Book Title: Meri Jivan Gatha 02
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री १०५ वर्णी जी Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय पूज्य वर्णी जी द्वारा स्वय लिखित मेरी जीवन गाथा प्रथम भाग को प्रकाशित हुए काफी समय हो गया है । इस वर्ष उसकी द्वितीय श्रावत्ति भी प्रकाशित हो गई है। इसे पूज्य वर्णी जी ने अपने जीवनवृत्तके साथ अनेक रोचक और हृदयग्राही घटनाओं, सामाजिक प्रवृत्तियो और धर्मोपदेशसे समृद्ध बनाया है। पूज्य वर्णी जीकी कलममे ऐसा कुछ आकर्षण है कि जो भी पाठक इसे पढ़ता है उसकी अात्मा उसे पढ़ते हुए तलमला उठती है । वह वीर स० २४७५ में प्रकाशित हुई थी इसलिए स्वभावतः उसमें उसके पूर्व तक का ही इहवृत्त सकलित हो सका है। उसे समाप्त करनेके बाद प्रत्येक पाठककी इच्छा होती थी कि इसके आगेकी जीवनी भी यदि इसी प्रकार संकलित होकर प्रकाशित हो जाय तो जनताका बडा उपकार हो । अनेक बार पूज्य वणी जीके समक्ष यह प्रस्ताव रखा भी गया किन्तु सफलता न मिली। सौभाग्यकी बात है कि पिछले वर्ष जयन्तीके समय जब हम लोगोंने पुनः यह प्रश्न उठाया और पच वणी जीसे प्रार्थना की तो उन्होंने कहा भैया ! उसमें क्या धरा है ? फिर भी यदि आप लोग नही मानते हो तो हमने जो प्रत्येक वर्प की डायरियाँ ग्रादि लिखी हैं उनमे अब तककी सब मुख्य घटनाएं लिपियुद्ध हैं, आप लोग चाहो तो उनके अाधारसे यह कार्य हो सकता है । मबको पूज्य वर्णी जी की यह मम्मति जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई। तत्काल जो डायरियाँ या दूसरी सामत्री ईमरीमे थी वे वहॉते ली गई और जो श्री गणेशप्रसाद वणी जैन उन्धमालाके पागलयमें थी वे वहाँसे ली गई और सबको एकत्रित करके श्री विद्यार्थी नन्द्ररमार जीके हाथ सागर भी प. पन्नालाल जी नादियानाने पान पहुँचाची गई। मेरी जीवन गाथा प्रथम भागको ६० पनालाल जी मारिल्याचा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा ने ही अन्तिम रूप दिया था इसलिए यही सोचा गया कि इस कार्यको भी वे ही उत्तम रीति से निभा सकेंगे। पहले तो पण्डित जी ने वर्णी ग्रन्थमाला कार्यालयको यह लिखा कि ग्राजकल हमें बिल्कुल अवकाश नहीं है, गर्मी के दिनोंमें हम यह कार्य कर सकेंगे । किन्तु जब उन्हें यह कार्य शीघ्र ही करनेकी प्रेरणा की गई तो उन्होंने सागर विद्यालयसे प्रतिदिन कुछ समयके लिए अवकाश ले लिया और अपनी एवनम दूसरे ग्रामीको नियुक्त कर दिया । प्रसन्नता है कि उन्होंने उस समयके भीतर बढ़ी लग्नसे इसे संकलित कर दिया। इसके बाद पण्डित जी उक्त सब सामग्री लेकर ईसरी गये और पृज्य वर्णी जीके समक्ष उसका पाठ किया । कुल सामग्री पृज्य वर्णी जीके लिखानका संकलन मात्र तो है ही इसलिए उसमें थोडे बहुत हेर-फेरके सिवा अधिक कुछ भी सशोधन नहीं करना पडा | वही मेरी जीवन गाथाका यह उत्तरार्ध है जिसे श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला वाराणसीकी ओर से प्रकाशित करते हुए हम प्रसन्नताका अनुभव करते हैं । पण्डित जी ने मनोयोग पूर्वक इस कार्यको सम्पन्न किया इसके लिए तो हम उनके आभारी हैं ही। साथ ही उन्होंने रॉची और खरखरी जाकर इस भागकी करीब ८०० प्रतियोंके प्रकाशन खर्च का भार वहन करनेके लिए प्रबन्ध कर दिया इसके लिए हम उनके और भी विशेष आभारी हैं । जिन महानुभावने प्रतियॉ लेना स्वीकार किया उनकी नामावलि इस प्रकार है २ १. श्रीमान् लाला फीरोनीलाल जी सा० दिल्ली २. रायबहादुर सेठ हर्षचन्द्र जी सा० राँची ३. दानवीर स्वर्गीय सेठ चाँदमल जी पॉड्या राँची वालोंकी धर्मपत्नी गुलाबीदेवी जी ४. श्रीमान् बाबू शिखरचन्द जी सा० खरखरी ५. श्रीमान् सेठ जगन्नाथ जी पॉड्या कोडरमा ६. श्रीमान् सेठ विमलप्रसाद जी खरखरी / ५०० प्रति २००१ २५० प्रति २५० १०० ޅ १०० १ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय ७ श्री रामप्यारी बाई नाटन एवनिग हाउस न० ५२ २५ ,, ८ श्री पिन कपूरीदेवी गया (नन्देका) २५ ,, इनमेंने कुछ महानुभावीका रुपया पेशगी भी या गया है। इन मोन उदार नरयोग के लिए म उनके भी अत्यन्त अाभारी हैं। नेगे जीवन गाथा प्रथम भागके समान यह भाग भी अत्यन्त रोचक पोर आकर्षक बन गया है। इसमें तत्त्वगानकी विशेष प्रचुरता ही उन खान विगेपता है । पख्य वर्णा जोका जीवन प्रारम्भसे लेकर अब नक किन प्रकार व्यतीत हुया, उनकी सफलताकी कुजी क्या है और उनकी हम जीवन यात्रासे समाज और देश किस प्रकार लाभान्वित दुवा आदि विविध प्रश्नोका समुचित उत्तर प्रात करनेके लिए तथा अपने जीवनको कार्यशील और प्रामाणिक बनाने के लिए प्रत्येक गृहस्थको तो मेरी जीवन गाथाके दोनो भागोंका स्वाध्याय करना ही चाहिए । जो वर्तमानम त्यागी होकर त्यागी जीवन या प्रतिमा जीवन व्यतीत कर रहे हैं उन्हें भी अपने जीवनको कर्तव्यशील और मर्यादानुरूप बनानेके लिए इसके दोनों भागोंका स्वाध्याय करना चाहिए । दम कालमे जैन समाजके निर्माता जो भी महापुरुप हो गये हैं, या है उनमें पूज्य वणी जी प्रमुख हैं। सस्कृत विद्याके प्रचारमे तो इनका प्रमुख हाथ रहा ही है। रूढिचुस्त जनताको उसके बन्धनसे मुक्त करनेमे भी इन्होने अपूर्व योग दिया है । ये अपनी स्फूर्ति, प्रेरणा, सहृदयता, निस्पृहता और परोपकार वत्तिके कारण जन-जनके मानसमें समाये हुए हैं। हमारी कामना है कि पज्य वर्णी जी चिर काल तक हम सबको मार्ग दर्शन करते रहे। श्रद्धावनत फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री वंशीधर व्याकरणाचार्य ग्रन्थमाला सम्पादक और नियामक मत्री श्री गवर्णी जैन ग्र०वाराणसी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात पिछले वर्ष श्री पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री वी जयन्ती पर ईसरी गये थे। भाई नरेन्द्रकुमार जी, जो अपनेको विद्यार्थी लिखते हैं पर अत्र विद्यार्थी नहीं एम० ए० और साहित्याचार्य हैं, भी गये थे। वहाँ से लौटने पर पण्डितजीने पूज्य वर्णीजीकी पुरानी डायरियों तथा लेख अाटिके रजिस्टरोका एक बडा वत्ता नरेन्द्रकुमारजीके हाथ हमारे पास भिजाया और साथ ही उनका डाकसे एक पत्र मिला जिसमे लिखा था कि मै ईसरीसे लौट रहा हूँ। जीवनगाथा प्रथम भागके आगेकी गाथा इन डायरियो मे पूज्य वर्णाजीने लिखी है। उसे आप शीघ्र ही व्यवस्थित कर दे । नरेन्द्रकुमारजी स्वयं तो सागर नही आये पर उनका भी उक्त सामग्री के साथ इसी आशयका एक पत्र मिला। इनसे इस पुण्य कार्यके लिये प्रेरणा पा मुझे बहुत हर्ष हुआ। पर प्रातः ५ वजेसे लेकर रात्रिके १० बजे तक मेरी जो दिनचर्या है उसमें कुछ लिखनेके लिये समय निकालना कठिन ही था। मैने बनारस लिखा कि 'यह काम ग्रीष्मावकाशमे हो पावेगा।' ग्रीष्मावकाशके लिये पर्याप्त देरी थी और पूज्य बाबाजीके स्वास्थ्यके जो समाचार आ रहे थे उनसे प्रेरणा यही मिलती थी कि यह काम जल्दीसे जल्दी पूर्ण किया जाय । अन्तमे जब कुछ उपाय न दिखा तब विद्यालयसे मैंने प्रतिदिन दो घटेकी सुविधा मागी और विद्यालयके अधिकारियोंने मुझे सुविधा दे दी। फलस्वरूप मेरी शक्ति इस काममे लग गई और ३ माहम यह महान कार्य पूर्ण हो गया । पूर्ण होते ही मे पूज्य बाबाजीके पास ईसरी गया और उन्हें आद्योपान्त सब सामग्री श्रवण करा दी। आवश्यक हेर-फेरके बाद पाण्डु लिपिको अन्तिम रूप मिल गया और उसे प्रकाशनके लिये Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • विद्वद्वर्य पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य जीवनगाथाके सफल संपादक [मू० पृ०४] Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' अपनी बात श्रीवर्णी ग्रन्थमालाको सौप दिया। प्रसन्नता है कि उसका प्रकाशन पूर्ण हो गया है। . मेरो जीवन-गाथाका पूर्व भाग लोकोत्तर घटनाओसे भरा है तो यह दूसरा भाग लोकोत्तर उपदेशोंसे भरा है। इस भागमे कितनी ही सामाजिक रीति रिवाजो पर चर्चा पाई है और खुलकर उनपर विचार हुआ है । आध्यात्मिक प्रवचनोंका तो मानों यह भण्डार ही है। इसको पढ़नेसे पाठककी अन्तरात्मा द्रवीभूत हो जाती है। इस युगमे पूज्य वीजीके समान निर्मल सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न अटल श्रद्धानी एवं समाजको गतिविधिमे पूर्ण जागरूक रहनेवाला व्यक्ति सुलभ नहीं है। इसलिये श्री जिनेन्द्र भगवानसे हमारी प्रार्थना है कि पूज्य वर्णीजी चिरकाल तक जन-जनको सच्चा पथ प्रदर्शित करते रहें। सागर १६-१-१६६० श्रद्धावनत पन्नालाल जैन Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ७६ १ मुरारसे गागरा २ मथुराम जैन संघका अधिवेशन ३ अलीगढका वैभव ४ मेरठकी ओर ५ मेरठ ६ खतौली ७ हस्तिनागपुर ८ मुनफ्फरनगर ६ सहारनपुर-सरसावा १० दिल्लीकी अोर (१) ११ दिल्लीकी ओर (२) १२ दिल्लीका ऐतिहासिक महत्त्व और राजा हरसुखराय १३ दिल्लीका परिकर १४ हरिजन मन्दिर प्रवेश १५ पावन दशलक्षण पर्व १६ नम्र निवेदन १७ दिल्लीके शेष दिन १८ दिल्लीते हस्तिनागपुर १६ इटावाकी और २० इटावा २१ इटावाने अञ्चलमें २२ अष्टान्तिका पर्व ६० १०० १०७ ११५ १२३ ફર૭ १३२ १४५ १४६ १६२ १६८ १७२ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ १७८ १८६ १८४ १६२ १६४ १६७ २०० २३ उदानीनाश्रम और सत्कृत विद्यालयका उपक्रम २४ जैनदर्शनके लेख पर २५ अक्षय तृतीया २६ विद्यालयका उद्घाटन और विद्वत्परिपकी बैठक २७ अनेक नमत्यात्रोंका हल लीशिक्षा २८ इटावामे चानुमासका निश्चय २६ सिद्धचक्रविधान ३० रक्षाबन्धन और प! पण ३१ इटावासे प्रत्थान ३२ फिरोजाबाटकी योर ३३ फिरोजाबादमें विविध समारोह ३४ वर्णगिरिकी अोर ३५ वयासागरमें ग्रीष्मकाल ३६ श्रतपश्चमी ३७ बरुयामागरसे प्रस्थान ३८ ललितपुरकी ओर ३६ क्षेत्रपालमें चातुर्मास ४० विविध विद्वानोका समागम ४१ इण्टर कालेजका उपक्रम ४२ तीव्र वेदना ४३ पपौरा और अहार क्षेत्र ४४ द्रोणगिरि और रेशन्दीगिर ४५ रेशन्दीगिरिमें पञ्चकल्याणक ४६ सागर ४७ समय यापन ४८ पर्व प्रवचनावली mmmmmm २०६ २१२ २२५ २३८ २५१ २६१ २६६ २७२ २८१ २८७ २६३ ३०४ Mom my m mmr m Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४११ ४१६ ४१७ [ ८ ] ४६ विचारका ५० स्वराज्य मिला पर सुराज्य नहीं ५१ गिरिराजके लिए प्रस्थान ५२ कटनी ५३ बनारसकी ओर वनारस और उसके अञ्चलमें ५५ पार्श्वप्रभुकी ओर ५६ गयामे चातुर्मास निश्चय ५७ स्मतिकी रेखायें ४२१ ४२६ ४३८ ४४२ ४४८ ४५६ ४५८ ४६३ ४६६ ४७२ ४७० ५८ विचार प्रवाह ५६ लघुयात्रा ६० भारहीनो बभूव राष्ट्रपतिसे साक्षात्कार ६२ स्याद्वाद विद्यालयका स्वर्णजयन्ती महोत्सव ६३ प्राचार्य नमिसागरजी महाराजका समाधिमरण ६४ सागर विद्यालयका स्वर्णजयन्ती महोत्सव ६५ श्री क्षु० सम्भवसागरजीका समाधिमरण ६६ हजारीबागका ग्रीष्मकाल ६७ साहुजीकी दान घोषणा ४७४ ४७८ ४८१ ४८३ ४८५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा [द्वितीय भाग] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य वर्णीजी के शरीर की वर्तमान अवस्था J [ १०१ ] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरार से आगरा स सत्यविद्यातपसा प्रणायक समग्रधीरुग्रकुलाम्बराशुमान् । मया सदा पाश्वजिनः प्रणम्यते विलीनमिथ्यापथदृष्टिविभ्रमः॥ इसी ग्वालियर मे भट्टारक जी का मन्दिर है। मन्दिरमे प्राचीन शास्त्र भण्डार है परन्तु जो अधिकारी भट्टारक जी का शिप्य है वह किसीको पुस्तक नहीं दिखाता तथा मनमानी गाली देता है। इसका मूल कारण साक्षर नहीं होना है। पासमे जो कुछ द्रव्य है उसीसे निर्वाह करता है। अव जैन-जनता भी साक्षरविवेकवती हो गई है। वह अब अनक्षरवेपियोंका आदर नहीं करती। हमने बहुत प्रयास किया परन्तु अन्तमे निराश आना पड़ा। हृदयमे कुछ दुःख भी हुआ परन्तु मनमें यह विचार आने से वह दूर हो गया कि संसारमे मनुष्योंकी प्रवृत्ति स्वेच्छानुसार होती है और वे अन्यको अपने रूप परिणमाया चाहते हैं जब कि वे परिणमते नहीं। इस दशामें महा दुखके पात्र होते हैं। मनुष्य यदि यह मानना छोड़ देवे कि पदार्थोंका परिणमन हम अपने अनुकूल कर सकते हैं तो दुःखी होनकी कुछ भी बात न रहे। अस्तु । ___ अगहन वदी संवत् २००५ को एक वजे ग्वालियरसे चलकर ४ मील पर आंगले साहवकी कोठीसे ठहर गये । कोठी राजमहलके समान जान पड़ती है। यहाँ धर्मध्यानके योग्य निर्जन स्थान बहुत हैं। जल यहाँ का अत्यन्त मधुर है, वायु स्वच्छ है तथा बाह्यमे त्रस जीवोंकी संख्या विपुल नहीं है। मकानमें ऋतु के अनुकूल सब सुविधा है। जब वनी होगी तब उसका स्वरूप अति निर्मल होगा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा परन्तु अब मालिकके बिना शून्य हो रही है । ऋषिगणों के योग्य है परन्तु इस कालमे वे महात्मा हैं नहीं । यहाँ से ६ मील चलकर बामौरा आ गये और वामौरा से ४ मील चलकर नूरावाद आ गये । यहाँ पर भी आलीशान कोठी थी, उसी मे ठहर गये । अगहन वदी १२ संवत् २००५ को मोरेनाके अलमे पहुॅचे। पहुँचते ही एक दम स्वर्गीय पं० गोपालदास जी का स्मरण आ गया । यह वही महापुरुप हैं जिनके त्रांशिक विभवसे आज जैन जनता मे जैन सिद्धान्तका विकास दृश्य हो रहा है । जब मोरेन के समीप पहुॅचे तव श्रीमान् पं० मक्खनलाल जी साहव जो कि जैन सिद्धान्त विद्यालयके प्रधान हैं छात्रवर्गके साथ आये । आपने बहुत ही प्रेमसे नगरमे प्रवेश कराया और सिद्धान्त विद्यालयके भवनमें ठहराया । सुख पूर्वक रात्रि बीत गई । प्रातःकाल श्री जिनेद्र भगवान के दर्शन करनेके लिये जैन मन्दिरमे गये । दर्शन कर बहुत ही विशुद्धता हुई । इतने मे पं० मक्खनलाल जी आ गये और कहने लगे कि अभिषेक देखने चलिये । हम लोग पण्डित जी के साथ विद्यालयके भवनके ऊपर जहाँ जिन चैत्यालय था गये । वहाँ पर एक प्रतिविम्बको चौकी के ऊपर विराजमान किया और फिर पण्डित जी ने पाठ प्रारम्भ किया । पञ्चामृताभिषेक किया । यह विलक्षणता यहाँ ही देखनेमे आई कि जलाभिषेक के साथ-साथ भगवान्‌के शिर ऊपर पुष्पोंका भी अभिषेक कराया गया । पुष्पोंका शोधन प्रायः नहीं देखनेमे आया । हमने पण्डित जीसे कुछ नहीं कहा । उनकी जो इच्छा थी वह उन्होंने किया । अनन्तर नीचे प्रवचन हुआ । यहाँकी जनताका बहुभाग इस पूजन प्रक्रियाको नहीं चाहता यह बात प्रसन वश लिख दी । प्रवचनके अनन्तर जब चर्या के लिये निकले तब पण्डित जीके घर पर भोजन हुआ । पण्डित जी ने बहुत हर्पके साथ आतिथ्य Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ मुरारसे आगरा सत्कार किया तथा सोलापुरकी मुद्रित भगवती आराधना की एक प्रति स्वाध्याय के अर्थ प्रदान की । यहाँ पर सिद्धान्त विद्यालय बहुत प्राचीन संस्था है । इसकी स्थापना स्वर्गीय श्री गुरु गोपालदास जीने की थी। इसके द्वारा बहुत निष्णात विद्वान् निकले । जिनने भारत वर्ष भरमे कठिन से कठिन सिद्धान्त शास्त्रोको सरल रूपसे पठन क्रममे ला दिया । १ बजे दिनसे सार्वजनिक सभा थी, प्रसंग वश यहाँ पर मन्दिरके निमित्तसे लोगोंमे जो परस्पर मनोमालिन्य है उसको मिटानेके लिये परिश्रम किया परन्तु कुछ फल नहीं हुआ । अगले दिन भी प्रवचनके अनन्तर संगठनकी बात हुई परन्तु कोई तत्त्व नहीं निकला। जब तक हृदयमें कषाय रूप विषके करण विद्यमान हैं तब तक निर्मलताका आना दुर्भर है। मैं तो यह विचार कर तटस्थ रह गया कि संसारकी दशा जो है वही रहेगी, जिन्हे आत्मकल्याण करना हो वे इस चिन्ता को त्यागें, कल्याणके पास स्वयं पहुँच जायेंगे । मोरेनामे ३ दिन रहनेके बाद धौलपुर की ओर चल दिये । मार्ग एक ग्रामके वाह्य धर्मशाला थी उसमें ठहर गये । धर्मशाला का जो स्वामी था उसने सर्व प्रकार से सत्कार किया । उसकी अन्तरङ्ग भावना भोजन करानेकी थी परन्तु यहांकी प्रक्रिया तो उसके हाथका पानी पीना भी आगम विरुद्ध मानती है । यद्यपि आगम यही तो कहता है कि जिसे जैनधर्मकी श्रद्धा हो और जो शुद्धता पूर्वक भोजन बनावे ऐसे त्रिवर्णका भोजन मुनि भी कर सकता है । अब विचारो जब उसकी रुचि आपको भोजन कराने की हुई तब आपके धर्म में स्वयं श्रद्धा हो गई। जब श्रद्धा आपमे हो गई तब जो प्रक्रिया आप बताओगे उसी प्रक्रियासे वह अनायास आपके अनुकूल भोजन बना देगा । परन्तु यहां तो रूढिवाद की इतनी महिमा है कि जैनधर्मका प्रचार होना कठिन है । अस्तु, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा फिर भी उस धर्मशालाके स्वामीने संघके लोगोंको दुग्ध दान दिया, ५ सेर चावल दाल तथा एक भेली गुड़ की दान की। साथ ही बहुत ही शिष्टाचार का वर्ताव किया। हम लोग जिस अभिप्रायवाले हैं उसीको उपयोगमे लानेका प्रयत्न करते हैं। हमने धर्मको निजकी पैतृक सम्पत्ति समझ रक्खी है। धर्मका सम्बन्ध आत्मासे है। वाह्यमें आचरण ऐसा होना चाहिए जो उसमे सहायक हों। यही कारण है कि जो मानव मद्य, मांस, मधुका त्याग कर चुकता है वही चरणानुयोगमें वर्णित धर्मके पालनका अधिकारी होता है। इसका मूल हेतु यही है कि मद्यपायी मनुप्य उन्मत्त हो जाता है । उन्मत्त होनेसे उसका मन विक्षिप्त हो जाता है। जिसका मन विक्षिप्त हो गया वह धर्मको भूल जाता है । जो धर्मको भूल जाता है वह निःशङ्क हिसादि पापोंमे अनर्गल प्रवृत्ति करता है। इसी प्रकार मांसादिकी प्रवृत्तिमें भी अनर्थ परम्परा जान लेना। आजकल हम लोग उपदेश देकर जनताका सुधार करनेकी चेष्टा नहीं करते। केवल, 'यह लोग पतित हैं। इसी प्रकारकी कथा कर संतोप कर लेते हैं। और की वात जाने दो हम को ५० वर्ष हो गये, प्रतिदिन यही कथा करते करते समय बीत गया परन्तु एक भी मनुप्यको सुमार्ग पर नहीं ला सके। कहाँ तक लिखें अथवा अन्यकी कथा क्या कहूं मैं स्वयं अपनी आत्माको सुमार्ग पर नहीं ला सका। इसका अर्थ यह नहीं कि वाह्य आचरणमे त्रुटि की हो किन्तु जो अन्तरङ्गकी पवित्रता पदके योग्य है उसकी पूर्ति नहीं कर सका। तात्त्विक मर्म तो यही है कि अन्तरङ्गमें मूर्छा न हो। जब इसके ऊपर दृष्टि देते हैं तब मनमें यही आता है कि इस सांसारिक प्रशंसा को त्याग आत्मदृष्टि करो यही सत्य मार्ग है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरारसे आगरा - धर्मशालासे चलकर एक छोटे ग्राममे पहुंच गया। इस ग्राममें ठहरनेका कोई स्थान न था तब वहाँ जो गृहस्थ था उसने अपने निवासको खाली कर दिया और कहा कि सानन्द ठहर जाइये, कोई संकोच न करिये तथा दुग्धादि पान करिये । हमने कहा हम लोग रात्रिको दुग्धादि पान नहीं करते। यह सुनकर वह वहत प्रसन्न हुआ। सानन्द ठहराया, धान्यका घास विछाने को दिया। सुखसे रात्रि बिताई। यहाँसे ६ मील चलकर एक ग्राममें ठहर गये। यहाँका कूप ७० हाथ गहरा था, पानी अति स्वादिष्ट था। यहाँसे भोजन कर चार मील चलनेके वाद चम्बल नदीके तट पर आगये । यहाँ श्रीमान् प्यारेलाल जी भगतके आनेसे बहुत ही प्रमोद हुआ। आपसे संलाप करते करते ४३ वजे धौलपुर पहुंच गये। आगरासे सेठ मटरूमल जी रईस भी आ गये। शिष्टाचारसे सम्मेलन हुआ। मन्दिरमें प्रवचन हुआ जो जनता थी वह आ गई । मनुप्यों की प्रवृत्ति सरल है। जैनी हैं यह अवश्य है परन्तु ग्रामवासी हैं, अतः जैनधर्मका स्वरूप नहीं समझते । यहाँके राजा बहुत ही सज्जन हैं। वन में जाते हैं और रोटी आदि लेकर पशुओको खिलाते हैं। राजाके पहुंचने पर पशु स्वयमेव उनके पास आ जाते हैं। देखो दयाकी महिमा कि पशु भी अपने हितकारीको समझ लेते हैं। यदि हम लोग दया करना सीख लें तो करसे कर जीव भी शान्त हो सकता है। परन्तु हमने निजको महान् मान नाना अनर्थ करनेका ही अभ्यास कर रक्खा है। पशु कितनी ही दुष्ट प्रकृतिका होगा परन्तु अपने पुत्रकी रक्षाके लिये प्राण देनेमें पीछा नहीं करेगा। मनुप्यामे यह बात नहीं देखी जाती। यदि यह मनुष्य अपने स्वरूपका अवलोकन करे तो पशुओंकी अपेक्षा अनन्त प्राणियों का कल्याण कर सकता है। मोक्षमार्गका उदय इसी मनुष्य Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ मेरी जीवन गाथा पर्याय होता है, अतः जिन्हे मनुष्यताकी रक्षा करना है उन्हें अनेक उपद्रवोंको त्याग केवल मोक्षमार्गकी ओर लक्ष्य देना चाहिये और जो समय गल्पवादमे लाते हैं उसे धर्म कार्योंमे लगानेका प्रयत्न करना चाहिये । यहाँके राजाकी प्रवृत्ति देख हमको दयाका पाठ पढ़ना चाहिये । धौलपुर से ५ मील चलकर विरौदा पर शयन किया । भगत जी ने रात्रिको उपदेश दिया । जनता अच्छी थी । यदि कोई परोपकारी धर्मात्मा हो तो नगरोंकी अपेक्षा ग्रामोंमे अधिक जीवों को मोक्षमार्गका लाभ हो सकता है । परन्तु जब दृष्टि स्वपर उपकार की हो तभी यह काम वन सकता है । अब मेरी शारीरिक शक्ति अतिक्षीण हो गई है । शारीरिक शक्तिकी क्षीणतासे वाचनिक कला भी न्यून हो गई है, अतएव जनताको प्रसन्न करना कठिन है । संसारमे वही मनुष्य जगत्‌का उपकार कर सकता है जो भीतर से निर्मल हो । जैसे जब सूर्य मेघ पटलसे आच्छादित रहता है तब जगत् का उपकार नहीं कर सकता । उसका उपकार यही है कि वह पदार्थों को प्रकाशित करता है और यह मनुष्य उन पदार्थो से अपने योग्य पदार्थोंको चुन उनसे अपनी इच्छाएं पूर्ण करता है । सूर्य के समान ही वक्ताकी आत्मा जब तक कषायके पटलसे आच्छादित रहती है तब तक वह जगत्‌का उपकार नहीं कर सकता। यहांसे चलकर मागरौल तथा एक अन्य ग्राम में ठहरते हुए अगहन सुदीप को राजाखेड़ा पहुँच गये । यहां पर श्री भगत प्यारेलाल जी के द्वारा स्थापित एक जैन विद्यालय है । भगत जी के सत्प्रयत्नसे उस विद्यालयका दो लाखका फण्ड है। श्री पं० नन्हेलाल जी इसके मुख्याध्यापक हैं । आप श्रीयुत महानुभाव पं० वंशीवर जी सिद्वान्तशास्त्रीके •मुख्य शिष्योंमे प्रथमतम शिष्य हैं । यापकी पठन-पाठनशैली अत्यन्त Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरारसे आगरा प्रशस्त है। यहां पर कई जैन मंदिर हैं, अनेक गृह जैसवाल भाइयों के हैं। सर्व ही धर्म के प्रेमी हैं। बड़े प्रेमसे सबने प्रवचन सुना यथायोग्य नियम भी लिये। पाठशालाका उत्सव हुआ। उसमें यथाशक्ति दान दिया। जैनियोंमे दान देनेकी प्रक्रिया प्रायः उत्तम है। प्रत्येक कार्यमे दान देनेका प्रचार है किन्तु व्यवस्था नहीं। यदि व्यवस्था हो जावे तो धर्मके अनेक कार्य अनायास चल सकते हैं। यहाँ प्रत्येक व्यक्तिका नेतृत्व है-सब अपनेको नेता समझते हैं और अपने अभिप्रायके अनुरूप कार्य करनेका आग्रह करते हैं। यथार्थमे मनुष्य पर्याय पानेका फल यह है कि अपनेको सत्कर्ममें लगावे । सत्कर्मसे तात्पर्य यह है कि विषयेच्छाको त्यागे । विषय लिप्साने जगत्को अन्धा बना दिया। जगत्को अपनाना-अपना समझना ही अपने पातका कारण है। जन्मका पाना उसीका सार्थक है जो शान्तिसे वीते अन्यथा पशुवत् जीवन वधबन्धनका ही कारण है। मनुष्य अपने सुखके लिये परका आघात करता है परन्तु उसका इस प्रकारका व्यवहार महान् कष्टप्रद है। संसारमे जिनको आत्महितकी कामना है उसे उचित है कि परकी समालोचना छोड़े। केवल आत्मामे जो विकार भाव उत्पन्न होते हैं उन्हे त्यागे। परके उपदेशसे कुछ लाभ नहीं और न परको उपदेश देनेसे आत्मलाभ होता है । मोहकी भ्रान्ति छोड़ो। राजाखेड़ा में तीन दिन ठहरकर आगराके लिये प्रस्थान कर दिया। बीचमें दो दिन ठहरे। जैनियोंके घर मिले। बड़े आदरसे रक्खा तथा संघके मनुष्योंको भोजन दिया, श्रद्धापूर्वक धर्मका श्रवण किया। धर्मके पिपासु जितने ग्रामीण जन होते हैं उतने नागरिक मनुष्य नहीं होते । देहातमे भोजन स्वच्छ तथा 'दुग्ध घी शुद्ध मिलता है। शाक बहुत स्वादिष्ट तथा पानी हवा सर्व ही उत्तम मिलते हैं। किन्तु शिक्षाकी त्रुटिसे वाचालताकी त्रुटि रहती Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा है । यदि एक दृष्टिसे देखा जावे तो वर्तमान शिक्षा उनमें न होनेसे उन लोगोंकी पार्षधर्म श्रद्धा है तथा स्त्रीसमाजमे भी इस्कूली और कालेजी शिक्षाके न होनेसे कार्य करनेकी कुशलता है। हाथसे पीसना, रोटी वनाना तथा अतिथिको भोजन दान देने की प्रथा है। फिर भी शिक्षा देनेकी आवश्यकता तो है ही। यह शिक्षा ऐसी हो जिससे मनुप्यमे मनुष्यताका विकास प्रा जावे । यदि केवल धनोपार्जनकी ही शिक्षा भारतमे रही तो इतर देशों की तरह भारत भी पर को हड़पनेके प्रयत्नमे रहेगा और जिन व्यसनोंसे मुक्त होना चाहता है उनहीका पात्र हो जावेगा तथा भारतका जो सिद्धान्त था कि अयं परो निजो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरिताना तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ वह वालकोंके हृदयमे अङ्कित हो जाता था और समय पा कर उसका पूर्ण उपयोग भी होता था। अब तो वालकोंके मॉ वाप पहले ही गुरु जी से यह निवेदन कर देते हैं कि हमारे पुत्रको वह शिक्षा देना जिससे वह आनन्दसे दो रोटियाँ खा सके। जिस देशमे ऐसे विचार वालकोंके पिताके हो वहाँ वालक विद्योपार्जन कर परोपकार निष्णात होंगे यह असम्भव है । यहाँ पर मार्गमे जो ग्राम मिले उनमे बहुतसे क्षत्रिय तथा ब्राह्मण ऐसे मिले जो अपने को गोलापूरव कहते हैं। हमारे प्रान्तमे गोलापूरव जैनधर्म ही पालते हैं परन्तु यहाँ सर्व गोलापूरव शिव, कृष्ण तथा रामके उपासक हैं। सभी लोगोंने सादर धर्मश्रवण किया किन्तु वर्तमानके व्यवहार इस तरह सीमित हैं कि किसीमे अन्यके साथ सहानुभूति दिखानेकी क्षमता नहीं। इसी से सम्प्रदायवादकी वृद्धि हो रही है । इस प्रान्त मे जैसवाल जैनी बहुत हैं, अन्य जातिवाले पुल कम हैं। यहाँका जलवायु बहुत ही उत्तम है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरारसे आगरा राजाखेड़ा से ६ मील चलकर एक नदी आई उसे पार कर निर्जन स्थानमें स्थित एक धर्मशालामे ठहर गये । स्थान बहुत रम्य तथा सुविधाजनक था। एक दहलान मे सर्व समुदाय ठहर गया । पौष मास था, इससे सर्दी का प्रकोप था। रात्रिमे निद्रा देवी न जाने कहाँ पलायमान हो गई ? प्रयत्न करने पर भी उसका दर्शन नहीं हुआ। अन्तरङ्गकी मूच्छोसे उसके अभावमें जो लाभ संयमी महानुभाव लेते हैं उसका रञ्च भी हमारे पल्ले न पड़ा। प्रत्युत इसके विपरीत आतपरिणामोंका ही उदय रहा। कभी कभी अच्छे विचार भी आते थे परन्तु अधिक देर तक नहीं रहते थे। कभी कभी दिगम्बर मुद्राकी स्मृति आती थी और उससे यह शीतवाधा कुछ समयके लिये श्मशान वैराग्यका काम करती थी। यह देखते थे कि कब प्रातःकाल हो और इस संकटावस्थासे अपने को सुरक्षित करें। इत्यादि कल्पनाओंके अनन्तर प्रातःकाल आ ही गया। सामायिक कार्य समाप्त कर वहाँसे चल दिये । सूर्य की सुनहली धूप सर्वत्र फैल गई और उसकी हलकी ऊष्मा से कुछ संतोषका अनुभव हुआ। एक ग्राममें पहुंच गये । यहाँ पर श्रावकों के घर भी थे। वहीं पर भोजन किया। सवने वहुत आग्रह किया कि एक दिन यहाँ ही निवास करिये। हम लोग भी तो मनुष्य है हम को भी हमारी बात बताना चाहिये । केवल ऊपरी बातों से सन्तोष करा कर आप लोगोंका यहाँसे गमन करना न्यायमार्गकी अव. हेलना करना है। हम ग्रामीण है, सरल हैं, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम कुछ न समझते हों। हममें भी धर्मधारणकी योग्यता है। हाँ, हमने शिक्षा नहीं पाई। शिक्षासे तात्पर्य यह है कि स्कूलकालेज तथा विद्यालयों मे पुस्तक द्वारा ज्ञान प्राप्त नहीं किया किन्तु वह ज्ञान, जिसके द्वारा यह आत्मा अपना पराया भेद जान कर पापोंसे बचती है तो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंमे प्राकृत रूप Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० मेरी जीवन गाथा से विद्यमान रहता ही है । यदि वह ज्ञान हममे न होता तो हम आपको अपना साधु न मानते और न आपको आहार दानकी चेष्टा करते । हम यह जानते हैं कि आहार दानसे पुण्यबन्ध होता है, आत्मा मे लोभ का निरास होता है और मार्गकी प्रभावना होती है । विना स्कूली शिक्षाके हममे दया भी है, हिंसासे भयभीत भी रहते हैं। भोजनादिमे निजींव अन्न पदार्थोंका भक्षण करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि इन बातोंमे हम लोग नागरिक मनुप्योंकी अपेक्षा न्यून नहीं हैं। केवल वाह्य आडम्बरोंकी अपेक्षा उनसे जघन्य हैं। यही कारण है कि आप लोग उनके प्रलोभनामे आ कर घण्टों व्याख्यान देकर भी विराम नहीं लेते हैं परन्तु हम लोगों पर आपकी इतनी भी दयादृष्टि नहीं होती कि थोड़ा भी समय प्रवचनमे लगा कर हमे सुमार्ग पर लानेकी चेष्टा करें। यह आपका दोष नहीं कालकी महिमा है। यदि तथ्य विचारसे इस पर आप परामर्श करेंगे तव हमारा भाव आपके हृदयंगम होगा। ग्रामोंकी अपेक्षा शहरोंमे न तो आपको अन्न ही उत्तम मिलता है और न जल ही। प्रथम तो जिनके द्वारा आपको भोजन मिलता है वे औरतें हाथसे आटा नहीं पीसती । वहुतोंके गृहमे तो पीसन की चक्की ही नहीं। पानीकी भी यही दुर्दशा है। घीकी कथा ही छोड़िये । हाँ, यह अवश्य है कि शहरमे धन्यवाद और कुछ अपील करने पर धन मिल जाता है जिससे वर्तमानमें संस्थाएं चल रही हैं। परन्तु हमारा तो यह विश्वास है कि शहरमे जो धन मिलता है उसमें न्यायार्जितका भाग न होनेसे उसका सटुपयोग नहीं होता। यही कारण है कि समाजमें निरपेक्ष धर्मका उद्योग करनेवाले बहुत ही अल्प देखे जाते हैं। अब आप लोगों की इच्छा जहाँ चाहे जाइये हमारा उदय ही हमारा कल्याण करेगा। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरारसे आगरा ग्रामके लोगोंका लम्बा व्याख्यान सुन हम हतप्रभ से रह गये कुछ भी उत्तर , देनेमे समर्थ नहीं हुए। यहांसे चल कर एक ग्राममे सायंकाल पहुँच गये और प्रातःकाल ३ मील चल एक दूसरे ग्राममे पहुँच गये। यहाँ पर एक ब्रह्मचारी जी रहते थे उन्होंने भोजनका प्रवन्ध किया। महती भक्तिके साथ संघको भोजन कराया। यहाँ पर आगरासे बहुतसे मनुष्य आ गये। सामायिक करनेके अनन्तर सर्व जन समुदायने आगराके लिये प्रस्थान कर दिया । दो मील जानेके वाद सहस्रों मनुष्योंका समुदाय गाजे बाजेके साथ छीपीटोलाके लिये चला। बाजा बजानेवाले वाजामे मधुर मधुर गाना सुना रहे थे जिसको श्रवण कर मार्गका परिश्रम विस्मृत सा हो गया। समुदायके साथ छीपीटोलाकी धर्मशाला मे पहुँच गये। ३ घण्टा व्याख्यानमे गया । व्याख्यानमे यही अलाप था कि हम लोगोंका महान् भाग्य है जो आपका शुभागमन हमारे यहाँ हुआ । हमने भी शिष्टाचारके नाते जो कुछ बना वक्तव्य दिया । वक्तव्य में मुख्य बात यह थी कि__ मनुष्यभव पाना अति दुर्लभ है इसका सदुपयोग यही है कि निजको जानकर परका त्याग कर इस संसार बन्धनसे छूटनेका उपाय करना चाहिये। इसका मूल कारण संयम भाव है । यही तात्पर्य है कि सब ओरसे अपनेको हटा कर अपनेमें लीन हो जाना। यही संसारके विनाशका मूल है, अतः सबसे मोह त्यागो हम तो कोई वस्तु नहीं महापुरुषोंने भी तो यही मागें दिखाया है। महापुरुप वही है जो मोह-राग-द्वेष को निर्मूलित करनेका प्रयत्न करता है। राग द्वेषके अभावमे मूल कारण मोहका अन्त है । उसका अन्त करनेवाला ही सर्वपूज्य हो जाता है । पूज्यता अपूज्यता स्वाभाविक पर्याय नहीं किन्तु निमित्त पाकर आविर्भूत होती है। जहाँ मोहादिरूप आत्मपरिणति होती है वहीं अपूज्यताका व्यवहार Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा होने लगता है और जहाँ इनका नाश होता है वहीं पूज्यताका व्यवहार होने लगता है । पूज्यता अपूज्यता किसी जाति विशेषवाले व्यक्तिकी नहीं होती। जहाँ पापो की निवृत्ति होकर आत्मश्रद्धा हा जाती है वहीं पूज्यता आ जाती है और जहाँ पापोंकी प्रवृत्ति होने लगती है वहीं अपूज्यताका व्यवहार होने लगता है । यद्यपि समस्त आत्माओंमे निर्मल होनेकी योग्यता है तथापि अनादि कालसे पर पदार्थोंका सम्बन्ध इस प्रकारका हो रहा है कि कुछ भी सुध बुध नहीं रहती। यह जीव निरन्तर शरीरके अनुकूल ही प्रवृत्ति करता है। आप लोगोंने वाजा वजवा कर वाह्य प्रभावना की। बहुत ही सुन्दर दृश्य दिखाया पर आभ्यन्तर प्रभावनाकी ओर प्रयास नहीं हुआ। यदि आभ्यन्तर प्रभावना हो जाय तो स्वर्णमे सुगन्धि हो जावे । अपनी ओर किसीका लक्ष्य नही। प्रायः सर्वत्र यही दृश्य देखा जाता है। हमारी प्रभावनासे अन्य लोग लाभ उठा लेते हैं पर हम तो दर्शकमात्र ही रहनका प्रयास करते हैं। अन्यको धर्मका स्वरूप आ जाये यही चेष्टा हमारी रहती है।। छीपीटोलाकी धर्मशालामे २ दिन ठहरे। तीसरे दिन श्री महावीर इन्टर कालेजका उत्सव था गाजे बाजेके साथ वहां गये । उत्सवम अच्छे अच्छे मनुप्योंका समारोह था। व्याख्यानादि का अच्छा प्रवन्ध था। जितने व्याख्यान हुए वे सब प्रायः लाक्कि पदार्थोके पोषक थे। पारमार्थिक दृष्टि लोगों की नहीं । यद्यपि याज शिनाका प्रचार अधिक है परन्तु पारमार्थिक दृष्टिकी ओर ध्यान नहीं । पहले समय में शिक्षाका उद्देश्य आत्मदिन था परन्तु वर्तमानकी शिक्षाका उद्देश्य अर्थाजन नीर कामसेवन है। प्राचीन ऋपियों ने कहा है कि दुःखाद्विभपि नितरामभिवाञ्छन मुबमतोऽदमायामन । टु ग्यापनारि मुग्यकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरारसे आगरा अब यह कथा पुराणोंमे रह गई है। इस कथाको जो कहे वह मनुप्योंकी गणनामे गणनीय नहीं । यही नहीं, लोग तो यहाँ तक कह देते हैं कि इस उपदेशने हमारे भारतवका पतन कर दिया। सभ्य वही जो द्रव्यको अर्जन कर सके और अच्छे वस्त्रादिकोंसे सुसज्जित रहे । स्त्री और पुरुपोंमे कोई अन्तर न देखे। जैसे आप भ्रमणको जाता है वैसे ही स्त्रीगण भी जावे। जिस प्रकार तुम्हे सबसे भापण करनेका अधिकार है उसी तरह स्त्री समाज को भी हो। अस्तु, विषयान्तरको छोड़ो। सभाका काल पूर्ण होने पर कालेज देखा, व्यवस्था बहुत सुन्दर थी, मटरमल जी वैनाडाका अनुशासन प्रशंसनीय है । यहाँ पर एक छात्रावास भी है तथा छात्रावासमे जो छात्र रहते हैं उनके धर्मसाधनके अर्थ १ सुन्दर मन्दिर भी है। उसमें एक बृहत्मूति है जिसके दर्शनसे चित्त शान्त हो जाता है। यह सर्व कार्य वैनाडा जी के द्वारा सम्यनीतिसे चल रहा है। तदनन्तर गाजे बाजेके साथ अन्य जिन मन्दिरोंके दर्शन करते हुए वेलनगञ्जकी जैन धर्मशालामें ठहर गये। धर्मशालामे उपर मन्दिर है। उसमें एक बिम्ब बहुत ही मनोज है । दर्शन करनेसे अत्यन्त शान्ति आई। यह विम्ब श्री पद्मचन्द्र जी चैनाड़ा और उनके सुपुत्र मटरूमल्ल जी वैनाड़ा ने शाहपुर-गणेशगंज (सागर) में पञ्चकल्याण के समय प्रतिष्ठित कराकर यहाँ पधराया है। इसके दर्शन कर भव्योंको जो आनन्द आता है वह वे ही जानें। मन्दिरमे दो वेदिकाएं और भी हैं। धर्मशालाके बगलमे श्री स्वर्गीय मूलचन्द्र सेठकी दुकान है उसमे श्री मगनमल्ल जी पाटनी के स्वामी हैं। आप अत्यन्त सज्जन हैं। आप और आपकी धर्मपत्नी-दोनों प्रातःकाल जिनेन्द्र देव का अर्चन करते हैं। आपके दो सुपुत्र हैं वड़े का नाम श्री कुँवर नेमिचन्द्र है । दोनों ही सुयोग्य हैं । नेमिचन्द्र जीकी अध्यात्म Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा शास्त्र मे अधिक रुचि है। श्रापका अभिप्राय श्री कानजी स्वामीके अनुकूल है । विशेप विवेचनकी आवश्यकता नहीं। यहॉ पर श्री ताराचन्द्र जी रपरिया रहते हैं। आप ऑग्लविद्या के वी. ए. हैं । फिर भी जैन शास्त्रों के मर्मज्ञ हैं। आपकी व्याख्यान शैली अति उत्तम है, चारों अनुयोगों के ज्ञाता हैं, आपका व्यवहार अत्यन्त निर्मल है, फैशनकी गन्ध भी आपको नहीं है, आपके मामा विशिष्ट सम्पन्न हैं फिर भी आप स्वतन्त्र व्यापार कर स्वयं सम्पन्न हुए हैं। धार्मिक पुरुष हैं । विद्वानों से प्रेम रखते हैं। आपको मण्डलीमे प्रायः तत्त्वरुचिवाले ही हैं। प्रतिदिन शास्त्र होता है । श्रोताओं मे श्री वाबूराम जी शास्त्री भी आते हैं। आप बहुत तार्किक हैं-किसी किसी पदार्थ को सहसा नहीं मान लेते। तक भी अनर्गल नहीं करते। यदि यह जीव जैनधर्मके शास्त्रोंका अभ्यास करे तो एक ही हो। परन्तु गृहस्थीके चक्रसे पृथक् हो तव न । इनकी स्त्री सुशीला है। प्रतिदिन दर्शनादि करती है । जब कि इसका जन्म विप्रकुलका है । ताराचन्द्र जी के सम्बन्धसे पं० तुलाराम जी व वकील हजारीलाल जी भी अच्छे धर्मज्ञ हो गये हैं। दो मारवाड़ी भाई तथा ख्यालीराम जी भी इनके शास्त्रमे आते हैं । यहाँ पर एक सभा हुई जिसमे जनताका समारोह अच्छा था । श्वेताम्बर साधु भी अनेक आये थे । साम्यरसके विषयमें व्याख्यान हुआ। विषय रोचक था, अतः सवको रुचिकर हुआ। आत्महित इसीमें है। इससे उच्चतम विषय क्या हो सकता है। यदि इस पर अमल हुआ तो सर्व उपद्रव अनायास ही शान्त हो जावेंगे । परमार्थसे कहनेका नहीं अनुभव गम्य है परन्तु अनुभव तो संसार के विषयोंमे लीन हो रहा है, इसका स्वाद आना ही दुर्लभ है । उपयोग क्रमवर्ती है, अत. एक कालमे एक ही पदार्थ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरारसे आगरा १५ तो वेदन करेगा। यह ज्ञानमे नहीं आता कि जब ज्ञान स्वसंवेद्य ही होता है तब वह परको वेदन करता है यह असंभव है। फिर जो यह स्थान स्थान पर लिखा है कि संसारी जीवने आज तक अपनेको जाना ही नहीं यह समझमे नहीं आता। इसका उत्तर अमृतचन्द्र स्वामी ने स्वयं लिखा है कि ज्ञान तादाम्य होने पर आत्मा आत्माकी उपासना करता ही है फिर क्यो उपदेश देते हो कि आत्माकी उपासना करना चाहिये ? उत्तर-ज्ञान का आत्माके साथ तादात्म्य होने पर भी क्षणमात्र भी आत्मा की उपासना नहीं करता । तो इसके पहले क्या आत्मा अज्ञानी है ? हाँ अज्ञानी है इसमे क्या सन्देह है ? अतः इन पर पदार्थोंसे सम्बन्ध त्यागना ही श्रेयोमार्ग है। व्याख्यान समाप्त होने पर सब लोग अपने अपने स्थान पर चले गये । यहाँ पर दो आदमी रोगग्रस्त हो गये । उनकी शुश्रूषा यहाँ वालोंने अच्छी तरहसे की। वैद्य डाक्टर आदिकी पूर्ण व्यवस्था रही । आगरा बहुत भारी नगर है। यहाँ पर बहुत मन्दिर हैं। हम लोग सब मन्दिरोंमे नहीं जा सके। यहाँ निम्नाङ्कित सद्विचार हृदय मे उत्पन्न हुए। 'संसार की असारताका निरूपण करना कुछ लाभदायक नहीं प्रत्युत आत्मपुरुषार्थ करना परमावश्यक है। आत्माका पुरुपार्थ यही है कि प्रथम पापोसे निवृत्ति करे अनन्तर निजतत्त्वकी शुद्धि का प्रयास करे। ___ 'परिणामो की निर्मलताका कारण पर पदार्थोंसे सम्बन्ध त्याग है। सम्बन्धका मल कारण आत्मीय बुद्धि ही है। 'चित्त वृत्ति शमन करने के लिये आत्मश्लाघा त्यागनेकी महती आवश्यकता है। स्वात्मप्रशंसा के लिये ही मनुष्य प्रायः ज्ञानार्जन करते हैं, धनार्जन करते हैं, अन्यकी निन्दा करते हैं, स्वात्मप्रशंसा करते हैं पर मिलता जुलता कुछ नहीं।' Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा • 'शिक्षा का उद्देश्य शान्ति है, उसका कारण अध्यात्मशिक्षा है, अध्यात्मशिक्षासे ही मनुष्य ऐहिक तथा पारलौकिक शान्तिका भाजन हो सकता है।' 'धार्मिक शिक्षा किसी सम्प्रदाय की नहीं । वह तो प्रत्येक प्राणी की सम्पत्ति है। उसका आदर पूर्वक प्रचार करना राष्ट्रका मुख्य कर्तव्य है । जिस राष्ट्रमें उसके बिना केवल लौकिक शिक्षा दी जाती है वह राष्ट्र न तो स्वयं शान्तिका पात्र है और न अन्यका उपकारी हो सकता है। आगराके जैन कालेज में धार्मिक शिक्षाका जो प्रवन्ध है वह प्रशंसनीय है । धार्मिक जीवन के लिये धार्मिक शिक्षा की मुख्य आवश्यकता है।' __ 'आजकल भौतिकवादके प्रचारसे संसारका सहार हो रहा है । इसका मूल कारण एकाङ्गी शिक्षा है। यदि इसको अध्यात्मशिक्षाके साथ मिश्रण किया गया तो अनायास जगत् का कल्याण हो जायगा।' ___'वहुत बोलना ही दुःख का मूल है । संसार मे वही मनुष्य सुख का भाजन हो सकता है जो निःस्पृह हो। शान्तिका मार्ग वहीं है जहाँ निवृत्ति है। केवल जल्पवादसे कुछ लाभ नहीं। केवल गल्पकथाके रसिक मनुष्योंसे सम्पर्क रहना ही संसार वन्धनका मूल कारण है।' _ 'यहाँ एक दिन स्वप्नमे स्वर्गीय बावा भागीरथ जी की आज्ञा हई कि हम तो वहत समयसे स्वर्गमें देव हैं। यदि तू कल्याण चाहता है तो इस संसर्गको छोड़ । तेरी आयु अधिक नहीं, शान्ति से जीवन विता । यद्यपि तेरी श्रद्धा हद है तथापि उसके अनुकूल प्रवृत्ति नहीं। हम तुम्हारे हितैपी हैं। हम चाहते हैं कि तुम्हे कुछ कह परन्तु पा नहीं सकते। आदरसे त्यागको अपनाओ । आदरसे Page #32 --------------------------------------------------------------------------  Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ri 15 1 । : - P । - - । THomroorsarmms SARAN १.LA MEALTEES 3 .. . . . . - IP. - . LIA DIN . " A . ". . . . 4 " spr पूज्य वीं जीके प्रस्थान समयका एक दृश्य Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरार गरा अपनी वा आप करते हो । अपना अनादर जो करता है उससे अन्यका यावर नहीं हो सकता । मनुष्य जन्म एक महती निधि है । यदि इसका उपयोग यथार्थ किया जावे तो उस जन्म-मरणके रोग से छुटकारा हो सकता है, क्योंकि संसारघातका कारण जो संयम है यह उसी त्रिविसे मिलता है । परन्तु हम इतनी पामरता करते हैं कि राज्य के लिये चन्दनको भस्म कर देते हैं । स्वप्नमे हो बाबाजी ने कहा कि तुमसे जन्मान्तरका स्नेह है । अभी एक बार तुम्हारा हमारा सम्बन्ध शायद फिर भी हो। क्षुल्लक पढ़की रक्षा करना कोई कठिन कार्य नहीं । मनुष्य संपर्क छोडा । यदि कल्याण मार्ग की इच्छा है तो सर्व उपद्रवोंका त्याग कर शान्त होनेका उपाय करो । केवल लोकैपाके जालसे मत पड़ो। हम तो देखा और अनुभव किया कि अभी वल्याणका मार्ग दूर है । यदि उद्दिष्ट भोजन जानकर करते हो तो चुल्लक पढ़ व्यर्थ लिया । लोक प्रतिष्ठा के लिये यह पद नहीं । यह तो कल्याणके लिये है, परकी निन्दा प्रशंसाकी परवाह न करो ।' 1 यहाँ रहनेका लोगोंने आग्रह बहुत किया और रहना लाभदायक भी था तो भी हमने मथुरा जानेका निश्चय कर यहाँ से चल दिया । १७ मथुरा में जैन संघका अधिवेशन आगरासे ३ मील चलकर एक महाशयकी धर्मशाला मे १५ मिनट आराम किया पश्चात् वहाँ से चलकर सिकन्दरावाद आगये । रात्रि सुखसे बीती, प्रातःकाल शौचादि क्रियासे निवृत्त हो अकबर बादशाहका मकबरा देखने गये । मकबरा क्या है दर्शनीय महल है । उसमे अरवी भाषामें सम्पूर्ण मकबरा लिखा गया है । क्या है यह हमको ज्ञात नहीं हुआ और न किसीने Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा वताया। मुसलमान वादशाहोंमे यह विशेषता थी कि वे अपनी संस्कृतिके पोपक वाक्योको ही लिखते थे । जैनियोंमें बड़ी बडी लागतके मन्दिर हैं परन्तु उनसे स्वर्णका चित्राम मिलेगा, जैनधर्मके पोषक आगम वाक्योका लेख न मिलेगा । अस्तु, समयकी बलवत्ता है, धर्म जो आत्माकी शुद्ध परिणति है उसका सम्वन्ध यद्यपि साक्षात् आत्मासे है तथापि निमित्त कारणोकी अपेक्षा परम्परा बहुतसे कारण हैं । उन कारणो आगम वाक्य बहुत ही प्रवल कारण हैं । यदि इस मकबरासे पठन पाठनका काम किया जावे तो हजारों छात्र अध्ययन कर सकते हैं । इतने कमरोंमे अकारादि वर्णोंकी कक्षासे लेकर एम० ए० तककी कक्षा खुल सकती है, परन्तु इतनी विशाल इमारतका कोई उपयोग नहीं और न उत्तर काल मे होने की संभावना है । जो राज्यसत्ता है वह यह चाहती है कि ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये कि जिससे किसीको आघात पहुँचे । यह ठीक है परन्तु निरर्थक पड़ी रहे यह भी ठीक नहीं, उसका उपयोग भी तो होना चाहिये । यहाँ से चलकर सिकन्दराबाद आ गये । यहाँ पर श्रीमान् पं० माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्य भी आए। आप बहुत ही शिष्ट और विद्वान् हैं। आपने श्लोकवार्तिक भाष्यका भावानुवाद किया है । आपके अनेक शिष्य वर्तमानकालीन मुख्य विद्वानोकी गणना मे हैं। यहाँ ५-७ घर जैनियों के हैं । मकबराका वृहद् भवन निरर्थक पड़ा है इसकी चर्चा मैंने पण्डितजीसे भी की परन्तु सत्ता के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता यह विचार कर संतोप धारण किया । मनमें विचार आया कि - १८ मोही जीवों की मान्यता विलक्षण है और इसी मान्यताका फल यह संसार है । जहाँ शुभ परिणामोंकी प्रचुरता है वहाँ बाह्यमें मनुष्यों के प्रति सद्व्यवहार है । परन्तु यहाँ तो धर्मान्धताकी उनी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुरा में जैन संघका अधिवेशन १६ 1 प्रचुरता है कि जो इसलाम धर्मको नही मानते वे काफिर हैं । यह लिखना मतकी अपेक्षा प्रत्येक मतवाले लिखते हैं । जैसे वैदिक धर्मवाले कहते हैं कि जो वेदवाक्यों पर श्रद्धा न करे वह नास्तिक है । जैनधर्मवालोंका यह कहना है कि जिसे जैनधर्म की श्रद्धा नहीं वह मिध्यादृष्टि है। यद्यपि ऐसा कहना या लिखना अपनी अपनी मान्यताके अनुकूल है तथापि इसका यह अर्थ तो नहीं कि जो अपने धर्मको न माने उसको कष्ट पहुँचाओ । मुसलिम धर्ममे काफिर के मारनेमे कोई पाप नहीं । वलिहारी है इन विचारोकी । विचारोंमे विभिन्नता रहना कोई हानिकर नहीं परन्तु किसी प्राणीको बलात् कष्ट देना परम अन्याय है । परन्तु यह संसार है । इसमे म अपनी मानवताको भूल दानवताको आत्मीय परिणति मान कर जो न करे अल्प है | अन्यायी जीव क्या क्या अनर्थ नहीं करते यह किसीसे गुप्त नहीं। धर्मकी मार्मिकताको न समझ कर मनुष्य अपने अनुकूल होनेसे ही चाहे वह कैसा ही हो उसे आदर देता है और यदि प्रतिकूल हो तो अनादरका पात्र वना देता है । वास्तवमें धर्म कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं किन्तु जिसमे जो रहता है वही उसका धर्म है । जलमे उप्ण स्पर्श नहीं रहता इसलिये वह उसका धर्म नहीं है। अग्निका सम्बन्ध पाकर जल उष्ण हो जाता है । यद्यपि उष्णस्पर्शका तादात्म्य वर्तमान जलसे है तथापि वह उसमे सर्वथा नहीं रहता अतः उसका स्वभाव नहीं कहा जा सकता । स्वभाव वह है जो पदार्थमे स्वत रहता है और विभाव वह है जो परके संसर्ग उत्पन्न होता है । इसी प्रकार जीवमे ज्ञान रहता है अतः वह उसका स्वभाव है। यद्यपि ज्ञान वर्तमान कर्मोदयसे रागादिरूप हो जाता है तथापि परमार्थसे ज्ञानमें राग नहीं । वह तो आत्माका दयिक परिणाम है । जिस कालमें चारित्रमोहकी राग प्रकृतिका उदय होता है उस कालमें आत्माका प्रीतिरूप परिणाम Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा होता है। उस समय यदि तीव्र राग हुआ तो यह आत्मा विपयोंके साधक स्त्री पुत्रादि तथा अन्य अनुकूल पुद्गलोंमे राग करने लगता है और निरन्तर उन्हीं पदार्थों के साथ रुचि रखता है । यदि मन्द राग हुआ तो पञ्च-परमेष्ठीमे अनुराग करनेका व्यापार करना है तथा प्राणियों पर दया करनेकी परिणति करता है। तीर्थ क्षेत्रादि पर जानेकी चेष्टा करता है, पासमे यदि द्रव्यादि हुआ तो उसे परोपकारमे लगाता है। परमार्थसे पर पदार्थोंने आदान प्रदानकी जो पद्धति है वह सर्व मोहजन्य परिणामोंकी चेष्टा है। क्योंकि जो वस्तु हमारी है ही नहीं उसे दान करनेका हमे अधिकार ही क्या है तथा जो वस्तु हमारी हैं उसे हम दे ही नहीं सकते। हमारी वस्तु हमसे अभिन्न रहेगी अत. हम उसका त्याग नहीं कर सकते। जैसे वर्तमानमे हमारी आत्मामे क्रोधका परिणमन हुआ उस समय क्षमादिकका तो अभाव है-क्रोधमय हम हो रहे हैं वही हमारा स्वरूप है, क्योकि द्रव्य विना परिणामके रह नहीं सकता। क्षमाका उस कालमे अभाव है अतः जिसकालमें आत्मा क्रोधरूप होता है उस कालमे क्रोध ही है। एक गुणका एक कालमे एक रूप ही तो परिणमन होगा। परन्तु उस समय भी जो विवेकी मनुप्य हैं वे उसे वैभाविक परिणति मान कर श्रद्धामे उससे विरक्त रहते हैंयही उसका त्यागना है। देखा जाता है कि गुरु महाराज शिष्यके ऊपर क्रोध भी करते हैं ताड़ना भी करते हैं, परन्तु अभिप्राय ताड़ना का नहीं है । इसी तरह ज्ञानी जीवको कर्मोदयमे नाना प्रकारके भाव होते हैं परन्तु अन्तरगमे श्रद्धा निर्मल होनेसे उसे करना नहीं चाहते जिस प्रकार जब मनुप्य मलेरिया ज्वरसे पीड़ित होता है तब वह वैद्य द्वारा वतलायी हुई कटुकसे कटुक औपधिका सेवन करता है परन्तु अन्तरंगमें उसे सेवन करनेकी रुचि नहीं इसी प्रकार ज्ञानी जीव कर्मोदयसे वाह्य पदार्थोंका संग्रह करता है, सेवन भी करता है Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरामें जैन संघका अधिवेशन ૨૧ __. परन्तु अन्तरंगसे सेवन नहीं करना चाहता। अनादि कालीन : संस्कारके विद्यमान रहते इसे विना चाहके भी काम करना पड़ता है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञाएँ अनादि कालसे जीवके लग रहीं हैं ? क्योंकि अनादि कालसे मिथ्यात्वका सम्बन्ध है इसीसे यह जीव परको अपना मान रहा है । इसी माननेके कारण शरीरको भी जो स्पष्ट पर द्रव्य है निज मानता है। जब उसे निज मान लिया तब उसकी रक्षाके अनुकूल भोजन ग्रहण करता है तथा जो प्रतिकूल हैं उन्हे त्यागता है। नाशके कारण आ जायें तो उनसे पलायमान होनेकी इच्छा करता है। जब वेदका उदय आता है तव स्त्री पुरुप परस्पर विषय सेवनकी इच्छा करते हैं तथा मोहके उदयमे पर पदार्थों को ग्रहण करनेकी इच्छा होती है। इस तरह अनादिसे यह चर्खा चल रहा है। जिस समय दैवात् संसार तट समीप आ जाता है उस समय अनायास इस जीवके इतने निर्मल परिणाम होते हैं कि अपनेको परसे भिन्न माननेका अवसर स्वयमेव प्राप्त हो जाता है। जहाँ आपसे भिन्न परको माना वहाँ संसार का बन्धन स्वयमेव शिथिल हो जाता है । संसारके मूल कारणके जाने पर शेष कर्म स्वयमेव पृथक् हो जाते हैं। जैसे दश गुणस्थान तक ज्ञानावरणादि पद कोका बन्ध होता है । वन्धमें कारण सूक्ष्म लोभ है, बँधनेवाले कर्मोंकी स्थिति अन्तर्मुहूत ही पड़ती है परन्तु जब दश गुणस्थानके अन्तमें मोहका सर्वथा नाश हो जाता है तव वारहवें गुणस्थानके उपान्त्य समयमें निद्रा प्रचला और अन्तमें ज्ञानावरणकी ५, अन्तरायकी ५ और दर्शनावरणकी ४ प्रकृतियाँ नाशको प्राप्त हो आत्माको केवलज्ञानका पात्र बना देती हैं। यही प्रक्रिया सर्वत्र है-करणलब्धिके परिणाम होने पर जव सम्यग्दर्शन आत्मामे उत्पन्न हो जाता है तब अनायास ही मिथ्यात्व आदि सोलह प्राकृतियोंका बन्ध नहीं होता। शेष प्रकृतियोंका जो Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ मेरी जीवन गाथा वन्ध होता है वह मिथ्यात्वके साथमे जैसा होता था वैसा नहीं होता । अतः जहाँ तक वने विपरीत अभिप्रायको दूर करनेका बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करो । विना निर्मल अभिप्रायके कल्याण होना असंभव है। कल्याणका विघातक मलिन अभिप्राय ही है । यद्यपि इसका निर्वचन होना कठिन है फिर भी पर पदार्थमे जो निजत्व कल्पना होती है। वही इसका कार्य हैं वही विपरीत अभिप्राय है। इसीसे असत्कल्पनाएं होती है। इसीके रहते आत्मा किसीमे राग, किसीम द्वेप और किसीमें उपेक्षा करता है। इस कार्यसे इसे पहिचान कर इसके छोड़नेका प्रयत्न करो। समस्त संसारी जीवोके मन वचन कायके व्यापार स्वयमेव होते रहते हैं। ये ही व्यापार जब मन्द कपायके साथ हो तो शुभ कहलाते हैं और शुभास्त्रवके हेतु भी हो जाते है और तीव्र कपायके साथ हों तो अशुभ शब्दसे कहे जाते हैं और अशुभ आस्रवके कारण होते हैं। इस प्रकार यह परम्परा अनादि कालसे चली आती है। कदाचित् सम्यग्दर्शन न हो और मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का मन्द उदय हो तो द्रव्यलिड्न हो जाता है परन्तु वह द्रव्यलिङ्ग अनन्त संसारका घातक नहीं। यद्यपि द्रव्यलिङ्ग आर भावलिङ्गके बाह्य आचरणमें कोई अन्तर नहीं रहता फिर भी इनके कार्यमे प्रचुर अन्तर हो जाता है। द्रव्यलिङ्गसे पुण्य वन्ध होता है अर्थात् अघातिया कर्मोंमें जो पुण्य प्रकृतियाँ हैं उनका विशेप वन्ध होता है परन्तु घातिया कर्मोंकी जो पाप प्रकृतियाँ हैं उनका बन्ध नहीं रुकता। कोमे घातिया कर्म जो हैं वे सब पाप रूप ही हैं उनम सर्व आपत्तियोंकी जड़ मोह ( मिथ्यात्व ) है। इसकी सत्ता स्वयं अपने अस्तित्वकी रक्षा करती है और शेप घातिया व अघातिया कर्मोकी सत्ता रखती है। इसके अभावमै शेप कर्माका अस्तित्व सेनापतिके अभावमे सेनाके अस्तित्व तुल्य रह जाता है। वृक्षका जड़ उखड़ जाने पर उसके हरापनका अस्तित्व कितने काल तक Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरामें जैन संघका अधिवेशन रहेगा ? अतः जिन जीवोंको संसार बन्धनसे मुक्त होनेकी अभिलाषा हो उन्हे प्राणपन–पूर्ण प्रयत्नसे सर्व प्रथम इसका निर्मूल उच्छेद करना चाहिये। इसके होने पर जो कार्य करोगे वही सफल होगा। यहाँ पर आगरासे भी अनेक महानुभाव आये थे। यहीं पर एक क्षत्रिय महोदय भी मिले। आपने अपने ग्राम ले जानेका आरम्भ किया। आपका ग्राम वहीं था जहाँ श्री सूरदासजी ने जन्म लिया था। ग्रामका नाम रुनकता था और क्षत्रिय महोदयका नाम ठाकुर अमरसिह था। आप डाक्टर थे और कवि भी। आपने अपनी कविता सुनाई। रात भर इसी रुनकता ग्राममे रहे। ठाकुर साहवका अभिप्राय था कि एक दिन यहाँ निवास किया जावे तथा हमारे गृह पर आप पधारें, हमारे कुटुम्बीजन आपका दर्शन कर ले तथा वहीं पर आपका भोजन हो तब हमारा गृह शुद्ध होवे । परन्तु हृदयकी दुर्वलता और लोगोंकी १४४ धाराने यह न होने दिया। मुख्यतया इसमे हमारी दुर्वलता ही वाधक हुई। यहाँसे चले तो ठाकुर साहब वरावर जिस ग्राममे हमने निवास किया वहाँ तक आये तथा कहने लगे क्या यही जैनधर्म है ? जिस धर्ममे प्राणी मात्रके कल्याणका उपदेश है आप लोगोंने अभी उसके मर्मको समझा नहीं। हमे ढ़ विश्वास है कि धर्मका अस्तित्व प्रत्येक जीवसे है किन्तु उपचारसे वाह्य कारण माने जाते हैं। आप लोग भी इस बातको जानते हैं कि वाह्य कारणोंमें उलझना अच्छा नहीं। जब आप लोग व्याख्यान करते हैं तब ऐसे ऐसे शब्दोंका प्रयोग करते हैं कि जिन्हे श्रवण कर अन्य प्राणी मोहित हो जाते हैं। हमने कई स्थानों पर श्रवण किया 'मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेपु' अर्थात् प्राणीमात्रमे मैत्री भावना आना चाहिये। मैत्रीका अर्थ है किसी प्राणीको दुःख Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा I न हो ऐसी अभिलाषा रखना । प्राणीमात्रका दुःख दूर हो जावे इसकी अपेक्षा प्राणीमात्रको दुःख न हो यह भावना उत्कृष्ट है । जो आत्मगुण विकास मे ला चुके हैं ऐसे महानुभावोंको देखकर हर्षित हो जाना इस भावनाका नाम प्रमोदभावना है । हम आपके इस अर्थको श्रवण कर गद्गद हो गये । जो जीव क्लेश से पीड़ित है, दुखी हैं, दीन हैं, दारिद्र्य कर पीड़ित हैं तथा धनी होकर भी कृपण है उन्हें देखकर करुणा भाव करना तथा जो मोक्षमार्गकी कथा न तो स्वयं श्रवण करते हैं और न श्रवण करनेकी अभिलापा ही रखते हों ऐसे दुराग्रही लोगोमे माध्यस्थ्य भावना रखना ही उचित है । ऐसा जिस धर्मका अभिप्राय है - कहाँ तक कहे जहाँ उन जीवोंकी भी रक्षाका उपाय बतलाया है कि जो दृष्टिगोचर भी नहीं होते । जैसे अनाजके ऊपर जहाँ फुल्ली आ जावे वहाँ उस अनाजको उपयोगसे मत लाओ, जो रस स्वादसे चलित हो जावे उसे मत भक्षण करो । कहाँ तक लिखें जो जल जिस कूपादिसे लाये हो उसे छानकर जीवानी उसी जलाशयमे निक्षिप्त कर दो । जहाँ ऐसी दयाका वर्णन हो वहाँ पर हमारे साथ जो आपका व्यवहार है क्या वह प्रशंसनीय है ? हम इस बातको मानते हैं कि हमारा आचरण आप लोगों की अपेक्षा अच्छा नहीं है परन्तु यह सर्वथा मानना अच्छा नहीं, क्योंकि हम लोगों के यहाँ भी आटा, गेहूँ चुग चुग कर पीसा जाता है, चावल आदि भी चुग कर खाते हैं, शाकादिक देखकर बनाये जाते हैं। हाँ, पानी छानकर नहीं पीते तथा जैन मन्दिर नहीं जाते सो बहुतसे लोग आप भी ऐसे हैं जो बिना छना पानी पी जाते हैं तथा नियमपूर्वक मन्दिर नही जाते । अस्तु, इन युक्तियोसे हम आपको लज्जित नहीं करना चाहते परन्तु हृदयसे तो कहो कि आप जैनधर्मके प्रचारका कितना उपाय करते हो ? आप पैदल यात्रा कर रहे हैं इसलिये उचित तो यह था २४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरामें जैन संघका अधिवेशन कि जहाँ पर जाते वहाँ आम जनतामें धर्मका उपदेश करते । जो मनुप्य उसमे रुचि करते वहाँ १ या २ दिन रहकर उन्हे भोजनादि प्रक्रियाकी शिक्षा देते तथा उनके गृह पर भोजन करते तब जैनधर्मका प्रचार होता या जहाँ ठहरे वहाँ पर साथमे रहनेवालोंने भोजन दिया खाया। रात्रिको जहाँ ठहरे वहाँ पर कुछ काल तो मार्गकी कथामे गया, कुछ गल्पवादमें गया, अन्तमे सो गये। एक त्यागीके भोजनमे बीसों रुपये व्यय हो गये, फल क्या निकला ? केवल मागेकी धूलि छानना ही तो हुआ। यह हम जानते हैं कि एक त्यागी २०) नहीं खा सकता परन्तु उसीके अर्थ तो यह आडम्बर है। कल्पना करो यदि वह एकाकी चलता तो जिस ग्राममे जाता मुझे विश्वास है कि उस ग्राममे एक आध दिन ही व्यवस्था होनेमें कठिनाई होती पश्चात सब ठीक हो जाता और लोग उसके जानेकी व्यवस्था कर देते। मै हृदयसे कहता हूँ मथुरा तक तो मैं पहुंचा देता। वीजी। आपसे मेरा अति प्रेम हो गया है इसका कारण आपकी सरलता है परन्तु खेद है कि लोगोंने इसका दुरुपयोग किया तथा आपसे जो हो सकता था वह न हुआ। इसमे मूल कारण आप भीर प्रकृतिके हैं। आपकी भीरु प्रकृति इतनी है कि मैं इनके यहाँ भोजन करने लगूंगा तो लोग मुझे क्या कहेगे ? यह आपकी कल्पना निःसार है, लोग क्या कहेगे ? हजारों मनुष्य सुमार्ग पर आजावेंगे। आजकल अहिंसा तत्त्वकी ओर लोगों की दृष्टि झुक रही है सो इसका मूल कारण यह है कि अहिसा आत्माकी स्वच्छ पर्याय है। 'अहिंसा ही धर्म है। इसका अर्थ यह है कि जब आत्मामे मोहादि परिणाम नहीं रहता तब आत्मा तन्मय हो जाता है । अहिसा किसी एक जाति या एक वर्ण विशेषका धर्म नहीं है। जिस आत्मामे जिस काल तथा जिस क्षेत्रमे रागादि परिणाम नहीं होते हैं उसीके पूर्ण अहिसा धर्म होता है। आपने ही तो सुनाया था कि Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा __ आत्मामे रागादि भावोंका उत्पन्न न होना अहिसा है और उन्हींका उत्पन्न होना हिसा है। अस्तु, हमको ऐसी प्रवृत्ति करना चाहिये जो हमारी प्रवृत्ति पर पदार्थोंके संसर्गसे दूषित न हो। आप लोग न तो स्वयं अहिसा धर्म पालते हैं और न पर को उसकी शिक्षा देते हैं। हम लोग भी नुतने अज्ञानी हो रहे हैं कि आपसे धर्म चाहते हैं। जो धर्म आप पालते हैं वह हम भी पाल सकते हैं। हमने यह समज्ञ रक्खा है कि आप लोग ही धर्मके उपदेष्टा हैं। आपको दान देनेसे हमे पुण्यवन्ध होता है यह भ्रम निकल गया। आप लोग भयभीत हैं, बड़े आदमियो की हाँ मे हाँ मिलानेवाले हैं, उनके विरुद्ध अक्षर भी नहीं बोल सकते। अर्थात् उनकी बात चाहे आगम विरुद्ध हो आप लोग उसका प्रत्युत्तर न देवेंगे अथवा हाँ मे हाँ मिला देवेंगे। परन्तु इससे हमे क्या ? जैसा आपको रुचे वैसा करो.... . .. "इतना कह कर वह तो चले गये, हम निरुत्तर रह गये। पश्चात् वहाँसे गमन कर एक स्थानमे निवास किया । सानन्द रात्रि व्यतीत कर चल दिये। भोजनादिकी व्यवस्था हुई, मध्यान्होपरान्त श्री पं० राजेन्द्रकुमार जी महामंत्री सदलबल आ गये। महान समारोह हो गया और आनन्दसे श्र जम्बूस्वामीकी निर्वाण भूमि पहुँच गये। पहुँचते ही स्मृति पटलमें पिछली बात याद आ गई कि यह वही भूमि है जहाँ पर श्री जैन महाविद्यालयकी स्थापना हुई थी और मैंने भी जिसमे रह कर अध्ययन किया था। आज कल दि० जैन संघका कार्यालय यहीं पर है । अनेक सुन्दर भवन संघके हैं, एक सररवती भवन भी है। एक दिगम्बर जैन गुरु कुल भी है जिसमें इण्टर तक पढ़ाई होती है। हम लोगोंका आतिथ्य सत्कार होनेके वाद सुन्दर भवनोंमें निवास कराया गया। संघका वार्षिकोत्सव था जिसके सभापति श्रीमान् सर सेठ हुकमचन्द्रजी Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरामें जैन संघका अधिवेशन २७ साहब इन्दौरवाले थे। समारोहके साथ आपका स्वागत किया गया। आप अत्यन्त पुण्यशाली जीव हैं। धर्मके रक्षक तथा स्वयं धर्मात्मा है । जव कोई आपत्ति धर्म पर आती है तब आप उसे सब प्रकारसे निवारण करनेका प्रयत्न करते हैं। आपने सभापतिका भाषण देते हुए कहा है कि वर्तमानमे जैनधर्मका विकास करना इष्ट है तो सर्व प्रथम आत्मविश्वास करो तथा संयम गुणका विकास करो, उदार हृदय बनो, परकी निन्दा तथा आत्मप्रशंसा त्यागो, केवल गल्पवादमे समय न खोओ। भाषण देते हुए आपने कहा कि इस समय हम सबको परस्पर मनोमालिन्यका त्याग कर सौजन्यभावसे धर्मकी प्रभावना करना चाहिये। केवल व्याख्यानोंसे कल्याण न होगा, जो बात व्याख्यानोंमे आती है उसे कर्तव्यपथमे आना चाहिये बात कहन भू पग धरन करण खडग पद धार । __करनी कर कथनी करें ते विरले संसार || अर्थात् वातका कहना कोई कठिन नहीं जो कहा जावे उसे कर्तव्यमे लाना चाहिये। आज हर एक वक्ता होनेकी चेष्टा करता है-प्रत्येक मानव उपदेष्टा बनना चाहता है, श्रोता व शिष्य कोई नहीं बनना चाहता । अस्तु, कालका प्रभाव है, हमको जो कहना था कह दिया। जैनसंघकी रक्षाके लिये आपने २५०००) पच्चीस हजारका दान किया । उपस्थित जनताने भी यथाशक्ति दान दिया। इसी अवसर पर विद्वत्परिषद्की कार्यकारिणीकी बैठक भी थी जिसमे पं० फूलचन्द्रजी बनारस, पं० कैलाशचन्द्रजी वनारस, पं० दयाचन्द्रजी, पं० पन्नालालजी सागर, पं० वाबूलालजी इन्दौर, पं० खुशहालचन्द्र जी बनारस, बंशीधरजी वीना, प० नेमीचन्द्रजी आरा, पं० जगन्मोहनलालजी कटनी आदि अनेक विद्वान् पधारे थे। वैठकमे विचारणीय विषय थे मानवमात्रको दर्शनाधिकार, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा प्राचीन दस्सा शुद्धि आदि । जिन पर उपस्थित विद्वानोंमे पक्ष विपक्षको लेकर काफी चर्चा हुई परन्तु अन्तमें निर्णय कुछ नहीं हो सका। यदि विद्वान् परस्परका मनोमालिन्य त्याग किसी कार्यको उठावें तो उनसे वह शक्ति है जिसे कोई रोकने के लिये समर्थ नहीं परन्तु परस्परका मनोमालिन्य उनकी शक्तिको कुण्ठित किये हुए है । 'विश्व शान्ति और जैनधर्म' इस विषय पर निबन्ध लिखानेका विचार स्थिर हुआ । जैन संघमे श्री पं० राजेन्द्रकुमारजी अत्यन्त उत्साही और कर्मठ व्यक्ति हैं । संघका वर्तमान रूप उन्हीं के पुरुपार्थका फल है । एक दिन आपके यहाँ भोजन हुआ आपने स्याद्वाद विद्यालय वनारसको ५०१ ) देना स्वीकृत किया । इसी तरह एक दिन सेठ भगवानदासजीके यहाँ आहार हुआ । सेठानी श्री वच्छराजजी लाडनूँवालोंकी पुत्री हैं । इन्होंने भी स्याद्वाद विद्यालयको २०००) देना अंगीकार किया । सेठ भगवानदासजी सौम्य व्यक्ति हैं | आप नवयुवक होते हुए भी सज्जनतासे भरे हुए हैं । टोंग्याजी भी यहाँ पर प्रसिद्ध व्यक्ति हैं । आपके प्रबन्धसे यहाँ रथयात्रा महती प्रभावना के साथ हुई। वाहरके भी मनुष्य आये । तीन दिन तक अच्छी चहल पहल रही । अनन्तर मेला विघट गया । यहाँ श्री विनयकुमारजी 'पथिक' संघमें रहते हैं जो जात्या ब्राह्मण हैं तथा कविता अच्छी करते हैं कविता करनेकी पद्धति प्रायः प्रत्येकको नहीं आती, यह भी एक कता है । एकान्त चिन्तनके समय निम्नाङ्कित विचार उत्पन्न हुए २८ 'लोगोंमे धर्मके प्रति महान् श्रद्धा है किन्तु धर्मात्माओं का अभाव है। लोग प्रतिष्टा चाहते हैं परन्तु धर्मको आदर नहीं देते । मोहके प्रति आदर है धर्मके प्रति आदर नहीं । धर्म आत्मीय वस्तु है उसका आदर विरला ही करता है । जो आदर करता है वही संसारसे पार होता है ।' Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरामें जैन सघका अधिवेशन 'सागरके समान मनुष्यको गम्भीर होना चाहिये। सिंहके सहश उसकी प्रकृति होना चाहिये । शरताकी पराकाष्ठा होना ही मनुप्यके लिये लौकिक और पारमार्थिक सुखकी जननी है। पारमार्थिक सुख कहीं नहीं, केवल लौकिक सुखकी आशा त्याग देना ही परमार्थ सुखकी प्राप्तिका उपाय है! सुख शक्तिका विकास पाकुलताके अभावसे होता है।' _ 'भगवन् | तुम अचिन्त्य शक्तिके स्वत्वमे क्यों दर दरके भिक्षुक बन रहे हो ? भगवन्से तात्पर्य स्वात्मासे है। यदि तुम अपनेको संभालो तो फिर जगत्को प्रसन्न करनेकी आवश्यकता नहीं।' ___"संसारसे उद्धार करनेके अर्थ तो रागादि निवृत्ति होनी चाहिये परन्तु हमारा लक्ष्य उस पवित्र मार्गकी ओर नहीं जाता। केवल जिससे रागादि पुष्ट हों उसी ओर अग्रेसर होता है । अनादि कालसे पर पदार्थोंको अपना मान रक्खा है उसी ओर दृष्टि जाती हैकल्याण मार्गसे विमुख रहते हैं।' 'सुखका कारण क्या है कुछ समझमें नहीं आता। यदि वाह्य पदार्थों को माना जावे तब तो अनादिकालसे इन्हीं पदार्थोंको अर्जन करते करते अनन्त भव व्यतीत हो गये परन्तु सुख नहीं पाया। इस पर्यायमे यथायोग्य बहुत कुछ प्रयत्न किया परन्तु कुछ भी शान्ति न मिली।' ___'संसारसे कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं जो आज है वह कल नहीं रहेगा। संसार क्षणभंगुर है इसमे आश्चर्य की बात नहीं। हमारी आयु ७४ वर्ष की हो गई परन्तु शान्तिका लेश भी नहीं आया और न आनेकी संभावना है, क्योंकि मार्ग जो है उससे हम विरुद्ध चल रहे हैं। यदि सुमार्ग पर चलते तो अवश्य शान्तिका आस्वाद आता परन्तु यहाँ तो उल्टी गङ्गा बहाना चाहते हैं। धिक इस विचारको जो मनुष्यजन्मकी अनर्थकता कर रहा है। केवल Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा गल्पवादमे जन्म गमा दिया। वाह्य प्रशंसाका लोभी महान् यापी है।' 'लोगों की अन्तरङ्ग भावना त्यागीके प्रति निर्मल है किन्तु इस समय त्यागीवर्ग उतना निर्मल नहीं।' ___'हम बहुत ही दुर्वल प्रकृतिके मनुष्य हैं, हर किसीको निमित्त मान लेते हैं, अपने आप चक्रमें आ जाते हैं, अन्यको व्यर्थ ही उपालम्भ देते हैं, कोई द्रव्य किसीका बिगाड़ सुधार करनेवाला नहीं “यह मुखसे कहते हैं परन्तु उस पर अमल नहीं। केवल गल्पवाद है। बड़े बड़े विद्वान् व्याख्यान देते हैं परन्तु उस पर अमल नहीं करते।' __ मथुरासे चलते चलते पद्मपुराणमे वर्णित मथुरापुरीका प्राचीन वैभव एक वार पुनः स्मृतिमे आ गया। ___यहाँ पर मधु राजाका शत्रुघ्न के साथ युद्ध हुआ । शत्रुघ्नने छलसे उसके शस्त्रागारको स्वाधीन कर लिया । अस्त्रादिके अभावमे राजा मधु शत्रुघ्नसे पराजित हो गया किन्तु गजके ऊपर स्थित जर्जरित शरीरवाले मधुने अनित्यत्वादि अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन कर दिगन्धर वेपका अवलम्बन किया। उसी समय शत्रुघ्नने आत्मीय अपराध की क्षमा मांगी-हे प्रभो । मुझ मोही जीवने जो आपका अपराध किया वह आपके तो क्षम्य है ही मै मोहसे क्षमा मांग रहा हूँ। अलीगढ़का वैभव मथुरासे चलते ही चित्तमे संघसे विरक्तता हो गई । विरक्तताका कारण परको अपना मानना है। वह अपना होता नहीं, केवल परमे निजत्व कल्पना ही दुःखदायी है। चलकर वसुगाँवम ठहर गये । यहाँके ठाकुर नत्थासिंहजी बहुत ही सज्जन हैं । यहीं पर श्री मनीराम जाट मिलने आया, बहुत ही सज्जन था। उसके यह Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलीगढ़का वैभव ३१ नियम था कि हाथसे उपार्जन किया ही मेरा धन है पराया धन न जाने अन्यायोपार्जित हो तथा मैं किसीके प्राण नहीं दुखाना चाहता । हम यहाँ पुरसानकी धर्मशालामे ठहर गये । यह धर्मशाला एक वाल शाहकी है बहुत ही सज्जन हैं, अतिथि सत्कार मे अच्छी प्रवृत्ति है, मन्दिर भी बना है, रामचन्द्रजी का उपासक है, अनेक भाई दर्शनके लिये आते हैं, यहाँका जमादार भलामानुष है । यहॉ से = मील चलकर हाथरस पहुँचे । यहाँ पर ६ मन्दिर हैं । १ मन्दिर चहुत वडा है जिसका निर्माण वहुत ही सुन्दर रीतिसे हुआ है इसकी कुरसी बहुत ऊँची है । यहाँ पर मनुष्य बहुत ही सज्जन हैं । यहाँ कन्यापाठशालामे ठहरे किन्तु स्थान संकीर्ण था । लघुशंकाके लिये स्थान ठीक नहीं था, नालीमे पानी जाता था जो आगम विरुद्ध है। भोजनके अर्थ श्रावकों के घर जाते थे परन्तु मार्ग निर्मल नहीं प्रायः शुचिका सम्बन्ध मार्गमे बहुत रहता है । नये मन्दिरमें सभा हुई। बाहरसे आये हुए विद्वानोंके व्याख्यान मनोरञ्जक थे। थोडा-सा समय हमने भी दिया । व्याख्यान श्रवण कर मनुष्योंके चित्त द्रवीभूत हो गये तथा मनमे श्रद्धा विशेष हो गई। श्रद्धा कितनी ही दृढ़ क्यों न हो किन्तु आचारणके पालन विना केवल श्रद्धा अर्थकरी नहीं । श्रद्धाके अनुरूप ज्ञान भी हो परन्तु आचरणके बिना वह श्रद्धा और ज्ञान स्वकार्य करनेमे समर्थ नहीं । हाथरससे सासनी ७ मील था । लगातार चलनेसे थक गये, ज्वर आ गया । श्री छेदीलालजीके आग्रहसे सासनी आये थे । इनके पिता बहुत ही धर्मात्मा थे । इनके कॉचका कारखाना है, वहाँ पर इनके पिताका निवास रहता था, आप निरन्तर ईसरी आते रहते थे, धार्मिक मनुष्य थे, आपकी धर्मरुचि बहुत ही प्रशस्त थी । ईसरी आश्रम मे जितने गेहूं व्यय होते थे सव आप देते थे । अव आपका स्वर्गवास हो गया है । आपके छेदीलाल और उनके लघुभ्राता इस Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ मेरी जीवन गाथा प्रकार दो पुत्र हैं। आप लोगोंने वेदी प्रतिष्ठा कराई जिसमे उस प्रान्तके बहुतसे जैनी भाई आये। आपके द्वारा एक हाईस्कूल भी सासनीमे चल रहा है। बहुत ही सुखसे यहाँ रहा । यहाँ पर १ विलक्षण प्रथा देखनेमे आयी कि जिस समय श्री जिनेन्द्रदेवका रथ निकल रहा था उस समय यहाँके प्रत्येक जातिवालोंने श्री जिनेन्द्रदेवको भेंट की। कोई जाति उससे मुक्त न थी। सर्व ही जनताने श्री महावीर स्वामीकी जय बोली। यवन लोगोंने ४०) भेट किया तथा ब्राह्मण एवं वैश्योंने भगवान्की आरती उतारी। कहाँ तक कहे चर्मकारोंने २००) की भेंट की। खेद इस वातका है, हमने मान रक्खा है कि धर्मका अधिकार हमारा है। यह कुछ बुद्धिमें नहीं आता। धर्म वस्तु तो किसीकी नहीं, सर्व आत्मा धर्मके पात्र हैं, बाधक कारण जो हैं उन्हें दूर करना चाहिये। माघ वदी ४ संवत् २००५ का दिन था। आज वेगसे ज्वर आ गया। मनमे ऐसा लगने लगा कि अब शारीरिक शक्ति क्षीण होती नाती है । सम्भव है आयुका अवसान शीघ्र हो जावे अत कुछ आत्महित करना चाहिये। केवल स्वाध्याय आदिमे चित्तवृत्ति स्थिर करना चाहिये, प्रपञ्चोंमें पड़ व्यर्थ दिन व्यय करना उचित नहीं। संसारकी दशाका खेद करना लाभदायक नहीं। दूसरे दिन साधारण सभा थी, हमारा व्याख्यान था परन्तु हमसे समय पर यथार्थ व्याख्यान न वन सका। हमारी शारीरिक शक्ति बहुत मन्द हा गई हैं अब हम उतने शक्तिशाली नहीं कि १०:० जनतामे व्याख्यान दे सकें। अब तो केवल १० मनुष्योंमे व्याख्यान दे सकते हैं। शक्ति ह्रासको देखते हुए उचित तो यह है कि अब सर्व विकल्पोंका त्याग कर केवल आत्म-हित पर दृष्टिपात करें। गल्पवादके दिन गये, अब आत्मकथामें रसिक होना चाहिये। आज रात्रिको पुनः बाबा भागीरथजी का दर्शन हुआ । आपने कहा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलीगढ़का वैभव 'क्या चक्रमे फैंस अपनी शक्तिका दुरुपयोग कर रहे हो ? आत्माकी शान्ति पर पदार्थोके सहकारसे बन्धनमे पड़ती है और बन्धनसे ही चतुर्गतिके चक्रमें यह जीव भ्रमण करता है। हम क्या कहे ? तुमने श्रद्धाके अनुरूप प्रवृत्ति नहीं की। त्याग वह वस्तु है जो त्यक्त पदार्थका विकल्प न हो तथा त्यक्त पदार्थके अभावमे अन्य वस्तुकी इच्छा न हो। नमकका त्याग मधुरकी इच्छा बिना ही सुन्दर है। ___ अगले दिन प्रातः नियमसारका प्रवचन हुआ । उसमें श्री कुन्दकृन्द महाराजने जो आवश्यककी व्याख्या की वह बहुत ही हृदयग्राही व्याख्या है । तथाहि जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्म भणंति आवासं । कम्मविणासणजोगो णिदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो ॥१४१॥ . अर्थात् जो जीव अन्यके वश नहीं होता है उसे अवश कहते हैं और उसका जो कर्म है उसे अवश्य कहते हैं। वही भाव कर्म विनाश करनेके योग्य है.। उसीको निवृति मार्ग है ऐसा निरूपण किया है। कुन्दकुन्द स्वामीकी बात क्या कहे उनका तो एक एक शब्द ऐसा है मानो अमृतके सागरमें अवगाहन कर बाहर निकला हो। लोग हमारे जीवनचरित्रकी चर्चा करते हैं परन्तु उसमे है क्या ? जीवनचरित्र उसका प्रशंसनीय होता है जिसके द्वारा कुछ आत्महित हुआ हो। हम तो सामान्य पुरुप हैं । केवल जन्म मानुषका पाया परन्तु मानुष जन्म पाकर उसके योग्य कार्य न किया। मानुष जन्म पाकर कुछ हित करना चाहिये ।। माघ वदी ह सं० २.०५ को मध्याह्नकी सामायिक पूर्ण होते होते अलीगढ़के महानुभाव आ गये जिससे वहाँ के लिये प्रस्थान कर दिया। यहाँसे अलीगढ़ ३ मील था । १ मील चलकर वागमे ठहर Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाया । गये । वहाँसे गाजे-बाजेके साथ खिरनीसरायके मन्दिरमे गये। आनन्दसे दर्शन कर मन्दिरकी धर्मशालामें ठहर गये। स्थान त्यागियोंके ठहरने योग्य नहीं । यदि वास्तवमें धार्मिक बुद्धि है तो त्यागीको गृहस्थके मध्यमें नहीं ठहरना चाहिये । गृहस्थोंके संपर्कसे बुद्धिमे विकार हो जाता है और विकार ही आत्माको पतित करता है अतः जिन्हें आत्महित करना है वे इन उपद्रवोसे सुरक्षित रहे। अलीगढ़ वह स्थान है जहाँ पर श्री स्वर्गीय पण्डित दौलतरामजी साहवका जन्मस्थान था। आपका पाण्डित्य वहुत ही प्रशस्त था, आपके भजनोंमे समयसार गोम्मटसार आदि ग्रन्योंके भाव भरे हुए हैं। छहढाला तो आपकी इतनी सुन्दर रचना है कि उसके अच्छी तरह ज्ञानमें आने पर आदमी पण्डित बन सकता है। पण्डित ही नहीं मोक्षमार्गका पात्र बन सकता है । 'सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि' स्तोत्रमें समस्त सिद्धान्तकी कुक्षी बता दी है। स्तवन करनेका यथार्थ मार्गप्रदर्शन कर दिया है। यहीं पर वर्तमानमे पण्डित श्रीलालजी हैं। आप संस्कृतके प्रौढ़ विद्वान हैं। आपकी श्रद्धा वीस पन्थके ऊपर दृढ़ हो गई है। आप पहले खड़े होकर पूजा करते थे, अव बैठकर करने लगे हैं तथा अपने पक्षको आगमानुकूल पुष्ट करते हैं। हमारा आपसे प्राचीन परिचय है । आपके पुत्र कमलकुमारजी हैं। आपने मध्यमा तक व्याकरणका अध्ययन किया है। पण्डितजीके पिता पं० प्यारेलालजी धर्मशास्त्रके उत्तम विद्वान थे । गोम्मटसारादि ग्रन्थोंके मर्मज्ञ थे। छहढालाके अर्थको घण्टों निरूपण कर सभा को प्रसन्न कर देते थे। आपके तक वहुत प्रबल शक्तिमय थे। अच्छे अच्छे वक्ता आपको मानते थे। आपकी श्रद्धा दिगम्बर आम्नायमे तेरापन्थको माननेकी थी। हम तो उनको अपना हितैषी १.अव श्रापका देहान्त हो गया है । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलीगढ़का वैभव मानते थे, क्योंकि उन्हींके उपदेशसे जैनधर्मके अध्ययनमें हमारी रुचि हुई थी। आपके द्वारा जैन जनतामें स्वाध्यायका विशेष प्रचार हुआ। आप जैनधर्मकी वृद्धिका निरन्तर प्रयत्न करते थे। यहीं पर एक छीपीटोला है । वहाँ पर ३ जिन मन्दिर हैं। इसी टोला मे श्री हकीम कल्याणराय जी रहते थे । आप महासभाके मुख्य उपदेशक थे। आपके द्वारा महासभाका सातिशय प्रचार हुआ। इस टोलामे १ मन्दिरमें श्री महावीर स्वामीकी पद्मासन प्रतिमा बहुत ही रम्य विराजमान है जिसे अवलोकन कर परम शान्तिका परिचय होता है। यहाँ बागके मन्दिरमें सार्वजनिक सभा हुई जिसमे बहुत वक्ताओके भाषण हुए। मेरा भी व्याख्यान हुआ। मैं वृद्धावस्थाके कारण पूर्ण रूपसे व्याख्यान नहीं दे सकता फिर भी जो कुछ कहता हूं हृदयसे कहता हूँ। मेरा अभिप्राय यह है कि आत्मा अपने ही अपराधसे संसारी बना है और अपने ही प्रयत्नसे मुक्त हो जाता है। जब यह आत्मा मोही रागी द्वेषी होता है तब स्वयं संसारी हो जाता है तथा जब राग द्वेप मोहको त्याग देता है तब स्वयं मुक्त हो जाता है, अतः जिन्हे संसार बन्धनसे छूटना है उन्हें उचित है कि राग द्वेष मोह छोड़ें। आत्मपरिणतिको निर्मल वनानेके जो उपाय हैं उनमें सर्वश्रेष्ठ आत्मावबोध है । परसे! भिन्न अपनेको मानो, भेदविज्ञान ही ऐनी वस्तु है जो आत्माका बोध करता है । स्वात्मवोधके विना राग द्वेपका अभाव होना अति कठिन क्या असंभव है अतः आवश्यकता इस बातकी है कि तत्त्वज्ञान सम्पादन किया जाय । तत्त्वज्ञानका कारण आगमज्ञान है। प्रागमज्ञानके लिये यथाशक्ति व्याकरण न्याय तथा अलंकार शास्त्रका अभ्यास करना चाहिये। में बोलने Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ मेरी जीवन गाथा बहुत दुर्बल होगया हूं, क्योंकि मेरी यह दृढ़ श्रद्धा है कि मैं जो कहता हूं उसका स्वयं तो पालन नहीं करता अन्यसे क्या कहूं ? यही कारण है कि मैं उपदेशमे संकोच करता हूं। वास्तवमे वही आत्मा सुखका पान हो सकता है जो कथनपर आरूढ़ होता है। न तो हम स्वयं तद्रूप होनेकी चेष्टा करते हैं और न अन्य पर उसका प्रभाव डाल सकते हैं। इसका मूल कारण केवल कपायकी कृशताका अभाव है। उस आत्माको ही उपदेश देनेका अधिकार है जो स्वयं मार्गपर चले। केवल शब्दोंकी मधुरता और सरलता अन्य पर प्रभाव नहीं डाल सकती । उचित तो यह है कि हमें इस वातका प्रयत्न करना चाहिये कि हम प्रथम उस पर अमल करें अनन्तर परको वतानेकी चेष्टा करें तभी सफल हो सकते हैं। प्रतिदिन सुन्दर विचार आत्मामे आते हैं परन्तु उन पर आरूढ़ नहीं होते अतः जैसे आये वैसे न आये, कुछ लाभ नहीं। केवल कथावादसे कोई लाभ नहीं, लाभ तो उस पर हृदयसे अमल करनेमे है। देहलीस पं० राजेन्द्रकुमार जी शास्त्री आ गये और पं० चन्द्रमौलि जा हमारे साथ ही थे। आप लोगोंके भी उत्तम व्याख्यान हुए। परन्तु स्वभावमे परिवर्तन होना कठिन है। स्वभावसे तात्पर्य पर निमित्तक भावोंसे है। अनादिकालसे हमारी प्रवृत्ति आहारादि संज्ञाओम हा रही हैं। प्रात्माका स्वभाव ज्ञायक भाव है। ज्ञायक भावमे ज्ञयका अनुभव होना ही कष्टकर है। अलीगढ़से चलकर वागके मन्दिरमे आये। वहां १ घण्टा रहे। हकीम इन्द्रमणि जीने व्याख्यान दिया। यहांसे चलने पर विजलीवालोंने वहुत रोका पर हम लोग नहीं रुके। लोगोंमे भक्ति बहुत है परन्तु भक्ति जिसकी की जाती है वह पात्र नहीं, वेषमात्र हैं। कुछ भी हो, अलीगढ़का पहला वैभव चलते चलते आँखोंके सामन भूलने लगा। Page #54 --------------------------------------------------------------------------  Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vrimmer KA गुहानाले ५ मील चलकर एक स्थान पर भोजन किया। [० ३७ 7 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरठकी ओर अलीगढ़से भाकुरी ६ मील है। यहाँ पर ठहर गये । प्रातःकाल यहाँसे ४ मील चलकर नगरियाकी धर्मशालामें भोजन किया। १२१ बजे सामायिक कर चल दिये और ३ बजे गुहानाकी धर्मशालामे ठहर गये । यहाँ पर १ बाग है। बीचमें १ छोटा सा सरोवर है। उसमें शिवजीका मन्दिर है। वाग सुन्दर है। यहाँ पर अलीगढ़से ५ मनुष्य आये । उनसे स्वाध्यायकी बात हुई तो उत्तर मिला करते हैं। हम इतरको उपदेश दानमें चतुर हैं स्वयं करनेमें असमर्थ हैं। केवल वेष बना लिया और परको उपदेश देकर महान् बननेका प्रयत्न है । यह सब मोहका विलास है। गुहानासे ५ मील चलकर एक स्थान पर भोजन किया । यहाँ पर १ अग्रवाल मनुष्य बहुत ही सज्जन था जिसका नाम मुझे स्मृत नहीं रहा । उसने घरसे लाकर ऽ२ सेर गुड़, आटा, नमक, दुग्ध संघके अन्य लोगोंके भोजनके लिये दिया । बहुत ही श्रद्धासे भोजन कराया। जैनी लोगोंकी अपेक्षा इनमें श्रद्धा न्यून नहीं परन्तु जैनी त्यागी इसका प्रचार नहीं करते। यहाँसे चलकर दमारामें १ वैश्यकी दूकानमें ठहर गये। स्थान तो अच्छा था परन्तु मक्षिकाओंकी बहुलतासे खिन्न रहे। हम ६आदमी यहाँ रह गये। बाकी सब लोग खुरजा चले गये । ग्राम है, जलवायु उत्तम है । यहाँ एक वेदान्ती ठाकुर मिले, शान्तपरिणामी थे। सं० २००५ माघ सुदी ३ को प्रातः १० बजे खुरजा पहुँच गये । यह वही खुरजा है जहाँ पर राणीवाले प्रसिद्ध सेठ रहते थे। उन्हींके Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा मुख्य पुत्र सेठ मेवारामजी थे जो सेठ ही नहीं उस समयके प्रमुख विद्वान् थे। उस समय आपकी गणना विद्वानोंमें ही नहीं प्रमुख सेठोंमे भी थी। आप विद्याके रसिक थे। एक संस्कृत वियालय भी आपके द्वारा चलता था जिसमें २५ छात्र अध्ययन करते थे। छात्रोंको मोजनाच्छादन आपकी तरफसे था। क्वीन्स कालेज बनारसकी मध्यमा परीक्षा तक व्याकरण न्याय काव्यका अध्ययन होता था। आप स्वयं अध्ययन अध्यापन करते कराते थे। आप विद्वान् ही न थे बक्ता और बाग्मी भी थे तथा आर्यसमाजके विद्वानोंसे शास्त्रार्थ भी करते थे। यहाँ पर पं० तेजपाल जी भी प्रसिद्ध विद्वान् थे, आप विद्वान् ही नहीं धनाढ्य भी थे। यहीं पर पण्डित नैनसुखदासजी थे जो स्त्री सभामें शास्त्र पढ़ते थे। यहीं पर श्रीसेठ मेवाराम जीके चाचा सेठ अमृतलालजी थे जो अत्यन्त धर्मात्मा और शास्त्रके वक्ता थे। आपकी प्रवृत्ति आरम्भसे बहुत भयभीत रहती थी । बहु आरम्भकी आप निरन्तर निन्दा करते थे । मिलके कार्योंसे आपको महती घृणा थी। आप छात्रोंको निरन्तर दान देते थे। आप सात भाई थे, सातों ही सम्पन्न और धार्मिक विचारोंके थे। मैंने भी खुर्जामें विद्याभ्यास किया था। बनारसकी प्रथमा परीक्षा यहींसे दी थी। यहीं पर न्याय पढ़ना प्रारम्भ किया था। पण्डित चण्डीप्रसादजी जो कि व्याकरणके निष्णात विद्वान् थे उनसे पढ़ना शुरू किया था। सेठ मेवारामजी उन दिनों मुक्तावली आदिका अध्ययन कर चुके थे। व्याकरणकी मध्यम परीक्षा उत्तीर्ण हो चुके थे। यहाँ पर १ सुन्दरलाल वैश्य थे जो वहुत व्युत्पन्न थे। __ वर्तमानमें सेठ मेवारामजीके सुपुत्र शान्तिप्रसादजी बहुत ही योग्य हैं। उनके घर आहार हुआ, श्राप बहुत कुशल हैं, धर्ममे आपकी रुचि बहुत है, तत्त्वज्ञानके सम्पादनमें बहुत प्रयत्नशील ' Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ मेरठकी ओर हैं। आपके कमरामे सरस्वतीभवन है। सब तरहकी पुस्तकें आपके भण्डारमें विद्यमान हैं। हस्तलिखित शास्त्र भी १०० होंगे। सत्यार्थप्रकाश भी प्रायः जितने प्रकारके मुद्रित हैं सर्व यहाँ पर हैं। प्रायः मुद्रित सभी पुराण इनके पास है। आपके कुटुम्बकी लगभग १०० जनसंख्या होगी। प्रमुख व्यक्ति यहीं पर रहते हैं। खुर्जा पाते ही पिछले दिन स्मृति पटलमें अद्धित हो गये। उस ज्योतिषीकी भविष्यवाणी भी याद आ गई जिसने कहा था कि तुम वैशाखके बाद खुर्जा न रहोगे। मोहजन्य संस्कार जब तक आत्मामे विद्यमान रहते हैं तब तक यह चक्र चलता रहता है। जब तक अन्तरङ्गसे मूर्छा नहीं जाती तब तक कुछ नहीं होता। केवल विकल्पमाला है । मोहके परिणामोंमें जो जो क्रिया होती है करना पड़ती है। आनन्दका उत्थान तो कषाय भावके अभावमे होता है। गल्पवादसे यथार्थ वस्तुका लाभ नहीं। संसारमे अनेक प्रकारकी आपत्तियाँ हैं जिन्हे यह जीव माहवश सहन करता हुआ भी उनसे उदासीन नहीं होता। खुर्जामें ३ दिन रह कर चल दिये । नहरके वांध पर आये। पानी वड़े वेगसे वरसा और हम लोग मार्ग भूल गये परन्तु श्री चिदानन्दजीके प्रतापसे उस विरुद्ध मार्गको त्याग कर अनायास ही सरल मार्गपर आ गये। रात्रि होते होते एक ग्राममें पहुंच गये। यहां जिसके गृहमे निवास किया था वह क्षत्रियका था। रात्रिमे उनकी मांने मेरे पास एक चद्दर देखकर बडी ही दया दिखलाई। बोली-वावा ! शरदी बहुत पड़ती है, रात्रिको नींद न आवेगी, मेरे यहां नवीन सौड (रजाई) रक्खी है, अभी तक हम लोगोके काममे नहीं आई, आप उसे लेकर रात्रिको सुख पूर्वक सो जाइये और मैं दूध लाती हूँ उसे पान कर लीजिये, खुर्जासे आये हो थक गये होगे, इससे अधिक हम कर ही क्या सकती हैं ? आशा है हमारी Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा प्रार्थनाको आप भन न करेंगे। मैंने कहा-मां जी ! मैं यही वस्त्र ओढ़ता हूं तथा रात्रिको कुछ खान पान नहीं करता हूं। बुढ़िया माँ सुन कर बहुत उदासीन हो वोली-मुझको बहुत ही क्लेश हुआ। अव एक प्रार्थना करती हूँ कि प्रातः काल मेरे यहाँ भोजन कर प्रस्थान करें। अनन्तर हम लोग शयन कर गये। प्रातःकाल हुआ सामायिक कर चलने लगे तो बूढी माँ आ गई और बोली कि यह क्या हो रहा है ? हमने कहा-माँ जी ! जा रहे हैं। वह वोली - यह शिष्टाचारके अनुकूल आचरण नहीं। हमने कहा-माँ । फिर घाम हो जावेगा। उसने कहा-यह उत्तर शिष्टाचारका विघातक है। अच्छा, तुम्हारी जो इच्छा सो करो किन्तु २) ले जाओ उनके फल लेकर सब लोग व्यवहारमे लाना तथा पुत्रसे बोली-वेटा! घरके ताँगामें उनका सामान भेज दो। हम लोग बुढ़िया मकि व्यवहारसे सन्तुष्ट हो चल दिये और मार्गमे उसीके सौजन्य पूर्ण व्यवहारकी चर्चा करते रहे । उसका बेटा महावीर राजपूत २ मील तक पहुँचाने आया और मेरे वहुत आग्रह करने पर वापिस लौटा । मेरे मनमें आया कि यदि ऐसे जीवोंको जैनधर्मका यथार्थ स्वरूप दिखाया जाय तो बहुत जनताका कल्याण होवे ।। खुर्जासे ४ मील चल कर बुलन्दशहर आगये और वहाँ वालोंने शिष्टाचारके साथ हमें मन्दिरजीकी धर्मशालामे ठहरा दिया। यहाँ पर मन्दिरजीके नीचे भागमें मन्दिरकी दुकानमें एक सज्जन मनिहारीकी दुकान किये थे उन्हींके घर पर भोजन हुआ। आप बहुत ही उदार व्यक्ति थे, आपका व्यापार लाहौरम होता था, वहुत ही धनाढ्य थे परन्तु लाहौरके पाकिस्तानमें जानसे आप यहाँ आ गये और आपकी सम्मत्तिका बहुत भाग वहाँ ही रह गया। इसका आपको खेद न था, आपके हृदयसे यही वाक्य निकले कि संसारमें यही होता है। जहाँ पर सहस्रों नरेशोंको Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • मेरठकी ओर ४. परम्परागत अधिकारोंसे वञ्चित होना पड़ा तथा अंग्रेजोंका अखण्ड प्रताप अस्त हो गयां वहाँ हमारी इस दशा पर आश्चर्यकी कौन वात है ? अथवा अन्यकी कथा त्यागों आप स्वयं अपनी दशाको देखो। क्या चालीस वर्ष पहले आप इसी तरह यष्टिके सहारे चलते थे ? अस्तु, इस कथाको छोड़ो और मन्दिरमें शास्त्र प्रवचन कीजिये । अनुकूल कारणके सद्भावसे चित्तमे शान्तिका परिचय हुआ। आत्मानुशासनका स्वाध्याय किया- - - - - .. श्री गुणभद्राचार्यका कहना है कि हे आत्मन् । तुम दुःखसे भयभीत होते हो और सुखकी वाँछा करते हो अतः जो तुम्हे अभीष्ट है उसीका हम अनुशासन करेंगे। देखा जाता है संसारमें प्राणीमात्र दुःखसे डरते हैं और सुखकी अभिलाषा करते हैं । यदि उनकी अभिलाषाके अनुकूल उन्हें मार्ग मिल जाता है तो उनकी आत्माको शान्ति हो जाती है परन्तु यह संसार है, अनन्त दुःखोंका भण्डार है इसमें अनुकूल मार्गदर्शकोंकी अत्यन्त त्रुटि है.। . . . . . जना धनाश्च वाचालाः सुलभाः स्युवथोत्थिताः। दुर्लभा घन्तरार्द्रा ये जगदम्युजिहीर्षवः ॥ . अर्थात् संसारमें ऐसे मनुष्य और मेघ सुलभ हैं जो वाचाल और वृथा गर्जना करनेवाले हैं। जगत्के मनुष्योंको व्यामोहमें डालनेवाले शब्दोंकी सुन्दर सुन्दर रचना द्वारा अपनेको कृतकृत्य माननेवाले मनुष्योंकी गणनातीत संख्या है इसी प्रकार घटाटोपसे गर्जन करनेवाली अगणित मेघमालाएँ आकाशपथमें प्रकट होकर विलीन हो जाती हैं परन्तु जलशून्य होनेके कारण जगत्की उपकारिणी नहीं होती। अतः बन्धुवर्ग! जो वक्ता आत्महितका उपदेश करें मन्दकषायी हो, निर्लोभ, निर्मान, निर्माय तथा क्षमा गुण संयुक्त हों उनके मुखसे शास्त्र श्रवण कर आत्मकल्याणके Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा मार्गमे लग जाओ। मनुष्य जन्मका लाभ अति कठिन है, संयमका साधन इसी पर्यायमे होता है। सब प्रकारकी योग्यता यहाँ है । नारकी तो अनन्त दुःखके ही पात्र हैं। तिर्यञ्चोंमे भी वहुभाग निरन्तर पर्याय बुद्धिमे ही काल पूर्ण करता है। कुछ अन्य तिर्यञ्च संज्ञी पर्यायके पात्र होते हैं। उनमे अधिकांश तो महाहिंसक क्रूर ही जन्म पाते हैं। कुछ सरल-भद्र भी होते हैं। इन दोनों प्रकारके तिर्यञ्चोमें जिनके मन है वे सम्यग्दर्शन और देशसंयमके पात्र हैं परन्तु विरले हैं । देवों मे शुभोपयोगके कार्योंकी मुख्यता है परन्तु कितना ही प्रयत्न करें संयमसे वञ्चित ही रहते हैं। मन्द कषाय हैं, शुक्ललेश्या तक हो सकती है परन्तु वह लेश्या मनुष्य पर्याप्तमें संभवनीय शुक्ललेश्यासे न्यून ही है। मनुष्य जन्ममें संसार नाशका साक्षात्. कारण जो रत्नत्रय है वह हो सकता है । मनुष्य ही महाव्रतका पात्र हो सकता है। ऐसे निर्मल मनुष्य जन्मको पा कर पञ्चेन्द्रियोंके विषयमे लीन हो खो देना बुद्धिका दुरुपयोग है। आप लोग सम्पन्न हैं, नीरोग हैं और साधन अच्छे हैं। यदि इस उत्तम अवसरको पा कर आत्महितसे वञ्चित रहे तो अन्तमे पश्चात्ताप ही रह नावेगा, अतः जहाँ तक वने आत्मतत्त्वकी रक्षा करो। उससे अधिक मैं नहीं जानता। अब हमको जाना है आप लोग आनन्दसे रहिये।। प्रवचनके बाद बुलन्दशहरसे ४ मील चल कर एक कूप पर विश्रामके अर्थ रह गये और १५ मिनटके अनन्तर वहाँसे प्रस्थान कर २ मीलके उपरान्त एक धर्मशालामे ठहर गये। धर्मशालाके समीप ही एक शिवालय था, उसमे सायंकाल बहुतसे भद्र मनुप्य पाये और सन्ध्या वन्दन कर चले गये। अन्तमें १ महाशयने प्रश्न किया कि संसारमे मनुष्यका क्या कर्त्तव्य है ? यह तो महादुःखका सागर है ? प्रश्नके उत्तरमे मैंने कहा-दुख क्या है? वह महाशय वोले Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरठकी ओर जो नाना प्रकारकी अभिलाषाएँ होती हैं वही दुःख है। मैंने कहाजब यह निश्चय हो गया कि अभिलाषाएँ ही दुःख है तब इन्हे त्यागना ही दु.खनिवृत्तिका उपाय है। किसीसे पूछनेकी आवश्यकता. नही। इतना ही मामिक तत्त्ववेत्ता कहेगे । दुःख निवृत्तिका उपाय जब यही है तव दुःखके मूल कारणोंसे अपनेको सुरक्षित रखना मनुष्यका कर्तव्य अनायास सिद्ध है। आजकी कथा तो प्रत्यक्ष ही है । संसारमे जिसकी आवश्यकताएँ जितनी अधिक होंगी वह उतना ही अधिक दुःखका पात्र होगा। जितनी कम अभिलाषाएं होगी वह उतना ही कम दुःखका पात्र होगा इससे अधिक उपदेश कल्याणमार्गका है नहीं। दुःखका मूल कारण परमे निजकी कल्पना है। जिसने इस कल्पनाकी उत्पत्तिको रोका उसने संसारका बीज ही उच्छेद कर डाला। देव गुरु और आगमकी उपासनाका भी यही सार है। यदि मोह नष्ट हो गया तो विषाक्त दन्तके विना सर्प जिस प्रकार फण पटकता रहे पर कुछ अहित करनेको समर्थ नहीं उसी प्रकार अन्य विभाव काम करता रहे पर आत्माका कुछ पदार्थ विगाड़ नहीं सकता इसे हम और आप जानते हैं । यदि विशेष जाननेकी इच्छा हो तो विशिष्ट विद्वानोंके पास जाओ । मेरा उत्तर सुन उसका चित्त गद्गद हो गया।। __ यहाँ रात्रिको ठण्डका बहुत प्रकोप हुआ परन्तु जब निरुपाय कोई उपद्रव आ जाता है तब एक सन्तोष इतना प्रवल उपाय है किउससे वह उपद्रव विना किसी उपायके स्वयमेव शान्त हो जाता है। यहाँसे प्रातःकाल चले । लगभग ६ मील चले होंगे कि एक वैष्णव धर्मको माननेवाली महिला आई और उसने बहुतसे फल समर्पण किये । बहुत ही आदरसे उसने कहा कि हमारा भारतवर्ष-देश आज जो दुर्दशापन्न हो रहा है उसका मूल कारण साधु लोगोंका अभाव है। प्रथम तो साधुवर्ग ही यथार्थ नहीं और जो कुछ है वह Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ मेरी जीवन गाथा अपने परिग्रहमें लीन है । कोई उपदेश भी देते हैं तो तमाखू छोड़ो, भाँग छोड़ो, रात्रिको मत खाओ " यह उपदेश नहीं देते, क्योंकि वे स्वयं इन व्यसनोके शिकार रहते हैं। यथार्थ उपदेशके अभावमें ही देशका नैतिक चारित्र निर्मल होनेकी जगह मलिन हो रहा है । यद्यपि सम्प्रदाय भेद होनेसे भिन्न भिन्न सम्प्रदायके साधु हैं तथापि आत्माको चैतन्य मानना पञ्च पाप त्यागना यह तो प्राणिमात्रके लिये उपदेश देना चाहिये । इसमे क्या हानि है ? अथवा यह तो दूर रहो प्रथम तो उपदेश ही नहीं देते । यदि देते भी हैं तो ऐसा उपदेश देखेंगे जिसका सामान्य मनुष्योंको बोध भी नहीं होगा कि महाराज क्या कह रहे हैं ? आप पैदल यात्रा करते हैं यह बहुत ही उत्तम है परन्तु आप जो आपके परिकरमें हैं उन्हें उपदेश देवेंगे या जहाँ जैन जनता मिल जावेगी वहाँ उपदेश देवेंगे। हम लोगों को आपके पैदल भ्रमणसे क्या लाभ ? आपको तो सर्व प्राणिवर्गके साथ धार्मिक प्रेम रखना चाहिये। धर्म तो धर्मीका होता है। हम भी तो धमी (आत्मा) हैं अतः हमको भी धर्मका तत्त्व समझाना चाहिये। मेरा तो दृढ़तम विश्वास है कि यदि वक्ता सुबोध और दयालु है तो श्रोतागण उससे अवश्य लाभ उठावेंगे। हम लोग इतने संकुचित विचारके हो गये हैं कि इतरको दीन समझ सदुपदेशसे वंचित रखते हैं। मैं तो इसका अर्थ यह जानती हू कि जो वक्ता स्वयं मोक्षमार्गसे वश्चित है वह इतरको उससे लाभान्वित कैसे कर सकता है ? अतः मेरी आपसे नम्र प्रार्थना है कि आप अपनी पैदल यात्राका यथार्थ लाभ उठावें । वह लाभ आप तभी उठा सकेंगे जब धर्मका उपदेश प्राणीमात्रके लिये श्रवण करावेंगे। जो बातें मैंने आपके समक्ष प्रदशित की यदि उनमें कुछ तथ्यांश दृष्टिमें आवे तो उन्हें स्वीकृत करना अन्यथा त्याग देना। इतना बोलनेका साहस मैंने आज ही किया और आपने सुन लिया Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मेरठको और यह आपकी शिष्टाचारता है । अव मै आपका अधिक समय नहीं लेना चाहती ....." इतना कह प्रणाम कर वह चली गई। ___ महिला चली गई और हृदयके अन्दर विचारोंका एक संघर्ष छोड़ गई। उसके चले जाने पर मैंने बहुत कुछ मानसिक परिश्रम किया। मनमे विचार आया कि क्यों तुम्हे एक अबला इतनी शिक्षा दे गई ? क्यों उसका इतना दम्भ साहस हुआ ?मैं तो उसका कथन श्रवण कर आत्मीय दुर्वलता पर ध्यान देने लगा। विचार किया कि ७४ वर्षकी आयु होनेवाली है परन्तु तुमने आज तक शान्ति नहीं पाई। प्रथम तो सम्यग्दर्शन होनेके बाद आत्मामे अनन्त संसारकी विच्छित्ति हो जानेसे अनन्त ही शान्ति आना चाहिये। अप्रत्याख्यानावरण कषाय शान्तिकी घातक नहीं । केवल ईषत् संयम जिसे देशसंयम कहते हैं नहीं होने देती । देशसंयम घातक कषाय आत्मस्वरूपके बोध होनेमें बाधक नहीं । अनन्तानुबन्धी कपायके अभावमे आत्मा हर समय चाहे स्वात्मोपयोगी हो चाहे पर पदार्थोंके ज्ञानमें उपयुक्त हो आत्मश्रद्धासे विचलित नहीं होता। यही कारण है कि यह सर्व संसारके कार्योमे व्यग्र रहने पर भी व्यग्र नहीं होता। उसकी महिमा अवर्णनीय और अचिन्त्य है। जिस दिन सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो गया उस दिन आत्मा कतत्वधर्मका स्वामी मिट गया। __अज्ञानके कारण ही यह आत्मा पर पदार्थोंका कर्ता बनता फिरता है, अतः जब अज्ञानभावकी-मोह मिश्रित जानकी निवृत्ति हो जाती है तब यह अकर्ता हो जाता है। किसी पदार्थका अपने आपको कर्ता नहीं मानता। जिसे इस तत्त्वकी प्राप्ति हो चुकी उसे अब चिन्ता करनेकी कौन सी बात है ? जिसके पास ६६६६६६६) रुपये ६३ पैसे और २ पाई हो गई उसे कोट्यधीश कहना कुछ अत्युक्ति नहीं परन्तु परमार्थसे अभी १ पाईकी कमी.. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा उसे कोट्यधीश नहीं कहने देती। इसी प्रकार अनन्त संसारका अभाव होने पर भी अभी उस जीवको हम सर्वज्ञ-केवली नहीं कह सकते। कहनेका तात्पर्य यह है कि जब जीवके सम्यग्दर्शन हो जाता है उस समय उसकी आत्मामें जो शान्ति आती है उसका अनुभव उसी आत्माको है अन्य कोई क्या उसका निरूपण करेगा ? इतना होने पर भी यदि वह अन्तरङ्गसे खिन्न रहता है तो मेरी बुद्धिमें तो उसे सम्यग्दर्शन नहीं हुआ । व्यर्थ ही व्रती वननेका मान करता है । मोक्षमार्गमें जो कुछ कला है इसी सम्यग्दर्शनकी है । विवाहमें मुख्यता वरकी है वरातियोंकी नहीं। यदि वह चगा है तो सर्व परिकर सानन्द है । इसके असद्भावमें सर्व परिकरका कोई मूल्य नहीं अतः हम जो रात्रि दिनशान्तिके अर्थ रुदन करते हैं उस रुदनको छोड़ देना चाहिये, क्योंकि हम लोगोंकी जैनधर्ममें अकाट्य श्रद्धा है । शेष त्रुटि दूर करनेके अर्थ पुरुषार्थ करना चाहिये । मेरा तो यह विश्वास है कि यदि धर्ममें हमारी रुचि है तो अवश्य ही हम मोक्षमार्गके पात्र हैं। श्री समन्तभद्रस्वामीने कहा है कि सम्यक्त्रके समान श्रेयस्कर और मिथ्यात्वके समान अश्रेयस्कर अन्य नहीं। अस्तु इस विषयमे विवाद न कर निरन्तर शान्तभावोंका उपार्जन करो।मनमें यही विचार आया कि-गल्पवाद मत करो, सहसा उत्तर मत दो, हठ मत करो किसीको अनिष्ट मत बोलो, जो उचित वात हो उसके कहनेमें संकोच मत करो, आगमके प्रतिकूल मत चलो। न धमें वाह्य चेष्टामे है और न अधर्म, उसका तो सीधा सम्बन्ध आत्मासे है। आत्माकी सत्ताका अनुमापक सुख दुःखका अनुभव है तथा प्रत्यभिज्ञान भी आत्माकी नित्यतामें कारण है, प्रत्येक मनुष्य सुखकी अभिलापा करता है। इसी विचार निमग्नदशामें चल कर बुलन्दशहरसे ८ मील आये और १ धर्मशालामें ठहर गये। यहाँसे ९ मील चल कर Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरठकी ओर गुलावटीमें श्री मोहन जैसवालकी धर्मशालामें ठहर गये। यहाँ पर कई बुढ़ियों आई और केला आदि चढ़ा गई । उन्होंने समझा कि यह उड़िया वाया हैं। अभी तक भारतमें वेषका आदर है। यहाँ पर मेरठसे वावू ऋपभदास जी आ गये। उन्हींके यहाँ भोजन किया । आप बहुत ही सज्जन हैं। यहांसे ३ मील चलकर १ धर्मशालामें ठहर गये। एक कोठरी थी उसीमें ५ आदमियोंने गुजर किया। रात्रिको शीतका बहुत प्रकोप था । परन्तु अन्तमें वह प्रकोप गया । प्रातःकाल ७३ बजे जब दिनकरकी सुनहली धूप सर्व ओर फैल गई तब चले। कुछ समय बाद लगा ब्राह्मणोंके ग्राममें पहुंच गये, तगा लोग अपनेको त्यागी कहते हैं, ये लोग दान नहीं लेते हैं देते हैं। त्यागकी महत्ता समझते हैं । जिनके यहाँ ठहरे थे उनका पूर्वज बहुत विद्वान् था। उनके घर बहुतसे ग्रन्योंका संग्रह था, शिष्ट मानव था । मेरठसे दो चौका आ गये थे उन्हींके यहाँ भोजन किया। पिछले दिनों एक महिलाने प्रेरणा की थी कि जहाँ जाओ सर्व हितके लिये उपदेश दो, धर्मका प्रचार करो पर हमने उस पर कुछ भी चेष्टा न की। आखिर संस्कार भी तो कोई वस्तु है। वास्तवमे यही उपेक्षा हमारे उत्कर्षमै वाधक है। यहाँसे २ कोश चलकर हापुड़ आगये। यह बहुत भारी मण्डी है। यहाँ पर वर्तनोंका .महान् व्यापार है तथा यहाँ पर १ वर्षमें करोड़ों रुपयेका सट्टा हो जाता है। सहस्रों मन गुड़ यहाँ पर प्रतिदिन आता है। यहाँ पर मन्दिर बहुत सुन्दर है। प्रतिमाएँ भी अत्यन्त मनोज्ञ हैं । आजकल कारीगर बहुत निपुण हो गये हैं। दर्शन करनेके बाद श्रीरामचन्द्रजीके गृहमें आये । वहुत ही सुन्दर गृह है । आपके ३'सुपुत्र हैं। तीनों ही बुद्धिमान् हैं । आपका कुल धार्मिक है, आपके यहाँ शुद्ध भोजन बनता है तथा आपकी दानमें प्रवृत्ति अच्छी है। कन्याशालामें श्री चौ० रामचरणलाल Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा सागरकी बहिन है । यहाँके मनुष्ये बहुत ही सज्जन हैं। १ खण्डेलवाल भाईके वागमें जो शहरसे आधा मील होगा ठहर गये । आपने सर्व प्रकारकी व्यवस्था कर दी, कोई कष्ट नहीं होने दिया । मन्दिरमे २ दिन प्रवचन हुआ, मनुष्य संख्ण अच्छी उपस्थित होती थी। प्रवचन सुन मनुष्य बहुत ही प्रसन्न हुए परन्तु वास्तवमें जो वात होना चाहिये वह नहीं हुई और न होनेकी आशा है, क्योंकि लोग ऊपरी आडम्बरमें प्रसन्न रहते हैं अन्तरङ्गकी दृष्टि पर ध्यान नहीं देते । केवल गल्पवादमे समय व्यय करना जानते हैं। १ धमशाला मन्दिरके पास वन रही है । मन्दिरके पास. वर्तन बनानेवाले बहुत रहते है। इससे प्रवचनमें अतिवाधा उपस्थित रहती है पर कोई उपाय इस विघ्नके दूर करनेका नहीं है। शामको मेरठवाले आये और मेरठ चलनेके लिये प्रार्थना करने लगे जिससे हापुड़वालोंमे और उनमे बहुत विवाद हुआ । हापुड़के मनुष्योंको मेरे जानेका बहुत खेद हुआ परन्तु प्रवास तो प्रवास ही है। प्रवाससे एक स्थान पर कैसे रहा जा सकता है। फलतः माघ सुदी १३ को हापुड़से मेरठकी ओर प्रस्थान कर दिया । यहाँ निम्नांकित भाव मनमे आया 'किसीकी मायामें न आना''यही बुद्धिमत्ता हैं । जो कहो उस पर दृढ़ रहो, व्यर्थ उपदेष्टा मत बनो, किसीसे रुष्ट तथा प्रसन्न मत होओ, किसी संस्थासे सम्बन्ध न रक्खो, अपने स्वरूपका अनु. भवन करो, परकी चिन्ता छोड़ो, कोई किसीका कुछ उपकार नहीं कर सक्ता ।' - मेरठ हापुड़से ४ मील कैली आये, एक जमींदारके वरण्डामे ठहर गये. अति सज्जन था। सत्कारसे रक्या, दुग्धादि पान करानेकी Page #68 --------------------------------------------------------------------------  Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Vers द ... . RELATES! ' तदनन्तर चलकर एक बागमे ठहर गये। [पृ०४६] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरठ बहुत चेष्टा की परन्तु किसीने नहीं पिया। यहाँसे ३ मील चलकर खरखोंदा आ गये। यहाँ पर एक तगा ब्राह्मणके घर पर ठहर गये जो बहुत ही सज्जन था । इनके वावा तुलसीराम बहुत प्रसिद्ध पुरुष थे । निरन्तर दानमे प्रवृत्ति रखते थे। यहाँ तक दयालु थे कि निज उपयोगके पदार्थ भी परजनहिताय दे देते थे। ऐसे पुरुष बहुत कम होते हैं। यहाँ पर मेरठसे एक चौका आया था। उसीमे भोजन किया। यह ग्राम ६००० मनुष्योंकी वस्ती है। यहाँ पर अनिवार्य शिक्षा है । संस्कृतशाला तथा हाईस्कूल है । सव प्रकारकी सुविधा है। व्यापारकी मण्डी है। यहाँसे ११३ बजे चल दिये और १ मील चलकर मार्गमे सामायिक की। नगरके कोलाहलसे दूर निर्जन स्थान पर सामायिक करनेसे चित्तमे बहुत शान्ति आई। तदनन्तर चलकर एक बागमें ठहर गये। माघ सुदी पूर्णिमाको प्रातः तीन मील चलकर मेरठसे इसी ओर २ मील दूरी पर १ बाग था उसमें ठहर गये । देहलीसे श्री राजकृष्णके भाई आये, उनके यहाँ भोजन हुआ। वहाँ १३ वजतेबजते मेरठसे बहुत जनसंख्या आकर एकत्र हो गई और गाजेबाजेके साथ मेरठ ले गई। लोगाने महान् उत्साह प्रकट किया। अन्तमें श्री जैन बोटिंगमें पहुँच गये और यहीं ठहर गये । यहाँ पर १ मन्दिर बहुत सुन्दर है, स्वच्छ हैं। १ भवन शास्त्रप्रवचनका है जिसमें २०० मनुष्य तथा १०० महिलाएँ आनन्दसे शास्त्र श्रवण कर सकते हैं। दूसरे दिन प्रात काल प्रवचन हुआ। श्री वणी मनोहरलालजीने प्रवचन किया। आपकी प्रवचनशैली गम्भीर है, आप सस्कृतके अच्छे विद्वान् हैं, कवि भी हैं, भजनोंकी अच्छी रचना की है, गान विद्यामें भी आपकी गति है, हारमोनियम अच्छा बजाते हैं, सौम्यमूर्ति हैं। आपने सहारनपुरमे गुरुकुल खोला है उसके अर्थ कुछ संकेत किया तो २००००) वीस हजार Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा रुपये हो गये । १००००) दस हजार तो आटेकी मिलवालों ने दिये । आपसे यहाँकी जनता प्रसन्न है । यहाँ बाबू ऋषभदासजी साहब अच्छे विद्वान् हैं । आपके प्रवचनसे हमें बहुत आनन्द आया | आपको चारों अनुयोगोंका ज्ञान है। जनता आपके प्रवचनोंसे बहुत प्रसन्न रहती है । आपने व्यापारका त्याग कर दिया है। आपके पुत्र भी बहुत सुशील हैं । श्रापका कुटुम्ब आपके अनुकूल हैं । आप विद्वान् भी हैं, सदाचारी भी हैं, त्यागी भी हैं, वक्ता भी हैं। आपके समागमसे अपूर्व शान्ति हुई । आप गृहमे रहकर जलमें कमलके समान अलिप्त हैं । आपके साथ वार्तालाप करनेसे श्री आचार्य समन्तभद्रके रत्नकरण्ड श्रावकाचारका श्लोक ५० गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् / अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः || याद आ गया और दृढ़तम विश्वास हो गया कि कल्याण मार्गका बाधक अन्य पदार्थ नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि निमित्त कारण कुछ नहीं करता । यदि पदार्थमे योग्यता है तो निमित्त उसके विकास मे सहकारी हो जाता है । चनामे विकास होनेकी योग्यता है, अतः उष्ण वालु पुञ्जका संसर्ग पाकर वह खिल जाता है । वालुका पिण्ड अग्निका निमित्त पाकर उष्ण तो हो जाता है परन्तु विकसित नहीं होता और निजकी योग्यता रहने पर भी अग्नि रूप निमित्तकी सहायताके विना चना त्रिकसित नहीं होता । इससे सिद्ध होता है कि कार्यकी सिद्धिमें पढ़ार्थकी योग्यता और वाह्य निमित्तका आलम्बन दोनों ही कार्यकारी हैं । मेरठ पहुँचते ही हमे वाचा लालमनजीका स्मरण हो आया । आपकी कथा वड़ी रोचक है । आपके नेत्रोंकी दृष्टि जाती रही Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरठ थी। एक दिन आप मन्दिरमे गये तो आपकी माला टूट गई। तब आपने नियम लिया कि अब तो मन्दिरसे तब ही प्रस्थान करेंगे जब माला पोलेंगे या यहीं संन्यास धारण करेंगे। लोगोंने बहुत समझाया परन्तु आपने किसीकी शिक्षा नहीं मानी । २ दिन हुए कि आपको लघुशंकाकी वाधा हुई । उसके निवृत्त्यर्थ आप मन्दिरसे निकले परन्तु निकलते समय आपके शिरमें पत्थरकी चौखटका आघात लगा और मस्तकसे रुधिरधार बहने लगी। मालीने जलसे धोया शिरका विकृत भाग निकल जानेसे आपको दिखने लगा। इस घटनासे आपने गृह जानेका त्याग कर दिया और क्षुल्लक दीक्षा अंगीकार कर ली। आप प्रसिद्ध तुल्लक हुए। १५-१५ दिन तकके उपवास करनेमे आप समर्थ थे। आप धर्मप्रचारक भी अच्छे थे । वीसों स्थानों पर आपने जिन मन्दिर निर्माण कराये, अनेकोंको माँस भक्षणका त्याग कराया और अनेकोंको मन्दिरमार्गी बनाया। जिसके पीछे पड़ जाते थे उसे कुछ न कुछ त्याग करना ही पड़ता था। आपकी तपस्याका प्रभाव अनेक व्यक्तियों पर पड़ता था। आप यदि विद्वान होते तो कई विद्यालय स्थापित करा जाते परन्तु उस ओर आपकी दृष्टि न गई, फिर भी आपने जैनधर्मका महान् उपकार किया, स्वयं निर्दोष चारित्र पालन किया, औरोंको भी पालन करानेका पूर्ण शक्तिसे प्रचार किया। एक बारकी वात है कि आप सिंहपुरीकी यात्राको गये थे और मैं भी वहाँके दर्शनके लिये गया था। आपके दर्शनका आकस्मिक लाभ हो गया। मैंने सविनय आपको प्रणाम किया। फिर क्या था ? आप कहते हैं-कौन हो ? मैंने उत्तर दिया छात्र हूँ। आपने कहा-कहाँ अध्ययन करते हो ? मैंने कहा-स्याद्वाद विद्यालयमें । आपने प्रश्न किया कुछ त्याग कर सकते हो ? मैंने विचार किया हम छात्र हैं, अतः क्या त्याग कर सकते हैं हमारे पास कुछ द्रव्य तो Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. मेरी जीवन गाया है नहीं। फिर भी जो बनेगा १ आना २ आने किसी गरीवको दे देवेंगे । इस विचारके अनन्तर मैंने सहर्ष स्वीकृत किया किकर सकते हैं । अच्छा महाराज बोले- तुमको भोजनमें सबसे प्रिय शाक कौनसा है ? मैंने कहा-महाराज! आपने कहा था कुछ त्याग कर सकते हो, मैंने समझा-कुछ पैसेका त्याग महाराज करावेंगे पर आप तो पूछते हैं भोजनमे कौनसा प्रिय शाक है ? महाराज ! मुझे सबसे प्रिय शाक भिण्डी है। सुन कर महाराज वोले-इसीको त्यागो । मैं वोला-महाराज | यह कैसे होगा ? क्योंकि यह तो मुझे अत्यन्त प्रिय है। महाराज बोलेतूने स्वयं कहा था कि त्याग कर सकते हैं। मैंने कहा-महाराज भूल हुई क्षमा करो । महाराज बोले-भूलका फल तो तुम्हें भोगना ही पड़ेगा। मैंने कहा - महाराज ! जो आज्ञा, कब तकके लिये छोड़ ? महाराज वोले-तेरी इच्छा पर निर्भर है। मैं बोला-महाराज ! मैं मोही जीव हूं, आपही वतावें । महाराजने कहा-जो तेरी इच्छा सो वोल । मैंने कहा- जव तक बनारस भोजनालयमे नहीं पहुंचा तब तक त्याग है। महाराज बोलेवेटा! हम समझ गये परन्तु ऐसी दम्भिता सुखकारी नहीं। ज्ञानार्जनका यह फल नहीं कि छलसे काम निकाल लो। यही दोप वर्तमानके वातावरणमे हो गया है कि हर वातमे कुतर्कसे काम निकालते हैं। हम तुमको छात्र जान तुम्हारे हितकी बात कहते हैं जो मनमे हो सो कहो। देखो, यदि भिण्डीका शाक छोडना इष्ट नहीं था तो हमसे कह देते-महाराज, मैं नहीं छोड़ सकतायही सीधा उत्तर देना था। अस्तु, छलसे काम न करना। मैने महाराजसे कहा-१० मासको त्याग दिया। महाराज प्रसन्न हुए, कहने लगे-प्रसन्न रहो, कल्याणके पात्र होश्रो । महाराजका अन्तिम उपदेश तो यह था कि यदि कल्याण नामका Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . मेरठ । कोई पदार्थ है तो उसका पात्र त्यागी ही हो सकता है। अन्य कथा छोड़ो जो हिंसक हैं, विषयी हैं, व्यसनी है उन्हे भी जो सुख होता है वह त्यागसे ही होता है । जैसे हिंसक “मनुष्यके यह भाव हुए कि अमुक प्राणीकी हिंसा करूं। अब वह जब तक उस प्राणीका घात न करे तवतक निरन्तर खिन्न और दुखी रहता है। अब उसकी खिन्नता जानेके दो ही उपाय हैं-या तो अपनी इच्छाके अनुसार उस प्राणीका घात हो जावे या वह इच्छा त्याग दी जावे । यहाँ फलस्वरूप यही सिद्धान्त तो अन्तमे आया कि सुखका कारण त्याग ही हुआ। हम उस ओर दृष्टि न दें यह अन्य कथा है। विषयी मनुष्य जब विषय कर लेता है तभी तो प्रसन्न होता है। इसका यही अर्थ तो हुआ कि उसे जो विषयेच्छा थी वह निवृत्त हो गई। मेरा ही यह विश्वास है सो नहीं, प्राणीमात्रको ही यही मानना पड़ेगा कि त्यागमें ही कल्याण है। कल्याणका बाधक कर्म है और यह कर्म उदयमें विकृति देकर ही खिरता है। उस समय जो औदयिक विकृति होती है वही फिर नवीन बंध वाँधनेका कारण हो जाती है । यही संतति हमारी आत्माको आत्मोन्मुख नहीं होने देती। यही हमारी महती अज्ञानता है। जब तक हमारी असंज्ञी अवस्था थी तब तक तो हमको हेयोपादेयका बोध ही न था। पर्याय मात्रको आपा मान पर्याय ही में आहारादि संज्ञाओं द्वारा मग्न रहते थे परन्तु अव तो संज्ञीपनाको प्राप्त हो हेयोपादेयके जाननेके पात्र हुए हैं। अब भी यदि निजकी ओर लक्ष्य न दिया तो हमारा सा अपात्र कौन होगा ? हमको यह बोध है कि हम जो हैं वह शरीर नहीं है। शरीर पुद्गल परमाणुओंका पिण्ड है। अनादिकालसे विभाव परिणतिके कारण इन दोनोंका बन्ध हो रहा है और Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा उस बन्धके कारण दोनों द्रव्य आत्मीय स्वरूपसे च्युत हो रहे हैं । जैसे स्वर्ण और रजतको गला कर यदि १ पिण्ड कर दिया जावे तो उस अवस्थामे न वह केवल स्वर्ण है और न रजत है किन्तु दोनोंकी विकृतावस्था हैं । यद्यपि जिस समय उन दोको गलाया था उस समय उनमें जो चार आना भर स्वर्ण और चार आना भर रजत था वही पिण्डावस्थामे भी विद्यमान है तथापि पर्यायदृष्टिसे न वह केवल स्वर्ण है और न केवल रजत ही है किन्तु स्वर्ण और रजतकी १ मिश्रित अवस्था है । इसी प्रकार आत्मा और पुद्गलकी वन्धावस्थामे एकमेक प्रतीति होती हैं । यद्यपि दोनों पदार्थ भिन्न भिन्न हैं तथापि मोहके कारण भिन्नता दृष्टिपथ नहीं होती । भिन्नताका कारण जो भेदज्ञान है वह मद्यपायी मनुष्यकी विवेकशक्ति के समान अस्तमितके समान हो रहा है | अतः वेटा ! हमारा यही उपदेश है कि मोहको त्यागो और आत्मकल्याणमे आओ। केवल जाननेसे कुछ न होगा । अस्तु, महाराजकी यह कथा आनुपतिक आ गई। मेरठमे कई दिन रहे । यहाँका जलवायु अत्यन्त स्वास्थ्यप्रद हैं । यहाँकी मण्डली भी धार्मिक है- धार्मिक भावोंसे श्रोत-प्रोत है । सदरमे २ जिन मन्दिर हैं । यहाँ पर भी लोगोंका वर्ताव धार्मिक भावोंसे अनुस्यूत है । इसी तरह तोपखानेमे भी १ सुन्दर जिन मन्दिरका निर्माण कराया गया है। यदि त्रुटि देखी गई तो यही कि समाजमे संघटन नहीं, अन्यथा आज संसारमें आत्माका जो वास्तव धर्म है उसका विकाश होने में विलम्ब न होता । ५४ हिंसा धर्म है और वह आत्माका वह परिणाम है जहाँ मोह राग-द्वेपकी क्लुपता नहीं होती। उस तरह शुद्ध अवस्था है वही श्रहिंसा है । विषय लालनासे विपयोंमें जो प्रवृत्ति हो रही है वह हिंसा के आत्माकी जो पञ्चेन्द्रियों के श्रद्धानमात्रसे Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरठ विलीन हो जाती है। पञ्चेन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका ज्ञान होना अन्य बात है और रुचिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए जानना अन्य बात है। दोनोंमें महान् अन्तर है। प्रमाद पूर्वक जो हिंसा होती है आन्तरङ्गिक कलुषताके निकल जाने पर वह भी नहीं होती। प्रयत्न पूर्वक निष्प्रमाद रहने पर यदि किसी प्राणीका वध भी हो जावे तो वह हिंसा नहीं, क्योंकि अमृतचन्द्रदेवने कहा है-- युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ।। अर्थात् जिसका आचरण युक्त-निष्प्रमाद है उसके रागादि जन्य आवेशके बिना यदि बाह्यमें कदाचित् प्राणोंका व्यपरोप भी होता है तो उससे हिंसा नहीं होती। अतः अन्तरनमें जिनका अभिप्राय निर्मल हो गया उन महापुरुष की प्रवृति अलौकिक हो जाती है। किसीके ये भाव बाहरसे आते नहीं किन्तु जिन आत्माओंके संसार बन्धनसे मुक्त होनेकी आकांक्षा हो जाती है उनके अनायांस ही आभ्यन्तरसे प्रकट हो जाते हैं। प्रत्येक प्राणीकी अहिंसारूप परिणति स्वभावतः विद्यमान रहती है, कहीं बाहरसे वह आती नहीं है। जैसे अग्निमे उष्णता किसीने लाकर नहीं दी है। वह तो उसका स्वभावसिद्ध गुण है परन्तु जिस प्रकार चन्द्रकान्तमणके संपर्कसे अग्निका उष्णता गुण दाह कार्यसे विमुख हो जाता है उसी प्रकार आत्माका अहिंसक गुण मोहके संपर्कसे स्वकार्यसे विमुख हो रहा है। हे आत्मन् ! अब इन पर पदार्थों के द्वारा अपनी प्रशंसा निन्दा आदिके जो भाव होते हैं उन्हे त्याग सुमार्ग पर आओ। यहाँ वाबू जुगलकिशोर जी मुख्त्यार तथा उनके साथ पं० दरवारीलालजी न्यायचार्य भी आये । यहाँ आहार आदिके समय लोगोंने सहारनपुर गुरुकुलके लिये यथाशक्य सहायता Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ मेरी जीवन गाथा दी । गुरुकुल संस्था उत्तम है परन्तु लोगोंकी दृष्टि उस ओर नहीं । उसका स्वाद नहीं, जिन्हें स्वाद है उनके पास द्रव्य नहीं, जिनके पास द्रव्य है उनके परिणाम नहीं होते । संसारी जीव निरन्तर परको अपना मानता है । इसी कारण वह संसारमे भ्रमता है । हमारे मनमे यह विचार आया कि 'स्पष्ट और सरल व्यवहार करो। परको पराधीन वनाना महती अज्ञानता है । आत्मीय कलुषताके विना परकी समालोचना नहीं होती ।' 