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________________ चतुर्थपाद: ★ संस्कृत-हिन्दी टीका-द्वयोपेतम् ★ १०३ गए हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि सूत्र में तो यह पद किस लिए ग्रहण किया गया है ? उत्तर में निवेदन है कि- १ - उद्वाति वसुमादि (वह ऊर्ध्वं गति करता है), २- नयति नेदि ( वह ले जाता है), ३-- भवति = भोदि ( वह होता है ) प्रादि प्रयोगों में वे और दि ये प्रदेश न हो जाएं, इस उद्देश्य से सूत्रकार ने "तो" इस पद का ग्रहण किया है। इन प्रयोगों में इच् प्रदेश प्रकार से आगे नहीं है। अतः यहां प्रस्तुत सूत्र का कोई कार्य नहीं हो सका । ९४६ - शौरसेनी भाषा में भविष्यदर्थ में किए गए प्रत्यय के परे होने पर 'सि' इसका विकरण होता है। प्रर्थात् धातु और प्रत्यय के मध्य में 'स्थि' यह प्रागम होता है । ६५५ सूत्र से भ विष्यदर्थं प्रत्ययों के प्रादि में हि तथा ६५६ सूत्र से उत्तम पुरुष में भविष्यदर्थंक प्रत्ययों के आरंभ में स्सा और हा इन दोनों का प्रयोग होता है। प्रस्तुत सूत्र से होने वाला सि का प्रयोग इन सब का अपवाद माना गया है। उदाहरण इस प्रकार हैं- १ - भविष्यति भविस्सिदि (वह होगा ), २-करि व्यति रिस्सिदि ( वह करेगा), ३- पतिष्यति गच्छस्तिथि ( वह जायगा), यहाँ पर भविष्यदर्थक प्रत्यय के सादि में रिस का मागम किया गया हैं। ६४७- शौरसेनी भाषा में अकारान्त शब्द से परे ङसि प्रत्यय के स्थान में प्रादो पर प्रादु ये दो डि (जिस में डकार इत् हो) श्रादेश होते हैं। जैसे- १- दूराद् एव दूरादो व्येव (दूर से ही), २- दूराद् = दूरादु (दूर से ) यहां पर ङसि प्रत्यय को आदो मौर मादु ये डित् आदेश किए गए हैं। ६४८ - शौरसेनी भाषा में 'इदानीम्' इस अव्ययपद के स्थान में दाणि यह आदेश होता है । जैसे- अनन्तरकरणीयम् इदानीमाज्ञापयतु आयें ! - मनन्तरकरणीयं दाणि प्राणवेदु प्रय्यो ! (हे मा यें ! इस के अनन्तर क्या करना चाहिए ? अयं माप प्राज्ञा फरमाएं) यहां पर 'इदानीम्' के स्थान में '' यह मादेश किया गया है। १११८ सूत्र द्वारा प्राकृत सादि भाषा-लक्षणों (भाषा सम्बन्धी नियमों) का व्यय होने से प्राकृतभाषा में भी इदानीम् के स्थान में 'दाणि' यह आदेश हो जाता है । जैसे--अन्यामिनीषिम् अन्नं दाणि बोहि (अब दूसरे बोधिज्ञान को यहां प्राकृतभाषा में भी इदानीम् को 'दाणि' प्रादेश कर दिया गया है। ६४६ - शौरसेनी भाषा में 'तस्मात्' इस शब्द को 'ला' यह प्रादेश होता है । जैसे-१-सस्माद् यावत् प्रविशामि - सता जाव पविसामि (इस लिए जब तक में प्रवेश करता हूँ), २- तस्माद अ लमेतेन मानेन वा प्रलं एदिणा मागेण (इसलिए इस मभिमान से बस करो ) यहां पर 'तस्मात्' इस शब्द के स्थान में 'ता' यह प्रादेश किया गया है । Exo- - शौरसेनी भाषा में इकार और एकार के परे होने पर श्रन्त्यमकार से आगे विकल्प से कार का श्रागम होता है। जैसे-इकार के उदाहरण- १ - युक्तम् इवम् जुत्तं निर्म, जुत्तमिणं (यह युक्त अर्थात् ठीक है), २ सहशम् इवम् सरिसं निमं, सरिसमिणं ( यह समान है), एकार के उदाहरण--- १- किम् एतद् कि सरोद, किमेवं (यह क्या है ? ), २ - एवम् एतद् एवं दं, एवमेदं ( यह ऐसे है), यहां पर इकार और एकार के परे रहने पर अन्य मकार को कार का श्रागम विकल्प से किया गया है। www ६५१ - शौरसेनी भाषा में 'एव' (निश्चय, ही) इस अर्थ में 'श्येष' इस निपात का प्रयोग होता है । जैसे- १ - मम एव ब्राह्मणस्य मम य्यैव बम्भणस्स (मुक्त ब्राह्मण का ही ), २- स एव एषः सो व एसो (वह यही है) यहाँ एवार्थ में 'श्येव' इस निपात का प्रयोग किया गया है। शौरसेनी भाषा में निपात को माना जाता है, मतएव प्रस्तुत में य्येव से सिप्रत्यय का लोप हो गया है। ऐसे
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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