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________________ चतुर्थपादः ★ संस्कृत-हिन्दी टीकाद्वयोपेतम् ★ १७७ hataria at faा गया। यहां पर-द्वयो: दुहुँ (दोनों) इस शब्द में सुप्-प्रत्यय के स्थान में अतसूत्र में प्रायः का अधिकार होने से 'हूं' यह आदेश किया गया है । १०१२ - अपभ्रंश भाषा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों से परे थाए ङसि भ्यस् और कि इन प्रत्ययों के स्थान में यथासंख्य (संख्या के अनुसार, क्रमशः ) हे, हूं और हि ये तीन प्रदेश होते हैं । इस प्रत्यय के स्थान में होने वाले है इस प्रदेश का उदाहरण इस प्रकार है गिरेः शिलातलं तशेः फलं गृहाते निःसामाभ्यम् । गृहं सुक्या मानुषाणां ततोऽपि न रोचतेऽरण्यम् ॥ १ ॥ प्रर्थात् बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक मनुष्य विश्रामार्थं पर्वतों से शिलातल (शिला का ऊपरी भाग वाणपुर) तथा भार्य वृक्षों से फल प्राप्त कर सकता है, तथापि दुःखरूप घर को छोड़कर मनुष्यों को वन में रहना पसन्द नहीं है । यहां पर -- १ - गिरेः गिरि ( पहाड़ से ), २ -- तरी:- तरुहे" (वृक्ष से ) इन शब्दों के असि-प्रtar को प्रस्तुत सूत्र से है यह प्रवेश किया गया है। भ्यस् के स्थान में हुए हूं इस आदेश का उदाहरणतपोऽपि वल्कलं फलं मुनयोऽपि परिधानमशनं लभन्ते । स्वामिन्यः suruकमावरं भृत्याः ति ॥२॥ 'जनार्थ फल प्रा अर्थात् मुनिजन वृक्षों से परिधानार्थ (पहनने के लिए) वल्कल- छाल और प्त कर लेते हैं, इतनी ही अधिकता है कि स्वामिजनों से नौकर लोग आदर प्राप्त कर लेते हैं । भाव यह है कि मनुष्य नौकरी केवल सम्मान की दृष्टि से ही करता है न कि भोजनादि के लिए, क्योंकि भोजन और वस्त्र की समस्या तो किचन मुनि भी बनों से समाहित कर लेते हैं । अथवा- भोजन की समस्या तो वन में भी समाहित हो सकती है, मनुष्य व्यर्थ हो जरा से श्रादर की भूख से विवश होकर अपने श्राप को परतन्त्र बना लेता है। wwwww यहां पर - १ - तकस्यः तरुहुँ (वृक्षों से ) २ - स्वामिस्यः सामिहुँ (मालिकों से ) इन शब्दों में यस के स्थान में हूं यह आदेश किया गया है। डिप्रत्यय के स्थान में हुए हि इस आदेश का उदाहरण" अथ विरल प्रभावः एव फलो धर्मः" अर्थात् निश्चय ही कलियुग में धर्म विरल प्रभाव (जिस का प्रभाव बहुत कम हो ) हो गया है । भाव यह है कि कलियुग में धर्म का प्रभाव (शक्ति) बहुत कम देखने में श्राता है। यहां पर कलौं = कलिहि (कलियुग में) इस शब्द में डिप्रत्यय के स्थान में हि यह आदेश किया गया है। १०१३ - अपभ्रंशभाषा में प्रकारान्त शब्द से परे भाए टान्प्रत्यय के स्थान में ख और अनुस्वार (०) ये दो प्रदेश होते हैं। जैसे—दयितेन प्रवसता दइएं पवसन्तेण (प्रदेश को गए प्रीतम ने) यहां पर टान्प्रत्यय को क्रमशः अनुस्वार तथा रंग ये दो आदेश किए गए हैं। दयितेन प्रवसता यह इलोक का एक हिस्सा है । सम्पूर्ण श्लोक १००४ वें सूत्र में दिया गया है। १०१४- अपभ्रंश भाषा में इकार और उकार से परे आए टा-प्रत्यय के स्थान में एं तथा सूत्रोक्त चकार के कारण ण और अनुस्वार इस तरह तीन प्रादेश होते हैं। एं इस पद का ऍ यह पाठातर भी अन्य प्रतियों में उपलब्ध होता है । श्रतः प्रदेश के ये दोनों प्रकार यथास्थान ग्रहण किए जा सकते हैं । 'ऐं' इस आदेश का उदाहरण affer उष्णकं भवति जगद् वातेन शीतलं तथा । भः पुन अग्निना शीतलः, तस्य उष्णत्वं कथम् ? ॥१॥
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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