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________________ २३ .. *प्राकृत-व्याकरणम् * . चतुर्थ पादः घटयति-परिवाडे, मादेश के प्रभाव-पक्ष में घोह (वह निर्माण कराता है) यह कप बनता है। २२- प्रयन्त वेष्टि धातु के स्थान में परिवाल' यह प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-वेष्टयति--परिधालेइ प्रादेश के प्रभावपक्ष में बेठे (बह लपेटता या लघेदाता है) यह रूप बन जाता है। ७२३.----वृसिकार फरमाते हैं कि इस सूत्र से पहले के सूत्रों में रिंग की अनुवस्ति ग्रहण की जाती थो, किन्तु यहां से इस की निवृत्ति हो जाती है। कत्र धातु के स्थान में किण' यह आदेश होता है। यदि कन धातु के पूर्व विउपसर्ग हो तो इसके स्थान में 'बके' तथा सूत्रोक्त धकार के कारण कि यह प्रादेश भी हो जाता है। जैसे---१-क्रोणाति किण (वह खरीदता है), २-विक्रोणाति-विक्के इ, विविक्राइ (वह बेचता है। यहां कत्र को किण तथा वि उपसर्गपूर्वक कञ् धातु को के और किण ये दो प्रादेश किए गए हैं। ७२४--भी धातु के स्थान में भा और वोह ये दो प्रादेश होते हैं । जैसे-१-बिभेति भाइ, बीहर (वह डरता है),२-भोतम् भाइ, श्रीहि (डरा हुना) यहां पर भी धातु को भा प्रादि ये दो प्रादेश किए गए हैं। बहुलाधिकार के कारण कहीं पर ये प्रादेश नहीं भी होते । जैसे- भीतः- भीमो (डरा हुमा) यहां पर भी को 'भा' प्रादि प्रादेश नहीं हो सके। ७२५-~याङ् (आ) उपसर्ग-पूर्वक ली धातु के स्थान में अल्ली यह पादेश होला है । जैसे१- आलीयते प्रल्लीप्राइ (वह प्रालिशान करता है, अथवा वह आता है), २ . आलीनः अल्लीणो (आय या यही ती बालकह रोशन्या गया है। ७२६-नि' उपसर्ग-पूर्वक लील-धातु के स्थान में १-गिलीअ, २--रिगलुषक, ३-णिरिग्घ, ४-लुक, ५-लिक्क पोर --हिरक- ये प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-निलीयते-गिलीपाइ, जिलुक्कद, पिरियड, लुक्कइ,लिक्का लिहक्कई देशों के अभावपक्ष में निलिमई (वह छिपता है) यह रूप बनता है। ७२७-वि उपसर्गपूर्वक लीङ् धातु के स्थान में विरा यह आदेश विकल्प से हता है। जैसेविलोपते-विराइ आदेश के प्रभावपक्ष में बिलिज्म (यह विनष्ट होता है) यह रूप बन जाता है। २८-रुघातु के स्थान में इज और रुट ये दो प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे -रोति-- रुजइ, हाई प्रादेशों के अभावपक्ष में वह यह प्रावाज करता है) ऐसा रूप बन जाता है। ७२६. श्रुटि (श्रु) धातु के स्थान में 'हणं यह मादेश विकल्प से होता है। जैसे-शृणोति= हाइ, आदेश के अभावपक्ष में सुणइ (वह सुनता है) ऐसा रूप होता है। पाणिनीय व्याकरण में श्रु श्रवणे धातु पढा गया है जबकि प्राचार्य हेमचन्द्र श्रुटि यह कहकर इसे टित् स्वीकार करते हैं। ७३०-- धूगि (धू) धातु के स्थान में 'धुद यह प्रादेश विकल्प से होता है । जैसे-धुनोतिघुवइ, प्रादेश के प्रभावपक्ष में धुणा (वह काम्पता है) ऐसा रूप बन जाता है। ७३१- भू धातु के स्थान में १-हो, २-हुब और ३-हब ये तीन पादेश विकल्प से होते हैं। जैसे ----१ - भवति होइ हुबइ,हवद (वह होता है),२-भवन्ति होन्ति,हुवन्ति हन्ति(वे होते हैं) यहां भूधातु को हो आदि आदेश विकल्प से किए गए हैं।मादेशों के प्रभावपक्ष में ३-भवति भवइ, यह रूप होता है। ४-परिहीनविभवः परिहीणविहवो जिसकी सम्पत्ति नष्ट हो गई),५.-भवितुम् कसा भविस (होने के लिए), ६-प्रभवति-पभवई (वह समर्थ होता है), ७-परिभवति -परिमन ई (वह पराजय करता है, तिरस्कार करता है)।-सम्भवति संभवइ (वह उत्पन्न होता है) यहां पर
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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