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न्यायाचार्य श्रीयशोविजयजीकृत ग्रंथमाळा ॥
अध्यात्मसार, देवधर्मपरीक्षा, अध्यात्मो पद्, अध्यात्मिकमत खंडन सटीक, तिलक्षणसमुच्चय, नयरहस्य,
नयप्रदीप, नयोपदेश सावचूरि, जैनतर्कपरिभाषा, मानबिंद-आ दश ग्रंथोनो संग्रह.'
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श्रीनावनगर निवासी गृहस्थ शा. श्राणंदजी पुरुषोत्तमदासनी सहायवडे छपावी प्रसिद्ध करनार
श्रीजैनधर्मप्रसारक सजा.
भावनगर.
तुकाराम जावजीचा निर्णयसागर छापखाणामों मळकृष्ण रामचंद्र धानेकरे छापी प्रसिद्ध कीधैं. विक्रम संवत १९६५.
वीर संवत २४३५.
जजजजजजजजजजजजजजजज
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खास
॥ १ ॥
खास सूचना.
वाराणसी विबुधविजयावात न्यायविशारद बिरुद न्यायसुधासुधादीधितिग्रंथंशती ग्रंथेनावाप्त न्यायाचार्यपद श्री मद्यशोविजय महामहोपाध्यायकृत या ग्रंथमाळा: संस्कृत प्राकृतना अन्यासी दरेक साधु साध्वी ने तेमज दरेक पुस्तकजंकार माटे जेट थापवानी बे, तेथी तेना जीज्ञासुए मंगावी लेवा कृपा करवी. जैनलाइब्रेरी वाळाउंए पोस्टेज मोकलीने मंगाववी.
श्री जैनधर्मप्रसारक सना.
जावनगर.
सूचना.
॥ १ ॥
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प्रस्तावना.
স
ग्रंथमाळा एक एवा उत्तम श्रने महान् पुरुषनी करेली बहार पारुवामां श्रावी बे के जे पुरुषना वचननी प्रामाएयता माटे दरेक विधानने घणोज उचो मत बे. ए महापुरुषना समकालीन श्रीमानविजय उपाध्यायजीए श्रीधर्मसंग्रह नामनो अत्युपयोगी ग्रंथ स्वोपज्ञवृत्ति समेत सुमारे पंदरहजार श्लोक प्रमाण संवत १७३८ मां रच्यो छे. ते ग्रंथनी प्रश| स्तिमां श्रा ग्रंथमाळाना कर्त्ता विषे ते साहेब लखे बे के
सतर्क कर्कश धियाखिलदर्शनेषु, मूर्द्धन्यतामधिगतास्तपगन्नुधुर्याः । harti विजित्य पकिपर्षदोऽय्या, विस्तारितप्रवरजैनमतप्रभावाः ॥ तर्कप्रमाणनयमुख्य विवेचनेन, प्रोद्बोधितादिममुनिश्रुतकेवलित्वाः । चक्रुर्यशोविजयेवाचकरा जिंमुख्या, ग्रंथेऽत्र- मय्युपकृतिं परिशोधनाद्यैः ॥ बाल व मंदगतिरपि, सामाचारी विचार ुर्गम्ये । अत्रानूवं गतिमांस्तेषां हस्तावलंबेन ||
“ जे सत्य तर्कथी उत्पन्न थपली तीक्ष्ण बुद्धिवमे समग्र दर्शनोमां अग्रेसरपणुं पाम्या बे, जेओ तप गन्नुमां मुख्य बे, जेमणे काशीमां अन्य दर्शनीयोनी समाचने जीतीने श्रेष्ठ जैनमतना प्रजावने विस्तार्यो के अने जेए
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प्रस्ता
वना
॥
॥
तर्क, प्रमाण अने नयादिकना विवेचनवडे प्राचीन मुनियोनुं श्रुतकेवळीपणुं (आ काळमां) प्रगट बतावी आप्यु | ते वाचक समूहमा मुख्य श्रीयशोविजयजीए या ग्रंथन परिशोधनादि करीने मारा उपर उपकार करेलो . सामाचारी विगेरेना विचारथी मुर्गम एवा आ ग्रंथमा हुँ बाळकनी जेवो मंदगतिवाळो उतां पण तेश्रो (श्रीयशोविजयजी) नाज करकमळना अवलंबनथी गतिवाळो थयो , अर्थात् तेमनाज प्रसादयी आ ग्रंथ रचवाने समर्थ थयो बुं."
उपर प्रमाणे जे महापुरुषनी कीर्तिनो यशपटह तेमना समकालीन धुरंधर ग्रंथकर्ता वगामी गया , तेनो यशवाद करवा माटे हवे अमारे कांई पण विशेष कहेवानी जरुर नथी. ए महापुरुषना करेला अनेक ग्रंथो पैकी हालमा घणाज थोमा हस्तगत थाय बे. आगळ आपेला उपोद्घातमा जणावेली हकीकत उपरथी जाणीशकाशे के तेश्रो साहेबे रहस्य शब्दांकित १०७ ग्रंथो बनाव्या . आ हकीकत नापारहस्य ग्रंथना प्रारंजमा तेश्रो साहेबेज जणावी ने अने न्यायना सो ग्रंथो बनाव्यानी हकीकत तेओ साहेबज प्रतिमाशतक ग्रंथनी प्रस्तावनामांसाव्या बे.आबे समूह शिवाय बीजा पण अनेक ग्रंथो मागधी तेमज संस्कृत भाषामां तेश्रो साहेबे रच्या हशे एबुं अत्यारे लब्ध यता रहस्य शब्द विनाना अने न्यायना विषय विनाना अन्य ग्रंथोथी तेमज तेमणे सादी तरीके जलामण करेला घणा ग्रंथोथी पूरवार थाय . श्रा महापुरुषy बुद्धिकौशट्य कोइ एवा विचित्र प्रकारचें हतुं के ए न्यायखळखाद्य जेवा उर्घट ग्रंथ बनाववा शक्ति धरावता हता, ते साथे गुजराती लाषामां घणी सरल पद्यरचना पण करी शकता हता. एमणे 'जगजीवन जगवालहो' एवा आद्य पदवाळी चोवीशी घणीज सरल नाषामां बनावी बे. गुजराती भाषामां पण अव्यगुणपर्यायना रास जेवी उर्घट रचना
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बनाववाने ते शक्तिमान अया जे. एमनी शक्तिनो श्रनुजव करनारा श्रआधुनिक विधानो एमने अपूर्व शक्ति धारण करनारा माने ने अने ते अक्षरशः सत्य ने. | आवा उत्तम महापुरुषनुं जन्मचरित्र आपq ते खास आवस्यकतावाळु कार्य के परंतु ते श्रेणिबंध उपलब्ध अत्तुं व होवाथी जे प्रकारचें उपलब्ध अश् शक्यु ने ते प्रकारे श्रा प्रस्तावनाने अंत आपवामां आव्यु बे.
आवा महापुरुषोना ग्रंथो प्रकाशमां लाववाथी जैनशासननी अपूर्व प्रजानो अन्य मतवाळाऊने पण नास थ शके जे. आ सजाए ए कार्य बहु वर्षथी हाथ धर्यु जे. ते खाते महान् उपगार श्रीमन्मुनिराज महाराज श्रीवृधिचंदजीनो बे. ते साहेबनी खास प्रेरणाश्री प्रथमं कळिकाळसर्वज्ञ श्री हेमचंाचार्यजीनी कृति बहार पासवानी धारणा अमलमां मुकीने ते , महात्मानुं करेलु श्रीत्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र बहार पामवानुं शरु कर्यु. हालमां ते महाग्रंथ संपूर्ण श्रवा आव्यो बे.y दरम्यानमा तेश्रो साहेबनो करेलो अनिधानचिंतामणि ग्रंथ अवचूरि तेमज शब्दोना अक्षरानुक्रम साथे बहार पाड्यो ने तेमज ते साहेबनीज प्रसादी तरीके श्रीविनयविजयजी उपाध्याये बनावेलुं लघु हैमप्रक्रिया व्याकरण बहार पाड्यु ने हालमां श्रीहरिजन सूरि महाराज अने श्रीसिद्धसेन दीवाकरजीनी कृति तरीके तेमना करेला त्रण त्रण ग्रंथोनी ग्रंथमाळा बहार पामीने अने उमास्वाती वाचक महाराजाने पण नूली जवामां श्राव्या नथी. ए साहेबनी उत्तम कृतिवालो प्रशमरति ग्रंथ अवचूरि तथा टीका सहित उपाववा माटे तैयार करवामां श्रावे . '
१ श्रीसिद्धसेन दीवाकरजीकृत ग्रंथमाळा थोडा वखतमा बहार पडनार छे. छपाय छे.
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प्रस्ता॥३॥
धुरंधर पूर्वाचार्यो अपूर्व ग्रंथो रचीने आपणा उपर जे महान् उपकार करी गया ने तेनो परिपूर्ण लाल तेमना रचेला | वना. ग्रंथो शुधरीते, सुंदर टाइपथी, ऊंचा कागळ उपर उपावीने बहार पाड्या शिवाय जैनवर्ग के अन्य लश्शके एम नश्री. तेथील जैनधर्मनी दरेक जाहेर संस्थाओनी खास अने प्रथम फरज एज बे के तेमणे आ कार्य उपामी ले. ते साथे श्रीमंत गृहस्थो के जेमने पूर्व नवे करेला पुण्योदयश्री लक्ष्मी प्राप्त थने तेमणे ते कार्यमा पूरती सहाय आपवी. ज्ञानदान ए सर्वोत्कृष्ट दान दे अने तेन माटे आ एक परम साधन . आवा ग्रंथो लखाववामां जे खर्च थाय ने ते करतां उपाववामां करतां पण उगे खर्च थाय बे. ते पण जंचा कागळ उपर ने सारा प्रेसमां उपावे त्यारे. तउपरांत एक बीजो लाल ए थाय बे के प्रतो लखवामां लहीया अशुभतानी वृद्धि कर्या करे , जेथी तेनी लखेली दरेक प्रत शुद्ध करवी पके , त्यारे पाववा माटे एक वखत जो पूरतो प्रयास को होय ने तो पनी तेनापरथी जेटली नकलो काढवामां आवे तेमां फरीने तेवो प्रयास करवो पमतो नश्री. जे श्रीमंतो आवा अति लानकारी कार्यमा पोताना अव्यनो उपयोग करता नथी तेमनुं| जव्य निष्फलताने पामे.
आ अने बीजी ग्रंथमाळा विगेरे प्रगट करवानो या सत्ता तरफश्री बेत्रण वर्षथी जे प्रयत्न शरु करवामां आव्यो ने तेमां खास प्रेरणा अने दरेक ग्रंथनी प्रतो मेळवी आपवानी तेमज तेनी प्रेसकोपी तपासी आपवा विगेरेनी दरेक ॥३ ॥ प्रकारनी मदद पन्यासजी श्री आणंदसागरजी महाराजे आपी. अने आपे ने तेमज आपवा कबुल कर्यु ने तेथी आ सजा ते खाते तेमना संपूर्ण आजार तले बे.
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या सजा तरफथी प्रगट थता ग्रंथमां जुदा जुदा गृहस्थो तरफथी प्रव्य संबंधी सहायो आपवामां श्रावी े ते पैकी श्र ग्रंथमालानी ५०० नकलो प्रगट करवा माटे तमाम खर्च श्री जावनगर निवासी गृहस्थ शा श्राणंदजी पुरुषोत्तमदास तरफथी आपवामां आवेल बे. ते संबंधमां पण उपदेशादिनो प्रयास सदरहु पन्यासजी महाराजेज करेलो बे.
ग्रंथमाळामां श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायविरचित अनेक ग्रंथोंपैकी दश ग्रंथो प्रगट करवामां श्राव्या बे. तेमां प्रथम आपला अध्यात्मसार नामना ग्रंथ उपर हालमां पन्यासजी श्रीगंजीरविजयजी महाराजे सुमारे १००० श्लोक प्रमाण टीका रची बे, ते शिवाय बीजी कोइ टीका नथी. चोथो ग्रंथ आध्यात्मिक मतपरीक्षा नामनो स्वोपज्ञ टीका सहित आपेलो बे तेनुं बीजुं नाम आध्यात्मिकमतखंरुन बे. एमां केवळीने कवळाहार न होय एवी दिगंबरीनी मान्यतानुं खंकन बे. आज नामनो आज कर्त्तानो करेलो बीजो मोटो ग्रंथ बे तेनापर पण तेमणेज पोते टीका करेली बे. तेनी अंदर दिगंबरोनी केवळी संबंधी बीजी पण मान्यता विगेरेनुं खंरुन बे. आठमो ग्रंथ नयोपदेश नामनो अवचूरि सहित आपलो बे, ते अवचूरि श्री जावप्रसूरिनी बनावेली े. या ग्रंथ उपर एमणे पोतेज नयामृततरंगिणी नामनी विस्तारवाळी टीका रची बे, तेना उपरथीज संदेपमां या अवचूरि बनाववामां श्रावी बे. या त्रण ग्रंथो शिवाय वाकीना सात ग्रंथो उपर टीका के अवचूरि कांइ पण बनेल जाणवामां नथी. या दश ग्रंथोमां पांचमो ग्रंथ य तिलक्षण समुच्चय नामनो आपेलो वे ते मागधी गाथाबंध बे. बाकीना नव ग्रंथो संस्कृत बे. तेमां पण अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, आध्यात्मिकमत
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प्रस्ता
वना
॥
४॥
अ
परीक्षा अने नयोपदेश ए चार पद्यबंध ले अने बाकीना पांच ग्रंथो (देवधर्मपरीक्षा, नयरहस्य, नयप्रदीप, जैनतर्क परि-|| नाषा, ज्ञानबिंड) गद्यबंध . आ दशे ग्रंथो बहुज उपयोगी .
आ शिवाय आज ग्रंथकर्ताए बत्रीश बत्रीशी (धात्रिंशत् फात्रिंशिका) स्वोपाटीका सहित रचेली ते पण अमारा तरफथीज उपाववानुं शरु करवामां आवेखं बे. या ग्रंथकर्त्ताने लगभग बसें वर्ष श्रयां ने उतां तेमना ग्रंथोनो मोटो जाग अलन्य अझ पड्यो रे तेनु चोकस कारण कही शकातुं नथी तोपण जे कारण कट्पनामां आवी शक्युं ने ते श्रा साथे आपेला ए महापुरुषना जन्मचरित्रमा बताववामां आव्यु बे. एओना करेला ग्रंथोपैकी वर्तमानमा केटला ग्रंथो मळी शकेने अने केटलानां नाम जाणवामां आव्यां ने तेनुं लीस्ट तेमना चरित्रने अंते श्रापवामां आव्युं . ते उपरांत कोइ पण ग्रंथ लन्य के अलन्य कोइ पण मुनिमहाराजना जाणवामां होय तो ते साहेबे ते ग्रंथर्नु नाम विगरे अमने| लखी मोकलवा कृपा करवी के जेथी एवी हकीकतनो संग्रह करीने जैनवर्गना जाणवामां आवे तेम प्रगट करशुं. __ बाटली हकीकत रोशन करीने प्रस्तावनानुं लंबाण न करतां हवे पनी ते महापुरुषर्नु जन्मचरित्र तथा या ग्रंथमाळामां आवेला दशे ग्रंथोमां शुं शुं हकीकत समावेली ने ते संबंधी पन्यासजी श्रीश्राएंदसागरजी महाराजे खखावेलो उपोद्घात् आपवामां आव्यो रे ते तरफ लद आपवा वांचकवर्गने विनंति करीने प्रस्तावना समाप्त करवामां आवे जे. संवत् १९६५. ?
श्रीजैनधर्मप्रसारक सजा. ' कार्तिकशुदि पूर्णिमा.
भावनगर.
॥४॥
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न्यायविशारद न्यायाचार्य श्रीमयशोविजयजीनुं टुंक जन्मचरित्र.
महात्मानो जन्म क्यारे ने कया शहेरमां श्रयो ? तेमना मात पिता कोण हता ? ने कई ज्ञातिना हता ? ए कोइ पण साधनवमे चोक्कस थइ शकतुं नथी. श्रीमान् सुधर्मास्वामीथी चाहया श्रावता मूळपाटे एवं थयेला न होवाथी तेमज जैनाचार्योमां पोतानां चरित्र लखवानी रुढी आत्मप्रशंसादि कारणोथी प्रचलित नहीं होवाथी ए संबंधमां विशेष हकीकत चोक्कसपणे मळी शकती नथी. जो मूळपाटे एवं थया होत तो पट्टावळी विगेरेमांथी केटलीक हकीकत नीकळी शकत, तेमज जो तेमना शिष्य कोइ पराक्रमी नीवड्या होत तो ते पोताना गुरुनुं चरित्र अवश्य लखत; कारण के एवी| रीते पोताना गुरुनुं चरित्र लखवानी प्रवृत्ति तो प्राचीनकालश्री श्रपणामां चाली आावती देखाय बे. श्री ही रसौभाग्य काव्य | विजयप्रशस्ति काव्य इत्यादि अनेक चरित्रात्मक काव्यो तेनां साक्षीभूत बे. या महात्माना चरित्र संबंधी कांइ कांइ हकीकत खाद्यखंकन, प्रतिमाशतक ने बत्तीसा बत्तीसीनी प्रशस्ति विगेरेमांथी मळी आवे के परंतु ते एवी शृंखला बद्ध नथी के जेथी एमनुं श्राखुं चरित्र जोमी शकाय तेमज तेमना करेला संख्याबंध ग्रंथोंपैकी जे जे लच्य बे ते सघळा एकता करी तेनी प्रशस्ति तेमज रचना विगेरे तपासी कोइए पए एवी हकीकत संपूर्ण एकत्र करी नथी के जेथी श्र | चरित्र लखवामां ए सहायभूत थइ परे तेमज कृतिमां पण पहेली कइ अने पीनी कश् ते जाणी शकाय.
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श्रीमद्य०
॥५॥
प्रमाणे बतां पण एटलुं तो चोक्कस कही शकाय बे के ए महात्मा श्रढारमा सैकाना पूर्वविभागमां विद्यमान हता, अने तेमनी केटलीक गुजराती पद्यरचनामां मारवामी जाषाना शब्दो दृष्टिगत थता होवाथी ते साहेबनी जन्मभूमि मारवारुमां होय अथवा ते तरफ विशेष विहार होय एम पण जणाय बे. बीजां साधनो तपासतां एमनो विहार गुजरात अने काठीयावारुमां तो जरुर थयेलो बे, ए पण चोक्कस नीकली आवे छे. श्रीशांतिदास शेठना आग्रहथी धर्मसंग्रह ग्रंथ श्रीमानविजयजी उपाध्याये रचेलो के अने श्रीमद्यशोविजयजी महाराजे शोधी आप्यो बे. ते ग्रंथनी प्रशस्तिमां ए रचना अमदावादमां करेली होवानुं जणाव्यं बे तेथी ए बात सिद्ध थाय वे. वळी एक वखत श्रीपाटणमां श्रीमद्यशोविजयजी, मानविजयजी ने रामविजयजी एक साथे जुदे जुदे उपाश्रये चतुर्मास रह्या हता, तेमां उपाध्यायजीनुं व्याख्यान तो द्रव्यानुयोगगर्जित चालतं होवाथी तेमना व्याख्यानमां श्रोतानी संख्या थोमी थती हती अने श्रीरामविजयजीनी व्याख्यानकळा जनमनरंजनकारी होवाथी त्यां श्रोतार्जुनी जीम यती हती. एक दिवस तेमनी व्याख्यानकळा जोवा | सारु उपाध्यायजी महाराज पोते त्यां पधार्या हता, इत्यादि चाली आवती दंतकथा उपरथी एउनो विहार गुजरातमां विशेष थयो छे एम पण पूरवार थइ शके बे.
श्री महावीर स्वामी जगवंते दीर्घायुष आदि कारणोथी श्री सुधर्मास्वामी ने गानी अनुज्ञा श्रापी न सोंप्यो तेमनी एकसठमी पाटे श्रीविजयसिंह सूरि थया बे. तेमनी अनुज्ञाथी मुनिवर्गमां प्रवेश पामेली शिथिलता दूर करवा सारु श्री सत्यविजयजी महाराजे क्रिया उच्चार कर्यो तेमनी साथे या महापुरुष पण सहायक हता तेवो उलेख " जास हित
जन्मच०
॥ ५ ॥
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शीखधी मार्ग ए अनुसर्यो” इत्यादि वाक्योधी नीकळी शके ले. तेथी अने श्रीविजीयसिंहसूरि संवत १७०७ मा स्वर्गवास श्रयेला होवाथी सत्तरमा सैकाना प्रांतनागमां श्रा महापुरुषनो जन्म अने अढारमा सैकाना पूर्वार्धमा एमनो विहार होवा- पुरवार थर शके बे. | एमनी पट्टपरंपरा तपासवामाटे वधारे दूर जवानी जरुर रहेती नथी. कारणके ए श्रीहीरविजयजीसूरिना संतानमांज श्रयेला . श्रीहीरविजयजीसूरिना शिष्य उपाध्याय श्रीकल्याणविजयगणि, तेमना मुख्य शिष्य पंमित श्रीलानविजयगणि, तेमना मुख्यशिष्य पंमित श्रीजीतविजयगणि, तेमना गुरुलाइ पंमित श्रीनयविजयगणि अने तेमना चरणकिंकर महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी श्रया . एन साहेबे दीदा क्यारे लीधी अने एमने उपाध्यायपद क्यारे श्रापवामां । श्राव्यु एनो संवत कोइ जग्याए मळी शकतो नथी. परंतु एमणे बाल्यावस्थामां ब्रह्मचारीपणेज चारित्र अंगीकार कर्यु हशे एवं एमनी पुष्कळ चमत्कारवाळी कृति सूचवे . | ए साहेब श्रीसत्यविजयगणि, श्रीविनयविजय उपाध्याय अने आनंदघनजी महाराजना समकालीन हता ए तो
किस बे. श्रीविनयविजय उपाध्याय एमना काकागुरु यता हता. चारित्र लीधा बाद धर्मशास्त्रनुं ज्ञान मेळवतां संस्कृत लाषानो अने न्यायशास्त्रनो विशेष अन्यास करवानी उत्कंग श्रतां ते साहेब काशीमां अभ्यास करवा गया हता. ए हकीकत तो अनेक लेखो उपरथी नीकळी शके जे. ते वखते तेमनी साथे श्रीविनयविजय उपाध्याय हता एम केटलाक कहे जे अने केटलाक तेमना गुरुज साथे हता एम बतावे . आबे हकीकतमां का हकीकत सत्य जे ते चोक्कस कही
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श्रीमद्य
जन्मच
॥६॥
|| शकातुं नथी. काशीमां श्रन्यास करावनारा पंमितो ब्राह्मणजातिना हता अने ते जैनमति प्रत्ये फेषबुद्धि धरावता हता. बतां तीव्रबुद्धि, गुरुनक्ति तेमज विनयगुणनी प्राधान्यता विगेरे कारणोथी एमणे पोताना अध्यापकनी सारी प्रीति संपादन करी हती अने तेने परिणामेज एजे साहेब पूरतो अन्यास करी शक्या हता. काशीमा प्रथम तेमने || 'न्यायविशारद' एq बिरुद श्रापवामां आव्यु हतुं अने न्यायसंबंधी सो ग्रंथो रच्या बाद अन्य मतना सर्व विधानो तरफथी। 'न्यायाचार्य' नुं बीरुद मळ्युं हतुं. आ हकीकत जैनतर्कपरिलाषा ग्रंथनी प्रशस्ति उपरथी स्पष्ट रीते नीकळी आवे जे. __काशीमां अन्यास करीने आव्या बाद तेमणे धर्मशास्त्रनो अत्युत्कृष्ट श्रन्यास को हतो परंतु तेमने अध्ययन करावनार धुरंधर गुरु कोण हता ते जाणी शकायुं नथी. खास करीने क्योपशमना बळवंतपणाथी तेमज विनयादि गुणना अतिशयपणाथी तेश्रोनुं ज्ञान अत्यंत स्फुरायमान अयुं हतुं. तेमनी प्रबळ ज्ञानशक्तिना कारणथी जैनवर्गमां पण तेमन महत्व बहु वृद्धि पाम्युं हतुं, तेवा वखतमां काशीमां जेनी पासे अन्यास करेलो ते विद्यागुरु आर्थिक स्थितिनी मंद
ताना कारणथी खन्नातमा तेमनी पासे आव्या हता ते वखते तेमनो बहु सत्कार करवा उपरांत तेमने एक सारी रकम MI(३६०००) पण गुरुदक्षिणा तरीके श्रीसंघे आपी प्रसन्न कर्या हता.
आ वखतमां जिनप्रतिमाने नहि माननार ढुंढकमतनी स्थिति कांक प्रबळ जणातां उपाध्यायजी महाराजे प्रतिमा शतक नामनो ग्रंथ स्वोपज्ञ टीकावाळो रची तेमना उपर प्रबळ असर करी हती, जेथी ते तेमनापर बहु गुस्से श्रया हता. उपाध्यायजी महाराजे तेमनाथी किंचित् पण मर न खाता बींबमीना रहीश शा मेघजी दोशी विगेरे गुजराती
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जापाना श्रन्यासी माटे वीरस्तुतिरूप दंगीन स्तवन (१५० गाथार्नु) बनाव्यु हतुं तेना उपर श्रीपद्मविजयजी महाराजे घणाज विस्तारथी बाळावबोध करेलो ने अने ते श्रीप्रकरणरत्नाकर जाग त्रीजामा उपायेल पण वे. । ढुंढकोनी प्रबळता साथे ए समयमा क्रियामार्गमा शिथिळ थयेला यतिनी संख्या अने प्रबळता पण विशेष जणाय के. एजे साहेबना दिखमा आथी बहुज खेद अयो जणाय ने अने तेथीज श्रीसीमंधर स्वामीनी स्तुतिरूप सवासो गाथार्नु स्तवन बनावीने तेमणे पोताना हृदयनो उत्जरो बहार काढ्यो बे. सामात्रणसें गाथाना स्तवननो टबो श्रीज्ञानविमळसूरिए तेमज श्रीपद्मविजयजी महाराजे बंनेए पुरेलो . ते पैकी श्रीपद्मविजयजीवाळा टवा सहित ए स्तवन उपायेलुं . सवासो गाथा- स्तवन पण अर्थ सहित उपायेल जे. शुध मार्गना खपीने माटे ए स्तवन बहु वांचवा लायक . | श्रीसत्यविजयजी पन्यासनी साथे एजे साहेबे पण क्रियानमार करेलो जणाय .. यतिनो समुदाय अने ढुंढक मतवाळा एमनापर एटला बधा अंतरष धरावनारा हता के तेले कोइ पण प्रकारे तेमना महत्वनी वृद्धि जोश शकता नहोता. एमने मात्र बसें वर्ष थयों वतां एजे साहेबना करेला संख्याबंध ग्रंथोमांथी बहु जुज ग्रंथोज हस्तगत थाय ने तेनुं कारण पण एमनो क्षेषज जणाय बे.
अध्यात्मरसना रसीया श्रीआनंदघनजी महाराज तेमना समकालीन हता एटलुंज नहीं पण तेमनाथी उपाध्यायजीने अध्यात्म संबंधी केटलोक लान पण मळ्यो हतो एम जणाय ने अने तेथीज तेमनी कृति तरीके गणाती श्रीआनंदघनजीनी स्तुतिरूप अष्टपदी ते साहेबे रची हशे एम जणाय जे. श्राने माटे विशेष खात्रीलायक हकीकत मळी शकती नथी.
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श्रीमद्य
जन्मच.
॥७॥
श्रा महात्मा श्रीविनयविजय उपाध्यायना समकालीन हता तेनी पूरवारी तो श्रीविनयविजयजी महाराजे रचवा मांमेलोश्रीश्रीपाळराजानो रास तेमना काळधर्म पामवाथी अपूर्ण रहेलो ते उपाध्यायजी महाराजे पूरो कर्यो , तेथी चोक्कस मळी श्रावे . श्रीविनयविजयजी महाराज पण प्रबळ विधान हता. तेमना करेला श्री लोकप्रकाश, शांत सुधारस, कटपसूत्रनी सुखबोधिका टीका अने खघुहैम प्रक्रिया व्याकरण स्वोपन टीका (३५००० श्लोक प्रमाण) सहित विगेरे ग्रंथो दृष्टिगोचर श्राय बे. गुजराती जापामां पण तेमणे पुण्यप्रकाश-स्तवन अने उपर जणावेल श्रीपाळराजानो रास रचेलो .
उपाध्यायजी महाराजना रचेला ग्रंथो पैकीन्यायखमखाद्य, न्यायालोक अने कम्मपयमीनी टीकानी प्रतो तेमना हाथनी लखेली मळी श्रावे . वैराग्य कट्पलतानी प्रत तेमणे हाथे सुधारेली मळी श्रावे , धर्मसंग्रह ग्रंथ श्रीमानविजय उपाध्याये रचेलो तेमणे सुधारी प्राप्यो ने ते असल प्रत मळी शकी जे. श्री लोकप्रकाश ग्रंथनी प्रत नीकोराना जंडारमा हती ते तेमणे लखेली अथवा सुधारेली एम सांजळ्यु जे. ज्ञानसारना टबानो खेख पण एक जग्याए वे ते तेमना हाथनो खखेखो कहेवामा श्रावे . टुंकी जींदगीमां पण एमणे शासननो उपकार तो पारावार करेलो अनुनववामां आवे के. । उपाध्यायजीमहाराजनुं संस्कृत अने मागधीनापार्नु तेमज नय, निदेप, प्रमाण, सप्तनंगी विगेरेनुं धर्म संबंधी सूक्ष्म ज्ञान एटलुं बधुं उंचा प्रकारचें हतुं के जेनी साक्षी तेमना रचेला अपूर्व ग्रंथोज आपे जे. जैनन्यायमांतो ते अन्तिीय प्रवीण हता. श्रावीरीते युगप्रधान तुट्य अपूर्व विधान होवाश्रीज तेमने श्रुतकेवळीनी उपमा श्रापवामां श्रावी ,अने ते उपमा
॥
॥
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वास्तविक ने ऐवं तेममा ग्रंथना अन्यासीनो अत्यारे पण कहे जे. व्यवहार अने निश्चय स्वरूप एउ साहेबे पोताना ग्रंथमा बहुज सारी रीते स्पष्ट करेलुं जे. एमना रचेवा ग्रंथोनी अंदर अपूर्व कवित्वशक्ति, वाक्पटुता, पदलालित्य, अर्थगौरव, रसपोषण, अलंकारनिरूपण तेमज परपर्खन अने स्वपक्षमान स्थाने स्थाने दृष्टिगोचर थाय जे. एमनी तर्कशक्ति तेमज समाधान करवानी शक्ति अपूर्व जणाय ले. पूर्वाचार्यप्रणीत अनेक ग्रंथोमा तेमज सूत्र श्रने टीका विगेरेमा ५ जुदी पती अनेक बाबतोनां समाधान एमणे बहु युक्ति पूर्वक करेला बे; तथा तेए सिझतनी शंकाउनु समाधान करवा माटे 'सिधांत तर्क परिष्कार' ग्रंथ कर्यो कहेवाय ने अने एमनांवचन अत्यारे खास प्रमाणभूत मानवामां आवे ने..
श्रमदावाद, पाटण, सिधपुर, खंजात, रांदेर, भरुच, मजो विगरे स्थळोए एमणे विहार कर्यानी हकीकत मळी श्रावे . ए प्रमाणे सुमारे बे खाख श्लोकप्रमाण अनेक ग्रंथो रची, अनेक जीवोने प्रतिबोध पमामी, अनेक परवादीउने जीती, जैनशासननो जयध्वज सर्वत्र फरकावी ए महात्मा संवत् १७४५ ना माघशुदि ५ वसंतपंचमीए श्रीडनोमा स्वर्गवासी थया जे. एनी निशानी तरीके त्यां तेमनी चरणपाएका स्थापेली . हालमां तेनो जीर्णोद्वार पण कराववामां श्राव्यो बे. आवा जैनशासनमा स्तंन तुट्य महात्मानी पाउका पण वंदन करवा सायक ले. जैनबंधुओए अवसर पामीने तेनो खान खेवो योग्य ले. ए महात्माना रचेला ग्रंथो पैकी अत्यारे खन्य तेमज अनन्य जे जे ग्रंथोनां नामो जाणवामां श्राव्यां वे ते श्रा नीचे
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श्रीमद्य
|जन्मच
॥७॥
प्रकरण) १२ माटीका सहित न्याया सटीक अध्यात्म :
बताव्यां जे. तेमां गुजराती नापानी पद्यरचनावाळा जे स्तवनो सकायो विगरे बताववामां आव्यां ते वां वन्यज , तेमज अन्य श्राचार्यकृत ग्रंथोपर ते साहेबे टीका रची ले ते पण जे खन्य ने तेज खखेख ले.
लभ्य ग्रंथो. १ अध्यात्मसार २ अध्यात्मोपनिषद् ३ अध्यात्मिक मतखंमन सटीक ४ अध्यात्म मतपरीक्षा सटीक ५ नयरहस्य ६ नयप्रदीप, 9 नयोपदेश नयामृततरंगिणी टीका सहित न्यायालोक ए जैनतर्क परिनाषा १० झानबिंदु ११ न्याय खंखाध (महावीरस्तवन प्रकरण) १२ मार्गपरिशुद्धि १३ उपदेशरहस्य सटीक १५ वैराग्यकट्पलता, १५ बत्रीश बत्रीशी सटीक १६ ज्ञानसार (अष्टक) १७ देवधर्मपरीक्षा १० यतिखक्षण समुच्चय १ए गुरुतत्त्वनिर्णय सटीक २० समाचारी १ प्रतिमाशतक सटीक २२ जापारहस्य. आमां सात ग्रंथो स्वोपज्ञ (पोतानीज करेती) टीकायुक्त जे.
अन्याचार्यकृत ग्रंथोपर तेमनी करेली टीका. १ शास्त्रवार्ता समुच्चयनी टीका २ कर्मप्रकृति (कम्मपयमी ) नी टीका ३ षोमशकवृत्ति । अष्टसहस्री विवरण.
अलभ्य-दुर्लभ्य ग्रंथो. . १ अध्यात्मोपदेश २ स्याघादरहस्य ३ प्रमाणरहस्य । सिद्धांत तर्क परिष्कार ५ अनेकांत मतव्यवस्था ६ पातंजल योगशास्त्र चतुर्थपादवृत्ति. आत्मख्याति ज्ञानार्णव ए विचारबिंदु १० त्रिसूत्र्यालोकविधि ११ मंगलवाद १५ शवप्रकरण.
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गुजराती भाषामां करेली रचनाओ. १ श्रीपाळराजाना रासनो पाखो जाग. दिगपट चोराशी बोख (पद्यमां)३ जंबूस्वामीनो रास. ४ व्यगुणपर्याबनोरास ५ समाधिशतक.६समताशतक. ७ तत्त्वार्थनो टबो. ज्ञानसारनो टबो. ए जसविखास (पद ७५) १० आनंदघनजीनी स्तुतिरूप अष्टपदी. ११ सम्यक्शास्त्र विचारसार (पत्र).
सझायो. | १ अढारपापस्थानकनी समाय. २ श्रादृष्टिनी सकाय. ३ प्रतिक्रमण गर्न हेतुनी सकाय.४ समकितना समसठ बोखनी सकाय. ए पांच कुगुरुनी सकाय. ६ अग्यार अंगनी सकाय. पांच महाव्रतनी जावनानी सझाय. अमृतवेखीनी सकाय ए संयमश्रेणीनी सकाय १० चार श्राहारनी सकाय.
स्तवनो. | १ श्री सीमंधरस्वामीनी स्तुतिरूप ३५० गाथार्नु स्तवन. १ श्रीवीरस्तुतिरूप दुमी स्तवन (१५० गायानुं ). ३ सवासो || गाथा- स्तवन. ४ निश्चय व्यवहारतुं स्तवन (पांच ढाळर्नु) ५ मौन एकादशीना दोढसो कल्याणकर्नु स्तवन (१५ ढाळ-)| -- वर्तमान चोवीश तीर्थकरोनां स्तवनोनी चोवीशी ३ एविहरमान जिनस्तवन (वीशी).
श्रा शिवाय कोइ पण ग्रंथ कोई पण मुनिमहाराजना के श्रावकनाश्ना जाणवामां होय अथवा जाणवामां आवे तो तेमणे अमने खखी मोकखवानी कृपा करवी.
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उपोद्
उपोद्घात.
घात.
श्रा महापुरुषे कया कया विषयना केटला ग्रंथो खख्या वे ते संबंधमा हजुसुधी चोकस निर्णय थयो नयी. तेमना|| पीना सैकामां थयेखी न्यायविद्याना श्रन्यासनी हानिने सीधे फक्त कोइ कोई जगोपर तेमना ग्रंथो उपलब्ध थाय | ने, तेमां केटसाक ग्रंथो तेजेश्रीना हस्ताक्षरना पण मळे जे आने केटवाक ग्रंथो खहीआए जेम तेम उतारेला अने| त्यार पड़ी श्रन्यासमां नहि वपरायेखा होवाथी कोइ पण प्रकारना संस्कार वगरना मळे बे. आम होवाथी श्रा ग्रंथमाळा उपावतां घणा ग्रंथोमा एक एक प्रत उपर पण श्राधार राखी काम खेवं पङयु जे. उपर जपावेलां कारणोथी बनती| महेनते सुधारो करतां बता पण अशुद्ध खागता पागेने स्थले काँसमा शुद्ध तरीके खागतां पद दाखल करवामां आव्यां जे. जे महाशयोने या ग्रंथमाळा वांचतां जे जे अशुद्धि लागे ते अमने खखी जपाववानो अमे श्राग्रह करीए बीए के जेथी बीजी श्रावृत्ति वखते अथवा तेनी पहेला पण पुस्तक खेनारन खीस्ट राखेख होवाथी तेना ग्राहकने शुद्धिपत्रक मोकलावी सुधारो करवानी गोठवण करवानो प्रसंग मळी शके. | तेश्रीना बनावेला उपलब्ध ग्रंथोमांथी नाना अने उपयोगी ग्रंथोनो एक समुदाय श्रा ग्रंथमालामां प्रगट करवानोHI ॥
हेतु ते सर्वने एक साथे जाळवी राखी तेनी उपयोगितामां वधारो करवानो के. या ग्रंथमाळामां नीचेना ग्रंथो प्रकट|| काकरवामां श्राव्या .
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२ देवधर्मपरीक्षा.
५ यतिलक्षण समुच्चय.
३ अध्यात्म उपनिषद्. ६ नयरहस्य.
जैनतर्क परिभाषा. १० ज्ञानबिंदु. प्रथम श्रपवो बहु जरुरनो बे. तेथी
१ अध्यात्मसार.
० नयोपदेश (सावचूरि ).
४ श्रध्यात्मिक मतखंमन-सटीक. ७ नयप्रदीप. ग्रंथोमां कया कयाविषयो केवी रीते चर्चवामां श्राव्या ने तेनो ख्याल प्रत्येक ग्रंथनो सार अनुक्रमे कामां हीं आपवामां श्राव्यो बे.
अध्यात्मसार - ग्रंथ व्युत्पत्ति करवानी इवावाळार्जुने अध्यात्म ज्ञाननी साथे काव्यनो पण घणोज सारो बोध करे तेवो बे, अने ते विधान् वांचनांरने सहज मालूम पके तेवुं छे. तेजश्री अध्यात्मना विषयमां केटला डंका उतरेला हशे ते वात तेमना ग्रंथ उपरथी सारी रीते मालूम पमी शके तेम बे. शरुवातमां मंगळाचरण करीने अध्यात्मनी जरुर बतावतां अध्यात्म वगरनुं बीजुं ज्ञान, वगर सलेपाटवाला रस्तापर गति श्रापेला एन्जिन जेवुं बे. कहेवानुं तात्पर्य ए बे के ते साध्य वगरना कार्य जेवुं बे, एम बतावी अध्यात्मथी उत्पन्न थता लानो जणावी, बीजा शृंगारादि रसो करतां अध्यात्ममां रहेली उत्तमता बहु श्रेष्ठ शब्दोमां बतावी बे, अने तेम करीने पहेलो माहात्म्य अधिकार पूर्ण कर्योछे. बीजा अध्यात्मस्वरूप अधिकारमां शिष्यधाराए प्रश्न जो करी अध्यात्मनो अर्थ, अध्यात्मनुं स्वरूप, अध्यात्म विरुद्ध क्रिया, अध्यात्मने योग्य तथा अयोग्य माणसोनां लक्षणो अने तेना अनुक्रमने जणावी व्यवहार ने निश्चयथी अध्या- | त्मनुं निरूपण करी, ज्ञान अने क्रियानुं पंखीनी वे पांखनी माफक उपयोगी पशुं बतान्युं बे. आगळ अध्यात्मश्री यती
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उपोदून
घात.
अशुक्रियाउनु पण कार्यसाधकपणुं जणावी विषयानुष्ठान, आत्मानुष्ठान अने अनुबंधानुष्ठाननु निरूपण घणी सरळ रीते करवामां आव्युं . त्रीजा दंभत्याग अधिकारमां दंलत्यागना संबंधमां विस्तारथी विवेचन करवामां श्राव्युं ,IN भने तेमां दंजरहितनेज अध्यात्म थइ शके एम स्पष्ट समजाववामां आव्यु जे. चोथा भवस्वरूप अधिकारमा संसारने समुज, दावानळ, कसाश्खानु, राक्षस, अटवी, फांसो (पाश), केदखानु, स्मशान अने विषवृक्षनी उपमाथी वर्णवीने |तेमां रहेता प्राणीनी विचित्र स्थिति, सुखरहितपणुं देखामी अध्यात्मीनें आध्यात्मिक कुटुंब अने मोह राजाना रंगमंझपनुं वर्णन करी मोह राजाए करेखां नुकसानो अने मोहाधीन प्राणीउने अहोनिश चाखती कट्पनाश्रेणी समजावी तेमांथी विरति करनारने अती आत्मरमणता समजाववामां श्रावी . अत्र प्रथम प्रबंध पूर्ण थाय ने. | पांचमा वैराग्य अधिकारमां वैराग्यनु स्वरूप, तेनी जरूर, वैराग्य थवाना उपाय,तेनां गुणस्थानको, तेनाथी थतीचित्तनी | प्रसन्नता, सर्वत्र बंधरहितपणुं अने नामधारी वैरागीनां लक्षणो जणाववामां आव्यां बे. बघा वैराग्य भेद अधिकारमा मु:खगर्जित वैराग्यवाळाऊनो शुष्क त्याग, शुष्क अन्यास अने तेनी श्वा जणावी, बीजा मोहगलित वैराग्यनी उत्पत्तिनुं कारण, तेनी स्थित्ति, तेनुं हीनपणुं ने ते वैराग्यवाळानां लक्षणो जणाववामां आव्यां जे. पनी ज्ञानगर्मित वैराग्यना अधिकारी, तेउनी बुद्धि, सम्यक्त्वनी जरुरीयात, तेउनु शुद्ध ज्ञान, व्यपर्यायनो तेउनो विचार, ज्ञानगर्नेवैराग्याजासतुं स्वरूप, तेउनां लक्षणो विगेरे विषयो जणाववामां श्राव्या बे. सातमा वैराग्य विषय अधिकारमा विषयवैराग्य अने गुणवैराग्य, कोइ पण जातना शब्द, रूप, गंध, रस ने स्पर्श योगीनां चित्तने चखायमान करतां नथी ते बाबतनुं निरूपण ||
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अने जोगीउनी विषयोने अंगे थती पुर्दशा जणाववा साधे श्योपशमादियी अती सन्धिउंना गुणोमा पण विरक्तता जणाववामां श्रावी के. अत्र बीजो प्रबंध पूर्ण श्राय . ___ श्रापमा ममता त्याग अधिकारमा तेनी जरुर अने ममताने राक्षस, स्त्री अने व्याधिनी उपमा, तेने लीधे थती श्रारंजादिकमां प्रवृत्ति, जात्यंध करतां पण तेनुं सविशेषपणुं, ममता करनारनी स्त्रीपुत्रादि साथे चेष्टा, तेनु अपवित्रने
पवित्र मानवापणुं तथा दुनियाना संबंधमां नित्यनो नम जणावी, आत्मा अने पुद्गळो जुदा ने अने तेनो संबंध नाशजवंत ने ए जाणवाथी ममतानो नाश थवाना कारणभूत जिज्ञासा उनी थाय ने अने ते ममता जिज्ञासा अने विवेक बन्नेथीज रोकी शकाय ने ए समजाव्यु बे. नवमा समता अधिकारमा समतानुं स्वरूप, ते राखवानी जरुर, तेनी उंची
ते विना बीजी क्रियाउन निष्फळपएं, तेनाथी उचितनी प्राप्ति, अवगुणोनो नाश, सामान्य लोकोनुं ते विषयमा अज्ञात होवाथी श्वारहितपणुं, कर्मना नाशनुं ते मुख्य कारण इत्यादि बतावी तेने चारित्रना प्राण तरीके उळखावी अध्यात्म प्रसादथी तेमां थती तलालीनता जणाववामां आवी जे. दशमा सदनुष्ठान नामना अधिकारमा सदनुष्ठाननी समताथी प्राप्ति जणावी तेना विष, गरल, अन्योन्यानुष्ठान, तहेतु अने अमृत एवा पांच लेद जपाव्या बे. पांच पैकी प्रश्रमना त्रण अनुष्ठान असद्ले अने बेक्षा वे सदू जे. जे अनुष्ठाननो आदर करवामां प्रीति, निर्विघ्नता, संयोग, तत्त्वजिज्ञासा अने पंमितोनी सेवा होय ते सदनुष्ठान कहेवाय. अग्यारमा मनःशुद्धि अधिकारमा मनःशुधिवाळाने रागष नथाय ए स्पष्ट समजाव्युं . इष्ट पदार्थादिनमळवाथी शोक अने मळवाथी आनंद थाय ने तेनुं कारण मननी चंचळताज
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उपोदू
घात.
३. चंचळ मनने वानर, अश्व, पवन, हाथी अने अग्निनी उपमा देवामां आवी . अनिग्रहित मन केवा केवा प्रकारनां मागं परिणामो निपजावे ने तेनो ख्याल आपी नियमित मन केवां सुंदर परिणाम निपजावे ते जणाववामां श्राव्यु ने. बारमा सम्यक्त्व अधिकारमा मनःशुद्धि फक्त सम्यक्त्व होय तेनेज थाय ने ए जणावी बाकीनी क्रियाउँनु मोक्षमा सहचारीपणुं बताव्यु के. सर्व धर्मनो सार सम्यक्त्वज ने अने ते सम्यक्त्व नव तत्त्वनी श्रधाथीज थाय . अहिंसानी शुद्ध बुद्धि ए पण सम्यक्त्व चे, ते अहिंसा जागवत, पाशुपत, सांख्य, बौछ अने वैदिक विगेरेए पण मानेली , उतां ते सर्वना एकांतवाद प्रमाणे ते घटती नथी ते जणावीने स्याघाद सिद्धांत प्रमाणेज ते अहिंसा (दया) घटी शके ने अने सत्यादिनुं पालन तेने माटेज जे एम जणावी शमादिक खक्षणोवाळाने सम्यक्त्वनी स्थिरता थाय बेएम जणाववामां श्राव्यु . तेरमा मिथ्यात्वत्याग अधिकारमा आत्मा नथी, ते नित्य नथी, कर्ता नथी, जोक्ता नथी, मोदे जतो नथी श्रने मोक्षे जवाना उपाय नथी, ए मिथ्यात्वनां व स्थानकोधाराए नास्तिक, बौछ, सांख्य, मीमांसक विगेरेना मतोनुं| खंगन जणावी ज्ञान अने क्रियाथी श्रात्मानो मोक्ष थवाना उपायो जणाव्या बे. चौदमा असद्ग्रहत्याग अधिकारमां| कदाग्रहथी कर्मनो बंध अने धूर्तपणुं थाय ने एम जणावी ते कदाग्रहनी अमावास्यानी रात्रि साथे तुलना करी तेनुं| त्याज्यपणुं अनेक रीते बहु युक्ति पूर्वक बताव्यु के. पंदरमा योग अधिकारमा पुण्य रूपी कर्मयोग ने आत्मरमणता रूप ज्ञानयोग ए बने जणावी कर्मयोगवाळाने ज्ञानयोगनी जरुर श्रने ज्ञानयोगवाळाने कर्मयोगनी जरुर बतावी , साथे यज्ञादि कर्मयोगनो निषेध करी, ज्ञान योगवाळानु अलिप्तपणुं, रागषरहितपणुं, कर्म बेदवामां समर्थपणुं जणावी
॥११॥
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निरंजन देवमां अनेदपणे तलासीन थवानो उपदेश करी योगनी रीति बतावी जे. सोळमा ध्यान अधिकारमा ध्यानलक्षण, तेना मुख्य लेदो तेमज अवांतर जेदो, तेनां सिंगो अने तेनां गुणस्थानको जणावी धर्मध्यान अने शुक्लध्याननां बालंबनो, ध्यान थवानी रीति अने तेनाथी यावत् मोक्षप्राप्ति सुधीना यता लालो जणाववामां श्राव्या . सत्तरमा ध्यानस्तुति अधिकारमा ध्यानमुंज मोक्षदायकत्व, विषयवांगारहित्व, संतुष्टचित्तत्व, परमार्थहेतुत्व, कषायरहितत्व, अज्ञानरहितत्व, समतालीनत्व, सुखहेतुत्व अने अपूर्व आइलादकत्व जणाववामां आव्युं बे. श्रढारमा आत्मज्ञान अधिकारमां श्रात्मज्ञानने माटे नवतत्त्वनुं जाणपणुं के जे निसर्ग अने उपदेशथी थाय ने तेनी जरुर बतावी, ज्ञान दर्शन अने चारित्रनुं श्रात्माथी अनिन्नपणुं साबीत करी, निश्चयथी आत्मानुं सिद्ध स्वरूपपणुं जणावी, कथंचित् तमाम आत्मानुं एकपणुं निरूपण करीने धर्मास्तिकायादिक व्योथी श्रात्मानुं जुदा गुणोने लीधे जिन्नपणुं प्रतिपादन करी, पुण्य अने| पापर्नु निरूपण करतां नैगमादिक नयोनी अपेक्षाए श्रात्मानुं खरेखलं स्वरूप विस्तारथी बताववामां आव्युं वे. त्यारपती श्राश्रव अने संवर आत्माथी जुदा एम बतावी, व्यवहारथी ते बनेनुं स्वरूप निरूपण करी, निर्जरा अने तप केवी रीते । थाय ते देखामवा पूर्वक बंध अने मोदनुं स्वरूप जणावतां व्यलिंग अने नावलिंगनुं स्वरूप जणावीने व्यवहार अने। निश्चय पूर्वक आत्मज्ञानमां तलालीन आत्मा साम्य पामे वे एम बताववामां आव्यु . ओगणीशमा जिनमत स्तुति अधिकारमां तेने समुन, कटपवृद, मेरु, सूर्य अने चंजनुं रूपक आपी, सर्व नयसहितपणुंजणावी जिनमत शिवाय बीजी कोई पण जग्याए सर्व नयनुं गौरव नथी एम स्पष्ट करवामां श्राव्यु , ते जैनशासन सामान्य विशेषमय अने अर्पित
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उपोद्॥ १२ ॥
अनर्पितमय पदार्थोनुं ज्ञान करावे वे अने व्युत्पत्तिनुं कारण तेज बे. विद्वानो तेनो रस जाएया पबी बीजी जगोपर रति करता नथी, छाने ते जिनशासन अंगीकार करनारने आत्मकल्याणनी प्राप्ति थाय बे एम जणाववामां आव्युं वे. वीशमा अनुभव अधिकारमां क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र ने निरुद्ध ए पांच प्रकारना चित्तनुं लक्षण बतावी योगने अंगे योग्यायोग्यपणानुं विवेचन करी निरालंबन ध्याननी उत्पत्तिमां सालंबन ध्याननुं कारणपएं जणावी बाह्यात्मा अंतरात्मा अने परमात्मानुं स्वरूप निरूपण करी परमात्मपणाने प्राप्त थवानुं कारण ब्रह्माध्ययन जणावी योगीनी सेवाथी संसारसमुद्रनुं सुतरपणुं, जक्तिथी ते पदवीनी प्राप्ति, शुजानुबंधव्यापी यतना, शास्त्रनुं परम श्रालंबनपणुं ने विधिवना आदि जक्तिनुं लक्षण जणावी, बाह्य क्रियावाळानुं परिणतिरहितपणुं बतावी, बाल मध्यम अने बुधनुं लक्षण जाणावतां गुणलेशपर रागधारण, लोकसंज्ञानो त्याग, श्रद्धा, हितग्रहण, पराशानो अनभिलाष, स्तुतिनिंदानुं समपणुं, स्थिरता, वैराग्य, दोष ने देहादिना स्वरूपनो विचार, जगवानमां जक्ति, एकांतस्थानसेवा, सम्यक्त्वमां स्थिरता, प्रमाद रिपुमां अविश्वास, आत्मबोधनी पराकाष्ठा, श्रागमनुं प्रधानपणुं, विकल्पनो त्याग, वृद्धानुसारि वृत्ति अने तत्त्वनो | साक्षात्कार ए सर्व अनुभव जाण्वाना प्रकारो वे एम बताववामां आव्युं छे. एकवीशमा ग्रंथप्रशस्ति अधिकारमां श्रा ग्रंथनो महिमा, सजन दुर्जननो स्वभाव जणावी गुरुनी स्तुति करीने अध्यात्मरुचि जीवोने आनंद थाय ते सारु | ग्रंथ तेने अर्पण कर्यो . छात्र ग्रंथ अने तेनो त्रीजो प्रबंध पूर्ण थाय बे.
बीजा देवधर्मपरीक्षा ग्रंथमां प्रतिमाजीने पूज्य तरीके नहि माननारा प्रतिमानी पूजा करनार देवतार्जुने पण अधर्मी ||
घात.
॥ ११ ॥
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कही वगोवता हता, तेमने समजाववा माटे श्रा ग्रंथ रचतां उपाध्यायजीए दरेक जगोपर सूत्रोथी समर्थन आपवा IT साथे नीचेना मुद्दाउपर ग्रंथ लख्यो . १ देवताने असंयत कहेवा ते निष्ठुर . २ देवता श्रुतधर्मवाळा होवाथी पण
तने अधर्मी न कहेवाय. ३ सूत्र अने अर्थ दरेक सम्यग्दृष्टिने होय तेथी श्रुतधर्म पण तेउने बेज. ४ तेउने अधर्मस्थित कदेवानं तत्त्व एटलंज के ते संयमधर्म अंगीकार करी शकता नथी. ५ बोधविशेष नहि होवानी अपेक्षाएज तेने 'बाल' कहेवामां आवे बे. ६ सम्यक्त्वने पण एकलुं होय तो निष्फळ कहेवामां आव्यु के, तेथी ते उपरनी माफक संयमनुं अपेक्षित वाक्य ने एम जणाव्यु के. नारकी अने देवताउँनी लेश्या जुदी होइने सम्यग्दृष्टि देवताउने सारी लेश्याश्रो होय . सम्यग्दृष्टि देवताउने साधु.आदिकनो विनय (तपविशेष ) करवापणुं होय . ए ते साधु आदिनुं वैयावच्च करी जव सफळ करे . १० इंऽमहाराज सम्यग्रवादीचे अने ते निरवद्य नाषा बोलेने एम जणाव्यु . ११ महाराज साधुउने अवग्रह दे . १२ चमरेंजादि इंस्रो अने तेना लोकपालो जगवानना अस्थिनी श्राशातनानो त्याग करी विनयरूप धर्म साचवे बे. १३ हरिकेशीनु वैयावच्च यदोए कयु जे. १४ देवताउने सम्यक्त्वरूप संवर होय बे. १५ सूर्याज देवताए धर्मव्यवसाय ग्रहण करीने श्री जिनप्रतिमानी पूजा करी जे. १६ विजय देवताए पण तेमज कर्यु जे. १७ जन्माभिषेकनो पण तेवोज अधिकार के. देवताउनी पूजा वास्तविक धर्म अने आगळ ने पत्री कट्याण करवावाळी . १७ 'पठी' शब्दथी ते जवनो पाउलो नागज लेवो एम नहि पण परनव लेवो, केमके तपस्यादिकथी तेवूज फळ वताव्यु जे. १५ स्थिति पण धर्मज कहेवाय. २० ज्ञानीनो लोकोपचार पण कर्म खपाववा माटेज
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उपोद्
घात.
॥१३॥
होय . २१ देवताए करेल वंदनादि पण पूर्व अने पनी हितकारी कह्यां बे. २२ वंदनाधिकारमा पूजा अधिकार लाइ तेने शुज तरीके जपावेल . २३ लगवाने देवतानी वंदनाने अनुमोदन आप्यु जे. अन्य अशुल कामोनी माफक नाटकनो निषेध न कर्यो तेज अनुमति जे. २४ नाटकने नक्ति तरीके जणावेल अने नक्तिथी मुर्गतिनो अटकाव थर, सुगतिनो बंध थइ, पर्यंते सिधिगतिनी प्राप्ति थाय बे. २५ दानना उपदेश के निषेधनी पेठे जिनपूजानो उपदेश के निषेध न करवो एम नहि, कारणके ते अनुबंधहिंसा बेज नहि. २६ चैत्य के प्रतिमाने अंगे अती व्यहिंसा अर्थ के अनर्थदंगमां गणवामां आवी नथी. २७ पूजा आदिमां धर्म अधर्म बन्ने थाय ने एम नहि, केमके तेनो उपदेश के तेने माटे कासग्ग होय नहि. ए जणावी दया अने हिंसानु खरेखलं स्वरूप प्रतिपादन कर्यु बे. आ दरेके दरेक मुद्दा उपर|| मूळ सूत्रोनो आधार बताववा तेना आळावा टांकवामां आव्या .
त्रीजा अध्यात्मोपनिषद् ग्रंथमां अध्यात्मनी व्याख्या आपीने तेने योग्य माणस अने तेने योग्य मननुं स्वरूप जणावी तुम्हाग्रहीनी दुर्व्यवस्था जणावतां अतींप्रिय पदार्थोने जाणवा माटे शास्त्रनु सामर्थ्य बताव्यु के अने ते शास्त्रनी परीक्षा,
माटे कष, बेद अने तापर्नु स्वरूप बतावी, तेनी शुद्धि बहु विस्तारथी जणावी, एकांतवादी पण स्याहाद कश् रीते माने व ते समजाव्युं बे. साथे साथे नयनी शुद्धि पण सारी रीते समजावी जे. पछी श्रुत, चिंता अने लावनामय ज्ञान- विवेचन, करी, धर्मवादने लायक माणसनुं स्वरूप जणावी शास्त्रयोगशुद्धि नामनो अधिकार पूरो कर्यो बे. बीजा ज्ञानयोग अधिकारमा प्रातिननुं स्वरूप, आत्मज्ञानी मुनिनी स्थिति, ब्रह्मर्नु अनुजवीज वेद्यपणुं अने ज्ञानीनु निर्लेपपणुं जणावतां
॥१३।
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व्रतादिक करीने चित्तनी शुद्धिजणावी व्यवहारथी श्रने निश्चयश्री ज्ञानयोग समजाव्यो बे. त्रीजा क्रिया अधिकारमा क्रिया रहित ज्ञान- निष्फळपणुं बतावी, पतीतजावधी करेली क्रियाथी पण नावनी वृद्धि थाय ने एम जणावी, ज्ञानीने पण क्रियाश्रीज कर्मनो नाश करवानो ने ए समजावी, ते अधिकार पूर्ण कर्यो बे. चोथा साम्याधिकारमा समतावाळो प्राणी केवो होय रे ते जणावी, समता वगरना सामायिकने मायिक कहेतां समताथीज परमात्मतत्त्व मालूम पड़े ने एम बताव्युं जे. समताथी नरतादि राजा केवलज्ञान पाम्या , अने क्रोधथी चंडकोशादिक साधुए पण अशुल गति प्राप्त करी के. दमदंत शषि, नमिराजर्षि, स्कंदक सूरिना शिष्यो, मेतार्य मुनि, गजसुकुमाळ, अर्णिकापुत्र, दृढप्रहारी अने मरुदेवा माताना श्रयेला कट्याणमा जे समता साधन तरीके थयेली ने तेने कयो मुमुकु आदरशे नहि ? ए बतावी चतुर्थ अधिकार अने ग्रंथ पूर्ण कर्यो . | चोथा अध्यात्ममत खंडन अथवा अध्यात्ममत परीक्षा ग्रंथ लखवानो प्रसंग कर्ताने एक कारणथी प्राप्त थयो . दिगंबर लोकोनी मान्यता एवी के केवळानीने कवळाहार होय नहि. आ हकीकत खोटी, अने केवळझान अने कवळाहारने कोइ पण प्रकारनो विरोध नथी ए हकीकतज मात्र या आखा ग्रंथमां बतावी . आ ग्रंथनी टीका पण पोतेज रची डे के जे ग्रंथ साथे पवामां आवी . जिनेश्वर महाराजना चोत्रीश अतिशयमा आहारनिहारनी विधिनुं अदृश्यपणुं ए पण एक अतिशय गणातो होवाथी केवळीने आहारनी सिद्धि जणावी, कवळाहार व्यापक नथी एम घणा विकटपोथी सिद्ध करी, शरीरधारणनी माफक पात्रधारण, ध्यान ते वखते न होवाथी तेना विघ्ननो अन्नाव
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उपोद्
घात.
॥१४॥
अने दायिक गुणवाळा होवाथी मोहनो अनाव जणावी, परमौदारिक शरीर तेमने होय ने अने ते धातुरहित होय ने एवा कुविकल्पनुं खंमन करतां जन्मश्रीज एक शरीर होय बे ए सिद्ध वातमा शंकानो अनुद्नव जणावी, ध्यानवाळा सातमे गुणस्थानके आहार नहि होवाथी ध्यान विनाना तेरमे गुणस्थानके तेनो निषेध थतो नथी, तेमज शुक्ल खेश्याने सीधे श्राहाररहितपणुं कही शकाय नहि, केमके ते तो घणा जीवोने के अने तत्त्वार्थमां केवलीने जे अगियार परीसह कहेला ले ते आहार वगर घटी शके नहि आहारनी कथायी साधुनुं प्रमादीपणुं उतां पण वेदनीनी उदीरणा ने उदयनी माफक लोजन- कर्तापणुं मोह नथी एम जणावी, टीकामां दिगंबरोनी उत्पत्ति, रीति अने तेनुं उपकरणरहितपणुं अवार्नु कारण जणावी ग्रंथ संपूर्ण कर्यो जे. टीका स्वोपन होवाथी नवीन न्यायपछति प्रमाणे तेमां तेमणे अपूर्व विछत्ता बतावी .
पांचमा यतिलक्षणसमुच्चय प्रकरणमा साधुनां सात लक्षणोनुं विवेचन करवामां आव्यु जे जे ग्रंथ ते वखतना साधुऊना वर्तनना सुधारा माटे श्रने साधुधर्मनुं खरं स्वरूप समजाववा माटे लखायेलो मनाय बे. १ मार्गने अनुसरती क्रिया. २ शिक्षा ग्रहण करवानी योग्यता. ३ उत्तम श्रद्धा. ४ क्रियामां प्रमादरहितपणुं. ५ शक्य क्रियानो आदर. ६ गुण उपर तीव्र राग अने 9 मन वचन कायाथी गुरुमहाराजनी आज्ञानुं श्राराधन था सात लदाणो समजाव्यां . पहेला मार्ग खदाणमां मार्गनी व्याख्या करतां सिधान्तनी रीति अने आचरणानुं स्वरूप बतावी सत् अने असत् आचरणानु सारी रीते विवेचन करी गुरुनी आज्ञा प्रमाणे वर्तनारनु केवी रीते कल्याण थाय ने ते प्रतिपादन करेलुं . बीजा शिक्षायोग्यत्व (प्रज्ञापनीयत्व) लक्षणमां विधि, उद्यम, स्तुति, नय, उत्सर्ग, अपवाद अने उत्सर्गापवाद सूत्रोनुं
॥१४॥
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स्वरूप समजावी देशनानी रीति जणावेली बे. त्रीजा श्रद्धा लक्षाएमां विधिनुं बहुमान, विधिनुं ज्ञान, पच्चखाण पाळवानी योग्यता, वध अने दयानी तारतम्यता विगेरे पर विवेचन करवामां श्राव्युं वे. चोथा क्रियामां अप्रमाद ए| नामना लदणमां मोदना दरेक अनुष्ठाननी तीव्र अनिलाषा, उपदेश करवाने योग्य गुणो, दान, पात्र विगेरे विषयोपर पूरतो प्रकाश पामवामां आव्यो . पांचमा शक्य क्रिया आदर लक्षाणमा संघयणादिकनी हीनताथी का रीते अनुठान करवू, शुल अध्यवसाय कइ रीते राखवा ए विषयपर सारी रीते विचार बताव्यो बे. बघा गुणानुराग लक्षणमा गुणवान्नी प्रशंसा करीते करवी ए विषयपर विवेचन कर्यु बे. सातमा गुरुआज्ञा आराधन लक्षणमा गनुवास केटलो आवश्यक ने तेनी विचारणा, एकाकी विहार करनारने लागतां दूषणो, विहारनी रीति, गुरु अने शिष्यना योग्य गुणो, सत्य प्ररूपकनी प्रशंसा, सुषमा काळमां साधुउनुं अस्तित्व विगेरे विषयो सविस्तर जणाव्या बे.
बना नयरहस्य ग्रंथमां नयोनो अधिकार विस्तारथी जपाव्यो . आ ग्रंथने अंगे एक हकीकत बहु जाणवा लायक बे. श्रीमद्यशोविजयजी महाराजे दरेक विषयना रहस्यनूत 'रहस्य' शब्दथी अंकित एकसो श्राउ ग्रंथ करवानो निश्चय कर्यो हतो, अने संप्रदायथी सांनळ्युं ने के तेए ते प्रमाणे १०० ग्रंथो बनाव्या पण हता. आ हकीकत तेमना पोतानाज शब्दोथी पण समजाय बे. ते नापारहस्य नामना ग्रंथनी शरुआतमां लखे बे के भाषाविशुस्वर्थ रहस्यपदांकिततया चिकीर्षिताष्टोत्तरशतग्रंथान्तर्गतप्रमारहस्य स्याद्वादरहस्यादि सजातीयं प्रकरणमिदमारभ्यते । तेजेश्रीनो आ निश्चय अत्र प्रगट थाय जे. कमनसीबे ते ग्रंथो पैकी हालमा मात्र नयरहस्य, नापारहस्य अने उपदेशरहस्य ए
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उपोद्॥ १५ ॥
त्रणज ग्रंथो लन्य थर शके बे. ते पोते मुसलमानी जुलमना समय पछी थया बे, बतां तेर्जना ग्रंथोनी एकेक कोपी पण मेळववी मुश्केल थइ पके बे; तेथी अनुमान थाय छे के तेजश्री ना कोई घेषीए तेज॑ना ग्रंथोनो नाश करवानो धंधो आदरेलो होवो जोइए.
मां नय शब्दनुं लक्षण वरावर जणावी तेना पर्यायो अने ते मानवानी जरुर जणाववा साथे नयोनुं अन्योन्य विरोधपणुं नथी ए वात बहु सारां दृष्टांतो ने हेतुयुक्तिथी सारी रीते बतावी बे. नयना वे जेदो पैकी दरेकनुं लक्षण बांधतां शजु सूत्र नयने जिन गणक्षमाश्रमण विगेरे प्रव्यार्थिकना जेद तरीके ने सिद्धसेन दिवाकर पर्यायार्थिकना जेद तरीके जावे वे तेनुं समाधान करी, सात प्रकारे नयनी व्याख्या करतां प्रदेश, प्रस्थक अने वसतिनां दृष्टांतो अन्योन्य शंकासमाधान सहित उत्तरोत्तर नयनी विशुद्धता दर्शाववा पूर्वक जणाव्या बे. पछी दरेक नयनां लक्षणो तत्त्वार्थ, अनुयोगद्वाराने विशेषावश्यकनी अंदर जणावेलां लक्षणाने अविरोधपणे जणावी दरेक नये मानेला निक्षेपा अने तेनां कारणो जणाव्यांबे, अने तेमां एक एक नयथी उत्पन्न थयेला मतोना अभिप्रायोनुं सारी रीते विवेचन करी सापेक्षपणुं साबीत कर्यु बे, अने जुसूत्र नयनुं विवेचन करतां सप्तरंगीनुं स्वरूप बतावी ते मानवानी जरुर अने तेनुं | शंकासमाधान सारी रीते जणान्युं वे; तेमज जुसूत्रना विवेचनमां 'जीव' शब्दनी सारी रीते नयने श्रीने व्याख्या आपवामां श्रावी बे ने बेवटे निश्चय व्यवहारनी व्याख्या समजावी चरणगुणनी प्राप्तिने माटे प्रयत्न करवानो उपदेश | देवा साथे ग्रंथ पूर्ण करवामां आव्यो वे.
घात.
॥ १५ ॥
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सातमा नयप्रदीप ग्रंथमा पहेला सप्तभंगी समर्थन सर्गमां सप्तनंगी करीते बने, स्याफाद शी वस्तु , स्यात् शब्द न होय तोपण तेनो अध्याहार करवानुं कारण सविशेषपणे समजावी सातज नांगा बनवानो हेतु गंजीर अने सीधां वाक्योमां सारी रीते समजाव्यो जे. बीजा नयसमर्थन सर्गमां नयनी जरुर, नयनी मर्यादा, व्यर्नु स्वरूप स्वजाव अने विलाव पर्यायो अने तेनुं स्वरूप, व्याथिकना दश मुद्दा जणाववा साथे प्रव्यार्थिक नयनुं स्वरूप सारी रीते निरूपण कयु के. आगळ पर्यायार्थिक नयनी व्याख्या करतां पर्याय अने गुणोना नेदो अने तेनुं स्वरूप बराबर व्याख्या साथे कहेवामां आव्यु , अने सामान्य तथा विशेष बन्नेनो समावेश पण तेमांज थाय ने एम जणावी, पहेला नैगम नयन स्वरूप जणावतां धर्म, धर्मी अने धर्मधर्मी विषे नैगम नय शुं बोले ने अने ते केटलुं युक्तिवाळु में ते बतावी नैगमाजासन स्वरूप बताव्युं . बीजा संग्रह नयनुं विवेचन करतां तेनुं लक्षण, तेना लेदो अने ते नेदोर्नु पण लक्षण अने तेना आनासो जणाव्या बे. त्रीजा व्यवहार नयनुं स्वरूप जणावतां सदूजूत, शुद्ध सदूत, उपचरित सद्जूत, अनुपचरित सद्भूत, अशुद्ध सद्भूत, स्वजात्यसदूनूत, विजात्यसदूनूत, उन्नयासदूनूत, स्वजात्युपचरितास
जूत, विजात्युपचरितासद्जूत, उन्नयोपचरितासदूलूत, असदूनूत, उपचरितासदूनूत, अनुपचरितासद्लूत व्यवहारो जणावी, नव प्रकारना उपचारो अने संबंधो जणाववामां आव्या बे. पर्यायार्थिक नयना चार नेदमां प्रथम ऋजुसूत्र नयनुं लक्षण, तेना जेदो, बीजा शब्द नयनुं लक्षण तेमज काळ, कारक, पुरुष, उपसर्ग आदिकथी जिन्नाथनी व्यवस्था जणावी, त्रीजा समभिरूढ नयन खदण कहेवा साथे 'पर्याय' शब्दमा रहेला जुदा जुदा अर्थो समजावी एवंभूत
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जपोदू
घात.
नयर्नु स्वरूप अने शब्दोनो वास्तविक अर्थ जणाव्यो बे. आगळ जतां नयोना लेदो केटला, केवी रीते बने ते सारी रीते जणावी बीजो सर्ग पूर्ण करी ग्रंथसंपूर्ति करेली बे. __ अाउमा नयोपदेश ग्रंथमां नयनु लक्षण, दीर्घतादिनी पेठे तेनाथी थतो सापेक्षबोध जणावी, संशयादिक दूषणोनुं निराकरण करी नयना व्यार्थिक अने पर्यायार्थिक ए बे नेद जणावी विस्तारथी सात नेद बतावतां ते दरेकनां लक्षणो, प्रदेश, प्रस्थक अने वसतिनां दृष्टांतो समजावीने नयो का रीते, क्यारे अने क्यां लगामाय तेनुं स्वरूप बहु विस्तारथी| समजाव्यु जे. आगळ चालतां दरेक नये मानेला निदेपानो विचार करतां प्रतिमा, प्रतिष्ठा विगेरेनो विचार ग्रंथकर्ताए विस्तारथी कर्यो . आगळ कया नयथी कया मतनी उत्पत्ति के अने तेए केटलो अंश ग्रहण कर्यो चे अने बोड्यो ने ते जणावी मिथ्यात्वनां उ स्थानकोमा कयां स्थानको धर्मी अंशमां नास्तिक अने कयां स्थानको धर्मी अंशमां नास्तिक | ए समजावी क्रिया अने ज्ञान नयनी मंतव्यता दर्शावी सर्व नयनो सिद्धांत बताव्यो बे. | नवमा जैनतर्क परिभाषा ग्रंथमा पहेला प्रमाण परिच्छेदमा प्रमाणनुं लक्षण, प्रमाण अने तेना फळनो कथंचित् । अभेद, प्रमाणना दो, प्रत्यक्षना सांव्यवहारिक अने पारमार्थिक एवा बे नेदो जणाववा साथे मतिज्ञानना स्वरूपमा चतु अने मनथी व्यंजनावग्रह नहि बनवानुं स्पष्ट रीते समजावी अवग्रह, इहा, अपाय अने धारणानुं स्वरूप निरूपण करी तेमां थती शंकाउनु युक्ति पूर्वक समाधान बहु उत्तम रीते करी, दरेकना बार बार दो समजावी मतिज्ञाननो विस्तार बहु स्पष्ट रीते कर्यो . बीजा श्रुतज्ञान- निरूपण करतां संज्ञा, व्यंजन अने लब्धि एवा त्रण प्रकारना अद
॥ १६ ॥
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रोनुं स्वरूप समजावी श्रुतज्ञानना चौद जेदो सारी रीते समजाव्या बे. पारमार्थिक प्रत्यक्ष्मां व प्रकारना अवधि ( अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाती ने प्रतिप्राती) नुं अने मनःपर्यायना रुजुमति ने विपुलमति ए बे नेदोनुं स्वरूप जणावी, केवलज्ञाननुं स्वरूप समजावतां योगज धर्मश्री थता ज्ञान करतां तेनुं जुदापणुं जणावी प्रत्यक्ष प्रमाणनुं स्वरूप सारी रीते निवेदन कर्तुं छे. आगल परोक्षनुं लक्षण कही तेना स्मरण, प्रत्यनिज्ञा, तर्क, अनुमान | आगम एवा पांच जेदोमां स्मरण प्रमाणभूत कइ रीते थइ शके, तेने मानवानी केटली जरुर बे ते समजावी, प्रत्य| निज्ञानुं लक्षण, तेने जुडुं मानवानी जरुर ने अनुमान आदिनो तेमां समावेश केवी रीते थाय बे ते सारी रीते | समजाव्यं बे. त्रीजा तर्क नामना भेदनो अंगीकार व्याप्तिग्रहमां उपयोगी बे अने ते शिवाय सामान्य लक्षणा तेमज | शब्दार्थनो वाच्यवाचक जावसंबंध मालूम पमे नहि, माटे तर्कनुं स्वतः प्रमाणपणुं वे एम जणाव्युं वे. यागल स्वार्थ अने | परार्थ ए वे प्रकारना अनुमान ने हेतुनुं लक्षण जणावतां त्रिलक्षण आदि हेतु न बने एम जणावी साध्यनुं स्वरूप, | पहनी सिद्धि विगेरे समजावी दृष्टांत दिकनी जरुर मंदबुद्धिने माटे वे ते समजाव्यं बे. हेतुना विधिसाधक, प्रतिषेधसाधक, उपलब्धि अने अनुपलन्धिना दो बहु विस्तारपूर्वक समजावी सिद्ध, विरूद्ध अने अनेकांतिक एवा त्रण | हेत्वाभासोनुं स्वरूप समजावतां बीजार्जए मानेला तेथी अधिक हेत्वाभासोनुं खंरुन कर्यु बे. आगमप्रमाणं निरूपण करतां अनुमानथी तेनुं जुदापणुं साबीत करी, सप्तजंगी, दरेकनुं स्वरूप, दरेकनुं पार्थक्य जणावी सकलादेश ने विक
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उपोदू
घात
लादेशना हेतुजूत काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार, गुणीदेश, संसर्ग अने शब्दनुं स्वरूप समजाव्युं बे. अत्र प्रथम प्रमाण परिच्छेद पूर्ण थाय . । बीजा नयपरिच्छेदमां नयनुं लक्षण अने तेना लेदो जणावतां शब्दनी पंचतयी प्रवृत्ति एवंनूत नयवालो केवी रीते मानतो नयी ते जणावी अर्पित, अनर्पित,व्यवहार,निश्चय,झानक्रिया आदि लेदो अने सर्व नयना नेदोना आनास जणावी आ परिच्छेद पूर्ण कर्यो वे.
त्रीजा निक्षेपपरिच्छेदमां नाम, स्थापना, अव्य अने नाव एवा चार नेद निदेपना जणावी चारेनु स्वरूप, चारेनु प्रयोजन, दरेक निदेपा, मंतव्य अने चारे माटे सिद्धान्त जणावी कयो नय कया निक्षेपा माने ने, निदेपा का रीते अश शके अने जीवना निदेपा का रीते श्राय ते विस्तारथी बताव्यु बे. आ ग्रंथ तर्कना अन्यासी ने प्राथमिक ग्रंथ तरीके बहु उपयोगी ने अने प्रवेशक ग्रंथ जे. प्रशस्तिमां ते लखेने के आ ग्रंथ शिष्यनी प्रार्थनाथी तेए बनाव्यो बे. आ प्रशस्तिथी एक वीजी पण हकीकत जणाय जे अने ते ए के तेए न्यायना सो ग्रंथ बनाव्या त्यारे तेउने न्यायाचार्यनी पदवी मली हती. आविषे प्रशस्तिमां नीचेप्रमाणे जणावेल -
पूर्वन्यायविशारदत्वबिरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधायाचार्यपदं ततः कृतशतग्रन्थस्य यस्यार्पितम् ॥ दशमा ज्ञानबिंदु ग्रंथमां ज्ञान- लक्षण अने तेमां देशघाती प्रकृतिनी अपेक्षाए मतिज्ञानादिकनुं गद्मस्थिक गुणपणुं|| घणाज विस्तार अने युक्तिपूर्वक समजाव्यु जे. ज्ञानना मति, श्रुत, अवधि,मनःपर्याय अने केवल एवा पांच लेदो गणावी
I
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मतिज्ञाननुं लक्षण, तेनुं श्रुतज्ञानथी जुदापणुं, श्रुतनिश्रित अश्रुतनिश्रित जेदो, पदार्थ, वाक्यार्थ, महावाक्यार्थ अने ऐदंपर्यार्थ रूपी बोधनुं श्रुतपणुं, ते चारे प्रकारना बोधनी घटना ने चौदपूवींना पद्स्थानपतित बोधनं श्रुतपणुं जणाव्यं बै. अगल अवग्रहादिकना अनुक्रमनी जरुर, अवग्रहना जेदो, तेनुं स्वरूप, तेना प्रामाण्य अप्रामाण्यपणाना स्वतस्त्व परतस्त्वनो निर्णय, सम्यक्त्वने अंगे ज्ञाननी प्रामाण्यता, स्याद्वादने अंगे एक पदार्थना ज्ञानथी सर्व पदार्थनुं ज्ञान अने अवग्रहादिक भेदोमां ज्ञान दर्शननी व्यवस्था जणावी मतिज्ञाननुं स्वरूप अत्यंत गहन रीते सूक्ष्म बोध थाय तेम जणान्युं बे. श्रुतज्ञाना विवेचनमां तेनुं स्वरूप, मतिश्रुतनो तफावत अने महावादीना मते ते बन्नेनुं ऐक्य समजाववामां श्राव्यं बे. त्रीजा अवधिज्ञानना विषयमां तेनुं लक्षण ने परमावधिनो विषय सारी रीते समर्थन करी मनः पर्यायश्री तेनी जि न्नता साबीत करी बे. चोथा मनःपर्याय ज्ञानना स्वरूपमां तेनुं लक्षण जणावी चिंतित जाणवानी रीति तेमज मनःपर्याय मां दर्शननो अंगीकार ने अनंगीकार, तेमज मनःपर्यायथी जाणवा लायक मननुं स्वरूप समजाव्यं बे. पांचमा केवलज्ञानना विषयमां तेनुं लक्षण, सर्वज्ञतानी सिद्धि, तेनुं प्रमाणिकपणुं, केवलज्ञानावरणना नाशनी आवश्यकता, कर्मनुं श्रावारकपणुं, खोजादिकनी कफादिश्री तेमज शुक्रादिश्री उत्पत्ति माननाराउंना मतनु खंकन, नैरात्म्यनाव माननार बौधना मतमां सर्वज्ञतानुं अव्यवस्थितपणुं, एकरस ब्रह्मज्ञानने केवलज्ञान तरीके माननारनुं निराकरण, परमार्था - दिक ऋण शक्तिनुं खंमन, दृष्टि सृष्टिवादनुं खंमन, ब्रह्मविषय ने ब्रह्माकार वृत्तिनुं खंडन, अध्यासनुं निराकरण, व्यार्थिक पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए सूक्ष्म विचार श्रेणी ने अज्ञान कपनाना निरासपर विस्तारथी विवेचन कर्यु
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उपोद्
घात.
ने अने बेवटे श्रीमलवादीजी, श्रीसिघसेन दिवाकरजी तथा श्रीजिनजागणिक्षमाश्रमणजीना केवलज्ञान दर्शन अने तेना उपयोग संबंधी मतो जणावी संमति तर्कनी ते विषयनी गाथाउनुं सारी रीते विवेचन करी ते तमाम मतोनुं नय अपेदाए एकीकरण कयु बे.
श्रा प्रमाणेना रहस्योवाला दश ग्रंथोथी या ग्रंथमाला पूर्ण करवामां श्रावी . | जोके था दश ग्रंथोनो उपोद्घात संदेपथी जणाव्यो ने तो पण सामान्य रीते जेम बीजा सामान्य ग्रंथोना उपोदूघातथी समग्र ग्रंथनु हार्द आपी शकाय ने तेम अहीं बनी शके तेवू नथी, तेनुं कारण आ ग्रंथोर्नु अतिशय गहनपणुंज जे. उतां तद्दन सामान्य बुधिना जीवोने कंश्क उद्देश मात्र मालूम पके माटे आ उपोद्घात लखवामां आव्यो बाकी तो श्रीमन्न्यायाचार्य महाराजनां अत्यंत गहन वाक्योनो टुंकाणथी बोध करवानो उद्यम हास्यने पात्र बनावे तेवु ने. तो पण शक्ति प्रमाणे जे मनुष्य जेम बोध पामे तेम प्रयत्न करवानी जरूर जाणी आ उद्यम कर्यो बे. .
केटलाक जव्यो तरफथी जापान्तर साथे आ ग्रंथो बहार पावा सूचना थती हती पण वर्तमान समयमां न्यायविषयना ग्रंथोनो बोध भाषांतरो उपरथी असंजवित नहि तो अशक्य तो जरुर ने एम जाणवाथी ते तरफ उद्यम करवानो विचार कर्यो नथी, उतां मूल पुस्तको सारी रीते बहार आव्या पली बीजी संस्था तेनां नाषान्तरो करी बहार पामशे ए पण संजवित जे एम धारी मूल ग्रंथनोज उधार करवानी अपेक्षा राखी आ ग्रंथोनुं मूलमात्र बहार |पामवामां आव्यु बे.
॥१८॥
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॥ न्यायाचार्य श्रीयशोविजयोपाध्यायकृत ॥
॥ अध्यात्मसारग्रंथ ॥
॥ ऍप्रश्रेणिनतः श्रीमान्नंदतान्नाजिनंदनः ॥ उद्दधार युगादौ यो जगदज्ञानपंकतः ॥ १ ॥ श्री शांतिस्ततिनिद्भूयान्नविनां मृगलांबनः ॥ गावः कुवलयोल्लासं कुर्वते यस्य निर्मलाः ॥ २ ॥ श्रीशैवेयं जिनं स्तौमि नुवनं यशसेव यः ॥ मारुतेन मुखोवेन पांचजन्यमपूपुरत् ॥ ३ ॥ जीयात् फणिफणप्रांत संक्रांत नुरेकदा ॥ उद्धर्तुमिव विश्वानि श्रीपार्श्वे बहुरूपजाकू ॥ ४ ॥ जगदानंदनः स्वामी जयति ज्ञातनंदनः ॥ उपजीवंति यद्वाचमद्यापि विबुधाः सुधाम् ॥ ५ ॥ एतानन्यानपि जिनान्नम|स्कृत्य गुरूनपि ॥ श्रध्यात्मसारमधुना प्रकटीकर्तुमुत्सहे ॥ ६ ॥ शास्त्रात्परिचितां सम्यक्संप्रदायाच्च धीमतां ॥ इहानुजवयोगाच्च प्रक्रियां कामपि ब्रुवे ॥ ७ ॥ योगिनां प्रीतये पद्यमध्यात्मरसपेशलं ॥ जोगिनां जामिनीगीतं संगीतकमयं यथा | ॥ ८ ॥ कांताधरसुधास्वादाद्यूनां यजायते सुखम् ॥ बिंदु: पार्श्वे तदध्यात्मशास्त्रास्वादसुखोदधेः ॥ ए ॥ श्रध्यात्मशास्त्रसंनूतसंतोषसुखशालिनः ॥ गणयंति न राजानं न श्रीदं नापि वासवम् ॥१०॥ यः किलाशिक्षिताध्यात्मशास्त्रः पांडित्यमिति ॥ उत्पित्यंगुलीं पंगुः स स्वफल लिप्सया ॥ ११ ॥ दंजपर्वतदंजोलिः सौहादबुधिचंद्रमाः ॥ श्रध्यात्मशास्त्रमुत्तालमोह
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अध्यात्मसार ॥ १ ॥
| जालवनानलः ॥ १२ ॥ श्रध्वा धर्म्मस्य सुस्थः स्यात्पापचौरः पलायते || अध्यात्मशास्त्र सौराज्ये न स्यात्कश्चिपप्लवः ॥ | ॥ १३ ॥ येषामध्यात्मशास्त्रार्थतत्त्वं परिणतं हृदि ॥ कषायविषयावेशक्लेशस्तेषां न कर्हिचित् ॥ १४ ॥ निर्दयः कामचंडालः | पंकितानपि पीमयेत् ॥ यदि नाध्यात्मशास्त्रार्थबोधयोधकृपा जवेत् ॥ १५ ॥ विषवलिसमा तृष्णां वर्धमानां मनोवने ॥ | अध्यात्मशास्त्रदात्रेण बिंदंति परमर्षयः ॥ १६ ॥ वने वेश्म धनं दौस्थ्ये तेजो ध्वांते जलं मरौ ॥ दुरापमाप्यते धन्यैः | कलावध्यात्मवाङ्मयम् ॥ १७ ॥ वेदान्यशास्त्रवित् क्लेशं रसमध्यात्मशास्त्रवित् ॥ जाग्यनृनोगमाप्नोति वहति चंदनं खरः ॥ १० ॥ जास्फालनहस्तास्यविकारानियाः परे ॥ श्रध्यात्मशास्त्र विज्ञास्तु वदंत्य विकृतेक्षणाः ॥ १९ ॥ अध्यात्मशास्त्र| हेमा मिथितादागमोदधेः ॥ नूयांसि गुणरत्नानि प्राप्यंते विबुधैर्न किम् ॥ २० ॥ रसो जोगावधिः कामे सद्भक्ष्ये नोज| नावधिः ॥ श्रध्यात्मशास्त्रसेवायां रसो निरवधिः पुनः ॥ २१ ॥ कुतर्कयं श्रसर्वस्वगर्वज्वरविकारिणी ॥ एति दृङ्गिर्मली - जावमध्यात्मग्रंथ भेषजात् ॥ २२ ॥ धनिनां पुत्रदारादि यथा संसारवृद्धये ॥ तथा पांडित्यदृप्तानां शास्त्रमध्यात्मवर्जितम् ॥ २३ ॥ श्रध्येतव्यं तदध्यात्मशास्त्रं जाव्यं पुनः पुनः ॥ अनुष्ठेयस्तदर्थश्च देयो योग्यस्य कस्यचित् ॥ २४ ॥ ॥ इत्यध्यात्मसारे माहात्म्याधिकारः ॥ १ ॥
॥ भगवन् किं तदध्यात्मं यदिवमुपवर्त्यते ॥ शृणु वत्स यथाशास्त्रं वर्णयामि पुरस्तव ॥ १ ॥ गतमोदाधिकाराणामात्मानमधिकृत्य या ॥ प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तदध्यात्मं जगुर्जिनाः ॥ २ ॥ सामायिकं यथा सर्वचारित्रेष्वनुवृत्तिमत् ॥ श्रध्यात्मं सर्वयोगेषु तथानुगतमिष्यते ॥ ३ ॥ अपुनबंधकाद्यावद्गुणस्थानं चतुर्दशम् ॥ क्रमशुद्धिमती तावत् क्रियाध्यात्ममयी मता
अधिकार. ५.
॥ १ ॥
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॥ श्राहारोपधिपूजर्डिगौरवप्रतिबंधतः ॥ जवाजिनंदी या कुर्यात् क्रियां साध्यात्मवैरिणी ॥ ५ ॥ दुषो खोजरतिदीनो मत्सरी जयवान् शवः ॥ अज्ञो नवाजिनंदी स्यान्निष्फलारंजसंगतः ॥६॥ शांतो दांतः सदा गुप्तो मोक्षार्थी विश्व-IN वत्सलः॥ निर्दना या क्रियां कुर्यात् साध्यात्मगुणवृधये ॥ ७॥ अत एव जनः पृथ्वोत्पन्नसंज्ञः पिपृश्लिषुः ॥ साधुपाच जिगमिषुर्धर्म पृचन क्रियास्थितः॥ ॥ प्रतिपित्सुः सृजन पूर्व प्रतिपन्नश्च दर्शनम् ॥ श्राखो यतिश्च त्रिविधोऽनंतांशपकस्तथा ॥ ए॥ दृङ्मोहदपको मोडशमकः शांतमोहकः ॥ पकः क्षीणमोहश्च जिनोऽयोगीच केवली॥१०॥ यथा क्रमममी प्रोक्ता असंख्यगुणनिर्जराः ॥ यतितव्यमतोध्यात्मवृष्ये कलयापि हि ॥ ११॥ ज्ञानं शुद्धं क्रिया शुभेत्यंशी घाविह संगतौ ॥ चक्रे महारथस्येव पक्षाविव पतत्रिणः ॥ १२ ॥ तत्पंचमगुणस्थानादारज्यैवैतदिति ॥ निश्चयो व्यवहारस्तु पूर्वमप्युपचारतः ॥ १३ ॥ चतुर्थेपि गुणस्थाने शुश्रूषाद्या क्रियोचिता ॥ अप्राप्तस्वर्णजूषाणां रजताचरणं यथा॥१॥ अपुनर्बधकस्यापि या क्रिया शमसंयुता ॥ चित्रा दर्शननेदेन धर्मविनश्याय सा ॥ १५॥ अशुशापि हि शुझायाः क्रिया हेतुः सदाशयात् ॥ तानं रसानुवेधेन स्वर्णत्वमधिगच्छति ॥ १६॥ अतो मार्गप्रवेशाय व्रतं मिथ्यादृशामपि ॥ व्यसम्य-12 क्त्वमारोप्य ददते धीरबुष्यः ॥ १७॥ यो बुध्वा नवनर्गुण्यं धीरः स्याद्रतपालने ॥ स योग्यो जावदस्तु मुर्लयो नोपयुज्यते ॥ १० ॥ नोचेन्नावापरिझानात्सिद्ध्यसिद्धिपराहतेः॥ दीक्षाऽदानेन नव्यानां मार्गोछेदः प्रसज्यते ॥ १५ ॥ अशुघानादरेऽन्यासायोगान्नो दर्शनाद्यपि ॥ सिध्येन्निसर्गजं मुक्त्वा तदप्याच्यासिकं यतः॥ २० ॥ शुधमार्गानुरागणाशानां या तु शुद्धता ॥ गुणवत्परतंत्राणां सा न क्वापि विहन्यते ॥१॥विषयात्मानुबंधैर्हि त्रिधा शुद्धं यथोत्तरं ॥ ब्रूवते कर्म
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अधिकार
अध्यात्म-
सार ॥२॥
तत्राद्यं मुक्त्यर्थ पतनाद्यपि ॥२॥ अज्ञानिनां वितीयं तु लोकदृष्ट्या यमादिकम् ॥ तृतीयं शांतवृत्त्या तत्तत्त्वसंवेदनानुगम् M॥ २३॥ श्राद्यान्नाहानबाहुट्यान्मोबाधकबाधनं ॥ सन्नावाशयलेशेनोचितं जन्म परे जगुः ॥ २४ ॥ वितीयाद्दोषहानिःस्यात्काचिन्मंडूकचूर्णवत् ॥ आत्यंतिकी तृतीयात्तु गुरुलाघवचिंतया ॥२५॥ अपि स्वरूपतः शुचा क्रिया तस्माधिशुद्धिकृत् ॥ मौनींव्यवहारेण मार्गबीजं दृढादरात् ॥ २६ ॥ गुर्वाज्ञापारतंत्र्येण अव्यदीक्षाग्रहादपि ॥ वीर्योबासक्रमाप्राप्ता बहवः परमं पदम् ॥ २७॥ अध्यात्माच्यासकालेपि क्रिया काप्येवमस्ति हि॥ शुजौघसंशानुगतं ज्ञानमप्यस्ति किंचन ॥२०॥ अतोज्ञानक्रियारूपमध्यात्म व्यवतिष्ठते ॥ एतत्प्रवर्धमानं स्यान्निर्दनाचारशालिनाम् ॥ श्ए॥
॥ इत्यध्यात्मस्वरूपाधिकारः ॥ २ ॥ ॥ दनो मुक्तिलतावन्हिलो राहुः क्रियाविधौ ॥ दौाग्यकारणं दंलो दंनोऽध्यात्मसुखार्गला ॥१॥ दंनो ज्ञानाभिदंनोतिर्दनः कामानले हविः॥ व्यसनानां सुहृदंलो दंनश्चोरो व्रतश्रियः॥२॥ दंजेन व्रतमास्थाय यो वांति परं पदम् ॥ लोहनावं समारुह्य सोऽब्धेः पारं यियासति ॥ ३ ॥ किं व्रतेन तपोजिर्वा देनश्चेन्न निराकृतः ॥ किमादर्शन किं दीपैर्यद्यांध्यं न दृशोर्गतम् ॥४॥ केशलोचधराशय्यातिदाब्रह्मव्रतादिकम् ॥ दंन दुष्यते सर्व त्रासेनेव महामणिः॥५॥ सुत्यज रसलापव्यं सुत्यजं देहनूषणम् ॥ सुत्यजाः कामजोगाद्या मुस्त्यजं दजसेवनम् ॥ ६॥ स्वदोषनिन्हवो लोकपूजा स्याजौरवं तथा ॥ श्यतैव कदर्थ्यते दंनेन बत बालिशाः॥७॥ असतीनां यथा शीलमशीलस्यैव वृधये ॥ दनेनाव्रतवृद्ध्यर्थ व्रत वेषनृतां तथा ॥७॥ जानाना अपि दंनस्य स्फुरितं बाखिशा जनाः॥ तत्रैव धृतविश्वासाः प्रस्खखंति पदे पदे ॥ ए॥
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अहो मोहस्य माहात्म्यं दीक्षां जागवतीमपि ॥ दंलेन यघिलुपंति कजाखेनेव रूपकम् ॥ १०॥ श्रने हिम तनौ रोगो वने वन्हिर्दिने निशा ॥ ग्रंथे मौख्यं कलिः सौख्ये धर्मे दंन उपप्लवः॥ ११ ॥ अत एव न यो धर्तु मूलोत्तरगुणानतम् ॥ युक्ता सुश्रावता तस्य न तु दंनेन जीवनम् ॥ १२॥ परिहर्तुं न यो लिंगमप्यलं दृढरागवान् ॥ संविझपादिकः स स्यान्निदैनः साधुसेवकः ॥ १३॥ निर्दनस्यावसन्नस्याप्यस्य शुधार्थनाषिणः ॥ निर्जरां यतना दत्ते स्वट्पापि गुणरागिणः॥१४॥ व्रतजारासहत्वं ये विदंतोप्यात्मनः स्फुटम् ॥ दनाद्यतित्वमाख्याति तेषां नामापि पाप्मने ॥१५॥ कुर्वते ये न यतनां सम्य
कालोचितामपि ॥ तैरहो यतिनाम्नैव दांजिकैर्वच्यते जगत् ॥ १६॥ धींतिख्यातिलोनेन प्रवादितनिजाश्रवः ॥ तृणाय मन्यते विश्व हीनोपि धृतकैतवः ॥ १७॥ आत्मोत्कर्षात्ततो दंनी परेषां चापवादतः ॥ बन्नाति कठिनं कर्म बाधक योगजन्मनः॥ १०॥ श्रात्मार्थिना ततस्त्याज्यो दंलोऽनर्थनिबंधनम् ॥ शुद्धिः स्यादृजुनूतस्येत्यागमे प्रतिपादितम् ॥१ए। जिननानुमतं किंचिन्निषिई वा न सर्वथा ॥ कार्ये नाव्यमदंनेनेत्येषाझा पारमेश्वरी ॥२०॥ अध्यात्मरतचित्तानां दंजः स्वस्पो|ऽपि नोचितः॥ जिलेशोऽपि पोतस्य सिंधुं लंघयतामिव ॥२१॥दनलेशोपि मढ्यादेः स्त्रीत्वानर्थनिबंधनम् ॥ अतस्तपरिहाराय यतितव्यं महात्मना ॥ २२॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥
॥ इति दंभत्यागाधिकारः ॥ ३ ॥ | ॥ तदेवं निर्दनाचरणपटुना चेतसि लव-स्वरूपं संचिंत्यं क्षणमपि समाधाय सुधिया।इयं चिंताऽध्यात्मप्रसरसरसीनीरलहरी सतां वैराग्यास्थाप्रियपवनपीना सुखकृते ॥१॥श्तः कामौर्वाग्निवलति परितो मुसह इतः पतंति ग्रावाणो विषय
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अध्यात्म
सार
॥ ३ ॥
गिरिकूटा विघटिताः ॥ इतः क्रोधावर्तो विकृतितटिनी संगमकृतः समुद्रे संसारे तदिह न जयं कस्य जवति ॥ २ ॥ प्रियाज्वाला यत्रोधमति रतिसंतापतरला कटाक्षान् धूमौघान् कुवलयदलश्यामल रुचीन् ॥ अथांगान्यंगाराः कृतबहुविकाराश्च विषया दहंत्यस्मिन्वह्नौ जववपुषि शर्म व सुलजम् ॥ ३ ॥ गले दत्वा पाशं तनयवनितास्नेहघटितं निपीड्यंते यत्र प्रकृति| कृपणाः प्राणिपशवः ॥ नितांतं दुःखार्त्ता विषमविषयैर्घातकनदैर्भवः सूनास्थानं तदहह महासाध्वसकरम् ॥ ४ ॥ अविद्यायां रात्रौ चरति वहते मूर्ध्नि विषमं कषायव्यालौघं क्षिपति विषयास्थीनि च गले ॥ महादोषान् दंतान् प्रकटयति वक्रस्मरमुखो न विश्वासार्होऽयं जवति जवनक्तंचर इति ॥ २ ॥ जना लब्ध्वा धर्म्मऽ विणलवनिक्षां कथमपि प्रयांतो वामाक्षीस्तन विषमदुर्गस्थितिकृता ॥ विलुव्यंते यस्यां कुसुमशर जिलेन बलिना जवाटव्यां नास्यामुचितमसहायस्य गमनम् ॥ ६ ॥ धनं मे गेहूं | मे मम सुतकलत्रादिकमतो विपर्यासादासादितविततदुःखा श्रपि मुदुः ॥ जना यस्मिन् मिथ्यासुखमदनृतः कूटघटनाम | योऽयं संसारस्तदिह न विवेकी प्रसजति ॥ ७ ॥ प्रियास्नेहो यस्मिन्निगमसदृशो यामिकनटोपमः स्वीयो वर्गो धनमजिनवं बंधनमिव ॥ मदामेध्यापूर्ण व्यसन बिल संसर्गविषमं जवः कारागेहं तदिह न रतिः क्वापि विदुषाम् ॥ ८ ॥ महाक्रोधो गृध्रोSनुपरतिशृगाली च चपला स्मरोलूको यत्र प्रकटकदुशब्दः प्रचरति || प्रदीप्तः शोकाग्निस्ततमपयशोजस्म परितः स्मशानं | संसारस्तद निरमणीयत्वमिह किम् ॥ ए ॥ धनाशा यहायाप्यतिविषममूर्गप्रणयिनी विलासो नारीणां गुरुविकृतये यत्सुम| रसः ॥ फलास्वादो यस्य प्रसरनरकव्याधिनिवहस्तदास्था नी युक्ता जवविषतरावत्र सुधियाम् ॥ १० ॥ क्वचित् प्राज्यं राज्यं | वचन धनलेशोप्यसुलनः क्वचिज्ञातिस्फातिः क्वचिदपि च नीचत्वकुयशः ॥ क्वचिलावण्य श्रीरतिशयवती क्वापि न वपुःस्व
अधिकार.
॥ ३ ॥
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| रूपं वैषम्यं रतिकरमिदं कस्य नु जवे ॥ ११ ॥ इहोदामः कामः खनति परिपंथी गुणमहीमविश्रामः पार्श्वस्थित कुपरिणा| मस्य कलहः ॥ बिलान्यतः क्रामन्मदफणनृतां पामरमतं वदामः किं नाम प्रकटजवधाम स्थितिसुखम् ॥ १२ ॥ तृषार्त्ताः खिद्यते विषयविवशा यत्र जविनः करालक्रोधार्काहमसरसि शोषं गतवति ॥ स्मरस्वेदक्वेदग्लपितगुणमेदस्यनुदिनं जवग्रीष्मे भीष्मे किमिह शरणं तापहरणम् ॥ १३ ॥ पिता माता चाताप्यभिलषित सिद्धाव जिमतो गुणग्रामज्ञाता न खलु धनदाता च | धनवान् ॥ जनाः स्वार्थस्फातावनिशमवदाताशय नृतः प्रमाता कः ख्याताविह जवसुखस्यास्तु रसिकः ॥ १४ ॥ पणैः प्रागृहात्यदह महति स्वार्थ इह यान् त्यजत्युच्चैर्लोकस्तृणवदघृणस्तानपरथा ॥ विषं स्वांते वक्त्रेऽमृतमिति च विश्वासहतिकृद्भवादित्युगो यदि न गदितैः किं तदधिकैः ॥ १५ ॥ दृशां प्रांतैः कांतेः कलयति मुदं कोपकलितैरमी निः खिन्नः स्याद्वनधन निधीनामपि गुणी ॥ उपायैस्तुत्याद्यैरपनयति रोषं कथमपीत्यहो मोहस्येयं जवजवनवैषम्यघटना ॥ १६ ॥ | प्रिया प्रेक्षा पुत्रो विनय इह पुत्री गुणरतिर्विवेकाख्यस्तातः परिणतिरनिंद्या च जननी || विशुद्धस्य स्वस्य स्फुरति हि कुटुंबं स्फुटिमिदं जवे तन्नो दृष्टं तदपि बत संयोगसुखधीः ॥ १७ ॥ पुरा प्रेमारं तदनु तदविच्छेदघटने तमुच्छेदे दुःखा| न्यथ कठिनचेता विषहते ॥ विपाकादापाका हितकलशवत्तापबहुलानोयस्मिन्नस्मिन्कचिदपि सुखं दंत न जवे ॥ १८ ॥ | मृगाक्षी हग्बाणैरिह हि निहतं धर्म्मकटकं विलिप्ता हृद्देशा इह च बहुलै रागरुधिरैः ॥ भ्रमंत्यूर्ध्वं क्रूरा व्यसनशतगृभ्राश्च | तदियं महामोहदोषी रमण रणभूमिः खलु जवः ॥ १९ ॥ हसंति क्रीडंति क्षणमय च खिद्यंति बहुधा रुदंति ऋदंति क्षण
१ मोहस्यैवमिति पाठांतरम् ।
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अध्यात्म- सार
अधिकार,
मपि विवादं विदधते ॥ पलायंते मोदं दधति परिनृत्यंति विवशा नवे मोहोन्मादं कमपि तनुजाजः परिगताः॥२०॥ अपूर्णा विद्येव प्रकटखलमैत्रीव कुनयप्रणालीवास्थाने विधववनितायौवनमिव ॥ अनिष्णाते पत्यो मृगदृश इव स्नेहलहरी नवक्रीडात्रीमा दहति हृदयं तात्त्विकदृशाम् ॥ १॥ प्रनाते संजाते नवति वितथा स्वापकलना विचंऽज्ञानं वा तिमिरविरहे निर्मसदृशाम् ॥ तथा मिथ्यारूपः स्फुरति विदिते तत्त्वविषये नवोऽयं साधूनामुपरतविकटपस्थिरधियाम् ॥ २॥ प्रियावाणीवीणाशयनतनुसंबाधनसुखैनवोयं पीयूषैर्घटित इति पूर्व मतिरनूत् ॥ अकस्मादस्माकं परिकलिततत्त्वोपनिषदामिदानीमेतस्मिन्न रतिरपि तु स्वात्मनि रतिः ॥२३ ॥ दधानाः काविन्यं निरवधिकमाविद्यकनवप्रपंचाः पांचालीकुचकलशवन्नातिरतिदाः ॥ गलत्यज्ञानाचे प्रसृमररुचावात्मनि विधौ चिदानंदस्यदः सहज इति तेच्योस्तु विरतिः ॥२४॥ नवे या राज्यश्रीगजतुरगगोसंग्रहकृता न सा ज्ञानध्यानप्रशमजनिता किं स्वमनसि ॥ बहिर्याः प्रेयस्यः किमु मनसि ता नात्मरतयस्ततः स्वाधीनं कस्त्यजति सुखमिवत्यथ परम् ॥ २५॥ पराधीनं शर्म क्षयि विषयकांदौघमलिनं नवे जीतेः स्थानं तदपि कुमतिस्तत्र रमते ॥ बुधास्तु स्वाधीनेऽक्षयिणि करणौत्सुक्यरहिते निलीनास्तिष्ठति प्रगलितजयाध्यात्मिकसुखे ॥२६॥ तदेतद्भाषते जगदजयदानं खलु जवस्वरूपानुध्यानं शमसुखनिदानं कृतधियः॥ स्थिरीजूते यस्मिन्विधुकिरणकर्पूरविमला यशश्रीः प्रौढा स्याङिनसमयतत्त्वस्थितिविदाम् ॥ २७॥ ॥
॥ इति भवस्वरूपचिताधिकारः ॥ ४॥ इति श्रीनयविजयगणिशिष्यन्यायविशारदश्रीयशोविजयोपाध्यायविरचितेऽध्यात्मसारप्रकरणे प्रथमः प्रबंधः ॥
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॥जवस्वरूपविज्ञानाडेपानर्गुण्यदृष्टिजात् ॥ तदियोचेदरूपं प्राग वैराग्यमुपजायते ॥ १॥ सिद्ध्या विषयमाख्यस्य पैराग्यं || वर्णयंति ये ॥ मतं न युज्यते तेषां यावदाप्रसिद्धितः॥२॥ अप्राप्तवन्नमाउच्चरवाप्तेष्वप्यनंतशः॥ कामनोगेषु मूढानां|| समीहा नोपशाम्यति ॥ ३ ॥ विषयैः दीयते कामो नेधनैरिव पावकः ॥ प्रत्युत प्रोससक्तिय एवोपवर्धते ॥॥ सौम्यत्वमिव सिंहानां पन्नगानामिव दमा ॥ विषयेषु प्रवृत्तानां वैराग्यं खलु उलनम् ॥ ५॥ अकृत्वा विषयत्यागं यो वैराग्यं | दिधीति ॥ अपथ्यमपरित्यज्य स रोगोचेदमिवति ॥६॥न चित्ते विषयासक्ते वैराग्यं स्थातुमप्यलम् ॥ अयोधन श्योत्तप्ते निपतन्विपुरंजसः॥9॥ यदींमुः स्यात् कुहरात्रौ फलं यद्यवकेशिनि ॥ तदा विषयसंसर्गिचित्त वैराग्यसंक्रमः॥८॥ नवहेतुषु तद्वपाविषयेष्वप्रवृत्तितः ॥ वैराग्यं स्यान्निरावा, नवनैर्गुण्यदर्शनात् ॥ ॥ चतुर्थेपि गुणस्थाने नन्वेवं तत् प्रसज्यते ॥ युक्तं खलु प्रमातृणां नवनैगुण्यदर्शनम् ॥१० ॥ सत्यं चारित्रमोहस्य महिमा कोप्ययं खलु ॥ यदन्यहेतुयोगेऽपि फलायोगोऽत्र दृश्यते ॥ ११॥ दशाविशेषे तत्रापि नचेदं नास्ति सर्वथा ॥ स्वव्यापारहतासंगं तथा च स्तवनापितं ॥१॥ यदा मरुन्नरेंऽश्रीरत्वया नायोपत्तुज्यते ॥ यत्र तत्र रति म विरक्तत्वं तदापि ते ॥ १३ ॥ नवेचा यस्य विविन्ना प्रवृत्तिः कर्मनावजा ॥ रतिस्तस्य विरक्तस्य सर्वत्र शुनवेद्यतः॥ १४॥ अतश्चादेपकानात् कांतायां नोगसन्निधौ ॥ न शुचिनक्यो यस्माहारिलमिदं वचः ॥१५॥ मायांनस्तत्त्वतः पश्यन्ननुविग्नस्ततो द्रुतम् ॥ तन्मध्येन प्रयात्येव यया व्याघातवर्जितः॥१६॥ लोगान स्वरूपतः पश्यंस्तथा मायोदकोपमान् ॥ नुंजानोपि ह्यसंगः सन् प्रयात्येव परं पदम् ॥ १७॥ नोगत
१दुर्वजमिति वा पाठः।
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अध्यात्म-
अधिकार.
त्वस्य तु पुनर्न नवोदधिलंघनम् ॥ मायोदकदृढावेशात्तेन यातीह कः पया ॥ १७ ॥ स तत्रैव नवोदिनो यथा तिष्ठत्यसं- शयं ॥ मोक्षमार्गेपि हि तथा जोगजंबालमोहितः ॥ १५॥ धर्मशक्तिं न इत्यत्र लोगयोगो बलीयसीं ॥ हंति दीपापहो वायुर्वलंतं न दबानलम् ॥२०॥ बध्यते बाढमासक्तो यथा श्लेष्मणि मक्षिका ॥ शुष्कगोलवदश्लिष्टो विषयेन्यो न बध्यते । ॥ १॥ बहुदोषनिरोधार्थमनिवृत्तिरपि क्वचित् ॥ निवृत्तिरिव नो पुष्टा योगानुनवशालिनाम् ॥२॥ यस्मिन्निषेव्यमाणेपि
यस्याशुधिः कदाचन ॥ तेनैव तस्य शुद्धिः स्यात् कदाचिदिति हि श्रुतिः ॥ २३ ॥ विषयाणां ततो बंधजनने नियमोस्ति लान ॥ अज्ञानिनां ततो बंधो ज्ञानिनां तु न कहिंचित् ॥ २४॥ सेवतेऽसेवमानोपि सेवमानो न सेवते ॥ कोपि पारजनो न
स्याच्छ्रयन् परजनानपि ॥ २५॥ श्रतएव महापुण्यविपाकोपहितश्रियाम् ॥ गोदारज्य वैराग्यं नोत्तमानां विहन्यते ॥२६॥ विषयेच्या प्रशांतानामश्रांतं विमुखीकृतैः॥ करणैश्चारुवैराग्यमेष राजपथः किल ॥ २७ ॥ स्वयं निवर्तमानस्तैरनुदीरयंत्रितैः॥ तृप्तैानवतां तत्स्यादसावेकपदी मता ॥ २० ॥ बलेन प्रेर्यमाणानि करणानि वनेनवत् ॥ न जातु वशतां यांति प्रत्युतानर्थवृष्ये ॥ ए॥ पश्यति खया नीचर्डानं च प्रयुंजते ॥ आत्मानं धार्मिकाजासाःक्षिपति नरकावटे ॥ ३० ॥ वंचनं करणानां तरिक्तः कर्तुमर्हति ॥ सद्भावविनियोगेन सदा स्वान्यविनागवित् ॥ ३१ ॥ प्रवृत्तेर्वानिवृत्तेर्वा न संकटपो न च श्रमः॥ विकारो हीयतेऽक्षाणामिति वैराग्यमजुतम् ॥ ३२॥ दारुयंत्रस्थपांचालीनृत्यतुट्याः प्रवृत्तयः॥ योगिनो नैव बाधायै शानिनो खोकवर्तिनः ॥ ३३ ॥ श्यं च योगमायेति प्रकट गीयते परैः॥ लोकानुग्रहहेतुत्वान्नास्यामपि च दूषणम् |
॥
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॥ ३४ ॥ सिद्धांते श्रूयते चेयमपवादपदेष्वपि ॥ मृगपर्षत्परित्रासनिरासफल संगता ॥ ३५ ॥ श्रदासीन्यफले ज्ञाने परिपा कमुपेयुषि ॥ चतुर्थेपि गुणस्थाने सघैराग्यं व्यवस्थितम् ॥ ३६ ॥
॥ इति वैराग्य संभवाधिकारः ॥ ५ ॥
॥ तद्वैराग्यं स्मृतं दुःखमोदज्ञानान्वयात्रिधा ॥ तत्राद्यं विषयाप्राप्तेः संसारोगलक्षणम् ॥ १ ॥ चत्रांगमनसोः खेदो ज्ञा|नमाप्यायकं न यत् ॥ निजाजीप्सितलाने च विनिपातोपि जायते ॥ २ ॥ दुःखाद्विरक्ताः प्रागेवेांति प्रत्यागतेः पदम् ॥ अधीरा इव संग्रामे प्रविशतो वनादिकम् ॥ ३ ॥ शुष्कतर्कादिकं किंचिद्वैद्यकादिकमप्यहो ॥ पठंति ते शमनदीं न तु सिद्धांतपद्धतिम् ॥ ४ ॥ ग्रंथपलवबोधेन गर्वोष्माणंच बिनति । तत्त्वं ते नैव गछंति प्रशमामृत निर्जरं ॥ ५ ॥ वेषमात्रनृतोऽप्येते | गृहस्थान्नातिशेरते ॥ न पूर्वोष्ठायिनो यस्मान्नापि पश्चान्निपातिनः ॥ ६ ॥ गृहेऽन्नमात्र दौर्लच्यं लभ्यंते मोदका व्रते ॥ वैराग्यस्यायमर्थो हि दुःखगर्भस्य लक्ष्णम् ॥ ७॥ कुशास्त्रान्याससंभूतं जवनैर्गुण्यदर्शनात् ॥ मोहगर्ने तु वैराग्यं मतं बालत|पस्विनाम् ॥ ८ ॥ सिद्धांतमुपजीव्यापि ये विरुद्धार्थजाषिणः । तेषामप्येतदेवेष्टं कुर्वतामपि दुष्करं ||| संसारमोचकादीनामिवैतेषां न तात्त्विकः ॥ शुनोऽपि परिणामो याता नाज्ञारुचिस्थितिः ॥ १० ॥ श्रमीषां प्रशमोऽप्युच्चैर्दोषपोषाय केवलम् ॥ अंतर्निलीन विषमज्वरानुद्भवसन्निः ॥ ११ ॥ कुशास्त्रार्थेषु दक्षत्वं शास्त्रार्थेषु विपर्ययः ॥ स्वछंदता कुतर्कश्च गुणवत्संस्तवोशनम् ॥ १२ ॥ श्रात्मोत्कर्षः परप्रोहः कलहो दंनजीवनम् ॥ श्राश्रवाबादनं शक्त्युबंधनेन क्रियादरः ॥ १३॥ गुणानुरागवैधुर्यमुपकारस्य विस्मृतिः ॥ अनुबंधाद्यचिंता च प्रणिधानस्य विच्युतिः ॥ १४ ॥ श्रामृदुत्वमौ त्यमधैर्य्यमविवेकि
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अध्यात्म
सार ॥ ६ ॥
ता || वैराग्यस्य द्वितीयस्य स्मृतेयं लक्षणावली ॥ १५ ॥ ज्ञानगर्ज तु वैराग्यं सम्यक् तत्त्वपरिविदः ॥ स्यादादिनः शिवो| पायस्पर्शिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ १६ ॥ मीमांसा मांसला यस्य स्वपरागमगोचरा ॥ बुद्धिः स्यात्तस्य वैराग्यं ज्ञानगर्जमुदंचति | ॥ १७ ॥ न स्वान्यशास्त्रव्यापारे प्राधान्यं यस्य कर्मणि ॥ नासौ निश्चयसंशुद्धं सारं प्राप्नोति कर्म्मणः ॥ १८ ॥ सम्यक्त्व - मौनयोः सूत्रे गतप्रत्यागते यतः ॥ नियमो दर्शितस्तस्मात् सारं सम्यक्त्वमेव हि ॥ १९ ॥ अनाश्रवफलं ज्ञानमव्युवानम | नाश्रवः ॥ सम्यक्त्वं तदभिव्यक्तिरित्येकत्वविनिश्चयः ॥ २० ॥ बहिर्निर्वृत्तिमात्रं स्याच्चारित्राद्व्यावहारिकात् ॥ अंतःप्रवृत्ति - | सारं तु सम्यक्प्रज्ञानमेव हि ॥ २१ ॥ एकांतेन हि षट्कायश्रद्धानेऽपि न शुद्धता || संपूर्णपर्ययालाजाद् यन्न याथात्म्य नि| श्वयः ॥ २२ ॥ यावतः पर्यया वाचां यावंतश्चार्थपर्ययाः ॥ साप्रतानागतातीतास्तावद्रव्यं किलैककम् ॥ २३ ॥ स्यात्सर्वमयमि| त्येवं युक्तं स्वपरपर्ययैः ॥ अनुवृत्तिकृतं स्वत्वं परत्वं व्यतिरेकजम् ||२४|| ये नाम परपर्यायाः स्वास्तित्वायोगतो मताः ॥ स्वकी या अप्यमी त्यागस्व पर्याय विशेषणात् ॥ २५ ॥ अतादात्म्येपि संबंधव्यवहारोपयोगतः ॥ तेषां स्वत्वं धनस्येव व्यज्यते | सूक्ष्मया धिया ॥ २६ ॥ पर्यायाः स्युर्मुनेर्ज्ञानदृष्टिचारित्रगोचराः ॥ यथा जिन्ना अपि तथोपयोगाघस्तुनो ह्यमी ॥ २७ ॥ नो चेदजाव संबंधान्वेषणे का गतिर्भवेत् ॥ श्राधारप्रतियोगित्वे द्विष्ठे न हि पृथग् योः ॥ २८ ॥ स्वान्यपर्यायसंश्लेषात् सूत्रेप्येवं निदर्शितम् ॥ सर्वमेकं विदन्वेद सर्व जानस्तथैककम् ||२|| यतिपाटवाच्या सस्वकार्यादिनिराश्रयन् ॥ पर्यायमेकमप्यर्थ वेत्ति जावाद बुधोऽखिलम् ॥३०॥ अंतरा केवलज्ञानं प्रतिव्यक्तिर्न यद्यपि ॥ कापि ग्रहणमेकांशधारं चातिप्रस| तिमत् ॥ ३१ ॥ अनेकांतागमश्रद्धा तथाप्यस्खलिता सदा ॥ सम्यग्दशस्तथैव स्यात् संपूर्णार्थ विवेचनम् ॥ ३२ ॥ श्रागमा
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॥ ६ ॥
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श्रपनयनाद् ज्ञानं प्राज्ञस्य सर्वगं ॥ कार्य्यादेर्व्यवहारस्तु नियतोल्लेखशेखरः ॥ ३३ ॥ तदेकांतेन यः कश्चिक्तिस्याप्रि कुग्रहः ॥ शास्त्रार्थबाधनात्सोऽयं जैनानासस्य पापकृत् ॥ ३४ ॥ उत्सर्गे वापवादे वा व्यवहारेऽथ निश्चये ॥ ज्ञाने कर्म्मणि वायं चेन्न तदा ज्ञानगर्जता ॥ ३५ ॥ स्वागमेऽन्यागमार्थानां शतस्येव परार्ध्यके ॥ नावतारबुधत्वं चेन्न तदा ज्ञानगर्जता ॥ ३६ ॥ नयेषु स्वार्थसत्येषु मोघेषु परचालने || माध्यस्थ्यं यदि नायातं न तदा ज्ञानगर्जता ॥ ३७ ॥ यज्ञयागमिकार्थानां | यौक्तिकानां च युक्तितः ॥ न स्थाने योजकत्वं चेन्न तदा ज्ञानगर्जता ॥ ३८ ॥ गीतार्थस्यैव वैराग्यं ज्ञानगर्ने ततः स्थितम् ॥ उपचारादगीतस्याप्यभीष्टं तस्य निश्रया ॥ ३ ॥ सूझेदिका च माध्यस्थ्यं सर्वत्र द्वितचिंतनम् ॥ क्रियायामादरो जूयान् धर्मे लोकस्य योजनम् ॥ ४० ॥ चेष्टा परस्य वृत्तांते मूकांधबधिरोपमा ॥ उत्साहः स्वगुणाभ्यासे दुःस्थस्येव धनार्जने ॥ ४१ ॥ मदनोन्मादवमनं मदसंमर्दमर्दनम् ॥ श्रसूयातंतुविच्छेदः समतामृतमानम् ॥ ४२ ॥ स्वजावान्नैव चलनं चिदानंदमया| त्सदा ॥ वैराग्यस्य तृतीयस्य स्मृतेयं लक्षणावली ॥ ४३ ॥ ज्ञानगर्जमिहादेयं घयोस्तु स्वोपमर्दतः ॥ उपयोगः कदाचित् | स्यान्निजाध्यात्मप्रसादतः ॥ ४४ ॥
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॥ इति वैराग्यभेदाधिकारः ॥ ६ ॥
॥ विषयेषु गुणेषु च द्विधा नुवि वैराग्यमिदं प्रवर्त्तते ॥ अपरं प्रथमं प्रकीर्तितं परमध्यात्मबुधैर्द्वितीयकम् ॥ १ ॥ विषया उपलंजगोचरा श्रपि चानुश्रविका विकारिणः ॥ न जवंति विरक्तचेतसां विषधारेव सुधासु मकताम् ॥ २ ॥ सुविशाल | रसालमंजरी विचरत्को किलकाकखी नरैः ॥ किमु माद्यति योगिनां मनो नितानाहतनादसादरम् ॥ ३ ॥ रमणी मृपाणिकं
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अध्यात्मसार
॥ ७ ॥
कणकण नाकर्णनपूर्णघूर्णनाः ॥ अनुभूतिनटी स्फुटीकृत प्रियसंगीतरता न योगिनः ॥ ४ ॥ स्खलनाय न शुद्धचेतसां ललनापंचमचा घोलना ॥ यदियं समतापदावली मधुरालापरतेर्न रोचते ॥ ५ ॥ सततं यि शुक्रशोणितप्रभवं रूपमपि प्रियं न हि ॥ श्रविनाशिनिसर्ग निर्म्मल प्रथमानस्वकरूपदर्शिनः ॥ ६ ॥ परदृश्यमपायसंकुलं विषयो यत्खलु चर्मचक्षुषः ॥ न हि | रूपमिदं मुदे यथा निरपायानुभवैकगोचरः ॥ ७ ॥ गतिविज्रमहास्य चेष्टितैर्ललनानामिह मोदतेऽबुधः ॥ सुकृतापिविष्वमीषु नो विरतानां प्रसरति दृष्टयः ॥ ८ ॥ न मुदे मृगनानिमलिकालवली चंदन चंद्र सौरजम् ॥ विदुषां निरुपाधिबाधितस्मर| शीलेन सुगंधिवर्ष्मणाम् ॥ ए ॥ उपयोगमुपैति यच्चिरं हरते यन्न विजावमारुतः ॥ न ततः खलु शीलसौरजादपरस्मिन्निह युज्यते रतिः ॥ १० ॥ मधुरैर्न रसैरधीरता क्वचनाध्यात्मसुधालिहां सताम् ॥ श्ररसैः कुसुमैरिवालिनां प्रसरत्पद्मपरागमो - दिनाम् ॥ ११ ॥ विषमायतिनिर्नु किं रसैः स्फुटमापातसुखैर्विकारिनिः ॥ नवमेऽनवमे रसे मनो यदि मनं सतताविकारिणि | ॥ १२ ॥ मधुरं रसमाप्य निष्पतेऽसनातो रसलोजिनां जलम् ॥ परिभाव्य विपाकसाध्वसं विरतानां तु ततो दृशोर्जलम् | ॥ १३ ॥ इह ये गुणपुष्पपूरिते धृतिपत्नीमुपगुह्य शेरते || विमले सुविकपत पके व बहिःस्पर्शरता जवंतु ते ॥ १४ ॥ हृदि निर्वृतिमेव विचतां न मुदे चंदनलेपना विधिः ॥ विमलत्वमुपेयुषां सदा सलिलस्नान कलापि निष्फला ॥ १५ ॥ गएयंति जनुः स्वमर्थवत्सुरतोल्लास सुखेन जोगिनः ॥ मदनादिविषोमूनामयतुल्यं तु तदेव योगिनः ॥ १६ ॥ तदिमे विषयाः | किलैदिका न मुदे केsपि विरक्तचेतसाम् || परलोकसुखेऽपि निःस्पृहाः परमानंदरसालसा मी ॥ १७ ॥ मदमोह विषादमत्सरज्वरबाधाविधुराः सुरा अपि ॥ विषमिश्रितपायसान्नवत् सुखमेतेष्वपि नैति रम्यताम् ॥ १८ ॥ रमणीविरहेण वह्निना
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बहुबाष्पानिलदीपितेन यत् ॥ त्रिदशैदिवि दुःखमाप्यते घटते तत्र कथं सुखस्थितिः॥१ए॥प्रश्रमानविमानसंपदां च्यवनस्यापि दिवो विचिंतनात् ॥ हृदयं न हि यहिदीयते धुसदां तत्कुलिशाणुनिर्मितम् ॥२०॥ विषयेषु रतिः शिवार्थिनो नगतिष्वस्ति किलाखिलास्वपि ॥ घननंदनचंदनार्थिनो गिरिनमिष्वपरद्रुमेष्विव ॥१॥ इति शुधमतिस्थिरीकृताऽपरवैराग्यरसस्य योगिनः॥ स्वगुणेषु वितृष्णतावहं परवैराग्यमपि प्रवर्तते ॥२२॥ विपुलपुिलाकचारणप्रबलाशीविषमुख्य
खब्धयः॥ न मदाय विरक्तचेतसामनुषंगोपनताः पलालवत् ॥ २३॥ कलितातिशयोऽपि कोऽपि नो विबुधानां मदकृद्गुवणव्रजः॥ अधिकं न विदंत्यमी यतो निजनावे समुदंचति स्वतः ॥ २४॥ हृदये न शिवेऽपि लुब्धता सदनुष्ठानमसंगम
गति ॥ पुरुषस्य दशेयमिष्यते सहजानंदतरंगसंगता ॥२५॥ इति यस्य महामतेनवेदिह वैराग्यविलासजृन्मनः॥ उपयंति वरीतुमुच्चकैस्तमुदारप्रकृतिं यशःश्रियः॥२६॥ ॥ ॥ ॥
॥ इति वैराग्यविषयाधिकारः ॥ ७॥ ॥ इति श्रीनयविजयगणिशिष्यश्रीयशोविजयेन विरचितेऽध्यात्मसारप्रकरणे द्वितीयः प्रबंधः॥ निर्ममस्यैव वैराग्यं स्थिरत्वमवगाहते ॥ परित्यजेत्ततः प्राज्ञो ममतामत्यनर्थदाम् ॥ १॥ विषयैः किं परित्यक्तैर्जागति।। ममता यदि ॥ त्यागात्कंचुकमात्रस्य नुजंगो न हि निर्विषः ॥२॥ कष्टेन हि गुणग्राम प्रगुणीकुरुते मुनिः॥ ममताराक्षसी सर्व जयत्येकहेलया ॥३॥जंतुकांतं पशूकृत्य भागविद्यौषधिबलात् ॥ उपायैर्बहुभिः पत्नी ममता क्रीडयत्यहो ॥४॥ एकः परनवे याति जायते चैक एव हि ॥ ममतोकतः सर्व संबंध कट्पयत्यथ ॥ ५ ॥ व्यामोति महतीं नूमिं वटवीजा
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द्यथा वटः ॥ तथैकममताबीजात्प्रपंचस्यापि कल्पना ॥६॥ माता पिता मे त्राता मे नगिनी वक्षना च मे ॥ पुत्राः सुता सार मे मित्राणि ज्ञातयः संस्तुताश्च मे ॥ ७ ॥ इत्येवं ममताव्याधि वर्षमानं प्रतिक्षाणम् ॥ जनः शक्नोति नोबेत्तुं विना ज्ञानम
हौषधम् ॥ ७ ॥ ममत्वेनैव निःशंकमारंजादौ प्रवर्त्तते ॥ कालाकालसमुन्नायी धनलोनेन धावति ॥ ए॥ स्वयं येषां च पोषाय खिद्यते ममतावशः ॥ इहामुत्र च ते न स्युस्त्राणाय शरणाय वा ॥१०॥ ममत्वेन बहून् लोकान् पुषणात्येकोऽर्जितैर्धनैः ॥ सोढा नरकपुःखानां तीव्राणामेक एव तु ॥ ११॥ ममतांधो हि यन्नास्ति तत्पश्यति न पश्यति ॥ जात्यंधस्तु यदस्त्येतनेद इत्यनयोर्महान् ॥ १५॥ प्राणानजिन्नताध्यानात् प्रेमजूम्ना ततोऽधिकां ॥ प्राणापहां प्रियां मत्वा मोदते मम
तावशः॥ १३ ॥ कुंदान्यस्थीनि दशनान् मुखं श्लेष्मगृहं विधुं ॥ मांसग्रंथी कुचौ कुंनो हेम्नो वेत्ति ममत्ववान् ॥ १४॥ थमनस्यन्यवचस्यन्यत् क्रियायामन्यदेव च ॥ यस्यास्तामपि खोलाही साध्वीं वेत्ति ममत्ववान् ॥ १५॥ या रोपयत्यकार्येऽपि
रागिणं प्राणसंशये ॥ वृत्तां स्त्री ममत्वांधस्तां मुग्धामेव मन्यते ॥ १६॥ चर्माचादितमांसास्थिविएमूत्रपिठरीष्वपि ॥ वनितासु प्रियत्वं यत्तन्ममत्वविजृजितम् ॥१७॥ लालयन् बालकं तातेत्येवं ब्रूते ममत्ववान् ॥ वेत्ति च श्लेष्मणा पूर्णामंगुलीममृतांचिताम् ॥ १७ ॥ पंकामपि निःशंका सुतमंकान्न मुंचति ॥ तदमेध्येऽपि मेध्यत्वं जानात्यंबा ममत्वतः ॥१५॥ मातापित्रादिसंबंधोऽनियतोऽपि ममत्वतः ॥ दृढनूमीनमवतां नैयत्येनावनासते ॥२०॥ जिन्नाः प्रत्येकमात्मानो विनिन्नाः पुजला अपि ।। शून्यः संसर्ग इत्येवं यः पश्यति स पश्यति ॥ २१ ॥ अहंताममते स्वत्वस्वीयत्वज्रमहेतुके ॥ नेदज्ञानापलायेते रज्जुझानादिवाहिनीः ॥ २२ ॥ किमेतदिति जिज्ञासा तत्त्वांतज्ञानसंमुखी ॥ व्यासंगमेव नोचातुं दत्ते व ममता
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स्थितिः॥ २३॥ प्रियार्थिनः प्रियाप्राप्ति बिना कापि यथा रतिः॥न तथा तत्त्वजिज्ञासोस्तत्त्वप्राप्तिं विना क्वचित् ॥ २४॥ अत एव हि जिज्ञासां विष्टंन्नति ममत्वधीः॥ विचित्राभिनयाक्रांतः संत्रांत श्व सदयते ॥ २५॥ धृतो योगो न ममता हता न समताऽऽहता ॥ न च जिशासितं तत्त्वं गतं जन्म निरर्थकम् ॥ २६॥ जिज्ञासा च विवेकश्च ममतानाशकावुनी ॥ अतस्तान्यां निगृह्णीयादेनामध्यात्मवैरिणीम् ॥ २७॥ ॥ ॥
॥ इति ममतात्यागाधिकारः ॥ ८॥ ॥ त्यक्तायां ममतायां च समता प्रथते स्वतः ॥ स्फटिके गलितोपाधी यथा निर्मलतागुणः ॥१॥ प्रियाप्रियत्वयोर्याथर्व्यवहारस्य कट्पना ॥ निश्चयात्तव्युदासेन स्तमित्यं समतोच्यते ॥२॥ तेष्वेव विपतः पुंसस्तेष्वेवार्थेषु रज्यतः ॥ निश्चयाकिंचिदिष्टं वाऽनिष्टं वा नैव विद्यते ॥ ३॥ एकस्य विषयो यः स्यात्स्वाभिप्रायेण पुष्टिकृत् ॥ अन्यस्य वेष्यतामेति स एव मतिलेदतः॥४॥विकटपकटिपतं तस्माद्यमेतन्न तात्त्विकम् ॥ विकल्पोपरमे तस्य हित्वादिवऽपक्ष्यः॥५॥ स्वप्रयोजनसंसिद्धिः स्वायत्ता नासते यदा ॥ बहिरर्थेषु संकल्पस मुलानं तदा हतं ॥ ६॥ वधे स्वजावे कंठस्थस्वर्णन्यायाश्रमदये ॥ रागषानुपस्थानात् समता स्यादनाहता ॥७॥ जगजीवेषु नो जाति वैविध्यं कर्मनिर्मितम् ।। यदा शुधनयस्थित्या तदा साम्यमनाहतम् ॥ ७॥ स्वगुणेन्योपि कौटस्थ्यादेकत्वाध्यवसायतः ॥ आत्मारामं मनो यस्य तस्य साम्यमनुत्तरम्
ए॥ समतापरिपाके स्याविषयग्रहशून्यता ॥ यया विशदयोगानां वासीचंदनतुट्यता ॥ १० ॥ किं स्तुमः समतां साधो या स्वार्थप्रगुणीकृता । वैराणि नित्यवैराणामपि हंत्युपतस्थुपाम् ॥ ११ ॥किंदानेन तपोनिर्वा यमैश्च नियमैश्च किम् ॥
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सार ॥ एए ॥
| एकैव समता सेव्या तरिः संसारवारिधौ ॥ १२ ॥ दूरे स्वर्गसुखं मुक्तिपदवी सा दवीयसी ॥ मनःसंनिहितं दृष्टं स्पष्टं तु समतासुखम् ॥ १३ ॥ दृशोः स्मरविषं शुष्येत् क्रोधतापः दयं व्रजेत् ॥ श्रौत्यमलनाशः स्यात् समतामृतमानात् ॥ १४॥ जरामरणदावाग्निज्वलिते नवकानने ॥ सुखाय समतैकैव पीयूषघनवृष्टिवत् ॥ १५ ॥ श्राश्रित्य समतामेकां निर्वृता जरता - | दयः ॥ न हि कष्टमनुष्ठानमभूत्तेषां तु किंचन ॥ १६ ॥ श्रर्गला नरकधारे मोक्षमार्गस्य दीपिका ॥ समता गुणरत्नानां संग्रहे | रोहणावनिः ॥ १७ ॥ मोहाच्छादितनेत्राणामात्मरूपमपश्यताम् || दिव्यांजनशलाकेव समता दोषनाशकृत् ॥ १० ॥ क्षणं | चेतः समाकृष्य समता यदि सेव्यते ॥ स्यात्तदा सुखमन्यस्य यवक्तुं नैव पार्यते ॥ १९ ॥ कुमारी न यथा वेत्ति सुखं दयितजोगजम् ॥ न जानाति तथा लोको योगिनां समतासुखम् ॥ २० ॥ नतिस्तुत्यादिकाशंसाशरस्तीत्रः स्वमनित् ॥ समतावर्मगुप्तानां नार्त्तिकृत्सोपि जायते ॥ २१ ॥ प्रचितान्यपि कर्माणि जन्मनां कोटिकोटिनिः ॥ तमांसीव प्रजा जानोः | क्षिणोति समता क्षणात् ॥ २२ ॥ श्रन्यलिंगादिसिवानामाधारः समतैव हि ॥ रलत्रयफलप्राप्तेर्यया स्याद्भाव जैनता || २३ || ज्ञानस्य फलमेषैव नयस्थानावतारिणः ॥ चंदनं वह्निरेव स्यात् कुग्रहेण तु जस्म तत् ॥ २४ ॥ चारित्रपुरुषप्राणाः सम| ताख्या गता यदि ॥ जनानुधावनावेशस्तदा तन्मरणोत्सवः ॥ २५ ॥ संत्यज्य समतामेकां स्याद्यत्कष्टमनुष्ठितम् ॥ तदीप्सि तकरं नैव बीजमुतमिवोषरे ॥ २६ ॥ उपायः समतैवेका मुक्तेरन्यः क्रियानरः ॥ तत्तत्पुरुषजेदेन तस्या एव प्रसिद्धये ॥ २७ ॥
१ ज्ञानसाफल्यमेषैव इति पाठांतरम् ।
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||दिङमात्रदर्शने शास्त्रव्यापारः स्यान्न दूरगः॥ अस्याः स्वानुनवः पारं सामाख्योऽवगाहते ॥२०॥ परस्मात् परमेषा यन्निगूढं तत्त्वमात्मनः॥ तदध्यात्मप्रसादेन कार्योऽस्यामेव निरः॥२ए ॥
॥ ॥ इति समताधिकारः ॥९॥ ॥परिशुभमनुष्ठानं जायते समतान्वयात् ॥ कतकदोदसंक्रांतेः कलुषं सलिलं यथा ॥१॥ विषं गरोऽननुष्ठानं तछेतुरमृतं परम् ॥ गुरुसेवाद्यनुष्ठानमिति पंचविधं जगुः ॥२॥आहारोपधिपूजप्रिनृत्याशंसया कृतम् ॥ शीघं सच्चित्तरंतृत्वादिषानुष्ठानमुच्यते ॥ ३॥ स्थावर जंगमं चापि तत्क्षणं जक्षित विषम् ॥ यथा हंति तथेदं सच्चित्तमैहिकनोगतः॥॥ |दिव्यत्नोगाजिलाषेण कालांतरपरिदयात् ॥ स्वादृष्टफलसंपूर्तेर्गरानुष्ठानमुच्यते ॥ ५॥ यथा कुषव्यसंयोगजनितं गरसंझितम् ॥ विषं कालांतरे हंति तथेदमपि तत्त्वतः॥६॥ निषेधायानयोरेव विचित्रानर्थदायिनोः॥ सर्वत्रैवानिदानत्वं जिनेंः प्रतिपादितम् ॥ ७॥ प्रणिधानाद्यनावेन कानध्यवसायिनः॥ संमूर्बिमप्रवृत्त्याजमननुष्ठानमुच्यते ॥ ७॥ उघसंशात्र सामान्यज्ञानरूपा निबंधनम् ॥ लोकसंज्ञा च निर्दोषसूत्रमार्गानुपेक्षिणी॥ ए॥न लोकं नापि सूत्रं नो गुरुवाचमपेक्षते ॥ अनध्यवसितं किंचित्कुरुते चौघसंझया ॥ १० ॥ शुचस्यान्वेषणे तीर्थोछेदः स्यादिति वादिनाम् ॥ लोकाचारादरश्रमा लोकसंझेति गीयते ॥ ११॥ शिक्षितादिपदोपेतमप्यावश्यकमुच्यते ॥ व्यतो नावनिर्मुक्तमशुञ्जस्य तु का कथा ॥१॥ तीर्थोलेदनिया हंताविशुधस्यैव चादरे ॥ सूत्रक्रियाविलोपः स्याजतानुगतिकत्वतः॥ १३ ॥ धर्मोद्यतेन कर्त्तव्यं कृतं बहुनिरेव चेत् ॥ तदा मिथ्यादृशां धर्मो न त्याज्यः स्यात्कदाचन ॥ १४॥ तस्माजतानुगत्या यत् क्रियते सूत्रवर्जितम् ॥
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अध्यात्मसार
॥ १० ॥
उंघतो लोकतो वा तदननुष्ठानमेव हि ॥ १५ ॥ प्रकामनिर्जरांगत्वं कायक्लेशादिहोदितम् ॥ सकामनिर्जरा तु स्यात् सोप - योगप्रवृत्तितः ॥ १६ ॥ सदनुष्ठानरागेण तद्धेतुर्मार्गगामिनाम् ॥ एतच्च चरमावर्त्तेऽनाजोगादेर्विना जवेत् ॥ १७ ॥ धर्मयौवनकालोऽयं जवबालदशापरा ॥ अत्र स्यात्सक्रियारागोऽन्यत्र चासत्क्रियादरः ॥ १८ ॥ जोगरागाद् यथा यूनो बालक्री| डाऽखिला हिये || धर्मे यूनस्तथा धर्म्मरागेणासक्रिया हिये ॥ १७ ॥ चतुर्थ चरमावर्त्ते तस्माद्धर्मानुरागतः ॥ अनुष्ठानं | विनिर्दिष्टं बीजादिक्रमसंगतम् ॥ २० ॥ बीजं चेह जनान् दृष्ट्वा शुद्धानुष्ठानका रिणः ॥ बहुमानप्रशंसाच्यां चिकीर्षा शुद्ध| गोचरा ॥ २१ ॥ तस्या एवानुबंध श्चा कलंकः कीर्त्यतेऽकुरः ॥ तदेत्वन्वेषणा चित्रा स्कंधकरूपा च वर्णिता ॥ २२ ॥ प्रवृ|त्तिस्तेषु चित्रा च पत्रादिसदृशी मता ॥ पुष्पं च गुरुयोगादिहेतु संपत्तिलक्षणम् ॥ २३ ॥ जावधर्मस्य संपत्तिर्या च सदे| शनादिना ॥ फलं तदत्र विज्ञेयं नियमान्मोक्षसाधकम् ॥ २४ ॥ सहजो नावधर्मो हि शुचश्चंदनगंधवत् ॥ एतऊर्जमनुष्ठानममृतं संप्रचक्षते ॥ २९ ॥ जैनीमाज्ञां पुरस्कृत्य प्रवृत्तं चित्तशुद्धितः ॥ संवेगगर्भमत्यंत ममृतं तद्विदो विदुः ॥ २६ ॥ | शास्त्रार्थालोचनं सम्यक् प्रणिधानं च कर्म्मणि ॥ कालाद्यंगा विपर्यासोऽमृतानुष्ठानलक्षणम् ॥ २७ ॥ इयं हि सदनुष्ठानं त्रयमत्रासदेव च ॥ तत्रापि चरमं श्रेष्ठं मोहोग्रविषनाशनात् ॥ २८ ॥ श्रादरः करणे प्रीतिरविघ्नः संपदागमः ॥ जिज्ञासा तज्ञसेवा च सदनुष्ठानलक्षणम् ॥ २७ ॥ दैर्भिन्नं नवेदिष्ठाप्रवृत्तिस्थिर सिद्धिनिः ॥ चतुर्विधमिदं मोक्षयोजनाद्योगसंतिम् ॥ ३० ॥ इच्छा तत्कथा प्रीतियुक्ता विपरिणामिनी ॥ प्रवृत्तिः पालनं सम्यक् सर्वत्रोपशमान्वितम् ॥ ३१ ॥ सत्योपशमोत्कर्षाद तिचारादिचिंतया ॥ रहितं तु स्थिरं सिद्धिः परेषामर्थसाधकम् ॥ ३२ ॥ जेदा इमे विचित्राः स्युः क्षयोप
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॥ १० ॥
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शमजेदतः ॥ अचापीत्यादियोगेन नव्यानां मार्गगामिनाम् ॥ ३३ ॥ अनुकंपा च निर्वेदः संवेगः प्रशमस्तथा ॥ एतेपामनुनावाः स्युरिचादीनां यथाक्रमम् ॥ ३४ ॥ कायोत्सर्गादिसूत्राणां श्रझामेधादिजावतः ॥ श्वादियोग साफट्यं देशसर्वव्रत-16
शृशाम् ॥ ३५ ॥ गुमखंडादिमाधुर्यजेदवत् पुरुषांतरे ॥ जेदेऽपीवादिनावानां दोपो नार्थान्वयादिह ॥ ३६॥ येषां नेवादिखेशोपि तेषां त्वेतत्समपणे ॥ स्फुटो महामृपावाद इत्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ३० ॥ नन्मार्गोत्यापनं बाढमसमंजसकारणे ॥ जावनीयमिदं तत्त्वं जाननिर्योगविंशिकाम् ॥ ३८ ॥ त्रिधा तत्सदनुष्ठानमादेयं शुक्ष्चेतसा ॥ ज्ञात्वा समयसद्भाव लोकसंज्ञां विहाय च ॥३॥
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॥ ॥ ॥ इति सदनुष्ठानाधिकारः ॥ १० ॥ | ॥चितमाचरणं शुजमिचतां प्रथमतो मनसः खलु शोधनम्॥गदवतां ह्यकृते मलशोधने कमुपयोगमुपेतु रसायनम् ॥२॥ परजने प्रसन्नं किमु रज्यति विपति वा स्वमनो यदि निर्मलम् ॥ विरहिणामरतेर्जगतो रतेरपि च का विकृतिविमले विधौ
॥२॥ रुचितमाकलयन्ननुपस्थितं स्वमनसैव हि शोचति मानवः॥ उपनते स्मयमानमुखः पुनर्नवति तत्र परस्य किमुपच्यताम् ॥ ३॥ चरणयोगघटान्प्रविलोठयन् शमरसं सकलं विकिरत्यधः॥ चपल एष मनःकपिरुच्चकै रसवणिग् विदधातु
मुनिस्तु किं ॥४॥ सततकुट्टितसंयमजूतलोत्थितरजोनिकरैः प्रथयंस्तमः ॥ अतिडैश्च मनस्तुरगो गुणैरपि नियंत्रित एष न तिष्ठति ॥५॥ जिनवचोघनसारमलिम्बुचः कुसुमसायकपावकदीपकः ॥ अहह कोपि मनःपवनो बली शुलमतिद्रुमसंततिजंगकृत् ॥६॥ चरणगोपुरजंगपरः स्फुरत्समयबोधतरूनपि पातयन् ॥ नमति यद्यतिमत्तमनोगजः व कुशलं शिव
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सार ॥११॥
राजपथे तदा ॥७॥ व्रततरून्प्रगुणीकुरुते जनो दहति उष्टमनोदहनः पुनः॥ ननु परिश्रम एष विशेषवान व नविता सुगुणोपवनोदये ॥ ॥ अनिगृहीतमना विदधत्परां न वपुषा वचसा च शुक्रियाम् ॥ गुणमुपैति विराधनयाऽनया बत|
रंतजवज्रममंचति ॥ ए॥ अनिगृहीतमनाः कुविकटपतो नरकमृति तंबुलमत्स्यवत् ॥ श्यमजदपजा तदजीर्णताऽनुपनतार्थविकटपकदर्थना ॥ १०॥ मनसि लोलतरे विपरीततां वचननेत्रकरेंगितगोपना ॥ ब्रजति धूर्ततया ह्यनयाखिलं |निविडदंनपरैर्मुषितं जगत् ॥ ११॥ मनस एव ततः परिशोधनं नियमतो विदधीत महामतिः॥ इदमनेषजसंवननं मुनेः परपुमर्थरतस्य शिवश्रियः॥१२॥ प्रवचनाब्जविलासरविप्रना प्रशमनीरतरंगतरंगिणी ॥ हृदयशुधिरुदीर्णमदज्वरप्रसरनाशविधौ परमौषधम् ॥ १३ ॥ अनुजवामृतकुंडमनुत्तरव्रतमरालविलासपयोजिनी ॥ सकलकर्मकलंकविनाशिनी मनस| एव हि शुधिरुदाहृता ॥ १४॥ प्रथमतो व्यवहारनयस्थितोऽशुनविकटपनिवृत्तिपरो नवेत् ॥ शुनविकटपमयव्रतसेवया हरति कंटक एव हि कंटकम् ॥ १५॥ विषमधीत्य पदानि शनैः शनैर्हरति मंत्रपदावधि मांत्रिकः ॥ नवति देशनिवृत्तिरपि स्फुटा गुणकरी प्रथम मनसस्तथा ॥१६॥ च्युतमसहिषयव्यवसायतो लगति यत्र मनोऽधिकसौष्ठवात् ॥ प्रतिकृतिः पदमात्मवदेव वा तदवलंबनमत्र शुजं मतम् ॥ १७॥ तदनु काचन निश्चयकट्पना विगलितव्यवहारपदावधिः॥न किमपीति विवेचनसंमुखी जवति सर्वनिवृत्तिसमाधये ॥ १७॥ इह हि सर्वबहिर्विषयच्युतं हृदयमात्मनि केवलमागतम् ॥ चरणदर्शनबोधपरंपरापरिचितं प्रसरत्यविकटपकम् ॥ १५॥ तदिदमन्यउपत्यधुनापि नो नियतवस्तुविलास्यपि निश्चयात् ॥ क्षणमसंगमुदतनिसर्गधीहतबहिर्ग्रहमंतरुदाहृता ॥ २० ॥ कृतकषायजयःसगनीरिम प्रकृतिशांतमुदात्तमुदारधीः॥ समनु-|
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गृह्य मनोऽनुजवत्यहो गलितमोहतमः परमं महः ॥२१॥ गलितपुष्टविकटपपरंपरं धृतविशुद्धि मनो नवतीदृशम् ॥ धतिमुपेत्य ततश्च महामतिः समधिगति शुज्रयशःश्रियम् ॥ २॥
॥
॥ इति मनःशुद्ध्यधिकारः ॥ ११ ॥ | ॥ मनशुद्धिश्च सम्यक्त्वे सत्येव परमार्थतः ॥ तबिना मोहगर्जा सा प्रत्यपायानुबंधिनी ॥१॥ सम्यक्त्वसहिता एवशुधा दानादिकाः क्रियाः॥ तासां मोक्षफले प्रोक्ता यदस्य सहकारिता ॥ २॥ कुर्वाणोऽपि क्रियां झातिधननोगांस्त्यजन्नपि ॥ मुःखस्योरो ददानोऽपि नांधो जयति वैरिणम् ॥३॥ कुर्वन्निवृत्तिमप्येवं कामजोगांस्त्यजन्नपि ॥ दुःखस्योरो ददा नोऽपि मिथ्यादृष्टिन सिध्यति ॥४॥ कनीनिकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरजम् ॥ सम्यक्त्वमुच्यते सारः सर्वेषां धर्मकर्मपाम् ॥ ५॥ तत्त्वज्ञानमेतच्च गदितं जिनशासने ॥ सर्वे जीवा न हंतव्याः सूत्रे तत्त्वमितीष्यते ॥६॥ शुद्धो धर्मोऽयमित्येतद्धर्मरुच्यात्मकं स्थितम् ॥ शुचानामिदमन्यासां रुचीनामुपलक्षणम् ॥ ७॥ अथवेदं यथा तत्त्वमाझयैव तथाऽखिलम् ॥ नवानामपि तत्त्वानामिति श्रद्धोदितार्थतः॥ ७ ॥ देव प्रोच्यते शुद्धाऽहिंसा वा तत्त्वमित्यतः॥ सम्यक्त्वं दर्शितं सूत्रप्रामाण्योपगमात्मकम् ॥ ए ॥ शुद्धाऽहिंसोक्तितः सूत्रप्रामाण्यं तत एव च ॥ अहिंसाशुधीरेवमन्योन्याश्रय नीननु ॥ १० ॥ नैवं यस्मादहिंसायां सर्वेषामेकवाक्यता ॥ तनुतावबोधश्च संजवादिविचारणात् ॥ ११ ॥ ययाऽहिंसादयः पंच व्रतधर्मयमादिन्तिः॥ पदैः कुशलधर्माद्यैः कथ्यंते स्वस्वदर्शने ॥ १२॥ प्रादुर्जागवतास्तत्र व्रतोपव्रतपंचकम् ॥ यमांश्च नियमान पाशुपता धर्मान् दशान्यधुः ॥ १३ ॥ अहिंसा सत्यवचनमस्तैन्यं चाप्यकट्पना ॥ ब्रह्मचर्य ताक्रोधो
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अध्यात्म-1 सार
अधिकार.
