SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * प्राकृत-व्याकरणम् * चतुर्थपादः क्यों कहा? उत्तर में निवेदन है कि-१-चिकित्सति चिइच्छइ (वह चिकित्सा करता है),२-शुगुप्सति दुगुच्छइ (वह निन्दा करता है), यहां दिइनछ तथा बुगुच्छ इन अकारान्त धातुओं से प्रकारागमन हो जाए, इस विचार से सूत्रकार ने "अनतः" इस पद का उल्लेख किया है। १२-चि, जि, थ, हु, स्तु, ल, पू और धूग इन धातुओं के अन्त में णकार का आगम होता है और इन धातुओं का स्वर ह्रस्व हो जाता है। नि धातु का उदाहरण-चिनोति-चिणइ (वह इकट्ठा करता है),जि धातु का उवाहरण - अयति-जिणाइ (बह जय प्राप्त करता है), धातु का उदाहरण--- भूणोति-सुणइ (बह सुनता है), ह धातु का उदाहरण---जुहोति - हुणइ (वह हवन करता है), स्तु का उदाहरण--स्तौतिथूणइ (बह तारीफ करता है), लू का उदाहरण--सुनाति-लुणइ (वह छेदन करता है), पू का उदाहरण-पुनाति -पुणइ (वह पवित्र करता है), धूप का उवाहरण-धुनोति-धुणइ (वह धुनता है, कांपता है), यहां पर चि आदि धातुओं के अन्त में णकार का प्रागम किया गया है और स्वर को ह्रस्व बनाया गया है। बहुलाधिकार के कारण कहीं पर णकार का प्रागम विकल्प से भी होता है। जैसे-१-उरिचनोति =उच्चिणाइ, उच्चे इ [वह (फूलों का) बोटन-तोड़ना करता है], २-जित्वा जेऊण, जिणिऊण (जीत कर), ३-जयति जयइ, जिगइ (बह जीतता है),४---श्रत्वासोऊण, सुणिऊण (सुन करके) यहां पर णकार का प्रागम विकल्प से किया गया है। ★ अथ कर्मभाव-प्रकरणम् * ६१३-न वा कर्म-भावे व्यः क्यस्य च लुक । ८ । ४ । २४२ । च्यादीनां कर्मणि भावे च वर्तमानानामन्ते द्विरुक्तो वकारागमो वा भवति, तत्संनियोगे च क्यस्य लुक् । चिन्वइ, चिरिणज्जह । जिव्वइ, जिणिज्जइ । सुब्वइ,सुरिणज्जइ । हुव्वइ, हुगिज्जइ । थुन्वइ,थुरिंगज्जइ। लुवा, लुणिज्जइ। पुव्वइ, पुणिज्जइ। धुन्वइ, धुरिणज्जइ। एवं भविष्यति। चिविहिइ इत्यादि। ९१४---म्माचेः । ८ । ४ । २४३ । चिगः कर्मणि भावे च अन्ते संयुक्तो मो वा भवति, सत्सं नियोगे क्यस्य च लुक। चिम्मइ, चिब्बइ, चिरिणज्जइ । भविष्यति । चिम्मिहिइ, चिविहिइ, चिरिण हिइ। ६१५-हन्खनोऽन्त्यस्य । ८ । ४ । २४४ । प्रनयोः कर्मभावेऽन्त्यस्य द्विरुक्तो मो या भवति, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । हम्मइ, हरिणज्जइ । खम्मइ, खणिज्जइ । भविष्यति । हम्मिहिइ, हणिहिई । खम्मिहिइ, खरिणहिइ। बहुलाधिकाराद्धन्तेः कर्तर्यपि। हम्मइ, हन्ती. त्यर्थः । क्वचिन्न भवति । हन्तव्वं । हन्तूरण । हो। :: .. ९१६-भभो दुह-लिह-वह-रुधामुच्चातः। ॥ ४॥ २४५ । दुहादोनामन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो भो वा भवति,तत्संनियोगे क्यस्य च लुक वहेरकारस्य च उकारः । दुब्भइ,दुहिज्जइ। लिभइ, लिहिज्जइ । बुब्भइ,वहिज्जइ । रुब्भइ, रुन्धिज्जइ । भविष्यति । दुभिहिद, दुहिहिइ इत्यादि ।
SR No.090365
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorHemchandrasuri Acharya
PublisherAtmaram Jain Model School
Publication Year
Total Pages461
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy