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________________ १०२ प्राकृत-व्याकरणम् * चतुर्थपादा १- कथयति कषेदि, प्रादेश के प्रभावपक्ष में- कबि (वह कहता है, २ - नायः णाधो, गाहो ( स्वामी, प्रीतम ), ३- कथम् कथं, कहं ( कैसे), ४- राजपच: राजपधो, राजयहो ( मुख्य सड़क), यहां परवार के स्थान में वैकल्पिक घकार किया गया है। वृर्तिकार फरमाते हैं कि अपवादिभूत (जो पद के आदि में विद्यमान न हो) थकार को ही घकारादेश हो सकता है, अन्य को नहीं। जैसे-१स्थामधामं (ताक्त, शक्ति प्रचलता, स्तम्भन शक्ति), २हतो: पेयो (स्वल्प) यहां पर यकार प्रदि में विद्यमान था, मतः प्रस्तुत सूत्र से इसे घकारादेश नहीं हो सका । न्म ९३६- 'वह' इस अव्ययपद से सम्बन्धित हकार को तथा ६३२ सूत्र से मध्यमपुरुष के बहुवचन के स्थान में विहित 'ह' इस प्रदेश के हकार को शौरसेनी भाषा में विकल्प से धकारादेश होता है । जैसे - १ -- इह ६ध ( यहां पर ) २ - भवथ हो (तुम सब होते हो), ३ - परित्रायष्ये परितायच (तुम संरक्षण करते हो), प्रदेश के प्रभावपक्ष में वह दह, भवब होह तथा ... परित्रामध्ये = परिसाह, ये रूप बनते हैं । यहाँ हकार को धकारादेश नहीं किया गया | ९४० - शौरसेनी भाषा में भूधातु के हकार को विकल्प से भकारादेश होता है। जैसे-१-भवति भोदि, भुवदि, मवदि मादेश के प्रभावपक्ष में होरि, हवदि, हववि ( यह होता है) ऐसे रूप बन जाते हैं। Ex१--- शौरसेनी भाषा में पूर्व इस शब्द के स्थान में विकल्प से 'पुरव' यह प्रादेश होता है । जैसे - १ - अपूर्व नाटकम् - अपुरवं नायं (नाटक-तमाशा भपूर्व-मनोखा है), २- - अपुर्वागयम् श्र पुरवाद (गद=ौषधि पूर्व प्रदभुत है), प्रादेश के अभाव में १---अपूर्व पवम् प्रपुवं पर्द (पद-शब्द अपूर्व अनोखा है), २- अपूर्वा गहन प्रपुण्वागदं ऐसे रूप बनते हैं । = ६४२-शौरसेनी भाषा में क्वाप्रत्यय के स्थान में 'हब' मोर 'पूरा' ये प्रदेश विकल्प से होते हैं । जैसे-- १ - सुरक्षा भविय, भोवरा, हविय, होहूण (हो करके), २--पपढिय पणि (पट करके), ३-रन्स्वा = रमिय, रन्द्रण (खेल करके) प्रादेश के प्रभावपक्ष में- १ - स्वाभोत्ता, होता, २ -- पहिल्या = पढित्ता, ३ – रखारता ये रूप बनते हैं । ६४३ --- और गम् इन धातुओंों से क्त्वाप्रत्यय के स्थान में डि हो) प्र यह प्रदेश विकल्प से हो जाता है। जैसे- १ - कृत्वा कडु अ (जा करके), प्रदेश के प्रभावपक्ष में क्रमशः -- करिय, करिवृत और बन जाते हैं । (जिस का डकार इत्-संज्ञक (कर के), २ गं गच्छ ये रूप ६४४ प्रथमपुरुष के एकवचन के स्थान में ६२८ में गतसूत्र से विहित इच् और एच् इन दोनों श्रादेशों के स्थान में 'वि' यह आदेश होता है । वृतिकार फरमाते हैं कि यहां पर 'वा' इस पक्ष को भ* नुवृत्ति की निवृत्ति समझनी चाहिए। सूत्र के प्रयोग इस प्रकार हैं । १-नमति नदि ( वह ले जाता है), २-मवातिदेदि (वह देता है), ३- भवति = मोदि होदि (वह होता है), यहां पर प्रथम पुरुषीय एकवचन के स्थान में होने वाले इच् आवेश को 'दि' यह आदेश किया गया है। = E४५-- यदि इच् और एच् ये दोनों प्रवेश प्रकार से परे हों तो इनके स्थान में 'दे'तथा सूत्रोक्त चकार के कारण 'दि' यह भावेश होता है। जैसे - १ -प्रास्ते मच्छदे, प्रच्छुदि (वह बैठता है), २गतिगच्छ गच्छदि (वह जाता है), ३ - रमते रमदे, रसदि (वह क्रीडा करता है), ४--क्रियते किज्ज, जिद ( उस से किया जाता है) यहां पर इचादि प्रदेशों को दे और ये दो आदेश किए कट
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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