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________________ चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * को 'हि' यह आदेश विकल्प से होता है । जैसे चालक : Na (तिमशिला कीयद् रोदिधि हताश ! तब अले, मम पुनसलमे, मोरपि न पूरिता आशा ॥२॥ अर्थात हे हताश (जिस की प्राशाएं नष्ट हो रही हों) चातक ! पिउ, पिउ इस प्रकार कह कर कहां तक रुदन करेगा? तेरी जल-प्राप्त करने की प्राशा तथा मेरो प्रीतम को पाने की प्राशा इस तरह दोनों को प्राशाएं कभी पूर्ण नहीं हो सकती। यहां पर--रोविषि रूहि (तू रोता है। इस शब्द में मध्यम पुरुष के एकवचन सिद के स्थान में 'हि' यह प्रादेश किया गया है । रोविधि यह प्रयोग परस्पद का है। अब वृत्तिकार पात्मनेपर का उदाहरण दे रहे हैं चातक! किं कपितेन निर्घष ! बारम्बारम् । सागरे भूते विमल-जले लभसे न एकामपि धाराम् ।।२।। अर्थात हे निर्षण निर्लज्ज) चातक ! बार-बार बोलने से क्या लाभ प्राप्त कर सकेगा? विमल जल से भरे सागर में से भी जब तू एक बून्द प्राप्त नहीं कर रहा, तब व्यर्थ बोलने की क्या पावश्यकता है? यहां पर लभसे-लहहि (तू प्राप्त करता है। इस पद में प्रात्मनेपदीय मध्यमपुरुष के एक वचन से के स्थान में हि यह श्रादेश किया गया है। अब वृत्तिकार सप्तमी (विधिलिङ्ग) के मध्यमपुरुषीय एकवचन का उदाहरण देने लगे हैं अस्मिन् जन्मनि अन्यस्मिन्नपि गौरि संवद्याः कान्तम् । गजान मसाना त्यक्ताह कुशानां य: संगमछते हसन् ॥३॥ अर्थात हे गौरि ! (हे पार्वति !) इस जन्म में तथा अन्य जन्म में भी उस कान्त (प्रीतम) को देना जो निरङ्कुश और मदोन्मस हाथियों के सन्मुख हंसता हुमा गमन करे । भाव यह है कि इस जन्म में तथा दूसरे जन्म में ऐसा पति देने की कृपा करना जो निर्भयता की साकार प्रतिमा हो तथा जो वीरशिरोमणि हो। ___ यहां पर बधा:-दिज्जाह (तु दे) इस सप्तमी के मध्यम-पुरुषीय एकवचन-सम्बन्धी यास् प्रत्यय के स्थान में हि यह मादेश विकल्प से किया गया है। . जहां पर प्रस्तुत सत्र द्वारा मध्यम पुरुष के एकवचन-सम्बन्धी सिन् प्रत्यय के स्थान में हि यह प्रादेश हो जाता है, वहां पर सो सहि यह रूप बनता है। जहाँ पर हि का आदेश नहीं होता, वहाँ पर....शेदिषि असि (तु रोता है) यह रूप निष्पन्न होता है। इसी प्रकार प्रादेशाभाव में प्रात्मनेपदीय तथा सप्तमी के मध्यमपुरुषीय एकवचन के अन्य उदाहरण भी समझ लेने चाहिए। १०५५-अपभ्रश भाषा में त्यादि सम्बन्धी (वर्तमानादि कालिक) मध्यमवय (मध्यमपुरुष) के वहुबचन को ह यह प्रादेश विकल्प से होता है । जैसे बलेः अभ्यर्थ ने मधुमयनो लघुकी-भूतः सोऽपि । यदि इच्छय बहरवं बस मा मार्गयत कमपि ॥१॥ अर्थात्-बलि राजा से याचना करने पर मधुमथन (विष्णु) को भी लघु (वाभन) होना पड़ा था, यदि महत्व चाहते हो तो किसी से कुछ भी याचना मत करो किन्तु अपने हाथों से कुछ दान दो।
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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