'अन्तर वृत्ति निर्मल नहीं । तत्वज्ञानकी रुचि जैसी चाहिये वह नहीं । खेद इस बातका है कि हम स्वयं आत्मपरिणामों के परिणमन पर ध्यान नहीं देते । स्वकीय श्रात्मद्रव्यका कल्याण करना मुख्य है परन्तु उस ओर लक्ष्य नहीं है। आत्मन् ! तँ परपदार्थोंमे वव तक उलझा रहेगा ?” खतौली फाल्गुन वदी ६ सं० २००५ को मेरठसे चलकर शिवाया पर निवास किया। यहाँ पर जो बंगला था वह ईसाईका था परन्तु उसमे जो रहनेवाला था वह उत्तम विचारका था, जातिका वैश्य था, गांधीजीके आश्रयमें १३ वर्ष रहा था, मुफ्त औषध बाँटता था, योग्य था । उसने यह नियम लिया कि तमाखु न पीयेंगे तथा जहाँ तक बनेगा मनुष्यता सम्पादन करनेकी चेष्टा करेंगे। चेष्टा ही नहीं मनुष्य बनकर ही रहेंगे । बहुत विनयसे १ मील पहुँचा गया। शिवायासे चलकर ढौराला आया । यहाँ पर भोजन कर सामायिक क्रिया की और फिर चलकर सायंकाल सकौती पहुँच गये । यहाँ पर ठहनेके लिये पवित्र स्थान मिला। रात्रिको विचार आया कि 'परके सम्बन्धसे जीव कभी भी सुखी नहीं हो सकता, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खतौली क्योकि जहाँ पर पराधीनता है वही दुःख है अतः जहाँ तक बने परकी पराधीनता त्यागो। यही कल्याणका मार्ग है। स्वतन्त्रता ही सुखकी जननी है, सुखका साधन एकाकी होता है।' ____ फाल्गुन वदी ८ सं० २००५ के ३ बजे खतौली आये। ग्रामके सर्वे मनुष्य आये, स्त्री जन भी अधिक संख्यामे आई। लोगोंकी स्वागत पद्धतिको देखकर मनमें विकल्प आया कि 'केवल रूढिकी प्रवृत्ति ही चलनेसे लाभ नहीं। मार्गमे चाँदीके फूल विखेरे। मैं तो इसमे कोई लाभ नहीं मानता। परोपकार करनेकी ओर लक्ष्य नहीं। इसका कारण यह है कि हम लोग आत्मतत्त्वको नहीं जानते अतः अनावश्यक प्रवृत्ति कर अपनेको धर्मात्मा मान लेते हैं। परन्तु धर्मात्मा वही हो सकता है जो धर्मको अंगीकार करें। यह वही खतौली है जहाँ पर लाला हरगृलालजी बहुत ही प्रबल विद्वान् और उदार थे। आप केवल संस्कृतके ही विद्वान् न थे किन्तु फारसीके भी पूर्ण विद्वान् थे। आप यहाँसे २ कोस पर मौलवी साहबका गृह था वहाँ पर पढ़ने जाते थे। मौलवी साहबने कहा-हरगू बेटा। तुमको कष्ट होता होगा अतः हम स्वयं खतौली आया करेंगे और यही हुआ। यहाँ पर वर्तमानमे कई सज्जन ऐसे हैं जो धवलाका स्वाध्याय करते हैं। श्री महादेवी बहुत विदुषी है, त्यागकी मूर्ति है, निरन्तर अपना समय ज्ञानार्जनमें लगाती है। यहाँ पर पहले जो कुन्दकुन्द विद्यालय था वह अब अंग्रेजीका कालेज हो गया । इस युगमें लोकैषणाके कारण अध्यात्मविद्याकी ओरसे लोगोंका झुकाव कम होता जा रहा है परन्तु मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि इस जीवका वास्तविक कल्याण अध्यात्मविद्यासे ही हो सकता है। यहाँ पर कई सज्जन हैंबाबूलालजी साहब महापरोपकारी हैं। लाला 'त्रिलोकचन्द्रजी तो एक पैरसे कमजोर होकर भी धार्मिक कार्योंमें अपना समय Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ मेरी जीवन गाथा लगानेमें कृपणता नहीं करते। लाला विश्वम्भरसहायकी क्या कहें सामग्री होते हुए भी उसका उपभोग करनेमें संकोच करनेसे नहीं चूकते। हमारा आपका बहुत प्राचीन सम्बन्ध है । हमारी सुनते तो हैं परन्तु 'हर्रा लगे न फटकरी रंग चोखा हो जाय' ऐसा मधुर भाषण कर टाल देते हैं। टालते रहें पर हमें विश्वास है कि एक दिन अवश्य मार्ग पर चलेंगे। मार्गमें हैं पर चलनेका विलम्ब है। यहीं पर लाला खिचोड़ीमल्ल हैं जो सचमुच एक उदारताका पुतला है। यदि ऐसा मनुष्य विशेष धनिक होता तो न जाने क्या करता? मेरा इनका बहुत दिनसे सम्बन्ध है, निरन्तर इनकी प्रवृत्ति स्वाध्यायमें रहती है। पूजन प्रतिदिन करते हैं। मुरारमें आप ४ मास रहे । निरन्तर त्यागियोंको आहार कराना, संस्थाओंमे दान करना, किसीको कुछ आवश्यकता हो उसकी पूर्ति करना, विद्वानोंका आदर करना आपके प्रकृति सिद्ध कार्य हैं। बनारस तथा सागर विद्यालयकी निरन्तर सहायता करते हैं। आपका अधिक समय मेरे पास ही जाता है। आपने अपने भानजेके पाणिग्रहणमें २५००) का दान किया तथा विवाह नवीन पद्धतिसे किया। कन्यावालेसे कुछ भी आग्रह नहीं किया। आपका व्यवहार इतना निर्मल है कि कोई किसी पक्षका क्यों न हो प्रायः आपसे स्नेह करने लगता है। खतौलीमे प्रायः सर्व सज्जन हैं। यहाँ पर श्री माडेलाल जी दस्सा बड़े प्रतापशाली थे। आपने १ जैन मन्दिर भी उत्तम बनवाया है। आपके २ पुत्र बहुत ही योग्य थे। १ अब भी विद्यमान है । उन्हींके बॅगलामे मैं ठहरा था। __ प्रातःकाल ८३ वजेसे ३ बजे तक प्रवचन किया परन्तु मेरी बुद्धिमें तो यह आया कि हम लोग रूढिके उपासक हैं, धर्मके वास्तविक तत्त्वसे दूर हैं। धर्म तो आत्माकी शान्ति परिणतिके उदयमें होता है अतः उचित तो यह है कि पर पदार्थके साथ जो Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खतौली ५६ आत्मीय सम्बन्ध जोड़ रक्खा है उसे त्यागना चाहिये। जब तक यह नहीं होगा तब तक सर्व क्रियाएँ निःसार हैं । इसका अर्थ यह है कि जब तक अनात्मीय पदार्थोंके साथ निजत्वकी कल्पना है तब तक यह प्राणी धर्मका पात्र नहीं हो सकता । प्रवृत्तिकी निर्मलता उसीकी हो सकती है जिसका आशय पवित्र हो और आशय पवित्र उसीका हो सकता है जिसने अनात्मीय पदार्थोंमें आत्मबुद्धि त्याग दी । वही संसारके बन्धनोंसे छूट सकता है । फागुन बदी ११ को जैन कालेजमें प्रवचन था । पं० मनोहरलालजी वणका प्रवचन हुआ । अनन्तर मैंने भी कुछ कहा आशाका त्याग करना ही सुखका मूल कारण है । जिन्होंने आशा जीत ली उन्होंने करने योग्य जो था वह कर लिया । आशाका विषय इतना प्रबल है कि कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता । सांसारिक पदार्थोंकी पूर्तिकर इस आशागर्तको आज तक कोई नहीं भर सका है । संसार में सुखी वही हो सकता है जो इन आशाओं पर विजय प्राप्त करले । अगले दिन क्वीवाले मन्दिर मे प्रवचन हुआ | मनुष्यों की संख्या अच्छी थी । १० बजे चर्याको निकले, परन्तु भीड़ बहुत होनेसे चर्याकी विधि नहीं मिली। परिणामोंमे कुछ शान्ति हुई । अशान्तिका कारण मोहकी बलवत्ता है । मोही जीव सर्वदा दुःखका पात्र होता है । शारीरिक अवस्था दुःखकी जननी नहीं किन्तु उसके होते उसमे जो आत्मीयताकी कल्पना है वही दुःखकी जननी है । शरीर पर पदार्थ है, परन्तु उसके साथ ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध है कि भिन्नता भासमान नहीं होती । मनमें विचार आया कि यदि यह चाहते हो - हमारे श्रेयो मार्गका विकास हो तो शीघ्र से शीघ्र इन महापुरुषोंका समागम त्यागो | आजकल जितने महापुरुष मिलते हैं उनका अभिप्राय तुम्हारे अभिप्रायसे नहीं मिलता है और इससे यह दृढ़ निश्चय करो कि प्रत्येक पदार्थ - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा ૩૦ -का परिणमन भिन्न भिन्न है । तब यह खेद करना कि यह समागम अच्छा नहीं व्यर्थकी कल्पना है । एक दिन भैंसी गये, मन्दिरकी दर्शन किये । यहाँ पर ५ घर जैन हैं । मन्दिर बहुत सुन्दर है परन्तु मनुष्योंकी रुचि धार्मिक कार्यों में थोड़ी है । यहाँ पर २ आदमियोंने प्रतिज्ञा ली कि हमारे जो खर्च होगा उसमे एक पैसा रुपया दानमें दिया करेंगे । यह ग्राम जाट लोगों का है । यहाँ पर १ चर्मकार है । उसकी प्रवृत्ति धर्मकी ओर है । पार्श्वनाथका चित्र रक्खे है और उसकी भक्ति करता है । यहाँ जो जैनी हैं वे सज्जन हैं। भोजनके बाद सामायिक की । अनन्तर स्त्रीसमाज आया । उसे कुछ उपदेश दिया परन्तु प्रभाव कुछ नहीं पड़ा । प्रायः स्त्रीपर्याय मोहसे भरी रहती है । इसका सहवास मोही जीव चाहते हैं और उनके संपर्कसे आत्मीय कल्याणसे चित रहते हैं । संसारमें सबसे कठिन मोह स्त्रीका है । अगले दिन फिर प्रवचन हुआ । प्रवचन करते करते मुझे लगा कि लोग ऊपरी दृष्टिसे सुनते हैं । पश्चात् उसका कुछ असर नहीं रहता केवल प्रशंसा ही रह जाती है । वक्ता आत्मीय परिणतिसे कार्य नहीं लेता । लौकिक मर्यादा ही में निज प्रतिष्ठा मान प्रसन्न हो जाता हैं । होता जाता कुछ नहीं । मोक्षमार्गकी सरल पद्धति है परन्तु वक्ताओंने उसे इतनी दुरूह बना दी है कि प्रत्येक प्राणी सुन कर भयभीत हो जाता है । धर्म जव आत्माकी परिणति है तब उसको इतना कठिन दिखाना क्या शुभ है ? | मनमें विचार आया कि अपनी दिनचर्या ऐसी बनाओ जो विशेषतया परका सम्पर्क न्यून रहे । पर सम्पर्कसे वही मनुष्य रक्षित रह सकता है जो अपनी परिणतिको मलिन नहीं करना चाहता । मलिनताका कारण परमें मोह द्वेप ही है । अतः स्वीय मोह राग द्वेप छोड़ो । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ हस्तिनागपुर यहाँसे प्रातः काल ७॥ बजे चलकर ॥ बजे गंधारी आ गये। यहाँ पर धूमसिंहके यहाँ भोजन किया। यहाँ पर ४ घर हैं। चारों ही अच्छे हैं। घसीटामल अत्यन्त दयालु हैं। आयका भाग दानमे लगाते हैं। यहाँसे चलकर तिसना आ गये। तिसना गंधारीसे ५ मील है। यहाँ पर ६ घर जैनी है । प्रायः सभी सम्पन्न हैं। यहाँ आनन्दस्वरूपके घर भोजन किया। यहाँसे १२ मील हस्तिनापुर है । हस्तिनापुर पहुँचनेकी भावना हृदयको विशेषरूपसे उत्सुक कर रही थी । अतः यहाँसे चलकर वटावली ठहर गये और अगले दिन प्रातः २ मील चलकर वसूमा आ गये। यहाँ पर वहत उच्चतम मन्दिर है । मन्दिरसे श्री शान्तिनाथ जीकी मूर्ति है। १२३१ सम्बत्की है। बहुत सुन्दर और देशी पत्थरकी है । यहाँ पर तिसनासे आये हुए आनन्दस्वरूपजीके यहाँ भोजन हा । आप हस्तिनागपुर तक बराबर हमारे साथ आये । फागुन सुदी पञ्चमी सं० २००५ को दिनके ३ बजते बजते हम हस्तिनागपुर आ गये । आनन्दसे श्रीजिनराजका दर्शन किया। हस्तिनागपुर यह वही हस्तिनागपुर है जहाँ शान्ति, कुन्थु और अरनाथ भगवान्के गर्भ, जन्म तथा तप कल्याणक हुए थे। देवोपनीत जिसकी रचना थी तथा जहाँ भगवान्के गर्भमे आनेसे ६ माह पूर्व ही से रत्नवर्षा होने लगती थी। जगत् प्रसिद्ध कौरव पाण्डवोंकी भी राजधानी यही थी। अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियोंकी रक्षा भी यहाँ हुई थी तथा रक्षाबन्धनका पुण्य पर्व भी यहींसे प्रचलित हुआ था। यहाँके प्राचीन वैभव और वर्तमानकी निर्जन अवस्था पर दृष्टि डालते हुए जव विचार करते हैं तो अतीत और वर्तमानके बीच भारी अन्तर अनुभवमे आने लगता है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ मेरी जीवन गाया वर्तमानमें यहाँ पर १ विशाल मन्दिर है, जो देहलीके लाला हरसुखरायजीका वनवाया हुआ है। बहुत ही पुष्ट और सुन्दर मन्दिर है। इस मन्दिरका निर्माण किस स्थितिमें किस प्रकार हुआ यह इसके इतिहाससे प्रसिद्ध है । मन्दिर में श्रीशान्तिनाथ स्वामीका विम्ब अतिरम्य है। । १२३१ सम्वत्का है। जिसे देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता है । बीचमें एक वेदी है। उसके बाद एक 'नवीन विम्ब श्रीमहावीर स्वामीका है। यह सव है. परन्तु मनुष्योंकी प्रवृत्ति तो प्रायः इस समय अति कलुषित रहती है। यदि यहाँसे लोग शान्तभावको लेकर जावें तव तो यात्रा करनेका फल है, 'अन्यथा अन्यथा ही है। संसारवंधनके नाशका यदि यहाँ आकर भी कुछ प्रयास नहीं हुआ तो निमित्त कारणका क्या उपयोग हुआ ? दूसरे दिन मन्दिरमे प्रवचन हुआ। प्रवचनमे मैंने कहा कि आत्मामे अचिन्त्य शक्ति है फिर भी उपयोगमे नहीं आती। जल्पवादसे मुख मीठा नहीं होता। कर्तव्यवाद कथनवादसे भिन्न वस्तु है। आत्मा ज्ञाता दृष्टा है यह शब्दकी रचना उसमे राग-द्वेपकी कलुपतासे रक्षा करे, यह असंभव है। मनुष्योंकी प्रवृत्तिके हम कत्ता धर्ता नहीं, फिर भी वलात्कार स्वासी वनते हैं। मोही जीव कुछ कहे परन्तु उस स्वादको नहीं पहुँचता जो मोहाभावके समय होता है। यह निर्विवाद सिद्धान्त है कि ज्ञानमे ज्ञय नहीं जाता, फिर भी हम ज्ञयोंके व्यवस्थापक बनते ही जाते हैं। लौकिक व्यवहार भी इसी वल पर चल रहा है। लौकिक व्यवहार भी मोही जीवोंकी चेष्टाका विशेप फल है। यह तो लोकिक प्रक्रिया है। परमार्थसे विचारा जाय तव व्यवहार मात्र इसी मोहसे चल रहे हैं। अन्यकी कथा दूर रही, मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति भी उसी कपायके श्राधीन है। योगौरी प्रवृत्ति आत्मामे प्रदेश कम्पन करा दे परन्तु वन्ध जनक नहीं। यही कारण १-यह मूर्ति यहां वरमाने लाई गई है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ हस्तिनागपुर है कि उपशान्त मोहसे लेकर त्रयोदश गुणस्थान पर्यन्त योगोंकी प्रवृत्ति स्थितिवन्धकी उत्पादक नहीं, अतः अभिप्रायको निर्मल बनानेकी चेष्टा करो। योगोंकी प्रवृत्तिमें मत उलझे रहो। योगोंमे शुभता और अशुभता तन्मूलक ही है। संसारका मूल कारण कपाय है। इसके बिना योगका कोई महत्त्व नहीं। वृक्षकी जड़ कटनेके बाद हरापन स्थितिका कारण नहीं। अतः हमे आवश्यकता कपाय शत्रको पराजित करनेकी है। जिन्होंने इस पर विजय पा ली वे सिद्ध पदके अधिकारी हो चुके। ज्ञानमें जो ज्ञेय आता है अर्थात् ज्ञानका जो परिणमन ज्ञेय सहश होता है उसका कारण ज्ञानावरण कर्मका क्षयोयशम है तथा ज्ञानमे जो रागादि प्रतिभासता है उसका कारण मोहनीय कर्मका उदय है। उस उदयसे चारित्र गुण विकृत होता है। वही गुण विकृतरूप होकर ज्ञानमे आता है। ज्ञेय, यह दोनों हैं परन्तु एक ज्ञेय वाह्य है। उसके निमित्तसे ज्ञान साक्षात् ज्ञयाकार हो जाता है। रागमे चारित्र गुणकी विकृति जो होती है वह ज्ञानमें भासती है। परमार्थतः राग भी ज्ञेय है और घट पटादि भी ज्ञेय हैं। ___ हम तो कुछ विद्वान् नहीं परन्तु विद्वान् भी वक्ता हो तब भी ये भद्रगण-नाम मात्रके जैनी उस वक्ताके प्रवचनका लाभ नहीं उठाते। अब संयमके स्थानमे अष्टमूलगुणधारणका उपदेश रह गया है। बहुतसे बहुत वलका प्रभाव पड़ा तो बाजारकी जलेवी त्याग तक सीमा पहुँच गई है। ___प्रवचनके बाद भोजन हुआ। भोजन बहुत ही संकोचसे होता है । कारण उसका यह है कि पदके अनुकूल प्रक्रिया उत्तम नहीं। अनेक घरसे भोजन आता है तथा अति भोजन परोस देते हैं जो कि आगम विरुद्ध है। भोजन थालीमें छूटना नहीं चाहिये पर मेरी थालीमें १ आदमीका भोजन पड़ा रहता है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा भोजन करते समय मुझे लगता है कि यदि मैं पाणिपात्रभोजी होता तो लोग यह अधिक भोजन कहाँ परोस देते ? यह मेरी दुर्वलता है, संकोचवश होकर यह अनर्थ होता है। संकोचका कारण भी एक प्रकारसे स्वप्रशंसाका लोभ है--कोई अप्रसन्न न हो जाय यह भावना है। जिस जीवके प्रशंसाकी इच्छा नहीं वही निर्भीक कार्य कर सकता है। ___ एक दिन स्त्री समाजके सुधारके अर्थ भी व्याख्यान हुआ। मैंने कहा कि यदि मनुष्य चाहे तो स्त्रीसमाजका सहज कल्याण हो सकता है। यदि यह समाज मर्यादासे रहे तो कल्याण पथ दुर्लभ नहीं। सबसे प्रथम तो ब्रह्मचर्य पाले, स्वपतिमें संतोप करे तथा पुरुप वर्गको उचित है कि स्वदारमें सन्तोष करे। जब स्त्रीके उदरम वालक आ जावे तवसे लेकर ३ वर्ष ब्रह्मचर्य पाले तथा ब्रह्मचर्य पालनेवालोंको आत्मीय वेषभूषाकी चटक-मटक मिटा देना चाहिये, क्योकि वेषभूषाका प्रभाव मन पर पड़ता है। यदि आजकी जनता ब्रह्मचर्यके इस महत्त्वको हृदयांकित कर सके तो उसकी सन्तान पुष्ट हो तथा जन संख्याकी वृद्धि सीमित रहे। आज मनुष्यकी आयके साधन सीमित हो गये हैं और उसके विरुद्ध सन्तानमें वृद्धि हो रही है जिसके कारण उसे रात-दिन संक्लेशका अनुभव करना पड़ता है। इस संक्लेशसे बचनेका सीधा सच्चा उपाय यही है कि पुरुष तथा स्त्रीवर्ग अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण करे। एक दिन व्रतीसम्मेलन हुआ। व्रती लोगोंने भाषण दिये। प्रायः सफलता अच्छी मिली। लोगोंके हृदयमे व्रतका महत्व भर गया यही तो उसकी सफलता थी। लगभग वीस आदमियों ने ब्रह्मचर्य व्रत लिया, छोटे छोटे बालकोने रात्रि भोजन त्याग किया, अनेकोंने अष्टमी चतुर्दशीके दिन ब्रह्मचर्य व्रत लिया। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तिनागपुर आवश्यकता उपदेशकी है। जैनकुलमै उत्पन्न हुए लोगोंकी त्यागकी ओर स्वाभाविक प्रवृत्ति देखी जाती हैं। फिर उन्हें यदि बार-बार प्रेरणा मिलती रहे तो उनका वह त्यागभाव अधिक विकसित हो सकता है। मैंने देखा कि किसी भी व्यक्तिके ऊपर यदि प्रभाव पड़ता है तो आत्माकी पवित्रताका ही पड़ता है। शब्दोका नहीं, उनका प्रभाव तो कानो तक ही रहता है । अच्छे शब्द हुए, लोग सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं और कटुक शब्द हुए, नाराज हो जाते हैं। कुछ समय बाद 'लोग वक्ताने क्या कहा' यह भूल जाते हैं। परन्तु एक वीतराग मनुष्यकी आत्मासे यदि कोई शब्द निकलते हैं तो लोगोंके हृदय उन्हे सुनकर द्रवीभूत हो जाते हैं-वे कुछ करनेके लिए विचार करते हैं। यदि ये व्रती लोग अपना आचरण पवित्र रक्खें तथा जन कल्याणकी भावना लेकर भ्रमणके लिये निकल पडें तो जनताका कल्याण हो जावे । पूर्व समयमें निर्ग्रन्थ मुनियोंका विहार होता था जिससे उनके उपदेश लोगोंको अनायास ही प्राप्त होते रहते थे, इसलिये जनताका आचार पवित्र रहता था पर आज यह साधन दुर्लभ हो रहे हैं। यही कारण है कि लोगोंका आचरण निर्मल नहीं रहा। ___ फागुन शुक्ला १२ सं० २००५ को मध्यान्होपरान्त १ वजेसे गुरुकुलका उत्सव हुआ। प्रायः अच्छी सफलता मिली। लोगोंके चित्तमे यह बात आ गई कि गुरुकुलकी महती आवश्यकता है। बच्चोंका हृदय अपक्व घटके समान है। उसमें जो संस्कार भरे जावेंगे वे जीवन भर स्थिर रहेंगे। आजका नागरिक जीवन विलासतापूर्ण हो गया है जिसका प्रभाव छात्र समाज पर भी पड़ा है। मैंने देखा है कि आजका छात्र साधारण गृहस्थकी अपेक्षा कहीं अधिक विलासी हो गया है। यह बात उसके रहनसहन तथा वेषभूषासे स्पष्ट होती है। उसका बहत समय इसी साज Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ मेरी जीवन गाथा सजावटमें निकल जाता है जिससे विद्याका प्रगाढ़ अध्ययन नहीं हो पाता। प्राचीन कालमे लोग थोडा पढ़ कर भी अधिक विद्वान् हो जाते थे पर आजके छात्र अधिक पढ़ कर भी अधिक विद्वान् नहीं वन पाते हैं। इसका कारण उनका चित्तविक्षेप ही कहा जा सकता है। गुरुकुलकी आवश्यकता इसलिये है कि वे नागरिक वातावरणसे दूर स्वच्छ वायुमण्डलमे होते हैं और इसीलिये उनमें पढ़नेवाले छात्रोंको चित्तविक्षेपके साधन नहीं जुट पाते। इस दशामे वे अच्छा अध्ययन कर सकते हैं। हस्तिनागपुरका वर्तमान वातावरण अत्यन्त शान्तिपूर्ण है। यहाँ गुरुकुल जितना अच्छा कार्य कर सकता है उतना अन्यत्र नहीं। इसकी पूर्तिके लिये ५ लाख की योजना की गई। अपील करने पर ५८०००) पचास हजारका चन्दा हुआ। चौतीस हजार ३४०००) पहिलेका था । कुल चौरासी हजार हुआ। यद्यपि इतनेसे उसकी पूर्ति नहीं हो सकती तथापि जो साधन उपलब्ध हों उसीके अनुसार काम हो तो हानि नहीं। यदि सब लोग परस्परका अविश्वास दूर कर दें तथा यह उद्देश्य अपने जीवनका बना लें कि हमारे द्वारा जगत्का कल्याण हो तो बड़ी बड़ी योजनाएँ अनायास ही पूरी हो सकती हैं। ___ एक दिन प्रातः नसियाजीके दर्शन किये, चित्त प्रसन्न हुआ। हरी भरी झाड़ियोंके बीच जानेवाली पगडंडीसे नसियाजीको जाना पड़ता है। इन स्थानों पर अपने आप चित्तमें शान्ति आ जाती है। मन्दिरसे थोड़ी दूरी पर पाण्डवोंका टीला नामसे प्रसिद्ध स्थान है जहाँ कुछ खुदाईका काम हुया है। गवर्नमेन्टकी ओरमे यहाँ एक नगर बसाया जा रहा है जिसमें शरणार्थी वमाये जायेंगे । जैनी लोगोंको उचित है कि यहाँ पर १ विद्यालय बोलें जिसमे शरणार्थी लोगोंके वालकोंको अध्ययन कराया जाये तथा १ प्रापधालय गोला जावे जिसमें आम जनताको औपच यॉटी जा। अठान्दिरा पर्य Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुजफ्फरनगर ६७ होनेके कारण आठ दिन तक बहुत चहल पहल रही परन्तु अन्तिम दिन होलीका उत्सव होनेसे अधिकाश लोग चले गये। पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री बनारस, पं० दरवारीलाल जी कोठिया तथा मुख्त्यार साहब भी यहाँ आये थे। एक दिन हमारा भोजन स्वर्गीय महावीरप्रसाद जी रईस विजनौरवालोंकी पुत्रीके घर हुआ। आपने वर्णीग्रन्थमालाको १०१) दिये। आप बहुत ही धर्मनिष्ठासे रहती हैं। आपके पतिका स्वर्गवास हो गया है । वड़ा ही सज्जन था, निरन्तर दानमें प्रवृत्ति रखता था तथा जैनधर्मकी पुस्तकें वितरण करता था । भीड़-भाड़ कम हो जानेसे २ दिन शान्तिसे बीते । मुजफ्फरनगर चैत्र बदी ३ सं० २००५ को हस्तिनागपुरसे चलकर गणेशपुर आये । चलते समय लाला कपूरचन्द्र जी कानपुरवालोंने बड़े आग्रहसे कहा कि यदि कहीं पर कुछ आवश्यकता पड़े तो वह आप मेरेसे मॅगा लीजिये। गणेशपुरमे विद्यानन्दीजीने जो कि ब्राह्मण हैं गुरुकुलके लिये ११) दिये । १ बजे चलकर ३ वजे मवाना आ गये। यहाँ बहुत ही शानदार स्वागत किया गया। पं० शीलचन्द्र जी शास्त्री बहुत ही योग्य हैं, इनका सर्व समाज पर प्रभाव है, आप म्युनिसिपलके चेयरमेन हैं तथा ऐंग्लो संस्कृतकालेजके सभापति भी हैं। दूसरे दिन प्रातःकाल प्रवचन हुआ । मध्यान्हके बाद १ बजे एंग्लो संस्कृत कालेजमे गये । प्रिन्सिपल साहवने बहुत ही आदरसे स्वागत किया। आपने वर्तमान परिस्थितिका स्वरूप सम्यक रीतिसे बतलाया। उन्होंने कहा कि वर्तमान शिक्षामे प्रायः चार्वाक मतकी ही पुष्टि होती है। आज कल शिक्षाका प्रयोजन केवल अर्थोपार्जन और कामसेवन मुख्य Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा रह गया है। जहाँसे शिक्षाका श्रीगणेश होता है वहाँ पहला पाठ यही होता है कि आजीविका क्सि प्रकार होगी तथा ऐसा कौनसा उपाय होगा कि जिससे संसार की विभूति हमारे ही पास आ जावे, संसार चाहे किसी आपत्तिमे रहे। प्रिन्सिपल साहबके इन हार्दिक तथ्य उद्गारोंसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। अगले दिन सामायिकके वाद वसूमाके लिये चल दिये। मवानासे वसूमा आठ मील होगा। घाममे चलना पड़ा जिससे महान् कष्ट हुआ । रात्रिको ज्वर आ गया। हम विलकुल निर्विचार आदमी हैं जो विना विवेकके काम करते हैं। ८ मील घाममे चलना बहुत ही कष्टकर हुआ। हमारी शारीरिक शक्ति छति क्षीण हो गई है तथा आत्माकी स्फूर्ति जाती रही है । इसका कारण मोहकी सवलता है। कह देते हैं कि मोह शत्र है परन्तु स्वयं उसके कर्ता है, पर पदार्थके शिर दोप मढ़ते हैं। अज्ञानी जीवको अपना दोप नहीं दिखाता, परमे ही नाना कल्पनाएं करता है। देहलीवाले महाशयने यहाँ आहार दिया। यहाँ श्री शान्तिनाथ स्वामीके सहश चन्द्रप्रभस्वामीका प्रतिविम्ब अति मनोज है, वायु अति प्रशस्त है, मनुष्य सरल हैं परन्तु ज्ञानकी हीनतासे जैनधर्मका प्रचार जैसा चाहिये वैसा कार्यरूपमे परिणत नहीं होता। यहाँसे ६ मील चलकर मीरापुर आ गये। ग्राम बड़ा है किन्तु मुसलिम जनताका प्रभाव अधिक है। वर्तमानमे यद्यपि काग्रमका साम्राज्य होनेसे प्रभाव दब गया है तथापि समय पा कर आगे पुनः आविर्भूत हो सकता है। चैत्यालयमे प्रातः प्रवचन हा पर जनता नहीं थी । यहाँ धर्मकी रुचि तो है परन्तु साधन नहीं। यहाँ पर शीतलप्रसाद जी तथा वावरामजीके घर प्रतिष्टित हैं। उनका चित्त धर्ममे उपयुक्त है। श्री वावराम जी वरावर यावृत्त्यम रहे । उनका लड़का धनेशचन्द्र बहत ही योग्य है । १ बजे ममा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुजप्फरनगर ६६ हुई । प्रायः सर्व रुचिमान् थे । गुरुकुल सहारनपुरको ७२८) चन्दा हुआ । एक महानुभावने २०० ) भेजने को कहा । 1 यहाँ से ६ मील चलकर ककरौली आ गये । बड़े समारोहसे स्वागत हुआ । प्रातःकाल प्रवचन हुआ । मनुष्य संख्या ५० के अन्दाज थी । उनमे १ मौलवी साहब थे जो बहुत ही योग्य थे । आपने बहुत प्रसन्नता प्रकट की । यहाँ पर सैयद लोगों की जमीदारी थी जो काल पाकर उनके हाथसे निकल गई । वैश्य लोगोंके हाथमे चली गई। सुमतिप्रसाद जी यहाँ के प्रमुख व्यक्ति हैं । इन्हीं के यहाँ आहार हुआ | आपने सहारनपुर गुरुकुलके लिये हस्तिनागपुर मे १०० २ ) दिये थे। आपकी माँ शुद्ध भोजन करती हैं । यहाँ से चलकर तिस्सा आ गये । प्रातःकाल प्रवचन हुआ । श्री मंगलसेनजीके बहिनोई के घर भोजन किया । मध्यान्हको आमसभा हुई । एक ब्राह्मणने जो कि मद्यपान करता था जीवन पर्यन्त के लिये मद्यपान छोड़ दिया, १ मुसलमान भी जीवघात छोड़ गया तथा एक चमारने मदिरा छोड दी । यहाँ पर मुजफ्फरनगर, ककरौली तथा मंसूरपुरसे बहुत आदमी आये । सब कुछ हुआ परन्तु हमारे जैन बन्धुओं की दृष्टि स्वयं धर्मश्रवण करनेकी नहीं है । अन्य धर्म जान जायें, हमको चाहे ज्ञान हो या न हो । यहाँसे अगले दिन ६ बजे चलकर ९ बजे काल आ गये । यहाँ पर २० घर जैनियोंके हैं । १ मंदिर है परन्तु उसमे अभी श्रीजीकी स्थापना नहीं हुई । १ चैतन्यालय मे विम्व विराजमान है । विम्व प्रति मनोज है । भोजन की प्रक्रिया उत्तम है परन्तु लोग आहारदान करनेसे भय करते हैं । उसका कारण कभी दिया नहीं । कवाल से ६ मीड चलकर मंसूरपुर आ गये । यहाँ से ४ मील चलकर गड़ा नहर मिली । यहाँ पर बिजली भी बनती है । बड़े वेगसे पानी चलता है । यहाँ पर आटा पिसता है । मंसूरपुर ग्राम सैयद मुसलमानोंका है । प्रातः ३ घंटा प्रवचन Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा हुआ। पश्चात् भोजन किया। मध्यान्ह वाद आमसभा हुई। ५०८ मनुष्य होंगे। श्री चिदानन्दजी तथा पूर्णसागरजीने परिश्रमके साथ वक्तव्य दिया। वक्तव्यमे मुख्य विपय अष्टमूलगुण था। यहाँ मुजफ्फरनगरसे बहुत मनुष्य आये। उन्होंने बहुत ही आग्रह किया कि कल ही मुजफ्फरनगर आइये । चाहे आपको कष्ट हो इसकी परवाह न कीजिये । हमारा प्रोग्राम है, इसीके अनुकूल आप प्रवृत्ति करिये, इसीमे हमारी प्रतिष्ठा है। चैत्र वदी १४ सं० २००५ को ६३ बजे प्रातःकाल चलकर ह बजे वहलना पहुँच गये। यहाँ पर १ प्राचीन जिन मन्दिर है। उसमे श्रीपार्श्वनाथ भगवान्का प्रतिविम्ब बहुत ही मनोज्ञ है । यहाँ पर मुजफ्फरनगरसे १०० जनसंख्या आई। भोजनोपरान्त २३ वजे यहाँसे चलकर कम्पनीबाग आगये । वहाँसे कोई २००० आदमियोंका जुलूस निकला । २ तोला धूल फाँकनेमे आई होगी। ५ बजते बजते जैन स्कूलमे पहुँच गये। यहीं पर जनताका बर्हत समारोह हुआ। अगले दिन बाजार वन्द था, इसलिये प्रवचनमें बहुत मनुष्य आये । प्रवचनके लिये प्रवचनसारकी निम्न गाथा थी जो जाणदि अरहतं दबत्तगुणत्तपन्जयत्तेहि । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥ जो द्रव्य, गुण और पर्यायकी अपेक्षा अरहन्तको जानता है वह आत्माको जानता है और जो आत्माको जानता है उसका मोह विनाशको प्राप्त होता है। अनादि कालीन मोहके कारण यह जीव आत्मस्वभावसे च्युत हो रहा है। मोहकी तीव्रतामे ता इसे यह भी प्रत्यय नहीं होता कि शरीरके अतिरिक्त कोई आत्मा नामका पदार्थ है भी। वह शरीरको ही अहं मानकर उसकी इष्ट अनिष्ट परिणतिमे हर्ष-विपाद कर सुखी-दुखी होता है । यदि Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुजफ्फरनगर ७१ भाग्यवश मोहका पटल कुछ क्षीण होता है तो शरीरसे पृथक् आत्माकी सत्ता अंगीकार करने लगता है, परन्तु कर्मोदयसे आत्माकी जो विकृत दशा है उसे ही शुद्ध दशा या स्वाभाविक दशा मान उसीरूप रहना चाहता है। कर्मोदय भगुर है, इसलिये उसके उदयमे होनेवाली आत्माकी दशा भी भङ्गुर होती है। पर यह मोही प्राणी यथार्थ रहस्य न समझ हर्षविषादका पात्र होता है। जव मोहका उदय विल्कुल दूर होता है तब इसे आत्माकी शुद्ध दशाका अनुभव होने लगता है। पद्मराग मणिके सम्पर्कसे स्फटिकपे जो लालिमा दिखती है उसे अज्ञानी प्राणी स्फटिककी लालिमा समझता है पर विवकी प्राणी यह समझता है कि स्फटिक तो अत्यन्त स्वच्छ है। यह लालिमा पद्मराग मणिकी है। इसी प्रकार वर्तमानमें हमारी आत्मा रागी द्वेषी हो रही है सो यह मोहजन्य विकृतिका चमत्कार है। अज्ञानी प्राणी इस अन्तरको न समझ आत्माको ही रागी द्वषी मान वैठता है, परन्तु विवेकी प्राणी यह जानता है कि आत्मा तो सदा स्वच्छ तथा निर्विकार है। उस पर जो वर्तमानमें विकार चढ रहा है वह मोहजन्य है। जो द्रव्य, जो गुण और जो पर्याय अरहन्तकी है वही द्रव्य, वही गुण और वही पर्याय मेरी है। जिस प्रकार इनका चेतन द्रव्य केवल ज्ञानादि क्षायिक गुणोंसे उद्भासमान होता हुआ परमात्मपर्यायको प्राप्त हुआ है उसी कार हमारा चेतनद्रव्य भी उक्त गुणांसे उद्भासमान होता हुआ परमात्मपर्यायको प्राप्त हो सकता है। जब आत्मामे ऐसा विचार उठता है-विवेकरूपी ज्योतिका आविर्भाव होता है तब उसका मोह स्वयं दूर हो जाता है और ज्ञानघन आत्मा निर्द्वन्द्व रह जाता है। यही इस जीवकी सुखमय अवस्था है। इसे ही प्राप्त करनेका निरन्तर प्रयत्न होना चाहिये । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा कुन्दकुन्द महाराजके वचन मिश्रीके कण हैं। मिश्रीका जो भी कण खाया जायगा वह मीठा होगा । इसी प्रकार कुन्दकुन्द महाराजका जो भी वचन या गाथा आपके चिन्तनमे आवेगा वह आपको आनन्ददायी होगा। दिनके दो वजेसे सभा थी। उसमे बहुतसे नर-नारी आये । श्री पूर्णसागर महाराज चिदानन्दजी महाराजका व्याख्यान हुआ । समयकी बलवत्ता है कि अब अष्टमूलगुण पालनका उपदेश दिया जाता है। जैनियोंका जो कौलिक धर्म था उसका अव उपदेश होने लगा है। लोगोंके आचरण अत्यन्त गिर गये हैं। जैनधर्मकी व्यवस्था तो इतनी उत्तम है कि उसका पालन करनेसे सहज ही कल्याणका पथ मिल सकता है। श्री पं० चन्द्रमौलि शाखीने गुरुकुलकी अपील की तथा श्री समगौरयाजीने समर्थन किया। चन्दा प्रारम्भ हो गया। पाँच हजारके अन्दाज चन्दा हो गया। रात्रिमे फिर चन्दा हुआ। सव मिलाकर १८ हजारका चन्दा हो गया । जैनियोंमें दान करनेका गुण नैसर्गिक है। निमित्त मिलने पर वह अनायास ही प्रकट हो जाता है। अगले दिन प्रातःकाल फिर प्रवचन हुआ पर मैं अव प्रवचनका पात्र नहीं। मेरी शक्ति क्षीण हो गई है। वचन वर्गणा स्पष्ट नहीं। केवल मनुष्योंको रञ्जन करना तात्त्विक मार्ग नहीं। तात्त्विक मार्ग तो वह है जिसमे आत्माको शान्ति मिले । पर शान्ति राग द्वेषकी प्रचुरतासे अत्यन्त दूर है, क्योंकि परपदार्थाम जो इष्टानिष्ट कल्पना होती है उसका मूल कारण ही मोह हे और मोहसे पर पदार्थोंमें आत्मीय बुद्धि होती है। आत्मीय बुद्धि ही रागका कारण है। आजका जनसमूह गल्पवादका रसिक है। वास्तविक तत्त्वका महत्व नहीं समझता। केवल बाह्य आडम्बरमे निज धर्मकी प्रभावना चाहता है। प्रभावनाका मूल कारण ज्ञान Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहारनपुर-सरसावा है । उसकी ओर दृष्टि नहीं। ज्ञानके समान अन्य कोई हितकारी नहीं, क्योंकि ज्ञान ही आत्माका मूल असाधारण गुण है। उसीकी महिमा है जो यह व्यवस्था बन रही है। एक दिन नईमण्डी भी गये। लोग बहुत भीड़के साथ ले गये जिससे कटका अनुभव हुआ। यहाँ प्रवचनमे अजैन जनता बहुत आई और उत्सुकता भी उसे बहुंत थी परन्तु मतविभिन्नता बहुत ही बाधक वस्तु है। यथार्थ वस्तुका स्वरूप प्रथम तो जानना कठिन है। फिर अन्यको निरूपण करना और भी कठिन है। वस्तु स्वरूपका परिचय होना ही कल्याणका मार्ग है, परन्तु उसके लिये हमारा प्रयास नहीं । प्रयास केवल वाह्य आडम्बरके अर्थ है । मुजफ्फरनगरमे ६-७ दिन रुकना पड़ा। सहारनपुर-सरसावा चैत्र सुदी ६ सं० २००६ को मुजफ्फनगरसे ५ मील चलकर जंगलमे ठहरे। यहाँ पर १ पुल बना हुआ है जिसके ५२ दरवाजे हैं। यहाँ पर ८ चौके आये। हमारा श्री मुनीमजीके यहाँ भोजन हुआ। भोजन पवित्र था। इसका मूल कारण था कि वे स्वयं पवित्र भोजन करते हैं, अतएव अतिथिको भोजन देने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं । सदा मनुष्यको शुद्ध भोजन करना चाहिये, इससे उसकी बुद्धि शुद्ध रहती है, शुद्ध बुद्धिसे तत्त्वज्ञानका उदय होता है, तत्त्वज्ञानसे पर भिन्नताका ज्ञान होता है और पर भिन्नताका ज्ञान ही कल्याणका मार्ग है । ४ मीलके वाद रोहाना आगये, स्थान उत्तम है। १ मन्दिर है, ४ घर जैनियोंके हैं, मकान वहुत उत्तम हैं परन्तु वहुत आदमी प्रायः दर्शन नहीं करते । २ बजे सार्वजनिक सभा हुई। श्रीवर्णी मनोहरलालजीका व्याख्यान हुआ। इनके सिवा अन्य त्यागियोंके भी व्याख्यान हुए। सभीने अच्छा कहा । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा श्रीसुमेरुचन्द्रजीका त्याग धर्म पर अच्छा रुचिकर व्याख्यान हुंया । बहुंत मनुष्योंने दर्शनकी प्रतिज्ञा ली । दूसरे दिन फुटेसरा पहुँच गये । यह स्थान श्री जीवाराम जी ब्रह्मचारीके जैनधर्म ग्रहण करनेका है। जिनका संसार निकट रह जाता है उन्हें ही जैनधर्म उपलब्ध होता है। जैनधर्मके सिद्धान्त अत्यन्त उदात्त हैं। हृदयका व्यामोह छूट जावे तो यह धर्म सभीको रुचिकर हो जाय, परन्तु इस युगमे यही छूटना कठिन है। श्री समन्तभद्र स्वामीने तो लिखा है क्लेः प्रभावः कलुषाशयो वा श्रोतु. प्रवक्तुर्वचनानयो वा । त्वच्छासनकाधिपतित्वलन्म्याः प्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ॥ हे भगवन् ! आपका शासन-धर्म ऐसा है कि उसका समस्त संसारमे एकाधिपत्य होना चाहिये, परन्तु उसमे निम्नाङ्कित वाधक कारण हैं-१ कालिकालका प्रभाव, श्रोताका कलुपित आशय और ३ वक्ताको कथन करने योग्य नयका ज्ञान नहीं होना। यदि यह हुण्डावसपिणी काल नहीं होता, श्रोताका आशय निर्मल होता और वक्ता किस समय कौन बात कहना चाहिये इसका ज्ञान रखता तो आपका शासन समस्त संसारमे एकाधिपत्य रूपसे फैलता । यदि आज कोई अजैन जैन धर्मको स्वीकृत भी करना चाहता है तो वर्तमान जैनियोंका व्यवहार इतना संकीर्णतापूर्ण हो गया कि उसका निर्वाह होना कठिन होता है। किसी एकाकी ब्रह्मचारीका जैनधर्म धारण करना तथा उसका निर्वाह होना दूसरी बात है पर पूरी गृहस्थीके साथ यदि कोई अजैन जैनधर्म धारण करता है तो उसका वर्तमान जैन समाजमे निर्वाह कहाँ है ? वह तो उभयतः भ्रष्ट जैसा हो जाता है। अस्तु, मन्दिरमे दर्शन किये। मन्दिर निर्मल बना हुंआ है । दिनको ३ बजे सभा हुई। श्री क्षुल्लक पूर्णसागरजी तथा क्षुल्लक चिदानन्दजी साहबका प्रवचन हुआ। यहाँ पर २० घर Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ सहारनपुर-सरसावा जैनोंके हैं। सर्व सम्पन्न हैं। गुरुकुल सहारनपुरको ११०१) प्रदान किया। १०१) वर्णी ग्रन्थमालाको भी दान किया। रात्रिको वागमे शयन किया । वाग बहुत ही रम्य था । आगामी दिन देवबन्द आ गये। अच्छा स्वागत हुआ, मध्याह्नके ३ बजेसे सभाका आयोजन हुआ। मनुष्योंका समारोह अच्छा था, परन्तु बात वही थी कि मानना किसीकी नहीं। आज कल मनुप्योंके यह भाव हो गये हैं कि 'अन्य सिद्धान्तवाले हमारा सिद्धान्त स्वीकृत कर ले।' यह समझमे नहीं आता। प्रत्येक मनुष्य यही चाहता है कि हमारा आत्मा उत्कर्ष पदको प्राप्त करे, किन्तु उत्कर्ष प्राप्त करनेका जो मार्ग है उस पर न चलना पड़े। यही विपरीत भाव हमारे उत्कर्षका बाधक है। हमारा विश्वास तो यह है कि यदि हम अपने सिद्धान्त पर आरूढ़ हो जावें--उसीके अनुसार अपनी सव प्रवृत्ति करने लगें तो अन्य लोग हमारे सिद्धान्तको अच्छी तरह हृदयङ्गम कर लेंगे। हम लोग अपने सिद्धान्तोंको अपने आचरण या प्रवृत्तिसे तो दिखाते नहीं, केवल शब्दों द्वारा आपको बतलानेका प्रयत्न करते हैं परन्तु उसका प्रभाव उनपर नहीं पड़ता। यहाँ मुसलिम समाजका विशाल कालेज है जिसमे उनके उच्चतम ग्रन्थ पढ़ाये जाते हैं, २००० छात्र उसमे शिक्षा पाते हैं। बहुत ही सरल इनका व्यवहार है, वहुत मधुरभाषी हैं। एक मौलवी साहबने उक्त सर्व स्थान दिखलाये। इनके यहाँ वाह्य आडम्बरका बिलकुल अभाव है, भोजन बहुत सादगीका है । यहाँसे चलकर ४ मील पर १ ग्राम था उसमे निवास किया । यहाँ जिसवे स्थानमे ठहरे वह बहुत ही उदार प्रकृतिका था। उसने बड़े सत्कारके साथ रहनेका प्रवन्ध किया । उसी समय ५ पाँच सेर दूध निकाल लाया । जो पीनेवाले थे उन्हें पान कराया। अनन्तर हम लोग कथोपकथन कर सो गये। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा चैत्र सुदी १२ सं० २००६ को सहारनपुर आ गये। टपरी म्टेशनसे ही मनुष्योंका संपर्क होने लगा और सहारनपुरके वाहर तो हजारों मनुप्योंका जमाव हो गया। बड़ी सजधजके साथ जुलूस निकाला । श्री हुलासरायजी रईसके गृहके पास जो कन्यो विद्यालयका मकान था वहीं पर जुलूस समाप्त हुआ। हजारों नरनारियोंको समुदाय होनेसे इतना शब्दमय कोलाहल था कि लाउडस्पीकरके द्वारा भी कार्य सिद्धि नहीं हो सकी। एक भी कायें नहीं हुआ, केवल श्री जिनमन्दिरके दर्शन कर सके। चैत्र सुदी १३ भगवान महावीर स्वामीका जन्म दिवस है। इस दिन समस्त भारतवर्ष में जैन वड़ा उत्सव करते हैं। यहाँ भी उत्सवकी बड़ी बड़ी तैयारियाँ थीं। प्रात काल ८ वजेसे ६ बजे तक जैन कालेजसे प्रवचन हुआ। बहुत भीड़ थी, भीड़के अनुकूल ही प्रवचन रहा। प्रवचनसे जनता प्रसन्न भर हो जाती है पर जो वात होनी चाहिए वह नहीं होती। जनतामे वहुत ही आनन्द समाया हुआ था । वनारससे श्री सम्पूर्णानन्दजी आये थे! रात्रिको आपका भापण होगा। लोगोंने उत्सुकताके साथ दिन व्यतीत किया परन्तु जव रात्रिका समय आया तव अखण्ड पानी बरसा इससे सभा नहीं हो सकी और श्री सम्पूर्णानन्दजीके भाषण श्रवणसे जनता वञ्चित रह गई। अगले दिन जेन वागमे प्रवचन हुआ, मनुष्योंकी भीड़ बहुत थी तदपेक्षा स्त्री समाज बहुत था। समुदाय इतना अधिक था कि प्रवचनका आनन्द मिलना कठिन है। १ घण्टा जिस किसी तरह पूर्णकर छुट्टी मिली। यहाँ स्वाध्यायके रसिक बहुत हैं जिनमे श्री ब्र० रतनचन्द्रजी मुख्त्यार और श्री नेमिचन्द्रजी वकील प्रमुख हैं। ये दोनों भाई अात्महितमे जागरूक तथा श्रागम ग्रन्थोंके परिजानसे युक्त हैं। मग्न भाषाका अध्ययन न होने पर भी जिनागमका विशद नान प्राप्त Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहारनपुर-सरसावा ७७ हो जाना इनके पूर्व संस्कारका फल है । ज्ञानका संस्कार पर्यान्तरमे साथ जाता है, इसलिये साधन रहते हए मनुप्यको ज्ञानार्जनमे कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये । यहाँ प्रवचनोमे लोगोंका समुदाय बहुत आता है, परन्तु न तो तात्त्विक लाभ उठाता है और न तात्विक धर्मके ऊपर दृष्टि है। केवल वाह्य प्रभावनामे अपना सर्वस्त्र लगाकर धर्मका उत्कर्ष मानते हैं। प्रभावनाका प्रभाव साधारण जनता पर पड़ता है और साधारण जनता वाह्य वेपको देखकर केवल इतना समझ लेती है कि इन लोगोंके पास द्रव्यकी पुप्फलता है। ये लोग व्यापारी हैं। इन्हे संग्रह करनेकी युक्ति विदित है। वास्तवमे पूछा जाय तो आजका मनुष्य इन वाह्याडम्बरोसे प्रभावित नहीं होता। उसे प्रभावित करनेके लिये तो उसका अजान दूर होना चाहिये । ज्ञानकी महिमा अपरम्पार है। उसका जिसे स्वाद आ गया वह बाह्य पदार्थोकी अपेक्षा नहीं करता। यहाँ गुरुकुलकी उघाई करनेका कार्य हुआ। एक महानुभावने २ कमरा गुरुकुलके लिये बनानेका वचन दिया। दो वी ए. लड़कोंने यह प्रतिज्ञा ली कि विवाहमे रुपया नहीं मॉगंगे। दो ने यह नियम लिया कि जो खर्च होगा उसमे )। पैसा प्रति रुपया विशालय को देवेंगे। कई मनुष्योंने विवाहमे कन्या पक्षसे याञ्चा न करनेका नियम लिया । श्री लाला प्रद्युम्नकुमार जी रईसने गुरुकुल के लिये २६ बीघा जमीन देनेका वचन दिया तथा १०००) स्याद्वाद विद्यालय को भी प्रदान किये । यहाँ १०-११ दिन रहे। सभी दिनोंमे समागम अच्छा रहा। मोहोदयमे समागम अच्छा लगता है। मोहकी महिमा देखो कि लोग जिस समागमसे बचनेके लिये गृहका त्याग करते हैं, त्यागी होने पर भी उन्हे वही समागम अच्छा लगता है। परमार्थतः मोह गया नहीं है, उसने रूप भर बदल लिया है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ मेरी जीवन गाथा वैशाख वदी ह को सहारनपुरसे चलकर ८॥ वजे विलखनी पहुंच गये। पं० दरवारीलाल जी कोठियाके यहाँ भोजन हुआ। भद्र पुरुष हैं । सहारनपुरसे कई चौके आये । सर्व मोहका ठाठ है। जिस दिन मोहका अभाव होगा उस दिन यह सर्व प्रक्रिया समाप्त हो जायगी। मोहकी मन्दता और तीव्रतामे शुभ अशुभ मार्गकी सत्ता है। जिस समय मोहका अभाव होता है उस दिन यह प्रक्रिया अनायास मिट जाती है। मोहके नष्ट होते ही ज्ञानावरणादिक तीन घातिया कर्म अन्तर्मुहूर्तमे स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं। वैशाख वदी १० सं० २००६ को सरसावा आ गये। पं० जुगलकिशोरजीके यहाँ भोजन हुआ। आपका त्याग और जिनवाणीसेवा प्रसिद्ध है। आपने अपना समस्त जीवन तथा समस्त धन जिनवाणीकी सेवाकोलिये ही अर्पित कर दिया है । आपका सरस्वती भवन दर्शनीय है। यहाँ १ घटनासे चित्तमें अति क्षोभ हुआ और यह निश्चय किया कि परका समागम आदि सर्व व्यर्थ है। आत्मा स्वतन्त्र हैं। स्वतन्त्रताका वाधक अपनी अकर्मण्यता है। अकर्मण्यताका यह अर्थ है कि उसकी ओर उन्मुख नहीं होते। परपदार्थोंके रक्षण भक्षणमें ही आत्माको लगा देते हैं। अगले दिन प्रातःबाज प्रवचन हुआ। वक्ता धर्मका स्वरूप बतलानेमे ही अपनी शक्ति लगा देते हैं। निरन्तर प्रत्येक वक्ता अपने परिश्रम द्वारा धर्मके स्वरूपको समझानेकी चेष्टा करता है, धर्मके अन्दर वाह्य आभ्यन्तर रूप दिखलानेकी चेष्टा करता है और जहाँ तक बनता है दिखलानम सफल भी होता है। परन्तु आभ्यन्तर रसास्वाद न आनेके कारण न तो आपको लाभ होता है और न जनता को। केवल गल्पवादमे परिणत हो जाता है। वैशाख वदी १२ को वीरसेवामन्दिरका १३ वाँ वार्षिकोत्सव हुआ। सभापतिके पद पर मुझे बैठा दिया। वीरसेवा मन्दिरकी रिपोर्ट, मुख्त्यार साबकी प्रेरणा पाकर दरबारी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ दिल्लीकी ओर लालजी कोठियाने सुनाई। इसके अनन्तर श्री जयभगवान्जी वकीलने प्राचीन धर्मोंमे जैनधर्मकी विशेषता वतलाई । आपका तुलनात्मक अध्ययन प्रशंसनीय है। अन्तमे मैंने भी कुछ कहा। आगामी दिन कन्या विद्यालयका वार्षिकोत्सव हुआ। लोगोकी बहुत भीड़ थी। रिपोर्ट आदि सुनानेके बाद अपील हुई। मन्त्री महोदयने १००१) स्वयं दिये तथा ३०००) और हो गये। लोगोंने विशेष ध्यान नहीं दिया अन्यथा १००००) हो जाते । पुरुषोंकी अपेक्षा महिलावर्गमे धार्मिक रुचि अधिक है। उसका कारण है कि इनका वाह्य सम्पर्क नहीं है । आजका मनुष्य तो बाह्य सम्पर्कके कारण धर्मसे च्युत होता जा रहा है। उसे धर्म आडम्बर मात्र जान पड़ने लगा है। यदि प्रारम्भसे मनुष्य पर अपना रङ्ग चढ़ जावे तो फिर दूसरा रङ्ग नहीं चढे, परन्तु लोग प्रारम्भसे ही अपनी सन्तानको निज धर्मके रङ्गसे विमुख रखते हैं। परिणाम उसका जो होता है वह सामने है। अस्तु, समयका प्रवाह और लोगोंकी रुचि भिन्न भिन्न प्रकार है । दिल्ली की ओर वैशाख वदी १३ सं० २००६ को प्रात काल ५३ वजे सरसावासे चल पड़े मील तक १०० मनुष्य और स्त्री समाज पहुंचानेके लिये आया जिसे बड़े आग्रहसे लौटा पाया। यहाँसे Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा ७ मील चलकर ९ बजते वजते हम लोग अभीष्ट स्थान पर पहुँच गये। स्नानादिसे निवृत्त हो स्वाध्याय किया पश्चात् भोजन किया। भोजनके वाद कथोपकथन हुआ। प्रतिदिन यही चर्चा होती है कि राग-द्वेष-मोह संसारके मूल कारण हैं। इन तीनोंमे मूल मोह है। इसके विना राग-द्वपकी प्रधानता नहीं। आगामी दिन प्रातः ८ बजे जगाधरी आ गये। सर्व समाजने स्वागत किया। यह व्र० सुमेरुचन्द्रजी भगतका ग्राम है। ६ वजे श्री मन्दिरजीमे चुटक पूर्णसागरजीका व्याख्यान हुआ। ५ मिनट मेरा भी भापण हुआ। जनताको हसी आ गई। हास्यका कारण वृद्धावस्था है। वृद्वावस्थामे जो कथा मनुष्य कहता है वह प्रायः प्रत्येक विषयमें स्खलित निकलती है। किन्तु उसका अभिप्राय निर्मल रहता है, अत: आदरका स्थान हो जाती है। मध्यान्हके ३ बजे ग्रामसभा हुई । विशेप व्याख्यान हुए। एक शास्त्रीका व्याख्यान बहुत मार्मिक हुआ। अगले दिन से ६ बजे तक प्रवचन हआ। प्रवचन में वहुतसे मनुष्य आये। ब्राह्मण भी बहुत अाये । १ शास्त्रीजी व १ ज्योतिपीजी भी आये जो जैनधर्मकी पदार्थ निरूपणकी गैलीसे वहुत प्रभावित हुए। अन्य मनुष्य भी आये । उनको भी बहुत हर्प हुआ। जैनधर्मकी प्रणालीसे मभी प्रभावित हुए। अन्तरङ्गमे निर्मलता हो तो तत्व निरूपण रुचिकर होता है तथा जिज्ञासाको वृद्धिगत करता है, अन्यथा उत्तमसे उनम नत्र निरूपण अरुचिकर हो जाता है तथा द्वेष व मात्सर्यको वृद्धिगत करने लगता है। कई मानवोंने ब्रामचर्य व्रत लिये तथा न्त्री समाउने महीन वनोंके परिधानका त्याग किया। वंशाग्न सुटरी १ का जगाधरीसे ५ मील चलकर रत्नपुर या गये। यहाँ सुगनिलालरी यहाँ भोजन किया। श्रापके भाईने १००२) म्गाबाद विशालय बनारनको प्रदान किया। ४ चीफ जगाधरीसे भी माय थे। गया Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीकी श्रोर अपनी अपनी भक्तिके अनुकूल पात्रको दान देनेकी चेष्टा की, परन्तु जो पात्र हैं वे मर्यादातिक्रमण कर दान लेते हैं । चरणानुयोग की पद्धतिको प्रतिक्रमण कर नई नई पद्धति निकालना उचित नही । प्रायः पात्रको देखकर दान देनेवाला व्यक्ति भयसे कम्पायमान हो जाता है । इसमे पात्र की सरलता ही कारण है । ८१ यमुना नदी पर आ गये । यहाँसे यहीं भोजन हुआ । । । आज कल इस पञ्चम् लोगोंमे धामिक प्रेम है उसका भोजन हो गया जब तक त्यागी भोजन रत्नपुरसे ३ मील चलकर ३ मील चलकर कुतुवपुरी आ पहुँचे । जिसने भोजन दिया वह बहुत प्रसन्न हुई काल अनेक आपत्तियोंके आने पर भी तथा त्यागीकी महती प्रतिष्ठा करते हैं मानो उन्हे त्रैलोक्यकी निधि मिल गई। न करले तब तक बड़ी सावधानी रखते हैं । यही भावना निरन्तर रखते हैं कि किसी तरह मेरे घर पात्रका भोजन हो जावे । दैवयोग से पात्र या जावे तो मेरा धन्यभाग होगा । २ वजे आमसभा हुई । यहाँ पर जो ठाकुर राणा थे आपने शिकार छोड़ दिया तथा मदिरा का भी त्याग कर दिया । ग्रामके अन्य प्रतिष्ठित लोगोंने भी मांस मदिराका त्याग किया । यहाँसे २ मील चलकर समस्तपुर मे ठहर गये । दूसरे दिन प्रातः ६ मील चलकर नकुड़ आ गये । ग्रामवालोंने स्वागतसे धर्मशालामे ठहराया। मन्दिरमे प्रवचन हुआ पश्चात् भोजन हुआ। दिनके ३ बजेसे सभा हुई । जो सर्वत्र होता है वही यहाँ हुआ, कुछ विशेष लाभ नहीं हुआ और न होनेकी संभावना है क्योंकि मनुष्यों के भाव प्रायः निर्मल नहीं रहते । अगले दिन मन्दिर में प्रवचन हुआ। कुछ तत्त्व दृष्टिगोचर नहीं हुआ, केवल रस्म अदा करना पड़ती है । वक्ताको स्वयं अपनेमें आत्मकल्याणकी भावना रखना चाहिये । कल्याणका मूल कारण स्वपर विवेक है । जिनने स्वपर विवेक किया उनका जन्म सार्थक है । मध्यान्होपरान्त ३ ६ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा बजेसे सभा हुई। मनुष्य समुदाय अच्छा था, परन्तु कोई तत्व नहीं निकला। प्रायः प्रति दिन यही कथा होती है। यहाँ की समाजने ५०१) स्याद्वाद विद्यालयको दिये । ५०१) गुरुकुलको हो गये। रुपया मिलता है पर सदुपयोग होना अधिकारियोंके हाथकी बात है। ___यहाँसे ५१ वजे प्रातः ५ मील चलकर अम्बाड़ा आ गये। बड़े स्वागतसे लोगोंने धर्मशालामे ठहराया । पश्चात् मन्दिरमें गया, प्रवचन हुआ। लोगोने स्वाध्यायका नियम लिया। धर्मशालामे कई महाशयों ने, जो कि हरिजनोंमे थे, मदिराका त्याग किया। वई महाशयोंने माँसका त्याग किया। खेद इस बातका है कि जैनी भाई स्वयं वीचमें बोलने लगते हैं इससे जनतामे प्रभाव नहीं रहता। सायंकाल व्याख्यान हुआ। जैनेतर जनता अति प्रसन्न हुई। यहाँ १५ घर जैनियोंके हैं। मन्दिर वहुत सुन्दर है। शास्त्र प्रवचनका हाल बहुत बड़ा है। दूसरे दिन प्रातःकाल समयसारका प्रवचन किया। अनन्तर रत्नकरण्डश्रावकाचारके भावना प्रकरणसे ३ भावनाओंका वर्णन किया। पं० सदासुखरायजीने बहुत सुन्दर वर्णन किया है। सवने प्रेमसे सुना, परन्तु जिनको उनपर विचार करना चाहिये वे कदापि उनका पालन नहीं करते यह महती त्रुटि है। अम्बाड़ासे ४ मील चलकर इसलामपुर आ गये। यह वस्ती पठान लोगों की है। ३ घर जैनियोंके हैं। मार्गमे १ पठानने ६ आम उपहारमें दिये। १ जैनी भाई लेनेको प्रस्तुत नहीं हुए ! मैंने कहा कि अवश्य लेना चाहिये। आखिर यह भी तो मनुष्य हैं। इनके भी धर्मका विकास हो सकता है। बाह्य आचरणके अनुकूल ही मनुप्योंका व्यवहार चलता है। इससे ही हम लोग उनसे घृणा करने लगते हैं, अतः आवश्यकता अन्तरंग याचरण निर्मल Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीको ओर करनेकी है। उसके अर्थ वाह्य आचरणको भी निर्मल बनानेकी आवश्यकता है। यदि बाह्य आचरण शुद्ध हो जाते तो अन्तरङ्ग आचरण का निर्मल होना कठिन नहीं। अगले दिन इसलामपुरसे ४ मील चल कर रामनगर आये। वीचमे १ नहर मिली। हवा ठण्डी थी। साथ ही हवाकी प्रचुरतासे वालूके कण बहुत उठते थे जिससे आँखोंमे कष्ट प्रतीत होता था । यहाँ वालोंने बहुत ही स्वागत किया। अनेकों स्थानों पर दरवाजे बने हुए थे। जगह जगह सजावट थी। लोगोंमें उत्साह ही उत्साह दृष्टिगोचर हो रहा था । धर्मशालामे ठहराया। वजे प्रवचन हुआ। वहुंतसे मनुष्य आये। प्रवचन रुचिकर हुआ, परन्तु विशेष वाचालता (कोलाहल ) से चित्त नहीं लगा। पश्चात् भोजन किया। मध्यान्हके वाद २ वजेसे सभा हुई जिसमें मनुष्योंकी भीड़ बहुत आई। क्षुल्लक द्वय तथा अन्य लोगोंके व्याख्यान हुए। अगले दिन प्रातः ७ वजे वाचनालय खुला । समारोह अच्छा था। पश्चात् ८ वजेसे ह बजे तक प्रवचन हुआ । वहुत मनुष्य एकत्र हुए। सबने प्रवचन सुना। जैनियोंकी अपेक्षा अन्य मनुष्योंने बड़े स्नेहसे धर्मके प्रति जिज्ञासा प्रकट की तथा उनके चित्तमें मार्गका विशेष आदर हुआ। अनन्तर भोजनके लिये गमन किया । वहुत ही भीड़ थी। भोजन करना कठिन हो गया। एकके बाद एक आता ही रहा। वैशाख सुदी १०-११ संबन् २००६ को ६३ बजे चल कर ७ मील नानौता आ गये। श्री महेन्द्रने वहत ही आदरसे अपने घरमे स्थान दिया । स्नानान्तर मन्दिरमें गये। अपके घर पर आपकी माँ तथा स्त्रीने आहार दिया। २ वजे वाद उत्सव हुआ। कई सहस्र मनुप्य उत्सवमे आये। कीर्तन करनेवालोंने कीर्तन किया। प्रायः संसारमें मनुप्य जो काम करता है वह अपने उत्सबके लिये करता है । उन्नतिका मार्ग कपाय निवृत्ति है, कपायकी निवृत्ति Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ मेरी जीवन गाथा ज्ञानसे होती है, ज्ञानका मूल कारण आगमज्ञान है और आगमज्ञानका कारण विद्याका अभ्यास है । दूसरे दिन बड़े मन्दिरमें प्रवचन हुआ। मनुष्य संख्या पुष्कल थी। परन्तु हमको इतनी योग्यता नहीं कि उन्हें प्रसन्न कर सकते । केवल १ घण्टा समय गया । हम रूढिके गुलाम हैं और उसीकी पूर्ति करना चाहते हैं। बहुत आदमी जिसमे प्रसन्न हों उसीमे प्रसन्नता मानना हमारा कार्य है, परन्तु धर्मका स्वरूप तो निर्मल आत्माकी परिणति है। उसकी यथार्थता मोह राग द्वेषके अभावमे ही है । यदि राग-द्वपकी प्रचुरता है तो आत्माका कल्याण होना असम्भव है। प्रवचनोंमे जैन लोगों के अतिरिक्त अन्य लोग भी आते हैं। परन्तु उन्हे उनकी भाषामे तत्त्वका उपदेश नहीं होता, अतः वे लोग उपदेशके फलसे वञ्चित रह जाते हैं। जैन लोग स्वयं इसकी चेष्टा नहीं करते, केवल ऊपरी व्यवहारमें अपना समय व्यय कर देते हैं। एक दिन प्रकाशचन्द्रजी रईसके यहाँ भोजन हुआ। आपने स्याद्वाद विद्यालयको १०.०) दिये। भोजन भी निरन्तराय हुआ । प्रकाशचन्द्र व उनकी पत्नी दोनों योग्य हैं। एक दिन चतुरसेनके यहाँ भोजन हुआ। आपने भी स्याद्वाद विद्यालयको ५०१) प्रदान किये तथा महेन्द्रने भी १००१) उक्त विद्यालयको दिये। कुछ लोगोंने देनेका वचन दिया। यह सब हुआ, परन्तु यह सुनकर बहुत खेद हुआ कि नानौता ग्राममे कई जैनी भाई मदिरा पान करते हैं तथा कडे वेश्यागामी हैं। त्यागी लोगोंको शुद्ध भोजन मिलना प्रायः कठिन है। जुल्लक पूर्णसागरजी लोगोंके सुधारका बहुत प्रयास करते हैं। बहुत मनुष्य अष्टमूलगुणका नियम लेते हैं, किन्तु जानते कुछ नहीं। इससे व्रतका निर्वाह होना कठिनसा प्रतीत होता है । नुस प्रान्तमे सदाचारकी त्रुटि महती है । नानौताम ४ दिन लग गये। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीकी ओर वैशाख सुदी १५ सम्बत् २००६ को नानौतासे ३ मील चल कर यमुनाकी नहर पर आ गये। यहाँसे ४ मील चल कर तीतरों आये । यहीं जैनियोके १० घर है। मन्दिरमे प्रायः जैन लोग बहुत कम पाते हैं। हम जिस घर भोजनके लिये गये, पता चला कि उस घरसे कोई भी दशन करनेको नहीं जाता। यहाँ पर ३ बजे सभा हुई जिसमे पं० हुकमचन्द्रजी सलावावालोने मूर्तिपूजा विषयक व्याख्यान दिया। अगले दिन १३ बजे तीतरोंसे चलकर कचीगढ़ी आ गये । यहाँ ८ घर जैनियोंके हैं। १ मन्दिर है। यहाँ पर रामाभाई खतोलीके निवास करते हैं, सज्जन हैं, आँखसे नहीं दिखता, वृद्धावस्था है । यहाँके जैनी आपके साथ अच्छा सलूक करते हैं। मन्दिर स्वच्छ है । सव भाईयोंने पूजा करनेकी प्रतिज्ञा ली। अगले दिन ७ मील चलकर पक्कीगढ़ी आये । यहाँ १ मन्दिर है। १० घर जैनियोंके हैं जो सम्पन्न हैं। मिडिल स्कूलमें प्रवचन हुआ। जनता अच्छी थी। लाला जम्बूप्रसादजीके यहाँ भोजन हुआ। आपने ५१) स्याद्वाद विद्यालयको दिये। मध्यान्हके बाद क्षुल्लक चिदानन्दजीका उपदेश हुआ। आपको व्याख्यान देनेका वहुत शौक है। अगले दिन पक्कीगढ़ीसे ३ मील चलकर भैंसवाल आये । यहाँ ३ घर जैनोंके हैं। सर्व सम्पन्न हैं। यहाँ जाट लोगोंकी वस्ती है। ग्राममें ईख बहुत उत्पन्न होती है। इससे यहाँके कृषक सम्पन्न हैं। पैसाकी पुष्कलता सबके है, किन्तु वह दुरुपयोगमे जाता है। देहातोंमें धार्मिक विद्याके जाननेवाले नहीं और शहरोंमें ऐश आरामसे लोगोंको अवकाश नहीं । अव तो काम और अर्थ पुरुषार्थ ही मुख्य रह गये हैं। यहाँसे ६ मील चलकर जेठ बदी ४ को शामली आ गये । यहाँ पर १०० घर जैनियोंके हैं। बड़ी भारी मण्डी है। आज कल इस नगरमे सट्टाकी प्रचुरता है। यहाँ २ मन्दिर हैं, किन्तु पूजन Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा और स्वाध्यायका प्रचार नहीं । जिसके घर भोजन किये वह भला आदमी है । ३ बजेसे आमसभा हुई, परन्तु फलांश जो सर्वत्र होता है यहाँ भी वही हुआ । वाह वाहमे संसार लुट रहा है । आप स्वयं निज स्वरूपसे च्युत हैं और संसारको उस स्वरूपमे लगाना चाहता है.. यह सर्वथा उचित नहीं । जो मनुष्य जगत् के कल्याणकी चेष्टा करते हैं उनका स्वयं अपनी ओर लक्ष्य नहीं । ऐसे लोगों का प्रयत्न अन्धेके हाथमे लालटेन के सदृश है । संसारकी विडम्बनाका चित्रण करना संसारीका काम है । जिसको नाना विकल्प उत्पन्न होते हैं वह पदार्थको नाना रूपमें देखता है । वास्तवमें पदाथ तो भिन्न है, अखण्डित है, यह उसे क्षयोपशम ज्ञानसे नाना रूप मे देखा है। ८६ आज यहाँ प्रातःकाल होनेके पूर्व एक घटना हुई जो कल्पनामे न आनेके योग्य है । स्वप्नमें बाबा भागीरथजीका दर्शन हुआ । दर्शन होना असंभव नहीं, परन्तु जैसा उनका रूप न था वैसा देखा। उन्हे दिगन्वर मुद्रामे देख मैंने कहा - महाराज | आप दिगम्बर हो गये ? आप तो यहाँ पञ्चम गुणस्थानवाले श्रावक थे ? यहाँसे स्वर्ग गये, देव पर्याय पाई। फिर यह मुद्रा कहाँ पाई ? उन्होंने कहा- भाई । गणेशप्रसाद ! तुम बड़े भोले हो । मैं तुम्हारे समझानेके लिये आया हूँ । यद्यपि मैं अभी सागरों पर्यन्त आयु भोग कर मनुष्य होऊँगा तब दिगम्बर पढ़का पात्र बनूँगा, परन्तु तुमको कहता हॅू कि तुमने जो पद अंगीकार किया है उसकी रक्षा करना । व्रत धारण करना सरल है, परन्तु उसकी रक्षा करना कठिन है । बाह्यमे १ चद्दर और २ लंगोटी रखना ! १ बार पानी पीना कठिन नहीं तथा आजन्म निर्वाह करना कोई कठिन नहीं। किन्तु आभ्यन्तर निर्मलता होना अति कठिन है । आज जेठ वदी = सं० २००६ का दिन था । उपवास करना चाहिये, परन्तु शाक्तिकी न्यूनतासे १ बार तो प्रति दिन भोजन होता Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीकी ओर ४७ ही है, किन्तु जो भोजन प्रतिदिन करते थे उससे कुछ अल्प किया। लोग संसारमे शान्ति चाहते हैं, परन्तु संसारका स्वरूप ही अशान्तिका पुञ्ज है। उसमे शान्ति खोजना रम्भास्तम्भमे सार अन्वेपण करनेके सहश है। संसारके अभावमे शान्ति है। लौकिक मनुप्य स्थान विशेपको संसार और मोक्ष समझते हैं वह नहीं। संसार असंसार आत्मा की परिणति विशेप है। आत्मा की सकमे परिणति संसार है और निष्कर्म परिणति असंसार है-मोक्ष है। नवमीके दिन श्री शीतलप्रसादजी शाहपुरवालोंके यहाँ भोजन किया। प्रत्येक मनुष्यकी यह दृष्टि रहती है कि हमारे यहां ऐसा भोजन बने जो सर्वश्रेष्ठ हो तथा पात्र हमारी इच्छानुसार उतना भोजन कर लेवे । चाहे पात्रको लाभ हो चाहे अलाभ हो । भोजनकी इच्छाका ही नाम आहार है। आहार संज्ञाके कारण संसारमे महान् अनर्थ होते हैं । अनर्थकी जड़ भोजनकी लिप्सा है। अच्छे अच्छे महान पुरुष इसके वशीभूत हो कर जो जो क्रिया करते हैं वह किसीसे गुप्त नहीं। भोजनकी लालसा अच्छे अच्छे पुरुषोका तिरस्कार करनेमे कारण हो जाती है । एक दिन लोगोंने सभामें निर्णय किया कि लड़कीवालेसे रुपया नहीं लेना । समयकी बलवत्ता देखो कि लाग लडकीवालेसे ठहराव कर रुपया मॉगने लगे हैं। कितनी अकर्मण्यता लोगोंमें आ गई है और लोभकी कितनी सीमा बढ़ गई है ? वास्तवमे लोभ ही पापका मूल कारण है । बहुतसे मनुष्य लोभके वशीभूत हो कर नाना अनर्थ करते हैं। आज संसार दुखी है इसका लोभ ही मूल हेतु है। हजारों मनुष्यों के प्राण लोभके वशीभूत होनेसे चले गये। आज संसारमे जो संग्राम हो रहा है उसका कारण राज्यलिप्सा है। आज जितने यन्त्रोंका संचालन हो रहा है उसका अन्तरङ्ग कारण लोभ है। और यन्त्रोंमें जो असंख्य प्राणियोंका Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ मेरी जीवन गाथा घात हो रहा है उसका मूल कारण यह लोभ ही है । आजकल तत्त्वज्ञानका आदर नहीं, केवल ऊपरी वातोंसे लोकको रञ्जन करना ही व्याख्यानका विषय रहता है। मैंने बहुत विचार किया कि अब इन विषयोंमें न पड़े तथा आत्मकल्याणकी ओर दृष्टिपात क्रूँ, परन्तु पुरातन संस्कार भावनाके अनुसार कार्य नहीं होने देते। व्याख्यान देना तभी उपयोगी होगा जिस दिन आत्मप्रवृत्ति निर्मल हो जावेगी। उसी दिन अनायास संवर हो जायेगा, संवर ही मोक्षमार्ग है। इसके विना मोक्षमार्गका लाभ होना अति कठिन नहीं असंभव है। मनुष्योंके साथ विशेप संपर्क नहीं करना चाहिये, क्योंकि संपर्क ही रागका कारण है। रागके विपयको त्यागनेमे भी राग की निवृत्ति होती है। निर्विपय राग कहाँ तक रहेगा ? सर्वथा ऐसा सिद्धान्त नहीं कि पहले राग छोड़ो पश्चात् विषय त्यागो। ...यदि क्षयोपशम ज्ञानको पाया है तो उसे पराधीन जान उसका अभिमान छोड़ो। भोजनकी लिप्सा छोड़ो। उदयानुकूल कार्य होते हैं। परने हमारा उपकार किया हमने परका उपकार किया यह अहंकार त्यागो। न तो कोई देनेवाला है और न कोई हरण करनेवाला है। सर्व कार्य सामग्रीसे होते हैं। केवल दैव भी कुछ नहीं कर सकता और न केवल पुरुषार्थ ही कार्यजनक है, किन्तु सामग्री कार्यजननी है । वाह्याभ्यन्तर निमित्तकी उपस्थिति ही सामग्री कहलाती है । सामलीके बाद विशेप आवास काँदलामे हुआ। यहाँ प्रवचनमें मनुप्योंका समुदाय अच्छा रहा, किन्तु समुदायसे ही तो कुछ नहीं होता। शास्त्र प्रवचन केवल पद्धति मात्र रह गया है। वास्तवम तो न कोई वक्ता है और न श्रोता है। मोहकी बलवत्तामे ही यह सब ठाठ हो रहा है। जहाँतक मोहकी सत्ता है वहाँ तक यह सब प्रपञ्च है । संसारके मूल कारण रागादिक हैं। इनके सद्भावम ही यह सर्व हो रहा है। रागकी प्रबलता पष्ट गुणस्थान तक ही Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीकी ओर है, इसलिये यह लीला वहीं तक सीमित है " यह भाव वक्ता तथा श्रोताके हृदयमें आ जावे तो प्रवचनकी सार्थकता है । महावीरसे पं० धरणेन्द्रकुमारजी आये। उन्हींके यहाँ भोजन हुआ। आपने १ कपायप्राभृत भेंट किया तथा स्याद्वाद विद्यालय को ११) प्रदान किये। आपकी श्रद्धा धर्ममे उत्तम है। वास्तवमें श्रद्धा आत्माका अपूर्व गुण है। इसके होने पर सर्वगुण स्वयमेव सम्यक हो जाते हैं। इसकी महिमा अचिन्त्य है। इसके होने पर ज्ञान सम्यक् और मिथ्याचारित्र अविरत शब्दसे व्यवहृत होने लगता है। जेठ सुदी २ का प्रवचन बहुत शान्तिसे समाप्त हुआ। प्रकरण ब्रह्मचर्य व्रतका था। पर पदार्थसे भिन्न आत्माका निश्चय कर जो पर पदार्थों में राग द्वेपका त्याग कर देता है वही पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाला होता है । लौकिक मनुप्य केवल जननेन्द्रिय द्वारा विषयसेवनको ही ब्रह्मचर्यका घातक मानते हैं, परन्तु परमार्थसे सर्व इन्द्रिय द्वारा जो विषय सेवनकी इच्छा है वह सव ब्रह्मचर्यका घातक है । आज देहलीसे २० मनुष्य आये। सबका यही आग्रह था कि दिल्ली चलिये । चातुर्मासका अवसर निकट था तथा उसके उपयुक्त दिल्ली ही स्थान था, इसलिये हमने कह दिया कि दिल्लीकी ओर ही तो चल रहे हैं। कांदलामें एक दिन पल्टूरामजीके यहाँ भोजन हुआ । आप बहुत ही सज्जन तथा तत्त्वज्ञानी हैं। आप स्थानकवासी सम्प्रदायके हैं । आपका हृदय विशाल है, परन्तु साथमें कुछ आग्रह भी है। स्थानकवासी सम्प्रदायका कुछ व्यामोह है। यद्यपि आप निग्रन्थ पदको ही मुख्य मानते हैं फिर भी वस्त्रधारीको भी मुनि माननेमे संकोच नहीं करते । दिगम्बर संप्रदायमे तो यह अकाट्य मान्यता है कि बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका जहाँ त्याग है वहीं मुनि पद हो सकता है । एक दिन यहाँ ग्रामके सबसे बड़े Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा प्रसिद्ध मौलवीने २ आम भोजनके लिये दिये। लोगोंने बहुत टिप्पणी की, परन्तु मैंने उन्हें आहारमें ले लिया, खेद इसका है कि लोग बिना शिर-पैरकी टीका-टिप्पणी करते हैं। यदि ये ही आम किसी मुसलमानकी दुकानसे लाये होते तो ये लोग टीकाटिप्पणी न करते । अस्तु, लोग अपने अभिप्रायके अनुसार टीकाटिप्पणी करते हैं। हमको उचित है कि उससे भय न करें । पापसे भयभीत रहे। किसीके प्रति अन्यथा न विचारें। जो होना है होगा इसमे खेद किस वात का ? मेरा तो वार-बार यही लक्ष्य रहता है कि आत्माकी निर्मलता ही सुखका कारण है और सुख ही शान्तिका उपाय है। उपाय क्या ? सुख ही शान्ति है । इधर प्रवचनमे अजैन लोग भी बहुत आते हैं और जैनधर्मके मर्मको श्रवण कर प्रसन्न भी होते हैं। आत्मा अनादि अनन्त है यह सवको मान्य है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आत्मा कूटस्थ रहे परिणाम विना परिणामी नहीं और परिणामी बिना परिणाम नहीं, अत यह मानना सर्वथा उचित है कि आत्मा न तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है, किन्तु नित्यानित्यात्मक है। ( २ ) जेठ सुदी १० सं० २००६ को ५ बजे प्रात कांदलासे चलकर नंगेरु या गये । यहाँ पर १ मन्दिर है। ४० घर जैनियोंक है। मन्दिरमागी हैं। इनके अतिरिक्त ४० घर म्थानकवासियोंके है ! ये लोग मूर्तिको नहीं मानते है। पालम्बनके बिना धर्मका कोट श्राचार इनमें नहीं है और न धर्मका स्वरूप ही समगते है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीकी ओर नाममात्रके जैन हैं । सायंकालको सभा हुई जिसमे अष्टमूल गुण आदिके व्याख्यान हुए । यहाँसे ६ मील चलकर कैराना आये । यहाँ पर ४० घर जैनियोंके हैं । प्रायः सम्पन्न हैं, सरल हैं, स्वाध्याय और पूजनका अच्छा प्रबन्ध है । यहाँ जैनियों के अनेक बालक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघमे हैं, परन्तु संघका उद्देश्य क्या है किसीको पता नहीं । देशमे सर्वत्र इनका प्रचार है । कुछ उनसे पूछो बताते नहीं। केवल देशका भला हो यह कह देते हैं । वास्तव वात कुछ बताते नहीं । भारतवर्ष ऋषिभूमि रही, परन्तु अव तो यहाँके मनुष्य कामलोलुप हो गये । प्रवचनमे बहुत लोग आये । प्रवचनका सार यही था कि ज्ञानका विपरीत अभिप्रायसे 'मुक्त हो जाना सम्यग्दर्शन है, पदार्थको जानना सो सम्यग्ज्ञान है और कर्मवात करना चारित्र है । इस तरह ज्ञान ही सम्यग्दर्शनादि तीन रूप है - विद्यानन्द स्वामीने यही बात श्लोकवार्तिकमे कही है मिथ्याभिप्रायनिमुक्तिर्ज्ञानस्येष्ट हि दर्शनम् । ज्ञानत्वमर्थविज्ञप्तिश्चर्यात्वं कर्महन्तृता ॥ 9 भोजन अन्तराय तथा पैरमें मोच आ जानेके कारण एक दिन यहाँ और रुकना पड़ा । शरीरकी दशा पतनोन्मुख है फिर भी हम वाह्य आडम्बरमे उलझ रहे हैं यह दुःखकी बात है । उचित तो यह है कि धर्म साधनमे सावधान रहें । धर्म साधनका अर्थ यह है कि परिणामोंकी व्यग्रतासे रक्षा हो । धर्म मानें वाह्य क्रिया नहीं । किन्तु हम अज्ञानी लोगोंने वाह्य क्रियामें धर्म मान रक्खा है । आज यहाँसे जाना था, परन्तु किट्ठलके मनुष्यों मे परस्पर रात्रिको वैमनस्य हो गया । वैमनस्यका कारण पाठशालाके अर्थ चन्दा था । परमार्थसे पूछा जावे तो संसारमे दुःखादिका कारण परिग्रह पिशाच है । यह जहाँ आया वहाँ अच्छे-अच्छे Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ मेरी जीवन गाथा महापुरुषोंकी मति भ्रष्ट कर देता है । परिग्रहकी मूर्च्छा इतनी प्रवल है कि आत्माको आत्मीय ज्ञानसे वञ्चित कर देती हैं । कहाँ तक लिखा जावे ? जब तक इसका सद्भाव है तब तक आत्मा यथा ख्यातचारित्रसे वञ्चित रहती है। अविरत अवस्थासे पार होना कठेन है । आषाढ़ वदी १ सं० २००६ को विट्ठलसे ५ मील चलकर छपरौली आ गये । यहाँ पर १०० घर जैनधर्मवालोंके हैं जिनमे ५० घर मन्दिरमागीँ दिगम्बर आम्नायवालोंके हैं और शेष स्थानकवासियोंके हैं । पञ्चम कालका माहात्म्य है कि इस निर्मल धर्ममे भी पन्थोंकी उत्पत्ति गई। शान्तिका मार्ग तो मिथ्याभिप्राय के त्यागने से होता है, परन्तु उस ओर दृष्टि नही । दृष्टिको शुद्ध बनाना ही आत्माके कल्याणका मूल मार्ग हैं। हमारी भूल ही हमारे संसार परिभ्रमणका कारण है । बहुत विचार करनेके बाद हमने तो यह निश्चय किया कि अपनी अन्तरङ्ग की परिणति निर्मल करना चाहिये । पर पदार्थों के गुण दोपों की समालोचनाकी अपेक्षा आत्मीय परिणतिको निर्मल करना बहुत लाभदायक है । देवपूजा करनेका तात्पर्य यह है कि आत्माकी परिणति निर्मल होनेसे यह दशा आत्माकी हो जाती है। अर्थात् आत्मा देव पदको प्राप्त हो जाता है । मेरी आत्मा भी यदि इनके कथित मार्गपर चलनेकी चेष्टा करे तो कालान्तरमे हम भा तत्तुल्य हो सकते हैं, परन्तु हमारी प्रवृत्ति अत्यन्त निन्द्य है । छपरोलीसे ४ मील चलकर नगला आये । यहाँ १५ घर जैनियोंके हैं । सब दिगम्बर सम्प्रदायके हैं । १ मन्दिर है, स्वच्छ है, २ वेदिकाएँ हैं, १ काली मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ हैं । यहाँ जाट लोग बहुत हैं, प्रायः सम्पन्न हैं । प्रवचनमें सब लोग आये । श्राज क्ल लोगों के हृदय धार्मिक संघर्षका जोर प्रायः कम हो गया हैं और लोग प्रेम से एक दूसरे की बात सुनने को तैयार हैं "यह प्रसन्नताकी Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीकी ओर बात है। धर्म जीवका स्वच्छ स्वभाव है जिसका उदय होते ही आत्मा कैवल्यावस्थाका पात्र हो जाती है। मोक्ष, आत्माकी केवल परिणतिको कहते हैं। उसके अर्थ ही यावत् प्रयास है। यदि उसका लाभ न हुआ तो सर्व प्रयास विफल है। अगले दिन यहाँसे ४ मील चलकर बावली आ गये। यह ग्राम बहुत बड़ा है । मन्दिर भी यहाँका विशाल है । यहाँ श्री शान्तिनाथकी मूर्ति अत्यन्त मनोहर और आकर्षक है, परन्तु मूतिके अनुरूप स्थान नहीं। यहाँ पर परस्पर मनोमालिन्य बहुत है और वह इतना विकृत हो गया है कि जिसमे हानिकी सम्भावना है। वहुतसे मनुष्य ऐसे होते हैं जिन्हे कलह ही प्रिय होता है। जनता उनके पक्षमें आजाती है। सद्सद्विवेक होना अत्यन्त कठिन है। शास्त्रका अध्ययन करनेवाले जब इस विषयमे निष्णात नहीं तव अज्ञानी मनुष्य तो अज्ञानी ही हैं। अपाढ़ वदी ५ सं० २००६ को बावलीसे चलकर बड़ौत आ गये । यह नगर अच्छा है, व्यापारका केन्द्र है। ५०० घर दिगम्बर जैनोंके हैं। २ मन्दिर हैं। बड़ी शानसे स्वागत किया। कालेज भवनमे वहुत भीड़ थी। व्याख्यानका प्रयास बहुत लोगोंने किया, परन्तु कोलाहलके कारण कुछ असर नहीं हुआ। हमने भी कुछ बोलना चाहा, परन्तु कुछ बोल न सके। लोगोंका कोलाहल और हमारी वृद्धावस्था इसके प्रमुख कारण थे। कालेजकी विल्डिंग बहुत बड़ी है । किराया अच्छा आता है। दूसरे दिन प्रातःकाल प्रवचन हुआ, भीड़ बहुत थी। अव शास्त्रकी प्रणालीसे शास्त्र होता नहीं, क्योंकि जनता अधिक आती है और शोरगुल वहुत होता है। इस स्थितिमे यथार्थ वात तो कहने में आती नहीं, केवल सामाजिक वातोंमे शास्त्रका प्रवचन होने लगता है। समाजमें विद्वान् वहुत हैं तथा व्याख्याता भी उत्तम हैं, किन्तु वे स्वयं अपने ज्ञानका Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाया आदर नहीं करते । यदि वे अपने ज्ञानका आदर स्वयं करें तो संसार स्वयं मागे पर आ जावे अथवा न आवे, स्वयं तो कल्याण पर आ जावेगे। ज्ञानके आदरसे अभिप्राय तदनुकूल आचरण है। तदनुकूल आचरणके बिना ज्ञानकी प्रतिष्ठा ही क्या है ? मुझे तो अन्तरङ्गसे लगता है कि वोलना न पड़े, अपनी परिणतिको निर्मल बनानेका प्रयत्न करूँ इसीमें सार दिखता है। संसारमे ऐसा कोई शक्ति-शालि पुरुष नहीं जो जगतकी सुधारणा कर सके। बड़े बड़े पुरुप हो गये। वे भी संसारकी गुत्थी सुलझा न सके तव अल्पज्ञानी इसकी चेष्टा करे यह महती दुर्बोधता है। यदि कल्याणकी इच्छा है तो अपने भावोंको सुधारा जाय । इच्छाको रोकना ही सुखका कारण है । सुख कोई अन्य पदार्थ नहीं जिसके अर्थ किसीसे याचना की जावे। जैसे कुम्भकार घटको चाहता है और यह जानता है कि घटकी पर्याय सिट्टीमे होती है। वह निरन्तर १ ढेर मिट्टी का घरमें रखता है। यदि वह मिट्टीकी पूजा करने लगे तथा जप करने लगे कि घट वन जावे तथा घटानुकूल व्यापार न करे तो क्या घट बन जावेगा ? इसी प्रकार सुख आत्माका गुण है और आत्मामें सदा विद्यमान है, परन्तु वर्तमानमे मोहके कारण उसम दुःखरूप परिणमन हो रहा है। यदि यह प्राणी सुख प्रामिक अनुकूल चेष्टा न करे-आत्मासे मोह परिणतिको विघटित न करे तो क्या अपने आप सुख गुण प्रकट हो जावेगा? ___ अपाढ़ वदी ९ सं० २००६ को श्रीजुल्लक चिदानन्दजी तथा जु० पूर्णसागरजीके केशलुञ्च हुए। दृश्य देखनेके लिये अपार भाड एकत्रित हुई। यद्यपि केशलुञ्च एक क्रिया है और इसको मुनि तथा ऐलक करते हैं एवं यह एकान्तमें होता है. किन्तु अब म प्रभावनाका अंग बना दिया है, सहलों मनुप्य इसमे इकट्ट हा जाते हैं तथा जयकारके नारे लगाते हैं। पञ्चम काल है, मनुष्य Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीकी ओर ६५ स्वेचराचारी हैं जो मनमे आता है वह करते हैं। आगमकी अवहेलनाभले ही हो जावे, परन्तु जो असत्कल्पना मनमे आ जावे उसकी सिद्धि होना ही चाहिये । मनुप्य आवेगमे आकर अनेक अनर्थ करता है । यद्यपि केशलुञ्च करना कोई धर्म नहीं। केश हैं, पासमे पैसा नहीं । यदि उन्हे रक्खा जावे तो कौन सँभाले, यूका आदि हो जावे, अत. हाथसे उपाड़ना ही धर्म है। उसे जनता वीतरागताका द्योतक समझती है तथा जय-जयकारके नारे लगाती है और उसीमे हमारे जो त्यागी हैं वे द्वादशानुप्रेक्षाका पाठ पढ़ते हैं तथा नाना नारे लगाते हैं। मेरी समझसे व्रतीको आगमकी अवहेलना 'करना उचित नहीं। बड़ौतमे ६ दिन लग गये। अष्टाह्निकाके पूर्व दिल्ली पहुंचना था, इसलिये वीचमे अधिक रुकना रुचिकर नहीं होता था। आषाढ वदी ११ सं० २००६ को प्रातःकाल ५ बजे बड़ौतसे चलकर ७ वजे बड़ौली आये। यहाँ पर १ मन्दिर तथा १० घर जैनोंके हैं, साधारण स्थितिके हैं, सरल हैं। परिणामोंकी सरलता जो छोटे ग्रामवासियोंमें होती है वह बड़े ग्रामोंके मनुष्योंमे नहीं होती। बड़े ग्रामोंके मनुप्योंमे विषयकी लोलुपता अधिक रहती है, क्योंकि छोटे ग्रामोंकी अपेक्षा उनमे विषय सेवनकी सामग्री अधिक रहती है और यह जीव अनादिसे विषय लोलुप बन रहा है । इसी दिन मध्यान्हके बाद चलकर मसूरपुर आ गये। यहाँ १ मन्दिर और २० घर जैनियोंके हैं। मसूरपुरसे ६ मील वागपत आये। यहाँ पर २० घर जैनियोंके तथा १ मन्दिर है। १ हाईस्कूल भी है। मनुष्य सज्जन हैं, परन्तु यहाँ पर कोई समागम नहीं। इससे जैनत्वका विशेष परिचय नहीं। कहाँ तक लिखें ? न जाननेके कारण प्रायः जैनधर्मके मूल सिद्धान्तोंकी विरलता होती जाती है। लोगोंकी बुद्धिकी बलिहारी है कि वे स्वकीय द्रव्य Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ मेरी जीवन गाथा एकत्रित करने में ज्ञान बढ़े, हमारी त्रयोदशी के दिन । यहाँ पर १० घर मन्दिरों के सजाने तथा सोने चाँदीके उपकरणों के तो व्यय करते हैं पर जिनसे जैन सिद्धान्तोंका सन्तान सुवोध हो इस ओर उनका लक्ष्य नहीं वागपत से ३ मील चलकर टटेरीमण्डी आ गये । जैनियोंके तथा १ चैत्यालय है । चैत्यालय बहुत ही सुन्दर है । आज बहुत ही गर्मी रही । तृषाने बहुत सताया, परन्तु स्वप्नमे भी यह ध्यान न आया कि यह व्रत धारण करना उपयोगी नहीं । प्रत्युत यही विचार चित्तमे आया कि परिपह सहन करना ही तप है । आत्माकी अचिन्त्य शक्ति है । परिणामोंकी निर्मलतासे यह आत्मा अनायास ही संसारके बन्धन से विमुक्त हो सकता है । जहाँ तक बने अभिप्राय शुद्ध करनेकी महती आवश्यकता है । 1 चतुर्दशीको टटेरी मण्डीसे ५३ मील चलकर खेखड़ा श्रा गये । यह ग्राम बहुत प्रसिद्ध है । इसमें बावा भागीरथजी प्रायः निवास करते थे । यहाँ लगभग २०० घर जैनियोंके है। लोगोंने बहुत स्वागतसे लाकर लाला उग्रसेनजीकी कोठीमे ठहराया था । ६ बजे मन्दिर गये । वहाँ पर बहुत जनता थी। मुझे लगा कि जनता धर्मकी पिपासु है, परन्तु धर्मका स्वरूप बतलानेवाले विरले हैं। मैं तो अपने आत्माको इस विपयमे प्रायः बहुत ही दुर्बल देख रहा हॅू। जहाँ तक बने परकी वञ्चना मत करो। परकी वञ्चना हो व मत हो, आपकी वञ्चना तो हो ही जाती है। आपकी वञ्चनाका यही अर्थ है कि आप वर्तमानमे जिस कपायसे दुखी होता है उसीका बीज फिर वो लेता है । श्रात्माको दुख देनेवाली वस्तु इच्छा है | वह जिस किसी विपयकी हो जब तक उसकी पूर्ति नहीं होती, यह जीव दुखी रहता है तथा आत्मा भी आगामी दुः पात्र हो जाता है । यह सब होने पर भी मनुष्य निज हित करनेमें संकुचित रहते हैं | केवल संसारकी वासनाएँ इन्हें सताती रहती हैं। I Page #118 --------------------------------------------------------------------------  Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पृ०१७ पूज्य वणीजी ग्यगासन मुद्रा में। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीकी और -६७ वासनाओमें सबसे बड़ी वासना लोकैपणा है जिसमे सिवाय संक्लेश के कुछ नहीं। दूसरे दिन प्रातःकाल कन्या पाठशालाका निरीक्षण किया। द्रव्य की पुष्क्लताके अभावमे यथायोग्य व्यवस्था नहीं। यहाँ पर २०० घर जैनियोंके हैं, परन्तु उनमे परस्पर प्रेम नहीं और संघटन होना भी असंभव सा है। मान कषायकी तीव्रताके कारण लोग एक दसरेको कुछ नहीं समझते। दूसरेके साथ नम्रताका भाव पानेमे अपना अपमान समझते हैं यही सर्वत्र पारस्परिक वैमनस्यका कारण होता है । यदि हृदयसे मानकी तीव्रता निकल जावे और एक दूसरेके प्रति आत्मीयभाव हो जाय तो वैमनस्य मिटने में क्या देर लगेगी ? जहाँ वैमनस्य नहीं, एक दूसरेके प्रति मत्सरभाव नहीं वहाँ बड़ेसे बड़े काम अनायास सिद्ध हो जाते हैं वा द्रव्यकी कभी कमी नहीं रहती। यह वैमनस्यका रोग सर्वत्र है और सर्वत्र ही इसका यही एक निदान है। इसे मिटानेकी क्षमता सबमे नहीं। वही मिटा सकता है जो स्वयं कषायजन्य कलुषतासे परे हो। आषाढ़ सुदि २ सं० २००६ को प्रातः ५ बजे चलकर बड़ेगाँव क्षेत्र पर आ गये। यहाँ पर १ विशाल मन्दिर है और मन्दिरके चारों कोनों पर ४ छोटे मन्दिर हैं। उनमे भी प्रतिमाएँ विराजमान हैं। यहाँ पर श्री पारसदासजी ब्रह्मचारी रहते हैं। पण्डित दयामलालजीका भी यहाँ निवास है। आज वाहरसे १८० यात्री आ गये दिल्लीसे राजकृष्णजी, उनकी पत्नी तथा श्रीमान् जुगल किशोरजी और घड़ीवालोंके बालक भी आये। मध्यान्ह वाद वाबाजीका प्रवचन हुआ। श्री पं० जुगलकिशोरजीसे बातचीत हुई। १० लाख रुपयेके सद्भावमें प्राचीन संस्कृत साहित्यका उद्धार प्रारम्भ हो सकता है। दूसरे दिन वड़ेगाँवसे १ मील चलकर नहर पर आये Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ मेरी जीवन गाथा और वहाँसे ५३ मील चलकर नहरके ऊपर १ बंगला सरकारी था उसमें निवास किया । यहाँ पर लाला रघुवीरसिंहजी व श्री जैनेन्द्रकिशोरनी दिल्लीवालोके चौकामे भोजन किया। श्री ३० कृष्णाबाईजी भी आई थीं। इनकी त्यागचर्या बड़ी ही कठिन है। स्त्रीजाति स्वभावतः कष्टसहिष्ण होती है। आषाढ़ सुदी४ सं० २००६ को वंगलासे ५३ मीलका मार्ग तय कर टीलाके वागमे निवास किया। यह बाग श्री लाला उलफतरायजी दिल्लीवालोका है। गर्मीके प्रकोपके कारण स्वाध्याय नहीं हुआ। वैसे उपयोगकी स्थिरताके लिये स्थान सुन्दर है, परन्तु वाह्य कारण कूटके अभावमे कुछ नहीं हुआ। मेरी अवस्था ७५ वर्षकी हो गई, परन्तु उसका लाभ न लिया और न लेने की चेष्टा है । इसका मूल कारण मोहकी प्रबलता है । जिसने मोहकी प्रभुता पर विजय नहीं पाई उसने मनुष्य जीवनका सार नहीं पाया । पञ्चमीको प्रातः टीलासे ५ मील चलकर शाहदरा आ गये। यहाँ पर ५० घर जैनोंके तथा १ मन्दिर है। स्थान भद्र है। जलवायु उत्तम है। हम लोग धर्मशालामें सानन्द ठहर गये । यहाँके लोगोंकी प्रवृत्ति ग्रामवासियोंके सहश है, परन्तु दिल्लीके समीपवर्ती होनेसे यहाँके मनुष्य प्रायः उसी विचारके हैं। यहाँ दिल्लीसे वहुत मनुष्य आये थे, किन्तु सवकी प्रवृत्ति वही है जो होना चाहिये। निवृत्तिमार्गकी ओर दृष्टि बहुत ही कम है। मुझे लगा कि कल्याणके अर्थ लोग इतस्ततः भ्रमण करते हैं। किन्तु कल्याणका मार्ग संसारमे कहीं भी नहीं। आभ्यन्तर आत्माकी निर्मल परिणतिमे ही है। शाहदरासे ३ मील चलकर राजकृष्णके वागमें ठहर गये। यहीं पर भोजन हुआ। दोपहरको १ मिनट भी विश्राम नहीं मिला, १ मनुष्यके वाद १ मनुष्यका आगमन बना रहा और संकोचवश मै बैठा रहा। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीकी ओर वास्तवसे आभ्यन्तर मोहकी परिणति इतनी प्रबल है कि इसके प्रभावमें आकर कुछ भी रागांशका त्यागना कठिन है। वाह्य रूपादि विपयोंका त्याग तो प्रत्येक मनुष्य कर सकता है, किन्तु आभ्यन्तर त्याग करना अति कठिन है। आषाढ़ सुदी ८ सं० २००६ को राजकृष्णजीके बागसे ३ मील चलकर यमुना पुलके १ फाग बाद लोगोंने विश्राम लिवाया। तदनन्तर एक विशाल जुलूसके साथ १ मील चलकर लाल मन्दिरमें आ गये। जनता बहुत थी फिर भी प्रवन्ध सराहनीय था। यहीं पर लाल मन्दिरकी पञ्चायतने अभिनन्दन पत्र श्रीमान् पं० मक्खनलालजीके द्वारा समर्पित किया। मैंने भी अपना अभिप्राय जनताके समक्ष व्यक्त किया। मेरा अभिप्राय यह था कि त्यागसे ही कल्याणमार्ग सुलभ है। त्यागके बिना यह जीव चतुर्गतिरूप संसारमें अनादिकालसे भ्रमण कर रहा है आदि । यहाँसे १ मील चलकर अनाथाश्रमके भवनमे ठहर गया। मुरारसे लेकर यहाँ तक ७ माहके निरन्तर परिभ्रमणसे शरीर शान्त हो गया था तथा चित्त भी क्लान्त हो चुका था, इसलिये यहाँ इस मञ्जिल पर आते ही ऐसा जान पड़ा मानों भार उतर गया हो। पं० चन्द्रमौलिने मुरारसे लेकर देहली तक साथ रहकर सब प्रकारकी व्यवस्था बनाये रक्खी । - - - Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीका ऐतिहासिक महत्त्व और राजा हरसुखराय भारतीय इतिहासमे दिल्लीका महत्त्वपूर्ण स्थान है, रहा है और आगे रहेगा। उसका प्राचीन नाम इन्द्रप्रस्थ है। यह वर्तमानमें भारतकी राजधानी है और पहले भी इसे राजधानी बननेका सौभाग्य प्राप्त रहा है। दिल्लीको उजाड़ने, पुनः बसाने और कत्ले श्राम करने कराने आदिके ऐसे भीपणतम दृश्य इतिहास प्रसिद्ध हैं कि जिनका स्मरण भी शरीरमे रोमाञ्च ला देता है। दिल्लीपर तुंवर ( तोमर ) चौहान, पठानो, मुगलों तथा अंग्रेजों आदिने शासन किया है। वर्तमानमे स्वतन्त्र भारतकी राजधानी होनेसे दिल्लीकी शोभा अनूठी है। यहाँकी जनसंख्या २२ लाखसे कम नहीं है जिसमें जैनियोंकी जनसंख्या पच्चीस हजारसे कम नहीं ज्ञात होती! रात्रिमे विजलीकी चमचमाहट और कारोकी दौड़ देख साधारण जनता विस्मित हो उठती है। दिल्लीमे प्राचीन समयसे ही जैनोंका गौरव रहा है । यहाँ अनेक जैन श्रीमन्त, राजमन्त्री तथा कोपाध्यक्ष हो गये हैं। जैन संस्कृतिके संरक्षक अनेक जैन मन्दिर समय-समय पर यहाँ वनते रहे हैं। वर्तमानमे जैनियोंके २६ मन्दिर और ४-५ चैत्यालय हैं। ३-४ मन्दिरोंमे अच्छा विशाल शास्त्रमण्डार भी है। वर्तमान मन्दिरोंमे चाँदनी चौककी नुक्कड़पर बना लाल मन्दिर सबसे प्राचीन है, क्योंकि उसका निर्माण शाहजहाँके राज्यकालमें हुआ था। दूसरा दर्शनीय ऐतिहासिक मन्दिर राजा हरसुखराय का है जो 'नया मन्दिर' के नामसे लोकमे ख्यात है। इस मन्दिरम पञ्चीकारीका बहुत बारीक और अनूठा काम है जो कि ताजमहलमें भी उपलब्ध नहीं होता। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीका ऐतिहासिक महत्त्व और राजा हरसुखराय १०१ दिल्लीका यह ऐतिहासिक मन्दिर जो अपनी कलाके लिये प्रसिद्ध है, दर्शनीय है। उसकी अनूठी क्रासनरी अपूर्व और आश्चर्य कारक है । दिल्लीके वर्तमान ऐतिहासिक स्थानोंमे इसकी गणना की जाती है। भारत पर्यटनके लिये आनेवाले विदेशी जन दिल्लीके पुरातन स्थानोंके साथ इस मन्दिरकी कलात्मक पच्चीकारी और सुवर्णङ्कित चित्रकारीको देखकर हर्षित तथा विस्मित होते हैं। इस मन्दिरके निर्माता जैनसमाजके प्रसिद्ध राज्यश्रेष्ठी लाला हरसुखराय हैं जो राजाकी उपाधिसे अलंकृत थे। उन्होंने वि० सं० १८५७ मे इसे वनवाना शुरू किया था और सात वर्षके कठोर परिश्रमके वाद वि० सं० १८६४ में यह बनकर तैयार हुआ था। इसका प्रतिष्ठा महोत्सव सं० १८६४ वैशाख सुदी ३ (अक्षय तृतीया ) को सूर्य मन्त्रपूर्वक हुआ था। उस समय इस मन्दिरकी लागत लगभग सात लाख रुपया आई थी जब कि कारीगरको चार आना और मजदूरीको दो आना प्रतिदिन मजदूरीके मिलते थे।। मन्दिरके वाहर प्रवेशद्वारके ऊपर बनी हुई कलात्मक छतरी साचीके तोरणद्वारोंके समान सुन्दर तोरणद्वारोंसे अलंकृत है। उसमे पापाणका कोई भी ऐसा हिस्सा नहीं दीखता जिसमे सुन्दर वेलबूटा, गमला अथवा अन्य चित्ताकर्षक चीजें उत्कीर्ण न की गई हो । यह छतरी दशकको अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहती । मन्दिरमे प्रवेश करते ही दर्शकको मुगलकालीन १५० वर्ष पुरानी चित्रकलाके दर्शन होते हैं। मन्दिरकी छतें लाल पाषाणकी हैं और उनपर बारीक घुटाईवाला पलस्तर कर उसके ऊपर चित्रकारी अङ्कित की गई है। चित्रकारी इतनी सधी हुई कलमसे बनाई गई है कि जिसे देखकर दर्शक आनन्द विभोर हो उठता है । ज्यों ज्यों दर्शककी दृष्टि सभी दहलानी दरवाजों और गोल डांटों आदि मे अंकित चित्रकला देखती है त्यों त्यों उसकी अतृप्ति बढ़ती जाती Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ मेरी जीवन गाथा है । मन्दिरका प्राण विशाल और मनोरम है । इतना विशाल प्राङ्गण अन्य मन्दिरोंमे कम देखनेको मिलता है । जब दर्शक चौकमेसे मूलवेदीका निरीक्षण करता है, साथ ही वेदीके चारों ओर लगे हुए जंगलोंकी वारीक जालीकी कटाईका अवलोकन करता है तो आनन्दविभोर हो उठता है । जब वह वेदीकी वारीक कलात्मक पच्चीकारी वेदीके चारों ओर चारों दिशाओं में बने हुए सिंहके युगलों को तथा उनकी मूछोंके वारीक वालोंको देखता है तब उसे उस शिलीके चातुर्यपर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता । उसके बाद जब दर्शक वेदीके ऊपरी भागमे वने हुए कमलका अवलोकन करता है जिसपर आदिनाथ भगवान्‌की सं० १६६४ की प्रतिष्ठित प्रशान्त मूर्ति विराजमान है । साथ ह जब उसे ज्ञान होता है कि जब मन्दिर बना था तब इस कमलकी लागत दश हजार रुपया थी और वेदीकी सवा लाख रुपया तब वह और भी अधिक आश्चर्यमे पड़ जाता है। यह वेदी मकरानेके सुन्दर सफेद संगमर्मर पाषाणसे बनाई गई है। इसमे कहीं कहीं तो पच्चीकारीका इतना वारीक काम है कि जो अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता । गर्भालयके चारों ओर दीवारोंपर सुवर्णाङ्कित अनेक ऐतिहासिक एवं पौराणिक भावोंको चित्रित करनेका प्रयत्न, किया गया है। जैसे गजकुमार मुनिका अग्नि उपसर्ग, सेठ सुदर्शनके शील प्रभावसे शूलीका सिंहासन होना, सीताका सतीत्व परिचय के लिये अग्निकुण्डमें प्रवेश करना, रावणका कैलाशगिरिको उठाना और वाली मुनिका तपश्चरण, भरत और बाहुबलीके दृष्टि, जल और मल्ल नामक तीन युद्ध, राजा मधुका वैराग्य, सनत्कुमार चक्रवर्ती की देवोंके द्वारा परीक्षा, अवन्तीसेठ सुकुमालका वैराग्य, मोर्यसम्राट् चन्द्रगुप्तका भद्रबाहु श्रुतकेत्रलीसे स्वप्नोंका फल पूछना, यादववंशी भगवान् नेमिनाथ और उनके चचेरे भाई श्रीकृष्णके वलकी परीक्षा, अकलंक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीका ऐतिहासिक महत्त्व और राजा हरसुखराय १०३ देवका बौद्धाचार्यके साथ राजसभा में शास्त्रार्थ तथा भगवान् जिनेन्द्र के समवसरणका दृश्य । ऊपर मानतुगाचार्य के भक्तामर स्तोत्रके ४८ काव्योंको सुत्रर्णाक्षरोंमे अंकित किया गया है। साथ ही उनकी सिद्धि तथा ऋद्धिमन्त्रोंको भी स्पष्ट रूपसे चित्रित किया है । तीर्थों मे पावापुरी, चम्पापुरी, मन्दारगिरि और मुक्तागिरिके चित्र अंकित हैं। ऊपर अनेक देवगण अपने अपने बाद्योंको लिये हुए दिखलाये गये हैं 1 मूल वेदीके अतिरिक्त अन्य ३ वेदियाँ भी पीछे चलकर यहाँ बनवाई गई हैं जिनपर प्राचीन एवं नवीन मूर्तियाँ विराजमान हैं । इन मूर्तियोंमे स्फटिक, नीलम और मरकतकी मूर्तियाँ भी विद्य मान हैं । कुछ मूर्तियाँ तो १११२ तथा ११५३ वि० सं० तककी प्रतिष्ठित हैं। चौकेके वांई ओर दहलानमे चारों ओर सुवर्णाक्षरों में आचार्य कुमुदचन्द्रका कल्याणमन्दिर स्तोत्र अङ्कित है और वगलवाले कमरामे विशाल सरस्वती भवन है । सरस्वती भवनमे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी आदिके १८०० के लगभग हस्त लिखित ग्रन्थ हैं तथा २०० के लगभग हिन्दी संस्कृतके गुटकों का भी संकलन है । इन ग्रन्थोंमें सबसे प्राचीन ग्रन्थ १४=६ वि० सं० का लिखा हुआ है । ५०० से अधिक मुद्रित ग्रन्थ भी संगृहीत हैं । यहाँ चौकके सामनेवाली दहलानमे शास्त्रसभा होती है । यह सभा अपने ठगकी एक ही है । यही सभा लाला हरसुखराय तथा लाला सगुनचन्द्र के समय सगुनचन्द्रशैली के नाम से प्रसिद्ध थी । संवत् १८८१ मे जयपुरके विद्वान् पं० मन्नालाल जी, अमर चन्द्रजी दीवानके साथ हस्तिनागपुरकी यात्राको गये थे । यात्रा कर जब वापिस दिल्ली आये तब लाला सगुनचन्द्रजीने चातुर्मास में दिल्ली ठहरा लिया और उनसे शास्त्र प्रवचन सुना । साथ ही लालाजीने उनसे राजा चामुण्डरायके चारित्रसारकी हिन्दी टीका करनेकी प्रेरणा की जिसे उन्होंने वि० सं० १८८१ में बनाकर पूर्ण की Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ . मेरी जीवन गाथा थी। छहढालाके कर्ता पं० दौलतरायजीने भी अपना अन्तिम जीवन यहीं विताया और तत्त्वचर्चा तथा स्वाध्यायकारस लिया एवं अनेक आध्यात्मिक पद बनाये । प्रसन्नता हैं कि शास्त्रसभाकी परम्परा अभीतक चली आ रही है। मन्दिरके निर्माता राजा हरसुखरायजीके पिता लाला हुकूमत सिह हिसारके रहनेवाले थे । दिल्लीके वादशाहके आग्रहसे दिल्ली आकर रहने लगे थे। वादशाहने उन्हे शाही मकान प्रदान किया था। लाला हुकूमतसिंहके पाँच पुत्र थे-१ हरसुखराय, २ मोहनलाल, ३ संगमलाल, ४ मेवाराम और ५ तनसुखराय। इनमे हरसुखराय ज्येष्ठ थे। आप बहुत ही गंभीर तथा समयानुकूल काय करने में अत्यन्त पर थे। बादशाहने इन्हें अपना खजांची वना दिया तथा इनके कार्यसे वह इतना खुश हुआ कि इन्हें 'राजा' पदसे अलंकृत कर दिया। इन्हें सरकारी सेवाओके उपलक्ष्यमे तीन जागीरें सनदें तथा सार्टिफिकेट आदि भी प्राप्त हुए थे जो उनके कुटुम्बियोंके पास आज भी सुरक्षित हैं। ये स्वभावतः दानी और दयालु थे। इनके पास जा कर कोई गरीव मनुष्य असहाय नहीं रहा। वि० सं० १८५८ को रात्रिके समय विस्तर पर पड़े पड़े राजा साहबके मनमे मन्दिर बनवानेका विचार उठा और दूसरे दिन प्रातःकाल ही उस विचारको कार्यरूपमें परिणत करनेके लिये आपने अपने मकानके पास ही विशाल जमीन खरीद ली तथा वादशाहसे मन्दिर निर्माणकी आजा ले ली। शुभ मुहृतम मन्दिरकी नींव डाली गई और मन्दिर बनना प्रारम्भ हो गया। सात वर्ष तक वरावर काम चलता रहा, परन्तु जव शिखरमे थोड़ा काम वाकी रह गया तव आपने काम वन्द कर दिया। काम बन्द देख लोगोंमे तरह तरहकी चर्चाएं उठीं। कोई कहता कि बादशाहने शिखर नहीं बनने दी, इसलिये काम वन्द हो गया है तो कोई कहता Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीका ऐतिहासिक महत्त्व और राजा हरसुखराय १०५ कि राजा साहबने मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर हम जैनियोंकी प्रतिष्ठा कम करो दी आदि। कुछ लोग राजा साहबके पास पहुंचे और काम बन्द करनेका कारण पूछने लगे। उन्होंने उत्तर दिया कि भाईयो! अपनी स्थिति छिपाना बुरा है, अतः आप लोगोंसे कहता हूँ कि मेरी जितनी पॅजी थी वह सब इसमे लग गयी। अब आप लोग चंदा एकत्रितकर वाकी कार्य पूरा करा लीजिये । राजा साहवके इतना कहते ही उनके इष्ट-मित्रोंने असर्फियोंके ढेर उनके सामने लगा दिये। उन्होंने कहा कि नहीं, इतने धनका अव काम बाकी नहीं है, वहुत थोड़ा ही काम बाकी रह गया है सो उसे आप एक दो नहीं किन्तु समस्त जैनियोंसे थोड़ा थोडा इकट्ठा लाइये । आज्ञानुसार समस्त जैनियोंके घरसे चन्दा इकट्ठा हुआ, उससे मन्दिर पूरा हुआ। जब वि० सं० १८६४ मे मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई और कलशारोहणका समय आया तब सब लोगोंने राजा साहबसे प्रार्थना की कि आप कलशारोहण कीजिये । इसके उत्तरमे राजासाहवने पगड़ी उतारकर कहा कि भाइयो । मन्दिर मेरा नहीं है समस्त जैन भाइयोंके चन्दासे इसका निमोण हुआ है, इसलिए पञ्चायत इसका कलशारोहण करे और वही उसका प्रबन्ध करे। उस समय लोगोंकी समझमे आया कि राजा साहबने काम वन्दकर इसलिये चन्दा कराया था। वे लोग गद्गद हो गये। राजा साहबने कहा भाइयो । यदि मैं इसमे आप लोगोंका सयोग न लेता तो सदा मेरे मनमें यह अहंकार उठता रहता कि यह मन्दिर मेरा है अथवा मेरी बात जाने दो, हमारी जो संतान आगे होगी उसके मनमें भी यह अहंकार उठता रहेगा कि यह मेरे पूर्वजोंका वनवाया हुआ है। आप सबके चन्दासे इसका काम पूरा हुआ है, इसलिये यह आप सबका मन्दिर है। रा इसके ऊपर कुछ भी स्वत्त्व आजसे नहीं है। उसी समयसे Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ मेरी जीवन गाथा मन्दिरका नाम 'पंचायती मन्दिर' प्रचलित हुआ । दिल्ली के अतिरिक्त आपने हस्तिनापुर, अलीगढ़, करनाल, सोनपत, हिसार, सांगानेर और पानीपत आदि स्थानोंपर भी मन्दिर निर्माण कराये हैं। __ हस्तिनागपुरके मन्दिर वनवानेकी तो विचित्र कथा है। वहाँके राजाको सरकारी खजानेका २ लाख रुपया भरना था पर भरनेका समय निकट आने पर वह रुपयोंका प्रवन्ध न कर पाया। इतना रुपया कौन देगा? इस चिन्तामे राजा निमग्न था। कुछ लोगोंने राजा हरसुखरायका नाम सुभाया। राजाने अपना आदमी हरसुखरावजीके पास भेजा। उन्होंने आश्वासन दिया कि व्यग्र न हो, समय पर आपका रुपया खजानेमे जमा हो जायगा। समयके पूर्व ही उन्होंने दो लाख रुपया खजानेमें जमा कर दिया और अपने यहाँ वहीमे वह रुपया राजाके नाम न लिखकर हस्तिनागपुरमे मन्दिर बनवानेके लिये राजाके पास भेजे, यह लिखा दिया। समयने पलटा खाया । हस्तिनागपुरके राजाकी स्थिति सुधरी और उन्होंने २ लाख स्पया राजा हरसुखरायजीवे पास पहुंचाया। हरसुखरायजीने कागज पत्र दिखाकर कहा कि हमारे यहाँ आपके राजाके नाम कोई रुपया नहीं निकलता। लोग बड़े आश्चर्यमें पड़ कि दो लाख रुपयेकी रकम इनके यहाँ नामें नहीं पड़ी। जब इस ओरसे अधिक आग्रह हुआ तव उस वर्पकी वही निकलवाई गई तथा उसमे लिखा राजासाहवको बताया गया कि यह रुपया ता उन्होंने हस्तिनागपुरमें मन्दिर वनवानेके लिये आपके पास भेजा था। राजा उनके व्यवहारसे गद्गद हो गया और उसने अपनी देखरेखमें हस्तिनागपुरका मन्दिर बनवा दिया। आप अपने व्यवहारसे समाजके गरीवसे गरीव व्यक्तिका अपमानित नहीं करते थे तथा सवको साथ लेकर चलते थ। वि० सं० १८६७ मे आपके प्रयन्नसे शाही लवाजमाके साथ रथोत्सव Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीका परिकर १०७ हुआ था और जैनधर्मकी अद्भुत प्रभावना हुई थी । वि० सं० १८८० मे आपका देहावसान हुआ था । आपका एक ही पुत्र था जिसका सुगुनचन्द्र नाम था । यह भी अपने पिता के समान ही प्रतापी, धर्मनिष्ट तथा पुण्यशाली था । वर्तमान में भी यहाँ भारतवर्षीय दि० जैन अनाथालय नामकी संस्था चलती है जिसका विशाल भवन तथा साथमे स्कूल है । समाजमे कई उत्साही व्यक्ति हैं जो निरन्तर समाजको आगे बढ़ाते रहते हैं | लाला राजाकृष्ण भी एक दक्ष व्यक्ति हैं । इन्होंने अपने पुरुषार्थसे अच्छी से अच्छी संपति संचित की है तथा मन्दिरका निर्माण करा कर समाजसेवाके लिये उसका ट्रष्ट करा दिया है। इनके सिवा लाला फिरोजीलालजीका नाम भी उल्लेखनीय है । ये अधिकतर अपनी सम्पत्तिका उपयोग धार्मिक कार्योंमें करते रहते हैं। 1 दिल्लीका परिकर मेरे साथ श्री क्षुल्लक पूर्णसागरजी, क्षुल्लक चिदानन्दजी, व्र० सुमेरुचन्द्रजी भगत तथा एक दो त्यागी और थे। श्री कर्मानन्दजी जिनका आधुनिक नाम ब्र० निजानन्द था यहाँ थे ही । व्र० चाँदमलजी भी उदयपुरसे आगये थे, इसलिये यहाँ समय सम्यक् रीतिके व्यतीत होता था । दिल्ली बड़ा शहर है। अनेक मोहल्लोंमे दूर दूर पर जिन मन्दिर तथा जैनियोंके घर हैं । वृद्धावस्था के कारण मेरी प्रवचनकी शक्ति प्रायः क्षीण हो गई थी, अतः इन सबके प्रवचनों और भाषणोंसे जनताको लाभ मिलता Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा रहता था। प्रवचनके वाद मैं भी जो बनता था कह देता था। पहले दिन कण्ठ रुद्ध होनेके कारण मैं कुछ नहीं कह सका, इसलिये सभा विसर्जन हो गई। श्री रघुवीरसिहनी रईसके यहाँ भोजन हुआ। आपने ५०१) दानमे दिये । आज मनमें विचार आया कि जगत्को प्रसन्न करनेका भाव त्याग दो। जो कुछ बने स्वात्महित की ओर दृष्टिपात करो। संसारमें ऐसी कोई शक्ति नहीं जो सबका कल्याण कर सके। कल्याणका मार्ग स्वतन्त्र है। अन्तर्गत रागद्वेपका त्याग करना ही आत्मशान्तिका साधक है। अन्तरल रागादिक आत्माके शत्रु हैं, उनसे आत्मामे अशान्ति पैदा होती है और अशान्ति आकुलता की जननी है, आकुलता ही दुःख है, दुःख किसीको इष्ट नहीं, सर्व संसार दुःखसे भयभीत है। अषाढ़ सुदी १२ के दिन कण्ठ ठीक हो जानेके कारण मैंने कुछ कहा । मेरे कहनेका भाव यह था कि आत्मा मोहोदयके कारण पर पदार्थोंमे आत्मबुद्धि कर दुःखी हो रहा है। एक प्रज्ञा ही ऐसी प्रवल छैनी है कि जिसके पड़ते ही वन्ध और आत्मा जुदे जदे हो जाते हैं। आत्मा और अनात्माका ज्ञान कराना प्रज्ञाके आधीन है। जब आत्मा और अनात्माका ज्ञान होगा तब ही तो मोक्ष हो सकेगा। परन्तु इस प्रजारूपी छैनीका प्रयोग बड़ी सावधानीसे करना चाहिये । वुद्धिमे निजका अंश छूट कर परमे न मिल जाय और परका अंश निजमे न रह जाय यही सावधानीका मतलब है। ____धन धान्यादिक जुदे हैं, स्त्री-पुत्रादिक जुदे हैं, शरीर जुदा है, रागादिक भावकर्म जुदे हैं, द्रव्यकर्म जुदे हैं, मतिनानाटिक दायोपशमिक ज्ञान जुदे हैं। यहाँ तक कि ज्ञानमें प्रतिविम्बित होनेवाले ज्ञेयके आकार भी जुदे हैं। इस प्रकार स्वलनणके वलसे भेद करते करते अन्तमे जो शुद्ध चैतन्य भाव वाकी रह जाता है वही Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीका परिकर १०६ निजका अंश है। वही उपादेय है। उसीमे स्थिर हो जाना मोक्ष है। प्रजाके द्वारा जिसका ग्रहण होता है वही चैतन्य रूप 'मैं' हूँ। इसके शिवाय अन्य जितने भाव हैं निश्चयसे वे पर द्रव्य हैं-पर पदार्थ हैं। प्रनाके द्वारा जाना जाता है कि आत्मा ज्ञाता है, दृष्टा है। वास्तवमै ज्ञाता दृष्ट होना ही आत्माका स्वभाव है पर इसके साथ जो मोहकी पुट लग जाती है वही समस्त दुखोका मूल है। अन्य कर्मके उदयसे तो आत्माका गुण रुक जाता है पर मोहका उदय इसे विपरीत परिणमा देता है। अभी केवलज्ञानावरणका उदय है। उसके फल स्वरूप केवलज्ञान प्रकट नहीं हो रहा है, परन्तु मिथ्यात्वके उदयसे आत्माका आस्तिक्य गुण अन्यथा रूप परिणम रहा है । आत्माका गुण रुक जाय इसमे हानि नहीं पर मिथ्यारूप हो जानेमे महती हानि है। एक आदमीको पश्चिमकी ओर जाना था, कुछ दूर चलने पर उसे दिशा भ्रान्ति हो गई। वह पूर्वको पश्चिम समझ कर चलता जा रहा है, उसके चलनेमे बाधा नहीं आई पर ज्यों ज्यों चलता जाता है त्यों त्यों अपने लक्ष्यसे दूर होता जाता है। दूसरे आदमीको दिशा भ्रान्ति तो नहीं हुई पर पैरमे लकवा मार गया इससे चलते नहीं बनता। वह अचल होकर एक स्थान पर बैठा रहता है पर अपने लक्ष्यका वोध होनेसे वह उससे दूर तो नहीं हुआ, कालान्तरमे ठीक होनेसे शीघ्र ही ठिकानेपर पहुँच जावेगा। ___ एकको आँखमे कमला रोग हो गया जिससे उसका देखना बन्द तो नहीं हुआ, देखता है, पर सभी वस्तुएं पीली पीली दिखती हैं। उससे वर्णका वास्तविक बोध नहीं हो पाता। एक आदमी परदेश गया। वहाँ उसे कामला रोग हो गयो। घरपर स्त्री थी, उसका रङ्ग काला था। जब वह परदेशसे लौटा और घर आया Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा तो उसे स्त्री पीली पीली दिखी। उसने उसे भगा दिया। कहा कि मेरी स्त्री तो काली थी तू यहाँ कहाँसे आई ? वह कामला रोग होनेसे अपनी ही स्त्रीको पराई समझने लगा। इसी प्रकार मोहके उदयमे यह जीव कभी कभी अपनी चीजको पराई समझने लगता है और कभी कभी पराईको अपनी । यही विभ्रम संसारका कारण है, इस'लिये ऐसा प्रयत्न करो कि जिससे पापका पाप यह मोह आत्मासे निकल जाय । हिंसादिक पाँच पाप हैं अवश्य पर ये मोहके समान अहितकर नहीं हैं। पापका बाप यही मोह कम है। यही दुनियाको नाच नचाता है। मोह दूर हो जाय और आत्माके परिणाम निर्मल हो जाँय तो संसारसे आज छुट्टी मिल जाय। पर हो तब न । संस्कार तो अनादि कालसे इस जातिके वना रक्खे हैं कि जिससे उसका छूटना कठिन दिखने लगता है। ज्ञानके भीतर जो अनेक विकल्प उठते हैं उसका कारण मोह ही है। किसी व्यक्तिको आपने देखा, यदि आपके हृदयम उसके प्रति मोह नहीं है तो कुछ भी विकल्प उठनेका नहीं। आपको उसका ज्ञान भर हो जायगा । पर जिसके हृदयमे उसके प्रति मोह है उसके हृदयमे अनेक विकल्प उठते हैं-यह विद्वान है, यह अमुक कार्य करता है, इसने अभी भोजन किया है या नहीं ? आदि । विना मोहके कौन पूछने चला कि इसने अभी साया है या नहीं ? मोहके निमित्तसे ही आत्मामे एक पदार्थको जानकर दसरा पदार्थ जाननेकी इच्छा होती है । जिसके माह निकल जाता है उसे एक श्रात्मा ही यात्माका बोध होने लगता है। उसकी दृष्टि बाह्य नेयकी ओर जाती नहीं है। ऐसी दशाम श्रात्मा आत्माके द्वारा यात्माके लिये आत्मासे यात्मामें ही जानन लगता है । एक यात्मा ही पटकारक रूप हो जाता है। सीवी बात यह । कि उसके सामनेसे कता, कर्म, करगणादिका विकल्प हट जाना। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीका परिकर १११ चेतना यद्यपि एकरूप है फिर भी वह सामान्य विशेषके भेदसे दर्शन और ज्ञान रूप हो जाती है। जव कि सामान्य और विगेय पदार्थमात्रका स्वरूप है तब चेतना उसका त्याग कैसे कर सकती है ? यदि वह उसे भी छोड़ दे तब तो अपना अस्तित्व भी खो बैठे और इस रूपमें वह जरूप होकर आत्माका भी अन्त कर दे सकती है, इसलिये चेतनाका द्विविध परिणाम होता ही है । हाँ, चेतनाके अतिरिक्त अन्य भाव आत्माके नहीं हैं। इसका यह अर्थ नहीं समझने लगना कि आत्मामे सुख वीर्य आदि गुण नहीं हैं। उसमे तो अनन्त गुण विद्यमान हैं और हमेशा रहेगे, परन्तु अपना और उन सवका परिचायक होनेसे मुख्यता चेतनाको ही दी जाती है। जिस प्रकार पुद्गलमे रूप रसादि गुण अपनी अपनी सत्ता लिये हुए विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार आत्मामे भी ज्ञान दर्शन आदि अनेक गुण अपनी अपनी सत्ता लिये हुए विद्यमान रहते हैं। इस प्रकार चेतनातिरिक्त पदार्थोंको पर रूप जानता हुआ ऐसा कौन बुद्धिमान है जो कहे कि ये मेरे हैं। शुद्ध आत्माको जाननेवालेले ये भाव तो कदापि नहीं हो सकते । . जो चोरी आदि अपराध करता है वह शंकित होकर घूमता है । उसे हमेशा शङ्का रहती है कि कोई मुझे चोर जान कर बांध न ले, पर जो अपराध नहीं करता है वह सर्वत्र निःशङ्क होकर घूमता है । 'मैं बाँधा न जाऊँ' इस प्रकारकी चिन्ता ही उसे उत्पन्न नहीं होती। इसी प्रकार जो आत्मा परभावोंको ग्रहणकर चोर वनता है वह हमेशा शङ्कित ही रहेगा और संसारके बन्धनमे बॅधे गा। सिद्धिका न होना अपराध है। अपराधी मनुष्य सदा शङ्कित रहता है, अतः यदि निरपराधी बनना है तो आत्माकी सिद्धि करो। आत्मासे परभावोंको जुदा करो । अमृतचन्द्र स्वामी कहते है कि मोक्षार्थी पुरुपोंको सदा इस सिद्धान्तकी सेवा करना Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૧૨ मेरी जीवन गाथा चाहिये कि मै शुद्ध चैतन्यज्योतिरूप हूँ और जो ये अनेक भाव प्रतिक्षण उल्लसित होते हैं वे सब मेरे नहीं हैं स्पष्ट ही पर द्रव्य हैं। ___ एक दिन (अपाढ़ सुदी १३ ) को श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्त्यारने जैनधर्मके सिद्धान्तपर अच्छा प्रकाश डाला। अन्तमे आपने यह भाव प्रदर्शित किया कि हमे जैनशासनको प्रकाशमे लानेका प्रयत्न करना चाहिये। आज लोगोंमे जैनधर्मके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है। परस्परका तनाव भी लोगोंका न्यून हो गया है, इसलिये यह अवसर है कि हम जैनधर्मके प्राचीन ग्रन्थ जनताके सामने लावें और अच्छे रूपमे लावें। जैनधर्मके पवित्र सिद्धान्त मन्दिरकी चहार दीवालोंके अन्दर सदियोंसे कैद चले आ रहे हैं उन्हे हमे बाहर प्रकाशमे लाना चाहिये । मुख्त्यार साहवने यह बात इस टॅगसे कही कि सबको पसंद आ गई। आपका वीरसेवा मन्दिर सरसावामे है । लोगोंने प्रेरणा दी कि वह स्थान आपकी संस्थाके लिये उपयुक्त नहीं है। यहाँ राजधानीम उसका संचालन होना चाहिये । जनताने स्थानकी व्यवस्था करनेका आश्वासन दिया । जैन समाजमे रुपयेके व्ययकी त्रुटि नहीं, परन्नु उसका उपयोग कुछ विवेकके साथ नहीं होता। यदि इसीका उपयोग यथार्थ हो तो मानवजातिका बहुत कुछ कल्याण हो सकता है । मानवजातिकी कथा छोड़ो, जैनधर्म तो संसार मात्रके प्राणियोका संरक्षक है। श्रीकर्मानन्दजी (निजानन्दजी) के प्रवचन रोचक होते हैं। जनतामे धर्म श्रवणकी उत्सुकता बहुत है, परन्तु एकत्रित होकर इतना कलरव करते हैं कि सब आनन्द किरकिरा हो जाता है। सावन वदी ७ सं० २००६ को रविवार था, इसलिये जनताकी भारी भीड़ उपास्थित हुई। श्री तु० चिदानन्दजी महाराजने मनुष्यों समझानेकी बड़ी चेष्टा की, परन्तु उनका सव प्रयत्न जनताके कलरर. Page #136 --------------------------------------------------------------------------  Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T ॥ नाना फीरोजाबात नी (दिल्ली) पन्च श्री वी जी को यात्य कर रहे हैं। [ . . . ३ ] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीका परिकर ११३ मे विलीन हो गया। पं० मक्खनलालजीने भी प्रयत्ल किया पर कोई प्रभाव जनतापर न पड़ा। इसके अनन्तर आरासे पधारी हुई चन्दावाईने भी अपनी मधुर ध्वनिसे उपदेश दिया, परन्तु जनतामे सर्व प्रयत्न विलीन हो गये। अन्तमे हमारा प्रयत्न भी असफल ही रहा । लोग जिस भावनाको लेकर धर्मायतनोंमे उपस्थित होते हैं उसकी पूर्तिकी बात तो भूल जाते हैं और वाह्य वातावरणमें इतने निमग्न हो जाते हैं कि सारकी कोई वस्तु उनके हाथ नहीं पड़ती। श्रीराजकृष्णके भाई हरिचन्द्रजीके यहाँ एक दिन आहार करनेके लिये गये । यहीपर श्रीलाला सरदारीमल्लजी भी आये । आपने महिलाश्रम बननेपर पूर्ण बल दिया। मैंने कहा कि भैया ! दिल्लीमें कमी किस बातकी है ? महिलाश्रम बन जाय तो महिलाओंका भला ही होगा। वस्तुतः धर्मका तत्व सरल है, किन्तु अन्तरङ्गमे माया न होना चाहिये। क्षयोपशमज्ञानका होना कठिन बात नहीं, किन्तु सम्यरज्ञान होना अति कठिन है। इसका मूल कारण यह है जो हम अनात्मीय पदार्थोंमे आत्मीय बुद्धि मान रहे हैं। आज तक न कोई किसीका हुआ, न है और न होगा। फिर भी बलात् माननेमें हम त्रुटि नहीं करते । एक दिन नये मन्दिरमे गये। यह मन्दिर धर्मपुरामें है। इसमे स्फटिक मणिकी कई मूर्तियाँ रम्य हैं। बाहुबली स्वामीकी मूर्ति अति सुन्दर है । दर्शन करनेसे चित्तमें शान्ति आ जाती है। यथार्थमे शान्तिका कारण तो आभ्यन्तरमें है, बाह्य तो निमित्तमान है। निमित्त कारण बलात् कार्य नहीं कराता, किन्तु यदि तुम करना चाहो तो वह सहकारी हो जाता है । _धर्मपुराके मन्दिरमे तु० पूर्णसागरजीका प्रवचन हुआ। अष्ट मूलगुणधारण और सप्त व्यसनके त्यागपर बल था। नगरोंकी अपेक्षा महान् नगरमे विशेष प्रभावना होती है, परन्तु उस प्रभावना Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ मेरी जीवन गाथा में मुख्यता वाह वाहकी रहती है। मार्मिक सिद्धान्तका विवेचन नहीं होता। मनुष्योंका कल्याण, तत्त्व विवेकमूलक रागद्वप निवृत्तिमें ही होता है। केवल तत्त्व विवेकके परामर्शसे शान्तिका लाभ नहीं । एक दिन सेठके कूचामें वनारससे आगत पं० कैलाश चन्द्रजीका उत्तम व्याख्यान हुआ। पश्चात् हमने भी कुछ अस्पष्ट भापामे कहा। सावन सुदी पूर्णिमा रक्षाबन्धनके दिन श्री ब्र० निजानन्द (कर्मानन्द) की समारोहके साथ जुल्लक दीक्षा हुई। ७००० हजार मनुप्योंका समुदाय था। समारोहमे पं० मणिक चन्द्रजी न्यायाचार्य फिरोजाबाद, पं० कैलाशचन्द्रजी वनारस तथा पं० राजेन्द्रकुमारजीके भाषण हुए। श्रीनिजानन्दजी पहले आये समाजी थे, परन्तु बादमे आप जैन सिद्धान्तसे प्रभावित हो जैन हो गये । कुछ समय पहले आपने ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की थी और आज क्षुल्लक दीक्षा लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा धारण की। लोकैषणाकी चाह न हो तो आदमी अच्छा है-प्रभावक है । एक दिन वैजवाड़ाके मन्दिर भी गया। वहाँ प्रवचन हुआ। समुदाय अच्छा था, परन्तु वास्तविक लाभ कुछ नहीं। यथार्थम प्राणीमात्रका कल्याण उसीके आधीन है। जिस कालमे वह अपनी ओर दृष्टिपात करता है उस कालमे अनायास बाह्य पदार्थास विरक्त हो कर आत्मकल्याणके मार्गमें लग जाता है। अतः सर्व विकल्पोंको त्याग कर आत्महित करना व्यर्थकी झंझटॉमे पडना अच्छा नहीं। एक दिन धीरजपहाड़ीके लोगोंने पहाड़ी पर ले जान की चेष्टा की। फल स्वरूप हमलोग ३ मीलका लम्बा मार्ग तयकर सदर पार पहाड़ी पर पहुँच गये। यहाँ पर हीरालाल हाईस्कूलम व्याख्यान हुआ। वहुत ही भीड़ थी, परन्तु प्रबन्ध अच्छा था। इसी प्रकार एक दिन बिन्टीगंजमे भी गये। वहाँ भी प्रवचन आर व्याख्यान सभाएँ हुई, परन्तु सार कुछ नहीं निकला । यदि प्रवचना Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिजन मन्दिर प्रवेश और व्याख्यानसभाओंसे लाभ लेकर एक भी आदमी सुमार्गपर थाना तो मैं उन सब आयोजनोंको सारपूर्ण समझता । लोगोंका ख्याल तो ऐसा हो गया हूँ कि ये सुनानेवाले हैं, कुछ देना लेना तो है नहीं । एक तरहका सिनेमा है पर सिनेमामे तो पैसाका व्यय है, यह मूल्य दृश्य है । मेरे हृदयसे तो यह ध्वनि निकल पड़ी कि - - जो खुस चाहो मित्र तुम सुख नाही संसार में गल्पवादमें दिन गया भोंदू के भोंदू रहे रात दिना विललात || तज दो पर की श्रास | सदा तुम्हारे पास || विषय भोगमें रात । ११५ हरिजन मन्दिर प्रवेश इसी समय समाजमे हरिजन मन्दिर प्रवेश आन्दोलन जोर पकड़ रहा था। अस्पृश्योंके उद्धारकी भावना तो भारत मे बहुत पहले से चली आ रही थी पर अव स्वतन्त्रता प्राप्तिके बाद भारतका जो विधान बना उसमें मनुष्यमात्रको समानाधिकार घोपित किया गया । उसीका आलम्बन लेकर बम्बई प्रान्तकी सरकारने एक कानून ऐसा बनाया कि जिसमें अस्पृश्य लोग भी मन्दिरोंमे जानेसे न रोके जावें । हिन्दू भाईयों के साथ ही साथ यह कानून जैनधर्मावलम्बियों पर भी लागू होता था, अतः वे भी अपने मन्दिरों में अस्पृश्य लोगोंको जानेसे नहीं रोक सकते थे । यदि रोकते तो दण्डके पात्र होते । इस कानूनकी प्रतिक्रिया करने के लिये श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराजने अन्न आहारका Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा ११६ त्याग कर दिया। केवल सिंघाड़ा, दूध तथा फल ही लेने लगे। इस समाचारसे समाजमे इस आन्दोलनने जोर पकड़ लिया। कुछ लोग यह कहने लगे कि हरिजनोंको मन्दिर प्रवेशकी आज्ञा मिलनेसे धर्म विरुद्ध काम हो जायगा, क्योंकि जब हरिजनोंको हम अपने घरोंमे नहीं आने देते तब मन्दिरोंमे कैसे आने देंगे उनके आनेसे मन्दिर अशुद्ध हो जावेंगे तथा हमारे धर्मायतनोमें हमारी जो स्वतन्त्रता है उसमे बाधा आने लगेगी एवं अव्यवस्था हो जायगी। हरिजन जब हमारे धर्मके माननेवाले नहीं तव बलात् हमारे मन्दिरोंमे सरकार उन्हे क्यों प्रविष्ट कराना चाहती हैं ? इसके विरुद्ध कुछ लोगोंका यह कहना रहा कि यदि हरिजन शुद्ध और स्वच्छ होकर धार्मिक भावनासे मन्दिर आना चाहते हैं तो उन्हे वाधा नहीं होना चाहिये । मन्दिर कल्याणके स्थान हैं और कल्याणकी भावना लेकर यदि कोई आता है तो उसे रोका क्यों जाय ? इस चर्चाको लेकर एक दिन मैंने कह दिया कि हरिजन संज्ञी पञ्चेद्रिय पर्याप्तक मनुष्य हैं। उनमें सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेकी सामर्थ्य है, सम्यग्दर्शन ही नहीं व्रत धारण करनेकी भी योग्यता है। यदि कदाचित काललब्धि वश उन्हे सम्यग्दर्शन या व्रतकी प्राप्ति हो जाय तब भी क्या वे भगवान्के दशेनस वञ्चित रहे आवेंगे ? समन्तभद्राचार्यने तो सम्यग्दर्शन सम्पन्न चाण्डालको भी देव संज्ञा दी है पर आजके मनुष्य धमकी भ जागृत होने पर भी उसे जिन दर्शन-मन्दिर प्रवेशके अधिकार मानते हैं। मेरे इस वक्तव्यको लेकर समाचार पत्राम प्रतिलेख लिखे गये। अनेकोंको हमारा वक्तव्य पसन्द अ अनेकोंकी समालोचनाका पात्र हुआ पर अपने हृदयका भित्र मैंने प्रकट कर दिया। मेरी तो श्रद्धा है कि संजी पञ्चेद्रिय सम्यग्दर्शनके अधिकारी हैं यह आगम कहता है । सम्यग्दशन य Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिजन मन्दिर प्रवेश होनेमे वर्ण और जातिविशेषकी आवश्यकता नहीं। देव और नारकी तो कितना ही प्रयास करें उन्हें सम्यग्दर्शनके सिवाय व्रत धारण नहीं हो सकता, क्योंकि चैक्रियिक शरीरवालोंके चतुर्थ गुणस्थान तक ही हो सकता है। मनुप्य और तिर्यञ्चोंके पञ्चम गुणस्थान भी होता है। मनुष्योंके महाव्रत भी होता है और यही एक पर्याय ऐसी है कि जिससे यह जीव कर्म बन्धन काट मोक्षका पात्र हो जाता है। मनुष्योंका वर्णविभाग आगममें देखा जाता है-- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें प्रारम्भके तीन वर्णवाले उच्चगोत्री हैं और अन्तिम वर्णवाले अर्थात् शूद्र नीचगोत्री हैं। उच्च गोत्रमे ही मुनिव्रत होता है । शूद्रोंमें उच्चगोत्र नहीं, अतएव उनके मुनिधर्म नहीं होता । श्रावकके ही व्रत हो सकते हैं। उनमे भी जो स्पृश्य शूद्र हैं वे क्षुल्लक व्रत धारण कर सकते हैं, अस्पृश्य शूद्र व्रती हो सकते हैं। इसमे बहुतसे महाशय उन्हे द्वितीय प्रतिमा तक मानते है। अस्तु जो आगममें कहा सो ठीक है। आज कल हरिजनोके मन्दिर प्रवेश पर बहुत विवाद चल रहा है। बड़े बड़े धर्मात्माओंका व बड़े बड़े पण्डितोंका कहना है कि वे मन्दिर नहीं जा सकते, क्योंकि उनमें चाण्डाल, चर्मकार, भंगी आदि अनेक बहुत ही घृणित रहते हैं तथा आचार विचारसे शून्य हैं। ये मन्दिरमें आकर दर्शन नहीं कर सकते यह चरणानुयोगकी पद्धति है परन्तु करणानुयोगमें उनके भी सम्यग्दर्शन तथा व्रत हो सकता है । चाण्डालके भी इतने निर्मल परिणाम हो सकते हैं कि वह अनन्त संसारका कारण जो मिथ्यात्व है उसका अभाव कर सकता है । अव विचार करो कि जो आत्मा सबसे बड़े पापको नाश कर दे वह फिर भी चाण्डाल बना रहे। चाण्डालका सम्बन्ध यदि शरीरसे ही है तव तो हमे कोई विवाद नहीं। रहो परन्तु आत्मा तो जब सन्यदृष्टि हो जाता है तब पुण्य जीवोंकी गणनामे होजाता है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ मेरी जीवन गाथा आगममे मिथ्यादृष्टि जीवोंको पापी जीव कहा है। चाहे वह किसी वर्णका हो । हाँ, चरणानुयोगकी अपेक्षा जो देव, गुरु और शास्त्रकी श्रद्धा रखता है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। वाह्यमे जिसके चरणानुयोगके अनुकूल व्रत हैं उसे व्रती कहते हैं। चरणानुयोगके सिद्धान्तका व्यवहारमें उपयोग नहीं। व्यवहारमे उपयोग न हो, परन्तु अन्त. रङ्गकी निर्मलताका बाह्यमे नियमसे असर पड़ता है । जिस व्याघ्रीने सुकोशल स्वामीके उदरको विदारण किया उस समय उसका परिणाम अति मलिन था-आर्तरौद्र परिणामके वशीभूत हो वह दया का भाव विलकुल भूल गई। उसके उदर विदारणसे स्वामीके किञ्चित् भी अन्यथा वृत्ति नहीं हुई। उन्होंने तो क्षपकश्रेणी द्वारा केवलज्ञान उत्पन्न किया। उसी समय देव लोग उनकी पूजा करने आये तथा कीर्तिधर स्वामी जो उनके पिता थे, दैवयोगसे वहाँ आ गये। उन्होंने उस व्यात्रीको समझाया कि जिस पुत्रके वियोगमे मरकर व्याघी हुई उसीका उदर विदारण किया यह सब मोहका माहात्म्य है । मुनिके वाक्य श्रवणकर व्याघ्री एकदम शिर धुनने लगी। यह देख मुनिने कहा कि व्यर्थ शोकको त्याग । संसारकी यही दशा है, यही भवितव्य था, शान्तभाव धारणकर आत्मकल्याणके मार्गमें अपनेको तन्मय कर दे। उसने मुनि मुखारविन्दसे अनुपम उपदेश सुन एक दम संन्यासमरणकी प्रतिज्ञा कर ली और अन्तमें स्वर्ग गई। ऐसे अनेक उदाहरण आगममें मिलते हैं परन्तु हम लोग इतने स्वार्थी हो गये कि विरले तो यहाँ तक कह देते हैं कि यदि इनका सुधार हो जायगा तो हमारा कार्य कौन करेगा? लोकमें अव्यवथा हो जायगी, अतः इनको उच्च धर्मका उपदेश ही नहीं देना चाहिये। जगत्में इतना स्वार्थ फैल गया है कि जिनके द्वारा हमारा सर्व व्यवहार बन रहा है उन्हींसे हम घृणा करते हैं। कबीरदास एक साधु हो गया। