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________________ * प्राकृत-व्याकरणम् * चतुर्यपादा पर्यस्तम् । परिपूर्वकः असुधातुः क्षेपे । पर्यस-+ क्त। संस्कृत-नियमेन पर्यस्त+सि इति जाते. पयस्तस्य पल्हत्य, पलोट्ट इति निपात द्वये जाते, पूर्वथदेव पन्हत्य, पलोट्ट इति भवात । २०-हषितम् । हेष्-धातुः अश्वरवे । हेष्+क्त । संस्कृत-नियमेन हेषित+सि इति जाते, हेषितस्य होसमण इति निपातिते, पूर्ववदेव हीसमरणं इति भवति । * अथ निपाल-प्रकरण * निपात शब्द से उन शब्दों का परिग्रहण किया जाता है जिन की उत्पत्ति के किसी नियम का पता न हो तथा जो व्याकरण शास्त्र के नियमोपनियमों से सिद्ध नहीं होते। ऐसे शब्दों का निर्देश पहले ४४५ ३ सूत्र में किया जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में भी कुछ एक निपातों का निर्देश किया जा रहा है.--- ६२६-पाङ् (मा) उपसर्ग पूर्वक कमि भादि धातुभों को क प्रत्यय के साथ ही अप्पुन मादि प्रादेश निपात से ही हो जाते हैं। भाव यह है कि 'अप्फुण्ण प्रादि शब्दों की रचना में व्याकरण के किसी सूत्र को लगाने की आवश्यकता नहीं है अर्थात् ये स्वतः सिद्ध होते हैं। जैसे---१-आहात:-- प्फुण्णो (दबाया हुआ), २-उस्कृष्टम् = सक्कोस (अधिक से अधिक,महान,३-स्पस्टम् - फुडे (व्यक्त, साफ), ४-अतिकान्तः- वोलीणो (व्यतीत हुग्रा), ५-विकसितः दोसट्टो (खिला हुमा), ६---निपातितः-निसुट्टो (गिराया हमा), ७-हाणः-लुग्गो (रोगी), मष्टः-ल्हिक्को (नाश को प्राप्त हुमा), -प्रमन्दः अथवा प्रमुषितः पम्हट्टो (मौजा हा अथवा चोरी किया हुग्रा), पम्हटी शब्द प्रमुबट और प्रभुषित दोनों शब्दों से निष्पन्न हो जाता है। १०-अजितम् विद्वत्त (कमाया हुश्रा), ११-स्पृष्टम्-छित्तं (छुपा हुप्रा), १२-स्थापितम् निमिश्र (रखा हुआ),१३-आस्वावितम् चविखनं (चखा हुआ), १४-सूनम् - लुअं (काटा हुमा), १५ स्थक्तम् अढं (छोडा हुपा), १६-लि. प्तम्-झोसिगं (फेंका हुआ), १७-उत्तम् =निच्छई (निकला हुमा), १५-पस्तम्- पल्हत्य और पलोट्ट (दूर रखा हुआ), फैका हुभा), पर्यस्त शब्द के पक्षहस्थ और पलोट्ट ये दो रूप बनते हैं। १९हेषितम् हीसमण (खंखारा हुआ, घोड़े के शब्द जैसा किया हुआ), यहाँ पर 'अप्फुण्ण मादि निपातों का वर्णन किया गया है। संस्कृत व्याकरण में निपातों को अध्यय मान कर जैसे उनसे सि मादि वि. भक्तियों का लोप किया जाता है, वैसी स्थिति प्राकृत-व्याकरण की नहीं है। क्योंकि प्राकृत व्याकरण ४४६ वें सत्र से लेकर ४५१ वें सत्र तक ही अध्ययों का विधान करता है। ४४६ चे सूत्र में स्पष्ट लिखा है कि "इतः परं ये वक्ष्यन्तै आ पावसमाप्तेस्तेऽव्ययसंज्ञा ज्ञातयाः" इस से स्पष्ट है कि उक्त ४४ सूत्रों में वर्णित शब्द ही अव्ययसंज्ञक होते हैं, अन्य नहीं। इन शब्दों में ४४५ में सत्र में तथा २९वें सत्र में पटित किसी भीट का उल्लेख नहीं है। अतः प्राकृत व्याकरण निपातों को भव्यय स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि निपातों से सि मादि विभक्तियों का लोप नहीं होता। वैसे भव्ययपदों से लो स्यादि विभक्तियों का लोप प्राकृत-व्याकरण को भी इष्ट है। इसीलिए ४४६ वे सत्र से लेकर ४८९ वें सूत्र तक जितने भी मव्ययपद पढ़े गए हैं, उन सब से स्यादि प्रत्ययों का लोप किया गया है। अथ धातूनाननेकार्थकता ६३०-धातयोऽन्तिरेऽपि।।४।२५६ । उक्तावदिन्तिरेऽपि धातवी वर्तन्त । .. .. .
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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