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चतुथंपाद:
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * ९६६-मागधी भाषा में अनादि (जो प्रादि में विद्यमान न हो) छकार के स्थान में तालव्य (जिस का तालु स्थान हो) शकार से प्राक्रान्त (युक्त) चकार होता है। जैसे-१-छ,गच्छ गश्च, गेश्च (तू जा, तू जा), २-उसछालति उचलदि (वह उछलता है), ३- पिशिल:- पिश्चिले (चिकना, रपटन वाला, पूछ वाला), ४-धतिः-पुश्चदि (वह पूछता है) यहां पर 'ई' के स्थान में श्च यह आदेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि लाक्षणिक (लक्षण-व्याकरण सूत्र से निष्पन्ल) छ के स्थान में भी 'इच' यह आदेश हो जाता है। जैसे-१-प्रायम्नवत्सलः-प्रावन्न-वश्चले (जिसे बत्सल पापन्न-प्राप्त है),२-सिकप्रेक्षनेसमिरिच्छि पेचा मागधी भाषा में-तिरिश्चि पे. स्कदि (वह टेढा देखता है), ये रूप बनते हैं। यहां पर स को छ, तिथंक को तिरिस्छि तथा क्ष को छ किया गया है । यह छ लाक्षणिक है,प्रतः इसे 'श्च' यह प्रादेश कर दिया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सत्र में "अनावों (आदि में विद्यमान)' इस पद का ग्रहण क्यों किया गया है। उत्तर में निवेदन है कि छाग:-छाले (बकरा) इस पद में आदिभूत छकार को 'इंच' यह प्रादेश न हो जाए, इस विचार से 'अनावो' इस पद का ग्रहण किया गया है।
९६७-मागधीभाषा में प्रनादि में वर्तमान (विचमान) क्ष के स्थान में जिह्वामूलीय xक यह प्रादेश होता है । जिह्वा के मूल (जड) से उपचारित वर्ण जिह्वामूलीय कहलाता है। जैसे-१-यक्षयके (यक्ष जाति का देवविशेष), २. रामसल कशे (राक्षस, वान-व्यन्तर जाति का देवविशेष), यहां पर के स्थान में जिह्वामूलीय क येह मादेश किया गया है । ध्यान रहे कि यह आदेश पनादिभूत क्ष के स्थान में ही होता है, मादिभूत क्ष को यह आदेश नहीं हो पाताई। जैसे-भय-अलपरा: खय-यलहला (क्षय-प्रलयकाल के जलघर मेध) यहाँ पर'क्ष प्रादिभूत वर्ण है,फलतः इस को जिह्वामूलीय क यह प्रादेश नहीं हो सका।
E-मागधीभाषा में प्रेस और भाचा इन धातुओं के 'क' को सकार से प्राकान्त (युक्त) कंकारादेश होता है । यह ९६७ वें सूत्र से क्ष के स्थान में होने वाले 'जिह्वामूलीयक' का अपवाद सूत्र है। जैसे-१-प्रेक्षते-पेस्कदि (बह देखता है), २-आचकते पाचस्कंदि (वह कहता है), यही पर ९६७ वें सूत्र से क्ष के स्थान में जिह्वामूलीय कम हो कर प्रस्तुत सूत्र में 'स्क' यह प्रादेश किया गया है।
६६.-संस्कृत-ध्याकरण के अनुसार स्थाधातु का जो 'तिष्ठ' यह रूप होता है, मागधीभाषा में इसे 'विष्ठ' वह प्रादेश हो जाता है। जैसे-तिष्ठति विष्ठदि (वह ठहरता है। यहां पर तिष्ठ को 'विष्ठ' यह प्रादेश किया गया है।
९७०-मागधीभाषा में प्रवर्ण से परे इस्-प्रत्यय के स्थान में डित (जिसमें उकार इत् हो) प्राह यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-१-अहम ईदशस्य कर्मणःकारी-हगे न एलिशाह कमाह काली (ऐसे कर्म का करने वाला मैं नहीं हूँ),२-भगवत-शोषितस्य कुम्भः भगदत्त-शोणिदाह कुम्भे (भगदत्त नामक मनुष्य के शोणित-रक्त का घड़ा), यहाँ पर उस-प्रत्यय के स्थान में डाह (आह) यह प्रादेश विकल्प से किया गया है। प्रदेश के प्रभावपक्ष में --भीमसेनस्य पश्चात हिण्यते भीमशेणस्स पश्चायो हिंण्डिीअदि (वह भीमसेन के पीछे घूमता है), २-हिबिम्बाया घटोत्कच-शोकन उपशाम्यति-हिडिम्बाए बडुक्कय-शोके ग उपशमदि (हिडिम्बा (एक राक्षसी, जो पाण्डुपुत्र अर्जुन की पत्नी थी) का घंटोत्कच (हिडिम्बा का पुत्र)-अभ्य शोक उपशान्त नहीं हो रहा है), यहां पर डस् प्रत्यय के स्थान में प्रस्तुत सूत्र से डाह (माह) यह प्रादेश नहीं हो सका। वैसे एक ही प्रयोग में सूत्र की वैक.