द्यार्जवं शौचमेव च ॥ १४॥ संतोषो गुरुशुश्रूषा इत्येते दश कीर्तिताः॥ निगद्यते यमाः सांख्यैरपि व्यासानुसारिनिः ॥ १५॥ अहिंसा सत्यमस्तैन्यं ब्रह्मचर्य तुरीयकम् ॥ पंचमो व्यवहारश्चेत्येते पंच यमाः स्मृताः ॥ १६ ॥ अक्रोधो गरु शुश्रूषा शौचमाहारलाघवम् ॥ अप्रमादश्च पंचैते नियमाः परिकीर्तिताः ॥१७॥ बौद्धः कुशलधर्माश्च दशेष्यंते यमुच्यते। हिंसास्तेयान्यथाकामं पैशुन्यं परुषानृतम् ॥ १०॥ संजिन्नालापव्यापादमनिध्यादृग् विपर्ययम् ॥ पापकर्मेति दशधा कायवाड्मानसैस्त्यजेत् ॥ १५ ॥ ब्रह्मादिपदवाच्यानि तान्याहुवैदिकादयः ॥ अतः सर्वैकवाक्यत्वाधर्मशास्त्रमदोऽर्थकम् ॥२०॥ व चैतत्संजवो युक्त इति चिंत्यं महात्मना ॥ शास्त्र परीक्षमाणेनाव्याकुलेनातरात्मना ॥ २१॥ प्रमाणलक्षणादेस्तु नोप. योगोऽत्र कश्चन ॥ तन्निश्चयेऽनवस्थानादन्यथार्थस्थितेर्यतः॥२२॥ प्रसिपानि प्रमाणानि व्यवहारश्च तत्कृतः ॥ प्रमाणलक्षणस्योक्ती ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥ २३ ॥ तत्रात्मा नित्य एवेति येषामेकांतदर्शनम् ॥ हिंसादयः कथं तेषां कथमप्यात्मनोऽव्ययात् ॥ २४॥ मनोयोगविशेषस्य ध्वंसो मरणमात्मनः ॥ हिंसा तचेन्न तत्त्वस्य सिफेरार्थसमाजतः ॥ २५॥ नैति बुद्धिगता मुःखोत्पादरूपेयमौचितीम् ॥ पुंसि जेदाग्रहात्तस्याः परमार्थाऽव्यवस्थितेः ॥ २६॥ न च हिंसापदं नाशपर्यायं कश्रमप्यहो । जीवस्यै कांतनित्यत्वेऽनुनवाबाधकं नवेत् ॥२७॥ शरीरेणापि संबंधो नित्यत्वेऽस्य न संजवी ॥ विनत्वे नैव संसारः कल्पितः स्यादसंशयम् ॥ २७ ॥ आत्मक्रियां विना च स्यान्मिताणुग्रहणं कथम् ॥ कथं संयोगलेदादिकः स्पना चापि युज्यते ॥ ए॥अदृष्टाद्देहसंयोगः स्यादन्यतरकर्मजः ॥ जन्मोपपत्तिश्चन्न तद्योगाविवेचनात् ॥३०॥ कथंचिन्मूर्ततापत्तिविना वपुरसंक्रमात् ॥ व्यापारयोगतश्चैव यत्किंचित्तदिदं जगुः ॥ ३१॥ निःक्रियोऽसौ ततो हंति
यो नित्यत्वेऽस्य च संयोगजेदादिकः
॥ १२॥
॥१३॥
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| हन्यते वा न जातुचित् ॥ कंचित्केनचिदित्येवं न हिंसास्योपपद्यते ॥ ३२ ॥ अनित्यकांतपदेऽपि हिंसादीनामसंजयः॥ नाशहेतोरयोगेन क्षणिकत्वस्य साधनात् ॥ ३३ ॥ न च संतानलेदस्य जनको हिंसको नवेत् ॥ सांवृतत्वादजन्यत्वात् जावत्वनियतं हि तत् ॥ ३४ ॥ नरादिः क्षणहतुश्च सूकरादेन हिंसकः ॥ सूकरांत्यकाणेनैव व्यभिचारप्रसंगतः॥ ३५॥ अनंतरक्षणोत्पादे बुब्लुब्धकयोस्तुला ॥ नैव तदितिः क्वापि ततः शास्त्राद्यसंगतिः॥ ३६॥ घटते न विनाऽहिंसां सत्यादीन्यपि तत्त्वतः॥ एतस्या वृत्तिजूतानि तानि यन्नगवान् जगौ ॥ ३७ ॥ मौनींजे च प्रवचने युज्यते सर्वमेव हि ॥ नित्यानित्ये स्फुटं देहाद्भिन्नाजिन्ने तथात्मनि ॥ ३० ॥ आत्मा व्यार्थतो नित्यः पर्यायाधिनश्वरः ॥ हिनस्ति हन्यते तत्तत्फलान्यप्यधिगवति ॥३ए॥ इह चानुनवः सादी व्यावृत्त्यन्वयगोचरः॥ एकांतपक्षपातिन्यो युक्तयस्तु मिथो हताः ॥४०॥पीडाकर्तृत्वतो देहव्यापत्त्या मुष्टलावतः॥त्रिधा हिंसागमे प्रोक्ता नहीबमपहेतुका ॥१॥ हंतुर्जाग्रति को दोपो हिंसनीयस्य कर्मणि ॥ प्रसक्तिस्तदनावे चान्यतापीति मुधा वचः ॥२॥ हिंस्यकर्मविपाकेयं पुष्टाशयनिमित्तता॥ हिंसकत्वं न तेनेदं वैद्यस्य स्यानिपोरिव ॥ ४३ ॥ इचं समुपदेशादेस्तन्निवृत्तिरपि स्फुटा ॥ सोपक्रमस्य पापस्य नाशात्स्वाशयवृद्धितः॥४४॥ अपवर्गतरोबीजं मुख्याऽहिंसेयमुच्यते ॥ सत्यादीनि व्रतान्यत्र जायंते पखवा नवाः ॥ ४५ ॥ अहिंसासजवश्चेवं दृश्यतेऽत्रैव शासने ॥ अनुबंधादिसंशुधिरप्यत्रैवास्ति वास्तवी ॥ ४६ ॥ हिंसाया ज्ञानयोगेन सम्यग्दृष्टेमहात्मनः॥ तप्तलोहपदन्यासतुल्याया नानुबंधनम् ॥ ४॥ सतामस्याश्च कस्याश्चिद् यतनाजक्तिशालिनाम् ॥ अनुबंधो ह्यहिंसाया जिनपूजादिकमणि ॥४०॥ हिंसानुबंधिनी हिंसा मिथ्यादृष्टस्तु पुर्मतेः ॥ अज्ञानशक्तियोगेन तस्याहिंसापि
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श्रध्यात्म
अधिकार.
सार
॥१३॥
तादृशी ॥ ए॥ येन स्यान्निह्नवादीनां दिविषदुर्गतिः क्रमात् ॥ हिंसैव महती तिर्यङ्नरकादिनवांतरे ॥ ५० ॥ साधूना- मप्रमत्तानां सा चाहिंसानुबंधिनी ॥ हिंसानुबंधविच्छेदाद्गुणोत्कर्षों यतस्ततः ॥५१॥ मुग्धानामियमझत्वात् सानुबंधा न कहिंचित् ॥ ज्ञानोकाप्रमादान्यामस्या यदनुबंधनम् ॥ २२ ॥ एकस्यामपि हिंसायामुक्तं सुमहदंतरम् ॥ नाववीर्यादिवैचित्र्यादहिंसायां च तत्तथा ॥ ५३॥ सद्यः कालांतरे चैतधिपाकेनापि जिन्नता ॥ प्रतिपदांतरालेन तथाशक्तिनियोगतः ॥ ५४॥ हिंसाप्युत्तरकालीनविशिष्टगुणसंक्रमात् ॥ त्यक्ताविध्यनुबंधत्वादहिंसैवातिनक्तितः॥ ५५॥ ईदृग्नंगशतोपेताऽहिंसा यत्रोपवर्ण्यते ॥ सर्वांशपरिशुद्धं तत्प्रमाणं जिनशासनम् ॥५६॥ अर्थोऽयमपरोऽनर्थ इति निर्धारणं हृदि ॥ श्रास्तिक्यं परमं चिन्हं सम्यक्त्वस्य जगुर्जिनाः ॥ ५७ ॥ शमसंवेगनिर्वेदानुकंपानिः परिष्कृतम् ॥ दधतामेतदछिन्नं सम्यक्त्वं स्थिरतां ब्रजेत् ॥ ५॥
॥ इति सम्यक्त्वाधिकारः ॥ १२॥ ॥ मिथ्यात्वत्यागतः शुद्धं सम्यक्त्वं जायतेंऽगिनाम् ॥ अतस्तत्परिहाराय यतितव्यं महात्मना ॥१॥ नास्ति नित्यो न कर्ता च न नोक्तात्मा न निर्वृतः॥ तमुपायश्च नेत्याहुर्मिथ्यात्वस्य पदानि षट् ॥॥ एतैर्यस्मानवेनुघव्यवहारविलंघनम्॥ शयमेव च मिथ्यात्वध्वंसी समुपदेशतः ॥३॥ नास्तित्वादिग्रहे नैवोपदेशो नोपदेशकः॥ ततः कस्योपकारः स्यात्संदेहादिव्युदासतः॥४॥ येषां निश्चय एवेष्टो व्यवहारस्तु संगतः॥ विप्राणां म्लेबनाषेव स्वार्थमात्रोपदेशनात् ॥ ५॥ यथा केवलमात्मानं जानानः श्रुतकेवली ॥ श्रुतान्निश्चिनुयात्सर्वं श्रुतं च व्यवहारतः॥६॥ निश्चयार्थोऽत्र नो सादातुं केनापि
| ॥१३॥
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पार्यते ॥ व्यवहारो गुणधारा तदर्थावगमदमः ॥ ७ ॥ प्राधान्यं व्यवहारे चेत्तत्तेषां निश्चये कथम् ॥ परार्थस्वार्थते तुझ्ये, | शब्दज्ञानात्मनोर्धयोः ॥ ८ ॥ प्राधान्याद्व्यवहारस्य ततस्तच्छेदकारिणाम् ॥ मिथ्यात्वरूपतैतेषां पदानां परिकीर्त्तिता ॥ ए ॥ नास्त्येवात्मेति चार्वाकः प्रत्यक्षानुपसंनतः ॥ श्रहंताव्यपदेशस्य शरीरेणोपपत्तितः ॥ १० ॥ मद्यांगेच्यो मव्यक्तिः प्रत्ये| कमसती यथा ॥ मिलितेभ्यो हि नूतेभ्यो ज्ञानव्यक्तिस्तथा मता ॥ ११ ॥ राजरंका दिवैचित्र्यमपि नात्मबलादितम् ॥ स्वा| जाविकस्य जेदस्य ग्रावादिष्वपि दर्शनात् ॥ १२ ॥ वाक्यैर्न गम्यते चात्मा परस्परविरोधिभिः ॥ दृष्टवान्न च कोऽप्येनं | प्रमाणं यद्वचो जवेत् ॥ १३ ॥ आत्मानं परलोकं च क्रियां च विविधां वदन् ॥ जोगेच्यो भ्रंशयत्युच्चैर्लोकचित्तं प्रतारकः | ॥ १४ ॥ त्याज्यास्तन्नैहिकाः कामाः कार्या नानागतस्पृहा । जस्मीनूतेषु भूतेषु वृथा प्रत्यागतिस्पृहा ॥ १५ ॥ तदेतद्दर्शनं | मिथ्या जीवः प्रत्यक्ष एव यत् ॥ गुणानां संशयादीनां प्रत्यक्षाणामभेदतः ॥ १६ ॥ न चाप्रत्ययादीनां शरीरस्यैव धर्म| ता || नेत्रादिग्राह्यतापत्तेर्नियतं गौरवादिवत् ॥ १७ ॥ शरीरस्यैव चात्मत्वे नानुजूतस्मृतिर्भवेत् ॥ बालत्वादिदशाने दात्तस्यैकस्यानवस्थितेः ॥ १८ ॥ नात्मांगं विगमेष्यस्य तलब्धानुस्मृतिर्यतः ॥ व्यये गृहगवादस्य तलन्धार्थाधिगतृवत् ॥ १५ ॥ न दोषः कारणात्कार्ये वासनासंभ्रमाच्च न ॥ भ्रूणस्य स्मरणापत्तेरंबानुनवसंक्रमात् ॥ २० ॥ नोपादानादुपादेयवासनास्थैर्यदर्शने ॥ करादेरतथात्वेनायोग्यत्वाप्तेरस्थितौ ॥ २१ ॥ मद्यांगेच्यो मदव्यक्तिरपि नो मेलकं विना ॥ ज्ञानव्यक्तिस्तथा | जाव्याऽन्यथा सा सर्वदा जवेत् ॥ २२ ॥ राजरंका दिवैचित्र्यमप्यात्मकृतकर्मजम् ॥ सुखदुःखादिसंवित्तिविशेषो नान्यथा जवेत् ॥ २३ ॥ श्रागमागम्यते चात्मा दृष्टेष्टार्थाविरोधिनः ॥ तक्ता सर्वविच्चैनं दृष्टवान्वीतकश्मलः ॥ २४ ॥ श्रांतानां
|
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अध्यात्म
सार ॥ १४ ॥
च विफला नामुष्मिक्यः प्रवृत्तयः ॥ परबंधन हेतोः कः स्वात्मानमवसादयेत् ॥ २५ ॥ सिद्धिः स्थाण्वादिवश्यक्ता संशया| देव चात्मनः ॥ सौ खरविषाणादौ व्यस्तार्थविषयः पुनः ॥ २६ ॥ जीव इति शब्दश्च जीवसत्ता नियंत्रितः ॥ असतो न | निषेधो यत्संयोगादिनिषेधनात् ॥ २७ ॥ संयोगः समवायश्च सामान्यं च विशिष्टता || निषिध्यते पदार्थानां त एव न तु सर्वथा ॥ २० ॥ शुद्धं व्युत्पत्तिमतीवपदं सार्थ घटादिवत् ॥ तदर्थश्च शरीरं नो पर्यायपदभेदतः ॥ २९ ॥ श्रात्मव्यवस्थितेस्त्याज्यं ततश्चार्वाकदर्शनम् ॥ पापाः किलैतदालापाः सव्यापारविरोधिनः ॥ ३० ॥ ज्ञानकणावली रूपो नित्यो नात्मेति सौगताः ॥ क्रमाक्रमाच्यां नित्यत्वे युज्यतेऽर्थक्रिया न हि ॥ ३१ ॥ स्वजावहानितो धौव्यं क्रमेणार्थ क्रियाकृतौ ॥ छात्र| मेण च तद्भावे युगपत्सर्व संजयः ॥ ३२ ॥ ऋषिके तु न दोषोऽस्मिन् कुर्वडूप विशेषिते ॥ ध्रुवेणोत्यतृष्णाया निवृत्तेश्च | गुणो महान् ॥ ३३ ॥ मिथ्यात्व वृद्धिकृन्नूनं तदेतदपि दर्शनम् | क्षणिके कृतदा निर्यत्तथात्मन्य कृतागमः ॥ ३४ ॥ एकव्यान्वयाजावाद्वासनासंक्रमश्च न ॥ पौर्वापर्य्यं हि नावानां सर्वत्रातिप्रसक्तिमत् ॥ ३५ ॥ कुर्वद्रूपविशेषे च न प्रवृत्तिर्न | वाऽनुमा || निश्चयान्न वाध्यक्षं तथा चोदयतो जगौ ॥ ३६ ॥ न वैजात्यं विना तत् स्यान्न तस्मिन्ननुमा भवेत् ॥ विना | तेन न तत्सिद्धिर्नाध्यक्षं निश्चयं विना ॥ ३७ ॥ एकताप्रत्यभिज्ञानं क्षणिकत्वं च बाधते ॥ योऽहमन्वजवं सोऽहं स्मरामीत्यवधारणात् ॥ ३० ॥ नास्मिन्विषयबाधो यत् दणिकेऽपि यथैकता ॥ नानाज्ञानान्वये तघत् स्थिरे नानादान्वये || ३ || नानाकार्यैक्य करणस्वाजाव्ये च विरुध्यते ॥ स्याद्वादसन्निवेशेन नित्यत्वेऽर्थक्रिया न हि ॥ ४० ॥ नीलादावप्यतद्भेदशतयः सुवचाः कथम् ॥ परेणापि हि नानेकस्वभावोपगमं विना ॥ ४१ ॥ ध्रुवेक्षणेऽपि न प्रेम निवृत्तमनुपलवात् ॥ ग्राह्या -
अधिकार.
१३
॥ १४ ॥
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कार व ज्ञाने गुणस्तन्नात्र दर्शने ॥ ४२ ॥ प्रत्युतानित्यजावे हि स्वतः दजनुर्द्धिया ॥ देवनादरतः सर्वक्रियाविफलता जवेत् ॥ ४३ ॥ तस्मादिदमपि त्याज्यमनित्यत्वस्य दर्शनम् ॥ नित्य सत्य चिदानंदपदसंसर्गमिचता ॥ ४४ ॥ न कर्त्ता नापि जोक्तात्मा कापिलानां तु दर्शने ॥ जन्यधर्माश्रयो नायं प्रकृतिः परिणामिनी ॥ ४५ ॥ प्रथमः परिणामोऽस्या बुद्धिर्धर्माष्ट काऽन्विता ॥ ततोऽहंकारतन्मात्रैषियजूतोदयः क्रमात् ॥ ४६ ॥ चिद्रूपपुरुषो बुद्धेः सिध्यै चैतन्यमानतः ॥ सिद्धिस्तस्या विषयाऽवच्छेद नियमाच्चितः ॥ ४७ ॥ हेतुत्वे पुंस्प्रकृत्यर्थेत्रियाणामत्र निर्वृतिः ॥ दृष्टादृष्टविभागश्च व्यासंगश्च न युज्यते ॥ ४८ ॥ स्वप्ने व्याघ्रादिसंकल्पान्नरत्वाननिमानतः ॥ अहंकारश्च नियतव्यापारः परिकहप्यते ॥ ४९ ॥ तन्मात्रादिक्रमस्त| स्मात्प्रपंचोत्पत्तिहेतवे ॥ इवं बुद्धिर्जगत्कर्त्री पुरुषो न विकारजाकू ॥ ९० ॥ पुरुषार्थोपरागौ धौ व्यापारावेश एव च ॥ छात्रांशी वेदयहं वस्तु करोमीति च धीस्ततः ॥ ५१ ॥ चेतनोऽहं करोमीति बुद्धेर्भेदाग्रहात्स्मयः ॥ एतन्नाशेऽनवछिन्नं | चैतन्यं मोक्ष इष्यते ॥ ९२ ॥ कर्तृबुद्धिगते दुःखसुखे पुंस्युपचारतः ॥ नरनाथे यथा नृत्यगतौ जयपराजयौ ॥ ५३ ॥ कर्त्ता जोक्ता च नो तस्मादात्मा नित्यो निरंजनः ॥ श्रध्यासादन्यथा बुद्धिस्तथा चोक्तं महात्मना ॥ २४ ॥ प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वथा ॥ अहंकारविमूढात्मा कर्त्ताहमिति मन्यते ॥ ९९ ॥ विचार्यमाणं नो चारु तदेतदपि दर्शनम् ॥ कृतिचैतन्ययोर्व्यक्तं सामानाधिकरण्यतः ॥ ९६ ॥ बुद्धिः कत्री च नोत्री च नित्या चेन्नास्ति निर्वृतिः ॥ नित्या चेन्न | संसारः प्राग्धर्मादेरयोगतः ॥ ७ ॥ प्रकृतावेव धर्मादिस्वीकारे बुद्धिरेव का ॥ सुवचश्च घटादौ स्यादी द्दग्धम्र्म्मान्वयस्तथा
१ ऽवच्छेद नियमान्वित इति वा पाठः ।
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अध्यात्मसार 11 3 2 11
| ॥ ९८ ॥ कृतिजोगौ च बुद्धेश्चेद्वंधो मोदश्च नात्मनः ॥ ततश्चात्मानमुद्दिश्य कूटमेतद्यदुच्यते ॥ एए ॥ पंचविंशतितत्त्वज्ञो | यत्र यत्राश्रमे रतः ॥ जटी मुंडी शिखी चापि मुच्यते नात्र संशयः ॥ ६० ॥ एतस्य चोपचारत्वे मोक्षशास्त्रं वृथाखिलम् ॥ अन्यस्य हि विमोक्षार्थे न कोऽप्यन्यः प्रवर्तते ॥ ६१ ॥ कापिलानां मते तस्मादस्मिन्नैवोचिता रतिः ॥ यत्रानुजवसंसिद्धः | कर्त्ता जोक्ता च लुप्यते ॥ ६२ ॥ नास्ति निर्वाणमित्यादुरात्मनः केऽप्यबंधतः ॥ प्राकूपश्चाद्युगपद्यापि कर्म्मबंधाव्यवस्थितेः ॥ ६३ ॥ नादिर्यदि संबंध इष्यते जीवकर्मणोः ॥ तदानंत्यान्न मोदः स्यात्तदात्माकाशयोगवत् ॥ ६४ ॥ तदेतदत्यसंबऊं यन्मियो हेतुकार्ययोः ॥ संतानानादिता बीजांकुरवत् देहकर्मणोः ॥ ६५ ॥ कर्त्ता कर्मान्वितो देहे जीवः कर्मणि देहयुक् ॥ | क्रियाफलोपभुकुंने दमान्वितकुलालवत् ॥ ६६ ॥ अनादिसंततेर्नाशः स्याद्वीजांकुरयोरिव ॥ कुकुव्यंमकयोः स्वर्णमलयोरिव वानयोः ॥ ६७ ॥ जव्येषु च व्यवस्थेयं संबंधो जीवकर्मणोः ॥ नाद्यनतोऽजव्यानां स्यादात्माकाशयोगवत् ॥ ६८ ॥ अव्यजावे समानेऽपि जीवाजीवत्वनेदवत् ॥ जीवनावे समानेऽपि जव्यानव्यत्वयोर्जिदा ॥ ६७ ॥ स्वाजाविकं च जन्यत्वं कलशप्रागभाववत् ॥ नाशकारणसाम्राज्याविनश्यन्न विरुद्ध्यते ॥ ७० ॥ व्योम्छेदो न चैवं स्याद्गुर्वानंत्यान्नजोंशवत् ॥ | प्रतिमादलवत् कापि फलानावेपि योग्यता ॥ ७१ ॥ नैतद्वयं वदामो यद्भव्यः सर्वोऽपि सिध्यति ॥ यस्तु सिध्यति सोऽवश्यं जव्य एवेति नो मतम् ॥ ७२ ॥ ननु मोदेऽपि जन्यत्वाद्विनाशिनी जवस्थितिः ॥ नैवं प्रध्वंसवत्तस्यानिधनत्वव्यवस्थितेः | ॥ ७३ ॥ श्राकाशस्येव वैविक्त्या मुरादेर्घटये ॥ ज्ञानादेः कर्मणो नाशे नात्मनो जायतेऽधिकम् ॥ ७४ ॥ न च कर्मा
१ भवबंधनात् इति वा पाठः ।
03
अधिकार. १३
॥ १५ ॥
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णुसंबंधान्मुक्तस्यापि न मुक्तता ॥ योगानां बंधहेतूनामपुनर्भवसंजवात् ॥ १५ ॥ सुखस्य तारतम्येन प्रकर्षस्यापि संजवात्॥ अनंतसुखसंवित्तिर्मोक्षः सिध्यति निर्भयः ॥ ७६ ॥ वचनं नास्तिकानानामात्मसत्ता निषेधकम् ॥ प्रांतानां तेन नादेयं पर| मार्थगवेषिणा ॥ 99 ॥ न मोक्षोपाय इत्याद्दुरपरे नास्तिकोपमाः ॥ कार्यमस्ति न हेतुश्चेत्येषा तेषां कदर्थना ॥ ७८ ॥ थक| स्मादेव जवतीत्यलीकं नियतावधेः ॥ कादाचित्कस्य दृष्टत्वाद्वभाषे तार्किकोऽप्यदः || || हेतुभूति निषेधो न स्वानुपाख्या| विधिर्न च ॥ स्वनाववर्णना नैवमवधेर्नियतत्वतः ॥ ८० ॥ न च सार्वत्रिको मोदः संसारस्यापि दर्शनात् ॥ न चेदानीं न तघयक्तिर्व्यजको हेतुरेव यत् ॥ ८१ ॥ मोक्षोपायोऽस्तु किंत्वस्य निश्चयो नेति चेन्मतम् ॥ तन्न रत्नत्रयस्यैव तथा जाव - | विनिश्चयात् ॥ ८२ ॥ जवकारणरागादिप्रतिपक्ष्मदः खलु ॥ तद्विपक्षस्य मोक्षस्य कारणं घटतेतराम् ॥ ८३ ॥ श्रथ रत्नत्रयप्राप्तेः प्राक्कर्म्मलघुता यथा ॥ परतोऽपि तथैव स्यादिति किं तदपेक्षया ॥ ८४ ॥ नैवं यत्पूर्वसेवैव मृद्दी नो साधन| क्रिया ॥ सम्यक्त्वादिक्रिया तस्माद् दृढैव शिवसाधने ॥ ८५ ॥ गुणाः प्रादुर्भवत्युच्चैरथवा कर्मलाघवात् ॥ तथाजव्यतया तेषां कुतोऽपेक्षानिवारणम् ॥ ८६ ॥ तथानव्यतयादेपाहुणा न च न हेतवः ॥ अन्योन्यसहकारित्वाद् दंडचक्रभ्रमादिवत् ॥ ८७ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्राण्युपायास्तप्रवक्ष्ये ॥ एतन्निषेधकं वाक्यं त्याज्यं मिथ्यात्ववृद्धिकृत् ॥ ८८ ॥ मिथ्यात्वस्य | पदान्येतान्युत्सृज्योत्तमधीधनः ॥ जावयेत्प्रातिलोम्येन सम्यक्त्वस्य पदानि षट् ॥ ८ ॥
11
॥
॥ इति मिथ्यात्वत्यागाधिकारः ॥ १३ ॥
॥ मिथ्यात्वदावानलनीरवाहमसद्ध इत्यागमुदाहरति ॥ तो रतिस्तत्र बुधैर्विधेया विशुद्धभावैः श्रुतसारवनिः ॥ १ ॥
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अध्यात्म
अधिकार.
सार
१४
॥१६॥
असहाग्निज्वलितं यदंतः क्व तत्र तत्त्वव्यवसायवलिः॥ प्रशांतिपुष्पाणि हितोपदेशफलानि चान्यत्र गवेषयतुं ॥२॥ अधीत्य किंचिच्च निशम्य किंचिदसद्धहात्पंडितमानिनो ये ॥ मुखं सुखं चुंबितमस्तु वाचो लीलारहस्यं तु न तैर्जगाहे| |॥ ३॥ असद्धहोत्सर्पदतुचर्बोधांशतांधीकृतमुग्धलोकैः ॥ विडंविता हंत जमैर्वितमापांडित्यकं डूलतया त्रिलोकी ॥४॥ विधोविवेकस्य न यत्र दृष्टिस्तमोघनं तत्त्वरविविलीनः॥ अशुक्लपदस्थितिरेष नूनमसङ्ग्रहः कोऽपि कुहूविलासः ॥५॥ कुतर्कदात्रेण खुनाति तत्त्ववट्जी रसात्सिंचति दोषवृक्षम् ॥ विपत्यधः स्वाकुफलं शमाख्यमसद्भहन्छन्नमतिर्मनुष्यः ॥ ६॥ असदहनावमये हि चित्ते न क्वापि सद्भावरसप्रवेशः ॥ इहांकुरश्चित्तविशुधबोधः सिद्धांतवाचां बत कोऽपराधः॥७॥ व्रतानि चीर्णानि तपोऽपि तप्तं कृता प्रयत्नेन च पिंडशुद्धिः ॥ अनूत्फलं यत्तु न निन्हवानामसद्भहस्यैव हि सोऽपराधः ॥ ८ ॥ स्थालं स्वबुद्धिः सुगुरोश्च दातुरुपस्थिता काचन मोदकाली ॥ असद्भहः कोऽपि गलेग्रहीता तथापि जोक्तुं न| ददाति पुष्टः ॥ ए॥ गुरुप्रसादी क्रियमाणमर्थ गृह्णाति नासदहवांस्ततः किम् ॥ जादा हि सादापनीयमानाः क्रमलेकः| कंटकनुइन चुंक्ते ॥ १० ॥ असद्धहात्पामरसंगतिं ये कुर्वति तेषां न रतिर्बुधेषु ॥ विष्टासु पुष्टाः किल वायसा नो मिष्टाननिष्ठाः प्रसन्नं नवंति ॥ ११॥ नियोजयत्येव मतिं न युक्तौ युक्तिं मतो यः प्रसनं नियुक्त ॥ असदहादेव न कस्य | हास्योऽजले घटारोपणमादधानः ॥ १२॥ असहो यस्य गतो न नाशं न दीयमानं श्रुतमस्य शस्यम् ॥ न नाम वैकट्यकलंकितस्य प्रौढा प्रदातुं घटते नृपश्रीः ॥ १३ ॥ आमे घटे वारि धृतं यथा सद्विनाशयेत्स्वं च घटं च सद्यः॥ असब्रहग्रस्तमतेस्तथैव श्रुतात्प्रदत्ताउन्नयोर्विनाशः ॥ १५ ॥ असद्ग्रहग्रस्तमतेः प्रदत्ते हितोपदेशं खलु यो विमूढः ॥ शुनी
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शरीरे स महोपकारी कस्तूरिकालेपनमादधाति ॥ १५ ॥ कष्टेन लब्धं विशदागमार्थं ददाति योऽसहदूषिताय ॥ स खिद्यते यत्त्रशतोपनीतं वीजं पशूवरभूमिदेशे ॥ १६ ॥ शृणोति शास्त्राणि गुरोस्तदाज्ञां करोति नासङ्ग्रहवान् कदाचित् ॥ विवेचकत्वं मनुते त्वसारग्राही भुवि स्वस्य च चालनीवत् ॥ ११ ॥ दंजाय चातुर्यमघाय शास्त्रं प्रतारणाय प्रतिभापटुत्वम् ॥ गर्वाय धीरत्वमहो गुणानामसहस्थे विपरीतसृष्टिः ॥ १० ॥ श्रसद्धहस्थेन समं समंतात्सौहार्द नृदुःखमवैति तादृग् ॥ | उपैति यादृकदली कुट्टक्षस्फुटत्कंटक कोटिकीर्णा ॥ ११५ ॥ विद्या विवेको विनयो विशुद्धिः सिद्धांतवाल्लभ्यमुदारता च ॥ असहाद्यांत विनाशमेते गुणास्तृणानीव कणादवाग्नेः ॥ २० ॥ स्वार्थः प्रियो नो गुणवांस्तु कश्चिन्मूढेषु मैत्री न तु तत्त्ववित्सु ॥ सङ्ग्रहापादितविश्रमाणां स्थितिः किलासाधमाधमानाम् ॥ २१ ॥ इदं विदंस्तत्त्वमुदारवुद्धिरसद्भहं | यस्तृणवाहाति ॥ जहाति नैनं कुलजेव योपिनुणानुरक्ता दयितं यशः श्रीः ॥ २३ ॥
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॥ इत्यसग्रहत्यागाधिकारः ॥ १४ ॥
॥
॥ श्रसमूहव्ययाघांत मिथ्यात्वविपविप्रुषः ॥ सम्यक्त्वशालिनोऽध्यात्मशुद्धेर्योगः प्रसिध्यति ॥ १ ॥ कर्मज्ञान विनेदेन स | द्विधा तत्र चादिनः || छावश्यकादिविहितक्रियारूपः प्रकीर्त्तितः ॥ २ ॥ शारीरस्पंदकर्मात्मा यदयं पुण्यलक्षणं ॥ कर्मात - नोति सप्रागात्कर्मयोगस्ततः स्मृतः ॥ ३ ॥ श्रावश्यकादिरागेण वात्सल्यानगवजिरां ॥ प्राप्नोति स्वर्गसौख्यानि न याति परमं पदम् ॥ ४ ॥ ज्ञानयोगस्तपः शुद्धमात्मरत्येकलक्षणं ॥ इंद्रियार्थोन्मनीनावात्स मोक्षसुखसाधकः ॥ ९ ॥ न परप्रतिबं धोऽस्मिन्नपोऽप्येकात्मवेदनात् ॥ शुद्धं कर्मापि नैवात्र व्यादेपायोपजायते ॥ ६ ॥ न ह्यप्रमत्तसाधूनां क्रियाप्यावश्यका
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अधिकार.
अध्यात्म- दिका ॥ नियता ध्यानशुम्चत्वाद्यदन्यैरप्यदः स्मृतं ॥७॥ यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः॥ आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य | सार कार्य न विद्यते ॥ ॥ नैवं तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ॥ न चास्य सर्व जूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥ ए॥ अवकाशो
निषियोऽस्मिन्नरत्यानंदयोरपि ॥ ध्यानावष्टंनतः वास्तु तक्रियाणां विकटपनम् ॥ १०॥ देहनिर्वाहमात्रार्था यापि निदाट
नादिका ॥ क्रिया सा झानिनोऽसंगान्नैव ध्यानविघातिनी ॥ ११॥ रत्नशिदादृगन्या हि तन्नियोजनदृग् यथा ॥ फलन्नेदापत्ताचारक्रियाप्यस्य विन्निद्यते ॥ १२॥ ध्यानार्था हि क्रिया सेयं प्रत्याहृत्य निजं मनः ॥ प्रारब्धजन्मसंकटपादात्मझानाय
कटपते ॥ १३ ॥ स्थिरीनूतमपि स्वांतं रजसा चलतां व्रजेत् ॥ प्रत्याहृत्य निगृह्णाति झानी यदिदमुच्यते ॥ १४ ॥ शनैः शनैरुपरमेबुद्ध्या धृतिगृहीतया ॥ आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिंतयेत् ॥ १५॥ यतो यतो निःसरति मनश्चंचलमस्थिरम् ॥ ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ १६॥ अत एवादृढस्वांतः कुर्यात्रास्त्रोदितां क्रियाम् ॥ सकलां विषयप्रत्याहरणाय महामतिः॥ १७ ॥ श्रुत्वा पैशाचिकी वार्ता कुलवध्वाश्च रक्षणं ॥ नित्यं संयमयोगेषु व्यापृतात्मा नवेद्यतिः॥ १० ॥ या निश्चयैकलीनानां क्रिया नातिप्रयोजनाः ॥ व्यवहारदशास्थानां ता एवातिगुणावहाः ॥ १५॥ कर्मणोऽपि हि शुचस्य श्रघामेधादियोगतः ॥ अदतं मुक्तिहेतुत्वं ज्ञानयोगानतिक्रमात् ॥ २०॥ अन्यासे सक्रियापेक्षा योगिनां चित्तशुधये ॥ ज्ञानपाके शमस्यैव यत्परैरप्यदः स्मृतं ॥२१॥ आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्मकारणमुच्यते ॥ योगारूढस्य | तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ २२॥ यदा हि नेपियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्यते ॥ सर्वसंकटपसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते
न्यास। यागारूढस्तदाच्यत ॥ २३ ॥ ज्ञानं क्रियाविहीनं न क्रिया वा ज्ञानवर्जिता ॥ गुणप्रधानन्नावेन दशानेदः किलैनयोः॥२४॥ ज्ञानिनां कर्मयो
॥१७॥
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गेन चित्तशुधिमुपेयुषां ॥ निरवद्यप्रवृत्तीनां ज्ञानयोगौचिती ततः॥२५॥ अतएव हि सुश्राधचरणस्पर्शनोत्तरं ॥ सुप्पालश्रमणाचारग्रहणं विहितं जिनैः॥ २६॥ एकोद्देशेन संवृत्तं कर्म यत्पौर्वजमिकं ॥ दोषोच्छेदकर तत्स्याद् ज्ञानयोगप्रवृध्ये ॥२७॥ अझानिनां तु यत्कर्म न ततश्चित्तशोधनं ॥ यागादेरतथाजावान् म्लेबादिकृतकर्मवत् ॥ २०॥ न च तत्कर्मयोगेऽपि फलसंकटपवर्जनात् ॥ संन्यासो ब्रह्मबोधाचा सावद्यत्वात्स्वरूपतः॥२५॥नो चेदित्यं जवेबुधिोहिंसादेरपि स्फुटा ॥ श्येनाका वेदविहिताविशेषानुपलदणात् ॥३०॥ सावद्यकर्म नो तस्मादादेयं बुधिविप्लवात् ॥ कर्मोदयागते त्वस्मिनसंकपादबंधनम् ॥ ३१॥ कर्माप्याचरतो ज्ञातुर्मुक्तिनावो न हीयते ॥ तत्र संकष्टपजो बंधो गीयते यत्परैरपि ॥३२॥ कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ॥ स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥ ३३ ॥ कर्मण्यकर्म वाऽकर्म कर्मण्यस्मिन्नुअपि॥ नोने वा नंगवैचित्र्यादकर्मण्यपि नो मते ॥३४॥ कर्म नैष्कर्म्य वैषम्यमुदासीनो विजावयन् ॥ ज्ञानी न लिप्यते जोगैः पद्मपत्रमिवांजसा ॥ ३५॥ पापाकरणमात्राधिन मौनं विचिकित्सया ॥ अनन्यपरमात्साम्यात् ज्ञानयोगी नवेन्मुनिः॥३६॥ विषयेषु न रागी वा षी वा मौनमश्नुते ॥ समं रूपं विदस्तेषु ज्ञानयोगी न लिप्यते ॥ ३७॥ सतत्त्वचिंतया यस्याजिसमन्वागता इमे ॥ आत्मवान् ज्ञानवान्वेद धर्मब्रह्ममयो हि सः॥ ३० ॥ वैषम्यबीजमझानं निघ्नंति ज्ञानयोगिनः ॥ विषयांस्ते परिझाय लोकं जानंति तत्त्वतः ॥३५॥ इतश्चापूर्व विज्ञानाच्चिदानंदविनोदिनः ॥ ज्योतिष्मंतो जवं त्येते ज्ञाननिधूतकहमपाः ॥४०॥ तेजोलेश्याविवृद्धिर्या पर्यायक्रमवृद्धितः ॥ नाषिता जगवत्यादौ सेवनूतस्य युज्यते ॥४१॥ विषमेऽपि समेकी यः स झानी स च पंमितः॥ जीवन्मुक्तः स्थिरं ब्रह्म तथाचोक्तं परैरपि ॥३॥ विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे
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अध्यात्म
सार 130 11
| गवि हस्तिनि ॥ शुनि चैव श्वपाके च पंकिताः समदर्शिनः ॥४३॥ इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ॥ निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥ ४४ ॥ न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियं ॥ स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः | ॥४५॥ अवग्दशायांदोपाय वैषम्ये साम्यदर्शनम् ॥ निरपेक्षमुनीनां तु रागद्वेषयाय तत् ॥ ४६ ॥ रागद्वेषयादेति ज्ञानी वि|पयशून्यतां ॥ विद्यते जिद्यते वाऽयं हन्यते वा न जातुचित् ॥ ४७ ॥ अनुस्मरति नातीतं नैव कांदत्यनागतम् ॥ शीतोष्णसुखदुः- ॐ | खेषु समो मानापमानयोः ॥ ४८ ॥ जितेंद्रियो जितक्रोधो मानमायानुपद्रुतः ॥ बोनसंस्पर्शरहितो वेदखेदविवर्जितः ॥ ४ए ॥ संनिरुध्यात्मनात्मानं स्थितः स्वकृतकर्मनित् ॥ प्रयलोपरतः सहजा चारसेवनात् ॥ ५० ॥ लोकसंज्ञाविनिर्मुक्तो मिथ्याचारप्रपंचहृत् ॥ उल्लसत्कंककस्थानः परेण परमाश्रितः ॥ ५१ ॥ श्रावानाज्ञया युक्तः शस्त्रातीतो ह्यशस्त्रवान् ॥ गतो दृष्टेषु निर्वेदमनिन्दुतपराक्रमः ॥ ५२ ॥ निक्षिप्तदंडो ध्यानाग्निदग्धपापें धनव्रजः ॥ प्रतिस्रोतोऽनुगत्वेन लोकोत्तरचरित्रनृत् | ॥ ९३ ॥ लब्धान् कामान्वहिष्कुर्वन्न कुर्वन्वदुरूपताम् ॥ स्फारीकुर्वन् परं चकुरपरं च निमीलयन् ॥ ९४ ॥ पश्यन्नंतर्गतान् | जावान् पूर्णजावमुपागतः ॥ नुंजानोऽध्यात्मसाम्राज्यमवशिष्टं न पश्यति ॥ ५५ ॥ श्रेष्ठो हि ज्ञानयोगोऽयमध्यात्मन्येव यगौ ॥ बंधप्रमोदं जगवान् लोकसारे सुनिश्चितम् ॥ ५६ ॥ उपयोगकसारत्वादाश्वसंमोहबोधतः ॥ मोक्षाप्तेर्युज्यते चैत | तथाचोक्तं परैरपि ॥ ५७ ॥ तपस्विन्योऽधिको योगी ज्ञानिज्योऽप्यधिको मतः ॥ कर्मिन्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी | जवार्जुन ॥ ५८ ॥ समापत्तिरिह व्यक्तमात्मनः परमात्मनि ॥ श्रजेदोपासनारूपस्ततः श्रेष्ठतरो ह्ययम् ॥ ५ ॥ उपासना जागवती सर्वेन्योऽपि गरीयसी ॥ महापापक्षयकरी तथा चोक्तं परैरपि ॥ ६० ॥ योगिनामपि सर्वेषां मतेनांतरात्मना ॥
अधिकार. १५
॥ १८ ॥
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श्रद्धावान जजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥ ६१ ॥ उपास्ते ज्ञानवान् देवं यो निरंजनमव्ययम् ॥स तु तन्मयतां याति ध्यान निर्धतकहमषः॥६॥ विशेषमप्यजानानो यः कुग्रह विवर्जितः॥ सर्वज्ञ सेवते सोऽपि सामान्ययोगमास्थितः ॥६३|| सर्वको मुख्य एकस्तत्प्रतिपत्तिश्च यावताम् ॥ सर्वेपि ते तमापन्ना मुख्यं सामान्यतो बुधाः॥६५॥ न ज्ञायते विशेषस्तु सर्वथा सर्वदर्शिनिः॥ अतो न ते तमापन्ना विशिष्य नुवि केचन ॥६५॥ सर्वज्ञप्रतिपत्त्यंशात्तुल्यता सर्वयोगिनाम् ॥ दरासन्नादिलेदस्तु तद्नृत्यत्वं निहंति न ॥६६॥ माध्यस्थ्यमवलंब्यैव देवतातिशयस्य हि ॥ सेवा सर्वैर्बुधैरिष्टा कालातीतोऽपि यऊगौ ॥६५॥ अन्येषामप्ययं मार्गो मुक्ता विद्यादिवादिनाम् ॥ अनिधानादिनेदेन तत्त्वरीत्या व्यवस्थितः॥६॥ मुक्तो बुयोर्हन्वापि यदैश्वर्येण समन्वितः ॥ तदीश्वरः स एव स्यात् संझालेदोऽत्र केवलम् ॥ ६॥ अनादिशुद्ध इत्यादियों लेदो यस्य कटप्यते ॥ तत्तत्तंत्रानुसारेण मन्ये सोऽपि निरर्थकः ॥ ७० ॥ विशेषस्यापरिज्ञानाद् युक्तीनां जातिवादिनः।। प्रायो विरोधतश्चैव फलाजेदाच्च जावतः ॥७१॥ अविद्याक्वेशकर्मादि यतश्च नवकारणम् ॥ततः प्रधानमेवैतत्संज्ञानेदमुपागतम् ॥ १२॥ अस्यापि योऽपरो नेदश्चित्रोपाधिस्तथा तथा ॥ गीयतेऽतीतहेतुन्यो धीमतां सोऽप्यपार्थकः ॥ १३ ॥ ततो ऽस्थानप्रयासोऽयं यत्तनेदनिरूपणम् ॥ सामान्यमनुमानस्य यतश्च विषयो मतः॥ ४ ॥ संक्षिप्तरुचिजिज्ञासोर्विशेषानवलं वनम् ॥ चारिसंजीविनीचारझातादत्रोपयुज्यते ॥ १५॥ जिज्ञासापि सतां न्याय्या यत्परेऽपि वदंत्यदः॥ जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्त्तते ॥ ६॥ श्रा” जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चेति चतुर्विधाः॥ उपासकास्त्रयस्तत्र धन्या वस्तविशेषतः
१ तत्त्वनीत्या इति वा पाठः।
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श्रध्यात्म
सार ॥ १९ ॥
| ज्ञानी तु शांतविक्षेपो नित्यनक्तिर्विशिष्यते ॥ श्रत्यासन्नो ह्यसौ नर्तुरंतरात्मा सदाशयः ॥ ७० ॥ कर्मयोगविशुद्धस्तज् ज्ञाने युंजीत मानसम् ॥ श्रश्चाश्रद्दधानश्च संशयानो विनश्यति ॥ ७ ॥ निर्भयः स्थिरनासाग्रदत्तदृष्टिर्वते स्थितः ॥ सुखासनः | प्रसन्नास्यो दिशश्चानवलोकयन् ॥ ८० ॥ देहमध्यशिरोग्रीवमवक्रं धारयन्बुधः ॥ दंतैरसंस्पृशन् दंतान् सुश्लिष्टाधरपचवः | ॥ ८१ ॥ श्रार्त्तरौ परित्यज्य धर्म्ये शुक्ले च दत्तधीः ॥ श्रप्रमत्तो रतो ध्याने ज्ञानयोगी जवेन्मुनिः ॥ ८२ ॥ कर्मयोगं समन्यस्य ज्ञानयोगसमाहितः ॥ ध्यानयोगं समारुह्य मुक्तियोगं प्रपद्यते ॥ ८३ ॥
11
11
॥
॥ इति योगाधिकारः ॥ १५
॥ स्थिरमध्यवसानं यत्तद्ध्यानं चित्तमस्थिरम् ॥ जावना चाप्यनुप्रेक्षा चिंता वा तत्रिधा मतम् ॥ १ ॥ मुहूर्त्तातर्भवेत्या| नमेकार्थे मनसः स्थितिः ॥ बह्वर्थसंक्रमे दीर्घाप्यना ध्यानसंततिः ॥ २ ॥ श्रार्त्त रौषं च धर्म्यं च शुक्लं चेति चतुर्विधम् ॥ तत् स्यानेदाविद धौ धौ कारणं जवमोक्षयोः ॥ ३ ॥ शब्दादीनामनिष्टानां वियोगासंप्रयोगयोः ॥ चिंतनं वेदनायाश्च व्याकु | सत्वमुपेयुषः ॥ ४ ॥ इष्टानां प्रणिधानं च संप्रयोगावियोगयोः ॥ निदानचिंतनं पापमार्त्तमित्रं चतुर्विधम् ॥ ५ ॥ कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र संजवः ॥ श्रनतिक्लिष्टजावानां कर्म्मणां परिणामतः ॥ ६ ॥ क्रंदनं रुदनं प्रोच्चैः शोचनं परिदेवनम् ॥ तामनं लुंचनं चेति लिंगान्यस्य विदुर्बुधाः ॥ 9 ॥ मोघं निंदन्निजं कृत्यं प्रशंसन् परसंपदः ॥ विस्मितः प्रार्थय| नेताः प्रसक्तश्चैतदर्जने ॥ ८ ॥ प्रमत्तश्वेंद्रियार्थेषु गृद्धो धर्म्मपराङ्मुखः ॥ जिनोक्तमपुरस्कुर्वन्नार्त्तध्याने प्रवर्त्तते ॥ ए ॥ प्रम | तांतगुणस्थानानुगतं तन्महात्मनां । सर्वप्रमादमूलत्वात्त्याज्यं तिर्य्यग्गतिप्रदम् ॥ १० ॥ निर्दयं वधबंधादिचिंतनं निबिम
अधिकार. १६
॥ १५ ॥
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क्रुधा ॥ पिशुनासन्य मिथ्यावाक् प्रणिधानं च मायया ॥ ११ ॥ चौर्य्यधीर्निरपेक्षस्य तीव्रक्रोधाकुलस्य च ॥ सर्वानिशंकाकलुषं चित्तं च धनरक्षणे ॥ १२ ॥ एतत्सदोषकरणकारणानुमतिस्थिति ॥ देशविरतिपर्यंतं रौषध्यानं चतुर्विधम् ॥ १३ ॥ कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र संभवः ॥ श्रतिसंक्लिष्टरूपाणां कर्मणां परिणामतः ॥ १४ ॥ उत्सन्नबद्दुदोषत्वं नानामा| रणदोषता || हिंसादिषु प्रवृत्तिश्च कृत्वाघं स्मयमानता ॥ १९ ॥ निर्दयत्वाननुशयौ बहुमानः परापदि ॥ लिंगान्यत्रेत्यदो धीरें| स्त्याज्यं नरकदुःखदम् ॥ १६ ॥ प्रशस्ते इमे ध्याने पुरते चिरसंस्तुते ॥ प्रशस्तं तु कृताच्यासो ध्यानमारोढुमर्हति ॥ १७ ॥ जावना देशकालौ च स्वासनावनक्रमान् ॥ ध्यातव्यध्यात्रनुप्रेक्षालेश्यालिंगफलानि च ॥ १८ ॥ ज्ञात्वा धर्म्य ततो ध्याये - |च्चतस्रस्तत्र जावनाः ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्याख्याः प्रकीर्तिताः ॥ १९ ॥ निश्चलत्वमसंमोहो निर्जरा पूर्वकर्मणाम् ॥ संगा| शंसायोच्छेदः फलान्यासां यथाक्रमम् ॥ २० ॥ स्थिरचित्तः किलैता निर्याति ध्यानस्य योग्यताम् ॥ योग्यतैव हि नान्यस्य तथाचोक्तं परैरपि ॥ २१ ॥ चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवत् दृढम् ॥ तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् | ॥ २२ ॥ श्रसंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ॥ श्रन्यासेन तु कौंतेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ २३ ॥ श्रसंयतात्मनो योगो दुःप्राप्य इति मे मतिः ॥ वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ २४ ॥ सदृशप्रत्ययावृत्त्या वैतृष्ण्याद्वहिरर्थतः ॥ एतच्च युज्यते सर्व जावनाभावितात्मनि ॥ २५ ॥ स्त्रीपशुकीबदुःशीलवर्जितं स्थानमागमे ॥ सदा यतीनामाज्ञप्तं ध्यानकाले विशेषतः ॥ २६ ॥ स्थिरयोगस्य तु ग्रामेऽविशेषः कानने वने ॥ तेन यत्र समाधानं स देशो ध्यायतो मतः ॥ २७ ॥ यत्र योगसमाधानं कालोsपीष्टः स एव हि । दिनरात्रिक्षणादीनां ध्यानिनो नियमस्तु न ॥ २० ॥ यैवावस्था जिता जातु
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अध्यात्म
सार ॥ २० ॥
न स्याख्यानोपघातिनी । तया ध्यायेन्निषसो वा स्थितो वा शयितोऽथवा ॥ २५ ॥ सर्वासु मुनयो देशकालावस्थासु केव लम् ॥ प्राप्तास्तन्नियमो नासां नियता योगसुस्थता ॥ ३० ॥ वाचना चैव पृवा च परावृत्यनुचिंतने ॥ क्रिया चालंबनानी ह | सद्धर्मावश्यकानि च ॥ ३१ ॥ श्ररोहति दृढव्यालंबनो विषमं पदम् ॥ तथारोहति सख्यानं सूत्राद्यालंबनाश्रितः ॥ ३२ ॥ श्रालंबनादरोद्भूतप्रत्यूहक्ष्ययोगतः ॥ ध्यानाद्यारोहणांशी योगिनां नोपजायते ॥ ३३ ॥ मनोरोधादिको ध्यानप्रतिपत्तिक्रमो जिने ॥ शेषेषु तु यथायोगं समाधानं प्रकीर्तितम् ॥ ३४ ॥ श्राज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिंतनात् ॥ धर्मध्यानोपयुक्तानां ध्यातव्यं स्याच्चतुर्विधम् ॥ ३९ ॥ नयजंगप्रमाणाढ्यां हेतूदाहरणान्विताम् ॥ श्राज्ञां ध्यायेजिनेंद्राणामप्रामायाकलंकिताम् ॥ ३६ ॥ रागद्वेषकषायादिप। मितानां जनुष्मताम् ॥ ऐहिकामुष्मिकांस्तांस्तान्नानापायान्विचिंतयेत् ॥ ३७ ॥ ध्यायेत्कर्म विपाकं च तं तं योगानुभावजम् ॥ प्रकृत्यादिचतुर्भेदं शुभाशुभ विभागतः ॥ ३८ ॥ उत्पाद स्थितिनंगादिपर्यायै|र्लक्षणैः पृथक् ॥ नेदैर्नामादिनिर्लोकसंस्थानं चिंतयेद् नृतम् ॥ ३ ॥ चिंतयेत्तत्र कर्त्तारं जोतारं निजकर्मणाम् ॥ अरु| पमव्ययं जीवमुपयोगस्वलक्षणम् ॥ ४० ॥ तत्कर्मजनितं जन्मजरामरणवारिणा ॥ पूर्ण मोहमदावर्त्तकामौवनलजी षणम् | ॥ ४१ ॥ श्राशामहानिलापूर्णकषायकलशोचलत् ॥ सविकल्पकोलचक्रं दधतमुद्धतम् ॥ ४२ ॥ हृदिस्रोतसिकावेलासं| पातदुरतिक्रमम् ॥ प्रार्थनावलिसंतानं दुष्पूरविषयोदरम् ॥ ४३ ॥ अज्ञानपुर्दिनं व्यापविद्युत्पातोनवनयम् ॥ कदाग्रहकुवा| तेन हृदयोत्कंपकारिणम् ॥४४॥ विविधव्याधिसंबंधमत्स्यकन्नुपसंकुलम्॥चिंतयेच्च जवांनोधिं चलदोषादुिर्गमम्॥४५॥ त्रिनि| विशेषकम् ॥ तस्य संतरणोपायं सम्यक्त्वदृढबंधनम् ॥ दुशीलांगफलकं ज्ञान निर्यामकान्वितम्॥४६॥ संवरास्ताश्रवचिषं गुप्तिगुप्तं
अधिकार. १६
॥ २० ॥
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ले मुहुः ॥ ५१ मधाः॥१०॥पंचनिकात चारित्रवहनं श्रिताःद्योगरूपस्तंन्नानन्य-/
समंततः॥ आचारमंझपोद्दीप्तापवादोत्सर्गजूष्यम् ॥ ४ ॥ असंख्य धर्योधैर्घष्प्रधृष्यं सदाशयैः ॥ सद्योगकूपस्तंनाग्रन्य-|| स्ताध्यात्मसितांशकम् ॥४०॥ तपोऽनुकूलपवनोद्भूतसंवेगवेगतः॥ वैराग्यमार्गपतितं चारित्रवहनं श्रिताः॥णा सन्नावनाख्य मंजषान्यस्तसच्चित्तरत्नतः॥यथाऽविघ्नेन गति निर्वाणनगरं बुधाः॥॥पंचन्निः कुलकम् ॥ यथा च मोहपलीशे लब्धव्यतिकरे सति ॥ संसारनाटकोछेदाशंकापंकाविले मुहुः ॥५१॥ सजीकृतस्वीयत्नटे नावं व॒छिनामिकाम् ॥ श्रिते पुनीतिनावृंदारूढशेषनटान्विते ॥५२॥ आगवत्यथ धर्मेशनटोघे रणमरुपम् ॥ तत्त्वचिंतादिनाराचसजीजूते समाश्रिते ॥५३॥ मिघोलने रणावेशे सम्यग्दर्शनमंत्रिणा॥मिथ्यात्वमंत्री विषमां प्राप्यते चरमां दशाम्॥५॥चतुन्निः कुलकम् ॥लीलयैव निरुध्यते कपाय चराट अपि ॥ प्रशमादिमहायोधैः शीलेन स्मरतस्करः ॥५५॥ हास्यादिषट्कलुंटाकवृंदं वैराग्यसेनया ॥ निजादयश्च ताड्यंते श्रुतोद्योगादिनिर्जटः॥५६॥ नटान्यां धर्म्यशुक्लाच्यामार्तरौजान्निधौ जटौ। निग्रहेणेजियाणां च जीयते प्रागसंयमः॥ ॥ ५४॥ क्षयोपशमतश्चक्षुर्दर्शनावरणादयः॥ नश्यत्यसातसैन्यं च पुण्योदयपराक्रमात् ॥ ५॥ सह क्षेषगजेंण रागकेस|रिणा तथा ॥ सुतेन मोहनूपोऽपि धर्मजूपेन हन्यते ॥ एए ॥ ततः प्राप्तमहानंदा धर्मानूपप्रसादतः ॥ यथा कृतार्था जाभयंते साधवो व्यवहारिणः॥६॥ विचिंतयेत्तथा सर्व धर्मध्याननिविष्टधीः॥ ईदृगन्यदपि न्यस्तमर्थजातं यदागमे ॥६॥
मनसश्चेप्रियाणां च जयाद्यो निर्विकारधीः ॥ धर्मध्यानस्य स ध्याता शांतो दांतः प्रकीर्तितः॥ ६ ॥ परैरपि यदिष्टं च स्थितप्रज्ञस्य लक्षणम् ॥ घटते ह्यत्र तत्सर्वं तथा चेदं व्यवस्थितम् ॥ ६३ ॥ प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् ॥ आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ६४ ॥ सुःखेष्वनुविग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः॥ वीतरागनयक्रोधः
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अध्यात्मसार
अधिकार१६
स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥६५॥ यः सर्वत्राननिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुजाशनम् ॥ नाजिनंदति न फेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥६६॥ यदा संहरते चायं कूर्मोऽगानीव सर्वशः॥ इजियाणीडियार्थेन्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६७ ॥ शांतो दांतो लवेदीगात्मारामतया स्थितः॥ सिघस्य हि स्वजावो यः सैव साधकयोग्यता ॥ ६ ॥ध्यातायमेव शुक्लस्याप्रमत्तः पादयोपयोः॥ पूर्वविद् योग्ययोगी च केवली परयोस्तयोः॥ ६ए॥ अनित्यत्वाचनुप्रेक्षा ध्यानस्योपरमेऽपि हि ॥ नावयेन्नित्यमन्त्रांतःप्राणा ध्यानस्य ताः खलु ॥ ७० ॥ तीवादिजेदनाजः स्युर्खेश्यास्तिस्र इहोत्तराः॥ सिंगान्यत्रागमश्रझा विनयः सशुणस्तुतिः॥१॥ शीतसंयमयुक्तस्य ध्यायतो धर्म्यमुत्तमम् ॥ स्वर्गप्राप्तिं फलं प्राहुः प्रौढपुण्यानुबंधिनीम् ॥ ७॥ ध्यायेबुलमय झांतिमृङत्वार्जवमुक्तिनिः॥ उद्मस्थोऽणौ मनो धृत्वा व्यपनीय मनो जिनः ॥ १३ ॥ सवितर्क सविचारं सपृथक्त्वं तदादिमम् ॥ नानानयाश्रितं तत्र वितर्कः पूर्वगं श्रुतम् ॥ ७॥ अर्थव्यंजनयोगानां विचारोऽन्योन्यसंक्रमः॥ पृथक्त्वं व्यपर्यायगुणांतरगतिः पुनः ॥ १५॥ त्रियोगयोगिनः साधोर्वितर्काद्यन्वितं ह्यदः ॥ ईपच्चसतरंगाऽब्धेः छोजानावदशानिनम् ॥ ६॥ एकत्वेन वितर्केण विचारेण च संयुतम् ॥ निर्वातस्थप्रदीपानं मितीयं त्वेकपर्ययम् ॥ ७॥ सूक्ष्म क्रियानिवृत्त्याख्यं तृतीय तु जिनस्य तत् ॥ अर्धरुपांगयोगस्य रुक्ष्योगष्यस्य च ॥ ७॥ तुरीयं तु समुचिन्न क्रियमप्रतिपाति तत् ॥ शैक्षवन्निष्पक-| पस्य शैलेश्यां विश्ववेदिनः ॥ ए॥ एतच्चतुर्विधं शुक्लध्यानमत्र घयोः फलम् ॥ श्राधयोः सुरखोकाप्तिरंत्ययोस्तु महोदयः ॥०॥ श्राश्रवापायसंसारानुसावनवसंततीः ॥ अर्थे विपरिणामं वानुपश्येमुक्तविश्रमे ॥ १॥ ध्योः शुक्ला तृतीये च | खेश्या सा परमा मता ॥ चतुर्थशुक्लनेदस्तु खेश्यातीतः प्रकीर्तितः॥२॥ लिंग निर्मखयोगस्य शुक्लध्यानवतोऽवधः॥
शिकज्यानमत्ररणाम बानुपश्येबग निर्मवय
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॥
०५॥
असंमोहो विवेकश्च व्युत्सर्गश्चानिधीयते ॥ ७३ ॥ अवधाऽपसर्गेन्यः कंपते न बिजेति च ॥ असंमोहान्न सूमार्थे मायास्वपि च मुह्यति ॥ ७ ॥ विवेकात्सर्वसंयोगाग्निन्नमात्मानमीक्षते ॥ देहोपकरणासंगो व्युत्सर्गाजायते मुनिः ॥ ४५ ॥ एत-y म्यानक्रमं शुछ मत्वा जगवदाझया ॥ यः कुर्यादेतदन्यासं संपूर्णाध्यात्मविनवेत् ॥ ६॥
॥ इति ध्यानाधिकारः ॥१६ ॥ यत्र गति परं परिपाकं पाकशासनपदं तृणकपम् ॥ स्वप्रकाशसुखबोधमयं तम्यानमेव जवनाशि जजध्वम् ॥१॥॥ आतुरैरपि जमैरपि साक्षात् सुत्यजा हि विषया न तु रागः॥ ध्यानवांस्तु परमद्युतिदशी तृप्तिमाप्य न तमृति नूयः॥२॥ या निशा सकलजूतगणानां ध्यानिनो दिनमहोत्सव एषः॥ यत्र जाग्रति च तेऽनिनिविष्टा ध्यानिनो जवति तत्र सुषुप्तिः ॥३॥ संप्लुतोदकमिवांधुजलानां सर्वतः सकसकर्मफलानाम् ॥ सिधिरस्ति खलु यत्र तऽच्चैानमेव परमार्थनिदानम् ॥४॥ बाध्यते न हि कषायसमुच्चैानसैने तेतजूपनमभिः॥अत्यनिष्टविषयैरपि मुखैानवान्निनृतमात्मनि सीनः ॥५॥ स्पष्टदृष्टसुखसंतृतमिष्टं ध्यानमस्तु शिवशर्मगरिष्ठम् ॥ नास्तिकस्तु निहतो यदि न स्यादेवमादिनयवाङ्मयदंमात् ॥६॥ यत्र नार्कविधुतारकदीपज्योतिषां प्रसरतामवकाशः ॥ ध्यानजिन्नतमसां मुदितात्मज्योतिषां तदपि जाति रहस्यम् ॥ ७॥ योजयत्यमितकालवियुक्तां प्रेयसी शमरतिं त्वरितं यत् ॥ ध्यान मित्रमिदमेव मतं नः किं परैर्जगति कृत्रिममित्रैः॥७॥ वारितस्मरबलातपचारे शीखशीतखसुगंधिनिवेशे ॥ उलिते प्रशमतरूपनिविष्टो ध्यानधानि खनते सुखमात्मा ॥ ए॥ शील
१ नतनूपनमद्भिः इति पाठांतरम् ।
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अध्यात्म-ॐ
विष्टरदमोदकपाद्यप्रातिलार्घशमतामधुपकैः ॥ध्यानधाम्नि नवति स्फुटमात्माहूतपूतपरमातिथिपूजा ॥१०॥ श्रात्मनो हिअधिकार. सार परमात्मनि योऽजूनेदबुद्धिकृत एव विवादः॥ ध्यानसंधिकृदमुं व्यपनीय प्रागन्नेदमनयोर्वितनोति ॥ ११॥ वामृतं विषनृते १७ ॥ २२॥ फणिलोके व क्षयिष्यपि विधौ त्रिदिवे वा ॥ क्वाप्सरोरतिमतां त्रिदशानां ध्यान एव तदिदं बुधपेयम् ॥ १२ ॥ गोस्तनीषु न
सितासु सुधायां नापि नापि वनिताधरबिंबे ॥ तं रसं कमपि वेत्ति मनस्वी ध्यानसंजवधृतौ प्रयते यः॥ १३ ॥ इत्यवेत्य मनसा परिपक्वध्यानसंजवफले गरिमाणम् ॥ तत्र यस्य रतिरेनमुपैति प्रौढधामनृतमाशु यशःश्रीः॥१४॥ ॥ ॥
॥ इति ध्यानस्तुत्यधिकारः ॥ १७ | ॥आत्मज्ञानफलं ध्यानमात्मज्ञानं च मुक्तिदम् । आत्मज्ञानाय तन्नित्यं यत्नः कार्यो महात्मना ॥१॥झाते ह्यात्मनि नो नूयो ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ अहाते पुनरेतस्मिन् शानमन्यन्निरर्थकम् ॥२॥ नवानामपि तत्त्वानां ज्ञानमात्मप्रसिध्ये ॥ येनाजीवादयो जावाः स्वनेदप्रतियोगिनः॥३॥ श्रुतो ह्यात्मपरान्नेदोऽनुजूतः संस्तुतोऽपि वा ॥ निसर्गाऽपदेशाधा वेत्ति जेदं तु कश्चन ॥४॥ तदेकत्वपृथक्त्वान्यामात्मानं हितावहम् ॥ वृथैवानिनिविष्टानामन्यथा धीबिना ॥ ५॥ एक एव हि तत्रात्मा स्वनावसमवस्थितः ॥ शानदर्शनचारित्रलक्षणः प्रतिपादितः॥६॥ प्रनानैर्मव्यशक्तीनां यथा रत्नान्न जिनंता ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणानां तथात्मनः ॥७॥ श्रात्मनो लक्षणानां च व्यवहारो हि निन्नताम् ॥ षष्ठया दिव्यपदेशेन मन्यते न तु निश्चयः॥ ॥ घटस्य रूपमित्यत्र यथा लेदो विकटपजः॥ श्रात्मनश्च गुणानां च तथा नेदो न तात्त्विकः ॥१२॥
ए॥ शुछ यदात्मनो रूपं निश्चयेनानुजूयते ॥ व्यवहारो निदाघारानुनावयति तत्परम् ॥१०॥ वस्तुतस्तु गुणानां
नमा स्वनावसमवस्थितः शयामात्मज्ञानं हितावहम दोऽनन्तः संस्तुतोऽपि वा
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तद्रूपं न स्वात्मनः पृथक् ॥ श्रात्मा स्यादन्यथाऽनात्मा ज्ञानाद्यपि जरुं जवेत् ॥ ११ ॥ चैतन्यपरसामान्यात् सर्वेषामेकतात्मनाम् ॥ निश्चिता कर्मजनितो जेदः पुनरुपप्लवः ॥ १२ ॥ मन्यते व्यवहारस्तु नूतग्रामादिजेदतः ॥ जन्मादेश्च व्यव| स्थातो मिथो नानात्वमात्मनाम् ॥ १३ ॥ न चैतन्निश्चये युक्तं नूतग्रामो यतोऽखिलः ॥ नामकर्मप्रकृतिजः स्वभावो नात्मनः पुनः ॥ १४ ॥ जन्मादिकोऽपि नियतः परिणामो 'कर्मणाम् ॥ न च कर्मकृतो नेदः स्यादात्मन्यविकारिणि ॥ १५ ॥ श्रारोप्य केवलं कर्म कृतां विकृतिमात्मनि ॥ भ्रमंति ष्टविज्ञाना जीमे संसारसागरे ॥ १६ ॥ उपाधिभेदजं नेदं वेत्त्यज्ञः स्फटिके यथा ॥ तथा कर्मकृतं नेदमात्मन्येवानिमन्यते ॥ १७ ॥ उपाधिकर्मजो नास्ति व्यवहारस्त्वकर्मणः । इत्यागमवचो लुप्तमात्मवैरूप्यवादिना ॥ १८ ॥ एकत्र स्थितोऽप्येति नात्मा कर्मगुणान्वयम् ॥ तथानव्यस्वजावत्वाहुको धर्मास्ति - कायवत् ॥ १५ ॥ यथा तैमिरिकश्चंमप्येकं मन्यते द्विधा ॥ अनिश्चयकृतोन्मादस्तथात्मानमनेकधा ॥ २० ॥ यथानुभूयते ह्येकं स्वरूपास्तित्वमन्वयात् ॥ सादृश्यास्तित्वमप्येकमविरुद्धं तथात्मनाम् ॥ २१ ॥ सदसघाद पिशुनात् संगोप्य व्यवहारतः ॥ दर्शयत्येकतारत्नं सतां शुनयः सुहृत् ॥ २२ ॥ नृनारकादिपर्यायैरप्युत्पन्नविनश्वरैः ॥ निन्नैर्जहाति नैकत्वमात्मप्रव्यं सदान्वयि ॥ २३ ॥ यथैकं हेम केयूरकुंमलादिषु वर्त्तते ॥ नृनारकादिनावेषु तथात्मैको निरंजनः ॥ २४ ॥ कर्मणस्ते हि पर्याया नात्मनः शुद्धसाक्षिणः ॥ कर्म क्रियास्वनावं यदात्मात्वजस्वनाववान् ॥ २५ ॥ नाणूनां कर्मणो वासौ जवसर्गः स्वभावजः॥ एकैकविरहेऽनावान्न च तत्त्वांतरं स्थितम् ॥ २६ ॥ श्वेतप्रव्यकृतं श्वैत्यं नित्तिनागे यथा द्वयोः । जात्यनंतर्भवत्रून्यं प्रपं - चोऽपि तथेदयताम् ॥ २७ ॥ यथा स्वप्नावबुद्धोऽर्थो विबुद्धेन न दृश्यते ॥ व्यवहारमतः सर्गो ज्ञानिना न तथेक्ष्यते ॥ २० ॥
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अध्यात्म
सार
॥ २३ ॥
मध्याह्ने मृगतृष्णायां पयःपूरो यथेक्ष्यते ॥ तथा संयोगजः सर्गो विवेकाख्यातिविप्लवे ॥ २९ ॥ गंधर्वनगरादीनामंबरे नंबरो यथा ॥ तथा संयोगजः सर्वो विलासो वितथाकृतिः ॥ ३० ॥ इति शुनयायत्तमेकत्वं प्राप्तमात्मनि ॥ श्रंशादिकल्पनाप्यस्य नेष्टा यत्पूर्णवादिनः ॥ ३१ ॥ एक श्रात्मेति सूत्रस्याप्ययमेवाशयो मतः ॥ प्रत्यग्ज्योतिषमात्मानमादुः शुधनयाः खलु ॥ ३२ ॥ प्रपंचसंचय क्लिष्टान्मायारूपाद्विनेमि ते ॥ प्रसीद जगवन्नात्मन् शुद्धरूपं प्रकाशय ॥ ३३ ॥ देहेन सममेकत्वं मन्यते व्यवहारवित् ॥ कथंचिन्मूर्ततापत्तेर्वेदनादिसमुङ्गवात् ॥ ३४ ॥ तन्निश्चयो न सहते यदमूर्त्तो न मूर्त्तताम् ॥ अंशेनाप्यवगा - देत पावकः शीततामिव ॥ ३५ ॥ उष्णस्याग्नेर्यथा योगाद् घृतमुष्णमिति नमः ॥ तथा मूतीगसंबंधादात्मा मूर्त्त इति | मः ॥ ३६ ॥ न रूपं न रसो गंधो न न स्पर्शो न चाकृतिः ॥ यस्य धर्मो न शब्दो वा तस्य का नाम मूर्त्तता ॥ ३७ ॥ दृशादृश्यं हृदाग्राह्यं वाचामपि न गोचरः ॥ स्वप्रकाशं हि यद्रूपं तस्य का नाम मूर्त्तता ॥ ३८ ॥ आत्मा सत्यचिदानंदः सूक्ष्मात्सूक्ष्मः परात्परः ॥ स्पृशत्यपि न मूर्त्तत्वं तथा चोक्तं परैरपि ॥ ३९ ॥ इंद्रियाणि पराण्यादुरिंडियेन्यः परं मनः ॥ मनसोऽपि परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ ४० ॥ विकले दंत लोकेऽस्मिन्नमूर्त्ते मूर्त्ततामात् ॥ पश्यत्याश्चर्यवद् ज्ञानी वदत्याश्चर्यवचः ॥ ४१ ॥ वेदनापि न मूर्त्तत्वनिमित्ता स्फुटमात्मनः ॥ पुरुलानां तदापत्तेः किं त्वशुद्धस्वशक्तिजा ॥ ४२ ॥ क्षद्वारा यथा ज्ञानं स्वयं परिणमत्ययम् ॥ तथेष्टानिष्टविषयस्पर्शघारेण वेदनाम् ॥ ४३ ॥ विपाककालं प्राप्यासौ वेदनापरिणामजाक || मूर्त्त निमित्तमात्रं नो घंटे दंरुवदन्वयि ॥ ४४ ॥ ज्ञानाख्या चेतना बोधः कर्म्माख्या विष्टरक्तता ॥ जंतोः | कर्मफलाख्या सा वेदना व्यपदिश्यते ॥ ४५ ॥ नात्मा तस्मादमूर्त्तत्वं चैतन्यं चातिवर्तते ॥ तो देहेन नैकत्वं तस्य मूर्त्तेन
अधिकार.
१८
॥ २३ ॥
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कहिंचित् ॥ ४६॥ सन्निकृष्टान्मनोवाणीकर्मादेरपि पुशलात् ॥ विप्रकृष्टानादेश्च नाव्यैवं जिन्नतात्मनः॥४७॥ पुजलानां गुणो मूर्तिरात्मा ज्ञानगुणः पुनः॥ पुजलेल्यस्ततो जिन्नमात्मप्रव्यं जगुर्जिनाः॥ ४०॥ धर्मस्य गतिहेतुत्वं गुणो शानं तथात्मनः ॥ धर्मास्तिकायात्तन्निन्नमात्मत्रव्यं जगुर्जिनाः ॥ ४ए॥ अधर्मे स्थितिहेतुत्वं गुणो ज्ञानगुणोऽसुमान् ॥ ततोऽध मास्तिकायान्यात्मव्यं जगुर्जिनाः ॥५०॥ अवगाहो गुणो व्योम्नो ज्ञानं खट्वात्मनो गुणः॥ व्योमास्तिकायात्तन्निन्नमात्मव्यं जगुर्जिनाः॥५१॥ श्रात्मा ज्ञानगुणः सिधः समयो वर्त्तनागुणः॥ तभिन्नं समयपव्यादात्मव्यं जगुर्जिनाः ॥ ५॥ आत्मनस्तदजीवेन्यो विजिन्नत्वं व्यवस्थितम् ॥ व्यक्तिनेदनयादेशादजीवत्वमपीप्यते ॥ ५३॥ अजीवा जन्मिनः शुनावप्राणव्यपेक्ष्या ॥ सिधाश्च निर्मलझाना ऽव्यप्राणव्यपेक्ष्या ॥५५॥ इजियाणि बलं श्वासोचासो ह्यायुस्तथा परम् ॥
व्यप्राणाश्चतुर्नेदाः पर्यायाः पुजलाश्रिताः॥ ५५॥ निन्नास्ते ह्यात्मनोऽत्यंतं तदेतैर्नास्ति जीवनम्॥ज्ञानवीर्यसदाश्वासनित्यस्थितिविकारिनिः॥५६॥ एतत्प्रकृतिनूतानिः शाश्वतीनिस्तु शक्तिभिः॥ जीवत्यात्मा सदेत्येषा शुधनव्यनयस्थितिः ॥ ५७ ॥ जीवो जीवति न प्राणैर्विना तैरेव जीवति ॥ इदं चित्रं चरित्रं के हंत पर्यनुयुंजताम् ॥ ८ ॥ नात्मा पुण्यं नवा पापमेते यत्पुजलात्मके ॥ श्राद्यबाखशरीरस्योपादानत्वेन कटिपते ॥ एए॥ पुण्यं कर्म शुलं प्रोक्तमशुनं पापमुच्यते ॥ तत्कथं तु शुनं जंतून् यत् पातयति जन्मनि ॥ ६॥ न ह्यायसस्य बंधस्य तपनीयमयस्य च ॥ पारतंत्र्याविशेषेण फलजेदोऽस्ति कश्चन ॥ ६१ ॥ फसान्यां सुखफुःखान्यां न जेदः पुण्यपापयोः ॥ दुःखान्न निद्यते त यतः पुण्यफलं सुखम् ॥ ६॥ सर्वपुण्यफलं दुःखं कर्मोदयकृतत्वतः ॥ तत्र दुःखप्रतीकारे विमूढानां सुखत्वधीः ॥ ६३ ॥ परिणामाच्च तापाच्च संस्काराच्च
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अधिकार.
अध्यात्म
सार ॥२४॥
१७
६॥ तीव्राग्निसंगल इंडियाणां गणतः ॥ ६ ॥ स्वासोऽपि गुण
बुधैर्मतम् ॥ गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखं पुण्यनवं सुखम् ॥६५॥ देहपुष्टेनरामर्त्यनायकानामपि स्फुटम् ॥ महाजपोषणस्येव परिणामोऽतिदारुणः॥६५॥ जलूकाः सुखमानिन्यः पिबत्यो रुधिरं यथा ॥ नुंजाना विषयान् यांति दशामंतेऽतिदारु-I णाम् ॥ ६६॥ तीवाग्निसंगसंशुष्यत्पयसामयसामिव ॥ यत्रौत्सुक्यात्सदाक्षाणां तप्तता तत्र किं सुखम् ॥ ६७ ॥ प्राक्पश्चा|च्चारतिस्पर्शात्पुटपाकमुपेयुपि ॥ इप्रियाणां गणे तापव्याप एव न निवृतिः॥६० ॥ सदा यत्र स्थितो पेषोल्लेखः स्वप्रतिपंथिषु ॥ सुखानुलवकालेऽपि तत्र तापहतं मनः॥ ६ए॥ स्कंधात् स्कंधांतरारोपे जारस्येव न तत्त्वतः॥ अदाटहादेऽपि दुःखस्य संस्कारो विनिवर्त्तते ॥ ७० ॥ सुखं दुःखं च मोहश्च तिस्रोऽपि गुणवृत्तयः ॥ विरुघा अपि वर्त्तते फुःखजात्यनतिक्रमात् ॥ ७१ ॥ क्रुधनागफणानोगोपमो लोगोनवोऽखिलः॥ विलासश्चित्ररूपोऽपि नयहेतुर्विवेकिनाम् ॥ १२॥ इत्थमेकत्वमापन्नं फलतः पुण्यपापयोः॥ मन्यते यो न मूढात्मा नांतस्तस्य नवोदधेः ॥ ७३ ॥ दुःखैकरूपयोर्जिन्नस्तेनात्मा पुण्यपापयोः ॥ शुजानश्चयतः सत्यचिदानंदमयः सदा ॥ १४॥ तत तुरीयदशाव्यंग्यरूपमावरणदयात् ॥जात्युषणोद्योतशीलस्य | घननाशाज्वेरिव ॥ १५॥ जायंते जाग्रतो ऽक्षेच्यश्चित्राधिसुखवृत्तयः॥ सामान्यं तु चिदानंदरूपं सर्वदशान्वयि ॥ ७६॥ स्फुलिंगर्न यथा वह्निर्दीप्यते ताप्यतेऽथवा ॥ नानुतिपराजूती तथैतान्तिः किलात्मनः ॥७॥ साक्षिणः सुखरूपस्य सुषुप्तौ । निरहंकृतम् ॥ यथा जानं तथा शुभविवेके तदतिस्फुटम् ॥ ७॥ तच्चिदानंदलावस्य नोक्तात्मा शुचनिश्चयात् ॥ अशुधनिश्चयात्कर्मकृतयोः सुखफुःखयोः ॥ ए॥ कर्मणोऽपि च नोगस्य स्रगादेर्व्यवहारतः॥ नैगमादिव्यवस्थापि जावनीया- ऽनया दिशा ॥ ७० ॥ कर्तापि शुधजावानामात्मा शुधनयादिनुः ॥प्रतीत्य वृत्तिं यबुदाणानामेष मन्यते ॥१॥
॥॥
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अनुपलवसाम्राज्ये विसजागपरिक्षये ॥ श्रात्मा शुद्धस्वभावानां जननाय प्रवर्त्तते ॥ ८२ ॥ चित्तमेव हि संसारो रागादि| क्लेशवासितम् ॥ तदेव तैर्विनिर्मुक्तं जवांत इति कथ्यते ॥ ८३ ॥ यश्च चित्तक्षणः विष्टो नासावात्मा विरोधतः ॥ अनन्य विकृतं रूपमित्यन्वर्थे ह्यदः पदम् ॥ ८४ ॥ श्रुतवानुपयोगश्चेत्येतन्मिथ्या यथा वचः ॥ तथात्मा शुद्धरूपश्चेत्येवं शब्दनया जगुः ॥ ८५ ॥ शुद्धपर्यायरूपस्तदात्मा शुद्धः स्वभावकृत् ॥ प्रथमाप्रथमत्वादिनेदोऽप्येवं हि तात्त्विकः ॥ ८६ ॥ ये तु दिक्पटदेशीयाः शुद्धव्यतयात्मनः ॥ शुद्धस्वभावकर्तृत्वं जगुस्तेऽपूर्वबुद्धयः ॥ ८१ ॥ अव्यास्तिकस्य प्रकृतिः शुद्धा संग्रहगोचरा ॥ येनोक्ता संमतौ श्रीमत्सिद्धसेन दिवाकरैः ॥ ८८ ॥ तन्मते च न कर्तृत्वं जावानां सर्वदान्वयात् ॥ कूटस्थः केवलं | तिष्ठत्यात्मा साक्षित्वमाश्रितः ॥ ८९ ॥ कर्त्तुं व्याप्रियते नायमुदासीन इव स्थितः ॥ श्राकाशमिव पंकेन लिप्यते न च | कर्मणा ॥ ९० ॥ स्वरूपं तु न कर्त्तव्यं ज्ञातव्यं केवलं स्वतः ॥ दीपेन दीप्यते ज्योतिर्न त्वपूर्व विधीयते ॥ १ ॥ श्रन्यथा | प्रागनात्मा स्यात्स्वरूपाननुवृत्तितः ॥ न च हेतुसहस्रेणाप्यात्मता स्यादनात्मनः ॥ ९२ ॥ नये तेनेड् नो कर्त्ता किं त्वात्मा शुद्धभावनृत् ॥ उपचारात्तु लोकेषु तत्कर्तृत्वमपीष्यताम् ॥ ९३ ॥ उत्पत्तिमात्मधर्माणां विशेषग्राहिणो जगुः ॥ अव्यक्तिरावृतेस्तेषां नाजावादिति का प्रमा ॥ ९४ ॥ सत्त्वं च परसंताने नोपयुक्तं कथंचन ॥ संतानिनामनित्यत्वात्संतानोऽपि न च ध्रुवः ॥ ९५ ॥ व्योमाप्युत्पत्तिमत्तत्तदवगाहात्मना ततः ॥ नित्यता नात्मधर्माणां तद्दृष्टांतबलादपि ॥ ए६ ॥ रुजुसूत्रनयस्तत्र कर्तृतां तस्य मन्यते ॥ स्वयं परिणमत्यात्मा यं यं जावं यदा यदा ॥ 9 ॥ कर्तुत्वं परजावानामसौ, नान्युपगच्छति ॥ क्रियाषयं हि नैकस्य प्रव्यस्यानिमतं जिनैः ॥ ए८ ॥ नृतिर्या हि क्रिया सैव स्यादेकद्रव्यसंततौ ॥ न साजात्यं विना च
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अध्यात्म
सार ॥२५॥
अधिकार. १०
स्यात् परजन्यगुणेषु सा ॥ एए॥ नन्वेवमन्यनावाना न चेत्कर्ता परो जनः ॥ तदा हिंसादयादानहरणाद्यव्यवस्थितिः N॥ १०॥ सत्यं पराश्रयं न स्यात् फलं कस्यापि यद्यपि ॥ तथापि स्वगतं कर्म स्वफलं नातिवर्त्तते ॥ ११॥ हिनस्ति न
परं कोपि निश्चयान्न च रक्षति ॥ तदायुःकर्मणो नाशे मृति वनमन्यथा ॥ १.२ ॥ हिंसादयाविकटपान्यां स्वगतान्यां तु केवलम् ॥ फलं विचित्रमामोति परापेक्षां विना पुमान् ॥ १०३ ॥ शरीरी म्रियतां मा वा ध्रुवं हिंसा प्रमादिनः॥ दयैव यतमानस्य वधेऽपि प्राणिनां क्वचित् ॥ १०४॥ परस्य युज्यते दानं हरणं वा न कस्यचित् ॥न धर्मसुखयोर्यत्ते कृतनाशादिदोषतः॥ १०५॥ निन्नान्यां जक्तवित्तादिपुजलान्यां च ते कुतः ॥ स्वत्वापत्तिर्यतो दानं हरणं स्वत्वनाशनम् ॥१०६॥ कर्मोदयाच्च तद्दानं हरणं वा शरीरिणाम् ॥ पुरुषाणां प्रयासः कस्तत्रोपनमति स्वतः ॥ १०७ ॥ स्वगतान्यां तु जावान्यां केवलं दानचौर्ययोः॥ अनुग्रहोपघातौ स्तः परापेक्षा परस्य न ॥१०॥ पराश्रितानां नावानां कर्तृत्वाद्यजिमानतः॥ कर्मणा बध्यतेऽज्ञानी ज्ञानवांस्तु न लिप्यते ॥ १०॥ कत्र्तवमात्मा नो पुण्यपापयोरपि कर्मणोः॥ रागधेषाशयानां तु कर्तेष्टानिष्टवस्तुषु ॥ ११॥ रज्यते पेष्टि वार्थेषु तत्तत्कार्यविकरूपतः॥ आत्मा यदा तदा कर्म नमादात्मनि युज्यते ॥१११॥ स्नेहान्यक्ततनोरंग रेणुनाश्लिष्यते यथा ॥ रागदेषानुविधस्य कर्मबंधस्तथा मतः ॥ ११ ॥ आत्मा न व्यापृतस्तत्र राग-४ षाशयं सृजन् ॥ तन्निमित्तोपनमेषु कर्मोपादानकर्मसु ॥ ११३ ॥ लोहं स्वक्रिययान्येति नामकोपलसंनिधौ ॥ यथा कर्म तथा चित्रं रक्तपिष्टात्मसंनिधौ ॥ ११४ ॥ वारि वर्षन् यथांनोदो धान्यवर्षी निगद्यते ॥ जावकर्म सृजन्नात्मा तथा पुजस- कर्मकृत् ॥११५॥ नैगमव्यवहारौ तु ब्रूतः कर्मादिकर्तृताम् ॥ व्यापारः फलपर्यंतः परिदृष्टो यदात्मनः ॥ ११६ ॥ श्रन्यो
॥२५॥
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न्यानुगतानां का तदेतदिति वा निदा ॥ यावच्चरमपर्यायं यथा पानीयमुग्धयोः ॥ ११७ ॥ नात्मनो विकृतिं दत्ते तदेषा नयकट्पना ॥ शुद्धस्य रजतस्येव शुक्तिधर्मप्रकल्पना ॥ ११॥ मुषितत्वं यथा पांथगतं पथ्युपचर्यते ॥ तथा पुजसकर्मस्था विक्रियात्मनि बालिशैः ॥ ११॥ कृष्णः शोणोऽपि चोपाधे शुद्धः स्फटिको यथा ॥ रक्तो विष्टस्तथैवात्मा संसर्गात्पुण्यपापयोः ॥ १० ॥ सेयं नटकला तावद् यावदिविधकष्टपना ॥ यद्रूपं कट्पनातीतं तत्तु पश्यत्यकहपकः ॥ ११॥ कहपनामोहितो जंतुः शुक्लं कृष्णं च पश्यति ॥ तस्यां पुनर्विलीनायामशुक्लाकृष्णमीदते ॥१२॥ तख्यानं सा स्तुतिक्तिः सैवोक्ता परमात्मनः ॥ पुण्यपापविहीनस्य यद्रूपस्यानुचिंतनम् ॥ १५३ ॥ शरीररूपलावण्यवप्रछत्रध्वजादिभिः ॥ वर्णितैवींतरागस्य वास्तवी नोपवर्णना ॥ १५ ॥ व्यवहारस्तुतिः सेयं वीतरागात्मवर्तिनाम् ॥ ज्ञानादीनां गुणानां तु वर्णना निश्चयस्तुतिः॥१२५ ॥ पुरादिवर्णनाजाजा स्तुतः स्याउपचारतः॥ तत्त्वतः शौर्यगांनीर्यधैर्यादिगुणवर्णनात् ॥ १२६॥ मुख्योपचारधर्माणामविलागेन या स्तुतिः ॥न सा चित्तप्रसादाय कवित्वं कुकवेरिव ॥ १२७ ॥ अन्यथालिनिवेशेन प्रत्युतानर्थकारिणी ॥ सुतीदणखड्गधारेव प्रमादेन करे धृता ॥ १२ ॥ मणिप्रजामणिशानन्यायेन शुजकहपना ॥ वस्तुस्पर्शितया न्याय्या यावन्नानंजनप्रथा ॥ १२ए॥ पुण्यपापविनिर्मुक्तं तत्त्वतस्त्वविकटपकम् ॥ नित्यं ब्रह्म सदा ध्येयमेषा शुधनयस्थितिः ॥ १३० ॥ श्राश्रवः संवरश्चापि नात्मा विज्ञानलक्षणः॥ यत्कर्मपुजलादानरोधावाश्रवसंवरौ ॥ १३१॥ आत्मादत्ते तु यै
वैः स्वतंत्रः कर्मपुजवान् ॥ मिथ्यात्वाविरती योगाः कषायास्तेऽतराश्रवाः ॥ १३॥ जावनाधर्मचारित्रपरीषहजयादयः॥ आश्रवोदिनो धर्मा आत्मनो जावसंवराः॥ १३३ ॥ श्राश्रवः संवरो न स्यात्संवरश्चाश्रवः क्वचित् ॥ जवमोक्षफ
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अध्यात्म
अधिकार
सार
॥२६॥
खानेदोऽन्यथा स्यातुसंकरात् ॥१३४ ॥ कर्माश्रवं च संवृण्वन्नात्मा निन्नर्निजाशयः ॥ करोति न परापेदामलंजूष्णुः स्वतः सदा ॥ १३५ ॥ निमित्तमात्रनूतास्तु हिंसाऽहिंसादयोऽखिलाः॥ ये परप्राणिपर्याया न ते स्वफलहेतवः ॥ १३६॥ व्यवहारविमूढस्तु हेतूंस्तानेव मन्यते ॥ बाह्यक्रियारतस्वांतस्तत्त्वं गूढं न पश्यति ॥ १३७ ॥ हेतुत्वं प्रतिपद्यते नैवैतेऽनियमस्पृशः॥ यावंत श्राश्रवाः प्रोक्तास्तावतो हि परिश्रवाः ॥ १३८ ॥ तस्मादनियतं रूपं बाह्यहेतुषु सर्वथा ॥ नियतौ जाववैचित्र्यादात्मैवाश्रवसंवरौ ॥ १३॥ अज्ञानाविषयासक्तो बध्यते विषयैस्तु न ॥ ज्ञानाधिमुच्यते चात्मा न तु शास्त्रादिपुजलात् ॥ १४० ॥ शास्त्रं गुरोश्च विनयं क्रियामावश्यकानि च ॥ संवरांगतया प्रादुर्व्यवहारविशारदाः॥ ११॥ विशिष्टा वाक्त नुस्वांतपुजलास्तेऽफलाबहाः॥ ये तु ज्ञानादयो नावाः संवरत्वं प्रयांति ते ॥ १५॥ ज्ञानादिलावयुक्तेषु शुनयोगेषु तज्ञतम् ॥ संवरत्वं समारोप्य स्मयंते व्यवहारिणः ॥ १४३ ॥ प्रशस्तरागयुक्तेषु चारित्रादिगुणेष्वपि ॥ शुजाश्रवत्वमारोप्य फलनेदं वदंति ते ॥ १४ ॥ नवनिर्वाणहेतूनां वस्तुतो न विपर्ययः ॥ अज्ञानादेव तनानं ज्ञानी तत्र न मुह्यति| tA ॥ १४॥ तीर्थकृन्नामहेतुत्वं यत्सम्यक्त्वस्य वर्ण्यते ॥ यच्चाहारकहेतुत्वं संयमस्यातिशायिनः ॥ १४६॥ तपःसंयमयोः स्वर्गहेतुत्वं यच्च पूर्वयोः॥ उपचारेण तद्युक्तं स्याद् घृतं दहतीतिवत् ॥ १४७॥ येनांशेनात्मनो योगस्तेनांशेनाश्रवो मतः॥ येनांशेनोपयोगस्तु तेनांशेनास्य संवरः॥ १४ ॥ तेनासावंशविश्रांती बिन्नदाश्रवसंवरौ ॥ नात्यादर्श श्व स्वास्ववनागघ्यः सदा ॥ १४ए॥ शुधैव ज्ञानधारा स्यात्सम्यक्त्वप्राप्त्यनंतरम् ॥ हेतुनेदादिचित्रा तु योगधारा प्रवर्त्तते ॥ १५॥ सम्यग्दृशो विशुधत्वं सर्वास्वपि दशास्वतः ॥ मृडमध्यादिनावस्तु क्रियावैचित्र्यतो नवेत् ॥ १५१॥ यदा तु सर्वतः शुद्धि
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र्जायते धारयोईयोः॥शैलेशीसंझितः स्थैर्यात्तदा स्यात्सर्वसंवरः॥ १५५ ॥ ततोऽर्वाग् यच्च यावच्च स्थिरत्वं तावदात्मनः॥ संवरो योगचांचयं यावत्तावकिलाश्रवः॥ १५३ ॥ अशुधनयतश्चैवं संवराश्रवसंकथा ॥ संसारिणां च सिद्धानां न शुद्धनयतो जिदा ॥ १५॥ निर्जरा कर्मणां शाटो नात्माऽसौ कर्मपर्ययः॥ येन निर्जीयते कर्म स जावस्त्वात्मलक्षणम्॥१५॥ सत्तपो बादशविधं शुधज्ञानसमन्वितम् ॥ श्रात्मशक्तिसमुबानं चित्तवृत्तिनिरोधकृत् ॥ १५६॥ यत्र रोधः कषायाणां ब्रह्मध्यानं जिनस्य च ॥ज्ञातव्यं तत्तपः शुधमवशिष्टं तु खंघनम् ॥ १५७ ॥ बुनुदा देहकार्य वा तपसो नास्ति खक्षणम् ॥ तितिक्षाब्रह्मगुप्त्यादिस्थानं ज्ञानं तु तछपुः ॥ १५ ॥ ज्ञानेन निपुणे क्यं प्राप्तं चंदनगंधवत् ॥ निर्जरामात्मनो दत्ते तपो नान्यादृशं क्वचित् ॥ १५ ॥ तपस्वी जिननक्त्या च शासनोन्नासनेचया ॥ पुण्यं बध्नाति बहुसं मुच्यते तु गतस्पृहः॥ ॥ १६० ॥ कर्मतापकरं ज्ञानं तपस्तन्नैव वेत्ति यः॥प्राप्नोतु स हतस्वांतो विपुलां निर्जरां कथम् ॥ १६१ ॥ अज्ञानी तपसा जन्मकोटिन्निः कर्म यन्नयेत् ॥ अंतं ज्ञानतपोयुक्तस्तत् क्षणेनैव संहरेत् ॥ १६ ॥ ज्ञानयोगस्तपःशुधमित्याहुर्मुनिपुंगवाः ॥ तस्मान्निकाचितस्यापि कर्मणो युज्यते दयः॥ १६३ ॥ यदिहापूर्वकरणं श्रेणिः शुश च जायते ॥ध्रुवः स्थितिक्ष्यस्तत्र स्थितानां प्राच्यकर्मणाम् ॥ १६॥ तस्माद् ज्ञानमयः शुचस्तपस्वी जावनिर्जरा ॥ शुचनिश्चयतस्त्वेषा सदा शुग्धस्य कापि न ॥ १६५ ॥ बंधः कर्मात्मसंश्लेषो ऽन्यतः स चतुर्विधः॥ तक्षेत्वध्यवसायात्मा लावतस्तु प्रकीर्तितः॥१६६ ॥ वेष्टयत्यात्मनात्मानं यथा सर्पस्तथासुमान् ॥ तत्तनावैः परिणतो बनात्यात्मानमात्मना ॥ १६७ ॥ बध्नाति स्वं यथा कोशकारकीटः स्वतंतुनिः॥ श्रात्मनः स्वगतै वेबधने सोपमा स्मृता ॥ १६० ॥ जंतूनां सापराधानां बंधकारी न हीश्वरः ॥ तद्वं
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अध्यात्म
सार
॥ २७ ॥
|धकानवस्थानादबंधस्याप्रवृत्तितः ॥ १६९ ॥ न त्वज्ञानप्रवृत्त्यर्थे ज्ञानवन्नोदना ध्रुवा ॥ श्रबुद्धिपूर्वकार्येषु स्वप्नादौ तददर्श नात् ॥ १७० ॥ तथाजव्यतया जंतुर्नोदितश्च प्रवर्त्तते ॥ बनन् पुष्यं च पापं च परिणामानुसारतः ॥ १७१ ॥ शुद्धनिश्चयतस्त्वात्मा न बद्धो बंधशंकया । जयकंपादिकं किंतु राव हिमतेरिव ॥ ११२ ॥ रोगस्थित्यनुसारेण प्रवृत्ती रोगिणो यथा ॥ जवस्थित्यनुसारेण तथा बंधेऽपि वर्ण्यते ॥ १७३ ॥ दृढाज्ञानमयीं शंकामेनामपनिनीषवः ॥ अध्यात्मशास्त्रमिति श्रोतुं वैराग्यकांक्षिणः ॥ १७४ ॥ दिशः प्रदर्शक शाखाचंद्रन्यायेन तत्पुनः । प्रत्यक्षविषयां शंकां न हि इंति परोक्षधीः | ॥ १७५ ॥ शंखे वैत्यानुमानेऽपि दोषात्पी तत्वधीर्यथा ॥ शास्त्रज्ञानेऽपि मिथ्याधी संस्काराद्वंधधीस्तथा ॥ १७६ ॥ श्रुत्वा मत्वा मुदुः स्मृत्वा साक्षादनुवंति ये । तत्त्वं न बंधधीस्तेषामात्माबंधः प्रकाशते ॥ ११७ ॥ प्रव्यमोदः क्षयः कर्मप्रव्याणां नात्मलक्षणम् ॥ जावमोक्षस्तु तद्धेतुरात्मा रत्नत्रयान्वयी ॥ १७८ ॥ ज्ञानदर्शनचा रित्रैरात्मैक्यं लभते यदा ॥ कर्माणि कुपितानीव जवंत्याशु तदा पृथक् ॥ १७९ ॥ अतो रत्नत्रयं मोक्षस्तदजावे कृतार्थता ॥ पाषंकिग सिंगैश्च गृहिसिंगैश्च कापि न ॥ १०० ॥ पापंकिगालिंगेषु गृहिलिंगेषु ये रताः ॥ न ते समयसारस्य ज्ञातारो बालबुद्धयः ॥ १०१ ॥ जावलिंगरता ये | स्युः सर्वसारविदो हि ते । लिंगस्था वा गृहस्था वा सिध्यंति धूतकडमषाः ॥ १०२ ॥ जावलिंगं हि मोक्षांगं प्रव्यलिंगम - कारणम् । अव्यं नात्यंतिकं यस्मान्नाप्येकांतिकमिष्यते ॥ १०३ ॥ यथाजातदशालिंगमर्थादव्यभिचारि चेत् ॥ विपक्षबाधकाभावात् तचेतुत्वे तु का प्रमा ॥ १८४ ॥ वस्त्रादिधारणेच्छा चेद्वाधिका तस्य तां विना ॥ धृतस्य किमवस्थाने करा| देखि बाधकम् ॥ १८५ ॥ स्वरूपेण च वस्त्रं चेत्केवलज्ञानबाधकम् ॥ तदा दिक्पटनीत्यैव तत्तदावरणं जवेत् ॥ १०६ ॥
अधिकार.
१८
॥ २७ ॥
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इत्थं केवलिनस्तेन मूर्ध्नि क्षिप्तेन केनचित् ।। केवलित्वं पलायतेत्यहो किमसमंजसम् ॥ १७ ॥ नावलिंगात्ततो मोक्षो जिन्नलिंगेष्वपि ध्रुवः॥ कदाग्रहं विमुच्यतन्नावनीयं मनस्विना ॥ १८ ॥ अशुभनयतो ह्यात्मा बडो मुक्त इति स्थितिः॥ न शुधनयतस्त्वेष बध्यते नापि मुच्यते ॥ १७ ॥ अन्वयव्यतिरेकान्यामात्मतत्त्वविनिश्चयम् ॥ नवन्योऽपि हि तत्त्वेन्यः कुर्यादेवं विचक्षणः ॥ १०॥ इदं हि परमध्यात्मममृतं ह्यद एव च ॥ इदं हि परमं ज्ञानं योगोऽयं परमः स्मृतः॥११॥ गुह्याद्गुह्यतरं तत्त्वमेतत्सूक्ष्मनयाश्रितम् ॥ न देयं स्वट्पबुद्धीनां ते ह्येतस्य विम्बकाः॥ १५ ॥ जनानामहपबुद्धीनां नैतत्तत्त्वं हितावहम् ॥ निर्बलानां कुधार्तानां नोजनं चक्रिणो यथा ॥ १५३ ॥ ज्ञानांशपुर्विदग्धानां तत्त्वमेतदनर्थकृत् ॥ अशुधमंत्रपाठस्य फणिरत्नग्रहो यथा ॥ १एच ॥व्यवहाराविनिष्णातो यो झीप्सति विनिश्चयम् ॥ कासारतरणाशक्तः सागरं स तितीर्षति ॥१५५ ॥ व्यवहार विनिश्चित्य ततः शुधनयाश्रितः॥ आत्मज्ञानरतो नूत्वा परमं साम्यमाश्रयेत् ॥ १५६ ॥
॥ इत्यात्मनिश्चयाधिकारः ।। १८ ॥ उत्सर्पद्व्यवहारनिश्चयकथाकलोखकोलाहवत्रस्य(नयवादिकलपकुलत्रश्यत्कुपदाचलम् ॥ उद्यधुक्तिनदीप्रवेशसुजगं स्याघादमर्यादया युक्तं श्रीजिनशासनं जलनिधिं मुक्त्वा परं नाश्रये ॥१॥ पूर्णः पुण्यनयप्रमाणरचनापुष्पैः सदास्थारसैस्तत्त्वज्ञानफलः सदा विजयते स्याफादकल्पद्रुमः ॥ एतस्मात् पतितैः प्रवादकुसुमैः षट्दर्शनारामजूयः सौरजमुमत्यजिमतैरध्यात्मवार्तालवैः॥२॥ चित्रोत्सर्गशुजापवादरचनासानुश्रियालंकृतः श्रझानंदनचंदनद्रुमनिन्नप्रझोलसत्सौरजः ॥ त्राम्यन्निः परदर्शनग्रहगणैरासेव्यमानः सदा तर्कस्वर्णशिलोच्छ्रितो विजयते जैनागमो मंदरः॥३॥ स्याद्दोषापगमस्तमांसि ज
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अधिकार.
अध्यात्म- गति दीयंत एव दणादध्वानो विशदीनवंति निबिमा निता दृशोर्गच्छति ॥ यस्मिन्नन्युदिते प्रमाण दिवसप्रारंजकट्याणिनी
सार प्रौढत्वं नयगीर्दधाति स रविजैनागमो नंदतात् ॥४॥ अध्यात्मामृतवर्षिनिः कुवखयोझासं विलासैर्गवां तापव्यापविनाशि॥२०॥ निर्वितनुते लब्धोदयो यः सदा ॥ तर्कस्थाणुशिरःस्थितः परिवृतः स्फारैर्नयस्तारकैः सोऽयं श्रीजिनशासनामृतरुचिः कस्यैति
नो रुच्यताम् ॥ ५॥ बौघानामृजुसूत्रतो मतमधेदांतिनां संग्रहात्सांख्यानां तत एव नैगमनयाद् योगश्च वैशेषिकः॥ शब्दब्रह्मविदोऽपि शब्दनयतः सर्वैर्नयैर्गुफिता जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुघीयते ॥ ६॥ ऊष्मा नार्कमपाकरोति दहनं नैव स्फुलिंगावली नाब्धि सिंधुजलप्लवः सुरगिरि ग्रावा न चान्यापतन् ॥ एवं सर्वनयकन्नावगरिमस्थानं जिनागमं । तत्तदर्शनसंकथांशरचनारूपा न हंतुं क्षमा ॥७॥5:साध्यं परवादिनां परमतदेपं विना स्वं मतं तत्पे च कषायपंकक-I लुषं चेतः समापद्यते ॥ सोऽयं निःस्वनिधिग्रहव्यवसितो वेतालकोपक्रमो नायं सर्वहितावहे जिनमते तत्त्वप्रसिध्यर्थिनाम् ॥ ॥ वार्ताः संति सहस्रशः प्रतिमतं ज्ञानांशबपक्रमाश्चतस्तासु न नः प्रयाति नितमा लीनं जिनेंागमे ॥ नोत्सर्पति
लताः कति प्रतिदिशं पुष्पैः पवित्रा मधौ तान्यो नैति रतिं रसालकतिकारक्तस्तु पुस्कोकिलः॥ ए॥ शब्दो वा मतिरर्थ N|एव वसु वा जातिः क्रिया वा गुणः शब्दार्थः किमिति स्थिता प्रतिमतं संदेहशंकुव्यथा ॥ जैनें तु मते न सा प्रतिपदं
जात्यंतरार्थस्थितेः सामान्यं च विशेषमेव च यथा तात्पर्यमन्विञ्चति ॥१०॥ यत्रानर्पितमादधाति गुणतां मुख्यं तु वस्त्वएर्पितं तात्पर्यानवलंबनेन तु नवेद्बोधः स्फुटं लौकिकः ॥ संपूर्ण त्ववनासते कृतधियां कृत्स्नाधिवदाक्रमात् तां लोकोत्तरनं-
गपतिमयीं स्याघादमुत्रां स्तुमः॥ ११ ॥ आत्मीयानुन्नवाश्रयार्थविषयोऽप्युच्चैर्यदीयक्रमो म्लेबानामिव संस्कृतं तनुधि
॥२०॥
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यामाश्चर्यमोहावहः॥ व्युत्पत्तिप्रतिपत्तिहेतुविततस्याघादवाग्गुंफितं तं जैनागममाकलय्य न वयं व्यादेपनाजः क्वचित् ॥१॥ मूलं सर्ववचोगतस्य विदितं जैनेश्वरं शासनं तस्मादेव समुवितैर्नयमतैस्तस्यैव यत्खननम् ॥ एतत्किंचन कौशलं कलिमलबनात्मनः स्वाश्रितां शाखां बेत्तुमिवोद्यतस्य कटुकोदर्काय तार्थिनः॥ १३ ॥ त्यक्त्वोन्मादविनज्यवादरचनामाकर्ण्य कर्णामृतं सिद्धांतार्थरहस्य वित् क्व बनतामन्यत्र शास्त्रे रतिम् ॥ यस्यां सर्वनया विशति न पुनर्व्यस्तेषु तेष्वेव या मालायां मणयो लुगंति न पुनर्व्यस्तेषु मालापि सा ॥१४॥अन्योन्यप्रतिपदनाववितथान् स्वस्वार्थसत्यान्नयान्नापेक्षाविषयाग्रहैर्विनजते माध्यस्थ्यमास्थाय यः॥ स्याघादे सुपथे निवेश्य हरते तेषां तु दिङ्मूढतां कुंदेंऽप्रतिमं यशो विजयिनस्तस्यैव संवर्धते॥१५॥
॥ इति जिनमतस्तुत्यधिकारः ॥ १९ शास्त्रोपदर्शितदिशा गलितासग्रहकषायकलुषाणाम् ॥ प्रियमनुलवैकवेद्यं रहस्यमाविर्जवति किमपि ॥१॥प्रथमान्यासविलासादावियैव यत्दणालीनम् ॥ चंचत्तरुणी विचमसममुत्तरखं मनः कुरुते ॥२॥ सुविदितयोगैरिष्टंक्षिप्तं मूढं तथैव विक्षिप्तं ॥ एकाग्रं च निरुई चेतः पंचप्रकारमिति ॥३॥ विषयेषु कटिपतेषु च पुरःस्थितेषु च निवेशितं रजसा ॥ सुखदुःखयुग्बहिर्मुखमाम्नातं क्षिप्तमिह चित्तम् ॥ ४॥ क्रोधादिजिनियमितं विरुष्कृत्येषु यत्तमोजूम्ना ॥ कृत्याकृत्यविनागासंगतमेतन्मनो मूढम् ॥ ५॥ सत्वोकापरिहतमुःखनिदानेषु सुखनिदानेषु ॥ शब्दादिषु प्रवृत्तं सदैव चित्तं तु विक्षिप्तम्॥६॥ अपेषादिगुणवतां नित्यं खेदादिदोषपरिहारात् ॥ सदृशप्रत्ययसंगतमेकाग्रं चित्तमाम्नातम् ॥७॥ उपरतविकट्पवृत्तिकमवन-| हादिक्रमच्युतं शुधम् ॥ आत्माराममुनीनां नवति निरुई सदा चेतः ॥७॥ न समाधावुपयोगं तिनश्चेतोदशा इह खनंते ॥
यलणाधीनम् ॥ प्रकारमिति ॥३ादिन्जिनियमितं (शब्दादिषु प्रवत्तला उपरतविकाइह सजते ।
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अधिकार
अध्यात्म
सार ।।२ए॥
IC
च॥ पुरुषविशेषानं दध्यात् ॥ पदार्थ यदा न कि हायंते शांतहदायमेति ॥
सत्वोत्कर्षात् स्थैर्याने समाधिसुखातिशयात् ॥ ए॥ योगारंजस्तु जवेदिदिप्ते मनसि जातु सानंदे ॥ हिप्ते मूढे चास्मिन् । व्युधानं जवति नियमेन ॥१०॥ विषयकषायनिवृत्तं योगेषु च संचरिष्णु विविधेषु ॥ गृहखेलद्वालोपममपि चलमिष्टं मनोऽज्यासे ॥ ११॥ वचनानुष्ठानगतं यातायातं च सातिचारमपि ॥ चेतोऽन्यासदशायां गजांकुशन्यायतोऽऽष्टम् ॥१॥ ज्ञानविचारानिमुखं यथा यथा नवति किमपि सानंदम् ॥ अर्थैः प्रलोज्य बारिनुगृह्णीयात्तथा चेतः॥ १३॥ अनिरूपजिनप्रतिमां विशिष्टपदवाक्यवर्णरचना च ॥ पुरुषविशेषादिकमप्यत एवालंबनं ब्रुवते ॥ १४॥ आलंबनैः प्रशस्तैः प्रायो जावः प्रशस्त एव यतः ॥ इति साखंबनयोगी मनः शुजालंबनं दध्यात् ॥ १५॥ साखंबनं क्षणमपि णमपि कुर्यात्मनो निरालंबम् ॥ इत्यनुनवपरिपाकादाकालं स्यान्निरालंबम् ॥१६॥ आलंव्यैकपदार्थ यदा न किंचिमिचिंतयेदन्यत् ॥ अनुपनतेंधनवह्निवऽपशांतं स्यात्तदा चेतः॥१७॥ शोकमदमदनमत्सरकलहकदाग्रहविषादवैराणि ॥ दीयंते शांतहृदामनुजव एवात्र साही नः ॥१॥ शांते मनसि ज्योतिः प्रकाशते शांतमात्मनः सहजम् ॥ जस्मीनवत्यविद्या मोहध्यांतं विलयमेति ॥१५॥ बाह्यात्मनोऽधिकारः शांतहृदामंतरात्मनां न स्यात् ॥ परमात्मानुध्येयः सन्निहितो ध्यानतो जवति ॥२०॥ कायादिबहिरात्मा तदधिष्ठातांतरात्मतामेति ॥ गतनिःशेषोपाधिः परमात्मा कीर्तितस्तझैः ॥ २१ ॥ विषयकषायावेशः तत्त्वाश्रघा गुणेषु च षः॥ आत्माज्ञानं च यदा बाह्यात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ॥॥ तत्त्वश्रद्धा ज्ञानं महाव्रतान्यप्रमादपरता च ॥ मोहजयश्च यदा स्यात् तदांतरात्मा जवेक्ष्वक्तः॥ २३ ॥ ज्ञानं केवलसझं योगनिरोधः समग्रकर्महतिः ॥ सिलिनिवासश्च यदा परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ॥ २४ ॥ आत्ममनोगुणवृत्ती विविच्य यः प्रतिपदं विजानाति ॥ कुशखानुबंधयुक्तः प्रा
॥३
॥
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मोति ब्रह्मजयमसौ ॥ २५॥ ब्रह्मस्थो ब्रह्मझो ब्रह्म प्रामोति तत्र किंचित्रम् ॥ ब्रह्मविदां वचसापि ब्रह्मविलासाननलवामः ॥ २६॥ ब्रह्माध्ययनेषु मतं ब्रह्माष्टादशसहस्रपदलावैः ॥ येनाप्तं तत् पूर्ण योगी स ब्रह्मणः परमः ॥२७॥ ध्येयोऽयं सेव्योऽयं कार्या जक्तिः सुकृतधियाऽस्यैव ॥ अस्मिन्गुरुत्वबुध्या सुतरः संसारसिंधुरपि ॥२०॥ अवलंब्येबायोगं पूर्णाचारासहिषावश्च वयम् ॥ जत्या परममुनीनां तदीयपदवीमनुसरामः॥। अट्पापि यात्र यतना निर्दला सा शुजानुबंधकरी ॥ अज्ञानविषव्ययकृतिवचनं चात्मजावानां ॥ ३० ॥ सिद्धांततदंगानां शास्त्राणामस्तु परिचयः शक्त्या ॥ परमालंबनजूतो दर्शनपदोऽयमस्माकम् ॥३१॥ विधिकथनं विधिरागो विधिमार्गस्थापन विधीचूनां ॥ अविधिनिषेधश्चेति प्रवच
ननक्तिः प्रसिधानः॥३॥अध्यात्मनावनोज्वलचेतोवृत्त्योचितं हि नः कृत्यम् ॥ पूर्णक्रियानिलाषश्चेति ष्यमात्मशुद्धिकरम् N॥ ३३ ॥ध्यमिह शुलानुबंधः शक्यारंजश्च शुद्धपदाश्च ॥ अहितो विपर्ययः पुनरित्यनुलवसंगतः पंथाः ॥ ३४ ॥ ये त्वनु
जवाविनिश्चितमार्गाश्चारित्रपरिणतिन्त्रष्टाः॥ बाह्यक्रियया चरणानिमानिनो झानिनोऽपि न ते ॥३५॥ लोकेषु बहिर्बुधिषु विगोपकानां बहिक्रियासु रतिः॥ श्रयां विना न चैताः सतां प्रमाणं यतोऽन्निहितम् ॥ ३६॥ बालः पश्यति लिंग मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तम् ॥आगमतत्त्वं तु बुधः परीदते सर्वयत्नेन ॥ ३७॥ निंद्यो न कोपि लोके पापिष्ठेष्वपि जवस्थितिश्चिंत्या ॥ पूज्या गुणगरिमाढ्या धार्यो रागो गुणलवेऽपि ॥ ३० ॥ निश्चित्यागमतत्त्वं तस्माउत्सृज्य लोकसंज्ञां च ॥ श्रद्धा विवेकसारं यतितव्यं योगिना नित्यम् ॥३ए। ग्राह्यं हितमपि बालादालापैऽर्जनस्य न वेष्यम् ॥ त्यक्तव्या च पराशा पाशा श्व संगमा ज्ञेयाः॥४०॥ स्तुत्या स्मयो न कार्यः कोपोऽपि च निंदया जनैः कृतया ॥ सेव्या धर्माचार्यास्तत्त्वं
बाह्यक्रियया चरणानिमानिनो ज्ञानिननवसंगतः पंथाः ॥ ३४ ॥ ये त्वन
नां बहिष्क्रियासु रतिः ॥
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R
अध्यात्मसार
अधिकार
११
जिज्ञासनीयं च ॥४१॥ शौचं स्थैर्यमदंलो वैराग्यं चात्मनिग्रहः कार्यः॥ दृश्या जवगतदोषाश्चिंत्यं देहादिवरूष्यम् ॥४॥ नक्तिनगवति धार्या सेव्यो देशः सदा विविक्तश्च ॥स्थातव्यं सम्यक्त्वे विश्वास्यो न प्रमादरिपुः ॥ ४३ ॥ ध्येयात्मबोध
निष्ठा सर्वत्रैवागमः पुरस्कार्यः॥ त्यक्तव्याः कुविकटपाः स्थेयं वृक्षानुवृत्त्या च ॥४४॥ साक्षात्कार्य तत्त्वं चिद्रूपानंदमेकापुरैाव्यम् ॥ हितकारी शानवतामनुनववेद्यः प्रकारोऽयम् ॥ ४॥ ॥ ॥ ॥ ॥
॥ इत्यनुभवाधिकारः॥ २० । | ॥ येषां कैरवकुंदवृंदशशतृत्कर्पूरशुञा गुणा मालिन्यं व्यपनीय चेतसि नृणां वैशद्यमातन्वते ॥ संतः संतु मयि प्रसन्नमनसस्ते केऽपि गौणीकृतस्वार्या मुख्यपरोपकारविधयोऽत्युच्चंखलैः किं खलैः॥१॥ ग्रंथार्थान् प्रगुणीकरोति सुकवियत्तेन तेषां प्रथामातन्वंति कृपाकटादलहरीलावण्यतः सजनाः ॥माकंदद्रुममंजरी वितनुते चित्रा मधुश्रीस्ततः सौजाग्यं प्रथयंति पंचमचमत्कारेण पुंस्कोकिलाः॥२॥ दोषोल्लेखविषः खलाननविलाञ्चाय कोपाज्ज्वलन् जिह्वा हिर्ननु कं गुणं न गुणिनां बालं दयं प्रापयेत् ॥ न स्याच्चेप्रबलप्रनावजवनं दिव्यौषधीसन्निधौ शास्त्रार्थोपनिषधिदां शुलहृदां कारुण्यपुण्यप्रथा ॥३॥ उत्तानार्थगिरां स्वतोऽप्यवगमान्निःसारतां मेनिरे गंजीरार्थसमर्थने बत खलाः काविन्यदोषं दधुः॥ तत्को नाम गुणोऽस्तु कश्च सुकविः किं काव्यमित्यादिकां स्थित्युन्जेदमतिं हरति नियतां दृष्टा व्यवस्थाः सताम् ॥४॥ अध्यात्मामृतवाणीमपि कथामापीय संतः सुखं गाहंते विषमुनिति तु खला वैषम्यमेतत्कुतः॥ नेदं चाद्भुतमिंदीधितिपिवाः प्रीताश्चकोरा नृशं किं न स्युर्वत चक्रवाकतरुणास्त्वत्यंतखेदातुराः॥५॥ किंचित्साम्यमवेक्ष्य में विदधते काचेंनीलाजिदां तेषां न प्रमदा-16
॥३०॥
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वहा तनधियां गूढा कवीनां कृतिः॥ ये जानंति विशेवमप्यविषमे रेखोपरेखांशतो वस्तुन्यस्तु सतामितः कसि महानुत्सवः॥६॥ पूर्णाध्यात्मपदार्थसार्थघटना चेतश्चमत्कारिणी मोहबन्नदृशां नवेत्तनुधियां नो पंमितानामिव ॥ काकव्याकुलकामगर्वगहनप्रोद्दामवाक्चातुरी कामिन्याः प्रसनं प्रमोदयति न ग्राम्यान् विदग्धानिव ॥ ७॥ स्नात्वा सिद्धांत विधुकरविशदाध्यात्मपानीयपूरैस्तापं संसारफुःखं कलिकलुषमलं खोजतृष्णां च हित्वा ॥ जाता ये शुधरूपाः शमदमशुचिताचंदनालिप्तगात्राः शीलालंकारसाराः सकलगुणनिधीन्सजनांस्तान्नमामः ॥ ७॥ पायोदः पद्यबंधैर्विपुलरसन्नरं वर्षति ग्रंथकर्ता प्रेम्णां पूरैस्तु चेतःसर इह सुहृदां प्लाव्यते वेगवन्निः॥ त्रुट्यंति स्वांतबंधाः पुनरसमगुणषिणां उर्जनानां चित्रं जावानेत्रात् प्रणयरसवशान्निःसरत्यश्रुनीरम् ॥ ए॥ उद्दामग्रंथनावप्रथननवयशःसंचयः सत्कवीनां क्षीराब्धिर्मथ्यते यः सहृदयविबुधैर्मेरुणा वर्णनेन ॥ एतड्मिीरपिमानवति विधुरुचेममलं विप्लुषस्तास्ताराः कैलासशैलादय इह दधते वीचिवि-| होललीलाम् ॥ १० ॥ काव्यं दृष्ट्वा कवीनां हृतममृतमिति स्वःसदां पानशंकी खेदं धत्ते तु मूर्धा मृतरहृदयः सङनो व्याधुतेन ॥ ज्ञात्वा सर्वोपत्नोग्यं प्रसृमरमथ तत्कीर्तिपीयूषपूरं नित्यं रक्षापिधानानियतमतितरां मोदते च स्मितेन ॥११॥ निष्पाद्य श्लोककुंनं निपुणनयमृदा कुंजकाराः कवींना दाळ चारोप्य तस्मिन् किमपि परिचयात्सत्परीक्षार्कनासम् ॥ पक्वं कुर्वति बाढं गुणहरणमतिप्रज्वलद्दोषदृष्टिज्वालामालाकराले खलजनवचनग्यालजिह्वे निवेश्य ॥ १२ ॥श्चमादारसौघः कविजनवचनं उर्जनस्याग्नियंत्रान्नानार्थव्ययोगात्समुपचितंगुणो मद्यतां याति सद्यः॥ संतः पीत्वा यउच्चैदधति हृदि मुदं घूर्णयंत्यदियुग्मं स्वैरं हर्षप्रकर्षादपि च विदधते नृत्यगानप्रबंधम् ॥ १३ ॥ नव्योऽस्माकं प्रबंधोऽप्यनणुगुणनृतां सजनानां
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अधिकार
अध्यात्मसार.
प्रजावाविख्यातः स्यादितीमे हितकरणविधौ प्रार्थनीया न किं नः॥ निष्णाता वा स्वतस्ते रविरुचय श्वांजोरुहाणां गुणानामुहासेऽपेक्षणीयो न खलु पररुचेः क्वापि तेषां स्वनावः॥१॥ यत्कीर्तिस्फूर्तिगानावहितसुरवधूवृंदकोलाहलेन प्रक्षुब्धस्वगसिंधोः पतितजलनरैः दाखितः शैत्यमेति ॥ अश्रांतत्रांतकांतग्रहगणकिरणैस्तापवान् स्वर्णशैखो जाजते ते मुनींना नयविजयबुधाः सजनवातधुर्याः॥ १५ ॥ चक्रे प्रकरणमेतत्तत्पदसेवापरो यशोविजयः ॥ अध्यात्मधृतरुचीनामिदमानंदावहं जवतु ॥ १६॥
॥ इति श्रीमदध्यात्मसारग्रंथः समाप्तः॥
३१ ॥
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॥ अथ देवधर्मपरीदाप्रारंभः॥
॥ ऐन्धवृन्दनतं नत्वा वीर तत्त्वार्थदर्शिनम् । निराकरोमि देवानामधर्मवचनन्तमम्॥१॥ इह केचिन्मूढमतयो देवा अधमिण इति निष्ठुरं जाते तत्तुलम् । देवानामसंयतत्वव्यपदेशस्यापि सिद्धांते निषिञ्चत्वात् । तथाचोक्तं जगवत्यां पंचमशते चतुर्थोद्देशके-देवाणं ते संजयत्ति वत्तवं सिया गोयमा नो इण समअन्तरकाणमेयं देवाणं । देवाणं ते असंजयत्तिवतवं सिया नो इण सम निठुरवयणमेयं देवाएं । देवाणं जंते संजयाऽसंजयत्ति वत्तवं सियागोयमा नोश्ण सम असब्लूअमेयं देवाएं। से किंखाइएण नंते देवत्तिवत्तवं सियागोयमा देवाणं नोसंजयत्ति वत्तवं सिया।अत्र यदि देवानामसंयतत्वव्यपदेशोऽपि निषिधस्तदा कथमधर्मित्वव्यपदेशः सचेतसा कर्तव्य इति पर्यालोचनीयम् ॥१॥ ननु तर्हि नोसंयताइतिवन्नोधर्मिणइति वक्तव्यम्। न।देवानां संयमसामान्याजावेऽपि निष्ठुरनापापरिहारार्थ नोसंयतत्वव्यपदेशविधावपि धर्मसामान्यानावा-y जावेन तत्प्रयुक्तनोधर्मित्वव्यपदेशासिझेः।धर्मसामान्यानावस्तेषु कथं नास्तीति चेत् “ऽविहे धम्मे पन्नत्ते सुअधम्मेय चरित्तध
म्मे य” इति स्थानांगविवेचितश्रुतधर्मस्य तेषामजावासिझेः ॥ ३ ॥ स्यात्केषांचिदाशंका-सूत्रापठनाच्छुतधर्मोऽपि का तेषां न नविष्यतीति अयुक्ता सा“सुयधम्मे सुविहे पन्नत्ते तं सुत्तसुयधम्मे चेव अत्थसुअधम्मे चेव" इति विनागपर्यालोचनया
सम्यग्दृष्टिमात्रे श्रुतधर्मसन्नावस्यावश्यकत्वात् ॥३॥ अथ नेरझ्याणं पुन्चा “गोयमा नेरश्या नोधम्मे छिया अधम्मे छियानो धम्माधम्मेवि ठिया एवं जाव चरिंदिया पंचिंदियतिरिस्कजोणिया नोधम्मे छिया अधम्मे लिया धम्माधम्मेवि चिया
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देवधर्म॥३ ॥
परी
मणुस्सा जहा जीवा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहानेरश्या" इति जगवतीसप्तदशशतकषितीयोद्देशकवचनस्य का गतिरिति चेद्देवाशातनया बर्गतिकर्मणां नवतां न काचिदस्ति गतिः अस्माकं तु सम्यगुपासितगुरुकुलानामस्ति समीचीनैव गतिः । तथाहि-उपक्रमे चात्र धर्मशब्दः संयमपर्यायो धर्माधर्मशब्दश्च देशविरतिपर्यायः “स्था"धात्वर्थश्चानन्युपगम उक्तोऽधर्मस्थितत्वं च तदन्यतरप्रतिज्ञानावादविरतिप्रतिपत्तिमात्रमुक्तम् यथाश्रुतश्च स्थाधात्वर्थः कंठत एवाक्षिप्य निषिद्ध इति किमनुपपन्नम् । एवं हि संमुग्धार्थविवरणेन साधारणोपदेशेन च देवेषु निष्ठुरजाषाप्रसंगोऽपि न लवति । सचायं पाठ:- “से नूणं नंते संजयविरयपमिहयपच्चरकायपावकम्मे धम्मे विते असंजयअविरयअप्पमिहयअपच्चरकायपावकम्मे अधम्मे गिते संजयासंजए धम्माधम्मे विते हंता गोयमा सं जाव । एयंसि ते धम्मंसि वा अधम्मंसि वा धम्माधम्मं| |सि वा चक्किया के पासश्त्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा नो इणछे समछे से केणं खायणं नंते एवं वुच्चई जाव धम्माधम्मे लिए गोयमा संजयविरय जाव धम्मे लिए धम्म चेव उवसंपत्तिाणं विहर असंजय जाव पांवकम्मे अधम्मे रिते अधम्मं चेव जवसंपत्तिाणं विहरइ संजयासंजए धम्माधम्मे लिए धम्माधम्म उवसंपतित्ताणं विहर से तेणणं जाव विएत्ति"॥४॥ एतेन "नेरझ्याणं पुन्ना गोयमा नेरझ्या बाला नो पंमिया नो बालमिया एवं जाव चरिंदियाणं पंचिंदियतिरिरकजोणियाणं पुन्हा गोयमा पंचिंदियतिरिकजोणिया बाला नो पंमिया बालपंमिया वि मणुस्सा जहा जीवा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा नेरझ्या" इत्यग्रेतनसूत्रमपि व्याख्यातम् । पूर्वसूत्रादस्यार्थतोऽजेदात् व्यवहारमात्रे च परं नेदात् । तथा च वृत्तिः-प्रागुक्तानां संयतादीनामिहोक्तानां च पंमितादीनां यद्यपि शब्दत एव लेदो नाप्यर्थतस्तथापि
३
॥
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संयतत्वादिव्यपदेशः क्रियासव्यपेक्षः पंमितत्वादिव्यपदेशस्तु बोधविशेषापेक्ष इति । इत्थं च व्रतक्रियापेक्षया सम्यग्दशा देवानां बालत्वेऽपि सम्यग्ज्ञानापेक्ष्या कथं बालत्वमिति पर्यालोचनीयम् ॥ ५॥ यदि च बालादिशब्दश्रवणमात्रेण तात्पार्थानालोचनेनात्र तव व्यामोहस्तदा “जे अ बुद्धा महाजागा वीरा सम्मत्तदंसिणो । सुछ तेसिं परकंतं अफलं हो सवसो ॥१॥” इति वीर्याध्ययनोक्तगाथायां सम्यक्त्वस्याफलत्वश्रवणेन तव पुरुत्तर एव व्यामोहः स्यात् । तात्पर्यपर्यालोचनायां तु न काचिदनुपपत्तिरिति जावनीयं गुरुकुलवासिना ॥६॥ एतेन नारकातिदेशेन तादृशा एव देवा इति जाइमप्रलपितमपास्तम् । तसदृश्यस्यापि सूत्रे बहुशो दर्शनात् । तथोक्तं नगवत्यां तृतीयशतके तुर्योद्देशके-"जीवेणं नंते जे नविए ऐरए जववक्रित्तए सेणं नंते किंलेसेसु उववऊति गोयमा जलेस्साई दवाइं परियाश्त्तां कालं करेइ तलेसेसु उववति । तं० कएहलेस्सेसु वा नीललेस्सेसु वा काउलेस्सेसु वा । एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स नापियवा जाव जीवेणं जे जविए जोसिएसु नववङित्तए पुन्हा गोयमा जलेस्साई दवाई परियाश्त्ता कालं करे तोस्सेसु उववऊति तं० तेउलेस्सेसु वा।जीवेणं नंते जे जविए वेमापिएसु नवव जित्तए सेणं नंते किंलेस्सेसु उववजाइ जलेस्साई दवाइं परियाश्त्ता कालं करे तलेस्सेसु उववऊ तं तेउलेस्सेसु वा पउमलेस्सेसुवा सुक्कलेस्सेसु वेति” । अथात्र सामान्योक्तावपि मिथ्याहष्टिसम्यग्दृशोर्विशेषोऽन्वेषणीयति चेत्त्वपदर्शितस्थलेऽपि किमित्यसौ नान्वेषणीय इति मध्यस्थदृशा विचारणीयम् ॥७॥ एवं चतुर्दशशतकतृतीयोद्देशके-“अस्थिणं नंते नेरझ्याणं सक्कारेति वा सम्माणेति वा कितिकम्मेति वा अप्नुघाणेति वा| अंजलिपग्गहेति वा आसणाजिग्गहेति वा आसणपदाणेति वा गतस्स पञ्चुग्गनुणता आगवंतस्स पछुवासणता गवंतस्स
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देवधर्म
॥ ३३ ॥
परिसंसा हणता को इाडे समहे । श्रत्थि जंते असुरकुमाराणं सक्कारेति जाव परिसंसाहाता ५ हंता अस्थि एवं जाव थपियकुमाराणं” इत्यत्राभ्युत्थानादिकं नैरयिकाणां निषिद्धं देवानां चोक्तं तच्च साध्वादिगोचरं तपोविशेष एव भविष्यति शुश्रूषाविनयरूपत्वेन तस्य पंचविंशतितमशतकेऽष्टमोद्देशे प्रतिपादनादित्ययमपि व्यवहार विनय क्रियारूपो विशेषः सम्यग्दृ| ष्टिदेवानां कुतो मनसि जायते ॥ ८ ॥ अन्यान्यपि सम्यग्दृशां देवानां सम्यक्त्वधर्मोद्योतकानि बहून्यक्षराणि दृश्यंते । तथोक्तं सनत्कुमारेन्द्रमाश्रित्य तृतीयशतके प्रथमोद्देशके - "सांकुमारेणं जंते देविंदे देवराया किं नवसिद्धिए व सिद्धिए सम्मदिधी मित्रादिडी परित्तसंसार संसारए सुखनवोहिए फुल्लनवोहिए आराहए विराहए चरिमे अरिमे गोयमा ॐ सकुमारेणं देविंदे देवराया नवसिद्धिए एवं सम० परि० सुलन० रा० चरि० पसत्थं ऐयवं । से केाणं जंते गोयमा सकुमारेणं देविंदे बहूणं समणाएं बहूणं समणी बहूणं सावगाणं बहूणं साविगाणं दियकामए सुहकामए पसत्यकामए आणुकंपिए हिस्सेय सिए हियसह पिस्सेयसकामए सेतेाहेणं गोयमा सकुमारेणं नवसिद्धिए जाव चरिमए" श्रत्र हेतुप्रश्नोत्तराच्यां देवजवस्य साधुवैयावृत्त्यादिक्रिययाऽपि साफल्यं दर्शितम् । न च सम्यग्दर्शनादौ स्वत एव सिद्धेस्तदनुप योगः शंकनीयः, सतो गुणस्योत्पादनाय सतश्च स्थैर्याधानाय क्रियाव्यापारोपयोगस्य तत्रश्संमतत्वात् अन्यथा गुणस्थाने | सिद्धयसिद्धियां बाह्य क्रियाविलोपप्रसंगादिति दिक् ॥ ए ॥ तथा शक्रेन्द्रमाश्रित्य पोशशते द्वितीयोदेशकेऽनिहितम् "सक्के जंते देविंदे देवराया किं सम्मावाई मिलाबाई गोयमा सम्मावादी नो मिळावादी । सक्केणं जंते देविंदे देवराया किं सच्चं जासं जासति, मोसं जासं जासति, सच्चामोसं जासं जासति, असच्चामोसं जासं जास । गोयमा सच्चपि जासं जा
परीक्षा.
॥ ३३ ॥
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| सइ जाव सच्चामोसंपि जासं जासइ । सकेणं जंते देविंदे देवराया किं सावऊं जासं जासइ अणव जासं जास गोयमा | सावऊंपि जासं जासइ श्रणवपि जासं जासइ, जाव से केणणं अंते एवं वुच्चइ सावऊं पि जाव प्रणवऊंपि जासं जासइ । | गोयमा जाहे सक्के देविंदे देवराया सुहमकाश्यं णिज्जु हित्ताणं जासं जास ताहेां सक्के देविंदे देवराया सावऊं जासं नासर, जाहेणं सक्के देविंदे देवराया सुडुमकाइयं निज्जहित्ताणं जासं जासति ताहेां सक्के देविंदे देवराया अणवऊं जासं जासइ, से ते जाव० जासइ । सक्केणं जंते देविंदे देवराया किं नवसिद्धिए अनवसिद्धिए सम्मदिधिए मिलादिहिए एवं जहा | मोउद्देसए सकुमारो जाव णो अचरिमेत्ति” अत्र शक्रेन्द्रस्य प्रमादादिना जाषाचतुष्टयजापित्वसंप्रवेऽपि सम्यग्वादीति प्रणितिना स्वरसतः सम्यग्वादशीलत्वमुक्तम् सुदुमकायं अणुविशेषं वा संभवतीति बोध्यम् ॥ १० ॥ “ णिज्ज हित्ताणं" इत्यत्र सूक्ष्मकार्य हस्तादिकं वस्त्रं वाऽदत्त्वेत्यर्थाद्धस्ताद्यावृतमुखत्वेन भाषमाणतया जीवसंरक्षणतोऽनवद्यभाषाभाषित्वमुक्तम् । एतच्च धर्मकथावसरे जिनपूजावसरे च। तथा तत्रैव - "कति विदेणं जंते उग्गहे पत्ते सक्का पंचविहे पत्ते तंजहा देविंदोग्गहे १ रायावग्गहे २ गाहावश्उग्गहे ३ सागारिउग्गहे ४ साहम्मियउग्गहे ए जे इमे नंते अत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एएसि अहं उग्गहं श्रणुजाणामि" इत्यनेन शक्रस्यावग्रहदातृत्वमुक्तम् स च साधूनां वसतिदानरूपो महानेव धर्म इति ॥ ११ ॥ | तथा दशमशते पंचमोद्देशके - " पन्नू जंते चमरे सुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचारायहाणी ए सजाए सुहम्माए चमरंसि सिंहासांसि तुकिएणं सद्धिं दिवा जोगजोगाई मुंजमाणे विह रित्तए णो इाडे सम से केण्ठेां नंते एवं वुच्च णो पनू
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देवधर्म
॥ ३४ ॥
| चमरे असुर० चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए अको चमरस्सा असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चमरचंचाए रायहाणीए सजाए मुहम्माए मावए चेइए खंजे व रामएस गोलवट्टसमुग्गएसु बहुई जिसका संखित्तार्ज जाएं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररलो असेसिं च बहू सुरकुमाराणं देवाण य देवीए य अच्चणिकार्ड वंद शिकार्ड नर्मसणिका पूर्याएका सकारणिकार्ड संमाणिका कल्लाणं मंगलं देवयं चेश्यं पशुवास विकाउ जवंति से ते
को एवं बुच्च णो पनू चमरे सुरिंदे जाव राया चमरचंचाए जाव विहरित्तए" इत्यादिसूत्रकदंबकेन चमरेन्द्रस्य तद|तिदेशेन बलींप्रादीनामीशानेन्द्रपर्यतानां तल्लोकपालानां च जगवदस्थ्याशातनापरिहार उक्तः । स च जगवनियरूपधर्म | एव पर्यवस्यतीति बोध्यम् ॥ १२ ॥ तथोत्तराध्ययनेषु हरिकेशीये - "पुत्रिं च इसिंह च णायं च मणप्पड॑सो न मे स्थि कोई । जरका दु वेयावमियं करेंति तम्हा हुएए हिया कुमारा" इत्यत्र महर्षिणोपसर्गकर्तृशिक्षादातृयक्षस्य वैयावृत्त्यगुण मैं उनावितः स च तपोविशेष एव । अथ हिंसारूपेऽस्मिन् यक्षव्यापारे कथं वैयावृत्त्यकृत्योक्तिरिति चेदेतत्त्वया वक्तुः समीप | एव गत्वा प्रष्टव्यम् अन्यत्रानाश्वासाल रिणामप्राधान्यवादिनां तु न कश्चिदत्र शंकालेशोऽपि ॥ १३ ॥ किंच सम्यक्त्वं प्रथमः संवरनेद इति सम्यग्दृष्टित्वेनैव देवानामवर्जनीयं धर्मित्वम् । तदुक्तं स्थानांगे -“पंच आसवदारा पन्नत्ता तंजहा मित्तं, अविरई, पमा, कसाया, जोगा । पंच संवरदारा पत्ता तंजहा सम्मत्तं विरई, अपमार्ट, अकसायत्तं, जो गत्तम्" इति । दंतैवं मिथ्यादर्शनशस्य विरमणेन सम्यग्दृष्टिमात्रस्य विरतत्त्वं प्रसक्तमिति चतुर्थगुणस्थानकोछेदो न एकाश्रववत्तयापि त्रयोदशगुणस्थानेऽनाश्नवत्वव्यपदेशवदेकसंवरसत्तया चतुर्थगुणस्थानेऽविरतत्वव्यपदेशस्याविरुद्धत्वात् फलं तु
परीक्षा.
॥ ३४ ॥
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| हेतुमात्राधीनं न पाणिपिधेयमिति श्रयम् ॥ १४ ॥ इत्यमेव धर्मव्यवसायग्रहणपूर्वकः सूर्याजदेवस्य देवाधिदेवप्रतिमार्च - नविधिरतिशयितजक्त्युपबृंहितः श्री राजप्रश्नीयसूत्रोक्तः संगठते । तथा च तत्पाठः तां तस्स सूरियाजस्स देवरस सामायिप रिसोववन्नगा देवा पोत्ययरयणं उवणामंति । ततेां से सूरियाने देवे पोत्थयरयणं गिरहइ पोत्ययरयणं गिरिहत्ता पोत्थयरयणं विघाइ पोत्थयरयणं वाएइ पोत्थयरयणं वा त्ता धम्मियं ववसायं गिरहति पोत्ययरयणं पमिरिकवति सिंहासणार्ड अन्नु २ ववसायसमा पुरिनि मिले तोरणेणं तिसोवाणपकिरुवएणं पच्चोरूह २ हृत्थपादं परका |लेति २ यंते चोरके परमसुईजूए सेयरययामयं विमलसलिलपुर्ण मत्तगय महामुहागितिसमाएं जिंगार पगिएह २ जाई | तब उप्पलाई जाव सय सहस्सपत्ताई ताई गिएहति २ दातो पुरकरणी तो पञ्च्चोरुहति जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थगमणाए । ततेणं तं सूरियानं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सी जाव सोलस आयररक देवसाहस्सी अन् य बहवे सूरियाज जाव देवी य अप्पेगतिया उप्पलहत्थगया जाव सयसहस्सपत्तहत्यगया सूरियानं देवं पिछतो समणुगछंति । ततेां तं सूरियानं देवं बहवे निगिया देवा य देवी य अप्पेश्या कलसहत्थगया जाव अप्पेश्या धूवककुच्छुयहत्थगता |हतु जाव सूरियानं देवं पितो २ समगति ततेणं सूरियाने जाव देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुके सबिट्टीए जाव णातियरवेणं जेणेव सियायतणे तेणेव जवागछति सिकायत पुरिविमिलेणं दारेणं अणुपविसति २ जेणेव देवनंदे जेणेव जिणपरिमार्ज तेणेव उवागछति जिणपरिमाणं आलोय पणामं करेति लोमहत्थगं गिएहति २ जिप मिमातो सुरनिण गंधोदए हाएति एहाइता सरसेणं गोसीसचंदणं गायाई अणुलिंपित्ता जिएपरिमाणं श्रयाएं देवदूसजु
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देवधर्म - ॥ ३५ ॥
श्रलाई नियंसेइ २ पुप्फारुहणं मल्लारुहणं चुन्नारुहणं वत्थारुणं मरणारुहणं करेति करित्ता असत्तोसत्त विजलवट्टवग्घा - रियमलदामकलावं करेइ करित्ता कयग्गहग दियकरयलप्पनछ विप्पमुक्केणं दसवन्नेणं कुसुमेणं मुकपुप्फपत्तोवयारकलियं | करेति करिता जिापरिमाणं पुरतो अहिं सहेहिं रययामएहिं रसाहिं तंडुलेहिं अमंगलए लिह तंजहा सत्प्रियं जाव दप्पां । तयंतरंचणं चंदष्पनरयणवइरवेरु लिय विमलदंरुकंचणमणिरयणन त्तिचित्तं कालागुरुपवर कुंदुरुक्कधूवमघमघंतगंधुत्तमाणुविद्धं धूववद्धिं विणिम्मुयंतं वेरुलियमयं ककुहुयं पग्गहिय पत्तेयं २ धूवं दाऊण जिणवराणं सयविसुद्धगंयजुत्तेहिं महावित्तहिं संयुएइ । सत्तपयाई पच्चीसक्कइ २ वामं जाएं अंचे दाहिणं जाणुं धरणितलं सि निहट्ट तिरकुत्तो मुधाणं धरणितलंसि निवेसेइ २ इसिं पच्चन्नमइ २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी नमोत्थुणं जाव संपत्ताणं वंदइ मंसइ ॥ १५ ॥ श्रयमेव पाठः प्रायो विजयदेववक्तव्यतायां जीवा निगमेऽपि ॥ १६ ॥ श्रमू| न्यक्षराणि जंबूघीपप्रज्ञत्यादावप्यूह्यानि । ननु जिनप्रतिमानामिव द्वारशाखाशालभंजिकादीनामप्यर्चनश्रवणं “धम्मियं ववसायं ववसइत्ति” धार्मिकं धर्मानुगतं व्यवसायं व्यवस्यति कर्तुमनिलपतीति जावः इति सामान्यत एव वृत्तौ व्या| ख्यानाच्च कुलधर्मानुगत एवायं व्यवसायो जविष्यति “दसविहे धम्मे पन्नत्ते गामधम्मे, नगरधम्मे, रजधम्मे, पासंरुधम्मे, कुलधम्मे, गण, संघ, सुत्र, चरित्तधम्मे, अत्यिकायधम्मेत्ति" सूत्रे दशधा धर्मपदार्थस्य विजक्तत्वादिति चेन्न द्वारशाखाद्यर्चना निप्रतिमार्चने लोकप्रणामशक्रस्तवाष्टोत्तरशतवृत्तस्तोत्रादीनां स्फुटतरस्य विशेषस्य सूत्र एवोपलभ्यमानत्वात् । | धर्मव्यवसायस्य तत्र सम्यक्त्वानुगतस्यैव संजवात् । अत एवानिवोत्पन्नस्य सूर्याजस्य “किं मे पूर्व श्रेयः किं मे पश्चा
परीक्षा.
॥ ३५ ॥
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च्छ्रेय" इति प्रश्ने सामानिकदेवैर्जिनप्रतिमार्चनं जिनसंबंध्यर्चनं चेति प्यमेव तथोत्तरितमित्युनयत्र वैधीयं प्रवृत्तिरन्यत्र त रागप्राप्ता यथा जरतेशस्य नगवानोत्पत्तौ चक्रोत्पत्तौ चेति न कश्चिद्दोषः। अयं चात्र पाठ:-"तएणं तस्स सरियाजम्म देवस्स पंचविहाए पङत्तिए पऊत्तनावं गयस्स समाणस्स इमे एतारूवे अनस्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पकित्था "किं मे पुविं करणिकं किं मे पन्छा करणिकं किं मे पुदि सेयं किं मे पन्ना सेयं किं मे पुविं पञ्चावि हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए नविस्सइ तएणं तस्स सूरियानस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा सूरियाजस्स इममेतारूवमन्नत्त्रियं जाव समुप्पन्नं समनिजाणित्ता जेणेव सू० ते० सूरियानं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वघाति २ एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं सूरियाले विमाणे सिचायतणंसि जिणपमिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमित्ताणं अच्सयं सन्निखित्तं चिति सन्नाएणं सुहम्माए माणवए चेइए खंने वश्रामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहुई जिणसकहा सन्निरिकत्ता चिति ताठणं देवाणुप्पियाणं अन्नेसिं बहूएं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य अच्चणिजाऊ जाव पखुवासणिज्जा तंजहा एयणं देवाणुप्पियाणं पुचि करणिऊ एयणं देवाणुप्पियाणं पन्नाकरणिकं तं एयणं देवाणुप्पियाणं पुदि सेयं तं एयणं देवाणुप्पियाणं पन्ना सेयं तं एयणं देवाणुप्पियाणं पुश्विं पञ्चावि हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए जविस्सई" इति ॥ १७॥ नन्वत्र पूर्वपश्चान्चब्दान्यां तन्नवीयकालत्रयव्यापिश्रेयोहेतुताया एव प्रतिपादनात्सूर्यालादीनां जिनप्रतिमार्चनमपि नामुष्मिकफलहेतुरिति मोक्षार्थिना विरतिमता नैतदालंबन विधेयमिति चेन्न पश्चाबब्देन तनवीयानागतकालस्यैवाक्षेप इत्यत्र मानानावात-"अम्मताय मए
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देवधर्म -
॥ ३६ ॥
जोगा जुत्ता विसफलोवमा । पञ्चा करुयविवागा अणुबंध हावा ॥ १ ॥” इति मृगापुत्री याध्ययने पश्चाछब्देनामुष्मि कानागतकालस्य स्पष्टमेवाभिधानात् । किं च “किं मे पुत्रिं करणिकं किं मे पञ्चा करऊिं" इत्यने नतनवे कालत्रये तस्यावश्यकर्तव्यत्वमेव जिज्ञासितं सूर्याजादिनिः । तच्च निश्चित्य व्यमनिहितं निश्चिता तनावः सामानिकै रिति कथं न तस्यामुष्मिकफलता प्रदेशिने केश्याप्तपूर्वपश्चाषमणीयताया श्वेति विचारणीयम् । जवांतरार्जितशुभकर्मजोगरूपो चितप्रवृ|त्तिमात्रेण तच्चरितार्थमात्रोक्तावन्यतीर्थिकमतप्रवेशः । एवं हि तपः संयमादिकष्टमपि जवांतरार्जितकर्मजोगसाधनमात्रमिति वदन् बौरूढ एव । विजयेनामुष्मिकशुनावहादृष्टार्जनेन समाधानं तूजयत्र तुल्यम् । ऐहिक विध्वंसहेतुमंगलमात्रतया मोक्षहेतुतानिराकरणं चोद्यमप्युभयत्र सुवचं समसमाधानं च “धम्मो मंगलमुक्कि "मित्यादिना तपःसंयमादौ मंगलरूपतायाः स्पष्टमेवोक्तत्वात् ॥ १८ ॥ एतेन स्थितिरूपमेव जिनप्रतिमाद्यर्चनं देवानां न तु धर्मरूपमिति धर्मशृगालादिप्रलपितमपास्तम् । स्थितेरपि धर्माधर्मरूपतया विवेचने धर्मस्थितावेव तस्यान्तर्ज्ञावस्य वाच्यत्वात् । धर्मे स्थितिपदं नास्तीति तु मुग्धजनध्यांध्यकरणमात्रम् बृहत्कल्पषष्ठोदेशके साधुधर्मेऽपि स्थितिपदस्य स्पष्टमभिधानात् । “बिहा कप्प हिई पन्नत्ता तंजहा सामाश्यसंजयकप्पछि १ बेवावशियकप्पsिs २ शिविसमाणकप्पछि ३ शिविकाश्यकप्पछि ४ जिएकप्पहि ए रकप्पत्ति ६ ॥ १७ ॥ एतेन लोकसंग्रहार्थतास्थितावपि प्रत्युक्तम् ज्ञानिनामपि लोकसंग्रहस्य कर्मक्षपणार्थतयैवा नियुक्तैर्व्याख्यातत्वात् । तथा च प्राकृतकर्मफलजोगपक्ष एवमुपतिष्ठते स च प्रागेव प्रतिबंद्या निरस्त इति ॥ २० ॥ एतेनैव यत्र प्रत्यक्ष निर्देशे पश्चात्पूर्वशब्दान्यां फलोपदेशस्तत्रैवैहिकमात्र फलकत्वम् । यत्र च परलोकवाचिशब्देन निर्देश
परीक्षा.
॥ ३६ ॥
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स्तत्रामुष्मिकफलकत्वं लभ्यते । यथा स्कंदकोदेशके - "आलित्ते नंते लोए वित्तपलित्ते नंते लोए जराए मरणेण य से जहा शाम के गाह्रावती गारंसि प्रियायमाणंसि जे से तत्थ जंगे नवति अप्पारमोनगुरुए तं गहाय आताए एतं अवक्कमति एस मे शिलारिए समाणे पुरो हियाए सुहाए खमाए हिस्सेसाए श्रणुगमियत्ताए नविस्सति एवामेव देवाणु प्पिया | एंगेजने इहे कंते पिए मणुले मणामे थिके वेसासिए संमते अणुमते बहुमते जंगकरंमगसमाणे माणं सीयं माणं उएहं माणं खुदा माणं पिवासा माणं चोरा माणं वाला माणं दंसा माणं मसया माणं वा तियपेत्तियस सिवातिय विविहा रोगातंका परिस्सहोवसग्गा फुसंतुत्तिक एस मे पित्थारिए समाणे परलोगस्स हिताए खमाए हिस्सेसाए श्रणुगामियत्ताए नविस्सती " त्यत्र गृहपतेना॑मं गृहीत्वापक्रमणस्यै हिकमात्रफलकत्वम् स्कंदकस्य च स्वात्मनिस्तारणस्यामुष्मिकफलकत्वं प्रसिद्धम् । एवं च | जिनप्रतिमार्चनादि सूर्याजादीनामैहिकमात्र फलकमेवेत्यपि निरस्तम् अन्यत्र दृष्टजन्ममात्रवेदनीयकर्मणोऽदृष्टजनकस्य प्रेत्या| फलजनकत्वस्यार्थ सिद्धत्वात् । अन्यथा जगवद्वंदनादिकमपि देवानां प्रेत्य हितावहं न स्यात्तस्य च तथात्वं कंठत एवोक्तं सूत्रे । तथा च राजप्रश्नीये सूर्याजोक्ति:- "तं महाफलं खलु तहारूवाणं अरिहंताणं जगवंताणं णामगोयस्सवि सवण्याए किमंग पुण निगमणवंदणनमंस परिपुणपङ्कुवासण्याए एगस्सवि यरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवण्याए | किमंग पु विजलस्स स्स गहण्याए तं गवामिषं समणं जगवं महावीरं वंदामि एमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कलाणं मंगलं देवयं चेश्यं पहुवासामि एयं मे पेच्चा हिताए सुहाए खमाए निस्सेसाए श्रणुगामियत्ताए नविस्सइत्ति" | ॥ २१ ॥ ननु वंदनपूजनादिफलस्थले देवानां पाठवैसदृश्यदर्शनादेवास्माकं भ्रम इति चेन्न वंदनाधिकारे पर्युपासनावंदन
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देवधर्म
परीक्षा.
॥३७॥
पूजाया अपि ग्रहणात् को ह्येकाधिकारिकृतस्य विहितकर्मणः फले विशेषः। श्रधर्मिणां हि देवानामधर्मित्वेऽज्युपगम्यमाने यमपि तेषां विपरीतफलं वाच्यं धार्मिकमूर्धन्यैस्तेषां धर्मित्वमन्युपगचनिश्च तुझ्यजातीयशुजफसमिति । न च वंदनाधिकारे “पेच्चाहियाए" इत्येव सार्वत्रिकः पागे जगवत्यौपपातिकादौ-“एयमे इह नवे वा परनवे वा आणुगामियत्ताए जविस्सइत्ति" पाठस्यापि दर्शनात् । तस्मान्वब्दब्बलनं जाह्मानामेव पंमितास्त्वर्थतात्पर्यैकरसिका इति प्रत्येयम् ॥२२॥ अथ स्वरूपतो निरवद्यं जगपंदनं देवानां परलोकहितम् । अत एव सूर्यानानियोगिकदेवानां वंदनादिप्रतिज्ञा जगवतानुमता । तथा च सूत्रम्-अम्हेणं नंते सूरियाजस्स देवस्स आनियोगिया देवाणुप्पियं वंदामो णमसामो सक्कारेमो सम्माऐमो कल्याणं मंगलं देवयं चेश्यं पश्वासामो देवाति समणे जगवं महावीरे देवे एवं वयासी पोराणमेयं देवा जीयमेयं देवा किच्चमेयं देवा करणिकामेयं देवा आईनमेयं देवा जणं जवणवश्वाणमंतरजोसियवेमाणिया देवा अरिहंते जगवते वंदति एमसंति वंदित्ता नमंसित्ता. साइं साइंणामगोयाई साधिति तं पोराणमेयं देवा जाव अनणुन्नायं देवाणं” इति सूर्याजवंदनादिप्रतिझायामप्ययमेव पाठः । पूजादिकं तु स्वरूपतः सावद्यमिति न तद्देवानां परलोकहितविध्यागतम् किं तु रागप्राप्तमेव । तथा च सूर्यालेण स्वस्य जवसिधिकत्वादिप्रश्ने कृते तऽत्तरे वाचावधृते जातहर्षेण त्रिःकृत्वोऽपि नाटकानुझाया वचने जगवता तूष्णीमेव स्थितम् । तथा च सूत्रम्-"अहन्नं ते सूरियाने नवसिधिए अनवसिधिए सम्मदिनी मिलादिछी परित्तसंसारे अणंतसंसारे सुखनबोहिए मुखलबोहिए श्राराहए विराहए चरिमे अचरिमे सूरियाजाति समणं जगवं महावीरे सूरि यानं देवं एवं वयासी सूरियाना तुममं नवसिधिए नो अन्नवसिधिए जाव चरिमे पो अचरिमे तएणं सूरियाले देवे |
॥३०॥
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| समषेणं जगवया महावीरेणं एवं वृत्ते समाणे हघ्तु चित्तमाणं दिए परमसोमण से समणं जगवं महावीरं वंदति नम॑सति | २ एवं वयासी तुझ जंते जाव सवं जाएह सबं पासह सबं कालं जाणह सबे जावे पासह जाणंतिणं देवाणुप्पिया मम पुद्धिं वा पछा वा ममेयारूवं दिवं देविद्धिं दिवं देवजुई दिवं देवानागं लद्धं पत्तं असिमसागयं तं इवामिणं देवाणप्पियाणं जत्तिपुवगं गोयमा दियाणं समणाणं निग्गंथाएं दिवं देविद्धिं दिवं देवजुई दिवं देवानागं दिवं बत्ती सतिबद्धं नट्टविहं जवदंसित्तए तएवं समणे जगवं महावीरे सूरियानेणं देवेणं एवं वृत्ते समाणे सूरियाजस्स देवस्स एयमहं नो आढाति णो परियाणाति तुसिणीए संचिति तएां से सूरियाने देवे समणं जगवं महावीरं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासीतुझे जंते सबं जाणह जाव वदसित्तएत्ति कट्टु समं जगवं महावीरं तिखुत्तो याहीणं पयाही वंदइ" इत्यादि इतिचेन्मैवम् नवसिद्धिकत्वादिना निश्चितयोग्यजावे सूर्याने नाटकरूपव्यपूजानुज्ञां याचमाने जगवतोऽनिषेधस्यैवानुमतिरूपत्वात् " निषिद्धमनुमतमिति” न्यायात् । कथमन्यथा धर्महेतुमुपस्थिते प्रथमं सर्वविरतिमनुपदिश्य देशविरत्युपदेशे"गाहावश्चोरगाह विमोरकाच्याए" इत्यादिसिद्धांत सिचन्यायेन क्रमोलंघनकारिणः स्थावरहिंसानुमतिरप्रतिषेधानुमतिरेव हिंसा । एवमत्रापि योग्ये प्रष्ट र प्रतिषेधानुमतिरवारितैव । तदिदमभिप्रेत्योक्तं श्रीहरिनवसूरिभिः- “ जिणनव एकारणाइवि नरहेण न विारियं ? तेां । जह तेसिंचिय कामा सलस रिसाइणाते ॥ १ ॥ ता एस म चिय अप्प कसेहा तंतजुत्तीए । इय सेसावि इत्थं अणुमोमाइ अविरुद्धं ॥ २ ॥ श्रयं चात्र प्रयोगः नाटकादि 5व्यार्चनं जगवतोऽनुमतं योग्यं प्रत्यनिषिद्धत्वात् यद्भगवदनुमतं न जवति तद्योग्यं प्रति प्रतिषिद्धं जवति यथा कामनो -
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देवधर्म
॥ ३८ ॥
गादिकमिति व्यतिरेकी यद्येन यं प्रति न निषिध्यते तत्तं प्रति तदनुमतं यथाऽक्रमज्ञस्य प्रथमदेश विरत्युपदेशे स्थावरहिंसादिकमिति सामान्यतो व्याप्तावन्वयी वा ॥ २३ ॥ ननु न वयमनुमानरसिका मौनकारणाभावात् सूत्रे साक्षात्फलादर्शनाच्च व्यस्तवे विप्रतिपद्यामह इति चेच्छृणु मौनकारणं तावन्नाटकोपक्रमस्य वारणे सूर्याने जगवनक्तिध्वंसः प्रवर्तने च गौतमादीनां स्वाध्यायोपघात इति तुल्यायव्ययत्वमेवेति वृत्तिकृदभिप्रायः । वस्तुतस्तु स्वरूपतः सावद्येऽनुबंधतश्च निरवद्ये भगवतो जापास्वभाव एवायं पर्यनुयोगस्य विषयेऽन्यत्रापि स्वतंत्रेछाया पर्यनुयोज्यत्वोक्तेः । अत एव चारित्रग्रहणवि धावपि शिष्यं प्रति जगवतः क्वचिदिवानुलोमा भाषा कचिच्चाज्ञापनीति वैचित्र्यं दृश्यते । इवानुलोमानेदप्रायं चैतन्मौनमिति विचारणीयमनिनिवेशं विहाय चेतसि । यच्चोक्तम्- " फलं व्यस्तवस्य न दृश्यते सूत्र” इति तत्र न ह्ययं स्थाणोरप| राधो यदेनमन्धा न पश्यंतीति न्यायः “देवाणुप्पियाणं जत्तिपुवगं" इत्यादिना जगवंतं प्रति भक्तिरूपत्वेन गौतमादीन् प्रति च गौरवात् प्रीतिहेतुक्रिया आराधनेति लक्षणादाराधनाख्यशुश्रूषारूपत्वेन सिद्धस्य सूर्याजनाटकस्योत्तराध्ययनेषु सम्यक्त्वपराक्रमाध्ययने चतुर्थजपोत्तर एव साक्षात्फलदर्शनात् । तथा च सूत्रम् - "गुरुसाह म्मियसुस्सूसणयाएणं नंते जीवे किं जाइ गोयमा गुरुसाहम्मियसुस्सूसण्या विषयपरिवत्तिं जइ विषयपमिवत्तिएवं जीवे अणच्चासायासीले नेरइय| तिरिरक जोशियमणुस्सदेवडुग्गई निरंजइ वन्नसंजल न त्तिबडुमायाए मणुस्सदेवसुगई निबंध सिद्धिसुगई च विसोदेश पसत्याई च णं विण्यमूलाई सबकाई सादे छान्ने य बहवे जीवे विणइत्ता जवइत्ति” । अत्र मनुष्यदेवसती बनाति इत्यनेन सम्यग्दृष्टे रिवापुनर्बधकस्य मिथ्यादृष्टेरपि जगवनक्तिः सफलेति दर्शितम् । न हि सम्यग्दृष्टिर्मनुष्यो वैमा
परीक्षा
॥ ३८ ॥
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निकगति विनान्यां गतिं बध्नाति देवकृतजक्तिविषयो वायं निर्देशः देवस्य सम्यग्दृशोऽपि जगवन्नक्त्या मनुष्यगतेरेव बंधारित ध्येयम् ॥॥ एतेन “दाणच्याइ जे पाणा हम्मति तसथावरा । तेसिं साररकणचाए तम्हा अस्थित्ति नो वए ॥१॥ जेसिं तं उवकप्पंति अन्नं पाणं तहाविहं । तेसिं लानंतरायति तम्हा पस्थिति को वए ॥२॥जे अदाणं पसंसंति वहमिछति पाणिणं । जेषणं पमिसेहति वित्तियं करंति ते ॥३॥” इत्यादिसूत्रकृतांगैकादशाध्ययनोक्तदानाद्यपदेश इव जिनपूजाद्युपदेशोऽपि साधोः पुण्यपापान्यतरदर्शनदोषनियानुचित इति निरस्तम् । उक्तदानोपदेशस्यायोग्यान्यतीर्थिकप्रतिबोधितसामान्यधर्मिविषयतया निषियत्वेऽपि योग्ये प्रष्टरि विजागनिर्धारणस्यावश्यकत्वात् अन्यथा प्रष्टुः |संदेहसमुन्मजनप्रसंगात् । प्रकृते च योग्यप्रश्ने जगवतो मौनमनुमतिमेव व्यंजयति । न ह्ययोग्यस्य जमालेविहारप्रश्ने मौनतुट्यमेतदिति । दानानुपदेशोऽप्यवस्थाविशेषविषयो विशिष्टगुणस्थानावाप्तियोग्यताकारणेन घोरापवादिकदानस्यापि शास्त्रार्थत्वादित्यप्युक्तमाचार्यैरष्टकादौ । किं च दानादौ पापपुण्यान्यतरानुपदेशः साधोः किं तथानापास्वजावात् उत तदन्यतरफलाजावात् आहोश्वित् संकीर्णफललावात् उताहोऽन्यतरोपदेशे कस्यचितुविपर्यस्तबुझ्युत्पादनयात् । नाद्यो निर्वी-|| जस्य स्वजावस्यानाश्रयणीयत्वात् । न द्वितीयः पापपुण्यान्यतरफलाजनकस्य उद्मस्थकर्मणोऽप्रसिद्धः। न तृतीयो अव्य- जावरूपाणां योगानामध्यवसायानां च शुजाशुनव्यतिरिक्ततृतीयराश्यारूढानामनावात् संकीर्णकर्मबंधरूपफलासिझेः । योऽपि व्यवहारतोऽविधिना दानादिरूपः शुनाशुध्योग इष्यते सोऽपि परिणामप्राधान्यान्निश्चयत उत्कटैककोटिशेषतयैव || | पर्यवस्यन्न संकीर्णकर्मबंधायालम् । अव्यकोटे र्बट्यस्य नावकोटेः प्राबट्यस्य च सर्वत्र संजवात् । अन्यथा नद्युत्तारादौना
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देवधर्म
॥ ३९ ॥
| यतमानस्य यतेरपि प्रव्यहिंसाचावचारित्रनिमित्तक मिश्रकर्मबंधप्रसंगात् । तस्माद्वंधत एकरूपमेव कर्म । संक्रमतस्तु मिश्र - मोहनीयरूपं संकीर्ण संजवत्यपीति प्रसिद्धं महाभाष्यादाविति न संकीर्णबंधपक्षको ज्यायान् । चतुर्थे तु पक्षे विशेषधर्मविवेकान जिज्ञस्य सामान्यधर्मप्रियस्य विप्रत्ययोत्पादनमेव विविच्यानुपदेशे कारणमागतमिति योग्ये मार्गविज्ञे च विविच्य | फलोपदेश आवश्यकोऽन्यथा कर्मकरादीनां निषेधोऽपि सूत्रेऽनुपपन्नः स्यात् । तत्रापि वारणावारणयोर्वृत्तिविवेदप्राणवधानुमोदनप्रसंगरूपाया उजयतः पाशारको ईर्निवारत्वात् । तस्माद्योग्यतयाऽनिषेधानुमतं जिनपूजादि जगवतेति व्यवस्थितम् | ॥ २५ ॥ अत एवार्थदम क्रियायां नागनूतयदार्थभूत विधिवनिपूजाद्यारंजः सूत्रे प्रतिपदोक्त्या न परिगणितः । इदमप्यंजनं दत्त्वा मिथ्यात्वमलिना दृष्टिः सचेतसा नैर्मध्यमानेया । तथोक्तं द्वितीयांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययने- “पढमे | दंकसमादाणे अादमवत्तिए त्ति आहिकइ से जहा णामए केई पुरिसे यहेजंवा पाइहेजं वा मित्तहेजं वा सागहेडंवा भूत| देजं वा जरक हेजं वा तं दमं तसथावरेहिं पाणेहिं सयमेव पिस्सिर असेहिं वा पिस्सिरावे अन्नंपि निस्सरंतं सम जाए एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावऊंति श्रहिकइ पढमे दंरुसमादाणे अादमेत्ति आहिए" श्रत्र यदि जिनपूजा - |ऽपि कोऽपि वधः परिगणनीयः स्यात्तदा " नागहेचं" इत्यादिवत् “ जिणपकिमाहेजें" इत्यप्यवक्ष्यत । तस्मादर्थदंमक्रियायां प्रतिपदोक्तप्रसंगेऽप्यनुक्तत्वान्न तस्य तादृश क्रियारूपत्वमिति न निषिधोऽयम् ॥ २६ ॥ एतेन जिनपूजादौ यावानारंजस्तावानधर्मः यावती च जक्तिस्तावान् धर्म इति मिश्राषापि परास्ता । मिश्रनापायाः साधूनामसत्यभाषाया श्व | वक्तुमयोग्यत्वात् । अन्यथा “कविला इत्यंपि इहयंपित्ति” मरीचेर्मिश्रवचनमुत्सूत्रं न स्यादत एव श्रुतजावनाषापि तृती
परीक्षा.
॥ ३५ ॥
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यजेदपरित्यागेन त्रिविधैव दशवैकालिकनियुक्तावुक्ता। हंतवं मिश्रपक्षः सूत्रकृतोक्त विद्यत एवेति चेऽविद्यत एव । तत्त्व-| चिंतायां पतपय एव पदत्रयस्यांतावनात् । तथा च सूत्रम्-"अविरतिं पमुच्च बाले पाहिजा विरतिं पाच पंमिए
आहिक विरताविरतिं पशुच्च बालपंमिए आहिजइ तत्थणं जा सा सबतो अविरती एस ठाणे आरंजाणे श्रणारिए जाव अंसबरकपहीणमग्गे एगंतमिले असाहू तत्थणं जा सा सवतो विरती एस गणे अणारंजाणे आयरिए जाव सबपुरकप्पहीणमग्गे साहू तत्थणं जा सा सबतो विरताविरती एस ठाणे आरंजाणारंजाणे आरिए जाव सबसुरकप्पहीणमग्गे एगंतसम्मे साहू एवमेव समणुगम्ममाणा समोगाहिऊमाणा श्मेहिं चेव दोहिं गणेहिं समोअरंति तंजहा धम्मे चैव अधम्मे चेव उवसंते चेव अणुवसंते चेव तत्थणं जे से पढमस्स गणस्स अधम्मपरकस्स विनंगे एवमाहिऊति तस्सणं श्माई तिन्नि तेवाइं पावाउअसयाई लवंतित्ति अरकायमित्यादि" । अत्र ह्यन्यतीर्थिकपद एवाधर्मरूपो जैनपक्षस्तु अपुनर्बन्धकादिर्वीतरागचारित्रपर्यवसानो धर्मरूप एव कंठतो विरतिरूपधर्मोपादानेऽप्यर्थतः सम्यक्त्वादिधर्मस्याप्यपरित्यागात् अन्यथा । चतुर्थगुणस्थानं कस्मिन् पदेंऽतावनीयम् । ये तु देवानांप्रिया देशविरतेर्मिश्रपदतयैव कंठोक्तत्वादेकांतधर्मतां न श्रद्दधते । ते सूत्रपशवः क्रियालेशवतां तापसादीनामपि मार्ग मिश्रपदतयोक्तं जात्यंतरं किमिति नश्रद्दधीरन् । तथा च सूत्रम्-"अहावरे तच्चस्स गणस्स मीसगस्स विनंगे एवमाहिति जे इमे नवंति आरमिया आवसहिया गामंतिया कमुश् राहस्सिया जाव ततो विप्पमुच्चमाणा नुको एलमूयत्ताए पच्चायति एस गणे अणारिए अकेवले जाव असबपुरकप्पहीसमग्गे एगतमिन्छे असाहू एस खलु तच्चस्स गणगस्स विनंगे एवमाहिएत्ति" तस्मात्परेषामधर्म व जिनाशावतां मिश्रपदोऽपि धर्म।
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देवधर्म
परीक्षा.
॥४
॥
एवेति ध्येयम् । अनेकांतांशप्रकारेणैव व्यवच्छेदनीय इति तत्त्वम् ! ॥२७॥ आस्तामन्यत् परं जिनपूजादिषव्यस्तवस्य धर्मकर्मत्वेऽन्युपगम्यमाने हिंसाया दूषणत्वं व गतमिति चेत् कया विधया तस्या दूषणत्वं-अविरतिविधया, प्रमादविधया, कषायविधया, योगविधया वा । नाद्योऽसंयतानामविरतिं प्रतीत्यात्माघारंजकत्वस्य सदातनत्वेन तत्तधमक्रियाकालीनानुपंगिकहिंसाया अविरतिविधया विशेष्याननुप्रवेशात् । न द्वितीयो नक्तियतनानुबंधशुधौ प्रवृत्तस्यापि धर्मकर्मणि प्रमादकार्यानुत्पत्तेः । अन्यथा प्रमत्तसंयतानां शुन्नाशुजयोगलेदेन आत्माद्यनारजकत्वतदनारंजकत्वजेदलणनानुपपत्तेः। श्रयमतिदेशो हि संयतासंयतादावपि अष्टव्यः पृथक् तत्र मिश्रयोगकार्यानुपदेशात् । अत एव तेजोलेश्यादिदंगकत्रयेऽपि संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तनेदजिन्नान्येव सूत्राणि जगवत्यामतिदिष्टानीति दिक् । नापि तृतीयचतुर्थी लक्तियतनान्यामेव कापायिकानामध्यवसायानां योगानां च शुजानामेव जननात् । स्वरूपतो दोषत्वासंनवे "श्रासवा ते परिस्सवा" इत्यादिसूत्रन्यायेनैवानैकांतिकत्वात् । तस्मादिधिजक्तिशुद्धे धर्मकर्मण्यारंजो न दोषावह इति स्थितम् । यत्तु-"अकसिणपवत्तगाणं विर
याविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणे दवथए कूवदितो ॥१॥" इत्यनेनावश्यकनियुक्तौ महानिशीथे च भव्यव स्तवे कूपखननं दृष्टांतीकृतम् । तत्कूपखननं यथा स्वपरोपकाराय नवत्येवं स्नानपूजादिकं करणानुमोदनफारेण स्वपरयोः
पुण्यकारणं स्यादित्येवंपरतया व्याख्येयम् । ये तु प्रांचो नैतघ्याख्यानमागमानुपाति धर्मार्थप्रवृत्तावपि आरंजजनितस्य पापस्येष्टत्वात् । कथमन्यथा जगवत्यामुक्तम्-"तहारूवं समणं वा माहणं वा पमिहयपच्चरकायपावकम्मं अफासुएणं अणेसणिोणं असण व पमिलाजेमाणे नंते किं कहा गोयमा अप्पे पावकम्मे का बहुतरिया से बिकरा कात्ति"तथा
%
E
॥॥४
॥
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ग्लानप्रतिचरणानंतरं पंचकल्याणकप्रायश्चित्तप्रतिपत्तिरपि कथं स्यात् । तस्माद्यथा कूपखननं श्रमतृष्णाकर्दमोपलेपादिदो
अष्टमपि जलोत्पत्तावनंतरोक्तदोषानपोह्य स्वोपकाराय परोपकाराय च नवति । एवं स्नानादिकमप्यारंजदोषमपोह्य शुजाध्यवसायोत्पादनेन विशिष्टाशुलकर्मनिर्जरणपुष्यबंधकारणं नवत्येवं व्याख्येयमिति वदंति तेषामाशयं त एव जाति । पूजार्थ स्नानादिकरणकालेऽपि निर्मलजलकटपशुलाध्यवसायस्य विद्यमानत्वेन कर्दमलेपादिकटपपापाजावादित्यमुदाहरणवैषम्यापातात् । न चेदेवं कथं क्रियमाणं कृतमिति नगवऽक्तनयोपग्रहः । कथं वा तन्मूलकमापरिणतस्य गुरुसमीपं प्रतिष्ठासमानस्यान्तरैव कृतकालस्याराधकत्ववचनं जगवत्यादावुपपद्यते । यच्चाप्रासुकदानेऽपतरपापार्जनमुक्तं तनुब्धकदृष्टांतेन
दायकस्याव्युत्पन्नत्वात् अव्यक्षेत्रादिकारणविध्यनलिज्ञत्वाघा तदादरस्य व्युत्पन्नानिज्ञादरजनितनिर्जरापेक्ष्या प्रकृष्टनिर्जरापेमाझ्या वाऽन्यथा बहुतरनिर्जरानांतरीयकपुष्यबंधकट्पेऽट्पस्यापि पापस्य बंधहेतोर्वक्तुमशक्यत्वात् संक्रमापेक्ष्या तु यथोक्तं ।।
यदिवाऽमासुकदाने आरंजजनिताहपतरोपार्जनमावश्यकम् । तदाह-"अहागमाई गँजति अन्नमन्ने सकम्मुणा । उवखित्ते वियाणिजाणुवलित्तेत्ति वा पुणो ॥ १ ॥ एतेहिं दोहिं गणेहिं ववहारो न विकइ । एतेहिं दोहिं ठाणेहिं श्रणायारं तु जाणए ॥२॥” इति सूत्रकृतोक्तोऽप्रासुकदातृलोकोरुपलेपानुपलेपानेकांतः कथंकारं संगमनीयः । अत एवात्रापि किंचिदंगवैगुण्य एव हि स्वस्थानुचितनिर्जरापकर्षो न तु सर्वसागुण्ये अनुवंधशुचौच स्वरूपहिंसामात्रेण तस्याः स्वकार्ये उपादानतारतम्यपारतंत्र्याच्च-“जा जयमाणस्स नवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स सा होइ णिजरफला अनत्यविसोहिङ्गुत्तस्से"| त्यत्रापवादपदप्रत्ययाया हिंसाया एव निर्जराहेतुत्वं व्याख्यातं मलयगिरिचरणैः । यदपि ग्लानप्रतिचरणे पंचकल्याणकपा-||
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देवधर्म -
॥ ४१ ॥
यश्चित्तदानमुक्तं तदपि गीतार्थयतनाकृतयो गिकारणान्यतरपदवैकस्यप्रयुक्तं सर्वपदसागुण्येऽपवादप्रतिषेविणोऽपि निर्दोषत्व| स्यैवाभिधानात् । तदाहुः संघदासगणिक्षमाश्रमणाः कल्पनाप्ये- “ गीयत्यो जयणाए कमजोगी कारणंमि शिदोसो । एगेसिं गीयकको रत्तो श्रजयाएत्ति” ॥ १ ॥ तथा “हिच्छाविवि पावयणी गणिघ्याइ अथिरे उ । कमजोगी जं सेिवइ दिदेिसंव सो पुोत्ति ॥ २ ॥" अधः स्थानस्थितत्वं चात्र तादृगपवादप्रतिषेवाधिका रिविशेषणमुक्तम् । न तु तेनाधस्तनस्थानप्राप्त्या हेतुभूतया दृष्टांतानुपपत्तेरित्यवसेयम् । यच्च क्वचित् "आलोश्य परिक्कतो सुद्धो जंजिरा विजले" त्युक्तं तदन्यतरवैगुण्यप्रयुक्तमेकत्र चरितार्थमालोचनाप्रतिक्रमणमन्यत्र साध्वाचारपरिपालनार्थमात्रेणोपयुज्यते वैयावृत्ये पराज्य र्थितस्यापि साधोरधिकारे - "तत्यवि सो इछं से करेइ मायमूलीय" मितिवदित्यभिप्रायेणेति ज्ञेयम् । नन्वपवादेऽप - | स्यापि पापस्यानादरे वैद्यक विहितदाहदृष्टांतेन तत्रोत्सर्ग निषेधफलावर्जनानिधानानुपपत्तिरिति चेन्न “न हिंस्यात् सर्वाणि जूतानी” त्यादिलौकिकोत्सर्गनिषेधे स्वरूपहिंसाया विषयत्वेऽपि "सधे पापा सबे नूया" इत्यादि लोकोत्तरोत्सर्ग निषेधे प्रमादयोगेन प्राणव्यपरोपणरूपाया हिंसाया एव विषयत्वे दोषभावात् । अन्यथा लोचानशनादीनामपि स्वरूपतो पुष्टत्वापत्तेः । परहिंसाया श्वात्महिंसाया अपि निषिद्धत्वादित्युक्तमाचार्यैः पदवाक्यार्थादिविचाराधिकारे उपदेशपदादौ । विवेचितं चास्मानिर्ज्ञानबिंधादाविति तत एवैतत्तत्त्वमवधार्यम् । तस्माद्यथागुणस्थानमनुबंधशुद्ध्या निर्जरासामग्र्यामनुप्रविशन्निखद्यमेव जिनपूजाद्यनुष्ठानमिति सिद्धम् । एतेन पुष्यैकांतपोऽपि निरस्तः । सरागचारित्र इव जावशुद्ध्या पुण्यजनकस्यापि | पापप्रकृति निर्जराजनकत्वाविरोधात् । इत्थं च जिनपूजा जिनवंदनसाधु हितकामनाद्युचिताचारलक्षण चित्तपुष्टिशुद्धिशालिनां
परीक्षा.
॥ ४१ ॥
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देवानामधर्मवादं वदंतो देवानांप्रिया पुर्खनबोधिका एवेति श्रधेयम् । तयुक्तं स्थानांगे पंचमस्थानके "पंचहिं गणेहिं| जीवा मुबलबोहियत्ताए कम्मं पकरिति तंजहा अरिहंताणं अवमं वयमाणे अरिहंतपमत्तस्स धम्मस्स श्रवसं वयमाणे आयरियनवनायाणं अवमं वयमाणे। चाउबमस्स समसंघस्स अवमं वयमाणे । विविक्कतवबंजचेराणं देवाणं श्रवन्नं वयमाणेत्ति" अत्र यथोक्तविशेषणेन सम्यग्दृष्टयो देवा उपात्तास्तेन बहुजननेतृवद्देवानामवर्णवादोऽनर्थहेतुत्वान्नोचित इत्यपास्तम् यथोक्तविशेषणेनाईदादिमध्यपाठेन च परमार्थहितदातरि वृथा वैगुण्योनावनरूपावर्णवादस्यैव पुर्खनबोधिहेतुतायाः स्पष्टत्वात् । अत एव तपर्णवादस्य सुखनबोधिहेतुत्वमुक्तम् । पंचहिं गणेहिं सुलहबोहिअत्ताए कम्मं करेइ अरिहंताणं | वन्नं वयमाणे जाव विविक्कतवबंजचेराणं देवाणं वर्ष वयमाणेत्ति" ॥ ॥ ॥...
॥ प्रकामपिहिताननैर्बहुकदाग्रहैर्जनैर्जगत् किमु न वंचितं कृतकधार्मिकख्यातितः। अनुग्रहविधावतः प्रगुणचेतसां सादरैर्यशोविजयवाचकैरयमकारि तत्त्वश्रमः॥१॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्य ग्रंथमानं विनिश्चितम् । संयुक्ता पंचविंशत्या श्लोकानां तु चतुःशती ॥२॥
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Casolsolvolvolcolosioosebisolilcoliitoolbassploissioolorionisolosbolnebake
megemegegano
॥ इति न्यायविशारदोपाध्यायश्रीमद्यशोविजयकृतोऽयं
देवधर्मपरीक्षानाम ग्रंथः संपूर्णः ॥ श्रीरस्तु ॥
രാരാരിരാരാരിരാരംഭ
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॥ श्रीवीतरागेच्यो नमः ॥
॥ न्याय विशारदोपाध्याय श्री मद्यशो विजय प्रणीताध्यात्मोपनिषत् ॥
‘॥ ऐन्द्रवृन्दनतं नत्वा वीतरागं स्वयंभुवम् ॥ अध्यात्मोपनिषन्नामा ग्रंथोऽस्मानिर्विधीयते ॥ १ ॥ श्रात्मानमधिकृत्य | स्याद्यः पंचाचारचारिमा | शब्दयोगार्थ निपुणास्तदध्यात्मं प्रचक्षते ॥ २ ॥ रूढ्यर्थ निपुणास्त्वाद्दृश्चित्तं मैत्र्यादिवासितम् ॥ अध्यात्मं निर्मलं बाह्यव्यवहारोपबृंहितम् ॥ ३ ॥ एवंभूतनये ज्ञेयः प्रथमोऽर्थोऽत्र कोविदैः ॥ यथायथं द्वितीयोऽर्थो व्यव - हारर्जुसूत्रयोः ॥ ४ ॥ गलन्नयकृतप्रांतिर्यः स्याद्विश्रांतिसंमुखः ॥ स्याघाद विशदालोकः स एवाध्यात्मज्ञाजनम् ॥ ५ ॥ मनोवत्सो युक्तिगवीं मध्यस्थस्यानुधावति । तामाकर्षति पुछेन छाग्रहमनः कपिः ॥ ६ ॥ अनर्थयैव नार्थाय जातिप्रायाश्च युक्तयः ॥ हस्ती हन्तीति वचने प्राप्ताप्राप्त विकल्पवत् ॥ ७ ॥ ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः ॥ कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात्तेषु निश्चयः ॥ ८ ॥ श्रागमश्चोपपत्तिश्च संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् ॥ श्रतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये ॥९॥ अंतरा केवलज्ञानं उद्मस्थाः खस्वचक्षुषः ॥ हस्तस्पर्शसमं शास्त्रज्ञानं तद्व्यवहारकृत् ॥ १० ॥ शुद्धाद्यपि शास्त्राज्ञानिरपेक्षस्य नो हितम् ॥ जौतहंतुर्यथा तस्य पदस्पर्श निषेधनम् ॥ ११ ॥ शासनात्राणशक्तेश्च बुद्धैः शास्त्रं निरुच्यते ॥ वचनं वीतरागस्य तच्च नान्यस्य कस्यचित् ॥ १२ ॥ वीतरागोऽनृतं नैव ब्रूयात्तवेत्वभावतः ॥ यस्तवाक्येष्वनाश्वासस्तन्महामोहजृंजितम् ॥ १३ ॥ शास्त्रे पुरस्कृते तस्माघीतरागः पुरस्कृतः ॥ पुरस्कृते पुनस्तस्मिन्नियमात् सर्वसिद्धयः ॥ १४ ॥
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मद्यशोवि.
॥ ४३ ॥
एनं केचित् समापत्तिं वदत्यन्ये ध्रुवं पदम् ॥ प्रशान्तवाहितामन्ये विभागक्ष्यं परे ॥ १५ ॥ चर्मचक्षुर्नृतः सर्वे देवाश्चाविधिचक्षुषः ॥ सर्वतश्चक्षुषः सिद्धा योगिनः शास्त्रचक्षुषः ॥ १६ ॥ परीक्षंते कपछेदतापैः स्वर्ण यथा जनाः ॥ शास्त्रेऽपि वर्णिकाशुद्धिं परीक्षंतां तथा बुधाः ॥ १७ ॥ विधयः प्रतिषेधाश्च नूयांसो यत्र वर्णिताः ॥ एकाधिकारा दृश्यन्ते कपशुद्धिं वदन्ति ताम् ॥ १८ ॥ सिद्धान्तेषु यथा ध्यानाध्ययनादिविधिव्रजाः ॥ हिंसादीनां निषेधाश्च नूयांसो मोहगोचराः ॥ १५ ॥ अर्थकामविमिश्रं यद्यच्च कृतकथा विलम् ॥ श्रनुषंगिकमोक्षार्थं यन्न तत् कपशुद्धिमत् ॥ २० ॥ विधीनां च निषेधानां योगक्षेमकरी क्रिया ॥ वर्त्यते यत्र सर्वत्र तवास्त्रं वेदशुद्धिमत् ॥ २१ ॥ कायिकाद्यपि कुर्वीत गुप्तश्च समितो मुनिः ॥ कृत्ये ज्यायसि किं वाच्यमित्युक्तं समये यथा ॥ २२ ॥ अन्यार्थ किंचित्सृष्टं यत्रान्यार्थमपोद्यते ॥ दुर्विधिप्रतिषेधं तन्न शास्त्रं बेदशुद्धिमत् ॥ २३ ॥ निषिद्धस्य विधानेऽपि हिंसादेर्भूतिकामिनिः ॥ दाहस्येव न सधै धैर्याति प्रकृतिपुष्टता ॥ २४ ॥ हिंसा जावकृतो दोषो दाहस्तु न तथेति चेत् ॥ नृत्यर्थं तविधानेऽपि जावदोषः कथं गतः ॥ २५ ॥ वेदोक्तत्वान्मनः शुद्ध्या कर्मयज्ञोऽपि योगिनः ॥ ब्रह्मयज्ञ इतीवन्तः श्येनयागं त्यजन्ति किम् ॥ २६ ॥ वेदान्तविधिशेषत्वमतः कर्मविधेर्हितम् ॥ | जिन्नात्मदर्शकाः शेषा वेदान्ता एव कर्मणः ॥ २७ ॥ कर्मणां निरवद्यानां चित्तशोधकतां परम् ॥ सांख्याचार्या अपीलन्तीत्यास्तामेषोऽत्र विस्तरः ॥ २८ ॥ यत्र सर्वनयालं विविचारप्रबलाग्निना ॥ तात्पर्यश्यामिका न स्यात्तवास्त्रं तापशुद्धिमत् ॥ २९॥ यथाह सोमिलप्रश्ने जिनः स्याद्वाद सिये ॥ व्यार्थादहमेकोऽस्मि हग्ज्ञानार्था मावपि ॥ ३० ॥ श्रयश्चाव्ययश्चास्मि
१ तापरं.
अधिकार.
१
॥ ४३ ॥
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प्रदेशार्थ विचारतः ॥ अनेकनूतजावात्मा पर्यायार्थपरिग्रहात् ॥ ३१ ॥ द्वयोरेकत्वबुध्यापि यथा घित्वं न गच्छति ॥ नयेकान्त धियाप्येवमनेकांतो न गच्छति ॥ ३२ ॥ सामग्र्येण न मानं स्याद्वयोरेकत्वधीर्यथा ॥ तथा वस्तुनि वस्त्वंशबुद्धिर्ज्ञेया नयात्मिका ॥ ३३ ॥ एकदेशेन चैकत्वधी र्धयोः स्याद्यथा प्रमा ॥ तथा वस्तुनि वस्त्वंशबुद्धिर्ज्ञेया नयात्मिका ॥ ३४ ॥ इत्थं च संशयत्वं यन्नयानां भाषते परः ॥ तदपास्तं विलंबानां प्रत्येकं न नयेषु यत् ॥ ३५ ॥ सामर्येण घ्यालंबेऽप्यवि| रोधे समुच्चयः ॥ विरोधे दुर्नयत्राताः स्वशस्त्रेण स्वयं हताः ॥ ३६ ॥ कथं विप्रतिषिद्धानां न विरोधः समुच्चये ॥ अपेक्षा| दतो हन्त कैव विप्रतिषिद्धता ॥ ३७ ॥ निन्नापेक्षा यथैकत्र पितृपुत्रादिकल्पना ॥ नित्यानित्याद्यनेकान्तस्तथैव न विरो त्स्यते ॥ ३८ ॥ व्यापके सत्यनेकान्ते स्वरूपपररूपयोः ॥ श्रनेकांत्यान्न कुत्रापि निपतिरिति चेन्मतिः ॥ ३९ ॥ श्रव्या|प्यवृत्तिधर्माणां यथावच्छेदकाश्रया । नापि ततः परावृत्तिस्तत् किं नात्र तथेदयते ॥ ४० ॥ श्रनैगमांत्यजेदं तत्परावृत्तावपि स्फुटम् || जिप्रेताश्रयेणैव निर्णयो व्यवहारकः ॥ ४१ ॥ अनेकान्तेऽप्यनेकान्तादनिष्ठैर्वमपाकृता ॥ नयसूदो दिकाप्रान्ते विश्रान्तेः सुलनत्वतः ॥ ४२ ॥ श्रात्माश्रयादयोऽप्यत्र सावकाशा न कर्हिचित् । ते हि प्रमाण सिद्धार्थात् प्रकृत्यैव | पराङ्मुखाः ॥ ४३ ॥ उत्पन्नं दधिजावेन नष्टं दुग्धतया पयः ॥ गोरसत्वात् स्थिरं जानन् स्याद्वादविड् जनोऽपि कः ॥४४॥ इछन् प्रधानं सत्वाद्यैर्विरुद्धैर्गुफितं गुणैः ॥ सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ ४५ ॥ विज्ञानस्यैकमाकारं | नानाकारकरं बितम् ॥ चंस्ताथागतः प्राज्ञो नानेकांतं प्रतिक्षिपेत् ॥ ४६ ॥ चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् ॥ योगो
१ छैव.
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मद्यशो वि.
॥ ४४ ॥
वैशेषिको वापि नानेकांत प्रतिक्षिपेत् ॥ ४७ ॥ प्रत्यक्षमितिमात्रंशे मेयांशे तद्विलक्षणम् ॥ गुरुर्ज्ञानं वदन्नेकं नानेकांतं प्रतिक्षिपेत् ॥ ४८ ॥ जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु वदन्ननुजवोचितम् ॥ जट्टो वापि मुरारिर्वा नानेकांतं प्रतिक्षिपेत् ॥ ४५ ॥ अब परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः ॥ ब्रुवाणो ब्रह्मवेदान्ती नानेकांतं प्रतिक्षिपेत् ॥ ५० ॥ ब्रुवाणा भिन्न भिन्नार्थान्नयनेदव्यपेक्षया ॥ प्रतिक्षिपेयुनों वेदाः स्याद्वादं सार्वतांत्रिकम् ॥ ५१ ॥ विमतिः संमतिर्वापि चार्वाकस्य न मृग्यते ॥ परलो कात्ममोक्षेषु यस्य मुह्यति शेमुषी ॥ ५२ ॥ तेनानेकान्तसूत्रं यद्यघा सूत्रं नयात्मकम् ॥ तदेव तापशुद्धं स्यान्न तु दुर्नयसंतिम् ॥ ५३ ॥ नित्यैकान्ते न हिंसादि तत्पर्यायापरिक्ष्यात् ॥ मनःसंयोगनाशादौ व्यापारानुपलंजतः ॥ २४ ॥ बुद्धिलेपोsपि को नित्य निर्लेपात्मव्यवस्थितौ || सामानाधिकरण्येन बंधमोदौ हि संगतौ ॥ २५ ॥ नित्यैकान्तपदेऽपि हिंसादिकमसंगतम् ॥ स्वतो विनाशशीलानां क्षणानां नाशकोऽस्तु कः ॥ ९६ ॥ श्रनन्तर्य क्षणानां तु न हिंसादिनियामकम् ॥ | विशेषादर्शनात्तस्य बुद्धलुब्धकयोर्मिथः ॥ ७ ॥ संक्लेशेन विशेषश्चेदानन्तर्यमपार्थकम् ॥ न हि तेनापि संक्लिष्टमध्ये भेदो विधीयते ॥ ५८ ॥ मनोवाक्काययोगानां नेदादेवं क्रियाजिदा ॥ समग्रैव विशीर्येतेत्येतदन्यत्र चर्चितम् ॥ २० ॥ नित्यानि - त्याद्यनेकान्तशास्त्रं तस्माद्दिशिष्यते ॥ तद्दृष्ट्टयैव हि माध्यस्थ्यं गरिष्ठमुपपद्यते ॥ ६० ॥ यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव ॥ तस्यानेकान्तवादस्य व न्यूनाधिकशेमुषी ॥ ६१ ॥ स्वतंत्रास्तु नयास्तस्य नांशाः किं तु प्रकल्पिताः ॥ रागद्वेषौ कथं तस्य दूषणेऽपि च भूषणे ॥ ६२ ॥ अर्थे महेन्द्रजालस्य दूषितेऽपि च भूषिते ॥ यथा जनानां माध्यस्थ्यं दुर्नयार्थे | तथा मुनेः ॥ ६३ ॥ दूषयेदज्ञ एवोच्चैः स्याद्वादं न तु पंकितः ॥ ज्ञप्रलापे सुज्ञानां न द्वेषः करुणैव तु ॥ ६४ ॥ त्रिविधं १ प्रत्यक्षं मितमात्रंशे इति प्रत्यंतरे ।
700
अधिकार.
१
॥ ४४ ॥
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ज्ञानमाख्यातं श्रुतं चिन्ता च जावना ॥ आद्यं कोष्ठगवीजानं वाक्यार्थविषयं मतम् ॥ ६५ ॥ महावाक्यार्थजं यत्तु सूक्ष्मयुक्तिशतान्वितम् ॥ तद्वितीयं जले तैलविंडरी त्या प्रसत्वरम् ॥ ६६ ॥ ऐदंपर्यगतं यच्च विध्यादौ यलवच्च यत् । तृतीयं तदशुः घोच्च जात्यरत्न विज्ञानिनम् ॥ ६७ ॥ आद्ये ज्ञाने मनाक् पुंसस्तत्रागाद्दर्शनग्रहः ॥ द्वितीये न जवत्येष चिन्तायोगा| त्कंदाचन ॥ ६८ ॥ चारिसंजीविनी चारकारकज्ञाततोऽन्तिमे ॥ सर्वत्रैव हिता वृत्तिगजीर्यात्तत्वदर्शिनः ॥ ६ए ॥ तेन स्या दादमालंव्य सर्वदर्शनतुल्यताम् ॥ मोदीद्देशा विशेषेण यः पश्यति स शास्त्रवित् ॥ ७० ॥ माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थी येन तच्चारु सिध्यति ॥ स एव धर्मवादः स्यादन्यद्बालिशवस्गनम् ॥ ७१ ॥ पुत्रदारादि संसारो धनिनां मूढचेतसाम् ॥ पंकि तानां तु संसारः शास्त्रमध्यात्मवर्जितम् ॥ ७२ ॥ माध्यस्थ्यसहितं ह्येकपदज्ञानमपि प्रमा | शास्त्रको टिर्वृथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना ॥ ७३ ॥ वादांश्च प्रतिवादांश्च वदतोऽनिश्चितांस्तथा ॥ तत्त्वांतं नैव गनंति तिलपी लकवऊतौ ॥ १४ ॥ इति यतिवदनात्पदानि बुध्ध्वा प्रशमविवेचनसंवरानिधानि ॥ प्रदलितरितः कृणाच्चिलातितनय इह त्रिदशालयं जगाम | ॥ ७५ ॥ नचानेकान्तार्थावगमरहितस्यास्य फलितं कथं माध्यस्थ्येन स्फुटमितिविधेयं भ्रमपदम् ॥ समाधेरव्यक्ताद्यद जिदधति व्यक्तसदृशं फलं योगाचाया ध्रुवमनिनिवेशे विगलिते ।। ७६ ।। विशेषादोघाघा सपदि तदनेकान्तसमये समुन्मीलशक्तिर्भवति य इहाध्यात्म विशदः ॥ नृशं धीरोदात्तप्रियतमगुणोजागररुचिर्यशःश्री स्तस्यांकं त्यजति न कदापि प्रणयिनी 99 ॥ इति श्रीपंडितनयविजयगणिशिष्य पंडित पद्मविजयगणिसहोदरोपाध्याय श्रीयशोविजयगणिविरचितेऽध्यात्मोपनिषत्प्रकरणे शास्त्रयोगशुद्धिनामा प्रथमोऽधिकारः ॥ १ ॥
१ मोक्षोद्देशाद्विशेषेण ।
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मद्यशोवि.
अधिकार
॥४५॥
॥ अथ द्वितीयोऽधिकारः॥ ॥दिशा दर्शितया शास्त्रैर्गवन्नमतिः पथि ॥ ज्ञानयोगं प्रयुञ्जीत तविशेषोपलब्धये ॥१॥ योगजादृष्टजनितः स तु प्रातिनसंझितः॥ संध्येव दिनरात्रिन्यां केवलश्रुतयोः पृथक् ॥२॥ पदमात्रं हि नान्वेति शास्त्रं दिग्दर्शनोत्तरम् ॥ ज्ञानयोगो मुनेः पार्थमाकवड्यं न मुंचति ॥ ३ ॥ तत्त्वतो ब्रह्मणः शास्त्रं लक्क न तु दर्शकम् ॥ न चादृष्टात्मतत्त्वस्य दृष्टत्रांतिनिवर्तते ॥४॥ तेनात्मदर्शनाकांक्षी ज्ञानेनान्तर्मुखो नवेत् ॥ अष्टगात्मता मुक्तिदृश्यकात्म्यं जवनमः ॥ ५॥ आत्मझाने मुनिर्मग्नः सर्व पुजलविन्रमम् ॥ महेन्द्रजालवत्ति नैव तत्रानुरज्यते ॥ ६ ॥ आस्वादिता सुमधुरा येन ज्ञानरतिः सुधा ॥ न लगत्येव तच्चेतो विषयेषु विषेष्विव ॥ ७॥ सत्तत्त्वचिंतया यस्याजिसमन्वागता श्मे ॥ आत्मवान् ज्ञानवान् वेदधर्मवान् ब्रह्मवांश्च सः॥ ॥ विषयान् साधकः पूर्वमनिष्टत्वधिया त्यजेत् ॥ न त्यजेन्न च गृह्णीयात् सियो विद्यात् स तत्त्वतः ॥ ए॥ योगारंजदशास्थस्य मुखमन्तर्बहिः सुखम् ॥ सुखमन्तर्बहिषुःखं सिध्योगस्य तु ध्रुवम् ॥१०॥ प्रकाशसक्त्या यद्रूपमात्मनो ज्ञानमुच्यते ॥ सुखं स्वरूपविश्रान्तिशक्त्या वाच्यं तदेव तु ॥११॥ सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् ॥ एतमुक्तं समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥ १२ ॥ ज्ञानमग्नस्य यचर्म तवक्तुं नैव पार्यते ॥ नोपमेयं प्रियाश्लेषैर्नापि तच्चन्दनवैः ॥ १३ ॥ तेजोलेश्याविवृाि पर्यायक्रमवृद्धितः॥ नाषिता जगवत्यादौ सेत्थंभूतस्य युज्यते ॥१४॥ चिन्मात्रलक्षणेनान्यव्यतिरिक्तत्वमात्मनः ॥ प्रतीयते यदश्रान्तं तदेव ज्ञानमुत्तमम् ॥ १५॥ शुजोपयोगरूपोऽयं समाधिः
॥४
॥
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सविकल्पकः ॥ शुद्धोपयोगरूपस्तु निर्विकल्पस्तदेकदृक् ॥ १६ ॥ श्राद्यः सालंबनो नाम योगोऽनालंबनः परः ॥ बायाया दर्पणनावे मुखविश्रांतिसंनिनः ॥ १७ ॥ यद्दृश्यं यच्च निर्वाच्यं मननीयं च यद्भुवि ॥ तद्रूपं परसंश्लिष्टं न शुद्धप्रव्यलक्षएम् ॥ १८ ॥ अपदस्य पदं नास्तीत्युपक्रम्यागमे ततः ॥ उपाधिमात्रव्यावृत्त्या प्रोक्तं शुद्धात्मलक्षणम् ॥ १८५ ॥ यतो वाचो निवर्तन्ते श्रप्राप्य मनसा सह ॥ इति श्रुतिरपि व्यक्तमेतदर्थानुजापिणी ॥ २० ॥ श्रतीन्द्रियं परं ब्रह्म विशुद्धानुजवं | विना ॥ शास्त्रयुक्ति शतेनापि नैव गम्यं कदाचन ॥ २१ ॥ केषां न कल्पना दवीं शास्त्रक्षी रान्नगाहिनी ॥ विरलास्त सास्वादविदोऽनुवजिह्वया ॥ २२ ॥ पश्यतु ब्रह्म निर्दे६ निधानुत्जवं विना ॥ कथं लिपिमयी दृष्टिः वाङ्मयी वा मनोमय। | ॥ २३ ॥ न सुषुप्तिरमोहत्वान्नापि च स्वापजागरौ ॥ कल्पना शिष्पविश्रांतेस्तुर्यैवानुभवो दशा ॥ २४ ॥ श्रधिगत्या खिलं | शब्दब्रह्म शास्त्रदृशा मुनिः ॥ स्वसंवेद्यपरं ब्रह्मानुभवैरधिगच्छति ॥ २९ ॥ ये पर्यायेषु निरतास्ते ह्यन्यसमय स्थिताः ॥ श्रात्मस्वनावनिष्ठानां ध्रुवा स्वसमयस्थितिः ॥ २६ ॥ श्रवापापविश्रान्तिर्यत्राशुनयस्य तत् ॥ शुद्धानुनवसंवेद्यं स्वरूपं | परमात्मनः ॥ २७ ॥ गुणस्थानानि यावंति यावत्यश्चापि मार्गणाः । तदन्यतरसंश्लेषो नैवातः परमात्मनः ॥ २८ ॥ कर्मो - पाधिकृतान् जावान् य श्रात्मन्यध्यवस्यति ॥ तेन स्वाभाविकं रूपं न बुद्धं परमात्मनः ॥ २५ ॥ यथा नृत्यैः कृतं युद्धं | स्वामिन्येवोपचर्यते ॥ शुद्धात्मन्यविवेकेन कर्मस्कंधोर्जितं तथा ॥ ३० ॥ मुषितत्वं यथा पांथगतं पथ्युपचर्यते ॥ तथा व्यवहरत्यश्चिद्रूपे कर्मविक्रियाम् ॥ ३१ ॥ स्वत एव समायांति कर्माण्यारव्धशक्तितः ॥ एकक्षेत्रावगाहेन ज्ञानी तत्र न
१ आर्ष छंदोनुलोम्यात् ।
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मद्यशोवि.
सामायिकविवेक लोको ज्ञानसिको न लिप्यते पुजतस्कंधा नपज्ञानमग्नस्य क्रिया समलं निर्मलं चेद,
॥४६॥
|दोषनाक् ॥ ३२ ॥ दारुयंत्रस्थपाञ्चालीनृत्यतुट्याः प्रवृत्तयः ॥ योगिनो नैव बाधायै शानिनो लोकवर्तिनः ॥ ३३ ॥ प्रार अधिकार, ब्धादृष्टजनितात् सामायिकविवेकतः॥ क्रियापि झानिनो व्यक्तामौचिती नातिवर्तते ॥ ३४॥ संसारे निवसन् स्वार्थसऊः
TAGI २ कऊलवेश्मनि ॥ लिप्यते निखिलो लोको ज्ञानसिखो न लिप्यते ॥ ३५ ॥ नाहं पुखजावानां कर्ता कारयिता च न ॥ नानुमंतापि चेत्यात्मशानवान् लिप्यते कथम् ॥ ३६॥ लिप्यते पुजलस्कंधो न लिप्ये पुजबरहम् ॥ चित्रव्योमाञ्जनेनेव | ध्यायन्निति न लिप्यते ॥ ३७॥ लिप्तता झानसंपातप्रतिघाताय केवलम् ॥ निर्लेपानमग्नस्य क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥ ३०॥ तपःश्रुतादिना मत्तः क्रियावानपि लिप्यते ॥ लावनाज्ञानसंपन्नो निष्क्रियोऽपि न लिप्यते ॥ ३० ॥ समलं निर्मलं चेदमिति तं यदागतम् ॥ अबैतं निर्मलं ब्रह्म तदैकमवशिष्यते ॥ ४० ॥ महासामान्यरूपेऽस्मिन्मङति नयजा लिदाः ॥ समुफ श्व कबोलाः पवनोन्मायनिर्मिताः॥४१॥ पडूपव्यकात्म्यसंस्पर्शि सत्सामान्यं हि यद्यपि ॥ परस्यानुपयोगित्वात् स्वविश्रांतं तथापि तत् ॥४२॥ नयेन संग्रहेणैवमृजुसूत्रोपजीविना ॥ सच्चिदानंदरूपत्वं ब्रह्मणो व्यवतिष्ठते ॥४३॥ सत्त्वचित्त्वादिधर्माणां दानेदविचारणे ॥ न चार्थोऽयं विशीर्येत निर्विकट्पप्रसिद्धितः ॥ ४॥ योगजानुन्जवारूढे सन्मात्रे निर्विकटपके ॥ विकटपौघासहिष्णुत्वं जूषणं न तु दूषणम् ॥ ४५ ॥ यो ह्याख्यातुमशक्योऽपि प्रत्याख्यातुं न शक्यते ॥ प्राज्ञैन दूषणीयोऽर्थः स माधुर्यविशेषवत् ॥ ४६॥ कुमारी न यथा वेत्ति सुखं दयितनोगजम् ॥ न जानाति तथा लोको योगिनां ज्ञानजं सुखम् ॥ ४ ॥ अत्यंतपक्कबोधाय समाधिनिर्विकटपकः ॥ वाच्योऽयं नार्धविज्ञस्य तथा चोक्तं परैरपि ॥ ४६॥ ॥ ४०॥ श्रादौ शमदमप्रायैर्गुणैः शिष्यं प्रबोधयेत् ॥ पश्चात् सर्वमिदं ब्रह्म शुद्धस्त्वमिति बोधयेत् ॥ ४॥ अज्ञस्यार्धप्रबु
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(
| स्य सर्व ब्रह्मेति यो वदेत् ॥ महानरकजा क्षेषु स तेन विनियोजितः ॥ ५० ॥ तेनादौ शोधयेच्चित्तं सधिकस्पैर्त्रतादिनिः ॥ यत्कामादिविकाराणां प्रतिसंख्याननाश्यता ॥ २१ ॥ विकट्टपरूपा मायेयं विकल्पेनैव नाश्यते ॥ अवस्थान्तरभेदेन तथा चोक्तं परैरपि ॥ ५२ ॥ अविद्ययैवोत्तमया स्वात्मनाशोद्यमोत्थया ॥ विद्या संप्राप्यते राम सर्वदोषापहारिणी ॥ ५३ ॥ | शाम्यति ह्यस्त्रमस्त्रेण मलेन काव्यते मलः ॥ शमं विषं विषेणैति रिपुणा हन्यते रिपुः ॥ ५४ ॥ ईदृशी जूतमायेयं या | स्वनाशेन हर्षद ॥ न लक्ष्यते स्वभावोऽस्याः प्रेक्ष्यमाणैव नश्यति ॥ ९५ ॥ व्रतादिः शुभसंकल्पो निर्नाश्याशुनवासनाम् ॥ दाह्यं विनैव दहनः स्वयमेव विनंदयति ॥ ५६ ॥ इयं नैश्चेयिकी शक्तिर्न प्रवृत्तिर्न वा क्रिया ॥ शुभसंकल्पनाशार्थं योगनामुपयुज्यते ॥ ५७ ॥ द्वितीयापूर्वकरणे क्षायोपशमिका गुणाः ॥ क्षमाद्या अपि यास्यंति स्थास्यति कायिकाः परम् ॥ ५८ ॥ | इत्थं यथाचलमनुद्यममुद्यमं च कुर्वन् दशानुगुणमुत्तममान्तरार्थे ॥ चिन्मात्रनिर्जर निवेशितपक्षपातः प्रातर्युरल मित्र दीप्ति|मुपैति योगी ॥ एए ॥ अन्यस्य तु प्रविततं व्यवहारमार्ग प्रज्ञापनीय इह सगुरुवाक्यनिष्ठः ॥ चिद्दर्पणप्रतिफल त्रिजगधिवर्ते वर्तेत किं पुनरसौ सहजात्मरूपे ॥ ६० ॥ जवतु किमपि तत्त्वं वाह्यमान्यंतरं वा हृदि वितरति साम्यं निर्मल श्चिधिचारः ॥ तदिह निचितपंचाचारसंचारचारुस्फुरितपरमजावे पक्षपातोऽधिको नः ॥ ६१ ॥ स्फुटमपरमजावे नैगमस्तारतम्यम् प्रवदतु न तु हृष्येत्तावता ज्ञानयोगी ॥ कलितपरमजावं चिच्चमत्कारसारम् सकलनयविशुद्धं चित्तमेकं प्रमाणम् ॥६२॥ हरिरपरनयानां गर्जितैः कुञ्जराणाम् सहजविपिनमुप्तो निश्चयो नो विनेति ॥ अपि तु जवति लीलोऊं निजूंनोन्मुखेऽस्मिन् गलितमदनरास्ते नोनुसंत्येव जीताः ॥ ६३ ॥ कलितविविधवाह्यव्याप कोलाहलौघव्युपरमपरमार्थे जावनापावनानाम् ॥
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मद्यशो वि.
॥ ४७ ॥
वचन किमपि शोच्यं नास्ति नैवास्ति मोच्यं न च किमपि विधेयं नैव गेयं न देयम् ॥ ६४ ॥ इति सुपरिणतात्मख्याति - चातुर्य के लिर्भवति यतिपतिर्यश्चिनरोना सिवीर्यः । हर हिमकरहारस्फारमंदारगंगारजत कलशशुना स्यात्तदीया यशः श्रीः ॥६५॥ | इति श्रीपंडितनयविजयगणिशिष्य पंडित श्रीपद्मविजयगणि सहोदरोपाध्याय श्री यशोविजयगणिकृतेऽध्यात्मोपनिषत्प्रकरणे ज्ञानयोगशुद्धिनामा ॥२॥
॥ अथ तृतीयोऽधिकारः ॥
॥ यान्येव साधनान्यादौ गृह्णीयाज्ज्ञानसाधकः ॥ सिद्धयोगस्य तान्येव लक्ष्णानि स्वभावतः ॥ १ ॥ श्रत एव जगौ यात्रां सत्तपोनियमादिषु ॥ यतनां सोमिलप्रश्ने जगवान् स्वस्य निश्चिताम् ॥ २ ॥ श्रतश्चैव स्थितप्रज्ञनावसाधनलक्षणे ॥ अन्यूनान्यधिके प्रोक्ते योगदृष्ट्या परैरपि ॥ ३ ॥ नाज्ञानिनो विशेष्येत यथेच्छाचरणे पुनः ॥ ज्ञानी स्वलक्षणाभावात्तथा चोक्तं परैरपि ॥ ४ ॥ बुद्धाऽद्वैतस्तत्त्वस्य यथेाचरणं यदि ॥ शुनां तत्त्वदृशां चैत्र को नेदोऽशुचिन ॥ ५ ॥ अबुहिपूर्विका वृत्तिर्न दुष्टा तत्र यद्यपि ॥ तथापि योगजादृष्टमहिम्ना सा न संभवेत् ॥ ६ ॥ निवृत्तमशुभाचारानुजाचारप्रवृ| त्तिमत् ॥ स्याघा चित्तमुदासीनं सामायिकवतो मुनेः ॥ ७ ॥ विधयश्च निषेधाश्च नत्वज्ञान नियंत्रिताः ॥ बालस्यैवागमे प्रोक्तो नोद्देशः पश्यकस्य यत् ॥ ८ ॥ न च सामर्थ्ययोगस्य युक्तं शास्त्रं नियामकम् ॥ कटुपातीतस्य मर्यादाप्यस्ति न ज्ञा| निनः क्वचित् ॥ ए ॥ जावस्य सिद्ध्यसिद्धिन्यां यच्चाकिंचित्करी क्रिया ॥ ज्ञानमेव क्रियामुक्तं राजयोगस्तदिष्यताम् ॥ १० ॥ मैवं नाकेवली पश्यो नापूर्वकरणं विना ॥ धर्मसंन्यासयोगी चेत्यन्यस्य नियता क्रिया ॥ ११ ॥ स्थैर्याधानाय सिद्धस्यासि
अधिकार. ३
॥ ४७ ॥
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स्यानयनाय च ॥ जावस्यैव क्रिया शान्तचित्तानामुपयुज्यते ॥ १२ ॥ क्रियाविरहितं हन्तं ज्ञानमात्रमनर्थकम् ॥ गतिं | विना पथज्ञोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम् ॥ १३ ॥ स्वानुकूलां क्रियां काले ज्ञानपूर्णोऽप्यपेक्षते || प्रदीपः स्वप्रकाशोऽपि तैलपूर्त्यादिकं यथा ॥ १४ ॥ बाह्यजावं पुरस्कृत्य ये क्रिया व्यवहारतः ॥ वदने कवलदेपं विना ते तृप्तिकांक्षिणः ॥ १५ ॥ गुणवद्वद्द्मानादेर्नित्यस्मृत्या च सत्क्रिया ॥ जातं न पातयेनावमजातं जनयेदपि ॥ १६ ॥ क्षायोपशमिके जावे या क्रिया क्रियते तया ॥ पतितस्यापि तनावप्रवृद्धिर्जायते पुनः ॥ १७ ॥ गुणवृद्ध्यै ततः कुर्यात् क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं जिनानामवतिष्ठते ॥ १८ ॥ श्रज्ञाननाशकत्वेन ननु ज्ञानं विशिष्यते । न हि रावहित्रांतिर्गमने न निवर्तते ॥ १९५॥ | सत्यं क्रियागमप्रोक्ता ज्ञानिनोऽप्युपयुज्यते ॥ संचितादृष्टनाशार्थं नासूरोऽपि यदन्यधात् ॥ २० ॥ तंमुलस्य यथा वर्म यथा ताम्रस्य कालिका ॥ नश्यति क्रियया पुत्र पुरुषस्य तथा मलम् ॥ २१ ॥ जीवस्य तंमुलस्येव मलं सहजमप्यलम् ॥ नश्य - | त्येव न संदेहस्तस्माद्यमवान् जव ॥ २२ ॥ अविद्या च दिदृक्षा च जवबीजं च वासना ॥ सहजं च मलं चेति पर्यायाः कर्मणः स्मृताः ॥ २३ ॥ ज्ञानिनो नास्त्यदृष्टं चेनस्मसात्कृतकर्मणः ॥ शरीरपातः किं न स्याजीवनादृष्टनाशतः ॥ २४ ॥ शरीरमीश्वरस्येव विदुषोऽप्यवतिष्ठते ॥ अन्यादृष्टवशेनेति कश्चिदाह तदमम् ॥ २५ ॥ शरीरं विदुषः शिष्याद्यदृष्टाद्यदि | तिष्ठति ॥ तदाऽसुहृददृष्टेन न नश्येदिति का प्रमा ॥ २६ ॥ न चोपादाननाशेऽपि दाएं कार्य यथेष्यते ॥ तार्किकैः स्थिति| मत्तच्चिरं विधत्तनु स्थितिः ॥ २७ ॥ निरुपादानकार्यस्य दणं यत्तार्किकैः स्थितिः ॥ नाशहेत्वन्तराभावादिष्टा न च स पुर्वचः ॥ २८ ॥ श्रन्यादृष्टस्य तत्पातप्रतिबंधकतां नयेत् ॥ म्रियमाणोऽपि जीव्येत शिष्यादृष्टवशाद्गुरुः ॥ २७ ॥ स्वना
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मद्यशोवि.
॥४
॥
वान्निरुपादानं यदि विछत्तनुस्थितिः॥ तथापि कालनियमे तत्र युक्तिन विद्यते ॥ ३० ॥ उखलस्य तच्चिंत्यं मतं वेदा
अधिकार. न्तिनो ह्यदः॥ प्रारब्धादृष्टतः किं तु शेया विपत्तनुस्थितिः॥३१ ॥ तत्प्रारब्धेतरादृष्टं ज्ञाननाश्यं यदीष्यते ॥ लाघवेन । विजातीयं तन्नाश्यं तत्प्रकटप्यताम् ॥ ३२ ॥ इत्थं च झानिनो ज्ञाननाश्यकर्मक्ष्ये सति ॥ क्रियैकनाश्यकौघदयार्थ सापि युज्यते ॥ ३३ ॥ सर्वकर्मक्ये ज्ञानकर्मणोस्तत्समुच्चयः ॥ अन्योऽन्यप्रतिबंधेन तथा चोक्तं परैरपि ॥ ३४॥ न यावत्सममन्यस्तो ज्ञानसत्पुरुषक्रमौ ॥ एकोऽपि नैतयोस्तावत्पुरुषस्येह सिध्यति ॥ ३५॥ यथा गद्मस्थिके झानकर्मणी सहकृत्वरे ॥ दायिक अपि विज्ञेये तथैव मतिशालिन्निः ॥ ३६ ॥ संप्राप्तकेवलझाना अपि यकिनपुंगवाः ॥ क्रियां योगनिरोधाख्यां कृत्वा सिध्यंति नान्यथा ॥३७ ॥ तेन ये क्रियया मुक्ता झानमात्रानिमानिनः ॥ ते भ्रष्टा ज्ञानकर्मन्यां नास्तिका नात्र संशयः॥३॥ज्ञानोत्पत्तिं समुन्नाव्य कामादीनन्यदृष्टितः॥ अपहृवानोकेन्यो नास्तिकैर्वचितं जगत् ॥३ए॥ ज्ञानस्य परिपाकाधि क्रियाऽसंगत्वमंगति । न तु प्रयाति पार्थक्यं चंदनादिव सौरजम् ॥४०॥ प्रीतित्नक्तिवचोऽसंगरनुष्ठानं चतु: विधम् ॥ यत्पर्योगिनिीतं तदित्यं युज्यतेऽखिलम् ॥ ४१ ॥झाने चैव क्रियायां च युगपतिहितादरः॥ व्यन्नावविशुधः सन् प्रयात्येव परं पदम् ॥४२॥ क्रियाज्ञानसंयोगविश्रांतचित्ताः समुद्भूतनिर्वाधचारित्रवृत्ताः॥ नयोन्मेषनिणीतनिःशेषजावास्तपःशक्तिलब्धप्रसिप्रजावाः ॥ ४३ ॥ जयक्रोधमायामदाझाननिताप्रमादोज्किताः शुधमुत्रा मुनीन्ताः ॥ यशःश्रीसमालिंगिता वादिदंतिस्मयोछेदहर्यदतुट्या जयंति ॥४४॥ इति पंडितश्रीनयविजयगणिशिष्यपंडितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचितेऽध्यात्मोपनिषत्प्रकरणे क्रियायोगशुद्धिनामा३ ।। ॥४ ॥
१ सहगत्वरे !
maan
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॥अथ चतुर्थोऽधिकारः॥ ॥ज्ञानक्रियाश्वष्ययुक्तसाम्यरथाधिरूढः शिवमार्गगामी ॥ न ग्रामपूरकंटकजारतीनां जनोऽनुपानत्क श्वातिमेति ॥ml आत्मप्रवृत्तावतिजागरूकः परप्रवृत्तौ बधिरांधमूकः ॥ सदा चिदानंदपदोपयोगी लोकोत्तरं साम्यमुपैति योगी॥ परीपदश्च प्रबलोपसर्गयोगाच्चलत्येव न साम्ययुक्तः ॥ स्थैर्याधिपर्यासमुपैति जातु क्षमा न शैलैन च सिंधुनाथैः ॥३॥ इतस्ततो नारतिवह्नियोगाउड्डीय गच्छेद्यदि चित्तसूतः ॥ साम्यैकसिघोषधमूर्वितः सन् कट्याणसिधेन तदा विलंबः॥४॥ अंतर्निमग्नः समतासुखाब्धौ बाह्ये सुखे नो रतिमेति योगी॥ अटत्यटव्यां क श्वार्थलुब्धो गृहे समुत्सर्पति कल्पवृक्षे ॥५॥ यस्मिन्न विद्यार्पितबाह्यवस्तुविस्तारजन्त्रांतिरुपैति शांतिम् ॥ तस्मिंश्चिदेकार्णवनिस्तरंगस्वनावसाम्ये रमते सुवृद्धिः॥६॥ शुधात्मतत्त्वप्रगुणा विमर्शाः स्पर्शाख्यसंवेदनमादधानाः ॥ यदान्यबुद्धिं विनिवर्तयंति तदा समत्वं प्रयतेऽवशिष्टम् ॥७॥ विना समत्वं प्रसरन्ममत्वं सामायिक मायिकमेव मन्ये ॥ आये समानां सति सद्गुणानां शुद्ध हि तबुझ्नया विदंति ॥७॥ निशानजोमंदिररत्नदीप्रज्योतिर्निरुद्योतितपूर्वमंतः ॥ विद्योतते तत्परमात्मतत्त्वं प्रसृत्वरे साम्यमणिप्रकाशे ॥ ए॥ एकां । विवेकांकुरितां श्रिता यां निर्वाणमापुर्जरतादिनूपाः॥ सैवर्जुमार्गः समता मुनीनामन्यस्तु तस्या निखिलः प्रपंचः॥१०॥ अपेऽपि साधुन कषायवह्नावलाय विश्वासमुपैति जीतः॥ प्रवर्धमानः स दहेद्गुणोघं साम्यांबुपूरैर्यदि नापनीतः ॥११॥ प्रारब्धजा ज्ञानवतां कषाया थानासिका इत्यनिमानमात्रम् ॥ नाशो हि जावः प्रतिसंख्यया यो नाबोधवत्साम्यरतौ स तिष्ठेत् ॥ १२॥ साम्यं विना यस्य तपःक्रियादेर्निष्ठा प्रतिष्ठार्जनमात्र एव ॥ स्वर्धेनुचिंतामणिकामकुंचान् करोत्यसौ काए
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मद्यशोवि.
अधिकार
॥
ए॥
कपर्दमूख्यान् ॥ १३ ॥ ज्ञानी क्रियावान् विरतस्तपस्वी ध्यानी च मौनी स्थिरदर्शनश्च ॥ साधुर्गुणं तं बजते न जातु प्रामोति यं साम्यसमाधिनिष्ठः ॥१५॥ फुर्योधनेनानिहतश्चकोप न पांमवैर्यो न नुतो जहर्ष ॥ स्तुमो नदंतं दमदंतमंतः समत्ववंतं मुनिसत्तमं तम् ॥ १५ ॥ यो दह्यमानां मिथिलां निरीक्ष्य शक्रेण नुन्नोऽपि नमिः पुरीं स्वाम् ॥ न मेऽत्र किंचिज्ज्वलतीति मेने साम्येन तेनोरुयशो वितेने ॥ १६॥ साम्यप्रसादास्तवपुर्ममत्वाः सत्त्वाधिकाःस्वं ध्रुवमेव मत्वा ॥न सेहिरे|ऽर्ति किमु तीव्रयंत्रनिष्पीमिताः स्कंधकसूरिशिष्याः॥१७॥ लोकोत्तरं चारुचरित्रमेतन्मेतार्यसाधोः समतासमाधेः॥ हृदा-|| प्यकुप्यन्न यंदोर्डचर्मबऽपि मूर्धन्ययमाप तापम् ॥ १८॥ जज्वाल नांतश्च सुराधमेन प्रोज्वालितेऽपि ज्ज्वलनेन मौलौ ॥ मौलिर्मुनीनां स न कैर्निषेव्यः कृष्णानुजन्मा समतामृताब्धिः॥ १५॥ गंगाजले यो न जहाँ सुरेण विशोऽपि शूले समतानुवेधम् ॥ प्रयागतीर्थोदयकृन्मुनीनां मान्यः स सूरिस्तनुजोऽनिकायाः॥ २० ॥ स्त्रीचूणगोब्राह्मणघातजातपापादधःपात|कृताजिमुख्याः ॥ दृढप्रहारिप्रमुखाः काणेन साम्यावलंबात्पदमुच्चमापुः ॥२१॥ अप्राप्तधर्माऽपि पुरादिमाहन्माता शिवं यनगवत्यवाप ॥ नाप्नोति पारं वचसोऽनुपाधिसमाधिसाम्यस्य विजेंनितं तत् ॥ २२ ॥ इति शुजमतिर्मत्वा साम्यप्रनावमनुत्तरं य इह निरतो नित्यानंदः कदापि न खिद्यते ॥ विगलदखिलाविद्यः पूर्णस्वनावसमृधिमान् स खलु बनते जावाराणां जयेन यश:श्रियम् ॥ २३॥
॥ ॥
॥ ॥ इति श्रीयशोविजयोपाध्यायगाणकृते यशःश्यकऽध्यात्मोपनिषत्प्रकरणे साम्ययोगशुद्धिनामा चतुर्थोऽधिकारः समाप्तः ॥ ४॥
॥ समाप्तमिदमध्यात्मोपनिषत्प्रकरणम् ॥
॥४
॥
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॥ श्रथाध्यात्मिकमतपरीक्षा ॥
। अथवा।
॥ आध्यात्मिकमतखंडनम् ॥ स्वस्तिश्रीपूर्णघूर्णन्नतसुरसुरसोझासिमूर्धार्पितम्रग्-राजीराजीवगुञ्जघूमरपरिकरैः सेव्यपादारविन्दः । स्पर्धाबंधात्स्वनासामिव कनकगिरि कंपयन् स्वर्णवर्णः शोजानिर्वर्धमानः स जिनपरिवृढः पातु वो वर्धमानः॥१॥ नत्वा गुरुपदकमलं स्मृत्वा वाचं परोपकारकृते । स्वोपाध्यात्मिकमतखंमनटीकां करोमि मुदा ॥२॥
इह तावद्रंथादौ ग्रंथकर्ता प्रारिप्सितनिर्विघ्नसमाप्तिकामनया शिष्टाचारपरिपालनाय च स्वानिमतदेवतानमस्कारादिलक्षणं मंगलमाचरणीयमिति मनसिकृत्य वर्तमानशासनस्वामितयान्यर्हितं श्रीवर्धमानस्वामिनं नमस्कुर्वन्नाह
श्रीवर्धमानं जिनवर्धमानं नमामि तं कामितकामकुंजम् ।
थाकारनेदेऽपि कुबुझिन्नेदे शस्त्रस्य तुल्यं यकुपनशास्त्रम् ॥१॥ टीका-तं जिनवर्धमानमहं नमामीति क्रियाकारकसंटंकः। जिनश्चासौ वर्धमानश्चेति कर्मधारयः । जयति रागादिशत्रनिति जिनः । कथंनूतं श्रीवर्धमानं श्रिया सकलकर्मक्ष्याविर्जूतानन्तचतुष्कसंपद्रूपयाऽष्टमहाप्रातिहार्यरूपया वा वर्धमानं
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अध्यात्म.
॥ ५० ॥
श्री वर्धमानं । पुनः कथंभूतं कामितकामकुंजं कामितानि वांबितानि तेषु कामकुंज मिवेत्युपमानं । कं यदुपज्ञशास्त्रं वाद| शांगी रूपम् आकारनेदेऽपि तथाविधावयवरचनाविशेषभेदेऽपि कुबुद्धिरज्ञानं तस्य भेदे शस्त्रतुल्यं वर्तते । अयं जावः । यथा शस्त्रं प्रतिनियतं लक्ष्यं नित्त्येवं यत्प्रवचनमपि सदसद्विवेचकत्वेन मिथ्यात्वानिनिवेशं भिनत्ति निवर्तयति । न चैवं जमालिप्रभृतीनां मिथ्यात्वानिनिवेश निवर्तकत्वाभावेन जगवचनस्यासामर्थ्य शंकनीयं, योग्यानुद्दिश्यैवैतद निधानात् । न खलु जानवीया जानवः कौशिकस्य लोचनमनुन्मीलयन्त उपसंजसंभावनास्पदं भवेयुरिति । पक्ष आकारेणैव शस्त्रशास्त्रयोर्भेदोऽन्तरं, न तु वर्णमात्रान्तरेणेति ॥ १॥
बन्धोदयोदीरणसत्पदाख्यमुवोष कर्मेन्धनमिद्धतेजाः ।
ध्यानानलेन प्रबलेन यो वः समग्रवित्पातु स वीरदेवः ॥ २ ॥
टीका-स वीरदेवः श्रीवर्धमानस्वामी वो युष्मान् पातु । कथंभूतः । समग्रवित् समग्रं सर्वव्यपर्यायात्मकं वस्तु वेत्ति पश्यति | जानाति वेति । दर्शनज्ञानयोश्चायं नेदः जीवस्वानाव्यात्सामान्यप्रधानमुपसर्जनी कृत विशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते तथा प्रधान विशेषमुपसर्जनी कृतसामान्यं च ज्ञानमिति । स को यो ध्यानानसेन कर्मेन्धनमुवोषाज्वालयत् ध्यानमेव निर्मलत्वादनलोऽग्निः कर्मैव दाह्यत्वसाधर्म्यादिन्धनमिति रूपकम् । कर्मेन्धनमित्यत्र जात्यभिप्रायमेकवचनम् । कथंभूतं कर्मेन्धनं । बंधो| दयोदी रणसत्पदाख्यम् तत्र मिथ्यात्वादिनिर्बन्धहेतु निरञ्जनचूर्णपूर्णसमुक्कवन्निरन्तरं पुल निचिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापु
परीक्षा.
॥ ५० ॥
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रात्मनःहीरनीरवघहन्ययःपिंझवघान्योन्यानुगमानेदात्मकः संबंधो बंधः(१)तेषां च यथास्वस्थितिबछानां कर्मपुजलानामपवर्तनादिकरण विशेषे कृते स्वानाविके वा स्थित्यपचये सत्युदयसमयप्राप्तानां विपाकवेदनमुदयः (२) तेषामेव कर्मपुजला-I. नामकालप्राप्तानां जीवसामर्थ्य विशेषादयावलिकायां प्रक्षेपणमुदीरणा (३) तेषामेव कर्मपुजवानां बंधसंक्रमान्यां लब्धामलाजानां निर्जरणसंक्रमणकृतस्वरूपप्रच्युत्यनावे सन्नावः सत्ता (४) सदिति जावप्रधानो निर्देशस्ततश्च बंधोदयोदीरणसघाचकानि पदानि बंधादीनि तैराख्यायते व्यपदिश्यते यत्तद्वंधोदयोदीरणसत्पदाख्यम् । अयं नावः कर्मणामष्टौ मूलप्रकृतयः । तद्यथा-झानावरणं १ दर्शनावरणं २ वेदनीयं ३ मोहनीयं आयुष्कर्म ५ नामकर्म ६ गोत्रकर्म ७ अन्तरायं चेति । उत्तरप्रकृतीनां चाष्टपंचाशदधिकशतं लेदास्तद्यथा-मतिज्ञानावरणं १ श्रुतझानावरणं २ अवधिज्ञानावरणं ३ मनःपर्यायज्ञानावरणं । केवलज्ञानावरणं ५ चेति झानावरणस्य पंच जेदाः । चक्कुर्दर्शनावरणं अचवदर्शनावरणं | अवधिदर्शनावरणं ३ केवलदर्शनावरणं ४ निता ५ निजानिता ६ प्रचला प्रचलाप्रचला स्त्यानीं । चेति दर्शनावरणस्य नवैव नेदाः । वेदनीयकर्मणो घौ दो सातावेदनीयमसातावेदनीयं चेति । सम्यक्त्वमोहनीयं , मिश्रमोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयं ३ अनन्तानुवंधिक्रोध ४ मान ५ माया ६ खोलाः ७ अप्रत्याख्यानक्रोध मान ए माया १० लोनाः ११ प्रत्याख्यानावरणक्रोध १२ मान १३ माया १५ लोनाः १५ संज्वलनक्रोध १६ मान १७ माया |१० लोजाः १ए स्त्रीवेदः २० पुरुषवेदः २१ नपुंसकवेदः २२ हास्यं २३ रतिः २४ अरतिः २५ जयं २६ शोकः २७
१ बंधोदयोदीरणसत्पदानि । २ प्रकृतिपार्थक्याय नात्र सन्धिः कचित् ।
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अध्यात्मि.
परीक्षा.
जुगुप्सा २७ चेति मोहनीयकर्मणोऽष्टाविंशतिर्नेदाः । नरकायुः १ तिर्यगायुः २ मनुष्यायुः ३ देवायुः ४ चेति श्रायुष्कमपश्चत्वारो लेदाः। देवगतिः १ मनुष्यगतिः तिर्यग्गतिः ३ नरकगतिः । एकेन्जियजातिः ५ दीजियजातिः ६ त्रीन्जियजातिः ७ चतुरिन्जियजातिः पंचेन्जियजातिः ए औदारिकशरीरं १० वैक्रियशरीरं ११ आहारकशरीरं १२ तैजसशरीरं १३ कार्मणशरीरं १४ औदारिकोपांग १५ वैक्रियोपांग १६ श्राहारकोपांग १७ औदारिकौदारिकबंधनं १७ वैक्रियवक्रियबंधनं १ए आहारकाहारकबंधनं २० तैजसतैजसबं० २१ कार्मणकार्मणबं० २२ औदारिकतैजसबं० २३ वैक्रियतैजसबं० २४ आहारकतैजसबं० २५ कार्मणतैजसबं० २६ औदारिककामणबं० २७ वैक्रियकार्मणबं० २० श्राहारककार्मणबं० २ए औदारिकतैजसकामेणबं० ३० वैक्रियतैजसकामणबं० ३१ आहारकतैजसकार्मणबं० ३५ औदारिकसंघातनं ३३ वैक्रियसंघातनं ३५ आहारकसंघातनं ३५ तैजससंघातनं ३६ कार्मणसंघातनं ३७ वज्रर्षजनाराचं ३७ शषजनाराचं ३ए| नाराचं ४० अर्धनाराचं ४१ कीलिका ४२ सेवार्तसंहननं ४३ समचतुरस्रं ४ न्यग्रोधं ४५ सादि ४६ वामनं ७ कुछ पहुंमसंस्थानं पए कृष्णवर्णः ५० नीलवर्णः ५१ रक्तवर्णः ५२ पीतवर्णः ५३ धवलवर्णः ५४ सुरनिगंधः ५५ असुरनिगंधः ५६ तिक्तरसः ५७ कटुरसः ५७ कषायरसः एए आम्लरसः ६० मधुररसः ६१ गुरु ६५ लघु ६३ मृउ ६४ खर ६५ शीत ६६ उष्ण ६७ स्निग्ध ६७ रुदस्पर्शाः ६ए देव ७० मनुष्य ७१ तिर्यग् ७२ नरकानुपूर्व्यः ७३ शुलखगतिः ७४ अशुलखगतिः ७५ पराघात ७६ नन्चास १७ आतप पु उद्योत पुए अगुरुलघु ७० जिननाम ७१ निर्माण ८२ उप- घाताः ३ त्रस ४ बादर ०५ पर्याप्त ७६ प्रत्येक ७ स्थिर शुन्न ए सुलग ए. सुस्वर ए१ आदेय ए२ यशो
॥१॥
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नामानि ए३ स्थावर एव सूदम एए अपर्याप्त ए६ साधारण एतु अस्थिर ए अशुन ए पुर्जग १०० दुःस्वर १०१ अ-| नादेय १०२ अयशांसि १०३ चेति नामकर्मणस्युत्तरं शतं लेदाः। गोत्रकर्मण नच्चोत्रं १ नीचर्गोत्रं २ चेति को दी। दानान्तरायं १ लाजान्तरायं २ जोगान्तरायं ३ उपनोगान्तरायं ४ वीर्यान्तरायं ५ चेति अंतरायकर्मणः पंच जेदाः ।। तदेवमष्टपंचाशदधिकशतप्रकृतीनां मध्याईधनसंघातनयोविंशतिर्नेदास्तनुष्वेवान्तावादपनीयन्ते । ततो वर्णगंधरसस्पर्शानां यथासंख्यं पंचधिपंचाप्टलेदेर्निप्पन्नां विंशतिमपनीय तेषामेव सामान्यवर्णगन्धरसस्पर्शलदाणं चतुष्कं गृह्यते । ततश्च वर्णादि पोमशकवंधनपंचदशकसंघातनपंचकलदाणानां षट्त्रिंशत्प्रकृतीनामपसारणेन छाविंशत्यधिकशतमवशिष्यते तत्रापि सम्यक्त्वमिश्रके बंधे नाधिक्रियते । यतो मिथ्यात्वपुजलानामेव जीवः सम्यक्त्वगुणेन मिथ्यात्वरूपतामपनीय केषांचिदत्यंतविशुघिमासादयति अपरेषां त्वीपहिशुहिं केचित्पुनर्मिथ्यात्वरूपा एवावतिष्ठते तत्र येऽत्यन्त विशुधास्ते सम्यक्त्वव्यपदेशलाजः पविशुधा मिश्रव्यपदेशनाजः शेषा मिथ्यात्वव्यपदेशनाज इति । उदयोदीरणासत्तासु पुनस्तयोरप्यधिकारः । ततश्च बंधप्रायोग्या विंशत्यधिकशतप्रकृतयः उदयोदीरणाप्रायोग्याश्च धाविंशत्यधिकशतप्रकृतयः सत्ताप्रायोग्याश्च पूर्वापनीतानामपि प्रकृतीनां संग्रहणादष्टपंचाशदधिकशतप्रकृतयः । तथा चोक्तम्-"बंधणसंयगहो तणूसु सामणघावण चऊ । श्य सत्तही बंधोदए अनय सम्ममीसया बंधे ॥ बंधुदए सत्ताए वीस वीसठ्ठवन्नसयंति ॥” तासु च बंधोदीरणप्रायोग्याः प्रकृतीः सयोगिकेवलिगुणस्थानावसाना एव च योगी नावात् पयित्वा शेषाश्चायोगिकेवलिचरमसमये पयित्वा यो जगवान्निर्मलाविकलकेवलबलावलोकितनिखिललोकालोकः सिधिवधूवदोजयोर्विततपत्रलतिकामबिखत् । पुनः कथंनूत
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अध्यात्म.
॥ ५२ ॥
इन्तेजा इयं वीर्यान्तरायकर्मसमूलकाषंकषणात् प्रकटितस्वरूपं तेजो वीर्य यस्य स तथा । अत्र च श्लोकये जगवतः श्री वर्धमानस्वामिनश्चत्वारो मूलातिशयाः प्रतिपादिताः । तथाहि समग्र विदित्यनेन लोकालोकालोकनप्रवण विमल केवलालोकसंपत्प्रतिपादनाज्ज्ञानातिशयः, तथा जिनवर्धमान मित्यत्र 'जिन' इति विशेषणेन रागादिशत्रूणां जयप्रतिपादनादपायापगमातिशयः, तथा आकारभेदेऽपीत्यादिना प्रथमपद्येोत्तरार्धेन मिथ्यात्ववासना निर्मूलनक्षमजाह्नवी जल निर्मल परस्परविरोधलेशवर्जितसप्तनय विशुद्धद्वादशांगी प्रणयननणना६चनातिशयः तथा श्री वर्धमान मित्यनेनाकृत्रिम क्तिप्रागुजारोद्भूतप्रभूतरोमांचदन्तुरशरीरसकलसुर निकायनायक विरचिताष्टमहाप्रातिहार्याहार्यसंपत्प्रतिपादनात्पूजातिशय इति ॥ २ ॥ प्रेक्षावत्प्रवृत्तिप्रयोजकं स्वानिधेयं प्रतिजानीते
त्वा श्रीवीरतीर्थेशं कुतीर्थिकमदापदम् । स्थाप्यते कवलाहारस्तत्प्रसादाकिने शितुः ॥ ३ ॥ टीका-इह तावत्कराल कलिकालप्रबल करवाल विदलितमतयः कियच्चिदिगंबरशास्त्राच्युपमात् किच्चिच्च श्वेतांबरशा|स्त्रान्युपगमाच्च संमूर्तिमकस्पा उजयतो भ्रष्टा जागीरथी सलिल निर्मलेऽपि पीयूषयूपातिशायिमाधुर्ये जगवश्चसि कालुष्यं दधानाः केचन निकाचितपापकर्मकलुषितात्मानः केवलिनां कवलाहारं प्रति विप्रतिपद्यंत इति तत्स्थापनमत्रानिधेयम् । | श्लोकोऽयं स्पष्टार्थः । नवरं जिने शितुरिति अन्येषामपि सामान्यकेवलिनामुपलक्षणम् । यघा जयंति रागादिशत्रू निति | जिना उपशान्तमोहगुणस्थानवर्तिनस्तेषामी शितोपशमापेक्ष्या दयस्य प्राधान्यात्केवली तस्य जिनेशितुरिति जात्यभिप्रायं | चात्रैकवचनमिति ॥ ३ ॥ तत्र तावत्परपक्षमुत्थापयिष्यन् स्वसिद्धांतं प्रढयति-
परीक्षा.
