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________________ २२९ चतुर्थपादः ★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् ★ युष्मद् शब्द के स्थान में क्रमशः तत्र श्रादि तीनों आदेश किए गए हैं । १०४४- अपभ्रंश भाषा में भ्यस् और माम् इन प्रत्ययों के साथ युष्मद् शब्द के स्थान में 'तुम्ह' यह आदेश होता है। जैसे - युष्मभ्यं भवम् आगतः तुम्हह होन्त श्रामदो [ तुम्हारे से होता हुआ या गया ], २ --- युष्माकं सम्बन्धी धनम् तुम्हह केरडं धणु [धन तुम्हारा सम्बन्धी है] यहां पर भ्यस् और आम् प्रत्यय के साथ हम शब्द के स्थान में 'तुम्हहं' यह आदेश किया गया है। १०४५ - अपभ्रंश भाषा में सुष-प्रत्यय के साथ युष्मद् शब्द के स्थान में 'तुम्हासु' यह आदेश होता है। जैसे - युष्मासु स्थितम् = तुम्हासु ठियं [तुम लोगों में ठहरा हुआ ] यहां पर सुप् प्रत्यय के साथ युष्म शब्द के स्थान में 'तुम्हासु' यह आदेश किया गया है। १०४६- प्रपनश भाषा में सि-प्रत्यय परे होने पर अस्मद् शब्द के स्थान होता है। जैसे-तस्य अहं कलियुगे बुर्लभस्य तसु हउँ, कलिजुग दुल्लहहो । अहम् ह यहां पर सिप्रत्यय परे रहते अस्मद् शब्द के स्थान में प्रस्तुत सूत्र से 'ह" यह आदेश किया गया है। में "ह" यह प्रादेश २०४७ प श भाषा में जस् और शस् प्रत्यय परे होने पर अस्मद् शब्द को अहे मौर res ये दो प्रदेश होते हैं । जैसे- वयं स्तोकाः, रिपवः बहवः कातरा एवं भणन्ति । 1 मुग्धे ! निभालय- गगनतलं कति जमा: ज्योत्स्नां कुर्वन्ति ॥ १ ॥ अर्थात्-- हम थोडे हैं और शत्रु बाधक है, इस प्रकार की भाषा कायर लोग बोला करते हैं। मुग्धे ! [हे] सुन्दरि !] देख, गगन तल को कितने लोग प्रकाशित करते हैं? अर्थात् अकेला सूर्य ही गगनमण्डल को प्रकाश प्रदान करता है । अतः अकेलेपन से डरना नहीं चाहिए । www यहां पर - १ वयं ब्रम्हे हम इस पद में जस्-प्रत्यय के आगे होने पर अस्मद् शब्द को अहे यह आदेश किया गया है। दूसरा उदाहरण अम्लत्वं (स्नेह) लावा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि । अथrयं न स्वपरित सुवासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि ||२|| अर्थात् जो परकीय-दूसरे पथिक लोग स्नेह लगाकर चले गए हैं, अवश्य ही वे सुख की शय्या पर नहीं सो सकते। जैसे हम दुःखी हैं, वैसे ही वे भी दुःखी होंगे। यहां पर बयम् ==म्हई [ हम ] इस शब्द में अस्-प्रत्यय परे रहते अस्मद् शब्द के स्थान में अयह आदेश किया गया है। शस का उदाहरण प्रस्मान् पश्यति भ्रम्हे देवखाइ, म्हई देवख विह हम को देखता है ] यहां पर शस प्रत्यय के परे रहते अस्मद् शब्द के स्थान में 'अम्हे' और 'अम्हई' ये दो आदेश किए गए हैं। यहां एक ग्राशंका उत्पन्न होती है कि प्रस्तुत सूत्र में पठित "जस्सी" यह द्वि.. वचनान्त पद है, और "ब्रम्हे अम्हां" ये दोनों पद एकवचनान्त है। ऐसा क्यों ? उत्तर में निवेदन है कि वचनभेद से यहां " यथासंख्यमनुवेशः समानाय् [ सम-सम्बन्धी विधि यथासंख्य होती है। अर्थात् यदि स्थानी और प्रदेश की संख्या समान हो तो वहां पर आदेश क्रम से प्रथम को प्रथम और द्वितीय को द्वितीय, इस प्रकार से यथासंख्य होते हैं।" इस परिभाषा की प्रवृत्ति नहीं हो पाती । १०४८ - प्रपत्र श भाषा में टॉ, हि और अम् इन प्रत्ययों के साथ अस्मद् शब्द के स्थान में मह [म] यह प्रदेश होता है । मह ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है । अतः श्रादेश के ये दोनों * के लिए १००९ व सूत्र देखो |
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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