जा चुकी है। अपभ्रंशभाषा में निपातों को लेकर जो विधि-विधान होता है, अब सूत्रकार उसका निरूपण कर रहे हैं१०९५-अपभ्रंश भाषा में अनर्थक [अथहीन ] घई आदि निपातों का प्रयोग किया जाता अम्ब ! पerrare, प्रियः कलहाबितः विकाले ।
है। जैसे
[ई] विपरीता बुद्धिः भवति, विनाशस्य काले ॥१॥
प्रर्थात् हे अम्ब ! [ हे मातः !] मुझे पश्चाताप है, हार्दिक दुःख है कि मैंने त्रिकाल समस्याकाल के समय प्रीतम से कलह कर लिया। यह सत्य ही है कि विनाश-काल में बुद्धि विपरीत हो जाती है। यहां पर विपरीताविवरीरी (उलटी) इस शब्द से पूर्व घई इस प्रर्थहोत निपात का प्रयोग किया गया है। अर्थात् बई इस पद का अपना कोई अर्थ नहीं है, तथापि इसका प्रयोग कर लिया
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३३८
प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
जाता है। सूत्र में पति आदि पद के ग्रहण से खाई आदि निरर्थक निपातों का भी प्रयोग किया जाता है। १०६६ - अपभ्रंश भाषा में यदि तादर्थ्य ( उसके लिए) श्रर्थ द्योत्य (व्यक्त) हो तो १ - केहि २ सेहि, ३-रेसि, ४ र ५ - तो इन पांच निपातों का प्रयोग किया जाता है । जैसेनायक ! एषः परिहासः, अयि ! भण कस्मिन् देशे ? | अहं श्री लव कृते for !, स्वं पुनः अन्यस्याः कृते ॥१॥
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अर्थात् हे नायक ! मुझे बतला, यह परिहास [मजाक] किस देश में होता है ? प्रिय ! में तो तेरे लिए क्षीण हो रही हूं और तू किसी दूसरी प्रेमिका के लिए मर रहा है। यहां पर पठित तब कृतेत के हैं, इन पदों में 'ते' यह पद तादर्थ्य का द्योतक है, अतः इसके स्थान पर 'केहि' इस निपात का प्रयोग किया गया है । वृत्तिकार फरमाते हैं कि इसी प्रकार 'सि' और 'रेसि' इन दोनों निवालों के उदाहरण भी जान लेने चाहिएं। 'तोरण' इस निपात का उदाहरण इस प्रकार है - बृहस्वस्य कृते: बत्त हो तो [ महत्त्व के लिए ] यहां पर पठित 'कृते' यह पद तादय का घोतक है, अतः इस के स्थान में भी 'तो' इस निपात का प्रयोग कर दिया गया है ।
★ अथ प्रत्यय-विधिः ★
१०६७ - पुनथिनः स्वार्थी डुः | ८ | ४ | ४२६ | अपभ्रंशे पुनविना इत्येताभ्यां परः स्वाऽर्थे दु-प्रत्ययो भवति ।
सुमरिज्जइ तं वल्लहउँ, जं बीसरइ मणाउँ । बहिं पुणु सुमरण जा, गज तहो नेहहो कई नाउं ? ॥ १॥ विरषु जुज् नवलाई (३८६४) ।
१०६८ - प्रवश्यमी डॅडौ । ८ । ४ । ४२७ | प्रपत्र शेऽवश्यमः [ स्थाने] स्वायें दें, ड प्रत्येती प्रत्ययो भवतः ।
जिभिन्दिउ नायगु वसि करहु जसु प्रविन्नई ग्रन्नई । मूलि विणgs तु बिणिहे प्रथसे *सुक्कई पण्णई ॥ १ ॥ सन सुप्रसुिह [ ३७६.४] ।
१०६६ - एकशसो डि: । ६ । ४ । ४२८ | अपभ्रंशे एकशरशब्दात्स्वार्थे विर्भवति । सोल- कलंकिग्रहं बेज्जहिं पच्छित्ताई ।
rasfe
जो पुणु खण्ड श्रणुविग्रहु, तसु पच्छिते का ?॥१॥
११०० -- डड-डुल्लाः स्वाऽधिक क लुक् च । ६ । ४ । ४२६ । पशे नाम्नः परतः स्वार्थी, डड, डुल्ल इत्येते श्रयः प्रत्यया भवन्ति तत्संनियोगे स्वार्थे क-प्रत्ययस्य लोपश्च । विरहानल जाल - करालि पहिउ पन्थि जं विटुउ । ife of परिग्रहं सो जि विश्र अगिउ ॥ १ ॥ पाठा समुद्रलभ्यते ।
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * ड्ड । महु कन्तहों बे दोसडा ।। ३७६ ४] डुल्ल । एक्क कुडुल्ली पञ्चहिँ रुद्धी [४२२.४] ।
११०१-योगजाश्चषाम् । ८ । ४ । ४३० । अपभ्रशे अडड-डुल्लानां योगभेदेभ्यो ये जायन्ते डडम इत्यादयः प्रत्ययास्तेऽपि स्वाऽर्थे प्रायो भवन्ति । डङम। फोडेन्ति जे हिनडउं अप्पण [३५०.४] अत्र किस गय० [ १.६६६] पाविना गजु । हुल्लम: वूडल्ला चुन्नीहोइ सइ [३९५.४] हुन्लडड
सामि-पसाउ सलज्जु पिउ, सीमा संघिहि वासु।
पेक्खिवि बाहु-बलुल्लडा, धण मेल्लइ नीसासु । ॥ अत्राऽमि "स्याऽऽदो दोपह्रस्वी" [३३०,४] इति दीर्घः । एवं बाहु-बलुल्लाउ । पत्र त्रयाणां योगः।
११०२-स्त्रियां तबन्ताड्डीः । ८।४ । ४३१ । अपभ्रशे स्त्रियां वर्तमानेभ्यः प्राक्तनसूत्रद्वयोक्त-प्रत्ययान्वेभ्यो डी-प्रत्ययो भवति ।
पहिआ ! विठ्ठी गोरडी ?, दिट्ठी मागु निमन्त ।
अंससासे हि कञ्च प्रा तितुव्वाणं करन्त ॥१॥ एक्क कुडुल्ली पञ्चहिँ रद्धी [४२२.४] । . ११०३-पान्तान्ताड्डाः । ८।४। ४३२ । अपभ्रशे स्त्रियां वर्तमानादप्रत्ययान्त-प्रत्ययान्तात् डा-प्रत्ययो भवति । अपवाद: ।।
पिर प्राइउ सुन वत्सडी झुणि कण्णड पइट।
तहों विरहहाँ नासन्तअहो धूलडिया वि न दिट्ठ ॥१॥ ११०४-अस्येदे । ८ । ४ । ४३३ । अपभ्रशे स्त्रियां वर्तमानस्य नाम्नो योऽकारस्तस्य प्राकारे प्रत्यये परे इकारो भवति । धूलडिप्रा वि न दिट्ट । [४३२.४] स्त्रियामित्येव । झणि कण्णडइ पट्ट [४३२.४] ।
११०५-युष्मदादेरीयस्थ डारः।८।४। ४३४ । अपभ्रशे युष्मदादिभ्यः परस्य ईयप्रत्ययस्य डार इत्यादेशो भवति ।
संदेसें काई तुहारेण, जं सङ्गहों न मिलिज्जइ ।
सुइणन्तरि पिएं पाणिएण पित्र ! पिनास कि छिन्माइ॥१॥ विक्खि अम्हारा कन्तु [३४५.४], बहिणि ! महारा कन्तु । [३५१.४] ।
. १९०६-प्रतोत्ततः । ८।४ । ४३५ । अपभ्रशे इदं-कियत्तदेतद्भ्यः परस्य प्रती प्रत्ययस्य डेत्तुल इत्यादेशो भवति । एत्तुलो। केत्तुलो। जेत्तुली । तेतुली। एत्तुलो।
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* प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः ११०७-अस्य उत्तहे।८।४।४३६॥ अपभ्रशे सर्वादः सप्तम्यन्तात्परस्य त्र-प्रत्ययस्य डेत्तहे [एत्तहे] इत्यादेशो भवति ।
एत्तहे तेसहें वारि धरि लच्छि विसण्ठुल धाइ।
पिन-पन्म? य गोरडी निच्चल कहिं वि न ठाइ ॥१॥ ११०८-स्व-तलोः प्पणः । ८।४। ४३७ । अपभ्र से त्व-तलो प्रत्ययपो. परण इत्यादेशो भवति । बहुप्पणु परिपावित्रह। [३६६.४] । प्रायोऽधिकारात् । वडसणहों तणेण । [३६६.४] ।
११०६-तव्यस्य इएव्वळ एव्वळ एका । ८ । ४।४३८ । अपभ्रंशे तव्य-प्रत्ययस्य इएव्वउं, एव्यङ, एवा इत्येते त्रय प्रादेशा भवन्ति ।।
एउ गृण्हेप्पिणुन मई जह प्रिउ उग्वारिज्जह । महु करिएक्वउँ कि पि ण वि मरिएव्वउँ पर देज्ज ॥१॥ देसुच्चाउणु सिहि-कढणु घण-कुट्टणु जं लोड । मंजिटुए प्रइरसिए सम्बु सहेवउँ होइ॥२॥ सोएवा पर वारिमा पुष्फबईहि समाणु ।
जग्मेवा पुणु को धरह?, जा सो बेड पमाणु ॥३॥ १११०-वत्व इ-इउ-इवि-अवयः। ८ । ४ । ४३६ । अपभ्रशे क्त्वा-प्रत्ययस्य इ, इउ, इवि, अवि इत्येते चत्वार प्रादेशा भवन्ति । इ--
हिसडा ! जइ वेरिन घणा, तो किमि चडाह।
अम्हाहि के हत्थडा जह पुणु मारि मराहुं ॥१॥ दउ-गय-घड भज्जिउ जन्ति [ ३६५.४] इदि।
रक्खइ सा विस-हारिणी बेकर चुम्बियि जीउ ।
पडिविम्बिन-मुंजालु अलु जेहिं अडोहिउ पोउ ॥२१॥ प्रवि।
बाह विछोडवि जाहि तुहुँ हउ तेवं इ को दोसु ।
हिप्रय-दिउ जइ नीसरहि जाणउँ मुञ्ज ! सरोसु ॥३॥ ११११-एप्प्येप्पिण्वेव्येविणवः । १४ । ४४० । अपभ्रशे क्त्वाप्रत्ययस्य एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु इत्येते चत्वार प्रादेशा भवन्ति ।
जेप्पि असेसु फसाय-अलु देप्पिणु प्रभउ जयस्सु । लेवि महब्धय सियु लहहि झाएविणु तत्तस्सु ॥१॥ पृथग्योग उत्तराऽर्थः ।
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Samolonianiesleesinenesinomenon
चतुर्थपादः
पक्षे...
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
३४१ १११२-तुम एवमणाणहमहिं च । ८ । ४ । ४४१ । अपभ्रंशे तुमः प्रत्ययस्य एवं, प्रण, अणहं, अहिं इत्येते चत्वारः, चकारात् एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु इत्येते, एवं चा. अष्टावादेशा भवन्ति ।
देवं दुक्कर निप्रय-धणु करण न तज पडिहाइ। एम्बइ सुहु भुजणहें मणु पर भुजणाहिं म जाई ॥१॥ जेप्पि चएप्पिणु सयल धर लेविण तव पालेवि ।
विषु सन्त तित्सरेण को सक्कइ भुवणे दि ॥२॥ १११३-मेरेप्पिण्वेप्प्योरेलुंग वा । ८।४। ४४२ । अपभ्रशे गमेर्धातोः परयोरेप्पिणु, एप्पि इत्यादेशयोरेकारस्य लुग् वा भवति ।
गम्प्पिणु वाणारसिहं नर, ग्रह उज्जेणिहि गम्प्पि । मुडा पराली रमा- विश्वन्तरई म जपि ॥१॥ गङ्ग गमेप्पिणु जो मुभाइ जो सिव-तित्थ गमेपि ।
कीलदि तिवसायास-गउ सो जम-लोउ जिणेपि ॥२॥ १११४-तृनोऽणतः ।।४।४४३। मपनशे तुनः प्रत्ययस्य अरगम इत्यादेशो भवति । "हत्थि मारणउ । लोउ बोल्लणउ, पड़ह वज्जणउ, सुणउ भसणउ ।"
* अथ प्रत्ययानां विधिः* कस्यचिद् धातोः, अथवा कस्यचित् प्रातिपदिकशब्दस्याऽन्ते यत् किमप्यक्षरमथवा कश्चित् शब्दः प्रयुज्यते तत् प्रत्यय-शब्देनाऽभिधीयते । अपम्रश-भाषायां प्रत्ययानां यद् विधिविधानं समुपलभ्यते, प्राचार्य देवैः श्री-हेमचन्द्रैः तन्निरूप्यते--- १०६७ - स्मयते तद्-वल्लभक, पद विस्मयते मना ।
यस्मिन् पुनः स्मरणं जातं, गतं तस्य स्नेहस्य कि नाम ? ॥१॥ भावार्थ:--सामान्यतः प्रेमविषयक कथनमिदम्-सद वल्लभक-प्रियं बस्तु भवतीति यावत्, यत् स्मर्यते, स्मृतिपथे पानीयते । यद् वस्तु मनाक् ईषा, प्रेमशून्यं भवति, तद् विस्मयते-स्मृतिपथात् भ्रश्यते । तस्य वस्तुन एव स्मरणं क्रियते, येन सह स्नेहसम्बन्धो भवतीति शेषः। यस्मिन् वस्तुनि पुनः स्मरणं जातम्, यस्य विस्मृतस्य पुनः स्मरण क्रियते, तत-तत्सम्बन्धि प्रेम गतम्-विनष्टम, तादृशस्य विस्मरणशीलस्य प्रेम-वस्तुनः न किमपि महत्त्वम् । तस्य स्नेहस्य कि महत्त्वं यस्य विस्मरणमपि जायते, यस्थ कदाचिदपि विस्मरणं नैव भवेत्तदेव प्रेम वास्तविक ज्ञेयमिति भावः ।
स्मर्यते । स्मृ धातुः चिन्तायाम् । स्म+क्य+ते। ७४५ सू० स्मृधातोः स्थाने सुमर इत्यादेशे,६४९ सू० क्यस्य स्थाने इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे सुमरिष्मद इति भवति । तद् । तद् + सितं, प्रक्रिया १०२१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । बल्ल
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*प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपाया भकम् । बल्लभक+सि । १८७ सू० भकारस्य हकारे,१७७ सू० कंकारलोपे,१०२५ सू० प्रकारस्य स्थाने उं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे, १०१५ सू० सेर्लोपे बल्लहः इति भवति । य = जं, प्रक्रिया १०९१ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया। विस्मयते । बिपूर्वक: स्मृधातुः विस्मरणे । विस्म+क्य+ते 1 ७४६ सू० बिस्मृधातोः बीमार इत्यादेशे,६४९ सूत्रे बहुलाधिकारात् क्यस्य प्रभावे,६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे बीसरा इति भवति । मना-मणा, प्रक्रिया १०६९ सूत्रस्य पछे लोके ज्ञेया । १०५२ सू० उचारणलाघवे मगाइति भवति । यस्मिन्- जहि,प्रक्रिया १०५७ सूत्रे ज्ञेया । पुनः अव्ययपदमिदम् । २२८ सतनकारस्य णकारे,प्रस्तुतेन ०९ मा स्वार्थे अजा-प्रत्यये. डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोगे, अज्झीने परेण संयोज्ये पुणुः इति भवति । स्मरणस्. । स्मृधातुः चिन्तायाम् । स्मृ + ल्युद्-अन ! ७४५ सू० स्मृ. प्रातो स्थाने सुमर इत्यादेशे,१० सू० स्वरस्य लोपे, मज्झीने परेण संयोज्ये,२२८ सू० नकारस्य कारे, सिप्रत्यये,१००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ स० सेलोपे सुमरणु इति भवति । जातम् । जात+सि । १७७ सू० तकारलो, १००२ सू० अकारस्य उकारे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकाराअनुस्वारे आ इति भवति । गतम् । गत+सि । इत्यत्र १७४ सू० तकारलोपे,अकारस्य उकारे, सेलोपे गउ इति भवति । सस्य । तद+ ङस् 1, १.१८० दकारलोपे, १००९ स० स: स्थाने हो इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणलाघवे तहों इति भवति । स्नेहस्य । स्नेह+कुस । ३४८ स० सकारलोपे नहीं बदेव नेहहों इति भवति । किम् । अव्ययपदमिदम् । १०३८ सू० किमः स्याने काइँ इत्यादेशे, १००० स० प्राकारस्य प्रकारे कई इति भवति । नाम । अव्ययपदमिदम् । अपभ्रशे १०९३ सू० मामार्थे भाई इत्यव्ययस्य प्रयोगे, १०८२ सूसन्चारणालाघवे माइति भवति । पुनर---पुणु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्प प्रवृत्ति आता। बिना इत्यस्य पदस्योदाहरणं प्रदीयते । यथा--विना घुम न बलामहे-विगु जुज्में न बलाहुं, प्रक्रिया १०५७ सूत्रे शेया। विनाविण इस्त्र प्रस्तुतसवस्य प्रबत्तिर्जाता। साधना त्वित्थम-विना। अव्ययपदमिदम् । २२८ सू० नकारस्य स्थाने णकारें, प्रस्तुतेन [१०९७] सूत्रेण डु-(उ)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, प्राझोने परेण संयोज्य विष्णु इति भवति । १०९-. मिन्द्रिय नायक चशे, कुरुत यस्याऽधीमान्यम्यानि ।
मूले विनष्टे सुम्बिया, अवश्यं शुभकाणि पर्णानि ||३|| भावार्थ:---अयि मानवाः ! यूयं नायक-प्रधानं जिहन्द्रियं जिह्वा च तदिन्द्रिय-जिह्वेन्द्रियम्रसनेन्द्रियं वशे कुरुत,यस्य जिवन्द्रियं वशीकृत भवति तस्यान्यानोन्द्रियाणि अधीनानि भवन्ति । दृष्टान्तयति-यथा तुमिन्या, तुम्बिनीति वृक्षविशेषस्य संज्ञा, तस्याः भूले विनष्टे सति पनि-पत्राणि अवश्यमेव शुष्यन्ति शुष्काणि भवन्ति, एवमेव यस्य पुरुषस्य एक जिह्वन्द्रियं स्वावीनं वर्तते, तस्य अन्यानि. प्राणादीनि सर्वाण्यपीन्द्रियाणि बशे सजायन्ते । नात्र सन्देहः कर्तव्यः।
जिहनियम् । जिहन्द्रिय+पम् । ३२८ सहस्य स्थाने भक्कारे, ३६० स० भकारस्य द्वित्त्वे, ३.६१.सू.पूर्वभकारस्य बकारे, ८४. सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०६९ सू० रेफलोरे, १७७ सू० यकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य स्थाने उकारे,१०१५ सू० प्रमो लोपे मिनिमन्विउ इति भवति । नायकम् । नायक +अम् । १.०६७ सू० ककारस्य प्रकारे, पूर्ववदेव अकारस्थ उकारे,अमो लोपे नायगु इति भवति । बशे। वर+छि। २६० सू शकारस्य सकारे,१९०५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे वसि इति भवति । कुछत । इकञ् (क)-करणे । कृ+त १९०५ सू० कारस्य पर इत्यादेशे,१०५५ सू० त इत्यस्य स्थाने हु इत्यादेशे करह इति भवति । यस्य जसु, प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य चतुर्थश्लों के ज्ञेया । प्रधानानि । अधीन+जस् ।
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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्वयोपेतम् ★
३४३
३७० सू० नकारस्य द्वित्वे, ८४ सू० सयोगे परे ह्रस्वे, १०२४ सू० जस: स्थाने दूँ इत्यादेशे अभिन्न इति भवति | बाहुल्येनात्र १८७ सू० धकारस्य हकारों न जातः । अभ्यानि । श्रन्यद् + जस् । इत्यत्र ३४९ सू० कारस्य लोपे, ३६० सू० नकारद्वित्वे, ११ सू० दकारलोपे प्रधिन्नई-वदेव अन्नई इति भवति । श्र १०२४ सू० जस: स्थाने ई इत्यादेशो जातः । मूले । मूल+ङि । १००५ सू० ङिना सह प्रकारस्य इकारे मूलि इति भवति । विनष्टे । विनष्ट + ङि । २२८ सू० नकारस्य णकारे, ३०५ सू० ट ठकारे ३६० सू० प्रकारस्य द्विस्वे ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे ११०० सू० स्वार्थ प्रत्यये १००५ सू० बिना सह प्रकारस्य इकारे विषहुइ इति भवति । तुम्बिन्याः । तुम्बिनी + ङस् | बाहुल्येन २४ सू० म कारस्याऽनुस्वारे २२८ सू० नकारस्य शाकारे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, १०२१ सू० इसः स्थाने हे इत्यादेशे तु विणि इति भवति । श्रवश्यम् । प्रव्ययपदमिदम् । ३४९ सू० यकारलोपे, २६० सू० - कारस्य सकारे, प्रस्तुतसूत्रेण स्वार्थे डें- ( एं) -प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंप, अज्झीने परेश सयोज्ये असे इति भवति । शुष्काणि । शुष्क + जस् । २६० सू० शकारस्य सकारे, ३४८ सू० षकारस्य लोपे, ३६० सू० ककारद्वित्वे, १०२४ सू० जसः स्थाने इत्यादेशे सुक्कई इति भवति । सुनहिं इत्यपि पा ठान्तरं समुपलभ्यते । अत्र शुष्क + अस् सुक्क + जस् इति पूर्ववदेव जाते, बाहुल्येन १०१० सू० जसः स्थाने हि इत्यादेशे १०८२ सू० उच्चारणलाघवे सुश्कहिं इति भवति । पर्णाति । पर्ण + जस्। ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० णकारद्विस्वे पूर्ववदेव पण्णवं इति भवति । प्रवश्यम् प्रवसें इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण इत्यस्य प्रत्ययस्य प्रवृतिर्जाता । इप्रत्ययस्योदाहरणं प्रदीयते । यथा- अवश्यं न स्वपन्ति सुerfecture - श्रवसन सुग्रहिं सुहहि प्रक्रिया २०४७ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । अवश्यम् सत्य-प्रत्ययो जातः । साधना स्वित्थम् अवश्यम् । भव्ययपदमिदम् । २६० सू० शकारस्य संकारे, ३४१ सू० यकारलोपे प्रस्तुतसूत्रेन उ ( प्र ) - प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंपे, मज्झीने परेण संयोज्ये वस इति भवति ।
1
१०६६- एकशः
शोल- कलङ्कतानां दीयन्ते प्रायश्वितानि ।
यः पुनः खण्डयति अनुदिवस तस्य प्रायश्चित्त ेन किम् ? ॥ १ ॥
भावार्थ:-- एकशः- एकवारं शील कलङ्किताना, शीलं -सदाचारं कलङ्कितं येषां ते शीलकलङ्किताः, तेषां कृते प्रायश्वितानि दण्डानि आचार्यप्रवरैः दीयन्ते, किन्तु यः पुनः अनुदिवसं दिवस दिवसमिति मनुदिवस-प्रतिदिनं व्रतं खण्डयति तस्य प्रायश्चित्तेन किम् ? न किमपीति भावः ।
एकशः । प्रव्ययपदमिदम् । एकशस् इत्यत्र ३७० सू० ककारद्वित्वे, २६० सू० शकारस्य सकारे, १०९१ सू० स्वार्थी डि- (इ)-प्रत्यये, द्विति परेऽन्त्यस्वरादेर्मापे, मझोते परेण संयोज्ये एक्कसि इति - वति । बाहुल्येनाव=४ सू० ह्रस्वो न जातः । शील-कलङ्कितानाम् । शील- कलङ्कित + श्राम् । २६०सू० शकारस्य सकारे, २५ सू० ङकारस्वाऽनुस्वारे १७७ सू० तकारस्य लोपे, १०१० सू० आम: स्थाने ह इत्यादेशे सील- कलंकिअहं इति मत्रति । दीयन्ते । सुदाञ् [दा]-दाने । दा+क्यन्ते । ६४१ सू० क्य स्व-इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, ग्रज्भीने परेण संयोज्ये, १००० सूत्रेण इकारस्य स्थाने एकारे, १०५३ सू० असे इत्यस्य हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे वैज्जहिं इति भवति । प्रायश्चितानि । प्रायश्चित + जस् । १०६९ सू० रेफलोपे, १७७ सू० यकारलोपे, ५ सू० दीर्घसन्धी, २९२ सू० इचस्व स्थाने छुकारे, ३६० सू० छकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य चकारे, ८४ सू० संयोने परे ह्रस्ये, १००१ सू० प्रकारस्य प्राकारे १०२४ सू० जसा स्थाने ई इत्यादेशे पछिताई इति भवति ।
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★ प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः मजो, प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य चतुर्थश्लोके शेगा। पुनः-पुण, प्रकिमा १०१४ सूत्रस्य प्रथमश्लोके जेया। खण्डयति । खडि-बातुः खण्डने । संस्कृतनिया लिमि इति शाले. १३८ सू० णिम: स्थाने प्रकारे, ६४२ सू० प्रादेरकारस्य प्रकारे, ८४ सू० सपोमे परे ह्रस्वे, ६२८ स० तिव इचादेश खण्डद इति भवति । अनुविषसम् । अनुदिवस+प्रम् । २२८ सू० नकारस्य कारे, १७७ सू. वकारलोपे, २६३ सू० सकारस्य हकारे,१००२ स०अकारस्थ उकारे, १०१५ सू० भमो लोपे पशुविमाह इति भवति । तस्य-तसु,इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया १००९ सूत्रे ज्ञेया। प्रायश्चित्तेन । प्रायश्चित्त+टा। १०६९ सू० रेफलोपे, १७७ सू० यकारलोपे, ५ सू० दीर्घ-सन्धी, २९२ सू० श्चस्य छकारे, ३६० सू० छकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवत्वात् १००४ सू० प्रकारस्थ एकारे पछिसे इति भवति । किम्-काई, प्रक्रिया १०३८ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। अत्र १०३८ सू० किमः स्थाने काई इत्यादेशे, १०१५ सू० अमो लोपे काई इति भवति । एकश: एकसि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण डि-प्रत्ययो जातः।
११०० स्वार्थिक-क-प्रत्यय लोपाव । प्रस्तुतसूत्रेण मपभ्रंशभाषामां नाम्नः-प्रातिपदिकात् परतः स्वार्थ अ, ड४ [अड], डुल्ल [उल्ल] इत्येते त्रयः प्रत्ययाः प्रतिपादिताः सन्ति, तथा तत्सन्नियोगे यदि स्वाथिक-क-प्रत्ययो भवेत्तदा तस्य लोपः करणीयः, अन्यथा 1 क-प्रत्ययाभावे] सूथोक्ताः प्रत्ययास्तु भविष्यन्त्येवेत्यपि संसूचितम् ।।
विरहाऽनल-ज्वाला-करालितः पथिकः पथि यत् वृष्टः ।
त मिलित्वा सर्वः पषिक: स एव कृतः अग्निष्ठः॥१॥ भावार्थ:--विरहानल-ज्याला-करालितः । विरह-वियोगः, स एव अनलः वन्हिः, विरहाऽनलः, तस्य ज्वालाः, ताभिः करालितः-पीडितः, पथिक:-पान्था पभि-मार्गे यद वष्टः-यावलोकितः तद-तदा सर्वः पथिक: मिलित्वा स एव अग्निष्ठ: अग्निसात् कृतः । अयं भावः कश्चित् पान्थः प्रिया-विरहाऽनलेन न केवलं सन्तप्तः, अपितु तेन दमः सन् मृत एव ।
विरहानल-ज्वाला-करालितः । विरहानल-ज्वाला-करालित+सि। २२० स० नकारस्य णकारे, ३५० स० वकारलोपे, ४ साल-स्थस्याकारस्य प्रकारे, १७७ सतकारलोपे, ११०० स०स्वार्थ प्रप्रत्यये, १००२ सू० भकारस्थ उकारे, १०१५ सू० सेलोपे धिरहाणल-बाल-करालिम इति भवति । पषिकः। पथिक+सि= पहिउ, प्रकिया १०८६ सूत्र ज्ञेया। पन्थे । पन्ध+डि। १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे पनिमा इति भवति । पद्मजं प्रक्रिया १०९१ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । वृष्टः । दुष्ट+ सि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे,३०५ सू० ष्टस्य स्थाने ठकारे,३६० सू० ठकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्व ठकारस्य टकारे,११०० सू० अप्रत्यये,१००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे विदछ । इति भवति । तब तं, प्रक्रिया १०८५. सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया । मिलिया। मिल [मिल] सम्मिलने । मिल् +
स्वा । १००० सू० इकारस्य एकारे, १११० स० क्त्वः स्थाने मदि इत्यादेशे, अज्झीने परेण संयोज्ये, मेलवि इति भवति । सर्वः । सर्व+भिस् । ३५० स० रेफलोपे,३६० सु० वकारद्वित्वे, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे,१०८२ सू० उच्चारणलावे सम्बहि इति भवति । पापः । पान्थ+भिस् । ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १००० सू० अन्त्यस्य प्रकारस्य इकारे, ११०० स० अप्रत्यये, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे पस्थिहि इति भवति । सः सो, प्रक्रिया १०७२ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया। एष-जि, प्र. किया १०१२ सुत्रस्य तृतीयश्लोकांशे शेया ।कृतः । कुत+सि । १२८ सू० कारस्य इकारे, १७७ सू.
sonoundicsSARASHIERनायकमाल
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AAAAAmram
चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * तकारलोपे,११०० सू० अप्रत्यये, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोप किअउ इति भवति । अग्निष्ठः । अग्निष्ठ+सि ! ३४९ सू० नकारलोपे, ३४८ सू० षकारलोपे, ३६० सू० गकारस्य कारस्य चद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वकारस्थ टकारे, ५१०० सू० अप्रत्यये,१००२ सू० अकारस्य उकारे,१०१५ सू० सेलोपे अग्गिठन इति भवति । बिरहानल-ज्वाला-करालितः विरहाणल-जाल-करालिभ उ, दृष्ट: दिउ, पान्यः पन्थिहिल:किग्राउ, अग्निष्ट:-अग्गिठ्ठ उ इत्यत्र प्रस्तुलसूत्रेण अप्रत्ययो जातः। डड। डड-प्रत्ययस्योदाहरणं प्रदीयते। यथा-मम कान्तस्य द्वौ बोषौ समहु कन्तहो वे दोसडा, प्रक्रिया १०५० सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । दोषो दोसड़ा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण डड-प्रत्ययो जातः । डुल्ल । दुल्लप्रत्ययस्योदाहरणं प्रदश्यते । यथा-एका कुटी पञ्चभिः रद्धा-एक्क कुडुल्ली पञ्चाहिं रूबी,एषां पदानां प्रक्रिया १०९३ सूत्रस्य द्वादशे श्लोके ज्ञेया। कुटी-कुडुल्ली इत्यत्र डुल्ल-प्रत्ययो जातः ।
११०१-योगमेश्यः। ११०० सूत्रेण अ, स, हुल्ल इत्येते श्रयः स्थाथिकाः प्रत्यया: विहिताः सन्ति । इत्येतेषां त्रयाणां प्रत्ययानां योगभेदात्-भिन्न-भिन्ाप्रकारेण योजनाकरणात घे प्रत्ययाः संजायन्ते, तेऽपि प्रत्ययाः प्रायः प्रस्तुतसूत्रेण स्वाऽर्थे विधीयन्ते । यथा---बाट, इत्यनयोः सम्मीलनेन स अ इति प्रत्ययो भवति । गुरुल, , इत्यनयोः संयोगे जाते डुल्ला इति पत्ययोऽजायत । एवमेवाऽन्येषां प्रत्यवानामपि कल्पना करणीया । बडा । डड-प्रत्ययस्योदाहरणं प्रदीयते । यथा--स्फोटयतः यो हृदयमामीग्रम् - फोडेन्ति जे हिनडउं अप्पण,प्रक्रिया १०२१ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया। हुण्यम्-हिड इत्यत्र प्रस्तुत सूत्रेण इडन-प्रत्ययो जातः। प्रायोग्रहणाद् जे इत्यत्र १०५१ सूत्रेण उच्चारणस्य लाघवं न जातम् । हिमा तथा अपपडे इत्यत्र चापि १०४२ सूत्रेण उच्चारणस्थ लाघवं न जातम् । पत्र किललय । हृदयम् हिमाउं इत्यत्र २६९ सूत्रेण सस्वर-कारस्य लोपोऽभवद् । गुल्ल-अ । डुल्लम-प्रत्ययस्योदाहरणं प्रदर्श्यते । यथा-पूटकः सूर्णीभवति स्वयम्-चूडुल्ल उ चुणीहोइ सइ, प्रक्रिया १०६६ सुत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया । चूटक:-चूडुल्ल उ इत्यत्र प्रस्तुतेन [११०१] सूत्रेण डुरुल-अ-प्रत्ययो जातः । सडक । डुल्लड"-प्रत्ययस्योदाहरणं प्रदर्शयति वृत्तिकारो यथा...
स्वामिप्रसाव सलज्यं प्रियं सीमासन्धी शासम ।
प्रय बाहुबलं धन्या मुञ्चति निःश्वासम् ||१11 भावार्थः कस्याश्चन नायिकाया: वियोगजनक कारण-कलापमाह-पन्या-पुण्यवती पतिपरायणस्वात्, काचिन्नायिका निवासं मुञ्चति,कि करवा ? तदाह-स्वामिप्रसादम्, स्वामिनः प्रसादम्कृपाभावं प्रेक्ष्य-वीक्ष्य, ये खलु सेवकाः स्वामिनः कृपा-पात्रा भवन्ति, तान् स्वामी न कदाचिदपि परिस्थति,निजपा एव सदा संरक्षति । एतत्सर्व वियोग-मूलकमेव भवत्यतएव नायिका नि:श्वासान मु
चति । पुनः किं कृत्वा ? सलन्सम, लज्जया सह वर्तमान प्रियं वीक्ष्य । नायकस्येयमेव सलज्जता यदसौ निजस्वामिन प्रादेशं न कदाचिदप्युल्लंघयति, एतदपि वियोगमूलक विद्यते, यतः सलज्जतया सः राज्ञः माझा सान्निध्य न परित्यजति, प्रतएव नायिकापाव न समायाति । पुनः किं कृत्वा ? नायकस्य सीमासम्बो, सीमयोः-विभिन्न प्रदेशयोः पार्थक्य संसूचकस्थानयोः बास-निवासं वीक्ष्य, देशान्ते वासं वियोगसम्पादक, मृत्युभयोत्पादकञ्च भवतीति हेतोः, पुनः किं कृत्वा ? बाहुबलं बाहोः बलं, युद्धकरणक्षमतां च वीक्ष्य, ये खलु युद्धोत्सुका: नराः भवन्ति, ते खलु न निजगृहे तिष्ठन्ति, प्रत्युत युद्धस्थले एक निवसन्ति, फलतः तेषां सज्जनानां सान्निध्यं परिवार-सदस्यानां कृते न सार्वकालिकं भवति, अतएवाऽसौ ना. यिका खेदखिन्ना निःश्वासात मुख्यतीति भावः।
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★ प्राकृत-व्याकरणं ★
चतुर्थपादा
स्वामिप्रसादम् । स्वामि-प्रसाद + म् + ३५० सू० वकारस्य रेफस्य च लोपे १७७ सू० दकारोपे १००२ सू० अंकारस्य उकारें, १०१५ सू० श्रमो लोपे सामिपसार इति भवति । ११ सूत्रस्य वृत्तिमनुसृत्य वकारस्याऽऽदिभूतस्वादव ३६० वृत्तिः पूर्वदेव प्रकारस्य उकारें, ममो लोपे ससज्जु इति भवति । प्रियम् । प्रिय+श्रम् ॥ १०६९ सू० रेफलोपे, १७७ सू० यकारलोपे, पूर्ववदेव पि इति भवति । सीमासन्यौ । सीमासन्धि + ङि । १०२३ सू० ङिप्रत्ययस्य हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे सोमासन्धिहिँ इति भवति । बासम् । वास+ श्रम् । इत्यत्र १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० श्रभो लोपे वासु इति भवति । प्रक्यं । प्रपूर्वकः ईश् धातुः प्रेक्षणे दर्शने प्रेक्षं + क्त्वा । १०६१ सू० रेफलोपे, २७४ सू० क्षस्य खकारे, ३६० सू० खकारद्विये, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य क्रकारे १११० सू० क्वः स्थाने इवि इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, परेण वैदि इति भवति । बाहुल्येनात्र ८४ सुत्रस्य प्रवृतिर्न जाता | बाहुबलम् । बाहुबल + श्रम् । प्रस्तुतसूत्रेण डुल्ल डड - [ उल्लड ] -प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलों, सभी परेण संयोज्ये बाहुबलुल्लड + श्रम् इति जाते, १० सू० स्वरस्य लोपे, पंज्भीने परेण संयोज्ये, १००१ सू० कारस्य प्रकारे १०१५ सू० ग्रमो लोपे बाहुबलडा इति भवति । धन्या धन्या+सि । ३४९ सू० कारलोपे, बाहुल्येन ३६० सू० नकारस्य द्वित्वाभावे २२८ सु० नकारस्य णकारे, १००१ सू० माकारस्य प्रकारे १०१५ सु० सेलोपे घरग इति भवति । मुञ्चति = मेल्लर इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया ७६२ सूत्रे ज्ञेया विश्वासम् । निर्वस+श्रम् । १३ सू० रेफनोपे, ४३ सू० इकारस्य स्थाने ईकारे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ३५० सू० वकारलोपे, १००२ सु० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सु० सेर्लोपे नीसासु इति भवति । बाहुबलम् = बाहुबलुल्लडा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण डुल्ल-डड-प्रत्ययो जातः । अत्राम स्थादौ । बाहुबलुल्ला इत्यत्र अम्-प्रत्यये परे सति १००१ सू० प्रत्याकारस्य श्राकारो जातः । एवं बाहुलुल्लड एवमेव बाहुबलुल्लन्डर इत्यय सुल्ल, डड, अ इत्येतेषां त्रयाणां प्रत्ययानां योगेन सम्बन्धेन रूपनिष्पत्तिदृश्यते । यथा बाहुबलः । बाहुबल +सि । ११०१ सू० स्वार्थिके जुल्ल डड - [ उल्ल-]-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंपे, ग्रभोने परेण सयाज्ये १० सू० एल स्थस्य प्रकारस्य लोपे, भोने परेण संयोज्ये बाहुबलुल्लड+सि इति जाते. १००२ सु० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० लपि बाहुबल इति भवति । अत्र त्रयाणां प्रत्ययानां योगः-सम्बन्धो शेयः । श्रयं भावः--1 -हिअडर्ड इत्यत्र डड-प्रत्ययस्य योगः । डुल्ल इत्यत्र डुल्ल प्र-प्रत्ययस्व सम्बन्धः । बाहुबलुल्लडा इत्यत्र डुल्ल- प्रत्ययस्य संयोग:, तथा बाहुबलुल्लड- इत्यत्र बुल्ल-हड-प्र-प्रत्ययस्य स्थितिदृश्यते ।
१४६
११०२ पथिक ! दृष्टा गौरी, दृष्टा मार्ग परयन्तो ।
_re are: कञ्चुकमा शुष्कं कुर्वन्ती ॥ १ ॥
भावार्थ :- हे पथिक ! - पान्थ !, त्वया गौरी-सुन्दरी दृष्टा ? तेन पथिकेनोतरितम् - मया सा मार्ग पश्यन्ती-अवलोकयमाना दृष्टा- प्रवलोकिता । पुनः सा कि कुर्वती ? अश्रूच्छ बासेः श्रश्रूणि उ च्छ्वासाच अश्रूच्छ्वासाः तैः कञ्चुकं परिधानविशेषमा शुष्कम्, भाई च शुष्कं वाग्नयोः समाहारः, तं कुर्वती । वयं मावः त्वद्वियोगेन यदा सा रुदन्ती प्रश्रूणि मुञ्चति तदाऽश्रूजलेन कबुकमा यति यदा समासानादत्ते तथा तज्जनितौष्ण्येन कञ्चुकं शोषयति ।
पथिक ! | पथिक+सि । १८७ सू० यकारस्य हकारे, १७७ सू० ककारलोपे, १००१ सू० - कारस्य श्राकारे, १०१५ सू० सेलोंपे पहिया ! इति भवति । दृष्टा । दूष्टा+सि । १२८ सू० ऋकार
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चतुर्थपादः
संस्कृत-हिन्दी-योपेतम् ★
३४७
स्य इकारे ३०५ सू० ष्टस्य ठकारे, ३६० सू० ठकारदिवे, ३६१ सू० पूर्वटकारस्य टकारे, १००१ सू० प्राकारस्य ईकारे १०१५ ० खेलों विट्ठी इति भवति । गौरौ । गोरी +सि । १५९ सू० औंकारस्य प्रोकारे, ११०० सू० स्त्रार्थे डड- (अ)- प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे श्रज्भीने परेण संयोज्ये, ११०२ सू० डी. (ई) - प्रत्यये डिति परेऽन्त्यस्वरादेलपि, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेलॉप गोरडी इति भवति । मार्गम् । मार्ग म् । ३५० सू० रेफलोपे ३६० सू० गकारद्वित्वे ८४ सू० संयोगे परे हस्बे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सु० श्रमो लोपे मागु इति भवति । पश्यन्ती । दक्षिर् [ दृशुं ] -धातुः दर्शने । वृशु + शतृ । ८५२ सू० दूश: स्थाने निम इत्यादेशे, ६७० सू० शतुः स्थाने न्तं इत्यादेश, स्त्रीत्वविवक्षायामापू (mr) प्रत्यये ५ सू० दीर्घ-सन्धो, सि-प्रत्यये १००१ सू० ग्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू effy नियन्त इति भवति । अश्रूच्छ्वासः । प्रभु-उत्-श्वास + भिस् । २६ सू० श्रादिस्वरस्यानुस्वारागमे, १०६९ ० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे ३६३० सकारस्य द्विस्वाऽभावे, ५ सू० दीर्घ-सन्छ ११ सू० तकारलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे ३५० सू० वकारलोपे, १०१० सू० मिसः स्थाने इत्यादेश, स्थानिवत्त्वात् १००६ सू० प्रकारस्य एकारे, १०८१ सू० एकारस्य उचारणलाघवे, १०८२ सू० ह्कारगतस्य अनुस्वारस्य उच्चारणलाघवे सूसासे हि इति भवति । कञ्चुकम् । कञ्चुकम् । १७७ सू० अन्त्यककारस्य लोपे, १००१ सू० प्रकारस्य प्राकारे, १०१५ सु० श्रमो लोपे चुआ इति म afa | शुकम् । शुष्क + धम् । अप शे श्राशुष्कस्य स्थाने १०९३ सू० तिलुब्बाण इति शब्दप्रयुक्ते १०१५ सू० श्रमो लोपे तिष्वास इति भवति । कुवंसी । ढुक्कज् [क] करणे कु+क्षतृ । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, ६७० सू० शत्रुः स्थाने न्स इत्यादेशे, स्त्रीत्वविवक्षायामाप- (श्रा)-प्रत्यये, ५ सू० दीर्घसन्धी, १००१ सु० प्राकारस्य प्रकारे १०१५ सू० सेलोंपे करन्त इति भवति । गौरी - गोरडी इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण डीप्रत्ययी विहितः । एका कुटीभिः रु एक्क कुडल्ली पञ्चहिँ रुखी, प्रक्रिया १०९३ सूत्रस्य द्वादश-श्लोके ज्ञेया । फुटी = कुडल्ली इत्यत्रापि प्रस्तुतसूत्रेण डी-प्रत्ययः कृतः ।
११०३ -स्त्रयां वर्तमानादप्रत्ययान्त प्रत्ययान्तात् । श्रप्रत्ययोऽन्ते यस्य सः प्रययान्तः । यथा - अयं प्रत्यय: प-प्रत्यायान्तः । एतादृशः अप्रत्ययान्तः प्रत्यय: [ डड ] अन्ते यस्य सोऽप्रत्ययान्त-प्रत्ययान्तः । यथा धूलि - धुलहन +सि, ग्रयं शब्दः प्रत्ययान्त-प्रत्ययान्तो बोध्यः । एतादृशात् शब्दात् डाप्रत्ययो भवतीति भावः । व्यपवादः । ११०२ सूत्रेण डीप्रत्ययो जायते परन्तु ११०३ सूत्रेण प्रप्रत्ययान्त-प्रत्ययान्त-शब्दात् डाप्रत्ययो भवत्यतः तस्य [११०२] सूत्रस्य श्रपवादसूत्रमिदं बोध्यम् । सम्प्रति डा प्रत्ययस्योदाहरणं प्रदीयते । यथा---
प्रिय प्रायातः श्रुता वार्ता, ध्वनिः कर्ण प्रविष्टा ।
तस्य विरहस्य नश्यतः धूतिरपि न नष्टा ॥ १॥
भावार्थ:--विदेशात् प्रत्यागतं निजपति प्राप्य नायिकायाः हर्षोकोक्तिरियम् - प्रियः कान्तः, आयातः समागतः इति वार्ता सान्तः श्रुता, तस्य समागच्छतः पादयोः ध्वनिरेव क-प्रविष्टा, तदा पत्युरागमनवेलायां तस्य पूर्वोक्तस्य, विरहस्य-वियोगस्य नश्यतः- धावतः धूलिरपि न दृष्टा, प्रियः समा यातः इति ज्ञात्वा विरहजन्यं दुःखं तत्क्षणमेव समाप्तमिति भावः ।
प्रिय: पित्र, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य द्वितीय - श्लोके शेया । आयातः । श्राङ्पूर्वकः याषातुः महगभने । आया + क्तत । १००० सू० य-स्थस्य ग्राकारस्य इकारे, १७७ सू० यकारस्य तकारस्य च लोपे १००२ सु० प्रकारस्य प्रकारे, १०१५ सु० सेलोंपे आइउ इति भवति । ता । श्रुता+सि । १०६९
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राता
SEBEER
...
......AMya.