11 42 11
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अर्हतां यद्यतिशयाश्चतुस्त्रिंशत्ततो न किम् । विशेष सिद्धिः सामान्य सिद्धिमा क्षिपति स्फुटम् ॥ ४ ॥
टीका - अर्हतां तीर्थकृतां चेद्यदि चतुस्त्रिंशदतिशया अन्युपगम्यन्त इति शेषस्तर्हि केवलि विशेषस्य तीर्थकृतः कवला - | हारसिद्धिः सामान्यसिद्धिं सामान्यकेवलिनामपि कवलाहारसिद्धिं कथं न गमयतीत्यदरार्थः । जावार्थस्वयम्-अन्तस्तावच्चतुस्त्रिंशदतिशय विराजमाना जवन्तीत्युजयवादिसिद्धं तत्र सहजाश्चत्वारोऽतिशया एकादश कर्मदयोत्था एकोनविं | शतिश्च देवकृताः । तथा चातु:-"तेषां च देहोऽद्भुतरूपगन्धो निरामयः स्वेदमलोज्जितश्च । श्वासोऽजगन्धो रुधिरामिषं तु | गोक्षीरधाराघवलं ह्यविस्रम् ॥ १ ॥ आहारनीहारविधिस्त्वदृश्य चत्वार एतेऽतिशयाः सहोत्याः । क्षेत्रे स्थितिर्योजनमात्र| केऽपि नृदेव तिर्यग्जनकोटिकोटेः ॥ २ ॥ वाणी नृतिर्यक् सुरलोकभाषा-संवादिनी योजनगामिनी च । जामंगलं चारु च मौलिपृष्ठे विकबिताहर्पतिमंगल श्रि ॥ ३ ॥ साग्रे च गव्यूतिशतध्ये रुजा वैरेतयो मार्यतिवृष्यवृष्टयः । पुर्जिक्ष्मन्यस्वकचऋतो जयं स्यान्नैत एकादश कर्मघातजाः ॥ ४ ॥ खे धर्मचक्रं चमराः सपाद- पीठं मृगेन्द्रासनमुज्ज्वलं च । छत्रत्रयं रत्नमयो ध्वजोऽद्धि-न्यासे च चामीकरपंकजानि ॥ ५ ॥ वप्रत्रयं चारुचतुर्मुखांगता चैत्यद्रुमोऽधोवदनाश्च कंटकाः । द्रुमानतिईन्कुनिनाद उच्च-तोऽनुकूलः शकुनाः प्रदक्षिणाः ॥ ६ ॥ गन्धांबुवर्ष बहुवर्णपुष्प वृष्टिः कचश्मश्रुनखाप्रवृद्धिः । चतु| विधा मर्त्यनिकायको टिर्जघन्यजावादपि पार्श्वदेशे ॥ ७ ॥ रुतूनामिन्द्रियार्थाना मनुकूलत्वमित्यमी । एकोनविंशतिर्दैव्याश्चतुस्त्रिंशच्च मीलिताः ॥ ८ ॥ इति" तत्र च चतुस्त्रिंशदतिशयाः केवलज्ञानोत्पत्तिसमनन्तरमेव प्राप्यंते नान्यदा कारणान्त| वैफल्यात् । तथा चाहारनी हारविधेरदृश्यत्वं केवलिनां कवलाहारान्युपगममन्तरा कथं जाघटीति आहारशब्दस्य सामा
1955 1951996
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परीक्षा
अध्यात्मि. ॥५३॥
न्यवाचकत्वेऽपि नीहारशब्दसमजिव्याहारस्य तत्र तात्पर्यख्यापकात् । न च नीहारशब्दस्तैजसशरीरेण पच्यमाने लोमाहार एव रूढः । यतः किमियं रूढिलौकिकी पारिजाषिकी वा नाद्योऽसंजवात् नापि दितीयस्तथा कुत्रचिदपि पूर्वसूरिनिरनाख्यातत्वात् । किं चैतदतिशयस्य सहोत्थत्वेन गार्हस्थ्येऽपि कवलाहारविलोपान्न सकसे सामान्यजनसाधारणत्वाच्च कथमतिशयत्वमप्येतस्येति पूर्वापरविचारचातुरीशून्यहृदयः संवादयितुमप्यनर्दोऽसि । ननु किं तदतिशयत्वम् न तावत्तीर्थकरनामकर्मोदयजनितो लब्धिविशेषः तीर्थकरनामकर्मोदयस्य त्रयोदशगुणस्थान एवाजिहितत्वात्तथा चाहुः-"उदए जस्स सुरासुर-नरनिवहेहिं च पूल होइ । तं तित्ययरनाम तस्स विवागो हु केवलियो ॥१॥इति" । नाप्यहत्त्वसमानाधिकरणो विशेषगुण एवातिशयः घातिकर्मक्योन्नवानां केवलज्ञानादीनां सामान्यकेवलिसाधारणत्वात् । न चान्यव्यावृत्तिबुध्ध्युपधायकार्हत्त्वसमानाधिकरणो विशेषगुण एवातिशयः लहाणविशेषस्यापि तथात्वप्रसंगात् । नापि कश्चन शक्तिविशेषोऽनिवचनात् । तस्मादतिशयत्वमेवासिझमिति कश्चित् । अत्रानिदध्महे सहजदेवकृतहायिकत्वोपाधिन्नेदावचिन्नजेदप्रतियोग्यव्यासज्यवृत्तितीर्थकरत्वसमानाधिकरणो विशेषगुण एवातिशयः । नन्वेषां युगपदनुत्पत्तौ किं नियामकमिति चेच्छृणु सर्वत्र प्रतिबन्धकाजावस्तत्कारणमन्यथा तन्तुरूपं पटोत्पत्तिमनपेक्ष्यापि पटरूपं जनयेत्तस्माद्यथा तत्र प्रतिबन्धकानावः कारणमेवमत्रापि प्रतिबन्धको चात्र गर्लानवतारज्ञानानुत्पादौ तौ च कारणीनूतानावप्रतियोगित्वेन कार्यकोन्नेयाविति प्रतिबन्धकानपगम एव नियामकः । चतुरादीनां च समकालोत्पत्तौ पंचांगुलीनामिव प्रतिबन्धकालाव एव नियामक इति सर्वमवदातम् । न तु सर्वमिलनेनैव चतुस्त्रिंशदतिशयस्वामित्वमेवाईतां मन्यामहे न तु केवलज्ञानोत्पत्तिसमनंतरं चतुस्त्रिं-[[.
॥५३॥
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शदेवातिशयाः प्राप्यन्त इति तस्माच्चतुतिशयस्वामित्वमहतां उद्मस्थावस्थायामेव न तु सार्वकालिकमिति वाच्यम् । असतः स्वामित्वायोगात् अतिशयानां चतुस्त्रिंशत्संख्याप्रतियोगित्वानुपपत्तेश्च सकलमेलकसमवधाने तदनावात् तत्सत्त्वे च तदलावादिति । असतश्च स्वामित्वे गतदशरजतो विंशतिरजतप्रार्थी दशरजतप्राप्त्यैव चरितार्थः स्यात् । किं च कथ-| मेवं कदाग्रहग्रहग्रस्तोऽसि यदेनं प्रत्येव दृढः प्रपो जवतः अववोध्यमानोऽपि किं नावबुध्यसे शृणु जोः-"सरणमवस| रित्ता चनतीसं अश्सए निसेवित्ता । धम्मकहं च कहता अरिहंता इंतु मे सरण" मित्यादौ चतुस्त्रिंशदतिशयवत्त्वं त्वया | कथं ख्यापनीयम् । तदत्यन्ताजावाप्रतियोगित्वादिति चेत्तदत्यन्ताजाव एवातिप्रसंगः । जावत्वे सतीति विशेषणादपि न साध्यसिद्धिः गार्हस्थ्येऽपि चतुस्त्रिंशदतिशयवत्त्वव्यपदेश्यताप्रसंगात् । न चेष्टापत्तिः तदानीमेव तीर्थकरनामकर्मविपाक-IN |वेदनप्रसंगात् व्यवहारविरोधित्वाच्च । व्यवहारानुरोधेन हि कल्पना न तु कट्पनानुगुण्येन व्यवहारस्तथा चार्षम्-"ज जिणमयं पवजह ता मा ववहारनिच्छए मुअह । ववहारनन्छेए तित्युच्चे जलं जणि ॥१॥” इति । सर्व चैतत्सि-५ घान्तपथाननुयायि पूर्वपदवचनमित्यलमुत्सूत्रप्ररूपण विस्पंदितः । प्रमाणं चात्र अर्हन्तः कवलाहारिणश्चतुस्त्रिंशदतिशयवत्त्वान्यथानुपपत्ते रिति । तदेवमहतां चतुस्त्रिंशदतिशयान्युपगंत्रा कववाहारित्वं मन्तव्यमेव । तथा च सामान्यकेवलिनामप्ययमनायाससाध्य एवेति प्रचिकटिषयोत्तरार्ध वित्रियते विशेषेति सामान्यकेवलिनः कवलाहारिणः तविशेषगतनिरुपाधिकतमप्रतियोगित्वात् तधर्मश्च कवलाहारित्वम् न चायं नागासियो हेतुः पक्षहेत्वोरेकावन्दकावचिन्नत्वात् एकं चावच्छेदकं सयोगिकेवखित्वमिति । ननु केवलिनो न कवलाहारिणः संझारहितत्वादित्यनेन सप्रतिपदोऽयं हेतुरिति चेन्न
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अध्यात्मि.
परीक्षा.
॥ ५४॥
एतस्य लोमाहाराजावस्यापि साधकत्वेनाप्रयोजकत्वादिति सिद्धमेतेनानुमानेन केवलिनां कवताहारित्वमिति ॥ ४॥ अमु- मेवार्थ पूर्वपक्षनिरासेन ढयितुमिल्छः पूर्वपदमुपन्यस्यति___ व्यापकं कारणं कार्य सार्वइयेन विरुध्यते । ननु तत्कवलाहारस्तेषां नान्युपगम्यते ॥५॥ | टीका-व्याप्याधिकवृत्तिः व्यापकम् १। अन्यथासिजिशून्येतरज्ञानानधीनशानकार्यप्रागनावावच्छिन्नसमयपरिचायितनियतसमवधानप्रतियोगित्वावच्छेदकधर्मवत्कारणम् २ । अनन्यथासिनियतपश्चान्नावि कार्यमित्येके ३ । एतउपलक्ष्यः |स्वरूपसंबंधविशेष एव व्यापकत्वं १ कारणत्वं २ कार्यत्वं ३ च तत्प्रतियोगि व्यापकं १ कारणं २ कार्य ३ चेति वस्तुगतिः। तथा च कवलाहारस्य व्यापकमाहारसंझादि कारणं च बुनुदामोहनीयादि कार्य च निजादि सर्वज्ञत्वेन सह नावतिष्ठते ।|| अयं जावः-यत्र खलु कवलाहारः संप्रतिपन्नस्तत्र सातावेदनीयोदीरणमपि तथा च केवलिनः सकाशात् सातावेदनीयोदीरणालक्षणं व्यापकं निवर्तमान स्वव्याप्यं कवलाहारमपि निवर्तयति व्याप्यनिवृत्ती व्यापकनिवृत्तेरावश्यकत्वात्।नच वेदनीयो-| दयवत्केवलिनां वेदनीयोदीरणापि नवत्येवेति वाच्यम् तस्या निषित्वात् तथा च कर्मस्तवे देवेन्सूरयः-"उदउबुदीरणया परमपमत्ताइ सगगुणेसु । एसा पयमि तिगुणा वयणी आहारजुगल थीतिगं । मणुआन पमत्तता अजोगि अणुदीरगो जयवं ॥१॥" सातासातमनुजायुषां हि प्रमादसहितेनैव योगेनोदीरणा जवति नान्येनेत्युत्तरेषु न तऽदीरणेति तट्टीकायाम् । तथा जोक्तुमिठा बुजुक्षेति बुजुदाया श्वारूपत्वेन सकलमोहध्वंसवत्ययोगात्तत्कार्यमपि कवलाहारखवणं न
दरसा पयमि तिगुणा वेयणी आहारामनोदारणा जवति नान्येनेत्युत्तमाम कवलाहारखाणं न ।
॥५४॥
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संभवति । तथा यत्राहारस्तत्र निशा यत्राहारो न जवति तत्र निषापि न जवतीत्यन्वयव्यतिरेकाच्यां निजाया आहारकार्यत्वावधारणात्केवलिनि कवलाहारान्युपगमे नित्राप्यापद्येत तस्मात्सार्वश्यस्य कवलाहारव्यापक कारणकार्यविरोधित्वात्केवलिन कवलाहारो नान्युपगम्य इति पूर्वपः ॥ इति ॥ ५ ॥ अथैतदेव विवृत्य दूषयति
तदप्यसत्तस्य वेद्योदीरणं व्यापकं न यत् । दर्शनावरणी निद्रा बुजुदा मोह एव च ॥ ६ ॥
टीका–यत्तावुक्तं “सार्वइयेन सह कवलाहारव्यापककारणकार्याणि विरुध्यते ततो न तेषां कवलाहार" इति तत्ख| स्वनुहरते नपुंसकादपत्यप्रसवमनोरथम् । यतो यत्र कवलाहारस्तत्र सातावेदनीयोदी रणमिति न व्याप्तिः विषमिश्रितमोदकनक्ष्णेन व्यजिचारात् । अथ यदि वेदनीयोदी रणेन व्याप्तिः स्यावद्मस्थकवलाहा रित्वस्यैवास्तामन्यथा केवलिनस्तन्निवृत्तौ तद्व्याप्यानां गतिस्थिति निषद्योपदेशदानादीनामपि निवृत्तिः स्यात् । अथ कवलाहारात्केवलिनां सातावेदनी योदी रा कथं न स्यादिति चेत्तजन्यसुखानुत्पत्तेः श्रथ तदपि कथं नोत्पद्यत इति चेत्तत्सुखस्य मतिज्ञानसाध्यत्वात्केवलिनां च तद्नावादिति ब्रूमः । ननु तर्हि कवलाहारेण किं कर्तव्यमिति चेत् कुदनोपशम एवेति न व्यापकविरोधः । नापि कार्यकारणविरोधः यतो निशा दर्शनावरणस्यैव कार्यमिति जगवति तदजावेनैव तदद्भावः बुजुदा चेवालक्षणो मोह एव स च न कवलाहारं प्रति कारणं किं त्वजिलापमात्रं प्रति तयोः कवलाहारकार्यकारणत्वं कल्पयन्मार्गाष्टोऽसीति समासार्थः । | व्यासार्थस्त्वयम् - जो नग्नाटमतानुयायिन् “कवलाहारः सार्वइयेन विरुध्यते" इति यत्तव संमतं तत् किमाहत्य १ पारं
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अध्यात्मि.
परीक्षा
॥२५॥
पर्येण २ वा । प्रश्रमपदेऽपि किं केवली कवलान्न प्राप्नोति १ उत प्राप्तानप्याहर्तुं न शक्नोति २ शक्तोऽपि वा विमलकेवलालोकपलायनशंकया नाहरति३ । नाद्यन्तिीयौ अन्तरायकर्मणः समूलका कषणात् । न च लाजान्तरायदयोपशम एव लाजप्रयोजकः लालान्तरायदयस्य तु शक्तिरूपमेव कार्य न तु व्यक्तिरूपमिति तत्रापि योगक्षेमसाधारण्यात् तस्माद्यथा दानान्तरायदयेऽपि दानं दातुं शक्यते तदत्रापीति न कोऽपि दोषावकाशः अन्यथा नवस्थ सिध्योरन्तरासंजवात्। अन्तरादयस्य तु दानादौ विघ्नानाव एव फलम् । तथा चाहुर्जिननगणिक्षमाश्रमणाः-"दितस्स लतस्स नुजंतस्स व | जिणस्स एस गुणो । खीणंतरायगत्ते जं से विग्धं न संजव १ त्ति” ॥ नापि तृतीयं तत्र हि कवलाहारविरोधि व्यापक | १ कारणं २ कार्य ३ सहचरादि । वेति पक्षचतुष्टयमुपतिष्ठते । तत्र नाद्यः पदः सुन्दरः कवलाहारस्य हि व्यापकं । शक्तिविशेषादरकन्दराकोणे क्षेपः स च सार्वइये सुतरां संजवी वीर्यान्तरायकर्मणः समूलमुन्मूलितत्वात् । न च वेदनीयोदीरणलदाणं व्यापक विरुध्यत इति वाच्यम् तस्या गतिस्थितिनिषद्योपदेशदानादीनामपि व्यापकत्वापत्तेषुष्परिहरत्वात् तस्माद्मस्थकवलाहारित्वस्यैव वेदनीयोदीरणाया व्यापकत्वं युक्तिमत् । न चाहारसंझया सह विरोधः प्रोन्नावनीयः लोमाहारस्याप्युब्जेदापत्तेः । यतो यत्र कवलाहारित्वं तत्राहारसंझेति व्याप्तिसनावात्कवलाहारव्यापकत्वमाहारसंज्ञाया मन्यसे तत्र वयं पृचामः किमर्थ कवलपदोपादानं किमेकेन्ज्यिादिषु व्यनिचारादाहोश्विजिनानां लोमाहारस्याप्युवेदापत्तेः नाद्य- स्तेषामपि सूक्ष्मरूपसंझानिधानात्तथा चार्षम्-"आहारजय परिग्गह मेहुण तह कोहमाणमाया य । लोजो लोगो हो दस सप्मा सबजीवाणं ? त्ति” ॥ यत्तु जगवत्यां-"तेसिणं जीवाणं नो एवं तक्काइवा सम्मावा पलाइवामणे वा वई वे"
॥५५॥
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त्याधुक्तं तद्दीर्घकालिकीहेतुवादोपदेशिकीदृष्टिवादोपदेशिक्यन्यतमनिषेधपरम् । तथा च चतुश्चत्वारिंशत्तमघारे प्रवचनसारोछारे हेतुवादोपदेशिकीव्याख्यानावसरे सिघसेनसूरयः-"अत्र च निश्चेष्टा धर्माद्यमितापेऽपि तन्निराकरणप्रवृत्तिनिवृत्तिविरहिताः पृथिव्यादय एवासंझिनो जवन्तीति” । तथा संग्रहणीवृत्तावपि “ठात्र पंचण्ह मोहसन्निति पंचानां । पृथिव्यादीनामोघसंझा वृत्यारोहणाधनियायरूपौघसंज्ञा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतीनामाहारादिसंझोपलक्ष्कमोघसंज्ञामात्रमेव न दीर्घकालिक्यादिसंज्ञानयमित्यर्य” इति देवन्नप्रसूरयः प्राहुरिति वहु वक्तव्यमेतधिस्तरजयानेह तन्यते । अत्र कश्चिद्वितीयपझोपक्षेपदीयाददो दिगंवरमिनः प्रत्यवतिष्ठते । स एवं प्रष्टव्यः किं तव शिवजूतेः कवलाहारेणापराधं यदाहारसंझायास्तुल्येऽप्युजयव्यापकत्वे कवलाहारमेव निषेधयामास । तस्मादेतत्सर्व उद्मास्थकवलाहारित्वस्यैव व्यापकम् अन्यथा लाघवात्कयक्षपदानुपादानेनाहारसंझाया आहारित्वस्यैव व्यापकत्यसिम्खी केवलिनां लोमाहारस्याप्युवेदापत्तिः। नापि कारणविरोधः यतस्तदपि किं बाह्यं विरुध्यत आन्यन्तरं वा बाह्यमपि कवलनीयं वस्तु पात्रादिकं वा । नाद्यः प्रमा-2 गालावात् । अय सार्वयं कवलनीयवस्तुविरुधमस्मदादिज्ञानातिरिक्तज्ञानत्वादित्यस्त्येव प्रमाणं तन्न त्वज्झानेनैव व्यनिचारात् सावश्यं न कवलनीयवस्तु विरुझानत्वादस्मदादिज्ञानवदित्यनेन सत्प्रतिपदत्वाच्च । नापि दितीयस्तस्यानुपदमेव निराकरिष्यमाणत्वात् । आन्यन्तरमपि न तावत्तजसशरीर विरुध्यते तवाप्यनजिमतत्वात् । नापि कर्म तदपि किं घात्यघाति वा नाद्यो झानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां शानदर्शनावरणदानाद्यपायमात्रचरितार्थत्वात् । नापि मोहोऽग्रे निराकरिष्यमाणत्वात् । अयाघाति कर्म तत्कारणं विरुध्यत इति यदि तिीयपदं कदीकुरुषे तदा वन्ध्यातनयकंठे गगनकुसु
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अध्यात्मि.
परीक्षा
॥५६॥
ममालामारोपय तथाविधाहारपर्याप्तिनामकर्मोदयवेदनीयोदययोस्त्वयापि संप्रतिपन्नत्वात् । नापि कार्य सार्वइयेन विरोधमधिरोहति यतस्तत् किं निता वा १ र्यापथो वा विसूचिकादिव्याधि, ३ पुरीषादिजुगुप्सितं वा ४ रिरंसा वा ५ रस-1 नेन्जियोनवमतिझानं वा ६ परोपकारणान्तरायो वा अन्यघा । नाद्यस्तस्या दर्शनावरणकार्यत्वात् नगवति तु तदनावादेव तदनावः कवलाहारस्तु घटं प्रति रासन श्वान्यथासिद्धः । न वितीयो गमनादावपि समानकदत्वात् । न तृतीयो हितमिताहारान्यवहारात् । नापि तुर्यस्तत्किं स्वस्यैव वा परस्य वा न प्रथमो जुगुप्सामोहनीयकर्मणो निर्मूलितत्वात् न पितीयोऽहतां हि आहारनीहारौ मांसचक्षुषामगोचराविति सहजातिशयप्रत्नावेणैव तदनावात् अन्यथा सकलसुरासुरनरपरिवृढसहस्रसंकुलायामासीनस्य जगवतो नाग्यमपि कुतो न जुगुप्साहेतुरिति सामान्यकेवलिनिस्तु विविक्तस्थले तत्करणाद्दोषानावः । नापि पंचमो मोहनीयकर्मणः समूलनिर्मूलनात् । नापि षष्ठो जानुदघ्नाकीर्ण विकचविचकिलमन्दारपुनरीकचंपकप्रनृतिकुसुमप्रकरप्रवरपरिमलसंबन्धेन घ्राणेन्धियज्ञानवत्तावन्मात्रेण रसनेन्यिज्ञानानुदयादचकुर्दर्शनमेव तत्र कारणमिति निष्टंकयामः । नापि सप्तमस्तृतीययाममुहूर्तमात्र एव जगवतां नुक्तेः शेषमशेषकालमुपकारावसरात् । नाप्यष्टमोऽनिर्वचनात् । नापि सहचरादिविरोधः यतस्तत् किं उद्मस्थत्वमन्यघा । नाद्योऽस्मदादौ तथादर्शनात् तत्साहचर्यनियमान्युपगमेऽघातिकर्मणामपि तत्सहचरं स्यात् तथा च केवलिषु कवलाहारानाववत्तदनावोऽप्यन्युपगन्तव्यः स्यात् । अन्यत्तु करवस्त्रचालनादि नवति तत्सहचरं न तु केवलित्वेन विरुधमिति । सर्वमेतच्छ्रीजैनचिंतामणिरत्नाकरावतारिकायां कुएणधियां सुझेयमिति ॥ ६॥ पुनरपि तत्कारणविशेषविरोध शंकते
॥५६॥
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पात्राजावाट्यानविघ्नान्मोहानावादवृद्धितः। परमौदारिकांगानां ननु नाहारसंचवः ॥ ७॥ टीका-ननु परमौदारिकांगानामस्मदाद्यपेक्ष्या विशिष्टशरीराणां केवलिनां "क्वचित्सामान्यशब्दा अपि विशेषतात्पर्यवशाविशेषवाचका” इति न्यायादाहारसंज्ञवः कवलाहारोपपत्तिने नवति । हेतुगर्न चेदं विशेषणं तेन यत्रौदारिकशरीरधारिपुरुषत्वं तत्र कवलाहारित्वमिति व्याप्तिसंनवेऽपि केवलिनस्तविपरीतत्वसाधको हेतुः सूचितो जवति । तथा कवलाहारकारणास्मदाद्यौदारिकशरीरस्य सार्वइयेन सह विरोधश्चेति कारण विरोधः । पुनः कस्मात् ? पात्रानावात् पात्रसन्नावे हि मूठयावश्यं नवितव्यमिति क्षीणमोहेन जगवता कथं तदाणीयमित्यपि कारणविरोधः । पुनः कस्मात् ? ध्यानविघ्नात् न हि कवलनीयवस्तूपत्नोगसमये ध्यानं ध्यातुं पार्यत इति कार्यविरोधः। पुनः कस्मात् ? मोहानावात् आहारो हि बुनुदापूर्वकः बुनुका चाहारविषयप्रीत्यात्मिका मोहनीयप्रकृतिविशेष एव मोहश्च नगवता समूलकाषं कषित इति कारणविरोधः । पुनः कस्मात् ? अवृद्धितः वृष्ट्याजावादित्यर्थः परमौदारिकं हि शरीरं न चीयते न चोपचीयते कवलाहारान्युपगमे त्ववश्यमेतऽपचयं प्राप्नोतीति कार्यविरोधः । तस्मात्कार्यकारणविरोधात् केवलिना कवलाहारो न प्रामाणिक इति । क्षपणकमतानुयायिनामाशय इति ॥ ॥ अथैतन्त्रोकष्येन निरस्यति
अंगवत्पात्रधरणेऽप्यप्रमत्तस्य न दतिः । गतिवत् स न मोहोत्थो न च ध्यानं तदेष्यते ॥ ७॥ पुजलोपचयाधिस्त्वौदारिकशरीरिणाम् । जिनानां हि नवेत्तेन नग्नं नग्नाटनाटकम्॥णायुग्मम्॥
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अध्यात्मि
॥ ५७ ॥
टीका - अप्रमत्तस्य मूरहितस्य शरीरवत्पात्र धरणेऽपि न कोऽपि दोषः । यथा पात्रं मूर्गजनकमेवं शरीरमपि मू| जनकं सुप्रतीतमेव । ततश्च शरीरे यदि न मोहस्तर्हि पात्रादावपि कौतस्कुत इति न पात्रादिकारण विरोधः । श्रथ मोह| लक्ष्णकारण विरोधं परिजिहीर्षन्नाह - गतीति स कवलाहारो मोहोत्थो मोहजन्यो न जवति गत्यादिवत् कवलाहारो हि अस्मदादिषु मोहपूर्वक एव दृश्यत इति कृत्वा केवलिनि तदजावोऽन्युपगम्यते । तथा च गत्यादीन्यपि श्रस्मदादिषु मोह| सहकृतान्येवोपलभ्यन्त इति केवलिनो मोहाजावेन तदभावस्याप्यशक्यपरिहारत्वात्कुतस्तीर्थप्रवृत्तिः । तथा यथा गत्यादिकर्मैव गत्यादीनां कारणं न मोहस्तथा तथाविधाहारपर्याप्तिनामकर्मोदय सहकृतो वेदनीयोदय एव कवलाहारस्य कारणं न मोह इत्यपि प्रतिपद्यताम् । तथा च श्री रत्नाकरावतारिकायां रत्नप्रजाचार्याः - " तथाविधाहारपर्याप्तिनामकर्मोदय वेदनीयोदय प्रबल प्रज्वल दौदर्य ज्वलनोपतप्यमानो हि पुमानाहारमाहारयतीति" न मोहलक्षण कारणविरोधः । अथ ध्यानविघ्न| लक्षणं कार्यविरोधं निरस्यति न चेति । तदा शैलेशीकरणात्प्राक् ध्यानं सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिसंज्ञकं शुक्लध्यानतृतीयपादलक्षणं | नेष्यते नान्युपगम्यते सैधान्तिकै रिति शेषः इति न ध्यानविघ्नलक्षणकार्यविरोधः । अथ चतुर्थपंचमपदे' दूषयति--पुजलेति । शरीरस्य हि वृद्धिः पुजलोपचयानवति । न चाहाराजावादेव तदद्भाव सिद्धिरिति अन्योऽन्याश्रयापातात् तस्माद्वृचिलक्षण| कार्यविरोधोऽपि न जवति । तथौदा रिकशरीरिणामित्येतेन तदभिमतं परमोदारिकत्वं निरस्तं । तन्निरासस्त्वग्रे स्फुटीक रिध्यते । तदेवं पूर्वोक्ता दिगंबर विकल्पाः श्वेतांबर सिद्धान्तवचनैरत्यंतं कदर्थिताः क्षणमप्युव सितुमशक्ताः स्वयमेव पंचत्वं
१ पक्षौ
परीक्षा.
॥ २७ ॥
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प्राप्ता इति । नग्नः सन्नटतीति नग्नाटः पणकस्तस्य नाटकमिव नाटकं प्रतिझातत्यागादप्रतिज्ञातोपादानाच्च चापल्याकुलं| पूर्वपदवचनं जग्नं निरस्तमिति श्लोकष्यसमासार्थः व्यासार्थस्त्वयम्-यत्तावदिगंबराः सार्वइयेन सह पात्रादिविरोधं प्रोन्नावयन्ति तत् किं स्वरूपमात्रेण वा १ ममकारकारणत्वाघा २ उद्मस्थसंयतत्वेनापि विरोधित्वाघा ३ जुगुप्साहेतुत्वामा । आचेलक्याघा तत्सनावे केवलानुत्पत्तेर्वा ६ आत्मना सहासंबकत्वाधा g अन्यस्माघा इति । तत्राष्टौ विकटपा उपतिष्ठते । तत्र नाद्यः पक्षः सुन्दरः जगवतामर्हतां पाणिपात्रत्वेन केवलज्ञानोत्पत्त्यनंतरमपि तत्सनावस्यानयवादिन्यविवादास्पदत्वात् । १। नापि दितीयः शरीरसन्नावेऽपि तनावप्रसंगात् । अथ दीपमोहस्य नगवतो न शरीरे ममत्वसंजय इति चेत्तदितरत्रापि तुट्यम् अस्मदादिषूलयसन्नावेऽपि तनावदर्शनात् तस्मात्पात्रत्वावचिन्नस्य ममकारकारणत्वे मानानावान्मूर्गसहकृतस्यैव तस्य ममकारकारणत्वम् ।। नापि तृतीयः यतस्तेनापि किं स्वरूपमात्रेणैव विरोधः १ ममकारकारणत्वाचा २ जिनानुपदिष्टत्वाघा ३ परिग्रहरूपत्वाघा ४ नाद्यस्तवानिमतस्य करपात्रित्वस्याप्यनुपपत्तेः। न दितीयः
तस्य समनन्तरपक्षप्रहारेणैवोपक्षीणत्वात् । अथ पात्रस्यादानमोचनादौ मोहस्तर्हि उत्थानोपविशनादावपि स कुत्र गतः।। केनापि तृतीयः तस्य सिद्धान्तेऽनुझातत्वादेव । तथा चागमः--"जं पि वयं च पायं वा कंबलं पायपुरणं । तं पि संजमल
घा धारंति परिहरंति य ॥१॥" श्रीदशवकालिके न च कारणिकमिदमसमसाहसवतास्मदादीनां धर्ममनुचितमिति | वाच्यम् आहारस्यापि कारणिकत्वेन तद्रहणस्याप्यनुचितत्वापत्तेः तथा चार्षम्-उहिं गणेहिं समणे निग्गंथे आहारमाहारेमाणे नाश्क्कम तंजहा-वेयणवेयाववे इरियाए अ संजमाए । तह पाणवत्तियाए पुण धम्मचिंताए ति ॥
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परीका.
अध्यात्मि.
॥५
॥
बहिंति कंठ्यम् । आहारमशनादिकमाहारयन्नन्यवहरन्नातिक्रामत्याज्ञां पुष्टालंवनत्वात् अन्यथा त्वतिक्रामत्येव रागादिनावात् । तद्यथा-"वे" गाहा कुबेदना १ वैयावृत्त्यमाचार्यादिकृत्यकरणं २ वेदनवैयावृत्त्यं मुंजीत वेदनोपशमनार्थ वैयावृत्त्यकरणार्थ २ वेति नावः । ा गमनं तस्या विशुर्युिगमात्रनिहितदृष्टित्वमार्याविशुधिस्तस्यै याविशुद्ध्यर्थम् ।। इह च विशुद्धिशब्दलोपादीर्यार्थमित्युक्तम् । बुनुदितो हीर्याशुझावशक्तः स्यादिति तदर्थमिति । चः समुच्चये । संयमः प्रेक्षोत्प्रेक्षाप्रमार्जनादिलक्षणस्तदर्थ । तथेति कारणान्तरसमुच्चये । प्राणा उचासादयो बलं वा तेषां तस्य वा वृत्तिः पालनं | तदर्थ प्राणधारणार्थमित्यर्थः । षष्ठं पुनः कारणं धर्मचिंतायै गुणनानुप्रेक्षार्थमित्यर्थः । इत्येतानि पट कारणानीति । तस्मात् कारणिकमपि चेदाहारग्रहणं युक्तं तर्हि पात्रादिरक्षणमपि संयतानां कथमयुक्तमिति मुधा शिवजूतिना विप्रतारितोऽसि । नापि चतुर्थः मूर्गविषयस्य संयमोपघातिन एव वस्तुतः परिग्रहरूपत्वात् अन्यस्य तु शरीरस्येवातथारूपत्वात् । तथा चागमः-"न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताणा । मुन्डा परिग्गहो वुत्तो इय वुत्तं महेसिणा ॥१॥ इति" श्रीदशवै. कालिके तथा-"तम्हा किमत्थि वत्थु गंथो गंथोव सबहा लोए । गंथो वम गंथो मुखममुखाइ निन्बय ॥१॥ वत्थाई तेण जं जं संजमसाहणमरागदोसस्स । तं तमपरिग्गहोच्चिय परिग्गहो जं तवयारी ॥२॥” तस्मात् किं नाम तहस्त्वस्ति लोके यदात्मस्वरूपेण सर्वथा ग्रंथोऽग्रंथो वा । नास्त्येवैतदित्यर्थः । ततश्च यत्र वस्त्रपात्रदेहाहारकनकादौ मूर्ग समुत्पद्यते तन्निश्चयतः परमार्थतो ग्रंथः । यत्र तु सा नोपजायते तदग्रंथ इति । एतदेव व्यक्तीकरोति “वत्थाइ तेणेति" शेषं सुगम-IN
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मित्याटिकिंच पात्रादिकं विना यतीनामादाननिदेपणासमितिपारिष्ठापनिकासमिती कथं जवतः यतो वखपात्रादिधर्मोपकरणमुपदधत एव ते जवतः । यत उक्तम्-"होवहोवग्गहिरं मंगं सुविहं मुणी । गिन्हंतो निरिकवंतो वा पलंजिक विहिं ॥१॥ चरकुसा पमिलेहित्ता पमजिक जयं जई । आइज निरिक विजा वा हा वि समिए सिया। ॥२॥ इति" तया-"उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाणजखिअं । आहारं नवहिं देहं अर्म वा वितहाविहं ॥१॥ विविन्ने दरमोगाढे नासन्ने बिलवकिए। तसपाणबीयरहिए उच्चाराणि वोसिरे ॥२॥” इति श्रीउत्तराध्ययने २४ । तथा च समि त्याद्यपयुक्तपात्रादिधर्मोपकरणधरणं संयतानामुचितमेव । ननु तर्हि तीर्थकृतामपि पात्राद्यनावेन समितिपंचकाद्यन्नाव आपद्यत इति चेन्न अनिष्पाणित्वप्रतिलब्धिनाजां तेषां पात्राद्यन्नावेऽप्यसमितीनामन्नावेन तत्प्रतिपक्षनूतानां समितीनामेव सनावात् अन्येषां तु पात्रानावेन नोजने क्रियमाणे स्निग्धग्धादिबिंदूनामधःपातात् तगंधाकृष्टानां समुदितानां पिपीलिकादीनां कस्यचित्पादादिन्यासेन कृतान्तसदनप्राप्ती कथं न तुन्यं कृतान्तः कुप्यतीत्यलमतिप्रसंगेन । ३ । नापि चतुर्थः अनन्तशोऽशुचिनावापन्नमपि पात्रं यतो न जुगुप्साहेतुः वर्तमानपर्यायात्मकस्यैव प्रामाणिकत्वानगवतो जुगुप्सामोहनीयकर्मणः वीणत्वाच्च । ४ । नापि पंचमः पात्रविषयकलब्धिरहितानां वस्त्रजन्यकार्यविषयलब्धिनाजां च जिनकटिपकानां सत्यप्याचेलक्ये पात्रधारित्वस्यास्माकमनिमतत्वात् । किं च वस्त्रमपि चेत् सार्वइयेन विरोधमधिरोहेत्तर्हि कस्यचिदाक
१ आसनादीनि संवीक्ष्य प्रतिलिस्य च यत्नतः । गृह्णीयानिक्षिपेद्वा यत्सादानसमितिर्मता ॥ १ ॥ कफविपुण्मलप्राय निर्जतुजगतीतले । यत्वाद्यदुत्सृजेत्साधुः सोत्सर्गसमितिर्मता ॥ २॥ इतियोगशास्त्रे । २ न पुच्चारप्रस्रवणादीनां पात्रं विना परिष्ठापनं भवतीत्येतेनापि पात्रग्रहणमाक्षिप्यत एव
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3
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परीक्षा.
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अध्यात्मि. स्मिकचीवरसंबंधेनोत्पन्नमपि केवलज्ञानं विलीयेत सहानवस्थायित्वस्यैव विरुषत्वलदाणात् । यथा दूरीकृत्यापि तिमिर
निकुरंवं सकलनुवनमंझलं प्रकाशयन् मार्तममंगलप्रकाशो मुर्दिनेनानियत इति । न च उद्मस्थानामपि संयतानां वस्त्रं ॥ एए॥
नधर्तुमनुचितमिति कुतो न केवलिनामपीति वाच्यम् एतस्य पात्रविरोधनिराकरणेनैव निराकृतकटपत्वात् । न च "जिताचेभलपरीषहो मुनि" रिति वचनश्रवणात्तेषां वस्त्रधरणं न युक्तिमत् एवं हि कुत्परीषहविजयस्याप्याहारानावेनैव साध्यत्वा
दिगंबराणां व्रतग्रहणानंतरमेव यावजीवमनशनमायातम् । तस्माद्यथानेषणीयत्नक्तत्याग एषणीयोपत्नोगे च कुत्परीषहविजयः एवमचेलकपरीषहविजयोऽप्येषणीयवस्त्रपरिनोगे न तु सर्वथा तदनुपनोगेनेति बहुवक्तव्यमेतविस्तरजयान्नेह तन्यते । ५ । पष्ठोऽप्यन्नित्तिचित्रार्पितः तथाहि पात्रस्य केवलज्ञानोत्पत्तिप्रतिबंधकत्वं किं स्वरूपमात्रेण ममकारकारणाहा। तत्र नाद्यपक्षण तत्साधनमन्धायालेख्यदर्शनमिव सहृदयहृदयचमत्कारकारणम् अर्हता पाणिपात्रत्वेन केवलज्ञानानुत्पत्तिप्रसक्तेः । नापि वितीयः शरीरसन्नावेऽपि तदनावप्रसंगादित्यायेमितमपि किं न बुध्यसे । ५। नापि सप्तमः नाममलादीनामपि सार्वझ्यविरोधित्वप्रसक्तेः अथ तेनापि सह संयोगः संबन्धो वर्तत एवेति चेदत्रापि धार्यधारकलावसंबंधं कथं न कदीकुरुषे । ७ । नाप्यंत्यस्तदनिर्वचनादिति सुव्यवस्थितं पात्रलाणकारणविरोधनिराकरणस्थलम् । अथाहारस्य मोहकार्यत्वं |निराक्रियते । तत्र नग्नाटस्यायमाशयः-"कवलाहारस्तावन्मोहजन्यः तथा च वीणसकलघातिकर्मणां केवलिनां विचार्य|माणोऽयं कथमुपपद्यत इति” । अत्र वयं वदामः-मोहः किं बुनुकालदाणः कारणं सामान्येन वा आद्येऽपि किं सर्वत्रापि अस्मदादावेवेति वा । नाद्यः प्रमाणानावात् । अथ क्रिया श्वापूर्विका क्रियात्वात् संप्रतिपन्ननुजिक्रियावदित्यनुमानमेव
॥
॥
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वात् । किं तर्हि यस्योपविष्टस्यो मूढमतिः काशकुशावलंबननादकमास्तामिति चत्तथापा
तत्साधकमस्तीति चेन्न सुप्तमत्तमूर्वितादिक्रियानिळ जिचारात् । न च स्ववशेति विशेषणोपादानेऽपि साध्यासिधिः पदतावदकावविन्नायां सुप्तमत्तमूर्वितादिक्रियायां स्ववशक्रियात्वस्यावृत्त्या हेतो गासिछत्वात् । नन्वेवमनुमानमात्रोवेदापत्तिः पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वात् महानसवदित्यत्र धूमवत्त्वस्यापि हेतोः पदतावच्छेदकावचिन्नवृत्तित्वालावेन जागा मित्वापत्तेः । तत्र धूमवत्पर्वतत्वं पदतावच्छेदकमिति चेदत्रापि स्ववशक्रियात्वमेव पदतावच्छेदकमास्तामिति चेत्तथापि केवलिगतस्थितिनिषद्यादिजिय॑निचारः । अत्र कश्चिजाढकर्मा मूढमतिः काशकुशावलंबनेन शंकते-ननु गत्यादयः केव-| लिनां न जति मोहसहकृतत्वात् । किं तर्हि यस्योपविष्टस्योर्ध्वंदमस्य वा यदा केवलज्ञानमुत्पन्नं ततः प्रति स केवली | उपविष्टः सर्वदमो वा स्वायुःपरिसमाप्तिं यावधियति तूलवज्ञाम्यन्नेवावतिष्ठते न चैवं तस्य काचिदना संजवति मोहाजावेन वेदनीयोदयस्य निःसत्ताकत्वादिति स तावत्प्रत्यक्षमृषावादी सर्वविसंवादी संवादयितुमप्यनहः तीर्थप्रवृत्तेरप्युन्जेदापातात विहायोगतिनामकर्मोदयादिवैयर्थ्यापाताच्च । यत्तु तेन वेदनीयोदयस्यनिःसत्ताकत्वमुक्तं तदपि मन्दम् अनागमिकत्वात् श्रागमे हि अत्यन्तोदयः सातस्य केवलिन्यनिधीयते । तथा चोक्तम्-"जं च कामसुहं लोए जं च दिवं महासुहं । वीयरागसुहस्सेयं एंतजागपि बग्घई” ॥१॥ इत्यादि । सातासातयोश्चान्तर्मुहूर्तमानतया यथा सातोदयः एच-1 मसातोदयोऽपि । न चैवं यानंतसुखं तथानंतपुःखमपि केवलिनामापतितं सातोदयस्य प्रशमरसपारंपरतंत्रत्वात् असातोदयः पुनः कुदादि कवलाहारादिचिकित्सा) रोगादिवेद्यस्तु कादाचित्कः । यत्तु केवलिनां वेदनीयं कर्म जरवस्त्रारमिति प्रावाहिकं वचः तदपि सातवेदनीयवन्धमात्रपरमिति सूत्रकृतांगवृत्तिकृतोनिप्रायमनुसृत्य व्याकुर्मः । वितीये तु सिद्ध नः
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परीक्षा.
अध्यात्मिसमीहितम् न केवलिनामनपायं वेदनीयादि कारणिकस्य कवलाहारस्य सिद्धत्वात् । न हितीयः गत्यादीनामप्युच्छेदापत्तेः।।
तथा च यथा गत्यादिकर्मजनितं गत्यादिकं केवलिन्यन्युपगन्तव्यं तथा वेदनीयादिकारणिका नुक्तिरपि प्रतिपद्यतामिति कवलाहारस्य मोहकार्यतानिराकरणस्थलम् । अथ ध्यानविघ्नलक्षणकार्यविरोधं निराकरोति-न चेति । शुक्लध्यानं तावचतुष्पादम् । तथाहि । पृथक्त्ववितर्क सवीचारम् १ अपृथक्त्ववितर्कमवीचारम् २ सूक्ष्म क्रियमनिवृत्ति ३ समुबिन्नक्रियमप्रतिपाति ।। तबदणानि चामूनि-"सवितर्क सवीचारं सपृथक्त्वमुदाहृतम् । त्रियोगयोगिनः साधोराद्यं शुक्लं सुनिमलम् ॥ १॥ श्रुतचिंता वितर्कः स्याधीचारः संक्रमो मतः । पृथक्त्वं स्यादनेकत्वं नवत्येतत्रयात्मकम् ॥२॥ स्वशुधात्मानुजूत्यात्मनावश्रुतावलंबनात् । अन्तर्जटपो वितर्कः स्याद्यस्मिंस्तत् सवितर्कजम् ॥ ३ ॥ अर्थादर्थान्तरे शब्दाचब्दान्तरे च संक्रमः। योगाद्योगान्तरे यत्र सवीचारं तमुच्यते ॥ ४ ॥ व्याव्यान्तरं याति गुणाद्याति गुणान्तरम् । पर्यायादन्यपर्यायं सपृथक्त्वं नवत्यतः॥५॥ अपृथक्त्वमवीचारं सवितर्कगुणान्वितम् । स ध्यायत्येकयोगेन शुक्लध्यानं वितीयकम् ॥६॥ निजात्मव्यमेकं वा पर्यायमथवा गुणम् । निश्चलं चिंत्यते यत्र तदेकत्वं विव॒धाः॥ ७॥ यध्वंजनार्थयोगेषु परावर्त विवर्जितम् । चिंतनं तदवीचारं स्मृतं सद्ध्यानकोविदः ॥७॥ आत्मस्पन्दात्मिका सूक्ष्मा क्रिया यत्रानिवृत्तिका । तत्तृतीयं नवेनुक्लं सूदमक्रियानिवृत्तिकम् ॥ ए॥ बादरे काययोगेऽस्मिन् स्थितिं कृत्वा स्वनावतः । सूक्ष्मीकरोति वा चित्तयोगयुग्मं सबादरम् ॥ १०॥ त्यक्त्वा स्थूलं वपुर्योगं सूक्ष्मवाचित्तयोः स्थितिम् । कृत्वा नयति सूक्ष्मत्वं काययोगं तु बादरम् ॥ ११॥ सुसूक्ष्मकाययोगेऽथ स्थितिं कृत्वा पुनः कृणम् । निग्रहं कुरुते सद्यः सूक्ष्मवाचित्तयोगयोः ।
॥६० ॥
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2॥१२॥ ततः सूक्ष्मवपुर्योगे स्थितिं कृत्वा दाणं हि सः। सूक्ष्म क्रियं निजात्मानं चिद्रूपं विंदति स्वयम् ॥१३॥ समनिन्ना क्रिया यत्र सूक्ष्मयोगात्मिकापि हि । समुचिन्नक्रियं प्रोक्तं तवारं मुक्तिवेश्मनः ॥ १४ ॥ इति गुणस्थानक्रमारोहे । तत्र च पूर्वपादध्ये ध्याते सति अग्रेतनपादयमप्राप्तस्यैव केवलज्ञानमुत्पद्यते तृतीयपादध्यानं तु शैलेशीकरणारंन एव भवति नार्वाक् । न च कवलाहारमनन्युपगन्नुन्निरपि तृतीयपादध्यानं तदानीं सुसाधं बादरकाययोगविरोधित्वात्तस्येति ध्यानविघ्न लक्षणकार्यविरोधनिराकरणम् । अथ शरीरवृधिलदाणकार्यविरोधं निराकरोति-पुजलेति । तत्र शरीरवृद्धिः सार्वइयेन || विरुध्यत इत्यत्र किं प्रमाणम् औदारिकशरीरमात्रनिष्ठत्वादित्यनुमानमिति चेत्तर्हि "मम माता च वन्ध्या चेति" न्यायः संपन्नः । यतः किं नामौदारिकशरीरमात्रनिष्ठत्वमौदारिकशरीरत्वावचिन्ननिष्ठत्वं तवृत्तिमत्त्वे सति तदितरावृत्तित्वं वा । नाद्यः पदः सुन्दरो यत एतेन सार्वझ्याविरुष्ठत्वमेव साध्यते न तु तपिरीतत्वम् । यत्खट्वौदारिकशरीरत्वावचिन्ननिष्ठ तत्केवलिशरीरनिष्ठमपि कथं न लवतीति हेतोविरुद्धत्वात् । न द्वितीयस्तस्याप्येतदर्थपर्यवसायित्वात् । न हि गोवृत्तित्वे सति गवितरावृत्ति गोत्वं गोत्वावछिन्ननिष्ठं न लवतीति वक्तुं पार्यते । अथ परमौदारिकनिन्नौदारिकशरीरमात्रनिष्ठत्वं विवक्तिमिति चेन्न तत्रापि जिन्नत्वं यदि सामान्यतोऽन्योऽन्यानावप्रतियोगित्वं तर्हि स्वरूपासिद्धिः । अवस्थानेदप्रयोज्यजेदप्रतियोगित्वं चेत्तथापि गत्यादिनिर्दशननखादिनिश्च व्यभिचारः। अथौदारिकशरीरवृद्धिः सार्वझ्यविरुझा आहारसंज्ञासमानाधिकरणत्वादिति चेदौदारिकशरीरेणैव व्यभिचारः । कवलाहारजन्यत्वादित्यपि न साधकम् एकेन्छियादिशरीराणां कवलाहारजन्यवृद्ध्यदर्शनेन नागासिछे दृष्टान्तीकृतानां निजादीनां तकन्यत्वासिझेर्विपरीतबाधकतर्कालावेनाप्रयो
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अध्यात्मि.
परीक्षा.
॥६१॥
जकत्वाच्च । विपर्यये त्विदं प्रमाणम्-औदारिकशरीरवृद्धिःसार्वझ्यसमानाधिकरणा औदारिकशरीरविपाकिधर्मत्वात् । न च परमौदारिकत्वमुपाधिः सार्वझ्यसमानाधिकरणे गतिस्थितिनिषद्यादौ तदनावात् । सार्वइयं चात्र तथाविधसयोगिकेवलित्वावचिन्नं विवक्षितमतो न कश्चिद्दोषः । किं च नववर्षादारन्य पूर्वकोटिपर्यन्तं यदि केवलिनां शरीरं न वर्धेत तर्हि ते सर्वदा शैशवावस्था एव जवेयुरिति व्यवहारादपि किं न विनेति नवान् । ननु केयं रीतिर्यदलौकिक विचारे वृथैव लौकिकव्यवहारबाधः कटप्यत इति चेद्धांतोऽसि "पुग्लैरेव पुजलोपचय” इति वचनात्तथाविधकवलाहारपुखैरेव केवलिनां शरीरवृ- छिः संजवतीति सकलसैद्धान्तिकसंमतत्वादेतविचारस्य । यदप्यौदारिकलाणकार्यविरोधः प्रोनावितस्तदप्यविचारितकूप-| पतनकहपं यतो यदि परमौदारिकं नवदप्यौदारिकशरीरं सार्वइयेन विरोधमधिरोहेत्तर्हि बालकौमाराद्यवस्थाकुःस्थं तवापि शरीरं तावकज्ञानेन साध विरुध्येतेत्यहोवैदग्ध्यविलसितमायुष्मतः । तस्मादौदारिकशरीरं न सार्वक्ष्यविरुषम् परमी दारिकानन्यत्वात्तथाविधौदारिकनामकर्मजन्यत्वप्रतियोगिकान्योऽन्याजावानाधारत्वादित्यर्थः । न चैतदसिद्धम् अन्यथा | कायसप्तकत्वापत्तिप्रमुखानेकदूषणप्रसंगादिति श्लोकष्यार्थः॥ -ए॥ अथ कवलाहाराजावसाधनतया कल्पितं तदनिमतं परमौदारिकत्वं निराकरोति
परमौदारिकांगानां सप्तधातुविवर्जितः । तुक्तिं नापेक्षते कायस्तदसंजवबाधितः॥१०॥ टीका-परमौदारिकशरीरवतां सयोगिकेवलिनां सप्तधातुरहितः कायो जुक्तिं कवलाहारं नापेक्षते । कवलाहारेण हि धातूपचयः कार्यः स तु केवलिशरीरस्य धातुरहितत्वादेवासिधः । ततश्च कथं तेषां कवलाहारान्युपगमः प्रामाणिकः ।
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न खलु गगनारविन्दस्य प्रसिझमरीकातिशायि सौरज्यमनुमिमीति विचारचतुरा इति परेषामाशयस्तन्निरस्यति-तदिति । तत्पूर्वोक्तं पूर्वपदवचनं केवलिनां शरीरस्य सप्तधातुरहितत्वासिधेरेवाप्रामाणिकमिति समासार्थः । व्यासार्थस्त्वयम्-औदारिकशरीरं १ औदारिकोपांगं २ अस्थिरनामा ३ शुजनाम ४ शुनविहायोगत्य ५ शुजविहायोगती ६ प्रत्येक ७ स्थिर | शुजनामानि ए समचतुरस्रसंस्थानं १० न्यग्रोधसंस्थानं ११ सादिसंस्थानं १२ वामनसंस्थानं १३ कुजसंस्थानं १४ हुँमसंस्थानं १५ अगुरुलघुनाम १६ जनासनाम १७ नपघातनाम १७ वर्ण १ए गंध २० रस २१ स्पर्श २२ नामानि २३ निर्मा
नाम २४ तैजस २५ कार्मणे २६प्रथमसंहननं २७ फुःस्वरनाम श्७ सुस्वरनाम शए सुलगनाम ३० यशोनाम३१ आदेयनाम |३५ त्रस ३३ बादर ३४ पर्याप्तनामानि ३५ पंचेन्जियजातिः ३६ मनुजगतिः३७ जिननाम ३० सातावेदनीयं ३ए असातावेदनीय ४० मनुजायुः ४१ उच्चैर्गोत्र ४२ मित्येता विचत्वारिंशत्प्रकृतयः केवलिनामुदयमाश्रित्य प्राप्यन्ते । तत्र पनपट्टकीलिकामर्कटबंधकृतोऽस्थ्नां दृढरचनाविशेषो वज्रपननाराचसंहननं तत्सनावे च केवलिनां शरीरं कथं धातुवर्जितमिति वक्तुं पार्यते । अथ मतं तदलावेऽपि केवलिनां तकनकप्रकृतेरेवोदयः प्रतिपादित इति तदप्यज्ञानविलसितं तस्यास्तविपाकवेद्यत्वात् । अन्यौदारिकशरीरमपि किं नापह्नोति जवान् तत्रापि पूर्वोक्तयुक्तेरवतारात् । किं च केषांचिन्मते सप्त धातवः अपरेषां च मते दश धातव इति । तथा चाहुः श्रीहेमसूरयः स्वोपझयोगशास्त्रे-रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमऊशुक्राणि धातवः । सप्तैव दश चैकेषां रोमत्वक्स्नायुभिः सह ॥१॥ इति । तत्र चान्यतरनिषेधे विनिगमकाजावाजुनयप्रामाण्यस्वीकारे त्वक्स्नायूनामप्यनाव आपद्यत इत्यौदारिकशरीरस्यापि दत्तो जलाञ्जलिः । किं च जगवतां रुधिरामिषे
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अध्यात्मि.
परीक्षा.
॥६
॥
गोक्षीरधाराधवले इत्ययमतिशयः केवलज्ञानोत्पत्त्यनंतरं नवति न वा । श्राद्ये केवलिनां शरीरं निर्धातुकमिति पक्षः। काकनाशं पलायित इत्यात्मीय एव बाणो जवन्तं प्रहरति । तिीये तु चतुस्त्रिंशदतिशयवत्त्वानुपपत्तिः। किं च यया रसीनूतमाहारं रसासृङमांसमेदोऽस्थिमऊशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः सा तु तेषामपि विद्यत एवेति सिहं तेषां शरीरस्य धातूपष्टब्धत्वम् । न च देवानामपि शरीरस्य तथात्वापत्तिः, शरीरपर्याप्तिवैचित्र्यात् । किं च गझस्थ्येऽपि तेषां शरीरं निर्धातुकं धातूपष्टब्धं वा । आद्योऽनन्युपगमःस्थः । दितीयेऽपि किं घातिकर्मणामपगमात्तेपामपगमः कारणान्तराधा । नाद्य उबासगत्यादीनामप्युन्जेदापत्तेः । न च गत्युच्छेदोऽस्माकं मत एवेति वाच्यम् । शुनविहायोगत्यशुजविहायोगत्योरुदयसमर्थने वैयग्र्यापातात्, मुर्गतिकूपपातात्तु तवैव शुजगत्युच्छेदः। न द्वितीयस्तदनिर्वचनात् । कश्चित्तु-"समत्तंतिमसंघयण तिअगले बिसत्तरि अपुवे” इति वचनादन्तिमसंहननत्रिकप्रायोग्यानामस्थ्यादीनामष्टमगुणस्थानेऽपगमः । तथा-"रिसहनाराय ग अंतो" इति वचनावादशमगुणस्थाने वज्रर्षजनाराचवर्जशेषसंहननघ्यप्रायोग्यानामस्थ्यादीनामपगम इति पंचसंहननप्रायोग्यानामस्थ्यादीनामपगमात् केवलिशरीरस्य परमौदारिकत्वं मन्यते, स. तावन्मूर्खचक्रचक्रवर्ती, यतो योकस्यैव शरीरे षट् संहननानि नवेयुस्तर्हि तस्य वाचाटस्य वचनमवकाशं लनेत । यत्तु अष्टमगुणस्थाने त्रयाणां संहननानामनुदय उक्तः, घादशे च गुणस्थाने संहननष्यस्य । तेन तु प्रथमसंहननत्रयेणैवोपशमश्रेणिरारुह्यते । पकश्रेणिस्तु प्रथमसंहननेनैवेति सूचयाञ्चक्रुराचार्याः। तथा चोक्तम्-“पूर्वज्ञः शुधिमान् युक्तो ह्याद्यैः संहननैस्त्रिनिः। संध्यायन्नाद्यशुक्लांशं स्वां श्रेणी शमकः श्रयेत् ॥१॥” तथा-"तत्राष्टमे गुणस्थाने शुक्सम्यानमादि
॥६
॥
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मम् । ध्यात प्रक्रमते साधुराद्यमंहननान्वितः ॥१॥" इपकसाधुस्तत्राष्टमे गुणस्थाने शकुनामक प्रधानध्यान प्रवक्त्ववितर्कसप्रवीचारलक्षाएं वक्ष्यमाएं ध्यातुं प्रक्रमते कथंभूतः साधुराद्यसंहननान्वितो वज्रपंजनाराचनामकप्रथममंहननयुक्त इति गुणस्थानक्रमारोहे । तस्मादाध्यात्मिकानिमते परमादारिकत्वे निरस्ते केवलिनां शरीरं कवलाहारमय स्थातुं शक्नोति नान्यथा, प्रमाण वान जगवह स्थितिः कवलाहारपूर्विका, नगवदेहस्थितित्वात् , उझस्थावचिन्ननगहस्थितिवदिति । न च उद्मस्थावस्थाकृतकवलाहारोण सिझसाधनं उमस्थसंयतत्वावचिन्नदेहस्थितेरपि गृहस्थावस्थाकृतिकवता
हारेणेव कवलाहारपूर्वकत्वप्रसंगात् । न च धातिकमसहकृतत्वमुपाधिः, देवानां देहस्थितर्घातिकमसहकृतत्वेऽपिकवलाहापरपूर्वकत्वासावेन साध्यसमव्याप्तत्वाजावात् । एतेन जगवतो देहस्थितिराहारपूर्विका देहस्थितित्वात् अस्मदादिदेहस्थितिव
दित्यनेनाहारमात्रपूर्वकल्बसाधने कर्मलोकर्माहारान्युपगमात् सिसाधनं कवलाहारपूर्वकत्वसाधने च देवदहस्थित्यादिना व्यभिचाराध मनुष्यदेह स्थितित्वादमदादिवत् सा तत्पूर्विकेप्यते तर्हि तदेव सर्वदा निःस्वेदत्वाद्यत्नावः स्यात् । अस्मदादावनुपक्षन्धस्यापि तदतिशयस्य तत्र संजवे तुक्त्यजावलवाणोऽप्यतिशयः किं न स्यादित्यादिग्रंथमनिवपन्नुपासकाध्ययनटीकाकृविरकिंहा पराकुराः विपरीतबाधकतर्कसहकृतेन प्रकृतानुभानेनैव साध्यसिद्धी प्रतिवंदीग्रहणस्याकिंचित्करत्वातातथा यथा तीर्थकृतां निःस्वेदत्वातिशयःसार्वदिक एवं जुस्यनावातिशयस्यापि सार्वदिकत्वापत्तेयूकापरिजवनयात् परिधानं मुञ्चत व नग्नाटस्य त्रपापि किं न वाधत इति निर्दूषणानुमानसिद्धिः केवलिना कवलाहारः प्रामाणिक एवेति ॥१०॥ अथ कवलाहारप्रतिबंधकप्रतिवंदी निरस्यति
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अध्यात्मि.
परीक्षा.
॥६३॥
अप्रमत्तगुणस्थानां न जुक्तिश्चेत् कुतः परः । बंदीव प्रतिबंदीयं सिझान्तवचनस्य न ॥ ११ ॥ टीका-आध्यात्मिकाः किलेत्थमालपंति यत्सप्तमगुणस्थानवर्तितिः कवलाहारोन क्रियत इति तावत् सकलश्वेतांबरप्रवादः तदिदमस्माकमपि चेतस्सु न्याय्यमिति नाति। यतो निरालंबनधर्मध्यानध्यातुर्यद्यस्य व्यवहाररूपषमावश्यकादिक्रियापि नोपयुक्ता। तथा च गुणस्थानक्रमारोहे श्रीरत्नशेखरसूरयः-"इत्येतस्मिन् गुणस्थाने नो संत्यावश्यकानि षट् । सततध्यानसंद्यो । गाबुद्धिः स्वाभाविकी यतः॥१॥"इति। ततश्च धर्मध्यानापायजूते प्रमादहेतुनि कवलाहारादावपि प्रवृत्तिन युक्तैवेति उत्तरगुणस्थानेष्वपि सा कथंकारं संगबतइति पूर्वार्धेन प्रतिपादयति-अप्रेति । अप्रमत्तगुणस्थानां “पदैकदेशे पदसमुदायोपचारा"शुणेति | |पदं गुणस्थानपरं सप्तमगुणस्थानवर्तिनीत्यर्थः । चेद्यदि नुक्तिः कवलाहारो"नोक्त"इति शेषस्तर्हि पुरोऽग्रिमगुणस्थानेषु कुतो न कथमपि विशेषकारणानिर्वचनादित्यर्थः । अथैतस्य विचारक्षमता निराकुर्वन्नाह-नंदीति । इयं तव प्रतिबंदी नोऽस्माकं सिद्धान्तवचनस्य बंदीव दृश्यते । अस्मसिद्धांतस्याग्रेऽकिंचित्करमेतदिति समासार्थः । व्यासार्थस्त्वयम्-केवलिनो नुक्तिः समग्रसामग्रीत्वात् पूर्वनुक्तिव दिदमनुमानं सप्तमगुणस्थानवर्तिनानेकांतिक नवति हि तत्रापि पर्याप्तत्वं वेदनीयोदय श्राहारपक्तिनिमित्तं तैजसशरीरं दीर्घायुष्कत्वं चेति श्वेतांबरपरिकल्पिता समग्रसामग्री नुक्तिश्च न जवतीति तैरपि प्रतिपन्नम्। एवं च तुब्येऽपि सामग्रीसन्नावे सप्तमगुणस्थाने कवलाहारो नान्युपगम्यते त्रयोदशगुणस्थाने चान्युपगम्यत इति तत्र कया प्रकृत्या पुनरावृत्तम् । अथ यदि स्तोककालत्वात्तत्र कवलाहाराजावेऽपि न काचिदनुपपत्तिः त्रयोदशगुणस्थाने तु
॥६३॥
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किंचिदूनपूर्वको टिपर्यतं कथं तदजावे स्थातुं शक्यत इति विवदंति विवक्षाविचक्षणाः तदपि न नश्चेतसि समायाति । यतो यदि समग्रसामग्री सनावेऽपि सप्तमगुणस्थाने स्तोककालत्यविक्रया कवलाहाराजावः कयते तर्हि समानत्वात् पष्ठेऽपि गुणस्थाने तदजाव आपतितः । न च तत्र प्रमत्तत्वादाहारः सुसाधः घटकुटी न्यायेनास्मत्सिद्धान्तस्यैव श्रयणीयत्वापत्तेरिति पूर्वपदः । एवं प्राप्तेऽनिधीयते । यत्तावत्केवलिनां कवलाहारसाधकस्यानुमानस्यानैकांतिकत्वमुनावितं | तन्मन्दं प्रधानध्यानविरहसहकृतत्वस्य हेतोर्विशेषणात् । न चाहारसंज्ञारूपकारणाजावादेव सप्तमगुणस्थाने कवलाहाराचाव इति सयोगिकेवलिगुणस्थानेऽपि तदद्भावोऽन्युपगम्यतामन्यथाहारसंज्ञापि प्रतिपद्यतामिति वाच्यम् । एतस्य मनोरथमात्रत्वात् तथाहि श्राहारसंज्ञा किमाहारमात्रं प्रति कारणं कवलाहारमात्रं प्रति वा । नाद्यः केवलिनां लोमाहारस्याप्य| जावापत्तेः । द्वितीयेऽपि करवाहारमात्रं प्रति आहारसंज्ञायाः कारणता किमन्वयव्यतिरेकगम्या विधिगस्या वा । नायः यत्राहारसंज्ञा तत्र कवलाहार इत्यन्वयव्याध्यसि । "दस ना सवजीवाएं" तिवचनादे केन्द्रियादिव्वाहारसंज्ञायाः सत्वेऽपि कवखाहाराजावात् । नापि द्वितीयः तयाविधविधेरजावात् तस्मादाहारसंज्ञाया आहारा जिल्लामा प्रत्ये कारणत्वम् । न चानिलापः खलु प्रार्थना सा च यदीदमहं प्राप्नोमि तदा जन्यमित्याद्यकानुविधा । तथा चैकेन्द्रियादिषु अक्षरज्ञानाजावेन व्याध्यसिद्धिः । तेषामप्यव्यक्त्ताक्षरवानत्यानुज्ञातत्वात् । तथा चागम:-- "सजीकापियां अरकरस्स तो जागो निच्दुग्वामि विघ्इ सोविअ जड़ आवरेा तेलं जीवो अजीवत्तां पावेका" इति नंदीसूत्रे ।।
१ संज्ञायतेऽभिलष्यत आहारादिकमनया सा संज्ञा.
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अध्यात्मि
॥ ६४ ॥
तथा "बत्तमरकरं पुण पंचरहवि थीए गिचिसहिए । नाणावरणुदएणं वेंदियमाई कमविसोही ॥ १ ॥ व्याख्या - पंचानामपि पृथ्व्यादीनां स्त्यानर्द्धिसहितेन ज्ञानावरणोदयेनाव्यक्तं सुप्तमत्तमूर्तितादेरिवास्फुटं ज्ञानं वर्तते न सर्वथावृतम् । तत्रापि पृथ्वी कायिकानामत्यस्फुटं ततोऽप्यपकायिकतेजस्कायिकवायुकायिकवनस्पतिकायिकानां यथोत्तरं क्रमेण विशुद्धतरम् इदं चूर्णिकारवचनालिखितमित्यादि कल्पवृत्तौ पीठिकायाम् । तस्मादाहारसंज्ञायाः कवलाहारं प्रति न कारणत्व- । | मिति । नन्वाहारसंज्ञाया जावे कवलाहारवत् केवलिनां मैथुनसंज्ञाजावेऽपि कमनीयका मिनी सेवादिकमपि प्रसज्येतेति चेन्न, तत्कारणस्य मोहनीयकर्मणो निर्मूलकापंकषणात्, आहारकारणस्य तु वेदनीयोदयस्य प्रतिषेद्धुमशक्यत्वात् । न चाप्र| मत्तस्य जगवतः कवलाहारः प्रमादहेतुत्वादेव न कर्तुमुचितः शरीरसन्नावेऽपि प्रमादप्रसंगात् यत्पालनार्थं खलु प्रमादहेतुः कवलाहारो ग्राह्यस्तत्तु सुतरां प्रमादकारणमित्याने मितमेतत् । तस्मादियमाध्यात्मिकपरिकल्पिता प्रतिबंदी किंचित्करैवेति ॥ ११ ॥ कवलाहाराभावसाधकमनुमानमुपन्यस्य दूषयति
1
व्यनिचाराकुलं शुक्ललेश्यावत्त्वं प्रमत्तकैः । तद्विशिष्टमलेश्यत्वमसिद्धं चाप्रयोजकम् ॥ १२ ॥ टीका - केवलिनो न कवलाहारिणः शुक्कलेश्यावत्त्वादिदमाध्यात्मिकपरिकल्पितमनुमानं प्रमत्तः प्रमत्तकैः प्रमत्तगुणस्था - नवर्तिभिः " स्वार्थे कप्रत्ययः' व्यभिचाराकुलमनैकांतिकं यतस्तेषामपि “पन्नरस पमत्तंमी” तिवचनान्मिथ्यात्वाज्ञाना| संयमदेवनारक तिर्यग्गतिरूपषड्जावापगमे लेश्यापट्कवेद त्रिककपायचतुष्का सिद्धत्वमनुजग तिलक्षणानां पंचदशौदयिक
G
परीक्षा.
॥ ६४ ॥
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जावानां मन्नावे च शुक्लेश्यावत्वं संप्रतिपन्नं कवलाहारित्वं चापीति । तदेतदेवानुमानं विशिष्टं वेश्यांतरानहचरितवनति ।। डोपः अमिद्धमित्यर्थः । यतो येषां मते योगपरिणामो लेश्या तन्मते विधिकोटिः येषां च मते कपायनियंदो लेश्या तन्मते । निधनोटिरिति । अलेश्यत्वं च केवलिनो न कवलाहारिणः अवश्यत्वादित्यनुमानं त्वप्रयोजकं लोमाहारानावस्यापि साधकत्वादिति । संदिग्धासि त्वं च दूषणं पक्षध्येऽप्यवतरतीति वोध्यमित्यवयवार्थः । व्यासार्थस्त्वयम्-श्रीदयिकनावस्य । तावदेकविंशतिर्नेदाः "अन्नाणमसिकत्ता संजम लेसा कसाय गऽ वया । मित्रं तुरिएत्ति" वचनात्तत्र त्रयोदशगुणस्थान मनुजगतिशुद्धलेश्यासिनत्वरूपास्त्रयो जाबाः प्राप्यते । तथा च देवेन्सूरयः... चनगयाई इगवीस मिनि साणे य इति वीस चामिण विणामीले इगुणिसमन्नाणविरहेण ॥१॥ एसेव अविरयंमि, सुरनारगग विग देखे । सत्तरस दुति ते ञ्चिय लिरिगइए संजमाजावा ॥२॥ पन्नएस पमत्तंभि अपमत्ते आश्वसतिगविरहे । ते चित्र बारसमुक्केगलेसन दस अपुवंमि ॥३॥ एवं अनियष्टिमि वि सुहमे संजलए लोनमणू अंति अंतिमलेसअसिछत्तनाव जाण चल लावा ॥४॥ संजलणसोजविरहा उवसंतरकीणकेवलीण तिगं । खेसानावा जाणसु थाजोगिणो जावगमेवेति ॥ ५॥ पर शीतिके । तथा शुभलेश्यासनावेऽपि कवलाहारः कथं संगछते । यतो निरालंबनधर्मध्यानसमावेऽपि नायमिष्यत इति ।। अत्र सिद्धान्तयामः-ध्यानं तावत् परमैकाग्रतारूपं विरुध्यतां नाम कवलाहारेण । लेश्या तु योगपरिणतिरूपा कवलाहारेण कथं विरुध्यते प्रत्युताविरुव । अन्यथा प्रमत्तगुणस्थानवर्तिनोऽप्याहारो न स्यात् लेश्यान्तरासहचरितायास्तस्थास्तबिरोधित्वे सप्तमगुणस्थानेऽप्याहारः स्यात् । कथं पुनयोगपरिणामो खेश्या यस्मात्सयोगिकेवखिशुक्ररलेश्यापरिणामेन
१ एतेन साध्यासत्त्वं दर्शितम् ।
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अध्यात्मि
॥ ६५ ॥
विहृत्यान्तर्मुहूर्तशेषे योग निरोधं करोति ततोऽयोगित्वमलेश्यत्वं च प्राप्नोति, अतोऽवगम्यते योगपरिणामो लेश्येति । स पुनर्योगः शरीर नामकर्मपरिणतिविशेषः । यस्मादुक्तम् - " कर्म हि कार्मणस्य कार्यमन्येषां च शरीराणां कारणमिति” । | तस्मादौदा रिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः तथौदा रिकवै क्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवाद्रव्यसमूहसाचिव्याकी व व्यापारो यः स वाग्योगः तथैवौदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोऽव्य समूहसाचिव्याजीवव्यापारो यः स मनोयोग इति । ततो यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिर्योग उच्यते तथैव लेश्यापीति प्रज्ञापनावृत्तिकृतः । | एतन्मतमाश्रित्यैव च देवेन्द्रसूरि जिरौद विकजावत्रयं त्रयोदशगुणस्थान उपन्यस्तम् । अन्ये तु कर्मनिष्पदो लेश्याः कर्मस्थितिहेतुत्वात् । यथोक्तम् - "ताः कृष्णनीलकापोततैजसी पद्मशुक्लनामानः श्लेष इव वर्णबंधस्य कर्मबंध स्थितिविधात्र्य इति” । योगपरिणामत्वे तु लेश्यानां “जोगा पयम्पिएसं विति श्रणुजागं कसायतो कुणा तित्ति" वचनात् प्रकृतिप्रदेशबंधहेतुत्वमेव स्यात् न तु कर्म स्थितिबंधहेतुत्वम् कर्म निष्पंदरूपत्वे तु यावत्कषायोदयस्तावन्निष्पंदस्यापि सनावात् कर्मस्थितिहेतुत्वम पि युज्यत एव। अत एवोपशांतही एमोहयोः कर्मबंधसनावेऽपि न स्थितिसंजवः । यदुक्तम्- - " तं पढमसमए बद्धं बीयसमये वेश्यं तसमए निकिति" श्राह यदि कर्मनिष्पंदो लेश्यास्तदा समुचिन्नक्रिय शुक्लध्यानं ध्यायतः कर्मचतुष्टयसनावेन निष्पंदसंप्रवेन | कथं न लेश्यासङ्गावः । उच्यते- नायं नियमो यदुत निष्पंदवतो निष्पदेन सदा जाव्यम्। कदाचिन्निष्पंदवत्स्वपि वस्तुषु तथाविधावस्थायां तदद्भावदर्शनात्तन्मते च केवलिनां प्रव्यलेश्या चिंतैव । अपरे त्वादुः- कार्मणशरीरवत्पृथगेव कर्माष्टकात् कर्म वर्गणानि - ष्पन्नानि कर्मलेश्याव्यापीत्याध्यात्मिकैः कवलाहाराजावसाधनार्थमुपन्यस्तान्यनुमानानि संदिग्धा सिद्धानि विपरीतबाध
परीक्षा.
॥ ६५ ॥
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कतर्कानावाचाप्रयोजकानि । यदि च प्रतिबंधकानावसहकृतसकलकारणसमवधानेऽपि नावरूपशुकलेश्यावत्त्वेन कवलाहाराजावः साध्यः तर्हि संयतत्वेन हेतुना प्रमत्तगुणस्थानवर्तिनामपि तदलावः साध्यतां सलोमा मंडूकश्चतुप्पाचे सत्युप्लुत्य गमनात् मृगवत् । अलोमा वा हरिणः चतुष्पात्त्वे सत्युप्लुत्य गमनात् मंडूकवदित्यादिहेतूनां च प्रामाण्यमत्यपगम्यतामिति बलवत्प्रमाणपरिच्चिन्नः केवलिनां कवलाहारः सुव्यवस्थित इति ॥१२॥ अथ कवलाहारसाधकप्रमाणं प्रमाणांतरेण संवादयति
कुदादयः केवलिनामेकादश परीषहाः । वेदनीयोदयोद्भूताः कवलाहारसा दिणः ॥ १३॥ टीका-अक्षरार्थः स्पष्ट एव । जावार्थस्त्वयम्--सयोगिकेवलिगुणस्थानवर्तिनां कुत्पिपासाशीतोष्णदेशचर्यावधमलशय्यारोगतृणस्पर्शलदाणा एकादश परीपहा नवंति । यदागमः-"एगविहबंधगस्स एणं नंते नजोगिनवत्यकेवखिस्स का परीसहा पणत्ता । गोयमा एक्कारस परीमहा पणत्ता नव पुण वेदंतित्ति । तथा “वैयणिकोणं ते कम्मे का परीसहा समोअरंति ।। गोयमा एक्कारस परीसहा समोअरंति पंचेव आणुपुबी चरिया सिङ्गा तहे व रोगे य । तफास जनमेव य एक्कारसवेय|णिकमिति" जगवन्याम् । तथा-"वावीसं वादरसंपराय चनदसय सुहुमरायमि । उनमत्यवीयरागे चउदस एक्कारस जिमि ॥१॥"अस्या अर्थवाविंशतिरपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्यात् प्राविंशतिरपि परीपहा बादरसंपरायनाम्नि गुणस्थानके। कोऽर्थः निवृसिवादर संपरायं नवमगुणस्थानं यावत्सर्वेऽपि परीपहाः संजयतीति । तथा चतुर्दश च शायैव
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अध्यात्मि.
॥६६॥
कारार्थत्वाच्चतुर्दशसंख्या एव च कुत् १ पिपासा २ शीत ३ उष्ण ४ दंशमशक ५ चर्या ६ शय्या ७ वध 6 अलान
छापरीक्षा. ए रोग १० तृणस्पर्श ११ मल १२ प्रज्ञा १३ अज्ञान १५ रूपाः परीषहाः सूक्ष्मरागे सूक्ष्मसंपरायनाम्नि दशमगुणस्थानक उदयमासादयन्ति मोहनीयस्य दर्पितत्वेनोपशमितत्वेन वा सप्तानां चारित्रमोहनीयप्रकृतिप्रतिबझानां दर्शनमोहनीयप्रकृतिप्रतिवचस्य चैकस्यासंजवादिति नावः। तथा उद्म आवरणं तत्र स्थितः उद्मस्थो वीतोऽपगतो रागो यस्य समस्तमोहोपशमात्सकलमोहदयाच स तथा ततः कर्मधारये उद्मस्थवीतरागशब्दनोपशांतमोहदीणमोहलक्षणं गुणस्थानकष्यं परिगृह्यते । तत्राप्युक्तरूपा एव चतुर्दश परीषहाः संजवंति । तथा जिने सयोगिकेवड्ययोगिकेवलिलणे त्रयोदशचतुर्दशगुणस्थानकषये परीषहकारणजूतस्य वेदनीयस्यैव सनावात्तत्प्रतिबघा एवैकादश परीषहाः संजवंति । उक्तं च--"कुत् पिपासा च शीतोष्णे दंशाश्चर्या वधो मलाः । शय्यारोगतृणस्पर्शा जिने वेद्यस्य संजवात् ॥१॥” इति प्रवचनसारोझारसूत्रवृत्तौ ११ए पत्रे । तत्र कुत्परीपहविजयः किं कुबेदनामुदितामागमविहितेन जक्तेन समयतोऽनेषणीयं परिहरतश्च नवति उत सर्वथाहारपरिहारेणैव नवति । आद्ये केवलिनां कवलाहारसिद्धिः।हितीये तु षष्ठगुणस्थानवर्तिनामप्याहारानाव आपद्यते । ननु जवन्त एव नणंतु प्रथमपदांगीकारे किं चतुर्दशेऽपि गुणस्थाने कवलाहारो नापद्यत इति | चेन्न लाघवेन ध्यानविरहसहकृत एव गुणस्थाने एतन्नियमस्य बोध्यत्वात् । अन्यथा किंचिदूनपूर्वकोटिपर्यंतं केवलिनां शरीर कश्रमवतिष्ठते ? न च परमौदारिकशरीरान्युपगमे नायं दोष इति वाच्यम् तत्राप्यौदारिकत्वानपगमानवदनिमतस्य ।
॥६६॥ निरस्तत्वाच्च । न च जगवतः कुदनीयोदयो मन्दतम एवति ने कवलाहारचिकित्सामपेक्षते तादृशस्य तस्य परीपहशब्द
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व्यपदेश्यतानईत्वात् परीपहशब्दव्यपदेशस्य तु तस्य कवलाहारचिकिल्मामंतरंगा शरीरवलापचायकत्वस्य सुप्रमियत्वात ।। न च जगवतामनन्तवीर्यत्वेनेदं दृषणमसंजनीति वाच्यम् वलं शारीरे स्थान वीर्य चान्तरः शक्तिविशेष इति तयोजिन्नत्वात् । तस्माक्रिनानां कुत्परीपहविजयोऽपि कवलाहारं मिझातयत्येवेति ॥१३॥ अथैनस्यार्याध्येन दिगंबरपितविकटपध्यनिराकरणेनाप्रयोजकत्वशंका निरस्यतिकिं रागहान्यतिशयो यथा तथा नैषु जुन्यजावस्य । याहारकथामात्रात् कथं च साधोः प्रमत्तत्वम् ॥१४॥ वेद्योदयेऽपि तोदयानक्तिकथायाश्च मोह जनकत्वाताप्रतिकव्य इति लपनुपासकाध्ययनटीकाकृत्॥१५ ।।
॥ युग्मम् ॥ टीका-एषु केवलिषु यथा रागहान्यतिशयो रागानावस्य परमप्रकर्ष श्राख्यायते तत्रा नुक्लयजावस्य कवलाहाराजाबस्यातिशय इति शेपः किं नाख्यायते । यदि केवलिनि रागाजावातिशयोऽन्युपगम्यते तहि जुत्त्यजावातिशयोऽप्यन्युपगम्यतां समानकदत्वादित्यर्थः । चः पुनरर्थे । साधोरप्रमत्तस्येति समनिव्याहारगम्यम् । श्राहारकथामात्रात् प्रमत्तत्वं कथं जवतीत्यवयवार्थः । लावार्थस्त्वयम्--यथा कश्चित् पुरुषस्तीत्ररागस्तदयेया कश्चिन्मन्दरागः कश्चित्पुनर्मन्दतमराग इति विपदनावनावशाजागादीनां हान्यतिशयदर्शनात् परमप्रकर्षः केवलिनि प्रतिष्ठन्तथा जोजनाजावपरमप्रकर्षोऽपि तत्र किं न स्यात् तनावनातो लोजनादावपि हान्यतिशयदर्शनाविशेषात् । तया हि-एकस्मिन् दिने योऽनेकवारं सुंक्त विषक
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अध्यात्मि.
परीक्षा
॥६
॥
नावनावशात् स एव पुनरेकवारं नुंक्ते कश्चित्पुनरेकदिनाद्यन्तरितजोजनः अन्यः पुनः पदमाससंवत्सरायंतरितजोजन इति । तथा अप्रमत्तो हि साधुराहारकथामात्रेणापि प्रमत्तो जवति, लुजाना अपि केवलिनो न तथेति महच्चित्रम्, यत्कथामात्रमेव प्रत्यवायकारणं तपन्नोगे पुनः किं निगाद्यमिति ॥१४॥ अथैतन्निरस्यति-वेद्येति । इति जट्पन् पूर्वोक्तविकटपध्यमविचारपूर्वकमुपन्यस्यन् समंतजोपास्योपासकाध्ययनस्य टीकाकारः प्रनाचंसंज्ञको दिगंबरः प्रतिषेशव्य|स्तिरस्करणीयः तत्परिकल्पितस्य विकटपघयस्याकिंचित्करत्वादित्यर्थः । तत्र हेतुष्यमाह-वेद्येति । आद्यविकटपस्य केवलिनि नुत्यन्नावपरमप्रकर्षान्युपगमे वेदनीयोदयानावपरमप्रकर्षस्यापि प्रसंगात् । आहारकथायाश्च मोहजनकत्वादेव प्रमादहेतुत्वान्युपगमादित्यवयवार्थः । ज्ञावार्थस्त्वयम्-यत्तावमुक्तं रागहानिपरमप्रकर्षदर्शनानत्यनावपरमप्रकर्षोऽपि केवलिनां सिध्यतीति तदस्मत्प्रतिबंदीप्रचंममुजरप्रहारजर्जरितं स्पंदितुमपि न शक्नोति । यत एकस्य वेदनीयोदयस्तीव्रतरस्तदपेक्ष्या कस्यचिन्मन्दोऽपरस्य पुनर्मन्दतम इति विपक्षनावनावशावेदनीयोदयाजावातिशयदर्शनात् केवलिनि तदनावपरमप्रकर्षसिझेरप्यापत्तेः । न च वाच्यं वेदनीयोदयस्याष्टादशदोषानन्तावात्तदनावपरमप्रकर्षसाधनमयौक्तिकम् । कुत्पिपासयोश्चाष्टादशदोषान्तजूतत्वात् रागहानिवत्तदलावपरमप्रकर्षसिघौ नुक्त्यलावस्तु संजवत्येव । तथा चानुपदमेव व्याख्यातम् । "कुत्पिपासाजरातकजन्मान्तकजयस्मयाः । न रागषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीयते ॥१॥ अस्यार्थः-कुच्च बुनुदा, पिपासा च तृष्णा, जरा च वृक्षत्वं, आतंकश्च व्याधिः, जन्म च कर्मवशाच्चतुर्गतिषूत्पत्तिः, अन्तकश्च मृत्युः, जयचेहपरलोकादात्रगुप्तिमरणवेदनाकस्मिकलक्षणं, स्मयश्च जातिकुलादिदर्पः, रागषमोहाः प्रसिघाः। चशब्दाचिन्तारतिनि
॥६
॥
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जिविस्मयविषादखदवेदा गृह्यन्त । एतऽष्टादशदोषा यस्य न मन्ति स श्राप्तः प्रकीयंत प्रतिपाद्यत इति । जगवतां कुपिपासयोरपह्रोतुमशक्यत्वान्मोहनीयापगमेन तदनावे कहपनीय औदारिकशरीरादिकमपि किं नापोतुमीहसे । वस्तुतस्तु अष्टादश दोषा अज्ञानादिकाः । तथा चोक्तम्-"अन्नाणकोहमयमाण, माया लोन रई अ अरई अनिद्दासोगअलिअवयण, चोरियामन्चरजया य ॥ १ ॥ पाणवहपेमकीलापसंगहामाइ जस्म इय दोसा । अपारस्म वि पणछा, नमामि देवाहिदेवं तं ॥२॥” इति तत्र कुत्पिपासयोरनन्तनावेन केवलिनां तदनावसाधनप्रयासो हरिदंबराणां व्यर्थ एवेति । यच्चोक्तम्-"श्राहारकथामात्रेणापि अप्रमत्तो यतिः पतति केवली तं तुंजानोऽपि न तथेति कथं संगनते" तत्रेदमुत्तरम्-आहारकथा तावदाहारविषयप्रीतिलाणमोहजनिकेति तस्याः प्रमादहेतुत्वं न चैवमाहारस्यापि शरीरादेखि मोहसहकृतस्यैव तस्य तथात्वान्युपगमात् । न च बुनुवालक्षणमोहमन्तरा कवलाहारो न नवत्येवेति वाच्यम् एतस्य निरस्ततरत्वात् कुद् बुनुहे. ति तादात्म्यप्रतीतिस्तु शाखाग्रेचंमा इतिवपचारमात्रनिवन्धनेति । तस्माष्चनरचनाचातुरीतरंगिणीप्लाव्यमानो मुगतिजा उपासकाध्ययनटीकाकर्ता न्यायकुमुदचंऽवचनशीणकुशानवखंबमानः न कथमपि स्वात्मानं रक्षितुं प्रनुरित्यायाध्यार्थः ॥ १५॥ अर्थतस्य युक्तिजालस्य फलं प्रकटयति
परंपरापराघातसंजातमतिविप्लवाः । तदेवं प्रतिपेशव्या युक्तिनिहरिदंबराः ॥ १६ ॥ टीका-हरिदेवांबरं येषां ते हरिदंबरा नग्नाटाः । अथ च "क्वचिन्वन्दसामान्य विशेषतात्पर्यसहानां विशेषवाचकत्वमिति” न्यायारिदिव सूर्योदयावचिन्ना प्राचीवांबराणि येषां ते हरिदंबरा रक्तपटा इत्यर्थः । एतेन परेन्योऽचेलं चारि
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अध्यात्मि.
॥६
॥
नवन्ति जन्तवो यस्मादातमाः सत्वाः सूदमाञ्च व्यापिनोऽपरे
शीखानि तपश्चेतीह सिध्या सविधास्यति ॥ २॥ तथा सानादीनां वैया
शीतवातात
॥ अपरं च-सम्यक्त्वज्ञान
तथा । गात्रसंकुचने चेष्टं तेन पूर्व प्रमार्जनम् ॥२॥" तथा च-"सन्ति संपातिमाः सत्वाः सूदमाश्च व्यापिनोऽपरे । तेषां परीक्षारदानिमित्तं च विज्ञेया मुखवस्त्रिका ॥१॥ किं च-नवन्ति जन्तवो यस्मादन्नपानेषु केषुचित् । तस्मात्तेषां परीक्षार्थ पात्रग्रहणमिष्यते ॥ १॥ अपरं च-सम्यक्त्वज्ञानशीलानि तपश्चेतीह सिघ्ये । तेषामुपग्रहार्थाय स्मृतं चीवरधारणम् ॥१॥ शीतवातातपैर्दशैर्मशकैश्चापि खेदितः । मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं न सम्यक् संविधास्यति ॥२॥ तथा वस्त्रानावे शीतातपदंशमशकादिपीमाव्याकुलितस्याग्निसेवादिर्ध्यानसंजवे संयमविराधना स्यात् । तथा पात्रानावे बालग्खानादीनां वैया-1 वृत्यमपि कुतो लवेत् । यः पुनरतिसहिष्णुतया एतदन्तरेणापि न धर्मबाधकस्तस्य नैतदस्ति । तथा चाह-'य एतान् वजे|येद्दोषान् धर्मापकरणादृते । तस्य त्वग्रहणं युक्तं यः स्याबिन इव प्रनुः ॥ १॥ स च प्रथमसंहनन एव न चेदानीं तदस्तीति कारणालावात्कार्यस्याप्यनावः तस्माद्यथा संयमोपग्रहार्थ जैदादिकं गृह्यते एवं वस्त्रादिधारणमप्युचितमेवे" त्यादियुक्त्या प्रज्ञाप्यमानोऽप्यसौ तथाविधकषायमोहनीयकर्मोदयान्न स्वकदाग्रहान्यवर्तत किंतु चीवरादिकं त्यक्त्वा निर्गतः।। ततश्च बहिरुद्याने स्थितस्य तस्य वंदनार्थमुत्तरानाम्नी जगिनी समागता । सा च तथाविधं स्वं वातरमवलोक्य स्वयमाप चीवराणि त्यक्तवती । ततो निक्षार्थ नगरमध्ये प्रविष्टा सा गणिकयाऽवलोकिता । तत “एवं विधामपि बीजत्सामिमां| दृष्ट्वा नागरिकलोको मास्मासु विरंसीदिति” विचिंत्य तया परिधापितासौ । तत एष व्यतिकरोऽनया शिवनूतये निवे-12॥६॥ दितस्ततोऽनेन “विवस्त्रा योषिन्नितरां बीजत्सा जवतीति" विचिंत्य तां प्रत्युक्तम्-“श्त्यमेव त्वं तिष्ठ एतस्त्रं त्वया न त्यक्तव्यं, देवतया हि तवेदं प्रदत्तमिति” । ततः शिवजूतिना कॉमिन्यकोट्टवीरौ दीक्षितौ तान्यामाचार्य शिष्यवक्षणा
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मुदघाटितं नवति तत्र गनु ।" ततश्च सोऽपि कोपाहंकारप्रेरितो निर्गतः । पर्यटता च तेनोद्घाटितधारः साधूपाश्रयो दृष्टः । तत्र च तेन साधवः कालग्रहणं कुर्वन्तो वंदित्वा व्रतग्रहाणं याचिताः । तैश्च मात्रादिनिरननुज्ञातोऽयमिति कल्या व्रतं न दत्तं ततः खेलमलकाक्षां गृहीत्वा स्वयमेव लोचमकरोत् । साधवश्च लिंगं समर्पयामासुः सर्वेऽपि च ते साधवोडन्यत्र विहताः । कालांतरेण पुनरपि तत्रागताः । राज्ञा च शिवनूतये कंबलरत्नमर्पितं गुरुनिश्च शिवनतिं प्रत्युक्तं "साधूनामध्वादिष्वनर्थसार्थनिबंधनं किमश्रमेतहीतमिति" । ततस्तेन गुर्वाझामनाहत्यापि मूया प्रवन्नतया तनिधृतम् । प्रत्यहं च तदयं संजालयति न च कस्यचिदने प्रदर्शयति । ततश्च "मूर्वितोऽयमिति" गुरुजिरवगत्य तमनापृन्वयैव तत्कंबलरत्नं | विदार्य साधूनां प्रोगनकानि कृतानि । सोऽप्यवगतव्यतिकरः प्रचन्नकषायकलुषितहृदयस्तिष्ठति । एकदा च सूरयो जिनकटिपकान् वर्णयति । तथा हि-"जिणकप्पिा य मुविहा पाणीपाया पमिग्गहधरा य । पाउरणमपानरणा इक्किक्का ते नवे
विहा ॥१॥ग ति चनक्क पणगं नव दस इक्कारसेव वारसगं । एए अविगप्पा जिणकप्पे हुँति उवहिस्स ॥२॥ इत्यादि" । तदेतन्निशम्य शिवजूतिरुवाच-"हन्त यद्येवं तर्हि किमिदानीमेतावानुपधिः परिगृह्यते स एव जिनकपः किं नायिते" । गुरुजिरुक्तं-"जंबूस्वामिनि व्युबिन्नोऽसौ सांप्रतं तथाविधसंहननाद्यनावात्कर्तुं न शक्यते”। ततः शिवजूतिरखपत्-“मयि जाग्रति कथमयं व्युविद्यते नन्वहमेव तं करिष्यामि । परलोकार्थिना हि स एव निष्परिग्रहो जिनकपो|ऽङ्गीकार्यः किमनेन मूर्नादिदोषहेतुना परिग्रहेणेति ।” सूरिनिरुक्तं-"धर्मोपकरणमेवैतन्न तु परिग्रहः । तथा-"जन्तवो बहवः सन्ति पुश्या मांसचक्षुषाम् । तेन्यः स्मृतं दयार्थ तु रजोहरणधाराणम् ॥१॥ आसने शयने स्थाने निवेपे ग्रहणे
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अध्यात्मि
॥ ६८ ॥
तथा । गात्रसंकुचने चेष्टं तेन पूर्व प्रमार्जनम् ॥ २ ॥ " तथा च "सन्ति संपातिमाः सत्वाः सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे । तेषां | रक्षानिमित्तं च विज्ञेया मुखवस्त्रिका ॥ १ ॥ किं च - नवन्ति जन्तवो यस्मादन्नपानेषु केषुचित् । तस्मात्तेषां परीक्षार्थी पात्र - | ग्रहणमिष्यते ॥ १ ॥ अपरं च सम्यक्त्वज्ञानशीलानि तपश्चेतीह सिद्धये । तेषामुपग्रहार्थाय स्मृतं चीवरधारणम् ॥ १ ॥ | शीतवातातपैर्दशैर्मश कैश्चापि खेदितः । मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं न सम्यक् संविधास्यति ॥ २ ॥ तथा वस्त्राभावे शीतातपदंशमशका दिपीकाव्याकुलितस्याग्निसेवा दिदुर्ध्यानसंजवे संयमविराधना स्यात् । तथा पात्राभावे वालग्लानादीनां वैयावृत्यमपि कुतो जवेत् । यः पुनरतिसहिष्णुतया एतदन्तरेणापि न धर्मबाधकस्तस्य नैतदस्ति । तथा चाह-' य एतान् वर्जयेद्दोषान् धर्मोपकरणाद्यते । तस्य त्वग्रहणं युक्तं यः स्याबिन इव प्रभुः ॥ १ ॥ स च प्रथमसंहनन एव न चेदानीं तदस्तीति कारणाभावात्कार्यस्याप्यनावः तस्माद्यथा संयमोपग्रहार्थं नैदादिकं गृह्यते एवं वस्त्रादिधारणमप्युचितमेवे” त्यादियुक्त्या प्रज्ञाप्यमानोऽप्यसौ तथाविधकषायमोहनीयकर्मोदयान्न स्वकदाग्रहाभ्यवर्तत किंतु चीवरादिकं त्यक्त्वा निर्गतः । ततश्च वहिरुद्याने स्थितस्य तस्य वंदनार्थमुत्तरानाम्नी जगिनी समागता । सा च तथाविधं स्वं चातरमवलोक्य स्वयमपि चीवराणि त्यक्तवती । ततो निक्षार्थ नगरमध्ये प्रविष्टा सा गणिकयावलोकिता । तत “एवंविधामपि बीजत्सामिमां दृष्ट्वा नागरिकलोको मास्मासु विरंसीदिति" विचित्य तया परिधापितासौ । तत एष व्यतिकरोऽनया शिवनूतये निवे|दितस्ततोऽनेन " विवस्त्रा योषिन्नितरां बीजत्सा जवतीति" विचित्य तां प्रत्युक्तम् - " इत्थमेव त्वं तिष्ठ एतवस्त्रं त्वया न त्यक्तव्यं, देवतया हि तवेदं प्रदत्तमिति” । ततः शिवजूतिना कौमिन्य कौट्टवीरौ दीक्षितौ तायामाचार्य शिष्यलक्षणा
परीक्षा
॥ ६९ ॥
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| परंपरा प्रवृत्तेत्यादि । तस्मात्सिद्धान्तप्रामाण्यमन्युपगचह्निः परंपराप्रामाण्यमेवानुसर्तव्यमिति मिध्यात्वमोहनीय कर्मादयव| शाधिपरीतप्ररूपणाप्रवणा दिगंबराः तन्मतानुयायिनश्चाध्यात्मिका दूरतः परिहरणीया इत्यस्माकं हितोपदेश इति ।। १६ ।। | एवं सांप्रतमुद्भवदाध्यात्मिकमत निर्दलनदार चितमिदं स्थलममलं विकचयतु सतां हृदयकमलम् १७ | समज नि यत्स्थल मेतत्सुकृतं सृजतोऽनुसृत्य वृद्धवचः । मम तेन जव्यलोको बोधिमणेः सुखजतां लजताम् |
टीका-सुगम मिदमार्याघ्यम् ॥ १७ ॥ १८ ॥
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विबुधनिकरसेव्यः शोजतं प्रौढिमाब्धिस्तपगण सुरशाख । नृरिशाखानिरामः । श्रजनि रजनिनाथ स्पर्द्धिकी र्त्तिप्रतानो मतिजित सुरसूरिहर सूरिस्तदीशः ॥ १ ॥ अकलयदथ लीलां तस्य पट्टोदयाी महति विजयसेनः सूरिराजः सनानोः । प्रसरति घनगारे यस्य कीर्तिप्रताने विधुरजवड्डूनां लक्ष्ममात्रोपलक्ष्यः ॥ २ ॥ विजयिविजयदेवः सूरिराट् तस्य पट्टे स जयति | यतिकोटी मौलिकोटी रकरूपः । कलयति न सपत्नीर्वीक्ष्य गौरीकृता यविधुधवलयशोनिः शैलपुत्रीदिशः किम् ॥ ३ ॥ श्री विजयसिंह सूरिस्तत्पट्टवियन्ननोमणिर्जयति । यस्य प्रतापपूषा पूर्वादितमः शमं नयति ॥ ४ ॥ वाचकपरिपत्तिलकश्रीमकल्याण विजय शिष्याणाम् । गंगाजल विमलधियां शिष्या बुधसाजविजयानाम् ||५|| श्रीजीत विजय विबुधास्तेषां गर्छु जयंति शुद्धधियः । राजंति तत्सतीर्थ्याः श्रीनय विजयानिधा विबुधाः ॥ ६ ॥ तच्चरणकमल सेवामधुकरकटपेन यशोविजयगणिना । | स्वोपज्ञाध्यात्मिकमतखंकनवृत्तिर्विरचितेयम् ॥ 9 ॥ ॥"
IN
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अध्यात्मि.
॥ १७० ॥
इति श्री सकलपंकितचक्रचक्रवर्तिपंमितश्रीजी तविजयग विसतीर्थ्यपंकितश्रीनय विजयगणिशिष्यगयिशोविजयकृतं संघदत्ताध्यात्मिकमतपरीक्षापरनामकमाध्यात्मिकमतखंरुनप्रकरणं संपूर्णम् ॥
परीक्षा.
॥ ७० ॥
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॥ श्रथ यतिलक्षणसमुच्चयप्रकरणम् ॥ सियरायपुत्तं तित्श्रयरं पणमिऊण नत्तिए । सुत्तोऽश्रणीइए सम्मं जश्वरकणं वुवम् ॥ १॥ उस्सग्गववायाणं जयणाजुत्तो जई सुए जपिर्छ । विति श्र पुवायरिआ सत्तविहं लरकणं तस्स ॥२॥ मग्गाणुसारिकिरिया पन्नवणिकत्तमुत्तमा सका। किरिश्रासु अप्पमा आरंजो सक्कणुकाणे ॥ ३ ॥ गरुन गुणाणुरा गुरुत्राणाराहणं तहा परमं । अस्क य चरणधणाणं सत्तविहं बरकणं एयं ॥४॥ सुत्तायरणाणुगया सयला मग्गणुसारिणी किरिया। सुझावंबणपुन्ना जं जणि धम्मरयाणंमि ॥ ५॥ मग्गो आगमणी अहवा संविग्गवहुजाणान्नं । उजयाणुसारिणी जा सा मग्गणुसारिणी किरिया ॥६॥अन्नह जणिथं पि सुए किंची कालाइ कारणाविरकं । श्राइनमन्नहच्चिय दीसइ संविग्गगीएहिं ॥ ७॥ कप्पाणं पावरणं अगोअरच्चा कोलिभाजिरका । उवग्गहिकमाहय तुंबयमुहदाणदोराई ॥ ७॥ सिक्किगनिरिकवणाई पजोसवणाइ तिहिपरावत्तो । नोअणविहिअन्नत्तं एमाई विविहमन्नं पि॥ ए॥ जं सबहा न सुत्ते पमिसिहं नेव जीववहहेछ । तं सर्वपि पमाणं चारित्तधणाण जणिशं च ॥१०॥ अवलं विकण कळं जं किंचि समायरंति गीयत्था । थोवावराहबहुगुणं सोसि तं पमाणं तु ॥ ११॥ जं पुण पमायरूवं गुरुलाघवचिंतविरहियं सवहं । सुहसीलसढाइन्न चरित्तिणो तं न सेवंति ॥ १२॥ जह सड्डेसु ममत्तं राढाऽ अमुमुवहिनत्ताइ । निद्दिवसहि तूली मसूरगाईण परिलोगो ॥१३॥ इच्चाई असमंजसमणेगहा खुद्दचिकिअं लोग । बडएहि वि आयरिश्र न पमाणं सुद्धचरणाणं ॥ १४ ॥ सारसिन परिणामो
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यतिल ०
॥ ७१ ॥
अहवा उत्तमगुणप्पणप्पवणो । हंदि भुजंगमनलिश्रायामसमायो मनुं मग्गो ॥ १५ ॥ इत्थं सुहोहनाणा सुत्तायरणा य नाविरहे वि । गुरुपरतंतमई जुत्तं मग्गाणुसारित्तं ॥ १६ ॥ एयारिसस्स जमिह गमणमणाजोगर्ट वि मग्गंमि । अप्प - चिंतएहिं सदंधणी उव ॥ १७ ॥ येऽवंचकजोए गलिए श्र श्रसग्गमि जवमूले । कुसलाणुबंधजुत्तं एवं धन्नाण संभव ॥ १८ ॥ एवंमि नाएफलर्ड हेमघरुसमा मया परेहिंपि । किरिया जं जग्गा विदु एसा मुंचइ ए तनावं ॥ १९ ॥ न जावचरणलिंगं क मग्गणुसारिणी जवे किरिया । जं पुणबंधगाणं दबजईणं पि सा इा ॥ २० ॥ जाय अ नावचरणं वालसं खए कसायाणं । मग्गणुसारित्तं पुए दविज तम्मंदयाए वि ॥ २१ ॥ लडुत्ते कम्माणं तीए जणि तयं च गुणबी । ववहारेणं जाइ नाणाइजु च विय ॥ २२ ॥ नाणाइविसेसजु एय तं लिंगं तु जावचरणस्स । तयनावे तप्नावा मासतुसाईण जं जलियं ॥ २३॥ गुरुपारतंतनाणं सद्दहणं एयसंगयं चेव । इत्तो उ चरित्तीणं मासतुसाईए हिद्दिनं ॥ २४ ॥ सिं पि दवनाएं एय रुइमित्तार्ज दवदंसण । गीयच णिसिश्राणं चरणाभावप्पसंगार्ज ॥ २५ ॥ 5विहोपुणो विहारो जावच रित्ती जगवया जणि । एगो गीयचाणं बिति तमिस्सित्रणं च ॥ २६ ॥ संखेवाविस्काए रुइरूवे दंसणे य दवत्तं । जन्नइ जेणुवगिक प्रयापमाणे वि सम्मत्तं ||२७|| सबवएसा जन्न लिंगे नंतरस्स चरणस्स । जं दलरूवं दबं कावन्नं च जं जावो ॥ २८ ॥ ए कमरूवसरिसं नावविरही नवाजिदी । व कई पि विसिहं लिंगं सा जावचरणस्स ॥ २७ ॥ इरकुरसगुमाईणं महुरत्ते जह फुमं विजिषत्तं । तह पुण्बंधचरणानावने वि सुपसिद्धो ॥ ३० ॥ मग्गणुसारिकिरिया नाविका चित्तस्स जावसाद्दृस्स । विहिप मिसेसु जवे पन्नवत्तिमुजुजावा ॥३१॥
समुच्चय.
॥ ७१ ॥
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विहिनकमवन्नयनयनरमगववायतकुनयगयाई । सुत्ताई बहुविहार समए गंजीरजाबाई ॥३२ ।। पिमसाएऽभवत्तयरि घधिमियाइनरयमंसाई । जीवेगविहारा वाहितिगिठा च पायाई ॥ ३३ ॥ तसिं विसयविनागं मुन कुम्गहर अया
तो । बोहेश् तं च णाचं पन्नवणि सुसीलगुरू ।। ३४ ॥ अवसि गवित्ता वितिय श्रणयरपरकवाय ने । परिणाम सN सम्मं जं जणियं कप्पत्तासंमि ॥ ३५॥ संविग्गनाविधाएं जुध्यदितनाविआणं च । मुत्तण खित्तकालं जावं च कति सुर्बुवं ।। ३६ ॥ सो विय सम्म जाण गुरुदिन्नं निरवमेसपन्नवणं । एष उत्ताणमईय पक्षलवभित्ते हबश्श्छो ॥ ३३॥ जह बोमिश्राश्वयणं मोठं आवायरम्ममूटनयं । बवहारापहाणातं कोई सुया विसमे ॥ ३८ ॥ ए य जाण अपरिण अपरिणजया कयम्मि मूढनए । कालियसुमि पाय उपगं तिण्ह जे जणियं ।। ३ ।। मूढनश्यं सुझं कालियं तुन एया समोअरंति इदं । अपुहत्ते समोआरोएत्यि पुह सभोवारो।। ४० तमा। एपहिं दिविाए परूवणा मुत्त-13 अत्यकहणाय । इह पुण अणनवगमो अहिगारोतीहिमनं ॥४१॥ पायं पसिधमन्यो अपरिणई नायरिणई वा वि।। अपसिझे तप्नावो बुहेहिं ता सुधुदिमिणं ॥ ४२ ॥ वकयाइदिसाए श्रमेसु वि एवमागमत्येतु । परिवार लावत्यं निनणणं पन्नविऊतो ॥ ४३ ॥ जो नय पन्नवाणिजो गुरुवयम् तस्स पगइमरपि । पित्तकरगछियस्ल व गुरुखमकमुश्रमा
ना ॥ ४५ ॥ पन्नवाणिजस्स पुणो उत्तमसघा हवे फलं जीसे । विहिसेया य अनन्ना सुदेसणा खलिअपरिसुद्धी ।। San४५॥ सघालू सत्तिजुन विहिसारं घेव सेवए किरियं । तप्परकवायहीणोण हवे दवाश्दोसे वि ॥ ४६ ॥ जह
सम्ममुध्यिाएं समरे कंमाणाजमाइएं । जावो न परावत्ताइ एमेव महाणुजावरस ॥4॥ मालगुणमुणोमहुअरस्स तप्प
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यतिल०
॥ ७२ ॥
रकवायही तं । परिबंधे वि न कश्या एमेव मुणिस्स सुहजोगे ॥ ४८ ॥ श्रपयट्टो वि पयट्टो जावेणं एस जेण तस्सत्ती । अरक लिया निविमा कम्मरुक उवसमजोगाउं ॥ ४९ ॥ निरर्ट नुतरसन्नू किंचि अवत्थंग असुहमन्नं । मुंज तम्मि न रइ सुहोश्रणलालसो धश्रिं ॥ ५० ॥ इय सुद्धचरणसहि सेवंतो दब विरुद्धं पि । सागुणे एसो न जावचरणं इक्कम ॥ ५१ ॥ वहपन्नाजश्रिं जावं पाले मायररकाए । तीए चेव ण हाणी सुकेवलिया जर्ज धिं ॥ ५२ ॥ चिरिकलबाल मावयसरेणुकंटगत बहुश्रजले । लोगो विनिवइ पड़े को णु विसेसो जयंतस्स ॥ ५३ ॥ जयाजयां च गिही सचित्तमी से परित्तांते । न विजाति एयासिं अवहपन्ना यह विसेसो ॥ ९४ ॥ वि जणे मरणनया परिस्समनयाज ते विवइ । ते गुणदयापरिणया मुरक मिसी परिहरति ॥ ५५ ॥ विसिमि वि जोगंमि बाहिरे होइ विदुरया इहरा । सिद्धस्स व संपत्ती अफला जं देसिया समए ॥ ५६ ॥ इक्कंमि वि पाणिवहमि देसिां सुमहंतरं समए । एमेव किरफला परिणामवसा बहुविदीया ॥ ९७ ॥ जे जत्तिश्रा य देऊ जवस्स ते चेव तत्तिया मुरके । गणणाई लोगा हुएहवि पुन्ना जवे तुला ॥ ५८ ॥ इरिश्रावहिआईचा जे चेव हवंति कम्मबंधाय । अजयाएं ते चैव न जयाण विद्यागमणाय ॥ ५९ ॥ एगंतेष सेिहो जोगे स ा देसि विही वा वि । दलिश्रं पप्प सेिहो दुआ विही वा जहा रोगे ॥ ६० ॥ जंमि सेिविद्धांते श्रारो दुआ कस्सइ कया वि । तेणेव य तस्स पुणो कयाइ सोही विकाहि ॥ ६१ ॥ अणुमित्तो वि न कस्स बंधो परवत्थुपञ्च णि । तह वि खलु जयंति जई परिणाम विसोहिमिचंता ॥ ६२ ॥ जो पुष हिंसाययाइए बट्ट तणुपरीणामो कुछो एयत लिंग होइ विसुद्धस्स जोगस्स ॥ ६३ ॥
समुच्चय.
॥ १२ ॥
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तम्हा सया विसुई परिणाम श्या सुविहिएणं । हिमाययाणा सबै परिहरिश्रवा पयत्तेणं ॥ ६४ ॥ एएण पबंधेणं विहिसेवालरकणाइसझाए । जावजश्त्तं नणि अश्पसंगो फुमो इहरा ॥६५॥ पानणणेव तित्ति सम्बालू नाणचरणकङसु । वेयावच्चतवाइसु अपुबगहणे य उऊमइ ।। ६६ ।। उपययरबररयाणलाहतुझं खु धम्मकिच्चं ति । अहियाहिबलानत्थी अणुवरश्यो हव तंमि ॥ ६७ ॥ बुहिअस्स जहा खशमवि विचिकणेव जोअणे बा । एवं मोरकत्थीणं विजय श्छा ण कळमि ॥६॥ इत्तो चेव असंगं हवअणुचामो पहाणयरं । तम्मत्तगुणाई संगो तित्तीन एगल्थ ॥६॥ सुपरिचियागमत्यो वढंगयसुयगुरुवाणुमाउँ। मजकत्यो हिअकंखी सुविसुई देसणं कुणइ ॥ ७० ॥ण परिचि जेण सुआ समयत्या तस्स एस्थि अणुगो । सो मत्तूपयणिको जनणि समई इमं ।। ७१॥जह जह बहुस्सुळे संमर्ड असीसगणसंपरिवुड्डो । अविणिनि असमए तह तह मितपरिणी ॥ १२ ॥ नासा जो विसेसं न जाणए इयरसत्यकुसलो वि । मिन्ना तस्सुवएसो महाणिसीहंमि जनशिकं ।। १३ ।। सावकणवजाणं वयणाणं जो न जाण विसेसं । वुत्तुं पि तस्स ण खमं किमंग पुण देसणं कान ।।४॥ दाणपसंसणिसेहे जह किर हन विनासणं विसमं । सक्का गीयत्येहिं सुआणुरूवं तु दोएहं जं ॥ । पत्तमिजं पदिन्नं अणुकंपासंगयं च जं दाएं । जं च गुणतरहेक पसंसहिऊं
तयं हो ॥ १५ ॥ अमस्स य पमिसेहे सुत्तविरोहो ए लेसनवि नवे । जेणं परिणामवसा वित्तिो यहित्या व ॥७॥पत्तं पच होइ तिविहं दरसबजया य अजयसुदिनी। पढमिड्लुअंच धम्मिा महिगिच्च वयनि लिंगी॥७॥ववहारणएण पुणो
पत्तमपत्तं च हो पविजतं । णित्रय पुण वनं पत्तमपत्तं च णोणिययं ॥णाजं पुण अपत्तदाणे पावं नणि धुवं जगवईए।
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यतिलक
॥७३॥
तं खलु फुमं अपचे पत्तानिणिवेसमहिगिच्चा ॥ ७० ॥ इहरा उ दाणधम्मे संकुइए होइ पवयणुड्डाहो। मिनुत्तमोहजण श्य एसा देसणासुझा॥१॥श्यरेसु वि विसएसु नासा गुणदोसजाण एवं । नासा सवं सम्मं जह जणिशं खीणदोसेहिं॥२॥ गुरुणा य अणुमा गुरुनावं देसन बहुँ जम्हा । सीसस्स इंति सीसा ण हुँति सीसा असीसस्स ॥ ७३ ॥ सत्यामुणा . वि तीरइ मनत्थेणेव सासि सबं । सबंदं नो जंप जमेस आहच्च नणिरं च ॥ ४॥ जं च सुत्ते विहिरं ण य पमिसिई जणंमि चिररूढं । समाविगप्पियदोसा तं पिए दृसंति गीयत्था ॥ ५॥ संविग्गा गीयतमा विहिरसिया पुबसूरिणो आसी । तदसिश्रमायरिअं अणसई को णिवारे ॥ ६॥ अश्साहसमेअं जं उस्सुत्तपरूवणाकमुविवागं। जाणंतेहि विहिजा शिदोसा सुत्तबध्नत्थे ॥ ७ ॥ णिययावासाईझं गारवरसिया गहित्तु मुजणं । श्रालवणं अपुठं पाति मायगत्तंमि ॥6॥ श्रालंबणाण नरिच लोगो जीवस्स अजयकामस्स । जं जं पिच लोए तं तं बालवणं कुण॥ ए॥ जो जं सेवा दोसं संणिहिपमुहं तु सो अजिणिविछो । गवे गुणमहेचं अववायपयं पुरो काठ ॥ ए.॥ परिहर जं च दोसं सवंदविहार अन्जिणिविछो । कप्पियसेवाण विह लंपइ तं कोई परिणी ॥१॥ तं पुण विसुकममा सुअसंवायं विणा ण संसंति । अवहीरिऊण नवरं सुश्राणुरूवं परूविंति ॥ ए॥ उवश्स धम्मगुलं हिअकंखी | अप्पणो परेसिं च । पत्तापत्तविवेगो हिअखित्तं च णिबह ॥ ३ ॥ पत्तंमि देसणा खलु पियमा कहाणसाहणं हो। कुण अ अपत्तपत्ता विणिवायसहस्सकोमी ॥ एच ॥ विफला इमा अपत्ते उस्समप्पा त जर्ज नणिआ। पढमे पुछे | बितिए मूढे वुग्गाहिए तइए ॥ एए ॥ आमे घमे णिहत्तं जहा जलं तं धर्म विणासे । श्य सिछतरहस्सं अप्पाहारं
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पु
विलासे ॥ ९६ ॥ य एवं संकोए जुए तब पुण तुम्लत्तं । जं तं मन्नत्यत्तं विरका सतुवत्तं ॥ 9 ॥ के | रिसेऽच्चार वयउच्चिय ववधियं एयं । इय देसा विमुका श्यरा मिचत्तगमाई ॥ ए८ ॥ आउट्टिश्राइज कियाई चर| एस्स कहवि अरं । पाऊण विश्रमणाए सोहति मुणी विमलसा ॥ एए ॥ आउट्टिश्रा उविच्चा दप्पो पुण होइ वग्गणाईट । विगहा पमा कप्पो पुए कारणे करणं ।। १०० ।। सचालू अपमत्तो हविक किरियासु जेण तेणेव । किरिया साफलं जं जयिं धम्मरयमि ।। १०१ ।। पबऊं विऊं पिव साहंतो हो जो पमाइलो । तस्स सिन एसा | करे गरु च अवयारं ।। १०२ ।। पहिलेहणाई चिछा बक्कायविघाणी पमत्तस्स । जणि सुमि तम्हा अपमाई | सुविहि दुका ॥ १०३ ॥ ररक वएसु खलि उवत्तो होइ समिगुत्तीसु । व हेडं पमायचरित्रां सुधिर - चित्तो ॥ १०४ ॥ कालंमि अहि किरियंतर विरहि जहा सुत्तं । आयर सच्चकिरिये अपनाई जो इह चरित्ती ||| १०५ ॥ जह शिविग्धं सिन्धं गमणं मग्गन्नुपो एगरलाने । हेऊ तह सिवलाने चिं अपमायपरिवु ॥ १०६ ॥ कम्माणं पमाया अणुवंधावण्यां च होकाहि । तत्तो अकरणयिमो पुरकरकयकारणं होइ ॥ १०७ ॥ परिबंधावि अर्ज कंटगजरमोहसंनिजा । हव अणुबंधविगमा पयाणजंगो ए दी हयरो ॥ १०८ ॥ खार्जवस मिगजावे दढजत्तकयं सुहं अणुहाणं । परिवमिश्रं पिय का पुणो वि तनाववुद्धिकरं ॥ १०७ ॥ अमहागिरिचरिअं जावतो माएसंमि चक्रम । श्रणिगूहिय यियामं पमायसेस कसवट्टो ॥ ११० ॥ संजमजोगेसु सया जे पुण संतविरिया विसीति । कह ते विसुधचरणा बाहिरकरणाला हुंति ॥ १११ ॥ अणुबंध कुसलो शिधोढुं अप्पणो अपमायं । श्रयगुरुलिंगपच्चयमु
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यतिल ०
॥ ७४ ॥
सक्कं चिय कुतो ॥ ११२ ॥ सहसा असक्कचारी परपमायंमि जो परुइ पला । खलमित्तिव ए किरिया सलाह शिका हवे तस्स ॥ ११३ ॥ दबाइनाण निणं श्रवमन्नंतो गुरुं सक्कचारि जो । सिवनूष कुतो हिंरुइ संसाररनंमि ॥ ११४॥ हवइ सकारंजो अकरिसजाए कम्मेण । निजणेण साणुबंधं एकड़ पुए एसऊिं च ॥ ११५ ॥ संघयणादणुरुवे सक्कारंजे अ साहए बहु । चरणं निवमइ न पुणो असंजमो तेणिमो गरु ॥ ११६ ॥ संघयणाईावणं तु सिढिला - ए जं चरणघाई । सक्कारंजा तयं तबुद्धिकरं जर्ज जयिं ॥ ११७ ॥ संघयण काल बस दूसमारयालंबणा घित्तूणं । सबं चिय शियमधुरं शिरुकमाउ पमुच्चति ॥ ११८ ॥ कालस्स य परिहाणी संजमजुग्गाइ एत्थि खित्ताई । जयाइ वट्टि उ जया जंजए अंगं ॥ ११७ ॥ जाय गुणेसु रागो पढमं संपत्तदंसणस्सेव । किं पुए संजमगुण अहिए ता तंभि वत्त ॥ १२० ॥ गुणवुढि परग्गयगुणरत्तो गुणलवं पि संसेइ । तं चैव पुरो काउं तग्गयदोसं वेदे ॥ १२१ ॥ जह मुत्तयमुोि पुरो कयं आगमेसिनद्दत्तं । थेराण पुरो न पुणो वयखलिश्रं वीरणाहेणं ॥ १२२ ॥ एत्तोच्चिय किकम्मे हिगिचालवणं सुदयं । गुणलेसो विहग जं जणां कप्पासंमि ॥ १२३ ॥ दंसणनाणचरितं तव विणयं | जत्थ जत्ति पासे । जिपन्नत्तं जत्ति पूए तं तहिं जावं ॥ १२४ ॥ परगुणसंसा उचिया अनासाहारणत्तऐव तहा । जह विहिया जिएवझणा गुण निहिणा गो माईणं ॥ १२५ ॥ परगुणगहणावेसो जावचरित्तिस्स जह जवे पवरो । दोसलवेण वि निणं जहा गुणे निग्गुणे गुणइ ॥ १२६ ॥ परिबंधस्स न देऊ पियमा एयस्स होइ गुणहीणो । सयो वा सीसो वा गणिबर्ड वा जर्ज श्रिं ॥ १२७ ॥ सीसो सनिल वा गणिबर्ड वा न सोग्गई ऐइ । जे तत्थ नापदंसणचरणा ते
समुच्चय
॥ ॐ ॥
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सुग्गईमग्गो ॥ १२ ॥ करुणावसेण नवरं वाव मग्गमि तं पि गुणहीणं । अचंताजुग्गं पुण अरत्तचो नवह ॥१२॥ गुणरागीय पवट्ट गुणरयणनिहीए पारतंतमि । सर्वसु वि ककेसु सासणमालिन्नमिहरा न ॥ १३० ॥ तेण खमासमणाणं हत्येणंति य जति समयविऊ । अविअत्तलचिजुत्ता सवत्थ वि पुसमझाया ॥ १३१ ॥ण वह जो गुणरायं दोसलवं कहिलं गुणले वि । तस्स णियमा चरित्तं नस्थिति जति समयन्नू ॥ १३ ॥ गुणदोसाण य जणियं मनत्यत्तं विनिचियमविवेए । गुणदोसो पुण लीला मोहमहारायाणाए ॥ १३३ ॥ सयणप्पमुहेहिं ता जस्स गुणटुंमि पाहिलं रागो। तस्स न दंसणसुची कत्तो चरणं च निवाणं ॥ १३५ ।। उत्तमगुणाणुराया कालाईदोसन अपत्ता वि । गुणसंपया परत्य विन पुलहा होइ जवाणं ॥ १३५ ॥ गुणरत्तस्स य मुणिणो गुरुयाणाराहणं हवे पियमा । बहुगुणरयणनिहाणा तण अहि जन को वि ॥ १३६॥ तिहं उप्पमिश्रारं अम्मापिणो तहेव नट्टिस्स । धम्मायरियस्स पुणो नणिअं| गुरुणो विसेसे ॥१३७॥ श्रणवत्थाई दोसा गुरुआणाराहणे जहा हुँति । हुँति य कयन्नुआए गुणा गरेका ज जणिया ।। १३८ । नाणस्स होइ जागी थिरयर दसणे चरिते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥ १३॥ सधगुणमूलट नणि आयारपष्ठमसुत्तंमि । गुरुकुलवासो तत्य य दोसा वि गुणा जर्ज नणिरं ॥१४०॥ एयरस परिच्चाया सुद्धंगविणेब हिययाणि । कम्मा वि परिसुगुरुवाणावत्तिणो विति ॥ १४१॥ आयत्तया महागुण कालो विसमो सपरकया दोसा । इतिगजंगेण वि गहणं नणिशं पकप्पमि ॥ १४॥ गुरुआणाए चाए जिणवरआणा न होइ णियमेण । सञ्चंदविहाराणं हरिजद्दणं ज नणिरं ॥ १४३ ॥ एअम्मि परिचत्ते आणा खलु लगवळ परिच्चत्ता ।
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यतिलक
समुच्चय.
॥
५॥
तीए अ परिच्चाए पुण्ह वि लोगाण चा ति ॥ १४ ॥ नणु एवं कह नणि दितो गामजोश्नरपश्णो । जन्नर अपत्तविसए गुरुणो जग्गा न नावाणा ॥ १४॥ तित्थयरवयणकरणे आयरिश्राणं पए कयं होश् । एत्तोच्चिय नणिअमिणं श्यरेअरजावसंवेहा ॥ १४६॥ जिणकप्पाश्पवित्ती गुरुवाणाए विरोहिणी न जहा । तह कजंतरगमणे विसेसकङस्स पमिबंधो ॥ १७ ॥ जावस्स दुणिकेवे जिणगुरुआणाण होइ तुबत्तं । सरिसं पासा नणियं महाणिसीमि फुझमेयं ॥ १७॥ गुणपुमस्स वि वुत्तो गोअमणाएण गुरुकुले वासो। विषयसुदंसणरागा किमंग पुण वच्चमिअरस्स ॥१४॥ ण्य मोत्तधो एसो कुलवहुणाएण समयजणिएणं । वनानावे विश्ह संवेगो देसणाहिं ॥ १५० ॥ खंताश्गुणुक्करिसो सुविहियसंगेण बंजगुत्ती य । गुरुवेयावच्चेण य होइ महाणिकरालाहो ॥१५१॥ मूढो श्मस्स चाए एएहिं गुणेहिं वंचिळ हो। एगागिविहारेण य एस्सइ जणिशं च उहमि ॥१५॥ जह सागरंमि मीणा संखोहं सागरस्स असहंता। निति त सुहकामी निग्गयमित्ता विणस्संति ॥ १५३ ॥ एवं गन्चसमुद्दे सारणमाईहिं चोश्या संता । निति तर्ज सुहकामी मीणा व जहा विणस्संति ॥ १५॥ ॥ जणिश्रा श्रआयामि वि मुख दोसेण णावरियन्ति । तद्दिचीए इच्चाश्वयण गुरुकुलं गरुअंभ ॥.१५५ ॥ जं पुण नया सनिजा इच्चाईसुत्तमेगचारित्ते । तं पुण विसेसविसयं सुनिनणबुद्धिहि दध्वं ॥ १५६ ॥ पावं |विवजयंतो कामेसु तहा असामाणो श्र। तत्युत्तो एसो पुण गीयत्यो चेव संजव ॥१५७ ॥णागी अन्नाणी किं का- हिच्चाश्वयण णे । अवियत्तस्स विहारो अविय णिसियो फुझ समए ॥ १५८ ॥ गीयत्यो श्र विहारो बी गीयत्वनीसिट नणिर्छ । एत्तो तश्वविहारो नाणुन्नार्ड जिणवरेहिं ॥ १५॥ एगागियस्स दोसा इत्थी साणे तहेव पमिणीए।
॥ ५॥
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निरकविसोहि महन्वय तम्हा सविश्क्रए गमणं ॥ १६० ॥ जा अ अजान य सुविहो कप्पो य होइ विन्नेन । इक्किको पुण सुविहो सम्मत्तकप्पो असमत्तो ॥ १६१ ॥ गीयत्यजायकप्पो अगी पुण नवे अजान श्र। पाणगं समत्तकप्पो तदू
गो होइ असमत्तो ॥ १६ ॥ ननबछे वासासु सत्त समत्तो तदूणगो श्यरो । असमत्ताजायाणं हेण न हो आजर्व V॥१६३ ॥ ता गीयमि इमं खलु वयणं लानंतरायविसयंति । सुत्तं अवगंतवं णिनणेहिं तंतणीईए ॥१६४ ॥ कस्स |
पुणो तस्स वि विसमे काले तहा विए विहारे । जणववायजया ववनि एस तंतंमि ॥ १६५ ॥ कालंमि संकिलिके बकायदयावरो वि संविग्गो । जयजोगीणमलने पणगन्नयरेण संवसऽ ॥ १६६ ॥ य एगागिविहारे अइदंपत्य सुपरिसुके । गुरुकुलवासच्चा खेसेण वि लाव गस्थि ॥१६॥ गुणवं च गुरू सुत्ते जहत्यगुरुसद्दजायणं इको। श्यरो पुण विवरी गवायारंमि जंजणिअं॥१६॥ तित्ययरसमो सूरी सम्मं जो जिणमयं पयासेऽ। आणं च अश्कतो सो कापुरिसोण सप्पु रिसो ॥ १६ए । जायारो सूरी नहायाराणुविरक: सूरी । उम्मग्गनि सूरी तिमि वि मग्गं पणासंति ॥ १७० ॥ एए गुरुणो अगुणा पवारिहगुणेहिं पवळा । गुरुकुलवासो असया अरकयसीखत्तमवि सम्मं ॥ ११॥ खंती समो दमो वि अ तत्तणुत्तं च मुत्तअनासो । सत्तहिमि रयत्तं पवयणवतया गरुई ॥ १७२ ॥ जवाणुवत्तयत्तं परमं धीरत्तमविय सो
हग्गं । णियगुरुणाणुमाए पयंमि सम्म अवधाणं ॥ १३ ॥ अविसा परलोए बिरहत्योवगरणोवसमलछी । निनणं प्राधम्मकहितं गंजीरत्तं च इच्चाई ॥ ११४॥ उत्जयभूचियकिरियापरो इमो पबयणाणुरागी य । ससमयपणव परिण अ
पभोय अच्चत्यं ॥ १५ ॥ जो हेनवायपरकंमि हेज आगमे अ आगमिन । सो समयपासवर्ड सितविराहगो अमो
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यतिल ० ॥ ७६ ॥
| ॥ १७६ ॥ कलिदोमि विके एगाइगुणुज्जि वि होइ गुरू । मूलगुणसंपया जर अरक लिखा होइ जं जणां ॥ १७ ॥ गुरुगुणरहि वि इदं दवो मूलगुणवित्तो जो । न उ गुण मित्तविणोत्ति चंमरुद्दो उदाहरणं ॥ १७८ ॥ मूलगुणसंजु अस्स य गुरुणो वि य उवसंपया जुत्ता । दोसलवे विश्र सिरका तस्सुचित्रा एवरि जं जािं ॥ १७९ ॥ मूलगुणसंपत्तो न दोसलवजोग इमो हे । मडुरोवक्कम पुण पवत्ति वो जह्रुत्तंमि ॥ १०० ॥ पत्तो सुसी ससद्दो एव कुणते पंथगेणावि । गाढप्पमाइणो विदु सेलगसूरिस्स सीसे ॥ १०१ ॥ नए सेलगसेवाए जइ लऊं सेलगस्स सीसत्तं । तं मुत्तूण गयाणं ता पंचसयाण तमलब्धं ॥ १०२ ॥ तस्स य मूलगुणेसु संतेसुं गमछाणाई । तेसिं तस्स य जुत्तिरक माइ कह होंति वेहम्मा ॥ १०३ ॥ मूलगुणसंजुस्स य दोसे वि श्रवणं नवकमितं । धम्मरयमि नणि पंथगणायंति | चिंत मिणं ॥ १८४ ॥ जन्न पंचसयाणं चरणं तुलं च पंथगस्सावि । श्रहिगिच्च उ गुरुरायं विसेसि पंथ तहवि ॥ १८५ ॥ पियमेण चरणनावा पंचसयाणं पि जइ वि गुरुराजे । तहवि परिणामवसा उक्किो पंथगस्सेसो ॥ १०६ ॥ य एवं 5मेयं जं गोसालोवसग्गिए पाहे । क्षाविरका सुर्ज वाढं रत्तो सुरकत्तो ॥ १०७ ॥ पणुरते तहा रुन्नं सीहेए मालुनाकन्छे । तनावपरिणयप्पा पहुणा सद्दाविं श्र इमो ॥ १८८ ॥ कस्स वि कत्थई पीई धम्मोवायंमि दढयरा हो । यमुसावादा मूलतेवहा एवं ॥ १८९ ॥ श्रहिं पंथगस्स उ गुरुरागुक रिसर्ज । संगारो । गुरुसेवाइ स रत्तो अ अजय विहारे ॥ १० ॥ सेलयमापुवित्ता वगवित्ता पंथगं च अणगारं । गुरुवेयावच्चकरं विताएं पि को दोसो ॥ १५१ ॥ १ संविदुण्हगमणठाणाई |
समुच्चय.
