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________________ - A merm ......... ... ... . . ..... ... चतुर्थंपादः ★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * मास में जैसे तिलों का अन्त हो जाता है, उसी प्रकार उस बियोगिनी के सुख रूपी तिलों का मन्त हो धुका है, और उस मुस्था-सुन्दरी के मुखपङ्कज [मुखरूपी कमल] पर शिशिर का प्रावास है, वियोग के कारण मुख की कान्ति म्लान हो चुकी है। १-एकस्मिन एक्कहिं (एक में),२---अन्यस्मिन्म न्नहिं (दूसरे में इन दोनों पदों में किप्रत्यय के स्थान में 'हि' यह प्रवेश किया गया है। हषय ! स्कुट सजिव इति कृत्वा कालक्षेपेण किम् ?। पश्यामि हतविधिः कस्मिन् स्थापयति त्वया विना दु:खशतानि ||३|| अर्थात-हे हृदय ! 'तलाक' ऐसा शब्द करके विदीर्ण हो जा, फट जा, तू कालक्षेप[विलम्ब] क्यों कर रहा है ? तेरे विदीर्ण हो जाने पर मैं देखती हूं कि हतविधि-दुर्भाग्य तेरे बिना सैकड़ों दुःखों को कहां स्थापित करता है ? यहां पर कस्मिन् कम् ि। किस में। इस शब्द के लि-गाय के स्थान में प्रस्तुत सूत्र के द्वारा हि' यह आदेश किया गया है। १०२६-अपभ्रंशभाषा में यत, सत् और किम् (जब ये प्रकारान्त बन जाते हैं तब) इन अकारान्त शब्दों से प्रागे पाए इस् प्रत्यय के स्थान में मासु (प्रासु) यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे कान्तः आत्मदीयः हसा सखिके ! निश्चयेन इष्यति यस्य । अस्त्र शस्त्रैः हस्तैरपि स्थानमपि भ्रशयति तस्य ॥१॥ अति-हे *हला सखि ! मेरा कान्त [प्रीतम] जब जिस पर रुष्ट हो जाता है, तब वह उस के निवास स्थान को प्रस्त्रों [फेक के मारे जाने वाले हथियारों] शस्त्रों [बिना फैके मारे जाने वाले हथियारों] और अधिक क्या] हाथों से भी नष्ट कर डालता है। यहां पर... यस्य मासु (जिसके), २-तस्य तासु (उस के) इन दो शब्दों में प्रस्तुतसूत्र से उस्-प्रत्यय के स्थान में 'सु' यह प्रादेश किया गया है। जीवितं कस्य म बल्लभक, बन पुनः कस्य मेहम् ? । वे अपि अवसर-निपतिसे तृणसमे गणयति विशिष्टः ॥२ अर्थात्-जीवन किसे प्रिय नहीं है ? मौर धन किसे इष्ट नहीं है? अर्थात् ये दोनों वस्तुएं सब को प्रिय हैं, इष्ट हैं, परन्तु अवसर प्राने पर विशिष्ट व्यक्ति (महापुरुष) जीवन और धन इन दोनों को तृण के समान ही समझता है, दोनों का परित्याग कर देता है। यहां पर कस्यकासु (किस को) इस शब्द में इस्-प्रत्यय को 'डासु' यह प्रादेश किया गया है। १०३०-अपभ्रंशभाषा में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान-विद्यमान यत्, तत् और किम इन शब्दों से मागे पाए मस्-प्रत्यय के स्थान में मह(महे)यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-१-पस्याः सम्बन्धी mजहे केरउ [जिस नारी का रिश्तेदार],२-तस्याः सम्बन्धी तहे केरउ [उस नारी का सम्बन्धी], ३-कस्याः सम्बन्धी-कहे केरउकिस नारी का सम्बन्धी] यहाँ पर यव आदि शब्दों के उस-प्रत्यय के स्थान में 'हे' यह आदेश किया गया है। १०३१-अपभ्रंश भाषा में यदू और तद इन दोनों शब्दों के स्थान में सि और अम् इन प्रत्ययों के प्रागे रहने पर यथासंख्य-क्रमशः और ये दो मादेश विकल्प से होते हैं । जैसे-प्राङ्गाणे स्त्रियों को सम्बोधित करने का प्रयय । जैसे-भुला शकुम्तले ।।
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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