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________________ १२४ ★ प्राकृत व्याकरणम् ★ चतुर्थपादः fore प्रवृत्ति का निर्देर्शन होना चाहिए था, किन्तु वृत्तिकार ने भिन्न-भिन्न प्रयोगों में जो उस का निर्देश किया है, इसका कारण वृत्तिकार की अपनी स्वतंत्रता ही कहा जा सकता है । ६७१- भागधीभाषा में प्रवर्ण से परे यदि आम् प्रत्यय हो तो उसके स्थान में अनुनासिकान्त ( जिसके अन्त में अनुनासिक हो) और डित (जिसमें डकार इत् हो ) आह यह घादेश विकल्प से होता है । जैसे- स्वजनानां सुखम् यणा सुहं (पने मनुष्यों का सुख ) यहां पर श्राम्-प्रत्यय के स्थान में डा (आ) यह वैकल्पिक आदेश किया गया है। प्रदेश के अभावपक्ष में- नरेन्द्राणाम् नलिन्दाणं (राजानों का यह रूप बनता है। यहां पर शाम को '' यह प्रादेश नहीं हो सका । वृत्तिकार फरमाते हैं कि १११८ वें सूत्र से प्रस्तुत में मागधीभाषा सम्बन्धी नियमों का व्यत्यय (परिवर्तन) हो जाने पर प्राकृतभाषा में भी आम्-प्रत्यय के स्थान में 'वाह' यह श्रादेश हो जाता है। जैसे- १ - तेषाम् ताहं (उनका ), २- युष्माकम् तुम्हाहं (तुम्हारा ), ३ अस्माकम् अम्हाई (हमारा ), ४-- सरिताम् = सरिया ( नदियों का ), ५ - कर्मणाम् कम्माह (कर्मों का) व्यत्यय के कारण यहां पर प्राकृत भाषा के उक्त शब्दों के प्रम्-प्रत्यय को भी डा (मा) यह आदेश कर दिया गया है। 13 ९७२ - मागधीभाषा में अहम् तथा वयम् इन सर्वनाम शब्दों के स्थान में 'हगे' यह आदेश होता हैं। जैसे - १ – अहं शक्रावतार-तीर्थ निवासी श्रीवरहगे शकावदाल-ति-मित्राशी घीवले .(मैं शकावतार नामक तीर्थ स्थान का निवासी बीयर मच्छीमार या मल्लाह हूं), २- वयं सम्प्राप्ताः हमे संपता (हम सम्प्राप्त हैं, प्राप्त कर चुके हैं), यहां पर अहम और वयम् इन दोनों पदों के स्थान में क्रमशः 'हये' यह प्रादेश किया गया है । ::..: ९७३ - मागधी भाषा में जो कुछ कहा गया है यर्थात् मागधी भाषा सम्बन्धी जितने नियम बताए जा चुके हैं, उन से भिन्न मागधीभाषा के जो नियम हैं, वे सब नियम शौरसेनी भाषा के समान ही समझने चाहिए। मात्र यह है कि मागधी भाषा के विधिविधान का ९५८ वें सूत्र से लेकर ९७२ में सूत्र तक बन कर दिया गया है। इसके अलावा शेष सब नियम शौरसेनो के तुल्य ही जानने चाहिए । शौरसेनी भाषा के जिन-जिन विधानों का मागधीभाषा में श्राश्रयण किया जाता है, उन्हें वृत्तिकार उदाहरणों द्वारा स्वयं संसूचित करते हैं। जैसे -- १ -- प्रविशतु प्रातः स्वामि- प्रसादाय पविशदु आवृते शामि पशादाय (स्वामी के प्रसाद (अनुग्रह, या हर्ष) के लिए आयु-भगिनीपति (बहनोई) प्रवेश करें), वि यहां पर शौरसेनी भाषा के ९३१ वे सूत्र से सकार को बकार किया गया है । २ - अरे ! किमेषः "महान् कलकलः ? प्रले कि एशे महन्दे कलवले ? (बरे यह महान कलकल (शोर) क्या है ?, क्यों हो रहा है ?) यहां पर शौरसेनी भाषा के ९३२ में सूत्र से 'महन्दे' इस शब्द के अधोवर्तमान (संयुक्त वर्ण में 1 दूसरे) तकार को दकारादेश किया गया है। ३ - मारवथ वा चरथ वा । घयं तावत् स आगमः - मालैव - वाचलेध वा । श्रयं दावं शे श्रागमे (वह यह भागम (धन आदि का प्रागमन) इतना है, मारो अथवा धारण : करो- रक्खो), यहां पर शौरसेनीभाषा के ९३३ वे सूत्र से 'तावत्' इस अव्ययपद के श्रादिम तकार को कार किया गया है। ४-भी कचुकित ! भो कञ्चु ! (हे रनिवास के रखवाले !, अथवा हे लम्पदा), यहां पर शौरसेनी भाषा के ९३४ : सूत्र से इन् के नकार को आकार किया गया है । ५ भो - राजन् ! =भी रायं ! ( हे नृप I), यहां पर शौरसेनी भाषा के ९३५ में सूत्र से नकार को मकार किया गया है । ६-- एतु भवान् श्रमणो भगवान् महावीरः एदु भवं । शमसे भयवं महाबीले ( आप जाएं। • श्रमण भगवान महावीर), भगवन् ! कृतान्तः, यः आत्मनः पक्षमुज्झित्वा परस्य पक्षं प्रमाणी-करोषि ? . भयवं ! कदन्ते ये अप्पणी पत्रके उज्झिय पलस्स पञ्चकं पमाणी कलेशि ? (हे भगवन् ! ग्राप यमराज
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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