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________________ चतुर्थपादः * संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * कार के उदाहरण, जैसे----*-विषमः-विसमा (जो सम न ही,असमान,प्रव्यस्थित भीषण, कष्ट जनक), २.-कृशानो ! किसानो ! (हे अग्नि देव !), यहां पर शकार और षकार को सकार किया गया है। कहीं पर वृषाणः-विसानों (सींग) ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। यहां पर प्रश्न उपस्थित होता है कि शकार और षकार के स्थान में सकारादेश तो २६० व सत्र से ही हो सकता था फिर यहां पर यह विधान करने की क्या आवश्यकता थी? उत्तर में निवेदन है कि ९१५ वें सूत्र ने १७७ वे मूत्र से लेकर २६५ वें सूत्र तक सभी सूत्रों द्वारा होने वाले, सभी कार्यों का पैशाचीभाषा में निषेध कर दिया था, अतः इस बाधक सूत्र को बाधित करने के लिए इस योग (सूत्र) की रचना की गई है। ९५१-पैशाचीभाषा में हृदय शब्द के यकार को पकार होता है। जैसे-१-हत्यकम् = हितपक (हृदय, दिल), २-किमपि, किमपि हदये अयं चिन्तयन्ती-कि पि, कि पिहितपके अत्थं चितयमानी (बह हृदय में कुछ भी, कुछ भी अर्थ सोचती हुई), यहां पर यकार को पकार किया गया है । ६८२-पंशाचीभाषा में ' के स्थान में तु' यह मादेश होता है। जैसे-१-कुटुम्बकम् ॥ कुतुम्बकं, आदेश के प्रभावपक्ष में-फुटुम्बकं (परिवार) यह रूप बनता है। ९८३-पैशाचीभाषा में अश्वा प्रत्यय के स्थान में तन यह आदेश होता है। जैसे--- गत्वा-- गन्तून (जा करके), २--रन्त्यामरतून (क्रीडा करके), ३-हसित्वा हसितून (हंस करके), ४.-पकिस्वाम् पठितून (पढ़ करके), ५--कयित्वा कधितुन (कह करके), यहां क्त्या प्रत्यय के स्थान में 'तून' यह प्रादेश किया गया है। ६४--पैशाचीभाषा में 'ष्ट्रा' के स्थान में खून और त्थून ये दो. प्रादेश किए जाते हैं । यह सूत्र ९५३ ३ सूत्र का अपवादभूत सूत्र है । जैसे-नया नद्धन, नत्यून, यहाँ पिछले सूत्र से पस्या के स्थान में "तून प्रादेश होना था, किन्तु उसे बाधकर प्रस्तुत सूत्र ने ष्टा के स्थान में दून और स्थून ये दो मादेश कर दिये हैं। फलतः नसून, नत्थून (नष्ट करके) ये रूप बनते हैं। इसी प्रकार---दृष्टान्तद्धन, तत्थून (देखकर) ये रूप बन जाते हैं। ५-पैशाची भाषा में ये, स्न और इन संयुक्त वण के स्थान में कहीं पर यथासंख्य (संख्या के अनुसार) रिस, सिन और सट ये प्रादेश होते हैं। जैसे-१-भार्या भारिया (पत्नी),२-- स्नातम् - सिनातं (स्नान किया हया), ३-कष्टम्=कसटं (दुःख) यहां पर यं को रिय, स्न को सिन और ष्ट को सट यह प्रादेश किया गया है। सूत्र में पठित कचित् (कहीं-कहीं पर) इस पद को ग्रहण करने का क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए वृत्तिकार फरमाते हैं कि 'शचित्' इस पदग्रहण के कारण-१--सूर्यः-सुज्जो (सूर्य), २-स्नुषासुनुसा (पुत्रवधू), ३-ष्ट:-तिको (देखा हुआ), इन स्थलों में प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति नहीं हो सकी। ९८६---पैशाची भाषा में क्य-प्रत्यय को इय्य यह आदेश होता है। जैसे---पीयते-गिय्यते (उस से गाया जाता है), २- दीयते-दिस्यते (उस से दिया जाता है), ३-रम्यते - रमिय्यते (उससे खेला आता है), ४.--पठ्यते- पठिय्यते (उस से पढ़ा जाता है) यहां पर क्य-प्रत्यय के स्थान में इव्य यह प्रादेश किया गया है। ___९७-पैशांचीभाषा में कुम् (डुकृञ्-कृ) धातु से परे यदि क्य-प्रत्यय हो तो उसके स्थान में और (ईर) यह पादेश होता है। जैसे-प्रथम-ज्यसने सर्वस्य एवं सम्मानं क्रियतेम्म पुधुमतसने सव्वस्स ध्येव संमान की रते (पहले ध्यसन में सबका ही सम्मान किया जाता है), यहाँ पर क्य-प्रत्यय को डोर
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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