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________________ चतुर्थपादः ★ संस्कृत-हिन्दी टीका-द्वयीपेतम् ★ {{ यहां पर तले इस शब्द के ङि-प्रत्यय को प्रकार के साथ इकार और एकार बना करके - तलि तथा तले ये दो शब्द बनाए गए हैं। श्लोक में पठित तले शिपति का सलि घल्लड तथा तले चल्लइ यह रूप होता है । ९००६ देश होता है । जैसे --- भरुभाषा में गुणे : न सम्पत, कीतिः परं फलानि लिखितानि भुञ्जन्ति । केसरी naamraft न लभसे, गजाः लक्षः गृह्यन्ते ||१|| आये होने पर अकार के स्थान में विकल्प से एकारा अर्थात्- गुणों से सम्पत्ति नहीं, किन्तु कीर्ति मिलती है, और सुख, दु:ख आदि फल तो अपने भाग्य के अनुसार ही लिखे हुए मिलते हैं। क्योंकि शौर्य आदि गुणों से सम्पन्न होने पर भी केसरी- सिंह का मूल्य एक कौडी भी नहीं होता, किन्तु हाथियों का मूल्य लाखों रुपये पड़ता है। यहां पर गुणैः गुणहिँ, तथा लक्ष लक्खेहि, इन दो उदाहरणों में भिस् प्रत्यय के परे होने पर प्रकार को एकारादेश विकल्प से किया गया है। १००७ - व्याकरण-जगत में एक नियम प्रसिद्ध है- अर्थात् विभक्ति-परिणामः । मर्थात् प्र .योजन व विभक्ति का परिणाम परिवर्तन कर लिया जाता है, इस नियम के आधार पर प्रस्तुत सूत्र : में वृत्तिकार ने षष्ठ्यन्त पद का पञ्चम्यन्त पद के रूप में परिवर्तन किया है । १००२ में सूत्र से अस्य (प्रकार को इस पद की अनुवृत्ति चली श्रा रही है। यह षष्यन्त पद है। प्रस्तुत में वृत्तिकार को यह पद पञ्चम्यन्त अपेक्षित है। प्रतः वृत्तिकार फरमाते हैं कि “अस्य" यह षष्ठ्यन्त पद पञ्चम्यन्त पद के रूप में परिवर्तित किया जाता है। विभक्ति का परिवर्तन कर लेने के अनन्तर सूत्र का अर्थ होता हैअपभ्रंश भाषा में प्रकार से परे आए इसि प्रत्यय के स्थान में हे धौर हु ये दो प्रदेश होते हैं । जैसेवृक्षात् गृह्णाति फलानि जनः कटु-पहलवान वर्जयति । ततोऽपि महाद्रुमः सुजनो यथा तान् उत्सङ्गे घरति ||१|| अर्थात् - मनुष्य वृक्ष के (मधुर) फलों को तो ग्रहण कर लेता है, किन्तु उस के कटुक (कदुवे) पल्लवों (पत्तों) को त्याग देता है, तथापि सुजन ( श्रेष्ठ मनुष्य) के समान महावृक्ष ( महान वृक्ष ) उन कडुवे पत्तों को भी अपने उत्संग (गोद) में धारण किए रहता है, उनका परिस्थाम नहीं करता । गृह, बह गृह ( वह वृक्ष से ग्रहण करता है) ये दो रूप बनते हैं। यहां प्रस्तुत सूत्र से इसि प्रत्यय के स्थान में है और हु ये दो आदेश किए गए हैं । १००८- अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्द से परे यदि पञ्चमी विभक्ति का बहुवचन भ्यस्: verr पढ़ा हो तो उसके स्थान में 'हूँ' यह प्रादेश होता है। जैसे वृक्षात् गृह्णाति इस वाक्य के रोडूयनेन पतितः खलः श्रात्मानं जनं मारयति । यथा गिरिशृङ्गेभ्यः पतिता शिला मन्यदपि चूर्णीकरोति ॥ २॥ - जैसे पर्वत की चोटियों से गिरी हुई शिला अपना तथा अन्य वस्तुनों का भी विनाश कर डालती है, वैसे ही दूर की उड़ान से अर्थात् बहुत ऊंचे चढ कर यदि खल-दुष्ट व्यक्ति का पतन होता है तो वह भी अपने माप को तथा अन्य लोगों को भी मार डालता है । यहां गिरिभ्यः गिरिसिङ्ग (पर्वत की चोटियों से), इस प्रयोग में प्रस्तुत सूत्र से भ्यस् के स्थान में '' यह आदेश किया गया है ।
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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