rane
* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादा सू० रेफालोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, से
र्लोपे सुभ इति भवति । वार्ता । वार्ता+सि । ८४ स० संयोगे परे ह्रस्वे, ३५० स० रेफलोपे, ३६० सू० तकारदिवे, सू० इत-शत-पत्यये, द्विति परेऽन्यस्तराटेलोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ११०२ सू० डी-[ई-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, प्रज्मीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेर्लोपे वासडो इति भवति । ध्वनिः । ध्वनि+सि 1 २८६ सू० ध्वस्य स्थाने भकारे, ५२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे, २२८ सू० नकारस्य प्रकारे, सेलोपे अणि इति भवति । करों । कर्ण - डि। ३५० स० रेफलोपे, ३६० स० णकारद्विश्वे, ११७२ सू० इडन-(प्रड)-प्रत्यये, द्विति परेऽत्यस्थ रादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे कष्णइ इति भवति । प्रविष्टा । प्रन्त्रिष्टा+सि । १०६१ सू० रेफलोपे, १७७ सू० वकारलोपे,३०५ स० ष्टस्य ठकारे, ३६० सू० ठकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोपे पडद इति सिद्धम् । तस्य-तहों, प्रक्रिया १०९७ सूत्रे ज्ञेया। विरहस्य । विरह+ ङस् । १००९ स० इ.सः स्थाने हो इत्यादेशे, १०८१ सू. उच्चारणलाघवे विरहहों' इति भवति । मश्यतः। णश-[नश]-धातुः नाशे। न+शतृ । १००० स० अकारस्य प्रकारे, ९१० सू० प्रकारागमे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ६७० सू० शतुः स्थाने मत इस्यादेशे, ११०० स० अप्रत्यये, १००९ स. उस स्थाने हो इत्यादेशे, १०५१ सू० उच्चारणलाघवेनासन्तअहों इति भवति । धूलिः । धुलि+सि । ११०१ सूत्रेण डडग्र-(अडग्र)-प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्त्ररापि, अज्भीने परेग संयोज्ये, ११०२ सू० डी-प्रत्ययस्य प्राप्तिरासीत् किन्तु ११०३ सू० डा-(आ)प्रत्यये, डिति परस्त्यस्वरादेर्लोपे, बाहुल्येन ५ सू० दीर्घ-सन्ध्यभावे, ११०४ सू० द्वितीयस्य अकारस्य इकारे, १०१५ सू० सेलोपे धूलडिया इति भवति । बाहुल्येनाश्त्र १० सूत्रस्य प्रवृत्तिनं जाता । अपि वि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । न । अध्ययपदमिदं संस्कृतवदेवाऽपभ्रशे प्रयुज्यते । दृष्टा । दृष्टा+सि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, ३०५ सू० ष्टस्य ठकारे, ३६० सू० ठकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे, १००१ सू० आकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेपि बिटु इति भवति । लिः =पुडिया इत्यत्र प्रस्तुलसूत्रेण डा-प्रत्ययो विहितः।
११०४-धूलिरपि म पृष्टा= धूलडिया विन दिव, प्रक्रिया ११०३ सूत्रे झेया। भूतिः- धूलडिग्रा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण अकारस्थ इकारो जातः । साधना वित्थम्-धूलिः । धूलि+सि । ११०१ सू० डडअ-(अड)-प्रत्यये, डिति परेऽन्यस्वरादेर्लोप, अज्झीने परेण संयोज्ये, ११०३ सू० डा-[माप्रत्यये, खिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, वाहुल्येन ५ सु० दीर्घसन्धेरभाव, प्रस्तुतसूत्रेण द्वितीयस्य प्रकारस्य इकारे, १०१५ सू० सेलोपे धूलडिआ इति भवति । स्त्रियामित्येव । स्त्रीलिङ्गे एवं प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिजयिते, नान्यत्र । यथा-- ध्वनिः करणे प्रविष्टा झुणि कण्ड पट्ट,प्रक्रिया ११०३ सूत्रे ज्ञेया । कपणम इत्यत्र स्त्रीलिङ्गत्वाऽभावात् प्रस्तुतसूत्रेण अकारस्य इकारो न विहितः । साधना वित्थम् करणे कर्ण+कि । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० कारद्वित्वे,११०१ सू० डडअ-(प्रड)-प्रत्यये, हिति परे:त्यस्वरादेर्लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये कण्णड+डि इति जाते, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे माणसइ इति भवति । वृत्तिकारकथनमनुसृत्य स्त्रीलिङ्गत्वाऽभावादश्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिन जाता । इदमत्र विचारणीयं यत् स्त्रीलिङ्गेऽपि प्राकार-प्रत्यय-परवर्तित्वादेव ११०४ सूत्रस्य प्रवृत्तिजायते, मान्यथा । परन्तु कण्ण-शब्दे प्राकार-प्रत्यय एवं नास्ति, ११०३ सूत्रेण डा-(प्रा)-प्रत्ययोऽपि स्त्रोलिक एव भवति, प्रस्त्रोलिङ्गि-कर्ण-शब्दात् डा-प्रत्ययस्य ११०३ सूत्रेण प्रातिरेव न भवितुमर्हति ।
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ARAAN
चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * असर ४ सूत्रागरे श ननोति, तथाऽपि वृत्तिकारेण कपणा इत्यस्यौदाहरणस्योस्लेखः कर्य कृतः ? इति तस्वविद्भिः चिन्तनीयम् । ११०५- सम्शेन कि युष्मवीयेन, यत्संगाय न मिल्यते ।
स्वप्नाऽन्तरे पोतेन पानीयेन,प्रिय ! पिपासा कि विद्यते ? ॥१।। भावार्थ:-प्रियवियोगोऽसह्यो भवतीति व्यज्यते । युष्मदीयेन, युष्माकमयं युष्मदीयस्तेन स्त्रदीयेन, संवेक्षेन-समाचारेण किम् ? न किमपीति 1 यत् संगाय-सम्भोगाथ, कामक्रीडाऽर्थ न मिल्पते. अत्रसरो न प्राप्यते । दृष्टान्तयति, प्रिय ! स्वप्नाऽन्सरे,स्वप्नस्यान्तरं स्वप्नान्तरं तस्मिन् स्वप्न-मध्ये पोनेन पानोयेन-जलेन कि पिपासा विधते, शान्तिमुपयाति ? न कदाचिदपीति भावः।
सम्शेन । सन्देश + टा। २५ सू० नकारस्याऽनुस्वारे,२६० सू० सकारस्य सकारे, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवत्त्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे संवेसे इति भवति । किम्- काइँ, प्रक्रिया १०३८ सूत्रे ज्ञेया। युष्मवीयेन । युष्माकमयमिति युष्मदीयः । संस्कृतनियमेन युष्मद् + ईय+टा इत्ति जाते । २४६ सू० यकारस्य सकारे, बाहुल्येन समस्य हकारे, ११०५ सू० ईय-प्रत्ययस्य डार (मार) इत्यादेशे, डिति परेऽत्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, टाप्रत्यये, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य गकारे, स्थानिवस्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे तुहारेण इति भवति । पत्-जं, प्रक्रिया १०९१ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया। सलाम । सड+.। ६२० सु. चतुर्थ्याः स्थाने षष्ठीविभक्तो, १००९ सू० इन्सः स्थाने हो इत्यादेशे, १०८१ सू० उच्चारणलाधव सङ्कहों इति भवति । न । अव्ययपदमिदं संस्कृतवदेवाऽपभ्रशे प्रयुज्यते । मिल्यते । मिन्ट समागमे । मिल+क्य+ते । ६४१ सू० क्यस्थ इज्ज इत्यादेशे, प्रजझीने परेण संयोज्ये, ६२८ स० ते इत्यस्य इचादेशे मिलिजा इति भवति । स्वप्नातरे । स्वप्नान्तर +डि । इत्यत्र ३५० सू० बकारस्य लोपे,४६ सू० पाद्यस्य प्रकारस्य स्थाने उकारे, ३७९ सू० नकारात्यूर्वे इकारागमे, १७७ मू० पकारलोपे, २२८ सू . नकारस्य णकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १००५ सू० डिना सह कारस्थ इकारे सासरि इति भवति । पीतेन । पीत+T! १७७ स.तकारलोपे, २०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे, स्थानिवत्त्वात १००४ सू० प्रकारस्य एकारे पिएं इति भवति । पानीबेन । पानीय+टा । २२८ सू० नकारस्य णकारे,१०१ स० ईकारस्य इकारे, १७७ सू० यकारलोपे, १०१३ सू०. टोप्रत्ययस्य णकारे, स्थानिवत्त्वात २००४ स० अकारस्य एकारे पाणिएण इति भवति । प्रिय ! पिना,इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया १०८९ सूत्रस्य तृतीयश्लोके ज्ञेया । पिपासा 1 पिपासा+सि । १७७ सू० द्वितीय-पकारलोपे, बाहल्ये नात्र १० सुत्रस्याऽप्रवत्ती, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे,१०१५ सू० सेलोपे पिणास इति भवति । किम् । किम् + अम् । ५६९ सू० अमा सह किमः स्थाने कि इत्यादेशे कि इलि भवति । बिखते । छिदि-[छिद्]-धातुः भेदने । छिद+ते । ६४९ सूत्रे बहुलाधिकारात क्यस्य प्रभावे,८९५ सू० दकारस्य ज्ज इत्यादेशे, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे छिज्ज इति भवति । युष्मबीयेन तुहारेण इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तिर्जाता । पश्य अस्मवीयं कान्तम्-दिक्खि अम्हारा कन्तु, एषां पदानां प्रक्रिया १०१६ सूत्रे झेया। दुश्+हि इत्यत्र ८५२ सू० दृशः देवख इत्यादेशे, १४ सू० संयोगे परे हरवे, १०५८ सू०.हि इत्यस्य इकारे, १० स० स्वरस्य लोपे विक्खि इति भवति । अस्मदीयमप्रम्हारा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण ईय-प्रत्ययस्य डार इत्यादेशो जातः । साधना स्विस्थम-अस्मदीयम्-अस्मद्+अम् । ३४५ *आमद-शब्दार हैमशब्दानुशासमस्प व्याकरणस्य ६।३।६७) सूत्रेण ईयरण-(ईम)-प्रत्ययो वायते । सिमान्तकौमुद्याः युष्मदस्मदोरन्यवरस्पी बम्ब मनेन सूत्रेण छ-(६५)-प्रत्ययो भवति ।
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* प्राकृत-ज्याकरणम् *
चतुर्थपाव सू० स्मस्य म्ह इत्याशे, ११०५ सू० ईयस्य डार [प्रार] इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १००१ सू० अन्त्या कारस्थ प्राकारे, १०१५ सू० अमो लोये अम्हारा इति भवति । भगिनि ! अस्मदीयः कान्त:-बहिणि ! महारा कस्तु, प्रक्रिया १०२२ सूत्रे झेया । अस्मवीयः- महारा इ. त्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृत्तितिा । साधना स्विस्थम्-अस्मदीयः । अस्मदीय सि । बाहुल्येन ६०२ सू० अस्मदः स्थाने मह इत्यादेशे, ११०५ सू० ईय-प्रत्ययस्य हार-मार] इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, १००१ सू० अकारस्म प्राकारे, १०१५ स सेलो महारा इति भवति ।
१५०६-- इयान् । इदं परिमाणं यस्य । इदम + प्रलु । इत्यत्र १मानार्थे २७।१।१४८। इत्यनेन सूत्रण प्रतु-(प्रत)-प्रत्ययः, इदम: स्थाने इय इत्यादेशश्च जासः, ११०६ सू अतुप्रत्ययस्य हेतुल [एत्तुल] इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, सि-प्रत्यये, १००३ स० अकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलोपे एसलो इति भवति किसान किसरिलायनस्यता । निमा ११४८ सू० अतु-प्रत्यये किमश्च किय इत्यादेशे, प्रस्तुतसुत्रेण प्रतु-प्रत्ययस्य उत्तुल इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेोग, अज्झीने परेण संयोज्ये,पूर्ववदेव केशलो इति भवति । यावान् । यत् परिमाणमस्येति याबद् । इत्यत्र ७।१।१४९। सूत्रेण रमानार्थे ड्रावतु-प्रत्ययो जायते, ततः संस्कृतनियमेन यद्+डाबतु इति जाते, २४५ सू० यकारस्य जकारे, प्रत्ययग्रहणे तदन्तस्यापि ग्रहणं भवति, इति नियमेन अतु-कथनेन डावतु-प्रत्ययस्याऽपि ग्रहण जायते । तलः प्रस्तुतसूत्रेण डावत्-प्रत्ययस्य हेतुन (एनल) इत्यादेशे, पूर्वत्रदेव जेत्तुलो इति भवति । तावान् । तत्परिमाणमस्येति । तद् +डावतु । प्रत्ययग्रहसे सबन्तस्यापि ग्रहणम्, इति नियमेन प्रतु-प्रत्ययस्य ग्रहणेन डावतोरपि ग्रहणं भवति । ततः ११०६ सू० डावतुप्रत्ययस्य स्थाने हेत्तुल इत्यादेशे, पूर्ववदेव तेसुलो इति भवति । एतावान् । एतत परिमाणमस्येति एतावान् । एतत् +डावतु । संस्कृत नियमेन इय् +डावतु इति जाते, प्रस्तुससूत्रेण डायतुप्रत्ययस्य स्थाने हेतुल एत्तुल] इत्यादेशे, बाहुल्येन ४२७ सू० एतद्-शब्दस्य लुक्ति, १००३ सू० अकारस्य धोकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे एस लो इति भवति । ११०७... अश्र सत्रद्वारे गृहे लक्ष्मीः विसंष्ठला पावति ।
प्रियभ्रष्टेव गौरी मिश्चला कस्मिन्नपिन तिष्ठति ॥१॥ भावार्थ:--लक्षम्याः चाचल्यं वर्णयति-अत्र तत्र द्वारे, तथा गृहे, लक्ष्मीः विसंष्ठुला-चंचला धावति, चंचला लक्ष्मीरिति भावः। कविरत्र उदाहरण माह-इन-यथा, प्रियप्रभ्रष्टा, प्रियात्-कान्तात् प्रियनायकाद्वा भ्रष्टा-प्रकर्षेण भ्रष्टा, प्रिय-प्रभ्रष्ठा गौरी-सुन्दरी, कस्मिन्नपि स्थाने निचला-चाचल्य-रहिता, स्थायिरूपेण न तिष्ठति । एवमेव वक्ष्याः चाचल्यं वर्तते । __ अन । अस्मिन्निति अत्र अव्ययपदमिदम् । ११०७ स० अप्रत्ययस्य उत्तहे [रत्तहे] इत्यादेशे,
सोप, १०१२ स० हकारगतस्य एकारस्थ उच्चारणलाघवे एस. इति भवति । सत्र । तस्मिन्निति तत्र । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण अप्रत्ययस्य स्थाने देतहे [एत्तहे] इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलपि, अज्झीने परेण संयोज्ये, १०८२ सहकारगतस्य एकारस्य उच्चारणलाघवे तेत्तहे इति भवति । द्वारे । द्वार+छि। ३४८ सू० दकारलोपे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे १. इदं कारय-किय चास्य ७१११४। पाम्पा मामाभ्यां षष्ठपर्थ मेयेतुः स्थात, सदमोंगे चानयोधासंख्यामिकियो स्याताम् । ईयाम् । कियान् पटः ।
-हेमशम्दानुशासने । २. यस देशकोडवाधिक २१४९एभ्यः मानार्थभ्यः षष्ठय मेधेऽतुकादि: स्यालू यावान् । साथाम् । एसावान् । धान्यरासिः।
. माम्दानुशास।
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अतुर्यपादा * संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् *
३५१ बारि इति भवति । गृहे । गृह+हि । ४१५ सू० गृह-शब्दस्य घर इत्यादेशे, वारि-वदेव घरि इति भवति। लामीः । लक्ष्मी+सि । ३४९ सू० मकारलोपे, २७४ सू० क्षस्य छकारे,३६० सू० छकारस्य द्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वछकारस्य चकारे, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, १०१५ सू० सेलोपे लच्छि इति भवति । विसं. तुला विसंष्ठुला+सि । ३४८ स. षकारलोपे, ३६३ सू० ठकार-द्वित्वाऽभावे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, सेलोप विसंतुल इति भाति । धावति। घाय्-यातुः धायने । पान--लिव । ८९१ स. बकारलोपे, ६२८ सू० तिकः स्थाने इचादेश धाई इति भवति । प्रिय-प्रभ्रष्टा । प्रियप्रभ्रष्टा-+-सि । १०६९ सू० सर्वत्रय रेफलोपे, १७७ सू० यकारलोपे, ३६० स० भकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वभकारस्य दकारे, ३०५ सू० ष्टस्य ठकारे, ३६० सू० ठकारद्वित्त्वे ३६१ सू० पूर्वठ कारस्य टकारे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सून सेलोपे पित्र-पभट्र इति भवति । ५१ सूत्रमनुसत्य समासे वाक्यविभक्त्यपेक्षया शिन्नपदस्वादन प्रादिभुतस्य पकारस्थ १७७ सूत्रण लोपो न जाता तथा २३१ सू० पकारस्य चकारोऽपि न जातः । सवमाया दम.४५२ सालार्शम इति प्रयूज्यते । गोरो मोरडो, प्रक्रिया ११०२ सत्र शेया। निश्चला । निश्चला+सि । ३४८ स शकारलोपे, ३६० स० कारद्धिरके, १००१ स० कारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेपि मिचल इति भवति । कस्मिन् । किम् + ङि । ५६० स० किमः स्थाने क इत्यादेशे, १०२० स० डिप्रत्ययस्य हि इत्यादेश, १०८२ स० उच्चारणलाघवे कहि इति भवति । अपिला वि, प्रक्रिया ४८९ सूत्र ज्ञेया । तिष्ठति - ठाई, प्रक्रिया ६८७ सूत्रे जया । अत्र एत्तहे, तत्रतेत्तहे इत्यत्र प्रस्तुत्तसूत्रेण अ-प्रत्ययस्य डेतहे इत्यादेशो जात:।
११०५--बृहत्वं परिप्राप्यते - वड्डप्पणु परिपाविनइ, प्रक्रिया १०३७ सूत्रे ज्ञेया। यहस्वम् = वडप्पणु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण स्वप्रत्ययस्य पण इत्यादेशो जातः । साधना स्वित्थम् । बृहत्वम् । बृहत-त्व +सि । १२६ सू० कारस्य प्रकारे, बाहुल्येन २३७ सू० बकारस्य वकारे, ४४५ सू० कारस्य इइत्यादेशे. ११ स० तकारलोपे, ११०८ स. स्वप्रत्यस्य स्थाने पण इत्यादेशे. १००
यस्य स्थान प्पण इत्यादेशे, १००२ स० प्रकारस्य उकारे,१०१५ स० सेलोपे वड़प्पणु इति भवति । प्रायोधिकारात प्रस्तुतसत्रे प्रायः इत्यस्य पदस्याऽधिकारात् कस्मिश्चित् स्थले स्व-प्रत्ययस्य पण इत्यादेशो न भवति । यथा---बहत्त्वस्य कृते-बड्डत्तणहाँ तररोण, प्रक्रिया १०३७ सूत्रे या । प्रायांग्रहणाद् बृहत्त्वस्य बहुतणही इत्यत्र प्रस्तुतुसूत्रस्य प्रवृत्तिन जाता । साधना स्वित्यम् । बृहस्वस्य । बृहत्व+इसवड्ड-व+इस् । ४२५ सू० स्वस्य स्थाने तण इत्यादेशे,१००९ सू० स: स्थाने हो इत्यादेशे,१०८२ सू० उच्चारण-लाघवे वक्षसणहाँ इति भवति । ११०४- एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रियः उपवायते ।
मम कर्तव्यं किमपि नापि मर्तव्यं पर बीयते ॥१॥ भावार्थ :- पतिव्रता-नारी जीवनस्य पतिरेव सर्वस्वं भवति, नतु धनादिकमिति व्यज्यते । या एतव रजत-सुवर्ण-भवनादिकं धन सम्पत्ति वा गृहीत्वा यदि मया प्रियः-कान्तः उवार्यते--त्यज्यते, ततः पतिदानानन्तरं मम कर्तव्यं करणीय कार्य नाऽपि-नवाऽन्यत् किमपि वर्तते,पर-केवलं मर्सयममरणामेवधीयते । पतिवियोगः नारी-जीवने मृत्युरेव भवतीति भावः।
एसन् । एतत् +अम् । १७७ सू० तकारलोपे, ११ सू० दकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे एउ इति भवति । गृहीत्या-गृण्हेप्पिणु, प्रक्रिया १०६५ सूत्रे ज्ञेया। यद । यद्+सि= ध्रु, प्रक्रिया १०३१ सूत्र ज्ञेया। मया । अस्मद्+टा । १०४८ सू० टाप्रत्ययेन सह अस्मदः स्थाने मई इत्यादेशे मई इति भवति । यदि जइ, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया। प्रिय :
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुयंपादा प्रिय+सि । १०६९ सत्रस्य वैकल्पिकत्वाद् रेफलोपाऽभावे, १७७ स० यकारलोपे,१००२ स० प्रकारस्य उकारे, १०१५ स० सेलोपे प्रिउ इति भवति । उववार्यते । उत्पूर्वक: वृधातुः त्यागे। उदय + क्य+ते। ३४८ सू० दकारलोपे, ३६० सू० दकारद्वित्त्वे, ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, १००० सू० प्रादेरकारस्य दीर्घ, ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ६२८
स० ते इत्यस्य इचादेशे जत्वारिज इति भवति । मम महु , इत्यस्य प्रक्रिया १५५० सूत्रे ज्ञेया । कर्त. व्यम् । डुकृञ् [क] करणे । कृ+तव्य । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे,११०९ स० तव्यप्रत्ययस्य इएवार्ड इत्यादेशे, १० स० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये,सिप्रत्यये, १०८२ सू० अनुस्वारस्य उ. इचारणलाघवे, १०१५ सू० सेलोपे करिएव इति भवति । किम् -कि, प्रक्रिया ११०५ सूत्रे ज्ञेया। मपि पि, प्रक्रिया ४८९ सूम अगा। मिलम् । १२९स कारस्य णकारेण इति भवति । अपि । अव्ययपदमिदम् । ४८९ सू० प्रपणे वि इत्यस्य प्रयोगे वि इति भवति । मतव्यम् । मृङ [मृ] मरणे। मृ+तक+सि । ९०५ सू० ऋकारस्य अर इत्यादेशे, करिएकाउँ-बदेव भरिएचउँ इति साध्यम् । परम पर, प्रक्रिया १०८९ सूत्रे ज्ञेया । दीयते । दुदान-[दा धातुः दाने । दा+++ते । ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, ५ सू० गुण-[+इए]-सन्धौं, दा+इज्जनते-देज्ज+ते इति जाते, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे वैजई इति भवति । बिमाइ इति पाठे तु दा+इज्ज+ते इत्यत्र १० सू० प्राकारस्य लोपे, प्रज्झोने परेण संयोज्ये,पूर्वदेव दिउजइ इति भवति । कर्तव्यम् करिए व्वउँ, मतव्यम् भरिएवण्उँ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण तव्यप्रत्ययस्य इएव इत्यादेशो जातः ।
देशोस्चाटन शिखिकवन धनकुट्टनं यद् लोके ।
मनिष्ठया अतिरिया सर्व सोडण्यं भवति ॥२॥ भावार्थ:-देशोच्चाटनं-देशस्य-जन्मभूमेः उच्चाटनं-त्याजनं, देशपरित्याग इत्यर्थः,शिखिकथनं, शिखिना-बन्हिना कथनं (उबालना इति नागाम् ), धनकुट्टनम् धनैः-लोहनिर्मितः शस्त्रविशेषः कुट्ट नम् नितरां ताडनम्, एतत्सर्वं यद लोके दर्तते तत्सर्वमतिरक्तया-प्रतिलोहितया मजिठया सोडव्यं भवति । प्रतिरागत्वाद् मशिजष्ठा यथा महान्ति दुःखान्यनुभवन्ति एवमेव अत्र लोके यो नरः खलु प्रतिरागी, पनजनादिषु महान् प्रासत्तो भवति, सोऽपि मजिष्ठावद् भूयांसि दुःखान्यनु भविष्यतीति भावः।।
देशोपचाटनम् । देशोच्चाटन+सि । २६० सु० शकारस्य सकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १९५ सू० टकारस्य डकारे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००२ सू० अकारस्थ उकारे, १०१५ सू० सेलोपे बेसुमारणु इति भवति । शिखि-कथनम् । शिस्वि-कथन+सि । २६० सू० शकारस्य सकारे, १८७ सू० खकारस्य हकारे, ३५० सू० कारलोपे, ८९१ सू० थकारस्य कारे, बाहुल्येन ढकारस्य ३६० सू० द्वित्त्वाऽभावे, २२८ सू० नकारस्य पकारे, १००२ स० अकारस्य उकारे, सेलोपे सिहिकदा इति भवति । घन-कुट्टनम् । धन-कुट्टन-+सि । २२८ सू० उभयत्राऽपि नकारस्य णकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ मू० से.पे षणा इति भवति । य =ज,प्रक्रिया १०११ सूत्रस्य द्वितीय-श्लोके ज्ञेया। लोके । लोक+ङि । १७७ सू० ककारलोपे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे लोइ इति भवति । मनिष्ठया । मनिष्ठा+टा । २५ सू० प्रकारानुस्वारे, ३४८ सू० धकारलोपे, ३६० सू० कारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्व ठकारस्य टकारे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, ५१५ सू० टाप्रत्ययस्य एकारे मंजिट्ठए इति भवति । प्रतिरक्कया 1 प्रतिरक्त+टा । इत्यत्र १७७ सू० सकारलोपे,३४८ सू० ककारलोपे,३६० सू० तकारद्वित्वे, प्राप्-(मा)-प्रसंगे ५२१ सू० डी-(ई)-प्रत्यये,१० सू० स्वरस्य लोपे,प्रमोने
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Mirror
प्रतुपपाया * संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् *
३५३ परेण संयोज्ये, १००१ सू० ईकारस्य इकारे, पूर्ववदेव शास्थाने एकारे प्रहरतिए इति भवति । सर्वम् । सर्व+अम् । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० वकारद्वित्त्वे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० अभी लोपे सव्वु इति भवति । सोढव्यम् । षह-सह-धातुः सहने । सह, +तव्य । ११०९ सू० तथ्यप्रत्ययस्थ एवज इत्यादेशे, अज्झीने परेण संयोज्ये, सिप्रत्यये, १०८२ सू० उच्चारणलाधवे, १०१५ सू० सेर्लोपे सहेव इति भवति । भवति होइ, प्रक्रिया ७३१ सूत्र ज्ञेया । सोढव्यम्-सहेन्वउँ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण तव्यप्रत्ययस्य स्थाने एव्य इत्यादेशो जातः ।
स्वपित्तव्यं परं वारितं, पुष्प-क्तीभिः समम् ।
जागरितम्यं पुनः कः परति ?, यदि स वेदः प्रमाणम् ॥३॥ भावार्थ:-ऋतुमती-नारीभिः सह समागर्म निषेधयत्यावार्यः । पुष्पवतीभिः ऋतुमतीभिः स्त्रीभिः सह रात्रावपि स्वपितव्यम्-शयन परम्-प्रत्यन्तं बारित-निषिद्धमस्ति । यदि इत्यर्थप्रतिपादका स:-वेवः-श्रुतिः प्रमाणम् । तदा बागरितव्यं कः परति ? जागृतदशायाम्-दिवसे पुष्पवतीप्रमदया सह संभोगादिकरणं प्रमाणयितुकः शक्नोति? न कोऽपीति । अयं भाव-पुष्पवतीस्त्रिया सह रात्रौ शयन चेनिषिद्ध हि दिवसेपि तया साद्धं विहितं संभोगादिक सर्वथा निषिद्धमेवाऽवसेयम् ।
स्वपितव्यम् । त्रिष्वप्-[स्वप्]-धातुः स्वपने । स्वप् +तव्य + सि । इत्यत्र ३५० सू० धकारस्य लोये, ६४ सू० प्रादेरकारस्य स्थाने मोकारे, १७७ स० पकारलोपे, प्रस्तुतसूत्रेण तव्यप्रत्ययस्य एवा इ. त्यावेशे, प्रज्मीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेलोपे सोएबा इति भवति । बाहुल्येनाऽत्र १० सूत्रस्य प्रवृत्तिने जाता । परम्प र, प्रक्रिया १०५९ सूत्रे ज्ञेया । वारितम् 1 बारित+सि । १७७ सू० तकारलोपे, १००१ सू० प्रकारस्य आकारे, सेलोपे वारिओ इति भवति । पुष्पवतीभिः । पुष्पवतो+भिस् । ३२४ सू० पस्य फकारे, ३६० सूत फकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वफकारस्य पकारे, १७७ सूतकारलोपे, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे पुष्फबईहि इति भवति । समम् == समारणु, प्रक्रिया १०८९ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया। जागरितव्यम् । जागृ-धातुः निद्राक्षये, जागरणे। जागृ+तव्य । ७५१ सू० जागृ-धातोः जग इत्यादेशे, प्रस्तुतसूत्रेण तव्यप्रत्ययस्थ एवा इत्यादेशे,१० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्मी ने परेण संयोज्ये, सिप्रत्यये, १०१५ स ० सेलोपे जगोवा इति भवति । पुनः -पुणु, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। कःको, प्रक्रिया १०६७ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । धरति = धरह,प्रक्रिया ९०५ सूत्रे ज्ञेया । यदि-जद्द,प्रक्रिया १०१४ सुत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । सः । तद् +सि । ५७५ सू० तकारस्य स्थाने सकारे,११ सू० दकारलोपे,१००३ सू० अकारस्य प्रोकारे,१०१५९० सेलपि सो भवति । वैवः । वेद+सि । १७७ सू० दकारलोपे,१००२ सू० प्रकारस्य उकार,१०१५ सू० सेपि वेव इति भवति । प्रमाणम् - पमाणु, प्रक्रिया १०७० सूत्र ज्ञेया । स्वपितव्यम् सोएवा, जागरितव्यम् - जम्मेवा इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण तव्य-प्रत्ययस्य स्थाने एवा इत्यादेशो जातः ।
१९१०---इ । प्रस्तुतसूत्रेण क्त्वः स्थाने इ इत्यादेशो भवति । इकारादेशस्योदाहरणं प्रदीयते वृत्तिकरण । यथा-- हवय ! पवि वैरिणो घनाः, ततः किमन्न आरोहामः ।।
अस्माकं हस्तौ यदि पुनः मारबिस्वा नियामहे ॥१॥ भावार्थ:-हे हृदय ! यदि वरिणः शत्रवः, धना-बहवः सन्ति, सतः-तदा किषयमनेप्राकाशे, मारोहामः-प्रच्छन्ना भवामः, प्रतः भीति मा कुरु इति हार्दम् । यदि पुनस्ते बहवः सन्ति, सवास्माकमपि द्वौ हस्तौ स्तः, अतः तान् शत्रून् मारयित्वा मरिष्यामः। बहुभ्योऽपि वैरिभ्यो भीत्वा
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rnsar-Hasy-sup
* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः विवेकिजना न पलायितव्यं, प्रत्युत तैः सह स-साहस योद्धव्यमिति भावः।
हवन !, प्रदियो २ मा तृतीयश्लोके ज्ञेया । यदि - जई, प्रकिया १०१४ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया । वैरिणः । वैरिन्+जस् । १४६ सू० ऐकारस्य एकारे, ११ सू० नकारलोपे, ११०० सू० अप्रत्यये, १०१५ सू० जसो लोपे वेरिब इति भवति । घनाः। धन+जस् । २२८ सू नका. रस्य णकारे,१००१.सू० प्रकारस्य प्राकारे,१०१५.सू० जसो लोपे धरणा इति भवति । तत:स्तो,प्रक्रिया १०५८ सत्रे शेया। किम् कि प्रक्रिया ११०५ सत्रे ज्ञेया। । मभ्र+डि । १०६९ स० रेफलोपे, ३६० स० भकारदिस्वे, ३६१ सू० पूर्व-भकारस्थ बकारे,१००५ सू० लिना सह अकारस्य इकारे अभि इति भवति । आरोहामः प्राहु-श्रा-पूर्वका रहन्धातः प्रारोहणे। प्रारुत+मस । १७७ स० प्रारह इत्यस्य बड़ इत्यादेशे, ६४७ सूत्रे "कचि आरवमपि" इति पाठात् अन्त्यस्य प्रकारस्य प्रकारे, १०५७ सू० मसः स्थाने हुँ इत्यादेशे पडाहु इति भवति । अस्माकम् प्रम्हह, प्रक्रिया १०५१ सूत्रे शेया। बोमबे प्रक्रिया ६०९ सूत्रे ज्ञेया। बाहुल्येनाऽत्र २३७ सूत्रेण वकारस्थ वकारे बे इति भवति । हस्तो। हस्त+मो : ३१६ सू० स्तस्य थकारे, ३६० सू. थकारद्विस्वे, ३६१ सू० पूर्वथकारस्य तकारे, ११०० सू० ड्रङ-(प्रड)-प्रत्यये, द्धिति परेऽन्त्यस्वरादेलोपे, माझीने परेण संयोज्ये, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुपवने, १०१.सू.प्रकारस्य प्रकारे,१०१५ सू० जसो लोपे हत्या इति भवति । पुनः-पुणु, प्रक्रिया १.०१४ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया । मारयित्वा । मृङ्-[मृ]-धातुः प्राणत्यागे । मृ+णिम् + क्त्वा । इत्यत्र ९०५ सू० कारस्य स्थाने पर इत्यादेशे, ६३८ सू० णिगः स्थाने प्रकारे,६४२ स० ग्रादिस्वरस्य दीर्घ, १० सं० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, प्रस्तुतसूत्रेण क्त्वः स्थाने इकारे, १० स० स्वरस्य लोपे, अजीते परेण संयोज्ये मारि इति भवति । नियामहे । मृा-(मृ)-धातुः गणत्यागे। मृ+महेमर+ महे । ६४७ सूत्रे चिद आस्थमपि इति विधानाद् अकारस्य प्रकारे, १०५७ सू० महे इत्यस्य हुं इत्यादेशे मराई इति भवति । मारयित्वा-मारि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण क्त्वा-प्रत्ययस्य स्थाने छ इत्यादेशो जातः । बज। इस इत्यादेशस्योदाहरणं प्रदर्शयति वृत्तिकारः। यथा—ाजघटा: भक्त्या यान्तिळ गयघड भजिउ अन्ति प्रक्रिया १०६६ सुत्रस्य पञ्चमे श्लोके जेया । भक्त्वा भजिजउ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रण पत्वाप्रत्ययस्य स्थाने इउ इत्यादेशो जातः । इति । इवि इत्यादेशस्योदाहरणं प्रदश्यते। यथा--
- रक्षति विष-हारिणी द्वौ करों धुम्बित्वा जीवम् ।
- प्रतिविम्बित-मुमाल जलं यास्यामनवगाहितं पीतम् ।।२।।
भावार्थ:-सा स्त्री विषहारिणी विषस्य-जलस्य हारिणी हाँ शोलमस्याःसा विषहारिणी [पनिहारिनी इति नांगाम्] छौ करो सहर्ष चुम्बित्वा जीवम्-प्रात्मानं रक्षति, विषहारिण्याः सर्वाणि कार्याणि हस्ताभ्यामेव सिद्धान्त, अतः सा तो हस्ती चुम्बति । चुम्बनस्य कारणमाह-याभ्यां हस्ताम्यामेव जीवन-निर्वाहरूपं जलं तया पोतं भवति । किम्भूतं जलम् ? प्रतिविम्बित-मज्जालम् प्रतिबिम्ब जासमस्येति प्रतिविम्बितं लानि मुजालानि-तृणानि यस्मिन् तत् । पुनः किम्भूतम्-अनवगाहितम्, अबगाहरहितम्, अनवलोडितम् । तत्र केनचित् प्रवेशादिक, स्नानादिकं वा न कृतं, स्वच्छमित्यर्थः ।
रक्षति । रक्ष-[रक्ष] धातु: रक्षणे । रक्ष+तिन् । ९१० सू० अकारागमे,२७४ सू० क्षस्य खकारे, ३६०स० खकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वखकारस्य ककारे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे रखा इति भदति । सा। तद्+सि । ५७५ सू० तकारस्य सकारे,११ सू० दकारलोपे,स्त्रीत्वादाप्-(प्रा)-प्रत्यये. ५ सू० दीर्घ-सन्धी,१०१.५ सु० सेलोपे सा इति भवति । विष-हारिणी । विषहारिणी+सि । २६० सू०पकारस्य
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चतुर्वपादः
संस्कृत-हिन्दी-कानुयोपेतम् ★
३५५
==
सकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे विहारिणी इति भवति । द्वौ वे प्रक्रिया ६०१ सूत्रे ज्ञेया । श्रत्र बाहुल्येन २३७] सू० वकारस्य वकारे बे इति भवति । करों । करी । ६१९ सू० त्रिवचनस्य बहुवचने, १०१५ सू० जस्-प्रत्ययस्य लोपे कर इति भवति । बिस्वा सुबिधातुः चुम्बने । संस्कृतनियमेन चुम्ब+ क्त्वा । इति जाते, प्रस्तुतसूत्रेण वत्त्व: स्थाने इवि इत्यादेशे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये धुम्बिवि इति भवति । जोवम् | ra + श्रम् १७७ सू० वकारलोपे १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रभो लोपे जो उ इति भवति । प्रतिक्षित मुनालम् । प्रतिविम्बित मुछाल +सि । १०६९ सू० रेफलोपे, २०६ सू० तकारस्य डकारे, १७७ सू० तकारलोपे, २५ सू० प्रकारस्याऽनुस्वारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे बिअजालु इति भवति । जलम् । जल +सि । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोप इति भवति । वाभ्याम् । यस्याम् २४५ सू० यकारस्य जकारे, ११ सू० दकारलोपे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १०१८ सू० भिसः स्थाने हि इत्यादेशे, स्थानिवत्त्वात् १००६ सू० कारस्थ एकारे, १०८२ सू० उच्चारणलाघवे जेहिं इति भवति । अनवगाहितम् । नवगाहित + सि । अपभ्रंशे नवगाहितार्थ १०९३ सू० अडोह इत्यस्य शब्दस्य प्रयोगे १००२ सू० प्रकारस्य उसे महज इति भवति । पीतम् । पोत +सि । १७७ सू० तकारलोपे, १००२ सू० प्रकररस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि पीड इति भवति । चुम्बित्वा चुम्बिवि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण क्त्वः स्थाने इवि इत्यादेशो जातः । मदि । श्रवि इत्यादेशस्योदाहरणं प्रदीयते । यथा---
बाहू त्याजयित्वा याहि त्वं भवंतु तथा की दोषः ? 1
हृदय स्थितः यदि मिःसरसि जानामि मु ! सरोषः || ३||
भावार्थ:-fairfooा प्रियानुरागं प्रदर्शयति । हे प्रिय मुञ्ज! मुञ्जनामधेयो नायकः, तत्सम्बोधनम् । एवं बाहू भुजी त्याजयित्वा मोत्रयित्वा माहि- गच्छ को नाम अत्र दोषः भवितुं शक्नोति, कविदित्यर्थः । यतस्त्वं मम हृदयस्थितः हृदये स्थितोऽसि । यदि हृदयात्त्वं निःसरसि-निर्गच्छेः, तदा जानामि श्रवगमिष्यामि यद् भवान् सरोषः रुष्टः सन् निर्गतः । एनमेवाऽभिप्रायं हिन्दीकचिना एवं संसूचितम् - यह भरोरे जात हो, अबल जानके मोय ।
हृदय से अब जाओगे, सबल बखानू तोय || १॥
I
बहू । बाहु + श्री । ३६ सू० उकारस्य धाकारे, ६१९ सू० द्विवचनस्य बहुवचने, १००१ सू० श्रीकारस्य प्रकारे १०१५ सू० जसो लोपे बाह इति भवति । त्याजयित्वा । त्यज [ स्वज् त्यागे । स्याज् + जिग् + क्त्वा प्रपत्र 'शे त्यज् + गिग इत्यस्य २०६६ स० fasts इरादे, १९१० सू० क्त्व: स्थाने afe इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रभीने परेण संयोज्ये विवि इति भवति । याहि । याधातुः रातौ या + हि । २४५ सू० यकारस्य जकारे १०५४ सू० हि इत्यस्य हि इत्यादेशे जाहि इति भवति । त्वम् तुहुँ, प्रक्रिया १०० १ सू० सूत्रस्य द्वितीयइलोके ज्ञेया । भवत् । भृधातुः सत्तायाम् । भू तुक् । ७३१ सू० भूधातोः स्थाने हो इत्यादेशे १००० सू० ग्रोकारस्य प्रकारे, ६६२ सू० तुवः स्थाने कृ इत्यादेशे, १७७ सू० दकारलोपे हउ इति भवति । तथा तेवें, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य प्रथमश्लोक ज्ञेया ।
=
I
पदमिदम् । ४८८ सू० पादपूरणाऽर्थे प्रयुज्यते । कः । किम्+सि । ५६० सू० किम: स्थाने क इत्यादेशे, १००३ सू० प्रकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे को इति भवति । दोषः । दोष +सि । २६० सू० कारस्य सकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे सु इति भवति । हृदय स्थितः । हृदय स्थित + १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, १७७ स० दकारलोपे [ष्ठा-स्था+कल ], ६८७
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★ प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्षपादा सू० स्थाधातोः ठाइस्थादेशे, ३६० सू. ठका रद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे, १००० सू० माकारस्य प्रकारे, ६४५ स० अकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १००२ स० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे हिण्य-दिउ इति भवति । यविजइ, प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके शेया। निसरसि निर-पूर्वका स-धातुः निस्सरणे । निर्स+तिन् । १३ सू० रेफलोय, ९३ सू० इकारस्य दीर्घे, ९०५ सू० साकारस्य पर इत्यादेशे, ६२९ सूत सिवः सि इत्यादेशे नीसरसि इति भवति । मानामि । शा प्रबोधने । ज्ञा+मिव । ६७८ स० जाधातोः स्थाने जाण इत्यादेशे, १०५६ सू० मिनः स्थाने के इयादेश, २०५२ सू० उच्चारणालाघवे जाण इति भवति । बाहुल्येनाऽष १० सूत्रस्य प्रवृसिन जाता। मुझज! । मु सि । १०१५ सू० सेलोपे मुख्न । इति भवति । सरोषः । सरोष+सिं। २६० सू० पकारस्य सकारे,१००२ सू० अकारस्य स्थाने उकारे,.१०१५ स० सेलोपे सरोसु इति भवति । स्याविस्वा-विछोडवि इत्यत्र प्रस्तुलेन १११०] सूत्रेण स्वः स्थाने अवि इत्यादेशो जातः । ११११ जिस्वाशेष-कषायबलं स्वाऽभयं जगतः।
सास्वा महानतं शिवं लभन्ते ध्यात्वा तस्वस्य ॥१॥ भावाम-मोक्षलाभोशयानाह-प्रशेवं, न विद्यते शेषो यस्मिन् तदशेष-सम्पूर्ण, कषायबलं कषायाणां बलं सैन्य शक्ति लमिति । कक्ष:-जन्ममरणरूप-संसार: तस्य प्रायः-लाभः कषायः क्रोधमानमाया-लोभरूपः। येन संसारे जन्ममरण वृद्धिर्जायते सकषाय:,तं कषाय जित्वा जगतः कृतेऽभयं न विक्षते भयं यस्मिन् तदभयं दयाधर्म निर्भयता मावस्या,महानतम्,महच्चेदं श्रतं महाव्रतम्, जनानां पारिभाषिकोऽयं शब्दः । जैनसाचूना कतेऽनुष्ठान-विशेषः, मनसा बचसा कर्मणा च प्राणातिपातविरमण-मुषाधादचिरम---चौरायविरमण-मधुनविरमण-परिग्रहविरमणरूप: एनं लात्वा-संगा लस्वस्थ-सयत जीव- अजीव-पुण्य-पाप-पाश्रव-संबर-निर्जरा-बन्ध-मोक्ष-स्वरूपस्य व्यायाध्यानं विधाय,पत्र सम्बन्ध षष्ठी। एतत्सर्व संयय विवेकवन्तः संयता: शिवं-मोक्षं लभन्ते-प्राप्नुवन्तीति भावः।
जित्वा । जि-धातुः अये । जि+क्त्वा । ११११ सू० क्ल्वः स्थाने एप्पि इत्यादेशे,१० सू० स्वरस्य लोपे, प्रखझीने परेण संयोज्ये जेप्पि इति भवति । अशेषम अशेष-अम् । २६० स० शकारस्य पकारस्थ च सकारे,१००२ सप्रकारस्य उकारे,१०१५ स.प्रमो लोपे असेस इति भवति । कषायबलम् । कापायबल+मम् । २६० २० षकारस्य सकारे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सूप्रमो लोपे कसायबलु इति भवति । बस्वा । डुदा-[दा]-धातुः वाने । दा+क्त्वा । ११११ सू० क्त्वः स्थाने एपिणु इत्यादेश,१० स० स्वरस्य लोपे,अग्झीने परेण संयोज्ये वेप्पिणु इति भवति । अभयम् । अभय + मम् । १७७. सू० यकारलोपे,१००२ सू० कारस्य उकारे,अमो लोपे अभउ इति भवति । जगतः । जगत् +हुस् । १७७ सू० गकारलोपे, १८० सू० यकारश्रुतौ, ११ सू० तकारलोपे,१००९ सू० खासः स्थाने स्सु इत्यावशे अयस्तु इति भवति । लास्वाला-धातुः पादाने । सा+क्त्वा । प्रस्तुतसूत्रेण क्त्वः स्थाने एवि इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे,अजझीने परेण संयोज्ये लेवि इति भवति । महावतम् । महावत+प्रम् । ८४ सू संयोगे परे हस्वे,१०६९ सू० रेफलोपे,३६० सू० वकारद्वित्त्वे,१७७ सू० तकारलोपे, १५० सू० यकारभुती १०१५ सू० अमो लोपे महत्वप इति भवति । शिवम् । शिव+अम् । २६० सू० शकारस्य सकारे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे सिधु इति भवति । लभन्ते । डुलभष् [लम्] लाभे । लभ् + मन्ते । १८७ सू० भकारस्य हकारे,९१० सू० प्रकाराऽऽगमे,१०५३ सू० अन्ते इत्यस्य हिं इत्यादेशे सहहि इति भवति । ध्यास्था। ये चिन्तायाम् । ध्य+क्त्वा। ६७७ स. ध्य-धातोः स्थाने झा
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चतुर्भपादः
* संस्कृत-हिन्दी-ठोका-द्वयोपेतम् * इत्यादेशे,प्रस्तुतसूत्रेण वरवः स्थाने एविणे इत्यादेशे,बाहु येन १० स० स्वरस्य स्रोपाभावे भारविसा इति भवति । तस्वस्य । तत्त्व-+ उस् । ३५० सू० बकारलोपे,१००९ सू० इसः स्थाने स्सु इत्यादेशे तसस्सु इति भवति । शित्वा जेप्ति,वस्था देप्पिा,लास्था-लेवि,प्यास्थान भाएविणु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण क्रमशः क्रवः स्थाने एप्पि, एप्पिा, एवि, एबिसु इत्यादेशाः संजाताः पुग्योगः इसरार्थः । १११० सूत्रे इ,इज, इवि, अवि इत्येते चत्वार प्रादेशा: पठिताः सन्ति । ११११ सूत्रे एप्पि, एप्पिणु, एवि,एविणु इत्येते चत्वार आदेशाः निर्दिष्टाः वर्तन्ते। एते अष्टावपि आदेशाः क्त्वः स्थाने जायन्ते । यदि क्त्वः स्थाने एव एतेजट प्रादेशाः क्रियन्ते, तहि एकस्मिन्नेव सूत्रे तेषां संग्रहणमुचितमासीत, किमर्थ सूत्रदयस्य निर्माण विहितमिति प्रश्नः । उत्तरयति वृत्तिकारः-पथगयो । पृथक-सूत्रकरणमुत्तरार्थी उत्तरसूत्रमःप्रयोजन यस्य स उत्तरार्थः । १११२ सूत्रेण तुम्प्रत्ययस्य स्थाने एवं, प्रण, प्रणहं, अहिं, एप्यि, एप्पिणु, एवि, एविणु इत्येतेष्ट प्रादेशाः विधीयन्ते । एप्पिप्रभृतीना चतुर्णामादेशानां ११११ सूत्रतोऽनुवर्तनं कृतं, यदि सर्वेषां स्वास्थानीयादेशानामष्टानाम एकस्मिन्नेव सूत्रे विधानं सूत्रकारा अकरिष्यन्, तदा ११११ सूत्रतः त्वः स्थानीयादेशानामष्टानामेव १११२ सत्रे ग्रहणमावश्यकमासीत् इष्टन्तु चतुर्णामेव ग्रहणम्, एनमेवाऽभिप्रायमुपलक्ष्य ११११ सूत्रस्य पृथक् रचना कृता। . १११२-- वासुदुष्करं निजक-धनं कतु न तपः प्रतिभाति ।
__ एवमेव सुखं भोक्तु मनः भोगत' न याति ॥१॥ . भावार्थ:-निजकधनम्, निजमेव निजकं, निजकं च तद् धनं निजकमानम्-स्वकीयधन बासुदुकर कठिनम्,निजसम्पत्तेः दानकरणं न सुकरमित्यर्थः । तथा तपः मत भनो प्रतिभाति-समुत्सहते। तथापि मानसमिद एवमेव-दानतपो बिनैव सुखं भोक्तुमिच्छति, परं किन्तु भोक्तु न याति-समर्थो न भवति । सुखन्तु दानेन, तपसा चैन समुपलभ्यते, एतद्विना सुखप्राप्तिन न सुलभेति भावः ।
दातुम् । इदान-[दा]-धातुः दाने । दातुम् । १११२ सू० तुमः स्थाने एवं इत्यादेशे, १० खू स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये देवं इति भवति । ष्करम् । दुष्कर+सि । ३४० सू०पकारलोपे, ३६० सू० ककारवित्त्वे, १००२ स० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे दुक्का इति भवति । मिन-धनम। निजक-धन+सि । १७७ स० जकारस्य ककारस्य च लोपे, १५० सू० द्वितीयाऽकारस्य यकारभुती, २२८ सू० नकारस्य णकारे, पूर्ववदेव प्रकारस्य उकारे, सेलोपे मिअय-या इति भवति । ११ सूत्रस्य वृत्तिमनुसृत्य धकारस्यादिभुतत्वात् १८७ सूत्रेण हकारो न जातः । कर्तुम् 1 डुकृञ् [क] करणे । कृ+तुम् । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे, प्रस्तुतसत्रेण तुमः स्थाने प्रण इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये करण इति भवति । न । अव्ययपदमिदं संस्कृतव देवापभ्रंशे प्रयुज्यते । तपः । तपस्+सि । १७७ सू० पकारलोये, ११ स० सकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उ. कारे, १०१५ सू० सेर्लोपे त इलि भवति । प्रतिभाति । प्रतिपूर्वकः भान्धातुः रोचने । प्रतिभा+तिन् । १०६९ सू० रेफलोपे, २०६ सू० सकारस्य डकारे, १८७ सू० भकारस्य हकारे, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे परिहा इति भवति । एवमेव एम्वइ, प्रक्रिया १०९१ सूत्रे ज्ञेया। सुखम् सुहु, प्रक्रिया १०४१ सूत्रस्य तृतीयश्लोके जेया। भोक्तुम् । भुज-[भुज-धातुः पालनाऽभ्यवहारयोः । भुज+तुम् । संस्कृतनियमेन भुञ्ज + तुम् इति जाते, प्रस्तुतसूत्रेण तुमः स्थाने अणह इत्यादेशे,अज्झीने परेण संयोज्ये, १०८२ स० उच्चारणलाघवे भुण, इति भवति । मनः- मरणु, प्रक्रिया १०२१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया । परम् .. पर, प्रक्रिया १०८९ सूत्रे ज्ञेया । भोक्तुम् । भुज-[भुज-धातुः पालनाऽभ्यवहारयाः ।
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुषंपादः भुज्+तुम् । संस्कृतनियमेन भुज+तुम् इति जाते,प्रस्तुतसूत्रेणा तुमः स्थाने अणहि इत्यादेशे, अझोंने परेण संयोध्ये, १०५२ सू० उच्चारणलाघवे भुजगहि इति भवति । पाति- माइप्रक्रिया १०२१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया। दातुम् -देव, कतु मकरण, भोक्तुम् = भुजगहें, भोक्तुम् भुमणहिँ इत्यत्र प्रस्तुत-सूत्रेण तुम्-प्रत्ययस्य स्थाने एवं, पण, अणहं, अहि इत्यादेशाः जाताः ।
जेतु स्यक्तु सकलां घरां लातु तपः पालयितुम् ।
बिना शाम्त्या तीर्थेश्वरेण कः शक्नोति भुवनेऽपि ॥२॥ भावार्थ:-तीवरेण, तीर्थ:-चतुर्विश्वसंघः, साधु-साध्वी-धावक-श्राविका-समुदायरूपः तस्य ईश्वरेण-स्वामिना, तीर्थाधिपतिना शान्त्या-शान्तिनाथेम विना समाला-सम्पूर्णा घराम-पथवी ओतु पुनः स्पक्सुमोक्तु, सपो सातम्-ग्रहीतु पालयितु बा त्रिभनेऽपि-त्रिलोकेऽपि कः शनोति ? न कोऽपि समर्थोऽस्ति । अयं भाव चक्रवर्तिशान्तिनाथेन प्रथम पृथिवी जिता, पुनः वैराग्य-वासितान्त:-करणेन तस्याः स्यागो विहितः, पुनश्च तपश्चारब्धम् । सतो वस्तुनः त्यागो दुष्कर एवं भवति । अत एव श्रीदशवकालिकाहरव्ये जैनागमे जैनाचार्यः भण्यते --
एजे प कन्ते पिए भोए, लखे विपिट्टि कुम्वइ ।।
साहोणे या भोए, से हु चाइ सि वुधाइ ।। [दशवकालिकसू० प्र० २] भगवान् शान्तिनाथः त्यागशिरोमणि रासीत् । लोकत्रयेऽपि विश्वकल्याणकरः, अहिंसास्वरूपैः एतैः प्रभुवरी विना एतादृशमद्वितीयं त्यागं कतुन कोऽपि शक्नोतिस्म । अनेन जिनदेवस्य भगवतः शान्तिनाथस्याऽसाधारणाऽस्मशक्तिरासीद, इदमेव प्रकटितं कविना ।
तुम् । जि-धातु। जये । जितुम् । १११२ सू० तुम्प्रत्ययस्य स्थाने एविन इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपें; अज्झीने परेण संयोज्ये जेन्धि इति भवति । त्यक्तुम् । त्यज-[श्य]-धातुः त्यागे । त्य + तुम् । ७५७ सू० यजधातोः स्थाने रचय इत्यादेशे, १७७ सू० यकारलोपे, प्रस्तुतसूत्रेण तुम: स्थाने एप्पिणु इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपेथएप्पिा इति भवति । सकलाम् । सकला+अम् । १७७ सू० ककारलोपे, १५० स० यकारस्य श्रुती, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे सयल इति भवति । धराम् । धरा+अम् । सयलवदेव पर इति साभ्यम् । लातुम् । ला-धातुः पादाने । ला+तुम् । प्रस्तुतसूत्रेण तुमः स्थाने एविणु इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये लेविषु इति भवति । तपः । तपस्। अम् । २३१ स. ५कारस्य वकारे, ११ स. सकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सूऽ प्रमो लोपे तव इति भवति । पालयितुम् । पाल-पाल्-धातुः पालने । पाल+तुम् । प्रस्तुलसूत्रेण तुम्प्रत्ययस्य एवि इत्यादेशे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये पालेषि इति भवति । विमा-विष्णु,प्रक्रिया १०९२ सूत्रे ज्ञेया ! शान्तिमा । शान्ति+टा । २६० सू० शकारस्य सकारे, बाहुल्येन २५ सू० नकारस्थाऽनुस्वाराऽभावे, ८४ स० संयोगे परे ह्रस्वे, १०१४ सू० टास्थानेऽनुस्वारे सन्ति १००१ सू० ३कारस्य एकारे सन्ते इति भवति । तीर्थेश्वरेण । तीर्थेश्वर-+टा । ८४ स० संयोगे परे हस्वे,३५० स० रेफलोपे,३६० स० थकारद्वित्वे,३६१ स. पूर्वथकारस्य सकारे, ३५० सू० वकारलोपे, २६० सू० शकारस्थ सकारे, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य णकारे, स्थानिवत्वात् १००४ सू० प्रका1पश्च कान्तान प्रियान् भोगान्, लम्धान विपृष्ठोकुरुते ।
स्वाधीनान स्थति भोगान, सहि त्यागी इत्युक्यते ॥१॥ २. ७१७ पूर्व "एवं स्यजतेरपि" इति पाठात्। .
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चतुर्थ पोतः
* संस्कृत-हिन्दी-टोलायोपेतम् * रस्थ एकारे तिरसरेण इति भवति । क: को,प्रक्रिया १०६७ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके ज्ञेया । शक्नोतिसक्का , प्रक्रिया ९०१ सूत्रे शेया । भवने । भूवन+डि । २२८ सू० नकारस्य णकारे,१००५ सू० डिना सह अकारस्य एकारे भुवरणे इति भवति । अपि-वि, प्रक्रिया ४५९ सूत्रे ज्ञया । जेसुम् -- जेप्पि, स्वपतुम्य वएप्पिणु,लातुम् लेविणु,पालयितुम् - पालेवि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण तुम्-प्रत्ययस्य स्थाने एप्पि, एप्पिा, एपिणु, एवि च इत्यादेशाः संजाताः । १११३- गत्वा वाराणस्यां नराः, श्य उज्जयिन्यां गत्वा ।
मुताःप्राप्नुवन्ति परमपर्व, दिव्यान्तराणि मा कथय ॥१३ भावार्थ:-वाराणस्या उज्जयिन्याश्च महत्त्वं वर्णयति-ये भरा वाराणस्यां गत्वा, मत्र द्वितीयाऽर्थे सप्तमी वर्तते,वाणारसीं गत्वेत्यर्थः ! प्रथ-अथवा उज्जयिन्यां गत्वा उज्जयनीमधिगम्य मताः पञ्चत्वमुपगताः, ते परमपदम् ---मोक्ष प्राप्नुवन्ति ! प्रतः दिव्यान्सराणि । अन्यानि दिव्यानि,तीर्थान्तराणि मा रुपय । अन्यस्मिन् तीर्थे गमनस्य न काऽप्यावश्यकताऽस्ति, प्रत्युत मरण काले वाराणस्यामुज्जयिन्यां वा गन्तव्यम् । इति श्लोकाऽर्थः, किन्तु नैतत् सत्यम्, यत:--"आचारहीनं न पुनन्ति वेवा:" "शानक्रियाभ्यो मोक्षः" इत्यादिवचनैः सदाचरणशीलः पुरुषः एव स्वहिः, मोक्षाहश्च प्रमाणीकृतः । दुराचारिणः पुरुषाः कुत्रापि पञ्चत्यमुपगच्छेयुः, परं ते न कदापि मोक्षास्ः संभवितु शक्नुवन्ति ।।
गत्वा । गम्लु-[गम् ]-धातुः गतौ । गम्+क्त्वा । ११११ सूः क्त्या स्थाने एप्पिा इत्यादेशे, १९१३ सू० बिकल्पेन एकारलोपे गम्प्पिा इति भवति । बाहुल्येन २५ सू०. मकारस्याऽनुस्वारो न जातः । वाराणस्याम् । वाराणसी+हि। ३८७ सू० रेफणकारयोः व्यत्यये,१००१ सू ईकारस्य इकारे,१०२३ सू० डि-प्रत्ययस्य स्थाने हि इत्यादेशे, १०५२ सू० उच्चारणलाप वारणासहि इति भवति । नराः नर+जस्। १०१५ सू० जसो लोपे नर इति भवति । प्रथ । अव्ययपदमिदम् । १८७ सू० थकारस्य ह. कारे अह इति भवति । उज्जयिन्याम् । उज्जयिनो+कि । १७७ सू० यकारलोपे, उज्जइनी+डि इस्था ५ सू० संस्कृतव्याकरणेन गुणसन्धौ [अकारस्य इकारस्थ च संगमे सति गुणसन्धौ-एकारे जाते], उज्जेनी+डि इति स्थिते.२२८ सू० नकारस्थ णकारे,१००१ सू० ईकारस्य इकारे, १०२३ सू० वि-प्रत्ययस्य हि इत्यादेशे,१०८२ सू० उच्चारणलाधवे उज्जेणिहि इति भवति । गत्वा । गम्ल-[गम्]-वातुः गतो । गम् + क्त्वा । ११११ सू० क्त्वः स्थाने विकल्पेन एप्पि इत्यादेशे, १११३ सू० एकारलोपे पम्पि इति भवति । यत्रापि बाहुल्येन २५ सू० मकारस्थाऽनुस्वारो न जातः । मृताः। मृत जस । १३१ सू० ऋकारस्य उकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १००१ सू० मकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० जसो लोपे मुना इति भवति । प्राप्नुवन्ति । प्र-पूर्वकः प्रापल-(प्रा)-धातुः प्रापणे। प्र-माप + प्रति । अपभ्रंशे 'प्र इत्यस्य परा इत्यादेशो जायते, ५ सू० दीर्घसन्धौ, पराप् + अन्ति इति जाते, ९१० स० अकारागमे, २३१ सू० द्वितीय-पकारस्य वकारे, १०५३ सू० अन्तेः स्थाने हिं इत्यादेशे, १०८२ सू० उच्चारणलाधवे परावहि इति भवति । परमपरम् । परमपद+मम् । १७७ सू० दकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे परमपलं इति भवति । विग्यान्सरामि । दिव्यान्तर+अस् । ३४९ सू० यकारलोपे, ३६० सू० वकारद्वित्त्वे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १०२४ सू० जसः स्थाने है इत्यादेशे विस्वन्तराई इति भवति । मा। अध्ययपदमिदम् । १००० सू० प्राकारस्य प्रकारे म इति भवति । कथय । कथि-[कथ्]-धातुः जल्पने। कथ्-+-णि+हि। ६७३ सू० कक्षातीः स्थाने जम्प इ. स्यादेशे, ६३५ सू० णिगः स्थाने प्रकारे, ६४२ सू० आदेरफारस्य प्राकारे, २४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,
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३६०
★ प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्षपादः
१० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १०५० सू० हि इत्यस्य इकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे झीने परेण संयोज्ये पि इति भवति । गत्वागपिणु, गरबा गम्प्पि इत्यत्र एम्पि, एपि atruatterer कल्पिको लोपो जातः । पक्षं । प्रस्तुतसूत्रस्य प्रवृस्थभावपक्ष इत्यर्थः । गङ्गां गत्वा यः म्रियते यः शिवतीर्थं गत्वा । क्रीडति त्रिवशवासगतः स यमलोकं चित्वा ||२||
भावार्थ:- गङ्गायाः शिवालयस्य च माहात्म्यं व्याकुरुते यः पङ्गां गत्वा प्राप्य त्रियते तथा row शिवतीर्थ, शिवस्य तीर्थ - शिवालयं काशीं वा गत्वा श्रियते स यम- लोकम् ग्रमस्य लोक: नरकलोकां तं जित्वा विजित्य विवशावासगतः, त्रिदशानां देवानामावासः स्थानं स्वर्गः तत्र गतः - सम्प्राप्तः, स त्रिदशाssवासगतः सन् क्रीडति स्वर्गे सानन्दं निवसति । इति इलोकार्थ किन्तु नाड्यं वास्तविकोsर्थः यतः स्थानविशेषेषु गतानां नराणां न पापविमुक्तिर्जायते, मुक्तिस्तु पापकर्माणि भुक्त्वं परियafe च भवति, नान्यथा । उक्तश्व जैनागमे—
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उबग जे सिद्धिमुदाहरन्ति सायं च पार्थ उबगं फुसरता । उस फासे सिया व सिद्धी सिम्सुवाणा बहवा वर्गसि ।। १४ ।। मच्छाय कुम्भा व सिरोसिया व मग्गू य उट्ठा वारसा य । अट्टणमेयं कुसला वयन्ति जब ये सिद्धिमुदाहरन्ति ॥ १५ ॥ ॥ उप जइ कम्ममलं हरेजा एवं सुहं इच्छामि तमेव । नेथारमसरिता पारणारण सेवं विहित मंदा || १६ || पावाई हो। fer or deeघाई मुसं वयन्ते जल सिद्धिमा ||१७||
सूत्रकृताङ्गसूत्र ०७
गङ्गाम् । गङ्गा+घम् । १००१ सू० श्राकारस्य स्थाने प्रकारे १०१५ सू० मोलोङ्ग इति भवति । गश्वा । गम्लु [ गम् ] - धातुः गतौ । गम् + क्त्वा । ११११ सू० क्त्व: स्थाने एप्पिणु वादेशे वैकल्पिकवत् १११३ सू० एकारस्य लोपाभावे, प्रज्झीने परेण संयोज्ये गमेपिशु इति भवति ।
जो प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य चतुर्थरलोके शेया । भियते । मुङ् [[ ] धातुः प्राणत्यागे । मृते । १३१ सू० ऋकारस्य उकारे, ४३५ सु० स्वार्थे कप्रत्यये, १७७ सू० ककारस्य लोपे, ६२० सू० से त्यस्थ वादे सुअर इति भवति बाहुल्ये मात्र १० सूत्रस्य प्रवृत्ति जाता । शिवतीर्थम् । शिवतीर्थं +मम् । २६० सू० शकारस्य सकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्ये, ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० थकारद्विस्वें,
सिदिन्ति सायकच प्रातदकं स्पृशन्त ।
उदकस्य स्पर्धात स्माथि सिध्येयुः प्राणाः वह उदके ॥११४॥ मत्स्याश्च कूर्माश्व खरीपापथ मद्गनश्योष्ट्रा उदक राक्षसाच पाव दस्युदकेन विदिमुदाहरन्ति ।।१५।। उदक मंदि *मंमल देवं गुमनामात्रमेव । difee tarengeय प्राणिनश्चैवं विभिनन्ति मन्वाः ॥ १६३॥ पापानि कर्माणि प्रकुर्वer fह शोतोदकन्तु विभातिनो मृतं वदन्ति
यदि सतुः । सिद्धिमा ॥१७॥
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पादः
संस्कृत-हिन्दी टीकादयोपेतम्
३६१
३६१ सू० पूर्वकारस्य तकारे, १०१५ सू० श्रमो लोपे नित्य इति भवति । गत्वा । गम्लु- [गम्]धातुः गतौ ! गम + क्त्वा । १९१९ स्थाने दित्यादेशे वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुतसूत्रेण एकारस्य लोपाभावे, ग्रीने परेण संयोज्य गमेधि इति भवति । क्रीडति । कोड-धातुः क्रीडायाम् । क्रोड् + ति । १०६९ सू० रेफलोपे, ९१० सू० प्रकारागमे २०२ सू० इकारस्य लकारे, ६२८ सू० तिव: स्थाने वादेशे, ९४५ सू० इच: स्थाने दि इत्यादेशे कील इति भवति । विशवास गतः । श्रदशाबासनगत+सि । १०६९ सू० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे १७७ सृ० प्रन्त्यन्नकारलोपे, बाहुयेनात्र १८० सूत्रस्थ प्रवृत्तिनं जाता, ततः १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेप दिसावा सग इति भवति । सः :सो, प्रक्रिया ११०९ सूत्रस्य तृतीयलोके शेया यमलोकम् । यमलोक + श्रम् इत्यत्र २४५ सू० यकारस्य जकारे, १७७ सू० ककारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५. सू० लपे जमलो इति भवति । जित्वा जि-धातुः जये । जि+क्वा । ९१२ सू० णकारागमे, ११११ सू० क्व: स्थाने एप्पि इत्यादेशे वैकल्पिकत्वात् प्रस्तुतसूत्रस्यावृत्ती १० सू० स्वरस्य लोपे प्रज्भीने परेण संयोज्ये जिरोपि इति भवति । गरवा गमेपिरणु, गरबा गम्पि, ब्रिस्वा जिरोपि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रस्य वैकल्पिकत्वात् एप्प, एप्पि इत्यादेशयोरेकारस्य लोपो न जातः ।
4
१११४ - हस्तो मारमिता, लोकः कथयिता, पटहः वादयिता, शुनकः भषिता ।
भावार्थ:- हस्त्यादि स्वभाव-मुखेन कस्यचन दयालुपुरुषस्य स्वभावेन पीडित जनं प्रति सा नावाक्यमाह । यदयं दुष्टस्त्वां चेद् दुःखी करोति तथापि त्वया शान्तेः परित्यागां न विधेयः । दुष्टानां स्वाभाव एवं पर पोडनमतस्त्वं मा दुष्टमाचर । यथा-लोक: जनसमुदायः कविता-कथनशीलों म ति । पट:- वाद्यविशेषः, वावविता-वादनशीलो भवति एवमेत्र दुष्टानामपि परपीडनस्य स्वभावो बोध्यः । हस्ती गजः मारविता-मारणशीलो भवति, शुनकः- कुक्कुरः भविता-भषणशीलो भवति ।
हस्ती । हस्तिन्+सि । ३१६ सू० स्तस्य थकारे, ३६० सू० थकार द्विवे, ३६१ सू० पूर्वकार स्य तकारे, ११ सू० नकारलोपे, १०१५ सू० सेलॉप हरिथ इति भवति । मारयिता । मृङ् [मृ] बालुः प्राणस्वागे । मृ + णिग्+ तृन् । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादेशे ६३८ सू० गि: स्थाने प्रकारे, ६४२ सू० श्रादेकारस्य श्राकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे, श्रज्झाने वरेण सं ज्ये, १९९४ सू० तन्- त्ययस्य प्रणम इत्यादेशे मार+प्रणय इति जाते, १० सू० स्वरस्य लोपे, श्रभीने परेण सयाज्ये, सिप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोंप मारण इति भवति । लोकः लोड, प्रक्रिया १०३७ सूत्र ज्ञेया ! कथयिता । कथि धातुः जल्पने । कथि + तुन् । ६७३ सू० कविधातो: स्थाने बोल्ल इत्यादेश १९१४ सू० तृत्-प्रत्ययस्य प्रणश्र इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, सिप्रत्यये १००२० म कारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलोपे बोल्लट इति भवति । पटहः । पटह्+सि । १९५ सू० टकारस्य डकारे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, सेलोंपे पडडू इति भवति । वावयिता । वद्-धातुः व्यक्तायां याचि । वद् + णिग् + तृन् । ८९५ सू० दकारस्य द्विक्ते जकारे, ६३८ सू० गिग: अकारे बज्ज + अ + सून्, इति जाते, ६४२ सू० श्राकारस्य श्राकारे ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे १० सू० स्वरस्य लोपे, झोपरेण संयोज्ये, प्रस्तुतसूत्रेण तृनः स्थाने प्रणय इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झोने परेण संयोज्ये बोलण उ वदेत्र वज्रगड इति भवति । शुनकः । शुनक+सि । २६० सू० शकारस्य सकारे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १७७ सू० ककारस्य लोपे १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपि सुरगड इति भवति । भविता । भष - [ भष् ] धातुः भषसे । भष् + तुन् । ११० सू० प्रकाराझामे, २६० सू०
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अनुकंपादः पकारस्य स्थाने सकारे, प्रस्तुत-सूत्रेण तुन्प्रत्ययस्य स्थाने अणार इत्यादेशे, १० स० स्वरस्य लोपे, भ
झीने परेण संयोज्ये, १००२ सु. अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेपि भसाड इति भवति । मारयितामारण उ, कविता कोल्लणउ, चावयिता- वज्जण, भषिता भसणउ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेणतृन्-प्रत्ययस्थ स्थाने अणम इत्यादेशो जातः।
* अथ प्रत्ययों से सम्बन्धित विधि* वह अक्षर या शब्द जो किसी धातु या शब्द के अन्त में संज्ञापद या क्रियापद आदि पदों के बनाने के लिए जोड़ा जाता है, उस को प्रत्यय कहते हैं । अपभ्रंशभाषा में प्रत्ययों से सम्बन्धित जो विधिविधान पाया जाता है, अब उस का निरूपण किया जा रहा है
१६-अपभ्रंश भाषा में पुनर और बिना इन दोनों अन्यप्रपदों से प्रागे 'ड[उ]' यह प्रत्यय होता है। जैसे- स्मयते तद पल्लमक, यद् विस्मयते मनाए ।
यस्मिन पुनः स्मरणं जातं, पतं तस्य स्नेहस्य कि नाम ॥१॥ मर्थात जो प्रिय वस्तु होती है, उसी का स्मरण किया जाता है, जो कभी विस्मृत हो जाए, बह प्रिय वस्त नहीं होती? विस्मत कर देने के अनन्तर जिसका स्मरण किया जाए उस वस्तु के स्नेह का कोई मूल्य नहीं है। प्रति वास्तविक स्नेह वही है जो सदा स्मरण रहे। यहां पर पठित 'पुनर्' इस अव्ययपद से []' प्रत्यय करके 'पुणु यह रूप बनाया गया है। बिना का उदाहरण इस प्रकार है-बिना मुझेन न बलामहे - विगु जुज्झ न बलाहुं युद्ध के बिना नहीं लौटते हैं] । यहां पर पठित विना' इस अध्ययपद से '[3] यह प्रत्यय करके विणु' यह रूप बनाया गया है।
१०९८-अपभ्रंश-भाषा में 'अवश्यम्' इस शब्द से आगे [ए] पोर - [भ] ये दो प्रत्यय किए जाते हैं। जैसे मिश्रियं मायकं कशे कुक्त यस्य अधीनानि अन्यानि ।
मूले विनम्टे तुम्हिन्याः प्रवनय शुरुकारिण पनि ॥१॥ अर्यात-जिस व्यक्ति के रसनेन्द्रिय अधीन होती है, उसके अन्य सब इन्द्रियां अधीन हो जाती है। अतः सब इन्द्रियों के नायक (प्रधान] जिहन्द्रिय रसना को वश में करो। जैसे-तुम्बिनी [तुम्बी] के मूल का नाश हो जाने पर उसके पत्र अवश्य ही सूख जाते हैं, ऐसे ही रसनेन्द्रिय' के वश हो जाने पर शेष इन्द्रिय वश में प्रा जाती हैं। यहां पर प्रस्तुत सूत्र से अवश्यम् प्रवसे इस पद से [८] यह प्रत्यय किया गया है। -प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार है-अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायाम्-- बसन सुमहिं सुहच्छिमहि [अवश्य ही के सुखशय्या पर नहीं सोते हैं] यहां पर पठित अवश्यम्-प्रबस इस पद से [अ] यह प्रत्यय किया गया है। . १0६-अपभ्रंश-भाषा में एकशः इस शब्द से परे स्वार्थ में जि-प्रत्यय होता है। जैसे
एकशः शोल-कलङ्कितामा बीयन्ते प्रायश्चित्तानि।
यः पुनः खण्यति अमुविवसं तस्य प्रायश्विसन किम् ?।१। अर्थात-जिन्होंने एक बार शील को कलङ्किकत किया हो,उन्हें प्रायसिचत्त दिये जाते हैं,परन्तु को प्रतिदिन शील को खण्डित करता है, उसको प्रायश्चित्त देने से क्श लाभ हो सकता है ? यहाँ पर पठित एकश: एक्कसि, इस शब्द से डि-[5] प्रत्यय किया गया है।
११००--अपभ्रंश-भाषा में नाम [प्रातिपदिक] से परे स्वार्थ में अ, (अड) और दुल्ल (उल्ल)
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चतुर्थपादा
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
३६३
ये तीन प्रत्यय होते हैं, और इन का सनियोग [सान्निध्य ] होने पर स्वार्थ में किए गए कप्रत्यय का लोप हो जाता है। ध्यान रहे, यदि क-प्रत्यय की अवस्थिति हो तभी उस का लोप होता है, अन्यथा नहीं । श्रर्थात् म और आदि प्रत्यय तो कप्रत्यय के प्रभाव में भी होते हैं। जैसेविरहानल- ज्वाला-करालितः पथिकः पथि यद् [यदा ]] दृष्टः । तद् [ तथा ] मिलित्वा सर्वोः पथिकः स एव कृतः अग्निष्ठः । १।।
अर्थात् -- अन्य पथिकों ने त्रियोग रूपी श्रग्नि की ज्वालायों से दग्ध पथिक को जब पथ (मार्ग) में देखा, तो सब पथिकों ने मिल कर उसका वहीं अग्नि-संस्कार कर दिया। भाव यह है कि विरहाग्नि जन्य वेदना जब अपनी चरम सीमा पार कर जाती है तब विरही व्यक्ति के प्राणों को भी लूट लेती है। यहां पर पति१लिक विराग कालिमन्ड २ दृष्टःदिट्ठउ, ३- पाथै: पन्थिमहि ४ कृतः किन उ, ५- अग्निः श्रग्गिदुउ इन पदों में करालित मादि शब्दों से स्वार्थ में अ- प्रत्यय किया गया है। -प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार है-मम कान्तस्य द्री दोषी - महु कन्तहो वे दोनदा [मेरे पीतम के दो दोष हैं ] यहां पर पठित्र दोषी -दोसडा, इस दोष पद में - [ ] - प्रत्यय किया गया है। खुल्ल-प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार है- एका कुटी पञ्चभिः एक्क कुल्ली पञ्चहिँ रुद्धी [ एक कुटिया पांच जनों ने रोक रखी है ] यहां पर कुटी =कुडल्ली, इस शब्द से हल - (उल्ल) - प्रत्यय किया गया है ।
११०१ - अपभ्रंश भाषा में -१ - २ (अ), और ३-डुल्ल (उल्ल) इन प्रत्ययों के योगभेद [ योग मेल का भेद भिन्नता अर्थात् प्रत्ययों का भिन्न-भिन्न प्रकार से मेल करने ] से जो '' मादि प्रत्यय बन सकते हैं, वे भी प्रायः स्वार्थ में होते हैं । जैसे-१-अ का उदाहरण enteen a garerत्मीयम् = फोडेनि जे हिघड अप्पण [ जो सपने हृदय की फोड़ डालते हैं ] यहां पर पति- हृवयम् से दध [य] प्रत्यक्ष करके हि [हृदय को ] यह रूप बनाया गया है। यहां पर २६९ सूत्र के द्वारा हृदय शब्द के सस्वर वकार का लोप किया गया है। २ - बुल्लअ [ डुल्ल और इन दो प्रत्यर्थी के योग-मिलाप से बना हुआ प्रत्यय ] का उदाहरण इस प्रकार है-टकः चूर्णी भवति स्वयम् ल चुन्नीहोइ सइ [चूडा स्वयं चूर-चूर हो रहा है ] यहां पर पठित : इससे अ [] यह प्रत्यय करके 'हुल्लड' यह रूप बनाया गया है। [दुल्ल-बल्ल और डड प्रड इन दो प्रत्ययों के संयोग से बने] प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार हैस्वामी प्रसाद सलणं प्रियं सोमा सन्धी वासम् ।
ड
प्रेer arga rat मुम्चति निःश्वासम् ||१||
अर्थात्- नायिका के पति पर उस के स्वामी का प्रसाद है, पूर्ण अनुग्रह है, नायिका पति सलज्ज [लज्जा वाला] भी है, लज्जावश ही अपने स्वामी के प्रदेश का पालन करने से कभी वह मन नहीं राता, वह देश की सीमा पर निवास कर रहा है, उसे देश का पहरेदार बनने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है, उसकी भुजायों में श्रदम्य वल है, युद्ध करने को विलक्षण क्षमता है, इसी क्षमता के कारण वह युद्धार्थ सदा उत्सुक भी रहता है, नायिका के पति के भले ही ये [स्वामिप्रसाद मादि ] गुण हैं, परन्तु नायिका के लिए ये गुण वियोग का कारण बन रहे हैं। इसी लिए नायिका अपने नायक की यह गुणसम्पदा देखकर निःश्वास ले रही है, ग्राहें भर रही है। यहां पर पठित- 'बाहुबलम्' इस शब्द से लडड [उल्ल ड] प्रत्यय करके 'बाहुबलुल्लडा' यह रूप बनाया गया है। यहां पर अम्प्रत्यय
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३६४
★ प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्थपादा
होने पर १००१ सूत्र से प्रकार को दीर्घ किया गया है। इसी प्रकार बाहुबलम् बाहुबलुल्लडउ [भुजा का बल ] यह रूप बनता है। यहां पर -१ हुल [ उश्ल] २ ३ इन तीन प्रत्ययों का योग [मेल ] पाया जाता है। अर्थात् यहां पर बाहुबल-शब्द से बुल्ल-ड- प्र [उल्ल श्रड-उल्लड ] ये तीन प्रत्यय करके बाल इस रूप की निष्पत्ति की गई है।
[]
११०२-- अपभ्रंश भाषा में, स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान विद्यमान प्राक्तन [ पहले ] सूत्रोक्त [ दो सूत्रों द्वारा उक्त ] प्रत्ययान्त (प्राय है अन्त में जिस के शब्दों से अर्थात् - ११०० वे सूत्र से प्रतिपा दित अ, ड, और डुल्ल इन तीन प्रत्ययों वाले तथा ११०१ वें सूत्र से उक्त डड, डुल्ल-अ, डुल्ल-अय तथा डुल्ल-ड-अ इन प्रत्ययों वाले शब्दों से स्त्रीलिङ्ग में डी-प्रत्यय होता है । जैसे - पथिक ! दृष्टा गोरो ? दृष्टा मार्ग पश्यन्ती । अव चुकमा शुष्कं कुर्वन्ती || १ || विका] की देवा का उत्तर देते हुए उसने कहा- हा देखा है, वह मार्ग देख रही थी, मांसूत्रों से भरने क [श्रंगिया ] को भाई बना रही थी मोर साथ ही गरम उच्छ्वासों [माहों] द्वारा उसे सुखा भी रही थी। यहां पर पठित गौरी-गोगोरडी [गौर वर्ण वाली मारी ] इस पद में उड-प्रत्यय से धाने डी- [ई] अत्यय किया गया है। गुल-प्रत्यय से किए गए डी-प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार है - एका कुटी पञ्चभिः रुद्धा एक्क कुदुल्ली पहिं रुखो [एक कुटिन पांचों ने रोक रखी है] यहां पर पठित कुटी कुडुल्ल = कुडुल्ली [कुटिया] इस पद में डुल्ल-प्रत्यय से डी-प्रत्यय किया गया है।
अर्थात्-हे पथिक तू गौरी
was
११०३ - अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान [विद्यमान] "अप्रत्ययान्त वाले प्रत्ययान्त शब्द से परे डा प्रत्यय होता है। यह ११०२ सूत्र से होने वाले डी-प्रत्यय का अपवाद सूत्र है । जैसेयि आयातः श्रुता वार्ताf, soft: करणे प्रविष्टा । तस्य विरहस्य मइयतः धूलिरपि न हृष्टा ॥१॥
अर्थात् प्रीतम श्रागए हैं, यह बात सुनी, प्रीतम के आने की व्वति [आवाज ] जब कानों में पंडी, तब नष्ट होते हुए विरह की वृति भी दिखाई नहीं दी। यहां पर पठित वृलिः घुलउम्र धूलfor [r] इस पद में प्रत्ययान्त [] वाले प्रत्ययान्त [जिस के अन्त में प्रत्यय हो ] धूलडअ इस शब्द से डा प्रत्यय करके लडिया यह रूप बनाया गया है ।
११०४ - अपभ्रंश भाषा में, स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान नाम प्रातिपदिक का जो प्रकार है, उसको आकार प्रत्यय परे होने पर दकार होता है । जैसे- धूसिरप न दृष्टा = घुलडिया बिन दिट्ठ [ बुलि भी दिखाई नहीं दी ] यहां पर आकार [डा ] प्रत्यय परे होने पर धूल घुलड +था+सिंइस पद में कार के स्थान में इकार करके "धूलडिओ" यह रूप बनाया गया है। ध्यान रहे कि यह प्रकार के स्थान में होने वाला इकारादेश स्त्रीलिङ्ग में ही होता है, अन्यत्र नहीं । जैसे ध्वनिः करणं प्रविष्टा झुणि * जिस प्रत्यय के अन्त में प्रत्यय हो उसे प्र-प्रत्यय प्रत्यय कहते कहते हैं। जैसे—४४ - यह प्रत्यय है, इसके अन्य में प्रत्यव है, पत: यह प्रत्ययान्तप्रत्यय समझना चाहिए तथा जिस शब्द के अन्त में प्रत्ययान्त वाला प्रत्यय हो वह शब्द त्यात प्रत्ययान्त कहलाता है। जैसे धूलि धूल +धा+सि इस प्रक्रिया से धूल-सा यह शब्द बनता है । शब्द के अन्त में घप्रत्ययान्स वाला प्रत्यय [ कब-म ] दृष्टिगोचर हो रहा है, मतः लटिया यह शब्द - प्रत्यगान्त प्रत्ययान्त जानना चाहिए।
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★ संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्वयोपेतम् ★
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horss पट्ट [नि कानों में प्रवृष्ट हुई ] यहां पर स्त्री-लिङ्गी शब्द न होने से कर कृष्णड + कि, इस पद प्रकार को इकारादेश नहीं हो सका। कण्ण शब्द की प्रक्रिया इस प्रकार है -कर। कर्ण + ङि । यहां पर ३५० सूत्र से रेफतोप ३६० वें सूत्र से णकारद्वित्व, ११०१ सूत्र से डम[s] - प्रत्यय होता है । तत्पश्चात् डित्-प्रत्यय परवर्ती होने से मन्त्यस्वरादि वर्ण [णकारगत अकार ] का लोप, अज्झौन व्यजन में स्वर का संगम तथा १००५ वें सूत्र से डिप्रत्यय के साथ प्रकार की इकारादेश हो जाने पर कण्णबह यह रूप सिद्ध होता है। वैसे कण्डम + डि यहां पर प्रकार से
.
