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________________ ★ प्राकृत-व्याकरणम् ★ चतुर्थपाद: १०६० अपभ्रंश भाषा में 'क्रिये' इस क्रियापद के स्थान में की यह प्रदेश विकल्प से किया जाता है । जैसे— २५६ सतो भोगान् यः परिहरति तस्य कान्तस्य बलिजिये । तस्य वंबेनाsवि मुण्डितं यस्य स्वत्वाटं शीर्षम् ||१|| अर्थात --- जिस ने विद्यमान (सम्प्राप्त) भोगों (भोग्य पदार्थों) का परित्याग कर दिया है, उस कान्त (श्रीतम) के मैं बलिहारी जाती है। जिस का सिर खल्लाट (गंजा) है, उसे तो दैव (भाग्य) ने ही fuse fकया हुआ है । यहां पर किये इस क्रियापद के स्थान में की ( करती हूँ) यह ग्रादेश विकल्प से किया गया है। आदेश के प्रभावपक्ष में साध्यमान अवस्था वाले क्रिये इस संस्कृत शब्द का बलि क्रिये सुजनस्य बलि किज सुण ( मैं सुजन श्रेष्ठ मनुष्य के बलिहार जाता हूं) यह रूप बनता है। यहां पर एक प्रश्न उपस्थित होता है कि वृत्तिकार ने सायमान अवस्था का जो उल्लेख किया है, इसका क्या अभिप्राय है ? उत्तर में निवेदन है कि धात्वर्थं दो प्रकार का होता है। एक सिद्धावस्थापन्न दूसरा साध्यावस्थापन्न | साध्यावस्थापन को साध्यमानावस्थापन भी कहा जाता है। लिङ्ग और संख्या के प्रन्वय ( सम्बन्ध ) से युक्त कृदन्त प्रयोग सिद्धावस्थापन्न घात्वर्थ कहलाता है। जैसे -- पाक ( पकाना ), पटन ( पड़ना) आदि कृदन्त शब्द लिङ्ग और संख्या के अन्वय से युक्त होते हैं । इनमें पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग या नपुंसक कोई न कोई लिङ्ग अवश्य रहता है तथा एक वचन, द्विवचन आदि संख्या भी पाई जाती है । अतः ये शब्द सिद्धावस्थापन्न कहे जाते हैं। इसके विपरीत, जो धात्वर्थ कृदन्त न हो, लिङ्ग श्रीर संख्या के प्रत्यय से भी युक्त न हो वह साध्यावस्थापन्न माना गया है । जैसे-पचति (वह पकाता है)। यह तिङन्त शब्द कृदन्त नहीं है । तथा पुल्लिङ्ग श्रादि धर्मों से भी रहित है। इसलिए इसे साब्यमानावस्थापन्न कहा जाता है। इसी प्रकार "क्रिये" यह क्रियापद भी तिङन्त होने से पुस्त्व भादि धर्मों से रहित है। अतः यह साध्यमानावस्थापन्न शब्द स्वीकार किया गया है। इस दृष्टि को प्रागे रखकर वृतिकार ने - साध्यमान अवस्था वाले क्रिये इस संस्कृत शब्द का उल्लेख किया है। १०६१ - अपभ्रंश भाषा में पर्याप्त ( पर्याप्त होने का भाव, समर्थ, तृप्ति) अर्थ में भू धातु स्थान में यह प्रदेश होता है। जैसे प्रतिगत्वं यत्स्तनयो: Hee न खलु लाभः । afa ! यदि कथमपि त्रुटिवेशन प्रघरे प्रभवति नाथः ॥ १ ॥ अर्थात् है सखि ! स्तनों का प्रतितुङ्गत्व (अधिक ऊंचाई) लाभदायक नहीं है, किन्तु हानिकारक है, क्योंकि मेरे प्रीतम कठिनाई के साथ तथा देरी के साथ ही घर (नीचे का होंठ ) तक पहुंचने में समर्थ हो पाते हैं। भाव यह है कि स्तनों की अधिक ऊंचाई के कारण ही प्रीतम के लिए ग्रधर चुम्बन करना भी कठिन हो गया है । यहां पर पर्याव्यर्थक सू धातु के स्थान में हुव यह आदेश करके प्रभवति का पहुच्च (वह समर्थ होता है, वह तृप्त होता है) यह रूप बनाया गया है। २०१२ - अपभ्रंश भाषा में ब्रूग् (यू) धातु के स्थान में बुब यह आदेश त्रिकल्प से होता है । जैसे-- मूल सुभाषितं किमपि हासि कि पि (कुछ भी सुभाषितसुन्दर उक्ति कहीं यहां पर गूगु धातु को ब्रुव यह प्रदेश विकल्प से किया गया है। आदेश के अभाव पक्ष में
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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