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिजन मन्दिर प्रवेश अध्यात्म की ओर उसकी दृष्टि थी । यदि वह व्यवहारकी तरफ कुछ भी दृष्टि देता तो अच्छे अच्छे उसके अनुयायी हो जाते । फिर भी उसने लाखो मनुष्योंको मद्य मास छुड़वा दिया और लाखों आदमियोको सरल बना दिया। आज हम लोग धर्म जो कि प्राणीमात्रका है उसके विकाशमे बाधक वन रहे हैं । यद्यपि धर्मका विकाश आत्मामें ही होता है और आत्मा ही उसका उत्पादक है तथा आत्मा ही उसका घातक है । जिस समय आत्मा परसे भिन्न अपने स्वरूपको जानता है उसी समय परमे निजत्वकी कल्पनाको त्याग देता है और उसके त्यागसे उसकी रक्षा के लिये अनुकूल पदार्थोंके संचयका उद्यम स्वयमेव नहीं होता तथा प्रतिकूल पदार्थों के निग्रह करनेकी चेष्टा स्वयमेव शान्त हो जाती है । किन्तु व्यवहार मैं जिन महात्माओंने आत्मज्ञानकी पूर्णता प्राप्त की उनके स्मरणके अर्थ जो मन्दिर आदि आयतन हैं उनकी आवश्यकता जघन्य अवस्थामे आवश्यक है, अतः मानवजाति मन्दिर आदिका निर्माण करती है । उस मन्दिरमे वही जा सकता है जो स्वच्छ हो, क्योंकि मन्दिर एक पवित्र स्थान है और उसमें पवित्र आत्माकी स्थापना रहती है । अब यहाँ पर यह विचारना है कि पवित्रता उभयविध है — एक तो यह कि आत्मा पञ्च पापोका परित्यागी हो तथा जिसके दर्शन करने जावे उसमे श्रद्धा हो । यह तो अन्तःकरणकी शुद्धता होनी चाहिये और दूसरी बाह्यमे शरीर शुद्ध हो, स्वच्छ वस्त्रादिक हो । जिसके यह उभयविध शुद्धता हो वह मनुष्य उस मन्दिरमें प्रतिष्ठापित देवके दर्शनका अधिकारी हो । मूर्तिपूजाका अधिकारी वही हो जो उस मन्दिरके अधिकारियों द्वारा निर्मित नियमोंका पालन करे । यथार्थमें जो प्रतिमा है उसमें जिस देवकी स्थापना है वह तो साक्षात् है नहीं, केवल स्थापना है । उस देवपर किसी जातिविशेष ११६ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० मेरी जीवन गाथा का अधिकार नहीं । प्रत्येक मनुष्य यदि उस देवमे उसकी श्रद्धा है तो उसकी आराधना कर सकता है, केवल उच्चगोत्रवाले ही उसके आराधक हो सकते हैं यह नियम नहीं । आजकल उच्चवर्णवालोंने यह नियम वना रक्खा है कि ये हमारे ही भगवान हैं । उनकी जो मूर्ति हमने वना रक्खी है उसे अन्य विधर्मियोंको पूजनेका अधिकार नहीं है । तत्त्वसे विचारकर देखो, तुमने मूर्तिमे भगवान्की स्थापना ही तो की है। स्थापना २ प्रकारकी होती है-एक तदाकार और दूसरी अतदाकार । तदाकार स्थापनामें पञ्चकल्याणकी आवश्यकता होती है और अतदाकार स्थापनामें विशेप आडम्बरकी आवश्यकता नहीं। केवल विशुद्ध परिणामोंकी आवश्यकता है। मन ही में भगव नकी स्थापना कर प्रत्येक प्राणी पूजन कर सकता है । उस पूजाको आप नहीं रोक सकते। उससे भी मनुष्य लाभ उठा सकते हैं। अरहन्त नामका स्मरण प्राणीमात्र कर सकता है। उसमे आपके निषेध एक काममें न आवेगे, क्योंकि वर्णसमा. मनाय अनादिसिद्ध है और वह प्रत्येक मनुष्यके उपयोगमें आ सकता है। इसी तरह जैसे आपको श्रीतीर्थ करदेवकी मूर्ति बनानेका अधिकार है वैसे यदि अन्य भी बनावे और पूजे तो आप रोकनेवाले कौन ? हाँ, लोकमें जिन वस्तुओंपर जिनका अधिकार है वे उनकी कहलाती हैं। अन्य उसे विना स्वामीकी आज्ञाके उपयोगमें नहीं ला सकता । अथवा यह भी कोई नियम नहीं, क्योंकि संसारमे नीति प्रसिद्ध है 'वीरभोग्या वसुन्धरा ।' देखिये चक्रवर्ती जब उत्पन्न होते हैं तब क्या लाते हैं पर वे पटखण्डके राजा बन जाते हैं। इसी प्रकार जब उन्हे राज्यसे विरक्तता आती है तथा विरक्तताके आनेपर जव दिगम्बर पद धारण करते हैं तब चक्रादि शस्त्र स्वयमेव चले जाते हैं। उनके पुत्र सामान्य राजा रह जाते हैं, अतः यह कोई नियम नहीं कि जो वस्तु आज हमारी है वह कल भी हमारी ही रहे । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिजन मन्दिर प्रवेश १२१ देखो, विचारो, जो मनुष्य संज्ञी है यदि उसे संसारसे अरुचि हो तथा धर्म साधन करनेकी उसकी भावना जागृत हो तो उसे कोई मार्ग भी तो होना चाहिये । मन्दिर एक आलम्बन है। उससे वञ्चित रहा, आप स्वयं उससे बोलना नहीं चाहते, वाङ्मय आगम है उससे पढ़नेका अधिकारी नहीं, अत स्वाध्याय नहीं कर सकता, आप सुनाना नहीं चाहते तब वह तत्त्वज्ञानसे वञ्चित रहेगा, तत्त्वजानके विना संयमका पात्र कैसे होगा और संयमके बिना आत्माका कल्याण कैसे कर सकेगा ? इस तरह आपने भगवान्का जो साधर्म है उसकी अवहेलना की। धर्म प्राणीमात्रका है उसका पूर्ण विकाश मनुष्य पर्यायमें ही होता है, अतः चाहे चाण्डाल हो अथवा महान् दयालु हो, धर्मश्रवणके अधिकारी दोनों ही हैं। आपको यदि धर्मका रहस्य मिला है तो पक्षपातको तिलाञ्जलि दो और उस धर्मका विकाश करो, अन्यथा उसका लोप करोगे तो तुम स्वयं ऐसे कर्मचक्रमे आओगे और अनन्त कालतक भवभ्रमणके पात्र होओगे। अतः जाति अभिमानका परित्यागकर प्राणी मात्र पर दया करो, जिनके आचरण मलिन हैं उन्हे सदाचारकी शिक्षा दो। वह भी तो मनुष्य हैं। हम जो बड़े बनते हैं, अपनेको पुण्यवान् मानते हैं उन्होंने अपने आरामके लिये शूद्रोको सेवावृत्ति दी और आप स्वयं राजा वन वैठे। सबसे जघन्य काम जिसे आप न कर सके भंगियोंके सुपर्द किया और उनको चाण्डाल शब्दसे पुकारने लगे। प्रायः मनुष्य जो कार्य करता है उसीके अनुरूप उसका परिमाण बन जाता है यही संस्कार कहलाता है। आत्मामे ज्ञान-दर्शन गुण हैं। प्रत्येक आत्मामे यह बात है । यही जव विकृत अवस्थाको धारण करता है त। अनन्त संसारका पात्र होता है और नाना यातनाएं सहता है। प्रत्येक आत्मा ज्ञानादि गुणोंका आश्रय है । अनादि कालसे इसके साथ पर द्रव्यका एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मेरी जीवन गाथा है । एक क्षेत्र में ही धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव ये पदव्य स्वकीय स्वकीय सत्ता लिये निवास कर रहे हैं। उनमे जीव और पुद्गलको छोड़कर चार द्रव्य तो अपने अपने स्वभावमें लीन हैं । उनमे कोई प्रकारकी विकृति नहीं आती। २ द्रव्य-जीव और पुद्गल इनमे विभाव नामक शक्ति है, इससे उनका परस्परमे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध हो रहा है। जीवके रागादिक परिणामोंका निमित्त पाकर पुद्गलमे ज्ञानावरणादिरूप परिणाम होता है और कर्मके उदयको पाकर जीवमे रागादि परिणाम होते हैं। उन रागादिकके द्वारा जीव नाना प्रकारके कार्य करता है ? जो पदार्थ अपने अनुकूल होते हैं उन्हे इष्ट मान लेता है और जो प्रतिकूल होते है उन्हे अनिष्ट मानता है। यदि इष्ट पदार्थ मिले तो उनके साधको से राग और अनिष्ट पदार्थ मिले तो उनके साधकोंसे द्वेष करने लगता है । इस प्रकार निरन्तर राग-द्वेषकी कल्पनासे मुक्त नहीं होता और मुक्त होनेका कारण जो उपेक्षाभाव (रागद्वेप रहित परिणाम) है उस ओर इस जीवकी दृष्टि नहीं । उपयोग आत्माका एक कालम एक ही होता है। इस प्रकार हम तो अपना भाव प्रकट कर दिया। यद्यपि यह निश्चय है कि जो होना है वही होगा। संसारकी दशाको बदलनेकी किसीमे सामर्थ्य नहीं। परन्तु अभिप्रायके विरुद्ध वात कहना और करना दम्भ है, इसलिये यह लिखकर मैं निर्द्वन्द्व हो गया। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावन दशलक्षण पर्व दशलक्षण पर्व आ गया। कटनीसे श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री आ गये । लाल मन्दिरमै विशाल मण्डपका आयोजन हुआ। प्रति दिन १ बजेसे मण्डपमे पं० जगन्मोहनलालजीका प्रवचन होता था। अनन्तर कुछ हम भी कह देते थे। जैन समाजमे दशलक्षण पर्वका महत्त्व अनुपम है। भारतमे सर्वत्र जहाँ जैन रहते हैं वहाँ इस समय यह पर्व समारोहके साथ मनाया जाता है। पर्वका अर्थ तो यह है कि इस समय आत्मामे समाई हुई कलुषित परिणतिको दूरकर उसे निर्मल बनाया जाय पर लोग इस ओर ध्यान नहीं देते । बाह्य प्रभावनामे ही अपनी सारी शक्ति व्यय कर देते हैं। प्रारम्भके दिन जब मेरा विवेचनका अवसर आया तब मैंने कहा कि यद्यपि आज उत्तम क्षमाका दिन है परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आज मार्दव धर्म धारण नहीं करना चाहिये । धर्म तो प्रत्येक दिन सभी धारण करनेके योग्य हैं। फिर क्षमा आदिका जो क्रम बताया है वह केवल निरूपणकी अपेक्षासे बताया है। क्षमाधर्म क्रोध कपायपर विजय प्राप्त करनेसे होता है । क्रोध कषायके उदयमे यह आत्मा स्वात्मनिष्ठ रत्नत्रयके विकाशको रोक देता है। देखो, उपशमसम्यग्दृष्टिका काल जब जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे ६ आवलि प्रमाण बाकी रह जाता है तब यदि अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया या लोभमेसे किसी एक का उदय आ जावे Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ मेरी जीवन गाथा तो यह जीव उपरितन गुणस्थानोंसे गिरकर द्वितीय सासादन गुणस्थानमें आ जाता है और सम्यग्दर्शनरूपी रत्नमय पर्वतकी शिखरसे नीचे गिर जाता है। इससे जान पड़ता है कि कषायका उदय अच्छा नहीं। द्वितीय दिन मार्दव धर्मका व्याख्यान हुआ। मृदुका भाव मार्दव होता है और मृदु का अर्थ कोमल है। इसकी व्याख्या करना पण्डितोंका कार्य है, परन्तु इतना हर कोई जानता है कि मन, वचन और कायके व्यापारमे कठोरता न आना चाहिये। कठोरताका व्यवहार बहुत ही अनुचित होता है । जिसका व्यवहार मृदुताको लिये हुए होता है उसको जगत् प्रिय मानता है, वह जगत्में प्रत्येक समय आदरका पात्र होता है। कोई भी उसके साथ असद्व्यवहार नहीं करता। __ तृतीय दिन आर्जवधर्मका विवेचन हुआ । आर्जव धर्म सरल परिणामोंसे होता है यह कह देना कौन कठिन है ? परन्तु जीवनमे उतर जाय यह कठिन है। मायारूप पिशाचीके वशीभूत हुआ यह प्राणी नाना स्वांग बनाता है। आज तो लोगोकी वात-बातमें मायाचारका व्यवहार भरा हुआ है । मायाचारका व्यवहार रहते परिणामोंमें निःशल्यता नहीं आती और निःशल्यताके अभाव में शान्ति कहाँसे प्राप्त हो सकती है ? अतः शान्तिके यदि इच्छुक हो तो माया रहित व्यवहार करो। चतुर्थ दिन शौचधर्मका व्याख्यान था। शौचधर्म कहीं बाहरसे नहीं आता किन्तु आत्माकी निर्मल परिणति हो जानेसे आत्मामे ही प्रकट होता है । आत्माकी परिणति लोभ कपायके कारण कलुपित हो रही है, अतः कलुपितताका अपहरण करनेके लिये लोभका सबरण करना आवश्यक है। शौचधर्म आत्माकी स्वकीय परिणति है Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावन दशलक्षण पर्व १२५ और लोभ उसकी विकृत परिणति है । जब कि एक गुणकी एक समयमे एक ही पर्याय होती है तब लोभके रहते हुए शौच रूप परिणति नहीं हो सकती । पञ्चम दिन सत्यधर्मका व्याख्यान था । वास्तवमे सत्यधर्मं तो वह है जहाँ परका लेश नहीं । जहाँ परमे आत्मबुद्धि है वहां धर्मका लेश नहीं । आत्माका स्वभाव भगवानने ज्ञान और दर्शन कहा है । अर्थात् उसका स्वभाव जानना और देखना बतलाया है । चेतना आत्माका लक्षण है । चेतनाका द्विविध परिणाम होता है । उनमेसे स्वपर व्यवसायात्मक परिणामको ज्ञान कहते हैं और केवल स्वव्यवसायात्मक परिणामको दर्शन कहते हैं । मोहके वशीभूत हुआ प्राणी अपने ज्ञान दर्शन रूप स्वभावसे विमुख हो जाता है। यही असत्य धर्म है । स्वभाव विमुख प्राणी के वचन ही अन्यथा निकलते हैं। पट दिन संयम धर्मका दिवस था । संयम धर्म यह शिक्षा देता है कि सर्व तरफसे वृत्तिको संकोच करो । जहाँ पर पदार्थों में दृष्टि गई उनको अपनाया वहाँ संयम गुणका घात हुआ । मेरा तो यह विश्वास है कि हम केवल संयमको जानते हैं पर उसके अनुभवसे शून्य हैं, अन्यथा जैसी हमारी विपयोंमे प्रवृत्ति है वैसी संयम में क्यों न होती ? बाह्यमे संयम धर लेनेपर भी अन्तरङ्ग उन्हीं विषय कषायोंकी ओर आकृष्ट क्यों होता ? सप्तम दिन तपका व्याख्यान था । अनादिसे आत्मामें जो पर पदार्थोंकी इच्छा उत्पन्न हो रही है वही तप धर्ममे बाधक है । आत्माका स्वभाव ज्ञान- दर्शन है, परन्तु मोहजन्य इच्छाके कारण इसके सामने जो आता है उसे यह अपना मान लेता है। जहाँ किसी पदार्थमें अपनत्व बुद्धि हुई वहीं उसकी रक्षाका भाव उत्पन्न हो जाता Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मेरी जीवन गाथा है । जहाँ रक्षाका भाव उत्पन्न हुआ वहाँ उसके साधक-बाधक कारणोंमें राग द्वेष-इष्ट अनिष्टकी कल्पना अनायास हो जाती है। अष्टम दिन त्याग धर्मका मार्मिक विवेचन था। अनादिसे यह आत्मा पर वस्तुको अपना मान रहा है। यद्यपि पर अपना होता नहीं और न एक अंश उसका हममे आता है। वस्तु जिस मर्यादामें है उसीमें रहेगी, परन्तु हम मोहके वशीभूत हो वस्तु स्वरूपको अन्यथा मान रहे हैं। जिस तरह कामला रोगवाला श्वेत सङ्घको पीत मानता है उसी तरह मैं अनात्मपदार्थकोस्वात्मा मान रहा हूं। जब तक किसी पदार्थसे अपनत्व बुद्धि नही हटती तब तक उसका त्याग होना संभव नहीं। नवम दिन आकिञ्चन्य धर्मका अवसर था । अात्मासे मूर्छा भाव निकल जाने पर आकिञ्चन्य धर्म प्रकट होता है । मू का अर्थ परमें ममताभाव है। यद्यपि संसारका कोई पदार्थ किसीका नहीं। सब अपने अस्तित्व गुणसे परिपूर्ण हैं तो भी यह मोही प्राणी उन्हे अपने अस्तित्वमें मिलाना चाहता है और जब वे इसके अस्तित्वमे नहीं मिलते तब दुःखी होता है । व्यर्थ ही पर पदार्थोंका भार अपने ऊपर ले संक्लेशका अनुभव करता है। 'काजी दुर्बल क्यों ? नगरकी चिन्तासे' यह कहावत हमारी प्रवृत्तिमे आ रही है । दशम दिन ब्रह्मचर्यका प्रकरण था। परमार्थसे ब्रह्मवर्यका अर्थ ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वरूपमे लीन होना है। योग और कपाय ये दोनों ही आत्माको आत्मलीनतासे विमुख कर रहे हैं, अतः उनका श्रभाव करनेसे ही ब्रह्मचर्यमें पूर्णता आती है। बाह्यमे स्त्रीत्यागको ब्रह्मचर्य कहते हैं। प्रारम्भमें स्त्रदार संतोप ब्रह्मचर्य कहलाता है, परन्तु सप्तम प्रतिमासे स्वदारका भी त्याग हो जाता है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्र निवेदन १२७ चतुर्दशीके दिन अनन्तनाथ महाप्रभुका निर्वाणोत्सव हुआ था। इसलिये वह लोकमे अनन्त चतुर्दशीके नामसे प्रसिद्ध है। आजके दिन नगरमें गाजे वाजेके साथ सर्व समूहका विशाल जुलूस निकला तदनन्तर श्री जिनेन्द्रदेवका कलशाभिषेक हुआ। आश्विन कृष्ण प्रतिपदाके दिन क्षमावर्णीका आयोजन हुआ। कलशाभिषेकके बाद सबका सम्मेलन हुआ। नम्र निवेदन भादों सुदी पूर्णिमाके दिन, दिल्लीसे निकलनेवाले हिन्दुस्तान दैनिक पत्र में यह लेख छपा हुआ दृष्टिगोचर हुआ कि वर्णी गणेशप्रसाद शूद्र लोगोंके मन्दिर प्रवेशके पक्षमें हैं...."अस्तु, हम किसी पक्षमें नहीं, किन्तु यह अवश्य कहते हैं कि धर्म आत्माकी परिणति विशेष है और उसका विकास संज्ञी पञ्चेन्द्रियमें प्रारम्भ हो जाता है। देव नारकीके तो अविरत अवस्था ही तक होती है। अर्थात् उनके सम्यग्दर्शन तक ही होता है. व्रत नहीं हो सकता। तिर्यगवस्थामे अणुव्रत हो सकता है। अर्थात् तिर्यञ्चके पञ्चम गुणस्थान हो सकता है और मनुष्यके चतुर्दश गुणस्थान हो सकते हैं, वह मोक्षका पात्र हो सकता है। मनुष्योंमे विशेप शक्ति तथा ज्ञानके प्रकट होनेकी योग्यता है। मनुष्योंमे गोत्रके दोनो भेद होते हैं। अर्थात् नीचगोत्र भी होता है और उनगोत्र भी। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये उच्चगोत्रवाले हैं और शूद्र नीचगोत्रवाला है। शूद्रके दो भेद हैं- एक स्पृश्य शूद्र और दूसरा अस्पृश्य शूद्र । स्पृश्य शूद्र तुल्लक तकका पद ग्रहणकर Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा १२८ सकते हैं, उच्चगोत्र वाले उन्हे भक्ति पूर्वक दान देते हैं, उन्हें मन्दि जानेका प्रतिबन्ध नहीं | रहे अस्पृश्य शूद्र, जिन्हे हरिजन कहते है सो इनके भी व्रत प्रतिमा हो सकती है । ये १२ व्रत पाल सकते हैं. धर्म की भी अकाट्य श्रद्धा इन्हें हो सकती हैं फिर इनको भी देवदर्शनसे क्यों रोका जावे ? चरणानुयोग क्या आज्ञा देता है इसका तो हमे विशेष ज्ञान नहीं, परन्तु हृदय हमारा यह कहता है कि उनके साथ इतना वैमनस्य रखना अनुचित है । वह भी आखिर मनुष्य हैं, उन्हे भी धर्मका मर्म समझाना चाहिये । वह भी धर्म समझकर हिंसादि पापके त्यागी हो सकते हैं। ज्ञानके उपार्जनसे ही धर्मका श्रद्धान हो सकता हैं । श्रीमान् आचार्य शान्तिसागरजी महाराज वर्तमान कालमे अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्ति हैं । उनके आदेशानुसार सम्पूर्ण दि०जैन जनता चलनेको प्रस्तुत है । आपने हरिजन मन्दिर प्रवेश विलके कारण आजीवन अन्न त्याग दिया है इससे सम्पूर्ण समाज बहुत ही खिन्न है । होना ही चाहिये । इसी अवसर पर मैंने महाराजसे निम्नाङ्कित निवेदन किया कि महाराज ! मैं आपसे कुछ निवेदन करूँ, सहस नहीं होता किन्तु एक नम्र निवेदन है कि जब चतुर्गतिके जीवोंको सम्यक्त्व होता है तब मनुष्य गतिमे जन्म पानेवाले हरिजन भी उसके पात्र हैं - तथा मनुष्य और तिर्यग्गतिमे जन्म लेनेवाले पञ्च गुणस्थानवत भी होते हैं तव क्या हरिजन इस गुणस्थानके पात्र नहीं हो सक्ते ? यह तो करणानुयोगकी कथा रही, परन्तु व्यवहारमे चरणानुयोग के अनुसार मनुष्य पर्यायमे जिसे देव, गुरु और शास्त्रकी श्रद्धा हो उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । जब यह व्यवस्था है नत्र हरिजन भी इस श्रद्धाके पात्र हो सकते हैं, जब देव, शास्त्र और गुरु की श्रद्धाके पात्र हैं तव देव दर्शनके अधिकारी क्यों नहीं हो सकते ? जब Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ नम्न निवेदन देवदर्शनके अधिकारी हैं तब फिर हरिजन मन्दिर प्रवेश विलपर इतनी आपत्ति क्यों ? चरणानुयोगके अनुकूल मद्य मांस मधुका त्याग होना चाहिये तब वे भी इस त्यागके पात्र हैं तथा जब गुरुकी श्रद्धाके पात्र हैं तब क्या वे हरिजन आपकी भी वन्दनाके पात्र नहीं हो सकते हैं ? यदि वे श्रद्धालु जहॉपर आप तत्त्वोपदेश कर रहे हैं आकर उपदेशको श्रवण करें तथा आपकी वन्दना करें तो क्या नहीं आने देंगे? अतः यह सिद्ध होता है कि हरिजन भी देवदर्शनके पात्र हो सकते हैं तब हरिजन मन्दिर प्रवेश विलपर इतनी आपत्ति क्यों ? ___धर्म तो जीवकी निज परिणति है। उसका विकास संज्ञी पञ्चेन्द्रियमे होता है। वह चारों गतिवाला जीव हो सकता है। वहाँ पर यह नहीं है कि अमुक व्यक्ति ही उसका पात्र है। यह अवश्य है कि भव्य, पर्याप्तक, सज्ञी जागृदवस्थावाला जीव होना चाहिये । हरिजनोंमें भी ऐसे जीव हा सकते हैं। हरिजनोंमें उत्पत्ति होनेसे वह इसका पात्र नहीं यह कोई नहीं कह सकता। वे निन्द्य कार्य करते हैं इससे सम्यग्दर्शनके पान न हों यह कोई नियामक कारण नहीं ? क्यों कि उच्च गोत्रवाले भी प्रातःकाल शौचादि क्रिया करते हैं तथा यह कहो कि उस कार्यमें हिंसा वहत होती हैं इससे वे सम्यग्दर्शनादिके पात्र नहीं तव मिलवालोंके जो हिंसा होती है-हजारों मन चमड़ा और चर्बीका उपयोग होता है तदतेक्षा तो उनकी हिसा अल्प ही है, अतः हिंसाके कारण वे दर्शनके पान नहीं यह कहना उचित नहीं । यदि यह कहा जाय कि भोजनादिकी अशुद्धताके कारण वे दर्शनके पात्र नहीं तो प्रायः इस समय बहुत ही कम ऐसे मनुष्य मिलेंगे जो शुद्ध भोजन करते हैं, अतः यह निर्णय समुचित प्रतीत होता है कि जो मनुष्य धर्मकी श्रद्धा रखता हो वह भी जिनदेवके दर्शनका पात्र हो सकता है । यह Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा ठीक है कि उसके व्यवहार में शुद्ध वस्त्रादि होना चाहिये तथा मद्य मास मधुका त्यागी होना चाहिये । व्यवहारधर्मकी यह बात है। निश्चयधर्मका सम्बन्ध आत्मासे है। उसका तो यहाँपर विवाद ही नहीं है, क्योंकि उसके पालनके प्रत्येक संज्ञी जीव पान हो सकते हैं। धर्म प्रत्येक प्राणीका प्राण है। उसके बिना आत्मा जीवित नहीं रह सकता। त्रिकालमें उसका सद्भाव है। जैसे पुद्गलमें स्पर्श रस गन्ध वर्ण रहते हैं, उनके विना पुद्गलका अस्तित्व नहीं इसी प्रकार आत्माका धर्म दर्शन-ज्ञान है । इनसे शून्य आत्मा नहीं रह सकता हाँ, यह अवश्य है कि स्पशादिका परिणमन किसी रूपमे हो किन्तु सामान्य स्पर्शादिगुणके विना जैसे उसके विशेष नहीं रह सकते इसी प्रकार दर्शन-ज्ञानका परिणमन कोई रूपमे हो उनके विना यह परिणमन विशेष नहीं रह सकता। जब यह व्यवस्था है तब सर्व जीव दर्शन-ज्ञानके पात्र हैं। उनके अन्दर जो विकृति आगई उसका अभाव करना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिये । जब यह बात है तब जैसे हम संज्ञी हैं और आत्महित चाहते हैं ऐसे ही और मनुष्य भी चाहे किसी जातिविशेषके हों उन्हे भी आत्महित करनेका अधिकार है। इसके सिवाय जब उनके वज्रर्षभनाराच संहनन हो सकता है और वे सप्तम नरक जानेका पापोपार्जन कर सकते हैं तव उत्तम पुण्य उपार्जन करलें इसमे क्या क्षति है ? पशुओंमें मत्स्य सप्तम नरक जाता है उसके दृष्टान्तसे यह वाधित नहीं, क्योंकि मनुष्य पर्याय तिर्यक् पर्यायसे भिन्न है । आगसमे शूद्रके नुल्लक पर्याय हो सकती है ऐसा विधान है तर क्या शूद्र लोग उसे आहार नहीं दे सकते ? यह समझमे नही आता। यदि आहार दे सकते हैं तो श्रीजिनेन्द्रदेवके दर्शनके अधिकारी न हों यह बुद्धिमे नहीं आता। केवल हठवादको छोडकर अन्य युक्ति नहीं। धर्म तो आत्माकी उस निर्मल परिणतिको कहते हैं Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्र निवेदन १३१ जिसमे अधर्मका लेश न हो । उस परिणतिमे तो पुण्यको भी हेय माना है, क्योंकि पुण्यसे केवल स्वर्गकी प्राप्ति होती है और स्वर्ग में केवल भोगोंकी मुख्यता है - वे चतुर्थं गुणस्थानसे ऊपर नहीं जा सकते। आजन्म उसी गुणस्थानमे रहते हैं । मनुष्य पर्याय ही संयमका मूल कारण है । संयमके उदयमें ही यह जीव पर वस्तुके त्यागका पात्र हो सकता है । सम्यग्दर्शनके होते ही अभिप्राय निर्मल हो जाता है । पर वस्तुसे भिन्न आत्माको उसी समय जान जाता है । केवल चारित्रमोहके उदयसे ऐसा संस्कार बैठा हुआ है जिससे परको भिन्न जानकर भी यह जीव उसे त्यागनेमे असमर्थ रहता है । अस्तु, समाचार पत्रोंमें बहुत विवाद चला। दोनों पक्ष के लोगोंने अपनी अपनी बात लिखी । किसीने किसीको बुरा लिखा और किसीने किसीको । पदार्थका स्वरूप जैसा है वैसा है। लोग अपनीअपनी कषायसे प्रेरित हो उसे विवादकी भूमि बनाकर दुःखी होते हैं । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीके शेष दिन आसोज वदी ४ सं० २००६ को मेरा नयन्ति उत्सव था जिसमे उद्योगमन्त्री भी पधारे थे । आपने समयानुकूल अच्छा भाषण दिया । अनेक लोगों ने श्रद्धाञ्जलियाँ दी जिन्हें सुनकर मुझे बहुत संकोच उत्पन्न हुआ । श्री शान्तिप्रसाद जी साहु प्रसिद्ध नर रत्न हैं । आप बहुत ही नम्र तथा शान्त हैं। आपने एक लाख रुपया स्याद्वाद विद्यालयको देकर अमर कीर्तिका अर्जन किया । अब बहुत अशोंमे विद्यालयकी त्रुटि दूर हो गई। आशा है इनके दानसे समाज भी चेतेगी । महाविद्यालय समाजका महोपकार कर रहा है । श्रीयुत रतनलालजी -मादेपुरियाने भी २१०० ) स्याद्वाद विद्यालयको दिये । ११) मासिक व्याज देते जायेंगे और रुपये अपने यहाँ ही जमा रक्खेंगे । जब विद्यालयको श्रावश्यकता पड़ेगी, वापिस दे देवेंगे। परन्तु मेरी बुद्धिसे यह वात यथार्थ नहीं, क्योंकि दानका रुपया दे देना ही श्रेयस्कर है । इसमे काल पाकर नकारा भी हो सकता है, क्योकि द्रव्य अपने ही पास तो है । काल पाकर लोग बड़े बड़े वायदे भी तबदील कर देते हैं। मैं इस दानको दान नहीं मानता। दानके मायने दत्त द्रव्यसे ममत्व त्याग देना है। दान देकर उससे ममता रखना दानके परिणामों का विघात है । मनुष्य आवेगमे आकर दान तो कर बैठता है और लोगोंसे धन्यवाद भी ले लेता है । पश्चात् जन अन्तरसे विचार करता है तब व्यय होने लगता है । वह विचारता है कि मैंने बड़ी गलती की जो रुपया दे श्राया । स्पयेसे संसार में मेरी प्रति है । इसके प्रसादसे बडे बड़े महान पुरुष मेरे द्वारपर Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली के शेष दिन १३३ चक्कर लगाते है । कहाँ तक कहे, बड़े बड़े विद्वान् भी इसकी प्रतिष्ठा करते हैं । प्रायः प्राचीन राजाओं की प्रशंसामे जो काव्य बने हैं वे अधिकांश इसी द्रव्यकी लालच में पड़कर बने हैं। अस्तु, मैंने तो उत्सवमे यही कहा कि संसारके प्रणिमात्रपर दया करो | हम लोग श्रावेगसें आकर संसारके प्राणियोंको नाना प्रकार से निग्रह करते हैं । हमारे प्रतिकूल हुआ उसे अपना शत्रु और अतुकूल हुआ उसे मित्र मान लेते हैं । वास्तवमे न तो कोई मित्र हैं और न कोई शत्रु है । यही भावना निरन्तर श्राना चाहिये । वह भी इस उद्देश्यसे कि आत्मा वन्धनसे विनिर्मुक्त हो जावे । मनुष्य जन्मकी सार्थकता संयम के पालनेमें हैं । संयमका अर्थ कषायसे आमाकी रक्षा करना है । इसके लिये यह पदार्थोंसे संपर्क त्यागो । यद्यपि पर पदार्थ सदा विद्यमान रहेगे, क्योंकि लोकमे सर्व पदार्थ व्याप्त हैं । इस तरह उनका त्यागना किस प्रकार बनेगा यह प्रश्न उठता है तथापि उनमें जो हमारी आत्मीय कल्पना है उसके त्यागनेसे पर पदार्थोंका त्यागना वन जाता है । वे यथार्थ में दुःखदायी नहीं, किन्तु उनमें जो ममत्वभाव है वही दुःखदायी है । रागद्व ेष आत्माके सबसे प्रबल शत्रु हैं, उन्हे नष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिये | 'जो जो देखो वीतरागने सो सो होसी वीरा रे' इस वाक्यसे संतोषकर लेना अन्य वात हैं और पुरुषार्थकर रागद्वेपका निपात करना अन्य बात है । राग-द्व ेष कोई ऐसे वज्र नहीं जो भेदे न जा सकें | अपनी भूलसे ये होते और अपनी बुद्धिमत्तासे विलीन हो सकते हैं । कायरतासे इनकी सत्ता नहीं जाती । ये वैभाविकभाव है - आत्माके क्लेशकारक हैं । इनके सद्भावसे आत्माको बेचैनी रहती है । उसके अर्थ यह नाना प्रकारके उपाय करता है । उससे बेचैनीका हास नहीं होता प्रत्युत वृद्धि होती है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा स्पृश्यास्पृश्य की चर्चा लोग करते हैं पर जैनधर्म कब कहता है कि तुम अस्पृश्योंको नीच समझो। तुम्हीं लोग तो अस्पृश्योंको जूठन खिलाते हो और यहाँ बड़ी बड़ी बातें बनाते हो । नियम करो कि हम अस्पृश्योंको अपने जैसा भोजन देंगे फिर देखो अपने प्रति उनका हृदय कितना पवित्र और ईमानदार रहता है । मैं अन्यकी बात नहीं कहता पर वाईजीकी कहता हूँ । सागरकी बात हैं, सावन दीपावली आदि पर्वोंके दिन वाईजी जो पेड़ा या पुडी मुझे खिलाती थीं वही अपनी मेहतरानीको खिलाती थीं । जब उनसे कोई कहता कि आप इसे पीछेका बचा हुआ रद्दी पेड़ा क्यों नहीं दे देतीं ? तो वे उसे घुड़ककर उत्तर देती थीं कि क्या मैं इसे रोज देती हूँ ? इसे अच्छा भोजन कब मिलेगा ? एक बार संबासमे बाईजीकी सोनेकी चूड़ी गिर गई पर वाईजी - को पता नहीं। दूसरे दिन वह मेहतरानी अपने आप चूडी घर दे गई । हम सबको उसकी ईमानदारी पर आचर्य हुआ । मैं स्वयं एक बार रेशन्दीगिरिके मेलेमें तांगासे गया, साथमे और भी बहुतसे तांगे थे । वाईजीने मुझे चार पेड़े रख दिये, रास्ते मे मैंने दो पेड़े तांगावालेको दिये और दो मैंने खाये । कच्ची रास्ता में धूल उड़ने लगी, मुझे कष्ट हुआ । मैंने नाकपर कपड़ा लगा लिग | तांगावालेने ज्यों ही देखा, भटसे तांगा आगे ले गया । इससे साथवालेने तागेवालोसे आगे ले जानेको कहा और साथमें इस बातकी धमकी दी कि हमने भी तो तुम्हें उतना ही किराया दिया है। तागेवाले ने कहा कि आपने किराया दिया सो तो ठीक हैं पर स्वयं भूखा रह कर दो पेड़े तो नहीं दिये ? हृदयपर हृदयका असर पड़ता है। आप धोत्रीका धुला कपड़ा उठाने दोष सममते हैं पर शरीरपर चर्बी से सने कपड़े बड़े शौक से धारण करते हैं। क्या यही जैनधर्म है ? जैनधर्म पवित्रताका विरोधी नहीं पर घृणाको बह 1 १३४ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीके शेष दिन १३५ कषाय अतएव हेय समझता है। क्या कहे लोग बाह्य आचारमें तो वाघकी खाल निकालते हैं पर अन्तरङ्गको शुद्ध करनेकी ओर ध्यान ही नहीं देते । दिल्लीमे हरिजन विषयक चर्चा हमारे अन्तरङ्गकी परीक्षा रही । पर मेरे मनमे जो बात थी वह व्यक्त कर दी। मैं तो इस पक्षला हूँ कि प्राणीमात्रको धर्म-साधनका अधिकार है। पञ्च पाप त्यागनेका अधिकार प्रत्येक मनुष्यको है, क्योंकि जव उसकी आत्मा बुद्धिपूर्वक पाप करती है तब उसे छोड़ भी सकती है। मन्दिरमे आना न आना इसमें बाधक नहीं। आज कल सर्वत्र यही चर्चा हो रही है कि हरिजनोंको मन्दिर नहीं जाने देना चाहिये, क्योंकि वे हरिजन हैं। अपवित्र हैं, पूर्वाचार्यों ने उन्हे अस्पृश्य बतलाया है। अस्पृश्यका अर्थ यह है कि उनको स्पर्श कर स्नान करना पड़ता है। यहा प्रश्न होता है कि वे आखिर अरपृश्य क्यों हैं ? ये मदिरापान करते हैं इससे अस्पृश्य हैं या हम लोगोंके द्वारा की हुई गन्दगीको स्वच्छ करते हैं इसलिये अस्पृश्य हैं या शरीरसे मलिन रहते हैं इससे अस्पृश्य हैं या परम्परासे हम उन्हे अस्पृश्य मानते आ रहे हैं इससे अस्पृश्य हैं ? यदि वे मदिरा पानसे अस्पृश्य हैं तो लोकमें बहुतसे उच्चकुलीन भी मदिरापान आदि करते हैं वे भी अस्पृश्य होना चाहिये। यदि गन्दगीको स्वच्छ करनेसे अस्पृश्य हैं तो प्रत्येक मनुष्य गन्दगी साफ करता है, वह भी अस्पृश्या हो जावेगा। यदि शरीरकी मलिनता अस्पृश्यताका कारण है तो बहुतसे उत्तम कुलवाले भी शरीरकी मलिनतासे अस्पृश्य हो जावेंगे। यदि उनमें मलिनाचारकी बहुलता उनकी अस्पृश्यतामे साधक है तो यह बहुत उत्तम कुलोमें भी पाई जाती है। विरले विरले उत्तम कुलबाले तो इतना पापाचार करते हैं जितना नीच कुलवाले भी नहीं कर सकते। इससे सिद्ध होता है कि चाहे ऊँच हो या नीच जिसमे पापाचारमय प्रवृत्ति है वही Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ मेरी जीवन गाथा कल्याणके मार्गसे दूर है। यदि आज शूद्र पञ्च पापका त्याग कर देवें तो वह भी अणुव्रती हो सकते हैं तथा अन्तरजसे जिनेद्रदेवकी भक्तिके पात्र हो सकते हैं। ब्राह्मण मर कर नरक जा सकता है और चाण्डाल मर कर स्वर्गमें देव हो सकता है । यह तो अपनी अन्तरङ्ग परिणतिकी निर्मलताके ऊपर निर्भर है। इस निर्मलताको रोकनेका किसीको अधिकार नहीं। खेद इस वातका है कि जो अपनेको उच्च वर्णवाले मानते हैं उन्होंने नीच कहे जानेवाले लोगोंकी पवित्रताका अपहरण किया है। इसीका फल है कि उच वर्णवाले ऊपरसे उच्च वर्ण है पर भीतरसे उनमें उच्चताके दर्शन नहीं होते। अस्तु, अप्रासद्भिक चर्चा आ गई, परमार्थकी वात तो यह है कि शुद्ध चित्तके लिये शुद्ध आत्माको जानो । शुद्ध ज्ञान बहु है जिसमें रागादिभावकी कलुपता न हो। शत्रु रागादिक ही है अन्य कोई नहीं। रागादिके अनुकूल पर पदार्थ होता है तब तो उसकी रक्षाका प्रयत्न होता है और रागादिके प्रतिकूल होनेसे उसके नाशके लिये प्रयत्न करनेकी सूमती है। इस परणतिको धिक्कार ही देना चाहिये। जयन्तीका उत्सव समाप्त हुआ, लोग अपने अपने घर गये । एक दिन साहु शान्तिप्रसादजीने भारतीय ज्ञानपीठ बनारसके लिये दश लाख रुपयेके शेयर प्रदान किये और उससे सम्बद्ध कागजॉपर मैंने हस्ताक्षर कर दिये। हस्ताक्षर तो कर दिये पर जब विचार किया तब मुझे लगा कि मैने महती भूल की। उचित यहीं था कि चाहे कुछ हो परिग्रहके विपयमें कुछ भी नहीं करना चाहिय । अस्तु, जो हुआ सो ठीक है अब ऐसे कार्योंमे उपयोग नहीं लगाना चाहिये - यह विचार स्थिर किया। यथार्थमे कल्याणका मार्ग तो निराकुलतामे है । जहाँ आकुलता है वहाँ शान्ति नहीं। हमारी प्रवृत्ति आजन्म प्रवृत्तिमार्गमें लग रही है, अतः निरीहमागेकी Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! : दिल्लीके शेष दिन १३७ ओर जाना अति कठिन है । धन्य है उन महापुरुषोंको जिनकी प्रवृत्ति निर्दोष रहती है । चित्तवृत्ति निरन्तर कलुषित रहे यह महान् पापका उदय है । जब परिग्रहका सम्वन्ध नहीं तत्र कलुषित होनेका कोई कारण ही नहीं । वास्तवमें देखा जावे तो हमने परिग्रह त्यागा ही नहीं । जिसको त्यागा है वह तो परिग्रह ही नहीं । वे तो पर पदार्थ है, उनको त्यागना ही भूल है, क्यों कि उनका आत्मासे सम्बन्ध ही नहीं । आत्मा तो दर्शन -ज्ञान- चारित्रका पिण्ड है । उसमें मोहके विपाकसे कलुषितता आती है जो कि चारित्रगुणकी विपरिणति --- विरुद्ध परिणति है उसे ही त्यागना चाहिये । उसका त्याग यही है कि वह होवे इसका विषाद मत करो तथा उसमें निजत्व कल्पना न करो । चित्तमे न जाने कितने विकल्प आते हैं जिनका कोई भी प्रयोजन नहीं । प्रत्येक मनुष्य के यह भाव होते हैं कि लोकमे मेरी प्रतिष्ठा हो । यद्यपि इससे कोई लाभ नहीं फिर भी न जाने लोकैषणा क्यों होती है ? सर्व विद्वान् निरन्तर यह घोषणा करते हैं कि संसार असार है । इसमे एक दिन मृत्युका पात्र होना पड़ेगा । पर प्रसारका कुछ अर्थ ही समझमें नहीं आता । मृत्यु होगी इसमे क्या विशेषता है ? इससे वीतराग तत्त्वको क्या सहायता मिलती है, कुछ ध्यानमे नहीं आता। मुझे तो लगने लगा है कि बहुत बोलना जिस प्रकार आत्मशक्तिको दुर्बल करनेका कारण है उसी प्रकार बहुत सुनना भी आत्मशक्ति के ह्रासका कारण है । आगमाभ्यास भी उतना सुखद है जितना आत्मा धारण कर सके । बहुत अभ्यास यदि धारणासे रिक्त है तो जैसे उदराग्नि के बिना गरिष्ठ भोजन लाभदायक नहीं वैसे ही वेद अभ्यास भी लाभ दायक नहीं प्रत्युत हानिकारक है । यद्वा तद्वा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ मेरी जीवन गाथा मनुप्योंसे वार्तालाप करना उचित नहीं। धर्मके अर्थ शरीर दण्डन की आवश्यकता नहीं। शरीर न तो धर्मका कारण है और न अधर्मका। इससे उपेक्षा रखना ही श्रेयस्कर है। संसार आज नाना प्रकारके संकटोंमे जा रहा है, इसका मूल कारण परिग्रह है। सर्व पापोंका मूल कारण परिग्रह ही है । 'मूर्छा परिग्रहः'ममेदबुद्धिलक्षणम्' यही परिग्रहका स्वरूप है । संसारका कारण परिग्रह ही है। परिग्रहका अर्थ मोह-राग-द्वेष है। यही संसार है और यही दुःखका मूल कारण है। __आसौज सुदी ८ का दिन था। दरियागंजमे शान्तिसे स्वाध्याय कर रहा था कि एक प्रतिष्ठित व्यक्तिने सुनाया कि-आचार्य शान्तिसागरजीने कहा है कि यदि वर्णीका मत हरिजनके विषयमे हमारे मन्तव्यानुकूल नहीं तव वे इसमें मौन धारण करें। यदि कुछ बोलेंगे तब उनके हक्कमे अच्छा न होगा अर्थात् उनको जैन दिगम्बर मतानुयायी अपने सम्प्रदायवलसे पृथक् कर देवेंगे'। इसका तात्पर्य यह है कि दिगम्बर जैन उन्हे आदरकी दृष्टिसे न देखेंगे। मैंने यह विचार किया कि मनुष्योंकी दृष्टिसे कुछ कल्याण तो होता नहीं और न मनुष्योंकी दृष्टिमें आदर पानके लिये मैंने वीतराग जिनेन्द्रका धर्म स्वीकार किया है। मेरा तो विश्वास है कि जैनधर्म किसीकी पैतृक सम्पत्ति नहीं तब धर्म साधनके जो अङ्ग हैं वे क्यों सर्वसाधारणके लिये उपयोगमे आनेसे रोके जाते हैं ? कल्पना करो, कोई हरिजन जैनधर्मका श्रद्धालु बन गया तब उसे क्या ये लोग श्रावकके अनुकूल क्रिया नहीं करने देंगे? चदि नहीं करने देंगे तो निश्चय ही उन्होंने उसे धर्मसे वशित किया यह समझना चाहिये। धर्म तो श्रात्मा की परिणति है, उसे कोई रोक नहीं सकता। एक दो नहीं सब मिलकर Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली के शेष दिन १३६ भी मेरी वीतराग धर्म से श्रद्धा को दूर नहीं कर सकते । लोकैषरणाकी मुझे अभिलापा नहीं है । मैंने विचार किया कि अच्छा हुआ एक अभ्यन्तर परिग्रहसे मुक्त हुए । 1 । आसोज सुदीमे प्रात काल ७ बजे चलकर ८ बजे न्यू दिल्ली गये । नसिजीमें ठहरे । स्थान रन्य है । यहाँ से एक फलांग दूर पर श्री मन्दिरजी हैं । बहुत ही रम्य मन्दिर है । बीचमे एक वेदिका हैं। उसमें श्रीजिनेन्द्रदेवका विम्व हैं। इसके अतिरिक्त लगभग १०० गजपर दूसरा जिन मन्दिर है जो खण्डेलवालोंका है । बहुत ही रम्य है । चौकमे नीमका वृक्ष है । बहुत ही ठंडा है । स्थान उत्तम है परन्तु धर्म साधन करनेवाला कोई नहीं । यहाँ पर यदि अनुसन्धान विभाग खोला जावे तो उन्नति हो सकती है, परन्तु न तो कोई महापुरुष ऐसा है जो इस कार्यमें उत्साह दिखावे और न कोई करनेवाला है । एक दिन फिर भी यहाँ आये, प्रवचन हुआ, जनता अच्छी थी, प्रायः सर्व अंग्रेजी विद्यामें पटु हैं, साथ ही धार्मिक रुचि अच्छी रखते हैं । हमारे साथ खुले भावोंसे व्यवहार किया तथा यह प्रतिज्ञा ली कि सायंकाल शाख प्रवचन करेंगे । एक दिन क्षुल्लक पूर्णसागरजी रुष्ट होकर चले गये । यहाँ पर खलबली मच गई कि वर्गीजीसे रुष्ट होकर चले गये । वर्णीजीने कुछ कहा होगा ऐसा अनुमान लोगोंने लगाया । परन्तु मैंने तो कुछ कहा भी नहीं । संसारकी गति विचित्र है, जो चाहे सो आरोप करे ! इतना अवश्य था कि इनके समागमसे निरन्तर क्लेश रहता था । आप आहारके बाद श्रावकोंसे केन्द्रीय समितिके नामपर प्रेरणा कर दान कराते जिसकी लम्बी चौड़ी स्कीम कुछ समझ मे नहीं आती । क्षुल्लककी वृत्ति तो निःस्पृह है । उसे दान आदि कराकर उसके व्यवस्थापक बनना शोभास्पद नहीं है । वास्तवमें Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा इनकी प्रकृति अपने से मिलती नहीं । २ घण्टा वाद पं० चन्द्रमौलि - जी आये तव चित्तको संतोष हुआ । १४० 1 असौज समाप्त हुआ । कार्तिक वदी १ को सागरसे सिघई कुन्दनलालजी आये । बहुत ही स्नेह जनाया । अन्ततो गत्वा नेत्रोंसे अश्रुपात गये । प्राचीन स्मृति करते-करते वई घण्टा बिता दिये । आपका निरन्तर यही कहना था कि सागर चलिये । वहाँ आपको सर्व प्रकार से शान्ति मिलेगी। मुझे उनकी स्नेह दशा देख ऐसा लगा जैसे इस व्यक्ति के साथ जन्मान्तरका स्नेह हो ! मैंने उनसे यही कहा कि अब सर्व उपद्रवोंका त्याग कर आत्महितमे लगो । स्नेह ही संसार बन्धनका कारण है । हमारा और आपका जीवन भर स्नेह रहा । अव अन्तिम समय है, अतः स्नेह बन्धन तोड़ कर आत्महितकी ओर दृष्टि देना ही श्रेयस्कर है । कार्तिक वदी ३ २००६ को लालमन्दिर मे शास्त्रप्रवचन हुआ। श्री पं० शीतलप्रसादजीका भाषण बहुत रोचक हुआ । कुछ हो, जो आनन्द वक्ताको आता है वह श्रोताओंको नहीं आता । वह तो अपनेमे तन्यय हो जाता है । उपदेश देनेकी आचा शान्त होनेपर वक्ताको शान्ति मिलती है । शान्तिका मूल कारण कषायका अभाव है । कषायाग्निके शान्त करनेके लिये आवश्यकता इस बातकी है कि पर पदार्थोंसे सम्बन्ध छोड़ा जावे । रोहतक से श्री नानकचन्द्रजी आये । आपके साथ अन्य ४ प्रतिष्ठित व्यक्ति भी थे । आपका श्राग्रह था कि रोहतक चलिये, परन्तु मैंने उत्तर दिया कि विचार पूर्व की ओर जानेका हैं । गिरिराज श्री सम्मेदशिखरजी पर पहुँचनेकी उत्कण्ठा बलवती है। इसलिये वे निराश हो गये । हमारे मनमें बार बार यही भाव आता था कि अब हमे व्यवहार मार्गमें नहीं पड़ना चाहिये । व्यवहार में Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली के शेप दिन १४१ पड़ना ही प्रात्मकल्याणका बाधक है। जहाँ परके साथ सम्बन्ध हुप्रा वहीं संसारका पोषक तत्व आगया, उसीका नाम प्रास्त्रव है। ___एक दिन पं० महेन्द्रकुमारजी और पं० फूलचन्द्रजी वनारसवालोका शुभागमन हुआ। कुछ चर्चा हुई। चर्चामें पं० राजेन्द्र कुमारजी तथा स्वामी निजानन्दजी भी थे। कुछ निष्कर्ष न निकला। आगमका प्रमाण ही सह कहते हैं, किन्तु शान्ति पूर्वक वाक्य विन्यास नहीं होता। विवाद हरिजन समस्याका है। एक पक्ष तो यह करता है कि हरिजन जैन मन्दिरमे प्रवेश नहीं कर सकता और एक कहता है कि भगवान महावीरका यह संदेश है कि प्राणीमात्र धर्मधारणका पात्र है। मुझे इस विवादसे श्रानन्द नहीं आया। आज कलके मानवोंमे सहनशक्ति नहीं, तत्त्वचर्चामें अनापशनाप शब्दोंका प्रयोग करनेमे संकोच नहीं। धर्मको पैतृक सम्पत्ति मान रक्खा है तथा उसमे अन्यको प्रवेश करनेका हक्क नहीं। कुछ समझमें नहीं आता। अस्तु, लोग अपनी अपनी दृष्टिसे ही तो पदार्थको देखते है। मैंने विचार किया कि यद्वा तद्वा मत बोलो, वही बोलो जिससे स्वपरहित हो। यों तो पशु-पक्षी भी बोलते हैं पर उनके बोलनेसे क्या किसीका हित होता है। मनुप्यका बोल बहुंत कठि-- नतासे मिलता है। ___ यहाँ क्षुल्लक चिदानन्दजी भी थे। इन्होंने जैन शास्त्रोंको सस्ते मूल्यमे प्रकाशित करानेके लिए एक सस्ती ग्रन्थमालाका आयोजन किया और उसके द्वारा कई ग्रन्थोंका प्रकाशन भी हुआ । जनताने इस कार्यके लिये द्रव्य भी अच्छा दिया पर कार्य तो व्यवस्थासे • ही स्थायी हो सकता है, भावुकतासे नहीं। मेरे मनमे रह रहकर यही विचार घर करता गया कि परसे संसर्ग करना ही पापका मूल है । जब अन्य द्रव्य स्वाधीन हैं तब परसे सम्बन्ध जोडना ही दुःखका वीज है। अनादिसे आत्माने इसी रोगको अपनाया और Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ मेरी जीवन गाथा उससे जो जो दुर्दशा इस जीवकी हुई वह किसीसे गुण नहींसवको अनुभूत है। परका वेदन ही दुर्दशाका मूल कारण है। जिन्हे इन दुर्दशाओंसे अपनेको बचाना है उन्हे उचित है कि इन पर पदार्थोंका सम्पर्क त्याग दें, एकाकी होनेका अभ्यास करें। जहाँ तक मनुष्यकी मनुष्यता पर आंच नहीं आती वहाँ तक पर पदार्थका सम्बन्ध रहे परन्तु निज न माने। मनुष्यता वह वस्तु है जो आत्माको संसार वन्धनसे मुक्त करा देती है। अमानुपता ही संसार दुःखोंकी जननी है । मनुष्य वह जो अपनेको संसारके कारणोंसे सुरक्षित रक्खे । मनुष्य वही है जो कुत्सित परिणामोंसे स्वात्मरक्षा करे । केवल गल्पवादसे आत्माकी शुद्धि नहीं । शुद्धिका कारण निर्दोष दृष्टि है। हे भगवान् । (हे आत्मन् ) तुम भगवान् होकर भी क्यों पतित हो रहे हो ? ___ एक दिन नये मन्दिरमें सतघरेकी कन्या पाठशालाका वार्पिकोत्सव था। चारों क्षुल्लक वहाँ विराजमान थे। २०० छात्रार व महिलाएं उपस्थित थीं। १ कन्याने बहुत जोरदार शब्दोंमे व्याख्यान दिया। सुनकर सर्व जनता प्रसन्न हुई। पूर्णसागर महाराजने २५००) जो उनके पास भारतवर्षकी स्कीमका है उसमेंसे दिया तथा उन्होंने अपील की जिससे ३०००) और भी हो गया। अमावस्याके दिन वीर निवाणोत्सव था। जनसमुदाय अच्छा था, परन्तु कुछ नहीं निकला और न निकलनेकी संभावना है। वोलना बहुत और काम कुछ न करना यह आजके मानवोंकी बन्तु स्थिति है। गल्पवादसे कुछ क्ल्याण नहीं होता। कर्तव्यबादमे च्युत रहना जिसको उट है वही गल्पवादका रसिक है। अागामी दिन वीरसेवामन्दिरकी कमेटी हुई जिसमें उसके स्थायित्व नया दिल्ली में आने विपय पर विचार हुया । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ दिल्लीके शेष दिन दिल्लीके चातुर्मासका यह मेरा अन्तिम दिन था, इसलिये बहुत लोग आये । महासभाके मन्त्री परसादीलालजी आये । आप शान्त पुरुष हैं किन्तु आजकलकी परिस्थिति पर पूर्ण रीतिसे विचार नहीं करते । कुशल हैं और प्राचीनताके ऊपर बहुत बल देते हैं। प्राचीनता उत्तम है किन्तु उसका जो मार्मिक भाव है उसपर गम्भीर दृष्टिसे विचारना चाहिये। धर्मपर किसी जाति विशेषका अधिकार नहीं । प्रत्येक मनुष्य धर्मात्मा हो सकता है। जिन्हे हम अस्पृश्य शूद्र कहते हैं वे भी पञ्च पापोंका मूल जा मिथ्याभाव उसे छोड़ कर पञ्च पापका त्याग कर सकते हैं। यदि वे चाहे तो हम लोग जैसा शुद्ध भोजन करते हैं वे भी कर सकते हैं। __ हम दिल्लीमें आनन्दसे ३ माह २४ दिन रहे, सर्व प्रकारकी सुविधा रही। यहाँपर जनतामें धर्म श्रवणका अच्छा उत्साह रहा। समय-समयपर अनेक वक्ताओका यहाँ समागम होता रहता था। दिल्ली भारतकी राजधानी होनेसे व्याख्यान सभाओमें मनुष्य संख्या पुष्कल रहती थी। यहाँके व्याख्याता मुख्यमे थे-श्रीनिजानन्दजी क्षुल्लक, श्रीपूर्णसागरजी क्षुल्लक तथा श्रीचिदानन्दजी क्षुल्लक । मै वृद्धावस्थाके कारण बहुत कम भाग ले पाता था। त्यागियोंमे श्रीचांदमल्लजी साहब उदयपुरका भी अच्छा प्रभाव था। पण्डितोंमें श्रीराजेन्द्रकुमारजी संघ मंत्रीका व्याख्यान अति प्रभावक होता था। दसलक्षणपर्वके ६ दिन बड़ी शान्तिसे बीते। ६वें दिन न जाने हरिजनकी चर्चाने कहाँसे प्रवेश किया जो सर्व गुड़ मिट्टी हो गया। और मेरे मत्थे यह टीका मढ़ा गया कि वणींजी हरिजन प्रवेशके पक्षपाती हैं। यद्यपि मैं न तो पक्षपाती हू और न विरोधी हू किन्तु आत्माने यही साक्षी दी कि जो मनमे हो सो वचनोंसे कहो। यदि नहीं कह सकते तो तुमने अवतक धर्मका मर्म ही नहीं समझा। अनन्तानन्त आत्माएं हैं, परन्तु लक्षण सबके नाना नहीं, Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ मेरी जीवन गाथा एक ही हैं। भगवान् उमास्वामीने जीवका लक्षण उपयोग माना है । भेद अवस्था प्रयुक्त है, अवस्था परिवर्तनशील है। एक दिन हम बालक थे, अवस्था परिवर्तन होते-होते आज वृद्ध अवस्थाको प्राप्त हो गये "यह तो शारीरिक परिवर्तन हुआ किन्तु आत्मामें भी परिवर्तन हुआ। एक दिन ऐसा था जब दिनमे १० बार पानी और ५ वार भोजन करते भी संकोच न करते थे पर आज १ वार जल और भोजन ग्रहण करके संतोष करते हैं। कहनेका तात्पर्य है कि सामग्रीके अनुकूल प्रतिकूल मिलनेपर पदार्थोमे परिणमन होते रहते हैं। आज जिनको हम अपवित्र और नीच सम्बोधनसे पुकारते हैं वे ही मनुष्य यदि उत्तम समागम पा जावें तो उत्तम विचारके हो सकते हैं, अन्यथा नो दशा उनकी हो रही है वह किसीसे गुप्त नहीं । आगममे गृध्र पक्षीको व्रती लिखा है। वह मृत्यु पाकर स्वर्गका कल्पवासी देव हुआ। देव ही नहीं श्रीरामचन्द्रको मृत भ्रातृका मोह दूर करनेमे निमित्त भी हुआ। कार्तिक सुदी २ को दिनके २ वजे दिल्लीसे सहादराके लिये प्रस्थान कर दिया। मार्गमे अत्यन्त भीड़ थी, लोगोंको विशेष अनुराग था। सहस्रों स्त्री पुरुषोंके अश्रुपात आ गया । पुलतक सर्व भीड रही वादमे क्रम-क्रमसे कम होती गई। हम लोग ५ बजे सहादरा पहुँच गये। भारत बैंकके मैनेजर श्रीराजेन्द्रप्रसादजी भी आये भद्र पुरुप हैं। मोहकी महिमा अपरम्पार है। बहुतसे मानर तो बहुत ही दुःखी हुए। चार माहके संपर्कने मनुष्योंके मनको मोयुक्त कर दिया। इसीलिये पृथक् होते समय उन्हें दुःपना अनुभव हुआ। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली से हस्तिनागपुर प्रातःकालिक क्रियाओं से निवृत्त हो मन्दिर मे शास्त्रप्रवचनके अर्थ गये । वहाँपर दिल्लीसे ५० नर नारी आ गये। वही रागका आलाप, कोई अन्य बात नहीं थी । बहुत मनुष्योंका कहना था कि आप दिल्ली लौट चलें, जो कहो सो कर देवें । पर हमको तो कुछ करवाना नहीं, भूलभुलैया में फॅसकर क्या करता ? यहाँ से चलकर गजियाबाद आये । भोजनके बाद १ वजेसे ३ बजे तक सभा हुई । यहाँपर एक वर्णी शिक्षामन्दिरकी स्थापना हुई । यहाँसे २३ मील चल वेगमाबाद स्टेशनसे १ गर्लाङ्ग सड़कपर ठहर गये । यहाँपर एक शरणार्थी पंजाबी मनुष्य वड़ा भला आदमी था । भोजनादिके लिये आग्रह किया । अभी अन्य मतावलम्बियोंमें साधु पुरुपका महान् आदर है । जैनधर्म प्राणीमात्रका कल्याण करनेवाला है। जैन कहने को तो कहते हैं कि हम जिन भगवान् के उपा सक हैं, परन्तु उनके मार्गका आदर नहीं करते । यहाँसे ५ मील चल कर मुरादनगरकी धर्मशालामे ठहर गये । धर्मशाला उत्तम थी, रात्रिको हम लोग तत्त्व विचार करते रहे । वास्तवमे अन्तरङ्गकी वासना की ओर ध्यान देना चाहिये । यदि अन्तरङ्ग वासना शुद्ध है तो सब कुछ है । अनादि कालसे हमारी वासना पर पदार्थों मे ही निजत्वकी कल्पना कर असंख्य प्रकारके परिणामोंको करती है । वे परिणाम कोई तो रागात्माक होते हैं और कोई द्वेषरूप परिणाम जाते हैं । जो रुच गये उनमें राग और जो प्रतिकूल हुए उनमें द्वेष करने लगते हैं । १० Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ___मेरी जीवन गाथा मुरादनगरसे ४ मील चलकर मोदीनगर आये। यहाँ पर भोजन हुआ। यहाँसे ५ मील चलकर एक स्टेशन पर स्कूलमें ठहर गये । वहाँ स्कूलके हेडमास्टर अत्यन्त भद्र थे। वहुतसे छात्र यहाँ पर थे उनमे दो छात्र शरणार्थी थे। उनके चेहरे पर कुछ औदासीन्य था। पूछने पर कारण मालूम हुआ कि जब वे पंजायसे आये तब उनके कुटुम्बके मनुष्य वहीं पाकिस्तानी मुसलमानोंके द्वारा कत्ल कर दिये गये। हमने एक एक कुरताकी खादी उन्हें श्री हुकमचन्द्रजी सलावा द्वारा दिला दी तथा हुकमचन्द्रजीने ५) मासिक राजकृष्ण जी द्वारा दिलाया। वे बहुत प्रसन्न हुए। यहाँसे चलकर मेरठसे २ मील पर १ सरोवर था वहीं भोजन किया । तदनन्तर २ मील चलकर मेरठ पहुँच गये । यहाँ वोटिंगमे निवास हुआ। अनेक नर-नारी स्वागतके लिये आये। मनुष्य धर्मका आदर करता है और धर्मका आदर होना ही चाहिये, क्योंकि वह निज वस्तु है तथा परकी निरपेक्षता ही से होता है। हम अनादिसे जो भ्रमण कर रहे हैं उसका मूल कारण यह है कि हमने आत्मीय परिणतिको नहीं जाना। वाह्य पदार्थोके मोहमे आकर राग द्वेष सन्ततिको उपार्जन करते रहे और उसका जो फल हुआ वह प्रायः सबके अनुभवगम्य है। आज कार्तिक सुदी ८ सं० २००६ का दिन था। प्रातःकाल मेरठके मन्दिरमें शास्त्रप्रवचन. हुआ । श्री हुकमचन्द्रजी सलावाने भोजन कराया । दिनभर मनुप्योंका समागम रहा, केवल गल्पवादम दिन गया। दिल्लीसे लाला जैनेन्द्रकिशोरजीका शुभागमन हुआ। आप बहुत ही सज्जन हैं, श्री प्रेमप्रसादजीसे बातचीत हुई, बहुत ही सज्जन हैं। श्री लाला फिरोजीलालजी दिल्लीसे आये । वहुत उदार और योग्य हैं। आपका धर्मप्रेम सराहनीय है। यहाँसे प्रातःकालकी क्रियाओंसे निवृत्त हो मिल मन्दिरमे स्वाध्याय किया। यहाँसे Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली से हस्तिनागपुर ३ मील चल कर तोपखाना आ गये, यहीं पर भोजन किया, यहाँ पर मन्दिर बहुत ही सुन्दर है, पत्थरका दरवाजा बहुत मनोहर है, अन्दर भी उत्तम पत्थर लगा है । २ घण्टा यहाँ पर विताये । वहुतसे मनुष्य मिलने आये । २० आदमी और महिलाएँ गुजरात प्रान्तके आये । धार्मिक मनुष्य थे, शिखरजी की यात्राको जा रहे थे, लोग सरल प्रकृतिके थे, यू० पी० के मनुष्य चञ्चल होते हैं तोपखानासे ३ मील चल कर एक चक्कीपर ठहर गये । सानन्द रात्रि बीती । प्रातः काल प्रवचन हुआ, भोजनके बाद यहाँ से चल कर ४ मीलपर १ धर्मशाला में ठहर गये । यहाँसे ३ मील चल कर छोटे मुहाना आ गये । स्कूलमे ठहरे, प्रातः काल प्रवचन हुआ, वहुत कुछ तत्त्व चर्चा हुई । कार्तिक सुदी ११ को प्रातः ६ बजे मवाना आ गये, मन्दिरमे प्रवचन हुआ, प्रकरण राम और रावणके युद्धका था । अन्यायका जो फल होता है वही हुआ । रावण मृत्युको प्राप्त हुआ, श्रीरामचन्द्रजी महाराजकी विजय हुई | रावण रावण था पर आज रावणके दादा पैदा हो गये हैं । रावण तो सीता सपर्क से दूर रहा, केवल अपनी दुर्भावना के ही कारण कुगतिका पात्र हुआ पर आज तो ऐसे-ऐसे मानव विद्यमान हैं जिन्होंने पर स्त्रीके चक्रमे पड़कर अपना सर्वस्व खो दिया है । यहाँसे १ बजे चल कर ४ मीलपर एक वागमें ठहर गये । बाग १ मीलका था परन्तु ऊजड़ था, कोई प्रवन्ध नहीं । दूसरे दिन प्रातः काल श्रीहस्तिनापुर आ गया । स्थान शान्तिका रत्नाकर है परन्तु मेलाकी भीड़ भाड़ कारण उस समय शान्ति दृष्टिगोचर नहीं हो रही थी । १४७ कार्तिक सुदी १४ सं० २००६ को उत्तर प्रान्तीय गुरुकुलका उत्सव हुआ किन्तु जब अपील हुई तव विशेष सफलता नहीं हुई । केवल सात आठ हजार रुपया हुआ । इसका मूल कारण इस प्रान्त Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ मेरी जीवन गाया में जितने जैन लोक हैं सवकी प्रवृत्ति अंग्रेजी पढ़ानेकी है। आचरण भी प्रायः धर्मके अनुकूल नहीं। भोजनादिमे शिथिलता रहती है, वेपभूषा अपनी योग्यता और कुल मर्यादाके प्रतिकूल है। पूर्णिमाको प्रातःकाल मण्डपमे प्रवचन हुआ। ६ बजेके बाद कमेटीके मेम्बरोंमे कुछ वैमनस्य था वह दूर हो गया। उसके बाद मन्दिर गये, शुद्धि करनेके बाद भोजनके लिये निकले । भोजनगृहमे निर्विघ्न प्रवेश किया पर ज्यों ही भोजन करना प्रारम्भ किया त्यों ही दूधका ग्रास लेनेके बाद उसमे तिरूला निकल आया । अन्तराय आ गया। लोगोंको विकलता हुई। आज अपराहकालमे श्रीजीका रथ निकला। बीस हजारके करीब भीड़ थी, बड़ी भक्तिसे रथ निकाला गया, मनुष्योंमे बहुत उमंग थी। दूसरे दिन प्रातःकाल प्रवचन हुआ, मनुष्योंका समुदाय अच्छा था। गुरुकुलको कुछ चन्दा भी हो गया । लोगोमें उत्साहकी त्रुटि नहीं किन्तु योग्य नेताकी कमी है । श्रीमास्टर उग्रसेनजी इसके कार्य करनेमे अग्रसर हुए और संभव है इनके प्रयाससे गुरुकुलकी पूर्ति हो जावे । गुरुकुलका नवीन भवन बनकर तैयार था अतः मगसिर वदी २ को ६ बजे उसका उद्घाटन हुआ। मास्टर उग्रसेनजीने अति मार्मिक व्याख्यान दिया। लोगोंके हृदयमे अति उत्साह हुआ, हमारे चित्तमे भी संस्थाके उत्कर्षके अर्थ बहुत उद्वेग हुआ परन्तु हम पराधीन थे, क्योंकि हमने यह निश्चित विचार कर लिया था कि एक बार श्रीपार्श्वप्रभुके निर्वाण क्षेत्रके दर्शन अवश्य करना किसीके चक्रमे न आना । चाहे २ मील ही क्यों न चला जावे। कल्याणका मार्ग निरीह वृत्ति है। आराधना करो परन्तु फलकी इच्छा न करो। धीरे-धीरे जव समुदाय अपने-अपने घर चला गया अतः वातावरण शान्त हो गया। मगासिर वदी ३ को प्रातःकाल सानन्द स्वाध्याय हुआ। भोजन करनेके उपरान्त १ घण्टा श्राराम Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावाकी ओर कर सामायिक किया तदनन्तर २३ वजे चलकर ३ मीलके वाद गणेशपुरमें आ गये। इटावा की ओर सामायिक आदि करके परस्पर कुछ चर्चा हुई । तदनन्तर सो गये । १२३ बजे निद्रा भङ्ग हो गई ३ घण्टा कुछ विचार किया पश्चात् कठिनतासे निद्रा आयी। उस समय यह विचार मनमे आया कि जिनके पास वन नहीं ऐसे गरीब लोग कैसे रात्रि व्यतीत करते होंगे ? तव यही मनमे आया कि उनकी आशा वश हो जाती है। आशा ही तो समस्त दुःखोंका कारण है जिसने आशापर विजय पा ली उसने जगत् को जीत लिया। दूसरे दिन प्रातःकाल गणेशपुरसे चलकर ८१ वजे मवाना आ गये । मन्दिरमे स्वाध्यायके बाद भोजन किया। २ बजेसे संस्कृत कालेजमें प्रिन्सपल साहबके आग्रहसे गये। बहुत ही योग्य पुरुष हैं ३ घंटा आपका व्याख्यान हुआ। आध्यात्मिक शिक्षाके बिना लौकिक शिक्षा कुछ अर्थकरी नहीं। । घण्टा मैंने भी इसी विषयपर कुछ कहा । पश्चात् यहाँसे चलकर ५ वजे छोटे मुहाना आ गये और स्कूल में ठहर गये। दूसरे दिन छोटे मुहानेसे ३ मील चल कर एक गाँवमे ठहर गये। दिल्लीवाले छुट्टनलाल मैंदावालोंके यहाँ भोजन किया। बहुत ही योग्य व्यक्ति हैं यहाँसे ५ मील चल कर चक्की पर ठहर गये और वहाँ रात्रिभर रहे रात्रि सानन्द बीती। मनमें भाव आया कि 'अन्तरङ्ग की निर्मलताके विना वाह्य निर्मलता वक्वेषके Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० मेरी जीवन गाथा समान है । तोता, राम राम रटता है परन्तु उसका तात्पर्य नहीं समता अतः जो कुछ रटो उसको समझो । समभोके मायने तदनुसार प्रवृत्ति करो' । यहाँसे ३ मील चल कर तोपखाना गये । यहाँ पर भोजन किया । मध्यान्होंपरान्त शास्त्र प्रवचन किया लोग शान्ति पूर्वक सुनते रहे । सर्व मनुष्य सुख चाहते हैं परन्तु सुख प्राप्ति दुर्लभ है इसका मूल कारण उपादान शक्तिका विकाश नहीं। वक्ताओंको यह श्रभिमान है कि हम श्रोताओं को समझा कर सुमार्ग पर ला सकते हैं और श्रोताओंकी यह धारणा है कि हमारा कल्याण वक्ता आधीन है पर बात ऐसी नहीं है । तोपखानामे १५ घर जैनियोंके हैं प्राय अंग्रेजी विद्याके पण्डित हैं स्वाध्यायमे रुचि नहीं । परन्तु यह सभी चाहते हैं कि येन केन उपायसे संसार बन्धनसे छूटें । इसके अर्थ महान् प्रयास भी करते हैं। मर्यादासे अधिक त्यागियों और पण्डितों की शुश्रुषा करते हैं यही समझते हैं कि त्यागी और पण्डितोंके पास धर्म की दुकान है उनका जितना आदर सत्कार करेंगे उतना ही हमको धर्म का लाभ होगा | • किन्नु होगा क्या सो कौन कहे ? कहावत तो यह याद आती हैं कि 'फुट्टी देवी ऊँट पुजारी' । दूसरे दिन मिलमे प्रवचन किया पश्चात् वहाँसे चलकर वोडिंग में आये सामायिक की । १२३ बजे श्री पद्मपुराणका स्वाध्याय किया प्रकरण था श्री रामचन्द्रजीकी विजय हुई । यथार्थमें बात यही है - न्याय मार्ग में जिनकी प्रवृत्ति होती है उनकी अन्तमें विजय होती है । अन्याय मार्गमें जो प्रवृत्त होते हैं वे ही न्याय मार्गम चलनेवालोंसे पराभव प्राप्त करते हैं । अतः मनुष्योंको चाहिये कि न्याय मार्ग से चलें । संसार दुःख मय है इसका कारण आत्मा पर पदार्थको निज मानकर नाना विकल्प करता है । अगले दिन नगरमे Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावाकी ओर १५१ प्रवचन हुआ वहीं पर आहार हुआ पश्चात् बोडिंगमे आ गये । यहाँ पर निरन्तर भीड़ रहती है स्वाध्याय भी नहीं हो पाता केवल गल्पवादमें समय जाता है । वस्तुतः मेरे हृदयकी दुर्बलता ही भीड़ एकट्ठी करती है । हृदयकी दुर्बलता कार्यकी बाधक है मोहके कारण यह दुर्वलता है इसका जीतना महान् कठिन है। ___मगासिर वदी १० सं० २००६ को यहाँसे १ बजे चलकर ४ मीलकी दूरीपर एक वागमे ठहर गये। यह बाग पहले वहुत ही सुन्दर रहा होगा पर अब तो नष्ट भ्रष्ट हो गया है जिस मकानमे ठहरे वह बहुतही अस्वच्छ था--मकड़ी और मच्छरोंका घर था । येन केन प्रकारेण यहाँ रात्रिभर सोये प्रातःकाल ४ मील चल कर फदा आ गये । फफूंदा कसवा अच्छा है यहाँ पर गूजर लोगो की वस्ती है, सव सम्पन्न हैं, इन्होंने बहुत सत्कार किया, हमने समाधि शतकका प्रवचन किया परन्तु जो सुख होना चाहिये वह नहीं हुआ। इसका मूल कारण आत्मीक रस नहीं। यहाँसे २ बजे चल कर खरखोदाके स्कूलमे ठहर गये । स्थान अच्छा था रात्रि को स्वाध्याय अच्छा हुआ। स्वाध्यायसे आत्मकल्याण होता है, कल्याणका अर्थ है पर पदार्थोसे ममता त्याग । ममता का कारण अहम्बुद्धि। यहाँसे ४ मील चल कर कौनी ग्राममे एक राजपूतके बंगलेमे ठहर गये। बंगला उत्तम था, एक घण्टा स्वाध्याय किया सुनने वाले व्यग्र थे। व्यग्रताका कारण चम्बलता है और इस ओर रुचि भी नहीं। स्वाध्यायके प्रति रुचि नहीं, रुचि न होनेमे मूल कारण कभी इस ओर लक्ष्य नहीं। निरन्तर गृहस्थोंको अपने बालकादिके पोपणके अर्थ परिग्रह सञ्चय करनेमें समयका उपयोग करना पड़ता है इस मार्गमे चलनेका उन्हे अवकाश ही नहीं मिलता। प्रात काल ४३ बजे से ५२ तक मोक्षमार्गप्रकाशका स्वाध्याय किया उसमे करण था कि मोहके Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ मेरी जीवन गाथा उदयसे यह जीव, पदार्थकी अन्य रूप श्रद्धा करता है इसीसे दुखी होता है। जैसे कोई मनुष्य रज्जुमें सर्पभ्रान्तिसे भयभीत होता है । यह भ्रम दूर हो जावे तो भय नहीं होवे। इसी प्रकार पर पदार्थों में निजत्व बुद्धि त्याग देवे तो सुखी हो जावे । ९ बजे मन्दिर गये वहाँ पद्मपुराणका स्वाध्याय किया उसमें चर्चा थी कि वालीकी दीक्षाका कारण रावण हुआ। यथार्थमें कारण तो उनकी आन्तरिक विरक्तता थी। रावण उसमें निमित्त हुआ। वाली मोक्षको प्राप्त हुए। आज एक मास्टरके घर भोजन हुआ। श्री जैनेन्द्रकिशोरजी तथा राजकृष्णजी दिल्लीवाले आये। शामको श्री पतासीवाईजी भी आ गई। रात्रिको चर्चा हुई श्री जैनेद्र किशोरका स्नेह बहुत है उनका भाई भी मुरादाबादसे आया ८००) मासिक पाता है उसकी धर्मपत्नी भी साथ थी। सवका अन्तरङ्ग यह था कि आप दिल्ली रह जाओ कुटिया हम बनवा देंगे। आप निर्द्वन्द्व धर्म साधन करिये । यहाँसे चलकर हापुड़ निवास हुआ तदनन्तर वहाँ से ४ मील चल कर हाफिजनगर आ गये। यहाँ तक दो आदमी हापुड़से आये, लोगोंमें धर्म प्रेम अच्छा है रामचन्द्र वावू यहाँ पर बहुंत योग्य हैं आपकी प्रवृत्ति भी अच्छी है। पण्डित परमानन्दजी दिल्लीसे यहाँ आये १ बजे कुछ चर्चा हुई चर्चाका सार यही था कि प्राचीन साहित्यका प्रचार होना चाहिए। विना प्राचीन साहित्यके जैन संस्कृतिकी रक्षा होना कठिन है मेरा ध्यान यह है कि प्राचीन साहित्यके प्रचारके साथ-साथ उसके ज्ञाता भी तैयार होते रहना चाहिये अन्यथा अकेला प्राचीन साहित्य क्या कर लेगा? आज लोगोंकी दृष्टि इंग्लिश विद्याके अध्ययनकी ओर ही बलवती होती जा रही है क्योंकि वह अर्थकरी है तथा संस्कृत-प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओंके अध्ययनसे विमुख हो रही है क्योंकि उससे ऐहिक अर्थकी प्राप्ति नहीं होती। यह समाजके हितके लिये अच्छी बात नहीं दिखती। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 इटापाकी ओर १५३ यहाँ से ५ मील चलकर गुलावटी आये ग्रामके बाहर स्थानमे ठहर गये, स्थान मनोन था, पानी यहाँका अच्छा था, प्रातःकाल स्वाध्याय अच्छा हुआ पश्चात् गर्मी में कुछ नहीं हुआ । यह विचार अनलगे लानेकी महती आवश्यकता है - जिनके विचार में मलिनता हैं उनका सर्व व्यापार लाभप्रद नहीं | सर्व चेष्टा ससार बन्धनसे मुक्त होनेके लिये हैं परन्तु वर्तमानमे मनुष्योंके व्यापार ससारमें फेसनेके लिये है । व्यापारका प्रयोजन पचन्द्रियोंके विपयसे है । यहाँ से ३ मील चल कर एक शिवालयमें ठहर गये स्थान अत्यन्त मनोज्ञ है । कृपका जल मित्र है श्राज भोजन करनेकी इच्छा नहीं थी फिर भी गये परन्तु अन्तराय हो गया । उदर निर्भल रहा । उच्चाको स्वाधीन रखना ही कल्याण मार्ग है । यहाँका जो मैनेजर है वह जाट हैं प्रकृत्या भद्र और उदार मनुष्य है । यहाँ पर वाहरसे नेवालोको पानी भी पीनेके लिये मिलता है बन्दरोंका निवास भी यहाँ पुष्कल है । कोई-कोई दयालु उन्हें भी भोजन दे देते हैं । यहाँसे ५ मील चल कर वुलन्दशहर आ गये । एक वैश्यके मकानमे ठहर गये। उसने सट्टामे सर्व धन खो दिया । हमको बहुत प्रदरसे ठहराया, पुष्पमाला चढ़ाई तथा १५ मिनट तक पैरों पर लोटा रहा । उसकी यह श्रद्धा थी कि उनके आशीर्वाद से हमारा कल्याण हो जावेगा । लोगोंकी धर्म में श्रद्धा है परन्तु धर्मका स्वरूप समझने की चेष्टा नहीं करते केवल पराधीन होकर कल्याण चाहते हैं । कल्याणका अस्तित्व आत्मामें निहित है किन्तु जब हमारी दृष्टि उस ओर जावे तब तो काम बने। दो दिन बुलन्दशहरमें रहे सानन्द समय चीता । समयके प्रभावसे मनुष्योंमे धर्मकी रुचिका कुछ हास हो रहा है पर स्त्री गण धर्मकी इच्छा रखता है फिर भी मनुष्यों में इतनी शक्ति और दया नहीं जो उनको सुमार्गपर लाने की चेष्टा करें । यथार्थ बात तो यह है कि स्वयं सन्मार्गपर नहीं परको क्या सन्मार्ग Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ मेरी जीवन गाथा पर चलावेंगे ? जो स्वयं अपनेको कर्म कलंकसे रक्षित नहीं कर सकते वह परकी रक्षा क्या करेंगे? यहाँसे चलकर मामन आये एक राजपूतके घर ठहरे। रात्रिको यह विचार उठे कि किसीसे कटुक वचन मत बोलो, सर्वदा सुन्दर हितकारी परिमित वचन वोलनेका प्रयास करो अन्यथा मौनसे रहो । समागम त्यागो, भोजनके समय अन्यको मत ले जाओ। भोजनमे लिप्साका त्याग करो। पराधीन भोजनमें सन्तोष रखना ही सुखका कारण है। यदि भिक्षा भोजन अङ्गीकृत किया है तो उसमे मनोवांछितकी इच्छा हास्यकरी है। 'भक्ष्यममृतम्' ऐसा आचार्यों का मत है । जो मानव गृहस्थीमे रत हैं उनकी ही लिप्सा शान्त नहीं होती तव अन्यकी कथा ही क्या है ? यहाँ दिल्लीसे जैनेन्द्रकिशोरजी सकुटुम्ब आये। राजकृष्णजी, उनके भाई, पं० राजेन्द्रकुमारजी, लाला मक्खनलालजी, पं० परमानन्दजी, श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्त्यार, लाला उलफतरायजी तथा श्रीसरदारीमल्लकीका वालक वा उनकी लड़की सूरजवाई आदि अनेक लोग आये। पं० खुशालचन्द्रजी एम. ए. साहित्याचार्य भी पधारे सवका आग्रह यही था कि दिल्ली चलो पर मैं तो गिरिराज जानेका निश्चय कर चुका था अत दिल्ली जानेके लिये तैयार नहीं हुआ। सब लोग निराश होकर लौट गये। ___ यहाँसे चल कर ४ मील बाद मरिपुर आ गये। यहाँपर कोरीका एक बालक ठण्डमे नंगा था उसे मैंने मेरे पास जो ३ गज कपडा था वह दे दिया यह देख लाला खचेडूमल तथा मंगलसेनजी ने भी उसे कपड़ा दिया। गरीवका काम बन गया यह देख मुझे हप हुआ । दया बड़ी वस्तु है, दयासे ही संसारकी स्थिति योग्य रहती है । जहाँ निर्दयता है वहाँ परस्परमे बहुत क्लह रहती हैं । इस समय संसारमे जो कलह हो रही है वह इसी दयाके अभावमे हो रही है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावाकी ओर १५५ वर्तमानमे मनुष्य इतने स्वार्थी हो गये हैं कि एक दूसरेकी दया नहीं करते। यहाँसे ४ मील चल कर नगलीकी धर्मशालामे ठहर गये और वहाँसे प्रातः ५ मील चल कर १ धर्मशालासे विश्राम किया। यहीं भोजन हुआ। यहाँपर सेठ शान्तिप्रसादजीकी लड़की मितने आई साथमे उसकी फूफी व भावज भी थी। मुझे लगा कि 'सर्व मनुष्य धर्मके पिपासु हैं परन्तु धर्मका मर्म बतानेवाले विरलताको प्राप्त हो गये। अपने अन्तरङ्गमें यद्वा तद्वा जो समझ रक्खा है वही लोगोंको सुना देते हैं। अभिप्राय स्त्रात्मप्रशंसाका है। लोग यह समझते है कि हमारे सदश अन्य नहीं । धर्मके ठेकेदार बनते हैं पर धर्म तो मोह-क्षोभसे रहित आत्माकी परिणतिका नाम है। उसपर दृष्टि नहीं। दूसरे दिन प्रात ३ मील चल कर गवाना आ गये। यहीं पर भोजन किया पश्चात् ५ मील चलकर भरतरीकी धर्मशालासें ठहर गये। धर्मलाशासे ही शिवालय है यहाँसे अलीगढ़ ८ मील है। श्री पं० चाँदमल्लजी यहाँसे चले गये सेठ भौंरीलालजी सरियावाले खुरजासे साथ थे। यहाँ गयासे १ मनुष्य रामेश्वर जैनी तथा १ वर्तन मलनेवाला भी आ गया। इस धर्मशालामे १ साधु था वह भला आदमी था । यहाँसे ५ मील चलकर अलीगढ़से ३ मील इसी ओर आगरावालो के मिलके सामने १ छोटी-सी धर्मशाला थी उसमें ठहर गये । १० बजे भोजनको गये परन्तु २ ग्रासके बाद ही अन्तराय हो गया । अन्तरायका होना लाभदायक है जो दोप है वे अपगत हो जाते हैं, क्षुधा परिषहके सहनेका अवसर आता है, अवमौदर्य तपका अवसर स्वयमेव हो जाता है । आत्मीय परिणामोंका परिचय सहज हो जाता है।' ___ यहाँसे ३ मील 'चलकर अलीगढ़ आ गये। यहाँ श्री सेठ वैजनाथजी सरावगी कलकत्तावाले मिल गये। आपका अभिप्राय Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ मेरी जीवन गाथा निरन्तर जैन जातिके उत्कर्षमे मग्न रहता है तथा यथाशक्ति दान भी करते रहते हैं। आज कल आपका उद्योग वनारसमे ऐसा छात्रावास बनानेका है जिसमे २०० छात्र अध्ययन करें। तथा एक महान् मन्दिर भी वने, इस कार्यके लिए सर सेठ हुकुमचन्द्रजी इन्दौरवालोंने अस्सी हजारका विपुल दान दिया है । यहाँसे खिरनीसहाय गया। यहाँ दोपहर बाद श्री क्षुल्लक चिदानन्दजीका प्रवचन हुआ। मैं १ वागमें चला गया वहीं ४ बजे तक स्वाध्याय किया पश्चात् यहीं आ गया। एक दिन यहाँ प्रामके बाहर सड़क पर मन्दिर है उसमें गये। श्री बाबा चिदानन्दजीने अष्टमूलगुणपर व्याख्यान दिया पश्चात् मैंने भी घंटा कुछ कहा । परमार्थसे क्या कहा जावे ? क्योंकि जो वस्तु अनिर्वचनीय है उसे वचनोंसे व्यक्त करना एक तरहकी अनुचित प्रणाली है, परन्तु विना वचनके उसके प्रकाश करनेका मार्ग नहीं। यह सर्वसाधारणको विदित है कि ज्ञान ज्ञेयमें नहीं पाता, फिर भी उसे प्रकाशित करनेकी चेष्टा मनुष्य करते ही हैं। पौष वदी १ सं० २००६ को यहाँसे एटाके लिए प्रस्थान किया । ६ मील चलकर चक्की पर ठहर गये। सामायिक करनेके बाद चक्कीका स्वामी आ गया और अपनी व्यथा सुनाने लगा-सुनकर यही निश्चय हुआ कि संसारमे सर्व दुःखके पात्र हैं। सारांश यह है कि जो संसारमें सुख चाहते हैं वे पर पदार्थोंसे मूर्छा त्यागें। मूर्छा त्याग विना कल्याण नहीं। दूसरे दिन प्रातःकाल ७ बजे चलकर ६ वजे गङ्गा नहर पर आ गये। यहाँ कूपका पानी बहुत स्वादिष्ट था। भोजनोपरान्त कुछ लेट गये। स्थान अतिरम्य था । यहाँसे १२ मील शासनी ठीक दक्षिण दिशामें है। यहाँ पर एक ग्राम है। जिसका नाम पहाड़ी है। वहाँसे औरतें आयीं ओर महान् श्राग्रह करने लगी कि आज हमारे ग्राममें निवास करो। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावाकी ओर १५७ हमने बहुत समझाया तब कहीं उन्हे संतोप हुआ। उन्होने रविवार और एकादशीका ब्रह्मचर्य व्रत लिया । उन औरतोंमे एक औरत गरीब थी, उसे एक थान दुसूतीका जो संघके लोगोंको अलीगढ़मे एक श्वेताम्बर भाईने दिया था दिलवा दिया। बड़े आग्रहसे उसने लिया । यहाँसे चलकर अकराबादके कुँवर साहबके बागमें ठहर गये। दूसरे दिन ४ मील चलकर गोपीवाजारके स्कूलमे ठहर गये। यहाँ पर छात्रॉकी परीक्षा ली। ५) पं० भवरीलालजी सरियावालोंने छात्रोंको पारितोषिक दिया। सामायिकके बाद ४ मील चलकर सिकन्दराराऊ आ गये। यहाँ २ घर जैनके हैं। सिकन्दराराऊसे ४ मील चल कर रतवानपुर आ गये । ग्रामवाले बहुत मनुष्य आये, सर्व साधारण परिस्थितिके थे किन्तु सज्जन थे। यहाँसे १ वजे चल कर भदरवासके ग्राम पंचायत भवनमें ठहर गये। गाँवके अनेक लोग मिलने आये। भदरवाससे ४ मील चल कर .. पिलुआ आ गये। यहाँ पर ३ घर पद्मावतीपुर वालोंके हैं १ मन्दिर है जो सामान्यतया उत्तम है। प्रेमसे भोजन कराया। दिल्लीसे श्री जैनेन्द्रकिशोरजी तथा राजकृष्णजी आये। इनका अनुराग विशेष है। पौष बदी ७ सं० २००६ को एटा आ गये । यहाँ पर २०० घर पद्मावतीपुरवालोके हैं, धर्म वत्सल हैं। यहाँ पं० पन्नालालजी मथुरा संघसे आये प्रातःकाल मन्दिरमे प्रवचन हुआ। सायंकाल पार्कमे आम सभा हुई। सभामे सभ्य पुरुष आये ? पं० पन्नालालजी मथुराका व्याख्यान हुआ, मैंने भी कुछ कहा। यहाँ रात्रिको सिविल सर्जन सपत्नीक आये मिल कर बहुत प्रसन्न हुए। आपने मंगलवारको ब्रह्मचर्य व्रत लिया। एक दिन बड़े मन्दिरमें प्रवचन हुआ। मनुष्योंके चित्तमे कुछ प्रभाव पड़ा। यहाँ पर एक कायस्थ रहते हैं Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ मेरी जीवन गाथा उन्होंने सबको अच्छी तरह फटकारा फलस्वरूप पाठशाला चालू करनेके लिये ६०००) ध्रौव्यफण्ड तथा ५० ) मासिकका चन्दा हो गया। लोगोमें परस्पर सौमनस्य नहीं और अन्तरङ्गसे विद्यामें रुचि नहीं । शून्य । दूसरे दिन भोजनके पश्चात् सामायिक किया और १ बजे चल कर ६३ मील छिछैनाके वंगला में ठहर गये । यहाँ तक एटा से २५ आदमी ये पश्चात् लौट गये कोई प्रामाणिक बात नहीं हुई । यहाँसे चल कर मलावन तथा टटऊ कसवामे ठहरते हुए पौष वदी १२ को कुरावली आ गये । यहाँ पर २५ घर जैनियोंके हैं । यहाँ पर जो पण्डित हैं वे उपादानको ही मुख्य मानते हैं निमित्त हाजिर हो जाता है। हाजिर शब्दका अर्थ क्या ? अस्तु, कहाँ तक कहा जावे, विवादके सिवाय कुछ नहीं । आजकल ही क्या प्रायः सर्व कालमें हठवादका उत्तर यथार्थ होना कठिन है । सव यह चाहते हैं कि यदि हमारी बात गई तो कुछ भी न रहा अतः जैसे वने तैसे अपनी हटकी रक्षा करना चाहिये तत्व कहीं जावे । यदि मनुष्योमें हठ न होती तो ३६३ पाखण्ड मत न चलते । आत्मा अभिप्राय असंख्यात हैं अतः उतने विकल्प मतोंके हो सकते हैं संग्रहसे ३६३ वतला दिये हैं । तात्त्विक दृष्टि जव आती है। तव सर्व पक्षपात विलय जाते हैं । 1 यहाँ पर जसवन्तनगरवाले सुदर्शन सेठ भी आये आप बहुत सज्जन हैं आपके आग्रह से ग्रन्टरोड़ का मार्ग बदल कर इटावा की ओर चल दिये । कुरावली से ६१ मील चल कर हरिदेवके नग ठहर गये । यहाँ पर पलालका प्रबन्ध अच्छा रहा । देहात मे आदमी सरल परिणामोंके होते हैं । वोली साठी होती है परन्तु अभिप्राय निर्मल होते हैं नगलासे ७ मील चल कर मैनपुरी आ गये । धर्मशालाये ठहर गये स्थान मनोज्ञ है परन्तु जो शान्ति Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावाकी ओर १५६ चाहिये वह नहीं मिलती क्योंकि मनुष्योंका संसर्ग दूर नहीं होता। दोपहर बाद सभा हुई पर हनसे बोला नहीं गया । सरदीका प्रकोप था अतः गला बैठ गया। मनुष्य केवल निमित्त उपादानकी चर्चा में अपना काल बिताते हैं। पढ़े लिखे हैं नहीं, परिभापा जानते नहीं, केवल अनाप सनाप कह कर समय खो देते हैं। एक दिन यहाँके कटरा बाजारके मन्दिरमें दर्शनार्थ गये। बहुत विशाल मन्दिर है इस तरहका मन्दिर हमने नहीं देखा। संस्कृत ग्रन्थोंका भण्डार भी विपुल है उसमें गोम्मटसार, मूलाचार, प्रमेयकमलमार्तण्ड, यशस्तिलकचम्पू आदि बड़े बड़े ग्रन्थ हैं। २०० के लगभग सब होंगे। -हमने अवकाशाभावसे ग्रन्थ नहीं देखे । शास्त्रमे समागम अच्छा नहीं। यहाँ बनारससे श्वेताम्बर साधु श्री कान्तिविजयजी आये बहुत ही सज्जन प्रकृतिके थे, मन्दिरोंके दर्शन किये व साम्यभावसे वार्तालाप किया। यहाँसे १ वजे करहलको चल दिये और ३३ मील चल कर अंडसीकी एक धर्मशालामे ठहर गये। वहाँसे १-२ स्थानों पर ठहरते हुए करहल पहुंच गये। यहाँ लमेचू जैनियोंके २०० घर हैं, ४ मन्दिर और २ चैत्यालय हैं, जैनियोंके घर सम्पन्न हैं, १ हाई स्कूल तथा १ औपधालय भी। ऐसे स्थानों पर त्यागी वर्गको रहना चाहिये, बहुत कुछ उपकार हो सकता है। प्राचीन ग्रन्थ भण्डार भी है । लोगोंने स्वागतका बहुत आडम्बर किया । वास्तवमे आडम्बरके सामने धर्मकी प्रभावना होती नहीं। जैनधर्मका जो सिद्धान्त था उसे गृहस्थोंने'लुम कर दिया, त्यागी वर्ग भी अपने — कर्तव्यसे च्युत है। पठन पाठन करनेका अवसर नहीं। केवल गल्पवाद रह गया है सो उससे क्या होनेवाला है ? लोक प्रशंसाके अर्थ ही मनुष्यों की चेष्टाएँ रहती हैं। सार तो निवृत्तिमार्गसे है सो वनती नहीं । गल्पवादसे कर्तव्यवाद अच्छा होता है । जहाँ तक बने धर्मके अर्थ उपयोग निर्मल रखना अच्छा है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा पौष सुदी ५ सं २००६ को जसवन्तनगर आ गये यहाँ पर जनताने मनःप्रसार कर स्वागत किया। बाहरसे भी बहुतसे मनुष्य 1 ये थे । स्त्री समाजकी संख्या भी प्रचुर थी । स्त्री समाजमें पुरुष समाजकी अपेक्षा धर्मकी आकांक्षा बहुत है परन्तु वक्ता महोदय तदनुकूल व्याख्यान नहीं देते। मेरी समझसे व्याख्यान पात्रके अनुकूल होना चाहिये । भोजनका पाक उदाग्निके अनुकूल होता है । यदि उदाग्निके अनुकूल भोजन न मिले तो उसकी सार्थकता नहीं होती । पौष सुदी ६ सं० २००६ को बड़ा दिन था । स्कूलोंका अवकाश होनेसे बच्चोंके हृदयोंमे उत्साह था । मेरे मनमें विचार श्राया कि जिस वस्तुका पतन होता है एक दिन वह वृद्धिको प्राप्त होती है । दिनका हास जितना होना था हो गया श्रव वृद्धिका अवसर आ गया । यहाँ बनारससे पं० कैलाशचन्द्रजी व खुशालचन्द्रजी आये। पण्डित कैलाशचन्द्रजीने शुद्धाचरण पर आध घंटा अच्छा व्याख्यान दिया । आज बड़े वेगमें ज्वर या गया, ८ बजे तक बड़ी वेचैनी रही उसीमे नींद आ गई। एक बार खुली अन्तमें कुछ शान्ति आई परन्तु पैरोंमे वातकी बहुत वेदना रही। दोनों पैर सूज गये । उपचार जिसके मनमे आता है सो करता हैं। मेरा तो यह दृढ़तम विश्वास है कि जिसके बहुत सहायक होते हैं उसे कभी साता नहीं मिल सकती। अनेकोंके साथ सम्बंध होना यह ही महासकट है। जिसके अनेक सम्बन्ध होंगे उसका उपयोग निरन्तर कंटोंमे उनका रहेगा । मनुष्य वही है जो परको सबमे हैय सममे । हेय ही न समझे उनमें न राग करे न द्वेप | सबसे बड़ा दोप यदि हममें है तो यह है कि हम सबको खुश करना चाहते हैं और उसका मूल कारण सब हमको अच्छी दृष्टिमे देखें । पर्धान सव यह कहें देखो फैमा शुद्ध आरसी हैं । उस लोकेपणाने ही हमें पतित कर रक्खा है । जिस दिन उस लोकपाको त्याग देंगे उसी १६० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावाकी श्रोर १६१ दिन सुमार्ग मिल जायगा । सुमार्ग अन्यत्र नहीं, जिस दिन राग कलंकका प्रक्षालन हो जायेगा उसी दिन आनन्दको भेरी बजने लगेगी । आत्माका स्वरूप ज्ञान दर्शन है अर्थात् देखना जानना । जब देखने जानने मे विकार होता है तब पर पदार्थोंमे रागद्वेषकी उत्पत्ति होती हैं । राद्वेषका उदय होने पर यह जीव किसीमे इष्ट और किसीमे अनिष्ट कल्पना करने लगता है । पश्चात् इष्टकी रक्षाका और अनिष्टके विनाशका सतत प्रयत्न करता है । यही इस जीवके संसार भ्रमणका कारण है । प्रात काल मोक्षमार्गप्रकाशकका स्वाध्याय किया । श्रीमान् पं० टोडरमल्लजी एक महान् पुरुष हो गये हैं, उन्होंने गोम्मटसारादि अनेक ग्रन्थोंकी इतनी सुन्दर व्याख्या की है कि अल्पज्ञानी भी उनके मर्मका वेत्ता हो सकता है । इससे भी महोपकार उन्होंने मोक्षमार्गप्रकाश ग्रन्थको सरल भाषामें रचकर किया है । उसमे उन्होंने चारों अनुयोगोंकी शैलीको ऐसी निर्मल पद्धतिसे दर्शाया है कि अल्पज्ञानी उन अनुयोगोंके पारंगत विद्वान् हो सकते हैं । तथा भारतमें जो अनेक दर्शन हैं उनकी प्रणालीका भी दिग्दर्शन कराया है । इस ग्रन्थका जो गम्भीर दृष्टिसे स्व ध्याय करेगा वह नियमसे सम्यग्दर्शनका पात्र होगा। पैरोंकी वेदनाका बहुत वेग बढ़ गया । जितना जितना उपचार होता है उतना उतना वेग बढ़ता है । वेदना बहुत तीव्र होती थी, परन्तु असन्तोष कभी नहीं आया । फिर वेदना होती ही क्यों है ? इसका पता नहीं चलता । इतना अवश्य है कि असाताके तीव्र उदयमें ऐसा समागम स्वयमेव जुड़ जाता है । जिससे मोही जीव अनेक प्रकारकी कल्पना कर दुःख भोगनेका कर्त्ता बनता है । अस्तु, यहाँ के लोग वेश्यानृत्यमें निरन्तर तत्पर थे। पैरोंकी वेदना ज्यों की त्यों थी और ज्वर भी यदा कदा आ ही ११ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ मेरी जीवन गाथा जाता था। इसलिए लोग पाटे पर बैठाकर इटावा ले आये। यहाँ गाड़ीपुराकी धर्मशालामे ठहरे । स्थान अच्छा है । मन्दिर भी इसीमे है। एक कूप भी । यहाँ आने पर असाताका उदय धीरे धीरे कम हुआ तथा उपचार भी अनुकूल हुआ इसलिए आरोग्य लाभ हो गया। इटावा आठ दश दिन बड़ी व्यग्रतामे वीते। प्रवचन आदि बन्द था केवल आत्मशान्तिके अर्थ दैनंदिनीमें जब कभी दो चार वाक्य लिख लेता था । जैसे आत्मपरिणतिको कलुपित होनेसे वचाओ, परकी सहायतासे किसी भी कार्यकी सिद्धि न होगी और न अकार्यकी सिद्धि होगी। जैसे शुद्धोपयोग निजत्वका साधक है वैसे ही रागढूप संमारके साधक हैं। मेरा न कोइ शत्र है और न मित्र है । मै स्वकीय परि णति द्वारा स्वयं ही अपना शत्रु और मित्र हो जाता हूँ। • 'सबसे क्षमा मांगनेकी अपेक्षा अन्तरख क्रोधपर विजय प्राम करो। ऐसा वचन मत बोलो कि जिससे किसीको अन्तरग र पहुंचे। इसका तात्पर्य यह है कि अपने हृदयमै परको २५ पहुच ऐसा अभिप्राय न हो। वचनकी मधुरता और कटुकतासे उमरा यथार्थ तत्त्व अनुमित नहीं होता। 'लोक वञ्चनाके चक्रमें पड़े मानव उन शब्दोंसा व्यवहार करते हैं कि जिनसे लोग सममें यह बड़ा विरक्त है परन्तु उनमें विरगना Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावा १६३ का अंश भी नहीं । यदि विरक्तताका अंश होता तो स्वप्रतिष्ठा के भाव ही न होते । 'संसारमे सुखका उपाय निराकुल परिणति है । निराकुल परिरातिका मूल कारण अनात्मीय पदार्थोंमे आत्मीय बुद्धिका त्याग है ! उसके होते ही रागद्वेष स्वयमेव पलायमान हो जाते हैं । सबसे मुख्य पौरुप यह है कि अभिप्रायमे साधुता आ जाये। जब तक परको निज मानता है तब तक असाधुता नहीं जा सकती । जहाँ असाधुता है वहाँ राग द्वपकी सन्तति निरन्तर स्वकीय अस्तित्व स्थापित करती है ।' 'सबको प्रसन्न करने की चेष्टा अग्निमें कमल उत्पन्न करनेकी चेष्टा है | अपनी परिणति स्वच्छ रक्खो, संकोच करना अच्छा नहीं । संकोच वहीं होता है जहाँ परके रुष्ट होनेका भय रहता है परन्तु विराग दशामे परके तुष्ट या रुष्ट होनेका प्रयोजन ही क्या है ?' 'गुरुदेव से यह प्रार्थना की कि हे गुरुदेव । श्रव तो सुमार्ग पर लगाओ, आपकी उपासना करके भी यदि सुमार्ग पर न आये तो का अवसर सुमार्ग पर आनेका आवेगा ? गुरुदेवने उत्तर दिया कि अभी तुमने मेरी उपासना की ही कहाँ है ? केवल गल्पवादमे समय खोया है । हम तो निमित्त हैं, तुझे उपादान पर दृष्टि पात करना चाहिये । गुरुदेवका अर्थ आत्माकी शुद्ध परिणति है । 'किसीका सहारा लेना उत्तम नहीं, सहारा निजका ही कल्याण करनेवाला है । पञ्चास्तिकायमें श्री कुन्दकुन्द महाराजने तो यहाँ तक लिखा है कि हे आत्मान् ! यदि तू संसार बन्धनसे छूटना चाहता है तो जिनेन्द्रकी भक्तिका भी त्याग कर', क्योंकि वह भी चन्दन नगसंगत दहन की भाँति दु खका ही कारण है' । L Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ मेरी जीवन गाथा 'निवृत्ति ही कल्याणका मार्ग है अन्ततो गत्वा यही शरण है पर पदार्थका सम्बन्ध छोड़ना ही शान्तिका मार्ग है । शान्तिका उपाय अन्य नहीं किन्तु निजत्व दृष्टि है। जिस प्रकार हमारी दृष्टि परकी ओर है उसी प्रकार यदि आत्माकी ओर हो जाय तो कल्याण सुनिश्चित है। लोग परकी चिन्तामे व्यर्थ ही काल यापन करते हैं। _ 'शान्तिका मूल मन्त्र अन्तरङ्गकी कलुषताका नाश है, कलुषताका कारण पर पदार्थोमे समता वुद्धि है, ममता वुद्धि ही संसारकी जननी है। जब पर पदार्थमें आत्मीय अंश भी नहीं तव उसमे राग करना व्यर्थ है । परन्तु यह मोही जानकरभी गर्तमे पड़ता है उसको दूर करनेका यत्न करो'। ___ 'आत्मतत्वकी यथार्थता प्रत्येक व्यक्ति में होती है परन्तु उसकी अनुभूतिसे वञ्चित रहते हैं। इसका मूल कारण हमारी अनादिकालीन परानुभूति ही है, क्योंकि ज्ञानमे स्वपर्यायका ही संवेदन होता है किन्तु मिथ्यात्वकी प्रबलतामें लोग स्वरूपसे वञ्चित हो परको ही निज मान लेते हैं। ___ १० दिन वाद जिनेन्द्रके दर्शन किये। ये दिन बहुत व्यग्रताके थे परन्तु अन्तरङ्गमें विकलता नहीं आई। बनारससे श्री सेठ वैजनाथजी सरावगी, पं. कैलाशचन्द्रजी, अधिष्ठाता हरिश्चन्द्रजी, झवेरीलालचन्द्रजी तथा फतहचन्द्रजी साहव आ गये । सबने बहुत ही आत्मीयता दिखलायी। श्री पं० कैलाशचन्द्रजीका मर्मिक प्रवचन हुआ। श्रीयुत व्र० चांदमल्लजी साहव भी उदयपुरसे आ गये आप बहुत विवेकी पुरुष हैं अपने कार्यमे सन्नद्ध रहते हैं स्वाध्यायपटु हैं प्रवचन समीचीन शैलीसे करते हैं। हमारे शरीरकी दशा देख आपने कहा कि अब आप शान्तिसे काल यापन करो व्यर्थके विकल्पोंसे अपनेको सुरक्षित रक्खो। दिल्लीसे श्री ताराचन्द्रजी तथा राजकृष्णजी भी आये। राजकृष्णजी एक कमण्डलु लाये । कमण्डलु Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ इटावा को देख मेरे मनमे विचार आया कि परमार्थसे पीछी-कमण्डलु वही रख सकता है जिसके अन्तरङ्गमें संसारसे भीरुता हो । भीस्ता भी उसीको हो सकती है जो इसे दुःखात्मक समझे । दुःखका कारण परमार्थसे पर नहीं हमारी कल्पना ही है। वह इन पदार्थोमे निजत्व मान दुःखकी जननी बन जाती है। दुःखका कारण रागादिक है। जबलपुरसे श्रीटेकचन्द्रजी और राँचीसे सेठ चाँदमल्लजी साहब भी आये । अव चाँदमल्लजी अपनी इस पर्यायमें नहीं हैं। आपका वोच सुपुष्ट था आप अन्तरङ्गसे विरक्त भी थे आपका आग्रह था कि आप गिरिराज चलें वहाँ पर हमारा भी निवास करनेका अभिप्राय है। मैंने कहा कि इच्छा तो यही है कि गिरिराज पहुँचकर श्रीभगवान् पार्श्वनाथकी शरण लू पर यह शरीर जव इच्छानुकूल प्रवृत्ति करे तव कार्य वने। सागरसे श्री बालचन्द्रजी मलैया, पं० पन्नालालजी तथा दिल्लीसे श्री जैनेन्द्रकिशोरजी सकुटुम्ब आये प्रातःकाल आनन्दसे प्रवचन हुआ। हमारे प्रवचनके अनन्तर श्री चाँदमल्लजी ब्रह्मचारी का व्याख्यान हुआ। व्याख्यान सामयिक था। लोगोंकी दृष्टि सुननेकी ओर तो है पर करनेकी ओर नहीं। करनेसे दूर भागते हैं परन्तु किये विना सुनना और बोलना-दोनों ही कुछ प्रयोजन नहीं रखते। परमार्थ तो यह है कि कपायपूर्वक मन वचन कायका जो व्यापार हो रहा है वह रुक जावे तो कल्याणका पथ सुलस हो जावे । धीरे धीरे शीतकी बाधा कम हो गई और हमारे शरीरमे वातके कारण जो बाधा हो गई थी वह दूर हो गई। यहाँ स्वर्गीय ज्ञानचन्द्र जी गोलालारेकी धर्मपत्नी धनवन्ती देवीने ७५०००) पचहत्तर हजार रुपया जैन पाठशालाके अर्थ प्रदान किया माघ शुक्ल ५ सोमवार दिनांक २३ जनवरी १९५० को उसका मुहूर्त था उद्घाटन मेरे हाथोंसे हुआ। द्वितीय दिन महिला सभाका आयोजन हुआ श्री धनवन्ती देवीने मुख्याध्यक्षाका पद अङ्गीकार किया हम लोग भी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ मेरी जीवन गाथा सभामे गये। जन समुदाय पुस्कल था पं० कैलाशचन्द्रजी बनारस का व्याख्यान समयोचित था । पाठशालाका नाम श्री ज्ञानधन जैन सं कृत पाठशाला रक्खा गया। आज सर्वत्र पाश्चात्य शिक्षाका प्रचार है इसलिए लोगोंके संस्कार भी उसी प्रकार हो रहे हैं लोगोंके हृदयसे अध्यात्म सम्बन्धी संस्कार लुप्त होते जा रहे हैं यही कारण है कि सर्वत्र अशान्ति ही अशान्ति दृष्टिगोचर हो रही है । शान्तिका आस्वाद आजतक नहीं आया इसका मूल कारण विरोधी पदार्थोमे तन्मयता है । हम क्रोधको त्यागनेमे असमर्थ हैं और क्षमाका स्वाद चाहते हैं यह असम्भव है। संस्कार निर्मल बनानेकी आवश्यकता है हम आजतक जो संसारमे भ्रमण कर रहे हैं इसका मूल कारण अनादि संस्कारोंके न त्यागनेकी ही कुटेव है। २६ जनवरीका दिन आ गया। आजसे भारतमे नवीन विधान लागू होगा अतः सर्वत्र उत्साहका वातावरण था। श्रीयुत महाशय डा० राजेन्द्रप्रसादजी विहारनिवासी इसके सभापति होंगे। श्राप आस्थामय उत्तम पुरुष हैं। भारतको स्वतन्त्रता सिली परन्तु इसकी रक्षा निर्मल चारित्रसे होगी। यदि हमारे अधिकारी महानुभाव अपरिग्रहवादको अपनावें तथा अपने आपको स्वार्थकी गन्धसे अदूषित रक्खें तो सरल रीतिसे स्वपरका भला कर सकते है। श्री हुकमचन्द्रजी सलावावाले आये आप योग्य तथा स्वाध्यायके व्यसनी हैं। एक महाशय कुरावलीसे भी आये उनकी यह श्रद्धा है कि उपादानसे ही कार्य होता है । उपादानमे कार्य होता है इसमे किसीको विवाद नहीं परन्तु उपादानसे ही होता है यह कुछ संगत नहीं क्योंकि कार्यकी उत्पत्ति पूर्ण सामग्रीसे होती है, न केवल उपादानसे और न केवल निमित्तसे। शास्त्र में लिखा है 'सामग्री जनिका कार्यस्य' अर्थात् सामग्री ही कार्यकी जननी है। यदि निमित्तके विना केवल उपादानसे कार्य होता है तो मनुष्य पर्यायरूप निमित्तके Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावा १६७ बिना ही आत्माको सर्वत्र मोक्ष हो जाना चाहिये क्योंकि मोक्षका उपादान आत्मा तो सर्वत्र विद्यमान है । यदि मनुष्य पर्यायाविष्ट आत्मा ही मोक्षका उपादान है तो मनुष्य रूप निमित्तकी उपेक्षा कहाँ रही । अतः अनेकान्त दृष्टिसे पदार्थका विवेचन हो तो उत्तम है । कानपुरसे भी वहुत लोग आये और आग्रह करने लगे कि कानपुर चलिये परन्तु मै चल सकूँ इसके योग्य मेरा शरीर नहीं त मैंने जानेसे इनकार कर दिया। मेरे मनमें तो अटल श्रद्धा है कि शान्तिका मार्ग न तो पुस्तकोंमे है, न तीर्थ यात्रादिमें है, न सत्समागमादिमे हैं र न केवल दिखावाके योग निरोधमे है । किन्तु कपाय निग्रह पूर्वक सर्व अवस्थामे है। श्रद्धाकी यह शक्ति है कि उसके साथ ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है और स्वानुभावात्मक निजस्वरूत्रमे प्रवृत्ति हो जाती है | गिरिडीहसे श्रीयुत कालूरामजी और श्री रामचन्द्रजी बाबू भी आये । आप दोनों ही योग्य पुरुष हैं आपका अभिप्राय है कि अब मैं श्री पार्श्वप्रभुके चरण कमलों में रहकर अपनी अन्तिम अवस्था शान्तिसे यापन करूँ। मेरी अवस्था इस समय ७६ वर्षकी हो गई है, शरीर दिन प्रतिदिन शिथिल होता जाता है, स्मरण शक्ति घटती जाती है केवल अन्तरङ्गमे धर्मका श्रद्धान दृढ़तम है । किन्तु सहकारी कारणका सद्भाव भी आवश्यक हैं । सेटी चम्पालालजी गयावालोंने भी यही भाव प्रकट किया परन्तु इच्छा रहते हुए भी मैं शरीरकी अवस्था पर दृष्टिपात कर लम्बा मार्ग तय करनेके लिए समक्ष नहीं हो सका । लोग बात तो बहुत करते हैं परन्तु कर्तव्यपथमे नहीं लाते । कर्तव्यपथमे लाना बहुत ही कठिन है । उपदेश देना सरल है परन्तु स्वयं उसपर आरूढ़ होना दुष्कर है। मैंने यही निश्चय किया कि आत्माकी परिणति जानने देखनेकी है अत तुम ज्ञाता दृष्टा ही रहो पदार्थमें जैसा परिणमन होना है हो उसमे इष्टानिष्ट कल्पना Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ मेरी जीवन गाया न करो क्योंकि यही संसारकी जड़ है। यदि तुम्हें संसारका अन्त करना है तो परसे आत्मीयता त्यागो। सर्वोत्तम बात यह है कि किसीके चक्रमें न आवे, चक्र ही परिभ्रमणका मुख्य कारण है। मनुष्योंसे स्नेह करना ही पापका कारण है संसारका मूल कारण यही है । जिन्हें संसार बन्धनका उच्छेद करना है उन्हे उचित है कि वे परकी चिन्ता त्यागें। परकी चिन्ता करना मोही जीवोंका कर्तव्य है। __ यहाँ नीलकण्ठ नामक स्थान हैं जिसके कूपका जल अत्यन्त स्वास्थ्यप्रद है, यहाँ रहते हुए मैंने उसीका जल पिया । एकान्त शान्त स्थान है। अधिकांश मैं दिनका समय यहीं व्यतीत करता था। फाल्गुनका मास लग गया और ऋतु में परिवर्तन दिखने लगा भिण्डसे बहुतसे मनुष्य आये और उन्होंने भिण्ड चलनेका आग्रह किया शरीर तथा ऋतुकी अनुकूलता देख मैंने भिण्ड जानेकी स्वीकृति दे दी । स्वीकृति तो दे दी परन्तु आकाशमे मेघकी घटा छाई हुई थी इसलिये उस दिन जाना नहीं हो सका। तीसरे दिन जब आकाश स्वच्छ हो गया तब फागुन कृष्ण ५ को १३ वजे प्रस्थान किया। इटावाके अञ्चलमें इटावाके पास ही श्रीविमलसागरकी समाधि स्थान है, स्थानकी नीरवता देख १५ मिनट वहाँ विश्राम किया। यह धर्म साधनका उत्तम स्थान है परन्तु कोई ठहरनेवाला नहीं। बातोंके बनानेवाले Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावा श्रञ्चलमें १६६ बहुत हैं कर्तव्य पालन करनेवाले कम हैं । यहाँसे ३ मील चलकर गोरेनीका नगरामे ठहर गये । प्रातः यहाँसे २ मील चल कर चम्बल नढीके घाटपर ठहर गये । बहुत सुन्दर दृश्य है नीचे नदी वह रही है ऊपर सहस्रों टीला है। एक बंगला है, २ फलांगपर १ ग्राम है जिसका नाम उढ़ी है यहाँपर १ मिटिल स्कूल है । ६ बजे शास्त्र प्रनचन हुआ, अन्य लोग भी आये स्कूलके मास्टर तथा छात्र गण भी थे । आगत जनतासे मैंने कहा कि आप बीड़ी पीना छोड़ दें तथा परस्त्रीका त्याग भी कर दें सुनकर आम जनता प्रसन्न हुई तथा अधिकांशने प्रतिज्ञा ली । यहाँसे चल कर वरहीमे ठहरे और प्रातः ५ मील चल कर फूफ आ गये । जैन मन्दिरकी धर्मशालामे ठहरे, यहाँ २० वर जैनियोंके हैं लोग भद्र जान पड़ते हैं । श्रीराजारामजी गोलसिंगारेके घर भोजन किया । उन्होंने जो खर्च हो उसपर एक पैसा प्रति रुपया दान करनेका नियम लिया तथा उनकी गृहिणीने अष्टमी चतुर्दशीको शीलव्रत लिया । आज ईसरीसे पत्र आया कि व्र० कमलापतिजीका स्वर्गवास हो गया । समाचार जानकर पिछली घटनाएं स्मृत हो उठीं आप वरायठा (सागर) के रहनेवाले थे । सम्पन्न होनेपर भी गृहसे विरक्त थे । आपके साथ बुन्देल - खण्डमे मैंने बहुत भ्रमण किया था तथा वहाँ प्रचलित कई रूढ़ियाँ बन्द कराई थीं । आपको शास्त्रका ज्ञान भी अच्छा था । अष्टमीका दिन होनेसे सम्यक् प्रकार धर्मध्यानमें दिन बीता । स्वाध्याय अच्छा हुआ, स्वाध्यायका फल स्वपर विवेकका होना है। इससे संवर और निर्जरा होती है । श्रागमाभ्याससे उत्तम मोक्षमार्गका अन्य सहायक नहीं । यहाँसे दूसरे दिन ४ मील चलकर दीनपुरा मे रात्रि बिताई । प्रातः २ मील चलकर भिण्डके बाहर एक सुरम्य स्थानमे ठहर गये । यहाँ से १ फर्लांग मन्दिर है, बहुत विशाल है । मध्याह्नके बाद २ बजेसे नसियामे सभा हुई जनसंख्या अच्छी थी । श्री पं० 1 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा पन्नालालजी काव्यतीर्थ प्रोफेसर हिन्दू विश्वविद्यालयका व्याख्यान समयानुकूल हुआ, श्री व्र० चॉदमल्लजीका भी उत्तम व्याख्यान हुआ तदनन्तर मैंने भी कुछ कहा । मेरे कहनेका भाव यह था कि महती आवश्यकता विशुद्धिकी है बिना भेदज्ञानके विशुद्धि रूप परिणति होना दुष्कर है । भेदज्ञानका बाधक पर पदार्थमे निजत्व कल्पना है । भेदके होनेमें सब मुख्य कारण आत्मीय ज्ञानकी प्राप्ति है । जिस प्रकार हम घट पटादि पदार्थोंको जाननेमें मनोवृत्ति रखते हैं उसी प्रकार आत्मज्ञानमे भी हमे चेष्टा करना चाहिये । उपदेशका फल तो यह है कि परलोकके अर्थ प्रयत्न किया जावे । जो मनुष्य आत्मतत्त्वकी यथार्थतासे अनभिज्ञ हैं वे कदापि मोक्षमार्ग पात्र नहीं हो सकते । यहाँ कभी गोलसिंघारोंके मन्दिर में और कभी चैत्यालय प्रवचन होता था जनता अच्छी आती थी । यहॉ पर समयसारकी रुचिवाले बहुत हैं पर विशेषज्ञ गिनतीके हैं। एक दिन प्रवचनमे चर्चा आई कि क्या सम्यग्दृष्टि कुदेवादिककी पूजा कर सकता है ? मेरा भाव तो यह है कि जिसे अनन्त संसार के बन्धनोंसे छुटानेवाला सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया वह रागद्वेपसे लिप्त देवादिककी पूजा नहीं कर सकता वीतराग सर्वज्ञ तथा संभव हो तो हितोपदेशकत्व बिना अन्य किसी भी जीवके सुदेवत्व नहीं श्रता । भले ही वह जैनधर्मसे प्रेम रखता हो और जिन शासनकी प्रभावना : रता हो पर है कुदेव ही । समन्तभद्र स्वामीने इस विपयअपना अभिप्राय निम्न प्रकार दिया है । १७० भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टय. ॥ अर्थात् सम्यग्दृष्टि पुरुष भय, आशा, स्नेह और लोभके वशीभूत होकर कुदेव, कुप्रागम और कुलिङ्गयोंको प्रणाम न करे। लोग न Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ इटावाके अञ्चलमें जाने क्यो पक्ष व्यामोहमे पड़ इतनी स्पष्ट वातको भी ग्रहण नहीं परते ? उन्हे देव, अदेवकी परिभापा भी नहीं जमती ऐसा जान पड़ता है। एक दिन गोलालारोंके मन्दिरमे भी प्रवचन हुआ जनता अच्छी आयी परन्तु प्रवचनका वास्तविक प्रभाव कुछ नहीं हुआ। मेरा तो यह विश्वास है कि वक्ता स्वयं उसके प्रभावमे नहीं आता, अन्यको प्रभावमे लाना चाहता है यह प्रवचनकर्तामें महती त्रुटि है। एक सहस्र वक्ता और व्याख्यान देनेवालोंमें एक ही अमल करनेवाला होना कठिन है। यहाँ लोगोंमे आपसी वैमनस्य अधिक है। एक पाठशाला स्थापित होनेकी बात उठी अवश्य पर कुछ लोगोंके पारस्परिक संघर्पके कारण काम स्थगित हो गया। धन्य है उन्हे जिन्होंने कपायरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करली । एक दिन पुरानी मण्डीमें २ मन्दिरोंके दर्शन किये । मन्दिर बहुत ही रमणीय है ५०० मनुष्य इनमें शास्त्र श्रवण कर सकते हैं। एक मन्दिर भट्टारकजीका बहुत ही स्वच्छ-निर्मल तथा विशाल है। भिण्ड जैनियो की प्राचीन वस्ती है जन संख्या अच्छी है यदि सौमनस्यसे काम करें तो जन कल्याणके अच्छे कार्य यहाँ हो सक्ते हैं। ६-१० दिन यहाँ रहनेके वाद फाल्गुन शुक्लाको चल कर दीनपुरा छा गये और दूसरे दिन दीनपुरासे फूफ आ गये । यहाँ मुरारसे ४ नहिलऍ आई थीं उनके यहाँ हमारा भोजन हुआ। भोजन बड़े भावसे कराया। फूफसे ५ मील चल कर वरही आये यहाँ पर १ मन्दिर प्राचीन बना हुआ है चम्बलके तटसे ३ मील है। ६० हाथ गहरा कूप है फिर भी जल क्षार है यहाँ पर ३ घर जैनियोके हैं अच्छे सम्पन्न हैं, शिक्षा इस प्रान्तमें कम है। यहाँसे चल कर उडूग्राममे ठहर गये । यहाँसे चल कर नगरा ग्राममे आ गये। यहाँ एक ब्राह्मण महोदयके घरमे ठहर गये आप बहुत ही सज्जन हैं आपने आदरसे व्यवहार किया। भोजनके उपरान्त १ बजे Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ मेरी जीवन गाथा चलकर ३ बजे इटावाकी नशियों में आ गये स्थान रम्य हैं यहाँ पर श्री विमलसागरजीकी समाधि हुई थी किन्तु अब यहाँ पर इटावावालों की दृष्टि नहीं । इस तरह इटावाके अञ्चल में भ्रमण कर यही अनुभव किया कि सर्व मनुष्योंके धर्मकी आकांक्षा रहती है तथा सबको अपना उत्कर्ष भी इष्ट है परन्तु मोहके नशामें अन्ध कैसी दशा हो रही है यही अकल्याणका मूल है। मोह एक ऐसी मदिरा है कि जिसके नशामे यह जीव स्व को भूल परको अपना मानने लगता है । यह विभ्रम ही संसार परिभ्रमणका कारण है । जिसके यह विभ्रम दूर होकर स्वका यथार्थ बोध हो जाता है। वह परसे यथासंभव शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है । अष्टकापर्व फाल्गुन शुक्ला ८ सं० २००६ से श्रष्टह्निका पर्व प्रारम्भ हो गया यह महापर्व है । इस पर्वमे देवगण नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं वहाँ पर ५२ जिनालय हैं। मनुष्योंका गमन वहाँ नहीं, देवगण ही वहाँ जाते हैं मनुष्य चाहे विद्याधर हो चाहे ऋद्धिधारी मुनि हों, नहीं जा सकते । किन्तु मनुष्योंमें वह शक्ति है कि संयमांशको ग्रहण कर देवोंकी अपेक्षा असंख्यगुणी निर्जरा कर सकते हैं । मन्दिरमे समयसारका प्रवचन हुआ । कुछ वांचो परन्तु बात वही हैं जो हो रही हे संसारके चक्रमें जीव उलझ रहा है आहार भय मैथुन परिग्रह संज्ञाओंके आधीन होकर आत्मीय स्वरूपसे अपरिचित रहता है | आत्मामे ज्ञायक शक्ति है जिससे वह स्त्रपरको जानता है परन्तु Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाह्निका पर्व १७३ अनादिकालसे मोह मदका ऐसा प्रभाव है कि आपापरकी ज्ञप्तिसे वञ्चित हो रहा है। संसार एक अशान्तिका भण्डार है इसमें शान्तिका अत्यन्त अनादर है, वास्तवमें अशान्तिका अभाव ही शान्तिका उत्पादक है। अशान्तिके प्रभावसे सम्पूर्ण जगत् व्याकुल है। अशान्तिका वाच्यार्थ अनेक प्रकारकी इच्छाएं हैं। ये ही हमारे शान्ति स्वरूपमे बाधक हैं जब हम किसी विषयकी अभिलाषा करते हैं तब आकलित हो जाते हैं, जब तक इच्छित विषयका लाभ न हो तव तक दुखी रहते हैं। अन्तरगसे यदि यह वात उत्पन्न हो जाय कि प्रत्येक द्रव्य स्वमे परिपूर्ण है उसे पर पदार्थकी आवश्यकता नहीं। जब तक पर पदार्थकी आवश्यकता अनुभवमें आती है तब तक इसे स्वद्रव्यकी पूर्णतामे विश्वास नहीं "तो परकी आकांक्षा मिट जाय और परकी आकांक्षा मिटी कि अशान्तिने कूच किया । जो मनुष्य शान्ति चाहते हैं वे परजनोंके संसर्गसे सुरक्षित रहे । परके संसर्गसे बुद्धिमें विकार आता है विकारसे चित्तमे आकुलता होती है। जहाँ आकुलता है वहाँ शान्ति नहीं, शान्ति विना सुख नहीं और सुखके अर्थे ही सर्व प्रयास मनुष्य करता है। अनादिसे हमारी मान्यता इतनी दूषित है कि निजको जानना ही असंभव है। जैसे खिचड़ी खानेवाला मनुष्य केवल चावलका स्वाद नहीं बता सकता वैसे ही मोही जीव शुद्ध आत्मद्रव्यका स्वाद नहीं बता सकता। मोहके उदयमे जो ज्ञान होता है उसमे पर ज्ञेयको निज माननेकी मुख्यता रहती है । यद्यपि पर निज नहीं परन्तु क्या किया जावे । जो निर्मल दृष्टि है वह मोहके सम्बन्धसे इतनी मलिन हो गई है कि निजकी ओर जाती ही नहीं। इसीके सद्भावमे जीवकी यह दशा हो रही है उन्मत्तक (धतूरा) पान करनेवालेकी तरह अन्यथा प्रवृत्ति करता है अतः इस चक्रसे बचनेके अर्थ परसे ममता त्यागो केवल वचनोंसे व्यवहार करनेसे ही संतोष मत कर लो । जो मोहके साधक हैं उन्हें Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ मेरी जीवन गाथा त्यागो। जैसे पञ्चेन्द्रियोंके विपय त्यागनेसे ही मनुष्य इन्द्रिय विजयी होगा कथा करनेसे कुछ तत्व नहीं निकलता । वात असलमे यह है कि हमारे इन्द्रियजन्य ज्ञान है इस ज्ञानमे जो पदार्थ भासमान होगा उसी ओर तो हमारा लक्ष्य जावेगा उसीकी सिद्धिके अर्थ हम प्रयास करेंगे चाहे वह अनर्थकी जड क्यो न हो। अनर्थकी जड़ बाह्य वस्तु नहीं, वह तो अध्यवसानमे विपय पडती है अतएव वाह्य वस्तु बन्धका जनक नहीं श्रीकुन्दकुन्ददेवने लिखा है वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाण । ण हि वत्युदो बंधो अज्झवसाणेण बंधो दु॥ पदार्थ को निमित्त पाकर जो अध्यवसान भाव जीवों को होता है वही वन्धका कारण है, पदार्थ वन्धका कारण नहीं है । यहाँ कोई कह सकता है कि यदि ऐसा सिद्धान्त है तो बाह्य वस्तुका त्याग क्यो कराया जाता है ? तो उसका उत्तर यही है कि अध्यवसान न होनेके अर्थ ही कराया जाता है। यदि बाह्य पदार्थके आश्रय विना अध्यवसान भाव होने लगे तो जैसे यह अध्यवसान भाव होता है कि मैं रणमे वीरसू माताके पुत्रको मारूँगा वहाँ यह भी अध्यवसान भाव होने लगे कि मैं बन्ध्यापुत्रको प्राण रहित करूँगा परन्तु नहीं होता क्योंकि मारणक्रियाका आश्रयभूत बन्ध्यासुत नहीं है अत: जिन्हे वन्ध न करना हो वे वाद्य वस्तुका परित्याग कर देवें । परमार्थसे अन्तरङ्ग मूर्छाका त्याग ही बन्धकी निवृत्तिवा कारण है। मिथ्या विकल्पोको त्याग कर यथार्थ वस्तु स्वम्पक निर्णयमे अपनेको तन्मय करो अन्यथा नसो भवचक्रके पात्र रद्दागे। तुम विश्वसे भिन्न हो फिर भी विश्वको अपनाते हो उसमें मूल ज मोह है जिनके वह नहीं वह मुनि हैं, ये अव्यवमान यादि भाष Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाह्निका पर्व १७५ जिनके नहीं वही महामुनि हैं। वे ही शुभ अशुभ कर्मसे लिप्त नहीं होते। जिस जीवको यह निश्चय हो गया कि मैं परसे भिन्न हूँ वह कदापि परके संयोगमे प्रसन्न और विषादी नहीं हो सकता। प्रसन्नता और अप्रसन्नता मोहमूलक है। मोह ही एक ऐसा महान् शत्रु इस जीवका है कि जिसकी उपमा नहीं की जा सकती उसीके प्रभावसे चौरासी लाख योनियोंसे जीवका भ्रमण हो रहा है अतः जिन्हे यह भ्रमण इष्ट नहीं उन्हे उसका त्याग करना चाहिये। खेद करो मत प्रातमा खेद पापका मूल । खेद किये कुछ ना मिले, खेद करहु निमूल ॥ खेद पाप की जड़ है अतः हे आत्मन् ? खेद करना श्रेयस्कर नहीं किन्तु खेदके जो कारण हैं उनसे निवृत्ति पाना श्रेयस्कर है। मैं अनादि कालसे संसारमे भटक कर दुखी हो रहा हूँ ऐसा विचार कर कोई खेद करने वैठ जाय तो क्या वह दुःखसे छूट जायगा? नही दुःखसे तो तभी छूटेगा जव संसार भ्रमणके कारण मोह भावसे जुदा होगा। लोग प्रवचनोंमें आते हैं पर शास्त्रश्रवणका रस नहीं। इसका मूल कारण आगमाभ्यास नहीं किया और न उस ओर रचि ही है। लोगोंको बुद्धि न हो सो वात नहीं । सासारिक कार्योंमे तो बुद्धि इतनी प्रबल है कि वालकी भी खाल निकाल दें परन्तु इस ओर सृष्टी नहीं। कई श्रोता तो रूढ़िसे आते हैं, कई वक्ताकी परीक्षाके अर्थ आते हैं, कई वक्ताकी वाणी कुशलतासे आते हैं और कई कौतूहलसे आते हैं, अधिक भाग महिलाओंका होता है । प्रात्मकल्याणकी भावनासे कोई नहीं आता यह वात नहीं परन्तु ऐसे जीव विरले हैं। यदि यह वात न होती तो शास्त्रश्रवण करते करते Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ मेरी जीवन गाया जीवन व्यतीत हो गया पर प्रवृत्तिमें अन्तर क्यों नहीं आया ? यहाँ तो यह बात है कि शास्त्रमे जो लिखा सो ठीक, और वक्ता जा कह रहा सो ठीक पर काम हम वही करेंगे जो करते चले आ रहे हैं। एक कहावत है कि आप कहे सो ठीक और वे कहे सो ठीक पर नरदाका द्वार यहीं रहेगा। अस्तु, पर्वभर लोगोंमे अच्छा उत्साह रहा। उदासीनाश्रम और संस्कृत विद्यालयका उपक्रम चैत्र कृष्ण ३ संवत् २००६ को प्रातःकाल यहाँ उदासीनाश्रमकी स्थापना हो गई। श्री लक्ष्मणप्रसादजीने १००) मासिक और कई महाशयोंने मिलकर १५०) मासिक रुपये दिये । ४ उदासीन भाई आश्रममे प्रवृष्ट हुए साथ ही बहुतसे मनुप्योंके भाव इस ओर ऋजु हुए परन्तु थोड़ी देरकी उफान है घर जाकर भूल जाते हैं। पं० फुलचन्द्रजी बनारससे आये थे वे आज बनारस वापस चले गये। आप स्वच्छ वात करते हैं किन्तु समयकी गतिविधि देखकर व्यवहार करें तब उनका प्रयास सफल हो सकता है। पं० पन्नालालजी काव्यतीर्थ भिण्ड गये थे वहाँसे उन्हें वणींचेवरके लिए ५०१) मिले थे यह स्पये पं० फूलचन्द्रजीके हाथ भेज दिये। पं० मन्मनलालजी तर्कतीर्थ कलकत्तावाले श्राये। प्रचीन विद्वानोममे हैं व्युत्पन्न भी हैं परन्तु प्रकृतिके तीच्ण हैं। ३ छात्रोंने संस्कृन पढ़नेका भाव प्रकट किया। संस्कृत भाषा उत्तम भापा है जैनागमका भान दम भापार अध्ययनके बिना मगम रीतिने लभ्य नहीं परन्तु याज लोगों इष्टि पैसेकी ओर लग रही है। रम भाषा अध्ययन में पैमाफी Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदासीनानम और संस्कृत विद्यालयका उपक्रम १७७ प्राप्ति पुष्कल नहीं होती इसलिए धनिकवर्ग अपने बालकोंको इसका अध्ययन नहीं कराते परन्तु इतना निश्चित है कि इस भाषासे हृदयमे जो शुद्धि या निर्मलता आती है वह अन्य भाषाओंसे नहीं। ३ छात्रों द्वारा अभ्यन्तरकी प्रेरणासे संस्कृत भाषाके अध्ययनकी बात सुन हृदयमें प्रसन्नता हुई। यहाँ पसारी टोलाके मन्दिरमें प्राचीन साहित्य भण्डार है ग्रन्थोको दीमक और चूहोंने बहुत नुकसान पहुंचाया है लोग शास्त्र भण्डारोंका महत्त्व नहीं समझते इसलिये उनकी रक्षाकी ओर विशेप प्रयत्न शील नहीं रहते। अपने हुन्डी दस्तावेज आदिको लोग जिस प्रकार सुरक्षित रखते हैं उसी प्रकार शास्त्र भी सुरक्षित रखनेके योग्य हैं। श्री ज्ञानचन्द्रजीकी धर्मपत्नीने जो ७५०००) का दान निकाला था उसके ट्रष्ट होनेमे कुछ लोग बाधा उपस्थित कर रहे थे तथा कितने ही लोगोंकी यह भावना थी कि यह रुपये अंग्रेजी स्कूलमे लगाये जावें। मुझे इससे हर्ष विपाद नहीं था परन्तु भावना यह थी कि अंग्रेजी अध्ययनके लिए तो नगरमें छात्रोंको अन्य साधन सुलभ हैं अतः उसीसे द्रव्य लगानेसे वास्तविक लाभ नहीं। संस्कृत अध्ययनके और खास कर जैनधर्म सहित संस्कृत अध्ययनके साधन नहीं इसलिये उसके अर्थ द्रव्य व्यय करना उत्तम है। अस्तु मुझे इस विकल्पमे नहीं पड़ना ही श्रेयस्कर है यह विचार कर मैं तटस्थ रह गया। चैत्र कृष्ण ६ सं० २००६ को शामके समय यहाँसे २ मील चल कर श्री सोहनलालजीके बागमे ठहर गये। प्रातःकाल सामायिक कर चलनेके लिये तैयार हुए। इतनेमे इटावासे बहुतसे सज्जन आ गये । सवने बहुत आग्रह किया कि आप इटावा ही रहिये क्योकि गर्मी पड़ने लगी है अतः मागमे आपको कष्ट होगा। मैंने कहामुझे कोई आपत्ति नहीं श्री चम्पालालजी सेठीसे पूछिये । अन्तमे उन १२ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाया - लोगोंने कहा कि यदि आप रह जावें तो धनवंतीवाईका ७५०००) पचहत्तर हजार रुपया संस्कृत विभागमे लगा देवेंगे। संस्कृत विभाग का नाम सुन मेरे हृदयमे बहुत प्रसन्नता हुई। अन्ततो गत्वा यही निश्चय किया कि रहना चाहिये। निश्चयानन्तर हम सोहनलालजीके वागसे वापिस आ गये। मनुष्योंके चित्तमे उत्साह हुआ श्री मुन्नालालजीको तो इतना उत्साह हुआ कि उन्होंने १२५) प्रतिमास देनेको कहा तथा धनवन्तीके ७५०००) भी पृथकसे इसी कार्यके लिए दिलाये । 'शुभस्य शीघ्रम्' के अनुसार चैत्र कृष्ण सं० २००६ को ही पं० भम्मनलालजी द्वारा संस्कृत विद्यालयका काम शुरू हो गया। ५ छात्रोंने लघुसिद्धान्तकौमुदी प्रारम्भ की, सेठ भगवानदासजीके सुपुत्रने सर्वार्थसिद्धि प्रारम्भ की। श्री वनवारीलालजी त्यागीने द्रव्य संग्रहका प्रारम्भ किया। अन्तमे श्रीपाल वैद्यने मिष्टान्न वितरण किया। सानन्द उत्सव समाप्त हुआ। श्री मुन्नालालजीने इटावा मे ही चातुर्मास करनेका आग्रह किया तो मैंने यह बात समक्ष रक्खी कि यदि चैत्र सुदी १५ तक संस्कृत विद्यालयके लिए १ लक्ष रुपयेकी रजिष्टी हो जायगी तो कार्तिक सुदी २ तक रह जायेंगे। चातुर्मासकी बात सुन जनताको बहुत उल्लास हुआ। जैनदर्शन के लेख पर जबसे हरिजन मन्दिर प्रवेशकी चर्चा चली कुछ लोगोंने अपने स्वभाव या पक्ष विशेषकी प्रेरणासे हरिजन मन्दिर प्रवेशके विधि निषेध साधक आन्दोलनोंको उचित-अनुचित प्रोत्साहन दिया। कुछ लोगोंको जिन्हे आगमके अनुकूल किन्तु अपनी धारणाके Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदासीनाश्रम और संस्कृत विद्यालयका उपक्रम १७६ प्रतिकूल विचार सुनाई दिये उन्होने कहना प्रारम्भ किया कि 'वर्णीजी हरिजनमन्दिर प्रवेशके पक्षपाती हैं। इतना ही नहीं दलविशेष और पक्ष विशेषका आश्रय लेकर अपनी स्वार्थ साधनाके लिये यद्वा तद्वा आगम प्रमाण उपस्थित करते हुए मेरे प्रति जो कुछ मनमे आया ऊटपटांग कह डाला। इससे मुझे जरा भी रोष नहीं परन्तु उन सम्भ्रान्त जनोंके निराकरण करनेके लिये कुछ लिखना आवश्यक हो गया। यद्यपि इससे मेरी न तो पक्षपाती बननेकी इच्छा है और न विरोधी किन्तु आत्माकी प्रबल प्रेरणा सदा यही रहती है कि जो मनमें हो सो वचनोंसे कहो । यदि नहीं कह सकते तो तुमने अब तक धर्मका मर्म ही नहीं समझा। 