॥ ७६ ॥
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गचे विधम्मविणयं जत्थुत्तरिय सनिक अपत्य । आपुचित्तु विहारो तत्थ जठे नासि कप्पे ॥ १५२ ।। संविग्गविहारी किं पुण तेसिं महाणुनावाणं । अह नवसंपयाणं कप्पिअनबोवयाराणं ॥ १३ ॥ धम्मविण वि तेसिं आपुत्रिय पहिआण जह परमो । तह तेहि गविअस्सविणायबो पंथगमुणिस्स ॥ १४ ॥ एसो वि अ मिढिलोत्ति य पमिमारिमयं यं हवा इत्तो । जं साइहि ण सिढिलो तक्कके अणुमन होइ ॥ १५ ॥ कप्पिअसेवालबावगासदप्पेण सेलगस्सावि । सिढिलत्तं उ जंगे मूलपइन्नाइ जं जणियं ॥ १६॥ सिढिलिअसंजमकझावि होचं उऊमति जइ पञ्चा । संवेगा तो सेल व आराया होति ॥ १९ ॥ पासत्ययाश्दोसा सिजायरपिंमलोअणाहिं । उववाडा य इत्तो णायनयएस्स वित्तीए ॥ १७ ।। अनुक विहारो एत्तोच्चिय मुत्तु तेण पमिबंधं । पमिवन्नो मूलाई वयनंगो पुण ज नणिरं ॥ १एए ।
अस्स जाव दाणं तावयमेगं पिणो अश्क्कम । एगं अश्क्कमंतो अश्क्कमे पंच मूलेणं ॥ २०॥ ॥ लववक उत्तरगुणविराहणए अहीलणिकत्तं । जह उ सुकुमालिआए ईसाणुववायजोग्गाए ॥ २०१॥णिकारणपमिसेवा चरणगुणं णास त्ति जं नणिरं । अप्नवसायविसेसा पनिबंधो तस्स पत्रुित्ते ॥ २० ॥श्य गुणजुयस्स गुरुणो सुक्ष्मवत्थं कयाइ पत्तस्स । सेवा पंगणाया जिद्दोसा होइ णायवा ।। २०३ ॥ जे पुण गुणेहि हीणा मिचद्दिठी य सवपासत्या। पंथगणाया मुझे सीसे बोलंति ते पावा ॥ २०४॥ चरणधरणाखमो वि असुद्धं मग्गं परूवए जो सो । तेण गुणेण गुरुच्चिय गायारंमि जं जणियं ॥ २०५॥ सुछ सुसाढुमग्गं कहमाणो जव तश्अपरकंमि । अप्पाणं इयरे पुण गिहत्यधम्मा चुकंति ॥ २०६॥ जइ वि न सकं का सम्म जिएनासिझं अणुष्ठाणं । तो सम्म नासिका जह जणि खीएरागेहिं ॥ २० ॥ सन्नो य
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यतिल०
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| विहारो कम्मं सोहे सुलहबोही । चरणकरणं विसुद्धं उववूहतो परूवंतो ॥ २०८ ॥ सम्मग्गमग्गसंपण साहूण कुइ वचनं । सहनेसद्रोण य सयमन्नेणं तु कारेई ॥ २०९ ॥ एयारिसो ए पावो असंजर्ज संजर्ज त्ति जंपतो । जर्जि तित्थयरेणं जं पावो पावसमणि ॥ २१० ॥ किं पुण तित्यपजावणवसेण एसो पसंसतिगुणो । सवाणुमो पाए | श्वाजोगा य जं जयिं ॥ २११ ॥ नाहि वरतरो हीणो विदु पवयां पजावतो । ए य डुक्करं करतो सुठु विप्पा | गमो पुरिसो ॥ २१२ ॥ ही एस्स वि सुझपरूवगस्स नाणा हिस्स कायद्या । इय वयणा तस्स वि सेवा उचिया सुसा|हूणं ॥ २१३ ॥ तम्हा सुरूवगमास गुरुं एा चेव मुंचति । तस्सालाई सुविहिया सविसेसं उमंति पुणो ॥ २१४ ॥ एक अवमन्नंतो वृत्तो सुत्तंमि पावसमणुत्ति । महमोहबंधगो वि खिंसंतो अपरितप्तो ॥ २१५ ॥ सविसेसं पि जयंतो | ते सिमवऊं विवकए सम्मं । तो दंसणसोही सुद्धं चरणं लहइ साहू ॥ २१६ ॥ इय सत्तलकणधरा आणाजोगे गलि - अपामला । पत्ताणंतजीवा सासयसुरकं णाबाहं ॥ २१७ || सिनिस्संति अता सिनंति अपरिमिश्रा विदेहं मि । सम्मं पसंसगिको तम्हा एयारिसी साहू ॥ २९८ ॥ एया रिसो छ साहू महासर्ज होइ दूसमाए वि । गीयत्यपारतंते पुष्पसर्हतं जर्ज चरणं ॥ २१९ ॥ जो पुण अविरलत्तं दहुं साहूए जाइ छे । तस्स उ पायवित्तं एयं समयंमि जवठ्ठ | ॥ २२० ॥ जो जइ एत्थ धम्मो ण य सामइअं ण चैव य वयाई । सो समणसंघबनो कायबो सबसंघेण ॥ २२१ ॥ बहुमुंमाश्वया श्राणाजुत्तेसु गहिप निबंधो। विहरंतो वि मुणिच्चिय अग हिलग हिलस्स एीईए ॥ २२२ ॥ श्रत्थपयनावणाएं अरत|स्स सुझ चित्तस्स । दोसलवे विविएस्सइ ए जावचरणं जर्ज नणियं ॥ १२३ ॥ वकुसकुसीले हि तित्थं दोसलवा तेसु यम
समुच्चय.
॥ 99 ॥
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संजविणो । जइ तेहिं वज शिको अवजपिको त एत्थि ॥ २२४॥ श्रसयसुचि तर्ज गुरुपरतंतस्स सुद्धलिंगस्स नावजइत्तं जुत्तं अप्पाणिरयस्स ॥ २२५ ॥ इय सत्तक्षरकएत्यो संगहिजे सुबदुतंतवक्कत्थं । फुरुवाको वि य जणि सपरे सिमणु|ग्गहठ्ठाए ॥ २२६ ॥ तवगण रोहणसुर गिरिसिरिणय विजया जिहाल विबुहाण । सीसेणं पि र पगरणमे सुहं दे ॥ २२७ ॥
॥ इति श्री तिलक्षणसमुच्चयप्रकरणम् ॥
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यतिलक
समुच्चय
॥७
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॥इति श्रीयतिलकणसमुच्चयप्रकरणम् ॥
॥3
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॥ अथ नयरदस्यप्रकरणम् ॥ ऐन्छश्रेणिनतं नत्वा वीरं तत्वार्थदेशिनम् ॥ परोपकृतये ब्रूमो रहस्यं नयगोचरम् ॥ प्रकृतवस्त्वंशग्राही तदितरांशाप्रतिक्षेपी अध्यवसायविशेषो नयः । पुनयस्याप्यधिकृतांशाप्रतिक्षेपित्वात्तत्रातिव्याप्तिवा-1 रणाय प्रकृतवस्त्वंशग्राहीति । एवं च तत्पदे तन्निन्नप्रतिपंश्रिधर्मोपस्थिते न दोषः । प्रकृतवस्त्वंशग्राहित्वमपि पुनयेऽतिव्याप्तमेवेति तदितरांशाप्रतिक्षेपीति । सप्तनंगात्मकशब्दप्रमाणप्रदीर्घसन्तताध्यवसायैकदेशेऽतिव्याप्तिवारणायाध्यवसायपदम् । रूपादिग्राहिणि रसायप्रतिक्षेपिण्यपायादिप्रत्यदप्रमाणेऽतिव्याप्तिवारणाय विशेषपदम् । नयाः प्रापकाः साधका निवर्तका निर्नासका उपलंजका व्यञ्जका इत्यनान्तरमिति नाष्यम् । अत्र प्रापकत्वं प्रमाणप्रतिपन्नप्रतियोगिप्रतियोगिमनावापन्ननानाधर्मकतरमात्रप्रकारकत्वम् । साधकत्वं तथाविधप्रतिपत्तिजनकत्वम् । निवर्तकत्वमनिवर्तमान निश्चितस्वालि-Y प्रायकत्वम् । निर्जासकत्वं शृंगग्राहिकया वस्त्वंशज्ञापकत्वम् । उपलंनकत्वं प्रतिविशिष्टक्षयोपशमापेक्षसूक्ष्मावगाहित्वम् ।। व्यञ्जकत्वं च प्राधान्येन स्वविषयव्यवस्थापकत्वम् । एवं च पदार्थ प्रतिपादयन्नपि नाष्यकारस्तत्त्वतो लक्षणान्येव सूत्रितवान् । यद्येवं नयानामध्यवसायरूपता, कगं तर्हि "उवएसो सोए णाम ति" सत्यं, नयजन्योपदेशे नयपदोपचारात्।। तथाप्येते तंत्रान्तरीयाः, स्वतंत्रा बा चोदकपदग्राहिणो मतिजेदेन विप्रधाविता, उजयथापि मिथ्यात्वमिति चेन्न, प्रमाणापेदत्वेनैतेषामुजयवैशक्षण्यात् । स्वविषयप्राधान्यरूपस्वतंत्रतायाश्च मिथ्यात्वाप्रयोजकत्वात् । गौणत्वमुख्यत्वयोर्हस्वत्वदी-/
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नयरहस्य
॥ ७९ ॥
र्घत्वयोरिवापेक्षिकवस्तुधर्मत्वात् । प्रपञ्चितं चेदमन्यत्रेति नेह प्रतन्यते । श्रत एव नैकस्मिन्नर्थे नानाध्यवसायरूपाणामेतेषां विप्रतिपत्तित्वमप्याशंकनीयम्, सत्त्वजीवाजीवात्मकत्वद्रव्यगुणपर्यायात्मकत्वचतुर्दर्शनविषयत्वपञ्चास्तिकायावरुङ्घत्वषड्व्यक्रोमी कृतत्व धर्मैरेकत्व द्वित्व त्रित्वचतुष्वपञ्चत्वषत्वाध्यवसायानामिव पर्यायविशुद्धिवशात् पृथगर्थग्रादिणां मतिज्ञानादीनामिवैकत्रार्थे प्रतिनियत विषय विभागशालिनां प्रत्यक्षादीनामिव वा नैगमाद्यध्यवसायानामविरुधनानाधर्मग्राहित्वेऽप्यवि । प्रतिपत्तिरूपत्वादिति संप्रदायः । अत्र च त्रिनिर्निदर्शनैर्विरुद्धधर्मग्रा हित्वांशग्राहित्वप्रमितिवैलक्षण्यत्वानां विप्रतिपत्तित्वसाधक हेतूनाम सिद्धिव्य निचारप्रदर्शनादिष्ट सिद्धिरिति विभावनीयम् । स्यादेतत् एकत्वादिकं न वास्तवसंख्यारूपं, किं तु | विभिन्नधर्मप्रकार कबुद्धिविषयत्वरूपं तच्च मिथो न विरुद्धं, नयविषयीभूतं नेदानेदादिकं तु विरुद्धमेवेति । मैवम् । सतामेवैकत्वादीनां बुद्धिविशेषेणाभिव्यक्तेः, अन्यथा तद्विषयत्वायोगादेकत्रप्रमीयमाणत्वेन चाविरोधात्, तघदेव जेदा| दीनामविरोध इति जावनीयम् । एकैकपदोक्तदोषापत्तिस्तु जात्यन्तरत्वाच्युपगमान्निरसनीया । दृष्टा हि वैकस्यपरिहारेण तत्प्रयुक्तायाः परस्परानुवेधेन जात्यन्तरमापन्नस्य गुरुशुंठी प्रव्यस्य कफपित्तदोषकारिताया निवृत्तिः । नेयं जात्यन्तरनिमित्ता, किं तु मिश्रो माधुर्यकटुकत्वोत्कर्षहानिप्रयुक्तेति चेन्न, ६योरेकतरबलवत्त्व एवान्यापकर्षसंजवात् तन्मन्दतायामपि मन्द पित्तादिदोषापत्तेश्च । एतेनेतरेतरप्रवेशादेकतरगुणपरित्यागोऽपि निरस्तः अन्यतरदोषापत्तेरनुभवबाधाच्च । अथ समुदितगुरुवं । द्रव्यं प्रत्येकगुरुशुंठीच्यां विभिन्नमेकस्वनावमेव व्यान्तरं, न तु मिथोऽनिव्याप्यावस्थितोजयस्वनावं जात्यन्तरमिति चेन्न, तस्या व्यान्तरत्वे विलक्षणमाधुर्यकटुकत्वाननुजवप्रसंगात्, एकस्वभावत्वे दोषघयोपशमाहेतुत्व
प्रकरणम्.
॥ ५ ॥
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प्रसंगात्, उजयजननकस्वनावस्य चानेकत्वगत्वेन सर्वकत्वायोगादेकया शक्त्योजयकार्यजननेऽतिप्रसंगादिजिन्नस्वजावानुनवाच्च । तस्मान्माधुर्यकटुकत्वयोः परस्परानुवेधनिमित्तमेवोजयदोषनिवर्तकत्वमित्यादरणीयम् । ननु जात्यन्तरत्वेऽपि
प्रत्येकदोपनिवृत्तिरिति नैकान्तः, पृथस्निग्धोष्णयोः कफपित्तकारित्ववत् समुदितस्निग्धोष्णस्यापि माषस्य तथात्वादिति । बाचेन्न, मापे स्निग्धोषणत्वयोर्जात्यन्तरात्मकत्वाजावादन्योन्यानवेधेन स्वजावान्तरजावनिवन्धनस्यैव तत्त्वात्, अत्र च |
स्निग्धोष्णत्वयोर्गुञ्जाफले रक्तत्वकृष्णत्वयोरिव खंशोव्याप्त्याऽवस्थानात् , जात्यन्तरात्मकस्निग्धोष्णत्वशालिनि च दामिम Vश्लेष्मपित्तोजयदोषाकारित्वमिष्टमेव, “स्निग्धोष्णं दामिमं रम्यं श्लेष्मपित्ताविरोधि चेति” वचनादिति संप्रदायः । यद्यपि
जात्यन्तरत्वं न प्रत्येककार्याकारित्वेन नियतं, नेदानेदेन जेदाजेदव्यवहारात , तथापि विजिन्नधर्मयोरनिन्याय समावेश एवोक्तनिदर्शनमन्यत्रोक्तम् । नृसिंहनिदर्शनं तु समावेशमात्र एव, तत्र नृत्वसिंदत्वयोरन्यान्यनागावच्छेदेनैव समावेशात् ।। न च नेदानेदाद्यसमावेश एव, अनुजवबाधात् । न च सामान्यतोऽसमावेशव्याप्तिकरूपनादनुभवन्त्रान्तत्वम् , प्रतियोग्यादिगर्जतया विशिष्यैव दानेदाद्यसमावेशव्याप्तिकटपनादिति तु तत्त्वम् । अव्यपर्याययोर्वास्तवोऽन्नेद एव संख्यासंझालदा
कायनेदात्त्वस्वानाविको नेद इति तु न रमणीयम् , नेदस्यास्वानाविकत्वे संख्यादीनां निराखंश्नत्वात् । कथं तयकत्रैव कदाचिशुरुरित्येकवचनं,कदाचिच्च गुरव इति ववचनम् । उच्यतोऽव्यपर्याययोर्यथाक्रममुद्भूतानुद्भूतत्वविवक्षणावादन्यायानुसरणात् । यदा तूजयोरप्युद्भूतत्वं विवक्ष्यते, तदा नवतु। नन्वेवं पर्यायनयोद्भूतत्वप्रयुक्त विवक्ष्यैकत्रापि घटे “घटा” इति । प्रयोगापत्तिः, व्यनयोद्भूतत्त्वप्रयुक्तकत्वविवक्ष्या च"आपो दारा" इत्यादावष्येकवचनापत्तिः, उत्स्यविवक्ष्या च "मनुष्यो
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प्ररकणम्.
नयरहस्य
गन्ती"त्यादिप्रयोगापत्तिः । एकत्वधर्मितावच्छेदकत्वबहुत्वप्रकारकप्रत्यये'वाहेतुत्वेऽप्येकत्वमित्वन्यायेनैकत्वबहुत्वबोध- स्याप्रत्यूहत्वादेतादृशशब्दासाधुत्वान्नैता आपत्तय इति चेत्तथापि साधुत्वन्त्रान्त्या जायमानेदृशज्ञानप्रामाण्योपपत्तिरितिचेदत्र वदन्ति-नयविवदायां यधर्मप्रकारेणैकत्वबहुत्वविषयत्वं, तजन्यशाब्दबोधेऽपि तमप्रकारेणैवेति नोक्तदोषः। घटरूपादय एवेति ऽव्यार्थिकविवल्या तच्चैवंशाब्दबोधादूघटो रूपादय एवेति पर्यायार्थविवदया च तथैव शाब्दबोधात् । यदा तु व्यपर्यायनययोरेकत्वबहुत्वान्यां नोद्देशो, न वा विधानं, किं तु तपरागेण सत्वाद्येव प्रतिपिपादयिषितम् , तदा तान्यां "घटोऽस्ति" "रूपादयः सन्ति" इत्येवाजिलापः । यदा तूजयगोचरयोर्धर्मधर्मिजावेन प्रतिपिपादयिषा, तदा घटस्य | रूपादय इत्येवालिलापः । अवच्छेदकविनिर्मोकेनैकत्र बहुत्वं त्वनुशासनोपग्रहेणैव नयः प्रकाशयतीति नैकघटादौ “घटा"|| इत्यादिप्रयोगापत्तिः । साधुत्वज्रान्त्या जायमानहाने च विषयावाधरूपप्रामाण्यसत्त्वेऽपि स्वावच्छेदकधर्मानवधारणेन स्वपरव्यवसायित्वलक्षणं न प्रामाण्यं । घटस्य रूपादय इत्येकदैवैकवचनबहुवचनप्रयोगः, अत एव शबलरूपत्वे कथमेकतरप्रतिपत्तिरिति परास्तम् । सन्निकर्षविप्रकर्षा दिवशात् यथायोपशमं व्यपर्यायप्रधानन्नावेनार्थन्यायात् , जावेनाप्रधान-|| गुणजूतेऽपि वस्तुनि सत्त्वघटत्वादिप्रतिपत्तेः, तदिदमुक्तमर्पितानर्पितसिझेरित्यधिकं त्रिसूत्र्यालोके । धौ मूलजेदौ अव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । तत्र ऽव्यमात्रग्राही नयो ऽव्यार्थिकः, अयं हि व्यमेव तात्त्विकमन्युपैति, उत्पादविनाशौ पुन रतात्त्विको आविर्तावतिरोनावमात्रत्वात् । पर्यायमात्रग्राही पर्यायार्थिकः, अयं [त्पादविनाशपर्यायमात्रान्युपगमप्रवणः, व्यं तु सजातीयक्षणपरंपरातिरिक्तं न मन्यते, तत एव प्रत्यजिज्ञाद्युत्पत्तेः । न चैवमितरांशप्रतिक्षेपित्वाहुर्नयत्वम्, १ घट एव रूपादय इति ।
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॥6
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तत्प्रतिपस्य प्राधान्यमात्र एवोपयोगात्, एतद्विषयविस्तरस्तु नात्रानिधीयते ग्रन्थान्तरप्रसंगात् । आद्यस्य चत्वारो नेदा “नैगमः संग्रहो व्यवहार जुसूत्रश्चेति" जिननप्रगणिमाश्रमणप्रनृतयः । रुजुसूत्रो यदि व्यं नान्युपेयात्तदा " सुअस्स एगे अणुवत्ते एगं दबावस्सयं पुत्तं वइ त्ति" सूत्रं विरुध्येत । " जुसूत्रत्रर्जास्त्रय एव उव्यार्थिकनेदा" इति तु वादिनः सिद्धसेनस्य मतम् । अतीतानागतपरकीयजेदपृथक्त्वपरित्यागादृजुसूत्रेण स्वकार्थसाधकत्वेन स्वकीयवर्तमानवस्तुन एवोपयोगमात्रस्य तुझ्यांशध्रुवांशलक्ष्णद्रव्यान्युपगमः, अत एव नास्यासद्घटितनूतनाविपर्याय कारणत्वरूपञ्व्यत्वान्युपगमोऽपि । उक्तसूत्रं त्वनुयोगांशमादाय वर्तमानावश्यकपर्याये ऽन्यपदोपचारात्समाधेयम् । पर्यायार्थिकेन मुख्यs-| यपदार्थस्यैव प्रतिपादध्रुवधर्माधारांशऽव्यमपि नास्य विषयः शब्दनयेष्वतिप्रसंगादित्येतत्परिष्कारः । पर्यायार्थिकस्य त्रयो जेदाः "शब्दः समजिरूढ एवंभूतश्चेति" संप्रदायः । रुजुसूत्राद्याश्चत्वार इति तु वादी सिद्धसेनः । तदेवं सप्तोत्तरजेदाः । शब्दपदेनैव सांप्रतसमनिरूढैवंभूतात्मकनयनेदत्रयोपसंग्रहात्पंचेत्यादेशान्तरम् । ते च प्रदेशप्रस्थकवसतिदृष्टान्तैयथाक्रमं शुद्धिजाजः । तथा हि-नैगमनयस्तावद्धर्माधर्माकाशजीवस्कन्धानां तदेशस्य चेति षण्णां प्रदेशमाह । देशप्रदेशो नातिरिच्यते, "दासेन मे" इत्यादिन्यायादेशस्य स्वीयत्वेन तत्प्रदेशस्यापि स्वीयत्वाव्यभिचारात्पंचानामेव प्रदेश इति । | संग्रहः । व्यवहारस्त्वाद् — पञ्चानां प्रदेशस्तदा स्याद्यदि साधारणः स्यात्, यथा “पंचानां गोष्ठिकानां हिरण्यमिति” प्रकृते तु प्रत्येकवृत्तिः प्रदेश इति पञ्चविधः प्रदेश इति जणितव्यम् । नन्वेवं घटपटयो रूपमित्यपि न स्यात्, द्वित्वाश्रयवृत्तित्वबोधे तयोर्घटरूपमित्यस्यापि आपत्तेः द्विवृत्तित्वबोधे च प्रकृतप्रयोगस्याप्यनापत्तेरिति चेन्न स्यादेवैतादृशस्थले समुदि
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नयरहस्य
॥ ८१ ॥
तवृत्तित्वबोध एव व्यवहारसामर्थ्यात्, संग्रहाश्रयणात्तु सामान्यत एव साकांक्षत्वात् स्यादपि । जुसूत्रस्तु ब्रूते - पंचविध - प्रदेश इत्युक्ते प्रतिस्वं पंचविधत्वान्नयात् पंचविंशतिविधत्वप्रसंगः। न च सामान्यतस्तदन्वयान्न वाध इति वाच्यम्, विशेः पविनिर्मोकेण तदसिद्धेः । किं च, किमत्र पंचविधत्वम्, पंचप्रकारत्वमिति चेत् कः प्रकारः, संख्या वा, बुद्धिविशेष विषयत्वं वा, जेदो वा । नाद्यः, अनन्तेषु प्रदेशेषु पंचसंख्यावधारणा सिद्धेः । न द्वितीयः, पंचप्रकारकबुद्धिविषयत्वस्य प्रत्येकमना - विनः पंचस्वप्यजावात् । न च गेहेषु शतमश्वाइतिवत्प्रत्येकं प्रत्येकधर्मप्रकारकबुद्धिविषयत्वं, तत्सामान्यविश्रामेऽनन्वयात्, | विशेषविश्रामे च जजनानामान्तरत्वात् । न तृतीयः, अतिरिक्तनेदा निरुक्तेः । ततो जाज्यः प्रदेशः स्याद्धर्मास्तिकायस्य, | स्यादधर्मास्तिकायस्येत्यादि । शब्दनयस्तु प्रतिजानीते- श्रयुक्तमुक्तमेतदृजुसूत्रेण, नजनाया विकल्परूपत्वेनैकतरमादाय विनिगन्तुमशक्यत्वात्, धर्मास्तिकाय प्रदेशस्यापि धर्मास्तिकायत्वेन जजनी यत्वप्रसंगात् । तदेवमभिधेयं धर्मे धर्म इति वा प्रदेशो धर्मः, अधर्मेऽधर्म इति वा प्रदेशोऽधर्मः, आकाश आकाश इति वा प्रदेश आकाशः, जीवे जीव इति वा प्रदेशो नोजीवः, | स्कन्धे स्कन्ध इति वा प्रदेशो नोस्कन्ध इति । अत्र धर्माधर्मास्तिकायादेरक्यात्तत्प्रदेशस्य धर्मास्तिकायादिरूपतानतिप्रसक्तेति तथोक्तिः । जीवस्कन्धयोस्तु प्रतिस्वमनन्तत्वात् कथमधिकृतप्रदेशस्य सकलसन्तानात्मकत्वसंभव इति विवक्षितप्रदेशे सक| लसन्तानैकदेशविवक्षितसन्तानात्मकत्वप्रतिपादनाय नोजीवत्वनोस्कन्धत्वोक्तिरिति ध्येयम् । समजिरूढस्त्वाह- शब्देनापि न सूक्ष्ममीक्षाञ्चक्रे "धर्मे प्रदेश” इत्यादिवाक्यात्" कुंके बदर मित्यादे" रिव नेदप्रसंगात् । क्वचिदनेदे सप्तमी प्रयोगेऽप्यभेदे प्रकार|कबोधार्थ कर्मधारयस्यैवावश्याश्रयणीयत्वाद्वितीयपक्ष एव युक्त इति । एवंभूतस्त्वाह- देशप्रदेशकल्पनारहितमखंकमेव वस्तु -
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प्रकरणम्.
॥ ८१ ॥
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निधानीयम्, देशप्रदेशयोरसत्त्वात्, जेदे संबन्धानुपपत्तेः, अनंदे सहोक्त्यनुपपत्तेः । न च वन्ध्यहिमवदादिनाचानावावन्नेदक-: तयाकाशादिदेशसिद्धिः, परेण समं संवन्धस्यैवानुपगमात् तादात्म्यतमुत्पत्त्यन्यतगनुपपनेरिति दिक् ॥ प्रस्थको मगधदेशप्रमिझो धान्यमानविशेषः, तदर्थ वनगमनदारुबेदनक्षणनोकिरणलेखनप्रस्थकपर्यायाविनावेषु यथोत्तरशुद्धा नैगमजेदाः । अतिशुनैगमस्त्वाकुट्टितनामानं प्रस्थकमाह । व्यवहारेऽप्ययमेव पन्थाः । संग्रहस्तु विशुःचत्वात्कारणे कार्योपचार कार्याकरणकाले च प्रस्थकं नांगीकुरुते । न च तदा घटाद्यात्मकत्वप्रसंगः, तदर्थक्रियां विना तत्त्वायोगात् । घटादिशब्दार्थक्रिया तत्राप्यस्त्येवेति चेन्न, असाधारणतदर्थक्रियाकारित्वस्यैव तदात्मकत्वप्रयोजकत्वात् । तथापि प्रस्थकक्रियाविरहे। नायं प्रस्थको घटाद्यनात्मकत्वाच्च नाप्रस्थक इत्यनुलयरूपः स्यात् । न स्यात् , प्रतियोगिकोटी स्वस्यापि प्रवेशेन यावद्घटाधनात्मकत्वासिः । अर्थक्रियाजावाजावान्यां ऽव्यजेदान्युपगमे शजुसूत्रमतानुप्रवेश इति चेन्न, नैगमोपगतसंग्रहणाय क्वाचित्कतोपगमेन तदननुप्रवेशात् । इत्थं च व्यक्तिदात्तघ्यक्तिगतं प्रस्थकत्वसामान्यमपि नास्तीति नात्र कश्चिद्दोषो विना व्यवहारवाधमिति दिक् । जुसूत्रस्तु निष्पन्नस्वरूपोऽयक्रियाहेतुः प्रस्थकः, तत्परिचिन्नं च धान्यमपि प्रस्थक इत्याह, उत्जयसमाजादेव मानोपपत्तरेकतरविनाजाय परिवेदासंजवात् । कथं तर्हि प्रस्थकेन धान्यं मीयत इति करणरूपानुप्रविष्टस्य क्रियारूपाप्रवेशादिति चेत्, सत्यम्, विवदानेदामुनयरूपानुप्रवेशोपपत्तेरिति दिक् । शब्दसमनिरूढवंजूतास्तु प्रस्थकाधिकारझगतात् प्रस्थककर्तृगताधा प्रस्थकोपयोगादतिरिक्तं प्रस्थकं न सहन्ते । निश्चयमानात्मकप्रस्थकस्य जमवृत्तित्वायोगात्, बाह्यनस्थकस्याप्यनुपलंनकालेऽसत्येनोपयोगानतिरेकाचवणार, अन्ततो झानाकैतनगनुप्रवेशाधा।
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नयरहस्य
प्रकरणम्.
॥
२॥
न च ज्ञानाज्ञानात्मकत्वोजयनयविषयसमावेशविरोधात् प्रत्येकमनयत्वमाशंकनीयम्, तादात्म्येनोनयरूपासमावेशेऽपि विषयत्वतादात्म्यान्यां तनयसमावेशात्। विषयत्वमपि कथंचित्तादात्म्यमिति तु नयान्तराकूतम् , यदाश्रयणेनानिधानप्रत्ययानां तुट्यार्थत्वमुक्तमिति दिक्॥वसतिराधारता, सा च यथोत्तरशुधानां नैगमजेदानां लोके तिर्यग्लोके जंबूधीपेजरतक्षेत्रे तद्दक्षिणार्धे पाटलिपुत्रे देवदत्तगृहे तन्मध्यगृहे चावसेया । अतिशुधनगमस्तु वसन् वसतीत्याह । न चाधारताधारस्वरूपा तत्संयोगस्वरूपा वा, उज्जयथापि गृहकोण इव लोकेऽप्येकत्रितया तदविशेषात् किं विशुचितारतम्यं न ह्यत्र प्रस्थकन्यायवजौणमुख्यविषयकृतो विशेषोऽस्तीति चेत् सत्यम्, देवदत्तसंयोगपर्यायपरिणतगृहकोणक्षेत्रस्याखंगोत्राधर्मनेदावेशेन पृथक्कृतस्य यथाक्रमं गुरुगुरुतरविषये लेदोपचारेण विशुध्यपकर्षसंजवात्, अन्यथा लोके वसामीत्यन्वयस्यैवानुपपत्तिः । न हि कृत्स्ने खोके देवदत्तवसतिरस्ति, न च विनोपचारं कृत्स्नलोकरूढाबोकपदात्तद्देशोपस्थितिरस्ति । हन्तैवं |वृक्ष कपिसंयोग इत्यत्राप्युपचारः स्यादिति चेत्, कः किमाह, स्यादेवम् । कास्यविनिर्मोकेणान्वयोपपत्तौ किमुपचारेणेति चेत्, देशाग्रहे तहिनिर्मोक एव कथं । पदशक्त्यनुपग्रहादिति चेन्न, स्कन्धपरस्य वृक्षपदस्यैकत्वपरिणतिरूपस्कन्धपदार्थेनैवोपग्रहात्, । जेदविनि ठित एव वृक्षपदार्थ श्राश्रीयत इति चेन्नानुनवबाधेन तथाश्रयणायोगादिति दिक् । प्रयोगे क्वेत्याद्याकांक्षाबाहुट्याबाहुट्यकृतं विशुस्यविशुद्धिवैचित्र्यम् । अत एव वसन् वसतीति प्रयोगस्य व्युपरताकांदत्वात्सर्वविशुधनैगमजेदत्वमित्यपि वदन्ति । व्यवहारेऽप्ययमेवानुसरणीयः पन्थाः । न चात्र कथं वसन् वसतीति नेदः, पाटलिपुत्रादन्यत्र गतस्यापि पाटलिपुत्रवासित्वेनैव व्यवहारादिति चेत् सत्यम्, तत्र बहुकालप्रतिबच्चतमतगृहकुटुंबस्वामित्वाद्यर्थे
॥
२॥
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वासित्वपदोपचारेण तथाप्रयोगात् । वस्तुतो वसन्नेव वसतीति व्यवहारेणान्युपगमात्, अन्यथा नाद्य सोऽत्र वसतीति व्यवहारो न स्यात् । व्यवहारबलवत्त्वाबलवत्त्वेऽज्यासानन्यासाधीने इति नात्र निर्बलत्वाशंकापि युक्तेति दिक । संग्रहस्त। संस्तारकारूढ एव वसतीत्यन्युपैति, अन्यत्र हि वासार्थ एव तस्य न घटते । न चायं प्राग्वउपचारमप्याश्रयते । अत एवं मूले वृक्षः कपिसंयोगीत्यत्राप्येतन्मते मूलानिन्नो वृदः कपिसंयोगीत्येवार्थ इति दिक् । जुसूत्रस्तु येष्वाकाशप्रदेशेषु देवदत्तोऽवगाढस्तेष्वेव तकासमन्युपैति । संस्तारके तसत्युपगमे तु गृहकोणादावपि तपगमप्रसंगः । संस्तारकावचिन्नव्योमप्रदेशेषु तु संस्तारक एवावगाढो न तु देवदत्तोऽपीति न तत्रापि तसतिन्नणितिः । संस्तारकगृहकोणादी देवदत्तवसतिव्यवहारस्तु प्रत्यासत्तिदोषाचन्तिमूलकः । विवदिताकाशप्रदेशेष्वपि च वर्तमानसमय एव देवदत्तवसतिः नातीतानागतयोः, तयोरसत्त्वात्, प्रतिसमयं चलोपकरणतया तावदाकाशप्रदेशमात्रावगाहनासंनवाच्चेति दिक् । शब्दसमनिरूडैवंजूतास्तु स्वात्मन्येव वसतिमंगीकुर्वते । न ह्यन्यस्यान्यत्र बसतिसंचवः, संबन्धानावात्, असंबध्योराधाराधेयजावे चातिप्रसंगादिति दिक्।
एवमेनिः श्रुतोपदर्शितनिदर्शनैरेतेषां यथाक्रमं विशुमत्वमवसेयम् । अथैतेषां लक्षणानि वक्ष्यामः । निगमेषु नवोऽध्यवसायविशेषो नैगमः, तन्नवत्वं च लोकप्रसिधार्थोपगन्तृत्वम्, लोकप्रसिद्धिश्च सामान्यविशेषाधुनयोपगमेन निर्वहति ।। अथ स्वतंत्रसामान्यविशेषोजयान्युपगमे कणादवदुर्नयत्वम्, शवलतदन्युपगमे च प्रमाणत्वमेव. यथास्थानं प्रत्येक गौणमुख्यनावेन तऽपगमे च संग्रहव्यवहारान्यतरप्रवेश इति चेन्न, तृतीयपदाश्रयणे दोषालावात्, उपधेयसांकर्येऽप्युपाध्योरसां
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नयरहस्य
प्रकर
एम्.
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३॥
कर्यात् । श्राह अतिरिक्तसामान्यविशेषानन्युपगमे कथमनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धी,नहि ते अहेतुके, न वैकहेतूनवे, न वा निर्विषय एव दोषजे इति मैवम्, वस्तुत एव मृदादितुट्यपरिणामेनानुवृत्तिबुधेरूलताद्यतुट्यपरिणामेन च व्यावृत्तिबुझेरुपपत्तेरतिरितकटपने मानाजावात् । तमुक्तम्-" वस्तुत एव समानः, परिणामोऽयं स एव सामान्यम् । असमानस्तु विशेषो, वस्त्वेकमनेकरूपं तु"॥१॥इति । अतिरिक्तं तु सामान्य व्यक्तिष्वेकदेशेन समवेयात, कात्स्न्येन वा । आद्ये सावयवत्वप्रसंगः, अन्त्ये च प्रतिव्यक्ति नानात्वापत्तिः। न च व्यक्तिवृत्तित्वं सामान्यस्योपगम्यत एव, देशकात्य॑योस्त्वनुपगमादनुक्तोपालंज इति वाच्यम्, नक्तान्यतरप्रकारव्यतिरेकेणान्यत्र वृत्त्यदर्शनात, अत्रान्यतरप्रकाराश्रयणेऽन्यतरदोषापत्तेर्वज्रलेपत्वादिति संमतिटीकाकृतामजिप्रायः । प्रतिव्यक्तिपर्यायत्वे प्रतिव्यक्ति परिसमाप्त्यापत्तिः, अन्यथा तु चित्वादितुल्यतापत्तिरिति न्यायालोके समर्थितमस्माभिः। समानपरिणामरूपसामान्यान्युपगमेऽपि प्रतिविशेष तदन्यत्वाहिशेषादविशेष इति चेन्न, स्वजावदेन तहिशेषात् , अत एव समानत्वं सामान्यगर्नम्, तच्च तहे धुम्रहमिति परास्तम् । तथाप्यनुवृत्तिधीजननस्व-| जावपरिणामत्वेनानुवृत्तिधीजनकतात्माश्रयादिति चेन्न, वस्तुनस्तत्स्वनावस्य मृत्सरिमाणत्वादिना जनकत्वेऽदोषात्, जनक|ताया अपि परिणामरूपत्वेन नानात्वस्य दोषानावहत्वादेकत्वसंजवेन कार्यानुमानानुच्छेदादिति दिक् । अविषय एवायं - सामान्याकार इत्यपि न युक्तम्, बीजाजावात् । अनादिवासनादोषो बीजमिति चेन्न, वासनाया बोधरूपत्वे समनन्तरझानेपि तत्प्रसंगात् । विशिष्टबोधरूपत्वेन च किं वैशिष्टयमिति वाच्यम्, अनादिहेतुपरंपराजन्यत्वमिति चेन्न, तत्रापि तन्मात्राविशेषात्, समुशोर्मिकपनाया अपि चित्रहेतुस्वजावांगीकारं विना वक्तुमशक्यत्वादिति विवेचितमन्यत्र । विशे
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३॥
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पातिरेकेऽपि न प्रमाणमस्ति, विशेषाणामिव नित्यप्रव्याणामपि स्वत एव व्यावृत्तत्वात्, अन्यथा नित्यगुणेष्वपि तत्करूपनप्रसंगात् । श्राश्रयविशेषेणाश्रितव्यावृत्तेर्नायं दोष इति चेदाश्रित विशेषेणाश्रयव्यावृत्तिरित्येव किमिति नाप्रियते, सदविशिष्टमेव सर्व जेदप्रतियोगित्वानुयोगित्वादेः स्वरूपसंबन्धात्मकत्वेनाप्यन्ततो जगदैक्यपर्यवसानात, नेदस्या विद्योपकहिपतत्वात् तथैव श्रुतिस्वरसादित्यद्वैतवादिश्री हर्षमतमपि न रमणीयम्, जेदस्यावास्तवत्वे तदजावरूपानेदस्यापि तथात्वात्, तादात्म्यस्यापि जगतः पौनरुक्त्याद्यापत्त्या सर्वथा वक्तुमशक्यत्वाच्चेत्यन्यत्र विस्तरः । " ऐगेहिं माणेहिं मिइत्ति य गमस्स य निरुत्ति त्ति " सूत्रम् । नैकमानमेयविषयोऽध्यवसायो नैगम इत्येतदर्थः । नैगमेष्वनिहिताः शब्दास्तेषामर्थः | शब्दार्थपरिज्ञानं च देशसमग्रग्राही नैगम इति तत्त्वार्थनाप्यम् । अत्र पूर्वदलं मक्तलक्षणकथनाभिप्रायम्, उत्तरदलं च |विषयविज्ञागविधा निरूपणा निप्रायमात्रं । देशग्राहित्वं विशेषप्रधानत्वं, समग्रग्राहित्यं च सामान्यप्रधानत्वं पारिभाषिकम् । अन्यथा सामान्यविशेषयोर्द्वयोरपि वस्त्वेकदेशत्वात् किं द्वैरूप्यं स्यात् । एवमस्य प्रमाणत्वं स्यात, न स्यात्प्रत्येकं नेदशस्तनय विशेषत्वेऽपि संयोजयविषयत्वायोगात् । अस्य च चत्वारोऽपि निदेपा अमिता नाम स्थापना प्रव्यं जावचेति । घट इत्यनिधानमपि घट एव " अर्थानिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया ” इति वचनात, वाच्यवाचकयोरत्यन्तनेदे प्रतिनियतपदशक्त्यनुपपत्तेश्च । घटाकारोऽपि घट एव, तुझ्यपरिणामत्वात् । अन्यथा तत्त्वायोगात्, मुख्यार्थमात्राभावादेव तत्प्रतिकृतित्वोपपत्तेः । मृत्पिंकादिव्यघटोपि घट एवान्यथा परिणामपरिणामिजावानुपपत्तेः । जावघटपदं चासंदिग्धवृ| चिकमेव । ननु नामादीनां सर्ववस्तुव्यापित्वमुपगम्यते, न वा । श्राधे व्यभिचारः, घनजिवाप्यनात्रेषु नामनिक्षेपाप्रवृत्तेः,
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नयरहस्य
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४॥
अव्यजीवव्याव्याद्यसिम्याजिलाप्यनावव्यापिताया अपि वक्तुमशक्यत्वाच्च । अन्त्ये “ जत्यविय ण जाणिजा चनक्कयं गिरिकवे तत्थ त्ति" सूत्रविरोधः, अत्र यत्तत्पदान्यां व्याप्त्युपस्थितेरिति चेदत्र वदन्ति, तत्तयन्निचारस्थानान्यत्वविशेषणान्न दोषः। तदिदमयुक्तम्, यद्येकस्मिन्न संजवति, नैतावता जवत्यव्यापितेति । अपरे त्वाहुः, केवलिप्रारूपमेव नामानन्निलाप्यन्नावेष्वस्ति, अव्यजीवश्च मनुष्यादिरेव, जाविदेवादिजीवपर्यायहेतुत्वात् । अव्यव्यमपि मृदादिरेव, आदिटव्यत्वानां घटादिपर्यायाणां हेतुत्वादिति । एतच्च मतं नातिरमणीयम्, व्यार्थिकेन शब्दपुजलरूपस्यैव नाम्नोऽज्युपगमात् । मनुष्यादीनां व्यजीवत्वे च सिधस्यैव जावजीवत्वप्रसंगात्, श्रादिष्ट व्यहेतुव्यव्योपगमे नावभन्योछेदप्रसंगाच्च । गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितो अव्यजीव इत्येकेषां मतं, एतदपि न सूदमम्, सतां गुणपर्यायाणां बुध्यापनयनस्य कर्तुमशक्यत्वात् । न हि यादृचिकज्ञानायत्तार्थपरिणतिरस्ति, जीवशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो जीवशब्दार्थज्ञस्य शरीरं वा जीवरहितं व्यजीव इति नाव्यापिता नामादीनामित्यपि वदन्ति । ननु तथापि नैगमेन नामादिचतुष्टयान्युपगमे तस्य
व्यार्थिकत्वव्याहतिः स्यात्, व्यार्थिकेन व्यस्यैवान्युपगमात्, व्यं पर्यायतया, पर्यायं च गौणतयान्युपगन्नन् व्यार्षिकोऽपि नावनिदेपसह इति । हन्त तर्हि त्वदुक्तरीत्या शब्दनया अपि व्यनिदेपसहा इति कथम् " जावं चिय सद्द
या सेसा वंति सवणिरकेवे ति” नाष्योक्तव्यवस्था । एतेन व्यार्थिकपर्यायार्थिकयोयोस्तुत्यवादेनोजयान्युपगमः, परमाद्यस्य सर्वथाऽजेदेनान्त्यस्य तु सर्वथा जेदेन ततो नैकस्योजयविषयत्वे विषयान्तरग्रहार्थमन्यकल्पनानुपपत्तिः, दादोपरागेपोजयग्रहार्थमुनयकट्पनावश्यकत्वादिति च्यार्थिकस्यापि पर्यायसहत्वमित्यपास्तम् । एवं सति पर्यायार्थिकस्य
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४॥
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शब्दादेरपि ऽव्यसहत्वापत्तेरत्यन्तजेदानेदग्राहिणोध्योः समुदितयोरपि मिथ्यादृष्टित्वादत्यन्तानंदे पर्यायच्यासडोक्ति संगात, तथा च गुणो ऽव्यमिति व्यार्थिकनयाजिलापानुपपत्तेः, अत्यन्तजेदेऽपि पर्यायार्थिकेन ऽव्यग्रहे ऽव्यार्थिकस्यान्तर्गफत्वप्रसक्तेः, एकस्मिन्व्यपदे पर्यायार्थिकनयमतेऽपि ऽव्यसामायिकमित्यस्याविरोधप्रसंगात्, एतन्मतस्य जाप्यकतैव निरस्तत्वाच्चेति चेदत्रोच्यते अविशुधानां नैगमन्नेदानां नामाद्यन्युपगमप्रवणत्वेऽपि विशुध्नंगमनेदस्य ऽव्यविशेषणतया पर्यायान्युपगमान्न तत्र नावनिक्षेपानुपपत्तिः । अत एवाह नगवान् लज्वाहुः-" जीवो गुणपमिवन्नो यस्स दवयिस्स| सामश्यं ति"। न चैवं पर्यायार्थिकत्वापत्तिः, इतरा विशेषणत्वरूपप्राधान्येन पर्यायानन्युपगमात् । शब्दादीनां पर्यायार्थिकनयानां तु नैगमवद विशुचनावान्न नामाद्यन्युपगन्तृत्वम् । वास्तवतविषयत्वं तु नोक्तविनागव्याघातायेति पर्यालोचयामः । ननु तथापि “णामाइतियं दवयिस्स जावो अपजावणयस्स त्ति" पूर्वमनिधाय पश्चात् “जावं.चिय सहया सेसा चंति सबणिरकेवे” तथा “ सबणया जावमिति ति" वदतां नाष्यकृतां कोऽनिप्राय इति चंदयमजिप्रायः-पूर्व शुचरणोपयोगरूपजावमंगलाधिकारसंबन्धान्नैगमादिना जलाहरणादिरूपजावघटान्युपगमेऽपि घटोपयोगरूपजावघटानन्युपगमात्तयोक्तिः, पृथगनिदेपाचन प्रत्ययस्यानिधानतुट्यता,अग्रे तुव्यवस्थाधिकाराविशेषोक्तिरिति मुख्यत्वरूपस्वातंत्र्येण नामादित्रयविषयत्वमेव च्यार्थिकस्येत्यजिप्रेत्य, मतान्तरेण वा तथोक्तिः, अत एव तत्त्वार्थवृत्तावपि अत्र चाद्या नामादयस्त्रयो विकटपा ऽव्यार्थिकस्य तथा तथा सर्वाषत्वात् । पाश्चात्यः पर्यायनयस्य तापरिणतिविज्ञानाच्यामिति । एतन्मतावष्टंलेनैव "जीवो गुणपमिवन्नो यस्स दवयिस्स सामश्यं । सो चेव पळवण्यध्यिस्स जीवस्स एम गुण" ॥१॥
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यरहस्य
प्रकरणम्
।
५॥
श्त्यावश्यकगाथा किं व्यं गुणो वा सामायिकमिति चिन्तायां व्यार्थिकनयमते गुणं प्रतिपन्नो जीवः सामायिकम्, पर्यायार्थिकनयमते तु जीवस्य गुण एव सामायिकमित्युत्तरम्, अत्र च व्यपर्यायनययोः शुशव्यपर्यायावेव विषयौ, तत्र पर्यायव्ययोर्विजिन्नयोः कल्पितयोः कुंमलतापन्नं स्वर्ण पत्रस्य नीलतेत्यादाविव, विशेषणतयानिधानं तु न स्वविषयव्याघातायेत्यभिप्रायेण महता प्रबन्धेन जाष्यकृता व्याख्याता । मतान्तरानिप्रायेण तु पर्यायार्थिक एवं व्यस्य कट्रिपतस्य विशेषणत्वम्, प्रव्यार्थिके तु प्रागुपदर्शितदिशा पर्यायस्याकहिपतस्यापि विशेषणत्वं न्याय्यमेव । न च नये विशेषणं कहिपतमेवेति नियमः " सावजाजोगविर तिगुत्तो उसु संज। जवउत्तो जयमाणो आया सामाश्यं हो"॥१॥ इत्यत्र संग्रहनयस्वीकृतात्मसामान्यसामायिकविधिनियमनाय प्रवृत्तानां पर्यायशुधिमतां व्यवहारादिनयानां यावदेवंजूतमुत्तरोत्तरपर्यायकदंबकविशेषणोपरागणैव प्रवृत्तिदर्शनात् । न च तत्र पर्यायनयानां संग्रहस्वीकृतविधिविशेषपर्यवसानार्थ पर्यायवि|शेषणमुज्या प्रवृत्तावपि सविशेषण इत्यादिन्यायानुपर्यायविधावेव तात्पर्यात्, अन्यनयविधिनियमानुद्देशलक्षणस्वातंत्र्येण नयानां स्वविषयनिर्देशे विशेषणस्य कहिपतत्वनियम एवेति वाच्यम् । तथाप्यन्यत्वस्य स्वविषयविलक्षणविषयत्वरूपस्य निवेशेन नैगमन्नेदेषु विशुधनैगमे विशेषणस्य पर्यायस्याकरिपतत्वसिझेरप्रत्यूहत्वादित्यस्मानिरनुशीलितः पन्थाः समाकलितस्वसमयरहस्यैर्दिव्यदृशा निजालनीयः । नैगमाद्युपगतार्थसंग्रहप्रवणोऽध्यवसायविशेषः संग्रहः । सामान्यनैगमवारणाय गमाद्युपगतार्थपदम् । संग्रहश्चविशेषविनिर्मोकोऽशुचविषयविनिर्मोकश्चेत्यादिर्यथासंजवमुपादेयः । तेन न
१ प्राण्युपदर्शितेति.
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प्रस्थकस्थले सामान्यविधेरैऽसंग्रहादनुपपत्तिस्तत्प्रवणत्वं च तन्नियतबुझिव्यपदेशजनकत्वम् , तेन न नानार्थरूपसंग्रहस्य नयजन्यत्वानुपपत्तिदोषः। “संगहियपिंमियत्यं संगहवयणं समास बिति ति" सूत्रम् । अत्र संगृहीतं सामान्याजिमुखग्रहणगृहीतं पिंतिं च विवदितैकजात्युपरागेण प्रतिपिपादयिषितमित्यर्थः । संगृहीतं महासामान्यं, पिमितं तु| सामान्यविशेष इति वार्थः। " अर्थानां सर्वेकदेशसंग्रहणं संग्रह” इति तत्त्वार्थनाष्यम् । अत्र सर्व सामान्यमेकदेशश्च । विशेषस्तयोः संग्रहणं सामान्यैकशेषः स्वीकार इत्यर्थः। अयं हि घटादीनां जवनानान्तरत्वात्तन्मात्रत्वमेव स्वीकुरुते, घटादिविशेषविकपस्त्वविद्योपजनित एवेत्यजिमन्यते । जगदैक्ये घटपटादिलेदो न स्यादिति चेन्न स्यादेव वास्तवः, रजौ सर्पध्रमनिबन्धनसर्पादिवदविद्याजनितः निर्वचनीयस्तु स्यादेवेत्याद्या एतन्मूलिका औपनिषदादीनां युक्तयः । अस्यापि चत्वारो निदेपा अनिमताः । ये त्वाहुर्नायं स्थापनामिति, संग्रहप्रवणेनानेन नामनिदेप एव स्थापनाया उपसंग्रहात् । न च " नामं आवकहियं होजा ज्वणा इत्तरिआ वा होजा श्रावकहिया वा होज ति” सूत्र एवानयोविशेषानिधानात्कथमैक्यरूप्यमित्याशंकनीयम्, पाचकयाचकादिनाम्नामप्ययावत्कथिकत्वात्तदव्यापकत्वात् । स्थूलनेदमात्रकअनम् पदप्रकृतिकृतिन्यां नामस्थापनयोर्जेद इति चेत् कथं तर्हि गोपालदारके नामेन्मत्वम् । अथ नामेन्प्रत्वं विविधं इन्छ इति पदत्वमेकमपरं चन्छपदसंकेतविषयत्वम्, आद्यं नास्ति, मितीयं च पदार्थ इति न दोष इति चेत्तर्हि व्यक्त्याकृतिजातीनां पदार्थत्वेनेन्स्थापनाया अपीपदसंकेतविषयत्वात कथं गोपालदारकवन्नामेन्ऽत्वम् । नामजावनिक्षेपसांकये
१ विधयोऽसंग्रहादिति.
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नयरहस्य
॥ ८६ ॥
पंरिहारायेन्द्रपदसंकेतविषयत्वं नामेन्द्रत्वं निरुच्यत इति चेमन्त तर्हि सोऽयं विशेषो नामस्थापनासाधारण एव संगृह्यतामिति तेन विचारचंचुरधियो देवानांप्रियाः उपचाररूपसंकेत विशेषग्रहे द्रव्यनिदेपस्याप्यनतिरेकप्रसंगात्, यादृचिकविशेषोपग्रहस्य चाप्रामाणिकत्वात, पित्रादिकृतसंकेतविशेषस्यैव ग्रहणान्नामस्थापनयोरैक्यायोगात् । एवं च बहुषु नामादिषु प्रातिस्विकैक| रूपा जिसन्धिरेव संग्रहव्यापार इति प्रतिपत्तव्यम् । ययैव संग्रह स्वीकारे तु नाम्नोऽपि जावकारणतया कुतो न प्रव्यान्तर्भाव इति वाच्यम् । प्रव्यं परिणामितया जावसंबधं नाम तु वाच्यवाचक नावेनेत्यस्ति विशेष इति चेत्तर्हि स्थापनाया श्रपि तुल्य| परिणामतया जावासंबद्धत्वात् किं न नाम्नो विशेष इति पर्यालोचनीयम् । स्यादेतत् पणणां प्रदेशस्वी कर्तुर्नैगमात् पञ्चानां | तत्स्वीकार इवात्रापि चतुर्निदेपस्वी कर्तुस्ततस्तत्रय स्वीकारेणैव संग्रहस्य विशेषो युक्त इति, मैवम्, देशप्रदेशवत् स्थापनाया उपचरित विजागाजावेन संग्रह विशेषादिति दिक् । लोकव्यवहारौपयिकोऽध्यवसाय विशेषो व्यवहारः । " वच्च विशिष्ठियां ववहारो सबदबेसुत्ति " सूत्र विनिश्चितार्थप्राप्तिश्चास्य सामान्यानन्युपगमे सति विशेषान्युपगमात् । श्रत एव विशेषेणावहियते | निराक्रियते सामान्यमनेनेति निरुक्त्युपपत्तिः । जलाहरणाद्युपयोगिनो घटादिविशेषानेवायमंगी करोति नतु सामान्यमर्थ क्रियाऽहेतोस्तस्य शशशृंगप्रायत्वाद् ननु घटोयं प्रव्यमित्यादौ घटत्वषव्यत्वादिकं कथमपह्नोतुं शक्यमिति चेन्न कथं चिदन्यापो| हरूपं तत्, न त्वतिरिक्तमित्येव परमुच्यते, अखंमाजावनिवेशाच्च नान्योन्याश्रयः । यदि चैवमप्यजावसामान्यान्युपगमापतिस्तदा तु सर्वत्र शब्दानुगमादेवानुगतव्यवहारः कारणत्वव्याध्यादौ परेणापीत्यमेवान्युपगमादित्यादिकं प्रपञ्चितमन्यत्र । " लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारइतितत्वार्थ जाष्यं” । विशेषप्रतिपादनपरमेतत् । यथा हिलोको
प्ररकणम्.
॥ ८६ ॥
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निश्चयतः पंचवर्णेऽपि चमरे कृष्णवर्णत्वमेवांगीकरोति तथायमपीति लौकिकसमः । न च कृष्णो भ्रमर इत्यत्र विद्यमानेतरवर्णप्रतिषेधाचान्तत्वम्, अनुद्भूतत्वेनेतराविवक्षा, तडुदासेऽतात्पर्यात्, उद्भूतवर्णविवकाया एवानिलापादिव्यवहारहेतुत्वात् । कृष्णादिपदस्योद्भूतकृष्णादिपरत्वाघाऽतात्पर्यज्ञं प्रत्येतस्याप्रामाण्येऽपि तात्पर्यज्ञं प्रति प्रामाण्यात्, लोकव्यव | हारानुकूलत्वात् । नापि निश्चयतः, अवधारणक्षमत्वादित्यसत्यमेव । ननु कृष्णो उमर इति वाक्यवत् पंचवर्णो मर इति वाक्यमपि कथं न व्यवहारनयानुरोधि, तस्यापि लोकव्यवहारानुकूलत्वात् श्रागमबोधितार्थेऽपि व्युत्पन्नलोकस्य व्यवहारदर्शनात्, लोकवाधितार्थबोधकवाक्यस्याव्यवहारकत्वे चात्माऽरूपवानित्यादिवाक्यस्याप्यव्यवहारकत्वापातात्तस्या|ध्यात्मगौरत्वादिबोधकलोकप्रमाणबोधकत्वाद्भ्रान्तलोकवाधितार्थवोधकत्वं चोजयत्र तुझ्यम् । प्रत्यक्ष नियंतैव व्यवहारविपयता, न त्यागमादिनियतेति तु व्यवहारपुर्नयस्य चार्वाकदर्शनप्रवर्तकस्य मतम्, न तु व्यवहारनयस्य जैनदर्शनस्पर्शिन इति चेत्सत्यम् । यद्यपि क्वचिददृष्टार्थे नैश्चयिक विषयतासंवलितव व्यावहारिकविषयता स्वीक्रियते, तथापि लोकप्रसिवार्थानुवादस्थले क्वचिदेव सेति कृष्णो भ्रमर इति वाक्ये स्वजन्यवोधे चमरविषयतानिरूपितपंचवर्णत्वाख्य विषयतायां व्यावहारिकत्वाभावान्न तथात्वमिति दिकू । कुंमिका स्रवति, पन्या गतीत्यादी बाहुल्येन गौणप्रयोगापचारप्रायः, | विशेषप्रधानत्वाच्च विस्तृतार्थ इति । अयमपि सकल निक्षेपान्युपगमपर एव । स्थापनां नेत्ययमिति केचित्तेषामाशयं न जानीमः । न हीन्द्रप्रतिमायां नेन्द्रव्यवहारो जवति, न वा जवन्नपि चान्त एव न वा नामादिप्रतिपदव्यवहार सांकर्यम
१ गौरखरवदरण्यमितिवत् २ गौरकवादि
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नयरहस्य |
प्रकरणम्
॥
७॥
स्तीत्यर्धेजरतीयमेतत् यत लोकव्यवहारानुरोधित्वं स्थापनानन्युपगन्तृत्वं चेति ॥ प्रत्युत्पन्नग्राह्यध्यवसायविशेष शजुसूत्रः “ पञ्चुप्पणग्गाही उकुसुन एयविही मुणेयबो त्ति" सूत्रम् । प्रत्युत्पन्नग्राहित्वं च जावत्वेऽतीतानागतसंबन्धानावव्याप्यत्वोपगन्तृत्वम् । नातोऽतिप्रसंगः । वर्तमानक्षणसंबन्धवदतीतानागतक्षणसंबन्धोऽपि कथं न जावानामिति चे६िरोधात् । अतीतत्वानतीतत्वयोरेव विरोधो, न त्वतीतत्वानागतत्वयोरिति चेन्न, अनागतत्वेनानतीतत्वाक्षेपात् । अतीतानागताकारज्ञानदर्शनादविरोधादिति चेन्न, प्रत्यहे तथाकारानुपरागात, प्रबुद्धे वासनादोषजनिततथाविकटपाच्च । वस्त्व सभेरनुनवाविशेषे विकहपाविशेष इति चेन्न, उपादानव्यक्तिविशेषेणोपादेयव्यक्तिविशेषादित्यन्यत्र विस्तरः । सता |सांप्रतानामर्थानामनिधानपरिज्ञानम्जुसूत्र इति तत्त्वार्थनाष्यम् । व्यवहारातिशायित्वं लक्षणमनिप्रेत्य तदातशयप्रातपा|दनाघेमेतमुक्तम् । व्यवहारो हि सामान्य व्यवहारानंगत्वान्न सहते. कथं तार्थमपि परकीयमतीतमनागतं चाप्याज|धानमपि तथाविधार्थवाचकम् , ज्ञानमपि च तथाविधार्थविषयमविचार्य सहेतेत्यस्याजिमानः। न चायं वृथानिमानः, स्वदशन कालयोरेव सत्ताविश्रामात्, यथाकथंचित् संबन्धस्य सत्ताव्यवहारांगत्वेऽतिप्रसंगात् । न च देशकालयोः सत्त्वं विहायान्यदातरिक्तं सत्त्वमस्ति यदयोगिता प्रकृते स्यात, असत्ताबोधोऽपि चास्ति, तन्न, सत्ताननुवेधात्, अन्यथा खरशृगादा |नामसत्ता न सिम्येत् । उद्देश्या सिम्ख्या व विधेया सत्तेति चेत, कथं तर्हि खरशृंगमसदिति व्यवहारः । खरवृत्त्यनावपात|| योगि श्रृंगमिति तदर्थति चेन्न. एतस्यार्थस्यास्वारसिकत्वात । तथाप्ययोगतानिश्चये कथं स्वारसिको यथाश्रुताबोध इति चेद्पादिस्थल इवाहार्ययोग्यतानिश्चयात, विकहपात्मकझाने तस्याप्रतिबंधकत्वाचा । तथा चोक्तं श्रीहर्षेणापि-अत्यं-17
॥
७॥
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तासत्यपि ह्यर्थे झानं शब्दः करोति हि । अवाधात्त प्रमामत्र स्वतःप्रामाण्यनिश्चलाम् ॥१॥ इति । अयासतो जावाश्रयत्वमन्नावप्रतियोगित्वं च लावधर्मरूपं न संजवतीति न तनिषेधो युक्तः। शशशृंगमस्ति न वेति पृवतो धर्मिवचनव्याघातेनैव निग्रहात्तत्रान्यतरान्जिधानेनोनयनिषेधेन तूष्णींनावेन वा पराजयाजावादिति चेन्न, यथा परेषां विशिष्टस्यातिरिक्तस्यासत्त्वेऽपि तत्रानावाश्रयत्वस्याज्ञावप्रतियोगित्वस्य वा व्यवहारस्तथास्माकमपि सपरागणासत्यपि विशिष्ट वझानिकसंबंधविशेषरूपतध्यवहारोपपत्तेः। शशशृंगमस्ति न वेति जिज्ञासुप्रश्ने शशशृंगं नास्तीत्येवानिधातुं युक्तत्वात्, आनुपूर्वी
दाउद्देश्य सिकेः । इत्यमेव पीतः शंखो नास्तीत्यादेरपि प्रामाण्योपपत्तेः । काट्पनिकस्याप्यर्थस्य परप्रतिबोधार्थतया कटिपताहरणादिवघयवहारतः प्रामाण्यात् । इत्यमेव नयाभेरुचिविशेषोपादानाय तत्र तत्र नयस्थले दर्शनान्तरीयपक्षग्रहस्य तांत्रिकैरिष्टत्वादिति दिक। अस्यापि चत्वारो निक्रपा अन्तिमताः ऽव्यनिदेपं नेत्ययमिति वादिसिघसेनमतानुसारिणः । तेपामुक्तसूत्र विरोधः । न चोक्त एवैतत्परिहार एतन्मतपरिष्कार इति वाच्यम्, नामादिवउपचरितव्यनिदेपदर्शनपरत्वामुक्तसूत्रस्य तदनुपपत्तरधिकमन्यत्र । आदेशान्तरे यथाान्निधानं शब्द इति त्रयाणामेक लहाणम् । नावमात्रानिधानप्रयोजकोऽध्यवसायविशेष इत्येतदर्थः । तेन नातिप्रसंगादिदोषोपनिपातः । तत्रापि प्रसिझपूर्वान्वब्दादर्थप्रत्ययः सांप्रत इति । सांप्रतलक्षणम् । प्रतिविशिष्टवर्तमानपर्यायापन्नेष नामादिष्वपि गृहीतसंकेतस्य शब्दस्य जावमात्रवोधकत्वपयवसायीति तदर्थः । तात्वं च नावातिरिक्तविषयांश नक्तसंकेतस्याप्रामाण्यग्राहकतया निर्वहति । तजातीयाध्यवसायत्वं च लक्षणमिति न कचिदनीदृशस्थलेऽव्याप्तिः, समनिरूढाद्यतिव्याप्तिश्च अध्यवसाये च तत्तदन्यत्वविशेषणदानान्निराकरणीया।
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नयरहस्य
॥
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संप्रदायेऽपि विशेषिततर जुसूत्राजिमताभग्राही अध्यवसायविशेष इतिशब्द इत्यापादितसंझान्तरस्यास्य लक्षणम् ।
प्रकरणम् "श्व विसेसियतरं पच्चुप्पम ए सदो त्ति” सूत्रम् । अत्रापि तरप्रत्ययमहिम्ना विशेषिततमाधोवर्तिविषयग्रहणान्न समनिरूढाद्यतिव्याप्तिरिति स्मर्तव्यम् । जुसूत्राहिशेषः पुनरस्येचं नावनीयः। यत संस्थानादिविशेषात्मा लावघट एव परमार्थः सन् तदितरेषां तत्तुट्यपरिणत्यनावेनाघटत्वात् । घटव्यवहारादन्यत्रापिघटत्वासिपिरिति चेन्न, शब्दाजिलापरूवपव्यवहारस्य संकेतविशेषप्रतिसन्धाननियंत्रितार्थमात्रवाचकतास्वनावनियम्यताविषयतथात्वेऽतंत्रत्वात्, प्रवृत्त्यादिरूपव्यवहारस्य चासिझेः । घटशब्दार्थत्वाविशेषे नावघटे घटत्वं नापरत्रेत्यत्र किं नियामकमिति चेत्, अर्थक्रियेवेति गृहाण । अत एवात्रानुपचरितं घटपदार्थत्वम्, अन्यत्र तूपचरितमिति गीयते विशेषः। अथवा जुसूत्रस्य प्रत्युत्पन्नो विशेषितः कुंज एवाभिमतः, अस्य तु मत ऊर्ध्वग्रीवत्वादिस्वपर्यायैः सन्नावेनार्पितः कुंजः कुल इति लण्यते । इदंत्वकुंजत्वाद्यवच्छेदेन स्वशिष्यनिष्ठस्वपर्यायावचिन्नतत्त्वसत्ताबोधप्रयोजकप्रकृतवाक्येबारूपगुर्वर्पणयाऽयमूर्ध्वग्रीवत्वादिना कुल एव कुंन ऊर्ध्वग्रीवत्वादिना कुंज एवोष्णादिवाक्यप्रयोगात् । इत्थमेवोद्देश्यसावधारणप्रतीतेर्वादान्तरोत्थापितविपरीतानिनिवेशनिरासस्य | च सिझेः इदमेव जंगान्तरेऽप्यर्पणप्रयोजनं बोध्यम् ॥१॥ पटादिगतैस्त्वक्त्राणादिनिः परपर्यायैरसन्नावेनापितोऽकुंनो जण्यते, कुंले कुंजत्वानवच्छेदकधर्मावचिन्नाकुंजत्वासत्त्वात् । नन्वेवं कुंजत्वानवच्छेदकप्रमेयत्वावच्छेदेनाप्यकुंजत्वापत्तिः, नानाधर्मसमुदायरूपकुंजत्वे प्रमेयत्वस्याप्यवच्छेदकत्वात् ॥२॥ तथा सर्वोऽपि घटः स्वपरोजयपर्यायैः सनावासनावान्याम-||॥७॥ र्पितोऽवक्तव्यो नण्यते, स्वपरपायसत्त्वासत्त्वान्यामेकेन केनापिशब्देन सर्वस्यापि तस्य युगपछत्तुमशक्यत्वात् । अथैकपद
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वाच्यत्वं घटस्य स्वपर्यायावचिन्नत्वोपरागेणापि नास्तीति तदवदेनाप्यवाच्यतापत्तिः, वस्तुतः स्वपर्यायावचिन्नस्यैकपदवाच्यवेनाव्यक्तत्वाजावे वस्तुतः कथंचिकुजयपर्यायावचिन्नस्याप्येकपदवाच्यत्वेन तात्यापनः, अन्यथा परपर्यायावचिन्नस्याव्यक्तत्वापत्तेः । विधेयांश एकपदजन्यस्वपरपर्यायोजयावचिन्नप्रकारकशाब्दबोधाविषयकत्वमेवावक्तव्यत्वमिति न दोष इति । चन्न, उत्जयपदजन्यस्याप्येकपदजन्यत्वाव्यभिचारात् । कुंजनञ्पदान्यामकुंजत्ययोधके हितीयनंगे पर्यायावदेनाप्यव्यक्तत्वोलेखापत्तः । प्रकृतेऽप्येकेन तकुलयादिसांकेतिकपदेन वोधसंजवाद्वाधाच्च । अथ स्वपरपयायोजयावविन्नेकविधेयताकशाब्दबोधाविषयत्वमेवावक्तव्यत्वम् । हितीयनंगे च कुंजनपदान्यामपि तात्पर्यवशादेकविधेयकबोधस्यैवोद्देश्यत्वान्नातिप्रसंगः, उजयादिपदाच्च बुधिस्थशक्तापुजयविधेयकबोधस्यैवोद्देशान्न बाध इति चन्न, अप्रसिः । विकल्पवलात्कथंचिअसिचावप्यनापेक्षिकत्वेन तत्र स्यात्पदप्रयोगानुपपत्तेः । तथा चापेदिकविशेष विश्रान्तवक्तव्यत्वप्रतिपक्षावक्तव्यत्वा सिधौ वक्तव्यत्वविषयस्याष्टमन्नंगस्यापत्तेः । अवक्तव्यत्वप्रतिपक्षस्य विशेष विश्रान्तत्वादेव नाष्टमनंगापत्तिरिति हि संप्रदाय इति चेन्न, प्रकृतिविधिनिषेधसंसर्गावविन्नकविधेयताकशाब्दबोधाविषयत्वरूपस्यावक्तव्यत्वस्य स्वपरपर्यायोजयाबछेदेन तृतीयगोपस्थित्या दोपाजावादवञ्चिन्नान्तोपादानादवक्तव्यत्वायकविधेयतामादाय न वाध इति दिक्॥३॥ एकस्मिन् देशे स्वपयायसत्त्वनापरस्मिंश्च परपर्यायासत्त्वेन विवदितो घटोऽघटश्च नस्यते । एकस्मिन् धर्मिणि देशलेदेन निन्नतया विवदिते एकवाक्याउनयवोधतात्पर्येण तथा बोधात् ॥४॥ एकस्मिन् देशे स्वपर्यायः सत्त्वेनापितोऽन्यत्र तु देशे स्वपरोजयपयायः सत्त्वासत्त्वान्यामर्पितोऽकुंनोऽवक्तव्यश्च लण्यते । देशलेदेनकत्र सत्त्वावक्तव्यत्वोचयबोधनतात्पर्यंकवाक्यण तथा वोधात् ॥५॥
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नयरहस्य
प्रकरणम्
॥जए॥
एकदेशे परपर्यायैरसनावेनार्पितोऽन्यस्मिंस्तु स्वपरपर्यायैः सत्त्वासत्त्वाच्यामेकेन शब्देन वक्तुमतिप्रेतोऽकुंलोऽवक्तव्यश्च न एयते । देशलेदेनैकत्रासत्त्वादवक्तव्यत्वोजयबोधनतात्पर्यैकवाक्येन बोधात् ॥६॥ तथैकस्मिन् देशे स्वपर्यायः सन्नावेनार्पितोन्यसिंस्तु परपर्यायैरसन्नावेनार्पितोऽपरस्मिंस्तु स्वपरोजयपर्यायैः सन्नावासनावान्यामेकेन शब्देन वक्तुमिष्टः कुलोऽकुंजोऽवक्त-| व्यश्चमण्यते। देशलेदेनैकत्र त्रयबोधनतात्पर्यैकवाक्येन तथाबोधादिति विशेषः॥७॥तथा च बनाषे नाष्यकारः। “अहवा पच्चु प्पन्नो, रिउसुत्तस्साविसेसि चेव । कुंजी विसेसि चेव, ऽकुंलोऽविसेसियतरोन ॥१॥ सप्लावादि हि सदस्स सनावासनावोजयप्पि । कुनाकुलावत्तबोनयरूवाश्ने सो ॥॥त्ति" अत्र कुनाकुनेत्यादिगाथार्धेन षडू नंगाः सादापात्ताः सप्तमस्त्वादिशब्दात्, तथाहि कुलोऽकुंलोऽवक्तव्यः कुंलश्चाकुंलश्च कुलश्चावक्तव्यश्चाकुलश्चावक्तव्यश्चेति त्रिविध उन्नयरूपः, आदिशब्दसंगृहीतश्च कुलोऽकुंलोऽवक्तव्यश्चेति सप्तनेदो घट इति । अत्र च सकलधर्मिविषयत्वात्रयो नंगा अविकलादेशाः, चत्वारश्च देशावचिन्नधर्मिविषयत्वाधिकलादेशा इति यद्यपीदृशसप्तनंगपरिकरितं संपूर्ण वस्तु स्यामादिन एव संगिरन्ते, तथापि जुसूत्रकृतान्युपगमापेक्ष्या एतदन्यतरलंगाधिक्यान्युपगमावन्दनयस्य विशेषिततरत्वमकुष्टमिति संप्रदायः। अथवा लिंगवचनसंख्या दिनेदेनार्थनेदान्युपगमादृजुसूत्रादस्य विशेषः । अयं खस्वतस्याशयः-यदि जुसूत्रण “पलालं न दहत्यग्निनिंद्यते न घटः क्वचित् । नासंयतः प्रव्रजति जव्यो ऽसियो न सिम्यति॥१॥इत्यादौ विकारावि काराद्यर्थकक्रियानामादिपदानां सामानाधिकरण्यानुपपत्त्या किं न तथाकट्पने अन्निलिविश्यतेति । अस्य चोपदर्शिततत्त्वो नावनिक्षेप एवाजिमतः । असंक्रमगवेषणपरोऽध्यवसायविशेषः समनिरूढः । “वत्थूट संकमणं, होश अवत्थू गए
॥ए॥
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समनिरूढे त्ति" सूत्रम् । सत्स्वर्थेष्वसंक्रमः समनिरूढ इति तत्त्वार्थनाष्यम् । तत्त्वं च यद्यपि न संझानेदेनाथनंदाच्युपगन्तृत्वम्, घटपटादिसंज्ञाजेदेन नैगमादिजिरप्यर्थन्नेदाच्युपगमात्, तथापि संझाजेदनियतार्थनेदान्युपगन्तृत्वं तत् ।। एवंजूतान्यत्वविशेषणाच्च न तत्रातिव्याप्तिः । अयं खट्वस्यानिमानः, यत यदि शब्दो लिंगादिलेदेनार्थनेदं प्रतिपद्यते तर्हि संज्ञानदेनापि किमित्यर्थनेदं न स्वीकुरुते, अनुशासनबलाद्घटकुटादिशब्दानामेकत्र संकेतग्रहादिति चेदृजुसूत्रणेव तेनान्यथागृहीतोऽपि संकेतो विशेषपालोचनया किमिति न परित्यज्यते । अथ येन रूपेण यत्पदार्थबोधस्तेनैव रूपेण तत्पदशक्तिः, जवति च घटपदादिव कुटपदादपि घटत्वेनेवार्थबोधः इति घटकुटपदयोः पर्यायत्वमेव युक्तमिति चेन्न, घटनकुटनादिविजिन्नक्रियापुरस्कारेणैव घटकुटादिपदेच्योऽर्थबोधात्। तेषामर्थनेदनियमादसमानाधिकरणपदत्वापेक्ष्या लाघवात् जिन्नपदत्वावच्छेदेनैव जिन्नारृत्वकट्पनात् पर्यायपदाप्रसिधेः । व्युत्पत्त्यर्थवोधं विनापि दृश्यते पदार्थबोधादिति चेन्न, अन्यत्र विपरीतव्युत्पन्नात्तदसिः । हन्तैवं पारिजापिकशब्दस्यानर्थकत्वमापन्नमिति चेदापन्नमेव किं हन्तेति पूत्कारेण ।।
तमुक्तं तत्र " पारिजापिकी नार्थतत्त्वं ब्रवीतीति"। अथार्थबोधकत्वमात्रे यदि पदत्वनावस्तदा यहवाशब्दसंकेतादपि मतदनिव्यक्तेः किं वैषम्यमिति चेन्न, पदानां व्युपत्तिनिमित्तोपकारेणैवाथबोधकत्वस्वाजाव्यात्, यदृन्डासंकेतोपप्लवादस्वना
वजूतस्यैव धर्मस्य ग्रहेण वैपस्यात् । अथ नानार्थकपदेऽर्थसंक्रमवदर्थेऽपि पदसंक्रमः किं न स्यादिति चेन्न, अर्थस्येव पदस्यापि क्रियोपरागण लेदार्थासंक्रमस्वीकारात, । हरीत्यादौ च पदसारूप्योवेकशेषः, न त्वर्थसारूप्यणेति दिक् । अस्याप्युपदर्शिततत्त्वो जावनिदंप एवानिमतः । व्यंजनार्थविशेषान्वेषणपरोऽध्यवसायविशेष एवंनूतः। "वंजण अत्य तफुलए
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नयरहस्य
प्रकरणम्
- ॥ए
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एवंनून विसेसे” इति सूत्रम् । व्यञ्जनार्थयोरेवंजूत इति तत्त्वार्थनाष्यम् । तत्त्वं च पदानां व्युत्पत्त्यर्थान्वयनियतार्थबोधकत्वान्युपगन्तृत्वम् । नियमश्च कालतो देशतश्चेति न समनिरूढातिव्याप्तिरपि । अयं खट्वस्य सिद्धान्तः-यदि घटपदव्युत्पत्त्यर्थानावात् कुटपदार्थोऽपि न घटपदार्थस्तदा जलाहरणादिक्रियाविरहकाले घटोऽपि न घटपदार्थोऽविशेषादिति । नन्वेवं प्राणधारणानावात् सिझोऽपि न जीवः स्यादिति चेदेतन्नये न स्यादेव । तदाह नाष्यकारः-" एवं जीवं जीवो, संसारी पाणधारणाणुनवा । सिको पुण अजीवो जीवणपरिणामरहिन त्ति ॥१॥ अत एव जीवो नोजीवोऽजीवो नोऽजीव इत्याकारिते नैगमदेशसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रसांप्रतसमनिरूढा जीवं प्रत्यौपशमिकादिनावपंचकग्राहिणः । तन्मते व्युपत्तिनिमित्तजीवनलक्षणोदयिकनावोपलहितात्मत्वरूपपरिणामन्नाव विशिष्टस्य जीवस्य नावपंचकात्मनः पदार्थत्वादित्यमी पंचस्वपि गतिषु जीव इति जीवव्यं प्रतियन्ति । नोजीव इति च नोशब्दस्य सर्वनिषेधार्थपदेऽजीवजव्यमेव, देशनिषेधार्थपदे च देशस्याप्रतिषेधाजीवस्यैव देशप्रदेशौ । अजीव इति नकारस्य सर्वप्रतिषेधार्थत्वात्पर्युदासाश्रयणाच्च जीवादन्यत् पुजलप्रव्यादिकमेव । नोऽजीव इति सर्वप्रतिषेधाश्रयणे जीवव्यमेव, देशप्रतिषेधाश्रयणे चाजीवस्यैव देशप्रदेशौ । एवंजूतस्तु जीवं प्रत्यौदयिकनावग्राहकः, तन्मते क्रियाविशिष्टस्यैव पदार्थत्वादित्ययं जीव इत्याकारिते लवस्थमेव जीवं गृह्णाति, न तु सिझम्, तत्र जीवनानुपपत्तेः । नोजीव इति चाजीवऽव्यं सिहं वा । अजीव इति चाजीवप्रव्यमेव । नोऽजीव इति च अवस्थमेव । जीवदेशप्रदेशौ तु संपूर्णग्राहिणानेन न स्वीक्रियेत इत्यस्माक प्रक्रिया । केचित्त्वेवंजूतानिप्रायेण सिद्ध एव जीवो जावप्राणधारणात्, न तु संसारीति परिनाषन्ते । तदाढुः-तिक्काले च पाणा, इंदियबलमानश्रा
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पाणो अ। ववहारा सो जीवो, पिवयदो मुचंदणा जस्स ।। १ ।। इति । न च चितनाशाली मंसायपि जीव एवंति वाच्यम्. शुद्धचैतन्यरूपनिश्चयप्राणस्य सिनैव धरणात् । न च संसारिचैतन्यमपि निश्चयतः शुक्ष्मेवोपरागस्य तेन प्रतिक्षेपात, तमुक्तम्-" मग्गणगुणगणेहि अचउदरा य हवंति तह असुझणया। विभेया संसारी सबे सुहान सुद्ध
या ॥१॥ इतीति वाच्यम् एकीकृतनिश्चयेन तयाग्रहणेऽपि पृथक्कृतनिश्चयजेदेन तदग्रहणादिति, तच्चिन्त्यम् । एवंजूतस्य जीवं प्रत्यादपिकनावग्राहकत्वात् । न चास्य क्रियाया एव प्रवृत्तिनिमित्तत्वाघात्वर्य एव लावनिपाश्रयणे शुभधर्मग्राहकत्वमप्यनावाधमिति वाच्यम्, यादृशधात्वर्षमुपलक्षाणी कृत्येतरनयायप्रतिसन्धानं तादृशधात्वर्थप्रकारकजिज्ञासर्यव प्रसंगसंगत्यैवं जूतानिधानस्य सांप्रदायिकत्वात् । अन्यथा तत्रापि निदेपान्तराश्रयणेऽनवस्थानात, प्रकृतमात्रापर्यवसानादबैते, शून्यतायां वा पर्यवसानात् । किंचताहगुपरितनवंचूतस्य प्राक्तनवं जूतानिधानपूर्वमेवानिधानं युक्तम् । अन्यथाऽप्राप्तकालत्वप्रसंगात् । तस्माध्यवहाराद्यजिमतव्युत्पत्त्यनुरोधेनौदयिकनावग्राहकत्वमेवास्य सूरिनिरुक्तं चैतदिति स्मर्तव्यम् । न चेन्जियरूपप्राणानां दायोपशमिकत्वात् कथमेवंजूतस्यौदयिकलावमात्रग्राहकत्वमित्वाशंकनीयम्, प्राधान्येनायुःकर्मोदयलक्षणस्यैव जीवनाथस्य ग्रहणात्, उपहतेन्धियेऽप्यायुरुदयेनैव जीवननिश्चयात् । ननु यदि जीवं प्रत्यौदयिकन्नाव एव गृह्यत एवंनूतेन, कथं तर्हि नावप्राणयोगानवतामपि सिखस्य जीवत्वं. मलयगिरिप्रतिनिरुक्तमिति चेत्, जावपञ्चकग्राहिनगमाद्यभिप्रायेणेति गृहाण । अत एव प्रज्ञापनादी जीवनपर्यायविशिष्टतया जीवस्य शाश्वतिकत्वमनिदधे । यदि पुनः प्रस्थकन्यायाधिशुभतरनेगमजेदमाश्रित्य प्रागुक्तस्वग्रन्यगाथा व्याख्यायते परः, तदा न किंचिदस्माकं मुष्यतीति
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नयरहस्य
प्रकरणम्.
किमट्पीयसि दृढतरदोदेन । सियोऽप्येतन्नये सत्त्वयोगात्सत्त्वः, अतति सततमपरापरपर्यायान् गबतीत्यात्मा च स्यादेव। अस्याप्युपदर्शिततत्त्वो जावनिक्षेप एवाजिमतः । तदेवं ललिताः सप्तापि नयाः ॥ एतेषु च यद्यपि क्षणिकत्वादिसाधने नित्यत्वादिपराकरणमेकान्तानुप्रवेशादप्रमाणम्, तथापि परेषां तर्क इव प्रमाणानां स्वरुचिशेषरूपाणामनुग्राहकत्वाउपयुज्यत इति संजाव्यते । तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्ति । एतेषु च बलवत्त्वाबलवत्त्वादिविचारेऽपेदैव शरणम् । निश्चयव्यवहारा निमतकारणानामानंतर्यपारंपर्यव्यवस्थितानामप्यपेक्षाऽविशेषात् । पूर्वेण परस्योपक्ष्याहिशेष इति चेन्न, श्यामात्रशरणत्वात् । क्रियानये स्वविषयसमवधाननियतेतरविषयसमवधानं विशेष इति चेन्न, चरमकारणीभूतक्रियाजनकज्ञानविषयत्वात् ज्ञान-|| नयस्यापि विशेषात् । क्रियानये कार्योपयिको विशेषो, ज्ञाननये तु व्यवहारोपयिक इति चेन्न, ज्ञाननयविशेषस्यापि परंपरया कार्योपयिकत्वात्, पारंपर्यानन्तर्ययोर्विशेषश्चेवामात्रादेवेत्युक्तम् । अत एवेतरकारणविशिष्टं चरमकारणं सामग्रीति सामग्रीलक्षणमन्यत्र निराकृतम्, विनिगमनाविरहात् । न च संबन्धलाघवं विनिगमकं, विशेष्य श्व विशेषणे तत्संबन्धग्रहावश्यकत्वे तदसिझेरिति दिक् ॥ स्यादेतत् । कुर्वदूपत्वाच्चरमकारणमेव क्रियानयानिमतं कारणं युक्तं, नान्यत्, अत एव क्रियासिस्येव कुर्वद्रुपत्वोपपत्तौ क्रियमाणं कृतमेवेति वदन्ति।न चैवं कृतकरणासमाप्तिः, सिधस्यापि साधने करणव्यापारानुपरमादिति वाच्यम्, कार्यमुत्पाद्य क्रियोपरमेण तत्समाप्तेः । न च यादृशव्यापारवतां दमादीनां पूर्व सत्त्वं, तादृशानामेव | तेषां क्वचिद् घटोत्पत्त्यनन्तरमपि संजवेत, तदा तनुत्पत्तिप्रसंग इति वाच्यम्, स्थूलतत्सत्त्वेऽपि सूदम क्रियाविगमात् । न च तक्रियायां घटोत्पत्तेः प्राक् सत्त्वे तदापि तमुत्पत्तिप्रसंगोऽसत्त्वे च कार्याव्यवहितपूर्ववृत्तित्वानावेन कारणत्वानुपपत्ति
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रिति वाच्यम्, कार्यव्याप्यतावच्छेदकपरिणामविशेषरूपकारणतायाः कायसहवृत्तितानियमात् । अत एव कुर्वद्रूपत्वमप्रामाणिकम् , वीजत्वादिना सांकर्याातिरूपतदसिबेरिति निरस्तम् । अथवं चक्रज्रमणाद्युपलहितदीर्घक्रियाकाले कुतो न दृश्यते घटः, यदि क्रियमाणः कृत एवेति चेन्न, क्रियाया दीर्घकालत्वासिधेश्चरमसमये तदन्युपगमात् । घटगतानिलापोकर्पयशादेव मृन्मर्दनाद्यान्तरालिककार्यकरणवेलायां घटं करोमीति व्यवहारात् । तमुक्तम्-"पइसमयकङकोमी, हिरवेरको घगयाहिलासोसि । पासमयकङकोमि, थूलमई घळं मिलाएसि ॥१॥ इति" । कृतस्यैव करणे क्रियावैफट्यमित्यपि न रमणीयम्, क्रिययैव निष्ठां जनयित्वा कार्यस्य कृतत्वोपपादनात् । कृतमेव क्रिया जनयति, नाकृतम्, असत्त्वात्, क्रियाजनितत्वाच्च कृतमित्यन्योन्याश्रय इति चेन्न, घटत्वादिनेव घटादिक्रियाजन्यत्वात्तत्र कृतत्वाप्रवेशादार्थादेव समाजात् कृतत्वोपपत्तेः । यदि च क्रियमाणं न कृतं, तदा क्रियासमये कार्यानावात्तत्पूर्व तत्पश्चाच्च कारणालावात्तत्कार्य न नवे|देव । सामग्र्यास्तउत्तरसमय एव कार्यव्याप्यत्वोपगमान्नैप दोप इति चेन्न, सामग्रीसमयस्यैव कार्यव्याप्यत्वोपगमौचित्यात, व्याप्तावुत्तरत्वाप्रवेशेन लाघवात, कारणानावस्यैव कार्यानावव्याप्यत्वेन कारणोत्तरकालेऽपि कार्यासिधेश्च । अथ क्रियमाणमित्यत्र वर्तमानत्वमानशोऽर्थः कृतमित्यत्र चातीतत्वं निष्ठार्थः, तत्र वर्तमानलं विद्यमानकालवृत्तित्वं, अतीतत्वं च विद्यमानध्वंसप्रतियोगिकालवृत्तित्वम्, विद्यमानत्वं च तत्तत्प्रयोगाधारत्वं, प्रयोगत्वं च तत्तदर्थोपस्थित्यनुकूलव्यापारत्वम् , तिप्युच्चारणदिसाधारणं, तदादेबुधिस्थत्ववश्वमादेः शक्यताववेदकतत्तत्कालानुगमकं, तच्च वर्तमानत्वमतीतत्वं वाधात्वर्थेऽ न्वेति, धातूत्तरप्रत्ययजन्यकालप्रकारकबोधे समान विशेष्यत्वप्रत्यासत्त्या धातुजन्योपस्थितेहेतुत्वात् , अत एव नातीतघट
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नयरहस्य
॥ ए२ ॥
का
ज्ञा नये घटं जानातीति प्रयोगप्रसंगः, न चैवमारंजसमये पचतीति प्रयोगो न स्यात्तदा पाकाजावादिति वाच्यम्, स्थूलादाय तत्समाधानात्, तस्मात् क्रियमाणं कृतमित्यन्वयानुपपत्तिरिति चेन्न । एवं सत्यारंजकाल इव तत्पूर्वकालेऽप्येकस्थ कालसंजवेन पचतीति प्रयोगप्रसंगाद्व्यवहारानुकूलप्रयोगादरस्य वस्त्वसाधकत्वात्, अन्यथा पुरुषो व्याघ्र इति प्रयोगा पुरुषस्यापि व्याघ्रत्वप्रसंगः। किं चैवं नष्टो घटो, नश्यन् घट इत्यादिप्रयोगव्यवस्थायां तव का गतिः, नाशस्योक्तातीतत्गात् । नष्टेऽपि घटे विद्यमाननाशप्रतियोगित्वाघा । अथ तत्रातीतत्वं वर्तमानत्वं च कृत्प्रत्ययार्थोत्पत्तावेवान्वेतीति व इति चेन्न, उक्त नियमजंगप्रसंगात् । धातुत्वप्रत्ययत्वादेर्नानात्वात् तन्नियमस्य विशिष्य विश्रान्तिरिति चेन्न श्र धातुपवत्त्वादिनापि तदनुगमात् । श्रयान्यत्राप्येकपदोपात्तत्वप्रत्यासत्त्या कृत्यादिस्वार्थ एव स्वार्थकालान्वययोः त्तिवैचित्र्यात् , न च पचत्यपि जाविकृतिना प्रागभावमाद्यकृतिध्वंसं चादाय पक्ष्यत्यपाक्षीदिति प्रयोगप्रसंग इति वाच्यं, कृतिप्रागभावचरमकृतिध्वंसयोर्जविष्यदती तप्रत्ययार्थत्वादिति चेन्न । जानातीत्यादौ धात्वर्थकालान्वयदर्शनात् । वा । तथापि कृत्प्रत्ययार्थोत्पत्तेः प्रातिपदिकार्थे घटे कथमन्वयोऽयोग्यत्वात् । परंपरासंबन्धेन तत्र तदन्वयोपपत्तिरिति चे विद्यमानघटे न नष्टो घट इति प्रयोगानापत्तेः । वृत्त्य नियामक संबन्धस्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वात्, उत्पत्तेः ध र्थे तस्य च प्रातिपदिकार्थेऽन्वयान्न दोष इति चेन्न नामार्थयोः साक्षात्रेदसंबन्धेनान्वयायोगात् । अन्यथा तं कुलं पचतं त्रापि कर्मत्वा संसर्गेण प्रातिपदिकार्थस्य धात्वर्थेऽन्वयप्रसंगात्, अनेदेन निपातान्यनामार्थप्रकारक बोधे समानविशेप्रत्यासत्त्या निपातप्रत्ययान्यतरजन्योपस्थितेर्हेतुत्वात् । नामार्थप्रकारकधात्वर्थविशेष्यक बोधासंनवेऽपि धात्वर्थप्रकार •
प्रकरणम्.
॥ ए२ ॥
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कनामायविशेष्यकवोधः प्रकृतंऽनपाय एवंति चन्न, चैत्रः पाक इत्यादी कनृत्यादिसंसर्ग पाकादश्चत्रादायन्वयावोधाय धात्वर्थप्रकारकबोधेऽपि निपातप्रत्ययान्यतरजन्योपस्थितेहेतुत्वान्तरकट्पनाकत्वात् । स्यादेतत् । अत्र नराधातोनाशवति लक्षणयाऽनंदनवास्तु प्रातिपदिकायन सममन्वयः । न च धात्वर्थस्याख्याताद्यर्थ एवान्वयनियमात् कयमेवमिति वाच्यं, शक्त्यैव धात्वर्थप्रकारकबोधे आख्यातादिजन्योपस्थितेर्हेतुत्वात्, अत एव जानातीत्यादौ झानधातोनिवति लक्षणया प्रातिपदिकार्थेनान्वयसंजवे श्राख्यातायोऽयोग्यत्वान्नमालत इति चिंतामणिकृतोतं युक्तम् । अन्यथा निरूपितत्वसंसर्गण ज्ञानप्रकारकाश्रयत्वविशेप्यकावान्तरशान्दयोधतद्धेतुत्वादिकल्पने गौरवात् । न च सामान्यतो हेतुत्वं क्लुप्तमेवेति व गौरवमिति वाच्यम्, तथापि तत्तदाकांक्षाज्ञानादिहतुताकट्पने गौरवादिति । मैवम् । तथा सति जानातीत्यत्राख्याताश्रसंख्यानन्वयप्रसंगात्, जावनान्वयित्वे वाख्यातार्थसंख्यान्वयात् । अयाख्यातार्थसंख्यान्वयो नावनाविशेष्यत्वं न तंत्रं, किं तु प्रथमान्तपदोपस्थाप्यमेवेति न दोष इति चेन्न, धात्वर्थप्रकारकबोधसामान्य एवाख्यातादिजन्योपस्थितेर्हेतुत्वानुक्येतिप्रवेशोगौरवात् , प्रजयतीत्यादावनन्वयप्रसंगाच्च । पाकोऽयमित्यादौ तु स्तोकं पचति स्तोकः पाक इति प्रयोगयोर्विशेषाय घजादीनां धात्वर्यतावच्छेदकविशिष्ट शक्तिस्वीकारान्न दोष इति दिक । अथ ज्ञातो घट इत्यत्र विषयस्येव नष्टो घट इत्यत्र प्रतियोगिनोऽपि प्रत्ययविशेपार्थत्वान्नान्वयानुपपत्तिरिति चेत्तथापि नाशोत्पत्तिकालेऽपि निष्ठाविरोधात् क्रियमाणं कृतमित्यन्वयोपपत्तेः पक्व इत्यादाविव सर्वत्र कालवृत्तिता विशेषरूपसिझत्वस्य निष्ठार्थत्वात् । तस्य चाद्यसमयावदेन साध्य-IN त्वेन सममविरोधात् । सिञ्चत्वविशिष्टसाध्यतायां वर्तमानार्थत्वात् , प्रारब्धोऽपरिसमाप्तश्च वर्तमान इति हि वैयाकरणाः,चिर
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नयरहस्य
॥ ए३ ॥
नष्टे इदानीं नष्ट इति, चिरोत्पन्ने चेदानीमुत्पन्न इति च प्रतीतिः समभिव्याहारविशेषादेतत्कालावविन्नसाध्यत्वविशिष्ट सि- प्रकरणम्. | त्वोपस्थित्यैव न भवति । इत्थमेव क्रियमाणं कृतमेव, कृतं च क्रियमाणत्वेन जजनीयमिति सिद्धान्तः संगछते । सिद्धत्वविशिष्टसाध्यतायाः सित्व नियतत्वात्, शुद्ध सिद्धतायाश्च विशिष्टसाध्यताऽनियतत्वात् । अस्तु वा विपरिणामस्वरूप निष्पत्त्यादिरूपाननुगतैव निष्ठा, समभिव्याहारविशेषादेव बोधविशेषोपपत्तेः । परमुक्तयुक्तेः क्रियाकालो निष्ठाकालं न विरुणश्रीति गंभीरनयमतं कियदिह विविच्यत इति, सत्यम्, निश्चयत इत्थमेव, तत्त्वव्यवस्थायामपि व्यवहारतोऽकुर्वतोऽपि नियतपूर्ववर्तिनः कारणत्वाभ्युपगमात् । अन्यथा पूर्व कुर्वत्त्वानिश्चये प्रवृत्त्यनुपपत्तिप्रसंगात् । किं चेदं कुर्वद्रूपत्वमपि सहकारिसंपत्तावेव नान्यथेत्यवस्थितकारणादेव सहकारिचक्रानुप्रवेशात् कार्योपपत्तौ किं कुर्वदकुर्वतोर्भेदाच्युपगमकष्टेन । न चोपादानोपादेयतावनियतैः कणैरेव कुर्वद्रूपत्वं नियम्यत इति वाच्यम्, क्षणत्वेन सर्वेषामविशेषादेकस्वभावस्य कुतोऽपि विशेषायोगात् । किं चैवं कार्ये न कारणानुमानोछेदः, सामान्यतः कारणताग्रहाजावात् । न च सादृश्येन तथाग्रहाददोषः, पूर्वापराननुसंधानेन पिकपदे सादृश्यस्यैव ग्रही तुमशक्यत्वादित्यादिकं व्युत्पादितमनेकान्त जयपताकादौ पूर्वसूरिभिः। अत एव क्रियमाणमेतन्नयेन कृतं, कारणचक्रसंपत्त्युत्तरमेव कार्यसिद्धेः । अन्यथा समसमावित्वे कार्यकारणजावव्यव| स्थायोगामुपादानोपादेयभावस्यापि परस्परोपमर्दनियतस्य क्षणभेद नियतत्वात् । न च वर्तमानत्वमतीतत्वं चैकत्र व्यवहार - सिद्धं न चानीदृशेऽर्थे प्रमाणावतारः, न च यत्किंचिद्व्यवहारदर्शनात् सर्वत्र तदनाश्वासो न्याय्य इत्यादिकं व्यवहार नि - | श्चययोर्मियो विवादमवलोक्य वस्तुस्थितिरन्वेषणीया । फलं पुनर्विचित्रनयवादानां जिनप्रवचन विषयरुचिसंपादनद्वारा राग
॥ ए३ ॥
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देषविलय एव । श्रत एवायं जगवडुपदेशोऽपि - सबेसिंपि याएं, बहुविहवत्तवयं हिसामित्ता । तं सबणयविसु, जं चरणगुण हि साहू ॥ १ ॥ ति चरणगुण स्थितिश्च परममाध्यस्थ्यरूपा, न रागद्दैष विलयमन्तरेणेति तदर्थमवश्यं प्रयतितव्यमित्युपदेशसर्वस्वम् ॥
यस्यासन् गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशया, ब्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः । प्रेम्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरः, सोयं न्यायविशारदः स्म तनुते कांचिन्नयप्रक्रियाम् ॥ १ ॥ ग्रन्थे दूषणदर्शने निविशते दुर्मेधसां वासना, जावाजिज्ञतया मुदं तु दधते ये केपि तेभ्यो नमः । मन्दारद्रुमपल्लवेषु करनाः किं नो नृशं देषिणो ये चास्वाद विदस्त देकर सिकाः श्लाघ्यास्त एव क्षितौ ॥ २ ॥ कृत्वा प्रकरणमेतत्प्रवचनजक्त्या यदर्जितं सुकृतम् । रागद्वेषविरहतस्ततोऽस्तु कल्याणसंप्राप्तिः ॥ ३ ॥
कृतं च भट्टारक श्रीहीरविजयसूरिशिष्यमहोपाध्याय श्रीकल्याणविजयगणिशिष्यपंडितश्रीलाभ विजयगणिशिष्य पंडितजीतविजयसतीर्थ्य पंडितनयविजयगणिशिप्यपंडितयशोविजयगणिना ||
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॥शति
परहस्यप्रकरणम् ॥
KA
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॥ अथ नयप्रदीपः ॥
ॐ श्रीवीतरागाय नमः ॥ a. ऐन्दादिप्रणतं देवं ध्यात्वा सर्व विदं हृदि । सप्तनंगनयानां च वये विस्तरमाश्रुतम् ॥१॥
अथ सप्तजङ्गी प्रारच्यते । जनानां तावत्सप्तजङ्गी विजिशासितव्या । सैव तेषां प्रमाणमिमारचयति । पुर्दमपरवादिवादमतङ्गजान् परिजिघृक्षवः सम्यक् स्वीयसिद्धान्तरहस्यं विजिज्ञासवो वादिमतलिकाः सम्यक्तामवश्यमन्यस्यन्ति । यमुक्तम्-"या प्रश्नाविधिपर्युदासनिदया बाधच्युता सप्तधा, धर्म धर्ममपेक्ष्य वाक्यरचना नैकात्मके वस्तुनि । निर्दोषा निरदेशि देव जवता सा सप्तनङ्गी यया, जट्पञ्जपरणाङ्गणे विजयते वादीविपदं हाणात् ॥१॥” तथा चायं शब्दः यत्किञ्चित्सदंशासदशनागान्यां च स्वीयमर्थ प्रतिपादयन् सप्तनङ्गानेव प्रत्यवतिष्ठते । “ सर्वत्रायं ध्वनिर्विधिनिषेधान्यां स्वार्थमजिदधानः सप्तनङ्गीमनुगबतीत" सूत्रम् । सा कीहक्स्वरूपति लक्षणमाह--" एकत्र वस्तुनि एकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कटपनया स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तनंगीति" सूत्रम् । एतस्यार्थः-एकस्य जीवाजीवादेः पदार्थस्य एकशो धर्मविषयपरिप्रश्ने सकलप्रमाणाबाध्यत्वेन निन्नाभिन्नविधिप्रतिषेधविनागान्यां प्रयुक्तः स्याचब्दांकितः सप्तविधत्वेन वाक्योपन्यासः सा सप्तनंगी विझेया। विधिः सदंशः। प्रतिषेधोऽसदंशः। पदार्थसार्थस्य सदंशासदंशधर्माद्यनेकप्रकारविजजनयाऽनन्तजंगीप्रसंगः तन्निरायासायैकपदोपादानं । विधिनिषेधाद्यनन्तध
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नय-1
॥ ए॥
मनंगी स्वरूपतः प्रदरतीयो जंगः । स्यादरवचनीयख्यापनाकपन
बाध्यासिते एकस्मिन् जीवाजीवादिवस्तुनि अनन्तधर्मपरिप्रश्नकालेऽनन्तजंगसंजवः तक्ष्यावृत्त्यर्थ एकैकधर्मपर्यनुयोगस्यो-|| प्रदीपः
पादानम् । एतेनानन्तधर्माध्यासितेष्वनन्तपदार्थेषु सत्स्वपि प्रतिपदार्थ प्रतिधर्म परिप्रश्नकाले एकैकशो वस्तुधर्मे एकैकैव सप्तनंगी जवतीति नियमः । अनन्तधर्मविवक्ष्या सप्तनंगीनामपि नानाकपनमनीष्टमेव, एतत्तु सूत्रकारेणैव ज्ञापितं ।। तथाहि-विधिनिषेधप्रकारापेक्ष्या प्रतिपर्यायं वस्तुन्यनन्तानामपि सप्तनंगीनां संजवात् प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां सप्तानामेव संजवादिति । अथ सप्तजंगी स्वरूपतः प्रदर्यते, तथाहि-स्यादस्त्येव सर्वमिति सदंशकपनाविजजनेन प्रथमो जंगः । स्यानास्त्येव सर्वमिति पर्युदासकहपनाविनजनेन वितीयो नंगः । स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेति क्रमेण सदंशासदंशकस्पनाविजजनेन तृतीयो जंगः । स्यादवक्तव्यमेवेति समसमये विधिनिषेधयोरनिर्वचनीयख्यापनाकट्पनाविजजनया चतुर्थो जंगः स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिप्राधान्येन युगपतिधिनिषेधानिर्वचनीयख्यापनाकट्पनाविनजनया पञ्चमो जंगः। स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधप्राधान्येन युगपतिधिनिषेधानिर्वचनीयकहपनाविजजनया षष्ठो नंगः। स्यादस्त्येव स्यान्नस्त्येव स्यादबक्तव्यमिति क्रमात् सदंशासदंशप्राधान्यकट्पनया युगपतिधिनिषेधानिर्वचनीयख्यापनाकट्पनाविनजनया च सप्तमोजंगः । अथार्थतः प्रथमन्नंग प्रचिकटयिषुराह-विधिप्राधान्यविवदायामयं जंगः। स्यादित्यनकान्तद्योतकमव्ययं । स्यादित्य. नेन कयश्चित्स्वकीयाव्यक्षेत्रकालजावचतुष्टयरूपेणास्त्येव घटादिवस्तु नास्त्येवान्यदीयव्यक्षेत्रकालजावचतुष्करूपेण । ॥ ५॥ तथाहि-घटो ऽव्यतः पार्थिवत्वरूपेण, नास्ति जलादिरूपेण । देवतः पाटलिपुत्रकत्वेन नास्ति कान्यकुब्जत्वेन । कालतः शैशिरत्वेन, नास्ति वासन्तिकत्वेन । लावतो रक्तत्वेन, नास्ति पीतत्वेन । एवं सर्वमन्यदेव ज्ञातव्यम् । स्वव्यादिचतुष्टयापे
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क्या कथञ्चिदस्ति, परऽव्यादिचतुष्टयापेक्ष्या नास्ति च घट इल्युलेखः । अन्यस्यान्यदीयरूपापत्तौ स्वरूपहानिप्रसक्तिः ।। एवकारेण त्वीदृगुलेखको नंग इत्यवधारणं स्यात् । अवधारणं च कर्तव्यम् । अन्यथाऽनुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् तथाप्यस्त्येव कुंन इत्येतावन्मात्रोपादानेन कुंजस्य स्तंजाद्यस्तित्वेनापि सर्वप्रकारेणास्तित्वप्राप्तेः प्रतिनियतस्वरूपानुपपत्तिः स्थात् तत्प्रतिपत्तये स्यादित्यायव्ययं प्रयुज्यते । कथञ्चिपेण स्वव्यचतुष्टयापेक्ष्याऽस्ति, परप्रव्यचतुष्टयापेझ्या नास्तीतिप्रयोगप्रतिपत्तये। तस्य तुप्रयोगो व्यवछेदफलैवकारबदनुत्तोऽपि ऽष्टव्यः। यमुक्तम्-“सोऽप्यप्रयुक्तो वा तजझैः सर्वत्रार्थात् प्रतीयते । यथैवकारोऽयोगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः ॥१॥" तत् एवकारस्यात्कारयोः सप्तस्वपि नंगेषु ग्रहणं प्रतिपत्तव्यम् ।। विधिप्रधानत्वादिधिरेव जंगः। अथार्थतो दितीयं प्रदर्शयन्ति-स्यान्नास्त्येवेति निषेधप्रधानकट्पनयाऽयं जंगः । यदेव नियतं साध्यसनावेऽस्तित्वं तदेव साध्यानावे साधनस्य नास्तित्वमनिधीयते। यथा घटः स्वऽव्यचतुष्टयरस्तित्वेन सिद्धः तथा मुद्गरसंयोगादिना नष्टः सन् नास्तित्वरूपेण सिजो नवति, अस्तित्वस्य नास्तित्वाविनानावित्वात् । तथा च दाणविनश्वराणां नावानामुत्पत्तिरेव विनाशे कारणमिप्यते । तमुक्तम्--" उत्पत्तिरेव नावानां विनाशे हेतुरिष्यते । योजाश्च न च ध्वस्त" इति उत्पत्तिरस्तित्वस्य सिद्धिं करोति । सैव विनाशापरपर्यायनास्तित्वस्य मूलकारणत्वादविनाजावः सिधश्च । न च तेनैव स्वरूपेणास्तित्वनास्तित्वयोरेकत्र स्थाने निरूपणनावाजावयोरेक्यापत्तेरनिष्टप्रसंग इति। जिन्नजिन्नसमयप्ररूपणायां नैष दोपः। प्रतिसमयदयित्वान्नापानां नापि यस्मिन समये उत्पादस्तस्मिन् समये विनाश इति मन्यतेऽस्माभिः, ततोऽस्तित्वस्याविनानावि नास्तित्वं सिद्धम् । एवं सर्व वस्तु स्वारऽव्यचतुष्टयापेक्ष्याऽस्ति नास्ति, अस्तित्वप्रधानदशायां प्रथमो जंगः। निषेधद
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नय
॥
६॥
शायां तु दितीयो नंगः। अथार्थतस्तृतीयजंगप्रकटयन्ति-स्यादस्त्येवं स्यान्नास्त्येवेति । सर्ववस्तु क्रमेण एव स्वपरजव्यादिच- प्रदीपः तुष्टयाधारानाधारविवक्ष्या प्राप्तपूर्वापरजावान्यां विधिनिषेधान्यां प्रधानतया विशेषितं तृतीयत्नंगनाग्वस्तु भवतीति, घटवत् । यथा घटः स्वीयाव्याद्यपेक्ष्या कथञ्चिदस्त्येव स्यात्, परब्यापेक्ष्या नास्त्येव स्यात् । विधिप्रतिषेधप्रधानोऽयं | तृतीयजंगः । अथार्थतश्चतुर्थनंग व्यक्तीकुर्वन्ति-स्यादवक्तव्यं युगपदिधिनिषेधकहपनया चतुर्थ इति सदंशासदंशयोर्षयोः समकालप्ररूपणा निषेधप्रधानोऽयं नंगः । तथाहि-विधिप्रतिषेधधर्मयोयुगपत्प्रधाननूतयोरेकस्य पदार्थस्य युगपविधिनिषेधघय इति प्रधान विधानविवक्षायां तादृक्शब्दस्या निर्वचनीयत्वादवक्तव्यं घटादिवस्तु, तस्य विधिप्रतिषेधधर्माकान्तस्यापि युगपद्यधर्मस्यावक्तव्यरूपत्वात् युगपविरुष्यधर्मस्याप्रयोगः शीतोष्णयोरिव सुखदुःखयोरिवानयोः क्रमेणैवार्थप्रत्यायने सामर्थ्यात् न तु युगपदिति, तक्तवतुसंकेतितनिष्ठाशब्दवत् । अथवा पुष्पदन्तशब्देन संकेतितवत् । निष्ठाशब्देन पुष्पदन्तशब्देन वा क्रमेणैव क्तक्तवत्वोः सूर्यचन्मसोश्चार्थप्रत्ययः, तेन धन्दादिपदानामपि युगपदर्थप्रत्यायकत्वमपास्तम् । धवखदिरौ स्त इत्यत्र क्रमेणैव ज्ञानं न युगपदिति । तथैव प्रत्ययत्वात् , समकालावाचकत्वात् । श्रवक्तव्यं जीवाजीवादि वस्तु युगपनिधिप्रतिषेधविकटपनया संक्रान्तमेव प्रत्यवतिष्ठते । अस्तित्वनास्तित्वधर्मविशिष्टोऽपि समकालं अस्तित्वनास्तित्वान्यां वक्तुम निर्वचनीयो घट इति फलितार्थः चतुर्थो नङ्गः। अथार्थतः पञ्चमनंग प्राशुष्कुर्वन्ति-स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमिति सदंशपूर्वको युगपत्सदंशासदंशानिर्वचनीयकट्पनाप्रधानोऽयं जंगः । स्वस्वऽव्यादिचतुष्टयविद्यमानत्वेऽपि सदंशोऽसदंश
का ॥ ६ इति प्ररूपणां कर्तुमसमर्थेऽस्मिन् नंगे सर्व वस्तु जीवादिस्वजव्यचतुष्टयापेक्ष्या समस्त्यपि विधिप्रतिषेधरूपान्यां वक्तुमनि
खयोरिवानयोः क्रमेणैवार्थप्रत्यायन
क्रमेणैव तक्तवत्योः सूर्यचनिष्ठाशब्दवत् । अथवा पुष्पदन्त
॥
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वचनीयं । अस्त्यत्र प्रदेश घटः सद्रयासान्यां योगपद्येन स्वरूपं निर्देष्ट्रमसमर्थत्वात् विधित्वेऽपि अवक्तव्य इति फलितार्थः पंचमो नंगः । अयार्थतः पठं गं प्रकटयन्ति स्यानारत्येव स्यादवक्तव्यमिति निषेधपूर्वको युगपतिधिनिषेधाविच-| नीयप्रधानोऽयं नंगः । परऽव्यादिचतुष्टयैरविद्यमानत्वेऽपि सदंशासदंश इति प्ररूपणां कर्तुमसमर्थेऽस्मिन् नंगे सर्व वस्तु जीवाजीवादिपरव्यचतुष्टयापेक्ष्या नास्त्यपि विधिप्रतिषेधरूपान्यां वक्तुमनिर्वचनीयम् । नास्त्यत्र प्रदेशे घटः सद्रपासद्रपान्यां योगपद्येन स्वरूपं निर्देष्ट्रमसमर्थत्वान्नास्तित्वेऽपि अवक्तव्य इति फलितायः षष्ठो नंगः । इदानीमर्थतः सप्तम|जंगमाविष्कर्वन्ति-स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमिति अनुक्रमेणास्तित्वनास्तित्वपूर्वको युगपरिधिनिषेधप्ररूपणानिपेधप्रधानोऽयं नंगः । इतिः सप्तनंगीसमाप्ती । स्वव्यादिचतुष्टयापेक्ष्याऽस्तित्वेऽपिपरव्यादिचतुष्टयापेक्ष्या नास्तित्वेऽपि 'विधिर्वा प्रतिषेधो वेति' प्रतिपादयितुमसमर्थेऽस्मिन् नंगे सर्व जीवादिवस्तु स्वव्यापेक्याऽस्ति, परऽव्यापेक्ष्या नास्त्यपि समसमयं विधिप्रतिषेधरूपान्यां सह युगपत्प्रतिपादयितुमसमर्थम् । यया स्वऽव्यापेक्ष्या नास्त्यत्र घटः, परऽव्या|पेक्ष्या नास्त्यत्र घटः विधिनिषेधरूपान्यां योगपद्येन स्वरूपं निर्देष्टुमशक्यत्वादवक्तव्यमिति स्फुटार्यः । इत्यतः स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमितिजंगेनोपदीत इति ॥ । नन्वेकस्मिन् वस्तुनि अनन्तधर्मकट्पनाऽङ्गीकारादनन्तजंगीयसंग इति तत्रोक्तं प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारे-" एकत्रवस्तुनि विधीयमाननिपिध्यमानानन्तधर्माच्युपगमेनानन्त नंगीप्रसंगादसंगतैव सप्तनंगीति न विधेयं चेतसि, विधिप्रतिषेधप्रकारापेक्ष्या प्रतिपर्यायं वस्तुन्यनन्तानामपि सतनगीनामेव संलयात् प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यार्ययोगाना सतानामेव संन
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प्रदीप:
वादिति । तथा च तत्रैव-" इयं सप्तनंगी प्रतिजंगं सकलादेशस्वजावा विकलादेशस्वजावा च प्रमाणप्रतिपन्नानन्तध- त्मिकवस्तुनः कालादिमिरजेदवृत्तिप्राधान्यादानेदोपचाराघा यौगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेशः, तहिपरीतस्तु विकलादेशः । के पुनः कालादयः। काल आत्मस्वरूपं अर्थः सबन्धः उपकारः गुणिदेशः संसर्गः शब्दः इत्यष्टौ । संग्रहश्च" कालात्मरूपसंबन्धाः संसर्गोपक्रिये तथा । गुणिदेशार्थशब्दाश्चेत्यष्टौ कालादयः स्मृताः॥१॥" विशेषार्थजिज्ञासुनिः स्याहादरत्नाकरे लघुवृत्तौ च अष्टव्यमिति ॥ यदत्र रजसात् किंचिहुरुक्तं मयका बुधैः । सप्तनंगीविवक्षायां शोध्य शास्त्रानुसारतः॥१॥
॥ इति सप्तभंगीसमर्थनः प्रथमः सर्गः॥
अथानुसप्तनंगं नयलक्षणान् प्रारजन्ते । नानास्वनावेच्यो व्यावृत्यैकस्मिन् स्वनावे वस्तु नयति प्राप्नोतीति नयः। प्रमाणेन संगृहीतार्थैकांशो नयः । ज्ञातुरजिप्रायः श्रुतविकटपो वा इत्येके । अनुयोगवृत्तिकृतस्तु सर्व त्रान न्तधर्माध्यासिते वस्तुनि एकांशग्राहको बोधो नय इति " नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशौदासीन्यतः सप्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः” एतस्यार्थः-येन प्रत्यक्षादिप्रमाणेन शब्दप्रमाणेन विषयीकृतस्य पदार्थस्यांशो अंशा वा नीयते प्राप्यते इतरांशौदासीन्यत्नावेन स नयः। अंश इत्येकवचनं जातावेकवचनम् । तदितरांशप्रतिहेपे तु तदानासताप्रसंगः । तदुक्तं पंचाशति-" निःशेषांशजुषां प्रमाणविषयीनूयं समासेजुषां, वस्तूनां नियतांशकट्पन
|॥
॥
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पराः सप्तश्रुता नंगिनः । औदासीन्यपरायणास्तदपरे चांशे नवेयुर्नया, श्चेदेकान्तकलंकपंककलुपास्ते स्युस्तदा पुर्नयाः। ॥१॥" जिनमते यत्किंचिन्नयविहीनं न भवति । यमुक्त विशेषावश्यके-" नस्थि नएहिं विहुणं सुत्तं अत्यो अजिएमए किंचि । आसजा न सोयारं नए नयविसार वूया ॥१॥” प्रसंगान्नयाजासलदाणमाह-स्वाभिप्रेतादशादितरांशापलापी नयाजासः । स्वस्येप्सिताद शादन्यार्थ प्रतिपद्यमानो नयवदानासमान इत्यर्थः न तु नयः यथान्यतीथिकानां नित्यानित्याद्यन्यतैरकान्तप्रदेशकवाक्यमिति । ते च नया विस्तार विवदायामनेकधा नवन्ति, नानावस्तुन्यनन्तांशानामेकैकांशविधायिनो ये वक्तु रुपन्यासाः। यमुक्तम्-" जावईया वयणपहा तावईया चेव इंति नयवादा” इति व्यासतो नयान् प्रवक्तुं न शक्यते । समासतो नयं प्रकटयन्ति- सफेधा प्रख्यार्षिकः पर्यायार्थिकश्च । यमुक्तम्-" णिचयववहारनया मूलिमनेदा एयाण सवाणं । णियसाहपहेक दद्यय पङघिया मुणह ॥१॥" अथ ऽव्यलक्षाएमाह-सत् प्रव्यलदाएं, सीदति स्वकीयान् गुणपर्यायान् व्याप्नोतीति सत, उत्पादच्ययधौव्ययुक्तमर्थक्रियाकारि च सत् । “यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । यच्च नार्थक्रियाकारि तदेव परतोऽप्यसत् ॥१॥” इति निजनिजप्रदेशसमूहैरखंमवृत्त्या स्वजाव विनावपर्यायान् ऽवति, प्रोप्यति, अमुगुवदिति ऽव्यं, गुणपर्यायवट्रव्यं वा, गुणाश्रयो अच्यं वा । यमुक्तं विशेषावश्यकवृत्तौ-“दवए
यए दोरवयवो विगारो गुणाण संवादो (सहयो)। दो जवंजावरस यजावं च जंजोग्गं ॥१॥" ऽवति तांस्तान् पर्यायान् प्राप्नोति मुंचति वा, छूयते स्वपर्यायैरेव प्राप्यते मुच्यते वा, दुः सत्ता तस्या एवावयवो विकारो वेति ऽव्यम् । अवान्तरसत्तारूपाणि ऽव्याणि महासत्ताया अवयवो विकारो वा नवन्त्येवेति जावः । गुणा रूपरसादयस्तेषां सन्नावः समूहः घटा
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दिरूपो अव्यम् । तथा ' नवं नावस्स त्ति' नविष्यतीति नावस्तस्य नाविनः पर्यायस्य योग्यं यद्रव्यं तदपि व्यं राज्यपर्यायाईकुमारवत् । तथा नूतं हि पश्चात्कृतो नावः पर्यायो यस्य तदपि अव्यमनुजूतघृताधारत्वपर्यायरिक्तघृतघटवत् । चशब्दाद्भूतनविष्यत्पर्यायं प्रव्यं जूतनविष्यघृताधारत्वपर्यायरिक्तघृतघटवत् । यद्योग्य नूतस्य जावस्य नूतनविष्यतोश्च जावयोरिदानीमसत्त्वेऽपि यद्योग्यमई तदेव जव्यमुच्यते नान्यत्, अन्यथा सर्वेषामपि पर्यायाणामनुभूतत्वादनुनविष्यमाणत्वाच्च सर्वस्यापि पुमलादेव्यत्वप्रसंगादिति गाथार्थः । प्रसंगायातौ स्वजावविजावी पर्यायी प्रदर्शयते-तत्रागुरुलघुजव्यविकाराः स्वनावपर्यायाः, तविपरीतः स्वनावादन्यथालवनं विनावः । तत्रागुरुलघुजव्यं स्थिरं सिधिक्षेत्रम् । यमुक्तं समवायांगवृत्तौ-"गुरुलघुप्रव्यं यत्तिर्यग्गामि वाय्वादि, अगुरुलघु यत् स्थिरं सिधिदेनं घंटाकारव्यवस्थितज्योतिष्कविमानादीनीति"। गुणविकाराः पर्यायास्ते च बादशधा-अनन्तासंख्यातसंख्यातनागगुणवृधिन्यां तानन्तासंख्यातसंख्यातनागगुणहानिन्यां च षट् षट् इति । विनावपर्यायास्तु नरनारकादिचतुर्गतिरूपाश्चतुरशीतिलयोनयो वा । गुणान् विनजते अस्तित्वं, वस्तुत्वं, सामान्य विशेषात्मक, व्यत्वं, प्रमेयत्वं, अगुरुलघुत्वं, प्रदेशत्वं, चेतनत्वं, अचेतनत्वं, मूर्तत्वं, अमूतत्वं, चेति व्याणां सामान्यगुणा दश । प्रत्येकमष्टौ अष्टौ सर्वेषां । शानदर्शनसुखवीर्यस्पर्शरसगन्धवर्णगतिहेतुत्व स्थितिहेतुत्वावगाहनहेतुत्वं वर्तमानहेतुत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं मूर्तत्वममूर्तत्वं चेति व्याणां पोमश विशेषगुणाः। प्रत्येकं जीवपुजखयोः षट्, इतरेषां त्रयो गुणाः, अन्त्याश्चत्वारो गुणाः, स्वजातिविजातियां सामान्यविशेषाश्च । प्रसंगतो जीवादिषव्याणां
१ भावस्य. २ विशेषात्मकत्वं. ३ प्रदेशवत्वं.
का
॥ए
॥
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खजावाः प्ररुप्यन्ते-अस्तिस्वजावः, नास्तिस्वजावः, नित्यत्वनावः, अनित्य स्वनावः, एकस्य नावः, अनेकस्व नावः, नेदस्वनावः, अजेदस्व नावः, जव्यस्व नावः, अजव्यस्व नावः, परमस्व नावः (च) एते स्व नावा ऽब्याणां सामान्याः। चेतनाचेतनमर्तामर्तकप्रदेश एतान् मुक्त्वा धमोदित्रयाणां (पोफश) १६ स्वन्नावाः। बहुप्रदेशस्वनावं मुक्त्वा कालस्य १५ (पंचदश) स्वलावाः । संग्रहश्च-एकविंशतिनावाः स्युर्जीवपुजलयोर्मताः । धर्मादीनां पोमश स्युः काले पंचदश स्मृताः ॥१॥" स्वनावा अपि गुणपर्याययोरन्तता एव ऽष्टव्याः, अन्यथा ऽव्यलक्षणे तयोरिव तेषामपि ग्रहणमजविष्यत् । उक्ता गुणाः, गुणविकाराः पर्यायास्तेऽप्युक्ता एव । एतच्च ऽव्यनयमिश्रितं विशेषार्थप्रतिपत्तये जवति । यमुक्तम्-"नानास्वजावसंयुक्तं व्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः । तच्च सापेक्षामित्यर्थ स्यान्नयैमिश्रितं कुरु ॥१॥" तदेव ऽव्यमर्थः प्रयोजनं यस्यासी
व्यार्थिकः। सोऽपि युक्तिकपनया दशधा । तग्राहि-अन्वयव्यार्षिकः,यया गुणपर्यायस्व नावं ऽव्यम् । स्वव्यादिग्राहको वा, यथा स्वाव्यचतुष्टयापेक्ष्या ऽव्यमस्ति । परयादिग्राहको वा, या परव्यादिचतुष्टयापेक्ष्या ऽव्यं नास्ति । परमनावग्राहको वा, या ज्ञानमय आत्मा, अत्राने केषां स्वजावानां मध्याज्ज्ञानाख्यपरमस्व जावो गृहीतः । कर्मोपाधिनिरपेदः शुधव्यार्थिको वा, यथा जीवः सिघसदृशः शुचात्मा । उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुधनव्यार्थिकः, यथा व्यं नित्यम् । नेदकल्पनानिरपेक्षः शुचनव्यार्थिको वा, यया निजपर्यायस्व नाचत्वादजिन्नं भव्यम् । कर्मोपाधिसापेदोऽसावशुद्ध
व्यार्थिकः, यथा क्रोधादिकर्मजन्नाव आत्मा । उत्पादव्ययसापेदोऽसावशुऽव्याधिकः, यौकस्मिन् समये ऽव्यमुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् । नेदकल्पनासापेदोऽसावशुष्व्यार्थिकः, यात्मनो दर्शनशानादयो गुणाः । उक्ता ऽव्यार्थिकस्य नेदाः।
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नय
प्रदीपः
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सांप्रतं पर्यायार्थिकनयं व्याचिख्यासुराह-पर्येति उत्पादमुत्पत्तिं विपत्तिं च प्राप्नोतीति पयार्यः। यमुक्तम्-" अनादि|निधने प्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् । जन्मऊन्ति निमऊन्ति कूलकबोलवङले ॥१॥” पूर्वोक्ता अपि षट् हानिवृधिरूपा नरनारकादिरूपाश्चेह पर्यायशब्देन गृह्यन्ते । पर्यायो हि वेधा-सहनाविपर्यायोऽथवा क्रमनाविपर्यायः। तमुक्तम्" पर्यायो विविधः, क्रमनावी सहजावीच, सहनावी गुण इत्यनिधीयते, पर्यायशब्देन तु पर्यायसामान्यस्य स्वव्यक्तिव्यापिनोऽनिधानान्न दोष इति”। तत्र सहनाविपर्याया गुणाः, यथात्मनो विज्ञानव्यक्तिशक्त्यादयः । क्रमनाविनः पर्यायास्त्वात्मनः, यथा सुखमुःखशोकहषादयः । पर्याया अपि स्वन्नावविनावाच्या व्यगुणान्यां च चतुर्नेदाः । तथाहिस्वजावणव्यव्यंजनपर्यायाश्चरमशरीरात् किंचिन्यूनसिपर्यायाः॥१॥ स्वनावगुणव्यंजनपर्यायाः, यथा जीवस्यानन्तचतुष्टयरूपाः॥२॥ विनावाव्यव्यंजनपर्याया यत्यादयः॥३॥ विनावगुणव्यंजनपर्याया मत्यादयः ॥४॥ पुजलस्यापि च्यणुकादयो विनावाव्यव्यंजनपर्यायाः ॥ ५ ॥ रसरसान्तरगन्धगन्धान्तरादयो विनावगुणव्यंजनपर्यायाः ॥ ६ ॥ अविनागिपुजलपरमाणवः स्वजावऽव्यव्यंजनपर्यायाः ॥ ७॥ वर्णगन्धरसकैकाविरुधस्पर्शष्ये च स्वजावगुणव्यंजनपर्यायाः ॥७॥ एवमेकत्वपृथक्त्वादयोऽपि पर्यायाः । उक्तं च-" एगत्तं च पुहत्तं च संखा संगणमेव च । संजोगो य विजागो य पळवाणं तु खरकणम् ॥१॥" पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्यासौ पर्यायार्थिकः। सोऽपि षडुविधस्तद्यथा-अनादिनित्यपर्यायार्थिको यथा पुजलपर्यायो मेदिनित्यः॥१॥ सादिनित्यपर्यायार्थिको यथा सिपर्यायो नित्यः॥२॥ सत्तागौणत्वे नोत्पादव्ययग्राहकस्वजावोऽनित्यशुभपर्यायार्थिको यथा समयं समयं प्रति पर्याया विनाशिनः॥३॥ सत्तासापेक्षस्वजावो
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नित्याशस्वनावो नित्या शुचपर्यायार्षिको कस्मिन् समये उत्पादध्ययध्रौव्यात्मकः पर्यायः ॥४॥ कर्मोपाधिनिरपे दास्वनावो नित्य शुधपर्यायार्थिको यत्रा संसारी जीवः सिसहक शुधात्मा ॥ ५॥ कर्मोपाधिसापेक्षस्वन्नावोऽप्यनित्याशुभपर्यायाथिको यत्रा संसारिणामुत्पत्तिमरणे स्तः ॥६॥ इत्युक्ताः पर्यायायिकस्य युक्तितः पड्नेदाः। - अन्य तयोः स्थानप्रधानमाह-ऽच्यास्तिकनयो दि नित्य स्थानमेवाह,ऽव्यस्य नित्यत्वात् सकलकालनावित्वाच्च ।पर्यायाधिकस्त्वनित्यमेव स्थानमाह, पर्यायाणामनित्यत्वात्प्रायशः । तमुक्तं राजप्रश्नीयवृत्ती-" च्यार्थनये नित्यं पर्यायार्थनये त्व. नित्यं” ब्यास्तिकनयो ऽव्यमेव तात्विकमचिमन्यते न तु पर्यायान् , ऽव्यं चान्वयिपरिणामित्वात् सकलकालनावि नवति । ननु गुणप्रधानस्तृतीयो गुणार्थिकनामा नयः कथं न स्यादिति चेन्न, गुणानां पर्यायग्रहणेनैव ग्रहसनवात् ।। ननु ऽच्याणमेव पर्यायास्तहि ऽच्याधिकपर्यायाणिकन्यष्यं कथमिति चेत्सत्यं, ऽव्यपर्याययोः स्वरूप विवदायां कश्चिदिशेषः, रादो शिर इति कचिदानेदे षष्ठी । त्या हि-व्यादपि सूदमः पर्यायः, एकस्मिन् ऽव्येऽनन्तानां पर्यायाणां संज वात् । ऽव्ये वर्धमाने पर्याया नियमावर्धन्ते, प्रतिव्यं संख्येयानामसंख्येयानामवधिना परिच्छेदात् । पर्याये वर्धमाने च
व्यं जाज्यं "जयणए खेत्तकाला परिबर्द्धतेसु दवनावेसु । दवे वट्ट जावो नावे दवं तु नयणिऊं ॥१॥” पुनश्च क्षेत्रादपि चालल्तगुणं इत्यं ऽव्यादपि चावधिविपयाः पर्यायाः संख्येयगुणा असंख्येयगुणा वा “ खित्तबिसेसेहिंतो दबमणंतगुणियं पएसेन् ि। दोहिं तो जाबो संखगुणोऽसंखगुनि वा ॥१॥” एतत्सर्व नन्दिटीकायां सविस्तरमन्निहितं । तस्माद्रव्यपर्याययोः स्वरूपश्विक्षातो जिन्नत्वानिन्ना नया च्याधिकाः पर्यायाधिकाश्च । ते च यद्यपि स्वजावजेदैः पर
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नय
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स्परं मिलन्तोऽपि स्वस्वपृथग्नावं न त्यजन्ति उक्तं च - " सोमं पविसंता दिंता उगास अलमलस्स । मेलंता विका पिच्चं सगसगजावं न वि जर्हति ॥ १ ॥ " स्वनावनेदोऽग्रेवक्ष्यते । ननु द्रव्यपर्यायव्यतिरिक्तौ सामान्यविशेषौ विद्येते तत्कथं न सामान्यार्थिक विशेषार्थिकनामानौ नयौ जवतः इति चेन्न, जव्यपर्यायव्यतिरिक्तसामान्यविशेषाप्रसिद्धेः, तद्यथा । प्रसं गात्सामान्यं दर्शयति-सामान्यं दिधा, एकं तिर्यक सामान्यमपर मूर्ध्व तासामान्यम् । आद्यलक्षणमाह - प्रतिव्यक्तितुल्या परिएतिस्तिर्यक्सामान्यं शबलशाबलेयपिंडेषु गोत्वमिति । तिर्यक् सामान्यं च गवादौ गोत्वादिस्वरूपतूझ्यपरिणतिरूपं, उदा| हरणं च तजातीय एवायं गोपिंको वा गोसदृशो गवय इति वा । द्वितीयलक्षणमाह - पूर्वापर परिणाम साधारणऽव्य मूर्ध्वतासामान्यं, यथा कटक कंकणाद्यनुगामि कांचनमिति । ऊर्ध्वतासामान्यं च परापरविवर्तव्यापि मृत्स्ना दिषव्यं त्रिकालगामि | चैतत् । तदुक्तम्- “पूर्वापरपर्याययोरनुगतमेकं प्रवति तांस्तान् पर्यायान् गतीति व्युत्पत्त्या त्रिकालानुयायी यो वस्त्वंश| स्तदूर्ध्वता सामान्य मित्यनिधीयत इति" । कटके कंकणे च तत्तत्कांचनमेवाथवा स एवायं जिनदत्त इत्युदाहरणम् । तत्र तिर्यक्सामान्यं तु प्रतिव्यक्तिसादृश्य परिणतिलक्षणं व्यंजनपर्याय एवं स्थूलाः कालान्तरस्थायिनः शब्दानां संकेत| विषया व्यंजनपर्याया इति प्रावचनिकप्रसिद्धेः । ऊर्ध्वतासामान्यं तु षव्यमेव विवदितं विशेषोऽपि सामान्यवैसद्दश्य- | विवर्तनलक्षणे व्यक्तिरूपः पर्याय एवान्तर्भवतीति न ताच्यामधिकावकाशो नयस्य ।
अथ सप्तनयसंख्यामाह - श्राद्यो व्यार्थिकनयस्तस्य त्रयो जेदा नैगमसंग्रहव्यवहारनेदात, द्वितीयः पर्यायार्थिकनयस्तस्य जुसूत्रशब्दसमनिरूढैवं नूतनयनेदाच्चत्वारो नेदाः । तडुनयोर्भेदसंग्रहे च सप्तैव नयाः । पंचैव नयाः, पमेव नयाः,
प्रदीपः
॥ १०० ॥
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चत्वार एव मूलनयाः प्रवचनमारोबारवृत्ती । सविस्तरमोबइमन्ते । ययुक्तमतमोगतल्यादिषु " होगेहिं माणेहिं मिण-1 त्ति ऐगमस्स य निरुत्ती, सेसाणंपि नथाएं वरकएमिएमो मुगाह बोवं ।।।।नंगदियपिमियत्यं संगहवयाणं ममासन विति । वच्चति विणिव्यत्यं ववहारो सबदबेसु ॥ २॥ पचप्पत्रागाही उझुपु णयविही मुणेयवो । वति विमसियतरं पच्चुप्पन्नं न सहो ॥ ३ ॥ वत्थु मंकमणं होश अवत्थू एणए समनिमडे । वंजणा-अत्य-तकुत्लए एवंजून विसेसेति ॥४॥ नायमि गिण्हियवे, अगिनियवे य इत्य अत्यमि। जझ्यवमेव जो नवएसो सो न नाम ॥५॥” तत्र नैगमऽव्याधिक नयः धर्मधर्मिऽव्यपर्यायादिप्रधानाप्रधानादिगोचरत्वेन गृहीतस्य वस्तुनः संपिंडितार्थ वदतीति संग्रहः । ऽव्यार्थिकस्त्वनेदरूपतया वस्तुजातं समेकीलावेन गृहातीति संग्रहण वा गृहीतस्य गोचरीकृतस्यार्थस्य लेदरूपतया वस्तुव्यवहरणं व्यवहार
व्यार्थिकः । नैगमव्यवहारी चाशुमच्यानुनविकत्वेनाशुधौ, संग्रहः शुचव्यवादित्वाबुधः। तमुक्तमनुयोगवृत्ती-"नैगमव्यवहाररूपोऽविशुद्धः कथं यतो नैगमव्यवहारौ अनन्तध्यणुकाद्यनेकव्यक्त्यात्मकं कृष्णाद्यनेकगुणाधारं त्रिकालविषयं चाविशुद्धं ऽव्यमितः, संग्रहश्च परमाएवादिसामान्यादेकं तिरोतगुणकलापमविद्यमानपूर्वापरविजागं नित्यं सामान्यमेव
व्यमित्येव, तच्च किलानेकतान्युपगमकलंकेनाकलंकितत्वाबुझं, ततः शुषव्यान्युपगमपरत्वानुमेवायमिति"। | अथ नैगमनयं प्ररूपयन्ति-नके गमा चोधमार्गा यस्यासौ नैगमो नाम नयः स्यात् । पृषोदरादित्वात् ककारलोपः।। स त्रेधा-धर्मध्यगोचरः, धर्मियगोचरः, धर्मधर्मिगोचरः । अत्र धर्मिधर्मशब्देन ऽव्यं व्यंजनपर्यायं च बदन्ति ।। अयाद्योदाहरणमाह-सञ्चैतन्यमात्मनीति । अत्र चैतन्याख्यस्य व्यंजनपर्यायस्य विशेष्यत्वात् मुख्यतया विवाणं, सत्त्वा
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नय
.
