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________________ - चतुर्थपावः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * बहति-अहिऊलइ, पालुङ्खइ प्रादेशों के प्रभावपक्ष में-जहइ (वह जलाता है) यह रूप होता है। ८८०-ग्रहि धात के स्थान में ----वल. २---ोड 3-हर, ४-पड, ५-निरुवार और ६-अहिपाचुअ ये छह आदेश होते हैं। जैसे- गलाति -- बलइ, गेहदहर, पङ्गइ,निस्वारइ, पहि- . पच्चुन्नई (वह ग्रहण करता है) यहां पर हि धातु को बल प्रादि प्रादेश किए गए हैं । ___१८१-प्रहि धातु से प्रागे यदि क्त्वा, तुम और तव्या ये प्रत्यय पड़े हों तो उसे घेत्त यह प्रादेश हो जाता है । जैसे-पस्या का उदाहरण-गहोवा घेत्तुण, घेत्तयाण (ग्रहण करके) बहुलाधिकार के कारण कहीं पर क्त्वा प्रत्यय के परे होने पर भी प्रहि धातु को चेत् यह आदेश नहीं होता। जैसेनहीवा-गेण्हिन, यहां पर घेत् प्रादेश नहीं हुमा किन्तु ८८० सू० से अहि धातु को 'गेह प्रादेश किया गया है। तुम्-प्रत्यय का उदाहरण-ग्रहीतुम्-घेत्तु (ग्रहण करने को), तव्य का उदाहरण-ग्रहीतकाम घेत्तध्वं (ग्रहण करना चाहिए) यहां पर क्त्वा प्रादि प्रत्ययों के परे रहने से ग्रहि धातु के स्थान में घेत् प्रादेश किया गया है। ८८२-यदि क्त्वा, तुम् और लव्य ये प्रत्यय परे हों तो बच् धातु के स्थान में 'बोत्' यह प्रादेश होता है। जैसे-१- उक्त्वा वोलण (कह कर), २-वक्तुम् = वोक्तुं (कहने के लिए),३--वक्तव्यम्-वोत्तब्वं (कहना चाहिए) यहां पर वच् धातु को 'वोत्' यह आदेश किया गया है। ३-वा, तुभ् और तव्य इन प्रत्ययों के परे रहने पर रुद, भुज् और मुच् इन धातुओं के मन्तिम वर्ण को तकार हो जाता है। जैसे-१-हदिस्वारोत्तूण (रो करके), २-रोदितुम् = रोत्तुं (रोने को), ३-रोषितव्यम् - रोत्तब्वं (रोना चाहिए), ४ .... भुक्त्वा भोत्तूण (खा कर), ५---भो. बहम भोतं खाने के लिए),६-भोक्तव्यमा भोत्तब्वं (खाना चाहिए),७-मुक्या मोसूण (छोड़करके),-मोक्तम-मोतं (छोड़ने के लिए) E-मौतव्यम-मोत्तब्वं छोड़ना चाहिए। यहां पर क्त्वा मादि प्रत्ययों के परे रहने पर रुद् प्रादि धातुयों के अन्त्य वर्ण को तकारादेश किया गया है। ८८४-दृश् धातु के अन्तिम वर्ण को आगे पढे प्रत्यय के तकार के साथ द्विरुक्त (जिसे दो बार कहा गया हो, द्वित्त्व) ठकारादेश होता है। जैसे-१-दृष्टा या दळूण (देखकर), २.प्रष्टुम्द छु विखने को), ३-व्रष्टव्यम-दव्य (देखना चाहिए) यहाँ पर प्रस्थय-स्थ तकार के साथ दृश् धातु के श् को ठ यह प्रादेश किया गया है। ५-यदि भूतकालीन (भूतकाल का बोधक), भविष्यत्कालीन (भविष्यत् काल का संसूचक), प्रत्यय तथा सूत्रोक्त चकार के कारण क्त्वा, तुम् तथा तव्य ये प्रत्यय आगे पडे हों तो कृम् (कृ) धातु के अन्तिम वर्ण ऋकार को प्राकारादेश होता है । जैसे-१--अकार्षीत् (लुङ्), अकरोत् (लङ्) अथवा बकार (लि) काहीम (उसने किया था), २-करिष्यति (लट् ) अथवा कर्ता (लुद्) काहिद (वह करेगा), स्वा प्रत्यय का उवाहररण- कृत्वा - क ऊण (करके), तुम् का उदाहरणकर्तुम् - कार्ड (करने के लिए), तव्य का उदाहरण- कर्तध्यम् - कायव्वं (करना चाहिए) यहाँ पर कृ धातु के ऋकार को प्राकारादेश किया गया है। __ ८८६-गम्, इष्, यम् और प्रास् इन धातुओं के अन्त्य वर्ण के स्थान में 'छ' यह अ देश होता है । जैसे-१-गच्छति - गच्छइ (वह जाता है),२-इच्छति । इच्छइ (वह चाहता है), ३-यमति =अच्छा (वह उप राम होता है), ४. प्रास्ते अच्छद (वह बैठता है। यहां पर गम् मादि धातुओं के अन्तिम वर्ण को छ यह प्रादेश किया गया है।
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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