'जैनदर्शन' के सम्पादकने वणी लेख पर शूद्रोंके विषयमें बहुत कुछ लिखा है आगम प्रमाण भी दिये हैं। मैं आगमकी वातको सादर स्वीकार करता हूँ किन्तु आगमका जो अर्थ आप लगावें वही ठीक है यह आप जानें। श्री १०८ कुन्दकुन्द महाराजने तो यहाँ तक लिखा है तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज पमाणं चुफिज छलं ण घेतव्वं ।। आगममें लिखा है कि अस्पृश्य शुद्रसे स्पर्श हो जावे तो स्नान करना चाहिये । यहाँ यह जिज्ञासा है कि अस्पृश्य क्या अस्पृश्य जातिमें पैदा होनेसे हो जाता है ? यदि यह बात है तो ब्रह्मादि ३ वर्णो मे पैदा होनेसे सबको उत्तम होना चाहिये परन्तु ऐसा देखा जाता है कि यदि उत्तम जातिका निन्द्य काम करता है तो वह चाण्डाल गिना जाता है, उससे लोग घृणा करते हैं, पंक्तिभोजनमे उसे शामिल नहीं करते और वही मनुष्य जो उत्तम कुलमें पैदा हुआ यदि मुनिधर्म अंगीकार कर लेता है तो पूज्य माना Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० मेरी जीवन गाथा जाता है । देवतुल्य उसकी पूजा होती है तथा उसके वाक्य आर्पवाक्य माने जाते हैं। अथवा वह तो मनुष्य हैं उत्तम कुलके हैं किन्तु जहाँ न तो कोई उपदेष्टा है और न मनुष्योंका सद्भाव है ऐसे स्वयंभूरमण द्वीप और समुद्रमें असंख्यात तिर्यञ्च मछली मगर तथा स्थलचारी जीव व्रती होकर स्वर्गके पात्र होते हैं। तव कर्मभूमिके मनुष्य यदि व्रती होकर जैनधर्म पालें तो क्या आप रोक सकते हैं। आप हिन्दू न बनिये, यह कौन कहता है परन्तु जो हिन्दू उच्च कुलवाले हैं वे यदि मुनि वन जावें तब क्या आपत्ति है ? हिन्दू शब्दका अर्थ मेरी समझमे धर्मसे सम्बन्ध नहीं रखता । जिस प्रकार भारतका रहनेवाला भारतीय कहलाता है इसी तरह देश विशेषमे रहनेवाला हिन्दू कहलाता है। जन्मसे मनुष्य एक सदृश उत्पन्न होते हैं किन्तु जिनको जैसा सम्बन्ध मिला उसी तरह उनका परिणमन हो जाता है। भगवान् आदिनाथके समय ३ वर्ण थे, भरतने ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की यह आदिपुराणसे विदित है। इससे यह सिद्ध हुआ कि उन तीन वर्णोसे ही ब्राह्मण हुए। मूलमे ३ वर्ण कहाँसे आये ? विशेष ऊहापोहसे न तो आप ही अपनेको वैश्य सिद्ध कर सकते हैं और न मैं ही। क्योंकि इस विपयमें मैं तो पहलेसे ही अपने आपको अनभिज्ञ मानता हूँ। आपने लिखा कि आचार्य महाराज दयालु हैं तब क्यों वेचारोंपर दया नहीं करते। आप लोग अपनी त्रुटिको नहीं देखते। आपका जो उपकार इन शद्रोंसे होता है वह अन्यसे नहीं होता। यदि वे एक दिनके लिये भी अपनी २ सेवाएं छोड़ देवे तो पता लग जावेगा। आपने उनके साथ जो व्यवहार किया यदि उसका वर्णन किया जावे तो अश्रपात होने लगे। वे तो तुम्हारे उन कामोंको करते हैं जिनकी तुम घृणा करते हो पर तुम उसका जो प्रतिकार करते हो सो नीचे वाक्योंसे देखो । जब तुम्हारे Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदासीनाधम और संस्कृत विद्यालयका उपक्रम १८१ यहाँ पनि भोजन होता है तब अच्छा-अच्छा माल तो तुम उदरमें स्वाहा कर लेते हो और उच्छिष्ट पानीसे सिंचित पत्तलें उनके हवाले करते हो बलिहारी इस दया की। अच्छे-अच्छे फल तो आप खा गये और काने-काने वचे सो इन विचारोंको सौप दिये फिर इसपर वनते हो हम आप पद्धतिकी रक्षा करनेवाले हैं। ____ गृद्ध पक्षी मुनिके चरणोंमे लोट गया, उसके पूर्व भव मुनिने वर्णन किये, सीता तथा रामचन्द्रजीको मुनि महाराजने उसकी रक्षाका भार सुपुर्द किया । अव देखिये, जहाँ गृद्ध पक्षी व्रती हो जावे वहाँ गृह शुद्ध नहीं हो सकते यह बुद्धिमे नहीं आता। यदि शूद्र इन कार्योंको त्याग देवे और मद्यादि पान छोड़ देवे तो वह व्रती हो सकता है। मन्दिर आने दो मत आने दो आपकी इच्छा। जिस प्रकार आप उनका बहिष्कार करते हैं यदि वे भी कल्पना करो सर्व सम्मति कर आपके साथ कोई व्यवहार न करें तो आप क्या करेंगे ' धोवी यदि वस्त्र प्रक्षालन छोड़ दें, चर्मकार मृत पशु न हटावे, वसौरिन सौरीका काम न करे और भगिन शौचगृह शुद्ध न करे तो संसार में हाहाकार मच जावे । हाहाकारकी तो कोई बात नहीं हैजा प्लेग चेचक और क्षय जैसे अनेक भयंकर रोगोंका आश्रय हो जावेगा अतः वुद्धिसे काम लो, उनके साथ मानवताका व्यवहार करो, जिससे यह भी सुमागेपर आवें। यह देखा जाता है कि यदि वह अध्ययन करें तो आपके बालकोंके सदृश बी ए. एम. ए वैरिष्टर हो सकते हैं। संस्कृत पढ़े तो आचार्य हो सकते हैं। फिर जैसे आप पश्च पाप त्याग कर व्रती बनते हो यदि वह भी पञ्च पाप त्यागें तो इसका कौन विरोध कर सकता है ? ___ मैं मुरारमें था एक भंगी प्रति दिन शास्त्रश्रवण करता था सुनकर कुछ भयभीत भी होता था। वह हमेशा उत्सुक रहता था Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ मेरी जीवन गाथा कि शास्त्रके समय में अवश्य रहूँ | जिस दिन उसका नागा हो जाता था उस दिन बहुत खिन्न रहता था। मांसादिका त्यागी था। एक दिन वह अपने मुखियाको लाया। मुखिया बोला-कुछ कहते हो ? मैंने एक नया उत्तरीय वस्त्र उसे दिया और कहा कि तुम यह वस्त्र अपने साधु महात्माको देना और उनसे हमारा जयराम कहना तथा जो वह कहैं सो उनका सन्देशा हम तक पहुँचाना । दूसरे दिन वह अपने साधुका संदेश लाया कि जो वर्णीजी कहे सो अपनेको करना चाहिये। क्या कहते हो ? मैंने कहा-जो तुम्हारे भोज होनेवाला है उसमें माँस न वनाना । 'जो आजा' कहता हुआ वह चला गया फिर २ दिन बाद आया और कहने लगा कि हमारे जो भोज था उसमे मॉस नहीं बनाया गया। ___ आप लोगोंने यह समझ रक्खा है कि जो हम व्यवस्था करें वही धर्म है। धर्मका सम्बन्ध आत्मन्यसे है न कि शरीरसे । हाँ, यह अवश्य है कि जब तक आत्मा असंज्ञी रहता है तब तक वह सम्यग्दर्शनका पात्र नहीं होता संज्ञी होते ही धर्मका पान हो जाता है । आर्ष वाक्य है-चारों गतिवाला संज्ञी पञ्चेंद्रिय जीव इस अनन्त संसारके नाशक सम्यग्दर्शनका पात्र हो सकता है। वहाँ पर यह नहीं लिखा कि अस्पृश्य शूद्र या हिंसक सिंह या व्यन्तरादिक देव या नरकके नारकी इसके पात्र नहीं होते। जनताको भ्रममें डाल कर हर एकको वावला कह देना कोई बुद्धिमत्ता नहीं। आप जानते हैं-संसारमे यावत् प्राणी हैं सर्व सुख चाहते हैं और सुखका कारण धर्म है। यद्यपि धर्मका अन्तरङ्ग साधन निजमें ही है तथापि उसके विकासके लिये वाह्य साधनोंकी आवश्यकता होती है। जैसे घटोत्पत्ति मृत्तिकासे ही होती है फिर भी कुम्भकारादि वाह्य साधनोंकी आवश्यकता अपेक्षित है एवं अन्तरङ्ग साधन तो आत्मामे ही है फिर भी वाह्य साधनोंकी अपेक्षा रखता है। बाह्य Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदासीनानन शोर संस्कृत विद्यालयका उपक्रम १८३ साधन देव शास्त्र गुरु हैं। आप लोगोंने यहाँ तक प्रतिबन्ध लगा रक्से हैं कि प्रत्गृश्य शूद्रादिको मन्दिर पानेका अधिकार नहीं। उनके पानसे मन्दिरमे अनेक प्रकारके विघ्न होनेकी संभावना है। चादि शान्तभावसे विचार करो तो पता लगेगा कि हानि नहीं लाभ ही होगा। प्रथम तो जो हिसादि पाप संसारमे होते हैं यदि वह अस्पृश्य शन, जैनधर्मको अंगीकार करेंगे तो वह महापाप अनायास फम हो जायेंगे। ऐसा न हो, यदि दैवात् हो जावें तो आप क्या करोगे ? चांडालके भी राजाका पुत्र चमर डुलता देखा गया ऐसी कथा प्रसिद्ध है क्या यह गप्प है ? अथवा कथा छोड़ो श्री समन्तभद्र स्वामीने रत्नकारण्डमें लिखा है सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहनम् । देवा देवं विदुर्भस्म गूढाङ्गारान्तरोजसम् ॥ आत्मामे अचिन्त्य शक्ति है जिस प्रकार आत्मा अनन्त संसारके कारण मिथ्यात्वके करनेमे समर्थ है उसी प्रकार अनन्त संसारके बन्धन काटनेमें भी समर्थ है। आप विद्वान् हैं जो आपकी इच्छा हो सो लिखिये परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य कोई लिखे उसे रोकनेकी चेष्टा करें। आपकी दया तो प्रसिद्ध है रहो, हमें इसमे आपत्ति नहीं। आप सप्रमाण यह लिखिए कि अस्पृश्य शूद्रोंको चरणातुयोगकी आज्ञासे धर्म करनेका कितना अधिकार है ? तव हम लोगोका यह वाद जो आपको अरुचिकर हो शान्त हो जावेगा। श्री आचार्य महाराजसे इस व्यवस्थाको पूछकर लिख दीजिये जिसमे व्यर्थ विवाद न हो। केवल समालोचनासे कुछ नहीं, शूद्रोंके विपयमें जो भी लिखा जावे सप्रमाण लिखा जावे। कोई शक्ति नहीं जो किसीके विचारोंका घात कर सके निमित्त तो अपना कार्य करेगा उपादान अपना करेगा। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ मेरी जीवन गाथा . एक महाशयने तो जैनमित्रमे यहाँ तक लिख दिया कि तुम्हारा क्षुल्लक पद छीन लिया जावेगा, मानों धर्मकी सत्ता आपके हाथोंमे आ गई हो। यह 'संजद' पद नहीं जो हटा दिया। जैनदर्शनके सम्पादकने जो लिखा उसका उत्तर देना मेरे ज्ञानका विषय नहीं है क्योंकि मैं न आगमज्ञ हूँ और न अव हो सकता हूँ परन्तु मेरा हृदय यह साक्षी देता है कि मनुष्य पर्यायवाला चाहे वह किसी जातिका हो कल्याणमार्गका पात्र हो सकता है। शद्र भी सदाचारका पात्र है। हाँ, यह अन्य बात है कि आप लोगोंके द्वारा जो मन्दिर निर्माण किये गये हैं उनमें मत आने दो । गवर्नमेण्ट भी ऐसा कानून आपके अनुकूल बना देवे परन्तु जो सिद्ध क्षेत्र हैं कोई आपको अधिकार नहीं जो उन्हें वहाँ जाने पर रोक लगा सको। जो आपके मन्दिरमे शास्त्र हैं उन्हें न वॉचने दो किन्तु जो पबलिक वाचनालय हैं उनमे आप उन्हे नहीं मना कर सकते। यदि वह पञ्च पाप छोड़ देवें और रागादि रहित आत्माको पूज्य माने अर्हत्का स्मरण करें तो क्या रोक सकते हो ? अथवा जो आपकी इच्छा हो सो करो। ___ मुझे धमकी दी कि पीछी कमण्डलु छीन लेवेंगे छीन लो, सर्व अनुयायी मिल जाओ चर्या बन्द कर दो परन्तु जो हमारी श्रद्धा धर्ममें है उसे भी छीन लोगे ? मेरा हृदय किसीकी वन्दर घुड़कीसे नहीं डरता। मेरे हृदयमे तो दृढ़ विश्वास है कि अस्पृश्य शूद्र सम्यग्दर्शन और व्रतोंका पात्र है मन्दिर आने जानेकी बात आप जानें या जो आचार्य महाराज कहे उसे मानो । यदि अस्पृश्यताका सम्बन्ध शरीरसे है तो रहो आत्मा की क्या हानि है ? यदि आत्मासे है तो जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया फिर अस्पृश्यता कहाँ रही ? मेरा तो विश्वास है कि गुणस्थानों की परिपाटीसे जो मिथ्यागुणस्थान वर्ती है वह पापी है चाहे वह उत्तम वर्णका क्यों Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदासीनाश्रम और सत्कृत विद्यालयका उपक्रम १८५ न हो ? यदि मिथ्याष्टि है तो परमार्थसे पापी है, यदि सम्यक्त्वी है तो उत्तम आत्मा है। यह नियम शूद्रादि चारों वर्गों पर लागू है। परन्तु व्यवहारमें सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शनका निर्णय वाह्य आचरणोंसे है अतः जिनके आचरण शुभ हैं वे ही उत्तम कहलाते हैं जिनके आचरण मलिन है वे जघन्य हैं। एक उत्तम कुलवाला यदि अभक्ष्य भक्षण करता है वेश्या गमनादि पाप करता है तो उसे भी पापी जीव मानो उसे भी मन्दिर मत आने दो क्योंकि वह शुभाचरणसे पतित है और एक अस्पृश्य सदाचारी है तो वह भगवान्के दर्शनका अधिकारी आपके मतसे न हो परन्तु पञ्चम गुणस्थानवाला अवश्य हो सकता है। ___ पापत्यागकी महिमा है, उत्तम कुलमें जन्म लेनेसे उत्तम हो गये यह कदाग्रह छोड़ो। उत्तम कुलकी महिमा सदाचारसे है कदाचारसे नहीं। नीच कुलीन मलिनाचारसे कलंकित हैं, माँस खाते हैं, मृत पशुओंको ले जाते हैं और आपके शौचगृह साफ करते हैं इसीसे तो उन्हें अस्पृश्य कहते हो तथा पंक्ति भोजनमे आप उन्हे उच्छिष्ट भोजन देते हो। तत्त्वसे कहो उन्हे अस्पृश्य बनानेवाले आप लोग हैं। इन पापोंसे यदि वे परे हो जावें तब भी आप क्या उन्हें अस्पृश्य मानेंगे ? बुद्धिमें नहीं आता। आज एक भंगी यदि ईसाई हो जाता है और पढ़ लिखकर डाक्टर हो जाता है तो आप लोग उसकी दवा गट गट पीते हैं या नहीं ? क्यों उससे स्पर्श कराते हो ? आपसे तात्पर्य बहुभाग जनतासे है। आज जो पाप करते हैं वे यदि किसी आचार्य महाराजके सानिध्यको पाकर पापोंका त्याग कर देवेंतो क्या वे साधु नहीं हो सकते ? व्याघ्रीने सुकौशल स्वामीके उदरको विदारण किया और वहीं श्रीकीर्तिधर मुनीके उपदेशसे विरक्त हो समाधिमरण कर स्वर्ग लक्ष्मीकी भोक्ता हुई। अतः सर्वथा किसीका निषेध कर अधर्मके, भागी मत बनो। हम Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ मेरी जीवन गाथा तो सरल मनुष्य हैं जो आपकी इच्छा हो सो कह दो आप लोग ही जैनधर्मके ज्ञाता और आचरण करनेवाले रहो परन्तु ऐसा अभिमान मत करो कि हमारे सिवाय अन्य कोई कुछ नहीं जानता । पीछी कमण्डलु छीन लेवेंगे यह आचार्य महाराजकी आज्ञा हैं सो पीछी कमण्डलु तो वाह्य चिन्ह हैं इनके कार्यं तो कोमल वस्त्र तथा अन्य पात्रसे हो सकते हैं । पुस्तक छीननेका आदेश नहीं दिया इससे प्रतीत होता है कि पुस्तक ज्ञानका उपकरण है वह आत्माकी उन्नतिमे सहायक है उसपर आपका अधिकार नहीं जैन दर्शनकी महिमा तो वही आत्मा जानता है जो अपनी आत्माको कषायभाव रक्षित रखता है । अस्तु, हरिजन विषयक यह अन्तिम वक्तव्य देकर मैं इस ओरसे तटस्थ हो गया । अक्षय तृतीया एक दिन श्रीधनवन्तीदेवीके यहाँ से आहार कर धर्मशाला मे ये । मध्याह्नकी सामायिकके बाद धवल ग्रन्थका स्वाध्याय किया । श्री सोहनलालजी कलकत्तावालोंने जो कि मूलनिवासी इटावाके हैं बनारस विद्यालयका घाट वनवानेके लिये १००० ) एक सहस्र रुपया अपनी धर्मपत्नीके नाम देना स्वीकृत किया । श्रीसोहनलालजी बहुत ही भद्र आदमी हैं । आपने सम्मेदशिखरजीमे तेरह पन्थी कोठीमे एक विशाल मन्दिर बनवाया है तथा उसमें चन्द्रप्रभ भगवान्‌की शुभ्रकाय विशाल मूर्ति विराजमान कराई है । यदि कोई परिश्रम करता तो घाटके लिये १०००००) एक लक्ष रुपया अना 1 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षय तृतीया १८७ यास हो जाता । यहाँ पंसारी टोलाके मन्दिर मे पुष्फल स्थान है अतः अधिकांश शास्त्र प्रवचन यहीं होता था । वैशाख सुदी ३ अक्षय तृतीयाका दिन था, प्रातःकाल प्रवचनके वाद कुछ कहनेका अवसर आया तो मैने कहा कि आजका दिन महान् पवित्र और उदारताका दिन है। आज श्री आदिनाथ तीर्थंकर को श्रेयान्स राजाने इक्षुरसका आहार दिया था यह वर्णन श्री आदि पुराण में पाया जाता है इसी कारण राजा श्रेयान्सको श्री आदिनाथ के अज सुपुत्र भरत चक्रवर्तीने दानतीर्थ के आदि विधाताकी पदवी प्रदान की थी । यह पर्व भारतवर्ष में आजतक प्रचलित है और इसके प्रचलित रहने की आवश्यकता भी है क्योंकि हमारा जिस क्षेत्रमें जन्म हुआ है वह कर्मभूमिके नामसे प्रसिद्ध है । यहाँपर मनुष्य समाज एक सदृश नहीं है । कोई वैभवशाली है तो किसीके तनपर वस्त्र भी नहीं है । कोई आमोद प्रमोदमें अपना समय यापन कर रहा है तो कोई हाहाकार के शब्दों द्वारा आक्रन्दन कर रहा है । कोई अपने स्त्री पुत्र भ्राता आदिके साथ तीर्थयात्रा कर पुण्यका पात्र हो रहा है तो कोई उसी समय अपने अनुकूल प्राणियोंके साथ वेश्यादि व्यसनों मे प्रवृत्ति कर पापपुञ्जका उपार्जन कर रहा है । कहने का तात्पर्य यह है कि कर्म भूमिमें अनेक प्रकार की विषमता देखी जाती है । यही विषमता 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' इस सूत्र की यथार्थता दिखला रही है । जो संसारसे विरक्त हो गये और जिन्होंने अपनी क्रोधादि विभाव परिगतियों पर विजय प्राप्त कर ली है उनका यही उपकार है कि प्रजाको सुमार्ग पर लगावें और हम लोगोंको उनके निर्दिष्ट मार्गपर चलकर उनकी इच्छाकी पूर्ति करनी चाहिये तथा उनकी वैयावृत्य कर अथवा जीवन सफल करना चाहिए। वे आहारको आवें तो यथागम रीतिसे आहार दान देकर उन्हे निराकुल करनेका यत्न करना चाहिये। जो विद्वान् हैं उन्हें उचित है कि अपने ज्ञानके द्वारा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा संसारका अज्ञान दूर करनेका प्रयत्न करें तथा हम अज्ञानी जनोंको उचित है कि उनके परिवारादिके पोषणके अर्थ भरपूर द्रव्य दें | यदि हमारे धनकी विपुलता है तो उसे यथोचित कार्योंमे प्रदान -कर जगत्का उपकार करें जगत्का यह काम है कि उसके प्रति कृतज्ञताका भाव रखे । यदि संचित धनका उपयोग न किया जावेगा तब या तो उसे दायादगण अपनावेगा या राष्ट्र लेगा । जब संसारकी यह व्यवस्था है तब पुष्कल द्रव्यवाले आगे आकर बंगाल तथा पंजाव आदिके जो मनुष्य गृहविहीन होकर दुःखी हो रहे हैं उन्हें सहायता पहुॅचावें । जिनके पास पुष्कल भूमि है उसमे गृह विहीन मनुष्योको वसावें तथा कृषि करनेको देवें । जिनके पास मर्यादासे अधिक वस्त्रादि हैं वे दूसरों को देवें। मैं तो यहाँ तक कहता हूं कि आप जो भोजन ग्रहण करते हैं उसमेंसे भी कुछ अंश निकालकर शरणागत लोगोंकी रक्षामे लगा दो । यदि इस पद्धतिको अपनाया जावेगा तो जनता क्रान्तिसे स्वतः दूर रहेगी अन्यथा वह दिन शीघ्र आनेवाला है जिस दिन लोग किसीकी अनावश्यक सम्पत्तिको सहन नहीं करेंगे उसे वलात् छीनकर जनताके उपयोगमे -लावेंगे। अतः समयके पहले ही अपनी परिणतिको सुधारो और यथेष्ट दान देकर परलोककी रक्षा करो। धनवन्तीदेवीने आपके सामने एक आदर्श उपस्थित किया है । संचित द्रव्यका यदि अन्त में सदुपयोग हो जावे तो यह दाताकी भावी उत्तम परिणतिका सूचक है । सब लोग यदि यही नियम कर लें कि हमारे दैनिक भोजन तथा वस्त्रादिमें जो व्यय होता है उसमेसे १) में १ पैसा परोपकारमे प्रदान करेंगे तो मेरी समझसे जैन समाजमे प्रतिवर्ष लाखों रुपये एकत्रित हो जायें और उनसे समाज सुधारके अनेक कार्य अनायास पूर्ण हो जावें । ૧૮૮ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यालयका उद्घाटन और विद्वत्परिषद्को बैठक श्री पं० कमलकुमारजी व्याकरणतीर्थ जो पहले इन्दौर मे सेठजीके विद्यालय में थे इस्तीफा देकर यहाँ आये । आप बहुत ही योग्य और स्वच्छ हृदयके विद्वान् हैं । श्री ज्ञानधन पाठशालाके लिये सुयोग्य विद्वानकी आवश्यकता थी सो इनके द्वारा पूर्ण हो गयी । पाठशालाका उद्घाटन समारोह करनेका विचार हुआ उसी समय अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वन् परिषद्की कार्य-कारिणी समिति बुलानेका भी विचार स्थिर हुआ । सर्व इसके लिये ज्येष्ठ शुक्ल ५ का दिन निश्चय किया गया । उत्सवकी तैयारियाँ की गई। धर्मशालाके प्रागण में सुन्दर मंडप बनाया गया । उद्घाटन समारोहके अध्यक्ष श्री कलक्टर साहब बनाये गये । चाहरसे श्री पं० वंशीधरजी न्यायालंकार इन्दौर, पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० फूलचन्द्रजी, पं० महेन्द्र कुमारजी, पं० खुशाल चन्द्रजी बनारस, पं० दयाचन्द्रजी, प० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर, पं० वर्ध-मानजी सोलापुर, पं० वंशीधरजी वीना, पं० दरवारीलालजी, पं० राजेन्द्रकुमारजी, पं० राजकृष्णजी देहली और पं० बंशीधरजी के. सुपुत्र श्री पं० धन्यकुमारजी इन्दौर आदि अनेक विद्वान् पधारे । उत्सवके प्रारम्भमे भी पं० कैलाशचन्द्रजीने ज्ञानघनकी बहुत सुन्दर व्याख्या की । अनेक विद्वानोंके उत्तमोत्तम व्याख्यान हुए । ' श्री कलक्टर साहबने त्यागपर बहुत बल दिया । उन्होंने यह सिद्ध किया कि त्यागसे ही कल्याणका मार्ग प्रशस्त हो सकता है प्राजक्ला दुःखका मूल कारण परिग्रहकी इच्छा है इसका जिसने परित्याग Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा कर दिया उसके सुखका वर्णन कौन कर सकता है ? सम्यग्ज्ञानकी उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए मैंने भी कुछ कहा। पं० राजेन्द्र कुमारजीने जैनधर्मके वन्ध तत्त्व पर अच्छा प्रकाश डाला । उद्घाटन समारोहके अनन्तर विद्वत्परिपद्की कार्यकारिणीकी बैठक हुई। उसमें खास चर्चा का विषय यह था कि धवल सिद्धान्तके ६३ वें सूत्रमें 'संजद पद आवश्यक है' ऐसा निर्णय सागरमें एकत्रित विद्वत्सम्मेलनने बहुत ही तर्क वितर्क-ऊहापोहके साय किया था उसके लगभग ३ साल बाद श्रीमान् आचार्य शान्तिसागरजी महाराजने ताम्रपत्रकी प्रतिसे 'संजद' पद हटानेका आदेश दिया। इस आदेशका विचारक विद्वानोंके हृदय पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। कार्यकारिणीमे इस विषयको लेकर निम्न प्रकार प्रस्ताव प्पास हुआ~~ 'फाल्गुन शुक्ला ३ वीर निर्वाण संवत् २४७६ को गजपन्थामें आचार्य श्री १०८ शान्तिसागरजी महाराज द्वारा की गई जीवस्थान सत्प्ररूपणाके ६३ वे सूत्रसे ताडपत्रीय मूल प्रतिमे उपलब्ध 'संजद' पदके निष्कासनकी घोषणापर विचार करनेके बाद भारतवर्षीय दि० विद्वत्परिषद्की यह कार्यकारिणी जून सन् ४७ में सागरमे आयोजित विद्वत्सम्मेलनके अपने निर्णयको दुहराती है तथा इस प्रकारसे ताम्रपत्रीय एवं मुद्रित प्रतियोंमें 'संजद' पद निष्कासनकी पद्धतिसे अपनी असहमति प्रकट करती है।' वैठक समाप्त होनेपर विद्वान् लोग तो अपने अपने स्थानपर चले गये पर मेरे मनमे निरन्तर यह विकल्प उठता रहा कि एक ऐसा अवसर आता जो ५ निष्णात विद्वान् एक निरापद स्थानमें निवास कर जैनधर्मके मार्मिक सिद्धान्तको जनताके समक्ष निर्भीक होकर वचनों द्वारा प्रख्यापन करते तथा यह कहते आप लोग इसका निर्णय करें। यदि आप महाशयोंके परीक्षा विमर्शमें यह तत्व अभ्रान्त ठहरे Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यालयका उद्घाटन और विद्वत्परिषद्की बैठक 989 तो उसका प्रचार करिये यदि किसी प्रकारकी शङ्का रहे तो निर्णय करनेका प्रयास करिये तथा जो सिद्धान्त लिखे जावें वहाँपर अन्य किस रीति से उसे माना है यह भी दिग्दर्शनमे आ जावे | सबसे मुख्य तत्त्व आत्माका अस्तित्व है इसके उत्तरमें अनात्मीय पदार्थोंपर विचार किया जावे । व्याख्यानों द्वारा सिद्धान्तके दिखानेका जितना प्रयास किया जावे उससे अधिक लेखबद्ध प्रणाली से भी दिखाया जावे। इन कार्यों के लिये २५०००) वार्षिक व्ययकी आवश्यकता है । परीक्षणके तौरपर ४ वर्ष यह कार्य करवाया जावे । जो पण्डित इस कार्यको करें उन्हें २००) नकद और भोजन दिया जावे | इनमे जो मुख्य विद्वान् हों उन्हें २५०) दिये जावें । इस तरह ४ पण्डितोंको ८०० ) और मुख्य पण्डितको २५०) तथा सबका भोजन व्यय २५०) सब मिला कर १३००) मासिक तो विद्वानोंका हुआ । इसके बाद ४ अंग्रेजी साहित्यके विद्वान् रक्खे जावें ४०० ) उन्हे दिया जावे १००) भोजन व्यय तथा २०० ) भृत्योंको इस तरह २०००) मासिक यह हुआ । वर्षमे २४०००) हुआ, १०००) वार्षिक यात्राका व्यय । इस प्रकार शान्तिपूर्वक कार्य चलाया जावे तो बहुत कुछ प्रश्न सरल रीतिसे निर्णीत हो जावें । एक आदमी समझ लेवे ५ गजरथ यही हुआ । इससे बहुत कालके लिये जैनधर्म के अस्तित्वकी सामग्री एकत्र हो जावेगी । एक दिन श्री जुगलकिशोरजी मुख्त्यार और पं० परमानन्दजी कलकत्तासे लौट कर आये और कहने लगे कि वीरसेवामन्दिर की नींव दृढ़तम हो गई । कलकत्तावाले बाबू छोटेलालजी तथा बाबू नन्दलालजीकी इस ओर अच्छी दृष्टि है । आप साहित्य के महान् अनुरागी हैं। आप यह चाहते हैं कि मानवमात्रके हृदय में जैनधर्मका विकास हो जावे | जैनधर्म तो व्यापक धर्म है हम किसीको धर्म देते यह बड़ी भारी भूल है । धर्म तो आत्माकी वह परिणति विशेप Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाया है जो आत्माको संसार बन्धनसे मुक्त करा देती है। वह परिगति शत्तिरूपसे जीव मात्रमें है ।"यह संवाद सुनकर हृदयम प्रसन्नता हुई। अनेक समस्याओंका हल-स्त्री शिक्षा पुरुषवर्गने स्त्री समाजपर ऐसे प्रतिबन्ध लगा रक्खे हैं कि उन्हें मुखको निरावरण करनेमें भी संकोचका अनुभव होता है। कहाँ तक कहा जावे ? मन्दिरमें जब वे श्री देवाधिदेवके दर्शन करती हैं तब मुखपर वनका आवरण रहनसे वे पूर्ण रूपसे दर्शना लाभ नहीं ले सकवी । यद्वा तद्वा दर्शन करनेके अनन्तर यदि झार प्रवचनमे पहुँच गई तो वहाँ पर भी वक्ताके वचनोंका पूर्ण रुपम कों तक पहुँचना कठिन है। प्रथम तो क्यापर बलका भारत रहता है नथा पुरुषोंसे दूरवती उनका क्षेत्र रहता है। देवयोग किसीकी गोदमें बालक हुआ और उसने नुवानुर हो गेन प्रारम्भ कर दिया तो क्या कहे ? मुनना नो एक ओर रहा करना प्रभृति मनुष्योंके वान्माणका प्रहार होने लगता है-चुप नहीं सता योको ? "क्यों लेकर पाती हैं ?..."नवस नुस्मान करती बाहर क्यों नहीं चली जाती उन बचनोंसे मर का राई अवानी जिनामा विलीन हो जानी। अत: पुरन बना उचिता कि वह जिसमें जन्मा यात्री दीनो Tr इतना न्याय न करे प्रत्युन मरमे बनम सन उन m Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक समस्यायोंका हलवी शिक्षा १६३ प्रवचनमे सुरक्षित रखें। उनकी अशिक्षा ही उन्हे सदा अपमानित करती है। ___ मेरा तो ख्याल है कि यदि स्त्रीवर्ग शिक्षित हो कर सदाचारी हो जावे तो आज भारत क्या जितना जगत मनुष्योंके गम्य है वह सभ्य हो सकता है। आज जिस समस्याका हल उत्तमसे उत्तम मस्तिप्कवाले नहीं कर सके उसका हल अनायास हो जायगा । इस समय सबसे कठिन समस्या 'जनसंख्याकी वृद्धि किस उपायसे रोकी जाय' है। शिक्षित स्त्री वर्ग इस समस्याको अनायास हल कर सकता है । जिस कार्यके करनेमें राजसत्ता भी हार मानकर परास्त हो गई उसे सदाचारिणी स्त्री सहज ही कर सकती है। वह अपने पतियोंको यह उपदेश देकर सुमागेपर ला सकती हैं कि जब बालक गर्भमे आ जावे तवसे आप और हमारा कर्तव्य है कि यह वालक उत्पन्न होकर जबतक ५ वर्षका न हो जावे तबतक विषय वासनाको त्याग देवें। ऐसा ही प्रत्येक स्त्री सभ्य व्यवहार करे इस प्रकारकी प्रणालीसे सुतरा वृद्धि रुक जावेगी। इसके होनेसे जो लाखों रुपया डाक्टर तथा वैद्योंके यहाँ जाता है वह वच जावेगा तथा जो टी० बी के चिकित्सागृह हैं वे स्वयमेव धराशायी हो जावेंगे। अन्नकी जो त्रुटि है वह भी न होगी। दुग्ध पुष्कल मिलने लगेगा। गृहवासकी पुष्कलता हो जावेगी अतः स्त्री समाजको सभ्य वनानेकी आवश्यकता है। यदि स्त्रीवर्ग चाहे तो बड़े बड़े मिलवालोंको चक्रमे डाल सकता है। उत्तमसे उत्तम जो धोतियाँ मिलोंसे निकलती हैं यदि त्रियाँ उन्हें पहिनना वन्द कर देखें तो मिलवालोंकी क्या दशा होगी? सो उन्हे पता चल जावेगा। करोड़ोंका माल यों ही वरवाद हो जायेगा। यह कथा छोड़ो आज स्त्री कांच की चूड़ी पहिनना छोड़ दे और उसके स्थानपर चाँदी सुवर्णकी चूडी का व्यवहार करने लगे तो चूड़ीवालोंकी क्या दशा होगी ? रोनेको Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ मेरी जीवन गाथा मजदूर न मिलेगा। आज स्त्री समाज चटक मटकके आभूषणोंको पहिनना छोड़ दे तो सहस्रों सुनारोंकी दशा कौन कह सकता है ? इसी तरह वे पौडर लगाना छोड़ दें तो विदेशकी पौडर बनानेवाली कम्पनियोको अपना पाउडर समुद्रमें फेकना पड़े। कहनेका तात्यये यह है कि स्त्री समाजके शिक्षित और सदाचारसे सम्पन्न होते ही संसारके अनेक व्यापार बन्द हो सकते हैं। पञ्चम कालमें चतुर्थकालका दृश्य यदि देखता है तो स्त्री समाजकी उपेक्षा न कर उसे सुशिक्षित बनाओ। सुशिक्षितसे तात्पर्य उस शिक्षासे है जिससे वे अपने कर्तव्यका निर्णय स्वयं कर सकें। इटावामें चातुर्मासका निश्चय जब मैं ईसरीसे लौटकर सागर गया था तब वहाँकी समाजने हीरक जयन्ती महोत्सव करनेका निश्चय किया था पर कारणवश उस समय वह आयोजन स्थगित हो गया था। साधारण उत्सव हुआ था । तदनन्तर सर्व समाजने 'वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ' समर्पणके साथ-साथ हीरक जयन्ती महोत्सव करनेका निश्चय किया । व्यवस्थाके लिये समितिका निर्माण हुआ । पं० पन्नालालजी साहित्यचार्य उसके संयुक्त मंत्री हए तथा पं० खुशालचन्द्रजी गोरावाला अभिनन्दन ग्रन्थके सम्पादक निश्चित हुए | अब तक अभिनन्दन ग्रन्थ तैयार होनेकी दशामे आ गया था इसलिये उसके समर्पण एवं हीरक जयन्ती महोत्सवको सम्पन्न करानेके लिये श्री पं० पन्नालालजी इटावा आये। उन्होंने यहाँकी समाजके समक्ष Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावा में चातुर्मासका निश्चय १६५ यह बात रक्खी जिससे समाजको अत्यन्त प्रसन्नता हुई । सबने यह निश्चय किया कि दीपावलीके बाद इस उत्सवका आयोजन किया जावे | पं० पन्नालालजी बहुत ही श्रद्धालु और कर्मठ जीव हैं। आपकी लोगोंने योग्यता नहीं जानी । I लोगोंकी यह दृष्टि बन गई है कि वणजीने हमारा उपकार किया है इसलिये हमे इनके प्रति कृतज्ञताका भाव प्रकट करना चाहिये । परन्तु यथार्थ बात यह है कि संसारमें सर्व मनुष्य अपने अपने गीत गाते हैं, कोई किसीका उपकारी नहीं । केवल आत्मामें जो कपाय उत्पन्न होती है उसे दूर करनेका प्रयास करते हैं कपायसे आत्मा एक प्रकारकी बेचैनी हो जाती है वह बेचैनी ही कार्यमे प्रवृत्ति कराती है। जैसे जिस समय हमको क्रोध उत्पन्न होता है उस समय परका अनिष्ट करनेकी इच्छा होती है । उससे हमको कुछ लाभ नहीं परन्तु वह इच्छा जब तक है तब तक बेचैनीसे विकलता होती है । जब परका अनिष्ट हो गया तब वह विकलता मिट जाती है । हमारी श्रद्धा तो यह है कि क्रोधकपायका कार्य ही इसका कारण है । वास्तवमें जो विकलता थी वह क्रोधकषायसे थी, कार्य होनेसे हमारा क्रोध मिट गया । विचार कर देखो -- न हम क्रोध करते न विकलता होती अतः क्रोधको न होने देना ही हमारा पुरुषार्थ है । इसका अर्थ यही है कि क्रोध होने पर उसमे आसक्त न होना । यही आगामी क्रोध न होनेका उपाय है । क्रोध यह उपलक्षण है । मोह कर्मके उदयसे यावत् ( जितने ) भाव हों उन सबमें आसक्त न होना । कहाँ तक कहा जावे ? देखने जाननेमें जो पदार्थ उनके आनेकी रोक टोक नहीं हो सकती । उनमें रागादि नहीं करना यही संसार बन्धन से मुक्त होनेका अपूर्व मार्ग है— अद्वीतीय उपाय है । आत्मद्रव्यकी परिणति आत्मातिरिक्त पदार्थोंके सम्वन्धसे ही कलुषित हो जाती है । कलुषितका अर्थ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा यह है कि उन पदार्थोंमे निजत्व कल्पनाकर हम किसी पदार्थमें राग करते हैं और जो हमारे रागके विरुद्ध होता है उसे पर मानते हैं तथा उसके वियोगका यत्न करते हैं। इस प्रक्रियाको करते करते अन्तमें इस पर्यायका अन्त आ जाता है अनन्तर जिस पोयमे जाते हैं वहाँ भी यही प्रकिया काममे लाते हैं, इस तरह अनन्त संसारके पात्र होते हैं। यथार्थमे न तो अन्य पदार्थ हमारा है और न हम अन्यके हैं तब क्यों उनमें निजत्व कल्पना करते है ? यही कल्पना दूर करनेके अर्थ आगमाभ्यास है । आगममे तो इनका सुन्दर कथन है कि यदि वह हमारे अनुभवमे आ जावे तो कल्याणमार्ग अति सुलभ हो जावे। आत्मा नामक एक पदार्थ है उसका अनादि कालसे अजीब पुद्गलके साथ सम्बन्ध है। आत्मा चेतना गुणवाला द्रव्य है, पुद्गल जड़ है। उसका लक्षण स्पर्श रस गन्ध रूप है-जहाँ धे पाये जावें उसे पुद्गल कहते हैं। पुद्गलके साथ जीवका ऐसा सम्बन्ध है कि यह जीव उसे निज मान लेता है। निज मान कर उसको सदा रखनेका प्रयास करता है। यदि कोई उसमे बाधा पहुँचाता है तो उसे निज शत्रु मान लेता है। वास्तवमें यह कषाय ही नाना खेल रचता है इसलिये इसके निर्मूल करनेका प्रयत्न करो। - चातुर्मासका समय निकट आ रहा था इसलिए कई स्थानोंके लोग अपने अपने यहाँ चातुर्मास करनेकी प्रेरणा करते थे और मैं संकोचके कारण किसीको अप्रसन्न नहीं करना चाहता था । परमार्थसे यह हमारे हृदयकी बहुत भारी दुर्वलता है। जहाँ चौमासा करना इष्ट नहीं था वहाँके लोगोंको स्पष्ट मनाकर देनेमे हानि नहीं थी परन्तु मैं ऐसा नहीं कर सका । अन्तमें समाजकी अत्यधिक प्रेरणासे इटावामें ही चातुर्मास करनेका निश्चय कर लिया। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद व विधान १६७ इस वर्ष इटावामें वैसे ही गर्मीका अधिक त्रास था फिर दो प्रापाढ़ होगये इससे ठीक 'दूबली और दो अपाढ़वाली' कहावत चरितार्थ हो गई। अस्तु, जिस किसी तरह ग्रीप्मकाल व्यतीत हुआ। प्राकाशमे श्यामल घन-घटा छाने लगी और जब कभी बूंदा-बादी होनेसे लोगोंको गर्मीकी असह्य वेदनासे त्राण मिला। कहाँ तो वे मुनिराज थे जो जेठ मासकी दुपहरियोंमें पर्वतकी चट्टानोंपर आतापन योग धारण करते थे और कहा मैं जो बुद्धि पूर्वक शीतलसे शीतल स्थान खोजकर उसमे ग्रीप्मकाल वितानेका प्रयास करता हूँ ? वस्तुतः शरीरसे ममत्वभाव अभी दूर हुआ नहीं। मुखसे कहना बात दूसरी है और अमलमे लाना वात दूसरी है। यदि शरीरसे ममत्व छूट गया होता तो क्या सर्दी, क्या गर्मी और क्या वारिस ? सब एक सदृश ही रहते । चातुर्मासका निश्चय करते समय मनमें यह विचार किया कि अन्यत्रकी अपेक्षा इटावामें रहना ही अच्छा है। कारण कि यहाँ जलवायुकी अनुकूलता है,जनता भी भद्र है। चार मासमें सानन्द अध्यात्म शास्त्रका अध्ययन करो, गपोडावादसे वचो, केवल स्वात्मचिन्तनामें काल लगायो । क्षयोपशमज्ञान है, ज्ञेयान्तरमे जावे जाने दो पर राग-द्वेषकी मात्रा न हो यही पुरुषार्थ करो, व्यर्थ दुःखी मत होओ। सिद्धचक्रविधान आषाढ़ शुक्ला अष्टमी सं० २००७ से सिद्धचक्रविधानका पाठ हुआ। मनोहररूपसे पूजन सम्पन्न हुई परन्तु परिणामोंमें शान्ति किसीके नहीं। केवल गल्पवादमें ही सर्व परिणमन हो जाता है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ मेरी जीवन गाथा अन्तरङ्गकी निर्मलता होना दूर है। इस समय चिन्तन तो इस बात का होना चाहिये कि हमारे ही समान चतुर्गतिरूप संसारमे परिभ्रमण करनेवाली अनन्त आत्माएं ज्ञानावरणादि कर्म मलको दूर कर आत्माकी शुद्ध दशाको प्राप्त हुई हैं। आत्मामें अशुद्धता पर पदार्थके सम्बन्धसे आती है। जिस प्रकार स्वर्णमें तामा पीतल आदि धातुओंके संमिश्रणसे अशुद्धता आती है उसी प्रकार आत्मामें कर्मरूप पुद्गल द्रव्यके सम्बन्धसे अशुद्धता आती है । इस अशुद्धताका कारण आत्माकी अनादि कालीन मोह तथा रागद्वेषरूप परिणति है। मोहके कारण यह स्वरूपको भूल कर अपनेको पररूप समझने लगता है। जिस प्रकार शृगालोंकी मांदमे पला सिंहका बालक अपनेको भी शृगाल समझने लगता है । इसी प्रकार मनुष्यादि रूप पुद्गलजन्य पर्यायोंके सम्पर्कमें रहनेवाला जीव अपनेको मनुष्यादि समझने लगता है। मनुष्यादि पर्यायोंके साथ इस जीवकी इतनी घनी आत्मीय बुद्धि हो जाती है कि वह उन्हें छोड़नेमे बड़े कष्टका अनुभव करता है । रागके कारण अन्य अनुकूल पदार्थोंमें इष्ट बुद्धि करता है और द्वपके कारण अन्य प्रतिकूल पदार्थों अनिष्ट बुद्धि करता है। जिसे इष्ट मान लेता है सदा उसके संयोगकी इच्छा करता है तथा उसके वियोगसे डरता है और जिसे अनिष्ट मान लिया है सदा उसके वियोगकी भावना रखता है तथा उसके संयोगसे डरता है। मोहकी पुट साथमे रहनेसे वह पदार्थके यथार्थ स्वरूपको समझनेमे असमर्थ रहता है इसलिये जिन कारणोंसे मुख होना चाहिये उन कारणों से यह दुःखका अनुभव करता है। जैसे किसी मनुष्यकी स्त्री मर गई यहाँ विवेकी मनुष्य तो यह सोचता है कि स्त्रीके निमित्तसे गृहस्थाश्रमकी नाना आकुलताका पात्र होना पड़ता था अब स्वयमेव वह सम्बन्ध छूट गया अतः आनन्दका अवसर हाथ आया है और मोही जीव सोचता है कि हाय मैं दुःखी हो गया। तत्त्वदृष्टिसे Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध चक्र विधान विचार करो तो यहाँ दुःखका कारण क्या है ? उस जीवके हृदयमे स्त्रीके प्रति जो रागभाव था और मोहके कारण जो वह स्त्रीको सुखका कारण मान रहा था वही तो दुखका कारण था। यदि उसके हृदयमे यह भाव दृढ़ होता कि सुख हमारी आत्माका गुण है स्त्री उसका कुछ सुधार विगाड़ नहीं कर सकती तो उसके मरने पर उसे दुःख नहीं होता। इस तरह मोह जन्य कलुषित परिणतिके कारण यह जीव द्रव्य कर्मोंको ग्रहण करता है और उसके उदयमे पुनः कलुपित परिणति करता है। जिन्होंने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके द्वारा इस विपरीत परिणतिको दूर कर पर द्रव्यसे अपना सम्बन्ध छुड़ा लिया है वे सिद्ध कहलाते हैं। जीवकी यह अचिन्त्य अव्यावाधत्व आदि गुणोंसे युक्त आत्यन्तिक अवस्था है। सिद्ध चक्रका पाठ स्थापित करनेका भाव यही है कि हम उनके गुणोंका स्मरण कर इस वातका प्रयत्न करें कि हम भी उनके समान हो जावें। उनके गुण गानमे ही समय यापन किया और उन जैसी अवस्था हमारी न हो सकी तो इससे क्या लाभ हुआ ? आठ दिन तक विधि पूर्वक यह पाठ चला, श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके दिन हवन पूर्ण हुआ। इस आयोजनमे पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियोंका जमाव अधिक रहता था। पुरुष वर्गकी श्रद्धा न हो सो बात नहीं परन्तु उन्हे व्यवसाय सम्बन्धी कार्यों में व्यस्त रहनेके कारण अवसर कम प्राप्त हो पाता था। मैंने इन दिनोंमें प्रवचनके अतिरिक्त जन संपर्कसे दूर रहनेका प्रयास किया और निरन्तर यह विचार किया और कार्यकी छोड़ो श्राशा श्रातम हित कर भाई रे ! यही सार जगतमें है उत्तम अन्य सकल भव जाला रे ! Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० मेरी जीवन गाथा परको मान निजातम भूला सदा भ्रमत भव वासा रे ! कहे सुखी भ्रमसे निजको तूं भांग पियो बौराया रे ! परको दे उपदेश सुखी हुए मानत निजको साधू रे । बक बक करत बहुत दिन बीते करत न निजकी बाता रे! शिव सुत अब निजको निज मानो परका कर निरवारा रे । रक्षाबन्धन और पhषण श्रावण शुक्ला २ सं० २००७ को १५ अगस्तका उत्सव नगरम था । सदियोंके वाद भारतवर्ष आजके दिन बन्धनसे मुक्त हुआ है इसलिये प्रत्येक भारतवासीके हृदयमें प्रसन्नताका अनुभव होना स्वाभाविक है। आजके दिन भारतको स्वराज्य मिला ऐसा लोग कहते हैं पर परमार्थसे स्वराज्य कहाँ मिला ? जब आत्मा परपदार्थके आलम्वनसे मुक्त हो आत्माश्रित हो जावे तब स्वराज्य मिला ऐसा समझना चाहिये। खेद इस वातका है कि इस स्वराज्यकी ओर किसीकी दृष्टि नहीं जा रही है, हम लोग अपनको नहीं संभालते संसारको उपदेश देते हैं कि कल्याणमार्ग पर चला परन्तु हम स्वयं कल्याणमार्ग पर नहीं चलते । अन्यको उपदेश देते हैं कि क्रोध मत करो पर स्वयं क्षमाकी अपलहना Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षाबन्धन र पर्युषण २०१ करते हैं । इस स्थितिमें पारमार्थिक स्वराज्यकी प्राप्ति होना दुर्लभ है। · श्रावण शुक्ला पूर्णिमा सं० २००७ को रक्षाबन्धन पर्व आया । यह पर्व सम्यग्दर्शनके वात्सल्य अङ्गका महत्त्व दिखलानेवाला है । सम्यग्दृष्टिका स्नेह धर्मसे होता है और धर्म विना धर्मीके रह नहीं सकता इसलिये धर्मीके साथ उसका स्नेह होता है । जिस प्रकार गौका बछड़ेके साथ जो स्नेह होता है उसमे गौको बछड़ेकी ओरसे होनेवाले प्रत्युपकारकी गन्ध भी नहीं होती उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि धर्मात्मासे स्नेह करता है तो उसके बदले वह उससे किसी प्रत्युकारकी आकांक्षा नहीं करता । कोई माता अपने शिशुसे स्नेह इसलिये करती है कि यह वृद्धावस्था मे हमारी रक्षा करेगा पर गौको ऐसी कोई इच्छा नहीं रहती क्योंकि बड़ा होनेपर छड़ा कहीं जाता है और गौ कहीं । फिर भी गौ बछड़े की रक्षा के लिये अपने प्राणोंकी भी बाजी लगा देती है । सम्यग्दृष्टि यदि किसीका उपकार करे और उसके बदले उससे कुछ इच्छा रक्खे तो यह एक प्रकारका विनिमय हो गया इसमें धर्मका अंश कहाँ रहा ? धर्मका अंश तो निरीह होकर सेवा करनेका भाव है । विष्णुकुमार मुनिने सातसौ मुनियों की रक्षा करनेके लिये अपने आपको एकदम समर्पित कर दिया- अपनी वकी तपश्चर्यापर ध्यान नहीं दिया और धर्मानुरागसे प्रेरित हो छलसे वामनका रूप धर वलिका अभिमान चूर किया । यद्यपि पीछे चलकर इन्होंने भी अपने गुरुके पास जाकर छेदोपस्थापना की अर्थात् फिरसे नवीन दीक्षा धारण की क्योंकि उन्होंने जो कार्य किया था वह मुनिपद के योग्य कार्य नहीं था तथापि सहधर्मी मुनियोंकी उन्होंने उपेक्षा नहीं की । किसी सहधर्मी भाईको भोजन वस्त्रादिकी कमी हो तो उसकी पूर्ति हो जाय ऐसा प्रयत्न करना चाहिये । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ मेरी जीवन गाया यह लौकिक स्नेह है सम्यग्दृष्टिका पारमार्थिक स्नेह इससे भिन्न रहता है। सम्यग्दृष्टि मनुष्य हमेशा इस वातका विचार रखता है कि यह हमारा सहधर्मी भाई सम्यग्दर्शन जान चारित्र रूप जो आत्माका धर्म है उससे कभी च्युत न हो जाय तथा अनन्त संसारके भ्रमणका पात्र न बन जाय। दूसरेके विषयमे ही यह चिन्ता करता हो सो वात नहीं अपने आपके प्रति भी यही भाव रखता है । सम्यग्दर्शनके निःशक्षित आदि आठ अङ्ग जिस प्रकार परके विषयमे होते हैं उसी प्रकार स्वके विषयसे भी होते हैं। रक्षाबन्धन रक्षाका पर्व है, परकी रक्षा वही कर सकता है जो स्वयं रक्षित हो । जो स्वय आत्माकी रक्षा करने में असमर्थ है वह क्या परका कल्याण कर सकता है ? रक्षासे तात्पर्य आत्माको पापसे पृथक करो पाप ही संसारकी जड़ है। जिसने इसे दूरकर दिया उसके समान भाग्यशाली अन्य कौन है ? आज जैन समाजसे वात्सल्य अङ्गका महत्व कम होता जा रहा हैं अपने स्वार्थके समक्ष आजका मनुष्य किसीके हानि लाभको नहीं देखता। हम और हमारे बच्चे आनन्दसे रहे परन्तु पड़ौसकी मोपड़ीमे क्या हो रहा है इसका पता लोगोंको नहीं। महलमें रहनेवालोंको पासमें वनी झोपड़ियोंकी भी रक्षा करनी होती है अन्यथा उनमे लगी आग उनके महलको भी भस्मसात् कर देती है । एक समय तो वह था कि जब मनुष्य वड़ेकी शरणमे रहना चाहते थे उनका ख्याल रहता था कि बड़ोंके आश्रयमें रहनेसे हमारी रक्षा रहेगी पर आजका मनुष्य बड़ोंके आश्रयसे दूर रहनेकी चेष्टा करता है क्योंकि उसका ख्याल बन गया है कि जिस प्रकार एक बडा वृक्ष अपनी छाँहम दूसरे छोटे पौधेको नहीं पनपने देता है उसी प्रकार वड़ा आदमी समापवर्ती-शरणागत अन्य मनुष्योंको नहीं Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षाबन्धन और पर्यपण २०३ पनपने देता । अस्तु रक्षावन्धन पर्व हमे सदा यही शिक्षा देता है कि 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' अर्थात् सव सुखी रहे । __ मैं कहनेके लिये तो यह सव कह गया पर सामायिकके वाद अन्तरङ्गमे जय विचार किया तब यही ध्वनि निकली कि परकी समालोचना त्यागो आत्मीय समालोचना करो। समालोचनामे काल लगाना भी उचित नहीं प्रत्युत वह काल उत्तम विचारोमें लगाओ। आत्माका स्वभाव ज्ञाता दृष्टा है वहो रहने दो उसमे इष्ट अनिष्ट कल्पनासे बचो। अनादि कालसे यही उपद्रव करते रहे पर सन्तुष्ट नहीं हुये। आत्म परिणतिको स्वच्छ रक्खो सो तो करता नहीं संसारका ठेका लेता है। जो मनुष्य आत्मकल्याणसे वञ्चित. हैं वे ही संसारके कल्याणमे प्रयत्न करते हैं। संसारमे यदि शान्ति चाहते हो तो सबसे पहले परमें निजत्वकी कल्पना त्यागो अनन्तर अनादिकालसे जो यह परिग्रह पिचाशके आवेशमे अनात्मीय पदार्थों से आत्महितका संस्कार है उसे त्यागो। हम आहारादि संज्ञाओंसे आत्माको तृप्त करनेका प्रयत्न करते हैं यह सर्व मिथ्या धारण है इसे त्यागो । संतोपका कारण त्याग है उसपर स्वत्व कल्पना करो। प्रतिदिन जल्पवादसे जगत्को सुलझानेकी जो चेष्टा है उसे त्यागो और आपको सुलझानेका प्रयत्न करो। संसारमे धर्म और अधर्म तथा खान और पान यही तो परिग्रह है । लोकमें जिसे पुण्य शब्दसे व्यवहृत करते हैं वह धर्म तुम्हारा स्वभाव नहीं संसारमें ही रखनेवाला है। धीरे धीरे पयूषण पर्व आ गया। चतुर्थीके दिन श्री पंडित झम्मनलालजी आ गये । पं० कमलकुमारजी यहाँ थे ही इसलिये ग्रवचनका आनन्द रहा । वृद्धावस्थाके कारण हमसे अधिक बोला नहीं जाता और न बोलने की इच्छा ही होती है । उसका कारण यह है कि जो बात प्रवचनमें कहता हूँ तदनुरूप मेरी चेष्टा नहीं। मैं Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा दूसरोंसे तो कहता हूँ कि रागादिक दुःखके कारण हैं अतः इनसे बचो पर स्वयं उनमे फंस जाता हूँ। दूसरोंसे कहता हूँ कि सर्व प्रकारके विकल्प त्यागो पर स्वयं न जाने कहाँ कहाँके विकल्पमि फंसा हुआ हूँ। . पyपण पर्व सालमे तीन वार आता है-भाद्रपद, माघ और चैत्रमे, परन्तु भाद्रपदके पर्दूपणका प्रचार अधिक है। पर्वके समय प्रत्येक मनुष्य अपने अभिप्रायको निर्मल बनानेका प्रयास करते हैं और यथार्थमें पूछा जाय तो अभिप्राय की निर्मलता ही धर्म है। आत्माकी यह निर्मलता क्रोधादिक कषायोंके कारण तिरोहित हो रही है इसलिये इन कषायोंको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये । क्रोध मान माया और लोभ ये चार कपाय हैं इनमें क्रोधसे क्षमा, मानसे मार्दव, मायासे आर्जव और लोभसे शौचगुण तिरोहित हैं। ये चार कषाय निकल जावें और उनके बदले क्षमा आदि गुण आत्मामें प्रकट हो जावें तो आत्माका उद्धार हो जावे, क्योंकि मुख्यमें यह चार गुण ही धर्म है । आगे जो सत्यआदि छह धर्म कहे हैं वे इन्हींके विस्तार हैं-इन्हींके अङ्ग हैं। क्रोधको वही जीत सकता है जिसने मान पर विजय प्राप्त करली हो। हम कहीं गये, किसीने सत्कार नहीं किया, हमारी बात पूछी नहीं हमे क्रोध आगया । हमने किसीसे कोई वात कही उसने नहीं मानी हमे क्रोध आ गया कि इसने हमारी बात नहीं मानी इस प्रकार देखते हैं कि हमारे जीवन में जो क्रोध उत्पन्न होता है उसमे मान प्रायः कारण होता है। इसी प्रकार मायाकी उत्पत्ति लोभसे होती है। हमें आपसे किसी वस्तुकी आकांक्षा है तो उसे पानेके लिय हम इच्छा न रहते हुए भी आपके प्रति ऐसी चेष्टा दिखलावगे कि जिससे आपके हृदयसे यह प्रत्यय हो जावे कि यह हमारे अनुकूल ई । जव अनुकूलताका प्रत्यय आपके हृदयसे दृढ होजावेगा नभी ना Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायन्धन और पर्यपण "पनी वस्तु देनेका भाव होगा। इस तरह यह किसीका ठीक है कि 'मानामोध प्रभवति माया लोभात्प्रवर्तते अर्थात मानसे क्रोध उत्पन्न होता है और लोभसे माया प्रवृत्त होती है। जब प्रात्मासे क्रोध लोभ भीरुन तथा हास्यकी परिणति दूर हो जाती है तो सत्य वचनमे प्रवृत्ति अपने आप होने लगती है। असत्य बोलनेके कारण दो हैं १ अज्ञान ओर २ कपाय । इनमें अज्ञान मूलक असत्य आत्माका घातक नहीं क्योंकि उसमे परिणाम मलिन नहीं रहते परन्तु. कपाय मृलक असत्य आत्माका घातक है क्योंकि उसमे परिणाम मलिन रहते हैं । जब आत्मासे क्रोधादि कपाय निक्ल गई तव, असत्य बोलनेमे प्रवृत्ति नहीं हो सकती । इन्द्रियोंके विषयोंसे निवृत्ति हो गई यही संयम है यह निवृत्ति तभी हो सकती है जब लोभ कपायकी निवृत्ति हो जाय तथा यह प्रत्यय हो जाय कि आत्मामे मुखकी उत्पत्ति विपयाभिमुखी प्रवृत्तिसे नहीं किन्तु तन्निवृत्तिसे है। मानसिक विपयोंकी निवृत्ति हो जाना-इच्छाओं पर नियन्त्रण हो जाना सो तप है । जव तक मन स्वाधीन नहीं होगा तब तक उसमे इच्छाएँ उठा करेंगी और इच्छाओंक रहते परिणामोंमे स्थिरता स्वप्नमें भी नहीं आ सकती । जब इच्छाएं घट जायेंगी तब उसके फलस्वरूप त्याग स्वतः हो जावेगा। भोजन करते करते जब भोजन विषयक इच्छा दूर हो जाती है तव भोजनके त्याग करनेमे देर नहीं लगती । क्षुधित अवस्थामें यह भाव होता था कि पात्रसे भोजन जल्दी आवे और सुधा विषयक इच्छा दूर हो जानेपर भाव होता है कि कोई बलात् पात्र में भोजन न परोस दे। त्यागके बाद आकिरचन्य दशाका होना स्वाभाविक है । जब पुरातन परिग्रहका त्याग कर दिया और इच्छाके अभावमे नूतन परिग्रह अंगीकृत नहीं किया तव आकिश्चन्य दशा स्वयमेव होनेकी है ही। और जब अपने पास आत्मातिरिक्त किसी पदार्थका अस्तित्व नहीं रहा-उसमे ममता Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा परिणाम नहीं रहा तब आत्माका उपयोग आत्मामें ही लीन होगायी ब्रह्मचर्य है इस प्रकार यह दश धर्मोका क्रम है । दश धर्मोका यह क्रम जीवनमें उतर जावे तो आत्माका कल्याण हो जावे । विचार कीजिये क्षमा मार्दव आदि धर्म किसके हैं और कहाँ हैं ? विचार करनेपर ये आत्मा हैं और आत्मामे ही हैं परन्तु यह जीव अज्ञानवश इतस्ततः भ्रमण करता फिरता है। लाखोंका धनी व्यक्ति जिस प्रकार अपनी निधिको भूल दर-दरका भिखारी हो भ्रमण करता है ठीक उसी प्रकार हम भी अपनी निधिको भूल उसकी खोजमे इतस्ततः भ्रमण कर रहे हैं । २०६ परम धर्मको पाय कर सेवत विषय कषाय । ज्यों गन्ना को पायकर नीमहि ऊँट चबाय ॥ जिस प्रकार ऊँट गन्ना को छोड़कर नीमको चबाता है उसी प्रकार संसारके प्राणी परम धर्मको छोड़कर विषयकषायका सेवन - करते हैं । उनमे सुख मानते हैं । मोहोदयसे इस जीवकी दृष्टि स्वोन्मुख न हो परकी ओर हो रही है । पर्वके समय प्रवचन होते हैं । वक्ता अपने क्षायोपशमिक ज्ञानके आधार पर पदार्थका निरूपण करता है । यहाँ वक्तासे यदि कुछ विरुद्ध कथन भी होता है तो अन्य समझदार व्यक्तिको समता भावसे उसका सुधार करना चाहिये, क्योंकि शास्त्र प्रवचन धर्मकथा है विजिगीषु कथा नहीं । धर्मकथाका सार यह है कि दश आदमी एकत्र बैठकर पदार्थका निर्णय कर रहे हैं इसमें किसीके जय-पराजयका भाव नहीं है । जहाँ यह भाव है वहाँ वार्तालाप विपमता आ जाती है । यह विपमता पापका कारण है । वार्तालाप के समय वक्ता या श्रोता किसीको यह भाव नहीं होना चाहिये कि हमारी प्रतिष्ठामे बट्टा न लग जावे । समता भावसे 1 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षाबन्धन और पर्यापण २०७ सत्य वातको स्वीकार करना चाहिये और समता भावसे ही असत्य बातका निराकरण करना चाहिये । यहाँ भाद्रपद शुक्ल १० के दिन पण्डितगणोंमें परस्पर कुछ वार्तालापकी विषमता हो गई । विपमताका कारण 'परमार्थसे हमारी प्रतिष्ठामे कुछ बट्टा न लगे' यद् भाव था । तत्त्वसे देखो तो आत्मा निर्विकल्प हैं उसमे यशोलिप्सा ही व्यर्थ है । 'यश तो नामकर्मकी प्रकृति है । यशसे कुछ मिलता जुलता नहीं है । जिस वक्ताने शास्त्रप्रवचनमें यशकी लिप्सा रक्खी उसका २ घंटे तक गन्नेकी नशें खींचना ही हाथ रहा, स्वाध्यायके लाभसे वह दूर रहा इसी प्रकार जिस श्रोताने वक्त की परीक्षाका भाव रक्खा या अपनी वात जमानेका अभिप्राय रक्खा उसने अपना समय व्यर्थ खोया । वक्ताका भाव तो यह होना चाहिये कि हम अज्ञानी जीवोंको वीतराग जिनेन्द्रकी सुनाकर सुमार्ग पर लगावें और श्रोताका भाव यह होना चाहिये कि बक्ताके श्रीमुखसे जिनवाणीके दो शब्द सुन अपने विषय कपायको दूर करें । पर्व के वाद आश्विन कृष्णा प्रतिपदा क्षमावरणीका दिन था परन्तु जैसा उसका स्वरूप है वैसा हुआ नहीं । केवल प्रभावना होकर समाप्ति हो गई । परमार्थसे अन्तरसमें शान्तिभाव की प्राप्ति हो जाना यही क्षमा है सो इस ओर तो लोगों की दृष्टि है नहीं केवल ऊपरी भावसे क्षमा माँगते हैं. एक दूसरे के गले लगते हैं । इससे क्या होनेवाला है ? और खास कर जिससे बुराई होती है उसके पास भी नहीं जाते उससे वोलते भी नहीं, इसके विपरीत जिससे बुराई नहीं उसके पास जाते हैं. उसके गले लगते हैं, उसे क्षमावणी पत्र लिखते हैं आदि। यह सव क्या क्षमावरणी उत्सवका प्राणशून्य नहीं है ? आश्विन कृष्ण ४ सं० २००७ को मेरे जन्मदिनका उत्सव Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ मेरी जीवन गाथा ' था । पं० राजेन्द्रकुमारजी, पं० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य, पं० चन्द्रमौलिजी, पं० पञ्चरत्नजी. कवि चन्द्रसेनजी, पं० खुशालचन्द्रजी तथा राजकृष्णजी आदि बाहर से आये । जयन्ती उत्सवोंमें जो होता है वही हुआ. सबने प्रशंसामें चार शब्द कहे और हमने नीची गरदनकर उन्हे सुना । दूसरे दिन रतनलालजी मादेपुरिया, महावीरप्रसादजी ठेकेदार दिल्ली तथा फीरोजाबादसे छदामीलालजी भी आये । छदामीलालजीने आग्रह किया कि आप फीरोजाबाद आवें । हम कुछ करना चाहते हैं और अच्छा कार्य करेंगे । हम वहाँ एक सुन्दर मन्दिर और एक उद्योग विद्यालय खोलना चाहते हैं । पं० राजेन्द्रकुमारजी तथा खुशाल चन्द्रजीने भी इस पर जोर डाला तथा यह आग्रह किया कि वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थके समर्पणका समारोह यहाँ न हो कर फिरोजाबाद में ही हो। मैंने कहा कि अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पणकी बात मैं नहीं जानता पर आप लोगोंका यदि कुछ काम करनेका भाव है और मेरे वहाँ पहुँचनेमे वह फलीभूत होता है तो दीपावली बाद मैं चलूँगा । मेरा उत्तर सुन उ हैं प्रसन्नता हुई । सब लोग अपने अपने घर गये और पर्यूषण पर्व सम्बन्धी चहल-पहल भी जयन्ती उत्सव के साथ समाप्त हुई । मनमें व्यग्रताका अभाव हुआ तथा निम्नाङ्कित भावना प्रकट हुई चाहत जो मन शान्ति सुख तजहु कल्पना, नाल | व्यर्थ भरमके भूतमें क्यों होते वेहाल यह जगकी माया विकट जो न तजोगे मित्र । तो चहुँगतिके बीचमें पावोगे दुख चित्र ॥ २ ॥ ܐ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावासे प्रस्थान आश्विन कृष्णा = सं० २०७ को राजकोटसे डाक्टर और मोहन भाई आये । तत्त्वचर्चाका अच्छा आनन्द रहा । निमित्त उपादान की चर्चा हुई । यद्यपि इस चर्चा में विशेष आनन्द नहीं परन्तु फिर भी लोग यही करते है । 'आत्माका कल्याण हो' यह मुख्य प्रयोजन है । वह उपादानकी प्रधानतासे हो या निमित्तकी प्रधानतासे हो पर हो यही मुख्य उद्देश्य है । मेरी समझ के अनुसार तो कार्यकी सिद्धिमें न केवल उपादान कुछ कर सकता है और न केवल निमित्त | जब दोनोंकी अनुकूलता हो तभी कार्यकी सिद्धि हो सकती है। कुम्भकारके व्यापारसे निरपेक्ष केवल मृत्तिकासे घटकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और मृत्तिकासे निरपेक्ष केवल कुम्भकारके व्यापार से घटकी रचना नहीं हो सकती । दोनों सापेक्ष रह कर ही कार्य उत्पन्न कर सकते हैं । - आश्विन कृष्ण १४ सं० २००७ को फिरोजाबादसे पं० माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य आये । प्रातः काल ८३ से ६३ तक उनका प्रवचन हुआ | आपकी कथनशैली अच्छी है, उच्च कोटिके विद्वान् हैं, आपने श्लोकवार्तिकके ऊपर भाषा टीक लिखी है । जिसका प्रथम भाग मुद्रित हुआ है । उसको हमने देखा, व्याख्या समीचीन प्रतीत हुई । आपके द्वारा यह अभूतपूर्व कार्य हो गया है । कार्तिक शुक्ला ६ सं० २००७ के दिन जबलपुर से बहुत से मानव आये। सबने आग्रह किया कि जबलपुर चलिये । मैं संकोच वश कुछ निश्चित उत्तर नहीं दे सका किन्तु मनमें यह बात आई कि वहाँ जानेसे जनताका उपकार बहुंत हो सकता है अतः जाना १४. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० मेरी जीवन गाथा अच्छा है। उस देशमें जानेसे दान अच्छा होगा तथा संस्थाएँ स्थिर हो जावेंगी। प्रतिदिन प्रातःकाल मन्दिरमे शास्त्रप्रवचन, मध्यान्हमें स्वकीय स्थान पर स्वाध्याय और रात्रिको मन्दिरमे प्रवचन यही क्रम यहाँ पर जब तक रहा चलता रहा। चतुर्मासकी समाप्तिके बाद मार्गशीर्ष कृष्ण पञ्चमीको इटवासे भिण्डके लिये प्रस्थान कर दिया। जाते समय अनेक स्त्री-पुरुष आये । १०-११ माह यहाँ रहनसे लोगोंके हृदयमे मेरे प्रति आत्मीय भाव उत्पन्न होगया था इसलिए जाते समय लोगोंको बहुत दुःख हुआ। मैंने कहा कि यह स्नेह ही संसार वन्धनका कारण है। यदि आप लोगोंने इतने समय तक 'जैनधर्मका कुछ सार ग्रहण किया है तो उसके अनुसार प्रथम तो किसी पर पदार्थमें इष्ट अनिष्टकी भावना ही नहीं होना चाहिये और यदि कारण वश किसीमें इष्ट अनिष्ट भावना हो भी गई है तो उसके वियोग तथा संयोगमें हर्ष विषादका अनुभव नहीं करना चाहिए। इस विषम संसारमें अनादिसे यह जीव पर पदार्थमें निजत्वकी कल्पना करता है। जिसमें निजत्व मानता है उसे अपनानेकी चेष्टा करता है, उसको किसी प्रकार वाधा न पहुंचे ऐसा प्रयत्न संतत करता है। यदि कोई उसके प्रतिकूल हुआ तो उससे पृथक् होनेकी चेष्टा करता है। वन्धन ही दुःखका मूल है, बन्धन स्नेह-मोहमूलक । है और मोहपर पदार्थोंको अपना मानना एतन्मूलक है। इस संसार अटवीमें अनन्त काल भ्रमण करते करते आज यह अलब्ध मनुष्य पर्यायका लाभ हुआ है। अथवा यह कथनमात्र है. क्योंकि अनन्त वार मनुष्य पर्याय पाया है। पर्याय ही नहीं पाया अनन्तवार द्रव्यमुनि होकर अनन्तवार वेयक तक गया जहाँ ३१ सागरकी आयु पाई, तत्त्व विचारमें समय गया किन्तु स्वात्मज्ञानसे वञ्चित रहा। अव अवसर अच्छा है यदि Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावासे प्रस्थान अन्तरसे परिश्रम किया जावे तो अनायास भेद-ज्ञानका लाभ हो सक्ता है । भेदज्ञान वह वस्तु है जिसके होते ही यह आत्मा अनन्त संसारके बन्धको छेद सकता है । भेदज्ञानके अभावमे जो हमारी दशा हो रही है वह हमको विदित है। उसके बिना ही हम परको अपना मानते हैं और निरन्तर यही प्रयास करते हैं कि वह पदार्थ हमारे अनुकूल रहे । पदार्थ २ तरहके हैं एक चेतन और दूसरे अचेतन । अचेतन पदार्थ तो जड़ हैं उनमे न तो राग है और न द्वेष है । वह न किसीका भला करते हैं और न किसीका बुरा करते हैं। हम स्वयं अपनी रुचिके अनुकूल उन्हें काल्पनिक बुरा भला मान लेते हैं। इसमें कारण हमारी रुचि भिन्नता है । यद्यपि यह निर्विवाद है कि सर्व पदार्थ अपने अपने परिणमनसे परिणत होते रहते हैं। कोई कर्ता परिणमन करानेवाला नहीं परन्तु तो भी हमारी ऐसी धारणा बन गई है कि अमुक निमित्त न होता तो यह न होता, क्योंकि लोकमे जो कार्य देखे जाते है वे सवें ही उपादान और निमित्तसे ही आत्म-लाम करते हैं। आप लोगोंका हित आपकी श्रात्मा पर निर्भर है परन्तु आप लोगोंने मुझे उसका निमित्त मान रक्खा है इसलिए मेरे वियोगमे आपको दुःखका अनुभव हो रहा है। जो संसार समुद्रसे है तरनेकी चाह । मेदशान नौका चढो परकी छोड़ो हाह ।। इटावासे १३ मील चल कर नलियाजी मिली। वहाँ तक बहुत लोगोंका समुदाय रहा । नलियाजीमें दो छोटे छोटे मन्दिर हैं. दर्शन किये । एक मन्दिरमें प्राचीन प्रतिविम्ब है, बहुत मनोज्ञ है किन्तु हाथ खण्डित है। एक समय ऐसा था जब यवनोंके द्वारा अनेक मन्दिर ध्वस्त किये गये । यवन धर्मानुयायी मूर्तितत्त्वको नहीं Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ मेरी जीवन गाथा समझते । मूर्तिपूजा उन्हे पसन्द नहीं। न करें पर संसारकी मूतियों और मन्दिरोंको ध्वस्त करनेमे कौन सा धर्म है ? बुद्धिमें नहीं आता। फिरोजाबादकी और श्री क्षुल्लक वलदेवसादजी जिनका दूसरा नाम संभवसागर था तथा क्षुल्लक मनोहरलालजी इटावासे ही साथ हो गये थे। भिण्डमे पहुँचने पर वहाँ जनताने संघका अच्छा स्वगत किया। श्री नेमिनाथ स्वामीके मन्दिरमें श्रीयुत क्षुल्लक मनोहरलालजीका प्रवचन हुआ। आपने अति सरल शब्दोंमे, आत्मामें जो रागादिक होते हैं उनका विवेचन किया। इसी प्रकरणमें आपने यह भी कहा कि कार्यकी उत्पत्ति सामग्रीसे होती है। सामग्रीमे एक उपादान और इतर सहकारी कारण होते हैं जो स्वयं कार्यरूप परिणमे वह तो उपादान है और जो सहायक हो पर तद्रप परिणमन नहीं करता वह सहकारी होता है । सहकारी अनेक होते हैं। जैसे कुन्मती उत्पत्तिमे मिट्टी उपादान और कुम्भकारादि सहकारी होते हैं । इन सहकारियोंमे चेतन भी होते है और अचेतन भी। सहकारी कारण चाहे चेतन हो चाहं अचेतन, बलात्कारसे कार्यको उत्पन्न नहीं करते किन्तु उनकी सहकारिता अति आवश्यक है। प्रवचन मुन जानता बहुत प्रसन्न हुई। एक दिन श्रादिनाथ स्वामीके मन्दिरनं भी प्रवचन हुआ। पिछले समय जब यहाँ आये थे तब पाटसाला चालू करनेका प्रयत्न कुछ लोगोंने किया था परन्तु परस्परके बैमनस्वसे या Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबादकी ओर २१३ प्रयत्न सफल नहीं हो सका था। अब मार्गशीर्ष शुक्ला ६ सं० २००७ को पाठशालाका उद्घाटन श्री पं० झम्मनलालजीने मङ्गलाष्टक पूर्वक सानन्द कराया। आज श्री राजकृष्णजी, पं० राजेन्द्रकुमारजी तथा श्री छदामीलालजी आये । सबका उद्देश्य फिरोजाबादमें हीरक जयन्ती महोत्सव तथा 'वणी अभिनन्दन ग्रन्थ समारोहकी स्वीकृति प्राप्त करना था। राजकृष्ण हृदयसे बात करते हैं। पण्डित राजेन्द्रकुमारजी चतुर व्यक्ति हैं । समाजका हित चाहते हैं तथा कार्य भी उसीके अनुरूप करते हैं किन्तु अन्तरङ्ग उनका गम्भीर है। उसका निश्चय करना प्रत्येक व्यक्तिका कार्य नहीं। कुछ हो, जो वह कार्य करते हैं समाजके हितकी दृष्टिसे करते हैं। मार्गशीर्ष शुक्ल ११ को पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागरवाले आये। यह निश्चय हुआ कि अभिनन्दन ग्रन्थका समारोह फीरोजाबादमें हो। हमने यह निश्चय कर लिया कि फिरोजाबादमें उत्सव होनेके बाद सागर जावेंगे। आज ही हम लोग भिण्ड छोड़कर फूफ आ गये । यह स्थान भिण्डसे ७ मील है। दूसरे दिन फूफसे चल कर चम्बल आये। यहाँ एक प्राचीन मन्दिर है । ३ बजे चम्बल पार हुए। ३ फाग पानीमें चलना पड़ा तदनन्तर ३ मील चल कर उदीमें आ गये। स्कूलमें रात्रिको ठहर गये। प्रातःकाल सामायिकका उद्यम किया। इतनेमें श्री क्षुल्लक मनोहरजीने कहा हम खुर्जा जावेंगे। मैंने कहा ठीक है। मनमें विचार आया कि मैं संघका आडम्बर कर लोगोंके संयोग वियोगके समय व्यर्थ ही हर्ष विषादका पात्र बनता हूँ अतः जितने जल्दी बन सके यह संघका आडम्बर छोड़ देना चाहिये । परका समागम सुखद नहीं क्योंकि परके समागममें अनेक विकल्प होते हैं । विकल्प ही आकुलताके जनक हैं । आत्मामे ज्ञान है उसके द्वारा वह उस विकल्पके अनेक अर्थ स्वरुचिके Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा अनुकूल लगाता है और कुछ यथार्थ भी लगाता है तथा उनको रखनेकी चेष्टा करता है। समागममें अनिष्ट-इष्ट कल्पना मत करो । इष्टानिष्ट कल्पना अन्तरहसे होती है अतः यदि समागमको नहीं चाहते हो तो अन्तरङ्ग कल्पना त्याग दो। परको इष्ट अनिष्ट मानने की बात छोड़ो। दोष आपमें देखो तभी सुमार्ग मिलेगा। पौष कृष्ण ८ सं० २००७ सोमवारको ईसवीय नवीन वर्षका प्रारम्भ हुआ। आज दैनंदिनीके प्रथम पृष्ठ पर लिखा कि 'यदि कश्चित् आत्मा संसारसमुद्राद्धर्तुमिच्छति तदास्मिन् यावन्तः पदार्थाः सन्ति तैः सह संसर्गों न कार्य' अर्थात् यदि कार्य आत्मा संसार ससुद्रसे उद्धार पानेकी इच्छा करता है तो इसमें जितने पदार्थ हैं उनके साथ संपर्क नहीं करना चाहिये। मनमें विचार आया कि इस वर्षमें यदि शान्तिकी अभिलाषा है तो इन नियमोंका पालन करो प्रातःकाल ३३ बजे उठो और १३ घंटा स्वाध्यायमे बिताओ। तदनन्तर सामायिक करो । स्वाध्यायमे पुस्तकोंकी मर्यादा रक्खोसमयसार, प्रवचनसार, पश्चास्तिकाय, नियमसार और पुरुषार्थसिद्धयुपाय""इन पुस्तकोंको णमोकार मन्त्र बनाओ। रात्रिम घंटा चोलो, शास्त्रश्रवण करो। प्रात:काल स्वाध्यायके समय किसी से मत बोलो। यदि बोलो तो जिसका स्वाध्याय कर रहे हो उसी पर बोलो। भोजनकी प्रक्रियाको सरल बनाओ। भृत्यका अभ्यास छोड़ो आत्मीय कार्यका भार परके ऊपर मत डालो। त्यागका अर्थ यह नहीं जो अन्य समाजको भारभूत बनो। सूत्रमें स्वामीने 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' लिखा है तदनुकूल प्रवृत्ति करो। समाज भोजनादि द्वारा तुम्हारा उपकार करती है तो तुमको भी उचित ह कि यथायोग्य ज्ञानादि दान द्वारा उसका उपकार करो। याद Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबादकी र २१५ तुम त्यागी न होते तो निर्वाहके अर्थ कुछ व्यापारादि करते, उसमें तुम्हारा काल जाता अतः जो तुम्हारा भोजनादि द्वारा उपकार करे उसका ज्ञानादि उपकार कर उससे उऋण होना चाहिये । 12 एक बार यहाँ चर्चा उठी कि यह जीव अच्छे बुरे संस्कार पूर्व जन्म लाता है । मेरा कहना था कि सब संस्कार पूर्व जन्मसे नहीं लाता, बहुतसे संस्कार वर्तमान संपर्क से भी उत्पन्न होते हैं । उत्पत्तिके समय मनुष्य नग्न ही होता है और मरण के समय भी नग्न रहता है । मनुष्य जिस देशमें पैदा होता है उसी देशकी भाषाको जानता है तथा जिसके यहाँ जन्म लेता है उसीको आचार उस बालकका चार हो जाता है । 'जन्मान्तर से न तो भाषा लाता है और न 'आचारादि क्रियाएं | किन्तु जिस कुलमें जो जन्म लेता है उसीके अनुकूल उसका आचरण हो जाता है अतः सर्वथा जन्मान्तर संस्कार ही वर्तमान श्राचारका कारण है यह नियम नहीं | वर्तमान में भी कारणकूटके मिलने से जीवोंके संस्कार उत्तम हो जाते हैं । अन्यकी कथा छोड़ो पशुओं के भी मनुष्य के सहवाससे नाना प्रकारकी चेष्टाएँ देखी जाती हैं और उन बालकोंमे, जो ऐसे फुलोंमें उत्पन्न हुए जहाँ ज्ञानादिके किसी प्रकारके साधन न थे, उत्तम मनुष्योंके सहवास से अच्छे संस्कार देखे गये । वे उत्तम विद्वान् और सदाचारी देखे गये । वर्तमान में जो डा अम्बेडकर है वह विधानसभाका सदस्य है । वह जिस कुलमें उत्पन्न हुआ यद्यपि उसमें यह सब साधन न थे तो भी अन्य उत्तम संपर्क मिलनेके कारण उसकी प्रतिभा चमक उठी । यहाँके जो बालक विलायत में अध्ययन करने जाते हैं उनके आचरण प्रायः जिस देशके शिक्षकों के सहवासमें रहते हैं वहीं हो जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि जीवके कितने ही संस्कार पूर्व जन्मसे आते हैं तो कितने ही इस जन्म के वातावरण से उत्पन्न होते हैं । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ मेरी जीवन गाथा ., पौष- कृष्ण ११ -सं० २००७ के दिन इन्दौरवाले यात्री आये। आत्म-कल्याणकी लालसासे आदमी यत्र तत्र भ्रमण करते हैं। जैसे गर्मीकी ऋतुमें पिपासातुर हरिण दो घूट पानीसे लिए इधर-उधर दौड़ता है उसी प्रकार जगत्के मानव भी धर्मकी लालसासे जहाँ तहाँ दौड़ रहे हैं। कोई तीर्थक्षेत्र जाता है तो कोई किसी मुनि क्षुल्लक आदि उत्तम पुरुषोंकी संगतिमें जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि धर्म पदार्थ इतना व्यापक है कि प्रत्येक व्यक्ति इसे आत्मीय मानता है। जितने मत संसारमें प्रचलित हैं धर्म ही उनका प्राण है । इसके विना कोई भी मत जीवित नहीं रह सकता। जिस प्रकार मनुष्यमें इन्द्रियादि प्राण हैं उसी प्रकार मतमतान्तरोंमें धर्मप्राण है। किन्तु उसकी यथार्थताके बिना आज जगत् अनेक संकटोंका पात्र बन रहा है। इसका मूल कारण धर्मके स्वरूपको न समझकर उठनेवाली नाना प्रकारकी कल्पनाएँ हैं। कोई तो पृथिवी विशेषके स्पर्शमें धर्म मानते हैं अर्थात् विशेष स्थान ( तीर्थक्षेत्र) का स्पर्श करनेसे आत्मा पवित्र हो जाती है तो कोई पानीके स्पर्शको ही धर्मका साधन मानते हैं अर्थात् अमुक नदी या तडाग आदिके जलका स्पर्श करते-उसमें स्नान करनेसे धर्म मानते हैं और कोई अग्निको ही धर्मका साधन समझ उसकी पूजा करते हैं । परन्तु यथार्थमें धर्म आत्माकी निर्मल परिणति है। निर्मलता कपायके अभाव मे आती है और कषायका अभाव स्वपरके वास्तविक स्वरूपको समझ लेनेसे होता है अतः स्त्रपरके यथार्थ स्वरूपको समझो । यथार्थ स्वरूपके सामने आत्माको छोड़ पुद्गल या उसके निमित्तसे उत्पन्न विकारको आत्मा न मानो और ज्ञान-दर्शनादि अनन्तगुणोंका पुञ्ज जो आत्मा है उसे पृथिवी आदिका विकार मत जानो। चरणानुयोगके सिद्धान्त अटल हैं। उनका तात्पर्य यही है Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबादकी ओर कि पर पदार्थोंसे ममता हटाओ। हम लोग पर पदार्थोंका त्याग कर प्रसन्न हो जाते हैं और मनमें सोचते हैं कि हमने बहुत उत्तम कार्य किया। यहाँ परमार्थसे विचार करो कि जो पदार्थ हमने त्यागे वे क्या हमारे थे ? आप यही कहेंगे कि हमसे भिन्न थे तब आप जो उनको आत्मीय समझ रहे थे यही महती अज्ञानता थी । यावत् आपको भेदज्ञान न था उन्हे निज मान रहे थे । यही अनन्त संसारके बन्धनका भाव था। भेदज्ञान होनेसे आपकी अज्ञानता चली गई। फिर यदि आप उस पदार्थको दानकर फल चाहते हैं तो दूसरेको अज्ञान वनानेका ही प्रयास है और तुम स्वयं आत्मीय भेदज्ञानको मिटानेका प्रयास कर रहे हो। यह जो दानकी पद्धति हे वह अल्पज्ञानियों के लिये है । भेदज्ञानवाले तो इससे तटस्थ रहते हैं अतः दान लेने देनेका व्यवहार छोड़ो। वस्तु पर विचार करो। आत्मा ज्ञाता दृष्टा स्वयमेव है। उसमें विकार न आने दो । विकारका अर्थ यह कि ज्ञानदर्शनका कार्य जानना देखना है उसे मोह राग द्वेषसे कलङ्कित मत करो। इसीका नाम मोक्ष है, जहाँ राग द्वेष मोह है वहीं संसार है, जहाँ संसार है वहीं बन्धन है और जहाँ बन्धन है वहीं पराधीनता है। ___ पौष कृष्ण १३ सं० २००७ को यहाँ मल्लिसागर जी दिगम्बर मुनि आये। आपके आनेका समाचार श्रवण कर बहुंत श्रावक श्राविकाएं आपके लेनेको गये । ११३ वजे आपका शुभागमन हुआ, आपने मन्दिरमे दर्शन किये। हम लोग नित्य नियमके अनुसार सामायिक करनेके लिये बैठ गये। सामायिकके बाद आये मुनि महाराज भी सामायिकके अनन्तर बाहर तख्तपर उपदेश देने लगे। लोगोंने चर्याके लिए प्रार्थना की। फिर क्या था ? आप कहने लगे कि किसके यहाँ भोजन करें। किसीके शूद्र जलका त्याग है ? दस्सोंके यहाँ भोजन तो नहीं करते ? परस्पर जातियोंमें विवाह तो Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ मेरी जीवन गाथा नहीं करते ? यह सुन भिण्डका एक जैनी बोला- मेरे शूद्र जलका त्याग है । किसके समक्ष लिया ? महाराजने कहा । श्री १०८ सूर्यसागरजी महाराजके पास नियम लिया था उसने कहा । मुनिराज बोले- अरे वह तो उत्तरका मुनि है, प्रतिमाको स्पर्शकर नियम ले । वह मन्दिरमे गया और प्रतिमा स्पर्श करके आया, आपने यह कार्य कराया । फिर नीचे आया, महाराज पड़गाए गये । श्रहार देनेवाली औरत मुखसे यह नहीं निकला कि दस्सोंके घर भोजन नहीं करूँगी । इतने पर महाराज भोजन छोड़कर चले गये । और स्टेशनपर सायके मनुष्योंके यहाँ भोजन किया। ग्राम ग्राममे चन्दा होता है । यहाँ से भी (०) का चन्दा हो गया। साथमे मोटर है। हर जगह चन्दा होता है । यह दृश्य देख मुझे लगा कि पञ्चम कालका चमत्कार है । अव यही धर्म रह गया है । I पौप शुक्ला २ सं० २००७ को सहारनपुरसे श्री रतनलालजी आये | आप योग्य व्यक्ति हैं। आपको करणानुयोगका अच्छा अभ्यास है। सूक्ष्मसे सूक्ष्म पदार्थका आप सरल रीतिसे ज्ञान करा देते हैं । आपने मुख्त्यारी छोड़ दी है तथा युवावस्थामें ब्रह्मचर्य ले रक्खा । आपका स्वभाव सरल है और सरलता के साथ श्रागमानुकूल प्रवृत्तिपर आपकी दृष्टि रहती हैं। आपके समागम से हर्ष हुआ । हम निरन्तर इस प्रकारकी चेष्टा करते रहते हैं कि रागकी सत्तापर विजय प्राप्त कर लेवे परन्तु श्राज तक हम उसपर विजय प्राप्त न कर सके। इसका मूल कारणं यह ध्यानमें आता है कि हमने अभी तक पर मे निजत्व कल्पनाको नहीं त्यागा है। अभी तक हम परमे अपनी प्रतिष्टा और अप्रतिष्ठा मान रहे हैं। जहाँ किसी व्यक्तिने फुल प्रशंसा सूचक शब्दों का प्रयोग किया वहाँ हम एक दम प्रसन्न हो जाते है और निन्दा के शब्दों का प्रयोग किया कि एक दम प्रसन्न हो जाते हैं। इसका मुख्य हेतु हमने यही समय है कि पर हमारा भला Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबादकी र २१६ बुरा कर सकते हैं । संसारमे अधिकांश मनुष्य ईश्वर को ही कर्ताधर्ता मानते हैं, स्वतन्त्र हम कुछ नहीं कर सकते परन्तु इसपर भी पूर्ण अमल नहीं । यदि कोई काम अच्छा वन गया तो अपनेको कर्ता मान लिया । यदि नहीं बना तो भगवान्‌को यही करना था " यह कह सव दोप भगवान् के शिर मढ़ दिया। कुछ स्थिर विचार नहीं | यदि इस पिण्डसे छूटे तो शुभाशुभ परिणामोंसे उपार्जित कर्मका प्रभाव है। हम क्या कर सकते हैं ? ऐसा ही तो होना था ऐसा विश्वास अनेकोंका है | यदि उन भले मानवोंसे पूछिये कि वह कर्म कहाँसे श्राये ? तो इसका यही उत्तर है कि वह प्राक्तन कर्मका फल है । इस प्रकार यह संसारकी प्रणाली वरावर चल रही है और चली जावेगी । मोक्षका होना अति कठिन है । मैं तो अपने विषयमे सदा यही अनुभव करता रहता हूँ कि - सत्तर छहके योगमं गया न मनका मैल । खाँड़ भरे मुस खात है चिन विवेकके बैल || सर्व पदार्थ अपनी अपनी सत्ता लिये परिणमनशील हैं। कोई पदार्थ किसीके साथ तादात्म्य नहीं रखता । जिस पदार्थ में जो गुण व पर्यायें हैं उन्हींके साथ उनका तादात्म्य है | चाहे वह चेतन हो चाहे चेतन हो । चेतन पदार्थका तादात्म्य चेतनगुण पर्यायके साथ है यह निर्णीत है किन्तु अनादि कालसे मोहका सम्बन्ध आत्मा के साथ हो रहा है । मोह पुद्गल द्रव्यका परिणमन है किन्तु जब उसका विपाक काल आता है तब यह आत्मा रागादि रूप परिणमन करता है । आत्मामें चेतना गुण है उसका ज्ञानदर्शन रूप परिणमन है । ज्ञानगुणका काम जानना है । जैसे दर्पण में स्वच्छता है । उसमें अग्निका प्रतिविम्ब पड़ता है किन्तु वह्निमें जो उष्णता और ज्वाला है वह दर्पणमे नहीं है । एवं ज्ञानगुण स्वच्छ है, Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० मेरी जीवन गाथा उसमें मोहके उदयमें रागादिक होते हैं । वे यद्यपि आत्माको उपादान शक्तिसे ही हुए हैं तथापि मोहजन्य होनेसे नैमित्तिक हैं । यह जीव उन्हें स्वभाव मान लेता हैं, यही इसकी भूल है । यही भूल अनन्त संसारका कारण है । जिन्हें अनन्त संसारसे पार होना हो वे इस भूलको त्यागें । संसारको निज मत बनाओ और न निजको संसार बनाओ। न तुम किसीके हो और न कोई तुम्हारा है किन्तु मोहके आवेगमे तुम्हे कुछ सूझता नहीं । यह विचार निरन्तर मेरे मनमें घूमता रहता हैं । 1 सेठ सुदर्शनलालजीका अत्यन्त श्राग्रहका था इसलिये, पौष शुक्ला १४ को जसवन्तनगर आ गये । यहाँ श्री ताराचन्द्रजी रपरिया, वैनाड़ा मटरूमलजी तथा श्री ख्यालीरामजी आगरा आये थे । सौरीपुर के लिये ५५०) का चन्दा हो गया । सौरीपुरमें श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरोंके बीच कुछ संघर्ष है। संघर्षकी जड़ परिग्रह हैं । यद्यपि श्वेताम्बर समाजमे वर्तमान साधुसमागम पुष्कल है और वे लोग पठन-पाठनमे अपना समय लगाते हैं। कई विशिष्ट विद्वान् भी हैं किन्तु न जाने दिगम्बर समाजसे इतना वैमनस्य क्यों रखते हैं । धर्म वह भी अपना जैन मानते हैं और यह भी मानते हैं कि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र ही मोका मार्ग है | चारित्रका लक्षण भी रागद्वेपकी निवृत्ति मानते हैं । वस्त्र रखकर भी यही अर्थ करते हैं कि इस परिग्रहमें हमको मूर्छा नहीं। तब समझमें नहीं आता कि दिगम्बर मुद्रासे इतनी घृणा क्यों करते हैं ? मूर्तिको सपरिग्रह बनाने में कोई प्रयत्न शेष नहीं रखते तथा कहते हैं कि यह वीतरागदेवकी मूर्ति है । यह सव पञ्चम कालका महत्त्व है । कल्याणका पथ तो केवल आत्मामें है । जहाँ अन्यकी अणुमात्र भी मूर्च्छा है वहाँ श्रेयोमार्ग नहीं । बन्धावस्था ही संसारकी जननी है, अन्यकी कथा छोड़ो परमात्मामे Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबादकी र २२ अनुराग भी परमात्मपदका घातक है तब वस्त्रमे मूर्च्छा रखकर अपनेको वीतरागी मानना क्या शोभा देता है । अनादि कालसे इसी मूछने आत्माको संसारका पात्र बना रक्खा है । आत्माकी परिणति दो प्रकारकी है -१ विकृति और २ अविकृति । विकृति परिणति ही संसार है । विकृति परिणतिमे ही यह आत्मा परको निज मानता है । और विकृति परिणति के अभाव मे परको पर और आपको आप मानने लगता है । इसीको स्वसमयकहता है । जिस समय आत्मा परसे भिन्न आत्माको मानता है उसी समय दर्शन ज्ञानमय जो आत्मा उसको छोड़ कर पर पदार्थोंमें निजत्वका अभिप्राय चला जाता है - नष्ट हो जाता है किन्तु चारित्र मोहके सद्भावमें अभी उनमे रागादिका संस्कार नहीं. जाता । इतना आवश्य है कि उन रागादि भावोका कर्तृत्व नहीं रहता । यही ही अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्यचितो वेदयितृत्ववत् । श्रज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारक ॥ अर्थात् आत्माका स्वभाव कर्तापना नहीं है । जैसे भोक्तृत्व नहीं है । अज्ञानसे आत्मा कर्ता बनता है और अज्ञानके अभावमें नहीं ।' चेतना आत्माका निज गुण है उसका परिणमन शुद्ध और अशुद्ध के भेदसे दो तरह का होता है । अशुद्ध अवस्थामें यह आत्मा पर पदार्थका कर्ता और भोक्ता बनता है और अज्ञानके अभाव में अपने, ज्ञानका ही कर्ता होता है । तदुक्तम् 1 'ज्ञानादन्यत्रेदं ममेति चेतना श्रज्ञानचेतना । सा द्विविधा कर्मचेतना कर्मफलचेतना च ।' अर्थात् ज्ञानसे अतिरिक्तका कर्त्ता आपको मानना यह कर्म Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ - मेरी जीवन गाथा चेतना है और ज्ञानसे अतिरिक्तका भोक्ता अपनेको मानना यही कर्मफलचेतना है। ऐसा सिद्धान्त है कि यः परिणमति स कर्ता यः परिणमो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणति क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥ इसका तात्पर्य यह है कि श्रात्मा जो परिणाम स्वतन्त्र करता है वह परिणाम तो कर्म है और आत्मा उसका कर्ता है तथा जो परिणति होती है वही क्रिया है। ये तीनों परस्पर भिन्न नहीं। जिन्होंने आत्मतत्त्वकी ओर दृष्टि दी उन्होंने पर संयोगसे होनेवाले भावोंको नहीं अपनाया। यही बूटी संसार रोगको नष्ट करनेवाली है । बन्धावस्था दो पदार्थोंके संयोगसे होती है । इस अवस्थामें होनेवाला भाव संयोगज है। वे पदार्थ चाहे पुद्गल हो चाहे जीव और पुद्गल हो । जहाँ सजातीय २ पुद्गल होते हैं वहाँपर एक तरहका भी परिणाम होता है और मिश्न भी होता है । जैसे दाल और चांवलके संयोगसे खिचड़ी होती है। उसका स्वाद न चांवलका है और न दालका । एवं हल्दी चूनामे दोनोंका एक तृतीय रंग हो जाता है । यद्यपि चूना हल्दी पृथक पृथक हैं परन्तु लाल रंग दोनोंका है। जिस पदार्थमें चाहे वह चेतन हो चाहे अचेतन, जो गुण और पर्याय रहते हैं वे गुण और पर्याय उसीमें तन्यय हो के रहते हैं। इतना अन्तर है कि गुण अन्वयी रूपसे निरन्तर द्रव्यके साथ तादात्म्य रखता है और पर्याय क्रमवर्ती होनेके कारण व्यतिरेक रूपसे द्रव्यके साथ तादल्य रखता है। स्वामी कुन्दकुन्द महाराजने कहा है 'परिणमदि जेण दव्वं तत्कालं तम्मयं ति पएणत्तम् ।' जैसे आत्मामे चेतना गुण है और मति श्रुतादि उसकी पयाय हैं सो चेतना तो अन्वयी रूप है और पर्यायें क्रमवती हैं। पर्याय Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबादकी ओर २२३ क्षणभंगुर हैं और गुण नित्य हैं। यदि पर्यायोंसे भिन्न गुण न माना जावे तो एक पर्यायका भंग होनेपर जो दूसरी पर्याय देखी जाती है वह बिना उपादानके कहाँसे उत्पन्न होती ? अतः मानना पड़ेगा कि पर्यायका आधार कोई है । जो आधार है उसीका नाम तो गुण है और उसका जो विकार है वही पर्याय है। जैसे आम्र आरम्भमें हरित होता है । काल पाकर वही पीत हो जाता है। इससे यह सिद्धान्त निर्गत हुआ कि आम्रका रूप हरित अवस्थासे पीत अवस्थामे परिवर्तित हुआ इसीका नाम उत्पाद और व्यय है। सामान्य रूप गुण ध्रौव्यरूप है ही। इस तरह विवेक पूर्वक विकृति परिणतिको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये । आज लोग धर्म धर्म चिल्लाते हैं पर धर्मके निकट नहीं पहुंच पाते । वह तो उसके ढाँचेमें ही धर्म बुद्धि कर प्रतारित हो रहे हैं। परमार्थसे धर्म वह वस्तु है जो आत्माको संसार बन्धनसे मुक्त कर देता है। उसके वाधक पाप और पुण्य हैं। सबसे महान् पाप मिथ्यात्व है। इसके उदय में जीव आपको नहीं जानता। पर पदार्थों में आत्मीयताकी कल्पना करता है। कल्पना ही नहीं उसके स्वत्वमे अपना स्वत्व मानता है। शरीर पुद्गल परमाणु पुञ्जका एक पुतला है। मिथ्यात्वके उदयमें यह जीव उसे ही आत्मा मान बैठता है और अहर्निश उसकी सेवामें व्यग्र रहता है। यदि कोई कहे भाई । शरीर तो अनित्य है इसके अथ इतने व्यग्र क्यों होते हो? कुछ परलोककी भी चिन्ता करो। तत्काल उत्तर मिलता है कि न तो शरीरातिरिक्त कोई आत्मा है और न परलोक है। यह तो लोगोंकी वञ्चना करनेके अर्थ एक जाल पण्डित महोदयों तथा ऋषिगणोंने बना रक्खा है ! कहा है यावजीवं सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा न जन्मन प्राड न च पञ्चतायाः परो विभिन्नेऽवयवे न चान्तः । विशन्न निर्यन च दृश्यतेऽस्माद्भिनो न देहादिह कश्चिदात्मा || २२४ चार्वाकका सिद्धान्त है कि पृथिवी जलादिका समुदाय ही एक आत्मा है । जैसे गेहूँ आदि सड़कर मादक शक्ति उत्पन्न कर देते हैं ऐसे ही पृथिव्यादि तत्र चेतन शक्ति उत्पन्न कर देते हैं । शरीरसे अतिरिक्त जीव पदार्थ न तो जन्मसे पहले और न मरणके पश्चात् किसी ने देखा है फिर उसके पीछे क्यों पड़ा जाय ? यहाँसे चल कर सिमरा तथा सिरसागंजमे खास मुकाम कर माघ शुक्ल ४ सं० २००७ को फिरोजाबाद पहुँच गये। यहाँ पर श्री आचार्य सूर्यसागरजी महाराजका दर्शन हुआ। आप बहुत ही शान्त तथा उपदेष्टा हैं । आपके प्रवचनसे हमको पूर्ण शान्ति हुई । आपका कहना है परसे सम्बन्ध त्यागो, परसे सम्बन्ध रखना ही संसार की जड़ है । जहाँ परसे सम्बन्ध किया वहाँ मोह हुआ और मोहके होते ही उसमें निजत्व की कल्पना हो जाती है। आपके उपदेशका आत्मा पर अत्यन्त प्रभाव पड़ा किन्तु श्मशान वैराग्यवत् ही दशा रही। वहीं पर महाराजसे मोह करने लगे । केवल वचन की कुशलता और कायकी क्रियासे महाराजको यह प्रत्यय करा दिया कि हमने आपके उपदेश पर अमल किया। देखनेवाले दर्शक भी हमारी क्रियाको देख कर प्रसन्न हुए - शिष्य हो तो ऐसा हो । परन्तु यह सब नाटकका दृश्य था - अन्तरङ्गमे कुछ भी न था । कल्याणका मार्ग यह नहीं ऐसी चेष्टा केवल स्वात्मवञ्चनामे ही परिणत हो जाती हैं । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबादमें विविध समारोह श्री छदामीलालजीने फिरोजाबादमे वहत भारी उत्सवका आयोजन किया था। इस प्रान्तका यह वर्तमान कालीन उत्सव सबसे निराला था । क्या त्यागी, क्या व्रती, क्या विद्वान् , क्या सेठ, क्या राजनीतिमे काम करनेवाले-सव लोगोंके लिये मेलामें एकत्रित करनेका प्रयास किया था। मेलाका बहुत अधिक विस्तार था। रावटी और तम्बुओंका नगर अपनी अलग शान दिखा रहा था। रात्रिके समय बिजलीके वत्वोंका अनोखा चमत्कार देखनेके लिए अनायास जन-समूह एकत्रित हो जाता था। उत्सवका उद्घाटन उत्तर प्रदेशके तात्कालिक प्रधान मंत्री श्री पन्तजीने किया था। श्री आचार्य सूर्यसागरजी तथा हम लोगोंका नगर प्रवेशका उत्सव माघ शुक्ल पू सं० २००७ को सम्पन्न हुआ था। बहुत अधिक भीड़ तथा जुलूसकी सजावट थी। इसी समय यहाँ श्री सूर्यसागरजी महाराजकी अध्यक्षतामे व्रती सम्मेलन, श्री सेठ राजकुमारजी सिंह इन्दौरकी अध्यक्षतामें जैन संघ मथुराका अधिवेशन और श्री काका कालेलकरकी अध्यक्षता में हीरक जयन्ती महोत्सव तथा वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पणका समारोह हुआ था। प्रातःकाल मुख्य पण्डालके सामने धूपमे प्रवचन प्रारम्भ हुआ। मुनिसंघ विराजमान था। बाहरसे ७०-७५ व्रती भी पधारे हुये थे जो यथायोग्य बैठे थे। अपार जनता एकत्रित थी। महाराजने मुझे प्रवचनके लिये बैठा दिया। मैंने कहा कि प्रवचनका अधिकार तो आचार्य महाराजका है। उनके समक्ष मुझे १५ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૬ मेरी जीवन गाथा वोलनेका अधिकार नहीं पर उनकी आज्ञाका पालन करना हमारा कर्तव्य है प्रकरण समयसारके बन्धाधिकारका था। 'रत्तो बंधदि कम्म मुंबदि' आदि गाथाका अवतरण देते हुये मैंने कहा कि मिथ्यात्व, अज्ञान तथा अविरतरूप जो त्रिविध भाव हैं यही शुभाशुभ कर्मबन्धके निमित्त हैं, क्योंकि यह स्वयं अज्ञानादिरूप हैं। यही दिखाते हैं जैसे जव यह अध्यवसान भाव होता है कि 'इदं हिनस्मि' मैं इसे मारता हूँ तब यह अध्यवसानभाव अज्ञानमय भाव हे क्योंकि जो आत्मा सत् है, अहेतुक है तथा बप्तिरूप एक क्रियावाला है उसका और रागद्वेषके विपाकसे जायमान हननादि क्रियाओंका विशेष भेदज्ञान न होनेसे भिन्न आत्माका ज्ञान नहीं होता अतः अज्ञान ही रहता है, भिन्न आत्मदर्शन न होनेसे मिथ्यादर्शन रहता है और भिन्न आत्माका चारित्र न होने से मिथ्याचारित्रका ही सद्भाव रहता है। इस तरह मोहकर्मके निमित्तसे मिथ्यादर्शन. मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका सद्भाव आत्मामे है। उन्हीके कारण कर्मरूप पुद्गल द्रव्यका आत्माके साथ एक क्षेत्रावगाहरूप वन्ध होता है। __ यदि परमार्थसे विचारा जावे तो आत्मा स्वतन्त्र है और यह जो स्पर्श रस गन्ध वर्णवाला पुदगलद्रव्य है वह स्वतन्त्र है। उन दोनों के परिणमन भी अनादि कालसे स्वतन्त्र हैं परन्तु उन दोनोंमे जीर दव्य चेतन गुणवाला है और उसमे यह शक्ति है कि जो पदार्थ उसके सामने आता है वह उसमें झलकता है-प्रतिभामित होता है। पुदगलमें भी एक परिणमन इस तरहका हूँ किजिनमे उससे भी रूपी पदार्थ मालकता है पर मेरेमें यह प्रतिभामित है, मा उसे मान नहीं। इसके विपरीत श्रात्माने जो पदार्थ प्रतिभाममान होता है उसे यह भान होता है कि ये पदार्थ मेरे शानने पाये। यही Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबादमें विविध समारोह २२७ आपत्तिका मूल है, क्योंकि इस ज्ञानके साथमे जव मोहका सम्बन्ध रहता है तब यह जीव उन प्रतिभासित पदार्थों को अपनाने का प्रयास करने लगता है । यही कारण अनन्त संसारका होता है । प्रत्येक मनुष्य यह मानता है कि पर पदार्थका एक अंश भी ज्ञानमें नहीं आता फिर न जाने क्यों उसे अपनाता है ? यही महती अज्ञानता है अतः जहाँ तक संभव हो आत्मद्रव्यको आत्मद्रव्य ही रहने दो। उसे अन्य रूप करनेका जो प्रयास है। वही अनन्त संसारका कारण है | ऐसा कौन बुद्धिमान होगा ? जो पर द्रव्यको आत्मीय द्रव्य कहेगा । ऐसा सिद्धान्त है कि जो जिसका भाव होता है वह उसका स्वधन है । जिसका जो स्त्र है वह उसका स्वामी है अतः यह निष्कर्ष निकला कि जब अन्य द्रव्य अन्यका स्व नहीं तव अन्य द्रव्य अन्यका स्वामी कैसे हो सकता है ? यही कारण है कि ज्ञानी जीव परको नहीं ग्रहण करता । मैं भी ज्ञानी हॅू अतः मैं भी परको ग्रहण नहीं करूंगा । यदि मैं पर द्रव्यको ग्रहण करू तो यह अजीब मेरा स्व हो जावे और मैं जीवका स्वामी हो जाऊंगा । अजीवका स्वामी जीव ही होगा अतः हमे बलात्कार अजीव होना पड़ेगा परन्तु ऐसा नहीं, मैं तो ज्ञाता द्रष्टा हॅू अतः पर द्रव्यको ग्रहण नहीं करूंगा । जब पर द्रव्य मेरा नहीं तब वह छिद जावे, भिद जावे, कोई ले जावे अथवा जिस किस अवस्थाको प्राप्त हो, पर मैं उसे ग्रहण नहीं करूंगा । यही कारण है कि सम्यग्ज्ञानी, धर्म अधर्मं अशन पान आदिको नहीं चाहता । ज्ञानमय ज्ञायक भावके सद्भावसे वह धर्मका केवल ज्ञाता दृष्टा रहता है । जव ज्ञानी जीवके धर्मका ही परिग्रह नहीं तब अधर्म का परिग्रह तो सर्वथा असंभव है । इसी तरहसे न अशनका परिग्रह है और न पानका परिग्रह है क्योंकि इच्छा परिग्रह है ज्ञानी जीवके इच्छाका परिग्रह नहीं । इनको आदि देकर जितने प्रकारके पर Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ : मेरी जीवन गाथा द्रव्यके भाव हैं तथा पर द्रव्यके निमित्तसे आत्मामे जो भाव हो हैं उन सबको ज्ञानी जीव नहीं चाहता। इस पद्धतिसे जिसने सब अज्ञान भावोंका वमन कर दिया तथा सर्व पदार्थोंके आलम्बनके त्याग दिया केवल टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावका अनुभव करत है उसके बन्ध नहीं होता। योगके निमित्तसे यद्यपि बन्ध होता है पर वह स्थिति और अनुभागसे रहित होनेके कारण अकिंचित्कर है। जिस प्रकार चूना आदिके श्लेषके बिना केवल इंटोंके समुदायसे महल नहीं बनता उसी प्रकार रागादि परिणामके बिना केवल मन वचन कायके व्यापारसे बन्ध नहीं होता। अतः प्रयत्न कर इन रागांदि विकारोंके जालसे बचना चाहिये। शरीरादिसे भिन्न ज्ञाता दृष्टा लक्षणवाला स्वतन्त्र द्रव्य हूँ। मेरी जीवनमे जो स्पृहा है वही बन्धका कारण है। अनादिकालसे जीव और पुद्गलका सम्बन्ध हो रहा है इससे दोनों ही अपने अपने स्वरूपसे च्युत हो अन्य अवस्थाको धारण कर रहे हैं। हेयोपादेय तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञान आगमके अभ्याससे होता है 'परन्तु हम लोग उस ओरसे विमुख हो रहे हैं। श्री कुन्दकुन्द स्वामीने तो यहाँतक लिखा है कि आगमचक्खू साहू इंदियचक्खू सव्वभूदाणि । देवा हि अोहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥ , अर्थात् साधुका चक्षु आगम है, संसारके समस्त प्राणियोंका चक्षु इन्द्रिय है, देवोंका चक्षु अवधिज्ञान है और सिद्ध परमेष्ठीका चक्षु सर्वदर्शी केवलज्ञान है। इसलिए अवसर पाया है तो अहनिश आगमका अभ्यास करो। - हमारे प्रवचनके वाद महाराजने भी जीवकी वर्तमान दशाका वर्णन किया और यह बताया कि देखो अनन्त ज्ञानका धनी जीव Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबाद में विविध समारोह २२६ 1 अज्ञानी होकर ज्ञानकी खोजमे इधर-उधर भटक रहा है । यह जीव अपनी ओर तो देखता ही नहीं है केवल परकी ओर देखता है। यदि अपनी ओर भी देख ले तो इसका कल्याण हो जावे । एक आदमी था, प्रकृतिका भोला था, आत्मज्ञानकी इच्छासे किसी विद्वान्के पास गया और आत्मज्ञानकी भिक्षा मागने लगा । विद्वान् समझदार था इसलिये उसने विचार किया कि यह सीधा है अतः इस तरह नहीं समझेगा। उसने कह दिया कि उत्तरमे एक तालाव है । उसमें एक मगर रहता है, उसके पास जाओ। वह तुम्हें आत्मज्ञान देगा | भोला आदमी वहाँ गया और मगरसे बोला कि तुम, आत्मज्ञान देते हो ? मुझे भी दे दो । मगरने कहा हाँ देता हूँ । अनेको मानवों को मैंने आत्मज्ञान दिया है। तुम भी ले जाओ पर एक काम करो मुझे जोरकी प्यास लग रही है अतः सामनेके कुएसे एक नोटा पानी लाकर पहले मुझे पिलाओ पश्चात् पियास शान्त होनेपर तुम्हें आत्मज्ञान दूँगा । आदमीने कहा कि यह मगर रात दिन तो पानीमें रह रहा है फिर भी कहता है कि मैं पिपासातुर हूँ, सामने कूपसे १ लोटा पानी ला दो । यह तो महामूर्ख है । यह क्या आत्मज्ञान देगा ? उस विद्वानने मुझे बड़ा धोखा दिया । मगरने कहा जिस प्रकार तुम हमारी ओर देख रहो हो उसी प्रकार अपनी ओर भी तो देखो । जिस प्रकार मैं जलमे रह रहा हॅू उसी प्रकार तुम भी तो अनन्त ज्ञानके बीच रह रहे हो। जिस तरह मुझे कूपके जलकी पिपासा है उसी तरह तुम्हे भी मुझसे आत्मज्ञानकी पिपासा है । भोला आदमी समझ गया और तत्काल चिन्तन करने लगा कि हो । मैंने आजतक अपने स्वभावकी ओर दृष्टि नहीं दी और दरिद्र बन कर चौरासी लाख योनियोंमें भ्रमण किया । 1 महाराजके प्रवचनके वाद सभा समाप्त हुई । सबने आहार ग्रहण किया । माघ शुक्ला ११ सं० २००७ को मध्याह्न के बाद Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० मेरो जीवन गाथा १ वजेसे श्री महाराजकी अध्यक्षतामे व्रती सम्मेलनका उत्सव हुआ। जिसमे अनेक विवाद ग्रस्त विषयोंपर चर्चा हुई । एक विपय यह था कि यदि कोई त्रिवर्णवाला जैनधर्मकी श्रद्धासे सहित हो और जैनधर्मकी प्रक्रियासे आहार तैयार करे तो व्रती उसके घर भोजन कर सकता है या नहीं ? पक्ष-विपक्षकी चर्चा के बाद यह निर्णय हुआ कि जैनधर्मका श्रद्धालु त्रिवर्णवाला यदि जैनधर्मकी प्रक्रियासे आहार बनाता है तो व्रती उसे ग्रहण कर सकता है। ___एक विषय था कि भुल्लककी नवधा भक्ति होना चाहिये या नहीं ? इस विषय पर भी बहुत वाद-विवाद हुआ परन्तु अन्तर्म महाराजने निर्णय दिया कि नवधा भक्तिका पात्र मुनि है, जलक नहीं। जुल्लकको पड़गाह कर पादप्रक्षालन कराना तथा मन वचन काय और अन्न जलकी शुद्धता प्रकट कर आहार देना चाहिय।। __एक विषय निमित्त उपादानकी प्रबलताका भी था। इस पर लोगोंने अनेक प्रकारसे चर्चा की। वातावरण कुछ प्रशान्त मा हो गया परन्तु अन्तमे यही निर्णय हुआ कि जैनागम अनेकान्त दृष्टिसे पदार्थका निरूपण करता है अतः कार्यकी सिद्धिके लिये निमित्त और उपादान दोनों आवश्यक हैं। केवल उपादानमें कार्यकी सिद्धि नहीं हो सक्ती और न केवल निमित्तसे फिन्तु दोनोंकी अनुकूलतासे कार्यकी सिद्वि होती है। यह बात दूसरी है कि कहीं निमित्त प्रधान और कहीं उपादान प्रधान कथन हो पर उसका यह तात्पर्य नहीं कि दूसरेकी वहाँ सर्वथा उपेक्षा हो। __ चरणानुयोगके विरुद्ध प्रवृत्ति करनेवाले व्रतियोंतो महाराज शान्न भावसे उपदेश दिया कि जैनागममें व्रत न लेनेको 'अपराम नहीं माना है किन्तु लेकर उसमें दोप लगाना या मे भान सरना अपराध बताया है अतः 'समीच्य व्रतमादयमान पाल्यं अपनाः' Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबादमें विविध समारोह २३१ अर्थात् पूर्वापर विचार कर व्रत ग्रहण करना चाहिये और ग्रहण किये हुए व्रतको प्रयत्न पूर्वक पालन करना चाहिये। मनुष्य पर्यायका सबसे प्रमुख कार्य चारित्र धारण करना ही है इसलिये यह दुर्लभ पर्याय पा कर अवश्य ही चारित्र धारण करना चाहिये। उन्हींने कहा कि अन्तरड़की बात तो प्रत्यक्ष ज्ञानगम्य है पर बाह्यमे हिंसादि पञ्च पापोंसे निवृत्ति होना सम्यक्चारित्र है। पापोंकी प्रवृत्तिसे ही आज संसार दुःखसे पीड़ित हो रहा है । जहाँ देखो वहाँ हिंसा झूठ चोरी व्यभिचार और परिग्रहासक्तिके उदाहरण देखनेमे आ रहे हैं। आजका वातावरण ही पञ्च पापमय हो रहा है। इसलिये विवेकी मनुप्यको इस वातावरणसे हट कर अपनी प्रवृत्तिको निर्मल बनाना चाहिये। __ इसी व्रती सम्मेलनमें यह भी चर्चा आई कि आज त्यागी छोटी मोटी प्रतिज्ञा लेकर घर छोड़ देते हैं और अपने आपको एकदम पराश्रित कर देते हैं। इस क्रियासे त्यागियोंकी प्रतिष्ठा समाजमें कम होती जा रही है। इस विषयपर महाराजने कहा कि समन्तभद्र स्वामीने परिग्रहत्यागका जो क्रम रक्खा है उसी क्रमसे यदि परिग्रहका त्याग हो तो त्यागी पुरुषको कभी व्यग्रताका अनुभव न करना पड़े। सातवीं प्रतिमा तक न्याय पूर्ण व्यापार करनेकी आगममें छूट है फिर क्यों पहली दूसरी प्रतिमाधारी त्यागी व्यापारादि छोड़ भोजन वस्त्रादिके लिये परमुखापेक्षी बन जाते हैं। यद्यपि आशाधरजीने गृहविरत श्रावकका भी वणेन किा है पर वह अपने पास इतना परिग्रह रखता है जितनेमें उसका निर्वाह हो सकता है। यथार्थमे पर गृह भोजन १० वी ११ वीं व्रतिमासे शुरू होता है । उसके पहले जो व्रती पर गृह भोजन सापेक्ष होते हैं उन्हे संक्लेशका अनुभव करना पड़ता है। पासका पैसा छोड़ दिया और यातायातकी इच्छा घटी नहीं ऐसी स्थितिमे कितने Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ मेरी जीवन गाथा ही त्यागी लोग तीर्थ यात्रादिके वहाने गृहस्थोसे पैसेकी याचना करते हैं यह मार्ग अच्छा नहीं है । यदि याचना ही करनी थी तो त्यागका आडम्बर ही क्यों किया ? त्यागका आडम्बर करनेके बाद भी यदि अन्तःकरणमे नहीं आया तो यह आत्मवञ्चना कहलावेगी। ____ महाराजने यह भी कहा कि त्यागीको किसी संस्थाबादमे नहीं पड़ना चाहिये। यह कार्य गृहस्थोंका है । त्यागीको इस दल-दलसे दूर रहना चाहिये । घर छोड़ा व्यापार छोड़ा वाल बच्चे छोडे इस भावनासे कि हमारा कर्तृत्वका अहंभाव दूर हो और समताभावसे आत्मकल्याण करें पर त्यागी होने पर भी वह बना रहा तो क्या किया ? इस संस्थावादके दल-दलमे फँसानेवाला तत्त्व लोकैपणाका चाह है। जिसके हृदयमे यह विद्यमान रहती है वह संस्थाओंके कार्य दिखा कर लोकमे अपनी ख्याति बढाना चाहता है पर उस थोथी लोकैपणासे क्या होने जानेवाला है ? जब तक लोगोंका स्वार्थ किसीसे सिद्ध होता है तब तक वे उसके गीत गाते हैं और जब स्वार्थमें कमी पड़ जाती है तो फिर टक्को भी नहीं पूछते । उस लिये आत्मपरिणामोंपर दृष्टि रखते हुए जितना उपदेश वन सके उतना त्यागी दे, अधिककी व्यग्रता न करे ।। एक बात यह भी कही कि त्यागीको ज्ञानका अभ्यास अच्छा करना चाहिये । आज कितने ही त्यागी ऐसे हैं जो सम्यग्दर्शनका लक्षण नहीं जानते, आठ मृल गुणोके नाम नहीं गिना पाते । एमे त्यागी अपने जीवनका समय किस प्रकार यापन करते हैं ये जाने। मेरी तो प्रेरणा है कि त्यागीको क्रम पूर्वक अध्ययन करनेका अभ्यास करना चाहिये। समाजमे त्यगियोकी कमी नहीं परन्तु जिन आगमका अभ्यास है ऐसे त्यागी कितने हैं ? श्रागमनानरे दिना लोकमै प्रतिष्टा नहीं और प्रतिष्टाकी चाह घटी नहीं उसलिय त्यागी Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबाद में विविध समारोह २३३ पटांग क्रियाएँ बता कर भोली भाली जनता अपनी प्रतिष्ठा चनाये रखना चाहते हैं पर इसे धर्मका रूप कैसे कहा जा सकता है ? ज्ञानका अभ्यास जिसे है वह सदा अपने परिणामों को तोल कर ही व्रत धारण करता है । परिणामोंकी गतिको समझे बिना ज्ञानी मानव कभी प्रवृत्ति नहीं करता अतः मुनि हो चाहे श्रावक, सबको अभ्यास करना चाहिये । अभ्यासकी दृष्टिसे यदि दश बीस त्यागी एकत्र रह कर किसी विद्वानसे अध्ययन करना चाहते हैं तो गृहस्थ -लोग उसकी व्यवस्था कर दे सकते हैं। पर ऐसी भावनावाले हों तवन । व्रती विद्यालय स्थापित होना चाहिये ऐसी माँग देख श्री छदामीलालजी ने कहा कि यदि व्रती विद्यायल कहीं स्थापित हो तो हम १५०) मासिक दो वर्ष तक देते रहेगे। एक दो मिहाशयने और भी २०) २०) ३०) ३०) रुपया मासिक देते रहनेकी घोषणा की। महाराजने यह भी कहा कि आजका व्रतीवर्ग चाहे मुनि हो चाहे श्रावक, स्वच्छन्द होकर विचरना चाहता है यह उचित नहीं है । मुनियों मे तो उस मुनिके लिये एकविहारी होनेकी आज्ञा है जो गुरुके सान्निध्यमे रहकर अपने आचार-विचारमे पूर्ण दक्ष हो तथा धर्मप्रचारकी भावनासे गुरु जिसे एकाकी विहार करनेकी आज्ञा दे दें। आज यह देखा जाता है कि जिस गुरुसे दीक्षा लेते हैं उसी गुरुकी आज्ञा पालनमें अपनेको असमर्थ देख नवदीक्षित मुनि स्वयं एकाकी विहार करने लगते हैं । गुरुके साथ अथवा अन्य साथियोंके साथ विहार करनेमें इस बातकी लज्जा या भयका अस्तित्व रहता था कि यदि हमारी प्रवृत्ति आगमके विरुद्ध होगी तो लोग हमे बुरा कहेंगे, गुरु प्रायश्चित देंगे पर एकविहारी होने पर किसका भय रहा ? जनता भोली है इसलिए कुछ कहती नहीं, यदि - कहती है तो उसे धर्मनिन्दक आदि कहकर चुप कर दिया जाता Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ मेरी जीवन गाथा है । इस तरह धीरे धीरे शिथिलाचार फैलता जा रहा है। किसी मुनिको दक्षिण और उत्तरका विकल्प सता रहा है तो किसीको वीसपंथ और तेरहपंथका । किसीको दस्सा वहिष्कार की धुन है तो कोई शूद्र जल त्यागके पीछे पड़ा है । कोई स्त्री प्रक्षालके पक्ष में मस्त है तो कोई जनेऊ पहिराने और कटी में धागा बंधवानेमे व्यय है । कोई ग्रन्थ मालाओंके संचालक बने हुए हैं तो कोई ग्रन्थ छपवानेकी चिन्तामे गृहस्थोंके घर घरसे चन्दा माँगते फिरते हैं । किन्हीं के साथ मोटरें चलती हैं तो किन्हींके साथ गृहस्थ जन दुर्लभ कीमती चटाइयाँ और आसनके पाटे तथा छोलदारियाँ चलती हैं । त्यागी ब्रह्मचारी लोग अपने लिए आश्रय या उनकी सेवामें लीन रहते हैं । 'वहती गङ्गामें हाथ धोनेसे क्यों चूकें' इस भावनासे कितने ही विद्वान् उनके अनुयायी वन आँख मीच चुप बैठ जाते हैं या हाँ में हाँ मिला गुरुभक्तिका प्रमाणपत्र प्राप्त करने मे संलग्न रहते हैं । ये अपने परिणामोंकी गतिको देखते नहीं हैं | चारित्र और कषयका सम्बन्ध प्रकाश और अन्धकारके समान है । जहाँ प्रकाश है वहाँ अन्धकार नहीं और जहाँ अन्धकार है वहाँ प्रकाश नहीं । इसी प्रकार जहाँ चारित्र है वहाँ कपाय नहीं और जहाँ कपाय हैं वहाँ चारित्र नहीं । पर तुलना करनेपर बाजे वाजे व्रतियों की कपाय तो गृहस्थोंसे कहीं अधिक निकलती है । व्रतीके लिये शास्त्र निशल्य बताया है । शल्यों में एक माया भी शल्य होती है । उसक तात्पर्य यही है कि भीतर कुछ रूप रखना और बाहर कुछ रूप दिखाना । व्रती में ऐसी बात नहीं होना चाहिये । वह तो भीतर बाहर मनसा वाचा कर्मणा एक ही । कहनेका तात्पर्य यह है कि जिस उद्देश्य से चारित्र ग्रहण किया है उस और दृष्टिपात करो और अपनी प्रवृत्तिको निर्मल बनाओ । उत्सूत्र प्रवृत्ति शोभा नहीं । 1 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबाद में विविध समारोह २३५ महाराजकी उक्त देशनाका हमारे हृदयपर बहुत प्रभाव पड़ा। इसी व्रती सम्मेलनमें एक विषय यह आया कि क्या क्षुल्लक वाहनपर बैठ सकता है ? महाराजने कहा कि जब क्षुल्लक पैसेका त्याग कर चुका है तथा ईर्यासमिति से चलनेका अभ्यास कर रहा है तब वह वाहन पर कैसे बैठ सकता है ? पैसेके लिये उसे किसीसे याचना करना पड़ेगी तथा पैसोंकी प्रतिनिधि जो टिकिट आदि है वह अपने साथ रखना पड़ेगी । आखिर विचार करो मनुष्य क्षुल्लक क्यों ? इसीलिये तो कि इच्छाएं कम हों ? यातायात कम हो, सीमित स्थानमें विहार हो । फिर क्षुल्लक बननेपर भी इन सब बातोंमें कमी नहीं आई तो चुल्लक पद किस लिये रखा १ अमुक जगह जाकर धर्मोपदेश देंगे, अमुक जगह जाकर अमुक कार्य करेंगे ? यह सब छल क्षुल्लक होकर भी क्यो नहीं छूट रहा है ? तुम्हे यह कषाय क्यों सता रही है कि अमुक जगह उपदेश देंगे ? अरे, जिन्हे तुम्हारा उपदेश सुनना अपेक्षित होगा वे स्वयं तुम्हारे पास चले आयेंगे। तुम दूसरे के हितको व्याज बनाकर स्वयं क्यों दौड़े जा रहे हो ? यथार्थमे जो कौतुक भाव चुल्लक होने के पहले था वह अब भी गया नहीं । यदि नहीं गया तो कौन कहने गया था कि तुम क्षुल्लक हो जाओ ? अपनी कषायकी मन्दता या तीव्रता देखकर ही कार्य कराना था । यह कहना कि पञ्चम काल है इसलिये यहाँ ऐसे होते हैं यह मार्गका वर्णवाद है । अस्सी तोलेका सेर होता है पर इस पञ्चम कालमें आप पौने अस्सी तोलेके सेरसे किसी वस्तुको ग्रहण कर लोगे ? 'नहीं, यहाँ तो चाहते हो अस्सी तोलेसे रत्ती दो रत्ती ज्यादा ही हो पर धर्माचरणमे पञ्चम कालका छल ग्रहण करते हो । लोग कहते हैं कि दक्षिणके क्षुल्लक तो बैठते है ? पर उनके बैठनेसे क्या वस्तुतत्त्वका निर्णय हो जावेगा ? वस्तुका स्वरूप तो जो है वही रहेगा । दक्षिण और Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा उत्तरका प्रश्न वीचमे खड़ा कर देना हितकी वात नहीं। अस्तु, इसके बाद दूसरे दिन श्री भैया साहव राजकुमारसिह इन्दौरवालोंकी अध्यक्षतामे जैनसंघ मथुराका वार्पिक अधिवेशन हुआ। यह प्रयत्न पं० राजेन्द्रकुमारजीका था। अपार भीड़के वीच उत्सव प्रारम्भ हुआ। अध्यक्ष महोदयका भाषण हुआ। शुभकामनाएँ आदि श्रवण कराई गई। दूसरे दिन फिर खुला अधिवेशन हुआ। अनेक प्रस्ताव पास हुए। इसके बाद एक दिन श्री काका कालेलकरकी अध्यक्षतामे हीरक जयन्ती समारोह तथा अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पणका समरोह हुआ। विद्वानोंके बाद श्री कालेलकरने हमारे हाथमें ग्रन्थ समर्पण कर अपना भाषण दिया । उन्होंने जैनधर्मकी वहुत प्रशंसा की। साथ ही हरिजन समस्या पर बोलते हुए कहा कि यह स्पर्शका रोग जैनधर्मका नहीं हिन्दू धर्मसे आया है। यदि जैनियोंकी ऐसी ही प्रवृत्ति रही तो मुझे कहना पड़ेगा कि आप लोग नामसे नहीं किन्तु परिणामसे हिन्दू बन जावेंगे। जैनधर्म अत्यन्त विशाल है। उसकी विशालता यह है कि उसमे चारों गतियोंमे जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय प्राणी हैं वे अनन्त संसारके दुखोंको हरनेवाला सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। धर्म किसी जातिविशेषका नहीं। धर्म तो अधर्मके अभावमे होता है । अधर्म आत्माकी विकृत अवस्थाको कहते हैं। जब तक धर्मका विकाश नहीं तव तक सर्व आत्माएँ अधर्म रूप रहती हैं। चाहे ब्राह्मण हो, चाहे क्षत्रिय हो, चाहे वैश्य हो, चाहे शूद्र हो, ऋदमें भी चाहे चाण्डाल हो, चाहे भंगी हो, सम्यग्दर्शनके होते ही यह जीव किसी जातिका हो पुण्यात्मा जीव कहलाता है अतः किसीको हीन मानना सर्वथा अनुचित है। समारोह समाप्त होनेके बाद श्राप सध्याकाल हमारे निवास स्थानपर भी आये। मांसाहार आदि विपयोंपर चर्चा होती रही। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरोजाबादमें विविध समारोह २३७ आपने स्वीकृत किया कि समय बड़ा खराब है। सरकार नवीन है। यदि जनताने पूर्ण सहयोग दिया तो देशकी परिस्थितिको हमारी सरकार संभाल लेगी। अभिनन्दन ग्रन्थके तैयार करने तथा इस विशालरूपमे उत्सव सम्पन्न करानेमें श्री प. पन्नालाल जी साहित्याचार्य और पं० खुशालचन्द्र जी साहित्याचार्यको बड़ा श्रम करना पड़ा है। यहां का उत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ। श्री लाला छदामीलालजीने स्याद्वाद विद्यालयके घाटका जीर्णोद्धार कराने के लिए १००००) दश हजार का दान घोषित किया। फाल्गुन कृष्ण १ सं० २००७ को आपके यहां हमारा आहार हुआ। आप ३ भाई हैं। आपने अपने मझले भाईका बालक गोद लिया है। आपने २० लाखका दान किया है। एक दो लाखसे ऊपर, मन्दिर बनानेका भी विचार है, जिसकी नीव गिर चुकी है। आप सुशील हैं। जो वादा करते हैं उसे पूर्ण करते हैं। आपने जो मेला भराया उसमें बहुत उदारतासे काम लिया। ७५ व्रती महानुभावों का प्रतिदिन भोजन होता था । ६० कैलाशचन्द्र जी. पं० फूलचन्द्र जी, पं० पन्नालाल जी, पं० खुशालचन्द्र जी, राजकृष्ण जी महेन्द्रकुमार जी आदि अनेक विद्वान् इस मेलामे आये थे। श्रीमन्त वर्ग भी पुष्कल था। मेलाका प्रवन्ध पं० राजेन्द्र कुमारजी द्वारा बहुत उत्तम रीतिसे हुआ। किसीको कोई कष्ट नहीं होने दिया। द्वितीयाके दिन श्री पं० माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्यके घर भोजन किया । तदनन्तर श्री नसियाजीके मन्दिरमे आये। थोड़ी देर आरामकर सामायिक किया। तत्पश्चात् १ बजे शिकोहाबादके लिए प्रस्थान किया। प्रस्थानके पूर्व श्री आचार्य महाराजके पास गया तो उन्होने आशीर्वाद देते हुये कहा कि तेरा अवश्य कल्याण होगा, तू भोला है तुझसे प्रत्येक मनुष्य अनुचित लाभ उठाना Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ मेरी जीवन गाथा चाहता है | तेरी अवस्था वृद्ध है अतः अब एक स्थान पर रहकर “धर्म साधन कर इसीमें तेरा कल्याण है, धर्म निःस्पृहता है । श्री पं० राजेन्द्रकुमारजी वा श्री छदामीलालजी आदि अनेक सज्जन पहुॅचानेके लिये आये । अनेक प्रकारका संलाप हुआ । सबके मुखसे श्री छदामीलालकी प्रशंसाके पोषक वाक्य निकले । मेलामें जबलपुर से अनेक सज्जन तथा सागरसे सेठ भगवानदासजी आदि अनेक महानुभाव पधारे थे और सबने सागर चलनेकी प्रेरणा की थी इसलिये मनमे एकवार सागर पहुॅचनेका निश्चय -कर लिया । स्वर्णगिरिकी ओर 1 फिरोजाबाद से ६ मील चलकर शिकोहाबादमे ठहर गये । अध्यापिका के यहाँ भोजन किया । यहाँ पर मन्दिर बहुत सुन्दर और स्वच्छ है । ५० घर पद्मावतीपुरवालोंके हैं । परस्परमें मैत्रीभाव है । रात्रिको शास्त्रसभा होती है । हम जहाँ पर ठहरे थे वह जैनपुस्तकालयका स्थान था परन्तु विशेष व्यवस्था नहीं । ज्ञानका आदर नहीं, जो कुछ द्रव्य लोग व्यय करते हैं वह मन्दिरकी शोभा लगाते हैं | ज्ञानगुण आत्माका है । उसके विकाशमें न द्रव्य लगाते हैं और न समयका सदुपयोग करते हैं। केवल बाह्यमें संगमर्मर आदिका फर्स लगाकर तथा वेदीमे सुवर्णका चित्राम आदि बनवा नेत्रोंके विपयको पुष्ट करते हैं। आत्माका स्वभाव ज्ञाता दृष्टा है उसको दूषित कर राग और द्वेपके द्वारा किमीको Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्णगिरिकी र २३६ ष्ट और अनिष्ट मानकर निरन्तर परको अपनाने और न अपनानेमे ही दुःख के पात्र बनते हैं 1 फाल्गुन कृष्णा ५ सं० २००७ को बटेश्वर आ गये । यहाँ पर भट्टारकजी के मन्दिर में ठहर गये । मन्दिर बहुत रम्य और विशाल है । नीचेके भागमे ठहरे । स्नान कर ऊपर श्राये तथा मूर्ति के दर्शन कर गद्गद् हो गये । काले पाषाणकी ४ फुट ऊँची श्री अजितनाथ भगवान्‌ की मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ है । वीतराग भावका उदय जिसके दर्शनसे होता है वह प्रतिमा मोक्षमार्ग में सहायक है । आचार्योंने इसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका बाह्य कारण बताया है । यद्यपि वीतरागता वीतरागका धर्म है और वीतराग आत्मा मोहके भाव होता है । किन्तु जिस आत्मामें वीतरागताका उदय होता है, उसकी मुद्रा भी बाह्यमें शान्तरूप हो जाती हैशरीरके अवयव स्वभावसे ही सौम्य हो जाते हैं । यह असम्भव बात नहीं, जिस समय आत्मा क्रोध करता है उस समय इसके नेत्र रक्त और मुख भयंकर आकृतिको धारण कर लेता हैं, शरीरमे कम्प होने लगता है, दूसरा मनुष्य देख कर भयवान् हो जाता है । इसी तरह जब इस प्रारणीके शृङ्गार रसका उदय आता है तब उसके शरीरका अवलोकन कर रागी जीवोंको रागका उदय हो जाता है । जैसे कालीकी मूर्ति से भय और हिंसक्ता झलकती है। तथा वेश्या अवलोकनसे रागादि भावोंकी उत्त्पत्ति होती है वैसे ही वीतराग दर्शनसे जीवोंके वीतराग भावोंका उदय होता है । वीतरागता कुछ बाह्यसे नहीं आती । जहाँ राग परिणतिका अभाव होता है वहीं वीतरागताका उदय हो जाता है । बटेश्वर से ५ मील चल कर वाह आगये तथा मन्दिरकी धर्मशालामे ठहर गये । थकानके कारण ज्वर हो गया । अव शारीरिक शक्ति दुर्बल हो गई, केवल कषायसे भ्रमण करते हैं । १ वार भोजन Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० मेरी जीवन गाथा करनेवालेको मध्याह्नके बाद गमन करना अपथ्य है। वैसे तो नीतिमे कहा है 'अध्वा जरा मनुष्याणामनध्वा वाजिनां जरा' अर्थात् मार्ग चलना मनुष्योंका बुढ़ापा लाता है। और मार्ग न चलना घोड़ोंका बुढ़ापा लाता है। यह व्यवस्था प्राचीन ऋपियोंने दी है किन्तु इसका अमल नहीं करते जिसका फल अच्छा नहीं। वाह अच्छा ग्राम है। यहाँके जैनी भी सम्पन्न हैं। यदि लोगोंमे परस्पर. सौमनस्य हो जावे तो १ अच्छा छात्रावास चल सकता है। लोगोंसे कहा गया तथा उन्होंने स्वीकार भी किया। दूसरे दिन प्रातःकाल प्रवचन हुआ । उपस्थिति ४० मनुष्य तथा स्त्रियोंकी थी। आगरासे श्रयुत ख्याल रामजी तथा एक महाशय और आ गये। प्रवचन हुआ । इस बात पर बल दिया कि यदि इस प्रान्तमे एक छात्रावास हो जावे तो छात्रोंका महोपकार हो। इसके अर्थ २ वजेसे १ सभा बुलाई गई। उपस्थिति ५० के लगभग होगी । अन्ततो गत्वा २ आदमियोंने २ कोठा बनवानेका वचन दिया तथा १२००) के लगभग चन्दा हो गया । चन्दा विशेष न होनेका कारण लोगोंकी स्थिति सामान्य थी । फिर भी यथाशक्ति सवने चन्दा दिया। श्री ख्यालीरामजी आगरावालोंने कहा कि यदि तुम लोग ७०००) इकट्ठा करलो तो शेष रुपया हम आगरासे आपको दे देवेंगे। किन्त यहाँ की जनता अभी उसकी पूर्ति नहीं कर सकती । विश्वास होता है कि यह छात्रावास पूर्ण हो जावेगा । जैनियोंमे दानकी त्रुटि नहीं परन्तु योग्य स्थानोंमें द्रव्यका सदुपयोग नहीं होता। इस प्रान्तमे शिक्षाकी त्रुटि बहुत है । ऐसे स्थानोंमे छात्रावासकी महती आवश्यकता है। यहाँपर ग्रामीण जनता बहुत है । देहातमे शिक्षाके साधन नहीं। मनुप्य इतने वैभवशाली नहीं कि छात्रोंको नगरोंमे भेज सकें। आजकलके समयमे २०) मासिक तो सामान्य भोजनको चाहिये। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्णगिरिकी ओर २४१ तीसरे दिन भी यहाँ प्रवचन हुआ। आज उपस्थिति पिछले दिनांसे अधिक थी। तहसीलदार, नायव तहसीलदार तथा वकील आदि विशिष्ट लोग आये। वहतसे पण्डित महोदय भी उपस्थित थे। प्रवचन सुन कर सव प्रसन्न हुए। जैनधर्म तो प्राणीमात्रका कल्याण चाहता है। उसकी बात सुनकर किसे प्रसन्नताका अनुभव न होगा ? केवल आवश्यकता इस वातकी है कि श्रोता सद्भावसे सुने और वक्ता सद्भावसे कहे। फाल्गुन कृपणा ६ को २ बजे बाद जब यहाँसे सामरमऊ चलने लगे तव यहाँके उत्साही युवकोंने कहा कि यहाँ १ कन्याशाला हो जावे तो उनका बड़ा उपकार हो। मैंने कहा कि करना तो तुमको है चन्दा करो। १५ मिनटमे ४३) मासिकका चन्दा हो गया । ६ मासका चन्दा पहले देनेका निर्णय हुआ। सब लोगोंमे उत्साह रहा । ३॥ बजे यहाँसे चल दिये । १५ युवक सामरमऊतक पहुँचाने आये । यहाँपर १ बुढ़ियाने सबको सायंकालका भोजन कराया। रात्रिको शास्त्रप्रवचन हुआ। यहाँपर बुढ़ियाकी एक लड़की विधवा है । ३० वर्षकी आयु है । नाम जिनमती है, बुद्धिमती है। हमने कहा महावीरजी पढ़ने चली जा। उसने स्वीकार किया कि जाऊँगी । बुढ़िया ने १०) मासिक देना स्वीकार किया । यद्यपि उसकी इतनी शक्ति न थी तथापि उसने देना स्वीकृत किया। उसका कहना था कि मैं अपनी लड़कीको अनाथ क्यों बनाऊँ ? जब तक मेरे पास द्रव्य है उसे दूंगी। लडकी भी सुशीला है। संसारमें अनेक मनुष्य उपकार करने योग्य हैं परन्तु जिनके पास धन है उनके परिणाम यदि तदनुकूल हों तो काम बने पर ऐसा हो सकना संभव नहीं है। यह कर्मभूमि है । इसमे सर्व मनुष्य सदृश नहीं हो सकते। सागरमऊसे ५ मील चलकर नदगुवाँ आ गये । ग्राम अच्छा है, मन्दिर विशाल है, भट्टारकका बनाया है। इस प्रान्तमें भट्टारकोंने Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ मेरी जीवन गाथा प्रायः अनेक ग्रामोंमे मन्दिर वनवाये हैं, बड़े बड़े विशाल मन्दिर हैं। एक समय था कि जब भट्टारकों द्वारा जैनधर्मकी महती प्रभावना हुई परन्तु जबसे उनके पास परिग्रहकी प्रचुरता हुई और वे यन्त्र मन्त्र तथा औषध आदिका उपयोग करने लगे तबसे इनका चारित्र भ्रष्ट होने लगा और तभीसे इनका चमत्कार चला गया। अब इनकी दशा अत्यन्त शोचनीय होगई है। कई गदियाँ तो टूट गई और जो हैं उनके भट्टारक समाजमान्य नहीं रहे । नदगुवाँसे ३ मील चलकर अटेर आ गये। वीचमे २ मील पर चम्बलनदी थी। २ फर्लाङ्गका घाट था । प्रवचन हुआ, मनुष्य संख्या अच्छी थी। सायंकाल ४ बजे सार्वजनिक सभा हुई, जन अर्जन सभी आये । सबने यह स्वीकार किया कि शिक्षाके विना उपदेशका कोई असर नहीं होता अतः सर्वप्रथम हमे अपने वालकोंको शिक्षा देना चाहिए। शिक्षाके विना हम अविवेकी रहते हैं, चाहे जो हम ठग ले जाता है, हमारा चारित्रनिर्माण नहीं हो पाता है, हम अज्ञानावस्थाके कारण पशु कहलाते हैं । यद्यपि हम चाहते हैं कि संसारमं सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें परन्तु वोधके अभावमे कुछ नहीं जानते और सदा परके दास बने रहते हैं। ज्ञान प्रात्माका गुण है परन्तु कोई ऐसा आवरण है कि जिससे उसका विकाश का रहता है। शिक्षाके द्वारा वह आवरण दूर हो जाता है। दूसरे दिन प्रवचन हुआ । उपस्थिति अच्छी थी। पाठशालाके लिए जनताने उत्साहसे चन्दा दिया परन्तु कुछ आदमी अन्तरगसे देना नहीं चाहते अतः चन्दा देनेमे वीसों तरहके रोड़े अटकाते हैं। इनकी चेष्टासे सत्कार्यमे बहुत क्षति होती है। अटेरसे ५ मील चनकर परतापपुर आये । यहाँ १ चैत्यालय है, ४ घर जैनी हैं, बड़े प्रेमसे शास्त्र श्रवण किया, ३ घर शुद्ध भोजन बना, जिसके यहाँ हमारा आहार हुआ उसने ५१) अटेरकी पाठशालाको दिये। दसरे घर Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्णगिरिको प्रोर २४३ श्री संभवसागरजीका आहार हुआ। उसने भी २१) दिये । यहाँके मनुष्य बहुत सज्जन हैं। कई मनुष्योंने अष्टमी चतुर्दशी अष्टाह्निका तथा दशलक्षणके दिनोंमे ब्रह्मचर्यका नियम लिया। परतापपुरसे ५३ मील चल कर पुरा आये । यह ग्राम १ टीकरी पर वसा है । यहाँ पर १ जिन मन्दिर है। मन्दिरकी मरम्मत नहीं। ४ घर जैनी हैं। सबने अष्टमी चतुर्दशीको ब्रह्मचर्यका नियम लिया। कई ब्राह्मणोंने भी रविवार तथा एकादशीको ब्रह्मचर्य रखनेका प्रण किया। यहाँसे चल कर लावन आये। यहाँ पर २० घर जैनी हैं। १२ गोलालारे और ८ घर गोलसिंगारे हैं। ९ जैनमन्दिर हैं। गोलसिगारे सूरजपाल मन्दिरके प्रबन्धक हैं। आप भिण्डमे रहते हैं। मन्दिरकी व्यवस्था अच्छा नहीं, पूजनका भी प्रवन्ध ठीक नहीं, परस्परमें सौमनस्य नहीं। जो मनुप्य मन्दिरके द्रव्यका स्वामी बन जाता है वह शेषको तुच्छ समझने लगता है और मन्दिरका जो द्रव्य उसके हाथमे रहता है उसे वह अपना समझने लगता है। समय पाकर वह दरिद्र हो जाता है और अन्तमे जनताकी दृष्टिमे उसकी प्रतिष्ठा नहीं रहती। अतः मनुष्यताकी रक्षा करनेवालेको उचित है कि मन्दिरका द्रव्य अपने उपयोगमे न लावे। द्रव्य वह वस्तु है कि इसके वशीभूत हो मनुष्य न्यायमार्गसे न्युत होनेकी चेष्टा करने लगता है। न्यायमार्गका अर्थ यही है कि आजीविकाका इस रीतिसे अर्जन करे कि जिसमे अन्यके परिणाम पीड़ित न हों, आत्मपरिणामसे जहाँ संक्लेशताका सम्बन्ध हो जाता है वहाँ पर विशुद्ध परिणामोंका अभाव हो जाता है और जहाँ विशुद्ध परिणामोंका अभाव होता है वहाँ शुद्धोपयोगको अवकाश नहीं मिलता। ___ लावनसे चल कर वरासो आये। यहाँ पर २ मन्दिर हैं। एक मन्दिर बहुत प्राचीन है। दूसरा उसकी अपेक्षा बड़ा है। बहुत Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ मेरी जीवन गाथा सुन्दर बना हुआ है। २० फुट की कुरसी होगी। उसके ऊपर धर्मशाला है जिसमे २०० आदमी निवास कर सकते हैं। धर्मशालासे ६ फुट ऊँचाई पर मन्दिर है । मन्दिरके चौकमे ५०० मनुष्य सानन्द शास्त्र श्रवण कर सकते हैं। मन्दिरमे ३ स्थानों पर दर्शन हैं । विम्य बहुंत मनोहर हैं । १२४४ सम्बत्की प्रतिमा हैं। शिल्पकार बहुत ही निपुण था। विम्बकी मुद्रासे मानों शान्ति टपक रही है। देखते देखते चित्त गद्गद् हो गया। कोई पद्मासन बिम्व है और कोई खड्गासन है । दोनों तरहके विम्व मनोज्ञ हैं। वर्तमानमें वह कला नहीं। मन्दिर मनोज्ञ हैं परन्तु वर्तमानमे कोई जैनी विशेषज्ञ नहीं। सामान्य रूपसे पूजनादि कर लेते हैं। यहाँ पर आवश्यकता १ गुरुकुल की है जिसमे १०० छात्र अध्ययन करें। __वरासौसे बीचमें छैकुरी ठहरते हुए मौ आ गये । यहाँ पर ४० घर खरौ गोलालारोंके हैं, इनमें श्री सुक्कीलालजी पुष्कल धनी हैं। आपके द्वारा १ मन्दिर सोनागिरिमें निर्माण कराया गया है । १ धर्मशाला भी आपने वहाँ निर्माण कराई है। आप सज्जन हैं। यदि आपकी रुचि ज्ञानमें हो जावे तो आप बहुत कुछ कर सकते हैं। परन्तु यही होना कठिन है, हो भी जावे असन्भव नहीं। मोह ऐसा प्रबल है कि अपनी • उन्नतिके अर्थ समर्थ होते हुए भी यह जीच कुछ नहीं कर सकता। ज्ञान अर्जन करना प्राणीमात्रके लिये आवश्यक है और अवकाश भी प्रत्येकके पास है परन्तु यह मोही उसमे प्रयत्न नहीं करता । इधर उधरकी कथाएँ करके निज समयको विता देना ही इसका कार्य है। आज अष्टाह्निकाका प्रथम दिवस अर्थात् अष्टमी थी। मन्दिर में प्रवचन हुआ। उपस्थिति अच्छी थी। लोगोंमे स्वाध्यायकी प्रवृत्ति धीरे-धीरे कम हो रही है। जो है भी वह व्यवस्थित नहीं इसीलिए जीवनभर स्वाध्याय करने पर भी कितने ही लोगोंको कुछ नहीं Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ स्वर्णगिरिकी ओर आता । स्वाध्याय और उसके फलका विवेचन करते हुए मैंने कहावाचना और पृच्छना यह स्वाध्यायके अङ्ग हैं। स्वाध्याय संज्ञा तपकी है । तपका लक्षण इच्छा निरोध है अतएव तप निर्जराका कारण है। वैसे देखा जाय तो स्वाध्यायसे तत्त्वबोध होता है तथा सुननेवाला भी इसके द्वारा बोध प्राप्त करता है। बोधका फल न्याय ग्रन्थोंमे हानोपादानोपेक्षा तथा अज्ञाननिवृत्ति बतलाया है। जैसा कि श्री समन्तभद्र स्वामीने कहा है उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधी । पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ।। यहाँ केवलज्ञानका फल उपेक्षा और शेप चार ज्ञानोंका फल हान और उपादान वहा है। अर्थात् हेयका त्याग और उपादेयका ग्रहण है। यहाँ पर यह आशंका होती है कि ज्ञान चाहे पूर्ण हो चाहे अपूर्ण हो उसका फल एक तरहका ही होना चाहिये। तब जो फल केवलज्ञानका है वही फल शेष चार ज्ञानोंका होना चाहिये। इसीसे श्री समन्तभद्राचार्यने शेष चार ज्ञानका फल वही लिखा है-'पूर्वा वा ।' यहाँ पर यह बात उठती है कि उपेक्षा तो मोहके अभावमें द्वादश गुणस्थानमें हो जाती है और केवलज्ञान तेरहवें गुणस्थानमें होता है अतः केवलज्ञानका फल उपेक्षा उचित नहीं और शेष चार ज्ञानका फल आदान हान भी उचित नहीं क्योंकि आदान और हान मोहके कार्य हैं इससे ज्ञानका फल अज्ञान निवृत्ति ही है। मौ से ४ मील चलकर असौना आये। यहाँ ३ घर जैनियोंके हैं, १ छोटा सा वरंडा है। उसीमे जिनेन्द्रदेवके ३ छोटे विम्ब हैं। ग्राम अच्छा है। यहाँपर गेंहूँ अच्छा उत्पन्न होता है। सब लोग सुखी हैं। हमारे साथ १० आदमी थे, ग्रामवासियों ने सवको Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा भोजन कराया । ग्रामीण जन बहुत ही सरल व उदार होते हैं। इनमे पापाचारका प्रवेश नहीं होता। ये विषयोंके लोलुपी भी नहीं होते। इसके अनुकूल कारण भी ग्रामवासियोंको उपलब्ध नहीं होते अतः उनके संस्कार अन्यथा नहीं होते। यहाँ १ वजेसे प्रवचन हुआ। ग्रामके बहुत मनुष्य आये। सुखपूर्वक शास्त्र-श्रवण किया। मेरी बुद्धिमे तो आता है कि इस आत्माके अन्तर्गत अनेक सामर्थ्य हैं परन्तु अपनी अज्ञानतासे यह उन्हें व्यक्त नहीं कर पाता । यहाँसे चलकर मगरौल ठहर गये और मगरौलसे प्रातः ६॥ वजे सौड़ा ग्रामके लिये चल दिये। मार्गमे दोनों ओर गेहूंकी उत्तम कृषि थी।२ मील चलकर १ अटवी मिली । १ मीन बरावर अटवी रही । यहाँपर करदी लकड़ीका घना जंगल था परन्तु दतिया सरकार ने वेच दिया, इससे लकड़ी काट दी गई । अव नाम मात्र अटवी रह गई है। यहाँ अटवीके नीचे बहुत कोयला बनता है। यहाँसे १ मील चलकर काली-सिन्धु नदी मिली। वहुत वेगसे पानी वहता है। १ स्थानपर ऊपरसे जल प्रपात पड़ता है। नीचे एक बहुत भारी कुण्ड है। पत्थरकी बहुलता होनेसे कुण्डके चारों ओर दहलाने वनी हैं। कई मन्दिर हैं। एक मन्दिर महादेवजीका है। अनेक घाट वने हुए हैं। पानी अत्यन्त स्वच्छ तथा पीनेमे स्वादिष्ट है । शतशः स्त्री और मनुष्य स्नान करते हैं। स्थान अत्यन्त रम्य और चित्ताकर्पक है। ऐसे स्थान पर यदि कोई धर्मध्यान करे तो बहुत ही उपयोग लगे। परन्तु वर्तमानमे लोगोंकी इस तरहकी विषम परिस्थिति है कि वे अपनी आवश्यकताओकी पूर्तिमे ही अहनिश निमग्न रहते हैं तथा व्यग्रताके कारण प्रसन्नतासे वञ्चित रहते हैं। ___ सौंडामें १० बजे पहुंच स्नानादिसे निवृत्त हो रामदयाल छोटेलालजी खरौआके यहाँ भोजन किया। आगामी दिन मेघका प्रकोप अधिक था अतः प्रातःकालका प्रयाण स्थगित कर सौंडामे Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्णगिरिकी ओर २४० ही १ घण्टा स्वाध्याय किया। तदनन्तर भोजन कर सामायिक किया और आकाशको निर्मल देख आगेके लिये चल पड़े। बीचमें वस्मी और नहला ग्राममे ठहरते हुए रामपुरा आ गये। यहाँ पर १ घर जैसवाल जैनका है। इनके घरमे १ चैत्यालय है । नीचे मकान है, ऊपर अटारीमे चैत्यालय है। बहुत स्वच्छ है। श्री जीका विम्ब भी निर्मल है। हमारा भोजन इन्हींके घर हुआ। मध्यान्हकी सामायिकके बाद २ मील चल कर १ साधुके स्थान पर ठहर गये। साधु महन्त तो इन्द्रगढ़ गये थे। उनका शिष्य था जो भद्र मनुष्य था। बड़े प्रेमसे स्थान दिया। मुझे अनुभव हुआ कि अन्य साधुओंमें शिष्टता होती है-आतिथ्य सत्कार करनेमें पूर्ण सहयोग करते हैं। जैनधर्म विश्वधर्म है । प्राणीमात्रके कल्याणका कारण है परन्तु उसे आजकलके मनुष्योंने अपना धर्म समझ रक्खा है। किसीको उच्च दृष्टिसे नहीं समझते । धर्म कोई ऐसी वस्तु नहीं जो आत्मासे बाह्य उसका अस्तित्व पाया जावे। वह तो कषायके अभावमे आत्मामे ही व्यक्त होता है। रामपुरासे चल कर सेंतरी ठहरे और वहाँसे ५ मील चल कर इन्द्रगढ़ आ गये। ग्रामके चारों ओर प्राचीन कोट है। ग्रामके बाहर शीतला देवीका मन्दिर था उसीमे ठहर गये। इन्द्रगढ़से भड़ोल, कैती तथा जुजारपुर ठहरते हुए चैत्र कृष्ण १ सं० २००७ को सोनागिर आ गये। आनेमे विलम्ब हो जानेसे आज पर्वत पर वन्दनाके लिये नहीं जा सके। जनता बहुत एकत्रित थी। सायंकाल सामायिकादि क्रियाके अनन्तर जनता आ गई। पञ्चास्तिकायका स्वाध्याय किया। बहुत ही अपूर्व ग्रन्थ है। इसका प्रमेय बहुत ही उपयोगी है। मूलकर्ता श्री कुन्दकुन्द महाराज हैं। इस ग्रन्थकी वृत्ति श्री अमृतचन्द्र सूरि द्वारा बनाई गई है जिससे मनों अमृत ही टपकता है। चैत्र कृष्ण २ को श्री १०८ विमलसागरजी आये। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ मेरी जीवन गाया आप बहुत ही उत्तम विचारके मनुष्य हैं। इनके गुरु बहुत ही सरल हैं, कुछ पढ़े नहीं हैं परन्तु अपने आचरणमें निष्णात हैं। मेरा तो यह ध्यान है कि सर्वथा आगमके जाननेसे ही आचरण होता हो यह नियम नहीं। ऐसे भी मनुष्य देखे जाते हैं जिन्हे आगमका अंशमात्र भी ज्ञान नहीं और अहिंसादि व्रतोंका सन्यक पालन करते हैं। 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इस सूत्रको वाँच नही सकते परन्तु फिर भी इस हिंसासे अपनी आत्माको रक्षित रखते हैं। इसी प्रकार 'असदमिधानमनृतम्' इस सूत्रको पढ़ नहीं सकते फिर भी मिथ्याभाषण कभी नहीं करते। 'अदत्तादानमस्तेयम्' इस सूत्रकी व्याख्या आदि कुछ नहीं जानते किन्तु स्वप्नमे परायी वस्तुंके ग्रहणके भाव नहीं होते। 'मैथुनमब्रह्म' इसके आकारको नहीं जानते किन्तु स्वकीय परिणतिमें बीविषयक भोगका भाव नहीं होता। एवं 'मूर्छा परिग्रहः' इसका अथ नहीं जानते फिर भी पर पदार्थों में मूर्छा नहीं करते। इससे सिद्ध हुआ कि आगममें नो लिखा गया है वह आत्माके विशिष्ट परिणामोंका ही शब्द रचनारूप विन्यास है। श्री ब्रह्मचारी छोटेलालजी तथा भगत सुमेरुचन्द्रजी भी यहाँ आ गये जिससे मुझे परम हर्ष हुआ। इनके साथ चतुर्थीको सानन्द वन्दना की। यह क्षेत्र अत्यन्त रम्य और वैराग्यका उत्पादक है। श्री चन्द्रप्रभके मन्दिरके सामने सङ्गमर्मरके फर्ससे जड़ा हुआ एक बहुत बड़ा रमणीय चबूतरा है । सामने सुन्दर मानस्तम्भ है । चबूतरा इतना बड़ा है कि उसपर ५ सहन मनुष्य सानन्द धर्म श्रवण कर सकते हैं। यहाँसे दृष्टिपात करनेपर पर्वतकी अन्य काली-काली चट्टानें बहुत भली मालूम होती हैं। प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व जब लाल लाल प्रभा सङ्गमर्मरके इवेत फर्सपर पड़ती है तव बहुत सुन्दर दृश्य दृष्टिगोचर होता है। मन्दिरके अन्दर पूजन Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ स्वर्णगिरिकी ओर आदिकी सुन्दर व्यवस्था है किन्तु यह सब होते हुए भी तीर्थक्षेत्रों पर ज्ञानार्जनका कोई साधन नहीं। केवल धनिकवर्ग, अना स्पया बाह्य सामग्रीकी सजावटमे व्यय करता है । इसीमे वह अपना प्रभुत्व मानता है। प्रतिवर्ष मेलामें हजारों व्यक्ति आते हैं पर किसीके भी यह भाव नहीं हुए कि यहाँ पर १ पण्डित स्वाध्याय करनेके लिये रहे, हम इसका भार वहन करेंगे। केवल पत्थर आदि जड़वाकर ऊपरी चमक दमकमें प्राणियोंके मनको मोहित करनेमें रुपयेका उपयोग करते हैं। प्रथम तो इन वाह्य वस्तुओंके द्वारा आत्माका कुछ भी कल्याण नहीं होता। द्वितीय कल्याणका मार्ग जो कपायकी कृशता है सो इन वाह्य वस्तुओंसे उसकी विपरीतता देखी जाती है। कृशता और पुष्टतामे अन्तर है । विषयोंके सम्बन्धसे कषाय पुष्ट होती है और ज्ञानसे विषयोंमे प्रेम नहीं होता सो इन क्षेत्रोंमें ज्ञान साधनका एकरूपसे अभाव है। ___ पञ्चमीके दिन पुनः पर्वतपर जानेका भाव हुआ परन्तु शारीरिक शक्तिकी शिथिलतासे सब मन्दिरोंके दर्शन नहीं कर सका। केवल चन्द्रप्रभ स्वामीके दर्शनकर सुखका अनुभव किया। पश्चात् १ घण्टा वहीं प्रवचन किया। मैंने कहा-मैं तो कुछ जानता नहीं परन्तु श्रद्धा अटल है कि कल्याणका मार्ग केवल आत्मतत्त्वके यथार्थ भेदज्ञानमें है । भेदज्ञानके फलसे ही आत्मा स्वतन्त्र होती है स्वतन्त्रता ही मोक्ष है । पारतन्त्र्य निवृत्ति और स्वातन्त्र्योपलब्धि ही मोक्ष है। मोक्षमार्गका मूल कारण पर पदार्थकी सहायता न चाहता है । कर्मका सम्बन्ध अनादि कालसे चला आया है उसका छूटना परिश्रम साध्य है। परिश्रमका अर्थ मानसिक कायिक वाचनिक व्यापार नहीं किन्तु आत्मतत्त्वमे जो अन्यथा कल्पना है उसको त्यागना ही सच्चा परिश्रम है। त्याग बिना कुछ सिद्धि नहीं अतः सवसे पहले अपना विश्वास करना ही मोक्षमार्गकी सीढ़ी Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० मेरी जीवन गाथा है। विश्वासके साथ ज्ञान और चारित्रका भी उदय होता है क्योंकि ये दोनों गुण स्वतन्त्र हैं अतः उसी कालमे उनका भी परिणमन होता है । हमे आवश्यकता श्रद्धागुणकी है परन्तु वह श्रद्धा, सामान्य विशेष रूपसे जब तक पदार्थोंका परिचय न हो तब तक नहीं होती। सप्तमीके दिन नीचे लश्करवालोंके मन्दिरमें प्रवचन हुआ। उपस्थिति अल्प थी परन्तु जितने महानुभाव थे विवेकी थे । शान्तिसे सब लोगोंने शास्त्रश्रवण किया। पश्चात् स्थानपर आये व चर्याके लिये गये । एक स्थानपर चर्या की। लोग निरन्तर चर्या करानेकी इच्छा करते हैं परन्तु विधिका बोध नहीं। परमार्थसे चर्या तो उसके यहाँ हो सकती है जो स्वयं शुद्ध भोजन करे। जिनके शुद्ध भोजनका नियम नहीं उनके यहाँ भोजन करना आम्नायके प्रतिकूल है। परन्तु हम लोगोंने तो केवल शास्त्र पढ़ना सीखा है उसके अनुकूल प्रवृत्ति करना नहीं अतः हम स्वयं अपराधी हैं। उचित तो यह था कि हम उनको प्रथम उपदेश करते पश्चात् उनकी प्रवृत्ति देखते। यदे वह अनुकूल होती तो उनके यहाँ भोजन करते अन्यथा स्थानान्तर चले जाते। अथवा यह वात विदित हो जाती कि उस घरमें भोजन हमारे उदेश्यसे वनाया गया है तो अन्तराय कर चले जाते । केवल गल्ववादसे कुछ तत्व नहीं। हम गल्पवादके भण्डार हैकरनेमे नपुंसक हैं। जब हम स्वयं आगमानुकूल चलनेमे असमर्थ हैं तव अन्यको उपदेश क्या देवेंगे ? अथवा देवें भी तो उनका क्या प्रभाव जनतापर हो सकता है ? जो जल स्वयं अग्नि सम्बन्यो उम्णावस्था धारण किये है क्या वह जल शीतलता उत्पन्न करेगा ? कदापि नहीं.."सोनागिरिम आठ दिन रहा। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुयासागर में ग्रीष्म काल चैत्र कृष्णा ६ संवत् २००७ को १ वजे श्री सिद्धक्षेत्र स्वर्ण गिरिसे दतिया के लिये प्रस्थान कर दिया । ५ बजे ढांक वंगलामे ठहर गये। बंगलामे जो चपरासी था वह जातिका ब्राह्मण था, बहुत निर्मल मनुष्य था, निर्लोभी था । उसने हमारे प्रति शिष्ट व्यवहार किया । वहाँ पर रात्रिभर सुखपूर्वक रहे। यह स्थान सोनागिरिसे मील है । धूपका वेग बहुत था अतः मार्गमे बहुत ही कष्ट उठाना पड़ा । शरीरकी शक्ति हीन थी किन्तु अन्तरङ्गकी वलवत्तासे यह शरीर उसके साथ चला आया । तत्त्वदृष्टिसे वृद्धावस्था भ्रमणके योग्य नहीं । दौलतरामजीने कहा है 'अर्धमृतक सम बूढ़ापनौ कैसे रूप लखे आपनौ' पर विचार कर देखा तो वृद्धावस्था कल्याण मार्ग में पूर्ण सहायक है । युवावस्थामे प्रत्येक आदमी बाधक होता है । कहता है भाई ! अभी कुछ दिन तक संसारके कार्य करो पश्चात् वीतरागका मार्ग ग्रहण करना । इन्द्रियाँ विषय ग्रहणकी ओर ले जाती हैं, मन निरन्तर अनाप सनाप संकल्प विकल्प के चक्रमे फॅसा रहता है । जब अवस्था वृद्ध हो जाती है तब चित्त स्वयमेव विषयोंसे विरक्त हो जाता है । दूसरे दिन प्रातः ६ बजे ढाक बंगलासे ४१ मील चलकर एक नदी के पार महादेवजी के मन्दिरमें ठहर गये । पास ही जल कूप था । मन्दिरकी अवस्था कुछ जीर्ण है परन्तु पासमे ग्राम न होनेसे इसका सुधार होना कठिन है । यहाँ पर चिरगाँवसे २ आदमी आये और वहाँ चलनेके लिये बहुत श्राग्रह करने लगे । हमने स्वीकार कर लिया और कहा कि यदि झाँसी आ जाओगे Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ मेरी जीवन गाथा तो आपके साथ अवश्य चलेंगे। सुन कर वे बहुत प्रसन्न हुए तथा घर चले गये। हम लोगोंने भोजन किया तदनन्तर सामायिकसे निवृत्त हो १ घण्टा वनारसीविलासका अध्ययन किया। बहुत ही सुगम रीतिसे पदार्थका निरूपण किया है। पुण्य पाप दोनोंको दिखाया है। पुण्यके उदयमे ऐंठ और पापके उदयमे दीनता होती है। दोनों ही आत्माके कल्याणमें वाधक हैं। अतः जिन्हे आत्मकल्याण करना है वे दोनोंसे ममता भाव छोड़ें। काञ्चन कालावसकी वेडीके समान दोनों ही वन्धनके कारण हैं। मनुष्य जन्मकी सार्थकता तो इसीमें है कि दोनों बन्धन तोड़ दिये जायें। दूसरे दिन प्रातःकाल ६ बजे चलकर ८ वजे करारीगाँवके वनमें सड़कके ऊपर निवास किया । यहाँ माँसीसे गुलावचन्द्रजी आ गये। उन्होंने भक्ति पूर्वक आहार दिया। यहाँसे ३ बजे चल कर ४ मील पर माँसीके बाहर नत्थू मदारीका बंगला था उसमें ठहर गय। सानन्द रात्रि व्यतीत की। प्रातः ६३ बजे चलकर ८ वजे झाँसी आ गये और स्नानादि कर श्री मन्दिरजीम प्रवचन किया। पश्चात् श्री राजमल्लजीके यहाँ भोजन हुआ। यहाँ राजमल्ल एक प्रतिभाशाली विद्वान् है । धर्ममें आपकी रुचि अच्छी है। श्राप मन्दिरमे अच्छा काल लगाते हैं। स्वाध्याय करानेमें आपकी बहुत रुचि है। आपके भाई चाँदमल्ल तो एक प्रकारसे पण्डित ही हैं। आपका अधिक काल ज्ञानार्जनमें ही जाना है। आप लोगोंने १ मारवाड़ी मन्दिरका जो मारवाड़ी पंचायत के नामसे प्रसिद्ध है निर्माण कराया है। यहाँ पर श्री मक्खनलाल जी खण्डेलवाल भी हैं। आप १ धर्मशाला बनवा रहे है। उसमें ? कता. भवन भी बोल रहे हैं। आपका विचार विशेष दान करनेका है। बोटी जिसकी आमदनी -५०) मामिल है दान देना चाहते हैं। श्रापका विचार अति उत्तम है परन्तु अभी कार्यमें परिणत गर्ग Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुणासागरमें ग्रीष्मकाल २५६ हुआ। अनेक मनुष्य इस कार्यमें विघ्नकर्ता भी हैं परन्तु मक्खनलाल जी हृदयके स्वच्छ हैं। आपने जो प्रतीज्ञा की है उसे पूर्ण करेंगे ऐसी मेरी धारणा है । होगा वही जो वीरप्रभुने देखा है। चैत्र कृष्ण १२ सं० २००७ को सीपरी गये । वहीं प्रवचन हुआ जनता अल्प संख्यामे थी। यहाँपर श्री स्व. मूलचन्द्रजीका एक बड़ा बाड़ा है । जिसमें ५००) मासिक भाड़ा आता है आप बहुत ही विवेकी थे । यहाँ आते ही पिछले दिन स्मरणमें आगये जब हम महीनों उनके सम्पर्कमें रहते थे। अस्तु, अब आपके २ नाती हैं। पुत्र श्रेयांसकुमार बहुत ही भद्र तथा योग्य था परन्तु वह भी कालके. गालमें चला गया । पुत्रकी धर्मपत्नी बहुत कुशल है। उसने यहाँ धर्मसाधनके लिए एक चैत्यालय भी बनवा लिया। प्रतिदिन पूजा स्वय करती है। २ बालक हैं, उन्हे पढ़ाती है-दोनों योग्य हैं। आशा है थोड़े ही कालमे घरकी परिस्थिति संभाल लेगे । संभव है काल पाकर इनकी प्रभुता सर्राफके सदृश हो जावे । ___अगले दिन ७ बजे चलकर ८ बजे सदर बाजार आगये । यहाँपर ३ घण्टा स्वागतमे गया। कन्याओं द्वारा स्वागत गीत गाया गया, एक छात्राने बहुत ही सुन्दर तबला बजाया । उसका कण्ठ भी मधुर था। पश्चात् श्री जिनालयमे जिनदेवके दर्शन कर चित्तमें शान्ति रसका आस्वाद किया। मूर्ति बहुत ही सुन्दर और योग्य संस्थान विशिष्ट थी। तदनन्दर १ घण्टा प्रवचन हुआ। जनताने शान्त चित्तसे श्रवण किया। अपनी अपनी योग्यतासे सवने लाभ उठाया। हम स्वयं जो कहते हैं उसपर अमल नहीं करते फिर सुननेवालोंको क्या कहे १ जिस वृक्षमें छाया नहीं वह इतरको छाया देनेरें असमर्थ है। आजतक वह शान्ति न आई जिसको हमने आगममे पढ़ा है। वास्तविक बात यह है कि आगममें शान्ति नहीं हैं और न अशान्ति ही है। आगम तो प्रतिपादन करनेवाला है। इसी प्रकार Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ मेरी जीवन गाथा न तीर्थमे शान्ति अशान्ति है और न सत्समागममे शान्ति - अशान्ति है । वह तो आत्मा है । वहाँ हम खोजते नहीं, उसके प्रतिबन्धक कारणोको हटाते नहीं, केवल निमित्त कारणोंको प्रथक करने की चेष्टा करते हैं । उसके प्रतिबन्धक कारण क्रोधादिक कषाय हैं । हम उनको तो हटाते नहीं किन्तु जिन निमित्तोंसे क्रोधादिक होते हैं उन्हें दूर करनेका प्रयत्न करते हैं । एक दिन गुदरीके मन्दिर मे भी प्रवचन हुआ । चैत्र कृष्ण अमावस्या सं० २००७ के दिन प्रातः झाँसीसे ३ मील चलकर श्री परशुरामजीके वागमे ठहर गये । स्थान रम्य था परन्तु ठहरनेके योग्य स्थान था । दहलान मे भोजन हुआ, मक्खियाँ बहुत थीं । भोजन निरन्तराय हुआ । ४ आदमी उनके उड़ाने में संलग्न रहे । यहीं पर श्री फिरोजीलालजी दिल्लीसे आ गये। आप बहुत ही सरल और सज्जन प्रकृतिके हैं। आप गरमी के मौसमका चहर लाये । प्रायः आप निरन्तर आया करते हैं । जबसे मैंने दिल्ली से प्रस्थान किया तबसे १० स्थानोपर आये और हर स्थान पर आहार दान दिया। आपके कुटुम्बका बहुत ही उदार भाव है । राजकृष्णजीसे आपका घनिष्ठ सम्बन्ध है । राजकृष्णकी धर्मपत्नी आपकी भगिनी है । वह तो साक्षात् देवी हैं । आपके यहाँ जो पहुँच जाता है उसका आप बहुत ही आतिथ्य सत्कार करते हैं । फिरोजीलालजी झाँसी चले गये और हम वागसे २ मील चलकर परशुरामके बंगला पर ठहर गये । स्थान रम्य था । १ छोटी कुईया वा १ नाला है । चारों तरफ करोंदाका वन है । यहाँ पर धर्मध्यानकी योग्यता है परन्तु कोई रहना नहीं चाहता । आजकल धर्मका मर्म दम्भ रह गया है इसीलिये दम्भी पूजे जाते हैं । चैत्र शुक्ल १ विक्रम. सं० २००८ का प्रथम दिन था । आज 'प्रातः परशुरामके वंगलासे ३ मील चलकर वेत्रवती नदीको छोटी Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुासागर में प्रीष्मकाल २५५ नौका द्वारा पार किया । १ नाविक मेरा हाथ पकड़ शनैः शनै मुझे स्थल पर पहुॅचा छाया । उसका हृदय दयासे परिपूर्ण था । मैंने उसे उपकारी मान अपने पास जो २ गज खादीका दुपट्टा था वह दे दिया । उसे लेकर वह बहुत प्रसन्न हुआ तथा धन्यवाद देता हुआ चला गया । वहाँपर जो मानव समुदाय था वह भी प्रसन्न हुआ । यद्यपि मेरी यह प्रवृत्ति विशेष प्रशंसाकी पोषक नहीं परन्तु मैं प्रकृति पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता । संसारमे वही मनुष्य इस संसारसे मुक्त होनेका पात्र है जो परपदार्थका संपर्क त्याग दे । परपदार्थका न तो हम कुछ उपकार ही कर सकते हैं और न अनुपकार ही । संसारके यावन्मात्र पदार्थ आत्मीय आत्मीय गुणपर्यायोंसे पूरित हैं उनके परिणमन उनके स्वाधीन हैं । उस परिणमनमें उपादान और सहकारी कारणका समूह ही उपकारी है परन्तु कार्यरूप परिणमन उपादानका ही होता है । यहाँ से १ मील चलकर श्री स्वर्गीय फूलचन्द्रकीके वागमे गये । बाग रम्य है परन्तु अवस्था अवनति पर है । यहीं पर भोजन किया । भोजनके अनन्तर सामायिकसे सम्पन्न हो बैठे ही थे कि वावू रामस्वरूपजी आ गये । ३ बजे चलकर ५ बजे बरुआसागर आ गये। श्री मन्दिर जी के दर्शनके अनन्तर श्री बाबू रामस्वरूप जी द्वारा निर्मापित गणेश वाटिका नामक स्थानपर निवास किया । रात्रि सानन्द बीती । प्रातः मन्दिर जी गये । दर्शनकर चित्त प्रसन्न हुआ । १ घण्टा प्रवचनके अनन्तर श्री बाबू रामस्वरूपजीके यहाँ भोजन हुआ। आप बहुत ही भद्र व्यक्ति हैं । मध्याह्नकी सामायिकके वाद २ घण्टा स्वाध्याय किया । स्वाध्यायका फल केवल ज्ञानवृद्धि ही नहीं किन्तु स्वात्मतत्त्वको स्वावलम्बन देकर शान्तिमार्गमे जाना ही उसका मुख्य फल है । आजकल हमारी प्रवृत्ति इस तरहसे दूषित हो गई है कि ज्ञानार्जनसे हम जगत्की प्रतिष्ठा चाहते हैं Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा ૨૫૦ अर्थात् संसारसे मुक्त नहीं होना चाहते । अन्यको तुच्छ और अपने को महान् बनानेके लिये उस ज्ञानका उपयोग करते हैं जिस ज्ञानसे भेदुन्नानका लाभ था । आज उससे हम गर्वमे पड़ना चाहते हैं । दूसरे दिन प्रात:काल मन्दिरजीमे पुनः प्रवचन हुआ । श्रीकुन्दकुन्द देवका कहना है कि शुभोपयोगसे पुण्यवन्ध होता है और उससे आत्माको देवादि सम्यक् पदकी प्राप्ति होती हैं जो तृष्णाका आयतन है श्रतः शुभोपयोग और अशुभोपयोगको भिन्न समझना शुद्धोपयोगकी दृष्टिमे कुछ विशेषता नहीं रखता। दोनों ही बन्धके कारण हैं । लौकिक जन शुभ कर्मको सुशील और अशुभ कर्मको कुशील मानते हैं परन्तु कुन्दकुन्द महाराज कहते हैं कि शुभकर्म सुशील कैसे हो सकता है वह भी तो आत्माको संसारम पात करता है । जिस प्रकार लोहेकी बेड़ी पुरुषको बन्धनमें हालती है उसी प्रकार सुवर्णकी बेड़ी भी पुरुषको बन्धनमें ढालती हैं एतावता उन दोनोंमें कोई भिन्नता नहीं । लोकमें कोई पुरुष जव किर्स. की प्रकृतिको स्त्रविरोधिनी समझ लेता है तो उसके संपर्क से यथाशीघ्र दूर हो जाता है । इसी तरह जब कर्म प्रकृति आत्माको संसार बन्धनमें बालती है तब ज्ञानी वीतराग, उद्यागत शुभाशुभ प्रकृति के साथ राग नहीं करता । सम्यग्दृष्टि मनुष्यके भी शुभाशुभ प्रशस्ताप्रशस्त मोहोदयमें होते हैं । विषयोंसे अणुमात्र भी विरक्ति नहीं तथा मन्द कषायमे दानादि कार्य भी शुभोपयोग में करता है परन्तु उसे परिणाममें अनुराग नहीं । जिस प्रकार रोगी मनुष्य न चाहता हुआ भी औषव सेवन करता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि भी पुण्य पापादि कार्योंको करता है, परमार्थसे दोनो को हेय समभता है । उपादेयता और हेयता यह दोनों मोही जीवोंके होते } परमार्थसे न कोई उपादेय हैं और न हेय हैं किन्तु उपेक्षणीय है । उपेक्षणीय व्यवहार भी औपचारिक होता है । मोहके रहते हुए Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरुआसागरमें ग्रीष्मकाल २५७ जिन पदार्थोमें उपादेयता और हेयताका व्यवहार था मोह जानेके बाद वे पदार्थ उपेक्षणीय सुतरों हो जाते हैं। फिर यह विकल्प ही नहीं उठता कि वे पदार्थ अमुक रूपसे हमारे ज्ञानमे आते। मोहके बाद ज्ञान जिस पदार्थको विषय करता है वही उसका विषय रह जाता है। मोहका अभाव होते ही ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तराय ये तीन कर्म रक्षकके अभावमे अनन्यशरण हो अन्तर्मुहुर्तमें नष्ट हो जाते हैं। इनका नाश होते ही ज्ञान गुणका शुद्ध परिणमन हो जाता है । जो ज्ञान पहले पराश्रित था वही अब केवलज्ञान पर्याय पा कर आदित्य प्रकाशवत् स्वयं प्रकाशमान होता हुआ समस्त पदार्थोंका ज्ञाता हो जाता है और कभी स्वरूपसे च्युत नहीं होता। अतएव धनंजय कविने विषापहार स्तोत्रके प्रारम्भमें लिखा है। स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्तसङ्गः। प्रवृद्धकालोऽप्यजरो वरेण्यः पायादपायात्पुरुषः पुराणः ॥ उसकी महिमा वही जाने, हम संसारी परके द्वारा अपनी उन्नति ज्ञात कर पर पदार्थों के संग्रह करनेमें अपनी परिणति को लगा देते हैं और अनन्त संसारके पात्र बनते रहते हैं। वैषयिक सुखके लिये स्त्री पुत्र मित्र धनादि पदार्थों का संग्रह करने में जो जो अन्याय करते हैं वह किसीसे गुप्त नहीं। यहाँ तक देखा जाता है कि इस तरह प्राणियोंका जीवन भी आपत्तिमें आता हो और हमारा निजका प्रयोजन सिद्ध होता हो तो हम उस आपत्तिको मगलरूप अनुभव करते हैं । अस्तु ।। दसरे दिन नगरमे आहारके लिये गये । श्री जैन मन्दिर की बन्दना की। दर्शन कर चित्त प्रसन्न हुआ। मन्दिर जानेका यह प्रयोजन है कि वीतरागदेवकी स्थापना देख कर पीतराग भाव Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ मेरी जीवन गाथा की प्राप्तिके लिये स्वयं द्रव्य निक्षेप वनो। वीतरागके नाम पाठ करनेसे वीतराग न हो जावेगे। उन्होंने जिस मार्गका अवलन्यनकर वीतरागताकी प्राप्ति की है उस मार्गपर चलकर स्वयं वीतराग होनेका पुरुषार्थ करो क्या पुरुषार्थ हमारे हाथकी बात है ? अवश्य है । जो रागादिक भाव तुममे हों उनका आदर न करो। आने दो, क्योंकि उन्हें तुमने अर्जित किया, अब उनसे तटस्थ रहो। दर्शनके पश्चात् १ घण्टा प्रवचन हुआ। उपस्थिति अच्छी थी परन्तु उपयोग नहीं लगा। अनन्तर आहारको निकले । हृदयमें अनायास कल्पना आई कि आज स्व. पं० देवकीनन्दनजीके घर आहार होना चाहिये। उनके गृहपर कपाट बन्द थे, वहाँसे अन्यत्र गये, वहाँ पर कोई न था, उसके बाद तीसरे घर गये तब वहाँ स्वर्गीय पण्डितजी की धर्मपत्नी द्वारा आहार दिया गया। इससे सिद्ध होता है कि शुद्ध परिणाममें जो कल्पना की जाती है उसकी सिद्वि अनायाम हो जाती है। चैत्र शुक्ला १० सं० २००८ को यहाँकी पाठशालाके छात्रों यहाँ भोजन हुआ। बड़े भावसे भोजन कराया। भोजन क्या था ? अमृत था। इसका मूल कारण उन छात्रोंका भाव था। स्वच्छ और अस्वच्छ भाव ही शुभाशुभ कर्मका कारण होता है । उन दोनोंसे भिन्न जो सर्वया शुद्ध है वह संसार बन्धनके उन्हेंद्रस्य कारण है। संसार सन्ततिका मूल कारण वामना है । वासना श्रात्मामें ही होती है और उसका उत्पादक मोह है। चत्र शक्ला १३सं०२००८ को भगवान महावीर म्वामीरे जन्म दिवसका उत्सव था। अनेक व्याख्यान ईये। मैंने तो रेचन यह कहा कि प्रात्मीय परिणतिको कनुचित न होने दो। कनुरिन परि. णामोंका अन्तरग कारण मोद-राग-द्वेष है तथा यार कारा पा Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरुआसागरमें ग्रीष्मकाल २५६ न्द्रियोंके विषय हैं। विषय निमित्त कारण हैं परन्तु ऐसी व्याप्ति नहीं जो परिणतिको वलात् कलुषित वना ही देवे। विषय तो इन्द्रियोंके द्वारा जाने जाते हैं। उनमे जो इष्टा-निष्ट कल्पना होती है वह कषायसे होती है। कषाय क्या है ? जो आत्माको कलुपित करता है । यह स्वयं होती है । अनादिसे आत्मामें इसका परिणमन चला आ रहा है। हम निरन्तर इसका प्रयास करते हैं कि आत्मामे स्वच्छ परिणाम हो परन्तु न जाने कौनसी ऐसी शक्ति आत्मामे है कि जिससे जो भाव आत्माको इष्ट नहीं वे ही आते हैं। इससे यही निश्चय होता है कि आत्मामे अनादिसे ऐसे संस्कार आ रहे हैं कि जिनसे उसे अनन्त वेदनाओंका पात्र वनना पड़ता है । यदि हमने आत्माको पहिचानकर विकारोंपर विजय प्राप्त कर ली तो हमारा महावीर जयन्तीका उत्सव मानना सार्थक है। ___ सागरसे श्री 'नीरज' आये। आप श्री लक्ष्मणप्रसादजी रीठीके सुपुत्र हैं। आपके पिताका स्वर्गवास होगया । आपके अच्छा व्यापार होता था परन्तु आपने व्यापार त्याग दिया अब आप प्रेसका काम करते हैं । कवि हैं हँसमुख हैं होनहार व्यक्ति हैं। मुझसे मिलनेके लिए आये थे। एक दिन रहकर चले गये। श्री नाथूरामजी बजाज मवईवाले आये । २ घंटा रहे पश्चात् चले गये । आपने अपने यहाँ सिद्धचक्र विधानका आयोजन किया है। उसी समय पपौरा विद्यालयके लिये २५०००) देनेका वचन दिया है। मुझे आमन्त्रण देने आये थे। विद्यादानकी बात सुन मैंने गरमीकी तीव्रता होने पर भी जाना स्वीकृत कर लिया परन्तु अन्तमे शारीरिक दुर्वलताके कारण हम जा नहीं सके। नरेन्द्रकुमार आया था । वह ज्येष्ठ कृष्णा ७ को सागर गया। स्वाभिमानी है, जैनधर्ममे दृढ़ श्रद्धा है, उद्योगी है, परोपकारी भी है, लालची नहीं, किसीसे कुछ चाहता नहीं, स्कालशिपको आदरके साथ लेता है, Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० मेरी जीवन गाथा प्रत्येक मनुष्यसे मेल कर लेता है। अभी आयु विशेष नहीं अतः स्वभावमें बालकता है। ऐसा बोध होता है कि काल णकर यह बालक विशेष कार्य करेगा। आजकल विज्ञानका युग है। इसमें जो पुरुषार्थ करेगा वह उन्नति करेगा। जो मनुष्य पुरुषार्थी हैं वे आत्मीय उन्नतिके पात्र हो जाते हैं। जो आलसी मनुष्य हैं वे दुःखके पात्र होते हैं। मनुष्य जन्म पानेका यही फल है । स्वपरका हित किया जाय । वैसे तो संसारमे श्वान भी अपना पेट पालन करते हैं। मनुप्यकी उत्कृष्टता इसीमे हैं कि अपनेको मनुष्य वनावें, मनुष्यका ज्ञान और विवेक इतर योनियोंमें जन्म लेनेवाले जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट है। तिर्थञ्चोंमें तो पर्याय सम्बन्धी ज्ञान होता है। यद्यपि देव नारकी विशिष्ट ज्ञानी होते हैं परन्तु उनका ज्ञान भी मर्यादित रहता है तथा वे देव नारकी संयम भी धारण नहीं कर सकते। तिर्यश्च देशसंयमका पात्र हो सकता है परन्तु इतना ज्ञान उसका नहीं कि अन्य जीवोंका कल्याण कर सके। मनुप्यका ज्ञान परोपकारी है तथा उसका संयम गुण भी ऐसा निर्मल हो सकता है कि इतर मनुष्य उसका अनुकरण कर अपनेको संयमी वनानेके पान हो जाते हैं। ___ ज्येष्ठ शुक्ला ३ सं० २००८ को ललितपुरसे बहतसे प्रतिष्ठित सज्जन आये और आग्रह पूर्वक कहने लगे कि आपको क्षेत्रपालललितपुरका चातुर्मास्य करना चाहिये। हमने उनके प्रस्तावको स्वीकृत किया तथा निश्चय किया कि वर्षामे ललितपुर रहना ही उत्तम है। वहाँ रहनेसे प्रथम तो सागर सन्निहित है। यहाँवाले विरोध करते हैं-यह स्वाभाविक बात है । जहाँ रहो वहाँ समुदायसे स्नेह हो जाता है तथा व्यक्ति विशेषसे भी घनिष्ठता बढ़ जाती हैं परमार्थसे' यह स्नेह ही संसारका कारण है। यद्यपि लोग इसे धार्मिक स्नेह कहते हैं परन्तु पर्यवसानमे इसका फल उत्तम नहीं। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत पञ्चमी २६१ जहाँ श्री अर्हदनुरागको चन्दननगसंगत अग्निकी तरह दाहोत्पादक कहा है वहाँ अन्य स्नेहकी गिनती ही क्या है ? मेरा निश्चय पाकर ललितपुरके लोग प्रसन्न हो चले गये। श्रुत पञ्चमी ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी सं० २००८ को श्रुतपञ्चमीका उत्सव था। पं० मनोहरलालजीने सम्यग्दर्शन की महिमाका दिग्दर्शन कराया। मैंने कहा कि आजका पर्व हमको यह शिक्षा देता है कि यदि कल्याणकी इच्छा है तो ज्ञानार्जन करो । ज्ञानार्जनके बिना मनुष्य जन्मकी सार्थकता नहीं। देव और नारकियोंके यद्यपि ३ ज्ञान होते हैं परन्तु उनके जो ज्ञान होते हैं उन्हें वे विशेष वृद्धिंगत नहीं कर सकते। जैसे देवोंके देशावधि है, वे उसे परमावधि या सर्वावधि रूप नहीं कर सकते। हाँ इतना अवश्य है कि मिथ्यदर्शनके उदयमें जिनका ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता था सम्यग्दर्शन होने पर उनका वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाने लगता है। परन्तु देव पर्यायमें संयमका उदय नहीं इसलिये आपर्याय वही अविरतावस्था रहती है। मनुष्य पर्यायकी ही यह विलक्षण महिमा है कि वह सकलसंयम धारण कर संसार बन्धनको समूल नष्ट कर सकता है। यदि संसारका नाश होगा तो इसी पर्यायमें होगा। इस पर्यायकी महत्ता संयमसे ही है, यह निरन्तर ससार को यह उपदेश देते हैं कि मनुष्य जन्मकी सार्थकता इसीमें है कि फिर संसार वन्धनमें न आना पड़े। इस उपदेशका तात्पर्य केवल Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ मेरो जीवन गाथा सम्यग्दर्शनसे नहीं क्योंकि सम्यग्दर्शन तो चारों गतियोंमे होता है। यदि इस ही को प्राप्त कर संतोप धारण किया तो मनुष्य जन्मकी क्या विशेषता हुई ? अतः इससे उत्तम संयम धारण करना ही इस पर्यायकी सफलता है। आजकल बड़े बड़े विद्वान यह उपदेश देते हैं कि स्वाध्याय करो। यही आत्मकल्याणका मार्ग है। उनसे प्रश्न करना चाहियेहे महानुभाव ! आपने आजन्म विद्याभ्यास किया, सहस्त्रों को उपदेश दिया और स्वाध्याय तो आपका जीवन ही है अतः हम जो चलेंगे सो आपके उपदेश पर चलेंगे परन्तु देखते हैं कि आप स्वयं स्वाध्यायके करनेका कुछ लाभ नहीं लेते अतः हमको तो यही श्रद्धा है-स्वाध्यायसे यही लाभ होगा कि अन्य को उपदेश देनेमे पटु हो जावेंगे सो प्रातः जितनी बातोंका आप उपदेश करते हैं हम भी कर देतेहैं प्रत्युत एक बात आप लोगोंकी अपेक्षा हममे विशेप है। वह यह कि हम अपने बालकोंको यथाशक्ति जैनधर्मके जानपनेके लिये प्रयत्न करते हैं परन्तु आपमे यह बात नहीं देखी जाती। आपके पास चाहे पचास हजार रुपया हो जावें परन्तु आप उसमेसे दान न करेंगे । अन्यकी कथा छोड़िये, आप जिन विद्यालयोंके द्वारा विद्वान् हो गये कभी उनके अर्थ १००) भी नहीं भेजे होंगे । अथवा निजकी बात छोड़ो अन्यसे यह न कहा होगा-भाई ! हम अमुक विद्यालयसे विद्वान् हुए उसकी सहायता करना चाहिये। तथा जगत्को धर्म जाननेका उपदेश देंगे, अपने बालकोको एम. ए. बनाया होगा परन्तु धर्मशिक्षाका मिडिल भी न कराया होगा। अन्यको मद्य, मांस, मधुके त्यागका उपदेश देते हैं पर आपसे कोई पूछे-अष्ट मूल गुण हैं ? हॅस देवेंगे। व्याख्यान देते-देते पानीका गिलास कई वार । आ जावे, कोई बड़ी बात नहीं । हमारे श्रेतागण इसीमे प्रसन्न हैं कि पण्डितजी ने सभाको प्रसन्न कर लिया। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत पञ्चमी २६३ त्यागियोंकी वात कौन कहे ? वह तो त्यागी हैं, किसके त्यागी हैं सो दृष्टि बलिये, पता चलेगा। यदि यह पण्डित वर्ग चाहे तो समाजका बहुत कुछ हित कर सकता है। जो पण्डित हैं वे यह नियम कर लेवें कि जिस विद्यालयमे हमने प्रारम्भसे विद्या अर्जित की है और जिसमे अन्त स्नातक हुए, अपनेको कृतज्ञ बनानेके लिये उन्हे २) प्रति मास देंगे। १) प्रारम्भ विद्यालयको और १) अन्तिम विद्यालयको प्रतिमास भिजवावेंगे। यदि २८०) मासिक उपार्जन होगा तो २॥ २॥) प्रतिमास भिजवावेंगे तथा एक वर्षमे २० दिन दोनों विद्यालयोंके अर्थ देवेंगे । अथवा यह न दे सकें तो कमसे कम जहाँ जावें उन विद्यालयोंका परिचय तो करा देखें। जिन्हे १००) से कम आय हो वे प्रति वर्ष ५) ५) ही विद्याजननीको पहुँचा देवें तथा यह सब न बने तो एक वर्ष कमसे कम जिस ग्रामके हों वहाँ रहकर लोगोंमें धर्मका प्रचार तो कर देवें। त्यागीवर्गको यह उचित है कि जहाँ जावें वहाँपर यदि विद्यालय होवे तो ज्ञानार्जन करें, केवल हल्दी धनिया जीरेके त्यागमे ही अपना समय न वितावें। गृहस्थोंके बालक जहाँ अध्ययन करते हैं वहाँ अध्ययन करें तथा शास्त्रसभामे यदि अच्छा विद्वान हो तो उसके द्वारा शास्त्र प्रवचन प्रणालीकी शिक्षा लेवें। केवल शिक्षा प्रणाली तक न रहें किन्तु संसारके उपकारमें अपनेको लगा दें। यह तो व्यवहार है, अपने उपकारमे इतने लीन हो जावें कि अन्य बात ही उपयोगमे न लावें । कल्याणका मार्ग पर पदार्थोसे भिन्न जो निज द्रव्य है उसीमे रत हो जावें। इसका अर्थ यह है कि परमे जो राग द्वेष विकल्प होते हैं उनका मूल कारण मोह है। यदि मोह न हो तो यह वस्तु मेरी है यह भाव भी न हो। तव उसमे राग हो यह सर्वथा नहीं हो सकता। प्रेम तभी होता है जब उसमे अपना अस्तित्व माना जावे । देखो-मनुष्य प्रायः कहते हैं कि हमारा Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ मेरी जीवन गाथा विश्वास अमुक धर्मसे है, हमारी तो प्रीति इसी धर्ममे है | विचार कर देखो - प्रथम उस धर्मको निज माना तभी तो उसमें प्रेम हुआ और यदि धर्मको निज न माने तो उसमे अनुराग होना सम्भव है । यही कारण है कि १ धर्मवाला अन्य धर्मसे प्रेम नहीं करता अतः जिनको अत्म-कल्याण करना है वे संसार के कारणोंसे न राग करें न द्वेष करें । आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य है, ज्ञान दर्शनवाला है अथवा वाला क्यों ज्ञान दर्शनरूप है क्योंकि निश्चयसे गुण- गुणीमे अभेद हैं । उसका बोध होनेसे यह जीव संसारसे मुक्त हो जाता है श्राप रूपके वोघसे मुक्त होत सत्र पाप । ज्यों चन्द्रोदय होत ही मिटत सकल संताप ॥ कहने का भाव यह है कि विवेकसे कार्य करो, विना विवेकके कोई भी मनुष्य श्रेयोमार्गका पथिक नही बन सकता । प्रथम तो विवेकके वलसे आत्मतत्त्वकी दृढ़ श्रद्धा होना चाहिये फिर जो भी कार्य करो उसमें यह देखो कि इस कार्यके करनेमे हमको कितना लाभ है कितना लाभ है ? जिस लाभके अर्थ मैंने परिश्रम किया वह परिश्रम सुख पूर्वक हुआ या दुःख पूर्वक हुआ ? यदि उस कार्यके करनेमें संक्लेशकी प्रचुरता हो तो उस कार्यके करने में कोई लाभ नहीं । जव प्रथमतः ही दुःख सहना पड़ा तब उसके उत्तर में सुख होगा कुछ ध्यानमे नहीं आता । दो प्रकारके कार्य जगन में देखे जाते हैं, एक लौकिक और दूसरे अलौकिक । लौकिक कार्य किन्हें कहते हैं ? जिनसे हमको लौकिक सुखका लाभ होता है उसे हम पुरुषार्थं द्वारा प्राप्त करनेकी चेष्टा करते हैं । परन्तु परमार्थसे वह सुख नहीं क्योंकि सुख तो वह वस्तु है जहाँ श्राकुलता न हो । वहाँ तो श्राकुलताकी बहुलता है । आकुलताकी परिभाषा कुछ बना लो Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत पञ्चमी २६५ परन्तु अनुभव से इसका परिचय सहज ही होजाता है । जब हम किसी कार्य करनेका प्रयत्न करते हैं तब हमें भीतर से जबतक वह कार्य न हो जावे चैन नहीं पड़ती यही आकुलता है । इसके दूर करनेके अर्थ हम जो व्यापार करते हैं उसका उद्देश्य यही रहता है। कि नाना प्रकारके उपायों द्वारा कार्यकी सिद्धि हो । कहाँतक लिखें ? प्राण जावें परन्तु कार्यं सिद्धि होना चाहिये । श्रुतपञ्चमीके दिन हम लोग शास्त्रोंकी सम्भाल करते हैं, पर झाड़ पोछकर या धूप दिखाकर अलमारीमें रख देना ही उनकी सम्भाल नहीं हैं । शास्त्रके तत्त्वको अध्ययन अध्यापनके द्वारा ससार के सामने लाना यहीं शास्त्रोंकी संभाल है । आज जैनमन्दिरों में लाखोंकी सम्पत्ति रुकी पड़ी है, जिसका कोई उपयोग नहीं । यदि उपयोग होता भी है तो सङ्गमर्मरके फर्श लगवाने -तथा सोने चाँदीके उपकरण बनवानेमे होता है पर वीतराग जिनेन्द्रकी वाणीके प्रचार करनेमें उसका उपयोग करनेमे मन्दिरोके अधिकारी सकुचाते हैं । यदि एक-एक मन्दिर एक एक ग्रन्थ प्रकाशनका भार उठा ले तो समस्त उपलब्ध शास्त्र एक वर्षमें प्रकाशित हो जावें । मन्दिरोंमे बहुमूल्य उपकरण एकत्रित कर चोरोंके लिये स्वयं आमन्त्रण देंगे और फिर हाय हाय करते फिरेंगे | यदि आपकी अरहन्तदेवमे भक्ति है तो उनकी वाणी रूप जा शास्त्र हैं उनमे भी भक्ति होना चाहिये और उनकी भक्तिका रूप यही हो कि वे अच्छे से अच्छे रूपमे प्रकाशित हो संसारके सामने लाये जावें । प्रसन्नताकी बात है कि इस समय लोगोंका धार्मिक संघर्ष बहुत कम हो गया है। एक समय तो वह था जब कोई किसी अन्य धर्मकी वातको श्रवण ही नहीं करना चाहता था 'पर 'प्राजके मानवमें इतनी सहन शीलता आ गई है कि यदि उसे कोई अपनी बात प्रेमसे सुनाना चाहता है तो वह उसे सुनने के Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा लिये तैयार है। जब आपके धर्मकी वातको दुनियाँ सुननेके लिये तैयार है, जाननेके लिये उत्सुक है तब आप ज्ञानके साधन जो शास्त्र हैं उन्हे सामने क्यों नहीं लाते ? शास्त्रसंग्रह करनेकी प्रवृत्ति आप लोगोंमे क्यों नहीं जागृत होती। एक-एक महिलाकी पेटियोंमे वीस २ पञ्चीस २ साड़ियाँ निकलेंगी पर शास्त्रके नामपर २, रूपयेका शास्त्र भी उसकी पेटीमे नहीं होगा। हमारा पुरुषवर्ग भी अपनी शान शौकत या वैभव बतानेके लिये नाना प्रकारकी सामग्री इकट्ठी करता है पर मैने देखा है कि अच्छे अच्छे लखपतियोंके घर दश वीस रुपयके भी शास्त्र नहीं निकलते। क्या वात है ? इस ओर रुचि नहीं । यदि रुचि हो जाय तो जहाँ सालमे हजारों खचे करते हैं वहाँ सौ पचास रुपये खर्च करना कठिन नहीं । गृहस्थ लोग शास्त्र खरीद कर संग्रह करने लगें तो छपानेवाले अपने आप सामने ओ जावें। अस्तु, भैया | बुराई न मानना मेरे मनमें तो जो बात आती है वह कह देता हूँ पर मेरा अभिप्राय निर्मल है मैं कभी किसी जीवका अहित नहीं चाहता। बस्वासागरसे प्रस्थान ज्येष्ठ शुक्ला ११ मं० २००८ के दिन श्री सि. धन्यकुमारजी कटनीवाले आये । बहुत ही महदय मनुष्य हैं ३ घण्टा रहे । प्राप विचार प्रौढ़ और गम्भीर हैं। श्रापका कहना है कटनी पाकर रहिये। जबलपुरकी व्यवस्था भी पारने श्रवण कराई। मैन कसा अभी फटनी तो बहुत दूर है। यह सुनकर चुप रह गये। मुझे अन्तराम Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुआसागरसे प्रस्थान २६७ लगा कि यदि कल्याणकी अभिलाषा है तो इन संसर्गोको त्यागो। जितना संसर्ग बाह्यमें अधिक होगा उतना ही कल्याण मार्गका विरोध होगा। कल्याण केवल आत्मपर्यायमें है जो परके निमित्तसे भाव होते हैं वे सब स्वतत्व परिणतिकी निर्मलतामें वाधक हैं। निर्मलता वह वस्तु है जहाँ परकी अपेक्षा नहीं रहती। यद्यपि जायक सामान्यकी अपेक्षा सर्वदा आत्माकी स्वभावसे अवस्थिति है परन्तु अनादिकालसे आत्मा और मिथ्यात्वका संसर्ग चला आ रहा है इससे कर्मजन्य जो मिथ्यात्वादि भाव हैं उनको निज मानता है, उन्हींका अनुभव करता है अर्थात् उन्हीं भावोंका कर्ता बनता है। ज्ञानमे जो ज्ञेय आते हैं उन रूप परिणति कर उनका कर्ता बनता है। जिस कालमें मिथ्यात्व प्रकृतिका अभाव हो जाता हे उस कालमे आपको आप मानता है उस कालमें ज्ञानपे जो ज्ञेय आते हैं उन्हे जानता है परन्तु ज्ञेयके निमित्तसे ज्ञानमें जो ज्ञेयाकार परिणमन होता है उसे ज्ञेयका न मान ज्ञानका ही परिणमन मानता है, यही विशेषता अज्ञानीकी अपेक्षा ज्ञानीके हो जाती है । ज्येष्ठ शुक्ला १२ सं० २००८ के शास्त्र प्रवचनके समय चित्तमे कुछ क्षोभ हो गया । क्षोभका कारण यही था कि आजकल मनुष्य जैनधर्मकी प्रक्रियाको जाननेका प्रयास नहीं करते । जैनधर्मकी प्रक्रिया इतनी स्वाभाविक है कि इसका अनुसरणकर जीव ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकारके सुखोंसे वञ्चित न हों। देखिये-जैनधर्ममे यह कहा है कि संसारमे जितने पदार्थ हैं वे सव भिन्न-भिन्न सत्ताको लिये हए हैं अत. जब दूसरा पदार्थ हमारा है नहीं तब उसमे हमारा ममत्व परिणाम न होगा। ममता परिणाम ही वन्धका जनक है, यदि पर पदार्थमे निजत्व कल्पना न हो तो हिंसा असत्य चोरी व्यभिचार परिग्रह आदि भाव स्वयमेव विलय जावें। हम दूसरे पदार्थको तुच्छ देखते हैं, उससे घृणा करते हैं। इसका मूल कारण यही है Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन था २६८ कि हमने अपने स्त्ररूपको नहीं जाना । परमार्थसे कोई पदार्थ न तो बुरा है और न अच्छा है हम अपनी रुचिके अनुसार ही उनके विभाग करते हैं । जैसे देखो जिस मलको धोकर हम मृत्तिकासे हस्त प्रक्षालन करते हैं । शूकर उसी मलको बड़े प्रेमसे खा जाता हैं । क्या वह जीव नहीं है ? है, परन्तु उस पर्याय में इतना विवेक नहीं कि वह उसे त्यागे । वही जीव यदि चाहे तो उत्तम गतिका भी पात्र हो सकता है। ऐसी कथा आई हैं कि एक सिंह मुनिको मारने के अर्थ चला और शूकरने मुनि रक्षाके लिये सिंहका सामना किया, दोनो मर गये, शूकर स्वर्ग और सिंह नरक गया । यथार्थमें शान्तिका मार्ग कहीं नहीं आपमें ही है । आपसे तात्पर्य आत्मासे है । जो हम परसे शान्ति चाहते हैं यही महती अज्ञानता है क्योंकि यह सिद्धान्त है कि कोई द्रव्य किस द्रव्यमें नवीन गुण उत्पन्न नहीं कर सकता । पदार्थों की उत्पत्ति उपादन कारण और सहकारी कारणों से होती है उपादान एक और सहकारी अनेक होते हैं। जैसे घटकी उत्पत्ति में उपादान कारण मृत्तिका और सहकारी कारण दण्ड चक्र चीवर कुलालादि हैं। यद्यपि घट की उत्पत्ति मृत्तिकामें ही होती है अतः मृत्तिका ही उसका उपादान कारण है फिर भी कुलालादि कारण कूटके अभाव में घट रूप पर्याय मृत्तिकामें नहीं देखी जाती अतः ये कुलालादि घटोत्पत्ति में सहकारी कारण मान जाते हैं इसीलिये प्राचीन आचार्योंने जहाँ कारणके स्वरूपका निर्वचन किया है वहाँ 'सामग्री निका कार्यस्य नैकं कारणं' अर्थात् सामग्री ही कार्यकी जनक है एक कारण नहीं यही तो लिखा है । अतः इस विषय में कुतर्क करना विद्वानों को उचित नहीं । यहाँ पर मुख्य- गौणन्यायकी आवश्य कता नहीं । वस्तु स्वरूप जानने की आवश्यकता है 'अन्वय व्यतिरेकगम्यो हि कार्यकारणभावः' अर्थात् कार्यकारणभाव Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुपासागरसे प्रस्थान २६६ अन्वय और व्यतिरेक दोनोंसे जाना जाता है अतः दोनों ही मुख्य हैं। जब उपादानकी अपेक्षा कथन करते हैं तब घटका उपादान मिट्टी है और निमित्तकी अपेक्षा निरूपण किया जावे तो कुलालादि कारण हैं। यदि इस प्रक्रियाको स्वीकार न करोगे तो कदापि कार्यकी सत्ता न बनेगी। इस विषयमे वाद विवाद कर मस्तिष्कको उन्मत्त बनाने की पद्धति है। इसी प्रकार जो भी कार्य हों उनके उपादन और निमित्त देखो, व्यर्थके विवादमे न पड़ो। निमित्तमे ही यह प्राणी न उलझ जाय कुछ मूल तत्त्वकी ओर भी दृष्टि करे इस भावनासे प्रेरित हो कर कह दिया जाता है कि सिद्धि उपादानसे होती है। जब तक उपादान की ओर दृष्टि पात न होगा तब तक केवल निमित्तोंमें उलझे रहनेसे काम नहीं होता। और जब कोई उपादानको ही सब कुछ समझ प्राप्त निमित्तका उपयोग करनेमे अकर्मण्य हो जाता है तब निमित्तकी प्रधानतासे कथन होता है और कहा जाता है कि बिना निमित्त जुटाए कार्य नहीं होता। __ आकाशमें काली काली धनावली आच्छादित होने लगी तथा जब कभी जल वृष्टि होनेसे ग्रीष्मकी भयकरता कम हो गई इसलिये बरुआसागरसे प्रस्थान करने का निश्चय किया। आषाढ़ शुक्ल १० सं० २०.८ के दिन मध्यान्हकी सामायिकके बाद ज्यों ही प्रस्थान करने को उद्यत हुआ कि बहुतसे स्त्री पुरुष आ गये और स्नेहके आधीन संसारमें जो होता आया है करने लगे। सबकी इच्छा थी कि यहाँ पर चातुर्मास्य हो पर मैं एक बार ललितपुरका निश्चय कर चुका था इसलिये मैंने रुकना उचित नहीं समझा। लोगोंके अश्रुपात होने लगा तब मैंने कहा संसार एक विशाल कारागृह है। इसका संरक्षक कौन है ? यह दृष्टिगोचर तो नहीं फिर भी अन्तरङ्गसे सहज ही इसका पता चल Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा जाता है। वास्तवमें इसका संरक्षक मोह है। उसके दो मंत्री हैं एक राग और दूसरा द्वेष । उनके द्वारा आत्मामें क्रोध मान माया और लोभका प्रकोप होता है। क्रोधादिकोंके आवेगमें यह जीव नाना प्रकारके अनर्थ करता है। जब क्रोधका आवेग आता है तब परको नानाप्रकारके कष्ट देता है, स्वयं अनिष्ट करता है तथा परसे भी कराता है अथवा उसका स्वयं अनिष्ट होता हो तो हर्पका अनुभव करता है। यद्यपि परके अनिष्टसे इसका कुछ भी लाभ नहीं पर क्या करे ? लाचार है। यदि परका पुण्योदय हो और उसके अभिप्रायके अनुकूल उसका कुछ भी वांका न हो तो यह दाहमे दुःखी होता रहता है। यहाँतक देखा गया है कि अभिप्रायके अनुकूल कार्य न होने पर मरण तक कर लेता है। मानके उदयमें यह इच्छा होती है कि पर मेरी प्रतिष्ठा करे, मुझे उच्च माने। अपनी प्रतिष्ठाके लिए यह दूसरेके विद्यमान गुणीको आच्छादित करता है और अपने अविद्यमान गुणोंको प्रगट करता है। परकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करता है। मानके लिए बहुत कष्टसे उपार्जन किये हुये धनको व्यय करनेमे संकोच नहीं करता । यदि मानकी रक्षा नहीं हुई तो वहुत दुःखी होता है । अपघात तक कर लेने में संकोच नहीं करता। यदि कोईने जैसी आपने इच्छा की थी वैसा हो मान लिया तो फूलकर कुप्पा होजाता है। कहता है हमारा मान रह गया। पर मूर्ख यह विचार नहीं करता कि हमारा मान नष्ट होगया । यदि नष्ट न होता तो वह भाव सर्वदा बना रहता । उसके जानेसे ही तो आनन्द आया परन्तु विपरीत श्रद्धामें यह मानता है कि मानकी रक्षासे आनन्द आगया। __एवं माया कषाय भी जीवको इतने प्रपञ्चोंमें फंसा देती है कि मनमे तो और है, बचनसे कुछ कहता है और कायके द्वारा अन्य ही करता है । मायाचारी आदमीके द्वारा महान महान अनर्थ होत Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरुआसागरसे प्रस्थान २७१ हैं। मायावी आदमी ऊपरसे तो सरल दीखता है और भीतर अत्यन्त वक्र परिणामी होता है। जैसे बगुला ऊपर तो शनैः शनैः पैरों द्वारा गमन करता है और भीतरसे जहाँ मछलीकी आहट सुनी वहीं उसे चोंचसे पकड़ लेता है। मायाचारके वशीभूत होकर जो न करे सो अल्प है । इसी तरह लोभके वशीभूत होनेसे संसारमे जो जो अनर्थ होते हैं वे किसीसे अविदित नहीं। आज सहस्रावधि मनुज्योंका संहार हो रहा है वह लोभकी ही बदौलत तो है । आज एक राज्य दूसरेको हड़पना चाहता है। वर्षोंसे शान्ति परिषद् हो रही हे लाखों रुपया वर्वाद हो गये परन्तु टससे मस नहीं हुआ। शतशः नीतिके विद्वानोंने गंभीर विचार किये । अन्तमें परिग्रही मनुष्योने एक भी विपय निर्णीत न होने दिया-लोभ कषायकी प्रबलता कुछ नहीं होने देती। सव ही मिल जावें परन्तु जब तक अन्तरङ्गमे लोभ विद्यमान है तब तक एक भी वात तय न होगी। राजाओंसे प्रजाका पिण्ड छुड़ाया परन्तु अधिकारी वर्ग ऐसा मिला कि उनसे वदतर दशा मनुष्योंकी हो गई। यह सब लोभकी महिमा है, लोभकी महिमा अपरम्पार है अतः जहाँ तक बने लोभको कृश करो। क्रोध मान माया लोभ ये चार कपाय ही आत्माके सबसे प्रबल शत्रु हैं। इनसे पिण्ड छुड़ानेका प्रयत्न करो। हमें यहाँ रोककर क्या करोगे। ३ माह रोकनेसे तो यह दशा हो गई कि नेत्रोंसे अश्रपात होने लगा अब चार माह और रोकोगे तो क्या होगा। स्नेह दुःखका कारण है अतः उसे दूर करनेका प्रयास करो। इतना कह कर हम चल पड़े लोग बहुत दूर तक भेजने आये। आज वरुवासागरसे चल कर नदी पर विनाम किया। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितपुरकी ओर सूर्यकी सायंकालीन सुनहली किरणोंसे अनुरञ्जित हरी भरी झाड़ियोंसे सुशोभित वेत्रवतीका तट बड़ा रम्य मालूम होता था। सन्ध्याकालीन सामायिकके वाद रात्रिको यहीं विश्राम किया, यहाँ पर जो मुन्शी रहता है वह योग्य है दूसरे दिन प्रातः ८ बजे बाद नौका चली ६ के बाद नदीके उस पार पहुँच सके । मल्लाह बड़े परिश्रमसे कार्य करते हैं मिलता भी उन्हें अच्छा है परन्तु मद्यपानमें सव साफ कर देते हैं। कितने ही मल्लाह तो दो दो रुपये तककी मदिरा पी जाते है अतः इनके पास द्रव्यका संचय नहीं हो पाता । यद्यपि राष्ट्रपति तथा प्रधान मन्त्री आदि इनकी उन्नतिमें प्रयत्नशील हैं परन्तु इनका वास्तविक उद्धार कैसे हो इस पर दृष्टि नहीं। जो लोग वर्तमानमें श्रेष्ठ हैं उनसे कहते हैं कि इनके प्रति घृणा न करो परन्तु जब तक इन लोगोंमें मद्य मांसका प्रचार है तब तक न तो लोग इनके साथ समानताका व्यवहार करेंगे और • न इनका उत्कर्ष होगा। देशके नेता केवल पत्रोंमें लेख न लिख कर या बड़े बड़े शहरोंमें भाषण न देकर इन गरीवोंकी टोलियोंमें आकर वैठे तथा इन्हे इनके हितका मार्ग दिखलावें तो ये सहज ही सुश्य पर आ सकते हैं। स्वभावके सरल हैं परन्तु अज्ञानके कारण अपना उत्कर्प नहीं कर सकते। __राज्यकी ओरसे मद्यविक्री रोकी जावे, गांजा चरस आदिका विरोध किया जावे। राज्य सरकार भी.तभी रोक सकती है जब वह इनके कारण होनेवाली आयसे अपनी इच्छा घटा ले । उनसे करोडों रुपयेकी आय सरकारको होती है परन्तु इनके सेवनसे होनेवाले Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ ललितपुरकी पोर रोगोंको दूर करनेके लिये अस्पतालोंमे भी करोड़ों रुपये व्यय करना पड़ते हैं । राज्य चाहे तो सब कर सकता है क्यों कि उसके पास सत्ताका बल है । अथवा सत्ताका वल ही सर्वोपरि वल नहीं है । आज राजकीय अनेक कानूनोंका प्रतिबन्ध होने पर भी लोग अन्याय करते हैं। उसका करण यही है कि राजकीय कानूनोसे लोगोंका हृदय आतंक युक्त तो होता है पर उस पाप से घृणा नहीं होती । राजके जो अधिकारी वर्ग हैं वे भी स्वयं इन पापोंमे प्रवृत्ति करते हैं। कीमतीसे कीमती मदिरा इन्हीं के उपयोगमे आती है । सिगरेट पीना तो आजकी सभ्यताका नमूना हो गया है । जैसे अधिकारियोंसे लोगोंके हृदय नहीं बदलते बल्कि उस पापके करनेके लिये अनेक प्रकारकी छल क्षुद्रताएं लोग करने लगते हैं। कहीं-कहीं तो यहाँतक देखा गया है कि अध्यापक लोग कक्षाओंमे बैठकर सुकुमारमति बालकोंके समक्ष सिगरेट या बीड़ी का सेवन करते हैं । इसका क्या प्रभाव उन बालकोंपर पड़ता होगा यह वे जाने । अस्तु, आषाढ़ कृष्णा १२ सं० २००८ को झाँसी पहुँच गये तथा सेठ मक्खनलालजीके यहाँ ठहर गये । मन्दिरमे प्रवचन हुआ । मनुष्यसंख्या पर्याप्त थी । धर्मश्रवणकी इच्छा सबको रहती है - सब मनोयोग पूर्वक सुनते भी हैं परन्तु उपदेश कर्तव्य पथमे नहीं आता । इसका मूल कारण वक्तामे आभ्यन्तर आर्द्रता नहीं है । गरजनेवाले मेघ और निरर्थक उपदेश देनेवाले वक्ता सर्वत्र सुलभ हैं। ये वृथा ही सामने आ जाते हैं परन्तु जिनका अन्तरङ्ग आ है तथा जो जगत् का उद्धार करना चाहते हैं ऐसे मेघ तथा उपदेशक नर दुर्लभ हैं। यदि वक्ता चाहता है कि हमारे वचनोंका प्रभाव लोगों पर पड़े तो उस कार्यको उसे स्वयं करना चाहिये । मुनिधर्मी दीक्षा मुनि ही दे सकते हैं तथा जिस पद्धतिसे मुनि १८ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ मेरी जीवन गाथा धर्मका निरूपण मुनि करनेमें समर्थ होते हैं विद्वान् अविरति सम्यग्दृष्टि उस पद्धतिसे निरूपण नहीं कर सकते। आजकल सिद्धान्त के ज्ञाता तो वहुत हो गये हैं परन्तु उसपर आचरण नहीं करते। इससे उनके उपदेशका कोई प्रभाव नहीं होता । पदार्थका ज्ञान होना अन्य बात है और उस पदार्थरूप हो जाना अन्य वात है। हम अपनी कथा कहते हैं-जितनी कथा कहते हैं उसका शतांश भी पालन नहीं करते। यही कारण है कि शान्तिके स्वादसे वञ्चित हैं। शान्तिका आना कोई कठिन नहीं । आज शान्ति आ सकती है परन्तु शान्तिके बाधक जो रागादि दोष हैं उनको हम त्यागते नहीं। रागादिकके जो उत्पादक निमित्त हैं सिर्फ उन्हें त्यागते हैं परन्तु उनके त्यागसे रागादिक नहीं जाते। उनका अभाव तो उनकी उपेक्षासे ही हो सकता है। त्रयोदशीको प्रात काल चलनेका विचार था परन्तु मूसलाधार वर्षा होनेसे चल नहीं सके । ११ बजेतक वर्षा शान्त नहीं हुई । ऐसा दिखने लगा कि अब ललितपुर पहुंचनेमे विघ्न आ रहा है परन्तु मध्याह्नके बाद आकाश स्वच्छ होगया जिससे १ वजे झाँसीसे निकल घर ४ वजे विजौली पहुंच गये । स्थान रम्य था । एक स्कूलमे ठहर गये । यह स्थान सदर (झाँसी) से ६ मील दूर है। बीचमें ४ मीलपर एक डेयरीफार्म दिखा। महिपी और गायोंकी स्वच्छता देख चित्त प्रसन्नतासे भर गया। दूसरे दिन विजौलीसे २ मील चल कर १ उपवनमें निवास किया। शौचादिसे निवृत्त हो पाठ किया तदनन्तर सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थका प्रवचन किया। उपवनका शान्तिमय वातावरण देख चित्तमे बहुत प्रसन्नता हुई और हृदयमें विहारके निम्नांकित लाभ अनुभवमें आये । विहारमे अनेक गुण हैं। प्रथम तो एक स्थान पर रहनेसे प्राणियोंके साथ जो स्नेह होता है वह नहीं होता तथा देशाटन Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितपुरकी श्रोर २०५ करनेसे अनेक मनुष्यों के साथ धर्मचर्चा करनेका अवसर आता है | अनेक देशोंके वन उपवन नदी नाले आदि देखनेका सुअवसर प्राप्त होता है, शरीरके अवयवोंमे संचलन होनेसे क्षुधा आदिकी शक्ति क्षीण नहीं हो पाती, अन्नका परिपाक ठीक होता रहता है, आलस्यादि दुर्गुणों से आत्मा सुरक्षित रहती है, अनेक तीर्थ क्षेत्रादि के दर्शनका अवसर मिलता है, किसी दिन अनुकूल स्थानादि न मिलने से परीषह सहन करनेकी शक्ति आजाती है, कभी दुर्जन मनुष्योंके समागमसे क्रोधादि कषायके कारणोंके सद्भावमें क्षमाका भी परिचय हो जाता है । इत्यादि अनेक लाभोंकी विहार में सम्भावना है । यह स्थान झाँसी के सुन्दरलाल सेठका है । २०००) वार्षिक व्यय है । उपवनमे आम्रादिके वृक्ष हैं। उनसे विशेष आय नहीं । यह रुपया यदि विद्यादान में खर्च किया जाता तो ग्रामीण जनताको बहुत लाभ होता परन्तु लोगोंकी दृष्टि इस ओर नहीं । आज भारतवर्ष अपनी पूर्व गुण- गरिमासे गिर गया है । जहाँ देखो वहाँ पैसेकी पकड़ है । पश्चिमी देशकी सभ्यताको अपनाकर लोगोंने अपने व्यय मार्ग बहुत विस्तृत कर लिये हैं इसीलिए रात-दिन व्ययकी पूर्तिमें ही इन्हे संलग्न रहना पड़ता है । पश्चिमी सभ्यतामे केवल विषय पोषक कार्योंको भारतने अपनाया है । जहाँ प्रथमावस्थामें मद्य मांस मधुका त्याग कराया जाता था वहाँ अब तीनों अमृतरूपमें माने जाने लगे हैं । इनके बिना गृहस्थोंका निर्वाह नहीं होता | थोड़े दिन पहले कोई साबुनका स्पर्श नहीं करता था पर आज उसके बिना किसीका निर्वाह नहीं । अंग्रेजों जो गुण थे उन्हें भारतने नहीं अपनाया । वह समयका दुरुपयोग नहीं करते थे, उन्होंने भारतवर्षकी महिलाओंके साथ सम्बन्ध नहीं किया। प्राचीन वस्तुओंकी रक्षा की, विद्यासे प्रेम बढ़ाया, स्वच्छताको प्रधानता दी इत्यादि । मुसलमानोमें भी बहुतसे गुण हैं । जैसे एक वादशाह 1 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ मेरी जीवन गाथा भी अपनी जातिके अदना आदमीके साथ भोजनादि करनेमें संकोच नहीं करता । यदि किसीके पास १ रोटी हो और १० मुसलमान आ जावें तो यह एक एक टुकड़ा खाकर संतोप कर लेंगे। नमाजके समय कहीं भी हों वहींपर नमाज पढ़ लेंगे, परस्परमे मैत्री भावना रक्खेंगे, एक दूसरेको अपनाना जानते हैं इत्यादि। परन्तु हमारे देशके लोग किसीसे गुण ग्रहण न कर अधिकांश उसके दोप ही ग्रहण करते हैं। बागसे चल कर ववीना ग्राममे आ गये। यहाँ पर २५ घर जैनियोंके हैं। ५ स्थानो पर दर्शन हैं। दूसरे दिन ३ बजे जब यहाँसे चलने लगे तव ५० मनुष्य और ५० महिलाएँ आ गई। कुछ उपदेश हुआ। पाठशालाके लिये ४०) मासिकका चन्दा हो गया। यहाँ १ मनुष्यको पञ्चायतने १२ माससे जाति च्युत कर दिया था। उसने जो अपराध किया था उसकी क्षमा माँगी। लोगोंने ज्ञमा दी । यदि इतनी नम्रता पहले ही व्यवहारमें लाता तो इतना परेशान क्यों होता परन्तु कपायका वेग भी कुछ चीज है। ववीनासे ४ मील चलकर घिसोली आये, यहाँपर सड़कके किनारे एक जैन मन्दिर है । उसीकी दहलानमे ठहर गये । मन्दिरमे भगवान के दर्शन किये। यहाँपर काई जैनी नहीं रहता । इस ग्राममे ठाकुर (क्षत्रिय ) लोग रहते हैं। उनका दवदवा है अतः कोई रहना नहीं चाहता। फिर वैश्य जाति स्वभावसे भीरु है। यह द्रव्य उपार्जन करना जानते हैं परन्तु अन्य गुणोंसे भयभीत रहते हैं। लोभक वशीभूत हो श्रात्मीय प्रतिष्टासे च्युत रहते हैं। यह दान करनेमें शूर हैं परन्तु मर्वोपयोगी कार्यों में व्यय नहीं करेंगे। यही कारण है कि सामान्य जनता आकर्पित नहीं कर पाते । व्यापार इनकी श्रायका साधारण निमिन है कृपि करनेको हेय मानते हैं। यद्यपि वैश्यका कृषिकर्म आगम विहित है परन्तु उसे हिंसाका कार्य बनाकर दयाका पालन करते हैं Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितपुरकी ओर २७७ परन्तु ऐसे ऐसे व्यापार करेंगे जिनमे हजारों मन चर्वीका उपयोग होता है, उससे नहीं ढरते । अस्तु, संसार स्वार्थी है । यहाँ से चलकर पुलिस चौकी के समीप एक कूप था वहींपर ठहर गये । ववीना से एक चौका आया था उसीमे निरन्तराय आहार हुआ । यहाँ २ फलांगपर वेत्रवती नदी है । घाट अकृत्रिम है । उस पार जानेको २ नौकायें रहती हैं, बिना किरायेके पार उतार देते हैं । बीचमे पत्थरोंकी चट्टानें हैं, नौका बड़ी सावधानीसे ले जाते हैं, ३ घण्टा नदी पार करने लगता है, पहाड़ी नदी है, पानी अत्यन्त निर्मल है, स्थान धर्मध्यानके अनुकूल है । प्रातः ५३ नदीके घाटसे चल कर ७३ वजे कडेसरा पहुँच गये । यहाँ १० घर गोलालारे जैनोंके हैं । मन्दिरके पास हम लोग ठहर गये । यहाँ से पत्राक्षेत्र २३ मील है। ग्रामीण जनता में धर्मका प्रचार हो सकता है परन्तु प्रचारक हों तव वात बने । अगले दिन कडेसरासे चलकर पवाक्षेत्र में आये । यहाँ पर पृथिवीके १० फुट नीचे जिन मन्दिर है जिसमें काले पत्थरकी ४ मूर्तियाँ हैं । १ मूर्ति आदिनाथ स्वामी, १ पार्श्वनाथ भगवान् की तथा १ नेमीनाथ भगवान् की है। सभी प्रतिमाएँ अतिमनोज्ञ चमकदार काले पत्थर की हैं | आदिनाथ भगवान् की मूर्ति वि० सं० १३४५ में भट्टारक शुभकीर्तिदेवके द्वारा प्रतिष्ठापित है । यहाँ पर १ नया मन्दिर नयेगाँवकी सिंधेनने बनवाया है । उसमे १ वेदिका संगमर्मरकी है तथा उस वेदिका पर सुवर्णका चित्राम हो रहा है। मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ है । मन्दिर में संगमर्मरका पत्थर लग जानेसे बहुत ही सुन्दरता आ गई है । मन्दिरके चारों तरफ एक प्राकार है । पूर्व दिशामे १ महान् द्वार है । उसके बगलमें १ बंगला बना हुआ है । पूर्व दिशामें यात्रियोंके निवासके लिये दरवाजेके दोनों ओर कोठा बने हुए हैं। पूर्व प्रवेशद्वारसे थोड़ी दूर पर १ बड़ा कूप है जिसका Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ मेरी जीवन गाथा जल अतिशय मधुर है। मन्दिरके चारों ओर रमणीय अटवी है। उत्तरकी ओर पवा ग्राम है जहाँ ७ घर जैनियोंके हैं। यह स्थान यदि श्रावक घरसे उदासीन हो, परिग्रह की मूर्छा न हो और स्वतन्त्र भोजन बना सकता हो तो रह कर धर्मसाधन करनेके योग्य है। विद्याध्ययनके उपयुक्त भी है परन्तु वर्तमान जैन जनताकी इस ओर दृष्टि नहीं । दृष्ठि जाती भी है तो लौकिक शिक्षाकी ओर ही जाती है, उसका कारण लौकिक शिक्षामे अर्थ प्राप्तिका विशेप सम्बन्ध है किन्तु जिस शिक्षासे पारमार्थिक हित होता है उस ओर ध्यान नहीं और न हो भी सकता है। प्रत्यक्ष सुखके साधन धनकी प्राप्ति जिसमे हो उसे छोड़ लोग अन्य साधनामे अपनेको नहीं लगाना चाहते। इसका कारण अनादि कालसे आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाके जालमे इतने उलझे हैं कि उससे निकलना कफमें उलझी मक्खीके सहश कठिन है। जिसका महाभाग्य हो वही इस जालसे अपनी रक्षा कर सकता है। यह जाल अन्य द्वारा नहीं बनाया गया है किन्तु हमने स्वयं इसका सृजन किया है। प्रातःकाल प्रवचन हुआ। २५ मनुष्य थे। इस पवा क्षेत्र पर उपयोग निर्मल रहता है। दूसरे दिन यहांसे प्रातःकाल ५३ बजे चल कर पुनः कड़ेसरा आगये और अपरान्ह समय यहांसे ४ मील चल कर तालबेहट आगये तथा मन्दिरकी धर्मशालामें ठहर गये । प्रातःकाल मन्दिरजीमे जिनदेवका दर्शन किया। स्वच्छ स्थान था। चित्त प्रसन्न हुआ। यहाँ पर खेतसिंहजी मिठया बहुत सज्जन हैं, धनी भी है तथा पुत्रादिसे संपन्न हैं। यहाँ एक रामस्वरूप योगी सस्कृतके अच्छे विद्वान हैं, साहित्यके प्राचार्य हैं। आप योगी हैं अतः ब्राह्मण लोग उनसे यह प्रेम नहीं रखतं जा Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितपुरकी और २७६ सजातीय ब्राह्मणसे रखते हैं। आप हाईस्कूलमे संस्कृत अध्यापक हैं। १२०) मासिक मिलता है। एक संस्कृत पाठशाला प्राइवेट चलाते हैं। उसमें कई हरिजनोंको विशारद मध्यमा तक परीक्षा उत्तीर्ण करा चुके हैं। आपका यह सब काम उच्चवर्णवालोंको अप्रिय प्रतीत होता है। न जाने लोगोंने इतनी संकीर्णता क्यों अपनाई है ? विद्या किसी व्यक्ति विशेषकी नहीं, फिर भी इतनी संकीर्णता क्यों ? यह सव मोहका कार्य है, मोहमे ही यह भाव होता है कि हम ही उच्च कहलावें, चाहे कितना ही नीच कार्य क्यों न करें ? अन्य ऋषियोंने तो यहाँ तक लिख दिया है कि 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयेयाताम्' अर्थात् स्त्री और शूद्रको नहीं पढ़ाना चाहिये । यह अन्याय नहीं तो क्या ? न जानें इन मनुष्योंने कितने प्रतिबन्ध लगा रक्खे हैं ? अन्य कथा छोड़ो, यहाँ तक आज्ञा दे डाली कि एकान्तमे अपनी माँसे भी मत बोलो। मा यह उपलक्षण है अतः स्त्रीमात्रका ग्रहण है। वास्तविक बात यह है कि परिणामोंकी मलिनता जैसे जैसे वृद्धिको प्राप्त होती गई वैसे वैसे यह सर्व नियम बनते गये। तालबेहटमें तालाब बहुत सुन्दर है, तालाबके जलसे एक प्रपात पड़ता है जो बहुत ही मनोहर है, एक छोटी पहाड़ी भी पासमे हैं। अपाढ़ शुक्ला ६ सं० २००२ को यहाँसे चल कर बीचमें जमालपुर ठहरते हुए बाँसी आगये। यह बड़ा कसवा है। ३००० के करीव मनुष्य संख्या होगी। यहाँ २ घर गोलालारे जैनोके हैं जिनमे १ घर सम्पन्न है। २ घर विनेकावाल जैनोंके भी हैं । २ मन्दिर विशाल हैं। इस समय ऐसे मन्दिर बनवानेमें लाख रुपयेसे कम नहीं लगेगा। एक मन्दिरकी शिखर जीर्ण है। उसकी मरम्मतके लिये एक जैनी भाईने १००) तथा ५ बोरी सीमेंट दी और भी कई लोगोंने यथाशक्य दिये। २१) सिं० कुन्दनलालजी सागरवालोंने दिये। यह ग्राम किसी समय सम्पन्न रहा होगा । यहाँकी Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० मेरी जीवन गाया जैनेतर जनता भी आई। उसके समक्ष मैंने सुझाव रक्खा कि यहाँ १ मिडिल स्कूल हो जावे तो अति उत्तम होगा। लोगोके मनमें आगई। श्री शिवप्रसाद भट्ट, गोकुलदास तमोली तथा केशवदास दुवे आदिने प्रयत्न किया । हमने कहा-यदि यहाँ मिडिल स्कूल हो जावे तो हम सागरसे सिंघई कुन्दनलालजी द्वारा १०१) भिजवा देवेंगे। लोगोने बताया कि सरकारने आदेश दिया है कि यदि प्रामके लोग १७००) एकत्रित कर लेवें तो यहाँ सरकार मिडिल स्कूल स्थापित कर देवेगा। जनता प्रयत्नशील है अतः आशा है १७००) कोई बड़ी बात नहीं। यहाँसे वीचमें देवरान ठहरते हुए ललितपुरके निकट एक ग्राममें पहुंच गये। यहाँ पर १ चैत्यालय तथा ३ घर जैनियोंके हैं। ३ घर होते हुए भी इन्होंने आथित्यसत्कार अच्छा किया। यहाँ ललितपुरसे करीब २०० पुरुष आगये। आज यहाँ विश्राम करनेकी इच्छा थी पर लोगोके आग्रहसे विश्राम नहीं कर सका। ४ वजे यहाँसे चल दिया। यद्यपि घामका पूर्व प्रकोप था परन्तु समुदायमें परस्पर वार्तालाप करते सुए १३ मील चलकर वृक्षोंकी सघन छायामें बैठ गये। तदनन्तर वहाँसे चलकर ६ बजे ललितपुर पहुँच गये। ललितपुरमें प्रवेश नहीं कर पाये थे कि स्त्रियों और पुरुषोकी बहुत भारी भीड़ एकत्रित हो गई। जाकर बड़े मन्दिरकी धर्मशालामे ठहर गये। यहाँपर धर्मशालाका विशाल चौक स्त्री और पुरुषों द्वारा पहलेसे ही भर गया था। पं० परमेष्ठीदासजीने व्याख्यान देकर शिष्टाचार पूर्वक वर्णीको योगी बना दिया। इस प्रकार आपाढ़ शुक्ला १२ सं० २००८ को संध्या समय ललितापुरमें आकर चार माहके लिये भ्रमण सम्बन्धी खेदसे मुक्त हो गये । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रपाल में चातुर्मास आषाढ़ शुक्ला १३ सं० २००८ को प्रातःकाल ७२३ बजेसे ८१ बजेतक मन्दिरके चौकमें प्रवचन हुआ । प्रथम श्री पं० लक्ष्मीचन्द्रजी का प्रवचन हुआ । फिर ध्वनि विस्तारक यन्त्रके आनेसे घंटा मेरा प्रवचन हुआ । जनता अच्छी थी । ५०० के ऊपर स्त्री पुरुष थे । प्रायः सबने मनोयोग लगाकर प्रवचन सुना । ४ आदमियोंने ४ मासतक ब्रह्मचर्यका नियम लिया । अष्टमी चतुर्दशी अष्टाह्निका पर्व में तो प्राय सबने नियम लिया । सन्तोषसे सभा विसर्जित हुई । तदनन्तर श्री नये मन्दिरजीमे दर्शनार्थ गये । यहाँपर भी रम्य वेदिकाऐं हैं। उनमे विराजमान मनोज्ञ प्रतिमाओं के दर्शन किये । पश्चात् जहाँ शास्त्रप्रवचन होता है वहाँपर जनता बैठ गई । १५ मिनट तत्त्व चर्चा होती रही । पश्चात् भोजनके लिए गये । टड़ैयाके घर भोजन हुआ । दो भाई हैं, सुशील हैं, धर्म में रुचि है । यहाँ ४ बजे शाम को समारोह के साथ चलकर क्षेत्रपाल आगये । १००० के लगभग आदमी थे। पं श्यामलालजी और पं० परमेष्ठीदासजीका समयोचित भाषण हुआ। पश्चात् ५ मिनट मेरा भी भाषण हुआ, मेरा तो भाषणकर्ताओंसे सर्व प्रथम यही कहना है कि जो अभिप्राय है उसे ही व्यक्त करो । व्यक्ति प्रशंसासे कुछ लाभ नहीं, प्रत्युत हानि है । दूसरे दिन समयसारका स्वाध्याय किया । जनता प्रसन्न थी । सेठ अभिनन्दनकुमारजी टढैयाके यहाँ भोजन हुआ | कुछ त्यागधर्मका विचार हुआ । मध्यान्ह सामायिकके वाद परस्पर तत्त्वचर्चा करते रहे । ३ बजे प्रतिक्रमण किया 1 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ मेरी जीवन गाथा तथा कार्तिक सुदी प्रतिपदा तक ललितपुरमें रहनेका नियम किया। साथ ही यह भी नियम किया कि प्रातःकाल शास्त्र प्रवचनके बाद गल्पवादमे नहीं पड़ना, मध्यान्हकी सामायिकके वाद अध्ययनमें काल लगाना और रात्रिको प्रायः नहीं बोलना । प्रायः का अर्थ आवश्यकता पड़ने पर बोलनेकी छूट थी। यहाँ पर ५ बजे सब स्कूलोंके छात्र आये। उन्हें यहाँवाले भाइयोंने लाडू बाँटे । बालक प्रसन्न थे। १००० से ऊपर होंगे। यह अवसर सबके लिए मनोहर था-सब ही प्रसन्न चित्त थे। यदि ऐसे उत्सव जिनमें निज और परका भेद न हो, होते रहे तो नागरिक जनताका पारस्परिक सौहार्द बना रहे। क्षेत्रपाल ललितपुरका सर्वाधिक मनोरम स्थान है। एक अहातेके अन्दर भव्य मन्दिर है। श्री अभिनन्दन स्वामीकी मनोज्ञ प्रतिमाके दर्शन करनेसे चित्त आल्हादित हो उठता है। यह प्रतिमा यहाँ महोवासे लाई गई थी ऐसा सुना जाता है । मन्दिरोंके साथ एक धर्मशाला तथा एक विशाल वाग भी संलग्न है। यहाँ पहले संस्कृत पाठशाला चलती थी जो अब टूट चुकी है। यह स्थान शहरसे १ मील स्टेशनके करीव है। सामने हरा भरा पुष्कल मैदान पड़ा है। ललितपुर स्थान भी बुन्देलखण्ड प्रान्तका प्रमुख नगर है। जैनियोंके सात सौ आठ सौ घर हैं। प्रायः सम्पन्न हैं। श्री अतिशय क्षेत्र देवगढ़ तथा पपोराजीका रास्ता यहाँसे होने के कारण लोगोंका प्रायः आवागमन जारी रहता है। व्यापारका अच्छा स्थान है। लोगोंमें धर्म-कर्मकी रुचि भी अच्छी है। यही नहीं इस प्रान्तके सभी लोग सरल तथा संसारसे भीरु रहते हैं। श्री पं० श्यामलालजी न्याय-काव्यतीर्थ तथा पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ अच्छे विद्वान् हैं। श्री हुकमचन्द्रजी तन्मय बुखारिया और हरिप्रसादजी 'हरि' अच्छे कवि हैं। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रपाल में चातुर्मास २८३ इनकी कवितामें माधुर्य तथा ओज रहता है । केन्द्र स्थान होनेसे यहाँ · विद्वानोंका समागम होता रहता है । जनताके आग्रहवश बनारस से पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री भी आ गये । आप बहुत ही स्वच्छ तथा विचारक विद्वान् हैं। किसी कामको उठाते हैं तो उसके सम्पन्न करने कराने में अपने आपको तन्मय कर देते हैं। किसी प्रकारका दुर्भाव इनमें देखनेमे नहीं आया । प्रातःकालके प्रवचनमें शहरसे १ मील दूर होने पर भी अधिक संख्यामे जनता दौड़ी आती थी । हमारा भी उद्देश्य रहा कि जनताके हाथ कुछ तो भी लगे । इसी उद्देश्यसे सागारधर्मामृतका प्रवचन शुरू कराया । प्रवचन स्थानीय विद्वान् तथा अन्य श्रागन्तुक विद्वानो मेसे कोई विद्वान् करते थे और उसके बाद हम भी कुछ थोड़ा कह देते थे । स्त्री पुरुष दोनो ही श्रवणमे उपयोग लगाते थे । 1 सभी स्त्री-पुरुष आत्महित चाहते हैं परन्तु उस ओर लक्ष्य नहीं देते। केवल कथा कर या श्रवण कर आत्महित चाहते हैं । आत्महित क्या है यह कुछ कठिन नहीं परन्तु प्राप्त नहीं होता इसलिये कठिन भी है । अनादिसे यह जीव शरीरको निज मानता आता है । आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओंमे ही इस जीवका समग्र समय निकल जाता है । आत्महितकी ओर इसका लक्ष्य ही नहीं जाता । संज्ञाओंकी परिपाटीसे निकल जाना किसी विरले निकट भव्यका कार्य है । संसारके यावन्मात्र प्राणी आहारकी अभिलाप से संत्रस्त है । आहारके अर्थ ही उसके समस्त उपाय हैं । यदि आहार प्राप्तिकी आकाक्षा मुनिके हृदयमे न होती तो वन छोडकर शहरके दूषित वातवरणमे क्यों आते ? भय होने पर जीव भागनेकी इच्छा करते हैं । वृद्धावस्थासे शरीर जर्जर है । अनेक रोगोंकी असह्य वेदना भी उठा रहा है, फिर भी Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ मेरी जीवन गाथा इस जीवको भय लगा रहता है : कि मर न जाऊँ यह पर्याय छूट न जाय। मैथुन संज्ञामें विषय रमणकी उच्छा होती है। विषयेच्छासे जो अनर्थ होते हैं वे किसीसे गुप्त नहीं। यह विषय लिप्सा इतनी भयंकर है कि यदि इसकी पूर्ति न हो तो यह प्राणी मृत्यु तकका पात्र हो जाता है। इसका लोभी मनुष्य निन्द्यसे निन्द्य कार्य करनेमे भी सकोच नहीं करता। यहाँ तक देखा गया है कि पिताका सम्बन्ध साक्षात् पुत्रीसे होगया। उत्तमसे उत्तम राजपत्नी नीचोंके साथ संसर्ग करनेमें संकोच नहीं करती। जिसने इस संज्ञापर विजय प्राप्त करली वही महापुरुप है। वैसे तो सभी उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। परिग्रहकी संज्ञा भी इस जीव को उन्मत्त वना रही है। आज कल तो मनुष्य इसके पीछे पागल होकर पड़ा है। त्यागी, व्रती, विद्वान, अविद्वान जो देखो वही इसके पीछे चक्र लगा रहा है। सागारधमामृनके प्रारम्भमें ही पं० आशाधरजी ने सागारका लक्षण लिखते हुए कहा है कि जो उक्त चार संजारूपी बरसे आतुर हैं, जिम प्रकार ज्वराक्रान्त मनुष्य दुखी हो जाते हैं उसी प्रकार उन संज्ञानी के द्वारा जो दुखी होरहे हैं और इनसे दुःखी होनेके कारण जी निरन्तर स्वज्ञान-प्रात्मनानसे विमुख रहते हैं, उन 'मंगायों की चपेट से जो यह विचार भी नहीं कर पाते कि मेरा म्ब क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? और इमी कारण जो विपयोंम उन्मुप रहते हैं उन्हें ही सुखका कारण मान रात दिन उन पत्रित करनेमें लीन रहते हैं व सागार कहलाते हैं। इन मंगायोगदारण भी पं० श्राशाधरजी ने उसी श्लोकमे बता दिया है, "प्रनागरिता दोपोत्थ' अर्थात् 'प्रनादि कालीन मियानानरूपी नापमिलना हैं। जिस प्रकार चर यात पिन कफ उन दोगमं उत्पन उसी प्रकार चार संचारूपी ज्वर मिथ्याशनापी दोरी ? Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ क्षेत्रपालमें चातुर्मास हुआ है। परमार्थसे पं० आशाधरजी ने सागारका जो लक्षण दिखाया है वह गृहस्थोंमे पूर्ण रूपसे घटित हो रहा है । उन्होंने प्रथम श्लोकमे मोही-मिथ्यादृष्टि गृहस्थका लक्षण बतलाया है. और उसके अनन्तर दूसरे श्लोकमे सम्यग्दृष्टि गृहस्थका लक्षण बतलाया है। सम्यग्दर्शनके होनेसे जिसे आत्माका भान तो हो गया है परन्तु चारित्रमोहके उदयसे जो परिग्रह संज्ञाका परित्याग करनेमे समर्थ नहीं है और उसी कारण जो प्रायः विषयोंमे मूच्छित रहते हैं। मिथ्यादृष्टि गृहस्थ तो निरन्तर विपयोन्मुख रहते हैं पर सम्यग्दृष्टि गृहस्थ मिथ्यात्वरूपी तिमिरके दूर हो जानेसे इतना समझने लगता है कि विषय प्राप्ति हमारे जीवनका लक्ष्य नहीं परन्तु चारित्रमोहके उदयसे उनका त्याग नहीं कर पाता इस लिये प्रायः उनमे मूर्छित रहता है। देखो मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी महिमा । मिथ्यात्वके उदयमे तो यह मनुष्य विषयोंको ही सुखका कारण मान अहनिश उन्हींमे उन्मुख रहता है पर सम्यक्त्वके होनेपर इसकी दृष्टिमे यह बात आजाती है कि विषय सुखके कारण नहीं अतः उनमें उसकी मूर्छा पूर्ववत् नहीं रहती। पं० श्यामलालजीकी प्रवचन करनेकी शैली उत्तम है । अधिकाश सागरधर्मामृतका प्रवचन वही करते थे। ___ लोगोंके हृदयमे धर्मके प्रति श्रद्धा है परन्तु उन्होंने जो लीक पकड़ ली है या जिन कार्योंको उन्होंने धर्म मान रक्खा है उससे भिन्न कार्यमे वे अपना योग नहीं देना चाहते। उससे भिन्न वात सामने आने पर उन्हे रुचिकर नहीं होती। वर्तमानमे यथार्थ वात कहनेकी आवश्यकता है, क्योकि लोग जिन कार्योंमे धर्म मानते आ रहे हैं उनसे भिन्न कार्योंमे आवश्यकता होने पर भी पैसा व्यय नहीं करना चाहते । देखा गया है कि मन्दिरमे नवीन वेदिकाकी आवश्यकता नहीं फिर भी उसमे वेदी जड़वा देगें। उसमे Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ मेरी जीवन गाथा १००००) तक व्यय कर देवेंगे। पड़ोसमें जैनी आजीविका से रहित होगा, उसे १०) भी पूँजीको न देवेंगे। सिद्धचक्रविधानमे हजारों रुपया व्ययकर देवेंगे किन्तु १ छात्रको पढ़ाने मे १००) भी न देवेंगे । कल्याणककी आवश्यकता न होने पर ५००००) व्यय करनेमे विलम्ब न करेंगे । परन्तु ग्राममें बालकों को धर्मशिक्षा देनेके अर्थ १ अध्यापकको ५०) देनेमें इनका हृदय द्रवीभूत न होगा । देशमें लाखों मनुष्य अनके कष्टसे पीड़ित होने पर भी लोग विवाहादि कार्यों में लाखों रुपया वारूदकी तरह फूँक देनेमे संकोच न करेंगे परन्तु अन्न-वस्त्र विहीनोंकी रक्षामे ध्यान न देवेंगे । देवदर्शनादि करनेमे समय नहीं मिलता ऐसा वहाना कर देवेंगे परन्तु सिनेमा आदि देखने आँख भले ही खराब हो जावे इसकी परवाह न करेंगे । लोग शान्ति शान्ति चिल्लाते हैं और मैं भी निरन्तर उसीकी खोजमें रहता हूँ पर उसका पता नहीं चलता । परमार्थसे शान्ति तो तब वे जब कषायका कुछ भी उपद्रव न रहे । कषायातुर प्राणी निरन्तर पर निन्दाके श्रवणमे आनन्द मानता है । जिसे परकी निन्दा में प्रसन्नता होती है उसे आत्मनिन्दामें स्वयमेव विपाद होता है । जिसके निरन्तर हर्ष-विषाद रहते हों वह सम्यग्ज्ञानी कैसा ? यद्यपि आत्मा ज्ञान दर्शनका पिण्ड है फिर भी न जाने क्यों उसमे राग द्वेष होते हैं ? वस्तुत. इनका मूल कारण हमारा संकल्प है अर्थात् परमे निजत्व कल्पना है । यही कल्पना राग द्वेपका कारण है । जब परको निज मानोगे तब अनुकूलमें राग और प्रतिकूलमे द्वेष करना स्वाभाविक ही है । अतः स्त्ररूपमें लीन रहना उत्तम बात है । अपना उपयोग बाहर भ्रमाया तो फंसे । होलीके दिन लोग घरमें छिपे बैठे रहते हैं । कहते हैं कि यदि बाहर निकलेंगे तो लोग कपड़े रंग देंगे । इसी प्रकार विवेकी मनुष्य सोचता रहता है कि मैं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध विद्वानोंका समागम २८७ अपने घरमे-अपने स्वरूपमे लीन रहूँगा तो बचा रहूँगा, अन्यथा संसारके राग-रंगमें फँस जाऊँगा। जगमें होरी हो रही बाहर निकले कूर । जो घरमें बैठा रहे तो काहे लागे धूर ॥ विविध विद्वानोंका समागम ललितपुरकी समाजका निमन्त्रण पाकर पं० फूलचन्द्रजी बनारससे यहाँ आचुके थे यह 'मैं पहले लिख आया हूं। इनके सिवाय अन्यान्य विद्वानोंका समागम भी यहाँ होता रहा । विद्वानोंने अपने प्रवचनोंके द्वारा यहाँकी समाजको यथाशक्य लाभान्वित किया । श्रावण शुक्ल १ के दिन श्री पं० हीरालालजी शास्त्रीने प्रातःकाल प्रवचन करते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका विशद वर्णन किया। आपने सम्यग्ज्ञानको तराजू और सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्चारित्रको तराजूके दो पलड़े बताकर मोक्षमार्गका अच्छा विवेचन किया। आपकी वाचनाशेली उत्तम है। श्रोतागण प्रसन्न हुए। सम्यग्दर्शनका विवेचन करते हुए आपने खास बात यह बताई कि सम्यग्दृष्टि मूल कारण को पकड़ता है और मिथ्यादृष्टि बाह्य कारणोंमे उलझता है। सम्यग्दृष्टिकी प्रवृत्ति सिंहके समान है अर्थात् जिस प्रकार सिंह बन्दूककी ओर न झपट कर मारनेवालेकी ओर झपटता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि बाह्य कारणोंमे उलझ कर उनसे रागद्वेष नहीं करता किन्तु अन्तरङ्ग कारण जो कर्मोदय है उसकी ओर दृष्टि देता है। मिध्यादृष्टि की Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ मेरी जीवन गाया प्रवृत्ति कुक्कुरके समान है अर्थात् जिस प्रकार कुक्कुरको कोई लाठी मारे तो वह लाठीको चबाने लगता है। मारनेवालेसे कुछ नहीं कहता इसी प्रकार किसीके द्वारा इष्ट या अनिष्ट होने पर मिथ्यादृष्टि उस पर राग द्वेष करता है । उस इष्ट या अनिष्टका मूल कारण जो कर्मोदय है उस पर दृष्टि नहीं देता । श्रावण शुक्ल ४ सं० २००८ को पं० फूलचन्द्रजीका प्रवचन बहुत मनोहर हुआ | आपने कहा कि आत्माको संसारमें रखनेवाली यदि कोई वस्तु है तो पराधीनता है और ससारसे पार करनेवाली कोई वस्तु है तो स्वाधीनता है । हम स्वतन्त्र चैतन्य पुञ्ज आत्मद्रव्य हैं । हमारा आत्मद्रव्य अपने आपमे परिपूर्ण है । उसे परकी सहायताकी अपेक्षा नहीं है । फिर भी यह जीव अपनी शक्तिको न समझ पद पद पर पर द्रव्यके साहाय्यकी अपेक्षा करता है और सोचता है कि इसके विना हमारा काम नहीं चल सकता । यही इसकी पराधीनताहै । जिस समय परकी सहायताकी अपेक्षा छूट जावेगी उस दिन मुक्ति होने में देर न लगेगी । अविवेकी मनुष्य, स्त्री पुत्रादिकको अपना हितकारी समझकर उनमें राग करता हैं परन्तु विवेकी मनुष्य 'सममता है कि यह स्त्री पुत्रादिका परिकर संसारचक्रमें फसानेवाला है इसलिये उसमे तटस्थ रहता है । मनुष्य पुत्रको बहुत प्रेमकी दृष्टिसे देखते हैं किन्तु यथार्थ बात इसके विपरीत है । मनुष्य सबसे अधिक प्रेम स्वखीसे रखता है । इसीसे उसने स्त्रीका नाम प्राणप्रिया रक्खा है । स्त्री भी इसकी आज्ञाकारिणी रहती हैं । वह प्रथम पतिको भोजन कराती है पश्चात् आप भोजन करती है । पहले पतिको शयन कराती है । पश्चात् आप शयन करती है । उसकी वैयावृत्त्य करनेमें किसी प्रकारका संकोच नहीं करती । यह सब है परन्तु पुत्रके होने पर यह बात नहीं रहती । . Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ विविध विद्वानोंका समागम यदि भोजनमें विलम्ब हो गया तो पति कहता है--बिलम्ब क्यों हुआ ? स्त्री कहती है कि पुत्रका काम करूँ या आपका। पुत्र ज्यों ज्यों वृद्धिको प्राप्त होता है त्यो त्यों पिता ह्रासको प्राप्त होता है। समर्थ होने पर तो पुत्र समस्त सम्पदाका स्वामी वन जाता है । अव आप स्वयं निर्णय कीजिये कि पुत्रने उत्पन्न होते ही आपकी सर्वाधिक प्रेमपात्र स्त्रीके मनमें अन्तर कर दिया, पीछे आपकी समस्त संपत्ति पर स्वामित्व प्राप्त कर लिया तो वह पुत्र कहलाया या शत्रु ? आपकी संपत्तिको कोई छीन ले तो उसे आप मित्र मानेंगे या शत्रु ? परन्तु मोहके नशामें यथार्थ बातकी ओर दृष्टि नहीं जाती है । यह मोह दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र इन तीनों गुणोंको विकृत कर देता है इसलिये हमारा प्रयत्न ऐसा होना चाहिये कि जिससे सर्व प्रथम मोहसे पिण्ड' छूट जावे । श्रावण शुक्ला १३ सं० २००८ को व्र० सुमेरुचन्द्रजी भगतका व्याख्यान हुआ। आपने पुद्गलसे भिन्न आत्माको दर्शाया। परमार्थसे सर्व द्रव्य भिन्न भिन्न हैं। कोई द्रव्यके साथ तन्मय नहीं होता। फिर भी जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य पृथक पृथक होने पर भी परस्पर इस प्रकार मिल रहे हैं कि जिनसे अखिल विश्व दृष्टिपथ हो रहा है। यह विश्व न तो केवल पुद्गलका कार्य है और न केवल जीवका किन्तु उमय द्रव्य मिल कर यह खेल दिखा रहे हैं। चूना अपने आपमें सफेद पदार्थ है और हल्दी अपने आपमें पीली है परन्तु दोनों मिल कर एक तीसरा लाल रंग उत्पन्न कर देते हैं इसी प्रकार जीव और पुद्गलके सम्बन्धसे यह दृश्यमान जगत् उत्पन्न हुआ है । आज जो मानवीय शरीर अपनेको उपलब्ध है इसकी तुलना देवोंका शरीर भी नहीं कर सकता फिर नारकी और तिर्यञ्च की तो बात ही क्या है ? इस मानव शरीरमें वह योग्यता है कि अन्तर्मुहूर्तमे संसारसे बेड़ा पार करादे पर १६ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० मेरी जीवन गाथा देवों के शरीर में यह बात नहीं । अतः हमें उचित है कि इस मानव शरीर से ऐसा कार्य किया जाय कि जिससे आत्मा संसारके बन्धन से मुक्त हो जाय । श्रावण शुक्ला १४ सं० २००८ को क्षेत्रपालमे रक्षबन्धनका उत्सव हुआ । श्री पं० फूलचन्द्रजीका प्रक्चन हुआ । अनन्तर पं 'श्यामलालजी और श्री सुमेरुचन्द्रजी भगतके रक्षावन्धनपर व्याख्यान हुये । सबका सार यही था कि अपराधी अपराधी व्यक्तिकी भी उपेक्षा न कर उसके उद्धारका प्रयत्न करना चाहिए । श्री अकम्पनाचार्यने बलि आदि मन्त्रियोंके द्वारा घोर कष्ट भोगकर भी उनकी आत्माका उद्धार किया है। जैनधर्मकी क्षमा वस्तुतः अपनी उपमा नहीं रखती । पूर्णिमा के दिन शहरके बड़े मन्दिरमें प्रवचन हुआ । पं० राजधरलालजीने रक्षाबन्धनकी मनोहर गाथा सबको सुनाई । सबका चित्त प्रसन्न हुआ । भाद्रपद कृष्णा ४ सं० २००८ को पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य बीनाका सम्यग्दर्शनपर सुन्दर विवेचन हुआ । आपने समयसारकी व्याख्या सुन्दर की । समय शब्दका अर्थ आत्मा है । उसका जो सार है वह समयसार है । इस तरह समयसारका अर्थ सिद्ध पर्याय है । उसकी प्राप्ति हो जाय इसीके लिए मनुष्य के प्रयत्न हैं । इसी तरह भाद्रपद कृष्णा ७ के दिन आपने बहुत बारीकी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थीका वर्णन किया । वर्णन रोचक था । 2 भाद्रपद कृष्णा ८ सं० २००८ को महरौनीके पं० गोविन्ददास जीका व्याख्यान हुआ | आपने सत्समागम पर प्रभावशाली व्याख्यान दिया । सत्समागमसे ही मनुष्यमें मनुष्यता आती है । अतः उचित है कि ज्ञानादि गुणोंसे मनुष्य वृद्ध है उनकी सेवा करें। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध विद्वानोंका समागम २६१ आपने कुल काव्यका हिन्दी तथा संस्कृत अनुवाद किया है । व्युत्पन्न विद्वान है परन्तु कर्मोदयकी विपरीततासे नेत्रविहीन हो गये । 1 भाद्रपद कृष्ण १४ स० २००८ को पण्डित शीतलप्रसाद जी शाहपुरवालोंका व्याख्यान हुआ | आपका प्रवचन बहुत ही मनोहर था । आपने जनताके हृदयमें समीचीन रूपसे धर्मकी भावना भर दी । प्रत्येक मनुष्य के चित्तमे धर्मका वास्तविक परिचय हो गया । आपने बताया कि धर्मं कोई ऐसी वस्तु नहीं जो कहींसे भिक्षामें मिल जाय । हम स्वयं इतने कातर हो गये हैं कि उसके होते हुए भी परसे याचना करते हुए लज्जित नहीं होते । धर्मका घातक अधर्म है । अधर्मके सद्भावसे धर्मका विकाश नहीं हो सकता । जैसे अन्धकारके प्रभाव प्रकाश नहीं क्योंकि अन्धकार और प्रकाश ये दोनों परस्पर विरोधी हैं किन्तु जब रात्रिका अन्त आता है तथा सूर्योदय होता है तब अन्धकार पर्याय स्वयमेव विलय जाती है । इसी प्रकार हमारी प्रवृत्ति अनादि कालसे परमें निजत्व कल्पना कर मिथ्याज्ञानका पात्र वन रही है और इसीके द्वारा अन्य पदार्थों को निज मान आत्मचारित्रको क्रोध मान माया लोभरूप बना रही है । निरन्तर इन्हीं में तन्मय हो रही है । इनमें तन्मय होनेसे आत्मीय क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौचका घात कर रही हैं। जब क्षमादिक पर्यायोंका उदय नहीं तब आप ही बताओ शान्तिरसका आस्वाद कैसे मिले | भाद्रपद कृष्णण ३० सं० २००८ को पं० मुन्नालालजी समगौरया सागरने शास्त्र प्रवचन किया। भक्तिपर सम्यक् विवेचन किया । परमार्थसे विचार किया जाय तो भक्ति के ही आत्माआत्मगुणोंके विकासमें कारण होती है । गुणोंमे अनुराग होना भक्तिका लक्षण है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ मेरी जीवन गाथा __ भाद्रपद शुक्ला १ को श्री पं० शीलचन्द्रजी साढूमलका प्रवचन हुआ। आप प्रकृत्या शान्त तथा सुबोध विद्वान् हैं। आपने सम्यक् प्रकार यह सिद्ध क्यिा कि मनुष्यको भावना निमल बनाना चाहिये । भावना ही भवनाशिनी है। अनन्त संसारका कारण असद्भावना और अनन्त संसारका विध्वंस करनेवाली सद्भावना है । जो आत्माकी यथार्थतासे अनभिज्ञ हैं वे श्रात्मस्वल्पसे वञ्चित हैं। परमें निजत्रका व्यामोह कर निरन्तर दुःखके पात्र रहते हैं। दुःखका लक्षण आकुलता है। श्राकुलवा जहाँ होती है वहाँ अशान्ति अवश्य रहती है। श्रात्मा भीतरसे शान्ति चाहता है परन्तु शान्तिका अनुभव तभी हो सकता है जब किसी प्रकारकी व्यग्रता न हो। इस जीवको सबसे महती व्यग्रता शारीरिक स्वास्थ्यकी रहती है । यह शरीर पुद्गल समुदायसे निष्पन्न हुआ हैं परन्तु हम इसे अपना मानते हैं। प्रथम तो यह मान्यता मिथ्या है फिर जब इसे आत्मीय माना तब इसके रक्षणकी चिन्ता रहने लगी। रक्षणके लिये अनेक पदार्थोंका संग्रह करना पड़ता है। उस संग्रहमें अनेक प्रकारके अनर्थोंका आश्रय लेना पड़ता है। इसके लिये ही यह जीव हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार तथा परिग्रह इन पञ्च पापोंसे अपनेको नहीं बचा सकता । शरीरके अर्थ बड़े-बड़े प्राणियोंका घात करता देखा जाता है तथा अनेक प्राणियों का मांस खा जाता है। जिनके द्वारा अल्प भी भय हुआ तो उन्हें शीघ्र ही नष्ट करनेका उपाय करता है। इस तरह विचार किया जाय तो संसारका मूल कारण शरीरमें निजत्वकी कल्पना है। इसे नष्ट करनेका प्रयत्न सबसे पहले करना चाहिये। किसी वृक्षको उखाड़ना है तो उसकी जड़ पर प्रहार होना चाहिये । केवल पत्तोंके लोचनेसे वृक्ष नहीं उखाड़ा ना सकता। इस चातुर्मास्यके समय सागरसे सिंघई हालचन्द्र जी सराफ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंटर कालेजका उपक्रम २६३ आये । आप एक धार्मिक पुरुष हैं। आपका तत्त्वज्ञान निर्मल है । आपकी धर्ममें अधिक प्रवृत्ति रहती है। दिल्लीसे लाला मक्खनलालजी ठेकेदार जो कि वर्तमानमे गृहवाससे पूर्णरीत्या उदासीन हैं, आये। टीकमगढ़से पं० ठाकुरदासजी बी. ए. आये । श्राप संस्कृत तथा अंग्रेजीके योग्य विद्वान हैं। सहारनपुरसे श्री नेमिचन्द्र जी वकील आये । आप बहुत ही विद्वान हैं। करणानुयोगके अच्छे ज्ञाता हैं। अल्प अवस्था होने पर भी ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं। श्री जैनेन्द्रकिशोर जी दिल्ली तया राजकृष्ण जी दिल्ली सकुटुम्ब आये । जानसरसे श्री तहसीलदार साहब आये। इस प्रकार अनेक विद्वानों तथा अन्य विशिष्ट महानुभावोंके समागमसे वर्षाकालका समय सम्यक रीत्या व्यतीत हुआ। जल वायु उत्तम तथा शरीरके अनुकूल रहा। इंटर कालेजका उपक्रम ललितपुर बुन्देलखण्ड प्रान्तका केन्द्र स्थान है, जैनियोंकी अच्छी वस्ती है और व्यापारका अच्छा स्थान है। यहाँपर शिक्षाका आयतन न होना हृदयमें चोट करता रहता था । एक पाठशाला पहले क्षेत्रपालमें थी जिससे प्रान्तके छानोंको लाभ होता था परन्तु अब वह वन्द हो चुकी है। इच्छा थी कि यहाँ पर ज्ञानका एक अच्छा आयतन स्थिर हो तो प्रान्तके वालकोंका बहुत कल्याण हो। आज कल लोगोंकी रुचि अंग्रेजी विद्याकी ओर अधिक है, अतः उसीके आयतन स्थापित करना चाहते हैं। मुझे इसमें हर्प विपाद नहीं। भापा उन्ततिका साधन है। यदि हृदयकी पवित्रताको न Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ , मेरी जीवन गाथा छोड़ा जाय तो किसी भाषासे मनुष्य अपनी उन्नति कर सकता है। मुझे यह जान कर हर्प हुआ कि पं० फूलचन्द्रजी की विशिष्ट प्रेरणा से नगरके लोगोमे इण्टर कालेज खोलनेकी चर्चा धीरे धीरे जोर पकड़ती जाती है। वे इस विषयमें बहुत प्रयत्न कर रहे हैं। उनके प्रयत्नसे श्री सर्राफ मुन्नालाल भगवानदासजीने १०१०१) और श्री निहालचन्द्रजी टडैयाने ७०१०१) देना स्वीकृत किया है। अन्य महानुभावोंने भी रकमें लिखाई। भादों तक १०००००) का चन्दा हो जावेगा और कालेजकी स्थापना हो जावेगी। इसी प्रकरणको लेकर क्षेत्रपाल कमेटीके सदस्योंका यह विचार हुआ कि कमेटीको मकनोंके किरायेसे जो आमदनी होती है उसे मन्दिर सम्बन्धी कार्योंसे वचनेपर कालेजके लिए दे देंगे। ज्ञानप्रचारमे सम्पत्तिका व्यय हो इससे बढ़कर क्या उपयोग हो सकता है ? संगमर्मरके पत्थर जड़वानेकी अपेक्षा मन्दिरोंकी सम्पत्ति का उपयोग शास्त्र प्रकाशन तथा ज्ञान प्रचारमे होने लगे तो यह मनुष्योंकी बुद्धिका परिचायक है। कमेटीके इस विचारसे नवयुवकोंको बहुत हर्प हुआ और वे कालेजके लिये भरसक प्रयत्न करने लगे जिससे बहुत कुछ संभावना हो गई कि यहाँ कालेज खुलकर ही रहेगा। पयूषण पर्व आगया। पं० फूलचन्द्रजी यहाँ थे ही। अतः सूत्रजीपर उनका सारगर्भित व्याख्यान होता था। उनके व्याख्यान के बाद मैं भी कुछ कह देता था। मेरे कहनेका सार यह था कि यह आत्मा स्वभावतः शुद्ध-निरञ्जन होनेपर भी मोहके द्वारा निड. म्बनाको प्राप्त हो रहा है अहो निरञ्जन शान्तो बोधोऽह प्रकृतेः परः। एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विम्वितः ॥ कैसे आञ्चर्यकी बात है कि मैं निरचन हूँ, रागादि उपद्रवोंसे रहित हूँ, शान्त हूँ, बोधस्वरूप हूँ, फिर भी इतना काल मैंने मोहक Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंटर कालेजका उपक्रम २६५ द्वारा व्यर्थ ही विता दिया । अनादि कालसे जो पर्याय पाई उसीमें अपनत्वकी कल्पना कर ली । यद्यपि यह मनुष्य पर्याय असमान जातीय पुद्गल और जीवके सम्बन्धसे उत्पन्न है तो भी मोहजन्य विडम्वनाके कारण मैं अपने स्वरूपको न जान इस संयोगज पर्याय को अपनी मानता रहा । कभी अपनेको ब्राह्मणादिक माना, कभी आश्रमवासी माना, कभी किसी रूप माना और कभी किसी रूप | परन्तु इन सबसे परे जो आत्मा शुद्ध-विविक्त जात्यजाम्बूनदवत् उज्वल स्वरूप है उसकी ओर दृष्टि नहीं दी । न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः । संगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ॥ न वास्तवमे विचारकर देखा जावे तो आत्मा न ब्राह्मण है, क्षत्रिय है, न वैश्य है, न शूद्र है और न किसी ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी आश्रमका धारक है । यह सब तो शरीर के धर्म हैं - शरीरकी अवस्थायें हैं । इन रूप आत्माको मानना मोहका विलास है । 'यह मैं हूँ' इत्यादि अहंकार ममकार के द्वारा उगाया गया चेतनाके विलास से परिपूर्ण जो आत्मा उसके व्यवहारसे च्युत होकर अन्य कार्योंमे उलझ रहा हूँ । शान्तिसे पर्वके दिन व्यतीत हुए । पर्वके अनन्तर जयन्ती उत्सवका आयोजन हुआ जिसमें बाहरसे श्री पं० बंशीधरजी इन्दौर, पं० राजेन्द्रकुमारजी दिल्ली, पं० दयाचन्द्रजी सागर, पं० पन्ना लालजी साहित्याचार्य सागर आदि विद्वान् भी पधारे । सागर तथा अन्य अनेक स्थानोंसे महानुभाव आये । मुझे क्षेत्र से जुलूस द्वारा नगरमे ले जाया गया । वहाँ जयन्ती उत्सव हुआ । मैन शिर झुका कर श्रद्धाञ्जलिके शब्द सुने । अन्तमे जब मेरे कहने का अवसर आया तब मैंने कहा कि संस्कृतमे एक श्लोक है । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ मेरी नीवन गाथा जिसका भाव यह है-चन्द्रमाका उदय होने पर कमल बन्द हो जाता है। क्यों हो जाता है ? इसकी कल्पना एक कविने की हैं । लोग कमलको लक्ष्मीका घर कहते हैं। इसी प्रसिद्धिसे चन्द्रमाने • अपना कर अर्थात् हाथ कमलके पास प्रसारित किया कि इसके पाससे कुछ लक्ष्मी मुझे भी मिल जायगी पर कमलने देखा कि मेरे पास लक्ष्मी तो है नहीं। लोग मुझे व्यर्थ ही लक्ष्मीका निवास कहते हैं। मैं द्विजरान-चन्द्रमा को क्या दे दू""इस संकोचके कारण ही मानों कमल चन्द्रोदय होने पर वन्द हो जाता है। सो यह तो कवियोंकी वात रही पर जब मैं अपनी ओर देखता हूँ तो यही अवस्था अपनी पाता हूँ। आप लोग बढ़ा बढ़ा कर गुणगान करते हैं पर मेरेमें वह गुण अंशसान भी नहीं अतः नीचा मुख कर बैठ जाता हूँ। संसार की बात क्या कहूं ? वहाँ तो लोग पत्थरको देवता बना कर उससे अपना कल्याण कर लेते हैं फिर मैं तो सचेतन प्राणी हूँ। यह निश्चित है कि आपका कल्याण हमारे क्या साक्षात् जिनेन्द्रदेवके गुणगान करनेसे भी नहीं होगा। कल्याणका मार्ग तो आत्मामेसे विकार परिणति को दूर कर देना है। जब तक इस विकार परिणतिको श्राप दूर न करेंगे तब तक कल्याणकी वात दूर है। स्वर्गादिकका वैभव भले ही मिल जावे पर इससे कल्याण नहीं। कल्याण तो जन्म-मरणके संकटसे दूर हो जाने पर ही हो सकता है। जन्म-मरणका कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्याचारित्र हैं। इनसे अपने आपकी रक्षा करो। जिस समय इनसे आत्मा निवृत्त हो जायगी उस समय अन्यके गुणगान करनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी। अस्तु, __अब तक कालेज खोलनेका दृढ़ निश्चय हो गया था और उसकी इस उत्सवमें घोषणा कर दी गई। कालेजका नाम 'वणी इन्टर कालेज' रक्खा गया। उत्सवमें आगत जनताने भी यथायोग्य Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ इंटर कालेजका उपक्रम सहायताके वचन दिये । एक दिन रात्रिको कवियोंके कविता-पाठ भी हुए । यहाँ कवि वहुत हैं। अच्छी कविता करते हैं। आश्विन शुक्ला ६ के दिन सागरवालोंके यहाँ आहार हुआ । मैं सागर बहुत समय तक रहा हूं इसलिये यहाँके लोग मेरे साथ आत्मीयके सहश व्यवहार करते हैं। उत्सवमें आगत विद्वान् यथास्थान चले गये। केवल पं० वंशीधरजी इन्दौर रह गये । आपके २-३ प्रवचन हुए । आप जैन वाङ्मयके उच्च कोटीके ज्ञाता है तथा पदार्थका विवेचन बहुत सूक्ष्म रीतिसे करते हैं । विवेचन करते करते आप इतने तन्मय हो जाते हैं कि अन्य सुध बुध भूल जाते हैं। उस समय आपकी ध्वनि गद्गद् हो जाती है। तथा नेत्रोंसे अश्रुधारा वहने लगती है। सुनकर जनता भी द्रवीभूत हो जाती है। दिल्लीसे श्री जैनेन्द्रकिशोरजी सकुटुम्ब आये। आपका न जाने क्यों हमारे साथ इतना आत्मीय भाव हो गया है कि आप यथासमय हमारे पास आते रहते हैं। आश्विन कृष्णा अमावस्याके दिन आपके यहाँ आहार हुआ। अनेक प्रकारकी सामग्री थी। इसमें उनका अपराध नहीं। अपराध हमारी लालसाका है। यदि मैं लालसा पर विजय प्राप्त कर सीधा साधा भोजन ग्रहण करने लगूं तो यह सब प्रपञ्च आज दूर हो जावे। रागादि निवृत्तिके अर्थ जो बात हम अन्यसे कहते हैं, यदि उसका शतांश भी स्वयं पालन करें तो हमारा कल्याण हो जावे । दो तीन दिन रह कर आप चले गये। विजया दशमीके दिन आपका पत्र आया कि श्री क्षुल्लक निजानन्दजी ( कर्मानन्दजी) देहलीके वेदान्त आश्रममें चले गये हैं। इस घटनासे बहुतसे मनुष्योंको खेद हुआ परन्तु इसमे खेदकी बात नहीं। प्रत्येक जीवके अभिप्राय भिन्न-भिन्न होते हैं। आज तक उन्हें जैनधर्मसे प्रेम था। अब उनका विश्वास वेदान्त पर हो गया। मोहकी सत्ता Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ मेरी जीवन गाथा तबतक आत्मा विद्यमान रहती है जबतक इस आत्माकी परिणति नाना प्रकारकी होती रहती है । यदि यह व्यक्ति भावावेशमे आकर क्षुल्लकपद ग्रहण न करता और शक्तिके अनुसार चारित्रका पालन करता रहता तो यह अवसर न आता । मनुष्य वही है जो किसी चातको श्रवणकर उसपर पूर्वापर विचार करे । संसार एक विचित्र जाल है । इस जाल में प्रायः सभी फंसे हैं। जो इससे निकल जावे, प्रशंमा उसीकी है । जालमे फंसनेका सबसे प्रबल कारण बुद्धि और ममबुद्धि है । इस जीवको अनादि कालसे यह अहंकार लगा हुआ है कि मैं एक विशिष्ट व्यक्ति हूँ, मेरे समक्ष अन्य सव तुच्छ । यह अहंकार ही मनुष्यकी प्रगतिमें सर्वाधिक वाधक है । कार्तिक कृष्णा ७ सं० २००८ से श्री नये मन्दिर में सिद्धचक्र विधानका पाठ हुआ । विधि करानेके लिए श्रीयुत पण्डित मुन्नालालजी इन्दौर से आये | आप उत्तम विधिसे कार्य कराते हैं । पहले व्याख्यान देते हैं, फिर क्रिया कराते हैं । आपका उच्चारण स्पष्ट और मधुर होता है | जनता प्रसन्न रहती हैं । मैं भी प्रारम्भके दिन १३ घण्टा मन्दिरमें रहा । पाठ सुनकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ । यदि व्यवहार धर्मका प्रयोजन यथार्थ दर्शाया जावे तो उसका श्रोतागणोंपर उत्तम प्रभाव पड़ता है । जो वक्ता तत्त्वको यथार्थ नहीं दिखा सकते वह श्रोताओंके भी समयको लेते हैं और अपना भी समय प्रायः खो देते हैं । आजकल व्यवहारधर्मकी प्रभुता हैं । अन्तरङ्गकी ओर अणुमात्र भी दृष्टि नहीं, अन्यथा उस ओर लक्ष्य अवश्य जाता । वाह्य द्रव्यसे आजतक किसीका कल्याण न हुआ और न होगा । जबतक हमारी निर्वलता है तवतक यह पर द्रव्य हमारे लिए जो जो करे अल्प है । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीव्र वेदना कार्तिक कृष्णा ११ सं० २००८ को शारीरिक अवस्था यथोचित नही रही--एक फोड़ा उठनेके कारण कष्ट रहा। फिर भी स्वाध्याय किया। स्वाध्याय थोड़े ही समय हुआ। उसका सार यह था कि मनुष्य अपना हित चाहते हैं परन्तु अनुकूल प्रवृत्ति नहीं करते। पर पदार्थोके संग्रह करनेमे निरन्तर व्यग्र रहते हैं और इसी व्यरताके आवेगमे पूर्ण आयु व्यय कर देते हैं। कल्याणकी लालसासे मनुप्य परका समागम करता है परन्तु उससे कल्याण तो दूर रहा अकल्याण ही होता है। प्रथम तो परके समागममें अपना समय नष्ट होता है। द्वितीय जिसका समागम होता है उसके अनुकूल प्रवृत्ति करना पड़ती है। अनुकूल प्रवृत्ति न करने पर अन्यको कष्ट देनेकी सम्भावना हो जाती है अतः परका समागम सर्वथा हेय है। जिस समय आत्मा अपनेको जानता है उस समय निज स्वरूप ज्ञान-दर्शनरूप ही तो रहता है। दर्शन-ज्ञानका काम देखना-जानना है। इससे अतिरिक्त मानना आत्माको ठगना है। आत्मा तो ज्ञाता-दृष्टा है। उसे रागी द्वेपी मोही बनाया यह कार्य आत्मासे सर्वथा स्वयमेव नहीं होता। यदि परकी निमित्तता इसमे न मानी जावे तो आत्मा ही उपादान हुआ और आत्मा ही निमित्त । इस दशामे यह सतत होते रहेगे। कभी भी आत्मा इनसे अलिप्त न होगी अतः किसी भी आत्मामे ये जो रागादि भाव हैं वे विकारी भाव हैं। जो विकारी भाव होता है वह निमित्तके दूर होने पर स्वयमेव पृथक् हो जाता है। जैसे Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० मेरी जीवन गाथा अग्निका सम्बन्ध पा कर जलमें जो उष्णता आ जाती है वह उसका स्वाभाविक भाव नहीं किन्तु औपाधिक भाव है अतः अग्निका सम्बन्ध दूर होने पर स्वयमेव विलीन हो जाती है इसी प्रकार मोह दूर होने पर आत्मासे रागादि भाव स्वयमेव विलीन हो जाते हैं-दूर हो जाते हैं। द्वादशीसे पीड़ा अधिक बढ़ गई अतः स्वाध्यायमें समर्थ नहीं हो सका । शरीर यद्यपि पर है और हम तथा अन्य वक्ता भी यही निरूपण करते हैं। श्रद्धा भी यही है कि यह पर है परन्तु जब कोई आपत्ति आती है तब ऊपरसे तो वही बात रहती है किन्तु अन्तरङ्गमें वेदन कुछ और ही होने लगता है। श्रद्धा तथा ज्ञान मात्रसे कल्याण नहीं। साथमे चारित्र गुणका भी विकाश होना चाहिये। हम अन्तरङ्गसे चाहते हैं। हम भी क्या प्रायः अधिकतर प्राणी चाहते हैं कि रागादि दोषोंकी उत्पत्ति न हो क्योंकि ये समान आकुलताके उत्पादक हैं। आकुलता ही दुःख है । ऐसा कौन है जो दुःखके कारणको इष्ट मानेगा ? किन्तु लाचार है। जब रागादिक होते हैं और तज्जन्य पीड़ा नहीं सहन कर सकता तब चाहे किसीसे प्रतिकूल हो चाहे अनुकूल हो उन्हें शान्त करनेके लिये यह जीव चेष्टा करता है। जैसे पिता जव पुत्रके कपोलका चुम्बन करता है तब उसकी कड़ी मूछोंका स्पर्श पुत्रको यद्यपि कष्टप्रद होता है तो भी वह कपोलोंका चुम्बनकर प्रसन्न होता है। . इसी फोड़ाके रहते हुए ५ वर्प वाद हमारे अत्यन्त प्राचीन मलेरिया मित्रने दर्शन दिया। उसने कहा तुम भूल गये हमको । तुमने कितने वादे लिये पर एकका भी पालन नहीं किया । उसीका यह फल है कि आज मैंने तो तुन्हे दर्शन दिया। चार दिन पहले मैने अपने लघु मित्र फोड़ाको भेजा था और उसके हाथ आदेश दिया था कि चार मासका वर्षायोग पूर्ण होनेके पहले कहीं नहीं Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ तीव्र वेदना जावो परन्तुं तुमने अवहेलना की और एक दम आज्ञा दे दी कि हम अपने वादाके अनुसार टीकमगढ़ जायेंगे। कितना निराधार साहस ? यदि प्रतिज्ञा ही करना थी तो यह करता कि यदि नीरोग रहा तो आपके उत्सवमें सम्मिलित होऊँगा। परन्तु तुमको पुरुषार्थका इतना मद कि व्यर्थकी प्रतिज्ञा लेकर अपने आपकी वञ्चना की। मलेरियाकी प्रबलता तथा फोड़ाकी तीव्र वेदनासे चित्तमें बहुत खिन्नता हुई। उपचारके लिये फोड़ा पर सिट्टीकी पट्टी बाँधी पर उससे पीड़ामें रञ्च मात्र भी कमी नहीं हुई। हमारी वेदना देख सब लोग दुःखी थे। टीकमगढ़से डाक्टर सिद्दी साहब आये । फोदा देखकर उन्होंने कहा कि फोड़ा खतरनाक है। विना आप्रेशन अच्छा होना असंभव है और जल्दी आप्रेशन न किया गया तो इसका विष शरीरमें अन्यत्र फैल जानेकी संभावना है। डाक्टरकी बात सुनकर सब चिन्ताले पड़ गये। सब लोगोंने आप्रेशन करानेकी प्रेरणा की परन्तु मैने दृढ़तासे कहा कि कुछ हो मांसभोजीसे मैं आप्रेशन नहीं कराना चाहता । डाक्टरने मेरी बात सुनी तो उसने बड़ी प्रसन्नतासे कहा कि मैं जीवन पर्यन्तके लिए मांसका त्याग करता हूँ। आप्रेशनकी तैयारी हुई तो डाक्टर बोला कि आप्रेशनमे समय लगेगा। विना कुछ सुँघाये आप्रेशन कैसे होगा ? मैंने कहा कि कितना समय लगेगा ? उसने कहा कि १५ मिनट । मैंने कहा- आप निश्चिन्ततासे आप्रेशन कीजिये, सुँघानेकी चिन्ता न करें। यह कह कर मै निश्चल पड़ रहा। १५ मिनटमे आप्रेशन हो गया। फोड़ाके भीतर जो विकृत. पदार्थ था वह निकल गया इसलिये शान्तिका अनुभव हुआ। आप्रेशनके समय पं० फूलचन्द्रजी पासमें थे। दीपावलीके बाद मनोहरलालजी वणी भी आगये थे। