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________________ * प्राकृत-व्याकरणम् *:: चतुर्थपायः जहां यह प्रादेश नहीं हुया वहां बुहुनखड़ (खाना चाहता है), २-धीजयति बीजद, आदेश के प्रभाव में वीजा (वायु करता है) यह रूप बनता है। ६७७ ---ये और गै इन धातुओं के स्थान में यथासंख्य-क्रमशः झा और गा ये दो प्रादेश होते हैं। जैसे---- ....ध्यार्यालय झाप्राइ, भाइ, (वह चिन्तन करता है।, २-निध्यायति-निझामइ, निज्मा (वह ध्यानपूर्वक देखता है) निडपसर्गपुर्वक ध्यधातु दर्शना देखने अर्थ में प्रयुक्त होता है । ३--गायति गाह, गाइ (दह गाता है), ध्यानम् = झाणं (ध्यान, मन की एकाग्रता), ५गानम्-गाणं (गायन) यहां पर ध्ये घातु के स्थान में भा तथा मै धातु के स्थान में गा यह आदेश क्रमशः किया गया है। ६५८-साधासु के स्थान और मुख दो आदेश होते हैं। जैसे—मानाति - जाणइ, मुणई (वह ज मिला वर आधात कोजाणा और मणये दो प्रादेशाकिर गए हैं।६७२ सूत्र के माधार पर तो इदित धातु को ही वैकल्पिक प्रादेश हो सकते हैं, अन्य किसी धातु को नहीं, इसी लिए प्रस्तुत सूत्र में बलाधिकार का प्रश्रियण किया गया है। इस कारण यहां पर ज्ञाधातु के स्थान में बहुलता से जारण यह आदेश होता हैं । जैसे-१-मानम् जाणिपादेश के प्रभाव में णायं (जाना हुआ), २. ज्ञात्वा जाणिऊण,णाऊण (जानकर), ३-शान-जाणणं, पाणं (ज्ञान, जानना), यहाँ पर ज्ञाधातु को बहुलता से 'जाग' यह प्रादेश किया गया है। पत्तिकार फरमाते हैं कि 'मग' यह रूप तो मन्यते (मानता है, समझता है) इस शब्द से बनता है । मन्यते यह रूप दिवादिगणीय मन धातु का है और तनादिगण के मनु (प्रवबोधने) धातु के प्रथमपुरुष के एक वचन का रूप मनुते बनता है। -वद् उपसर्ग से पूरे प्रमा-धातु के स्थान में 'धुमा' यह पादेश होता है। जैसे- उद्धमति-उधुमाइ (उच्च स्वर से शंख बजाता है)। यहां धमाधातु को धुमा यह प्रादेश किया गया है। ६०-अद् इस अव्ययपद से परे यदिया धातु हो तो उसके स्थान में 'वह' यह प्रादेश होता है। जैसे ---१-श्रदधाति सह ई (वह श्रद्धा करता है), २.अधधानो कोकासदहमाणो जीवो (श्रद्धा करता हुआ यह जीव) यहां पर 'पा' धातु को 'वह' यह प्रादेश किया गया है। ६९---पिबि (पा) धातु के स्थान में १-पिज्ज, २-इल्ल, ३-पट्ट और ४--घोट्ट ये चार प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-पिजाति-पिज़्जइ, डल्लइ,पट्टइ, घोट्टा प्रादेश के प्रभाव मे -पिअद (बह पान करता है, पीता है) यह रूप बनता है। यहां पिवि-धातु के स्थान में पिज्जादि प्रादेश किए गए है। ... ६८२-उद्. उपसर्गपूर्वक वाति (वा) पातु के स्थान में ओजम्मा और पसुप्रा ये दो मादेश विकल्प से होते हैं । जैसे-उवाति गोहम्माइ, वसुबाइ मादेश के अभाव में उच्बाइ (वह हवा करता है) यह रूप बनता है। ६८३-निपूर्वक द्रा धातु के स्थान में ओहोर और ये दो अादेश विकल्प से होते हैं। 'जैसे-निद्राति मोहोरइ, उस देश के प्रभाव में निहार (वह निद्रा लेता है) यह रूप बनता है। ६८४-प्रा उपसर्ग-पूर्वक ना धातु के स्थान में 'माइग्य' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-आमिन्नति माइग्ध मादेश के अभाव में अपार (वह सूचता है) ऐसा रूप बनता है। ६- स्ना धातु के स्थान में 'अग्भुत' यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-स्वाति--
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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