परे श्राकार प्रत्यय का अभाव होने से प्रस्तुत सूत्र की प्राप्ति ही नहीं है । तथापि वृत्तिकार ने इस उदाहरण का क्यों उल्लेख किया है ? यह विचारकों को विचार करना चाहिए ।
११०५ - प्रपत्र - भाषा में युष्मद् भादि शब्दों से परे प्राए ईय-प्रत्यय के स्थान में बार (भार) यह आदेश होता है। जैसे
सम्वेशेन fr greatयेन यत्संगध्य न मिल्यते ? ।
स्वाऽन्तरे पीतेन पानीयेन, प्रिय ! पिपासा कि छिते ||१||
——
अर्थात् है प्रिय पतिदेव ! तुम्हारे सन्देश से क्या लाभ ? क्योंकि तुम संगमार्थ तो कभी मि लते ही नहीं हो । भला स्वप्न में किए जाने वाले जल पान से क्या पिपासा [प्यास ] शान्त हो सकती है ? यहां पर पठित युष्मोयेन तुहारेण [तुम्हारे ] इस पद में युष्मद-शब्द सम्बन्धी 'ई' - प्रत्यय के स्थान 'डार' यह प्रादेश किया गया है। २ पर अस्मदीयं कान्तम् दिक्वि श्रम्हारा कन्तु [हमारे कान्त [प्रिय ] को देखो ] यहां पर पठित-अस्मदीयम् श्रम्हारा [हमारे] इस पद में अस्मद्-शब्द के ई-प्रत्यय के स्थान में 'बार' यह आदेश किया गया है। ३-भगिनि ! अस्मदीयः कान्तः बहिणि ! म हारा कन्तु [बहिन ! हमारा कान्त प्रीतम ] यहां पर पठित अस्मदीयः महारा [ हमारा ] इस पद में मदद के प्रत्यय को 'डार' यह प्रादेश किया गया है।
=
=
त्यंथ
११०६-- अपभ्रंश भाषा में इवम्, क्रिम्, यद्, तद् और एतद् इन पांच शब्दों से प्राए अतु-प्रस्थान में डेल [ एतुल] यह आदेश होता है। जैसे -१ इयान् = एतुलो [ इतना ], २किमान केलो [कितना ] ३ यावान् जेतुलो [जितना ] ४ - सामान्तेत्तुलो [ उतना ], ५– एतावान् = एतुली [ इतना ] यहां पर पठित १ - इदम् + ऋतुएतुलो, २ किम् + ऋतु = केतुलो, ३ - यष् + डाव = जेतुलो, ४- तद् + डातु-तेत्तुलो, श्रीर ४- एतद् + डावतु = एतुलो इन पदों में
-
प्रत्यय के स्थान में प्रस्तुतसूत्र से डेल प्रादेश किया गया है। प्रत्यय-प्रहले तदन्तस्याऽपि ग्रहणम् [प्रत्यय का ग्रहण करने पर, वह प्रत्यय जिस के अन्त में हो उस प्रत्यय का भी ग्रहण कर लिया जाता है] इस परिभाषा के प्राधार पर अतु-प्रत्यय कहने से डाव इस प्रत्यय का भी ग्रहण कर लिया जाता है। इसी लिए पादान, तावान् तथा एतावान् इन शब्दों के डावतु प्रत्यय को भी प्रस्तुत सूत्र से खेल ल यह आदेश किया गया है ।
११०७ - प्रपत्र श- भाषा में सर्व प्रादि शब्दों से सप्तम्यन्त अर्थ में विहित त्र प्रत्यय के स्थान में उत्त [एस] यह श्रादेश होता है । जैसे—
अत्र तत्र द्वारे गृहे लक्ष्मीः विसंष्ठुला धावति ।
प्रिय प्रनष्टेव गौरी निश्चला कस्मिन्नपि न तिष्ठति ||१||
अर्थात - विसंष्ठुल चंचल लक्ष्मी यहां, वहां द्वारों और घरों में भ्रमण करतो रहती है। जसे
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★ प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादा
प्रिय [प्रीतम ] से भ्रष्ट [ च्युत या परित्यक्त ] गौरी [गोरे वर्ण वाली नारी] कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती, वंसी ही स्थिति लक्ष्मी की दृष्टिगोचर हो रही है। यहां पर पठित--अ = एतहें [ गां पर ] तथा सतेत [वहां पर ], इन पदों में सप्तम्यन्तार्थ [सप्तम्यन्त है अर्थ जिस का] - प्रत्यय के स्थान में डे हे [एस] यह आदेश किया गया है।
११०८ -- प्रपभ्रंश भाषा में त्व और तल इन प्रत्ययों के स्थान में 'पण' यह प्रादेश होता है । जैसे- बृहत्त्वं परिप्राप्यते वष्णु परिपाविस [उस से महत्त्व प्राप्त किया जाता है] यहां पर पठित बृहत्त्रम् बहुप [महत्वम्] इस पद में त्व-प्रत्यय के स्थान में 'पण' यह प्रादेश किया गया है । प्रस्तुत सूत्र में १००० वे सूत्र से 'प्राय:' इस पद का अधिकार श्री रहा है। प्रायः का अर्थ है - * बहुल | ग्रतः कहीं-कहीं पर स्व-प्रत्यय को 'पण' यह आदेश नहीं भी होता । जैसे बहत्वस्य कृते = बहुत हो तरोण [महत्व के लिए ] यहां पर पठितत्व-प्रत्यय को 'पण' यह आदेश नहीं हो सका । ११०६-- अपभ्रंश भाषा में तथ्य-प्रत्यय के स्थान में इएम्बर एव्बउं और एवा ये तीन प्रादेश होते हैं । जैसे-एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रियः उद्वार्यते । मम कर्तव्यं किमपि नाऽपि मर्तव्यं परं दीयते ॥१॥
अर्थात् रजत और सुवर्ण ग्रादि धन सम्पदा ले कर यदि मैं प्रिय का त्याग कर दूँ, तो मरने के अतिरिक्त, मेरा कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रह जाता क्योंकि नारीजीवन में पति ही सर्वस्व होता. है । पतिविहीन जीवन प्रर्वथा विस्तार होता है। यहां पर कर्तव्यम् करिएग्नउँ [करने बोग्य कार्य], मर्तव्यम् = मरिएब्बउँ [ मरना चाहिए, मरण] इन पदों में तयत्-प्रत्यय के स्थान में 'इए' यह आदेश किया गया है 'एच' का उदाहरण इस प्रकार है
carrated fafanथनं धनकुट्टनं यत् लोके ।
मंजिष्ठया अतिरक्तया सर्व सोढव्यं भवति ॥ २॥
अर्थात्- देश से उच्चाटन पृथक होना, जड़मूल से उखाड़ा जाना, तत्पश्चात् क्वाथ के रूप में अग्नि पर उबाला जाना तथा हथौड़ों से कटा जाना, ये सब के सब संकट संसार में अत्यधिक रागरंगवाली मजीठ [ एक लता जिस की जड़ों और डंठलों को उबाल कर तथा कूट कर लाल रंग निकाला जाता है] को सहन करने पडते हैं। राय [रंग] की अधिकता जैसे मञ्जिष्ठ के लिए सकटदायिका होती हैं, वैसे राग [महाविक्य] करने वाले मनुष्य को भी भीषण संकट सहन करने पड़ते हैं। यहां पर पठित सोढव्यम् - सहेब [सहन करने योग्य ], इस पद में तव्यत्-प्रत्यय के स्थान में 'एब" यह श्रादेश किया गया है। 'एवा' का उदाहरण
afrai परं वारितं पुष्पवतीभिः समम् ।
जागरितव्यं पुनः को धरति यदि स वेदः प्रमाणम् ||३||
•अर्थात् ऋतुमती - रजस्वला नारियों के साथ रात्रि को शयन संगम करना निषिद्ध है। यह वातः यदि वेदशास्त्र धर्मशास्त्र से प्रमाणित मानते हैं तो जागृत दशा [दिन] में रजस्वला नारी के साथ किए जाने वाले संगम को कैसे शास्त्र सम्मत माना जा सकता है ? यहां पर पठित १ स्थपितव्यम् -सोएबा [शयन करना चाहिए, या शयन] तथा २ जागरितव्यम् जग्गेवा [जागना चाहिए, जागृत दशा में] इन पदों के तथ्यत् प्रत्यय के स्थान में 'एवा' यह श्रादेश किया गया है।
* शब्द के अर्थ के लिए देखो प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम खण्ड का चतुर्थ पृष्ठ
(0921
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पाद:
★ संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्वयोपेतम् ★
૬૭
१११० - अपभ्रंश भाषा में क्त्वा प्रत्यय के स्थान में इ इ इवि और अवि ये चार प्रादेश किए जाते हैं। इ इस प्रदेश का उदाहरण इस प्रकार है
हृदय ! यदि वैरिणी घनाः, ततः किम आरोहामः ? | Here at हस्तौ यदि पुनः मारयित्वा प्रियामहे ॥१॥
अर्थात हे हृदय ! यदि वैरी [शत्रु ] अधिक हैं, बहुत ज्यादा हैं तो क्या हम प्रकाश पर चढ जाएं, हमारे भी तो दो हाथ हैं, मतः हम उन को मार कर हो मरेंगे। यहां पर पठित-मारयित्वा मारि [मार कर ] इस पद में क्त्वा प्रत्यय के स्थान में 'इ' का आदेश किया गया है। 'इउ' का उदाहरण इस प्रकार है- गजटाः भङ्क्त्वा यान्ति गयघड भजिउ जन्ति [ हाथियों के समूह को भेद करके जाते हैं] यहां पर पठित भक्त्वा भजिउ [भेद करके] इस में क्त्वा प्रत्यय के स्थान में 'इ' यह प्रदेश किया किया गया है। 'इस' को उदाहरण इस प्रकार है
राति सा विषहारिणी हो करो चुम्बित्वा जीवम् ।
प्रतिविम्बित- मुजालं जलं याभ्यामनवगाहितं पीतम् ||२||
अर्थात - विषहारिणी [पनिहारिणी] महिला अपने हाथों को चूम-चूम कर अपने जीवन का संरक्षण कर रही है। हाथों से हो वह उस जल का पान करती है, जिस में किसी ने स्नान नहीं किया तथा जिस में मुज प्रतिबिम्बित हो रही है। इस तरह हाथों द्वारा अपने जीवन की समस्त समस्यात्रों को समाहित कर लेने के कारण ही वह अपने हाथों को चूमती रहती है, हाथों को उपकारिता के लिए उनको स्नेह प्रदान करती है। यहां पर पठित चुम्बित्वा = चुम्बिवि [चूम कर, चुम्बन लेकर ] इस पद में प्रत्यय के स्थान में 'इवि' यह प्रादेश किया गया है। अधि का उदाहरण इस प्रकार हैबाहू स्याजयित्वा याहि त्वं भवतु तथा को दोष ? |
हृदये स्थितः यदि निःसरति जानामि मुञ्ज ! सरोषः ||३||
अर्थात् - हे मुञ्ज ! यदि तु बाहु [भुजा ] छुड़ा कर जाता है, तो भले ही चला जा, परन्तु यदि हृदय से भो तू निकल जाए तो मैं समझ कि तू सरोष है, रोषयुक्त है। यहां पर पठित-त्याजयिवा विछोडfa [छुडा करके] इस पद में कत्था के स्थान में अधि यह श्रादेश किया गया है । ११११ प्रपभ्रंश भाषा में करवा प्रत्यय के स्थान में एप्पि एप्प, एवि और एवि ये चार प्रादेश होते हैं। जैसे
जित्वा अशेषं कषायबल वश्वा प्रभयं जगतः । लात्वा महाव्रतं शिवं लभन्ते ध्यात्वा तत्त्वम् ॥
ग्रामदनी, लाभ हो, कोष अभयदान देकर अहिंसा,
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अर्थात् सम्पूर्ण कषाय [जिस से कष-जन्म-मरणरूप संसार की प्राय मान, माया और लोभ ये चार महादोष ] के बल को जीतकर संसार को सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्यं तथा अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों को धारण करके तथा जीव और मजीव आदि aat का चिन्तन करके संयत प्राणी मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यहां पर पठित १ - जिल्वा जेपि [जीत कर], इस पद में रवा-प्रत्यय को एपि २ बरवा देपिशु [दे कर ] इस पद में बरवा - प्रत्यय को एपिणु, ३- लामा लेखि [ले कर] इस पद में प्रत्यय को एवि मौर ४- ध्यात्वा झाएविणु [[चिन्तन करके ] इस पत्र में क्वाप्रत्यय के स्थान में एविए यह प्रादेश किया गया है। यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि १११० व सूत्र का प्रत्यय स्थान में इ इ यदि चार प्रदेश करता है और
के
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auntya.viArvLovwwwwwww
३६८ * प्राकृत ध्याकरणम् *
चतुर्थपाद! प्रस्तुत सूत्र भो क्त्वा के स्थान में ही एप्पि प्रादि चार आदेशों का विधान करता है, इस तरह ये पाठ मादेश पस्या के स्थान में किए गए हैं, इन आदेशों का एक ही सूत्र से विधान किया जा सकता था, फिर सूत्रकार ने दो सूत्र बना कर ग्रन्थ-गौरब क्यों किया ? उत्तर में निवेदन है कि क्त्वा-प्रत्यय को विहित पाठ आदेशों का निर्देश एक ही सूत्र द्वारा हो सकता था, यह सत्य है किन्तु इस सूत्र का जो योग रचना किया गया है.यह वह केवल उत्तर प्रगले सत्र के निमित्त किया गया है. १११२वो सूत्र तुम् प्रत्यय के स्थान में १-एवं, २-अण, ३-अणहं, ४ अरणह, ५---एप्पि, ६-एप्पिा , ७-एवि और एविशु, इन माठ प्रादेशों का विधान करता है। इन पाठ प्रादेशों में से एप्पि, एपिणु, एवि और एक्णुि इन चार आदेशों की अनुवृत्ति ११११ वें सूत्र से ग्रहण की गई है। यदि क्त्वा के स्थान में होने वाले इ, उ, इवि, अवि तथा एप्पि, एप्पिा , एधि और एविणु इन सभी पाठ मादेशों को एक ही सूत्र में संकलित कर लेते तो १११२३ सुत्र में इन सभी प्राठों आदेशों की अनुवृत्ति हो जाती, परन्तु १११२ वें सूत्र को क्वास्थानीय समस्त प्रादेशों का ग्रहण करना इष्ट नहीं है, उसे तो केवल एपि, एप्यिणु, एघि और एविए ये चार प्रादेश ही अपेक्षित हैं। अतएव सूत्रकार ने १११० तथा ११११ इन सूत्रों का पृथक् योग [निर्माण किया है। इस पृथक् योग से १११० वें सूत्र में पठित , इल, इथि और अदि इन चार प्रादेशों की अनुवृत्ति की १११२ सूत्र में निवृत्ति हो जाती है :
१११२---अपभ्रंश-भाषा में तुम्-प्रत्यय के स्थान में, १-~-एवं. २-प्रण, और ३-अणहं, ४अहि ये चार तथा सूत्रोक्त पकार के कारण १-एपि, २ एप्पिणु, ३-एवि-और ४-एवियु ये बार, इस तरह समस्त आठ प्रादेश होते हैं । जैसे
धातु दुष्करं निजकपन, कानुन तप: प्रतिभाति ।
एवमेव सुखं भोक्तु मनः, परं भोक्तुम याति ॥१॥ प्रति---अपने धन का दान करना कठिन है, तथा तप करना भी अच्छा नहीं लगता है। ऐसे ही [दान और तप के बिना ही] यह मन सुख का उपभोग करना चाहता है, किन्तु इस तरह ऐसे सूख का उपभोग कैसे हो सकता है। यहां पर पठित-१ बातम-देवं [देने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय को एवं, २-कर्तुम् करण [करने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय को अरा, ३-भोक्तुमभुजणहूँ | भोगने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय को अगह और ४ -- भोक्तम्- भुजहिं [भोगने को] इस पद में तम्-प्रत्यय के स्थान में अहिं यह आदेश किया है। एक ही श्लोक में वृत्तिकार ने उक्त चारों भादेशों का निर्देश करने की कृपालुता की है।
जेत त्यस्तु सकलां धरा लात तपः पालयितुम् ।
बिना शान्त्या तीर्थेश्वरेण कः शक्नोति भ्रवनेऽपि ॥ अर्थात्-सम्पूर्ण पृथ्वी को पहले तो जीतमा, फिर उस का परित्याग करना, फिर तप का प्रहण करना और फिर उस की परिपालना करना, त्रिभुवन[तीन लोक ] में ये सब बातें तीर्थकर श्री शान्ति नाथ के बिना और कौन कर सकता है ? यहां पर-पठित-१--जेतुम् = जेप्पि[जीतने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय के स्थान में एप्पि, २ मक्तुम् एप्पिणु [छोडन को] इस पद में तुम् प्रत्यय के स्थान में एपिण, ३-लातुम् -- लेविणु [लाने को, धारण करने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय के स्थान में एपिख भौर ४-पालयितुम् = पालेवि [पालन करने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय को एवि यह
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Ratin-animun
चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोका-द्वयोपेतम् * प्रादेश किया गया है। यहां पर भी वृत्तिकार ने तम्-प्रत्यय के स्थान में होने वाले एप्पि आदि चारों पादेशों का एक ही श्लोक में उल्लेख कर दिया है।
१११३---अपभ्रंश-भाषा में गम्ल [गम् ] धातु से परे प्राए एप्पिा और एप्पि इन प्रादेशों के एकार का विकल्प से लोप हो जाता है।
गत्वा चारागस्या नराः अथ उज्जयिन्यां गत्वा ।
मसाः प्राप्नुवन्ति परमपदं दियाऽन्तराणि मा कथय |१| प्रर्थात-बाराणमी अथवा उज्जयनी में जा कर मरने वाले व्यक्ति परमपद को प्राप्त कर लेते हैं, प्रतः अन्य तीर्थों को चर्चा मत कर । अर्था: अन्य तीर्थों में जाने की आवश्यकता नहीं। यहां पर पठित १-गत्वा । गम्ल-गम् + क्त्वा = गम् + एप्पिणु = गम् - प्पिणु = गम्प्पिणु [जा कर]. इस पद में 'एप्पिणु' के एकार का विकल्प से लोग किया गया है।२-मस्या । गम्ल-गम् +क्त्वा गम्+एप्पिगम् +प्पि-गम्पि [जाकर ] इसमें 'एप्पि' के एकार का विकल्प से लोप किया गया है। लोप के अभावपक्ष में एपिणु तथा एप्पि के एकार का लोप नहीं होता । जैसे--
- गङ्गा गत्वा यः म्रियते यः शिवतीर्थ गत्वा ।
कीपति त्रिवशावासगतः स यमलोक जित्वा ।।२।। अर्थात् ....गङ्गा अथवा शिव-तीर्थ पर आ कर जो मरता है. यह यमलोक को जीत बार स्वर्गीय प्रावासों को प्राप्त करके सानन्द उन में क्रीडाएं करता है । यहां पर पठित गत्वा । गम्ल-गम् + क्त्वा -गम् + एप्पिणु-गप्पिणु [जाकर] इस पद में एप्पिशु के एकार का लोप नहीं हो सका। तथागत्वाई गम्ल-गम्+क्या गम् + एपिगमेप्पि [जा कर] और जित्वा । जि+क्त्वा-जिण+ एपि-जिरोपि [जीत कर] इन पदों में 'एप्पि' के एकार का लोप नहीं किया गया ।
१९१४-अपभ्रश-भाषा में तृन्-प्रत्यथ के स्थान में प्रणा यह आदेश होता है। जैसे--- हस्ती मारपिता, लोकः कथयिता, परहः वादयिता, शुनकः भषिता-हस्थि मारणउ, लोउ बोलणउ, पडह वज्जाउ, सूजाउ भसणउ [हाथी मारने की वृत्ति वाला होता है, लोक-प्राणिवर्ग बोलने का. स्वभाव रखता है. पटहढोल] का स्वभाव बजना और कृतं का स्वभाव भी कना होता है। यहां पर पठित १-मारथिला मारणउ [मारने के स्वभाव वाला], २~-कथयिता-बोल्लणउ [बोलने के स्वभाव वाला], ३. वायिता बनाउ [बजने के स्वभाव वाला], ४-भषिता भसणउ भौंकने के स्व. भान वा] इन समस्त पदों में हनु-प्रत्यय के स्थान में 'अप' यह आदेश किया गया है।
* अथ वार्धाऽऽदेश-विधिः .१११५-इवाऽर्थे नं-जउ-नाइ-नावइ-मणि-अणवः। ८।४ । ४४४ । अपभ्रशे इकशब्दस्याऽर्थे नं, न उ, नाइ, नावइ जरिण, जणु इत्येते षड् श्रादेशा भवन्ति । नं । नं मल्लजुज् ससि-राह करहिं [४,३८२] नउ ।
रवि-अस्थमणि समाउलेण कण्ठि विइष्णु म छिन्नु ।
चक्के खण्ड मुणालिमहे नउ जीवग्गल विष्णु ॥१॥ नाइ
वलयावलि-निवडण-मएण घण उवम्भुन जाइ । बल्लह-विरह-महावहहो थाह गवेसइ नाइ ॥२॥
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३७० ★ प्राकृत-व्याकरणम् ★
चतुर्यपादः नावइ
पेक्लेविणु मुह जिण-वरहो दोहर-नयण सलोणु ।
मावा गुरु-मच्छर-मरिउ जलणि पवीसइ लोणु ॥३॥ जरिण
चम्पय कुसुमहों मम्झि सहि ! मसलु पइट्ठउ ।
सोहइ इन्दनीलु जणि कण बइट्ठउ ॥४॥ . जणु । निश्वम-रसु पिएं पिएवि जणु [४,४०१] ।
★ अथ स्वार्थाऽऽदेश-विधिः* अपभ्रंश-भाषायाम् इव इत्यव्यय-पदस्याऽर्थे नं, नउ, नाइ, नावइ इत्यादयः ये प्रादेशाः संभवन्ति, सम्प्रति तान प्रदर्शयत्याचार्यः । यथा----
१११५.--- । नं इत्यादेशस्योदाहरणं प्रदीयते वृत्तिकारेण । यथा-इव मल्लयुद्धं शशिराष्ट्र कुस्ता... मलजु सगिरा काम पक्रिया १०५३ सत्र ज्ञेया । इव = न, इत्यत्र प्रस्तुत-सूत्रेण इव इत्यव्ययस्य स्थाने में इत्यादेशो विहितः । न । नड इत्यादेशस्योदाहरणं प्रदश्यते । यथा---
रभ्यस्तमने समाकुलेन छठे वितीर्णः न छिन्नः।
बकरण खण्ड: मृणालिकायाः इव जीवाभलः इत्तः ।।१।। भावार्थ:-- चक्रवाकयोः स्नेहातिशयो व्यज्यसे । रब्यस्तमने,रवेः-सूर्यस्य प्रस्तभने-तिरोधानेसूर्यास्तसमये, समाकुलेन-व्याकुलेन, चक्रेण-चक्रवाकेण, रात्रौ चकवाकी-चकवाकयो: वियोगो भवति, प्रतः प्रिया-वियोगजनक सूर्यास्तमनं समालोक्य चक्रवाकः [चकवा इति भाषायाम् ] व्याकुलो जातः, व्याकुलेन तेन चक्रवाकण कण्ठे विली:-स्थापितः सन् मृणालिकाया:-कमलिन्याः खण्डःन छिन्न:-भक्षितः। उत्प्रेक्ष्यते । अव यथा चक्रवाकेण जीवालोला । तेन चक्रवाकेण कमलिन्याः खण्डः एतदर्थं न भक्षितः, यद् रात्रीचक्रवाकी-वियोगेन ममात्मा न नियंच्छेद, सः कमलिन्याः खण्डो जोवान्लत्वेन:पात्तः। जीवस्य अर्गलः, जोवानलः । यथा कपाटयो पृष्ठे अर्गलो दीयते तेन न कोऽपि बहिर्गन्तूश. फ्नोति । एवमेव मृणालिकायाः खण्डोऽपि मुखेऽर्गलः इव स्थापितः।
रवि-अस्तमने । रवि-मस्तमन+डि । ३१६ सू० स्तस्य थकारे, ३६० सू० थकारद्वित्वे; ३६१ सू० पूर्वथकारस्य तकारे, २२८ सू० नकारस्य षकारे, १००५ सू० डिना सह कारस्य इकारे रविअस्थमरिण इति भवति । वैकल्पिकत्वात् ५ सूत्रेणाऽत्र यण-सन्धिर्न जाता। समाकुलेन । समाकुल+ टा। १७७ सू० ककारलोपे, १०१.३ सू० टाप्रत्ययस्य प्रकारे, स्थानिवत्वात् १००४ सू० अकारस्य एकारे समाजलेख इति भवति । कण्ठे - कण्ठि, प्रक्रिया १०९१ सूत्रस्य तृतीयश्लोके जेया । वितीर्णः । बितीर्ण+सि। १७७ सू० तकारलोपे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे,३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० कारस्य द्विश्वे,१००२ सू० भकारस्य स्थाने उकारे,१०१५ सू० सेलोपि विइण्ा इति भवति । न । अव्ययपदमिदं संस्कृत-वदेवाऽपभ्रशे प्रयुज्यते । छिमःछिन्न+सि । १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, सेलोपे चिन्नु इति भवति । चरम । चक्र+टा । १०६९ सू० रेफलोपे, ३६० सू० ककारद्वित्त्वे, १०१३ सू० टास्थानेऽनुस्वारे,स्थानियस्वात् १००४ सू. अकारस्य एकारे सक् इति भवति । खण्डः। खण्ड+सि । १००२ सू० प्रकारस्थ उकारे, छिन्नुवदेव अण्णु इति साध्यम् । मृणालिकाया: । मृणालिका + इस् । १३१ सू० ऋकारस्य उकारे, १७७ सू० ककारलोपे, १००१ सू० अन्त्यस्य प्राकारस्य प्रकारे, १०२१ सू० उसः स्थाने हे
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चतुर्थपादः ★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
३७१ इत्यादेशे मुगालिअहे इति भवति । इव । अगापिदम् । प्रस्तुतसूभेगम रज इणि पहें प्रयुज्यते। जोवार्गलः । जीवार्गल+सि । ३५० सू० रेफलोपे, ३६० सू० गकारद्वित्त्वे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे गोवग्गलु इति भवति । वसः। दत+सि ! ४६ सू० आदेरकारस्य इकारे,३१४ सू तस्य णकारे, ३६० सू० णकारस्य द्विस्वे, १००२ मू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सेलोपे दिन्शु इति भवति । इव-नउ, अत्र प्रस्तुत-सूत्रेण इव-शब्दस्य स्थाने नई इत्यादेशो जातः । नाइ । नाई इत्यादेशस्योदाहरणं प्रदश्यते । यथा---
वलयावलि-निपतन-भयेन धन्या ऊर्ध-भ्रजा याति ।
बल्लभ-विरह-महा-हवस्य स्ताचं गवेषयतीव ।।२।। भावार्थ:-नायिकायाः पतिवियोग-जनितं दैन्यं वर्णयति । काचिदन्या-नायिका, सुकृतिनीति यावत्, पतिविरह-दुःखेन अतीव कृशाङ्गी जाता। अतएव सा वलयावलि-निपतम-भयेन, वलयो हस्तालङ्कारविशेषः, तेषामावलि: पंक्तिः, तस्याः निपतन,तस्य भयेन, ऊर्श्वभूना, ऊध्वी भुजी यस्या,सा यातिगच्छति । उत्प्रेक्ष्यते ! सा अनया रीत्या व्यर्थमेव न गच्छति, किन्तु बल्लम-विरह-हास्य वल्लभस्य प्रियस्य, विरह-वियोगः स एव महा छदः, महाश्चासौ ह्रदः-सडागः, तस्य स्ताघ-गाम्भीर्य गवेषयतीवअन्वेषयतीव । कियान् विरहस्थ-महा-ह्रदः ?, एतस्य अन्तस्तलं कियदस्ति ? एतदर्थमेव सा भुजी ॐ पूर्वी कृत्य थातीति कल्प्यत इति भावः।
बलयावलि-निपतम-भयेन । वलयावलि-निपतन-भय-टा। २३१ सू० पकारस्य वकारे, ५९० सू० तकारस्य डकारे, २२८ सुरु नकारस्य णकारे, १७७ सू० अन्त्य-यकारलोपे, १०१३ सू०टाप्रत्ययस्य णकारे, स्थानिवत्त्वात १००४ सू० प्रकारस्य एकारे बलयावलि-निववरण-भएण इति भवति । बन्या क्षण, इत्यस्य पदस्य प्रक्रिया ११०१ सूत्रे शेया । कबभुजा। ऊध्र्वभुजा+सि । ३५० सू० रेफस्य वकारस्य च लोपे, ३६० स० धकारद्विस्वे, ३६१ स. पूर्वधकारस्य दकारे, ८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे, ३६८ सूत्रे “बहुलाऽधिकाराव प्रशेषावेशयोरपि' इति पाठाद भकारस्य द्विश्वे, ३६१ सू० पूर्वभकारस्य बकारे, १७५७ सू० जकारलोपे, १००१ सू० प्राकारस्य प्रकारे, १०१५ सू० सेलपि बद्ध
भु इति भवति । याति-जाइ, प्रक्रिया इत्यस्य पदस्य १०२१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया। बल्लभविरह-महा-दस्य। वल्लभ-विरह-महा-हद-उस । सर भकारस्य स्थाने हकारे, ३९१ स० हुकार-दकारयोव्यत्यये, ३५० सू० संयुक्तरेफलोपे, १००९ सू० इस स्थाने हो इत्यादेशे भालाह-विरहमहावहहो इति भवति। स्ताधम् । स्ताध+अम् । ३१६ स ० स्तस्य थकारे, १८७ स० धकारस्य हकारे, १०१५ सू० अमो लोपे थाह इति भवति । गवेषयति । गवेष- [गवेष धातुः गवेषणायाम् । गवेष+णिम् +तिव । ९१० सू० अकारागमे, २६० स० षकारस्य सकारे, ६३८ सू० णिग प्रकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये,६४२ सू० प्राधाकारस्थ प्राकारे, १००० स० मायाकारस्य प्रकारे, ६२८ सू० तिव इचादेशे गवेसइ इति भवति । इव । अव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण वाथै मा इति प्रयुज्यते। इवना इत्यत्र प्रस्तुतसश्रेण इवशब्दस्य स्थाने भाइ इत्यादेशो जातः । नावा। नाव इ. त्यादेशस्योदाहरणं प्रदशर्मत्याचार्यः । यथा--
प्रेक्ष्य मुखं जिनवरस्य पौधनयन सलावण्यम् ।
इव गुरु-मस्सर-भरितं ज्वलने प्रविशति लवरपम् ॥३॥ भावार्थ:-जिनवरस्य परमपावनं सौन्दर्याधिक्यं व्यम्जपति । जिनवरस्य, राग-द्वेषो जयतीति
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः जिनः जिनश्चासौ बर: जिनबरः,तस्य महतो भगवत: मुलं प्रेक्ष्य-गमोक्ष्य,विम्भूत मुखम् ? दीर्धनमाम, दीर्घ लम्बायमाले नयने तेत्रे यस्मिन तत, पुनः किम्भूतं मुखम् ? सलावण्यम्, लावण्यसहितम्, सौन्दर्याधिक्योपेतमित्यर्थः । एतादृशं परम-विलक्षण-सुषमा-ललितं मुखं वीक्ष्य । लावण्य शब्दस्य सुन्दरार्थकताथोऽपि गृह्यते, अतः लबरणं-लावण्यं, सौन्दर्य यलने-बन्हो प्रविशतीव प्रतीयते । कीदृशं लावण्यम् ? गुरुमत्सर-भरितम, गुरुश्चासौ मत्सर: ईर्षा, तेन भरितम्-परिपूर्णम् । जिनवार-रसौन्दोऽतिशयं वीक्ष्य लावज्यं भस्मसादिव जातमिति भावः । - प्रेक्ष्य । प्रपूर्वक: ईक्षधातुः प्रेरणे । प्रेक्ष् + क्त्वा । इत्यत्र १०६९ स० रेफस्य लोपे, २७४ सू० क्षस्य स्वकारे, ३६० सू० खकारद्वित्त्वे, ३६१ सू० पूर्वख कारस्थ वकारे, ११११ स त त्वःस्त्राने एविणु इत्यादेखें, १० स० स्वरस्य लोपे, अजमोने परेण संयोज्ये पेक्खेविण इति भवति । पुखम् ! मुव+अम् । ..१८७ सू० स्वकारस्य हकारे,. १.००२ सू० सकारस्य स्थाने उकारे, १०१५ स० अमो लोपे मुह इति भवति । जिनवरस्य जिनवर हुस । इत्यत्र.२२६ स नकारस्थ णकारे, १००९ स. इसः स्थाने हो इत्यादेशे जिणबारहों इति भवति । बोनयनम । दीर्धन यन-अम् । ३५० सू० रेफलोपे. ३६३ सू० धकारस्य द्वित्वाविषेधे. १८७ सू०. धकारस्य हकारे, ४४२ स० स्वाभिके रेफे, २२८ स० अन्त्य-नकारस्य णकारे, प्रमो लोपेनियण इति भवति।" सनसत्य समासे वाक्य-विभक्त्य मनन्त्यत्वच भवति, अतः नकारस्यादिभुतत्त्वात्. २२२ सूत्रे कारस्थ णकार-प्रापिशवतते, परन्नस्य वैकल्पिक मात्र नयन-गा-प्रथम-नकारस्य णकारो न जातः । सलावण्यम् । सलावण्य+अम् । १७१ सू० वकारेण अन्त्यव्यञ्जनेन सह प्रादे: स्वरस्य स्थान प्रोकारे सलण्य+इति जाते, बाहुल्यनात ८४ सूत्रस्य प्रवृतिन जाता, ३४९ स० यकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० प्रमों लोपे सलोशु इति भवति । इव । अव्ययपमिदम्। प्रस्तुतसूत्रेषा इवाऽर्थे नावह इति प्रयुज्यते । गुरु-मत्सरभरितम् । गुरु-मगर-भरित !- अम् । २९२ स सभ्य छहारे, ३६० स० छकारद्वित्वे, ३६१ सूः पूर्वछकारस्य चनारे, १७७ सूतकारलोपे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे गुरुमच्छर-भरिउ इति भवति । उबलने । ज्वलन+छि। ३५० स० कारलोपे, २२८ सू० नकारस्य णकारे १००५ सू० डिना सह अकारस्य इकारे जलणि इति भवति । प्रविशति । प्रपूर्वक: विश-धातुः प्रवेशे । प्रविशति । १०६९, सू०. रेफ पोपे, १००० स इकारस्य ईकारे, ११० सू० अकारागमे, २६० सू०
शकारस्थ सकारे,६२८ स० तिन इबादेशे पवीसह इति भवति । लवणम् - लोणु, प्रक्रिया १०५९ सत्र.. स्थ पञ्चमे श्लोके ज्ञेया। इव मावह इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण वशब्दस्य नाव इत्यादेशो जातः । अणि । . जणि इत्यादेशस्योदाहरणं प्रदर्श्यते । यथा. : . : . . . . . . चम्पक-समस्य मध्ये सखि ! भ्रमरः प्रविष्टः । ....... .."
शोभते इन्द्रनील व कनके उपविष्टः ।।४।। .. . .. भावार्थ:-हे सस्थि ! चम्पक-समस्य-चम्पकनाम्नः कुसुमस्य-पुष्पस्य मध्ये असर:-द्विरेफा प्रविष्टः। भ्रमरेण तत्र प्रवेशः कृतः, म त एवं शोभते, शोभा ददाति', इन-यथा करके सुवर्ण इन्द्रनील:कृष्णवर्णी मणिविशेषः अपवितः स्थितोऽस्तीति उत्प्रेक्ष्यते । कनकवर्ण-समानवर्णवत् चम्पक-कुसुमम, इन्द्रनील-समान-वर्णवाश्न भ्रमरो भवतीति भावः ।
चम्पक कुसुमस्य। चम्पक-कुसुम+ ङस् ! १७७ सू० प्रथम कारलोपे, १८० सू० यकारश्रुती, १००९ सू० इस स्थाने हो इत्यादेशे, १००१ सू० उच्चारणलायवे चम्पय-कुसुमहो" इति भवति । ११ .
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पाद:
संस्कृत-हिन्दी टीकाहयोपेतम् ★
३७३
सूत्रस्य वृत्तिमनुसृत्य ककारस्य प्रदिभूतत्वादव १७७ सू० ककारस्य लोपो न जाता मध्ये मध्य + ङि । २९७ सू० व्यस्य कारे, ३६०० भकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वेककारस्य जकारे, १००५ सू० ङिना mera sort of इति भवति । स सहि !, प्रक्रिया १००३ सुत्रस्य प्रथमश्लोके शेमा | भ्रमः । भ्रमर+सि । १०६९ ० रेफलोपे, २४४ सू० मकारस्य सकारे, २५४ ० सू० रेफस्य लकारे, १००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे भलु इति भवति । प्रविष्टः प्रतिष्ट+सि। १०६९ सु० रेफलोपे १७७ सू० त्रकारलोपे ३०५ सू० कृस्य स्थाने ठकारे. ३६० सू० कारद्वित्वे ३६१ सू० पूर्व-कारस्य टकारे ११०० सू० १००२ति भवति । शोभते । शुभ-वातुः शोभायाम् । शुभ + से । संस्कृतनियमेन शोभते इति जाते, २६० सू० शंकारस्य सकारे, ९१० सु० प्रकारानमे १८०० सकारस्य प्रकारे ६२८ सू० ते हादसे सोहर इति भवति । इन्द्रनीलः । इन्द्रनील+मि। १०६१ सू० रेफस्य लोपे, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे इसी इति भवति । इव । ग्रव्ययपदमिदम् । प्रस्तुतसूत्रेण इनमें अरिय इति प्रयुज्यते । कनके कनक + ङि । २२८ सू० नकारस्य कारे, २७७ सू० द्वितीय- ककारस्य लोपे, १००५ ० डिना सह प्रकारस्य इकारे aus इति भवति । उपविष्टः । उपविष्ट+सि । अपभ्रंशे १०९३ सू० उपविष्ट इत्यस्य शब्दस्य स्थाने बहु इति प्रयुज्यते ११०० सू० अ- प्रत्यये, २००२ सु० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलपे बहु इति भवति । एवजणि इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण व-शब्दस्य जणि हत्यादेश जान: जतु | जणु
1
देोदाहरणं प्रदश्यते । यथा-- निरुपमरसं प्रियेण पीत्वेव निरुमरसु पिए पिएवि जस्णु, प्रकिया १०७२ सुत्रस्य तृतीय-लोके ज्ञेया वा । पात्रातुः पाने पर + क्त्वा इत्यत्र तु ११११ सू० त्व: स्थाने एवं इत्यादेशे, १००० सू० ग्राकारस्य इकारे पिएव भवति । बाहुल्येनात्र १० सू० स्वर* स्य लोपाभावः । इव जर इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेण इन शब्दस्य स्थाने जणु इत्यादेशो विहितः । शब्द के अर्थ में होने वाली आदेशविधि *
अथ
भाषा में इव इस अव्ययपद के स्थान में नं नख, नाइ धौर नावइ प्रादि जो
छ प्रदेश होते हैं। अब सूत्रकार उन का निर्देश कर रहे हैं
१११५ - अपभ्रंश भाषा में
अव्ययपद के अर्थ में १ नं २ न. ३१४लावह, ५---अणि और ६ - जगु ये छ आदेश होते हैं। नं का उदाहरण प्रकार है-इव मल्ल-पूर्व शशि-राह कुरुत निमल समि-राहु करा [मान चन्द्र और राहु युद्ध करते हैं ] यहां पर पति 'इव' इस शब्द के अर्थ में 'न' इस शब्द का आदेश किया गया है। न का उदाहरणव्यस्तम समाकुलेन कण्ठे वितः नः ि
चक्रेण खण्डः पालिकायाः इव जीवालः वक्तः ॥ १॥
अर्थात् सूर्यास्त के समय व्याकुल हुए चक्रवाक ने नाके खण्ड को गले में ही धारण कर रखा था, उसने उस का छेदन नहीं किया, मानों जीवन [जाणधारण] के लिए उसने यह यल दे रक्खी हो यहां पर पठित 'इ' इस पद के अर्थ में म इस पद का प्रदेश किया गया है। नाइइस पक्ष का उदाहरण इस प्रकार है
वलयालि निपतन भयेन धन्या ऊं- भूजा याति । वल्लभ-विरह- महावस्य स्ताचं गती ||२||
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هه ل ده ف مهيهيهيه عينه علید می گردم
حه ميه ميه ميه ميه ميه هو يعي هه یه یه ئه م
همه ی - عه مه تامیه یه یه یه مه یه معصومه ميه ميه دي، مع
و عمومی و مه به
حج
३७४ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थप्रादा अर्थात- वलयाबलि [कंकणावलि-कंगनों की श्रेणी] को गिरने के भय से नायिका ऊंची भुजा करके चल रही है, मातो वह बल्लभ [प्रीतम के विरह-[वियोग]-रूप महा-हद [महान तालाब के अन्तस्तल की गवेषणा कर रही हो । यहां पर पठित 'इव' इस पद के अर्थ में 'माई' इस शब्द का प्रा. ...देश किया गया है। नासा का उदाहरण इस प्रकार है --
प्रेक्ष्य मुखं जिनवरस्य बोधनयतं सलावण्यम् ।
इव गुहार-मरिसंबल प्रविशति समम् ।३।। : पति--जिनवर के विशाल नेत्रों वाले और लावण्य [सौन्दर्य] से युक्त मुख को देख कर अत्यन्त ईवी से भरा हुआ लवण लावण्य-सौन्दर्य ] मानों अग्नि में प्रवेश कर रहा है। यहां पर पठित 'इव' इस अव्ययपद के अर्थ में भाषा इस शब्द का प्रादेश किया गया है। परिण इस अध्ययपद का उदाहरण इस प्रकार है----
चम्पक-कुसुममध्ये सखि! भ्रमरः प्रविष्टः।
शोभते इन्द्र-नील इव कनके उपविष्टः ।।४।। अति-हे सखि ! चम्पलता के पुष्प के मध्य में भ्रमर प्रविष्ट क्या हो गया, मानों इन्द्रनील मणि कृष्पर वर्ण वाली मरकत मणि, पन्ना] कनक स्वर्ण] के ऊपर शोभा पा रही है। यहां पर पठित 'इव' इस पद के अर्थ में 'जणि' इस पद का प्रादेश किया गया है ! जणु का उदाहरण इस प्रकार है-मिश्षम-रसं प्रियेण पीत्वेव-निरुवम-रसु पिएं पीएवि जण मानों अनुपम रस पीकर प्रीतम ने] यहाँ पर पठित 'इव' पद के अर्थ में अशु' इस शब्द का मादेश किया गया है।
* अथ लिङ्ग-प्रकरणम् * १११६-लिङ्गमतन्त्रम् । ८।४। ४४५ ! अपभ्रशे लिङ्गमतन्त्र व्यभिचारि प्रायो भवति । गय-कुम्भई दारन्तु [४,३४५] । प्रत्र पुल्लिङ्गस्य नपुसकत्वम् ।
प्रउमा लग्गा डुङ्गरिहिं पहिउ रडन्तउ जाइ।
जो एहो गिरि-गिलण-मणु सो किंधणहें धणाई?॥१॥ प्रत्र 'प्रभा' इति नपुसकस्य पुस्त्वम् ।
पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु ल्हसिउं खन्धस्सु ।
तो वि कटारइ हत्था बलि किज्जः कन्तस्सु ॥२॥ अत्र 'अन्नडी' इति नपुसकस्य स्त्रीत्वम् ।
सिरि चडिमा खन्ति फलई पुणु डालई मोडन्ति ।
तो वि महबुदुम सउणाहं प्रवराहिउ न करन्ति ॥३॥ अत्र 'डालई' इत्यत्र स्त्रीलिङ्गस्य नपुसकत्वम् ।
* अथ लिनक्ररणन् * लिङ्गत्वं प्राकृत-गुण-गतावस्थात्मको धर्म एव भवति । तद्विशेषश्च पु-नपुसक
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दो-टोका-द्वयोपेतम् * त्वादिः । विकृत-सत्त्वादीनां तुल्यरूपेण प्रवस्थानात् नपुसकत्वम् । सत्त्वस्याऽधिक्ये पुस्त्वम् । सत्त्वस्य अल्पस्वे, रजसश्च प्राधिक्ये स्त्रीत्वम् । सर्वेषां त्रिगुणात्मक-प्रकृतिकार्यतया शब्दानामपि तथास्वेन गुण-गत-विशेषात् शब्देषु लिङ्गविशेष इति कल्प्यते । सोऽपि च पुस्त्वादिभेदेन त्रिविधो भवति । अपभ्रंश-भाषायां लिङ्ग-सम्बन्धि यद विधि-विधानं भवति, तत् प्रतिपादयत्याचार्यः । यथा--
१११६-लिङ्गमतन्त्रम् । अतन्त्रं व्यभिचारि प्रायो भवति । अत्र अतन्त्रपदस्य पर्यायवाचिपद व्यभिचारि इति वर्तते । व्यभिचारि-अनियतमित्यर्थः । संस्कृतभाषायां यथा रामादिशब्दाः नियत स्वेन पुल्लिङ्गाः, रमादिशब्दाः स्त्रीलिङ्गाः, तथा ज्ञानादिशब्दाश्च नपुसकलिङ्गाः वर्तन्ते, अपभ्रंश-भाषायां सासुसी स्थिति जगे, मत्रपदा निज-गत-नियतत्वं प्रायो न विद्यते। यथा-बाना - म्मान वारयन्तम् = गय-कुम्भई दारन्तु, प्रक्रिया १०१६ सूत्रे ज्ञेया । कुम्भशब्दः पुल्लिङ्गः, किन्त्वपभ्रंशभाषायां तस्य क्लीबत्व जातम् । तदेवाऽत्र १०२४ सूत्रेण जसः स्थाने इत्यादेशो जातः।
___ अभ्राणि लग्नानि पर्वतेषु पथिकः रटन याति ।
यः एष गिरि-गिलन-मनाः स कि न्याया घणायते ? ॥१॥ भावार्थ:---अभ्राणि-मेघाः पर्वतेषु-महीधरेषु लग्नानि एतद् दृष्ट्वा पथिक:-पान्यः स्टन्-शब्दायमानो याति-गच्छति । प्राचार्यः उत्तरार्धन शब्द करण-कारणमाह-एष यो मेघः गिरिगिलन-मना, गिरेःपर्वतस्य गिलनं-प्रसन भक्षणं वा तस्मिन् मनो यस्य, सः, एतादृशः स कि वितर्के पन्यायाः नायिकाया: घनायते । अत्र द्वितीयाऽर्थे षष्ठी, धन्या कथमनुकम्प्यते ? नाऽनुकम्पिच्यते, धन्याया गिलनमवश्यमेव करिष्यति, तां कामविह्वला विधाय निःसन्देहं मारयिष्यतीति भावः।
___ अभ्राणि । अभ्र + जस् । प्रस्तुतेन [ १११६] सूत्रेण नपुंसकलिङ्गोऽभ्रशब्दः पुल्लिते प्रयुज्यते, १०६९ सू० रेफलोपे, ३६० सू० भकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वभकारस्य बकारे, १००१ सू० अकारस्य पाकारे,१०१५ सू० जसो लोपे अभा इति भवति । नपुस्कस्वाभावेनाऽत्र १०२४ सूत्रथ जसः स्थाने इं इस्थादेशो न जातः । लग्नानि । लग्न+जस् । विशेषण-विशेष्ययोः समानलिङ्गकस्वमिति न्यायेन अभ्रशब्दस्य पुल्लिङ्गत्वात्तस्य विशेषणस्याऽपि पुल्लिङ्गत्वे जाते, ३४९ मू० नकारलोपे,३६० सू० गकारद्वित्वे, १००१ सू० प्रकारस्य प्राकारे,१०१५ सू० जसो लोपे लगा इति भवति । पर्वतेषु । पर्वत+ सुव । अपभ्रशे पर्व तार्थे १०९३ सूत्रेण डुङ्गरिशब्दः प्रयुज्यते, १०१८ सू० सुवः स्थाने हि इत्यादेशे शारिहि इति भवति । पथिकः पहिउ, इत्यस्य प्रक्रिया १०८६ सूत्रे ज्ञेया। रटन् । रधातुः शब्दकरणे। रद्+शत । ९१० सू० प्रकारागमे, १९५ सू० टकारस्य डकारे, ६७० सू० शतु: रत इत्यादेशे, ११०० सू० अप्रत्यये, सिप्रत्यये, १००२ सू० अकारस्थ उकारे, १०१५. सू० सेलोप रडन्त उ इति भवति । यातिजाइ, प्रक्रिया १०२१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया। यजो , प्रक्रिया १००१ सूत्रस्य चतुर्थे श्लोके ज्ञया । एषः । एतद्+सिं। १०३३ सू० एतदः स्थाने एह इत्यादेशे, १००३ सू० प्रकारस्य प्रोकारे, १०१५ सू० सेलोपे एहो इति भवति । गिरि-गिलन-मनाः । गिरि-गिलन-मानस्+सि | २२८ सू० उभयत्रापि नकारस्थ थकारे, ११ सू० सकारलोपे १००२ सू० अकारस्य उकारे, सेर्लोपे गिरि-गिलण-मणु इति भवति। सः सो, प्रक्रिया ११०९ संस्य ततीयश्लोके जेया। किम-कि, प्रक्रिया ११०५ सत्रे ज्ञेया। धन्याया:-षणहे. प्रक्रिया १०२१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके शेया। अत्र १०८१ सूत्रेण उच्चारणस्थ लाघवे जाते पण इति
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★ प्राकृत-व्याकरणम् ★
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भवति । घृणायते । घृणां करोतीति। घृणायधातुः घृणाकरणे । घृणावते । १२६ सू० ऋकारस्य प्रकारे, १७७ सु० यकारलोपे, ५ सू० दीर्घसम्धी, ६२८ सू० ते इत्यस्य इचादेशे घणा इति भवति । or worries श्लोके पठितः अथ शब्दः नपुंसकलिङ्गकोऽस्ति परन्तु प्रस्तुतसूत्रेणासी पुल्लि को जातः । पावे बिलग्नमन्त्रं free wei स्कन्धस्य ।
aats कटारिका हस्तः बलिक्रिये कान्तस्य ॥२॥
भावार्थ:- काचिन्ायिका निजनान्तस्याद्भुतं वीरत्वमुपदर्शयति । हे सति ! मम पत्युः पायेचर, अन् [ अँतड़ी इति नागम् ] बिलग्नम्, तस्य शिरः - शीर्ष स्म्यस्य, प्रत्र पञ्चम्यर्थे षष्ठी, स्कन्धात् इत्यर्थः । स्वस्तं पतितम्, ततोऽपि तथापि एतादृश्यामवस्थायामपि तस्य मम कान्तस्य हस्तःकरः कटारिका छुरिकायामेव वर्तते एवंविवस्त्र अति चलवतः कान्तस्य कृतेऽहमात्मानं वलि कियेतदुपरि बलिहारं गच्छामि, तस्य पूजां करोमि । वर्यवती दयितस्यार्द्धाङ्गित्या स्वस्य महोभाग्यत्वं व्यब्जितम् ।
यादे । पाद+ङि । १७७ सू० दकारलोपे, १००५ सू० ङिना सह प्रकारस्य इकारे पाइ इति भवति । विलग्नम् | विलग्न+वि । १११२ सू० क्लीवस्य अन्त्र इत्यस्य शब्दस्य स्त्रीस्वे, विशेषणस्य विलग्न इत्यस्यापि विशेषण- विशेष्ययोः समानलिङ्गत्वे ५२१ सू० डी (ई) - प्रत्यये, ३४१ सू० तकारलोपे, ३६० सू० गकारद्विस्वे १० सू० १०१५ सू० सेल बिलग्गी इति भवति । अन्त्रम् । अत्र+सि । १०६९ सू० वैकल्पिकवाद रेफस्य लोपाभावे ११०० सू० डड(श्रड) - प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंपे, प्रज्झीने परेण संत्रीज्ये, प्रस्तुतसूत्रेण ग्रस्य नपुंसकलिङ्ग शब्दस्प स्त्रीलिङ्गत्वे, ११०२ सू० डी- (ई) प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलोंपे, श्रज्झीने परेण संयोज्ये, सिप्रत्यये, १०१५ सू० सेर्लोपे यन्त्रको इति भवति । शिरः । शिरस्+सि । २६० सू० शकारस्य सकारे, ११.सू० सकारलोपे १००२ सू० शंकारस्य उकारे, सेलों सिरु इति भवति । स्रस्तम् | सु- [स्]arg: fear a स् + क्त-ल ८६० सू० स्रस्त्रातो: स्थाने ल्ड्स इत्यादेशे ६४५ सू० प्रकारस्य इकारे, १७७ सू० तकारलोपे, विप्रत्यये १०० सू० प्रकारस्य उकारे, ५१४ सू० सेर्मकारे, २३ सू० मकरानुस्वारे रहसि इति भवति । स्वस्य । स्कन्ध + ङस । २७५ सू० स्कस्य स्थाने खकारे, १००९ सू० स: स्थाने स्सु इत्वादेशे खन्यस्तु इति भवति । ततः ती प्रक्रिया १०८८ सूत्रे ज्ञेया । पिवि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया । कदारिकायाम् । कटारिका+डि | अपभ्रंश भाषायां कटारि काया: स्थाने १०९३ सू० कटार-शब्दः त्रयुज्यते ११०० सू० अप्रत्यये १००५ सू० ङिना सह प्रका रस्य इकारे कटार इति भवति । हस्तः । हस्त+सि । ३१६ सू० स्तस्य स्थाने थकारे, ३६० सू० कार- द्विवे, ३६१ सू० पूर्वकारस्य तकारे ११०१ सू० ड - (ड) - प्रत्यये, डिति परेऽन्त्यस्वरादेलॉप, अभीने परेण संयोज्ये, १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सु० सेलपि हृत्य इति भवति । बलि । बलि+श्रम् | १०१५ सू० श्रमो सोपे व इति भवति । किये। कुञ - [कृ] धातुः करणे ! क+क्य+ए । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे ६४९ सू० क्यस्य इज्ज इत्यादेशे, १० सू० स्वरस्य लोपे, ग्रीने परेण संयोज्ये, १०५६ सू० ए इत्यस्य उं इत्यादेशे, बाहुल्येनात्र १० सू० अन्त्यस्वरस्य लोपाभावे, १०८६२ सू० उच्चारणलाघवे किज्जउँ इति भवति । कान्तस्य । कान्त+स् । =४ सू० संयोगे परे ह्रस्त्रे, १००१ सू० इस: स्थाने स्सु हत्यादेशे कन्तस्तु इति भवति । श्रश्र अम्ड इति । श्रस्मिन् लोके पठितः अत्र शब्दः नपुंसकलिङ्गी वर्तते, परन्तु प्रस्तुतसूत्रेणाऽसौ शब्दः स्त्रीलिङ्गको जातः
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बतुर्थपायः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
३७७ सेन ५२१ सूत्रेण की-प्रत्यया जातः ।
शिरसि प्रारूढाः स्वादन्ति फलानि, पुनः शाखाः मोटयन्ति ।
ततोऽपि महाद्रुमाः शकुनानामपराषितं न कुर्वन्ति ॥३॥ भावार्थ:. उपद्रूयमाणेनापि धैर्य न हात व्यमिति फलवद्-वृक्ष-दृष्टान्तेनोपदिशति । शिरसिशीर्षे, आरडाः खगा: फलानि खादन्ति-भक्षयन्ति, पुनस्ते शाखा: मोट्यन्ति-त्रोटयन्ति, सतोऽपि-तथापि महानुमाः महापंचासो दूमः महाद्रुमः, ते महान्तो द्रुमाः, शकुनानाम-पक्षिणां कृतेऽपराधिसम्-अपराधमनिष्ट वा व कुर्वन्ति । यथा वृक्षाः सर्वेषामुपकार : भवन्ति, तथं व सर्वेषामति भावः ।