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ मेरी जीवन गाथा आपके आनेसे आनन्द रहा । लोगोंका प्रवचनका काम चलता रहा। आपके ज्ञान और चारित्रकी निरन्तर वृद्धि रहती है किन्तु समागम जितना उत्तम चाहिये उतना नहीं। प्रायः जितने आदमी मिलते हैं सर्व प्रशंसा द्वारा साधुको उत्तम रूप देना चाहते हैं। मेरा यह अनुभव है कि प्रशंसासे आदमीकी गुस्ता• लघुतामें परिणत हो जाती है। जहाँ प्रशंसा हुई वहाँ उसे सुन आदमी प्रसन्न हो जाता है और जहाँ निन्दा हुई वहाँ दुखी हो उठता है । वस्तुतः प्रशंसा और निन्दा दोनों ही विकृत रूप हैं। उन्हें निज मानना ही भयंकर भ्रम है, इस भ्रमका फल संसार है. संसार ही दुश्वनय है। संसार में प्राणीमात्रके स्निग्ध परिणाम होते हैं। जितने प्राणी हैं प्रायः वे सब परको निज मान अपनानेका प्रयत्न करते है। डाक्टर ताराचन्द्रजी बहुत ही सज्जन और योग्य पुस्प हैं। टीमगढ़से कम्पोटरके आनेमे विलन्य देख श्रापने उत्तम रीतिसे पट्टी वाँध दी। पट्टी बाँधनेके बादमे मन्दिर गया। वहाँसे मार स्वाध्याय किया पञ्चात् भोजन कर बैठा था कि इतनेमें टीरमगढसे कम्पोटर आगया और वलात्कार फिर पट्टी बाँध दी। बहुत गपं 'उड़ाई । प्रयोजन केवल इतना था कि द्रव्य हाथ आवे । संसारमै द्रव्य अर्थ जो जो अनर्थ न हों थोड़े हैं। इसके वशीभूत होरर मनुष्य याम स्वरूपको भूल जाता है । अथवा आत्मस्वरूपकी कथा छोटो, माज जितने मनुष्य रणक्षेत्र में जाते या जानेकी चेष्टा करते हैं ये रत एक अर्थार्जनके लिए ही प्रयास करते हैं । इस अर्थके लिए ग्रामी अदालतमें मिथ्या साक्षी दे पाता है। इस प्रर्थके लिए भाभाई के लिए विप देकर मारनेका प्रयास करता है, उन यी नि मनुष्य गरीबोंकी रोटी तक छीन लेता है, उस अर्थरे निगे प्रार हजारों स्थलों पर पण्डा लोग जलदी पृना कगार नहीं कर इस अर्थके लिये हजारों स्थान तीर्थरूपमें परिणत होगी, उमर Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीव्र वेदना ३०३ लिये ही प्रचार किया जाता है कि अमुक स्थानपर धन देने से सीधा स्वर्ग मिल जाता है । अस्तु, फोड़ा में आराम तो आपरेशन के दिनसे ही होने लगा था परन्तु धावके भरनेमें एक मासके लगभग लग गया । इस बीचमें दिल्लीसे राजकृष्ण, सागरसे बालचन्द्र मलैया. पं० पन्नालाल, बस्वासागरसे बाबू रामस्वरूप तथा पं० मनोहरलालजी आदि स्नेही लोग आये । न जाने संसार में स्नेह कितनी वला है। इसके आधीन होकर यह प्राणी परको प्रेम दृष्टिसे अवलोकन करता है । केवल अवलोकन ही नहीं करता परको अपनाना चाहता है । जब कि यह अपनानेका अभिप्राय मिथ्या है । कोई पदार्थ किसीका नहीं होता । जितने पदार्थ जगत् में हैं सव अपनी सत्ता लिये भिन्न भिन्न हैं। धीरे धीरे मार्गशीर्षका मास आ गया । मनोहरलालजी वणीं मेरठ चले गये । केवल क्षुल्लक संभवसागरजी हमारे साथ रह गये । फोड़ा अच्छा होगया । चलनेमें कोई प्रकारकी बाधा नहीं इसलिए हमने मार्गशीर्ष ३० को ललितपुरसे जानेका निश्चल कर लिया । इसके एक दिन पूर्व चौधरीजीके मन्दिरमें प्रातःकाल जनताका सम्मेलन हुआ । समूह अच्छा रहा किन्तु सव प्रयोजनकी वात कहते हैं, तात्त्विक वात नहीं । मनमें और, वचनमे और यह लोगोंकी वात करनेकी आज परम्परा बन गई है परन्तु हमारा तो यह विचार है कि मनसे हो सो वचनसे कहिये और जो कहिये उसे उपयोगमें लाइये । केवल वचनमें लानेसे कल्याणका मार्ग विशद न होगा । जवतक अमल ( चारित्र) में न आवेगा तबतक कल्याण होनेका नहीं | पं० फूलचन्द्रजीका भी व्याख्यान हुआ और आपने इस बातका | प्रयास किया कि सब सौमनस्यके साथ कालेजका काम आगे बढ़ावें । जय ललितपुरसे प्रस्थान करनेका समय आया तब लोग बहुत Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ मेरी जीवन गाथा दुखी हुए । ५३ माहके करीब एकत्र वास करनेसे लोगोंका स्नेह बढ़ गया इसलिये जाते समय दुःख होने लगा। मैंने कहा-संसारमे सव पदार्थों का परिणमन अपनी अपनी योग्यताके अनुसार होता है । हम चाहते हैं कि यहाँसे पपौरा जावें । आप चाहते हैं कि वर्णीजी यही रहें। आपका परिणमन आपके आधीन, हमारा परिणमन हमारे आधीन । दोनोंका परिणमन सदा एकसा नहीं रहता। कदाचित् निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध जुटनेपर हो भी जाता है । जव यह प्राणी दूसरे पदार्थके परिणमनको अपनी इच्छानुसार परिणत करानेका प्रयास करता है और अन्य पदार्थका परिणमन उसकी इच्छाके अनुरूप होता नहीं तव यह दुःखी होने लगता है-अशान्तिका अनुभव करने लगता है इसलिये मोहकी परिणति छोड़ो और शान्तिसे अपना समय यापन करो। कालेजका आपने जो उपक्रम किया है वह प्रशस्त कार्य है। यह आगे बढ़ता रहे ऐसा प्रयास करें। ज्ञान आत्माका धन है। आपके बालक उसे प्राप्त करते रहें यह भावना आपकी होना चाहिये ।"इतना कहकर मैं आगे बढ़ गया। बहुत जनता भेजने आयी पर क्रम-क्रमसे निवृत्त हो गई। पपौरा और अहार क्षेत्र कचरोंदा ललितपुरसे ११ मील है। वहीं पर मड़ावरावाले राजधर सोरयाके पुत्रकी स्त्रीने आहार दिया। यहाँसे ११ मील चल कर वानपुर आये। यहाँ पर एक मन्दिर महान है। वर्तमानमे तो कई लाख रुपया लगाकर भी नहीं बन सकता । यहाँ पर रात्रि विताई। प्रातःकाल १ मील महरोनीके मार्गमें क्षेत्रपाल Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपौरा और अहार क्षेत्र ३०५ हैं। वहाँ जिनेद्रदेव के दर्शन किये । स्थान बहुत प्राचीन है परन्तु जैन जनताकी विशेष दृष्टि नहीं इससे जीर्ण अवस्थामे हैं । यहाँ पर अहार की मूर्तिके सदृश एक विशाल मूर्ति है परन्तु जिस स्थान पर है वह जीर्ण हो रहा है । यहाँसे चल कर ग्राममें मन्दिर के चबूतरे पर बैठ गये। कई सज्जन ग्रामवाले आये । विद्यादानकी चर्चा की गई। कई जैन बन्धुओंने दान देनेका विचार किया और यहाँ तक साहस किया कि इतर समाज भी इनके सदृश दान देवे तो यहाँ एक हाईस्कूल हो सकता है परन्तु लोग इस ओर दृष्टि नहीं देते । यहाँके मास्टर गहोई वैश्य हैं। बहुत ही निर्मल परिणामवाले हैं । यहाँ से टीकमगढ़ पहुँचे । मन्दिरमें प्रवचन किया । संख्या अच्छी थी । भोजन किया । पश्चात् पं० ठाकुरदासजीके यहाँ गया । उनका स्वास्थ्य खराब था । योग्य व्यक्ति हैं । धर्मकी श्रद्धा अटल है। बीमारीका वेग थम गया है । आशा है जल्दी अच्छे हो जावेंगे। मार्गशीर्ष शुक्ला ५ सं० २००९ को पपौरा गये । स्नानादि से निवृत्त हो कर पाठ किया । तदनन्तर श्री क्षुल्लक क्षेमसागरजीके साथ समस्त जिनालयोंकी वन्दना की । मेलाका उत्सव था अतः बाहर से जनता बहुत आई थी । पण्डित जगन्मोहनलालजी कटनी और पं० फूलचन्द्रजी के पहुँच जानेसे मेलाकी बहुगुणी उन्नति हुई । पपौराका उत्सव हुआ । बीचमें मन्दिरोंके जीर्णोद्धारकी चर्चा को अवसर मिल गया । सागर से समगौरयाजी भी पहुँच गये थे । आपने बहुत ही उत्तम व्याख्यान दिया । जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ा । सभापति महोदयने १००) जीर्णोद्धार में दिया । अन्य लोगोंने भी दिया जिससे चन्दा अच्छा हो गया । इसके बाद समयकी 'त्रुटि होने से विद्यालयका उत्सव नहीं हुआ। अगले दिनके लिये स्थगित कर दिया गया । २० Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ मेरी जीवन गाथा यह क्षेत्र अति उत्तम है परन्तु यहाँके मानव गण उत्साहसे दान नहीं करते, अन्यथा जहाँ ७५ गगनचुम्बी मन्दिर हैं वहाँ स्वर्ग लोक की छटा दिखती। दूसरे दिन विद्यालयके उत्सवके समय बताया गया कि यहाँ स्वर्गीय मोतीलालजी वर्णी एक विद्यालय खोल गये जिसके द्वारा बहुसंख्यक विद्वान् समाजमें काये कर रहे हैं जिनमे साहित्याचार्य व्याकरणाचार्य तथा न्याय-तीर्थे काव्यतीर्थ हैं । वर्तमानमें विद्यालयका कोष बहुत अल्प है। इसका दिग्दर्शन कराया गया । जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ा जिससे १००००) दस हजारका चन्दा हो गया। अभी समाजमे कर्मठ व्यक्ति नहीं तथा एक यह महान् दोप है कि एक ही साथ अनेक उत्सवोंकी संयोजना कर लेते हैं जिससे एक भी कार्य पूर्णरूपसे नहीं हो पाता। ____ मार्गशीर्ष शुक्ला ८ सं० २००८ मेलाका अन्तिम दिवस था। आज पण्डालमें परवारसभाका अन्तिम उत्सव था । अच्छा हुआ, ५००) के करीव परवारसभाको आय हुई। लोग बहुत ही प्रसन्न हुए। प्रचार बहुत ही उत्तम हुआ। यदि इन जातीय सभाओंके बदले प्रान्तीय सभाएं होती और उनमे प्रान्तमे वसनेवाले सब जातियोंके लोग सम्मिलित रहते तथा सौमनस्य भावसे काम करते तो बहुत ही उत्तम होता । इस क्षेत्रकी उन्नति तब हो सकती है जब कोई दानी महाशय एक लक्ष १०००००) लगावे । आज कल नवीन मन्दिर निर्माणकी लोग इच्छा करते हैं पर प्राचीन मन्दिरोन्न उद्धार नहीं कराते। नवीन मन्दिर निर्माणमें उनका निर्माताके रूपमें गौरव होता है और प्राचीन मन्दिरोंके उद्धारमें नहीं। यही प्रतिष्ठाकी आकाक्षा लोगोंको इस कार्यकी ओर प्रवृत्त नहीं होने देती। इस क्षेत्रपर एक ऐसा उच्च कोटिका ओपधालय होना चाहिये जिससे प्रान्तके मानवोको विना मूल्य औपध मिले तथा एक ऐमा Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपौरा और अंहार क्षेत्र ३०० विद्यालय हो जिसमे १०० छात्र अध्ययन कर सकें । पठनक्रम नवीन पद्धतिसे होना चाहिये जिसमे धर्मका शिक्षण अनिवार्य रहे । मेला समाप्त होनेपर जनता चली गई। वातावरण शान्तिमय हो गया । प्रातःकाल संवरका स्वरूप वाचा । वास्तवमें मोक्षमार्ग संवर ही है । अनादिकालसे हमने मोहके वशीभूत होकर आस्रवको ही अपनाया है। आत्मतत्त्वकी श्रद्धा नहीं की। इसीका यह फल हुआ कि निरन्तर पर पदार्थों के अपनानेमे ही समय गमाया । यद्यपि यह पदार्थ आत्माके स्वरूपसे भिन्न है पर मोही जीव उसे निज मानकर अपनानेकी चेष्टा करता है। आत्माका स्वभाव देखना जानना है परन्तु क्रोधादि कषाय उसके इस स्वभावको कलुपित करते रहते हैं। इस कलुषतासे यह आत्मा निरन्तर व्यग्र रहती है । जानका कार्य इतना है कि पदार्थको प्रतिभासित कर दे। ज्ञान पदार्थरूप त्रिकालमें नहीं होता। जिस प्रकार दर्पण घट-पटादि पदार्थको प्रतिभासित कर देता है परन्तु घट-पटादि रूप नहीं होता। दर्पणमें जो घट-पटादि प्रतिभासित हो रहे हैं वह दर्पणका ही परिणमन है, दर्पणकी स्वच्छताके कारण ऐसा जान पड़ता है इसी प्रकार आत्माके ज्ञानगुणमें उसकी स्वच्छताके कारण घट-पटादि पदार्थ प्रतिभासित होते हैं परन्तु ज्ञान तद्रूप नहीं होता । मेलाके बाद ४-५ दिन पपौरामें निवास किया। परिणाम अत्यन्त उज्ज्वल रहे। __मार्गशीर्ष शुक्ला १३ सं० २००८ को २ बजे यहाँसे चलकर ३ बजे टीकमगढ़ पहुँच गये। आज यहाँके कालेजमें प्रवचन था। कालेज बहुत ही भव्य स्थानपर बना हुआ है । सामने महेन्द्रसागर सरोवर है तथा उसके बाद अटवी । ३ मीलपर ७५ जिन मन्दिरोंसे रम्य पपौरा क्षेत्र है। यह सब पूर्व दिशामे है। पश्चिममे महेन्द्र बाग है, उत्तरमें टीकमगढ़ नगर है और दक्षिणमें कुण्डेश्वर क्षेत्र Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ मेरी जीवन गाथा है। विद्यालय कालेजका भव्य भवन ५ खण्डोंसे शोभित है। इसमे २००० छान अध्ययन कर सकते हैं। कालेजके प्रिंसपल महोदय बहुत ही भव्य और विद्वान् हैं। आप वंगाली हैं। एम० ए० हैं। आपकी आयु ४० वर्षसे ऊपर होगी फिर भी ब्रह्मचारी हैं । बड़े दयालु और तत्त्ववेत्ता हैं। आपकी विचारधारा अति पवित्र है। व्यवहार निष्कपट है। मूर्ति सौम्य है। ऐसे मनुष्य चाहे तो वे जगत्का उत्थान कर सकते हैं। आजकल जो शिक्षापद्धति है उसमे भौतिकवादको खूब प्रोत्साहन मिलता है। साइंसका इतना प्रचार है कि वालकी खाल निकालते है। यहाँतक आविष्कार विज्ञान (साइन्स) ने किया है कि विना चालकके वायुयान चला जाता है तथा ऐसा अणुवम बनाया है कि जिसके द्वारा लाखों मनुष्योका युगपद् विध्वंस होजाता है। ऐसी चीर-फाड़ करते हैं कि पेटका बालक निकालकर बाहर रखके पेटका विकार निकाल देते हैं पश्चात् वालकको उसी स्थानपर रख देते हैं। यक्ष्मा रोगवालेकी पसली वाहर निकाल देते हैं किन्तु ऐसा आविष्कार किसीने नहीं किया कि यह आत्मा शान्तिका पात्र हो जावे । अशान्तिका मूल कारण परिग्रह है और सबसे महान् परिग्रह मिथ्यादर्शन है क्योंकि मिथ्यात्वके उदयमे यह जीव विपरीत अभिप्राय पोषण करता है। अजीवको जीव मानता है। शरीरमें आत्मबुद्धि करता है । जैसे कामला रोगवाला शहाको पीला मानने लगता है। एकबार मुमे श्री कुण्डलपर क्षेत्रपर चौमासा करनेका सुअवसर आया था। उस समय मुझे बड़े वेगसे मलरिया ज्वर आगया और बिगड़ते बिगड़ते पित्त ज्वर होगया। एक बंद्यन कहा तुम गन्ना चूसो, वर शान्त हो जायगा । मैंने चूमा किन्तु चिरायता व नीमसे भी अधिक कड्या लगा। मैंने उसे फेंक दिया। वाईजीने कहा-बेटा चूम लो। मैंने उत्तर दिया-कैसे ? Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपौरा और प्रहार क्षेत्र ३०९ यह तो चूसा ही नहीं जाता। यद्यपि गन्नाका रस मीठा था परन्तु मेरे रोग था इसलिये वह कटुक लगता था। इसी प्रकार जिनके मिथ्यात्वरूपी रोग है उन्हें मोक्षमार्गका उपदेश देना हितकर नहीं होता । मोक्षमार्गमे तो प्रथम सम्यग्दर्शन है। उसमें परको निज माननेका अभिप्राय मिट जाता है तथा पश्चात् सर्वको त्याग स्वात्मामें लीन होजाता है अतः जिनके यह होगया उनका सर्व कार्य सम्पन्न होगया। आत्माका हित मोक्ष है। मोक्षका उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है अत. सर्व द्वन्द्वको छोड़ इसीमें लगो। टीकमगढ़से चलकर पौष कृष्ण ६ सं० २००८ को अहार क्षेत्र पहुँच गये । यहाँ एक प्राचीन मन्दिर है । श्रीशान्तिनाथ और कुन्थुनाथ भगवान्की मूर्ति है। अरहनाथ भगवान्की भी मूर्ति रही होगी पर वह उपद्रवियोंके द्वारा नष्ट कर दी गई। उसका स्थान रिक्त है। श्रीशान्तिनाथ भगवान्की मूर्ति बहुत ही सौम्य तथा शान्तिदायिनी है। इसके दर्शन कर श्रवणवेलगोलाके बाहुवली स्वामीका स्मरण हो आता है। यहाँ किसी समय अच्छी बस्ती रही होगी। प्राचीन मूर्तियाँ भी खण्डित दशामें बर्हत उपलब्ध है। संग्रहालय बनवाकर उसमे सवका संग्रह किया गया है। मुख्य मन्दिरके सिवाय एक छोटा मन्दिर और भी है। पास ही मदनसागर नामका विशाल तालाब है। एक पाठशाला भी है। पं० वारेलालजी पठावाले निरन्तर इस क्षेत्र तथा पाठशालाके लिये प्रयत्न करते रहते हैं। यदि साधन अनुकूल हों तो यहाँ शान्तिसे धर्मसाधन किया जा सकता है । ___ पौष कृष्णा ८ सं० २००८ को प्रातःकाल श्रीशान्तिनाथ स्वामी का अभिषेक हुआ। यथाशक्ति चन्दा किया गया। आज कल केवल द्रव्य प्राप्तिके लिये ही धर्म कार्य होते हैं। जिसने द्रव्य दिया उसकी प्रशंसा होने लगी। तीर्थस्थानोंपर आयके अन्य साधन नहीं अतः Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० मेरी जीवन गाथा व्यवस्थापकोंको इस रीतिसे विवश होकर द्रव्य एकत्र करना पड़ता है। यथार्थमें तीर्थस्थान धर्मसाधनके आयतन थे। यहाँ आकर मन्द कषाय होती थी। जो कोई स्वाध्यायमें शंका होती थी वह पण्डितोंके द्वारा निणींत हो जाती थी तथा नवीन पदार्थ श्रवणमे आते थे। कई त्यागीमहाशय मेलामे आते थे। उन्हें पात्रदान देनेका अवसर मिलता था। एक दूसरेको देखकर जो कुछ अपने चारित्रमें शिथिलता होती थी । वह दूर हो जाती थी । कई महानुभाव व्रतादिक ग्रहण करते थे। परस्परके कई मनोमालिन्य मिट जाते थे। इसके सिवाय लौकिक कार्य भी बहुतसे बन जाते थे परन्तु अब आज कल मेला इस वास्ते होता है कि जनतासे रुपया श्रावे । सभामे १५ मिनट भी धामिक व्याख्यानके लिये अवसर नहीं मिलता। रूपयेकी अपील होने लगती है। यह भी होता, कोई हानि नहीं थी किन्तु विद्यालयको छोड़ क्षेत्रकी व्यवस्थाका कुछ दिग्दर्शन कराके उसके अर्थ द्रव्य संचय करनेकी अपील होने लगती है। वीचमे कई दुर्दशापान व्यक्ति आजाते हैं जो वीच वीचमे तंग करते रहते हैं। ___ मन्दिरोंके पास ही अहार नामका छोटा सा गाँव है। २ घर जैनियोंके हैं। एक दिन पं० गोविन्ददासजीके यहाँ आहार हुआ। मेला सानन्द हुआ। मथुरासे पं० दयाचन्द्रजी व भैयालालजी भजनसागर आये थे। ये लोग जहाँ जाते हैं वहाँ व्याख्यानों द्वारा जनताको प्रसन्न कर लेते हैं। मेलामे २००० हजार जनता आई होगी। प्रबन्ध अच्छा था । यहाँपर पाठशालाम २० छात्र अध्ययन करते हैं। पं० प्रेमचन्द्रजी पं० गोविन्ददासजी तथा पं० मौजी. लालजी योग्य व्यक्ति हैं। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणगिरि और रेशन्दीगिरि । प्रहार से ५ मील चल कर लार आ गये । मार्ग में बहुत कण्टक हैं किन्तु यहाँ के मनुष्य इसी स्थानमे रहते हैं अतः उन्हें आने जानेमे आपत्ति नहीं होती । लार में १ मन्दिर है । यहाँ आते ही ग्रामीण जनता इकट्ठी हो गई। श्री नाथूरामजी वर्णीने समयोपयोगी व्याख्यान दिया। आपने जनताको समीचीन पद्धतिसे समझाया कि संसारमें ज्ञानके बिना कोई कार्य नहीं चलता । यदि हमको ज्ञान न हो तो हम अपना हित नहीं जान सकते । हमारा क्या कर्तव्य है ? क्या अकर्तव्य है ? तथा यह भक्ष्य है, यह अभक्ष्य है, यह माँ है, यह बहिन है, यह भ्राता है, यह सुत है, यह पता है इत्यादि जितने व्यवहार हैं सर्व लुप्त हो जायेंगे । अतः आवश्यकता ज्ञानार्जनकी है । ज्ञानका अर्जुन गुरुद्वारा होता 'है । इसीसे उनकी शुश्रूषा करना हमारा कर्तव्य है । बिना गुरुकी कृपाके हमारा अज्ञानान्धकार नहीं मिट सकता । जैसे सूर्योदयके बिना रात्रिका अन्धकार नहीं जाता वैसेही गुरुके उपदेश बिना हमारा अज्ञान नहीं जाता। यही कारण है कि हम गुरुको माता. पितासे अधिक मानते हैं। माता पिता तो जन्म देनेके ही अधिकारी हैं किन्तु गुरु हमको इस योग्य बना देते हैं कि हम संसारके सर्व कार्य करनेमें पटु बन जाते हैं । आज संसारसे गुरु न होता तो हम पशुतुल्य हो जाते । 1 यहाँ शान्तिनाथ भगवान् की संवत् १८७२ की प्रतिष्ठित प्रतिमा बहुत मनोहर है । मन्दिर भी बहुत विस्तारसे है । २ मन्दिर हैं । २० घर जैनियोंके हैं । प्रायः सम्पन्न हैं । धर्मशाला है Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ मेरी जीवन गाथा उसमें १ कूप भी है। लोगोंमें ज्ञान की न्यूनता है क्योंकि उसके साधन नहीं । अव जवसे विन्ध्यप्रदेश हुआ है तवसे एक प्रायमरी स्कूल हो गया है अतः कुछ समय बाद पठन-पाठन होने लगेगा। कुछ मनुप्य स्वाध्याय करते हैं परन्तु विशेष ज्ञान नहीं । यहाँके कुछ वालक पपौरामे पढ़ते हैं। इन गावोंमें कोई त्यागी रहे तो बहुत उपकार हो सकता है परन्तु इस प्रान्तमें प्रथम तो त्यागी नहीं फिर जो हैं वे विशेष पढ़े नहीं। इसका मूल कारण जैन जनतामें विद्याका प्रचार नहीं। इस प्रान्तके जैनी प्रायः पूजा आदिमें द्रव्य व्यय कर देते हैं । जो कुटुम्ब निर्धन हैं उनकी कोई सहाय करानेवाला नहीं। छात्रोंको भी कोई सहायता नहीं देवा । इनका उद्धार वही कर सकता है जो दृढ़प्रतिज्ञ हो, ज्ञानी हो, सवृत्त हो तथा कुछ कल्याण करनेकी भावनासे युक्त हो। लारसे चलकर बड़ेगाँवमें रहे । भोजनके पश्चात् सव महाशय एकत्र हुए। यहाँ एक औषधालयकी स्थापनाके अथे ३००) का चन्दा होगया । यहाँके आदमी भद्र हैं। यहाँ अमृतलाल गोलापूर्व तथा उनका भाई-दोनों ही कर्मठ व्यक्ति हैं। राजनैतिक कार्यमें संलग्न हैं। भाव देशकल्याणके हैं किन्तु जितना वोलते हैं उसका अंश भी कार्य यदि करें तो बहुत ही अच्छा हो। न जाने क्या कारण है कि वर्तमान युगमें परका कल्याण करनेकी भावना तो प्रायः सवमें रहती है परन्तु हमारा भी कल्याण हो इसका ध्यान नहीं रहता। राजनैतिक कार्य करनेवाले प्रायः धर्मकी श्रद्धासे च्युत हो जाते हैं। धर्मको ढोंग वताने लगते हैं। ऐसे लोग यदि महात्मा गाँधीसे कुछ ग्रहण करते तो उत्तम होता। ___ वड़ेगाँवसे चलकर घुवारा आगये । यहाँके लोग अच्छी स्थिति में हैं। १ पाठशाला है जिसमें प्रथम परीक्षा उत्तीर्ण अध्यापक Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणगिरि और रेशन्दीगिरि ३१३ है। यथाशक्ति बालकोंको अध्ययन कराता है। शिक्षक बहुत ही योग्य होना चाहिये परतु वर्तमानमें शिक्षा बहुत मंहगी होगई है। १००) के बिना उत्तम अध्यापक नहीं मिलता। लोग यथाशक्ति चन्दा नहीं देते । जिनके पास पुष्कल द्रव्य है वे विवेकसे. व्यय नहीं करते और जिनके पास नहीं है वे बातोंके सिवाय और कर ही क्या सकते हैं ? ऐसे लोग प्रायः यह कहते देखे जाते हैं कि यदि हमारे पास पुष्कल धन होता तो हम ऐसा करते वैसा करते परन्तु धन पानेपर उनके परिणाम भी धनिकोंके ही समान हो जाते हैं। इसीसे किसी कविने बहुत ही समयोपयोगी दोहा कहा है कहा करूँ धन है नहीं होता तो किस काम । जिनके है तिन सम कहा होते नहि परिणाम ॥ पौप कृष्णा १४ सं० २००८ को दोपहरके बाद एक अत्यन्त प्राचीन खगासन प्रतिमाका, जो कि काले पत्थर की बहुत ही मनोज्ञ है, अभिषेक हुआ। जनता अच्छी एकत्रित हुई। कलशाभिषेक, फूलमाल तथा ज्ञानमालमें १००) के करीब आय हो गई। तदनन्तर व्याख्यान हुए। हमको भी व्याख्यान देनेके लिये कहा गया । व्याख्यान देना कुछ कठिन नहीं परन्तु तारतम्यसे कहना कठिन है। परमार्थसे हमको व्याख्यान देना आता नहीं और न उसके लिये हम परिश्रम ही करते हैं । इसका कारण प्रथम तो हमने किसी शास्त्रका साङ्गोपाङ्ग अभ्यास किया नहीं और न ही व्याख्यान कलाका अभ्यास किया अतः यदि कोई महाशय हमको किसी विषय पर व्याख्यान देनेका आग्रह करे तो हम खड़े तो हो जावेगे परन्तु निर्वाह नहीं कर सकेंगे। 'कहींकी ईंट कहीं का रोरा भानुमतीने कुरमा जोरा' वाली कहावतके अनुसार कुछ कह कर समय पूरा कर देंगे। अस्तु, इसका हमको कुछ भी हर्ष-विषाद नहीं Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा ३१४ किन्तु अपने समयका हम दुरुपयोग करते हैं इसका खेद रहता है। यह हमारी मोह निमित्तक महती जड़ता है । यदि आज हम लोक प्रशंसाको त्याग देवें तो अनायास सुखी हो सकते हैं परन्तु लोकैपाके प्रभावसे वञ्चित हैं यही हमारे कल्याणमें बाधक है। यहाँ ३ दिन रहे । तदनन्तर घुवारासे ४ मील चल कर भौंहरे ग्राम आ गये ! यहाँ पर ८ घर जैनियोंके हैं व १ मन्दिर है । मन्दिर में अन्धकार था श्रुत' उसके सुधारके लिये ४००) का चन्दा हो गया । प्रवचन में ग्रामके ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य आदि सभी लोग आये व सुन कर प्रसन्न हुए। जैन धर्म तो प्राणीमात्रका कल्याण चाहनेवाला है । उसे सुनकर किसे हर्ष न होगा ? भोजनके उपरान्त यहाँ से चल कर गोरखपुर आ गये । गाँवके सव लोगोंने स्वागत किया । श्रीनाथरामजी ब्रह्मचारी तथा श्री क्षुल्लक क्षेमसागरजीका व्याख्यान हुआ । आपलोगोंने यह बताया कि धर्मका मूल दया है अतः सभी को उसका पालन करना चाहिये । यहाँ १ मन्दिर है । उसमे पार्श्वनाथ भगवान् की एक बहुत ही मनोज्ञ प्रतिमा है । शास्त्र प्रवचन हुआ । एक छोटी सी पाठशाला हैं जिसमें पं० रामलालजी दरगुवाँवाले छात्रछात्राओं को अध्ययन कराते हैं। बहुत सुशील मनुष्य है । परिश्रमी भी हैं । यहाँसे चलकर धनगुवाँ आये। ग्राम साधारण है पर लोग उत्साही हैं। नरेन्द्रकुमार बी० ए०, जो निर्भीक वक्ता व लेखक है, यहींके हैं। श्री लक्ष्मणप्रसादजी जो सागर विद्यालय में काम करते हैं वे भी यहींके हैं। शास्त्रप्रवचन हुआ जिसमें ग्रामके सब लोग सम्मिलित हुए । देहातके लोगोंमे सौमनस्य अच्छा रहता है। यहाँ से चलकर श्री द्रोणगिरि क्षेत्रपर पहुँच गये । बहुत ही रमणीय व उज्ज्वल क्षेत्र हैं । यहाँ पहुँचने पर न जाने क्यों अपने आप हृदयमें एक विशिष्ट प्रकारका आह्लाद उत्पन्न होने लगता है । ग्रामंके Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणगिरि और रेशन्दीगिरि ३१५ मन्दिरमें श्री ऋषभनाथ भगवान्के दर्शन कर चित्तमे अत्यन्त हर्प हुआ। पौष शुक्ला ५ संवत् २००८ को श्री द्रोणगिरि सिद्धक्षेत्रकी वन्दना की । यद्यपि शारीरिक शक्ति दुर्वल थी तो भी अन्तरङ्गके उत्साहने यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न करा दी। साथमे श्री १०५ क्षुल्लक क्षेमसागरजी व ब्रह्मचारी नाथूराम तथा बालचन्द्र थे। यात्राके बाद गुफाके आगे प्राङ्गणमे शान्त चित्तसे बैठे। सामने गाँवका तथा युगल नदियोंका संगम दिख रहा था। दूर दूर तक फैली हुई खेतोंकी हरियाली दृष्टिको बलात् अपनी ओर आकषित कर रही थी। ७० नाथूरामने प्रश्न किया कि शान्ति तो आत्मासे आती है पर अशान्ति कहाँसे आती है ? इसके उत्तरमे मैंने कहा-शान्तिवत् अशान्ति भी बाहरसे नहीं आती, केवल निमित्तका भेद है। उपादान कारण दोनोंका आत्मा है। जिस तरह समुद्रमे उत्तरङ्ग और निस्तरन अवस्था होती है। उसमें समीरका संचरण और असंचरण निमित्त है। इसी तरह आत्मामें पुद्गल कर्मके विपाकका निमित्त पाकर अशान्ति और उसके अभावशान्तिका लाभ होता है। अतः जिनको शान्तिकी अभिलाषा है उन्हे पर पदार्थोंसे सम्बन्ध त्याग देना चाहिये क्योंकि सुख और शान्ति केवत अवस्थामे ही होती है । परके आधीन रहना सर्वथा दुःखका वीज है। द्रोणगिरिमे पं० गोरेलालजी सज्जन व्यक्ति हैं। द्रोणगिरिसे चलकर भगवाँ गये । यहाँ एक असाटी अच्छे सम्पन्न हैं । सामान्य रीतिसे इनका व्यवहार अच्छा है। यह जैनधर्मसे प्रेम रखते हैं। जव चन्दाका समय होता है तव कुछ न कुछ दे ही देते हैं। यहाँसे चलकर वरेठी पहुँचे । पद्मपुराणका स्वाध्याय किया। रोचक कथा है । यहाँ ६ घर जैनियोंके हैं। सबने यथाशक्ति द्रोणागिरिकी Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ मेरी जीवन गाथा 1 पाठशालाको दान दिया । इनके पास विशेष विभूति नहीं, अन्यथा यह बहुत कुछ दे सकते हैं ? यहाँ सतपारासे हीरालाल पुजारी तथा ४ आदमी और गये जिससे भोजनके बाद वहाँ गये । दूसरे दिन प्रातःकाल फिर पद्मपुराणका स्वाध्याय किया । राम-रावणके संग्रामकी चर्चा थी । रावणने अमोघ शक्तिका प्रयोग कर लक्ष्मणके उरःस्थलमें आघात किया । श्रीरामने बहुत ही शोक किया। बहुत ही मार्मिक उद्गार उनके हृदयसे निकले । यह सब मोहका प्रताप है कि एक मोक्षगामीके हृदयसे इस प्रकारके वाक्य निकले । मोहके उदयमें आत्माकी यही दशा हो जाती है । ठीक है, परन्तु जिनके हृदयमे विवेक है वे बाह्यमें कुछ आलाप करें परन्तु अन्तस्तल में उनकी श्रद्धामें अणुमात्र भी अन्तर नहीं आता । द्रोणगिरिके अञ्चलमें भ्रमणकर पुनः द्रोणगिरि आगये । पौष शुक्ला १२ सं० २००८ को पं० दुलीचन्द्रजी वाजना तथा मलहरासे कई सज्जन शास्त्रसभा आगये । घनगुवांसे भी कई सज्जन आये । मलहरा जानेका विचार था परन्तु मेघवृष्टिके कारण जा नहीं सके । निश्चिन्ततासे प्रवचन किया । प्रवचनका सार यह था कि यद्यपि संसारमें प्रेमकी बहुत प्रशंसा होती है परन्तु संसारमें चक्रवत् परिभ्रमण करानेवाला यही प्रेम है । सर्वे बन्धनोंमें कठिन वन्धन प्रेम-स्नेहका है । इसपर विजय प्राप्त करना नरसिंहका काम है । श्वाल प्रकृतिके मनुष्य आप कायर होते हैं तथा अन्यको कार वनाते हैं। अनादि कालीन प्रकृतिका निवारण करना अति दुर्लभ है । कहना सरल है परन्तु कार्यमें परिणत करना कठिन है प्रायः उपदेश देनेका प्रत्येक व्यक्ति प्रयत्न करता है किन्तु उस पर अमल करनेवाला ही शूर होता है । ऐने मनुष्यको ही गणना उतन मनुष्यों में होती हैं | प्रथम तो सिद्धान्त यह है कि कोई किमीस उपकार नहीं कर सकता क्योंकि सब द्रव्योंके परिणमन स्वीय Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणगिरि और रेशन्दीगिरि ३१७ स्त्रीयइत्यादि चतुष्टयके अनुरूप होते हैं | इतर तो निमित्त मात्र होते हैं। जिसमे अचेतन पदार्थ तो उदासीन ही होकर कार्य करते हैं । उदासीनसे तात्पर्य अभिप्राय शून्यसे है । जिनके अभिप्राय है. वे चेतन हैं । वह चेतन जो कार्य करते हैं वह भी कपायके अनुरूप ही करते हैं । आत्मा नामक एक द्रव्य है । इसमे ही चेतना गुण है । उस चेतना गुणके द्वारा ही यह पदार्थोंको देखता जानता है । परमार्थसे न देखता है, न जानता है । केवल अपने स्त्ररूपमे मग्न रहता है किन्तु आत्मा अनादि कालसे मोहकी संगति है जिससे आत्मा में विपरीताभिप्राय होता है । उस विपरीताभिप्रायके कारण यह पर पदार्थोंमे निजत्व का अनुभव करता है । अथवा पर और निज यह कल्पना भी मोहके प्रभावसे ही होती है । जिस दिन यह कल्पना मिट जावेगी उसी दिन शान्तिका साम्राज्य अनायास हो जावेगा । पौप शुक्ला १४ सं० २००८ को प्रातःकाल ४ मील चल कर मलहरा आ गये । गुरुकुल में ठहर गये । यहाँ सिघई बृन्दावनलाल बहुत ही विवेकी, उदार तथा हृदय के स्वच्छ हैं । आपके प्रतापसे यहाँ गुरुकुल वन गया । प्रान्तमे अशिक्षाका प्रचार बहुत है । पहले देशी रजवाड़े थे इसलिये प्रजाकी उन्नति के विशेष साधन राज्यकी ओरसे नहीं थे । अब विन्ध्यप्रदेशमे यह सब स्थान आ गये हैं तथा राज्यकी ओरसे शिक्षाके साधन भी जुटाये जा रहे हैं । आशा है आगे चल कर यहाँ की प्रजा भी उन्नति करेगी । यहाँ १६ दिन रहे । प्रातःकाल प्रवचन हुए । इसीके बीच एक दिन माघ कृष्णा १४ को गंज गये । वहाँ एक बाईके यहाँ पंक्ति भोजन था । २०० आदमी आये होंगे। श्री जीका जल विहार हुआ । प्रान्त मे सरलता बहुत है । मलहरा ६ मील चलकर माघशुक्ला ४ को दरगुवाँ आगये । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ मेरी जीवन गाथा यह ० नाथूरामका ग्राम है । दूसरे दिन इन्हींके यहाँ भोजन हुआ । यहाँपर जो व्यय हो उसपर )। एक पैसा रुपया विद्यादान मे देना लोगोंने स्वीकृत किया । यहाँपर दिल्लीसे लालामक्खन लालजी आगये । विरक्त मनुष्य हैं, गृहसे उदासीन हैं सर्व सम्पन्न होकर भी विरक्त होना ऐसे ही शूरका काम है। दरगुवाँसे चलकर हीरापुर आगये । मन्दिर के सामने धर्मशाला है, उसीमें ठहरे । सामने कूप है । उसके बाद चौक है । फिर मन्दिर है । मन्दिर स्वच्छ है । मूर्तियाँ स्वच्छ हैं । रात्रिको शास्त्र होता है । यहाँपर तिगोड़ासे पण्डित पद्मकुमारजी आगये । आप त्यागी कमलापति सेठ वरायठाके पुत्र हैं, सुबोध हैं, अन्तरसे आर्द्र है। रात्रि को ० नाथूरामने सबको शास्त्र श्रवण कराया । हीरापुर से चलकर शाहगढ़ आये । बड़ा ग्राम है । जनसंख्या अच्छी है ? लोगोंमें सौमनस्य भी है । मन्दिर में प्रवचन हुआ । जनता अच्छी उपस्थित थी । ज्ञानार्णवमे अन्यत्व और एकत्व भावनाका विपय था । एकत्व भावनाका यह अर्थ है कि मनुष्य स्वकृत कर्मके अच्छे बुरे फलको अकेला ही भोगता है । किसीके सुख दुःखमे कोई शामिल नहीं होता अतः परके पीछे आत्मपरिणामको विकृत नहीं होने देना यही बुद्धिमत्ता है । अन्यत्व भावनाका अर्थ यह है कि आत्मा शरीरसे भिन्न है अतः शरीरके विकारको आत्माका विकार मान व्यर्थ ही रागी द्वेपी मत बनो । यहाँ २ मन्दिर हैं । रात्रिको शास्त्र प्रवचन होता है । शाहगढसे मौरी गये। यह श्री १०५ क्षुल्लक क्षेमसागरजीका ग्राम है। लोगोंमें धार्मिक रुचि है । एक मन्दिर है । प्रवचन हुआ । उपस्थिति अच्छी थी। प्रवचनका सार यह था कि भूल अज्ञानसे होती है । यह आत्माका मोह जन्म विकार है । जैसे भ्रमज्ञान मिथ्या है। वैसे ही ज्ञान मिथ्या है। इस भूलको त्यागनेवाला ही मनुष्यताका Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेशन्दीगिरिमें पञ्च कल्याणक पात्र है। अनादिकालसे हम जिस पर्यायमे गये उसे ही अपनाया। यद्यपि उसे अपनाना पोयापेक्षया सर्वथा मिथ्या नहीं परन्तु उसे ही सर्वथा निजस्वरूप मान लिया इसलिये शुद्र द्रव्यसे विमुख हो अनादिकालसे पर्यायोंमे ही उलझते रहे ।। वमौरीसे १ मील चलकर वेरखेरी आये । यहाँ एक क्षत्रिय महाशय रहते हैं जो बहुत ही सरल परिणामी हैं। मांसके त्यागी हैं। इनके वंशमें शिकारका भी त्याग है । यहाँसे ५ मील चलकर सिद्ध क्षेत्र नैनागिरि (रेशन्दीगिरि) आगये । सुन्दर स्थान है। पाठशालाके छात्रोंने स्वागत किया। यहाँ पर्वतपर पार्श्वनाथ समवसरणके नामसे एक विशाल मन्दिरका निर्माण हो रहा है। श्री पार्श्वनाथ भगवान्की शुभ्रकाय विशाल मूर्तिकी प्रतिष्ठा होनेवाली है। माघ शुक्ला १५ को श्री १०८ क्षोरसागरजी मुनि यहाँ आये। रेशन्दीगिरिमें पञ्च कल्याणक फाल्गुन कृष्णा ३ सं० २००८ से पञ्चकल्याणकका मेला रेशन्दीगिरिजीमें था। नाला पार करके मैदानमें विशाल पण्डाल बनाया गया था। एक छोटा पण्डाल नीचेके मन्दिरोंके पास भी बना था। धीरे धीरे मेला भरना शुरू हो गया। विद्वत् परिषद् की कार्यकारिणीकी बैठक थी अतः विद्वन्मण्डली उपस्थित थी। खास कर पं० वंशीधरजी इन्दौर, पं० कैलासचन्द्रजी, खुशालचन्द्रजी जगन्मोहनलालजी, दयाचन्द्रजी आदि सभी प्रमुख विद्वान् थे। प्रतिष्ठाके कार्यके लिये श्री पं० वारेलालजी पठा तथा समगौरयाजी आये हुए थे। डेरा तम्बुओंका भी अच्छा प्रबन्ध था। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० मेरी जीवन गाथा . पञ्चकल्याणक उस महान आत्माका होता है जो पूर्व जन्ममें दर्शन विशुद्ध आदि सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन करता है तथा अपायविचय नामक धर्मध्यानमे बैठकर लोक कल्याणकी सातिशय भावना भाता है। ऐसे जीव भरत क्षेत्रमें देश कोड़ा कोड़ी सागरके एक युगमें केवल २४ ही उत्पन्न हो पाते हैं। समग्र अढ़ाई द्वीपमें एक साथ १७. से अधिक ऐसे व्यक्ति नहीं हो पाते । तीर्थंकर प्रकृति सातिशय पुण्य प्रकृति है। इसका जिसके वन्ध होता है उसके जन्म लेते ही तीनों लोकोंमें क्षोभ मच जाता है। फागुन कृष्णा ३ को भगवान्का गर्भ कल्याणक हुआ ४ को जन्म कल्याणक हुआ. इन्द्र इन्द्राणी जब भगवान् को ऐरावत हाथी पर विराजमान कर टेकड़ी पर चढ़े तब बड़ा सुन्दर दृश्य था। रात्रिको विद्वानोंके सार गर्भित भाषण होते थे। प्रातःकाल नीचेके मन्दिरोंके पास जो पण्डाल बना था उसमें शास्त्र प्रवचन होता था। मुनि क्षीरसागरजीका भी व्याख्यान हुआ। सामयिक व्याख्यान था परन्तु आपने एक तत्वाथे सूत्र प्रकाशित कराया जिसके वीच बीचमें अनेक पाठ मिला दिये। उमास्वामीकी रचनाको प्रक्षिप्तकर दिया तथा यह आलोचनाकी कि आचार्य उमास्वामी इस आवश्यक बातको छोड़ गये । महाराजकी यह कृति विद्वानोंको पसन्द नहीं आई । उनका कहना था कि आपको यदि कोई वातकी त्रुटि मालूम होती है तो उसे अलगसे दें। एक ऐसे आचार्यकी रचनाको जिसे पूज्यपाद अकलंक, विद्यानन्द, श्रुतसागर आदि आचार्योंने परिपूर्ण मान अपनी टीकाओं तथा भाष्योंसे अलंकृत किया है, प्रक्षिप्तकर दूपित न करें । परन्तु महाराज दूसरेकी वात या अभिप्रायको न सुननेका प्रयास करते हैं और न समझने का। पञ्चमीको पंडालमें राव्यगद्दीका उत्सव होनेके बाद वट वृक्षके नीचे दीक्षाकल्याणकका उत्सव हुआ। समारोह अच्छा था । व्रती Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेशन्दी गिरिमँ पञ्च कल्याणक ३२१ सम्मेलन होनेसे मेला मे अनेक व्रती पधारे थे अतः उन्होंने तथा अन्य अनेक लोगोंने व्रत ग्रहण किये। हमन कहा कि यह संसार हैं और हमारे ही प्रयत्नका फल है । इसका अन्त करनेमे हम ही कारण हैं । इसका बनानेवाला यदि कोई है तो अन्त करनेवाला भी वही होगा । हम उभयथा निर्दोष हैं ऐसा मानना न्यायसंगत नहीं । हम निर्दोष भी हो सकते हैं और सदोप भी । अतः तत्त्वज्ञ वनो और आजतक जो परमे संसार तथा मोक्षके माननेका अज्ञान है उसे त्यागो | यथार्थ पथपर आओ । ससारमे वही महापुरुष वन्दनीय होते हैं जिन्होंने ऐहिक और पारलौकिक कार्योंसे तटस्थ होकर आत्मकल्याणके अर्थ स्वकीय परिणतिको निर्मल बना दिया है । विषयका मार्ग ऊपरसे मनोरम दिखता है पर उसका अन्तस्तल बहुत ही कण्टकापूर्ण है। इससे जो वच निकले उनका बेड़ा पार हो गया । यदि विपय सुखमे आनन्द होता तो भगवान् आदि जिनेन्द्र ही उसे क्यों त्यागते ? जबतक चारित्रमोहका उदय था तबतक वे भी अन्य संसारी प्राणियों के समान विपयके गर्तमे पड़े रहे। तीर्थंकर प्रवर्तक पुरुप कहलाते हैं । इन्हे तीर्थकी प्रवृत्ति करना होती है । फिर यदि यही संसार के अन्य प्राणियोंके समान विषयमे निमग्न रहे तो तीर्थकी क्या प्रवृत्ति करेंगे ? यह विचार कर सौधर्मेन्द्र इनके वैराग्यके निमित्त जिसकी आयु अत्यल्प रह गई थी ऐसी नीलाञ्जनाको नृत्य करनेके लिये खड़ा कर देता है । थोड़ी देर में उसकी आयु समाप्त हो जाती है जिससे उसका शरीर विद्युत् के समान विलीन हो गया । रसमें भंग न हो इस भावना से इन्द्रने मटसे दूसरी देवी उसीके समान रूपवाली खड़ी कर दी परन्तु भगवान् उसके अन्तरको समझ गये । इस घटनासे भगवानके ज्ञानमें आ गया कि संसार क्षणभंगुर है । हमने अपनी आयुके ८३ लाख पूर्वं व्यर्थ ही खो दिये । कहाँ तो हम पूर्व भवमें यह चिन्तवन करते थे २१ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩રર मेरी जीवन गाया कि त्रिलोकके जीवोंको अपारसे कैसे मुक्त करें और कहाँ हम स्वयं ही अपायमें फंस गये । भगवान्के ऐसा चिन्तवन करते ही लोकान्तिक देव आ गये और उन्होंने वारह भावनाओंका पाठकर भगवान्की श्लाघा की। कैसा वह समय होता होगा कि जब जरासा निमित्त मिलनेपर आदमी विरक्त हो जाते थे और ऐसे आदमी जिनके वैभवके साथ स्वर्गका वैभव भी ईर्ष्या करता था। आज तो वैभवके नामपर फटी लंगोटी लोगोंके पास है पर उसे भी त्यागनेका भाव किसीका नहीं होता। रात्रिको परवारसभामें एकीकारण वावत जो प्रस्ताव पपौरामें हुआ था उसपर पं० जगन्मोहनलालजीने प्रकाश डाला। चचो बहुत हुई परन्तु लोगोंका कहना था कि यदि वास्तवमें एकीकरण चाहते हो तो इन जातीय सभाओंको समाप्त करो। इन सभाओंने जनताके हृदयमे फूट डालनेके सिवाय कुछ नहीं किया है। इन सभाओंके पहले जहाँ लोग आपसमे एक दूसरेसे मिल जुलकर रहते थे वहाँ अब अपने परायेका भेद होगया। अन्तसे कुछ हुआ नहीं। इतना उदारतापूर्ण दृष्टिकोण अपनानेके लिये लोगोंमे क्षमता नहीं। आगामी दिन मध्याह्नके वाद ज्ञानकल्याणकका उत्सव हुआ। कृत्रिम समवसरणके वीच भगवान् आदि जिनेन्द्र विराजमान थे। विद्वानोंने दिव्य ध्वनिके रूपमे जैनागम सम्मत तत्त्वोंका वर्णन किया। जिसका जनतापर अच्छा प्रभाव पड़ा। रात्रिको यहाँकी पाठशालाका अधिवेशन था। पं० कैलाशचन्द्रजीने पाठशालाकी अपील की । क्षेत्र तथा प्रान्तकी स्थितिपर अच्छा प्रकाश डाला जिससे लोगोंके परिणाम द्रवीभूत होगये। कुछ चन्दा भी होगया परन्तु विद्याकी ओर जैसी रुचि लोगोंकी होनी चाहिये वह नहीं प्रकट हुई। इसका कारण विद्याका रस अभी इनके जीवनमे आया नहीं। फाल्गुन शुक्ला ७ को निर्वाण कल्याणकका दृश्य प्रातःकाल पंडालकी Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेशन्दीगिरिमें पज कल्याणक ३२३ वेदीपर दिखाया गया। कुछ समय पूर्व कैलाशपर्वतपर योग निरोध किये हुए भगवान् विराजमान थे पर कुछ ही समयके अनन्तर उनका प्रतिविन्न वहाँसे उठा लिया गया और चन्दनकी समिधाओं मे कपूर द्वारा अग्नि प्रज्वलित कर यह दृश्य दिखाया गया कि भगवान् मोन चले गये। यह दृश्य देखकर जनता मुखसे तो जयध्वनिका उच्चारण करती थी परन्तु नेत्रोंसे उसके अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। मेरा परिणाम भी गद्गद् होगया जिससे अधिक तो नहीं कह सका पर इतना मैंने अवश्य कहा कि जन्मापाय ही मोक्ष है। जन्मके कारणोंके अभावमे जीव स्वयं मुक्त होजाता है। जन्मका कारण आयु है। जिस जीवका मोन होना है उसके आयु बन्ध नहीं होता। जो आयु है उसका अन्त होनेपर जीवका मोक्ष होजाता है । वात सरल है परन्तु यह जीव मोहपदसे इतना उन्मत्त हो रहा है कि आपको जानता ही नहीं । जो बात करेगा वह विपरीत अभिप्रायसे रिक्त नहीं होती। पण्डालकी समस्त व्यवस्था पं० पन्नालालजी सागर सम्हाले हुये थे जिससे समयानुकूल सव कार्य होनेमे रुकावट नहीं होती थी। मेलामें लगभग १५-२० हजार जैन जनता आई होगी। किसीकी कुछ हानि नहीं हुई और न वर्षा आदिका किसीको कुछ कष्ट हुआ। सव सानन्द अपने अपने घर गये । मैं भी यहाँसे चलकर दलपतपुर आगया। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर फाल्गुन कृष्णा १० सं० २००८ को दलपतपुर से ७ मील चल कर चण्डा आ गये । यहाँ पर ८५ घर जैनियोंके हैं । प्रायः सर्व सम्पन्न हैं । थक गये इसलिये रात्रिमे प्रवचन नहीं किया। श्री कुञ्जीलालजी सराफ आदि सागर से कई महानुभाव आये जिनने सागरके समाचार श्रवण कराये। दूसरे दिन प्रातःकाल मन्दिर मे शास्त्रप्रवचन हुआ | जनताकी उपस्थिति अच्छी थी । पाठशालाके लिये अर्थका प्रयास किया । ४००० ) का चन्दा हुआ । यहाँ पर एक प्रभुदयाल दरोगा, जो कि वर्तमानमे रिटायर्ड है, योग्य मनुष्य है । आप प्रत्येक कार्य मे योगदान देते हैं। श्री १०५ क्षुल्लक क्षेमसागर जीने चन्दामे हृदयसे योग दिया। आप जहाँ भोजनको गये वहाँ से प्रेरणा कर ५७०) पाठशालाको दिलाया । यहाँसे चलकर भड़राना आ गये और वहाँसे ६ मील चल कर शाहपुर पहुँच गये । . यहाँ कलशारोहणका उत्सव हो रहा था । वाहरसे करीब ५०० जनता आई होगी । रात्रिको पाठशालाका उत्सव हुआ । अपील होने पर १००००) दश हजारका चन्दा हो गया । शाहपुरके मनुष्योंमें देनेका उत्साह बहुत था । सबके परिणाम उदार थे । सवने मर्यादासे अधिक द्रव्य दिया । इस कार्यमे भैयालाल भजनसागर और दयाचन्द्रजीने बहुत परिश्रम किया । द्वितीय दिन मध्यान्होपरान्त पाठशालाका पुनः उत्सव हुआ । श्री हरिश्चन्द्रजी मोदीका उत्साह एकदम उमड़ा। उन्होंने ५०००) पाँच हजार पाठशालाको देना स्त्रीकृत किया, २०००) दो हजार उनके भाई टीकारामजीने दिये और उनके बड़े भाई धप्पेरामजीने २५१) दिये Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३२५ समगौरयाजी, भजनसागरजी तथा पं दयाचन्द्रजीने सबको मधुर शब्दोंमे धन्यवाद दिया और सिंघई लक्ष्मणप्रसादजी हरदीवालोंने सिंघई पदका तिलक किया तथा सब भाईयोंने भेंट की। बड़ा आनन्द रहा। अमावास्याके दिन पण्डालमे श्रीमान् ब्रह्मचारी कस्तूरचन्द्रजी नायक जबलपुरवालोंने स्वरचित रामायणमेसे दशरथ वैराग्यका प्रकरण जनताको श्रवण कराया। श्रवण कर जनता बहुत प्रसन्न हुई। मेरे चित्तमें बहुत उदासीनता आई परन्तु स्थायी शान्ति न आई। इसका मूल कारण भीतरकी दुर्बलता है। अनादि कालसे परमे निजत्वकी कल्पना चली आ रही है। उसका निकलना सहज नहीं । संसार स्थिति अल्प रह जाय तो यह कार्य अनायास हो सकता है। कलशारोहणका समारोह समाप्त हो गया। लोग अपने अपने घर गये और हम शान्त भावसे १६-१७ दिन यहाँ रहे। भगवानदास भायजी तत्त्वज्ञ तथा आसन्न भव्य पुरुष हैं। इनके साथ स्वाध्याय करते हुए शान्तिसे समय यापन किया। चैत्र कृष्णा प्रतिपदा सं० २००८ के दिन सागरसे सिंघईजी आदि आये और सागर चलनेकी प्रेरणा करने लगे। हमने मना किया परन्तु अन्तमे मोहकी विजय हुई, हम पराजित हुए। सागर जाना स्वीकृत करना पड़ा। मुझे अनुभव हुआ कि संकोची मनुष्य सदा दुखी रहता है। सवको खुश करना असंभव वात है। प्रथम तो कोई ऐसा उपाय नहीं जो सबको प्रसन्न कर सके। द्वितीय सबकी एक सच्श भावना करना कठिन है। अतः एक यही उपाय है कि सबको खुश करनेकी अभिलाषा त्याग दी जाय । अभिलापा ही दुखदायिनी है। चैत्र कृष्णा ३ सं० २००८ को १ बजे शाहपुरसे चले। धर्मशालासे चल कर श्री अनन्दीलालकी दुकान पर विश्राम Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ मेरी जीवन गाथा किया। यहाँ सव जैन जनता आ गई। बालिकाओंने मंगल गान गाया। पश्चात् पं० अमरचन्द्रजीने गान पढ़ा। उसके उपरान्त पं० श्रुतसागरजीने ५ मिनट व्याख्यान दिया । सुनकर लोग गद्गद् कण्ठ हो गये । पश्चात् वहुत कठिनतासे चल पाये। आधा मील तक जनता आई । यहाँसे हमील चलकर सानोधा आ गये। यहाँ पर ८-१० घर जैनी हैं। १ मन्दिर है । अगले दिन भोजन कर सागरके लिये प्रस्थान कर दिया और शामके ६ बजे तक गोपालगंज (सागर) पहुंच गये। चैत्र कृष्णा ५ को गोपालगंजमे आहार किया। ३ बजे प्रचुर जनताके साथ गोपालगंजसे चले और ४ बजे कटरा बाजार पहुँच गये । यहाँपर २ दो मन्दिर हैं। उनके दर्शन किये। मन्दिर रन्छिता पूर्ण तथा निर्मल हैं, विस्तृत भी है परन्तु जनसंख्या बहुत होनेम स्थानमे कमी पड़ जाती है। एक मन्दिर प्राचीन हैं। दूसरा स्त्रक सि. अनन्तरामजी दलालकी धर्मपत्नीने अपने मकानको मन्दिर रूपमें परिणतकर कुछ समय हुआ बनवाया है । मन्दिरों दर्शनकर वेदान्तीपर श्री गुलाबचन्द्रजी जोहरीका जो वाग है उसमें निवास किया। आपने यह बाग उदासीनाश्रमके लिये प्रदान किया है। उदासीनाश्रम संस्था इसीमे हैं। रात्रिको स्वागत समारोह उद्देश्यसे मोराजी भवनमे सभा एकत्रित हुई। ___ सागर बड़ी वस्ती है। जैनियों के हजारसे ऊपर घर है।' बड़े १६ मन्दिर हैं। संस्कृत विद्यालय है ही। महिलाश्रग भी सुन चुका है। लोगोंमे सरलता है। यहाँ हमारा बहुत समय चीन प्रा है। वाईजीका भी यही निवाम था अतः घूम फिरपर में वही या जाता था। यहाँका जलवायु हमारे शरीरके अनमूलपना लामा भद्रता भी अधिक है। यहाँ पाकर कुछ मम लिंगभगा। सम्बन्धी आकुलतासे मुक्त हो गया । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३२७ यहाँकी समग्र जनताको लाभ मिल सके इस उद्देश्यसे आठ आठ दिन समस्त मन्दिरों में प्रवचनका क्रम जारी किया। पहले कटराके मन्दिरमें प्रवचन हुआ। फिर चौधरनबाईके मन्दिरमें, फिर सिंघईजीके मन्दिरमें। इसी क्रमसे सव मन्दिरोंमे यह क्रम चलता रहा । यहाँ तारण समाजका भी चैत्यालय है । उस आम्नायके लोगोंमें प्रमुख सेठ भगवानदासजी शोभालालजी वीड़ीवाले, मुन्नालालजी वैशाखिया तथा मथुराप्रसाद जी आदि है। इन सबके आग्रहसे चैत्यालयमें भी प्रवचन हुए। चैत्र शुक्ला १३ सं० २००६ को वर्णी भवन ( मोराजी भवन) मे महावीर जयन्तीका उत्सव था। पं० दयाचन्द्रजी, माणिकचन्द्रजी, पन्नालालजी आदि के व्याख्यान हुए। कुल इतर समाजके वक्ता भी बोले । जनता अधिक थी। समारोह अच्छा हुआ। दूसरे दिन सर्वधर्मसम्मेलनका आयोजन था जिसमे जैन हिन्दू मुसलमान और ईसाई धर्मवालोंके व्याख्यान हुये। अन्तमे मैंने भी बताया कि धर्म तो आत्माकी निर्मल परिणतिका नाम है। काम क्रोध लोभ मोह आदि विकार आत्माकी उस निर्मल परिणतिको मलिन किये हुए हैं। जिस दिन यह मलिनता दूर हो जायगी उसी दिन आत्मामें धर्म प्रकट हुआ कहलायेगा । किसी कुल या जातिमे उत्पन्न होनेसे कोई उस धर्मका धारक नहीं हो जाता । कुलमें तो शरीर उत्पन्न होता है सो इसे जितने परलोकवादी हैं सब आत्मासे जुदा मानते हैं। शरीर पुद्गल है। उसका धर्म तो रूप रस गन्ध स्पर्श है। वह आत्मामे कहाँ पाया जाता है ? आत्माका धर्म ज्ञान दर्शन क्षमा मार्दव आर्जव आदि गुण हैं। ये सदा आत्मामे पाये जाते हैं। आत्माको छोड़कर अन्यत्र इनका सद्भाव नहीं होता। इतना तो सब मानते हैं कि इस समय संसारमे कोई विशिष्ट ज्ञानी नहीं। विशिष्ट ज्ञानीके अभावमें लोग अपने-अपने ज्ञानके Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ मेरी जीवन गाथा अनुसार पदार्थको समझनेका प्रयास करते हैं। जिस प्रकार सूर्यके अभावमें घर-घर दीपक जल जाते हैं, कोई विजलीका बड़ा बल्ब जलाता है तो कोई मिट्टीका छोटा-सा टिमटिमाता हुआ दीपक ही जलाता है । जिसकी जितनी सामर्थ्य है वह उतना साधन जुटाता है । इसी प्रकार सर्वज्ञ-विशिष्ट ज्ञानीके अभावमे लोग अपने अपने जानके दीपक जलाते हैं। फिर भी एक सूर्य संसारका जितना अधकार नष्ट कर देता है उसको पृथिवीके छोटे वडे सव दीपक भी मिल कर नष्ट नहीं कर सकते। ज्ञान थोड़ा हो, इसमे हानि नहीं परन्तु मोह मिश्रित ज्ञान हो तो वह पक्ष खडाकर देता है । यही कारण है कि इस समय उपलब्ध पृथिवीपर नाना धर्म नाना मत-मतान्तर प्रचलित हैं। यह कलिकालकी महिमा है। इस कालका यही स्वभाव है । आज लोगोंमे इतनी तो समझ आई है कि विभिन्न धर्मवाले एक स्थानपर बैठकर एक दूसरेके धर्मकी वात सुनते हैं, सुनाते हैं। जैनधर्मका अनेकान्तवाद तो इसीलिये अवतीर्ण हुआ है कि वह सव धोका सामञ्जस्य बैठाकर उनके पारस्परिक संघर्षको कमर सके। आयोजक समितिने सब वक्ताओंके लिये एक-एक वी अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया। समय यापन पं० फूलचन्द्र जी वनारसवाले आये हुए थे। वैशाख कृपया ३-४ और ५ को आपका शान्त्र प्रवचन हुआ। इन निश्यिाम प्रवचनकी व्यवस्था तालाबके मन्दिरमें थी। मन्दिर पटा? परन्तु व्यवस्थित है । पण्डितजीके प्रवचन मार्मिक हो । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय यापन ३२६ आपका कहना था कि मनुष्यका कल्याण निज ज्ञानमे होता है, पुस्तक ज्ञानसे नहीं। खाली पुस्तकीय ज्ञान तो बैलपर लदी शक्कर के समान है। अर्थात् जिस प्रकार पीठपर लदी हुई शक्करका स्वाद बलको नहीं मिलता उसी प्रकार केवल पुस्तकीय ज्ञानका स्वाद निज जानसे शून्य मनुप्योको नहीं मिलता। आत्मज्ञानके साथ पुस्तकीय ज्ञान अधिक न हो तो भी काम चल जाता है परन्तु आत्मज्ञानके बिना अनेक शास्त्रोंका ज्ञान भी वेकार है। प्रत्येक मानवको यदि शरीरादि पर पदार्थोंसे भिन्न आत्माका ज्ञान हुया है तो उसे उसका सदुपयोग करना चाहिये । ज्ञानका सदुपयोग यही है कि उसमें मोह तथा राग-द्वेपका सम्मिश्रण न होने दे। ज्ञाता-दृष्टा आत्माका स्वभाव है। जब तक यह जीव ज्ञाता हष्टा रहता है तब तक स्वस्थ कहलाता है और जव ज्ञाता-दृष्टा के साथ साथ रागी द्वोपी तथा मोही भी हो जाता है तब अस्वस्थ कहलाने लगता है । संसारमें अस्वस्थ रहना किसीको पसन्द नहीं अतः ऐसा प्रयत्न करो कि सतत स्वस्थ अवस्था ही बनी रहे । कल्याणका मार्ग उपेक्षामे है। उपेक्षाका अर्थ राग-द्वषका अप्रणिधान है। अर्थात् उस ओर उपयोग नहीं जाने देना । रागादि कारणोंके द्वारा कल्याण मार्गकी अकाक्षा करना सर्पको दुग्ध पिलानेके समान है । संसारका आदि कारण आत्मा ही तो है। वही उसके अन्तका कारण भी है। छोटे छोटे बच्चे मिट्टीके घरोंदे बनाकर खेलते हैं और खेलते खेलते अपने ही पदाघातसे उन घरोंदोंको नष्ट कर देते हैं। इसी तरह मोही जीव मोहवश नाना प्रकारके घरोंदे बनाता है, पर पदार्थको अपना मान अनेक मंसूवे बनाता है परन्तु मोह निकल जानेपर उन सबको नष्ट कर देता है। श्री १०८ मुनि आनन्दसागरजी भी बिहार करते हुए सागर Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० मेरी जीवन गाथा पधारे । निःस्पृह व्यक्ति हैं, तत्त्वज्ञानकी अभिलापा रखते हैं, संस्कृत जानते हैं, निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखते हैं । आपके दर्शन कर मेरे मनमे यह भाव उत्पन्न हुआ कि इस कलिकालमे दिगम्बरकी रक्षा करना सामान्य मनुष्यका काम नहीं । धन्य है आपके स्वार्थको जो इस विपम कालमे साक्षात् मोक्षमार्गकी जननी दिगम्बर मुद्राका निरतिचार निर्वाह कर रहे हैं। आपकी शान्तिमुद्रा देखकर अन्य जन्तु भी शान्त भावको धारणकर मोक्षमार्ग के पात्र हो सकते हैं । सागरमे बालचन्द्र मलैया श्रद्धालु जीव है । सम्पन्न होनेपर भी कोई प्रकारका व्यसन आपको नहीं । श्रावकके पद कर्ममे निरन्तर आपकी प्रवृत्ति रहती हैं । आपने सागरसे २ मील दूर दक्षिण तिलीग्राममे एक विस्तृत तथा सुन्दर भवन बनवाया है। पूजाके लिये चैत्यालय भी निर्माण कराया है । एकान्त प्रिय होने अि कांश आप वहीं पर रहते हैं । आपका आग्रह कुछ दिन के लिये अपने वागमे ले जानेका हुँआ । मैने स्वीकृत कर लिया अतः वैशास शुक्ला १३ को श्री क्षुल्लक क्षेमसागरजी के साथ वहाँ गया । बहुत ही रन्य स्थान है । सर्व तरह के सुभीते हैं । यदि कोई यहाँ तत्त्व विचार करना चाहे तो कोई उपद्रव नहीं । ३ दिन यहाँ रहा । पण्डित पन्नालालजी साथ रहते थे । शान्तिसे समय व्यतीत हुआ। आकर दिनमे गरमी अधिक पडती थी अतः भोजनोपरान्त ५ बजे श्री भगवानदासजी की हवेली के नीचे भागमें रहता था । यहाँ आतापनहीं पहुँच पाता था इसलिये शान्ति रहती थी । ५ बजे शान्ति निकेतन -- उदासीनाश्रममें चला जाता । सागर में अनेक मन्दिर है तथा विद्यालय और महिला प्रकार २ संस्थाएं हैं। की व्यवस्थापक समितियां डुडी जुटी हैं इसलिये अपनी अपनी ओर लोगोंका विचार रहा है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय यापन ३३१ हमने सुझाव रक्खा कि समस्त सागर समाजकी एक प्रतिनिधि सभाका निर्माण होना चाहिये । वही सब मन्दिरों तथा संस्थाओंकी व्यवस्था करे | अलग अलग खिचड़ी पकाने से शोभा नहीं । जनता को सुझाव पसन्द आ गया और ८४ प्रतिनिधियोकी एक प्रतिनिधि सभा बन गई । परन्तु देखने में यह आया कि कार्यकर्ताओं के हृदय स्वच्छ नहीं अतः विश्वास नहीं बैठा कि ये लोग आगे चलकर सम्मिलित रूप से व्यवस्था बनाये रखेंगे । सबसे जटिल प्रश्न मन्दिरों सम्बन्धी द्रव्यके सदुपयोग तथा उसकी सुव्यवस्थाका है । परिग्रह एक ऐसा मद्य है कि वह जहाँ जाता है वहीं लोगोके हृदयमे मद उत्पन्न कर देता है । परिग्रह चाहे घरका हो चाहे मन्दिर का, विकार भाव उत्पन्न करता ही है । जब तक मनुष्य परिग्रहको अपने से भिन्न अनुभव करता रहता हैं तब तक इसका बन्धन नहीं होता परन्तु जिस क्षरण वह उसे अपना मानने लगता है उसी क्षण बन्धनमे पड़ जाता है । सरकारी खजानेमे कार्य करनेवाला व्यक्ति अपनी ड्यूटीके अवसर पर खजानेका स्वामी है पर वह उसे अपना नही मानता । यदि कदाचित् सौ पचास रुपयेमे उसका मन ललचा जावे और उन्हे वह निकाल कर जेवमे रखले -उनके साथ ममत्वभाव करने लगे तो तत्काल उसके हाथमें बेड़ी (हथकड़ी) पड़ जाती है । । कण्डया वंशमें श्री ताराचन्द्रजीका एक विस्तृत मकान, जो कि इतवारा बाजार था, चिकनेवाला था लोगोंने सुझाव रक्खा कि यह मकान महिलाश्रमके लिये खरीद लिया जाय क्योंकि महिलाश्रम अभी तलाव मन्दिरके पीछे किराये के मकानमे है, जहाँ संकीर्णता बहुत है तथा मच्छरोंकी अधिकता है । मकानकी कीमत २२०००) वाईस हजारके लगभग थी । महिलाश्रमके पास इतना फण्ड नहीं कि जिससे वह स्वयं खरीद सके । मकान निजका होनेसे संस्थामें स्थायित्व आ जाता है अत मंत्री चाहता था कि मकान महिला Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ मेरी जीवन गाथा श्रमका हो जाता तो उत्तम था । परन्तु कहा किससे जाये ? कुछ लोग फुटकर चन्दा करनेके लिये निकले तो दो चार हजारसे अधिक के वचन न मिलें । सागरमें सिंघई कुन्दनलालजी एक सहृदय तथा आवश्यकताका अनुभव करनेवाले व्यक्ति हैं । उन्होंने पिछले समयमे महिलाश्रमको ११०००) ग्यारह हजार नकद दा दिये थे । उन्होंने कहा कि यदि महिलाश्रमकी कमेटी ग्यारह हजार रुपये हमारे पहले के मिला दे तो मैं ग्यारह हजार और देता हूँ । इन वाईस हजारसे उक्त मकान खरीद लिया जावे । 'भूखेको क्या चाहिये ? दो रोटियाँ' वाली कहावत के अनुसार महिलाश्रमकी कमेटी ने उक्त बात स्वीकार कर ली जिससे २२०००) हजारमे उक्त मकान खरीद कर सिंघेन दुर्गावाईके नामसे महिलाश्रमको सौंप दिया गया । ग्रीष्मावकाश के बाद जब आश्रम खुला तब वह अपने निज के मकानमे पहुँच गया । इस मकानमे इतनी पुष्कल जगह है कि यदि व्यवस्थित रीतिसे बनाई जावे तो ५०० छात्राएं सानन्द अध्ययन कर सकती हैं । ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमीको गौराबाई जैन मन्दिर कटरामे श्रुनपची का उत्सव था । भीड़ बहुत थी। पं० पन्नालालजीने शाख प्रवचन द्वारा पर्वका पूर्ण परिचय जनताको करा दिया और उस बार बल दिया कि मन्दिरोंमे जो चांदी आदिके व्यर्थ उपकरण हैं इ गलाकर शास्त्र भण्डारोंकी पूर्णता होनी चाहिये तथा जो शा द्यावधि प्रकाश नहीं आये उनका जनताके समक्ष थाना बहुत आवश्यक है । बात मार्मिक थी, परन्तु यह हो नवन जब जनताके नेत्र खुलें। आजकल तो मन्दिरोंग न्य पत्थर या चीना इंटोंक जडवानेमे जाता है। लोगों के हृदय समाया हुआ है । शात्रज्ञानकी ओर उनकी रुचि नहीं । कटरामें एक मन्दिर कारे भायजीका था जो Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय थपिन ३३३ कारण गिरा दिया गया था तथा उस स्थानपर नवीन मन्दिर निर्माण करानेका विचार था । मन्दिरके नीचेका भाग बड़ा मन्दिर के आधीन और ऊपर अटारी पर मन्दिर था | बड़ा मन्दिर के प्रवन्धकाने मन्दिरके बनानेमे आपत्ति की जिससे मन्दिर गिरा हुआ बहुत दिनोंसे पड़ा रहा । कारेभायजीके मन्दिर में जो रुपया या उन्होंने वह रुपया बड़ा मन्दिरके व्यवस्थापक श्री लक्ष्मीचन्द जी मोदीको दे दिया और कहा कि आप ही वनवा दो। बहुत समयसे काम रुका था और लोग प्रेरणा भी बहुत करते थे इसलिये ज्येष्ठ शुक्ला ६ को नवीन मन्दिर बनवानेका मुहूर्त किया गया । मुझे भी लोग ले गये । जन समुदाय बहुत था । लोगोको प्रसन्नता थी कि अब मन्दिर वन जावेगा परन्तु लोगों की परिणति निर्मल नहीं अतः मुझे विश्वास नहीं हुआ कि यह मन्दिर शीघ्र वन जावेगा । धर्मायतनोंके विषय में जो छल-क्षुद्रताका व्यवहार करते हैं वे आत्मवञ्चना करते हैं और उसका कटुक परिपाक उन्हे भोगना पड़ता है । इस पापके करनेवाले कभी फलते फूलते नहीं देखे गये । श्री १०५ क्षुल्लक क्षेमसागरजी चतुर्मास करनेके लिए जबलपुर चले गये । हमारा भी विचार था परन्तु हम लोगोंका संकोच नहीं तोड़ सके और सागरमे ही रह गये | आषाढ़ शुक्ला १४ के दिन हमने सागरमें चातुर्मासका नियम ग्रहण किया तथा कार्तिक सुदी २ तक दुग्ध घृत नमक तथा बादामका रोगन मात्र इतने रस लेनेका नियम किया । आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा सं० २००६ को विद्यालय में गुरुपूर्णिमा का उत्सव था । समस्त छात्रवृन्द तथा अध्यापकगण एकत्रित थे। मुझे भी बुलाया गया। छात्रोंके कविता पाठ तथा व्याख्यान आदि हुए। अध्यापकोंके भी भाषण हुए। मुझे यह दृश्य देख बहुत Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ मेरी जीवन गाथा प्रसन्नता हुई। मैंने कहा कि गुरुका अर्थ तो दिगम्बर मुद्राके वारी तपोधन मुनि हैं। श्रावण कृष्णा १ से चातुर्मास प्रारम्भ होजाता है अतः पूर्णिमा तक जहाँ जिनका चातुर्मास सम्भव होता वहाँ सब गुरु पहुँच जाते थे और गृहस्थ लोग उनके आगमनका समारोह मनाते थे। परन्तु आज दिगम्बर मुद्राधारी लोगोकी कमी हो गई इसलिए गुरुका अर्थ विद्यागुरु रह गया। यह भी बुरा नहीं क्योंकि एक अक्षरके देनेवालेके प्रति भी मनुष्यको कृतज्ञ होना चाहिये। 'न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति' किये हुये उपकारको साधुजन भूलते नहीं। माता पिताकी अपेक्षा विचार करो तो गुरुका स्थान सर्वोपरि है क्योंकि उसके द्वारा इस लोक और परलोक सम्बन्धी हितकी प्राप्ति होती है। छात्रका हृदय जितना अधिक निर्मल होगा वह उतना ही अधिक व्युत्पन्न बनेगा । छात्रको निर्द्वन्द्व होकर अध्ययन करना चाहिये। आजका छात्र पढ़ना अधिक चाहता है पर पढ़ता विलकुल नहीं है । अनेक शास्त्रोंका अध्ययन करनेके बाद भी आज छात्र उस योग्यताको नहीं प्राप्त कर पाते जिस योग्यताको पहले छात्र एक दो पुस्तकोंको पढ़कर प्राप्त कर लेते थे। कितने ही छात्रोमें बुद्धि स्वभावतः प्रबल होती है पर उन्हे अनुकूल साधन नहीं मिल पाते इसलिये वे आगे बढ़नेसे रह जाते हैं। जिन्हें साधन अनुकूल प्राप्त हो जाते हैं वे आगे बढ़ जाते हैं। इस समय उन्हें चिन्ता ही किस वातकी है, आरामस बना बनाया भोजन प्राप्त होता है और गुरुजन तुम्हारे स्थानपर आकर पढ़ा जाते हैं। एक समय वह था कि जब हम विद्याध्ययन करनेके लिए मीलों दूर गुरुओंके स्थानपर जाया करते थे, हाथसे रोटी बनाकर खाते थे, गुरुओंकी शुश्रूषा करते थे तब कहीं कुछ हाथ लगता था पर आज तो सब सुविधाएँ हैं, फिर भी अध्ययन न हो तो दुर्भाग्य ही समझना चाहिए । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय यापन ३३५ 'ज्ञानं सुखस्य कारणम्' ज्ञान सुखका कारण है परन्तु परिपक्व जानसे ही सुख होता है यह निश्चय रखना चाहिए। जिसका ज्ञान अपरिपक्व है वह 'न इधरका न उधरका'-कहींका नहीं रहता। उसे पद पदपर त्रास उठाना पडता है। अतः जिस विषयको पढ़ो, सनोयोगसे पढ़ो और खूब पढ़ो। अनेक विपयोंकी अपेक्षा एक ही विपयका परिपक्व ज्ञान हो जावे तो उत्तम है। श्रावण कृष्णा १० सं० २००९ को समाचार मिला कि डालमियों नगरमे श्रावण कृष्णा ८ सोमवारकी रात्रिको १२ बजकर १५ मिनटपर श्री सूरिसागरजी महाराजका समाधिपूर्वक देहावसान होगया। समाचार सुनते ही हृदयपर एक आघात सा लगा। आप एक विशिष्ट आचार्य थे, फीरोजावादके साक्षात्कारके अनन्तर तो आपमे हमारी अत्यन्त भक्ति होगई थी। इसके पहले जब आपकी रूणावस्था के समाचार श्रवण किये थे तब मनमें आया था कि एक बार उनके चरणोंमें पहुंचकर उनकी वैयावृत्त्य करें परन्तु बाह्य त्याग के संकोचमें पड़ गये । हमारा मनोरथ मनका मनमें रह गया। श्री १०८ मुनि आनन्दसागरजीके नेत्रोंसे तो अश्रुधारा बहने लगी क्योंकि आपने उन्हींसे दीक्षा ली थी। मुनिमहाराज तथा हमने आज उपवास रक्खा । कटरामे मन्दिरके सामने शोकसभा हुई जिसमे बहुत भारी जनता आई। विद्वानोंने समाजको उनका परिचय कराया तथा उनका गुणगानकर उनके प्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। दिल्लीसे श्रीराजकृष्णजी, जैनेन्द्रकिशोरजी तथा लाला मुंशीलालजी आदि और कलकत्तासे छोटेलालजी आये। सब वर्णीभवनके हालमें ठहरे। रक्षाबन्धनका पर्वकी आज चर्या श्रीराजकृष्ण तथा जैनेन्द्रकिशोरके यहाँ हुई किन्तु भाग्यवश कटोरी भर भी दुग्धपान न कर पाया कि कटोरीमें मृत मक्षिका निकल गई । भोजनमे अन्तराय हो गया। इसके पूर्व चतुर्दशीका उपवास किया था। लोगोंको Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ मेरी जीवन गाथा बहुत दुःख हुआ । द्वितीय दिन श्रीराजकृष्णजीके यहाँ भोजन हुआ ! श्री जैनेन्द्रकिशोरजी ने अनारका रस दिया । २ दिनके बाद श्राज पारणा हुआ । लोगोंको अत्यन्त आनन्द हुआ । इसी समय श्रीछोटेलालजी (कलकत्ता) ने १०००) विद्यादानमे अर्पित किये, जिनमे मैंने विद्यालयको ६०० ) विधवाश्रमको ३००) और उदासीनाश्रमको १००) दिला दिये । श्रीमुंशीलालजी देहलीवालोंने एक लाख रूपया समन्तभद्र विद्यालयको दिया । यह विद्यालय दिल्ली मे अनाथाश्रम के पास सामने जो भूमि है उसीपर वनेगा । चाधरन बाईके मन्दिरमें उनके १ लाखके दानकी घोषणा हुई। उन्हें समाजकी ओरसे पगड़ी वधायी गई । श्रीसिधई कुन्दनलालजीके द्वारा पगडीका कार्य सम्पन्न हुआ। सेठ भगवानदासजीने पुप्पमाला पहनाई । श्रीछोटेलालजीने अच्छा व्याख्यान दिया । आप १ पुरातनवेत्ता हैं । आपने पुराने तीर्थक्षेत्रों तथा प्रतिमाओंकी फिल्म ली है । एक दिन रात्रिको उनका प्रदर्शन किया। सिं० डालचन्द्रजीने नव आगन्तुकोको भोजन कराया। प्रसन्नतासे सब लोग अपने-अपने स्थान गये । हम शान्तिले समय यापन करते रहे । पर्यूषण पर्व आनेवाला था इसलिये समग्र समाजमे उत्माह भर रहा था । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली यहाँ श्री चौधरनवाईके मन्दिरमे पुष्फल स्थान है इसलिये प्रातःकालके प्रवचनकी व्यवस्था इसी मन्दिरमे रहती थी। प्रातः ८॥ वजेसे श्री मुनि आनन्दसागरजीका प्रवचन उसके बाद पं० द्वारा तत्त्वार्थसूत्रका मूल पाठ, और उसके बाद धर्मपर हमारा प्रवचन होता था । प्रवचनोंकी कापी पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने की थी । जन कल्याणकी दृष्टि से उन प्रवचनोको यहां दे देना उपयुक्त समझता हूँ। __ आज पर्वका प्रथम दिन है ३५० दिन बाद यह पर्व आया है। क्षमा सवसे उत्तम धर्म है । जिसके क्षमा धर्मे प्रकट हो गया उसके मार्दव, आर्जव और शौच धम भी अवश्यमेव प्रकट हो जायेंगे। क्रोधके अभावसे आत्मामें शान्ति गुण प्रकट होता है। वैसे तो आत्मामे शान्ति सदा विद्यमान रहती है क्योंकि वह आत्माका स्वभाव है-गुण है । गुण गुणीसे दूर कैसे हो सकता है ? परन्तु निमित्त मिलनेपर वह कुछ समयके लिए तिरोहित हो जाता है। स्फटिक स्वभावत स्वच्छ होता है पर उपाधिके संसर्गसे अन्य रूप हो जाता है। हो जाओ, पर क्या वह उसका स्वभाव कहलाने लगेगा ? नहीं, अग्निका संसर्ग पाकर जल उष्ण हो जाता है पर वह उसका स्वभाव तो नहीं कहलाता । स्वभाव तो शीतलता ही है। जहां अग्निका सम्बन्ध दूर हुआ कि फिर शीतलका शीतल । क्या बतलावें ? पदार्थका स्वरूप इतना स्पष्ट और सरल है परन्तु अनादि कालीन मोहके कारण वह दुरूह हो रहा है। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाया बहुत दुःख हुआ। द्वितीय दिन श्रीराजकृष्णजीके यहाँ भोजन हुआ। श्रीजैनेन्द्रकिशोरजी ने अनारका रस दिया । २ दिनके वाद श्राज पारणा हुआ । लोगोंको अत्यन्त आनन्द हुआ। इसी समय श्रीछोटेलालजी (कलकत्ता) ने १०००) विद्यादानमे अर्पित किये, जिनमे मैंने विद्यालयको ६००) विधवाश्रमको ३००) और उदासीनाश्रमको १००) दिला दिये। श्रीमुंशीलालजी देहलीवालोंने एक लाख रुपया समन्तभद्र विद्यालयको दिया । यह विद्यालय दिल्लीमे अनाथाश्रमके पास सामने जो भूमि है उसीपर वनेगा। चाधरन बाईके मन्दिरमे उनके १ लाखके दानकी घोषणा हुई। उन्हें समाजको ओरसे पगड़ी बंधायी गई । श्रीसिघई कुन्दनलालजीके द्वारा पगडीका कार्य सम्पन्न हुआ। सेठ भगवानदासजीने पुष्पमाला पहिनाई। श्रीछोटेलालजीने अच्छा व्याख्यान दिय। आप १ पुरातनवेत्ता हैं। आपने पुराने तीर्थक्षेत्रों तथा प्रतिमाओंकी फिल्म ली है। एक दिन रात्रिको उनका प्रदर्शन किया। सिं० डालचन्द्रजीने सव आगन्तुकोको भोजन कराया। प्रसन्नतासे सब लोग अपने-अपने स्थान गये । हम शान्तिसे समय यापन करते रहे। पर्युषण पर्व आनेवाला था इसलिये समग्र समाजमे उत्साह भर रहा था। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली यहाँ श्री चौधरनबाईके मन्दिरमे पुष्फल स्थान है इसलिये प्रात:कालके प्रवचनकी व्यवस्था इसी मन्दिरमें रहती थी । प्रातः ८। बजेसे श्री मुनि आनन्दसागरजीका प्रवचन उसके बाद पं० द्वारा तत्त्वार्थसूत्रका मूल पाठ, और उसके बाद धर्मपर हमारा प्रवचन होता था । प्रवचनोंकी कापी पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने की थी । जन कल्याणकी दृष्टिसे उन प्रवचनोंको यहां दे देना उपयुक्त समझता हॅू । 1 आज पर्वका प्रथम दिन है ३५० दिन बाद यह पर्व आया है 1 क्षमा सबसे उत्तम धर्म है । जिसके क्षमा धर्म प्रकट हो गया उसके मार्दव, आर्जव और शौच धर्म भी अवश्यमेव प्रकट हो जायेंगे । क्रोधके अभाव से आत्मामे शान्ति गुण प्रकट होता है । वैसे तो आत्मा शान्ति सदा विद्यमान रहती है क्योंकि वह आत्माका स्वभाव है—गुण हैं । गुण गुणीसे दूर कैसे हो सकता है ? परन्तु निमित्त मिलनेपर वह कुछ समय के लिए तिरोहित हो जाता है । स्फटिक स्वभावत स्वच्छ होता है पर उपाधिके संसर्गसे अन्य रूप हो जाता है । हो जाओ, पर क्या वह उसका स्वभाव कहलाने लगेगा ? नहीं, अग्निका संसर्ग पाकर जल उष्ण हो जाता है पर वह उसका स्वभाव तो नहीं कहलाता । स्वभाव तो शीतलता ही है । जहां अग्निका सम्बन्ध दूर हुआ कि फिर शीतलका शीतल । क्या बतलावें ? पदार्थका स्वरूप इतना स्पष्ट और सरल हैं परन्तु अनादि कालीन मोहके कारण वह दुरूह हो रहा है । २२ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा क्रोधके निमित्तसे आदमी पागल हो जाता है और इतना पागल कि अपने स्वरूप तकको भूल जाता है । वस्तुकी यथार्थता उसकी दृष्टिसे लुप्त हो जाती है। एकने एक को घूँसा मार दिया । वह उसका घूँसा काटने को तैयार हो गया पर इससे क्या ? घूँसा मारने का जो निमित्त था उसे दूर करना था । वह मनुष्य कुक्कुर वृत्ति पर उतारू हुआ है । कोई कुत्तेको लाठी मारता है तो वह लाठीको दातोंसे चवाने लगता है पर सिंह बन्दूक की ओर न झपट कर वन्दूक मारनेवाले की ओर झपटता है । विवेकी मनुष्यकी दृष्टि सिंहकी तरह होती है । वह मूल कारणको दूर करनेका प्रयत्न करता है । आज हम क्रोधका फल प्रत्यक्ष देख रहें हैं। लाखों निरपराध प्राणी मारे गये और मारे जा रहे हैं। क्रोध चारित्र मोहकी प्रकृति है । उससे आत्माके संयम गुणका घात होता है । क्रोधके भाव प्रकट होनेवाला क्षमा गुण संयम है, चारित्र हैं । राग द्वे प्रभाव को ही तो चारित्र कहते हैं । I ३३८ ज्ञानसूर्योदय नाटककी प्रारम्भिक भूमिकामे सूत्रधार नटीसे कहता है कि आजकी यह सभा अत्यन्त शान्त है इसलिये कोई पूर्व कार्य उसे दिखलाना चाहिये । वास्तवमें शान्तिके समय कौनसा पूर्व कार्य नहीं होता ? मोक्षमार्ग में प्रवेश होना ही अपूर्व कार्य है । शान्तिके समय उसकी प्राप्ति सहज ही हो सकती है। आप लोग प्रयत्न कीजिये कि मोक्षमार्गमे प्रवेश हो और समा अनादि बन्धन खुल जाय । आजके दिन जिसने चमा धारण नहीं की वह अन्तिम दिन क्षमावणी क्या करेगा ? 'मैं तो या मा चाहता हूँ' इस वाचनिक क्षमाकी श्रावश्यक्ता नहीं है। हार्दिक क्षमासे ही आत्माका कल्याण होता है। श्रच्छेसे अच्छे आदमी बरबाद हो जाते हैं । म मैं नदिया (नवद्वीप) में दुलारमारे पास न्याय परना था। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली वे न्यायशास्त्रके बड़े भारी विद्वान् थे। उन्होंने अपने जीवनमें २५ वर्ष न्याय ही न्याय पढ़ा था। वे व्याकरण प्रायः नहीं जानते थे। एक दिन उन्होंने किसी प्रकरणमे अपने गुरुजीसे कहा कि जैसा 'वक्ति' होता है वैसा 'ब्रीति' क्यों नहीं होता? उनके गुरु उनकी मूर्खता पर बहुत क्रुद्ध हुए और बोले कि तूं वैल है, भाग जा यहाँसे । दुलार झा को बहुत बुरा लगा। उनका एक साथी था जो व्याकरण अच्छा जानता था और न्याय पढ़ता था । दुलार झाने कहा कि यहाँ क्या पढ़ते हो ? चलो हम तुम्हे घर पर न्याय बढ़िया पढ़ा देंगे। साथी इनके गाँवको चला गया। वहाँ उन्होंने उससे एक साल में तमाम व्याकरण पढ़ डाला और एक साल बाद अपने गुरुके पास आकर क्रोधसे कहा कि तुम्हारे बापको धूल दी, पूछले व्याकरण कहाँ पूछना है ? गुरु ने हंसकर कहाआओ बेटा । मै यही तो चाहता था कि तुम इसी तरह निर्भीक बनो । मैं तुम्हारी निर्भीकतासे बहुत संतुष्ट हुआ पर मेरी एक बात याद रक्खो अपराधिनि चेत्क्रोधः क्रोधे क्रोध कथ न हि । धर्मार्थकाममोक्षाणा चतुर्णां परिपन्थिनि ॥ दुलारझा अपने गुरुकी क्षमाको देखकर नतमस्तक रह गये। क्षमासे क्या नहीं होता ? अच्छे-अच्छे मनुष्योंका मान नष्ट हो जाता है । दरभंगामें दो भाई थे। दोनों इतिहासके विद्वान थे। एक बोला कि आला पहले हुआ है और दूसरा बोला कि ऊदल पहले हुआ है। इसीपर दोनोंमे लड़ाई हो गई। आखिर मुकदमा चला और जागीरदारसे किसानकी हालतमें आ गये। क्षमा सर्व गुणोंकी भूमि है। इसमे सब गुण सरलतासे विकसित हो जाते हैं। क्षमासे भूमिकी शुद्धि होती है। जिसने भूमिको शुद्ध कर लिया उसने सब कुछ कर लिया। एक गाँवमे दो आदमी थे Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० मेरी जीवन गाथा एक चित्रकार और दूसरा अचित्रकार। अचित्रकार चित्र बनाना तो नहीं जानता था पर था प्रतिभाशाली। चित्रकार बोला कि मेरे समान कोई चित्र नहीं बना सक्ता। दूसरेको उसकी गर्वोक्ति सह्य नहीं हुई अतः उसने झटसे कह दिया कि मैं तुमसे अच्छा चित्र बना सकता हूँ। विवाद चल पड़ा। अपना अपना कौशल दिखानेके लिये दोनों तुल पड़े। तय हुआ कि दोनों चित्र वनार्वे फिर अन्य परीक्षकोंसे परीक्षा कराई जावे | एक कमरेकी आमने सामनेकी दीवालों पर दोनों चित्र बनानेको तैयार हुए। कोई किसीका देख 'न ले इसलिये बीचमे परदा डाल दिया गया। चित्रकारने कहा कि मैं १५ दिनमे चित्र तैयार कर लूगा। इतने ही समयमे तुझे भी करना पड़ेगा। उसने कहामैं पौने पन्द्रह दिनमें कर दूंगा, घबड़ाते क्यों हो ? चित्रकार चित्र बनानेमें लग गया और दूसरा दीवाल साफ करनेमें । उसने १५ दिन मे दीवाल इतनी साफ कर दी कि काचके समान स्वच्छ हो गई। १५ दिन बाद लोगोंके सामने बीचका परदा हटाया गया। चित्रकारका पूरा चित्र उस स्वच्छ दीवालमे प्रतिविम्बित हो गया और इस तरह कि उसे स्वयं अपने मुहसे कहना पड़ा कि तेरा चित्र अच्छा है। क्या उसने चित्र बनाया था ? नहीं, केवल जमीन ही स्वच्छ की थी पर उसका चित्र बन गया और प्रतिद्वन्द्वीकी अपेक्षा अच्छा रहा । आप लोग क्षमा धारण करें, चाहे उपवास एकाशन आदि न करें। क्षमा ही धर्म है और धर्म ही चरित्र है। कुन्दकुन्द स्वामीका वचन है चारित्त खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिहिटो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥ यह जीव अनादि कालसे पर पदार्थको अपना समझ कर Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३४१ व्यर्थ ही सुखी दुखी होता है । जिसे यह सुख समझता है वह सुख नहीं है । वह ऊंचाई नहीं जहां से फिर पतन हो । वह सुख नहीं जहां फिर दुखकी प्राप्ति हो । यह वैषयिक सुख पराधीन है, वाधा सहित है, उतने पर भी नष्ट हो जानेवाला है और आगामी दुःखका कारण है। कौन समझदार इसे सुख कहेगा ? इस शरीर से आप स्नेह करते हैं पर इस शरीरमें है क्या ? आप ही बताओ माता पिताके रजवीर्यसे इसकी उत्पत्ति हुई। यह हड्डी, मास, रुधिर आदिका स्थान है । उसीकी फुलवारी है । यह मनुष्य पर्याय साटेके समान है। सांटेकी जड़ तो सड़ी होनेसे फेंक दी जाती हैं, वांड़ भी वेकास होता है और मध्य में कीड़ा लग जानेसे वेस्वाद हो जाता है । इसी प्रकार इस मनुष्यकी वृद्ध अवस्था शरीर शिथिल हो जाने से बेकार है । बाल अवस्था अज्ञानीकी अवस्था है। और मध्यदशा अनेक रोग संकटोंसे भरी हुई है । उसमे कितने भग भोगे जा सकेंगे ? पर यह जीव अपनी हीरा सी पर्याय व्यर्थ ही खो देता है। जिस प्रकार बातकी व्याधिसे मनुष्य के दुख लगते हैं । कषायसे—विपयेच्छासे इसकी आत्माका प्रत्येक प्रदेश दुखी हो रहा है । यह दूसरे पदार्थको जब तक अपना समझता है तभी तक उसे अपनाये रहता है । उसकी रक्षा आदिमे व्यग्र रहता है पर ज्यो ही उसे परमें परकीय बुद्धि हो जाती है, उसका त्याग करनेमें उसे देर नहीं लगती। एक बार एक धोबीके यहाँ दो मनुष्योंने कपड़े धुलानेको दिये। दोनोंके कपड़े एक समान थे, धोबी भूल गया, वह बदल कर दूसरेका कपड़ा दूसरेको दे आया । एक खास परीक्षा किये बिना दुपट्टाको अपना समझ ओढ़ कर सो गया पर दूसरेने परीक्षा की तो उसे अपना दुपट्टा वदला हुआ मालूम हुआ । उसने धोवीसे कहा | धोबीने गलती स्वीकार कर उसका कारण बतलाया और भटसे उस सोते हुए मनुष्य के दुपट्ट े का अंचल Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ मेरी जीवन गाथा खींच कर कहा-जरा जागिये, आपका कपड़ा बदल गया है। आपका यह है वह मुझे दीजिये। धोवीके कहने पर ज्यों ही उसने लक्षण मिलाये त्यों ही उसे उसकी वात ठीक जॅची। अब उसे उस दुपट्टे से, जिसे वह अपना समझ मुँह पर डाले हुए था, घृणा होने लगी और तत्काल उसने उसे धोवीको वापिस कर दिया। आपके शुद्ध चैतन्य भावको छोड़कर सभी तो आपमे पर पदार्थ हैं परन्तु आप नींदमे मस्त हो उन्हें अपना समझ रहे हैं। स्वपरस्वरूपोपादानापोहनके द्वारा अपनेको अपना समझो और पर को पर । फिर कल्याण तुम्हारा निश्चित है। आप लोग कल्याणके अर्थ सही प्रयाण तो करना नहीं चाहते और कल्याणकी इच्छा करते हैं सो कैसे हो सकता है ? जैनधर्म यह तो मानता नहीं है कि किसीके वरदानसे किसीका कल्याण हो जाता है। यहाँ तो कल्याणके इच्छुक जनको प्रयत्न स्वयं करना होगा। कल्याण कल्याणके ही मार्गसे होगा। मुझे एक कहानी याद आती है। वह यह कि एक वार महादेवजीने अपने भक्तपर प्रसन्न होकर कहा-बोल तूं क्या चाहता है ? उसके लडका नहीं था अतः उसने लड़का ही माँगा। महादेवजीने 'तथास्तु' कह दिया। घर आनेपर उसने स्त्रीसे कहा-आज सब काम बन गया, साक्षात् महादेवजीने वरदान दे दिया कि तेरे लड़का हो जायगा। भगवान्के वचन तो झूठ होते नहीं। अब कोई पाप क्यों किया जाय ? हम दोनो ब्रह्मचर्यंसे रहे। स्त्रीने पतिकी बात मान ली पर ब्रह्मचारीके सन्तान कहाँ ? वर्षोंपर वर्षे व्यतीत होगईं परन्तु सन्तान नहीं। स्त्रीने कहा भगवान्ने तुम्हे धोखा दिया। पुरुष वेचारा लाचार था। वह फिर महादेवजीके पास पहुंचा और बोला भगवन् । दुनिया झूठ बोले सो तो ठीक है पर आप भी मठ बोलने लगे। आपको वरदान दिये १२ वर्ष होगये पर आजतक लड़का नहीं Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३४३ हुआ, ठगनेके लिये मैं ही मिला | महादेवजीने कहा-तुमने लड़का पानेके लिये क्या किया ? पुरुषने कहा-हम लोग तो आपके वरदानका भरोसाकर ब्रह्मचर्यसे रहे। महादेवजीने हँसकर कहाभाई । मैने वरदान दिया था सो सच दिया था पर लड़का लड़केके रास्ते होगा। ब्रह्मचारीके संतान कैसे होगी ? तू ही बता, मैं आकाशसे तो गिरा नहीं देता। ऐसा ही हाल हम लोगोंका है, कल्याण कल्याणके मार्गसे ही होगा। ____ यह मोह दुखदायी है-शास्त्रोंमें लिखा है, आचार्योने कहा है, हम भी कहते हैं पर वह झूठा तो है ही नहीं। प्रयत्न जो हमारे अधूरे होते हैं। पूज्यपाद स्वामी समाधितन्त्रमे कहते हैं कि यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा । यज्जानाति न तद् दृश्यं केन साकं ब्रवीम्यहम् ॥ जो दिखता है वह जानता नहीं है और जो जानता है वह दिखता नहीं फिर मैं किसके साथ बातचीत करू ? अर्थात् किसी के साथ बोलना नहीं चाहिये यह आत्माका कर्तव्य है । वे ऐसा लिखते हैं पर स्वयं बोलते हैं, स्वयं दूसरोंको ऐसा करनेका उपदेश देते हैं। तत्त्वार्थसूत्रका प्रवचन आपने सुना । उसकी भूमिकामे उसके बननेके दो तीन कारण बतलाये हैं पर राजवार्तिकमे अललंकदेवने जो लिखा है वह बहुत ही ग्राह्य है। वे लिखते हैं कि इस सूत्रकी रचनामें गुरू-शिष्यका सम्बन्ध अपेक्षित नहीं है किन्तु अनन्त संसारमे निमज्ज जीवोंका अभ्युद्धार करनेकी इच्छासे प्रेरित हो आचार्यने स्वयं वैसा प्रयास किया है। कहनेका तात्पर्य है कि मोह चाहे छोटा हो चाहे बड़ा, किसीको नहीं छोड़ता। भगवान् ऋषभदेव तो युगके महान् पुरुष थे पर उन्होंने भी मोहके उदयमें अपनी आयुके ८३ लाख पूर्व विता दिये । आखिर, इन्द्रका इस ओर ध्यान Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ मेरी जीवन गाथा गया कि १८ कोड़ाकोड़ी सागरके वाद इस महापुरुषका जन्म हुआ और यह सामान्य जीवोंकी तरह संसार में फॅस रहा है, स्त्रियों और पुत्रोंके स्नेहमे डूब रहा है, संसारके प्राणियोंका कल्याण कैसे होगा ? उसने यह सोच कर नीलञ्जनाके नृत्यका आयोजन किया और उस निमित्तसे भगवान्का मोह दूर हुआ । जव मोह दूर हुआ तब ही उनका और उनके द्वारा अनन्त संसारी प्राणियों का क्ल्याण हुआ । रामचन्द्रजी सीताके स्नेहमे कितने भटके, लड़ाई लडी, अनेकोंका संहार किया पर जब स्नेह दूर हो गया तव सीताके जीव प्रतीन्द्रने कितना प्रयत्न किया उन्हें तपसे विचलित करनेका । पर क्या वह विचलित हुए ? मोह ही संसारका कारण है मेरा यही अटल श्रद्धा है । हम मोहके कारण ही अपने आपको दुनियाँका कर्ता-धर्ता मानते हैं पर यथार्थमे पूछो तो कौन कहाँका ? कहाँकी स्त्री ? कहाँका पुत्र ? कौन किसको अपनी इच्छानुसार परिणमा सकता है । 'कहींकी ईट कहीका रोरा भानमतीने कुरमा जोड़ा' ठीक हम लोग भी भानमती के समान ही कुरमा जोड़ रहे हैं । नहीं तो कहाँ का मनुष्य, कहाँका क्या ? इसलिए जो संसारके बन्धन से छूटना चाहते हैं उन्हें मोहको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये | आप लोग विना कुछ किये कल्याण चाहते हो पर वह इस तरह होनेका नहीं । आपका हाल ऐसा है कि 'अम्मा मैं तैरना सीखूँगा पर पानीका स्पर्श नहीं करूँगा' । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २ : मार्दवका अर्थ कोमलता है । कोमलता में अनेक गुण वृद्धि पाते हैं । यदि कठोर जमीनमे बीज डाला जाय तो व्यर्थ चला जायगा । पानीकी वारिस में जो जमीन कोमल हो जाती है उसीमे बीज जमता है। बच्चोंको प्रारम्भमे पढ़ाया जाता है विद्या ददाति विनय विनयाद्याति पात्रताम् । पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ॥ 4 विद्या विनयको देती है, विनयसे पात्रता आती है, पात्रतासे धन मिलता है, धनसे धर्म और धर्म से सुख प्राप्त होता है । जिसने अपने हृदयमे विनय धारण नहीं किया वह धर्मका अधिकारी कैसे हो सकता है ? विनयी छात्रपर गुरुका इतना आकर्षण रहता है कि वह उसे एक साथ सब कुछ बतलानेको तैयार रहता है । एक स्थानपर एक पण्डितजी रहते थे । पहले गुरुओंके घरपर ही छात्र रहा करते थे तथा गुरु उनपर पुत्रवत् स्नेह रखते थे । पण्डितजीका एक छात्रपर विशेष स्नेह था, पण्डितानी उनको बार बार कहा करती कि सभी लड़के तो आपकी विनय करते हैं, आपको मानते हैं फिर आप इसी एककी क्यों प्रशंसा करते हैं। पण्डितजी ने कहा कि इस जैसा कोई मुझे नहीं चाहता । यदि तुम इसकी परीक्षा ही करना चाहती हो तो मेरे पास बैठ जाओ । आमका सीजन था, गुरुने अपने हाथपर एक पट्टी के भीतर आम बाँध लिया । और दुखी जैसी सूरत बनाकर कराहने लगे । समस्त छात्र गुरुजीके पास दौड़े आये । गुरुने कहा दुर्भाग्य वश भारी फोड़ा हो गया Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ मेरी जीवन गाथा है। छात्रोंने कहा मैं अभी वैद्य लाता हूँ, ठीक हो जावेगा। गुरुले कहा वेटो ! यह वैद्यसे अच्छा नहीं होता-एक बार पहले भी मुझे हुआ था। तब मेरे पिताने इसे चूसकर अच्छा किया था, यह चूसने ही से अच्छा हो सकता है। मवादसे भरा फोड़ा कौन चूसे ? सब ठिठक कर रह गये। इतनेमे वह छात्र आ गया जिसकी गुरु बहुत प्रशंसा किया करते थे। आकर बोला-गुरु जी क्या कष्ट है ? वेटा ! फोड़ा है, चूसनेसे ही अच्छा होगा "गुरु ने कहा। गुरुजीके कहनेकी देर थी कि उस छात्रने उसे अपने मुहमें ले लिया। फोड़ा तो था ही नहीं आम था। पण्डितान को अपने पतिके वचनोपर विश्वास हुआ । आजका छात्र तो गुरुको नौकर समझ उसका बहुत ही अनादर करता है। यही कारण है कि उसके हृदयमे विद्याका वास्तविक प्रवेश नहीं हो रहा है। क्या कहे आजकी बात ? आज तो विनय रह ही नहीं गया। सभी अपने आपको बड़ेसे बड़ा अनुभव करते हैं। मेरा मान नहीं चला जाय इसकी फिकरमे सब पड़े हैं पर इस तरह किसका मान रहा है ? आप किसीको हाथ जोड़कर या शिर झुकाकर उसका उपकार नहीं करते बल्कि अपने हृदयसे मान रूपी शत्रुको हराकर अपने आपका उपकार करते हैं। किसीने किसीकी बात मान ली, उसे हाथ जोड़ लिये, शिर झुका दिया उतने से ही वह खुश हो जाता है और कहता है कि इसने हमारा मान रख लिया। अरे मान रख क्या लिया ? अपि तो खो दिया। आपके हृदयमे जो अहंकार था उसने उसे अपनी शारीरिक क्रियासे दूर कर दिया ? दिल्लीमे पञ्च कल्याणक हुआ था। पञ्चकल्याणकके बाद लाडू बाँटनेकी पृथा वहाँ थी। लाला हरसुखरायजीने नौकरके हाथ सबके घर लाडू भेजा, लोगोंने सानन्द लाडू ले लिया पर एक गरीब आदमीने जो चना गुड़ आदिकी दुकान किये था यह विचार Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली कर लाडू लेना अस्वीकृत कर दिया कि मै कभी लालाजीको पानी नही पिला सकता तब उनके लाडूका व्यवहार कैसे पूर्ण कर सकूँगा? शामके समय जब लालाजीको पता चला तो दूसरे दिन वे स्वयं लाडू लेकर नौकरके साथ गाड़ीपर सवार हो उसकी दूकानपर पहुंचे और बड़ी विनयसे दूकानपर बैठकर उसकी डालीमेंसे कुछ चने और गुड़ उठाकर खाने लगे। खानेके बाद बोले लाओ पानी पिलाओ। पानी पिया, तदनन्तर बोले कि भाई अव तो मैं तुम्हारा पानी पी चुका अव तो तुम्हे हमारा लाडू लेना अस्वीकृत नहीं करना चाहिये। दूकानदार अपने व्यवहार और लालाजीकी सौजन्यपूर्ण प्रवृत्तिसे दङ्ग रह गया। लाडू लिया और आँखोंसे आँसू गिराने लगा कि इनकी महत्ता तो देखो कि मुझ जैसे तुच्छ व्यक्तिको भी ये नहीं भुला सके। आजका बड़ा आदमी क्या कभी किसी गरीबका इस प्रकार ध्यान रख सकता है ? ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीरकी सुन्दरता इन आठ बातोंको लेकर मनुष्य गर्व करता है पर जिनका वह गर्व करता है क्या वे इसकी हैं ? सदा इसके पास रहनेवाली हैं ? क्षायोपशमिक ज्ञान आज है, कल इन्द्रियोंमें विकार आ जानेसे नष्ट हो जाता है। जहाँ चक्रवर्तीकी भी पूजा स्थिर नहीं रह सकी वहाँ अन्य लोगोंकी पूजा स्थिर रह सकेगी यह सम्भव नहीं है। कुल और जातिका अहङ्कार क्या है ? सबकी खान निगोद राशि है। आज कोई कितना ही बड़ा क्यों न बना हो पर निश्चित है कि वह किसी न किसी समय निगोदसे ही निकला है। उसका मूल निवास निगोदमे ही था। वलका अहंकार क्या ? आज शरीर तगड़ा है पर जोरका मलेरिया आ जाय तथा चार छह लॅघनें हो जावें तो सूरत बदल जाय, उठते न बने। धन सम्पदाका अभिमान थोता अभिमान है, मनुष्यकी सम्पत्ति जाते देर नहीं लगती। इसी Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरो जीवन गाथा प्रकार तप और शरीरके सौन्दर्यका अभिमान करना व्यर्थ है। ____ कलके दिन प्रथमाध्यायमे आपने सम्यग्दर्शनका वर्णन सुना था। जिस प्रकार अन्य लोगोंके यहाँ ईश्वर या खुदाका माहात्म्य है वैसा ही जैनधर्ममे सम्यग्दर्शनका माहात्म्य है। सम्यग्दर्शनका अर्थ आत्मलब्धि है। आत्मीक स्वरूपका ठीक ठीक बोध हो जाना आत्मलब्धि कहलाती है। आत्मलब्धिके सामने सब सुख धूल हैं। सम्यग्दर्शनसे आत्माका महान् गुण जागृत होता है, विवेक शक्ति जागृत होती है । आज कल लोग हर एक वातमे 'क्यों? क्यों ?' करने लगते हैं। इसका अभिप्राय यही है कि उनमे श्रद्धा नहीं है। श्रद्धाके न होनेसे ही हर एक वातमें कुतकं उठा करते हैं । एक आदमीको 'क्यों का रोग हो गया। उससे वेचारा वडा परेशान हुआ। पूछने पर किसी भले आदमीने सलाह दी कि तू इसे किसी को बेच डाल, भले ही सौ पचास लग जॉय । वीमार आदमी इस विचारमे पड़ा कि यह रोग किसे बेचा जाय ? किसीने सलाह दी कि स्कूलके लड़के वडे चालाक होते हैं, ५०) देकर किसी लड़केको बेच दे। उसने ऐसा ही किया। एक लड़केने ५०) लेकर उसका वह रोग ले लिया। सव लड़कोंने मिल कर ५० की मिठाई खाई। जब लड़का मास्टरके सामने गया और मास्टरने पूछा कि कलका सवक सुनाओ, तव लड़का बोला-क्यो ? मास्टरने कान पकड़ कर लड़केको बाहर निकाल दिया। लडका समझा कि 'क्यों' का रोग तो बड़ा खराव है, वह उसको वापिस कर आया । अबकी बार उसने सोचा कि चलो अस्पतालके किसी मरीजको वच दिया जाय तो अच्छा है। ये लोग तो पलंग पर पड़े पड़े आनन्द करते ही हैं। ऐसा ही किया, एक मरीजको बेच आया। दूसरे दिन डाक्टर आये। पूछा-तुम्हारा क्या हाल है ? मरीजने कहाक्यों ? डाक्टरने उसे अस्पतालसे बाहर कर दिया। उसन भा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली समझा कि दर असल यह रोग तो बड़ा खराव है। वह भी वापिस कर आया। अबकी बार उसने सोचा कि अदालती आदमी बड़े टंच होते हैं, उन्हींको वेचा जाय । निदान, एक आदमीको बेच दिया । वह मजिष्ट्रेट के सामने गया। मजिष्ट्रेटने कहा कि तुम्हारी नालिशका ठीक ठीक मतलब क्या है ? आदमीने कहा-क्यों? मजिस्ट्रेटने मुकदमा खारिज कर कहा कि घरकी रह लो । “यह तो कहानी है पर विचार कर देखा जाय तो हर एक बातमे कुतर्कसे काम नहीं चलता। युक्तिके बलसे सभी बातोका निर्णय नहीं किया जा सकता। कितनी ही बातें ऐसी हैं जिनका आगमसे निर्णय होता है और कितनी ही बातें ऐसी हैं जिनका युक्तिसे निर्णय होता है। यदि आपको धर्ममे श्रद्धा न होती तो हजारोंकी संख्यामे क्यों आते ? __आचार्योंने सबसे पहले यही कहा कि . 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी एकता ही मोक्षका मार्ग है। आचार्यकी करुणा बुद्धि तो देखो। अरे, मोक्ष तो तब हो जब पहले बन्ध हो। यहाँ पहले बन्धका मार्ग बतलाना था फिर मोक्षका परन्तु उन्होंने मोक्षमार्गका पहले वर्णन किया है। उसका कारण यही है कि ये प्राणी अनादिकालसे बन्ध जनित दुःखका अनुभव करते करते घबड़ा गये हैं अतः पहले इन्हे मोक्षका मार्ग बतलाना चाहिये। जैसे जो कारागार में पड़ कर दुःखी होता है वह यह नहीं जानना चाहता है कि मैं कारागारमें क्यों पड़ा ? वह तो यह जानना चाहता है कि मैं इस कारागारसे छूटू कैसे ? यही सोच कर आचार्यने पहले मोक्षका मार्ग बतलाया है। सम्यग्दर्शनके रहनेसे विवेक शक्ति सदा जागृत रहती है। वह विपत्तिसे पड़ने पर भी कभी अन्यायको न्याय नहीं समझता। :रामचन्द्रजी सीताको छुडानेके लिये लङ्का Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० मेरी जीवन गाथा गये थे । लंकाके चारों ओर उनका कटक पड़ा था। हनूमान् आदिने रामचन्द्रजीको खबर दी कि रावण जिनमन्दिरमें बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है। यदि उसे यह विद्या सिद्ध हो गई तो फिर वह अजेय हो जायगा। आज्ञा दीजिये कि जिससे हम लोग उसकी विद्यासिद्धिमे विघ्न करें। रामचन्द्रजीने कहा कि हम क्षत्रिय हैं, कोई धर्म करे और हम उसमे विघ्न डालें यह हमारा कर्तव्य नहीं है। सीता फिर दुर्लभ हो जायगी...." यह हनुमानने कहा। रामचन्द्रजीने जोरदार शब्दोंमें उत्तर दिया-हो जाय, एक सीता नहीं दो सीताएँ दुर्लभ हो जॉय पर मैं अन्याय करने की आज्ञा नहीं दे सकता। रामचन्द्रजीमे जो इतना विवेक था उसका कारण क्या था ? कारण था उनका सम्यग्दर्शन-विशुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन। सीताको तीर्थयात्राकं वहाने कृतान्तवन सेनापति जंगलमें छोड़ने गया। क्या उसका हृदय वैसा करना चाहता था ? नहीं, वह तो स्वामीकी परतन्त्रतासे गया था। उस वक्त कृतान्तवक्रको अपनी पराधीनता काफी खली। जब वह निर्दोष सीताको जंगलमे छोड अपने अपराधकी क्षमा माँग वापिस पाने लगा तब सीता उससे कहती है-सेनापते । मेरा एक संदेश उनसे कह देना । वह यह कि जिस प्रकार लोकापवादके भयसे आपने मुझे त्यागा है इस प्रकार लोकापवादके भयसे जैनधर्मको नहीं छोड़ देना। उस निराश्रित अपमानित स्त्रीको इतना विवेक बना रहा। इसका कारण क्या था? उसका सम्यग्दर्शन । आज कलकी स्त्री होती तो पचास गालियों सुनाती और अपने समानताके अधिकार बनाती। इतना ही नहीं, सीता जब नारदजीके आयोजन द्वारा लवणांकुशके साथ अयोध्या आती है। एक वीरता पूर्ण युद्धके वाद पिता-पुत्रका मिलाप होता है, सीता लज्जासे भरी हुई राज दरवारमे पहुंचती है। उसे देखकर Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३५१ रामचन्द्रजी कह उठते हैं कि दुष्ट! तू विना शपथ दिये-विना परीक्षा दिये यहाँ कहाँ ? तुझे लज्जा नहीं आई ? सीताने विवेक और धैर्यके साथ उत्तर दिया कि मैं समझी थी कि आपका हृदय कोमल है पर क्या कहूँ ? आप मेरी जिस प्रकार चाहे शपथ ले लें। रामचन्द्रजीने उत्तेजनामें आकर कह दिया कि अच्छा अग्निमे कूद कर अपनी सचाईकी परीक्षा दो। बड़े भारी जलते हुए अग्नि कुण्डमे कूदनके लिये सीता तैयार हुई। रामचन्द्रजी लक्ष्मणसे कहते हैं कि सीता जल न जाय । लक्ष्मणने कुछ रोपपूर्ण शब्दोंमे उत्तर दिया कि यह आज्ञा देते समय न सोचा ? यह सती है, निर्दोष हैं । आज आप इसके अखण्ड शीलकी महिमा देखिये। इसी समय दो देव केवलीकी वन्दनासे लौट रहे थे । उनका ध्यान सीताका उपसर्ग दूर करनेकी ओर गया। सीता अग्नि कुण्डमें कूद पड़ी और कूदते ही साथ जो अतिशय हुआ सो सब जानते हो। सीताके चित्तमें रामचन्द्रजीके कठोर शब्द सुन कर संसारसे वैराग्य हो चुका था पर 'निःशल्यो व्रती' व्रतीको निःशल्य होना चाहिये। यदि विना परीक्षा दिये मैं व्रत लेती हूं तो यह शल्य निरन्तर बनी रहेगी। इसलिये उसने दीक्षा लेनेसे पहले परीक्षा देना आवश्यक समझा था। परीक्षामें वह पास हो गई, रामचन्द्रजी उससे कहते हैं-देवि ! घर चलो । अव तक हमारा स्नेह हृदयमे था पर अब आँखोंमे आ गया है । सीताने नीरस स्वरमें कहा कहि सीता सुन रामचन्द्र संसार महादु ख वृक्षकंद । तुम जानत पर कुछ करत नाहि................"|| रामचन्द्रजी ! यह घर दुखरूपी वृक्षकी जड़ है। अब मैं इसमे न रहूँगी। सच्चा सुख इसके त्यागमें ही है। रामचन्द्रजी ने बहत कुछ कहा-यदि मैं अपराधी हूँ तो लक्ष्मणकी ओर देखो, यदि Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाया ३५२ यह भी अपराधी है तो अपने बच्चों लवणांकुशकी ओर देखो और एक बार पुनः घरमें प्रवेश करो। परन्तु सीता अपनी दृढ़ता से च्युत नहीं हुई। उसने उसी वक्त केश उखाड़ कर रामचन्द्रजी के सामने फेंक दिये और जङ्गलमे जाकर आर्या हो गई। यह सब काम सम्यग्दर्शनका है । यदि उसे अपने कर्मपर, भाग्यपर विश्वास न होता तो वह क्या यह सब कार्य कर सकती ? व रामचन्द्रजीका विवेक देखिये । जो रामचन्द्र सीताके पीछे पागल हो रहे थे, वृत्तों से पूछते थे - क्या तुमने मेरी सीता देखी है ? वही जब तपश्चर्यामे लीन थे तब सीताके जीव प्रतीन्दने नि उपसर्ग किये पर वह अपने ध्यानसे विचलित नहीं हुए। शुक्ल ध्यान धारणकर केवली अवस्थाको प्राप्त हुए । सम्यग्दर्शनसे आत्मामें प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आतित्य गुण प्रकट होते हैं जो सम्यग्दर्शनके अविनाभावी हैं। यदि आपमें ये गुण प्रकट हुए हैं तो समझ लो हम सम्यग्दृष्टि हैं। कोई क्या बतलाया कि तुम सम्यग्दृष्टि हो या मिध्यादृष्टि । श्रमत्याख्यानचरणी कपायका संस्कार छह माहसे ज्यादा नहीं चलता। यदि आपकी किसीसे लड़ाई होनेपर छह माह से अधिक कालक लेनेकी भावना रहती है तो समझ लो कि अभी हम मिध्यादृष्टि है। कपायके असंख्यात लोकप्रमाण स्थान है। उनमें मनका स्वरूप ही शिथिल हो जाना प्रशम गुण है । मिथ्यादृष्टि याम जीवकी विषय कपायमें जैसी स्वच्छ प्रवृत्ति होती है मी दर्शन होनेपर नहीं होती। यह दूसरी बात है कि चा उदयसे यह उसे छोड़ नहीं सकता हो पर प्रवृत्तिमं शैथिल्य आ जाता है। प्रशमा एक अर्थ यह भी है जो अधिक ग्राह्य है । वह यह उत्पन्न नहीं होना प्रशम कहलाता है। बहुरूपिया भी Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३५३ समय रामचन्द्रजीने रावणपर जो रोप नहीं किया था वह इसका उत्तम उदाहरण है। प्रशम गुण तब तक नहीं हो सकता जब तक अनन्तानुवन्धी क्रोध विद्यमान रहता है। उसके बूटते ही प्रशम गुण प्रकट हो जाता है। क्रोध ही क्यों अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी मान माया लोभ सभी कपाय प्रशमगुणके घातक हैं। संसारसे भय उत्पन्न होना संवेग है। विवेकी मनुष्य जब चतुर्गतिरूप ससारके दुःखोंका चिन्तन करता है तब उसकी यात्मा भयभीत होजाती है तथा दुःखके कारणोंसे निवृत्त होजाती है । दुःखी मनुष्यको देखकर हृदयमे कम्पन उत्पन्न हो जाना अनुकम्पा है। मिथ्यादृष्टिकी अनुकम्पा और सम्यग्दृष्टिकी अनुकम्पामे अन्तर होता है। सम्यग्दृष्टि मनुप्य जब किसी आत्माको क्रोधादि कपायोंसे अभिभूत तथा भोगालक्त देखता है तब उसके मनमे करुणाभाव उत्पन्न होता है कि देखो वेचारा कपायके भारसे कितना दव रहा है ? इसका कल्याण किस प्रकार हो सकेगा? आप्त व्रत श्रुत तत्त्वपर तथा लोक आदि पर श्रद्धापूर्ण भावका होना आस्तिक्य भाव है। ये गुण सम्यग्दर्शनके अविनाभावी हैं। यद्यपि मिथ्यात्वकी मन्दतामे भी ये हो जाते हैं तथापि वे यथार्थ गुण नहीं किन्तु गुणाभास कहलाते हैं। आज आर्जव धर्म है । आर्जवका अर्थ सरलता है और सरलताके मायने मन वचन कायकी एकता है। मनमें जो विचार आया हो उसे वचनसे कहा जाय और जो वचनसे कहा जाय उसीके २३ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा ३५४ अनुसार कायसे प्रवृत्ति की जाय । नव इन तीनों योगोंकी प्रवृत्तिमे विषमता आ जाती है तव माया कहलाने लगती है। यह माया शल्यकी तरह हृदयमें सदा चुभती रहती है । इसके रहते हुए मनुष्यके हृदयमें स्थिरता नहीं रहती और स्थिरताके अभावमे उसका कोई भी कार्य यथार्थरूपमें सिद्ध नहीं हो पाता। ___ मान और लोभके वीचमें मोयाका पाठ आया है सो उसका कारण यह है कि माया मान और लोभ-दोनोंके साथ संपर्क रखती है। दोनोंसे उसकी उत्पत्ति होती है। मानके निमित्तसे मनुष्यको यह इच्छा उत्पन्न होती है कि मेरे वड़प्पनमे कोई प्रकारकी कमी न आ जाय परन्तु शक्तिकी न्यूनतासे बड़प्पनका कार्य करनेमें असमर्थ रहता है इसलिये मायाचाररूपी प्रवृत्ति कर अपनी हार्दिक कमजोरीको छिपाये रखता है। मनुप्य जिस रूपमें वस्तुतः है उसी रूपमे उसे अपने आपको प्रगट करना चाहिये। इसके विपरीत जब वह अपनी दुर्वलताको छिपाकर वड़ा बननेका प्रयत्न करता है तब मायाकी परिणति उसके सामने आती है। यही दम्भ है, माया है। जिनागम तो यह कहता है कि जितनी शक्ति हो उतना कार्य करो और अपने असली रूपमे प्रकट होओ। लोभके वशीभूत होकर जीव नाना प्रकारके कष्ट भोगता है तथा इच्छित वस्तुको प्राधिक लिये निरन्तर अध्यवसाय करता है। वह तरह-तरहकी छल-मुद्रताश्री को करता है। मोहकी महिमा विचित्र है। आपने पद्मपुराणम त्रिलोकमण्डन हाथीके पूर्व भव श्रवण किये होंगे। एक मुनिने एक स्थानपर मासोपवास किये। व्रत पूर्ण होनेपर वे तो कहीं अन्यत्र विहार कर गये पर उनके स्थानपर अन्यत्रसे विहार करते हुए दूसरे मुनि आ गये। नगरके लोग उन्हें ही मासोपवासी मुनि ममग उनकी प्रभावना करने लगे पर उन आगन्तुक मुनिको यह भार नहीं हुआ कि कह दें-मैं मासोपवासी नहीं है। महान न होन्दर भी Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३५५ महान् बननेकी आकांक्षाने उनकी आत्माको मायाचारसे भर दिया और उसका परिणाम क्या हुआ सो आप जानते हैं। मनुष्य अपने पापको छिपानेका प्रयत्न करता है पर वह रुईमे लपेटी श्रागके समान स्त्रयमेव प्रकट हो जाता है । किसीका जल्दी प्रकट हो जाता है और किसीका विलम्बसे पर यह निश्चित है कि प्रकट अवश्य होता है । पापके प्रकट होनेपर मनुष्यका सारा बड़प्पन समाप्त हो जाता है और छिपानेके कारण संक्लेश रूप परीणामोंसे जो खोटे कर्मोंका आस्त्रत्र करता रहा उसका फल व्यर्थ ही भोगना पड़ता है । बाँकी जड़, मेढ़े के सींग, गोमूत्र तथा खुरपीके समान माया चार प्रकारकी होती है । यह चारों प्रकारकी माया दुःखदायी है । मायाचारी मनुष्यका कोई विश्वास नहीं रखता और विश्वासके न होनेसे उसे जीवन भर कष्ट उठाना पड़ते हैं । जब कि सरल मनुष्य उसके विरुद्ध अनेक सम्पत्तियों का स्वामी होता है । आपने पूजामे पढ़ा होगा कपट न कीजे कोय चोरनके पुर ना बसै । सरल स्वभावी होय ताके घर बहु सम्पदा अर्थात् किसीको कपट नहीं करना चाहिये क्योंकि चोरोंके कभी गाँव वसे नहीं देखे गये । जीवन भर चोर चोरी करते हैं पर अन्तमे उन्हें कफनके लिये परमुखापेक्षी होना पड़ता है । इसके विपरीत सरल मनुष्य अधिक सम्पत्तिशाली होता है । मायासे मनुष्यकी सब सुजनता नष्ट हो जाती है। मायावी मनुष्य ऐसी मुद्रा बनाता है कि देखनेमें बड़ा भद्र मालूम होता है पर उसका अन्तःकरण अत्यन्त कलुषित रहता है । वनवास के समय जब रामचन्द्रजी पम्पा सरोवरके किनारे पहुँचे तब एक बगला बड़ी शान्त मुद्रामें बैठा था । उसे देख रामचन्द्रजी लक्ष्मणसे कहते हैं कि लक्ष्मण | देखो Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवद गाया कैसा शान्त तपस्वी बैठा है ? उसी समय एक मच्छकी आवाज आती है कि महाराज! उसकी शान्त वृत्तिका हाल तो मुझसे पूछिये । फहनेका तात्पर्य यह है कि मनुष्य येन केन प्रकारेण अपना ऐहिक प्रयोजन सिद्ध करना चाहते हैं पर पारलौकिक प्रयोजनकी ओर उनकी दृष्टि नहीं है। साँप लहराता हुआ चलता है पर वह जर अपने विलमें घुसने लगता है तब उसे सीधा ही चलना पड़ता है। इसी प्रकार मनुष्य जब स्वरूपमे लीन होना चाहता है तब उसे सरल व्यवहार ही करना पड़ता है। सरल व्यवहारका बिना स्वस्थभावमे स्थिरता कहाँ हो सकती है ? जहाँपर स्वस्वभावरूप परिणमन ह वहाँ पर कपटमय व्यवहार नहीं और जहाँ कपट व्यवहार है वहाँ स्वस्वभाव परिणमनमे विरार हे । इसीसे इसको विभाव कहते हैं। विभाव ही संसारका कारण है। प्रायः संसारमे प्रत्येक मनुष्यकी यह अभिलापा रहती है कि मैं लोगोंके द्वारा प्रशंसा पाऊ-लोग मुझे अन्दा मममें नही भाव जीवके दुःखके कारण हैं। ये भाव जिनके नहीं होते व ती जन हैं। उनके जो भी भाव होते हैं वही मुम्बभाव बहलाने हैं। जिन जीवोंके अपने क्याय पोरणके परिणाम नहीं यही सुजन है। उनरी जो परिणति है वही सुजनता है। यहाँ तक उनी निर्मल परिलनि होजाती है कि वे परोपकारादि करके भी अपनी प्रगमा नी चारकिसी कार्यके का नहीं बनते। मेरा तो विश्वास है शिकार पुरुष पुण्यको यन्धका कारण मानते हैं। यदि उसे नाव : नलममतेनो उसके कर्तृत्वको श्यों न मानने ? - सांग विपयादि कार्य भी चल्न परते है परन्तु उम्मे शिश" जो पुण्य कार्य करने भी पेक्षा वेपार तो करें यह अद्विमें नहीं माना। मुजन मनुषती मेटा ' उनका जो भी कार्य में यह लग" मी Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३५७ सुख और दुःखके होनेपर हर्ष और विषाद भावके पात्र नहीं होते । वे उन कार्योंको कर्मकृत जान उनसे उपेक्षित रहते हैं । वे जो दानादि करते हैं उनमे भी उनके प्रशंसादिके भाव नहीं होते । यही कारण हैं कि वे अल्प कालमे संसारके दुःखोंसे बच जाते हैं । । सुजनताकी गन्ध भी मनुष्यके लग जावे तो वह अधर्म कार्यों से चच जावे | वर्तमान युगमे मनुष्य प्राय विपयलम्पटी हो गये हैं । इससे सम्पूर्ण संसार दुःखमय हो रहा है । पहले मनुष्य विद्यार्जन इसलिये करते थे कि हम संसारके कष्टोंसे बचें तथा परको भी वचावें । हमारे संचयमे जो वस्तु हो उससे परको भी लाभ पहुँचे । पहलेके लोग ज्ञानदान द्वारा अज्ञानीको सुज्ञानी बनानेका प्रयत्न करते थे परन्तु अब तो विद्याध्ययनका लक्ष्य परिग्रह पिशाचके अर्जुनका रह गया है । यह बात पहले ही लक्ष्यमें रखते हैं कि इस विद्याध्ययनके बाद हमको कितना मासिक मिलेगा ? पारलौकिक लाभका लक्ष्य नहीं । पाश्चात्य विद्याका लक्ष्य ही यह है कि विज्ञानके द्वारा ऐसे ऐसे आविष्कार करना जो किसी तरह द्रव्य का अर्जन हो, प्राणियोंका संहार हो, सहस्रों जीवोंका जीवन खतरे मे पड़ जावे । ऐसे आविष्कार किये जावें कि एक अणुवमके द्वारा लाखों मनुष्योंका स्वाहा हो जावे । अथवा ऐसे ऐसे सिनेमा दिखाये जावें । यद्यपि कोई कोई सिनेमा भलाईके हैं तो भी वे विप मिश्रित भोजनके समान हैं । अस्तु, यह सब इस निकृष्ट कालकी महिमा है । इस युग मे भी कई ऐसे सुजन हैं जो इन उपद्रवोंसे सुरक्षित हैं और उन्हीं के प्रतापसे आज कुछ शान्ति देखी जाती है । जिस दिन उन महात्माओं का अभाव हो जायगा उस दिन सर्वत्र ही अराजकताका साम्राज्य हो जावेगा । आजकल प्राचीन आर्यपद्धति के पराम्परागत नियमोंकी अवहेलना की जाती हैं और नये नये नियमोंका निर्माण किया जा रहा है । प्राचीन नियम यदि दोप Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ मेरी जीवन गाथा पूर्ण हों तो उन्हें त्याग दो। इसमे कोई भी आपत्ति नहीं परन्तु अव तो प्राचीन महात्माओंकी वात सुननेसे मनुष्य उबल उठते हैं। मेरा तो विश्वास है कि परिग्रहके पिशाचसे पीड़ित आत्मा कितने ही ज्ञानी क्यों न हों उनके द्वारा जो भी कार्य किया जावेगा उससे कदापि साधारण मनुष्योंको लाभ नहीं पहुंच सकता क्योंकि वे स्वयं परिग्रहसे पीड़ित हैं। प्राचीन समयमें वीतराग साधुओंके द्वारा संसारमात्रकी भलाईके नियम बनाये जाते थे अतः जिन्हें संसारके कल्याण करनेकी अभिलाषा है वे पहले स्वयं सुजन बनें। सुजन मायने भले मानुष । भले मानुषका अर्थ है जिनका आचार निर्मल हो । निर्मल आचारके द्वारा वे आत्मकल्याण भी कर सकते हैं और उनके आचारको देखकर संसारी मनुष्य स्वयं क्ल्याण कर सकता है। यदि पिता सदाचारी है तो उसकी संतान स्वयं सदाचारी बन जाती है। यदि पिता वीड़ी पीता है तो वेटा सिगरेट पीवेगा और पिता भंग पीता है तो बेटा मदिरा पान करेगा इसलिए निर्मल आचारके धारक सुजन वनो तथा निश्छल प्रवृति करो। ' आपने तृतीयाध्यायमे नरक लोकका वर्णन सुना, वहाँके स्वाभाविक तथा परकृत दुःखोंका जव ध्यान आता है तब शरीरम रोमाञ्च उठ आते हैं। हृदयमे विचार करो कि इन दुःखोंका मूल कारण क्या है ? इन दुःखोंका मूल कारण मिथ्यात्वकी प्रबलता है। मिथ्यात्वकी प्रबलतासे यह जीव अपने स्वभावसे च्युत हो पर पदार्थोंको सुखका कारण मानने लगता है इसीलिये परिग्रहमे तथा उसके उपार्जनमें इसकी आसक्ति बढ़ जाती है और यह परिग्रह तथा प्रारम्भ सम्बन्धी आसक्ति ही इस जीवको नरक दुःखाका पात्र बना देती है। नरक गतिमे यह जीव दश हजार वर्षसे लेकर तेतीस सागर तक विद्यमान रहता है। वहाँसे असमयमे निकलना Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३५६ भी नहीं होता अर्थात् जो जीव जितनी आयु लेकर नरकमे जहाँ पहुँचता है उसे वहाँ उतनी आयु तक रहना ही पड़ता है। नरक दुःखका कारण है परन्तु वहाँ भी यदि किन्हीं जीवोंकी काललब्धि आजाती है तो वे सम्यग्दृष्टि बन जाते हैं। सम्यग्दृष्टि बनते ही उनकी अन्तरात्मा आत्मसुखका स्वाद लेने लगती है। चिन्मूरति दृग्धारीकी मोहि रीति लगत है अटापटी। वाहर नारक कृत दु ख भोगे अन्तर सुख रस गटागटी॥ सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी नारकी बाह्यमें यद्यपि पूर्वकी भॉति ही दुःख भोगता है तथापि अन्तरङ्गमे उसे मोहाभाव जन्य सुखका अनुभव होने लगता है। वह समझता है कि नारकियोंके द्वारा दिया हुआ दुःख हमारे पुराकृत कर्मोंका फल है जिसे भोगना अनिवार्य है परन्तु यह दुःख हमारा निज स्वभाव नहीं है। मेरा निज स्वभाव तो चैतन्यमूर्ति तथा अनन्त सुखका भण्डार है। मोहके कारण मेरा यह स्वभाव वर्तमानमे अन्यथा परिणमन कर रहा है पर जब मोहका विकार आत्मासे निकल जायगा तब आत्मा निजस्वभावमे लीन हो जायगा। मध्यम लोकके वर्णनसे यह चिन्तवन करना चाहिये कि इस लोकमे ऐला कोई स्थान नहीं बचा जिसमें मैं अनन्त वार उपजा मरा न होऊँ । धर्म रूढ़ि नहीं है प्रत्युत आत्माकी निर्मल परिणति है। - जीवनमे उतारनेसे ही आत्माका कल्याण हो सक्ता है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज शौचधर्म है। शौचका अर्थ पवित्रता है। यह पवित्रता लोभ कषायके अभावसे प्रकट होती है। लोभके कारण ही संसारके यावन्मात्र प्राणी दुखी हो रहे हैं। आचार्य गुणभद्रने आत्मानुशासनमे लिखा है श्राशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयषिता ॥ अर्थात् यह आशारूपी गर्त प्रत्येक प्राणीके सामने खुदा है । ऐसा गर्ने कि जिसमे समस्त संसारका वैभव परमाणुके समान है। फिर किसके भागमे कितना आवे अतः विषयोंकी वाञ्छा करना व्यर्थ है। इस आशारूपी गर्तको जैसे-जैसे भरा जाता है वैसे-वैसे ही यह गहरा होता जाता है। पृथिवीके अन्य गर्त ता भर देनेसे भर जाते हैं पर यह आशागर्त भरनेसे और भी गहर हो जाता है। किसी आदमीको हजारकी आशा थी, हजार उसे मिल भी गये पर अव आशा दश हजारकी हो गई। अर्थात् आशारूपी गर्त पहलेसे दशगुना गहरा हो गया। भाग्यवश दश हजार भी मिल गये पर अव एक लाखकी आशा हो गई। अर्थात् आशागर्त पहलेसे सौ गुना गहरा हो गया। यह केवल कहनेकी वात नहीं है। इसे आप लोग रात दिन अपने जीवनमें उतार रहे हैं। तृष्णाके वशीभूत हुया प्राणी क्या-क्या नहीं करता है ? वह इष्टसे इष्ट व्यक्तिका प्राणान्त करनेमे भी पीछे नहीं हटता । आजका मानव निरन्तर "और और' चिल्लाता रहता है। उसके मुखसे कभी 'वस' नहीं निकलता। विना सन्तोषके वस कैसे निकले ? Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३६१ योग्य हो जाता था लेता था एक समय था कि जब लड़का कार्य सम्भालने तब वृद्ध पिता सम्पत्तिसे मोह छोड़ दीक्षा ले वृद्ध पिता और उनके भी पिता हों तो वह भी सम्पत्ति से छोडना चाहता, फिर लड़का तो लड़का ही है । वह मोह नहीं छोड़ रहा है इसमे आश्चर्य ही क्या है ? कपड़ा बुनने - चाला कुविन्द कपड़ा बुनते अन्तिम छोरा छोड़ देता है पर हम उस अन्तिम छीरे तक बुनना चाहते हैं । इस तृष्णाका भी कभी अन्त होगा ? पर आज मोह नहीं सम्पत्ति से लोभ मीठा शत्रु है । यह दशम गुणस्थान तक मनुष्यका पिण्ड नहीं छोड़ता । अन्य कषाय यद्यपि उसके पहले ही नष्ट हो जाती हैं पर लोभकषाय सबसे अन्त तक चलती जाती है। लोभके निमित्तसे आत्मामें अपवित्रता आती है । लोभसे ही समस्त पापों इस प्राणीकी प्रवृत्ति होती है । आचार्योंने लोभको ही पापका बाप बतलाया है । एकवार एक आदमी काशी पढ़ने गया । उस समय छोटी अवस्थामें विवाह हो जाता था इसलिये उसका भी विवाह हो गया था । वह स्त्रीको घर छोड़ गया । ५-६ वर्ष काशी में पढ़नेके बाद जब घर लौटा तब गाँवके लोगोंने उसका बड़ा सत्कार किया । जव वह अपनी स्त्रीके पास पहुॅचा तव खीने कहा कि आप मुझे अकेली छोड़ काशी गये थे । अब आप मेरे एक प्रश्नका उत्तर यदि दे सकें तो मैं अपने घर के भीतर पैर रखने दूंगी, अन्यथा नहीं । उसने कहा कि अपना प्रश्न कहो । बीने कहा कि बताओ 'पापका बाप क्या है ?' अद्भुत प्रश्न सुनकर वह बहुत घबड़ाया । रामायण महाभारत भागवत आदि सब ग्रन्थ देख ढाले पर कहीं पापका वाप नहीं मिला । उसे चुप देख ने कहा कि अब पुनः काशी जाइये और यह पढ़कर आइये । काशी बहुत दूर थी इसलिये उसने सोचा कि यदि कोई यहीं पापका Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ मेरी जीवन गाथा बाप बता दे तो काशी न जाना पड़े । अन्तमे वह पागलकी भाँति नगरकी सड़कों पर पापका वाप क्या हैं? पापका बाप क्या है ? यह चिल्लाता हुआ भ्रमण करने लगा । एक दिन एक वेश्याने अपने घरकी छपरीसे उसे ऊपर बुलाया और कहा कि यहाँ आओ, पापका वाप मैं बताती हूँ । वह आदमी सीढ़ियोंसे जब ऊपर पहुँचा तो वह वेश्या जान बड़ा दुःखी हुआ और झटसे नीचे उतरने लगा । वेश्याने कहा - महाराज | ठहरिये तो सही आप जिस सड़क पर चल रहे थे उस सड़कपर तो वेश्या आदि सभी अथम प्राणी चलते हैं, फिर हमारा वह मकान उस सड़क से तो अच्छा है । आप इतनी घृणा क्यों करते हैं ? आपने हमारा घर अपनी चरणरजसे पवित्र किया इसलिए एक मुहर आपको देती हॅू।”—यह कहकर वेश्याने एक मुहर उसे दे दी । मुहर देख उसने सोचा कि यह ठीक तो कह रही है । आखिर यह मकान सड़क तो अच्छा हैं । कुछ देर ठहरनेके बाद वह जाने लगा तब वेश्याने कहा महाराज ! दो मुहरें देती हूँ | यह सामने पंसारीकी दूकान है इससे सीधा बुलाकर भोजन बना लीजिये, फिर जाइये। दो मुहरों का लाभ देख उसने सोचा कि मैं भी तो इसी पंसारीकी दूकान से खाद्य सामग्री लेता हॅू इसलिये वेश्याका इसके साथ क्या सम्बन्ध है ? २ मुहरें लेकर उसने भोजन बनाना शुरू किया । जब भोजन बन चुका तव वेश्याने कहा महाराज | मैंने जीवन भर पाप किये हैं । यदि आज आपके लिये. अपने हाथसे भोजन परोस सकूँ तो मैं पोपसे निर्मुक्त हो जाऊँ । इस कार्यके लिये मैं पाँच मुहरें आपके चरणों में चढ़ाती हॅू । पाँच मुहरोंका नाम सुनते ही उसके मुहमे पानी श्रा गया। उसने सोचा कि भोजन तो मेरे हाथका बनाया है। यदि दे वेश्या छूकर इसे मेरी थालीमे रख देती हैं तो इससे कौन सा धर्म हुआ जाता है । यह विचारकर उसने वेश्याको परोसनेकी ना Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३६३ दी। वेश्याने उत्तम थालीमे भोजन परोस दिया । पश्चात् वेश्या बोली- महाराज | एक भावना बाकी और रह गई है। मैं चाहती हूँ कि मैं एक ग्रास थालीसे उठाकर आपके मुखमे दे दूँ तो मेरे जन्म जन्मके पाप कट जावें। इस कार्यके लिये मैं दश मुहरें चढ़ाती हूं। दश मुहरोंका लाभ देख उसने वेश्याके हाथसे भोजन करना स्वीकृत कर लिया । वेश्याने जो ग्रास मुखमे देनेके लिये उठाया था उसे मुखतक ले जानेके बाद छोड़ दिया और उसके गालमे जोर की थप्पड़ मारते हुए कहा कि समझे पापका वाप क्या है ? पाप का वाप लोभ है। कहाँ तो आप वेश्याके घर आनेपर ग्लानिसे नीचे उतरने लगे थे और कहाँ उसके हाथका ग्रास खानेके लिये तैयार हो गये ? यह सव महिमा लोभकी है । मुहरोंके लोभने श्रापको धर्मकमसे भ्रष्ट कर दिया है। शौच पवित्रताको कहते हैं और यह पवित्रता वाह्य आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकार की है । अपने अपने पदके अनुसार लौकिक शुद्धिका विचार रखना वाह्य शुद्धि है और अन्तरगमें लोभादि कपायोंका कम करना आभ्यन्तर शुद्धि है । 'गङ्गास्नानान्मुक्ति.'गडा स्नानसे मुक्ति होती है इसे जिन शासन नहीं मानता । उससे शरीरका मल छूट जानेके कारण लौकिक शुद्धि हो पर वास्तविक शुद्धि तो आत्मामे लोभादि कपायोंके कृश करनेसे ही होती है। अर्जुनके प्रति उपदेश है आत्मा नदी संयमपुण्यतीर्था __सत्योदका शीलतटा नयोमिः। तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा सुद्धयति चान्तरात्मा । संयम ही जिसका पवित्र घांट है, सत्य ही जिसमे पानी भरा है, शील ही जिसके तट हैं और दया रूप भवरें जिसमे उठ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ मेरी जीवन गाथा रही हैं ऐसी आत्मारूपी नदीमे हे अर्जुन ! अभिषेक करो क्योंकि पानीमात्र से अन्तरात्मा शुद्ध नहीं होती ? आत्माको निर्मल बनाने -का जिसने अभ्यास कर लिया उसने सब कुछ कर लिया । 