प्रदीपः
॥११॥
ख्यव्यंजनपर्यायस्य तु विशेषणत्वादमुख्यतयेति धर्मध्यगोचरो नैगमः प्रथमः । वितीयस्योदाहरणमाह-वस्तुपर्यायवद्रव्यमत्र व्याख्यस्य धर्मिणो विशेष्यत्वेन प्राधान्यं, वस्त्वाख्यस्य तु धर्मिणो विशेषणत्वेनाप्राधान्यमिति धर्मिष्यगोचरो नैगमो द्वितीयः। अथ तृतीयोदाहरणं-क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति, अत्र हि विषयासक्तजीवस्य व्यस्य विशेष्यत्वात् प्राधान्यं, सुखखदाणस्य पर्यायस्याप्राधान्यं तमिशेषणत्वादिति धर्मिधर्मालंबनो नैगमस्तृतीयः। अथवा निगमो विकटपस्तत्र नवो नैगमः, स त्रिविधः, नूतनविष्यवर्तमानकालनेदात् । अतीतस्य वर्तमानवत्कथनं यत्र स नूतनैगमो यथा तदेवाद्य दीपोत्सवपर्व यस्मिन् वर्धमानस्वामी मोदं गतवान् । नाविनि नृतवउपचारो यत्र स नविष्यन्नैगमो यथार्हन्तः सिद्धता प्राप्ता एव । कर्तुमारब्धमीपन्निष्पन्नं वा वस्तु कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमो यथा ओदनः पच्यते। नैगमनयेन धर्मधर्मिपोरन्यतरस्यैव प्राधान्यमनुनवतीति प्राधान्येन व्यपर्याययोः संपिंमितार्थ जानविज्ञानं प्रमाणत्वेन प्रतिपत्तव्यं नान्यदिति। | अथ नैगमानासं प्ररूपयन्ति-धर्मयादीनामैकान्तिकपार्थक्यानिसंधि गमाजास इति । श्रादिपदेन व्यघयव्यपर्याययोर्ग्रहणम् । उदाहरणं यथा-श्रात्मनि सच्चैतन्ये परस्परमत्यन्तं पृथग्जूते इत्यादिरिति । आदिशब्देन वस्तुपर्यायवद्रव्ययोः क्षणमेकं सुखीति सुखजीवलक्षणयोऽव्यपर्याययोर्ग्रहणम् । तयोर्पयोः सर्वथा निन्नताप्ररूपणायां नैगमाजासो ऽनय इत्यर्थः । नैयायिकवैशेषिकदर्शनमप्येतदानासतया शेयमिति । __ अथ व्यार्थिकनयस्य हितीयनेदं संग्रहनामानमुपवर्णयन्ति-सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः । मात्रं कात्स्न्येऽवधा-11 रणे च । सामान्यमशेषविशेषरहितं सत्त्वजव्यत्वादिकं गृह्णातीत्येवं शीतः, समेकीजावेन पिंमीततया विशेषराशिं गृह्णा
| ॥१०॥
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तीति संग्रहः । अयमर्थ:-स्वजातेई टेष्टाल्यामविरोधेन विशेषाणामेकरूपतया यद्हणं स संग्रह इत्येतस्यार्थः । विशेषराहित्येन पिसीनृतसामान्य विज्ञपक्चरतु शुभमनुनयन छानविशेषः संग्रहतयाख्यायते । संग्रहोऽपि परापरनेदाद्विविधः । तत्र परलक्षणमाह-अशेषविशेऐप्यौदासीन्यं नजमानः शुधन्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परसंग्रहः, यथा विश्वमेकं सदविक्षेपात्, छात्र हि विश्वस्यैकत्वं सदितिहानसामान्यहेतुजनित्सत्ताकवाजेदरूपेण गृह्यते । परसंग्रहालासलक्षणमाह-सत्तातं स्वीकुर्वाणः सकलाविशेषान्निराचझाए स्तदानासः । उदाहरणं यथा-सत्तैव तत्त्वं ततः पृथग्जूतानां विशेषाणामदर्श नादिति बैतवादिना निखिलानिदर्शनानि तदानासत्या इयानि ।हितीयापरसंग्रहलक्षणमाह-व्यत्वादीन्यवान्तरसामान्यानि मन्यानस्तक्षेदेषु गनिमीलिकामवलंवमानः पुनरपरसंग्रहः, या धर्माधर्माकाशकासपुजलजीवव्यापामैक्य,व्यत्वानेदादिति, छात्र दिव्यत्वसामान्यज्ञानेनानेदरूपए पांच्याणामेकरवं संगृह्यते । धर्मादिविशेषजेदेषु च गजनिमीलिकावापेक्षा । एवं चैतन्याचैतन्य पर्यायाणामैक्यं, पर्यायवसाधात् । चैतन्यं ज्ञानं-"चैतन्यमनुतिः स्यात् सक्रियारूपमेव च । त्रि.या मनोवचःकायैरविता वर्तते हुवम् ॥१॥तहिपरीतमचैतन्यं, तयोरक्यं कथमिति विशेष विवक्षाणां कांद एमुपेहा व्यत्वेनालेदबुझिविवाहात् । तदानासवदा याद ऽव्यत्व । दिकं प्रतिजानानः तविशेषानिढुवानस्तदानासो यथा ध्यत्वमेव तत्वमिति, नासिक धर्मादिनच्या मित्यपहवः। यया वरतु वर्तते पर सामान्यविशेषत्वं क वर्तत इत्यपहवः। एवं सामान्य विशेषात्मनो बरदुनो अपव्यम् । शापया संग्रहः सामान्य विशेषायां विधा सामान्यसंग्रहोदाहरणं सर्वाणिन्याहि परस्परमविरोधीनि। विशेषसं झालो यात्रामार्वे जीवाः परस्परमविरोधिनः । इति संग्रहनयः।
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नय
॥१०॥
अथ व्यवहाराव्याथिकनयं प्ररूपयन्ति-संग्रहेण गृहीतानां गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाजिसंधिना
प्रदीप क्रियते स व्यवहार इति । एतस्यार्थः-संग्रहगृहीतस्य सत्त्वाद्यर्थस्य विधीयमानो यो ज्ञान विशेषस्तमेव विवेचयति स व्यवहारनामा नयः कथ्यते बुधैः । उदाहरणं यथा-यत् सत् तद्रव्यं पर्यायो वेति। अपरसंग्रहगृहीतार्थव्यवहारस्याप्युदाहरणमादिपदाबदयं, यथा-यद्रव्यं तक्रीवादिषड्विधमिति । पर्यायो फेधा क्रमजावी सहनावी चेति । एवं जीवा मुक्ताः संसारिणश्च । ये क्रमनाविनः पर्यायास्ते क्रियारूपाः अक्रियारूपाश्चेति । अथ व्यवहारालासं लक्ष्यन्तिभ्यः पुनरपारमार्थिक
व्यपर्यायविनागमनिप्रेति स व्यवहारानासः, यथा चार्वाकदर्शन मिति । नास्तिको हि जीवषव्यादि जिमन्यते, स्थूलदृष्टया च नूतचतुष्टयं यावदृष्टिगोचरमिति । स्वकटिपतत्वेनातयात्वादूव्यवहाराजासमिति । अथ कतिपयमन्यतो लिख्यते
दोपचारतया वस्तु व्यवयित इति व्यवहारः, गुणगुणिनोऽव्यपर्याययोः संज्ञासंझिनोः स्वजावतघतोः कारकततोः क्रियाततोलेदानेदकः सद्भतव्यवहारः॥१॥ शुधगुणगुणिनोःशुपयायव्ययोर्नेदकथनं शुम्सद्भतव्यवहारः॥॥ सोपाधिगुणगुणिनोर्नेदविषय उपचरितसद्भुतव्यवहारः, यथा जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः॥३॥ निरुपाधिगुणगुणिनोर्नेद| कोऽनुपचरितसद्भुत्व्यवहारः यथा केवलज्ञानादयो गुणाः॥४॥ अशुधगुणगुणिनोरशुधषव्यपर्याययोर्नेदकथनमशुझसद्भतव्यवहारः॥ ५॥ स्वजात्यसद्भूतव्यवहारो यथा परमाणुबहुप्रदेशीति कथनम् ॥ ६॥ विजात्यसद्भूतव्यवहारो यथा| मूर्तिमन्मतिकानं मूर्तजनितत्वात् ॥ ७॥ उजयासद्भूतव्यवहारो यथा झेये जीवे चाजीवे ज्ञानमिति कथनं तयोनिविष-18|॥१०॥ यत्वात् ॥ ॥ स्वजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा पुत्रदारादि मम ॥ ए॥ विजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा
गुणाः ॥ ५ ॥ अशान्त कथनम् ॥ ६॥ नामति कथनं तोहरा यथा ।
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वस्त्रलूपणहेमरत्नादि मम ॥१०॥ तत्रयोपचारतासम्मृतव्यवहारो यत्रा देशराज्यकतिगादि मम॥११॥ अन्यत्र प्रतिस्य धर्मस्थान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः॥ १२॥ शतभूतव्यवहार एवोपचारः, य उपचारादयुपचारं करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहारो यत्रा देवदत्तल धनमित्यत्र संलपरहितं वस्तु संबन्धसहितवस्तुसंबन्धविषयः ॥ १३ ॥ संश्लेपसहितवस्तुसंवन्धविषयोऽनुपचरितातभूतव्यवहारो यथा जीवस्य शरीरमिति ॥१४॥ उपचारोऽपि नवधा । तथाहि-ऽव्ये प्रव्योपचारः, १ गुणे गुणोपचारः, २ पर्याये पर्यायोपचारः, ३ अव्ये गुणोपचारः, ४ ऽव्ये पर्याचोपचारः, ५ गुणे व्योपचारः,६गुणे पर्यायोपचारः, पर्याचे प्रयोपचारः, पर्याय गुणोपचारः, इति सर्वोऽप्यसद्भूतव्यवहारस्यार्थी अष्टव्यः । अत एवोपचारः पृथग्नयो न भवतीति। मुख्यानावे सति प्रयोजने निमिले चोपचार प्रतितासोऽपि संबन्धोऽविनाजावः-संश्लेषसंवन्धः, परिणामपरिणामिसंबन्धः अधाश्रयतवन्धः, शानशेयसंबन्धति। उपचरितासभूतव्यवहारोधा-सत्यार्थः, असत्यार्थः, उजयार्थश्चेति । व्यवहारनयास्याः १४ चेदा शेया., निदाधियो व्यवहार इति ऽव्यार्थिकस्य तृतीयो नेदः।
इदानी पर्यायायिकस्य चतुजेदप्ररूपणायां तावहजुसूत्रं विवेचयन्ति-शजु वर्तमानक्षणस्थायि पर्यायमा प्राधान्यतः सूत्रलायन्नभिप्राय शजुसूत्र इति । एतस्यार्थः-नूतनविष्यवर्तमानक्षालपविशिष्टताएकोटिट्यविमुक्तत्यादृजु सरलमेव व्यस्थाप्राधान्यतया पर्यायाणां क्षपदायिण प्राधान्यतया दर्शयतीति इजुसूत्रः । उदाहरणं यथा-सुखविवर्तः संप्रत्यस्तीति, अनेन वाक्येन क्षणिकं सुखाख्यं पर्यायमानं मुख्यतया दर्यते, तदधिकरणं जीवजन्यं गौणत्वेनापि न प्रतीयत इति । एतदानासं निरूपयन्ति-सर्वश्रा व्यापलापीतदानास इति । उदाहरणं वा तागतमतमिति। चौधोहि पथिणः पर्यायाने प्रधानत
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नय
| प्रदीप
॥१०३॥
या प्ररूपयति तत्तदाधारजूतानि व्याणि नानिमन्यतेऽतस्तन्मतं तदानासतयाझेयम् ।जुसूत्रो विधा-सूदमझजुसूत्रो यथैकसमयावस्थायी पर्यायः, स्थूलझजुसूत्रो यथा मनुष्यादिपर्यायास्तदायुःप्रमाणकालं तिष्ठन्ति । इति पर्यायार्थिकस्य प्रथमो नेदः।
अथ दितीयत्नेदं प्रजेदयन्ति-कालादिनेदेन ध्वनेरर्थनेदं प्रतिपद्यमानः शब्द इति । एतस्यार्थः--संकेताध्याकरणात्प्रकृतिप्रत्ययसमुदायेन सिधः कालकारकलिंगसंख्यापुरुषोपसर्गजेदेनार्थ पर्यायमात्रं प्रतीयते स शब्दनयः । कालनेद उदाहरणं यथा-बनूव नवति नविष्यति सुमेरु रिति, अत्र कालत्रयविजेदात्सुमेरोरपि नेदत्वं शब्दनयेन प्रतिपाद्यते, व्यत्वेन त्वलेदोऽस्योपेक्ष्यते। कारकनेदे उदाहरणं-करोति कुंल, क्रियते कुंन इति । लिंगनेदे-तटस्तटी तटमिति । संख्यानेदेदाराः कलत्रं गृहाः। पुरुषन्नेदे-एहि, मन्ये, रथेन यास्यसि, न हि यास्यति, यातस्ते पिता । अथवा- एहि, मन्ये, ओदनं लोदयसे, नुक्तः सोऽतिथिन्निः। एतं एनं वा, मन्ये, ओदनं नोदयेथे नोदयध्वे जोदये नोदयावहे लोदयामहे इत्यादिः, मन्यसे मन्येथे इत्यादिरर्थः " प्रहासे च मन्योपपदे मन्यतेरुत्तम एकवच" इति सूत्रेणेयं पुरुषव्यवस्था प्रहास एव, यथार्थकथने | तु-एहि, त्वं मन्यसे, ओदनमहं नोदये, तुक्तः सोऽतिथिनिरिति । उपसर्गनेदे-संतिष्ठते, अवतिष्ठते । क्वचिदर्थनेदस्यापि ग्रहणं-संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः, इति “प्रकाशनस्थयाख्ययोश्चेत्यर्थे सूत्रेणात्मनेपदम् । एतदानासं प्रकटयन्ति-तन्नेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदानास इति । कालादिनेदविजिन्नस्य शब्दस्यार्थस्यापि जिन्नत्वमन्त्रिमन्यमानःशब्दानास इत्यर्थः । उदाहरणं-बनूव लवति नविष्यति सुमेरुरित्यादयो जिन्नकालाः शब्दा निन्नमेवार्थमजिदधति, निन्नकालशब्दत्वात्ताह सिझान्यशब्दवदिति, अनेन वाक्येनैकार्थस्यैक्यादर्थदस्तुशब्दानासः। इति पर्यायार्थिकस्य बितीयनेदः ।
॥१३॥
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अग्र तृतीयजेदं समजिसमर्थयन्ति-पर्यायशब्दए निरुक्तिनेदेन जिन्नमर्य समचिरोहन समजिरूढ इति । एतस्यार्थः शब्दनयो हि शब्दपर्यायमित्रत्वेऽपि व्यस्यानस्यारेदलमलिलपति, समनिरूढनयेन हि शब्दपर्यायजेदे जिन्नं व्यार्थमभिमन्यते, पर्यायशव्दानामर्थत एकत्वमुपेदते इति । उदाहरणं-इन्दनादिन्छः, शकनाचक्रः, पूर्दारणात्पुरन्दर | इत्यादि। अनेन वाक्येनेन्ज शक्रे च पुरन्दरे चेत्याधेकार्थपर्यायशब्देऽपि व्युत्पत्तिजेदनैतदर्थस्यापि नेदः समाध्यिते, शब्दलेदादर्शनेद इति फक्षिताः । एवमन्यत्र कलशपदकुंजादिउ प्रष्टव्यः । समनिरूढानासमाह-पर्यायध्वनीनामन्निधेयनानात्वमेव कवी कुर्वाणखदानासः । उदाहरणं यथा-इन्धः, शक्रः, पुरन्दर इत्यादयः शब्दा जिन्नाभिधेया एव जिन्नशब्दत्वात् , करिकुरंगतुरंगकरनशब्दवदित्यादिरिति । अन्न हीजे शके पुरन्दरे घनामैक्येऽपि चिन्नशब्दत्वान्निन्नवाच्या एते शब्दाः, यथा कुरंगतुरंगादयो जिन्नवाव्याप्ततेऽपि, ततः समनिरूदानासतया । इति पर्यायाधिकस्य तृतीयो जेदः।
अथ चतुर्थजेदं समाख्यान्ति-शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तजूतक्रिया विशिष्टमी वाच्यत्वेनाच्युपगचन्नेवंचूत इति । एतस्यार्थः-समजिरूढनयेनेन्दचादिक्रियाविशिष्टमिन्स्य पिंकं जवतु वा मा वा जवतु, परमिन्डादिव्यपदेशः लोके व्याकरणे च तथैव रूढित्वात् समजिरुडः । तथा च रूढशब्दानां व्युत्पत्तिः शोजामात्रमेव " व्युत्पत्तिरहिताः शब्दा रूढा” इति वचनात् । एवंजूतनयो हि यस्मिन् समय इन्दनादिक्रियाविशिष्टमर्थ पश्यति तस्मिन् समय एवेन्शब्दवाच्योऽयमिति मनुते न तु तजहितकाल इत्यर्थः । एतनयमते तु क्रियाशब्द एव । यद्यपि जाप्यादिषु जातिगुणक्रियासंवन्धियबालका पंचतयी शब्दप्रवृत्तिरुता सा व्यवहारमानतोऽवगन्तव्या न निश्चयादित्ययं नयः स्वीकुरुते । तथाहि-जातिशब्दाः ।
च तत्रैव साजरूढनयेनेन्दगा दिकिवादिशि स्वप्रतिनिमित्तऋतक्रिया
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नय
प्रदीपः
।१०॥
क्रियाशब्दा एव ( यथा ) गवतीति गौः, आशुगामित्वादश्वः गुणशब्दा यथा शुचीनवतीति शुक्तः, नीलनवनान्नीलः। यदृवाशब्दा यथा देव एनं देयात् , यज्ञ एनं देयात् । संयोगसमवायिशब्दा यथा दंमोऽस्यास्तीति दंमी, विषाणमस्यास्तीति विषाणी अस्तिक्रियाप्रधानत्वादस्त्यर्थे प्रत्ययाश्च । एते सर्वे क्रियाशब्दा एव, अस्ति नू इत्यादिक्रियासामान्यस्य सर्वव्यापित्वात् , उदाहरणं यथा-इन्दनमनुलवन्निन्छः, शकनक्रियापरिणतः शक्रः, पूर्दारणप्रवृत्तः पुरन्दर इत्युच्यत इति । एतदानासं लक्ष्यन्ति-क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपस्तु तदानास इति । स्वकीयक्रियारहितं तस्त्वपि शब्दवाच्यतया प्रतिदिपति तबब्दवाच्यमिदं न लवत्येवैतादृश एवंभूतानासः। उदाहरणं यथा-विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यं घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तान्त क्रियाशून्यत्वात्पटवदित्यादिरिति । अनेन हि वाक्येन स्वक्रियारहितस्य घटादेर्वस्तुनो घटादिशब्दवाच्यतानिषेधः क्रियते स च प्रमाणबाधित इत्येवंजूतनयानासतयोक्तमिति । | एतेषु के पुनरर्थनयाः के पुनः शब्दनयास्तदर्शयति-एषु चत्वार आद्या नया अर्थनिरूपणायां प्रवीणत्वादर्थनयाः, अग्रेतनास्त्रयो नयाः शब्दवाच्यार्थगोचरतया शब्दनया इति । के पुनर्नेदास्तानाह-" एक्केको य सयविहो सत्त नयसया हवंति एमेव । अन्नो वि अ आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥१॥” व्याख्या सप्तानां नैगमादिनयानामेकैकप्रदतः शतज्नेद एवं सर्वैरपि नेदैः सप्त शतानि जवन्ति, प्रकारान्तरे पंचापि नयाः कदा? यदा-शब्दादिन्निस्त्रिनिर्नयैरेक एव शब्दनयो विवक्ष्यते तदैकैकस्य शतविधत्वात् पंच शतानि नयानाम् , अपिशब्दः पुनरर्थे । षट् चत्वारि वा नयानां कदा? यदा सामान्यग्राहिनैगमस्य संग्रहेऽन्तर्जावः, विशेषग्राहिनैगमस्य तु व्यवहारेऽन्तर्जावो यदा विवक्ष्यते तदा मूलन-||
॥१४॥
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यानां पद्विधत्वात् पट् शतानि । कदा चत्वारीति ? यदा एको नैगमः, संग्रहव्यवहारक जुसूत्र लक्षणाखयोऽनियाः, एकस्तु शब्दनयः, पर्यायास्तिकनयः, तदा चत्वारो नयाः । कदा घे इति? एको प्रव्यार्थिकः, पर्यायार्थिकश्चेति घे शते कुत्रापि -“णि वय ववहारणया मूलिमजेदा नया सवाणं । निचयसाहाहेक दवयपट्टिया मुह ॥ १ ॥” इति । उत्कृष्टतोऽसंख्याता पि जवन्ति - " जाव॑तो वयापहा तातो वा नयाविसदा । ते चेत्रय परसमया सम्मत्तं समुदिया सबे ॥ १ ॥ व्याख्या- यावन्तो वचनप्रकाराः शब्दात्मगृहीताः सावधारणास्ते सर्वे नयाः परसमवारितीर्थिक सिद्धान्ताः ये च निरत्रधारणाः त्याबदलांवितास्ते नयाः समुदिताः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते । न च प्रत्येकावस्थायां मिथ्यात्व हेतुत्वात्समुदिताः सर्वे महामिथ्यात्व देतवः कथं न जवन्तीति वाच्यम्, प्रचुरविषयसमुदाये त्रिप्राचुर्यवत् । तत्र प्रत्युत्तरयन्नाह - सत्ये समिति सम्मं वेगवसा नया विरुद्धा वि । निच्चववहारिणो इव राजे दासा वसवती ॥ १ ॥ " व्याख्या- परस्परविरुद्धा अपि सर्वे नयाः समुदिताः सम्यक्त्वं नवन्ति, एकस्य जिनसाधोर्वशवर्तित्वात् यथा नानानिप्रायनृत्यवर्गवत, यथा धनधान्यनूम्या - द्यर्थं परस्परं विवदमाना बहवोऽपि सम्यन्यायवता केनाप्युदासीनेन युक्तिनिर्विवादकारणान्यपनीय मीडयन्ते तथेह परस्परविरोधिनोऽपि नयान् जैनसाधुर्विरोधं जंक्त्वा एकत्र मीलयति । तथा प्रचुर विपलवा अपि प्रौढमंत्रवादिना निर्विपी - | कृत्य कुष्टादिरोगिणे दत्ता अमृतरूपत्वं प्रतिपद्यन्त एवेति सर्व विशेषावश्यकटीकायां स्फुटमेव ।
अत्रेदं-- एषु पूर्वः पूर्वो नयः प्रचुरगोचरः, परः परस्तु परिमितविषय इति बोध्यम् ।
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॥ इति नयप्रदीपः ॥ ॥
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॥अथ नयोपदेशः ॥ ऐधाम हृदि स्मृत्वा नल्या गुरुपदानुजम् । नयोपदेशः सुधियां विनोदाय विधीयते ॥१॥ सत्वासच्यायपेतार्ययकावचनं नयः। न विवेवयितुं शक्यं विनापेक्षा हि मिश्रितम् ॥ २॥ यद्यप्यनन्तधर्मात्मा वस्तु प्रत्यदागोचरः । तथापि स्पष्टयोधः स्यात् सापेदो दीर्घतादिवत् ॥३॥ नानानयमयो व्यक्तो मतजेदो ह्यपेक्ष्या। कोट्यन्तरनिषेधस्तु प्रस्तुतोक। टिकोटिकृत् ॥५॥ तेन सापेझजावेषु प्रतीत्यवचनं नयः । अनावाजावरूपत्वात् सापेक्षत्वं विधावपि ॥५॥ ससनंग्यात्मक वाक्यं प्रमाणं पूर्णबोधकृत् । स्यात्पदादपरोल्लेखि वचो यचैकधर्मगम् ॥ ६॥ यया नैयायिकैरिष्टा चित्रे नैकैकरूपधीनयप्रमाणनेदेन सर्वत्रैव तपाईतः ॥ ७॥ शायं न संशयः कोटेरैक्यान्न च समुच्चयः। न विन्रमो यात्विादपूर्णत्वाचन प्रमा॥॥न समुषोऽसमुशो या सगुजांशो ययोच्यते । नाप्रमाणं प्रमाणं वा प्रमाणांशस्तश्रा नयः॥॥ स्वार्थे सत्याः
स्मृत्वा श्रीशारदाम भीमालममारिधिः । स्मुरलियरो कश्चिनपयायो हाम अतितः ॥ १॥ इति । इन्द्र आत्मा तमह संबंधि ऐन्द्र धाम तेजः । इति वाग्वीजमनि स्मृतम् ॥१॥ रात्यानिलानियवेदाभेदादयो ये तैरुपेना येऽर्था जीवपुद्गलादयस्तेषु अपेक्षावचनं प्रतिनियतधर्मप्रकारकापेक्षाख्यशाब्दबोधजनक वचनं न्यवाक्यमितर्थः । इदं वचनरपरा नया लक्षणं हि निधितं मिश्रितं नानाधमः करवितं वस्तु अपेक्षां विना विवेचयितुं न शक्यम् ॥२॥ वस्तु घटादिक आदीयतेऽनेनेत्यादि ज्ञानं दीर्घताया आदि ज्ञान दीर्घतामत्यक्षवदित्यर्थः ॥ ३ ॥ बौद्धोपनिषदादिदर्शनो नानानयमयः कोट्यन्तरस्खेतरनयार्थस्य निषेधो निराकरणं । कथंभूतो निषेधः प्रस्तुता या उत्कटकोटिन्कृत , प्रहनुतकोटेशत्कटत्वकृदिलर्थः ॥ ४॥ तेन हेतुना परस्परप्रतियोगिकेषु भावेषु विधी अस्तिलादिभावेऽपि अभावाभावरूपलानातिलायभाबरवरूपलान् ।। गमनंग्यात्मकं स्यादरलेग खानारलेवेसादिकं वाक्यं प्रमाणं । यतः पूर्णवोधकृत् स्वात्कारपदात् ॥ ६॥आईनेः जैनसरिभिः ॥ ७ ॥ अयं नपारयो बोधः कोटेः प्रकार स्यैश्यान संचयो न ।८॥॥ स्वार्थ स्वविषये राया निश्वाचकाः परैनबेर्नुना अप्रामाण्याकाविषयीकृताः ।
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नयो
॥१०६॥
परैर्नुना असत्या निखिला नयाः। विदुषां तत्र नैकान्ता इति दृष्टं हि संमतौ ॥१०॥ बौधादिदृष्टयोऽप्यत्र वस्तुस्पर्शन
पदेशः नाप्रमाः । उद्देश्यसाधने रत्नप्रजायां रत्नबुधिवत् ॥ ११॥ अयं संक्षेपतो ऽव्यपर्यायार्थतया विधा । ऽव्यार्थिकमते ऽव्यं तत्त्वं नेष्टमतः पृथक् ॥ १२॥ तिर्यगूर्ध्वप्रचयिनः पर्यायाः खलु कटिपताः। सत्यं तेष्वन्वयि ऽव्यं कुम्लादिषु हेमवत् ॥ १३ ॥ श्रादावन्ते च यन्नास्ति मध्येऽपि हि न तत्तथा। वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः॥१५॥ अयं
व्योपयोगः स्याधिकहपेऽन्त्ये व्यवस्थितः। अन्तरा व्यपर्यायधीः सामान्यविशेषवत् ॥ १५॥ पर्यायार्थमते ऽव्यं पर्यायेन्योऽस्ति न पृथक् । यलरर्थक्रिया दृष्टा नित्यं कुत्रोपयुज्यते ॥ १६॥ यथा खूनपुनर्जातनखादावेकतामतिः। तथैव दाणसादृश्याद् घटादौ ऽव्यगोचरा ॥ १७॥ तार्किकाणां त्रयो लेदा श्राद्या व्यार्थिनो मताः । सैद्धान्तिकानां चत्वारः पर्याअसत्या अनिश्चायका निखिला नया नैगमादयो विदुषां नैकान्ता वक्तुं युक्ता इति दृष्टं परीक्षितं संमतिग्रन्थे ॥ १०॥ अत्र नयग्रन्थे उद्देश्यं यदभिनिविष्टेतरनयखंडनं तत्साधने तत्साधननिमित्तं बौद्धादिदष्टयोऽपि बोद्धादिनयपरिग्रहा अपि वस्तुस्पर्शन शुद्धपर्यायादिवस्तुप्राप्त्या नाप्रमाः फलतो न मिथ्यारूपा इत्यर्थः ॥ ११ ॥ अयं| |सामान्यलक्षणलक्षितो नयो द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकः ॥ १२ ॥ तेषु पर्यायेषु द्रव्यं सत्यं, कल्पिता वासनाविशेषप्रभवविकल्पसिद्धा अपारमार्थिका इति यावत् ॥१३॥ किंतु वितथैः शशविषाणादिभिः काल्पनिकत्वेन सदृशाः सन्तोऽनादिलौकिकव्यवहारवासनावशात्, अवितथा इव लक्षिता लोकैरिति शेषः ॥ १४ ॥ अयं द्रव्योपयोगो द्रव्यार्थिकनयजन्यो बोधोऽन्त्ये विकल्पे शुद्धसंग्रहाख्ये व्यवस्थितः पर्यायबुद्ध्याऽविचलितः स्यात्, अन्तरा शुद्धसंग्रहशुद्धर्जुसूत्रविषयमध्ये द्रव्यपर्यायधीरेव स्यात् सामा-| न्यविशेषबुद्धिवत् ॥ १५॥ पर्यायार्थमते द्रव्यं द्रव्यपदार्थः सदृशक्षणसन्ततिरेव न तु पर्यायेभ्यः पृथगस्ति यद्यस्मात्कारणात्तैः पर्यायैरर्थक्रिया जलाहरणादिरूपा दृष्टा | नित्यमप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वभावं वस्तु कुत्रोपयुज्यते न कुत्रचिदित्यर्थः ॥ १६ ॥ १७ ॥ तार्किकाणां वादिसिद्धसेनमतानुसारिणामाद्याः त्रयो भेदाः नैगमसंग्रहव्यव-10 हारलक्षणा द्रव्यार्थिका इति, सैद्धान्तिकानां तु जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणवचनानुसारिणां चखार आद्या ऋजुसूत्रसहिता द्रव्यार्थिका इति । ऋजुसूत्रादयश्चत्वारः पर्यायार्थिका |
1. |॥१६॥ वादिनामिति, शब्दादयः त्रय एव च क्षमाश्रमणानामिति । ऋजुसूत्रो यदि द्रव्यं नाभ्युपेयात्तदा उक्त “ उजमुयस्स एगे अणुवउत्ते एगं दव्यावस्सयं पुहत्तेणं " इति |
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यार्थगताः परे ॥ १८ ॥ नैगमः संग्रहश्चैव व्यवहारजुसूत्रको । शन्दः समनिरूढाख्य एवंन्तश्च सप्त ते ॥ १॥ निगमए नवो वोधो नैगमस्तत्र कीर्तितः । तन्नवत्वं पुनर्लोकप्रसिधापिगन्तृता ॥ २० ॥ तत्प्रसिद्धिश्च सामान्यविशेपा जयाश्रया ।। तदन्यतरसंन्यासे व्यवहारो हि मुर्घटः ॥२१॥संग्रहः संगृहीतस्य पिमितस्य च निश्चयः । संगृहीतं परा जातिः पिमितं त्वपराः
स्मृता ॥ २२ ॥ एकदित्रिचतुःपंचपदा जीवगोचराः।लेदान्यामस्य सामान्यविशेपान्यामुदीरिताः ॥ २३ ॥ उपचापराविशेषाश्च नैगमव्यवहारयोः । इप्टा धनेन नेप्यन्ते शुधार्थे पदपातिना ॥२४॥ उपचारेण बदलो विस्तृतार्थश्च लौकिकः।
यो वोधो व्यवहाराख्यो नयोऽयं लक्षितो बुधैः ॥ २५ ॥ दह्यते गिरिरध्वासी याति सवति कुमिका । इत्यादिपचारोडस्मिन् वाहुव्येनोपलन्यते ॥ २६ ॥ विस्तृतार्थो विशेषस्य प्राधान्यादेव लौकिकः। पंचवादिगादी श्यामत्वादि विनिश्चयात् ॥ २७ ॥ पंचवर्णाजिलापेऽपि श्रुतव्युत्पत्तिशालिनाम् । न तद्बोधे विषयताऽपरांशे व्यावहारिकी ॥२०॥ जावत्वे वर्तमानत्वव्याप्तिधीरविशेपिता । झजुसूत्रः श्रुतः सूत्रे शब्दार्थस्तु विशेपितः ॥ २७॥ प्यतेऽनेन नैकत्रावस्थान्तरसमागमः । क्रियानिष्ठानिदाधारणब्याजावाद्ययोच्यते ॥ ३० ॥ पलालं न दहत्यनिनिद्यते न घटः कचित् । नासंयतः प्रव्रजति मूत्रं विरुध्येतेति सैद्धान्तिकाः, गारिकानुसारिणस्नु अतीनानागनपरकीयदृष्टयक्लारियागाद सूत्रेणेवान्दगिम् ।।१८।।१५।' निगमे लोकेपु भयो बोयो नैगमः, तद्भवलं तदाश्रयेणोत्पनिकल लोकप्रसिद्धार्थरवीपर्नुलम् ॥ २०॥ लोकनिद्रिः सामान्रानिदो पायभगाता तेषां भेदानां नरोऽन्यतरमा संन्याले परिवागे॥२॥ ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ गिरिस्थतृणदग्धलं, अवनि माग गच्छमारे लक्षणा, कुंडीस्थजलादि ॥२६॥ २७ ॥ अपरांशे कृष्णेतरवाशे व्यावहारिकी विषयता नास्ति ॥ २८ ॥ २९ ॥ अनेन ऋजुसूत्रनयेन एकत्र धर्मिणि अवस्थान्तरसमागमो भिन्नावस्थावाचकपदाधीन्ययों नेष्यते न स्वीक्रियते, कुतः । क्रिया साध्यावस्था, अन्या च निष्टा सिद्धायरथा तयोयी भिदा मिकालसंवन्धसदाचारयैकदन्यस्याभागान, अनाऽभियुक्तसमतिमाह ॥ २०॥ पलासमिति-अन दहनादिकिवाकाल
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नय
पदेश:
॥१७॥
नव्योऽसिघो न सिध्यति ॥३१॥ दह्यमानेऽपि शाट्येकदेशे स्कन्धोपचारतः। शाटी दग्धेति वचनं ज्ञेयमेतन्नयाश्रयम् ॥३२॥ विशेषिततरः शब्दः प्रत्युत्पन्नाश्रयो नयः। तर प्रत्ययनिर्देशादिशेषिततमेऽगतिः ॥ ३३ ॥ शजुसूत्राहिशेषोऽस्य | नावमात्रालिमानतः । सप्तनंग्यर्पणाविंगनेदादेवार्थनेदतः॥ ३४ ॥ सामानाधिकरण्यं चेन्न विकारापरार्थयोः । निन्नलिंगवचःसंख्यारूपशब्देषु तत्कथम् ॥३५॥नयः समनिरूढोऽसौ यः सत्स्वर्थेष्वसंक्रमः।शब्दनेदेऽर्थनेदस्य व्याप्त्यन्युपगमश्च सः ॥ ३५॥ तटस्तटं तटीत्यादौ शब्दलेदोऽर्थन्निद्यदि । तद् घटः कुंन इत्यादौ कथं नेत्यस्य मार्गणा ॥ ३७॥ संज्ञार्थतत्त्वं न ब्रूते त्वन्मते पारित्नाषिकी । अनादिसिझः शब्दार्थो नेला तत्र निबन्धनम् ॥३०॥ एवंनूतस्तु सर्वत्र व्यञ्जनार्थविशे पणः । राजचिह्नर्यथा राजा नान्यदा राजशब्दनाक् ॥ ३ए॥ सियो न तन्मते जीवः प्रोक्तः सत्त्वादिसंड्यपि । महानाष्ये एव तन्निष्ठाकाल इति दह्यमानादेर्दग्धवाद्यव्यभिचारात् तदवस्थाविलक्षणपलालाद्यवस्थावच्छिन्नेन समं दहनादिक्रियान्वयस्यायोग्यलात्पलालं न दहत्यनिरित्यादयो व्यवहारा निषेधमुखा उपपद्यन्ते। विधिमुखस्तु व्यवहारोऽत्रापलालं दह्यते, अघटो भिद्यते, संयतः प्रव्रजति, सिद्धः सिध्यतीत्येवमाकार एव द्रष्टव्यः । अत एवं | "सो समणो पव्वईओ" इत्यादि क्रियमाणं कृतमेव कृतंतु क्रियमाणत्वे भजनीयमिति सिद्धान्तः संगच्छते। तदाह भाष्यकार:-" तेणेह कजमाणं णियमेण कयं कयं तु भयणिजं । किंचिदिह कज्जमाणं उवरयकिरियं च होज्जाहि ॥ १॥ इति" ॥ ३१॥ शाटी दग्धेति कथं तदानीं शाटीदाहक्रियाकालसंवलितस्य तनिष्ठाकालस्याभावादिति ? उत्तर-शाट्येकदेशे दह्यमानेऽपि तत्र स्कन्धोपचारतः शाटीस्कन्धवाचकशाटीपदोपचाराच्छाटी दग्धेति वचनमेतमयाश्रयमृजुसूत्राभिप्रायकं ज्ञेयम् ॥ ३२ ॥ विशेषिततरः प्रत्युत्पन्नाश्रयः ऋजुसूत्राभिमतग्राही नयः शब्द इति । अत्र तर प्रत्ययात्तम प्रत्ययो विशेषस्तेन समभिरूढ एवंभूते चागतिरतिव्याप्तिन ॥ ३३ ॥ अस्य शब्दनयस्य ऋजुसूत्राद्विशेष उत्कर्षः भावमात्रस्याभिमानात् जलाहारादिक्रियाक्षम प्रसिद्धं भावघटमेवेच्छति ॥ ३४ ॥ विकाराविकारार्थकशब्दयोः पलालं दहः भिन्न-1 लिंगादिरूपाणि येषु तादृशेषु शब्देषु कथं सामानाधिकरण्यं न कथंचिदित्यर्थः ॥ ३५ ॥ यः सत्स्वर्थेषु घटादिष्वसंक्रमो घटाद्यन्यशब्दवाच्यलं स समभिरूडः ॥३६॥ ॥ ३७ ॥ परिभाषिकी संज्ञा डित्थडवित्यादिका ॥ ३८ ॥ व्यजनं शब्दस्तेनार्थे विशेषयति स एवंभूतः ॥ ३९ ॥ जीवति प्राणान् विभीति धात्वर्थः ॥ ४० ॥
॥१०७॥
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च तत्त्वार्थनाष्ये धात्वर्थवाधतः ॥ ४० ॥ जीवोऽजीवश्च नो जीवो नोयजीव इतीहिते । जीवः पंचस्वपि गतिप्विष्टो नावैर्हि पंचन्तिः॥४१॥ नजि सर्वनिषेधार्थे पर्युदासे च संश्रिते । पुजलप्रतिव्यमजीव इति संज्ञितम् ॥४२॥ नोजीव इति नोशब्दे जीवसर्वनिषेधके । देशप्रदेशी जीवस्य तस्मिन् देशनिषेधक ॥४३॥ जीवो वा जीवदेशो वा प्रदेशो वाप्यजीवगः । अनयैव दिशा शेयो नोअजीवपदादपि ॥ ४ ॥ नैगमो देशसंग्राही व्यवहारर्जुसूत्रको । शब्दः समनिरूढश्चेत्येवमेव प्रचक्षते ॥ १५॥ नावमौदयिकं गृह्णन्नेवंचूतो जवस्थितम् । जीवं प्रवक्त्यजीवं तु सिछ वा पुजलादिकम् ॥४६॥ नोअजीवश्च नोजीवो न जीवाजीवयोः पृथक् । देशप्रदेशी नास्पेष्टाविति विस्तृतमाकरे ॥ ४०॥ सिको निश्चयतो जीव इत्युक्तं यदिगंवरैः। निराकृतं तदेतेन यन्नयेऽन्त्येऽन्यथा प्रथा ॥ ४० ॥ आत्मत्वमेव जीवत्वमित्ययं सर्वसंग्रहः। जीवत्वप्रतिजूः सिम्बेः साधारण्ट निरस्य न ॥ ए॥ यजीवत्वं वचिद्रव्यनावप्राणान्वयात् स्मृतम् । विचित्रनगमाकृतं तज्झयं न जीवः,अजीणः, नोजीयः,नोजजीवः, एका मानि-औदयिकक्षायिकक्षायोपशामिडौषशमिकारिणामिकलक्षण: पंचभिर्लक्षितो जीपः॥४॥गनि सर्वत्र निषेधार्थेऽनाजीयः | पुद्गलादिकं द्रव्यान॥४२॥नोजीद इत्लान तु गोशब्दे देदा निरोधके जीवस्य देशदेशी अंजीकर्तव्यो॥४३॥नोअजीयो नोशन्दे देशनिषेध केऽजी देशोदा अजीवः अजीवाथितः।। प्रदेशो चाइतिः अननअभावार्थःनोशब्दस्यत्वभावएनदशोबाइलर्थः पुनविपरीतोऽयों नोजीवो नोशब्दे सर्व निषेधके विवधितेऽजीव एवं कथाते तृतीयभंगे।एवं नोअजी.. वपदाचीयो जीवपदार्थों वा बोध्य इति चतुर्थभंगे । अयं भावार्थ:-जीवः, अजीवः पुलादिकं द्रव्यं, नोजीवोऽजीवो जीवस्य देशप्रदेशौ वा, नोअजीयो जीवो जीबदेश) जीवप्रदेशो या अजीपदेशो वा अजी प्रदेशो वा इति॥४४॥ उक्त मतं कियन्तां नयानामाह देशसंग्राही ॥४५॥ एवंभूतो भवस्थित संसारिणं जीवं प्रयत्ति, सिद्धं पुनलादिक। चाजीपं प्रवकि।।४६॥गोलीयो नोअजीपतिनये एवंभूते जीवाजीक्योर्वक्तव्ययोः सतोर्न पार्थक्यमापद्यते, यतोस्य नयस्य देशप्रदेशी नेष्टी इति नोशब्दः सर्वनिषेधार्थ एवं घटत इत्येतदाकरेऽनुयोगद्वारादी विस्तृतम्। इत्येतेन पुतिन सिद्धो निश्चयतो जोव इति यदिगंबरैरुक्तं तन्निराकृतं, यस्मादल्ये एयंभूतनयेऽन्यथा प्रथा सिद्धोऽजीव इत्येव प्रसिद्धिः, शुद्ध निश्चयच राएवेति ॥ ४० ॥ आरमलमेव जीपलं निश्चयान साधारण्यम् ॥ ४५ ॥ एवं निश्चयतः सिद्धस्याजीवलं मोक्तं तर्हि कर्थ-" जीवा मुत्ता
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नयो
॥ १०८ ॥
तु निश्चयात् ॥ ५० ॥ धात्वर्थे जावनिक्षेपात् परोक्तं न च युक्तिमत् । प्रसिद्धार्थोपरोधेन यन्नयान्तरमार्गणा ॥ ५१ ॥ शैलेश्यन्त्यक्ष धर्मो यथा सिद्धस्तथाऽसुमान् । वाच्यं नेत्यपि यत्तत्र फले चिन्तेह धातुगा ॥ ५२ ॥ उक्ता नयार्थास्तेषां ये शुद्ध्यशुद्धी वदेत् सुधीः । ते प्रदेशप्रस्थकयोर्वसतेश्च निदर्शनात् ॥ ९३ ॥ तथा हि-धर्माधर्माकाशजीवस्कन्धानां नैगमो नयः । तदेशस्य प्रदेशश्चेत्याह षमां तमुच्चकैः ॥ ९४ ॥ दासेन मे खरः क्रीतो दासो मम खरोऽपि मे । इति स्वदेशस्वाने| दात् पंचानामाह संग्रहः ॥ २९॥ व्यवहारस्तु पंचानां साधारण्यं न वित्तवत् । इति पंचविधो वाच्यः प्रदेश इति मन्यते ॥ ९६ ॥ पंचप्रकारः प्रत्येकं पंचविंशतिधा जवेत् । प्रत्येकवृत्तौ प्राकृपक्षः स्यानेदेष्विव वाजिनाम् ॥ ९७ ॥ प्रत्येकवृत्तिः साकांक्षा बहुत्वेनेति सोऽप्यसन् । जुसूत्रस्ततो व्रते प्रदेशजजनीयताम् ॥ २० ॥ नजनाया विकल्पत्वाद्व्यवस्थैवमपैति तत् । धर्मे धर्मः प्रदेशो संसारिणो य " इत्यादि ? तदुपर्याह-यज्जीवत्वं क्वचिद्रन्थे द्रव्यप्राणानां भावप्राणानां चान्वयादेकीकरणात् स्मृतं संसारिसिद्धसाधारणमिति शेषः तद्विचित्रो विविधावस्थो | यो नैगमस्तस्याभिप्रायाज्ज्ञेयम् ॥ ५० ॥ धात्वर्थे जीवत्यर्थे भावप्राणारोपणात् परोक्तं निश्चयतः सिद्ध एव जीव इति दिगंबरोक्तं नैव युक्तिमत् ॥ ५१ ॥ यथा शैलेशीचरमसमये निश्चयतो धर्मस्तस्मादर्वाग्व्यवहारतो धर्मः, तथाऽसुमान् जीवोऽपि निश्वयतः सिद्ध एव भविष्यति इत्यपि न वाच्यं । यतो धारयति सिद्धिगतावात्मानमिति धर्म इति फले फलरूपे धात्वर्थे चिन्ता ॥ ५२ ॥ ये शुद्धाशुद्धी स्तः सुधीः पंडितस्ते शुद्धशुद्धी वदेत् प्रदेश प्रस्थकवसतिष्टान्तैः ॥ ५३ ॥ नैगमो नयो धर्मास्तिकायादिस्कन्धानां तद्देशस्य प्रदेश इति पण्णां तं प्रदेशमुचकैः स्वमतनिर्बन्धेनाह ॥ ५४ ॥ संग्रहनयस्तु स्वदेशे धर्मास्तिकायादिदेशे स्वाभेदाद्धर्मास्तिकायाद्यभेदात् पंचानां प्रदेशमाह यथा संग्रहस्यान्वर्थत्वं क्रयजन्यं दासनिष्टं खरस्वामित्वम् ॥ ५५ ॥ व्यवहारनयस्तु इति मन्यते यथा पंचानां वित्ते द्रव्ये साधारणं स्वामित्वं तथा प्रदेशे न साधारणं पंचवृत्तित्वं पंचानां प्रदेश इति न वाच्यं, किं तु पंचविधः प्रदेश इति वाच्यम् ॥ ५६ ॥ पंचप्रकारः पंचविधः प्रदेशः, यदि च गेहेषु शतमश्वा इत्यत्रेव प्रत्येक वृत्तित्वान्वयः प्रकृते स्वीक्रियते तदा प्राक् पक्षः पंचानां प्रदेश इति संग्रहनयपक्ष एवं परिष्कृतः ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ व्यवहारनयः प्राह धर्मे धर्मास्तिकाये यः प्रदेशः स धर्मे धर्मास्तिकाय इति सप्तमीतत्पुरुषेण धर्मास्तिकायश्चासौ प्रदेशो धर्मास्तिकाय इति कर्मधारयेण वा निर्णय: कर्तव्यः एवमधर्मास्तिकाय
पदेशः
॥ १०८ ॥
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वा धर्म इत्यादिनिर्णयः ॥ एए ॥ जीवे स्कन्धेऽप्यनन्ते नोशब्दादेशावधारणम् । इति शब्दनयं प्राह समासध्यशुद्धिमान् ॥ ६० ॥ ब्रूते समनिरूढस्तु दातेरत्र सप्तमीम् । देशप्रदेश निर्मुक्तमेवं नूतस्य वस्तु सत् ॥ ६१ ॥ प्रस्थकार्य व्रजामीति वने गवन् ब्रवीति यत् । आदिमो ह्युपचारोऽसौ नैगमव्यवहारयोः ॥ ५२ ॥ अत्र प्रस्थशब्देन क्रियाविष्टवनैकधीः । प्रस्थकेऽहं व्रजामीति पचारोऽपि च स्फुटः ॥ ६३ ॥ बिनभि प्रस्थकं तदणोम्युत्किराम्युल्लिखामि च । करोमि चेति तदनूपचाराः शुद्धतानृतः ॥ ६५ ॥ तमेतावति शुद्धौतूकी नामानमाहतुः । चितं मितं तथा मेयारूढमेवाह संग्रहः ॥ ६५ ॥ प्रस्थकश्चर्जुसूत्रस्य मानं मेयमिति प्रयम् । न कर्तृगतानावादानां सोऽतिरिच्यते ॥ ६६ ॥ लोके च तिर्यग्लोके च जंबूदीपे च जारते । क्षेत्रे तदक्षिणा च पाटलीपुत्रपत्तने ॥ ६७ ॥ गृहेच वसतिः कोणे नैगमव्यवहारयोः । अतिशुद्ध तु निवसन् वसतीत्याहतुः स्म तौ ॥ ६८ ॥ तदर्थस्तत्र तत्कालावचिन्ना तस्य वृत्तिता । वसत्यद्य न सोडत्रेति व्यवहारीचिती आकाशास्तिकायथ ज्ञेयौ ।। ५९ ॥ अपिश्चार्थः, जीवे स्कन्धे व अनन्ते नोव्दादशावधारणं कर्तव्यं, जीवे जीव इति वा प्रदेशो नोजीवः स्कन्ध इति वा प्रदेशो नोस्कन्ध इति ॥ ६० ॥ समभिन्नयस्तु धर्मे प्रदेश इत्यादि सप्तमीसमासं वृते । अत्र कुंडे जलवद्भेदे सप्तमी, घटे घटस्वरूपं इत्यादी क्वचिदभेदे सप्तमी । एवंभूत नयस्य मते देशप्रदेश निर्मुक्त देशप्रदेशकल्पनारहितमखंडमेव वस्तु सत्, देशप्रदेशकल्पना तु भ्रममात्रमिति तन्मते नास्येव प्रदेश इत्यर्थः ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ एतावति शुद्धौ नैगमव्यवहारनयौ तं प्रस्थकं प्रस्थकपर्यायवन्तमाहतुः । संग्रहनयस्तु चितमासादितप्रस्थकपर्याय मितमाकुट्टितनामानं मेयं धान्यविशेषमारूढं च प्रस्थकमाह ॥ ६५ ॥ ऋजुसूत्रस्य मानं मेयं चेति द्वयमेव तत्परिच्छेदासंभवान्मेवारुढ प्रस्थकः प्रस्थकत्वेन व्यपदिश्यत इति शब्दानां शब्दसम भिरुदैवंभूतानां त्रयाणां नयानां मते स प्रस्थको कर्तृगताद्भावान्नातिरिच्यते न भिद्यते ज्ञः कर्ता च ज्ञकर्तारी, इकत्रोंगतो ज्ञकर्तृगतस्तस्मादिति समासः, प्रस्थकाकारज्ञगतात्प्रस्थककर्तृगताद्वा प्रस्थकोपयोगादतिरिक्तं प्रस्थकं न सहते इति प्रस्थकदृष्टान्तः ॥ ६६ ॥ अथ वसतिदृष्टान्तः कुत्र भवान् वसतीति पृष्टे ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ तदथों वसन् वसतीत्यस्यार्थः, तत्र पाटलीपुरे तस्य देवदत्तस्य वर्तमान कालावच्छिन्नवृत्तिनालक्षणयार्थः कर्तव्यः पाटलीपुरादेकस्मिन् दिनेऽन्यत्र गते
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नयो
॥ १०९ ॥
ततः ॥ ६५ ॥ यत्र तत्र गतस्यापि तदासित्वं निगद्यते । तघासवृत्तिजागित्वे ज्ञेयं तत्त्वौपचारिकम् ॥ ७० ॥ संग्रहो वसतिं ब्रूते जन्तोः संस्तारकोपरि । रुजुसूत्रः प्रदेशेषु स्वावगाहनकृत्सु खे ॥ ७१ ॥ तेष्वप्यभीष्टसमये न पुनः समयान्तरे । चलो|पकरणत्वेनान्यान्यक्षेत्रावगाहनात् ॥ ७२ ॥ स्वस्मिन् स्ववसतिं प्रादुस्त्रयः शब्दनयाः पुनः । एषानुयोगघारेषु दृष्टान्तमययोजना ॥ ७३ ॥ शुद्धा ह्येतेषु सूक्ष्मार्था अशुद्धा स्थूलगोचराः । फलतः शुद्धतां त्वादुर्व्यवहारे न निश्चये ॥ ७४ ॥ क्रियाक्रियाफलौचित्यं गुरुः शिष्यश्च यत्र न । देशना निश्चयस्यास्य पुंसां मिथ्यात्वकारणम् ॥ ७५ ॥ परिणामे नयाः सूझा हिता नापरिणामके । न वातिपरिणामे च चक्रिणो जोजनं यथा ॥ ७६ ॥ मे घंटे यथा न्यस्तं जलं स्वघटनाशकृत् । तथाऽपरिणते शिष्ये रहस्यं नयगोचरम् ॥ 99 ॥ पृथक्त्वे नाधिकारस्तन्नयानां कालिकश्रुते । अधिकारस्त्रिभिः प्रायो नयैर्व्युत्प| त्तिमित्रताम् ॥ ७८ ॥ तेनादौ निश्चयोद्धाहो नग्नानामपहस्तितः । रसायनी कृत विषप्रायोऽसौ न जगद्धितः ॥ ७९ ॥ उन्मा| देवदत्तेऽद्य सोऽत्र न वसतीतिव्यवहारस्यौचित्यं ॥ ६९ ॥ ॥ ७० ॥ ७१ ॥ तेषु स्वावगाहकाकाशप्रदेशेष्वपि अभीष्टसमये विवक्षितवर्तमानकाले वसतिर्न पुनभिन्नकाले, वीर्य संयोगसद्द्रव्यकरणचापल्येन प्रतिसमयमन्यान्यक्षेत्रस्यापरापराकाशप्रदेशानामवगाहनादिति ॥ ७२ ॥ त्रयः शब्दनयाः शब्दसमभिरूढैवंभूताख्याः स्वप्रदेशेष्वेव वसतिं प्राहुः, स्वस्य मुख्याया वसतेः संभवात्, आकाशप्रदेशानामपि परद्रव्यत्वेन स्वसंबन्धस्याघटनात् ॥ ७३ ॥ एतेषु नयेषु ये यतः सूक्ष्मार्थास्ते ततः शुद्धाः, ये च यतः स्थूलगोचरास्ते ततोऽशुद्धाः शुद्धाः स्वरूपतः शुद्धतां प्राहुर्व्यवहारनये न तु निश्चये ॥७४॥ तथाहि क्रियाक्रियाफलयो रौचित्यमित्यादि यत्र निश्चयनयेन हि यतः दूहो - " नहि निश्चयई शिष्य गुरु, क्रियाक्रियाफलयोग । दाता नहि भोक्ता नहि निष्फल सवई संयोग ॥ १ ॥ ७५ ॥ परिणाम ऐदंपर्याथैश्रद्धायां सूक्ष्मार्था नया हिताः, पुनरपरिणाम के उत्सर्गैकरुचौ पुरुषे न हिताः तथातिपरिणाम केऽपवादैकरुचौ पुरुषे न हिताः ७६ ॥ ७७ तत्तस्मात्कार णान्निश्वयनयः स्तोकानामुपकारकत्वाद्बहूनां चापकारकत्वाच्चक्रिभोजनवत् सूक्ष्मनयानां च बहूनामुपकारकत्वात्कालिकधुते पृथक्त्वेऽनुयोगचतुष्टयपृथक्करणे सति नयानां | सर्वेषां नयानामधिकारो नास्ति योजनायां इति शेषः, किं तु त्रिभिर्नैगमसंग्रहव्यवहारैर्नयैर्व्युत्पत्तिमिच्छतां शिष्याणां हि तां प्राप्नोति प्राप्ताधिकार इति ॥ ७८ ॥ तेन सूत्रोक्तरीतिलंघनेनादौ निश्चयनयोपन्यासो दिगंबराणामपहस्तितो निराकृतः, असौ निश्चयो न जगद्धितः, यथा रसायनीकृतंविषं सर्वेषां न हि हिताय ॥ ७९ ॥ पर
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कारणं पापं परस्थाने हि देशना । बालादेन न्ययोग्यं च वचो नेपजवचितम् ॥ ७० ॥ ये सीदन्ति क्रियान्यासे झानमात्राजिमानिनः । निश्चयानिश्चयं नैते जानन्तीति श्रुते स्मृतम् ॥ १॥ इष्टः शब्दनयावो निदेपा निखिलाः परः। मतं मंगलवादेऽन्यन्निदां व्याथिके त्रये ॥ २ ॥ व्यार्थे गुणवाञ्जीवः पर्यायार्थे च तशुणः । सामायिकमिति प्रोक्तं यदिशावश्यकादिषु ॥ ३॥ घटोपयोगरूपो वा जावो च्यार्थिकेऽमतः । तेन तत्र त्रयं प्रोक्तमिति जानीमहे वयम् ॥ ४॥ तत्र नामघटः प्रोक्तो घटनाम्ना पटादिकः। तच्चित्रं स्थापनाऽव्यं मृनावो रक्तिमादिकः ॥ ५॥ एकज्व्येऽप्यात्मनामाकृतिकारणकार्यताः। पुरस्कृत्य महानाष्ये दिष्टा पदान्तरेण ते ॥६॥ अप्राप्यानिधाव्यजीवाव्याद्ययोगतः। न स्थाने स्वाधिकारिभिन्नाधिकारिणि निमित्ते हि निश्चितं देशनोन्मार्गकारणमिति हेतोः पापं इति। न च वालादेम येऽन्ययोग्य वचोऽन्यस्य भेषजवद्धितम् ।। ८० ॥ ।। ८१ ॥ अथ निक्षेपाधिकारः शब्दनयैर्भावनिक्षेप इष्टः पर्यायार्थि के भावनिक्षेप एव परैः, द्रव्यार्थि केन निखिलायलारोऽपि निःक्षेपास्तत्कथं संगच्छते मंगलवाद | यदुक्तं भाष्यकृता द्रव्यार्थिक भिदां त्रये नामस्थापनाद्रव्यलक्षणे मंगलवादेऽभिहितेऽन्यन्मनं पुरस्कृतमिति शेषः तत्त्वार्थवृत्तावपि ॥ ८२ ॥ आवश्यकादिपु ग्रन्थेषु | द्रव्यार्थिकनये गुणवान् जीवः सामायिक, पर्यायार्थिकनये च जीवस्य गुणः सामायिकमिति प्रोक्तं, तन्मतमेतदित्यर्थः ।। ८३ ॥ इति मतान्तरमनेतनवचनेन सहाविरोधं समर्थयन्नाह-वेति पक्षान्तरे घटोपयोगरूपो भावो द्रव्यार्थिकेऽमतोऽनिष्टस्तेन तत्र मंगलवादे द्रव्याथिके त्रयं नामादिनिक्षेपत्रयं प्रोक्तं, न तु सर्वथा भावानभ्युपगमाभिप्रायेण जलाहरणादिपरिणतिरूपभावघटस्य द्रव्याथिकेनाभ्युपगमादिति वयं जानीमहे । तथा च भाष्ये पूर्व शुद्धचरणरूपभावमंगलाधिकारप्रवृत्ते गमादिना जलाहरणादिरूपभावघटाभ्युपगमेऽपि घटोपयोगरूपभावघटानभ्युपगमात्तनिषधोक्तिः, अग्रेतु व्यवस्थाधिकाराद्विशेषोक्तिरिति न विरोधः।।८४॥ऊक्तं निक्षेपचतुष्टयं तत्र निक्षेपचतुष्टयमध्ये घटनान्ना कृप्तः पटादिकोऽपि नामघट उच्यते, शेषं स्पष्टम्॥८॥ एकस्मिन्नपि द्रव्ये आत्मनो विवक्षितपदार्थस्य नामाभिधायक पदं नाम,आकृतिः संस्थानं, कारणता तत्पर्याय जननशत्तिव्यं, कार्यता तद्रूपेणाभिव्यक्तिर्भावः, एताः पुरस्कृत्य मेलविला भिन्नपक्षाभिप्रायेण ते नामादयश्चलारोऽपि निक्षेपा महाभाष्ये दिष्टाः प्रतिपादिताः ॥ ८६ ॥ एतेषां नामादीनां निक्षेपाणामप्रज्ञाप्ये वस्तुनि अभिधाया नानोऽप्रयोगाजीवद्रव्ययोश्च जीवत्वेन द्रव्यत्वेन च भूतभविष्यत्पर्यायाभावेन तत्कार
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नयो
पदेशः
॥११॥
चाव्यापित्वमेतेषां तत्तनेदनिवेशतः॥ ७॥ इतीयं प्रायिकी व्याप्तिरनियुक्तनिरूप्यते । यत्तत्पदान्यां व्याप्तिश्चानुयोगघारनिश्चिता ॥ ७॥ आदिष्टजीवनव्यान्यां अव्यन्यासस्य संजवम् । अप्रज्ञाप्ये जिनप्रज्ञानाम्नश्च ब्रुवते परे ॥ एतच्चिन्त्यमुपयोगो यन्नाम व्यार्थिकस्य न । नरादेर्षव्यजीवत्वे सिझे स्थानावजीवता ॥ ए०॥ श्रादिष्टव्यहेतुत्वाद्रव्याव्यप्रतिश्रुतौ । जावषव्यं न किंचित् स्याशुणेऽपि व्यतार्पणात् ॥ १॥ अन्ये तु व्यजीवो धीसंन्यस्तगुणपर्ययः। तदसन्नधिया तेषां संन्यासः स्यात्सतां यतः॥ ए॥ संग्रहे स्थापना नेष्टा तस्या नाम्नैव संग्रहात् । किं नेन्चित्रं नामेन्ड इन्जनामकपिंवत् ॥ ए३ ॥ नामातिरिक्तो नामेन्यो लक्ष्य इन्पदस्य हि । तस्य मुख्यार्थसादृश्य_सादृश्ये च नाग्रहः ॥ एच ॥ इदं| कैश्चिन्मतं तच्च जाष्ये दूषितमुच्चकैः। नाम्नैव ऽव्यनिदेपेऽप्येवं संग्रहसंजवात् ॥ एए ॥ परिणामितया प्रव्यं वाचकत्वेन नाम च । नावस्थमिति नेदश्चेन्नाम्नेन्छे उर्वचं ह्यदः॥ ए६ ॥ परिणामित्वजिन्नश्चेन्नामनिदेपलक्कः। संबन्ध इष्टः साम्या| णत्वाभावाव्यनिक्षेपस्यायोगात्, न चाव्याप्तिः ॥ ८७ ॥ कुतः प्रायिकी अभियुक्तैः पंडितैर्निरूप्यते, व्याप्तिश्च यत्तत्पदाभ्यामनुयोगद्वारसूत्रादेव निश्चिता “ जत्थय
जं जाणिज्जा णिस्खेवं णिख्सिवे णिरवसेस । जत्थविय न जाणिज्जा चउकयं णिख्खिवे तत्थ।।१।।इति तत्पाठादिति श्लोकद्वयं यद्येकस्मिन्न संभवति नैतावति भवत्यव्याप्तिता |॥ ८८ ॥ परे आचार्या अप्रज्ञाप्ये वस्तुनि जिनप्रज्ञारूपनामनिक्षेपस्य संभवं ब्रुवते, तत्र केवलिप्रज्ञैव नामतयैव तत्कार्यकरणात् आदिष्टद्रव्यलानां घटादिपर्यायाणां हेतुलाइव्यं ।। ८९ ॥ यद्यस्माद्रव्यार्थिकस्य नयस्य मत उपयोगो नाम न भवति ॥ ९० ॥ आदिष्टद्रव्यहेतुलाद्धेतोर्द्रव्यद्रव्यस्य प्रतिश्रुती स्वीकारे च भावद्रव्यं किमपि न स्यात् ।। ९१ ॥ अन्ये खाचार्या धिया बुद्धया संन्यस्ता गुणपर्याया यस्य स तथा गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितः तदसत्, यतः सतां तेषां गुणपर्यायाणां धिया संन्यासो न स्यात् तदेवं प्रायिकव्याप्त्या नामादिचतुष्टयं सर्वत्रेच्छन्ति सर्वेऽपि द्रव्यार्थिकनया इति व्यवस्थापितम् ।। ९२ ॥ संग्रहनये स्थापना नेष्टा, स्थापनाया नामनिक्षेपेणैव संग्रहात्, इन्द्रप्रतिमा इन्द्रनामकपिंडवत् किं नामेन्द्रो न भवति ? अपि तु भवत्येव ।। ९३ ॥ वैसदृश्ये सादृश्ये वा निमित्ते नाग्रहः कर्तव्यः ॥ ९४ ॥ इदं मतं भाष्ये दूषितम् ॥१५॥ परिणामितया द्रव्यं भावे संबद्धं, नाम च वाचकत्वेन वाच्यवाचकभावेन संबद्धं चेत्, अदो नियामकं नामेन्द्र गोपालदारके दुर्वचम् ॥९६॥ नाम
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| दिचिन्नः किं न तश्रेष्यते ॥ ए ॥ श्रतिप्रसंगो नैवं चानिप्रायाकारयोगतः । यच्छ्रुतोक्तमनुल्लंघ्य स्थापना नाम चान्यतः ॥ ए८ ॥ अत एव न धीरर्हत्प्रतिमायामिवार्हतः । जावसाधोः स्थापना या प्रव्यलिंगिनि कीर्तिता ॥ एए ॥ सा हि स्थाप्या स्मृतिधारा जावादर विधायिनी । न चोत्कटतरे दोषे स्थाप्यस्थापकजावना ॥ १०० ॥ यघा प्रतिष्ठाविधिना स्वात्मन्येव परात्मनः ॥ स्थापना स्यात् समापत्तिर्विवे सा चोपचारतः ॥ १०१ ॥ प्रतिष्ठितप्रत्यनिज्ञासमापन्नपरात्मनः । आहार्यारो पतः स्याच्च प्रष्टृणामपि धर्मः ॥ १०२ ॥ तत्कारणेला जनकज्ञानगोचरबोधकाः । विधयोप्युपयुज्यन्ते तेनेदं दुर्मतं हतम् | ॥ १०३ ॥ प्रतिष्ठाद्यनपेक्षायां शाश्वतप्रतिमार्चने । अशाश्वताचपूजायां को विधिः किं निषेधनम् ॥ १०४ ॥ पूजादिवि
निक्षेपलक्षणः परिणामित्वभिन्न एव द्रष्टव्यस्तदा स्थापनाया अपि स्वाम्यादिभिन्नः संबन्धः ॥ ९७ ॥ एवमुक्तासंकरप्रकारेण चातिप्रसंगो न भवति, यच्च्छ्रुतोक्तं सिद्धान्तवचनमनुध्याक्षादी एवाभिप्रायसंबन्धं प्रतिमादौ चाकारसंबन्धं पुरस्कृल स्थापनाद्रियतेऽन्यतोऽन्यस्थले च नामनिक्षेप इति ॥ ९८ ॥ अत एवात्प्रतिमाया महतो धीरिव द्रव्यलिंगिनि प्रकटप्रतिषेविण पार्श्वस्थादौ स्थापना भावसाधोधः सिद्धान्ते न कीर्तिता ।। ९९ ।। सा स्थापनाधीः ।। १०० ।। यद्वा पक्षान्तरे प्रतिष्ठाविधिना प्रतिष्ठाकारयितुः स्वात्मन्येव परात्मनः परमत्रिभुवनभर्तुर्थ्यानरूपा समापत्तिरेव स्थापना स्यात्, निश्चयतः सा प्रतिष्ठा, बिंबे चोपचारतः ॥ १०१ स्थापना प्रतिष्ठित प्रतिज्ञया समापन्नो यः परमात्मा भगवांस्तस्याहार्यांरोपतो द्रष्टृणामुपलक्षणाद्वन्दकानां पूजकानां च धर्मभूर्धर्मकारणं भवति ॥ १०२ ॥ तस्याहार्यारोपस्य कारणं या इच्छा | तज्जनकं यत्प्रतिष्ठितप्रतिमाभगवदभेदेनाध्यारोपयेदिति विधिजनितं ज्ञानं तगोचरीभूताः प्रतिष्ठाया बोधका इष्टसाधनत्वबोधनादिद्वारा तदुत्पतिहेतव इति यावत् विधयो विधिवाक्यान्यप्युपयुज्यन्ते फलवन्तो भवन्ति तेनेदं वक्ष्यमाणं दुर्मतमाध्यात्मिकाभासानां हृतं निराकृतम् ॥ १०३ ॥ किं तदित्याह शाश्वत इति स्पष्टं प्रतिष्ठितप्र तिमां पूजयेदिति विधिरप्रतिष्टितां न पूजयेदिति निषेधनं च किं विधिनिषेधार्थान्वयस्यायोग्यत्वादिति ॥ १०४ ॥ कथं निरस्तं तदाह--पूजादिविधयः प्रतिष्ठितां प्रतिमां पूजयेदित्यादिवाक्यलक्षणा ज्ञानविधेः प्रतिष्ठितां प्रतिमां भगवदभिन्नत्वेनाप्यरोपयेदित्लंगवाक्यात्मकस्यांगिलं प्रधानत्वमाधिताः शाश्वताशाश्वताच विभेदेनभिन्नरूपेण व्यवस्थिता विधिविषयनिर्वाहवं अशाश्वतप्रतिमास्थले अन्यत्र वनादिप्रतिष्ठित प्रत्यभिज्ञाया एव तथावं, तादृशशिष्टाचारेण तथैव विधिबोधनादिति
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धयो ज्ञानविध्यंगित्वं यदाश्रिताः । शाश्वताशाश्वतार्चासु विजेदेन व्यवस्थिताः॥१०५॥ एतेन व्यवहारेऽपि स्थापनानाग्रहो हतः । तत्रार्धजरतीयं किं नाम्नापि व्यवहर्तरि ॥१६॥ जुसूत्रेऽपि ये व्यनिदेपं प्रवदन्ति न । व्याख्यया तैः| कथं तत्र व्यावश्यकसूत्रगीः॥ १०७॥ तस्माद्यथोक्तनिपविजागो नाष्यसंमतः । श्तीयं मुहुरालोच्या निदेपनययो-| जना ॥ १०॥ जातं व्यास्तिकात्रुझाद्दर्शनं ब्रह्मवादिनाम् । तत्रैके शब्दसन्मानं चित्सन्मात्रं परे जगुः ॥ १०॥ अशुघाट्यवहाराख्यात्ततोऽजूत सांख्यदर्शनम् । चेतनाचेतनप्रव्यानन्तपयायदशकम् ॥ ११०॥ यद्यप्येतन्मतेऽप्यात्मा निर्लेपो निगुणो विनुः। अध्यासाध्यवहारश्च ब्रह्मवादेऽपि संमतः॥ १११॥ प्रत्युतात्मनि कर्तृत्वं सांख्यानां प्रातिजासिकम् ।
वेदान्तिनां त्वनिर्वाच्यं मतं तघ्यावहारिकम् ॥ ११ ॥ अनुत्पन्नत्वपक्षश्च नियुक्तौ नैगमे श्रुतः।नेति वेदान्तिसांख्योक्त्योः |संग्रहव्यवहारता ॥ ११३ ॥ तथाप्युपनिषदृष्टिः सृष्टिवादात्मिका परा । तस्यां स्वप्नोपमे विश्वे व्यवहारलवोऽपि न ॥११॥ सांख्यशास्त्रे च तन्नात्मव्यवस्था व्यवहारकृत । इत्येतावत्पुरस्कृत्य विवेकः संमतावयम् ॥११॥ हेतुतस्य कस्यापि शुशोऽ
शुधो न नैगमः। अन्तोवो यतस्तस्य संग्रहव्यवहारयोः॥ ११६॥ हान्यां नयाच्यामुन्नीतमपि शास्त्रं कणाशिना । दा॥१०५॥ एतेन युक्तिकदबकेन संग्रहे स्थापनाव्यवस्थापनेन व्यवहारेऽपि स्थापनाया अनाग्रहोऽस्वीकारो हतो निरस्तः केषांचिदाचार्याणां, यतस्तत्र व्यवहारे नाम्नापि | | नामनिक्षेपेणापि व्यवहर्तरि व्यवहारमभ्युपगच्छति, किमिदमर्धजरतीयं यदुपनया ( यदुपमया) न व्यवहार इति, न हीन्द्रप्रतिमायां नेन्द्रव्यवहारो भवति ॥१०६॥ | ऋजुसूत्रेपि ये द्रव्यनिक्षेपं न स्वीकुर्वते तान् दूषयति--अनुपयोग द्रव्यमिति, तत्र तैर्द्रव्यावश्यकगीः कथं व्याख्येया ॥ १० ॥१०८॥ एके ब्रह्मवादिनः शब्दसन्मात्रमि
च्छन्ति अन्ये चित्सन्मात्रमिच्छन्ति ॥ १०९ ॥ व्यवहाराख्यादशुद्धात् ततो द्रव्यार्थिकनयात् सांख्यदर्शनमभूत्, कीदृशं तत् ? चेतनश्वाचेतनद्रव्यंचानन्तपर्यायाश्चाविर्भा| वतिरोभावात्मकास्तेषां दर्शकं प्रतिपादकमिति ॥ ११० ॥ एतन्मते सांख्यमते आत्मा कर्तृत्वादिलेपरहितो गुणस्पर्शशुन्यः ॥ १११ ॥११२ ॥ ११३ ॥ तथाप्युपनिष| वेदान्तदर्शनप्रवृत्तिः ॥ ११४ ॥ तात्पर्यविषयीकृत्य अयम् ॥ ११५ ॥ ११६ ॥ द्वाभ्यां सामान्यविशेषग्राहिभ्यां संग्रहव्यवहाराभ्यां नयाभ्याम् ॥ ११ ॥
॥१११॥
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अन्योऽन्यनिरपेक्षत्वान्मिथ्यात्वं स्वमताग्रहातु ॥ ११७ ॥ स्वतंत्रव्यक्तिसामान्यग्रहा येऽत्र तु नैगमे । औलूक्यसमयोत्पत्तिं|
महे तत एव हि ॥ ११ ॥ झजुसूत्रादितः सौत्रान्तिकवैनापिको क्रमात् । अवन् सौगता योगाचारमाध्य|मिकाविति ॥ ११॥ नयसंयोगजः शब्दालंकारादिश्च विस्तरः । कियान् वाच्यो वचस्तुट्यसंख्या ह्यनिहितानया॥१२॥ स्याहादनिरपेक्षैश्च तैस्तावन्तः परागमाः। शेयोपयुज्य तदियं दर्शने नययोजना ॥ ११॥ नास्ति नित्यो न नो कर्ता न लोक्तात्मा न निवृतिः। तपायश्च नेत्याहुर्मिथ्यात्वस्थानकानि षट् ॥ १२॥ षमेतपिरीतानि सम्यक्त्वस्थानकान्यपि।। मार्गत्यागप्रवेशाच्यां फलतस्तत्त्वमिष्यते ॥ १३ ॥ स्वरूपतस्तु सर्वेऽपि स्युर्मियोऽनिश्रिता नयाः। मिथ्यात्वमिति को के नेदो नास्तित्वास्तित्वनिर्मितः॥१२॥ धर्म्यशे नास्तिको ह्येको बार्हस्पत्यः प्रकीर्तितः । धर्माशे नास्तिका ज्ञेयाः सर्वेऽपि ॥११८॥ ऋजुसूत्रादित ऋजुसूत्रतः सौत्रान्तिकः, शब्दतो वैभाषिकः, समभिरूडतो योगाचारः, एवंभूततो माध्यमिक, इति चत्वारः सौगता अभूवन् । अत्र काव्यम् । " अर्थों ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणेक्ष्यते, प्रत्यक्षो न हि बाद्यवस्तुवसर: सौत्रान्तिकैराश्रितः। योगाचारमतानुगैरभिमता साकारबुद्धिः परा, मन्यन्ते बत मध्यमाः कृतधियः स्वस्थां परां संविदम् ॥ १॥ इति" ॥ ११९॥ १२० ॥ नयैः स्याद्वादनिरपेक्षेः स्याद्वादैकवाक्यतारहितैस्तावन्तो वचस्तुल्यसंख्या एव परागमाः पर सिद्धान्ता भवन्ति । अभिनिवेशान्वितनयत्वस्यैव परसमयलक्षणखादिति । तदिदमुक्त संमतौ। इयं दर्शने नययोजना ज्ञेया ॥ १२१ ॥ नास्त्यात्मेति चावार्कमते, न नित्य आत्मेति क्षणिकवादिमते, न कर्ता न भोक्तात्मेति सांख्यमते, यद्वा न कर्तेति सांख्यमते। न भोक्तेति वेदान्तिमते, नास्ति निर्वृतिः सर्वदुःखविमोक्षलक्षणा नास्ति| कपायाणां यज्वनां मते,अस्ति मुक्तिः परं तदुपायो नास्ति सर्वभावानां नयतत्वेनाकस्मादेव भावादिति नियतिवादिमते,इत्येतानि षड् मिथ्यावस्थानकान्याहुः पूर्वसूरयः ॥१२२॥एतेभ्यः प्रागुक्तेभ्यो विपरीतानिषद् सम्यक्त्वस्थानकानि भवन्ति । गाथा-"अस्थि जिओ णिचो कत्ता भुत्ता सपुनपावाणं।अस्थि धुवं निव्वाणं तस्सोवाओं अछटाणा ॥१॥ इति" को विशेष इत्यत आह-नास्तिलवादे गुरुशिष्यक्रियाक्रियाफलादिव्यवहारलोपान्मार्गत्यागः, अस्तिलवादे चोक्तब्यवहारप्रामाण्य विश्वासे तत्प्रवेशः, इत्येताभ्यां हेतुभ्यां फलतस्तत्त्वं सम्यक्त्वमिथ्यास्थानकसमिध्यते॥१२॥मियोऽनिधिता इति स्याद्वादमुद्रया परस्पराकांक्षारहिता इति तेषां भेदो भविष्यतीत्यत आह्॥१२४॥
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परतीथिकाः॥ १२५ ॥ इत्यमेव क्रियावादे सम्यक्त्वोक्तिर्न पुष्यति । मिथ्यात्वोक्तिस्तयाज्ञानाक्रियाविनयवादिषु ॥ १२६॥ |क्रियायां पक्षपातो हि पुंसां मार्गानिमुख्यकृत् । अन्त्यपुजलनावित्वादन्येन्यस्तस्य मुख्यता ॥ १७॥ क्रियानयः क्रियां ब्रूते ज्ञानं ज्ञाननयः पुनः । मोक्षस्य कारणं तत्र नूयस्यो युक्तयोध्योः ॥ १२ ॥ विज्ञप्तिः फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य फलासंवाददर्शनात् ॥ १२॥ क्रियैव फलदा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीलक्ष्यलोगो न ज्ञानात्सुखितो जवेत् ॥ १३० ॥ ज्ञानमेव शिवस्याध्वा मिथ्यासंस्कारनाशनात् । क्रियामानं त्वजव्यानामपि नो पुर्खनं जवेत् ॥ १३१ ॥ तंमुलस्य यथा वर्म यथा ताम्रस्य कालिका । नश्यति क्रिययामुत्र पुरुषस्य तथा मलः ॥१३॥ बतरश्च तपस्वी च शूरश्चाप्यकृतवणः। मद्यपा स्त्री सती चेति राजन्न श्रद्दधाम्यहम् ॥ १३३ ॥ ज्ञानवान् शीलहीनश्च त्यागवान् धनसंग्रही । गुणवान् जाग्यहीनश्च राजन्न श्रद्दधाम्यहम् ॥ १३४ ॥ इति युक्तिवशात्प्राहुरुजयोस्तुट्यक
ताम् । मंत्रेऽप्याह्वानंदेवादेः क्रियायुग्झानमिष्टकृत् ॥ १३५ ॥ ज्ञानं तुर्ये गुणस्थाने झायोपशमिकं भवेत् ।। अपेक्षते फले षष्ठगुणस्थानजसंयमम् ॥ १३६ ॥ प्रायः संजवतः सर्वगतिषु ज्ञानदर्शने । तत्प्रमादो न कर्तव्यो ज्ञाने चारित्रवर्जिते ॥ १३७ ॥ दायिक केवलज्ञानमपि मुक्तिं ददाति न। तावन्नाविनवेद्यावञ्चैलेश्यां शुसंयमः ॥ १३ ॥ व्यवधर्मिण आत्मनोंऽशे नास्तिलभागे एकश्चार्वाको नास्तिकः प्रोक्तः, धर्माणामात्मनः शरीरप्रमाणबनानावादीनामशे नास्तिवपक्षे सर्वेऽपि नैयायिकवैशेषिकवेदान्तिसांख्यपातं जलजैमिनीयादयः परतीथिका नास्तिका शेयाः ।।१२५॥१२६॥ क्रियायां पक्षपातो मोक्षेच्छया आवेशो हि पुंसा मार्गानुसारिता । तदुक्तं दशाचूणी-"जो अकिरियावाई|| सो भविओ अभविओ वा कङपख्खिओ सुक्कपख्खिओ वा, जो किरियावाई सो णियमा भविओ णियमा सुकपख्खिओ अंतो पुग्गलपरियहस्स सिझ्झाइ इत्यादि । असियसयं | किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीई । अन्नाणिय सत्तही वेणईयाणं तु बत्तीसा ॥१॥" इति गाथा । अत्र च क्रियावाद्यादीनां त्रिषष्टयधिकशतत्रयभेदा इति॥१२॥
॥११॥
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हारे तपोज्ञानसंयमा मुक्तिहेतवः । एकः शब्दर्जुसूत्रेषु संयमो मोक्कारणम् ॥ १३ए ॥ संग्रहस्तु नयः प्राह जीवो मुक्तः । सदा शिवः। अनवाप्तिन्त्रमात्कंठस्वर्णन्यायात् क्रिया पुनः॥ १४०॥ अनन्तमार्जितं ज्ञानं त्यक्ताश्चानन्तवित्रमाः। न चित्रं कलयाप्यात्मा हीनोऽजूदधिकोऽपि वा ॥ १४१॥ धावन्तोऽपि नयाः सर्वे स्युर्जावे कृतविश्रमाः।चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनयाश्रितः॥ १४॥
सुनिपुणमतिगम्यं मन्दधीःप्रवेशं प्रवचनवचनं न क्वापि हीन नयौघैः। गुरुचरणकृपातो योजयंस्तान् पदे यः परिणमयति शिष्यास्तं वृणीते यशःश्रीः ॥ १४३॥ गडे श्रीविजयादिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः प्रौढिं प्रौढिमधाम्नि जीतविजयमाझाः परामैयरुः। तत्सातीर्थ्यनृतां नयादिविजयपाझोत्तमानां शिशुस्तत्त्वं किंचिदिदं यशोविजय इत्याख्यानृदाख्यातवान् ॥ १४४॥
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॥ इति नयोपदेशप्रकरणम् ॥
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॥ चप्रथ जैन तर्कपरिभाषा प्रारभ्यते ॥ ऐन्द्रवृन्दनतं नत्वा जिनं तत्त्वार्थदेशिनम् । प्रमाणनय निक्षेपैस्तर्कनाषां तनोम्यहम् ॥ १ ॥
* तत्र स्वपरवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । स्वमात्मा ज्ञानस्यैव स्वरूपमित्यर्थः । परस्तस्मादन्योऽर्थ इति यावत् । तौ व्यवस्यति यथास्थितत्वेन निश्चिनोतीत्येवंशीलं स्वपरव्यवसायि । अत्र दर्शनेऽतिव्याप्तिवारणाय ज्ञानपदम् । संशय विपर्ययानध्यवसायेषु तारणाय व्यवसायिपदम् । परोक्षस्यादिवादिनां मीमांसकादीनां वाह्यार्यापलापिनां ज्ञानाद्यद्वैतवादिनां च मतनिरासाय स्वपरेति स्वरूपविशेषणार्थमुक्तम् । ननु यद्येवं सम्यग्ज्ञानमेव प्रमाण मिप्यते तदा किमन्यत्तत्फलं वाच्यमिति चेत्सत्यं । | स्वार्थ व्यवसितेरेव तत्फलत्वात् । नन्वेवं प्रमाणे स्वपरव्यवसायित्वं न स्यात्, प्रमाणस्य परव्यवसायित्वात् फलस्य च स्वव्यवसायित्वादिति चेन्न, प्रमाणफलयोः कथंचिदनेदेन तदुपपत्तेः । इत्थं चात्मव्यापाररूपमुपयोगेन्द्रियमेव प्रमाणमिति स्थि तम् । न ह्यव्यापृत श्रात्मा स्पर्शादिप्रकाशको नवति, निर्व्यापारेण कारकेण क्रियाजननायोगात् मसृणतूलिकादिसन्निकपेण सुषुप्तस्यापि तत्प्रसंगाच्च । केचित्तु - " ततोऽर्थग्रहणाकारा शक्तिर्ज्ञानमिहात्मनः । करणत्वेन निर्दिष्टा न विरुद्धा कथञ्चन ॥ १ ॥” इति लब्धीन्द्रियमेवार्थग्रहणशक्तिलक्ष्णं प्रमाणं संगिरन्ते, तदपेशलं, उपयोगात्मना करणेन लब्धेः फले व्यवधानात्, शक्तीनां परोक्षत्वाच्युपगमेन करणफलज्ञानयोः परोक्षप्रत्यक्षत्वाच्युपगमे प्राभाकरमतप्रवेशाच्च । अथ ज्ञानशक्तिरप्यात्मनि स्वाश्रये परिच्छिन्ने व्यार्थतः प्रत्यचेति न दोष इति चेन्न प्रव्यद्वारा प्रत्यक्षत्वेन सुखादिवत् स्वसंविदित
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जैनतर्क
परिजापा.
A
॥११४॥
त्वाव्यवस्थितेः, ज्ञानेन घट जानामीति करणोट्लेखानुपपत्तेश्च । न हि कलशसमाकलनवेलायां व्यार्थतः प्रत्यदाणामपि कुशूलकपालादीनामुलेखोऽस्तीति । तट्विनेदं प्रत्यदं परोदं च । अदमिन्द्रिय प्रति गतं कार्यत्वेनाश्रितं प्रत्यदं,अथवाऽश्नुते झानात्मना सर्वार्थान् व्यामोतीत्यौणादिकनिपातनाददो जीवस्तं प्रतिगतं प्रत्यक्षम् । न चैवमवध्यादौ मत्यादौ च प्रत्यक्षव्यपदेशो न स्यादिति वाच्यम्, यतो व्युत्पत्तिनिमित्तमेवैतत् प्रवृत्तिनिमित्तं त्वेकार्थसमवायिनाऽनेनोपलदितं स्पष्टतावत्त्वमिति । स्पष्टता चानुमानादिन्योऽतिरेकेण विशेषप्रकाशनमित्यदोषः। अदेन्योऽदाहा परतो वर्तत इति परोदं,अस्पष्टं ज्ञानमित्यर्थः । प्रत्यहं विविध सांव्यवहारिक पारमार्थिकं चेति । समीचीनो बाधारहितो व्यवहारःप्रवृत्तिनिवृत्तिलोकाजिलापलक्षणः संव्यवहारस्तत्प्रयोजनकं सांव्यवहारिकमपारमार्थिकमित्यर्थः। यथाऽस्मदादिप्रत्यदं। तचीनियानिन्ज्यिव्यवहितात्मव्यापारसंपाद्यत्वात्परमार्थतः परोक्षमेव, धूमादग्निज्ञानवट्यवधानाविशेषात् । किं चासिध्यनैकान्तिकविरुधानुमानालासवसंशयविपर्ययानध्यवसायसंजवात्सदनुमानवत्संकेतस्मरणादिपूर्वकनिश्चयसंजवाच्च परमार्थतः परोक्मेवैतत्। एतच्च विविधमि जियजमनिन्छियजंच,तत्रेन्षियजं चक्करादिजनितं,अनिन्जियजं चमनोजन्मायद्यपीयिजझानेऽपिमनोव्यापिपर्ति,तथापि तत्रेन्ड्रियस्यैवासाधारणकारणत्वाददोषः।ध्यमपीदं मतिश्रुतदाविधा, तत्रेन्डियमनोनिमित्तं श्रुताननुसारि ज्ञानं, मतिज्ञानं, श्रुतानुसारि च श्रुतज्ञानम्। श्रुतानुसारित्वं च संकेतविषयपरोपदेशं श्रुतग्रन्थं वाऽनुसृत्य वाच्यवाचकलावेन संयोज्य घटो घट इत्याद्यन्तर्जटपाकारग्राहित्वम् । नन्वेवमवग्रह एव मतिज्ञानं स्यान्न त्वीहादयः, तेषां शब्दो खसहितत्वेन श्रुतत्वप्रसंगादिति
१ व्यावहारिकं ।
॥११॥
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चेन्न,श्रुतनिश्रितानामप्यवग्रहादीनां संकेतकाले श्रुतानुसारित्वेऽपि व्यवहारकाले तदननुसारित्वात्,अन्यासपाटववशेन श्रताः नुसरणमन्तरेणापि विकटपपरंपरापूर्वकविविधवचनप्रवृत्तिदर्शनात् अङ्गोपाङ्गादौ शब्दाद्यवग्रहणे च श्रुताननुसारित्वान्मतित्वमेव । यस्तु तत्र श्रुतानुसारी प्रत्ययस्तत्र श्रुतत्वमेवेत्यवधेयम् । मतिझानमवग्रहेहापायधारणालेदाच्चतुर्विधम् । अवकृष्टो ग्रहोऽवग्रहः, विविधः, व्यञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च । व्यज्यते प्रकटीक्रियतेऽ?ऽनेनेति व्यञ्जनं कदंबपुष्पगोलकादिरूपाणामन्तर्निवृत्तीन्जियाणां शब्दादिपरिणतव्यनिकुरवं तमुजयसंवन्धश्च, ततो व्यञ्जनेन व्यञ्जनस्यावग्रहो व्यञ्जनावग्रह इति मध्यमपदलोपी समासः । अयाज्ञानमयं बधिरादीनां श्रोत्रशब्दादिसंबन्धवत्तकाले ज्ञानानुपलंलादिति चेन्न, ज्ञानोपादानत्वेन तत्र ज्ञानत्वोपचारादन्तेऽर्थावग्रहरूपझानदर्शनेन तत्कालेऽपि चेष्टाविशेषाद्यनुमेयस्वप्नज्ञानादितुट्याव्यक्तज्ञानानुमानामा एकतेजोऽवयववत्तस्य तनुत्वेनानुपलक्षणात् । स च नयनमनोवर्जेन्जियजेदाच्चतुर्धा । नयनमनसोरप्राप्यकारित्वेन व्यञ्जनावग्रहा सिः। अन्यथा तयो यकृतानुग्रहोपघातपात्रत्वे जलानलदर्शनचिन्तनयोः क्लेददाहापत्तेः। रविचन्नाद्यवलोकने चक्षोड नुग्रहोपघाती दृष्टावेवेति चेन्न, प्रथमावलोकनसमये तददर्शनात् । अनवरतावलोकने च प्राप्तेन रविकिरणादिनोपघातस्य नैसर्गिकसौम्यादिगुणे चन्नादौ चावलोकिते उपघातालावादनुग्रहाजिमानस्योपपत्तेः । मृतनष्टादिवस्तुचिन्तने इष्टसंगमविनवलालादिचिन्तने च जायमानौ दौर्बट्योरःक्तादिवदनविकाशरोमाञ्चोजमादिलिङ्गकावुपघातानुग्रही न मनसः, किंतु मनस्त्वपरिणतानिष्टेष्टपुद्गल निचयरूपऽव्यमनोऽवष्टलेन हुन्निरुध्यायुतनेषज्याच्यामिव जीवस्यैवेति न तान्यांमनसः प्राप्यका
१ अवग्रहः । २ व्यंजनावग्रहः ।
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जैनतर्क
। परिलाषा.
॥११५॥
रित्वसिद्धिः। ननु यदि मनो विषयं प्राप्य न परिच्छिनत्ति तदा कथं प्रसुप्तस्य मेर्वादौ गत मे मन इति प्रत्ययः ? इति चेन्न, मेर्वादौ शरीरस्येव मनसो गमनस्वप्नस्यासत्यत्वात्, अन्यथा विबुधस्य कुसुमपरिमलाद्यध्वजनितपरिश्रमाद्यनुग्रहोपघातप्रसंगात् । ननु स्वामानुजूतजिनस्नात्रदर्शनसमीहितार्थालानयोरनुग्रहोपघातौ विबुधस्य सतो दृश्यते एवेति चेदृश्येतां स्वप्न विज्ञानकृतौ तौ । स्वमविज्ञानकृतं क्रियाफलं तु तृप्त्यादिकं नास्ति, यतो विषयप्राप्तिरूपा प्राप्यकारिता मनसो युज्ये-|| तेति ब्रूमः । क्रियाफलमपि स्वप्ने व्यञ्जनविसर्गलक्षणं दृश्यत एवेति चेत्तत्तीव्राध्यवसायकृतं, न तु कामिनीनिधुवनक्रियाकृतमिति को दोषः ? ननु स्त्यानधिनिघोदये गीतादिकं शृण्वतो व्यञ्जनावग्रहो मनसोऽपि जवतीति चेन्न, तदा स्वप्नान्निमानिनोऽपि श्रवणाद्यवग्रहेणैवोपपत्तेः । ननु च्यवमानो न जानातीत्यादिवचनात् सर्वस्यापि उद्मस्थोपयोगस्यासंख्ययसमयमानत्वात्प्रतिसमयं च मनोव्याणां ग्रहणाविषयमसंप्राप्तस्यापि मनसो देहादनिर्गतस्य तस्य च स्वसन्निहितहृदयादिचिन्तनवेलायां कथं व्यञ्जनावग्रहो न नवतीति चेत्, शृणु, ग्रहणं हि मनो, न तु ग्राह्यं । ग्राह्यवस्तुग्रहणे च व्यञ्जनावग्रहो जवतीति न मनोव्यग्रहणे तदवकाशः। सन्निहितहृदयादिदेशग्रहवेलायामपि नैतदवकाशः। बाह्यापेक्ष्यैव प्राप्यकारित्वाप्राप्यकारित्वव्यवस्थानात् । योपशमपाटवेन मनसः प्रथममर्थानुपलब्धिकालासंनवाघा । श्रोत्रादीन्जियव्यापारकालेपि मनोव्यापारस्य व्यञ्जनावग्रहोत्तरमेवान्युपगमात् । मनुतेऽर्थान् मन्यन्तेऽर्था अनेनेति वा मन इति मनःशब्दस्यान्वर्थत्वादर्थनाषणं विना नाषाया श्वार्थमननं विना मनसोऽप्रवृत्तेः। तदेवं नयनमनसोर्न व्यञ्जनावग्रह इति स्थितम् । स्वरूपनामजातिक्रियागुणव्यकट्पनारहितं सामान्यग्रहणमर्थावग्रहः कथं तर्हि तेन शब्द इत्यवगृहीत इति सूत्रार्थस्तत्र शब्दाद्यु
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लेखराहित्याजावादिति चेन्न, शब्द इति वक्त्रैव जणनात् रूपरसादिविशेषब्यावृत्त्यनवधारणपरत्वाचा । यदि च शब्दोऽयमित्यध्यवसायोऽवग्रहे नवेत्तदा शब्दोल्लेखस्यान्तमुहूर्तिकत्वादविग्रहस्यैकसामायिकत्वं नज्येत । स्यान्मतं शब्दोऽयमिति सामान्य विशेषग्रहणमप्यर्थावग्रह इष्यतां, तमुत्तरं प्रायो माधुर्यादयः शंखशब्दधर्मा इह, न तु शार्ङ्गधर्माः खरकर्कशत्वादय इतीहोत्पत्तेरिति, मैवम्, अशब्दव्यावृत्त्या विशेषप्रतिजासेनास्यापायत्वात्। स्तोकग्रहणस्योत्तरजेदापेक्ष्याऽव्यवस्थितत्वात् । किं च शब्दोऽयमिति ज्ञानं शब्दगतान्वयधर्मेषु रूपादिव्यावृत्तिपर्यालोचनरूपामीहां विनाऽनुपपन्नं । सा च नागृहीतेऽर्थे संनवतीति तद्ब्रहणं अस्मदन्युपगतार्थावग्रहकालात् प्राक् प्रतिपत्तव्यम् । स च व्यंजनावग्रहकालोऽर्थपरिशून्य इति यत्किंचिदेतत् । नन्वनन्तरं क एष शब्द इति शब्दत्वावान्तरधर्मविषयकहानिर्देशानुब्दोऽयमित्याकार एवावग्रहोऽन्युपेय इति
चेन्न, शब्दः शब्द इति नाषकेणैव जणनात् अर्थावग्रहेऽव्यक्तशब्दश्रवणस्यैव सूत्रे निर्देशात् । अव्यक्तस्य च सामान्यरूपत्वादनाकारोपयोगरूपस्य चास्य तन्मात्रविषयत्वात् । यदि च व्यञ्जनाग्रह एवाव्यक्तशब्दग्रहणमिष्येत, तदा सोऽप्यर्थावग्रहः स्यात् अर्थस्य ग्रहणात् । केचित्तु संकेतादिविकट्पविकलस्य जातमात्रस्य वालस्य सामान्यग्रहणं । परिचितविषयस्य वाद्यसमय एव विशेषज्ञानमित्येतदपेक्ष्या तेन शब्दश्त्यवगृहीत इति नानुपपन्नमित्याहुः। तन्न,एवं हि व्यक्ततरस्य व्यक्तशब्दझानमतिक्रम्यापि सुबहुविशेषग्रहप्रसंगात् । न चेष्टापत्तिर्न पुनर्जानाति क एष शब्द इति सूत्रावयवस्याविशेषेणोक्तत्वात् । प्रकृष्टमतेरपि शब्दं धर्मिणमगृहीत्वोत्तरोत्तरसुबहुधर्मग्रहणानुपपत्तेश्च । अन्ये त्वालोचनपूर्वकमर्थावग्रहमाचक्ते, तत्रालो१ राहिल्यादिति। * व्यावृत्त्यवधारणपरत्वाद्वा ।
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जैनतर्क
परिजापा.
चनमव्यक्तसामान्यग्राहि, अर्थावग्रहस्त्वितरव्यावृत्तवस्तुस्वरूपग्राहीति न सूत्रानुपपत्तिरिति, तदसत्, यत आलोचनं व्यञ्जनावग्रहात् पूर्व स्यात् ? पश्चाघा ? स एव वा ? नाद्यः अर्थव्यञ्जनसंबंधं विना तदयोगात् । न मितीयः व्यञ्जनावग्रहान्त्यसमयेऽर्थावग्रहस्यैवोत्पादादालोचनानवकाशात। न तृतीयः व्यञ्जनावग्रहस्यैव नामान्तरकरणात्। तस्य चार्थशून्यत्वेनालोचनानुपपत्तेः। किं चालोचनेनेहां विना कटित्येवार्थावग्रहः कथं जन्यतां।युगपञ्चेहावग्रहौ पृथगसंख्येयसमयमानौ कथं घटेतामिति विचारणीयम्।नन्ववग्रहेऽपि क्षिप्रेतरादिल्लेदप्रदर्शनादसंख्यसमयमानत्वं विशेषविषयत्वं चाविरुधमिति चेन्न,तत्त्वतस्तेषामपाय
दत्वात्,कारणे कार्योपचारमाश्रित्यावग्रहनेदत्वप्रतिपादनात्, अविशेषविषये विशेष विषयत्वस्यावास्तवत्वात्। अथवाऽवग्रहो विविधो नैश्चयिको व्यावहारिकश्चााद्यः सामान्यमात्रग्राही,दितीयश्च विशेषविषयः,तउत्तरमुत्तरोत्तरधर्माकांक्षारूपेहाप्रवृत्तेः, अन्यथाऽवग्रहं विनेहानुत्थानप्रसंगादत्रैव विप्रेतरादिलेदसंगतिः, अत एव चोपर्युपरि ज्ञानप्रवृत्तिरूपसन्तानव्यवहार इति अष्टव्यम् । अवग्रहीतविशेषाकांक्षणमीहा। व्यतिरेकधर्मनिराकरणपरोऽन्वयधर्मघटनप्रवृत्तो बोध इति यावत् । यथा श्रोत्रग्राह्यत्वादिना प्रायोऽनेन शब्देन जवितव्यं । मधुरत्वादिधर्मयुक्तत्वाबांखादिना वेति । न चेयं संशय एव, तस्यैकत्र धर्मिणि विरुधनानार्थज्ञानरूपत्वात् , अस्याश्च निश्चयानिमुखत्वेन विलक्षणत्वात् ॥ इहितस्य विशेषनिर्णयोऽवायः । यथा शब्द एवायं शांख एवायमिति वा । स एव दृढतमावस्थापन्नो धारणा । सा च त्रिविधाऽविच्युतिः स्मृतिर्वासना च। तत्रैकार्थोपयोगसातत्यानिवृत्तिरविच्युतिः, तस्यैवार्थोपयोगस्य कालान्तरे तदेवेत्युलेखेन समुन्मीलनं स्मृतिः, अपायाहितः स्मृतिहेतुः संस्कारो वासना । योरवग्रहयोरवग्रहत्वेन च तिसृणां धारणानां धारणात्वेनोपग्रहान्न विजागव्याघातः । केचित्त्वपनयन
॥११६॥
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मपायः, धरणं च धारणेति व्युत्पत्त्यर्थमात्रानुसारिणोऽसद्भूतार्थविशेषव्यतिरेकावधारणमपायः सद्भतार्थविशेषावधारणं च धारणेत्याहस्तन्न, क्वचित्तदन्यव्यतिरेकपरामर्शात्, क्वचिदन्वयधर्मसमनुगमात् , क्वचिच्चोलान्यामपि, जवतोऽपायस्य निश्चयैकरूपेण जेदालावात् , अन्यथा स्मृतेराधिक्येन मतेः पश्चनेदत्वप्रसंगात् । अथ नास्त्येव नवदनिमता धारणेति लेदचतुष्टयाव्याघातः, तथाहि,नपयोगोपरमे का नाम धारणोपयोगसातत्यलदाणा,अविच्युतिश्चापायान्नातिरिच्यते। या च घटाघुपयोगोपरमे संख्येयमसंख्येयं वा कालं वासनाऽन्युपगम्यते, या च तदेवेतिलक्षणा स्मृतिः । सा मत्यंशरूपा धारणा न जवति, मत्युपयोगस्य प्रागेवोपरतत्वात् । कालान्तरे जायमानोपयोगेऽप्यन्वयमुख्यां धारणायां स्मृत्यन्त वादिति चेन्न, अपायप्रवृत्त्यनन्तरं क्वचिदन्तर्मुहूर्त यावदपायधाराप्रवृत्तिदर्शनादविच्युतेः पूर्वापरदर्शनानुसन्धानस्य तदेवेदमिति स्मृत्याख्यस्य प्राच्यापायपरिणामस्य तदाधायकसंस्कारलदणाया वासनायाश्चापायान्यधिकत्वात् । नन्वविच्युतिसंस्मृतिलदाणी ज्ञानदी गृहीतग्राहित्वान्न प्रमाणं । संस्कारश्च किं स्मृतिझानावरणकर्मयोपशमो वा तज्ज्ञानजननशक्तिर्वा तस्तुविकटपो वेति त्रयी गतिः । तत्राद्यपक्ष्यमयुक्तं, ज्ञानरूपत्वानावात्तन्नेदानां चेह विचार्यत्वात् । तृतीयपदोऽप्ययुक्त एव, संख्येयमसंख्येयं वा कालं वासनाया इष्टत्वादेतावन्तं च कालं वस्तुविकटपायोगादिति न कापि धारणा घटत इति चेन्न, स्पष्टस्पष्टतरस्पष्टतमनिन्नधर्मकवासनाजनकत्वेनान्यान्यवस्तुग्राहित्वादविच्युतैः प्रागननुनूतवस्त्वेकत्वग्राहित्वाच्च स्मृतेरगृहीतग्राहित्वात् स्मृतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमरूपायास्तविज्ञानजननशक्तिरूपायाश्च वासनायाः स्वयमझानरूपत्वेऽपि कारणे कार्योपचारेण ज्ञानदानिधानाविरोधादिति । एते चावग्रहादयो नोक्रमव्यतिक्रमान्यां न्यूनत्वेन वोत्पद्यन्ते, ज्ञेयस्येत्य
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जैनतर्क
परिजाषा.
॥११७॥
मेव ज्ञानजनस्वाजाव्यात् क्वचिदन्यस्तेऽपायमात्रस्य दृढवासने विषये स्मृतिमात्रस्य चोपलक्षणेऽप्युत्पलपत्रशतव्यतिबेद श्व सौदम्यादवग्रहादिक्रमानुपक्षक्षणात् । तदेवमर्थावग्रहादयो मनइन्ज्यैिः षोढा जिद्यमाना व्यञ्जनावग्रहचतुर्नेदैः सहाष्टाविंशतिर्मतिलेदा जवन्ति । अथवा बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितनिश्चितध्रुवैः सप्रतिपदै दशनिउँदैजिन्नानामेतेषां षट्त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि जवन्ति । बह्वादयश्च दा विषयापेक्षाः, तथाहि, कश्चिन्नानाशब्दसमूहमाकर्णितं बहुं जानाति, एतावन्तोऽत्र शंखशब्दा एतावन्तश्च पटहादिशब्दा इति पृथग्निन्नजातीयं क्षयोपशमविशेषात्परिधिनत्तीत्यर्थः । अन्यस्त्वपक्षयोपशमत्वात्तत्समानदेशोऽप्यबई, अपरस्तु क्योपशमवैचिच्याद्वविधं, एकैकस्यापि शंखादिशब्दस्य स्निग्धत्वादिबहुधर्मान्वितत्वेनाप्याकलनात्। परस्त्वबहुविधं स्निग्धत्वादिस्वट्पधर्मान्वितत्वेनाकलनात् । अन्यस्तु क्षिप्रं, शीघ्रमेव परिवेदात् ।
इतरस्त्वक्षिप्रं चिरविमर्शेनाकलनात् । परस्त्वनिश्रितं, लिङ्गं विना स्वरूपत एव परिच्छेदात् । अपरस्तु निश्रितं कालिंगनिश्रयाकलनात् । (कश्चित्तुनिश्चितं विरुष्कधर्मानालिंगितत्वेनावगते रितरस्त्वनिश्चितं विरुधर्माङ्किततयावगमात् )
अन्यो ध्रुवं, बह्वादिरूपेणावगतस्य सर्वदैव तथाबोधात् । अन्यस्त्वचवं कदाचिद्बह्वादिरूपेण कदाचित्त्वबह्वादिरूपे-| गावगमात् । इत्युक्ता मतिनेदाः । श्रुतदा नच्यन्ते । श्रुतमदरसंझिसम्यक्सादिसपर्यवसितगमिकाङ्गप्रविष्टलेदैः|| सप्रतिपदैश्चतुर्दश विधम् । तत्रादरं त्रिविधं । संझाव्यञ्जनलब्धिजेदात् । संझादरं बहुविधलिपिन्नेदं,व्यञ्जनादरं जाष्यमाणमकारादि, एते चोपचाराच्छुते, लब्ध्यदरं त्विन्छियमनोनिमित्तः श्रुतोपयोगस्तदावरणक्षयोपशमो वा, एतच्च परोपदेशं विनापि नासंजाव्यं, अनाकलितोपदेशानामपि मुग्धानां गवादीनां च शब्दश्रवणे तदानिमुख्यदर्शनात्, एकेन्धियाणामप्य
रस्त्वक्षिप्रं विनात्। परस्त्ववहुविधं निवासमवेचित्याद्वहुविधं, एककस्था
॥११७॥
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व्यक्तादरलानाच्च । अनकूरश्रुतमुनु सितादि, तस्यापि जावश्रुतहेतुत्वात्, ततोऽपि सशोकोऽयमित्यादिज्ञानाविर्भावात् । अथवा श्रुतोपयुक्तस्य सर्वात्मनैवोपयोगात्सर्वस्यैव व्यापारस्य श्रुतरूपत्वेऽप्यत्रैव शास्त्रलोकप्रसिद्धारूढः । समनस्कस्य श्रुतं संशिश्रुतं । तद्विपरीतमसंशिश्रुतं । सम्यक् श्रुतभङ्गानङ्गप्रविष्टं, लौकिकं तु मिथ्याश्रुतं, स्वामित्वचिन्तायां तु नजना, सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं मिथ्या श्रुतमपि सम्यक् श्रुतमेवावितापित्वादिना यथास्थानं तदर्थविनियोगात्, विपर्ययान्मिथ्यादृष्टि परिगृहीतं च सम्यक् श्रुतमपि मिथ्या श्रुतमेवेति । सादि प्रव्यत एकं पुरुषमाश्रित्य क्षेत्रतश्च नरतैरवते, कालत उत्सर्पिष्यवसर्पिण्यौ जावतश्च तत्तज्ज्ञापकप्रयत्नादिकम् । अनादि व्यतो नानापुरुषानाश्रित्य । क्षेत्रतो महाविदेहान्, कालतो नोजत्सर्पिण्यवसर्पिणी लक्ष्णं । जावतश्च सामान्यतः योपशममिति । एवं सपर्यवसितापर्यवसितभेदावपि जान्यौ । गमिकं सदृश| पाठं प्रायो दृष्टिवादगतं । अगमिकमसदृशपाठं प्रायः कालिकश्रुतगतं । श्रङ्गप्रविष्टं गणधरकृतं श्रनङ्गप्रविष्टं तु स्थविरकृत - मिति । तदेवं सप्रजेदं सांव्यवहारिकं मतिश्रुतलक्षणं प्रत्यक्षं निरूपितम् । स्वोत्पत्तावात्मव्यापारमात्रापेक्षं पारमार्थिकं, तत्रिविधं, अवधिमनः पर्यय केवलनेदात् । सकलरू पिऊव्य विषयकजातीयमात्ममात्रापेक्षं ज्ञानमवधिज्ञानं तच्च पोढा, अनु गामिवर्धमानप्रतिपाती तरनेदात् । तत्रोत्पत्तिक्षेत्रादन्यत्राप्यनुवर्तभानमानुगामिकं जास्करप्रकाशवत्, यथा जास्करप्रकाशः प्राच्यामाविर्भूतः प्रतीची मनुसरेत्यपि तत्रावकाशमुद्योतयति, तथैतदप्येकत्रोत्पन्नमन्यत्र गतोऽपि पुंसो विषयमवजासयतीति । उत्पत्तिक्षेत्र एव विषयावजासकमनानुगामिकं, प्रश्नादेशपुरुषज्ञानवत्, यथा प्रश्नादेशः क्वचिदेव स्थाने संवादयितुं शक्नोति पृचयमानमर्थ, तथेदमपि श्रधिकृत एव स्थाने विषयमुद्योतयितुमलमिति । उत्पत्तिक्षेत्रात्क्रमेण विषय
७१ भाखति ।
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जैनतके
॥११
॥
व्याप्तिमवगाहमानं वर्धमानं, अधरोत्तरारणिनिर्मथनोत्पन्नोपात्तशुष्कोपचीयमानाधीयमानेन्धनराश्यग्निवत् , यथाऽग्निः प्रय
परिजाषानापजातः सन् पुनरिन्धनलानादिवृधिमुपागवत्येवं परमशुलाध्यवसायलानादिदमपि पूर्वोत्पन्नं वर्धत इति । उत्पत्तित्रापेक्ष्या क्रमेणाट्पीनवषियं हीयमानं, परिचिन्नेन्धनोपादानसंतत्यग्निशिखावत्, यथाऽपनीतेन्धनाग्निज्वाला परिहीयते तथेदमपीति । उत्पत्त्यनन्तरं निर्मूलनश्वरं प्रतिपाति, जलतरङ्गवत् , यथा जलतरङ्ग उत्पन्नमात्र एव निर्मूलं विलीयते । तथेदमपि । आकेवलप्राप्तेरामरणाघाऽवतिष्ठमानमप्रतिपाति वेदवत्, यथा पुरुषवेदादिरापुरुषादिपर्यायं तिष्ठति तश्रेदमपीति । मनोमात्रसाक्षात्कारिमनःपर्यवज्ञानं, मनःपर्यायानिदं सादात्परिवेत्तुमलं, बाह्यानर्थान् पुनस्तदन्यथाऽनुपपत्त्याऽनु-| मानेनैव परिचिनत्तीति अष्टव्यम् । तद्विविधं शजुमतिविपुलमतिलेदात् । झज्वी सामान्यग्राहिणी मतिर्शजुमतिः सामान्यशब्दोऽत्र विपुलमत्यपेक्ष्याऽपविशेषपरः, अन्यथा सामान्यमात्रग्राहित्वे मनःपर्यायदर्शनप्रसंगात् । विपुला विशेषग्राहिणी मतिविपुलमतिः। तत्र झजुमत्या घटादिमात्रमनेन चिन्तितमिति ज्ञायते, विपुलमत्या तु पर्यायशतोपेतं तत्परिचिद्यत इति । एते च देशाने विकलविषयत्वाधिकलप्रत्यक्ष परिनाष्येते । निखिलव्यपर्यायसादात्कारि केवलज्ञानं । अत एवैतत्सकलप्रत्यदं, तच्चावरणक्यस्य हेतोरैक्यानेदरहितं, आवरणं चात्र कमैव । स्वविषयेऽप्रवृत्तिमतोऽस्मदादिज्ञानस्य सावरणत्वादसर्वविषयत्वे व्याप्तिझानानावप्रसंगात् , सावरणत्वालावेऽस्पष्टत्वानुपपत्तेश्च । आवरणस्य च कर्मणो विरोधिना सम्यग्द- ११॥ र्शनादिना विनाशात् सिद्ध्यति कैवयम् । योगजधर्मानुगृहीतमनोजन्यमेवेदमस्त्विति केचित्तन्न, धर्मानुगृहीतेनापि मनसा
१ मनःपर्याय ।
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पञ्चेन्ज्यिार्थज्ञानवदस्य जनयितुमशक्यत्वात् । कवलनोजिनः कैवल्यं न घटत इति दिक्पटस्तन्न, हारपर्याप्त्यसातवेदनीयोदयादिप्रसूतया कवलनुक्त्या कैवट्याविरोधात् , घातिकमणामेव तहिरोधित्वात् । दग्धरङ्गुस्थानीयात्ततो न तत्प-| त्तिरिति चेन्नन्वेवं तादृशादायुषो नवोपग्रहोऽपि न स्यात् । किं चौदारिकशरीरस्थितिः कथं कवलनुक्तिं विना जगवतः स्यात् । अनन्तवीर्यत्वेन तां विना तमुपपत्तौ उद्मस्थावस्थायामप्यपरिमितबलवत्त्वश्रवणानुक्त्यनावः स्यादित्यन्यत्र विस्तरः। उक्तं प्रत्यक्षम् । अथ परोदमुच्यते-अस्पष्टं परोदम् । तच्च स्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमन्नेदतः पञ्चप्रकारम् । अनुजवमात्रजन्यं ज्ञानं स्मरणं, यथा तत्तीर्थकरविंबम् । न चेदमप्रमाणं, प्रत्यदादिवदविसंवादकत्वात्। अतीततत्तांशे वर्तमानत्वविषयत्वादप्रमाणमिदमिति चेन्न, सर्वत्र विशेषणे विशेष्यकाललानानियमात् । अनुन्नवप्रमात्वपारतंत्र्यादत्राप्रमात्वमिति । चेन्न, अनुमितेरपि व्याप्तिझानादिप्रमात्वपारतंत्र्यणाप्रमात्वप्रसंगात् । अनुमितेरुत्पत्तौ परापेदा विषयपरिच्छेदे तु स्वातंत्र्यमिति चेन्न, स्मृतेरप्युत्पत्तावेवानुलवसव्यपेदत्वात् , स्वविषयपरिच्छेदे तु स्वातंत्र्यात् । अनुलवविषयीकृतनावावनासिन्याः स्मृतविषयपरिजेदेऽपि न स्वातंत्र्यमिति चेत्तर्हि व्याप्तिज्ञानादिविषयीकृतानन् परिचिन्दन्त्या अनुमितेरपि प्रामाण्यं दूरत एव । नयत्येनाजातएवार्थोऽनुमित्या विषयीक्रियते इति चेत्तर्हि तत्तयाजात एवार्थः स्मृत्या विषयी क्रियत इति तुट्यमिति न किञ्चिदेतत् । अनुलवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्ध्वतासामान्यादिगोचरं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यनिझानम् । यथा तजातीय एवायं गोपिएमः, गोसदृशो गवयः, स एवायं जिनदत्तः, स एवानेनार्थः कथ्यते, गोविलक्षणो महिषः, इदं तस्माद्दरं, इदं तस्मात्समीपं, इदं तस्मात्प्रांशु इस्वं वेत्यादि । तत्तेदंतारूपरपष्टाकारलेदान्नैकं प्रत्यनिदानस्वरूपमस्तीति शाक्यः, तन्न, आ
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जैनतर्क
॥ ११५ ॥
कारभेदेऽपि चित्रज्ञानवदेकस्य तस्यानुभूयमानत्वात्, स्वसामग्री प्रजवस्यास्य वस्तुतोऽस्पष्टैकरूपत्वाच्च । इदंतोल्लेखस्य प्रत्य| जिज्ञानिबन्धनत्वात् । विषयाभावान्नेदमस्तीति चेन्न, पूर्वापर विवर्तवर्त्येकद्रव्यस्य विशिष्टस्यैतद्विषयत्वात् । अत एवागृही तासंसर्गकमनुजवस्मृतिरूपं ज्ञानघयमेवैतदिति निरस्तं । इत्थं सति विशिष्टज्ञानमात्रोछेदापत्तेः । तथा प्रत्यक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् प्रत्यक्षरूपमेवेदं युक्तमिति केचित् तन्न, साक्षादक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वस्यासिद्धेः । प्रत्यभिज्ञानस्य साक्षात्प्रत्यक्षस्मरणान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वेनानुभूयमानत्वात् । श्रन्यथा प्रथमव्यक्तिदर्शनकालेऽप्युत्पत्तिप्रसंगात् । श्रथ| पुनदर्शने पूर्वदर्शना हितसंस्कारप्रबोधोत्पन्नस्मृतिसहाय मिन्द्रियं प्रत्यनिज्ञानमुत्पादयतीत्युच्यते, तदनुचितं, प्रत्यक्षस्य स्मृ|तिनिरपेक्षत्वात् । अन्यथा पर्वते वह्निज्ञांनस्यापि व्याप्तिस्मरणादिसापेक्षमनसैवोपपत्तौ अनुमानस्याप्युवेदप्रसंगात् । किं च | प्रत्यभिजानामीति विलक्षणप्रतीतेरप्यतिरिक्तमेतत् । एतेन विशेष्येन्द्रियसन्निकर्षसत्त्वाविशेषाज्ञाने सति विशिष्टप्रत्यक्षरू|पमेतदुपपद्यत इति निरस्तम् । एतत्सदृशः स इत्यादौ तदभावात्, स्मृत्यनुनवसंकलनक्रमस्यानुभविकत्वाच्चेति दिकू । अत्राह जाट्टः नन्वेकत्वज्ञानं प्रत्यनिज्ञानमस्तु, सादृश्यज्ञानं तूपमानमेव । गवये दृष्टे गवि च स्मृते सति सादृश्यज्ञानस्योपमा| नत्वात् । तदुक्तम् - " तस्माद्यत्स्मर्यते तत्स्यात् सादृश्येन विशेषितम् । प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ॥ १॥ प्रत्यदे|णावबुद्धेऽपि सादृश्ये गवि च स्मृते । विशिष्टस्यान्यतोऽसिद्धेरुपमानप्रमाणता ॥२॥” इति, तन्न, दृष्टस्य सादृश्य विशिष्टपिंकस्य, स्मृतस्य च गोः, संकलनात्मकस्य गोसदृशो गवय इति ज्ञानस्य, प्रत्यभिज्ञानताऽनतिक्रमात् । अन्यथा गोविसदृशो | महिष इत्यादेरपि सादृश्याविषयत्वेनोपमानातिरेके प्रमाणसंख्याव्याघातप्रसंगात् । एतेन गोसदृशो गवय इत्यतिदेशवाक्या
परिभाषा.
॥ ११९ ॥
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र्थज्ञानकरणकसादृश्यविशिष्टपिंमदर्शनव्यापारक अयं गवयशब्दवाच्य इति संज्ञासंझिसंबन्धप्रतिपत्तिरूपमुपमानमिति नैयायिकमतमप्यपहस्तितं नवति । अनुनूतव्यक्तौ गवयपदवाच्यत्वसंकलनात्मकस्यास्य प्रत्यनिझानत्वानतिक्रमात्प्रत्यन्निशानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषेण यावच्छेदेनातिदेशवाक्यानूद्यधर्मदर्शनं तधर्मावच्छेदेनैव पदवाच्यत्वपरिजेदोपपत्तेः । अत एव पयोऽम्बुजेदी हंसः स्यादित्यादिवाक्यार्थज्ञानवतां पयोऽम्बुलेदित्वादिविशिष्टव्यक्तिदर्शने सत्ययं हंसपदवाच्य इत्यादिप्रतीतिर्जायमानोपपद्यते । यदि चायं गवयपदवाच्य इति प्रतीत्यर्थ प्रत्यनिझातिरिक्तं प्रमाणमाश्रीयते तदामलकादिदर्शनाहितसंस्कारस्य विवादिदर्शनात् अतस्तत्सूक्ष्म मित्यादिप्रतीत्यर्थ प्रमाणान्तरमन्वेषणीयं स्यात् , मानसत्वे चासामुपमानस्यापि मानसत्वप्रसंगात, प्रत्यनिजानामीतिप्रतीत्या प्रत्यनिझानत्वमेवान्युपेयमितिदिक् । सकलदेशकालाद्यवच्छेदेन साध्यसाधनलावादिविषय ऊहस्तर्कः । यथा यावान् कश्चिद्भूमः स सर्वो वह्नौ सत्येव लवति, वह्निं विना वा न लवति । घटशब्दमानं घटस्य वाचकं, घटमात्रं घटशब्दवाच्यमित्यादि । तथाहि स्वरूपप्रयुक्तव्यनिचारलदाणायां व्याप्ती योदर्शनसहितान्वयव्यतिरेकसहकारेणापि प्रत्यक्षस्य तावदविषयत्वादेवाप्रवृत्तिः, सुतरां च सकलसाध्यसाधनव्यक्त्युपसंहारेण तद्ह इति साध्यसाधनदर्शनस्मरणप्रत्यनिझानोपजनितस्तर्क एव तत्प्रतीतिमाधातुमलम् । अथ स्वव्यापकसाध्यसामानाधिकरण्यलदाणाया व्याप्तेर्योग्यत्वाद्भूयोदर्शनव्यभिचारादर्शनसहकृतेनेन्ज्येिण व्याप्तिग्रहोऽस्तु । सकलसाध्यसाधनव्यक्त्युपसंहारस्यापि सामान्यलक्षणप्रत्यासत्त्यासंभवादिति चेन्न, तर्कयामीत्यनुन्नवसिधेन तर्केणैव सकलसाध्यसाधनव्यक्त्युपसंहारेण व्याप्तिग्रहोपपत्तो सामान्यवदाणप्रत्यासत्तिकटपने प्रमाणाजावात् , जहं विना ज्ञातेन सामान्येनापि सकलव्यक्त्यनुपस्थितेश्च । वाच्य
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जनतर्क
परिजाषा.
