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________________ पाद: ★ संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्वयोपेतम् ★ ૬૭ १११० - अपभ्रंश भाषा में क्त्वा प्रत्यय के स्थान में इ इ इवि और अवि ये चार प्रादेश किए जाते हैं। इ इस प्रदेश का उदाहरण इस प्रकार है हृदय ! यदि वैरिणी घनाः, ततः किम आरोहामः ? | Here at हस्तौ यदि पुनः मारयित्वा प्रियामहे ॥१॥ अर्थात हे हृदय ! यदि वैरी [शत्रु ] अधिक हैं, बहुत ज्यादा हैं तो क्या हम प्रकाश पर चढ जाएं, हमारे भी तो दो हाथ हैं, मतः हम उन को मार कर हो मरेंगे। यहां पर पठित-मारयित्वा मारि [मार कर ] इस पद में क्त्वा प्रत्यय के स्थान में 'इ' का आदेश किया गया है। 'इउ' का उदाहरण इस प्रकार है- गजटाः भङ्क्त्वा यान्ति गयघड भजिउ जन्ति [ हाथियों के समूह को भेद करके जाते हैं] यहां पर पठित भक्त्वा भजिउ [भेद करके] इस में क्त्वा प्रत्यय के स्थान में 'इ' यह प्रदेश किया किया गया है। 'इस' को उदाहरण इस प्रकार है राति सा विषहारिणी हो करो चुम्बित्वा जीवम् । प्रतिविम्बित- मुजालं जलं याभ्यामनवगाहितं पीतम् ||२|| अर्थात - विषहारिणी [पनिहारिणी] महिला अपने हाथों को चूम-चूम कर अपने जीवन का संरक्षण कर रही है। हाथों से हो वह उस जल का पान करती है, जिस में किसी ने स्नान नहीं किया तथा जिस में मुज प्रतिबिम्बित हो रही है। इस तरह हाथों द्वारा अपने जीवन की समस्त समस्यात्रों को समाहित कर लेने के कारण ही वह अपने हाथों को चूमती रहती है, हाथों को उपकारिता के लिए उनको स्नेह प्रदान करती है। यहां पर पठित चुम्बित्वा = चुम्बिवि [चूम कर, चुम्बन लेकर ] इस पद में प्रत्यय के स्थान में 'इवि' यह प्रादेश किया गया है। अधि का उदाहरण इस प्रकार हैबाहू स्याजयित्वा याहि त्वं भवतु तथा को दोष ? | हृदये स्थितः यदि निःसरति जानामि मुञ्ज ! सरोषः ||३|| अर्थात् - हे मुञ्ज ! यदि तु बाहु [भुजा ] छुड़ा कर जाता है, तो भले ही चला जा, परन्तु यदि हृदय से भो तू निकल जाए तो मैं समझ कि तू सरोष है, रोषयुक्त है। यहां पर पठित-त्याजयिवा विछोडfa [छुडा करके] इस पद में कत्था के स्थान में अधि यह श्रादेश किया गया है । ११११ प्रपभ्रंश भाषा में करवा प्रत्यय के स्थान में एप्पि एप्प, एवि और एवि ये चार प्रादेश होते हैं। जैसे जित्वा अशेषं कषायबल वश्वा प्रभयं जगतः । लात्वा महाव्रतं शिवं लभन्ते ध्यात्वा तत्त्वम् ॥ ग्रामदनी, लाभ हो, कोष अभयदान देकर अहिंसा, ----- अर्थात् सम्पूर्ण कषाय [जिस से कष-जन्म-मरणरूप संसार की प्राय मान, माया और लोभ ये चार महादोष ] के बल को जीतकर संसार को सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्यं तथा अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों को धारण करके तथा जीव और मजीव आदि aat का चिन्तन करके संयत प्राणी मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यहां पर पठित १ - जिल्वा जेपि [जीत कर], इस पद में रवा-प्रत्यय को एपि २ बरवा देपिशु [दे कर ] इस पद में बरवा - प्रत्यय को एपिणु, ३- लामा लेखि [ले कर] इस पद में प्रत्यय को एवि मौर ४- ध्यात्वा झाएविणु [[चिन्तन करके ] इस पत्र में क्वाप्रत्यय के स्थान में एविए यह प्रादेश किया गया है। यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि १११० व सूत्र का प्रत्यय स्थान में इ इ यदि चार प्रदेश करता है और के
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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