'आतमके अहित विषय कपाय' - आत्माके सबसे बड़े शत्रु विषय और कषाय हैं । इनसे जिसने अपने आपकी रक्षा कर ली उसने जग जीत लिया, अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लिया । लोभ केवल रुपया पैसाका ही हो सो बात नहीं। मान प्रतिष्ठा आदिकी आकांक्षा रखना भी लोभका ही रूप है । जब रामका -रावणके साथ लङ्कामे युद्ध हो रहा था तब राम रावणको मारते थे तो वह वहुरूपिणी विद्यासे दूसरा रूप वना कर सामने आ जाता था । इसी प्रकार हम लोभको छोड़नेका प्रयत्न करते हैं । घर गृहस्थी, वाल बच्चे छोड़ कर जंगलमें जाते हैं पर वहाँ शिष्य संग्रह. "धर्म प्रचार आदिका लोभ सामने आ जाता है । पहले घरके कुछ लोगोंके भरण-पोषणका ही लोभ था व अनेकों शिष्योंके भरणपोरण तथा शिक्षा-दीक्षा आदिका लोभ सामने आ गया। लोभ नष्ट कहाँ हुआ ? वह तो वेष बदल कर आपके सामने आ गया है । यदि वास्तवमे लोभ नष्ट हो जाता तो इस परिकरकी क्या आवश्यकता थी ? 'इसका कल्याण करूँ, उसका कल्याण करूँ' -यह विकल्पजाल निरन्तर आत्मामे क्यों उठते ? अतः प्रयत्न ऐसा -करो कि जिससे यह लोभ समूल नष्ट हो जाय । एक रोग छूटने के बाद यदि दूसरा रोग दवाईसे होता है तो वह दवाई दवाई नहीं । दवाई तो वह है जिससे वर्तमान रोग नष्ट हो जाय और उसके वदले कोई दूसरा रोग उत्पन्न न हो । विपय कपायका सेवन करते करते अनन्त काल वीत गया पर श्रात्मामें संतोष उत्पन्न नहीं हुआ । उससे जान पड़ता है कि यह सब संतोषके मार्ग नहीं हैं । - समन्तभद्र स्वामीने कहा है Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिण्टेन्द्रियार्थविभवं. परिवृद्धिरेव ॥ ३६५. अर्थात् तृष्णारूपी ज्वालाए इस जीवको निरन्तर जला रहीं हैं । यह जीव इन्द्रियोके इष्ट विषय एकत्रित कर उनसे इन तृष्णा-रूपी ज्वालाओंको शान्त करनेका प्रयत्न करता है पर उनसे इसकी शान्ति नहीं होती, प्रत्युत वृद्धि ही होती है । जिस प्रकार घृतक आहुति से अग्निकी ज्वाला शान्त होनेके बदले प्रज्वलित ही होती है उसी प्रकार विषय सामग्रीसे तृष्णारूप ज्याला शान्त होनेके बदले प्रज्वलित ही अधिक होती है । चतुर्थ अध्यायमे देवलोकका वर्णन आपने सुना । देवपर्यायके दीर्घ काल तक स्थिर रहनेवाले सुखोंसे भी इस जीवको तृप्ति नहीं हुई फिर मनुष्य लोकके अल्पकालीन सुखोंसे इसे तृप्ति हो जायगी यह संभव नहीं । सागरों पर्यन्त स्वर्गके मुख यह जीव भोगता है। पर अन्तमे जब माला मुरझा जाती है तो दुखी होता है कि हाय अव यह सामग्री अन्यत्र कहां मिलेगी ? इमी आर्तध्यानसे मर कर कितने ही देव एकेन्द्रिय तक हो जाते हैं। नरकसे निकल कर . एकेन्द्रिय पर्याय नहीं मिलती पर देवसे निकल कर यह जीव एकेन्द्रिय तक हो जाता है । परिणामोकी विचित्रता है । देवोंके वर्णनमें आपने सुना है कि उनमे 'स्थिति प्रभाव-सुख- द्युति-लेश्या-विशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः' और 'गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीना ' अर्थात् स्थिति, प्रभाव, सुख, कान्ति, लेश्याकी विशुद्धता, इन्द्रिय और अवधिज्ञानके विषयकी अपेक्षा अधिक है तथा गति, शरीर परिग्रह और अभिमानकी अपेक्षा हीनता है । ऊपर ऊपरके देवोंमे सुखकी मात्रा तो अधिक है परन्तु परिग्रहकी अल्पता है। इससे सिद्ध होता है कि परिवह सुखका कारण नहीं है Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा किन्तु परिग्रहकी आकांक्षा न होना ही सुखका कारण है । यह प्राणी मोहोदयके कारण परिग्रहको सुखका कारण मान रहा है इसीलिये रात-दिन उसीके संचयमे तन्मय हो रहा है। पासका परिग्रह नष्ट न हो जाय यह लोभ है और नवीन परिग्रह प्राप्त हो जाय यह तृष्णा है । इस प्रकार आजका मनुष्य इन लोभ और तृष्णा दोनोंके चक्रमे फंस कर दुखी हो रहा है। जो पदार्थ जैसा है उसका उसी रूप कथन करना सत्य है । भगवान् उमास्वामीने असत्य पापका लक्षण लिखा है-'असदभिधानमनृतम्' अर्थात् प्रमादके योगसे जो कुछ असत्का कथन किया जाता है उसको अनृत या असत्य कहते हैं। इसके चार भेद हैं -जो वस्तु अपने द्रव्यादि चतुष्टय कर है उसका अपलाप करना यह प्रथम असत्य है। जैसे देवदत्तके रहने पर भी कहना कि यहाँ पर देवदत्त नहीं है। जो वस्तु अपने चतुष्टय कर नहीं है वहाँ उसका सद्भाव स्थापना द्वितीय असत्य है। जैसे जहाँ पर घट नहीं वहाँ पर कहना कि घट है। जो वस्तु अपने स्वरूपसे हे उसे पर रूपसे कहना यह तृतीय असत्य है जैसे गौको अश्व कहना । तथा पैशुन्य, हास्य, कर्कश, असमंजस, प्रलाप तथा उत्सूत्ररूप जो वचन है वह चतुर्थ असत्य है। इन चार भेदोंमे ही सब प्रकारके असत्य आ जाते हैं । इन चार भेदोंके विपरीत जो वचन हैं वे चार प्रकारके सत्य हैं। असत्य भापणके प्रमुख कारण दो हैं-एक अज्ञान और दूसरा कपाय | अज्ञानके कारण मनुष्य असत्य बोलता Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ पर्व प्रवचनावली है और कपायके वशीभूत होकर कुछका कुछ बोलता है । यदि अज्ञान जन्य असत्यके साथ कपायकी पुट नहीं है तो उससे आत्माका अहित नहीं होता क्यों कि वहाँ वक्ता अज्ञानसे विवश है। ऐसा अजान जन्य असत्यवचनयोग तो आगममे वारहवें गुणस्थान तक बतलाया है परन्तु जहाँ कषायकी पुट रहती है वह असत्य आत्माके लिये अहितकारक है । संसारमे राजा वसुका नाम असत्यवादिॉमे प्रसिद्ध हो गया। उसका खास कारण यही था कि वह कषाय जन्य था। पर्वतकी माताके चक्रमे पड़ कर उसने 'अजैर्यष्टव्यम' वाक्यका मिथ्या अर्थ किया था इसलिये उसका तत्काल पतन हो गया । और वह दुर्गतिका पात्र हुआ। कपायवान् मनुष्य अपने स्वार्थके कारण पदार्थका स्वरूप उस रीतिसे कहनेका प्रयत्न करते हैं जिससे उनके स्वार्थमे वाधा न पड़ जाय । महाभारतमे एक गृद्ध और गोमायुका संवाद आया है। किसीका पुत्र मर गया, उस मृतक पुत्रको लेकर उसके परिवारके लोग श्मशानमें गये। जब श्मशानमे गये तव सूर्यास्त होनेमे कुछ विलम्ब था । उसी श्मशानमें एक गृध्र तथा एक गोमायु-शृगाल विद्यमान थे। गृध्र रातमें नहीं खाता इसलिए वह चाहता था कि ये लोग मृत बालकको छोड़कर जल्दी ही यहाँसे चले जावे तो मैं इसे खा लें और गोमायु यह चाहता था कि ये लोग यहाँ सूर्यास्त होने तक विद्यमान रहे जिससे सूर्यास्त होनेके बाद इसे गृध्र खा नहीं सकेगा तब केवल मेरा ही यह भोज्य हो जावेगा। अपने अभिप्रायके अनुसार गृध्र कहता है। अलं स्थित्वा श्मशानेऽस्मिन्गृध्रगोमायुसंकुले । कढालबहले घोरे सर्वप्राणिभयंकरे ॥ न चेह जीवितः कश्चित्कालधर्ममुपागतः। प्रियो वा यदि वा द्वेष्यः प्राणिना गतिरीदृशी ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ मेरी जीवन गाथा अर्थात् गृध्र तया शृगालोंसे भरे और समस्त प्राणियोंको भय उत्पन्न करनेवाले श्मशानमें ठहरना व्यर्थ है । मृत्युको प्राप्त हुआ कोई भी प्राणी यहाँ आकर जीवित नहीं हुआ। चाहे प्रिय हो चाहे अप्रिय हो, प्राणियोंकी रीति ही ऐसी है। गृध्रके वचनोंका प्रभाव मृत बालकके वन्धुजनों पर न पड़ जाय इस भावनासे गोमायु कहता है श्रादित्योऽयं स्थितो मूढाः स्नेह फुरुत साम्प्रतम् । बहुविन्नो मुहूतोऽयं जीवेदपि कदाचन ॥ अमु कनकवर्णाभ बालमप्राप्तयौवनम् । गृध्रवाक्यात्कथं मूढास्त्यजध्वमविशकित्ताः ।। अर्थात् अरे मूर्ख । अभी यह सूर्य विद्यमान है। तुम लोग बालकसे स्नेह करो। यह मुहूर्त अनेक विघ्नोंसे भरा है। कदाचित तुम्हारा बालक जीवित हो जाय । जो स्वर्ण के समान कान्तिमान है तथा जिसका योवन नहीं आ पाया ऐसे बालकको गृधक कहनंस आप लोग निःशङ्क हो क्यों छोड़ रहे हो ? . प्रकरण लम्बा है पर उसका अभिप्राय देखिये कि मनुष्य अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार पदार्थक यथार्थ स्वरुपको पमा छिन्न-भिन्न करते हैं। इस छिन्न भिन्न करनेका कारण मनुष्यो हृदयमे विद्यमान प्रमादयोग या क्पायपरिगनिही । पर विजय होजाय तो फिर मुखसे एक भी अनन्य शब्द न निक्ले। मनुष्यकी शोभा या प्रामाणिकता उससे यमनाने । वचनोंकी प्रामाणिकता नष्ट नई किसय गुर नष्ट असत्यवादी वचन ज्यापुनपरे यननके समान प्रामाटिक होते हैं। उनपर कोट ध्यान नहीं देता पर सत्यवादी मात वचन सुनने के लिए लोग पामों पचम मा । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३६६ वचनोंमे वल सत्यभाषणसे ही आता है, असत्य भापणसे नहीं। एक सत्यभाषण ही मनुष्यकी अन्य पापोंसे रक्षा कर देता है । एक राजपुत्रको चोरीकी आदत पड़ गई। जब राजाको उसका व्यवहार सह्य नहीं हुआ तब उसने घरसे निकाल दिया। अब वह खुले रूपमें चोरी करने लगा। एक दिन उसने किन्ही मुनिराजके उपदेशसे प्रभावित होकर असत्य वोलनेका त्याग कर दिया। अब वह एक राजाके यहाँ चोरी करनेके लिये गया। पहरे पर खड़े लोगोने पछा कि कहाँ जाते हो ? उसने कहा चोरी करनेके लिए जाता हूँ। राजपुत्र था इसलिए शरीरका सुन्दर था। पहरे पर खड़े लोगोंने सोचा कि यह कोई महापुरुष राजाका स्नेही व्यक्ति है। कहीं चोर यह कहते नहीं देखे गये कि मै चोरीके लिए जाता हूँ। यह तो हम लोगोंसे हँसी कर रहा है। ऐसा विचारकर उन्होंने उसे रोका नहीं। चोरी करनेके बाद वह वहीं एक स्थानपर सो गया। प्रातःकाल जब लोगोंकी दृष्टि पड़ी तब उससे पूछा गया तो उसने यही कहा कि मैं चोर हूँ, चोरी करनेके लिए आया हूं। फिर भी लोगोंको विश्वास नहीं हुआ। राजपुत्र सोचता है कि देखो सत्य वचनमे कितना गुण है कि चोर होने पर भी किसीको विश्व.स ही नहीं होता कि में चोर हूँ। जव एक पापके छोड़नेमें इतना गुण ह तब समस्त पापोंके छोड़नेमे कितना गुण न होगा? यह विचार कर उसने मुनिराजके पास जाकर समस्त पापोंका परित्यागकर दीक्षा धारण करली । अस्तु, मैं आज तक नहीं समझा कि असत्य भी कुछ है क्योंकि जिसे आप असत्य कहते हैं वह वस्तु भी तो आत्मीय स्वरूपसे सत् है। तब मेरी बुद्धिमे तो यह आता है कि जो पदार्थ आत्माको दुःखकर हो उसको त्यागना ही सत्य है। जैसे शरीरको आत्मा मानना असत्य है। शरीर असत्य नहीं है किन्तु जिस रूपसे २४ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० मेरी जीवन गाथा वह है उससे अन्यरूप मानना असत्य है । शरीर पुद्गल द्रव्यका विकार है। उसे आत्मद्रव्य मानना मिथ्या है। यह विपरीत मान्यता मिथ्यात्वके कारण उत्पन्न होती है इसलिये सर्व प्रथम उसे ही त्यागना चाहिये । पञ्चमाध्यायमे षड् द्रव्योंका वर्णन आपने सुना है । उसमे प्रमुन्न जीवद्रव्य है। उसीका सब खेल है, वैभव है श्रहं प्रत्ययवेद्यत्वान्जीवस्यास्तित्वमन्वयात् । __ 'एको दरिद्र एक: श्रीमानिति च कर्मणः ॥ 'मैं सुखी है. दखी है इत्यादि प्रत्ययसे जीवके अस्तित्वका साक्षात्कार होता है तथा अन्वयसे भी इसका प्रत्यय होता है। यह वही देवदत्त है जिसे मैंने मथुराम देखा था, अब यहाँ देख रहा हूँ। इस प्रत्ययसे भी आत्माके आस्तित्वका निर्णय होता है तथा कोई तो श्रीमान् देखा जाता है और कोई दारिद्र देखा जाता है इस विभिन्नतामें भी कोई कारण होना चाहिये। यह विभिनताविषमता निर्हेतुक नहीं। जो हेतु है उमीको कर्म नाममे का जाता है। नाममे विवाद नहीं चाहं कर्म कहो, अनारो, ईश्वर कहो, खुदा कहो, विधाता कहो, जो 'प्रापको विकर। परन्तु यह अवश्य मानना कि यह विभिन्नता निर्मूल नहीं। राव ही यह भी मानना पड़ेगा कि जो यह दृश्यमान जगत है या एक जीवका परिणाम नहीं। केरत एक पदार्थ हो ना नानात्व कहाँमे पाया ? नानाला नियामक द्रव्यात im चाहिये । केवल पुद्गलमे शट बन्धादि पायें नहीं की। जब पुद्गल परमाणुयोंकी बल्यावस्था हो आनी भी र पनायें होती । उस वास्थामै पुदगर परमार नना हव्यापी अगाविस रहनी ! ra t Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३७१ कंवल परमाणुओंकी नहीं किन्तु स्कन्ध पर्यायापन्न परमाणुओंकी हैं। इसी तरह जो रागादि पर्याय हैं वह उदयावस्थापन्न कर्मों के सद्भाव मे ही जीवके होती हैं। यदि ऐसा न माना जावे तो रागादि परिणाम जोवका पारिणामिक भाव हो जावेगा और ऐसा होनेसे संसारका अभाव हो जावेगा जो कि किसीको इष्ट नहीं। रागादिक भावोका प्रत्यक्षमें सद्भाव देखा जाता है। इससे यही तत्त्व निर्गत होता है कि रागादि भाव औपाधिक हैं। जैसे स्फटिकमणि स्वच्छ है किन्तु जब स्फटिकमणिके साथ जपापुष्पका सम्बन्ध होता है तब उसमें लालिमा प्रतीत होती है। यद्यपि स्फटिकमणि स्वयं रक्त नहीं किन्तु निमित्तको पाकर रक्तिमामय प्रत्ययका विषय होता है। इससे यह समझमे आता है कि स्फटिकमणि निमित्तको पाकर लाल जान पड़ती है। यह लालिमा सर्वथा असत्य नहीं। ऐसा सिद्धान्त है कि जो द्रव्य जिस कालमे जिस रूप परिणमती है वह उस कालमें तन्मय हो जाती है। श्री कुन्दकुन्दस्वामीने स्वयं प्रवचनसारमें लिखा है परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणादो श्रादा धम्मो मुणेदव्वो ॥ इस सिद्धान्तसे यह निष्कर्ष निकला कि आत्मा जिस समय रागादिरूप परिणमेगा उस समय नियमसे उसी रूप होगा तथा पर्याय दृष्टिसे उन्हीं रागादिकका उस कालमें अस्तित्व रहेगा। जो भाव करेगा उसीका वर्तमानमे अनुभव होगा । जल शीत है परन्तु अग्निके सम्बन्धसे उष्ण पर्यायको प्राप्त करता है। यद्यपि उसमें शक्ति अपेक्षा शीत होनेकी योग्यता है तथापि वर्तमानमें शीत नहीं। यदि कोई उसे शीत मानकर पान करे तो दग्ध ही होगा। इसी प्रकार आत्मा यदि वर्तमानमें रागरूप है तो Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा रागी ही है । इस अवस्थामे वीतरागका अनुभव होना असंभव हैइस कालमे आत्माको रागादि रहित मानना मिथ्या है । यद्यपि रागादि परिणाम परनिमित्तक हैं अतएव औपाधिक हैं-नशनशील हैं तथापि वर्तमानमे तो औष्ण्य परिणत अयःपिण्डवत् आत्मा तन्मय हो रहा है, अर्थात् उन परिणामों के साथ आत्माका तादात्म्य हो रहा है। इसीका नाम अनित्य तादात्म्य है । यह अलीक कथन नहीं। एक मनुष्यने मद्यपान किया और उसके नशासे वह उन्मत्त होगया। हम पूछते हैं कि क्या वह वर्तमानमे उन्मत्त नहीं है ? अवश्य उन्मत्त है किन्तु किसीसे आप प्रश्न करें कि मनुष्यका क्या लक्षण है ? इसके उत्तरमें उत्तर देनेवाला क्या यह कह सकता है कि उन्मत्तता मनुष्यका लक्षण है ? नहीं, यह उत्तर ठीक नहीं क्योंकि मनुप्यकी सर्व अवस्थाओंमें उन्मत्तताकी व्याप्ति नहीं। इसी तरह आत्मामें रागादिभाव होनेपर भी आत्माका लक्षण रागादि नहीं हो सकता क्योकि आत्माकी अनेक अवस्थाओंमें रागादिभाव व्यापकरूपसे नहीं रहता अतः यह आत्माका लक्षण नहीं हो सकता। लक्षण वह होता है जो सर्व अवस्थाओंमें पाया जाये । ऐसा लक्षण चेतना ही है। यद्यपि रागादि परिणाम तथा केवलज्ञानादि भी आत्मामे ही होते हैं तथापि उन्हें लक्षण नहीं माना जाता क्योंकि वे जीवकी पर्यायविशेष हैं, व्यापक रूपसे नहीं रहतीं। अन्ततो गत्वा चेतना ही आत्माका एक ऐसा गुण है जो आत्माकी सर्व दशाओंमें व्यापकरूपसे रहता है। आत्माकी २ अवस्थाएँ हैंसंसारी और मुक्त। इन दोनोंमे चेतना रहता है। उसीसे अमृत चन्द्र स्वामीने लिखा है कि अनाद्यमनन्तमचलं स्वसवेद्यमिह स्फुटम् । जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ॥ जीव नामक जो पदार्थ है वह स्वयंसिद्ध है तथा परनिरपेक्ष Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३७३ अपने आप अतिशय कर चकचकायमान हो रहा है । कैसा है ? अनादि है । कोई इसका उत्पादक नहीं अतएव अनादि है, अतएव कारण है । जो वस्तु अनादि अकारणक है वह अनन्त भी है तथा अचल है ऐसे अनादि, अनन्त तथा अचल अजीव द्रव्य भी है, इससे इसका लक्षण स्वसंवेद्य भी है यह स्पष्ट है । जीव नामक पदार्थमे अन्य अजीवोंकी अपेक्षा चेतनागुण ही भेद करनेवाला है । वही गुण इसमें ऐसा विशद है कि सर्व पदार्थोंकी तथा निजकी व्यवस्था कर रहा है | इस गुणको सब मानते हैं परन्तु कोई उस गुणको जीवसे सर्वथा भिन्न मानते हैं । कोई गुणसे अतिरिक्त अन्य द्रव्य नहींगुणा-गुणी सर्वथा एक हैं ऐसा मानते हैं । कोई चेतना तो जीवमें मानते हैं परन्तु वह ज्ञेयाकार परिच्छेद से पराङ्मुख रहता है ऐसा अङ्गीकार करते हैं । प्रकृति और पुरुषके सम्वन्धसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसमें चेतनाके संसर्गसे जानपना आता है । कोईका कहना है कि पदार्थ नाना नहीं एक ही अद्वैत तत्त्व है । वह जब मायाच्छन्न होता है तब यह संसार होता है । किसीका कहना है कि जीव नामक स्वतन्त्र पदार्थकी सत्ता नहीं किन्तु पृथिवी जल अग्नि वायु और आकाश इनकी जिस समय रिलक्षण अवस्था होती है उसा समय यह जीवरूप अवस्था होजाती है । ये जितने मत हैं वे सर्वथा मिथ्या नहीं | जैनदर्शनमें अनन्त गुणोंका जो विष्वभाव सम्बन्ध है वही तो द्रव्य है । वह आत्मीय स्वरूपकी अपेक्षा भिन्न भिन्न है परन्तु कोई ऐसा उपाय नहीं कि उनमे से एक भी गुण पृथक् हो सके । जैसे पुद्गल द्रव्यमें रूप रस गन्ध स्पर्श गुण हैं । चक्षुरादि इन्द्रियोंसे पृथक् पृथक् ज्ञानमें- आते हैं परन्तु उनमें से कोई पृथक् करना चाहे तो नहीं कर सकता । वे सब अखण्डरूपसे विद्यमान हैं । उन सर्व गुणोंकी जो अभिन्न प्रदेशता है उसीका नाम Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ मेरी जीवन गाथा द्रव्य है । अतएव प्रवचनसारमें श्री कुन्दकुन्ददेवने लिखा है णत्थि विणा परिणामं अत्यो अत्यं विणेह परिणामो । दवगुणपञ्जयत्यो अत्थो अस्थित्तणिग्पएणो ॥ परिणामके बिना अर्थकी सत्ता नहीं तथा अर्थक विना परिणाम नहीं । जैसे दुग्ध दधि घी छांछ इनके विना गोरस कुछ भी सत्ता नहीं रखता इसी तरह गोरस न हो तो इन दुग्धादिकी भी सत्ता नहीं। एवं यदि आत्माके ज्ञानादि गुण न हों तो आत्माके अस्तित्व की सिद्धि नहीं हो सकती तथा आत्माके विना ज्ञानादि गुणोंका कोई अस्तित्व नहीं । बिना परिणामीके परिणमनका नियामक कोई नहीं । हाँ, यह अवश्य है कि ये गुण सदा परिणमनशील हैं किन्तु अनादिसे आत्मा कर्मोसे सम्बद्ध है, इससे इसके ज्ञानादि गुणोंका विकास निमित्त कारणोंके सहकारसे होता है। होता उसीमे है परन्तु जैसे घटोत्पत्तिकी योग्यता मृत्तिकामें ही होती है किन्तु कुम्भकारके विना घट नहीं बनता । यद्यपि घटकी उत्पत्तिके योग्य व्यापार कुम्भकारमें ही होगा फिर भी मृत्तिका अपने व्यापारसे घटरूप होगी, कुम्भकार घटरूप न होगा। उपादानको मुख्य माननेवालोंका कहना है कि जब मृत्तिकामे घट पर्यायकी उत्पत्ति होती है तब वहाँ कुम्भकारकी उपस्थिति स्वयमेव हो जाती है। यहाँपर यह कहना है कि घटोत्पत्ति स्वयमेव मृतिकामें होती है इसका क्या अर्थ है ? जिस काल मृतिकामें घट होता है उस कालमे क्या कुम्भकारादि निरपेन घट होता हैं या सापेक्ष ? यदि निरपेक्ष घटोत्पत्ति होती है तो एक भी उदाहरण ऐसा वताओ कि मृत्तिकामे कुम्भकारके बिना घट हुप्रा हो लो तो देखा नहीं जाता। यदि साप पक्षको अडीकार करोगे तो स्वयमेव आगया कि कुम्भकारके व्यापार मिना घटकी उत्पनि नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि मुम्भकार घटोत्पत्ति पारी निमित्त है। जैसे आत्मामें रागादि परिणाम होते हैं। कानि Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ पर्व प्रवचनावली आत्मा ही उनका उपादान कर्ता है परन्तु चारित्रमोहके उदय बिना रागादि नहीं होते । होते आत्मामे ही हैं परन्तु विना कर्मोदयके यह भाव नहीं होते । यदि निमित्तके विना यह हों तब तो आत्माका त्रिकाल अगधित स्वभाव हो जावे सो ऐसा यह भाव नहीं । इसका विनाश हो जाता है अतः यह मानना पड़ेगा कि यह आत्माका निज भाव नहीं इसका यह अर्थ नहीं कि यह भाव आत्मामे होता ही नहीं। होता तो है परन्तु निमित्त कारणकी अपेक्षासे होता है। यदि निमित्त कारणकी अपक्षासे नहीं है ऐसा कहोगे तो आत्मामे मतिज्ञानादि जो चार ज्ञान उत्पन्न होते हैं वे भी तो नैमित्तिक हैं उनको भी आत्माके मत मानो। यह भी हमे इष्ट है, हम तो यहां तक माननेको प्रस्तुत हैं कि क्षायोपशमिक, औदयिक, औपशमिक जितने भी भाव हैं वे आत्माके अस्तित्व में सर्वदा नहीं होते। उनकी कथा छोड़ो, क्षायिक भाव भी तो क्षयसे होते हैं वे भी अबाधित रूपसे त्रिकालमें नहीं रहते अतः वे भी आत्माके लक्षण नहीं । केवल चेतना ही आत्माका लक्षण है यही अवाधित त्रिकालमे रहता है। इसी भावको पुष्ट करनेवाला श्लोक अष्टावक्र गीतामे अष्टावक्र ऋषिने लिखा है नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमह हि चित् । अयमेव हि मे बन्धो या स्यज्जीविते स्पृहा ।। अर्थात मैं देह नहीं हूँ और न मेरा देह है, न मैं जीव हूँ, मैं तो चित् हूँ चैतन्यगुणवाला हूँ। यदि ऐसा वस्तुका निज स्वरूप है तो आत्माको बन्ध क्यों होता है ? इसका कारण हमारी इस जीवमें स्पृहा है। यह जो इन्द्रिय मन वचन काय श्वासोच्छ्वास तथा आयुप्राणवाले पुतलेमें हमारी स्पृहा है यही तो बन्धका मूल कारण है। हम जिस पर्यायमे जाते हैं उसीको निज मान बैठते हैं। उसके अस्तित्वसे अपना अस्तित्व मान कर पर्याय बुद्धि हो पर्यायके अनुरूप ही समस्त व्यवहार कर पर्यायान्तरको Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ मेरी जीवन गाथा प्राप्त होते हैं । इससे यही तो निकला कि हम पर्यायवुद्धिसे हीअपनी जीवनलीला पूर्ण करते हैं। अस्तु विषय लम्बा हो गया है । स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों तथा मनके विपयों और पटकायिक जीवोकी हिंसासे विरत होना संयम कहलाता है। इन्द्रिय विपयोके आधीन हुआ प्राणी उत्तर काल में प्राप्त होनेवाले दुःखोंको अपनी चष्टिसे ओझल कर देता है । यहि कारण है कि वह तदात्र सुखमें निमग्न हो आत्महितले चश्चित हो जाता है। इन्द्रिय विषयोंके आधीन हुआ वनका हाथी अपनी सारी स्वतन्त्रता नष्ट कर देता है। रसनेन्द्रियके वशमें पड़ा मीन धीवरकी वंशीमे अपना कण्ठ छिना देता है। नासिकाके आधीन रहनेवाला भ्रमर सन्ध्याके समय यह सोचकर कमलमे बन्द हो जाता है कि रात्रि व्यतीत होगी, प्रातःकाल होगा, कमल फूलेगा तब मैं निकल जाऊंगा। अभी रात भर तो मकरन्दका रसास्वादन करूं पर प्रातःकाल होनेके पहले ही एक हाथी आकर उस कमलिनीको उखाड़ कर चला जाता है। भ्रमरके विचार उसके जीवनके साथ ही समाप्त हो जाते हैं। कहा हैरात्रिर्गमिष्यति भविष्यति तुप्रभातं. भास्वानुदेष्यति हसिम्यति पहननी । इत्यं विचारयत्यजगते दिन्फे, ___हा हन्त हन्त नलिनी गड उनहार || नेत्रेन्द्रियके वशीभूत हुए पतंग दीपकों पर अपने प्राण न्याहार Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३०७ कर देते हैं और कर्णेन्द्रियके आधीन हो हरिण बहेलियोंके द्वारा मारे जाते हैं। ये तो पञ्चेन्द्रियोंमे एक-एक इन्द्रियके आधीन रहनेवाले जीवोकी बात कही पर जो पांचों ही इन्द्रियोंके वशीभूत हैं उनकी तो कथा ही क्या है। पञ्चेन्द्रियोंमें स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियां अधिक प्रवल हैं । चट्टकर स्वामीने मूलाचारमे कहा है कि चतुरङ्गल प्रमाण स्पर्शन और रसना इन्द्रियने संसारको पटरा कर दिया-नष्ट कर दिया। इन इन्द्रियोंकी विषयवाहको सहन करनेके लिये जब प्राणी असमर्थ हो जाता है तब वह इनमें प्रवृत्ति करता है। कुन्दकुन्द स्वामीने प्रवचनसारमे यहाँ तक लिखा है कि संसारके साधारण मनुष्योंकी तो कथा ही क्या है ? हरि, हर, हलधर, चक्रधर तथा देवेन्द्र श्रादिक भी इन्द्रियोंकी विषय दाहको न सहकर उनमें झम्पापात करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि बड़े बड़े पुरुष इनमें झम्पापात करते हैं अतः ये त्याज्य नहीं है। विष तो विष ही है, चाहे उसे छोटे पुरुष पान करें चाहे बड़े पुरुष । हरि-हरादिककी विषयोंमें प्रवृत्ति हुई सही परन्तु जब उनके चारित्रमोहका उदय दूर हुआ तब उन्होंने उस विषयमार्गको हेय समझ कर त्याग दिया। भगवान ऋषभदेव अपने राज्य पाट भोग विलासमें निमग्न थे परन्तु नीलाञ्जनाका विलय देख विषयोंसे विरक्त हो गये। जब तक चारित्रमोहका उदय उनकी आत्मामें विद्यमान रहा तब तक उनका भाव विषयोंसे विरक्त नहीं हुआ। उन्होंने समस्त राज्य वैभव छोड़ कर दिगम्बर दीक्षा धारण की। इससे यही तो अर्थ निकला कि यह विषयका मार्ग श्रेयस्कर नहीं। यदि श्रेयस्कर होता तो तीर्थंकर आदि इसे क्यों छोड़ते । अतः अन्तरङ्गसे विषयेच्छाको दूर कर आत्महितका प्रयत्न करना चाहिये। वज्रदन्त चक्रवर्ती सभामे विराजमान थे। मालीने एक सहस्त्र Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा दल कमल उनकी सेवामे भेट किया। सूंघनेके बाद जब उन्होंने कमलके अन्दर मृत भ्रमरको देखा तो उनके हृदयके नेत्र खुल गये। वे विचार करने लगे कि देखो नासा इन्द्रियके वशीभूत हो इस भ्रमरने अपने प्राण गॅवाये हैं। यह विषयासक्ति ही जन्म-मरणका कारण है । ऐसा विचार कर उन्होंने दीक्षा लेनेका विचार कर लिया। चक्रवर्ती थे इसलिये राज्यका भार बड़े पुत्रको देने लगे। पुत्रके भी परिणाम देखो, उसने कहा पिताजी | यह राज्यवैभव अच्छा है या बुरा ? यदि अच्छा है तो आप ही इसे क्यों छोड़ रहे हैं ? यदि बुरा हैं तो फिर मैं तो आपका प्रीतिपात्र हूँ-स्नेह भाजन हूँ। यह बुरी चीज मुझे ही क्यों दे रहे हैं। किसी शत्रुको दीजिये। चक्रवर्ती निरुत्तर हो गये। दूसरे पुत्रको राज्य देना चाहा, उसने भी लेनेसे इनकार कर दिया। तब पुण्डरीक नामका छोटा मा वालक जो कि बड़े पुत्रका लड़का था उसका राज्याभिषेक कर वन को चले गये। उनके मनमें यह भी विकल्प न उठा कि पखण्डके राज्यको छोटा सा वालक कैसे संभालेगा ? संभाले या न संभाले, इसका विकल ही उन्हें नहीं उठा। यही सच्चा वैराग्य कहलाता है । हम लोग तो 'आलसी वानिया अपशकुनकी वाट जोहै' वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं। जरा जरासे कामके लिये बहाना खोजा करते हैं पर यह निश्चित समझो, ये वहाना एक भी काम न आवेंगे। मनुष्य जीवनका भरोसा क्या है ? अभी आरामसे बेटे हो पर हार्ट फेल हो जाय तो पर्याय समाप्त होते देर न लग इसलिये समय रहते. सावधान हो जाना विवेकका कार्य है। 'मुग्गनरक, पशुगतिमें नाहीं' यह संयम देव. नरक तथा पशुगनिमें प्राप्त नहीं होता। यद्यपि पशुगति संयमासंमयरूप थोडा मा मंयम प्रकट हो जाता है पर वह उत्सृष्ण संयमके समान नगन्य ही है। यह संयम कर्मभूमिके मनुष्य ही हो सकता है अतः मनु प पयान Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३७६ पाकर उसे अवश्य धारण करना चाहिये। अपनी शक्तिको भूलकर लोग दीन-हीन हो रहे हैं। कहते हैं कि हममे अमुक काम नहीं बनता, अमुक विपय नहीं छोड़ा जाता । यदि राजाज्ञा होने पर बलात्कार यह काम करना पड़े तो फिर शक्ति कहाँसे आवेगी । आत्मामे अचिन्त्य शक्ति है। यह प्राणी उसे भूल पर पदार्थका आलम्बन ग्रहण करता फिरता है परन्तु यह निश्चित है कि जब तक यह परका आलम्बन छोड़ अपनी स्वतन्त्र शक्तिकी ओर दृष्टिपात न करेगा तब तक इसका कल्याण नहीं होगा। आजका मनुष्य इच्छाओंका कितना दास हो गया है ? न उसके रहन-सहनमें विवेक रह गया है, न खान-पानमे भक्ष्याभक्ष्यका विचार शेप रहा है। स्त्री-पुरुषोंकी वेष-भूषा ऐसी हो कि जिससे कुलीन और अकुलीनका अन्तर ही नहीं मालूम होता है। पुरुप स्वयं विषयोंका दास हो गया है जिससे वह लियोंको नाना प्रकारके उत्तेजक वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित देख प्रसन्नताका अनुभव करता है। यदि पुरुषके अन्दर थोड़ा विवेक रहे तो वह अपने घरके वातावरणको संभाल सकता है। आजके प्राणी जिह्वा इन्द्रियके इतने दास होगये हैं कि उन्हें भक्ष्य अभक्ष्यका कुछ भी विचार नहीं रह गया है। जिन चीजों में प्रत्यक्ष सघात अथवा. वहुस्थावरघात होता है उन्हे खाते हुये वे सुखका अनुभव करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि हमारे अल्प स्वादके पीछे अनन्त जीवोंकी जीवन लीला समाप्त हो रही है। आज खाते समय लोग दिन-रातका विकल्प छोड़ बैठे हैं। उन्हे जव मिलता है तभी खाने लगते हैं। आशाधरजीने कहा है कि उत्तम मनुष्य दिनमे एक वार, मध्यम मनुष्य दो बार और अधस मनुष्य पशुके समान चाहे जब भोजन करते हैं। जैसे पशुके सामने जब भी घासका पला डाला जाता है वह तभी उसे खाने लगता है वैसे ही आजका मनुष्य Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० मेरो जीवन गाथा जब भी भोजन सामने आता है तभी खाने लगता हैं । छठवें अध्यायमे आपने आस्रवतत्त्वका वर्णन सुना है । मेरी दृष्टिमें यह अध्याय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हम कर्मबन्धसे बचना तो चाहते हैं पर कर्म किन कारणोंसे बँधते हैं यह न जाने तो कैसे वच सकते हैं ? बुद्धिपूर्वक अथवा अबुद्धिपूर्वक ऐसे बहुतसे कार्य हम लोगों से होते रहते हैं जिनसे कर्मका बन्ध जारी रहता है । जो वैद्य रोग निदानको ठीक ठीक समझ लेता है उसकी दवा तत्काल लाभ पहुँचा देती है पर जो निदानको समझे बिना उपचार करता -है उसकी दवा महीनों सेवन करनेपर भी लाभ नहीं पहुँचाती । 'श्राव चोर चोरी कर ले गव मोरी मूं दत मुगध फिरे' सीधा सीधा पद है । किसीके घर चोर आया और चोरी कर गया पर उस मूर्ख को यह पता नहीं चला कि चोर किस रास्ते से आया था अतः वह मुहरी पानी आने जानेके मार्गको चोरका मार्ग समझकर मूंदता फिरता है । दूसरी रात फिर चोर आते हैं । यही दशा संसारी प्राणीकी है कि जिन भावोंसे कर्मोका आस्रव होता है - कर्मरूपी चोर आत्मामे घुसते हैं उन भावों का इसे पता नहीं रहता इसलिये अन्य प्रयत्न कर्मोंका व रोकने के लिये करता है । पर - कर्मोंका आस्रव रुकता नहीं है । यही कारण है कि यह अनन्तवार -निलिङ्ग धारण कर नवम ग्रैवेयक तक उत्पन्न हुआ परन्तु संसार बन्धनसे मुक्त नहीं हो सका । जान पड़ता है कि उसे कर्मों के आका बोध ही नहीं हुआ । आत्माकी विकृत परिणति से होनेवाले श्रत्रत्रको 'उसने केवल शरीराश्रित क्रियाकाण्डसे रोकना चाहा सो कैसे रुक सकता था ? आगममे लिखा है कि अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मकी तपस्याके द्वारा भी जिस कर्मको नहीं खिपा सकता ज्ञानी जीव उसे क्षणमात्रमं खिपा देता है । तालेकी जो कुंजी है उसीसे तो वह Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३८१ खुलेगा। दूसरी कुंजीसे दूसरा ताला घंटों परिश्रम करनेपर भी नहीं खल सकता और कुंजीका ठीक ठीक बोध हो जानेपर जरासी देरमे खुल जाता है। यही बात यहाँपर है। जो कर्म जिस भावसे आता है उन भावके विरुद्ध भाव जब आत्मामें उत्पन्न हो तब उस कर्मका आना रुक सकता है। आपने सुना है 'सकषायाकषाययो साम्परायिकर्यापथयोः' अर्थात् योग सकपाय जीवोंके साम्परायिक तथा कषायरहित जीवोंके ईर्यापथ आस्रवका कारण है। जिस आस्रवका प्रयोजन संसार है उसे साम्परायिक आस्रव कहते हैं और जिसमे स्थिति तथा अनुभागबन्ध नहीं पड़ता उसे ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। साम्परायिक आस्रव आत्माका अत्यन्त अहित करनेवाला है। यह कषाय सहित जीवके ही होता है। जिस प्रकार शरीरमें तेल लगाकर मिट्टीमें खेलनेवाले पुरुषके मिट्टीका सम्बन्ध सातिशय होता हैं और तेल रहित मनुष्यके नाममात्रका होता है उसी प्रकार कषाय सहित जीवका आस्रव सातिशय होता है-स्थिति और अनुभागसे सहित होता है परन्तु कषाय रहित जीवके नाममात्रका होता है। अर्थात् समयमात्र स्थित रहकर निर्जीर्ण हो जानेवाले कर्मप्रदेशोंका आस्रव उसके होता है । इस तरह आत्माकी सकषाय अवस्था ही आस्रव है-बन्धका कारण है अतः उससे वचना चाहिये । जिस प्रकार फिटकली आदिके संसर्गसे जो वस्त्र सकपाय हो गया है उसपर रंगका सम्बन्ध अच्छा होता है परन्तु जो वस्त्र फिटकली आदिके संसर्गसे रहित होनेके कारण अकपाय हैं उसपर रका सम्बन्ध स्थायी नहीं होता उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये। नामकर्मकी ६३ प्रकृतियोंसे तीर्थकर प्रकृति सातिशय पुण्यप्रकृति है इसलिये उसके आस्रव आचार्यने अलगसे बतलाये हैं। दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओंके चिन्तनसे उसका वास्तव Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ मेरी जीवन गाथा होता है। इन सभीमें दर्शनविशुद्धि प्रमुख है । यदि यह नही है और वाकी सव हैं तब भी तीर्थंकर प्रकृतिका आस्रव नहीं हो सकता और यह है तथा वाकीकी नहीं हैं तब भी उसका आलव हो सकता है । दर्शनविशुद्धिका अर्थ है अपायविचय धर्मध्यानमें बैठकर करुणापूर्ण हृदयसे यह विचार करना कि ये संसारके प्राणी मोहके वशीभूत हो मार्गसे भ्रष्ट हो कितना दुःख उठा रहे हैं। इनका दुःख किस प्रकार दूर कर सकू। इस लोककल्याणकी भावनाके समय जो शुभ राग होता है उसीसे तीर्थकर प्रकृतिका आस्रव होता है । सम्यग्दर्शनकी विशुद्धता तो मोक्षका कारण है । उसके द्वारा कर्मबन्ध किस प्रकार हो सकता है ? 'तपसा निर्जरा च' आचार्य उमास्वामीने लिखा है कि तपके द्वारा संवर तथा निर्जरा दोनों ही होते हैं। मोक्ष उपादेय तत्त्व है और संवर तथा निर्जरा उसके साधक तत्त्व हैं। इनके विना मोक्ष होना संभव नहीं। तप चारित्रका ही विशेष रूप है। चारित्रमोहका अभाव होने पर मनुष्यकी विरतिरूप अवस्था होती है और उस विरक्ति अवस्थामें जो कार्य होता है वह तप कहलाता है। विरक्तिरूप अवस्थामे इच्छाओंका निरोध सुतरा हो जाता है इसलिये 'इच्छानिरोधस्तपः इच्छाको रोकना तप है यह तपका लनण प्रसिद्ध हो गया है। रागके उदयमे यह जीव बाह्य वैभवको पकड़े रहता है पर जव अन्तरङ्गसे राग छूट जाता है तब उस वैभवको छोडते इसे देर नहीं लगती। बड़े बड़े पुरुप संसारसे विरक्त न हो सकें Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३८३ पर छोटे पुरुप विरक्त होकर आत्मकल्याण कर जाते हैं। प्रद्युम्नको वैराग्य आया-दीक्षा लेनेका भाव उसका हुआ अत. राज्यसभामे बलदेव तथा श्रीकृष्णसे आज्ञा लेने गया। वहाँ जाकर जब उसने अपना अभिप्राय प्रकट किया तब वलदेव तथा श्रीकृष्ण कहते हैं कि वेटा! अभी तेरी अवस्था ही क्या है ? तूने संसारका सार जाना ही क्या है ? जो दीक्षा लेना चाहता है अभी हम तुझसे बड़े वृढ़े विद्यमान हैं । हम लोगोंके रहते तू यह क्या विचार कर रहा है ? सनकर प्रद्युम्नने उत्तर दिया कि आप लोग संसारके स्तम्भ हो अतः राज्य करो। मेरी तो इच्छा दीक्षा धारण करनेकी है। इस ससारमें सार है ही क्या जिसे जाना जाय । इस प्रकार राज्यसभासे विदा लेकर अपने अन्तःपुरमे पहुँचा और स्त्रीसे कहता हैप्रिये ! मेरा दीक्षा लेनेका भाव है । स्त्री पहलेसे ही विरक्त बैठी थी। वह कहती है जव दीक्षा लेनेका भाव है तब प्रिये ! सम्बोधनकी क्या आवश्यकता है ? क्या स्त्रीसे पूछ-पूछकर दीक्षा ली जाती है। आप दीक्षा लें या न लें, मै तो जाकर अभी लेती हूँ। यह कहकर वह प्रद्युम्नसे पहले निकल गई। दोनोंने दीक्षा धारण कर आत्मकल्याण किया और श्रीकृष्ण तथा बलदेव संसारके चक्रमे फंसे रहे । एक समय था कि जब लोग थोड़ा सा निमित्त पाकर संसारसे विरक्त हो जाते थे। शिरमें एक सफेद बाल देखा कि वैराग्य आ गया पर आज एक दो नहीं समस्त बाल सफेद हो जाते हैं पर वैराग्यका नाम नहीं आता। उसका कारण यही है कि मोहका संस्कार बड़ा प्रबल है। जिस प्रकार चिकने घड़े पर पानीकी बंद नहीं ठहरती उसी प्रकार मोही जीवोंपर वैराग्यवर्धक उपदेशोंका प्रभाव नहीं ठहरता । थोड़ा बहुत वैराग्य जव कभी आता भी है तो श्मशान वैराग्यके समान थोड़ी ही देरमे साफ हो जाता है। बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे. तप दो प्रकारके हैं। अनशन, Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ मेरी जीवन गाया ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान. रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह वाह्य तप हैं। उन्हें बाह्य पुरुष भी कर सकते हैं तथा इनका प्रवृत्त्वंश बाह्यमे दृष्टिगोचर होता है इसलिये इन्हें वाह्य तप कहते हैं। और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह आभ्यन्तर तप हैं। इनका सीधा सम्बन्ध आभ्यन्तर-अन्तरात्मासे है तथा उन्हें वाह्य पुरुष नहीं कर सत्ते इसलिये ये आभ्यन्तर तप कहलाते हैं। उन सभी तपोंमें इच्चान्न न्यूनाधिक रूपसे नियन्त्रण किया जाता है इसीलिये इनसे नवीन कर्मोक्न बन्ध स्कता है और पूर्वके बंधे कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं। 'कर्मभेलको वज्रसमाना' यह तप कर्मरूपी पर्वतको गिरानेके लिये वज्रके समान है। जिस प्रकार वज्रपातसे पर्वतके शिखर चूर चूर हो जाते हैं उसी प्रकार तपश्चरणसे कर्म चूर चूर हो जाते हैं। जिन कर्मोके फल देनेका समय नहीं आया ऐसे कर्म भी तपके प्रभावसे असमयमे ही गिर जाते हैं। अविपाक निर्जराका मूल कारण तप ही है । तपके द्वारा किसी सांसारिक फलकी आकांक्षा नहीं करना चाहिये। जैन सिद्धान्त सम्मत तप तथा अन्य लोगोंके तपमे अन्तर बताते हुए श्री समन्तभद्र स्वामीने लिखा है अपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान् पुनर्जन्म-जराजिहासया त्रयी प्रवृति समधीरनारणत् ।। हे भगवन् ! कितने ही लोग संतान प्राप्त करनेके लिये, कितने ही धन प्राप्त करनेके लिये तथा कितने ही मरणोचर कालमें प्राप्त होनेवाले स्वर्गादिकी तृष्णासे तपश्चरण करते हैं परन्तु श्राप जन्म और जराकी वाधाका परित्याग करनेकी इच्छासे इष्टानिष्ट Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३८५ पदार्थों में मध्यस्थ हो मन वचन कायकी प्रवृत्तिको रोकते हैं। अन्यत्र तपका प्रयोजन संसार है तो यहां तपका प्रयोजन मोक्ष है। परमार्थसे तप मोक्षका ही साधन है। उसमे यदि कोई न्यूनता रह जाती है तो सांसारिक सुखका भी कारण हो जाता है । जैसे खेती का उद्देश्य अनाज प्राप्त करना है। यदि पाला आदि पड़नेसे अनाज प्राप्त करनेमें कुछ कमी हो जाय तो पलाल कौन ले गया, वह तो प्राप्त होगा ही इसी प्रकार तपश्चरणसे मोक्ष मिलता है। यदि कदाचित् उसकी प्राप्ति न हो सकी तो स्वर्गका वैभव कौन छीन लेगा ? वह तो प्राप्त होगा ही। पद्मपुराणमे विशल्याकी महिमा आपने सुनी होगी। उसके पांस आते ही लक्ष्मणके वक्षःस्थलसे देवोपनीत शक्ति निकलकर दूर हो गई। इसमे विशल्याका पूर्व जन्ममे किया हुआ तपश्चरण ही कारण था। निर्जन वनमें उसने तीन हजार वर्ष तक कठिन तपश्चरण किया था । तपश्चर्याके प्रभावसे मुनियोंके शरीरमे नाना प्रकारकी ऋद्धियां उत्पन्न होती हैं पर वे उनकी ओरसे निर्भान ही रहते हैं । विष्णुकुमार मुनिको विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न थी पर उन्हें इसका पता ही नहीं था। क्षुल्लकके कहनेसे उनका उस ओर ध्यान गया । सनत्कुमार चक्रवर्ती तपश्चरण करते थे। दुष्कर्म के उदयसे उनके शरीरमे नाना प्रकारके रोग उत्पन्न हो गये फिर भी उस ओर उनका ध्यान नहीं गया। एक वार इन्द्र की सभामे इसकी चर्चा हुई तो एक देव इनकी परीक्षा करने के लिये आया । जहाँ वे तप करते थे वहाँ वह देव एक वैद्यका रूप धरकर चक्कर लगाने लगा तथा उनके शरीर पर जो रोग दिख रहे थे उन सबकी औषधि अपने पास होनेकी टेर लगाने लगा । एक दो दिन हो गये। मुनि विचार करते हैं कि यदि यह वैद्य है तो नगरसे क्यों नहीं जाता ? यहाँ क्या झाड़-झंखाड़ोंकी औपधि करने २५ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३८६ मेरी जीवन गाया आया है ? उन्होंने उसे बुलाया और पूछा कि तुम्हारे पास क्या क्या औपधियाँ है ? उसने जो रोग उनके शरीर पर दिख रहे थे उन सबकी औषधियाँ वता दी। मुनिराजने कहा कि भाई ! ये रोग तो मुझे हैं नहीं। ये सब शरीरमें अवश्य हैं पर उसके साथ मेरा क्या सम्बन्ध है ? मैं तो आत्मद्रव्य हूँ जो कि इससे मर्वथा भिन्न है। उसे उन रोगोंमेंसे एक भी रोग नहीं है। हाँ, उसे जन्मसरणका रोग है। यदि तुम्हारे झोलामे उसकी ओरधि हो तो देओ। वैद्य असली रूपमें प्रकट हो चरणोंमें गिर कर कहता है कि भगवन् ! इस रोगकी औषधि तो आपके ही पास है । म देव लोग तो इसकी ओषधि जो तप है उससे वञ्चित ही रहते हैं। चाहते हैं कि तप करें पर हमारा यह क्रियिक शरीर उसमे बावक है। कहनेका तात्पर्य यह है कि यदि किसी तरह गृहस्थीके जालसे छुटकारा मिला है तो दूसरे जालमे नहीं फंसना चाहिये और निर्द्वन्द्व होकर आत्माका कल्याण करना चाहिये। अन्तरङ्ग तपोंमें स्वाध्यायको भी तप बताया है। स्वाध्यायसे आत्मा और अनात्माका वोध होता है इसलिये प्रमाद छोड़कर स्वाध्यायमें प्रवृत्ति करना चाहिये। आचार्योंकी बुद्धि तो देखो, उन्होने शास्त्र पढ़नके लिये 'स्वाध्याय' यह कितना सुन्दर शब्द चुना है। अरे शान्त्र पढ़ते हो तो उसके लिये 'शाखाध्याय' साठ चुनते पर उन्होंने स्वाध्याय शब्द चुना है। इसका तात्पर्य यह है. कि शान पढ़कर स्वको पढ़ो-अपनं अापको पहिचानो। यदि ग्यारह अङ्ग और नी पूर्वको पढ़नके बाद भी स्त्रको नहीं पढ़ सके तो उस भारभूत ज्ञानसे कौन सा लाभ होनेवाला है ? उतना तान तो इस जीवन अनन्तवार प्राप्त किया परन्तु संसार गरम पार नहीं हो सका । जैन सिद्धान्तमें अनेक शात्रोंको जानकी प्रतिष्टा नहीं है किन्तु सम्बन्बानकी प्रतिष्टा है। यहाँ तो मार Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७ पर्व प्रवचनावली तुपमात्रको भिन्न भिन्न जाननेवाले मुनिको केवलज्ञानकी प्राप्ति बताकर मोक्ष पहुंचने की बात लिखो है अतः ज्ञान थोड़ा भी हो तो हानि नहीं परन्तु मिथ्या न हो उस चातका ध्यान रक्खो। सप्तम अध्यायमे आपने शुभातवका वर्णन सुनते समय अहिंसादि पाँच व्रतोंका वर्णन सुना है। उसमे उन्होंने उन व्रतोंकी स्थिरताके लिए पाँच पाँच भावनाओंका वर्णन किया है। उसपर ध्यान दीजिये। जिन कामोसे व्रतमे वाधा होती दिखी उन्हीं उन्हीं कामोपर प्राचार्यने पहरा बैठा दिया है । जैसे मनुप्य हिंसा करता है तो किन किन कार्योसे करता है ? १ वचनसे कुछ बोलकर, २ मनसे कुछ विचार ३शरीरसे चलकर, ४ किन्हीं वस्तुओंको रख तथा उठाकर और ५ भोजन ग्रहणकर इन पाँच कार्योंसे ही करता है। आचार्यने इन पाँचो कार्योंपर पहरा वैठाते हुए लिखा है 'वाइमनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च' अर्थात् वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और आलोकित्तपानभोजन इन पाँच कार्यों से अहिसा व्रतकी रक्षा होती है। इसी प्रकार सत्यव्रत, अचौर्यव्रत, ब्रह्मचर्यव्रत और परिग्रहत्यागव्रतकी बात समझना चाहिये। उन्होंने एक बात और लिखी है 'निःशल्यो व्रती' अर्थात व्रतीको निःशल्य होना चाहिये। माया, मिथ्यात्व और निदान ये तीन शल्य हैं। ये काँटेकी तरह सदा चुभती रहती हैं इसलिये व्रतीको इनसे दूर रहना चाहिये । मायाका अर्थ है भीतर कुछ और बाहर कुछ । व्रतीको ऐसा कभी नहीं होना चाहिये । कितने ही व्रती अन्तरङ्गमे कुछ हैं और लोक व्यवहारमे कुछ और ही प्रवृत्ति करते हैं। जिसकी ऐसी प्रपञ्चसे भरी वृत्ति है वह व्रती कैसे होसकता है ? हृदय यदि दुर्बल है तो कठिन व्रत कभी धारण नहीं करो तथा हृदयकी दुर्वलता छिपाकर बाह्य प्रवृत्तिके द्वारा उन्नत वननेकी भावना निन्द्य Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ मेरी जीवन गाथा भावना है । इससे व्रतीको सदा यह भय बना रहता है कि कहीं मेरी हृदयकी दुर्बलता कोई जान न जावे । इसी तरह जिस व्रतको धारण किया है उसमें पूर्ण श्रद्धा होना चाहिये । उसके विना मिथ्यात्व अवस्था रहेगी तथा श्रद्धाकी दृढ़ता न होनेसे आचार भी निर्मल नहीं रह सकेगा इसलिये जितना आचरण किया जाय उनका विवेक और श्रद्धा के साथ किया जाय । यदि व्रतीके विवेक नहीं होगा तो वह उत्सूत्र प्रवृत्ति करेगा और अपनी उस प्रवृत्तिसे जनता पर आतंक जमानेकी चेष्टा करेगा । यदि भाग्यवश जनता विवेकती हुई और उसने उसकी उत्सूत्र प्रवृत्तिकी आलोचना शुरू कर दी तो इससे हृदयमे क्षोभ उत्पन्न हो जायगा जो निरन्तर अशान्तिका कारण होगा । इसके सिवाय व्रतीको व्रत धारण कर उसके फलस्वरूप किसी भोगोपभोगकी आकांक्षा नहीं रखनी चाहिये, क्योकि ऐसा करनेके कारण उसकी आत्मामे निर्मलता नहीं आ सकेगी। जहाँ स्वार्थी गन्ध है वहाँ निर्मलता कैसी ? व्रतीको तो केवल यह भावना रखना चाहिये कि पापका परित्याग करना हमारा कर्तव्य है जिसे मैं कर रहा हूँ । इससे क्या फलकी प्राप्ति होगी ? इस प्रपञ्चमे पड़नेकी आवश्यकता नही । एक बार सही मार्गपर चलना शुरू कर दिया तो लक्ष्य स्थानकी प्राप्ति अवश्य होगी उसमे सन्देहकी बात नहीं है । :=: त्यागका अर्थ छोड़ना है, पर जब ग्रहण हो तभी न छोड़ना वने । संसारके समस्त पदार्थं अपना अपना चतुष्टय लिये स्वतन्त्र स्वतन्त्र विद्यमान हैं । किसीको ग्रहण करनेकी किसीमे सामर्थ्य I Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३८६ 1 नहीं | हमारा कमण्डलु वहां रक्खा और मैं यहां बैठा, मैंने कमण्डलुको क्या ग्रहरण कर लिया ? आपकी सम्पत्ति आपके घर है । आप यहां बैठे हैं । आपने सम्पत्तिको क्या ग्रहण कर लिया ? जब ग्रहण ही नहीं किया तब त्यागना कैसा ? वाह्यमे तो ऐसा ही है परन्तु मोहके कारण यह जीव उन पदार्थोंमे 'ये मेरे हैं' 'मैं इनका स्वामी है इस प्रकारका मूर्च्छाभाव लिये बैठा है वही मूर्च्छाभाव छोड़ने का नाम त्याग है । जिसका यह मूर्च्छाभाव छूट गया उसकी आत्मा निःशल्य हो गई । यह मनुष्य पर पदार्थको अपना मान उसके sg अनिष्ट परिणमनसे व्यर्थ ही हर्प - विपादका अनुभव करता है । यदि परमे परत्न और निजमे निजत्व बुद्ध तो त्यागका आनन्द उपलब्ध हो जावे । इस तरह निश्चयसे ममता भावको छोडना त्याग कहलाता है । वहिरङ्गमे आहार, औषधि, ज्ञान तथा अभयसे त्यागके चार भेद हैं । जब यहां भोगभूमि थी नव नवकी एकसी दशा थी, कल्पवृक्षोंसे सबकी इच्छाएं पूर्ण होती थीं इसलिये किसीसे किसीको कुछ प्राप्त करनेकी आवश्यकता नहीं थी । मुनिमार्गका भी प्रभाव था इसलिये श्रहारादि देना अनावश्यक था परन्तु जवसे कर्मभूमि प्रचलित हुई और विषमता को लिए हुए मनुष्य यहा उत्पन्न होने लगे तवसे पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता हुई । मुनिमार्गका भी प्रचलन हुआ इसलिये आहारादि देना आवश्यक हो गया । फलस्वरूप उसी समयसे त्याग धर्मका आविर्भाव हुआ । दाताको हृदयसे जब तक लोभ कषायकी निवृत्ति नहीं होती तब तक वह किसीके लिये एक कपर्दिका भी देनेके लिये तैयार नहीं होता पर जब अन्तरङ्गसे लोभ निकल जाता है तब छह खण्डका वैभव भी दूसरेके लिये सौंपनेमे देर नहीं लगती । मुनिने श्रावकसे आहार लिया, श्रावक ने भक्तिपूर्वक दिया इसमे दोनोंका कल्याण हुआ । दाताको तो इसलिये हुआ कि उसकी आत्मासे लोभकषायकी निवृत्ति हुई और Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० मेरी जीवन गाथा मुनिका इसलिये हुआ कि आहार पाकर उसके औदारिक शरीरमें स्थिरता आई जिससे वह रत्नत्रयकी वृद्धि करनेमे समर्थ हुआ। मुनि अपने उपदेशसे अनेक जीवोंको सुमार्ग पर लगावेंगे इस दृष्टिसे अनेक जीवोका कल्याण हुआ। इस तरह विचार करनेपर त्यागधर्म अत्यधिक स्वपर कल्याणकारी जान पड़ता है। मुनि अपने पदके अनुकूल निश्चय त्यागधर्मका पालन करते हैं और गृहस्थ वाह्य त्यागधर्मका पालन करते हैं। इतना निश्चत है कि संसारका समस्त व्यवहार त्यागसे ही चल रहा है । अन्यथा जिसके पास जो है वह किसीके लिए कुछ न दे तो क्या संसारका व्यवहार चल जावेगा? एक बार एक साधु नदीके किनारे पहुंचा। दूसरी पार जानेके लिए नाव लगती थी। नावका किराया दो पैसा था। साधुके पास पैसाका अभाव था इसलिए वह नदीके इस पार ही ठहरनेका उद्यम करने लगा। इतनेमे एक सेठ आया, वोला-वावाजी | रात्रिको यहाँ कहाँ ठहरेगें । उस अर चलिये, वहाँ ठहरनेका अच्छा स्थान है। साधुने कहा वेटा | नावमे बैठनेके लिए दो पैसा चाहिये । मेरे पास है नहीं अतः यहीं रात्रि वितानेका विचार किया है। सेठने कहा पैसोकी कोई बात नहीं, आप नावपर वैठिये । सेठ और साधुदोनों नाव पर बैठ गये। सेठने चार पैसे नाववालेको दिये । जब नावसे उतरकर दूसरी ओर दोनों पहुँच गये तब सेठने साधुसे कहा वावाजी आप बहुत त्यागका उपदेश देते हो। यदि आपके समान मैंने भी पैसे त्याग दिये होते तो आज क्या दशा होती? अतः त्य,गकी बात छोड़ो । साधुने हँसकर कहा-बेटा! यदि नदी पार हुई है तो चार पैसोंके त्यागसे ही हुई है। यदि तूं ये पैसे अपनी अंटीमे रखे रहता तो यह नाववाला तुमे कभी भी नदीसे पार नहीं उतारता । सेठ चुप रह गया । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली कहनेका तात्पर्य यही है कि त्यागसे ही संसारको सब काम चलते हैं। पानी बाड़े नावमें घरमें बाढे दाम । दोनों हाथ उलीचिये यही सयाना काम || यदि नावमे पानी बढ़ रहा है तो दोनों हाथोंसे उलीचकर उसे बाहिर करना ही बुद्धिमता है। इसी प्रकार यदि घरमें सम्पत्ति बढ़ रही है तो उसे दानके द्वारा उत्तम कायमें खर्च करना ही उसकी रक्षाका उपाय है। दान सन्मानके साथ देना चाहिये और उसके बदले किसी प्रकारका अभिमान हृदयमे उत्पन्न नहीं होना चाहिये, अन्यथा पैसाका पैसा जाता है और उससे आत्माका लाभ भी कुछ नहीं होता । दानमे लोभ कषायसे निवृत्ति होनेके कारण दाताकी आत्माको लाभ होता है। यदि लोभके बदले उसके दादा मानका उदय आत्मामे हो गया तो इससे क्या लाभ कहलाया। उत्तम पात्रके लिये दिया हुआ दान कभी व्यर्थ नहीं जाता। धन्यकुमारकी कथा आप लोग जानते हैं। घरसे निकलनेपर उसे जो स्थान-स्थानपर अनायास ही लाभ हुआ था वह उसके पूर्व पर्यायमे दिये दानका ही फल था । समन्तभद्र स्वामीने लिखा है क्षितिगतमिव वटबीज पात्रगतं दानमल्पमपि काले । __ फलति च्छायाविभवं बहुफलमिष्ट शरीरभृताम् ।। अर्थात् जिस प्रकार योग्य भूमिमे पड़ा हुआ वटका छोटा सा बीज कालान्तरमें वड़ा वृक्ष बनकर छायाके विभवको प्रदान करता है उसी प्रकार योग्य पात्रके लिये दिया हुआ छोटा सा दान भी समय पाकर अपरिमित वैभवको प्रदान करता है । जब वसन्त याचक भये दीने तरु मिल पात । इससे नव पल्लव भये दिया व्यर्थ नहिं जात ॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ मेरी जीवन गाथा एक कविके सामने पूर्तिके लिये समस्या रखी गई-दिया व्यर्थ नहि जात' जिसकी उसने उक्त प्रकार पूर्ति की। कितना सुन्दर भाव इसके अन्दर भर दिया है । वसन्त ऋतुमें प्रथम पतझड़ आती है जिससे समस्त वृक्षोंके पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और उसके बाद उन वृक्षोंमे नये लहलहाते पल्लव उत्पन्न होते हैं। कविने यही भाव इसमे अंकित किया है कि जब वसन्त ऋतु याचक हुआ अर्थात् उसने वृक्षोंसे पत्तोंकी याचना की तव सव वृक्षोंने उसे अपने अपने पत्ते दे दिये। उसीके फलस्वरूप उन्हे नये नये पल्लवॉकी प्राप्ति होती है क्योंकि दिया दान कभी व्यर्थ नहीं जाता है । मान बड़ाईके लिए जो दान दिया जाता है वह व्यर्थ जाता है। इसके लिए महाभारतमे एक उपकथा अाती है युद्धमें विजयोपरान्त युधिष्टिर महाराजने एक बड़ा भारी यन किया। उसमे हजारो ब्राह्मणोंको भोजन कराया गया। जिस स्थान पर ब्राह्मणोंको भोजन कराया गया उस स्थानपर युधिष्ठिर महाराज खड़े हुए कुछ लोगोंसे वार्ता कर रहे थे। वहीं एक नेवला जूठनमें वार वार लोट रहा था। महाराजने नेवलासे कहा-यह क्या कर रहा है ? तव नेवलाने कहा-महाराज ! एक गाँवमें एक वृद्ध ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्री थी, एक लड़का था और लड़केकी स्त्री थी। इस तरह चार आदमियोंकी उसकी गृहस्थी थी। बेचारे बहुत गरीव थे। खेतों परसे शिला बीनकर लाते और उससे अपनी गुजर करते थे। एक बार ३ दिनके अन्तरसे उन्हे भोजन प्राप्त हुआ। शिला बीनकर जो अनाज उन्हें मिला उससे वे आठ रोटियाँ वनाकर तथा दो दो रोटियाँ अपने हिस्सेकी लेकर खाने बैठे। बैठे ही थे कि इतनेमे एक गरीब आदमी चिल्लाता हुआ आया कि सात दिनसे मुखमें अनाजका दाना भी नहीं गया, भूखके मारे प्राण निकले जा रहे हैं। उसकी दीन वाणी सुन ब्राह्मणको दया आगई Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३६३ जिससे उसने यह विचार कर कि अभी मुझे तो दो तीन ही दिन हुए हैं पर इस बेचारेको सात दिन हो गये हैं, अपनी रोटियाँ उसे दे दीं। वह आदमी तृप्त नहीं हुआ । तब ब्राह्मण अपनी स्त्रीकी ओर देखने लगा । ब्राह्मणीने कहा कि आप भूखे रहे और मैं भोजन करूँ यह कैसे हो सकता है ? यह कह उसने भी अपनी रोटियाँ उसे दे दीं। वह फिर भी तृप्त नहीं हुआ। तब दोनों लड़के की ओर देखने लगे । लड़के ने कहा कि हमारे वृद्ध माता पिता भूखे रहें और मै भोजन करूँ यह कैसे हो सकता है ? यह कह उसने भी अपनी रोटियाँ उसे खिला दीं। वह फिर भी तृप्त नहीं हुआ तब तीनों लड़केकी स्त्री की ओर देखने लगे । उसने भी कहा कि यद्यपि मैं आपके घर उत्पन्न नहीं हुई हूँ तथापि आप लोगोंके सहवाससे मुझमें भी कुछ-कुछ उदारता और दयालुता आई है यह कहकर उसने भी अपनी रोटियाँ उसे खिला दीं। वह भूखा आदमी तृप्त होकर आशीर्वाद देता हुआ चला गया। चारोंके चारों भूखे रह गये । महाराज | जिस स्थान पर उस गरीवने बैठकर भोजन किया था, मैं वहाँसे निकला तो मेरा नीचेका भाग स्वर्णमय हो गया । अब आधा स्वर्णमय और आधा चर्ममय होनेसे मुझे अपना रूप अच्छा नहीं लगा । इसी बीच मैंने सुना कि महाराज के यहाँ यज्ञमे हजारों ब्राह्मणोंका भोजन हुआ है । वहाँ जाकर लोदूँगा तो पूरा स्वर्णमय हो जाऊँगा । यही सुनकर मैं यहाँ आया और बड़ी देरसे जूठनमे लोट रहा हूँ परन्तु मेरा शेष शरीर स्वर्णमय नहीं हो रहा है। महाराज जान पड़ता है आपने यह ब्राह्मणभोजन करुणाबुद्धिसे नहीं कराया, केवल मान बढ़ाईके लिये लोकव्यवहार देख कराया है । ... कथा तो कथा ही है पर इससे सार यही निकलता है कि मान बढ़ाईके उद्देश्यसे दिया दान निष्फल जाता है। दान देते समय पात्रकी योग्यता और आवश्यकता Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा पर भी दृष्टि डालना चाहिये । एक स्थान पर कहा है दरिद्रान् भर कौन्तेय मा प्रयच्छेश्वरे धनम् । व्याधितस्यौषधं पथ्यं नीरुजस्य किमौषधैः ।। अर्थात हे युधिष्टिर । दरिद्रोंका भरण पोषण करो, सम्पन्न व्यक्तियोंको धन नहीं दो । रुग्ण मनुष्यके लिए औपधि हितकारी है, नीरोग मनुष्यको उससे क्या प्रयोजन ? प्रसन्नताकी बात है कि जैन समाजमे दान देनेका प्रचार अन्य समाजोंकी अपेक्षा अधिक है। प्रतिवर्ष लाखों रुपयोंका दान समाजमें होता है और उससे समाजके उत्कर्षके अनेक कार्य हो रहे हैं। पिछले पचास वर्षांसे आपकी समाजमें जो प्रगति हुई है वह आपके दानका ही फल है। ___ अष्टम अध्यायमे आपने बन्धतत्त्वका वर्णन सुना है । बन्धका प्रमुख कारण मोहजन्य विकार है । मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः' इस सूत्रमे जो बन्धके कारण बतलाये हैं उनमे योगको छोड़कर शेप सब मोहजन्य विकार ही तो हैं। अन्य कर्मोके उदयसे जो भाव आत्मामे उत्पन्न होते हैं उनसे नवीन कर्म वन्ध नहीं होता । परन्तु मोह कर्मके उदयसे जो भाव होता है वह नवीन कर्मवन्धका कारण हे । कुन्दकुन्द स्वामीने भी समयसारमे कहा है रत्तो बंधदि कम्म मुचदि जीवो विरागसपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज ॥ अर्थात रागी प्राणी कर्मोको वाँधता है और राग रहित प्राणी कर्मोको छोड़ता है । वन्धके विषयमें जिनेन्द्र भगवान्का यही उपदेश है, अतः कर्मोंमे राग नहीं करो। इस रागसे वचनेका प्रयत्न करो। यह राग आग दहे सदा तातें समामृत 'सेइये' यह राग रूपी आग Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली सदा जलाती रहती है इसलिये इससे बचनेके लिए सदा समताभावरूपी अमृतका सेवन करना चाहिये। यह संसारचक्र अनादि कालसे चला आ रहा है और सामान्यकी अपेक्षा अनन्त काल तक चलता रहेगा। पञ्चास्तिकायमे श्री कुन्दकुन्ददेवने लिखा है गदिमधिगदस्स देहो देहादिदियाणि जायते । जो खलु ससारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो ॥ परिणामादो कम्मं कम्मादो गदिसु होदि गदी। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इदियाणि जायते ॥ तेहिं दु विषयग्गहण तत्तो रागो व दोसो वा । जायदि जीवस्सेव भावो ससारचक्कवालम्मि ॥ इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणो सणिधणों वा। जो संसारमें रहनेवाले जीव हैं उनके स्निग्ध परिणाम होता है, परिणामोंसे कर्मका बन्ध होता है, कर्मसे जीव एक गतिसे अन्य गतिमे जाता है, जहाँ जाता है वहाँ देहग्रहण करता है, देहसे इन्द्रियोंका उत्पाद होता है, इन्द्रियोंके द्वारा विषय ग्रहण करता है, विषय ग्रहणसे रागादि परिणामोंकी उत्पत्ति होती है फिर रागादिकसे कर्म और कर्मसे गत्यन्तरगमन, फिर गत्यन्तरगमन से देह देहसे इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे विषय ग्रहण, विषयोंसे स्निग्ध परिणाम, स्निग्धपरिणामोंसे कर्म और कर्मसे वही प्रक्रिया इस तरह यह संसार चक्र वरावर चला जाता है। यदि इसकोमिटानाहै तो उक्त प्रक्रियाका अन्त करना पडेगा। इस प्रक्रियाका मूल कारण स्निग्ध परिणाम है। उसका अन्त करनाही इस भवचक्रके विध्वंसका मूल हेतु है । इसको दूर करनेके उपाय बड़े बड़े महात्माओंने बतलाए हैं। आज संसारमै धर्मके जितने आयतन दृष्टिपथ हैं वे इसी चक्रसे वचनेके साधन हैं । किन्तु अन्तरङ्ग इष्टि डालो तो ये सर्व उपाय पराभित हैं। केवल स्वाश्रित उपाय ही Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा स्वद्वारा अर्जित संसारके विध्वंसका कारण हो सकता है। जैसे शरीरमें यदि अन्न खाकर अजीर्ण हो गया है तो उसके दूर करनेका सर्वोत्तम उपाय यही है कि उदरसे पर द्रव्यका सम्बन्ध पृथक कर दिया जावे। उसकी प्रक्रिया यह है कि प्रथम तो नवीन भोजन त्यागो तथा उदरमे जो विकार है वह या तो काल पाकर स्वयमेव निर्गत हो जावेगा या शीघ्र ही पृथक् करना है तो वमन-विरेचन द्वारा निकाल दिया जावे । ऐसा करनेसे निरोगताका लाभ अनायास हो सकता है। मोक्षमार्गमे भी यही प्रक्रिया है। वल्कि जितने कार्य हैं उन सर्वकी यही पद्धति है। यदि हमे संसार वन्धनसे मुक्त होनेकी अभिलाषा है तो सबसे प्रथम हम कौन है ? क्या हमारा स्वरूप है । वर्तमान क्या है ? तथा संसार क्यों अनिष्ट है ? इन सब बातोका निर्णय करना आवश्यक है । जब तक उक्त वातोंका निर्णय न हो जावे तव तक उसके अभावका प्रयत्न हो ही नहीं सकता। आत्मा अहम्प्रत्ययवेद्य है । उसकी जो अवस्था हमें संसारी वना रही है उससे मुक्त होनेकी हमारी इच्छा है तब केवल इच्छा करनेसे मुक्ति के पात्र हम नहीं हो सक्ते । जैसे जल अग्निके निमित्तसे उप्ण होगया है। अब हम माला लेकर जपने लगें कि 'शीतस्पर्शवज्जलाय नमः' तो क्या इससे अनल्प काल में भी जल शीत हो जायगा ? नहीं. वह तो उप्ण स्पर्शके दूर करनेसे ही शीत होगा। इसी तरह हमारी आत्मामें जो रागादि विभाव परिणाम हैं उनके दूर करनेके अर्थ 'श्री वीतरागाय नमः' यह जाप असंख्य कल्प भी जपा जावे तो भी आत्मामें वीतरागता न आवेगो किन्तु रागादि निवृत्तिसे अनायास वीतरागता था जावेगी । वीतरागता नवीन पदार्थ नहीं, आत्माकी निर्मोह अवस्था ही वीतरागता है जो कि शक्तिकी अपेक्षा सदा विद्यमान रहती है। जिसके उदयसे परमें निजत्व बुद्धि होती है वही मोह है। परको निज मानना यह Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३६७ अजान भाव है अर्थात् मिथ्याज्ञान है। इसका मूल कारण मोहका उदय है । ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे ज्ञान तो होता है परन्तु विपर्यय होता है । जैसे शुक्तिकामे रजतका विभ्रम होता है । यद्यपि शुक्ति रजत नहीं हो गई तथापि दूरत्व एवं चाकचक्यादि कारणोंसे भ्रान्ति हो जाती है। यहाँ भ्रान्तिका कारण दूरत्वादि दोप है । जैसे कामला रोगी जब शन देखता है तब 'पीतः शङ्कः' ऐसी प्रतीति करता है। यद्यपि शङ्खमें पीतता नहीं, यह तो नेत्रमे कामला रोग होनेसे शङ्खमे पीतत्व भासमान है। यह पीतता कहाँसे आई | तव यही कहना पड़ेगा कि नेत्रमे जो कामला रोग है वही इस पीतत्वका कारण है। इसी प्रकार आत्मामे जो रागादि होते हैं उनका मूल कारण मोहनीय कर्म है। उसके दो भेद हैं-१ दर्शनमोह और २ चारित्रमोह । उनमे दर्शनमोहके उदयसे मिथ्यात्व और चारित्रमोहके उदयसे राग द्वेप होते हैं। उपयोग आत्माका ऐसा है कि उसके सामने जो आता है उसीका उसमे प्रतिभास होने लगता है। जैसे नेत्रके समक्ष जो पदार्थ आता है वह उसका ज्ञान करा देता है। यहाँतक तो कोई आपत्ति नहीं परन्तु जो पदार्थ ज्ञानमे आवे उसे आत्मीय मान लेना आपत्तिजनक है क्योंकि वह मिथ्या अभिप्राय है । जो पर वस्तुको निज मानता है, संसारमे लोग उसे ठग कहते हैं परन्तु यह चोट्टापन छूटना सहज नहीं। अच्छे अच्छे जीव परको निज मानते हैं और उन पदार्थोंकी रक्षा भी करते हैं किन्तु अभिप्रायमे यह है कि ये हमारे नहीं। इसीलिये उन्हे सम्यग्ज्ञानी कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव उन्हे निज मान अनन्त संसारके पात्र होते हैं अतः सिद्ध होता है कि यह मोह परिणति ही बन्धका कारण है। इससे छुटकारा चाहते हो तो प्रथम मोह परिणतिको दूर कर आत्मस्वरूपमें स्थित होनेका प्रयास करो। इसीसे आत्मशान्ति प्राप्त होगी। परमार्थसे आत्मशान्तिका उपाय यही है कि परसे सम्बन्ध छोडा जाय और Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ मेरी जीवन गाथा श्रात्मपरिणतिका विचार किया जाय । विचारका मूल कारण सम्यग्नान है, सम्यग्नानकी प्राप्ति आमश्रतिसे होती है, आप्तसुति श्रामाधीन है, आम रागदि दोप रहित है अतः रागादि दोपोंको जानो. उनकी पारमार्थिक दशासे परिचय करो। रागादि दोषोंका त्याग ही संसार बन्धनसे मुक्तिका उपाय है। रागादिकोका यथार्थ स्वरूप जान लेना ही उनसे विरक्त होनेका मूल उपाय है। ::: त्याग करते करते अन्तमे आपके पास क्या बचेगा ? कुत्र नहीं। जिसके पास कुछ नहीं बचा वह अकिञ्चन कहलाता है और अकिञ्चनका जो भाव है वही आकिञ्चन्य कहलाता है। परिग्रहका त्याग हो जानेपर ही पूर्ण आकिञ्चन्य धर्म प्रकट होता है। सुख आत्माका गुण है। भले ही वह वर्तमानमे विपरीतरूप परिणमन कर रहा हो पर यह निश्चित है कि जब भी वह प्रकट होगा तब आत्मामे ही प्रकट होगा यह ध्रुव सत्य है परन्तु मोहके कारण यह जीव परिग्रहको सुखका कारण जान उसके संचयमे रात दिन एक कर रहा है। 'परितो गृहाति आत्मानमिति परिग्रहः जो आत्माको सव ओरसे पकड़ कर जकड़ कर रक्ख वह परिग्रह है। परमार्थसे विचार किया जाय तो यह परिग्रह ही इस नीचको समन्तात्स ब ओरसे जकड़े हुए है। 'मूच्चो परिग्रहः ।' आचार्य उमास्वामी महाराजने परिग्रहका लक्षण मूछो रक्खा है। मैं इसका स्वामी हूँ, ये मेरे स्व हैं इस प्रकारका भाव ही मूछों है। इस मूर्खाके रहते हुए पासमे कुछ भी न हो तब भी यह जीव Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ३६६ परिग्रही कहलाता है और मूर्च्छाके अभाव मे समवसरणरूप विभूतिके रहते हुए भी अपरिग्रह - परिग्रह रहित कहलाता है । परिग्रह सबसे बड़ा पाप है, जो दशम गुणस्थान तक इस जीवका पिण्ड नहीं छोड़ता । आज परिग्रहके कारण संसारमे त्राहि त्राहि मच रही है । जहाँ देखो वहीं परिग्रहकी पुकार है । जिनके पास है वे उसे अपने पाससे अन्यत्र नहीं जाने देना चाहते और जिनके पास नहीं है वे उसे प्राप्त करना चाहते हैं इसीलिये संसारमे संघर्ष मचा हुआ है । यदि लोगों की दृष्टिमे उतनी बात आ जाय कि परिग्रह निर्वाहका साधन है । जिस प्रकार हमे भोजन, वस्त्र और निवासके लिए परिग्रहकी आवश्यकता है उसी प्रकार दूसरे के लिए भी इसकी आवश्यकता है अतः हमे आवश्यकतासे अधिक अपने पास नहीं रोकना चाहिये तो संसारका कल्याण हो जाय । यदि परिग्रहका कुछ भाग एक जगह अनावश्यक रुक जाता है तो दूसरी जगह उसके बिना कमी होनेसे संकट उत्पन्न हो जाता है । शरीर के अन्दर जबतक रक्तका संचार होता रहता है तबतक शरीरके प्रत्येक अंग अपने कार्य में दक्ष रहते हैं पर जहाँ कही रक्तका संचार रुक जाता है वहाँ वह अट्ड्स वेकार होजाता है और जहाँ रक्त रुक जाता है वहाँ मवाद पैदा हो जाता है । यही हाल परिग्रहका है । जहाँ यह नहीं पहुँचेगा वहाँ उसके विना संकटापन्न स्थिति हो जायगी और जहाँ रुक जायगा वहाँ मद-मोह विभ्रम आदि दुर्गुण उत्पन्न कर देगा । इसलिये जैनागममें यह कहा गया है कि गृहस्थ अपनी आवश्यकताओके अनुसार परिग्रहका परिमाण करे और मुनि सर्वथा ही उसका परित्याग करे आजके युगमे मनुष्यकी प्रतिष्ठा पैसेसे आँकी जाने लगी है इसलिये मनुष्य न्यायसे अन्यायसे जैसे बनता है वैसे पैसेका संचय कर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहता है । प्रतिष्ठा किसे बुरी लगती है ? Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० मेरी जीवन गाथा इस परिग्रहकी छीना-झपटीमे मनुष्य भाई भाईका, पुत्र पिताका और पिता पुत्र तकका घात करता सुना गया है। इसके दुर्गुणोंकी ओर जब दृष्टि जाती है तब शरीरमे रोमाञ्च उठ आते हैं। चक्रवर्ती भरत ने अपने भाई बाहुबलिके ऊपर चक्र चला दिया। किसलिए ? पैसेके लिये | क्या वे यह नहीं सोच सकते थे कि आखिर यह भी तो उसी पिताकी सन्तान है जिसकी मै हूँ। यह एक न वशमें हुआ न सही, पट्खण्डके समस्त मानव तो वशमे आगये-आज्ञाकारी होगये पर वहाँ तो भूत मोहका सवार था इसलिए संतोष कैसे हो सकता था ? वे मन्त्रियों द्वारा निर्णीत दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्ल युद्धमे पराजित होनेपर भी उबल पड़े-रोपमे आगये और भाईपर चक्ररत्न चलाकर शान्त हुए। उस समयके मंत्रियोंकी बुद्धिमानी देखो। वे समझते थे कि ये दोनों भाई चरमशरीरी-मोक्षगामी हैं। इनमेसे एकका भी विघात होनेका नहीं। यदि सेनाका युद्ध होता है तो हजारों निरपराध व्यक्ति मारे जावेंगे इसलिये अपनी बलवत्ताका निर्णय ये दोनों अपने ही युद्धोंसे करें और युद्ध भी कैसे, जिनमे घातक शस्त्रोंका नाम भी नहीं ? यह उस समयके मन्त्री थे और आजके मन्त्रियोकी बात देखो। आप घरमेसे बाहर नहीं निकलेंगे पर निरपराध प्रजाले लाखों मानवोंका विध्वंस करा देंगे। कौरव और पाण्डवोंका युद्ध किंनिमित्तक था ? इसी परिग्रह निमित्तक तो था । कौरव अधिक थे इसलिए सम्पत्तिका अधिक भाग चाहते थे। पाण्डव यदि यह सोच लेते कि हम थोड़े हैं अतः हमारा काम थोड़ेसे ही चल सकता है। अर्ध भागकी हमें आवश्यकता नहीं है तो क्या महाभारत होता ? नहीं, पर उन्हें तो आधा भाग चाहिये था। कितने निरपराध सैनिकोंका विनाश हुआ इस ओर दृष्टि नहीं गई। जावे कैसे परिग्रहका आवरण नेत्रके ऊपर ऐसी पट्टी बाँध देता है कि वह पदार्थका सही रूप देख ही नहीं पाता। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ पर्व प्रवचनावली संसारमें परिग्रह पापकी जड़ है। वह जहाँ जावेगा वहीं पर अनेक उपद्रव करावेगा। करावे किन्तु जिन्हे आत्महित करना है वे इसे त्याग करें । त्याग परिग्रहका नहीं मूर्छाका होना चाहिये।। कितने ही लोग ऐसा सोचते हैं कि अभी परिग्रहका अर्जन करो, पीछे दान आदि कार्योंमे व्यय कर पुण्यका संचय कर लेंगे परन्तु आचार्य कहते हैं कि 'प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' अर्थात् कीचड़ धोनेकी अपेक्षा दूरसे ही उसका स्पर्श न करना अच्छा है। लक्ष्मीको अंगीकार कर उसका त्याग करना कहाँकी बुद्धिमानी है । कार्तिकेय मुनिने लिखा है कि वैसे तो सभी तीर्थङ्कर समान हैं परन्तु वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पाव और वर्धमान इन पाँच तीर्थङ्करोंमे हमारी भक्ति विशेष है क्यों कि इन्होंने संपत्तिको अङ्गीकृत ही नहीं किया, जब कि अन्य तीर्थङ्करोंने सामान्य मनुष्योंकी तरह सम्पत्ति ग्रहण कर पीछे त्याग किया। परिग्रहवालोंसे पूछो कि उन्हे परिग्रहसे कितना सुख है ? जिसके पास कुछ नहीं है वह सुखकी नींद तो सोता है पर परिग्रहवालोंको यह नसीव नहीं। ____एक गरीव आदमी था, महादेवजीका भक्त था । उसकी भक्तिसे प्रसन्न होकर एक दिन महादेवजीने कहा-बोल क्या चाहता है ? महादेवजीको सामने खड़ा देख बेचारा घबड़ा गया। बोलामहाराज! कल सवेरे माँग लूंगा। महादेवजी ने कहा-अच्छा। वह आदमी सायकलसे ही विचार करने वैठा कि महादेवजीसे क्या माँगा जाय । हमारे पास रहनेके लिये घर नहीं इसलिये यही माँगा जाय। फिर सोचता है जब महादेवजी मुंह मागा वरदान देनेको तैयार हैं तब घर ही क्यों माँगा जाय ? देखो ये जमींदार हैं, गाँवके समस्त लोगों पर रौब गाँठते हैं इसलिये हम भी जमींदार हो जायें तो अच्छा है । यह विचार कर उसने जमींदारी मांगनेका निर्णय किया । फिर सोचता है आखिर जब लगान भरनेका समय आता Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ मेरी जीवन गाथा है तब ये तहसीलदारकी आरजू मिन्नत करते हैं इसलिये इनसे बडा तो तहसीलदार है, वही क्यों न बन जाऊँ ? इस तरह विचार कर वह तहसीलदार बननेकी आकांक्षा करने लगा। कुछ देर बाद उसे जिलाधीशका स्मरण आया तो उसके सामने तहसीलदारका पद फीका दिखने लगा। इस प्रकार एकके वाद एक इच्छाएं बढ़ती गई और वह निर्णय नहीं कर पाया कि क्या माँगा जाय । सारी रात्रि विचार करते करते निकल गई। सवेरा हुआ, महादेवजी ने पूछाबोल क्या चाहता है ? वह उत्तर देता है-महाराज ! कुछ नहीं चाहिये । क्यों ? क्यों क्या, जब पासमे संपत्ति आई नही, आनेकी आशामात्र दिखी तब तो रात्रिभर नींद नहीं। यदि कदाचित् आ गई तो फिर नींद तो एकदम विदा हो जायगी इसलिये महाराज मैं जैसा हूँ वैसा ही अच्छा है। उदाहरण है अतः इससे सार ग्रहण कीजिये । सार इतना ही है कि परिग्रह जञ्जालका कारण है अतः इससे निवृत्त होनेका प्रयत्न करना चाहिये। नवम अध्यायमें संवर और निर्जरा तत्त्वका वर्णन आपने सुना है। वास्तवमे विचार करो तो मोक्षके साधक ये दो ही तत्व हैं। नवीन कर्मोंका आस्रव रुक जाय यही संवर है और पूर्ववद्ध कर्मोंका क्रम-क्रमसे खिर जाना निर्जरा है । संवर गुप्ति, लमिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिपहजय और चारित्रके द्वारा होता है । उन कारणोंमे प्राचार्य महाराजने सर्वसे प्रथम गुप्तिका उल्लेग्य किया है । समस्त प्रास्त्रवोंका मूल कारण योग है। यदि योगी पर नियन्त्रण हो गया तो आस्रव अपने आप क जावेंगे । इस तरह गुप्ति ही महासंवर है परन्तु गुप्तिका प्राप्त होना सहज नहीं । गुप्तिरूप अवस्था सतत नहीं हो सकती अतः उसके अभावम प्रवृत्ति करना पड़ती है तब प्राचार्यने आदेश दिया कि भाई यदि प्रवृत्ति ही करना है तो प्रमाद रहित प्रवृत्ति करो। प्रमाद हिन Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ पर्व प्रवचनावली प्रवृत्तिका नाम समिति है। मनुप्य चलता है, बोलता है, खाता है, किसी वस्तुको छाता धरता है और मलमूत्रादिका त्याग करता है। इनके सिवाय यदि अन्य कर्म करता हो तो बताओ ? उसके समस्त कार्य इन्हीं पांच कर्मोंमे अन्तर्गत हो जाते हैं। आचार्य महाराजने पाच समितियोंके द्वारा इन पांचों कार्यों पर पहरा बैठा दिया फिर अनीतिमे प्रवृत्ति हो तो कैसे हो ? :१०: आत्माका उपयोग आत्मामे स्थिर नहीं रहता इसका कारण परिग्रह है। परिग्रहके कारण ही उपयोगमे सदा चञ्चलता आती रहती है। आकिञ्चन्य धर्ममे परिग्रहका त्याग होनेसे आत्माका उपयोग अन्यत्र न जाकर ब्रह्म अर्थात् आत्मामे ही लीन होने लगता है । यथार्थमे यही ब्रह्मचर्य है। बाह्य ज्ञयसे उपयोग हटकर आत्मस्वरूपमे ही लीन हो जाय तो इससे बढ़कर धर्म क्या होगा ? इसीलिये ब्रह्मचर्यको सबसे बड़ा धर्म माना है। ब्रह्मचर्यकी पूर्णता चौदहवें गुणस्थानमे होती है। आगममे वहाँ ही शीलके अठारह हजार भेदोकी पूर्णता बतलाई है। यद्यपि निश्चय नयसे ब्रह्मचर्यका यही स्वरूप है तथापि व्यवहारसे स्त्रीत्यागको ब्रह्मचर्य कहते हैं। स्वकीय तथा परकीय दोनों प्रकारकी स्त्रियोंका त्याग हो जाना पूर्ण ब्रह्मचर्य है और परकीय स्त्रीका त्यागकर स्वकीय स्त्रीमे संतोष रखना अथवा स्त्रीकी अपेक्षा स्वपुरुषमे संतोष रखना एकदेश ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्यसे ही मनुप्यकी शोभा तथा प्रतिष्ठा है। चिरकालसे मनुष्योमें जो कौटुम्बिक व्यवस्था चली आ रही है उसका कारण मनुष्यका Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा } ब्रह्मचर्य ही है । ब्रह्मचर्यका सबसे बड़ा बाधक कारण कुसङ्गति है । कुसंगतिके चक्रमे पड़कर ही मनुष्य बुरी आदतोंमे पड़ता है इस लिये ब्रह्मचर्यकी रक्षा चाहनेवाले मनुष्यको सर्व प्रथम कुसंगति से वचना चाहिये। शुभचन्द्राचार्यने वृद्ध सेवाको ब्रह्मयका साधक मानकर ज्ञानार्णवमे इसका विशद वर्णन किया है । यहाँ जो उत्तमगुणों सहित हैं उन्हें वृद्ध कहा है । केवल अवस्थासे वृद्ध मनुष्योंकी यहाँ विवक्षा नहीं है । मनुष्य के हृदयमें जब दुर्विचार उत्पन्न होते हैं तब उन्हें रोकने के लिये लज्जा गुण बहुत कुछ प्रयत्न करता है । उत्तम मनुष्योंकी संगतिसे लज्जागुणको बल मिलता है । और वह मनुष्यों के दुर्विचारोंको परास्त कर देता है परन्तु जब नीच मनुष्योंकी संगति रहती है तब लज्जागुण असहाय जैसा होकर स्वयं परास्त हो जाता है । हृदयसे लज्जा गई फिर दुर्विचारोंको रोकनेवाला कौन है ? I 808 आदर्श गृहस्थ वही हो सकता है जो अपनी स्त्रीमें संतोष रखता है | इस एकदेश ब्रह्मचर्यका भी कम माहात्म्य नहीं है । सुदर्शन सेठकी रक्षा के लिये देव दौड़े आते हैं। सीताजीके अग्निकुण्डको जलकुण्ड बनानेके लिये देवोंका ध्यान आकर्षित होता है । यह क्या है ? एक शीलव्रतका ही अद्भुत माहात्म्य है। इसके विरुद्ध जो कुशील पापमे प्रवृत्ति करते हैं वे देर सवेर नष्ट हो जाते हैं उसमें संदेहकी बात नहीं है । जिन घरोंमें यह पाप आया वे घर वरवाद ही हो गये और पाप करनेवालोंको अपने ही जीवनमे ऐसी दशा देखनी पड़ी कि जिसकी उन्हें स्वप्नमे भी संभावना नहीं थी । जिस पापके कारण रात्रणके भवनमे एक बच्चा भी नहीं बचा उसी पापको आज लोगोंने खिलौना बना रक्खा है । जाहि पाप रावण के छौना रह्यौ न मौना माहिं । ताहि पाप लोगनने खिलौना कर राख्यौ है | Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली. ४०५ पाप पाप ही है। इसे जो भी करेगा वह दुःख उठावेगा। ब्रह्मचारी मनुन्यको अपने रहन, वेषभूपा आदि सब पर दृष्टि रखना पड़ती है। वाह्य परिकर भी उज्वल बनाना पड़ता है क्योंकि इन सवका असर उसके ब्रह्मचर्यपर अच्छा नहीं पड़ता। आप भगवान् महावीर स्वामीके संबोधे हुए शिष्य हैं। भगवान् महावीर कौन थे ? वाल ब्रह्मचारी ही तो थे। अच्छा जाने दो उनकी वात, उनके पहले भगवान् पार्श्वनाथ कैसे थे? वे भी वालब्रह्मचारी थे और उनके पहले कौन थे ? नेमिनाथ, वे भी ब्रह्मचारी थे। उनका ब्रह्मचर्य तो और भी आश्चर्यकारी है। बीच विवाहमें विरक्त हो दीक्षा उन्होंने धारण की थी। इस तरह एक नहीं तीन तीन तीर्थंकरोंने आपके सामने ब्रह्मचर्यका माहात्म्य प्रकट किया है। हम अपने आपको उनका शिष्य बतलाते हैं पर ब्रह्मचर्यकी ओर दृष्टि नहीं देते ! जीवन विलासमय हो रहा है और उसके कारण सूरतपर वारह बज रहे हैं फिर भी इस कमीको दूर करनेकी ओर लक्ष्य नहीं जाता। कीड़े मकोड़ेकी तरह मनुष्य संख्यामें वृद्धि होती जा रही हैं। बल-वीर्यका अभाव शरीरमे होता जा रहा है फिर भी ध्यान इस ओर नहीं जाता । एक बच्चा माँके पेटमें और एक अञ्चलके नीचे है फिर भी मनुष्य विषयसे तृप्त नहीं होता । पशुमे तो कमसे कम इतना विवेक होता है कि वह गर्भवती स्त्रीसे दूर रहता है पर हाय रे मनुष्य ! तूं तो पशुसे भी अधम दशाको पहुँच रहा है। तुझे गर्भवती स्त्रीसे भी समागम करनेमें संकोच नहीं रहा। इस स्थिति में जो तेरे सन्तान उत्पन्न होती है उसकी अवस्थापर भी थोड़ा विचार करो। किसीके लीवर बढ़ रहा है तो किसीके पक्षाघात हो रहा है, किसीकी आँख कमजोर है तो किसीके दाँत दुर्वल हैं। यह सर्व क्यों है ? एक ब्रह्मचर्यके महत्त्वको नहीं समझनेसे है। जब तक एक बच्चा माँका दुग्धपान करता है तब तक दूसरा वच्चा उत्पन्न न Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ मेरी जीवन गाथा किया जाय तो बच्चे भी पुष्ट हों तथा माता पिता भी स्वस्थ रहे। आज तो स्त्रीके दो तीन बच्चे हुए नहीं कि उसके शरीरमे बुढापाके चिह्न प्रकट हो जाते हैं। पुरुपके नेत्रो पर चश्मा आजाता है और मुंहमे पत्थरके टॉत लगवाने पड़ते हैं। जिस भारतवर्ष पहले टी. वी. का नाम नहीं था वहाँ आज लाखोंकी संख्यामे इस रोगसे ग्रसित है। विवाहित स्त्री पुरुषोंकी बात छोड़िये, अत्र तो अविवाहित बालक बालिकायें भी इस रोगकी शिकार हो रही हैं। इस स्थितिम भगवान् ही देशकी रक्षा करें। एक राजा ज्योतिष विद्याका बड़ा प्रेमी था। वह मुहूर्त दिखाकर ही स्त्री समागम करता था। राजाका ज्योतिषी तीन सालमे एक वार मुहूर्त निकाल कर देता था। इससे राजाकी स्त्री बहुत कुढ़ती रहती थी। एक दिन उसने राजासे कहा कि ज्योतिषी जी आपको तो तीन साल बाद मुहूर्त शोध कर देते हैं और स्वयं निजके लिए चाहे जब मुहूर्त निकाल लेते हैं । उनका पोथी-पत्रा क्या जुदा है ? देखो न, उनके प्रति वर्ष वच्चे उत्पन्न हो रहे हैं । स्त्रीकी बात पर रानाने ध्यान दिया और ज्योतिषीको बुलाकर पूछा कि महाराज | क्या आपका पोथी-पत्रा जुदा है । ज्योतिषीने कहा-महाराज | इसका उत्तर कल राजसभामे दूंगा। दूसरे दिन राजसभा लगी हुई थी । सिंहासन पर राजा आसीन थे। उनके दोनों ओर तीन तीन वर्षके अन्तरसे हुए दोनों बच्चे सुन्दर वेष-भूपामे बैठे थे। राजसभामे ज्योतिषी जी पहुंचे। प्रति वर्षे उत्पन्न होनेवाले वच्चोमेसे वे एकको कन्धेपर रखे थे, एकको वगलमे दावे थे और एकको हाथसे पकड़े थे। पहुँचने पर राजाने उत्तर पूछा। ज्योतिपीने कहा-महाराज | मुहूर्तका वहाना तो मेरा छल था। यथार्थ बात यह है कि आप राजा हैं। आपकी संतान राज्यकी उत्तराधिकारी है। यदि आपके प्रतिवर्ष संतान पैदा होती तो वह हमारे इन बच्चोंके समान होती । एकके नाक बह रही है, एककी Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व प्रवचनावली ४.७ आँखो कीचड़ लग रहा है, कोई चीं कर रहा है, कोई पीं कर रहा है । ऐसी संतानसे क्या राज्यकी रक्षा हो सकती है ? हम तो जाति के ब्राह्मण हैं । हमारे इन बच्चोंको राज्य तो करना नहीं है, सिर्फ अपना पेट पालना है सो येन केन प्रकारेण पाल ही लेंगे । आपके ये दोनो बच्चे तीन तीन साल के अन्तरसे हुए हैं और ये हमारे बच्चे एक एक वर्षके अन्तरसे हुए हैं । दोनों की सूरत मिलान कर लीजिये । राजा ज्योतिपीके उत्तरसें निरुत्तर हो गया तथा उसकी दूरदर्शिता पर बहुत प्रसन्न हुआ । यह तो कथा रही पर मैं आपको एक प्रत्यक्ष घटना सुनाता हूँ । मैं पं० ठाकुरदासजी के पास पढ़ता था । वह वहुत भारी विद्वान थे । उनकी स्त्री दूसरे विवाहकी थी पर उसकी परिणतिकी बात हम आपको क्या सुनावें ? एक वार पण्डित जी उसके लिए १००) सौ रुपयेकी साड़ी ले आये । साड़ी हाथ मे लेकर वह पण्डित जी से हती है - पण्डित जी ! यह साड़ी किसके लिये लाये हैं ? पण्डितजीने कहा कि तुम्हारे लिये लाया हूँ । उसने कहा कि अभी जो साड़ी मैं रोज पहिनती हॅू वह क्या बुरी है ? बुरी तो नहीं है पर यह अच्छी लगेगी पण्डितजीने कहा । यह सुन उसने उत्तर दिया कि मै अच्छी लगने के लिए वस्त्र नहीं पहनना चाहती | वस्त्रका उद्देश्य शरीरकी रक्षा है, सौन्दर्य वृद्धि नहीं और सौन्दर्य वृद्धि कर मैं किसे आकर्षित करू ं ? आपका प्रेम मुझपर है यही मेरे लिये बहुत है। उसने वह साड़ी अपनी नौकरानीको दे दी और कह दिया कि इसे पहिन कर खराब नहीं करना । कुछ वट्टे से वापिस होगी सो वापिस कर और रुपये अपने पास रख, समय पर काम आयेंगे। जब पण्डितजीके २ सन्तान हो चुकीं तब एक दिन उसने पण्डितजी से कहा कि देखो अपने दो संतान एक पुत्र और एक पुत्री हो चुकीं । अब पापका कार्य बन्द कर देना चाहिये । ... Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ मेरी जीवन गाथा पण्डितजी उसकी बात सुन कर कुछ हीला-हवाला करने लगे तो वह स्वयं उठ कर उनकी गोदमें जा बैठी और बोली कि अब तो आप मेरे पिता तुल्य हैं और मैं आपकी वेटी हूँ। पण्डितजी गद्गद् स्वरसे बोले-बेटी । तूंने तो आज वह काम कर दिया जिसे मैं जीवन भर अनेक शास्त्र पढ़कर भी नहीं कर पाया । उस समयसे दोनों ब्रह्मचर्यसे रहने लगे। यदि किसीकी लड़की या वध विधवा हो जाती है तो लोग यह कह कर उसे रुलाते हैं कि हाय ! तेरी जिन्दगी कैसे कटेगी ? पर यह नहीं कहते कि बेटी! तूं अनन्त पापसे बच गई, तेरा जीवन वन्धन मुक्त हो गया । अव तूं आत्महित स्वतन्त्रतासे कर सकती है। - प्रथमानुयोगमे एक कथा आती है-किसी आदमीसे पानी छाननेके बाद जो जीवानी होती है वह लुढ़क गई। उसने मुनिराज से इसका प्रायश्चित्त पूछा तो उन्होंने कहा कि असिधारा व्रत धारण करनेवाले स्त्री-पुरुषको भोजन कराओ। महाराज | इसकी परीक्षा कैसे होगी १ ... ऐसा उसने पूछा तो मुनिराजने कहा कि जब तेरे घरमें ऐसे स्त्री-पुरुष भोजन कर जावेंगे तब तेरे घरका मलिन चंदेवा सफेद हो जावेगा। मुनिराजके कहे अनुसार वह स्त्री-पुरुषोंको भोजन कराने लगा। एक दिन उसने एक स्त्री तथा पुरुपको भोजन कराया और देखा कि उनके भोजन करते करते मैला चंदेवा सफेद हो गया है। आदमीको विश्वास हो गया कि ये ही प्रसिधारा व्रतके धारक हैं। भोजनके बाद उसने उनसे पूछा तो उन्होंने परिचय दिया कि जब हम दोनोंका विवाह नहीं हुआ था, उसके पहले हमने शुक्ल पक्षमे और इसने कृष्ण पक्षमे ब्रह्मचर्य रखनेका नियम ले रक्खा था । अनजानमे हम दोनोंका विवाह हो गया। शुक्लपक्षके वाद कृष्णपक्षमें जब हमने उसके प्रति कामेच्छा प्रकट की तो उसने उत्तर दिया कि मेरे तो कृष्णपनमें Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ पर्व प्रवचनावली ब्रह्मचर्यसे रहनेका जीवन पर्यन्तके लिए नियम है । मैं उत्तर सुनकर शान्त हो गया । तदनन्तर जब कृष्णपक्षके बाद शुक्लपक्ष आया और इसने अपना अनुराग प्रकट किया तब मैने कहा कि मैंने शुक्लपक्षमे ब्रह्मचर्यसे रहनेका नियम जीवन पर्यन्तके लिये विवाह के पूर्व लिया है । स्त्री शान्त हो गई। इस प्रकार स्त्री-पुरुष दोनों साथ-साथ रहते हुए भी ब्रह्मचर्यसे अपना जीवन बिता रहे हैं। देखो उनके संतोषकी बात कि सामग्री पासमें रहते हुए भी उनके मनमें विकार उत्पन्न नहीं हुआ तथा जीवन भर उन्होंने अपना अपना व्रत निभाया। अस्तु, दशम अध्यायमें आपने मोक्षतत्त्वका वर्णन सुना है। इसमें आचार्य ने मोक्षका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' अर्थात् बन्धके कारणोंका अभाव और पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा होनेसे जो समस्त कर्मोंका आत्यन्तिक क्षय हो जाता है वह मोक्ष कहलाता है। निश्चयसे तो सब द्रव्य स्वतन्त्र स्वतन्त्र है। जीव स्वतन्त्र है और कर्मरूप पुद्गल द्रव्य भी स्वतन्त्र हैं। इनका बन्ध नहीं, जब बन्ध नहीं तब मोक्ष किसका ? इस तरह निश्चयकी दृष्टि से तो बन्ध और मोक्षका व्यवहार बनता नहीं है परन्तु व्यवहारकी दृष्टिसे जीव और कर्मरूप पुद्गल द्रव्यका एकक्षेत्रावगाह हो रहा है, इसलिये दोनोंका वन्ध कहा जाता है और जब दोनॉका एक क्षेत्रावगाह मिट जाता है तब मोक्ष कहलाने लगता है । समन्तभद्र स्वामीने कहा है बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेत् बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तेः । स्याद्वादिनो नाथ ! तवैव युक्तं नैकान्तदृष्ट स्त्वमतोऽसि शास्ता ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० मेरी जीवन गाथा ___अर्थात् बन्ध, मोक्ष, इनके कारण, जीवकी बद्ध और मुक्त दशा तथा मुक्तिका प्रयोजन यह सब हे नाथ ! आपके ही संघटित होता है, क्योंकि आप स्वाद्वादसे पदार्थका निरूपण करते हैं, एकान्त दृष्टिसे आप पदार्थका उपदेश नहीं देते। ___इस तरह परपदार्थसे भिन्न आत्माकी जो परिणति है वही मोक्ष है। इस परिणतिके प्रकट होनेमें सर्वसे अधिक वाधक मोह कर्मका उदय है, इसलिये आचार्य महाराजने आज्ञा की है कि सर्व प्रथम मोह कर्मका क्षय कर तथा उसके बाद शेप तीन घातिया कोका क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करो। उसके बाद ही अन्य अघातिया कर्मोंका क्षय होनेसे मोक्ष प्राप्त हो सकेगा। मोहके निकल जाने तथा केवलज्ञानके हो जाने पर भी यद्यपि पचासी प्रकृतियोंका सद्भाव आगममे बताया है तथापि वह जली हुई रस्सीके समान निर्बल है ध्यान कृपाण पाणि गहि नाशी त्रेशठ प्रकृति अरी । शेष पचासी लाग रही हैं ज्यों जेवरी जरी ।। परन्तु इतना निर्वल नहीं समझ लेना कि कुछ कर ही नहीं सकती हैं। निर्वल होनेपर भी उनमे इतनी शक्ति है कि वे देशोन कोटि पूर्व तक इस आत्माको केवलज्ञान हो जानेपर भी मनुष्य शरीरमे रोके रहती हैं। फिर निर्वल कहनेका तात्पर्य यही है कि वे इस जीवको आगेके लिये बन्धन युक्त नहीं कर सकतीं। परम यथाख्यात चारित्रकी पूर्णता चौदहवें गुणस्थानमे होती है। अतः वहीं शुक्लध्यानके चतुर्थ पायेके प्रभावसे उपान्त्य तथा अन्तिम समयमे वहत्तर और तेरह प्रकृतियोंका क्षय कर यह जीव सदाके लिये मुक्त हो जाता है तथा ऊर्ध्वगमन स्वभावके कारण एक समयमे सिद्धालयमे पहुँच कर विराजमान हो जाता है। यही जनागमम मोक्षकी व्याख्या है। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार क ४११ त्रयोदशी और चतुर्दशी के दिन नगर के मन्दिरोंके दर्शनार्थ जुलूस निकले । क्षमावणीके दिन विद्यालयके प्रागणमे श्रीजिनेन्द्रदेवका कलशाभिषेक हुआ । क्षमाधर्मपर विद्वानोंके भाषण हुए । असौज बदी ४ को जयन्ती उत्सव हुआ । बाहर से भी अनेक महानुभाव पधारे | दिल्लीसे राजकृष्ण तथा फिरोजाबाद से श्रीलाला छदामीलालजी भी आये | आपने फिरोजाबादके मेलाकी फिल्म दिखलाई तथा राजकृष्णजी ने उसका परिचय दिया । जिसे देख-सुन कर जनता बहुत प्रसन्न हुई । विचार कण दीपावली के पूर्व धन्वन्तरि त्रयोदशी (धनतेरस) का दिन था । मनमे विचार आया कि आजके दिन सब लोग नया वर्त्तन खरीदते अतः हम भी आजसे प्रतिदिन एक एक नया वर्तन खरीदें | वर्तन नाम विचारका है । उस दिन से हमने कुछ दिन तक प्रतिदिन जो वर्तन खरीदे उनका संचय इस प्रकार है 'संसार मे वही मनुष्य वन्दनीय होते हैं जिन्होंने ऐहिक और पारलौकिक कार्योंसे तटस्थ रह कर आत्मकल्याणके अर्थ स्वकीय परिणतिको निर्मल बना लिया है ।" 'जो अवस्था आवे उसे अपनानेका प्रयत्न मत करो । पुण्य पाप दोनो ही त्रिकार परिणाम हैं, इनकी उपेक्षा करो ।' 'प्रभु कोई अन्य नहीं, आत्मा ही प्रभु है और वही अपनी रक्षा करनेवाला है । अन्यको रक्षक मानना ही महती अज्ञानता है । 'किसीको तुच्छ मत वनां, अपनी प्रशंसाकी लिप्सा ही दूसरेको तुच्छ बतलाती है । ' Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ मेरी जीवन गाथा वेदनाओं का अभाव करना चाहते हैं उन्हें उचित है कि पर पदार्थों का अपनाना त्यागें । 'प्रशंसाकी इच्छासे कार्य आरम्भ करना आत्माको पति बनानेकी कला है ।' 'अपनी सुव भूलकर यह आत्मा दुःखका पात्र बना | गृहस्थों के जालमें आकर जैसे चुगके लोभसे चिड़ियां फंस जाती हैं वैसे ही त्यागी वर्गं मोह-जालमे फंस जाता है ।" 'आत्माराम अकेला आया और अकेला ही जायेगा । कोई भी इसका साथी नहीं । अन्यकी क्या कथा, शरीर भी सुख-दुःख भोगने साथी नहीं ।' 'शुद्ध हृदयकी भावना नियमसे फलीभूत होती है । निर्मा [ मायारहित ] ही कार्य सफल होता है ।" I पर का भय मत करो। पर को अपनाना छोड़ो। परको अपनाना ही राग-द्व ेपमे निमित्त हैं ।" 'भयसे व्यवहार करना आत्माकी वञ्चना है । मोक्षमार्गका सुगमोपाय अपनी अहम्बुद्धि त्यागो | मैं कौन हूँ ? इसे जानो । इसे जानना कुछ कठिन नहीं । जिसमे यह प्रश्न हो रहा है वही तो तुम हो । " 'आत्मज्ञान होना कठिन नहीं किन्तु परसे ममता भाव त्यागना अति कठिन है ।' 'सुख - शान्तिका लाभ परमेश्वरकी देन नहीं, उपेक्षाकी देन है ।" 'शान्त मनुष्य वह हो सकता है जो अपनी प्रशंसाको नहीं चाहता ।' 'परकी समालोचना न करो और न सुनो।' Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचार करण ४१५ 'धन अधिक संग्रह करना चोरी है, इसलिये कि तुमने अन्यका स्वत्व हरण कर लिया ।' 'राग द्व ेष घटानेसे घटता है किन्तु उसके प्राक् मोहका नाश करो । मोहके नशामे आत्मा उन्मत्त हो जाता है ।' । 'यदि शान्ति चाहते हो तो स्थिर चित्त रहो । व्यग्रता ही संसार की दादी है । यदि संसारमें रुलने की इच्छा है तो इस दादी के पुत्रसे स्नेह करो ।' 'यदि परोपकार करनेकी भावना है तो उसके पहले आत्माको पवित्र बनाने का प्रयत्न करो ।' परोपकार की भावना उन्होंके होती है जो मोही हैं । जिनकी सत्तासे मोह चला गया वे परको पर समझते हैं तथा आत्मीय वस्तु जो राग है उसे दूर करनेका प्रयास करते हैं । ' 'ज्ञानार्जन करना उत्तम है किन्तु ज्ञानार्जनके बाद यदि आत्महितमें दृष्टि न गई तब जैसा धनार्जन वैसा ज्ञानार्जन । 'मनुष्य वही है जिसने मानवता पर विश्वास किया ।' 'लोभ पापका बाप है । इसके वशीभूत होकर मनुष्य जो जो अनर्थ करते हैं वह किसीसे गुप्त नहीं ।' 'अपने लक्ष्यसे च्युत होनेवाले मनुष्य के कार्य प्रायः निष्कल रहते हैं ।' 'जितना अधिक संग्रह करोगे उतना ही अधिक व्यय होगे ।' जो सुख चाहत श्रातमा तज दो अपनी भूल । परके तजनेसे कही मिटे न निजकी शूल ॥ नो अानन्द स्वभावमय ज्ञानपूर्ण श्रविकार | मोहराज के जाल में सहता दुख अपार ॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ मेरी जीवन गाथा जो सुख है निज भावमें कहीं न इस जग वीच । परमें निजकी कल्पना करत जीव सो नीच ।। जो नाही दुख चाहता तज दे परकी अोट । अग्नी संगत लोहकी सहती घनकी चोट ॥ परकी संगतिके लिये होता मनमें रन । लोह अगनि संगति पिटे होत तप्त सव अङ्ग ॥ गल्पवादमें दिन गया सोवत वीती रात । तोय विलोलत होत नहिं कभी चीकने हात ॥ जो चाहत दु.खसे बचें करो न परकी चाह । पर पदार्थकी चाह से मिटे न मन की दाह ।। बहु सुनवो कम बोलवो यो है चतुर विवेक । तब ही तो विधिने रच्यो दोय कान जिभ एक ॥ जो चाहत निज रूप तजहु परिग्रह कामना । तिन सम नाही भूप अर्थ चाह जिनके नहीं ॥ स्वराज्य मिला पर सुराज्य नहीं लिखना सरल है--स्वराज्य मिल गया परन्तु मानवोंको शान्ति नहीं । अन्नादि खाद्य सामग्रीकी न्यूनता हो रही है, अनेक मनुष्य वेकार हैं, यन्त्र विद्याकी प्रचुरता होनेसे अनेक कार्य करनेवाले वेकार हो गये, लोगोंके हृदयमे स्वकीय कार्यके प्रति निष्ठो नहीं, नौकरीकी टोहमें प्रायः सव घूमते हैं, दैवी विपत्ति निरन्तर आती रहती है, पशु-धनकी हानि हो रही है, राज्यने पशुओंके लिये चारे तकका स्थान नहीं रहने दिया, सब पर अपना अधिकार कर लिया इसलिये पशुधनको चारा तक नहीं मिलता, शुद्ध घी दूध भक्षणमें Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वराज्य मिला पर सुराज्य नहीं ४१७ नहीं आता, मनुष्योंका नैतिक वल उत्तरोत्तर घटता जा रहा है, डाकेजनीका प्रचार बढ़ गया है, ग्रामीण लोग नगरोंको सब सामग्री तैयार कर देते हैं परन्तु इस समय वे असुरक्षाका अनुभव कर रहे हैं, घूसखोरीका जोर बढ़ रहा है, प्रायः अधिकांश लोग पद. लिप्साकी दौड़मे एक दूसरेको पीछे छोड़ स्वयं आगे बढ़ जाना चाहते हैं, आज यदि कुछ मूल्य रह गया है तो मनुष्यका, मनुष्यके स्वार्थके लिये अन्य समस्त वध्य हो रहे हैं, जैसे मानों उनमे जीव ही न हो, चरखाका स्थान चक्रने ले लिया है, गाय भैस बकरा बकरियोंकी परवाह नहीं रही, बन्दरों पर भी बारी आ गई, तालावोंकी मछलियाँ भी अव सुरक्षित नहीं रहीं, न्यायालयोंका न्याय समय साध्य तथा द्रव्य सापेक्ष हो गया, जनताके हृदयमें स्वराज्यके लिये जो उत्साह था वह निराशामें परिणत हो रहा है, देशकी जनता करोंके भारसे त्रस्त है और ऋणके भारसे दब रही है। इन सब कारणोंको देखते हुए हृदयसे निकलने लगता है कि स्वराज्य तो मिला पर सुराज्य नहीं। स्वराज्य तो अंग्रेजोंने दे दिया पर सुराज्य देनेवाला कोई नहीं। यह तो स्वयं अपने आपसे लेना है । देशकी जनता देशके प्रति कर्तव्य निष्ठ हो, अपने स्वार्थमें कमी करे, बढ़ती हुई तृष्णाओंको नियन्त्रित करे, गांधीजीके सिद्धान्तानुसार यान्त्रिक विद्याकी प्रचुरताको कमकर हस्तोद्योगको बढ़ावा दे, परिश्रमकी प्रतिष्ठा करे और अहिसाको केवल वाचनिक रूप न दे प्रयोगमें लावे तो सुराज्य प्राप्त हो सकता है। गिरिराजके लिये प्रस्थान पौष कृष्णा अमावस्या सं० २००६ की रात्रि थी। आकाशमे माघवृष्टिके मेघ छाये थे। रात्रिके समय अचानक वर्षा शुरू होनेसे २७ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा निद्रा भङ्ग हो गई । मनमें नाना प्रकारके विकल्प उठने लगे | विचार आया कि तेरी आयु ७६ वर्षकी हो गई फिर भी इस चक्रमें पड़ा है । कभी ललितपुर, कभी सागर, कभी जवलपुर, कभी सागर विद्यालय और कभी वनारस विद्यालय । शरीरकी शक्ति दिन प्रति दिन क्षीण होती जाती है । भाग्यवश एक बार श्री पार्श्व प्रभुके पादमूलमें पहुँच गया था परन्तु मोहके जालमें पड़ वहाँ से वापिस आ गया । पक्वपानवत् शरीरकी अवस्था है । न जाने कब डालसे नीचे झड़ जाय इसलिये जब तक चलनेकी सामर्थ्य है तब तक पुनः श्री पार्श्वनाथ भगवान के पादमूलमें पहुँचनेका विचार कर । जहाँ से अनन्तानन्त तीर्थंकरोंने तथा वर्तमानमे वीस तीर्थकरोंने निर्वाण प्राप्त किया उस स्थानसे बढ़कर समाधिके लिये अन्य कौन स्थान उपयुक्त होगा ? वहाँ निरन्तर धार्मिक पुरुषोंका समागम भी रहता है । सागरमे तूं बहुत समय रहा है अतः यहाँके लोगोंसे आत्मीयवत् स्नेह है। श्री भगवती आराधनामें लिखा है कि सल्लेखना करनेके लिये अपना संघ अथवा अपना परिचित स्थान छोड़ कर अन्यत्र चला जाना चाहिये जिससे अन्तिम क्षण किसी प्रकार की शल्य अथवा चिन्ता आत्मामे न रह सके । ४१८ उक्त विचारधारामे निमग्न रहते हुए लगभग १ घंटा व्यतीत हो गया । उठकर समयसारका स्वाध्याय किया । तदनन्तर सामायिकमे बैठा । सामायिकमे भी यही विकल्प रहा कि जितना जल्दी हो यहाँसे गिरिराजके लिये प्रस्थान कर देना चाहिये । आकाश मेघाच्छन्न था इसलिये तत्काल तो यह विचार कार्य रूपमें परिणत नहीं कर सका पर मनमे जानेका दृढ़ निश्चय कर लिया। मैंने यह विचार मनमें ही रक्खा । कारण यदि प्रकट करता तो सागरके लोग रोकनेका प्रयास करते और मैं उनके संकोचमें पड़ जाता । २ दिन बाद ईसरीसे श्रीभगत सुमेरुचन्द्रजी Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ गिरिराजके लिए प्रस्थान का पत्र आया कि आप जिस दिन ईसरी आ जावेंगे मैं उसी दिन ' नवमी प्रतिमाके व्रत धारण कर लूंगा। भगतजीके पत्रसे मुझे और भी प्रेरणा मिली जिससे मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि गिरिराज अवश्य जाना । यद्यपि शरीर शक्तिहीन है तथापि श्रीपार्श्व प्रभुमें इतना अनुराग है कि वे पूर्ण वल प्रदान करनेमे निमित्त होंगे। पौषशुक्ला ११ संवत् २००६ को भोजनके उपरान्त मैंने लोगोंके समक्ष अपना विचार प्रकट कर दिया कि मै आज गिरिराजके लिये १ बजे प्रस्थान करेगा। यह खबर सारे शहरमे विजलीकी भांति फैल गई जिससे वहुतसे लोग एकत्र हो गये और रोकनेका प्रयत्न करने लगे परन्तु मैं अपने विचारसे विचलित नहीं हुआ। लोगोके अवागमनके कारण १ वजे तो प्रस्थान नहीं कर पाया परन्तु ३ वजे प्रस्थान कर चल दिया। मार्गमे बहुत भीड़ हो गई। मैं जाकर गोपालगंजके मन्दिरमे बाहर जो कमरे हैं उनमें ठहर गया। रात्रिके १० बजे तक लोगोंका आना जाना बना रहा। सेठ भगवानदासजी वालचन्द्रजी मलैया आदि अनेक पुरुष आय पर मैं किसीके चक्रमें नहीं आया। दूसरे दिन प्रातःकाल गोपालगंजके मन्दिरमें शास्त्र प्रवचन हुआ। भोजनोपरान्त सामायिक किया। तदनन्तर १ बजेसे चल दिया। यूनीवरसिटीके मार्गसे चलकर शामके ५ बजे गमीरिया पहुंच गये । यहाँ तक सागरके अनेक महानुभाव पहुंचाने आये। गाँवके जींदारने सत्कार पूर्वक रात्रि भर रक्खा । जो अन्य लोग गये थे उन्हे दुग्ध पान कराया। खेद इस बातका है कि हम लोग किसी दूसरेको अपनाते नहीं। धर्मको हम लोगोंने अपनी सम्पत्ति मान रक्खा है। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटनी गमीरिया से ४ मील चलकर वमोरीमे आहार किया, तदनन्तर सानोधा और पड़रिया ठहरते हुए आगे बढ़े। पड़रियासे ३ मील चलकर १ कूप पर भोजन हुआ। स्थान अति रम्य और सुखद् था। ऐसे स्थानों पर मनुष्योंको स्वाभाविक निर्मलता आ जाती है परन्तु हम लोग उन परिणामोंको यों ही व्यय कर देते हैं। यहां पर ईसरीसे श्री सुमेरुचन्द्र जी भगत आ गये । आप बहुत ही विलक्षण प्रकृतिके हैं-प्रायः सवकी समालोचना करनेमें नहीं चूकते । अस्तु, उनकी प्रकृति है उसे हम निवारण नहीं कर सकते । अच्छा तो यही था कि इसके विरुद्ध वे अपनी समालोचना करते। यहां से गोरा, सासा, शाहपुर. टड़ा आदि स्थानोंमे ठहरते हुए माघ शुक्ला ११ को दमोह आ गये। लोगोंने सम्यक् स्वागत किया। प्रातःकाल धर्मशालाके विशाल भवनमे प्रवचन हुआ । एक सहस्र संख्या एकत्र हुई। लोगोंकी भीड़ देखकर लगने लगता है कि प्रायः सर्व लोग धर्मके पिपासु हैं परन्तु कोई इन्हें निरपेक्षभावसे धर्मपान करानेवाला नहीं है । पं० जगन्मोहनलालजी आ गये। आपने अपने प्रवचनमें संगठन पर बहुत वल दिया परन्तु लाभांश कुछ नहीं हुआ । केवल वाह वाहमें व्याख्यानका अन्त हो गया। गल्पबादकी बहुलतासे संसार व्यामूढ़ हो रहा है। यहीं पर श्री १०८ मुनि आनन्दसागर जी भी थे। उनके दर्शन करनेके लिए गये। सेठ लालचन्द्रजीसे भी वार्तालाप हुआ! आप विद्वान् हैं, धनी हैं, परन्तु समाज आपसे लाभ लेना नहीं जानती। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटनी ४२१ दमोहसे हिंडोरिया तथा पटेरामें ठहरते हुए श्री अतिशय क्षेत्र कुण्डलपुरजी पहुँच गये । बड़ा रमणीय क्षेत्र है । कुण्डलाकार पर्वत पर सुन्दर मन्दिर बने हैं । नीचे तालाब है । उसके समीप भी अनेक मन्दिर बने हैं। ऊपर श्री भगवान् महावीर स्वामीकी सातिशय विशाल प्रतिमा है । मेलाका समय था । लगभग ४ सहस्र आदमी थे । मेला सानन्द सम्पन्न हुआ । पं० जगन्मोहनलालजी के पहुँच जानेसे अच्छी प्रभावना तथा क्षेत्र को अच्छी आय हुई। लोगों में जागृति हुई । जनता धर्मपिपासु थी । एक दिन पर्वतपर स्थित श्री महावीर स्वामीके दर्शन किये । चित्तमें असीम हर्ष उत्पन्न हुआ । यहाँसे बीच के कई स्थानोंमें ठहरते हुए फाल्गुन कृष्णा १० को कटनी आ गये । वीचका मार्ग पहाड़ी मार्ग था, अतः कष्ट हुआ परन्तु यथास्थान पहुँच गया । कटनीकी जनताने स्वागत किया। दूसरे दिन प्रातः काल मन्दिरमे प्रवचन हुआ । समयसार ग्रन्थ सामने था इसलिये उसीका मङ्गलाचरण कर प्रवचन प्रारम्भ किया । मैंने कहा 1 श्री कुन्दकुन्द भगवान् ने ८४ प्राभृत बनाये हैं । उनमें कतिपय अव भी प्रसिद्ध हैं । उन प्रसिद्ध प्राभृतोंमे समयसारकी बहुत प्रसिद्धि है । यद्यपि श्री स्वामीने जो कुछ लिखा है वह सभी मोक्षमार्गका पोषक है परन्तु कई व्यक्ति समयसारको ही बहुत महत्त्व देते हैं यह व्यक्तिगत विचार है । इसके हम निवारक कौन होते हैं ? फिर भी हमारी बुद्धिसे जो आया उसे स्वीय अभिप्राय के अनुकूल कुछ लिखते हैं । श्रीस्वामीने प्रथम गाथामे सिद्ध भगवान्‌को नमस्कार कर यह प्रतिज्ञा की कि मैं समयप्राभृतका परिभाषण करूँगा और यह भी लिखा कि श्रुतकेवली भगवान् ने जैसा कहा वैसा करूँगा । उससे यह योतित होता है कि वर्तमानमे हमारी आत्मामे सिद्ध पर्याय Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ मेरी जीवन गाथा आया है। मै अनुभव में भी नहीं है, अर्थात् संसार पर्याय है | श्रुतकेवलीने जैसा कहा इससे यह द्योतित होता है कि परम्परासे यह उपदेश चला वैसा ही कहूँगा इससे यह ध्वनि निकलती है कि मेरे या गया है । निरूपण करनेका यह प्रयोजन है कि अनादिकाल से जो स्वपरमें मोह है उसका नाश हो जावे । इस कथनसे यह ध्वनि निकलती है कि स्वामीके धर्मानुराग हैं और यही धर्मानुराग उपचार से शुद्धोपयोगका कारण भी कहा जाता है । स्वामीने प्रतिज्ञा की कि मैं समयप्राभृत कहूँगा । यहाँ आशङ्का होती है कि समय क्या पदार्थ है ? इस आशङ्काका स्वयं स्वामी उत्तर देते हैं कि जो समयग्दर्शन, ज्ञान तथा चारित्रमे स्थित है। उसे स्वसमय और जो इससे भिन्न पुद्गल कर्मप्रदेशमें स्थित हैं उसे पर समय कहते हैं । यह दोनों जिसमें पाये जावें उसीका नाम जीव जानो चाहे समय जानो । इसके वाद स्वामीने द्वैविष्यको आपत्तिजनक वतलाया अर्थात् यह द्वैविध्य शोभनीक नहीं, एकत्व प्राप्त जो समय है वही सुन्दर है | जहाँ द्विधि हुआ वहाँ हो बन्ध है, संसार है । जैसे माँ के पुत्र पैदा होता है तो स्वतन्त्र होता है । जहाँ उसका विवाह हुआ - परको अपनाया - ब्रह्मचारीसे गृहस्थ हुआ वहाँ उसकी स्वतन्त्रताका हरण हो गया वह संसारी वन गया। उसी तरह आत्माने जहां परको अपनाया वहां उसका एकल चला गया। क्यों दुर्लभ हो गया ? इसका उत्तर यह है कि अनादिसे काम भोगकी कथा सुनी, वही परिचयमे आई और वही अनुभव में आई । श्रात्माका जो एकत्व था उसे कपायचक्र के साथ एकमेक होनेसे न तो सुना, न परिचय में लाया और न अनुभवमं लाया । उसपर श्री आचार्य लिखते हैं कि मैं उस आत्माके एकलका जो सर्वथा परसें भिन्न है अपने विभव के अनुसार निरूपण करूँगा। मेरा विभ यह है कि मैंने स्याद्वाद पद भूपित शब्द अच्छा श्रभ्यान Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटनी ४२३ किया है, एकान्तवाद द्वारा जो उसकी बाधक युक्तियाँ हैं उनको निरस्त करनेमें समर्थ युक्तियोंकी पूर्णता प्राप्त की है, परापर गुरुओंका उपदेश भी मुझे प्राप्त है तथा वैसा अनुभव भी है । इतने पर भी यदि अच्छा न जॅचे तो अनुभवसे परीक्षा कर पदार्थका निर्णय करना, छल ग्रहण कर अमार्गका अवलम्बन मत करना। अव स्वयं स्वामी उस केवल आत्माको कहते हैं जो न तो अप्रमत्त है और न प्रमत्त है, केवल ज्ञायकभाववाला है, उसीको शुद्ध कहते हैं, वही ज्ञाता है अर्थात् आत्माकी कोई अवस्था हो वह जायकभावसे शून्य नहीं होती। जैसे मनुप्यकी वाल्यादि अनेक अवस्थाएँ होती हैं परन्तु वे जायकभावसे शून्य नहीं होती। यही कारण है कि आत्माका लक्षण अन्यत्र चेतना कहा है। कर्तृ कर्माधिकारमे आत्मामे कर्तृत्व तथा कर्मत्व हो सकता है या नहीं ? इस पर विचार किया है । यह विचार २ दृष्टियोंसे हो सकता है- एक तो शुद्ध दृष्टिसे और दूसरा अशुद्ध दृष्टि से । कर्ता किसे कहते हैं ? जो परिणमन करता है वह कर्ता है और कर्म उसे कहते हैं जो परिणमन होता है वह कर्म है। कर्तृ-कर्माधिकारमे जो दिखाया है वह निमित्तकी गौणता कर दिखाया है। उसे लोक सर्वथा मान लेते हैं यही परस्पर विवादका स्थल बन जाता है। अमृतचन्द्र स्वामीने मङ्गलाचरणमे लिखा है कि मैं एक कर्ता हूँ और ये जो क्रोधादिक भाव हैं ये मेरे कर्म हैं ऐसी अजानी जीवोंकी अनादि कालसे कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति चली आती है परन्तु जब सब द्रव्योंको भिन्न भिन्न दर्शानेवाली ज्ञानज्योति उदयको प्राप्त होती है तब यह सव नाटक शान्त हो जाता है। इससे यह निश्चय हुआ कि यह नाटक, जब तक इसकी विरोधी ज्ञानज्योति उदित नहीं हुई तब तक सत्य है । आपकी इच्छा चाहे इसे व्यवहार कहो या अशुद्ध दशा कहो। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ मेरी जीवन गाया जीवकी दो पर्याय होती हैं-एक संसार और दूसरी मोक्ष । हम तो दोनों पर्यायाको सत्य मानते हैं। जब कि ये अपने अपने कारणोंसे होती हैं तब एकको सत्य और दूसरीको असत्य मानना यह हमारे ज्ञानमें नहीं आता। हाँ, यह अवश्य है कि एक पयाय अनादि-सान्त है और दूसरी सादि-अनन्त है । इन दोनों पर्यायोंका आधार आत्मा है, एक पर्याय आकुलतामय है क्योंकि उसमे पर पदार्थों का संपर्क है और दूसरी आकुलतासे रहित है क्योंकि उसमे परपदार्थोंका सपर्क दूर हो गया है। जहाँ पर पदार्थके संपर्कको जीव निज मानता है और जहाँ परमें निजत्वकी कल्पना करता है वहीं आपत्तियोंकी उत्पत्ति होने लगती है। क-कर्माधिकारमें स्वामीने यही तो लिखा है कि जब तक आत्मा आलव और आत्माके विशेष अन्तरको नहीं जानता तब तक यह अज्ञानी है और अवस्थामें क्रोधादिमें प्रवृत्ति करता है। यहाँ क्रोध उपलक्षण है अतः मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योगका ग्रहण समझना चाहिये । क्रोधादि कषायोंमे प्रवर्तमान जीवके कर्मोंका संचय होता है। इस तरह भगवान्ने जीवके वन्ध होता है यह बतलाया है। आत्माका जानके साथ तादात्म्य सिद्ध सम्बन्ध है अर्थात् आत्माका ज्ञानके साथ जो सम्बन्ध है वह कृत्रिम नहीं, किन्तु अनादिकालसे चला आया है। यही कारण है कि आत्मा निःशङ्क होकर ज्ञानमें प्रवृत्ति करता है। करता क्या है ? स्वाभाविक यह प्रवाह चल रहा है और चलता रहेगा। इसी तरह यह जीव संयोगसिद्ध सम्बन्धसे युक्त जो क्रोधादिक भाव हैं उनके विशेष अन्तरको न जानता हुआ अज्ञानके वशीभूत हो उनमें प्रवृत्ति करता है । यह जीव जिस कालमें क्रोधादिको निज मानता है उस कालमें क्रोधादिक भावरूप क्रिया परभाव होनेसे यद्यपि त्याग योग्य है तो भी उस क्रियामे स्वभावरूपका निश्चय होनेसे यह उन्हे उपादेय मानता है जिससे कभी Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटनी ४२५ क्रोध करता है, कभी राग करता है और कभी मोह करता है । यहाँ पर आत्मा अपनी उदासीन अवस्थाका त्याग कर देती है अतएव इन क्रोधादिक भावोंका कर्ता बन जाती है और ये क्रोधादिक इसके कर्म होते हैं। इस प्रकारसे यह अनादिजन्य कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति धारावाही रूपसे चली आ रही है। अतएव अन्योन्याश्रय दोषका यहाँ अवकाश नहीं। ___ यहाँ पर क्रोधादिकके साथ जो संयोग सम्बन्ध कहा है इसका क्या तात्पर्य यह है-क्रोध तो आत्माका विकृत भाव है और ऐसा नियम है कि द्रव्य जिस कालमे जिस रूप परिणमता है उस कालमें तन्मय हो जाता है । जैसे लोहका पिण्ड जिस समय अग्निसे तपाया जाता है उस समय अग्निमय हो जाता है । एवं आत्मा जिस समय क्रोधिादिरूप परिणमता है उस कालमे तन्मय हो जाता है फिर क्रोधादिकोंके साथ संयोग सम्बन्ध कहना संगत कैसे हुआ ? यह आपका प्रश्न ठीक है किन्तु यहाँ जो वर्णन है वह औपाधिक भावोंको निमित्तजन्य होनेसे निमित्तकी मुख्यताकर निमित्तके कह दिये हैं ऐसा समझना चाहिये । क्रोधादिक भाव चारित्रमोहके उदयसे उत्पन्न होते हैं, चारित्रमोह पुद्गल द्रव्य है । उसका आत्माके साथ संयोग सम्बन्ध है अतः उसके उदयमें होनेवाले क्रोधादिका भी संयोग सम्बन्ध कह दिया। मेरी तो यह श्रद्धा है कि रागादिक तो दूर रहो मतिज्ञानादिक भी क्षयोपशमजन्य होनेसे निवृत्त हो जाते हैं। अपनी परिणति अपने आधीन है, उसे पराधीन मानना ही अनर्थकी जड़ है और अनर्थ ही संसारका मूल स्वरूप है। अनर्थ कोई पदार्थ नहीं । अर्थको अन्यथा मानना ही अनर्थ है। कटनीमे वनारससे पण्डित कैलाशचन्द्रजी भी आ गये। यहाँकी संस्थाओंका उत्सव हुआ । पं० जगन्मोहनलालजीने Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ मेरी जीवन गाथा संस्थाओंका संक्षिप्त विवरण सुनाया। लोगोंने यथाशक्ति संस्थाओंकी सहायता की । वहुत सहायताकी संभावना थी परन्तु आज कल लोग एक काम नहीं करते । एक उत्सबसे अनेक कार्योंका आयोजनकर लेते हैं। फल एकका भी पूर्ण नहीं हो पाता । कुण्डलपुर क्षेत्रकी अपील हुई तो उसे भी सहायता मिल गई। पण्डित कैलाशचन्द्रजीका भी व्याख्यान हुआ। यहाँ ५ दिन रहना पड़ा। यहाँ पर जवलपुरसे बहुत अधिक मनुष्य आये। सबका अत्यन्त आग्रह था कि जबलपुर चलिये परन्तु हम अपने निश्चयसे विचलित नहीं हुए। बनारसकी ओर श्री चम्पालालजी सेठी गयावाले मोटर लेकर पहले ही आ गये थे। मोटरमे साथके लोगोंका सामान जाता था तथा उसके द्वारी आगामी निवासकी व्यवस्था हो जाती थी। श्री चम्पालालजी व्यवस्थामें बहुत पटु हैं, अन्तरङ्गसे स्वच्छ हैं। फाल्गुन कृष्णा १४ को संध्याकाल कटनीसे ४ मील चलकर चाकामें ठहर गये। प्रातः ३ मील चलकर कैलवारके जंगलमें एक बंगला था उसमे ठहर गये। वहीं पर भोजन हुआ। मध्यान्हके बाद यहाँसे २ मील चलकर टिकरवारा ग्राममे ठहर गये। आनन्दसे रात्रि वीती। यहाँ पर रात्रिको समयसारका निर्जराधिकार पढ़कर परम प्रसन्नता हुई । निर्जरा प्राणी मात्रके होती हैं परन्तु नवीन कर्म वन्धन होनेसे गजस्नानवत् उसका कोई मूल्य नहीं होता । यहाँसे ३ मील चलकर १ स्कूलमें ठहर गये। इस ग्रामका नाम भकोही था । यहाँ पर कटनीसे बहुत मनुष्य आये । हृदयमें प्रेम था। सब कुछ होना सरल है परन्तु प्रेम पर विजय पाना अति दुष्कर है । यहाँसे ३ मील Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारसकी ओर ४२७ चलकर सवागाँवके स्कूलमें निवास किया । रात्रिको प्रवचन किया। मास्टर लोग आये। सभ्यताकी पराकाष्ठा थी। अभी भारतमे अतिथियोंका सम्मान है। ___यहाँसे चलकर ३ मील पर श्री गोकुल साधुकी कुटियामें निवास किया। आपने बड़े आदरसे स्वागत किया, शाक आदि सामग्री दी तथा साथमें सांयकाल २ मील आये। पकरिया ग्राममें एक राजपूतके मकानमे ठहर गये। स्थान बहुत ही स्वच्छ था। रात्रि सानन्द वीती । प्रातः ४ मील चलकर अमदरा आ गये। यही पर भोजन हुआ। यहाँसे ४ मील चलकर घुनवाराकी धर्मशालामें आ गये। यहीं पर श्री भगवानदासजी सेठ सागरसे आये । साथमे श्री रामचरणलाल तथा मुन्नालालजी कमरया थे। रात्रि सुखसे वीती। प्रातःकाल ४ मील चलकर मदनपुरके बगीचामें ठहर गये । यहीं पर भोजन हुआ। यहाँसे ४ मील चल कर सड़क किनारे धर्मशालामे ठहर गये। प्रातःकाल ३ मील चल कर पौडी आ गये। यहीं पर आहार किया। यहाँ १ ठाकुर जागीरदार आये । बहुत ही सज्जन हैं। यहाँसे चल कर ५ बजे मैहर आ गये। रात्रिको श्री नाथूरामजी ब्रह्मचारीने प्रवचन किया । समुदाय अच्छा था। दूसरे दिन कटनीसे पं० जगन्मोहनलालजी आये । प्रात काल हमारा प्रवचन हुआ। २ बजेसे सभा हुई जिसमे पण्डितजीका भक्तिमार्गपर सुन्दर विवेचन हुआ। जनता मुग्ध हो गई। हमने भी कुछ उपदेश दिया। लोगोंको रुचिकर हुआ। यहाँ पर पूर्णचन्द्रजी बहुत सज्जन हैं। आपकी वृत्ति अत्यन्त उत्तम है। व्यापार करनेमे न्यायका त्याग नहीं । राजाज्ञाका उल्लंघन भी आप नहीं करते। यहाँ श्री राघवेन्द्रसिंह विरमीवाले ठाकुर साहबसे धार्मिक वात हुई। आप निरपेक्ष हैं। यद्यपि आप वैष्णव सम्प्रदायके हैं तथापि जैनधर्मसे प्रेम है। यहाँसे ४३ मील. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨૮ मेरी जीवन गाया चल कर नरौरा ग्रामकी सड़कके किनारे १ कुर्मीकी धर्मशालामें ठहर गये । समय सानन्द व्यतीत हुआ। यहाँसे ४३ मील चलकर वरइया ग्रामळे वगीचामें ठहर गये । सतनावाले श्री ऋषभकुमारकी माँने आहार दिया। यहाँसे ३ मील चलकर एक कृषकके यहाँ रह गये। रात्रिमे श्री नाथूरामजी शास्त्रीने व्याख्यान दिया। जनता ग्रामीण थी। सबको धर्म पिपासा है परन्तु योग्य उपदेष्टा नहीं मिलते अतः इनकी प्रवृत्तिका सुधार नहीं होता । प्रातःकाल ३ मील चल कर अमरपाटन आये। पं० जगन्मोहनलालजी भी आ गये। आपने स्नानादिसे निवृत्त हो प्रवचन किया। पश्चात् हमने भी कुछ कहा । यहाँ पर २० वर जैनियोंके हैं। २ मन्दिर हैं। १ प्राचीन मूर्ति बहुत ही मनोज है। १ पाठशाला भी है जिसमें जैन अजैन सब मिलकर १०० छात्र है। यहाँ पर जनताने भोजनाच्छादन आदिमें जो व्यय हो उस पर एक पैसा रुपया दानमें निकलना स्वीकृत किया। श्री हजारीलाल वहोरेलालजी सिंघईने आहारके समय कटनीकी पाठशालाको ५०१) देना स्वीकृत किया तथा स्वागतमें वीसों रुपयेके पैसे गरीबोंको वितरण कर दिये । मध्यान्हके वाद यहाँसे चलकर ४३ मील वाद कतपारीके वागमें ठहर गये। यहीं पर भोजन हुआ। यहाँसे ५ मील चलकर इटवा नदीके तीर धर्मशालामें ठहर गये। यहाँ पर श्री हनुमानजीका मन्दिर है। स्थान रम्य है परन्तु कोई पुजारी नहीं रहता। रात्रिको सुख पूर्वक सोया किन्तु १ वजे श्री नीरजने खबर दी कि मोटर लौट जानेसे चम्पालालजी सेठी आदिको चोट लग गई। सुनकर चित्तमें वहुत खेद हुआ। प्रातःकाल ६३ वजेसे चलकर ६ वजे १ बगीचामें आये । यहाँ पर भोजन किया। तदनन्तर सामायिकादिसे निवृत्त हो २ बजे चल दिये और ५ वजे मतना आ गये। श्री चम्पालालजी आदिको देखा, वहुत चोट लगी थी। