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________________ पूज्य मुनिराजों स्तथा विद्वानों की दृष्टि में : प्राकृत-व्याकरण [प्रथम खण्ड] १. प्रस्तुत पुस्तक प्राकृतव्याकरण की एक महत्त्वपूर्ण टीका है, मुनि श्री ने व्याकरण जैसे शुष्क, गंभीर एवं दुरूह विषय को इतना सरल, सुबोध बनाया है, इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। माचार्य श्री हेमचन्द्र द्वारा विरचित "सिव-हैमशब्दानुशासनम्" का पाठयाँ अध्याय प्राकृतव्याकरण है। इस व्याकरण पर संस्कृत और हिन्दी भाषा में अनेक टीकाएं लिखी जा चुकी हैं। यह टीका उन सभी टीकाओं में अपना विशिष्ट स्थान रखती है, क्योंकि इस में शब्द-साधनिका सरल ढंग से विस्तार के साथ प्रस्तुत हुई है, जो कि प्राकृत भाषा के विद्याथियों के लिए सहायक एवं पथप्रदर्शक के रूप में सिद्ध होगी। प्रसिद्धवक्ता पण्डितरत्न श्री ज्ञानमुनि जी महाराज ने परिश्रम करके प्राकृत भाषा के भण्डार को समृद्ध किया है, जिस से प्राकृत साहित्य-जगत की बहुत बड़ी कमी को पूर्ति हुई है। इसी तरह मुनि श्री जी साहित्य जगत में अपनी प्रतिभा एवं साधना को साकार करते रहेंगे। इसी सद्भावना एवं माशीर्वाद के साथ। प्राचार्यसम्राट् परमश्रद्धेय, पूज्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज, घोड़नकी (महाराष्ट्र) २. प्रस्तुत व्याकरण के प्रारम्भ में-'सागर है यह ज्ञान का' शीर्षक वाली कविता बहुत ही सुन्दर, उपयुक्त एवं प्राकृत भाषा के गौरव को प्रकट करने वाली है। प्रापने प्रकृतव्याकरण पर संस्कृत तथा हिन्दी में टीका रचकर जन-साधारण पर जो उपकार किया है, वह चिरस्मरणीय एवं स्थायी सिद्ध होगा, यह निविवाद है। इस महान परिश्रम के लिए प्रापको कोटिशः धन्यवाद । संस्कृत-प्राकृत-विशारद पण्डित, श्री हेमचन्द्र जी महाराज, लुधियाना। ३. प्राकृत हो, संस्कृत हो, अपभ्रश हो, कोई भी भाषा हो जब तक वह जन बोली के रूप में रहती है, तब तक नदी की धारा की तरह बन्धन-मुक्त रहती है, जिधर धारा बह निकलती है व्याकरण के नियमों में ग्राबद्ध नहीं होती, इसी भाव को सन्त कबीर ने अपने शब्दों में अभिव्यक्ति दी थी कि......"संस्किरत है कूप जल, भाखा बहता नीर" परन्तु ज्योंही कोई बोली साहित्यिक भाषा का रूप लेती है तो वह धीरे-धीरे व्याकरण के नियमों में प्राबद्ध होती जाती है। फलतः उन्मुक्त गति से बहता नीर कूप-जल हो जाता है। प्राकृत भाषा मूलतः मानव की सहज प्राकृत बोली रही है। . *'व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो बचनध्यापारः प्रकृतिः । सनु भन मैत्र या प्राकृतम्'...-रुद्रटकत-काव्यालंकारटीकायो श्री नमिसाधुः ।
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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