शिरसि । शिरस्+हि । २६० सू० शकारस्य स्थाने सकारे, ११ सू० सकारस्य लोपे, १००५ सू० डिना सह प्रकारस्य इकारे सिरि इति भवति । आरूढाः प्राङ्-पूर्वकः रह-धातुःप्रारोहणे । प्रारह+त । ८७७ सू० भारुह, इत्यस्य स्थाने चड इत्यादेशे, ६४५ सू० अकारस्य इकारे, जस्प्रत्यये, १७७ सू. तकारलोपे, १००१ सू०प्रकारस्य प्राकारे, १०१५ सू० जसो लोपे अजिमा इति भवति । खादन्ति । खादृ-[.]-धातुः भोजने । खाद्+अन्ति । ८९९ सू० दकारलोपे, ६३१ सू० प्रन्ति इत्यस्य न्ति इत्यादेशे,८४ सू० संयोगे परे ह्रस्वे खन्ति इति भवति । फलानि । फल+शस् । बाहुल्येन ३७० सू० फकारस्य द्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वफकारस्य पकारे,१०२४ सू० शसः स्थाने इं इत्यादेशे फलई इति भवति । पुन:पुणु,प्रक्रिया १०१४ सूत्रस्य प्रथमरलोके शया : शाखाः । शाखा+शस् । अपभ्रश शाखाऽर्थ १०१३ सू० डालशब्दः प्रयुज्यते,प्रस्तुत-सूत्रेण डालशब्दस्य क्लीबत्वे, १०२४ सू० शसः स्थान इ इत्यादेशे शालाई इति भवति । मोटयन्ति । मोद-धातुः मोटने-बोटने। मोट + सिग्नमन्ति । ९१० सू० प्रकारस्याऽगमे, १९५ स० टफारस्य डकारे, ६३५ स० णिग प्रकारे, १० सू० स्वरस्य लोपे, प्रज्झोने परेण संयोज्ये, ६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे मोडन्ति इति भवति । ततः-तो, प्रक्रिया १००७ सूत्रे शेया। अपि-वि, प्रक्रिया ४८९ सूत्रे ज्ञेया। महात्रुमाः। महाद्रुम + जस् । ८४ सू० सयांगे परे ह्रस्वे, १०६९ सू० रेफलोपे,३६० सू० दकारस्य द्वित्वे,१०१५ सू० जसो लोपे महद्द, म इति भवति । ११ सूत्रस्प वृत्तिमनुसृत्य दकारस्यादिभूतवाद् यत्र ३६० सूत्रण दकारद्वित्त्वं न जातं तत्र महदुम इति भवति । शकुनानाम् । शकुन+माम् । २६० सू० शकारस्य सकारे, १७७ सू० ककारलोपे, २२८ सू० नकारस्य णकारे, १००१ सू० अकारस्य प्रकारे, १०१० सू० प्राम: स्थाने ह इत्यादेशे सउणाहं इति भवति । अपधषितम् । * पराधित + अम् । २३१ सू० पकारस्य प्रकारे, १८७ सू० धकारस्य हकारे, १७७ सू० तकारलोपे, १००२ सू० प्रकारस्थ उकारे, १०१५ सू० प्रमो लोपे अबराहिउ इति भवति । न । प्रध्ययपदमिदं संस्कृतबदेवाऽपभ्रंशे प्रयुज्यते । कुर्वन्ति । डुकृञ्-[क]-धातुः करणे । कृ+ अन्ति । ९०५ सू० ऋकारस्य पर इत्यादशे, ६३१ सू० अन्तेः स्थाने न्ति इत्यादेशे करन्ति इति भवति । अत्र डालाई इत्पन्न स्त्रीलिङ्गस्य । अत्र श्लोके पठितः शाखा-शब्दः स्त्रीलिङ्गी वर्तते परन्तु प्रस्तुतसूत्रेणाऽसौ नपुंसकलिङ्गी विहितः । तेन डाला इत्यत्र १०२४ सूत्रेण जसः स्थाने ई इत्यादेशो जातः ।
* अथ लिनसम्बन्धी प्रकरण * लिङ्ग शब्द की अर्थविचारणा प्रस्तुत प्राकृत व्याकरण के प्रथम खण्ड के ४२ वें पृष्ठ पर की जा चुकी है। अपभ्रंश भाषा में लिङ्गसम्बन्धी जो विधि-विधान पाया जाता है। अब सूत्रकार उस का निर्देश करने लगे हैं
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*प्राकत-व्याकरणम् *
बतुर्थपाश १११६ अपभ्रंश-भाषा में लिङ्ग प्रायः प्रतन्त्र व्यभिचारी] अर्थात् अनियत होता है । संस्कृत भाषा में जैसे रामः यह शब्द है । इस शब्द का नियतरूप से पुल्लिङ्ग में प्रयोग होता है। रमा शब्द का स्त्रीलिङ्ग में और जलम् शब्द का नियतरूप से नंपुसकलिङ्ग में प्रयोग किया जाता है, वैसे अपभ्रंश भाषा में राम आदि सभी शब्द प्रायः अनियत लिङ्ग वाले होते हैं, इन का कोई निश्चित लिङ्ग नहीं होता है। इस तरह अपभ्रश-भाषा-गत शब्दों का प्रायः सभो लिङ्गों में प्रयोग हो जाता है। जैसे-जान कुम्भान वारयन्तम् गयकुम्भई दारन्तु हाथियों के कुम्भों-मस्तकों को विदीर्ण करते हुए को] यहाँ पर पठित पुल्लिङ्गी कुम्भ शब्द का नपुसकलिङ्ग में प्रयोग किया गया है।
अाणि लग्नानि पर्वतेषु पथिकः रन् याति ।।
य एष गिरिगिलन मनाः सकि अन्याया घृणायते ? ॥१॥ प्रतिपर्वतों के साथ लगे हुए बादलों को देख कर कोई पथिक नाक्रन्दन करता हुमा जा रहा है, और यह कह रहा है कि जब ये बादल पर्वतों को ही निगल जाना चाहते हैं तो ये मेगे नायिका पर क्या अनुकम्पा करेंगे? यहां पर पठित नपुसकलिङ्गी-अभ्रम् इस शब्द का पुल्लिङ्ग में प्रयोग किया गया है।
पादे विलग्नमन्त्रं, शिरः सस्तं स्वस्थ ।
ततोऽपि कटारिकायां हस्ता, बलिः किये कान्तस्य ।।२।। ___ अर्थात-ौते पांव पर प्रा लगी हैं, और सिर कन्धे से लुढ़क गया है, तथापि इस का हाथ कटारी [तलवार] पर है, ऐसे कान्त के मैं बलिहार जाती है। यहाँ पर पठित अन्त्रम् मन्त्रडी [आंत] इस नमुसलिमी शब्द का स्त्रीलिङ्ग में प्रयोग किया गया है।
शिरसि आश्वाः खावन्ति फलानि पुनः शाखाः मोटयन्ति ।
ततोऽपि महामाः शकुनानामपराषितं न कुवन्ति ।।३।। अर्यात-पक्षी सिर (शिखर] पर चढ़ कर फलों को खा रहे हैं, और शाखामों को तोड़-मरोड, रहे हैं। तथापि महान वृक्ष इन पक्षियों को दण्ड नहीं देते हैं। परोपकारी होने से वक्ष अण्ड पक्षियों का भी बुरा नहीं करते। यहां पर पठित शाला:==डालई [टहनियों का] यह स्त्री-लिङ्गी शब्द नपुंसक लिङ्ग में प्रयुक्त किया गया है।
* अथ शौरसेनी-भाषा-सम्मान-विधिः * १११५–शौरसेनीवत् ।८४१४४६। अपभ्रशे प्रायः शौरमेनीवत् कार्य भवति । सीसि सेहरु खणु विणिम्मविदु, खणु कण्ठि पालंबु किदु रदिए। विहिवु खणु मुण्ड-मालिए जं पणएण,तं नमहु कुसुम-दाम-कोदण्ड कामहो ॥१॥
* अथ शौरसेनो-भाषा-समान-विधिः* शौरसेनो भाषायाः नियमाः ९३१ सूत्रादारभ्य १५६ सूत्रपर्यन्तं पूर्व भरिणताः सन्ति । तेषां शौरसेनोभाषा-नियमानामपभ्रशभाषायामपि प्रवृत्तिर्जायते । अपभ्रशभाषायां शौरसे नोभाषातल्यमपि कार्य भवतीति भावः । प्रस्तुते प्रकरणे इयमेव शौरसेनी-भाषायाः तुल्यता निरूप्यते वृत्तिकारेण । यथा--
१११७ --शौरसेनीवस । अपभ्रंशभाषायां प्रायः शौरसेनी-भाषा-सुल्यं कार्य जायते, शौरसेनी
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चतुर्थपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् * भाषाया ये नियमाः मन्लि, तेषां प्रतिरपदंश-भाषायामपि जायते । यथा---
शीर्ष शेखरः क्षणं विनिर्मास्तिम्, शरणं कण्ठे प्रालम्बं कृतं रत्या।
विहितं क्षणं मुण्डमालिकायां यत्प्रणयेन,तन्नमत कुसुम-दाम-कोदण्डं कामस्य ।।१५॥
भावार्थ:-कामदेवप्रभावं विनिष्टि । कामस्य-कामदेवस्य, तत् कुसुम-दाम-कोदण्डम्, कुसुमानापुष्पाणां दाम-माला सदेव कोदण्ड:-धनुः यस्य तं नमत नमस्कारं कुरुत। कोश नद धनः ? भगवत्या रत्या-कामदेवगा पुर क्षण भारत की शिक्षा हाशिरोभूषणं विनिर्माषितम्-विहितम् । पुनः किम्मूतं तद धनः ? रस्या कण्ठे क्षणं यावत् प्रालम्ब-कण्ठाभरणं कृतम्-प्रीवा-हारतया स्थापितम् । पुनः किम्भूतम् तव धनुः? यत्नर प्रणयेम-स्नेहेन 'निजकण्ठलम्बियां मुण्ड-मालिकायाम्-माला एव मालिका, मुण्डाना-नरमुण्डा मालिका, तस्यां विहित-संयोजितम् ।
शीर्षे । शीर्ष + हि ! २६० स० शकारस्य षकारस्य च सकारे, ३५० स० रेफलोपे, १००५ सू० डिना सह अकारस्य स्थाने इकारे सीसि इति भवति । अत्र ३६३ सू० द्वितीय-सकारस्य द्वित्वं न जातम् । शेवाः। शेखर + सि । २६० म० शकारस्थ सकारे, १८७ सू० खकारस्य हकारे, १००२ स०प्रकारस्य उकारे,१०१५ स० से नोंपे मेहरू इति भवति । क्षणम् । क्षगा + अम् । २७४ सूक्षस्य स्वकारे, १००२ सू० प्रकास्य उकारे,१०१५म प्रमो लोपे खण इति भवति । विनिर्मापिसम । वि-निर-पूर्वकः माधोतः विनिर्माणे।विनिर्मा-जिग+क्त-त । २२६ सकारस्य णकारे ३५० स० रेफस्य लोपे, तर मकारद्वित्त्वे, ६३६ स० णिगः स्थाने प्रति इत्यादेशे,१० स० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, सिप्रत्यये, प्रस्तुतस्य-" शेऽपि शौरसेनोवत कार्य भवति" इति कथनेन ९३१ स० तकारस्य दकारे, १००२ सू० प्रकारस्थ रक रे, १०१५ सू० सेलोपे विणिम्मयितु इति भवति । कण्ठे - कण्ठि, प्रक्रिया १०११ सूत्रस्य तृतीयश्लोके ज्ञेया । प्रालम्बम् । प्रालम्ब+सि । १०६९ सू० रेफस्य लोपे,२३ सूत्रे "वचिद अमनपस्थापि" इति कथनेन मकारस्याऽनुस्वारे,१००२ सू० अकारस्य उकारे, १०१५ सू. सेलोप पालंतु इति भवति । कृतम् । कृत+सि । १२८ सू० ऋकारस्य इकारे, प्रस्तुतसूत्रस्य बलेन ९३१ सू० तकारस्य दकारे, १००२ सू० अकारस्थ उकारे, १०१५ सू० सेर्लोपे किदु इति भवति । रस्या। रतिटा। प्रस्तुतसूचस्य बलेन ९३१ सू० तकारस्य दकारे, ५१८ सू० टाप्रत्ययस्य एकारे रविए इति भवति । विहितम् । विहित+सि । स्दुि-वदेव विहिदु इति साध्यम् । मुण्ट-मालिकायाम् । मुण्ड-मालिका+डि। १७७ सू० ककारलोपे, १० स० स्वरस्य लोपे, अज्झोने परेण संयोज्ये, १००१ स० लकारस्थस्य प्राकारस्य इकारे,५१८ सू जियत्ययस्य एकारे मुण्डमालिए इति भवति । यत्-जे, प्रक्रिया १०९१ सूत्रस्य द्वितीयश्लोके शेगा। प्रणयेन । प्रणय +टा। १०६९ सू० रेफस्य लोपे, १७७ सू० यकारलीये, १०१३ सू० टाप्रत्ययस्य ण कारे, स्थानिवत्वात् १००४ सू० प्रकारस्य एकारे परगएण इति भवति । तत्रु - तं; प्रक्रिया १०२१ सूत्रस्य प्रथमश्लोके ज्ञेया। नमत । म-निम्]-धातुः नमने । नम् + त । ९१० स० अकागग मे,प्रज्झीने परेण सयोज्ये, १०५५ सू० त इत्यस्य हु इत्यादेश नमहु इति भवति । कुसुमबाम-कोदयम् । कुसुम-दाम-कोदण्ड-+-अम्' ! १००२ सू० प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० अमो लोपे कुसुम-दाम-कोदण्ड इति भवति । कामस्य । काम +स् । १००९ सू० इसः स्थाने हो इत्यादेशे कामहो इति भवति । विनिर्मापितम् - विणिम्मविदु, कृतम् - किदु, रत्यारदिए, विहितम् विहिदु इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रवलेन शौरसेनो-भाषा-बत्त्वात् ९३१ सूत्रेण तकारस्य दकारो जातः ।। *मुडमालिका मानिया पर वायत, हात पौराणिकी-fafani
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्पपादा * अथ शौरसेनी भाषा के सम्मान विधि ★ शौरसेनी भाषा के विधि-विधान का वर्णन पोछे ६३१ वें सूत्र से ले कर १५६ वें सूत्र तक किया जा चुका है। अपभ्रश-भाषा में भी शौरसेनो भाषा के विधिविधान का प्राश्रयण किया जाता है। इसी तथ्य को प्रस्तुत प्रकरण में सूत्रकार बतलाने लगे हैं
१९१७-अपभ्रंश-भाषा में प्रायः शौरसेनी-भाषा के समान कार्य होता है। जैसे ---
शीर्षे शेखरः क्षण विनिर्मापितम्, क्षणं कण्ठे पालम्चं कृतं रत्या। विहितं क्षरणं मुण्डमालिकायो यत् प्रणयेन, तन्नमत कुसुम-वाम-कोण कामस्य ॥१॥
अर्थात-कामदेव के उस पुष्प-माला-प धनुष को प्रेम के साथ नमस्कार करो, जिसे रति [कामदेव की पत्नी ने एक क्षण में तो सिर का प्राभूषण बना लिया है, और क्षण भर में उसे अपना पालम्ब हार [वह हार जो कुत्रों तक लम्बा हो] बना डाला है और क्षणभर में मुण्डमालिका [खोपड़ियों को माला] के ऊपर रख दिया है। यहां अपभ्रशभाषा में १--विमर्मापितम् - विणिभ्मविदु [बना दिया है], २--कृतम् -किदु [किया], ३-रस्था--रदिए [रति ने], ४-विहितम् =विहिदु [किया] इन पदों में शौरसेनी भाषा के ९३१ में सत्र से तकार को दकार किया गया है ।
* अथ व्यत्यय-विधिः * . १११८-व्यत्ययश्च । ८ । ४ । ४४७१ प्राकृतादि-भाषा-लक्षणानां व्यत्ययश्च भवति । यथा मागध्या निश्चिा : [४,२६म इत्गुन त प्राकृत-पैशाचो-शौरसेनीष्वपि भवति । चिष्ठदि । अपभ्रशे रेफस्याऽधो वा लुगुक्तो मागध्यामपि भवति । शह-माणुश-मंश-मालके कुम्म-शहन-बशाहे शंचिदे इत्याद्यन्यदपि द्रष्टव्यम् । न केवलं भाषा-लक्षणानां त्याचादेशानामपि व्यत्ययो भवति । ये वर्तमाने काले प्रसिद्धास्ते भूतेऽपि भवन्ति । अह पेच्छइ रहु-तगानो। अथ प्रेक्षांचक्रे इत्यर्थः । प्राभासह रयणीपरे । पावभाषे रजनी वरानित्यर्थः । भूते प्रसिद्धा वर्तमानेऽपि । सोहीन एस वण्ठो। शृणोत्येष वण्ठ इत्यर्थः ।
* अथ व्यत्यय-विधिः * व्यत्यय-शब्दः परिवर्तनाऽर्थको विद्यते । प्राकृत-शौरसेनी-प्रभृति-भाषा-नियमानामपभ्रंश-भाषायां व्यत्ययो जायते । अयं भावो यत् प्राकृतादि-भाषाणां नियमा अपभ्रंश-भाषायामपि प्राद्रियन्ते । प्रस्तुत-प्रकरणेऽयमेव व्यत्ययो निरूप्यते । यथा
१९१८-प्राकृतादि-भाषा-लभरणानाम् । प्राकूल-शौरसेनी-प्रतिभाषासु यानि लक्षणानि-नियमाः सन्ति,तेषां व्यत्ययः-परिवर्तनं जायते। प्राकृतभाषानियमाः शौरसेन्यादि भाषासु समाश्रिता भवन्ति, शोरसैन्यादिभाषा-नियमाश्च प्राकृतभाषायां प्रयुज्यन्ते । यथा--- मागधी-भाषायां ९६९ सूत्रेण स्थाधातुनिष्पन्नस्य तिष्ठ इत्यस्य पदस्य विष्ठ इत्यादेशो जायते, तथैव प्राकृत-पशाचो-शौरसेनी भाषास्वपि संजायते । यथा-तिष्ठति । ष्ठा [स्या]-धातुः गतिनिवृत्ती । स्था-+-तिन् । संस्कृतनियमेन तिष्ठ+तिब् इति जाले, १११८ सू० भाषाव्यत्यये जाते, ९६९ सू० तिष्ठ इत्यस्य चिष्ठ इत्यादेशे. ६२८ सू० शिव इचादेशे, ९४५ सू० इच: स्थाने दि इत्यादेशे चिठवि इति भवति । चिठवियत्र प्रस्तुतसूबबन ९६९ इत्यस्य
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सुर्यपाः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपैतम् * मागधीभाषा-नियामकस्य सूत्रस्य मागधीभिन्नभाषायां प्रवृत्तिजीता। अपभ्रो रेफस्याऽधो बा । पपभ्रंश भाषायां १०६९ सू० अधोतिनः-पश्चालिनः रेफस्य लोपे विधीयते, स च मागण्यामपि भवति । यथा--शतमानुष-मांस-भारकः । कुम्भसहन-वसायाः समितः । शतानि मानुषाः शतमानुषाः, तेषां मांसानि,शतमानुषमांसानि,तेषां भारक:-भारवाहकः, सः । कुम्भानाम्-घटानां सहस्राणि,तेषु वसा [चरबी इति भाषायाम्] कुम्भसहस्रबसा, तस्या:-तया प्रत्र तृतीयाऽर्थे षष्ठी वर्तते, संचित:-पूर्णः। शत मानुषमांसभारकः । शतमानुष-मांस-भारक+सि । २६० सू० शकारस्य षकारस्य च सकारे,९५९ सू० उभयपाऽपि सकारस्य शकारे, ९३१ सू० तकारस्य दकारे,२२८ स नकारस्य णकारे,७० सू० मांस-स्थस्या
कारस्य प्रकारे, ९५९ सू० मासस्थस्य सकारम्प शकारे,९५९ स० रेफस्य लकारे,९५८ सू० प्रकारस्य एकारे, ११३७। सू० सेरिकारस्य लोपे, ११ सू० सकारस्थ लोपे शब-माश-मंश-भालके इति भवति । म्भराहता-ATREE सदस- साहसि । ९५९ स० सर्वत्र सकारस्य शकारे,वैकल्पिकलात् १०६९ सू.० रेफस्य लोपाऽभावे, १०२१ सू० सेः स्थाने हे इत्यादेशे कुम्भ-शहनवशाहे इति भवति । प्रस्तुतसूत्रबलेन शहन इत्यत्र मागधी-भाषा-शब्दे अपभ्रश-भाषा-नियामकस्य १०६१ सूत्रस्य प्रवृत्तिजाता। संषितः । संचित+सि । ९५९ सू० राकारस्य शकारे, ९३१ मतकारस्य दकारे, ९५८ सू० अकारस्य एकारे, श११३७। स० सेरिकारस्य लोपे, ११ सू० सकारलोपेखिये इति भवति । इत्याचन्यपि द्रष्टव्यम् । इत्यादीनि अन्यान्यपि शब्दानि द्रष्टव्यानि, मागध्या संभावितुमर्हन्ति । न केवलं भाषा-समरणाणाम् । भाषाणाम्-प्राकृतादि-भाषाणां लक्षणानि-नियमाः, भाषालक्षणानि, सेषामेव केवलं ध्यत्ययो न भवति, प्रत्युत त्याना देशानामपि व्यत्ययो भवति । ति प्रादियेषां ते पादयः, तेषामादेशानां त्याखावेशानाम् । प्राकृत्तादिभाषासु ये त्याद्यादेशाः वर्तमानकाले प्रसिद्धाः, ते भूतकालेऽपि भवन्ति । यथाअपप्रेक्षाधके रघुलनमः । श्रम अव्ययपदमिदम् । १८७ स. थकारस्य स्थाने हकारे अह इति भवति । प्रेक्षामा प्रपूर्वक: ईक्ष-धातुः प्रेक्षणे । प्रे म । १०६१ स० रेफलोपे, ९१० सू० धातोरन्तेऽकारागमे, २७४ सू० क्षस्य छकारे, ३६० सू० छकारद्विस्वे, ३६१ सू. पूर्वछकारस्य वकारे, प्रस्तुतसूत्रेण त्याचादेश-व्यत्ययो जातः, अतएवात्र भूतेऽर्थे वर्तमानकालिके तिव-प्रत्यये कृते, ६२८ सू० तिवः स्थाने इचादेशे पेच्छाइ इति भवति । रधुतनयः ! रघो; तनयः रधुतनयः । रघुतनय सि । १८७ सू० धकारस्य हकारे, २२८ सू० मकारस्य णकारे, १७७सू० यकारलापे, ४९१ सू० सेडोः, डिति परेऽन्स्यस्परादेलोप रहुतरमओ इति भवति । पावभावे । प्राइ-पूर्वकः भाष्-धातुः प्राभाषणे। आभाष + । ९१० सू० प्रकाराममे, २६० स० षकारस्य सकारे, [आवभाषे इत्ययं प्रयोगः भूलकालिको वर्तते, किन्तु प्रस्तुतसूत्रेण भूतकालिकस्य प्रत्ययस्थ स्थाने वर्तमानिकालिके तिव-प्रत्यये जाते] ६२८ सू० तिव इचादेशे प्राभासद इति भवति । रजनीचरान् । रजनीं वरन्तीति, तान। रजनीचर+शस्। १७७ सूजकारलोपे, १८० स० यकारभुती, २२८ सू० नकारस्य प्रकारे, १७७ सू० चकारलोपे, ४९३ सू० जसो लोपे, स्थानिवत्वात् ५०३ स० अकारस्प एकारे रयसी-अरे इति भवति । सूते प्रसिद्धो वतमानेऽपि । भूतकाले प्रसिद्धा:-टाः ये प्रत्ययाः भवन्ति ते वर्तमानेऽपि सजायन्ते । यथा--भूरगाति । श्रु-धातुः श्रवणे। श्रु+ति । १०६९ सू० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, ९०८ सू० उकारस्य प्रोकारे, भणोति इति वर्तमानकालिका प्रयोगः,प्रस्तुतसूत्रस्य बलेन भूतकाले ये इष्टा: प्रत्ययास्ते वर्तमानकालेऽपि भवन्ति, प्रतएबाब बर्तमानकालिक तिव-प्रत्ययस्य स्थाने ६५१ सू० भूतकालिके होम इत्यादेशे सोही इति भवति । एषः। एतद्+सि। ५७४ सू० सिना एह एतका स्थाने एस स्थावेशे एल इति भवति ।
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३८२ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुषंपादा घण्ठः । वा+सि । १००३ सू० प्रकारस्य प्रोकारे, १०१५ सू० सेलोपे वण्ठो इति भवति । वण्ठः प्रविवाहितः पुरुषः भूत्यो वा भवति । शृणोति सोहीन इत्यस्मिन् वर्तमानकालिके प्रयोगे प्रस्तुतसूत्रस्य बलेन वर्तमानकालिक-तिव-प्रत्ययस्य स्थाने ६५१ सूत्रेण भूतकालिकः हीन इत्यादेशो जातः ।
* अथ व्यत्यय से सम्बन्धित विनि व्यत्यय परिवर्तन का नाम है । प्राकृत और शौरसेनी प्रादि समस्त भाषायों के नियम प्रपनश-भाषा में भी परिवर्तित किए जा सकते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में इसो परिवर्तन [व्यस्यय का निर्देश किया जा रहा है
१११५ प्राकृत आदि भाषाओं के लक्षणों [नियमों का व्यत्यय हो जाता है। अर्थात् एक भाषा के नियम दूसरी भाषा में भी लागू हो जाते हैं । जैसे-मागधीभाषा में ९६९ सूत्र से स्थाषातु से सम्बश्चित तिष्ठ के स्थान में मिठ यह प्रादेश होता है,परन्तु यही मादेश प्राकत, पैशाची और शौरसेनी भाषा में भी हो जाता है। जैसे - तिष्ठति' इस पद का सिष्ठदि [वह ठहरता है] यह रूप मागणीभाषागत होने पर भी प्राकृत प्रादि सभी भाषाओं में प्रयुक्त किया जा सकता है। अपने श-भाषा में अषो-रेफ संयुक्त वर्ण में दूसरा रेफ] का १०६९ ३ सूत्र द्वारा विकल्प से लोप किया जाता है, परन्तु यही नियम मागषी भाषा में भी ग्रहण हो जाता है । जैसे. .. समानुष-मांस-भागकः । कुम्भ-सहल-वसायाः सञ्चितः शद-माणुश-मंश भालके । कुम्भ-शहसम्बशाहे शंचिदे [सेकड़ों मनुष्यों के मांस को उठाने वाला, हजारों घड़ों की घरवी से पूर्ण] यहां कुम्भ-सहस्त्र-वसामा: कुम्भ-शहर बशाहे हजारों घड़ों में विद्यमान चरबी का] इस पद में पठित शहन इस शब्द में अपभ्रंश भाषा के १०६९ चे सूत्र द्वारा वैकल्पिक रेफ-लोप नहीं हो सका। इसी प्रकार अन्य उदाहरण भी समझ लेने चाहिये।
इस के अतिरिक्त, यह भी समझ लेना चाहिए कि केवल प्राकत, शोरसेती अादि भाषा के नियमों का तथा ति पादि प्रत्ययों के स्थान में होने वाले वाद घादेशों का ही प्रत्यय [परिवर्तन] नहीं होता,प्रत्युत जो प्रत्यय वर्तमान काल में प्रसिद्ध हैं। अर्थात् वर्तमान काल में होते हैं,वे भूतकाल में भी हो जाते हैं । जैसे .. अथ प्रेक्षायके रघुतनयः ग्रह पेच्छइ रहु-तणनो [इस के अनन्तर रधु के तनय-लड़के ने देवा), २-आवभाषे रजनीबारानाभासद रयणीमरे [पाक्षसों को कहा] यहां पर पठित १-प्रेक्षांचक्रे तथा -मायभाये ये भूतकालीन क्रिया-पद प्रसिद्ध है किन्तु व्यत्यय-विधायक प्रस्तुत सूत्र ने भूतकाल में वर्तमान कालिक प्रत्यय करके प्रेक्षांचके का पेच्छा [उस ने देखा तथा आसमाये का आभास उस ने कहा यह रूप बना दिया है। यहाँ प्रत्यय बतमान कालिक है, किन्तु अर्थ भूतकालीन किया जाता है। कहीं पर प्रत्यय भूनकाल का रहता है परन्तु अर्थ वर्तमान काल का किया जाता है । जैसे-शृणोत्येष वण्ठः सोहीन एस बघठो [यह बण्ठ [अविवाहित पुरुष, नौकर] सुनता है] यहां भूतकालिक प्रत्पत्र होने पर भी मर्थ वर्तमामकालिक है।
* अथ संस्कएप-भाषा-जम्मान-विधिः * १११६-शेषं संस्कृतवत् सिद्धम् । ८ । ४ । ४४८ । शेषं यदत्र प्राकृत-भाषासु अष्टमे नोक्त तत्सप्ताऽभ्यायो-निबद्ध-संस्कृत-वदेव सिद्धम् ।..
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकास्योपेतम् * हेट-ट्ठिय-सूर-निवारणाय छत्त प्रहो इस वहन्ती।
जयइ ससेसा बराह-सास-दूरुपलया पुहवी ॥१॥ अत्र चतुर्थ्या: आदेशो नोक्तः । स च संस्कृतवदेव सिद्धः । उक्तमपि क्वचित् संस्कृत-बदेव भवति । यथा प्राकृते उरस्-शब्दस्य सप्तभ्येक-वचनान्तस्य उरे,उरम्मि इति प्रयोगौ भवतस्तथा कचिदुरसि इत्यपि भवति । एवं सिरे, सिरिम्मि, सिरसि । सरे, सरम्मि, सरसि । सिद्ध-ग्रहणं मङ्गलार्थम् । ततो ह्यायुष्मच्छ्रोतृकताऽभ्युदयश्चेति ।
इत्याचार्य-श्री-हेमचन्द्र-विरचितायां सिद्धहेम-चन्द्राभिधान-स्वोपश-शब्दानुशासन-वृत्तावष्टमस्याऽध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । समाता चेयं सिद्ध-हेमचन्द्र-शब्दानुशासन-वृत्तिः प्रकाशिका नामेति ।
* 'यार्थः पात: समाप्तः * * अथ संस्कृत-भाषा-समान-विधिः * हैमशब्दानुशासनस्य व्याकरणस्य अष्टाध्यायाः सन्ति । प्रादिम-सप्ताऽध्यायेषु संस्कृतभाषायाः विवेचनं विहितम् अन्तिमेऽष्टमाऽध्याये च प्राकृत-शोरसेनी-प्रभृति-षड्-भाषाणां विधिविधान निरूपितमस्ति । संस्कृतभाषायाः नियमाः प्राकृतादिभाषास्वपि समाश्रिताः भवन्ति । प्रतएव प्रस्तुतप्रकरणे सूत्रकारेण संसूच्यते यत् प्राकृतादिभाषासु ये नियमाः न प्रतिपादिताः सन्ति ते सर्वे नियमा: सप्ताघ्यायी-निबद्धस्य संस्कृतभाषा-व्याकरणस्य तुल्यमेव प्राकृतादिभाषास्वपि संगृहीतव्याः भवन्ति । यथा
१९९६-शेषं यत्र । हैमशब्दानुशासनस्य अष्टमाऽध्याये वणितासु प्राकृत-शौरसेनी-मागधीपैशाची-चूलिकापैशाची-अपभ्रंश-भाषासु यद् विधिविधान नोवतं तत्सर्व सप्ताध्यायी-निबद्ध-संस्कृतभाषा-बदेव जयम् । सप्तानामध्यायानां समाहारः इति सप्ताध्यायी, तस्यां निबद्धम्-विनिमितं यत् संस्कृतम्-संस्कृतव्याकरणम्, तत् सप्ताध्यायी-निबद्धसंस्कृतम्, तेन तुल्यमिति सप्तध्यायो-निबद्ध-संस्कृतवदिति । सस्कृत-भाषाया ये नियमास्ते प्राकृतादिभाषास्वपि समाश्रियन्त इति भावः । यथा----
अपस्थित-सर-मिवारणाय छत्र प्रषः इव वहन्ती।
जयति सशेषा वराह-श्वास-दूरोक्षिप्ता पृथिवी ३१॥ भावार्थ:--पौराणिक-मतानुसारेण यदा हिरण्य-राक्षसेन सर्वमेव ब्रह्माण्डमालं न्युजीकृतमासीत्तदा भगवता नारायणेन तत्समीकरणाय वराहस्याऽवतारो गृहीतः,तमेव वर्णयति-प्रमस्थित-सूरनिवारणाय । अयं भाव:-- पृथ्व्याः न्युब्जीकरण दशायां पातालस्थितानां प्राणिनामातपनिवारणाय भगवता नारायणेन पृथ्व्याः पूर्वावस्थासम्पादनं कृतपतएव पातालस्थितानां प्राणिनां कृते छत्रत्वमुपपन्न पृथ्व्याः,फलतः अधःस्थित-सूर-निवारणायेत्युक्तम् । पृथिवी-भूमिः, किम्सूता पृथिवी ? अबछानमिव वहन्ती-प्रधःस्थितानां प्राणिनां कृते छवमिव जायमानी, पुनः किम्भूता ? वराह-श्यास-पूरोस्क्षिप्ता, वराहस्य-शूकरस्य श्वासः, तेन दूरोक्षिप्ता, दूरे उत्क्षिप्ता, इति दुरक्षिप्ता, पुनः किस्मृता पृथिवी ? सशेषा । शेषेण शेषनागेन सह वर्तमाना, जयति-सर्वोत्कृष्टा दृश्यते, जयशीला वर्तते ।
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः अषास्थित-सुर-मिवारणाय । अधःस्थित-सूर-निवारण+हे। ४१२ सू० अधसूशब्दस्य हे? इस्यादेशे, स्थित-इत्यत्र ष्ठा [स्था] + क्त-स इति जाते, ६८७ सू० स्थावातोः स्थाने हा इत्यादेशे, ३६० सू० ठकारद्वित्वे, ३६१ सू० पूर्वठकारस्य टकारे,१००० सू० प्राकारस्म प्रकारे, ६४५ १० अकारस्य ईकारे,१७७ सू० तकारलोपे,बाहुल्येन १८० सू० यकारश्रुतौ,संस्कृत-नियमेन डे इत्यस्य प्रत्ययस्य यकारे, पूर्वदीर्धेच हेट-हिय-सूरनिवारणाय इति भवति । छत्रम् । छत्र+मम् । १०६९ सू० रेफस्य लोपे, ३६० ससकारद्विस्थ ४९४ स.प्रमोऽकारलोपे, २३ स. मकारानुस्वारे छस इति भवति । अषः । व्ययपदमिदम् । १८७ सू० षकारस्य हकारे, ३७ सू० विसर्गस्य डो इत्यादेशे, डिति परेऽन्त्यस्वरादेर्लोपे, मज्झीने परेण संयोज्ये अहो इति भवति । इव । अध्ययपदमिदं संस्कृतवदेवाऽपभ्रशे प्रयुज्यते । बहसी। वह प्रापणे। बह+शतृ । ९१० सू० प्रकारागमे, ६७० सू० शतुः स्थाने न्त इत्यादेशे, स्त्रीत्वविवक्षायां ५२१ सू० डी-(ई)-प्रत्यये,१० सू० स्वरस्य लोपे,प्रज्झीने परेण संयोज्ये, १०१५ सू० सेोपे बहती इति भवति । जयति । जि जये। जि+ति । संस्कृतनियमेन जय+लिव् इति जाते, ६२८ स० तिवः स्थाने इचादेशे जया इति भवति । सशेषा । सशेषा+सि । २६० सू० शकारस्य षकारस्य च सकारे, १।११३७ सू० सेरिकारलोपे, ११ सू० सकारस्य लोपे ससेसा इति भवति । वराह-श्वास-दूरोसप्तर। वराह-वास-दूरोक्षिप्ता+सि ! ३५० सू० संयुक्त-वकारलोपे, २६० स० शकारस्य सकारे, ९२९ सू० उत्क्षिप्ता-शब्दस्य उक्तुया इत्यस्य प्रयोगे वराह-सास-दुर+ सुक्खुवा+सि इति जाते,१० सू० स्वरस्य लोपे, अज्झीने परेण संयोज्ये, ११३७ सू० सेरिकारस्थ लोपे, ११ सू सकारस्य लोपे वराहसास-दृश्यखया इति भवति । पृथिवी । पथिवी+सि । १३१ सू० ऋकारस्य उकारे, १८७ सू० थकारस्व हकारे, ८ स. प्रादेरिकारस्व प्रकार, पूर्ववदव सेलोप पुहवी इति भवति । अत्र चतुर्थाः आवेशो नोक्तः । प्राकृतादिभाषासु चतुर्थीविभक्तेः स्थाने न कोऽध्यादेशो विहितः। स चाऽत्र संस्कृत-भाषानुल्य एव बोध्यः । यथा संस्कृते डेप्रत्ययस्य स्थाने यकार: पूर्वदीर्घश्च भवति, तथैव प्राकृतादि-भाषास्वपि भवति । यथा-हेट-ट्रिय-सर-निवारणाय इत्यस्य प्राकृतादि-भाषा-शब्दस्य प्रस्तुतसूत्रबलेन संस्कृत-भाषावदेव हेप्रत्ययस्य स्थाने यकारादेशः पूर्वदीर्घश्च जातः। उपतमपि-कश्चिद 1 प्राकतादि-भाषासु कचित-कस्मिश्चित् स्थाने उक्तम्-मणितमपि संस्कृतवदेव भवति । यस्य शब्दस्य विधिविधानं प्राकृत भाषायां भणितमपि वर्तते तथापि कुत्रचित्तस्य शब्दस्य संस्कृतभाषानिष्पन्नमपि रूप प्राकृत-भाषायो ग्राद्रियते। यथा-प्राकृतभाषायाम् उरस-शब्दस्य सप्तम्येक वचनारतस्य चरे, उरम्मि इति द्वे रूपे भवतः, संस्कृतभाषायामस्य शब्दस्य सप्तम्येकवचनान्तस्य उरसि इति रूप भवति । प्रस्तुःसूत्रस्य बलेन उमि इति संस्कृत-भाषा-निष्पन्नमपि रूप कस्मिंश्चित् स्थले प्राकृत-भाषायां संगृह्यते । उरे, उरम्भि इत्यनयोः साधना स्वित्थम् --उरसि । उरस् +टि । ५०० सू० डिप्रत्ययस्य स्थाने हे [ए], इत्यादेशौ भवतः, यत्र डे [ए] इत्यादेशो जातस्तत्र उरस्+ए इति जाते, डिति परेछन्त्यस्वरादेर्लोपे उरे, मि इत्यादेशे तु उरस+म्मि इति जाते,११ सू० सकारलोपे उरम्मि इति भवति । एवम् । एवमेव-अनयेव रील्या शिरसि इत्यादीनि संस्कृतभाषानिष्पन्नानि रूपाण्यपि प्राकृतभाषायां कुत्रचित् संगृह्यन्ते । यथा--शिरसि । शिरस+डि । २६० सू० शकारस्य सकारे, ५०० सू० ३: स्थाने डे [ए], म्मि इत्यादेशो, पूर्ववदेव तिरे, सिरमिम इति भवति । किन्तु संस्कृतभाषासिद्ध सिरसि इति रूपमपि प्राकृते क्वचिद् आद्रियते। सरसि । सरस+कि । पूर्वबदेव सरे, सरम्मि इति भवति । किन्तु प्रस्तुतसूण प्राकृते क्वचित् सरसि इति संस्कृतसिद्धरूपमपि गृह्यते । विवाह मङ्गलार्थम् ! १११९ सूत्रे "शेष संस्कृतवन्" इति कथनवासी
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चतुर्षपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् * कार्यविः , सहि किमय स्खपदस्म ग्रहणम् ? उत्तरयात वृत्तिकारो यात्र मिक्षपदग्रहणं मलार्थ सम्बोध्यम् । मङ्गलम् यः-प्रयोजनमस्थ सद् मङ्गलार्थ : मङ्गलशमधस्येमे बोध्या: १-मग्यते-- मधिराम्पते हितमनेनेति मङ्गलम् । २-मां गलति भवात, संसागदपनयीति मङ्गलम्, ३-महाज्यते अलहिपते प्रात्मा येनति मङ्गलम्,४ मद्यन्ते--पूज्यन्तेऽनेनेति मगलम,५--मोबन्तेऽनेनेति मङ्गलम्, ६ ....
म हिला समय : मनानम् सिद्धप६ माङ्गलिकमिति सारांशः । सतो हा. शोकतायुवया सिद-शब्दस्य महगल-जमकत्वं भवतीति सर्वविदितं बससे,सेन मङ्गलेन कार्यद्वयं सिध्यति । यथा--श्रीतगामध्येतृणाचाध्ययनकर्तृत्वं चिरस्थायि भूमात्, तथा लेषामभ्युदयश्व भवेदिति । अभ्युदयः लोककी ठिा उन्नतिश्च । ग्रहस्पिदम् श्राता एव श्रोतृका, तस्य भावः श्रोतृकता, प्रायुरस्ति प्रस्यामिति घायुष्मती, श्रायुष्मती चासो श्रोतृकता इति आयुष्मन्छ।तृकता ।
___ इत्याचार्य श्री-हेमचन्नः । इति शब्दोऽत्र पूर्वसन्दर्भस्थ संसूचकः । प्राचार्यश्चासौ श्री-हेमचन्द्रा प्राचार्य-श्री-हेमचन्द्रः, तेन विरचितायाम्-निर्मितायाम्, इत्याचार्य-श्री-हेमचन्द्र-विरचित्तायाम् । सिद्ध हेमचन्द्रः अभिधाल-नाम यस्य तत् सिद्धहेमचन्द्राऽभिधानम्। स्वस्य उपज्ञा-स्वयं प्राप्त ज्ञान,यत्परम्परया नोपलब्ध तत् स्वोपर्श, स्वोपज्ञ व सत् शब्दानुशासनम् [व्याकरणम् ] स्वोपक्ष-शब्दानुशासनम् । सिद्ध हेमचन्द्राभिधानं च तत् स्वोपज्ञ-शब्दानुशासनम्, सिद्ध-हेमचन्द्राभिधानस्वोपजन्दानुशासनम्, तस्य वृत्ती-सूत्रार्य, सिद्ध-हेमचन्द्राभिधानस्वोपन-शब्दानुशासनवृत्तो प्रस्टमस्य मध्यायस्य [प्रस्तुतस्य प्राकृत व्याकरणस्य ] चतुर्थः पादः समाप्त-समातिं गतः । .
समासाधेयम् । इयं प्रकाशिका नामधेया सिद्धहेमचन्द्र-शब्दानुशासनस्य [हेमशब्दानुशासनस्य] वृत्तिः-टीक व्याख्या समाप्ता-समाप्ति गता। यदा मूल ग्रन्थे बि-हेमचन्द्र-शब्दानुशासन-वृत्तिः समान प्ति गता तदाऽस्मदीया तद्-याख्याश्री बालमनोरमाऽख्या संस्कृतव्याख्याधि समाप्तिमेति ।
अपभ्रंश-गिराया हि, ढोका बालमनोरमा । पात्मगुरोः प्रसादन, पूर्ण मानेनिर्मिता ॥१॥ *आतुर्थपाकोऽयं विपुलतर-साझाम-भरितः, सहायो म्युत्पित्सोभवतु मितरा कण्वकसितः । स्वचित् स्यात् तदा पनि कठिनता कस्यचिपि, सदेपं टोका स्यात सु-सुहदिव साहास्यकरणी ॥२॥ हवं हेमं सा-व्याकरबमभितः प्राकृतमिराम
समर्थ व्याख्या पुनरपि तवर्षाऽवगतये । *विपुलत्तर-पेष्ट-मानेन भरित:-पूरिसोऽयं चतुपावः म्युस्पिरसो:-त्युत्पत्तिमिलतो अस्य मितरामतिर कन्छकलियः सम-स्मृती धारिता सन् महाय:-सहायको भवतु । यदि कुचित कस्मिश्चित् स्थले. दो, भ्याकरस-मूमसुत्राला माने विमलने कम्बचिदपि कठिनता स्वेतवा इयं प्रस्तुमा बाममनोरमा संसात-टीका सु-महात-प्रिमिय इस सारणी-सहायताधात्री महत तापम शिर्वाणी अन्नः।
मन-हेमचारिभिििमतं सद-ने मन्येभ्या आकृतम्या ऐम्या, साकरणम्-सम्मानुमासनम् अतमिराम पापामवि प्रानभाषाणाम. अभितः सर्वतोभावेन क्याम्यानुसायं प्रदात यावत् । पुनरपि अधिकाधिक समयसारे-पाकरणसूवालामध-विबोधाय प्रचलित-गिराया संस्कृते हिन्दीभावायाच सुसरला प्रत्यन्त सरला टीकामासो. तस्माद तोएवं प्रयासो मया मुनिशानेन्दुना कृतः । इति सूबमधुश्मा डिमो विवाग्तु पिक्षिरिणी-मा
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चतुषपादा ...
पपेक्या टोकासीत प्रचलित-गिरायां ससरला, . . . प्रमासोऽयं सस्मावत इति विजानन्तु सुधियः ॥३॥
* चतुर्पः पारः सम्पूर्णः * कथामा-मादा यो रमान होने वाली विधि *
प्राकृत और शौरसेनो प्रादि षड्विध भाषाओं का विधि-विधान हैमशब्दानुशासन नामक व्याकरण के अष्टमाध्याय के १११८ सूत्रों में निरूपित किया गया है। प्राकृत प्रादि समस्त भाषाओं के कुछ एक नियम ऐसे भी हैं जो उक्त १११८ सूत्रों में वर्णित नहीं किए जा सके हैं। प्रतः उन नियमों को हैमशब्दानुशासन के सप्ताध्यायोरूप संस्कृत-व्याकरण से ग्रहण कर लेना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण में इसी बात का वर्णन किया जा रहा है। .. १११-इस मष्टम अध्याय में १- प्राकृत, २-शौरसेनी, ३-मागधी. ४-पेशाची, ५प्रतिकार्यशाची.मौर ६-अपनश इन ६ भाषाओं के जो नियम नही बताए गए हैं, वे सप्ताध्यायी में दिए गए संस्कृत-भाषा के नियमों के समान ही जानने चाहिए। हमशम्यानुशासन व्याकरण के आठ अध्याय हैं। पहले के सात अध्यायों में संस्कृत भाषा के विधि-विधान का वर्णन किया गया है और माठवें अध्याय में प्राकृत प्रादि यह भाषामों का निरूपण कर रखा है। सूत्रकार फरमाते हैं कि प्रस्तुत मोटसाध्याय में प्राकृत मावि भाषामों का जो विधिविधान नहीं कहा गया,वह सब पहले सात प्रध्यायों में वर्णित संस्कृत-भाषा की भांति ही सिद्ध है । अर्थात् उसी के समान समझ लेना चाहिए । बसे--
प्रवास्पित-सूर-निवारणाय, छत्रं पधः इव वहन्ती ।
बपति सवा दराह-श्वास-शेरिक्षप्ता पृषिको । १॥ अर्थात् वराह के श्वास द्वारा दूर तक ऊपर को उठाई गई तथा शेष नाग से युक्त पृथ्वी भानों अधःस्थित सूर्य के प्रातप का निवारण करने के लिये छत्र का रूप धारण कर रही है । ऐसी पृथ्वी की विजय हो । पौराणिक मान्यता है कि हिरव्या राक्षस ने समस्त ब्रह्माण्ड को उलटा दिया था। ब्रह्माण्ड को उलटा देने पर सूर्य देव भूतल के नीचे आ गए । प्रधःस्थित सूर्य के भयंकर परिताप को सहन न कर सकने के कारण पाताल-निबासी जनजीवन को सूर्य जन्य परिप से सुरक्षित करने के लिये भगवान विष्णु ने वराह [सयर का अवतार धारण किया । तदनन्तर बराल रूप धारी भगवान ने अपने प्रबल उच्छवासों से ब्रह्माण्ड को सीधा किया। ब्रह्माण्ड के अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाने पर पटवी ने पाताल-निवासियों को छत्र की भांति सूर्यजन्य परिताप से सुरक्षित कर दिया। यहां पर पठित अध:-स्थित वर-निवारणायम्- हेट-ट्ठिय-सूर-निवारणाय नीचे विद्यमान सूर्य को रोकने के लिए] इस पद के निवारणाय इस शब्द में चतुर्थी विभक्सि का प्रयोग किया गया है, परन्तु प्राकृत प्रादि भाषामा में चतूथी विभक्ति के प्रत्यय के स्थान में किसी प्रकार के पादेश का विधान नहीं किया गया है। प्रतःसूत्रकार फरमाते हैं कि प्राकृत प्रादि भाषामों में जिस नियम का विधान नहीं किया गया, वह विधान संस्कृत भाषा के समान ही प्राकृतादि भाषा में ग्रहण कर लेना चाहिये । फलतः चतुर्थी-विभक्ति में प्रत्यय के स्थान में संस्कृत व्याकरण से यकार का प्रादेश करके निवारणाय यह रूप बनता है। इस तरह सस्कृतभाषा के नियम का प्राकृत पाद भाषाओं में भी पाश्रषण कर लिया जाता है।
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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोका-पूथोपेतम् * इसके अतिरिक्त, प्राकृत प्रादि भाषाओं में जिस शब्द का विधिविधान बताया जा चुका है, उसी शब्द का संस्कृत-व्याकरण के आधार पर संस्कृत-भाषा में जो विधिविधान बतलाया गया है, कहीं-कहीं पर सस्कृत भाषा के उस विधिविधान को भी प्राकृत भाषा में ग्रहण कर लिया जाता है। जैसे...रसाद के सप्तमी के एक बचन में प्राकत-भाषा में सौर उरमिछाती में ये दो रूप बनते हैं, और संस्कृत भाषा में इस शब्द का उरसि यह रूप होता है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि प्राकृत भाषा में भी कहीं-कहीं पर संस्कृत-भाषा-निष्पन्न 'उसि' इस रूप का प्राश्रयण कर लिया जाता है। इसी प्रकार शिरस शब्द के मनमी के एक वचन में जहां सिरे,सिरम्मि इन रूपों के प्रयोग प्राकृत प्रादि भाषाओं में चलते हैं, वहीं संस्कृत भाषा-निष्पन्न सिरखिसिर में इस रूप का भी प्राकृतादि भाषाओं में उपयोग होता है। शिस शब्द को भांति सरस शब्द के सरे,सरम्मि और सरस [तालाब में] इन तीनों रूपों का भी प्राकन आदि भाषाओं में उपयोग कर लिया जाता है। भात यह है कि प्राकृत श्रादि भाषाओं में, प्राकृत प्रादि भाषाओं के नियमों से निष्पन्न शब्दों का तो प्रयोग होता ही है किन्तु कहीं-कहीं पर संस्कृत-भाषा-निष्पन्न शब्दों का भी प्रयोग हो जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में पठिन 'सिजुम्" यह शब्द मङ्गल-सूचक है। मंगल का अर्थ है-१-जिस से हित की प्राप्ति हो, जो आत्मा को जन्म-मरण रूप संसार से अलग करताहो,३-जिस से पास्मा शोभायमाम हो, ४-जिस से आम तथा हर्ष की उपलब्धि होती हो, समा ५-द्विारा भात्मा विश्वयूज्य, लोकवन्ध तथा लोकप्रिय बन जाता हो। मंगल से प्रत्येता. विद्यार्थी] और प्रध्यापक [पढाने वाला] सब दीर्घायु होते हैं और अभ्युदय [उन्नति, वृद्धि] को प्राप्त करते हैं........
इस तरह प्राचार्य श्री हेमचन्द्र जी महाराज द्वारा अपनी उपज्ञा स्वयं प्राप्त बोध] से विरचित हैम-शब्दानुशासन की 'सिद्ध-हेमस' नामक वृत्ति [व्याख्या में मटमाध्याय का चतुर्थ पाद पूर्ण होता है। अर्थात प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित हैमशम्दानुशासम नामक च्याकरण के अष्टनाध्याय [प्राकृत-व्याकरण] को प्रकाशिका नाम वाली वृत्ति [व्याख्या] समाप्त होती है। मूल मन्य में प्राकृतव्याकरण के चतुर्थ पाव तथा उस की प्रकाशिका ब्याख्या के समाप्त हो जाने पर इस पर लिखी हमारी आत्मगण-प्रकाशिका" हिन्दी-टीका भी समाप्त हो रही है।
मुनिवर आत्माराम हैं, गुन मेरे भगवान। धर्मविवाकर संयमी, पावन ज्ञान-निधाम ॥१॥ गुरुवारनों को होग, हिल्ली में यूनिभान । सुर्य पाद का है हुआ. परिपूरक व्याल्यानाशा * चतुर्थपाद का विवरण समाप्त *
* अथ ग्रन्थकृत्-प्रशस्ति:* प्रासीद्विशा पतिरमुद्रचतुःसमुद्र
. मुद्रातिकत-क्षितिभर-क्षम-बाहुदण्डः । ...:. :: श्रीमूलराज इति खुर्धर-बैरि-कुम्भि - ...:. . . . . . . ....
कन्ठीरवः शुचि-पुण्य गुलावतंसा ॥१. . .
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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपाया तस्याको समज नि मान-प्रसार
तिग्म-ध्रुतिः क्षिति-पतिर्जयसिंहवेधः । येन स्ववंश-सवितर्यपरं सुधांशी,
श्रीसिद्धराज इतिनाम निजं व्यलेखि ॥२॥ सम्यग् निषेव्य चतुरश्चतुरोऽप्युपायान्,
जिस्वोपभुज्य च भुवं चतुरब्धि-काञ्चीम् । विधा-चतुष्टय-विनीत-मतिजितात्मा,
काष्ठामवाप पुरुषार्थ-चतुष्टये यः ॥३॥ तेनाति-विस्तृत-दुरागम-विप्रकीर्ण
शब्दानुशासन • समूह - कथितेन । सभ्यथितो निरवम विधिवद् व्यवत्त,
शबानुशासनमिदं मुनि-हेमचन्द्रः ॥४॥ प्रन्या ११९५ बलोकाः ।
* प्राकृतव्याकरणं समाप्तम् *
* अथ ग्रन्ध्य-प्रास्तेः शाल्या * प्रयकृत प्रशस्तिः । अन्य-शास्त्र करोतीति ग्रन्गकृत, तेन कृता प्रशस्तिः प्रशंमागां निर्मिता पद्यमयी रचना, विरुदावली इति ग्रन्थकृत-प्रशस्तिः। आसीद्विशाम । श्री-मूलराज इति नामधेय विशाम-वैश्याना पति: स्वामी आसीत् । भू-राजं विशिष्टि-अनुव-चतुः-समुद्र-त्राङ्कित-क्षिति-भर-समबाद । विद्यमानी मुद्रा [मोहर इति नागर्याम् ] येषां ते प्रमुद्रा:-स्वामिरहिता इत्यर्थः । चत्वारश्च से समुद्राः इति चासमुदाः, अमुद्राश्चाऽमी चतु:समुद्राः अमुद्रचतुःसमुद्राः, तेषु या मुद्रा तया अङ्किता-धिन्हीकता या क्षिति:-पृथिवी इति अमुद्र चतुःसमुद्र-मुद्रातिक्षितिः, तस्याः यो भरः-भारः, संरक्षणादिकदायित्व तस्मिन् क्षमो समी, अमन-चतु:समुद्र-मुद्रात-क्षिप्तिमर-क्षमो बाहृदण्डी मजदण्डी शस्य सः। पुनः किम्भूतः ? दुर्घर-बरि कुम्भि-कण्टीया, वैरिणय कुभिन:-सिनमा कुभिन, दुर्धन [दु:खेन वशीकतुं शक्याः] ते वैरि-कुम्भिन दुधरवरिकुम्भिना, तेभ्य: कूते कण्ठीरह: इ । दुधं वरि-कुम्भि-कण्ठ रवः । पु म्भूतः शुधि-धुलुक्स-कुलावतंसः, चुलुक्याभिधान कुलं,चुलुक कुलं शुचि-गावनं तत् चुलुकाकुलं, शुचि-दुलुक्य-कुलं तस्व अवधिः-प्राभूषणमिव शुनि-चुलूका कुलावतंसः ॥१॥
तस्य विशा arg: श्री मूलगजस्यान्तये-वंशे असिहोवः क्षितिपनि: समजनि-प्रभूत् । किम्भूतः जयसिंहदेवः ?, प्रबल-प्रताप-तिमतिः, प्रकृष्ट बल प्रयलम्, प्रतापशब्दः पुल्लिङ्गः, प्रतापशब्दस्य वि. शेषणत्वात् प्रबलशब्दोऽपि पुल्लिङ्गः एव संगृह्यः, प्रतः प्रबलश्चामो प्रतापः, प्रबलप्रतापः, तिग्मा:-तीवा: खुतयः-किरणाः यस्य सः तिमधुतिः । पुनः किम्भूतः जयसिंहदेवः ? येन जयसिंहदेवेन स्वदेशसवितरि, स्वस्य वंशः स्ववंशः स्वंश कृते यः सविता-दिवाकरः, स्ववंश विता,तस्मिन मारम-पथवा सुपांसी, सुधा-अमृतमिव अंशवः-किरणा:यस्य सःसुधांशुः. सस्मिन्-चन्द्रदिवाकरतस्ये स्त्रवंशे श्रीसिद्धराज इति नाम लिव-स्वकीय मानका पूर्व श्री मूलराजस्य वंशजस्य नाम श्री जयसिहदेव पासीत्
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चतुर्थपादः
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★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * किन्श्वग्ने तस्य श्रीसिद्धराज इति नाम जगतप्रसिद्धं जातमिति भावः ।।२।।
घर:-प्रतिभासम्पन्नः। विद्या बालुष्टय-विनीतमतिः । चत्वारोऽवयवाः यस्य लत् चतुष्टयं विधानां तुष्टयं विद्या-चतुष्टयं, तेन विनीता-विनम्रा मलियस्य सः विद्या चतुष्टय-विनीत-मतिः । विद्यानां चतुष्टयन्तु बेध्यमित्थम् .. १... अाम्दीक्षिकी,२-प्रयो, ३-वार्ता, ४-दण्डमोतिः । अनु-शास्त्रवणानन्तरम् ईक्षा-परीक्षणम्, अन्धोक्षा, सा प्रयोजनमस्याः तत्र साधुः ना इति आम्धीक्षिको-अध्यात्मविद्या, न्यायदर्शनं, तर्कशास्त्रं वा । योऽवयवाः यस्याः सा त्रयी,यी पुनः ऋग-यजुः साम-वेदाः स्युः । वार्ताप्रवृत्तिः, वृत्तान्तः, उदन्तः । वृत्ति:-लोकवसमस्त प्रस्यां सा वा । अथवा-याजीविकासाधनोपायप्रधान शास्त्र वार्ता । दण्ड्यतेऽनेनेति दण्डा, दण्ड एवं नीतिः दण्डनीतिः । यस्मिन् शास्त्रे नागरिको शासनपद्धतिः, सैनिकशासनपद्धतिश्च वपर्यते तशास्त्रं बमोति-नाम्ना बोध्यते । एता: चतस्रः विद्याः वर्तन्ते, एतासु श्रीसिद्धराजस्य निधिगतिरासीत् । जित प्रास्मा येन स जितात्मा । यः चतुरोऽपि उपायान् । उपति-कार्य सिद्धि प्राप्नोति एभिरिति उपाया। साम-नाम-मेव-बण्डा उपाया: साम सारवनम् । स्थतिविनश्यति वैरमनेनेति साम प्रियवचनादि। प्राभतं. ढोकनमिति दाम, सुवर्णादिद्रव्य-प्रदानेन शत्रुजनस्य निजपक्षे करणमित्यर्थः । * उपजापः पुनर्भेदः । दण्ड:-साहसम् । एतान् उपायान् सम्यग निषेध्य चतुर विधकाञ्चीम् चत्वारः अब्धय: चतुरन्धयः, चतुरब्धय एव काञ्ची [तडागी इति नापाम् ] यस्या. सा चतुरधिकाञ्ची, ताम्, भुर्व-पृथ्वीं जित्वा उपभुज्य पुरुषार्थचतुष्टये, पुरुषार्थानाम् धर्मार्थकाममोक्षरूपाणां चतुष्टयं पुरुषार्थ-चतुष्टयम्, तस्मिन् काष्ठा-चरमसीमाम् अवाप-प्राप्तः इत्यर्थः ॥३॥
तेन श्रीसिद्धराजेन निरयम-विनम्रमभ्ययित:-प्रापितः, मुमिहेमचन्द्रः, कलिकाल-सर्वज्ञ प्राचार्यश्रीहेमचन्द्रः इदं, सन्निष्ट एवं [इसमस्तु सम्मिकृष्टे, समीपतर-वति तयो रूपम् । अबसस्तु विप्रकृष्टे, तविति परोक्षे विजानीयात्र] प्रस्तुतमित्यर्थः । शब्दानुशासन-शब्दानामनुशासन-व्याकरण शब्दानुशासनम, विधिवत्-विधिसहितम् व्यवत-कृतवान् । किम्भूतन श्रीसिद्धराजेन ? अतिविस्तृत-दुसगम-चित्रकोण-शबानुशासन-पमूह-कथितेन, अतिविस्तृतम्-अतिविशालं च तद् दुरागमम्-दुरधिगमम् [दुःखेन खोज्यम्], अतिविस्तृ:-दुरागमम्, प्रतिविस्तृत-दुरागमञ्च तत् विप्रकीर्णम्-यत्र तत्र प्रसृतम्, मति-विस्तृत-दुरागमविप्रकीर्णम्, प्रतिविस्तृतविप्रकीर्णञ्च तत् शब्दानुशासन-व्याकरण, तेषां -मूहः,तेन कदयितेन-दुःखिसेन, पतिविस्तृत-दुरागम-विप्रकीर्ण-शब्दानुशासन-समूह-कदयितेनेति भावः ॥१४॥
प्रन्यानं ११८५ श्लोकाः। प्रन्यस्य-प्राकृतध्याकरणस्य अग्रम्-समूहः, परिमाणं वा ११८५ श्लोकपरिमितं भवति । निखिलस्व प्राकृतव्याकरणस्य १११९ सूत्रेषु याथान् पाठो वर्तते, तस्य पररूपेण गणना इष्टा भवेच्चे तदा सा ११८५ श्लोक-परिभिता संभवितुं शकमोतीति भावः । एकस्मिन् पुस्तके ग्रन्थाग्रं २१८५ इत्यपि समुल्लिखितं दृश्यते । किं सत्यम् ? इति तु तस्यविद्भिः चिन्तनोयम् । समासोऽयं धन्यः । प्राकृतण्याकरण-नामधेयोऽयं ग्रन्थः, समाप्तः-सम्पूर्णतां गतः । प्राकृतव्याकरणस्थ समाप्ती सत्यामस्मदीयाsराध्यानो जैनधर्म-दिवाकराणाम्, आचार्यसम्राट-पूज्य-वर-श्रीमहामारामजीमहाराजानां वन्दनीय-गुरु-चरणानामनुग्रहेण अस्मदीया बालमनोरमाच्या संस्कृत-व्याख्याऽपि समाप्ति गच्छति ।
रस्था-प्राकृत-भाषायाः, शब्दानुशासनस्थ हि । मालमनोरमा व्याख्या, पूर्णा मानेग्यु-निमिता ॥१॥
* समाप्तं प्राकृत-व्याकरणम् * *उपाणु-रे करना कामकाजमाता, विद्रोचार्य रोल्साहम-प्रसामिरवणः । .