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारसकी ओर ४२६ उपयोगमे यह आया कि इस सर्व उपद्रवके निमित्त कारण तुम थे। न तुम होते न यह समुदाय एकत्रीभूत होता। आगममें लिखा है कि क्षुल्लक मुनिके समागममे रहता है पर तूं उसकी अवहेलनाकर इस परिकरके साथ भ्रमण कर रहा है यह उसी अवहेलनाका फल है । सतना अच्छा शहर है। जैनियोंकी सख्या अच्छी है। प्रायः सम्पन्न हैं। एक मन्दिर है। पास ही धर्मशाला भी है । श्री शान्तिनाथ भगवान्की प्राचीन मूर्ति है। एक जैन स्कूल भी है। प्रातःकाल समयसार पर प्रवचन हुआ। उपस्थिति अच्छी थी। प्रवचनके बाद पं० महेन्द्रकुमारजीका व्याख्यान हुआ। व्याख्यानका विषय रोचक था। तृतीय दिन श्री पं० जगन्मोहनलालजी भी आ गये । आज पं० महेन्द्रकुमारजीका प्रवचन और पं० जगन्मोहनलालजीका भाषण हुआ । खजराहा क्षेत्रकी व्यवस्थापक समितिका निर्माण हुआ। एक दिन प्रवचनके वाद यहाँकी पाठशालाके अर्थ चन्दा हुआ। लगभग १४००० चौदह हजार रुपया आ गये। लोग उदार हैं-आवश्यकतानुसार धन देते हैं परन्तु व्यवस्थाके अभावमे कार्य सिद्ध नहीं होता। रुपयाका मिलना कठिन नहीं किन्तु कार्यकर्ताका मिलना कठिन है। फाल्गुन कृष्ण १३ को सतना आये थे और चैत्र कृष्ण ६ को यहाँसे निकल पाये । सतनासे ३ बजे चल कर ५ मीलके वाद माधवगढ़के स्कूलमें ठहर गये। स्थान अत्यन्त स्वच्छ था। दूसरे दिन प्रातःकाल ५ मील चल कर रामवन आये । यहाँ पर १ बाग है । उसीमें १ कूप है। १ छोटीसी टेकरी पर १ कुटिया बनी है । कुटियाके नीचे तलघर है। उसमें अच्छा प्रकाश है। उण्णकालके लिये बहुत उपयोगी है। कुटियामे ३ तरफ खिड़कियों और १ तरफ उत्तर मुख दरवाजा है। दरवाजाके आगे १ दहलान है। जिसमे १० श्रादमी धर्न साधन कर सकते हैं। ३ मील लम्बा चौडा बाग है । हनूमानका १ मन्दिर Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० मेरी जीवन गाया है । उसमें २७ करोड़ राम नाम लिखे गये हैं । यहाँसे सायंकाल चल कर वकनाके मन्दिरमें ठहर गये । प्रातःकाल ५ मील चल कर कुरहीमें ठहर गये । एक गृहस्थने बहुमान पूर्वक स्थान दिया । यहाँ सतनासे २० आदमी आये । श्री ऋषभकुमारकी माँके यहाँ आहार हुआ । प्रायः सबके परिणाम निर्मल थे । सवको कल्याणकी चाह है परन्तु जिन कारणोंसे कल्याण होता हैं उनसे दूर भागते हैं । कषायाग्नि ही प्राणी को संतप्त कर रही है । जब कषायोंका वेग आता है तत्र इस जीवको सुध बुध नहीं रहती । जिस निमित्त को पाकर क्रोध उत्पन्न हुआ उस निमित्तको मिटानेका प्रयत्न करता है पर यह उसका वीज हमारी ही आत्मामे विद्यमान है यह नहीं विचारता । यहाँ २ मील चल कर सायंकाल कृषिकार्यालय में आ गये । रात्रभर आनन्दसे रहे । दूसरे दिन प्रातःकाल ५ मील चल कर वेलापुर आ गये और यहाँ के स्कूलमें ठहर गये । यहीं पर भोजन किया। सतना से श्री ऋषभकुमारकी मां आदि आये । साथमें पं० पन्नालालजी धर्मालंकार और चौधरी पन्नालालजी मैनेजर तेरापंथी कोठीके थे। मार्गमे इन महानुभावोंके समागमसे अत्यन्त शान्ति रहती है । अन्तिम शान्ति नहीं, औपाधिक शान्तिका ही लाभ होता है । अन्तिम शान्ति तो वह है जिससे फिर अशान्ति न हो | यह शान्ति इच्छाके अभाव में होती है । दूसरे दिन प्रातःकाल ८ वजे रीवां आ गये । धर्मशालामें ठहर गये । मन्दिरजीमें श्री शान्तिनाथ भगवान् के दर्शन किये। मूर्ति बहुत ही सुन्दर है । इसके दर्शनसे हृदयमे यह भावना हुई कि शान्तिका मार्ग तो वाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग है । इसमें बाह्य परिका त्याग तो सरल है परन्तु आभ्यन्तर परिग्रहका त्याग होना अनि कठिन है । सबसे कठिन तो परको निज माननेका त्याग करना है । स्नान कर Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारसकी ओर शरीर की कथा छोड़ो, स्त्री पुत्र बान्धवको भी पृथक् करना कठिन है। हम सबसे भिन्न हैं."यह पाठ प्रत्येक व्यक्ति पढ़ता है परन्तु भीतरसे उन्हे छोड़ता नहीं। दूसरे दिन प्रातःकाल बाजारके मन्दिर में प्रवचन हुआ। वहीं पर आहार हुआ। तदनन्तर धर्मशालामें आ गये । सामायिकके बाद एक वृद्ध जिनकी आयु ८४ वर्षकी थी आये। और तत्त्वज्ञानकी उपयोगी चर्चा करते रहे। आपका पुत्र पुलिस विभागमें जनरल इन्सपेक्टर है। आप जैनधर्मकी चर्चासे प्रसन्न हुए। रीवाँ विन्ध्यप्रान्तकी राजधानी है। जैनियोंके घर भी अच्छे हैं। यहाँसे ३ बजे चलकर २३ मीलके बाद १ स्कूलमे ठहर गये। उक्त वृद्ध महाशय हमारे साथ मार्गमें १ मील तक आये । यहाँ टीकमगढ़से प० नन्हेलालजी प्रतिष्ठाचार्य आये। आप बहुत ही सरल स्वभावके हैं । आपने वादा किया कि हम ईसरी आवेंगे। अगले दिन प्रातःकाल ६ मील चल कर रामऊनके मिडिल स्कूलमें निवास किया। स्कूलके अन्त भागमें आम्र वन और कूर था। उसी स्थान पर रीवाँसे आये हुए:५ आदमी ठहरे हुए थे। यहीं पर बनारससे श्री पं० कैलाशचन्द्रजी तथा व हरिश्चन्द्रजी आये । आप लोगोंके आनेसे विशेष स्फूर्ति आ गई। आहार यहीपर हुआ। चैत्र कृष्णा १३ को ५ मील चल कर विलवाके उद्यानमे ठहर गये। यहाँ रीवाँसे श्री कपूरचन्द्रजीका चौका आया था। वहीं पर आहार हुआ। मध्याह्नके उपरान्त यहाँसे ३ मील चलकर मनगुवाँकी पुलिस चौकी पर निवास किया । स्थान सुरम्य था, दिनकी थकावटसे जल्दी सो गये अतः रात्रिके १ बजे निद्रा भग्न हो गई। छहढालाकी छटवीं ढालका पाठ किया परन्तु पाठ करना अन्य बात है, हृदयमे शान्तिका आना अन्य बात है। शान्तिका लाभ कषायके अभावमें है। शान्तिका पाठ पढ़ना प्रत्येक व्यक्तिको आता है किन्तु भीतरसे शान्तिका होना कठिन है। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ मेरी जीवन गाथा प्रातः ५ मील चल कर वावाजीकी कुटियामें ठहर गये। यहीं पर भोजन किया। विचारमें यह आया कि गिरिराज पहुंचकर धर्मसाधन करना। परसे न शान्ति मिलती है और न मिलनेकी संभावना है। हम अनादिसे परके साथ अपना अस्तित्व मान रहे हैं। फल उसका जो है सो प्रत्यक्ष है। यहाँसे ५३ मील प्रयाण कर एक वावाजीकी कुटियाके सामने आम्रतरुके नीचे निवास किया। यहाँ पर ज्यों ही भोजन बनानेका प्रारम्भ हुआ त्यों ही ग्रामीण मनुप्य बहुत आ गये, मना करने पर भी नहीं हटे। अस्तु आज दयाचन्द्रने असत्य भाषण कर अभक्ष्य दुग्धका भक्षण करा दिया। यद्यपि मैंने दुग्ध त्याग दिया फिर भी आत्मामें ग्लानि बनी रही। हम लोग बहुत ही तुच्छ प्रकृतिके बन गये हैं, शरीरको ही अपना मान लेते हैं। आत्मद्रव्यको अमूर्तिक कह देना अन्य बात है। उस पर अमल करना अन्य वात है। यहाँसे २३ मील चल कर डवडवा आ गये । रानिमें निवास करनेके बाद प्रातःकाल बडवासे ५ मील चल कर मऊगंजके एक वागमें आम्रवृक्षके नीचे निवास किया। स्थान सुरम्य था। यहीं पर भोजन किया। यहाँ पर परिणामोंमें शान्ति रही। परमार्थसे सङ्गमे शान्ति नहीं रहती। इसका मूल कारण हृदयगत मलिनता है। हम लोग हृदयमें कुछ रखते हैं, कहते कुछ हैं, कायसे कुछ करते हैं। ३६ के अनुरूप हमारा व्यवहार है। इसमे शान्तिकी आशा मृगतृष्णामें सलिलान्वेषणके तुल्य है। भोजनके उपरान्त स्कूलमें निवास किया। मास्टर योग्य थे। ४ बजे यहाँसेचले। घड़ी भूल आये।४ मील चलनेके बाद १ मिडिल स्कूलमें ठहर गये। यहाँ पर शान्तिसे रात्रि काटी। स्कूलमे २५ छात्र देहातके अध्ययन करते हैं। मास्टर लोग पढ़ाई अच्छी करते हैं। प्रार्थना होती है। सभ्यताकी ओर लक्ष्य है परन्तु सभ्यता पश्चिमी Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारसकी ओर ४३३ है। यहाँसे प्रातः ४६ मील चलकर पुनः एक स्कूलमे ठहर गये। यहाँके मास्टर बहुत ही योग्य थे। आपने बहुत ही आदरके साथ स्थान दिया। स्थान शान्तिपूर्ण था। शरीरमे कुछ थकावट भी थी अतः इस दिन संध्याकलीन प्रयाण स्थगित कर रात्रिको यहीं विश्राम किया। स्थान निर्जन था, कोई प्रकारका कोलाहल न था फिर भी अन्तरङ्गकी शान्ति न होनेसे अन्तरङ्ग लाभ नहीं हुआ। जहाँ तक विचारसे काम लेते हैं यही समझमे आता है कि अनादि कलुपताके प्रचुर प्रभावमें कुछ सुध-बुध नहीं रहती, केवल ऊपरी वेष रह जाते हैं। यहाँसे प्रातः ३ मील ३ फाग चलकर हनुमना आ गये। यह नगर अच्छा है। यहाँ पर श्री कोमलचन्द्रजीकी दूकान है । रीवासे २ गृहस्थ आये। उन्हींने आहार दिया। पण्डित फूलचन्द्रजी भी आये। ३ वजे स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामे जो बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है उस पर विचार हुआ। सर्व पर्यायोंमें मनुष्य पर्याय अति दुर्लभ है। इसमें उत्तरोत्तर संयम पर्यन्तकी दुर्लभता दिखाई । संयमरत्नको पाकर जो विषयलोलुपी संयमका धात, कर लेते हैं वे भूति (भस्म) के अर्थ रत्नको जला देते हैं। इस परिणतिको धिक् है । रात्रिको यहीं रहे। प्रातःकाल श्रीशान्तिनाथ भगवान्का पूजन समारोहके साथ हुआ। भोजन रीवांवालोंके यहाँ हुआ । मिर्जापुरसे श्री पोष्टमास्टर कन्हैयालालजी आये। परिग्रहका पिशाच सबके ऊपर अपना प्रभाव जमाये है। अच्छे अच्छे धनी मानी इसके प्रभावमे अपनी प्रतिष्ठाको खो देते हैं। सम्यग्ज्ञान होनेके बाद भी इसका रक्षित रहना कठिन है । अज्ञानीकी कथा छोड़ो। अज्ञानी परिग्रहको न छोड़े, आश्चर्य नहीं परन्तु जानकार ज्ञानी न छोड़े यह आश्चर्य है। यहाँसे सायंकाल ३ मील चलकर भैसोड़के डॉकबङ्गलामे ठहर गये। प्रातःकाल ३३ मील चल लुहस्थिहरके पहाड़ पर आ २८ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ मेरी जीवन गाथा गये । यहाँ पर सड़क के किनारे १ चौकी है । उसीमे भोजन । बना। यहां ७७ हाथ गहरा कूप है परन्तु पानी इतना मिष्ट नहीं । नदी १ फर्लाङ्ग है | स्थान रम्य है १० घर गोपाल लोगों के हैं । सायंकाल ४ || मील चलकर द्रासिलगंज आ गये। यहां पर एक संस्कृत पाठशाला है । उसमें ठहर गये । पाठशाला के प्रधानाध्यापक महान् साधु पुरुष हैं। आपके प्रयत्नसे इस पाठशालाका काम साधु रूपसे चलता है | व्याकरण साहित्यके आचार्य पर्यन्त यहाँ अध्ययन होता है । ५१ छात्र अध्ययन करते हैं । पाठशालाके सर्वस्त्र प्रधानाध्यापक हैं । आज बनारससे पं० महेन्द्रकुमारजी ओर पं० पश्नालालजी आये। दूसरे दिन प्रातः ३ मील चलकर मार्ग में १ मुसलमान के घर में ठहरे । घरका स्वामी साक्षर था । बहुत सत्कार से उसने ठहराया । वह अपने धर्मका पूर्ण श्रद्धानी था। सायंकाल यहाँसे ५ मील चलकर वरौधा आ गये । यहाँ पर ९ मिडिल स्कूल में ठहरे । यहाँके अध्यापकवर्ग अत्यन्त सभ्य हैं । १ कमरा तत्काल रिक्त कर दिया । प्रातःकाल यहाँसे ६ मील चलकर एक महन्तके स्थानपर निवास किया । बहुत ही पुष्कल और पवित्र स्थान था । श्री ठाकुरजीके मन्दिमें जो दालान थे उसमें गर्मीको बिताया । यहाँ पर मिर्जापुरके तहसीलदार जो कि जैन थे आये । आप बहुत भद्र हैं । धर्मकी उत्तम रुचि भी रखते हैं । वैष्णव सम्प्रदाय में अतिथिसत्कारकी समीचीन प्रथा है । इसका अनुकरण हम लोगोंको करना चाहिये । परमार्थसे सब जीव समान हैं। विकृत परिमाणोंसे ही भेद है । जिस दिन विकार चला जायगा उसी दिन यह जीव परमात्मा हो जायगा । परन्तु विकारका जाना ही कठिन है | शरीरमे थकावटका अनुभव होनेसे रात्रि यहीं व्यतीत की । दूसरे दिन प्रातःकाल ३ मील चलकर तुलसीग्राम आ गये । यहां पर नागा बाबाओं का अखाड़ा है । ६ वजे प्रवचन हुआ । प्रवचनमें यह बात Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारस की ओर थी कि आत्मा और पुद्गल स्वतन्त्र द्रव्य हैं । इनमे जो परिणमन होता है उसके आत्मा और पुद्गल स्त्रतन्त्र कर्ता हैं। एक दूसरेके परिणमनमे निमित्त कारण हैं । जैसे जब रागकर्मका विपाक होता है तब जिस आत्मा के साथ रागकर्मका सम्बन्ध है वह आत्मा रागरूप परिणमन करता है तथा उसी काल कार्मणवर्गरणा ज्ञानावरणादिरूप हो जाता है । प्रवचनके बाद यहीं पर भोजन हुआ 1 सायंकाल चलकर एक वनमे ठहर गये । आगामी दिन प्रातःकाल ३ मील चलकर १ मन्दिरमें निवास किया । मन्दिर बहुत रम्य था। यहीं पर भोजन किया । यहाँसे मिर्जापुर ६ मील है । रात्रि भी यहीं व्यतीत की । यहाँ पर बनारससे प० कैलाशचन्द्रजी, मंत्री सुमतिलालजी, अधिष्ठाता हरिश्चन्द्रजी तथा कोपाध्यक्षजी आये । आप लोग ४ घंटा ! यहाँ पर रहे । अनन्तर मन्त्रीजीको त्याग सब चले गये। प्रातःकाल ३ मील चलकर मिर्जापुरके बगीचामे ठहर गये । यहाँ एक सुन्दर कूप तथा अखाड़ा है । ठहरनेके लिये वंगला है । एक शिवालय भी है। चारो ओर रम्य उपवन है । यहीं पर भोजन हुआ । यहाँ मिर्जापुरसे कई मनुष्य आ गये । मध्यान्हकी सामायिकके बाद मिर्जापुर गये । लोगोंने उत्साहसे स्वागत किया । ४३५ दूसरे दिन चैत्र शुक्ला १३ सं० २०९० होनेसे महावीर जयन्तीका उत्सव था । बनारस से पं० महेन्द्रकुमारजी तथा कैलाशचन्द्रजी आ गये । प्रात काल पं० महेन्द्रकुमारजीने शास्त्र प्रवचन किया। आपने यह भाव प्रकट किया कि सप्त तत्त्व जाने बिना मोक्षमार्गका निरूपण नहीं हो सकता ! रात्रिको आमसभा हुई। उसमें श्री महावीर स्वामीके जीवनचरित्रका वर्णन श्री पं० कैलाशचन्द्रजीने उत्तम रीति से किया । पं० महेन्द्रकुमारजीका भी उत्तम व्याख्यान हुआ । कुछ हमने भी कहा । एक दिन प्रातःकाल बड़े मन्दिर मे प्रवचन हुआ । उपस्थिति अच्छी थी । जैनधर्मका Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरो जीवन गाथा मूल उपदेश तो यह है कि स्वपरका भेदज्ञान प्राप्त कर विपय कपायसे निवृत्त होओ। शास्त्रप्रवचनोंमे यही वात प्रतिदिन कही जाती है परन्तु अमलमे नहीं लाई जाती इसलिये वक्ताके हाथ केवल कहना रह जाता है और श्रोताके हाथ सुनना । प्रथम वैशाख वदी को यहाँसे चलना था परन्तु मोटर द्वारा दुर्घटना हो गई जिससे रुकना पड़ा। मनमें विचार आया कि यदि यह परिकर साथ न होता तो व्यर्थका संक्लेश न उठाना पड़ता। इस दुर्घटनाके कारण मिर्जापुरमे २ दिन और रुकना पड़ा। वार वार विचार होता था कि अतिशय दुर्लभ मनुष्य जीवन पाकर भी मैंने इसका उपयोग नहीं किया । मानव जीवन सकल योनियों में श्रेष्ठ है। इस जीवनसे ही मनुष्य जगत्के विकृत भावोंसे रक्षित होकर स्वभाव परिणविका पात्र होता है। अगले दिन श्री सुमतिलालजी मंत्रीके यहाँ आहार हुआ। आप बहुत ही सरल प्रकृतिके मनुष्य हैं। स्याद्वाद विद्यालयका कार्य इनहीके द्वारा चल रहा है। यह एक सिद्धान्त है कि जिस संस्थाका संचालक निर्मल परिणामी होता है वही संस्था सुचारुरूपसे चलती है। आप उन महापुरुषोमेसे हैं जो कार्य कर नाम नहीं चाहते हैं। प्र. वैशाख वदी ३ सं० २०१० को यहाँसे संध्याकाल चलकर चिलीके उपवनमे ठहर गये । रात्रि सानन्द व्यतीत हुई। प्रातःकाल ४३ मील चल कर एक धर्मशालामें ठहर गये। श्री हरिश्चन्द्रने सानन्द भोजन कराया। भोजन भक्तिसे दिया । अत्यन्त स्वादिष्ट था। हम लोग उद्दिष्ट त्यागकी कयामात्र कर लेते हैं परन्तु पालन नहीं करते। उसीका फल है कि परिणामोंमें शान्ति नहीं पाती। शान्तिका मूल कारण अन्तरन अभिप्रायकी पवित्रता है। हम लोग वाह्य त्यागसे ही अपनी परिणतिको उत्तम मानते हैं यह सर्वथा अनुचित है । रात्रि यहीं विताई । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारसकी ओर ४३७ दूसरे दिन प्रातः ४ मील चल कर महाराजगंजकी संस्कृत पाठशालामे निवास किया। यहाँ पर जमनादास पन्नालालजीके नाती आये और उन्हींके यहाँ आहार हुआ। मध्यान्ह कालमे हुई चर्चाका सार यह निकला कि जो आत्माको पवित्र बनानेके लिये कलुषताका त्याग करना चाहते हैं उन्हें उचित है कि अपनी परिणति मायाचारसे रक्षित रक्खें। गर्मीकी बहुलतासे अब संध्याकालका भ्रमण कष्टकर होने लगा अतः यहीं पर रात्रि व्यतीत की। दूसरे दिन प्रातःकाल ५ मील चलकर राजमार्गस्थ रूपापुरके शिशुपाठालयमे निवास किया। यहीं पर भोजन किया। यहाँ स्याद्वाद विद्यालयके २ छात्र आये। मंत्रीजीने उन्हें भेजा था। यहाँसे २ मील दूरीपर मिर्जासराय है वहींपर जानेका विचार हुआ। ___ 'प्रातःकाल ५ मील चल कर राजातालाब पर भोजन हुआ। यहाँ दिल्लीसे राजकृष्ण तथा उनकी धर्मपत्नी आई। उन्हींके यहाँ भोजन हुआ। बनारससे कई छात्र महोदय आये। यहीं पर श्री १०८ विजयसागरजी मुनियुगल, २ क्षुल्लक तथा २ ब्रह्मचारी भी आये। शान्तपरिणामी हैं परन्तु विजयसागरजीके नेत्रों की ज्योति बहुत कम हो गई है तथा वृद्ध भी अधिक हैं अतः उन्हें चलनेका कप्ट होता है। फिर भी आजकलके युवाओंकी अपेक्षा शक्तिशाली हैं। संध्याकालमे ४ मील चल कर भास्करके उपवनमें १ कूपके ऊपर निवास किया। यहाँ १ शिवालय है। पुजारीकी आज्ञासे उसीमें ठहर गये। पुजारी भद्रस्वभावका है । जैसा आतिथ्य सत्कार ये लोग करते हैं वैसा हम लोगोंमे नहीं है। हम लोग तो अन्य लोगोंको मिथ्यादृष्टि वाक्यका उपयोग कर ही अपने आपको कृतकृत्य मान लेते हैं। संध्याकाल यहाँसे चल कर श्री बनारसीदासजीके उपवनमें ठहर गये। रात्रि सुखसे वीती। यहाँसे बनारस केवल ३ मील दूर है। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारस और उसके अंचलमें प्रथम वैशाख कृष्ण ६ सं० २०१० को प्रातःकाल ३ मील चलकर भेलूपुर आ गये। यह स्थान हमारा चिर परिचित स्थान था। यहीं वाईजी रहती थीं और यहीं पर रहकर हमने बहुत दिन विद्याका अभ्यास किया था। उस समय यहाँ १ शान्तिप्रिय नामक ब्रह्मचारी भी रहते थे जो प्रबल शक्तिशाली थे। यहाँ २ मन्दिर हैं-एक नीचे सड़कके समीप और १ ऊपर। मुन्दर उद्यान है। मूर्तियाँ अत्यन्त मनोज्ञ हैं। ऊपरका मन्दिर कोलाहलसे अतीत अत्यन्त शान्तिपूर्ण है। श्री राजकृष्णजीके यहाँ थाहार किया। एक दिन तथा एक रात्रि यही निवास किया। दूसरे दिन प्रातःकाल चलकर स्याहाद विद्यालय आगये। सूर्योदयका समय था । गंगाके उस पार दूर क्षितिजमे सूर्यरी सुनहली आमा प्रकट होकर गङ्गाके निर्मल वारिको रक्त-चीन बना रही थी। विस्तृत छतके ऊपर श्री सुपार्श्वनाथ भगवान का सुन्दर मन्दिर है। उसकी शिखरपर सूर्यकी मनोहर किरण पर रही। बत परसे सूर्योदयका दृश्य बड़ा सुन्दर जान पड़ता था। म्यादार विद्यालयमें पहुँचते ही पिछले जीवनकी स्मृति नवीन होगट। यापा भगीरयजी तथा स्व० सेठ माणिकचन्द्रजी श्रादिरा FARAT आया जिनकी कि उपस्थितिमें बड़े समारोह माय जेट नही । १९६२ में उन म्याहार विद्यालयरा नाटन गया था। गुरु अम्बादामजी शास्त्रीसमरा ग्रानंहीजदय नगदगया ! जिम ममय अन्य प्रारा विद्वानाने उनमायांस Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यनारस और उसके प्रचलमें कर दिया था उस समय आप एक ही ऐसे सहृदय विद्वान् थे जिन्होंने मुझ जैसे निराश व्यक्तिको प्रेमसे विद्याध्ययन कराया था। श्री शास्त्रीजीकी हमारे ऊपर पूर्ण कृपा थी। मुझे जो कुछ ज्ञान है वह उन्हींका दिया हुआ है। स्नानादिसे निवृत्त हो श्री सुपार्श्वनाथ भगवान्के दर्शन किये। तदनन्तर श्री हरिश्चन्द्रजीके यहाँ भोजन हुआ । सायंकाल छात्रोंके बीच भापण हुआ। रात्रिको यहीं विश्राम किया। दूसरे दिन विद्यालयके वालकोंने बहुत भक्तिके साथ भोजन कराया। उनकी प्रवृत्तिसे उनका आस्तिक्यभाव टपक रहा था। सायंकाल ५ बजे चलकर ६॥ वजे सन्मति निकेतनमें आगये। यहाँपर श्रीसेठ हुकुमचन्द्रजी इन्दौरवालोने बहुत ही रम्य जिनालयका निमोण कराया है। श्री महावीर स्वामीका विम्ब अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक है । सन्मति निकेतनमे वे छात्र रहते हैं जो यूनिवरसिटीमे अध्ययन करते हैं । रात्रिको यहीं विश्राम किया । प्रातःकाल गङ्गाके तट पर प्रातःकालीन क्रियाओंसे निवृत्त हो हिन्दू विश्वविद्यालयके भवनोंको देखते हुए सन्मति निकेतनमे आगये । स्नानादिसे निवृत्त हो श्रीमहावीर स्वामीके दर्शन किये । हृदयमे बड़ा आह्लाद उत्पन्न हुआ। एक सीधी साधी वेदिका पर भगवान् महावीर स्वामीकी विशालकाय शुभ्र मूर्ति विराजमान की गई है। सायंकालके समय निकेतनमे उत्सव हुआ। कई प्रोफेसर आये। सानन्द छात्रावासका उद्घाटन हुआ। प्रथम वैशाख कृष्णा १४ सं० २०१० को प्रातःकाल ७ बजे चलकर स्वाद्वाद विद्यालय आ गये। यहीं पर भोजन हुआ। ३ बजेसे विद्यालयका वार्षिक उत्सव हुआ। जनता अच्छी आई। कैलाशचन्द्रजीने विद्यालयका परिचय कराया । उत्सवमे ४ बजे श्रीआनन्दमयी माता भी पधारी। आप शान्तिमूर्ति हैं। सचमुच ही आनन्दमयी हैं। सबके आनन्दमें निमित्त हो जाती हैं । उत्सव Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा में छात्रोंको पुरस्कार दिया गया । अन्तमें शान्तिपूर्वक सव लोग स्वस्थानको गये । श्रानन्दमयी माताका आश्रम विद्यालयके समीप ही गङ्गा तटपर है । मुझे वहां बुलाया गया अतः मैं भी अमावस्या के दिन वहां गया । बहुत ही सुन्दर भवन बनाया गया है | वहां अनेक साध्वियां तथा साधु निर्मल परिणामोवाले थे । क्रम विकास पर हमारा भाषण हुआ । अन्तमें आनन्दमयीने यह कहा कि अपना पराया मतभेद छोड़ो । आप बंगाली हैं । बंगाली लोग आपको बड़ी श्रद्धासे देखते हैं । एक दिन मैदागिन के मन्दिरमें गये । श्री पं० कैलाशचन्द्रजी तथा पं० जगन्मोहनलालजी कटनीका व्याख्यान हुआ । आत्मदर्शनका अच्छा प्रतिपादन हुआ । तदनन्तर हमने भी कुछ कहा । जनता अच्छी थी । 1 -४४० प्रथम वैशाख शुक्ला ३ को प्रातःकाल ५३ वजे चलकर एक उपवनमें ठहर गये । यहीं पर भोजन हुआ । यहाँ पर पं० पन्नालालजी व पं० फूलचन्द्रजी साहव आये । उपवनमें जो कूप है उसका जल अत्यन्त मिष्ट है । यह उपवन श्री मोतीलालजी सिंघईके लघु वालक सूरजमल्लका है । स्थान रम्य है । यदि कोई धर्मसाधन करे तो कर सकता है परन्तु इस समय धर्मसाधनकी दृष्टि चली गई है । अब तो लोग विषय साधनमे मग्न हैं । यहाँसे १३ मील चलकर सारनाथ (सिंहपुरी ) आ गये । सिंहपुरी श्री श्रेयान्स भगवान्का जन्मस्थान है । सुन्दर मन्दिर बना हुआ है । एक धर्मशाला तथा I उद्यान भी है । धर्मशाला में स्वच्छता कम है । प्रातःकाल मन्दिर में प्रवचन हुआ | दिल्लीसे पं० दरवारीलालजी तथा राजकृष्णका बालक प्रेमचन्द्रजी आये । २ घंटा रहे । यहाँ श्रारासे पं० महेन्द्रकुमारजी तथा एक सज्जन आये । उन्होंने कहा कि प्राराकी जैन जनता आपको आरामें चौमासा करनेका निमन्त्रण देती है । मैं सुनकर चुप रहा । यहीं पर कलकत्तासे सरदारमल हुलासरावजी 1 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारस और उसके अंचलमें ४४. श्री गोम्मटस्वामीके दर्शन कर आये । १ घंटा रहे। आप लोग श्री स्व० सूरिसागरजीके परम भक्त हैं। तेरापन्थके माननेवाले हैं। वास्तवमे धर्मका स्वरूप तो निर्विकार है। उपाधिसे नाना विकार मनुष्योंने उसमे ला दिये हैं अतः जिन्हे आत्मकल्याण करना हो उन्हें यह विकार दूर करना चाहिये। गरमीकी प्रबलताके कारण कुछ समय विश्राम करनेकी इच्छा हुई। सारनाथ कोलाहलसे परे शान्तिपूर्ण स्थान है अतः ५५ दिन यहीं रहनेका विचार किया। एकान्त होनेसे स्वाध्यायका लाभ भी यहाँ अच्छा मिला। और चिन्तन भी अच्छा हुआ। अष्टमीका दिन था। मध्यान्हके बाद विचार आया कि चित्तकी स्थिरताके लिये क्या करना चाहिये ? हृदयसे उत्तर मिला कि संयम धारण करना चाहिये। उसी क्षण विचार आया कि संयम तो बहुत समयसे धारण किये हूँ फिर चित्तकी स्थिरता क्यों नहीं है। तत्र संयम शब्दके अर्थकी ओर दृष्टि गई । 'संयमनं संयमः' सम् उपसर्ग पूर्वक 'यम उपरमे' धातुसे संयम शब्द बना है जिसका अर्थ होता है सम्यक प्रकारसे रुक जाना। अर्थात् पञ्चन्द्रियोंके विषयोंमे जो प्रवृत्ति हो रही है उसका भले प्रकारसे रुक जाना संयम है । जब तक इन्द्रियोंके विषयोसे यथार्थ निवृत्ति नहीं होती तब तक नाम निक्षेपके संयमसे क्या लाभ होनेवाला है ? निवृत्तिका अर्थ तटस्थ रहना है तथा मनोनिग्रहका अर्थ कषाय कृशता है। इन्द्रियोके दमनका अर्थ इन्द्रियों द्वारा विषय जाननेका अभाव नहीं । उनने लोलुपता न होना चाहिये । शरीरदमन न कोई कर सकता है और न उसका दमन होता ही है । भोजन करनेसे शरीरकी तृप्ति नहीं होती किन्तु आत्मामें ही भोजन करनेकी जो इच्छा थी वह शान्त हो जाती है। वही तृप्तिका कारण है। जो केवल कायक्लेश करते हैं वे शान्तिके पान नहीं होते। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ मेरी जीवन गाथा द्वितीय वैशाख कृष्णा २ को सिंहपुरीसे ५ मील चलकर मैंदागिनमे आ गये। यहीं पर भोजन हुआ। रात्रि भी यहीं व्यतीत की। अगले दिन प्रातःकाल ५। बजे चलकर शामीलकी दूरी पर एक खत्रियके वागमें ठहर गये । स्थान सुरम्य था। बहुत आनन्दसे समय गया । श्री गणेशदासजीके सुपुत्र श्री गुल्लूबाबू तथा मौजीलालजीका चौका आया था। इन्हींके यहाँ भोजन हुआ। सायंकाल २ मील चलकर एक बागमें ठहर गये। वृद्धावस्थाके कारण अधिक चला नहीं जाता था इसलिये थोड़ा ही चलते थे और यह निश्चय कर लिया था कि जितनी शक्ति होगी तदनुकूल । गमन करेंगे परन्तु गमन श्री पार्श्वप्रभुके सम्मुख ही करेंगे। पार्श्वप्रभुकी ओर प्रातःकाल बागसे ४ मील चल कर मोगलसरायकी धर्मशालामें ठहर गये । धर्मशालामे सब प्रकारके मनुष्य आते हैं। यदि वहाँ कोई धर्मप्रचार करना चाहे तो अनायास कर सकता है । सायंकाल ३ मील चलकर १ वावाजी की कुटीमें ठहर गये। अन्य साधु जिस प्रकार निरीह हो नगरके बाहर शान्तिसे जीवन बिताते हैं उस प्रकार हमारे साधु नहीं। अब इन्हें बिना परिकरके एक दिन भी चैन नहीं पड़ता। दूसरे दिन प्रातःकाल कुटीसे ४ मील चले तो चुल्लक महोहरलाल जी वर्णी मिल गये। प्रसन्नता हुई। यहाँसे २ मील चलकर चंदौलीके शिवालयके पास धर्मशालामे ठहर गये । यहाँ पर भोजन हुआ। दुपहरी शान्तभावोसे बीती किन्तु जहाँ पर अधिक समागम होता है वहाँ सिवाय अप्रयोजनीभूत कथाओंके कुछ नहीं Page #468 --------------------------------------------------------------------------  Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री वर्णीजी श्री व्र० नाथूलालजी आदि ग्बड़े हुए हैं और श्री भवरीलाल जी सरिया व श्री नदलाल जी मरावगी क्लकत्ता यादि बैठे हुए हैं। [ पृ० ४४३] Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचप्रभुकी ओर ४४३ होता । अगले दिन ५ मील चलकर सैय्यदराजा ग्राममें आ गये। एक अग्रवालकी धर्मशालामे रह गये। धर्मशालाका मैनेजर धार्मिक था । उसने कहा कि भगवद्भजनमे उपयोग लगे ऐसी प्रकृति किस तरह प्राप्त हो सकती है ? हमने यही उत्तर दिया कि उसका उपाय तो विपयोंसे चित्तको रोकना है। उसका दूसरा प्रश्न था कि प्रत्येक प्राणीको भगवद्भजनकी इच्छा क्यों रहती है ? इसके उत्तरमें हमने कहा कि भगवान् पूर्ण है, वीतराग है और हितोपदेशी है तथा हम परमार्थसे अनेक प्रकारके अपराध करते हैं एवं निरन्तर पतित मार्गमे जाते हैं अतः एतन्निवारणाय किसी महापुरुषकी शरणमे ही जाना हमारे लिये श्रेयोमार्ग है । यहाँसे चलकर कर्मनाशा स्टेशनके समीप ठहर गये और दूसरे दिन प्रातः ६ मील चलकर दुर्गावती नदीके तट पर डॉक बॅगलामें निवास किया। यहीं पर आहार हुआ। यहाँसे ३ फलांग पर एक स्कूल था। उसमे सानन्द निवास किया । अध्यापकवर्ग शिष्ट था। एक बालकने, प्रश्न किया-आप कौन हैं ? मैंने उत्तर दिया-जैन हैं। उसने फिर जिज्ञासा भावसे पूछा-जैन किसे कहते हैं ? मैंने कहा-जो जीवमात्र पर दया करे। उसने फिर प्रश्न किया-जीवमात्र पर दया करनेसे संसारकी व्यवस्था किस प्रकार चलेगी ? मैंने कहाअच्छी तरह चलेगी। उसने कहा अच्छी किस तरह ? मैंने कहादयाका यथोचित विभाग करनेसे सब व्यवस्था चल सकती है। अपने अपने पद और अपनी अपनी शक्तिके अनुसार जीवदयाका पालन करनेसे कहीं कोई व्यवस्था भग्न नहीं होती। उत्तर सुनकर बालक प्रसन्न हुआ। प्रातः ५ मील चलकर एक बाबाकी कुटियामे फिर विनाम किया। बाबाने प्रेमसे स्थान दिया। यहां गयासे सोनू वाचू श्रा गये। दूसरे दिन प्रातःकाल ५ मील चलकर १ बंगलामे ठहर गये । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ मेरी जीवन गाया यहाँपर दुर्गावती नदी बहती है । यहीपर जैनबद्रीकी यात्रासे श्री राजेन्द्रकुमारजी वनारसवाले और पं० श्रीलालजी आये । यहीं भोजन किया । २५ आदमियोंका समागम था, धर्म रुचिवाले थे परन्तु अन्तरङ्गसे जो बात होना चाहिये वह नहीं थी। अन्तरङ्गकी कथा इस समय अत्यन्त दुर्लभ हो रही है। यहाँसे प्रातः ४|| मील चलकर पसौली रेलके क्वार्टरोंमें ठहर गये। जो मैनेजर था उसने बहुत आदरसे ठहराया। यहाँपर दुर्गावती नदी है। उसका जल पिया, अच्छा था । सायंकाल चलकर एक वावाकी कुटीम विश्राम किया। वहांसे प्रातः ५॥ मील चलकर जहानाबादके शिवा-लयके पास जो धर्मशाला है उसमें ठहर गये। धर्मशाला अच्छी थी। क्षुल्लक मनोहरजी वणीं यहां आ गये । आपका डालमियानगरमें मन नहीं लगा। हमारी बुद्धिमें तो यह आता है कि परसे सम्बन्ध रखना ही नाना प्रकारके विकल्पोंका उत्पादक है और परकी शल्य तब तक नहीं जा सकती जब तक कि अन्तरजसे मोह नष्ट न हो जाय । जहानावादसे २॥ मील चलकर १ स्कूलमें ठहर गये। दूसरे दिन प्रातःकाल ५॥ मील चलकर शिवसागर ग्रामम एक शिवालयमे ठहर गये। शिवालयकी दहलानमें भोजन हुआ। शिवालयका जो पुजारी था वह अत्यन्त शिष्ट था । गर्मीकी अधिकता देख उसने हमें शिवालयके भीतर स्थान दिया । भीतर देवस्थान है। वहाँ ठहरनेसे अविनय होगी"ऐसा हमारे कहनेपर उसने उत्तर दिया कि मनुष्यकी रक्षा करना सर्वोपरि है। भगवान्का उपदेश है कि दया करो। हम भीतर आपको स्थान देकर दयाका ही ता पालन कर रहे हैं इसमें अविनयकी कौनसी बात है ? अविनय ता तव होती जब हम उनके उपदेशके प्रतिकूल कार्य करते । उसका उत्तर सुनकर जब हमने अपने लोगोंकी प्रवृत्तिकी ओर दृष्टि दी ता जान पड़ा कि हम लोग मुखसे ही दयाका पाठ पढ़ते हैं। काम Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वप्रभुकी ओर ४४५ पड़ जावे तो हम लोग अन्य धर्मावलम्बियोको मन्दिरसे ठहरना तो दूर रहा वैठने तक न देवेंगे। यह वात जैनधर्मके सर्वथा प्रतिकूल है। अरे! जैनधर्म तो उन जीवोंकी भी रक्षाका उपदेश देता है जो इन्दियोंके गोचर नहीं। फिर चलते फिरते मनुष्योंकी तो बात. ही क्या है ? प्रात काल यहाँसे ५।। मील चलकर १ शिवालयमे फिर ठहर. गये । यहांके पुजारीने भी बड़े सत्कारसे रक्खा। यह स्थान अति रमणीय है। अक्षय तृतीयाके दिन प्रातःकाले २ मील चलकर ससराम आ गये। यहाँ एक सुन्दर धर्मशाला है। उसीमे ठहर गये । गमींके प्रकोपके कारण स्वाध्यायमें मन नहीं लगा तथा तृषाके कारण भी अशान्ति रही परन्तु मैंने देखा कि पानी पीनेवाले हमसे भी अधिक प्रशाम्त रहते हैं अतः पानी ही शान्तिका कारण नहीं. है । सायंकाल यहासे २ मील चलकर एक कूपपर ठहर गये। यह कूप एक तेलिनने बनवाया है। उसपर एक आदमी रहता है जो दिनभर पशुओं तथा मनुष्योंको पानी पिलाता रहता है। यहाँसे प्रातः ४ मील चलकर एक पानीका स्थान था वहीं ठहर गये। वहींपर. भोजन हुआ। ३ बजे यहाँसे चलकर डालमियाँनगर आ गये। लोगोंने अच्छा स्वागत किया। स्थान रम्य है। यह वही स्थान है जहाँ पर श्री स्वर्गीय सूरिसागरजी महाराजने अन्तिम जीवनका उत्सर्ग किया था। आप बड़े तपस्वी थे। तेरापन्थ दिगम्बर जैन धर्मके अनुयायी थे। आपका ज्ञान विशाल था । आपके द्वारा संयसप्रकाश आदि अनेक शास्त्रोंकी रचना हुई है। आपका स्वर्गवास गत वर्पके श्रावण वदी ८ को यहीं हुआ था। आप ६ घंटा समाधि मे रत रहे । १२ बजे रात्रिको आपने देहोत्सर्ग किया। आपकी दिगम्बर पद्यासन मुद्रा देह त्यागके बाद ज्यों की त्यों रही। यहाँ आते ही मुझे आपका नाम स्मृत हो उठा और मनमे अपने प्रति Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ मेरी जीवन गाथा एक ग्लानिका भाव उठने लगा-ग्लानिका भाव इसलिए कि मैंने नर तन पाकर भी कुछ नहीं किया असी वर्षकी श्रायुमें किया न बातम काम | ज्यों आये त्यों ही गये निशदिन पोसा चाम ॥ क्या कहें ? किससे कहे ? कुछ कहा नहीं जाता ? व्यर्थके जंजालमें पड़कर अपनी अभिलापाओंको न रोक सके। यथार्थमें ‘यों करेंगे, त्यों करेंगे' ऐसे शब्दों द्वारा जनताके समक्ष शेखी बघारना कुछ लाभदायक नहीं । पानीके विलोलनेसे हाथ चीकना नहीं होता। वह तो परिश्रमका कारण है। बालमियाँनगर श्री साहु शान्तिप्रसादजीके पुरुषार्थका फल है। पुरुषार्थ उसीका सफल होता है जिसके पास पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म है। अथवा पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म भी पूर्व पर्यायका पुरुषार्थ ही है। यहाँ आपके द्वारा निर्मित नाना कारखाने हैं। कार्यकर्ताओंके रहनेके लिए अच्छे स्थान हैं तथा धर्मसाधनके लिए सुन्दर मन्दिर है । शान्तिप्रसाद प्रकृत्या शान्त तथा भद्र परिणामी हैं। इस समय । आपके द्वारा जैनधर्मके उत्कर्पको वढ़ानेवाले अनेक कार्य हो रहे हैं। आपकी पत्नी रमारानी भी सुयोग्य तथा सुशीला नारी है। पं० महेन्द्रकुमारजी तथा पं० फूलचन्द्रजी बनारससे यहाँ आये थे । साथमें नरेन्द्रकुमार वालक भी था। पं० युगलने साहु शान्ति प्रसादजीसे सन्मति निकेतनके अर्थ माँग की तो आपने १३ कमरे दुहरे करवा देनेका वचन दिया और १००) मासिक छात्रावास चलानेको कह दिया। आप वहुत ही उदार मानव हैं। विशेषता यह है कि आप निरपेक्ष त्याग करते हैं। नरेन्द्रकुमार छात्र वरत ही शिष्ट तथा होनहार वालक है। प्रकृतिका स्वाभिमानी है अतः किसीसे याचना नहीं करता। यदि कोई उसे विशेष रूपसे महायता देवे तो यह अद्भुत मानव हो सकता है। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वप्रभुकी ओर ४४७ मन्दिर में प्रवचन हुआ। मैंने कहा कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है। संयोगवश यदि यह प्राप्त हो गया है तो इससे इसका कार्य करना चाहिये । भोग विलासमें मस्त रहना मनुष्य जन्मके कार्य नहीं है किन्तु भोगोसे निवृत्त हो संयम धारण करना मनुष्य जन्मका सर्वोपरि कार्य है। जीवनमें इसे अवश्य ही धारण करना चाहिये। अनादिकालसे हमारी अन्य द्रव्य पर दृष्टि लग रही है, अन्य द्रव्यसे तात्पर्य पुद्गल द्रव्यसे है। आत्मा तथा पुद्गल दोनोंका अनादिकालसे ऐसा एक क्षेत्रावगाह हो रहा है कि जिससे आत्माकी ओर दृष्टि जाती ही नहीं है। केवल पुद्गलमें ही दृष्टि उलझ कर रह जाती है। गौके स्तनसे जो दूध दुहा जाता है उसमे पानीका बहुभाग रहता है परन्तु वह दुग्धके साथ इस प्रकार मिला हुआ है कि उसे कोई पानी कहता ही नहीं है। इसी प्रकार शरीर और आत्मा इस प्रकार मिले हुए हैं कि कोई आत्माको अलगसे जानता ही नहीं है । परन्तु जिस प्रकार मिठया दूधको कड़ाहीमें चढ़ाकर भट्टीकी आँचसे दूध और पानीको अलग अलग कर देता है उसी प्रकार ज्ञानी प्राणी आत्मा और पुद्गलको अपने भेदज्ञानके द्वारा अलग-अलग कर देता है। भले ही आत्माके साथ पुद्गलका जो सम्बन्ध है वह अनादिकालसे चला आ रहा हो पर इससे अनन्त काल तक चला जावेगा यह व्याप्ति नहीं। भव्य जीवके आत्मा और पुद्गलका सम्बन्ध अनादि-सान्त माना गया है। सुवर्णके साथ किट्टकालिमादिका संसर्ग कबसे है यह कौन जानता है। परन्तु अग्निके संयोगसे दोनों अलग-अलग हो जाते हैं। इससे जान पड़ता है कि दोनों पृथक् पृथक् हैं। इसी प्रकार संसार दशामें जीव और पुद्गल एकमेक अनुभवमें आता है परन्तु भेदज्ञानके द्वारा दोनों ही पृथक् पृथक् हो जाते हैं। अतः प्रयत्न ऐसा करो कि जिससे परसे भिन्न आत्माका अस्तित्त्र आपकी दृष्टिमे Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ मेरी जीवन गाथा आ जावे । डालमियांनगरमे हम आठ दिन रहे । वाबू जगत्प्रसादजी, अयोध्याप्रसादजी गोयलीय तथा पं० चेतनलाल जी श्रादिने सव व्यवस्था ठीक रक्खी। यहाँ साहु शान्तिप्रसाद जी ने स्वयं अष्टपाहुड़का स्वाध्याय कर सवको श्रवण कराया । शान्तिसे समय वीता। द्वि० वैशाख शुक्ला ११ को साहुं जी कलकत्ता चले गये । पंडित महाशय वनारस चले गये और हम १२ को प्रातःकाल ५ बजे पाश्चप्रभुकी ओर बढ़ गये। गयामें चातुर्मासका निश्चय डालमियाँनगरसे चलकर शोणभद्र नदी (सोनभद्रा नदी) को नाव द्वारा पारकर नहरके ऊपर एक बंगलामें ठहर गये। स्थान अच्छा था परन्तु संपर्क अच्छा न होनेसे हृदयमे शान्ति नहीं आई। संध्याकाल यहाँसे चलकर वारौन पहुँच गये। रात्रिको विश्राम किया। तदनन्तर प्रातःकाल ५३ मील चलकर पुनपुन गगापर ठहर गये । ठहरनेके लिये १ कुटिया थी, उसीमें ठहर गये । गर्मीका प्रकोप रहा परन्तु श्रीसोनू वाबू गयाके रहनेसे तत्त्व चर्चा का अच्छा प्रभाव रहा। परमार्थसे गर्मीकी व्याकुलतासे विशेष आनन्द नहीं रहा। तृपा परीपहका अनुभव किया। धन्य है उन मुनिराजोंको जो वर्पा, शीत उष्णकालमे नाना प्रकारके कष्ट उठाकर आत्मध्यानसे विचलित नहीं होते। वास्तवमे आत्मज्ञानकी महिमा अपरम्पार है जो संसार वन्धनका नाश करनेवाला है। रात्रि भी यहीं बिताई। दूसरे दिन प्रातःकाल पुनपुन गङ्गासे ४ मील चलकर जोगियामें १ महाजनके कोठामे निवास किया। यहीं पर भोजन हुआ। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयामें चतुर्मासका निश्चय ४४६ साथ मे २ अन्य त्यागियोंका भी भोजन हुआ। सायंकालका भ्रमण स्थगित रहा। दूसरे दिन प्रातःकाल ५ मील चलकर औरगाबाद आगये। यहाँपर ईसरीसे पं० शिखरचन्द्रजी आ गये। आप बहत ही योग्य तथा शान्तस्वभावी विद्वान् हैं। आपने शिष्ट व्यवहार किया। आजीविकासे चिन्तित हैं फिर भी अन्तरङ्गसे तत्त्व विचारमे मग्न रहते हैं। समाजकी दशा क्या कहे ? वह व्यर्थ कार्योंमे धनका दुरुपयोग करनेमे नहीं चूकती पर ज्ञान भण्डार आजीविकाके बिना चिन्तातुर रहते हैं। एक समय तो वह आ गया था कि जब संस्कृत विद्याके जानकार विद्वान् समाजमें बहुत ही विरल हो गये थे परन्तु आज सौभाग्य मानना चाहिये कि इस विद्याके जानकार विद्वान् समाजमे उत्पन्न हुए हैं और उनके द्वारा जैनधर्म तथा जैनसमाजका उत्कर्ष बढ़ा है । यदि जैनसमाज उदारतासे इनकी रक्षा करे तो वे स्थिर रहकर समाज तथा धर्मका उत्कर्ष बढ़ानेमे समर्थ होंगे । आपके आनेसे आज तत्त्वचर्चाका अच्छा आनन्द रहा। आगामी दिन प्रातःकाल औरंगाबादसे ४ मील चलकर औरा आ गये । यहां १ कुनमीके मकानमे ठहर गये। मकान दोहरा था इसलिए गर्मीका प्रकोप न रहा। दिन सानन्द व्यतीत हुआ। ग्रामीण जनता दर्शनके लिये बहुत आई। मुझे लोगोंकी सरलता देख अनुभव हुआ कि यदि इन्हे कोई कल्याणका मार्ग बतानेवाला हो तो इनका उद्धार हो जाय । आज कल लोग व्याख्यान या उपदेश शहरके उन लोगोंको देने जाते हैं जिनके हृदय निरन्तर विषयकी लालसासे मलिन रहते हैं। उन सरल ग्रामीण मनुष्योंके पास कोई भी व्याख्याता या उपदेशक नहीं पहुँचते जिनके हृदय अत्यन्त उज्वल तथा पापसे भीरु हैं। दूसरे दिन प्रातः औरासे ४३ मील चलकर शिवगंजमें निवास २६ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाया किया । यहाँ १ डाक्टर साहबने अपना स्थान खाली कर दिया और स्वयं परिमार्जन कर हमे प्रेमसे ठहराया । ३ दिन उनकी दुकान बन्द रही । दुपहरीमे आप स्वयं छपरीमें लेटे रहे पर हमें अल्प कष्ट नहीं होने दिया । शिष्टताका जैसा व्यवहार अन्य समाजमे है उसका शतांश भी हमारी समाजमे नहीं । इसका मूल कारण अज्ञान है । जो जनता ज्ञानको ही नहीं जानती वह क्या परोपकार करेगी ? शामके समय १ मील चलकर एक कुटियामे ठहर गये । जंगलके स्वच्छ वातावरणमें शान्तिसे निद्रा आई । प्रातःकाल ४ मील चलकर १ जजके वॅगलामे ठहर गये । स्थान अत्यन्त रम्य है । उपयोग निर्मल रहा । स्वाध्यायमे काल गया । यहाँ पर एक नानकपंथी साधु रहता है जो साक्षर हैं तथा अपने मतमे दृढ़ श्रद्धा रखता है । यहाँ एक बहुत वृद्ध पुरुप श्राया । उसने हमे महात्मा जानकर प्रणाम किया और रात्रिके ११ बजे एक ग्रामसे २० मानव दर्शन करनेके लिये आये । ४५० प्रातः काल यहाँसे ४ मील चलकर चित्रशाली ग्राममे पहुँच गये। स्थान उत्तम था अतः गर्मीका प्रकोप नहीं हुआ । यहाँसे श्री सोहनलालजी व श्री चम्पालालजी सेठी गया चले गये । रफीगंज यहाँसे ४ मील है । श्राजकल ऋतुकी उग्रतासे भोजनके वाद तृपाका प्रकोप हो जाता है, प्रायः २२ घण्टा रहता है फिर भी चित्तमे यह खेद नहीं होता कि व्रत क्यों धारण किया । खेद इस बातका रहता है कि हम बाह्य वाधा तो सहन कर लेते हैं परन्तु अन्तरङ्ग कषायको नहीं रोक पाते अतः वाह्य क्लेश सहना नहींके तुल्य है । ज्येष्ठ कृष्णा ५ सं० २०१० को प्रातःकाल ८ वजे रफीगंज आ गये। श्री मन्दिरजीके नीचे ठहर गये । यहाँ पर जैन बन्धुओ में परस्पर अत्यन्त प्रेम है । पं० गोपालदासजी योग्य व्यक्ति हैं । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयामें चतुर्मासका निश्चय ४५१ आप साढूमलके हैं। आपके पिता वहुत ही सज्जन थे, पण्डित थे, त्यागी थे, बहुत उदार थे और जैनधर्ममे अतिराग रखते थे। आपके भाई शीलचन्द्रजी भी उत्तम विद्वान् हैं। गयासे पं० राजकुमारजी शास्त्री भी आये । आप योग्य व्यक्ति हैं, त्यागी हैं, सरल परिणामी हैं, गयामें अध्ययन कराते हैं तथा समाजको भी स्वाध्याय कराते हैं। आपको करणानुयोगका अच्छा अभ्यास है तथा चरणानुयोगपर विशेप अनुराग है। आज-कल लोगोंने चरणानुयोगका पालन करना अत्यन्त कठिन बना दिया है। मन्दिरमें प्रवचन हुआ। प्रकरण था कि जो इस जीवको संसारके वन्धनमे फंसाते हैं ऐसे कुटुम्बीजन परमार्थसे इसके शत्रु हैं और जो हितका ध्यान रखते हैं ऐसे योगी इसके वन्धु हैं। परन्तु इस जीवकी अनादिकालसे विषय वासनामे ही प्रीति हो रही है इसलिए इसमे सहायक लोगोंको यह मित्र मानता है और जो इसमे बाधक हैं उन्हे शत्रु समझता है। वास्तवमे विचार किया जाय तो यह सव कथन व्यवहारकी मुख्यतासे है। निश्चयसे न तो जीवका कोई शत्रु है और न कोई मित्र है। इसके जो रागादिक परिणाम हैं वही इसके शत्रु हैं और जो वीतरागादि भाव हैं वही हमारे मित्र हैं। मोहके उदयमें अनेक कल्पनाएँ होती हैं अतः जो जीव आत्महितैषी हैं उन्हें परपदार्थोंका संपर्क त्यागना चाहिये, केवल गल्पवादसे कुछ लाभ नहीं । एक दिन पं० चन्द्रमौलिजीके द्वारा भोजनमे फलोंका आहार हुआ। भारतमें अब तक पात्रदानका महत्त्व है। यथार्थमे पात्रका होना कठिन है। यदि आगमानुकूल पात्र हों तो आज दानकी जो दुरवस्था है वह सुधर जावे । परन्तु यही होना कठिन है। पात्र ३ प्रकारके हैं-१ संयमी, २ देशसंयमी और ३ अविरत सम्यग्दृष्टि। आजकल ये तीनों पात्र प्रायः वेषमानसे मिलते हैं। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છપર मेरी जीवन गाथा अन्तरङ्गसे मिलना कठिन है। यहाँ एक महानुभावने पूछा कि कल्याण किस प्रकार हो सकता है ? मैंने कहा-इसके लिये अधिक प्रयासकी आवश्यकता नहीं, यह कार्य तो अत्यन्त सरल है । मेरा उत्तर सुनकर वह आश्चर्यमें पड़ गया तथा कहने लगा कि यह कैसे ? मैंने कहा कि इसमें आश्चर्यकी वात क्या है ? वर्तमानमें जो तुम्हारी अवस्था है वह कैसी है ? इसका उत्तर दो। उसने कहा कि दुःखमय है। मैंने पूछा कि दुःखमय क्यों है ? उसने उत्तर दिया कि आकुलताकी जननी है। तब मैंने कहा कि अब किसीसे पूछनेकी आवश्यकता नहीं, तुम्हारा कल्याण तुम्हारे आधीन है। जिन कारणोंसे दुःख होता है उन्हें त्याग दो, कल्याण निश्चित है। एक आदमी सूर्य आतापमे बैठकर गर्मीके दुःखसे दुखी हो रहा है। यदि वह आतापसे हटकर छायामें बैठ जाय तो अनायास ही उसका दुःख दूर हो सकता है। दुःख इस बातका है कि हम लोग सुख दुःख आदि प्रत्येक कार्यमै परमुखापेक्षी वनकर स्वकीय शक्तिको भूल गये हैं। यहाँ वाचनालय खोलनेके लिये लोगोंने कहा । मैंने उत्तर दिया कि खोलिये, आपकी सामर्थ्यके वाहरका कार्य नहीं। आप जितना खर्च अपने भोजनाच्छादनादिमें करते हैं उस पर प्रति स्पया । एक पैसा एक पेटीमें डालते जाइये । सममिये हमारा एक पैसा अधिक खर्च हो गया है। इस विधिसे आपके पास कुछ समयमे इतना द्रव्य एकत्रित हो जायगा कि उससे आप वाचनालय क्या बड़ा भारी सरस्वती भवन भी खोल सकेंगे। सवने यह कार्य ३ वर्षक लिये स्वीकृत किया। एक दिन राजपुरसे व्योतिप्रसाद शीलचन्द्रजी आये। आप बहुत ही सज्जन तथा उदार हैं। आपके धार्मिक विचार हैं। यहाँ ५ दिन लग गये। एकादशीको प्रातःकाल ४३ मील चलकर बुहा ग्राममे ठहर Page #480 --------------------------------------------------------------------------  Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री न. पतासीवाई जीके विषयमें क्या लिखू ? वह तो अत्यन्त शान्तमूर्ति तथा धर्मसे अनुराग रखनेवाली हैं। आपको देखकर बाईजीका स्मरण हो आता है । [पृ० ४५३] Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयामें चतुर्मासका निश्चय ४५३ गये। यहाँ दिनभर रहकर शामको १ मील आगे चले तथा १ भूमिहारके स्थान पर ठहर गये। बहुत ओदरसे उसने रक्खा । भोजनके लिए भी अत्यन्त आग्रह किया। प्रातःकाल यहाँसे ४ मील प्रस्थान कर गुण्डू आगये। यहाँ एक फूलचन्द्रजी जैनका घर है उन्हींके यहाँ ठहर गये । भोजन भी उन्हींके घर हुआ। प्रकृतिका सज्जन है । गमीका प्रकोप पूर्णरूपसे था परन्तु सहन करना पड़ा। सायंकाल यहाँसे चलवर सलेमपुर पहुंच गये। दूसरे दिन प्रात काल ४ मील चलकर परैया आगये। यहाँ १ गुवालाके घर निवास किया। यहाँपर आहार देनेके लिये गयासे कई औरतें आई उन्होंने भक्तिसे आहार कराया। दुपहरी १ झोपड़ीमे विताई। सायंकाल यहाँसे २ मील चलकर १ पाठशालामे ठहर गये। यहॉपर एक ग्रामसे २० बालक तथा आदमी दर्शनार्थ आयें। लोगोंमे ऐसी श्रद्धा हो गई है कि ये महात्मा हैं परन्तु महात्मा तो अत्यन्त निर्विकार जीव होता है यह कौन पूछनेवाला है। ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्याको यहाँसे ५ बजे चलकर ७३ बजे गया आगये। बड़े ठाट वाटके साथ स्वागत हुआ। अन्तमे जैन भवनमे ठहर गये। बहुत रम्य स्थान है । समीप ही फल्गु नदी वहती है। भवनसे निकलते ही दो मन्दिर हैं-१ प्राचीन और १ नया । यहाँ जैनियों के बहुत घर हैं। सम्पन्न हैं। श्री चम्पालाल सेठीने मुझे इस ओर लानेमे बहुत प्रयत्न किया है। उन्हींका प्रभाव था जो मैं इस वृद्धावस्थामें इतना लम्बा मार्ग चलनेके लिए उद्यत हुआ और यहाँतक आगया। आप घरसे निःस्पृह रहते हैं । बाबू सोनूलालजी भी धार्मिक व्यक्ति हैं। आपका अधिकांश समय धार्मिक कार्यों में ही व्यतीत होता है। श्री ब्र० पतासीवाईजी के विपयमे क्या लिखू ? वह तो अत्यन्त शान्तमूर्ति तथा धर्मसे अनुराग रखनेवाली है। आपको देखकर वाईजीका स्मरण हो पाता है। आपके प्रभावसे Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ मेरी जीवन गाथा यहाँ स्त्री समाजमे स्वाध्यायकी अच्छी प्रवृत्ति चली है । कई स्त्रियाँ तो शास्त्रका अच्छा ज्ञान रखती हैं। मन्दिरमे शास्त्रका प्रवचन हुआ। प्रकरण था स्त्र द्रव्य और पर द्रव्यका । ज्ञाता-ष्टा आत्मा स्व द्रव्य है और कर्म नोकर्म पर द्रव्य हैं। अनादि कालसे यह जीव पर द्रव्यका ग्रहण कर उसका स्वामी वन रहा है। पर द्रव्यको अपना माननेमे अज्ञान ही मूल कारण है, अन्यथा ऐसा कौन विवेकी होगा जो परको जानता हुआ भी उसे ग्रहण करे। जिसका जो भाव है वही उसका स्त्र है और वही उसका स्वामी है। जव यह सिद्धान्त है तब ज्ञानी मनुष्य परका ग्रहण कैसे कर सकता है ? इस भवाटवीमे मार्ग प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। मोह राजाकी यह अटवी है। इसके रक्षक रागद्वेप हैं। इनसे यह निरन्तर रक्षित रहती है। जीवोंका इससे निकलना अति कठिन है। जिन महापुरुषोंने अपनेको पहिचाना वे ही इससे निकल सकते हैं। ___दूसरे दिन ईसरीसे व्र० सुरेन्द्रनाथजी आ गये । आप बहुत ही सरल प्रकृतिके मनुष्य हैं। आपका त्याग अतिनिर्मल है । स्वाध्यायके प्रति प्रेमी हैं। विनय गुणके भण्डार हैं। उदार भी हैं। कलकत्ता निवासी हैं। घरसे उदास रहते हैं। इतने निर्मोही है कि लड़का मोटरसे गिर पड़ा फिर भी कलकत्ता नहीं गये। एक दिन वाद श्रीप्यारेलालजी भगत कलकत्तासे आये । श्राप अनुभवी दयालु भी हैं। आपका निवास अधिकतर कलकत्तामे रहता ह । श्राप प्राचीन पद्धतिके रक्षक हैं। किसीके रौवमे नहीं पाते । श्रापकी व्याख्यानशैली उत्तम है। आपने आकर बहुत ही प्रेमसे बातालाप किया । एक दिन डालमियानगरसे बाबू जगतप्रसादजीरा शुभागमन हुआ, साथमे पण्डित चेतनदामजी भी थे। आप अत्यन्त सरल स्वभावके हैं । कल्याण चाहते हैं। ययि उन्हें धार्मिर पुग्यों Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया में चातुर्मासका निश्चय ४५५ का समागम मिले तो आपकी परिणति विशेषरूपसे निर्मल हो सकती है । दिल्ली से राजकृष्ण भी आये । आपने मूढविद्री में स्थित श्री धवलके फोटो लेनेका पूर्ण विचार कर लिया है । इस कार्य मे १५००० ) व्यय होगा । आपका निश्चय है कि यदि यह रुपया कोई अन्य न देगा तो हम अपनी तरफसे लगा देंगे । काल पाकर आ जावेगा । आपका उत्साह और अदम्य साहस प्रशंसनीय है । संभव है आपकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो जावे क्योंकि आपकी भावना अति निर्मल है । हमारा निजका विश्वास है कि यह कार्य अवश्य पूर्ण होगा । संसारमे जो दृढ़प्रतिज्ञ होता है उसके सर्व कार्य सफल होते हैं । पन्द्रह दिन रहनेके बाद आषाढ़ कृष्णा १ को विचार किया कि पारव प्रभुकी निर्वाण भूमिपर पहुँचनेके संकल्पसे तूं ग्रीष्मकाल मे भी प्रयाण किया है । अब यहां निकटमे आकर उलझ जाना उत्तम नहीं । ईसरीसे पं० शिखरचन्द्रजी तथा न० सोहनलालजी भी आ गये । गयावालोंको जब यह समाचार विदित हुआ तब वे यहीं चौमासाकी प्रेरणा करने लगे परन्तु हमने यही निश्चय प्रकट किया कि अब तो पार्श्वप्रभुकी शरण में जाना चाहते हैं । मेरा उत्तर श्रवण कर लोग निराश हो गये । ईसरी जानेके लिये उद्यम किया कि आकाशमे सघन बादल छा गये, इससे विवश होकर इस दिन रुक जाना पड़ा । आषाढ़ कृष्णा द्वितीया सं० २०१० के दिन दिनके २ वजेसे ४ मील चलकर १ क्षत्रियके बंगलापर ठहर गये । हमारे चले जानेसे गयावालोंको बहुत खेद हुआ । हमको भी कुछ विकल्प हुआ । दूसरे दिन प्रातःकाल बंगला से १ मील चले परन्तु मार्गमें कहीं शुष्क प्रदेश नहीं मिला । सब ओर हरी-हरी घास तथा मार्ग में जन्तुओंकी प्रबलता दिखी। ऐसे मार्गपर चलना हृदयमें अरुचिकर हुआ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ मेरी जीवन गाथा जिससे लौटकर उसी वंगलामें आ गये । गयासे स्वगीय दानूमल्लजीकी धर्मपत्नी आदि ४ वियोंने आकर आहार कराया। पश्चात् २ वजे यहाँसे प्रस्थान कर वापिस गया पहुँच गये और चार मास वहीं रहनेका निश्चय कर लिया। गयाके लोग प्रसन्न हो गये परन्तु व्र० सोहनलाल तथा पं० शिखरचन्द्रजीको मनमें अत्यन्त खेद हुआ। श्यामलालजी तपस्वी भी खिन्न थे, अतः वे इसरी चले गये। स्मृतिकी रेखायें यहाँ पं० राजकुमार जी शास्त्री पहलेसे ही विद्यमान थे तथा यथावसर अन्य विद्वान् भी पधारते रहते थे इसलिये लोगोंको प्रवचनका अच्छा लाभ मिलता रहता था। श्रावण कृष्णा १० को प्रातःकाल ५ वजे विनोवा जी भावे आये, १५ मिनट ठहरे। आप बहुत ही शान्त स्वभावके हैं। आपका भाव अत्यन्त निर्मल है। सवेप्राणी सुखके पात्र हैं। तथा कोई दुःखका अनुभव न करे यह मंत्री भावना आपमे पाई जाती है। 'दुःखानुत्पत्त्यभिलापी मैत्री' यही तो मैत्रीका लक्षण है। देहातोंमें गरीब जनता खेती योग्य भूमिसे रहित न रहे इस भावनासे प्रेरित होकर आप परिकरके साथ भ्रमण करते हैं और सम्पन्न मनुष्योंसे भूमि माँगकर गरीबोंके लिय वितरण करते हैं। उत्तम कार्य है। यदि जनतामे ऐसी उदारता आ जावे कि हम आवश्यकतासे अधिक भूमिके स्वामी न बनें तथा वह अतिरिक्त भूमि भूमिहीन मनुप्याके लिये दे दें तो देशा कल्याण अनायास हो जावे। श्रावण शुक्ला सं० २०१० को श्री साहु शान्तिप्रमाद जी बारे। १ घण्टा मन्दिर में रहे। गयावालोंने उन्हें पोर उन्होंन । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CITYA श्रावण कृष्णा १८ को प्रातःकाल ५ बजे विनोवा जी भावे आये. १५ मिनट ठहरे। [पृ० ४५६] Page #487 --------------------------------------------------------------------------  Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृतिकी रेखायें ४५७ गयावालोंको धन्यवाद दिया । भाद्रपद शुक्ला ३ को टाउन हालमें विनोवाभावेकी जयन्ती थी। हम भी गये। उत्सवका आयोजन सफल हुआ। पयूषण पर्वमे तत्त्वार्थसूत्रका प्रवचन करनेके लिये वनारससे श्री पं० कैलाशचन्द्रजी साहव पधारे। आपकी प्रवचनशैली उत्तम तथा वाणी मिष्ट हैं। त्याग धर्मके दिन स्याद्वाद विद्यालय बनारसको अच्छा दान मिल गया। ___ भाद्र शुक्ला १४ के दिन पुराने गयामे श्री पार्श्वनाथ स्वामीके दर्शन किये। यहाँपर पूजाका प्रबन्ध अच्छा है । गानतानके साथ यूजा होती है। आज १ बजे दिनसे ३ बजे दिनतक श्री पतासीबाईके जन्म दिवसका उत्सव था। जनता अच्छी संख्यामे थी। आजके दिन अधिक स्त्री पुरुष उपस्थित थे। मन्दिरसे बाहर जुलूस भी गया। पर्वके बाद आश्विन कृष्णा ४ को वी जयन्तीका उत्सव था! बाहरसे अनेक महानुभाव आये थे। आरासे पं० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य भी आये थे। द्वितीय टाउनहालमे व्याख्यान सभाका आयोजन था। श्रीनेमिचन्द्रजीने अहिसा तत्त्वपर अच्छा प्रकाश डाला। आपने कहा कि हम जिस मुहल्लामे रहते हैं उसमें रहनेवाले सब लोगोंके साथ हमे कुटुम्ब जैसा व्यवहार करना चाहिये। यदि किसीके घर किसी वस्तुकी कमी है तो उसकी पूर्ति करना चाहिये। हम लोग अहिंसाके नाम पर छोटे छोटे जीव जन्तुओंकी तो रक्षा करते हैं परन्तु मनुप्योंकी उपेक्षा कर देते हैं। आश्विन कृष्णा दशमी २ अक्टूबरको यहाँ मन्नू लाइब्रेरी में गांधी जयन्तीका उत्सव था। कोई ५०० महिलायें - हाँ पर थीं। हम लोगोंका भी निमन्त्रण था, अत गये थे। गांधीजी १ त्यागी पुरुप थे । जो काम वह करते थे। निष्कपटभावसे करते थे। इसीसे उनका प्रभाव पूर्ण जनताके हृदयंगम था । यही कारण था कि इतना Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ मेरी जीवन गाथा प्रभावशाली ब्रिटेन भी उनके प्रभावमे आगया तथा विना किसी शतके भारतको त्याग कर स्वदेश चला गया। इतना त्याग जगत्की एक अपूर्व घटना है। एक दिन (कार्तिक कृष्णा ७ ) नालन्दा वौद्ध विद्यालयके अधिष्ठाता मिले। बहुत शिष्ट पुरुष हैं। आपका जैनदर्शनमें अनुराग है । आपकी अन्तरङ्ग इच्छा है कि नालन्दामें भी जैनदर्शनके अध्यापनादि कार्य हों और इसके लिए वहाँ १ जैन विद्यालय खोला जावे । ऐसा करनेसे परस्पर आदान प्रदान होगा जिससे छात्रोंको तुलनात्मक अध्ययन करनेका अवसर अनायास मिल सकेगा। आत्मा ज्ञानी है अतः वह सत्यको ग्रहण करेगी और असत्यको छोड़ देगी । उक्त महानुभावकी उक्त बात हमें रुचिकर हुई । विचार लें तो पैसेवालोंको कार्य कठिन नहीं। विचार प्रवाह गयामे कुछ विचार दैनंदिनीके पृष्ठोंपर अंकित किये थे उन्हें यहाँ दे रहा हूँ 'वही मनुष्य सुखका पात्र होता है जो विश्वको अपना नहीं मानता । परको अपना मानना ही संसारकी जड़ है।' ___'यह केवल कहनेकी बात है कि नश्वर देहसे अविनश्वर सुख मिलता है। सुख तो अत्मिीक गुण है। उसका घातक न तो शरीर है और न द्रव्यान्तर । यह आत्मा स्वयं रागादिरूप परिणमनकर स्वयं आकुलतारूप दुःखका भोक्ता होता है और जब रागादि परिणामोंसे पृथक् अपनी परिणतिका अनुभव करता है तभी Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार प्रवाह ४५६ अनन्त सुखका उपभोक्ता हो जाता है। देह न सुखका कारण है और न दुःखका।' 'रागादिकका मूल कारण मोह है अतः सबसे प्रथम इसीका त्याग होना चाहिये। जव पर पदार्थोंमे त्यागकी कल्पना मिट जावेगी तव अनायास रागद्वेष प्रलयावस्थाको प्राप्त हो जावेंगे".." इस कथासे कार्यसिद्धि नहीं होती। भोजनकथासे भोजन नहीं वन जाता। भोजनकी प्रक्रियासे भोजन बनेगा तथा भोजन बननेसे तृप्ति नहीं होगी किन्तु भोजन खानेसे तृप्ति होगी।' 'संग सर्वथा अच्छा नहीं। अन्तरगसे हम स्वयं निर्मल नहीं अतः अपनेको दोषी न समझ अन्यको दोषी समझते हैं।' 'धर्मका सम्बन्ध शारीरिक कष्टसे नहीं होता। धर्मका सम्बन्ध आत्मासे है । जब सब उपद्रवोंकी समाप्ति हो जाती है तब धर्मका उदय होता है।' ___'दूसरेकी नहीं किन्तु अपनी ही तारतम्यावस्थाको देखकर विरक्त होना चाहिये। परमार्थसे तत्त्वज्ञान बिना विरक्तता होना अति दुर्लभ है।' ___ 'जिन्हे आत्मकल्याण करनेकी इच्छा है वे तत्त्वज्ञानकी वृद्धि की चेष्टा करते हैं। जिनकी उस ओर रुचि नहीं वे अपनेको तत्त्वज्ञानके सम्पादनमे क्यों लगावेंगे ? 'पर द्रव्य मेरा स्व नहीं, मैं उसका स्वामी नहीं, परद्रव्य ही पर द्रव्यका स्व है और वही उसका स्वामी है । यही कारण है कि ज्ञानी पर द्रव्यको ग्रहण नहीं करता।' 'जिन्हें संसार तत्त्वसे पृथक् होनेकी अभिलाषा है उन्हें हृदयकी दुर्बलताको समूल नष्ट कर देना चाहिये ।। _ 'अनादिकालसे इस जीवके पर पदार्थोंका सम्बन्ध हो रहा है, आकाशवत् एकाकी नहीं रहा । यद्यपि पर सम्बन्धसे इसका Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६० मेरी जीवन गाथा कोई भी अंश अन्यरूप नहीं हुआ । जीव द्रव्य न तो पुद्गल हुआ और न पुद्गल जीव हुआ । केवल सुवर्ण रजतका गलनेसे एक पिण्ड होगया । उस पिण्डमें सुवर्ण रजत अपनी अपनी मात्रा मे उतने ही रहे परन्तु अपनी शुद्ध परिणतिको दोनोंने त्याग दिया एवं जीव और पुद्गल भी बन्धावस्था मे दोनों ही अपने अपने स्वरूपसे अच्युत हो गये ।" ‘ऊपरी चमक दमकसे आभ्यन्तरकी शुद्धि नहीं होती ।' 'आत्म द्रव्य की सफलता इसीमे है कि अपनी परिणतिको परमें न फंसावे । पर अपना होता नहीं और न हो सकता है । संसारमे आजतक ऐसा कोई प्रयोग न बन सका जो परको अपना बना सके और आपको पर बना सके । ' 'स्नेह ही वन्धनका जनक है । यदि संसारमे नहीं फँसना है तो परका संपर्क त्यागना ही भद्र है ।' ‘आत्मामें कल्याण शाक्तिरूपसे विद्यमान है परन्तु हमने उसे औपाधिक भावों द्वारा ढक रक्खा है । यदि ये न हों तो उसके विकास होने में विलम्ब न हो ।' 'आत्मा अनादिकालसे परके साथ सम्बन्ध कर रहा है और उनके उदयकाल मे नाना विकार भावोंका कर्ता बनता है । यही कारण है कि अपने ऊपर इसका अधिकार नहीं ।' 'जो आत्मा परसे ही अपना कल्याण और कल्याण मानता है वह पराधीनताको स्वयं अंगीकार करता है ।" 'समाजमे व आदर विद्वत्ताका नहीं किन्तु वाचालताका गया है ।" 'अन्तरङ्गकी परिणतिको निर्मल करना ही पुरुषार्थ है । जिसने मनुष्य जन्मको पाकर अपनी परिणतिकी मलिनतासे रक्षा न की उसका मनुष्य जन्म यों ही गया ।' Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार प्रवाह 'परिग्रहका अर्जन करना ही संसारका मूल कारण है । अनादि परिग्रहके चक्रमे है, इससे पीछा छूटे तो आत्मदृष्टि आवे अथवा जव आत्मदृष्टि आवे तव परिग्रहसे पीछा छूटे ।' 'जिसने रागादि भावोंपर विजय प्राप्त करली वही मनुष्यताका है ।' पात्र ‘चित्तको अधिक मत भ्रमाओ, चित्तकी कलुषता ही दुःखका मूल कारण है और कलुषताका मूल कारण परमे निजत्व बुद्धि है । ' 'कड़वी तूंवड़ी किसी कामकी नहीं फिर भी उसके द्वारा नदी पार की जा सकती है इसी प्रकार मनुष्यका शरीर किसी कामका नहीं फिर भी उससे संसार सागर पार किया जा सकता है ।' 'अवोध बालक एक पैसाका खिलौना टूटने पर रो उठता है पर घरमे आग लगनेपर नहीं । इससे यही तो सिद्ध होता है कि वालक खिलौनाको अपना मानता है और घरको बापका ।' ४६१ 'संसारमे नाना मनुष्यों के व्यवहार देख लक्ष्य स्थिर करने का प्रयास मत करो किन्तु अपनी शक्ति देख आत्मीय लक्ष्य स्थिर करो ।' 'जनताकी प्रशंसाके लोभी मत बनो । प्रशंसा : चाहना ही अज्ञानता द्योतक है ।' 'अन्तरङ्ग सामर्थ्य के प्रभावसे ही आत्मा कल्याणका पात्र होता है | कल्याण कहीं अन्यत्र नहीं और न अन्य उसका उत्पादक है । जब तुम स्वयं विपरीत भावके कर्ता बनते हो तब स्वयं स्वभाव के घातक हो जाते हो ।' 'शान्तिका मूल रागादिभावोंमे उदासीनता है । रागादिभावोंमें न तो मित्रता करो और न शत्रुता । यह भाव स्वाभाविक नहीं ।' 'विश्वविद्या पाण्डित्य हो उत्तम है परन्तु जिनको आत्मपरिचय हो गया उनके समक्ष उस ज्ञानका कोई महत्त्व नहीं ।' Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा 'धर्मकी परिभाषा प्रत्येक पुरुष करता है परन्तु उसरूप प्रवृत्ति करना किसी महापुरुपके द्वारा ही होता है।' _ 'गुरु मार्गदर्शक हैं चलानेवाले नहीं। सूर्य मार्गप्रकाशक हैं चलानेवाला नहीं । यदि कोई निरन्तर सूर्यकी उपासना करे और मार्ग चले नहीं तो क्या इच्छित स्थानपर पहुंच जावेगा।' ___ 'जिस आत्मामे अनन्त संसारके निर्माणकी शक्ति है। उसमें उसके नाश करनेकी भी शक्ति है ।। 'आजकल मनुष्य मनुष्यताका आदर करना भूल गया, केवल प्रशंसाका लोभी होगया है।' __'संसारमें दुःखका मूल कारण आशाके अतिरिक्त परको निज मानना है।' 'जानना उतना कठिन नहीं जितना उपयोग द्वारा कर्तव्यमें लाना कठिन है। अविरत सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गको यथार्थ जानता है परन्तु तदनुरूप आचरण नहीं कर पाता।' ___'संसारकी प्रशंसासे न कुछ लाभ है और न निन्दासे कुछ हानि । लाभ तो अपने परिणामोंको निर्मल करनेसे ही होगा।' 'चित्त भूमिकी मलिनता ही संसारकी जननी है। संसारको प्रसन्न करनेका प्रयत्न करना भी संसारका कारण है।' धर्म क्या है ? यह तो वही आत्मा जानता है जिसने संसारके प्रपञ्चोंको त्याग निजकी शरण ली है। 'अनन्तकाल बीत गया पर परको अपनाना न त्यागा, उमीरा ‘फल अनन्त संसार है।' 'धीरतासे च्युत नहीं होना महान आत्माका कार्य है।' 'किसीके प्रभावमें आना ही इसका द्योतक है कि ग्रामीय स्वत्वसे च्युत है।' Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु यात्रा ४६३ 'प्रतिदिन जो कथा करते हो यदि उसमेसे एकका भी पालन करो तो दुःखसे मुक्त हो सकते हो ।' _ 'आत्मा और अनात्माका भेद ज्ञान ही संसार छेदका उपाय लघु यात्रा हृदयमें गिरिराजके दर्शन करनेकी उत्कट उत्सुकता थी इसलिये यहाँसे प्रस्थान करनेकी बात सोच ही रहा था कि कलकत्तासे श्री प्यारेलालजी भगत तथा ईसरीसे व्र० सोहनलालजी व सेठ भंवरीलालजी आ गये। इन सबकी प्रेरणासे शीघ्र ही प्रस्थान करनेका निश्चय कर लिया। फलस्वरूप कार्तिक सुदी २ सं० २०१० रविवारको १ बजे गयासे प्रस्थान कर दिया । ५०० नर-नारी भेजने आये। संसारमे राग बुरी वस्तु है। जहाँ अधिक संपर्क हुआ वहीं राग अपने पैर फैला देता है। चार पाँच माहके संपर्कसे गयाके लोगों का यह भाव हो गया कि ये हमारे हितकर्ता हैं अतः इनका समागम निरन्तर बना रहे तो अच्छा है। मेरे वहाँसे चलनेपर उन्हें वहुत दुःख हुआ। पर संसारके समस्त पदार्थ मर्नुष्यकी इच्छानुसार तो नहीं परिणमते। गयासे ४३ मील चलकर संध्याकाल हरिओ ग्राम पहुँच गये। यहाँ कोडरमासे भी कुछ सज्जन आये। रात्रि सानन्द व्यतीत हुई। प्रातः ६ बजे ३ मील चलकर मस्कुरा ग्राम आगये । यहाँ बगलामे ठहर गये। गयासे चौका आये थे, उसमे भोजन किया । यहाँ जैनोंके घर नहीं हैं। मध्याह्नकी सामायिक के बाद १ बजे यहाँसे प्रस्थान कर जिन्दापुरके स्कूलमे विश्राम किया। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ मेरी जीवन गाथा आगामी दिन प्रातःकाल ६ वजे चलकर ७॥ वजे कर्मणीके डाँक वॅगलामे ठहर गये। गयावाले सूरजमलजी तथा रतन बाबूकी मा के चौकेमे आहार हुआ। स्थान स्वच्छ था। साथमें लगभग २५ मनुष्य होंगे। सबका भोजन हुआ। १ बजे चलकर ॥ बजे एक स्थानपर ठहर गये । वहीं कुछ उपदेश दिया। नगरके कोलाहल पूर्ण स्थानसे निकलकर जव जंगलमे पहुंचते हैं तो मनमे अपने आप शान्ति आजाती है और उन दिगम्बर मुनियोंके ऊपर सुतरां ध्यान आकर्षित हो जाता है जो जंगलके स्वच्छ वातावरणमे ही अपना समय यापन करते थे। रात्रिको जहाँ विश्राम किया वहाँ ५० घर मुसलमानोंके थे। सबने सौमनस्य व शिष्टताका व्यवहार किया । यहाँसे अगले दिन प्रातः ६ वजे चलकर ८ बजे ढोभीके डांक बंगलामे पहुंच गये। प्रवचनके वाद गयावाले सोनू वायूके चाकामें आहार हुआ । मध्यान्हके वाद चलकर रात्रिमे भदैया ग्रामके सरकारी मकानकी दहलानमे विश्राम किया। दूसरे दिन प्रातः ६।। बजे ६ मील चलकर ८॥ बजे कादुदाग ग्रामके डाक बंगलामे पहुँच गये। अबतक ४० मनुष्योंका संघ होगया था। श्री विहारीलालजी गयावालोंके यहाँ आहार हुआ । रात्रिको भी यहीं विश्राम किया। अन्य दिन प्रायः ८ मील चलकर ह॥ बजे नदी पार कर जंगलमें भोजन हुआ। कोडरमावालोंका चौका था, उसीमें भोजन हुआ। कोडरमासे श्री गौरीलालजी आदि ६ महानुभाव आये। नायंकाल चलकर भलुआके डाक बंगलामें विश्राम किया। बाज अधिक चलना पड़ा उसलिए शरीरमें थकावटया अनुभव होने लगा। दमर दिन प्रातः ६ बजे चलकर । बजे चौपारन पहुँच गये। गयाया यहीं पर जिन मन्दिर मिला। श्री जिनेन्द्रदेवरं दर्शन र पगमे अपार प्रानन्द हुया। आज अष्टमी दिन था। प्रनाथगन शास्त्रीने शास्त्र प्रवचन किया। दूसरे दिन मन्दिर प्रा: Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु यात्रा ४६५ हुआ । दिनमे एक बजे सभा हुई जिसमें भगतजीका भाषण हुआ । हमने भी कुछ कहा । रात्रिको क्र० नाथूराम तथा भगत सुमेरुचन्द्रजी के भापण हुए। लोगोंने स्वाध्यायका नियम लिया। तीसरे दिन श्री सोहनलालजीके यहाँ आहार कर २ बजे आगेके लिए प्रस्थान कर दिया । ग्रामके लोगोंने बहुत ही शिष्टतासे व्यवहार किया । यहाँ से कोडरमा १४ मील है । रात्रि एक डाक बंगला व्यतीत की । आगामी दिन प्रातःकाल ४ मील चलकर पई वजे रामपुर श्रा गये । यहाँ कोडरमासे चौका आया था, उसीमे आहार हुआ । यहाँ कोडरमासे २० स्त्री पुरुप आ गये । अपराह्न काल चलकर एक मढ़ियाके समीप विश्राम किया। दूसरे दिन प्रातः चलकर भोंडीके स्कूलमे ठहरे | वहीँपर आहार हुआ । संध्याकाल चलकर विन्दामें विश्राम किया । आगामी दिन प्रातः ४ मील चलकर एक स्कूल में ठहरे । कोडरमावालोंके चौकामे आहार हुआ । वहाँसे १ बजे ४ मील चलकर ३|| वजे भूमरीतलैया आ गये। लोगोंने उत्साहसे स्वागत कर धर्मशाला में ठहरा दिया । भूमरीतलैया ग्रामका नाम है और स्टेशनका नाम कोडरमा है । यहाँ जैनियोंके अच्छे घर हैं । मन्दिर अच्छा है । लोगोंमे धार्मिक भावना उत्तम है । यहाँ श्री जगन्नाथ जी पाण्ड्याने आहार होने के उपलक्ष्य में पाठशाला, औषधालय तथा चैत्यालय बनानेके लिये अच्छा दान किया । श्री पं० गोविन्दरामजी यहाँ अच्छे विद्वान् हैं । बनारस से पं० कैलाशचन्द्रजी भी आ गये । आपका अहिसा व मानवधर्मपर आमसभामें उत्तम भाषण हुआ । यहाँ १५ दिन लग गये । अगहन बदी ११ सं० २०१० को १ बजे प्रस्थान कर चिगलावर, जयनगर तथा फरसाबादमे क्रमशः ठहरते हुए त्रयोदशीके दिन सरिया (हजारीबाग रोड) आ गये । यहाँ स्टेशनके पास एक सुन्दर ३० Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ मेरी जीवन गाथा मन्दिर है। ग्राममें एक चैत्यालय है। सेठ भंवरीलालजीके यहाँ आहार हुआ। यहाँ आरासे व्र० चन्दावाईजी आ गई। बजे सभा हुई जिसमें भगतजी तथा नाथूरामजीके भाषण हुए । यहाँ ३दिन लग गये । यहाँसे मुन्सरिया तथा चौधरीवादमे विश्राम किया। यह लघुयात्रा सुखद रही। भारहीनो वभूव अगहन सुदी ३ संवत् २०१० को प्रातः चौधरीवादसे चलकर ८१ बजते-बजते ईसरी पहुँच गये। चित्तमे बड़ा हर्प हुया। एक बार यहाँ आकर पुनः परिवर्तन करनेके लिय निरल पड़ा था और उस चक्रमें फॅस १० वर्ष यत्र तत्र भटकता रहा। शरीरमे शक्ति नहीं थी फिर भी भटकना पड़ा। श्राज पुनः श्रीपा प्रभुकी निर्माण भूमिके समीप श्रा जानेसे हृदयमं जो 'प्रानन्द एमा वह शब्दोंके गोचर नहीं। यहाँके समस्त त्यागियों तथा परियर । अन्य लोगोंको भी महान् हर्प हुआ। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारहीनो वभूव ४६७ होता है । अनन्तर भोजनके बाद ११३ बजेसे सामायिक सब त्यागीवर्ग करते हैं । फिर २ बजेसे शास्त्रप्रवचन होता है । अनन्तर सायंकालकी सामायिक और रात्रिके प्रारम्भका शास्त्रप्रवचन होता है । सब त्यागी तथा धर्मलाभकी भावनासे यहाॅ रहनेवाले अन्य महानुभाव इन सब कार्यक्रमोंमें शामिल रहते हैं । मैं भी सब कार्यक्रमोंमें पहुँच जाता था । प्रातःकालका प्रवचन मैं कर देता था परन्तु मध्याह्न और रात्रिके प्रवचन अन्य विद्वान् करते थे । मैं श्रवण करता था । प्रातःकालके प्रवचनमें कभी समयसार. कभी प्रवचनसार, कभी पञ्चास्तिकाय, कभी नियमसार आदि कुन्दकुन्द स्वामीके ग्रन्थ रहते थे । कुन्दकुन्द स्वामीने अपने ग्रन्थोंमे जो पदार्थका वर्णन किया है वह वहुत ही सरलताके साथ वस्तुके शुद्ध स्वरूपको बतलानेवाला है । मेरी श्रद्धा तो यह है कि इस युगमे कुन्दकुन्द के समान वस्तुतत्त्वका निरूपण करनेवाला दूसरा आचार्य नहीं हुआ । मध्याह्न से सैद्धान्तिक ग्रन्थका विवेचन रहता था और रात्रिको सर्वसाधारणोपयोगी हिन्दी ग्रन्थ तथा प्रथमानुयोगके ग्रन्थोंका स्वाध्याय 1 चलता था । 1 यहाँ बाहरसे अनेक विद्वान् तथा विशिष्ट महानुभाव यदा कदा आते रहते हैं । उनके भोजनकी व्यवस्थाके लिये रायवहादुर श्रीचाँद मल्लजी रांचीवालोंकी ओर से एक चौका खोल दिया गया जिसमे अतिथियोंके भोजनकी उत्तम व्यवस्था बन गई । यहाँका प्राकृतिक दृश्य भी नयनाभिराम है । पास ही हरे भरे गिरिराजके दर्शन होते हैं । श्रीपार्श्व प्रभुका निर्वाण स्थान अपनी निराली शोभा से दर्शकोको अपनी ओर अकर्षित करता रहता है । आकाशको चीरती हुई गिरिराजकी हरी भरी चोटियाँ कभी तो धूमिल घनघटासे आच्छादित हो जाती हैं और कभी स्वच्छ - अनावृत दिखाई देती हैं । प्रातःकालके समय पर्वतकी हरियालीपर जब दिनकरकी लाल Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा लाल किरणें पड़ती हैं तव एक मनोहर दृश्य दिखाई देता है । लम्बी चौड़ी चट्टानें और वृक्षोंकी शीतल छायाएं ध्यानके लिये वलात् प्रेरणा देती हैं। धर्म साधनकी भावनासे यहाँ चारों तरफकी जनता सर्वदा आती रहती है। स्टेशन छोटा है पर कलकत्ताके मार्गमें होनेसे गाड़ियोंका यातायात प्रायः अहर्निश जारी रहता है। मोटरोंका आवागमन भी यहाँसे पर्याप्त होने लगा है। अगहन सुदी ६ को श्रीप्यारेलालजी भगत कलकत्तावालोंकी जयन्तीका उत्सव हुआ। आप विशिष्ट तथा ज्ञानवान् मनुष्य हैं। आश्रमके अधिष्ठाता हैं । २ बजे दिनसे जुलूस निकला और उसके बाद सभा हुई जिसमे श्रद्धाजलियां समर्पित की गई। स्कूलके छात्रोंको किसमिस वितरण की गई। श्रीगिरिराजकी वन्दनाका हृदयमें बहुत अनुराग था अतः अगहन सुदी १० को मधुवनके लिये प्रस्थान किया । वीचमे मटियो नामक ग्राममे रात्रि व्यतीत की। तदनन्तर प्रातः चलकर मधुवन पहुँच गये। द्वादशीको प्रातः वन्दनार्थ गिरिराज पर गये। साथ श्रीभगत सुमेरुचन्द्रजी, ७० नाथूरामजी तथा ७० मंगलसेनजी थे । यात्रियोंकी भीड़ बहुत थी। भक्तिसे भरे नर-नारी पुण्य पाठ पढत हुए पर्वतपर चढ़ रहे थे। जिस स्थानसे अनन्तानन्त मुनिराज कमेवन्धन काटकर निर्वाण धामको प्राप्त हुए उस स्थानपर पहुँचनेसे भावोंमे सातिशय विशुद्धता आ जाय इसमें श्राश्चर्य नहीं। शुक्ल पक्ष था अत. चारों ओर स्पष्ट चादनी छिटक रही थी। मागेके दाना ओर निस्तब्ध वृक्षपंक्ति खड़ी थी। श्रीकुन्युनाथ भगवानकी टोकपर पहुँच गये। सूर्योदय कालकी लाल लाल आभा यनोंकी हरी-भग चोटियोंपर अनुपम दृश्य उपस्थित कर रही थी। मम क्रममे ममम्न टोंकोंकी वन्दनाकर १० बजे श्रीपार्श्वनाथ भगवानके नियांगा म्यान.! पर पहुँच गये। वन्दना पूर्ण होनेपर हृदयमें अत्यन्न हर्पा Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गिरिराजकी चन्दनाका हृदय बहुत अनुराग था, अतः अगहन सुदी १० को मधुवनके लिए प्रस्थान किया । [ १० ४६८ ] Page #501 --------------------------------------------------------------------------  Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारहीनो वभूव श्रीलमन्त नद्रस्वामीने पार्श्वनाथ भगवान्का जो स्तोत्र लिखा है उसे पढ़कर चित्तमे शान्ति आई। यहीं पर मध्याह्नकी सामायिककर दिनके ३३ वजे मधुवन वापिस आ गये और श्रीपन्नालालजी चौधरी के यहाँ आहार किया। भक्तिका प्राबल्य देखो कि स्त्रियां तथा आठ आठ वर्षके बच्चे भी १८ मीलका पहाड़ी मार्ग चलकर भी खेदका अनुभव नहीं करते। जो स्त्रियाँ अन्यत्र २ मील चलनेमें भी कष्टका अनुभव करती हैं वे यहाँ १८ मीलका लम्बा मार्ग एक साथ चलकर भी कष्टका अनुभव नहीं करती। यथार्थ बात यह है कि उस समय उनका उपयोग दूसरी ही ओर रहता है । तीन चार दिन मधुवन में रहे । नांचे तेरहपन्थी कोठीमे श्रीभगवान् पाश्वनाथकी विशाल प्रतिमा विराजमान है । तथा श्रीसोहनलालजी कलकत्तावालोंके मन्दिरमें श्रीचन्द्रप्रभ भगवान्की भी मनोज्ञ प्रतिमा है। यहाँसे चलकर पुनः ईसरी वापिस आ गये । यहाँ कलकत्तानिवासी श्री सेठ शान्तिप्रसादजी तथा वाबू नन्दलालजी, सेठ वैजनाथजी सरावगी, पटनानिवासी वद्रीप्रसादजी सरावगी, खरखरी निवासी श्री बाबू विमलप्रसादजी, बाबू शिखरचन्द्रजी, वरनावावाले नत्थूमल्लजी. गिरीडीह निवासी श्री बालचन्द्रजी मोदी, राधाकृष्ण कालूरामजी, रामचन्द्रजी सेठी, सागरमल्लजी पाण्डया, गिरनारीलालजी सरावगी, कोडरमा निवासी श्री जगन्नाथजी पाण्डया, गौरीलालजी, जीतमलजी, भंवरीलालजी पाण्डया, राँचीनिवासी श्री रायवहादुर हरषचन्द्रजी, लालचन्द्रजी सेठी, हजारीबागनिवासी श्री कन्हैयालाल मिश्रीलालजी तथा गयानिवासी श्री छोगालालजी, सोनूलालजी तथा चम्पालालजी सेठी श्रादि महानुभाव समय-समय पर पधार कर सब व्यवस्था बनाये रहते हैं । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रपतिसे साक्षात्कार ईसरीमे सम्बत् २०१२ सन् १९५५ के अप्रैलके अन्तिम सप्ताहमें विहार राज्य ग्राम पञ्चायतका चतुर्थ अधिवेशन था। जिसके उद्घाटनके लिए भारतवर्षके राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसादजी आये थे। जैन हाईस्कूलके मैदानमे आपका भापण हुआ। आप प्रकृतिके सरल तथा श्रद्धालु व्यक्ति हैं। साक्षात्कार होनेपर आपने बहुत ही शिष्टता दिखलाई। मैंने आपसे कहा कि विहार आपका प्रान्त है और इसी प्रान्तमें मद्यके सेवनकी प्रचुरता देखी जाती है। इस मद्य-सेवनसे गरीवोंकी गृहस्थी उजड़ रही है। उनके वाल-वच्चोंको पर्याप्त अन्न और वस्त्र नहीं मिल पाता। निर्धन अवस्थाके कारण शिक्षाकी ओर भी उनकी प्रगति नहीं हो पाती इसलिए ऐसा प्रयत्न कीजिये कि जिससे यहाँके निवासी इस दुर्व्यसनसे बचकर अपना भला कर सकें। आप जैसे आस्थावान् राष्ट्रपतिको पाकर भारतवर्ष गौरवको प्राप्त हुआ है। उत्तरमे उन्होंने कहा कि हम प्रयत्न ऐसा कर रहे हैं कि विहार ही क्यों भारतके किसी भी प्रदेशमे मद्यपान न हो। पूज्य गाधीजीने मद्य-निषेधको प्रारम्भ किया है और हम उनके पदानुगामी है परन्तु खेद इस वातका है कि हम द्रुतगतिसे उनके पीछे नहीं चल पाते हैं। स्याद्वाद विद्यालयका स्वर्ण जयन्ती महोत्सव बनारसका स्याद्वाद विद्यालय जैन समाजकी प्राचीन एवं महोपकारिणी संस्था है। गङ्गाके तटपर इमकी विशाल इमारत Page #504 --------------------------------------------------------------------------  Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lin . .. . उत्सवके अध्यक्ष श्री साहु शान्तिप्रसाद जी कलकत्ता थे। आपने सपरिवार पधारकर उत्सवको अच्छी तरह सम्पन्न कराया। [पृ० ४७१ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद विद्यालयका स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ४७१ बनी हुई है। उसीमें श्री भगवान सुपार्श्वनाथका सुन्दर मन्दिर है। ५० वर्षसे जैन समाजमे संस्कृत विद्याको प्रचार इस विद्यालयसे हो रहा है। सक्ड़ों विद्वान् इस विद्यालयमे पढ़कर तैयार हुए हैं। वनारसका स्थान संस्कृत विद्याका प्रचार केन्द्र है। यहाँ हिन्दूधर्मावलम्बियोंके द्वारा चलनेवाले संस्कृतके सैकड़ों विद्यालय हैं, अनेकों छोटी मोटी पाठशालाएँ, सरकारी कालेज हैं तथा मालवीयजी द्वारा उद्घाटित हिन्दू यूनिवरसिटी है। ऐसे केन्द्र स्थानमे यह स्याद्वाद विद्यालय अपना बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। पं० कैलाशचन्द्रजी इसके प्रधानाध्यापक हैं। यथार्थमे आप विद्यालयके प्राण हैं । आपके द्वारा ही वह व्यवस्थितरूपसे चला आ रहा है। विद्यालयके अधिकारियोंका यह निश्चय हुआ कि ५० वर्ष हो जानेके कारण इस विद्यालयका स्वर्ण जयन्ती महोत्सव सम्पन्न कराया जाय । मेरा बनारस पहुँचना संभव नहीं था इसलिये उत्सव का आयोजन मधुवनमे रक्खा गया। मेरा कहना था कि उत्सव विद्यालयके स्थान पर ही शोभा देगा परन्तु सुननेवाला कौन था । उत्सवके आयोजकोका भाव यह था कि श्री सम्मेदशिखरजी जैसे परम पवित्र सिद्ध क्षेत्रपर मेरा सन्निधान रहते हुए जनता अनायास आ जायगी। उत्सवके अध्यक्ष श्री साहु शान्तिप्रसादजी कलकत्ता थे। आपने सपरिवार पधारकर उत्सवको अच्छी तरह सम्पन्न कराया। कलकत्तासे श्री सेठ गजराजजी, श्री बाबू छोटेलालजी तथा उनके भाई श्री नन्दलालजी आदि अनेक महानुभाव पधारे । हजारीबाग, कोडरमा, राँची, गिरीडीह आदिसे अनेक व्यक्ति सपरिवार आये । अन्य जनता भी इतनी अधिक आई कि मधुवनकी तेरापन्थी, बीसपन्थी तथा श्वेताम्बर कोठीकी सब धर्मशालाएँ ठसाठस भर गयीं । ऊपरसे डेरा-तम्बुओंका प्रबन्ध करना पड़ा। माघ वदी १४ संवत् २०१२ को श्री ऋषभ निर्वाण दिवसका Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ मेरी जीवन गाथा उत्सव मनाया गया जिसमे भगवान् ऋषभदेवसे सम्बन्ध रखनेवाले भापण हुए। विद्वानोंसे श्री पं० वंशीधरजी न्यायालंकार इन्दौर, पं० फूलचन्द्रजी वनारस, ६० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर, पं० मुन्नालालजी समगौरया सागर आदि अनेक विद्वान आये थे। काशीके सव विद्वान् थे ही। रात्रि में वणीं जयन्तीका आयोजन या जिसमे अनेक लोगोंने अपनी अपनी इच्छानुसार श्रद्धाञ्जलियाँ दीं जिन्हें मैंने नत मस्तक होकर संकोचके साथ श्रवण किया। दूसरे दिन स्याद्वाद विद्यालयका स्वर्ण जयन्ती महोत्सव हुआ। विद्यालयका परिचय देते हुए उसके अवतकके कार्यकलापोंका निर्देश श्री पं० कैलाशचन्द्रजीने किया। साहुजीने अपना भापण दिया तथा भाषणमें ही विद्यालयको चिरस्थायी करनेकी अपील समाजसे कर दी। समाजने हृदय खोलकर विद्यालयको सहायता दी। लगभग डेढ़ दो लाखकी प्राय विद्यालयको हो गई। ____एक दिन श्री रमारानीकी अध्यक्षतामें महिलासभाका भी अधिवेशन हुआ था जिसमें श्री चन्दाबाईजीकी प्रेरणासे महिलासभा को भी अच्छी आमदनी हो गई। जैनसमाजमे दान देनेकी प्रवृत्ति नैसर्गिक है। वह देती है और प्रसन्नतासे देती है परन्तु समाजम एक संघटनका अभाव होनेसे उस दानसे जो लाभ मिलना चाहिये नहीं मिल पाता। समाजमें जहाँ तहाँ मिलकर प्रतिवर्ष लाखों स्पयोंका दान होता है पर वह दान की हुई रकम स्व स्थानाम रहनसे छिन्न भिन्न हो जाती है और उससे समाजको ऊँचा उठानवाला कोई काम नहीं हो पाता। समाजके सर्व दानको एकत्र मिलाया जाय तो उससे विद्यालय तथा कालेज तो दूर रहो यूनियरसिटीका भी संचालन हो सकता है और उसके द्वारा जैन मंति का प्रचार सर्वत्र किया जा सकता है। दानका स्पया एकत्र तब तक नहीं हो सकता जब तक कि दाता महानुभाव अपने स्थानमा Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद महाविद्यालयका स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ४७३ मोह नहीं छोड़ देते हैं। आज कोई दान देता है तो उसका परिणाम अपने ही यहाँ देखना चाहता है। पर यह निश्चित है कि उसकी उतनी छोटी रकमसे कोई बड़ा काम नहीं चल सकता और न सर्वत्र उत्तम कोटिके कार्यकर्ता ही हो सकते हैं । देनेवाले महानुभाव जब तक अपने हृदयको विशाल कर उदार नहीं बनाते हैं तब तक उक्त कार्य स्वप्नवत् ही जान पड़ते हैं। अस्तु, तीसरे दिन प्रातःकाल साहुजीको 'श्रावक शिरोमणि' की पदवी दी जानेका प्रस्ताव रक्खा गया। उसके उत्तरमे आपने जो भाषण दिया उससे जनताने समझा कि आप कितने उज्ज्वल तथा नम्र-निरहंकार व्यक्ति हैं। उत्सव समाप्त होनेपर मैं प्रातःकाल श्री पार्श्व प्रभुकी वन्दना करनेके लिए गया था। उसी समय किन्हीं लोगोंने परिषदके द्वारा प्रकाशित हरिजन मन्दिर प्रवेश सम्बन्धी पुस्तिकायें जनतामे वितरण कर दी। फिर क्या था ? कुछ लोगोंने इसकी खबर उस समय मधुवनमे विद्यमान श्री मुनि महावीरकीर्तिजीको दे दी। खबर पाते ही आपका पारा गरम हो गया और इतना गरम होगया कि आपने जनतामे एकदम उत्तेजना फैला दी। जब मैं गिरिराजसे लौटकर २ बजे आया तब यहाँका रा दूसरा ही देखा। तेरापंथी कोठीके सामने महाराज जनताके समक्ष उत्तेजनापूर्ण शब्दोंमें अपना अभिप्राय प्रकट कर रहे थे। यह दृश्य देखकर मुझे लगा कि मनुष्य किसी वस्तुस्थितिको शान्त भावसे न सोचते हैं और न सोचनेका प्रयत्न ही करते हैं। मैं चुपकेसे जहाँ महाराज भाषण कर रहे थे पहुँचा और मैंने लोगोंसे कहा कि भाइयो । मैं तो रात्रिके ४ वजेसे श्री पार्श्व प्रभुकी वन्दनाके लिए गया था। यह पुस्तकें जो वितरण की गई हैं इसकी जानकारी मुझे न पहले थी और न अब भी है कि पुस्तकें कहाँसे आई और किसने वितरण की ? हरिजनोंके विषयमे Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ मेरी जीवन गाथा महाराज जो कहे सो आप लोग मानों इसमे मुझे आपत्ति नहीं। आप आगमके ज्ञाता हैं सो आपको बतलावेंगे कि धर्म कौन धारण कर सकता है ? श्री समन्तभद्र स्वामीने सम्यग्दर्शन, सम्यन्जान और सम्यक्चारित्रको धर्म कहा है। इनके धारक कौन हो सकते हैं और धर्म धारण करनेके बाद भी धारण करनेवाले जीवोंमें कुछ विशेषता होती है या नहीं ? मेरा तो विश्वास है कि जैनागममें सन्यग्दर्शनके धारण करनेकी प्रत्येक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकको छूट है । मनुष्यकी वात तो दूर रहो तिर्यञ्चके लिए भी इसका अधिकार है। जब अनन्त संसारसे पार करनेवाला धर्म उसके हात लग गया तव भी वह पापी बना रहा यह वात जैनागममें मेरे देखनेमें नहीं आई। उन्हे आप मन्दिर न आने दो क्योंकि मन्दिर आपके हैं परन्तु सम्यग्दर्शनरूप ज्योतिके प्रकट होनेपर भी उनमे पापल्प अन्वतार विद्यमान रहता है यह वात बुद्धिमें नहीं आती। अनन्तर वातावरण शान्त होगया जिससे त्ययात्रा आदि काय शान्तिसे सम्पन्न हुए। हम सायंकाल मधुवनसे ईमरी प्रागय । मेला भी यथाक्रमसे विघट गया । प्राचार्य नमिसागरजी महाराजका समाधिमरण श्री आचार्य नमिसागरजी महाराज महातपस्वी । क्या आपका हमपर अधिक स्नेह था। जय देवली तयायाम आपने चातुर्मास हुए थे तब आप वरावर हमारे नि भारद भजते रहते थे। हम ईसरी में थे, भारती भागीदा सनाधिमरण वर्णी गणेसप्रसादके सानिध्य में होनxmitr. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य नमिसागरजी महाराजका समाधिमरण ४७५ से प्रेरित होकर आप देहलीसे मधुवन तकका लम्बा मार्ग तयकर श्री पाचप्रभुके पादमूलमें पधारे थे। आप निद्वन्द्व-निरीह वृत्तिके साधु थे। संसारके विषम वातावरणसे दूर थे। आत्मसाधना ही आपका लक्ष्य था । ७२ वर्षकी आपकी अवस्था थी फिर भी दैनिक चर्यामे रश्वमात्र भी शिथिलता नहीं आने देते थे। श्री सम्मेदशिखरजीकी यात्रा कर आप ईसरी आ गए जिससे सवको प्रसन्नता हुई। वृद्धावस्थाके कारण आपका शरीर दुर्बल हो गया तथा उदर में व्याधि उत्पन्न हो गई जिससे आपका विचार हुआ कि यह मनुष्य शरीर संयमका साधक होनेसे रक्षणीय अवश्य है पर जब रक्षा करते-करते अरक्षित होनेके सम्मुख हो तव उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। .. .. यह विचार कर आपने १२-१०-१६५६ शुक्रवारको समाधिका नियम ले लिया। आपने सब प्रकारके आहार और औषधिका त्याग कर केवल छाछ और जल ग्रहण करनेका नियम रक्खा। उदासीनाश्रमके सब त्यागी गण आपकी वैयावृत्यमे निरन्तर निमग्न रहते थे। श्री प्यारेलालजी भगत भी उस समय ईसरीमे ही थे। अतः आप वैयावृत्यकी पूर्ण देख-रेख रखते थे। हम भी समय समयपर आपको भगवती आराधना सुनाते थे। महाराज बड़ी एकाग्रतासे श्रवण करते थे। महाराजके प्रति श्रद्धा व्यक्त करनेके लिए दिल्लीसे अनेक लोग पधारे। आस-पासके भी अनेक महानुभाव आये। सेठ गजराजजी गंगवाल भी सकुटुम्ब आकर आपकी परिचर्याम निमग्न थे। महाराज तेरापन्थी कोठीमें ठहरे थे। मैं आपके दर्शनके लिए गया। चलते-चलते मेरी श्वास भर आई। यह देख महाराज बोले- आपने क्यों कष्ट किया ? आप तो हमारे हृदयमे विद्यमान हैं। अनम्तर सवकी सलाहसे उन्हे उदासीनाप्रममे ले आये और सरस्वतीभवनमे ठहरा दिया। इस समय आपने अपने उपरसे Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ मेरी जीवन गाथा मुंगी हटवा दी तथा खुले स्थानमे पलाल पर शयन किया। जब अन्तिम दो दिन रह गये तब आपने छाँछका भी परित्याग कर दिया, केवल जल लेना स्वीकृत रक्खा । कार्तिक वदी ३ सं० २.१३ को १० वजे आपने तीन चुल्लू जलका आहार लिया। आहारके वाद आपको अधिक दुर्वलताका अनुभव हुआ फिर भी मुखाकृति अत्यन्त शान्त थी। आपने सबसे कहा कि आप लोग भोजन करें। महाराजकी आज्ञा पाकर सब लोग भोजनके लिये चले गये तथा सेवामें जो त्यागी थे उन्हे छोड़ अन्य त्यागी सामायिक करने लगे । हम भी सामायिकमे बैठना ही चाहते थे कि इतनेमें समाचार मिला कि महाराजका स्वास्थ्य एकदम खराव हो रहा है। हम उसी समय उनके पास आये। हमने पूछा कि महाराज | सिद्ध परमेष्ठीका ध्यान है। उन्होंने हूंकार भरा और उसी समय आपके प्राण निकल गये। सबके हृदय शोकसे भर गये। महाराज के शवको पद्मासनसे विमानमें बैठाकर ग्राममें जुलूस निकाला और आश्रमके पास ही वगलवाले मैदानमें आपका अन्तिम संस्कार किया गया। गोला तथा चन्दनका पुष्कल प्रवन्ध श्री गजराजजी कलकत्तावालोंने पहलेसे कर रक्खा था। रात्रिम शोकसभा हुई जिसमें महाराजके गुणोंका स्मरण कर उन्हें श्रद्धाञ्जलियों दी गई। _ हमारे हृदयमे विचार आया कि जिनका संसार अत्यन्त निफ्ट रह जाता है उन्हींका इस प्रकार समाधिमरण होता है। आगमम लिखा है कि जिसका सम्यक् प्रकारसे समाधिमरण होता है वह सात आठ भवसे अधिक संसारमें भ्रमण नहीं करता । भक्त भगवजिनेन्द्रसे प्रार्थना करता है कि दुक्खक्खनो कम्मक्खनो समाहिमरणं च बोहिलाहो व । मम होउ जगदबान्धव ! तव जिणवर वरणसरणेए ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नमिसागरजी महाराजका समाधिमरण ४७७ हे भगवन् ! हे जगत्के वन्धु । आपके चरणोंकी शरण पाकर मेरे दुःखोंका क्षय हो इस प्रकार कोई भक्त भगवान् से प्रार्थना करता है । भगवान् की ओरसे उत्तर मिलता है कि दुःखो का क्षय तबतक नहीं हो सकता जबतक कि कर्मों का क्षय न हो जाय । यह सुन भक्त, भगवान् से कहता है कि भगवन् । कर्मों का भी क्षय हो । भगवान् की ओरसे पुनः उत्तर मिलता है कि कर्मोंका क्षय तबतक नहीं हो सकता जबतक कि समाधिमरण न हो । कायरों की तरह रोते चीखते हुए जो मरण करते हैं वे कर्मोंका क्षय कदापि नहीं कर सकते । यह सुन भक्त भगवान्से पुनः प्रार्थना करता है कि भगवन् । समाधिमरणकी भी मुझे प्राप्ति हो । भगवान्‌ की ओरसे पुनः आवाज आती है कि बोधि - रत्नत्रयकी प्राप्तिके बिना समाधिमरणका होना दुर्लभ है। तब फिर भक्त प्रार्थना करता है कि महाराज । बोधिका लाभ भी मुझे हो । कहनेका तात्पर्य यह है कि जबतक यह जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र प्राप्त नहीं कर लेता तबतक इसके दुःखोंका क्षय नहीं हो सकता । जिस प्रकार हिमके कुण्ड में अवगाहन करनेसे तत्काल शीतलताका अनुभव होने लगता है । उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादिके होनेपर तत्काल सुखका अनुभव होने लगता है । अन्यकी बात जाने दो, नारकी जीव भी सम्यग्दर्शन के होनेपर तत्काल सुखका अनुभव करने लगता है । विपरीताभिनिवेश दूर होना ही सम्यग्दर्शन है । जहाँ विपरीतभाव गया वहाँ सुखकी बात क्या पूछना ? मैंने श्राद्धाञ्जलि भाषणमे लोगोंसे यही कहा कि महाराज तो आत्मकल्याण कर स्वर्गमे कल्पवासी देव होगये । अब उनके प्रति शोक करनेसे क्या लाभ है ? शोक तो वहाँ होना चाहिये जहाँ अपना स्नेहभाजन व्यक्ति दुखको प्राप्त हो । अव तो हम सबका पुरुषार्थ इस प्रकारका होना चाहिये कि जिससे Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ मेरी जीवन गाथा जन्म-मरणकी यातनाओंसे वचकर हमारा आत्मा शाश्वत सुखका पात्र होसके। सागर विद्यालयका स्वर्ण जयन्ती महोत्सव सागरकी सत्तर्कसुधातरङ्गिणी पाठशाला पहले सत्तर्क विद्यालयके नामसे प्रसिद्ध हुई. अब गणेश दि० जैन संस्कृत विद्यालयके नामले प्रसिद्ध है। इस संस्थाने वुन्देलखण्ड प्रान्तमें काफी कार्य किया है। ५० वर्ष पूर्व जहाँ मन्दिरोंमे पूजा और विधान वाँचनेवाले विद्वान् नहीं मिलते थे वहाँ अव धवल-महाधवल जैसे ग्रन्थराजोंका अनुवाद और प्रवचन करनेवाले विद्वान् विद्यमान हैं। जहाँ संस्कृतके ग्रन्थ वांचनेमें लोग दूसरेका मुख देखते थे वहाँ आज संस्कृतमे गद्य पद्य रचना करनेवाले विद्वान तैयार हो गये हैं। सागर बुन्देलखण्डका केन्द्र स्थान है अतः यहॉपर विद्याके एक विशाल आयतनकी आवश्यकता सदा अनुभवमे पाती रहनी थी। सागरके उत्साही लोगोंने अपने यहाँ एक छोटीसी पाठशाला खोली थी वह वृद्धि करते करते आज विशाल विद्यालयका रूप धारण कर समाजमें कार्य कर रही है। किसी समय इसमे ५ विद्यार्थी थे पर अव इसमें २०० छात्र भोजन पाते हुए विद्याध्ययन करते हैं। एक पहाड़ीकी उपत्यिकामें सुन्दर और स्वच्छ भवन विद्यालयका वना है उसीमे संस्कृत विभाग तथा हाईस्कूल इस प्रकार दोनों विभाग अपना कार्य संचालन करते हैं। संस्कृतमें प्रारम्भसे शास्त्री आचार्य तक तथा हाईस्कूलमें एन्ट्रेस तक पढ़ाई होती है। ___समय जाते देर नहीं लगती। इस संस्थाको भी कार्य करते हुए बहुत वर्प हो गये थे इसलिए इसके आयोजकोंने भी स्वर्णजयन्ती Page #514 --------------------------------------------------------------------------  Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी वर्ष कोडरमामे पञ्चकल्याण थे। लोग हमे भी ले गये । [पृ ४८६] Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर विद्यालयका स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ४७६ नाका आयोजन किया । बनारस विद्यालय के उत्सवके समय श्री समगौरयाजीने कहा था कि इस वर्ष बड़े भैयाकी स्वर्ण जयन्ती हो रही है और आगामी वर्ष छोटे भैयाकी स्वर्ण जयन्ती मनाई जायगी । छोटे भैयाके मायने सागरका विद्यालय है । सुनकर जनताकी उत्सुकता बढ़ी | अगली वर्ष सागरसे पं० पन्नालालजी और समगौरयाजी हमारे पास आकर कहने लगे कि इस वर्ष सागर विद्यालयकी स्वर्णजयन्ती मनाना है इसलिए आप सागर पधारनेकी कृपा करें। मैं सागर जाकर बड़ी कठिनाईसे वापिस आ पाया था तथा शरीरकी शक्ति भी पहलेकी अपेक्षा अधिक ह्रासको प्राप्त होगई थी इसलिए मैने सागर जाना स्वीकृत नहीं किया । तब उन्होंने दूसरा पक्ष रक्खा तो यहीं पर अर्थात् मधुवनमें उत्सव रखने की स्वीकृति दीजिये । मैं तटस्थ रह गया और उक्त दोनो विद्वान् कलकत्ता जाकर मधुवनमें स्वर्णजयन्ती महोत्सव करने की स्वीकृति ले आये । इसी बीच श्री कानजी स्वामी भी श्री गिरिराजकी वन्दनार्थ ससंघ पधार रहे थे जिससे लोगोंमें उक्त अवसर पर पहुँचनेकी उत्कण्ठा बढ़ रही थी | इसी वर्ष कोडरमामे पञ्चकल्याणक थे । लोग हमें भी ले गये । वहाँ भी सागर विद्यालयकी स्वर्णजयन्ती महोत्सवका काफी प्रचार हो गया । फाल्गुन सुदी १२-१३ सं० २०१३ उत्सवके दिन निश्चित किये गये । इस उत्सवमें बहुत जनता एकत्रित हुई । सब धर्मशालाएँ भर चुकीं और उसके बाद सैकड़ों डेरे तम्बुओं का प्रबन्ध कमेटीको करना पड़ा । चारों ओरकी जनता का आगमन हुआ । उसी समय यहाँ जैनसिद्धान्तसंरक्षिणी सभाका अधिवेशन भी था । तेरापन्थीकोठीमे इसका पंडाल लगा था और श्री कानजी स्वामीके प्रवचनों तथा सागर विद्यालयके उत्सवका संयुक्त पंडाल बीसपंथी कोठीमे लगा था । इन आयो Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० मेरी जीवन गाथा जनोंमें वाहरसे श्री पं० माणिकचन्दजी न्यायाचार्य, पं० वन्शीधरजी न्यायालंकार, पं०मक्खनलालजी, पं० लालारामजी, पं० फूलचन्द्रजी, पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० इन्द्रलालजी आदि अनेक विद्वान् आये थे। सागरके सव विद्वान् तथा छात्रवर्ग थे ही। सागर विद्यालयवालोंने उत्सवका अध्यक्ष मुझे वना दिया। उत्सवके प्रारम्भमे विद्यालयमे अबतक पढ़कर निकलनेवाले स्नातकों (छात्रों) की ओरसे ५२ स्वर्णमुद्राएँ विद्यालयकी सहायताके लिए हमारे सामने रखी गई। विद्यालयके ५२ वर्षका कार्यपरिचय जनताके समक्ष उसके मन्त्री श्री नाथूराम गोदरेने रक्खा । पं० फूलचन्द्रजीने विद्यालयके लिए अपील की जिससे ५०-६० हजार रुपयेके वचन मिल गये। फुटकर सहायता भी लोगोंने बहुत दी। उत्सवका कार्यक्रम दो दिन चलता रहा और जनता बड़ी प्रसन्नतासे उसमे भाग लेती रही। ___ श्री कानजी स्वामी फागुन सुदी ५ को संघ सहित मधुवन आ गये थे। जितने दिन रहे प्रायः हमसे मिलते रहे। प्रसन्नमुख तथा विचारक व्यक्ति हैं। आप प्रारम्भमें स्थानकवासी श्वेताम्बर थे परन्तु श्री कुन्दकुन्दस्वामीके ग्रन्थोंका अवलोकन करनेसे आपकी दिगम्बर धर्मकी ओर दृढ़ श्रद्धा हो गई जिससे आपने स्थानकवासी श्वेताम्बर धर्म छोड़कर दिगम्बर धर्म धारण कर लिया। न केवल आपने ही किन्तु अपने उपदेशसे सौराष्ट्र तथा गुजरात प्रान्तके हजारों व्यक्तियोंको भी दिगम्बर जैन धर्ममे दीक्षित किया है। आपकी प्रेरणासे सोनगढ़ तथा उस प्रान्त मे अनेक जगह दिगम्बर जैन मन्दिरोंका निर्माण हुआ है। आपके प्रवचन प्रायः निश्चय धर्मकी प्रमुखता लेकर होते हैं तथा आपका जो साहित्य प्रकाशित हुआ है, मैंने तो आनुपूर्वीसे देखा नहीं पर लोग कहते हैं कि निश्चयधर्मकी प्रधानताको लिये Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानवीर सेट भागचन्य जी ( टागरगट )मान में अपनी मानि"ा पतीनी नानी पीर पर वाली शालोमा , Page #519 --------------------------------------------------------------------------  Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री क्षु० संभवसागरजी का समाधिमरण ४८१ हुए हैं । इस स्थितिमे अभी नहीं तो आगे चलकर व्यवहार धर्मसे लोगोंकी उपेक्षा हो जाना इष्ट नहीं है अतः दोनों नयों पर दृष्टि डालते हुए श्री कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलंक आदि आचार्योंके समान पदार्थका निरूपण किया जाय तो जैनश्रुतकी परम्परा अक्षुण्ण बनी रहे । विद्वान् लोग यही चर्चा आपसे करना चाहते थे पर कार्यक्रमोंकी बहुलताके कारण मधुवनमे वह अवसर नहीं मिल सका। उत्सवमे आपके यात्रा संघकी ओरसे विद्यालयको १०००) समर्पित किया गया। उत्सवके बाद आपका संघ कलकत्ताकी ओर प्रस्थान कर गया। मेला विघट गया और हम भी ईसरी वापिस आ गये। श्री क्षु० संभवसागरजीका समाधिमरण श्री क्षुल्लक संभवसागरजी वारासिवनीके रहनेवाले थे । प्रकृतिके बहुत ही शान्त तथा सरन थे। जबसे क्षुल्लक दीक्षा आपने ग्रहण की तबसे बराबर हमारे साथ रहे । संसारके चक्रसे आप सदा दूर रहते थे तथा मुझसे भी निरन्तर यही प्रेरणा करते रहते थे, आप इन सब झंझटोंसे दूर रहकर आत्महित करें। एकवार शाहपुरमें मैं सामायिक कर रहा था और मेरे पीछे आप सामायिकमे वैठे थे। किसी कारण मेरे खेसमें आग लग गई, मुमे इसका पता नहीं था और होता भी तो सामायिकमेसे कैसे उठता? परन्तु आपकी दृष्टि अचानक ही उस आग पर पड़ गई और आपने मटसे उठकर हमारा जलता हुआ खेस निकाल कर अलग कर दिया । उस दिन उन्होंने एक असंभाव्य घटनासे हमारी रक्षा की। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवनगाथा J आपका स्वास्थ्य धीरे धीरे खराब होता गया । जब आपकी युके कुछ दिन ही शेष रह गये तब वोले महाराजजी । आपमें मेरी अगाध श्रद्धा है, मैं विशेष पढ़ा लिखा नहीं हूँ और न शास्त्रका विशेष ज्ञान ही मुझे हैं परन्तु गृहवाससे मेरे परिणाम विरक्त हो गये। पहलेसे ब्रह्मचारीके वेषमें रहा और श्रव क्षुल्लक दीक्षा धारण की है । मेरा अभिप्राय सदा यह रहा है कि आप विशिष्ट ज्ञानी तथा अन्तरात्माके पारखी हैं, इसलिये आपके निकट रहने से हमारा समाधिमरण होगा । मेरा स्वास्थ्य अव अच्छा होनेकी आशा नहीं है इसलिये आप जिस तरह वने उस तरह हमारा सुधार करें। हमारा उपकार अपकार आप पर निर्भर हैं । यह कहकर आपने सल्लेखना धारण करली । आश्रमके सब ब्रह्मचारी आपकी सेवामें लीन हो गये। मैं भी यथा समय उन्हें संबोधता रहता था । मेरा तो उनसे यही कहना था कि इस समय अधिक चिन्तनकी आवश्यकता नहीं । इस समय तो आप इतना ही चिन्तन करो - ४८२ एगो मे सासदो अप्पा गाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ कुन्दकुन्द स्वामीके वचन हैं कि ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला एक आत्मा ही मेरा शाश्वत द्रव्य है । अन्य, कर्म संयोगसे होनेवाले समस्त भाव वाह्य भाव हैं। उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं । शरीरादि पर पदार्थोंसे भिन्न हमारी आत्मा है। उसे कोई भी नष्ट करनेवाला नहीं है । यहाँ पर्यूषणके बाद आसोज वदी ४ को लोग वर्णी जयन्ती के समारोहका आयोजन कर रहे थे वहाँ श्री संभवसागरजीका स्वास्थ्य दिन प्रति दिन गिरता जाता था । मैंने सब जगह सूचना करवा दी कि इस वर्ष जयन्तीका समारोह नहीं होगा, क्योंकि हमारा एक सहयोगी सन्त समाधि पर आरूढ़ है । यद्यपि जयन्ती उत्सव Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हजारीबागका ग्रीष्मकाल ४८३ •थगित कर दिया था फिर भी आस-पासके लोगोंकी अच्छी संख्या आकर यहाँ उपस्थित हो गई। कुँवार बदी ३ वीर निर्वाण २४८३ आपकी वर्तमान पर्यायका अन्तिम दिन था। दुर्बल होने पर भी आपकी चेतना यथापूर्व थी। आप वोन नहीं सकते थे फिर भी यथार्थ तत्त्व आपके ज्ञानमें समाया हुआ था। आज आपने अन्न-जलका सर्वथा त्याग कर दिया। मैंने कहा कि सिद्ध परमेष्ठीका ध्यान है। उन्होंने हूँकार भरा। तदनन्तर मैंने कहा कि आत्मा पर पदार्थोंसे भिन्न जुदा पदार्थ अनुभवमें आता है या नहीं ? पुनः उन्होंने हूँकार भरा । तदनन्तर नमस्कार मन्त्रका श्रवण करते-करते आपके प्राण शरीरसे बहिर्गत हो गये। सबको दुख हुआ। पश्चात् आपका अन्तिम संस्कार किया गया। शोक सभा की गई जिसमें आपको और आपके परिवारको 'शान्तिलाभ हो' ऐसी भगवानसे प्रार्थना की गई। सब लोगोंके मुखसे आपकी प्रशंसामें यही शब्द निकलते थे कि बहुत ही शान्त थे । हजारीबागका ग्रीष्मकाल हजारीबागका जलवायु उत्तम है। ग्रीप्मकी बाधा भी वहाँ कम होती है इसलिये अन्तरङ्गकी प्रेरणा समझो या वहाँके लोगोंके आग्रहकी प्रबलता • कुछ भी कारण समझो, मैं वहाँ चला गया। बसंतीलालजीने अपने उद्यानमें ठहराया। सुरम्य स्थान है। यहाँ आकर गरमीके प्रकोपसे तो बच गया परन्तु अन्तरङ्गकी दुर्बलतासे जैसी शान्ति मिलनी चाहिये नहीं मिल सकी। सागरसे तार श्राये कि यहाँ सिंघई कुन्दनलालजीका स्वास्थ्य अत्यन्त खराव Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ मेरी जीवनगाथा है, इसलिये उनकी समाधिके लिये आप सागर पधारनेकी कृपा करें। सिं० कुन्दनलालजी अन्तरङ्ग के निर्मल एवं परोपकारी जीव हैं। उनके संपर्कमें हमारा वहुत समय बीता है, इसलिये मनमें विकल्प उत्पन्न हुआ कि यदि हमारे द्वारा इनके परिणामोका सुधार होता है तो पहुँचनेमे क्या हानि है । तारके वाद ही सागरसे कुछ व्यक्ति भी लेनेके लिए आ गये । जब इस वातका यहाँके समाजको पता चला तो सबमें व्यग्रता फैल गई। लोग यह कहने लगे कि आपकी अत्यन्त वृद्ध अवस्था है इसलिए श्री पार्श्व प्रभुकी शरण छोड़कर अन्यत्र जाना अच्छा नहीं है। साथ ही यह भी कहने लगे कि आपने इसी प्रान्तमें रहनेका नियम किया था इसलिए इस प्रान्तसे बाहर जाना उचित नहीं है। हजारीबाग ही नहीं कई स्थानोंके भाई एकत्रित हो गये । मैं दोनों ओरसे संकोचमे पड़ गया। इधर सागरके महाशय आगये इसलिये उनका संकोच और उधर इस प्रान्तके लोगोका संकोच । हजारीबागसे चलकर ईसरी आये तो यहाँ भी बहुतसे लोगोंका जमाव देखा । वात यही थी, सवका यही कहना था कि आप इस प्रान्तको छोड़कर अन्यत्र न जावें । जानेमे नियमकी अवहेलना होती है परन्तु मेरा कहना था कि समाधिके लिए जानेका विचार है। यदि मेरे द्वारा एक आत्माका सुधार होता है तो क्या बुरा है ? लोगोंकी युक्ति यह थी कि यदि सिंघईजी कोई व्रती क्षुल्लक या मुनि होते तो जाना संभव हो सकता था। अन्तरङ्गमे विचाराका संघर्ष चल रहा था कि सागरसे दूसरा समाचार आ गया कि सिंघईजीका स्वास्थ्य सुधर रहा है। समाचार जानकर हृदयका व्यग्रता कम हुई। मनमें यह लगा कि मेरा हृदय बहुत निवल है। जरा जरा सी बातोंको लेकर उलमनमें पड़ जाता हूँ इसे हृदयका दुर्वलता न कहा जाय तो क्या कहा जाय । स्वस्थताके तारने हमारी उलमान समाप्त कर दी और मैंने सागरवालोंसे कह दिया कि Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ļ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - - - - 8 Aliens स्न 22 Di.. प्रातःकाल श्री, पार्श्वप्रभुकी वन्दनाके लिए गया । डोलीमे जाना पड़ा। [पृ०४८५] Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहुजीकी दान घोषणा ४८५ हमारा सागर पहुंचना शक्य नहीं है । इधरके लोगोंको इससे संतोष हुआ पर सागरके लोग निराश होकर चले गये। संसार है, सबको प्रसन्न रखनेकी क्षमता सबमें नहीं है। सूर्योदयसे कमल विकसित होता है पर उसी तालावमे कमलके पास लगा हुआ कुमुद बंद हो जाता है । इसे क्या कहा जाय ? पदार्थका परिणमन विचित्र रूप है। हर्षे और विपादका अनुभव लोग अपनी अपनी कषायके अनुसार ही करते हैं। ___ साहुजीकी दान-घोषणा वृद्धावस्थाके कारण शरीरकी जर्जरता तो बढ़ रही थी। उस पर भी यदा कदा वातका प्रकोप व्यग्रताको बढ़ा देता था इसलिए एक दिन निश्चय किया कि राजगृही रहा जाय । वहाँका वायुमण्डल शरीरके अनुकूल बैठ सकता है। श्रीराजकृष्णजीने इसके लिए एक विशिष्ट प्रकारकी कुर्सीका निर्माण कराया जिसमे पहिये लगाये गये थे और एक आदमी जिसे अच्छी तरह चला सकता था। ईसरीसे जाते समय मनमें विकल्प आया कि पार्श्व प्रभुके पादमूलसे हटकर जा रहा हूँ। फिर लौटकर आ सका या नहीं, इसलिए एक बार गिरिराजपर जाकर उनके दर्शन अवश्य करना चाहिये । निश्चयानुसार मधुवनके लिए प्रस्थान कर दिया। प्रत काल श्रीपार्श्व प्रभुकी वन्दनाके लिये गया। डोलीमे जाना पड़ा । मन ही मन औदारिक शरीरकी दशापर खेद उत्पन्न हो रहा था । एक समय था जब इसी शरीरसे पैदल यात्रा कर पाचप्रभुके दशेन किये थे पर अब उसे वाहन करनेके लिये दो आदमियोंकी Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ मेरी जीवनगाथा आवश्यकता पड़ती है । सीधे पार्श्वनाथ भगवान्की टोंकपर ही गये थे इस लिये आठ बजते वजते वहाँ पहुँच गये। पार्श्वप्रभुके दर्शन कर हृदयमे अपार शान्ति उत्पन्न हुई। एकबार स्वर्गीय वाईजीके साथ गिरिराजकी यात्रा की थी तव पार्श्व प्रभुके पादमूलमें उन्होंने अपना जीवनचक्र सुनाते हुये प्रतिक्रमण कर नाना व्रत धारण किये थे। वह दृश्य सहसा आंखोंके सामने आगया और वाईजीका उज्ज्वल रूप सामने दृष्टिगत होने लगा। साथके लोगोंसे तत्त्वचर्चा करता हुआ वाहर आया । चारों ओर हरे भरे वृक्षों पर सूर्यकी सुनहली धूप पड़ रही थी। फिर भी शीतल वायुके झकोरे शरीरमे सिहरन पैदा कर रहे थे। मध्यान्हकी सामायिक वीचमे कर मधुवन श्रा गये । आहार आदिसे निवृत्त हो संतोपका अनुभव किया । ___ मनुष्य सोचता कुछ है और होता कुछ है । शीतकी प्रकोपतासे पावोंमें सूजन आगई और वातका दर्द भी अधिक बढ़ गया। इसलिए राजगृही जाना कठिन हो गया। गिरीडीहके महानुभावोंने आग्रह किया कि अभी आप गिरीडीह चलें, वहाँ हम उपचार करेंगे। अच्छा होनेपर आप राजगृही जावें। हम गिरीडीह चले गये। लोगोंने बहुत सम्मानसे ठहराया और नाना उपचार किये। स्वास्थ्यकी खराबीके समाचार जहाँ तहाँ पहुँच गये जिससे अनेक लोग गिरीडीह पहुंचे । क्षुल्लक मनोहरलालजी भी आ पहुँचे । आपके प्रवचनोंसे जनताको लाभ मिलने लगा। श्री साहु शान्तिप्रसादजी भी आये । आप प्रकृतिसे भद्र एवं उदार चेता हैं। आपने एक दिन कहा कि महाराज जी | मैं सागर विद्यालयकी जयन्तीके समय सम्मेदशिखरजीमें नहीं आ पाया था सो अब आजा कीजिये । मैंने कहा कि मैं क्या आक्षा करूँ ? उस प्रान्तमें वह विद्यालय जैन समाजके उत्थानमे बहुत भारी काम कर रहा है। बना रहे यही हमारी भावना है । समीपमें बैठे कुछ लोगोंने कह दिया कि वहाँ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " .२ पर अब उसे ( शरीरको ) वाहन करने के लिए दो आदमियोंकी आवश्यकता पड़ती है । [ पृ० ४८६ ] Page #529 --------------------------------------------------------------------------  Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहुजीकी दान घोषणा ४८० पांच हजार रुपयेका वार्षिक घाटा रहता है। सुनकर उन्होंने कहा कि हम सदाके लिए इसकी पूर्ति कर देंगे। अनन्तर बनारस विद्यालयके भवन गिर जानेकी बात आई तो बोले कि हम सन्मति निकेतनमें इसके लिये दूसरा भवन बनवा देंगे। यह सब कह चुकनेके वाद उन्होंने आग्रह किया कि आपका शरीर अत्यन्त जर्जर है। न जाने कब क्या हो जाय ? इसलिये आप सम्मेदशिखर जीसे दूर न जावें । गिरीडीह, ईसरी तथा इसीके आस पास रहे तो उत्तम हो। मैंने कहा- अच्छा है। राजगृही जाना स्थगित हो गया तथा कुछ स्वस्थ होने पर ईसरो आ गया। ईसरीमें दिनचर्या पूर्ववत् चलने लगी। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगणेश प्रसाद जैन ग्रन्थमाला-काशी Page #532 --------------------------------------------------------------------------  Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जीवन गाथा 'स्वतन्त्रता ही संसार वल्लरीकी सत्ताको समूल नाश करनेवाली सिधारा है और पराधीनता ही संसारकी जननी है ।' 'ईश्वर अन्य कोई नहीं । आत्मा ही सर्व शक्तिमान् है । यही संसारमे अपने पुरुषार्थके द्वारा रङ्कसे इतना समर्थ हो जाता है कि संसारको इसके अनुकूल वनते देर नहीं लगतीं ।" 'यदि आत्मकल्याणकी अभिलाषा है तो परकी अभिलाषा त्यागो ।' -४१२ 'कल्याणका मार्ग निश्चिन्त दशामें है । जव आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है तब उसे परतन्त्र बनाना ही बन्धनका कारण है ।' 'कल्याणका मार्ग अति सुलभ है परन्तु हृदयमें कठोरता नहीं होनी चाहिये ।' 'इस संसार मे जो शान्तिसे जीवन विताना चाहते हैं उन्हें पर की चिन्ता त्यागना चाहिये तथा स्वयंका इतना स्वच्छ आचरण करना चाहिये कि जिससे परको कष्ट न हो ।' 'किसीको वह उपदेश नहीं देना चाहिये जिसे तुम स्वयं करने में असमर्थ हो ।' 'मनको काबू करना कठिन नहीं, क्योंकि वह स्वयं पराधीन है । वह तो के सदृश है। सवार उसे चाहे जहां ले जा सकता है ।" ‘समयका सदुपयोग करो । पुस्तकोंके ऊपर ही विश्वास मत करो । अन्तःकरणसे भी तत्त्वको देखो ।' 1 'परकी आशा त्यागो | परावलम्वनसे कभी किसीका कल्याण नहीं हुआ ।' 'निरन्तर यही भावना रक्खो कि स्वप्नमे भी मोहके आधीन न होना पड़े । जो आत्मा मोहके आधीन रहता है वह कदापि सुख का पात्र नहीं हो सकता ।' 1 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार करण ४१३ ' मोह क्या है ? यह यदि ज्ञानमे आ जावे तो निर्मोह होना कुछ कठिन नहीं ।' 'आहारत्यागका नाम उपवास नहीं किन्तु आहारसम्बन्धी आशाका त्याग ही उपवास है ।' 'जो कार्य करना चाहते हो प्रथम उसके करनेका दृढ़ संकल्प करो अनन्तर उसके कारणोंका संग्रह करो । जो वाधक कारण हों उनका परित्याग करो ।" 1 'बहुत मत बोलो । बोलना ही फंसनेका कारण है । पक्षी बोलने से जाल में फंसता है ।' 'उपयोगकी स्वच्छता ही हिसा है - रागादि परिणामोंकी अनुत्पत्ति ही अहिंसा है। 'शान्तिके पाठसे शान्ति नहीं किन्तु अशान्तिके कारण दूर करनेसे शान्ति प्राप्त होती है । ' 'बाह्य वेषसे परकी वञ्चना करनेवाला स्वयं आत्माको दुःख सागरमे डालता है । जो ईंधन परको दग्ध करनेकें अभिप्राय अग्निका समागम करता है वह स्वयं भस्म हो जाता है । ' 'आत्माका परिचय होना उतना कठिन नहीं जितना आत्माको जानकर आत्मनिष्ठ होना कठिन है ।' 'यदि अशान्तिका साक्षात् अनुभव करना है तो समाजके कार्यों अग्रेसर बन जाओ ।' 'यदि हम चाहे तो प्रत्येक अवस्थामें सुखका अनुभव कर सकते हैं । सुख कोई वाह्य वस्तु नहीं । आत्माकी वह परिणति है जहां पर आत्मा आकुलता के कारणों से अपनेको रक्षित रखती है । 'स्वाधीनता कहो या यह कहो परके अवलम्बनका त्याग । जो मानव इस संकल्प-विकल्पसे जायमान विविध प्रकारकी Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ मेरी जीवन गाथा वेदनाओंका अभाव करना चाहते हैं उन्हे उचित है कि पर पदार्थों का अपनाना त्यागे । 'प्रशंसाकी इच्छासे कार्य प्रारम्भ करना आत्माको पतित बनानेकी कला है।' 'अपनी सुध भूलकर यह आत्मा दुःखका पात्र बना । गृहस्थों के जालमे आकर जैसे चुगके लोभसे चिड़ियां फंस जाती हैं वैसे ही त्यागी वर्ग मोह-जालमे फंस जाता है।' 'आत्माराम अकेला आया और अकेला ही जावेगा। कोई भी इसका साथी नहीं। अन्यकी क्या कथा, शरीर भी सुख-दुःख भोगनेमे साथी नहीं।' 'शुद्ध हृदयकी भावना नियमसे फलीभूत होती है। निर्माय [मायारहित ] ही कार्य सफल होता है।' ___ 'पर का भय मत करो। पर को अपनाना छोड़ो। परको अपनाना ही राग-द्वपमें निमित्त है।' 'भयसे व्यवहार करना आत्माकी वञ्चना है । मोक्षमार्गका सुगमोपाय अपनी अहम्वुद्धि त्यागो। मै कौन हूँ ? इसे जानो। इसे जानना कुछ कठिन नहीं । जिसमे यह प्रश्न हो रहा है वही तो तुम हो।' __ 'आत्मज्ञान होना कठिन नहीं किन्तु परसे ममता भाव त्यागना अति कठिन है।' 'सुख-शान्तिका लाभ परमेश्वरकी देन नहीं, उपेक्षाकी _ 'शान्त मनुष्य वह हो सकता है जो अपनी प्रशंसाको नहीं चाहता।' 'परकी समालोचना न करो और न सुनो।' देन है।' Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचार कण 415 'धन अधिक संग्रह करना चोरी है, इसलिये कि तुमने अन्यका स्वत्व हरण कर लिया / . 'राग द्वेष घटानेसे घटता है किन्तु उसके प्राक् मोहका नाश करो। मोहके नशामे आत्मा उन्मत्त हो जाता है।' ____ 'यदि शान्ति चाहते हो तो स्थिर चित्त रहो / व्यग्रता ही संसार की दादी है / यदि संसारमे रुलनेकी इच्छा है तो इस दादीके पुत्रसे स्नेह करो। ____ 'यदि परोपकार करनेकी भावना है तो उसके पहले आत्माको पवित्र बनानेका प्रयत्न करो।' परोपकारकी भावना उन्हींके होती है जो मोही हैं। जिनकी सत्तासे मोह चला गया वे परको पर समझते हैं तथा आत्मीय वस्तुमे जो राग है उसे दूर करनेका प्रयास करते हैं।' ____ 'ज्ञानार्जन करना उत्तम है किन्तु ज्ञानार्जनके वाद यदि आत्महितमे दृष्टि न गई तब जैसा धनार्जन वैसा ज्ञानार्जन / ' 'मनुष्य वही है जिसने मानवता पर विश्वास किया / ' 'लोभ पापका वाप है / इसके वशीभूत होकर मनुष्य जो जो अनर्थ करते हैं वह किसीसे गुप्त नहीं।' / ___ 'अपने लक्ष्यसे च्युत होनेवाले मनुष्यके कार्य प्रायः निष्कल रहते हैं।' 'जितना अधिक संग्रह करोगे उतना ही अधिक व्यग्र होगे।' जो सुख चाहत अातमा तज दो अपनी भूल / परके तजनेसे कहीं मिटे न निजकी शूल // जो अानन्द स्वभावमय ज्ञानपूर्ण अविकार / मोहराजके जालमें सहता दु ख अपार //