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स्वराज्य मिला पर सुराज्य नहीं
४१७ नहीं आता, मनुष्योंका नैतिक वल उत्तरोत्तर घटता जा रहा है, डाकेजनीका प्रचार बढ़ गया है, ग्रामीण लोग नगरोंको सब सामग्री तैयार कर देते हैं परन्तु इस समय वे असुरक्षाका अनुभव कर रहे हैं, घूसखोरीका जोर बढ़ रहा है, प्रायः अधिकांश लोग पद. लिप्साकी दौड़मे एक दूसरेको पीछे छोड़ स्वयं आगे बढ़ जाना चाहते हैं, आज यदि कुछ मूल्य रह गया है तो मनुष्यका, मनुष्यके स्वार्थके लिये अन्य समस्त वध्य हो रहे हैं, जैसे मानों उनमे जीव ही न हो, चरखाका स्थान चक्रने ले लिया है, गाय भैस बकरा बकरियोंकी परवाह नहीं रही, बन्दरों पर भी बारी आ गई, तालावोंकी मछलियाँ भी अव सुरक्षित नहीं रहीं, न्यायालयोंका न्याय समय साध्य तथा द्रव्य सापेक्ष हो गया, जनताके हृदयमें स्वराज्यके लिये जो उत्साह था वह निराशामें परिणत हो रहा है, देशकी जनता करोंके भारसे त्रस्त है और ऋणके भारसे दब रही है। इन सब कारणोंको देखते हुए हृदयसे निकलने लगता है कि स्वराज्य तो मिला पर सुराज्य नहीं। स्वराज्य तो अंग्रेजोंने दे दिया पर सुराज्य देनेवाला कोई नहीं। यह तो स्वयं अपने आपसे लेना है । देशकी जनता देशके प्रति कर्तव्य निष्ठ हो, अपने स्वार्थमें कमी करे, बढ़ती हुई तृष्णाओंको नियन्त्रित करे, गांधीजीके सिद्धान्तानुसार यान्त्रिक विद्याकी प्रचुरताको कमकर हस्तोद्योगको बढ़ावा दे, परिश्रमकी प्रतिष्ठा करे और अहिसाको केवल वाचनिक रूप न दे प्रयोगमें लावे तो सुराज्य प्राप्त हो सकता है।
गिरिराजके लिये प्रस्थान पौष कृष्णा अमावस्या सं० २००६ की रात्रि थी। आकाशमे माघवृष्टिके मेघ छाये थे। रात्रिके समय अचानक वर्षा शुरू होनेसे
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