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________________ १७४ प्रांत * प्राकृत व्याकरणम् * चतुवपादाः प्रातिपदिक के प्रकार को विकल्प से प्रोकार होता है। जैसे प्रगलित-स्नेहमि सानां योजन-सक्षमपि यातु । वर्ष-शतेनाऽपि यः मिलति सखि ! सौख्याना स स्थानम् ॥१२॥ का स्नेह अगलित-अविनष्ट (स्थायी) होता है, ये लाख योजन को दूरी पर भी चले जाएं. और सौ वर्षों की अवधि के बाद भी उनका मिलन हो तो भी वे सौख्य-सुख के स्थान होते हैं । अर्थात् जिन हृदयों में पारस्परिक अनुराग होता है, वे भले ही लाख योजन दूर बैठे हा. तथा. सौ वर्षों के अनन्तर भी उनका समागम होता हो तथापि उनका सम्मिलन बड़ा सुखप्रद लगता है। इसके विपरीत स्नेह-हीन व्यक्ति प्रशिक्षण भी मिलते रहें तब भी वहां सुखानुभूति नहीं हो पाती। यहां पर प्रस्तुतसूत्र से सि-प्रत्यय परे होने पर यःको बो तथा सः को सो बना कर प्रकार को मोकार किया गया है। यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने पुसि (पुल्लिङ्ग में)" इस पद का ग्रहण क्यों दिया है ? वृत्तिकार इस प्रश्न का उत्तर प्रदान करते हुए फरमाते हैं अङ्गैः अगं न मिलितं सखि ! अधरेण प्रबरः न प्राप्तः। बिका पालाः [नाम सुगर जम्मानेल सुचनामाप्तम् || अर्थात हे सखि ! अपने प्रीतम के अङ्गों के साथ मेरा अङ्ग भी नहीं मिल सका, तथा मैंने अधर से अधर भी प्राप्त नहीं किया । अर्थात् अधर-पान (चुम्बन) भी नहीं हो सका, किन्तु प्रिय के मुखकमल को निहारती हुई मुझ प्रभागिनी का व्यर्थ ही सुरत (काम-क्रीडा) समाप्त हो गया। इस श्लोक में पठित---'अक्षर' शब्द अकारान्त है, तथा इस के प्रागे सिप्रत्यय भी अवस्थित है, किन्तु यह नपुंसकलिङ्गी है, पुल्लिगी नहीं है, ऐसे पुल्लिङ्ग-भिन्न प्रकारान्त शब्दों के प्रकार को सिप्रत्यय परे होने पर प्रोकार न हो जाए. इस दृष्टि से सूत्रकार ने प्रस्तुत में पुसि इस पद का उल्लेख किया है। - १००४....अपभ्रंश भाषा में टा-प्रत्यय के परे होने पर प्रकार के स्थान में एकार का प्रादेश होता है। जैसे-. ये मम बता दिवसाः, दयितेन प्रससा। ताम् गणयन्स्पाः अगुल्यः परिता मखेन ॥१॥ अर्थात-प्रवास करते (विदेश जाते हुए मेरे प्रिय (प्रोतम) ने जो दिन दिए थे, अर्थात "अमुक दिन तक मैं वापिस लौट आऊँगा" ऐसा कहा था, उन दिनों को नाखून से मिलती हुई मुझ भाग्याहोना की अगुलियो जरित हो गई हैं, धिस गई हैं। यहां पर दयित तथा नख शब्द से टाप्रत्याय के परे रहने पर इन के प्रकार के स्थान में प्रस्तुत सूत्र से एकारादेश होने पर दइएं तथा महेरा ग्रह रूप बनता है। १००५-अपभ्रश भाषा में हि-प्रत्यय के साथ प्रकार के स्थान में क्रमशः इकार और एकार ये दो प्रादेश होते हैं। जैसे --- सागरः परि तणानि परति, तसे क्षिपति रत्नामि | __स्वामी सुमृत्यमपि परिहरति सम्मामयति सलान् ॥१॥ अर्थात-सागर-समुद्र जिस प्रकार तिनकों को तो ऊपर रखता है, किन्तु रत्नों (बहुमूल्य पदाों) को नीचे फेंक देता है, इसी प्रकार स्वामी भी अच्छे नौकर को छोड़ देता है और खलो दुष्टों का सम्मान करता है।
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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