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________________ ..... .... -men-ahe......... . * प्राकृत व्याकरणम् * चतुथपाद: माहुः= बाह, बाहा, बाहु (भुजा), ४--पृष्ठम् = पट्टि, पिडि, पुद्धि (पीट), ५---तृणम् --तणु, तिणु, तृणु (तिनका), ६-सुकृतम् = सुकिदु, सुकिलो, सुकदु (अच्छा काम), ७-क्लिनक: किन्न प्रो, किलिन्नी (घाई), लेखा लिह,ली,लेह (रेखा, लकीर,बाह), गौरीगरि, गोरि (पार्वती, सुन्दसङ्गी), यहां पर स्वरों के स्थान में अन्य स्वरों का आदेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने "प्रायः (आम तौर पर)" इस पद का जो ग्रहण किया है, इस के बल से "अपभ्रंश भाषा में जो विशेष नियम बताए जा रहे हैं"वहां पर भी कहीं प्राकत और कहीं पर शौरसेनी-भाषा के समान कार्य किया जा सकता है। भाव यह है कि प्रस्तुत सूत्रोक्त प्रायः यह पद अपभ्रंश भाषा में भी प्राकृत पौर शौरसेनी भाषा के नियमों को लागू कर देता है। १००१-अपभ्रंश भाषा में सि आदि प्रत्ययों के परे रहने पर नाम-प्रातिपदिक के अन्तिम स्वर को प्रायः दीर्घ और लस्व स्वर हो जाता है। अर्थात् हस्त्र स्वर, दीर्घ और दीर्घस्वर, ह्रस्व स्वर बन जाता है। सि-प्रत्यय का उदाहरण मायकः श्यामलः, नायिका बम्पक-वर्णा । इस सुवर्णरेखा कष-पट्टके बसा || अर्थात कवि नायक और नायिका के वर्ण-गत सौन्दर्य का वर्णन करता हुमा कहता है कि नायक (किसी काव्य का चरितनायक, मुख्यपुरुष) श्याम (कृष्ण) रंग का है और नायिका (काश्य की प्रधान पाश्री स्वामी, भावी, सम्मान : सर्गरंग) वाली है। इन दोनों का सम्बन्ध ऐसा है,जैसे कषपट्टक (सोना परखने के लिए घिसाने के काम में आने वाला काला-पत्थर कसौटी) पर सुवर्ण की रेखा (लकीर) दे रखी हो। यहां पर मायक: बोला तथा प्रयामतःसामला के प्रकार को प्राकार, नायिकावण तथा सुवर्णरेखा-सुवण्णरेह के प्राकार को प्रकार किया गया है । प्रस्तुत सूत्र में प्रायः इस पद का ग्रहण होने से चम्पा-वशी तथा विषयी यहां पर ईकार को इकार नहीं हो सका । आमन्त्रण सम्बन्धी सि-प्रत्यय का उदाहरण नायक! मया स्वं वारितः, मा कुछ वीर्घ मानम् । निद्रया गमिष्यति रात्रिः, शोघ्र भवति विभातम् ॥२॥ . प्रति-नायिका कुपित नायक से कह रही है कि हे नायक ! मैंने तुझे रोका था, यह सत्य है किन्तु लम्बे समय तक अभिमान मत कर,क्योंकि रात्रि तो निद्रा से ही अतीत हो जाएगी, और फिर शीघ्र प्रभात हो जाने वाला है। यहां पर १-पायक ! होल्ल को होल्ला ! (प्रकार को प्राकार), २-वारितः वारिय को पारिया (प्रकार को प्राकार), ३. वीर्घम्वीह को बोहा (अकार को प्राकार), ४-निनया को निहए (माकार को प्रकार) बनाया गया है। स्त्रीलिङ्ग का उदाहरण --- त्रि! मया भरिणता त्वं, माकुर वक्रो दृष्टिम् ! ...: पुत्रि! सकाँ भल्लीर्यमा मारपति हृदये प्रविष्टा ॥३॥ अर्थात--माता अपनी पुत्री को समझाती हुई कहती है कि हे पुत्रि ! मैंने तुझे कहा था कि दष्टि को वक्र-कुटिल (विकारमय) मत कर,क्योंकि पुत्रि! वक्र दृष्टि हृदय में प्रविष्ट होकर सकर्ण (तीक्ष्ण भोक वाले भाले की भांति मनुष्य को मार देती है।
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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