घाः, तन्न, प्रत्यहपृष्ठलाविना मध्यात्संबन्धप्रतीतिं जनयतीति नानवतातिदर्शनादिति । अयं च तकः ।
वाचकनावोऽपि तर्केणैवावगम्यते, तस्यैव सकलशब्दार्थगोचरत्वात् । प्रयोजकवृश्योक्तं श्रुत्वा प्रवर्तमानस्य प्रयोज्यवृक्षस्य चेष्टामवलोक्य तत्कारणानजनकतां शब्देऽवधारयतोऽन्त्यावयवश्रवणपूर्वावयवस्मरणोपजनितवर्णपदवाक्यविषयसंकलनात्मकप्रत्यन्निज्ञानवत् , आवापोछापान्यां सकलव्यक्त्युपसंहारेण च वाच्यवाचकनावप्रतीतिदर्शनादिति । अयं च तर्कः संबन्धप्रतीत्यन्तरनिरपेक्षएव, स योग्यतासामर्थ्यात्संबन्धप्रतीतिं जनयतीति नानवस्था । प्रत्यक्षपृष्ठनाविविकटपरूपत्वान्नायं प्रमाणमिति बौघाः, तन्न, प्रत्यक्षपृष्ठनाविनो विकटपस्यापि प्रत्यगृहीतमात्राध्यवसायित्वेन सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्राहकत्वानावात्तादृशस्य सामान्यविषयस्याप्यनुमानवत्प्रमाणत्वात् । अवस्तुनिर्जासेऽपि परंपरया पदार्थप्रतिबन्धेन नवतां व्यवहारतः प्रामाण्यप्रसिझे । यस्त्वग्निधूमव्यतिरिक्तदेशे प्रथमं धूमस्यानुपलंन एकस्तदनन्तरमग्नेरुपलं नस्ततो धूमस्येत्युपलंनष्यं, पश्चादग्नेरनुपखंनोऽनन्तरं धूमस्याप्यनुपलंन इति बावनुपलंजाविति प्रत्यदानुपरनपञ्चकाध्याप्तिग्रह इत्येतेषां सिद्धान्तः। तमुक्तम्-'धूमाधीवह्निविज्ञानं धूमझानमधीस्तयोः। प्रत्यक्षानुपलंजाच्यामिति पञ्चनिरन्वयः॥१॥ इति । स तु मिथ्या उपलंजानुपरजस्वन्नावस्य विविधस्यापि प्रत्यक्षस्य सन्निहितमात्रविषयतयाऽविचारकतया च देशादिव्यवहितसमस्तपदार्थ मोचरत्वायोगात् । यत्तु व्याप्यस्याहार्यारोपेण व्यापकस्याहार्यप्रसञ्जनं तर्कः, स च विशेषदर्शनवविरोधिशंकाकालीनप्रमाएमात्रसहकारी विरोधिशंका निवर्तकत्वेन तदनुकूल एव वा । न चायं स्वतः प्रमाणमिति नैयायिकरिष्यते, तन्न व्याप्तिग्रहरूपस्य तर्कस्य स्वपरव्यवसायित्वेन स्वतः प्रमाणत्वात्परानिमततर्कस्यापि क्वचिदेतविचारांगतया विपर्ययपर्यवसायिन || श्राहार्यशंकाविघटकतया स्वातंत्र्येण शंकामात्रविघटकतया चोपयोगात् । इत्थं चाज्ञाननिवर्तकत्वेन तर्कस्य प्रामाण्यं धर्म
॥१२०॥
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नूपणोक्तं । तत्र सत्येव मिथ्याज्ञाने व्यवच्छेद्ये संगते ज्ञानरूपे । ज्ञानाजावनिवृत्तिस्त्वर्थज्ञानताव्यवहार निबन्धनस्वव्यवसिति - पर्यवसितैव सामान्यतः फलमिति प्रष्टव्यम् । साधनात्साध्य विज्ञानमनुमानं । तद्विविधं स्वार्थ परार्थ च । तत्र हेतुग्रहणसंवन्धस्मरणकारणकं साध्य विज्ञानं स्वार्थ । यथा गृहीतधूमस्य स्मृतव्याप्तिकस्य पर्वतो वह्निमानिति ज्ञानम् । अत्र हेतुग्रह - | संबन्धस्मरणयोः समुदितयोरेव कारणत्वमवसेयम् । अन्यथा विस्मृताप्रतिपन्नसंबन्धस्यागृहीतलिङ्गकस्य च कस्यचिदनुमानोत्पादप्रसंगात् । निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणों हेतुः न तु त्रिक्षणकादिः । तथाहि - त्रिला एव हेतुरिति बौछाः । पक्षधर्मत्वा जावेऽसिद्धत्वव्यवच्छेदस्य । सपक्ष एव सत्त्वाजावे च विरुत्वव्युदासस्य । विपछेऽसत्त्व नियमानावे चानैकान्तिकत्वनिषेधस्यासंज्जवेनानुमित्यप्रतिरोधानुपपत्तेरिति, तन्न, पक्षधर्मत्वाजावेऽप्युदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयापरि सविता चूमे रालोकवत्त्वादस्ति नजश्चन्द्रो जलचन्द्रादित्याद्यनुमानदर्शनात् । न चात्रापि कालाकाशादिकं जविष्यवकटोदयादिमत् कृ|त्तिकोदयादिमत्त्वादित्येवं पक्षधर्मत्वोपपत्तिरिति वाच्यम्। अननुज्यमानधर्मिविषयत्वेनेत्यं पचधर्मत्वोपपादने जगधर्म्यपेक्षया । काककापयेन प्रासादधावध्यस्यापि साधनोपपत्तेः । ननु यद्येवं पद्धर्मतानुमितौ नाई, तदा कथं तत्र पहचान नियम इति चेत, क्वचिदन्ययाऽनुपपत्त्यवच्छेदकतया ग्रहणात् पदजानं, यथा नजश्चन्द्रास्तित्वं विना जलचन्त्रोऽनुपपन्न इत्यत्र । क्वचिच्च हेतुग्रहणाधिकरणतया यथा पर्वतो वह्निमान् धूमवत्त्वादित्यत्र धूमस्य पर्वते ग्रहणावह्नेरपि तत्र जानमिति । व्याप्तिग्रहवे - लायां तु पर्वतस्य सर्वत्रानुवृत्त्यभावेन न ग्रह इति । यत्त्वन्तर्व्याप्या पद्यसाधनसंबन्धग्रहात् पक्षसाध्यसंसर्गजानं । तदुक्तं
१ स्याद्वादरत्नाकरसूत्रे.
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जैनतर्क
॥ १२१ ॥
पक्षीकृत एव विषये साधनस्य साध्येन व्याप्तिरन्तर्व्याप्तिः । अन्यत्र तु वहिर्व्याप्तिरिति" । तत्रान्तर्व्यात्या हेतोः साध्यप्रत्यायनशक्तौ सत्यां बहिर्व्याप्तेरुनावनव्यर्थत्वप्रतिपादनेन तस्याः स्वरूपप्रयुक्तव्य निचारलक्षणत्वस्य, बहिर्व्याप्तेश्च सहचारमात्रत्वस्य लाजात् । सार्वत्रिक्या व्याप्तेर्विषयनेदस्य दुर्वचत्वात् न चेदेवं तदान्तर्व्याप्तिग्रहकाल एव च पक्षसाध्यसंसर्गजा| नादनुमानवैफट्ट्यापत्तिर्विना पर्वतो वह्निमानित्युद्देश्यप्रतीतिमिति यथातंत्रं जावनीयं सुधीजिः । इत्थं च पक्कान्येतानि सहकार फलान्येकशाखाप्रजवत्वामुपयुक्तसहकारफलवदित्यादौ बाधितविषये, मूर्खोऽयं देवदत्तस्तत्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवदित्यादौ | सत्प्रतिपक्षे चातिप्रसंगवारणायावाधितविषयत्वासत्प्रतिपक्षत्वसहितं प्रागुक्तरूपत्रयमादाय पांचरूप्यं हेतुलक्षणमिति नैया - | विकमतमप्यपास्तम् । उदेष्यति शकटमित्यादौ पक्षधर्मत्वस्यैवा सिद्धेः, स श्यामस्तत्पुत्रत्वादित्यत्र हेत्वाजासेऽपि पांच रूपयसत्त्वाच्च । निश्चितान्यथानुपपत्तेरेव सर्वत्र हेतुलक्षणत्वौचित्यात् । ननु हेतुना साध्यमनुमातव्यं, तत्र किं लक्षणं ? साध्य| मिति चेटुच्यते, प्रतीतम निराकृतमभीप्सितं च साध्यम् । शंकितविपरीतानध्यवसितवस्तूनां साध्यताप्रतिपत्त्यर्थमप्रतीत| मिति विशेषणम् । प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य साध्यत्वं मा प्रसांक्षी दित्यनिराकृतग्रहणम् । श्रनमितस्यासाध्यत्वप्रतिपत्तयेऽनीप्सितग्रहणम् । कथायां शंकितस्यैव साध्यस्य साधनं युक्तमिति कश्चित् । तन्न । विपर्यस्ताव्युत्पन्नयोरपि परपक्ष दिदृक्षादिना कथायामुपसर्पणसंजवेन संशयनिरासार्थमिव विपर्ययानध्यवसाय निरासार्थमपि प्रयोगसंजवात् । पित्रादेर्विपर्यस्ताव्युत्पन्नपुत्रा| दिशिक्षाप्रदानदर्शनाच्च । न चेदेवं जिगीषुकथायामनुमानप्रयोग एव न स्यात्तस्य सानिमानत्वेन विपर्यस्तत्वात्। अनिराकृतमिति विशेषणं वादिप्रतिवाद्युजयापेक्ष्या, घ्योः प्रमाणेनावाधितस्य कथायां साध्यत्वात् । अनीप्सितमिति तु वाद्यपेक्षयैव ।
परिभाषा.
॥ १२१ ॥
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वक्तुरेव स्वाभिप्रेतार्थप्रतिपादनायेचासंजवात् । ततश्च परार्थाश्चक्षुरादय इत्यादौ पारार्थ्यमात्रानिधानेऽप्यात्मार्थत्वमेव साध्यं| सिध्यति । अन्यथा संहतपरार्थत्वेन वोर्थश्चकुरादीनामन्युपगमादित्यनन्वयादिदोषऽष्टमेतत्सांख्यसाधनमिति वदन्ति । स्वार्थानुमानावसरेऽपि परार्थानुमानोपयोग्यनिधानं, परार्थस्य स्वार्थपुरःसरत्वेनानतिजेदापनार्थम् । व्याप्तिग्रहसमयापेदया साध्यं धर्म एवान्यथा तदनुपपत्तेरानुमानिकप्रतिपत्त्यवसरापेक्ष्या तु पदापरपर्यायस्तविशिष्टः प्रसिद्धो धर्मी । इत्यं च स्वार्थानुमानस्य त्रीण्यंगानि धर्मी साध्यं साधनं च । तत्र साधनं गमकत्वेनांग, साध्यं तु गम्यत्वेन, धर्मी पुनः साध्यधर्माधारत्वेनाधारविशेषनिष्ठतया साध्यसिझरनुमानप्रयोजनत्वात् । अथवा पदो हेतुरित्यङ्गष्यं स्वार्थानुमाने, साध्यधर्मविशिटस्य धर्मिणः पदत्वादिति धर्मधर्मिजेदाजेदविवल्या पक्ष्यं अष्टव्यम् । धर्मिणः प्रसिद्धिश्च क्वचित्प्रमाणात् क्वचिदिकटपात् क्वचित्प्रमाणविकट्पान्याम् । तत्र निश्चितप्रामाण्यकप्रत्यदाद्यन्यतमावधृतत्वं प्रमाणप्रसिघत्वम् । अनिश्चितप्रामाण्याप्रामाएयप्रत्ययगोचरत्वं विकटपप्रसिझत्वम् । तद्यविषयत्वं प्रमाणविकट्पप्रसिझत्वम् । तत्र प्रमाणसिघो धर्मी यथा धूमवत्त्वादनिमत्त्वे साध्ये पर्वतः, स खलु प्रत्यक्षणानुजूयते । विकटपसियो धर्मी यथा सर्वोऽस्ति सुनिश्चितासंजवद्वाधकप्रमाणत्वा|दित्यस्तित्वे साध्ये सर्वः, अथवा खरविपाणं नास्तीति नास्तित्वे साध्ये खरविषाणं, अत्र हि सर्वज्ञखरविषाणे अस्तित्वनास्तित्वसिहिन्यां प्राग्विकट्पसिके । उजयसिघो धर्मी यथा शब्दः परिणामी कृतकत्वादित्यत्र शब्दः, स हि वर्तमान प्रत्यक्षगम्यः, नूतो नविष्यश्च विकल्पगम्यः, स सर्वोऽपि धर्माति प्रमाणविकट्पसिको धर्मी । प्रमाणोजयसिध्योधर्मिणोः साध्ये कामचारः। विकट्पसिझे तु धर्मिणि सत्तासत्तयोरेव साध्यमिति नियमः । तमुक्तम्-"विकटपसिझे तस्मिन् सत्तेतरसाध्ये"
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जैन तर्क ॥ १२२ ॥
इति । अत्र बौद्धः सत्तामात्र स्यानची प्सितत्वाद्विशिष्टसत्तासाधने चानन्वयाधिकट्टपा सिद्धे धर्मिणि न सत्ता साध्येत्याह । तदसत्, इत्थं सति प्रकृतानुमानस्यापि जंगप्रसंगात्, वह्निमात्रस्यानजीप्सितत्वाद्विशिष्टवह्नेश्वानन्वयादिति । अथ तत्र सत्तायां साध्यायां तदेतुर्भावधर्मो जावाभावधर्मोऽजावधर्मो वा स्यात् । श्रद्येऽसिद्धिरसिद्धसत्ताके जावधर्मा सिद्धेः । द्वितीये व्यभिचारः, अस्तित्वानाववत्यपि वृत्तेः । तृतीये च विरोधो, जावधर्मस्य जावे क्वचिदप्यसंजवात् । तदुक्तं - "नासिद्धे नाव - धर्मोऽस्ति व्यभिचार्युञ्जयाश्रयः । धर्मो विरुद्धो जावस्य सा सत्ता साध्यते कथम् ॥ १ ॥” इति चेन्न यं वह्निमधर्मत्वादिविकस्पैर्धूमेन वह्नचनुमानस्याप्युच्छेदापत्तेः । विकल्पस्याप्रमाणत्वा विकल्प सिद्धो धर्मी नास्त्येवेति नैयायिकः, तस्येत्थंवचनस्यैवानुपपत्तेस्तूष्णींनावापत्तिर्विकप सिधर्मिणोऽप्रसिद्ध तत्प्रतिषेधानुपपत्तेरिति । इदं त्ववधेयं, विकल्पसिद्धस्य धर्मिणो नाखंड - | स्यैव जानमसत्ख्यातिप्रसंगादिति, शब्दादेर्विशिष्टस्य तस्य जानान्युपगमे विशेषणस्य संशयेऽनावनिश्चये वा विशिष्टवैशि यमानानुपपत्तेः, विशेषणाद्यंशे श्रदार्यारोपरूपा विकल्पादिकैवानुमितिः स्वीकर्तव्या । देशकालसत्तालक्षणस्यास्तित्वस्य, | सकलदेशकाल सत्ताभावलक्षणस्य च नास्तित्वस्य साधनेन, परपरिकल्पित विपरीतारोपव्यवच्छेदमात्रस्य फलत्वात् । वस्तुतस्तु | खंमशः प्रसिद्धपदार्थोऽस्तित्वना स्तित्वसाधनमेवोचितम् । अत एव "असतो नत्थि सेिहो ” इत्यादिनाप्यग्रन्थे खरविषाणं| नास्तीत्यत्र खरे विषाणं नास्तीत्येवार्थ उपपादितः । एकान्तनित्यमर्थक्रियासमर्थ न जवति क्रमयौगपद्याभावादित्यत्रापि | विशेषावमर्शदशायां क्रमयौगपद्यनिरूपकत्वाभावेनार्थ क्रिया नियामकत्वाभावो नित्यत्वादौ सुसाध्य इति सम्यग्निजालनीयं स्वपरसमयदत्तदृष्टिभिः । परार्थ पक्षहेतुवचनात्मकमनुमानमुपचारात्तेन श्रोतुरनुमानेनार्थबोधनात् । पदस्य विवादादेव
परिभाषा.
॥ १२२ ॥
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गम्यमानत्वादप्रयोगति सौगतः, तन्न, यत्किञ्चिचनव्यवहितात् ततो व्युत्पन्नमतेः पदप्रतीतावप्यन्युत्पन्नान् प्रत्यवश्यनिर्देश्यत्वात् । प्रकृतानुमानवाक्यावयवान्तरैकवाक्यतापन्नात्ततोऽवगम्यमानस्य पदस्याप्रयोगस्य चेष्टत्वात् । अवश्यं चान्युपगन्तव्यं हेतोः प्रतिनियतधर्मिधर्मताप्रतिपत्त्यर्थमुपसंहारवचनवत्साध्यस्यापि तदर्थ पदवचनं ताथागतेनापि,अन्यथा समथनोपन्यासादेव गम्यमानस्य हेतोरप्यनुपन्यासप्रसंगात् , मन्दमतिप्रतिपत्त्यर्थस्य चोजयत्राविशेषादिति । किं च प्रतिज्ञायाः प्रयोगानहत्वे शास्त्रादावप्यसौ न प्रयुज्येत, दृश्यते च प्रयुज्यमानेयं शाक्यशास्त्रेऽपि, परानुग्रहार्थ शास्त्रे तत्प्रयोगश्च वादेऽपि तुझ्यः। विजिगीषूणामपि मन्दमतीनामर्थप्रतिपत्तेस्तत एवोपपत्तेरिति । आगमात्परेणेव ज्ञातस्य वचनं परार्थानुमानं, यथा बुधिरचेतना उत्पत्तिमत्वात् घटवदिति सांख्यानुमानं । अत्र हि वुझावुत्पत्तिमत्त्वं सांख्येनैवान्युपगम्यते इति, तदेतदपेशलं, वादिप्रतिवादिनोरागमप्रामाण्यविप्रतिपत्तेः । अन्यथा तत एव साध्यसिधिप्रसंगात् । परीक्षापूर्वमागमान्युपगमेऽपि परीक्षाकाले तद्वाधात् । नन्वेवं नवनिरपि कश्रमापाद्यते परं प्रति, यत्सर्वङ्कं तन्नानेकत्र संबध्यते, तथा च सा-3 मान्यमिति, सत्यम् , एकधर्मोपगते धर्मान्तरसंदर्शनमात्रतत्परत्वे तदापादनस्य वस्तुनिश्चायकत्वाजावात् , प्रसंगविपर्ययरूपस्य मौलहेतोरेव तन्निश्चायकत्वात् , अनेकवृत्तित्वव्यापकानेकत्वनिवृत्त्यैव तन्निवृत्तमौलहेतुपरिकरत्वेन प्रसंगोपन्यासस्यापि न्याय्यत्वात् । बुधिरचेतनेत्यादौ च प्रसंगविपर्ययहेतोर्व्याप्तिसिधिनिवन्धनस्य विरुधधर्माध्यासस्य विपक्षवाधकप्रमाणस्यानुपस्थापनात प्रसंगस्याप्यन्याय्यत्वमिति वदन्ति ।हेतुःसाध्योपपत्त्यन्यथानुपपत्तिन्यां विधा प्रयोक्तव्यो, यथा पर्वतो वह्निमान्, सत्येव वह्नौ धूमोपपत्तेः असत्यनुपपत्तेर्वा । अनयोरन्यतरप्रयोगेणैव साध्यप्रतिपत्तौ दितीयप्रयोगस्यैकत्रानुपयोगः । पद
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जैनतर्क
परिजापा.
॥१२३॥
हेतुवचनलक्षणमवयवयमेव च परप्रतिपत्त्यङ्गं, न दृष्टान्तादिवचनं, पहेतुवचनादेव परप्रतिपत्तेः, प्रतिबन्धस्य तर्कत एव निर्णयात्तत्स्मरणस्यापि पक्षहेतुदर्शनेनैव सिधेरसमर्थितस्य दृष्टान्तादेः प्रतिपत्त्यनङ्गत्वात्तत्समर्थनेनैवान्यासिधेश्च ।। समर्थनं हि हेतोरसिद्धत्वादिदोषान्निराकृत्य स्वसाध्येनाविनानावसाधनं, तत एव च परप्रतीत्युपपपत्तौ किमपरप्रयासेनेति। मन्दमतींस्तु व्युत्पादयितुं दृष्टान्तादिप्रयोगोऽप्युपयुज्यते, तथाहि-यः खलु श्योपशमविशेषादेव निर्णीतपदो दृष्टान्तस्मार्यप्रतिबन्धग्राहकप्रमाणस्मरणनिपुणोऽपरावयवान्यूहनसमर्थश्च भवति, तं प्रति हेतुरेव प्रयोज्यः । यस्य तु नाद्यापि पक्षनि
यस्तं प्रति पदोऽपि । यस्तु प्रतिबन्धग्राहिणः प्रमाणस्य न स्मरति, तं प्रति दृष्टान्तोऽपि । यस्तु दार्टान्तिके हेतुं योजयितुं न जानीते, तं प्रत्युपनयोऽपि । एवमपि साकादं प्रति च निगमनं । पदादिस्वरूपविप्रतिपत्तिमन्तं प्रति च पशुध्यादिकमपीति सोऽयं दशावयवो हेतुः पर्यवस्यति । स चायं विविधो, विधिरूपः प्रतिषेधरूपश्च । तत्र विधिरूपो विविधः, विधिसाधकः प्रतिषेधसाधकश्च । तत्राद्यः षोढा, तद्यथा-कश्चिध्याय एव, यथा शब्दो नित्यः प्रयत्नानान्तरीयकत्वादिति, यद्यपि व्याप्यो हेतुः सर्व एव, तथापि कार्याद्यनात्मव्याप्यस्यात्र ग्रहणानेदः, वृदः शिंशपाया इत्यादेरप्यत्रैवान्तावः। कश्चित्कार्यरूपः, यथा पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्र धूमः, धूमो ह्यग्नेः कार्यनूतः, तदनावेऽनुपपद्यमानोऽग्निं गमयति । कश्चित्कारणरूपः, यथा दृष्टिलविष्यति, विशिष्टमेघान्यथानुपपत्तेरित्यत्र मेघविशेषः, स हि वर्षस्य कारणं स्वकार्यनूतं वर्ष गमयति । ननु कार्याजावेऽपि संजवत्कारणं न कार्यानुमापकं, अत एव न वह्निधूमं गमयतीति चेत्सत्यं, यस्मिन्सामाप्रतिबन्धः कारणान्तरसाकड्यं च निश्चेतुं शक्यते, तस्यैव कारणस्य कार्यानुमापकत्वात् । कश्चित् पूर्वचरः, यथा
॥१२३॥
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उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयान्यथानुपपत्तेरित्यत्र कृत्तिकोदयानन्तरं मुहूर्तान्ते नियमेन शकटोदयो जायत इति कृत्तिकोदयः पूर्वचरो हेतुः शकटोदयं गमयति । कश्चित्तरचरो यथोदगानरणिः प्राक् कृत्तिकोदयादित्यत्र कृत्तिकोदयः, कृत्तिकोदयो हि जरण्युदयोत्तरचरस्तं गमयतीति कालव्यवधानेनानयोः कार्यकारणान्यां जेदः । कश्चित् सहचरः, यथा मातुलिंग रूपवनवितुमर्हति रसवत्तान्यथानुपपत्ते रित्यत्र रसः, रसो हि नियमेन रूपसहचरितः, तदनावेऽनुपपद्यमानस्तजमयति, परस्परस्वरूपपरित्यागोपलंजपौर्वापर्यानावान्यां स्वजावकारणेन्योऽस्य नेदः । एतेपूदाहरणेषु नावरूपानेवाग्न्यादीन् साधयन्ति धूमादयो हेतवो नावरूपा एवेति विधिसाधकविधिरूपास्त एवाविरुघोपलव्धय इत्युच्यन्ते । मितीयस्तु निषेधसाधको विरुघोपलब्धिनामा, स च स्वनावविरुघ्तव्याप्याद्युपलब्धित्नेदात् सप्तधा । यथा नास्त्येव सर्वथा एकान्तः, अनेकान्तस्योपलंजात् १॥ नास्त्यस्य तत्त्वनिश्चयः, तत्र सन्देहात् श नास्त्यस्य क्रोधोपशान्तिः, वदनविकारादेः ३। नास्त्यस्यासत्यं वचः, रागाद्यकलंकितज्ञानकलितत्वात् था नोजमिष्यति मुहूर्तान्ते पुष्यतारा, रोहिण्युगमात् ५। नोदगान्मुहूर्तात्पूर्व मृगशिरः, पूर्वफागुन्युदयात् ६। नास्त्यस्य मिथ्याज्ञानं, सम्यग्दर्शनादिति । अत्रानेकान्तः प्रतिषेध्यस्यैकान्तस्य स्वनावतो विरुधः १॥ तत्त्वसन्देहश्च प्रतिषेध्यतत्त्वनिश्चयविरुतदनिश्चयव्याष्यः । वदनविकारादिश्च क्रोधोपशमविरुष्तदनुपशमकार्यम् ३। रागाद्यकलंकितज्ञानकलितत्वं चासत्यविरुझसत्यकारणम् । रोहिण्युजमश्च पुष्पतारोजमविरुष्मृगशीर्षादयपूर्वचरः । पूर्वफागुन्युदयश्च मृगशीर्षोदयविरुघमघोदयोत्तरचरः ६। सम्यग्दर्शनं च मिथ्याज्ञानविरुइसम्यग्ज्ञानसह१ विरुद्धस्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वचरोत्तर चरसहचरोपलभभेदात्सप्तथा ।
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१२४ ॥
जैनतर्क चरमिति । प्रतिषेधरूपोऽपि हेतुर्द्विविधः, विधिसाधकः प्रतिषेधसाधकश्चेति । श्राद्यो विरुद्धानुपलन्धिनामा विधेयविरुद्धकार्यकारणस्वनावव्यापकसहचरानुपलंजनेदासश्चधा । यथा अस्त्यत्र रोगातिशयः, नीरोगव्यापारानुपलब्धेः १। विद्यतेऽत्र कष्टं, इष्टसंयोगाभावात् २। वस्तुजातमनेकान्तात्मकं, एकान्तस्वभावानुपलंजात् ३ । अस्त्यत्र छाया, औप्प्यानुपलब्धेः ॥ अस्त्यस्य मिथ्याज्ञानं सम्यग्दर्शनानुपलब्धेरिति ॥ द्वितीयोऽविरुद्धानुपलब्धिनामा प्रतिषेध्याविरुद्धस्वनावव्यापककार्यकारणपूर्वचरोत्तरचरसहचरानुपलब्धिभेदात् सप्तधा । यथा नास्त्यत्र नृतले कुंनः, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तत्स्वजावस्या - |नुपलंजात् १| नास्त्यत्र पनसः, पादपानुपलब्धेः २ | नास्त्यत्राप्रतिहतशक्तिकं बीजं, अंकुरानवलोकनात् ३ । न सन्त्यस्य प्रशमप्रभृतयो जावाः, तत्त्वार्थश्रद्धानाभावात् ४। नोमिष्यति मुहूर्तान्ते स्वातिः, चित्रोदयादर्शनात् । नोदगमत्पूर्वजापदा मुहूर्तात्पूर्वमुत्तरनापदो मानवगमात् ६ । नास्त्यत्र सम्यग्ज्ञानं, सम्यग्दर्शनानुपलब्धेरिति । सोऽयमनेकविधोऽअन्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुरुक्तोऽतोऽन्यो हेत्वाभासः, स त्रेधा, असिद्ध विरुद्धानैकान्तिकनेदात् । तत्राप्रतीयमानस्वरूपो हेतुर सिद्धः, स्वरूपाप्रतीतिश्चाज्ञानात्सन्देहाद्विपर्ययाघा, स द्विविध, उज्जयासियोऽन्यतरा सिद्धश्च । आद्यो यथा शब्दः परिसामी चाक्षुषत्वादिति । द्वितीयो यथा चेतनास्तरवः, विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधजद मरणरहितत्वात्, अचेतनाः सुखा| दयः उत्पत्तिमत्त्वादिति वा । नन्वन्यतरासिद्धो हेत्वाभास एव नास्ति, तथाहि परेणासिद्ध इत्युनाविते यदि वादी न तत्साधकं प्रमाणमाचक्षीत, तदा प्रमाणाभावाडुनयोरप्य सिद्धोऽथाचदीत तदा प्रमाणस्यापक्षपातित्वा मुनयोरपि सिद्धः । अथ यावन्न परं प्रति प्रमाणेन प्रसाध्यते तावत्तं प्रत्यसिद्ध इति चेत् गौणं तर्ह्यसिद्धत्वं, न हि रत्नादिपदार्थस्तत्त्वतोऽप्रती
परिभाषा.
॥ १२४ ॥
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यमानस्तावन्तमपि कालं मुख्यतया तदानासः । किं चान्यतरासिझो यदा हेत्वानासस्तदा वादी निगृहीतः स्यात् , न च |निगृहीतस्य पश्चादनिग्रह इति युक्तम् । नापि हेतुसमर्थनं पश्चाद्युक्तं, निग्रहान्तत्वाहादस्येति । अत्रोच्यते यदा वादी
सम्यग्घेतं प्रतिपद्यमानोऽपि तत्समर्थनन्यायविस्मरणादिनिमित्तेन प्रतिवादिनं प्राश्निकान् वा प्रतिबोधयितुं न शक्नोति, असितामपि नानुमन्यते, तदान्यतरासिझत्वेनैव निगृह्यते, तथा स्वयमनन्न्युपगतोऽपि परस्य सिघ इत्येतावतैवोपन्यस्तो हेतुकरन्यतरासिको निग्रहाधिकरणं, यथा सांख्यस्य जैनं प्रत्यचेतनाः सुखादय उत्पत्तिमत्त्वात् घटवदिति । साध्यविपरीतव्या
तो विरुधः। यथाऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वादिति । कृतकत्वं ह्यपरिणामित्वविरुघन परिणामित्वेन व्याप्तमिति । यस्यान्यथानुपपत्तिः सन्दिह्यते सोऽनैकान्तिकः, स केधा निणींतविपक्षवृत्तिकः सन्दिग्धविपदवृत्तिकश्च । आद्यो यथा नित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् । अत्र हि प्रमेयत्वस्य वृत्तिर्नित्ये व्योमादौ सपक्ष व विपक्षेऽनित्ये घटादावपि निश्चिता। वितीयो यथा | अन्तिमतः सर्वज्ञो न जवति बत्तृत्वादिति । अत्र हि वक्तृत्वं विपदे सर्वझे संदिग्धवृत्तिकं, सर्वः किं वक्ताहोस्विन्नेति सन्देहादेवं स श्यामो मित्रपुत्रत्वादित्याद्यप्युदाहार्यम् । अकिञ्चित्कराख्यश्चतुर्थोऽपि हेत्वानासन्जेदो धर्मभूषणोदीरितो न श्रयः, सिसाधनो बाधितविषयश्चेति निविधस्याप्यप्रयोजकाहयस्य तस्य प्रतीतनिराकृताख्यपक्षाजासनेदानतिरिक्तत्वात् । न च यत्र पददोषस्तत्रावश्यं हेतुदोषोऽपि वाच्यः, दृष्टान्तादिदोषरयाप्यवश्यं वाच्यत्वापत्तेः। एतेन कालात्ययापदि
टोऽपि प्रत्युक्तो वेदितव्यः । प्रकरणसमोऽपि नातिरिच्यते, तुट्यवलसाध्यतविपर्ययसाधकहेतुष्यरूपे सत्यस्मिन् प्रकृतसाधिनयोरन्ययानुपपत्त्यनिश्चयेऽसि एवान्त वादिति संक्षेपः॥श्राप्तवचनादाविनतमर्थसंवेदनमागमः। न च व्याप्तिग्रह
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जैनतर्क
॥ १२५ ॥
एवजे नार्थप्रतिपादकत्वाद्धूमवदस्यानुमानेऽन्तर्भावः, कूटाकूटकार्षापण निरूपणप्रवणप्रत्यवदन्यासदशायां व्याप्तिग्रहनैरपेक्ष्येणैवास्यार्थबोधकत्वात् । यथा स्थितार्थपरिज्ञानपूर्वक हितोपदेशप्रवण आप्तः । वर्णपदवाक्यात्मकं तद्वचनं । वर्णोऽकारादिः | पौलिकः । पदं संकेतवत् । अन्योऽन्यापेक्षाणां पदानां समुदायो वाक्यं । तदिदमागमप्रमाणं । स च विधिप्रतिषेधान्यां स्वार्थमजिदधानः सप्तजंगी मनुगच्छति । तथैव परिपूर्णार्थप्रापकत्वलक्षणतात्त्विकप्रामाण्यनिर्वाहात्, क्वचिदेकजंगदर्शनेऽपि व्युत्प| न्नमतीनामितरजंगाक्षेपभौव्यात् । यत्र तु घटोस्ती त्या दिलोकवाक्ये सप्तजंगी संस्पर्शशून्यता । तत्रार्थप्रापकत्वमात्रेण लोकापे| दया प्रामाण्येऽपि तत्त्वतो न प्रामाण्यमिति प्रष्टव्यम् । केयं सप्तभंगीति चेमुच्यते - एकत्र वस्तुन्येकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कम्पनया स्यात्कारांकितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तजंगी । इयं च सप्तजंगी वस्तुनि प्रतिपर्यायं सप्तविधधर्माणां संभवात् सप्तविधसंशयोत्थापितसप्तविध जिज्ञासामूलसप्तविधप्रश्नानुरोधाडुपपद्यते । तत्र | स्यादस्त्येव सर्वमिति प्राधान्येन विधिकल्पनया प्रथमो जंगः । स्यात्कथञ्चित् स्वप्रव्य क्षेत्रकालजावापेक्षयेत्यर्थः । अस्ति हि | घटादिकं प्रव्यतः पार्थिवादित्वेन, न जलादित्वेन, क्षेत्रतः पाटलिपुत्रकादित्वेन, न कान्यकुब्जादित्वेन, कालतः शैशिरादिवेन, न वासन्तिकादित्वेन, जावतः श्यामादित्वेन, न रक्तादित्वेनेति । एवं स्यान्नास्त्येव सर्वमिति प्राधान्येन निषेधकरूपनया द्वितीयः । न चासत्त्वं काहपनिकं । सत्त्ववत्तस्य स्वातंत्र्येणानुभवात् । अन्यथा विपक्षासत्त्वस्य तात्त्विकस्याभावेन है| तोस्त्रैरूप्यव्याघातप्रसंगात् । स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति प्राधान्येन क्रमिकविधिनिषेधकल्पनया तृतीयः । स्यादवक्तव्यमेवेति | युगपत्प्राधान्येन विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः । एकेन पदेन युगपडुनयोर्वक्तुमशक्यत्वात् । शतृशानचौ सदित्यादौ सांके
परिभाषा.
॥ १२५ ॥
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|तिकपदेनापि क्रमेणार्थघ्यबोधनादन्यतरत्वादिना कथञ्चिलयबोधनेऽपि प्रातिस्विकरूपेणैकपदानयवोधस्य ब्रह्मणापि पुरुपपादत्वात् । स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकट्पनया युगपविधिनिषेधकट्पनया च पञ्चमः। स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकहपनया युगपविधिनिषेधकट्पनया च षष्ठः । स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिनिषेधकट्पनया युगपतिधिनिषेधकट्पनया च सप्तम इति । सेयं सप्तनंगी प्रतिनंगं सकलादेशस्वन्नावा विकलादेशस्वजावा च । तत्र प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनः कालादिन्निरजेदवृत्तिप्राधान्यादलेदोपचाराघा यौगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेशः। नयविषयीकृतस्य वस्तुधर्मस्य नेदवृत्तिप्राधान्यानेदोपचाराका क्रमेणानिधायक वाक्यं विकलादेशः। ननु कः क्रमः, किं वा यौगपद्यं ? उच्यते-यदास्तित्वादिधर्माणां कालादिनिर्नेदविवदा तदैकशब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने शक्त्यन्नावात् क्रमः । यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिनिरनेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शब्देनैकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मक तामापन्नस्यानेकाशेषरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसंलवाद्योगपद्यं । के पुनः कालादयः? उच्यते-काल आत्मरूपमर्थः संबन्ध उपकारः गुणिदेशः संसर्गः शब्द इत्यष्टौ । तत्र स्याङ्गीवादि वस्त्वस्त्येव । तत्र यत्कालमस्तित्वं त एव कालाः शेषानन्तधर्मा वस्तुन्येकडेति तेषां कालेनाजेदवृत्तिः । यदेव चास्तित्वस्य तशुणत्वमात्मरूपं तदेवान्यानन्तगुणानामपीत्यात्मरूपेणानेदवृत्तिः। य एव चाधारोऽर्थो ऽव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थेनानेदवृत्तिः । य एव चाविष्वग्नावः संबन्धो स्तित्वस्य स एवान्येषामिति संबन्धेनालेदवृत्तिः । य एव चोपकारोऽस्तित्वेन स्वानुरक्तत्वकारणं स एवान्यैरपीत्युपकारेणाजेदवृत्तिः । य एव गुणिनः संबन्धी देशः देवलक्षणोऽस्तित्वस्य स एवान्येपामिति गुणिदेशेनानेदवृत्तिः । य एव चैकव
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जैनतर्क ॥ १२६ ॥
| स्त्वात्मनाऽस्तित्वस्य संसर्गः स एवान्येषामिति संसर्गेणाभेदवृत्तिः, गुणिनूतनेदानेदप्रधानात् संबन्धाद्विपर्ययेण संसर्गस्य जेदः । य एव चास्तीति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एवाशेषानन्तधर्मात्मकस्यापीति शब्देनाभेदवृत्तिः, पर्यायार्थिकनयगुणजावेन प्रव्यार्थिकनयप्राधान्याडुपपद्यते । व्यार्थिकगुणजावेन पर्यायार्थिकप्राधान्ये तु न गुणानामजेदवृत्तिः संजवति, समकालमेकत्र नानागुणानामसंजवात्, संजवे वा तदाश्रयस्य नेदप्रसंगात् । नानागुणानां संव|न्धिन आत्मरूपस्य च निन्नत्वात, अन्यथा तेषां भेदविरोधात्, स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात्, अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् । संबन्धस्य च संबन्धिनेदेन भेददर्शनात्, नानासंबन्धिनिरेकत्रैकसंवन्धाघटनात् । तैः क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात्, अनेकैरुपकारिनिः क्रियमाणस्योपकारस्यैकस्य विरोधात् । गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं नेदात्, तदभेदे निन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशानेदप्रसंगात्, संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गिनेदात्, तदभेदे संसर्गिभेद विरोधात् । शब्दस्य प्रतिविषयं नानात्वात्, सर्वगुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेरिति कालादिनिर्जिन्नात्मनामनेदोपचारः क्रियते । एवं नेदवृत्तितदुपचारावपि वाच्याविति पर्यवसितं परोक्षम्। ततश्च निरूपितः प्रमाणपदार्थः ॥ ॥ इति श्रीमहामहोपाध्यायश्री कल्याण विजयगणिशिष्यमुख्यपंक्तिश्री लाजविजयगणिशिष्यावतंसपंमितश्रीजीत विजयगपिसतीर्थ्यपं कितश्रीनय विजयगएिशिष्येण पंक्तिश्री पद्मविजयग सहोदरेण पंक्तियशोविजयगणिना कृतायां जैनतर्कभाषायां प्रमाणपरिछेदः ॥
परिभाषा.
॥ १२६ ॥
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॥ अथ नयपरिछेदः ॥
प्रमाणान्युक्तानि, अथ नया उच्यन्ते । प्रमाणपरिचिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकदेशग्राहिएस्तदितरांशाप्रतिछेपि| गोऽध्यवसाय विशेषा नयाः । प्रमाणैकदेशत्वाच्चैषां ततो जेदः । यथा हि समुत्रैकदेशो न समुद्रो नाप्यसमुद्रस्तथा नया अपि न प्रमाणं न वाऽप्रमाणमिति । ते च द्विधा । व्यार्थिकपर्यायार्थिकनेदात् । तत्र प्राधान्येन प्रव्यमात्रग्राही प्रव्यार्थिकः, प्राधान्येन पर्यायमात्रग्राही पर्यायार्थिकः । तत्र व्यार्थिक स्त्रिधा नैगमसंग्रह व्यवहारनेदात् । पर्यायार्थिकश्चतुर्धा रु. जुसूत्र शब्दसम निरूढैवं नूतनेदात् । रुजुसूत्रो व्यार्थिकस्यैव जेद इति तु जिननत्रगणिमाश्रमणाः । तत्र सामान्यविशेपाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नैगमः, यथा पर्याययोऽव्ययोः पर्यायऽव्ययोश्च मुख्यामुख्यरूपतया विवणपरः, तत्र सञ्चैतन्यमात्मनीति पर्याययोर्मुख्यामुख्यतया विवक्षणं, अत्र चैतन्याख्यस्य व्यञ्जनपर्यायस्य विशेष्यत्वेन मुख्यत्वात्, सत्त्वाख्यस्य तु विशेषणत्वेनामुख्यत्वात्, प्रवृत्तिनिवृत्तिनिबन्धनार्थ क्रियाकारित्वोपलक्षितो व्यञ्जनपर्यायः, नूतन विष्यत्त्व| संस्पर्शरहितं वर्तमानकालावचिन्नं वस्तुस्वरूपं चार्थपर्यायः, वस्तु पर्यायवद्रव्यमिति व्ययोर्मुख्या मुख्यतया विवणं, पर्यायवद्रव्याख्यस्य धर्मिणो विशेष्यत्वेन प्राधान्यात्, वस्त्वाख्यस्य विशेषणत्वेन गौणत्वात् । दमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति पर्यायऽव्ययोर्मुख्यामुख्यतया विवदणं, अत्र विषयासक्तजीवाख्यस्य धर्मिणो विशेष्यत्वेन मुख्यत्वात्, सुखलक्षणस्य तु धर्मस्य तद्विशेषणत्वेना मुख्यत्वात् । न चैवं अन्यपर्यायोजयावगाहित्वेन नैगमस्य प्रामाण्यप्रसंगः, प्राधान्येन तडुमयावगाहिन एव ज्ञानस्य प्रमाणत्वात् । सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः, स घेधा, परोऽपरश्च । तत्राशेषविशेषेष्वौदासीन्यं
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जैनतर्क
परिजापा.
॥१७॥
जजमानः शुत्रव्यं सन्मात्रमनिमन्यमानः परः संग्रहः । यथा विश्वमेकं सदविशेषादिति । अव्यत्वादीन्यवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तन्नेदेषु गजनिमीलिकामवलंबमानः पुनरपरसंग्रहः। संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनानिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः। यत्सत्तद्रव्यं पर्यायो वा, यद्रव्यं तजीवादिषड्डिधं, यः पर्यायः स विविधः, क्रमनावी सहनावी चेत्यादि । जु वर्तमानदाणस्थायि पर्यायमानं प्राधान्यतः सूचयन्नभिप्राय झजुसूत्रः । यथा सुखविवर्तः संप्रत्यस्ति । अत्र हि क्षणस्थायि सुखाख्यं पर्यायमात्रं प्राधान्येन प्रदर्श्यते, तदधिकरणजूतं पुनरात्मप्रव्यं गौणतया नार्म्यत इति । कालादिनेदेन ध्वनेरर्थनेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः। कालकारकलिंगसंख्यापुरुषोपसर्गाः कालादयः । तत्र बनूव नवति जविष्यति सुमेरु रित्यत्रातीतादिकालनेदेन सुमेरोर्नेदप्रतिपत्तिः, करोति क्रियते कुंल इत्यादी कारकनेदेन, तटस्तटी तटमित्यादौ लिंगदेन, दाराः कलत्रमित्यादौ संख्यालेदेन, यास्यसि त्वं यास्यति जवानित्यादौ पुरुषनेदेन, संतिष्ठते अवतिष्ठते इत्यादावुपसर्गन्नेदेन । पर्यायशब्देषु निरुक्तिजेदेन जिन्नमर्थ समलिरोहन समनिरूढः। शब्दनयो हि पर्यायानेदेऽप्यर्थानेदमनिप्रेति, समनिरूढस्तु पर्यायानेदे जिन्नानाननिमन्यते । अनेदं त्वर्थगतं पर्यायशब्दानामुपेत इति । यथा इन्दनादिघः, शकनाचक्रः, पूर्दारणात्पुरन्दर इत्यादि। शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तजूतक्रियाविष्टमर्थ वाच्यत्वेनान्युपगबन्नेवंचूतः। यथेन्दनमनुलवन्निन्धः। समनिरूढनयो हीन्दनादिक्रियायां सत्यामसत्यां च वासवादेरर्थस्येन्जादिव्यपदेशमनिप्रैति, क्रियोपलक्षितसामान्यस्यैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वात्, पशुविशेषस्य गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेवशत, तथारूढेः सनावात् । एवंजूतः पुनरिन्दनादिक्रियापरिणतमर्थ तक्रियाकाले इन्त्रादिव्यपदेशलाजमनिमन्यते । न हि कश्चित् क्रियाशब्दोऽस्या
॥१५
॥
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स्ति । गौरश्व इत्यादिजातिशब्दाजिमतानामपि क्रियाशब्दत्वात् । गतीति गौः, आशुगामित्वादश्व इति । शुक्लो, नील इति गुणशब्दानिमता अपि क्रियाशब्दा एव, शुचीनवनाबुक्को, नीलनान्नील इति । देवदत्तो यज्ञदत्त इति यदृब्वाशब्दान्निमता अपि क्रियाशब्दा एव, देव एनं देयात, या एनं देयादिति । संयोगिजव्यशब्दाः समवायव्यशब्दाश्चानिमताः क्रियाशब्दा एव, दएमोऽस्यास्तीति दएमी । विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यस्तिक्रियाप्रधानत्वात् । पंचतयी तु शब्दानां व्यवहारमात्रात्, न तु निश्चयादित्ययं नयः स्वीकुरुते । एतेष्वाद्याश्चत्वारः प्राधान्येनार्थगोचरत्वादर्थनयाः, अन्त्यास्तु त्रयः प्राधान्येन शब्दगोचरत्वाचन्दनयाः । तथा विशेषग्राहिणोऽर्पितनयाः, सामान्यग्राहिणश्चानर्पितनयाः । तत्रानर्पितनयमते तुल्य| मेव रूपं सर्वेषां सिमानां जगवताम् । अर्पितनयमते त्वेकदिव्यादिसमयसिमाः स्वसमानसमयसिधैरेव तुट्या इति । तथा लोकप्रसिधार्थानुवादपरो व्यवहारनयः, यथा पञ्चस्वपि वर्णेषु चमरे सत्सु श्यामो चमर इति व्यपदेशः । तात्त्विकार्यान्यु|पगमपरस्तु निश्चयः, स पुनर्मन्यते पञ्चवर्णो मरः, बादरस्कन्धत्वेन तन्चरीरस्य पञ्चवर्णपुलनिष्पन्नत्वात् , शुक्कादीनां च न्यग्जूतत्वेनानुपलक्षणात् । अथवा एकनयमतार्थग्राही व्यवहारः, सर्वनयमतार्थग्राही च निश्चयः। न चैवं निश्चयस्य प्रमाणत्वेन नयत्वव्याघातः, सर्वनयमतस्यापि स्वार्थस्य तेन प्राधान्यान्युपगमात् । तथा ज्ञानमात्रप्राधान्यान्युपगमपरा झाननयाः। क्रियामात्रप्राधान्यान्युपगमपराश्च क्रियानयाः । सूत्रादयश्चत्वारो नयाश्चारित्रलदाणायाः क्रियाया एव प्राधान्यमन्च्युपगठन्ति, तस्या एव मोदं प्रत्यव्यवहितकारणत्वात् । नैगमसंग्रहव्यवहारास्तु यद्यपि चारित्रश्रुतसम्यक्त्वानां त्रयाणामपि मोक्षकारणत्वमिछन्ति, तथापि व्यस्तानामेव, न तु समस्तानां, एतन्मते ज्ञानादित्रयादेव मोक्ष इत्यनियमात्,
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जैनतर्क
परिजापा.
॥१२॥
अन्यथा नयत्वहानिप्रसंगात्, समुदयवादस्य स्थितपदत्वादिति अष्टव्यम् । कः पुनरत्र बहुविषयो नयः को वाऽट्पविषयः, इति चेमुच्यते-सन्मात्रगोचरात्संग्रहात्तावन्नैगमो बहुविषयो नावाचावन्नृमिकत्वात् । सहिशेषप्रकाशकाध्यवहारतः संग्रहः समस्तसत्समूहोपदर्शकत्वाद्बहुविषयः । वर्तमानविषयावलंबिन जुसूत्रात्कालत्रितयवर्त्यर्थजातावलंबी व्यवहारो बहुविषयः। कालादिन्नेदेन निन्नार्थोपदेशकाचब्दात्तविपरीतवेदक झजुसूत्रो बहुविषयः । न केवलं कालादिनेदेनै वर्जुसूत्रादट्पार्थता शब्दस्य, किं तु जावघटस्यापि सनावादिनाऽर्पितस्य स्याद्घटः स्यादघट इत्यादिनंगपरिकरितस्य तेनान्युपगमात् तस्यर्जु सूत्राविशेषिततरत्वोपदेशात् । यद्यपीदृशसंपूर्णसप्तनंगपरिकरितं वस्तु स्याहादिन एव संगिरन्ते, तथापि जुसूत्रकृतैतदच्युपगमापेक्ष्याऽन्यतरजंगेन विशेपितप्रतिपत्तिरत्राऽष्टेत्यदोष इति वदन्ति । प्रतिपर्यायशब्दमर्थजेदमजीप्सतः समनिरूढाबन्दस्तविषयानुयायित्वाद्बहुविषयः । प्रतिक्रियं विजिन्नमर्थ प्रतिजानानादेवंजूतात्समनिरूढः तदन्यथार्थस्थापकत्वाददुविषयः। नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधान्यां सप्तनंगीमनुगति, विकलादेशत्वात् , परमेतफाक्यस्य प्रमाणवाक्याधिशेष इति प्रष्टव्यम् ॥
अथ नयाजासाः। तत्र ब्यमात्रग्राही पर्यायप्रतिकेपी प्रव्यार्थिकाजासः। पर्यायमात्रग्राही व्यप्रतिक्षेपी पर्यायार्थिकानासः । धर्मिधर्मादीनामेकान्तिकपार्थक्यालिसन्धि गमाजासः, यथा नैयायिकवैशेषिकदर्शनं । सत्तारैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान्निराचदाणः संग्रहाजासः, यथाऽखिलान्यतवादिदर्शनानि सांख्यदर्शनं च । अपारमार्थिकाव्यपर्यायविजागाभिप्रायो व्यवहाराजासः, यथा चार्वाकदर्शनं, चार्वाको हि प्रमाणप्रतिपन्न जीवाव्यपर्यायादिप्रविजागं कल्पनारोपि
नयाजासाः । तत्र व्यापार्थक्यालिसन्धिनँगमानादिदर्शनानि सांख्यदर्शनं च
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तत्वेनापहृतेऽविचारितरमणीयं नूतचतुष्टयप्रविजागमानं तु स्थूललोकव्यवहारानुयायितया समर्थयत इति । वर्तमानपर्यायान्युपगन्ता सर्वथा व्यापलापी जुसूत्रानासः, यथा तथागतमतं । कालादिनेदमेवान्युपगबन् शब्दानासः, यथा बनून जवति नविष्यति सुमेरुरित्यादयः शब्दा जिन्नमेवार्थमनिदधति, निन्नकालशब्दत्वात्तादृसिधान्यशब्दवदिति । पर्यायध्वनीनामनिधेयनानात्वमेव कदीकुर्वाणः समनिरूढानासः, यथा इन्डः शक्रः पुरन्दर इत्यादयः शब्दा जिन्नानिधेया एव, जिन्नशब्दत्वात् , करिकुरंगशब्दवदिति । क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपन्नेवंजूताजासः, यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यं, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तजूतक्रियाशून्यत्वात् , पटवदिति । अर्थानिधायी शब्दप्रतिक्षेपी अर्थनयाजासः । शब्दानिधाय्यर्थप्रतिकेपी शब्दनयाजासः । अर्पितमजिदधानोऽनर्पित प्रतिक्षिपन्नर्पितनयानासः । अनर्पितमनिदधदर्पित प्रतिक्षिपन्ननर्पिताजासः। लोकव्यवहारमन्युपगम्य तत्त्वप्रतिक्षेपी व्यवहारालासः। तत्त्वमन्युपगम्य व्यवहारप्रतिक्षेपी निश्चयानासः । शानमन्युपगम्य क्रियाप्रतिकेपी ज्ञाननयाजासः। क्रियामच्युपगम्य ज्ञानप्रतिकेपी क्रियानयाजास इति ॥ ॥ इति महामहोपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपमितश्रीवाजविजयगणिशिष्यावतंसश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यपंमितश्रीनयविजयगणिशिष्येण पंमितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरेण पंमितयशोविजय
गणिना विरचितायां जेनतर्कनाषायां नयपरिच्छेदः ॥२॥
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परिजापा
जैनतर्क ॥१२॥
॥ अथ निक्षेपपरिच्छेदः ॥ नया निरूपिताः। अथ निक्षेपा निरूप्यन्ते । प्रकरणादिवशेनाप्रतिपत्त्या दिव्यवच्छेदकयथास्थानविनियोगाय शब्दार्थरचनाविशेषा निदेपाः। मंगलादिपदार्थनिरूपान्नाममंगलादिविनियोगोपपत्तेश्च निदेषाणां फलवत्त्वं । तमुक्तम्-"श्रप्रस्तुतार्थापाकरणात् प्रस्तुतार्थव्याकरणाच्च निक्षेपः फलवानिति"। ते च सामान्यतश्चतुर्धा, नामस्थापनाव्यत्नावलेदात् ।। तत्र प्रकृतार्थनिरपेक्षा नामार्थान्यतरपरिणतिर्नामनिक्षेपः । यथा संकेतितमात्रेणान्यार्थस्थितेनेन्जादिशब्देन वाच्यस्य गोपाखदारकस्य शक्रादिपर्यायशब्दाननिधेया परिणतिरियमेव वा यथान्यत्रावर्तमानेन यन्वाप्रवृत्तेन मित्यमवित्यादिशब्देन वाच्या । तत्त्वतोऽर्थनिष्ठोपचारतः शब्दनिष्ठा च मेदिनामापेक्ष्या यावद्रव्यनाविनी, देवदत्तादिनामापेक्ष्या वा याबद्रव्यत्नाविनी, यथा वा पुस्तकपत्रचित्रादिलिखिता वस्त्वनिधाननूतन्त्रादिवर्णावली । यत्तु वस्तु तदर्थवियुक्तं तदनिप्रायेण स्थाप्यते चित्रादौ तादृशाकारमक्षादौ च निराकारं, चित्राद्यपेक्येत्वरं नन्दीश्वरचैत्यप्रतिमाद्यपेक्ष्या च यावत्कथिकं स स्थापनानिदेपः, यथा जिनप्रतिमा स्थापनाजिनः । यथा चेन्प्रतिमा स्थापनेन्डः। नूतस्य नाविनो वा जावस्य कारणं यन्निक्षिप्यते स व्यनिक्षेपः, यथाऽनुजूतेन्छपर्यायोऽनुनविष्यमाणेन्जपर्यायो वा इन्धः, अनुजूतघृताधारत्वपर्यायेऽनुनविष्यमाणघृताधारत्वपर्याये च घृतघटव्यपदेशवत्तत्रेन्शब्दव्यपदेशोपपत्तेः। क्वचिदप्राधान्येऽपि ऽव्यनिक्षेपः प्रवर्तते, यथाऽझारमर्दको व्याचार्यः, आचार्यगुणरहितत्वात् अप्रधानाचार्य इत्यर्थः । क्वचिदनुपयोगेऽपि, यथाऽनाजोगेनेहपरलोकाद्याशंसासणेनाविधिना च नक्त्यापि क्रियमाणा जिनपूजादिक्रिया व्यक्रियैव, अनुपयुक्तक्रियायाः साक्षान्मोझांगत्वाना
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वात् । जक्त्याऽविधिनापि क्रियमाणा सा पारंपर्येण मोहांगत्वापेक्षया इव्यतामनुते, जक्तिगुणेनाविधिदोषस्य निरनुबन्धीकृतत्वादित्याचार्याः । विवक्षित क्रियानुभूतिविशिष्टं स्वतत्त्वं यन्निक्षिप्यते स जावनिक्षेपः, यथा इन्दनक्रियापरिणतो ना - वेन्द्र इति । ननु जाववर्जितानां नामादीनां कः प्रतिविशेष स्त्रिष्वपि वृत्त्यविशेषात्, तथाहि - नाम तावन्नामवति पदार्थे | स्थापनायां प्रव्ये चाविशेषेण वर्तते । जावार्थशून्यत्वं अपि । स्थापनारूपमपि त्रिष्वपि समानं, जावस्याभावात् । अव्यमपि नामस्थापनाव्येषु वर्तत एव, अव्यस्यैव नामस्थापनाकरणाद्रव्यस्य प्रव्ये सुतरां वृत्तेश्चेति विरुद्धधर्माध्यासानावान्नैषां नेदो युक्त इति चेन्न श्रनेन रूपेण विरुद्धधर्माध्यासानावेऽपि रूपान्तरेण विरुद्धधर्माध्यासात्तनेदोपपत्तेः । तथाहि - नामद्रव्याच्यां स्थापना तावदाकारा निप्रायबुद्धि क्रियाफलदर्शना निद्यते, यथा हि स्थापनेन्द्रे सोचनसहस्राद्याकारः, स्थापनाकतुश्च सद्भूतेन्द्रानिप्रायो, प्रष्टुश्च तदाकारदर्शनादिन्द्रबुद्धिः, जक्तिपरिणतबुद्धीनां नमस्करणादिक्रिया, तत्फलं च पुत्रोत्पत्त्यादिकं संवीक्ष्यते, न तथा नामेन्द्रे द्रव्येन्द्रे चेति ताभ्यां तस्य जेदः । अव्यमपि जावपरिणामिकारणत्वान्नामस्थापनाज्यां निद्यते, यथा ह्यनुपयुक्तो वक्ता प्रव्यं, उपयुक्तत्वकाले उपयोगलक्षणस्य जावस्य कारणं भवति, यथा वा साधुजीवो अव्येन्द्रः सङ्गावेन्द्ररूपायाः परिणतेः, न तथा नामस्थापनेन्द्राविति । नामापि स्थापनाऽव्यान्यामुक्तवैधर्म्यादेव निद्यत इति | डुग्धतक्रादीनां श्वेतत्वादिनाऽनेदेऽपि माधुर्यादिना जेदवन्नामादीनां केनचिद्रूपेणानेदेऽपि रूपान्तरेण भेद इति स्थितम् । ननु जाव एव वस्तु, किं तदर्थशून्यैर्नामादिनिरिति चेन्न नामादीनामपि वस्तुपर्यायत्वेन सामान्यतो जावत्वानतिक्रमात्, विशिष्टे इन्द्रवस्तुन्युच्चरिते नामादिनेदचतुष्टयपरामर्शदर्शनात् । प्रकरणादिनैव विशेषपर्यवसानात् । जावांगत्वेनैव वा
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जैनतर्क
॥ १३० ॥
नामादीनामुपयोगः जिननाम जिनस्थापनापरिनिर्वृतमुनिदेहदर्शनानावोल्लासानुजवात् । केवलं नामादित्रयं जावोम्लासेनैका| न्तिकमनात्यन्तिकं च कारण मिति एकान्तिकात्यन्तिकस्य जावस्यान्यर्हितत्वमनुमन्यन्ते प्रवचन वृद्धाः । एतच्च जिन्नवस्तुगतनामाद्यपेक्ष्योक्तम् । अभिन्नवस्तुगतानां तु नामादीनां जावाविनानूतत्वादेव वस्तुत्वं सर्वस्य वस्तुनः स्वानिधानस्य | नामरूपत्वात्, स्वाकारस्य स्थापनारूपत्वात् कारणतायाश्च प्रव्यरूपत्वात्, कार्यापन्नस्य च स्वस्य जावरूपत्वात् । यदि |च घटनाम घटधर्मो न जवेत्तदा ततस्तत्संप्रत्ययो न स्यात्, तस्य स्वापृथग्भूतसंबन्धनिमित्तकत्वादिति सर्वे नामात्मकमेष्ट - व्यम् । साकारं च सर्व मतिशब्दघटादीनामाकारवत्त्वान्नीलाकारसंस्थानविशेषादीनामाकाराणामनुभवसिधत्वात् । व्यात्मकं च सर्व उत्फा विफएकुंडलिताकारसमन्वितसर्पव धिकाररहितस्याविर्भाव तिरोभावमात्र परिणामस्य द्रव्यस्यैव सर्वत्र | सर्वदानुजवात् । जावात्मकं च सर्व परापरकार्यदणसन्तानात्मकस्यैव तस्यानुभवादिति । चतुष्टयात्मकं जगदिति नामादि| नयसमुदायवादः । अथ नामादिनिक्षेपा नयैः सह योज्यन्ते । तत्र नामादित्रयं प्रव्यास्तिकनयस्यैवाजिमतं, पर्यायास्तिकन| यस्य च जाव एव । श्रद्यस्य भेदौ संग्रहव्यवहारौ । नैगमस्य यथाक्रमं सामान्यग्राहिणो विशेषग्राहिणश्च अनयोरेवान्तर्जावात् । जुसूत्रादयश्च चत्वारो द्वितीयस्य जेदा इत्याचार्य सिद्धसेनमतानुसारेणा निहितं । जिनजप्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादैः “नामाइतियं दवडियस्स जावो का पकवणयस्स । संगहववहारा पढमगस्स सेसा उ इयरस्स" इत्यादिना विशेषावश्यके । स्वमते तु नमस्कार निक्षेप विचारस्थले “जावं चिय सद्दण्या सेसा इति सबरिकेवे " इति वचसा त्रयोऽपि शब्दनयाः | शुद्धत्वानावमेवेवन्ति । रुजुसूत्रादयस्तु चत्वारश्चतुरोऽपि निदेपानिचन्ति अविशुद्धत्वादित्युक्तम् । रुजुसूत्रो नामजाव निदे
परिभाषा.
॥ १३० ॥
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त्,
पावेवेवतीत्यन्ये, तन्न, जुसूत्रेण व्यान्युपगमस्य सूत्रानिहितत्वात् पृथक्त्वान्युपगमस्य परं निषेधात् । तथा च सूत्रम्सत्ते श्रागमर्ज एगं दबावस्सयं, पुहत्तं नेव त्ति " । कथं चायं पिंकावस्थायां सुवर्णादिव्यमनाकारं जविष्यत्कुंडलादिपर्यायलक्षण नाव हेतुत्वेनान्युपगन्छन् विशिष्टेन्द्राद्य जिल्लापहेतुभूतां साकारामिन्द्रादिस्थापनां नेवेन हि दृष्टेऽनुपपन्नं नामेति । किं चेन्द्रादिसंज्ञामात्रं तदर्थरहितमिन्द्रादिशब्दवाच्यं वा नामेवन्नयं जावकारणत्वावि शेषात् कुतो नामस्थापने नेत् ? प्रत्युत सुतरां तदन्युपगमो न्याय्यः । इन्द्रमूर्तिलक्षणद्रव्य विशिष्ट तदाकाररूपस्थापनयोरिन्द्रपर्यायरूपे जावे तादात्म्यसंबन्धेनावस्थितत्वात्तत्र वाच्यवाचकजावसंबन्धेन संबद्धान्नान्नोऽपेक्ष्या सन्निहिततर कारणत्वात् । संग्रहव्यवहारौ स्थापनावर्जीस्त्री न्निपानित इति केचित्तन्नानवद्यं यतः संग्रहिकोऽसंग्राहिकोऽनर्पितभेदः परिपूर्णो वा नैगमस्तावत् स्थापना मिलतीत्यवश्य मन्युपेयम् । संग्रहव्यवहारयोरन्यत्र व्यार्थिके स्थापनान्युपगमावर्जनात् । तत्राद्यपदे संग्रहे स्थापनाच्युपगमप्रसंगः, संग्रहनयमतस्य संग्रहिकनैगममताविशेषाद्वितीये व्यवहारे तदन्युपगमप्रसंगः, तन्मतस्य व्यवहारमताद विशेषात् तृतीये च निरपेक्ष्योः संग्रहव्यवहारयोः स्थापनानन्युपगमोपपत्तावपि समुदितयोः संपूर्णनैगमरूपत्वात्तदन्युपगमस्य दुर्निवारत्वं । श्रविभागस्थान्नैगमात्प्रत्येकं तदेकैकनागग्रहणात् । किं च संग्रहव्यवहारयोनगमान्तर्भावात्स्थापनाच्युपगमलक्षणं तन्मतमपि तत्रान्तर्भूतमेव । उजयधर्मलक्षणस्य विषयस्य प्रत्येकमप्रवेशेऽपि स्थाप | नालक्षणस्यैकधर्मस्य प्रवेशस्य सूपपादत्वात् । स्थापनासामान्यतविशेषान्युपगममात्रेणैव संग्रहव्यवहारयोर्भेदोपपत्तेरिति यथागमं जावनीयम् । एतैश्च नामादिनिक्षेपैजीवादयः पदार्था निदेष्याः । तत्र यद्यपि यस्य जीवस्याजीवस्य वा जीव
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जैनतर्क
॥१३॥
इति नाम क्रियते स नामजीवः, देवदत्तादिप्रतिमा च स्थापनाजीवः, औपशमिकादिनावशाली च जावजीव इति जीव- परिलाषा. विषयं निक्षेपत्रयं भवति, न तु व्यनिक्षेपः । अयं हि तदा संलवेत् , यद्यजीवः सन्नायत्यां जीवोऽजविष्यत् , यथाऽदेवः सन्नायत्यां देवो भविष्यन् अव्यदेव इति । न चैतदिष्टं सिद्धान्ते । यतो जीवत्वमनादिनिधनः पारिणामिको नाव इष्यत इति, तथापि गुणपर्यायवियुक्तत्वेन बुम्या कल्पितोऽनादिपारिणामिकनावयुक्तो व्यजीवः, शून्योऽयं जंग इति यावत् । |सतां गुणपोयाणां बुध्यापनयनस्य कर्तुमशक्यत्वात् । न खलु झानायत्तार्थपरिणतिः । किं त्वर्थो यथा यया विपरिणमते तथा तथा ज्ञान प्रापुरस्तीति । न चैवं नामादिचतुष्टयस्य व्यापिताजंगः, यतः प्रायः सर्वपदार्भेष्वन्येषु तत्संजवति । यद्य-|| त्रैकस्मिन्न संजवति नैतावता जवत्यव्यापितेति वृक्षाः। जीवशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो व्यजीव इत्यप्याहुः । अपरे तु वदन्ति-अहमेव मनुष्यजीवो ऽव्यजीवोऽनिधातव्यः, उत्तरं देवजीवमप्राउजूतमाश्रित्य अहं हि तस्योत्पित्सोर्देवजीवस्य कारणं नवामि, यतश्चाहमेव तेन देवजीवनावेन नविष्यामि, अतोऽहमधुना व्यजीव इति । एतत्कथितं तैनवति । पूर्वः पूर्वो जीवः परस्य परस्योत्पित्सोः कारणमिति । अस्मिंश्च पदे सिद्ध एव नावजीवो नवति, नान्य इत्येतदपि नानवद्यमिति| तत्त्वार्थटीकाकृतः । इदं पुनरिहावधेयं-इत्थं संसारिजीवे व्यत्वेऽपि जावत्वाविरोधः, एकवस्तुगतानां नामादीनां नावाविनाजूतत्वप्रतिपादनात् । तदाह जाष्यकार:-"अहवा ववनिहाणं नामं उवणाय जो तयागारो । कारणया से दवं कजा-||॥१३१ ॥ |वन्नं तयं जावो ॥१॥" इति । केवलमविशिष्टजीवापेक्ष्या ऽव्यजीवत्वव्यवहार एव न स्यात्, मनुष्यादेर्देवत्वादिविशि-II. टजीवं प्रत्येव हेतुत्वादिति अधिकं नयरहस्यादौ विवेचितमस्माभिः॥
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॥ इति महामहोपाध्यायश्री कल्याण विजयगणिशिष्यमुख्यपंकितश्री लाज विजयगणिशिष्यावतंसपंमितश्रीजीत विजयगणित पंतश्री नयविजयगणिशिष्येण पंकितश्रीपद्मविजयगणिसोदरेण पंक्तियशोविजयगणिना
विरचितायां जैनतर्कभाषायां निक्षेपपरिच्छेदः संपूर्णः, तत्संपूर्ती च संपूर्णीयं जैनतर्कभाषाग्रन्थः ॥ सूरिश्री विजयादिदेवसुगुरोः पट्टांबराहर्मणौ, सूरिश्री विजयादिसिंहसुगुरौ शक्रासनं जेजुषि । तत्सेवाप्रतिमप्रसादजनितश्रानशुच्या कृतो, ग्रन्थोऽयं वितनोतु कोविदकुले मोदं विनोदं तथा ॥ १ ॥ यस्यासन् गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशया, चाजन्ते सनया नयादिविजयाः प्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः । प्रेम्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरस्तेन न्यायविशारदेन रचिता स्तात्तर्कभाषा मुदे ॥ २ ॥ तर्काषामिमां कृत्वा मया यत्पुष्यमर्जितम् । प्रायां तेन विपुलां परमानन्दसंपदम् ॥ ३ ॥
पूर्व न्यायविशारदत्व बिरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधैर्न्यायाचार्यपदं ततः कृतशतग्रन्थस्य यस्यार्पितम् । शिष्यप्रार्थनया नयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशुस्तत्त्वं किंचिदिदं यशोविजय इत्याख्यानृदाख्यातवान् ॥ ४ ॥
१ हृदयमानादर्शेषु दृश्यते वृत्तमिदं पृथगंकान्वितं तेनानुमीयतेऽदो यदन्यप्रकरणादेतत्कर्तृकादुपनीतं भवेत्केनापि, यद्वा प्रकरणग्रंथत्वेनास्य शिष्यशिक्षानिमित्तकस्वक्रियाज्ञापनाय पूज्यपादैरेवायं पृथग्न्यस्त: पश्चाद्भवेत्.
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" इति श्री जैनतर्कभाषा समाप्ता ॥
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॥ श्रथ ज्ञान बिन्दुः ॥
ऐन्दस्तोमनतं नत्वा वीरं तत्त्वार्थदे शिनम् । ज्ञान बिन्दुः श्रुतांजोधेः सम्यगुद् धियते मया ॥१॥
· तत्र ज्ञानं तावदात्मनः स्वपरावजासकोऽसाधारणो गुणः, स चाचपटल विनिर्मुक्तस्य जास्वत श्व निरस्तसमस्तावरणस्य | जीवस्य स्वनावनूतः केवलज्ञानव्यपदेशं लगते । तदाद्दुराचार्या :- " केवलना मतं जीवसरूवं तयं निरावरणं" इति । तं च स्वभावं यद्यपि सर्वघातिकेवलज्ञानावरणं कात्स्यनैवावरीतुं व्याप्रियते, तथापि तस्यानन्ततमो जागो नित्यानादृत एवावतिष्ठते, तथास्वानाव्यात् - "सबजी वाएं पि य ां अरकरस्सततमो जागो चुघारि चिर, सो विश्र ज आवरिका, तेणं जीवो जीवत्तणं पाविका” इति पारमर्षप्रामाण्यात् । अयं च स्वजावः केवलज्ञानावरणावृतस्य जीवस्य घनपटल नस्य रवेरिव मन्दप्रकाश इत्युच्यते । तत्र हेतुः केवलज्ञानावरणमेव । केवलज्ञानव्यावृत्तज्ञानत्वव्याप्यजातिविशे पावचिन्ने तद्धेतुत्वस्य शास्त्रार्थत्वात् । अत एव न मतिज्ञानावरणचयादिनापि मतिज्ञानाद्युत्पादनप्रसंग: । अत एव चास्य | विभावगुणत्वमिति प्रसिद्धिः । स्पष्टप्रकाशप्रतिबन्धके मन्दप्रकाशजनकत्वमनुत्कटे चक्षुराद्यावरणे वस्त्रादावेव दृष्टं, न तूत्कटे कुड्यादाविति कथमत्रैवमिति चेन्न, अजाद्यावरणे उत्कटे उज्जयस्य दर्शनात्, अत एवात्र सुठु वि मेघसमुदए होंति पा चंदसुराणं इत्येव दृष्टान्तितं पारमर्षे, त्यावृतेऽपि चन्द्रसूर्यादौ दिनरजनीविजागहेत्वल्पप्रकाशवजी वेऽप्यन्यव्यावर्तकचै| तन्यमात्राविर्भाव आवश्यक इति परमार्थः। एकत्र कथमावृतानावृतत्वमिति त्वर्पितव्यपर्यायात्मना जेदाभेदवादेन निर्दो
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ज्ञान
बिन्ः
॥१३३॥
पनीयं । ये तु चिन्मात्राश्रयविषयमझानमिति विवरणाचार्यमताश्रयिणो वेदान्तिनस्तेषामेकान्तवादिनां महत्यनुपपत्तिरेवा झानाश्रयत्वेनानावृतं चैतन्यं यत्तदेव तषियतयावृतमिति विरोधात् । न चाखंगत्वाद्यज्ञानविषयश्चैतन्यं त्वाश्रय इत्यविरोधः, अखंमत्वादेश्चिद्रूपत्वे जासमानस्यावृतत्वायोगात् , अचिद्रूपत्वे च जमे आवरणायोगात् । कहिपतनेदेनाखंमत्वादिविषय इति चेन्न,जिन्नावरणे चैतन्यानावरणात्, परमार्थतो नास्त्येवावरणं चैतन्ये,कल्पितं तु शुक्ती रजतमिव तत्तत्राविरुध, तेनैव च चित्त्वाखंमत्वादिनेदकट्पनाचैतन्यं स्फुरति नाखंमत्वादित्येवंरूपाधीयमाना न विरुक्षेति चेन्न, कटिपतेन रजतेन रजतकार्यवत्कष्टिपतेनानावरणेनावरणकार्यायोगात् । अहं मां न जानामीत्यनुन्नव एव कर्मत्वांशे आवरणविषयकः कटिपतस्यापि तस्य कार्यकारित्वमाचष्टेऽज्ञानरूपक्रियाजन्यस्यातिशयस्यावरणरूपस्यैव प्रकृते कर्मत्वात्मकत्वात् , अत एवास्य सा दिप्रत्यदत्वेन स्वगोचरप्रमाणापेक्ष्या न निवृत्तिप्रसंग इति चेन्न मां न जानामीत्यस्य विशेषज्ञानानावविषयत्वात् , अन्यथा मां जानामीत्यनेन विरोधात् , दृष्टश्चेत्थं न किमपि जानामीत्यादिमध्यस्थानां प्रयोगः । किं च विशिष्टाविशिष्टयोदाजेदान्युपगमं विनाऽखंमत्वादिविशिष्टचैतन्यज्ञानेन विशिष्टावरणनिवृत्तावपि शुमचैतन्याप्रकाशप्रसंगः, विशिष्टस्य कटिपतत्वादविशिष्टस्य चाननुलवात् , महावाक्यस्य निर्धर्मकविपयत्वं चाग्रे निर्लोवयिष्यामः । एतेन जीवाश्रयं ब्रह्मविपयं चाझानमिति वाचस्पतिमिश्रान्युपगमोऽपि निरस्तः।जीवब्रह्मणोरपि कटिपतन्जेदत्वात्, व्यावहारिकन्नेदेऽपिजीवनिष्ठाविद्यया तत्रैव प्रपंचोत्पत्तिप्रसंगात् । न चाहंकारादिप्रपंचोत्पत्तिस्तत्रेष्टवाकाशादिप्रपंचोत्पत्तिस्तु विषयपक्षपातिन्या अविद्याया ईश्वरेऽस-1|॥१३३ ॥
१ निर्धर्मकब्रह्मविषयत्वम् ।
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त्वेन तत्रैव युक्तेत्यपि सांप्रतं, अज्ञातब्रह्मण एवतन्मते ईश्वरत्वेऽप्यज्ञातशुक्ते रजतोपादानत्ववत्तस्याकाशादिप्रपंचोपादानत्वानिधानासंजवात् , रजतस्थले हीदमंशावच्छेदेन रजतज्ञानमिदमंशावच्छेदेन रजतोत्पादकमिति त्वया क्लसं । शुक्त्यज्ञानं त्वदूरविप्रकर्षेण, तथा प्रकृते तु ब्रह्मण्यवच्छेदासंजवान किंचिदेतत् , अवश्छेदानियमेन हेतुत्वे चाहंकारादेरपीश्वरे उत्पत्तिप्रसंगादिति किमतिप्रसंगेन, तस्मादनेकान्तवादाश्रयादेव केवलज्ञानावरणेनावृतोऽप्यनन्ततमन्नागावशिष्टोऽनावृत एव ज्ञानस्वजावः सामान्यत एकोऽप्यनन्तपर्यायकीरितमूर्तिमन्दप्रकाशनामधेयो नानुपपन्नः, स चापान्तरालावस्थितमतिज्ञानाद्यावरणश्योपशमजेदसंपादितं नानात्वं जजते, घनपटलावन्नरवर्मन्दप्रकाश श्वान्तरालस्थकटकुख्याद्यावरणक्षयोपशमन्नेदसंपादितविवरप्रवेशात् । इत्थं च जन्मादिपर्यायवदात्मस्वनावत्वेऽपि मतिज्ञानादिरूपमन्दप्रकाशस्योपाधिलेदसंपादितसत्ताकत्वेनोपाधिविगमे तधिगमसंनवान्न कैवल्यस्वनावानुपपत्तिरिति महानायकारः, अत एव वितीयापूर्वकरणे तात्त्विकधर्मसन्यासलाने कायोपशमिकाः मादिधर्मा अप्यपगन्तीति तत्र तत्र हरिजनाचार्यनिरूपितम् । निरूपितं च योगयनकर्मनिर्जरणहेतुफलसंबन्धनियतसत्ताकस्य दायिकस्यापि चारित्रधर्मस्य मुक्तावनवस्थानम् । न च वक्तव्यं केवलज्ञानावरणेन बलीयसावरीतुमशक्यस्यानन्ततमन्नागस्य पुर्बलेन मतिझानावरणादिना नावरणसंचव इति, कर्मणः स्वावार्यावारकतायां सर्वघातिरसस्पर्धकोदयस्यैव बलत्वात् , तस्य च मतिज्ञानावरणादिप्रकृतिष्वप्यविशिष्टत्वात् । कथं तर्हि क्योपशम इति चेदत्रेयमहन्मतोपनिषदिनां प्रक्रिया-इह हि कर्मणां प्रत्येकमनन्तानन्तानि रसस्पर्धकानि भवन्ति, तत्र केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणाद्यबादशकपायमिथ्यात्वनिघालक्षाणानां विंशतः प्रकृतीनां सर्वघातिनीनां सर्वाण्यपि रसस्पर्धकानि
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ज्ञान
॥ १३४ ॥
सर्वघातीन्येव जवन्ति, उक्तशेषाणां पंचविंशतिघातिप्रकृतीनां देशघातिनीनां रसस्पर्धकानि यानि चतुःस्थानकानि यानि च त्रिस्थानकानि तानि सर्वघातीन्येव, दिस्थानकानि तु कानिचित् सर्वघातीनि कानिचिच्च देशघातीनि, एकस्थानका नि तु सर्वाण्यपि देशघातीन्येव । तत्र ज्ञानावरणचतुष्कदर्शनावरणत्रयसंज्वलनचतुष्कान्तरायपंचकपुंवेदलक्षणानां सप्तदशप्रकृतीनामेकवित्रिचतुःस्थानकरसा बन्धमाश्रित्य प्राप्यन्ते, श्रेणिप्रतिपत्तेरर्वागासां विस्थानकस्य त्रिस्थानकस्य चतुःस्थानकस्य वा रसस्य बन्धात् । श्रेणिप्रतिपत्तौ त्वनिवृत्तिवादरायायाः संख्येयेषु भागेषु गतेष्वत्यन्त विशुद्धाध्यवसायेनाशुभत्वादासा मेकस्थानकरसस्यैव बन्धात् शेषास्तु शुभा शुजा वा बन्धमधिकृत्य दिस्थानकरसा स्त्रिस्थान करसाश्चतुःस्थानकरसाश्च प्राप्यन्ते, न कदाचनाप्येकस्थानकरसाः । यत उक्तं- "सप्तदशव्यतिरिक्तानां हास्याद्यानामशुभप्रकृतीनामेकस्थानकरसदन्धयोग्या शुद्धिरपूर्वकरणप्रमत्ताप्रमत्तानां नवत्येव न, यदा त्वेकस्थानकरसबन्धयोग्या परमप्रकर्षप्राप्ता शुद्धिरनिवृत्तिवादराधायाः संख्येयेच्यो जागेन्यः परतो जायते, तदा बन्धमेव न ता आयान्तीति " । न च यथा श्रेष्यारोहेऽनिवृत्तिवादराधायाः संख्येयेषु जागेषु गतेषु परतोऽतिविशुधत्वान्मतिज्ञानावरणादीनामेकस्थानकरसबन्धः, तथा रूपकश्रेष्यारोहे सू
संपरायस्य चरमधिचरमादिसमयेषु वर्तमानस्यातीव विशुद्धत्वात् केवल धिकस्य संजवद्वन्धस्यैकस्थानकरसबन्धः कथं न जवतीति शंकनीयम् । स्वल्पस्यापि केवलधिकरसस्य सर्वघातित्वात्, सर्वघातिनां च जघन्यपदेऽपि विस्थानकरसस्यैवसंजवात्, शुजानामपि प्रकृतीनामत्यन्तशुद्ध वर्तमानश्चतुःस्थानकमेव रसं बध्नाति ततो मन्दमन्दतरविशुद्ध तु त्रिस्थानकं दिस्थानकं वा, संशायायां वर्तमानस्तु शुभप्रकृतीरेव न बनातीति कुतस्तगतरसस्थानक चिन्ता । यास्त्वतिसंक्लिष्टे
बिन्दुः
॥ १३४ ॥
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मिथ्यादृष्टौ नरकगतिप्रायोग्या वक्रियतैजसाद्याः शुजप्रकृतयोवन्धमायान्ति, तासामपि तथास्वाजाव्याऊपन्यतोऽपि विस्थानक एव रसो बन्धमायाति नैकस्थानक इति ध्येयम् । ननूत्कृष्टस्थितिमात्रं संक्वेशोत्कर्षेण जवति, ततो यैरध्यवसायैः शुनप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिर्जवति तैरेवैकस्थानकोऽपि रसः किं न स्यादिति चेडुच्यते-यह हि प्रथमस्थितेरारन्य समयवृध्याऽसंख्ययाः स्थितिविशेषा जवन्ति, एकैकस्यां च स्थितावसंख्येया रसस्पर्धकसंघातविशेषाः, तत उत्कृष्टस्थितौ वध्यमानायां प्रतिस्थितिविशेषमसंख्येया ये रसस्पर्धकसंघातविशेषास्ते तावन्तो विस्थानकरसस्यैव घटन्ते नकस्थानकस्येति न शुजप्रकृतीनामुत्कृष्ट स्थितिबन्धेऽप्येकस्थानकरसबन्धः । उक्तं च-“उक्कोसलिई अनवसाणेहिं एगगपिठ हो । सुनियाण तं न जं विश असंखगुणिया न अणुजागा ॥१॥ इति” । एवं स्थिते देशघातिनामवधिज्ञानावरणादीनां सर्वघातिरसस्पर्धकेषु विशुशाध्यवसायतो देशघातितया परिणमनेन निहतेषु, देशघातिरसस्पर्धकेषु चातिस्निग्धेष्वदपरसीकृतेषु, तदन्तर्गतकतिपयरसस्पर्धकलागस्योदयावलिकाप्रविष्टस्य क्ये, शेषस्य च विपाकोदयविष्कंजलक्षण उपशमे, जीवस्यावधिमनःपर्यायज्ञानचकुदर्शनादयो गुणाः दायोपशमिकाः प्रार्जवन्ति । तमुक्तम्-"णिहएसु सबधाइरसेसु फड्डेसु देसघाईणं । जीवस्स गुणा जायति उहिमणचरकुमाईश्रा ॥१॥" निहतेषु देशघातितया परिणमितेषु तदावधिज्ञानावरणादीनां कतिपयदेशघातिरसस्पर्धकदयोपशमात् कतिपयदेशघातिरसस्पर्धकानां चोदयात् क्योपशमानुविक्ष औदयिको जावः प्रवर्तते, अत एवोदीयमानांशक्षयोपशमवृष्ट्या वर्धमानावधिज्ञानोपपत्तिः । यदा चावधिज्ञानावरणादीनां सर्वघातीनि रसस्पर्धकानि विपाकोदयमागतानि जवन्ति,तदा तविषय औदयिको जावः केवलः प्रवर्तते।केवलमवधिज्ञानावरणीयसर्वघातिरसस्पर्धकानां देशघातितया
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ज्ञान
विन्दु
॥१३५॥
परिणामः कदाचिदिशिष्टगुणप्रतिपत्त्या कदाचिच्च तामन्तरेणैव स्यात् , नवप्रत्ययगुणप्रत्ययजेदेन तस्य विध्योपदर्शनात् । मनःपर्यायज्ञानावरणीयस्य तु विशिष्टसंयमाप्रमादादिप्रतिपत्तावेव तथास्वजावानामेव बन्धकाले तेषां बन्धनात्, चकुदर्शनावरणादेरपि तत्तदिन्छियपर्याप्त्यादिघटितसामग्र्या तथापरिणामः । मतिश्रुतावरणाचकुर्दर्शनावरणान्तरायप्रकृतीनां तु सदैव देशघातिनामेव रसस्पर्धकानामुदयो न सर्वघातिनां, ततः सदैव तासामौदयिकवायोपशमिको नावौ संमिश्री प्राप्यते, न केवल औदयिक इति उक्तं पंचसंग्रहमूलटीकायाम् । एतच्च तासां सर्वघातिरसस्पर्धकानि येन तेनाध्यवसायेन देशघातीनि कर्तुं शक्यन्ते इत्यन्युपगमे सति उपपद्यतेऽन्यथा बन्धोपनीतानां मतिज्ञानावरणादिदेशघातिरसस्पर्धकानामनिवृत्तिबादराधायाः संख्येयेषु नागेषु गतेष्वेव संजवात्तदर्वाग् मतिज्ञानाद्यन्नावप्रसंगः, तदनावे च तद्बललन्यतदवस्थालाजानुपपत्तिरित्यन्योऽन्याश्रयापातेन मतिज्ञानादीनां मूलत एवानावप्रसंगात् । एवं मतिश्रुताझानाचक्कुर्दर्शनादीनामपि झायो-IN पशमिकत्वेन जणनात्सर्वघातिरसस्पर्धकोदये तदलानाद्देशघातिरसस्पर्धकानां चार्वागवन्धादध्यवसायमात्रेण सर्वघातिनो | देशघातित्वपरिणामानन्युपगमे सर्वजीवानां तलाजानुपपत्तिरिति नावनीयम् । ननु यदि येन तेनाध्यवसायेनोक्तरसस्पधकानां सर्वघातिनां देशघातितया परिणामस्तदाग्दिशायां तद्वन्ध एव किं प्रयोजनमिति चेत्तत्किं प्रयोजनदतिनिया सामग्री कार्य नार्जयतीति वक्तुमध्यवसितोऽसि ? । एवं हि पूर्णे प्रयोजने दृढदंझनुन्नं चक्रं न ब्राम्येत् , तस्मात्प्रकृते हेतुसमाजादेव सर्वघातिरसस्पर्धकवन्धौपयिकाध्यवसायेन तद्वन्धे तत्तदध्यवसायेन सर्वदा तद्देशघातित्वपरिणामे च वाधकानावः। तदेवं ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां विपाकोदयेऽपि क्योपशमोऽविरुष्प इति स्थितम् । मोहनीयस्य तु मिथ्या
॥१३५॥
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त्वानन्तानुबन्ध्यादिप्रकृतीनां प्रदेशोदये क्षायोपशमिको जावोऽविरुद्धो, न विपाकोदये, तासां सर्वघातिनीत्वेन तप्रसस्पर्धकस्य तथाविधाध्यवसायेनापि देशघातितया परिणमयितुमशक्यत्वासस्य देशघातितया परिणामे तादात्म्येन देशघातिन्या हेतुत्वकपनात् । विपाकोदय विष्कंजणं तु तासु सर्वघा तिरसस्पर्धकानां क्षायोपशमिकसम्यक्त्वा दिलब्ध्यनिधायक सिद्धान्तक्लेन क्षयोपशमान्यथानुपपत्त्यैव तथाविधाध्यवसायेन कल्पनीयम् । केवलज्ञान केवलदर्शनावरणयोस्तु विपाकोदय विष्कं जायोग्यत्वे स्वभाव एव शरणमिति प्राञ्चः । हेत्वभावादेव तदजावस्तछेतुत्वेन कप्यमानेऽध्यवसाये तत्क्ष्यहेतुत्वकल्पनाया | एवौचित्यादिति तु युक्तं, तस्मान्मिथ्यात्वादिप्रकृतीनां विपाकोदये न क्षयोपशमसंजयः, किं तु प्रदेशोदये । न च सर्वघाति| रसस्पर्धक प्रदेशा अपि सर्वस्वघात्यगुणघातनस्वजावा इति तत्प्रदेशादयेऽपि कथं क्षायोपशमिकजावसंजय इति वाच्यम्, | तेषां सर्वघा तिरसस्पर्धकप्रदेशानामध्यवसाय विशेषेण मनाग्मन्दानुजावी कृतविरलवेद्यमानदेशघातिरसस्पर्धकेष्वन्तः प्रवेशिता । नां यथास्थितस्वबलप्रकटनासमर्थत्वात् । मिथ्यात्वाद्यद्वादशकपायरहितानां शेषमोहनीयप्रकृतीनां तु प्रदेशोदये विपाको - दये वा क्षयोपशमोऽविरुद्धः, तासां देशघातिनीत्वात्, तदीयसर्वघा तिरसस्य देशघातित्वपरिणामे हेतुश्चारित्रानुगतोऽध्यवसायविशेष एव प्रष्टव्यः परं ताः प्रकृतयोऽध्रुवोदया इति तद्विपाकोदयाभावे क्षायोपशमिकनावे विजृनमाणे, प्रदे| शोदयवत्योऽपि न ता मनागपि देशघातिन्यः । विपाकोदये तु वर्तमाने क्षायोपशमिकजावसंनवे मनाग्मालिन्यकारित्वादेशघातिन्यस्ता जवन्तीति संदेषः । विस्तरार्थिना तु मत्कृतकर्मप्रकृति विवरणादिविशेषग्रन्था अवलोकनीयाः । उक्ता क्षयोपशमप्रक्रिया । इत्थं च सर्वघा तिरसस्पर्धकवन्मतिज्ञानावरणादिक्ष्योपशमजनितं मतिश्रुतावधि
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ज्ञान
॥ १३६ ॥
मनः पर्यायनेदाच्चतुर्विधं क्षायोपशमिकं ज्ञानं, पंचमं च क्षायिकं केवलज्ञानमिति पंचप्रकारा ज्ञानस्य तत्र मति| ज्ञानत्वं श्रुताननुसार्यन तिशयितज्ञानत्वं अवग्रहादिक्रमवडुपयोगजन्यज्ञानत्वं वा, अवध्यादिकमतिशयितमेव, श्रुतं तु श्रुतानुसार्येवेति न तयोर तिव्याप्तिः । श्रुतानुसारित्वं च धारणात्मकपदपदार्थसंबन्धप्रतिसंधानजन्यज्ञानत्वं तेन न सविकरूपकज्ञानसामग्री मात्रप्रयोज्यपद विषयताशालिनी हापायधारणात्मके मतिज्ञानेऽव्याप्तिः । ईहादिमतिज्ञानभेदस्य श्रुतज्ञानस्य च साक्षरत्वाविशेषेप्ययं घट इत्यपायोत्तरमयं घटनामको न वेति संशयादर्शनात्, तत्तन्नाम्नोऽप्यपायेन ग्रहणात् तचारणोपयोगे दं पदमस्य वाचकं, अयमर्थ एतत्पदस्य वाच्य इति पदपदार्थसंवन्धग्रहस्यापि धौव्येण, तजनितश्रुतज्ञानस्यैव श्रुतानुसा| रित्वव्यवस्थितेः । अत एव धारणात्वेन श्रुतहेतुत्वात् "मपुषं सु" इत्यनेन श्रुतत्वावच्छेदेन मतिपूर्वत्व विधिः, “ न मई सुत्रापुबिया" इत्यनेन च मतित्वसामानाधिकरण्येन श्रुतपूर्वत्वनिषेधोऽनिहितः संगछते । कथं तर्हि श्रुतनिश्रिताश्रुतनि| श्रितभेदेन मतिज्ञानमै विध्यानिधानमिति चेदुच्यते - स्वसमानाकार श्रुतज्ञाना हितवासनाप्रबोधसमानकालीनत्वे सति श्रुतो|पयोगाजावकालीनं श्रुतनिश्रितमवग्रहादिचतुर्भेदं, उक्तवासनाप्रबोधो धारणादाययोपयुज्यते श्रुतोपयोगाभावश्च मति ज्ञानसामग्री संपादनाय, उक्तवासनाप्रबोधकाले श्रुतज्ञानोपयोगबलाच्छ्रुतज्ञानस्यैवापत्तेः, मतिज्ञानसामग्र्याः श्रुतज्ञानोत्पत्ति| प्रतिबन्धकत्वेऽपि शाब्देवास्थानीयस्य तस्योत्तेजकत्वात् । मतिज्ञानजन्यस्मरणस्य मतिज्ञानत्ववत् श्रुतज्ञानजन्यस्मरणमपि च श्रुतज्ञानमध्य एव परिगणनीयम् । उक्तवासनाप्रवोधासमानकालीनं च मतिज्ञानमौत्पत्तिक्यादिचतुर्भेदमश्रुतनिश्रितमि | त्यभिप्रायेण द्विविधागे दोषाभावः । तदिदमाह महाजाप्यकार:- “ पुत्रिं सुपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुनाई । तं
बिन्दुः
॥ १३६ ॥
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पिस्सियमियरं पुण अणिस्सिरं मचनक्कं तं ॥१॥ इति”। अपूर्वचैत्रादिव्यक्तिवुधौ त्वौत्पत्तिकीत्वमेवाश्रयणीयम् ।। ऐयिकश्रुतानसामान्ये धारणात्वेन, तदिन्यिजन्यश्रुते तदिन्छियजन्यधारणात्वेनैव वा, हेतुत्वात् । प्रागनुपलब्धेऽर्थे श्रुतज्ञानाहितवासनाप्रबोधानावेन श्रुतनिश्रितज्ञानासंजवात् , धारणायाः श्रुतहेतुत्व एव च मतिश्रुतयोलब्धियोगपोडप्युपयोगक्रमः संगते, प्रागुपलब्धार्थस्य चोपलंने धारणाहितश्रुतज्ञानाहितवासनाप्रबोधान्वयाच्छ्रुतनिश्रितत्वमावश्यक, धारणादिरहितानामेकेनियादीनां त्वाहारादिसंझान्यथानुपपत्त्यान्तर्जट्पाकारविवदितार्थवाचकं शब्दसंस्पृष्टार्थज्ञानरूपं श्रुतानं क्योपशममात्रजनितं जात्यन्तरमेव, आप्तोक्तस्य शब्दस्योहाख्यप्रमाणेन पदपदार्थशक्तिग्रहानन्तरमाकांक्षाज्ञानादिसाचिव्येन जायमानं तु झानं स्पष्टधारणाप्रायमेव, शाब्दबोधपरिकरीतश्च यावान् प्रमाणान्तरोत्यापितोऽपि बोधः सोऽपि सर्वः श्रुतमेव । अत एव पदार्थवाक्याश्रमहावाक्यार्थेदंपर्यार्थनेदेन चतुर्विधवाक्यार्यशाने ऐदंपर्याय निश्चयपर्यन्तं श्रुतोपयोगव्यापारात् सर्वत्र श्रुतत्वमेवेत्यनियुक्तैरुक्तमुपदेशपदादौ । तत्र “सबे पाणा सबे या ण हंतवा" इत्यादौ यथाश्रुतमात्रप्रतीतिः पदार्थबोधः । एवं सति हिंसात्वाब देनानिष्टसाधनत्यप्रतीतेराहारविहारदेवार्चनादिकमपि प्राणोपघातहेतुत्वेन हिंसारूपत्वादकर्तव्यं स्यादिति वाक्यार्थबोधः । यतनया क्रियमाणा आहारविहारादिक्रिया न पापसाधनानि, चित्तशुछिफलत्वात् ,अयतनया क्रियमाणं तु सर्व हिंसान्त वात् पापसाधनमेवेति महावाक्यार्थबोधः श्राझैव धर्मे सार इत्यपवादस्थलेऽपि गीतार्थयतनाकृतयोगिकारणपदेर्निपिछस्याप्यमुष्टत्वं,विहितक्रियामात्रे च स्वरूपहिंसासंजवेऽप्यनुवन्धहिंसाया अजावान्न दोषलेशस्याप्यवकाश इत्यैदंपर्यार्थबोधः । एतेषु सर्वेष्वेकदीर्घोपयोगव्यापारान्न श्रुतान्यज्ञानशंका, ऐदंपर्यवोधन
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ज्ञान
बिन्ः
॥१३॥
काणफलव्याप्यतयैव श्रुतस्य लोकोत्तरप्रामाण्यव्यवस्थितेर्वाक्येऽपि क्रमिकतावद्वोधजनके तथात्वव्युत्पत्तिप्रतिसंधानवति व्युत्पत्तिमति पुरुषे न विरम्यव्यापारादिदूषणावकाशः।सोऽयमिषोरिव दीर्घदीर्घतरो व्यापारो, यत्परः शब्दः स शब्दार्थ इति नयाश्रयणात् । एतेन न हिंस्यादित्यादिनिषेधविधौ विशेष विधिवाधपर्यालोचनयाऽनुमितो व्यापकतानवच्छेदकेनापि विशेपरूपेण व्यापकस्येव, शाब्दबोधे तत्तहिहितेतरहिंसात्वेन वृत्त्यनवच्छेदकरूपेणापि निषेध्यस्य प्रवेश इति निरस्तम् । उक्तबाधपालोचनस्य प्रकृतोपयोगान्तावेऽस्ममुक्तप्रकारस्यैव साम्राज्यात् , तदनन्तर्जावे च तस्य सामान्यवाक्यार्थबोधेन सह मिलनानावेन विशेषपर्यवसायकत्वासंजवात् । अव्यवहितविक्षामध्ये एकविशेषवाधप्रतिसन्धानमेव सामान्यवाक्यार्थस्य तदितरविशेषपर्यवसायकमिति कट्पनायां न दोप इति चेन्न, त्रिदणाननुगमात्, पटुसंस्कारस्य पंचपक्षणव्यवधानेsपि फलोत्पत्तेश्च, संस्कारपाटवस्यैवानुगतस्यानुसरणौचित्यात् , तच्च गृहीतेऽर्थे मतिश्रुतसाधारण विचारणोपयोग एवोपयुज्यते, अत एव सामान्यनिषेधशाने विरोधसंबन्धेन विशेषविधिस्मृतावपि विचारण्या तदितरविशेषपर्यवसानम् । अपि च 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यत्र यथा परेषां प्रथम स्वर्गत्वसामानाधिकरण्येनैव यागकार्यताग्रहोऽनन्तरं चानुगतानतिप्रसक्तकार्यगतजातिविशेषकरूपनं, तथा प्रकृतेऽपि हिंसात्वसामानाधिकरण्येन पापजनकत्वबोधेऽनन्तरं तजतहेतुतावचेदकानुगतानतिप्रसक्तरूपं कटपने किं वाधक, सर्वशब्दबलेन हिंसासामान्योपस्थितावपि ततहेतुस्वरूपानुवन्धकृतविशेषस्य कट्प-10
v नीयत्वात् । सैव च कपना वाक्यार्थबोधात्मिकेति न तज्छेदः । किं च पदार्थबोधासिासामान्येऽनिष्टसाधनत्वग्रहे आहारविहारादिक्रियास्वनिष्टसाधनत्वव्याप्यहिंसात्वारोपेणानिष्टसाधनत्वारोपलक्षणतर्कात्मक एव वाक्यार्थबोधः, तस्य युक्त्या
॥१३
॥
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विपर्ययपर्यवसानात्मको महावाक्यार्थबोधः, ततो हेतुस्वरूपानुबन्धत्रयविषय एव हिंसापदार्थ इत्यैदपर्यार्थबोधः, इत्येते वोधा अनुवसिद्धत्वादेव दुर्वाराः । श्रुतज्ञानमूलोहादेश्च श्रुतत्वं मतिज्ञानमूलोहादेर्मतिज्ञानत्ववदेवाच्युपेयम् । अत एव श्रुत| ज्ञानाच्यन्तरी जूतमतिविशेषैरेव पट्स्थानपतितत्वं चतुर्दशपूर्व विदामप्याचरते संप्रदाय वृद्धाः । तथा चोक्तं कपजाप्ये- "अरकरलंजेण समा ऊपहिया इंति मविसेसेहिं । ते वि य मईविसेसा सुमनानंतरे जाए || १ ||" यदि च सामान्यश्रुतज्ञानस्य विशे पपर्यवसायकत्वमेव मतिज्ञानस्य श्रुतज्ञानाच्यन्तरी नृतत्वमुपयोग विच्छेदेऽप्येकोपयोगव्यवहारश्च फलप्राधान्यादेवेति विनाव्यते, तदा पदार्थ वोधयित्वा विरतं वाक्यं वाक्यार्थबोधादिरूपविचारसहकृतमावृत्त्या विशेषं बोधयदेदपर्यार्थकत्वव्यपदेशं बनत इति मन्तव्यम् । परं शब्दसंसृष्टार्थग्रहण व्यापृतत्वे पदपदार्थसंबन्धग्राहकोहादिवत्तस्य कथं न श्रुतत्वम् ? शब्दसंसृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषो धारणसमानपरिणामः श्रुतमिति नन्दिवृत्त्यादौ दर्शनात् "सोईदिवली होइ सु सेसयं तु मनाएं । मोत्तणं दद्यां अरकरलंनो सेसेसु ॥ १ ॥ इति पूर्वगतगाथायामप्ययमेव स्वरसो लच्यते। तथा चास्यार्थः - श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिरेव श्रुतमित्यवधारणं, न तु श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिः श्रुतमेवेति । श्रवग्रदेहादिरूपायाः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धेरपि मतिज्ञानरूपत्वात् । यनाप्यकारः- “सोई दिवलधी चेव सुखं न उ मइ सुयं चैव । सोइदिबलवि काई जम्हा मन्नाणं " शेषं तु यच्चक्षुरादीन्द्रियोपलब्धिरूपं तन्मतिज्ञानं, तुशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, स चावग्रहेहादिरूपां श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिमपि समु च्चिनोति, यत्राप्यकारः - "तु समुच्चयवयणा काई सोई दिवलीवि । मइ एवं सइ सोउग्गहादर्ज होंति मनेया" ॥१॥ अपवादमाह - मुक्त्वा व्यश्रुतं पुस्तकपत्रादिन्यस्ताक्षररूपं, तदाहितायाः शब्दार्थ पर्यालोचनात्मिकायाः शेषेन्द्रियोपलब्धे
अ
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ज्ञान
॥१३॥
काव्यश्रुतपद्धगृहात इति । माव्यंजनयोमरूपनावश्रुतमहनव हेतुत्वात मनाविण: निसिलत्या
रपि श्रुतत्वात् । अदरखानश्च यः शेषेष्वपीनियेषु शब्दार्थपर्यालोचनात्मकः, न तु केवलः, तस्येहेहादिरूपत्वात् , तमपि बिन्दु मुक्त्वेति सोपस्कारं व्याख्येयम् । नन्वेवं शेषेन्ज्येिष्वप्यदरलालस्य श्रुतत्वोक्तेः श्रोत्रेन्जियोपलब्धिरेव श्रुतमिति प्रतिज्ञा विशीर्येत, मैवम् ,तस्यापि श्रोत्रेन्जियोपलब्धिकट्पत्वादिति बहवः। श्रोत्रेन्ज्यिोपलब्धिपदेन श्रोत्रेन्जियजन्यव्यंजनादरझानाहिता शाब्दी बुद्धिः, अव्यश्रुतपदेन च चक्कुरादीजियजन्यसंझाझरझानाहिता सा,अदरलालपदेन च तदतिरिक्तश्रुतझानावरणकर्मयोपशमजनिता बुर्गृिह्यत इति । सर्वसाधारणो धारणाप्रायज्ञानवृत्तिः शब्दसंसृष्टार्थाकार विशेष एवानुगतलक्षणम् । त्रिविधाक्षरश्रुतानिधानप्रस्तावेऽपि संझाव्यंजनयोजव्यश्रुतत्वेन, लब्धिपदस्य चोपयोगार्थत्वेन व्याख्यानात् । तत्र चानुगतमुक्तमेव लक्षणमिति । इह गोवृषन्यायेन त्रिविधोपलब्धिरूपन्नावश्रुतग्रहणमिति त्वस्माकमानाति । अवग्रहादिक्रमवउपयोगत्वेनापि च मतिज्ञान एव जनकता, न श्रुतझाने, तत्र शाब्दोपयोगत्वेनैव हेतुत्वात् , मतिझाने च-नानवगृहीतमीह्यते, नानीहितमपेयते, नानपेतं च धार्यते, इति क्रमनिवन्धनमन्वयव्यतिरेकनियममामनन्ति मनीषिणः। तत्रावग्रहस्येहायां धर्मिझानत्वेन,तदवान्तरधर्माकारेहायां तत् सामान्यज्ञानत्वेन वा। ईहायाश्च तधर्मप्रकारतानिरूपिततधर्मिनिष्ठसित्वाख्यविषयतावदपायत्वावचिन्ने तमप्रकारतानिरूपिततकर्मिनिष्ठसाध्यत्वाख्यविषयतावदीहात्वेन, घटाकारावविन्नसिद्धत्वाख्यविषयतावदपायत्वावछिन्ने तादृशसाध्यत्वाख्यविषयतावदीहात्वेन वा, धारणायां चापायस्य समानप्रकारकानुनवत्वेन, विशिष्टनेदे समानविषयकानुन्नवत्वेन वा कार्यकारणजावः । तत्रावग्रहो विविधो व्यंजनावग्रहार्थावग्रहलेदात् । तत्र व्यंज-2 नेन शब्दादिपरिणतव्यनिकुरबेण व्यंजनस्य श्रोत्रेन्जियादेरवग्रहः संबन्धो व्यंजनावग्रहः, स च मलकप्रतिबोधकदृष्टा
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तान्यां सूत्रोक्तान्यामसंख्येयसमयजावी । तस्यामप्यवस्थायामव्यक्ता ज्ञानमात्रा, प्रथमसमयेऽशेनाजवतश्चरमसमये नवना-/ न्यानुपपत्त्या नाष्यकृता प्रतिपादिता। युक्तं चैतत् ,निश्चयतोऽविकलकारणस्यैव कार्योत्पत्तिव्याप्यत्वादू,अविकलं च कारणं | झाने उपयोगेन्धियमेव, तच्च व्यंजनावग्रहकाले लब्धसत्ताकं कथं न स्वकार्य ज्ञानं जनयेदिति अयमुपयोगस्य कारणांशः। ननु व्यंजनावग्रहः प्राप्यकारिणामेवेन्द्रियाणामुक्तो नाप्राप्यकारिणोश्चकुमेनसोरिति तत्र कः कारणांशो वाच्यः? यद्यावग्रहस्तर्हि सर्वत्र स एवास्त्विति चेन्न, तत्राप्यर्थावग्रहात्याग् लब्धीनियस्य ग्रहणोन्मुखपरिणाम एवोपयोगस्य कारणांश इत्यज्युपगमात् । न च सर्वत्रैकस्यैवाश्रयणमिति युक्तम् , इन्ज्यिाणां प्राप्यकारित्वाप्राप्यकारित्वव्यवस्थाप्रयुक्तस्य इस्वदीर्घकारणांशजेदस्यागमयुक्त्युपपन्नत्वेन प्रतिबन्दिपर्यनुयोगानवकाशात् । अर्थावग्रहः सामान्यमात्रग्रहः, यतः किंचिद्दष्टं, मया न तु परिजावितमिति व्यवहारः, स चैकसामयिकः, तत इहोपयोग आन्तमौहूर्तिकः प्रवर्तते, स च सद्भूतासद्भूतविशेषोपादानत्यागानिमुखबहुविचारणात्मकः पर्यन्ते तत्तत्प्रकारेण धर्मिणि साध्यत्वाख्यविषयताफलवान् भवति । अत एव फलप्रवृत्ती ज्ञानप्रामाण्यसंशयवत्करणप्रवृत्तावपीडियादिगतगुणदोषसंशयेन विषयसंशयादिन्छियसाझुण्यविचारणमपीहयैव जन्यते, केवलमन्यासदशायां तज्कटिति जायमानत्वात् कालसौम्येण नोपलक्ष्यते, अनन्यासदशायां तु वैपरीत्येन स्फुटमुपलक्ष्यत इति मलयगिरिप्रनृतयो वदन्ति । एवं सति स्वजन्यापाये सर्वत्रार्थयाथात्म्यनिश्चयस्येहयैव जन्यमानत्वात्तकुनयमुत्पत्तौ परत एव, इप्तौ तु स्वतः परतश्चेत्याकरसूत्रं विरुध्येत, तनयं प्रामाण्यमप्रामाण्यं च, परत एवेति कारणगतगुएदोषापेक्षयेत्यर्थः, स्वतः परतश्चेति, संवादकबाधकझानानपेक्ष्या जायमानत्वं स्वतस्त्वं, तच्चान्यासदशायां, केवलक्ष्यो
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ज्ञान
॥ १३९ ॥
पशमस्यैव तत्र व्यापारात्, तदपेक्षया जायमानत्वं च परतस्त्वं तच्चानन्यासदशायां, अयं च विभागो विषयापेक्ष्या, स्वरूपे तु सर्वत्र स्वत एव प्रामाण्यनिश्चय इत्यक्षरार्थ इति । इहयैव हि सर्वत्र प्रामाण्यनिश्चयाच्युपगमे किं संवादकप्रत्य - यापेक्षया, न खस्वेकं गमकमपेक्षितमिति गमकान्तरमप्यपेक्षणीयम् । न चेहाया बहुविधत्वाद्यत्र न करणसाङ्गुण्य| विचारस्तत्रैवोक्तस्वतस्त्वपरतस्त्वव्यवस्थेति वाच्यम्, ईदायां क्वचिदुक्तविचारव्यनिचारोपगमे श्रन्यासिकापाय पूर्वेदायामनुपलक्ष्यमाणस्यापि तद्विचारस्य निरनुपपत्तेः । न चोक्तविचार ईहायां प्रमाजनकतावच्छेदको, न तु तज्ज्ञ सिजनकतावच्छेदक इत्यपि युक्तम्, करणगुणादेव प्रमोत्पत्तौ तस्यातथात्वात् । न च नाविज्ञानस्यासिद्धत्वादुक्त विचारवत्यापी - हया तफतप्रामाण्याग्रह इत्यपि सांप्रतम्, विचारेण करणसागुण्यग्रहे जाविज्ञानप्रामाण्यग्रहस्यापि संभृतसामग्री कत्वा| दित्यादिविचारणीयम् । ननु भवतां सैद्धान्तिकमते उपयोगेऽवग्रहादिवृत्तिचतुष्टयव्याप्यत्वं, एकत्र वस्तुनि प्राधान्येन | सामान्यविशेषोजयावगाहित्वपर्यात्याधारत्वं वा, तार्किकमते च प्रमेयाव्यनिचारित्वं प्रामाण्यमयोग्यत्वादन्यासेनापि दुर्ग्रहं, समर्थप्रवृत्त्यनौपयिकत्वेनानुपादेयं । पौङ्गलिकसम्यक्त्ववतां सम्यक्त्वदलिकान्वितोऽपायांशः प्रमाणं, कायिकसम्यक्त्ववतां च केवलोऽपायांश इति तत्त्वार्थवृत्त्यादिवचनतात्पर्यपर्यालोचनायां तु सम्यक्त्वसमानाधिकरणापायत्वं ज्ञानस्य प्रामाण्यं पर्यवस्यति, अन्यथाऽननुगमात्, तत्र च विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहः । ज्ञानं प्रमाण ( मिति ) वचनं विनिगमकमिति चेत्तदपि समर्थप्रवृत्त्यैौपयिकेन रूपेण विनिगमयेत्, न तु विशिष्टापायत्वेनानीदृशेन, सम्यक्त्वा - नुगतत्वेन ज्ञानस्य ज्ञानत्वं, अन्यथा त्वज्ञानत्वमिति व्यवस्था तु नापायमात्रप्रामाण्यसाक्षिणी, सम्यग्दृष्टिसंबन्धिनां
१ नियमकल्पनाच पपत्तेः ।
बिन्दुः
॥ १३९ ॥
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संशयादीनामपि ज्ञानत्वस्य महाजाष्यकृता परिजापितत्वात् । न च सम्यक्त्वसाहित्येन ज्ञानस्य रुचिरूपत्वं संपद्यते, रुचिरूपं च ज्ञानं प्रमाणमिति सम्यक्त्वविशेषणोपादानं फलवदित्यपि सांप्रतम्, एतस्य व्यवहारोपयोगित्वेऽपि प्रवृ | त्त्यनुपयोगित्वात् । न च घटाद्यपायरूपा रुचिरपि सम्यक्त्वमिति व्यवहरन्ति सैधान्तिकाः, जीवाजीवादिपदार्थनवक विषयकसमूहालंबनज्ञानविशेषस्यैव रुचिरूपतयाम्नातत्वात्, केवलं सत्संख्यादिमार्गणास्थानैस्तन्निर्णयो जावसम्यक्त्वं, | सामान्यतस्तु प्रव्यसम्यक्त्वमिति विशेष इति । न च घटाद्यपायेऽपि रुचिरूपत्वमिष्टमेव, सदसद्विशेषणा विशेषणा दिना | सर्वत्र ज्ञानाज्ञानव्यवस्थाकथनात्, तदेव च प्रामाण्यमप्रत्यूहमिति वाच्यं, अनेकान्तव्यापकत्वादिप्रतिसंधाना हितवासनावता| मेतादृशबोधसंभवात्, तदन्येषां तु प्रव्यसम्यक्त्वेनैव ज्ञानसनावव्यवस्थितेः । अत एव चरणकरणप्रधानानामपि स्वसम| यपरसमयमुक्तव्यापाराणां प्रव्यसम्यक्त्वेन चारित्रव्यवस्थितावपि जावसम्यक्त्वाभावः प्रतिपादितः संमतौ महावादिना । व्यसम्यक्त्वं च, "तदेव सत्यं निःशंकं यजिनेन्द्रैः प्रवेदितमिति” ज्ञानाहितवासनारूपं, माषतुपाद्यनुरोधानुरुपारतंत्र्यरूपं || वेत्यन्यदेतत् । तस्मान्नैते प्रामाण्यप्रकाराः प्रवृत्त्यौपयोगिकाः । तति तत्प्रकारकत्वरूपं ज्ञानप्रामाण्यं तु प्रवृत्त्यौपयिकमवशिप्यते, तस्य च स्वतो ग्राह्यत्वमेवोचितम् । न्यायनयेऽपि ज्ञाने पुरोवर्तिविशेष्यताकत्वस्य रजतत्वादिप्रकारकत्वस्य चानुव्यवसायग्राह्यतायामविवादात्, इमं रजतत्वेन जानामीति प्रत्ययात्, तत्र विशेष्यत्वप्रकारत्वयोरेव द्वितीयतृतीयार्थत्वात्, तत्र | पुरोवर्ति इदंत्वेन रजतत्वादिनापि चोपनयवशाद्भासतां । न चेदंत्ववैशिष्ट्यं पुरोवर्तिनि न जासत इति वाच्यं, विशेष्यतायां पुरोवर्तिनः स्वरूपतो जानानुपपत्तेः तादृशविशेषज्ञानाजावात्, अन्यथा प्रमेयत्वादिना रजतादिज्ञानेऽपि तथाज्ञानापत्तेः,
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ज्ञान
॥ १४० ॥
जात्यतिरिक्तस्य किंचिधर्मप्रकारेणैव जाननियमाच्च । किं च प्रामाण्यसंशयोत्तरमिदं रजतं न वेत्येव संशयो, न तु रजतमिदं । न वा, 5व्यं रजतं न वेत्यादिरूप इति, यविशेष्यकयत्प्रकारकज्ञानत्वावच्छेदेन प्रामाण्यसंशयस्तधर्मविशिष्टे तत्प्रकारकसंशय | इति नियमादिदंत्वेन धर्मिज्ञानमावश्यकं, इदंत्वरजतत्वादिना पुरोवर्तिन उपनयसत्त्वाच्च तथाजानमनुव्यवसाये दुर्वार मिति | किमपरमवशिष्यते प्रामाण्ये ज्ञातुम् । न चैकसंबन्धेन तपति संबन्धान्तरेण तत्प्रकारकज्ञानं व्यावृत्तं, तेन संबन्धेन तत्प्रकारकत्वमेव प्रामाण्यं तच्च दुर्ग्रहमिति वाच्यं, व्यवसाये येन संबन्धेन रजतत्वादिकं प्रकारस्तेन ततोऽनुव्यवसाये. जानात. संसर्गस्य (तु) तत्त्वेनैव जानात् । तत्प्रकारकत्वं च वस्तुगत्या तत्संबन्धावन्निप्रकारताकत्वमिति प्रकारताकुक्षिप्रवेशेनैव वा तनानम् । श्रत एवेदं रजतमिति तादात्म्यारोपव्यावृत्तये मुख्य विशेष्यता प्रामाण्ये निवेशनीयेति मुख्यत्वस्य दुर्ग्रहत्व मि त्युक्तेरप्यनवकाशो, वस्तुगत्या मुख्य विशेष्यताया एव निवेशात् तादात्म्यारोपे आरोप्यांशे समवायेन प्रामाण्यसत्त्वेऽप्यदतेश्च । एतेन तद्विशेष्यकत्वे सति तत्प्रकारकत्वमात्रं न प्रामाण्यं, 'इमे रंगरजते' 'नेमे रंगरजते' इति विपरीतचतुष्कमसाधारण्यात्, किं तु तद्विशेष्यकत्वावच्छिन्नतत्प्रकारकत्वं तच्च प्रथमानुव्यवसाये दुर्ग्रहमित्यपि निरस्तम् । वस्तुगत्या ताहशप्रकारताकत्वस्य सुग्रहत्वादेव तद्ब्रहेऽनुव्यवसायसामग्र्याऽसामर्थ्यस्य, व्यवसायप्रतिबन्धकत्वस्य वा कल्पनमनिनिवेशेन स्वबुद्धि विरंचनामात्रं, तथाकल्पनायामप्रामाणिकगौरवात् । एतेन विधेयतयाऽनुव्यवसाये स्वातंत्र्येण प्रामाण्यजाने व्यव| सायप्रतिबन्धकत्व करूपनापि परास्ता । तत्र त६ विशेष्यकतोपस्थितितदजावव विशेष्यकत्वाभावोपस्थित्यादीनामुत्तेजकत्वा|दिकरूपने महागौरवात् । यदि च विशेष्यत्वादिकमनुपस्थितं न प्रकारः, तदा विशेष्यतासंबन्धेन रजतादिमत्त्वे सति प्रकारि
बिन्दुः
॥ १४० ॥
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तया रजतत्वादिमत्त्वमेव प्रामाण्यमस्तु । एतज्ज्ञानमेव लाघवात्प्रवृत्त्यौपयिक । तस्माज्ञप्तौ प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वमेव युक्तम् । अप्रामाण्यं तु नानुव्यवसायग्राह्यं, रजतत्वाजाववत्त्वेन पुरोवर्तिनोऽग्रहणे तथोपनीतनानायोगात्, रजतत्वादिमत्तया शुक्त्यादिधीविशेष्यकत्वं रजतत्वप्रकारकत्वं च तत्र गृह्यते, अत एवाप्रमापि प्रमेत्येव गृह्यते इति चिन्तामणिग्रन्थः प्रमेतीत्येव व्याख्यातस्तांत्रिकरित्यप्रामाण्यस्य परतस्त्वमेव । न च प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वे ज्ञानप्रामाण्यसंशयानुपपत्तिः, ज्ञानग्रहे प्रामाण्यग्रहात्तदग्रहे धर्मिग्रहाजावादिति वाच्यं, दोषात् तत्संशयाघमीनियसन्निकर्षस्यैव संशयहेतुत्वात् । प्राक् प्रामाएयानावोपस्थितौ धर्मिज्ञानात्मक एव वास्तु प्रामाण्यसंशय इति स्वतस्त्वपरतस्त्वानेकान्तः प्रामाण्याप्रामाण्ययोर्जेनानां न युक्त इति चेद् अत्र ब्रूमः रजतत्ववविशेष्यकत्वावचिन्नरजतत्वप्रकारताकत्वरूपस्य रजतज्ञानप्रामाण्यस्य वस्तुतोऽनुव्यवसायेन ग्रहणात्, स्वतस्त्वान्युपगमेऽप्रामाण्यस्यापि स्वतस्त्वापातः, रजतन्त्रमानुव्यवसायेनापि वस्तुतो रजतत्वालाववविशेष्यकत्वावचिन्नरजतत्वप्रकारताकत्वस्यैव ग्रहात्, तत्र चास्मानिरनेकान्तवादिनिरिष्टापत्तिः कर्तुं शक्यते, व्यार्थतः प्रत्यक्षस्य योग्यव्यप्रत्यक्षीकरणवेलायां तद्गतानां योग्यायोग्यानां धर्माणां सर्वेषामन्युपगमात् , स्वपरपर्यायापेक्ष्याऽनन्तधर्मात्मक तत्त्वमिति वासनावत एकझत्वे सर्वज्ञत्वध्रौव्यान्युपगमाच्च, “जे एगं जाण से सवं जाणइ, जे सर्व जाणइ से एगं जाण त्ति" पारमर्षस्येत्यमेव स्वारस्यव्याख्यानात् । अवोचाम चाध्यात्मसारप्रकरणे-“श्रासत्तिपाटवान्यासस्वकार्यादिनिराश्रयन्। पर्यायमेकमप्यर्थ वेत्ति जावाद्धोऽखिलम् ॥ १॥” इति । न चेयं रीतिरेकान्तवादिनो जवत इति प्रती प्रतिवन्दिदमप्र-16 हारम् । ननु रजतत्ववविशेष्यकत्वरजतत्वप्रकारत्वयोरेव झानोपरि जानं, अवचिन्नत्वं तु तयोरेव मिथः संसर्ग, एकत्र
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ज्ञान
॥ १४१ ॥
जासमानयोर्द्वयोर्धर्मयोः परस्परमपि सामानाधिकरण्येनैवावचिन्नत्वेनाप्यन्वयसंजवादित्येवं प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वं श्रप्रामाएयस्य तु न तथात्वं रजतत्वानावस्य व्यवसायेऽस्फुरणेन तद्विशेष्यकत्वस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात् ज्ञानग्राहकसामग्र्यास्तु|पस्थित विशेष्यत्वा दिग्राहकत्व एव व्यापारादित्येवमदोष इति चेन्न प्रामाण्यशरीरघटकस्यावचिन्नत्वस्यसंसर्गतया जानोपगमे कात्स्न्र्त्स्न्येन प्रामाण्यस्य प्रकारत्वासिद्धेः, श्रंशतः प्रकारतया जानं च स्वाश्रय विशेष्यकत्वावचिन्नप्रकारतासंबन्धेन रजतत्वस्य | ज्ञानोपरि जानेऽपि संजवतीति तावदेव प्रामाण्यम् । स्यादस्त्वेवं, ज्ञानग्रादकसामग्र्यास्तथाप्रामाण्यग्रह एव सामर्थ्यात् श्रत एव नाप्रामाण्यस्य स्वतस्त्वमिति चेन्न, एवमन्युपगमे श्रप्रमापि प्रमेतीत्येव गृह्यते इत्यस्य व्याघातात्तत्र रजतत्वस्य ज्ञानोपर्युक्तसंबन्धासंजवात्, कंबुग्रीवादिमान्नास्ति वाच्यं नास्तीत्यादावन्वयितावच्छेदकावछिन्नप्रतियोगिताया इव प्रकृते उक्तसंवन्धस्य तत्तदवगाहितानिरूपितावगाहितारूपा विलक्षणैव खंमशः सांसर्गिक विषयतेति न दोष इति चेन्न, तत्रापि लक्ष| पादिनैव बोधः, उक्तप्रतियोगितायास्तु घटो नास्तीत्यादावेव स्वरूपतः संसर्गत्वं, उक्तं च मिश्रः - " अर्थापत्तौ नेह देवदत्त | इत्यत्र प्रतियोगित्वं स्वरूपत एव नासत इत्येवं समर्थनात्" वस्तुतोऽस्माकं सर्वापि विषयता ऽन्यार्थतोऽखंका, पर्यायार्थतश्च सखंमेति । संपूर्ण प्रामाण्यविषयताशालिबोधो न संवादकप्रत्ययं विना, न वा तादृशाप्रामाण्यविषयताकबोधो बाधकप्रत्ययं विनेत्युनयोरनन्यासदशायां परतस्त्वमेव, अभ्यासदशायां तु क्षयोपशमविशेषसध्रीचीनया तादृशतादृशेदया तथा | तथोजयग्रहणे स्वतस्त्वमेव, श्रत एव प्रामाण्यान्तरस्यापि न कुर्महत्वं, स्वोपयोगापृथग्भूते होपनीतप्रकार स्यैवापायेन ग्रहणात्, तादृशी च प्रामाण्यविषयता नावममात्रप्रयोज्यत्वेन लौकिकी, नापि पृथगुपयोगप्रयोज्यत्वेनासौकिकी, किं तु विलक्षणै
बिन्दुः
॥ १४१ ॥
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वेति न किंचिदनुपपन्नमनन्तधर्मात्मकवस्त्वन्युपगमे । अत एव वस्तुसदृशो झाने झेयाकारपरिणाम इति विलक्षणप्रामाण्याकारवादेऽपि न दतिः। एवं च चमेऽरजतनिमित्तो रजताकारः, संवृतशुक्त्याकारायाः शुक्तरेव तत्राखंबनत्वात् , प्रमायां तु| रजतनिमित्तश्त्याकारतथात्वस्य परतःस्वतोग्रहान्यां प्रामाण्याप्रामाण्ययोस्तदनेकान्त इति प्राचां वाचामपि विमर्शः कान्त एवेति अष्टव्यम्।न्यायानियुक्ताअपि यथाऽनावलौकिकप्रत्ययस्तधर्मस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वमवगाहमान एव तधर्मविशिष्टस्य प्रतियोगित्वमवगाहते, तथा झानलौकिकसाक्षात्कारोऽपितधर्मस्य विशेष्यताद्यवच्छेदकत्वमवगाहमान एव तधर्मविशिष्टस्य विशे| प्यतादिकमवगाहत इति इदंत्वविशिष्टस्यैव विशेष्यत्वमवगाहेत, इदंत्वस्य विशेष्यतावच्छेदकत्वात्, न तुरजतत्वादिविशिष्टस्य | रजतत्वादेरतयात्वादित्यं नियमस्तु लौकिके । तेनोपनयवशादलौकिकतादृशसाक्षात्कारेऽपि न तिरिति वदन्तो विनोपनयं प्राथमिकानुव्यवसायस्य प्रामाण्याग्राहकत्वमेवाहुः। यदेव च तेषामुपनयस्य कृत्यं तदेवास्माकमीहायाः साध्यमिति कृतं प्रसंगेन । प्रकृतमनुसरामः। एताववग्रहाख्यौ व्यापारांशी, ईहानन्तरमपायः प्रवर्तते 'अयं घट एवेति' अत्र चासत्त्यादिजनितक्ष्योपशमवशेन यावानीहितो धर्मस्तावान् प्रकारीजवति, तेनैकत्रैव 'देवदत्तोऽयं' 'पाचकोऽयं' इत्यादिप्रत्ययनेदोपपत्तिः । इत्थं च | रूपविशेषान्मणिः पद्मराग इत्युपदेशोत्तरमपि तदाहितवासनावतो रूपविशेषादनेन पद्मरागेण नवितव्यमितीहोत्तरमेवायं पद्मराग इत्यपायो युज्यते, उक्तोपदेशः पद्मरागपदवाच्यत्वोपमितावेवोपयुज्यते। अयं पद्मरागइति तु सामान्यावग्रहहाक्रमेणैवेति नैयायिकानुयायिनः । घट इत्यपायोत्तरमपि यदा किमयं घटः सौवर्णो मातॊ वेत्यादिविशेष जिज्ञासा प्रवर्तते, तदा पाश्चात्यापायस्योत्तरविशेषावगमापेक्ष्या सामान्याखंबनत्वाध्यावहारिकावग्रहत्वं, ततः सौवर्ण एवायमित्यादिरपायः, तत्राप्युत्त
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झान-
विन्दु
॥१४॥
रोत्तरविशेष जिज्ञासायां पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य व्यावहारिकावग्रहत्वं अष्टव्यं । जिज्ञासानिवृत्ती त्वंत्यविशेषज्ञानमवाय एवोच्यते, नावग्रहः, उपचारकारणानावात् । अयं फलांशः। कालमानं त्वस्यांतर्मुहूर्तमेव, सौदामिनीसंपातजनितप्रत्यदस्य चिरमननुवृत्तेयं निचार इति चेन्न, अन्तर्मुहूर्तस्यासंख्यनेदत्वात् , अन्त्यविशेषावगमरूपापायोत्तरमविच्युतिरूपा धारणा प्रवर्तते साप्यान्तर्मोहूर्तिकी। अयं परिपाकांशः। वासनास्मृती तु सर्वत्र विशेषावगमे ऽष्टव्ये । तदाह जिनजागणिक्षमाश्रमणः-“सामन्नमित्तगहणे णिचय समयमोग्गहो पढमो। तत्तोपंतरमीहियवत्थुविसेसस्स जोवा ॥१॥ सो पुण ईहावायावेरकाए उग्गहोत्ति उवयरि । एस विसेसावेरकं सामन्नं गिपहुए जेणं ॥२॥ तत्तो एंतरमीहा त अवा अ तबिसेसस्स । इह सामन्नविसेसावेरका जावंतिमो ने ॥३॥ सवत्येहावाया, णिचय मोत्तुमाइसामन्नं । संववहारत्थं पुण, सवत्थावग्गहोवा ॥॥ तरतमजोगालावेवाच्चिय धारणा तदंतमि । सबत्यवासणा पुण नणिया कालंतरसईयत्ति ॥५॥" न चाविच्युतेरपायावस्थानात्पार्थक्ये मानाजावो, विशेष जिज्ञासानिवृत्त्यवचिन्नस्वरूपस्य कथंचिन्निन्नत्वाद्, अवगृह्णामि, ईहे, अवैमि, स्थिरीकरोमीतिप्रत्यया एव च प्रतिप्राण्यनुलवसिघाः अवग्रहादिलेदे प्रमाणं, स्मृतिजनकतावच्छेदकत्वेनैव वाऽवि-IN च्युतित्वं धर्मविशेषः कटप्यते, तत्तफुपेदान्यत्वस्य स्मृतिजनकतावच्छेदककोटिप्रवेशे गौरवादिति धर्मविशेष सिधौ धर्मिविशे|पसिद्धिरित्यधिक मत्कृतज्ञानार्णवादवसेयम् । तदेवं निरूपितं मतिज्ञानं। तन्निरूपणेन च श्रुतझानमपि निरूपितमेव । प्योरन्योऽन्यानुगतत्वात्तथैव व्यवस्थापितत्वाच्च । अन्ये त्वंगोपांगादिपरिझानमेव श्रुतहानं, अन्यच्च मतिज्ञानमित्यनयोरपि नजनैव, यमुवाच वाचकचक्रवर्ती-“एकादीन्येकस्मिन् नाज्यानि त्वाचतुर्त्य इति"। शब्दसंसृष्टार्थमात्रगाहित्वेन श्रुतत्वे
॥१४
॥
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त्ववग्रहमात्रमेव मतिज्ञानं प्रसज्येत, धारणोत्तरं स्वसमानाकारश्रुतावश्यंजावकपनं तु स्ववासनामात्र विनितं, शब्दसंसटाया मतेरेव श्रुतत्वपरित्नाषणं तु न पृथगुपयोगव्यापकमिति शाब्दझानमेव श्रुतझानं, न त्वपरोक्षमिन्छियजन्यमपीत्याहुः। नव्यास्तु श्रुतोपयोगो मत्युपयोगान्न पृथक्, मत्युपयोगेनैव तत्कार्योपपत्ती तत्पार्थक्यकट्पनाया व्यर्थत्वात् । अत एव शब्दजन्यसामान्यज्ञानोत्तरं विशेष जिज्ञासायां तन्मूलकमत्यपायांशप्रवृत्तौ न पृथगवग्रहकट्पनागौरवं, शाब्दसामान्यज्ञानस्यैव | तत्रावग्रहत्वात् । न च शाब्देऽशाब्दस्य तत्सामग्र्या वा प्रतिबन्धकत्वध्रौव्यान्नेयं कट्पना युक्तेति वाच्यं, अशाब्दत्वस्य प्रतिवध्यतावच्छेदकत्वे प्रतियोगिकोटौ शब्दमूलमतिझानस्यापि प्रवेशात्, अन्यथा श्रुतान्यन्तरीनूतमतिज्ञानोदप्रसंगात् । किं च शाब्दज्ञानरूपश्रुतस्यावग्रहादिक्रमवतो मतिज्ञानान्निन्नत्वोपगमेऽनुमानस्मृतितर्कप्रत्यनिशानादीनामपि तयात्वं स्यादित्यतिप्रसंगः, सांव्यवहारिकप्रत्यक्षत्वानावस्यापि तेषु तुल्यत्वात् । यदि चावग्रहादिनेदाः सांव्यवहारिकप्रत्यक्षरूपस्यैव मतिझानस्य सूत्रे प्रोक्ता, अनुमानादिकं तु परोक्ष्मतिझानमर्थतः सिमितीप्यते, तर्हि श्रुतशब्दव्यपदेश्यं शाब्दज्ञानमपि परोदमतिज्ञानमेवांगीक्रियतां, किमर्धजरतीयन्यायाश्रयणेन । मत्या जानामि श्रुत्वा जानामीत्यनुलव एवानयोजेदोपपादक इति चेन्न, अनुमाय जानामि स्मृत्वा जानामीत्यनुलवेनानुमानस्मृत्यादीनामपि दापत्तेः। अनुमितित्वादिकं मतित्वव्याप्यमेवेति यदीप्यते, शाब्दत्वमपि किं न तथा ? । मत्या न जानामीति प्रतीतिस्तत्र बाधिकेति चेन्न वैशेषिकाणां नानुमिनोमीति प्रतीतेरिव शाब्दे तस्याविशेषविषयत्वात् । न च निसगाधिगमसम्यक्त्वरूपकार्यनेदान्मतिश्रुतज्ञानरूपकारणलेद इत्यपि सांप्रतं, तत्र निसर्गपदेन स्वत्तावस्यैव ग्रहणात्। यघाचकः-"शिवागमोपदेशश्रवणान्येकाथिकान्यधिगमस्य । एकार्थः
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झान
बिन्ः
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परिणामो नवति निसर्गः स्वन्नावश्चेति ” । यत्रापि मतेः श्रुतभिन्नत्वेन ग्रहणं तत्र गोबलीवर्दन्याय एवाश्रयणीयः । तदिदमनिप्रेत्याह महावादी सिद्धसेनः-"वैयर्थ्यातिप्रसंगान्यां न मत्यन्यधिकं श्रुतमिति” इत्याहुः ।।
अवधिज्ञानत्वं रूपिसमव्याप्यविषयताशालिज्ञानवृत्तिज्ञानत्वव्याप्यजातिमत्त्वं, रूपिसमव्याप्यविषयताशाविज्ञानं परमाव|धिज्ञानं "रूवगयं लहइ सबं” इति वचनात्, तवृत्तिानत्वव्याप्या जातिरवधित्वमवधिज्ञानमात्र इति लक्षणसमन्वयः। समव्याप्यत्वमपहाय व्यापकत्वमात्रदाने जगध्यापकविषयताकस्य केवलस्यरूपिव्यापकविषयताकत्वनियमात् तवृत्तिकेवलत्वमा दाय केवलझानेऽतिव्याप्तिः, समव्याप्यत्वदाने त्वरूपिणि व्यभिचारात्केवलज्ञानविषयताया रूप्यव्याप्यत्वात्तन्निवृत्तिः। न च परमावधिज्ञानेऽप्यलोके लोकप्रमाणासंख्यारूप्याकाशखंविषयतोपदर्शनादसंजवः । यदि तावत्सु खमेषु रूपित्रव्यं स्यात्तदा पश्येदिति प्रसंगापादन एव तापदर्शनतात्पर्यात्। न च तदंशे विषयबाधेन सूत्राप्रामाण्यं, स्वरूपबाधेऽपि शक्तिविशेषज्ञापनेन फलाबाधात् । एतेनासन्नावस्थापना व्याख्याता । बहिर्विषयताप्रसंजिका तारतम्येन शक्तिवृधिश्च खोकमध्य एव सूक्ष्मसूमतरस्कन्धावगाहनफलवतीति न प्रसंगापादनवैयर्थ्यम् । यन्नाष्यं-“वढतो पुण बाहिं लोगत्थं चेव पासई दछ । सुदुमयर सुहुमयरं परमोही जाव परमाणुं ॥१॥” इति । अलोके लोकप्रमाणासंख्येयखंमविषयतावधेरिति वचने विषयतापदं तर्कितरूप्यधिकरणताप्रसंजिततावदधिकरणकरूपिविषयतापरमिति न स्वरूपवाधोऽपीति तत्त्वम् । जातौ ज्ञानत्वव्याप्यत्वविशेषणं ज्ञानत्वमादाय मत्यादावतिव्याप्तिवारणार्थम् । न च संयमप्रत्ययावधिज्ञानमनःपर्यायज्ञानसाधारणजातिविशेषमा-||
१४३॥
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दाय मनःपर्यायज्ञानेऽतिव्याप्तिः, अवधित्वेन सांकयेण तादृशजात्यसिद्धेः । न च पुजला रूपिण इति शाब्दबोधे रूपिसलामव्याप्यविषयताकेऽतिव्याप्तिः, विषयतापदेन स्पष्टविशेपाकारग्रहणादिति संक्षेपः। | मनोमात्रसाक्षात्कारि मनःपर्यायज्ञानम् । न च तादृशावधिज्ञानेऽतिव्याप्तिः, मनःसाक्षात्कारिणोऽवधेः स्कन्धान्तरस्यापि साक्षात्कारित्वेन तादृशावधिज्ञानासिधेः। न च मनस्त्वपरिणतस्कन्धालोचितं वाह्यमप्यर्थ मनःपर्यायानं साक्षात्करोतीति तस्य मनोमात्रसादात्कारित्वमसिझमिति वाच्यम् , मनोजव्यमात्रालंबनतयैव तस्य धर्मिग्राहकमानसिकत्वात् , बाह्यार्थानां तु मनोव्याणामेव तयारूपपरिणामान्यथानुपपत्तिप्रसूतानुमानत एव ग्रहणान्युपगमात् । श्राह च नाष्यकार:-"जाणा बलेणुमाणेणंति" वाह्यार्थानुमाननिमित्तकमेव हि तत्र मानसमचकुर्दर्शनमंगीक्रियते, यत्पुरस्कारेण सूत्रे मनोव्याणि जानाति पश्यति चैतदिति व्यवहियते । एकरूपेऽपि झाने व्याद्यपेक्योपशमवैचित्र्येण सामान्यरूपमनोव्याकारपरिवेदापेक्ष्या पश्यतीति, विशिष्टतरमनोव्याकारपरिजेदापेक्या च जानातीत्येवं वा व्याचक्ते । आपेक्षिकसामान्यज्ञानस्यापि व्यावहारिकावग्रहन्यायेन व्यावहारिकदर्शनरूपत्वात् । निश्चयतस्तु सर्वमपि तज्ज्ञानमेव, मनःपर्यायदर्शनानुपदेशादिति अष्टव्यम्।नव्यास्तु बाह्याकारानुमापकमनोजव्याकारग्राहक झानमवधिविशेष एव,अप्रमत्तसंयमविशेषजन्यतावच्छेदकजातेरवधित्वव्याप्याया एव (कट्पनात्) कट्पनाधर्मीति न्यायात्।इत्थं हि जानाति पश्यतीत्यत्र दृशेरवधिदर्शनविषयत्वेनैवोपपत्ती लक्षणकपनगौरवमपि परिहृतं नवति।सूत्रे नेदानिधानं च धर्मजेदाभिप्रायम्।यदि च संकल्प विकल्पपरिणतव्यमात्रग्राह्यनेदात्तद्राहकं ज्ञानमतिरिक्तमित्यत्र निर्बन्धस्तदा दीजियादीनामपीष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात्तक्रनकसूदमसंकल्पजनन
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ज्ञान
॥१४४॥
परिणतव्यविषयमपि मनःपर्यायज्ञानमन्युपगन्तव्यं स्यात्, चेष्टाहेतोरेव मनसस्तद्भाह्यत्वात । न च तेन दीन्द्रियादीनां समनस्कतापत्तिः, कपर्दिकासत्तया धनित्वस्येव, एकया गवा गोमत्त्वस्येव, सूक्ष्मेण मनसा समनस्कत्वस्यापादयितुमशक्यत्वात्, | तदिदमभिप्रेत्योक्तं निश्चयधात्रिंशिकायां महावादिना - "प्रार्थनाप्रतिघाताच्यां चेष्टन्ते पीन्द्रियादयः । मनःपर्याय विज्ञानं युक्तं तेषु न चान्यथा ॥ १ ॥” इति । न चैवं ज्ञानस्य पंचविधत्वविना गोछेदात्सूत्रापत्तिः, व्यवहारतश्चतुर्विधत्वेनोक्ताया अपि जाषाया निश्चयतो वैविध्यानिधानवन्नयविवेकेनोत्सूत्राभावादिति दिकू ।
सर्वविषयं केवलज्ञानम् । सर्वविषयत्वं च सामान्यधर्मानवचिन्ननिखिलधर्मप्रकारकत्वे सति निखिलधर्मिविषयत्वम् । प्रमेयवदिति ज्ञाने प्रमेयत्वेन निखिलधर्मप्रकारकेऽतिव्याप्तिवारणायानवैचिन्नान्तं, केवलदर्शनेऽतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तं, | विशेष्यभागस्तु पर्यायवाद्यनिमतप्रतीत्यसमुत्पाद रूपसन्तान विषयक निखिलधर्मप्रकारकज्ञाननिरासार्थः । वस्तुतो निखिल - | ज्ञेयाकारवत्त्वं केवलज्ञानत्वं । केवलदर्शनाच्युपगमे तु तत्र निखिल दृश्याकारवत्त्वमेव न तु निखिल शेयाकारवत्त्वमिति नातिव्याप्तिः । न च प्रतिस्वं केवलज्ञाने केवलज्ञानान्तरवृत्तिस्वप्राक्काल विनष्टवस्तुसंबन्धिवर्तमानत्वाद्याकाराजावादसंजयः, स्व| समानकालीन निखिलज्ञेयाकारवत्त्वस्य विवक्षणात् । न च तथापि केवलज्ञानग्राह्ये आद्यवृत्तित्वप्रकारकत्वावचिन्नविशेप्यताया द्वितीयक्षणे नाशो, द्वितीयक्षणवृत्तित्वप्रकारकत्वावचिन्न विशेष्यतायाश्चोत्पादः, इत्यमेव ग्राह्यसामान्यविशेष्यताधौव्यसंनेदेन केवलज्ञाने त्रैलक्षण्यमुपपादितमित्येकदा निखिलज्ञेयाकारवत्त्वासंभव एवेति शंकनीयम्, समानकालीनत्वस्य क्षणगर्भत्वे दोषाभावात्, अस्तु वा निखिलज्ञेयाकारसंक्रमयोग्यतावत्त्वमेव लक्षणं, प्रमाणं च तत्र ज्ञातत्वमत्यन्तोत्कर्षव
बिन्दुः
॥ १४४ ॥
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वृत्ति अत्यन्तापकर्षवद्वृत्तित्वात् परिमाणत्ववदित्याद्यनुमानमेव । न चाप्रयोजकत्वं ज्ञानतारतम्यस्य सर्वानुभवसिद्धत्वेन | तद्विश्रान्तेरत्यन्तापकर्षोत्कर्षाच्यां विनाऽसंजवात् । न चेन्द्रियाश्रितज्ञानस्यैव तरतमभावदर्शनात्तत्रैवान्त्यप्रकर्षो युक्त इत्यपि शंकनीयं, अतीन्द्रियेऽपि मनोज्ञाने शास्त्रार्थावधारणरूपे शास्त्रजावनाप्रकर्षजन्ये शास्त्रातिक्रान्तविषयेऽतीन्द्रियविषयसामर्थ्य योगप्रवृत्तिसाधनेऽध्यात्मशास्त्रप्रसिद्धप्रातिजनामधेये च तरतमभावदर्शनात् । नन्वेवं जावनाजन्यमेव प्रातिजवत्केवलं प्राप्तं, तथा चाप्रमाणं स्यात्, कामातुरस्य सर्वदा कामिनीं जावयतो व्यवहितका मिनी साक्षात्कारवनावनाजन्य| ज्ञानस्याप्रमाणत्वव्यवस्थितेः अथ न जावनाजन्यत्वं तत्राप्रामाण्यप्रयोजकं, किंतु वाधितविषयत्वं, जावनानपेक्षेऽपि शुक्ति| रजतादिचमे बाधादेवाप्रामाण्यस्वीकारात्, प्रकृते च न विषयबाध इति नाप्रामाण्यं, न च व्यवहितका मिनी विभ्रमादौ दोषत्वेन जावनायाः क्लृप्तत्वात्तजन्यत्वेनास्याप्रामाण्यं, बाधितविषयत्ववद्दोष जन्यत्वस्यापि चमत्वप्रयोजकत्वात्, तथा चोक्तं मीमांसानाष्यकारेण - "यस्य च दुष्टं कारणं यत्र च मिथ्येत्यादिप्रत्ययः स एव समीचीनो नान्य इति", वार्तिककारेणाप्युक्तम्" तस्माद्बोधात्मकत्वेन, प्राप्ता बुद्धेः प्रमाणता । श्रर्थान्यथात्वहेतूत्यदोषज्ञानादपोद्यते ॥ १ ॥ इति " अत्र हि तुल्यवदेवाप्रामाण्यप्रयोजकघ्यमुक्तं, तस्माद्वाधाजावेऽपि दोषजन्यत्वादप्रामाण्यमिति वाच्यं, जावनायाः क्वचिद्दोषत्वेऽपि सर्वत्र दोषत्वा निश्चयात्, अन्यथा शंखपीतत्वज्रमकारणीभूतस्य पीतव्यस्य स्वविषयकज्ञानेऽप्यप्रामाण्यप्रयोजकत्वं स्यादिति न किंश्विदेतत् क्वचिदेव कश्चिद्दोष इत्येवांगीकारात्, विषयबाधेनैव दोषजन्यत्वकल्पनाच्च, डुष्टकारणजन्यस्याप्यनुमानादेर्वि| पयाबाधेन प्रामाण्याच्युपगमात्, अन्यथा परिभाषामात्रापत्तेः । मीमांसानाष्यवार्तिककारान्यामपि बाधितविषयत्वव्या
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ज्ञान
बिन्छः
॥१४॥
प्यत्वेनैव पुष्टकारणजन्यत्वस्याप्रामाण्यप्रयोजकत्वमुक्तं न स्वातंत्र्येणेति चेन्मवम् तथापि परोक्षज्ञानजन्यनावनाया अपरोक्झानजनकत्वासंजवात् । न हि वह्नयनुमितिझानं सहस्रकृत्व श्रावृत्तमपि वह्निसाक्षात्काराय कल्पते । न चान्यस्यमानं ज्ञानं परमप्रकर्षप्राप्तं तथा नविष्यतीत्यपि शंकनीयं, लंघनोदकतापादिवदन्यस्यमानस्यापि परमप्रकर्षायोगात् । न च लंघनस्यैकस्यावस्थितस्यानावादपरापरप्रयत्नस्य पूर्वपूर्वातिशयितलंघनोत्पादन एवं व्यापाराद्यावलंघयितव्यं तावन्नादावेव श्लेष्मा|दिना जाड्यात्कायो लंघयितुं शक्नोत्यन्यासासादितश्लेष्मक्ष्यपटुनावश्चोत्तरकालं शक्नोतीति तत्र व्यवस्थितोत्कर्षतोदकतापे त्वतिशयेन क्रियमाणे तदाश्रयस्यैव दयान्न तत्राप्यग्निरूपतापत्तिरूपोऽन्त्योत्कर्षः, विज्ञानं तु संस्काररूपं शास्त्रपरावर्तनाद्यन्यथानुपपत्त्योत्तरत्राप्यनुवर्तत इति तत्रापरापरयत्नानां सर्वेषामुपयोगादत्यन्तोत्कर्षों युक्त इति तप्ता नावनाहानेनापरोदं केवलझानं जन्यत इति टीकाकृठक्तमपि विचारसहं, तस्य प्रमाणान्तरत्वापत्तेः, मनो यदसाधारणमिति न्यायात, अन्यथा चक्षुरादिव्याप्तिज्ञानादिसहकृतस्य मनस एव सर्वत्र प्रामाण्यसंनवे प्रमाणान्तरोन्जेदापत्तेः । चकुरादीनामेव साधारण्यात्प्रामाण्यमित्यन्युपगमे जावनायामपि तथा वक्तुं शक्यत्वात् । एवं च परोदनावनाया अपरोदज्ञानजनकत्वं तस्याः प्रमाणान्तरत्वं चान्यत्रादृष्टचरं कट्पनीयमिति महागौरवमिति चेदनुत्तोपाख्न एषः, प्रकृष्ट नावनाजन्यत्वस्य केवलझानेऽन्युपगमवादेनेव टीकाकृतोक्तत्वात् । वस्तुतस्तु तजन्यात्प्रकृष्टादावरणक्ष्यादेव केवलज्ञानोत्पत्तिरित्येव सिद्धान्तात् ।। यैरपि योगजधर्मस्यातीन्जियज्ञानजनकत्वमन्युपगम्यते, तैरपि प्रतिबन्धकपापक्ष्यस्य धारत्वमवश्यमाश्रयणीयम् , सति प्रतिबन्धके कारणस्याकिंचित्करत्वात् , केवलं तैर्योगजधर्मस्य मनःप्रत्यासत्तित्वं, तेन सन्निकर्षेण निखिलजात्यंशे निरवचिन्न
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प्रकारताकझाने पोडशपदार्थविषयकविलक्षणमानसझाने वा तत्त्वज्ञाननामधेये मनसः करणत्वं, चाकुपादिसामग्रीकाल इव लौकिकमानससामग्रीकालेऽपि तादृशतत्त्वज्ञानानुपपत्तेस्तत्त्वज्ञानाख्यमानसे तदितरमानससामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वं, तत्त्वझानरूपमानससामग्र्याश्च प्रणिधानरूपविजातीयमनःसंयोगघटितत्वं कट्पनीयमित्यनन्तमप्रामाणिककट्पनागौरवम् । अस्माकं तु पुरितक्यमानं तत्र कारणमिति लाघवम् । अत एवेन्यज्ञानासाचिव्येन केवलमसहायमिति प्राञ्चो व्याचक्षते । स चावरणाख्यधरितदयोपि नावनातारतम्यात्तारतम्येनोपजायमानस्तदत्यन्तप्रकर्षादत्यन्तप्रकर्षमनुलवतीतिकिमनुपपन्नम् ।। तदाहाकलंकोऽपि-" दोषावरण्योहानिर्निःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुन्यो बहिरन्तर्मलक्ष्य इति ॥१॥" न च निंबाद्यौषधोपयोगात्तरतमन्नावापचीयमानस्यापि श्लेष्मणो नात्यन्तिकक्ष्य इति व्यभिचारः, तत्र निंबाद्योषधोपयोगोत्कर्षनिष्ठाया एवापादयितुमशक्यत्वात् , तदुपयोगेऽपि श्लेष्मपुष्टिकारणानामपि तदेवासेवनात्, अन्यौषधोपयोगाधारस्यैव विनाशप्रसंगात् , चिकित्साशास्त्रं ह्युजिक्तधातुदोषसाम्यमुद्दिश्य प्रवर्तते, न तु तस्य निर्मूलनाशं, अन्यतरदोषात्यन्तक्ष्यस्य मरणाविनानावित्वादिति अष्टव्यम् । रागाद्यावरणापाये सर्वज्ञज्ञानं वैशद्यनाग्नवतीत्यत्र च न विवादो रजोनीहाराद्यावरणापाये वृक्षादिज्ञाने तथा दर्शनात् । न च रागादीनां कथमावरणत्वं, कुड्यादीनामेव पौनलिकानां तथात्वदर्शनादिति वाच्यम् , कुड्यादीनामपि प्रातिजादावनावारकत्वात् , ज्ञानविशेषे तेषामावरणत्ववच्चातीनिध्याने रागादीनामपि तथात्वमन्वयव्यतिरेकाच्यामेव सिधम् । रागाद्यपचये योगिनामतीन्जियानुनवसंजवात्पौलिकत्वमपि व्यकर्मानुगमेन तेषां नासिझम् । स्वविषयग्रहणक्षमस्य ज्ञानस्य तदग्राहकताया विशिष्टप्रत्ययसंवन्धपूर्वकत्वनियमात्पीतहत्पूरपुरुषज्ञाने
१ विशिष्टद्रव्यसंबन्ध.
