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________________ चतुर्थपाद: 'यह रूप बनता है। यहां पर से रेफ का लोप नहीं हो सका । २६९ ★ संस्कृत-हिन्दी- टीका-प्रयोपेतम् ★ प्रियंण = प्रियेण (प्रीतम ने इस पद में सूत्र का विधान वैकल्पिक होने १०७०- प्रपत्र श भाषा में कहीं कहीं पर प्रविद्यमान (जो विद्यमान न हो), रेफ भी प्रयुक्त हो जाता है । जैसे— उपासो महर्षिः एतद् भरगति यदि भूतिशास्त्रं प्रमाणम् । मातृnt चरणी नमता दिवा दिवा गङ्गा-स्नानम् ||१|| अर्थात् महर्षि व्यास ऐसा कहते हैं कि यदि श्रुति शास्त्र प्रमाण है, प्रमाणस्वरूप हैं, सच्चे हैं तो माता के चरणों में किया गया दैनिक प्रणाम गंगा स्नान के समान है। यहां पर व्यासः वासो (व्यास ऋषि) इस पद में रेफ का सर्वथा प्रभाव था, किन्तु प्रस्तुतसूत्र ने उसका प्रयोग करके वासो यह रूप बना दिया। प्रश्न हो सकता है कि सूत्रकार ने 'क्वचित् (कहीं पर), इस पद का श्राश्रयण क्यों किया है ? उत्तर में निवेदन है कि सर्वत्र अविद्यमान रेफ का प्रयोग न हो जाए इसलिए सूत्रकार ने क्वचित् इस पद का उल्लेख किया है। जैसे व्यासेनापि भारतस्तम्मे बद्धम्वासेण वि भारहखम्भि बद्ध (व्यास ऋषि के द्वारा भी भारत-रूपी स्तम्भ में बांधा गया है) यहां से इस पद में रेफ का प्रयोग नहीं किया गया है । भाव यह है कि रेफका प्रयोग सार्वत्रिक नहीं समझना चाहिए। १०७१ - अपभ्रंश भाषा में आपद, विपद् और संप इन शब्दों के वकार को इकारादेश होता है। जैसे - १ - अभ्यं कुर्वतः पुरुषस्य प्रापद् आयाति प्रण करतहो पुरिसहो भावइ श्रावइ [श्रन्याय करने वाले मनुष्य पर मुसीबत बाती है] २ - विपद् [विपत्ति ], ३-संपद संपद [ सम्पत्ति ] यहां बाप आदि शब्दों के दकार को इकार किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में प्राय: [ बहुल ] nir fere होने पर कहीं पर प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे - गुणैः न सम्पद्, कीर्तिः प रम् = गुणहिँ न संपय कित्ति पर [गुणों से सम्पत्ति नहीं, परन्तु कीति मिलती है। यहां सम्पत् शब्द था, प्रस्तुत सूत्र से इसके वकार को इकार होना चाहिए था, परन्तु बहुलाधिकार के कारण नहीं हो सका । ★ अथ कथनादिशब्द सम्बन्धी आदेशविधिः ★ १०७२ - कथं यथा तथां थादेरेमेमेहेधा डितः । ८ । ४ । ४०१ । अपभ्रंशे कथं, यथा, तथा इत्येतेषां यादेरवयवस्य प्रत्येकम् एम, इम, इह, इत्र इत्येते डितश्चत्वार श्रादेशा भवन्ति । केम समप्यज बुट्ठ विणु किध रयणी छुड होइ । मनोरह सोइ ||१|| बद्दल नव-बहू - दंसण- लालसर वहs श्री गोरी-मुह-निज्जि अन्तु वि जो परिहविय तणु सो कि बिम्बारि त रयणन्वणु किह ठिउ सिरिश्रानन्द ! | froen रसु पिएं frafव जणु सेसहों दिष्णी मुद्द | ३|| लुक्कु मियकु । भइ निसकु ॥ २ ॥ भण सहि! निम्र तेवं महं जड़ पिउ विठ्ठ सदोषु । जेव न जाणइ मज्भु मणु पक्खावडियं तासु ||४||
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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