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________________ प्राकृत व्याकरणम् ★ चतुर्थपादः अर्थात - जिस की हुङ्कार [गरजना ] के कारण मुख से तिनके गिर जाते हैं, वह केसरी सिंह चला गया है। अत: है हिरणो ! अब तुम सब निश्चिन्त हो कर पानी पीम्रो। यहां पर सम्बन्धी के स्थान में 'र' यह आदेश किया गया है । सम्बन्धी के स्थान में किए गए 'तण' प्रदेश का उदाहरण - अय भग्ना अस्माकं सम्बस्थितः ग्रह भग्गा ब्रम्हहं तणा [ श्रथवा हमारे सम्बन्धी जो मारे गए हैं] यहां पर 'सम्बन्धी' के स्थान में 'त' यह प्रादेश किया गया है। २० - " मा भयोः (तू मत डर ) " इन पदों के स्थान में किए गए मन्भीसा इस स्त्रीलिङ्गीय प्रदेश का उदाहरण स्वस्थाऽवस्थानामालय सर्वोऽपि लोकः करोति । प्रातनां मा भैषीः यः सज्जनः स ददाति ||१६|| ३३४ अर्थात- स्वस्थ [ रोग रहित] अवस्था वालों के साथ सभी लोग वार्तालाप करते हैं, परन्तु दुःखियों को "भय मत कर" ऐसा वही कहता है, जो सज्जन होता है । भाव यह है दुःखी और निर्धन व्यक्तियों को विशेषरूप से सम्मान देना चाहिए। यहां पर 'मा भैषी' इन पदों के स्थान में 'मम्भीसा' इस शब्द का प्रदेश किया गया है । २१- "यद् य दृष्टं तद् तद्" इन पदों के स्थान में किए गए 'आइडिया' इस आदेश का उदाहरण इस प्रकार है यदि राज्यसे यक्ष यद् दृष्टं तस्मिन् तस्मिन् हृदय ! मुग्धस्वभाव ! | हेग धनः सहिष्यते टिच तापः ॥ १७३ [जिस का भोला स्वभाव हो ] हृदय ! यदि तू प्रत्येक दृष्ट पदार्थ में अनुराग करेगा तो धन [ हथोडे ] द्वारा तोड़े जाने वाले लोहे के समान तुझे ताप [ सन्ताप ] कष्ट सहन करना पडेगा | यहाँ पर "यद् यद् दृष्टं तद् तद्" इन पदों के स्थान में "जाइटि" इस शब्द का wide for गया है। लोक में पठित " यह दृष्टं तस्मिन् तस्मिन् " इन पदों में 'तस्मिन् तस्मिन् ' ये तद् शब्द के ही सप्तम्यन्त रूप दे रखे हैं । १०६४ - अपभ्रंश भाषा में हहरु आदि पद शब्द के अनुकरण' इस अर्थ में तथा 'छुग्ध' प्रादि शब्द बेष्टा के अनुकरण में यथासंख्य [क्रमश: ] प्रयुक्त करने चाहिएं। जैसे— मया ज्ञातं मक्ष्यामि अहं प्रेम हवे हरु इति ( शम्बं कृत्वा) 1 केवलमचिन्तिता संपति विप्रय-नौ: भविति ॥ १॥ अर्थात्-- मैंने समझा था कि प्रेमहृद [ प्रेम के तालाब ] में गृह यह शब्द करके निमज्जित [जलमग्न ] हो जाऊंगा, किन्तु अकस्मात् और शीघ्र ही विप्रियन्नावा [वियोग की नौका ] सम्प्राप्त हो गई। प्रर्थात् शीघ्र ही परस्पर वियोग हो गया। यहां पर शब्द के अनुकरण में 'हुहरु' यह प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में पठित मादि शब्द के ग्रहण से शब्दानुकरण में प्रयुक्त किए जाने वाले कसरक्क आदि अन्य शब्दों का भी आश्रयण किया जा सकता है। जैसे खाते न तु 'कसरक्क' (इति शब्द कृत्वा), पोक्ते न तु घुण्ट (इति शब्वं कृत्वा) 1 एवमेवं wafa सुखाशा प्रियेण दुष्टेन नयनाम्याम् ||२|| अर्थात् प्रपने प्रिय नायक को निहारने से विह्वल हुई किसी नायिका के भावावेश का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि नयनों से प्रिय को देख लेने पर नायिका के हृदय में सुख की प्राशा इतनी अधिक अॅडाइयाँ लेने लगी कि वह अन्य सब कुछ भूल बैठी। अधिक क्या, भोजन को चबाते समय कर यह जो स्वाभाविक ध्वनि होती है, वह ध्वनि भी निकलनी बन्द हो गई, तथा जलपान
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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