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________________ ★ संस्कृत-हिन्दी टीकाद्वयोपेतम् ★ ४३ ७४९ (जिस का अर्थ गन्ध हो) प्रसृ धातु के स्थान में "महमह" यह आदेश freeप से होता है। जैसे- १ -प्रसरति मालती महमहइ मालई [ मालती (लताविशेष, जिसके फूल बड़े खुशबूदार होते हैं के फूलों के गन्ध का प्रसार होता है। प्रदेश के प्रभाव पक्ष में-२ - मालती - गन्धः प्रसरतिमालाई गन्ध पसरह (मालती लता की गन्ध फैल रही है) यह रूप बनता है। प्रश्न हो सकता है कि सूत्रकार ने गछे (गन्ध) इस अर्थ में ही महमह यह प्रदेश होता है, यह बात क्यों कही ? उत्तर में निवेदन है कि प्रसरति पसरद (प्रसार फैलाव होता है) यहां सामान्य प्रसार अर्थ में भी 'प्रसृ' धातु को 'महमह' यह प्रादेश न हो इस दृष्टि से "गन्धे" यह पद दिया गया है। चतुर्थपादः ७५०-- निस् उपसर्ग पूर्वक सुधातु के स्थान में १--गोहर, २-नील, ३-धाड, ४ - वरहा, ये चार देश विकल्प से होते हैं। जैसे- निस्सरतिणीहरद, नीलह, घाडइ, वरहाडद आदेशों के प्रभाव पक्ष में नीसरह ( वह बाहर निकलता है। यह रूप बन जाता है। ७५१ - जागृ धातु के स्थान में 'जग्ग यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे—जगति जग्गइ, आदेश के प्रभाव पक्ष में जागरड ( वह जागता है) यह रूप होता है । ७५२ - वि और आङ् (आ) उपसर्ग पूर्वक पृङ् (पृ) धातु के स्थान में “आज " यह प्रादेश विकल्प से होता है । जैसे-ष्याप्रियते प्राभड इ प्रदेश के प्रभाव पक्ष में-चावरे ( वह व्यापार करता है) यह रूप बन जाती है। .: ७५३ - सम् उपसर्ग पूर्वक वृद्धि (वृ) धातु के स्थान में साहर श्रीर साहट में दो प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे - संशोति साहरह, साहदूद प्रदेशों के प्रभाव पक्ष में-संबर (वह संघरण करता है, वह समेटता है) यह रूप होता है। ७५४---आङ् (श्रा) उपसर्ग पूर्वक दृड् धातु के स्थान में 'सन्नाम' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे - आवियते सन्मामह आदेश के प्रभाव-पक्ष में- आवर (वह आदर करता है) यह रूप होता है । ७५५ -- उपसर्ग पूर्वक हृ धातु के स्थान में सार यह श्रादेश विकल्प से होता है । जैसेप्रहरति = सारइ श्रादेश के प्रभाव पक्ष में पहरइ ( वह प्रहार करता है। यह रूप बनता है । ७५६ - व उपसर्ग पूर्वक तृ धातु के स्थान में ओह ओर ओरस ये दो प्रादेश विकल्प से होते है । जैसे—अवतरति मोह श्रोरसइ आदेशों के प्रभाव पक्ष में ओअरड (वह नीचे उतरता है) ऐसा रूप बनता है। == ७५७ - शक्लृधातु के स्थान में-१ - चय, २--तर, ३-तीर और ४ पार ये चार प्रदेश होते हैं । जैसे- शक्नोति चयइ, तरइ, तोरइ पारइ प्रदेशों के प्रभाव पक्ष में सक्कड़ ( वह [ कर ] सकता है) यह रूप होता है । त्यज् धातु का भी चयइ यह रूप बनता है । जैसे- त्यजति चयइ ( वह परित्याग करता है, वह छोड़ता है) इसके अलावा, तु धातु का तरह, तीर धातु का तीर तथा पार . धातु का भी पारंइ ऐसा रूप होता है । जैसे-- १ - तरति = तरह ( वह तैरता है), २-तोरयति - तीरक्ष ( वह समाप्त करता है), ३ - पारयति पारे ( वह कार्य समाप्त करता है) भाव यह है कि यह आदि रूप केवल शक्ल धातु के ही नहीं समझने चाहिए, किन्तु अन्य धातुओं से भी ये रूप निष्पन्न होते हैं। : ७५८ - फक्क धातु के स्थान में थक्क यह आदेश होता है। जैसे- फक्कति = थक्कड (वह धीरे-धीरे चलता है। यहां पर फक्क धातु को थक्क यह आदेश किया गया है।
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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