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प्राकृत व्याकरणम् ★
चतुर्थपादः
जाता है। सूत्र में पति आदि पद के ग्रहण से खाई आदि निरर्थक निपातों का भी प्रयोग किया जाता है। १०६६ - अपभ्रंश भाषा में यदि तादर्थ्य ( उसके लिए) श्रर्थ द्योत्य (व्यक्त) हो तो १ - केहि २ सेहि, ३-रेसि, ४ र ५ - तो इन पांच निपातों का प्रयोग किया जाता है । जैसेनायक ! एषः परिहासः, अयि ! भण कस्मिन् देशे ? | अहं श्री लव कृते for !, स्वं पुनः अन्यस्याः कृते ॥१॥
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अर्थात् हे नायक ! मुझे बतला, यह परिहास [मजाक] किस देश में होता है ? प्रिय ! में तो तेरे लिए क्षीण हो रही हूं और तू किसी दूसरी प्रेमिका के लिए मर रहा है। यहां पर पठित तब कृतेत के हैं, इन पदों में 'ते' यह पद तादर्थ्य का द्योतक है, अतः इसके स्थान पर 'केहि' इस निपात का प्रयोग किया गया है । वृत्तिकार फरमाते हैं कि इसी प्रकार 'सि' और 'रेसि' इन दोनों निवालों के उदाहरण भी जान लेने चाहिएं। 'तोरण' इस निपात का उदाहरण इस प्रकार है - बृहस्वस्य कृते: बत्त हो तो [ महत्त्व के लिए ] यहां पर पठित 'कृते' यह पद तादय का घोतक है, अतः इस के स्थान में भी 'तो' इस निपात का प्रयोग कर दिया गया है ।
★ अथ प्रत्यय-विधिः ★
१०६७ - पुनथिनः स्वार्थी डुः | ८ | ४ | ४२६ | अपभ्रंशे पुनविना इत्येताभ्यां परः स्वाऽर्थे दु-प्रत्ययो भवति ।
सुमरिज्जइ तं वल्लहउँ, जं बीसरइ मणाउँ । बहिं पुणु सुमरण जा, गज तहो नेहहो कई नाउं ? ॥ १॥ विरषु जुज् नवलाई (३८६४) ।
१०६८ - प्रवश्यमी डॅडौ । ८ । ४ । ४२७ | प्रपत्र शेऽवश्यमः [ स्थाने] स्वायें दें, ड प्रत्येती प्रत्ययो भवतः ।
जिभिन्दिउ नायगु वसि करहु जसु प्रविन्नई ग्रन्नई । मूलि विणgs तु बिणिहे प्रथसे *सुक्कई पण्णई ॥ १ ॥ सन सुप्रसुिह [ ३७६.४] ।
१०६६ - एकशसो डि: । ६ । ४ । ४२८ | अपभ्रंशे एकशरशब्दात्स्वार्थे विर्भवति । सोल- कलंकिग्रहं बेज्जहिं पच्छित्ताई ।
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जो पुणु खण्ड श्रणुविग्रहु, तसु पच्छिते का ?॥१॥
११०० -- डड-डुल्लाः स्वाऽधिक क लुक् च । ६ । ४ । ४२६ । पशे नाम्नः परतः स्वार्थी, डड, डुल्ल इत्येते श्रयः प्रत्यया भवन्ति तत्संनियोगे स्वार्थे क-प्रत्ययस्य लोपश्च । विरहानल जाल - करालि पहिउ पन्थि जं विटुउ । ife of परिग्रहं सो जि विश्र अगिउ ॥ १ ॥ पाठा समुद्रलभ्यते ।