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' अपनी बात श्रीवर्णी ग्रन्थमालाको सौप दिया। प्रसन्नता है कि उसका प्रकाशन पूर्ण हो गया है। .
मेरो जीवन-गाथाका पूर्व भाग लोकोत्तर घटनाओसे भरा है तो यह दूसरा भाग लोकोत्तर उपदेशोंसे भरा है। इस भागमे कितनी ही सामाजिक रीति रिवाजो पर चर्चा पाई है और खुलकर उनपर विचार हुआ है । आध्यात्मिक प्रवचनोंका तो मानों यह भण्डार ही है। इसको पढ़नेसे पाठककी अन्तरात्मा द्रवीभूत हो जाती है। इस युगमे पूज्य वीजीके समान निर्मल सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न अटल श्रद्धानी एवं समाजको गतिविधिमे पूर्ण जागरूक रहनेवाला व्यक्ति सुलभ नहीं है। इसलिये श्री जिनेन्द्र भगवानसे हमारी प्रार्थना है कि पूज्य वर्णीजी चिरकाल तक जन-जनको सच्चा पथ प्रदर्शित करते रहें।
सागर १६-१-१६६०
श्रद्धावनत पन्नालाल जैन