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________________ * प्राकृत-व्याकरणम * चतुर्वपादा १०० -- अपभ्रंश भाषा में प्रकारान्त शब्द से परे पाए उस-प्रत्यय के स्थान में सु, हो और स्सु.ये तीन प्रादेश होते हैं । जैसे यो गुणान् गोपयति मात्मीयान प्रकट करोति परस्य । तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य बलोकिये सुजनस्य ॥१॥ अर्थात्-जो मनुष्य अपने गुणों को छिपाता है, और दूसरे के गुणों को प्रकट करता है, कलियुग में ऐसे दुर्लभ (जिस का प्राप्त करना मुश्किल हो) सुजन श्रेष्ठ मनुष्य) के मैं बलिहारी जाता हूं। यहां पर----परस्प रस्तु (दूसरे को -REE - (उस के), ३-दुर्लभस्य- दुल्लहहो (लंभ के),४-सुजणस्य सुअणस्सु (सुजन पुरुष के) इन शब्दों में यथास्थान प्रस्तुत सूत्र से इस्-प्रत्यय के स्थान में 'सु, हो और स्सु ये तीन प्रादेश किए गए हैं। १०१०-अपभ्रंश भाषा में प्रकारान्त शब्द से परे प्राए ग्राम्-प्रत्यय के स्थान में 'ह' यह आदेश किया जाता है । जैसे तृणाना तृतीया भङ्गी नापि तेन प्रवट-तटे वसन्ति । अथ जनः लगित्वा उत्तरति अथ सह स्वयं भज्जन्ति ||१|| '. अर्थात-जो पास कूप प्रादि के किनारे पर पैदा होते हैं, उन की दो ही अवस्थाएं होती हैं, तोसरी अवस्था नहीं होती। वे घास प्रवट-तट (कूप,जलाशय के तट) पर रहते हैं, उन के साथ लगा मनुष्य (उनको पकड़ कर) पार उत्तर जाता है, अन्यथा वे घास डूबने वाले मनुष्य के साथ ही डूब जाते हैं। भाव यह है कि यातो घास मनुष्य को बचा लेता है या फिर उसके साथ ही समाप्त हो जाता है। . : यहां-तरणानाम्-तणह (तिनकों की) इस शब्द में प्रस्तुत सूत्र से पाम् प्रत्यय के स्थान में है यह आदेश किया गया है। १०११- अपभ्रंश-भाषा में इकार और उकार से प्रागे पाए प्राम्-प्रत्यय के स्थान में हूं और है ये दो मादेश होते हैं। जैसे देवं घटयति बने तरूणां शकुनीमा पक्वफलानि । सन्वर सौख्यं प्रविष्टानि माय करयोः खलवचनामि ||१॥ अर्थात-बन में पक्षियों के लिए देव-प्रकृति (भाग्य) ने वृक्षों के फल पैदा कर दिए हैं, उनको खाकर वन में रहना सुखदायक है, परन्तु नगरों में रह कर दुष्टों के दुर्वचनों का कानों में प्रविष्ट होना श्रेष्ठ नहीं है। . . . यहां-१-सहरणाम् -- तस्हुँ, (वृक्षों के), २--शकुनीनाम्==स उणिहूँ (पक्षियों के) इन शब्दों में प्राम-प्रत्यय के स्थान में क्रमशः हुं और हं ये दो प्रादेश किए गए हैं। वृत्तिकार फरमाते हैं कि यहां पर १००० वें सत्र से 'प्रायः' इस पद का अधिकार चला आ रहा है। यहां पर 'प्रायः' शब्द बहुलता' इस प्रर्य का बोधक समझना चाहिए। अतः बहुलाधिकार से कहीं पर सुप-प्रत्यय के स्थान में भी यह मादेश हो जाता है । जैसे घवतः खिचते स्वामिनः रु भरं प्रेक्ष्य । अहं किन युक्तः, योविंशोः खंडे कृत्वा ॥१॥ मर्यात-स्वामिभक्त श्वेत वृषभ अपने स्वामी के महान भार को देख कर विषादयुक्त हो रहा है और मन में विचार करता है कि मेरे दो टुकड़े करके दोनों दिशाओं में (गाडे के दोनों भोर) मुझ
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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