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________________ ३६६ ★ प्राकृत व्याकरणम् ★ चतुर्थपादा प्रिय [प्रीतम ] से भ्रष्ट [ च्युत या परित्यक्त ] गौरी [गोरे वर्ण वाली नारी] कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती, वंसी ही स्थिति लक्ष्मी की दृष्टिगोचर हो रही है। यहां पर पठित--अ = एतहें [ गां पर ] तथा सतेत [वहां पर ], इन पदों में सप्तम्यन्तार्थ [सप्तम्यन्त है अर्थ जिस का] - प्रत्यय के स्थान में डे हे [एस] यह आदेश किया गया है। ११०८ -- प्रपभ्रंश भाषा में त्व और तल इन प्रत्ययों के स्थान में 'पण' यह प्रादेश होता है । जैसे- बृहत्त्वं परिप्राप्यते वष्णु परिपाविस [उस से महत्त्व प्राप्त किया जाता है] यहां पर पठित बृहत्त्रम् बहुप [महत्वम्] इस पद में त्व-प्रत्यय के स्थान में 'पण' यह प्रादेश किया गया है । प्रस्तुत सूत्र में १००० वे सूत्र से 'प्राय:' इस पद का अधिकार श्री रहा है। प्रायः का अर्थ है - * बहुल | ग्रतः कहीं-कहीं पर स्व-प्रत्यय को 'पण' यह आदेश नहीं भी होता । जैसे बहत्वस्य कृते = बहुत हो तरोण [महत्व के लिए ] यहां पर पठितत्व-प्रत्यय को 'पण' यह आदेश नहीं हो सका । ११०६-- अपभ्रंश भाषा में तथ्य-प्रत्यय के स्थान में इएम्बर एव्बउं और एवा ये तीन प्रादेश होते हैं । जैसे-एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रियः उद्वार्यते । मम कर्तव्यं किमपि नाऽपि मर्तव्यं परं दीयते ॥१॥ अर्थात् रजत और सुवर्ण ग्रादि धन सम्पदा ले कर यदि मैं प्रिय का त्याग कर दूँ, तो मरने के अतिरिक्त, मेरा कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रह जाता क्योंकि नारीजीवन में पति ही सर्वस्व होता. है । पतिविहीन जीवन प्रर्वथा विस्तार होता है। यहां पर कर्तव्यम् करिएग्नउँ [करने बोग्य कार्य], मर्तव्यम् = मरिएब्बउँ [ मरना चाहिए, मरण] इन पदों में तयत्-प्रत्यय के स्थान में 'इए' यह आदेश किया गया है 'एच' का उदाहरण इस प्रकार है carrated fafanथनं धनकुट्टनं यत् लोके । मंजिष्ठया अतिरक्तया सर्व सोढव्यं भवति ॥ २॥ अर्थात्- देश से उच्चाटन पृथक होना, जड़मूल से उखाड़ा जाना, तत्पश्चात् क्वाथ के रूप में अग्नि पर उबाला जाना तथा हथौड़ों से कटा जाना, ये सब के सब संकट संसार में अत्यधिक रागरंगवाली मजीठ [ एक लता जिस की जड़ों और डंठलों को उबाल कर तथा कूट कर लाल रंग निकाला जाता है] को सहन करने पडते हैं। राय [रंग] की अधिकता जैसे मञ्जिष्ठ के लिए सकटदायिका होती हैं, वैसे राग [महाविक्य] करने वाले मनुष्य को भी भीषण संकट सहन करने पड़ते हैं। यहां पर पठित सोढव्यम् - सहेब [सहन करने योग्य ], इस पद में तव्यत्-प्रत्यय के स्थान में 'एब" यह श्रादेश किया गया है। 'एवा' का उदाहरण afrai परं वारितं पुष्पवतीभिः समम् । जागरितव्यं पुनः को धरति यदि स वेदः प्रमाणम् ||३|| •अर्थात् ऋतुमती - रजस्वला नारियों के साथ रात्रि को शयन संगम करना निषिद्ध है। यह वातः यदि वेदशास्त्र धर्मशास्त्र से प्रमाणित मानते हैं तो जागृत दशा [दिन] में रजस्वला नारी के साथ किए जाने वाले संगम को कैसे शास्त्र सम्मत माना जा सकता है ? यहां पर पठित १ स्थपितव्यम् -सोएबा [शयन करना चाहिए, या शयन] तथा २ जागरितव्यम् जग्गेवा [जागना चाहिए, जागृत दशा में] इन पदों के तथ्यत् प्रत्यय के स्थान में 'एवा' यह श्रादेश किया गया है। * शब्द के अर्थ के लिए देखो प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम खण्ड का चतुर्थ पृष्ठ (0921
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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