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ज्ञान
विन्ः
॥१४६॥
तथादर्शनादिति ध्येयम् । बार्हस्पत्यास्तु-रागादयो न लोनादिकर्मोदय निबन्धनाः, किं तु कफादिप्रकृतिहेतुकाः । तथाहि, कफहेतुको रागः, पित्तहेतुको पेषः, वातहेतुकश्च मोहः । कफादयश्च सदैव सन्निहिताः, शरीरस्य तदात्मकत्वात् , ततो न सार्वज्ञमूलवीतरागत्वसंलव इत्याहुः । तदयुक्तम् , रागादीनां व्यभिचारेण कफादिहेतुकत्वायोगात्, दृश्यते हि वातप्रकृतेरपि रागषौ, कफप्रकृतेरपि घेषमोहौ, पित्तप्रकृतेरपि मोहरागाविति । एकैकस्याः प्रकृतेः पृथक् सर्वदोषजननशक्त्युपगमे च सर्वेषां समरागादिमत्त्वप्रसंगात् । न च स्वस्वयोग्यक्रमिकरागादिदोषजनककफाद्यवान्तरपरिणतिविशेषस्य प्रतिप्राणि कट्पनान्नायं दोष इति वाच्यं, तदवान्तरजात्यावचिन्नहेतुगवेषणायामपि कर्मण्येव विश्रामात् । किं चान्यासजनितप्रसरत्वात्प्रतिसंख्याननिवर्तनीयत्वाच्च न कफादिहेतुकत्वं रागादीनाम् । एतेन शुक्रोपचयहेतुक एव रागो नान्यहेतुक इत्याद्यपि निरस्तम्, अत्यन्तस्त्रीसेवापरस्य दीणशुक्रस्यापि रागोजेकदर्शनात् , शुक्रोपचयस्य सर्वस्त्रीसाधारणाजिलाषजनकत्वेन कस्यचित् कस्यांचिदेव रागोजेक इत्यस्यानुपपत्तेश्च । न चासाधारण्ये रूपमेव हेतुः, तजहितायामपि कस्यचित्रागदर्शनात् । न च तत्रोपचार एव हेतुः, येनापि विमुक्तायां रागदर्शनात् । तस्मादन्यासदर्शनजनितोपचयपरिपाकं कमैव विचित्रस्वजावतया तदा तदा तत्तत्कारणापेदं तत्र तत्र रागादिहेतुरिति प्रतिपत्तव्यम् । एतेन पृथिव्यंबुजूयस्त्वे रागः, तेजोवायुनूयस्त्वे क्षेषः, जलवायुजूयस्त्वे मोह इत्यादयोऽपि प्रलापा निरस्ताः, तस्य विषयविशेषापक्षपातित्वादिति दिक् । कर्मनूतानां रागादीनां सम्यग्ज्ञान क्रियान्यां क्ष्यण वीतरागत्वं सर्वज्ञत्वं चानाविलमेव । शौचोदनीयास्तु-नैरात्म्यादिलावनैव
O
॥१४६॥
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| रागादिक्लेशहानिहेतुः, नैरात्म्यावगतावेवात्मात्मीयानिनिवेशानावेन रागदेषोछेदात् संसारमूल निवृत्तिसंजवात्, आत्माव गतौ च तस्य नित्यत्वेन तत्र स्नेहात्तन्मूलतृष्णादिना शानिवृत्तेः । तटुक्तम्- " यः पश्यत्यात्मानं तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहात्सुखेषु तृष्यंति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते ॥ १ ॥ गुणदर्शी परितृप्यत्यात्मनि तत्साधनान्युपादत्ते । तेनात्मानिनिवेशो यावत्तावच्च संसारः ॥ २ ॥ इति ” । ननु यद्येवमात्मा न विद्यते, किं तु पूर्वापरक्षणत्रुटितानुसन्धानाः पूर्वहेतुप्रतिबन्ध ज्ञानक्षणा एव तथा तथोत्पद्यन्त इत्यन्युपगमस्तदा परमार्थतो न कश्चिपकार्योपकारकस्वभाव इति कथमुच्यते | भगवान् सुगतः करुणया सकलसत्त्वोपकाराय देशनां कृतवानिति, क्षणिकत्वमपि यद्येकान्तेन, तर्हि तत्त्ववेदी क्षणोऽन| न्तरं विनष्टः सन्न कदाचनाप्यहं नूयो जविष्यामीति जानानः किमर्थं मोदाय यतत इति ? अत्रोच्यते - जगवान् हि प्राचीनावस्थायां सकलमपि जगदुःखितं पश्यंस्तद्दिधीर्षया नैरात्म्यक्षणिकत्वादिकमवगचन्नपि तेषामुपकार्यसत्त्वानां निः शक्षणोत्पादनाय प्रयतते, ततो जातसकलजगत्साक्षात्कारः समुत्पन्न केवलज्ञानः पूर्वा हितकृपा विशेषसंस्कारात् कृतार्थोऽपि | देशनायां प्रवर्तते, अधिगततत्तात्पर्यार्थाश्च स्वसंत तिगत विशिष्टक्षणोत्पत्तये मुमुक्षवः प्रवर्तन्ते इति न किमप्यनुपपन्नमि - त्यादुः । तदखिलमज्ञान विलसितम् । आत्मानावे बन्धमोक्षाद्यैकाधिकरणत्वायोगात् । न च सन्तानापेक्षया समाधिः, | तस्यापि पानतिरेके एकत्वासिदेः, एकत्वे च प्रव्यस्यैव नामान्तरत्वात्, सजातीयक्षणप्रबन्धरूपे सन्ताने च न कारकव्यापार इति समीचीनं मुमुक्षुप्रवृत्त्युपपादनम् । अथाक्लिष्टक्षणेऽक्लिष्टक्षणत्वेनोपादानत्वमिति सजातीयक्षणप्रबन्धोपपत्तिः,
१ तृप्यति तुझ्या. २ नमान्तरंतत्
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झान
बिन्ः
॥१४॥
बुद्धदेशितमार्गे तु तत्प्रयोजकत्वज्ञानादेव प्रवृत्तिरिति चेन्न, एकान्तवादेऽनेन रूपेण निमित्तत्वमनेन रूपेण चोपादानत्वमिति विनागस्यैव उर्वचत्वात् । अनिष्टक्षणेऽक्लिष्टक्षणत्वेनेवोपादानत्वे श्राद्याक्लिष्टक्षणस्यानुत्पत्तिप्रसंगादन्त्यक्विष्टक्षणसाधारणस्य हेतुतावदकस्य कट्पने च क्लिष्टक्षणजन्यतावच्छेदकेन सांकर्याजन्यजनकदाप्रबन्धकोटावेकैकदणप्रवेशपरित्यागयोविनिगमकानावाच्च । एतेनेतरव्यावृत्त्या शक्तिविशेषेण वा जनकत्वमित्यप्यपास्तम्। न चैतदनन्तरमहमुत्पन्नमेतस्य चाहं जनकमित्यवगन्नति दणरूपं ज्ञानमिति न नवन्मते कार्यकारणनावः, नापि तदवगमः, ततो याचितकममनमेतदेकसन्ततिपतितत्वादेकाधिकरणं वन्धमोदादिकमिति । एतेनोपादेयोपादानक्षणानां परस्परं वास्यवासकलावाऽत्तरोत्तरविशिष्टविशिष्टतर-| कणोत्पत्तेः मुक्तिसंचव इत्यप्यपास्तम् , युगपन्नाविनामेव तिलकुसुमादीनां वास्यवासकलावदर्शनात् । उक्तंच-"वास्यवासकयोश्चैवमसाहित्यान्न वासना । पूर्वक्षणैरनुत्पन्नो वास्यते नोत्तरक्षणे ॥१॥ इति" कहिपतशुभदाणैकसन्तानार्थितयैवमोदोपाये सौगतानां प्रवृत्तिः, तदथैव च सुगतदेशनेत्यन्युपगमे च तेषां मिथ्यादृष्टित्वं, तत्कल्पितमोक्षस्य च मिथ्यात्वं स्फुटमेव, अधिक लतायाम् । एतेनाखंमाघयानन्दैकरसब्रह्मज्ञानमेव केवलज्ञानं, तत एव चाविद्यानिवृत्तिरूपमोदाधिगम इति वेदान्तिमतमपि निरस्तम् , तादृशविषयाजावेन तज्ज्ञानस्य मिथ्यात्वात् , कीदृशं च ब्रह्मज्ञानमझाननिवर्तकमन्युपेयं देवानांप्रियेण, न केवलचैतन्यं, तस्य सर्वदा सत्त्वेनाविद्याया नित्यनिवृत्तिप्रसंगात्, ततश्च तन्मूलसंसारोपलब्ध्यसनवात्सर्वशास्त्रानारंजप्रसंगादनुनवविरोधाच्च, नापि वृत्तिरूपं, वृत्तेः सत्यत्वे तत्कारणान्तःकरणाविद्यादेरपि सत्त्वस्यावश्यकत्वेन तया तन्निवृत्तेरशक्यतया सर्ववेदान्तार्थविप्लवापत्तेः, मिथ्यात्वे च कथमज्ञाननिवर्तकता। न हि मिथ्याज्ञानमज्ञान निवर्तकं दृष्टम् , स्वप्रज्ञानस्यापि तत्त्वप्र
॥१५
॥
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संगात् । न च सत्यस्यैव चैतन्यस्य प्रमाणजन्यापरोक्षान्तःकरणवृत्त्यन्निव्यक्तस्याज्ञाननिवर्तकत्वावृत्तश्च कारणताववेदकत्वेन दमत्वादिवदन्यथासिघत्वेन कारणत्वानंगीकारात् , अवच्छेदकस्य कहिपतत्वेऽप्यवच्छेद्यस्य वास्तवत्वं न हि हन्यते, यज्जतत्वेन जातं तबुक्तिव्यमितिवत् , तार्किकैरप्याकाशस्य शब्दग्राहकत्वे कर्णशष्कुलीसंबन्धस्य कट्रिपतस्यैवावच्छेदकत्वांगीकारात् , संयोगमात्रस्य निरवयवे नजसि सर्वात्मना सत्त्वेनातिप्रसंजकत्वात् । मीमांसकैश्च कहिपतहस्वत्वदीर्घत्वादिसंसर्गावचिन्नानामेव वर्णानां यथार्थज्ञानजनकत्वोपगमाध्वनिधर्माणां ध्वनिगतत्वेनैव जानात् , वर्णानां च विनूनामानुपूर्वीविशेषाज्ञानादतिप्रसंगात् , वर्णनिष्ठत्वेन ह्रस्वत्वादिकटपनस्य तेपामावश्यकत्वात् , तदस्माकमपि कल्पितावच्छेदकोपगमे को दोष इति मधुसूदनतपस्विनोऽपि वचनं विचारसहं, मिथ्यादृग्दृष्टान्तस्य सम्यग्दृशा ग्रहणानौचित्यात्, नैयायिकमी
मांसोक्तस्थलेऽपि अनन्तधर्मात्मकैकवस्तुस्वीकारे कटिपतावच्छेदककृतविलंबनाया अप्रसरात्, विस्तरेणोपपादितं चैतत्समरातिवृत्तौ । न चोक्तरीत्या वृत्तेरवच्छेदकत्वमपि युक्तं, प्रतियोगितयाऽज्ञाननिवृत्तौ सामानाधिकरण्येन समानविशेष्यकसमान
प्रकारकवृत्तेरेव त्वन्मते हेतुत्वस्य युक्तत्वात् । अत एव स्वयमुक्तं तपस्विना सिझान्तबिन्दौ-दिविधमावरणं, एकमसत्त्वापादकमन्तःकरणावछिन्नसाक्षिनिष्ठं, अन्यदनानापादकं विषयावविन्नब्रह्मचैतन्यनिष्ठं, घटमहं जानामीत्युजयाववेदानुनवादाद्यं परोक्षापरोक्षसाधारणप्रमामात्रेण निवर्ततेऽनुमितेऽपि वह्नयादौ नास्तीति प्रतीत्यनुदयात् , दितीयं तु साक्षात्कारेणैव निवर्तते यदाश्रयं यदाकारं ज्ञानं तदाश्रयं तदाकारमझानं नाशयतीति नियमादित्यादि, तत्किमिदानी कुत्दामकुदः सद्य एव विस्मृतं? . येनोक्तवृत्तेरवछेदकत्वेनान्यथासिछिमाह, एवं हि घटादावपि दंमविशिष्टाकाशत्वेनैव हेतुतां वदतो
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बिन्मुः
झान
॥१४॥
वदनं कः पिदध्यात् ? अनयैव जिया चैतन्यनिष्ठायाः प्रमाणजन्यापरोदान्तःकरणवृत्तेरेवाज्ञाननाशकत्वांगीकारेऽपि नदोषः, पारमार्थिकसत्तानावेऽपि व्यावहारिकसत्तांगीकारात् । न च स्वप्नादिवन्मिथ्यात्वापत्तिः, स्वरूपतो मिथ्यात्वस्याप्रयोजकत्वात्, विषयतो मिथ्यात्वस्य च बाधानावादसिधेः, धूमन्त्रमजन्यवयनुमितेरप्यबाधितविषयतया प्रामाण्यानंगीकाराच्च, कहिपतेनापि प्रतिबिंबेन वास्तवबिंबानुमानप्रामाण्याच्च, स्वप्नार्थस्याप्यरिष्टादिसूचकत्वाच्च, क्वचित्तापलब्धमंत्रादेर्जागरेऽप्यनुवृत्तेरबाधाच्चेति तपस्विनोक्तमिति चेदेतदप्यविचाररमणीयम् , त्वन्मते स्वप्नजागरयोर्व्यवहारविशेषस्यापि कर्तुमशक्यत्वात् , बाधालावेन ब्रह्मण इव घटादेरपि परमार्थसत्त्वस्याप्रत्यूहत्वाच्च, प्रपंचासत्यत्वे बन्धमोदादेरपि तथात्वेन व्यवहारमूल एव कुगरदानात् । एतेनाज्ञाननिष्ठाः परमार्थव्यवहारप्रतिजाससत्त्वप्रतीत्यनुकूलास्तिस्रः शक्तयः कटप्यन्ते, आद्यया प्रपंचे पारमार्थिकसत्त्वप्रतीतिः, अत एव नैयायिकादीनां तथाभ्युपगमः, सा च श्रवणाद्यन्यासपरिपाकेन निवतते, ततो द्वितीयया शक्त्या व्यावहारिकसत्त्वं प्रपंचस्य प्रतीयते, वेदान्तश्रवणादन्यासवन्तो हि नेम प्रपंचं पारमार्थिक पश्यन्ति, किं तु व्यावहारिकमिति, सा च तत्त्वसाक्षात्कारेण निवर्तते, ततस्तृतीयया शक्त्या प्रातिनासिकसत्त्वप्रतीतिः |क्रियते, सा चान्तिमतत्त्वबोधेन सह निवर्तते, पूर्वपूर्वशक्तेरुत्तरोत्तरशक्तिकार्यप्रतिबन्धकत्वाच्च न युगपत्कार्यत्रयप्रसंगः, तथा चैतदभिप्रायां श्रुतिः-" तस्यानिध्यानाद्योजनात्तत्त्वतावाचूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिरिति” । अस्या अयमर्थःतस्य परमात्मनोऽनिध्यानादनिमुखाख्यानाच्छ्रवणान्यासपरिपाकादिति यावत् , विश्वमायाया विश्वारंजकाविद्याया निवृत्तिः, आद्यशक्तिनाशेन विशिष्टनाशात, युज्यतेऽनेनेति योजनं तत्त्वज्ञानं तस्मादपि विश्वमायानिवृत्तिः, मितीयशक्ति
1010॥
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नाशेन विशिष्टनाशात्, तत्त्वजावो विदेहकैवयमन्तिमः साक्षात्कार इति यावत, तस्मादन्ते प्रारब्धदये सह तृतीय| शक्त्या विश्वमायानिवृत्तिः, श्रभिध्यानयोजनाच्यां शक्तिषयनाशेन विशिष्टनाशापेक्ष्या नूयः शब्दोऽन्यासार्थक इतीत्यादि | निरस्तम्, अभिध्यानादेः प्रागपरमार्थसदादौ परमार्थसत्त्वादिप्रतीत्यन्युपगमेऽन्यथाख्यात्यापातात् । न च तत्तवक्तिविशि टज्ञानेन परमार्थसत्त्वादि जनयित्वैव प्रत्याय्यत इति नायं दोष इति वाच्यम्, साक्षात्कृततत्त्वस्य न किमपि वस्त्वज्ञातमिति | प्रातिजा सिकसत्त्वोत्पादनस्थानाभावाद्ब्रह्माकारवृत्त्या ब्रह्मविषयतैवाज्ञानस्य नाशिता, तृतीयशक्तिविशिष्टत्वं त्वज्ञानं यावमारब्धमनुवर्तत एवेति ब्रह्मातिरिक्तविषये प्रातिजा सिकसत्त्वोत्पादनादविरोध इति चेन्न, धर्मिसिद्ध्यसिद्धिन्यां व्याघातात्, | विशेषोपरागेणाज्ञाते तदुपगमे च ब्रह्मण्यपि प्रातिनासिकमेव सत्त्वं स्यात्, तत्त्वज्ञे कस्यचिदज्ञानस्य स्थितौ विदेहवस्येऽपि | तदवस्थितिशंकया सर्वाज्ञानानिवृत्तौ मुक्तावनाश्वासप्रसंगाच्च । श्रथ दृष्टिसृष्टिवादे नेयमनुपपत्तिः, तन्मते हि वस्तु सद्धह्मैव, प्रपंचश्च प्रातिजासिक एव तस्य चानिध्यानादेः प्राक् पारमार्थिकसत्त्वादिना प्रतिज्ञासः पारमार्थिकसदाद्याकारज्ञानाच्युपगमादेव सूपपाद इति चेन्न, तस्य प्राचीनोपगतस्य सौगतमतप्रायत्वेन नव्यैरुपेदितत्वात्, व्यवहारवादस्यैव तैरादृतत्वात् व्यवहारवादे च व्यावहारिकं प्रपंचं प्रातिनासिकत्वेन प्रतीयतां तत्त्वज्ञानिनामत्यन्तचान्तत्वं दुर्निवारमेव । अथ व्यावहारिकस्यापि प्रपंचस्य तत्त्वज्ञानेन बाधितस्यापि प्रारब्धवशेन वाधितानुवृत्त्या प्रतिज्ञासः तृतीयस्याः शक्तेः कार्य, तेन वाधितानुवृत्त्या प्रतिज्ञासानुकुला तृतीया शक्तिः, प्रातिजा सिकसत्त्वसंपादनपटीयसी शक्तिरुच्यते, सा चान्तिमतत्त्ववोधेन निवर्तत इत्येवमदोष इति चेन्न, वाधितं हित्वन्मते नाशितं, तस्यानुवृत्तिरिति वदतो व्याघातात् । बाधितत्वेन वाधित
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बिन्ः
ज्ञान
॥१४ए॥
त्वावचिन्नसत्तया वा प्रतिजासस्तत्त्वज्ञप्रारब्धकार्यमिति चेत्तृतीया शक्तिय॑र्था, यावशिषाणां बाधितत्वे तेषां तथाप्रतिनासस्य सार्वज्ञान्युपगमं विनानुपपत्तेश्च, दितीयशक्तिविशिष्टाझाननाशात् संचितकर्म तत्कार्य च नश्यति, ततस्तृतीयशक्त्या प्रारब्धकार्ये दग्धरङ्गुस्थानीया बाधितावस्था जन्यते, श्यमेव बाधितानुवृत्तिरिति चेन्न, एवं सति घटपटादौ तत्त्वज्ञस्य न बाधितसत्त्वधीः, न वा व्यावहारिकपारमार्थिकसत्त्वधीरिति तत्र किंचिदन्यदेव कट्पनीयं स्यात्, तथा च लोकशास्त्रविरोध इति सुष्कृतं हरिजनाचार्यैः-“ अग्निजलमयो यत्परितापकरा नवेऽनुलवसिधाः। रागादयश्च रौता असत्प्रवृत्त्यास्पदं लोके ॥१॥परिकटिपता यदि ततो न सन्ति तत्त्वेन कथममी स्युरिति । परिकल्पिते च तत्त्वे नवनवविगमौ कथं युक्तौ ॥२॥ इत्यादि "। तस्माद्वृत्तेर्व्यावहारिकसत्तयापि न निस्तारः । प्रपंचे परमार्थदृष्ट्येव व्यवहारदृष्ट्यापि सत्तान्तरानवगाहनादिति स्मर्तव्यम् । किं च निष्प्रकारकज्ञानस्य कुत्राप्यज्ञाननिवर्तकत्वं न दृष्टमिति शुब्रह्मज्ञानमात्रात्कथमज्ञान|निवृत्तिः? (किं च सप्रकारं निष्प्रकारं वा ब्रह्म अज्ञाननिवर्तकमिति वक्तव्यं, आये निष्प्रकारे ब्रह्मणि सप्रकारकज्ञानस्यायथार्थत्वान्नाज्ञाननिवर्तकता, तस्य यथार्थत्वे नापैतसिधिः, वितीयपक्षस्तु निष्प्रकारकझानस्य कुत्राप्यज्ञाननिवर्तकत्वादर्शनादेवानुनावनार्थः” इति प्रत्यंतरपाठः) न च सामान्यधर्ममात्राप्रकारकसमानविषयप्रमात्वमज्ञाननिवृत्तौ प्रयोजक, प्रमेयमिति ज्ञानेऽतिव्याप्तिवारणाय सामान्येति, प्रमेयो घट इत्यादावतिव्याप्तिवारणाय मात्रेति, तेनेदं विशेषप्रकारे निष्प्रकारे || चानुगतमिति निष्प्रकारकब्रह्मज्ञानस्यापि ब्रह्माज्ञाननिवर्तकत्वं लक्षणान्वयात् । न च सामान्यधर्ममात्रप्रकारकझानेऽव्याप्तिः,
कार वा ब्रह्म सिद्धिः, हितासमानविष
॥१४॥
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इदमनिदं वा, प्रमेयमप्रमेयं वेत्यादिसंशयादर्शनेन तदनिवर्तकस्य तस्यासंग्रहादिति वाच्यम् , निष्प्रकारकसंशयानावेन निःष्प्रकारकाझानासिख्या निष्प्रकारकब्रह्मज्ञानस्यापि तन्निवर्तकत्वायोगादेकत्र धर्मिणि प्रकाराणामनन्तत्वे प्रकारनिष्ठतया निरवचिन्नप्रकारतासंबन्धेनाधिष्ठानप्रमात्वेन तया तदज्ञाननिवर्तकत्वौचित्यात् । अधिष्ठानत्वं च नमजनकाान विषयत्वं वाऽज्ञानविषयत्वमेव वाऽखंमोपाधिर्वा ? न च विषयतयैव तत्त्वं युक्तं, प्रमेयत्वस्य च केवलान्वयिनोनंगीकारान्न प्रमेयमिति झानाद् घटाद्याकाराज्ञाननिवृत्तिप्रसंग इति वाच्यं, व्यमिति झानात्तदापत्तेरवारणात् । न च तस्य व्यत्वविशिष्टविषयत्वेऽपि घटत्वविशिष्टाविषयत्वात्तधारणं, व्यत्वविशिष्टस्यैव घटावदेन घटत्वविशिष्टत्वात्सत्त्वविशिष्टब्रह्मवत्, विशिष्टविषयझानेन विशिष्टविषयाज्ञाननिवृत्त्यन्युपगमेऽपि च ब्रह्मणः सच्चिदानन्दत्वादिधर्मवैशिष्ट्यप्रसंगः। एतेनान्यत्र घटाझानत्वधटत्वप्रकारकप्रमात्वादिना नाश्यनाशकनावेऽपि प्रकृते ब्रह्मााननिवृत्तित्वेन ब्रह्मप्रमात्वेनैव कार्यकारणलावः, न तु ब्रह्मत्वप्रकारकति विशेषणमुपादेयं, गौरवादनुपयोगाविरोधाच्चेत्यपि निरस्तम्, विशिष्टब्रह्मण एव संशयेन विशिष्टाहाननिवृत्यर्थ विशेषोपरागणैव ब्रह्मज्ञानस्यान्वेषणीयत्वात्, शुक्तिरजतादिस्थलेऽपि विशिष्टाज्ञानविपयस्यैवाधिष्ठानत्वं वप्तमित्यत्राप्ययं न्यायोऽनुसर्तव्यः । किं च ब्रह्मणो निर्धर्मकत्वे तत्र विषयताया अप्यनुपपन्नत्वात्तरुिपयज्ञानत्वमपि तत्र उर्सनं, विषयता हि कर्मतेति तदंगीकारे तस्य क्रियाफलशालित्वेन घटादिवऊमत्वापत्तेः, तहिपयशानाजनकत्वे च तत्र वेदान्तानां प्रामाण्यानुपपत्तिः । न च तदज्ञाननिवर्तकतामात्रेण तषियत्वोपचारः, अन्योऽन्याश्रयात् । न च कटिपता विषयता कर्म१ संशयाद्यदर्शनारसामान्यमात्राप्रकारकाज्ञानानंगीकारेण तदनिवर्तकस्य तस्यासंग्रहादिति वाच्यं (प्रत्यंतरे )
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ज्ञान
॥१५॥
त्वाप्रयोजिका, वास्तवविषयतायाः कुत्राप्यनंगीकाराघ्यावहारिक्याश्च तुट्यत्वात् । न च ब्रह्मणि ज्ञानविषयताऽसंजवेऽपि विन्ः ज्ञाने ब्रह्मविषयता तद्विंबग्राहकत्वरूपाऽन्या वा काचिदनिर्वचनीया संजवतीति नानुपपत्तिः, विषयतैवाकारः प्रतिविषयं विलक्षणः, अत एव ब्रह्माकारापरोक्षप्रमाया एवाज्ञाननिवर्तकत्वं, अज्ञानविषयस्वरूपाकारापरोक्षप्रमात्वस्य सर्वत्रानुगत- + त्वात् । न चेदमित्याकारं घटाकारमिति शंकितुमपि शक्यं, श्राकारजेदस्य स्फुटतरसाक्षिप्रत्यक्षसिद्धत्वादिति वाच्यम् , ज्ञाननिष्ठाया अपि ब्रह्मविषयताया ब्रह्मनिरूपितत्वस्यावश्यकत्वेन ब्रह्मणि तन्निरूपकत्वधर्मसत्त्वे निर्धर्मकत्वव्याघातात्, उन्नयनिरूप्यस्य विषयविषयिजावस्यैकधर्मत्वेन निर्वाहायोगात् । न च ब्रह्मण्यपि कहिपतविषयतोपगमे कर्मत्वेन न जमत्वापातः, स्वसमानसत्ताकविषयताया एव कर्मत्वापादकत्वात् , घटादौ हि विषयता स्वसमानसत्ताका, योरपि व्यावहारिकत्वात् , ब्रह्मणि तु परमार्थसति व्यावहारिकी विषयता न तथेति स्फुटमेव वैषम्यादिति वाच्यम् , सत्ताया श्व विषयताया अपि ब्रह्मणि पारमार्थिकत्वोक्तावपि बाधकालावात् , परमार्थनिरूपितधर्मस्य व्यावहारिके व्यावहारिकत्ववच्यावहारिकनिरूपितस्य धर्मस्य पारमार्थिक पारमार्थिकताया अपि न्यायप्राप्तत्वात् । सत्ताद्युपलहणजेदेऽप्युपलक्ष्यमेकमेवेति न दोष इति चेविषयतायामप्येप एव न्यायः। एवं चानन्तधर्मात्मकधर्म्यजेदेऽपि ब्रह्मणि कौटस्थ्यं ब्यार्थादेशादव्याहतमेव।
१२०॥ तथा चान्यूनानतिरिक्तधर्मात्मजव्यस्वन्नावलाजलदाणमोदगुणेन जगवन्तं तुष्टाव स्तुतिकारः-" नववीजमनन्तमुज्कितं, विमलझानमनन्तमर्जितम् । न च हीनकलोऽसि नाधिकः समतां चाप्यतिवृत्य वर्तसे ॥१॥इति"। एतेन चैतन्यवि१ तन्निवृत्तिकत्वधर्मसत्वे. २ स्यैकनिष्ठत्वेन.
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षयतैव जमत्वापादिका, न तु वृत्तिविषयतापि, “यतो वाचो निवर्तन्ते, न चक्षुषा गृह्यते, नापि वाचा, तं त्वौपनिषदं पुरुष पृञ्चामि" नावेदविन्मनुते तं बृहन्तं वेदेनैव यदितव्यम् इत्याधुनयविधश्रुत्यनुसारेणेत्थं कट्पनात् “फलव्याप्यत्वमेवास्य शास्त्रकृनिर्निवारितम् । ब्रह्मण्यज्ञाननाशाय वृत्तिव्याप्तिरपेक्षिता ॥१॥” इति कारिकायामपि फलपदं चैतन्यमात्रपरमेव अष्टव्यं, प्रमाणजन्यान्तःकरणवृत्त्यभिव्यक्तचैतन्यस्य शास्त्रे फलत्वेन व्यवहियमाणस्य ग्रहणे तघ्याप्यताया अन्वयव्यतिरेकान्यां जमत्वापादकत्वे ब्रह्मण श्व साझिजास्यानामपि जमत्यानापत्तेः, चैतन्यकर्मता तु चिनिन्नत्वावजेदेन सर्वत्रेवेति सैव जगत्वप्रयोजिका, न च वृत्तिविषयत्वेऽपि चैतन्यविषयत्वं नियतं वृत्तेश्चिदाकारगर्जिण्या एवोत्पत्तेः, तमुक्तम्-"वियवस्तुस्व
नावानुरोधादेव न कारणात् । वियत्संपूर्णतोत्पत्ती कुंजस्यैवं दशा धियाम् ॥१॥ घटफुःखादिहेतुत्वं धियो धर्मादिहेतुतः। धस्वतः सिधार्थसंबोधव्याप्तिर्वस्त्वनुरोधतः॥२॥ इति", तथा च जमत्वं पुर्निवारमिति वाच्यम् , वृत्त्युपरक्तचैतन्यस्य स्वत
एव चैतन्यरूपत्वेन तव्याप्यत्वाचावात् , फले फलान्तरानुत्पत्तेस्तन्निन्नानां तु स्वतो जानरहितानां तघ्याप्तेरवश्याश्रयणीयत्वाअदित्यादि मधुसूदनोक्तमप्यपास्तम् , वृत्तिविषयताया अपि निर्धमके ब्रह्मण्यसंजवात् , कहिपतविषयतायाः स्वीकारे च क
टिपतप्रकारताया अपि स्वीकारापत्तेः, उत्जयोरपि ज्ञाननासकसादिजास्यत्वेन चैतन्यानुपरंजकत्वाविशेषात् , ज्ञानस्य स्वविषयानिवर्तकत्वेन प्रकारानिवृत्तिप्रसंगनयस्य च विषयताद्यनिवृत्तिपक्ष श्व धर्मधर्मिणोर्जात्यन्तरात्मकनेदाजेदसंबन्धाश्रयणेनैव सुपरिहरत्वात् , कृतान्तकोपस्त्वेकान्तवादिनामुपरि कदापि न निवर्तत इति तत्र कः प्रतिकारः। यदि च दृग्विषयत्वं ब्रह्मणि न वास्तवं, तदा सकृद्दर्शनमात्रेणात्मनि घटादाविव दृगपगमेऽपि अष्टुत्वं कदापि नापतीत्युक्तं न युज्यते । तथा
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बिन्छः
च-"सकृत्प्रत्ययमात्रेण घटश्चेनासते तदा । सप्रकाशोऽयमात्मा किं घटवच्च न नासते ॥१॥ स्वप्रकाशतया किं ते तदुजिस्तत्त्ववेदनम् । बुद्धिश्च क्षणनाश्येति चोद्यं तुल्यं घटादिषु ॥ ॥ घटादौ निश्चिते बुधिनश्यत्येव यदा घटः। दृष्टो नेतुं तदाऽशक्य इति चेत्सममात्मनि ॥३॥ निश्चित्य सकृदात्मानं यदापेक्षा तदैव तम् । वक्तुं मन्तुं तथा ध्यातुं शक्नोत्येव हि तत्त्ववित् ॥ ४॥ उपासक श्व ध्यायझोकिकं विस्मरेद्यदि। विस्मरत्येव सा ध्यानाधिस्मृतिर्न तु वेदनात् ॥ ५॥” इत्यादि ध्यानदीपवचनं विप्लवेतेति किमतिविस्तरेण । तस्माद्ब्रह्मविषया ब्रह्माकारा वा वृत्तिरविवेचितसारैव । कथंचास्या निवृत्तिरिति वक्तव्यं, स्वकारणाझाननाशादिति चेत्, अज्ञाननाशक्षण श्वावस्थितस्य विनश्यदवस्थाज्ञानजनितस्य वा दृश्यस्य चिरमप्यनुवृत्तौ मुक्तावनाश्वासः । उक्तप्रमाविशेषत्वेन निवर्तकता दृश्यत्वेन च निवर्त्यतेति दृश्यत्वेन रूपेणाविद्यया सह स्वनिवयत्वेऽपि न दोषः, निवर्त्यतानिवर्तकतयोरवच्छेदकैक्य एव वाणगंगापत्तेरिति चेन्न, प्रमाया अप्रमा प्रत्येव निवर्तकत्वदशनेन दृश्यत्वस्य निवर्त्यतानवोदकत्वात् । न च ज्ञानस्याज्ञाननाशकतापि प्रमाणसिका, अन्यथा स्वग्नाद्यध्यासकारणीभूतस्याज्ञानस्य जागरादिप्रमाणशानेन निवृत्तौ पुनः स्वप्नाध्यासानुपपत्तिः, तत्रानेकाानस्वीकारे त्यात्मन्यपि तथासंनवेन मुतावनाश्वासः, मूलाझानस्यैव विचित्रानेकशक्तिस्वीकारादेकशक्तिनाशेऽपि शक्त्यन्तरेण स्वमान्तरादीनां पुनरावृत्तिः संन्नवति, सर्वशक्तिमतो मूलाझानस्यैव निवृत्तौ तु कारणान्तरासंनवात्, द्वितीयस्य च तादृशस्यानंगीकारान्न प्रपंचस्य पुनरुत्पत्तिरिति तु स्ववासनामात्रं, चरमझानं वा मूलाझाननाशक क्षणविशेषो वेत्यत्र विनिगमकाजावादनन्तोत्तरोत्तरशक्तिकार्येष्वनन्तपूर्वपूर्वशक्तीनां प्रतिबन्धकत्वस्य, चरमशक्तिकार्ये चरमशक्तेः, तन्नाशे च चरमझानस्य हेतुत्वकटपने महागौरवात,
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पूर्वशक्तिनाश श्व चरमशक्तिनाशेऽपि मूलाज्ञानानुवृत्त्यापत्त्यनुघाराच्चेति, न किंचिदेतत् । एतेन जागरादिज्रमण स्वमादित्रमतिरोधानमात्रं क्रियते, सर्पन्त्रमेण रज्ज्वां धारात्रमतिरोधानवत, अज्ञाननिवृत्तिस्तु ब्रह्मात्मैक्यविज्ञानादेवेत्यभि |निरस्तम् । एवं सति ज्ञानस्याज्ञाननिवर्तकतायां प्रमाणानुपलब्धेस्तन्निवृत्तिमूलमोदानाश्वासान्मा जूमदाहरणोपालंजः, श्रुतिः श्रुतार्थापत्तिश्चैतदर्थे प्रमाणतामवगाहेते एव । तत्र श्रुतिस्तावत्-"तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति” मृत्युरविद्येतिY शास्त्रप्रसिछ, तथा “तत्त्वजावाद्भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः" स्मृतिश्च-“दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया पुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥१॥ ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥ २॥" इत्यादि । एवं "ब्रह्मविद्ब्रह्मैव जवति" "तरति शोकमात्मवित्", "तरत्यविद्यां वितता हृदि यस्मिन्निवे| शिते । योगी मायाममेयाय तस्मै ज्ञानात्मने नमः॥१॥ इति" "अविद्यायाः परं पारं तारयसीत्यादिः" श्रुतार्थापत्तिश्च| "ब्रह्मज्ञानाद्ब्रह्मजावः श्रूयमाणस्तक्ष्यवधायकाज्ञाननिवृत्तिमन्तरेण नोपपद्यत इति ज्ञानादज्ञाननिवृत्तिं गमयति"। "अनृतेन हि प्रत्यूढा नीहारेण प्रावृताः," "अन्यधुष्माकमन्तरं," "अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः" इत्यादि श्रुतिस्मृति शतेन्योऽज्ञानमेव मोक्षव्यवधायकत्वेनावगतम् , एकस्यैव तत्त्वज्ञानेनाज्ञाननिवृत्त्यन्युपगमाच्च, नान्यत्र, व्यभिचारदर्शनेन ज्ञानस्याज्ञाननिवर्तकत्वबाधोऽपीति चेन्न, एतस्यैकजीवमुक्तिवादस्य श्रघामात्रशरणत्वात् , अन्यथा जीवान्तरप्रतिनासस्य । स्वामिकजीवान्तरपतिजासवपित्रमत्वे जीवप्रतिजासमात्रस्यैव तथात्वं स्यादिति चार्वाकमतसाम्राज्यमेव वेदान्तिना प्राप्त स्यात् । उक्तश्रुतयस्तु कर्मण एव व्यवधायकत्वं, दीपकर्मात्मन एव च ब्रह्मजूयं प्रतिपादयितुमुत्सहन्त इति किं शशशृंग| १ ( पंडमलेति)
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ज्ञान
बिन्नु
सहोदराज्ञानादिकट्पनया तदभिप्रायविबनेन । निर्विकल्पकब्रह्मबोधोऽपि शुधनव्यनयादेशतामेवावलंबताम् , सर्वपर्यायनयविषयव्युत्क्रम एव तत्प्रवृत्तेः, न तु सर्वथा जगदलावपल्पातितामिति सम्यग्दृशां वचनोजारः । शाब्द एव स इत्यत्र तु नाग्रहः, यावत्पर्यायोपरागासंजवविचारसहकृतेन मनसैव तद्गहसंजवान्न केवलमात्मनि, किं तु सर्वत्रैव अव्ये पर्यायोपरागानुपपत्तिप्रसूतविचारे मनसा निर्विकपक. एव प्रत्ययोऽनुनूयते । उक्तं च संमतौ-"पजावण्यवुकतं वतू दषध्यिस्स वत्तवं । जाव दविवढंगो अपश्चिमवियप्पनिवयणो॥१॥इति"। पर्यायनयेन व्युत्क्रान्तं गृहीत्वा विचारेण मुक्तं वस्तु व्यार्थिकस्य वक्तव्यं, यथा घटो ऽव्यमित्यत्र घटत्वविशिष्टस्य परिचिन्नस्य व्यत्वविशिष्टेनापरिचिन्नेन सहानेदान्वयासंजव इति मृदेव व्यमिति अव्यार्थिकप्रवृत्ति, तत्रापि सूदमेक्षिकायामपरापरजव्यार्थिकप्रवृत्तिर्यावद्रव्योपयोगो न विद्यते, पश्चिमे उत्तरे विकल्पनिर्वचने सविकटपकधीव्यवहारौ यत्र स तथा शुधसंग्रहावसान इति यावत् , ततः परं विकल्पवचनाप्रवृत्तेः इत्येतस्या अर्थः । “तत्त्वमसि' इत्यादावप्यात्मनस्तत्तदन्यपव्यपर्यायोपरागासंनवविचारशतप्रवृत्तावेवशुधनव्यविषयं निर्विकपकमिति शुदृष्टौ घटज्ञानाद्ब्रह्मज्ञानस्य को जेदः । एकत्र सदषैतमपरत्र च ज्ञानातं विषय इत्येतावति दे त्वौत्तरकालिक सविकपकमेव सादीति सविकपका विकल्पकत्वयोरप्यनेकान्त एव श्रेयान् । तमुक्तम्"सविअप्पणिविअप्पं श्य पुरिसं जो लणेजा अविश्रप्पं । सविअप्पमेव वा णिचएण ण स णिनि समए ॥१॥ इति"|||१५॥ न च निर्विकपको प्रव्योपयोगोऽवग्रह एवेति तत्र विचारसहकृतमनोजन्यत्वानुपपत्तिः, विचारस्येहात्मकत्वेनेहाजन्याय व्युपरताकांक्षस्य तस्य नैश्चियिकापायरूपस्यैवान्युपगमात्, अपायो नाम जात्यादि, योजनानियमस्तु शुधनव्यादेशरूप
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श्रुतनिश्चि(नि) तातिरिक्त एवेति विभावनीयम् स्वसमय निष्णातैः । ब्रह्माकारबोधस्य मानसत्वे “नावेदविन्मनुते तं बृहतं वेदेनैव तद्वेदितव्यं तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृवामीत्यादिश्रुतिविरोध इति चेन्नादत्वेऽपि “यहाचानन्युदितं न चक्षुषा गृह्यते, नपि वाचा, यतो वाचो निवर्तन्ते" इत्यादिश्रुतिविरोधस्तुल्य एव । अथ वाग्गम्यत्वनिषेधक श्रुतीनां मुख्यवृत्त्यविषयत्वावगा| हित्वेनोपपत्तिर्जहदजहल्लक्षणयैव ब्रह्मणि महावाक्यगम्यत्वप्रतिपादनात् मनसि तु मुख्यामुख्यजेदाभावात् “यन्मनसा न मनुते" इत्यादि विरोध एव "सर्वे वेदा यत्रैकं जवन्ति स मानसीन आत्मा मनसैवानुप्रष्टव्यः" इत्यादिश्रुतौ मानसी - | नत्वं तु मनस्युपाधावुपलभ्यमानत्वं, न तु मनोजन्यसाक्षात्कारत्वं, मनसैवेति तु कर्तरि तृतीया आत्मनोऽकर्तृत्वप्रतिपाद| नार्था मनसो दर्शनकर्तृत्वमाह, न करणतां, औपनिषदसमाख्या विरोधात् । "कामः संकटपो विचिकित्सा श्रवाऽश्रा धृतिरधृतिहींर्धीजीरित्येतत्सर्वं मनस एवेति” श्रुतौ मृद्घट इतिवडपादानकारणत्वेन मनः सामान्याधिकरण्यप्रतिपादनात्, | तस्य निमित्तकारणत्वविरोधाच्चेति चेन्न कामादीनां मनोधर्मत्वप्रतिपादिकायाः श्रुतेर्मनः परिणतात्मलक्षण नावमनोविपयताया एव न्याय्यत्वात्, “मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति" इत्यादौ मनःकरणस्यापि श्रुतेदर्घकालिकसंज्ञानरूपदर्शनग्रहणेन चक्षुरादिकरणसत्त्वेऽपि तत्रैवकारार्थान्वयोपपत्तेः, त्वन्मतेपि ब्रह्मणि मानसत्वविधिनिषेधयोर्वृत्तिविषयत्वत| डुपरक्तचैतन्या विषयत्वाच्यामुपपत्तेश्च । शब्दस्य त्वपरोक्षज्ञानजनकत्वे स्वभावजंगप्रसंग एव स्पष्टं दूषणम् । न च प्रथमं | परोक्षज्ञानं जनयतोऽपि शब्दस्य विचारसहकारेण पश्चादपरोक्षज्ञानजनकत्वमिति न दोष इति वाच्यम्, अर्धजरतीयन्यायापातात् । न खलु शब्दस्य परोक्षज्ञानजननस्वाजाव्यं सहकारिसहस्रेणाप्यन्यथा कर्तुं शक्यं आगन्तुकस्य स्वजावत्वा
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बिन्:
नुपपत्तेः। न च संस्कारसहकारेण चक्षुषा प्रत्यभिज्ञानात्मकप्रत्यक्ष्जननवउपपत्तिः, यदंशे संस्कारसापेक्षत्वं तदंशे स्मृतित्वापातो, यदंशे च चतुःसापेक्षत्वं तदंशे प्रत्यक्षापात इति नियव प्रत्यभिज्ञानस्य प्रमाणान्तरत्वमिति जैनैः स्वीकारात् । स्वे स्वे विषये युगपज्ज्ञानं जनयतोश्चतुःसंस्कारयोरार्थसमाजेनैकझानजनकत्वमेव पर्यवस्यति, अन्यथा रजतसंस्कारसह कारणासन्निकृष्टेऽपि रजते चाक्षुषज्ञानापत्तेरन्यथाख्यात्यस्वीकारजंगप्रसंग इति वदंस्तपस्वी तूजयात्मकैकज्ञानाननुव्यवसायादेव निराकर्तव्यः, अन्यथा रजतन्त्रमेऽप्युन्जयात्मकतापत्तेः, पर्वतो वह्निमानित्यनुमितावपि उन्नयसमाजादंशे प्रत्यदानुमित्यात्मकतापत्तेश्च । अथ मनस श्व शब्दस्य परोक्षापरोदझानजननस्वजावांगीकाराददोषः, मनस्त्वेन परोदज्ञानजनकता, इन्जियत्वेन चापरोक्झानजनकतेत्यस्ति मनस्यवच्छेदकनेद इति चेन्नुब्दस्यापि विषयाजन्यज्ञानजनकत्वेन वा झानजनकत्वेन वा परोकझानजनकतायोग्यपदार्थनिरूपितत्वं पदार्थाजेदपरशब्दत्वेन चापरोदज्ञानजनकतेति कथं नावछेदकलेदः । धार्मिकस्त्वमसीत्यादौ व्यभिचारवारणाय निरूपितान्तं विशेषणं, इतरव्यावर्त्य तु स्पष्टमेव । एतच्च 'दशमस्त्वमसि' 'राजा त्वमसी'त्यादिवाक्याद्दशमोऽहमस्मि राजाहमस्मीत्यादिसाक्षात्कारदर्शनात्कटप्यते, नाहं दशम इत्यादि नमनिवृत्तेः अत इत्थमेव संजवात् । सादात्कारित्रमे साक्षात्कारिविरोधिज्ञानत्वेनैव विरोधित्वकल्पनात् । न च तत्र वाक्यात्पदार्थमात्रोपस्थितौ मानसः संसर्गबोध इति वाच्यम् , सर्वत्र वाक्ये तथा वक्तुं शक्यत्वेन शब्दप्रमाणमात्रोछेदप्रसंगादिति चेन्मैवम् , दशमस्त्वमसीत्यादौ वाक्यात्परोदज्ञानानन्तरं मानसझानान्तरस्यैव ब्रमनिवर्तकत्वकट्पनात्, धार्मिकस्त्वमसीत्यादौ विशेष्यांशस्य योग्यत्वादेव योग्यपदार्थनिरूपितेत्यत्र योग्यपदार्थतावदकविशिष्टेत्यस्यावश्यवाच्यत्वेन महावा
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| क्यादपि तत्पदार्थतावच्छेदकस्यायोग्यत्वेनापरोक्षज्ञानासंजवाच्च, अयोग्यांशत्यागयोग्यांशोपादानानिमुखलक्षणावत्त्वमेव योग्यपदार्थत्वमित्युक्तौ च धार्मिकस्त्वमसीत्यादावपि शुद्धापरोक्ष विषयत्वे तद्व्यावर्तक विशेषणदानानुपपत्तिः । तथा च योग्य| लक्ष्यपरत्वमहे उदाहरणस्थानदौर्जन्यं । अयं च विषयोऽस्माकं पर्यायविनिर्मोकेन शुद्धव्यविषयतापर्यवसायकस्य प्रव्यनयस्येत्यक्षं ब्रह्मवादेन । किं च त्वंपदार्थाभेदपरशब्दत्वेनापरोक्षज्ञानजनकत्वोक्तौ यूयं राजान इत्यतोऽखिलसंबोध्य विशे| प्यकराजत्वप्रकारकापरोक्षशाब्दापत्तिः, तत्र तादृशमानसाच्युपगमे चान्यत्र कोऽपराधः । एतेनैकवचनान्तत्वपदार्थग्रहणे| sपि न निस्तार एकस्मिन्नैव यूयमिति प्रयोगेऽगतेश्चैका जिप्रायकत्वं, पदग्रहणे च तत्तदभिप्रायकशब्दत्वेन तत्तचाब्दबोधहे| तुत्वमेव युक्तम् । अत एव वाक्यादपि व्यार्थादेशादखकः, पदादपि च पर्यायार्थादेशात् सखरुः शाब्दबोध इति जैनी | शास्त्रव्यवस्था । तस्मान्न शब्दस्यापरोक्षज्ञानजनकत्वम् । एतेनापरोक्षपदार्थाचेदपरशब्दत्वेनापरोक्षज्ञानजनकत्वं श्रत एव | शुक्तिरियमिति वाक्यादाहत्य रजतन्त्रमनिवृत्तिः, एवं च चैतन्यस्य वास्तवापरोदत्वादपरोक्षज्ञानजनकत्वं महावाक्यस्येत्यपि | निरस्तम्, वास्तवापरोक्षस्वरूपविषयत्वस्य त्वन्नीत्या तत्त्वमस्यादिवाक्ये संजवेऽपि दशमस्त्वमसीत्यादावसंजवान्निवृत्ताज्ञान| विषयत्वस्य च शाब्दबोधात्पूर्वमभावात् यदा कदाचिन्निवृत्ताज्ञानत्वग्रहणे पर्वतो वह्निमानित्यादिवाक्यानामप्यपरोक्ष स्वरू| पविषयतयाऽपरोक्षज्ञानजनकत्वप्रसंगात् “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते” “सत्यं ज्ञानमनन्तं" इत्यादिवाक्यानामपरोदस्वरूपविषयतयाऽपरोक्षज्ञानजनकत्वे महावाक्यवैयर्थ्यापाताच्च । किं चैत्रं घटोऽस्तीतिशाब्दे चालुपत्वमप्यापतेत्, अपरोक्षपदार्थाजेदपरशब्दादिवापरोक्षपक्षसाध्यकानुमितिसामग्रीतोऽपरोकानुमितिरपि च प्रसज्येत । एवं च निन्नविषयत्वा
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ज्ञान
॥ १५४ ॥
द्यप्रवेशेनैवानुमितिसामग्र्या लाघवाद्वसवत्त्वमिति विशेषदर्शनकाली नम्रमसंशयोत्तरप्रत्यक्षमात्रोछेद इति बहुतरं दुर्घटम् । | एतेन प्रमात्रभेद विषयत्वेनापरोक्षज्ञानजनकत्वमित्यपि निरस्तम्, सर्वज्ञत्वादिविशिष्टोऽसीत्यादिवाक्यादपि तथाप्रसंगात्, | ईश्वरो मदन्निश्चेतनत्वान्मघदिति अनुमानादपि तथाप्रसंगाच्चेति । महावाक्यजन्यमपरोक्षं शुद्धब्रह्मविषयमेव केवलज्ञानमिति वेदान्तिनां महानेव मिथ्यात्वाजिनिवेश इति विभावनीयं सूरिभिः ।
इदमिदानीं निरूप्यते - केवलज्ञानं स्वसमानाधिकरण केवलदर्शनसमानकालीनं न वा, केवलज्ञानक्षणत्वं स्वसमानाधिक| रणदर्शनक्षणा व्यवहितोत्तरत्वव्याप्यं न वा ? एवमाद्याः क्रमोपयोगवादिनां जिनजगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादानां, युगपडुपयोगवादिनां च मलवादिप्रभृतीनां यदेव केवलज्ञानं, तदेव केवलदर्शन मिति वादिनां च महावादिश्रीसिद्धसेन दिवाकराणां, | साधारण्यो विप्रतिपत्तयः । यत्तु युगप5पयोगवादित्वं सिद्धसेनाचार्याणां नन्दिवृत्तावुक्तं तदन्युपगमवादानिप्रायेण, न तु स्वतंत्र सिद्धान्तानिप्रायेण, क्रमाक्रमोपयोगध्यपर्यनुयोगानन्तरमेव स्वपक्षस्य संमतावुप्रावितत्वादिति प्रष्टव्यम् । एतच्च तत्त्वं सयुक्तिकं संमतिगाथा निरेव प्रदर्शयामः - "मणपवनाएं तो नास्स य द रिसएस्स य विसेसो । केवलनाणं पुण दंसणंति नातिय समाणं ॥ १ ॥ युगपडुपयोगघ्याच्युपगमवादोऽयम्-मनः पर्यायज्ञानमन्तः पर्यवसानं यस्य स तथा, ज्ञानस्य दर्शनस्य च विश्लेषः पृथग्नाव इति साध्यम् । श्रत्र च बद्मस्थोपयोगत्वं हेतुर्प्रष्टव्यः तथा च प्रयोगः-चक्षुरचसुरवधिज्ञानानि चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनेन्यः पृथक्कालानि, बद्मस्थोपयोगात्मकज्ञानत्वात् श्रुतमनःपर्यायज्ञानवत् । वाक्याविषये श्रुतज्ञाने, मनोऽव्यविशेषालंबने मनःपर्यायाने चादर्शनस्वनावे मत्यवधिजाद्दर्शनोपयोगा निकासत्वं प्रसिद्धमे
बिन्दुः
१४
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वेति टीकाकृतः । दर्शनत्रयपृथक्कालत्वस्य कुत्राप्येकस्मिन्न सिसाधयिषितत्वात्, स्वदर्शनपृथक्कालत्वस्य च सिसाधयिपितस्यो| तदृष्टान्तयोर जावात्सावरणत्वं हेतुः, व्यतिरेकी च प्रयोगः, तमन्यत्वं वा हेतुः यद्यजन्यं तत्ततः पृथक्कालमिति सामान्यव्याप्तौ यथा दंगात् घट इति च दृष्टान्ते इति तु युक्तं, केवलज्ञानं पुनर्दर्शनं दर्शनोपयोग इति वा ज्ञानं ज्ञानोपयोग इति वा समानं तुल्यकालं तुल्यकाली नोपयोगघ्यात्मकमित्यर्थः, प्रयोगश्च - केवलिनो ज्ञानदर्शनोपयोगावेककालीनौ, युगपदाविभूतस्वजावत्यात्, यावेवं तावेवं, यथा रवेः प्रकाशतापौ । अयमनिप्राय श्रागमविरोधीति केषां चिन्मतं, तानधिक्षिपन्नाद"केई जयंति जश्या जाणइ तइया ए पासर जिणो त्ति । सुत्तमवलंबमाणा तित्ययरासासणाजीरू ||२|| " केचिनिनानुयायिनो जन्ति--'यदा जानाति तदा न पश्यति जिन' इति । सूत्रं - "केवली णं नंते इमं रयप्पनं पुढविं यारेहिं पमाहिं देऊहिं संगणेहिं परिवारेहिं जं समयं जाए पो तं समयं पास ? हंता गोयमा ! केवली एमित्यादिकमवलंवमानाः । अस्य च सूत्रस्य किलायमर्थस्तेषाम निमतः केवली संपूर्ण बोधः एमिति वाक्यालंकारे । जंते इति जगवन् । इमां रत्नप्रनामन्वर्थानि - धानां पृथ्वीमाकारैः समनिम्नोन्नतादिनिः, प्रमाणैर्देर्ध्यादिनिर्हेतु निरनन्तानन्तप्रदेशिकैः स्कन्धः, संस्थानैः परिमंगलादिनिः, | परिवारैर्घनोद धिवलयादिनिः । "जं समयं णो तं समयमिति" च ' कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' (पा. २. ३.५.) इति द्वितीया सप्तमीबाधिका, तेन यदा जानाति न तदा पश्यतीति जावः । विशेषोपयोगः सामान्योपयोगान्त रितः, सामान्योपयोगश्च विशेषोपयो गान्तरितः, तत्स्वानाव्यादिति प्रश्नार्थः । उत्तरं पुनः हंता गोयमेत्यादिकं प्रश्नानुमोदकं गौतमेति गोत्रेणा मंत्रणं प्रश्नानुमो| दनार्थ । पुनस्तदेव सूत्रमुच्चारणीयं । हेतुप्रश्नस्य चात्र सूत्रे उत्तरं । “मागारे से नाणे व अषागारेमे दंसणे" इति, साकारं
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ज्ञान
॥ १५५ ॥
विशेषावलंबिस्य केवलिनो ज्ञानं भवति, अनाकारमतिक्रान्तविशेषं सामान्याखंवि दर्शनं । न चानेकप्रत्ययोत्पत्तिरेकदा | निरावरणस्यापि तत्स्वाजाव्यात् । न हि चक्षुर्दर्शनकाले श्रोत्रज्ञानोत्पत्तिरुपलच्यते । न चावृतत्वात्तदा तदनुत्पत्तिः, स्वसम येऽप्यनुत्पत्तिप्रसंगात् । न चाणुना मनसा यदा यदिन्द्रियसंयोगस्तदा तज्ज्ञानमिति क्रमः परवाद्यनिमतोऽपि युक्तिमान्, सर्वांगी सुखोपनाद्युपपत्तये मनोवर्गणापुफलानां शरीरव्यापकत्वकल्पनात्, सुषुप्तौ ज्ञानानुत्पत्तये त्वमनोयोगस्य ज्ञान - | सामान्ये हेतुत्वेन रासनकाले त्याचरासनोजयोत्पत्तिवारणस्येत्यमप्यसंजवाच्च । ततो युगपदनेकप्रत्ययानुत्पत्तौ स्वभाव एव कारणं नान्यत्, सन्निहितेऽपि च यात्मके विषये सर्वविशेषानेव केवलज्ञानं गृह्णाति, सर्वसामान्यानि च केवलदर्शन मिति | स्वभाव एवानयोरिति । एते च व्याख्यातारस्तीर्थकराशातनाया अभीरवः, तीर्थकरमाशातयन्तो न विज्यतीति यावत् । एवं हि निःसामान्यस्य निर्विशेषस्य वा वस्तुनोऽजावेन न किंचिज्ञानाति केवली न किंचित्पश्यतीत्यधिदेपस्यैव पर्यवसा नात् । न चान्यतरमुख्योपसर्जन विषयतामपेदयो जयग्राहित्वेऽप्युपयोगक्रमाविरोधः, मुख्योपसर्जन जावेनोजयग्रहणस्य दयो| पशमविशेषप्रयोज्यत्वात्, केवलज्ञाने उद्मस्थज्ञानीययावद्विषयतोपगमेऽवग्रहादिसंकीर्ण रूपप्रसंगाडुक्तसूत्रस्य तु न जवमुक्त एवार्थः, किं त्वयं, केवली मां रत्नप्रजां पृथिवीं यैराकारादिनिः समकं तुझ्यं जानाति, न तैराकारादिनिस्तुल्यं पश्यतीति किमेवं ग्राह्यं ? एवमित्यनुमोदना, ततो हेतौ पृष्ठे सति तत्प्रतिवचनं निन्नालंबनप्रदर्शकं तज्ज्ञानं साकारं नवति यतो | दर्शनं पुनरनाकार मित्यतो निन्नालंबनावेतौ प्रत्ययाविति प्रत्यपादीति टीकाकृतः । यत्र यद्यपि जं समयं इत्यत्र जं प्रति अमावः प्राकृतलक्षणात् यत्कृतमित्यत्र जं कयमिति प्रयोगस्य लोकेऽपि दर्शनादिति वक्तुं शक्यते, तथापि तृतीयान्त
बिन्दुः
॥ १५५ ॥
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पदवाच्यैराकारादिनिर्ऋततृतीयान्तसमासस्य यत्पदार्थस्य समक पदार्थस्य चान्यूनानतिरिक्तधर्मविशिष्टस्य रलमत्तायां जिन्न लिंगत्वादन्वय इति यत् समकमित्यादिक्रियाविशेषणत्वेन व्याख्येयम् । रत्नप्रजाकर्मकाकारादिनिरूपितयावदन्यूनान तिरिक्तविषयताकज्ञानवान् न तादृशतावदन्यूनानतिरिक्तविषयताकदर्शनवान् केवलीति फलितोऽर्थः । यदि च तादृशस्य वि| शिष्टदर्शनस्य निषेध्यस्याप्र सिर्न तन्निषेधः “असतो एत्थि सेिहो ” इत्यादिवचनादिति सूक्ष्ममीक्ष्यते, तदा क्रियाप्रधानमाख्यातमिति वैयाकरणनयाश्रयणेन रत्नप्रजाकर्मका कारादिनिरूपितयावदन्यूनानतिरिक्तविषयताकं ज्ञानं, न तादृशं केव - लिकर्तृकं दर्शनमित्येव बोधः, सर्वनयात्मके जगवत्प्रवचने यथोपपन्नान्यतरनयग्रहणे दोषाजावादिति तु वयमालोचयामः । हेतुयौगपद्यादपि बलेनोपयोगयौगपद्यमापततीत्याह - "केवलनाणावरणखयजायं केवलं जहा नाणं । तह दंसणं पि जु | यिावरणरकयस्संते ॥ ३ ॥" स्पष्टा नवरं निजावरणक्ष्यस्यान्त इति दर्शनावरणक्ष्यस्यानन्तरक्षण इत्यर्थः । न चैकदोजयावरण येऽपि स्वजावहेतुक एवोपयोगक्रम इत्युक्तमपि सांप्रतं, एवं सति स्वजावेनैव सर्वत्र निर्वाह कारणान्तरोचेदप्रसंगात्, कार्योत्पत्तिस्वभावस्य कारणेनैव तत्क्रमस्वभावस्य तत्क्रमेणैव, निर्वाह्यत्वाच्च । एतेन सर्वव्यक्तिविषयकत्वसर्वजातिविषयकत्वयोः पृथगेवावरणयकार्यतावच्छेदकत्वादर्थ (त) स्तदवचिन्नोपयोगघ्य सिद्धिरित्यप्यपास्तम् । तत्सिद्धावपि तत्क्रमा - | सिध्देरावरणत्रयक्ष्यकार्ययोः समप्राधान्येनार्थगतेरप्रसराच्च । न च मतिश्रुतज्ञानावरणयोरेकदा क्षयोपशमेऽपि यथा तडुपयोगक्रमस्तथा ज्ञानदर्शनावरणयोर्युगपत्क्षयेऽपि केवलिनामुपयोगक्रमः स्यादिति शंकनीयं तत्र श्रुतोपयोगे मतिज्ञानस्य हैतुत्वेन, शाब्दादौ प्रत्यक्षादिसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वेन च तत्संजवात् । अत्र तु दीणावरणत्वेन परस्परकार्यकारणभावप्रति
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॥१६॥
बध्यप्रतिबन्धकलावाद्यनावेन विशेषात् । एतदेवाह-"जम खीवावरणे, जह मश्नाणं जिणे व संजव। तह खीणावरणिो, विसेसन दसणं णस्थि ॥४॥"जण्यते निश्चित्योच्यते हीणावरणे जिने यथा मतिझानं मत्यादिज्ञानं अवग्रहादिचतुष्टयरूपं वा ज्ञानं न संजवति, तथा क्षीणावरणीये विश्लेषतो ज्ञानोपयोगकालान्यकाले दर्शनं नास्ति क्रमोपयोगत्वस्य मत्याद्यात्मकत्वव्याप्यत्वात्सामान्यविशेषोजयालंवनक्रमोपयोगत्वस्य चावग्रहाद्यात्मकत्वव्याप्यत्वात्केवलयोः क्रमोपयोगत्वे तत्त्वापत्तिरित्यापादनपरोऽयं ग्रन्थः। प्रमाणं तु-केवलदर्शनं केवलज्ञानतुल्यकालोत्पत्तिक, तदेककालीनसामग्रीकत्वात् , तादृशकार्यान्तरवत् , इत्युक्ततर्कानुगृहीतमनुमानमेवेति अष्टव्यम् । न केवलं क्रमवादिनोऽनुमानविरोधः, अपि त्वागमविरोधोऽपीत्याह-"सुत्तमि चेव साश्अपऊवसियं ति केवलं वुत्तं । सुत्तासायणनीरुहिं तं च दच्वयं हो ॥५॥" साद्यपर्यवसिते केवलज्ञानदर्शने सूत्रे प्रोक्ते, क्रमोपयोगे तुहितीयसमये तयोः पर्यवसानमिति कुतोऽपर्यवसितता ? तेन सूत्राशातनानीरुन्निः क्रमोपयोगवादिनिस्तदपि अष्टव्यं । चोऽप्यर्थः । न केवलं "केवली णं नंते इमं रयणप्पानं पुढवि' इत्याधुक्तसूत्रयथाश्रुतार्थानुषपत्तिमात्रमिति नावः । न च ऽव्यापेक्ष्याऽपर्यवसितत्वं, अव्यविषयप्रश्नोत्तराश्रुतेः। न चार्पितानर्पितसिरिति तत्त्वार्थसूत्रानुरोधेन ऽव्यार्पणयोः (अ)श्रुतयोरपितयोः कपनं युक्तं, अन्यथा पर्यायाणामुत्पादविगमात्मकत्वानवतोऽपि कथं तयोरपर्यवसानतेति पर्यनुयोज्यं ? यधर्मावछिन्ने क्रमिकत्वप्रसिद्धिः, तधर्मावछिन्नेऽपर्यवसितत्वान्वयस्य निरा-1 कांदत्वात् , अन्यथा जुत्ववक्रत्वे अपर्यवसिते इति प्रयोगस्यापि प्रसंगात्, मम तु रूपरसात्मकैकव्यवदक्रमनाविनिनोपाधिकोत्पादविगमात्मकत्वेऽपि केवलिऽच्यादव्यतिरेकतस्तयोरपर्यवमितत्वं नानुपपन्नम् । श्रथ पर्यायत्वावछेदकधर्मवि
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धव्यं साद्यपर्यवाणायां शुधप्रव्यं शुधात्मया, उन उक्तधर्मस्य विशेषत चक्किमयमुक्तधर्मविनिया
निर्मोकेण शुधनव्यार्थादेशप्रवृत्तेः क्रमैकान्तेऽपि केवलयोरपर्यवसितत्वमुपपत्स्यते, अत एव पर्यायव्ययोरादिष्ट व्यप
यित्वं सिद्धान्ते गीयते । तत्तदवच्छेदकविनिर्मोकस्य विवक्षाधीनत्वादिति चेकिमयमुक्तधर्मविनिर्मोकस्तत्तत्पदार्थावच्छेदकविशिष्टयोरजेदान्वयानुपपत्त्या शुधव्यलदाणया, नत उक्तधर्मस्य विशेषणत्वपरित्यागेनोपलदाणत्वमात्रविवक्ष्या? । आये
आद्यपद एव लक्षणायां शुद्ध व्यं शुधात्मऽव्यं वाऽपर्यवसितमित्येव बोधः स्यात् , सादित्वस्यापि तत्रान्वय(ये)प्रवेशे तु केवलिपव्यं साद्यपर्यवसितमित्याकारक एव, उजयपदलक्षणायां तु शुधनव्यविषयको निर्विकपक एव बोध इति केवलज्ञानदर्शने साद्यपर्यवसिते इति बोधस्य कथमप्यनुपपत्तिः। अन्त्ये च केवलत्वोपलदितात्मज्व्यमात्रग्रहणे तत्र सादित्वान्वयानुपपत्तिः, केवलिपर्यायग्रहणे च नवविधोपचारमध्ये पर्याये पर्यायोपचार एवाश्रयणीयः स्यादिति समीचीन व्यार्थादेशसमर्थनं । नियतोपलक्ष्यतावच्छेदकरूपानावेऽपि संमुग्धोपलक्ष्यविषयकतादृशबोधस्वीकारे च पर्यायोऽपर्यवसित इत्यादेरपि प्रसक्तिः। व्यार्थतया केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरपर्यवसितत्वान्युपगमे दितीयदणेऽपि तयोः सन्नावप्रसक्तिः, अन्यथा व्यार्थत्वायोगात् । तदेवं क्रमाच्युपगमे तयोरागमविरोध इत्युपसंहरन्नाह-" संतंमि केवले दसणम्मि नाणस्स संजवो पत्थि । केवलनाणम्मि य दंसस्स तम्हा अनिहणाई॥६॥" स्वरूपतो प्योः क्रमिकत्वेऽन्यतरकालेऽन्यतरजावप्रसंगः, तथा चोक्तवक्ष्यमाणदूषणगणोपनिपातः, तस्माद्वावप्युपयोगी केवलिनः स्वरूपतोऽनिधनावित्यर्थः । इत्थं ग्रन्थकृदक्रमोपयोगध्यान्युपगमेन क्रमोपयोगवादिनं पर्यनुयुज्य स्वपदं दर्शयितुमाह-“दंसणनाणावरणकए समाणम्मि कस्स पुवयरो। होऊ व समप्पा हंदि वे एस्थि जवळगा ॥७॥" सामान्य विशेषपरिजेदावरणापगमे कस्य प्रथमतरमुत्पादो जवेत् ?
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ज्ञान
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अन्यतरोत्पादे तदितरस्याप्युत्पादप्रसंगात्, अन्यतरसामग्र्या अन्यतरप्रतिबन्धकत्वे चोलयोरप्यनावप्रसंगात् “ सबाट खद्धी सागारोवढंगोवनत्तस्सेति" वचनप्रामाण्यात्प्रथमं केवलज्ञानस्य पश्चात्केवलदर्शनस्योत्पाद इति चेन्न, एतचनस्य लब्धियोगपद्य एव साक्षित्वाऽपयोगक्रमाक्रमयोरौदासीन्यात् । यौगपद्येनापि निर्वाहेऽर्थाद्दर्शनेऽनन्तरोत्पत्त्यसिधेः एकदणोत्पत्तिककेवलज्ञानयोरेकक्षणन्यूनाधिकायुष्कयोः केवलिनोः क्रमिकोपयोगष्यधाराया निर्वाहयितुमशक्यत्वाच्च । अथ | झानोपयोगसामान्ये दर्शनोपयोगत्वेन हेतुतेति निर्विकटपकसमाधिरूपउद्मस्थकालीनदर्शनात् प्रथमं केवलज्ञानोत्पत्तिः | केवलदर्शने केवलज्ञानत्वेन विशेषहेतुत्वाच्च हितीयदणे केवलदर्शनोत्पत्तिः, ततश्च क्रमिकसामग्रीष्यसंपत्त्या क्रमिकोपयोगयधारानिर्वाह इति, एकदाणन्यूनाधिकायुष्कयोस्त्वेकदाणे केवलज्ञानोत्पत्त्यस्वीकार एव गतिरिति चेन्न, "दसणपुर्व नाणं " इत्यादिना तयाहेतुत्वस्य प्रमाणानावेन निरसनीयत्वात्, उत्पन्नस्य केवलज्ञानस्य दायिकलावत्वेन नाशायोगाच्च । न च मुक्तिसमये दायिकचारित्रनाशवछुपपत्तिः, दायिकत्वेऽपि तस्य योगस्थैर्यनिमित्तकत्वेन निमित्तनाशनाश्यत्वात्, केवलज्ञानस्य चानैमित्तिकत्वाऽत्पत्ती झप्तौ चावरणक्ष्यातिरिक्तनिमित्तानपेक्षत्वेनैव तस्य स्वतंत्रप्रमाणत्वव्यवस्थितेः, अन्यथा सापेक्ष्मसमर्थमिति न्यायात्तत्राप्रामाण्यप्रसंगात् । एतेन केवलदर्शनसामग्रीत्वेन स्वस्यैव स्वनाशकत्वमिति केवखान(स्य)क्षणिकत्वमित्यप्यपास्तम्, अनैमित्तिके दणिकत्वायोगात्, अन्यथा तत्क्षण एव तत्क्षणवृत्तिकार्ये नाशक इति सर्वत्रैव सूदमर्जुसूत्रनयसाम्राज्यस्य पुर्निवारत्वादिति किमतिपल्लवितेन?। नन्वियमनुपपत्तिः क्रमोपयोगपक एवेत्यक्रमौ । घावुपयोगी स्तामित्याशंकते मनवादी, “नवेघा समयमेककालमुत्पादस्तयोरिति” तत्रैकोपयोगवादी ग्रन्यकृत् सिखा
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न्तयति हंदि ज्ञायतां घावुपयोगौ नैकदेति, सामान्य विशेषपरिच्छेदात्मकत्वात्केवलज्ञानस्य, यदेव ज्ञानं तदेव दर्शनमित्यत्रैव निर्जरः, उज्जयहेतुसमाजे समूहालंबनोत्पादस्यैवान्यत्र दृष्टत्वान्नात्रापरिदृष्टकल्पनाक्लेश इति भावः । श्रस्मिन्नेव वादे केव| लिनः सर्वज्ञतासंभव इत्याह-" जइ सबं सायारं जाण एकसमए सबसू । जुइ सया वि एवं श्रहवा सबं न जाणाइ | ॥८॥ " यदि सर्व सामान्यविशेषात्मकं जगत् साकारं तत्तजातिव्यक्तिवृत्तिधर्मविशिष्टं । साकारमिति क्रियाविशेषणं वा । | निरवधिन्नतत्तातिप्रकारता निरूपिततत्तद्व्यक्तिविशेष्यतासहितं परस्परं यावद्द्रव्यपर्याय निरूपित विषयतासहितं वा यथा | स्यात्तथेत्यर्थः । जानात्येकसमयेन सर्वज्ञः पश्यतिचेति शेषः, तदा सदापि सर्वकालं युज्यते, एवं सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं | चेत्यर्थः । श्रथवेत्येतद्वैपरीत्ये सर्वे न जानाति सर्वं न जानीयादेकदेशोपयोगवर्तित्वान्मतिज्ञानवदित्यर्थः । तथा च केव| लज्ञानमेव केवलदर्शनमिति स्थितम् । श्रव्यक्तत्वादपि पृथग्दर्शनं केवलिनि न संभवतीत्याह - " परिसुद्धं सायारं वि अत्तं दंसणं णायारं । ण य खीणावर ओि जुकाइ सवियत्तमवित्तं ॥ ए ॥ " ज्ञानस्य हि व्यक्ततारूपं, दर्शनस्य पुन - | रव्यक्तता । न च क्षीणावरणेऽर्हति व्यक्तताऽव्यक्तते युज्येते, ततः सामान्य विशेषज्ञेयसंस्पइर्युज्जयैकस्वभाव एवायं केवलि - प्रत्ययः, न च ग्राह्यधित्वाग्राहकत्वमिति संभावनापि युक्ता, केवलज्ञानस्य ग्राह्यानन्त्येनानन्ततापत्तेः, विषयभेदकृतो न ज्ञानभेद इत्यन्युपगमे तु दर्शनपार्थक्ये का प्रत्याशावरण ६यक्ष्याजयैकस्वभावस्यैव कार्यस्य संजवात् । न चैकस्वभावप्रत्ययस्य शीतोष्णस्पर्शवत्परस्पर विभिन्न स्वनावश्यविरोधः, दर्शनस्पर्शनशक्तिध्यात्मकै कदेवदत्तवत्स्वनावश्यात्मकैकप्रत्ययस्य केवलिन्य विरोधात् । ज्ञानत्वदर्शनत्वाच्यां ज्ञानदर्शनयोर्भेदः, न तु धर्मिभेदेनेति परमार्थः । अत एव तदावरणभेदेऽपि
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छान
स्याघाद एव, तमुक्तं स्तुतौ ग्रन्थकृतैव-"चकुर्दर्शनविज्ञानं परमाणावौष्एयरौक्ष्यवत् । तदावरणमप्येक न वा कार्यविशेषतः ॥१॥" इति । परमाणावुषणरूदस्पर्शघयसमावेशवच्चाक्षुषे ज्ञानत्वदर्शनत्वयोः समावेश इत्यर्थः । इत्थं च चाक्षुषानदर्शनावरणकर्मापि परमार्थत एक कार्य विशेषत उपाधिन्नेदतो वा नकमिति सिद्धम् । एवमवधिकेवलस्थलेऽपि अष्टव्यम्। तदाह-" चकुर्वहिषयाख्यातिरवधिज्ञानकेवले । शेषवृत्तिविशेषात्तु ते मते ज्ञानदर्शने ॥१॥इति"। चतुर्वच्चाकुषवविषयाख्यातिः स्पृष्टज्ञानानावः अस्पृष्टाने इति यावत् , नावालावरूपे वस्तुन्यजावत्वानिधानमपि दोषानावहं, शेषा वृत्तयोऽस्पृष्टज्ञानानि तान्यो विशेषः, स्पृष्टताविशेषेण वदयमाणरीत्या स्पृष्टाविषयवृत्तित्वव्यंग्येन, तस्मात्ते अवधिकेवले | ज्ञानपदेन दर्शनपदेन च वाच्ये इत्येतदर्थः । क्रमाक्रमोपयोगष्यपदे जगवतो यदापद्यते तदाह-" अदि अलायं| |च केवली एव लासइ सया वि। एगसमयम्मि हंदी वयण विगप्पो ए संनव ॥ १०॥" आद्यपके झानकालेऽदृष्टं, दर्शनकाले चाहातं, दितीयपके च सामान्यांशेऽज्ञातं विशेषांशे चादृष्ट, एवमुक्तप्रकारेण केवली सदा नापते, तत एकस्मिन् समये झातं दृष्टं च लगवान् नापते, इत्येष वचनस्य विकहपे विशेषो नवदर्शने न जवतीति गृह्यतां । न चान्यतरकालेऽन्यतरोपलक्षणाऽपसर्जनतया विषयान्तरग्रहणाच्चोक्तवचनविकटपोपपत्तिः, एवं सति ब्रान्तन्मस्थेऽपि तथायोगप्रसंगात् । यदा कदाचित् शृंगग्राहिकया शानदर्शनविषयस्यैव पदार्थस्य तद्बावनुप्रवेशादिति स्मर्तव्यम् । तथा च | सर्वझत्वं न संभवतीत्याह-" अणायं पासंतो अदि च अरहा वियाएंतो। किं जाण किं पास कह सबालू त्ति वा होइ ॥ ११॥" अज्ञातं पश्यन्नदृष्टं च जानानः किं जानाति किं वा पश्यति ? न किंचिदित्यर्थः । कथं वा तस्य सर्वज्ञता
॥१८॥
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जनाणे अणंते केवा ॥१९॥” यद्येकत्वंशाह-" केवखनाणमणत
नवेत् ? न कथमपीत्यर्थः । ज्ञानदर्शनयोर्विषयविधयैकसंख्याशालित्वादप्येकत्वमित्याह-" केवलनाणमणंतं जहेव तह सदसणं पि पलतं । सागारगाहणाहिय णियमपरितं अणागारं ॥ १२॥” योकत्वं ज्ञानदर्शनयोन स्यात्तदाऽल्पविषयत्वा
दर्शनमनन्तं न स्यादिति “अणंते केवलनाणे अर्थते केवलदसणे" इत्यागमविरोधः प्रसज्येत, दर्शनस्य हि ज्ञानानेदे साकारग्रहणादनन्तविशेषवर्तिज्ञानादनाकारं सामान्यमात्रावलंबि केवलदर्शनं यतो नियमेनैकान्तेनैव परीतमपं नवतीति कुतो विषयानावादनन्तता। न चोनयोस्तुट्य विषयत्वाविशेषेऽपि मुख्योपसर्जननावकृतो विशेष इति वाच्यं, विशेषण|विशेष्यन्नावेन तत्तन्नयजनितवैज्ञानिकसंबन्धावचिन्नविषयतया वा. तत्र कामचारात्। आपेदिकस्य च तस्यास्मदादिबुद्धावेवाधिरोहात् । एतच्च निरूपितं तत्त्वं “जं जं जे जे नावे" इत्यादिनियुक्तिगाथाया नयनेदेन व्याख्यायेऽनेकान्तव्यवस्थायामस्मानिः । अक्रमोपयोगघयवादी तु प्रकृतगाथायां साकारे यग्रहणं दर्शनं तस्य नियमोऽवश्यंभावो यावन्तो विशेषास्तावन्त्यखंगसखंमोपाधिरूपाणि जातिरूपाणि वा सामान्यानीति हेतोस्तेनापरीतमनन्तमित्यकारप्रश्लेषेण व्याचष्टे, क्रमवादे ज्ञानदर्शनयोरपर्यवसितत्वादिकं नोपपद्यत इति यमुक्तं तत्रादेपमुदंक्य समाधत्ते-" जण जह चलनाणी जुझाइ णियमा तहेव एवं पि। नपण पंचनाणी जहेव अरहा तहेयं पि ॥ १३॥" लण्यते आदिप्यते तथा क्रमोपयोगप्रवृत्तोऽपि मत्यादिचतुर्सानी तवक्तिसमन्वयादपर्यवसितचतुर्सानो झातदृष्टनाषी ज्ञाता दृष्टा च नियमेन युज्यते । तथैतदप्येकत्ववादिना यदपर्यवसितत्वादिक्रमोपयोगे केवलिनि प्रेर्यते, तदपि सार्वदिककेवलज्ञानदर्शनशक्तिसमन्वयाऽपपद्यत इत्यर्थः । नण्यतेत्रोत्तरं दीयते-यथैवाईन्न पंचज्ञानी, तथैवैतदपि क्रमवादिना यमुच्यते, नेदतो ज्ञानवान् दर्शनवांश्च, तदपि न लवतीत्यर्थः।
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कान
बिन्छः
॥१५॥
मत्याद्यावरणदयेऽप्येकदेशग्राहिणो मतिज्ञानादेरिव, दर्शनावरणदयेऽपि तादृशदर्शनस्य केवलिनि नेदेनानुपपत्तेरिति नावः । श्यांस्तु विशेषः-यदनेदेनापि केवलझाने दर्शनसंझा सिधान्तसमता, न तु मतिज्ञानादिसंझेति, तत्र हेतू अन्वर्योपपत्त्यनुपपत्ती एव अष्टव्ये । अयं च प्रौढिवादः, वस्तुतः क्रमवादे यदा जानाति तदा पश्यतीत्यादेरनुपपत्तिरेव, आश्रयत्वस्यैवाख्यातार्थत्वात् । लब्धेस्तदर्थत्वे तु घटादर्शनवेलायामपि घटं पश्यतीति प्रयोगप्रसंगात्, घटदर्शनलब्धेस्तदानीमपि विद्यमानत्वात् । चकुष्मान् सर्व पश्यति, न त्वन्ध इत्यादौ त्वगत्या लब्धेर्योग्यताया आख्यातार्थत्वमन्युपगम्यत एव, न तु सर्वत्राप्ययं न्यायः, अतिप्रसंगात् । न च सिद्धान्ते विना निदेप विशेषमप्रसिधार्थे पदवृत्तिरवधार्यते, षट्षष्टिसागरोपमस्थितिकत्वादिकमपि मतिज्ञानादेखध्यपेक्ष्यैवेति वचं, एकस्या एव श्योपशमरूपलब्धेस्तावत्कालमनवस्थानात् , अव्याद्यपेक्ष्या विचित्रापरापरक्षयोपशमसन्तानस्यैव प्रवृत्त्युपगमात् । किं त्वेकजीवावजेदेनाझानातिरिक्तविरोधिसामग्र्यसमवहितषट्पष्टिसागरोपमाणत्वव्याप्यस्वसजातीयोत्पत्तिकत्वे सति तदधिकदाणानुत्पत्तिकस्वसजातीयत्वरूपं तत्पारिजाषिकमेव वक्तव्यं, एवमन्यदप्यूह्यम् । क्रमेण युगपघा परस्परनिरपेक्षस्व विषयपर्यवसितज्ञानदर्शनोपयोगी केवलिन्यसर्वार्थत्वान्मत्यादिज्ञानचतुष्टयवन्न स्त इति दृष्टान्तलावनापूर्वमाह-" पणवणिका नावा समत्तसुअनाणदसणाविस । हिमणपळवाण य अणोणविरकलणाविस ॥१४॥ तम्हा चनविजागो जुजाइ ण न नाणदंसण जिणाणं । सयलमणावरणमणंतमरकयं | केवलं जम्हा ॥ १५॥" प्रज्ञापनीयाः शब्दानिलाप्या नावा च्यादयः समस्तश्रुतझानस्य द्वादशांगवाक्यात्मकस्य दर्शनाया दर्शनप्रयोजिकायास्त/पजाताया बुझेः विषय आलंबनं, मतेरपि त एव शब्दावसिता विषया इष्टव्याः, शब्दपरिक
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मणा हितक्ष्योपशमजनितस्य ज्ञानस्य यथोक्तनावविषयस्य मतित्वान्मतिश्रुतयोरसर्वपर्यायसर्वव्यविषयतया तुल्यार्थत्वप्रतिपादनाच्च, अवधिमनःपर्याययोः पुनरन्योन्यविलदाणा लावा विषयोऽवधे रूपिजव्यमात्रं, मनःपर्यायस्य च मन्यमानानि
व्यमनासीत्यसर्वार्थान्येतानि । तस्माच्चतुर्णा मत्यादीनां विनागो युज्यते, तत्तत्दयोपशमप्रत्ययनेदात्, न तु जिनानां झानदर्शनयोः । 'नाणदसण त्ति' अविनक्तिको निर्देशः सूत्रत्वात् । कुतः पुनरेतदित्यत आह-यस्मात् केवलं सकलं परिपूर्ण । तदपि कुतः? यतोऽनावरणं, न ह्यनावृतमसकलविषयं नवति । न च प्रदीपेन व्यभिचारः, यतोऽनन्तमनन्ताथग्रहणप्रवृत्तं । तदपि कुतः? यतोऽदयं, क्यो हि विरोधिसजातीयेन गुणेन स्यात्तदनावे तस्याश्यत्वं, ततश्चानन्तत्वमनवद्यमिति नावः । तस्मादक्रमोपयोगध्यात्मक एक एव केवलोपयोगः । तत्रैकत्वं व्यक्त्या, घ्यात्मकत्वं च नृसिंहत्ववदांशिकजात्यन्तररूपत्वमित्येके । माषे स्निग्धोष्णत्ववच्याप्यवृत्तिजातिष्यशक्तिष्यरूपमित्यपरे । केवलत्वमावरणश्यात्, ज्ञानत्वं जातिविशेषो, दर्शनत्वं च विषयताविशेषो, दोषदयजन्यतावच्छेदक इति तु वयम् । ननु नवमुक्तपदे - केवली णं' इत्यादिसूत्रे 'जं समयं ' इत्यादौ यत्समकमित्याद्यर्थो न सर्वस्वरससिधः, तादृशप्रयोगान्तरे तथाविवरणालावात् , तथा |' नाणदंसणठ्याए मुवे अहं' इत्याद्यागमविरोधोऽपि, यधर्मविशिष्ट विषयावच्छेदेन नेदनयार्पणं तमविशिष्टापेक्ष्यैव | हित्वादः साकांकृत्वात् , अन्यथाऽतिप्रसंगादित्याशंक्य युक्तिसिद्धः सूत्राओं ग्राह्यस्तेषां स्वसमयपरसमयादिविषयत्नेदेन विचित्रत्वादित्यभिप्रायवानाह-परवत्तत्वयपरका अविसुझा तेसु तेसु अत्येसु । अत्यगळ अ तेसिं विअंजणं जाण| कुण ॥ १६॥ परेषां वैशेषिकादीनां यानि वक्तव्यानि तेषां पदा अविशुखास्तेषु तेष्वर्षेषु सूत्रे तन्नयपरिकर्मणादिहेतो
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बिन्दु
हान
॥१६॥
निवघाः । अर्थगत्यैव सामर्थ्येनैव तेषामर्थानां व्यक्तिं सर्वप्रवादमूलघादशांगाविरोधेन ज्ञको झाता करोति । तथा च '. समयं' इत्यादेयथाश्रुतार्थे केवली श्रुतावधिमनःपर्यायकेवड्यन्यतरो ग्राह्यः, परमावधिकाधोवधिक स्थातिरिक्तविषये स्नातकादिविषये वा तादृशसूत्रप्रवृत्ती, तत्र परतीथिकवक्तव्यताप्रतिवचत्वं वाच्यमेवमन्यत्रापीति दिक् । 'केवलनाणे | केवलदसणे' इत्यादिनेदेन सूत्र निर्देशस्यैकार्थिकपरतैवेत्यभिप्रायेणोपक्रमते-" जेण मणोविसयगयाण दंसणं णस्थि दबजादाणं । तो मणपज्जवनाणं नियमा नाणं तु णिदि ॥१७॥” यतो मनःपर्यायज्ञानविषयगतानां तषियसमूहानुप्रविप्टानां परमनोजव्यविशेषाणां बाह्यचिन्त्यमानार्थगमकतापयिकविशेषरूपस्यैव सन्नावाद्दर्शनं सामान्यरूपं नास्ति, तस्मान्मनःपर्यायज्ञानं ज्ञानमेवागमे निर्दिष्टं, ग्राह्यसामान्यानावे मुख्यतया तद्हणोन्मुखदर्शनानावात् । केवलं तु सामान्यविशेषोजयोपयोगरूपत्वाउन्नयरूपैकमवेति जावः । सूत्रे उन्नयरूपत्वेन परिपवितत्वादप्युनयरूपं केवलं, न तु क्रमयोगादित्याह"चरकुअचरकुअवधिकेवलाण समयम्मि दसणविअप्पा। परिपठिा केवलनाणदसणा ते ण विय अण्णा ॥ १७॥" स्पष्टा । चक्षुरादिज्ञानवदेव केवलं झानमध्ये पागत् ज्ञानमपि, दर्शनमध्ये पागच्च दर्शनमपीति परिजाषामात्रमेतदिति ग्रन्यकृतस्तात्पर्यम् । मतिझानादेः क्रम इव केवलस्याक्रमेऽपि सामान्यविशेषाजहवृत्त्यैकोपयोगरूपतया शानदर्शनत्वमित्येकदेशिमतमुपन्यस्यति-"दसणमुग्गहमेत्तं घमोत्ति निबन्नणा हवइ नाणं । जश् इत्य केवलाण वि विसेसणं इत्तियं चेव॥१५॥" अवग्रहमात्र मतिरूपे बोधे दर्शनं, इदं तदित्यव्यपदेश्य, घट इति निश्चयेन वर्णना तदाकारान्निलाप इतियावत् ।। कारणे कार्योपचाराच्च घटाकारानिलापजनकं घटे मतिज्ञानमित्यर्थः । यथाऽत्रैवं तथा केवलयोरप्येतावन्मात्रेण विशेषः ।
॥१६० ।।
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एकमेव केवलं सामान्यांशे दर्शनं विशेषांशे च ज्ञानमित्यर्थः । एकदेश्येव क्रमिकनेदपङ्कं दूषयति- “ दंसणपुवं नाणं नापएमित्तं तु दंसणं पत्थि । तेण सुविनियामो दंसणनाणा ए अत्तं ॥ २० ॥ " दर्शनपूर्व ज्ञानमिति ब्रह्मस्थोपयोगदशायां प्रसिद्धम् । सामान्यमुपलभ्य हि पश्चात्सर्वो विशेषमुपलनत इति, ज्ञाननिमित्तं तु दर्शनं नास्ति कुत्रापि, तथाऽप्रसिद्धेः । तेन सुविनिश्चिनुमः 'दंसणनाणा' इति दर्शनज्ञानेनान्यत्वं न क्रमापादितभेदं केवलिनि जजत इति शेषः । क्रमान्युपगमे हि केवलिनि नियमाज्ज्ञानोत्तरं दर्शनं वाच्यं, सर्वासां लब्धीनां साकारोपयोगप्राप्तत्वेन पूर्व ज्ञानोत्पत्त्युपगमौचि| त्यात् । तथा च ज्ञानहेतुकमेव केवलिनि दर्शनमच्युपगन्तव्यं, तच्चात्यन्तादर्शनव्याहतमिति जावः । यत्तु क्षयोपशम निबन्धनकमस्य केवलिन्यभावेऽपि पूर्व क्रमदर्शनात्तजातीयतया ज्ञानदर्शनयोरन्यत्वमिति टीकाकृष चाख्यानं, तत्स्वभावभेदतात्पर्येण संजवदपि दर्शने ज्ञाननिमित्तत्व निषेधानतिप्रयोजनतया कथं शोजत इति विचारणीयम् । ननु यथा परेषां कल्पितः क्रमो वर्णनिष्ठो बुद्धिविशेषजनकतावच्छेदकोऽस्माकं च निन्नाभिन्नपर्याय विशेषरूपः, तथा केवलिज्ञानदर्शननिष्ठस्तादृशः क्रम | एवावरणक्षयजन्यतावच्छेदकः स्यादिति नोक्तानुपपत्तिरिति चेन्न, वर्णक्रमस्य क्रमवत्प्रयत्नप्रयोज्यस्य सुवचत्वेऽप्यक्रमिकावरएक्ष्य प्रयोज्यस्य केवस्युपयोगक्रमस्य दुर्वचत्वादनन्यगत्याऽक्रमिकादप्यावरणघ्यक्ष्यात् क्रमवडुपयोगोत्पत्त्यन्युपगमे च | तन्नाशकारणाजावाद विकलकारणात्तादृशोपयोगान्तरधाराया अविवेदाच्च " जुगवं दो एत्थि जवर्जगा " इति वचनानुपपत्तिः । न च ज्ञानस्य दर्शनमेवार्थान्तरपरिणामलक्षणो ध्वंस इत्युपयोगायोगपद्यं सांप्रतं, साद्यनन्तपर्याय विशेषरूपध्वंस| स्यैवावस्थितिविरोधित्वादर्थान्तरपरिणाम लक्ष्णध्वंसस्यातथात्वात् । अन्यथा तत्तत्संयोग विभागादिमात्रेणानुभूयमानघटाव
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ज्ञान
बिन्ः
॥१६॥
मवं सह होतावष्टनार्थत्यस्मउक्तन्नोपयोग
अस्थित्युच्चेदापत्तेः। न च "जुगवं दो पत्थि जवर्षगा" इत्यस्योपयोगयोयुगपछुत्पत्तिनिषेध एव तात्पर्य,न तु युगपदवस्थानेऽपी
त्युपयोगध्यधाराणां नाशकारणालावेन सहावस्थानेऽपि न दोष इति सांप्रतं, अक्रमवादिनाप्येवं क्रमावचिन्नोपयोगध्ययोगपद्यनिषेधपरत्वस्य वक्तुं शक्यत्वात् , सूत्रासंकोचस्वारस्यादरे यदेव ज्ञानं तदेव दर्शनमित्यस्मयुक्तस्यैव युक्तत्वादिति दिक् ।। मतिज्ञानमेवावग्रहात्मना दर्शनं,अपायात्मनाच झानमिति यमुक्तं दृष्टान्तावष्टंनार्थमेकदेशिना तद्दषयन्नाह-"ज जग्गहमित्तं दसणं ति मणसि विसेसिया नाणं । मश्नाणमेव दसणमेवं सऽ हो णिप्पन्नं ॥२१॥" यदि मतिरेवावग्रहरूपा दर्शनं, विशेषिता ज्ञानमिति मन्यसे, तदा मतिज्ञानमेव दर्शनमित्येवं सति प्राप्त । न चैतद्युक्तं, “स विविधोऽष्टचतुर्नेद" इति सूत्रविरोधान्मतिझानस्याप्टाविंशतिन्जेदोक्तिविरोधाच्च--" एवं सेसिंदियदंसमि णियमेण होण य जुत्तं । अह तत्थ नाणमित्तं खे(घि)प्प चरकुंमि वि तहेव ॥१॥" एवं शेषेन्जियदर्शनेष्वप्यवग्रह एवं दर्शनमित्यभ्युपगमेन (गमेनियमेन)मतिझानमेव तदिति स्यात, तच्च न युक्तं, पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तेः। अथ तेषु श्रोत्रादिष्विन्जियेषु दर्शनमपि नवज्ञानमेव गृह्यते,मात्रशब्दस्य दर्शनव्यवच्छेदकत्वात् , तक्ष्यवच्छेदश्च तथाव्यवहारानावात् , श्रोत्रझानं घ्राणज्ञानमित्या दिव्यपदेश एव हि तत्रोपलन्यते, न तु श्रोत्रदर्शनं घ्राणदर्शनमित्यादिव्यपदेशः क्वचिदागमे प्रसिद्धः, तर्हि चकुष्यपि तथैव गृह्यतां चकुझानमिति, अथ तत्र दर्शनं, इतरत्रापि तथैव गृह्यतां, युक्तेस्तुट्यत्वात् । कथं तर्हि शास्त्रे चकुर्दर्शनादिप्रवाद इत्यत आह-"नाणमपुछे (जो) अविसए अ अत्यंमि दंसणं होइ । मुत्तूण लिंग जं अणागयाई य विसएसु ॥२३॥"अस्पृष्टेऽर्थे चकुपा य उदेति प्रत्ययः स | झानमेव सच्चतुर्दर्शनमित्युच्यते, इन्जियाणामविषये च परमावादावर्थे मनसा य उदेति प्रत्ययः स झानमेव सदचकुर्दर्शन
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| मित्युच्यते । अनुमित्यादिरूपे मनोजन्यज्ञानेऽतिप्रसंगमाशंक्याहानागता ती तविषयेषु यलिंगज्ञान मुदेति श्रयं काल आसन्न भविष्यद्वृष्टिकस्तथाविधमेघोन्नतिमत्त्वात्, अयं प्रदेश आसन्नवृष्टमेघः पूर विशेषवत्त्वादि (त्यादि) रूपं तन्मुक्त्वा । इदमुपलक्षणं, नावनाजन्यज्ञानातिरिक्तपरोक्षज्ञानमात्रस्य तस्यास्पृष्टाविषयार्थस्यापि दर्शनत्वेनाव्यवहारात् । यद्यस्पृष्टाविषयार्थज्ञानं | दर्शनमनिमतं, तर्हि मनःपर्यायज्ञानेऽतिप्रसंग इत्याशंक्य समाधत्ते - "मणपवनाएं दंसणं ति तेणेह होइ ए य जुत्तं । नन्नइ नाणं णोइंदियंमि ए घमादर्ज जम्हा || २४ ॥ " एतेन लक्षणेन मनःपर्यायज्ञानमपि दर्शनं प्राप्तं, परकीयमनोगतानां | घटादीनामासंव्यानां तत्रासत्त्वेनास्पृष्टेऽविषये च घटादावर्थे तस्य जानात्, न चैतद्युक्तं, आगमे तस्य दर्शनत्वेनापाठात् । जण्यतेऽत्रोत्तरम् - नोइंद्रिये मनोवर्गणाख्ये मनोविशेषे प्रवर्तमानं मनःपर्यायबोधरूपं ज्ञानमेव, न दर्शनं, यस्मादस्पृष्टा घटादयो नास्य विषय इति शेषः । नित्यं तेषां लिंगानुमेयत्वात् । तथा चागमः - "जाइ बनेणुमाणाति" मनोवर्गणास्तु परात्मगता अपि स्वाश्रयात्मस्पृष्टजातीया एवेति न तदंशेऽपि दर्शनत्वप्रसंगः। परकीयमनोगतार्थाकार विकल्प एवास्य ग्राह्यः, तस्य चोजयरूपत्वेऽपि बाझ स्थिकोपयोगस्यापरिपूर्णार्थग्राहित्वान्न मनःपर्यायज्ञाने दर्शनसंजय इत्यप्याहुः । किं च - "म - सुनाए एमित्तो बमत्थे होइ अडवलंनो । एगयरंमि वि तेसिं ए दंसणं दंसणं कत्तो ||२५|| ” मतिश्रुतज्ञाननिमित्तः उद्मस्थानामर्थोपलंन उक्त आगमे । तयोरेकतरस्मिन्नपि न दर्शनं संजवति । न चावग्रहो दर्शनं, तस्य ज्ञानात्मकत्वात्, ततः कुतो दर्शनं ? नास्तीत्यर्थः । ननु श्रुतमस्पृष्टेऽर्थे किमिति दर्शनं न जवेत्तत्राह - "जं पञ्चरकग्गहणं ण इति सुनाए संमिया वा । तम्हा दंसणसद्दो ए होइ सयले वि सुना ॥ २६ ॥” यस्माच्छ्रुतज्ञानप्रमिता अर्थाः प्रत्यक्षग्रहणं न
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ज्ञान
बिन्दु
१६२ ॥
यान्ति, अदजस्यैव व्यवहारतः प्रत्यक्त्वात् । तस्मात्सकलेऽपि श्रुतझाने दर्शनशब्दो न भवति । तथा च व्यंजनावग्र. हाविषयार्थप्रत्यक्त्वमेव दर्शनत्वमिति पर्यवसन्नं । प्रत्यक्षपदादेव श्रुतज्ञानवदनुमित्यादेावृत्तौ परोदन्निन्नत्वे सतीति विशेषणं न देयं, "मुत्तूण लिंग जं" इत्युक्तस्याप्यत्रैव तात्पर्य ऽष्टव्यम् । इत्थं चाचकुदर्शनमित्यत्र नञः पर्युदासार्थकत्वादचकुर्दर्शनपदेन मानसदर्शनमेव ग्राह्य, अप्राप्यकारित्वेन मनस एव चकुःसदृशत्वान्न घ्राणदर्शनादीति सर्वमुपपद्यते । तथा चावधिदर्शनमपि कथं संगचते, तस्य व्यंजनावग्रह विषयार्थग्राहित्वेऽपि व्यवहारतः प्रत्यक्त्वाजावादित्याशंकायाः प्रत्यदपदस्य व्यवहारनिश्चयसाधारणप्रत्यक्षार्थत्वात् ,अवधिज्ञानस्य च नैश्चयिकप्रत्यक्त्वाव्याहतेः परिहारमन्निप्रा(प्रे)यन्नाह| "जं अप्पुषा नावा जेहिनाणस्स होंति पञ्चरका । तम्हा हिनाणे दंससदो वि नवनत्तो ॥ २७ ॥ स्पष्टा । उपयुक्तः लब्धनिमित्तावकाशः केवलझानेऽपीदं लदाणमव्याहतमित्याह-"जं अप्पुझे नावे जाणइ पास य केवली णियमा । तम्हा तं नाणं दंसणं च अविसेस सिंध ॥ २८ ॥” यतोऽस्पृष्टान् नावान्नियमेनावश्यंतया केवली चकुष्मानिव पुरःस्थितं जानाति पश्यति चोजयप्राधन्येन, तस्मात्तत्केवलझानं दर्शनं चाविशेषत नजयानिधाननिमित्तस्याविशेषात्सिई । मनःपर्यायज्ञानस्य तु व्यंजनावग्रहाविषयार्थकप्रत्यक्त्वेऽपि बाह्यविषये व्यभिचारेण स्वग्राह्यतावच्छेदकावच्छेदेन प्रत्यदत्वानावान्न दर्शनत्वमिति निष्कर्षः । अत्र यट्टीकाकृता प्रमाणप्रमेययोः सामान्यविशेषात्मकत्वेऽप्यपनीतावरणे युगपञ्जयस्वजावो बोधः, बद्मस्थावस्थायां त्वनपगतावरणत्वेन दर्शनोपयोगसमये झानोपयोगाजावादप्राप्यकारिनयनमनःप्रनवार्थावग्रहादि, मतिज्ञानोपयोगप्राक्काले चकुरचकुर्दर्शने, अवधिज्ञानोपयोगप्राक्काले चावधिदर्शनमाविर्भवतीति व्याख्यातं तदर्धजरतीय
॥ १६॥
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न्यायमनुहरति, प्राचीनप्रणयमात्रानुरोधे श्रोत्रादिज्ञानात् प्रागपि दर्शनान्युपगमस्यावर्जनीयत्वात् , व्यंजनावग्रहार्थावग्रहान्तराले दर्शनानुपलनात्तदनिर्देशाच्च, असंख्येयसामयिकव्यंजनावग्रहान्त्यक्षणे "ताहे दुतिकरे” इत्यागमेनार्थावग्रहोत्पत्तरेव लणनात्, व्यंजनावग्रहप्राकाले दर्शनपरिकल्पनस्य चात्यन्तानुचितत्वात् । तथा सति तस्येन्छियार्थसन्निकर्षादपि निकृष्टत्वेनानुपयोगप्रसंगाच्च,प्राप्यकारीन्जियजज्ञानस्थले दर्शनानुपगमे चान्यत्रापि निन्नतत्कटपने न किंचित्रमाणं, नाणमपुरे' इत्यादिना झानादनेदेनैव दर्शनस्वजावप्रतिपादना चकुर्वहिषयाख्यातिरित्यादिश्रुतिग्रन्थकवाक्यतयापि तथैव स्वारस्याच्च । उद्मस्थानोपयोगे दर्शनोपयोगत्वेन हेतुत्वे तु चक्कुप्येव दर्शनं नान्यत्रेति कथं श्रध्यं? तस्माच्छ्रीसिद्धसेनोपझनव्यमते न कुत्रापि ज्ञानादर्शनस्य कालनेदः, किं तु स्वग्राह्यतावच्छेदकावच्छेदेन व्यंजनावग्रहाविषयीकृतार्थप्रत्यक्ष्त्वमेव दर्शनत्वमिति फलितम् । यदि च चाकुपादावपि ज्ञानसामग्रीसामर्थ्यग्राह्यवर्तमानकालाद्यशे मितिमात्राद्यंशे च न दर्शनत्वव्यवहारस्तदविषयता विशेष एव दर्शनत्वं, स च क्वचिदंशे योग्यताविशेषजन्यतावच्छेदकः,क्वचिच्च नावनाविशेषजन्यतावच्छेदकः, केवले च सर्वांशे आवरणक्यजन्यतावच्छेदक इति प्रतिपत्तव्यं । न चार्थेनैव धियां विशेष इति न्यायादाविशेषे झाने विषयताविशेषासिधिरिति शंकनीय, अर्थेऽपि ज्ञानानुरूपस्वजावपरिकल्पनात्, अर्थाविशेषेऽपि परैः समूहालंबनामिशिटज्ञानस्य व्यावृत्तये प्रकारिता विशेषस्यान्युपगमाच्च । न हि तस्य तत्र जासमानवैशिष्ट्यप्रतियोगिझानत्वमेव निरूपकविशिप्टज्ञानत्वं वक्तुं शक्यं, दंझपुरुषसंयोगा इति समूहालंबनेऽतिप्रसंगात् । न च नासमानं यकैशिष्ट्यप्रतियोगित्वं तत् ज्ञानत्वमेव, तथा दम्पुरुषसंयोगप्रतियोगित्वानुयोगित्वानीति ज्ञाने दमविशिष्टज्ञानत्वापत्तेः । न च स्वरूपतो लासमानमित्या
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हान
विन्ः
८३॥
द्युक्तावपि निस्तारः, प्रतियोगित्वादेरतिरिक्तत्वे प्रकारित्वादेाननिष्ठत्व कल्पनाया एव सधुत्वात् । अनतिरेके तु दंडदंभत्वादिनिर्विकपकेऽपि दमादिविशिष्टज्ञानत्वापत्तेः । एतेन स्वरूपलो भासमानेन वैशिष्ट्येन गन्तिलक्षणामप्यपास्तम् , संयुक्तसभवायादेः संवन्धत्वे स्वरूपत इत्यस्य पुर्वचत्वाच्च । तस्मात्परान्युपगतत्रकारिता विशेषवदाकारविशेषः स्याघादमुनयाऽर्थानुरुपत्तदननुरुषो वा झाने दर्शनशब्दव्यपदेशहेतुरनाविलस्तत्समय एवाश्रज्ञानयोरविनिगमेनाकाराकारितावस्वनावाविह्मवादित्येष पुनरस्माकं मनीषोन्मेषः । तस्माद्वयात्मक एव केवलायबोध इति फलितं स्वमतमुपदर्शयति-" साईअपऊवसियं ति दोवि ते ससमयं हवा एवं । परतित्वियवत्तवं च एगसमयंतरुप्पा ॥५॥" साद्यपर्यवसितं केवलमिति हेतोः अपि ज्ञानदर्शने ते उन्नयशब्दवाच्यं तदिति थावत् । अयं च स्खसमयः स्वसिद्धान्तः । यस्त्वेकसमयान्तरोत्पादस्तयोण्यते, तत्परतीर्थिकशास्त्रं, नाईछचन, नयान्तिप्रायेण प्रवृत्तत्वादिति जावः । एवं जूतवस्तुतत्त्वश्रघानरूपं सम्यग्द
नमपि सम्यग्ज्ञानविशेष एव, सम्यग्दर्शनत्वस्यापि सम्यग्ज्ञानत्वव्याप्यजातिविशेषरूपत्वाविषयताविशेषरूपत्वात्याह“ एवं जिएपण ते सद्दहमाणस्स नाव नावे । पुरिसस्सालिणिबोहे दसणसद्दो हवा जुत्तो ॥३०॥" जिनप्राप्त्यनावविषयं समूहालंवनं रुचिरूपं झानं मुख्यं सम्यग्दर्शनं तघासनोपनीताविषयं घटादिज्ञानमपि जातं तदिति तात्पर्यार्थः ।। ननु सम्बग्झाने सम्यग्दर्शननियमवदर्शनेऽपि सम्यज्ञाननियमः कपन त्यादित्यवाह-"सम्मन्नाणे णियमेण दसणं दंसणे उजयणिज । सम्मन्नाणं च इमं ति अत्य होइ उववरणं ॥३१॥” सम्यग्ज्ञाने नियमेन सन्यग्दर्शनं, सम्यग्दर्शने पुन
१६३ ।।
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जनीय विकट्पनीयं, सम्यग्ज्ञानं एकान्तरुचौ न संजवति, अनेकान्तरुचौ तु समस्तीति । अतः सम्यग्ज्ञानं चेदं सम्यग्दर्शनं चेत्यर्थः । सामर्थ्य नैवोपपन्नं भवति । तथा च सम्यक्त्वमिव दर्शनं ज्ञानविशेषरूपमेवेति नियूंढम् ।
प्राचां वाचां विमुख विषयोन्मेषसूदमेदिकायां येऽरण्यानीनयमधिगता नव्यमार्गानतिज्ञाः। तेषामेषा समयवणिजां संमतिग्रन्थगाया विश्वासाय स्वनयविपणिप्राज्यवाणिज्यवीश्री॥१॥ नेदग्राही व्यवहतिनयं संश्रितो मलवादी पूज्याः प्रायः करणफलयोः सीन्नि शुधर्जुसूत्रम् । जेदोलेदोन्मुखमधिगतः संग्रहं सिम्सेनस्तस्मादेते न खलु विषमाः सूरिपदास्त्रयोऽपि ॥२॥ चित्सामान्यं पुरुषपदलाकेवलाख्ये विशेषे तद्रूपेण स्फुटमनिहितं साधनन्तं यदेव । सूदमैरंशैः क्रमवदिदमप्युच्यमानं न जुष्टं तत्सूरीणामियमलिमता मुख्यगौणव्यवस्था ॥३॥ तमोऽपगमचिजनुः दणनिदा निदानोन्नवाः श्रुता बहुतराः श्रुते नयविवादपदा यथा। तथा क श्व विस्मयो नवतु सूरिपत्रये प्रधानपदवी धियां व नु दवीयसी दृश्यते ॥४॥ प्रसह्य सदसत्त्वयोन हि विरोधनिर्णायकं विशेषणविशष्ययोरपि नियामक यत्र न । गुणागुणविनेदतो मतिरमेश्या स्यात्पदा किमत्र जजनोर्जिते स्वसमये न संगनुते ॥५॥ प्रमाणनयसंगता स्वसमयेऽप्यनेकान्तधीनयस्मयतटस्थतोलसपाधिकिर्मी रिता । कदाचन न बाधते सुगुरुसंप्रदायक्रमं समंजसपदं वदंत्युरुधियो हि सद्दर्शनम् ॥ ६॥
सूदमैरशान्य पुरुषपदनाकेवलाख्य वितरमादेते न खलु विषमाः मान्न शुधर्जुसूत्रम् ।
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________________ / बिन्ः रहस्य जानन्ते, किमपि न ज्यानो हतधिको विरोध नापन्ते विविधबुधपक्षे बत सक्षाः / अभी चादिप्रकृतिविकृतिव्यत्ययगिरा निराकाः कुत्राप्यहह न गुणान्वेपणपराः // 7 // दिसझानपिन्दोरमन्दान्मन्दारोः कः फलास्वादगर्वः / साक्षसाक्षात्कारपीयूषधारादारादीनां को विलासश्च रम्यः // // गरे श्रीविजयादिदवसुंगुरोः कई गुणा गणः प्रदि प्रोढिमधान्नि जीतविजयाः प्राज्ञाः परामवरुः / तत्सानीच॑ नृतां नयादिकिमानां शिशुतत्त्वं किंचिदिदं यशोविजय इत्याख्यानृदाख्यातवान् // 5 // // इति उपाध्यायश्री यशोविजयगहिना रचितं ज्ञानबिन्छुप्रकरणम् / / 2050 Fu