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________________ चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * १२२-ऋपि धातु के स्थान में 'अवह यह ण्यन्त (जिसके अन्त में णि-प्रत्यय किया गया हो) प्रादेश होता है। जैसे-क्रयते प्रवहावेइ (वह कृपा करता है। यहां पर ऋपि धातु को ज्यन्त 'प्रवह यह मादेश किया गया है। ६२३-प्रदीपि धातु के स्थान में---१-सेप्रक, २-सन्दुम, ३-~-पन्धुवक और ४-प्रभुत ये चार मादेश विकल्प से होते हैं। जैसे--प्रदीयते-तेप्रवइ, सन्दुमइ, सन्धुक्कइ, प्रभुत्तइ प्रादेशों के प्रभाव-पक्ष में-पलीवर (वह जलाता है, ऐसा रूप बनता है। ८२४ लुभि धातु के स्थान में संभाष यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे- लुम्यति संभावइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में सुस्मा (वह लोभ करता है) यह रूप होता है। ६२५. क्षुभि धातु के स्थान में खबर और पचह ये दो आदेश विकल्प से होते हैं । जैसे---- भुस्यति खउरइ, पड्डहाइ मादेशों के अभावपक्ष में-खुमा (वह क्षुब्ध होता है) यह रूप होता है । १२६प्राइप्रा) उपसर्ग पूर्वक रभि धातु के स्थान रम्भ और ढक ये दो मादेश विकल्प से होते हैं। जैसे ---आरभते प्रारम्भइ, प्राढवइ प्रादेशों के अभाव-पक्ष में प्रारभा (वह प्रारम्भ करता है) यह रूप बन जाता है। १२७ --उप तथा प्राङ् (मा) उपसर्ग पूर्वक लभि धातु के स्थान में--१-मत, २-पचार और ३. वेलब ये तीन प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-उपालभते भइ, पम्नारइ, वेलवई ग्रादेशों के प्रभाव में-उवालम्भइ (वह उपालम्भ देता है। यह रूप हो जाता है। २८-म्भि धातु के पूर्व में यदि 'वि' यह उपसर्ग न हो तो इस को 'जम्मा' यह आदेश होता है। जैसे- सम्भते जम्भाइ (वह जम्भाई लेता है) यहाँ भि धातु को जम्मा यह आदेश किया गया है। प्रश्न हो सकता है कि सूत्रकार के 'अवे' (वि उपसर्ग से रहित) ऐसा कहने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में निवेदन है कि केलि-प्रसरः विज़म्भते केलिपसरो विनम्भइ (केले का प्रसार सम्बधित होता है) आदि वाक्यों में विपूर्वक जम्भि धातु को नहीं 'जम्मा' यह पादेश न हो जाए, इसलिए सूत्रकार ने 'अवे' इस पद का उल्लेख किया है। भाव यह है कि सम्वर्धन अर्थ में विजम्भ धातु को जम्मा यह प्रादेश अनिष्ट माना गया है। २६-यदि ममि धातु का कर्ता भाराकान्त हो तो (भार से दब कर झुकने अर्थ में) नमि धातु को 'मिस' यह आदेश होता है। जैसे---भाराकान्तो नमति-णिसुढइ (वह भाराक्रान्त हो कर भुकता है) जहां यह अर्थ न हो वहां पर नमति रणवह (बह नमस्कार करता है) यह रूप बनता है। ५३०-वि उपसर्ग पूर्वक श्रमि धातु के स्थान में 'णिव्या'यह आदेश बिकल्प से होता है । जैसे.-.. विधाम्यति-णिवाइ प्रादेश के प्रभाव-पक्ष में वीसमइ (बह विश्राम करता है) यह रूप होता है। २३१-पाक (प्रा) उपसर्ग पूर्वक ऋमि धातु के स्थान में-१-ओहाय, २-उत्थार, ३छुभव ये तीन प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-आक्रमते पाहावइ,उत्थारइ,छुन्दई आदेशों के प्रभावपक्ष में-मक्कमह (वह प्राक्रमण करता है) ऐसा रूप बनता है। ८३२- भ्रमि धातु के स्थान में-१-दिरिटिहल, २-कुण्दुल्ल, ३-ढल्ल, ४---घरकम्म, ५ भन्मस, ...भमब, ७-भमाड, तलबण्ड, 8-मण्ट, १०-म्प, ११-भुम, १२-गुम, १३-कुम, १४-फुस, १५-दुम, १६-दुस, १७-परी और १८ --पर ये १५ प्रादेश विकल्प से होते हैं । जैसे-चमति अथवा भ्राम्यति-दिरिटिल्लइ, दुण्दुल्लइ, पहल्लइ, चक्कम्मइ, भम्मड इ, भमडइ,
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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