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प्राकृत-व्याकरणम् *
तुपादः
★ अथ ग्रन्थकार द्वारा की गई प्रशस्ति ★
ग्रन्थ के निर्माता को ग्रन्थ कहते हैं। उसके द्वारा की गई प्रशस्ति को ग्रन्थत् प्रशस्ति कहा जाता है । प्रशस्ति शब्द "विरुदावली, विस्तृत यशोगान, प्रशंसा, किसी की प्रशंका में ली गई कविता, प्राचीन ग्रन्थ या पुस्तक का प्रादि और अन्त वाला वह अंश जिस से उस के रचयिता, काल, विषय श्रादि का ज्ञान होता है" आदि अर्थ होते हैं ।
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प्रश्न हो सकता है कि प्राचार्य श्री हेमचन्द्र जी को हैमशब्दानुशासन नामक व्याकरण के नि off करने की आवश्यकता थी ? इस को इन्होंने अपनी इच्छा से ही लिखा है या इसके लिखने में किसी अन्य व्यक्ति की प्रेरणा रही हैं ? ग्रादि बातों का बोध कराते हुए आचार्य श्री हेमचन्द्र ग्रन्थकृत् प्रशस्ति में महाराजा जयहि देव "सिद्धराज" का प्रशंसा प्रधान परिचय कराते हुए फरमाते हैंव्यापारियों के नायक, चार समुद्रों की भूमि के शासन-गत भार को उठाने में समर्थ भुलादण्ड वाले, दुर्धर [ जिन्हें बड़ी कठिनता से वश में लाया जा सके] शत्रु रूपी हाथियों के लिये कण्ठीरवसिंह के समान और परम पवित्र लुक्य वंश भूषण श्री मूलराज नाम के भूपति थे ।। १३ ।
भूपति मूलराज के वंश में जयति देव के एक राजा हुए हैं। ये सूर्य के समान तेजस्वी थे । इनका वंश सूर्य की भाँति प्रकाशमान तथा चन्द्रमा की भाँति सौम्य एवं शान्त था । ये सूर्य तथा चन्द्र तुल्य वंश में 'सिद्धराज' इस उपाधि से विभूषित हो रहे थे ||२||
नरेश सिद्धराज चतुर [ प्रतिभा सम्पन्न ] व्यक्ति थे। १ - [स्त्र, भवान विद्या] २ [जिस विद्या के १ ऋग्वेद, २ यजुर्वेद और सामवेद ये तीन श्रवयव हों ], ३- वार्ता [जिम विद्या में कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा मोर कुसीद के धंधे का वर्णन हो अथवा जिस में आजीविका के उपायों का वर्णन हो] और ४-नीति [जिस विद्या में न्यायविधान, नागरिक धर सैनिक शासनपद्धति, राजनीति और शामन-व्यवस्था का पर्याप्त वर्णन हो] इन चार विद्याओं के ज्ञानभण्डार थे, तथापि वे विनोत मति वाले थे । १- साम [शान्तिकरण, राजाओंों के लिए शत्रु को वश करने का सावशेष, २-बान [घुस, भेंट जिस से शत्रु की अपने में मिलाया जाता है ], ३मेद [जिस के द्वारा शत्रु और उसके मित्रों में परस्पर झगड़ा उत्पन्न कर दिया जाता है ] और ४ - [सजा, जुर्माना, याक्रमण, कारागृह-वास, शारीरिक दण्ड ] इन चर उपायों का अच्छी तरह सेवन करके इन्होंने चार समुद्र ही जिस की काञ्ची [ तड़ागी ] हो, ऐसी भूमि पर विजय प्राप्त की और उस का सानन्द उपभोग किया । श्रन्त में, ये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की साधना में चरम सीमा प्राप्त करके जितात्मा [जितेन्द्रिय] बन गए || ३ |
अति विस्तृत, दुरागम [दुर्बोध ] और विकीर्ण [ बिखरे हुए, प्रस्तव्यस्त ]] शब्दानुशासनों [व्याकरण ग्रन्थों, शास्त्रों] के समूह से मदति [ वेदखिन्न ] श्री सिद्धराज जयसिंहदेव ने विस्ताररहित, सुबोध श्री सुव्यवस्थित नूतन व्याकरण की रचना के लिए मुनि हेमचन्द्र [ कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचन्द्र ] से विनयपूर्वक प्रार्थना की। श्री सिद्धराज की इस प्रार्थना के कारण ही माचार्य श्री इन्द्र ने इस शब्दानुशासन [ व्याकरण] की विधिपूर्वक [ प्रणाली के साथ ] रचना सम्पन्न की।
प्रथा शब्द का अर्थ है-ग्रन्थ का परिमाण हैमशब्दानुशासन में जो कुछ भी लिखा गया.... है, इसकी यदि पद्यरचना करने लगें तो इसका परिमाण लगभग ११८५ श्लोक बन सकते हैं। भा
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चतुवा
* संस्थत-हिन्दी-टोकाइसोपेतस * यह है कि हमशब्दानुशासन का परिमाण ११८५ श्लोक जितना समझना चाहिए । एक पुस्तक में प्रस्थान २१५५ भी लिखा है। अर्थात् किसी विद्वान के. मत में प्राकृत व्याकरण का श्लोक-परिमाण २१८५ भी स्वीकार किया गया है। वस्तुस्थिति क्या है ? मह व्याकरण शास्त्र के मनीषी विद्वानों को स्वयं विचार करना चाहिए।
* प्राकृत व्याकरण समाप्त *
*हमारा अपना निवेचन * प्राचार्य श्री हेमचन्द्र को "हेम-शम्मानुशासन" की रचनामयों करनी पड़ी? इस प्रश्न का समाधान उन्होंने प्रत्य-कृत-प्रशास्ति में कर दिया है । इस हैमशब्दानुशासन व्याकरण पर "आत्म-गुण-प्रकाशिका हिन्बी-टोका" लिखने का क्या उद्देश्य रहा है ? यह प्रकट कर देना भी अनावश्यक नहीं है। प्रतः दोहों की भाषा में "हमारा अपना निवेदन" द्वारा हम यह अंकित करने लगे हैं , महावीर भगवान के हए सपूत अनेक । अमरसिंह मुनिराज जो, उन में से थे एक शा
बन वाचाय थे, अपाती गुग्गवान [ मगलमय आवर्श थे, संयम विध्य निधान ॥२॥
१ पंजाब के शासन के शृगार रामुपम इनका तेज था, महिमा अपरम्पार ॥॥ शासन इनका प्राज भी. हरा भरा गुलजार । गौरव है पंजाब का, माने यह संसार |४|| अम्सवासोर पांचवें, इनके कबीमान | मानी ध्यानी संयमी, क्षमा दया को स्वान ॥५॥ विद्या के भण्डार थे, जीवन एक शान । गुणसौरभ से भाआ, सुरभित सकल जहान ॥६॥ सुखनायक शुभ नाम था. मुनिवर मोती राम । तप, संयम, बसाय के, मानों थे आराम ॥७). पूज्यपाद वाचाय थे, मम्या के पतवार । बड़े प्रतापी सतसे तेजस्वी अविकार ॥६॥ गणपतिराए शिष्य , इनके परम उधार । शान्त, बास पो बोवनी, जाते सब बलिहार Met प्रझमझ के थे बनी, पावन शुब विचार । रय स्याग का था चढ़ा, पाया बोवन-सार ॥१०॥ जयरामदास जी हुए,. इनके शिष्य महान । "बामा जो" के नाम से जाने इन्हें नहान ॥११॥ बड़े निगले सन्त थे, जग नहीं अभिमान । सहनशील मन स्वच्छ था, कोमल क्या-निधान ।।१२।। अन्सेवामी थे गुरणी, इनके शालिग्राम । सेवाभावी ज्योतिषी, हर्षित माठों याम ॥१३॥ विनय-धर्म के पारखी, ऊंचा पा माचार | मोक्ष-साधना लक्ष्य था, जीत सभा विहार ||१४|| शिष्य आपके थे बड़े, गुरुवार प्रात्मा गम । बिनकर ये जिनधर्म के, भाग्यवान गुणधाम ॥१५॥ श्रष्टा ये साहित्य के, बया घस अवतार । इनके आत्म ज्ञान पर, जन-गण-मन बलिहार ॥१६॥ अमरपसंघ के नाथ ये, वे भाषाय प्रषान । रत्नाकर थे मान के, क्षमावीर बलवान ॥१७॥ चमत्कारमय जीवनी, जीत लिया था काम । कल्पवृक्षा, युगपुरुष थे, जीवन या अभिराम ॥१८॥ .. पंजाब को स्थानकवासी परम्परा में पाप जो साधु-सायो-वर्ग उपलब्ध हो रहा है, इसके धादिगुरु पुज्य
श्री अमर सिंह जी महाराज, पतएव रे पंजाब के मूलपुरुष कहे गए हैं। २. पूज्य श्री अमर सिंह जी महाराज पोरवे शिष्य पूज्य श्री मोती राम जो यहाराज थे। ३. अपवन । ४. जनधर्म-दिवाकर, साहित्यरत्न, नागम-रत्नाकर, श्री कर्भमान स्थानकवासी जैन श्रमण संध के प्राचार्य सम्राट
मुरुदेव पूज्य श्री मात्माराम जी महाराज। ५. कामदेव ।
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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः मेरे ये गुडेव है, इन का ही आधार । मेनो जीवन-नाय के, घने यही पतबार !|१९| आज्ञा इन को पी हुई, मुझ को यह इक बार । प्राकृत भाषा को पढ़ो, इसका करो प्रकार ॥२०॥ पाशा पा गुरुदेव को, चरणों का कर ध्यान । प्राप्त किया फिर पल से, प्राकृत-भाषा ज्ञान ॥२१॥ हेमचन्द्र गुरुनात है, ज्येष्ठ बड़े विद्वान । प्राकृत, संस्कृत आदि का, इन को ज्ञान महान ।।२२।। पण्डित मेषाधान है, करते विद्यावान । न, सरल, गंभीर है. मिलनसार गुणवान ॥२३॥ माम बड़ा गम्भीर है। करसे पूरी शोष । मैं भी हम से हूं पढ़ा, पाया है कुछ बोध ॥२४॥ शमशास्त्र सब कठिन है, कहते थे विद्वान । प्रतिभाशाली छात्र भी, हो जाते हैरान 11२५॥ प्राकृत-भाषा-व्याकरण, यह भी कठिन महान । बिना सामग्री हो भला, कैसे इसका ज्ञान । ॥२६॥ मन में यह संकल्प मा, इस का हो अनुवाद । बिना कट के हो सके, छात्रों को यह यार ॥२७॥ वर्ष सहस बो, पांच[२००५]था,विक्रम का सुखकार । लुधियाना में कर रहे, गुरुवर थे उपकार ॥२८॥ गुरु-चरणों में बंट के, ले इन का प्राधार । व्याख्या फिर आरम्भ की, दिल में हर्ष पार ॥२६॥ एक वर्ष के मध्य में, हुमा अन्य तैयार | शोधन फिर होता रहा, जैसे मिले विचार ॥३०॥ टोकाएं हैं दो लिखीं, किया बहुत विस्तार । संस्कृत-दीका है बड़ी, हिन्दी में है सार ।।३१॥ मूलसूत्र के भाव का, हिदी से हो ज्ञान । शब-साधना इष्ट हो, संस्कृत से लो जान ||३२।। टीका मैं जो है लिखा, और किया अनुवाद । बन्दमोय गुरुदेव का, है यह सफल प्रसाद ॥३३।। मुखमा इसका शीघ्र हो, सबका था अरमान । किन्तु हुई मा कामना, पूर्ण हुमा व्यवधान ॥३४॥ दुष्कर्मों ने आन के, पाया ऐसा जाल । स्वर्ग-पुरी गुरु चल दिए, काल बड़ा विकराल ॥३५॥ गुरुवियोग के दुख से, हुबा पूर्ण व्यवधान । मतः प्रथम छप सका, समय बड़ा बलवान ॥३६॥ बीस वर्ष सब हो गए, किया प्रयत्न महान । तब अम्बाला में किया, पूरए अनुसन्धान ॥३७॥ यही बिनति है भम्त में, करों दोषपरिहार । ईस-सुल्य मानस करो, प्राकृत-भाषा-प्यार ॥३॥ कार्य बड़ा यह कठिन था, समझो म मासान । कृपा हुई गुरुदेव की, सफल हुमा मुनिज्ञान ॥३९॥
* आरमगुरवे नमः *
+तुर्दावली-विषये किंचिदैसिहान् सोषोऽयम्५ ऋषिलवजितः स्वच्छता प्राप्य गन्छ, मखाऽवच्या प्रचलतितरामुत्तरे भारतेऽस्मिन् ! तस्याऽचार्यो गुरमरसिंहः स पञ्जाबसिंहः, गच्छाऽऽयक्षस्तवनु छ मुनो रामबक्षा बभूव ॥१॥ १. बाधा, विन। २. . प्रमाला बहर (हरियाणा प्रान्व)। ३. प्रायोजन । ४. गुर्वावली-विषये । गुरूणाम्-प्रशानतिमिर-परिहस्तां महापुरुषाणाम, प्रावली-परम्परा, सद्विषये किञ्चिद्
ऐनिगम-पौराणिकवृत्तान्त प्रत्यर्थः । ५. अमं सोधों पच्छ पूर्व काजिम्मलिनतां गतोऽपि लवडीऋषिसकागात स्वतां प्राप्य मा पद्यावधि:-पदावधि
पावत, प्रपललित रामतिशयन प्रचलतीत्यर्थः। अस्मिनुत्तरे भारते पश्चाब-दिल्ली-हरियाणादिप्रान्तेषु, तस्यैव समाचार्यः पम्जासिंह:-बसरी इत्याभवात भयोऽमर्शमडेति नाम्ना गुमशासीत् । ततन व सेवाममन्तारं गचाऽधिपतिः समयानामधेयो मुनिः समभवत् । मुनी इस्पक थीयः, इलोपे पूर्वस्य दीयोs: ६॥३॥ ११॥ति सिदान्तकौमुदी-सूवल १६
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चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
३९३ मोतीरामो गुम-गण-युतः शासने थारोह, सर्व संघ खलु नियमयन् संयमा राषनाथाम् ! तस्यैवाऽऽसोच गणपतिराण-नामधेयो विनयः, शन्तो दान्तो विविध-विषयेष्वास-प्रज्ञा-प्रचारः ॥२॥ बायोपावर सदनु जयरामेति नाम्ना तदीयः, शिष्यों भिक्षुः सुमधुर-मना इक्षतुल्यस्तितिक्षुः । शालिग्रामस्तपनुचरकः सत्-गुण-प्रामधारी, सोऽभूज्ज्योतिविदिति कथपा प्रोगतं यत्र सत्र ॥३॥ अन्तेवासी३ यमिह सुजनाः संस्तुबन्ते च तस्य, प्रात्मारामोऽति-अधुक्यसि ध्वस्तकामो निकामम् । मध्येतातीत श्रुत-पतविर शुद्धचेता मनस्वी, सोपाध्यायों महति शुशुभे शुभ्र-स्वाध्याय-सौधे ।।४।। शास्त्राविषय परान् गाहयन् गाढवान् सः, टीका: शोधानुतरण-सरणीतः सुघोषाः व्यवस। १ सस्कार्यस्मिन्नथ कलितवान् भारत भारतीयाम्, म चिया जा रूपेण वाऽमूत्रा अझे५ अंघाबल-विरहितः साधु-संघाग्रयायो, आवार्यत्वं स्वयमपि बभौ यवगतं स्मार्थ-शोभम् । पुण्यारामो विकसित-तरः शाश्वदुद्दाम-धामा, स्वर्यातोऽपि सुरभिरभितः स्तूयमानो बनोधा तस्यवाह सुकृतवशत: शिष्य-संज्ञामवापं, नाम्नावति स्वमन-नियहो ज्ञानचन्द्रेति में माम् । :: तेन विवा मुनिमय गुरु-भातर हेमचन्द्रम्, टीकाकारि प्रम-मनसा पूर्णता प्रापिता च ॥७॥
* आत्मगुरवे नमः ॐ १. प्रथ-अनन्तरे गुणगणयुतो मोतीरामो मुनिप्रवर : शासने प्राचार्यपदन्यामारुवान् । स च सर्व संघ संघमारा
मायाँ नियम्यन-वतंयन्नासीत् । तेषां विनेयः-शिष्यः, गणपतिवाद (गणपतिराय) इति नामधेयः सान्तो वाम्तों विविधशास्त्रादिविषयेषु प्रासप्रशाप्रचार-गृहीतबुद्धितिक प्राप्तमतिप्रसारो पाऊसीव ।।२।। सदनु-संबनन्तरं तदीयः गणपतिरायमुनेः शिष्यः सुमधुरमनाः साम्मे पेक्षुसुल्मो मिथः कर्मभेदनशीलः, तितिक्षा सहनशीला क्षामायास्तस्वी बाबा इसि उपाहा संज्ञा यस्य, बाबा जी महाराज इत्युपनामधारी पाइसीस् । सब
परफास्तेषां रूसामन्तवासी. सदगानी ग्राम धारयन शालिग्रामनामा बभूव। स ज्योतिविद् अभूदास कषया-बासया यत्र तत्र देशे देशे प्रोद्गतम्-अमृतमिति भावः ॥३॥ तस्य शालिग्रामगुरोरन्तेवासी, मिह भारते सुजना: संस्तुति, स आत्माराम नाम्ना प्रषामलभत "पालिका सधुवयसि-शिपयवस्थायामेव निकामम-समस्त ध्वसकामो-नाशिताशेषवासन:, शुतमत-मिरा भागमकाण्यास ध्पयनशील:, शुखयेता:-मनस्वी, मनोबलसर:,स उपाध्याय-पदवीं विभ्रद महति स्वाध्यायरूपे सोधे महामवने शुशुभे-शोभा कलितवान् ।।४।। स उपाध्यायप्रवरः शास्वसामरं स्वयं गाढवान, अवगाहयामास, परीषयावया हयन्नासीत् । शोषानुसरम-रखीत research अनुरूपल्या सुवोधाः दीका: व्यवस-अकार्षीत. प्रस्मिपच सत्कार्य टीकासम्पादमध्ये भारतीयों भारती हिरवीभाषी कलितवानु-स्वीकारतेन रूपेण अागमटीकाकार अपेण धेश देश-भारअन्यत्रापि पित सूयशो यस्य स प्रथितसुयशा अभूत ॥॥ समुनिप्रदर; अंधाबल-विदितः, क्षोमा-गमन-शक्तिजजायत, क्याऽपि साधुसंषस्य प्र यातुनील वस्त्र ईदृश मासीत्, यानकाऽत्र न धरणाम्यामपितु श्रुतचारित्राभ्यामिति जयम् । यद्गत यस सविधै समानता माघायस्व स्वयमपि भभो-शोमा वितेने, स्पायंशोभम्, पधुनाऽपि स्मायाँ शोमा यस्य स मात्माराम ईवक गुलारामः शुमोद्यानमासोट्, योऽतिश्चयेन विकसितः, शश्वन्निरन्तरम्, उदाभधामा:-प्रखण्डप्रभावः, सुरभि सोमव
मधेन युक्तः, यत् स्वगं गतोऽपि अनोवः स्तूयमानोऽधुमा स्तुतिविषयोऽस्ति ॥१॥ ६. सुकृतशत:-पुण्योदयेनाऽहं तस्यबाचार्य खत्तमस्य शिष्यसंझामवायम्- प्राप्तवान, मां स्वजल-निवार परिषित
असमूहो शानचन्द्र (मानमुनि) इति नाम्ना अवैति-भानाति, सेन-मया गुरुभ्रातरं हेमथ मुनि पशिलमवहार लक्षातं श्रिस्वा-चरणसेवां विधाय इथं टीकाकारि-कृता । प्रमदमनसा-प्रसन्नता व पूर्वती-समाप्विं যাব ||||
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Hindi.immeditimate
प्राकृतधातूनामनुक्रमणिका
धातुपाठः "प्राकृतधातुः सूत्रांक प्राकृतधातुः सूत्रांकः प्राकृतधातुः सूत्रांकः
अवज्जस (पम्) ४/१६२ पालुङ (दह.) ४२०८ अयवच्छ (दृश) ४/१५१ श्रावुक्क (विज्ञप) ४३८
प्रथयज्झ (दश्) ४/१८१ आसङ्घ (संभावि) ४/३५ ममतोकिए) ४१५८ अषयास (श्लिष) ४/१९० माह (काङ्क्ष) ४/१९२
अबसेह (गम्) ४/१६२ आहोड (तड्) ४२७ अन्य रास) ४/१००
अवसेंह (नए) ४/१७८ इच्छ (इ) ४२१५ अवह (रच्) ४/९४
उक्कुस (गम्) ४१६२ अवहर (गम्) ४/१६२
उक्खुद्ध (तुइ) ४/११६ मवहर (नश्) ४/१७८
उग्म (उद् घट्) ४३३ ममास) ४/२१५ अवहाब (कृप) ४/१५१
उग्गह (रच्) ४/९४ (कृष्) ४/५८७ अबहेड (मुच्) ४९१
उम्घुस (मृज) ४१०५ मा (क) ४/११९
अवुक्क (विज्ञप्) ४३८ उस नि, द्रा) ४/१२ म (अटु) ४/२३०
अहिजल (दह्) ४२०८ उत्था (उद् नम्) ४/३६
अहिपचुआ (पाट गम्) ४/१६३ उत्था, क्षिप्) ४/१४४ मराब कृष्) ४/१८७ अहिपश्चुअ {ग्रह) ४/२०९
उस्था (रुध्) ४/१६६ अहिरेम (पूर) ४१६९
उत्थार (आङ्क्रम्) ४१६० अहिलङ्गकाश्) ४१९२ अत्यल्ल (उत् शल्) ४१७४ अप (संदिश्) ४/१८० अहिल () ,
उद्दाल (प्राङ् छिद) ४१२५ मम्भिर (संगम) ४१६४ आमड्ड (व्या ५) ४८१ उदमा (पुर) ४१६९ समत (प्रदीप) ४/१५२ आइग्ध {प्राङ् धा) ४१३ उपाल (क) ४२ आइ (कृष्) ४१५७
उप्पेल (उद् नम्) ४३६ (कृष) ४/१५७
आउ (मस्ज) ४१०१ उभाव (रम्) ४:१६८ मालय (उत् क्षिप्) ४१४४ आस्क (आङ् चक्ष्) ४२२७ । उन्भुत (उद् क्षि) ४/१४४ मास्मिन (उप सूप) ४१३९ आढप्परम्) ४२५४ उम्मच्छ (क) ४९३
उम्मथ (अभ्याइ गम्)४/१६५ आयझ (वेप्) ४१४७ माली (माङ्ली).४/५४ आयम्व .),,
उल्लाल (उद् नम्) ४३६ मयमान (दश) ४/१८१ आरोअ (उद् लस्) ४/२०२
उत्तुषक (तुड़) ४११६ भाववाच्छ (लाद) ४/१२२ पारोल (पुज) ४१०२
उल्लुण्ड विरिच्) ४/२६ भरवास (दृश) ४११८१ आलिह (स्पृश्) ४/१८२
आलुज (स्पृश्) ४१८३ उचहत्य (समा रच्) ४/९.५ महयातुपाठ भावनगर से प्रकाशित प्रास-याकरण [अष्टमाध्यायसूत्रपाठ] से साभार उद्धृत किया गया है।
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धातु पाठ
* संस्कृत-हिन्दी शायोपेता: अविव (उद् विज्) ४२२७ कुण (कृ) ४१६५ उध्वेट, वेष्ट) ४२२३
कुष्प (कुप) ४/२३० उश्येल्ल (,) ४२२३ केलाय (समा रच) ४१९५ उध्वेल्ल (प्रस)४/७७ कोआ (वि कस्) ४११५ उरिसाक (उद् क्षिप्) ४/१४४ . कोचक (धाह) ४७६ उस्तिषक (मुन्) ९१
कोटुम (रम्) ४१६८ ऊसल (उद् लस्) ४/२०२ ख उर (क्षु) ४/१५४ ऊसुम्भ (17) ४/२०२ खड्ड (मृद) ४१२६ ओअक्ल (दश) ४१८१ खम्म (ख) ४२४४ ओअम्ग (वि श्रा) ४१४१ . खा (सं स्त्यै) ४/१५ ओअन्द (माइछिद) ४/१२५ रखा खाद्) ४२२८ ओग्गाल (रोमन्थ) ४/४६ खिज्म (खिद) ४२२४ सोम्बान (छ) ४२१
खिर (क्षर) ४/१७३ भोम्बाल (प्लावि) ४४१
खुट्ट (तुड्) ४११६ औरस (अब त) ४/५ ओहम्मा (उद्बा) ४/११
खुप्प (मस्ज) ४१०१ मोलुण्ड (वि रिच्) ४२६ ओसुबक (तिज्) ४/१०४
खेड्ड (रम् ४/१६८ मोह (अवत) ४/५
गच्छ (गम्) ४२१५ मोहाम (तुल) ४/२५
गच्छं (गम्) ३/१७१ ओहाय (प्राङ् ऋम्) ४१६०
गह (घट्) ४.११२ ओहोर (नि द्रा) ४.१२
गण्ठ (ग्रन्थ्) ४/१२० कढ (कृष) ४/१८७
गम्म (गम्) ४/२४९ फड (कथ) ४/२२०
गमेस (गवेष) ४१८९ कत्य (क) ४/२४९
पल (सं घट्) ४/११३ कमवस (स्वप्) ४/१४६
गलस्य (क्षिप्) ४१४३ कम्म (कृ) ४/७२
गा (ग) ४६ कम्म (भुज) ४.११० गिज्म (गृध्) ४/२१५ कम्मय (उप भुज्) ४/१११ गुल्न (हस्) ४१९६ करजा (भ) ४/१०६ गुञ्जोल्ल (उत् लस्। ४२०२ का (क) ४/२१४
गुण्ठ (उद् धूल) ४/२९ किरण (क्री) ४/५२
गुम (भ्रम्) ४१६१ फिलिकिस (रम्) ४१६८ गुम्म (मुह)४/२०१७ कीर (क) ४/२५०
गुम्मड (.., कुक्कुर (उद् ष्ठा) ४/१७ गुलल (कृ) ४४७३ कुम्भ (अध्) ४।२१७ गुलगुञ्छ (उत् क्षिप्) ४१४४
::::.:..:३१५ गुलगुञ्छ (उद् नम्) ४/३६ गुण्ह (ग्रह.) ४/३९४ गेह (1)४/२०९ घत्त (क्षिप्) ४/१४३ धत्त (गवेष्) ४/१८१ घिस (ग्रस) ४२०४ घुम्म (पूण्) ४११७ घुस .) "" घुसल (मन्थ) ४/१२१ घेप्प (ग्रह) ४/२५६ घोट्ट (पिब्) ४१० घोल (चूर्ण) ४/११७ चषकम्म (भ्रम्) ४१६१ समथुप्प (अपि) ४/३९ बन्छ (तक्ष) ४/१९४ बाड (माइ रह) ४/२०६ पा (मृद्) ४/१२६ चड्ड (पिष्) ४/१८५ बड्ड (भुज) ४११० बम (1) चय (शक) ४८६ बल्ल (चल) ४/२३१ चय (क) ४२ विश्व (मण्डय) ४/११५ विचा,) .. विचिल्ला) ॥ विट्ठ (स्था) ४१६ विरण (चि) ४/२४१ चिम्म (चि) ४/२४३ विश्व (चि) ४/२४२ चुक्क (भ्रंश) ४/१७७
घोपा (म्रक्ष) ४/१९१ अज (राज) ४११००
(मुच्) ४/९१
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३९६
शिन् (छिद) ४/२१६ छिप (स्पृह. ) ४ / २५७ (,, ) ४/१८२
हि (स्पृशू) ४ / १८२
(०: क्रम्) ४ / १६०
छुप्प (ग्रुप) ४/२४९.
ह (क्ष) ४/१४३
(छ) ३/१७१
(ब) ४/१७०
जन्म (जागृ) ४/
(म्) ४/२१५
जम्प (क) ४/२
जम्भा (प्रथ० जम्भू ) ४/१५७
अम्म (जत्) ४/१३६
बब (यापि) ४/४०
(जन्) ४/१३६
बाग (ज्ञा ) ४/७
(जि) ४/२४१
जिम (भुज) ४/११० जिम्म (,, ) ४ / २३० जिव (जि) ४ / २४२. कीर (ज) ४/२५० कोह (लज्जू) ४/१०३. शुज (युज) ४/१०९ जुम्भ (युध् ) ४/२१७ जुन (सुध) ४/१०९ जुप्प (युज) ४/१०९ (खि) ४/१३२
कूर (घ) ४/१३५ जर (च्) ४/९३ खेम (भुज ) ४/११०
भव (शद्) ४/१३०
झम्प (भ्रम् )४/१६१ झर (स्म) ४/७४ : भर (क्ष) ४/१७३
2.
★ प्राकृतव्याकरणम् ★ झल (सं)४/१४० भट्ट (वि० लप) ४ / १४=
भङ्क ( उपा० लम्भ) ४ / १५६
(निः श्वस) ४/२०१
भण्ट (भ्रम्) ४ / १६१ झा (ध्ये) ४/६
झुण (जुगुप्स्) ४/४
भूर (स्मृ) ४/७४ टिरिटिल्ल (भ्रम् ) ४/१६१ fefaferee (nus) ४/११५. (30747) /qu
ठा (स्था) ४/१६
(दह) ४/२४६
डर (स्) ४/१९८
डहल (पि) ४:१०
डिम्भ (स्) ४/१९७ Bee (छद्) ४/२१ डण्डल (भ्रम) ४ / १६१
इण्डोल ( गवेषु) ४/१८९
(ं) ४/१५५. स (वि० वृत्) ४/१९८
fare : म ) ४ / ९९
दुल्ल (ग) ४/१८९
हुण्डुल्ल (भ्रम् ) ४/१६१ तुम (भ्रम्)
खुस (,, )
#3 13
ज्ज (ज्ञा) ४/२५२ गड (गुप्) ४ / १५०
(ज्ञा) ४/२५२
11 12
आर (कृ) ४ / ६६ णिउड्डु (भज्ज्) ४ १० १
(क्ष) ४/१७३ चिल (दि) ४ / १२४ निकर (क्षि) ४/२०
कोड (छि) ४ / १२४
धातुपाठा
पिटुआ (क्षर् ) ४/२७३ हि (वि० गल्) ४) १७५ हि (कु) ४ / ६७
मि (नि० अस्) ४/१९९ जिम्मह ( गम् ) ४/१६२ णिरणास (नश्) ४/१७८ णिरिणञ्ज (पि) ४/१८५ निरिध (नि० लीड ) ४/५५ गिरणास ( गम् ) ४/१६२ future (प) ४/१८५ : (उतु लिङ्) ४ / २०२ गिलोय (नि० लोड) ४/५५ खिलुक्क (,,,, ) fugee (तु) ४/११६ पिल्लुच्छ (मुच्) ४/९९ पिल्लर (छिद्) ४/१२४
1
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वह ( गम् ) ४ / १६२ fras (नश्) ४ / १७८ विह (पि) ४ / १८५ रिव्वड (नू) ४/६२ विवर (क) ४/३ विर (छिंद्) ४/१२४
खिल (मुच्) ४/१२
पिवा (वि श्रम् ) ४/१५९ निकोल (क) ४/६१९
वि (कम् ) ४/४४ सिहोड (निर्० वृ० पत्) ४ / २२ free (नम्) *४/१२८
णी ( गम् ) ४ / १६२
(..). नीरव (बुभुक्ष) ४/५
नीरव (ग्रा० क्षिप्) ४ / १४५ gas ( गम् ) ४/१६२ गोलुञ्छ (कृ) ४ /७१ पोसर (रम्) ४/१६८
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३९७
धातु-पाठः पीहर (निर्: ) ४/७१ पीहर (आङ् ऋन्द) ४१३१ गुम (छ) ४/२१ गुम (नि० प्रस्) ४१९२ गुब्ध (प्र० कास) ४/४५ गोरुल इक्षिप्) ४/१४३ ताछ (तक्ष्) ४.१९४ तब (तन्) ४/१३७
तड्या ). " तमास (भ्रम) ४३० तर (शक्) ४/८६ सलअण्ट (भ्रम्) ४.१६१ तालिप्रण्ट (भ्रम्) ४३० तीर (शक्) ४५६ तीर (त) ४/२५० तुट्ट (तुड्) ४/११६ तुट्ट (तुट्) ४/२३० सुर (स्वर) ४/१५२ तुवर (.)४१७० तुर, ४१७१ तेंव (प्र० दीप) ४१५२ तोड (तुइ) ४/११६ थक्क (स्था) ४१६ थक्क (फक्क)४/८७ थिप्प (तृप्) ४११३८ थिष्प (वि० गल) ४१७५ थुण (स्तु) ४२४१ थुव्य () ४२४२ एक्खद (वृश्) ४/३२ बझ (दह) ४/२४६ वह (धा) ४/९ बस (दश) ४/३२ वात्र (,) ४/३२ दुगुच्छ (जुगुप्स) ४४
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * दुगुञ्छ (जुगुप्स्) ४४ पज्जर (कथ) ४/२ दुब्भ (दुह)४/२४५
पज्झर (क्षर) ४/१७३ दुम (धवल) ४/२४
पट्ट (पिब्) ४/१० दुहाय (छिन्द) ४१२४ पदव (प्र. स्थापय) ४/३७ दूम (दुङ्) ४२३
पद (पत्) ४/२१९ देवख (दश) ४/१८१
परिजरग (अनु० अज्) ४१०७ धंस मुच) ४११
पहिसा (शम्) ४/१६७ धा (धाव) ४२२८
पडिसा (नश) ४/१७८ धाज़ (निर् सू) ४१७९ पह (शुभ) ४/१५४ घुरण (धूत्र) ४२४१
पणाम (अपि) ४/३९ धुमा (उद० ध्या) ४८ पदा (गम्) ४४१६२ धुवांधूञ्) ४:५९
पम्नाड (मृद) ४/१२६ धु०३ () ४२४२
पट्टस (वि० स्मृ) ४/७५ नच्च (तृत्) ४२२५
पहुह (स्मृ) ४३४ नट्ट (न) ४२२०
पग (ग्रग्) ४२०९ नव (नम्) ४/२२६
पथर (स्मृ)४/७४ मस्स (ना) ४/२३०
पयाल (क) ४/७० नासव (..) ४/३१
पमल्ल (३० सु) ४७७ नि (दुश) ४११८१ निअच्छ(.),
परिप्रन्स (श्लिष्) ४१९. निमय (निर० मा) ४११९ परिअल (गम्) ४/१६२ रिम्पारण (..) ,
परिअल (... " निरय (स्था) ४१६
परिआल (वेष्ट) ४/५१ निरुवार (ग्रह) ४२०९
परिवाड (घ) ४/५० नीरज (भज) ४१०६
परिसाम (शम्) ४/१६७ नील (निर० मृ) ४/७९ .
परिहट्ट (मृद) ४/१२६ चूम (छद्) ४/२१
परी (क्षिप) ४/१४३ पटल (पत्र) ४/९०
परी (भ्रम्) ४१६१ पक्खोङ (दि० कोश्) ४/४२ । पलाव (नश्) ४/३१ पयस्थोड (शद्) ४१३०
पल्लट्ट (परिप्रस्) ४/२०० पच्चड (क्षर) ४१७३ पलाहस्थ (परि० प्रस्) ४/२०० पच्चड्ड (गम्) ४/१६२ पलहत्य (वि. रिच) ४२६ पच्चार (उपा० लम्म) ४/१५६ पलोट्ट (प्रत्याङ्ग गम्) ४/१६६ पच्छद (गम्) ४/१६२ पलो (परि० अस्) ४/२०० पज्ज (पद्) ४/२२४ पवाय (म्लै) ४१८
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________________
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धातु-पाठः
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प्राकृत व्याकरण * बीभीतर बीह (भी) ४/५३ बुक्क (गर्ज)/९८ बुक (बु) ४/२१७
पव्यास (छद) ४/२१ : पम्वाल (प्लादि):४/४ .. पविरञ्ज (भ) ४११०६ । पहल (चूर्ण) ४११७ . पार (क) ४/६६ ... पास (दृश्) ४१८१ पिज (पिव) ४/१०. पिसुरण (कथ्) ४२ पुच्छ (मच्छ) ४.९७. पुञ्छ (मृज) ४/०५
बोज्ज (स्४११२८ बोल्ल (कथ्) ४२ भण्ण (भण्) ४२४९ भमड (भ्रम्} ४१६१ भम्मड (m) भमाड (..),. भर (स्मृ) ४/७४ भल (D) "
महस (प्र० मृश-मुष्) ४१८४ मूर (भज) ४१०६ मोच्छ (मुच्) ३।१७१ मोट्टाय (रम्) ४/१६८ मेलव (मि) ४/२८ मेल (मुच) ४११? रम्प (नक्ष) ४/११४ रम्फ (,) . रम्भ (ग्रा० रम्) ४/१५५ रम्भ (ग) ४१६२ रसोल (दोल) ४४८ राकर) ४/४९
भिन्द (भिद्) ४२१६ भिस (भास)४/२०३ भुक्क (भष) ४१८६ भुल्म (भुज) ४/२४९
रोड (मण्ड्) ४/११५ रोष (राज) ४.१००
रख (रुत) ४/५७
इण्ट (1)
पुलझ (दशी ४१८१ पुलाम (उत लस) ४/२०२ पुलोन (दृश) ४/१८१ पुच (१) ४/२४२ पुस (मृज) ४१०५ पुस) पोषक (च्या ह) ४७६ पेच्छ (दश) ४१५१ पेज स्थापय) ४/३७ पेल्ल (क्षिप्) ४१४३ कंस (विसं० अदु) ४/१२९ फस (स्पृश) ४१८२ फरिस (.,,, कास (स्पृश्) ४१५२ फिट्ट (भ्रंश) ४/१७७
भुम (भ्रम) ४/१६१ भुल्ल (भ्रंश) ४/१७७ भेच्छ (भिद्) ३९१७१ भोच्छ (भुज्) ३/१७१ माग (मग) ४/२३० मञ्च (मद) ४/२२५ मज्ज (निर० सद) ४१२३ मड्ड (मृ) ४१२६ मह (1) मल (मृद्) ४/१२६ मह (काक्ष) ४/१९२ महमह (प्रस)४/७५ मिल्ल (मील) ४२३२ सुज्म (मुह) ४२१७ मुण (जा) ४७ मुर (घट्) ४१११४ मुसुमूर (भज) ४/१०६
रुन्ध (रु) ४१२१८ सम्भ () ४२४५ रम्भ (,) ४२१८ रुख (रुद्) ४/२२६ रोछ ।,,) ३११७१ रोश्च (पिए) ४/१८५ रोध (रुद) ४१२६ ऐसारण (मृज) ४१०५ रेब (मुच्) ४/९१ रेह (राज) ४१०० लग (लग) ४/२३० लल स्मृ) ४१७४ लभ (लम्) ४/२४९ लहस (रस) ४/१९७ लिषक (निल लीड्) ४.५५ लिहक्क (, , .. लिम्प (लिम्) ४/१४९
फुदः (स्फुद) ४१२३::
::
पुर(स्फुट ४/२३१
बम (बन्ध) ४२४६
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लिम्भ (लिहू.) ४२४५ लिस (स्वप्) ४१४६ लुक्क (नि० लीड्) ४/५५ .
सुब्छ (मृज्) ४/१०५ लुण (लू) ४२४१ लुम (..) ४२४२ लह (मृज) ४१०५ सूर (छिद्) ४/१२४ सोट (स्वप) ४/१४६ लोट्ट (लुद) ४/२३० बागोल (रोमन्थ) ४/४३ वमन (काक्ष) ४११२ व, (ब) ४/२२५
.::...बाम (स)-४/११८
बम (दृश्! ४/१५१ वज्जर (कथ्)४/२ बडबड (वि० लूप)४/१४८ बद्ध (अर्ध | ४२२० धमाल (पुज) ४१०२ पम्फ (बल) ४/१४६ बम्फ (काइप) ४१५२
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * विषक (वि० कृ) ४/५२ बोसट्ट (वि० कस्) ४/१९५ विलोल (कम्पि) ४/४६ बोसिर (सृज्) ४/२२९ विधिड्ड (रच) ४/९४ साक (शक) ४/२३० विष्य (अर्ज) ४/२५१ सङ्खुड्ड (रम्) ४/१६८ विनय (,) ४१०५
सङ्घ (कथ्) ४/२ विप्पाल (नश्) ४/३१ सड (सद्) ४/२१९ विम्हर (वि० स्मृ) ४/७५ सन्दाख (क) ४/६७ . बिम्हर .)४/७४ सन्दुम (प्र० दीप) ४/१५२ . . विर (भ) ४/१०६ . कम्युक्त (प्र. बीप) ४/१५२ . . विर (गुप्) ४१५० -
सन्नाम (भा दृङ) ४/५३ विरमाल (प्रति० ईक्ष्) ४१९३. सन्नुम (छद) ४२१ विरल (तन्) ४/१६७ . . समारण (मुज) ४११० विरा (विल लीङ्) ४/५६ समाग (सम्० प्राप४१४२ विशेल (मत्थ्) ४१२१
समार (समा० रच) ४/९५ विलुम्प (काझ्) ४११९२ . संभाव (लुम्) ४१५३ विलोट्ट (विसं बद) ४/१२२ संबेख (सं० वेष्ट्) ४/२२२ विसट्ट (दल्) ४/१७६ सलह (श्लाघ्) हा विसूर (खिद्) ४/१३२ सम्भव (दृश्) ४१५१ विहीर (प्रति० ईक्ष् ४१९३ विहोंड तड्) ४/२७
साङ्क (कृष्) ४/१५० वीस (निक स्मृ) ४/५५ सामन्ग (श्लिप) १९० बीसाल (मिश्र४/२५
सामय (प्रति.० ईक्ष) ४.१९३ घुम्भ (वह) ४१२४५
सार (प्र है।४/८४ वेअड (स्वच्) ४८९
सारथ (समा० रच्) ४/९५ वेढ (वेष्टा ४/२२१
साह (कथ) ४/२. बेमय (भ) ४१०६
साहट्ट (सं० ) ४/८२ बेलय (उपा० सम्भ) ४११५६ वेलव (बञ्च) ४/९३ सिन (खिद्) ४/२.२४ वेल्ल रम्) ४/१६८
सिक्झ (सिघ) ४/२१७...: :.. बेहव (वञ्च) ४/९३ सिध (सिच्) ४९६: ......... थोक (वि० शय्) ४.३० सिप्प (स्नेह सिच्) ४/२५५ ... वोच्छ (वच) ३/१७१ सिम्प (सिंच):४९.६ बोज (वी) ४५
सिन्ध (सिब) ४४२३० बोत् (वच्) ४२११
सिह (स्पृह).४/३४. योख (गम्) ४/१६२ सिंह (काम) ४११९२
• बल (माइ रोगि ४४.३
बल (निर् पद्) ४/१२८ बल (ग्रह)४/२०९ वलग (आइ सह.) ४/२०६ वसुआ (उद्० वा) ४११ का (म्ल) ४/१५ वायम्फ (कृ) ४/६८ घास (अव० का) ४१७९ बाह (, गाह) ४/२०५ पाहिप्य (व्या० ह) ४२५३ ।। विभट्ट (विसं० पद्) ४/१२९ विखद्ध (नश) ४३१
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४००
सीस (क) ४/२ सुख (धु) ४/२४२ सुमर (स्मृ) ४/७४
सुध्व (३) ४/२४१
सूड (भ) ४ / १०६
सूर (,, ) "
72
सेह (नश्) ४/१७८ सोल (पच्) ४/१० सोल (शिप) ४/१४३
[ अ ] १, १५१ ग्रह सम्भावने २, २०५ अजः परायों च १, १६२ reet १९
अजूबेठे लः १, २०० अचलपुरे - २, ११५
पुंसः ३, ३२ अ- डड-दुल्ला: स्वाचिक ४, ४२९ माई नम २, १९० तज्जज्जे ३, १९७५ एसो पुसि ४, २०७
अत एव से ३, १४५
सी- सातवाहने १२११ ४ ४०३
प्राकृत व्याकरणम् ★
हक्क (fro सिघ्) ४ / १३४ हवुव ( उ० क्षिप् ) ४/१४३ हरण (शु) ४/५
अकारादिक्रमेण प्राकृत-व्याकरणस्य
सूत्र-सूची
तो रिभार-रिज्ज २. ६७ श्रतः समृद्ध यावौ १, ४४
अतः सर्वासः ३.५८ अतः से: ३, २
अथ प्राकृतम् १, १ अस्थिस्त्यादिना ३, १४८
अवस ओ ४, ३६४ मतः सूक्ष्मे वा १११८ प्रल्लुक्यात ३, १५३ अधः क्वचित् ४ २६१ असो हे २ १८१ अषो मन्नन्याम् २, ७८ अनोठात् तैलस्य २ १५५. अनादी स्वरसंयुक्तानां ४, ३९६ अनादी शेषादेश २,८९ अनुत्साहोस १, ११४ अनुव्रजे: पडिअग्गः ४ १०७ अन्त्य प्रयस्याद्यस्य ४, ३८५
अतो इसेतो ४, ३२१
अतो इसे ४ २७६
प्रती इतो-डास ४, ३२१ मोडेल: ४, ४३५
अतो को विसर्गस्य १३७ तोच ४, २७४
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हम्म (न्) ४/२४४
हर (ग्रह) ४/२०९
हव (भु) ४/६०
हस (हस् ) ४/२४९. हारव (नश्) ४ / ३१ हीर (क) ४२५.
ह (भू) ४/६१
हुरण (हु) ४/२४९
हुप्प (भू) ४/६३
अन्स्यथ्यञ्जनस्य १, ११
अन्याशोन्नाइस ४, ४१३ अभिमन्य २, २५
हुल (मृज्) ४/१०५ कूल (क्षिप) ४/१४३
हुब (भू) ४/६०
हुन् (हु) ४/२४२ हू (भू) ४/६४ के (भू) ४/६०
सूत्र - सूची
भूतोऽपि क्वचित् ४, ३९९ अभ्याङतेम्मत्थः ४, १६५ अमेखम् ३,७८ अम्महे हर्षे ४. २०४ मोऽस्य ३, ५ श्रमो आश्चर्य २,२०० मह अम्हे अहो ३. १०६ अम्ह-पम-मह् ३, ११६ अहं म्याम्याम् ४,३०० अम्हे अम्हो अह ३. १०८ म्ह अहह ३ ११० अम्हेहि भिसा ४, ३३८ अ वेद १,१६९ अरिहंते १, १४४ अर्जे विवः ४ १०८ अर्जे विपः ४ २५.१ अहिल-चच्चुप ४, ३९ छलाहि निवारणे २, १८९ raar सो ४, २९९ अवर यश्रुतिः १, १८० अवतरेरोह-पोरस ४, ८५
●
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सूत्र सूची
अवश्यमो - ४, ४२७ प्राकाशो ४, १७९ ree गावहः ४ २०५
१, १७२ ४६१.
अवे भो ४,१५७ अध्ययम् २, १७५ raat सूचना - ख २, २०४
प्रसाद खोड: ४, १८ अस्मदमि ३, १०५
अये ४, ४३३
मो४, ३०१ [ था ]
मी धरा मातुः ३, ४६ मामध्ये ४२६३ मा कृणो ४, २१४
आक्रमेहा ४, १६० माकन्वेः ४ १३१ आक्षिपेणवः ४, १४५.
आन इग्धः ४ १३ भाकर महिषचचुअ: ४, १६३ पाड़ा ओधन्यो ४, १२५ आडोरमे ४ १३५ आचायें चोच्च १ ७३ प्रागौर १, १६३ श्राजस्य टा इसि ३ ५५ श्राट्टो जानुस्वारी ४, ३४२ तुकश्मीरे ११००
श्राकृशा मृक- १, १२७ आल ख ४३१९ श्रारममष्टो विद्या ३, ५७ आहडे: सन्नामः ४ ८३ आवेर्यो : १,२४५ आदेः १, ३९ आदेः मधुः २, ८६
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतस्य ★
ये दि. १,१४३
आनन्तर्ये गवरि २, १८८ आन्तान्तण्डाः ४, ४३२ आप विषत् ४,४००
२१७७
श्रामन्त्रये जसो ४, ३४६ आमोडा वा ४, ३०० आमोस ३,६१
आमोहं ४, ३३९
आर्यायां यं १, ७७ आपुर सरसोर्वा १. २० आरः स्यादो ३.४५ आरमेराढप्पः ४ २५४ आरइच-बलगी ४, २०६
आरोपेवलः ४, ४७ प्रार्धम् १, ३
आला ने लोः २ ११७ मालीोहली ४ ५४ प्राविल्लोल्साल २, १५९ आव २,६६ प्रालिष्टे लपौ २, ४९ श्री सोन वा ३, ४
[]
इच: ४, ३१८ इथ मो. मु- मे ३, १५.५. इ-जे-रा: पापूर इणमामा ३, ५३
२२१७
इस एक्वा १,८५ इ: स्वरात् १, ४२ ततो वाक्या १, ९१ कृपा १,१२८ इत्वे वेतसे १२०७
१. १४९ किमच बेति २, १५७ इक्म प्राय: ४, ३६५
इदम एम. ३. ७२ इदम इम: ४ ३६१ इदमर्थस्य केः २ १४७ इदमेतत्तद् ३,६९ saran दारि ४, २७७ इदितो वा ४, १
तो दीर्घः २ १६
et बट-वृष्टि १ १३७ इस पुरे १,१२३
११३९
इयं
२ १५७ इन्धो का २२८ इजेस्य णो-रा-डी ३.५२ कुटो १. ११० वार्थ - ४, ४४४
छहरा इतरथा २ २१२ इह होस् ४ २६८ sarat १,४६ क. सदादौ वा १, ७२ [*]
ई- १७३, १६०
ई व स्त्रियाम् ३ १८२
ईतः सेवा ३,२८
ई
१,१५५
ईद भिस्-स्यता ३, ५४
तो : ३४२
ईवभ्यः स्सा ३ ६४ ईस्यात्मनो २, १५३ जिल्हा-सिंह- १.९२
व्यूढे १. १२० ईहरे वा १, ५.१
ई: क्षुले १, ११२
ई. स्थान-स्था १, ७४
४०१
[3]
अपश्य २. २११
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YAR.
या २,१९ ऋषभ १,१४१
पेल ४,१४४ उत२१११ समस्यैः ११५४ जल उत्पलः ४, १७४
३४४ ११२६ तोद्वा३३९ वस्याः ४ २३४
सज्ज १,१०२ उद-सौन्वर्या १,१६० रातो कुल १. १०७ १. १३१
[य] लुत इलि: १,१४५
[ए] एहर्ज असोः ४, ३६३
- ४१७ मृष १,१३६ १८२ उदोको ४८ उद्धटेग्गः ४, ३.३ धूलेः ४ २९ जातेरुम्मा-वसुभ्रा ४, ११ उबुद्धिः ४ २२७ सन्नमेकत्व लाल- ४, ३६ उपरेः संख्या २ १६६ उपसर्वेरलिअः ४ १३९ उपालम्भं ४ १५६
H
एकसो: ४, ४२८ एक-स्वरे २, ११४ एक्कसरि २,२१३ एचक्वा तु २, १५७ एवं १, १५३ एच्या १.५७ एटि ४, ३३३ ए ए २१३४ एव ३, १२९ एल इद्वा वेदना १ १४६
मनिष १. १७४ हनुमद १, १२१ उल्लसे हसलो सुम्भ- ४, २०२
एतः पर्यन्ते २,६५ एत्रो १, १६५ एसव: स्त्री ४, ३६२
एत्थु कुत्रा ४, ४०५ एलपीयूषापीड- १, १०५
स्थानः ४ २३३ जः सास्ना- १, ७५ [3] ऊनक्षेप २, १९९
एवा १,७८ एवोलो स्वरे १, ७ एप्येपिध्ये ४, ४४०
थोपे १,१७३ - सुभग- २, ११३ क- सोख बासे १, १५७
एरवीसी ३, ८४ एवं परं समं - ४,४१८ एवायं स्येव ४ २८०
- १,१९२ कासारे १,७६ कहाँ विहोने १, १०३.
एं चेत: ४, ३४३
[ ए ]
क्रः सोने वा १, १४७
ऐत एव. १. १४८
[ अ ]
करणस्य
सूत्र-सूत्री
मोच्च द्विषा १, २७ प्रोत्कुष्माण्डी- १, १२४ ओत् पमे १,६१ ओत् तर-बदर १.१७० ओत् संयोगे १,११६ सोऽन्योन्य- १ १५६ ओल्या १,८३
ओ सूचना- २, २०३
[ओ]
औत ओत् १,१५९
ककुवे हः १, २२५
ककुभो हः १, २१ फ-ग-च-ज- १. १७७ क-ग-ट-ह-त-द- २, ७७ कज्जर ४, २ कथं यथा तथा ४, ४०१ कदम्बे व १,२२२ कथिले व १, २२४ कवल्याममे १,२२० करिका भिदि २३८ कन्धे म यो १,२३९ efuge: ४, ४४ कम्पेल ४, ४६ करवोरे : १२५३ करे-वाराणस्य २, ११६ करणारे वा २, १५ कमरेभो वा २,६० काङ्क्षराहाहि ४, १९२
कारणेक्षिते गिरः ४ ६६ कावि-स्वोतो ४, ४१० कान्तस्याप्त ४, ३५४ का २, ७१ किलो प्रश्ने २,२१६ किम: कस्त्र लोक ३, ७१
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सूत्र-सूची
किमः किं ३, ८० किम: कार्य- ४, ३६७ किमो हि ४,३५६ किमो डिसो-डोसी ३,६८
किराते चः १, १८३ किरि-मेरे रोड: १, २५१ किरे हर किला २, १८६ किलाय - ४,४१९ किसलय- कालायस - १, २६९ कि तद्यासः ३ ६२ fast- ३, ३३ यत्तयो३, ६३ शुके वा १, ८६
अः ४ २७२
कुलस: कड ४, ४१६ कहले वा १, १९७ कुकर्म १ १८१ कुड्यो २७३ कृ-गमो कृगे: कुणः ४, ६५ कुगों डोर: ४, ३१६ कृति- चत्वरे चः २, १२ कुरवसो हुल २,१५८ कृ-वो हं ३. १७० कृषः कडू-सा- ४, १८७ कृष्णे वर था २ ११० के भो : १. २४० कौक्षेय वा १. १६१ ते ३, १५६ सेनाप्रणादयः ४ २५८ बते हू: ४, ६४
-- ४, ४३९
व इय
४, २७१ स्तुत्तूर २, १४६ वस्तुतः ४, ३१२ वासु सव्येषु ४ २१०
★ संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्वयोपेतस्य
-स्था- १.२७ ३,१३८
वयस्येध्यः ४, ३१५ पोहो४, १५१
क्रियः किणो ४. ५.२ क्रियाविस ३ १७९ क्रियेः की ४, ३८९ कुबेरः ४ १३५ क्लोबे जस्सोरि ४, ३५३ क्लीबे स्यमेद- ३, ७९ क्लीवे स्वरान्म् सेः ३ २५ कचिद् द्वितीयाः ३ १३४
ढः ४ २२० ४११६
विपः ३, ४३
क्षः स्वः पचि २, ३ क्षरण उत्सवे २.२० मायाको २, १८ क्षर: खिर-भर- ४, १७३ क्षस्य कः ४ २९६ क्षिपेर्गलस्या- ४, १४३ क्षुधो हा १, १७ क्ष: खर- ४१५४ क्षुरे कम्मः ४, ७२ क्षेणि वा ४, २० दमा-श्लाघा- २, १०१ का २, ६
[5]
ख घथ व भाम् १. १८७ खचित-पिशाचयो १. १९३
अ: ४८९ खाद-पायो ४ २२८ खजूर - विसूरी ४, १३२
[ग]
गमेर- ४, १६२
४०३
मादीनां द्वित्वम् ४ २४९ afeserent ४ २१५ मेरे योग्४, ४४२ गजेबुक: ४ ९८ तें : २, ३५ गढ़वा २,३७ गमलाऽतिमुक १ २०८ गवये वः १, ५४
४, १८९
गव्य उ-आम: १, १५८ गुणाया: क्लोवे १ ३४ गुप्येवर डी ४ १५० गुरौ के वा १.१०९ गुरव ३, १५० गृहस्य घरी २१४४ गोरणादयः २, १७४ गौणस्थल २ १२९ गौरापस्य १ १३४ ग्मो वा २,६२
ग्रन्थो गण्ठः ४ १२०
प्रसेधिः ४ २०४
ग्रहः ४, ३९४
हेयः ४ २५६ ग्रहो वलगे ४,२०९
[घ]
मायो ४,४२४ - वृद्ध १,६८
घटः परिवाड: ४, ५० घटे: ४, ११२ पूर्णो घुल-घोल- ४, ११७
[5]
इ-अ-म-नो १:२५ इसः सः ३ १० उस: सु-हो-स्सवः ४,३३८ इस इस्बो ४,३५०
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MAROOMARRIAL
सूत्र-सूची
मागमतिपये १, २५० डिहल-दुल्लो भवे २,१६३
४०४ सि-प्लो पुषलो ३, २३ इमिम्मस-डीना ४.३४१ हरि-उसयां लड४, ३७२ शुलुक ३, १२६ इसेम्हाँ ३.६६ इसेहह ४, ३३६ हुमेस्तो -दो-दु-३,८ हिमच ४,३३४ स्सि-म्मि ३, ५५
३, १२८ इंडहि डाला इआ३, ६५ में हः ३.७५ डि ४, ३५२ हि ४, ३५७
डो वी? वा ३,३८ डोल: १, २०२ इम-मोः २, ५२
* प्राकृत-व्याकरणस्य * ज-ध-यां यः ४,२१२ जनो जा जम्मको १३है... अस-शस इ-ई-लमः ३. २६ जस्-शास-सि-उस ३, ५० जस-सस-सि-सो-३, १२ जस-शसो! बा ३, २२ अस्-मोलुक ३, ४ अस्-शसोरम्हे ४, ३७६ जास-शसोस्तुम्हे ४, ३६९ जाग्रेनग्गः ४,५० अगुप्सेमुण-४,४ जेण तेण लक्षणे २.१८३ ज्जा-जे ३, १५६ जजात् सप्तम्या ३, १६५ ज्ञो जाणमुणौ ४, ७ ज्ञो . २,५३ जो ज्ञः ४,३०३ शो णत्वेऽभिज्ञादी १,५६ झो जयपज्जौ ४,२५२ ज्यायामीत् २. ११५
[]
रगाव चे चिघ २, १८४ खबर केवले २, १८७ पति बपरीत्ये २, १७८ से रग मि ३, १०७ खे जो मझ३, ११४ रोग्देवाबावे३, १४९ णोऽम्-शस्-टा ३,७७ भो न: ४, ३०६ रगं मन्वर्थे ४, २८३
चतरोषा ३,१७ बतरणतारो ३, १२२ . : चयाः पष्ठी-३, १३.१ . अम्बिकायो मा १,१८५ चपेटा-पाटी.वा १,१९५ . घाटी गुललः ४, ७३... चि-जि-धु-हु-४, २४१ . . चिन्हे धो वा २. ५० वृलिका-पशाचिके ४, ३२५.
खदेणगुम-४, २१ अस्य श्चोभादो ४, २९५ . छाये ल. १, १९१. छायायो हो-१, २४९ छाया-हरियो३, ३४ । छि-भिवो न्यः ४,२१६ खि हाव-४, १२४ छोऽध्यादौ २, १७ - [ज]. जटिले बोझो १२.१९४ . .
-प्रामोणेः ३,६ धारणशस्येत् ३, १४ टा-स-हेरवादि-३, २९ टर-धमा पईसाई ४, ३७० टा-इधमा मई४, ३७७ होड १, १९५ टोणा३,२४ टोणा ३,५१ टोस् ४, ३११ ह-योः स्ट: ४, २९०
ता तु ते ३. ९९ ता-व-तुम ३, ९६ तक्षेस्तच्छ-चन्छ-४, १९४ तपावोन छोल्लादयः ४, ३९५ तगर-असर-१, २०५ तो होड ४, २७ ततस्तदास्तोः ४, ४१७ तावमाशश भेन४,३२२ तषश्चतः३,६६ तको को. ३, ६७ तदोषः स्पायौ ३.७० तबोस्तः ४, ३०५ तनेस्तचन्ता-४,१३५ तन्वीतुषु २, ११३ तव्यस्य इएव्यवं ४,४३८ तस्मात् ताः ४, २७८ तं तु तुम तुकं ३, ९२
ठेऽस्थि-विसंस्थुले २, ३२ ठोः १. १९९
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SHREE
सूत्र-सूची
Rimmin.p-prom-am--.-.-.---
--
.
.....
............
