SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थपाद: संस्कृत-हिन्दी- टीका-इयोपेतम★ १८९ २-अम्बिर ३ तुच्छच्छ्र- रोमावलिहे, ४ सुच्छर हासहे. ५ अलहल्लि अहे, ६- तुच्छकायमहनिवास, ७ तहे, पण हे मुहे ये ९ रूप बनाए गए हैं । ङसि प्रत्यय का उदाहरणEnter at garerत्नीयं तयोः परकीया का घृणा । 5 रक्षत लोकाः । श्रात्मानं बालायाः, जाती विषम स्तनौ ॥२॥ - पर्यात - जो स्तन अपने हृदय को फोड़ डालते हैं, वे दूसरों पर कैसे अनुकम्पा कर सकते हैं ? अतः हे लोगो ! अपनी रक्षा करो, क्योंकि इस बाला के स्तन विषम [ भीषण ] हो चुके हैं। यहां पर बालाया:बालहे (लड़की से), इस पद में इस प्रत्यय के स्थान में प्रस्तुत [ २०२१] सूत्र से 'हे' यह प्रादेश किया गया है। १०२२ - अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान विद्यमान नाम प्रातिपदिक से परे थाए यस् और माम् इन प्रत्ययों के स्थान में 'हु' यह प्रादेश होता है । जैसे— rai मृतं यन्मारितः, भगिनि ! अस्मदीयः कान्तः । असज्जिन्ये वयस्याम्यः यदि भग्नः गृहमेष्यत् ॥ १ ॥ अर्थात्-हे बहिन ! अच्छा हुआ, जो मेरा कान्त ( प्रीतम ) युद्ध मारा गया, श्रन्यथा यदि हो [riter aन] कर घर में आता तो मुझे सखियों के मध्य में लज्जित होना पड़ता । : वृत्तिकार फरमाते हैं कि 'वयंसि' इस पद के वयस्याभ्यः [ सहेलियों से ] अथवा वयस्यानाम् [ सहेलियों के मध्य में ] ये दो संस्कृत रूप होते हैं। यहां पर एक स्थान पर स्वस् के स्थान में तथा एक स्थान पर आम के स्थान में 'ह' यह प्रादेश किया गया है । १०२३- अपभ्रंशभाषा में स्त्रीलिङ्ग में [वर्तमान ] नाम प्रातिपदिक से परे आए सप्तमी के एक वचन sea के स्थान में 'हि' [हि] यह आदेश होता है । हि के स्थान पर हि ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है | अतः श्रादेश के दोनों प्रकार यथास्थान ग्रहण किए जा सकते हैं जैसेarrerrarrar [[नायिकया ] प्रियो दृष्टः सहसेति । aft वलय ह्यां गतानि, अर्थानि स्फुटितानि तदिति ॥१॥ अर्थात् काग उड़ाती हुई नायिका के पतिविरहजन्य दुर्बलता के कारण आधे वलय-कंगन पृथ्वी पर गिर पडे और जब उसने अकस्मात् अपने प्रीतम को देखा तो हर्षातिरेक के कारण भुजान के स्थूल होने से उस के आधे कंगन तड़ाक से टूट गए। यहां पर मह्याममहिहि (भूमि पर ) इस शब्द में सप्तमी विभक्ति के एक वचन हि-प्रत्यय के स्थान में 'ह' यह आदेश किया गया है। ★ अथ मनु सक-1 -लिङ्गीय स्यादिविधिः ★ १०२४- क्लीने जस्-शोरि । रयोस् शसो: * ई [३] इत्यादेशो भवति । ४ । ३५३ | अपभ्रंशे क्लोवे वर्तमानान्नाम्नः प see Heefe afल उलई करि गण्डाई महन्ति । प्रसुलहमेच्छण जाहँ भलि ते ण वि दूर गणन्ति ॥१॥ १०२५ - कान्तस्यात उं यमः ४३५४८ अपभ्रंशे बलीबे वर्तमानस्य ककारान्तस्य " इत्यपि पाठान्तरमुपलभ्यते ।
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy