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मेरी जीवन गाथा जो सुख है निज भावमें कहीं न इस जग वीच । परमें निजकी कल्पना करत जीव सो नीच ।। जो नाही दुख चाहता तज दे परकी अोट । अग्नी संगत लोहकी सहती घनकी चोट ॥ परकी संगतिके लिये होता मनमें रन । लोह अगनि संगति पिटे होत तप्त सव अङ्ग ॥ गल्पवादमें दिन गया सोवत वीती रात । तोय विलोलत होत नहिं कभी चीकने हात ॥ जो चाहत दु.खसे बचें करो न परकी चाह । पर पदार्थकी चाह से मिटे न मन की दाह ।। बहु सुनवो कम बोलवो यो है चतुर विवेक । तब ही तो विधिने रच्यो दोय कान जिभ एक ॥
जो चाहत निज रूप तजहु परिग्रह कामना । तिन सम नाही भूप अर्थ चाह जिनके नहीं ॥
स्वराज्य मिला पर सुराज्य नहीं लिखना सरल है--स्वराज्य मिल गया परन्तु मानवोंको शान्ति नहीं । अन्नादि खाद्य सामग्रीकी न्यूनता हो रही है, अनेक मनुष्य वेकार हैं, यन्त्र विद्याकी प्रचुरता होनेसे अनेक कार्य करनेवाले वेकार हो गये, लोगोंके हृदयमे स्वकीय कार्यके प्रति निष्ठो नहीं, नौकरीकी टोहमें प्रायः सव घूमते हैं, दैवी विपत्ति निरन्तर आती रहती है, पशु-धनकी हानि हो रही है, राज्यने पशुओंके लिये चारे तकका स्थान नहीं रहने दिया, सब पर अपना अधिकार कर लिया इसलिये पशुधनको चारा तक नहीं मिलता, शुद्ध घी दूध भक्षणमें