.
rien""
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतस्थ * तंबाक्योपम्यासे २, १७६ त्यादे:१९
बुधे दोणि वेणि ३. १२० तायडेर्वा ३. १३२ स्योञ्चत्ये २, १३
दुसुम विष्यादि ३, १७३ ताकये केहि ४, ४२५
अपो हि-ह-स्था: २. १६१ दुहित-भगिन्यो—मा २, १२६ वामन म्बः २, ५६
श्री -बोज्ज- ४. ११८ दुःख-दक्षिण २,७२ सिजेरोसुश्माः ४, १०४
प्रस्तस्य हिस्थ- २, १३६ दुःखे रिणवला ४, ९२ सिसिर १.९० . अस्प शेताहे ४.४३६. ... ....... दु:खे णिश्वरः ४, ३ लियस्तिमिच्छिः २.१४३ अस्तिष्णः३, १२१
दूडो दूमः ४, २३ तिमित४, २९८
अस्ती तृतीयादौ ३, ११८ हप्ते २, ९६ तोरणे णः२,८२
स्वतलो पण: ४,४३७ दृशस्तेन दुः४, २१३ ती है १,१०४
स्व-ब--ध्वा २ १५ दृशः विवा-टक-- १,१४२
स्वरस्सुवर-जअको ४, १७० दृशि-बडौंस---३, १६१ सुखस्तोग-सट्ट- ४. ११६ स्वस्य हिमा-सणौ २, १५४ दयोः प्रस्सः ४,३९३ सु-सुबन्तुम-३. १०२ स्वादेः सः २. १७२
दृशेव-दंस - ४, ३२ तुबम-तुबह हो. ३, ९८
शो लिअच्छ-पेच्छा-४,१८१ सुम एवमणाण- ४,४४१ थ-ठायस्पन्दे २,९
दे संमुखोकरणे २. १९६ समे समए तमाइ ३. १०१ धू कुत्सायाम् २, २००
दोले र लोहाः ४,४८ तुम्हासु सुपा ४,३७४ थोपः ४,२६७
बंश-बहोः १, २१८ तमहतलो ३, ९७
दंष्टाया बाढा २,१३९ तुरोऽत्यावी ४, १७२ वक्षिरण हे १.४५
श्वत्थूनौ ४, ३१३ लेरोहामः ४, २५ वाधिवग्ध-वृद्धिः २. ४०
-य-यांजा २, २४ वो मे शुम्भ ३,१०० बराल्ये २.२१५
द्रे रोम या २, ८० सृतीयस्य मिः ३, १४१ बलिवल्योविसट्ट-४, १७६
द्वारे या १,७९ तृतीयस्य मो- ३.१४४ वशन-दष्ट-वाघ-१, २१७
द्वितीय-र्ययो-२, ६० तृशोऽणः ४,४४३ बस-पाषाणी हा १, २६२
द्वितीयस्य सि३ १४० तृपस्थियः ४. १३८.. बाई २,८५
द्वितीया-तृतीययोः ३१३५ सेनाल रास्यहली ३, १६४ बहेर हिऊलालुलो ४, २०८
हिन्योरत १, ९४ तेलादी २, ९८ बहो मः ४, २४६
द्विवचनस्य बहुवचनम् ३, १३० तोऽन्तरि १,६०
द्वो ये ३, ११९ दिक-प्रावृषोः १, १९ तो बोना शौर-४, २६० बिरिरेचोः ४, २७३ तो वो लसो २, १६० विखने सः१,२६३
धनुषो वा १,२२ स्थे च तस्य ३, ८३ दीपो धो वा १, २२३
धवलेवुमः ४, २४ त्यवायव्ययात१,४०
वीघंहस्वो मियो १४ घाश्याम २,८१ स्याविशत्रोस्तुरः ४, १७१ दी वा २, ९१
धातथाऽर्थान्तरेऽपि ४, २५९ स्वाधीनामावस्या-३, १३९ ।। दुकूले बा लश्च १, ११९ धूगेधु यः ४, ५९ स्थावरात्रयस्थ ४, ३५२ दुविधुदुम्बर १, २७० घृतेविहिः २, १३१
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४०६
धृष्टद्युम्नेः २ ९४ धैर्ये वा २६४ या-४, ६
ध्वजे बा २, २७
caft - बिचः १, ५२
[=]
न कन्ग-चजादि ४, ३२४ न हथः ३, ७६ न दीर्घानुस्वारात २, १२ न दीर्घो गो ३, १२५. नमस्कार परस्परे १, ६२ न युवा १,६ न वा कर्म-भावे - ४, २४२ न वानिदमे ३, ६०
न या मयूख लवण- १, १७१ न वा य यः ४ २६६ न दुबो: १, १२ नशेषिरास-सिंह- ४, १७८ नशेविड मासव-४, ३१ नाव : १, १७९ नात् पुनर्यादाई १, ६५ नात् आतु ३, ३० नादियुज्योरन्येषाम् ४, ३२७ नामात् सो ३, ३७
नाम्नचरं वा ३, ४०
नाम्व्यरः ३, ४७
सावधान: १, १६४
निशेष-स्फटिकः १, १८६ निद्वारोहीरो ४, १२ निम्न- नापिते १, २३० निर: पदेवलः ४ १२८ नि शेर्पा १, १३ निम निम्मारण- ४, १९ निलोली- ४, ५५. नित्यो ि४२२
★ प्राकृत-व्याकरणस्थ ★ १, १३२ निशीथ - पृथिव्योर्वा १२१६ निषदः १२२६ निक्कः ४, १३४ निष्प्रतो श्रोत्री १,३८ ४ ६७
लिध्याताच्छोटे ४, ७१ निस्सरेहर नील- ४, ७९ निःश्वसेद्धः ४ २०१ नीड-पीठे वा १, १०६ लीपापोडे मो वा १, २३४ नैः सवो मज्जः ४, १२३ भोगः १,२२८ न्त-माणी २,१८०
मोमः २,६१ न्यण्य-श-अजां ४ २९३ -योः ४, ३०५ यसो ममौ ४, १९९
[4] पक्वाङ्गार- ललाटे १,४७ पक्ष्म-म-म-म-ह्मां २, ७४ पचे: सोहल पडलो ४, ९० पचाशत् पवश- २, ४३ पञ्चम्यास्तृतीया च ३, १३६ पथि पृथिवी प्रतिन् - १,८८ पथो जस्येकद् २, १५२ यो सन्धि १, ५ पार्दा १,४१ पदा-हुं-हि- ४, ४११ पद्म छद्म- सूखं - २, ११२ पर-राजयां एक २, १४८ परस्परस्यादिर: ४, ४०९ पर्यस: चलोट्ट- ४, २०० पर्यस्त पर्यारण- २,६८ पर्यस्ते थौ २, ४७
पर्माणे डा या १, २५२ पलिते वा १,२१२ पश्चादेवमेवे वेदानों ४, ४२० पाटि परुष- परिघ १,२३२ पानीयाविचित् १ १०१
पाप र १, २३५ पारापते से वा १,८०
सूत्र - सूची
पिठरे हो वा १२०१ पिबेः पिज्ज-डल्ल - ४, १० पिषेणवह गिरिणास- ४, १८५ पीते को ले या १, २१३ पुजेरोल माली ४, १०२ पुरण कुलकर २, १७९ पुनवमः स्वार्थी : ४, ४२६ पुन्नाग - भागिन्योः १. १९० पुरुषे रोः १. १११ पंस्थन आणो राज--- ३, ५६ पुंस्त्रियोर्न वाऽयम् ३, ७३ पुंसि जसो ३, २० पुरेश्वर-- ४, १६९ पूर्वस्थ पुरव: ४, २७० पूर्वस्य पुरम: २ १३५ पृथक् स्पष्टे स्पिड ४,६२ पृथक घो वा १, १०८ पृष्ठे खानुत्तरपदे १, १२ पोः १, २३१
व्यादय २. २१८ प्रकाशवः ४, ४५
प्रच्छः पुछः ४ ९७ प्रतीक्षेः सामय- ४, १९३ प्रत्यये डोर्न वा ३, ३१ प्रत्ययादी डः १, २०६ प्रत्यास पलोटः ४ १६६ प्रत्यूषे बच हो वा २, १४ प्रत्येकम: पाषिक २, २१०
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EMAITREARRIMA"
सूत्र-सूत्री
*संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतस्य * प्रथमे प-यो १, ५५ बोधः १,२३७
भ्यसो हुँ ४, ३३७ प्रवीपि-बोहदेला १,२२१ मोह-कौ ३, १०४
भ्रमरे सो वा १,२४४ प्रवीपस्तेम-सम- ४, १५२ ।। उभो बुह-लिह-बह-४, २४५ भ्रमेराडो वा ३, १५१ प्रभुते यः१,२३३ अपो बुवोदा ४,३९१
अमेधिरिटिल्ल-४, १६१ प्रभौहप्पो वा ४, ६३ ब्रह्मचर्य ध १, ५९
भ्रमेस्तालिप्रपद-४, ३० प्रवासीको १, ९५ ब्रह्मचर्य-सूर्य-सौन्वयं-२, ६३ भ्रः फिड-
फिद्द- ४, १७७ प्रविशेरिः४.१५३
भ्र वो मया इमया २, १६७ प्रसरेः पयस्लोवेल्लो ४, ७७ भजेर्वेमय-मुमुमूर- ४, १०६ प्रस्थापेः पट्टब-४, ३७
भवद-भगवतोः ४, २६५ भविष्यति सिस: ४,२७५
मरो विमश २, २०७ प्राविमोलेः ४, २३२
भविष्यति हिनादिः३, १६६ मधुके बा १, १२२ प्रान्मृपा-मुषोईसः ४, १५४ । भविष्यत्येय्य एवं ४, ३२०
मण्टेश्चिञ्च-विचअ-४, ११५ प्रायसः प्राउ-प्राइव ४,४१४ . भस्मात्मनोः पो बा २, ५१ मध्यमकतमे १, ४८ प्रावरणे अबाऊ १, १७५. भषे एकः ४, १८६
मध्ययस्थाऽस्य ४,३८३ प्रापुटशल-सरणयः १, ३१ भाराकान्ते नमसुतः ४, १५८ मध्यमस्येत्या-हचौ ३, १४३ लक्षे लात् २,१०३ भासेभिवः ४, २०३
मध्याह्न हः २,८४ प्लावरोम्बाल-पव्वाली .
मग भाचीही , २ .. . .' मध्ये च स्वरान्तावा ३. १७८
भिसभ्यस्-सुमि ३, १५ मनाको म वा २, १६९ फकस्यवकः ४,८७ भिस्येद् वा ४,३३५
मन्थेषु सल-चिरोलो ४, १२१ फो भ-हो १, २३६ • भिमन्सुपोहि ४, ३४७
मन्मथे कः १,२४२ भिसा तुम्हेहि ४, ३७१ मन्युनोष्ठ-मालिन्ये ४, ६५ बायो ग्धः ४, २४७ मिसो हिहिहि ३,७
मन्यो न्तो वा २, ४४ बसे निर्धारण-२, १८५ भीष्मे मः २,५४
ममाऽहो भ्यसि ३, ११२ बहिसो बाहि २, १४० भुजो भुज-जिम- ४, ११० मयस्यही १, ५० बहुलम् १.२
भषः पर्याप्तौहच्चः ४. ३५० मरकत-मवकले.मः१, १८२ भुबेहाँ हुव-हवाः ४, ६०
मलिनोभय-शुक्ति-२, १३८ बहुत्वे हुँ४, ३८६ भुवो भः ४, २६९
मसूण-मृगाङ्क-मृत्यु १, १३० बहुषु स्तु.ह.मो ३, १७६
मे तुब्भे तुज्झ तुम्ह ३, ९१ मस्जेराव-रिलउड्ड- ४, १०१ बहुवाद्यस्य रित. ३, १४२ मे तुमहिं उज्झेहि ३, ९५
महमहो गन्धे ४, ७८ बाहोरात् १, ३६ में वि से सइ३ १४
महाराष्ट्र १, ६९ माध्येहोऽधति २,७० भ्यसस्ती बो-हु-३. १
महाराष्ट्र होः २, १११ वितिन्यो भः१, २३८ । भयसश्च हि: ३, १२७
महु मझु सि-सस्याम् ४,३७१ बुभुक्षि-बीज्योणीरव-४, ५ भ्यसाया तुम्हहं ४, ३७३ माई मार्थ २, १९१ वृहस्पति-बनस्पत्योः २,६९ भ्यसामोर्तु: ४, ३५१
मारिस्प मझर-२.५३२ बृहस्पती बहो मयः २, १३७ भवसि या ३, १३
भातुरिद्वा १, १३५
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thalnad
...........
।
मूत्र-सूची सते वरुण्टो ४. ५७ रूव-भुम-मुचा तो ४, २१२ रुद-लमार्यः ४, २२६ कक्ति दिला ग्णः १,२०९ रुघहत्यङ्गः ४, १३३ हयोध-भोच४,२१८ रुषादीनां वीर्यः ४, २३६ रेअरे संभाषणे २, २०१ रोबोर्धात २, १७१ रोमन्थे रोजगाल- ४, ४३ रो रा १,१६ संस्थाऽधूर्तावौ २, ३० यं-स्न-gी ४.३१४ लुकि दुरो वा १. ११५ लुक निर: १,९३ श-ध-लप्त वन्न २,१०५ ई-श्री-ही-कृतन-२.१०४
मातृ-पितः स्वसुः२, १४२ यत्-तत्-किम्यो ४, ३५८ मात्रटिका १,८१
यत्-तमः स्थमो४, ३६० मामिहलाहले २, १९५
यसवेलकोऽसीरिसि. २, १५६ मांसाविष्वनुस्वारे १,७० यत्र-तत्रयोस्त्रस्य ४,४०४ मांसादेर्वा १, २९
यमुना-चामुण्डा-१,१७० मिम ममा ३, ११५ यकृया स.१, २४७ मि में मम ममए ३, १०९ थाहक-सादृक्-कोहपी-४,४०२ मि-मो-मु-मे ३, १६७
याहशाब स्तिः ४, ३१७ मि-मो-ममिह-महो-३, १४७ . यापेनवः ४, ४० मिसयाम् १, ७ . . यावसावजीविता १, २७१ मिव पिच विव २, १६२ धावत्तावतोम ४,४०६ मिधाडालिमः २६ २७०
युजो जुन-जुज- ४,१०९ मित्रासाल-मेलको ४, २८ युध-दुध-गृष-४, २१७ भुचेश्छड्डाऽवहेस. ४, ९१ युधिष्ठिर वा १,९६ मुः स्याको ३, ८८
४,२३७ मुहेगुम्म-गुम्मडौ ४, २०७ पुण्मयपर तः १,२४६ मृजेवग्घुस-सुन्छ-४, १०५ युष्मदः सो तु४. ३६८ मृदो मल-मद-परिहद-४,१२६ घुष्मस्तं तु तुव ३.९० मेथि-शिथिर-शिपिल-१,२१५ युष्मवस्मयोऽन-२, १४९ मे महसम मह ३, ११३
युष्मवादेरीयस्य बारः ४,४३४ मः ३, १६१
योगजाश्चषाम् ४, ४३० मोऽनुस्वारः १,२३
य-स्न-टो रिय- ४, ३१४ मोऽन्त्यायो वेवेतोः ४, २७९ मोऽनुनासिको वो वा ४, ३९७ रक्ते गोवा २.१० मो-मु-मानी ३.१६८
रचेगहाव- ४, ५४ मोरउल्ला मुषा २, २१४
रजजे शवः ४, ४९ मोवा ४, २६४
रमेः संखुहु-खेड्डो ४, १६८ मोथा ३, १५४
रस्य लो बा ४, ३२६ म्नमार्ण:२,४२
र-सोल-शो ४, २८८ म्माचेः ४, २४३
र-जोः २,९३ म्भावयेशी वा ३, ६९
राजेरग्घ-खान-४, १०० प्रक्षेपो बंदः ४, १९१ म्ले-पवायो ४ १८
रालो वा सि ४, ३०४ म्हो भो बा ४,४१२
रात्रीया २,८८ रिटवलस्य १,१४०
लघुके ल-होः २. १२२ खलाटेच१,२५७ ललाटेल-२, १९३ लस्बोहः ४, १०३ लात् २, १०६ लाल-लाल- १.२५६ लिङ्गमतन्त्रम् ४,४४५
पो लिम्बेः ४, १४९ लुक १,१० लुग-भाजन-बमुज- १, २६७ लुगावी क्त-भाव-३, १५२ लुप्त-य-र-व-श-ए- १,४३ लुप्से शसि ३, १८ लुमेः सम्भाषः ४, १५३ लोल: ४,३०८ ललो नवकावा २, १६५
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* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेलस्य * बकादावन्तः १,२६
विसस्ति-वसति-भरत-१,२१४ वेसेनामिणमो सिना ३, ८५ अम्रो योत् ४, २११
विध-पत्र-२, १७३ धोसरीयाऽनीय-सीम-१, २४८ वधेड़बधेलन- ४, ९३ विरिवेरोललण्डो-४, २६ पो सुम्स तुबमे ३, ५३ धरणे निश्य-विकल्प-२, १६ दिल महतो.४८ प्रोगो डवो ३, २१ वोधः २. १५० विलीविरा ४, ५६
वोत्साहे थो २, ४० वधाडाइश्च वा ३, १३३ विवृतेर्हसः ४, ११८
खोदः ४, २२३ बन्द्र-खण्डिते जा १,५३ विषमे मो हो वा १.२४१
यो २, ५९ यनिताया बिलया २, १२८ विषण्णोत-वत्मनो ४,४२१
वोपरी १, १०८ वर्गजत्यो वा १, ३०
बोपेन कम्मयः ४, १११ विसंवदेविअट्ट-४, १२९ । वर्तमाना-पञ्चमी-३, १५८ विस्मुःपम्हुस-विरहर- ४, ७५
धौषधे १, २२७
यजमापदाले ४, २३९ यसमामा-भविष्यन्स्योश्च ३,१७७ विश्रमेणिवा ४, १५९ घयति-स्पस्य सः ४. ३८८ विशत्यादेच्क १, २८
ध्यञ्जनावीः३, १६३ वल्ल्युत्कर-पर्यन्ता-१,५८
ध्यत्ययश्च ४,४४७ धीप्स्यात् स्याः३१
व्याकरणप्राकारागते १.२६८ बासो दल्य ३ ८७ वृक्ष-क्षिप्तयोः २, १२७
प्यापेरोअग्गः ४,१४१ पाधो रोलक ४, ३९८ वृत-प्रवृत-मृतिका. २, २९
श्याप्रेराअड्डः ४.५१ वामथोऽन: ४,४१५ वृन्ते पदः २, ३१
ध्याहगेः कोक- ४, ७६ वाभिमन्यौ १.२४३ . वृश्चिके पचेञ्चुंधा २, १६ बाययोस्खालाबाच-१,६७ वृषमे वा वा १. १३३
ध्याहगे हिप्पः ४, २५३ वावौ १, २२९ बषादीनामरिः ४, २३५
बज-नृत-पक्ष ४, २२५ वाऽऽप ए३,४१
बजेवुअः ४, ३९२ वृषे विक्कः ४, ९९ वाकवले १. १६७ बेरणौ णो वा १, २०३
ओजः ४, २९४ वाश्यर्थ-वचनाद्याः १,३३ वेतः कणिकारे १ १६८ वास्तावति ४, २६२
वेवं-किमोदिः ४,४०० शत-मुक्त-वड- २,२ वा निझरे वा १,९८ ये तबेतको ३,८१
हाकादीनां हिरवम् ४, २३० पा गृहस्पतौ १. १३८ वेपेरायम्बाऽऽपभो ४, १४७
शकेश्चय-तर-सीर-४, ८६ बायसवोतोः ४,४०७ धेमाजस्याचाः १,३५
शत्रानाशः ३,१५१ पार्षों १, ६३ वेरख आमन्त्रणे २, १९४
शको भा-पसोश, १३० वाख्ययोस्खातावाषवातः १,६७ येवे भय-बारण- २, १९३
शनैसो डिनम् २. १६८ वालाधरण्ये लुक १, ६६ वेष्ट:४, २२१
शबरे बोमः १,२५९ था विहले बो २, ५८ वेष्टः परिआल: ४,५१
शमेः पडिसा-परिसामो, १६७ या स्वरे मश्च १, २४ बंशाः सि सि २, १६२
शरवादेर १७ विकसे: कोआस-४, १९५ बंडूर्यस्य वेरुलिय.२१३३ श-योः सः १, २६० विक्रोश पलोड ४,४२ बतत्सवः ३, ३ .
श-षोःस, ३०९ विगलेस्थिाप-४, १७५ घेसको सेस्तो ३, १२ शार्गेात्पूर्वोतु २, १०० विशपेवावका धुवको ४, ३५ वैशदी या १, १५२
शिथिलेऽगुदे बा १८९
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________________
R
oymmellUULILIALLL
प्राकृत-व्याकरशस्व:*
सूत्र-सूची शिरायां वा १, २६६ . "सन-पत्तोः २१९ : इसो वा २, ४६ शोकरे भ-हो बा ११४ . समतो रः१, २१० . . . . स्तस्य योऽस-२, ४५ शीघ्रादीनां महिलाया ४, ४२२ स-पणे वा १, ४९ . स्तोकस्य थोक-२, १२५ शोलाचर्यस्येरः२, १४५. सप्तम्या द्विशीया३, १३७ स्थान-चतथा २,३३ शुल्के को धार,.११ .":. नगा २४
स्त्रिया इस्थी २, १३० शुक्र-स्कन्धे वा २, ५ . समा अभिडः.४, १६४ . स्त्रियो जस-शतोः४, ३४८ भाइले खः कः १,१५१ : समापः समाणः ४,१४२ स्त्रियां डहे ४,३५९ शेषेऽवसवत३,१२४ .
समारचेश्वहत्थ-४.९५ .. स्त्रियां सन्ताडोः ४४३१ शेष प्राकृतवत् ४,२५६ समाले वा २.९३. .. ..
स्त्रियामावविधुत १.१५ दोष प्रापयत ४,३२८
समा गलः४..१.१३ . स्त्रियामोतो३.२७ शेष शौरसेनीयत४,३०२ समो स्लः४, २२२
स्थ-र्थयोस्तः ४,२९१ शेषं शौरसेनीवत् ४,३२३
समः स्यः खा ४, १५... स्थविर-विचाफिला-१,१६६ शेष संस्कृतवत्-४, ४४८ सम्भाधेराससः ४, ३५
स्थष्ठा-धक्क- ४,१६ शैथिल्य-सहने ४,७० संमई-विदि २, ३६.
स्थाणावहरे २,७ शौरसेनीवत् ४,४४६ सर्वत्र लबराम २,७९
स्थूण-तू वा १, १२५ श्यामाके मः१,७१ सर्वस्य साहो वा ४,३६६
स्थूले लो रः १, २५५ श्रवो घो दहा ४,९ सङ्गिाबीनस्पेकः २,१५१
स्नमवाशिरो, ३२ द्धि-मूठो २, ४१ सविलेहा ४, ३५५
स्नालेभुतः ४, १४ थमे वायम्फा ४६५ स-बोः संयोगे ४,२८९
स्निग्धे वादितौ २.१०१ भू-गमि-ददि-विवि ३, १७१। संतपेभलः ४, १४०
स्निह सिचोः ४, २५५ बुटेहणः ४, ५८.:.. : संविशेरप्पाहः ४, १८० ... ... स्नुषाय हो १, २६१ श्री हरिश्चन्द्र २०५७
संयुक्तस्य २.१ . :. स्नेहान्यो २, १०२ इलामः सलहः । ८. ... ... .. संधुणेः साहर-साहट्टो ४, ५२ स्पन्देवचुलुचुलः ४, १२७ श्लिषेः सामागावयास- ४, १९० साध्वस-य-हां २,२६ . स्पृशः फास-फंस ४, १८२ इलेष्मरिषदा २, ५५
सामन्यास्सुकोत्सवे २.२२ स्पशेश्छिप्यः ४, २५७
सायस्मदो हडं ४, ३७५ स्वहः सिंह ४, ३४ पद-शमी-शाख १,२६५ लिचेः सिच-सिम्पो ४, ९६
स्पहायाम २.२३ षष्ठ्याः ४, ३४५
सिनास्ते सिः ३, १४६ . स्फटिके लः १, १९७ क-स्कयो नि२,४
सो हो ही भूतार्थस्य३, १६२ स्फुटि-वलिः ४, २३१ वस्याऽनुष्ट्रष्टासम्दष्टे २.३४ सुपा अम्हासु ४,३५१
स्मरेझर-दूर-भर-४, ७४ ६५-स्पयोः फः २, ५३ सुपि ३, १०३
स्थम-जस-शसां ४, ३४४ सुपि ३, ११७
स्यमोरस्योत् ४, ३३१ सङ्ख्या -गद्गधे १, २१९
स्थादी दोघंहस्थी ४, ३३० सख्याया आमो ३० १२३ सजो २ः४, २२९
स्थाद-भव्य-चत्य-२, १०७ सटा-शकरकंद्रमे १, १९६ सेवादो बा २.९९
स्र सेहंस-हिनी ४, १९७
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________________
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.
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शाब्द-सूची * संस्कृत-हिन्दी-टोकारक्षेपेतस्थ ★
४११. सैन्ये या १, १५०
. स्थलावे ३.३ ... हो-ही खिदूधकस्य ४, २०५ .. सोच्छामयः ३, १७२
स्वार्थ काच वा २, १६.४ .... खुनश्चय--२, १९८ सोहिर्वा ३, १५४
स्विक्षा जजः ४, २२४ . चेदम्माम् ४३४० सौ पुस्यो वा ४, ३३२ . स्सिं-स्सयोरत ३४ ७४. ..... भालच्छा -निवाररले २, १९७ स्फा प्रेक्षाचक्षुषोः४, २९७
ह]
-घुग्यावयः४,४२३ ।। स्तब्धे हौ २, ३९ ... हजे चेट्याह्वात ४, २५१ .... -कृत-श्रामीरः४, २५० । स्तम्भ स्तो वा २.८ . . ... हदी निदे २०१९२.. .. हरये यस्य : ४, ३१० स्वपासव १.६४ ....
हन्-खनोऽन्त्यस्य.४, २४४... ... ... हो धोऽनुस्वारात १,२६४ स्वपेः क्रमवस ४, १४६ *हन्द व गृहाणार्थे२. १८१ हा झोः २०१२४ स्वप्ने नात् २, १०६ . हन्दि विषाद-विकल्प२, १८० हवे ह-वोः २, १२० .. स्वप्न-नीग्यो १, २५९ हरिलाले र-लोनं वा २, १२१ : . ह्रस्वः संयोगे १, ८४ स्वयमोऽर्थ अपणो २,२०९। हरिद्रावी लः१, २५४ ... ह्रस्वात् ध्य-च-र--- २, २१ स्वरस्योवृत्त १,८
हरीतक्यामोतोऽत १,९९ .. स्वराणां स्वराः ४, २३८ हरे क्षेपे च २, २०२
ल्लादेरबअच्छः४, १२२ स्वराणां स्वराः प्रायो ४,३२१ ।। हसेगुजः ४, १९६
हो ल्हः २, ७६ स्वरावनता वा ४, २४० हासेन स्फुटनु.४, ११४
ह्रो भो बा २, ५७ स्वराक्षसंयुक्तस्यामादेः १, १७६ हि-स्वयोरिदुत् ४, ३८७ [आत्मगुरवे नमः] स्वरेऽन्तरश्च १, १४
होमाणहे विस्मय-४,२८२
प्राकृत-व्याकरणस्य चतुर्थ-पादस्य
अक्कमाई (माक्रमते) ४, १६० अग्गिज (प्रतिष्ठः) ४, ४२९ अइ (प्रति) ४, ४२५
आकुसई (गच्छति) ४, १६२ पागों (अग्निा ) ४, ३४३ अइच्छा (गच्छति)४, १६२ अखण (आख्यातुम् ) ४, ३५० अग्घा (अहति) ४, ३८५, ४२२
तुङ्गत्वम्)४, प्रक्खिबई (आक्षिपति) ४, १४५ माघ (राजते)४, १००
अक्सिहि (अक्षिभिः) ४, ३५७, अधिवई (पूरयति) ४, १६१ अइमत्तहं (प्रतिमत्तानाम) ४, ३९६
अग्घा (आजिन्नति) ४, १३ प्रलोडेइ (कर्षति)४, १५० अग्धाइ (पूरयति) ४, १६९ प्राइसिए (अतिरक्तया)४, ४३८ प्रखइ (अक्षये) ४,४१४ अङकुसहं (अकुशानाम्) ४, अहसो (ईदशः) ४,४०३ प्राग (प्रन) ४,३२६ अईह (मच्छति)४, १६२ प्रावो (अग्रतः) ४, २५३ पड्ग, अङ्मु (अङ्ग) ४, ३३२ अंगुलिउ (अङ्गुल्यः)४, ३५८ मागाई (अग्नत:) ४,३९१, ४२२ प्रगहि (अङ्गः) ४,३३२, ३५७ अंसु (अश्रु} ४,४१४, ४३१ अग्ल ड (प्रय+ल+क:) ४, मगे (प्रजें) ४, ६३ अंहि (अधि) ४, २०५.
अामह (पूरयति) ४, १६९ अबकम्बई (प्रादति)४, १३१ प्रगतु (अर्गलः)४,४४४ पगुलिउ (अङ्गुल्यः) ४, ३३३
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ouwaodMMMModawMANApnMARRIAL.ILIATALIMULILAAL
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२६४
* प्राकृत व्याकरणस्य *
चतुर्थपादस्य अहमुलिओ (अगुल्य:).४, ३४८ अस्थमणि (प्रस्तम) ४, ४४४ अपणो ४, ३०२, अपहो ४, असिन्तिम (पचिन्तिता)४,४२३ अस्थति (अस्त्रैः) ४, ३५८. ३४६, अप्पारण ४, ३९६ . अमछ, अच्छाइ (प्रास्ते) ४, २१५ अद्धा (अर्धानि ४, ३५२ अप्पाहः (सदिशति) ४, १८० ३८८ अच्छते अच्छति, ३१९ अहमागह (अर्धमागध) ४, २८७ अपिए (अप्रिये) ४, ३६५ अच्छदे प्रच्छदि ४, २७४; अचछा अष (प्रथ) ४, ३२३
अफण्णी (माकान्तः) ४,२५८ प्रथम अधन्य ४, ३६७
प्रफलोवया (प्रफलोदभा) ४.२८३ प्रच्छ (अच्छ) ४, ३५० मधिग्नई (अधीनानि) ४,४२७ अवाझं (प्रब्रह्मण्यम्) ४.२९३ अभिछ (प्रास्त्र) ४, ३८८ प्रमठ (अनम:) ४,४००
अम्भक (अनुगम्य) ४, ३९५ अमिचन्द (माच्छिनत्ति) ४.१२५ अनु (प्रायथा) ४,४१५ प्रकभरिण (अभ्यर्थने) ४,३८४ अज प्रथ) ४,४१४,४२३ बसत (अन्तरम्) ४, ३५०,४०६, अम्मा (अभ्राणि ४,४४५ अग्नु (प्रथ) ४, ३४३, ४१८ ४०७,४०८
प्रतिभा (संगच्छति) ४, ३५३ प्रज्जो (मार्यः) ४, २६६ अन्तेप्रारि (अन्तश्चारिन) ४, प्रभुद्धरा (अभ्युद्धरणम्) ४, मञ्च (कर्षति)४, १७ अअधिक अन्यदिशं) ४, २१३ प्रबडी (मन्त्र) ४, ४४५
अभाउ (अभयम्) ४,४४० अमली (प्रजलि:) ४, २९३ अन्दा
inf २९ अण्वावधी अन्तवादः)४,२८६भभम् (प्रभग्नम) ४,३८७ अतिसो (अन्यादृशः)४,२९३ अम्बेउर (अन्तःपुरम्) ४, २६१ अभिमञ्ज (अभिमन्यु:) ४, ३०५ अद, परिअड (पर्यटति)४,२३० अन्धार (अन्धकारे) ४, ३४९ अमच (अमात्य) ४, ३०२ अट्टा (क्वथ्यते) ४, ११९ अन्न (अन्यः) ४, ३७२, अन्नु ४, अनु (अमुम्) ४, ४३९ अडोहिडं (अनवगाहितम्) ४, ३३७, ३५०, ३५४, ४०१, अम्बणु (अम्लत्यम्) ४, ३७६
४११,४१४,४१८, ४२२, अन्न अम्मडि! (प्रम्य !) ४, ४२४ अदुवा (शिपति) ४,१४३ ४, २७७, भन्ने ४,३७० मन्नहे अम्महे (हर्षे निपातः) ४, २८४, अजम्बाई (कर्षति) ४, १८७ ४, ४२५, अन्नहिं ४, ३५७, ३०२ अमन्तर (मनन्तर) ४, २७७ ३८३, ४२२, मन्ने ४, ४९४, अम्मि ! (अम्ब !)४, ३९५, प्रअसाल (प्रनल) ४, ३९५, ४१५, अन्नई ४,४२७. अन्नह ४,४२२ म्मीए ४, ३९६ ४२९
अन्नाह (अन्यत्र) ४, ४१५ प्रम्ह (वयम्,मस्मान्) ४,३७६, मरणाइज (न ज्ञायते) ४, २५२ अन्नाइसो (अन्यादृशः) ४, ४१३
त) ४, २५२ अन्नाइसो (अन्यादृसः ४, ४१३ अम्हहं ४, ३७९, ३८०, ४१७, अासर (अनुत्तर) ४, ३७२ अपुरव (अपूर्व) ४, २७०
४२२.४३९, मम्हास ४,३८१, असुविन (अनुदिवसम्) ४,४२८ अपुरब, अपुरवं (अपूर्वम् ) ४, अम्हाहं ४,३००,ग्रम्हे ४, ३७६, अारताउ(अनुरक्ताः) ४, ४२२ २७०, अपुरवे ४,३०२ ।
४२२, अम्हेहिं ४,७३१, ३७८, अशुवचन (अनुव्रजति) ४, १०७ अपुरा (अपूर्ण) ४, ४२२ प्रायजा (गच्छत्ति)४, १६२ अप्पण (प्रात्मानम्) ४, ३५०, अम्हातिसो अस्मादृशः) ४, ३१७ प्रमहा (भुनक्ति) ४, ११०
३६७, ४२२, ४३० अप्पर ४, अम्हारा (अस्मदीयः) ४, ३४५, अति? (अदृष्ट) ४, ३२३
४२२, अपणा ४,३३८, ३५०, ४३४ असा (मात्मा)४, १२३
३६७, अप्पणे ४, ४१६, अप्पण अयं (प्रयम् ४,३०२, अस् (पर्थम्) ४,३१०
४, ४२२, अपणु ४, ३३७ अयच्छद (कर्षति) ४, १८७
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शब्द-सूची
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतस्य * अय्य (प्रद्य) ४, २९२
अवयझा (पश्यति) ४,१८१ अहिऊलह (दहति) ४, २०८ अश्य (मार्य) ४, ३०२, अय्यो ४, अवयासह (श्लिष्यति। ४, १९० अहिपसअइ (मागच्छति) ४, २७७
अवस्य (अव) ४, २८८ १६३, २०१ उस मार्यपुत्र) ४, २६६, प्रवराइसो (अन्यादृशः) ४,४१३ महिमा (अभिमन्युः) ४, २९३ अयउत्तो ४, २६०
अवराहि (अपराधितम्)४,४४५ अहिरेमा (पूरयति)४, १६९ अध्यमिस्से हि (आयमिधः) ४, अवरि (उपरि) ४,३३१ महिलंखा (काङ्क्षति) ४, १९२ प्रवरेण (अपरेण) ४, ३९५ अहिलंघन (
कात्ति ) ४,१९२ अव्या (प्रार्या) ४, ३०२ प्रयरोप्या (परस्परम्) ४,४०९ अहो (अधः) ४, ३६७ अधुरो (अर्जुनः) ४, २९२ अवाल (प्रपसर) ४,३०२
[पा] अर्थ, अप्पेह अपयति) ४, ३९ प्रवस अवश) ४,३७६, ४२७ आअबडेड व्याप्रियते) ४,५१ अरे (अरे) ४,४१८
अवसर (अवसर) ४, ३५८ माउ (अायातः) ४, ४३२ मर्ज, अज्ज अर्जति) ४,१०८, अब (अवश्यम्। ४, ४२७
आग्छ
}४, १३ प्रजिजज्बइ ४, २५२ अवहइ (गच्छनि) ४, १६२, आइञ्छह (कर्षति) ४, १८७ अलं (प्रलम्) ४, २७८
पाउड्डइ (मज्जति) ४, १०१ अलहन्तिअहे (अलभमानायाः)४, अवहइ (रचयनि) ४, ९४ पाउत (प्रावुत्तः)४, ३०२
अब मलि ॥१३.१९७८ मा (एतेन) ४, ३६५ अलिउलाई (अलिकुलानि) ४, प्रबहादेइ (कृपां करोति)४, १५१ आगमे (मागमः)४,३०२
अवहेडइ (मुञ्चति) ४, ९१ प्रायस्कांद (माचष्टे) ४, २९७ अले ! (अरे!)४, ३०२
प्रवुक्काइ (विज्ञापयति) ४, ३० आप्पड़ मारभ्यते) ४, २५४ अल्लस्था (रिक्षपति) ४,१४४ प्रस, म्हि ४, २६६, शि ४,३०२,
माढवा (प्रारभते) ४, १५५ अल्लि (उपसर्पशि४, १३९ । त्थु ४,२८३, सन्ता ४, ३८९
आदवी (मारभ्यते) ४, २५४ अहिलवा (अर्पयति) ४, ३९ असहि (असतीभिः) ४, ३९६ प्राणन्दु (मानन्दः) ४,४०१ प्रल्लीआई (प्रालीयते) ४, ५४ असङ्खलु (प्रसाधारणः) ४, ४२२ ।
आण ह (प्रानय) ४, ३४३ असलीणो (प्रालीनः) ४, ५४ । असणु (प्रशनम् ४, ३४१
प्रायन्न हं (व्याकुलानाम्। ४,४२२ पवाक्साइ (पश्यति) ४,१८१ प्रसाद (असार:) ४, ३९५
प्रावरह (प्राद्रियते) ४,८४ अब अच्छा लादयति) ४, १२२ प्रसुलह (ग्रसुलभ) ४, ३५३
आप (परि-उपसर्गपूकम्प जसं अबमासा(पश्यति)४, १५१ असेसु (अशेषम् : ४, ४४०
( पर्याप्तम् ) ४, ३६५ पावेमि अवस्खा (पश्यति) ४,१८१
है अस्तवमी अर्थपतिः ४, २९१ ४, ३०२, पावइ ४, २३९, अवगुण (अवगुण ) ४, ३९५
अ (प्रथ; ४,३३९,३४१, ३६५. . पाधीसु ४, ३९६, ३९८, पादि. ग तिj४,१६२३६७. ३७९, ३८०,३९०,४१६, प्र४, ३६६, ४३७. पत्त अबआ (प्रवज्ञा) ४, २१३
(प्राप्तम्) ४, ३३२, पाविन अवस्यांड (अवदतटे) ४,३३९ अहं (अहम्) ४, ३०२
(प्रापित) ४, ३८७ (सम-प्र. पत्थह ( अवस्थानाम् ) ४, अहरू (मधर) ४, ३३२ उपसर्ग-पूर्वकम्)शंपत्ता ४,३०१ ४२२, अबत्थे ४, ३९६ अहवाइ (अथवा) ४, ४१९ (वि-उपसर्ग-पूर्वकम्) दावे अधया (पश्यति) ४, १८१ अहया (अथवा) ४, ४१९ ४, १४१ (सम्-उपसर्ग-पूर्वकम्)
प्र
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मनाpaalu-MADAALALUALLL
४१४ * प्राकृत-व्याकरणस्य *
चतुर्थपादस्य समावेइ ४, १४२, समप्पड़, ४, ६ (अपि) ४, ३५३, ३८४, ३९०, उचाइ (निद्राति) ४, १२ ४२२, समापउ४, ४०१, समत् ४३९
उच्चुयह (चति) ४, २५९ ४, ३२२, ४२०
इ.एड (एति) ४, ४०६, एसी ४, उच्छङ्गे (उत्सङ्गे) ४,३३६ आभासह (प्राभाषते) ४. ४४५ ४१४, एन्तु ४, ३५१ (प्रा-उप- उछल्लन्ति ( उच्चलन्ति } ४, माय (इमानि) ४,३६५ प्रायही सर्ग-पूर्वकम्) एदु ४,२६५.३०२ ३२६ ४, ३६५ पाएण ४, ३६५ इग्रह (इतरः) ४.४०६ उज्जाच (उद्यान) ४, ४२२ प्रायहि ४,३८३ इरणं (इदम्) ४, २७१
उज्जु (ऋजुक) ४, ४१२ आयम (बेपते)४, १४७ इस इयत्) ४, ३९१ उज्जेणिहि ( उज्जयिनीम् ) ४, आयम्बर (वेपते) ४, १४७ इत्थ (प्रत्र) ४,३२३
४४२ आयरु(प्रादर) ४,३४१, प्रा. दो (.), ३०२
उम्झ, उझिप (उज्झित) ४, रेण ४, ४२२
इष (इह) ४,२६८ आयुधं (मायुधम्) ४, ३२४ इन्वनीलठ (इन्द्रनील:) ४, ४४४
उदुइ (उत्तिष्ठति) ४.१७ आरभइ (प्रारभते) ४, १५५ इमु (इदम्) ४, ३६१
दुरभइ (उत्सतम्नाति) ४, ३६५ आरम्भ (प्रारभते) ४, १५५ इयर (इतरः) ४, ४०६
उटुबईस (उत्तिष्ठोपविश} ४,४२३ आREE (प्रारोहति) ४,२०६ , इच्छइ (इच्छात) ४, २१५, उडावन्ति (उडापयन्मा ) ४, आरोअE (उल्लसति) ४, २०२ इच्छहु ४, ३८४, इच्छह ४, भारोला जति)४,१०२ २८, एयरा, ३५३ इट्टा उधोणी उष्टीन: ४.२३७ बालवयु (मालपनम् ) ४, ४२२४, ३५८ (सम्-प्र-उपसगंपूर्व
उड्लेइ (उड्डयते) ४, २३७ उड्डेमालिहा (स्पृशति) ४, १५२ कम्) संपेसिया ४, ४२४
लि ४.२३७ आलु (अलीकम्) ४, ३७९, ४२२ इह (इह) ४, २६८, ४१९
उण्ह ३ (उणम्) ४, ३४३ आसुखद स्पृशति) ४, १८२,
उहत्तणु (उपांत्वम्) ४, ३४३ २०८
लिपियवंकम पडि- उत्त घरुणद्धि)४,१३३ आयइ (प्रापद्) ४, ४००, ४१९ क्खइ {प्रतीक्षते) ४, १९३ उघड (उत्क्षिपलि) ४, ३६. आवड (मायाति) ४, ३६७, प्रा- ईविशाह (ईदृशानाम्) ४, २९९ ।। घहि ४,४२२
उत्यस्लाइ (पच्छलति) ४, १७४ प्रापट्टा (मावर्तते) ४,४१९ अ (पश्य) ४, ३०६
उत्थारइ माकमले) ४ १६० आवलि (मावलिः) ४,४४४ उही (उदधिः ४, ३६५ उहालइ उहालयति) ४, १२५ मावास (ग्रावास) ४. ४४२ बस्कुबकुरई (उत्तिष्ठति) ४, १७ । उद्धन्भुन (अध्वभुजा) ४, ४४४ आवासिड (मावासितः) ४, ३५७ उपकुसर (गच्छति) ४, १६२।। उमाई (उतमति) ४, ८, १६९ बास (पाशा) ४,३८३ उक्कोस (उत्कृष्टम्) ४, २५८ उधूलेइ (उचूल यति) ४,२९ आसंषद (संभावयति) ४, ३५ क्खियह (उत्क्षिपति) ४, १४४ उम्पत्ति (उत्पत्तिम्) ४,३७२ आहा {काङ्क्षति)४, १९२ उखु तुइति) ४,११६ उपार (उपरि) ४,३३४ आहम्मद (मान्यते) ४, १६२ अगद (उवाटयति) ४, ३३ उपासह (कथयति) ४, २ आहोडइ (ताडति) ४, २७ उग्गहई (रचयति) ४, ९४ उप्पेला (उन्नामति) ४, ३६
उग्घुसाइ (माष्टि)४, १०५ उडबुक्कइ (उबुकृति) ४, २
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HAmranAA-NAMAN-NAAMANA
शब्द-सूची
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्धयोपेतस्य * उम्भाव (रमते) ४, १६८ सासेहि (उच्छवासः) ४, ४३१ एवं (एवम्) ४, २७९, ३२२ उम्भुआ (उद्भवति) ४,६० ऊसुम्भ (उल्लसति। ४, २०२ एवंविधाए (एवंविधया) ४, ३२३ उन्भुत्ता (वक्षिपति)४,१४४
ए]
एशे (एषः) ४, २८७, ३०२ उमस (वञ्चति ) ४,
९३ . एउ (एतत) ४, ४३८, एइ ४, एस (एषः) ४, ४४७, एसो ४,
५ .४१८ एइ ४, एस (एषः) उम्मत्था ( अभ्यागच्छति) ४, ३३. ४४, ३६३, ४१४, २५० एसा
एसा ४,३२० एमाए ४, २८४, ३०२ एह (एषः) ४. ३३०, ३४४, बाम्मल्ला (उन्मीलयति) ४,३५४ एकातस (एकादश) ४.३२६ ३ ६२, ३६३, ४१९, ४२५, एक उरे, जम्मि , उरसि (रसि) ४, एक४३७१.३८३, ४१९, ४.३६२, ३९५, ४०२, १९९२
४२२, ४२९, ४२१: एक्कु ४, एही ४. ३६२, ३९१, एहा ४, उल्लसइ (उल्लसति)४.२०२ ४ २२; एक्कासि ४, ४२८ ४४५ उल्लाला (उन्ना मयति) ४, ३६ एकरहिं ४, ३३१, ३५७, ३९६, एहउ (एतद्) ४, ३६२ उल्लालिज (उल्लालितः ४,४२२४२२
[] उस्लु (तुति) ४, ११६ एकमेकडे (एकेकम) ४,४४२ भो (प्रव, अप, उत) ४,४०१ उल्लुप (विरिणक्ति) ४, २६ एकति (एकदा) ४,४२८ ओअवसइ (पश्यति) ४, १८१ उल्तुहा (निःसरति) ४, २५९ एचण (एन्टुम् । ४, ३५३
मोअगह (व्याप्नोति) ४,१४१ उल्लूर इ (तुति) ४, ११६ एतिसो ईदशः) ४, ३१७ एतिसं ओअदद (प्राच्छित्ति)४, १२५ उत्हषद विध्यापति) ४, ४१६ ४. ३२३
ओअर (अवतरलि) ४, ८५ अमिअई (उपमीयते) ४, ४१८ एसहे (पत्र) ४, ४१९, ४२०, ओइ (अनि) ४, ३६४ उवालम्बई (उपालभते) ४, १५६ ४३६
ओगाहा (अवगायति। ४.२०५ जयेलाइ (प्रस रति, ४, ७७ एसिउ (इयत्) ४, ३४१ मोग्गाला(रोमन्ययति) ४,४३ उम्बन्ला उत्ते) ४, ४१४ एसुलो (इयान्) ४,४०८, ४३५ प्रोग्याला छादयति)४,२१,४१ उपरिक (उर्वरित) ४, ३.७९ एस्थ (अत्र) ४, १२३.२६५
मोरसइ (अवतरति) ४, ८५ उवामाइ उताति) ४, २४० एस्शु (अ) ४, ३३०, ३८७,
ओमाइ (उद्वाति) ४,११ बधाइ (जाति) ४, ११. २४० ४०४,४०५
ओलुण्ा (विरेचयति) ४,२६ अयारिमा (उद्वायते) ४, ४३८ एवं (एतत) ४, २६९ एदेण ४.
प्रोवासइ (अवकाशति) ४,१७९ अनिषद (उद्वि जति) ४, २२७ २८२, ३०२ एदिणा ४, २७६, ओबाह (अवगाहयति) ४,२०५ अश्वेद (उद्वेष्टयति) ४, २२३ एदामो, एदाह ४, २६०
ओशलष (अपसरत) ४, ३०२ सवेलाइ (उद्वेष्ट यनि । ४, २२३ एम्ब (एवम्) ४, ३७६, ४१५ ओसुक्का (तिजति) ४, १०४ सम्वेवो (उदग.)४, २२७ एम्वइ (एवम् । ४, ३२२, ४२०, मोहा (अवतरति) ४, ८५ वाला (उचनति) ४.२९५
०४१
ओहहह (अपभ्रश्यते) ४, ४१९ उस्मा (अम्मा) ४, २८१ एम्बई (एवम्) ४, ४२१, ४२३ ।। ओहामह (तुलयति) ४, २५ EिRE (मुञ्चति जतिपति) ४, एहि (इदानीम्। ४, ३८७, ओहावइ (प्राक्रमते) ४, १६०
मोहोरा (निद्राति) ४, १२ एलिशाह (ईदक्षानाम्) ४, २९९ असल (उल्लसति) ४, २०२ एवड (इयत्) ४, ४०८ क (किम्) ४,३५०, ४२२, ४४५,
H
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४१६
कवि ४, ३७७, ४०१, ४२०, ४२२, को. ४,३७०,३९६, ४२२, ४३८,४३९, ४४१, को इ४, ३८४ को वि ४, ४२२, का. ४, ३२० का वि ४. ३९५, कि ४, ३४०, कि ४,२६५, २७९,३०२, ३६५, ३६७,४२२,४३४,४३९, ४४५, कि पि ४, ३१०, ३९१, ४१८, ४३८, कई ४, ४२६ के ४, ३७६ के वि४, ३८७, ४१२, कस्सु ४, ४४२, कासु ४, ३५८, कहे ४, ३५९, कहिँ ४, ४३६ कइ (कति) ४, ४२० sai ( कीदृशः) ४, ४०३ (कुलः) ४, ४१६,४१८ ias (अति) ४, १९२ गुहे (कङ्गो) ४, ३६७ nee (food) ४, ३२९ कज (कार्य) ४, २६६, ४०.६, कज्जु ४, ३४३, कज्जे ४, ३६७ कर (काश्चन ) ४, ३९६ eg ! (कञ्चुकिन् ! ) ४, २६३, ३०२
nagar (क) ४, ४३१ ****1 (*****) *, 283, ३०५
करि (प्राश्चर्यम्) ४, ३५० कटार (कटारिकायाम) ४,४४५ कडु (कटु) ४, ३३६
क (क्वते ४, ११९, २२० कडु (ति) ४, १८७
(क) ४, ३८५ करण (कनके) ४, ४४४ कण (पति) ४ २३९ करिअ (कणिका) ४, ४१९
कृत-व्याकरणस्य ★
कणिआ (कणिकारः) ४, ३९६ कण्ठि ( कण्ठे ) ४, ४२०, ४४४, ४४६
oes (कर्ण) ४, ४३२, ४३३, कण्ण ४,३४० कल सिनानेन ( कृत- स्नानेन ) ४,
३२२
कय्. कहइ (कथयति) ४ २ दि कहेदि ४, २६७, कहि ४, ३०२, कधि ४, ३९६ कथितून ४, ३१२ कल्पइ ४, २४९, कहिं, कहिँ ४, ४२२, हिज्जद ४, २४९
कथं ( कथम् ) ४, २६७, ३२३ कन्तप्यो ( कन्दर्पः ) ४, ३२५ कन्ति (कान्ति) ४, ३९६, कन्तिए ४, ३४९
कन्तु ( कान्तः ) ४, ३४५,३५१, ३५७, ३५८, ३६४, ३८३,४१८, ४३४, कन्तस्तु ४, ४४५, कन्हा ४, ३७९, ३८९, ३९५, ४१६, ४२९
जद (ते) ४, ३५७ कमल (कमलम्, ४३०८, ३३२, ३९७, ४१४, कमलई ४, ३५३ (स्वपिति) ४, १४६ (धालुः) कम्पेइ (कम्पते ) ४, ४६, कम्पिता ४३२६, (अनुउपसर्ग - पूर्वकम् ) कम्पीया
कम
क
४,२६० कम्म (क्षुरं करोति) ४, ७२ कम्मs (उपभुनक्ति) ४, १११ कम्माह (कर्मणाम् ) ४, २९९ क म्मा ४,३०० कम्मे (भुनक्ति ) ४, ११०
चतुर्वपादस्य कंमन्ते ( कृतान्तः) ४, ३०२ कम्बो ( कदम्बः ) ४, ३८७ कय
म्बु ४, ३५७ कयरो ( कलरः ) ४, २०७ कर करेमि (करोमि ) ४, २६५. कलम ४,२८७, करेइ ४, ३३७, ४१४, ४२०, ४२२, करइ ४, ६५, २३४, २३९, ३३८, करदि करहि ४, ३८२, ४१४,४ ४, ३६०, करन्ति४, ३७६, ४४५, ३३०, करहि ४,३८५,४१८, करे ४, ३८७, करहु ४, ३४६.४२७, करे४, २६०, रिस्सिदि ४, २७५, करी ४, ३९६, की ४, ३८९.४,३८५ का ४, २६५, काहि ४, २१४, कम्सी, काही, काही ४ २१४, क ज्जदि, किज्जदे ४ २७४ करिज्जइ ४,२५०, कीरइ ४, २५०, की ते ४,३१६, किज्ज ४,३३८, ३८५३९, ४११.४४५, काउ ४. २१४, कर ४, ३७०, करण ४, ४४१, करि ४,३५७, करिश्र ४, २७२. कडु ४, २७२, ३०२ कारण ४ २७२. काऊन ४. २१४, कलि ४, ३०२, करेवि ४ ३४०, करेपि ४, ३१६, कव ४२६५ क ४,४२९, कय ४, ४२२, कतं. ४, ३२३, कद ४, २९०, किंतु ४४४६, किम उ४, ३७१, ३७६) प्रकिना ४, ३९६, करणीअं. ४, २७७, कार्यव्व ४, २१४, करिएण्ड ४, ४३८, करन्त ४,४३१,
करतु ४, ३५८, करन्तहो ४,
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sarawww.aniruw.ramewoman
शब्द-सूची * संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतस्य *
४१७ ४००, कराविधा ४, ४२३ कस् (दि-उपसर्ग-पूर्व कस्य कस्- किष (कथम्) ४, ४०१ कर (कर)४,४१८,४३९, ३९५, धातोः रूपमिदम्) पिअसइ (कि- किरनयो (क्लिन्नम) ४, ३२९ करि ४, ३५४, ३८७, करहिं सति) ४, १९५, विहसन्ति किर किल) ४.४१९ (विकासन्ति) ४, ३६५
किरितट (गिरितटम्) ४, ३२५ कराग (कराय)४, ४२२ कासट (कष्टम्) ४,३१४
शिल (किल) ४, २९२ करजइ (भनति) ४,१०६ कसरवकेहि (कसरकशब्दं कृत्वा)
किलिकिचाह (रमते)४, १६८ करवालु (करवाल:) ४, ३५४, ।
किलिन्नओ (विलिन्सकः) ४, ३२९ कसबदृष्प (कषपट्टके) ४, ३३० ।
कि (कथम्। ४, ४०१, ४२२ करालिअउ (करालितः) ४,४१५, कसाय-य (कषाय) ४. ४४०
किवा (कृपणः) ४,४१९ ४२९ कस्ट (कष्टम्) ४, २८९
किह (कथम्) ४,४०१ करि (करि) ४, ३५३ कह वि (कथमपि) ४,३७०, ४३६
किहे (कस्मात्) ४, ३५६ करिसइ (कर्षति। ४, १८७, २३५ कहं (कथम्) ४, २६७
कोमवि (क्रीडति) ४,४४२ कला (जानाति) ४, २, ५९ कहन्तिह (कुतः) ४,४१५, ४१६
कुकाइ (व्याहति) ४,७६ कलामह (कललितानाम्) , कहाँ (कम्पात्) ४. ३५५
कुम्भ (क्रुध्यति) ४, १३५ २१७ कहि (कुत्र) ४,३०२,३५७,४२२,
कुञजर (कुञ्जर) ४, ३८७, कुकलयलो कलकल:) ४, २२०, कहि पि४,४२२ :
ज४, ४२२ कलयले ४, ३०२
काई (किम्) ४,३४९,३५७,३६७. दम्बक (कुटुम्यम्) ४, ३११ कलहिण्ड (कलहापितः)४, ४२४ ३७०,३८३,४१८, ४२१, ४२२.
कुट्टा (कुट्टनम्) ४,४३८ कलिहि (कलो) ४. ३४१
कुडीरह (कुटीरके) ४, ३६४ कलिजुगि (कलियुगे) ४, ३१८, काच (कच्चित्) ४, ३२९ कुडम्बई (कुटुम्बकम्) ४ ४२२
कादं (मातम्) ४, ३२५ कुल्ली (कुटी) ४, ४२२, ४२९, कली (करी) ४, २८७ कामहो (कामस्य) ४,४४६
४३१ कले (कर:)४,२८८
कामेड (कामयते) ४,४४ कलेवरहो (कलेवरस्य) ४,३६५ काय (काय) ४, ३५० पुणन (करोति) ४, ६५ कथा (कवति) ४, २३३ कायर (कातर)४, ३७६ कुसुम्बकं (कुटुम्बकम्) ४, ३११ कवण (किम्) ४, ३५०, ३६७, कालवखे (कालक्षेपेण) ४, ३५७ कुमारी (कुमारी) ४, ३६२ कवा ४, ३९५, कवरोण ४, कासि ( काले ) ४,४१५५ ४२२, कुमाले (कुमार:) ४, २९३, ३०२ ३६७, कबहिँ ४,४२५
४२४ करि (कवरी) ४, ३८२ काली (कारी) ४, २२९.. कवला (करल) ४. ३८७, कवले कावालिय (कापालिक) ४:३०७ कुम्भयति (कुम्भतटे)४,४०६ ४, २८९ . .
किणइ (क्रीणाति) ४, ५२ कुम्भिसा (कुम्भिल) ४, ३०२ कवलु (कमलम्) ४, ३९७ कॅलि किलि (कीति) ४, ३३५, ३४७,
कुरल (कुरल) ४, ३८२ ४.३९५
कुलं (कुलम्) ४,३०८, कुलु, ३६१ कवालु (कपालम्) ४, ३०७ किसिउ कियकालम्) ४, ३८३ कुसुम (कुसुम) ४,३२२, ४४४ कबोलि (कपोले) ४, ३९५ किनु (कृतम्) ४,४४६ . कुसुमनाम (कुसुमदाम) ४,४४६
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जढ
व्या
तथा
चना
प्रका
लक्ष
म
सर्वो
सिद्ध
की रु
नादेर
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-
EN:
दख
वाहि
कोई
ग
और
EL!
तयः
देश
ाषा
ती
स-उ
=नुया नि!
वल
४१८
कुसुमाह ! (कुसुमायुध ! ) ४,२६४ कुह. ( कुध्यति ) ४, ३६५ कृदन्तो ( कृतान्तस्य ) ४, ३७० केति (कियत् ) ४, ३८३ केलों (वित्) ४४०८, ४३५ eg (कुत्र) ४, ४०५
केम्य (कथम् ) ४, ४१८ hra (सम्बन्धी ४, ३५९, केर ४, ३७३, के ए ४, ४२२ hers ( मारयति ) ४, ९५ केलि (केलि ) ४,१५७
[] खर (शुभ्यति) ४ १५४ खग (खड्गः ) ४३३०, ३८६ ४११, खग्मुः ४, ३५७, सभों ४, ३५७
खचइ (खचति) ४ ८१
★ प्राकृत-व्याकरणस्य ★ खणिज्जष्ठ, खपिडि (खनिध्यति )
(मृत) ४ १२६
के ( कथम् ) ४, ३४३
hi (चित् ४, ३९०, ३९६, खम्मइ ( खन्यते) ४, २४४
३९८
hag (किस ) ४, ४०.८ केसफलाउ (केशकलापः) ४, ४१४ केसरि (केसरी) ४, ३३५, ४२० स हि (शेः) ४, ३७० (क) ४, ४०२
केहि (४४२५. कोआ (विकसति) ४ १९५. कोकड (व्याहरति ) ४, ७६ कोर (कोटराणि) ४, ४२२ कोट्टुमइ (रम) ४, १६८ कोड (कौतुकेन) ४, ४२२ strog (sters) ४, ४४६ फोन्तु (कुन्तः) ४, ४२२ कोस्टा (कोष्ठागारम् )४, २१०
खण्डी (खण्डम् ) ४, ४२३ खन्ति ( क्षान्तिः) ४, ३७२, ४४५ खबर ( स्कन्धात् ) ४, ४४५ अम्भि (स्तम्भ) ४, ३९९
४, २४४
खणु (क्षण:) ४, ४४६, रोग ४, खुमुक (शल्यायते ) ४, ३९५ ३७१, वर्णे ४, ४१९
खण्ड (खण्डयति) ४, ३६७, ४२ खण्ड ४, ४१८ खण्ड (खण्डम् ) ४, ४४४, खण्ड
प्प (मज्जति) ४ १०१ खुम्भा (क्षुभ्यति) ४, १५४ खेड (ते) ४, १६८ सेडूयं (क्रीडा) ४, ४२२ ल्लति (ति) ४, ३८२ खोड (दोषः ) ४, ४१९ [ग]
३४०
गह (गति) ४, ३६७, ४०६ गङ्ग भङ्गा) ४, ४४२, गङ्गा ४, ३९९, ४१९
गज्जइ (गर्जति) ४, ९८१ मज्जहि ३६७, गज्जु ४, ४१८ गञ्ज (पीडित) ४, ४०९
खय (क्षय) ४, २९६
गालि (क्षयकाले ) ४, ३७७, गहुअ ( गरबा ) ४, २७२. ३०२
४० १
गढ (ति) ४, ११२
गरड (गणयति) ४ ३५८, गणक्ति ४, ४१४, ३५३, गणन्तिए ४, ३३३
गण्ठ (नाति) ४, १२० राष्छी (ग्रन्थिः) ४, १२० गण्डस्थति (गण्डस्थले ४, ३५७ गण्डाई (गण्डान् ) ४, ३५३ गती (गतिः) ४, ३२७ गम ( गण ) ४.३०६
गम्, गच्छ गच्छति ) ४, १६२, २१४. गच्छति गच्छते ४,३१९. गच्छ गच्छ् ४ २७४, मच्छ ४, २९५, गच्छस्सिदि ४, २७५, गमिही ४, ३३०, गम्मइ, गमि
४,२४९, गम्मिहिद, गमिहि ४, २४९, गच्छ्रिय, गच्छ
४, २७२ मतुन ४, ३१२,
एवम्मिहिए. (खनिष्यते) ४, २४४. मो धर्मः) ४, ३२५
चतुर्थपाद
खर (खर) ४, ३४४
खल (खल) ४, ३४०, ३६७, ४०६, ४१८, खलाई ४, ३३४, खलु ४, ३३७, ४२२ लहड (खल्वाम्) ४, ३८९ सफसिअस (व्याकुली भूत :) ४, ४९२ खामह (खादति) ४ २२८, खाइ ४. २२८, ४१९, स्वादन्ति ४, २२८, खन्ति ४, ४४५, खाहि ४, ४२२, स्वाहिइ ४, २२८, जद ४,४२३, खाम्रो ४६२२८ खाई ( नर्थको निपातः) ४,४२४ खिज्जह (ति) ४१३२ २२४ खिर (क्षरति) ४ १.३३ faas (क्षिपति ) ४, १४३. खु ( खलु ) ४, ३०२
खुट्टइ (ति) ४, ११६ सुबह (तुडति ४, ११.६
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शब्द-सूत्री
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतस्य * गडप ४,२७२, ३०२, गम्प्पिणु, गवेसइ (गवेषयति) ४,१८९,४४४ गुम्मद (मुह्यति) ४, २०७ गपि, गप्पि, गमेग्पिा ४, गप्पा (पति) ४, २.४ गुम्मडा (मुह्यति) ४, २०७ ४४२, मज ४, ४४२, गई ४, गह (ग्रह) ४. ३८५
गुरु (गुरु) ४,४४४ ४२६, गस ४, ३५२, गया ४, गहन (गहनम्) ४, ३२३ गुलगुरुE (उन्नामयति) ४.३६. ४२२, गया ४. ३७६, गर्हि ४, गहीरिम भीरिमाणम्)४,४१९ १४४ ३७०, ३७७, गतो ४, ३२२, गदे गा, भाइ, माई (गायति) ४, गुलला (चाटुकरोति) ४.७३ ४, ३०२, सदी ४,३८९. ३५०६, गिय्यते ४,३१५
गोंगुडा (गोष्ठस्थाः ) ४,४२३ (भाड़-उपसगंपूर्वक: गमधातः) गारसं (गानम) ४,६
गोरडी (मौरी) ४, ३९५, ४२०, प्रागच्छच ४, १६३,२८७,प्राग- गामहं (ग्रामाणा) ४,४०७ ४३१, ४३६ एचदि ४. ३०२, प्रागच्छमानो झिइ {गृध्यति) ४, २१७ गोरि (गौरी) ४,३२९,३६३, गोरी ४,३२३.भागदो ४,३५५, ३७२, गिम्भो ४, (ग्रीष्मः).४, ४१२ (गौरी) ४, ३९६, ४०१, ४१८,
३.७.३, प्रागदे ४. २९२, प्रागदं गिम्ह { ग्रीमः)४, २८९, गिम्हु गोरिहे ४, ३९५, गोरीप्रहि ४, .:: २७४, प्रामा पूर्वकः गमधातुः ) प्रभागच्छइ गिग्यते मोयते) ४, ३१५ गोलो (गौरी) ४. ३२६ ४,१६५ (प्रत्याहु-उपसर्ग-गुवक: गिरि (गिरि) ४, ३३७, ४४५, प्रह, गेण्हइ (गृह्णाति) ४, २०९, गमधातु) पचवायच्छा ४,१६६ पिरिहे-४, ३४१
मृण्हइ ४, ३३६, गृहन्ति ४, (निम-उपसर्ग-पूर्वक: मम्धातुः) गिलमणु (गिलनमना:)४,४४५ ३४१, घेप्पइ ४, २५६, ३४१. णिमा ४, ३:१ (सम्-नयम- गिलि गिलि मिल.गिन) ४,३९६ घेप्पन्ति ४, ३३५, हिज्जइ पूर्वकः गमधातुः ) संगच्छइ ४, गिनिजह (गिल्यते) ४, ३७० ४, २५६, गेबिहान ४, २१०,
गिली (गिरिः)४, २८७ घेत्तूण, ४, २१०, गृण्हेप्पिणु ४, गमेलइ (गवेषयति) ४, १८२ गुजा (हसत) ४, ११६ ३९४, ४३८, घेत्तुं, घेतूण, १ ३३५, ३४५. ३.८३, गुञ्जल्लइ (उल्लमति) ४, २०२ घेतब्बं ४, २१०
गुजोल्लइ (उल्लसति) ४.२०२ पोरण (गगन) ४. २९५ गुट्ट (गोष्ठी) ४,४१६ घई (अनर्थको निपातः) ४, ४२४ गयणायलु (गगनतलम्) ४, ३७६ गुण (गुण) ४, २९२,३३८, ३७२, घंधलाई (क्लेषः) ४, ४२२ मध्यदि (गर्जति).४, २९२ ४१४, गुरगु ४, ३९५, गुणहि ४, घद, घडइ ( घटति) ४, ११२, गहा (गुरुका) ४, ३४०
३३५, ३४७, ४००, ४१८ घडदि ४,४०४, बडेइ ४, ५०, गल. गलइ ( गलति) ४,४१८, गुणइ (गुष यति) ४,४२२ घडाव ४, ३४०, ४११. घडिन मलन्ति ४, ४०६, ( नअ-पूर्वक: मुण्ठह (उलयति: ४, २९ ४,४१४,घडिप्रउ ४,३३१ (उद्मल्धातुः ) अगलिम ४, ३३२, गुन (गुण)४,३०६ गुनेन ४, ३०६ उपसर्ग-पूर्वकः धधातुः) उपधा( वि-उपसर्ग-पूर्वक: गल्धातुः) गुप्, गोवई (मोपायसे) ४, ३३५, डइ ४, ३३ (सम्-उपसर्ग-पूर्वक: विगलइ ४.. १७५
गुप्पई ४, १५०, जुन्छइ, जुगु- घटधातुः) संघड६४, ११३ गलत्थई (क्षिपति) ४. १४३ च्छइ (जुगुप्सते) ४,४ वि-उप- घड (घटाः) ४,३५७,३९५,४३९ गलि (गले)४, ४२३
सर्ग-पूवक: गुप्यातुः) विगुत्ताई घडुक्कय (घटोत्कच) ४, २९९ गवखेहि (मवाक्षेषु) ४, ४२३ ४,४२१
घरा (धन) ४, ३८७,४१४,४३८,
Tot
२
AwayaMaNAY
wisitoconu09indimpouTRARIKAntidiistrent ...
