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________________ चतुर्थपादा ★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★ ३६३ ये तीन प्रत्यय होते हैं, और इन का सनियोग [सान्निध्य ] होने पर स्वार्थ में किए गए कप्रत्यय का लोप हो जाता है। ध्यान रहे, यदि क-प्रत्यय की अवस्थिति हो तभी उस का लोप होता है, अन्यथा नहीं । श्रर्थात् म और आदि प्रत्यय तो कप्रत्यय के प्रभाव में भी होते हैं। जैसेविरहानल- ज्वाला-करालितः पथिकः पथि यद् [यदा ]] दृष्टः । तद् [ तथा ] मिलित्वा सर्वोः पथिकः स एव कृतः अग्निष्ठः । १।। अर्थात् -- अन्य पथिकों ने त्रियोग रूपी श्रग्नि की ज्वालायों से दग्ध पथिक को जब पथ (मार्ग) में देखा, तो सब पथिकों ने मिल कर उसका वहीं अग्नि-संस्कार कर दिया। भाव यह है कि विरहाग्नि जन्य वेदना जब अपनी चरम सीमा पार कर जाती है तब विरही व्यक्ति के प्राणों को भी लूट लेती है। यहां पर पति१लिक विराग कालिमन्ड २ दृष्टःदिट्ठउ, ३- पाथै: पन्थिमहि ४ कृतः किन उ, ५- अग्निः श्रग्गिदुउ इन पदों में करालित मादि शब्दों से स्वार्थ में अ- प्रत्यय किया गया है। -प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार है-मम कान्तस्य द्री दोषी - महु कन्तहो वे दोनदा [मेरे पीतम के दो दोष हैं ] यहां पर पठित्र दोषी -दोसडा, इस दोष पद में - [ ] - प्रत्यय किया गया है। खुल्ल-प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार है- एका कुटी पञ्चभिः एक्क कुल्ली पञ्चहिँ रुद्धी [ एक कुटिया पांच जनों ने रोक रखी है ] यहां पर कुटी =कुडल्ली, इस शब्द से हल - (उल्ल) - प्रत्यय किया गया है । ११०१ - अपभ्रंश भाषा में -१ - २ (अ), और ३-डुल्ल (उल्ल) इन प्रत्ययों के योगभेद [ योग मेल का भेद भिन्नता अर्थात् प्रत्ययों का भिन्न-भिन्न प्रकार से मेल करने ] से जो '' मादि प्रत्यय बन सकते हैं, वे भी प्रायः स्वार्थ में होते हैं । जैसे-१-अ का उदाहरण enteen a garerत्मीयम् = फोडेनि जे हिघड अप्पण [ जो सपने हृदय की फोड़ डालते हैं ] यहां पर पति- हृवयम् से दध [य] प्रत्यक्ष करके हि [हृदय को ] यह रूप बनाया गया है। यहां पर २६९ सूत्र के द्वारा हृदय शब्द के सस्वर वकार का लोप किया गया है। २ - बुल्लअ [ डुल्ल और इन दो प्रत्यर्थी के योग-मिलाप से बना हुआ प्रत्यय ] का उदाहरण इस प्रकार है-टकः चूर्णी भवति स्वयम् ल चुन्नीहोइ सइ [चूडा स्वयं चूर-चूर हो रहा है ] यहां पर पठित : इससे अ [] यह प्रत्यय करके 'हुल्लड' यह रूप बनाया गया है। [दुल्ल-बल्ल और डड प्रड इन दो प्रत्ययों के संयोग से बने] प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार हैस्वामी प्रसाद सलणं प्रियं सोमा सन्धी वासम् । ड प्रेer arga rat मुम्चति निःश्वासम् ||१|| अर्थात्- नायिका के पति पर उस के स्वामी का प्रसाद है, पूर्ण अनुग्रह है, नायिका पति सलज्ज [लज्जा वाला] भी है, लज्जावश ही अपने स्वामी के प्रदेश का पालन करने से कभी वह मन नहीं राता, वह देश की सीमा पर निवास कर रहा है, उसे देश का पहरेदार बनने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है, उसकी भुजायों में श्रदम्य वल है, युद्ध करने को विलक्षण क्षमता है, इसी क्षमता के कारण वह युद्धार्थ सदा उत्सुक भी रहता है, नायिका के पति के भले ही ये [स्वामिप्रसाद मादि ] गुण हैं, परन्तु नायिका के लिए ये गुण वियोग का कारण बन रहे हैं। इसी लिए नायिका अपने नायक की यह गुणसम्पदा देखकर निःश्वास ले रही है, ग्राहें भर रही है। यहां पर पठित- 'बाहुबलम्' इस शब्द से लडड [उल्ल ड] प्रत्यय करके 'बाहुबलुल्लडा' यह रूप बनाया गया है। यहां पर अम्प्रत्यय
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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