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________________ चतुर्यपादः MAnnnnnn .................. * प्राकृत-व्याकरणम् * चिणइ इति भवति । अयति । जि जये। जि+तिन् । पूर्वबदेव जिणइ इति साध्यम् । एवमेव श्रुणोति । श्रु श्रवने । श्रु+तिन् । ३५.० रेफलोपे, २६० सू शकारस्य सकारे सुरणइ इति भवति । जुहोति । हु दानाऽदनयोः । हु+ति हुणइ, स्तौति । स्तु स्तवने | स्तु+तिब् । ३१६ सू० स्तस्य थकारे थुणा, लुनाति । लून् छेदने । लू+तिम् । प्रस्तुतसूत्रेण णकारागमे, ऊकारस्य च उकारे लुणइ इति भवति । एवमेव पुमाति । पू पबने । पू+तिव्=पुरणा, धुनोति । धूम् कम्पने । धू+तिव्= धुणह इति भवति । बहुलाधिकारात् । बहुलस्याधिकारात् कस्मिश्चित् स्थले सकारागमो विकल्पेन भवति । यथा -- उच्चिनोति । उनका निन्-धातु: उन्मयते दिलिन् । ३४८ सू० लकारलोपे, ३६० सू० चकारद्वित्त्वे, बाहुल्येन वैकल्पिके णकारागमे उचिणा प्रागमाभाचे ९०८ सू० इमारस्य एकारे उच्चेह इति भवति । जित्वा । जि अये । जि+परवा । ४१७ सू० क्त्वः तुण इत्यादेशे, बकल्पिके णकारागमे, ६४६ सू० अकारस्य इकारे, १७७ सू० कारलोपे निरिणकण प्रागमाभावे ९०८ सू० इकारस्य एकारे जेमण इति भवति । जयति । जि+तिन् । वैकल्पिके णकारागमे विणइ भागमाभाये २,०८ सू० इकारस्य एकारे, ९१० सू० प्रकारागमे, संस्कृतव्याकररोन प्रयु-सम्धी अग्रह इति भवति । भूत्वा । शुश्रवणे। श्रु+ क्वा । ३५० सू० रेफलोपे, २६० सू० शकारस्य सकारे, वैकल्पिके णकाराममे, ६४६ सू० अकारस्य इकारे, बत्दा स्थाने तुणादेशे; पूर्ववदेव' तकारलोपे सुणिकच मागमाभावे ९०८ सू० उकारस्य ओकारे सोऊण इति भवति। ★ अथ धातुओं को होने वाली आदेशविधि (ग) * सम् उपसर्ग पूर्वक दिशि आदि धातुओं के स्थान में अप्पाह आदि जो प्रादेश होते हैं, प्रब सूत्रकार उनका निर्देश करने लगे हैं ...५१----सम् उपसर्ग पूर्वक दिशि धातु के स्थान में 'अप्पाह' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे---संविशति-प्रपाहइ प्रादेश के प्रभाव में संदिसइ (वह संदेश देता है) ऐसा रूप बनता है। ८५२-दृशि (दस) धातु के स्थान में-१-नि , २-पेच्छ,३---अवयच्छ, ४-अवयज्झ, ५-वन, ६-सव्यव, क्ल -ओअक्स,-अवल, १०--अधक्षख, ११-पुलोअ, १२-पुला, १३-निम, १४---अबआस और १५-~-पास ये १५ प्रादेश होते हैं। जैसे--पश्यति-निच्छाइ पेन्छ, अवयचछाई, अवयज्झइ, बज्जइ, सव्ववइ, देवखइ, प्रोअक्ख इ, अवकासय, अय-प्रकल इं, पुलोएइ, पुलएइ, निभाई,अवधासइ,पासइ (वह देखता है) यहां दृशि धातु के स्थान में निमच्छ आदि १५ प्रादेश किये गए हैं। वृत्तिकार फरमाते हैं कि निज्झाइ (बह देखता है या निरीक्षण करता है) वह रूप तो निउपसर्ग पूर्वक ध्यं पातु [निध्यायति] से ९११ सूत्र से प्रकारान्त-अनिल स्वरान्त धातु से प्रकार का पागम होने पर बन जाता है। प्रस्तुत सूत्र ने यहां पर कोई कार्य नहीं किया। ८५३-स्पृश धातु के स्थान में-१-फास,२-फस, ३--फरिस, ४ - छिव, ५--- छिह, --- आनुश और आलिह ये सात मादेश होते हैं। जैसे--स्पृशति- फासइ, फंस इ, फरिसइ, छिन, छिहइ, पालुङ्ख, प्रालिहइ (यह स्पर्श करता है) यहाँ पर स्पृश् धातु के स्थान में फास आदि सात मादेश किए गए हैं। ..... १५४.प्र.उपसर्गपूर्वक विशि धातु के स्थान में 'रिस' यह प्रादेश विकल्प से होता है । जैसे---- प्रविशति रिपाइ पादेश के प्रभावपक्ष में पविसइ (वह प्रवेश करता है) यह रूप बनता है । ...५५- उपसर्ग से भागे यदि मृश अथवा मुष् धातु हो तो उसके स्थान में 'म्हुस' यह प्रा
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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