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४२० *प्राकृत-व्याकरणस्य *
चतुर्थपादस्य घणा ४,४२२, ४३९
{आरोहति) ४.२०६,४१०, ४,२४३, चिणिहिइ, चिम्मिहिह धणाइ (घृणायते) ४,४४५ चडिमा ४, ३३१ चडिमा ४, ४,२४३, चिवन, विविहिइ प्रत (घातम्) ४,४१४
४, २४२, २४३ [उद-उपसर्गघत्ता (क्षिपति).४, १४३, पता चक्क (चटात्कार:) ४, ४०६ पूर्वक: चि-धातुः] उचिणइ, (गवेषयति) ४, १८९
उच्चेइ ४, २४१ धम्मो (धर्म:) ४, ३२८ पद भुनक्ति) ४, ११०, चट्ट चिइच्छइ (चिकित्सति) ४, २४० घर ( गृहम् ) ४, ३६४, वरु ४, मदनाति) ४, १२६
विनइचिचप, चिञ्चिल्ल इ ३४१, ३४३,३५१,३६७, ४२२, पिनष्टि ४,१८५ धरि ४, ४२३, ४३६, धहि सरिके ! {चतुरिके !) ४, २१ बिन्त (धातुः) चिन्तह(चिन्तयति) ४,४२२
बदुलि के ! (चतुरिके !) ४, ३०२ ४, ४२२, चिन्तेदि ४, २६५; धरिणि (गृहिणी) ४, ३७० दिमए (चन्द्रिकया) ४, ३४९ चिन्तयन्तो ४, ३२२, चिन्तयपल्ला (पति, २३७०२२. समता (भक्ति) ४.११.
माणी ४,३१०, चिन्तन्ता४. घल्लन्ति ४, ४२२
धम्पप (चम्पक) ४,४४४ ३६२; चिन्तिज्जइ ४, ३१६, घाज (धातः) ४, ३४६
चम्पावणी (चम्पकवी)४,३३० ४१० चिन्तितं ४, ३२० घुग्घउ चेष्टाम्) ४,४२३
वम्पिज्जा (माक्रम्पते) ४, ३९५ चीमूतो (जीमूतः) ४,३२५ घुडपकह (शल्यायते) ४, ३९५
चयई (त्यजति) ४, ८६, चय ४, चुश्कइ (भ्रश्यते) ४, १७७ घुण्टेहि (घुटशब्दं कृत्वा) ४,४२३
४२२, चएज्ज ४, ४१८, च. धुणा (चिनोति) ४, २३८ धुम्म (पूर्णते)४, ११७
एप्पिणु ४, ४४१, चत्त ४, चुणीहोइ (चूर्णीभवति) ४,३९५. घुला (घूर्णते).४, ११७
३४५, ३८३, चयई (शक्नोति) ४३० घुससा मनाति) ४, १२१ ४, ८६
चुम्बई (चुम्बति) ४, २३९, चुघोट्टा (पिबति)४, १० सरि (चर) ४,३८७
म्बिदि ४,४३९ घोडा (अश्वाः ) ४, ३३०, ३४४, सलइ (चलति) ४, २३१ चुस्नुचुलइ (स्पन्दति)४, १२७
पलण (चरण)४, ३९९ चूहुल्लड (कङ्कणम्) ४, ३१५, घोलइ (घूर्णते) ४, ११७ बलदि (चलति) ४,२८३
४३० चलन (चरण) ४, ३२६
चुरुकरेइ (चूर्णीकरोति) ४,३३७ च (च) ४,२६५,३२१,३२२,३२३ चलेहि (चलाभ्याम्) ४, ४२२ चेअइ (चेतयति) ४, ३९६ घर (चतुर) ४,३३१ चल्लइ (चलति) ४, २३१
चोप्पाइ (क्षति) ४.१९१ चामुंह (चतुर्मुखः) ४, ३३१ अवह (कथयति) ४, २
विच (एक) ४, ६३, ३६५ चके (चक्रण) ४,४४४ पवा (च्यवति) ४, २३३ चविलय (आस्वादिसम्) ४,२५८ पवेड (चपेटा) ४, ४०६ छइरूल (विदग्त्र) ४,४१२ बच्चरं (जर्जरम्) ४, ३२५ चाउ (त्यागः) ४,३९६ अछरो (झझरः) ४.३२५ . स्वस्त्रिक्क (स्थासकम् ४, १७४. चारहजी (च धारभटी) ४.३९६, छम (राजते। ४, १०० चमचुप्पइ (अति ) ४, ३९ चि, धिणा चिनोति) ४, २३८, छडुहि (मुडनति) ४,९१, छडुहि पञ्चइ (तक्ष्णोति) ४, १९४ ।। २४१, चुणई ४, २३८, चिणि- ४, ३८७, छवियु ४, ४२२ बचलु (चञ्चलम्) ४,४१८ जइ ४, २४२, २४३, चिम्म छन्वउ (छन्दक:) ४, ४२२
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शब्द-सूची * संस्कृत-हिन्दी टोकाद्वयोपेतस्य*
४२१ छमूह (षप्रमुखः) ४, ३३१ ४०४, ४०५ छायाछाक्ष्यति) ४, २१ जगह (जागति) ४. ५०, जग्गेया जलि ४, ३८३, ४१४, जले ४, छाया (छाया) ४, ३७०, ३८७
३६५, जलहु ४,४१५ धार (धार) ४. ३६५
अम्जरियाड (जर्जरिताः) ४.३३३ जला (ज्वलति) ४, ३६५ छाले (छाग:) ४, २१५
जलको (ज्वलनः)४,३६५, जलरिण चितं (सृष्टम्) ४, २५८ सई त्यक्तम्। ४, २५८
४,४४४ विद, छिन्द (छिनति) ४,१२४, जस (जनः ) ४, ३६४, २७२, जवाई या
१४. १७२, जबइ (यापति) ४, ४० २१६,छिजजइ ४, ३५७, ४३४, , ३५७, ४३४, ३७६, जणु ४, ३३६, ३३७,
जह (यथा) ४, ४१९ छिण्णा४,४४४ (माङ-उपसर्ग- ३९.४०६.४१. जणा ४, जहा यस्मात) ४,३५५ पूर्वकः छिद्धातुः) प्राच्छिन्दई ३७२, जरोण ४.३७१ जणस्स माह ायत्र) ४,३४९, ३५७, ४२२ ४, १२५ (सुप्रणस्सु) ४, ३३८
जाअई (जायते) ४, १३६ छिप्पा (स्पृशति) ४. २५७ जणणी (जननी) ४,२८२, ३०२।।
१२.३०२ जाइ (याति। ४,३५७,४४१,४४४ छिचइ स्पृिशति) ४,१८२, छि- जणि इव) ४. ४४४
आइष्टुपए ( यचदृष्टं ततद् )४, विज्जई ४, २५.७
जणु (इब) ४.४०१, ४४४ ४२२ बिहद (स्पृशति) ४, १५२ मत यत्र) ४,४०४
आई (जातिम्) ४, ३६५ छु । यदि) ४, ३८५, ४०१, अषा (यथा)४, २६० आ यातु) ४,३३२,४२०, ४२६ ४२२
जात (यातु) ४, ४२० जाउँ (यावत) ४,४०६ छुन्धाइ (प्राक्रमते) ४, १६० अम (यमः) ४, ३७०, ४४२, आगरह (जागति) ४, ८० छुप्प छुपति) ४, २४९ जमही ४, ४१९
जाणणं (ज्ञानम्) ४, ७ छुविजन (स्पृश्यते) ४, २४९
जारिणअह (ज्ञायते) ४,३३० छुहह (शिपति) ४, १४३
जाम (यावत्) ४, ३८७, ४०६ छेयङ (छेदक:)४, ३९० । अम्पिरहे ( जल्पनशीलाया: ) ४, जामहि (यावत) ४,४०६ । छोस्लिमजन्तु ( प्रतिक्षिष्यत ) ४, ३५०
आया (आतौ) ४, ३५०, ३६७ ३९५
अम्भाग्रह, जम्भाइ (जम्भति) ४, जाल (जाल) ४, ३९५, ४१५, २४०
४२९ लु ४, ४३९ जअाइ (स्वर यते) ४, १७० अम्मद (जायते) ४, १३६
जाब (याक्त) ४,२७८ जबडम्तो ४,१७०
अम्मु (जन्म) ४, ३९६, ३९७ मा (यावत्} ४, ३९५ जा (यदि) ४,३४३, ३५१, ३५६, ४२२
जायेइ (यापयति) ४,४० ३६४, ३६५,३६७, ३७०, ३७१. जय (जत्र) ४. ३.७०
जि (एव, ४,३४१, ३८७, ४०६, ३७९, ३८४,३९०,३११, ३९५, अपस्सु (जगतः) ४, ४४०
४१४,४१९.४२०,४२२,४२३, ३९६,३९८,३९९, ४०१, ४१७, जया (यदा) ४, २८३ ४१८,४१९, ४२२, ४३८, ४३९ बर (जरा) ४,४२३
जि, अयाइ (जयलि) ४.२४१,जिअइसो (यादृशः) ४, ४०३ जप (जाति) ४, २३४, अरि- गई ४, २४१, जिणिजइ ४, जओ (यतः) ४, ४१९ उजई, जीर४. २५०
२४२. जिवइ ४, २४२, जेपि अगु (जगत) ४, ३४३, जगि ४, असं (जलम्। ४,२८७, ३०८, जलु ४, ४४०, ४४१. जिणेपि ४,
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________________
'
४२२
४४२, जेऊण ४ २३७, २४१, जणिऊण ४ २४१ (निस्-उप
- पूर्व: जिधातुः) निज्जउ ४,४०१, (विनि-उपसर्ग-पूर्वक: जिघासुः) fafefore ४,३९६ जिइन्दिए ( जितेन्द्रियः) ४,२८७ जिण (जिन) ४, ४४४
o
(जिन्द्रयम् ) ४
प्राकृत-व्याकरणस्त्र
४ ३४०, जुनं ४, २७९ जुम्बई (युज्यते ) ४, १०९ जुबविजखो (युवतिजन ) ४, २०६ जूह ( खिळते ) ४. १३२, १३५ रव वचयति) ४ ९३ जेलो ( यावत्) ४, ४०७, ४३५
(जीवितम् ) ४,३५८, ४१८ जीहरु (लज्जति) ४ १०३ जुजुअ (पृथक्-पृथक् ) ४, ४२२ जुअल (युगलम् ) ४, ४१४ जु उच्च (जुगुप्सति) ४, ४ जुगुण्वइ (जुगुप्सति) ४ ४ जुज्जइ (युज्यते ) ४, १०९. see (युध्यते ) ४, २१७
हो | युध्यमानस्य ) ४,३७९ जुन् (युद्धेन ) ४, ३८६, ४२६ जुजर (युज्यते ) ४, १०९ जुत्तो ( युक्त:) ४, ३०६, जुत्तउ
eg (पत्र) ४, ४२२ जेथु वि (यत्रापि) ४, ४०४, ४०५ जे (यथा ) ४, ३९७, ४०१
४२७
जिम्, जिमइ, जेम (भुनक्ति ) ४, जेबहु ( यावत्) ४, ४०७ ११०, जिम्मद ४ २३० जेह ( यावत् ) ४, ४२२ मिर्च (था ४,३३०,३३६, ३४७ जेहु (यादुक्) ४४०२ -३५४, ३७६, ३८५, ३९५, ३९६, ३९७, ४२२, जिवें जियं (यथा यथा ) ४, ३४४, ३६७, ४०१ जिह (यथा ) ४, ३७७, ४०१ जिहं (यथा ४, ३३७ जज (जीवः) ४, ४३९ जीमूतों (जीमूतः) ४, ३२७ जीव, जीवs ( जीवति) ४, ३६७, जीवन्त ४ २८२, ३०२ जीव ४, ४४४, जीवो ४, ९, जीवह ४, ४०६
जो (यः) ४, ३३०, ३३२, ३३८, ३४३, ३७० ३८३.४०१.४२२, ४२६, ४४२, ४४५, जु४, ३४५, ३५०, ३५१, ३५४, ३६०,३६७, ३८९, ४११,४१८ जा ४,३९५ जं ४, ३६५, ३७१, ३७८३८ ३९०,३९६, ४२०,४२६, ४२९.
४३४ ४४६, जेण ४, ४१४, ४२२. जे ४, ३५०, ४२१, जसु
४, ३६८, ३७०, ३८९, ४२२, ४२७, जासु ४, ३५८, ३९६, ४२०, जहे ४, ३५९ जहि ४, ३६६, ४११, ४, ६,४, ४३९, जे ४, ३३३,३५०, ३६७, ३७६, ३८७,३९५, ४०९, ४१२, ४२२,४३०, जाहं ४,३५३,४०९ जोअर (योजन ) ४, ३३२ ater (पश्यति) ४ ४२२, जोइ ४, ३६४, ३६८, जोहा ४, ३५६, जोप्रति ४, ३३२. जोताई ४,४०९ ओह (ज्योत्स्ना ४, ३७६ ओखरिप ( यौवने ) ४, ४२२
चतुर्थपादस्य
जिज (एव) ४, ४२३ शा, आर (ज्ञानाति) ४,७,४०१, ४१९, यादि ४ २९२, जाह ४, ३६९, वड, एज्जइ, जाणिज्जइ, मुणिज्जइ, नाइज्जइ.
इज्जइ ४ २५२, जाउं ४,३९१,४३९, जाणिव ४, ३७७, ४०१, ४२३, जाणिऊण, णाऊण ४. ७, जाणिों, गायं ४. 3 (आङ-उपसर्ग-पूर्वक: ज्ञाधातुः) श्राणवेदु ४, २७७. आणतं ४, २८३ (वि-उपसर्ग-पूर्वक ज्ञाधातुः ) विष्णव ४, ३८ +6] भंग (क्लिप) ४.१४० १४८. १५६. २०१, २५२, भहि ३७९, ४२२
खरो (भर्भरः ) ४, ३२७ भड (शीयते ४, १३०
झडप
(शीघ्रम् ) ४,३८८
(भ्रमति) ४, १६१ कम्प (अमति ) ४, १६१ भारइ (क्षरति) ४, ७४. १७३ झलक्किअ ( संम्) ४, ३९५ भाग्रह (ध्यायति) ४, ६, २४०, भाइ ४, ६, २४०, झाइवि ४, ३३५ झाएबिणु ( ध्यात्वा ) ४, ४४० झार (ध्यानम् ) ४, ६, झिज्जर (क्षी) ४,२०,जिउं
४, ४२५
झुण्ड (जुगुप्सति) ४, ४ भुरि (soft:) ४, ४३२, ४३३ भुम्पदा (कुटी) ४, ४१६,४१८ रद्द ( स्मरति ४, ७४
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an-AAAAA-Amrapalaya
N
ewsMeriAl-
A
-
-
--
-
शाब्द-सूची
* संस्कृत-हिन्दो-टोकाद्वयोपेतस्य * झोसिन (क्षिप्तम्) ४, २५८ ... डिक्का वृषभो गर्जति) ४, ९९ सिम्महह (गम्छति) ४, १६२
हुमा (भ्रमति) ४, १६१ णिरणासह (नश्यति) ४, १७८ आनं (ज्ञानम्) ४, ३०३ दुपारूला (भ्रमति)४,१६१, १८९ णिरिग्घा (निलीयते) ४, ५५
.. सइ (भ्रमति) ४. १६.१ ... . . मिरिणामह (पिनष्टि) ४, १८५ एमहको (उमस्क:) ४, ३२५ डोल्ला ! (नायक!)४,३३०,४२५ मिरिणास गच्छति) ४, १६२ सिरिदिला (भ्रमति) ४, १६१
णिरिणासह पिनष्टि) ४, १५५ शिविविकार (मण्डपति) ४, ११५ पन) ४, २९१
णिक इनित राम्) ४, ३४४ पडा (गुप्यते) ४,१५० णिलि, णिलीप्राइ (नितीयते) ठपका (ढक्का) ३२५
वं (इव) ४, ३५२ उवह (स्थापयति) ४, ३५:५ रणं (ननु) ४, ३०२
गिनुका (निलीयते) ४, ५५ ठाउ (स्थानम्) ४, ३५८ गवाह (भाराकान्तो ममति) ४, णिलुक्का (तुति)४, ११६ कारणं (स्थानम्) ४,१६, ठाणु ४, १५८, २२६
पिल्लसइ (उल्लसति) ४, २०२ णवि (वैपरीत्ये) ४, ३४०, ३५३, जिल्लुजछह (मुञ्चति) ४, ९१
पिल्लू रइ (छिपत्ति) ४. १२४ अमरको (उ.मरुक:) ४, ३२७ ।। पारणं ज्ञानम्) ४, ७
णिवहह मछति) ४. १६२ अम्बर (म्बराणि) ४,४२० माधो (नाथः) ४,२६७: . णियहाइ (नश्यति) ४, १७८ दरइ (स्थति) ४, १९८८ णावह (इब) ४, ३३१ . णिवहा (पिनष्टि)४, १८५ हल्लह (पिबति) ४, १० गाहो (नाथः) ४, २६७ . °णिवाशी {"निवासी)४, ३०१ हा दहति) ४, २०८, डहिहिइ णिअम्बिरिण (नितम्बिनी) ४,४१४ ३०२ ४,२५६,इझ ४, २४६,३६५ पिआर (काणेक्षितं करोति) ४, मिचडाई (पृथगभवति, स्पष्टं - इज्झिहिद ४, २४६
वति) ४, ६२ बलई शाला) ४,४४५ पिउड्डा (मज्जति) ४. १०१ शिव्यरइ दुखं कथयति ४, ३ डिम्भ (हिम्म) ४, ३८२ णिग्गउ (निर्गत:)४,३३१ णिस्बरह (छिनति) ४, १२४ डिम्भह (सते) ४, १७ णिश्चल इ (क्ष रति) ४,१७३ णिवलेइ (वं मुवति) ४, ९२ डुङ्गारिहि (पर्वतेषु। ४, ४४५ जिमछल्लाह (छिनत्ति) ४, १२४ णिसावधाम्यति। ४, १५९ गङ्गार (गिरि) ४, ४२२ णिभरइ (क्षति) ४, २० पिठनोलाई (मन्युना प्रोष्ठमालिन्यं
लिम्झाइ (ध्यायति) ४, ६ करोषि लुसइ (विवर्तते) ४, ११८ पिझोडा (छिनत्ति) ४,१२४ णिसुबह (भाराकान्तो नमति) ४, दरक बडा ) ४ ४०६ णिटुअह (क्षति) ४, १.५३ १५८ ढस्का (ढक्क) ४, ३२७ मिाहह (विगलति) ४, १५५ मिहम्मद (मच्छप्ति) ४, १६२ दवका छादयत्ति) ४, २१ मिठ्ठहरू (अवष्टम्भ कराति) ४, णिहालहि (निमालय) ४,३७६ करि (अद्भुत) ४, ४२२
पिहि (निधिः) ४, ४१४, णिही दण्डलला (भ्रमति) ४, १६१ ।। णिमा (न्यस्यति) ४. १९९४.२८७ दण्डोलाइ (गवेषयति) ४,१८९ *णिमं (इदम्) ४, २७९, ३०२ बिहुवइ (कामयते) ४, ४४ *युक्तम् । इदम्, जुत्तामणं इश्यत्र ९५. सूत्रेण णकारस्थागमो जातः ।
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UNILIALUWARIUMYAawan
* प्राकृत ट्याकरस्य *
चतुर्थपादस्य णिहोइ निवारयति, निपतति) ३९७, ४१०, ४२८, तासु ४. तसस्सु (तत्त्वस्य) ४, ४४० ४, २२
३५८, ४०१. तहो ४, ३५६, तत्त (तत्र)४.४०४ रणीइ (गच्छति) ४, १६२ ४२६, लाए ४. ३२२, सहे ४, तत्थ (तत्र) ४,३२२ । गोणाई (गच्छति) ४, १६२ ३५०. ३५४,३५६,३५९, ३८२, तो (ततः) ४, २६० णीरबड्ड (बुभुक्षति)४, ५ ४११, सहि ४,४०४ तहि ४, लघा (तथा) ४,२६० गौरव (माक्षिपति) ४, १४५ ३५७, ३५६, ४१९, ताउँ ४. तनु (लनु) ४, ३२६ णीलुक्का (गच्छति) ४, १६२
४०६, तामहि ४, ४०६, ति ४, तप, तबइ (तपति) ४,३७७,४०१ गोलुछा (निष्पतति, प्राच्छोट- ३३०.३४४, ३६३, ते ४,३३६, (सम्-उपसर्गपूर्वकः तम्-धातुः) यति)४,७१
३५३,३७१, ३७६, ३८७,४०६, संतप्प ४, १४० गीसरह (रमते) ४, १६८
४०९.४१२,४१४,तहि ४ ३७०, तप्ननेसुदपरणेषु) ४,३२६ मोहम्मद (पचास ४, १६२
तह ४, ४२२. तापा ४, ३३३, लमाडइ (भ्रमति) ४ ३० पीहर (निःसरति) ४,७९ ताहं ४, ३५०, ३६७, ४०९, ता, तरह (शक्नोति) ४, ८६, पोहा (माक्रन्दसि) ४, १३१ ताह ४,३००, लहं ४,४२२
२३४, तीर, तरिजइ, ४, शुमह (छादयति) ४, २१ सइन्जी (तृतीया) ४, ३३९, ४११ २५०, (उद्-उपसर्गपूर्वका तर्शुमन (न्यस्यति) ४, १९९ तासो (तादृशः) ४.४०३
धातुः) उत्तरद्द ४, ३३९ झुमज्बाइ (निमज्जति ४, १२३ तसने (दर्शने) ४, ३१६ ।।
तरु (तरु) ४,३७०,तरहे ४.३४१, शुल्लइ (क्षिपति) ४, १४३ तबकेड (तकति) ४,३७० तरह ४, ४११, तनहुँ ४, ३४०, गुम्बद प्रकाशयति) ४,४५ ' तक्खा (तक्ष्णोति)४, १९४
३४१, ४११ एमइ (छादयत्ति) ४, २१ ARE (तक्षणोति) ४. १९४
तरमहं (तरुवराणाम्) ४, ४२२ गद (इदम) ४, २७१
तयाक (तडागम्) ४, ३२५ तषणहो ! (हे तरुणा !) ४, ३४६ गोस्ला (क्षिपति) ४, १४३ तह (तनोति) ४,१३७ तरुणिहो ! (हे तरुण्य:!) ४,३४६ हाइ (स्नाति) ४, १४
तसि (तडिदिति) ४,३५२,३५५ तलमण्टइ (भ्रमति) ४, १६१ पहा (स्नानम) ४,३९९, ४१९ ताफडद (स्पन्दते)४, ३६६
तलि, सले (तले, ४, ३३४ ताडि (तटे) ४,४२२
सया (तपलि) ४, ३७७ त-४, ३६
तड्डइ (तनति) ४, १३७ सबस्सि ! (तपस्थिन् !) ४,२६३ तं (सम्) ४. ३२०, ३२६, ३४३. सवा
वह (तमति) ४, १३७ तवु (तपस्) ४.४४१ ३५०,३५६,३६०, ३६५, ३७१,
तणा (तनति) ४, १३७ तसई (त्रस्यति)४, १९८ ३८८,३९५, ४१४,४१८,४१९,
सराज (तनयः) ४,४४७ तसम् (दशसु) ४, ३२६ ४२०, ४२२, ४२६, ४२२, ते
" तणर्ड (सम्बन्धी) ४, ३६१, तणा तहाँ (तस्मात्) ४, ३५५ ४४६, तेण ४, ३६५.तें ४. ,३७२, ३८०, ४१७, ४२२, तहि (तत्र) ४,३५७ ३३९,३४३,३७९४१४,४१७, तरणेण ४,३६६, ४२५,४३७ ता (तदा) ४,२७८,३०२ तया ४,२८३ लाए ४ ३७०,
व्या:) ४,४०१
ता(तावत् ४,४०६, ४२३ तीए, ४, ३२१, ३२३, तस्म ४, सणु (तनुः) ४, ४०१
ताठा (दंष्ट्रा) ४, ३२५ २६० तस्सु ४, ४१९, तसु ४, तणु (तृण) ४,३२९, ३३४, तणहं ताडे (लाइयति) ४, २७ ३३८, ३४३,३७५,३८५,३९६, ४,३३९. ४११
सातिसो (तादृशः) ४, ३१७
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शब्द-सूची * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतस्य *
४२५ तापस-वेस (तापस-वेष)४, ३२३ तिसहे (तृषः) ४,३९५ तेतिर तावान्) ४ ३९५, तेत्तुलो ताम (तावत्) ४, ४०६ सिंह (तथा) ४, ३७७
४, ४०७ ताहि (तावत) ४,४०६ तोर (शक्नोति) ४, ८६ त्थु (तत्र) ४,४०४, ४७५ तामोलरो (दामोदरः) ४, ३०७, तह (त्वम्) ४,३३०, ३६८, ३७०
सेम्व (तथा) ४,४१८
सेव तथा) ४, ३४३, ३९७,४०१ तारिले (तादृशः) ४,२८७ ४३१, तई ४,३७०, ४२२, तुम
तेइ ४,४३९ तालिमण्ट (भ्रमलि) ४,३०
४, ३८८, ते ४, ३३९ लुह ४,
तेघडु (तावाद) ४, ३९५, ४०७ ताव (ताप) ४, ४२२
तेवरो (देवरः) ४, ३२४
३६१, ३७०, ३८३, तुज्झ ४. १ साव (तावत्) ४, २६२, ३२१,
३६७, ३७०, ३७२, ३७७,
लेहा (तादृशे) ४, ३५७ त उ ४, ३६७, ३७२, ४२५,
तेह (तादृशः) ४, ४०२ तावे (तावत्) ४,३९५ ४४१, तुध्र ४, ३७२ तुमातो,
तो (तदा, तस्मात्) ४, ३३६, तिक्खा (तीवणान्) ४, ३९५
तुपातु ४, ३०७, ३२१, तुम्हे ३४१, ३४३, ३६५.३६७,३७९, तिखे। (तीक्ष्णयति) ४, ३४४ ।।
४, ३६५. तुम्हई ४, ३६९ तुम्हे- ३९१, ३९५, ३९८,४०४,४१७, तिपद.) । २१, २२, हि ४.३७१.३७८, तण्ड , ४१८,४१९.४२२,४२३,४३९,
३७३, तुम्हाहँ ४, ३०० तुम्हासु ४४५ लिण (तृणा) ४, ३५८, तिणु ४, ४,३७४
सोज (तुडति) ४, ११६ सुमध (तुपछ) ४, ३५० तुच्छउं४, तोसिख (तोषित) ४, ३३१ तिहिं (त्रिभिः) ४, ३४७ ४, ३५०, ३५४, ४११, तुच्छयर ति (इति) ४,३०२, ३५२, ३५७६ तिथं तीर्थम्) ४, २६४, तित्थे- ४, ३५० सरेण ४,४४१
खट्टर (ट्यति) ४, ११६, ३२०, (तद, तम्) ३६० सिस (त्रिदश ४, ४४२ तुट्टा ४, ३५५
स्वर, तुवरइ (त्वरयति)४,१७० तिन्तुरवाणु तिमितोद्वालम्) ४, तुड (टि) ४, ३५०
तूरइ ४. १७१, तुवरस्तो ४, सुद्धि (त्रुट्यति) ४, ११६ १७०, तूरन्तो ४, १७१. तुरन्तो तिमिर तिमिर)४, ३८२ तुम्बिरबहे (तुम्विन्या:) ४, ४२७ ४, १७२, तुरियो ४, १७२ तिम्मद (मार्दीभवति) ४,४१८ तुल (तुलयति) ४, २५ सिरिभिल इतिर्यक) ४, २९५, सुलिम (तुलित) ४. ३८२ थक्का (तिष्ठति) ४, १६, ८७
लिरिच्छी ४,४१४, ४२० तुहारेण (नदीयेन) ४,४३४ का फिक्कति) ४, २५९ । सिरिश्थि (तिर्थक्) ४, २९५ तुरातु, तूरातो (दूरात्) ४, ३२१, थबकेह (नीचां गति करोति, वितिल (तिल) ४, ४०६, तिलई ३२३
ष्ठति) ४, ३७० ४, ४०.६, तिलवणि ४, ३५७, तूसह तुष्यति) ४, २३६ पण (स्तन) ४, ३५०, ३६७, तिलतार ४, ३५६
तृणु तृणम्) ४, ३५९, तृणाई ४ थणहं ४, ३९० तिलसरण (लिलत्वम् ४, ४०६ ४२२ ।
अणहारु (स्तनभारः) ४,४१४ तिवं (तथा) ४, ३७६, ३९५, सेमरा (लेजनम्) ४, १०४ चलं (घरम्) ४, ३२६ ३९७, ४२२; ति तिवें (तथा अवइ (प्रदीपयति) ४, १५२ थलि (स्थली)४, ३३०, ३४४, तथा)४, ३४४, ३६७, ४०१, सेत्तहे (तन्त्र) ४, ४३६
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★ प्राकृत-व्याकरणस्य *
वह असइ हिजद्द, मिहिर, उहिडि (दह्यते) ४, २४६, द ४, ३६५, दडा ४, ३४३
चतुर्थपादस्य विश्वन्तरहं ( दिव्यान्तराणि ) ४, ४४२ fafe (दिक् ) ४, ३६८, बिसिह (दिशो :) ४, ३४०
वहमुह (देशमुख) ४, ३३१ वा वे (ददाति ) ४,२३८, ४०६, ४२०, ४२२, ४२३, देदि ४, २७३, तेति ४, ३१८, देन्ति ४, ४१४, ४, ३०४, न्तहो ४, ३७९, लिहि४, ४१९, देपिणु ४,४४०, जहि ४, ३८३, जिहिं ४, ४२८, दिव्यते ४, ३१५, दिज्जइ ४, ४३८, दिण्णी ४, ३३०, ४०१, दिण्णे ४, ३०२, दि० ४,३३३ वाणि (इदानीम् ) ४,२७७, ३०२ शामहरी (दाम) ४, ३२७
दीपू (प्र-उपसर्ग पूर्वकः दीपधातुः) पली (प्रदीप्यते ) ४, १५२ बोहर (दीर्घ) ४, ४१४, ४४४ बीहा (दीर्घम् ) ४, ३३० बुउछद (जुगुप्सति) ४, ४ बुउछह (जुगुप्सति) ४, ४ डुक्कर (दुष्करम् ) ४, ४१४,४४१ दुक्ख (दुःख) ४, ३५७ दुक्लस हे (दुःखसहः ) ४, २०७ बुगुकas ( जुगुप्सति) ४, २४० दुगुर (जुगुप्त ) ४, ४ दुज्जण (दुर्जन) ४, ४१८ गुरु (दुष्टम् ) ४, ४०१ (दुर्भिक्षेण) ४, ३८६ घाम ( तावत् ४ २६२, ३०२, तुम (धवलयति) ४, २४ ३२३ (दुर्जनः ) ४ २९२ बाबद (दर्शयति ) ४, ३२ विअह्ह्ना (दिवस ) ४.
(४
वालु (दारू) ४, २०९
वड (अवस्कन्द) ४, ३३०.६३- वारस्तु (दारयन्) ४, ३४५, ४४५ ४, ४२२ बहु ( दग्ध) ४, ४२२ जम्मु (हम्मम् ४, ४२२
हुथ्य दुल्लहहो (दुर्लभस्य ) ४, ३७५, ४१०
३३२०
वशिषेण ( दुर्व्यवसितेन ) ४)
३०२
वसिषेण (दुर्व्यवसितेन ) ४, २८२
, हिज्जद, दु, दुहिहिए, दुहि (दुह्यते )४, २४५ बुहं (दुःखम् ) ४, ३४० दुधड ( दूतकः ) ४. ४१९ हूड (दूति) ४, ३६७ ट्रूमेह ( दुनोति ) ४, २३, दूमि ४, २४ दूर दूरम्) ४.३५३,४२२ दूरादो, दूरादु४, २७६, दूरे ४, ३४९,
४२६
था (स्थानम् ) ४, १६ थामं (स्थाम) ४, २६७ थाह (स्ताप) ४ ४४४ चिप्पड (तृप्यति) ४, १३८, १७५ रिन (स्थिरत्वम्) ४, ४२२ gods (स्तुयते) ४, २४२ धूली) ४३२५ (स्तोकः) ४, २६७ मौवा ( स्तोकाः) ४, ३७६ [व] (देवम्) ४, ४११, (दयिता) ४१४ ४, ३३३, ३४२ asa (देवम्) ४, ३४०
(देवेन ) ४ ३८९, दवें
४, ३३१
(वृशिर्षातुः ) दिट्ठ (वृष्टा) ४,४३२, ४३३, दिउ ४, ३५२, ३९६, ४२९, ४, ४०१, दिट्ठी ४, ४३.१, बिट्ट ४, ३७१, दि ४, ४२३, दिइ ४, ३६५, दि ४, ३९६, दिट्ठा ४,४२२ तिट्ठा ४३१४३२१, ३२३, ति ४, ३२३, ४, २१३ द ४ २१३, तबून ४, ३१३, ३२०, ३२३, तत्थून ४, ३१३, ४, २१३, दtिes ४, ३२, दक्खव ४, ३२, दंसह ४, ३२, सिज्जन्तु ४ ४१८, दाव६ ४ ३२ दल ( ददाति ) ४, १७६
३८७
दिअहा (दिवसाः) ४३८८४१८ दिग्धों (दोर्घः ) ४, ९१ बिट्ठा (दृष्टाः ) ४, ४२२ विट्टि (दृष्टिम् ) ४, ३३० बिट्टी (दष्टि: ) ४,४३१, दि ४, ४०१, ४, ४२३, दिउ ४, ४२१
fores ( दिनकर: ) ४,३७७, ४०१ विणु ( दिन ) ४, ४०१ विवि विधि ( दिवसे दिवसे ) ४, ३९९, ४१९, दिवेहिं ४, ४२२ fears (दिव्यानि )४, ४१८
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शब्द-सूची * संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतस्य *
४२७ पर (धरा-प्राधार:) ४, ३७७ ३५०,३५८, ३६०,३६५, ३६७* चूडाणे (दूरोड्डानेन) ४, ३३७ घर (धराम्-पृथ्वीम्) ४, ४४१ ३७०,३७६, ३८३,३८५, ३६६, वसइ (दुष्यति) ४.२३६ घरह (धरति) ४, २३४ ३३४, ३९०, ३९६,४०१,४०६, ४१४, बुलासा (दुःशासनः) ४, ३९१ ४३८, घरेइ ४, ३३६, धरहि ४१६,४१८, ४१९,४२०, ४२१, वेवसाई (पश्यति) ४, १५१, ३४९, ४, ३०२, धरहि ४, ४२१ ४२२.४२३, ४२६,४३२,४३३, ३६७, ३७६, देवख ४, ३५७, घस (बी-बलीबर्दः) ४, ४३४,४३६, ४४१,४४४, ४४५ देखि ४,४३४ देवखु ४, ३४५, ४२१, धवलु ४, ३४० नइ (नदी) ४,४२२ ३६१,देखिव ४, ३५४ अवलइ (धवलयति) ४, २४ मड (नतु) ४, ४२२, ४४४ देवं (देवम्) ४,४४१
था, धाइ, घाग्रह ४, २४० (नि- मकर (नगरम्) ४, ३२५, ४२४ देस दिशा.)४, ४२२, देसहि ४, उपसर्ग-पूर्वकः धा-धातु:) निहि- नख (नख) ४, ३२६ ३८६, देसडइ ४,४१९, देसडा तउ ४.३९५ (वि-उपसर्ग-पूर्वक: नट् (धातुः ) नट्टई (नति) ४, ४,४१८, सि ४. ४२५ धा-धातुः) बिहिदु ४,४४६ २३०, नडउ ४, ३८५, (वि. वेसन्तरिअ (देशान्तरिता)४,३६८ (थपूर्वका था-धातु ) सहह इ, उपसर्ग-पूर्वक: नट्-धातुः) विनसुच्चाअणु (देशोच्चाटनम्) ४, सदह, सद्दहमाणो ४,९ डिज्जइ ४, ३७०
घाइ (निःसरति)४,७९ मन्दउ (नन्द ) ४, ४२२ दोणिण (द्वे) ४, ३४०, ३५८ धार (धाराम्) ४,३८३ । मं. (ननु) ४, ३८२, ३९६, ४४४ दोलेइ (दोलयति) ४,४८ . पालेष
_ नम्, गवइ (भाराकान्तो नमति) दोसडा (दोषो) ४, ३७९
पाय, धाइ (धावति) ४, २२८, ४, १५८, २२६,नवहिं ४,३६७, घोसु दोषः) ४,४३९
४३६, धावइ ४, २२८. २३८ नमहु ४, ४४६, नमथ ४, ३२६। जम्मु (द्रम्मम्) ४, ४२२ धुवइ ४, २३८, भावन्ति ४, नवन्ताहं ४,३९९ (उद्-उपसर्गसकर (भयम) ४, ४२२ २२८, धाहिद, धामो ४, २२८
पूर्वका नमधातु:) उन्नामा ४, धीवले (धीवरः) ४,३०१, ३०२ ३६ (प्र-उपसर्ग-पूर्वक सम्धातु:) बेहि (दृष्टिः ) ४, ४२२ धुळुअइ (शब्दं करोति) ४,३९५
पनमथ ४, ३२६ धुक (धुरम्) ४,४२१ नमिल (नमनशील) ४, २८८ धंसाठ (मुञ्चति) ४, ९१ 5. धुणह (धुनाति) ४, ५९,२४१, नमो (नमः) ४,२८३ घणः (धन्या) ४, ३३०, ४३०, धुवई ४, ५९, धुणिज्जइ, धुन्वइ मयण (नयन) ४, ४१४, ४४४, ४४४ वणि ४, ३८५, ४१८,
भषणा ४, ४२२, नयरोहिं ४, धण हे ४, ३५०, ३५४, ४११, धूम् (धूमः) ४, ४१५, ४१६
धूलडिआ (धूलिका) ४, ४३२, सर (मर), ४, ४१२, ४४२, नर षणमए (धनञ्जयः)४, २९३ ४३३ घणु (धनम्) ४,३५८, ३७३ धंयत्) ४,३६० ४३८
नत, नच्चइ (नृत्यति) ४, २२५, धनुस्खण् (धनुष्यण्डम) ४,२८९ ध्रुवु (ध्रुवम्) ४,४१८ नच्चन्तस्स ४, ३२६, नचाविउ धनं (धनम्) ४, ३०४ अम्भु (धर्मः) ४, ३४१, ३९६, न (न)४, ६३, २१९, ३३२, नलिमारणं (नरेन्द्राणाम)४, ३०० धम्म ४,४१९
३३५, ३४०,३४१,३४७, ३४९, रले (नरः) ४, २८८
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* प्राकृत व्याकरणस्य *
चतुर्थवादस्य मव (नव) ४, ४०१, नबह ४, निच्छयं (निश्चयम्) ४, ४२२ निहवन (निह नुते) ४, २३३
नियरी (निर्भरः) ४, ३२५ निहि (निधिा) ४, ४२२ भवली (मवा) ४, ४२०, ४२२ लिच्छूट (क्षिप्तम्) ४, २५८ निहुअर्ड (निभृतकम्) ४,४०१ मरि (के बलम) ४, ४०१, ४२३ निज्जिउ (निजितः) ४, ३७१ नी, नेइ (नयति) ४, २३७, नेदि मावि (न+अपि) ४, ३३०, ३३१, निझाइ (पश्यति) ४, १८१ ४, २७३, २७४ नेति ४, ३१८, ३५६, ३९५, ४०२,४११, ४२२ निहवइ (निह नुते) ४,२३३ ३१९. नेन्ति ४, २३७, नेऊण, नश, नस्सइ (नश्यति)४, १७८, निह (निद्रा) ४,३३०, ४१८ नीग्रो ४, २३७ (अनु-उपसर्गनत्थून, नदुन ४, ३१३, नासइ निदए (निद्रया) ४, ३३० पूर्वकः नोधातुः) अणुणेइ ४, ४, २१, २३, “नासन्नग्रही, बिहडी मिला): .४१४ (पाङ्-उपसर्ग-पुर्वकः नी४३२, नासवइ४,३१, (प्र-उप- निदाइ (निद्राति) ४, १२ धातुः) प्राणहि ४.३४३, माणिसर्मपूर्वकः नशधातुः) पणदृश्य ४, निमोह (निःस्नेहा) ४, ३६७ अइ ४, ४१९ ४०६,४१८ (वि-उपसर्ग-पूर्वकः निमिश्र (स्थापितम्) ४, २५० नीरजइ (मनक्ति) ४, १०६ नशधातुः) विशदुइ ४, ४२७, निम्मथाई (निमिमीते) ४, १९ नौसइ (निस्स रति) ४, ७९ विनासिमा ४, ४१६ निम्माणइ (निमिमीते) ४, १९ नोसरह (निःसरसि) ४ ४३९ नहेण (नखेन) ४,३३, ३४८ निय (निज) ४. २८२, ३०२ मीसावन्नु (निःसामान्यम्) ४, माई (ननम्, उत्प्रेक्षार्थे) ४,४४४ नियोक्ति (नियोजितम्) ४,३२५ ३४१ माउं (नूनम्) ४, ४२६
नियोजितं (नियोजितम्) ४, ३२७ मीसासु (नि:श्वासः) ४,४३० नाए (तया) ४, ३२२
. निरक्क्षय (नीरक्षकान्) ४, ४१६ )४, ३०२ माउ (नाटकम्)४, २७० निरामय (निरामये) ४,४१४ नमद (छादयति) ४, २१ मायगु (नायक:) ४, ४२७ नियम (निरुपम) ४,४०१,४४४ मन (अनेन, तेन) ४,३२२ नारायशु (नारायण:) ४, ४०२ "निषट्टाहं (नितानाम्)४,३३२ नेह (स्नेह) ४, ३३२ ४०६, नेह मालिज (मूढः) ४, ४२२ निवडण (निपतन) ४,४४४ ४,४२२, महहो ४, ४२६, नेहे नाब (नौः) ४, ४२३
निहाशु (निर्वाणम्) ४, ४१९ ४,४२२, नेहि ४, ४०६, नेहडा मावा (इब) ४,४४४
निवार (निवारणम्)४, ३९५, ४, ३५६ नाहि (न) ४, ४१९, ४२२ निवारणाय ( निवारणाय )४, नाह (नाथः) ४,३६०,३९०,४२३ ४४८
पई (स्वया) ४, ३५७,३७०,३७७, निअ ( पश्यति ) ४,१८१, नि- 'निवास हे निवासायाः)४, ३५० ४२१, ४२२ अन्त ४,४३१
निबलइ (निष्पद्यते) ४, १२८ पा (पदे) ४, ४१४, पइ पइ (पदे निअप (निजक) ४,३४४,३५४, निसाकु (नि:शम्) ४, ३९६, पदे) ४, ४०६ ४०१, ४४१ ४०१
पट्टि प्रतिष्ठिता) ४, ३३० निग्घिण निघण) ४,३८३ मिसिहा (निशिताः) ४,३३० पा (पदम् ४, ४४२ निस्पटु (गादम्) ४,४२२ निसिएह (निरजति) ४, २२९ पलइ (पति) ४, ९० .. निध्चल (निश्चल)४, ४३६ निसुट्टो (निपातितः) ४, २५८ पमोहर (पयोधर) ४, ३९५, निश्चिमाह (निश्चितम्)४, ४२२ निसेहर निषेधति) ४,१३४ पोहरहं ४,४२० निस्चिन्दो निश्चिन्त:) ४, २६१ निरफलं निलम्) ४, २८९ पकुष्पित (प्रकुपित) ४, ३२६
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शब्द-सूची
★ संस्कृत-हिन्दी-टाकायोपेत पाक (पक्य) ४, ३४०
२७१, पदिलून ४,३१२ संपज्जइ ४, २२४, संपाइम पॅक (पक्षम्) ४, ३०२ पाह (पदहा) ४,४४३
४,२६५, सपन्ना ४.२८५,३०२ पपखाला (प्रक्षालयतु) ४, २८८ पडिअम्ग (अनुजति) ४, १०७. पदण्ड (गच्छति) ४, १६२ पासावधि ( पक्षापतितम् ) ४, पडिविम्बिध ( प्रतिविम्बित ) ४, पथं (पदम्) ४, २७०
४३९
पनय (प्रणय) ४, ३२६ पडद (पङ्कजे) ४, ३५७ । परिवाले प्रतिपालयति) ४,२५९ परिण (पथि) ४, ४२१ पग्गिय प्रायः) ४, १४ पडिसाइ (शाम्यति) ४, १६७ पन्थयो (बान्धवः ४,३२५ पखाइ (गृहति)४,२०९ पडिसाई (नश्यति) ४, १७८ । पस्थिहिं (पथिक:)४,४२९ पसचाइ (क्षरति) ४, १७३ | परिहाइ (प्रतिभाति) ४,४४१ पन्नाड (मदनाति) ४, १२६ पसह (गच्छति) ४, १६२ ।। पद (पठ) ४, ३१४
परफुल्लिअउ (प्रफुल्लितः)४,३९६ पञ्च बलिमो (प्रत्युत) ४, ४२० ।
परराएण (प्रणयेन) ४, ४४६ पालइ (छादयति) ४, २१ पचार (उपालभते)४,१५६ पणाम (अपयति। ४,३९ पावालइ (प्लावयति) ४,४१ पन्छा (पश्चात्) ४,३६२, ४२० पाइं (पर्णानि) ४, ४२७ पमाणु (प्रमाणम्) ४,३९९,४१९, पच्छापावडा (पश्चात्तापः) ४,४२४ पड़, पद (पतति) ४, २१९,४२२, ४३५ पमिछ (पश्चात्) ४, ३८८ पडन्ति ४,४२२,पडहिं ४,३८८ पमाणीकलेशि (प्रमाणीकरोषि) पच्चित्ताई ( प्रायश्चित्तानि ) ४, पडिग्र ४, ३३७, पहिउ ४,३३७ ४,३०२
४, ४२८, पच्छिते ४,४२८ पडिप्राई ४, ३५८, पाडेइ, ४, पम्हदउ (अमृष्टः) ४, ३९६ पज्मर (कथयति) ४,२ २२. पाडिउ ४,४२०, (नि-अप- पम्हद्रों (प्रमृष्टः) ४, २५८ पालियो (प्रज्वलित:) ४, २६५ सग-पूर्वकः पत्-धातुः) निवड, पम्हुसंह (विस्मरति) ४, ७५ पज्जाउसो (पर्याकुलः) ४, २६६ ४, ४०६, निपतन्ति ४, ३२६, पम्लुसाइ (अमृशति) ४, १५४ पज्झरह (क्षरति) ४, १७३ (सम-उपसर्गपूर्वक: पत्-धातुः) पम्हुहाइ (स्मरति) ४, ७४ पञ्च (पश्चानाम्) ४,४२२, 4- संपडिप्र४,४२३
पय (पद) ४, ४२०,पयई ४,३९५ पञ्चहि ४,४२२, ४२९, ४३१ पताका पिताका) ४, ३०७
पया (पति) ४, ९० पञ्चले (प्राजोल:)४, २९३ पतिविम्व (प्रतिबिम्बम) ४, ३२६ पयडा (प्रकटान्) ४,३३८ पया (प्रज्ञा)४,३०३ पतेसो
पपरई (स्मरति) ४, ७४ पाविशाले. (प्रज्ञाविशालः)४, पत्तसरणं (पत्रत्वम)४,३७० पयरक्स (पदरक्षान्)४,४१८
पहि (पर) ४, ३७०, पत्ताणे पपल्ला (ौथिल्यं करोति, लम्बन पटिमा (प्रतिमा) ४, ३२५
करोति) ४,७० पट्टा (पिबति) ४, १० पसल पत्रम्) ४, ३५७ पयल्स (प्रसरति) ४,७७ पट्टण (पत्तन) ४,४७७ . पत्थरि (प्रस्तरे)४,३४४ यपाहि (प्रकारैः) ४,३६७ पटुबइ पट्ठावद (प्रस्थापयति) ४, पद, ( प्राङ्-उपसर्ग-पूर्वक: पद्- पयासह (काशयति) ४,*३५७,
घातुः ) पावन (मापनः) ४, पयासेइ ४, ४५ + पट्टि (पृष्ठम्) ४, ३२९ । २९५ (निस् उपसर्गपूर्वकः पद्- 'पयासु ('प्रकाशः).४, ३९६ प, पहिष्यल (पठ्यते) ४, ३१५, धातुः, निप्पज ४, १२, पव्याकुलीका (पर्याकुलीकृत) ४, पढिय, पहिगुण, पढित्ता ४, (सम्-उपसर्ग-पूर्वकः पद्धातुः) २६६
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४३०
पर पूs (पूरयति) ४ १६९, पूरि ४,३८३, पूरि ४, २६० श्रपूर (अपूर्ण) ४, ४२२ पर परेड ( शक्नोति) ४ ८६ पर ( या उपसर्ग-पूर्वकः पर्धातुः ) वावरे ४ ८१ पर (पर) -४, ३३५, ३४७, ३७९, ३९५, ३९६,३९७,४००, ४०६, ४१४, ४१८:४२०,४२२, ४३५, ४४१, ४४२२ परस्सु, ३३८, ३५४
पर (भ्रमति) ४. १६१ परम (परम ४, ४१४, ४४२ परम (परमार्थः) ४, ४२२ परवसो (परवशः) ४,२६६, ३०७ पराई (परकीया ) ४, ३५०, ३६७ पराया (परागताः) ४, ३७६ पराप्राप्नुवन्ति )४४४२ परि (प) ४३६६० ४३७ ४३८
परिश्र (परिवर्ध) ४, २२० पर (परागताः ) ४, ३९५ परिसद (विलष्यति ४, १९० परि (छत) ४ १६२ परिमल (ति) ४, १६२ परिअड (वेष्टयति ) ४, ५१ परिष: परियह (परित्रा
यध्वम्) ४, २६८ परिसद ( परिसते ) ४, १९७ परिया (घटयति) : ४, ५० परिक्षामा (शमयति) ४, १६७ परिशद (मृदुनाति) ४ १२६ परिह (परिधानम् ) ४, ३४१ परिहासी (परिहासः) ४, ४२५ परिही (परिण) ४, ६०
★ प्राकृत-व्याकरणस्य *
परोह (भ्रमति) ४ १४३, १६१ परोकखहो परोक्षम् ) ४, ४१६ पलस्स (परस्प) ४.३०२ पाव (नाशयति ४, ३१ पलिहे (परिग्रहः) ४, ३०२ पलु (पलम् ) ४, ३९५ पलुट्टा (पर्यस्ते ) ४. ४२२ पलोट्टुइ (प्रत्यागच्छति ) ४, १६६ पलोद (पर्यस्यति ४, २०० पो ( प्रलुटति ) ४.२३० पलोट्ट पर्यस्तम् ४ २५८ पहलs (पर्यस्यति) ४, २०० पहलय (पल्लव) ४. ३३६, पलहि ४, ४१
पल्लव (पल्लव) ४, ४२० पल्हत्थ (विरेचयति) ४, २६ परहस्य (पयंस्यति) ४, २०० पहहस्र्थ ( पर्यस्तम् ) ४.२५८ वषय ( लवम) ४, २२०
वासु (प्रवासिनाम् ) ४, ३९५ (भक्ति) ४, १०६ परती (पार्वती) ४, ३०५ पडवाल (छादयत) ४, २१ पशावाय: (प्रसादाय ) ४, ३०२ पश्चादो (पश्चात् ४, २९९ पस (प्रस) १५७ पसाउ (प्रमादः) ४,४३० पस्टे (पट्ट:) ४, २२० पह ( पन्थाः ) ४, ४२२ महम्मद गच्छति ) ४, १६२ पहल (णति) ४, ११७ पहाउभावः ४, ३४१ : पहिक (पथिकः) ४, ४१५, ४२१
चतुर्थपादस्य
हिग्रा ४, ४३१
पहुees ( प्रभवति) ४,३९०, ४१९ पहत्य (प्रभवति) ४, ६३ पा, पिश्रइ (चिति) ४, १०, ४१९, पिश्रन्ति ४, ४१९, ४२०, पिग्रह ४, ४२२ विजय ४, १०,४२३ पिश्रवि ४, ४०, ४४४, पीड ४,४३९, पिए ४४३४, पाइ पाद ४ २४० पाद (पाद) ४ ४४५ पागसासर (पाकशासनः ) ४,२६५ पाणिउं ( पानीयम् ) ४, ३९६० वाणिण ४, ४३४
पालमा (प्रत्यय) ४.३२२ पातुखेन (पादोत्क्षेपेन ) ४,३२६ पापं (पापम्) ४, ३२४ पres ( शक्नोति ) ४, ८६ पारवकडा (परकीयाः ) ४, ३७९ ३९, ४१७
पालकी (बालक) ४, ३२५ पालम्बु (प्रालम्बम् ) ४, ४४६ पालेवि (पालयितुम् ४, ४४१ पावे (प्लावयति ) ४, ४१ पा (पश्यति) ४ १०१ पि (अपि) ४,३०२
पित्र (प्रिय) ४, ३३२,३५०, ३८६,
३८७, ३९६,४१८, ४२५, ४३४, ४३६, ४, ३४३ ३५२ ३८३, ३९६, ३९८.४०१, ४१४, ४१८, ४२०, ४२४, ४३०, ४३२ ४३८, पिए ४४०१, ४२३. ४४४, पिस्सु ४, ३५४, पिंग्रहा ४, ४१८, पियहीँ ४, ४१९, पिए ४, ३६५, ३९६, ४२२ पहिं (पथिकाः ) ४, ३७६ प पिअवयस्सस्स (प्रियवयस्यस्य ) ४,
- ४४५
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४३१.
ny-
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शब्द-सूची
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाहयोपेतस्थ * २५५.३०२.
पुसइ (माष्टि)४, १०५ फन्दह (स्पन्द) ४,१२७ पिवास (विपासा) ४,४३४ पू. पुणइ ( पुनाति ) ४, २४१, करिसइ (स्पृशति) ४, १८२ पिन (प्रेक्षते) ४, २९५ पुणि जज इ, पुम्बई ४,२४२ फल (फल) ४, ३३५, फलु ४, पिष्ट्रि (पश्चम) ४,३२१
पूजितो (पूजितः) ४, ३२२. ३४१, फलई ४, ३३६, फलाई पिश्खिले (पिच्छिम:)४, २९५ पुसइ (पुष्यति) ४, २३६ पिणा कश्यति) ४, २ . " पेक्रुक, पेस्कादि प्रेक्षते) ४, २९५ फासा (स्पृशति) ४, १६२ पीजपीयन्त३५ २९७, पिक्खिदुः४,३०२, पेक्खु फिट (भ्रश्यते, ४, १७७, ३७०, पीसह (नति) ४. १८५
४, ४१९, पिकवि ४, ३४०, फिट्ट ४,४०६ सई (माष्ट्रि ४, १०५
पेक्खेविगु ४, ४४४, पेनिवि फिड (भ्रश्यते) ४, १७७ पुरखा पृच्छति) ४, ९७. पुच्छह ४, ४३० (प्रति-उपसर्ग-पूर्वकः फुक्किम्जन्त (फूस्क्रियमाणा.) ४, ४, ३६४, पुच्छहु ४, ४२२।।
- प्रेक्षधातुः) पडिपेक्वाइ ४, ३४९ ४२२ पुला (माष्ट्रि) ४,१०५
पेच्छ, पेस (प्रेक्षते) ४, १८१, कुखद (भ्रश्यते) ४, १७७
३६९, ४४७, पेच्छ ४, ३६३, फुड (स्फुटम्) ४, २५८ पुजा (पुजयति) ४, १०२
पेच्छन्ताण ४,३४८
फुमई (भ्रमति) ४, १६१ पुनकम्मो (पुण्यकर्मा) ४, ३०५
पेण्डवा (प्रस्थापयति) ४, ३७ फुल्ल (फुल्लति) ४, ३८७ पुत्र (पुण्यम्). ४. २९३ पुत्रवम् (पुण्यवान्) ४, २९३ ।।
पेम्म (प्रेमनः ) ४... ४२३, पेम्मुः कुसइ (माष्टि) ४, १६१
. . . . . फुसा(भ्रमति) ४,१६१ पुत्राहं { पुण्याहम् ) ४, २९३॥
पेल्लइ (क्षिपति) ४, १४३ फेइ (स्फोटयति) ४, ३५८
प.कद (न्याहति) ४,७६ पुद्धि (पृष्टम्) ४, ३२१
पोरारखं (पुराणम्) ४,२८७ बसवड (उपविष्टः) ४,४४४ पुडुम (प्रथमम्) ४, २८३
प्पतानेन ('प्रदानेन) ४, ३२२ पुषु (पुन:) ४,३४३,३४९, ३५८,
बल्ल (बलीवर्द) ४, ४१२
फलई (फलानि)४,४४५ बन्ध, वन्धिानइ, बन्धिहिइ, ब३७०, ३५३,३९१,४२२,४२५,
प्रणा (प्राङ्गणे) ४, ४२०, प्र- मद, बज्झिहिद (बन्धिपते) ४२६, ४२८,४३८,४३९, ४४५
गणि ४, ३६० पुत्ति ! (पुत्रि!) ४, ३३०
प्रमाणिअब (प्रमाणितः) ४,४२२ बन्ध (बन्धः) ४, ३४२ पुस (पुत्रेण).४, ३९५ पुथुम (प्रथम) ४, ३१६
प्रयावली (प्रजापतिः) ४,४०४ बप्पीकी (पैतृकी) ४,३९५ पुष्पवईहि (पुष्पवतीभिः)४,४३८
प्रस्सधि पश्यति) ४. ३९३ बप्पीहा (चातक) ४, ३४३ पुरमो (पुरत:)४, २२८
प्राइव, प्राय (प्रायः) ४, ४१४ बप्पु (वराकाः) ४, ३८७ पुरवं (पूर्वम् । ४, ३२३ प्रा (प्रायः) ४,४१४
धम्म (ब्रह्मन) ४, ४१२ पुरिसहो (पुरुषस्य) ४,४०० प्रिम (प्रिय) ४, ३७६, ३७७, बम्भरास्स (ब्राह्मणस्य) ४, २८० पुलआर (उल्लसति) ४, २०२ । ३८७, ४०१, प्रिएप ४, ३७९, बम्हणे (ब्राह्मणः) ४, ३०२ पुलए एश्यक्ति : ४,. १८१
परिहिछु (बी) ४.४२२ पुलिशे (पुरुषः) ४,२८७, २८
बल (खादति, प्राणनं करोति पुलोएइ । पश्यति) ४,१८१ फंसह (स्मशाल) ४, १२९, १८२ वा) ४, २५९ पुश्वाध (न्छति) ४, २९५ | फायती (भगवती) ४, ३२५ बलि (बलिः) ४. ३८४, ४०२
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४३२ * प्राकृत-व्याकरणस्थ *
चतुथंपादस्य बलि (वलि) ४, ३३८, ३८५, बोजद (अस्यते). ४, १९८ भन्ति (भ्रान्तिः) ४, ३६५, ४१६ २८९, ४११, ४४५
कोदिया (कपादकाम्) ४, ३३५ भन्ते ! (भदन्त !) ४, २८७ बलु (वलम्) ४, ३५४, ४४० बोल्ला (कथयति) ४, २, बोरिल- भमर ! (भ्रमर !)४,३६८, भमरू बलुल्लाउ (बलव ४,४३० अइ ४, ३६०, बोस्लिमो ४, ४, ३९७ वहिणी (भगिनी) ४, ३५१, ४२२, बोल्लिएण ४,३८३ भमरउल (भ्रमरकुल) ४,३८२. ४३४
बोहलण : (कथयिता ४,४४३ भमरा! (भ्रमर !) ४,३९७ बहिणुए (भगिनी) ४, ४२२ बीहि (बोधिम्) ४, २७७
भमि (भ्रमणशीलः)४,४२२ बहुअ (बहुक) ४, ३७१, ३७६ बुबा (ब) ४, ३९१ नोप्पि भयंकर (भयंकर:).४, ३३१ . : बहलु बिहुलः) ४, ३९७
१, ३९१ नोप्पिणु ४, ३९१ भयद ! ( भगवन् ! ) ४,२६४, . बालको (बालक) ४, ३२७
भयवं ४, २६४, २६५, ३०२ बालहे (बालस्य)४,३५०,३६७, भएण (भयेन) ४,४४४
भरइ (स्मरति) ४, ७४ बालि ४,४२२ भगवस (भमदत्त) ४,२९९
भरिउ (भरितम्)४,४ बाह (बाष्प) ४,३९५, ४३९.
भगवती (भगवती)४, ३०७ भग- प्रइ ४, ३५३ बाह {बाहः) ४, ३२९, ४३० ..
बतीए ४, ३२३
भए (भारम्) ४, ३४.०, ४२१ बाहा (बाहुः) ४, ३२९ भगवं (भगवान्) ४, ४२३
भलइ (स्मरति) ४, ७४ - ... ... बाहु (बाहु) ४, ३२९, ४३० भनि (भङ्गी) ४, ३३९, ४११
भलि (निर्बन्धः)४, २५३ विट्टीए ! (पुत्रि !) ४, ३३० भञ्ज, भाइ (भक्ति)४,१०६
भाला (भद्रम्) ४, ३५१ बिम्ति (द्वे).४, ४१८
भजिउ ४, ३९५, ४३९ भगा भल्लि (भल्लो) ४,३३० निम्मा!ि (बिम्बाधरे ! ) ४, .
३५१.३७९, ३८०,३९८,४५७
भवं (भवान्। ४, २६५, २८३,
४२२, भगाउं ४, ३५४, भागाइ २८४, ३०२ विहि (द्वाभ्याम्) ४, ३६७
४. ३८६
भवंह (भ्रमरः) ४, ३९७ बिहुं (हयो:) ४, ३८३
भडु (भटः) ४, ४२० भड ४, भसह (भषति) ४, १८६ बोहा (विभेति) ४, ५३, बीहिनं
भसराउ (भपिता) ४,४४३ भरण (धातुः) भणइ (भणति) ४, भसलु (भ्रमरः) ४, ४४४ बुश्का (गर्जति) ४, ९८ २३९, ३९९, भगन्ति ४, ३७६, भस्टालिका (भट्टारिका) ४,२९० .. बुज्झइ (बुध्यते) ४, २१७ भण ४, ३६७,३७०,४०४,४२५, भस्टिणी (भट्रिती) ४, २२० बुड्डइ । मज्जति) ४, १०१, बुड्डोसु भणु ४, ४०१, भणवि ४, ३८३, भाइ (बिभेति) ४, ५३, भाइ
४, ४२३, बुड्डियि ४, ४१५ भगणए, भणिजबए ४, २४९, ४, ५३ बुद्धी (बुद्धिः) ४, ४२४ भणिय ४, ३३०, भणियउ ४, भाईरहि (भागोरथी) ४, ३४७ मुद्धो (बुद्धिः)४, ४२२
४०२
भागुलामरणावो (भागुरायणात) बुहस्पदी बृहस्पतिः) ४, २८९ भण्डय (भण्ड.) ४,४२२ ४. ३०२ बुहवता (बुमुक्षति) ४, ५ भत्तं (भक्तम) ४, ६०
भारइ (भारते) ४, ३४७ बे (३) ४, ३७९, ३९५, ४२९, भत्ताउ (भक्ता.) ४, ४२२ भारह (भारत)४, ३९९
४३९ बेहिं ४ ३७७, ३७७ भद्दवः (भाद्रपदः) ४, ३५७ . भारिया (भार्या) ४, ३१४ बेमि नवोमि) ४, २३८
भन्तडी (भ्रान्तिः) ४,४१४ भालके (माले) ४, ४४७
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शब्द-सूची
भाव (भावयति) ४, ४२० भासह ( भासते ) ४, २०३ free (en:) ४, ३४१ भिम्बर ( भिनत्ति ) ४ २१६ भिe भासते ) ४, २०३ भीओ (भीतः ) ४, ५.३ भीमtra ( भीमसेनस्य ) ४,
२९९
भुआ (भुज) ४, ४१४ सुक्कड़ (भषति) ४, १८६ भुक्, शुज (भुनक्ति) ४, ११०, भुजन्ति ४, ३३५, भुज्जइ. मुजिज्जद ४ २४९ भुजण भुजण हि ४, ४४१, भोत्ता ४, २७१, भोसूण, भोतु, मोतव ४, २१२, बुहुम्बइ ४, ५ उपउपसर्गपूर्वक: भुजवातुः ) उबहुजइ ४, १११ भुमह (भ्रमति ) ४, १६१ सुल्लड (अश्यते ४ १७७ भुवर (भुवन ) ४, ३३१, भुव ४, ४४१
'हडी (भूमि) ४, ३९५ भू. भोमि ( भवामि ) ४, २६०, होइ ४, ६०, ६१,३३०, ३४३, ३६२. ३६७,३७७, ३९५, ४०१, ४०२, ४२०, ४२२,४२३, ४२४, ४३०, ४३८, होदि ४ २६९, २७३, भोदि ४, २७३, २७४ ३०२, भोति: ४ ३१८, होलि ४, ३१९, हवाइ ४,६०,२८७, हुबइ, भत्र ४. ६०, हवदि ४, २६५ भवदि, हुवदि, भुवदि ४, २६९, होन्ति ४ ६१, ४२२, हुन्ति ४ ६१. हवन्ति हुवन्ति
संस्कृत-हिन्दी टोकाइयोपेतस्य ★
४, ६०, होन्ति ४, ४०६, होउ ४, ४२०, होतु ४, ३०७, होष, होह ४, २६८, हुवेय्य ४, ३२०, ३२३, होज्ज ४, ३७०, होहि ४ ३८८ होसह ४, ३८८४१८, होसहि ४, ४१८, भविस्सदि ४/ २७५, ३०२, ४, ६१, हूथं ४ ६४ मा ४, ३८४ हुप्रा ४,३५१. भवि हविम, भोटूण, होण होता ४, २७१, होऊण, होमऊण ४, २४०, होन्तश्री, (प्र-उपसर्ग-पूर्वकः भूधातुः ) ४ ६४ (परि- उपसर्गपूर्वकः भूत्रातुः) परिभव ४, ६०, परिहवि x ४०१ (प्रउपसर्गपूर्वकः भूषातुः) पभवइ ४, ६० पहुंचच ४, ३९०० पभवेइ ४, ६३, पहूअं ४, ६४, (मम् उपसर्गपूर्वकः भूधातुः) संभरड ४. ६०, संभावइ ४, ३५ संभाविद ४ २६०
भो भो ) ४, २६३, २६४,२८५
३०२
भोगं (भोगम) ४, ३८९ भ्रंश्, भसह (भ्रश्यते ) ४, ( प्र उपसपूर्वकः भट्ठ ४, ४३६ ति ( भ्रान्ति) ४, ३६० भ्रम भम (भ्रमति) ४, १६१, २३९, भइ ४, ४०१, भ्रमन्ति ४, ४५२. भमेज्ज ४ ४१५ भाइ ४, ३०. भावे ४, ३०, अम३.४, १६१, भाइ ४, १६१, मा ४, ३०, भम्मद ४ १६१ ( परि-उपग वक्र:
१७७
धातुः )
४३३
धातुः ) परिमंती ४
३२३
[4] म ( मा ) ४, ३४६, ३६५,३६८, ३७९,३८४,३८७, ४१५, ४२०, ४२२, ४४२
मं ( मामू) ४, ३२३, म ४,३३०, ३४६, ३५६, ३७०, ३७७, ३९६, ४०१, ४०२, ४१४,४१८, ४२००. ४२१, ४२२, ४२३, ४३८, म मातो, समातु ४, ३०७, ३२१.० ४, २८२, २८३,३०२, मम ४,२८०, २०६, ३०२ महु ४, ३३३, ३७०,३७९, ३८३,३९१, ३९५, ४१६, ४१६,४२२,४२३, ४२९, ४३८, मज्झ ४, २३, मज्भु ४, ३६७, ३७९.३९८, ४०१, ४१७
हि (मुकुलति) ४, ३६५ मेशे (मेषः) ४, २८७ मकरकेत ( मकरकेतुः ) ४, ३२४ : मरजी (मकरध्वजः) ४, ३२३ म (मर्केट) ४, ४२३ मक्कनो (मार्गण ) ४.३२४, ३२८ मक्ख क्षति ४, १९१ मगह ( याचते ) ४, २३० मासु (मार्गण ) ४. ४०२
सव (मार्गशीर्षः) ४.३५७ मग्गहू (मार्गयत) ४, ३८४ मतु (मार्ग) ४, ३५७,४३१ महि ४, ३४०
मघवं ( मघवान् ) ४, २६५. मच्चाइ (माद्यति) ४ २२५ मच्छर (मत्सर) ४.४४४ महल ( मस्स्यः ) ४, ३७०, मच्छे
1
:
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४३४ * प्राकृत व्याकरणस्य *
चतुर्थपादस्य मन्या (मध्नाति) ४, १२१ महन्वय (महानत) ४,४४० मज्ज, (धातुः) भाइ (मज्जलि) मरवास (मन्दार) ४,२८८ महादही (महानदस्य)४,४४४ ४, १०१, मज्जन्ति ४, ३३९ मम्भोसडी (मा भैषीः) ४, ४२२ महापमं (महाधनम्) ४, ३२३ (नि-उपसर्गपूर्वक: मधातुः) में (मा) ४,३८५, ४१८ महारउ (मदीयः) ४, ३५८. ममज्जइ ४, १२३
ममगलाई । मदकलानाम्) ४,४०६ हारा ४, ३५१, ४३४ मज्जइ (माष्टि)४, १०५ मम (मृमा) ४, ३९६ महारिसि (महर्षिः) ४, ३९९ मन्महे (मध्यायाः) ४, ३५०, म. मया (मदनः) ४, ३९७ महाबोरे (महावीरः) ४, २६५
उझे ४,४०६, मझि ४, ४४४ मयरचय (मकरध्वज) ४, ४२२ महाबीले {महावीर:) ४, ३०२ मस्जिदए (मजिष्ठया। ४, ४३८ मयरहरु (मकरगृह) ४, ४२२ महिाल (महीतल) ४, ३५७ माइ (मृदनाति)४, १२६ मय्यं (मद्यम्) ४, २९२ महिमण्डलि (महीमण्डले) ४,३७२ मडइ (मृदनाति) ४. १२६ मर, भरइ (म्रियते) ४, २३४, महीहि (माँ) ४, ३५२ मणह (मन्यते).४,७
४२०, मरहिं ४, ३६८, मराई महमहार (मधुमथन:) ४, ३५४ मणसिला (मनःशिला)४, २८६.४,४३९, मरिएव ४, ४३८, मा (मा)४, ३३०, ३५७, ४१५ भणस्सि (मनस्चिन्) ४, २६३ मारइ ४, ३३०, मारेइ ४, ४२२ मणामनाक)४,४१८, ४२६३३७, मार४, ४३९. मार- मा.माह(मिमी) ४.३५०,४२१ मणि (मनसि) ४, ४२२
मडेण ४, ३७९,४५७, मारिया (उप-उपसर्ग-पूर्वकः माधातुः । मणिका (मणयः) ४, ४१४, ४, ३५१, मुइन ४,३६७, ४१९, उमिश्रइ ४, ४१८ (विनिस
मुबाउ ४, ४४२,मुएण ४, ३९५, उपसर्ग-पूर्वक:-माधातुः) बिनिमनु (मनः) ४,३५०,४०१,४२१, मुमा ४,४४२, मालेध ४, ३०२
म्मविदु ४, ४४६
मविद ४२२,४४१
भरगम (मरकत) ४, ३४९ माणु ( मानः ) ४, ३३०, ३५७, मणोरषा (मनोरथाः) ४, २८५, मरट्टु (गर्व: ४, ४२२
३९६, ४१०, ४१८ माणि ४, मरण (मरणम्) ४, ३७०,४१८ ४१५ मारगेण ४, २७८ मरणोरह ( मनोरथ) ४, ३६२,
मरिसइ (मर्षति) ४. २३५ माणुश (मानुष) ४,४४७ ३४४,४०१मणोरहई४,४१४ मलह (मृदनाति) ४,१२६
मामहे (मातुः) ४, ३९९ . मण्डलं (मण्डलम् । ४,३२५
मलय केदू (मलयकेतुः) ४, ३०२ मार मारणशील:) ४, ४४३ मतन (मदन), ३०७, मतमी मल्लजु (मल्लयुद्धम्) ४,३८२ मारुविणा (मारुतिना) ४,२६० ४, ३२५, मतनं ४, ३२४ ।।
माला (मालतो) ४,३६८ मालई मसह (मसानाम्) ४, ३८३,४०६ मस्कली (मस्करी) ४, २८९ ४, ७८ . मनो {मत्तः) ४.२६०
महह (मालयति) ४,१९२,महन्ति मामाघः४.३५७ मथुर (मधुरम्) ४, ३२५
मि (मृगाङ्कः) ४. ३७७, ४०१ मचि मिति:)४, ३७२ महद्दम (महाद्रुम) ४,४४५,मह- मिसडा (मित्राणि) ४, ४२२ मन्, माणिजह (मान्यते) ४,३८.८. ६.मु ४, ३३६
मिल, मिला (मिलति) ४,३३२ (सम्-उपसगपूर्वकः मधातुः) महन्यो (महान) ४, २६५, महन्दे मिलिज्जह ४, ४३४ मिलिम ४, संमाणेइ ४, ३३४
३८२, मिलिग्राउ ४, ३३२ मस्सियो (मन्त्रिता) ४, २६० महमहा (गन्धः प्रसरति) ४,७८ मिलाइ (म्लायति) ४, १८, २४०
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समि
शब्द-सूची
* सस्कृत-हिन्दी-टीकास्योपेतस्य * मिलामइ ४,२४०
मुद्धाहे (मुग्धायाः) ४, ३५० यलहला (जलधराः) ४, २९६ . मिस्साड (मित्रमति) ४, २८ मुरई (हासेन स्फुटति) ४, ११४ य के (यक्षः).४, २९६ मोल, मील (मोलति) ४, २३२ मुसइ (मुषति) ४, २३९ पा, पावि (याति)४, २९२, जाई मेलवि.४, ४२९ (उद्-उपसर्ग- मुसुमुरह (भनक्ति) ४, १०६ ४,२४०, ३५०, ४४५, जाना पूर्वक: मीलधातुः) उम्मिल्ल४, मुह (मुख)४,३३२,३४९, ३५७, ४,२४०, जन्ति ४,३८८, ३९५, २३२, ३५४, उम्मलिइ४,२३२३८२.३९५, ४०१,४१४, मुह ४३९, जााह ४,४२२, ४३९, (नि.उपसर्गपूर्वक मील्धातुः ४, ३६७, ४४४, मुहं ४, ३००, जाहु ४, ३८६, जाइज्जइ ४, निमिल्लाह, निमीलइ ४, २३२ मुहह ४. ४२२
४१९, जावेइ ४,४० (प्र-उपसर्ग-पूर्वक: मील्-धातुः} मुराइ (भनक्ति) ४,१०६
पारगति (जानाति) ४, २९२ पमिल्लइ, पमीलइ ४, २३२ मलि (मुले) ४, ४२७
यारणवसं (यानपात्रम्) ४, २९२ (सम्-उपसर्ग-पूर्वकः मीलधालुः) मेखो {मेघः) ४, ३२५
पातिसो (यादृशः) ४, ३१७ संमीलइ ४,२३२ मेलमिथति) ४,२५ याव (याक्त) ४, ३०२ मुग्गा (मुद्गा:) ४, ४०९ मेल्ला (मुवति) ४ ९१, ४३०, युगे (युगे) ४, २८८ भुथ, (धातुः) मुपा (मुञ्चति) ४. मेल्लि ४, ३८७, मेल्लवि ४, पुस (युक्तम्) ४, ३०२ ९१, मोत्तु'४, २१२, मोतूश ४, ३५३, मेल्लेप्पिणु ४, ३४१. पुम्हालिसो (युष्मादृशः) ४,३१७ २१२, २३७, मुक्काह , ३७०, मेल्लन्तिहे ४,३७०, मेल्लातही ये (2) ४, ३०२ मोत्तव्यं ४,२१२ ४ , ३७०, ३७७
ग्रेव (एव) ४,२७६,२८०, २८३, मुभा (मुह्यति) ४.२०७, २१७ नोए) ४. २:17
३०२, ३१६, ३२१, ३२३ मुञ्ज (मुज्ज)४,४३९ मेहे (मेघः) ४.३६७,४१८, ४१९, मुग (धातुः) मृणा (जानाति) ४, ४२०, मेहु ४, ३९५, ४२२ रह ( रति) ४, ४२२ ७. मुणिज्जइ ४, २५२, मुरिगउ मोलडेरण मुक्तेन) ४, ३६६ रक्ष, रमख (रक्षति) ४, ४३९, ४, ३४६ मोट्टायइ (रमते) ४, १६८
रक्खेज्जह ४,३५०,३६७ मुणालिअहे (मृणालिकायाः) ४, मोडन्ति (मोश्यन्ति) ४, ४४५ रखोला (दोलायते), ४८ ४४४
रच् (धातुः) र अइ (रचयत्ति) ४, मुणि (मुनि).४, ३४१, ४१४ (च) ४, ३२६, ३९६
९४ ( सम्-पूर्वक: रच्-धातुः) मुणोसिम (मनुष्यत्वम्) ४, ३३० यणबहे (जनपदः)४, २९२ समारपइ.४, ९५ मुण्ड, मुष्पा (मुण्डयति) ४, ११५ यति (यदि, ४, ३२३
रस्वसि (रज्यसे) ४, ४२२ मुण्डिप्रउ ४, ३८९ यदि यदि। ४, २९२
रम्लेइ (रजयनि) ४, ४९ मुण्डमालिए (मुण्डमाला) ४, यवाशनवं यथास्वरूपम) ४.२१२ रा (राजा) ४,३०४, ३२०
पम् (धातु ) मच्छड (यच्छति) ४, रो४, ३०४ मुह (मुद्रा) ४, ४०१, मुई ४, २१५, (नि-उपसगपुबकः यम्- Ra (रटन) ४,४४५.
धातुः) निभयं ४, २०७ (प्र-उप- रण (र)४, ३७०, ३७७, ३०६ मुड (मुग्ध) ४,३४१, ४२२, मुद्धि सर्ग-पूर्वक: यम्बातु:) पयच्छ से रणि ४, ३६० . ४,३७६. ३९५, मुद्धएं ४,४२३, ४, ३२३
रन (सरण्ये) ४, ३६८ मुखहे ४, ३५७
'यम्बालं (जम्बालम् ) ४, २८४ रतली (रात्रिः).४, ३३०
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-
-m
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J
AMMALAIMAIAIADIAu
)
* प्राकृत व्याकरणस्य *
चतुर्थपादस्य रथिए (त्या)४, ४४६. राय ४, २६४,राणो ४, २६० जमइ,संज्झिहिह,संरुन्धिज्जह, रन्नु (अरण्यम्) ४,३४१ रावण (शाम्बर) ४, ४०७ संरुन्धिहिइ ४, २४० रफसो (रमसः) ४, ३२५ - राधेह (रजयति) ४, ४१ सबा (रौति) ४,५७ . . . रभ, मारमा (प्रारमते) ४,१५५ राह (राधा) ४, ४२० शष, स ( रुष्यति) ४, २३६, पम्, रमाइ (रमते) ४, १६८, र. राही (राधा) ४, ४२२
३५८,रूसेसु ४,४१४, सिम्जइ मदि ४, ३१९, रमदे ४, २७४, राह (राहु) ४ ३८२, ३९६, ४,४१८, सट्ठी ४, ४१४ 'रमते, ४,३१९, रमत ४.३०७, ४४४
बाहिर (धिरेण) ४,४१६ रमिन्न ४, २७१, रन्सूण ३ रे-संधी
का (रूपक) ४.४२२
), ३९ ३१२, रन्दुण, रन्ता ४, २७१, रिमा (प्रविशति) ४, १८३
रूट (रूपकः) ४,४१९ रमिय्यते ४, ३१५ रिउ (रिपुः) ४,३७६.३९५,४१६
रूसणा (रोषयुक्ताः) ४, ४१८ रम्पह (तक्ष्णोति) ४, १९४ रिंगइ {प्रविति, मच्छति । ४, रेअबइ (मुञ्चति) ४. ९१ पम्फा (तक्ष्णोति) ४, १९४
रेसिं, रेसि (तादथ्य निपात:) ४. रम्फा (रम्भा) ४, ३२५
४२५ रिद्धिहि (ऋजी) ४, ४१८ रम्भा गच्छति) ४, १६२ सेह (मण्ड यति) ४, ११५
रेहा (राजते) ४,१०० . रयण (रत्न) ४, ४०१, ४२२, रीरइ (राजते) ४,१००
रोम्बा (पिनष्टि) ४,१८५ . . रयणाई ४, ३३४ . रुच्चारोचते) ४, ३४१
रोमन्थड (रोमन्थर्यात) ४,४४ रमिअरे (रजनीचरान्) ४,४४७ वजह (रौति) ४, ५७
'रोमायति है (रोमावल्या.) ४, रयणी (रजनी) ४, ४०१ रुणुझुणि (शब्दानुकरणे, ४,३६८ ३५० रवा (रौति) ४, २३३ हण्ट (रौति) ४, ५७
रोस (रोषम्) ४,४३१ रवण्णा (रम्या :) ४, ४२२ । सद, असि (रोदिषि) ४, ३८३, रोसाणा (माटि) ४, १०५ रवि (रवि) ४,४४४ . रुहि ४,३८३, स्वद ४,२२६, रसु (रसः) ४,४७१, ४४४ . २३८, रोवइ ४, २२६, २३८, लज (लयम्) ४, ४१४ रहरि (रथोपरि) ४, ३३१ । __ रोइ ४, ३६८, रोत्त, रोत्तूण, लाखु (लक्षम्) ४, ३३२ पहु (रघु) ४, ४४४
रोत्तव्यं ४,२१२, रुवाइ, रुवि- लखेहि (ल.)४, ३३५ राचा (राजा) ४, ३२५, रा- जइ ४, २४९
लग, लग्गइ ( लगान ) ४, ३३०, चित्रा, शचित्रो ४, ३०४ हए, कन्या (रुणद्धि) ४, १२३, ४२०, ४२२, लगिगाव ४, ३३९, राजपषो, राजपहो (राजपथः) ४, १२८, २३९, रुम्भइ, रुज्झइ ४. लग्ग ४, ३२६, लागा ४,.४४५
२१८, भ, रुधिज्जद ४, वि.उपसगंपूर्वक: लगधात ) राजा (राजा) ४, ३०४, राजे २४५, रुद्धी ४, ४२२, ४२९. विलगी ४,४४५ . ... ....... ४,३२३
४६१. (अनु-उपसर्ग-पूर्वका रुथ्- लपिछा (लक्ष्मीः ) ४, ४३६ रामहं रामाणाम्) ४, ४०७ धातुः) अणुरुज्झइ, अनुरुन्धि- लज्म, लजह (लज्जते) ४, १३०, "राय (राज) ४, ३५० ज्जइ ४. २४८ (उप-उपसर्ग- लज्जिज्जइ ४, ४१९, लज्जिरापा (राजते) ४, १०० पूर्वकः समधातुः ) उवामई, उजन्तु ४, ३५१ . राधा (राजा) ४, ३०४, ३२०, उवन्धिज्जइ ४, २४८ (सम्- लम्बा (राजा), ३.०२ ३२३, ३२५, राय ४, ४०२, उपसर्ग-पूर्वकः रुध्धातुः) संरु- लहा (स्मरति) ४, ७४
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'शब्द-सूची
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतस्य * लप (धातुः) लपति,लपते (लपति) लुक्का (निलीयते) ४, ५५, ११६ ल्हिाको मिलीन:).४, २५८ .. ४,३१९, लपितं ४,३०४, ३२४ लुक्कु (लीनः) ४,४०१ (वि-उपसर्गपूर्वक: सधातुः) सुग्गो (रुग्णः)४, २२८
(ब) ४, ४३६ विलवह ४,१४८ लज्छा (मादि) ४.१०५
कलु (वल्कलम्) ४,३४१, ४११ लभ, लहहि (लभसे) ४, ३५३, लु (लुब्धम्) ४, ३२६ यस्तो (ध्याघ्रः) ४, ३२५
लहइ ४, ३३५. लहहं ४,३८६, लुभइ (लुभ्यते) ४. १५३ धाग (वल्माम्) ४, ३३० - ४११, लाहमु ४,३६६, लहन्ति लुहर (माष्टि) ४. १०५
बागोला (रोमन्थयति) ४,४३ .४, ३४१, ४१४. लहहिं ४, लुहलाप्पए (साधरप्रया) ४.३०२ बखरी (वाम) ४,३३०, वडा ३६७.४४०, लहन्तु ४, ३९५, लसुण (लुनाति ) ४, २४१, ४.४१२.
व
ह मलहन्तिमहे ४, ३५०, लभ लुणिज्जई, लुब्वइ ४,२४२ वलिम ( वक्रिमाणम् ) ४, ३४४, ४, २४९, ४१९, लहिज्जइ ४, लूरह (छिनत्ति) ४, १२४ सेइ {लाति) ४, २३६
कुछउ (व:) ४. ४१८ लहश (रभस) ४, २८८
लेखाउ (लेख:)४,४२२ व, वीस ( वक्तुम् । ४, २११, लहुई (लध्वी) ४, ३४८
लेप्पिा (लात्वा) ४,३७०, ४०४, बोत्तण, बोत्तव्यं ४, २११ लकशे (राक्षसः) ४.२९६.ल. कशं ।
४०५.
वचन (वचनम्) ४, ३२४ लेषि (लास्वा) ४. ३९५, ४४० ब (कांक्षति) ४.१९२ लाइषि (लास्वा) ४,३३१, ३७६ लेवियु (लात्वा) ४,४४१ वा (अजति ) ४, २२५ (अनु. लायण ( लावण्य ) ४, ४१४, लेह (रेखा) ४, ३२९
उपसर्गपूर्वकः वधातुः) अणुलायण ४,२२०
लेहि (लान्ति) ४, ३८७ बच्चाइ ४,१०७ लायं, लायाणो ( राजन्, राजा) लोअ (लोक) ४, २६४, लोउ ४, "बच्चा ('वत्सा) ४,२८२ :
३६६, ४२०, ४२२,४४२, ४४३ वाधहे (वृक्षाद) ४,३३६, वच्छहु लायित (राजित) ४,२८८ लोइ ४, ४३८, लोग्रहो ४,३६५ ४, ३३६ लालसउ (लालसक:) ४,४०१ लोपत्री ( लोमपुटी कम्बलम् ) वजह (पश्यति) ४,१८१ साह (लाभः) ४, ३९०
४,४२३ .
बसना (त्रस्यति) ४, १९८ सिक्का निलीयते) ४, ५५ लोअण (लोचन) ४,४१४, लोम- बज्ज (वाचते) ४,४०६ लिभा (लिह्यते) ४, २४५ | गई ४,३६५, लोअणहं ४,३४४, बज्ज (वादनशील:) ४.४४३ लिम्पइ (लिम्पति) ४, १४९ ४०१, लोमहिं ४,३५६, ३६५, बजरइ (कथयति) ४, २, बज्जलिम्बाइ (निम्बके) ४,३८७ लोमणे हि ४, ४२२
रिमो, बज्जरिऊण, वज्जरतो, लिस (स्वपिति).४, १४६ लोक (लोकस्व) ४, ३२३
'बजरिवं ४,२ सिंह (रेखा) ४, ३२९ लोशु (लवणम्। ४,४१५, ४४४ बजरग (कथनम्) ४,२ लिहिआ (लिखितम्) ४, ३३५ लोट्टा (स्थपिति) ४, १४६ वजमा वज्रमयो) ४, ३९५ . लिहिज्जा (लिख्यते) ४, २४५ लोहे (लोहेन) ४, ४२२ वने (वजयति) ४, ३३६ : सीला (लीला)४, ३२६ म्हसा (स्र सते) ४, १९७, ल्हसिउं बचह (वयति) ४,९३ लोह (रेखा) ४, ३२९
वश्वभर विश्वकत:) ४,४१२. सुध (लूनम्) ४, २.५८ लिहक्का (निलीयते) ४, ५५ बषित (गतम्) ४, ३२५.
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४३८ *प्राकृत-व्याकरणस्य *
चतुर्थपादस्य बमावि (प्रजति) ४, २९४ । सर्ग-पूर्वको घर-घातुः) निवारेइ वा (वश) ४, २०५८ बडबडाइ (विलपति) ४, १४८ ४, २२ (सम्-उपसर्गपूर्वको बर्- शाहे (सायाः) ४, ४४७ क्वाणल (बडवानल)४, ४१९ धातुः) संबर ४, ८२ संवरेवि वश्वले (वत्सलः) ४,२९५ बडवानलस्स ४, ३६५, बहुउं ४,४२२
' चा ('वत्सा) ४, ३०२ वर (वर) ४,३७० वरं ४, ३२३ बस, बसन्ति ( बसन्ति) ४, ३३९ पडसा (महत्वम्) ४,३६७ वड्ड- 'वरही४,४४४ बरेहिं ४,४२२ (नि-उपसर्गपूर्वक: वस्थातुः)
तपाई.४,४८४, बड्डसणही ४, घरहाइ (निःसरति)४,७९ निवसन्तेहिं ४,४२२ (प्र-उपसर्ग३६६, ४२५, ४३७, वडप्पणु ४, वषि (वरम् ) ४, ३४०
पूर्वक: वसुधातुः ) पवसइ ४, ३.६६,४३७, बड्डा,बड्डाइ ४.३६४ परिस (वर्ष) ४, ३३२,४१८ २५९ पवसन्तेण ४,३३३, ३४२, वह (मूढ़) ४, ३६२, ४०२.४२२ वर्त ( नि-उपसर्ग-पूर्वका बत- ४१९, पवसन्ते ४,४२२ वरिण (धने) ४, ३४०,४११ वह धातः निमत्त४,३९५निबट्टाहं बस (वश) ४, ४२२ बसिण ४,
४, ३३२ (प्र-उपसर्गपूर्वकः वत्- ३८७, ३९०,वसि ४, ४२७ बमासु (वनवास:)४, ३९६
धातुः) पयह ४,३४७ पवत्तेह वसुआइ (उद्वाति) ४,११,वसुप्राति ब्रा (व्रणः) ४,४०१
२४ (वि-उपसगंपूर्वकः वत्- ४,३१८, बसुप्रादि.४, २५४. वण्ठो (वण्ठा) ४, ४४७
घातुः) विवट्ट ४, ११८ पसुथा (वसुधा) ४,३२६ पष्णिमइ.(वयेते) ४,३४५
वर्ष बडा (वर्धते) ४, २२० वह, यहइ (वहति) ४,४०१ वहिबतनकं (वदनम्) ४, ३०७
(परि-उपसर्गपूर्वकः वधु-धातुः) जइ ४,२४५, वुडभइ ४,२४५ बसी (वार्ता) ४,४३२ परिअड्इ ४, २२०
वाहिउ ४,३६५ (निस्-उपसर्गबदली (वाद लम्) ४,४०१ वर्ष परिसा (वर्षति) ४, २३५
पूर्वको वह, धातुः) निव्वह्इ ४, पन्त, बम्बइ (वन्दते) ४,४२३ । प्रमाला ( पुजयति )४, १०२ वाला (चलति) ४, १७६ बलाह (बलाम:)४,३८६, ४२६ वल
घहिल्ला (शीघ्रम्) ४, ४२२ बंफा (दलति, वलति) ४, १७६,
बहु (वधू) ४, ४०१ बम्फाइ(कांक्षति)४,१९२. यम्फई बलइ (गृहाणाति) ४, २०९
वा (वा) ४,३०२ (इच्छति खादति श्रा) ४, २५९ वलइ (प्रारोपयत्ति) ४, ४५
वाइ (म्लायति) ४,१८ धम्म (वर्म) ४,२६४ वसमा (पारोहति) ४, २०६
धाएं (वातेन)४, ३४३ वम्फह (मन्मथ)४,३५०,वम्महु ४,
"वल ("वरणम्) ४, २९३ बाणारसिहि ( वाराणसीम् ) ४,
बलणाई (वसनानि)४, ४२२ ४४२ वयंसिबहु (वयस्याभ्यः) ४, ३५१ बयण (बदन) ४,३९६, वय
बलन्ति (ज्वलन्ति) ४,४१६ वा- वायसु (बायसः) ४, ३५२ , लिउ ४,४१८
वार (वारम्) ४, ३५३, ४२२ बलय (बलय) ४,४४४ वलया ४, वारि (द्वारे) ४,४३६ अपणु (वचनम्) ४,३६७, वयणाई
बाला (बालयति) ५,३३० बल्लह (वल्लभ) ४,४४४ बल्ल हउँ वायम्फा (श्रमं करोति) ४ ६८ वस्थिदे (वजितः) ४, २९२ ४,३५८.४२६ वल्लहइ ४,३८३ वावरे यात्रियते) ४, ५१ बर, बरम (वृणोति)४, २३४ वा- वयसाच ( व्यवसायः )४, ३८५, दावेद {च्यापमोति) ४, १४१ रिमा, ३३०, ४३६ (नि-उप- ४२२
वाशले (बासरः) ४ २८९
न्तेहिं ४, ४२२
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शब्द-सूची
* संस्कृत-हिन्दी-टोकालयोपेतस्य * वासारप्ति (वर्षारात्रि) ४, ३९५ विट्टालु (मस्पृश्यसंसर्गः) ४, ४२२ पिलासिरणीउ (विलासिमी) ४, वासु (दासम्) ४,४३० गिरिसुद (रच नि) ४:१४ . . . वासेरण (ध्यासेन) ४, ३९९ विक्षस ( अजितम् ) ४, ४२२, विलिज्जाइ ( विलीयते) ४, ५६, बाहर (ग्याहरति) ४,७६ विद्वत्त'४, २५८
४१८ बाहिप्पड़ (व्याहरति) ४, २५३ ।। विप्पद अद्यते) ४, २५१ विलुम्पद (विलुम्पति) ४, १९२. वि (अपि)४,३३२..३३४,३३५, विढवाह ( अजयति ) ४, १०५, विलोढा {विसंवदति)४, १२९ ३३६, ३३७,३४१, ३४३,३४७, विविज्जा ४, २५१
विवाह (विपद) ४,४०० विणासहो (विनाशस्य) ४,४२४ विवाह (विवर्तते) ४, ११५ ३४९,३५८, ३६५.३६६,३६७,
विणु ( विना ) ४,३५७, ३८६, विवरीरी (विपरीता) ४, ४२४ ३७०, ३७६,३७७,३८३,३८५,
४२१, ४२६, ४४०, ४४१ ३१७, ३८९,३९५,३९९,४०१६
विश् ( परि-उपसर्मपूर्वकः विश४०६,४११,४१४,४१८,४१९,
धातुः) परिविट्ठा (परिविष्टाः) ४२२, ४२३, ४३२,४३३,४४१, विवा (विद्रवति) ४,४१९५
४, ४०९ (प्र-उपसर्गपूर्वक: विधिपो (विधेः) ४, २८२, ३०२ विशधातः) पविसामि ४,२७८, विचट (विसंवदति। ४, १२९ विन्नासिआ (विनाशिते) ४,४१८ पविशामि, ४, ३०२, पसिइ विमम्मद (विजृम्भति) ४, १५७ विपगालइ (नाशयति) ४,३१
४, १५३, पविशदु ४, ३०२, विअय-बम्म (विजयवर्मन ) ४, विपिन-पारस (विप्रिय कारक:)
पवीस ४, ४४४, पइसीयु ४,
३९६, पट्ट ४, ३४०, ४३२, विअलिग (वलित) ४, २५८ विपिय विप्रिय) ४, ४२३ ४३३, पइट्ठउ ४,४४४, पट्टि विआलि (विकाले-संध्यायाम् ) विमल (विमल) ४, ३८३ ४, ३७७, ४०१, ४२४ विम्हा विस्मये) ४,४२०
विसंबयइ (विसंवदति) ४, १२९ विष्णु (चितीणः) ४, ४४४ विग्याहले (विद्याधरः) ४,२९२ वितष्ठि (विषग्रन्थि) ४, ४२०, बिउबई (नव्यति) ४, ३१ विरह (भक्ति) ४, १०६, १५० ४२२ विओएं (नियोगेन) ४, ४१९, वि- विरमाला (गुप्यते) ४, १९३
विसट्टा (दलति) ४. १७६ अोइ ४, ३६८
विरल (वरल) ४, ३४१, विरला विसण्ट्रल (विसंष्ठुला) ४, ४३६ विकिणा (विक्रीणाति) ४, ५२ ४,४१२
विसम (विषम) ४, ३५०, ३६७ विकोस (विकोशति) ४, ४२ विरल्लइ (तनति) ४, १३७ विसमो ४, ३०९ विसभी४, वि (विक्रोणाति } ४, ५२, विरह (विरह) ४,४१५, ४२९, ४०६ विसमा ४, ३५५
२४०, विक्के पद ४, २४० ४४४, विरहु ४, ४२३,विरहहो सहारिणी (विषहारिणी, जलविचि (वत्मनि) ४,३५०, ४२१ ४ ४३२ .
हारिणी), ४,४३९ विलोला (कम्पयति) ४, ४६ बिरहा ( विरहितानाम् ) ४, बिसाउ (विषादः) ४,३८५,४१५ विछोहनाक (विक्षोभकरम् ) ४, ३७७,४०१
विसामो (विषाण:) ४,३०९ बिराज (विलीयते) ४, ५६ विसाहिलं (विसाधितम्)/३८६. बिछोडधि (विच्छोट्य) ४, ४३९ विरेशम (विरेच पति) ४, २६ ४११ विजयसेनेन (विजयसेनेन)४,३२४ विरोलह (मध्नाति) ४. १२१। विसुरइ (खिद्यति).४, १३२,३४० विमारणं (विज्ञानम्) ४, ३०३ विलम्मु (विलम्बस्व) ४, ३८७ विसूरहि ४, ४२२
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* प्राकृत-व्याकरणस्य *
चतुर्थपादस्य विस्नु (विष्णुम) ४, २८९ वेलवाइ (उपालभते) ४, १५६ शाहल (सहस्र) ४, ४४७ विस्मये (विस्मये) ४, २८१ बेल्लई (रमते)४, १६८
शामअगुणे (सामान्यगुणः } ४, बिहलिा (विलित) ४, ३६४ वेस (वेषः) ४,३८५ विहवो (विभवः) ४, ६० विहये बेहवाइ (वचयति) ४, ९३ शामी (स्वामी) ४, ३०२ ४.४२२ विहवि ४,४१८ वोषका (विजानाति) ४,३८ वो (विजानाति) ४. ३८
शालशे (सारस:) ४, २८८ विहसन्ति (विकसन्ति) ४, ३६५ बोला (वीजति) ४,५ शिल (शरस) ४,२८८ विहाणु (विभातम् ) ४, ३३०, बोला (गच्छति) ४, १६२ शिष्ट धातु: सीसा (शिण्यत) ४, ३६२, ४२०.
बोहिलमओ (उक्तम्) ४,४२२ २३६, विसिछु ४, ३५८ विष्टि (विधि) ४,३८५, ३८७, बोलोणी (अतिक्रान्तः) ४, २५८ शुपलिगडिवे (सुपरिगृहीतः)४,
बोस (विकसति) ४, १९५३०२ विहीर (प्रतीक्षते) ४, १९३ बोसट्टो (विकसित:) ४, २५८ शुभ, सोमति (शोभते) ४, ३०९, बिहेइ (बिभेति) ४, २३८ वासिरह (न्युत्सृजति) वोसिरामि सोहइ ४,४४४ बिहोगा (ताडयति) ४,२७ (व्युत्सृजामि) ४,२२९
शुम्मिलाए (सूमिलायाम्) ४,३०२ बोजा (बीजयति).४,.५।। व्रतु वितम्) ४,३९४ । शुल (सुर) ४,२८८ वीण वीणा) ४. ३२९ वासु (व्यास:) ४,३९९
शुष, सूसइ (शुष्यति) ४, २३६, पीलापरणे (वीरजिनः) ४, २८८
सोस ४, ३६५ बोस (विंशतिः) ४,४२३
शक, सबका (शक्नोति) ४,१६, शुष्क (शुष्क) ४, २८९ पोसर (विस्मरति) ४,७५, ४२६ २३०, ४२२, ४४१ सिक्खेद ४, शुस्तिो (सुस्थितः) ४, २९१ । बौलालाई (मिश्रयति) ४, २८ ३४४, सिक्खन्ति ४. ३७२, शुस्टु (सुष्टु) ४, २९० चुना (राजति) बुझेम्पि, विष्णु सिक्लु ४, ४०४, ४०५
शे (सः) ४, ३०२ (अजित्वा) ४. ३९२
शक्कावालतिस्त ( शावतार- शोके (शोकः) ४, २९९ धुसर (उक्तम्) ४, ४२१ तीर्थ) ४,३०१,३०२ शोरिगवाह (शोणितस्य) ४, २९९ बुन (विषण्ण) ४,४२१ शनिदे (संचितः) ४,४४७ शोभरणं (शोभनम्) ४,२८८, शोपेशवा (खचयति):४,८९ शाद (शत)४, ४४७
भरणे ४, ३०२ वेज (वेदः) ४,४३८
शम्, समा (शाम्यति) ४. १६७ श्रम परि-उपसर्ग-पूर्वक्र: श्रम्वेगला (भिन्न:) ४, ३७० (उप-उपसर्ग-पूर्वकःशमधातुः) धातुः) पलिस्सम्ता (परिश्रान्ताः) वैशाह (व्ययं करोति) ४, ४१९ उवसमइ ४, २३९ उवशमदि ४, . ४, २८२, पलिश्शन्ता ४, ३०२, बेढ (वेष्टर्यात) ४, २२१ वेढेइ २९९
(वि-उपसर्ग-पूर्वकः श्रधातुः) ४, ५१ वेडिज्जइ ४, २२१ शमणे (श्रमण:) ४.३०२ विसमइ ४, १५९ वेरण (वीणा) ४,३२९
शयणा (स्वजनानाम) ४, ३०० धु(धासुः) सुणइ (शृणोति) ४, देतसो (वेतसः) ४. ३०७ . शयल सिकलम) ४,२८८ ५८, २४१, शुणादु ४, ३०२, बेप, देवा (वेपते) ४, १४७.
मालिशं (मकलम्) ४, ३०२ सोहीन ४, ४४७, सुव्वइ, सुणिधेमया (भक्ति ) ४, १०६ सम्बने (सर्वज्ञः) ४, २९३ ज्जइ ४, २४२, शुणिनदे ४, .. वेरिअ (वैरिणः) ४,४३९ शस्तवाहे (सार्थवाहः) ४,२९१ ३०२, सुणिऊण ४,२४१,सोऊण्ड बेलवा (वचयति) ४, ९३ शस्य (शष्प) ४,२८९
४, २३७, २४१, शुदं ४, २८८
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................................A
runanaminumaakiruinin
शब्द-सूची
* संस्कृत-हिन्दों-टोकाद्वयोपेतस्य * सुन ४,४३२
सम्बई (पश्यति) ४,१५१ समाबइ (समाप्नोति.) ४, १४२ श्लिष् (धातुः सिलेसइ (श्लिष्यनि) सज्जा ( सज्जनः ) ४, ४२२ समाणु (समानम्) ४,४१८,४३८ । .:., १९०
सज्जणहं ४, ४२२
समारइ (समारचयति) ४,१५ श्वस् (धातुः) (निस-उपसर्ग-पूर्वकः सम्झु (सद्यः) ४, ३७० .
समीप (समीपम्) ४, ३२२ श्वस्-धातुः ) मीसस (नि:श्व- रथिसचित), ४२२
महासमुदा) ४,३२६ ...सतिः).४, २०१६ - सना (संज्ञा) ४, ३०३
संपा (संपद)४,३७२,३८५.४०० :: - [स] .
पठी (पपदः) ४, ३२५
D "
. संपर्य (संपेद् ) ४,३३५, ३४७, स (सः) ४, ३७०, ४०६, ४१४, सतनं (सदनम) ४, ३०७
" ४००, ४.१८
.
सत्य (स्वस्थ) ४, ३९६, ४२३ संभवहीं (संभवस्थ) ४, ३९५ सइ (स्वयम्).४, ३९५, ४३० सत्थरि (नस्सरे) ४, ३५७ संभावइ (लुभ्यति) ४, १५३ सई (स्वयम्) ४,३३९, ४०२ सयहि शिस्त्रः४, ३५८ संमान (संमानम्) ४, ३१६
साइला (शलाः) ४; ३२६ सह, सह (सीदति) ४, २१९ संमूह (समुखौ) ४, ३९५,४१४ ! सणि (शकुनिः) ४, ३९१, सउ- : मदोसु (सदोषः) ४, ४०१ सय (शत) ४, ४२२, सएण ४, णिहं ४, ३४० :
सहह, सहारणं (अद्धानम्) ४, ३३२, सयाई४, ३५७, ४१८ ... सवमाहं (शकुनीनां):४,४४५ . २३८ ...... सएहि ४, ३४५." . .. .. .
सउन्तले । शकुन्तले !).४, २६० सन्ति (शान्तिम ४४४१ स मस (सकल).४, २६४, ४४१ ___सएप (शतेन):४:३३२, सएहिं संक्षारणा (निष्टम्भं करोति प्रद. सयवाई (शसबारम्) ४, ३५६
ष्टम्भं करोति) ४, ६७ . सार, सरह (सरति), २३४ (अपसंवलिन (संलितम्) ४, ४३९ संविसइ (संदिति)४, १८० उपसर्ग-पूर्वक सर्वातु) पोश.. संवेस्स (संवेष्टते) ४, २२२ संयुमा (प्रदोषयति) ४; १५२ . लघ४, ३०२ (निस्-उपसर्गपूर्वक:
संसह नसते)४, १९७ संदेसा संदेशान) ४,४१९ । सातुः ) नीसइ ४, ७९ मोस
समणी (सकर्णा) ४,३३० । संदेसें (संदेशेन) ४,४३४. रहि ४,४३९ (प्र-उपसर्गपूर्वकः • सक्कार (सरकारम् } ४, २६० संधिहि (संधी) ४,४३० ।। सर-धातुः) पसर४,७७, ७८, सक्को (शक्त: ४, ३०९ संघुक्का (प्रदीपयति) ४, १५२ ।। पसरि ४,३५४ सगरपुत्त (सगरपुत्र) ४,३२४ सन्नामे (याद्रियते) ४,८३ सर (सरस्)४,४२२ सरे, सरम्मि संक (संकटम)४, ३२५ सम्मुम (छादयति) ४, २१ सरसि ४,४४०.. .
संकर (शंकरः) ४, ३३१ सषषु (शपर्थमा ४, ३९६ : सर (शर) ४, ३४४, ४०१, ४१४ । संखुष्टा (रमते).४, १३८ । सभलउ (सफलम्)४,३९६, २९७ सरच.४, ३५७ सरु, सरे४३५७ संखो (शङ्खः)४, ३०९ संग्रह ४, सम (समः) ४, ३५४ . ' सरह स्मरति)४, ७४ सरई४, ४२२ : ..
समहो (श्रमणः) ४, २६५ . ३६५ : ...... . संगमि (संगमे) ४,४१५ समर (समर) ४, ३७१ . सरला (सरलान) ४, ३८ ... संगर (सगर) ४, ३४५ समरङ्गणइ (समराङ्गणके )४, सरावि (शरा) ४, ३९६ . संगलइ (संघटते) ४, ११३ ३९५ . . . . .. सरिआइ (सरिताम) ४, ३०० संगहों (संगाय) ४, ४३४ : समारलेण (समाकुलेन) ४,१४ परिसं (सदशम्) ४, २७९ संघह (कथयति) ४,२ समारणइ (मुक्ते) ४,११० सरिसिम (सदृशताम्) ४, ३९५
...Y
3Yv.
.
..
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TypeapalMAMMALAIIIIII
४४२
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vvvvkM
*प्राकृत-व्याकरणस्य..
चतुर्थपादस्य सहि (सरिभिः ) ४,४२२ महाव (स्वभाव) ४, ४२२ उपपर्ग-पूर्वकः सिच्यातुः ) संसरेहि (सरोभिः)४:४२२ सहि ! (खि !) ४, ३३२, ३७९, “सिस उ४, ३९५ सर्प जपानमपूर्वका स- ३९०,३९८, ४०१,४१४,४१७, सिज्जिरीए (स्वेदनशीलायr) ४, धातु:) सबसप (उपसर्पति)४, ४४४, सहिए ४, ३५८, ३.६७ १३.९, उव शमीमा: ०२ सह (सह) ४, ३५.६, ४.१९ . सिद्धस्था सिद्धार्थात ४,४२३ सलों (सलज्जम्)४,४३० सा (स1) ४,३६५४३९ सिध्, सिम्झइ (सिध्यति । ४, सलहइ (श्लाघते).४.५८ साझा (क ) ४.१८७ २१७ ( नि-उपसर्ग-पूर्वक: सिध्सलिल (सलिल)४,३९.५, सलिम
सामगलिया.४, १.९० मातु:). नि.सेहः ४१३४
सामग्न. (सामान्यः).४, ४.१८ सिनातं (स्नातम्) ४, ३१४ सलिल (शलिTE),
सामवाप्रतीक्षत).४, १९३ सिप सिञ्चति) ४, २५५
सामला (श्यामल:) ४. ३३० सिम्पद (सिञ्चति) ४, ५६ समोरगी ( सलावण्या.) ४,४२० सामसी श्यामला) ४.३४४
सिमोइलेष्मा) ४,४१२ सलोए-४, ४४४ . सामिः (स्वामी ४.३३१४,४३०, : सिवः शिरः४, ४४५, सिरेण सहल ( मल्लको) ४.३८७, . सामिज ४,४०९, सांभिमः४, ४, ३६७, सिरे, सिरम्म, सिरसि सल्लाइहि ४.४.२२
४२२, सामिमहो ४, ३४०, ४,४४६. सिरि४,४२३,४४५ सख्या सर्व ४,४२२, सम्४, सासिहं ४, ३४१
मिति घो:४३४०,४०१ समरस१६, सायन (सागर) ४, ३३४, साय-सिल शिला), ३३७
रहो ४, ३९५,४४-१९ सायरि सिलायतु शिलातलम्)४, ३४१ -- सबसलो ,२२४:४१२,
सिलेस सिध्यति) ४१RO सबब ३२६) सयामी , सार (सारी ४१२ सितिस्थ शिवतीर्थ: ४२
साह (प्रहरति) ४, ८४ सिवु शिवम्) ४,४४० "सवनी (सर्वज्ञः) ४,३०३ सारथ (समारचयत्ति) ४, ९५ सिध्या (सीव्यत्ति)४, २३० सम्बास(सर्वाशन) ४,३९५ लारस (सारस) ४, ३७० सिसिर (शिशिर) ४,४१५ सिससणेही (सस्नेहा)४, ३६७ सारिक्खु (सादृश्यम्। ४.४०४ । सिरु ४, ३५७ . . .. ........ ससरोगे (सशरी) ४. ३२३ साह (सारम्) ४, ३६५ सिहइ (स्पृहयत्ति) ४,३४, १९२ ससा (शशधर।) ४,४२२ साव (सर्व) ४,४२०
सिहिकवा (शिखिकथनम् ) ४, ससि (शशी ४, ३६२, ३९५, सावणु (श्रावण ४.३५७, ३९६ ४३८ .:४१६, ४४४, ससी ४, ३०२ . सास (श्रासान ३.८७४.३९५ सीअल शीतल) ४३५ सीलू
संसिरह (शशिलेना), ३५४ साहइ (कथमति) ४.२ .४ ३४३ सोग्रला ४. ३४३ सह, सहेसइ (सहिष्यते), ४२२, साहट्ट (संवृणोति) ४, १२ सीमा (सीमा) ४, ४३०
सहेन्त्र ४, ४३८ . साहरा संवृणोतिः) ४,५२ सोल (शील) ४, ४२म सोलं.४, सह (मह) ४, ३३९
साहसवः) ४, ३६६, ४२२ सह ( ते) ४, १००, सहहि सिङ्गहूं (ङ्गभ्यः) ४, ३३७ सीसइ (कथति) ४,२
सिव मिश्वासिलि), १६. सासु (शीर्षम्) ४, ३८९ सोसि ४, सहसति (सहसा इति), ३५२ २३९, मैं प्राइ ४, ९६ ( मम्- ४४५
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* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतस्थ * सीसो (शिष्यः) ४, २६५ सुहवी : सुवामिका) ४, ३५, थुधई, थुजि४, २४२ सोह. (सिंह) ४, ४०६, सोडू ४, पछडी ४, ४२.३. सुहाच्छिहि स्त्या (मम् उपयर्मक स्था४१८.सीहो ४,४१५
धातुः) संखाइ (संस्त्या ति] ४, सु (स.) ४. ३६७, ३८३, ४१४, सुजय सुभग ४, ४.१९ .१५, संखय ४. १५. ४१८, ४२२
. सुहासिक {सुभाषितम्। ४. ३२१ स्था. मिहानि)४, १६ सुप्रइ स्वपिति ४, १४६ सुभति .. सहिमा ! (हे सुखिन् ! ).४, २६३ चिट्टदि ४ ३६० चिष्ठदि ४,
सुबर ४ ४४११८,४४७ लाई ४, १६ ४३६ सुप्रणा (सूजनः ४, ३३६, ४०६, सू, सबइ. सूते).४.२३३ (-3 - . ठन्ति ४,३९५ हिउ, ३९१. सुषणस्सु ४.३३८, ३८५, ३८९, सगरवक: सूधातुः) पनवाई ४, ४.१ ठिप ४,४१५ दिउ ४. ४११, सुनरोदि.४, ४२२ २३३
४३१ द्विप ४, ४४८ दिन, मुडमगन्तरि स्वप्नात्तरे)४, ४३४ सूरु भक्ति) ४. १.०६ .३५४. ३८१ ट्रिप्रद्रो ४, ४१६ सरसत्यु (अतिशास्त्रम) ४,३९९ सूर (सूर्य) ४,४४८
ठिनाई ४.४२२ ठिको ४, ४०४ सुकम्म (सुकर्म।.४.२६४ सय · भनविन)४, १०६
..ठिनं ४, १.६ चिटिकणा, ठाऊण सुभिद सुकृतम्) ४, ३२९ सुकिदु (सुकृतम्) ४. ३२९ . मेल्लु (भल्लम) ४, ३८७
संसर्ग-पूर्वक: स्थाधांत: उट्ठ मुकदु सुकृतम्। ४, ३२९
से वह सेवते) ४,३१६ .४, १७ उहियो, उत्यिो ४, १६ सुपौ? 'शुष्पन्त्रि) ४, ४२७ सेपहो (शेषस्य) ४,४०१ उदित; ४१५, ४१६ उहासुमधु (सोख्यम्। ४, ३४० सेहइ (नश्यति) ४, १७८ । त्रियो ४, १६ (उप-उपसर्गपूर्वक सुघे (मुनेत)४:३९६, ४३० सेहमः शेखरस) ४.४०४६ स्थावातु: उवस्तिक ४,२९१
सो (सः) ४, २८०, ३२२, ३२३, (प्र-उपपर्ग:पूर्वक स्थाधातः ) सुद्ध (सुष्टु) ४, ४२२
३३२, ३४०, ३६७,३७,३८४, पट्टि प्रो, अरिथयो ४, १६ पटेखाइ, सुरग। (शुनकः)४,४४३
३९०,३९५, ४०१,४२०,४२२, हावइ ४, ३७ पठानिया, सुन सूत्रम्) ४, २८७
४२९, ४३८, ४४२,४४५ ४ २२ पट्टाविमो ४ १६::: सुनुसा स्नुषा) ४, ३१४
सोड सोऽपि)४,४०१ स्फुट, फुटटइ स्कुटति) ४,१७७, सुन्दर (सुन्दर) ४, ३४८. . सोक्खह (सोस्यानाम) ४, ३३२ २३१, फुडइ नश्यते) ४,२३१ सुपलिगडिको (सुपरिगहीला) ४, सोभन (शोभनम्) ४, ३०९
फोहस्ति ४.४२२,४३,फोडेन्ति २८४ सोमगगहा (सोमग्रहणम्) ४,३९६
४,३५७,३६७ फुट्टिस ४, ४४२, सुपुरिस (सुपुरुष) ४.३६७, ४२२ सोल्ला (पंचति) ४.९० । फुट ४,.३५२ फूट, ३५७:: सुभिसच मुभत्यः) ४, ३३४ सोल्लइ (क्षिपति) ४, १४३ स्मर, सरक, सुपरइ (स्मरति) ४,
सुमासु स्मरणम्। ४, ४२६ सोह (शोभाम), ३५२. : .. ७४ सुमरि ३६७ सुनहि ४, . सुम्मिलाए मिलया) ४,२८४ "सोहा (शोभले) ४,४४४ ३ ७ सुमरिज४,४२६ कि
सुम्यो (सूर्यः) ४,२६६ स्खल, प्र-उपसर्ग-पूर्वका स्खल- उपसर्ग-पूर्वक स्मातु:पिम्हसुर उससुरतम्) ४, ३३२, ४२० धातुः) पस्लमति (प्रस्खलति) ४, रइ ४,७४, ७५ सुषंसह (सुवंशानाम्) ४,४१९ २८९
स्वप् (धातुः) सुअइ (स्वपिति) ४, सुवग्णरेह (सुवर्णरेखा) ४, ३३० . स्तु, पुणड (स्तौति) ४, २४१. १४६. सुमहिं ४, ३७६, ४२७,
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________________ -099500RRAVINAadiummaNAMOHAMMAINAMAAJAMMURMULI - -- . * प्राकृत-व्याकरणस्य * चतुर्थपादस्य . सोएबा 4,438 २५९,वाहरिज्जइ 4,253 (उप- हिया 4, 422 उपसर्ग-पूर्वको हातुः उवह रइ हिबउँ (हृदयम्) 4,350, 367, हवं (अहम्) 4,338,340,370, 4, 251 (निस-उपसमं- बैंकः 422, 430, हिमडा 4, 357, 375, 379, 391,410,411, हर-धातुः) नीहरइ 4, 251 422,439 / 420, 422,423,425,439 (परि-उपसर्ग-पूर्वको हर-घातुः), हिडिम्बाए ( हिडिम्बायाः) 4, * हो (हंस:) 4, 288 परिहर इ 4, 259, 334, 389 299 . हरका (निषेधति) 4, 134 (प्र-उपसर्गपूर्वक हर-धातु:)पह- हिण्डीअदि (हिण्ड्यते) 4, 299 हनुवाइ (उरिक्षपति) 4, 144 रइ 4, 84,259 (प्रति-उपसर्ग- हितपकं, हितपके ( हृदयम् ) 4, हो (प्रहम् ) 4,282,299,301, पूर्वको हर धातुः) पडिहरइ 4. 310 259 ( वि-उपसर्ग-पूर्वको हर- हिबएण(हृदयेन) 4, 265 हजे (चेट्याहाने) 4,261,302 धातुः) विहरइ 4, 259 (सम्- हिवह (भवति) 4, 238 हाइ (सूमोति) 4, 58 उपसर्ग-पूर्वको हर-धातुः! संह- हा(पाश्चर्यादी निपात:)४,२८२, हरण, हाई ( हन्ति ) 4, 458 रइ 4, 259 ही ही 4, 285, 302 THE4.244 हणिज्जइ, हारहार:)४,३९१,४२०.४२२ होसमखं (ह.रेषितम) 4.258 -हणिहिए, हम्मइ, हम्मिहिइ, हरिणाई (हरिणा:)४, 422 (खल) 4, 390 . : हन्तवं हन्तण, प्रो 4, 244 हरिसह (हृष्यति) 4, 235 हहरण बुहोति )4, 241 // हत्या (हस्तः) 4,445, हस्थडा हलहरम्).४,३२६ . . 4,439, हस्थु 4, 422 हत्थे 4, हला ! (सख्यामप्रणे) 4, 260 कारखएं (कारण) 4, 422 हलि ! (सख्यामन्त्रणे) 4,332, हवयह (हुतवह).४, 264 - हत्यि (हस्ती) 4,443 हुवासरणो (हुताशनः) 4,265 . हन्ति (हन्ति) 4,406 हल्लोहलेख (विक्षोभेण) 4,396 हल (माष्टि) 4.105 :हम्मा (मछति) 4, 162 हषद (भवति) 4, 238 / हुलइ क्षिपति) 4, 143 : : हर्यावहि (हतविधिः) 4. 357 हम, हलह ( हसति ) 4, 196, हवह (भूयते, हयते) 4,242 हमास (हस्ताका) 4,383 - 231, हसन्तु 4,383, हसिंतुन हा शब्दानुकरणे निपातः) 4, हर, हसहरति)४, 201,234, 4,312. हस्सइ, हसिज्जइ 4, 423 239, हरिजइहीरइ४ 250 249, हासउ 4, 396 हज (भूतः) 4,422. . . हराविमा ४,४०९(अनू-उपसर्ग- हस्ती (हस्ती) 4,289 हेद्र (मधः) 4, 448 पूर्वका हरघातुः) अणुहरइ 4, हारवा (नाशयति) 4, 31 हेलिहि मालि!) 4,39,422 252, 418 महरहि 4,367 ह (हिं) 4, 422 . होन्सओ प्रभविश्यत, भवन) {प्राइ-उपसर्ग-पूर्वक: हातुः) हिलयं हृदयम्) 4, 23, हिमय 355, 372, 3.73, होन्लज 4, प्राहर४, 259 (व्या-उपसर्ग- 4,439, हिउँ 4, 370, हि. 379, 350, होमः 388, पूर्वक हर-धातु) वाहइ 4,76, अइ 4,330, 395, 420, 418 . . . . * समासम् ॐ दी गिरि प्रिंटर्स, रेलवे रोड, अम्बाला शहर।।