________________
४४४
मेरी जीवन गाया यहाँपर दुर्गावती नदी बहती है । यहीपर जैनबद्रीकी यात्रासे श्री राजेन्द्रकुमारजी वनारसवाले और पं० श्रीलालजी आये । यहीं भोजन किया । २५ आदमियोंका समागम था, धर्म रुचिवाले थे परन्तु अन्तरङ्गसे जो बात होना चाहिये वह नहीं थी। अन्तरङ्गकी कथा इस समय अत्यन्त दुर्लभ हो रही है। यहाँसे प्रातः ४|| मील चलकर पसौली रेलके क्वार्टरोंमें ठहर गये। जो मैनेजर था उसने बहुत आदरसे ठहराया। यहाँपर दुर्गावती नदी है। उसका जल पिया, अच्छा था । सायंकाल चलकर एक वावाकी कुटीम विश्राम किया। वहांसे प्रातः ५॥ मील चलकर जहानाबादके शिवा-लयके पास जो धर्मशाला है उसमें ठहर गये। धर्मशाला अच्छी थी। क्षुल्लक मनोहरजी वणीं यहां आ गये । आपका डालमियानगरमें मन नहीं लगा। हमारी बुद्धिमें तो यह आता है कि परसे सम्बन्ध रखना ही नाना प्रकारके विकल्पोंका उत्पादक है और परकी शल्य तब तक नहीं जा सकती जब तक कि अन्तरजसे मोह नष्ट न हो जाय । जहानावादसे २॥ मील चलकर १ स्कूलमें ठहर गये। दूसरे दिन प्रातःकाल ५॥ मील चलकर शिवसागर ग्रामम एक शिवालयमे ठहर गये। शिवालयकी दहलानमें भोजन हुआ। शिवालयका जो पुजारी था वह अत्यन्त शिष्ट था । गर्मीकी अधिकता देख उसने हमें शिवालयके भीतर स्थान दिया । भीतर देवस्थान है। वहाँ ठहरनेसे अविनय होगी"ऐसा हमारे कहनेपर उसने उत्तर दिया कि मनुष्यकी रक्षा करना सर्वोपरि है। भगवान्का उपदेश है कि दया करो। हम भीतर आपको स्थान देकर दयाका ही ता पालन कर रहे हैं इसमें अविनयकी कौनसी बात है ? अविनय ता तव होती जब हम उनके उपदेशके प्रतिकूल कार्य करते । उसका उत्तर सुनकर जब हमने अपने लोगोंकी प्रवृत्तिकी ओर दृष्टि दी ता जान पड़ा कि हम लोग मुखसे ही दयाका पाठ पढ़ते हैं। काम