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________________ reennnnn अतुर्मपादः *संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * बजह इति भवति । षण्मुखम् । षण्मुख+पम् । इत्यत्र २६५ सू० षकारस्य छकारे, २५ सू० णकारस्यानुस्वारे,१५७ सू० खकारस्य हकारे,पूर्ववदेव छंमुह इति भवति । ध्यात्वा । ध्यधातुः चिन्तायाम् । ध्ये+परवा । इत्यत्र ६७७ सू० ध्यधातो स्थाने भा इत्यादेदेशे, १११० सू० क्त्वः स्थान इवि इत्यादेशे भाइति इति भवति । एकस्मिन् । एक+डि । ३७० सू० ककारद्वित्वे,बाहुल्येन ४ सूत्रस्थाप्रवृत्तौ,१०२८ सू० : स्थाने हि इत्यादेशे पति इति भवनि ! लाक्षान्दा सादाने ! ला+क्त्वा । उपयुक्त-भाइवि-मदेव लाइव इति साध्यम् । इव । यध्ययपदमिदम् । १११५ सू० इवार्थे नावई इत्यस्य प्रयोगे, २२९ सू० नका रस्य णकारे जावद इति भवति । देवेन देव+या।१५१ सू० ऐकारस्य मह इत्यादेशे, १००४ सू० अन्त्याकारस्थ एकारे,१०१३ सू० टाप्रत्ययस्य अनुस्वारे वा इति भवति । अदितः । घटित+सि । इत्यत्र १९५ सू० टकारस्य उकारे,१७७ सू० तकारलोपे,४३५ सू० स्वार्थ क-प्रत्यये, ११०० सू० स्वार्थे अप्रत्यये कप्रत्ययस्य लोपे च, प्रस्तुतसूत्रेण प्रकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेलीपे घहित इति भवति । बहमुह, भुवन-भयंकर,तेसिम-संकर,णिगड,बडिउमुह छ मुहपनिषत इत्यत्र प्रस्तुतस्य [१००२] सूत्रस्थ प्रवृत्तिर्जाता। *अथ अपभ्रश-भाषा-विधि* महावीर परमेश हैं, करुणा के अवतार, धोतराग अखिलेश हैं, जाएं सब बलिहार। शान्सिसुषा के पुञ्ज हैं, क्षमा क्या साकार, करता हूं प्रभु वीर को, ववत बारम्बार । दयाशील गुरुदेव हैं, मुनिवर आत्माराम, धर्म-दिवाकर जिलमवन,जप तप सब अभिराम । गुरुवर की शुम शरण ले, हिन्दी में व्याख्यान, अपभ्रंश का ध्यान से, करता है "मुनि ज्ञान"। हैमशब्दानुशासन में प्राकृत और शौरसेनी आदि जिन ६ भाषानों का विवेचन किया गया है, उन में अपभ्रंश भाषा का अन्तिम स्थान है। कोषकारों के मत में अपभ्रंश भाषा प्राकृत भाषामों का वह परवर्ती रूप है, जिन से उत्तर भारत को आधुनिक प्रार्य भाषाओं की उत्पत्ति मानी जाती है। प्रस्तुत प्रकरण में अपभ्रंश भाषा के व्याकरण सम्बन्धी विधिविधान का निरूपण किया जा रहा है । प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पंशाची तथा चुलिका-पैशाची इन भाषाओं से अपनश भाषा क्या भिन्नता लिए हुए है ? इस प्रश्न का प्रस्तुत प्रकरण में समाधान किया जायगा। १०००-अपभ्रंश-भाषा में स्वरों के स्थान में प्रायः अन्य स्वरों का आदेश हो जाता है। अर्थात् किसी भी स्वर के स्थान में कोई भी स्वर किया जा सकता है। जैसे ----कश्चित् कन्तु,काच्च (यह मम्पयपद-प्रश्न, हर्ष और मङ्गल का बोधक है),२रिणः- वेण, वीण (केशों की चोटी, गुस)। :
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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